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स्वच्छ ही हैं और स्त्रियां बुरी ही हैं ऐसा नहीं है । किन्तु पुरुषों में अच्छे बुरे दोनों मिलते हैं । इसी प्रकार स्त्रियों में भी अच्छी और बुरी दोनों प्रकार की होती है । जैसा कि राजमती ने रहनेमि को कहा है
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अध्ययन ४ उद्देशक १
सहु सरीखा नर नहीं हो, सहु सरीखी नहीं नार ।
केई भला ने केई भुंडा, चल्यो जाय संसार ।।
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हो मुनिवर चित्त चलियो तूं घेर ।।
इसलिये पुरुष या स्त्री बुरी नहीं किन्तु उनमें रही हुई कामवासना बुरी है । जिस प्रकार- विषय, कषाय और कामवासना का सर्वथा क्षय करके अनन्त पुरुष मोक्ष में गये हैं उसी प्रकार इस विषय, कषाय और कामवासना का सर्वथा क्षय करके अनन्त स्त्रियां भी मोक्ष गई हैं ।
पहला उद्देशक
जे. मायरं च पियरं च, विप्पजहाय पुव्वसंजोगं ।
एगे सहिए चरिस्सामि, आरत- मेहुणो विवित्सु ॥ १ ॥
कठिन शब्दार्थ - विप्पजहाय छोड़ कर, पुव्वसंजोगं पूर्व संबंध को, आरत मेहुणो मैथुन रहित हो कर, विवित्तेसु विविक्त - स्त्री पुरुष नपुंसक सहित स्थानों में ।
भावार्थ - जो पुरुष इस अभिप्राय से दीक्षा ग्रहण करता है कि मैं माता पिता तथा पूर्व सम्बन्धों को छोड़कर तथा मैथुन वर्जित रहकर ज्ञान दर्शन और चारित्र का पालन करता हुआ अकेला पवित्र स्थानों में विचरूंगा उसको स्त्रियाँ कपट से अपने वश में करने का प्रयत्न करती हैं ।
सुमेणं तं परिक्कम्म, छण्णपण इत्थिओ मंदा ।
उव्वायं पिताउ जाणंति, जहा लिस्संति भिक्खुणो एगे ॥ २ ॥
कठिन शब्दार्थ - सुहुमेणं - सूक्ष्म, परिक्कम्म - पास आकर, छण्णपएण उव्वायं - उपाय को, लिस्संति - संग कर लेते हैं ।
भावार्थ - अविवेकिनी स्त्रियाँ किसी छल से साधु के निकट आकर कपट से अथवा गूढार्थ शब्द के द्वारा साधु को शील से भ्रष्ट करने का प्रयत्न करती है । वे वह उपाय भी जानती हैं जिससे कोई साधु उनका संग कर लेते हैं ।
पासे भिसं णिसीयंति, अभिक्खणं पोसवत्थं परिर्हिति ।
कायं अहे वि दंसंति, बाहू उद्धट्टु कक्खमणुव्वजे ॥ ३ ॥
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कपट से,
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