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________________ प्रस्तावना किसी भी समाज की संस्कृति, आचार-विचार, धर्म आराधना के विधि विधान आदि का दिग्दर्शन उसके साहित्य से होता है यानी साहित्य ऐसा मूलभूत आधार है जिस पर समाज और संस्कृति का भव्य प्रसाद टिका हुआ है। साहित्य में प्रत्येक धर्म के प्रर्वतक के उपदेशों का संकलन होता है। वे उपदेश वेद, त्रिपिटक, बाइबल, कुरान आदि के रूप में जाने जाते हैं। जैन साहित्य में जिन्हें आगम कहा जाता है और जिसके उपदेष्टा तीर्थंकर प्रभु हैं। वे अपनी कठिन साधनाआराधना के बल पर घाती कर्मों को क्षय कर केवल ज्ञान, केवल दर्शन की ज्योति को प्रकट करते हैं। तत्पश्चात् वे उपदेश फरमाते हैं। चूंकि तीर्थंकर प्रभु पूर्णता प्राप्त होने पर ही उपदेश फरमाते हैं, अतएव उनके वचन सम्पूर्ण दोषों से रहित ही नहीं, प्रत्युत परस्पर विरोधी भी नहीं होते। जबकि अन्य दर्शनों के उपदेष्टा छद्मस्थ होने से उनकी अनेक बातें परस्पर विरोधी भी होती है। साथ ही जिस सूक्ष्मता से तत्त्वों के भेद-प्रभेद का निरूपण जैन आगम साहित्य में मिलता है ऐसा अन्य किसी दर्शन में मिल ही नहीं सकता। मिल भी कैसे सकता क्योंकि अन्य दर्शनों के प्रवर्तकों का ज्ञान सीमित होता है। जबकि जैन दर्शन के उपदेष्टा सर्वज्ञ सर्वदर्शी वीतराग प्रभु का ज्ञान असीम अनन्त होता है। वे मात्र वर्तमान काल की अवस्था को ही नहीं प्रत्युत भूत और भविष्य तीनों काल की समस्त अवस्था को प्रत्यक्ष जानते और देखते हैं। साथ ही जैनागम में मात्र मानव जीवन से सम्बन्धित विभिन्न बिन्दुओं पर ही प्रकाश नहीं डाला गया है प्रत्युत शेष तीन गतियों, तिर्यग्लोक, नरकलोक, देवलोक आदि समस्त गतियों का भी सूक्ष्मता से निरूपण किया गया है। इतना ही नहीं इन गतियों में परिभ्रमण के कारण एवं प्रत्येक गति में पाये जाने वाले ज्ञान, अज्ञान, योग, उपयोग, लेश्या, दृष्टि, संयम, असंयम आदि की सूक्ष्म व्याख्या भी इसमें मिलती है। इसके अलावा सर्वज्ञ वीतराग प्रभु ने जिस उत्तम साधना के बल पर अपनी आत्मा पर लगे अनादि काल के कर्मों को क्षय कर पंचम मोक्ष गति प्राप्त की। उसी साधना का अनुसरण कर कोई भी जीव वैसी ही सिद्ध अवस्था को प्राप्त कर सकता है। तीर्थंकर प्रभु अर्थ रूप में वाणी की वागरणा करते हैं जिन्हें बीज बुद्धि के धनी गणधर प्रभु सूत्र रूप में गूंथन करते हैं। साहित्य में वर्णन मिलता है कि तप, नियम और ज्ञान रूप वृक्ष पर आरूढ़ अनन्त ज्ञान सम्पन्न केवलज्ञानी भगवन् भव्यजनों को उद्बोधन देने हेतु ज्ञान पुष्पों की वृष्टि करते हैं, उसे गणभर बुद्धि रूपी पट में ग्रहण कर उसका प्रवचन के निमित्त गुन्थन करते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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