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________________ अध्ययन १२ २७५ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ - विनयवादी कहते हैं कि - हमको अपने प्रयोजन की सिद्धि विनय से ही दिखती है परन्तु वे वस्तु तत्त्व को न समझकर ऐसा कहते हैं । इसी तरह कर्मबन्ध की आशङ्का करने वाले अक्रियावादी भूत और भविष्यकाल के द्वारा वर्तमान को उड़ा कर क्रिया का निषेध करते हैं। विवेचन- गाथा में अणोवसंखा' शब्द दिया है, इसमें वस्तु के ज्ञान को संख्या कहते हैं और सम्यक् प्रकार के वस्तु के स्वरूप को जानने का नाम उपसंख्या है। उपसंख्या के अभाव को अनूप संख्या कहते हैं। जिसका अर्थ है ज्ञान रहित, इस गाथा के पूर्वार्द्ध में विनयवादी का कथन है और उत्तरार्द्ध में अक्रियावादी का कथन है। इन दोनों का विस्तृत विवेचन पहले कर दिया गया है। .. सम्मिस्सभावंच गिरा गहीए, से मुम्मई होइ अणाणुवाई। इमं दुपक्खं इम-मेगपक्खं, आहंसु छलाययणं च कम्मं ॥५॥. कठिन शब्दार्थ - सम्मिस्सभावं - मिश्रित भाव को, गिरा - वाणी द्वारा, गही - स्वीकार किये हुए, मुम्मुई - मौन (मूक), अणाणुवाई - अनुवाद नहीं करने वाला, दुपंक्खं - द्विपाक्षिक, एगपक्खं- एक पाक्षिक, छलाययणं - वाक् छल आदि का स्थान। ___ भावार्थ - पूर्वोक्त नास्तिक गण पदार्थों का प्रतिषेध करते हुए उनका अस्तित्व स्वीकार कर बैठते हैं । वे स्याद्वादियों के वचनों का अनुवाद करने में भी असमर्थ होकर मूक ही जाते हैं । वे अपने मत को प्रतिपक्षरहित और परमत को प्रतिपक्ष के सहित बताते हैं । वे स्याद्वादियों के साधनों को खण्डन करने के लिये वाक्छल आदि का प्रयोग करते हैं । विवेचन - इस गाथा में नास्तिक मत, सांख्य मत और बौद्ध मत का खंडन किया गया है। इन . मतों की मान्यता का पूर्व पक्ष और उत्तर पक्ष पहले बताया जा चुका हैं। जब वे स्याद वादियों के सामने उत्तर नहीं दे पाते हैं तब वाक् छल आदि का प्रयोग करते हैं। जैसे कि 'नव' शब्द के दो अर्थ हैं। नया और नौ की संख्या। जैसे कि किसी ने कहा "नवकम्बलो अयं देवदत्तः" अर्थात् -- इस देवदत्त के पास नया कम्बल है तब वाक्छल वादी पूर्ववादी का खण्डन करते हुए कहता कि इस देवदत्त के पास तो एक कम्बल है, "नौ' (९) कम्बल नहीं है, तुम झूठ बोलते हो। इस प्रकार प्रश्न का वास्तविक उत्तर न दे .. सकने पर ये अन्यमतावलम्बी वाक् छल आदि का प्रयोग करते हैं। .. ते एव-मक्खंति अबुज्झमाणा, विरूवरूवाणि अकिरियवाई। जे मायइत्ता बहवे मणूसा, भमंति संसारमणोवदग्गं ॥६॥ कठिन शब्दार्थ - अबुझमाणा - वस्तु स्वरूप को नहीं समझते हुए, विरूवरूवाणि - नाना प्रकार के, आयइत्ता - आश्रय लेकर, भमंति - भ्रमण करते हैं, संसारं - संसार में, अणोवदग्गं - अनवदन - अनंत। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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