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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् । के साथ स्वयं मिल जाते है-संश्लिष्ट हो जाते है, उन्हें अपने में मिला लेते है, उसे बंधन कहा जाता है । ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार के कर्म है । अथवा मिथ्यात्व अविरति आदि या परिग्रह हिंसा आदि उनके हेतु है यह ज्ञातव्य है । केवल बोध प्राप्त कर लेने मात्र से अभिलषित या वांछित प्रयोजन की प्राप्ति नहीं होती, इसलिए क्रिया का दिग्दर्शन कराते है । बन्धन को जानकर संयत आचरण के अनुरूप विशिष्ट क्रिया द्वारा बंधन को तोड़ना चाहिए, उसे-बंधे हुए कर्म समवाय-कर्म समूह से आत्मा को पृथक् करना चाहिए। ऐसा कहे जाने पर जम्बूस्वामी आदि शिष्य वृन्द ने बन्ध आदि के स्वरूप की विशेष रूप से जिज्ञासा करते हुए पूछा-तीर्थंकर महावीर ने बन्ध किसे कहा अथवा पुरुष क्या जानता हुआ बन्धन को तोड़ता है, अथवा किससे बन्धन टूटता है-इस गाथा का यह अभिप्राय है ।
चित्तमंतमचित्तं वा, परिगिझ किसामवि ।।
अन्नं वा अणुजाणाइ, एवं दुक्खा ण मुच्चइ ॥२॥ छाय - चित्तवन्त मचितं वा परिगृह्य कृशमपि ।
अन्यं वा अनुजानाति, एवं दुःखान्नमुच्यते ॥२॥ अनुवाद - जो मनुष्य चित्तवान-चैतन्ययुक्त-द्विपदचतुष्पद आदि प्राणियों को अथवा अचित्तवानचैतन्यरहित-स्वर्ण, रजत आदि मूल्यवान अथवा तृण, घास, पुस आदि अति साधारण पदार्थों को भी परिग्रह के रूप में स्वीकार करता है, रखता है, औरों को वैसा करने की-परिग्रह के रूप में ग्रहण करने की आज्ञा देता है वह दुःख से मुक्त नहीं होता, नहीं छूटता । ।
टीका - बंधनप्रश्नस्वरुप निर्वचनायाह - इह बंधनं कर्मतद्धतदो वाऽभिधीयन्ते, तत्र न निदानमन्तरेण निदानिनो जन्मेति निदानमेव दर्शयति, तत्राऽपि सर्वारम्भाः कर्मोपादानरूपाः प्रायश आत्मात्मीयग्रहोत्थाना इति कृत्वाऽऽदौ परिग्रहमेव दर्शितवान् । चित्तमुपयोगो ज्ञानं तद्विद्यते यस्य तच्चित्तवत्-द्विपदचतुष्पदादि, ततोऽन्यदचित्तवत्कनकरजतादि, तदुभयरुपमपिपरिग्रहं परिगृह्य, कृशमपि स्तोकमपि तृणतुषादिकमपीत्यर्थः, यदिवा कसनं कसः परिग्रहबुद्धया जीवस्य गमन परिणाम इतियावत् तदेवं स्वतः परिग्रहं परिगृह्यान्यान्वाग्राहयित्वागृह्णतोवाऽन्याननुज्ञायदुः खयतीतिदुःखम्-अष्टप्रकारं कर्म तत्फलं वाऽसातोदयादिरूपं तस्मान्नमुच्यत इति । परिग्रहाग्रहएव परमार्थतोऽनर्थमूलं भवति । तथा चोक्तम् -
"ममाहमिति चैष यावदभिमानदाहज्वरः, कृतान्तमुखमेव तावदिति न प्रशान्त्युन्नयः । यशः सुख पिपासि तैरयमसावनोंत्तरैः, परैरपसदः कुतोऽपि कथमप्यपाकृष्यते" ॥१॥ ..
तथा च-"द्वेषस्यायतनं धृतेरपचयः क्षान्तेः प्रतीपो विधि, व्याक्षेपस्य सुहृन्मदस्य भवनं ध्यानस्य कष्टो रिपुः। दुःखस्य प्रभवः सुखस्य निधनं पापस्य वासो निजः, प्राज्ञस्याऽपि परिग्रहो ग्रह इव क्लेशाय नाशाय च ॥"॥२॥
तथा च परिग्रहेष्वप्राप्तनष्टेषु काङ्गाशोको प्राप्तेषु च रक्षणमुपभोगे चातृप्तिरित्येवं परिग्रहे सति दुः खात्मकाद् बंधनान्नमुच्यत इति ॥२॥
टीकार्थ – बंधनविषयक प्रश्न के स्वरूप का निर्वचन-विवेचन करते हुए कहते हैं -
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