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___ अध्ययन २ उद्देशक ३
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कठिन शब्दार्थ - भगवाणुसासणं - भगवान् के अनुशासन के, करेज (करेह) - करे, उवक्कम - उद्योग, विणीयमच्छरे - मत्सर रहित, उंछं - थोड़ा, विसुद्धं - शुद्ध, आहरे - लावे ।
भावार्थ - भगवान् के आगम को सुनकर उसमें कहे हुए सत्य संयम में उद्योग करना चाहिए । किसी के ऊपर मत्सर (ईर्ष्या) न करना चाहिए इस प्रकार वर्तते हुए साधु को शुद्ध आहार लाना चाहिए।
सव्वं णच्चा अहिट्ठए, धम्मट्ठी उवहाणवीरिए । गुत्ते जुत्ते सया जए, आय परे परमाययट्ठिए ॥१५॥
कठिन शब्दार्थ - णच्चा - जान कर, अहिट्ठए - आश्रय ले, धम्मट्ठी - धर्मार्थी, गुत्ते - गुप्त, जुत्ते - युक्त, जए - यत्न करे, आयपरे - स्व पर के लिए, परमाययट्ठिए - मोक्ष का अभिलाषी।। ... भावार्थ - साधु, सब वस्तुओं के स्वरूप को जानकर तथा उनकी हेय उपादेयता को समझ कर सर्वज्ञोक्त संवर का आश्रय लेवे अर्थात् संवर की क्रिया करे तथा वह धर्म को प्रयोजन समझता हुआ तप में पराक्रम प्रकट करे एवं मन, वचन और काय से गुप्त रह कर साधु सदा अपने और दूसरों के विषय में यत्न करे। इस प्रकार वर्तता हुआ साधु मोक्ष का अभिलाषी बने ।
विवेचन - उपधान का मतलब है तप विशेष । वित्तं पसवो य णाइओ, तं बाले सरणं ति मण्णइ । एए मम तेसु वि अहं, णो ताणं सरणं ण विज्जइ ॥१६ ॥
कठिन शब्दार्थ - वित्तं - धन को, पसवो - पशु णाइओ- ज्ञातिजन, सरणं - शरण रूप, तेसु- उनमें, वि - भी, अहं - मैं उनको, ताणं - त्राण रूप, ण विजइ- नहीं है । - भावार्थ - अज्ञानी जीव धन, पशु और ज्ञातिवर्ग (कुटुम्ब परिवार) को अपना रक्षक मानता है वह समझता है कि ये सब मुझ को दुःख से बचावेंगे और मैं इनकी रक्षा करूँगा परंतु वस्तुतः वे उसकी रक्षा नहीं कर सकते ।
विवेचन - धन, धान्य और हिरण्य आदि को 'वित्त' कहते हैं । हाथी, घोडा, गाय, भैंस आदि को 'पशु' कहते हैं । माता-पिता पुत्र, स्त्री आदि स्वजन वर्ग को 'ज्ञाति' कहते हैं । धनादि को अज्ञानी जीव शरण रूप मानता है परन्तु वे दुर्गति में गिरते हुए प्राणी की किसी प्रकार से रक्षा करने में समर्थ नहीं है ।
प्रश्न - धन धान्य आदि रक्षक और शरण रूप क्यों नहीं हो सकते हैं ? उत्तर - ज्ञानी पुरुष परमाते हैं --
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