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धर्म का मर्म : जैन दृष्टि
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"सवे सत्ता ण हंतव्वा,
जब सारे जहाँ का दर्द किसी के हृदय में समा जाता है तो वह एस धम्मे सुद्धे णिइए सासए समिच्च लोयं खेयण्णेहिं पवेइए" लोककल्याण के मङ्गलमयमार्ग पर चल पड़ता है। उसका यह चलना
"अर्थात भूतकाल में जो अर्हत् हुए हैं, वर्तमानकाल में जो अर्हत् बाहरी नहीं होता है। उसके सारे व्यवहार में अन्तश्चेतना काम करती हैं और भविष्यकाल में जो अर्हत होंगे, वे सभी एक ही सन्देश देते है और यही अन्तश्चेतना धार्मिकता का मूल उत्स (Essence) है, इसे हैं कि किसी पाणी की, किसी सत्व की हिंसा नहीं करनी चाहिाए, ही दायित्व-बोध की सामाजिक चेतना कहा जाता है। जब यह उसका घात - ही करना चाहिए, उसे पीड़ा नहीं पहुँचानी चाहिए, यही दायित्व-बोध की सामाजिक चेतना जाग्रत होती है, तो मनुष्य में धार्मिकता एकमात्र शुद्ध, नित्य और शाश्वत धर्म है।" इस धर्म की लोक-कल्याणकारी प्रकट होती है। दूसरों के प्रति आत्मीयता के भाव का जाग्रत होना चेतना का ! कुटन लोक की पीड़ा के निवारण के लिए ही हुआ है ही धार्मिक बनने का सबसे पहला उपक्रम है। और यही १ का सारतत्त्व है। कहा है
यहि हमारे जीवन में दूसरों की पीड़ा, दूसरों का दर्द अपना नहीं __ यही है इबादत, यही है दीनो इमाँ।'
बना है तो हमें यह निश्चित ही समझ लेना चाहिए कि हममें धर्म कि काम आये दुनिया में, इंसां के इंसां।
का अवतरण नहीं हुआ है। दूसरों की पीड़ा की आत्मनिष्ठ अनुभूति दूसरों की पीड़ा को समझकर उसके निवारण का प्रयत्न करना, से जागृत दायित्व-बोध की अन्तश्चेतना के बिना सारे धार्मिक यही धर्म की मूल आत्मा हो सकती है। सन्त तुलसीदास जी ने भी क्रिया-काण्ड, पाखण्ड या ढोंग हैं। उनका धार्मिकता से दूर का कहा है
रिश्ता नहीं है। जैन धर्म के सम्यक्-दर्शन, जो कि धार्मिकता की परहित सरिस धरम नहिं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई। आधारभूमि है-के जो पाँच अङ्ग माने गये हैं, उनमें समभाव और
अहिंसा की चेतना का विकास तभी सम्भव है, जब मनुष्य में अनुकम्पा सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। सामाजिक दृष्टि से समभाव 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना का विकास होगा। जब हम दूसरों का अर्थ है- दूसरों को अपने समान समझना। क्योंकि अहिंसा एवं के दर्द को अपना दर्द समझेंगे तभी हम लोकमङ्गल की दिशा में अथवा लोककल्याण की अन्तश्चेतना का उद्भव इसी आधार पर होता है। परपीड़ा के निवारण की दिशा में आगे बढ़ सकेंगे। परपीड़ा की यह आचाराङ्गसूत्र में कहा गया है कि “जिस प्रकार मैं जीना चाहता हूँ, आत्मानुभूति भी वस्तुनिष्ठ न होकर आत्मनिष्ठ होनी चाहिए। हम दूसरों मरना नहीं चाहता हूँ उसी प्रकार संसार के सभी प्राणी जीवन के की पीड़ा के मूक दर्शक न रहें। ऐसा धर्म और ऐसी अहिंसा, जो इच्छुक हैं और मृत्यु से भयभीत हैं, जिस प्रकार मैं सुख की प्राप्ति दूसरों की पीड़ा की मूक दर्शन बनी रहती है, वस्तुत: वह न धर्म चाहता हूँ और दुःख से बचना चाहता हूँ उसी प्रकार विश्व के सभी है और न अहिंसा। अहिंसा केवल दूसरों को पीड़ा न देने तक सीमित प्राणी सुख के इच्छुक हैं और दुःख से दूर रहना चाहते हैं।" यही नहीं है, उसमें लोकमङ्गल और लोककल्याण का अजस्र-स्रोत भी वह दृष्टि है जिस पर अहिंसा का, धर्म का और नैतिकता का विकास प्रवाहित है। जब लोक-पीड़ा अपनी पीड़ा बन जाती है, तभी धार्मिकता होता है। का स्रोत अन्दर से प्रवाहित होता है। तीर्थङ्करों, अर्हतों और बुद्धों जब तक दूसरों के प्रति हमारे मन में समभाव अर्थात् समानता ने जब लोक-पीड़ा की यह अनुभूति आत्मनिष्ठ रूप में की, तो वे का भाव, जागृत नहीं होता, अनुकम्पा नहीं आती अर्थात् उनकी पीड़ा लोककल्याण के लिए सक्रिय बन गये। जब दूसरों की पीड़ा और हमारी पीड़ा नहीं बनती तब तक सम्यक्-दर्शन का उदय भी नहीं होता, वेदना हमें अपनी लगती है तब लोककल्याण भी दूसरों के लिए न जीवन में धर्म का अवतरण नहीं होता। असर लखनवी का यह निम्न होकर अपने ही लिए हो जाता है। उर्दू शायर अमीर ने कहा है- शेर इस सम्बन्ध में कितना मौजूं है - खञ्जर चले किसी पे, तड़फते हैं हम मीर ।
ईमां गलत उसूल गलत, उद्दुआ गलत। सारे जहाँ का दर्द, हमारे ज़िगर में है ।।
इंसां की दिलदिही, अगर इंसां न कर सके।।
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