________________
स्वसमय वक्तव्यताधिकारः
श्रीसूत्रकृतांगसूत्रम् - सटीक भाषानुवाद सहितम् प्रथमाध्ययनं - स्वसमयवक्तव्यताधिकारः प्रथम उद्देशकः
बुज्झिज्जत्ति त्तिउट्टिज्जा, बंधणं परिजाणिया । किमाह बंधणं वीरो, किं वा जाणं तिउट्टई ? ॥१॥
छाया
-
बुध्येतित्रोद् बंधनं परिज्ञाय ।
किमाह बंधनं वीरः किं वा जानं स्त्रोटयति ॥१॥
अनुवाद - मनुष्य को चाहिए कि वह बोध प्राप्त करे- सत्य को जाने। उसे यह भी समझना चाहिए कि बन्धन क्या है ? भगवान महावीर ने बन्धन का क्या स्वरूप बतलाया है ? बन्धन या कर्मों के बन्ध को किस प्रकार जान समझकर तोड़ा जा सकता है ?
टीका अस्य संहितादिक्रमेण व्याख्या - बुध्येतेत्यादि । सूत्रमिदं सूत्रकृताङ्गादौवर्तते । अस्य चाचाराङ्गेन सहायं सम्बन्धः । तद्यथाऽऽचाराङ्गेऽभिहितम् - "जीवो छक्कायपरुवणा यतेसिं वहेण बंधोत्ति" इत्यादि, तत्सर्वं बुध्येतेत्यादि । यदिवेह केषाञ्चिद्वादिनां ज्ञानादेव मुक्त्यवाप्तिरन्येषां क्रियामात्रात्, जैनाना न्तुभाभ्यां निः श्रेयसाधिगम इत्येतदनेन श्लोकेन प्रतिपाद्यते तत्राऽपि ज्ञानपूर्विका क्रिया फलवती भवतीत्यादौ बुध्येतेत्यनेन ज्ञानमुक्तम्। त्रोटयेदित्यनेन च क्रियोक्ता । तत्राऽयमर्थो बुध्येत अवगच्छेत् बोधं विदध्यादित्युपदेशः । किंपुनस्तद्बुध्येतात आह - 'बंधणं' बध्यते जीवप्रदेशैरन्योऽन्यानुवेधरूपतया व्यवस्थाप्यत इति बंधनं, ज्ञानावरणीय़ाद्यष्टप्रकारं कर्म, तद्धेतवो वा मिथ्यात्वाविरत्यादयः परिग्रहारम्भादयो वा । न च बोधमात्रादभिलषितार्थावाप्तिर्भवतीत्यतः क्रियां दर्शयति - तच्च बंधनं परिज्ञाय विशिष्टया क्रिययासंयमानुष्ठानरुपया त्रोटयेदपनयेदात्मनः पृथक् कुर्य्यात्परित्यजेद्वा । एवञ्चाभिहिते जम्बू स्वाम्यादिको विनेयो बन्धादिस्वरूपं विशिष्टं जिज्ञासुः पप्रच्छ 'किमाह' किमुक्तवान् बंधनं वीरः तीर्थकृत् किंवा जानन् अवगच्छंस्तद्बन्धनं त्रोटयति ततो वा त्रुट्यति ? इति श्लोकार्थः ॥१॥
-
-
टीकार्थ इस सूत्र की संहिता - पदों के स्पष्ट उच्चारण आदि के क्रम से व्याख्या की जा रही है। यह सूत्र-गाथा सूत्रकृतांग के प्रारम्भ में है । इसका आचारांग के साथ संबंध है । आचारांग में कहा गया है 'जीव छः कार्यों के होते हैं कायिक-शारीरिक दृष्टि से वे ६ प्रकार के होते हैं। उनके वध - हिंसा से कर्मो का बन्ध होता है, इत्यादि । यह सब जानने योग्य है । अथवा एक अभिप्राय यह है 'कई वादी- सैद्धान्तिक ज्ञान से ही मुक्ति प्राप्त होना मानते हैं। दूसरे कई केवल क्रिया से ही मुक्ति मानते है किन्तु जैनों के सिद्धान्तानुसार मोक्ष इन दोनों से आचार और क्रिया से प्राप्त होता है। यह श्लोक इस भाव को प्रकट करता है । वहाँ भी ज्ञानपूर्वक की गई क्रिया विशेषतः फलप्रद होती है, इसलिए पहले बुज्झिज्जा - बुध्येत् इस शब्द द्वारा ज्ञान का कथन किया गया है । आगे तिउट्टई त्रोटयेत् शब्द द्वारा क्रिया का उल्लेख है । इसका अभिप्राय यह है कि पुरुष बोध प्राप्त करे, वास्तविकता को जाने। वह किस बात को जाने, ऐसी जिज्ञासा को दृष्टि में रखते हुए कहा गया कि बंधन को जाने । जीव के प्रदेश जहाँ परस्पर अनुवेध रूप से सम्बद्ध होते है, कर्म परमाणुओं
1