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________________ समवसरण नामक बारहवाँ अध्ययन . संसार में जितने व्यक्ति हैं-उन सब व्यक्तियों के सभी विचार परस्पर नहीं मिलते हैं; पर अनेक विचारों में समानता रहती है, इस प्रकार उनका समूह बन जाता है । इस प्रकार अलग-अलग विचारों के अलग-अलग वर्ग बन जाते हैं और विचार-भेद बढ़ता जाता है । इस विचार-भेद ने ही कलह का बीज बोया है-यह सही है, पर विचार-क्रम से ही मनन शील जीव के उत्थान का पता लगाया जा सकता है । यही कारण है कि विचार धाराओं का आत्यन्तिक विनाश कभी नहीं होता; हां उनके प्रवाह में मंदता-तीव्रता का भेद मौजूद रहता है । अतः यह कहने में कोई हरकत नहीं है कि विचार प्रणालियाँ युगानुकूल चोले बदल कर, हर काल में करवटें बदलती रहती है । महावीर जिनेन्द्र ने ऐसी कई विचार-प्रणालियों को, मोटे तौर से चार वर्गों में विभाजित करके, उनका कथन किया है । चत्तारि समोसरणाणिमाणि, पावादुया जाइं पुढो वयंति । किरियं अकिरियं विणियं ति तइयं, अण्णाणमाहंसुचउत्थमेव ॥१॥ कठिन शब्दार्थ - चत्तारि - चार, समोसरणाई - समवसरण, पावादुया - प्रावादुक-परतीर्थी, किरियं - क्रियावाद, अकिरियं - अक्रियावाद, विणियं - विनयवाद, अण्णाणं - अज्ञानवाद । भावार्थ - अन्यदर्शनियों ने जिन सिद्धान्तों को एकान्त रूप मान रखा है वे सिद्धान्त ये हैं - क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद और चौथा अज्ञानवाद । विवेचन - अन्यमतावलम्बियों के मुख्य रूप से चार भेद हैं। इनमें से क्रियावादी जीव के अस्तित्व को मानते हैं, इनके १८० भेद हैं। अक्रियावादी जीव आदि किसी भी पदार्थ का अस्तित्व नहीं मानते, इनके ८४ भेद हैं। अज्ञानवादी अज्ञान से ही मोक्ष की प्राप्ति मानते हैं, इनके ६७ भेद हैं। विनयवादी विनय से ही मोक्ष की प्राप्ति मानते हैं। इसके ३२ भेद हैं। इस प्रकार इन चारों वादियों के भेदों को जोड़ने से ३६३ भेद होते हैं, इनका विस्तृत विवेचन पहले कर दिया गया है।। १॥ अण्णाणिया ता कुसला वि संता, असंथुया णो वितिगिच्छतिण्णा।। अकोविया आहु अकोविएहिं, अणाणुवीइत्तु मुसं वयंति ॥ कठिन शब्दार्थ - अण्णाणिया - अज्ञानवादी, कुसला - कुशल, असंथुया - असंस्तुत-सम्मत नहीं है, वितिगिच्छ तिण्णा- संशय से रहित, अकोविया - अकोविद, अणाणुवीइत्तु - पूर्वापर का विचार न करके । भावार्थ - अज्ञानवादी अपने को निपुण मानते हुए भी विपरीत भाषी हैं तथा वे भ्रमरहित नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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