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युगवीर-निबन्धावली 'ससाररूपी वनमे अज्ञानभावसे जो कुछ कर्मरूपी-इंधन सचित होता है उसको उपवासरूपी अग्नि क्षणमात्रमे भस्म कर देती है।' ___'उपवासके फलसे मनुष्य तीन लोककी महा विभवको प्राप्त होते हैं और कर्ममलका नाश हो जानेसे शीघ्र ही अजर अमर केवल सिद्धसुखका अनुभव करते है ।' ___ इसीसे वे ( पूर्वकालीन मनुष्य ) प्राय धीरवीर, सहनशील, मनस्वी, तेजस्वी उद्योगी, साहसी, नीरोगी, दृढसकल्पी, बलवान्, विद्यावान्, और सुखी होते थे, जिस कार्यको करना विचारते थे उसको करके छोडते थे। परन्तु आज वह स्थिति नहीं है । आजकल उपवासकी बिलकुल मिट्टी पलीद है-प्रथम तो उपवास करतेही बहुत कम लोग है और जो करते हैं उन्होने प्राय भूखे मरनेका नाम उपवास समझ रक्खा है। इसीसे वे कुछ भी धर्म-कर्म न कर उपवासका दिन योही प्राकूलता और कष्टसे व्यतीत करते है कि मारे कई कई वार नहाते हैं, मुख धोते हैं मुख पर पानीके छींटे देते हैं. ठडे पानीमे कपडा भिगो कर छाती प्रादि पर रखते हैं, कोई कोई प्यास कम करनेके लिये कुल्ला तक भी कर लेते हैं और किसी प्रकारसे यह दिन पूरा होजावे तथा विशेष भूख-प्यासकी बाधा मालूम न होवे इस अभिप्रायसे खूब सोते हैं, चौसर-गजिफा आदि खेल खेलते हैं अथवा कभी कभी का पडा गिरा कोई ऐसा गृहस्थीका घधा या पारम्भका काम ले बैठते हैं जिसमें लगकर दिन जाता हुआ मालूम न पडे। गरज ज्यों त्यों करके अनादरके साथ उपवासके दिनको पूरा कर देते हैं, न विषय-कषाय छोडते हैं और न कोई खास धर्माचरण ही करते है। पर इतना जरूर है कि भोजन बिलकुल नहीं करते, भोजन न करनेको ही उपवास या व्रत समझते हैं और इसीसे धर्मलाभ होना मानते हैं | सोचनेकी बात है कि यदि भूखे मरनेका ही नाम उपवास या व्रत हो तो भारतवर्षमे हजारों मनुष्य ऐसे हैं जिनको कई कई दिनतक भोजन नहीं मिलता है, वे सब ही व्रती और धर्मात्मा ठहरे;