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स्त्री, अन्यतैर्थिक एवं सवस्त्र की मुक्ति का प्रश्न
४०५ एवं गृही-लिंग (गृहस्थवेश) से मुक्ति की सम्भावना को स्वीकार किया ग्रन्थ में स्त्री, अन्यतैर्थिक एवं गृहस्थ की मुक्ति के स्पष्ट निषेध सम्बन्धी गया है।२२ सूत्रकृतांगसूत्र में नमि, बाहुक, असितदेवल, नारायण आदि कोई भी उल्लेख नहीं मिले हैं। श्वेताम्बर मान्य आगम सूत्रकृतांग और ऋषियों के द्वारा अन्य परम्परा के आचार एवं वेशभूषा का अनुसरण उत्तराध्ययन में तो स्पष्ट रूप से इन तीनों की मुक्ति का उल्लेख हआ करते हुए भी सिद्धि प्राप्त करने का स्पष्ट उल्लेख है।२३ ऋषिभाषित है, यह हम पूर्व में बता चुके हैं। कुन्दकुन्द और पूज्यपाद के समय में औपनिषदिक, बौद्ध एवं अन्य श्रमण-परम्परा के ऋषियों को अर्हत् से ही जैन विद्वानों में यह मतभेद अस्तित्व में है। हमारी दृष्टि में कुन्दकुन्द ऋषि कहकर सम्मानित किया गया है।२४ वस्तुत: मुक्ति का सम्बन्ध भी पूज्यपाद के समकालीन लगभग छठी शती के ही हैं। अत: पूज्यपाद आत्मा की विशुद्धि से है। उसका बाह्य वेश या स्त्री-पुरुष आदि के के साथ-साथ उन्होंने भी सूत्रप्राभृत२८ में 'वस्त्रधारी' की मुक्ति का निषेध शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं है। श्वेताम्बर आचार्य रत्नशेखरसूरि कहते किया है। वे कहते हैं कि-"यदि तीर्थङ्कर भी वस्त्रधारी हो तो वह हैं कि व्यक्ति चाहे श्वेताम्बर हो, दिगम्बर हो, बौद्ध या अन्य किसी भी मुक्त नहीं हो सकता" इस निषेध में स्त्री, अन्यतैर्थिक एवं गृहस्थ धर्म-परम्परा का हो, यदि वह समभाव से युक्त है तो मुक्ति अवश्य तीनों की मुक्ति का ही निषेध हो जाता है, क्योंकि ये तीनों ही वस्त्रधारी प्राप्त करेगा।२५ चूँकि यापनीय भी आगमिक परम्परा के अनुयायी थे, हैं। इस प्रकार दिगम्बर परम्परा में कुन्दकुन्द एवं पूज्यपाद के काल अत: यापनीय शाकटायन ने इस सम्बन्ध में आगम-प्रमाण का उल्लेख से स्त्रीमुक्ति के साथ-साथ अन्यतैर्थिक एवं गृहस्थ की मुक्ति का भी किया है। वे स्त्रीमुक्ति के साथ-साथ अन्यतैर्थिकमुक्ति के भी समर्थक निषेध कर दिया गया। वस्तुत: कोई भी धर्म परम्परा जब साम्प्रदायिक थे। किन्तु जब अचेलता को ही एकमात्र मोक्ष-मार्ग स्वीकार करके मूर्छादि संकीर्णताओं में सिमटती जाती है तो उसमें अन्य परम्पराओं के प्रति भावपरिग्रह के साथ-साथ वस्त्र-पात्रादि द्रव्य-परिग्रह का भी पूर्ण त्याग उदारता समाप्त होती जाती है। अन्यतैर्थिकों एवं गृहस्थों की मुक्ति आवश्यक मान लिया गया तो यह स्वाभाविक ही था कि स्त्रीमुक्ति का निषेध इसी का परिणाम था। के निषेध के साथ ही साथ अन्यतैर्थिक और गृहस्थों की मुक्ति का परवर्ती श्वेताम्बर एवं दिगम्बर ग्रन्थों में इस सम्बन्ध में जो भी भी निषेध कर दिया गया । दिगम्बर परम्परा में चूँकि अचेलता को चर्चाएँ हुईं, वह मुख्य रूप से स्त्रीमुक्ति के प्रश्न को लेकर हुईं। गृहस्थ ही एकमात्र मोक्ष-मार्ग माना गया था, इसलिये उसने यह माना कि एवं अन्यतैर्थिक की मुक्ति का प्रश्न वस्तुत: स्त्री के प्रश्न से ही जुड़ा अन्यतैर्थिक या गृहस्थवेश में कोई भी व्यक्ति मुक्त नहीं हो सकता। हुआ था। अत: परवर्ती साहित्य में इन दोनों के सम्बन्ध में पक्ष व इसके विपरीत श्वेताम्बर और यापनीय दोनों ही स्पष्ट रूप से यह मानते विपक्ष में कुछ लिखा गया हो, ऐसा मुझे ज्ञात नहीं है। तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक २९ रहे कि यदि व्यक्ति की रागात्मकता या ममत्ववृत्ति समाप्त हो गयी में विद्यानन्द ने एकमात्र तर्क यह दिया है कि 'यदि सग्रन्थ अवस्था है तो बाह्यरूप से वह चाहे गृहस्थवेश धारण किये हुए हो उसकी में मुक्ति होती है तो फिर परिग्रह-त्याग की क्या आवश्यकता है?' मुक्ति में कोई बाधा नहीं है। तत्त्वार्थभाष्य'६ में तत्त्वार्थसूत्र के दसवें जिस प्रकार यापनीय आचार्य 'शाकटायन' ने और श्वेताम्बर आचार्य अध्याय के सातवें सूत्र का भाष्य करते हुए उमास्वाति ने वेश की हरिभद्र आदि ने स्त्रीमुक्ति के समर्थन में विविध तर्क दिये उसी प्रकार अपेक्षा से द्रव्य-लिंग के तीन भेद किये-(१) स्व-लिंग, (२) गृह- के तर्क गृहस्थ या अन्यतैर्थिक की मुक्ति के सम्बन्ध में यापनीय एवं लिंग, (३) अन्य-लिंग और यह बताया कि इन तीनों लिंगों से मुक्ति श्वेताम्बर आचार्यों ने नहीं दिये हैं। सम्भवत: इसका कारण यही रहा हो भी सकती है, और नहीं भी हो सकती है। इस प्रकार उमास्वाति कि जब एक बार सचेल स्त्री की मुक्ति की सम्भावना स्वीकार की जाती अन्यतैर्थिकों एवं गृहस्थों की मुक्ति को विकल्प से स्वीकार करते हैं, है तो फिर गृहस्थ और अन्यतैर्थिक की मुक्ति की सम्भावना स्वीकार किन्तु इसी सूत्र की व्याख्या में पूज्यपाद सर्वार्थसिद्धि में द्रव्य-लिंग करने में कोई बाधा नहीं रहती, क्योंकि गृहस्थ और अन्यतैर्थिक की की दृष्टि से निर्ग्रन्थ-लिंग से ही सिद्धि मानते हैं। यद्यपि उन्होंने यह मुक्ति का प्रश्न सीधा स्त्रीमुक्ति की समस्या के साथ जुड़ा हुआ था। माना है कि भूतपूर्व नय की अपेक्षा से सग्रन्थ-लिंग से भी सिद्धि होती अत: उस पर स्वतन्त्र रूप से पक्ष व विपक्ष में अधिक चर्चा नहीं हुई है। है।२७ किन्तु तत्त्वार्थसूत्र के प्रस्तुत सूत्र (१०/७) में सिद्ध जीवों का जहाँ तक यापनीय परम्परा का प्रश्न है वे स्त्रीमुक्ति के साथक्षेत्र, काल, गति, लिंग, तीर्थ आदि की अपेक्षा से जो विचार किया साथ गृहस्थ एवं अन्यतैर्थिक की मुक्ति स्वीकार करते थे। यापनीय गया है, वह उनके मुक्ति प्राप्त करने के समय की स्थिति के सन्दर्भ ग्रन्थों से इस तथ्य की पुष्टि हो जाती है। आचार्य हरिषेण के में है। अत: भूतपूर्व नय का यहाँ कोई प्रयोजन ही नहीं है। क्योंकि 'बृहत्कथाकोश'३० में स्पष्ट रूप से गृहस्थमुक्ति का उल्लेख है। इसमें यदि भूतपूर्व नय से कहना होता तो उसमें तो सभी लिंग, सभी वेद, कहा गया है कि अणुव्रत, गुणव्रत, शिक्षाव्रत से अन्वित और मौनव्रत सभी गति, सभी क्षेत्र आदि से मुक्ति मानी जा सकती थी। भूतपूर्व से समन्वित मुमुक्षु सिद्धि को प्राप्त होता है। इसी प्रकार हरिवंश पुराण नय का कथन मात्र आगम और अपनी परम्परा के मध्य संगति बिठाने (जिनसेन और हरिषेण) में भी अन्यतैर्थिक की मुक्ति का उल्लेख किया हेतु किया गया है। फिर भी इससे यह तो फलित होता ही है कि गया है। उसके बयालीसवें सर्ग में नारद को 'अन्त्यदेह' कहा गया पूज्यपाद के समय में दिगम्बर परम्परा में अन्यतैर्थिक और गृहस्थमुक्ति है। पुनः उसके पैसठवें सर्ग में तो स्पष्ट रूप से यह कहा गया है के निषेध की अवधारणा स्पष्ट रूप से आ गयी थी। पूज्यपाद की कि "नरश्रेष्ठ नारद ने प्रव्रजित होकर तपस्या के बल से भवपरम्परा सर्वार्थटीका से पहले हमें श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा के किसी भी का क्षय करके अक्षय मोक्ष को प्राप्त किया।३२ इसके विपरीत दिगम्बर
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