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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
मन्दिर एवं मूर्तिकला की दृष्टि से दोनों परम्पराओं के मन्दिरों के शताब्दियों पूर्व ही जैन देव मण्डल का अंग बना लिया गया था। में पर्याप्त समानता है किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि जैनों ने अपनी राम, लक्ष्मण, कृष्ण, बलराम आदि वासुदेव और बलदेव के रूप में परम्परा के वैशिष्ट्य की पूर्ण उपेक्षा की है । समन्वयशीलता के प्रयत्नों शलाका पुरुष तथा सरस्वती, काली, महाकाली आदि १६ विद्या-देवियों के बावजूद उन्होंने अपने वैशिष्ट्य और अस्मिता को खोया नहीं है। के रूप में अथवा जिनों की यक्षियों के रूप में मान्य हो चुकी थीं, इसी खजुराहो के मन्दिर जिस काल में निर्मित हुए तब वाममार्ग और तन्त्र का प्रकार नवग्रह, अष्टदिक्पाल, इन्द्र आदि भी जैनों के देव मण्डल में पूरा प्रभाव था। यही कारण है कि खजुराहो के मन्दिरों में कामुक अंकन प्रतिष्ठित हो चुके थे और इनकी पूजा-की उपासना भी होने लगी थी। पूरी स्वतन्त्रता के साथ प्रदर्शित किये गये, प्राकृतिक और अप्राकृतिक फिर भी जैनाचार्यों की विशिष्टता यह रही कि उन्होंने वीतराग की श्रेष्ठता मैथुन के अनेक दृश्य खजुराहो के मन्दिरों में उत्कीर्ण हैं । यद्यपि जैन और गरिमा को यथावत सुरक्षित रखा और इन्हें जिनशासन के सहायक मन्दिरों की बाह्य भित्तियों पर भी ऐसे कुछ अंकन हैं किन्तु उनकी मात्रा देवी-देवता के रूप में ही स्वीकार किया । हिन्दू मन्दिरों की अपेक्षा अत्यल्प है । इसका अर्थ है कि जैनधर्मानुयायी खुजराहो के मन्दिर एवं मूर्तियों के सम्बन्ध में यदि हम इस सम्बन्ध में पर्याप्त सजग रहे होंगे कि कामवासना का यह उद्दाम अंकन तुलनात्मक दृष्टि से विचार करें तो मेरी जानकारी के अनुसार यहाँ के उनके निवृत्तिमार्गी दृष्टिकोण के साथ संगति नहीं रखता है । इसलिए किसी भी हिन्दू मन्दिर में जिन प्रतिमा का कोई भी अंकन उपलब्ध नहीं उन्होंने ऐसे दृश्यों के अंकन की खुली छूट नहीं दी। खजुराहो के जैन होता है, जबकि जैन मन्दिरों में न केवल उन देवी-देवताओं का जो जैन मन्दिरों में कामुकता के अश्लील अंकन के दो-चार फलक मिलते हैं। देवमण्डल के सदस्य मान लिये गये हैं, अपितु इसके अतिरिक्त भी हिन्दू उनके सम्बन्ध में दो ही विकल्प हो सकते हैं या तो वे जैनाचार्यों की दृष्टि देवी-देवताओं के अंकन हैं-- यह जैनाचार्यों की उदार दृष्टि का परिचायक से ओझल रहे या फिर उन्हें उस तान्त्रिक मान्यता के आधार पर स्वीकार है। जबकि हिन्दू मन्दिरों में दशावतार के कुछ फलकों में युद्ध के अंकन कर लिया गया कि ऐसे अंकनों के होने पर मन्दिर पर बिजली नहीं गिरती के अतिरिक्त जैन और बौद्ध देव मण्डल अथवा जिन और बुद्ध के अंकन है और वह सुरक्षित रहता है। क्योंकि खजुराहो के अतिरिक्त दक्षिण के का अभाव किसी अन्य स्थिति का सूचक है । मैं विद्वानों का ध्यान इस कुछ दिगम्बर जैन मन्दिरों में और राजस्थान के तारंगा और राणकपुर के ओर अवश्य आकर्षित कना चाहूँगा कि वे यह देखें कि यह समन्वय या श्वे. जैन मन्दिरों में ऐसे अंकन पाये जाते हैं । जहाँ तक काम सम्बन्धी सहिष्णुता की बात खजुराहो के मन्दिर और मूर्तिकला की दृष्टि से एक अश्लील अंकनों का प्रश्न है इस सम्बन्ध में जैन आचार्यों ने युग की पक्षीय है या उभयपक्षीय है। माँग के साथ सामंजस्य स्थापित करके उसे स्वीकृत प्रदान कर दी थी। इसी प्रंसग में खजुराहो के हिन्दू मन्दिरों में दिगम्बर जैन श्रमणों जिन मन्दिर की बाह्य भित्तियों पर शालभंजिकाओं (अप्सराओं) के और का जो अंकन है वह भी पुनर्विचार की अपेक्षा रखता है। डॉ० लक्ष्मीकांत व्यालों के उत्कीर्ण होने की सूचना जैनागम राजप्रश्नीय में भी उपलब्ध त्रिपाठी ने 'भारती' वर्ष १९५९-६० के अंक ३ में अपने लेख "The है | इसका तात्पर्य है कि खजुराहो में उत्कीर्ण अप्सरा मूर्तियाँ जैन आगम Erotic Scenes of Khajuraho and theirProbable explaसम्मत हैं । आचार्य जिनसेन ने इसके एक शताब्दी पूर्व ही रति और nation" में इस सम्बन्ध में भी एक प्रश्न उपस्थित किया है। खजुराहो कामदेव का मूर्तियों के अंकन एवं मन्दिर की बाह्य भित्तियों को आकर्षक जगदम्बी मन्दिर में एक दिगम्बर जैन श्रमण को दो कामुक स्त्रियों से घिरा बनाने की स्वीकृति दे दी थी। उन्होंने कहा था कि मन्दिर की बाह्य भित्तियों हुआ दिखाया गया है। लक्ष्मण मन्दिर के दक्षिण भित्ति में दिगम्बर जैन को वेश्या के समान होना चाहिए । जिस प्रकार वेश्या में लोगों को श्रमण को पशुपाशक मुद्रा में एक स्त्री से सम्भोगरत बताया गया, मात्र आकर्षित करने की सामर्थ्य होती है, उसी प्रकार मन्दिरों की बाह्य भित्तियों यही नहीं उसकी पाद-पीठ पर "श्री साधु नन्दिक्षपणक" ऐसा लेख भी में भी जन-साधारण को अपनी ओर आकर्षित करने की सामर्थ्य होना उत्कीर्ण है। इसी प्रकार जगदम्बी मन्दिर की दक्षिण भित्ति पर क्षपणक चाहिये। जन-साधरण को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए ऐसे (दिगम्बर जैन मुनि) को उत्थिग-लिंग दिखाया गया है, उसके समक्ष खड़ा अंकनों की स्वीकृति उनके युगबोध और सामंजस्य की दृष्टि का ही हुआ भागवत संन्यासी एक हाथ से उसका लिंग पकड़े हुए है, दूसरा परिणाम था। यद्यपि यह भी सत्य है कि अश्लील कामुक अंकनों के हाथ मारने की मुद्रा में है, जबकि क्षपणक हाथ जोड़े हुए खड़ा है । प्रश्न " प्रति जैनों का रूख अनुदार ही रहा है। यही कारण है कि ऐसे कुछ फलकों यह है कि इस प्रकार के अन्य अंकनों का उद्देश्य क्या था? डॉ० त्रिपाठी को नष्ट करने का प्रयत्न भी किया गया है।
ने इसे जैन श्रमणों की विषय-लम्पटता और समाज में उनके प्रति आक्रोश जैनाचार्यों की सहिष्णु और समन्वयवादी दृष्टि का दूसरा की भावना माना है। उनके शब्दों में "The Penis erectus of the उदाहरण खजुराहो के जैन मन्दिरों में हिन्दू देवमण्डल के अनेक देवी- Kshapanakais suggestiveofhis licentious character and देवताओं का अंकन है। इन मन्दिरों में राम, कृष्ण, बलराम, विष्णु तथा lack of control over senses which appears to have been सरस्वती. लक्ष्मी, काली, महाकाली. ज्वालामालिनी आदि देवियाँ. अष्ट in the rootof all these Conflicts and opposition" (Bharti, . दिक्पाल, नवग्रह आदि को प्रचूरता से उत्कीर्ण किया गया है। यद्यपि 1959-60 No. 3, Page 100) यह ज्ञातव्य है कि इनमें से अनेकों को खजुराहो के मन्दिरों के निर्माण
किन्तु मैं यहाँ डॉ० त्रिपाठी के निष्कर्ष से सहमत नहीं हूँ। मेरी
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