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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ अस्तित्व के लिए स्वत: बोध को आचार्य शंकर भी एक प्रबल तर्क के ही नहीं है, यदि विवाद है तो उसका सम्बन्ध आत्मा के विशेष स्वरूप रूप में स्वीकार करते हैं। वे कहते हैं कि सभी को आत्मा के अस्तित्व से है न कि उसके अस्तित्व से । स्वरूप की दृष्टि से कोई शरीर को ही में भरपूर विश्वास है, कोई भी ऐसा नहीं है जो यह सोचता हो कि 'मैं आत्मा मानता है, कोई बुद्धि को, कोई इन्द्रिय या मन को, और कोई नहीं हूँ।६ अन्यत्र शंकर स्पष्ट रूप से यह भी कहते हैं कि बोध से सत्ता विज्ञान-संघात को आत्मा समझता है। कुछ ऐसे भी व्यक्ति हैं जो इन को और सत्ता से बोध को पृथक् नहीं किया जा सकता। यदि हमें सबसे पृथक् स्वतन्त्र आत्म-तत्त्व के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं।१० आत्मा का स्वत: बोध होता है तो उसकी सत्ता निर्विवाद है। जैन दर्शन और गीता आत्मा को स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में स्वीकार करते
पाश्चात्य विचारक देकार्त ने भी इसी तर्क के आधार पर हैं। आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध किया है। वह कहता है कि सभी के आत्मा एक मौलिक तत्त्व अस्तित्व में सन्देह किया जा सकता है, परन्तु सन्देहकर्ता में सन्देह आत्मा एक मौलिक तत्त्व है अथवा अन्य किसी तत्त्व से करना तो सम्भव नहीं है, सन्देहकर्ता का अस्तित्व सन्देह से परे है। उत्पन्न हुआ है, यह प्रश्न भी महत्त्वपूर्ण है। सभी दर्शन यह मानते हैं कि सन्देह करना विचार करना है और विचारक के अभाव में विचार नहीं संसार आत्म और अनात्म का संयोग है, लेकिन इनमें मूल तत्त्व क्या हो सकता। मैं विचार करता हूँ, अत: 'मैं हूँ' इस प्रकार देकार्त के है? यह विवाद का विषय है। इस सम्बन्ध में चार प्रमुख धारणाएँ हैंअनुसार भी आत्मा का अस्तित्व स्वयंसिद्ध है।८
(१) मूल तत्त्व जड़ (अचेतन) है और उसी से चेतन की उत्पत्ति होती (४) आत्मा अमूर्त है, अत: उसको उस रूप में तो नहीं जान है। अजितकेशकम्बलिन्, चार्वाक दार्शनिक एवं भौतिकवादी इस मत सकते जैसे घट, पट आदि वस्तुओं का इन्द्रिय प्रत्यक्ष के रूप में ज्ञान का प्रतिपादन करते हैं (२) मूल तत्त्व चेतन है और उसी की अपेक्षा से होता है। लेकिन इतने मात्र से उनका निषेध नहीं किया जा सकता। जैन जड़ की सत्ता मानी जा सकती है। बौद्ध विज्ञानवाद, शांकर वेदान्त तथा आचार्यों ने इसके लिए गुण और गुणी का तर्क दिया है। घट आदि बर्कले इस मत का प्रतिपादन करते हैं। (३) कुछ विचारक ऐसे भी हैं जिन वस्तुओं को हम जानते हैं उनका भी यथार्थ बोध-प्रत्यक्ष नहीं हो जिन्होंने परम तत्त्व को एक मानते हुए भी उसे जड़-चेतन उभयरूप सकता- क्योंकि हमें जिनका बोध प्रत्यक्ष होता है, वह घट के रूपादि स्वीकार किया और दोनों को ही उसका पर्याय माना। गीता, रामानुज गुणों का प्रत्यक्ष हैं। लेकिन घट मात्र रूप नहीं है, वह तो अनेक गुणों और स्पिनोजा इस मत का प्रतिपादन करते हैं। (४) कुछ विचारक जड़ का समूह है जिन्हें हम नहीं जानते, रूप (आकार) तो उनमें से एक गुण और चेतन दोनों को ही परम तत्त्व मानते हैं और उनके स्वतंत्र अस्तित्व हैं जब रूपगुण के प्रत्यक्षीकरण को घट का प्रत्यक्षीकरण मान लेते हैं में विश्वास करते हैं। सांख्य, जैन और देकार्त इस धारणा में विश्वास
और हमें कोई संशय नहीं होता, तो फिर ज्ञानगुण से आत्मा का प्रत्यक्ष करते हैं। क्यों नहीं मान लेते।
जैन विचारक स्पष्ट रूप से कहते हैं कि कभी भी जड़ से आधुनिक वैज्ञानिक भी अनेक तत्त्वों का वास्तविक बोध चेतन की उत्पत्ति नहीं होती। सूत्रकृतांग की टीका में इस मान्यता का प्रत्यक्ष नहीं कर पाते हैं जैसे ईथर; फिर भी कार्यों के आधार पर उनका निराकरण किया गया है। शीलांकाचार्य लिखते हैं कि "भूत समुदाय अस्तित्व मानते हैं एवं स्वरूप-विवेचन भी करते हैं फिर आत्मा के स्वतन्त्रधर्मी है, उसका गुण चैतन्य नहीं है, क्योंकि पृथ्वी आदि भूतों चेतनात्मक कार्यों के आधार पर उसके अस्तित्व को क्यों न स्वीकार के अन्य पृथक्-पृथक् गुण हैं, अन्य गुणों वाले पदार्थों से या उनके किया जाये? वस्तुत: आत्मा या चेतना के अस्तित्व का प्रश्न महत्त्वपूर्ण समूह से भी किसी अपूर्व (नवीन) गुण की उत्पत्ति नहीं हो सकती, होते हुए भी विवाद का विषय नहीं है। भारतीय चिन्तकों में चार्वाक एवं जैसे रुक्ष बालुक कणों के समुदाय से स्निग्ध तेल की उत्पत्ति नहीं बौद्ध तथा पाश्चात्य चिन्तकों में ह्यूम, जेम्स आदि जो विचारक आत्मा होती। अत: चैतन्य आत्मा का ही गुण हो सकता है, भूतों का नहीं, का निषेध करते हैं, वस्तुत: उनका निषेध आत्मा के अस्तित्व का जड़ भूतों से चेतन आत्मा की उत्पत्ति नहीं हो सकती।"११ शरीर भी निषेध नहीं, वरन् उसकी नित्यता का निषेध है। वे आत्मा को एक ज्ञानादि चैतन्य गुणों का कारण नहीं हो सकता, क्योंकि शरीर भौतिक स्वतन्त्र या नित्य द्रव्य के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं, लेकिन चेतन तत्त्वों का कार्य है और भौतिक तत्त्व चेतनाशून्य हैं। जब भूतों में ही अवस्था या चेतना-प्रवाह के रूप में आत्मा का अस्तित्व तो उन्हें भी चैतन्य नहीं है तो उनके कार्य में चैतन्य कहाँ से आ जायेगा? प्रत्येक स्वीकार है। चार्वाक दर्शन भी यह नहीं कहता कि आत्मा का सर्वथा कार्य कारण में अव्यक्त रूप से रहा है। जब वह कारण कार्यरूप में अभाव है, उसका निषेध मात्र आत्मा को स्वतन्त्र या मौलिक तत्त्व . परिणत होता है, तब वह शक्ति रूप से रहा हुआ कार्य व्यक्त रूप में मानने से है। बुद्ध अनात्मवाद की प्रतिस्थापना में आत्मा (चेतना) का सामने आ जाता है। जब भौतिक तत्त्वों में चेतना नहीं है, तब यह कैसे निषेध नहीं करते, वरन् उसकी नित्यता का निषेध करते हैं। ह्यूम भी सम्भव है कि शरीर चैतन्य गुण वाला हो जाय? यदि चेतना प्रत्येक अनुभूति से भिन्न किसी स्वतन्त्र आत्म-तत्त्व का ही निषेध करते हैं। भौतिक तत्त्व में नहीं है तो उन तत्त्वों के संयोग से भी वह उत्पन्न नहीं उद्योतकर का 'न्यायवार्तिक' में यह कहना समुचित जान पड़ता है कि हो सकती। रेणु की प्रत्येक कण में न रहने वाला तेल रेणु कणों के आत्मा के अस्तित्व के विषय में दार्शनिकों में सामान्यत: कोई विवाद संयोग से उत्पन्न नहीं हो सकता। अत: यह कहना युक्ति-संगत नहीं है
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