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स्वसमय वक्तव्यताधिकारः
यहाँ कर्म या कर्म के कारणों को बन्धन कहा गया है। निदान कारण या हेतु के बिना निदानी काकार्य का जन्म नहीं होता - वह उत्पन्न नहीं होता, इसलिए यहाँ पहले आगमकार बन्धन का निरुपण करते हैं। सभी आरम्भ-हिंसादिंउपक्रम कर्म के उपादान कारण है। वे आरम्भ मुख्यत: मैं और मेरेपन के भाव से परिग्रहात्मक बुद्धि से उत्पन्न होते है । अतः प्रारम्भ में परिग्रह का ही दिग्दर्शन कराया गया है।
जिसमें चित्त - उपयोग, ज्ञान या चेतना का व्यापार विद्यमान होता है, उसे चित्तवान कहा जाता है । द्विपद- दो पैरो वाले, चतुष्पद चार पैरों वाले प्राणी उसमें समाविष्ट है । उनके अतिरिक्त सोना, चांदी आदि जो चित्त या चेतना व्यापार रहित है वे अचित्त कहलाते हैं। यह दो प्रकार का परिग्रह है । इन दोनों प्रकार के परिग्रहों को ग्रहण करना, रखना, चाहे वह घास पुस जैसा तुच्छ पदार्थ भी हो परिग्रह रखने के अन्तर्गत आता है । परिग्रह की एक व्याख्या यह भी है किसी पदार्थ के प्रति आकृष्ट होना, परिग्रह बुद्धि से जीव का उसकी ओर गतिशील होना - प्रवृत्त होना भी परिग्रह करे अन्तर्गत है । यो स्वयं जो परिग्रह रखता है, औरों से वैसा करवाता है, जो परिग्रह रखते है उनका अनुमोदन करता है, वह पुरुष दुःख से आठ प्रकार के कर्मों और उनके दुःखात्मक फल से मुक्त नहीं हो पाता, परिग्रह में आग्रह रखना उससे बंधे रहना वास्तव में अनर्थमूलक है ।
कहा गया है-यह मेरा है, यह मैं हूँ, यह अहंकार मूलक दाहज्वर जब तक मनुष्य में बना रहता है, तब तक कृतान्त या यमराज का मुख-मृत्यु ही उसकी शरण है- मृत्युपर्यन्त वह उसमें फँसा रहता है । उसे शांति प्राप्त नहीं होती । जिनमें कीर्ति और सुख की पीपासा - तीव्र अभिलाषा है, जिसका अन्ततः अनर्थ ही फल है, वे इस परिग्रह को जो अपसद - दुःखप्रद है, बड़ी कठिनता से अर्जित करते है । और भी
यह परिग्रह द्वैष का आयतन - आवासस्थान है, धृति-धैर्य का अपचय क्षय है, क्षान्ति क्षमाशीलता का विरोधी है, चैतसिक विक्षेप का चित्त की चंचलता का मित्र है, मद-गर्व या अहंकार का भवन है, ध्यान का कष्टप्रद शत्रु है, दुःख का उत्पत्ति हेतु है, सुख का विनाश करता है, पाप का अपना निवास स्थान है - पापपुंज व्याप्त है । परिग्रह विपरीतग्रह की ज्यों बुद्धिमान पुरुष के लिए कष्टप्रद है, उसका नाश कर डालता है।
जो प्राप्त नहीं हैं, वैसे परिग्रह को पाने की इच्छा बनी रहती है, जो प्राप्त होकर चला जाता है, तब मन में शौक उत्पन्न होता है । प्राप्त परिग्रह की रक्षा करने में भी कष्ट होता है, चित्त में व्याकुलता बनी रहती है, उसका उपभोग करते रहने पर भी तृप्ति नहीं होती - मनुष्य उससे उपरत नहीं होता है । अत: जब तक परिग्रह रहता है, दुःखात्मक - दुःखप्रद बन्धन से छुटकारा नहीं हो पाता ।
सयं तिवायए पाणे, अदुवाऽन्नेहिं हणतं वाऽणुजाणाइ, वेरं वड्ढइ
छाया
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स्वयमतिपातयेत्प्राणानथवाऽन्यैर्धातयेत् ।
धन्तं वाऽनुजानाति वैरं वर्धयत्यात्मनः ॥३॥
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घायए । अप्पणो ॥३॥
पुरुष
प्राणियों का स्वयं अतिपात-हिंसा या घात करता है अथवा औरों द्वारा वैसा करवाता
अनुवाद जो हैं, जो घातकर रहा हो, उसका अनुमोदन करता है, वह उन प्राणियों के साथ अपना शत्रुभाव बढ़ाता है- उन प्राणियों के प्रति उसका यह आचरण शत्रुवत् है ।
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