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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
ब्रह्मचर्य का पालन सम्भव न हो तो विवाह कर लेना चाहिए । विवाह ब्रह्मचर्य पालन करने में असफल हो तो उसे विवाह बन्धन मान लेना विधि के सम्बन्ध में जैनाचार्यों की स्पष्ट धारणा क्या थी, इसकी सूचना चाहिए । जहाँ तक स्वयंवर विधि का प्रश्न है निश्चित ही नारी-स्वातन्त्र्य हमें आगमों और आगमिक व्याख्याओं में नहीं प्राप्त होती है । जैन की दृष्टि से यह विधि महत्त्वपूर्ण थी। किन्तु जनसामान्य में जिस विधि विवाह-विधि का प्रचलन पर्याप्त रूप से परवर्ती है और दक्षिण के का प्रचलन था वह माता-पिता के द्वारा आयोजित विधि ही थी। यद्यपि दिगम्बर आचार्यों की ही देन है जो हिन्दू-विवाह-विधि का जैनीकरण मात्र इस विधि में स्त्री और पुरुष दोनों की स्वतंत्रता खण्डित होती थी। है। उत्तर भारत के श्वेताम्बर जैनों में तो विवाह-विधि को हिन्दू धर्म के जैनकथा साहित्य में ऐसे अनेक उल्लेख उपलब्ध हैं जहाँ बलपूर्वक अनुसार ही सम्पादित किया जाता है। आज भी श्वेताम्बर जैनों में अपनी अपहरण करके विवाह सम्पन्न हुआ। इस विधि में नारी की स्वतंत्रता कोई विवाह-पद्धति नहीं है । जैन आगमों और आगमिक व्याख्याओं से पूर्णतया खण्डित हो जाती थी, क्योंकि अपहरण करके विवाह करने का जो सूचना हमें मिलती है उसके अनुसार यौगलिक काल में युगल रूप अर्थ मात्र यह मानना नहीं है कि स्त्री को चयन की स्वतंत्रता ही नहीं है, से उत्पन्न होने वाले भाई बहन युवावस्था में पति-पत्नी का रूप ले लेते अपितु यह तो उसे लूट की सम्पत्ति मानने जैसा है। थे । जैन पुराणों के अनुसार सर्वप्रथम ऋषभदेव से ही विवाह प्रथा का जहाँ तक आगमिक व्याख्याओं का प्रश्न है उनमें अधिकांश आरम्भ हुआ। उन्होंने भाई-बहनों के बीच स्थापित होने वाले यौन विवाह माता-पिता के द्वारा आयोजित विवाह ही हैं, केवल कुछ प्रसंगों सम्बन्ध (विवाह-प्रणाली) को अस्वीकार कर दिया। उनकी दोनों पुत्रियों में ही स्वयंवर एवं गन्धर्व विवाह के उल्लेख मिलते हैं जो आगम युग ब्राह्मी और सुन्दरी ने आजीवन ब्रह्मचारिणी रहने का निर्णय किया । एवं पूर्व काल के हैं । माता-पिता के द्वारा आयोजित इस विवाह-विधि फलतः भरत और बाहुबलि का विवाह अन्य वंशों की कन्याओं से किया में स्त्री-पुरुषों की समकक्षता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है । यद्यपि यह गया । जैन साहित्य के अध्ययन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि सत्य है कि जैनाचार्यों ने विवाह-विधि के सम्बन्ध में गम्भीरता से चिन्तन आगमिक काल तक स्त्री विवाह सम्बन्धी निर्णयों को लेने में स्वतन्त्र थी नहीं किया किन्तु यह सत्य है कि उन्होंने स्त्री को गरिमाहीन बनाने का और अधिकांश विवाह उसकी सम्मति से ही किये जाते थे जैसा कि प्रयास भी नहीं किया । जहाँ हिन्दू-परम्परा में विवाह स्त्री के लिए बाध्यता ज्ञाताधर्मकथा में मल्लि५० और द्रौपदी के कथानकों से ज्ञात होता है। थी, वहीं जैन-परम्परा में ऐसा नहीं किया गया। प्राचीनकाल से लेकर ज्ञाताधर्मकथा में पिता स्पष्ट रूप से पुत्री से कहता है कि यदि मैं तेरे लिए अद्यावधि विवाह करने न करने के प्रश्न को स्त्री-विवेक पर छोड़ दिया पति चुनता हूँ तो वह तेरे लिए सुख-दुःख का कारण हो सकता है, गया। जो स्त्रियाँ यह समझती थीं कि वे अविवाहित रहकर अपनी साधना इसलिए अच्छा यही होगा तू अपने पति का चयन स्वयं ही कर । मल्लि कर सकेंगी उन्हें बिना विवाह किये ही दीक्षित होने का अधिकार था। और द्रौपदी के लिये स्वयम्वरों का आयोजन किया गया था। विवाह-संस्था जैनों के लिए ब्रह्मचर्य की साधना में सहायक होने के रूप
. आगम ग्रन्थों से जो सूचना मिलती है उसके आधार पर हम में ही स्वीकार की गई । जैनों के लिए विवाह का अर्थ था अपनी वासना इतना ही कह सकते हैं कि प्रागैतिहासिक युग और आगम युग में को संयमित करना । केवल उन्हीं लोगों के लिए विवाह-संस्था में प्रवेश सामान्यतया स्त्री को अपने पति का चयन करने में स्वतन्त्रता थी । यह आवश्यक माना गया था जो पूर्णरूप से ब्रह्मचर्य का पालन करने में भी उसकी इच्छा पर निर्भर था कि वह विवाह करे या न करे । पूर्वयुग असमर्थ पाते हों अथवा विवाह के पूर्व पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन का व्रत नहीं में ब्राह्मी, सुन्दरी, मल्लि, आगमिक युग में चन्दनबाला, जयन्ती आदि ले चुके हैं । अत: हम कह सकते हैं कि जैनों ने ब्रह्मचर्य की आंशिक ऐसी अनेक स्त्रियों के उल्लेख प्राप्त होते हैं जिन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्यपालन साधना के अंग के रूप में विवाह-संस्था को स्वीकार करके भी नारी की स्वीकार किया और विवाह अस्वीकार कर दिया। आगमिक व्याख्याओं स्वतन्त्र निर्णय शक्ति को मान्य करके उसकी गरिमा को खण्डित नहीं में हमें विवाह के अनेक रूप उपलब्ध होते हैं। डॉ० जगदीश चन्द्र जैन होने दिया । ने जैन आगमों और आगमिक व्याख्याओं में उपलब्ध विवाह के विविध रूपों का विवरण प्रस्तुत किया है यथा - स्वयंवर, माता-पिता द्वारा बहुपति और बहुपत्नी प्रथा आयोजित विवाह, गन्धर्व विवाह (प्रेमविवाह), कन्या को बलपूर्वक विवाह संस्था के सन्दर्भ में एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न बहुविवाह का ग्रहण करके विवाह करना, पारस्परिक आकर्षण या प्रेम के आधार पर भी है । इसके दो रूप हैं बहुपत्नी प्रथा और बहुपति प्रथा । यह स्पष्ट विवाह, वर या कन्या की योग्यता देखकर विवाह, कन्यापक्ष को शुल्क है कि द्रौपदी के एक अपवाद को छोड़कर हिन्दू और जैन दोनों ही देकर विवाह और भविष्यवाणी के आधार पर विवाह ।५१ किन्तु हमें परम्पराओं में नारी के सम्बन्ध में एक-पति प्रथा की अवधारणा को ही आगम एवं आगमिक व्याख्याओं में कहीं भी ऐसा उल्लेख नहीं मिल स्वीकार किया गया और बहुपति प्रथा को धार्मिक दृष्टि से अनुचित माना सका जहाँ जैनाचार्यों के गुण-दोषों के आधार पर इनमें से किसी का गया। जैनाचार्यों ने द्रौपदी के बहुपति होने की अवधारणा को इस आधार समर्थन या निषेध किया हो या यह कहा हो कि यह विवाह-पद्धति उचित पर औचित्यपूर्ण बताने का प्रयास किया है कि सुकमालिका आर्या के भव है या, अनुचित है । यद्यपि विवाह के सम्बन्ध में जैनों का अपना कोई में उसने अपने तप के प्रताप से पाँच पति प्राप्त करने का निदान (निश्चय स्वतन्त्र दृष्टिकोण नहीं था पर इतना अवश्य माना जाता था कि यदि कोई कर) लिया था ।५२ अत: इसे पूर्वकर्म का फल मानकर सन्तोष किया
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