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स्वसमय वक्तव्यताधिकारः
अनुवाद मनुष्य जिस कुल में समुत्पन्न हुआ अथवा जिनके साथ वह निवास करता है, उनमें वह यदि ममत्वभाव रखता है तो वह लुप्त पीड़ित या दुःखित होता है । वैसा अज्ञानी पुरुष अन्यान्य वस्तुओं में, सांसारिक पदार्थों में मूर्च्छित - मोह, मूढ़ या आसक्त होता जाता है ।
टीका - पुनबन्धनमेवाश्रित्याह - 'जस्सि' मित्यादि, यस्मिन् राष्ट्रकुलादौ कुले जातो यै र्वा सह पांसुक्रीडितै वयस्यैर्भार्य्यादिभि र्वा सह संवसेन्नरः, तेषु मातृपितृभ्रातृभगिनीभार्य्यादिषु ममायमिति ममत्ववान् स्निह्यन् लुप्यते विलुप्यते । ममत्वजनितेन कर्मणा नारकतिर्य्यङ्मनुष्यामरलक्षणे संसारे भ्रम्यमाणो बाध्यते - पीडयते । कौऽसौ ? बालः-अज्ञः-सद्सद्विवेकरहितत्वात् । अन्येष्वन्येषु च मूर्च्छितोगृद्धोऽध्युपपन्नो ममत्वबहुल इत्यर्थः । पूर्वं तावन्माता पित्रोस्तदनु भार्य्यायां पुनः पुत्रादौ स्नेहवानिति ॥४॥
टीकार्थ
आगे बन्धन को आश्रित उपलक्षित कर कहते हैं
जिसमें - राष्ट्रकुलआदि वंशपरम्परा में मनुष्य उत्पन्न होता है, या जिनके साथ बचपन में धूलि में खेला, कूदा उन मित्रों या पत्नि आदि निकटतम् संबंधियों के साथ रहता है, माता-पिता भाई-बहिन पनि आदि के प्रति ये मेरे है, उसमें ऐसा ममत्व पैदा हो जाता है, वह उनमें आसक्त हो जाता है, वैसा करता हुआ लुप्त, विलुप्त या दुःखित होता है, ममत्व के कारण जो कर्म बंधते है, उनके परिणामस्वरूप वह नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति या देवगति मूलक संसार में भटकता रहता है । दुःखित होता रहता है। इसी को स्पष्ट करते हुए टीकाकार अपने आपसे प्रश्न करते है - वह कौन है ? स्वयं उसका उत्तर देते हुए लिखते है - वह बाल है - अज्ञानी है, उसे सत्, असत् - भले बुरे या शुभ अशुभ का विवेक नहीं है । इसका आशय यह है कि ममत्व की अधिकता के कारण वह भिन्न-भिन्न पदार्थों में मूर्च्छित् - मोहमूढ़, गृद्ध-लोलुप, अध्युपपन्न - आसक्त होता जाता है । पहले मातापिता में फिर पति पत्नी में तत्पश्चात् पुत्रआदि में क्रमशः उसका स्नेह या मोह बढ़ता जाता है ।
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वित्तंसोयरियाचेव, संखाए जीवियं
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सव्वमेयं न
चेवं,
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कम्मुणा
छाया वित्तं सोदर्य्याश्चैव सर्वमैतन्न त्राणाय ।
संख्याय जीवितञ्चैव कर्मणस्तु त्रुटति ॥५॥
अनुवाद - वित्त, सम्पत्ति, सहोदर - एक माँ से उत्पन्न भाई बहिन आदि कोई भी प्राणी को त्राण नहीं दे सकते, दुःखों से बचा नहीं सकते। जीवन के स्वरूप को नश्वर और स्वल्प है जानकर प्राणी कर्मबंधन
है ।
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ताणइ । उट्टिई ॥५॥
टीका साम्प्रतंयदुक्तं प्राक् किं वा जानन् बंधनं त्रोटयतीति' अस्यनिर्वचनमाह - वित्तं द्रव्यं तच्च सचित्तमचित्तं वा, तथासोदर्य्याभ्रातृभगिन्यादयः, सर्वमपि चं 'एतद्' वित्तादिकं संसारान्तर्गतस्यासुमतोऽतिकटुकाः शारीर मानसीर्वेदनाः समनुभवतो न त्राणाय रक्षणाय भवतीत्येतत्संख्याय ज्ञात्वा तथा जीवितं च प्राणिनां स्वल्पमिति संख्यायज्ञंपरिज्ञया, प्रत्याख्यान परिज्ञया तु सचित्ताचित्तपरिग्रह प्राण्युपघातस्वजनस्नेहादीनि बन्धनस्थानानि प्रत्याख्याय कर्मणः सकाशात् ‘त्रुट्यति' अपगच्छत्यसौ, तुरवधारणे त्रुटयेदेवेति । यदि वाकर्मणा क्रियया संयमानुष्ठानरुपया बंधनात् त्रुट्यति कर्मणः पृथग्भवतीत्यर्थः ॥५॥