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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
उसकी पवित्रता तो सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप रत्नत्रय के सदाचरण से वाले व्यक्तियों को धर्म-मार्ग में पुनः स्थिर करना यह साधक का कर्तव्य ही होती है। अतएव गुणीजनों के शरीर से घृणा न कर उनके गुणों से माना गया है। इस पतन के दो प्रकार होते हैप्रेम करना निर्विचिकित्सा है।६६
१. दर्शन विकृति अर्थात दृष्टिकोण की विकृतता ४. अमूढदृष्टि- मूढ़ता का अर्थ है अज्ञान। हेय और उपादेय, २. चारित्र विकृति अर्थात धर्म-मार्ग या सदाचरण से च्युत योग्य और अयोग्य के मध्य निर्णायक क्षमता का अभाव ही अज्ञान है, होना। दोनों ही स्थितियों में उसे यथोचित बोध देकर स्थिर करना मूढ़ता है। जैन साहित्य में विभिन्न प्रकार की मूढ़ताओं का वर्गीकरण तीन चाहिए।६९ दिगम्बर परम्परा के श्रावकाचार विषयक ग्रन्थों में स्थिरीकरण' भागों में किया गया है
के स्थान पर 'स्थितिकरण' शब्द मिलता है। १. देवमूढ़ता,२. लोकमूढ़ता, और ३. समयमूढ़ता
७. वात्सल्य- धर्ममार्ग में समाचरण करने वाले समान शील (अ) देवमूढ़ता- साधना का आदर्श कौन है? उपास्य बनने अर्थात् सहधर्मियों के प्रति प्रेमभाव रखना वात्सल्य है। आचार्य समन्तभद्र की क्षमता किसमें है? ऐसे निर्णायक ज्ञान का अभाव ही देवमूढ़ता है, के अनुसार 'स्वधर्मियों एवं गुणियों के प्रति निष्कपट भाव से प्रीति जिसके कारण साधक अपने लिए गलत आदर्श बनने की योग्यता नहीं रखना और उनकी यथोचित सेवा -सुश्रुषा करना वात्सल्य है। वात्सल्य है उसे उपास्य बना लेना देवमूढ़ता है। काम-क्रोधादि विकारों के पूर्ण का प्रतीक गाय और गोवत्स (बछड़े) का प्रेम है। जिस प्रकार गाय बिना विजेता, वीतराग एवं अविकल ज्ञान और दर्शन से युक्त परमात्मा को ही किसी प्रतिफल की अपेक्षा के गोवत्स को संकट में देखकर अपने प्राणों अपना उपास्य और आदर्श बनाना, यही देव के प्रति अमूढदृष्टि है। को भी जोखिम में डाल देती है, ठीक उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि साधक का
(ब) लोकमढ़ता- लोक प्रवाह और रूढ़ियों का अन्धानुकरण भी यह कर्तव्य है कि वह धार्मिकजनों के सहयोग और सहकार के लिए यही लोक मूढ़ता हैं। आचार्य समन्तभद्र लोकमूढ़ता की व्याख्या करते कुछ भी उठा नहीं रखे। वात्सल्य संघ,धर्म या सामाजिक भावना का हए कहते हैं कि 'नदियों एवं सागर में स्नान करने से आत्मा की शुद्धि केन्द्रीय तत्त्व है। मानना, पत्थरों का ढेर कर उसे मुक्ति समझना अथवा पर्वत से गिरकर ८. प्रभावना- साधना के क्षेत्र में स्व-पर-कल्याण की भावना या अग्नि में जलकर प्राण विसर्जन करना आदि लोकमूढ़ताएँ हैं।'६७ होती है। जैसे पुष्प अपने सुवास से स्वयं भी सुवासित होता है और
(स) समयमुढ़ता- समय का अर्थ सिद्धान्त या शास्त्र भी माना दूसरों को भी सुवासित करता है वैसे ही साधक सदाचरण और ज्ञान की गया है। इस अर्थ में सैद्धान्तिक ज्ञान या शास्त्रीय ज्ञान का अभाव सौरभ से स्वयं भी सुरभित होता है, साथ ही जगत् को भी सुरभित करता समयमूढ़ता है।
है। साधना, सदाचरण और ज्ञान की सुरभि द्वारा जगत के अन्य प्राणियों ५. उपबृंहण- बृहि धातु के साथ 'उप' उपसर्ग लगाने से को धर्ममार्ग में आकर्षित करना, यही प्रभावना है। उपबृंह शब्द निष्पन्न हुआ है जिसका अर्थ होता है वृद्धिकरना, पोषण प्रभावना के आठ प्रकार माने गये हैंकरना। अपने आध्यात्मिक गुणों का विकास करना यह उपबृंहण है। १. प्रवचन, २. धर्म, ३. पाद, ४. नैमित्तिक, ५. तप, ६. सम्यक् आचरण करने वाले गुणीजनों की प्रशंसा आदि करके उनके विद्या, ७. प्रसिद्ध व्रत ग्रहण करना और ८. कवित्वशक्ति । सम्यक् आचरण की वृद्धि में योग देना उपबृंहण है।
६. स्थिरीकरण- साधनात्मक जीवन में कभी-कभी ऐसे सम्यग्दर्शन की साधना के ६ स्थान अवसर उपस्थित हो जाते है जब साधक भौतिक प्रलोभन एवं साधनात्मक जिस प्रकार बौद्धदर्शन में दुःख है, दुःख का कारण है, दु:ख से जीवन की कठिनाइओं के कारण पथच्युत हो जाता है। अत: ऐसे निवृत्ति हो सकती है, और दुःख निवृत्ति का मार्ग है, इन चार आर्यसत्यों की अवसरों पर स्वयं को पथच्युत होने से बचाना और पथच्युत साधकों को स्वीकृति सम्यग्दृष्टित्व है उसी प्रकार जैन साधना के अनुसार निम्न षट्स्थानकों१ धर्ममार्ग में स्थिर करना, यह स्थिरीकरण है। सम्यग्दृष्टिसम्पन्न साधक को (छ: बातों ) की स्वीकृति सम्यग्दृष्टित्व हैन केवल अपने विकास की चिन्ता करनी होती है वरन उसका यह भी १- आत्मा है। कर्तव्य है कि वह ऐसे साधकों को जो धर्ममार्ग से विचलित या पतित हो २- आत्मा नित्य है। गये हैं, उन्हें मार्ग में स्थिर करे। जैनदर्शन यह मानता है कि व्यक्ति या ३- आत्मा अपने कर्मों का कर्ता है। समाज की भौतिक सेवा सच्ची सेवा नहीं है, सच्ची सेवा तो है उसे
४- आत्मा कृतकों के फल का भोक्ता है। धर्ममार्ग में स्थिर करना। जैनाचार्यों का कथन है कि व्यक्ति अपने शरीर ५- आत्मा मुक्ति प्राप्त कर सकता है। के चमड़े के जूते बनाकर अपने माता-पिता को पहिनाये अर्थात् उनके ६- मुक्ति का उपाय या मार्ग है। प्रति इतना अधिक आत्मोत्सर्ग का भाव रखे तो भी वह उनके ऋण से
जैन तत्त्व विचारणा के अनुसार उपरोक्त षट्स्थानकों पर दृढ़ उऋण नहीं हो सकता, वह माता-पिता के ऋण से उऋण तभी माना प्रतीति सम्यग्दर्शन की साधना का आवश्यक अंग है। दृष्टिकोण की जाता है जब वह उन्हें धर्ममार्ग में स्थिर करता है । दूसरे शब्दों में, उनके विशुद्धता एवं सदाचरण दोनों ही इन पर निर्भर हैं। यह षट्स्थानक जैन साधनात्मक जीवन में सहयोग देता है। अत: धर्म-मार्ग से पतित होने नैतिकता के केन्द्र बिन्द हैं।
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