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डॉ सागरमल जैन व्यक्तित्व एवं कृतित्व
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है। जैसे: बहुप्रचलित 'अनेकान्त' शब्द के लिए 'अनाग्रह' (वैचारिक सहिष्णुता) का प्रयोग। किन्तु, 'जीवनमुक्त' अथवा 'जीवनमुक्ति' जैसे शुद्ध शब्द के बदले 'जीवन-मुक्त' अथवा 'जीवन-मुक्ति' जैसा अशुद्ध प्रयोग ( पृ० १५८) प्रामादिक प्रतीत होता है। तत्त्वान्वेषी प्राज्ञ लेखक ने विषय की उपस्थापना में भी नवीनता रखी है। विवेचना-पद्धति में प्राय: ऐसी प्रथा है कि पहले उत्तर पक्ष का खण्डन करके पूर्वपक्ष को उपस्थापित करते हैं, किन्तु डॉ० सागरमलजी ने पहले पूर्वपक्ष को उपन्यस्त करके उत्तर पक्ष का विनियोग किया है।
इस प्रकार, इस कृति में 'स्वधर्म' को अवधारणा पर भी नई दृष्टि से पहली बार विशद विवेचन सुलभ हुआ है। 'प्रतीत्यसमुत्पाद' जैसे बौद्ध सिद्धान्त की जैसी सरल व्याख्या इस कृति में मिलती है, वैसी अन्यत्र अप्राप्य है। प्रस्तुतकृति का महत्त्व इस कारण भी है कि यह जैनाचारदर्शन की पारम्परिक व्याख्या का ततोऽधिक विकासात्मक और तुलनामूलक अभिनव व्याख्याग्रन्थ है इसे हम जैन धर्म दर्शन के नैतिक स्वरूप का तुलनात्मक महाभाष्य भी कह सकते हैं। इसमें विशेषत: जैन धर्म-दर्शन और जैनाचार का विभावन बड़ी निश्चयतात्मकता के साथ हुआ है। उदारचेता लेखक ने जैन-सम्प्रदाय के साथ ही बौद्ध सम्प्रदाय और गीता में प्राप्य नैतिक मान्यताओं की समानान्तरता का तुलनात्मक और समीक्षात्मक अध्ययन गइराई से सम्पन्न किया है।
भारतीय नैतिक विचार- परम्परा का इस प्रकार का व्यवस्थित और विकसित तुलनात्मक अध्ययन वर्तमान युग में भी बहुत कम ही हो पाया है। यद्यपि इस कृति में जैन आचार दर्शन को मुख्य भूमिका में रखा गया है एवं गीता तथा बौद्धों के आचार-दर्शन समासत पारिपार्श्विक विषय के रूप में विन्यस्त हैं इसलिए, स्वभावतः बौद्ध एवं गीता के अचार - दर्शन की स्वतन्त्र और विस्तृत विवेचना अपेक्षित रह गई है।
चिन्तनशील गवेषक डॉ० सागरमलजी की इस विशिष्ट कृति में उनकी इस अवधारणा की स्पष्ट प्रतीति होगी कि वह धर्म और दर्शन में मानव की चित्तवृत्ति को प्रतिबिम्बित देखते हैं। इसलिए, वह मानव की चित्तवृत्तियों की परम्परा को परखते हुए दार्शनिक परम्परा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही नैतिक आचार-दर्शन के विवेचन का केन्द्रीय लक्ष्य मानते हैं। उनके विचार जितने समन्वयात्मक है, उतने ही निश्चित योजना की सम्पन्नता के परिचायक हैं। उन्होंने जैनों के धर्म-दर्शन तथा नैतिक आचार दर्शन को सम्पूर्ण भारतीय दर्शन से अविच्छिन्न रूप में सम्बद्ध माना है और यही उनके चिन्तन की अभिव्यंजनात्मक विशेषता है।
पुस्तक का मुद्रण प्रायः शुद्ध और स्वच्छ है । आवरण के आकल्पन में भी जैन, बौद्ध और गीता के धर्म-प्रतीकों का कलावरेण्य और नेत्रावर्जक अंकन हुआ है। निस्सन्देह, यह पुस्तक, नैतिक आचार दर्शनों के तुलनात्मक साहित्य के क्षेत्र में अतिशय अभिनन्दनीय एवं समृद्धिकर सारस्वत निक्षेप है।
भिखना पहाड़ी, पटना.
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