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________________ ॥णमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स ।। सिरी सूयगडांग सुत्तं प्रथम श्रुतस्कन्ध समय नामक प्रथम अध्ययन प्रथम उद्देशक - उत्थानिका - भूतकाल में अनन्त तीर्थङ्कर हो चुके हैं । भविष्य में फिर अनन्त तीर्थङ्कर होवेंगे और वर्तमान में संख्याता तीर्थङ्कर विद्यमान हैं । अतएव जैन धर्म अनादि काल से है, इसीलिए इसे सनातन (सदातन- अनादि कालीन) धर्म कहते हैं । जैसे कि कहा है - आगे चौबीसी अनन्त हुई, होसी और अनन्त । नवकार तणी आदि, कोई न भाखे भगवन्त ॥ केवलज्ञान हो जाने के बाद सभी तीर्थङ्कर भगवन्त अर्थ रूप से प्रवचन फरमाते हैं, वह प्रवचन द्वादशांग रूप वाणी होता है । तीर्थङ्कर भगवन्तों के गणधर उस वाणी को सूत्र रूप से गूंथन करते हैं । द्वादशाङ्ग (बारह अङ्गों) के नाम इस प्रकार हैं - १. आचारांग २. सूत्रकृतांग ३. स्थानाङ्ग ४. समवायांग ५. भगवती (व्याख्याप्रज्ञप्ति) ६. ज्ञाताधर्मकथा ७. उपासकदशा ८. अन्तकृतदशा ९. अनुत्तरौपपातिकदशा १०. प्रश्नव्याकरण ११. विपाक १२. दृष्टिवाद।। - वर्तमान में जैन धर्म. में दो परम्पराएँ प्रचलित हैं । दिगम्बर परम्परा और श्वेताम्बर परम्परा (श्वेताम्बर स्थानकवासी, श्वेताम्बर मूर्तिपूजक, श्वेताम्बर तेरहपन्थ) । दिगम्बर परम्परा की मान्यता है कि भगवान् महावीर स्वामी की वाणी सर्वथा विच्छिन्न हो गई है । यह परम्परा आचार्यों के द्वारा रचित Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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