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उपवास
उपवास एक प्रकारका तप और वत होनेसे धर्मका अग है। विधिपूर्वक उपवास करनेसे पाचो इन्द्रियाँ और बन्दरके समान चचल मन ये सब वशमे हो जाते हैं, साथ ही पूर्व कर्मोंकी निर्जरा होती है । ससारमे जो कुछ दु ख और कष्ट उठाने पडते है वे प्राय इन्द्रियोकी गुलामी और मनको वशमे न करनेके कारणसे ही उठाने पडते हैं । जिस मनुष्यने अपनी इन्द्रियो और मनको जीत लिया उसने जगत जीत लिया, वह धर्मात्मा है और सच्चा सुख उसीको मिलता है। इसलिये सुग्वार्थी मनुष्योका उपवास करना प्रमुख कर्तव्य है। इतिहासो
और पुराणोके देखनेसे मालूम होता है कि पूर्व कालमे इस भारतभूमि पर उपवासका बडा प्रचार था। कितने ही मनुष्य कई-कई दिनका ही नही, कई-कई सप्ताह, पक्ष तथा मास तकका भी उपवास किया करते थे। वे इस बातको भली प्रकार समझे हुए थे और उन्हे यह दृढ विश्वास था कि -
"कर्मेन्धन यदज्ञानात् संचितं जन्म-कानने ।
उपवास-शिखी सर्व तद्भस्मीकुरुते क्षणात ॥" "उपवास-फलेन भजन्ति नरा भुवनत्रय-जात-महाविभवान् । खलु कर्म-मन-प्रलयादधिरादजराऽमर केवल-सिद्ध-सुखम् ।।"