________________
६०६
जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
की पूर्ण रचना ही नहीं हो पाई थी। वह अपने साथ श्रुत परम्परा से कुछ इसके अतिरिक्त मथुरा के अंकन में मुनियों एवं साध्वियों के हाथ में मुख दार्शनकि विचारों एवं महावीर के कठोर आचार मार्ग को ही लेकर चला वस्त्रिका (मुंह-पत्ति) और प्रतिलेखन (रजोहरण) के अंकन उपलब्ध होते था जिसे उसने बहुत काल तक सुरक्षित रखा। आज की दिगम्बर परम्परा हैं। प्रतिलेखन के अंकन दिगम्बर परम्परा में प्रचलित मयूर पिच्छि और का पूर्वज यही दक्षिणी अचेल निर्ग्रन्थ संघ है। इस सम्बन्ध अन्य कुछ श्वे० परम्परा में प्रचलित रजोहरण दोनों ही आकारों में मिलते हैं। यद्यपि मुद्दे भी ऐतिहासिक दृष्टि से विचारणीय हैं। महावीर के अपने युग में भी स्पष्ट साहित्यिक और पुरातात्त्विक साक्ष्य के अभाव में यह कहना कठिन उनका प्रभाव क्षेत्र मुख्यतया दक्षिण बिहार ही था जिसका केन्द्र राजगृह है कि वे प्रतिलेखन मयूर-पिच्छ के बने होते थे या अन्य किसी वस्तु था, जबकि बौद्धों एवं पापित्यों का प्रभाव क्षेत्र उत्तरी बिहार एवं पूर्वोत्तर के। दिगम्बर परम्परा में मान्य यापनीय ग्रन्थ मूलाचार और भगवती उत्तर प्रदेश था जिसका केन्द्र श्रावस्ती था। महावीर के अचेल निर्ग्रन्थ संघ आराधना में प्रतिलेखन (पडिलेहण) और उसके गुणों का तो वर्णन और पापित्य सन्तरोत्तर (सचेल) निर्ग्रन्थ संघ के सम्मिलन की भूमिका है किन्तु यह स्पष्ट उल्लेख नहीं है कि वे किस वस्तु के बने होते थे। भी श्रावस्ती में गौतम और केशी के नेतृत्व में तैयार हुई थी। महावीर इस प्रकार ईसा की प्रथम शती के पूर्व उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ के सर्वाधिक चातुर्मास राजगृह नालन्दा में होना और बुद्ध के श्रावस्ती में वस्त्र, पात्र, झोली, मुखवस्त्रिका और प्रतिलेखन (रजोहरण) का में होना भी इसी तथ्य का प्रमाण है। दक्षिण का जलवायु उत्तर की अपेक्षा प्रचलन था। सामान्यतया मुनि नग्न ही रहते थे और साध्वियाँ साड़ी गर्म था,अत: अचेलता के परिपालन में दक्षिण में गये निर्ग्रन्थ संघ को पहनती थीं। मुनि वस्त्र का उपयोग उचित अवसर पर शीत एवं लज्जा. कोई कठिनाई नहीं हुई जबकि उत्तर के निर्ग्रन्थ संघ में कुछ पापित्यों निवारण हेतु करते थे। मुनियों के द्वारा सदैव वस्त्र धारण किये रहने के प्रभाव से और कुछ अति शीतल जलवायु के कारण यह अचेलता की परम्परा नहीं थी। इसी प्रकार अंकनों में मुखवस्त्रिका भी हाथ में अक्षुण्ण नहीं रह सकी और एक वस्त्र रखा जाने लगा। स्वभावतः भी दक्षिण ही प्रदर्शित है, न कि वर्तमान स्थानकवासी और तेरापंथी परम्पराओं की अपेक्षा उत्तर के निवासी अधिक सुविधावादी होते हैं। बौद्ध धर्म में के अनुरूप मुख पर बंधी हुई दिखाई गई है। प्राचीन स्तर के श्वेताम्बर भी बुद्ध के निर्वाण के पश्चात् सुविधाओं की मांग वात्सीपुत्रीय भिक्षुओं आगम ग्रन्थ भी इन्हीं तथ्यों की पुष्टि करते हैं। श्वेताम्बर परम्परा में मुनि ने ही की थी जो उत्तरी तराई क्षेत्र के थे। बौद्ध पिटक साहित्य में निर्ग्रन्थों के जिन १४ उपकरणों का उल्लेख मिला है, वे सम्भवतः ईसा की को एक शाटक और आजीवकों को नग्न कहा गया है यह भी यही दूसरी-तीसरी शती तक निश्चित हो गये थे। सूचित करता है कि लज्जा और शीत निवारण हेतु उत्तर भारत का निर्ग्रन्थ संघ कम से कम एक वस्त्र तो रखने लग गया था। मथुरा में ईस्वी सन् महावीर के पश्चात् निर्ग्रन्थ संघ में हुए संघभेद प्रथम शताब्दी के आसपास की जैन श्रमणों की जो मूर्तियां उपलब्ध हुई महावीर के निर्वाण और मथुरा के अंकन के बीच लगभग हैं उनमें सभी में श्रमणों को एक वस्त्र से युक्त दिखाया गया है। वेसामान्यतया पाँच सौ वर्षों के इतिहास से हमें जो महत्त्वपूर्ण सूचनाएं मिलती हैं नग्न रहते थे किन्तु भिक्षा या जन समाज में जाते समय वह वस्त्र खण्ड वे निह्नवों के दार्शनिक एवं वैचारिक मतभेदों एवं संघ के विभिन्न, हाथ पर डालकर अपनी नग्नता छिपा लेते थे और अति शीत आदि की गणों, शाखाओं, कुलों एवं सम्भोगों में विभक्त होने से सम्बन्धित हैं। स्थिति में उसे ओढ़ लेते थे।
आवश्यकनियुक्ति सात निह्नवों का उल्लेख करती है, इनमें से जामालि यह सुनिश्चित है कि महावीर बिना किसी पात्र के दीक्षित हुए और तिष्यगुप्त तो महावीर के समय में हुए थे, शेष पाँच आषाढ़भूति, थे। आचारांग से उपलब्ध सूचना के अनुसार पहले तो वे गृही पात्र का अश्वामित्र, गंग, रोहगुप्त और गोष्टमहिल महावीर निर्वाण के पश्चात् उपयोग कर लते थे किन्तु बाद में उन्होंने इसका त्याग कर दिया और २१४ वर्ष से ५८४ वर्ष के बीच हुए। ये निह्नव किन्हीं दार्शनिक प्रश्नों पाणिपात्र हो गये अर्थात् हाथ में ही भिक्षा ग्रहण करने लगे। सचित्त जल पर निर्ग्रन्थ संघ की परम्परागत मान्यताओं से मतभेद रखते थे। किन्तु का प्रयोग निषिद्ध होने से सम्भवतः सर्वप्रथम निर्ग्रन्थ संघ में शौच के इनके द्वारा निर्ग्रन्थ संघ में किसी नवीन सम्प्रदाय की उत्पत्ति हुई हो, लिए जलपात्र का ग्रहण किया गया होगा किन्तु भिक्षुकों की बढ़ती हुई ऐसी कोई भी सूचना उपलब्ध नहीं होती। इस काल में निर्ग्रन्थ संघ संख्या और एक ही घर से प्रत्येक भिक्षु को पेट भर भोजन न मिल पाने में गण और शाखा भेद भी हुए किन्तु वे किन दार्शनिक एवं आचार के कारण आगे चलकर भिक्षा हेतु भी पात्र का उपयोग प्रारम्भ हो गया सम्बन्धी मतभेद को लेकर हुए थे, यह ज्ञात नहीं होता है। मेरी दृष्टि होगा। इसके अतिरिक्त बीमार और अतिवृद्ध भिक्षुओं की परिचर्या के लिए में व्यवस्थागत सुविधाओं एवं शिष्य-प्रशिष्यों की परम्पराओं को लेकर भी पात्र में आहार लाने और ग्रहण करने की परम्परा प्रचलित हो गई ही ये गण या शाखा भेद हुए होंगे। यद्यपि कल्पसूत्र स्थविरावलि में होगी। मथुरा में ईसा की प्रथम-द्वितीय शती की एक जैन श्रमण की प्रतिमा षडुलक रोहगुप्त से त्रैराशिक शाखा निकलने का उल्लेख हुआ है। मिली है जो अपने हाथ में एक पात्र युक्त झोली और दूसरे में प्रतिलेखन रोहगुप्त त्रैराशिक मत के प्रवक्ता एक निह्नव माने गये हैं। अतः यह (रजोहरण) लिए हुए है। इस झोली का स्वरूप आज श्वे० परम्परा में, स्पष्ट है कि इन गणों एवं शाखाओं में कुछ मान्यता भेद भी रहे होंगे विशेष रूप से स्थानकवासी और तेरापंथी परम्परा में प्रचलित झोली के किन्तु आज हमारे पास यह जानने का कोई साधन नहीं है। समान है। यद्यपि मथुरा के अंकनों में हाथ में खुला पात्र भी प्रदर्शित है। कल्पसूत्र की स्थविरावलि तुंगीयायन गोत्री आर्य यशोभद्र के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org