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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १
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भावार्थ - भाषायें चार प्रकार की हैं उनमें झूठ से मिली हुई भाषा तीसरी है, वह साधु न बोले तथा जिस वचन के कहने से पश्चात्ताप करना पड़े ऐसा वचन भी साधु न कहे । एवं जिस बात को सब लोग छिपाते हैं वह भी साधु न कहे । यही निर्ग्रन्थ भगवान् की आज्ञा है ।
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विवेचन भाषा चार प्रकार की है १. सत्या २ असत्या ३. सत्यामृषा ४. असत्या अमृषा । इन चार भाषाओं में सत्यामृषा तीसरी भाषा है । इसका अर्थ है कुछ झूठ और कुछ सच जैसे किसी ने अन्दाज से कह दिया कि इस शहर में दस लड़के जन्मे हैं। इस भाषा में 'जन्मे हैं' इतना अंश मात्र सत्य हैं किन्तु दस की संख्या में सन्देह है क्योंकि कम या ज्यादा उत्पन्न हुए हों ऐसा हो सकता है । इसलिये यह भाषा सत्यामृषा अर्थात् मिश्र भाषा है । अथवा जिस वचन को कहकर दूसरे जन्म में अथवा इसी जन्म में दुःख का पात्र होता है अथवा उसे पश्चाताप करना पड़ता हैं कि - " मैंने ऐसी बात क्यों कह दी" ऐसा वचन भी साधु न बोले । जब कि सत्यामृषा भाषा बोलने का भी निषेध है तब फिर जो सर्वथा असत्य है वह तो बोली ही केसे जा सकती हैं ?" पहली भाषा (सत्या) यद्यपि सर्वथा सत्य है तथापि उससे प्राणियों को पीड़ा उत्पन्न होती हो तो वह भी दोष उत्पन्न करने वाली है । इसलिये साधु को नहीं बोलनी चाहिए ।
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नोट इस गाथा की टीका करते हुए टीकाकार ने यह लिख दिया है- "चतुर्थी अपि असत्यामृषा भाषा या बुधैरनाचीर्णा सा न वक्तव्या इति ।"
अर्थ - चौथी भाषा असत्यामृषा है वह भी विद्वानों के द्वारा सेवित नहीं है इसलिये नहीं बोलनी चाहिए ।
टीकाकार का यह लिखना आगमानुकूल नहीं है क्योंकि दशवैकालिक सूत्र के "सुवक्कसुद्धी" नामक सातवें अध्ययन की प्रथम गाथा में कहा है यथा -
चउन्हं खलु भासाणं, परिसंखाय पण्णवं ।
दुहं तु विण सिक्खे, दो ण भासिज्ज सव्वसो ।
अर्थ- सत्य, असत्य, सत्यामृषा (मिश्र) और असत्यामृषा (व्यवहार) इन चार भाषाओं के स्वरूप को भली प्रकार जानकर बुद्धिमान् साधु सत्य और असत्यामृषा (व्यवहार) इन दो भाषाओं का विवेक पूर्वक उपयोग करना सीखे तथा असत्य और सत्यामृषा (मिश्र) इन दो भाषाओं को सर्वथा न बोले ।
अतः असत्यामृषा (व्यवहार) भाषा साधु को नहीं बोलनी चाहिए. ऐसा टीकाकार का लिखना आगमानुकूल नहीं है ।। २६ ।।
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