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डॉ सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ
पार्श्वनाथ विद्यापीठ-वाराणसी
1998
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Pārsvanātha Vidyāpitha Series No. 106
Aspects of Jainology Vol. VI (Dr. Sagarmal Jain Felicitation Volume)
(A Compilation of the important articles of Dr. Sagarmal Jain)
Consultative Committee Padmbhushan Pt. Dalsukh Malvania Prof. H.C. Bhayani, Pt. Darabarilal Kothia,
Prof. Ramjee Singh, Prof. K.R. Chandra. Prof. Rewati Raman Pandey, Prof. Bhagchand Jain 'Bhaskara'
Editorial Board
Prof. Sudarshanlal Jain Dr. Phool Chand Jain 'Premi' Dr. Kamlesh Kumar Jain Dr. Shiv Prasad Dr. Vijay Kumar Jain Dr. Aseem Kumar Mishra
Dr. Dharm Chand Jain Dr. Arun Pratap Singh Dr. Ashok Kumar Singh Dr. Ramesh Chandra Gupt Dr. Sudha Jain Shri. Om Prakash Singh
Managing Editor Dr. Shriprakash Pandey
Pārsvanātha Vidyāpītha
Varanasi
1998
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Pārsvanāth Vidyāpītha Series No. 106
Aspects of Jainology Vol. VI (Dr. Sagarmal Jain Felicitation Volume)
Publisher: Pārsvanāth Vidyāpīțha I.T.I. Road, Karaundi, Varanasi-5
Tel:316521,318046
I. S. B. N. 81-86715-28-2
First Edition : 1998
Price: Rs.800.00
Type setting at: Sun Computer Softec, Varanasi Rajesh Computers, Varanasi
Sarita Computer, Varanasi Naya Sansar Press, Varanasi
___ Printed at: Vardhaman Mudranalay Ratna Printing Press
Kabra Offset
पार्श्वनाथ विद्यापीठ ग्रन्थमाला सं० १०६
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६ (डॉ० सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रंथ)
मा
प्रकाशक
पार्श्वनाथ विद्यापीठ आई. टी. आई. मार्ग, करौंदी, वाराणसी-५
दूरभाष -३१६५२१, ३१८०४६
I. S. B. N. ८१-८६७१५-२८-२
प्रथम संस्करण १९९८
मूल्य - रु. ८००.००
अक्षर सज्जा सन कम्प्यूटर्स साफ्टेक, वाराणसी राजेश कम्प्यूटर्स, वाराणसी सरिता कम्प्यूटर्स, वाराणसी नया संसार प्रेस, वाराणसी
मुद्रक - वर्द्धमान मुद्रणालय, वाराणसी रत्ना प्रिटिंग प्रेस, वाराणसी काबरा आफसेट, वाराणसी
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पार्श्वनाथ विद्यापीठ ग्रन्थमाला संख्या १०६
जैन विद्या के आयाम
खण्ड-६ (डा० सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ) (डॉ० सागरमल जैन के महत्त्वपूर्ण लेखों का अनुपम संग्रह)
परामर्शदात्री समिति
पद्मभूषण पं० दलसुख मालवणिया, प्रो० एच० सी० भायाणी, पं० दरबारीलाल कोठिया,
प्रो० रामजी सिंह, प्रो० के० आर० चन्द्र, प्रो० रेवतीरमण पाण्डेय, प्रो० भागचन्द जैन 'भाष्कर'
सम्पादक मण्डल
प्रोफेसर सुदर्शन लाल जैन,
डॉ० धर्मचन्द न डॉ० फूलचन्द जैन 'प्रेमी'
डॉ० अरुण प्रताप सिंह डॉ० कमलेश कुमार जैन
डॉ. अशोक कुमार सिंह डॉ०शिवप्रसाद
डॉ० रमेश चन्द्र गुप्त डॉ० विजय कुमार जैन
डॉ० सुधा जैन डॉ० असीम कुमार मिश्र
श्री ओमप्रकाश सिंह प्रबन्ध-सम्पादक
डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय पार्श्वनाथ विद्यापीठ
वाराणसी १९९८
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प्रकाशकीय
पार्श्वनाथ विद्यापीठ ने जैन विद्या से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण लेखों के प्रकाशन हेतु 'जैन विद्या के आयाम' के नाम से विविध खण्डों के प्रकाशन की योजना बनाई थी। इस क्रम में हम अभी तक पांच खण्डों का प्रकाशन कर चुके हैं। प्रथम खण्ड संस्थान के संस्थापक लाला हरजसराय जी की स्मृति में निकाला गया। इसी प्रकार दूसरा खण्ड संस्थान के मार्गदर्शक पं० बेचरदास जी दोशी की स्मृति में एवं तृतीय खण्ड पद्मभूषण पण्डित दलसुखभाई मालवणिया के अभिनन्दन ग्रन्थ के रूप में प्रकाशित किए गए। इसी क्रम में आगे पार्श्वनाथ विद्यापीठ के स्वर्णजयन्ती चतुर्थखण्ड का और श्वेताम्बर स्था. जैन सभा, कलकत्ता के हीरक जयन्ती के अवसर पर पार्श्वनाथ विद्यापीठ के सहयोग से आयोजित संगोष्ठी से सम्बन्धित पंचम खण्ड का प्रकाशन हुआ। ये सभी खण्ड जैन विद्या के विविध पक्षों से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण लेखों के अनुपम संग्रह हैं।
इसी क्रम को बढ़ाते हुए जैन विद्या की विविध आयाम नामक इस षष्ठ खण्ड में डॉ० सागरमल जैन के जैन विद्या से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण लेखों के संग्रह का प्रकाशन 'डॉ० सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रंथ' के रूप में कर रहे हैं। वैसे आपके कुछ लेखों का संग्रह पूर्व में सागर जैन-विद्या भारती के नाम से तीन खण्डों में प्रकाशित हुआ था, फिर भी उनके विपुल लेखन को देखते हुए यही आवश्यक समझा गया कि उनके सभी महत्त्वपूर्ण लेख एक जगह संगृहीत हो जाय। यद्यपि यह संग्रह प्रकाशित हो इस सन्दर्भ में तो डॉ० साहब की अभिरुचि थी लेकिन उसे वे एक अभिनन्दन ग्रंथ का रूप नहीं देना चाहते थे। उनका अभिनन्दन ग्रंथ प्रकाशित हो इसको लेकर साध्वी श्री प्रमोद कुमारी जी ने बहुत पहले ही योजना रखी थी किन्तु डॉ० साहब के संस्थान के निदेशक रहते हुए यह हमारे लिए सम्भव नहीं हो सका। अत: उनकी सेवानिवृत्ति के पश्चात् हमने उनके अभिनन्दन की एक योजना बनाई और जैन विद्या के आयाम का यह छठा खण्ड उनके अभिनन्दन ग्रंथ के रूप में प्रकाशित करने का निर्णय लिया गया। हम उक्त अभिनन्दन ग्रंथ में उन्हीं के लेखों को संगृहीत करके उन्हीं को समर्पित कर रहे हैं। यह तो ठीक वैसा ही है
'त्वदीयं वस्तु गोविन्दं तुभ्यमेव समर्पये'। इसमें जैन आगम; दर्शन नीति, धर्म; साधना; समाज-संस्कृति, इतिहास परम्परा आदि विविध आयामों पर उनके द्वारा समय-समय पर लिखे गए लेखों का संकलन है। डॉ० साहब की विद्वत्ता से सम्पूर्ण जैन जगत् सुपरिचित है, जिनकी कलम से निकले हए लेख जैन विद्या के अध्येताओं, शोध-छात्रों और विद्वानों सभी के लिए समादरणीय बनेंगे।
इन लेखों के प्रकाशन के अवसर पर उन सभी पत्र-पत्रिकाओं, अभिनन्दन ग्रंथों के प्रकाशकों आदि के प्रति आभार व्यक्त करना चाहेंगे, जहां से इस सामग्री का संकलन किया गया है। हम उन सभी समीक्षकों के आभारी हैं, जिन्होंने डॉ० साहब की कृतियों का मूल्यांकन कर हमें प्रेषित किया है। इसी प्रकार हम उन सभी लेखकों के प्रति भी आभार प्रकट करते हैं, जिनके द्वारा हमें संस्मरण, शुभाशंसाएं एवं व्यक्तित्व-मूल्यांकन प्राप्त हुए।
इस अभिनन्दन ग्रंथ के प्रकाशन की बेला में हम परामर्श मण्डल एवं सम्पादक मण्डल के सदस्यों के प्रति अपना आभार व्यक्त करते हैं। हम डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय के प्रति अपना विशेष आभार प्रकट करते हैं, इसलिए कि उन्होंने निरन्तर श्रम करके दो माह की अल्पावधि में ही इस ग्रन्थ के प्रकाशन को सम्भव बनाया।
- इस गुरुतर कार्य के त्वरित सम्पादन में सहायक रहे सन कम्प्यूटर साफ्टेक,राजेश कम्प्यूटर्स,सरिता कम्प्यूटर्स एवं नया संसार प्रेस के प्रति सुन्दर अक्षर सज्जा के लिए तथा सत्वर मुद्रण के लिए श्री वर्धमान मुद्रणालय, रत्ना प्रिन्टिग प्रेस एवं काबरा आफसेट के प्रति अपना आभार प्रकट करते हैं।
अन्त में हम उन सभी व्यक्तियों के प्रति अपना सहदय आभार व्यक्त करते हैं जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इस ग्रन्थ के प्रकाशन में सहयोगी रहे हैं।
भवदीय भूपेन्द्रनाथ जैन
मंत्री पार्श्वनाथ विद्यापीठ
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श्रमण संघ हो अविचल मंगल
आशीर्वचन
आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी म
प्रो० सागरमल जी जैन स्थानकवासी जैन समाज की एक प्रतापपूर्ण प्रतिभा के धनी महामनीषी हैं. जीवन के ऊषाकाल में उनका रूझान व्यवसाय की ओर था किन्तु बाद में जीवन ने नया मोड़ लिया और व्यापारी से अथक प्रयास कर आज जैन विद्वानों में अग्रणी बन गये हैं, उन्होंने जेन आगम, दर्शन और जैन विद्या का तलस्पर्शी अनुशीलन परिशीलन कर जिन ग्रंथों का निर्माण किया है वे ग्रंथ कालजयी हैं ऐसे विद्वान का अभिनन्दन कर जैन समाज ने एक
स्थान दिनांक
उज्ज्वल, समुज्ज्वल आदर्श उपस्थित किया है. वह सरस्वती पुत्र सदा स्वस्थ और प्रसन्न रहकर जैन विद्या के क्षेत्र में अनवरत कार्य करते रहे यही मंगल मनीषा है उन्होंने पार्श्वनाथ शोध संस्थान में भी जो कार्य किया है, वह कार्य
इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा.
XXXXX
उदयपुर
..19/3/98..
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ACHARYA PADMA SAGAR SURI
Cio Saryay at 2942. Katra Khusiai Rai
Kisan Bazar.Delhi-110006 Py 3:2687773280777 - Fax 3254737
14-3-98
श्री नृपराजजी जैन, अध्यक्ष, पार्श्वनाथ विद्यापीठ हीरक जयन्ती समारोह, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, आई.टी.आई. मार्ग, करौंदी, वाराणसी - २२१ ००५
धर्मलाभ, पार्श्वनाथ विद्यापीठ हीरक जयन्ती समारोह आयोजित करने के लिए आपको बधाई है। इस अवसर पर डा. सागरमल जी जैन का अभिनन्दन करने की योजना भी बनाने के लिए आप विशेष प्रशंसा के पात्र हैं। डा. सागरमल जी दीर्घकाल से जैन दर्शन व साहित्य के क्षेत्र में कार्यरत हैं। अपने अथक परिश्रम व अटूट लगन से उन्होंने हमारी साहित्यिक धरोहर को शोध के माध्यम से एक नया दृष्टिकोण देने का जो भागीरथ प्रयत्न आरम्भ किया है वह जैन समाज के ही नहीं समस्त मानव समाज के हित को साधने की ओर एक सराहनीय कदम है। इस स्तर के विद्वान का अभिनन्दन समाज के ही गौरव में अभिवृद्वि करता है। ऐसे प्रेरणादायक आयोजन समय-समय पर होते ही रहने चाहिए। मेरी शुभाशंसा है कि इस मनीषी की ज्ञान साधना इत्नी विकसित हो कि आत्म-साधना के आयाम को छू सके।
भवदीय पस पद्मसागर सूरि
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JMIC
Jain Meditation International Center
401 East 86 Street. #20A . New York New York 10028. 212-362-6483. 212-534-6090
TAX EXEMPT # M-75-ED-1739 NON-PROFIT EDUCATIONAL ORGANIZATION
Founder His Holiness Pujya
Shree Chitrabhanuji
Done bay: 27:2.98
Directors
Jivan Proctor Pramoda Chitrabhanu
Barry Wolfe Devendra Peer
Dr Sagarmal Jain ITI Road Parshvanath Vidyapeth Varanasi.
Re: Felicitation Volume
Dear Dr Pande
I was very glad to know that you are bringing out a volume to honour Dr Jain. I have had the pleasure of meeting Dr Jain and I am aware of his rich contributions and scholarship in the area of Jain philosophy. I think it is a laudable action on your part and that of your colleagues to bring out this volume to honour a scholar of Dr Jain's erudition
I convey to you my good wishes for the success of your publications which will undoubtedly generate a better understanding and insight into a subject of great importance in the area of religion and philosophy
with good wishes,
Chit abfonu
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दूरभाष : 561876
महोपाध्याय विनयसागर
निदेशक प्राकृत भारती अकादमी
3826, यति श्यामलालजी का उपाश्रय, मोतीसिंह भोमियों का रास्ता, जयपुर - 302 003
दिनांक..
शुभाशंसा
महोदय,
मैं और डॉ. सागरमलजी दीर्घकाल से साहित्य सर्जन की विभिन्न योजनाओं में सहयोगी रहे हैं ।परस्पर आत्मीयता व स्नेह की गहराई के कारण उनकी प्रशंसा में कहे मेरे शब्द संभवतः आग्रहपूर्ण अतिशयोक्ति की श्रेणी में डाल दिए जाएंगे । अतः उनसे बचना ही ठीक होगा ।
__इस स्तर के विद्वान का अभिनन्दन वस्तुतः समाज को ही ऊंचा उठाता है । बार-बार हो तब भी कम है । आयोजक धन्यवाद के पात्र हैं ।
इस अवसर पर इस मूर्धन्य विद्वान, गहन अध्येता तथा विशिष्ट शैली के रचनाकार की दीर्ध व सक्रिय आयुष्य की कामना करता हूँ, जिससे वर्तमान व भविष्य दोनों लाभान्वित हों ।
सधन्यवाद
भवदीय
मि.विनयसागर
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राष्ट्रपति सचिवालय
राष्ट्रपति भवन नई दिल्ली - 110004 President' Seoretariat Rashtrapati Bhavan New Delhi-110004
मत्यमेव जयते
10 फखरी, 1998
महामहिम राष्ट्रपति, श्री के. आर. नारायणन जी को यह जानकर प्रसन्नता हुई कि काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी द्वारा शोध हेत मान्यता प्राप्त पार्थनाथ विद्यापीठ की प्रबन्ध समिति अपनी हीरक जयन्ती के शुभ अवसर पर अप्रैल, 1998, में जैन धर्म एवं दर्शन के मर्मज मनीची एवं विद्यापीठ के निदेशक डॉ. सागरमल जैन का अभिनन्दन ग्रंथ प्रकाशित कर रही है।
राष्ट्रपति जी इस ग्रंथ की सफलता के लिए अपनी शुभकामनाएँ प्रेषित करते हैं।
आपका
Guyson (पी.पी. कोशिक) विशेष कार्याधिकारी (हिन्दी)
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अटल बिहारी वाजपेयी
प्रिय डॉ0 पाण्डेय,
17 फरवरी, 1998
आपका 24 जनवरी, 1998 का पत्र मिला, धन्यवाद ।
यह जानकर प्रसन्नता हुई कि पार्श्वनाथ विद्यापीठ की हीरक जयन्ती के शुभ अवसर पर प्रबन्ध समिति ने विद्यापीठ के निदेशक डॉ० सागरमल जैन का तीन अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित करने का निर्णय प्रयासों की सफलता चाहता हूं।
खण्डों में विभाजित लिया है। मैं आपके
शुभकामनाओं सहित,
आपका
अटलीबहाली वाजपेयी 8 अटल विहारी वाजपेयी
.
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अमक्ष
आ
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केशरी नाथ त्रिपाठी
A
संख्या : 134/अ वि स/98
विधान भवन
लखनऊ दिनांक : 2 फरवरी, 1998
विधान
Tसभा.9
रपट
सन्देश
यह जानकर अत्यन्त हर्ष हुआ कि काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी द्वारा शोध हेतु मान्यता प्राप्त पार्श्वनाथ विद्यापीठ की हीरक जयन्ती के शुभ अवसर पर जैन धर्म एवं दर्शन के मर्मज्ञ गनीषी एवं विद्यापीठ के निदेशक TO सागरमल जैन वा अभिनन्दन ग्रंथ प्रकाशित किया जा रहा है।
में उपरोक्त ग्रन्थ ले सफा एवं सुरचिपूर्ण प्रकाशन के लिए अपनी शुभ कामनाएँ प्रेषित करता हूँ ।
Ankun 3 केशरी नाथ त्रिपाठी
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फूलचन्द वर्मा संसद सदस्य (लोक सभा बी० ए० विशारद्
"मातृ स्मृति" 1/2, बाणगंगा इन्दौर-452001 (म०प्र०) दूरभाष : 411717
411718
22, जनपथ, नई दिल्ली-110001 फोन : 3782166 दिनांक
श्री पाडेजी, पाश्र्वनाथ विद्यापीठ, आई.टी.आई. रोड, वाराणासी उ0908
मुझे यह जानकर अत्यंत हर्ष हुआ है कि मेरे आत्मीय एवं सम्मानीय डॉ. सागरमलजी जन का अभिनंदन ग्रंथ प्रकाशित किया जा रहा है । मैं डॉ. जैन सा. की सादगी एवं विद्वता से व्यक्तिगत रूप से प्रभावित हूँ। आपको जैन समाज शाजापुर द्वारा सम्मानित किया गया था। उस समय भी मुझे उसमें सम्मिलित होने का गौरव प्राप्त हुआ था । वे सफलता के पथ पर निरंतर अगसर हो यही शुभकामना व्यक्त करता हूँ।
धन्यवाद ।
मपदीय
M-amb
स्पंद वर्मा पूर्व सांसद
Jain Education Interational
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मंत्री
संन्यास
to-UTERARY EVA to-JAINISM:TI t-ASPECTS L-ASPECTI
डॉ० सागरमल जैन
Sain Education International
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TERNATIONAL
डॉ० के०सी० पन्त से डिप्टीमल पुरस्कार ग्रहण करते हुए
ŚRĪ HEMACANDR NAVAŚATĀBDĪS
2978-30THDE
पद्मभूषण पं० दलसुख मालवणिया के साथ विमर्श मुद्रा में
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पिट्सवर्ग ( अमेरिका ) के हिन्दू जैन मंदिर में प्रवचन करते हुये
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पिट्सवर्ग स्थित हिन्दू जैन मंदिर में आरती करते हुए
Jain Education Intemational
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000
ला
आचार्यश्री पद्मसागर जी म.सा० के साथ
Poyarepse
आचार्यश्री जयन्तसेन सूरिजी म.सा० के द्वारा साहित्य ग्रहण करते हुए
Jain Education Interational
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म
डॉ० सागरमल जैन के पूज्य पिताजी एवं माता जी अपने
प्रपौत्र के साथ
पत्नी श्रीमती कमला जैन के साथ
फुरसत के क्षण ( पोखरा नेपाल ) पौत्री सोनू एवं पत्नी श्रीमती कमला जैन के साथ
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अनुक्रमणिका
प्रथम खण्ड
अभिनन्दनीय जीवनवृत्त व्यक्तित्व एवं कृतित्व : एक मूल्यांकन
१-१००
द्वितीय खण्ड जैन आगम साहित्य
क्र०सं०
लेख
पृष्ठ संख्या
१-४१ ४२-४५
Mirs
अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श आगम साहित्य में प्रकीर्णकों का स्थान, महत्त्व, रचनाकाल एवं रचयिता नियुक्ति साहित्य : एक पुनर्चिन्तन आचारांगसूत्र : एक विश्लेषण रामपुत्त या रामगुत्त : सूत्रकृतांग के संदर्भ में अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु : एक पुनर्विचार प्रश्नव्याकरण की प्राचीन विषयवस्तु की खोज जैन, बौद्ध और औपनिषदिक ऋषियों के उपदेशों का प्राचीनतम संकलन : ऋषिभाषित मूलाचार : एक विवेचन
४६-६० ६६-६७ ६८-६९ ७०-७३ ७४-८२ ८३-९०
९.
तृतीय खण्ड,दर्शन
१०. जैनदर्शन में सत् का स्वरूप ११. जैन दर्शन में द्रव्य, गुण एवं पर्याय की अवधारणा १२. जैन दर्शन में पंच अस्तिकाय और षट् द्रव्यों की अवधारणा १३. महावीर कालीन विभिन्न आत्मवाद एवं जैन आत्मवाद का वैशिष्ट्य १४. जैन दर्शन में आत्मा-स्वरूप एवं विश्लेषण १५. षट्जीव निकाय में त्रस एवं स्थावक के वर्गीकरण की समस्या १६. जैन दर्शन में पुद्गल और परमाणु १७. जैन दर्शन में ज्ञान के प्रामाण्य और कथन की सत्यता का प्रश्न १८. जैन वाक्य दर्शन १९. स्याद्वाद और सप्तभंगी : एकचिन्तन २०. प्रमाण-लक्षण-निरूपण में प्रभाण मीमांसा का अवदान २१. 'जैन दर्शन के तर्क प्रमाण' का आधुनिक सन्दर्भो में मूल्यांकन २२. मूल्य दर्शन और पुरुषार्थ चतुष्टय २३. जैन शिक्षा दर्शन २४. जैन कर्म सिद्धान्त एक विश्लेषण २५. प्राचीन जैन आगमों में चार्वाक दर्शन का प्रस्तुततीकरण एवं समीक्षा २६. अद्वैतवाद में आचार दर्शन की सम्भावना : जैन दृष्टि से समीक्षा
९७-१०१ १०१-१०५ १०६-११२ ११२-११७ ११७-१२६ १२६-१३० १३०-१४० १४१-१४५ १४६-१५३ १५४-१६८ १६८-१७१ १७२-१८४ १८४-१९२ १९३-१९८ १९९-२१७ २१७-२२३ २२४-२२६
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२७. महापण्डित राहुल सांकृत्यायन के जैन धर्म सम्बन्धी मन्तव्यों की समालोचना
२२६-२२९
चतुर्थ खण्ड नीतिदर्शन और आचारशात्र
२८. जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान२९. जैन नीति दर्शन के मनोवैज्ञानिक आधार ३०. नैतिक प्रतिमान : एक या अनेक ३१. नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता ३२. सादाचार के शाश्वत मानदण्ड और जैन धर्म ३३. जैन दर्शन में नैतिक मूल्यांकन का विषय ३४. जैन धर्म में नैतिक और धार्मिक कर्त्तव्यता का स्वरूप ३५. जैन आचार में उत्सर्ग मार्ग और अपवाद मार्ग ३६. जैन धर्म में प्रायाश्चित्त एवं दण्ड- व्यवस्था ३७. नीति के मानवतावादी सिद्धान्त और जैन आचार दर्शन ३८. जैन आचार में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न ३९. जैननीति-दर्शन की सामाजिक सार्थकता ४०. जैनधर्म में अहिंसा की अवधारणा : एक विश्लेषण ४१. अहिंसा : एक तुलनात्मक अध्ययन ४२. भगवान् महावीर का अपरिग्रह-सिद्धान्त और उसकी उपादेयता ४३. श्रावक आचार की प्रासंगिकता का प्रश्न
२३०-२३६ २३७-२४१ २४१-२४४ २४४-२५० २५०-२५८ २५९-२६४ २६५-२६६ २६७-२७० २७०-२८० २८१-२८४ २८५-२९९ ३००-३०६ ३०७-३१३ ३१४-३१९ ३१९-३२१ ३२२-३
पंचम खण्ड
धर्म और साधना ४४. जैनधर्म के मूल तत्त्व ४५. अध्यात्म और विज्ञान ४६. धर्म का मर्म : जैन दृष्टि ४७. धार्मिक सहिष्णुता और जैनधर्म ४८. जैन साधना के मनोवैज्ञानिक आधार ५९. मन-शक्ति, स्वरूप और साधना : एक विश्लेषण ५०. जैनधर्म का लेश्या सिद्धान्त : एक मनोवैज्ञानिक विमर्श ५२. जैनधर्म में मुक्ति की अवधारणा ५३. स्त्री, अन्यतैर्थिक एवं सवस्त्र की मुक्ति का प्रश्न ५४. बन्धन से मुक्ति की ओर ५५. जैनधर्म का त्रिविध साधना मार्ग ५६. भेद विज्ञान : मुक्ति का सिंहद्वार ५७. समाधिमरण (मृत्युवरण) : एक तुलनात्मक तथा
चनाकाल एवं रचयिता ५८. जैनागमों में समाधिमरण की अवधारणा ५९. जैनधर्म में स्वाध्याय का अर्थ एवं स्थान ६०. जैनधर्म में भक्ति की अवधारणा - ६१. जैन साधना का आधार- सम्यग्दर्शन
३३४-३४० ३४१-३४४ ३४५-३५५ ४५६-३६७ ३६८-३७० ३७०-३८३ ३८४-३९१ ३९२-३९८ ३९८-४०६ ४०७-४०९ ४१०-४१५ ४१६-४१९ ४२०-४२५
४२५-४३२ ४३३-४३६ ४३६-४४५ ४४६-४६१
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४६२-४८० ४८१-४८७ ४८०-४९७ ४९८-५०० ५०१-५०४ ५०५-५०८ ५०९-५१५ ५१६-५२२
६२. जैन साधना में ध्यान ६३. तन्त्रसाधना और जैन जीवन- दृष्टि ६४. जैनधर्म में पूजा-विधान और धार्मिक अनुष्ठान ६५. जैन साधना में प्रणव का स्थान ६६. साधना और समाज सेवा : जैन धर्म के परिप्रेक्ष्य में ६७. साधना और सेवा का सह-सम्बन्ध ६८. पर्युषणपर्व : एक विवेचन ६९. दशलक्षणपर्व/दशलक्षण धर्म
षष्ठ खण्ड
समाज और संस्कृति ७०. भारतीय संस्कृति का समन्वित रूप ७१. भारतीय दर्शन में सामाजिक चेतना ७२. जैन धर्म में सामाजिक चिंतन ७३. जैन धर्म और सामाजिक समता ७४. जैनधर्म में नारी की भूमिका ७५. सतीप्रथा और जैनधर्म ७६. जैन एवं बौद्धधर्म में स्वहित एवं लोकहित का प्रश्न ७७. पर्यावरण के प्रदूषण की समस्या और जैनधर्म ७८. जैन एकता का प्रश्न
५२३-५२५ ५२६-५३२ ५३३-५४० ५४०-५४९ ५४९-५६८ ५६८-५७१ ५७२-५७५ ५७९-५७९ ५८०-५८९
५९१-६०३ ६०३-६११ ६११-६१४ ६१२-६२६ ६२७.६२९
सप्तम खण्ड
परम्परा और इतिहास ७९. श्रमण एवं वैदिक धारा का विकास एवं पारस्परिक प्रभाव ८०. जैन धर्म की परम्परा इतिहास के झरोखे से ८१. जैन इतिहास अध्ययन- विधि एवं मूल स्रोत ८२. जैन धर्म का एक विलुप्त सम्प्रदाय यापनीय ८३. उच्चैर्नागर शाखा के उत्पत्ति स्थल एवं उमास्वाति ___ के जन्मस्थान की पहचान ८४. श्वेताम्बर मूलसंघ एवं माथुरसंघ : एक विमर्श ८५. जैन परम्परा में बाहुबलि ८६. श्वेताम्बर परम्परा में रामकथा ८७. तार्किक शिरोमणि आचार्य सिद्धसेन (दिवाकर) ८८. समदर्शी आचार्य हरिभद्र ८९. आचार्य हेमचन्द्र : एक युगपुरुष ९०. जटासिंह नन्दी का वारांगचरित और उसकी परम्परा ९१. जैनधर्म में तीर्थ की अवधारणा ९२. अशोक के अभिलेखों की भाषा मागधी या शौरसेनी ९३. जैनागम धर्म में स्तूप ९४.. सम्राट अकबर और जैनधर्म ९५. खजुराहो की कला और जैनाचार्यों की समन्यवयात्मक
एवं सहिष्णु दृष्टि
६३०-६४२ ६४३-६४६ ६४७-४५४ ६५४-६६३ ६६४-६८८ ६८८-६९२ ६९३-६९८ ६९९-७०८ ७०८-७११ ७१२-७१६ ७१७-७१९ '७१९-७२१
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English Section
1-14 15-21 22-60
6.
Jaina Literature from earliest time to c 10th A.D. Origin and Development of Jainism Historical Development of Jaina Philosophy and Religion (c 3rd to 10th A.D.) Brahmanic & Sramanic Culture; a comparative study Samatva Yoga the fundamental teaching of Jainism & Gitā Jaina's concept of Peace Religious Harmony and Fellowship of Faith The solution of World problems : A Jaina Perspective The concept of non-violence in Jainism The role of parents, teachers and society in stilling cultural values Equanimity and Meditation (Sāmāyika and Dhyana) The concept of Vibhajjavāda and its impact on Philosophical & Religious tolerance in Buddhism and Jainism The teachings of Arhat Pārsva & distinctness of His sect The date of Nirvāņa of Lord Mahāvīra Prof. K.S. Murthy's Philosophy of Peace and Non-violence
61-62 63-65 66-73 74-83 84-88 89-93 94-95 96-97 98-100
10. 11.
14. 15.
101-105 106-114 115-118
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प्रथमखण्ड
अभिनन्दनीय जीवन वृत्त व्यक्तित्व एवं कृतित्व : एक मूल्यांकन
याक्तत
सम्पादक डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय
डॉ० सुधाजैन
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प्रो.सागरमल जैन
जीवन परिचय
जन्म और बाल्यकाल
प्रो.सागरमल जैन का जन्म भारत के हृदय मालव अंचल के शाजापुर नगर में विक्रम संवत् १९८८ की माघपूर्णिमा तदनुसार २२ फरवरी १९३२ ई० के दिन हुआ था । आपके पिता श्री राजमल जी शक्करवाले मध्यम आर्थिक स्थिति होने पर भी ओसवाल समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों में माने जाते थे । आपका गोत्र मण्डलिक है । आपकी माता श्रीमती गंगाबाई एक धार्मिक महिला थीं । आपके जन्म के समय आपके पिताजी सपरिवार अपने नाना-नानी के साथ ही निवास करते थे, क्योंकि आपके दादा-दादी का देहावसान आपके पिताजी के बचपन में ही हो गया था । बालक सागरमल को सर्वाधिक प्यार और दुलार मिला अपने पिता की मौसी पानबाई से। उन्होंने ही आपके बाल्यजीवन में धार्मिक संस्कारों का बीज वपन किया। वे स्वभावत: विरक्तमना थीं । विक्रम संवत् १९९४ में जब आपकी वय लगभग ६ वर्ष की थी, तभी उन्होंने पूज्य साध्वी श्री रत्नकुंवर जी म.सा.के सान्निध्य में संन्यास ग्रहण कर लिया था । वे प्रवर्तनी रत्नकुँवरजी म.सा.के साध्वी संघ में वयोवृद्ध साध्वी प्रमुखा के रूप में वर्षों तक शाजापुर नगर में ही स्थिरवास रहीं । गतवर्ष सन् १९९७ को लगभग ९६ वर्ष की अवस्था में आपका स्वर्गवास हुआ । इस प्रकार आपका पालन-पोषण धार्मिक संस्कारमय परिवेश में हुआ । मालवा की माटी से सहजता और सरलता तथा परिवार से पापभीरुता एवं धर्म-संस्कार लेकर आपके जीवन की विकास यात्रा आगे बढ़ी ।
शिक्षा
बालक सागरमल की प्रारम्भिक शिक्षा तोड़ेवाले भैया की पाठशाला में हुई । यह पाठशाला तब अपने कठोर अनुशासन के लिए प्रसिद्ध थी । यही कारण था कि आपके जीवन में अनुशासन और संयम के गुण विकसित हुए । इस पाठशाला से तीसरी कक्षा उत्तीर्ण कर लेने पर आपको तत्कालीन ग्वालियर राज्य के ऐंग्लो वर्नाक्यूलर मिडिल स्कूल की चौथी कक्षा में प्रवेश मिला। यहाँ रामजी भैया सितूतकर जैसे कठोर एवं अनुशासनप्रिय अध्यापकों के सान्निध्य में आपने कक्षा ४ से कक्षा ८ तक की शिक्षा ग्रहण की और सभी परीक्षाएँ प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की । माध्यमिक (मिडिल) परीक्षा में प्रथम श्रेणी के साथ-साथ शाजापुर जिले में प्रथम स्थान प्राप्त किया । ज्ञातव्य है कि उस समय माध्यमिक परीक्षा पास करने वालों के नाम ग्वालियर गजट में निकलते थे । जिस समय इस मिडिल स्कूल में आपने प्रवेश लिया था, उस समय द्वितीय महायुद्ध अपनी समाप्ति की ओर था और दिल्ली एवं बम्बई के मध्य आगरा-बाम्बे रोड पर स्थित शाजापुर नगर के उस स्कूल के पास का मैदान सैनिकों का पड़ाव स्थल था। साथ ही उस समय ग्वालियर राज्य में प्रजामण्डल द्वारा स्वतन्त्रता आन्दोलन की गतिविधियाँ भी तेज हो गईं थीं । बाल्यावस्था की स्वाभाविक चपलता वश कभी आप आगरा-बम्बई सड़क पर गुजरते हुए गोरे सैनिकों को (V for Victory) कह कर प्रोत्साहित करते, तो कभी प्रजामण्डल की प्रभात फेरियों के साथ 'भारतमाता की जय' का उद्घोष करते । बालक सागरमल ने इसी समय अपने मित्रों के साथ पार्श्वनाथ बाल मित्र-मण्डल की स्थापना की । सामाजिक एवं धार्मिक गतिविधियों के साथ-साथ मण्डल का एक प्रमुख कार्य था अपने सदस्यों को बीड़ीसिगरेट आदि दुर्व्यसनों से मुक्त रखना । इसके लिए सदस्यों पर कड़ी चौकसी रखी जाती थी । परिणाम यह हुआ कि यह मित्र-मण्डली व्यसन-मुक्त और धार्मिक संस्कारों से युक्त रही ।
माध्यमिक परीक्षा (कक्षा ८) उत्तीर्ण करने के पश्चात् परिवार के लोग सब से बड़ा पुत्र होने के कारण आपको व्यवसाय से जोड़ना चाहते थे । परन्तु आपके मन में अध्ययन की तीव्र उत्कण्ठा थी । उस समय शाजापुर नगर, ग्वालियर राज्य का जिला मुख्यालय था, फिर भी वहाँ कोई हाईस्कूल नहीं था । आपके अत्यधिक आग्रह पर आपके पिता ने आपकी ससुराल शुजालपुर के एक मात्र हाईस्कूल में अध्ययन के लिए प्रवेश दिलाया । ज्ञातव्य है कि बालक सागरमल की सगाई इसके
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जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६
पूर्व ही हो चुकी थी। किन्तु वहाँ प्रवेश के लगभग १५-२० दिन पश्चात् ही आप अस्वस्थ हो गये, फलत: मात्र डेढ़ माह के अल्प प्रवास के पश्चात् पारिवारिक ममता ने आपको वापस शाजापुर बुला लिया । इसप्रकार आपका अध्ययन स्थगित हो गया और आप अल्पवय में ही सर्राफे के व्यवसाय से जुड़ गये ।
विवाह एवं पारिवारिक तथा सामाजिक गतिविधियाँ
आपकी सगाई तो बाल्यकाल में ही हो गयी थी और विवाह की योजना भी बहुत पहले ही बन गई थी, किन्तु आपकी सास के कैंसर की असाध्य बीमारी से ग्रस्त हो जाने और बाद में उनकी मृत्यु हो जाने के कारण विवाह थोड़े समय के लिए टला तो सही किन्तु १७ वर्ष की वय में प्रवेश करते ही वैशाख शुक्ला त्रयोदशी वि.संवत् २००५ तदनुसार २१ मई १९४८ को आपको श्रीमती कमलाबाई के साथ दाम्पत्य-सूत्र में बाँध दिया गया । अल्पवय में आपके विवाह का एक अन्य कारण यह भी था कि आपकी मातृतुल्या पूज्य साध्वी श्री पानकुंवर जी म.सा. के दीक्षित हो जाने और बाल्यकाल से ही आपकी रुचि साधु-सन्तों से समीप अधिक रहने की होने के कारण परिवार को भय था कि कहीं बालकमन पर वैराग्य के संस्कार न जम जायें ? इस प्रकार किशोरवय में ही आपको गृहस्थ जीवन और व्यवसाय से जुड़ जाना पड़ा। जो दिन आपके खेलने और खाने के थे, उन्हीं दिनों में आपको पारिवारिक एवं व्यावसायिक दायित्व का निर्वाह करना पड़ा। यद्यपि आपके मन में अध्ययन के प्रति अदम्य उत्साह था, किन्तु शाजापुर में हाईस्कूल का अभाव तथा पारिवारिक और व्यावसायिक दायित्वों का बोझ इसमें बाधक था, फिर भी जहाँ चाह होती है वहाँ कोई न कोई राह निकल ही आती है ।
व्यवसाय के साथ-साथ अध्ययन
चार वर्ष के अन्तराल के पश्चात् सन् १९५२ में हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग से 'व्यापर विशारद' की परीक्षा उत्तीर्ण की और उसके दो वर्ष पश्चात् १९५४ में अर्थशास्त्र विषय से साहित्यरत्न की परीक्षा उत्तीर्ण की । उस समय आपने अर्थशास्त्र को सुगम ढंग से अध्ययन करने और स्मृति में रखने का एक चार्ट बनाया था, जिसकी प्रशंसा उस समय के एम.ए.अर्थशास्त्र के छात्रों ने भी की थी ।इसी बीच आपका पत्र-व्यवहार इलाहाबाद के सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री भगवानदास जी केला से हुआ। उन्होंने श्री नरहरि पारिख के मानव अर्थशास्त्र के आधार पर हिन्दी में मानव अर्थशास्त्र लिखने हेतु आपको प्रेरित किया था। तब आप हाईस्कूल भी उत्तीर्ण नहीं थे और आपकी वय मात्र बीस वर्ष की थी। इस समय आपके एक नये मित्र बने सारंगपुर के श्री मदनमोहन राठी । इसी काल में आपने धार्मिक परीक्षा बोर्ड, पाथर्डी से 'जैन सिद्धान्त विशारद' की परीक्षा उत्तीर्ण की । सन् १९५३ में शाजापुर नगर में एक प्राइवेट हाईस्कूल प्रारम्भ हुआ । यद्यपि अपने व्यावसायिक क्रिया-कलापों में व्यस्त होने के कारण आप उसके छात्र तो नहीं बन सके, किन्तु आपके मन में अध्ययन की प्रसुप्त भावना पुन: जागृत हो गई और सन् १९५५ में आपने अपने मित्र श्री माणकचन्द्र जैन के साथ स्वाध्यायी छात्र के रूप में हाईस्कूल की परीक्षा दी । वय में माणकचन्द्र आपसे तीन वर्ष छोटे थे फिर भी आप दोनों में गहरी दोस्ती थी। यद्यपि आप नियमित अध्ययन तो नहीं कर सके, फिर भी अपनी प्रतिभा के बल पर आपने उस परीक्षा में उच्च द्वितीय श्रेणी के अंक प्राप्त किये। अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होने के परिणामस्वरूप आपके मन में अध्ययन की भावना पुनः तीव्र हो गयी । इसी अवधि में व्यवसाय के क्षेत्र में भी आपने अच्छी सफलता और कीर्ति अर्जित की । पिता जी की प्रामाणिकता और आपके सौम्य व्यवहार के कारण आप ग्राहकों का मन मोह लिया करते थे। परिणामस्वरूप आपको व्यावसायिक क्षेत्र में अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। अल्प वय में ही आपको शाजापुर नगर के सर्राफा एसोसियेशन का मंत्री बना दिया गया । पारिवारिक और व्यावसायिक दायित्वों का निर्वाह करते हुए भी आपमें अध्ययन की रुचि सदैव जीवन्त रही। अत: आपने सन् १९५७ में इण्टर कामर्स की परीक्षा दे ही दी और इस परीक्षा में भी उच्च द्वितीय श्रेणी के अंक प्राप्त किये। यह आपका सद्भाग्य ही कहा जायेगा कि चाहे व्यवसाय का क्षेत्र हो या अध्ययन का असफलता और निराशा का मुख आपने कभी नहीं देखा । किन्तु आगे अध्ययन का क्रम पुनः खण्डित हो गया, क्योंकि उस समय शाजापुर नगर में कोई महाविद्यालय नहीं था और बी.ए. की परीक्षा स्वाध्यायी छात्र के रूप में नहीं दी जा सकती थी। अत: एक बार पुन: आपको व्यवसाय के क्षेत्र में ही केन्द्रित होना पड़ा, किन्तु भाग्यवानों
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डॉ० सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
के लिए कहीं न कहीं कोई द्वार उद्घाटित हो ही जाता है । उस समय म.प्र.शासन ने यह नियम प्रसारित किया कि २५००० रु.की स्थायी राशि बैंक में जमा करके कोई भी संस्था महाविद्यालय का संचालन कर सकती है। अत: आपने तत्कालीन विधायक श्री प्रताप भाई से मिलकर एक महाविद्यालय खुलवाने का प्रयत्न किया और विभिन्न स्रोतों से धन राशि की व्यवस्था करके बालकृष्ण शर्मा नवीन महाविद्यालय की स्थापना हुई और आपने उसमें प्रवेश ले लिया । व्यावसायिक दायित्व से जुड़े होने के कारण आप अधिक नियमित तो नहीं रह सके, फिर भी बी.ए. परीक्षा में बैठने का अवसर तो प्राप्त हो ही गया । इस महाविद्यालय के माध्यम से सन् १९६१ में बी.ए. की परीक्षा द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की । इस समय आप पर व्यावसायिक, पारिवारिक और सामाजिक दायित्व इतना अधिक था कि चाहकर भी अध्ययन के लिए आप अधिक समय नहीं दे पाते थे। अत: अंकों का प्रतिशत बहुत उत्साहजनक नहीं रहा तो भी शाजापुर से जो छात्र इस परीक्षा में बैठे थे उनमें आपके अंक सर्वाधिक थे । आपके तत्कालीन साथियों में श्री मोहन लाल जैन एवं आपके ममेरे भाई रखबचन्द्र प्रमुख थे ।
परिवार और समाज
गृही जीवन में सन् १९५१ में आपको प्रथम पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई, किन्तु दुर्दैव से वह अधिक समय तक जीवित नहीं रह सका। अगस्त १९५२ में आपके द्वितीय पुत्र नरेन्द्रकुमार का जन्म हुआ। सन् १९५४ में पुत्री कु० शोभा का और १९५७ में पुत्र पीयूषकुमार का जन्म हुआ । बढ़ता परिवार और पिता जी की अस्वस्थता तथा छोटे भाई-बहनों का अध्ययनइन सब कारणों से मात्र पच्चीस वर्ष की अल्पवय में ही आप एक के बाद एक जिम्मेदारियों के बोझ से दबते ही गये । उधर सामाजिक और धार्मिक क्षेत्र में भी आपकी प्रतिभा और व्यवहार के कारण आप पर सदैव एक के बाद दूसरी जिम्मेदारी डाली जाती रही । इसी अवधि में आपको माधव रजत जयंती वाचनालय, शाजापुर का सचिव; हिन्दी साहित्य समिति, शाजापुर का सचिव तथा कुमार साहित्य परिषद् और सद्-विचार निकेतन के अध्यक्ष पद के दायित्व भी स्वीकार करने पड़े। आपके कार्यकाल में कुमार साहित्य परिषद् का म.प्र.क्षेत्र का वार्षिक अधिवेशन एवं नवीन जयंती समारोहों के भव्य आयोजन भी हुए । इस माध्यम से आप बालकवि बैरागी, पद्मश्री डॉ० लक्ष्मीनारायण शर्मा आदि देश के अनेक साहित्यकारों से भी जुड़े । इसी अवधि में आप स्थानीय स्थानकवासी जैन संघ के मंत्री तथा म.प्र.स्थानकवासी जैन युवक संघ के अध्यक्ष बनाये गये । सादडी सम्मेलन के पश्चात् स्थानकवासी जैन युवक संघ के प्रान्तीय अध्यक्ष के रूप में आपने म.प्र.के विभिन्न क्षेत्रों का व्यापक दौरा भी किया तथा जैन समाज की एकता को स्थायित्व देने का प्रयत्न किया ।
एम. ए. का अध्ययन और व्यवसाय में नया मोड़
इन गतिविधियों में व्यस्त होने के बावजूद आपकी अध्ययन की अभिरुचि कुंठित नहीं हुई, किन्तु कठिनाई यह थी कि न तो शाजापुर में स्नातकोत्तर कक्षायें खुलनी सम्भव थीं और न इन दायित्वों के बीच शाजापुर से बाहर किसी महाविद्यालय में प्रवेश लेकर अध्ययन करना ही, किन्तु शाजापुर महाविद्यालय के तत्कालीन प्राचार्य श्री रामचन्द्र 'चन्द्र' की प्रेरणा से एक मध्यम मार्ग निकाला गया और यह निश्चय हुआ कि यदि कुछ दिन नियमित रहा जाये तो अग्रिम अध्ययन की कुछ सम्भावनायें बन सकती हैं। उन्हीं के निर्देश पर आपने जुलाई १९६१ में क्रिश्चियन कालेज, इन्दौरा में एम.ए. दर्शन-शास्त्र के विद्यार्थी के रूप में प्रवेश लिया । इन्दौर में अध्ययन करने में आवास, भोजन आदि की अनेक कठिनाइयाँ रहीं। सर्वप्रथम आपने चाहा कि क्रिश्चियन कालेज के सामने नसियाजी में स्थित दिगम्बर जैन छात्रावास में प्रवेश लिया जाय, किन्तु वहाँ आपका श्वेताम्बर कुल में जन्म लेना ही बाधक बन गया, फलत: क्रिश्चियन कालेज के छात्रावास में प्रवेश लेना पड़ा । वहाँ नियमानुसार छात्रावास के भोजनालय में भोजन करना आवश्यक था, किन्तु उसमें शाकाहारी और मांसाहारी दोनों प्रकार के भोजन बनते थे और चम्मच तथा बर्तनों का कोई विवेक नहीं रखा जाता था। कुछ दिन आपने मात्र दही और रोटी खाकर निकाले, किन्तु अन्त में विवश होकर छात्रावास छोड़ दिया । कुछ दिन इधर-उधर रहकर गुजारे, अन्त में राजेन्द्र नगर में मकान लेकर रहने लगे। कुछ दिन पत्नी को भी साथ ले गये, किन्तु पारिवारिक स्थिति में यह सुख अधिक सम्भव नहीं था। फिर भी आपने अध्ययन-क्रम को निरन्तर जारी रखा । सप्ताह में दो-तीन दिन इन्दौर और शेष समय शाजापुर । इसी भाग-दौड़ में आपने सन् १९६२ में
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जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६
एम.ए. दर्शनशास्त्र पूर्वार्द्ध और सन् १९६३ में एम.ए. दर्शनशास्त्र उत्तरार्द्ध की परीक्षाएँ न केवल प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान पाकर उत्तीर्ण की, अपितु तत्कालीन पश्चिमी मध्य-प्रदेश के एकमात्र विश्वविद्यालय विक्रम विश्वविद्यालय की कला संकाय में द्वितीय स्थान प्राप्त कर कलासंकाय का रजत पद भी प्राप्त किया । ज्ञातव्य है कि उस समय कला संकाय में सामाजिक विज्ञान संकाय भी समाहित था और सम्पूर्ण संकाय में द्वितीय स्थान प्राप्त कर लेना भी एक कठिन कार्य था।
एम. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् आपके जीवन में एक निर्णायक मोड़ का अवसर आया । सन् १९६२ में मोरारजी देसाई ने स्वर्ण नियन्त्रण अधिनियम लागू किया, फलस्वरूप स्वर्ण-व्यवसाय प्रतिबन्धित व्यवसाय के क्षेत्र में आ गया और इस व्यवसाय को प्रामाणिकता पूर्वक कर पाना कठिन हो गया और चोरी-छिपे धन्धा करना आपकी प्रकृति के अनुकूल नहीं था। अत: आपने अपने व्यवसाय को एक नया मोड़ देने का निश्चय किया । आपका छोटा भाई कैलाश, जो उस समय एम. काम.(अन्तिम वर्ष) में था, उसके लिए भी स्वतन्त्र व्यवसाय का प्रश्न था । अत: आपने स्वर्ण-व्यवसाय के स्थान पर कपड़े का व्यवसाय प्रारम्भ करने का निश्चय किया। कठिनाई यह थी कि इन दोनों व्यवसायों को किस प्रकार संचालित किया जाय, क्योंकि अभी भाई कैलाश को अपना अध्ययन पूर्ण कर लौटने में कुछ समय था ।
दर्शनशास्त्र के अध्यापन
एक ओर प्रबुद्ध वर्ग का आग्रह था कि दर्शन जैसे विषय में प्रथम श्रेणी एवं प्रथम स्थान से स्नातकोत्तर परीक्षा पास करके भी व्यावसायकि कार्यों से जुड़े रहना यह प्रतिभा का सम्यक् उपयोग नहीं है, तो दूसरी ओर पारिवारिक परिस्थितियाँ और दायित्व व्यवसाय के क्षेत्र का परित्याग करने में बाधक थे । वस्तुतः सरस्वती और लक्ष्मी की उपासना में से किसी एक के चयन का प्रश्न आ खड़ा हुआ था। यह आपके जीवन का निर्णायक मोड़ था । स्वर्ण नियन्त्रण कानून लागू होना आदि कुछ बाह्य परिस्थितियों ने भी जीवन के इस निर्णायक मोड़ पर आपको एक दूसरा ही निर्णय लेने को प्रेरित किया। फिर भी लगभग ५० वर्षों से सुस्थापित तथा अपने पूरे क्षेत्र में प्रतिष्ठित उस व्यावसायिक प्रतिष्ठान को एकाएक बन्द कर देना न सम्भव ही था और न ही परिवार के हित में । यह भी संयोग था कि सन् १९६४ के मध्य में म.प्र.शासन की ओर से दर्शनशास्त्र के व्याख्याताओं के कुछ पदों के लिए चयन की अधिसूचना प्रसारित हुई । जब आपको उस विज्ञापन की जानकारी हुई तो आपने भी सहज रूप से एक आवेदन पत्र प्रस्तुत कर दिया। आवेदन पत्र पहँचने के कुछ समय पश्चात् ही आपको म.प्र.शासन की ओर से दर्शनशास्त्र के व्याख्याता पद पर नियुक्ति का आदेश प्राप्त हुआ । आपने सोचा भी नहीं था कि यह सब इतने सहज रूप में हो जायेगा। अब यह निर्णय की घड़ी थी। एक ओर माता-पिता और परिजन व्यवसाय से जुड़े रहने का आग्रह करते थे तो दूसरी ओर अन्तर में छिपी ज्ञानार्जन की ललक व्यवसाय से निवृत्ति लेकर विद्या की उपासना हेतु प्रेरित कर रही थी । आपके भाई कैलाश, जो उस समय विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन में एम. काम. के अन्तिम वर्ष में थे, उससे आपने विचार-विमर्श किया और उसके द्वारा आश्वस्त किये जाने पर आपने दर्शनशास्त्र के व्याख्याता के रूप में शासकीय सेवा स्वीकार करने का निर्णय ले लिया । फिर भी पिता जी का स्वास्थ्य और व्यवसाय का विस्तृत आकार ऐसा नहीं था कि आपकी अनुपस्थिति में केवल पिताजी उसे सम्भाल सकें, ये अन्तर्द्वन्द्व के कठिन क्षण थे । लक्ष्मी और सरस्वती की उपासना के इस द्वन्द्व में अन्ततोगत्वा सरस्वती की विजय हुई और दुकान पर दो मुनिमों की व्यवस्था करके आप शासकीय सेवा के लिए चल दिये । ज्ञातव्य है कि एक व्याख्याता के रूप में आपको जो वेतन मिलना था-उसकी अपेक्षा दो मुनिमों को दिया जाने वाला वेतन कहीं अधिक था । फिर भी आपकी दृष्टि में अर्थ की प्रधानता महत्त्वपूर्ण नहीं थी।
आपकी प्रथम नियुक्ति महाकौशल महाविद्यालय, जबलपुर में हुई । संयोग से वहाँ आपके पूर्व परिचित उस समय के आचार्य रजनीश (बाद के भगवान् और ओशो) उसी विभाग में कार्यरत थे। आपने उनसे पत्र व्यवहार किया और दीपावली पर्व पर लक्ष्मी की अन्तिम अराधना करके सरस्वती की उपासना के लिए ५ नवम्बर, १९६४ को जबलपुर के लिए प्रस्थान किया । बिदाई दृश्य बड़ा ही करुण था । पूरे परिवार और समाज में यह प्रथम अवसर था जब कोई नौकरी के लिये घर से बहुत दूर जा रहा था । मित्रगण और परिजनों का स्नेह एक ओर था, तो दूसरी ओर आपका दृढ़ निश्चय । पिताजी की माँग पर बड़े पुत्र को उनके पास रखने का आश्वासन देकर अश्रुपूर्ण आँखों से बिदा ली।
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डॉ० सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
जबलपुर में जिस पद पर आपको नियुक्ति मिली थी वह पद वहाँ के एक व्याख्याता के प्रमोशन से रिक्त होना था, किन्तु वे जबलपुर छोड़ना नहीं चाहते थे । तीन दिन प्राचार्य के कार्यालय के चक्कर लगाये, किन्तु अन्त में शिक्षा सचिव से हुई मौखिक चर्चा के आधार पर प्राचार्य ने आपको एक पत्र दे दिया, जिसके आधार पर आपको ठाकुर रणमत्तसिंह कालेज, रीवाँ में दर्शनशास्त्र के व्याख्याता का पद ग्रहण करना था। रीवा आपके लिए पूर्णत: अपरिचित था, फिर भी आचार्य रजनीश आदि की सलाह पर तीन दिन जबलपुर में बिताने के पश्चात् रीवाँ के लिए रवाना हुए । यहाँ विभाग में डॉ० डी. डी. बन्दिष्टे का और महाविद्यालय के संस्कृत के व्याख्याता डॉ० कन्छेदीलाल जैन आदि अनेक जैन प्राध्यापकों का सहयोग मिला । एक मकान लेकर दोनों समय ढाबे में भोजन करते हुए आपने अध्यापन कार्य की इस नई जिन्दगी का प्रारम्भ किया। पहली बार आपको लगा कि पढ़ने-पढ़ाने का आनन्द कुछ और है किन्तु रीवाँ का यह प्रवास भी अधिक स्थायी न बन सका । शासन द्वारा वहाँ किसी अन्य व्यक्ति को भेज दिये जाने के कारण आपको आदेशित किया गया कि आप महारानी लक्ष्मीबाई स्नातकोत्तर महाविद्यालय, ग्वालियर जाकर अपना पदभार ग्रहण करें। 'प्रथम ग्रासे मक्षिका पात' की उक्ति के अनुसार शासकीय सेवा का यह अस्थायित्व और एक शहर से दूसरे शहर भटकना आपके मन को अच्छा नहीं लगा और एक बार मन में यह निश्चय किया कि शासकीय सेवा का परित्याग कर देना ही उचित है, किन्तु प्रो.बन्दिष्टे और कुछ मित्रों के समझाने पर आपने इतना माना कि आप ग्वालियर होकर ही शाजापुर जायेंगे।
ग्वालियर जाने में आपके दो-तीन आकर्षण थे, एक तो म.प्र.स्थानकवासी जैन युवक संघ की ग्वालियर शाखा के प्रमुख श्री टी.सी.बाफना आपके पूर्व परिचित थे, दूसरे प्रो.जी. आर जैन से भी आपका पूर्व परिचय था और आप जैन सापेक्षतावाद और आधुनिक विज्ञान पर शोधकार्य करने की दृष्टि से उनसे अधिक गहराई से विचार-विमर्श करना चाहते थे। अत: २७ नवम्बर १९६४ को मात्र १७ दिन के रीवा प्रवास के पश्चात् आप ग्वालियर के लिए रवाना हुए। ग्वालियर पहुँचने पर आप मान-मन्दिर होटल में रुके और प्रात: महाविद्यालय के प्राचार्य प्रो. एम.एम. कुरेशी और विभागाध्यक्ष डॉ. एस. एस. बनर्जी से मिले । दोपहर में आपने टी.सी.बाफना और प्रो.जी.आर जैन से मिलने का कार्यक्रम बनाया । जब प्रो.जी.आर जैन से मिले तो उनका पहला प्रश्न था कहाँ रुके हो? यह बताने पर उनका पहला वाक्य था-तुम सामान लेकर आ जाओ और तत्काल ही एक हाल की साफ-सफाई कर आपके रहने की व्यवस्था अपने ही घर में कर दी । संध्या को महाविद्यालय के दर्शन-विभाग के व्याख्याता डॉ. अशोक लाड और वाणिज्य विभाग के श्री गोविन्द दास माहेश्वरी आप से मिलने आये। इनसे प्रथम परिचय ही ऐसा रहा कि आप तीनों गहरे मित्र बन गये । एक ही दिन में परिवेश ही बदल गया और शाजापुर वापस लौट जाने का विकल्प समाप्त हो गया। दिसम्बर में शीतकालीन अवकाश के पश्चात् जनवरी १९६५ में आप छोटे पुत्र पीयूष, पुत्री शोभा और पत्नी को लेकर ग्वालियर आ गये । यद्यपि आप के लिए अध्यापन का कार्य बिल्कुल नया था, किन्तु पर्याप्त परिश्रम और विषय की पकड़ होने से आप शीघ्र ही छात्रों के प्रिय बन गये । संयोग से महाविद्यालय में उसी वर्ष दर्शनशास्त्र की स्नातकोत्तर कक्षायें प्रारम्भ हुई थीं । अत: आपने कठिन परिश्रम करके छात्रों को न केवल महाविद्यालय में पढ़ाया, बल्कि घर पर बुलाकर भी उनकी तैयारी कराते रहे । सभी का परीक्षाफल भी अच्छा रहा । अत: शीघ्र ही एक सुयोग्य अध्यापक के रूप में आपकी ख्याति हो गयी।
• ग्वालियर में जब मनोविज्ञान का स्वतन्त्र विषय प्रारम्भ हुआ तो आपने प्रारम्भ में उसके अध्यापन का दायित्व भी दर्शनशास्त्र के अध्यापन के साथ-साथ सम्भाला । आपने 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार-दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' जैसा व्यापक विषय लेकर पी-एच०डी की उपाधि हेतु अपना पंजीयन करवाया और शोध प्रबन्ध लिखने की तैयारी में जुट गये। इसी सन्दर्भ में जैन और बौद्ध परम्परा के मूल ग्रन्थों विशेष रूप से जैन आगमों और बौद्ध त्रिपिटक साहित्य का अध्ययन प्रारम्भ किया ।
अध्यापक के रूप में पुनः मालव भूमि में
ग्वालियर में आपका प्रवास पूरे तीन वर्ष रहा । इसी अवधि में आपका चयन म.प्र.लोक सेवा आयोग से हो चुका था और उसमें भी वरीयताक्रम में आपको प्रथम स्थान प्राप्त हुआ था । सूची में सर्वोच्च स्थान पर होने के कारण सहायक
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जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६
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प्राध्यापक के रूप में आपकी पदोन्नति करने के लिए शासन प्रतीक्षारत था। उधर परिवार के लोग भी यह चाहते थे कि ग्वालियर जैसे सुदूर नगर की अपेक्षा शाजापुर के निकटवर्ती उज्जैन, इन्दौर आदि स्थानों पर आपका स्थानान्तरण हो जाय । संयोग से तत्कालीन उपशिक्षा मंत्री श्री कन्हैयालाल मेहता आपके परिजनों के परिचित थे, अत: नवम्बर १९६७ में आपको शासकीय कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय, इन्दौर स्थानान्तरित किया गया एवं जुलाई १९६८ में सहायक प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष बनाकर आपको हमीदिया महाविद्यालय, भोपाल भेज दिया गया। वैसे तो इन्दौर और भोपाल दोनों ही आपके गृह नगर शाजापुर से नजदीक थे, किन्तु इन्दौर की अपेक्षा भोपाल में अध्ययन की दृष्टि से यहाँ अधिक समय-मिलने की सम्भवना थी। अत: आपने १ अगस्त १९६८ को हमीदिया महाविद्यालय में दर्शनशास्त्र के सहायक प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष का पद ग्रहण किया । इस महाविद्यालय में दर्शनशास्त्र विषय प्रारम्भ ही हुआ था और मात्र दो छात्र थे। अतः प्रारम्भ में अध्यापन कार्य का अधिक भार न होने से आपने शोध-प्रबन्ध को पूर्ण करने का प्रयत्न किया और अगस्त १९६९ में लगभग १५०० पृष्ठों, का बृहद्काय शोधप्रबन्ध परीक्षार्थ प्रस्तुत कर दिया । विभाग में छात्रों की अत्यल्प संख्या और महाविद्यालय में दर्शनशास्त्र विषय के उपेक्षित होने के करण आपका मन पूरी तरह नहीं लग पा रहा था, अत: आपने दर्शनशास्त्र को लोकप्रिय बनाने का बीड़ा उठाया। संयोग से आपके भोपाल पहुंचने के बाद दूसरे वर्ष ही भोपाल विश्वविद्यालय की स्थापना हो गयी और आपको दर्शनशास्त्र विषय की अध्ययन समिति का अध्यक्ष तथा कला संकाय एवं विद्वत् परिषद का सदस्य बनने का मौका मिला । आपने पाठ्यक्रम में समाजदर्शन, धर्मदर्शन, जैसे रूचिकर प्रश्नपत्रों का समायोजन किया। साथ ही छात्र और महाविद्यालय की परिस्थितियों के अनुरूप मुस्लिम-दर्शन और ईसाई-दर्शन के विशिष्ट पाठ्यक्रम निर्धारित किये । एक ओर संशोधित पाठ्यक्रम और दूसरी ओर आपकी अध्यापन शैली के प्रभाव से छात्र संख्या में वृद्धि होने लगी। स्थिति यहाँ तक पहुंच गई कि बी. ए. प्रथम वर्ष में लगभग सौ से भी अधिक छात्र होने लगे और परिणामस्वरूप अध्यापन-कक्ष छोटे पड़ने लगे। अन्ततोगत्वा महाविद्यालय के एक छोटे हाल में दर्शनशास्त्र की कक्षाएँ लगने लगीं। यह आपकी अध्यापन शैली और छात्रों के प्रति आत्मीयता का ही परिणाम था कि सम्पूर्ण मध्यप्रदेश में दर्शन शास्त्र के विद्यार्थियों की संख्या की दृष्टि से आपका महाविद्यालय सर्वोच्च स्थान पर आ गया। लगभग ३०० छात्रों को प्रतिदिन पाँच-पाँच पीरियड पढ़ाकर महाविद्यालय के कर्तव्यनिष्ठ अध्यापकों में आपने अपना स्थान बना लिया। महाविद्यालय में प्रवेश समिति, टाइम-टेबल समिति, छात्र परिषद तथा परीक्षा सम्बन्धी गतिविधियों से भी आप शीघ्र ही जुड़ गये और इस सम्बन्ध में प्राचार्य के द्वारा दिये गये दायित्वों का प्रामाणिकता के साथ निर्वाह किया । मात्र यही नहीं, समाजशास्त्र और मनोविज्ञान विषयों के प्रारम्भ होने पर आपने उनकी कक्षाओं में भी अध्यापन किया। इस प्रकार एक प्रबुद्ध और कर्तव्यनिष्ठ अध्यापक के रूप में आपकी छवि उभर कर सामने आई। आपने दर्शनशास्त्र में अन्य अध्यापकों के पदों के सृजन और दर्शनशास्त्र के स्नातकोत्तर अध्ययन प्रारम्भ किये जाने के लिए भी प्रयत्न प्रारम्भ किये और इसमें आपको सफलता भी मिली । आपको श्री प्रमोद कोयल जैसा योग्य साथी मिल गया। स्नातकोत्तर कक्षाओं के खोलने के सम्बन्ध में भी शासन सहमत हो गया, किन्तु इसी बीच आपको प्रतिनियुक्ति पर पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान में निदेशक बनकर बनारस आना पड़ा। फिर भी आपकी एवं आपके साथी प्रमोद कोयल की पहल सफल रही और शासन ने हमीदिया महाविद्यालय में स्नातकोत्तर कक्षाएँ प्रारम्भ करने का निर्देश दे ही दिया ।
भोपाल में दर्शनशास्त्र अध्ययन समिति के अध्यक्ष होने के नाते आपको प्रो. चन्दधर शर्मा, प्रो. एस. एस. बारलिंगे जैसे सुप्रसिद्ध दार्शनिकों के आतिथ्य का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इस अवधि में २५००वीं महावीर निर्वाण शताब्दी के प्रसंग पर रायपुर, उज्जैन, इन्दौर, पूना और उदयपुर के विश्वविद्यालयों द्वारा व्याख्यान एवं संगोष्ठियों में भाग लेने हेतु आप आमन्त्रित किये गये। अब आप भोपाल में ही थे तब दर्शनशास्त्र के पुनश्चर्या पाठ्यक्रम हेतु एक माह के लिए आप पूना विश्वविद्यालय गये। वहाँ प्रो. एस.एस.बारलिंगे के द्वारा दर्शनशास्त्र विभाग में एक जैन चेयर स्थापित करने के प्रयासों में आप भी सहयोगी बने । पूना के जैन समाज के अग्रगण्यों, विशेष रूप से श्री नवलमल जी फिरोदिया के सहयोग से वहाँ जैन चेयर की स्थापना भी हुई। फिरोदिया जी और प्रो. बारलिंगे की हार्दिक इच्छा थी कि आप पूना की जैन चेयर को सम्भालें, किन्तु नियति को कुछ और ही मंजूर था । पं.दलसुखभाई मालवणिया का आदेश था कि आप पार्श्वनाथ विद्याश्रम की चरमराती हुई स्थिति को सम्हालने के लिए वाराणसी जायें। आपके सामने एक कठिन समस्या थी, एक ओर स्थायित्वपूर्ण शासकीय सेवा तथा घर
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डॉ० सागरमल जैन व्यक्तित्व एवं कृतित्व
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परिवार और अपने लोगों के निकट रहने का सुख, तो दूसरी ओर घर-परिवार से दूर एक चरमराती हुई जैन विद्या संस्था को सम्भालने का प्रश्न उस समय पार्श्वनाथ विद्याश्रम की प्रतिष्ठा तो थी, किन्तु उसको आर्थिक स्थिति डाँवाडोल थी। अतः कोई भी वहाँ रहना नहीं चाहता था। फिर भी एक जैन विद्या संस्थान के उद्धार का निश्चय लेकर आपने तत्कालीन संचालन समिति के अध्यक्ष श्री शादीलालजी जैन एवं कोषाध्यक्ष गुलाबचन्दजी जैन को आश्वासन दिया कि यदि आप लोग मेरी प्रतिनियुक्ति का आदेश म. प्र. शासन से निकलवा सकें और संस्थान की अर्थ व्यवस्था के सुधार हेतु प्रयत्न करें तो मैं विद्याश्रम आ जाऊंगा । तत्कालीन बंगाल के उपमुख्य मंत्री विजयसिंह नाहर के प्रयत्नों से आपकी प्रतिनियुक्ति के आदेश निकले और आपने १९७९ में पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान में निदेशक का कार्यभार ग्रहण कर लिया।
विद्यानगरी काशी में
आपके काशी आगमन से संस्थान को एक नव जीवन मिला और आपने अपने श्रम से विद्याश्रम को एक नये कीर्तिमान पर लाकर खड़ा कर दिया ।
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पार्श्वनाथ विद्याश्रम में आपके आगमन ने जहाँ एक ओर विद्याश्रम की प्रगति को नवीन गति दी, वहीं दूसरी ओर आपको अपने अध्ययन के क्षेत्र में भी नवीन दिशायें मिली। विद्याश्रम को काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय संस्कृति और इतिहास विभाग, कला इतिहास विभाग, हिन्दी विभाग, दर्शन विभाग, संस्कृत और पालि विभाग आदि में शोध छात्रों के पंजीयन की सुविधा मिली हुई है, अतः आपको इन विविध विषयों के शोध छात्र उपलब्ध हुए शोध छात्रों के मार्ग दर्शन हेतु यह आवश्यक था कि निर्देशक स्वयं भी उन विषयों से परिचित हो, अतः आपने जैनधर्म-दर्शन के अलावा जैन कला, पुरातत्त्व और इतिहास का भी अध्ययन किया। प्रामाणिक शोधकार्य के लिए द्वितीय श्रेणी के ग्रन्थों से काम नहीं चलता है, मूल ग्रन्थों का अध्ययन आवश्यक होता है। आपने शोध छात्रों एवं जिज्ञासु विदेशी छात्रों के हेतु मूल ग्रन्थों के अध्ययन की आवश्यकता का अनुभव किया। अतः आपने परम्परागत शैली से और आधुनिक शैली से स्वयं ही मूल ग्रन्थों का अध्ययन किया और करवाया । मूल ग्रन्थों में आगमों के साथ-साथ विशेषावश्यकभाष्य, सन्मतितर्क, आप्तमीमांसा, जैन तर्कभाषा, प्रमाणमीमांसा न्यायावतार (सिद्धर्षि की टीका सहित) सप्तभंगीतरंगिणी आदि जटिल दार्शनिक ग्रन्थों का भी सहज और सरल शैली में अध्यापन किया। आपके सान्निध्य में ज्योतिषाचार्य जयप्रभविजयजी मुनि हितेशविजयजी मुनिश्री ललितप्रभसागरजी, मुनिश्री चन्द्रप्रभसागरजी, श्री अशोकमुनिजी, साध्वी श्री सुदर्शनाश्री जी साध्वी प्रियदर्शनाश्री जी, साध्वीश्री सुमतिबाई स्वामी और उनकी शिष्यायें, साध्वीश्री प्राणकुंवरबाई स्वामी एवं उनकी शिष्याएँ, साध्वीश्री प्रमोदकुंवरजी, साध्वीश्री पुष्पकुंवर जी और उनकी शिष्यायें साध्वीश्री शिलापीजी, मुमुक्षु बहन मंगलम् आदि अनेक साधु-साध्वियों एवं वैरागी भाई बहनों ने आगमों के साथ-साथ इन दार्शनिक ग्रन्थों का अध्ययन किया। विविध साधु-साध्वियों के अध्यापन के साथ-साथ आप काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में भी जाकर जैनधर्म-दर्शन सम्बन्धी प्रश्नपत्रों का अध्यापन कार्य करते रहे हैं। अनेक विदेशी छात्र भी अध्ययन एवं अपने शोध कार्यों में सहयोग हेतु आपके पास आते रहते हैं। एक पोलिश प्राध्यापक ने आपके साथ तत्त्वार्थ भाष्य का अध्ययन किया ।
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विद्याश्रम में आपको भ्रमण के संपादन एवं प्रूफ रीडिंग के साथ-साथ अपने शोध छात्रों द्वारा लिखे निबन्धों तथा विविध शीर्षस्थ विद्वानों के ग्रन्थों के संपादान, प्रकाशन और प्रूफरीडिंग का कार्य करना पड़ा इसका सबसे बड़ा लाभ आपको यह हुआ कि जैनधर्म, दर्शन साहित्य, कला, इतिहास आदि की विविध विधाओं में आपकी गहरी पैठ हो गयी ।
प्रतिष्ठा और पुरस्कार
हमीदिया महाविद्यालय, भोपाल में कार्य करते समय भी आपको राष्ट्रीय स्तर की अनेक संगोष्ठियों और कान्फ्रेसों में जाने का अवसर मिला । जहाँ आपने अपने विद्वत्तापूर्ण आलेखों एवं सौजन्यपूर्ण व्यवहार से दर्शन एवं जैन विद्या के शीर्षस्थ विद्वानों में अपना स्थान बना लिया। जब आप भोपाल में थे, तभी प्रो. बारलिंगे के विशेष आग्रह पर आपको न केवल दर्शन परिषद के कोषाध्यक्ष का भार सम्भालना पड़ा, अपितु दार्शनिक त्रैमासिक के प्रबन्ध संपादक का दायित्व भी ग्रहण करना पड़ा
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जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६
था जिसका निर्वाह वाराणसी आने के पश्चात् भी सन् १९८६ तक करते रहे । उसके बाद आप अ.भा. दर्शन परिषद के वरिष्ठ उपाध्यक्ष बने ।
हमीदिया महाविद्यालय के दर्शन विभागाध्यक्ष एवं पार्श्वनाथ विद्याश्रम के निदेशक के रूप में कार्य करते हुए आपकी प्रतिभा को सम्मान के अनेक अवसर उपलब्ध हुए। न केवल आपके अनेक आलेख पुरस्कृत हुए, अपितु आपके शोध-ग्रन्थ 'जैन, बौद्ध और गीता के आचारों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-१ एवं भाग-२' को प्रदीपकुमार रामपुरिया पुरस्कार से तथा जैन भाषादर्शन को स्वामी प्रणवानन्द दर्शन पुरस्कार से सम्मानित किया गया । जैन धर्म, दर्शन, साहित्य, संस्कृति आदि के क्षेत्र में सर्वोत्कृष्ट से के लिए सम्यग्ज्ञान प्रचारक मंडल, जयपुर द्वारा १९९४ के 'आचार्य हस्ति स्मृति सम्मान' से सम्मानित किया गया । आपके गृह नगर शाजापुर के साथ-साथ कलकत्ता जैन समाज एवं मद्रास में राजेन्द्र युवा परिषद् द्वारा भी आपको सम्मानित किया गया ।
डॉ० सागरमल जैन, पार्श्वनाथ शोधपीठ, वाराणसी के निदेशक तो हैं ही, उसके साथ-साथ वे जैन विद्या की अनेक संस्थाओं से भी जुड़े हुए हैं वे आगम, अहिंसा, समता और प्राकृत संस्थान, उदयपुर के भी मानद निदेशक हैं । जहाँ आपके मार्ग दर्शन में प्रकीर्णक साहित्य के अनुवाद का कार्य चल रहा है । अब तक पाँच प्रकीर्णक प्रकाशित हो चुके हैं । अ.भा. जैन विद्वत् परिषद के तो आप संस्थापक रहे हैं, वर्षों तक आप इसके उपाध्यक्ष भी रहे हैं । राष्ट्रीय मानव संस्कृति शोध संस्थान, वाराणसी के आप उपाध्यक्ष हैं । जैन विद्या के क्षेत्र में जब और जहाँ कहीं भी कोई योजना बनती हैं, मार्ग निर्देशन हेतु आपका स्मरण अवश्य किया जाता है । वस्तुत: आप विद्वान् तो हैं ही किन्तु एक सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं । आपके द्वारा राष्ट्रीय स्तर की अनेक कान्फ्रेसों और संगोष्ठियों का सफलतापूर्वक आयोजन हुआ है।
देश-विदेश की यात्रा
देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों और जैन संस्थाओं ने आपके व्याख्यानों का आयोजन किया । बम्बई, कलकत्ता, मद्रास, अहमदाबाद, पाटण, उदयपुर, जोधपुर, दिल्ली, उज्जैन, इन्दौर आदि अनेक नगरों में आपके व्याख्यान आयोजित किये जाते रहे हैं । साथ ही आप विभिन्न विश्वविद्यालयों में विषय-विशेषज्ञ के रूप में भी आमन्त्रित किये जाते हैं। यही नहीं आपको एसोशियेशन आफ वर्ल्ड रिलीजन्स १९८५ में तथा पार्लियामेन्ट आफ वर्ल्ड रिलीजन्स १९९३ में जैनधर्म के प्रतिनिधि वक्ता के रूप में अमेरिका में आमन्त्रित किया गया । पार्लियामेन्ट आफ वर्ल्ड रिलीजन्स के अवसर पर न केवल आपने वहाँ अपना निबन्ध प्रस्तुत किया अपितु अमेरिका के विभिन्न नगरों शिकागो, न्यूयार्क, राले, वाशिंगटन, सेनफ्राँसिस्को, लासएन्जिल्स, फिनिक्स आदि में जैनधर्म के विविध पक्षों पर व्याख्यान भी दिये । १९९६ में फेडरेशन ऑफ जैन एसोसियशन इन नॉर्थ अमेरिका द्वारा अमेरिका के विभिन्न नगरों में जैनधर्म एवं दर्शन के विविध पक्षों पर व्याख्यान के लिए आमंत्रित किया गया। २८ अगस्त से ५ अक्टूबर तक अपने अमेरिका प्रवास में आप सेन्टलुइस, सिन्सेनाटी, पिट्सवर्ग, टोरेन्टो, इलास, न्यूयार्क आदि विभिन्न स्थानों पर अपने व्याख्यान प्रस्तुत किये । इस प्रकार जैनधर्म-दर्शन और साहित्य के अधिकृत विद्वान् के रूप में आपका यश देश एवं विदेश में प्रसारित हुआ ।
सत्यनिष्ठा
विद्याश्रम में कार्यरत रहते हुए आपने अनेक ग्रन्थों, लघु पुस्तिकाओं और निबन्धों के माध्यम से भारती के भण्डार को समृद्ध किया है। अपने कार्यकाल में लगभग ५० से अधिक ग्रन्थों में लगभग तीस हजार पृष्ठों की सामग्री को संपादित एवं प्रकाशित करके नया कीर्तिमान स्थापित किया हैं । आपके चिन्तन और लेखन की विशेषता यह है कि आप सदैव साम्प्रदायिक अभिनिवेशों से मुक्त होकर लिखते हैं। आपकी 'जैन एकता' नामक पुस्तिका न केवल पुरस्कृत हुई अपितु विद्वानों में समादृत भी हुई । बौद्धिक ईमानदारी एवं सत्यान्वेषण की अनाग्रही शैली आपने पं.सुखलालजी संघवी और पं.दलसुखभाई मालवणिया के लेखन से सीखी । यद्यपि सम्प्रदाय मुक्त होकर सत्यान्वेषण के तथ्यों का प्रकाशन धर्मभीरू और आग्रहशील समाज को सीधा गले नहीं उतरता, किन्तु कौन प्रशंसा करता है और कौन आलोचना, इसकी परवाह किये वगैर आपने सदैव
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डॉ० सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
सत्य को उद्घाटित करने का प्रयत्न किया है। उसके परिणामस्वरूप तटस्थ चिन्तकों, विद्वानों और साम्प्रदायिक अभिनवेशों से मुक्त सामाजिक कार्यकर्ताओं में आपके लेखन ने पर्याप्त प्रशंसा अर्जित की।
आज यह कल्पना भी दुष्कर लगती है कि एक बालक जो १५-१६ वर्ष की वय में ही व्यावसायिक और पारिवारिक दायित्वों के बोझ से दब सा गया था, अपनी प्रतिभा के बल पर विद्या के क्षेत्र में अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेगा। आज देश में जैन विद्या के जो गिने-चुने शीर्षस्थ विद्वान हैं, उनमें अपना स्थान बना लेना यह डॉ० सागरमल जैन जैसे अध्यवसायी, श्रमनिष्ठ और प्रतिभाशाली व्यक्ति की ही क्षमता है । यद्यपि वे आज भी ऐसा नहीं मानते हैं कि यह सब उनकी प्रतिभा एवं अध्यवसायिता का परिणाम है । उनकी दृष्टि में यह सब मात्र संयोग है। वे कहते हैं 'जैन विद्या के क्षेत्र में विद्वानों का अकाल ही एकमात्र ऐसा कारण है, जिससे मुझे जैसा अल्पज्ञ भी सम्मान और प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेता है ।' किन्तु हमारी दृष्टि में यह केवल उनकी विनम्रता का परिचाचक है।
आप अपनी सफलता का सूत्र यह बताते हैं कि किसी भी कार्य को छोटा मत समझो और जिस समय जो भी कार्य उपस्थित हो पूरी प्रामाणिकता के साथ उसे पूरा करने का प्रयत्न करो।
आपके व्यक्तित्व के निर्माण में अनेक लोगों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । पूज्य बाबाजी पूर्णमल जी म.सा.और इन्द्रमल जी म. सा. ने आपके जीवन में धार्मिक-ज्ञान और संस्कारों के बीज का वपन किया था। पूज्य साध्वीश्री पानकुंवर जी म.सा. को तो आप अपनी संस्कारदायिनी माता ही मानते हैं । आपने डॉ. सी. पी. ब्रह्मों के जीवन से एक अध्यापक में दायित्वबोध एवं शिष्य के प्रति अनुग्रह की भावना कैसी होनी चाहिये, यह सीखा है । पं. सुखलालजी और पं.दलसुखभाई को आप अपना द्रोणाचार्य मानते हैं, जिनसे प्रत्यक्ष में कुछ नहीं सीखा, किन्तु परोक्ष में जो कुछ आप में है, वह सब उन्हीं का दिया हुआ मानते हैं । आपकी चिन्तन और प्रस्तुतीकरण की शैली बहुत कुछ उनसे प्रभावित है । आपने अपने पूज्य पिताजी से व्यावसायिक प्रामाणिकता और स्पष्टवादिता को सीखा यद्यपि आप कहते हैं कि स्पष्टवादिता का जितना साहस पिताजी में था, उतना आज भी मुझमें नहीं है । पत्नी आपके जीवन का यथार्थ है । आप कहते हैं कि यदि उससे यथार्थ को समझने
और जीने की दृष्टि न मिली होती तो मेरे आदर्श भी शायद यथार्थ नहीं बन पाते । सेवा और सहयोग के साथ जीवन के कट्सत्यों को भोगने में जो साहस उसने दिलाया वह उसका सबसे बड़ा योगदान है । आप कहते हैं कि शिष्यों में श्यामनन्दन झा और डॉ.अरुणप्रताप सिंह ने जो निष्ठा एवं समर्पण दिया, वही ऐसा सम्बल है, जिसके कारण शिष्यों के प्रत्युपकार की वृत्ति मुझसे जीवित रह सकी, अन्यथा वर्तमान परिवेश में वह समाप्त हो गई होती । मित्रों में भाई माणकचन्द्र के उपकार का भी आप सदैव स्मरण करते हैं। आप कहते हैं कि उसने अध्ययन के द्वार को पुनः उद्घाटित किया था। समाज सेवा के क्षेत्र में भाई मनोहरलाल और श्री सौभाग्यमलजी जैन वकील सा.आपके सहयोगी एवं मार्गदर्शक रहे हैं । आप यह मानते हैं कि 'मैं जो कुछ भी हूँ वह पूरे समाज की कृति हूँ, उसके पीछे अनगिनत हाथ रहे हैं । मैं किन-किन का स्मरण करूँ अनेक तो ऐसे भी होगें जिन की स्मृति भी आज शेष नहीं है।'
वस्तुत: व्यक्ति अपने आप में कुछ नहीं है, वह देश, काल, परिस्थिति और समाज की निर्मिति है, जो इन सबके अवदान को स्वीकार कर उनके प्रत्युपकार की भावना रखता है, वह महान् बन जाता है, चिरजीवी हो जाता है । अन्यथा अपने ही स्वार्थ एवं अहं में सिमटकर समाप्त हो जाता है ।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
श्रद्धाभिसिश्चित नमन
अ अखण्ड आनन्द की प्राप्ति हेतु बढ़ चुके हैं जिनके चरण
वि = विमलतर भावों से हो रहा जिनके पापों का हरण र = रति रूप मति का हो चुका जिनके क्षरण
न लता की भाँति सुखद और उत्तम है जिनकी शरण
=
सा= सात्विक वृत्ति शान्त प्रकृति रूप है जिनका जीवन दर्पण
ध धर्म-आराधना में कर दिया अपना जीवन अर्पण
=
क = कर चुके संघ-शासन- समाज सेवा में सब कुछ समर्पण
सा = सागर की भाँति गहन है जिनका जीवन दर्शन
ग = गगन की भाँति विशाल है जिनका आगम ज्ञान
=
=
र रवि की भाँति देदीप्यमान है जिनका अनुपम लेखन म = मणि की भाँति चमत्कृत है जिनका साहित्य सर्जन ल लहरा रहा झंडा की भाँति जिनका गुण कीर्तन जी जीवन जीने की कला देते सदा समुचित निर्देशन सा० = साधना के आयामों का हो चुका है जिनके स्पर्शन को कोमल हृदययुत जिनका व्यवहार दर्पण के समान
=
=
सा सारभूत तत्त्वों से पूरित है जिनका प्रवचन
=
द = दया दान- संयम-तप का करते हैं सदा विवेचन
र रति मात्र भी नहीं जीवन में, जिनके परिग्रह का संचयन
=
न = नम्र विनय विवेकादि विविध हैं जिनमें सगुण
- महा व्यक्तित्व के पुंज भरना हममें परमगुण
म =
न नतमस्तक हैं अन्तः तल से अभिनन्दन है विशिष्ट गुण
से ॥
साध्वी सौम्यगुणा श्री
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डॉ० सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
पार्श्वनाथ विद्यापीठस्य पूर्वनिदेशकानां ब्राह्मणश्रमणोभयशास्त्रलब्ध प्रकाण्डवैदुष्याणां सौजन्यमूर्तीनां डॉ० सागरमल्ल महाभागानां प्राकृतभाषा बद्धं छन्दोमयमभिनन्दनम्
समो अज्झयणं ।
अज्शवसायो जस्सुज्जोओ, जस्स विज्जारक्खा जस्स तवस्सा, करणिज्जं जिणवयणं ॥ १ ॥ जस्स वयणपउमे सुयदेवी, वसइ पहट्ठा णिच्चं । जेण पणीयगंथरयणेहिं, गोरवियं साहित्वं ॥२॥ जो दंसणणाणेहिं पवित्तो, चारितेण य भव्वो । लहिऊणं वि पहरपांडिच्चं, जस्स मणा विण गव्वो ॥३॥ अधम्मिए विउसाण कुच्छिए, दव्वे जस्स ण ईहा । जेण कयावि य परणिंदाए, शेव दूसिया जीहा ||४|| सोहवीवित्वारे विडला, जेणे पउत्ता सत्ती ।
जेण य दिट्ठा रत्ती ॥५॥ णिब्बूढो गुरुभारो। ण य गणियो परिवारो ||६||
सांपवाइयं
दिणं ण दिट्ठ कज्जारंभे, जेण सोहकज्जे सिस्साणं, सिस्साणं छुहा ण मुणिया णावि पिवासा, अणेकतबुद्धीए काउं, जो ण कुणे विबुहसक्कारे जस्सुवयारं भणइ 'असोओ, ओदारियं य जस्स 'पयासे' धवलीभूया, इट्टाओ उच्छसंति दीहं, ओसस्सेहिँ रुअंति पहाए, चडओ चुणई ण अण्णं जस्स हसलिलेण वंचिया, करबोरं विअ आरहंतियं, अहिणंदेमि बुहाण वरिट्ठ, फीका मए पियलंदा, पाहुडीकिज्जइ एहिं,
तस्स
* पूर्वं शोधाधिकारी, पार्श्वनाथ विद्यापाठ, वाराणसी।
सच्चासच्चविवेयं । भेयं ॥७॥
'बब्बा' |
गहभित्तीओ सव्वा ||८|| गेहा गलंति सोए । वच्छा जस्स विओए || ९ || अइरे, गासं गहइण काओ ।
परिसुस्संति लयाओ ॥ १० ॥ सत्यं जस्स महल्लं । तमज्ज सायरमत्तं ।।११।। अग्घीकर्य व अस्सं । हिययं णियसव्वस्तं ।।१२।।
आचार्यो विश्वनाथ पाठकः *
११
尽
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काव्य-पुष्पांजली
जैन विद्या के आयाम खण्ड
आलोकित हो जीवन सारा
टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी में
प्रतिभा का उन्मेश हुआ, स्वाध्यायी सघन - साधना से, दर्शन-चिंतन व्यक्त हुआ ।
स्वाभिमान के साये में, अभिमान पनप नहीं पाया, संघर्षो की अटूट श्रृंखला, फिर भी स्वार्थ न आ पाया।
भाषा और विचारों में, सामंजस्य देखते बनता है। अभिव्यक्ति का रूप सुनहला, प्रत्येक ग्रंथ में दिखता है ।
यही तुम्हारी उपलब्धि है, यही तुम्हारी सम्पत्ति । यही तुम्हारी साहित्य साधना, यही तुम्हारी समृद्धि ॥
पुष्प खिलें जीवन के हर पल में, साहित्य साधना
सतत् रहे ।
अध्यात्म
चेतना
जाग्रत हो,
रत्नत्रय
रहे ।
का
* न्यू एक्सटेंशन एरिया, सदर, नागपुर ।
६
लक्ष्य
डॉ० श्रीमती
पुष्पलता 'जैन*
समता मानवता की रेखा, खिंची हुई है हाथों पर, कर्तव्यनिष्ठ बंधुत्व भावना, उभर गई है चेहरे पर ।
संघर्ष कसौटी जीवन की है. उसमें तुम सही उतरते हो, बीसों ग्रंथों के लेखन से, साहित्य जगत् में खिलते हो ।
आश्रम से विद्यापीठ बनाया, नूतन परिसर से चमकाया । विशाल भवन की अनेक पंक्तियों से उसको फिर महकाया ||
क्षमताओं की पूँजी बांधे, सागर की गहराई पाले । माध्यस्थ वृत्ति की छाया में, मृदुता ऋजुता को पनपाये ॥
।
जीवन यात्रा अविचल होवे होवे व्याधिमुक्त काया । जलता रहे चिराग मंगलमय आलोकित हो जीवन सारा ॥
物
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डॉ॰ सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
चौकस रखवारा
हे सौम्य पुरुष !
हम वे नन्हें अंकुर हैं जिनको तुमने,
मिट्टी की जड़ता तोड़-फोड़,
जो उगे तुम्हारे तप की गरमी से तपकर, शीत ग्रीष्म वर्षा को सह अपने ऊपर,
धन-वैभव को भी ठुकरा कर, जगते ही जगते
बिता दिया जीवन सारा,
हो गये धन्य हम सब अंकुर
पा, तुम जैसा चौकस रखवारा
।
जिसकी छाया में युग-युग तक, ज्ञान-क्षुधा ज्ञान क्षुधा से तृषित यहाँ
अम्बु-पान कर ज्ञान-सुधा का, पायें निज जीवन की
डॉ० रविशंकर मिश्र
जोता-गोड़ा
बोया- सींचा।
करुणा के श्रम जल से पसीज
वे रक्त-बीज
इन अंकुर को पनपाने में तुमने जीवन के सुख-दुःख को, सुख-दुःख न गिना । घर-बार छोड़ इस आश्रम में
हे भद्र पुरुष !
तुमने चाहा कि यह आश्रम एक शीतल सघन वितान बने, एक ऐसा पावन बोधि- वृक्ष
मूल प्रेरणा का उठान । तेरे पौरुष की छाया में यह बिरवा सत्य अहिंसा का, विश्वास-स्नेह की मिट्टी में
१३
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जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६
हम कभी नहीं गिरने देगें । हे पोषक मेरे ! है शपथ हमें आपके स्नेहसिक्त सम्यक् दर्शन, ज्ञान और
चारित्र पूर्ण इस जीवन की, कि सत्य अहिंसा क्षमा आदि इन पंचव्रतों का पालन कर हम जीवन शुद्ध बनायेंगे।
तव आदर्शों की छाया में मन, वचन और काय से नित, हिंसा से कर मुक्त मही 'जियो और जीने दो'
का यह परम तत्त्व हम दुनियाँ को सिखलायेंगे ।
हे महामनस्वी ! हो आश्वस्त, कि जिन-वाणी के सत्पथ पर चल हम सब ये अंकुर
हिल-मिल कर, घन अन्धकार की छाती पर जिन-ज्ञान की ज्योति जलायेंगे । उन्मुक्त-हृदय अभिनंदन को
उद्यत हैं आश्रम के हम सब ये अंकुर हो आश्वस्त, कि सतत रहेगी जीवन्त यहाँ
शान्ति-स्नेह- समता
और जिन-वाणी के अध्ययन की निर्मल शाश्वत परम्परा ।
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डॉ० सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
Guna Sagar
Dr. Sudha Jain*
S- Saintliness (साधुता) A - Alertness (स्फूर्ति) G-Generousness (उदारता) A - Articulateness (स्पष्टता) R- Reconditeness (गूढ़ता) M-Mannerliness (सुशीलता) A - Acuteness (तीक्ष्णता) L-Limpness (मृदुता) J- Judiciousness (विवेकशीलता)
A- Artlessness (सरलता) I - Incessantness (नित्यता)
N- Nativeness (स्वाभाविकता) *Lecturer, Parshvanath Vidyapith, Varanasi
सागर-सप्तपदी
डॉ० धूपनाथ प्रसाद
सादगी-सम्यक्-सहृदय, गगन का विस्तार मन है !
रम्य-मोहन दर्प-आनन, मलय-सा मुस्कान तन है !! लख न पाये विद्वत् विदूषी,
जैन-जीवन जागरण-जन - नवल-धवल नभ आपका है !!!
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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
मंगल कामना
उपाध्याय कन्हैयालाल 'कमल'
पार्श्वनाथ विद्यापीठ की प्रबन्ध समिति द्वारा डॉ० सागरमल जी जैन का अभिनन्दन ग्रंथ प्रकाशित किया जा रहा है, यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई। डॉ० सागरमल जी जैन सद्साहित्यों के श्रेष्ठ साहित्यकार हैं। आप जैन धर्म एवं दर्शन के मर्मज्ञ मनीषी होने के साथ जैन समाज के प्रबुद्ध कलमकार हैं ।
आपने आगम एवं इतिहास आदि साहित्य के विकास हेतु निःस्वार्थ भाव से अपनी सेवाएँ प्रदान की हैं। आज के भौतिक युग में जहाँ अर्थ को प्रधानता दी जा रही है, ऐसे समय में मेरे द्वारा सम्पादित द्रव्यानुयोग, चरणानुयोग की विशाल भूमिका बिना पारिश्रमिक के तैयार करना आपके समर्पित जीवन की परिचायक है। आपको यश नाम की आकांक्षा बिल्कुल नहीं है और यह आपकी एक बड़ी विशेषता है।
आपका व्यक्तित्व-कृतित्व दोनों ही अभिनन्दनीय है। पार्श्वनाथ विद्यापीठ की प्रबन्ध समिति ने आपको अभिनन्दित करके साहित्य जगत् को गौरवान्वित किया है। श्री सागरमल जी इसी प्रकार श्रुत सेवा करते हुए जिन शासन की यशोकीर्ति में अभिवृद्धि करते रहें, मेरी यही मंगल कामना है।
ऋजु प्राज्ञ: डॉ० सागरमल जैन
चन्द्रप्रभ सागर
यह जानकर प्रसन्नता हुई कि डॉ० सागरमल जैन का पार्श्वनाथ विद्यापीठ की ओर से अभिनन्दन ग्रन्थ- प्रकाशित हो रहा है । कुछ ही व्यक्ति ऐसे होते हैं जो मानवता द्वारा सम्मानित और अभिनन्दित होते हैं। डॉ० सागरमल जैन वैदुष्य की वह प्रतिमा हैं जिन्होंने अपने जीवन में प्राप्त ज्ञान को आचरित किया है। हम उनकी समत्वशीलता व जीवनचर्या से प्रभावित रहे हैं ।
हमने डॉ० जैन के सान्निध्य में पूरे ढाई वर्ष बिताए हैं। वे हमारे ज्ञान- पक्ष एवं जीवन - विकास की आधारशिला रहे हैं। उन्होंने जहाँ एक आदर्श शिक्षक के रूप में हमें सप्रेम अध्ययन करवाया, वहीं एक श्रावक के रूप में अपनी सेवाएँ भी समर्पित की। भले ही किसी की दृष्टि में वे सांसारिक- विस्तार के बीच में बैठे हों, लेकिन हमारी दृष्टि में वे गृहस्थसंत हैं जल में कमलवत निर्लिप्त वे ऋजुप्राज्ञ है, हृदय से सरल और मस्तिष्क से ज्ञान सम्पन्न एक पूर्ण मनुष्य के लिए उसका ऋजुप्राज्ञ होना आवश्यक है । डॉ० जैन इस दृष्टि से हम सबके लिए आदर्श हैं ।
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डॉ० जैन के अभिनन्दन के अवसर पर हम उनके परम श्रेयस् की शुभकामना करते हैं। ज्ञान और सच्चरित्रता का यह संगम निर्वाण के महासागर की ओर वर्धमान हो। हमारी ओर से उन्हें प्रणाम और सादर अभिवादन समर्पित करें।
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डॉ० सागरमल जैन व्यक्तित्व एवं कृतित्व
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हृदय से आये दो शब्द
- श्रमण संघीय महामंत्री श्री सौभाग्यमुनिजी 'कुमुद'
डॉ० सागरमल जैन के विषय में मैं अधिक विस्तार से कुछ नहीं लिख सकता क्योंकि उनसे मेरा व्यक्तिगत संपर्क बहुत थोड़ा ही रहा किन्तु इतना मैं उनके विषय में अवश्य लिख सकता हूँ कि वे इस समय जैन दर्शन के श्रेष्ठतम विद्वान्
हैं ।
जिन चार विद्वानों के लेख में हमेशा ध्यान से पड़ता आया उनमें डॉ० सागरमलजी भी एक हैं। इनके अलावा तीन
विद्वान् हैं पं० बेचरदासजी, पं० सुखलालजी और पं० दलसुखभाई मालवणिया ।
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विद्वद्रत्न डॉ० सागरमल जी जैन के लेखों में स्पर्शी अध्ययन की झलक मिलती है। जिस विषय पर भी वे लिखते हैं गंभीर और सप्रमाण लिखते हैं, यही कारण है कि उनके लेख ही अपने आप में अपने विषय के अधिकृत पाठ हैं। विद्यार्थी उनका लेख पढ़कर अपने विषय की परिपूर्णता पा लेता है ।
मैं तो भ्रमण पत्रिका पड़ता ही इसीलिये हैं कि आपके लेख उसमें आते हैं। यदि कोई अंक सहज उपलब्ध नहीं होता तो मैं वाराणसी से मंगवा लेता हूँ तार्किकता के साथ विषय का सप्रमाण संपादन एवंम् विवेचन करना आप की अप्रतिम विशेषता है। विषय की सूक्ष्मतम विशेषताओं को भी अपने लेख में ऐसे चमत्कृत ढंग से प्रस्तुत करते हैं कि पाठक विषय को सहज ही सर्वांगीण रूप से समझने में सफल हो जाए। आप के लेखों का सबसे मूल्यावान भाग है- विषय की विवेचना में प्रस्तुत किया गया आप का चिंतन । जिस विषय को दुरूह या अपने लिये अनावश्यक समझकर पाठक उसे न भी पढ़ना चाहे तो भी आपके चिंतन पर उसका दृष्टिक्षेप हो जाए तो वह निश्चित ही आद्योपान्त पढ़ना चाहेगा। विषय चाहे कितना ही रुक्ष क्यों न हो डॉ० जैन का अध्ययन इतना विस्तृत है कि जैन जैनेतर दर्शन और सिद्धान्त के आधार पर वे रुक्ष विषय को भी दिलचस्प विषय में बदल देते हैं। यही कारण है कि मैं उनका कोई लेख पढ़े बिना नहीं छोड़ता। डॉ० साहब ने पार्श्वनाथ विद्यापीठ के माध्यम से जिन शासन की महान सेवाएं की हैं जो जैन इतिहास में अमर रहेंगी। इनकी कृतियां भी कालजयी हैं, वे सदा जैन जगत् के बौद्धिक वर्ग को स्पन्दित करती रहेंगी ।
डॉ० साहब से मैं सर्वप्रथम अभी तीन वर्ष पूर्व उदयपुर में मिला। पहले भी मिले होंगे आप किन्तु वह मिलन मेरी स्मृति में नहीं है । उदयपुर में एक ज्ञान गोष्ठी का आयोजन था । आप उसमें सम्मिलित हुए यहीं । मैंने आपको नजदीक से देखा। आपकी सरलता, सुसभ्यता, सहज सादगी पूर्ण गंभीरता देखकर मैं अत्यन्त प्रभावित हुआ। जैन दर्शन और सिद्धान्त के विषय में उनकी तलस्पर्शी विवेचनाएं सुनकर मेरा दिल बाग बाग हो उठा। लेखों में जो पढ़ा उसे ध्वनि रूप में साकार होते देख बहुत प्रसन्नता हुई।
यह जानकर मनमुदित हुआ कि अभिनन्दन ग्रन्थ के माध्यम से डॉ० साहब का अभिनन्दन किया जाने वाला है डॉ० सागरमल जैन जैसे प्रबुद्ध चेता के अभिनन्दन के लिये प्रबन्ध समिति ने अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित करने का निर्णय लिया है यह सर्वथा सुयोग्य निर्णय है। इस बौद्धिक उपक्रम के अन्तर्गत मेरे इस छोटे से वक्तव्य के रूप में मेरी भी भागीदारी स्वीकार करें तो मुझे हार्दिक प्रसन्नता होगी। डॉ० जैन के सुदीर्घ जीवी होने की हार्दिक शुभकामना ।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड
तात्त्विकता एवं सात्विकता के मणिकांचन सुयोग : डॉ० सागरमल जैन
साध्वी हेमप्रभा *
तात्त्विकता के साथ सात्विकता का सुयोग अलभ्य नहीं तो दुर्लभ्य अवश्य है। ऐसे व्यक्ति विरल हैं जिनमें तात्त्विकता और सात्विकता दोनों का 'मणिकांचन' सुयोग हो ।
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डॉ० सागरमल जैन ऐसे ही विरल व्यक्तित्व के धनी हैं, जिनकी तात्त्विकता सात्विकता से महिमामण्डित है । यही कारण है कि वे प्रसिद्धि के दास न बनकर सदा ज्ञानसाधना के स्वामी बने रहे। उनका आभामण्डल इस बात का ठोस प्रमाण है। एक अनिर्वचनीय आत्म शान्ति व आत्मतृप्ति की अनुभूति होती है उनके आभामण्डल में प्रवेश करने के पश्चात् । उनका निरभिमानी अप्रमत्त - जीवन हर व्यक्ति को उन उद्देश्यों की पूर्ति के लिये प्रेरित करता है, जिनके बिना यह जीवन व्यर्थ है । .
मुझे गर्व है कि वे मेरी जन्मभूमि के सपूत है। इतना ही नहीं, मेरे और उनके परिवार के बीच अच्छा स्नेहानुबंध है। मेरी बाल-सुलभ चपलताओं के वे साक्षी हैं। वास्तव में उन जैसे व्यक्तित्व को पाकर शाजापुर की धरा धन्योत्तमा है। कौन जानता था कि पारिवारिक व व्यावसायिक उत्तरदायित्व के बोझ से लदा व्यक्ति जैनधर्म एवं दर्शन का मर्मज्ञ विद्वान्, धर्म के प्रति अटूट आस्थावान, भारतीय संस्कृति का उद्गाता एवं ऐतिहासिक तथ्यों का निर्भीक प्रस्तोता बनेगा । यह उनकी जिज्ञासा, कठोरश्रम और स्वाध्यायशीलता का ही सुपरिणाम है।
पर चाहते हुए भी वर्षों तक उनके मौलिक चिंतन से कुछ पाने का सुयोग नहीं मिल पाया । गत वर्ष मेरी अन्तेवासिनी साध्वी विनीतप्रज्ञा के 'शोध-प्रबंध के निर्देशन हेतु डाक्टर साहब का बाम्बे आगमन हुआ तब उनके आगमिक स्पष्ट चिन्तन का अनूठा लाभ मुझे भी मिला तथा आचारपूत उनकी विद्वत्ता ने मन को प्रभावित भी किया। लगा कि आन्तरिक ऊँचाईयों के सम्मुख, बड़प्पन की आधुनिक मान्यतायें कितनी खोखली हैं। एक सप्ताह के निकट के परिचय से उनके बारे में जो सुना था वह तो सत्य प्रमाणित हुआ ही साथ ही उनके व्यक्तित्व के कई नये पहलू उजागर हुए।
अन्तर में सहसा एक स्वर मुखरित हो उठा कि 'डॉ० सागरमल जैन विद्वान् ही नहीं एक संत हैं ।'
* दादावाड़ी-पुणे
जो सम-विषम अनुकूल एवं प्रतिकूल सभी स्थितियों में सदा सन्तुलित रहते हैं ।
जो मान-सम्मान की चाह से कोसों दूर हैं I
सरलता सहजता, सादगी व संयम जिनके पर्याय हैं।
जो अध्ययन-अध्यापन चिन्तन-मनन व लेखन के क्रम में सदा अप्रमत्त भाव से डूबे रहते हैं ।
राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त इन मनीषी संत के अभिनंदन की मंगलबेला में अगणित शुभाशंसाओं के साथ, वे दीर्घजीवी बनें, अपने जीवन एवं सृजन में शाश्वत मूल्यों की प्रतिष्ठा करते हुए अतिशीघ्र शाश्वत सुख का वरण करें.. यही मंगलकामना है ।
चिरंजीव..........
चिरंनन्द
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डॉ० सागरमल जैन व्यक्तित्व एवं कृतित्व
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"जैन विद्या के मूर्धन्य विद्वान् प्रो० सागरमल जैन"
समणी मंगल प्रज्ञा*
प्रो० सागरमल जैन व्यापार करते-करते शिक्षा के क्षेत्र में आये, यह तथ्य मुझे श्री जैन से ही ज्ञात हुआ। मुझे सुनकर विस्मय भी हुआ कि कैसे एक व्यक्ति अनुस्रोत के मार्ग को छोड़कर प्रतिस्रोत के मार्ग में प्रस्थित हो गया। भगवान् महावीर ने कहा- 'अणुसोयसुहोलोगो पडिसोओ आसवो सुविहियाणं जन साधारण को स्त्रोत के अनुकूल चलने में सुख की अनुभूति होती है किंतु असाधारण प्रतिस्रोत में चलकर अभिनव मुकाम को प्राप्त करते हैं। यही प्रो० सागरमल जी के जीवन में घटित हुआ । व्यापार जगत् में रहते हुये भी विद्या के प्रति उनका इतना गहरा आर्कषण था कि उन्होंने विद्या को ही अपना जीवनव्रत बना लिया। आज उनका यह जीवनव्रत जैन विद्या के मूर्धन्य विद्वान् प्रो० सागरमल के रूप में मूर्तिमान् है ।
श्री जैन को मैंने जैनविद्या की अनेक संगोष्ठियों में निकटता से देखा है। सौम्यता, शालीनता एवं गंभीरता उनके व्यक्तित्व की खास पहचान है । उनके विचारों को भी मैंने सुना है। जैन विद्या के प्रति उनका जो आत्मीय अनुराग है वह निश्चित रूप से श्लाघनीय है। एक बार अहमदाबाद से लाडनूं तक की यात्रा में हम साथ-साथ थे। उस समय उनसे दर्शन के विभिन्न विषयों पर चर्चा करने का अवसर प्राप्त हुआ। उनके गम्भीर ज्ञान ने मुझे आकृष्ट किया। डॉ० जैन एक सुलझे हुए विचारक हैं। जैनविद्या के प्रति पूर्ण समर्पित उनका व्यक्तित्व जैन समाज के लिए गौरव का विषय है। डॉ० जैन के जीवन के अमूल्य क्षण जैनशासन की श्री वृद्धि में सतत लगते रहें, यही शुभाशंसा है।
• जैन विश्व भारती, लाडनूं
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जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६
संस्मरण
साध्वी प्रमोद कुंवर डॉ० सागरमल जी जैन से मेरा परिचय वर्षों पुराना है । उस समय वे व्यवसाय करते थे और मैं पूज्या साध्वी श्री रत्नकुवंर जी म. सा. की सान्निध्य में वैराग्य अवस्था में शाजापुर में अध्ययनरत थीं। मेरी जीवन चर्या का बहुत सा भाग इन्हीं के परिवार में व्यतीत होता था । उस समय आपने एम० ए० किया ही था। मेरे अध्ययन का भार गुरुवर्या साध्वी श्री रत्नकुवंर जी म० सा० ने डॉ० सागरमल जैन के सुपुर्द किया था। इस प्रकार वे मेरे शिक्षा गुरु बने । मेरी हाई स्कूल, इन्टर, बी० ए० और एम० ए० आदि सभी परीक्षाओं का अध्ययन डॉ० सागरमल जी जैन के दिशा निर्देश और सहयोग से ही पूर्ण हुआ । यही नहीं जब मेरे मन में पी-एच० डी० करने की भावना उत्पन्न हुई तो मैंने इस कार्य को भी आपके सानिध्य में रहकर आपके मार्गदर्शन में ही पूरा करने का निश्चय किया। इसके लिए मुझे मालव भूमि से सुदूर वाराणसी के हेतु पद यात्रा करनी पड़ी। मैं १९८८ ई० सन् में वाराणसी पहुंची और अपना अध्ययन प्रारम्भ किया। यद्यपि कुछ वैधानिक कठिनाइयों के कारण मुझे डा० उमेशचन्द्र दुबे के निर्देशन में अपने को पंजीकृत करवाना पड़ा किन्तु विषय चयन से लेकर शोध प्रबन्ध की पूर्णता तक मुझे डॉ० साहब से पूर्ण दिशा निर्देश व सहयोग प्राप्त हुआ।
विद्याश्रम में चल रहीं कक्षाओं के अतिरिक्त भी वे मुझे नियमित रूप से जैन दर्शन का अध्ययन करवाते रहे। मुझे और मेरी सहयोगी साध्वियों को उनके द्वारा अध्ययन करने का लाभ प्राप्त होता रहा । डॉ० साहब की अध्यापन शैली ऐसी विशिष्ट है कि वे कठिनतम विषयों को भी इतने सहज ढंग से प्रस्तुत करते हैं कि सामान्य स्तर के व्यक्ति को भी वे ग्राह्य बन जाते हैं। पूज्या गुरुवर्या रत्नकुवंर जी म० सा० की हम सभी शिष्याओं को उनसे अध्ययन करने का सौभाग्य मिला है। यह हमारे लिए सुखद अनुभूति का विषय है । इसका एक कारण यह भी है कि पू० रत्न कुवंर जी म० सा० की शिष्याओं में डॉ० सागरमल जैन की पूज्या दादी जी श्री पान कुंवर जी म० सा० और पूज्या वुआ जी श्री वल्लभ कुंवर जी म० सा० भी दीक्षित थीं। इस प्रकार पूज्या गुरुवर्या श्री रत्नकुंवर जी म० सा० का शिष्या परिवार और डॉ० सागरमल जी का परिवार एक दूसरे के निकटतम संबंधी थे । यद्यपि डॉ० साहब हम सभी साध्वियों को गुरुतुल्य ही आदर देते थे किन्तु उनकी चरित्र निष्ठा और अनुशासन कठोर ही था । मेरी दृष्टि में वे जहाँ एक ओर फूलों की अपेक्षा भी कोमल हैं वही दूसरी ओर आचार व्यवस्था व अनुशान के क्षेत्र में वज्र जैसे कठोर भी हैं । भावुकता में मैने अनेक बार उनकी आखों में आँसुओं को छलकते देखा है तो उनके निर्णयों की अडिगता को भी देखा है। वाराणसी में उनके सानिध्य में मेरा लगभग चार वर्ष का प्रवास अध्ययन और ज्ञानार्जन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण रहा।
मैं जब बनारस में थी तभी मैंने यह निर्णय लिया था कि डॉ० साहब साध्वी के सम्मान में एक अभिनन्दन ग्रंथ का प्रकाशन होना चाहिये इसके आर्थिक सहयोग हेतु मैंने कुछ लोगों की प्रेरणायें दी। यद्यपि मैने वाराणसी से प्रस्थान करते समय विद्याश्रम परिवार से इसके शीघ्र प्रकाशन के लिए दिशा-निर्देश भी दिया था किन्तु किन्हीं कारणों वश वह कार्य हाथ में नहीं लिया जा सका । वास्तविकता तो यह भी कि डॉ० साहब अपने कार्य काल में ऐसा कुछ करने देना ही नहीं चाहते थे। मझे यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता है कि इतने लम्बे अन्तराल के बाद भी पार्श्वनाथ विद्याश्रम ने और उसकी प्रबन्ध समिति ने यह सुखद निर्णय लिया । वस्तुत: यह पुनीत कार्य करके हम सब अपने को ही गौरवान्वित महसूस करते हैं । मैं डॉ० साहब के स्वस्थ जीवन और शतायु होने की कामना करती हूँ।
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डॉ० सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
स्वयं में एक संस्था : डॉ० सागरमल जैन
भूपेन्द्रनाथ जैन*
विद्वानों में विद्वान्, फिर भी सात्त्विक आचरण, सरल हृदय, वाणी में मृदुलता, घमंड से दूर, मानवता के पर्याय, श्रावक संत डॉ० सागरमल जी का सम्पर्क मेरे पूर्व जन्म के अच्छे कर्मों की ही देन है । ऐसा व्यक्ति व व्यक्तित्व आज के युग में बिरल ही मिलता है । उनको विद्यापीठ के लिए पा लेना यह मेरा सौभाग्य रहा है ।
लगभग २० वर्षों से, उनसे मेरी अधिक वयस होते हुए भी, मैं अपने हृदय के उद्गार प्रकट करता हूं कि मैंने उनका सानिध्य प्राप्त किया है । ये सोचते ही मन में न केवल एक ज्योति का आसार पाता हूँ, साथ ही गर्व का भी अनुभव करता हूँ।
मेरा सम्पर्क उनसे पार्श्वनाथ विद्यापीठ के आंगन में ही हुआ और मेरे मन्त्री एवं उनके निदेशक होने के नाते, हम एक दूसरे के सहयोगी रहे और वह सहयोग पारिवारिक मित्रता के रूप में बदल गया। उनकी लगन, विशेषकर अध्ययन और लेखन कार्य ने ही पार्श्वनाथ विद्यापीठ को शोध संस्थान के रूप में एक उच्च स्तर पर पहुंचा दिया है और उसका गौरव जो आज हम अनुभव करते हैं और संस्था व उनसे सम्बन्ध जोड़ते ही मन और मस्तिष्क ऊंचाई का अनुभव करते हैं। यह सब उन्हीं के लगन व परिश्रम की देन है।
१९७९ के पश्चात् पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध-संस्थान (जिस नाम से पार्श्वनाथ विद्यापीठ उस समय जाना जाता था।) एक बड़े उदासीन तथा अंधकारमय जीवन में से निकल रहा था। उनके आगमन के बाद संस्था को पीछे मुड़कर देखने की आवश्यकता नहीं हुई और डॉ० सागरमल जी का दिन-रात का संघर्ष, परिश्रम और लगन ने कुछ ही वर्षों में संस्थान की काया पलट कर दी। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की दो-दो टीमों का आगमन, और निरीक्षण होने के बाद, एक ही वाक्य सुनने को मिला कि पार्श्वनाथ विद्यापीठ एक उच्च कोटि की संस्था है और सर्वथा मान्य विश्वविद्यालय का स्टेटस् प्राप्त करने के योग्य है । ये सब उनकी ही लगन और परिश्रम का परिणाम है । हम उस स्टेटस् को प्राप्त न कर सके, उसका कारण केवल धन का अभाव था, वरना अन्य दृष्टियों से कोई कमी उनको नहीं मिली और प्रशंसा ही उन्होंने की, क्योंकि डॉ० सागरमल जी के लिए संस्था का कारण व उद्देश्य सर्वोपरि रहा है।
विद्वान् उच्च कोटि के और भी मिल सकते हैं, पर ऐसी लगन व परिश्रम वाले व्यक्ति का मिलना बहुत कठिन है, जितनी भी व्याख्या व प्रशंसा उनके व्यक्तित्व, साधना, परिश्रम व लगन की करूं, कम है । ऐसे व्यक्ति अगर अमर हो सकें तो संस्था व मनुष्य जाति का बहुत भला हो सकता है, पर यह तो संभव नहीं । अत: वह दीर्घायु हों और संस्था के साथ उनका जो लगाव व परिश्रम है, वह पूरा हो सके, ऐसी ही शुभ-कामनायें अपने हृदय में उनके लिए संजोए हूं। प्रभु उन्हें चिरायु करें । शायद यह कहना गलत न होगा कि संस्था डा० सागरमल जी हैं और डॉ० सागरमल जी ही संस्था हैं' । रूप में भिन्नता हो सकती है - हृदय, श्वास व उद्देश्य में नहीं । शुभम् ।
*मंत्री, प्रबन्ध समिति, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६
सरल व्यक्तित्व के धनी: डॉ० सागर मल जैन
रोमेश सी० बरार*
डा० सागरमल जैन जी श्रमण विद्याध्ययन के जाने माने विश्व विख्यात व्यक्ति हैं । इनको मझे जानने का सौभाग्य कई बार हुआ है। वाराणसी तो एक-दो बार मिला हूंगा, परन्तु फरीदाबाद में जब भी डॉ०साहब विद्यापीठ के बारे में पिता जी के साथ या भाई भूपेन्द्र जी से मिलने, जो कि वह अक्सर आते-जाते रहते थे तो वहाँ कभी न कभी किसी न किसी विषय पर इनके विचार सुने और ज्ञान प्राप्त किया । मैं सदा ही डाक्टर साहब का आभारी रहूँगा । इन्होंने जो सेवा श्रमण संस्कृति की की है, उसके लिए सम्पूर्ण जैन समाज इनका आभारी है। श्री जिनदेव से प्रार्थना है कि वह इन्हें चिरायु करें ।
*मैनेजिंग डाइरेक्टर, न्यूकेम लिमिटेड, फरीदाबाद -६ ।
शुभकामना संदेश
प्रोफेसर प्रेमसुमन जैन* यह जानकर प्रसन्नता है कि जैन दर्शन के मनीषी प्रो. सागरमल जैन जी का अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है । प्रो० जैन की जैनविद्या के क्षेत्र में अपूर्व सेवाएँ रही हैं । आपने पार्श्वनाथ विद्यापीठ की प्रगति में अथक श्रम किया है । वहाँ के प्रकाशनों में आपके पाण्डित्य और निर्देशन का स्पष्ट प्रभाव झलकता है । शोध छात्रों के जो वे सदैव हितैषी
और मार्गदर्शक रहे हैं, उनकी सौजन्य छवि और सादगी युक्त जीवन प्रत्येक विद्वान् के लिए आदर्श स्वरूप है। आशा है, प्रो० जैन इसी प्रकार जैनविद्या की सेवा करते रहेंगे । उनके स्वस्थ जीवन और साधनापूर्ण शोधकार्य के लिए हम सब की हार्दिक शुभकामनाएँ हैं।
*आचार्य एवं अधिष्ठाता, सामाजिक विज्ञान एवं मानविकी महाविद्यालय, सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर ।
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डॉ० सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
गवेषणापटु मनीषी : डॉ० सागरमल जैन
डॉ० सागरमल जैन जैनविद्या के सुप्रतिष्ठ हस्ताक्षर हैं। उन्होंने जैनविद्या की उदारवादी समीक्षा और पूर्वाग्रह रहित चिन्तन से उसे जो व्यापकता प्रदान की है, वह ततोऽधिक श्लाघनीय है। डॉ० सागरमलजी गवेषणापटु मनीषी हैं। उन्होंने अपनी शोध-सूक्ष्मेक्षिका द्वारा जैन विद्या को नई अस्मिता दी है और उसके अनेक नये आयामों का उद्भावन किया है। उनके द्वारा लिखित ग्रन्थों से जैन वाङ्मय समृद्ध तो हुआ ही है, उसे प्रामाणिकता और विश्वसनीयता भी प्राप्त हुई है। 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार- दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' नामक उनका अन्य तो तुलनात्मक साहित्य के क्षेत्र में एक पार्यन्तिक कृति है ।
- डॉ० श्रीरजन सूरिदेव *
डॉ० सागरमल जी 'विद्या ददाति विनयं के साक्षात् विग्रह हैं। जब भी उनके दर्शन और सत्संग का अवसर मिला, उनके शुभैषी व्यक्तित्व और आत्मीयतापूर्ण व्यवहार से सुखद कृतार्थता की अनुभूति हुई। जैन जगत् में ही नहीं समग्र सारस्वत जगत् में उनके जैसा साधुचरित एवं निरहंकारचेता व्यक्ति प्रायोविरल है। पार्श्वनाथ विद्यापीठ उनकी निदेशकीय गरिमा और सारस्वत साधना के प्राप्ति सतत् प्रशंसा मुखर रहेगा। विद्यापीठ की उत्कर्ष यात्रा के क्रोशशिला के रूप में वह चिरस्मरणीय रहेंगे । पार्श्वनाथ विद्यापीठ की हीरक जयन्ती के अवसर पर उनके अभिनन्दन के लिए ग्रन्थ का प्रकाशन अवश्य ही उसकी प्रबन्ध समिति की समयज्ञता का अनुकरणीय निदर्शन है। आशा है, यथा प्रस्तावित अभिनन्दन ग्रन्थ तद्विषयक ग्रन्थों की परम्परा में शिखरस्थ सिद्ध होगा, साथ ही जैनविद्या की ऐतिहासिक शोध प्रस्तुति के रूप में सर्व समादृत होगा ।
* पूर्व व्याख्याता, प्राकृत शोध संस्थान, वैशाली (बिहार)
डॉ० सागरमल जैन: त्यागमय संयमी जीवन के धनी
डॉ० कमल जैन*
घटनायें जब घटती हैं तब उनका प्रभाव किस स्तर पर कितनी गहराई से पड़ रहा है इसका सम्यक् बोध भी नहीं . हो पाता, पर जब मुधर स्मृतियों का आलोड़न विलोड़न करने बैठते हैं तो कुछ ऐसे व्यक्तियों के चित्र उभरते हैं, जिनकी प्रेरणा और वात्सल्य से जीवन में एक सुखद परिवर्तन हुआ है। ऐसा ही एक विशिष्ट व्यक्तित्व है, डॉ० सागरमल जैन जी का, जिनके प्रति कृतज्ञता का बोध मेरे हृदय में गहरे तक समाया हुआ है लेकिन कृतज्ञता ज्ञापन के लिये पर्याप्त शब्द नहीं संजो पा रही हूँ । बात १९७९ की है, अपने पति का वाराणसी स्थानान्तरण होने पर मुझे पार्श्वनाथ विद्याश्रम जाने का अवसर मिला । डॉ० सागरमल जी वहां पर निदेशक पद पर आये ही थे। उन्होंने मेरी जैन विद्या के प्रति रुचि देखते हुये मुझे पीएच० डी० करने के लिये उत्साहित किया, मुझे यह असंभव लगा, पढ़ाई छोड़े १५ वर्ष हो चुके थे, प्राकृत भाषा आती नहीं थी, ऊपर से घर-गृहस्थी की जिम्मेवारी परन्तु आपने अपने निजी जीवन की परिस्थितियों का उदाहरण देते हुये मुझे इतना तो तैयार कर दिया कि मैने पी-एच०डी० के लिये रजिस्ट्रेशन करा लिया। प्राकृत भाषा पर अधिकार न होने के कारण मै
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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
अनुदित ग्रंथों से ही काम चलाना चाहती थी पर आपको पैनी दृष्टि से मेरी चोरी छुपी न रहती, फिर धीरे-धीरे आपकी प्रेरणा से मैंने इतनी प्राकृत सीख ली कि अपने शोध के लिये मूलग्रंथ पढ़ सकूं। आपके निर्देशन में न केवल मैने अपना शोधप्रबन्ध पूर्ण किया बल्कि दो और शोधपूर्ण ग्रंथ लिख डाले ।
डॉ० साहब और उनकी पत्नी श्रीमती कमला जी सच्चे सुश्रावक हैं, जो भी उनके संपर्क में आता है उनके परिवार का अंग हो जाता है। साधु-साध्वी हो, विद्यार्थी हो या सहयोगी, सबका स्वागत सत्कार आप खुले हृदय से करते हैं। मुझे उनका आन्तरिक स्नेह मिला यह मेरा सौभाग्य है। उनकी पत्नी जिन्हें मैं भाभी जी कहती हूँ ने तो मुझे अपने प्रीतिभाजन स्वजन के रूप में स्वीकार कर लिया है। उनके यहाँ जब भी कोई विशिष्ट व्यंजन बनता मेरा बुलावा हो जाता और प्रतिदिन उनके हाथ से गरमा गरम चाय का लोभ मैं संवरण न कर पाती, चार बजते-बजते मेरे कदम उनके घर की ओर उठने लगते ।
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पार्श्वनाथ विद्याश्रम के निदेशक की हैसियत से शोध कार्यों के साथ-साथ शिक्षार्थियों की शिक्षण व्यवस्था और कार्यालय के प्रबन्धन का भार भी वहन करते थे। निदेशक होते हुये भी अध्यापन का जितना भार अन्य सहयोगियों को देते थे उनसे कहीं अधिक भार स्वयं वहन करते थे कार्य के प्रति जितने स्वयं समर्पित हैं ऐसी ही औरों से भी आशा करते हैं। प्रबन्ध की अव्यवस्था सहन नहीं कर पाते थे अनुसाशन चाहते हुये भी किसी पर कठोर अनुशासनात्मक कारवायी नहीं कर पाते, अन्दर ही अन्दर स्वयं दुःखी होते रहते । शुष्क प्रशासन डॉ० साहब के स्वभाव के प्रतिकूल है । उसमें उनकी सहज प्रफुल्लता भी मेघाछिन्न हो जाती है। वह स्वयं भी कहते हैं कि पढ़ने-पढ़ाने के मुकाबले में यह प्रशासनिक कार्य मुझे थका देते हैं ।
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परिस्थितियों को बदलना और पुरुषार्थ के लिये निरन्तर प्रयत्नशील रहना डॉ० साहब के व्यक्तित्व के महत्त्वपूर्ण पहलू हैं। व्यवसायी परिवार में जन्म लने वाले सरस्वती के उपासक डॉ० साहब ने आरम्भिक अवस्था में प्रतिकूल परिस्थितियों मे भी अपनी निरन्तर बढ़ती हुई ज्ञान-पिपासा को तृप्त किया और विद्या के प्रति आदर एवं निष्ठा के साथ जैन वाङ्मय का गहन अध्ययन किया। आज वे जैन विद्या के शीर्षस्थ विद्वानों में से हैं ।
अध्ययन, मनन और लेखन की दृष्टि से पार्श्वनाथ विद्यापीठ का कार्यकाल आपके लिये एवं संस्था के लिये बहुत ही लाभप्रद सिद्ध हुआ । आपके चिन्तन में ओजस्विता और तेजस्विता का अद्भुत समन्वय है। जैन परंपरा के आगम एवं दर्शन ग्रंथों के साथ-साथ भारतीय दर्शन की विभिन्न शाखाओं का भी गहरा अध्ययन है आपका दृष्टिकोण तुलनात्मक है । आप किसी एक धर्म या सम्प्रदाय की सीमा से आबद्ध अध्ययन को संकीर्णता मानते हैं। प्रज्ञा चिन्तन एवं अनुभव की गहनता, संवेदना की सूक्ष्मता, भावों की तरलता एवं कोमलता, भावों की तरलता एवं कोमलता, सृजनात्मक चेतना, मौलिक दृष्टि, पुरातन और नूतन का समन्वय, वस्तु तत्त्व का निष्पक्ष प्रतिपादन आदि आपके व्यक्तित्व की प्रमुख विशेषतायें है।
आपने अपनी मेधा और प्रशा से सभी धर्मों का सुन्दर समन्वित रूप प्रस्तुत करने में अनेकों शोधार्थियों का मार्ग दर्शन किया है। जैन दर्शन के गंभीर ग्रंथों का सरल, सुबोध एवं जन-मानस ग्राह्य विवेचन करने की आपकी अद्भुत क्षमता है। दर्शन जैसे नीरस विषयों को भी जिस प्रकार रोचक बनाकर पढ़ाते हैं उससे इनके व्यक्तित्व में विद्या सम्पन्न अध्यापक का दिव्य दर्शन होता है। मुझे साध्वीवृंद, शोधार्थियों और विद्यार्थियों के साथ आपसे आचारांग सूत्र, तत्त्वार्थसूत्र और अन्य दर्शन ग्रंथ पढ़ने का सुअवसर प्राप्त हुआ है। जब इन गम्भीर ग्रंथों पर व्याख्यान देते हैं तो आपकी प्रज्ञा और विवेचन क्षमता मुखरित हो उठती है, आप अनुभवसिद्ध युक्तियों द्वारा ऐसा समाधान करते और इस तरह समझाते कि कठिन से कठिन विषय भी उस समय हृदयंगम हो जाता है। जैन धर्म की विभिन्न शाखा प्रशाखाओं का ऐतिहासिक दृष्टि से विश्लेषण करते हुये आगमीय सत्यों के आधार पर ऐसे नये संकेत सूत्र देते हैं, जो आधुनिक समस्याओं के समाधान में भी खरे उतरते हैं।
डॉ० साहब द्वारा रचित साहित्य बड़ा समृद्ध और विपुल है, आपके शोध ग्रंथों तथा निबन्ध साहित्य, संस्कृति, धर्मदर्शन, इतिहास आदि के क्षेत्र में मौलिक चिन्तन से ओत-प्रोत हैं। आपको चिंतन शैली दूरदर्शिता पूर्ण सांप्रदायिक अभिनिवेशों
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डॉ० सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
से मुक्त है । आपके सरस ज्ञानवर्धक लेख जैन धार्मिक पत्र-पत्रिकाओं में निरन्तर निकलते रहते हैं । अपनी साहित्य साधना में इन्होंने जो कुछ पाया है उसे मुक्त हृदय से बांटा है । संप्रदायों की संकीर्णता से आप ऊपर हैं ! विद्वान् बौद्ध हो या वैदिक पंरपरा का, पार्श्वनाथ विद्याश्रम में सर्वथा खुले दिल से स्वागत करते हैं । वाराणसी नगरी में श्वेताम्बर और दिगम्बर संप्रदायों के ३०० वर्षों से चले आ रहे वैमनस्य को आपने इस सौहार्द पूर्ण ढंग से सुलझाया कि आज भी दोनों ही संप्रदाय आपका सम्मान करते हैं । सामाजिक कुरीतियों को दूर करने में आप सदैव प्रयत्नशील रहते हैं । जैसा कि पूज्य भाभी जी से पता चलता है पर्दाप्रथा का निवारण करने वालों में शाजापुर के जैन समाज में आपका परिवार अग्रगण्य था । युवावर्ग में धार्मिक निष्ठा पैदा करने में आपके लेख और व्याख्यान बड़े प्रभावी रहे हैं । अदम्य-उत्साही, कर्मनिष्ठ, प्रखर बुद्धि और त्यागमय संयमी जीवन के धनी आप स्वयं तो ज्योर्तिमय हुये ही, आपकी प्रेरणा और वात्सल्य से मेरे जैसे सैकड़ों लाभान्वित हुये हैं। इनके व्यक्तित्व का सौरभ केवल भारत में ही नहीं विदेशों में भी अनेकानेक परिवारों को सुरभित करता रहा है । इस मालव की शष्य श्यामला भूमि में पुष्पवत् खिलकर निरपेक्ष भाव से अपनी सुगन्ध चारों ओर बिखरने वाले आपके व्यक्तित्व की प्रतिध्वनियाँ समाज के कण-कण को आलोकित कर रही हैं । *पूर्व प्रवक्ता, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी ।
भव्यमूर्ति एवं श्रुत ज्ञाता : डॉ० सागरमल जैन
डॉ० सुदर्शन लाल जैन*
प्रो० सागरमल जैन के बहुमुखी व्यक्तित्व से कौन परिचित नहीं है। आपसे मेरा सर्व प्रथम परिचय १९६५ ई० में हुआ जब मैं और आप शोधोपाधि हेतु शोध कार्य कर रहे थे । आप में ज्ञान की अगाधता तो है परन्तु अहंकार का अत्यन्ताभाव है । श्वेताम्बर स्थानकवासी जाति में उत्पन्न हैं परन्तु जाति गत संकीर्ण विचारों से अछूते हैं । पारिवारिक प्रेम से अभिभूत हैं परन्तु अपनों के द्वारा उत्पन्न किये गये अनेक झंझावातों को झेलते रहते हैं और फिर भी उनका उपकार करते रहते हैं । बाह्य शरीरगत स्वास्थ्य के साथ न देने पर भी आत्मबल के कारण सतत् क्रियाशील रहते हैं । गृहस्थ जीवन जीते हुये भी जल से भिन्न कमल की तरह तप साधना में लीन रहते हैं । स्वतन्त्र विचारक हैं परन्तु आगम का आधार स्वीकार करते हैं । वाणी में माधुर्य है । ज्ञान दान की तीव्र इच्छा है, सादगी और सदाचार से प्रेम है । संचरिणी ज्ञान शिखा की तरह चलत-फिरते जैन सिद्धान्त के अनुपम कोश हैं । कुशल प्रवक्ता हैं, और लेखन सम्पादन की कला में प्रवीण हैं । देश-विदेश में अच्छी ख्याति अर्जित की है । छाया की तरह साथ देने वाली सेवा भावी धर्मपत्नी आपकी प्रेरणास्रोत हैं ।
ऐसे भव्य मूर्ति श्रुतज्ञाता प्रोफेसर साहब के दीर्घायुष्य की मंगल कामना करते हैं । तथा आशा करते हैं कि आप जिनवाणी की सेवा में निरन्तर तत्पर रहकर स्व० पर का कल्याण करते रहेंगे ।
*पूर्व अध्यक्ष-संस्कृत विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी ।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६
अगाध विद्वत्ता के धनी : डॉ० सागरमल जैन
डॉ० भागचन्द जैन 'भास्कर" डॉ० सागरमल जी से मेरा परिचय लगभग पन्द्रह वर्ष पहले वाराणसी में हुआ जब वे पार्श्वनाथ विद्याश्रम के निदेशक के रूप में विद्वज्जगत् में उतरे । मैं स्वयं पार्श्वनाथ विद्याश्रम का विद्यार्थी रहा हूँ इसलिए डॉ० मेहता के बाद उनकी कुर्सी पर कौन बैठ रहा है, यह सहज उत्सुकता बनी रहती थी । देखा-सामने अहाते से एक आकर्षक व्यक्तित्व पुस्तकालय में प्रवेश कर रहा है । टिनोपाल से धुला सफेद खादी का कुर्ता-पायजामा, पैरों में साधारण-सी चप्पल, सपाट मूछों से खिलतादमकता गौरवर्ण, भरा हुआ चेहरा और बिन टोपी के खुला हुआ सिर । परिचय कराया गया कि ये सागरमल जी हैं ।
व्यावहारिक आवभगत के बीच चाय की चुस्कियों के साथ वहीं अनेक विषयों पर विचार-विमर्श हुआ। हम लोग नाम से एक-दूसरे के साहित्यिक कार्यों से पहले ही परिचित हो चुके थे । इसलिए इस प्रात्यक्षिक परिचय में कोई विशेष नयापन नहीं लगा। ऐसा लगा जैसे इस परिचय ने पुरानी मित्रता की माला में एक और सुगन्धित पुष्प गूंथ दिया हो ।
__ इतने बड़े शोध संस्थान के निदेशक में जो अपेक्षित गुण होना चाहिए वे सारे गुण उनमें उस समय मैंने पाये । संस्थान की अभ्युन्नति की परिधि में जो भी बिन्दु आ सकते थे, उनपर खुली चर्चा हुई और हमने पाया कि सागरमल जी एक विशिष्ट उद्देश्य के साथ संस्थान में आये हैं । उनकी सरलता, आत्मीयता, स्नेहिलता और शैक्षणिक जागरुकता ने संस्थान को अन्तर्राष्ट्रीय नक्से पर लाकर खड़ा कर दिया। आज उसकी विराटता और विशालता पर सागरमल जी के पदचिह्न बड़ी सघनता पूर्वक उभरे हुए हैं । उसके कैनवस पर उनका व्यक्तित्व अंकित है।
डॉ० सागरमल जी ने वाराणसी के जितने सुनहले बसन्त देखे हैं उनमें विपदाओं की काली रेखायें भी प्रतिबिम्बित होती रही हैं। इन रेखाओं ने उन्हें नयी ऊर्जा और नया उत्साह दिया । सुख के साथ दुःख की बदलियां होनी भी चाहिए, तभी व्यक्तित्व में निखार आता है । ऐसे समय अन्यमनस्कता आना और खेद खिन्न होना स्वाभाविक है पर उसमें से अपना रास्ता निकाल लेना एक विशेष कला होती है। यह कला सागरमल जी में है । उन्होंने विपत्तियों में भी अपना साहस नहीं खोया । एक जुझारू शासक के रूप में उनकी प्रतिष्ठा देखकर प्रसन्नता होती है ।
संस्थान के निदेशन काल में ही सागरमल जी की विद्वत्ता में अगाधता बढ़ी । उन्होंने संस्कृत-प्राकृत का गहरा अभ्यास कर आगमों के मूल रूप तक पहंचने की शक्ति अर्जित की और यापनीय आदि जैसे ढेर सारे विवादास्पद विषयों पर सयुक्तिक कलम चलाई । उनके दर्जनों ग्रन्थों में सतार्किक चिन्तन और तलस्पर्शिता झलक रही है । यद्यपि उनकी प्रस्तुति पर लोगों ने साम्प्रदायिकता की सील जड़ दी है पर उसे निर्मूल करने में डॉ० सागरमल ने जो व्यावहारिक कदम उठाये हैं वे अपने आप में निश्चित ही अभिनन्दनीय हैं ।
आज जब संस्थान अपनी पूरी ऊंचाइयों को छू रहा है, सागरमल जी निवृत्ति की ओर बढ़ रहे हैं। मान्य विश्वविद्यालय के रूप में संस्थान को देखने की उनकी आकांक्षा, किसी भी कारणवश हो, पूरी नहीं हो सकी । उन्होंने उसके लिए जो भी गहरे प्रयत्न किये वे कारगर इस मायने में हुए कि संस्थान आर्थिक दृष्टि से पूरी तरह अपने पैरों पर खड़ा हो गया । शैक्षणिक दृष्टि से उसने समाज के विकास में जो योगदान दिया है और साहित्य जगत में जो अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बनाया है उसकी पृष्ठभूमि में डॉ० सागरमल जी का अहर्निश परिश्रम और बेदाग संयोजनशीलता ही रही है । उनके इस समूचे व्यक्तित्व को निखारने में भाभी जी का भी अमूल्य योगदान रहा है । उनके हंस-मुख चेहरे पर अतिथि सत्कारवृत्ति सभी को प्रसन्न कर देती
अभिनन्दन समारोह के इस सुनहले अवसर पर मैं अपनी ओर से और अपनी पत्नी प्रो० डा० पुष्पलता जैन की ओर से इस अनूठे दम्पत्ति के निरामयी शतायु होने की कामना करता हूँ ।
*न्यू एक्सटेंशन एरिया, सदर, नागपुर ।
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डॉ० सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
'डॉ० सागर मल जैन: मेरे मन के आईने में'
शितिकंठ मिश्र
यह सार्वभौम नियम है कि संसारी प्राय: स्वार्थ के आधार पर संबंध जोड़ते हैं, 'हरे चरिह तापहिं वरे फेर पसारहि हाथ, तुलसी स्वारथमीत सब परमारथ रघुनाथ ।' यहां मैं डॉ० जैन की रघुनाथ से तुलना नहीं करने जा रहा हूँ परन्तु उन्हें सामान्य स्वार्थी मनुष्यों की अपेक्षा एक निस्वार्थ और परमार्थी व्यक्ति अवश्य मानता हूँ । सन् १९८५ में सेवानिवृत्त होकर मैं पार्श्वनाथ विद्यापीठ के पड़ोस में पर्णकुटी बना कर बस गया । उन्होंने स्वयं मुझे संस्थान के प्रति अपने सद्व्यवहार से आकृष्ट किया । क्रमश: आना-जाना बढ़ा, परिचय-प्रेम प्रगाढ़ हुआ। इस मानवीय नाते को जोड़ने में डॉ० साहब का कोई स्वार्थ नहीं था और न मैं उन्हें किसी प्रकार उपकृत करने की स्थिति में था । जब उन्हें ज्ञात हुआ कि अब तक मेरी पेंशन नहीं मिली है और मैं कुछ काम करना चाहता हूँ तो उन्होंने मुझे संस्थान के साधु-साध्वियों को हिन्दी पढ़ाने का सम्मानजनक दायित्व सौंप दिया । जैन संघ में जब सामान्यतया एक संप्रदाय का श्रावक दूसरे सम्प्रदाय के साधु को मुश्किल से अपना गुरु बनाता है तब उन्होंने मुझ अजैनी को जैन साधु-साध्वियों को पढ़ाने का सम्मान देकर अपनी असांप्रदायिक उदारता का मार्मिक उदाहरण रखा । आजकल शिक्षण संस्थानों में 'अहा रूपो महा ध्वनि:' की परंपरा है । एक दूसरे को लाभ पहुंचाने का व्यवसाय चालू है, ऐसे वातावरण में डॉ० साहब का यह कार्य उनकी निस्पृह मानवता का नमूना है ।
उनके संपर्क में आकर जैन धर्म, दर्शन विशेषतया साहित्य के प्रति मेरा रुझान हुआ । उनका पुस्तकालय नगर के समृद्धतम पुस्तकालयों में से एक है । मैंने अनेक दुर्लभ पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाएं पढ़ी । इस स्वाध्याय से मैं जैन विद्या का पारगत विद्वान् तो नहीं हो गया पर उस क्षेत्र में मेरा चंचु-प्रवेश अवश्य हो गया । जब डॉ० साहब की प्रेरणा से विद्यापीठ की प्रबंधसमिति ने 'हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास' पाँच खण्डों में प्रकाशित करने का स्वागतार्ह निर्णय लिया तो उन्होंने उसके लेखन का दायित्व अत्यन्त विश्वासपूर्वक मुझे सौंपा । मुझे यह कहने में रंचमात्र भी संकोच नहीं है कि उनके मार्गदर्शन के बिना यह कार्य इतना उत्तम ढंग से संपन्न न हो पाता जैसा हो रहा है । विगत सात-आठ वर्षों में इस बृहद इतिहास के तीन खण्ड प्रकाशित हो चुके हैं और चौथे खण्ड (१९वीं वि०) की पाण्डु लिपि किश्तों में प्रेस में जा रही है। कहते हैं कि विद्यार्थीगांधी को उनके अध्यापक ने कक्षा में डबल प्रमोशन दिला दिया, पर विद्यार्थी ने इतना श्रम किया कि वह केवल उत्तीर्ण ही नहीं बल्कि अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हुआ। मुझे भी यह बराबर ध्यान था कि डॉ० साहब के विश्वास की रक्षा होनी ही चाहिए, अत: मैंने विगत पूरे दशक अपने को जैन साहित्य की सेवा में लगाकर यथासंभव उत्तम कार्य करने का प्रयत्न किया है। अपनी पीठ स्वयं ठोकने से क्या लाभ ? पर इतना अवश्य कहूँगा कि हिन्दी में इतना विशाल और नाना विधाओं में जैन साहित्य इसके माध्यम से आया है कि इसके अभाव में न हिन्दी साहित्य का कोई सर्वांगपूर्ण इतिहास लिखा जा सकता है
और न ही हिन्दी का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन सही ढंग से हो सकता है और न लल्लू पूर्व के हिन्दी गद्य के प्रामाणिक नमूने मिल सकते हैं । यह कार्य डॉ० साहब ने किसी व्यावसायिक स्वार्थ से या सांप्रदायिक प्रेरणा से नहीं अपति ज्ञान प्रसार की भावना से करके हिन्दी भाषा साहित्य का महान उपकार किया है । हिन्दी वाले यह चाहते हैं कि हिन्दी सारे विश्व की भाषा बने, सब पढ़े, जाने पर स्वयं हिन्दीतर प्रदेशों में लिखा हिन्दी साहित्य यदि दूसरे संप्रदाय या धर्म से संबंधित है तो उसे पढ़ना बेकार समझते हैं । इस साम्राज्यवादी मनोवृत्ति से हिन्दी का अपकार हो रहा है । इस योजना द्वारा उन्होंने हिन्दी भाषा-भाषियों का बड़ा उपकार किया है । परन्तु वे तो मुझे भी यह एहसास नहीं होने देते कि इस योजना द्वारा उन्होंने मेरे ऊपर कोई एहसान किया है । यह मानवोचित उदारता आज के संकीर्ण स्वार्थ परम्परा युग में दुर्लभ होती जा रही है।
जैन धर्म जब अनेकांतवादी और अहिंसावादी के स्थान पर अनेकवादी और परस्पर वाद-विवादी होने लगा था तब प्राकृतिक विकास प्रक्रिया द्वारा विकसित दिगंबर, श्वेताम्बर, मूर्तिपूजक, स्थानकवासी, तेरापंथी और इनके नाना अन्वयों-गच्छों के बीच सौमनस्य एवं सामंजस्य स्थापित करने की आवश्यकता का अनुभव किया जाने लगा। इस दिशा में पहले दिगंबर
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जैन विद्या के आयाम खण्ड
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कान्फ्रेंस १८९४ में, फिर श्वेताम्बर कान्फ्रेस १९०३ में स्थापित हुए । छगनमल जी म०सा० की प्रेरणा से वाडीलाल मोतीलाल शाह ने स्थानकवासी समाज में श्रावक संगठन का अभियान चलाया और अखिल भारतवर्षीय जैन कान्फ्रेंस की स्थापना की। इसके सादड़ी अधिवेशन में सभी उपसंप्रदाय के साधु-साध्वियों श्रावकों ने आत्माराम जी म०सा० को अपना
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आचार्य मान लिया । इतने द्रविड़ प्राणायाम के पश्चात् जिस समन्वय की स्थापना जैन संघ कर पाया है वह प्रवृत्ति डॉ० जैन में जन्मजात, नैसर्गिक है। वे 'पर उपदेश कुशल' व्यक्ति नहीं बल्कि स्वयं आचरण करने वाले साधु पुरुष हैं। वे कथनी में कम, करनी में अधिक विश्वास करते हैं । इसीलिए एक ओर जहाँ वे मितभाषी हैं दूसरी तरफ कठोर परिश्रमी हैं । अस्वस्थावस्था में भी परिवार वालों की वर्जना की परवाह किए बिना वे नियमित रूप से कार्यालय जाते और निष्ठापूर्वक कर्तव्य निर्वाह करके ही घर लौटते हैं। उनके श्रम एवं स्वाध्याय के फलस्वरूप सैकड़ों लेख, पुस्तक पुस्तिकायें प्रकाशित हैं। उनकी प्रसिद्ध शोध रचना 'जैन बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन', उनके सर्वधर्म समभाववादी मनोवृत्ति का ज्वलंत उदाहरण है । यह प्रवृत्ति आज के विघटन वादी युग की अत्यंत प्रासंगिक प्रस्तुत है। उनके पचासों शोध छात्र विविध स्थानों में उनकी विद्वत्ता का प्रमाण प्रस्तुत कर रहे हैं। उन्होंने देश में ही नहीं अपितु विदेशों में भी अपने कृि एवं विद्वत्तापूर्ण अभिभाषणों से जैन धर्म और हिन्दी भाषा की प्रभावना की है।
यह संस्थान पू० सोहनलाल जी म०सा० की स्मृति में पू० काशीराम जी म० सा० एवं शतावधानी रतनचंद्र जी म० सा० नाम पर इनकी प्रेरणा से ही स्थापित हुआ । उन्होंने पंजाब में जैन धर्म का बड़ा व्यापक प्रचार किया । उन्हें लोग पंजाब केशरी की उपाधि से अभी भी स्मरण करते हैं। उनका वरदहस्त और डॉ० जैन के कठिन अध्यवसाय का मणिकांचन योग पाकर यह संस्थान हीरक के बाद शताब्दी समारोह अवश्य मनायेगा। इसी विश्वास के साथ मैं इस संस्थान तथा विशेषरूप से डॉ० सागरमल उनके दीर्घ, स्वस्थ एवं यशस्वी जीवन की कामना करता हूँ तथा जैन के महान व्यक्तिव व कृतित्व के सम्मुख नत मस्तक हूँ ।
डॉ० सागरमल जैन: कुछ संस्मरण
आचार्य विश्वनाथ पाठक *
उस दिन पार्श्वनाथ विद्यापीठ (पुराना पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान) के परिसर में प्रवेश करते ही चारों ओर एक अभूतपूर्व निस्तब्धता और रिक्तता का आभास हुआ। मेरी दृष्टि सामने स्थित निदेशक आवास पर पड़ी तो वहाँ भी कोई चहलपहल नहीं थी, दरवाजे बन्द थे, सन्नाटा छाया था। सोचने लगा-आखिर बात क्या है ? तभी जगन्नाथ जैन छात्रावास की ओर से आकर प्रणाम करते रामनयन को देखकर पूछ बैठा- कहो, बब्बा क्या समाचार है ?
'बहुत खराब समाचार है, साहब ।' बब्बा ने कहा ।
'क्या हो गया' मैंने फिर पूछा ।
'साहब रिटायर होकर अपने घर चले गये जहाँ कोई राजा ही नहीं रह गया वहाँ अच्छा समाचार कैसे हो सकता
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डॉ० सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
है ।' यह बब्बा का उत्तर था । बब्बा की बातों से मर्माहत हृदय को एक झटका सा लगा । किसी उत्तरदायित्वपूर्ण प्रतिष्ठित पद पर रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति एक निश्चित कालावधि के पश्चात् सेवा-मुक्त हो कर अपने घर चला जाता है। यह तो नितान्त सहज और स्वाभाविक है, परन्तु डॉ० सागरमल जैन के व्यक्तिव में कुछ ऐसी विलक्षण विशेषतायें हैं जिनके कारण उनका अपने घर चला जाना मुझे अखर गया । सोचने लगा, पता नहीं जीवन में अब उनसे फिर कभी भेंट भी होगी या नहीं । विगत सत्रह वर्षों से मेरा उनसे घनिष्ठ सम्बन्ध था । उनके निश्छल-मधुर व्यवहार, विनम्र पांडित्य, उन्मुक्त चिन्तन और स्निग्ध आतिथ्य से मैं अनेक बार गदगद् हो गया था । मैं एक अति आवश्यक कार्य से वाराणसी गया था, परन्तु उनका सहज स्नेह व्यस्तता के क्षणों में भी मुझे पार्श्वनाथ विद्यापीठ तक खींच ले गया था । उदास मन अतीत की स्मृतियों में डूब गया ।
__ आज लगभग दो सप्ताहों के पश्चात् उनके सम्बन्ध में कुछ लिखने बैठा हूँ तो एक कर्मठ, उदार, व्यवहार विनीत, दुरभिग्रह शून्य, अनवरत-साधनारत, विद्याव्यसनी एवं प्रज्ञाप्रोज्ज्वल भास्वर व्यक्तिव मानस-चक्षुओं में तैर रहा है। मैंने संस्थान में रह कर डॉ० सागरमल जैन को बड़ी निकटता से देखा है । कभी किसी की निन्दा उनके मुँह से नहीं सुनी, किसी मत के मान्य ग्रन्थ की कटु आलोचना करते उन्हें नहीं देखा,दुराग्रह की गन्ध भी उनमें नहीं है, अतिथि-सत्कार उनका प्रकृतिसिद्ध गुण है और अहंकार तो उन्हें छू भी नहीं गया है। आजकल प्रायः शोध-कार्यों के निदेशक शोध-छात्रों की कोई सहायता नहीं करते, केवल औपचारिकता का निर्वाह करते हैं और उन्हें अपने व्यक्तिगत कार्यों में उलझायें रहते हैं, परन्तु डॉक्टर साहब को मैंने घंटों शोधार्थियों के साथ बैठ कर परिश्रमपूर्वक उनकी कठिनाइयों का निवारण करते देखा है । अपने कार्यकाल का एक क्षण भी उन्होंने व्यर्थ नहीं बिताया । आवश्यक फाइलों का अवलोकन, लेखन, अध्ययन, शोध और विद्यापीठ की भावी योजनाओं का कार्यान्वयन ही उनकी दिनचर्या के अभिन्न अंग थे । आज अपने स्मृति-पटल को कुरेद रहा हूँ। उसकी एक -एक पर्त खुलती जा रही है।
उन दिनों डॉ० सागरमल जैन पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान (पार्श्वनाथ विद्यापीठ का पुराना नाम) में नहीं आये थे । 'वज्जालग्ग की कुछ गाथाओं के अर्थ पर पुनर्विचार' शीर्षक पर मेरा लम्बा लेख 'श्रमण' (संस्थान की शोध-पत्रिका) में कई महीनों से लगातार छप रहा था, जिसमें डॉ० पटवर्धन के द्वारा 'अस्पष्ट'घोषित की गई प्राकृत गाथाओं के अर्थ-निरूपण का प्रयास किया गया था । तब डॉ० हरिहर सिंह सम्पादक थे और निदेशक का पद रिक्त ही पड़ा था । अचानक दिसम्बर १९७९ के 'श्रमण' में निदेशक-पद पर डॉ० सागरमल जैन की नियुक्ति का समाचार पढ़ा तो उन से एक बार मिलने की इच्छा हुई । तभी जनवरी के मध्य में अप्रत्याशित रूप से नितान्त अपरिचित हाथों का लिखा हुआ एक पत्र मिला । लेखक का नाम था डॉ० सागरमल जैन । मैं उत्सुकतापूर्वक पत्र पढ़ने लगा :
आदरणीय पाठक जी,
'श्रमण' में प्रकाशित और आप के द्वारा लिखित 'वज्जालग्ग की गाथाओं के अर्थ पर पुनर्विचार' शीषर्क लेख पढ़ कर आप की प्रतिभा और पाण्डित्य से मैं बहुत प्रभावित हूं । मैं चाहता हूँ कि आप 'वज्जालग्ग' की कुछ गाथाओं के अर्थ तक ही अपने को सीमित न रखें, यह तो एक अधूरा कार्य है। यदि आप सम्पूर्ण वज्जालग्ग का हिन्दी में अनुवाद करने का कष्ट उठायें तो प्राकृत साहित्य की बहुत बड़ी सेवा होगी । मैं संस्थान की ओर से उस के प्रकाशन की पूरी व्यवस्था करूँगा। आशा है, आप मेरा यह अनुरोध अवश्य स्वीकार करेंगे ........
आपका
सागरमल जैन
यही वह प्रथम पत्र है जिसके माध्यम से मैं डॉ० सागरमल जैन के सम्पर्क में आया । उस समय मेरा एक मात्र पुत्र लम्बी सांघातिक बीमारी से पीड़ित होकर शय्या पर पड़ा था, और कुछ दिनों के पश्चात् उसका निधन भी हो गया। मेरी
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जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६
मानसिक स्थिति ठीक नहीं थी, लिखने-पढ़ने की इच्छा ही मर चुकी थी। फिर भी डॉ० साहब की गुण ग्राहकता से अभिभूत होकर मैं उनका अनुरोध टाल नहीं सका । डॉ० सागरमल जैन ने संस्थान की प्रकाशन नीति के विरुद्ध होने पर भी उस घोर श्रृंगारिक प्राकृत काव्य को प्रकाशित करने का साहस ही नहीं दिखाया, मुझे तीन हजार एक रूपयों से पुरस्कृत भी किया।
इसी प्रकार मैंने 'गाथा सप्तशती' के हिन्दी रूपान्तर के साथ-साथ उसकी अस्पष्ट और अव्याख्यात अतिरिक्त गाथाओं की विशद् व्याख्या प्रस्तुत की तो उन्होंने हार्दिक प्रसन्नता प्रकट करते हुये प्रकाशन की व्यवस्था में कोई संकोच नहीं किया। इसी सन्दर्भ में मैं यह बता देना आवश्यक समझता हूं कि वज्जालग्ग कोई धार्मिक ग्रन्थ नहीं है और न गाथा सप्तशती में ही किसी निगूढ़ आध्यात्मिक तत्त्व का प्ररूपण है । यह तो डॉ० सागरमल जैन के विशाल हृदय में उत्तरंगित अगाधप्राकृत-प्रेम था जिसने उन्हें उक्त दोनों काव्यों के प्रकाशन की उत्प्रेरणा दी थी । वे प्राय: लेखकों को प्रोत्साहित किया करते थे, कदाचित् ही उन्होंने किसी को अपनी आलोचना से हतोत्साह किया हो । एक बार किसी पुस्तक की समीक्षा करनी थी। एक प्राकृत-बहुल नाटक का अनुवाद था वह मैंने पढ़कर उस की त्रुटियों पर उनका ध्यान केन्द्रित किया तो मुस्कराते हए कहने लगे- 'अरे त्रुटियाँ तो स्वाभाविक हैं, उनसे मुक्त कौन है? समीक्षा में त्रुटियों का उद्घाटन करने पर लेखक का हृदय दुःखी होगा, मनोबल टूट जायेगा, फिर वह कुछ लिखने का साहस ही नहीं जुटा पायेगा । हमारा काम तो साहित्यकारों को प्रोत्साहित करना है।
प्रत्येक प्रकाशन सामग्री की प्रामाणिकता की परीक्षा करने में वे कभी नहीं चूकते थे । लाला हरजस राय स्मृति ग्रन्थ में प्रकाशनार्थ प्रेषित मेरे एक लेख में षट्खण्डागम की धवला टीका में निरूपित सत्य के दस भेदों का उल्लेख पाकर मूल ग्रन्थ में उद्धृत अंश को प्रत्यक्ष स्वयं देख कर ही सन्तुष्ट हये थे ।
- डॉ० सागरमल जैन की सबसे बड़ी विशेषता है उनकी वैचारिक सहिष्णुता । वे सत्य को अनेक दृष्टियों से परखने का पूर्ण प्रयास करते है और अपनी स्थापनाओं की उचित आलोचना का उन्मुक्त हृदय से स्वागत करते हैं, बुरा नहीं मानते। १९९३ ई० में अहमदाबाद में एक बृहद वैचारिक गोष्ठी का आयोजन था। उस समय में संस्थान में ही रहता था । डॉक्टर साहब ने गोष्ठी में पढ़ने के लिये एक निबन्ध लिखा था जिसमें ऋग्वेद की कई ऋचाओं में अर्हत् ऋषभदेव के उल्लेख की चर्चा थी। मैंने उसे पढ़ कर तीन पृष्ठों की एक टिप्पणी लिखी थी। वह टिप्पणी यद्यपि उनके विचारों के सर्वथा विपरीत थी, फिर भी उन्होंने उसे बड़ा महत्त्व दिया था । दस-बारह दिनों के पश्चात् अहमदाबाद जाते समय वे उक्त टिप्पणी को अपने साथ ले जाना चाहते थे, परन्तु बहुत खोजने पर भी अलग-अलग पन्नों पर लिखी होने के कारण वह कागजों के ढेर में कहीं खो गई थी, मिली नहीं। डॉक्टर साहब बड़ी देर तक पछताते रहे ।
वे उच्चकोटि के अनुसन्धित्सु विद्वान् हैं । उनकी जिज्ञासा का कहीं अन्त नहीं है । एक बार श्रमण-संस्कृति की चर्चा के प्रसंग में मेरे मुँह से निकल गया कि प्रारम्भ में हमारे सम्पूर्ण समाज का एक ही धर्म था । ऋषभदेव जी ने उसी में रहते हुये मोक्ष-मार्ग का उपदेश दिया था । वे मात्र तीर्थकर नहीं हैं, विष्णु के चौबीस अवतारों में भी उनकी गणना की गई है । पृथक् मत का प्रवर्तन तो तीर्थंकर सुमति ने किया था । उन्होंने कहा- 'इस तथ्य का कोई प्रमाण भी है या वैसे ही कह रहे हैं? मैंने कहा-'श्रीमद्भागवत' के पञ्चम स्कन्ध में यह बात लिखी है । उन्होंने तत्क्षण पुस्तकालय से श्रीमद्भागवत की एक प्रति मँगाकर उक्त स्थल को नोट कर लिया था ।
सम्पादन-कार्य में वे पूर्ण पटु है । स्वभाव से मृदु होने पर भी दायित्व-निर्वहण में वज्रादपि कठोर हो जाते हैं । श्रमण में प्रकाशित सामग्री की सुरक्षा के प्रति वे सर्वदा सचेत रहते थे । मेरे एक लेख का कुछ अंश उन्हीं के प्रतिवेशी और प्राय: मिलने-जुलने वाले किसी ख्यातनामा विद्वान् ने अपनी पुस्तक में ज्यों का त्यों छपवा लिया था। इसकी सूचना मिलने पर उन्होंने पूरा विवरण माँगा और मैंने जो कुछ भी लिखा उसे प्रकाशित करने में वैयक्तिक सम्बन्धों की चिन्ता नहीं की। वे संस्थागत शोध-छात्रों के अतिरिक्त बाहरी शोधार्थियों की भी सहायता करते रहते थे। जून १९९१ ई० की घटना है । मैं
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डॉ० सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
एक वर्ष बाद सेवामुक्त होने वाला था । साकेत महाविद्यालय, फैजाबाद के एक प्राध्यापक की पुत्री संस्कृत में शोध-कार्य कर रही थी । शोध का विषय एक प्रकरण (रूपक-विशेष) था जिसके संवादों में विभिन्न प्राकृतों की बहुलता थी। उस ग्रन्थ की कोई टीका नहीं थी और बिना टीका के पात्रों का संवाद समझना कठिन था । उक्त प्राध्यापक अनेक स्थानों पर भटकतेभटकते किसी प्रकार डॉक्टर सागरमल जैन के पास पहुँचे । परिचय और प्रयोजन ज्ञात होने पर उन्होंने कहा - इस कार्य के लिए आप फैजाबाद से व्यर्थ इतनी दूर चले आये हैं । मैं पत्र लिख देता हूं, अपने ही जिले के टाँडा नगर में पाठक जी से मिल लीजिये, वे आप का कार्य कर देंगे । प्राध्यापक महोदय ने वह पत्र मुझे दिया । उसमें उनकी पुत्री की सहायता करने का आग्रह था और साथ ही साथ सेवानिवृत्त होने के पश्चात् मुझे संस्थान को अपनी सेवायें समर्पित करने के लिये आमन्त्रित भी किया गया था। मैंने संस्थान से जुड़ने की स्वीकृति भेजी तो डॉक्टर साहब बहुत प्रसन्न हुये । इसके बाद जब तक मैं संस्थान में पहुँच नहीं गया तब तक उनके अनुरोध-पत्र बराबर आते रहे । ३१ नवम्बर १९९२ ई० को मैं जब संस्थान में पहुँच गया तभी उन्हें पूर्ण सन्तोष मिला । एक दिन सान्ध्य-वेला में पुस्तकालय-भवन के मुख्य-द्वार के निकट मेरे साथ टहलते हुये उन्होंने भाव-विभोर होकर कहा था- ‘पाठक जी, जब तक मैं हूं तब तक आप यहाँ अवश्य रहिये । हम दोनों मिलकर प्राकृत-साहित्य की अनेक कृतियों को सामान्य जनों के लिये सुलभ एवं बोधगम्य बना सकेंगे।
आज डॉक्टर सागरमल जैन सेवा-मुक्त हो चुके हैं परन्तु उनके पवित्र पसीने की बूंदें जिस सारस्वत उद्यान को सींच गई हैं उसके द्रुमों की स्निग्ध छाया में भारती की वीणा चिर-काल तक अनवरत मुखर होती रहेगी।
पार्श्वनाथ विद्यापीठ की एक-एक ईंट, एक-एक दीवार और एक-एक भवन पर उनकी अमिट यशःप्रशस्ति पढ़ी जा सकती है । हम पराशक्ति से उनके सुखी और शताय होने की प्रार्थना करते हैं ।
"ग्राम पटखौली, पो० मुस्तफाबाद जि० अम्बेडकर नगर, उ० प्र०
सागरयर गंभीरा : डॉ० सागरमल जैन
भंडारी सरदारचंद जैन* - 'सागरवर गंभीरा' जैसे सामायिक के पाठ लोगस्स में हम नित्य उच्चारण करते हैं । वैसे ही गंभीर चिंतक हैं, डॉ० सागरमल जैन । आपका सर्वप्रथम साक्षात्कार, मिलन सारंगपुर (मध्यप्रदेश) में जैन स्थानक में हुआ। हम जोधपुर से सारंगपुर पर्युषण में धर्म ध्यान कराने-व्याख्यान देने आए और आप शाजापुर से सारंगपुर पधारे तब प्रथम परिचय हुआ । स्वाध्याय संघ जोधपुर का प्रथम संयोजक होने के नाते मैंने आपसे विशेष विचार-विमर्श किया और आपने उस समय पी.एच.डी.करने की भावना व्यक्त की, लगन के पक्के होने से आप शीघ्र ही पी-एच.डी.की डिग्री भी प्राप्त कर ली जैसा कि अंग्रेजी में एक कहावत है - (Where there is a will, there is a way)
आप सरल, मधुर भाषी, विद्वान्, विनीत, आगम रसिक, मिलनसार, ज्ञानवान, सादा जीवन-उच्च विचार, सद्गुणों से सुसम्पन्न, सेवा भावी, कुशल लेखक, धाराप्रवाही व्याख्याता, 'श्रमण' पत्रिका के कुशल संपादक, श्री पार्श्वनाथ विद्यापीठ के माननीय निदेशक, जैन एवं जैनेतर का तुलनात्मक गहरा अध्ययन, प्रभावशाली व्यक्तित्व, चमकता सितारा, विराट व्यक्तित्व और कृतित्व के धनी हैं ।
अंत में आपके दीर्घ जीवन की हार्दिक शुभ मंगल कामना व्यक्त करते हुए, विराम लेता हूँ।
*त्रिपोलिया बाजार, पोस्ट-जोधपुर-३४२००२ (राजस्थान)
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जैन विद्या के आयाम खण्ड
(१) कार्यालय में एक कुशल एवं कर्मठ निदेशक के रूप में तथा
(२) कार्यालय के बाहर एक शुभचिन्तक मित्र के रूप में
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अपरनाम - विनयसागर
डॉ. बशिष्ठ नारायण सिन्हा *
आदरणीय डॉ० सागरमल जी जैन से मेरा परिचय सन् १९७९ में हुआ, जब उन्होंने पार्श्वनाथ विद्यापाठ के निदेशक के पद को सुशोभित किया था। उनकी सहज सहजता एवं उदार सामाजिकता के कारण परिचय में प्रगाढ़ता आती गई और वह आत्मीयता में परिणित हो गयी। पार्श्वनाथ विद्यापीठ के पुराने छात्र होने के नाते संस्थान के कार्यालय तथा पुस्तकालय में मेरा जाना आना लगा ही रहता है। अतः निदेशक के रूप में जैन साहब को कार्य करते हुए देखने के अवसर मिलते आ रहे हैं। मैंने उन्हें दो रूपों में पाया है
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आश्चर्य तो मुझे तब हुआ जब यह ज्ञान हुआ कि हमारे सामने एक उच्च कोटि के विद्वान् तथा कुशल निदेशक के रूप में दिखाई पड़ने वाले डॉ० सागरमलजी जैन कभी एक व्यापारी थे। उन्होंने अपना जीवन संघर्ष वाणिज्य के क्षेत्र में किया था। साथ ही पारिवारिक परिस्थिति वस उन्हें अपनी अल्पायु में ही अपनी कौटुम्बिक व्यवस्था को संचालित करने तथा उसे सुदृढ़ बनाने का गुरुतर भार उनकी कांध पर आ पड़ा था। इसमें कोई शक नहीं है कि उन्होंने अपना दायित्व समुचित ढंग से निभाया किन्तु उनका मन व्यापार से हटकर विद्या के क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए उत्सुक हो उठा । नियमित ढंग से विद्याध्ययन हेतु विद्यार्थी सागरमलजैन को ससुराल जाना पड़ा। कहा जाता है कि ससुराल में लोग प्रायः श्रृंगारिकता एवं रसिकता के विविध रूपों का बोध करते हैं किन्तु विचित्रता तो इस बात की है कि इन विद्यार्थी को युवापन की स्वाभाविक मानसिकता अपने वश में नहीं कर सकी और ससुराल में ही वहाँ की उच्च पाठशाला में विद्यार्थी जैन ने नियमित छात्र के रूप में अध्ययन शुरू कर दिया। यद्यपि वह प्रारम्भ विभिन्न कारणों से सुचारु ढंग से आगे गतिशील नहीं हो सका । पर विद्यार्थी की जिज्ञासा दिन ब दिन बढ़ती ही गई। सागरमल जी ने स्वाध्यायी छात्र के रूप में विभिन्न संस्थाओं से विशारद आदि अनेक उपाधियां अर्जित की। वे एम० ए० हुए पी-एच०डी० हुए और फिर दर्शन के प्रवक्ता के रूप में कार्य करने लगे । इस तरह अपनी मेहनत तथा ज्ञान के प्रति निष्ठा के कारण डॉ० सागरमल जी जैन धर्म-दर्शन के क्षेत्र में चिन्तनमनन की उस ऊँचाई पर पहुंच चुके हैं जिस पर बहुत कम लोग पहुँच पाते हैं ।
डॉ० सागरमल जी ने व्यापार से हटकर अपने को माँ सरस्वती के एक सच्चे सपूत के रूप प्रस्तुत किया है। किन्तु उनके मन में तनिक भी न तो उसकी सैद्धान्तिकता से विरोध है और न ही उसकी व्यावहारिकता से वे बणिकपुत्र होने में गर्व महसूस करते हैं। कई बार उनके मुख से ऐसा सुनने का अवसर मिला है मैं बनियाँ हूँ या मैं बनियाँ का बेटा हूँ, ऐसा कहकर वे स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि उन्हें क्रय-विक्रय, लेन-देन, नाप-तौल आदि में कोई मात नहीं दे सकता है । अतः वे उस व्यक्ति को सचेत कर देते हैं जो उन्हें भुलावा देना चाहता है ।
डॉ० साहब की सामाजिकता का तो कहना ही क्या। श्वेताम्बर सम्प्रदाय हो अथवा दिगम्बर, स्थानकवासी संघ हो या तेरापंथी, या मूर्तिपूजक सबमें उन्हें सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त है। वे सभी संघों एवं संगोष्ठियों में भाग लेते हैं और अन्य लोग जब पार्श्वनाथ विद्यापीठ में पधारते हैं तो उनके सत्कार में वे कोई असर नहीं छोड़ते। पार्श्वनाथ जन्मभूमि से सम्बन्धित वर्षों से चल रहा दिगम्बर श्वेताम्बर विवाद डॉ० साहब के सफल प्रयास से समाप्त हुआ जो उनकी सामाजिक सूझ-बूझ को उजागर करता है। जैन समाज ही क्या जैनेतर समाज में भी और खासतौर पर काशी की विद्वान् मंडली में वे एक प्रशंसनीय विद्वान् के रूप में प्रतिष्ठित हैं। उनके कारण पार्श्वनाथ विद्यापीठ को लोगों ने भलीभांति जाना है, सराहा है और इस पुरानी संस्था के अबतक के इतिहास में डॉ० सागरमल जैन के निदेशन काल को स्वर्णकाल कहा जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी।
尽
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डॉ० सागरमल जैन व्यक्तित्व एवं कृतित्व
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डॉ० सागरमल जी जैन जितना सहृदय हैं। उतना ही विन्रम । यदि उनके द्वारा किसी का भला हो सकता है तो बिना किसी आग्रह के वे उसका उपकार कर देते हैं, भले ही वह व्यक्ति अपनी सहायता के लिए उनसे निवेदन किया है अथवा नहीं व उपकार करने वाले के प्रति भी उपकार की दृष्टि रखते हैं। ऐसे तो काम और क्रोध पर बड़े-बड़े त्यागी और तपस्वी भी बड़ी मुश्किल से नियंत्रण ला पाते हैं। लेकिन जान-पहचान और निकटता की लम्बी अवधि में मैंने डॉ० साहब को कभी नाराज होते नहीं देखा है । अतः डॉ० सागरमल जी जैन की विद्वत्ता सामाजिकता, सहृदयता, विनम्रता आदि सद्गुणों को देखते हुए उनका अपरनाम 'विनय-सागर' रख दिया जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
परन्तु एक बात जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है वह यह कि आज हमारे सामने जिस रूप में भी डॉ० सागरमल जी जैन प्रतिष्ठित हैं वह सिर्फ उनकी सुदृढ़ मानसिकता एवं कड़ी मेहनत का ही फल नहीं है बल्कि उन्हें बनाने उनकी धर्मपत्नी श्रीमती कमला जी जैन के सुखद एवं स्नेहिल साथ की भी अहम् भूमिका है । अतएव इस दम्पति के चिर आयुष्य के लिए मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ ।
* शांति निलयन, एन. ४/४ बी-४ आर. कृष्णापुरी करौंदी, वाराणसी ५
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Dr. Sagarmal Jain, a master of Jaina philosoply
- Navin Shah*
I am pleased to know that the Managing Committee of Parshvanath Vidhyapeeth on the occasion of its Diamond Jubilee has proposed to publish a book to falicitate Dr. Sagarmal Jain's remarkable work on Jaina Philosophy.
Through Shri Malavaniaji I came to know about Dr. Sagarmal Jain as the incharge of Parshvanath Vidyapeeth. It is through his total support I was able to organise the conference on Anekantavāda. He has handled and managed the conference with command, wisdom and maturity.
When we came to know that the Chairperson for one session had not come at the last moment, all the people got disturbed and emotionally upset. But, he remained calm and cold and suggested the name of other person among the eminent scholars present.
Dr. Sagarmalji has got depth and insight into Jaina Philosophy. Like Malavaniaji, he is open for modern interpretation of a traditional Jaina Philosophy. His this quality attracted me more towards him as I am trying to interpret Jaina Philosophy for the modern therapy for growth and development as well as for inner tranquillity.
I had trusted him fully in matter of conference and editing the book on Anekantavada and was feeling comfortable in doing so. I am expecting his full support for the future conference and seminar on Jaina Philosophy.
* Director, Navadarshan Society of Self Development, Ahmedabad.
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जैन विद्या के आयाम खण्ड -६
भारतीय विद्याके अनन्यसाधक
डॉ० मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी* मुझे हार्दिक प्रसन्नता है कि पार्श्वनाथ विद्यापीठ की हीरक जयन्ती का आयोजन अप्रैल माह में होने जा रहा है। जैनकला के अध्ययन से मैं विगत अट्ठाइस वर्षों से जुड़ा हूँ और मैंने जैन प्रतिमाविज्ञान विषयक अपना शोध इसी संस्था से सम्बद्ध होकर प्रारम्भ किया था, तब यह संस्थान पार्श्वनाथ शोध संस्थान के रूप में जाना जाता था। उस समय से आजतक मैं बराबर इस संस्था की शोध, अध्ययन एवं प्रकाशन सबंधी गतिविधियों का सहभागी और साक्षी रहा हूँ। स्पष्टत: यह संस्था शोध और प्रकाशन के क्षेत्र में निरन्तर नई-नई संभावनाओं को ढूँढती हुई श्रेष्ठतम स्तर को स्पर्ष करती रही है । जैन संस्था होते हुए भी विचारों की उदारता तथा शोध अध्ययन में इतिहास और प्रमाण के प्रति प्रतिबद्धता, इस संस्थान की विशिष्टता रही है । अपने शोध के दौरान कभी भी ऐसा नहीं लगा कि मुझे कुछ बंधे या नियत मानदण्डों की सीमा में सोचना या लिखना है । यही कारण है कि श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्पराओं और पूरी जैन परम्परा और कला के ब्राह्मण एवं बौद्ध परम्परा एवं कला के सन्दर्भ में आदान-प्रदान एवं समन्वय के स्वर को प्रमाणों, विश्लेषणों के आधार पर प्रस्तुत करने में मुझे कभी किसी सीमा से नहीं बंधना पड़ा।
पार्श्वनाथ विद्यापीठ में शोध-अध्ययन की इस व्यापक, समन्वयात्मक एवं ऐतिहासिक दृष्टि को बनाने में प्रो० सागरमल जैन का पूरा सहयोग रहा है। प्रो० जैन के व्यक्तित्व चिंतन एवं लेखन में इतिहास अध्ययन की मर्यादा तथा सत्य की खोज ही प्रमुख रही है । जो कुछ प्रमाण सम्मत है, वही इतिहास का सत्य है और उसे निरूपित करने या स्वीकार करने में प्रो० जैन सदैव तत्पर रहे हैं । उनके इस चिन्तन ने संस्थान के स्वरूप को एक विशाल आयाम दिया और संस्थान जैन विद्या कि शोध अध्ययन से जुड़े होते हुए भी सम्पूर्ण भारतीय विद्या के अध्ययन का एक प्रमुख केन्द्र बन गया ।
प्रो० जैन एक सहज एवं उदार व्यक्तित्व वाले जैन विद्या या यों कहिए कि भारतीय विद्या के विद्वान् हैं, जिनकी सारस्वत साधना अविरल रही है। उनके समय में संस्थान ने न केवल शोध-प्रबन्धों के माध्यम से जैनविद्या के बहुआयामी शोध को आगे बढ़ाया वरन् स्तरीय प्रकाशन द्वारा संस्थान को अखिल भारतीय पहचान भी दी। संस्थान में आकर मुझे बराबर प्राचीन ऋषि परम्परा की जीवित अनुभूति होती रही है, जिसके मूल में प्रो० जैन का योगदान रहा है । प्रो० जैन यहाँ एक परिवार के मुखिया के समान सभी के बीच स्नेह, सौहार्द के साथ कार्यरत रहे हैं।
मैं उनके बहमखी व्यक्तित्व को नमन करते हए ईश्वर से उनके दीर्घायु होने की कामना करता हूँ।
*अध्यक्ष कला-इतिहास विभाग, कला-संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
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डॉ० सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
सत्सङ्गका सौरभ
डॉ० रतनचन्द्र जैन* सन् १९७२ का वर्ष । मैं रीवा (म०प्र०) से स्थानान्तरित होकर भोपाल के शासकीय हमीदिया महाविद्यालय में आया था । अप्रैल का महीना था । पढ़ाई खत्म हो चुकी थी । परीक्षाएँ चल रही थीं। प्रिंसपल साहब ने परीक्षा-अधीक्षकों को मुझे निरीक्षणकार्य में लगाने हेतु आदेश दिया । उस समय निरीक्षण कार्य स्वीकार करने में शिक्षक हिचकिचाते नहीं थे। जनसंख्या इतनी अधिक न होने से छात्रों की संख्या भी अधिक नहीं रहती थी । सो मैं निरीक्षणकार्य करने लगा । आदरणीय डॉ० सागरमलजी परीक्षा की एक शिफ्ट में अधीक्षक थे । वहाँ उनसे मुलाकात हुई। बड़े प्रसन्न हुए जानकर कि एक और जैन आ गया है, महाविद्यालय में । उन्होंने मेरा कुशलमंगल पूछा 'कहाँ ठहरे हो ? भोजन कहाँ करते हो ? घर चलो, वहीं रहना, जब तक व्यवस्था नहीं हो जाती ।' बड़ा अच्छा लगा सुनकर, जैसे किसी ने कानों में शहद घोल दी हो, शरीर पर रेशम का स्पर्श हो गया हो । वात्सल्य और ममत्व की धारा में सराबोर हो गया । लगा जैसे बड़े भाई के पास आ गया हैं। फिर तो रोज उनके पास उठने-बैठने लगा । दर्शन और धर्म की चर्चाएँ होती थीं, जिनसे चिन्तन और मनन के नये-नये द्वार उद्घाटित होते थे । घर जाता तो आदरणीया भाभीजी भी उतने ही वात्सल्यभाव से स्वागत करती थीं।
डॉक्टर सा० के सत्संग से मैं अनेक साधुओं और साध्वियों के सम्पर्क में आया । उन्हें संस्कृत और न्याय-ग्रन्थों को पढ़ाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इससे साधुजीवन को निकट से अनुभव करने का मौका मिला और हृदय में साधुत्व के प्रति श्रद्धा और आस्था का बीजारोपण हुआ। डॉक्टर सा० के साथ अनेक बार मन्दिरों और समारोहों में प्रवचन एवं भाषण के अवसर प्राप्त हुए। फिर उन्होंने मुझे भगवान् महावीर के २५०० वें निर्वाण महोत्सव में कई जगह व्याख्यान देने के लिए भिजवाया । आल इण्डिया ओरिएन्टल कान्फ्रेंस में शोधपत्र पढ़ने की प्रेरणा भी डॉ० सागरमलजी ने ही मुझे दी थी। उनके साथ दो बार धारवाड़ तथा पूना में आयोजित सम्मेलनों में मैंने अपने आलेख पढ़े और पूना में अपने आलेख पर 'मुनि पुण्यविजय जी पुरस्कार' प्राप्त करने का सौभाग्य मिला । मुझे प्रगति के इस बिन्दु तक पहुँचाने का श्रेय माननीय डॉ० सागरमलजी को
मेरे पी-एच०डी के शोधकार्य का मार्ग भी डॉक्टर सा० ने ही प्रशस्त किया था । शोधकार्य के लिए मैंने एक दुरूह विषय ले लिया था, 'जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन ।' इसे कैसे शुरू करूँ? किन-किन बातों का इसमें समावेश करूँ? किस-किस समस्या या विवाद का समाधान इसमें अपेक्षित है ? इस ऊहापोह में जब मैं था तब आदणीय डॉक्टर सा० ने मुझे आश्वस्त किया और बड़े प्रयत्न से विस्तृत रूपरेखा तैयार करवा दी, जिससे मेरा कार्य सुकर हो गया । जो मैं लिखता था उसे वे रुचिपूर्वक देखते थे और आवश्यक परामर्श देते थे। उनके सहयोग से मेरा शोधकार्य सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ।
सन १९७९ में वे भोपाल से वाराणसी चले गये। तब मैं यहाँ अकेला रह गया, न केवल महाविद्यालय में, अपित् भोपाल में भी । किन्तु, फिर भी उन्होंने मुझे अपने साथ जोड़कर रखने का प्रयत्न नहीं छोड़ा। उन्होंने मेरे कई लेख 'श्रमण में प्रकाशित किये और शोधप्रबन्ध को प्रकाशित करने का प्रस्ताव किया। उसे भेजने में मेरी तरफ से काफी विलम्ब हुआ, किन्तु अन्तत: १९९७ में उनके ही द्वारा पार्श्वनाथ विद्यापीठ से मनोहररूप में प्रकाशित हुआ। डॉ० सागरमलजी ने मुझसे विद्यापीठ से सक्रियरूप से जुड़ने का भी आग्रह किया। मैं अगस्त १९९६ में तीन सप्ताह वहाँ रहा भी । वहाँ के तपोवनतुल्य परिवेश में मन बहुत रमा, किन्तु परिवार के साथ रहने का मोह न छोड़ सका, इसलिए भोपाल लौट आया। विद्यापीठ से अपनी सेवानिवृत्ति के बाद डॉक्टर सा० ने मुझे निदेशक-पद स्वीकार करने के लिए ट्रस्ट की ओर से पत्र भिजवाया, किन्तु उपर्युक्त कारण से ही इतने पवित्र और गरिमामय कार्य को स्वीकार करने का पुण्य नहीं कमा पाया, जिसका मुझे खेद है।
डॉक्टर सा० एक विद्वान् ही नहीं हैं, कुशल प्रशासक और व्यवस्थापक भी हैं । मध्य प्रदेश के सबसे बड़े शासकीय हमीदिया महाविद्यालय, भोपाल में उन्होंने दर्शनविभाग को जिस तरह सँवारा और समृद्ध किया, वह किसी अन्य के बूते की बात नहीं थी । दर्शन विषय से जहाँ विद्यार्थी दूर भागते थे, वहाँ डाक्टर सा० ने अपनी शिक्षण-प्रतिभा और प्रबन्धकला से
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जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६
इस विषय को ऐसा आकर्षक बनाया कि इस विभाग में आज भी छात्रों का बाहुल्य रहता है । डाक्टर सा० ने अपने सत्प्रयत्न से विभाग में शिक्षकों की संख्या भी बढ़ा ली । इतने बड़े महाविद्यालय की, जिसमें बी० ए० से लेकर एम० ए० तक की कक्षाएँ हों, जिसमें अनेक विभाग, अनेक वर्ग और परस्पर विपरीत स्वभाव वाले बहुसंख्यक शिक्षक हों, समयसारिणी बनाना हँसी खेल नहीं है । किस विषय का अध्यापन किस समय रखा जाय जिससे एक ही विद्यार्थी के दो विषय एक ही काल खण्ड में न पड़ जाय अथवा किसी शिक्षक को लम्बे समय तक कालेज में न रुकना पड़े और किसी को थोड़े ही समय में छुट्टी न मिल जाय, इन बातों को ध्यान में रखते हुए समयसारिणी बनाना बहुत बड़े सिरदर्द का काम है। इतने विशाल महाविद्यालय की परीक्षाओं का संचालन भी ऐसा ही मानसोत्पीड़क कार्य है। किन्तु डाक्टर सागरमल जी ने ये दोनों दुष्कर कार्य बड़ी दक्षता से दीर्घकाल तक सम्पन्न किये और दर्शन के प्रोफेसरों के विषय में प्रचलित धारणाओं को मिथ्या सिद्ध कर दिया ।
डाक्टर सा० के साथ गुजारे वे दिन आज भी जब स्मृतिपटल पर आते हैं, तब मन आनन्द में डूब जाता है। उनके सौजन्य का माधुर्य, उनके औदार्य की जगमगाहट, उनके वात्सल्य की खुशबू, उनके सत्सङ्ग का सौरभ आज भी मैं अपने परिवेश में बिखरा हुआ पाता हूँ। मेरी कामना है कि जैनजगत् के लब्ध प्रतिष्ठ मनीषी, सरस्वती के पुत्र और मेरे अग्रजकल्प आदरणीय डा० सागरमल जी जैन स्वस्थ रहते हुए सौ से अधिक वर्षों तक जियें, जिससे जैनसाहित्य के कोश में अभिवृद्धि तथा जैनसिद्धान्त के जिज्ञासुओं का मार्ग आलोकित होता रहे ।
*१३७, आराधना नगर, भोपाल-४६२००३
एक अभिनन्दनीय व्यक्तित्य : डॉ० सागरमल जैन
मफतराज पी० मुणोत*
जैन धर्म, दर्शन, साहित्य, कला व संस्कृति के क्षेत्र में डॉ० जैन के उल्लेखनीय योगदान के लिये मिले 'आचार्य श्री हस्ती स्मृति सम्मान के सम्मान समारोह में मुझे उनसे पीपाड़ में मिलने का सुअवसर मिला। वे जैन धर्म के मूर्धन्य विद्वान्
मैं उनके, युवक समाज के प्रति शोधपूर्ण विचारों तथा स्वाध्याय के माध्यम से, व्यक्ति से व्यक्ति की टूटी कड़ियों को जोड़ने की वैचारिक जागरुकता से बहुत प्रभावित हुआ । इतने ज्ञान व विद्वत्ता के धनी होते हुये भी सादगी व अभिमान रहित जीवन, उनके जीवन को विद्वत्ता की ऊँचाइयों पर ले जाता है । मुझे उनके पीपाड़ में व्यक्त किये गये विचार याद हैं, उन्होंने कहा था 'यह सम्मान मेरा नहीं, आचार्य भगवंत का है । इस सम्मान से उनकी प्रेरणा जीवित है, उनकी प्रेरणा से एक नहीं कई सागरमल पैदा हो सकते हैं । पूजा, प्रतिष्ठा व मान-सम्मान की इच्छा करने वाला सबसे अधिक पाप करता है परन्तु सम्मान भी अगर प्रेरणा का निमित्त बनता है तो उपादेय है।'
उनके शतायु होने की शुभ कामना के साथ शत्-शत् अभिनन्दन । *मुणोतविला, वेस्ट फील्ड कम्पाउन्ड लेन ६३ के० भूलाभाई देसाई रोड, मुम्बई-४०००२६
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डॉ० सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
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गवेषणाशील तार्किक मनीषी : डॉ० सागरमल जैन
डॉ० धर्मचन्द जैन* प्रोफेसर सागरमल जैन से मेरा प्रथम परिचय सन् १९८२ में ऑल इण्डिया ओरियन्टल कॉन्फ्रेन्स के जयपुर अधिवेशन के समय जैन सिद्धान्त शिक्षण संस्थान, जयपुर में हुआ। तब आप वाराणसी से अपने दो-तीन शिष्यों के साथ ओरयिण्टल कान्फ्रेस में पधारे थे। उसी वर्ष में संस्कृत में एम० ए० उत्तीर्ण करके राजकीय महाविद्यालय में सेवारत हुआ था। उस समय आपसे हल्का सा परिचय हुआ। उसके पश्चात् मैंने अपने पी-एच०डी० के विषय के चुनाव हेतु आपसे पत्रव्यवहार किया। आपने अत्यन्त तत्परता से मेरे पत्र का उत्तर देते हुए शोधकार्य हेतु अपने विषय सुझाए । इसके पश्चात् आप के दर्शन सन् १९८६ में अहमदाबाद में हुए । आप वहाँ पर गुजरात विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित 'जैन आगम-संगोष्ठी' में भाग लेने पधारे थे । मैं भी तब अपना एक निबन्ध तैयार करके ले गया था । आपका एक शोध-निबन्ध प्रश्नव्याकरण की विषय वस्तु पर था जो उस समय पुरस्कृत घोषित हुआ था । तब मैंने देखा कि आप एक विषय पर कितना गम्भीर और सूक्ष्मतार्किक विश्लेषण करने की दृष्टि रखते हैं।
___ डॉ० सागरमल जैन सरलमना, साधनाशील एवं गवेषणा-स्वभावी मनीषी हैं। आपका जीवन जैन-विद्या के लिए समर्पित है। आपने आगम, दर्शन, इतिहास, तंत्र, संस्कृति, भाषा आदि सभी क्षेत्रों में भारतीय-विद्या की सेवा करते हुए उत्कृष्ट लेखन कार्य किया है । आप प्रत्येक विषय की तलस्पर्शी गहराई में पहुँचकर उसका अध्ययन करते हैं तथा सुग्राह्य युक्तियों से अपना मत प्रस्तुत करते हैं। आप श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन कुल में जन्म लेकर भी निष्पक्ष रूप से समूचे जैन वाङ्मय का अवगाहन करने में एवं तथ्यों का विश्लेषण करने में किसी भी प्रकार की हिचक नहीं रखते । आपका सम्पर्क सभी सम्प्रदायों के सन्तों, विद्वानों एवं श्रावक-श्राविकाओं से है । आपकी सन्निधि में रहकर कुछ जैन सन्तों ने एवं अनेक जैनेतर विद्वानों ने जैन-विद्या का अनुशीलन किया है तथा पी-एच०डी० जैसी उच्च उपाधि भी प्राप्त की है।
कलकत्ता में आयोजित ओरियन्टल कॉन्फ्रेन्स के अधिवेशन में डॉ० सागरमल जी से १९८६ में ही पुनः मिलना हुआ । आपका मेरे प्रति सहज स्नेह है । आप मुझे अपने पुत्र की भाँति समझते हैं । कलकत्ता से प्रस्थान करते समय आप मुझे अपने साथ वाराणसी ले आये । पार्श्वनाथ विद्यापीठ का परिसर दिखाया । मैं वहां दो दिन रुका तथा अपने शोध कार्य 'बौद्ध प्रमाणमीमांसा की जैन-दृष्टि से परीक्षा' विषय से संबंद्ध ग्रन्थों का अनुशीलन किया। पार्श्वनाथ विद्यापीठ का पुस्तकालय केवल जैन विद्या की दृष्टि से नहीं, अपितु इण्डोलॉजी की दृष्टि से भी एक समृद्ध पुस्तकालय है । मुझे उन दो दिनों में अपने शोध कार्य के सम्बन्ध में डॉ० सारगरमल जी से मार्गदर्शन मिला। विद्यापीठ की यह यात्रा मेरे लिए एक सार्थक यात्रा रही। हृदय के कोने में एक भावना जागृत हुई कि मैं भी कभी वाराणसी आकर रहूँगा । यह भावना अभी तक फलीभूत तो नहीं हुई है, किन्तु इस संस्थान के प्रति आदर का भाव ज्यों का त्यों है ।
सन् १९८८ की जनवरी में पार्श्वनाथ विद्यापीठ ने अपने स्वर्ण जयन्ती के अवसर पर एक अखिल भारतीय संगोष्ठी का आयोजन किया जिसमें जयपुर से डॉ. नरेन्द्र भानावत के साथ मैं भी भाग लेने हेतु पहुँचा था । यह एक बृहत् संगोष्ठी थी, जिसमें विविध विषयों पर तीन दिनों तक भिन्न-भिन्न वर्गों में शोध-पत्र प्रस्तुत किये गए । इस संगोष्ठी में देश भर से लगभग ३०० विद्वान् उपस्थित हुए जिनमें जैन विद्या के क्षेत्र में प्रतिष्ठित पं० दलसुख मालवणिया जैसे अनेक प्रमुख विद्वान् भी विद्यमान थे । डॉ० सागरमल जी ने इस संगोष्ठी का बहुत ही सुन्दर रीति से आयोजन किया। संगोष्ठी में डॉ० दयानन्द भार्गव की अध्यक्षता में जैन-न्याय विभाग के अन्तर्गत मैंने 'जैन हेतु-लक्षण' पर एक शोध पत्र प्रस्तुत किया था जो प्रशंसित एवं पुरस्कृत हुआ। इस सम्मेलन के समय यह योजना बनायी गयी थी कि इस प्रकार सम्मेलन प्रत्येक दो वर्ष में अलग-अलग नगरों में आयोजित होगा । किन्तु देश का यह दुर्भाग्य रहा कि इस प्रकार का सम्मेलन गत दस वर्षों की
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जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६
अवधि में एक बार भी आयोजित न हो सका।
डॉ० सागरमल जी से उसके पश्चात् दिल्ली, उदयपुर, जोधपुर आदि स्थानों पर अनेक बार मिलना हुआ । आपका स्नेह प्रत्येक बार वृद्धिगत होता गया। जब मैंने जोधपुर विश्वविद्यालय में कार्यभार ग्रहण किया ही था तब आप विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित विस्तार व्याख्यान माला के अन्तर्गत जैन कर्म सिद्धांत पर व्याख्यान देने हेतु पधारे थे। आप उस समय मुझे जोधपुर में देखकर अचम्भित से हुए और बोले 'तू यहाँ कैसे? मैंने कहा - मेरी नियुक्ति इसी विश्वविद्यालय में हो गयी है।' उन्हें यह जानकर हार्दिक प्रमोद हुआ । उसके अनन्तर तीन-बार आपका जोधपुर पधारना हुआ । जब भी आप जोधपुर पधारे तब घर पर अवश्य पधारे । आपकी सहज आत्मीयता एवं स्नेह का प्रभाव बच्चों पर भी पड़ा। बच्चों के प्रतिप्रेम आपके निर्मल हृदय का बोध कराता है। आपकी सदैव यह भावना रही की मैं आपके पास वाराणसी आकर रहूँ किन्तु विभिन्न अपरिहार्य कारणों की वजह से मैं आपके सतत् सान्निध्य से वंचित ही रहा । आप जिस तन्मयता से विद्या की साधना में संलग्न हैं वह बस मेरे लिए प्रेरणा का स्रोत है। आपकी धर्मपत्नी श्रीमती कमला जी से भी मां का सहज स्नेह मिलता है। मैं समझता हूं कि कमला जी का सहयोग डॉ० सागरमल जी के निरन्तर उत्थान में निमित्त बना है । पौराणिक कथानक के अनुसार तो सागर के मंथन से कमला रूपी रत्न उद्भूत हुआ था, किन्तु यहाँ लगता है कि सागर को पूर्णता प्रदान करने के लिए कमला का संयोग प्राप्त हुआ है । इसीलिए डॉ० सागरमल जी सरस्वती के साधक होकर भी कमलापति हैं । आपके परिवार में पूर्ण समृद्धि है तथापि आप सरस्वती की उपासना में सन्नद्ध हैं, इससे बढ़कर और क्या बात हो सकती है।
मेरा ही नहीं समस्त विद्वत् समाज का मंतव्य है कि डॉ० सागरमल जी के निदेशक बनने के पश्चात् पार्श्वनाथ विद्यापीठ का कायाकल्प हो गया है। विद्यापीठ के परिसर में भौतिक निर्माण का कार्य हुआ, डॉ० जैन की सूझबूझ एवं सतत् परिश्रम का ही सुफल है । परिणाम स्वरूप आज यह संस्था आपके निर्देशन में मान्य विश्वविद्यालय का स्वरूप ग्रहण करने के लिए तत्पर है । आपने लगभग ४० विद्यार्थियों को शोध कार्य कराते हुए भी जिस विपुल-साहित्य का निर्माण किया है वह इन दो दशकों में आपको जैन विद्या के सर्वोच्च विद्वान् के रूप में प्रतिष्ठित करता है । आप में लेखन कला के अतिरिक्त व्यवस्थित प्रतिपादन एवं प्रमाणित सबल युक्तियों का प्राण-तत्त्व भी विद्यमान है, जो भावी जैन विद्वानों के लिए एक पाथेय का कार्य करेगा। आपका लेखन जैन-विद्या के अध्येताओं के लिए ही नहीं, अपितु भारतीय विद्या, संस्कृति एवं कला के अध्येताओं के लिए भी उपादेय है। आप जो कुछ लिखते हैं उसमें आपका मंथन स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। मैं पितृतुल्य डॉ० सागरमल जैन के शतायु होने की शुभकामना करता हूँ ।
*रीडर, संस्कृत विभाग, जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर ।
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डॉ० सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
डाक्टर सागरमल जी जैन एक संस्मरण
हजारीमल बांठिया
वर्तमान
डॉ० सागरमल जी जैन यथा नाम तथा गुण के अनुरूप ज्ञान गंगा के सागर हैं। सागर-समान उनमें मर्यादा भी है। युग में जैन श्वेताम्बर विद्वानों में इनका नाम उच्चस्थ है। आप ज्ञान, ध्यान और दर्शन की त्रिवेणी हैं। जैन दर्शन का सूक्ष्म अध्ययन कर आपने जो ज्ञान अर्जित किया है उसे अपने आलेखों के माध्यम से आम जनता को लाभान्वित किया है। पार्श्वनाथ विद्याश्रम का वर्तमान स्वरुप (पार्श्वनाथ विद्यापीठ) जो हमारे सामने है और जिससे यह मान्य विश्वविद्यालय का दर्जा प्राप्त करने जा रहा है के मूल में प्रोफेसर सागरमल जी की अनोखी सूझ-बूझ एवं परिश्रम का ही सुफल है। बोसों शोधार्थियों को मार्ग-दर्शन कर उनको डॉक्टर (पी-एच. डी.) बनाने में आपने जो सहयोग दिया है वह सदा अभिनंदनीय रहेगा। गृहस्थ जीवन में भी रहते हुए इनका जीवन संत जीवन है जिसमें संतो की सी सादगी है।
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गच्छ गच्छेतर और जाति-धर्म का कोई भेदभाव आपमें नहीं है। जैन जैनेतर श्रावक और साधु साध्वियों को समान रूप से ज्ञान गंगाजल का अमृत पान कराया है। आप समता धर्म एवं समन्वय के पोषक हैं। यद्यपि वे अपने आपको पारिवारिक मान्यता से स्थानकवासी समुदाय से जोड़ते हैं किन्तु मैंने उनमें कहीं भी स्थानकवासीपन नहीं पाया, न कभी आमह करते देखा है । आप तो चरम तीर्थर महावीर के सच्चे अनुयायी हैं। पांचो महाव्रत के प्रेमी हैं और अहिंसा व अपरिग्रह के सजग प्रहरी हैं। चारों समुदाय के लोगों में लोकप्रिय हैं विशेषकर मूर्तिपूजक साधु-साध्वी तो आप ही से अध्ययन एवं अध्यापन में सहयोग लेते हैं।
लगभग बीस वर्ष पूर्व गणिवर्य मुनि महिमाप्रभसागर जी महाराज अपने दो शिष्यों बाल मुनि ललित प्रभसागर जी एवं मुनि चन्द्रप्रभसागर जी के साथ कलकत्ता- बिहार में कानपुर पधारे तो मैंने उनसे अनुरोध किया । यदि मुनियों को महान् ज्ञानी एवं प्रवचनकार बनाना हो तो आप कलकत्ता चातुर्मास न कर एक नहीं चार चातुर्मास पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी में करें और डॉ० सागरमल जी का मार्गदर्शन लें। उन्होंने मेरे अनुरोध को स्वीकार कर कई चातुर्मास पार्श्वनाथ विद्याश्रम में किये और आज दोनों ही बाल मुनि महान् योगी-ज्ञानी-ध्यानी संत बन गये हैं और महावीर की वाणी को जन-जन तक पहुँचा रहे हैं।
पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी से मेरा सम्पर्क गत चालीस वर्षों से है और लगभग बीस वर्षों से डा० सागरमल जी के सम्पर्क में हूँ। मैं कई बार वाराणसी जाकर उनसे मिला हूँ और प्रेरणा प्राप्त की है। 'सादा जीवन और उच्च विचार' की उक्ति से आप का जीवन ओत प्रोत है।
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आप गुणी जनों के गुणों के ग्राहक है । पिछले दिनों जर्मनी की विदुषी जैन श्राविका डॉ० सर्लोटे क्राउ (सुभद्राकुमारी) के साहित्य-संग्रह प्रकाशन की जिज्ञासा मैंने आपके सामने रखी तो आपने तुरन्त मेरे अनुरोध को स्वीकार कर लिया और बोले डॉ० क्राउने का साहित्य संग्रहकर उसे अवश्य प्रकाश में लाना चाहिए वह उस वक्त भी उपयोगी था और आज भी उतना ही प्रासंगिक है और उसे पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी से प्रकाशित करने की सहजभाव में स्वीकृति दे दी। गुणग्राहकता का आपमें यह विशेष गुण है। डॉ० सागरमल जी जैन जैसे मनीषी का अभिनंदन कर हम सभी भारतवासी गौरवान्वित हैं। आप सदा निरोग रहें और शतायु हों यही प्रभु से मंगल कामना है।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड -६
विश्वसनीय व्यक्तित्व के धनी डॉ० सागरमल जैन
___ सत्येन्द्र मोहन जैन जैन धर्म में गुरु का महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रभु की प्राप्ति के मार्ग का मार्ग दर्शक गुरु ही है, वही हमारे जीवन में शुभ संस्कारों के बीज वपन करता है। जैन धर्म के महामन्त्र-नमस्कार मन्त्र में गुरुजनों को प्रणाम किया गया है। मुझे भी अपने जीवन में जो कुछ संस्कार मिले हैं वे, माता-पिता और गुरुजनों से ही प्राप्त हुये हैं। मैं अपने जीवन के प्रारंभिक काल में प्रो०
ओमप्रकाश जी जैन और श्री कामता प्रसाद जी जैन से पर्याप्त रूप से प्रभावित रहा हूँ । कामता प्रसाद जी Voice of Ahimsa नामक पत्रिका निकालते थे उस पत्रिका के अंकों को मैंने संगृहीत करके रखा था और गत वर्ष पार्श्वनाथ विद्यापीठ को भेंट किया। डॉ० सागरमल जी जैन से मेरा परिचय पार्श्वनाथ विद्यापीठ के माध्यम से ही हुआ, मैं शासकीय सेवा में फैजाबाद से स्थानान्तरित होकर अधिशासी अभियन्ता के पद पर सन् १९८९ ई० में गाजीपुर में नियुक्त हुआ, मेरे परिवार ने गाजीपुर की अपेक्षा वाराणसी में रहने की इच्छा व्यक्त की, फलत: मैं दिगम्बर जैन मन्दिर नरिया के नीचे का भाग किराये पर लेकर वाराणसी में रहने लगा । पूर्व से ही मेरी रुचि जैन-कला के अध्ययन और कलाकृतियों के संग्रह में रही अपनी जिज्ञासा भावना को लेकर मैं पार्श्वनाथ विद्याश्रम पहुँचा और वहीं मुझे डॉ० सागरमल जैन से परिचय हुआ उनके मोहक व्यक्तित्व ने मुझे आकर्षित किया और मैंने सेवानिवृत्ति के बाद भी वाराणसी में ही रहने का निश्चय किया मेरी धर्मपत्नी भी उनकी धर्मपत्नी के स्नेह से ऐसी जुड़ गयीं कि मुझे लगने लगा कि हम एक ही परिवार के हैं।
डॉ० सागरमल जैन का व्यक्तित्व इतना प्रभावी है कि उन्होंने मुझे भी जैन साहित्य के अध्ययन के लिये प्रेरित किया और समय-समय पर दिशा निर्देश दिया। मैंने जब जैन मिलन की मीटिंग अपने घर पर आयोजित की और उसमें अपने निजी संग्रह की जैन मूर्तियों को प्रदर्शित किया, इसका उद्घाटन भी डॉ० साहब ने ही किया, मैंने इस अमूल्य धरोहर की संरक्षक एवं पथ प्रर्दशन के सन्दर्भ में डॉ० सागरमल जैन से चर्चा की और उन्हीं की प्रेरणा से मैने यह अमूल्य धरोहर पार्श्वनाथ विद्यापीठ को प्रदर्शन एवं संरक्षण के हेतु समर्पित कर दिया। डॉ० साहब ने मुझे कहाकि एक छोटा सा पौधा ही कभी वट वृक्ष का रूप ले लेता है सम्भव है कि पार्श्वनाथ विद्यापीठ के प्रांगण में आपके सहयोग से रोपित यह संग्रहालय देश के जैन संग्रहालयों में अपनी महत्त्वपूर्व पहचान बना ले । डॉ० साहब का व्यक्तिव एक प्रशासक के व्यक्तित्व की अपेक्षा एक सहयोगी का अधिक है। वे आदेश नही देते, स्वंय ही कार्य करने लगते हैं, परिणाम यह होता है कि विद्यापीठ का समस्त स्टाफ उनके साथ कार्य में जुट जाता है। मैने देखा कि मेरे द्वारा भेट की गयी भारी मूर्तियां भी उन्होंने अपने सहयोगियों के माध्यम से ऊपर हाल में पहुँचवा दी । मैंने दिगम्बर जैन मन्दिर भेलूपुर के पंचकल्याणक महोत्सव के अवसर पर भेलूपुर के पुरातात्त्विक महत्त्व को लेकर एक छोटी पुस्तक प्रकाशित की, जब डॉ० साहब ने उस पुस्तक को देखा तो उन्होंने अपनी उदारता और सदाशयता का परिचय देते हुए न केवल उस पुस्तक की प्रशंसा की अपितु कहा कि आपने जिस श्रम से इस सामग्री को सजाया और प्रस्तुत किया उससे भेलूपुर के पुरातत्त्व के सन्दर्भ में मुझे भी एक नई दृष्टि मिली है । यह उनकी महानता है मैं तो उनसे ऐसे शब्दों को सुनकर ही धन्य हो गया । मेरी दृष्टि में सागरमल जैन की वाराणसी में सबसे बड़ी उपलब्धि दिगम्बर, श्वेताम्बर के भेलूपुर मन्दिर सम्बन्धी विवादों को निपटाकर इस तीर्थ क्षेत्र के विकास को एक नवीन दिशा दी । यह उनके व्यक्तित्व की विशेषता है कि समाज के सभी सम्प्रदाय और वर्ग उन पर विश्वास रखता है । उस विश्वास का ही यह परिणाम था कि आज पार्श्वनाथ जन्मभूमि पर न केवल विपुल निर्माण कार्य हुये अपितु दोनो ही सम्प्रदायों के भव्य मन्दिर भी निर्मित हुये । डॉ० मागरमल जैन और उनके परिवार का मेरे और मेरे परिवार के प्रति जो स्नेह है वह मेरे जीवन की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है।
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डॉ० सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
विद्या प्रदाता गुरु (प्रो. सागरमल जैन) को अविराम वन्दन
डॉ० सुरेश सिसोदिया, उदयपुर प्रो० सागरमल जैन से मेरा परिचय विगत १२ वर्षों से तब से है जब से मैं उनके मार्गदर्शन में प्राकृत भाषा एवं जैन विद्या के क्षेत्र में अध्ययन-अनुसंधान एवं लेखक हेतु पार्श्वनाथ शोधपीठ, वाराणसी जाने लगा। प्रतिवर्ष उनके मार्गदर्शन में एक-दो महिने वहाँ रहकर मैंने उनसे जो ज्ञान प्राप्त किया है उसी का परिणाम है कि आज मैं प्रकीर्णक ग्रन्थों के अनुवाद कार्य में संलग्न रहकर जैन दर्शन के क्षेत्र में कार्यरत हूँ। मेरे लेखन और चिंतन को विकसित करने का सारा श्रेय प्रो० सागरमल जैन को ही जाता है।
प्रो० जैन ने अनेक ग्रन्थों का सम्पादन, अनुवाद, एवं मौलिक सृजन किया है । आप द्वारा लिखित एवं सम्पादित ग्रन्थ विद्वत्जन एवं साधारण जन दोनों में समान रूप से समादित हैं । जैन, बौद्ध और हिन्दू परम्परा के आप अधिकारी विद्वान हैं आपकी विद्वता की चर्चा करने हेतु न तो मैं अधिकारी हूँ और न ही इस परिपत्र की परिधि मुझे इसकी इजाजत् देती है तथापि आपके लिए यह उल्लेख करना मैं अपना दायित्व मानता हूँ कि युवा विद्वानों के प्रति आपका स्नेह एवं सहयोग विशेष रूप से प्रशंसनीय है। पार्श्वनाथ शोधपाठ के निदेशक पद पर रहते हुए आपने युवा विद्वानों, सरस्वती पुत्रों और लेखकों की जो एक पंक्ति खड़ी की है उस पर समाज को बड़ा गर्व है । जैन विद्या के क्षेत्र में कार्य करने वाले आधे से अधिक युवा विद्वान् किसी न किसी रूप में आपके सहयोग एवं मार्गदर्शन प्राप्त किये हुए हैं । देश का शायद ही कोई ऐसा भाग शेष रहा हो जहाँ आपके शिष्य न मिले।
शिक्षा के क्षेत्र में आपका अवदान सदैव स्मरणीय रहेगा । वाराणसी का पार्श्वनाथ शोधपीठ आपके जीवन का अभिन्न अंग बन गया है। अपने जीवन का अमूल्य समय लगाकर आपने उसकी जो सेवा की है वह अमिट है। आपके बिना पार्श्वनाथ शोधपीठ की तथा शोधपीठ के बिना आपकी चर्चा अधूरी है। आपकी कार्य प्रणाली ने पार्श्वनाथ शोधपीठ को आज जैन विद्या की अंग्रिम शोध संस्थान के रूप में सुस्थापित कर दिया है । देश में ही नहीं विदेशों में भी आज शोधपीठ की बड़ी ख्याति
प्रो० जैन ही नहीं आपके परिवारजनों से भी मुझे बड़ी ही आत्मीयता प्राप्त होती रही है। गुरू पत्नी आंटीजी (श्रीमती कमला देवी) बहुत सहृदया महिला हैं । सदैव आपने मुझे पुत्रवत् स्नेह दिया है । आपके दोनों पुत्र नरेन्द्र एवं पीयूष तथा पुत्रवधु सरला एवं चित्रा भाभीजी का भी मुझे अत्यन्त स्नेह एवं आत्मीयता प्राप्त हुआ है। आपकी पौत्री सोनाली मेरी अतिप्रिय बहिन है उसका स्नेह एवं आत्मीयता मेरे मानस पटल पर सदैव अंकित रहती है। आपके पूरे परिवार में जो अपनत्व का भाव है वो अन्यत्र सहज ही दृष्टिगोचर नहीं होता है।
जैन विद्या के मनीषी विद्वान् मेरे पिता तुल्य प्रो० सागरमल जैन को मै अविराम वन्दन करता हूँ तथा इनके सस्वथ्य शतायु होने की मंगल कामना करता हूँ।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६
अपने गुरू के बारे में...
डॉ० अरूण प्रताप सिंह अपने बारे में लिखना जितना कठिन है, उससे ज्यादा कठिन है लिखना अपने गुरु के बारे में। श्रद्धा या स्नेह को शब्दों में बाँधने का प्रयास उसे भौतिक बना देता है । यह तो एक अभौतिक/अनुभूत्यात्मक स्वाद है जिसकी कबीर के [गे गुड़ भाई के समान केवल अनुभूति की जा सकती है - वर्णन नहीं । फिर भी परम्परा का निर्वाह करते हुए अपने गुरु के बारे में कुछ कहना/लिखना अवश्य पसन्द करूँगा।
इलाहाबाद विश्वद्यिालय से अपनी एम० ए० की शिक्षा समाप्त करने के उपरान्त उच्चतर अध्ययन के लिए मैं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय आया । यहाँ डॉ० मारुति नन्दन प्रसाद तिवारी जी ने जैन धर्म पर शोध कार्य के लिए आपके पास भेजा । प्रांगण में प्रवेश करते ही आपसे साक्षात्कार हुआ। यह फरवरी १९८० की बात है । डॉक्टर साहब भी कुछ महीने पहले ही यहाँ निदेशक पद पर आये थे । प्रणाम करने पर उन्होंने जिस वात्सल्य एवं ममत्व से आशीर्वाद दिया-उसका चित्र मानसपटल पर आज तक अंकित है । उनके स्नेह की अजस्र धारा अविरल रूप से आज तक प्रवाहित है - कभी कम नहीं हुई । प्रथम साक्षात्कार में ऐसा लगा जैसे मैं इनको बहुत दिनों से जानता हूँ। पूर्वजन्म के प्रति मेरी नि:संशय मान्यता है। मेरा अटल विश्वास है कि इनके साथ मेरा परिचय निश्चय ही पूर्वजन्मों के कर्मों का परिणाम है । एक अनजान छात्र को उन्होंने जिस सहृदयता से स्नेहभाजन बनाया - उसे मैं किन शब्दों में प्रकट करूँ-समझ नहीं पा रहा हूं। ऐसा कोई शब्द नहीं जो उस अनुभव को काले-सफेद अक्षरों में वर्णित कर सके । अच्छा है - मैं उस मीठास को मन ही मन महसूस करता रहूँ।
मैं लगभग १८-१९ वर्षों से सम्पर्क में हूँ। मैनें इन्हें बहुत निकट से देखा है । इनके पास जो भी आया-उन्हीं का हो गया । आने वाला किसी भी परम्परा का हो, किसी भी धर्म-जाति से जुड़ा हो - इससे कोई फर्क नहीं पड़ा।
अपने गुरू के कृतित्व के बारे में कुछ कहना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है । मैं उन्हीं के निश्रय में रहकर पढ़ा-लिखा और जो कुछ भी मैं हूँ, उन्हीं के हाथों बना हूँ। उनकी कृतियाँ विविध विषयक हैं । दर्शन के प्राध्यापक होकर भी उन्होंने इतिहास एवं साहित्य के क्षेत्र में जिस गाम्भीर्य समालोचना का प्रदर्शन किया है - वह अत्यन्त ही श्लाघनीय है। इन्होंने प्रत्येक विषय पर अपनी लेखनी चलायी और पूरी तन्मयता के साथ । प्रामाणिक इतना कि उनके निष्कर्षों से आप सहमत हों या असहमत-सहजरूप में खण्डन करना असम्भव । उन्होंने न केवल स्वयं लिखा अपितु हम लोगों को भी सदा लिखने के लिए प्रेरित किया। मैने आचार्य हरिभद्र और उनके विचारों को थोड़ा-बहुत पढ़ा है । जिस सदाशयतापूर्वक हरिभद्र विभिन्न मतों के सत्य को स्वीकार कर अपनी बात तर्क पुरस्सर रूप से रखते हैं- आधुनिक युग में डॉक्टर साहब के लेखों के सम्बन्ध में यही कहा जा सकता है। यह एक शिष्य का अतिरंजनापूर्ण मूल्यांकन नहीं है - उनके ग्रन्थों की महक का अनुभव कोई भी कर सकता है।
आप एक ऐसी संस्था से भी जुड़े जो पूर्णरूपेण असाम्प्रदायिक थी । सम्प्रदाय या सेकुलर शब्द भारतीयभूमि के लिए उपयुक्त नहीं है। सर्वधर्म समभाव की जो अवधारणा भारतीय मनीषियों ने प्रस्तुत की वह अपने मूर्तरूप में यहाँ प्रतिष्ठित है। पार्श्वनाथ विद्यापीठ का जो रूप आज दिखायी दे रहा है, वह इसके दो महान नायकों-सर्वश्री भूपेन्द्र नाथ जी, सचिव एवं डॉ. सागरमल जी जैन-के अनवरत परिश्रम का परिणाम है । पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान के जिस पौधे को इन दोनों विशिष्ट जनों ने खाद-पानी देकर पुष्पित/पल्लवित किया, वह आज विद्यापीठ के रूप में अपनी सुगन्ध चतुर्दिक प्रसारित कर रहा है । बनारसी लंगड़े की सुगन्ध से पूरी तरह आच्छादित विद्याश्रम का उपवन दोनों व्यक्तियों के एकाग्र सोच का मूर्त रुप है। डॉ साहब का चिन्तन एवं आदरणीय भूप जी के आर्थिक सम्बल ने न केवल सुदृढ़ नींव तैयार की अपितु अपने मनोनुकूल भव्य प्रासाद का भी निर्माण किया । भविष्य में आने वाला कोई व्यक्ति यदि इस उपवन का केवल संरक्षण भी कर सके तो यह उसका महती योगदान होगा और इन नायकों के प्रति सच्ची शुभाशंसा होगी । समय की गति भी कितनी विचित्र है कि दोनों लोगों के अभिनन्दन रूपी रथ के ये दोनों पहिये एक दूसरे के पूरक हैं - एक के अभाव में दूसरा सम्भवत: उतनी गति से यात्रा नहीं कर सकता था। दोनों गृहस्थ संतों का मिलन एक सुखद संयोग था ।
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डॉ० सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
मेरे गुरुजी के चतुर्दिक बिखरी साहित्यिक सुगन्ध से तो प्राय: सभी भिज्ञ हैं परन्तु कितने लोग हैं जो उनके सामाजिक क्रियाकलापों से परिचित हैं । इन्होंने सामाजिक एवं धार्मिक बुराइयों के विरुद्ध न केवल अपनी लेखनी चलायी है अपितु कर्मभूमि में उतरकर बुराइयों का सामना किया है । यहाँ मैं पुनः हरिभद्र का उदाहरण देना चाहूँगा । आचार्य हरिभद्र अपने समय की धार्मिक बुराइयों से अत्यधिक व्यथित थे। अपने ग्रन्थ में आचार्य ने ऐसे मुनियों को कड़ी फटकार लगायी है जो श्वेत वस्त्र को जीवन-यापन का साधन बनाते हैं । आचार्य ने ऐसे लोगों को सलाह दी है कि मुनि वेशधारी ये लोग यदि सम्यक् चारित्र का पालन नहीं कर सकते तो क्यों नहीं गृहस्थ वेश धारण कर लेते । गृहस्थ तो ऐसे मुनियों से श्रेष्ठ होते हैं । डाक्टर साहब ने अपनी युवावस्था में ही ऐसे मुनियों से श्वेत वस्त्र हटवाकर क्रान्तिकारी कार्य किया था । तत्पश्चात् आर्थिक रूप से सहायता कर उनको सम्मानपूर्ण जीवन जीने का मार्गदर्शन दिया था।
विखलित होते हुए विशाल एवं समृद्ध जैन समाज को एक करने की उनकी व्यथा को “जैन एकता का प्रश्न" नामक उनके निबन्ध में अच्छी तरह देखा जा सकता है। उनका यह चिन्तन मात्र वाविलास नहीं है - क्रियान्वयन का प्रयास है । वाराणसी के भेलूपुर स्थित दिगम्बर एवं श्वेताम्बर जैन मन्दिर के अधिकार को लेकर लगभग ३०० वर्षों से चले आ रहे झगड़े को जिस निरपेक्ष ढंग से सुलझाया इसमें उनके चिन्तन के मूर्त रूप को देखा जा सकता है। परिणाम यह है कि दोनों सम्प्रदाय के लोग उन्हें अपना मानते हैं । डॉ० साहब जैन धर्मावलम्बी हैं लेकिन उनके अन्तः स्थल में अनेकान्तवाद की वह अनुगूंज सुनाई पड़ती है जिसकी कल्पना भारतीय मनीषियों ने की थी । जैन मन्दिरों में तीर्थंकर प्रतिमाओं के समक्ष ये जितनी श्रद्धा के साथ नमन करते हैं, उतनी ही श्रद्धा के साथ बाबा विश्वनाथ को भी प्रणाम करते हैं । ये हैं तो स्थानकवासी जो हिन्दुओं के आर्यसमाज के समान मूर्तिपूजा में विश्वास नहीं करते, लेकिन जिन या शंकर की मूर्ति को प्रणाम करते हुए देखकर कोई भाँप नहीं सकता । ऐसा लगता जैसे हरिभद्र का श्लोक अपने को मूर्तरूप में चरितार्थ कर रहा हो - " ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै" उनके साथ बितायी हुईं मधुर स्मृतियाँ मेरी अमूल्य धरोहर हैं मैं एक शिष्य का धर्म निबाह सकूँ-ईश्वर मुझे इतनी शक्ति दे । परमपिता से एकमेव प्रार्थना है कि उन्हें एवं आदरणीया आण्टी जी को स्वस्थ रखें । वे शतायु हों-इसी कामना के साथ गुरु के चरणों में श्रद्धावनत् ।
*प्रवक्ता, इतिहास विभाग, एस० बी० डिग्री कालेज, दादर आश्रम, बलिया ।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६
एक अविस्मरणीय व्यक्तित्व : डॉ० सागरमल जैन
डॉ० रमेश चन्द्र गुप्त -
वर्ष १९७९ में एम० ए० (भारतीय दर्शन एवं धर्म) प्रथम वर्ष की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद द्वितीय वर्ष में यह प्रश्न पैदा हुआ कि स्पेशल पेपर की जगह पर क्या लिया जाय । उसी समय ज्ञात हुआ कि पार्श्वनाथ विद्यापीठ के निदेशक पद पर डॉ० सागरमल जी जैन ने कार्यभार ग्रहण किया है और वह ही अब काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग में जैन विषय से सम्बन्धित पेपर के लिये कक्षाएं लिया करेंगे। उसी प्रकरण में प्रथम बार १९७९ में मैं डॉ० जैन साहब से मिला । तभी से मेरे मन पर डॉ०साहब के सरल,सहज एवं मृदुल स्वभाव की ऐसी अमिट छाप पड़ी और मैंने जैन स्पेशल . पेपर लेने का निर्णय ले लिया तथा यह भी निश्चय कर लिया था कि अगर अवसर मिला तो जैन धर्म से सम्बन्धित विषय पर ही पी-एच०डी० हेतु शोध कार्य डॉ० साहब के ही निर्देशन में करूँगा। तदनुसार डॉ० साहब के निर्देशन में 'खतीर्थंकर, बुद्ध और अवतार की अवधारणाओं के तुलनात्मक अध्ययनङ्ग' विषय पर शोध कार्य किया। शोध कार्य के काल में दो बार डॉ० साहब के पैतृक निवास शाजापुर भी गया । वहाँ पर डॉ० साहब एवं उनके समस्त परिवार जनों ने भरपूर प्यार दिया, जिसको मैं आजन्म नहीं भुला सकूँगा । डॉ० साहब को मैं अंकल जी एवं उनकी धर्मपत्नी श्रीमती कमला जैन को आंटी जी के समान मानता हूँ और वह भी मुझे पुत्रवत स्नेह करते हैं।
वर्ष १९७९ अप्रैल से १९९७ तक बराबर डॉ० साहब के यहाँ मेरा आना जाना लगा रहा तथा समय-समय पर परिवार के सदस्य के रूप में उन्होंने उचित मार्ग दर्शन एवं प्यार दिया है। १९९७ में डी०रे०का० से अवकाश प्राप्त करने के बाद भी मेरी इच्छा यही है कि डॉ० साहब के सान्निध्य में रहकर माँ सरस्वती की साधना करता रहूं । ऐसा है डॉ० साहब का व्यक्तित्व ।
मैं श्रद्धेय डॉ० साहब एवं आन्टी जी (श्रीमती कमला जैन) के चिरायु होने की मंगल कामना करता हूँ। *संस्थापक, बाल विद्यापीठ, आँवला (बरेली)
मंगल कामना
डॉ. विजय कुमार जैन* डॉ० सागरमल जी को विगत २० वर्षों से जानता हूँ। आपका वाराणसी प्रथम आगमन जब हुआ तब उनके प्रथम बैच के छात्रों में से मैं भी एक हूँ। यद्यपि पी-एच०डी० के लिए मेरा रजिस्ट्रेशन आपके निर्देशन में नहीं हुआ लेकिन आपका मार्ग-निर्देशन एवं सान्निध्य बना रहा । आपके आगमन के साथ ही वाराणसी में स्थित पार्श्वनाथ जैन विद्याश्रम जो बीच में सुप्त सा हो गया था । जागृत हो गया एवं वाराणसी में जैन विद्या का अलख जगाने का काम किया ।
जैन विद्या के क्षेत्र में कार्य कर रहे विद्वानों एवं उनमें सहयोगी विद्वानों को जुटाने में आपने अग्रणी भूमिका निभायी। खोज-खोजकर प्रतिभाओं को निखारने एवं उनको सम्मानित कर आपने जैनविद्या के क्षेत्र में कार्य करने की प्रेरणा दी।
आपका सहज व्यवहार सभी को आकृष्ट करता है । जीवन भर जिन्होंने प्रतिभाओं को सम्मानित किया है । ऐसे पारखी विद्वान का अभिनन्दन करके निश्चित ही आयोजन समिति ने अभिनन्दनीय कार्य किया है।
मैं कामना करता हूँ कि डॉ० साहब दीर्घायु हों और जैन विद्या के विकास में अपना योगदान करते रहें । *अध्यक्ष-बौद्धदर्शन विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ, गोमतीनगर, लखनऊ
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डॉ० सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
सरल व्यक्तित्व के धनी : डॉ० सागरमल जैन
डा० कमलेश कुमार जैन*
ज्ञान/गुणों की पूजा हमारी सांस्कृतिक विरासत है, और ज्ञानी/गुणवान के प्रति आदर भाव हमारी फितरत में है। यही कारण है कि पार्श्वनाथ विद्यापीठ की प्रबन्ध समिति प्रो० डॉ० सागरमल जैन को उनकी श्लाघ्य सेवाओं एवं भारतीय विद्या की और विशेषतः जैनविद्या की महत्त्वपूर्ण सेवा के लिए उनको अभिनंदन ग्रंथ समर्पित करने जा रही है, यह एक प्रसन्नता की बात है।
जब आठवें दशक के अंत में डॉ० सागरमल जी ने पार्श्वनाथ विद्याश्रम के निदेशक पद का कार्यभार सम्भाला था, मैं लगभग उसी वर्ष स्नातक कक्षा में अध्ययनार्थ वाराणसी पहुँचा था, तभी से मुझे उनसे मिलने, उनके साथ उठने-बैठने, उनको सुनने, वार्तालाप करने, अनेक गंभीर विषयों पर चर्चा करने तथा मार्गदर्शन एवं प्रेरणा प्राप्त करने का निरन्तर मौका मिलता रहा है।
यह एक आम अनुभव की बात है कि अमुक संस्थाएँ किसी व्यक्ति विशेष के समर्पण का प्रतिफल होती हैं। इसलिए ऐसी संस्थाएँ व्यक्ति केन्द्रित हो जाती हैं या कही जाती हैं। पार्श्वनाथ विद्याश्रम (अब पार्श्वनाथ विद्यापीठ) भी इसका अपवाद नहीं है।
डॉ० सागरमल जी ने अपनी कार्यप्रणाली, सरल स्वभाव, सूझबूझ एवं लगन से संस्थान को जिस बुलंदी पर पहुँचाया है, इसी कारण वे आज पार्श्वनाथ विद्यापीठ के पर्याय से बन गये हैं।
डॉ० साहब जैन-धर्म-दर्शन के मनीषी विद्वान् लेखक एवं चिंतक तो हैं ही। उनकी सद्य: प्रसूत लेखनी से शताधिक लेखों, दशकाधिक मौलिक पुस्तकों एवं पुस्तिकाओं तथा अर्धशतक से अधिक पुस्तकों का सम्पादन, एवं दशकाधिक ग्रन्थों की गंभीर महत्त्वपूर्ण प्रस्तावनाएँ लिखी गई हैं। यह सब कार्य उनकी सतत अध्ययन-अध्यापन में रुचि, लगन, तथा विद्याव्यासंग का ही प्रतिफल है । जो कि विद्वज्जगत् के लिए प्रेरणा, उत्साह का ही नहीं, अपितु अनुकरणीय कार्य है।
अभिनंदन ग्रन्थ प्रकाशन की बेला पर उनके प्रति मैं अपनी हार्दिक शुभकामनाएँ प्रेषित करते हुए गौरव का अनुभव करता हूँ एवं भावना करता हूँ कि वे शतायु हों, और अपने चिन्तन, लेखन एवं कार्यों से आगे भी समाज को निरन्तर लाभान्वित करते रहें।
*उपनिदेशक, भोगीलाल लहेरचन्द्र इन्स्टीट्यूट आफ इण्डोलाजी, दिल्ली -३६
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जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६
डॉ० सागरमल जैन : एक अप्रतिम व्यक्तित्व
डॉ० सागरमल जैन मेरे परम आत्मीय मनीषी विद्वान हैं। इनके व्यक्तित्व से मेरा प्रथम साक्षात्कार १९७४ की अक्टूबर में पूना में हो रहे अखिल भारतीय दर्शन परिषद् के अधिवेशन में हुआ । १५ सितम्बर, १९९४ को हाम्बुर्ग (जर्मनी) से चलकर रात में १६ सितम्बर को दिल्ली पहुंचा। लगभग तीन दिन दिल्ली में रुककर २० सितम्बर, १९७४ की सुबह गोरखपुर पहुँचा। माननीय डॉ० लक्ष्मी सक्सेना (पूर्व अध्यक्ष, दर्शन विभाग, गोरखपुर विश्वविद्यालय) ने डॉ० सभाजीत मिश्र एवं मुझे पूना में होने वाले अखिल भारतीय दर्शन परिषद् के अधिवेशन में भाग लेने के लिए कहा। साथ ही सुश्री कुसुम सिंह, सुश्री कञ्चन पाण्डेय एवं प्रीति अग्रवाल को भी साथ देने के लिए स्वीकृति दे दी। हम सभी अधिवेशन के प्रथम दिन अपराहन में संगोष्ठीकक्ष में सीधे पहुंचे। डॉ० मराठे ने हमें प्रो० एस० एस० बारलिंगे (अब दिवंगत) से मिलवाया । वहां मुझे अतिथिगृह में डॉ० सागरमल जैन के साथ में रखा गया । प्रथम साक्षात्कार में मेरे अल्हड़ मन को लगा कि यह व्यक्ति पता नहीं कब का मेरा आत्मीय है। डॉ० सागरमल की सरलता का संस्पर्श इतना जीवन्त था कि वें ज्यों ही १९७९ में पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान (अब पार्श्वनाथ विद्यापीठ) में निदेशक के रूप में आये, मेरे परम आत्मीय हो गये।
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मेरी आत्मीयता धीरे-धीरे गंभीर होती गयी। डॉ० जैन के सरल, उज्ज्वल एवं धवल चरित्र तथा उनके अध्यवसाय एवं कर्तव्य के प्रति निष्ठा के भाव में मुझे अपनी छवि दिखाई दी। वे उसी अधिवेशन में अखिल भारतीय दर्शन परिषद् के कोषाध्यक्ष चुन लिए गए । १९८० में मुझे संयुक्त मंत्री बनाया गया। डॉ० सागरमल जैन को कोष में मात्र ३२०० रुपये दिये गए, ऊपर से दार्शनिक त्रैमासिक का एक बड़ा बैकलाग भी मिला। उसी समय प्रो० नन्दकिशोर देवराज को त्रैमासिक का सम्पादकत्व दिया गया। डॉ० देवराज आज देश के प्रसिद्ध चिन्तक हैं। विभाग में मुझे उनका स्नेह मिला एवं उनकी कार्यशैली डॉ० सागरमल जैन ने अपनी तत्परता से त्रैमासिक का सारा बैकलाग यथाशीघ्र प्रकाशित कर त्रैमासिक को सामयिक कर दिया । मात्र १०-१२ वर्ष के कोषाध्यक्ष के कार्यकाल में डॉ० सागरमल जैन ने कोष को ३२०० रुपये से लगभग ६५,०००-०० रुपए कर दिया। इस बीच म०प्र० शासन के निर्देशानुसार उन्हें सन् १९८५ में इन्दौर जाना पड़ा। संस्थान में कुछ लोगों ने ऐसा प्रयास किया कि वे वाराणसी न लौट पायें उत्पन्न परिस्थितियों से डॉ० सागरमल और उनके परिजन भी उनके वाराणसी लौटने के सम्बन्ध में अन्यमनस्क हो रहे थे। उनके शुभैषी मेरे पास आये। इस दुःखद तथ्य से मुझे अवगत कराया गया। डॉ० जैन के पारदर्शी चारित्र एवं उनके विनय से मैं इतना अभिभूत था कि मेरी हार्दिक इच्छा थी कि वे वाराणसी पुनः लौटें उनके विश्वस्त सूत्रों के माध्यम से उन्हें बुलवाकर पुनः प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया जो अन्ततः सफलीभूत भी हुआ।
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डॉ० रेवतीरमण पाण्डेय
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डॉ० सागरमल जैन ने संस्थान के विकास हेतु मुझे दिल्ली के जैन समाज के कुछ धन कुबेरों से भी मिलवाया। इन लोगों में संस्थान के वर्तमान मंत्री श्री भूपेन्द्रनाथ जैन का व्यक्तित्व बड़ा उदात्त एवं कर्मयोगी लगा। पार्श्वनाथ विद्यापीठ प्रगति के जिन सोपानों पर आज चढ़ सका है उसमें इन दोनों व्यक्तियों का बहुत बड़ा योगदान है।
पार्श्वनाथ विद्यापीठ के हीरक जयन्ती के शुभअवसर पर इन बन्धुद्वय का मैं हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। आप दोनों
के प्रयास, तपस्या व उदार दृष्टि का ही प्रतिफल है कि आज विद्यापीठ उच्चानुशीलन की दृष्टि से जैन विद्या का एक प्रतिष्ठित संस्थान बन गया है । विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की तीन-तीन टीमें विद्यापीङ्ग को मान्यविश्वविद्यालय का दर्जा देने के सन्दर्भ में विजिट कर चली गयीं। पूरे जैन समाज के लिए यह एक चुनौती है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के पार्श्व में जैन विश्वविद्यालय की उतनी ही आवश्यकता है जितनी तिब्बती संस्थान के रूप में बौद्ध विश्वविद्यालय की पार्श्वनाथ विद्यापीठ अभी तक मान्यविश्वविद्यालय क्यों नहीं बन सका यह विचारणीय है अकादमीय रूप से शीर्षस्थ होकर भी यदि धनाभाव इसे । मान्यविश्वविद्यालय का दर्जा प्राप्त होने में बाधक है तो यह प्रश्न जैन समाज और प्रशासन दोनों के लिए चिन्तनीय है और इसे शीघ्र ही मान्यविश्वविद्यालय घोषित कराने का प्रयत्न करना चाहिए। संस्थान जो आज विश्वविद्यालय होने की दहलीज
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डॉ० सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
पर खड़ा है वह डॉ० सागरमल जैन का प्रयत्न एवं पुरुषार्थ ही है जिसने इसे इस स्तर तक पहुंचाया।
विद्यापीठ को इतना स्वच्छ, शांत एवं मनोरम बनाने में इनका अवदान कम नहीं है । सहजता की प्रतिमूर्ति डॉ० जैन के पास जो भी आया उसका उन्होंने खुले हृदय से स्वागत किया और अपना बना लिया।
पार्श्वनाथ विद्यापीठ की प्रबन्ध समिति से मैं यह अपेक्षा रखता हूँ कि डॉ० सागरमल जैन को सक्रिय रूप से इस विद्यापीठ से आजीवन के लिए बांध दे क्योंकि हमलोग जो विद्यापीठ से भावनात्मक रूप से जुड़े हैं, डॉ० सागरमल जैन के बिना विद्यापीठ को उजड़ा हुआ सा अनुभव करते हैं।
भगवान विश्वनाथ से मेरी प्रार्थना है कि डॉ० सागरमल जैन दम्पति को स्वस्थ, सानन्द रखते हुए दीर्घायु दें ताकि विद्यापीठ का उत्तरोत्तर विकास हो ।
• अध्यक्ष, दर्शन एवं धर्म विभाग, का० हि० वि० वि०, वाराणसी।
प्रेरणापुरुष : डॉ० सागरमल जैन
डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय
जैन धर्म-दर्शन के मूर्धन्य विद्वान् सौम्यता, सरलता एवं मृदुता के पर्याय श्रद्धेय गुरुवर्य डॉ० सागरमल जैन के व्यक्तित्व को शब्दों की परिसीमाओं में बाँधना मेरे लिए असंभव नहीं तो दुष्कर अवश्य है, क्योंकि आपके व्यक्तित्व के कैनवास पर एक साथ अनेकों गुण-रंग उभरते हैं और प्रत्येक गुण एक-दूसरे से बढ़कर हैं । इतने उदात्त चित्त, निरहंकार चेता एवं सहज विद्वान् विरले ही होते हैं । मैं अपने आप को अति सौभाग्यशाली मानता हूँ कि आपके चरण-सान्निध्य में मुझे जैन विद्या का ज्ञान प्राप्त करने का सुअवसर मिल सका । प्रथम बार आपसे मेरा साक्षात्कार १९८९ में हआ जब मैं पार्श्वनाथ विद्यापीठ में उसी वर्ष प्रारम्भ होने वाले जैन विद्या पत्रोपाधि (डिप्लोमा) कोर्स के लिए पंजीकृत हुआ। एक आदर्श गुरु के रूप में आपको पाकर जैन विद्या के अध्ययन की मेरी अभिलाषा उतरोत्तर बढ़ती ही गयी और संस्थान से मैंने जैन विद्या में पत्रोपाधि एवं उच्च पत्रोपाधि प्राप्त की । आज जैन धर्म-दर्शन या जैन विद्या के क्षेत्र में मेरा जो कुछ भी चंचुप्रवेश है वह आपके कुशल निर्देशन एवं समुचित मार्ग-दर्शन का परिणाम है । ऐसे गुरु की गुरुता मेरे लिए शब्दाभिव्यक्ति से परे महज अनुभवजन्य है । आप सादगी और सरलता की प्रतिमूर्ति तो हैं ही साथ ही भावना के सागर हैं । आप धर्म के बाह्याडम्बरों के कट्टर विरोधी एवं धर्म एवं दर्शन को जीवन जीने की कला मानने के पक्षधर हैं । जैन विद्या में गहरी पैठ के कारण आज आप जैन विद्वानों में शीर्षस्थ हैं । सिद्धान्त को व्यवहार में आचरित किये बिना सिद्धान्त को महज वाग्जाल मानने वाले श्रद्धेय गुरुवर्य की प्रेरणा, उनका असीम स्नेह मेरे जीवन की अमूल्य निधि है, धरोहर है।
- आज मैं जो कुछ भी हूँ, आपके आशीर्वाद के बिना शायद न होता । मातु तुल्य आदरणीया आन्टीजी तो वात्सल्य सागर है । उनकी स्नेहासिक्त वर्जनाओं के हम प्रशंसक हैं । आप दोनों के सानिध्य में परिवार से दूर होने का कभी एहसास नहीं हुआ। गुरु-ऋण बहुत बड़ा ऋण होता है । मैं नहीं जानता, आपके ऋण से कभी उऋण हो सकूँगा भी, या नहीं।
आपके अभिनन्दन की इस पुनीत बेला में प्रेरणा पुरुष गुरुवर्य को अपनी अगाध श्रद्धा की अञ्जलि अपनी भावनाओं से पूरित कर समर्पित करता हूँ और साथ ही ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि आप शतायु हों, दीर्घायु हों ।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६
सहृदयता की प्रतिमूर्ति
डॉ० फूलचन्द जैन प्रेमी
आदरणीय डॉ० सागरमल जी के इस अभिनन्दन के अवसर पर उनकी सहृदयता आदि अनेक गुणों के विषय में लिखने हेतु एक साथ अनेक विचार आ रहे हैं किन्तु द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार कुछ ही विचार व्यक्त करना अच्छा है । विगत बीस वर्षों से उनके साथ आत्मीयता, पारिवारिकता और उनसे प्राप्त अपार स्नेह एवं प्रोत्साहन उनकी सहृदयता का परिचायक हैं यद्यपि इनसे परोक्ष परिचय इससे भी पूर्व का है जब मैं पार्श्वनाथ विद्याश्रम में रहकर इसके तत्कालीन निदेशक आदरणीय डॉ० मोहनलाल जी मेहता जी के निर्देशन में पी-एच०डी० हेतु मूलाचार पर अनुसंधान कार्य कर रहा था । आदरणीय डॉ० मेहता जी ने उस समय आपके महत्त्वपूर्ण अप्रकाशित बृहद् शोध प्रबन्ध 'जैन-बौद्ध और गीता के आचार दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन' (दो खण्डों में) के गहन अध्ययन हेतु सुझाव दिया था। इस आदर्श और तुलनात्मक गहन विवेचन युक्त मौलिक शोध-प्रबन्ध को पढ़कर मैं आश्चर्य चकित रह गया था और ऐसे उत्कृष्ट शोध-प्रबन्ध के लेखक-विद्वान् से मिलने-विचार-विमर्श करने की तीव्र अभिलाषा हुई । संयोग से जैन विश्वभारती, लाडनूं में तीन वर्ष तक प्राकृत एवं जैन विद्या के प्राध्यापक के रूप में कार्य करने के बाद मेरी नियुक्ति सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय में हुई और इधर आदरणीय डॉ० साहब का पार्श्वनाथ विद्याश्रम में निदेशक के रूप में शुभागमन हुआ।
मैं जब आदरणीय डॉ० साहब से मिला तब इनकी सहृदयता सौम्यता और सरलता से तो प्रभावित हुआ ही, जैन साहित्य और जैनविद्या के विकास एवं इनके व्यापक प्रसार-प्रचार के प्रति इनके मन में तीव्र अभिलाषा भी देखी । इनके कार्यकाल में पार्श्वनाथ विद्याश्रम का आशातीत विकास इसमें हुए अनुसंधान कार्यों की प्रचुरता और विपुल प्रकाशन की व्यापकता तथा अखिल भारतीय स्तर की अनेक संगोष्ठियों के आयोजन आदि अनेक कार्यों को देखकर कोई भी व्यक्ति इनके प्रभावक व्यक्तित्व और इनकी अदम्य क्षमता का अनुमान सहज ही लगा सकता है।
हृदय की उदारता, विशालता और विभिन्न सम्प्रदायों में समन्वय की भावना तो आपके रोम-रोम में समाई हई है। इसके अनेक प्रत्यक्ष उदाहरणों से प्राय: सभी परिचित ही है । यद्यपि जैन विद्या के क्षेत्र में कुछ विषयों पर मेरे आपसे स्पष्ट मतभेद रहे हैं और अनेक संगोष्ठियों पर कुछ मुद्दों पर मेरी आपसे नोंक-झोंक भी होती रही किन्तु यह आपके हृदय की विशालता ही रही कि आपने इन मतभेदों को कभी मतभेद के रूप में नहीं लिया और सदा ही सहृदयता और सदाशयता के साथ हँसकर स्वीकार किया एवं सदा एक जैसा स्नेहभाव तथा प्रोत्साहन बनाए रखा । आपके हृदय की विशालता का एक उदाहरण मैं कभी नहीं भूल सकता । जो कि 'मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन' नामक मेरे शोध-प्रबन्ध से संबंधित है । परम्परानुसार इस सम्बन्ध में कुछ मुद्दों पर मेरे और आदरणीय डॉ० सा० के मध्य विचारों में भिन्नता थी, इसके बावजूद उन्होंने यथावत् इसका सुन्दर प्रकाशन तो कराया साथ ही जनवरी १९८८ में संस्थान में सम्पन्न प्राकृत एवं जैन विद्या के प्रथम अधिवेशन के उद्घाटन के अवसर पर शताधिक विद्वानों के मध्य जैन विद्या के महामनीषी पं० दलसुखभाई मालवणिया जी के सान्निध्य में तत्कालीन केन्द्रीय संसदीय कार्य मंत्री श्रीमती शीला दीक्षित से इस शोधप्रबन्ध का भव्य विमोचन भी कराया । यह आपकी हृदय की उदारता, सहृदयता और विशालता का परिचायक है।
मैं आपके दीर्घायु एवं स्वस्थ सुखी जीवन की कामना करता हुआ हृदय से आपका अभिनन्दन करता हूँ। आप इसी तरह धर्म, दर्शन, साहित्य और समाज के विकास में सदा समर्थ और तत्पर रहकर अपने जीवन को धन्य करें-ऐसी वीतराग प्रभु से प्रार्थना है। *अध्यक्ष, जैन दर्शन विभाग, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी ।
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डॉ० सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
श्रमण-संस्कृति के सारस्वत साधक : डॉ० सागरमल जैन
डॉ० महेन्द्र सागर प्रचण्डिया
श्रमण संत जंगम तीर्थ होते हैं। उनमें ज्ञानगरिमा की गोदावरी और चारित्रिक महिमा की मंदाकिनी की अजस्र धारा प्रवाहित होती है। उनका प्रवास अथवा वर्षावास बेजोड़ संगम का रूप धारण करता है । यहाँ पर विरल विभूतियों के सहज में अभिदर्शन हो जाते हैं।
श्रमण-संत परम्परा में आचार्य हस्तीमल जी महाराज अपने समय के पहले और अकेले तेजस्वी और प्रभावंत महामनीषी सुधी संत थे। लगभग दो-ढाई दशक पूर्व आचार्य हस्तीमल जी महाराज के जलगाँव में वर्षावास हेतु अत्यल्प अवधि में नवनिर्मित विशाल महावीर भवन में जैन विद्वत् परिषद् का विशेष आयोजन किया गया था। मेरे विद्वान् मित्र डॉ० नरेन्द्र भानावत (अब दिवंगत) उसके लोकप्रिय कर्मठ मंत्री थे और उनके ही कारण मुझे भी आमंत्रित किया गया था, वस्तुतः बात तब की है । तत्समय विद्वत् परिषद् के उपाध्यक्ष, श्रमण संस्कृति के सारस्वत साधक डॉ० सागरमल जैन के पहलेपहल दर्शन कर आनंदित हुआ।
आचार्य श्री की चर्या में विद्युत उपकरणों के प्रयोग का निषेध था। बिना माइक के इतनी विशाल जन-सभा में बोलना मेरे लिए सम्भव नहीं था पर पूज्य महाराज साहब के निर्देश को टालने की भला मुझमें साहस और शक्ति कहाँ ? आचार्यश्री से आशीर्वाद प्राप्त कर उनके पवित्र सान्निध्य एवं प्रशांत वातावरण में मुझे सुनकर श्रोताओं ने अनुशंसा की थी और डॉ० जैन प्रशंसकों में सबसे अग्रगण्य थे।
__डॉ० जैन आर्ष वाङ्मय के सुधी अध्येता हैं । उस समय आचार्य श्री के द्वारा डॉ० जैन की सारस्वत वार्ता को बड़े मनोयोग पूर्वक सुना और सराहा गया था । वे गम्भीर से गम्भीर विषय-विवेचन को सरलता पूर्वक उपन्यस्त करने में गजब की सिद्धता रखते हैं।
___ कालान्तर में एक और अन्य सारस्वत सभा का आयोजन पीपाड़ शहर में सम्पन्न हुआ था। अनेक विद्वानों, सामाजिक कार्यकर्ताओं तथा साधक समुदाय के अभूतपूर्व समायोजन में सम्मिलित होने का मुझे भी सुअवसर मिला था । इस बार मुझे मंत्री महोदय ने दो बार वक्तव्य देने का सुयोग दिया था किन्तु संयोग से डा० जैन विलम्ब से पधारने के कारण मुझे सुनने से वंचित रहे, ऐसा उन्होंने अपने प्रभावी वक्तव्य में अफसोस जाहिर किया था । 'प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषा के उद्भव और विकास', विषयक उनके वैदुष्यपूर्ण वक्तव्य ने श्रोताओं को आकर्षित किया था ।
डॉक्टर जैन की देहयष्टि जहाँ आकर्षक है, वहाँ वे वाणी व्यवहार में अत्यन्त आर्जवी और अहिंसक हैं । वे प्रायः सोचने और समझने में अपनी प्रामाणिक पटुता का भरपूर उपयोग करते हैं। उनमें गवेषणात्मक गहराई और विनय-वात्सल्य तथा गुणग्राह्यता जैसी आत्मिक गुणों की ऊँचाई का उत्तम उजागरण हुआ है। . आप 'श्रमण' के सफल और सिद्धहस्त सम्पादक हैं । गतदशाब्दियों से लेखक और पाठक के रूप में उनसे मेरा जुड़ाव रहा है। श्रमण के अंकों में डॉक्टर जैन के अमूल्य सोच और विचार के अभिदर्शन होते रहे हैं । अनेक ग्रंथों का प्रणयन, सम्पादन कर उन्होंने श्रमण-साहित्य और संस्कृति की श्री वृद्धि किया है।
'डॉक्टर सागरमल जैन, जैन विद्या और संस्कृति की इसी प्रकार सेवा करते रहें। वे शतायु हों । ऐसी मेरी अनंत मंगल कामनाएँ और भावनाएँ सादर सप्रेम समर्पित हैं।
इत्यलम् !
*निदेशक- जैन शोध अकादमी, अलीगढ़
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जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६
डॉ० सागरमल जैन: एक संस्मरण
डॉ० हरिहर सिंह* डॉ० सागरमल जैन से मेरा पहला सम्पर्क उस समय हुआ जब वे सन् १९७९ ई० में पार्श्वनाथ विद्यापीठ के निदेशक होकर आये। उनके आने से पूर्व पार्श्वनाथ विद्यापीठ के कार्यकारी निदेशक के रूप में मैं ही कार्यरत था और संस्थान के सम्पूर्ण कार्यों के दायित्व के बोझ से लदा हुआ था। अत: आप के आते ही मुझे राहत मिली। आमतौर पर नये व्यक्ति को समझनेपरखने में थोड़ा वक्त तो लगता ही है । लेकिन डॉ० जैन इतने सरल स्वभाव के थे कि उनके साथ कार्य करने में कोई समस्या या कठिनाई उत्पन्न ही नहीं हुई। डॉ० जैन के साथ मुझे मात्र चार-पाँच महीने तक ही कार्य करने का सुअवसर मिला, क्योंकि सन् १९८० के मार्च महीने में मैं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग में प्रवक्ता के पद पर नियुक्त होकर चला गया। इस अल्पावधि में मुझे डॉ० जैन के प्रतिभावान व्यक्तित्व और विद्वत्ता का परिचय प्राप्त हुआ । वे किसी भी समस्या के समाधान हेतु हमेंशा तत्पर दिखे और मेरे तथा अन्य कर्मचारियों के प्रति उनका व्यवहार सदाशयता पूर्ण रहा । वे उदारता के प्रतीक हैं । कभी भी प्रतिशोधात्मक रवैया नहीं अपनाते हैं। उन्होंने पार्श्वनाथ विद्यापीठ का जैन समाज से निकट सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास किया ताकि जैनलोग संस्था के उत्थान में भागीदार बन सकें। इस हेतु उन्होंने न केवल वाराणसी के प्रत्युत अन्य स्थानों के प्रभावशाली व्यक्तियों का आह्वान किया जिसमें उन्हें पर्याप्त सफलता भी मिली।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में जाने के बाद भी मैं डॉ० जैन से हमेशा मिलता रहा और संस्था के समृद्ध पुस्तकालय का उपयोग करता रहा । मुझे जब भी किसी पुस्तक की आवश्यकता हुई उन्होंने तत्काल उसे उपलब्ध कराया और आवश्यकता पड़ने पर उसे बाजार से भी खरीदवाया । जब कभी भी मैंने जैन धर्म-दर्शन से सम्बन्धित किसी समस्या को उनके समक्ष प्रस्तुत किया उन्होंने बहुत तत्परता से उसे हल करने का प्रयास किया। इसके लिये मैं उन्हें साधुवाद देता हूं।
डॉ० जैन पार्श्वनाथ विद्यापीठ को जैनविद्या के अध्ययन अध्यापन के महान् केन्द्र के रूप में देखना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने अथक प्रयास भी किया। उनके तथा संस्था के अन्य पदाधिकारियों के अध्यवसाय से इसे मान्य विश्वविद्यालय का दर्जा भी मिलने वाला था परन्तु दुर्भाग्यवश यह कार्य पूरा न हो सका और वे संस्था को छोड़कर चले भी गये। मैं कामना करता हूँ कि वे दीर्घायु हों और इस संस्था के उन्नयन में अपना योगदान देते रहें।
*प्रवक्ता प्रा० भा० इति० सं० एवं पुरातत्व विभाग, का०हि०वि०वि०, वाराणसी जैन धर्म दर्शन के गहन अध्येता: डॉ० सागरमल जैन
डॉ० लालचन्द जैन* जैन धर्म-दर्शन के गहन अध्ययन, मनन और निदिध्यासन वाले मनीषी विद्वान् के मैंने सर्वप्रथम दर्शन सागर विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग में आयोजित संगोष्ठी के सुअवसर पर सन् १९७८ में किये थे । उसी समय उनसे विचार-विमर्श कर मैने अनुभव किया था कि डॉ० सागरमल जी जैन सरलता की मूर्ति हैं । सादगी उनका अलंकार है । उनकी कृतियों-निबन्धों के अध्ययन से उनके विचारों में भी सरलता झलकती है। साथ ही भावुक होने के कारण दुःखी जनों को देख कर स्वयं दुःखी होकर उसके दुःखों को दूर करने रूप अनुकम्पा से भर जाते हैं । अत: मेरी मंगल कामना है कि डॉ० साहब सतत दीर्घायु हो कर जैन वाङ्मय की सेवा करते रहें ।
*पूर्व निदेशक, रिसर्च इन्स्टीट्यूट आफ प्राकृत, जैनोलाजी एण्ड अहिंसा, वैशाली।
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डॉ० सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
सत्यनिष्ठ सारस्वत : डा० सागरमल जैन
डॉ० रमनलाल चि० शाह* वर्तमान युग में जैन दर्शन एवं अन्य दर्शनों के तुलनात्मक अध्ययन-अध्यापन के क्षेत्र में डॉ० सागरमल जैन का नाम प्रमुख है । पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी की ओर से उनका जो अभिनंदन किया जा रहा है, वह सर्वथा समय प्रशंसनीय है । इस पुनीत अनुष्ठान में मैं भी अपना स्वर पूरित कर संतोष का अनुभव करता हूँ।
डॉ० सागरमल जी जैन के जीवन, अध्यापन कार्य और लेखन प्रवृत्ति पर दृष्टि डालते ही यह प्रतीति हो जाती है कि उन्होंने अपना अध्यापकीय जीवन सम्यक् रीति से सफल बनाया है । डॉ० सागरमल जी जैन का परोक्ष परिचय अनेक वर्षों पूर्व डॉ० हीराबहन बोरदिया के द्वारा मुंबई में मुझे हुआ था । हीराबहन मेरे वयोवृद्ध मित्र स्वर्गीय गणपतलाल जी जवेरी की बहन थीं। उस समय 'जैन धर्म की प्रमुख साध्वियों एवं महिलाएं' विषय पर अपना शोध कार्य कर रही थीं । मैं भी उस समय मुंबई विश्वविद्यालय में गुजराती विभाग के अध्यक्ष के रूप में पी-एच० डी० के विद्यार्थियों का मार्गदर्शन करता था । एक दिन गणपतलाल भाई हीरा बहन के साथ मेरे घर आये । उनसे चर्चा के द्वारा यह ज्ञात हुआ कि हीराबहन एक महत्त्वपूर्ण जैन विषय पर अपना शोध कार्य कर रही हैं। इसी प्रंसग में हीरा बहन ने डॉ० सागरमल जी की विद्वत्ता एवं स्वभाव की प्रशंसा की। उसे सुनकर मेरे मन में यह विचार आया कि यदि सागरमल जी से मिलने का अवसर मिले तो उत्तम होगा। मैंने शीघ्र ही एक अवसर ढूंढ लिया और मुंबई जैन युवक संघ पर्दूषण व्याख्यान माला में व्याख्यान हेतु निमत्रंण दे दिया। इस प्रकार सागरमल जी से मेरा प्रथम परिचय हुआ जो आगे क्रमश: उत्तरोत्तर वृद्धिगत होता गया।
मुंबई में श्री महावीर जैन विद्यालय की ओर से ई० सन् १९७९ से जैन साहित्य समारोह की प्रवृत्ति सम्यक् प्रकार से चल रही है । सन् १९८० में यह समारोह डॉ० भोगीलाल साण्डेसरा की अध्यक्षता में सूरत में आयोजित किया गया । इस प्रसंग पर डॉ० सागरमल जी सूरत पधारे और एक विभागीय बैठक की अध्यक्षता की । पं० दलसुख भाई मालवणिया ने स्रोतागणों को डॉ० सागरमल जी का परिचय दिया । डॉ० सागरमल जी ने अध्यक्ष के रूप में 'जैन दर्शन में आत्म तत्त्व' विषय पर अत्यन्त माननीय व्याख्यान दिया। उस समय गुजरात के स्रोतागणों को डॉ० सागरमल जी की बहुश्रुतता का परिचय हुआ। उसके पश्चात् १९८३ में कच्छ के माण्डवी शहर में पाचवें जैन साहित्य समारोह का आयोजन हुआ। इसमें भी डॉ० सागरमल जी ने विभागीय अध्यक्ष का पद सुशोभित किया और 'जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में नैतिक और धार्मिक कर्तव्यता का स्वरूप' विषय पर एक मौलिक चिन्तनात्मक व्याख्यान दिया। इसी अवसर पर कच्छ के तीर्थों की दो दिवसीय यात्रा का भी आयोजन किया गया । फलत: मुझे और गुजरात के अन्य विद्वानों को डॉ० सागरमल जी के सान्निध्य का लाभ हुआ। इस प्रकार डॉ० सागरमल जी जैन साहित्यसमारोह की बीस वर्षों से चल रही इस प्रवृत्ति से पूरी तरह जुड़ गए । यद्यपि साहित्य समारोह में गुजरात के बाहर के विद्वानों को बुलाना हमारी आर्थिक सीमाओं के कारण संभव नहीं हो पाता है फिर भी श्री भंवरलालजी नाहटा एवं डॉ० सागरमलजी इसके अपवाद रहे हैं । अष्टम साहित्य समारोह सम्मेदशिखर बिहार में डा० सागरमल जी जैन की अध्यक्षता में ही सम्पन्न हुआ था।
इसी प्रकार सन् १९९५ में तेरहवाँ जैन साहित्यसमारोह राजगृह, बिहार में भी डॉ० सागरमलजी जैन की ही अध्यक्षता में आयोजित किया गया । इसी प्रकार वे जैन साहित्यसमारोह के एक अनिवार्य अंग तो बने ही साथ ही गुजरात के जैन धर्म-दर्शन विषय के लेखकों एवं विद्वानों में भी प्रीति और आदर के पात्र बन गये। उनके अनेक लेखों का 'गुजराती अनुवाद' हमने 'प्रबुद्ध' जीवन में प्रकाशित किया है।
इस प्रकार जैन साहित्यसमारोह और मुंबई की पर्युषण व्याख्यान माला के निमित्त मैं और डॉ० सागरमल जैन से प्रगाढ़ मैत्री में बंध गए । सहजता एवं सरलता उनके विशिष्ट गुण हैं । इतने बड़े विद्वान् होने के बाद भी उनका सान्निध्य बोझ रूप नहीं होता । चर्चाओं के प्रसंग में उनकी जैनदर्शन एवं अन्य दर्शनों की ज्ञान-गंभीरता हमें मुग्ध कर देती है किन्तु उनमें
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जैन विद्या के आयाम खण्ड
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कहीं भी अपने पांडित्य-प्रदर्शन का भाव नहीं होता है। यदि उन्हें किसी तथ्य की जानकारी नहीं होती है तो वे उसे सहजता से स्वीकार भी कर लेते हैं। डॉ० सागरमल जैन का व्यक्तित्व निर्दभ और गुणग्राही है और उनमें अपने दायित्वों के प्रति सजगता तथा कर्तव्यों के प्रति निष्ठा है। प्रकृति से आप निलोभी हैं। दूसरों के साथ सद्भाव से कार्य करने की आपमें गहरी समझ और नैसर्गिक सूझ है। विद्या व्यसन ही उनकी प्रिय प्रवृत्ति है। उनका अध्ययन और मनन अधिक विशाल और गहन है। यही कारण है कि स्वल्प काल में ही उन्होंने उच्च कोटि के विपुल साहित्य का सृजन किया है।
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डॉ० सागरमलजी के व्यक्तित्व का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष दुराग्रह और हठवादिता का अभाव है। वे दूसरों के मत और विचारों में रही हुई सत्यता के अंश को सहज ही स्वीकार कर लेते हैं और अपने आचार-विचार में कभी भी अभिनिवेश प्रदर्शित नहीं करते हैं। दूसरी ओर खुशामद करने की वृत्ति भी उनमें नहीं है। वे अपनी बात को तर्क पुरस्सर ढंग से इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं कि उसे सहज ही स्वीकार करने का मन होता है। कभी कोई चर्चा विवादास्पद बन जाये तो वे अपने मत को स्पष्ट रूप से शास्त्र और ग्रंथों के आधार पर स्पष्टता के साथ प्रस्तुत करते हैं। ऐसे अवसर पर वे स्वस्थतापूर्वक कटुतारहित होकर अपनी बात को सहज रूप से विश्वसनीय बना देते हैं। इसी कारण से विद्वत्सभा में उनका गौरव होता
जो व्यक्ति दार्शनिक साहित्य का गंभीरता से तथा उसकी ऐतिहासिक समझपूर्वक अध्ययन कर लेता है उसमे सांप्रदायिक संकुचितता नहीं रह जाती। डॉ० सागरमलजैन को यह उदार और असांप्रदायिक दृष्टि उनके पूर्वगामी धुरन्धर पण्डित सुखलालजी एवं पं० दलसुख भाई मालवणिया से उत्तराधिकार में प्राप्त हुई। उन्होंने इस उत्तराधिकार का सम्यक् रूप से निर्वाह किया । जैनदर्शन हो या बौद्ध दर्शन अथवा हिन्दू-दर्शन हो अथवा जैनों के दिगम्बर, श्वेताम्बर, स्थानकवासी या तेरापंथ संप्रदाय हों, वे तथ्यों को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में, तटस्थता पूर्वक, सत्यनिष्ठा और समभाव से देखते हैं और इस सम्बन्ध में अपने मन्तव्य को पूर्वाग्रह रहित होकर उपस्थित करते हैं। उनके ग्रंथों में उनकी इस पारगामी दृष्टि को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। वस्तुतः जिसके जीवन में भगवान् महावीर द्वारा प्रतिबोधित अनेकान्तवाद आत्मसात् हो जाता है उसके मिथ्या मताग्रह स्वयं ही दूर हो जाते हैं ।
* पूर्व अध्यक्ष, गुजराती विभाग, मुम्बई विश्वविद्यालय, मुम्बई ।
डॉ० सागरमलजी ने अपने अध्यापक जीवन में कितने ही विद्यार्थियों को शोध कार्य करवा कर उन्हें पी-एच० डी० की उपाधि से अलंकृत करवाया। अजैन विद्यार्थियों से जैन विषय में शोध कार्य करवाना कितना कठिन है यह तो कोई भुक्तभोगी ही जान सकता है? यदि मार्गदर्शक की स्वयं की विषय पर पकड़ न हो तो विद्यार्थी को योग्य मार्गदर्शन देना संभव नहीं होता है। मार्गदर्शक का कार्य बहुत ही श्रमपूर्ण और नीरस होता है। कितनी ही बार विद्यार्थी ऊब जाता है और विषय को छोड़ देने की बात करता है, उस समय उसे प्रोत्साहित करना पड़ता है, कभी ऐसा भी लगता है कि विद्यार्थी को मार्गदर्शन करने में, उसके प्रारम्भिक लेखन को सुधारना, संशोधित करना इस सब में इतना समय और श्रम लगता है कि इतने समय में मार्ग दर्शक स्वयं मौलिक ग्रंथ तैयार कर सकता है किन्तु ऐसे प्रलोभन में न पड़कर विद्यार्थी तैयार करने में एक संतोष होता है, यह सच्ची विद्याप्रीति के बिना संभव नहीं होता। ऐसी विद्याप्रीति हमें डॉ० सारगमलजी में देखने को मिलती है। संस्थान का संचालन करते हुए डॉ० सागरमलजी ने इतने विद्यार्थियों के मार्ग दर्शन व स्वयं इतना विपुल लेखन कार्य किया है कि उसे देखकर आश्चर्य होता है। लेखक जब तक आसन बद्ध होकर नहीं बैठता लेखन संभव नहीं होता। अध्ययन व लेखन में एकनिष्ठ होने के लिए अनेक सामाजिक व मनोरंजनात्मक प्रलोभनों को छोड़ना पड़ता है। डॉ० सागरमलजी ने यह किया है, तभी वे इतनी सिद्धियों को प्राप्त कर सके हैं। समाज उन पर गौरव कर सके, वे ऐसे सत्यनिष्ठ सारस्वत हैं। उन्होंने पार्श्वनाथ विद्यापीठ के निदेशक का पद न केवल सुशोभित किया, अपितु उसके उत्थान में अपना अमूल्य योगदान दिया है। डॉ० सागरमल जी के अभिनंदन के इस सुअवसर पर अपनी अन्तरात्मा से प्रसन्नता व हर्ष का अनुभव करता हूँ।
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डॉ० सागरमल जैन व्यक्तित्व एवं कृतित्व
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डॉ० सागरमल जैन : मेरी दृष्टि में
जैन धर्म में कहा गया है कि 'अनन्त धर्मात्मकं वस्तु' अर्थात् वस्तु अथवा द्रव्य के अनेक धर्म होते हैं। उसी प्रकार मानवव्यक्तित्त्व के अनेक पक्ष होते हैं। उन सभी पक्षों पर विचार करना किसी मानव के लिए सहज नहीं है। इसलिए मेरी दृष्टि में जैन साहब का जो पक्ष उजागर हुआ है, उन्हीं पक्षों पर विचार करना मेरी अपेक्षा है ।
डॉ० अजित शुकदेव शमी
करीब सन् १९६८-६९ की घटना है, जब मैं पीएच. डी. की डिग्री प्राप्त कर पोस्ट डॉक्टरल के शोध-प्रबन्ध पर कार्यरत था तो डॉ० मोहन लाल मेहता, जो पार्श्वनाथ विद्याश्रम के निदेशक थे, उनके पास जैन साहब का शोध-प्रबन्ध परीक्षण के लिए आया । परीक्षणोपरान्त डॉ० मेहता साहब ने मुझे जैन साहब का शोध-प्रबन्ध पढ़ने के लिए दिया और कहा कि देखो कितना अच्छा शोध-प्रबन्ध है उस शोध-प्रबन्ध को पढ़ने के बाद मेरी भी धारणा जैन साहब के प्रति स्पष्ट हुई कि वस्तुतः शोध-प्रबन्ध का लेखक कितना गम्भीर अध्येता, मननशील विचारक और समन्वयन दृष्टि का परिचायक है। क्योंकि वह शोध-प्रबन्ध गीता, धम्मपद के परिप्रेक्ष्य में जैन आचारशास्त्र का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करता है। उस समय तो उनसे साक्षात्कार नहीं हुआ था लेकिन यह धारणा बनी थी कि जैन साहब वस्तुतः अध्ययनशीलता एवं मर्मी - विद्वत्ता के धनी हैं।
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जैन साहब से प्रथम मुलाकात पार्श्वनाथ विद्याश्रम में ही हुई, जब वे पार्श्वनाथ विद्याश्रम के निदेशक के रूप में आये। मैं भी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में एक संगोष्ठी में भाग लेने के लिए शांतिनिकेतन से बनारस गया हुआ था। मेरे मन में उनके प्रति निष्ठा थी ही और मैं उनसे मुलाकात करने के लिए विद्याश्रम में गया। बड़ी सहजता और सहृदयता से वे मिले और कई प्रकार की लेखन-पाठन की चर्चायें हुईं। इसके बाद तो कितनी बार उनसे मिला और जैन विद्या के पठन-पाठन के सम्बन्ध में चर्चायें होती रहीं। कई बार तो मैं अपने परिवार एवं बच्चों के साथ जैनाश्रम चला आता और वहीं १५-२० दिनों के लिए आश्रम में ठहरता। उनकी श्रीमती जी भी बहुत उदारमना और सहज स्नेह देने वाली हैं और ऐसा लगता कि मेरे परिवार उनके अपने परिवार हैं। मुझे भी जैनाश्रम के प्रति अपार प्रेम एवं स्नेह रहा है क्योंकि मेरे व्यक्तित्व का विकास वहीं से प्रारम्भ होता है । मैं जो कुछ भी हूँ, वह पार्श्वनाथ विद्याश्रम की ही देन है। वहाँ के आश्रमवासी मेरे अपने परिवार जैसे हैं ।
जैन साहब की कृतियों के प्रति मेरा आकर्षण रहा है और उनकी करीब-करीब सभी कृतियों को मैंने पढ़ा है और पाया है कि उन कृतियों के द्वारा उन्होंने कुछ-न-कुछ नयी दृष्टियों का उद्घाटन किया है। कई बार भारत के विभिन्न भागों में संचालित गोष्ठियों में भी उनके शोध प्रबन्ध को सुनने और चर्चा करने का मौका मिला है। फिलहाल उनकी पुस्तक 'जैन भाषा - दर्शन' को पढ़कर बहुत प्रसन्नता हुई है और मेरी धारणा है कि वह पुस्तक निश्चय ही जैन भाषा दर्शन के क्षेत्र में अमूल्य निधि है। आगे आने वाली पीड़ी निश्चय ही इसका आधार मानकर जैन विद्या के क्षेत्र में और अधिक परिष्कृत भाषा दर्शन के आयाम को प्रस्तुत कर सकेगी।
मुझे आशा एवं विश्वास है कि जैन साहब स्वस्थ रहकर जैन विद्या के क्षेत्र में और अधिक योगदान दे सकेंगे ।
प्रोफेसर, दर्शन एवं धर्म विभाग, विश्वभारती, शान्ति निकेतन ७३१२३५ ( पश्चिम बंगाल )
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जैन विद्या के आयाम खण्ड -६
जैन एकता के सूत्रधार : डॉ० सागरमल जैन ।
मोहनलाल खरीवाल यह जानकर अति प्रसन्नता हुई कि डॉ० सागरमल जैन के सम्मान में एक अभिनन्दन ग्रंथ प्रकाशित हो रहा है डॉ० सागरमलजी एक ऐसे विद्वान् और लेखक हैं जिनकी लेखनी एवं विचारों की जितनी प्रशंसा की जाय थोड़ी है । दर्शन और धर्म का तो उन्होंने खूब अध्ययन किया है और उसका लाभ जनता एवं समाज को अपने द्वारा रचित ग्रंथों एवं लेखों से दिया है । मैं उनकी विद्वत्ता के बारे में क्या लिख सकता हूँ। इतना ही समझता हूँ कि निरपेक्ष भाव से उन्होंने लेखन कार्य किया
___ मुझे सबसे ज्यादा उनके उस रूप की प्रशंसा करनी पड़ेगी जिसमें जैन एकता के बारे उनके हृदय में अगाध लगन एवं उत्कंठा है। पिछले दिनों उनका एक लेख पढ़ने का मौका मिला जो जैन एकता के सम्बन्ध में था । इतने सुलझे हुए विचारों के विद्वानों की समाज में आज आवश्यकता है। अगर वह एकता हम सभी में आ जाय और सब मिल करें तो समाज कितना ऊँचा उठ सकता है ।
उनके जैन एकता के उद्गार हृदय से निकलकर शब्दों में प्रकाशित हुए हैं। उनका किसी भी संप्रदाय के प्रति द्वेषभाव नहीं है। यही कारण है कि दिगम्बर, श्वेताम्बर, स्थानकवासी एवं तेरापंथी भी उनका आदर करते हैं और समय-समय पर सभी संप्रदाय वाले उन्हें निमन्त्रण देकर बुलाते हैं । विचार सुनते हैं और अभिनंदन करते हैं । मुझे तो उनकी एक ही अभिलाषा पूर्ण होने की अत्यंत इच्छा है कि पार्श्वनाथ विद्यापीठ को वे विश्वविद्यालय में परिवर्तित कर सकें । जिससे हम सभी का सम्मान बढ़ सके । उनका प्रयत्न इसमें जरूर सफल होगा, ऐसी आशा है।
ईश्वर उन्हें चिरायु करे एवं स्वस्थ रखे जिससे समाज को लाभ मिल सके । मैं तो उनके विचारों का प्रशंसक हूँ और उनका स्थान मेरे हृदय में आदरणीय है।
जैन विद्या के तुलनात्मक अध्येता : डॉ० सागरमल जैन
डॉ० रमेशचन्द्र जैन* ___ डॉ० सागरमल जैन को मैं लगभग दो दशक से जानता हूँ । वे जैन दर्शन के गहन अध्येता, चिन्तक और आगम गवेषी विद्वान हैं । हंसमुख और सौम्य व्यक्तित्व के धनी डॉ० सागरमल जैन सहजता, सरलता, वात्सल्य, करुणा, मुदिता के भण्डार हैं । जैन समाज में पार्श्वनाथ विद्याश्रम जैन शोध और खोज के क्षेत्र में अग्रणी रहा है। उसके निर्देशक पद को संभाले हुए आपकी लेखनी अनवरत चलती रहती है। वे जैन विद्या में व्याख्यान देने अनेक बार विदेशों में भी गए हैं। जैन, बौद्ध और गीता के विषय में उनका महत्त्वपूर्ण शोधग्रन्थ प्रकाशित हुआ है, जो उन्हें दार्शनिक चिन्तक के साथ जैन विद्या के तुलनात्मक अध्येता के रूप में प्रस्तुत करता है । इसके अतिरिक्त डॉ० सागरमल जैन की अन्य कृतियों उनकी तुलनात्क दृष्टि का विकास हुआ है । चूंकि श्वेताम्बर संस्कारों के बीच उनका जन्म हुआ, उसी में वे पले बढ़े हैं और उनके अध्ययन तथा कार्य का केन्द्र श्वेताम्बर संस्था है, अत: उनके लेखों में हम श्वेताम्बर परम्परा का प्रबल पोषण सहज पाते हैं, तथापि इस रूप में दिगम्बर विद्वानों के लिए भी उनकी महत्ता है कि वे लेख-चिन्तन के नए-नए आयाम प्रस्तुत कर दूसरे को भी चिन्तन करने हेतु उबुद्ध करते हैं। उनके लेखों को पढ़कर कोई आलसी नहीं रह पाता। उनके मार्गदर्शन में अनेक शोधछात्रों ने पी-एच०डी० जैसी गरिमामय उपाधि प्राप्त की है, अनेक छात्र/छात्रायें शोध कार्यरत हैं। 'श्रमण' पत्रिका में उनके तथा अन्य जैन विद्या के विद्वानों के महत्त्वपूर्ण शोध आलेख प्रकाशित होते रहते हैं । अपने सम्पादकीय वक्तव्यों में यदा-कदा
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डॉ० सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
समन्वय के मार्ग बतलाते रहते हैं । यर्थाथ में वस्त्र और पात्रवाद के मुद्दे को छोड़कर अन्य भी समन्वय का बहुत बड़ा क्षेत्र है, जिसे अपनाकर उभय परम्परा के विद्वानों को जैन विद्या के अध्ययन और विकास का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए। यही समय की माँग है और डॉ० सागरमल इस मांग की पूर्ति हेतु सचेष्ट रहेंगे, ऐसी आशा है । मैं डॉ० सागरमल के यशस्वी जीवन की हार्दिक मंगल कामना करता हूँ।
*जैन मन्दिर के पास, बिजनौर, उत्तर-प्रदेश
विद्यासागर : डॉ० सागरमल जैन
हिम्मतमल नारेलिया जैन*
मन मस्तिष्क अहं आक्रोश से सदैव दूर । विद्वत् रत्न डॉ० सागरमल जी जैन ज्ञान से भरपूर ॥ विनम्रता, सरलता, सौम्यता, मधुरता के भण्डार ।
विश्व विद्वत् धर्म परिषद् में पाई प्रतिष्ठा अपार ।। मध्यप्रदेश के सुरम्य हृदयस्थल मालवा की भूमि के नगर शाजापुर में जन्मे, उसकी माटी की ख्याति चंदन सौरभ सी अपनी विद्वत्ता से विश्व में फैलाने वाले डॉक्टर सागरमल जी जैन, ओसवाल माण्डलिक कुल के प्रतिष्ठित दृढ़ धर्मी, प्रियधर्मी, नित्य स्वाध्यायी, स्थान के संरक्षक धर्मानुरागी श्रावक श्रीमान् राजमल जी साहब शक्करवाले के ज्येष्ठ पुत्र हैं और स्वनाम धन्य गंगा समान निर्मल, शांत स्वभावी माताश्री श्रीमती गंगाबाई के लाल हैं।
विद्यार्थी जीवन में इनके पिताश्री चाँदी सोने के व्यवसाय में निष्णात बनाना चाहते थे। यह मिलावट का व्यवसाय इनकी आत्मा को मान्य नहीं हुआ। विद्याध्ययन कर डॉक्टर की उपाधि प्राप्त की एवं विभिन्न महाविद्यालयों में सफल प्राध्यापक
रहे।
श्री पार्श्वनाथ जैन शोध संस्थान वाराणसी के निदेशक पद पर कुशलता पूर्वक कार्य पूर्ण कर यश प्राप्त किया। भारतीय जैन समाज के प्रमुख प्रतिनिधि के रूप में चयनित होकर विश्व धर्म विद्वत परिषद्, अमेरिका में जैन धर्म का प्रतिनिधित्व कर ख्याति अर्जित की । आप समाज रत्न हैं । अपनी कुशाग्र बुद्धि से विभिन्न धर्मों के विद्वानों के सम्मुख जैन धर्म एवं जैन दर्शन व भारतीय संस्कृति की महानता, श्रेष्ठता व अनिवार्यता का प्रतिपादन किया। विश्व के विविध धर्मों के विद्वद्गण आपके जैन दर्शन के सिद्धांतों से प्रभावित हुए । ऐसे विद्यासागर डॉक्टर सागरमल जी जैन समाज के भूषण एवं भारत के गौरव
आप माण्डलिक कुल के प्रकाशमान भानु हैं । हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी, पाली, प्राकृत, गुजराती आदि भाषाओं के ज्ञाता हैं । महान विद्वान होते हुए भी इनके मन में अहंभाव किचिंत भी नहीं है। आप विनम्रता और सरलता की प्रतिमूर्ति हैं । आपके उत्तम स्वास्थ्य, दीघार्यु एवं समस्त परिवार के यशस्वी आनन्द भविष्य की मंगल कामना है।
इति शुभम् !
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जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६
*अध्यक्ष - श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन ओसवाल संघ, शाजापुर (म०प्र०)
शब्द शिल्पी, बेजोड़ सम्पादक एवं शोधपुरोधा
उदय नागोरी*
सारल्य, सहजता, आत्मीयता एवं सादगी के प्रतीक सरस्वती के वरदपत्र, संपादन क्षेत्र में प्रथक पहचान बनाने । वाले एवं सहस्राधिक ग्रन्थों-सूत्रों की अतल गहराई में पैठकर शोध रत्न हस्तगत करने में सक्षम, शोध पुरोधा डॉ० सागरमल जैन साहित्यिक जगत् में विशिष्ट स्थान रखते हैं ।
जैनधर्म-दर्शन-साहित्य के दर्जनों शोधार्थियों के निदेशक रह चुके डॉ. जैन अहं से कोसों दूर, आडम्बर से अछूते व पदलिप्सा/लोकेषणा से मुक्त हैं । सामाजिक/धार्मिक/सांस्कृतिक/साहित्यिक गोष्ठी/विचार-विनिमय/मार्गदर्शन हेतु आपके द्वार सदैव अनावृत रहे हैं । समाज उन्नयन, दार्शनिक शोध एवं धर्म को जीवन से जोड़ने के लिये कोई योजना या प्रस्ताव हो तो कभी भी मिलने के लिए आप समय निकाल ही लेते हैं। न कोई एपांइटमेन्ट न औपचारिकता है इनके यहाँ ।
आपके सम्पादकत्व में 'श्रमण ने अपना पृथक स्थान बनाया है। पत्रकारिता के क्षेत्र में और अनेक लेखकों ने आपसे प्रेरणा लेकर लेखन-क्षेत्र में अपने चरण ही नहीं बढ़ाये, साफल्य की सीढ़ियां भी पार की । अछूते, अज्ञात, अल्पज्ञात विषयों पर विस्तृत, शोधपरक, शास्त्र सम्मत प्रस्तुति से इसकी प्रसार-संख्या तो बढ़ी ही, यह सर्वत्र आशातीत समादृत है ।
जैनधर्म/दर्शन के गूढ़ विषयों पर विदेशों में वार्ताओं/परिचर्चाओं एवं गोष्ठियों के माध्यम से डॉ० जैन ने अपनी अनूठी छाप छोड़ी है । श्रोताओं के मन में कुछ अस्पष्टता या संदिग्धता लगती तो आप अपने प्रमाण व तों से उन्हें संतुष्ट कर देते हैं,जो स्वयं में विशिष्ट गुण है । लेकिन आप स्पष्ट वक्ता हैं अत: जहाँ भी सामाजिक साहित्यिक/धार्मिक संस्थाओं में शैथिल्य, अव्यवस्था या ध्येय के प्रति निष्ठा नहीं पाई आपने पदाधिकारियों को सजग किया और कार्य सम्पादन हेतु तत्पर भी।
विद्यापीठ ही नहीं, समग्र जैन समाज, साहित्य-जगत् आपसे गौरवान्वित है। यही अपेक्षा है कि आप शतायु हों और निरन्तर अपना शोधामृत ज्ञान पीपासुओं को मुक्तहस्त से लुटाते रहें ।
*सेठिया जैन ग्रन्थालय, नरोठी सेठिया मोहल्ला, बीकानेर - ३३४००५
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डॉ० सागरमल जैन व्यक्तित्व एवं कृतित्व
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बहुमुखी व्यक्तित्व के धनी
डॉ० श्रीमती मुनीपुष्पा जैन 'सिंघई'
पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान के स्वच्छ और विद्याराधना हेतु पावन परिसर में मुझे भी सन् १९७४-७६ तक रहने का सौभाग्य तब मिला जब मेरे पति डॉ० फूलचन्द जैन 'प्रेमी' यहाँ रहकर शोधकार्य कर रहे थे । अतः इस संस्थान के प्रति लगभग दो दशकों से अधिक समय से गहरा लगाव है। जब से (१९७९) इसके निदेशक के रूप में आदरणीय डॉ० सागरमल जी ने इस पद को गौरवान्वित किया तब से संस्थान की चहुँमुखी प्रगति में मानो पंख लग गये। पूरे देश की जैन समाज और पूज्य साधुओं के मन में आदरणीय डॉ० सा. के बहुमुखी व्यक्तित्व और कृतित्व तथा इनके सरल-सहज स्वभाव और विद्वत्ता की अमिट छाप पड़ी जिसके फलस्वरूप संस्थान की ख्याति दिन-प्रतिदिन बढ़ती रही । आपके समन्वयात्मक आलेखों से मैं काफी प्रभावित रही। इन आलेखों के प्रभाव से जैन-जैनेतर समाज वै विद्वानों में जैनधर्म दर्शन की अन्तर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि हुई डॉ० सा० के अथक प्रयास से जब संस्थान को डीम्ड युनिवर्सिटी का रूप देने हेतु कार्य योजना बनी तब मुझे भी आदरणीय डॉ० सा० ने पुस्तकालयाध्यक्षा के रूप में कार्य करने का सुअवसर प्रदान किया और यहाँ संरक्षित हस्तलिखित पाण्डुलिपियों में से कुछ महत्त्वपूर्ण पाण्डुलिपियों के सम्पादन कार्य करने हेतु कहा तो पहले तो कुछ कठिनाई महसूस हुई, किन्तु इनके अच्छे मार्गदर्शन ने मुझे सदा प्रोत्साहित किया तथा आपके कुशल निर्देशन से मात्र छह माह की कार्यावधि में मैंने जैनधर्म से संबंधित छोटी-बड़ी बारह पाण्डुलिपियों का सम्पादन किया तो जैनधर्म-संस्कृति और साहित्य के इस अपार ज्ञान से भी परिचित होने का सौभाग्य प्राप्त किया जिससे अब तक वंचित थी। संस्कृत, प्राकृत, प्राचीन राजस्थानी, गुजराती भाषाओं की पाण्डुलिपियों पर कार्य करने से डॉ० सा० से इन भाषाओं का ज्ञान अर्जित किया चूंकि कार्य करते समय जब भी कठिनाई हुई तो आदरणीय डॉ० सा० से पूछते तब एक प्रश्न के प्रसंग से अनेक प्रश्नों का समाधान सहज ही मिल जाता तो ऐसा लगता कि ये तो अनेक विषयों के एक चलते-फिरते विश्वकोश हैं। आदरणीय डॉ० सा० के अभिनन्दन के अवसर पर इस बात का उल्लेख करने का मैं लोभ संवरण नहीं कर पा रही हूँ कि जब मेरे ज्येष्ठ पुत्र अनेकान्त कुमार ने टोडरमल स्मारक, जयपुर तथा जैन विश्व भारती लाडनूं में जैनविद्या के अध्ययन हेतु प्रवेश लिया और तब कुछ हमारे शुभेच्छुओं ने ऐसा न करने देने की सलाह दी, किन्तु आदरणीय डॉ० सा० ने हमें और हमारे पुत्र को इसी क्षेत्र में गहराई से अध्ययन करते रहने हेतु सदा प्रोत्साहित और आशान्वित किया।
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आपकी जीवन संगिनी एवं मेरी पूजनीया वात्सल्यमूर्ति आंटी जी को मैं कैसे भूल सकती हूँ। उनका सरल सौम्य स्वभाव तथा ममतामयी मुखमुद्रा सदा स्मृति में रहती है, उनका स्नेहाशीष मेरे लिए अमूल्य निधि है ।
मैं धर्म, दर्शन, साहित्य, संस्कृति, समाज और इस संस्थान की सच्चे मन से सेवा करने वाले तथा इनके विकास हेतु सदा प्रयत्न शील रहने वाले महान व्यक्तित्व का एवं इस व्यक्तित्व की निर्माण की सतत् सहयोगी आदरणीया आंटी जी का हार्दिक अभिनन्दन करती हुई जिनेन्द्र देव से इनके स्वस्थ सुखी दीर्घायु जीवन की हार्दिक कामना करती हूँ ।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६
Introduction of Dr. Sagar Mal Jain by S.L. Jain (Joint Secreatary)
Dr. Sagar Mal was born at Shajapur nagar (M.P.) in 1931. His father Sh. Raj Mal Ji and mother Smt. Gangabai Ji were of religious minded from the childhood he had blessings of Jain saints so his development and growth was under the religious atmosphere. There was no high school in Shajapur so he got his admission in Anglo Vernacular middle school in Gwalior and he passed his 8th class in 1st grade and stood 1st in shajapur district. He could not continue his further studies for sometime as there was no high school in shajapur and being the elder son his parents desired that he should join the family business, so he joined the family sarafa business. At the age of 17 he was married, inspite of his marriage and engagement in business his desire for higher education wa suppermost in his mind.
In 1925 he joined Sahitya Sammelan, Prayag and passed Vyapar Visharad exam. In 1954 he passed Sahitya Ratna in Arth Shastra. In 1955 a private High School started in Shajapur but he could not get the admission due to heavy burden of business and family but even then in he as aswadheiye student passed the exam and in 1957 he passed his Inter-Commerce exam. In 1958 he took leading role in opening Balkrishna Mahavidyalya & got admission in it and passed B.A. exam. In 1961 he Joined the Christian college, Indore and passed M.A. exam.
He his served in the following Institution/Associations in different capiacties. 1. Ex. secretary of Madhav Rajat Jayanti Vachnalya, Shajapur. 2. Ex. secretary of Hindi Sahitya Samiti, Shajapur. 3. Ex. president of Kumar Sahitya Parishad. 4. Ex. president of Sadvichar Niketan. 5. Ex. secretary of Jain samaj Shajapur. 6. Ex president of Madhya Pradesh Sthanakvasi Yuva sangh. 7. Ex. secretary of Sarafa Association, Shajapur. 8. As a lecturer of Maharani Lakshmibai mahavidyalaya, Gwalior. 9. As a lecturer of Darshan Shastra in Thakur Ranmat Singh College, Rewa. 10. As a chairman of Darshan Shastra Vibhag in Hamidia college, Bhopal.
He completed his thesis on Jain, Bauddha aur Gita ke Achar Darshan ka Tulamanatmak Addhyayan and got his P. hd degree. He joined Parshvanath Vidyashram in 1979 as a director. He has also associated himself with many Jain Vidya institutions and wherever any Jain institute starts people contact him for advice and guidance. he has also organised and participated in seminars and conferences in India and has been invited by many universities and institutions for delivering lectures in Jainology
In 1985 association of World religions and in 1993 Parliament of world religions in America
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डॉ० सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
invited him as a representative speaker of jainology. He was also invited by many universities and Jain institutions in America for delivering lectures on different aspects of jainology.
During his directorship Parshvnath Vidyapeeth has also made tremendous progress in construction of more accomodation, publication of about 80 granths, and as guide he helped fifty of students, Indian and Foreigners in preparing their thesis for P.hd and M.A. in Jain Darshan. More. selected books for the convienience of the student were added in even the B. H.U. teachers & students visits this library use the books. It has all accomplished due to his dedication and hardwork.
He has also taken keen interest in higher studies of the Jain sadhus and sadhvies, many sadhu and sadhvies came to Vidyashram for higher studies and Dr. Sagarmal did his utmost in helping them to complete their studies.
He is a noble, polite, Social and a man of intergrity, these are the qualities which have made -him very popular in India and abroad as a authority on Jainology. Due to not keeping good health now a-days for the time being he has left Vidyashram. I prey to God for his early recovery so that he can guide the work of the vidyashram for many years to come.
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जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६
आदरणीय डॉ० सागरमल जैन
अतुल कुमार प्रसाद सिंह* १९९४ में जब जैन विश्वभारती संस्थान लाडनूं से एम० ए० पास किया और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की छात्रवृत्ति मिली, उसके बाद शोध कहाँ किया जाय, यह सोचना पड़ा, सर्वप्रथम मैं पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान ही आया । यहाँ जब डॉ० साहब से इस संबध में बातचीत हुई तो उन्होंने शोध का विषय सुझाया और पंजीयन के लिए कुछ दिन ठहरने को कहा क्योंकि तब संस्थान को मान्य विश्वविद्यालय का दर्जा देने की प्रक्रिया यू. जी. सी. में चल रही थी।
इस बीच उन्होंने तित्थोगाली प्रकीर्णक का अनुवाद करने की प्रेरणा दी । मैं इस प्रकीर्णक को देखकर घबरा गया था कि प्राकृत भाषा में इतने बड़े ग्रंथ का अनुवाद हो पायेगा या नहीं । पर उन्होंने उत्साह दिलाया और कहा कि एक दिन में जितनी गाथा हो उतनी ही करो समस्या आने पर मैं तो हूँ ही, इसी भरोसा पर अनुवाद कार्य शुरू किया । बीच में कठिनाई आने पर डॉ० साहब उसे सुलझाते रहे, और इस प्रकार यह अनुवाद कार्य पूर्ण हो सका । इसी प्रकीर्णक के समीक्षात्मक अध्ययन विषय पर मैंने फिलहाल का. हि. वि. वि. के जैन-बौद्ध दर्शन विभाग में आदरणीय डॉ० कमलेश कुमार जैन के निर्देशन में पंजीयन करा लिया और शोध कार्य कर रहा है । इसी बीच शोध प्रबन्ध लिखने में जहाँ कहीं भी उलझन आती है तो अपना काम छोड़कर वे समाधान करते हैं तथा उनका आत्मीय सहयोग बराबर बना रहता है । जब वाराणसी पहलेपहल आया तो सर्वथा अपरिचित होने के बावजूद उन्होंने उस समय संस्थान में रहने की अनुमति भी प्रदान कर दी थी। उनके व्यक्तित्व के विषय में कुछ लिखकर मैं उन्हें शब्दों में सीमित नहीं करना चाहता हूँ। मैं आपके दीर्घजीवी होने की कामना करता हूँ जिससे जैनविद्या के विकास को गति मिलती रहे ।
*शोध-छात्र, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
परम आदरणीय डॉ० सागरमल जी शतायु हो......
___ डॉ० शेखरचन्द जैन* यह जानकर अतिप्रसन्नता हुई कि पार्श्वनाथ विद्यापीठ के हीरक महोत्सव पर मनीषी एवं संस्था के निदेशक डॉ० सागरमल जी जैन का अभिनंदन ग्रंथ प्रकाशित करके उनकी सेवाओं के प्रति निष्ठा व्यक्त की जायेगी। संस्था और निदेशक यह दोनों का गौरव है।
आदरणीय डॉ० सागरमल जी एक महान व्यक्तित्व के धनी हैं । वे स्वभाव से सरल एवं स्नेहमयी हृदय के धारक है । उनकी विद्वता ने उन्हें सरल ही बनाया है यही कारण है कि इतने बड़े विद्वान-मनीषी होने के बाद भी उनमें यत्किञ्चित भी अहम् नहीं है। छोटे-नौसिखुए, अध्ययनरत छात्र में भी विद्वता के झलक देखकर उसे भी हृदय से लगाकर प्रोत्साहन देना भी उनके व्यक्तित्व का एक उत्तम पहलू रहा है।
वर्तमान विद्वानों में शोधकर्ता के रूप में वे सदियों तक याद किये जायेंगे । उन्होंने जैनधर्म में शोधकार्य में कहीं सम्प्रदायवाद को आड़े आने नहीं दिया । यह उनकी निरपेक्ष खोज दृष्टि का परिचायक पहलू है ।
___ मैं उनसे कई बार अनेक गोष्ठियों, सेमिनार परिषदों में मिलता रहा, उनका असीम स्नेह मुझे मिलता रहा है। उनकी प्रेरणा मुझे लेखन के लिए प्रोत्साहित करती रही ।
मैं इस मंगल प्रंसग पर प्रभु से प्रार्थना करता हूँ कि वे शतायु हों और पूर्ण स्वस्थ रहकर जैनधर्म-दर्शन की सेवा करते रहें । नये शोधार्थियों का मार्ग प्रशस्त करें।
मैं एवं तीर्थंकवाणी परिवार उनके स्वास्थ्य एवं दीर्घायु की शुभ कामना करते हैं। *प्रधान संपादक-तीर्थकरवाणी, अहमदाबाद ।
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ग्रन्थ-प्रणयन
क्रमांक पुस्तक का नाम
प्रकाशक १. जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-१ राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान, जयपुर १९८२ २. जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-२ राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान, जयपुर १९८२ ३. जैन, बौद्ध और गीता का समाज दर्शन
राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान, जयपुर १९८२ ४. जैन, बौद्ध और गीता का साधना मार्ग
राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान, जयपुर १९८२ ५. जैनकर्म सिद्धान्त का तुलनात्मक अध्ययन
राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान, जयपुर १९८२ ६. धर्म का मर्म
पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी १९८६ ७. अर्हत् पार्श्व और उनकी परम्परा
पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी १९८८ ८. ऋषिभाषित : एक अध्ययन
राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान, जयपुर १९८८ ९. जैन भाषा दर्शन
भोगीलाल लहेरचन्द भारतीय संस्कृति मन्दिर,
दिल्ली-पाटण १९८६ १०. जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९९४ ११. तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा
पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी १९९४ १२. अनेकान्त, स्याद्वाद और सप्तभंगी।
पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी १९९० १३. Doctoral Dissertations in Janism and Buddhism (With Dr. A. P. Singh)
पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, १९८३ १४. सागर जैन विद्या भारती भाग १,२,३
पार्श्वनाथ विद्यापीठ, १९९४,-९६ १५. गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण
पार्श्वनाथ विद्यापीठ, १९९६ १६. जैन धर्म और तांत्रिक साधना
पार्श्वनाथ विद्यापीठ, १९९७
पुस्तिकाएँ १. अनेकान्त की जीवन दृष्टि (श्री सौभाग्यमल जी जैन के साथ) २. अहिंसा की सम्भावनायें ३. जैन साहित्य और शिल्प मे बाहुबली (डॉ० मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी के साथ) ४. पर्युषण पर्व : एक विवेचन ५. जैन एकता का प्रश्न ६. जैन अध्यात्मवाद : आधुनिक सन्दर्भ में ७. श्रावक धर्म की प्रासंगिकता का प्रश्न ८. धार्मिक सहिष्णुता और जैनधर्म ९. भारतीय संस्कृति में हरिभद्र का अवदान १०. जैन साधना पद्धति में तप ११. जैन साधना पद्धति में ध्यान १२. जैन धर्म में नारी की भुमिका
भारत जैन महामण्डल, बम्बई, १९७५ पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९८० पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९८१ पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९८३ पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९८३ पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९८३ पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९८३ पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९८५ पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९८७ सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा,
१९८१ पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, १९९४ पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी
१९९५
अनूदित-ग्रन्थ
१. History of Ethics, Sidzwick
हिन्दी अनुवाद (अप्रकाशित)
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जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६
विस्तृत प्रस्तावनाएँ १. चरणकरणानुयोग, द्वितीय खण्ड की विस्तृत भूमिका
आगम अनुयोग प्रकाशन ट्रस्ट, अहमदाबाद २. जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन
पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी ३. प्रमुख जैन साध्वियाँ और महिलाएँ
पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी ४. स्याद्वाद और सप्तभंगी
पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी ५. इसिभासियाई
पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी ६. चन्द्रध्वेध्यक-प्रकीर्णक
आगम अहिंसा समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर,
भूमिका डॉ० सागरमल एवं सुरेश सिसोदिया ७. महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक
आगम अहिंसा समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर
भूमिका डॉ० सागरमल एवं सुरेश सिसोदिया ८. तंदुल वैचारिक प्रकीर्णक
आगम अहिंसा समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर
भूमिका डॉ० सागरमल जैन एवं सुभाष कोठारी ९. देवेन्द्रस्तव प्रकीर्णक
आगम अहिंसा समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर
भूमिका डॉ० सागरमल जैन एवं सुभाष कोठारी १०.द्वीपसागर प्रज्ञप्ति प्रकीर्णक
आगम अहिंसा समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर
भूमिका डॉ० सागरमल जैन एवं सुरेश सिसोदिया ११. Lord Mahavira
पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी १२. जिनवाणी के मोती
जैन विद्या अनुसंधान प्रतिष्ठान, मद्रास १३. द्रव्यानुयोग
आगम अनुयोग ट्रस्ट, अहमदाबाद १४. पंचाशक-प्रकर्णम्
पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी १५. वसुदेवहिण्डी : एक अध्ययन
पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी १६. सिद्धसेन दिवाकर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी
ग्रन्थ-सम्पादन
प्रकाशक श्री स्थानकवासी जैन समाज, शाजापुर, १९७१ अ. भा. स्था. जैन कान्फरेन्स, देहली। पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९८१
ग्रन्थ
लेखक/सम्पादक १. रत्न ज्योति
सम्पादक डॉ० सागरमल जैन २. चिन्तन के नये आयाम
श्री सौभाग्यमल जैन ३. जैन साहित्य का बृहत् इतिहास, भाग-७ पं० के० भुजबजीशास्त्री
विद्याधर जोहरापुरकर ४. हिन्दी जैन साहित्य का बृहत् इतिहास, भाग-१ डॉ० शितिवंठ मिश्र ५. हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग-२ डॉ० शितिकंठ मिश्र ६. जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन डॉ० अर्हद्दास बण्डोवा दिगे ७. आनन्दघन का रहस्यवाद
साध्वी श्री सुदर्शनाजी ८. प्राकृत दीपिका
डॉ० सुदर्शन लाल जैन ९. जैन दर्शन में आत्म विचार
डॉ० लालचन्द जैन १०. जैनाचार्यों का अलंकारशास्त्र में योगदान डॉ० कमलेश कुमार जैन ११. खजुराहों की जैन मन्दिरों की मूर्तिकला डॉ० रत्नेश कुमार वर्मा १२. वज्जालग्गं
डॉ० विश्वनाथ पाठक १३. जैन और बौद्ध भिक्षुणी संघ
डॉ० अरुणप्रताप सिंह
पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९८९ पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९९२ पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९८१ पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९९३ पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९९२ पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९८४ पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९८४ पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९८४ पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९८४ पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९८६
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१४. आचारांग सूत्र : एक अध्ययन १५. मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन १६. तीर्थकर, बुद्ध और अवतार १७. स्याद्ववाद और सप्तभंगी नय १८. सम्बोध सप्ततिका
१९. प्राचीन जैन साहित्य में आर्थिक जीवन २०. जैन साहित्य के विविध आयाम- १
२१. जैनसाहित्य के विविध आयाम-२ २२. जैन साहित्य के आयाम-३ २३. मणिधारी जिनचन्द्रसूरि काव्याञ्जजि
२४. जैनधर्म की प्रमुख साध्वियों एवं महिलाएँ २५. जैनतीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन २६. मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म २७. मानवजीवन और उसके मूल्य २८. जैन मेघदूत्तम्
जैनकर्म सिद्धान्त का उद्भव एवं विकास 30. Theory of Reality in Jaina Philosophy 31. Concept of Matter in Jaina Philosophy
32. Jaina Epistemology
33. The Concept of Pancasila in Indian Thought
34. The Path of Arhat 35. Jaina Perspectives in
Philosophy & Religion
36. Aspects of Jainology Vol. 1 37. Aspects of Jainology Vol. II
38. Aspects of Jainology Vol. III
39. Aspects of Jainology Vol. IV
40. Aspects of Jainology Vol. V
41. Samana Suttam [English Translation)
४२. महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक ४३. चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक ४४. चंदुलवैचारिक प्रकीर्णक ४५. प्राकृत भारती
डॉ० सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व डॉ० परमेष्ठीदास जैन
डॉ० फूलचन्द जैन (प्रेमी) डॉ० रमेशचन्द्र गुप्त
डॉ० भिखारीराम यादव डॉ० रविशंकर मिश्र,
डॉ० कमलप्रभा जैन, सम्पादक डॉ० सागरमल जैन, सम्पादक डॉ० सागरमल जैन, सम्पादक डॉ० सागरमल जैन, सम्पादक डॉ० सागरमल जैन, एवं डॉ० हरिहर सिंह
डॉ० हीराबाई,
डॉ० शिवप्रसाद,
डॉ० (श्रीमती) राजेश जैन,
श्री जगदीश सहाय,
डॉ० रविशंकर मिश्र, डॉ० रवीन्द्रनाथ मिश्र,
Dr. J. C. Sikdar,
Dr. J. C. Sikdar, Dr. Indra Chand Sastri,
Dr. Kamal Jain,
T. U. Mehta,
Dr. Ramjee Singh, Dr. Sagarmal Jain
Dr. Sagarmal Jain
& M.A. Dhaky, Dr. Sagarmal Jain & M.A. Dhaky,
Dr. Sagarmal Jain & Dr. A. K. Singh, Dr. Sagarmal Jain & Dr. A. K. Singh,
Justice T. K. Tukol & Dr. K. K. Dixit, सुरेश सिसोदिया,
सुरेश सिसोदिया, डॉ० सुभाष कोठारी, डॉ० प्रेमसुमन जैन,
डॉ० सुभाष कोठारी,
६३ पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९८७ पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९८७ पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९८८ पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९८९ पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९८६ पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९८८ पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९८१ पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९९० पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९९० पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९८१
पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९९१ पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९९१ पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९९२ पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९९० पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९८९ पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९९३ पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९९१ पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९८७ पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९९०
पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९८३ पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९९३
पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९९३ पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९८७ पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९८७
पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९९१
पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९९३
पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९९५
Sarvaseva Sangh Prakashan, Vns, १९९३
आगम अहिंसा समता प्राकृत संस्थान, उदयपुर, १९९१ आगम अहिंसा समता प्राकृत संस्थान, उदयपुर, १९९१ आगम अहिंसा समता प्राकृत संस्थान, उदयपुर, १९९१ आगम अहिंसा समता प्राकृत संस्थान, उदयपुर, १९९१
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१९९४
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पर
१९९५
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जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६ ४६. देवेन्द्रस्तव
डॉ० सुभाष कोठारी,
आगम अहिंसा समता प्राकृत संस्थान, उदयपुर, १९८७ ४७. द्वीपसागर प्रज्ञप्ति
डॉ० सुरेश सिसोदिया,
आगम अहिंसा समता प्राकृत संस्थान, उदयपुर, १९८७ ४८. उपासकदशांग में वर्णित श्रावकाचार डॉ० सुभाष कोठारी,
आगम अहिंसा समता प्राकृत संस्थान, उदयपुर, १९८७ ४९. जैनधर्म के सम्प्रदाय
डॉ० सुरेश सिसोदिया,
आगम अहिंसा समता प्राकृत संस्थान, उदयपुर, १९९४ ५०. नेमिदूतम्
पार्श्वनाथ विद्यापीठ ५१. महावीर निर्वाण भूमि पावा : विमर्श
पार्श्वनाथ विद्यापीठ
१९९२ ५२. हरिभद्र साहित्य में समाज एवं संस्कृति डॉ० अशोक कुमार सिंह के साथ पार्श्वनाथ विद्यापीठ
१९९४ ५३. गाथा सप्तसती
पार्श्वनाथ विद्यापीठ
१९९५ ५४. श्रृंगार वैराग्यतरंगिणी
पार्श्वनाथ विद्यापीठ
१९९५ ५५. मातुकापद श्रृंगाररसकलित गाथा कोश
पार्श्वनाथ विद्यापीठ ५६. आचारांग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन
पार्श्वनाथ विद्यापीठ
१९९५ ५७. बौद्ध प्रमाणमीमांसा की जैन दृष्टि से समीक्षा
पार्श्वनाथ विद्यापीठ ५८. जैन नीतिशास्त्र : एक कलापरक अध्ययन
पार्श्वनाथ विद्यापीठ. ५९. नल विलास नाटकम्
डॉ. सुरेश चन्द्र पाण्डेय के साथ पार्श्वनाथ विद्यापीठ ६०. अनेकान्तवाद और पाश्चात्य व्यावहारिकतावाद डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय
पार्श्वनाथ विद्यापीठ
१९९७ ६१. भारतीय जीवन मूल्य
पार्श्वनाथ विद्यापीठ ६२. जैन महापुराण : एक कलापरक अध्ययन
पार्श्वनाथ विद्यापीठ ६३. निर्भय भीमव्यायोग
पार्श्वनाथ विद्यापीठ ६४. शीलदूतम्
पार्श्वनाथ विद्यापीठ
१९९३ ६५. बसुदेव हिड़ी : एक अध्ययन
पार्श्वनाथ विद्यापीठ ६६. जैन दर्शन में निश्चय एवं व्यवहार नय : एक ___अनुशीलन
पार्श्वनाथ विद्यापीठ ६७. पंचाशक प्रकरणम् डॉ० कमलेश कुमार जैन के साथ पार्श्वनाथ विद्यापीठ
१९९७ ६८. Pearls of Jain Wisdom
पार्श्वनाथ विद्यापीठ ६९. सिद्धसेन दिवाकर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
पार्श्वनाथ विद्यापीठ
१९९७ शोध-छात्र १.डॉ० भिखारीराम यादव
जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगीनय की आधुनिक व्याख्या, १९८३ २. डॉ० अरुणप्रताप सिंह
जैन और बौद्ध भिक्षुणी संघ का उद्भव, विकास एवं स्थिति, १९८३ ३. डॉ० रविशंकर मिश्र
महाकवि कालिदासकृत मेघदूत और जैन कवि मेरुतुङ्गकृत जैनमेघदूत का साहित्यिक अध्ययन,१९८३ ४. महो० चन्द्रप्रभसागर
सयम सुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व १९८६ ५.डॉ० रविन्द्रनाथ मिश्र
जैन कर्म सिद्धान्त का ऐतिहासिक विश्लेषण, १९८६ ६. डॉ० रमेशचन्द्र गुप्त
तीर्थकर, बुद्ध और अवतार की अवधारणाओं का तुलनात्मक अध्ययन, १९८६ ७. डॉ० कमलप्रभा जैन
प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन: एक अध्ययन, १९८६ ८. डॉ. महेन्द्रनाथ सिंह
उत्तराध्ययन और धम्मपद का तुलनात्मक अध्ययन, १९८६ ९. डॉ० त्रिवेणीप्रसाद सिंह
जैनदर्शन के परिप्रेक्ष्य में मानव व्यक्तित्व का वर्गीकरण, १९८७ १०.डॉ० उमेशचन्द्र सिंह
जैन आगम साहित्य में शिक्षा, समाज एवं अर्थव्यवस्था, १९८७ ११. डॉ० रज्जन कुमार
जैनधर्म में समाधिमरण की अवधारणा, १९८७ १२. डॉ० (श्रीमती) रीता सिंह
प्राकृत और जैन संस्कृत साहित्य में कृष्ण कथा, १९८९ १३. डॉ० इन्द्रेशचन्द्र सिंह
जैन साहित्य में वर्णित सैन्यविज्ञान एवं युद्धकला, १९९० १४. डॉ० श्रीनारायण दूबे
जैन अभिलेखों का सांस्कृतिक अध्ययन, १९९० १५. डॉ० (श्रीमती) संगीता झा धर्म और दर्शन के क्षेत्र में आचार्य हरिभद्र का अवदान, १९९०
१९९७
१९९६
जनमेघदूत का साहि
एवं कृतित्व १२
जैन कर्म सिटव
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डॉ० सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व १६. डॉ. धनंजय मिश्र
हरिभद्र का योग के क्षेत्र में योगदान, १९९१ १७. डॉ० (श्रीमती) गीता सिंह
औपनिषदिक साहित्य में श्रमण परम्परा के तत्त्व, १९९१ १८. डॉ० (श्रीमती) अर्चना पाण्डेय भाषा दर्शन को जैन दार्शनिकों का योगदान, १९९१ १९.डॉ० (श्रीमती) मंजुला भट्टाचार्य जैन दार्शनिक ग्रन्थों में ईश्वर कर्तृत्व की समालोचना, १९९२, २०. डॉ० रवीन्द्रकुमार
शीलदूत संस्कृत दूतकाव्यों का तुलनात्मक अध्ययन, १९९२ २१. डॉ० के०वी०एस. पी०बी० आचार्यल वैखानस जैन योग का तुलनात्मक अध्ययन, १९९२ २२. डॉ० जितेन्द्र बी. शाह
नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन, १९९२ २३. श्री असीमकुमार मिश्र
ऐतिहासिक अध्ययन के जैन स्रोत और उनकी प्रामाणिकता एक अध्ययन, १९९६ २४. श्री मणिनाथ मिश्र
जैन चम्पूकाव्यों का समीक्षात्मक अध्ययन २५. श्रीमती कंचन सिंह
पाश्र्वाभ्युदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन
२६. डॉ० श्यामनन्दन झा २७. साध्वी प्रियदर्शना श्री जी २८. साध्वीश्री सुदर्शना श्री जी २९. साध्वीश्री प्रमोद कुमारी जी
अनौपचारिक मार्ग-निर्देश कुन्दकुन्द और शंकर के दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, १९७३ आनन्दघन का रहस्यवाद, १९८२ आचरांगसूत्र का नैतिक दर्शन, १९८२ इसिभासियाई सूत्र का दार्शनिक अध्ययन, १९९१,
१. श्रीमती शुभा तिवारी २. श्री विरेन्द्र नारायण तिवारी ३. श्री दयानन्द ओझा ४. कुमकुमराय ५. कु. बेबी ६. कु. आभा ७. हनुमान प्रसाद मिश्र
कार्यरत शोध-छात्र पउमचरियं में सामाजिक चेतना : एक समीक्षात्मक अध्ययन प्रमुख स्मृतियाँ तथा जैनधर्म में प्रायश्चित्त विधि जयोदय महाकाव्य का आलोचनात्मक अध्ययन धर्मशर्माभ्युदय काव्य : एक अध्ययन सोमेश्वरदेव कृत कीर्तिकौमुदी का आलोचनात्क अध्ययन आख्यानक मणिकोश का आलोचनात्मक अध्ययन
जैन प्रायश्चित्त विधि जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर में पंजीकृत शोध छात्र
गीता में प्रतिपादित.विभिन्न योग
८. श्री रणबीर सिंह भदौरिया
वर्ष
का. हि. वि. वि. एम. ए. दर्शन (अन्तिमवर्ष) की परीक्षा हेतु प्रस्तुत लघु शोध-प्रबन्धों की सूची क्रमांक नाम
विषय १. उदयप्रताप सिंह जैनधर्म में समाधिमरण
१९७९-८० २. अवधेश कुमार सिंह द सिस्टम आव वैल्यूज इन जैन फिलासॅफी
१९७९-८० ३. कृष्णकान्त कुमार जैनधर्म के सम्प्रदाय
१९८० ४. ताड़केश्वर नाथ जैनधर्म में मोक्ष एवं मोक्ष मार्ग
१९८० ५. रामाश्रय सिंह यादव जैन कर्म सिद्धान्त
१९८० ६. सतीशचन्द्र सिंह जैनदर्शन में प्रमाण
१९८०-८१ ७. शिवपरसन सिंह आचार्य कुन्दकुन्द के दर्शन में आत्मा का स्वरूप
१९८०-८१ ८. अशोककुमार उपासकदशांग के अनुसार श्रावक धर्म
१९८०-८१ ९. वीरेन्द्र कुमार जैनदर्शन में जीवन की अवधारणा
१९८०-८१ १०. त्रिवेणीप्रसाद सिंह रत्नकरण्डश्रावकाचार के अनुसार गृहस्थ धर्म
१९८१
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६६ ११. मुकुल मेहता
जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६ जैनधर्म में आध्यात्मिक विकास : एक तुलनात्मक विवेचन
१९८१
वर्ष
क्रमांक लेख का नाम १. जैन दर्शन में निश्चय और व्यवहार नय २. जैन दर्शन का त्रिविध साधना मार्ग
जुलाई १९७४
पत्रिका/अंक दार्शनिक The Vikram/नानचंद जी जन्म शताब्दी स्मृति ग्रन्थ मई एवं आचार्य आनन्द ऋषि अभिनन्दन ग्रन्थ वीर निर्वाण स्मारिका दार्शनिक
नवम्बर १९७४ १९७४ १९७५ अक्टूबर १९७५
जिनवाणी,
अप्रैल, १९७९
राजेन्द्र-ज्योति दार्शनिक महावीर जयन्ती स्मारिका महावीर जयन्ती स्मारिका महावीर जयन्ती स्मारिका मुनिद्वय अभिनन्दन तीर्थंकर महावीर स्मृति ग्रन्थ सम्बोधि, वाल्यूम ६
१९७५-७६ अप्रैल १९७६ १९७६ १९७७ १९७७ १९७७ १९७७ अक्टूबर १९७७
३. निश्चय और व्यवहार किसका आश्रय लें? ४. अहिंसा : एक तुलनात्मक अध्ययन ५. अद्वैतवाद और आचार दर्शन की सम्भावना ६. भगवान महावीर का अपरिग्रह सिद्धान्त
और उसकी उपादेयता ७. जैन, बौद्ध और गीता दर्शन में मोक्ष का
स्वरूप : एक तुलनात्मक अध्ययन ८. नीति के निरपेक्ष एवं सापेक्ष तत्त्व ९. महावीर के सिद्धान्त : आधुनिक सन्दर्भ में १०. सप्तभंगी : त्रिमूल्यात्मक तर्कशास्त्र के सन्दर्भ में ११. स्यावाद : एक चिन्तन १२. जैन दर्शन में नैतिकता की सापेक्षता और निरपेक्षता १३: जैन दर्शन में मोक्ष का स्वरूप १४. समाधिमरण (मृत्युवरण) : एक तुलनात्मक
एवं समीक्षात्मक अध्ययन १५. मूल्यबोध की सापेक्षता १६. मानवतावाद और जैनाचार दर्शन १७. भारतीय दर्शन में सामाजिक चेतना १८. नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता का प्रश्न १९. जैनदर्शन में नैतिक मूल्यांकन का विषय २०. जैन, बौद्ध और गीता के दर्शन में कर्म
का शुभत्व एवं अशुभत्व और शुद्धत्व २१. जैनदर्शन के 'तर्क प्रमाण' का आधुनिक ___ सन्दर्भो में मूल्यांकन २२. मनः शक्ति, स्वरूप और साधना : एक विश्लेषण २३. सदाचार के शाश्वत मानदण्ड और जैनधर्म
(५००/- रुपये का प्रथम पुरस्कार प्राप्त) २४. जैनदर्शन में मिथ्यात्व और सम्यक्तव २५. प्रवर्तक एवं निवर्तक धर्मों का मनोवैज्ञानिक
विकास एवं उनके दार्शनिक एवं सामाजिक प्रदेय २६.जैन साधना के मनोवैज्ञानिक आधार २७. अहिंसा का अर्थ विस्तार, सम्भावना और सीमा क्षेत्र २८. नैतिक मानदण्ड : एक या अनेक २९. बालकों के संस्कार निर्माण में अभिभावक,
दार्शनिक तीर्थंकर दार्शनिक दार्शनिक तुलसी प्रज्ञा/वाल्यूम ४, अंक ३ महावीर जयन्ती स्मारिका, जयपुर
अक्टूबर १९७७ जनवरी १९७८ जनवरी १९७८ अप्रैल १९७८ १९७८ १९७८
दार्शनिक श्री पुष्कर मुनि अभिनन्दन ग्रन्थ श्री दिवाकर स्मृति ग्रन्थ
अक्टूबर १९७८ १९७९ १९७८
श्री दिवाकर स्मृति ग्रन्थ श्रमण/वर्ष ३०, अंक ८
१९७८ १९७९
श्रमण/वर्ष ३०, अंक ११ श्रमण/वर्ष ३१, अंक ३ दार्शनिक श्रमण
सितम्बर १९७९ जनवरी १९८० जनवरी १९८० जनवरी १९८०
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डॉ० सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
६७
शिक्षक व समाज की भूमिका ३०. धर्म क्या है ? (क्रमश: तीन अंको में)
श्रमण/वर्ष ३१, अंक ४, फरवरी १९८०, फरवरी १९८३ श्रमण/वर्ष ३४ श्रमण/वर्ष ३१, अंक ५
मार्च १९८० श्रमण/वर्ष ३१, अंक ५
मार्च १९८० श्रमण/वर्ष ३१, अंक ५
अप्रैल १९८० श्रमण/वर्ष ३१, अंक ९ सम्बोधि/वाल्यूम ८, जुलाई १९८० श्रमण/वर्ष ३१, अंक ९
जुलाई १९८०
श्रमण/वर्ष ३२, अंक ३ श्रमण/वर्ष ३२, अकं ४ श्रमण/वर्ष ३२, अंक ६
जुलाई १९८० फरवरी १९८१ अप्रैल १९८१
दार्शनिक
अप्रैल १९८१
३१. जैन धर्म में भक्ति का स्थान ३२. आत्मा और परमात्मा ३३. अध्यात्म बनाम भौतिकवाद ३४. संयम : जीवन का सम्यक् दृष्टिकोण ३५. भेद विज्ञान : मुक्ति का सिंहद्वार ३६. जैन एवं बौद्ध धर्म में स्वहित और
लोकहित का प्रश्न ३७. सदाचार के मानदण्ड और जैनधर्म ३८. महावीर का दर्शन : सामाजिक परिप्रेक्ष्य ३९. सत्ता कितनी वाच्य कितनी अवाच्य ?
जैन दर्शन के सन्दर्भ ४०. आधुनिक मनोविज्ञान के सन्दर्भ में
आचारांग सूत्र का अध्ययन ४१. महावीर के सिद्धान्त : युगीन सन्दर्भ में ४२. पर्युषण पर्व : क्या, कब, क्यों और कैसे ४३. असली दूकान/नकली दूकान ४४. व्यक्ति और समाज ४५. जैन एकता का प्रश्न ४६. जैन साहित्याकाश का एक नक्षत्र विलुप्त ४७. ज्ञान और कथन की सत्यता का प्रश्न:
जैनदर्शन के परिप्रेक्ष्य ४८. जैन अध्यात्मवाद आधुनिक सन्दर्भ में ४९. दस लक्षण पर्व/दस लक्षण धर्म के ५०. पर्युषण पर्व : एक विवेचन ५१. श्रावक धर्म की प्रासंगिकता का प्रश्न ५२. भाग्य बनाम पुरुषार्थ ५३. श्वेताम्बर साहित्य में रामकथा का स्वरूप ५४. महावीर का जीवन दर्शन ५५. धर्म और दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्र का अवदान ५६. हरिभद्र के धर्मदर्शन में क्रांतिकारी तत्त्व ५७. हरिभद्र की क्रांतिकारी दृष्टि : धूर्ताख्यान
के सन्दर्भ में ५८. हरिभद्र के धूर्ताख्यान का मूल स्रोत ५९. जैन वाक्य दर्शन ६०. जैन साहित्य में स्तूप ६१. रामपुत्त या रामगुप्त : सूत्रकृतांग के सन्दर्भ में ६२. जैनधर्म में नैतिक और धार्मिक
१९८१ अप्रैल १९८१ अगस्त १९८२ अगस्त १९८२ दिसम्बर १९८२ जनवरी १९८३ फरवरी १९८३ जून १९८३
तुलसी-प्रज्ञा/खण्ड६, अंक ९ श्रमण/वर्ष३३, अंकृ६ श्रमण/ वर्ष३३, अंक १० श्रमण/वर्ष ३३, अंक १० श्रमण/ वर्ष ३४, अंक २ श्रमण/वर्ष ३४ श्रमण परामर्श/अंक३, Vaishali Institute Research Bulletin No-4 श्रमण/वर्ष ३४ श्रमण/वर्ष३४, अंक ११ । श्रमण/वर्ष ३५ श्रमण श्रमण/वर्ष३६, अंक ९ श्रमण/वर्ष३६, अंक १२ श्रमण/वर्ष३७, अंक६ श्रमण/वर्ष३७, अंक १२ श्रमण/वर्ष३७, अंक १२ श्रमण/वर्ष३९, अंक ४
अगस्त १९८३ सितम्बर १९८३ १९८३ १९८४ जुलाई १९८५ अप्रैल १९८६ अप्रैल १९८६ अक्टूबर १९८६ अक्टूबर१९८६ फरवरी १९८७
श्रमण/वर्ष३९, अंक ४ Vaishali Institute Research Bulletin No-6 Aspects of Jainology/ Vol. II Aspects of Jainology/Vol. II Aspects of Jainology/ Vol. I
अक्टूबर१९८७ 1987 1987 1987 1987
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६८
दिसम्बर १९८७ जुलाई १९८८ जुलाई १९८८ अक्टूबर १९८९ १९९० जनवरी-मार्च १९९० अप्रैल-जून १९९० १९९०
श्रमण
जुलाई-सितम्बर १९९० अक्टूबर-दिसम्बर १९९० जनवरी-मार्च १९९१
श्रमण
जुलाई -दिसम्बर १९९१
जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६ कर्तव्यता का स्वरूप ६३. आचारांगसूत्र का विश्लेषण
श्रमण/वर्ष ३९/अंक २ ६४. जैनधर्म में का एक विलुप्त सम्प्रदाय: यापनीय श्रमण ६५. अध्यात्म और विज्ञान
श्रमण ६६. आचार्य हेमचन्द्र : एक युग पुरुष
श्रमण ६७. सतीप्रथा और जैनधर्म
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ ६८. स्याद्वाद और सप्तभंगी : एक चिन्तन
श्रमण ६९. जैनधर्म में तीर्थ की अवधारणा ७०. पार्श्वनाथ जन्मभूमि मन्दिर वाराणसी का श्रमण/संस्कृत संधान, वाल्यूम३
पुरातत्त्वीय वैभव ७१. जैन परम्परा का ऐतिहासिक विश्लेषण श्रमण ७२. जैनधर्म में नारी की भूमिका
श्रमण ७३. समाधिमरण की अवधारणा की आधुनिक
परिप्रेक्ष्य में समीक्षा ७४. उच्चै गरशाखा के उत्पत्ति स्थान एवं उमास्वाति अप्रैल-जून
के जन्मस्थल की पहचान ७५, अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु : एक पुर्नविचार Aspects of Jainology/वाल्यूम३ १९९१ ७६. मूल्य और मूल्य बोध की सापेक्षता का सिद्धान्त जनवरी-मार्च १९९२ ७७. गुणस्थान सिद्धानत का उद्भव एवं विकास श्रमण ७८. श्वेताम्बर मूलसंघ एवं माथुर संघ : एक विमर्श श्रमण ७९. जैनधर्म और आधुनिक विज्ञान
श्रमण ८०. प्रश्नव्याकरणसूत्र की प्राचीन विषयवस्तु प्राकृत जैन विद्या विकास खण्ड
की खोज ८१. बौद्धधर्म में सामाजिक चेतना ८२. भारतीय संस्कृति की समन्वित स्वरूप ८३. जैनधर्म में सामाजिक चेतना
श्रमण ८४. प्रर्यावरण के प्रदूषण की समस्या और जैनधर्म श्रमण ८५. जैनधर्म में स्वाध्याय का अर्थ एवं स्थान ८६. जैन कर्म सिद्धान्त : एक विश्लेषण
श्रमण ८७. अर्धमागधी आगम साहित्य में समाधिमरण की अवधारणा
श्रमण ८८. ऋग्वेद में अर्हत् और ऋषभवाची . ऋचाएँ: एक अध्ययन
श्रमण ८९. नियुक्ति साहित्य में : एक पुर्नर्चिन्तन
श्रमण ९०. जैनधर्म-दर्शन का सार तत्त्व
श्रमण ९१. भगवान महावीर का जीवन और दर्शन श्रमण ९२. जैनधर्म में भक्ति की अवधारणा
श्रमण ९३. महावरी के समकालीन विभिन्न आत्मवाद
एवं उसमें जैन आत्मवाद का वैशिष्टय् श्रमण
जनवरी-मार्च १९९२ जुलाई-सितम्बर १९९२ अक्टूबर-दिसम्बर १९९२ १९९२
धर्मदूत
श्रमण
१९९२ अप्रैल-जून १९९४ अप्रैल-जून १९९४ अप्रैल-जून १९९४ १९९४ १९९४
१९९४
१९९४ १९९४ १९९४ १९९४ १९९४
सुधर्मा १९९६
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श्रमण जनवरी, १९९४
प्राच्यप्रतिभा
डॉ० सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व ९४. जैन साधना में ध्यान ९५. गीता में नियतिवाद और पुरुषार्थवाद की समस्या
और यथार्थ जीवन-दृष्टि , भोपाल ९६. बौद्धदर्शन और गीता के सन्दर्भ में : जैन आचार
दर्शन की का तुलनात्मक अध्ययन नामक शोध-प्रबन्ध की संक्षिप्तिका ९७. षट्जीव-निकाय में त्रस एवं स्थावर के वर्गीकरण की समस्या ९८. फ्रायड और जैनदर्शन ९९. निवृत्ति और प्रवृत्ति : एक तुलनात्मक अध्ययन १००.धर्मसाधना का स्वरूप १०१.प्राचीन जैनागमों में चार्वाक दर्शन का प्रस्तुतिकरण एवं समीक्षा १०२.जैन आगम साहित्य में श्रावस्ती 103. Jaina Concept of Peace
तुलसी-प्रज्ञा,५ श्रमण, अप्रैल-जून १९९३ तीर्थकर श्रमणोपासक अप्रकाशित सागर जैन विद्या भारती अप्रकाशित Chokhamba, Centenary Commemoratrion Volum Aspect of Jainology, Vol.1 Aspect of Jainology, Vol.3
104. The Philosophical Foundation of Religious tolerence in Jainism 105. A Search for the Possibility of Non&Violence and Peace, 106. Mahavira's Theory of Samatva Yoga : A
Psycho-analytical Approach, 107. The Concept of Vibhajjavada in Buddhism
and Jainism, Jaina Journal. Calcuta
Aspect of Jainology, Vol.3
108. The Relevance of Jainism in Present World 109. Religious Harmony and Fellowship of Faiths : A Jain Perspective 110. Prof. K. S. Murty's Philosophy of Peace and Non- Violence 111. Equanimity and Meditation 112. The Teaching of Arhat Parsva and the Distinctness of His Sect 113. The Solutions of World Problems from Jaina Perspective 114. Jaina Sadhana and Yoga 115. Brahmanic and Sramanik Culturs-A comparative Study
New Demensions in Vedant Philosophy Jainism: A Global Perspective Jainism: A Global Perspective Being Published Being Published Arhat Parsva. Being Published Being Published Studies in Jainism 1997
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qram Anita
Reviews
on
ome selected Books
Sythored by Dr. Sagarmal Jain
BOOKS
• Jaina, Bauddha aur Gitāke Acāra Darsano Kā Tulanātmaka Adhyayana
• Jaina, Bauddha aur Gītākā Samāja Darsana • Rșibhāsita:Eka Adhyayana • Sāgara Jaina Vidyābhārati Vol.-I • Sāgara Jaina Vidyābhārati Vol.-II • JainaDharmaKāYāpaniyaSampradāya
• Jaina Dharma Aura TāntrikaSādhanā
• Jaina Bhāśa Darsana
• An Introduction to Jaina Sadhanā
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जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन*
भाग- १,२
समीक्षक डॉ० श्रीरंजन सूरिदेव
ख्यातयशा जैन मनीषी डॉ० सागरमल जैन श्रमण वाङ्मय के उदारवादी चिन्तकों में धुरिकीर्तनीय हैं। उनकी पूर्वाग्रहरहित आन्वीक्षिकी और निष्प्रतिबद्ध शोध-सूक्ष्मेक्षिका ने जैन चिन्तन को व्यापक धरातल प्रदान किया है उनकी चिन्तन दृष्टि निरन्तर समन्वयात्मक तथा तुलनामूलक रहती है। उनकी सैद्धान्तिक अवधारणा है:
-
पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ।।
डॉ० सागरमलजी के इस सिद्धान्त का आक्षरिक साक्ष्य है उनके द्वारा लिखित तथा दो भागों में प्रकाशित बृहत्कृति- 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार- दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' इस कृति से विद्वान् लेखक के भ्रमण और ब्राह्मण वाड्मय के आधिकारिक ज्ञान तथा समेकित शोध अनुशीलन की सूचना मिलती है। डॉ० सागरमलजी की विलक्षण मनीषा उनकी विस्मयकारी शास्त्र विचक्षणता की परिचायिका है।
-
इस कृति के प्रथम भाग में आचार दर्शन के सैद्धान्तिक पक्ष का और द्वितीय भाग में आचार के व्यावहारिक पक्ष का पुंखानुपुंख विवेचन किया गया है। दोनों भागों के विवेचनीय विषय को तीन-तीन खण्डों में उपस्थापित किया गया है। प्रथम भाग में डॉ० सागरमलजी ने सर्वप्रथम भारतीय आचार दर्शन के स्वरूप पर प्रकाश निक्षेप किया है। तदनन्तर, भारतीय आचार दर्शन में प्राप्य ज्ञान की विधाओं का विशद विश्लेषण उपन्यस्त किया है। पुनः निरपेक्ष और सापेक्ष नैतिकता से सन्दर्भित पाश्चात्य एवं भारतीय दृष्टिकोणों के वैशिष्ट्य की समुद्भावना की है। उसके बाद नैतिक निर्णय के स्वरूप एवं विषय का वैदुष्यपूर्ण ढंग से तुलनात्मक अध्ययन किया है।
इसी क्रम में डॉ० सागरमलजी ने भारतीय और पाश्चात्य नैतिक मानदण्ड के सिद्धान्त तथा आचार-दर्शन के बहु-आयामी विवेचन में अपनी बहुपधीन प्रज्ञा का परिचय दिया है। जैन धर्म दर्शन का पल्लवन करते हुए उन्होंने आत्मा, कर्म, बन्धन और उससे मुक्ति और फिर मोक्षतत्त्व को नैतिक जीवन का साध्य मानते हुए उस पर गहन चिन्तन किया है। पुनः जैन आचार दर्शन के मनोवैज्ञानिक पक्ष का भाष्य करते हुए उन्होंने मन के स्वरूप तथा नैतिक जीवन में उसके मूल्य को रेखांकित किया है और मन के चिन्तन के क्रम में ही मनोवृत्तियों की भी विस्तृत विवेचना की है। इस प्रकार, बहुश्रुत लेखक डॉ० सागरमलजी ने पूरे जैन धर्म दर्शन की अवतारणा में अपनी अभिनव शास्त्रीय दृष्टि का चमत्कार प्रदर्शित किया है।
-
-
ग्रन्थ के द्वितीय भाग में समत्व योग, त्रिविध साधनामार्ग, अविद्या, रत्नत्रय निवृत्ति और प्रवृत्ति का मार्ग आदि ज्ञानमग्य गूढ़ विषयों का तुलनात्मक अध्ययन शास्त्रोक्त पद्धति से किया गया है। साथ ही, भारतीय दर्शन में सामाजिक चेतना जैसे विषय के वर्णन से भारतीय दर्शन की प्रासंगिकता को भी चिह्नित किया गया है। इसके अतिरिक्त, वर्णाश्रम व्यवस्था, गृहस्थ धर्म, श्रमण-धर्म जैसे सदातन धार्मिक प्रसंगों की विसंवादिता को समाजचिन्तक दार्शनिक लेखक ने संवादी बनाने का श्लाघनीय और अभूतपूर्व सारस्वत प्रयास किया है।
-
इस अपूर्व ग्रन्थ का 'उपसंहार' भी केवल औपचारिक नहीं है। इसमें अवितथवादी प्रज्ञावान लेखक डॉ० सागरमलजी ने महावीर युग की आचार दर्शन सम्बन्धी समस्याओं के समाधान के क्रम में जैन दृष्टिकोण को स्पष्ट किया है। महावीर को चार विभिन्न तात्त्विक आधारों पर खड़े चार दार्शनिक मतवादों से जूझना पड़ा था। प्रथम क्रियावादी दृष्टिकोण आचार के बाह्य पक्षों पर बल देकर कर्मकाण्डीय नियमों को ही नैतिकता का सर्वस्व मानता था। द्वितीय, अक्रियावादी दृष्टिकोण था जिसके अनुसार ज्ञान ही नैतिकता का सर्वस्व था। आत्मा को कूटस्थ और अकर्त्ता मानने वाले अक्रियाबाद का दृष्टिकोण मूलतः नियतिवादी था। तीसरा मतवाद अज्ञानवादियों का था, जिसमें अतीन्द्रिय एवं पारलौकिक मान्यताओं पर आधृत नैतिक प्रत्ययों को अज्ञेय माना जाता था। इस प्रकार, इसका नैतिक दर्शन रहस्यवाद और सन्देहवाद इन दो रूपों में विभाजित था। इन तीनों दार्शनिक परम्पराओं के अतिरिक्त चौथी परम्परा विनयवादियों की थी। विनयवाद भक्तिवाद का ही पर्याय था। महावीर ने अपने अनेकान्तवादी दृष्टिकोण के आधार पर इन चारों दृष्टिकोणों में समन्वय खोजने का ऐतिहासिक कार्य किया, यद्यपि सन्देहवाद महावीर को किसी भी अर्थ में स्वीकृत नहीं था। इस तत्त्व को डॉ० सागरमलजी ने अनेक भंगियों से मूल्यांकित किया है, जिससे इस कृति का 'उपसंहार' भी स्वतन्त्र अध्याय का महत्त्व रखता है।
* प्रकाशक- राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान जयपुर, १९८२ मूल्य रु ७०
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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
प्रस्तुत कृति जैन, बौद्ध और गीता के आचार- दर्शनों से सन्दर्भित विषय-वस्तुओं को तुलनापरक आसंग में हृदयंगम कराती है। इसलिए जिन पाठकों को जैन-बौद्ध दर्शन और गीता का सम्यक् ज्ञान होगा, वे इस बृहत्काय शोध कृति का ततोऽधिक आस्वाद ले सकेंगे। मौलिक चिन्तक के रूप में बहुप्रतिष्ठ हस्ताक्षर डॉ० सागरमल जैन के प्रस्तुत ग्रन्थ में जो 'प्रतिज्ञा' (थीसिस) है, उसे निर्भ्रान्त रूप में उपन्यस्त करने में वह कहीं भ्रान्त नहीं हुए हैं। उन्होंने ब्राह्मणधर्म और श्रमणधर्म में समानान्तरता की गवेषणा द्वारा अपनी समन्वयधमीं वैचारिकी बुद्धि का जो विनियोग किया है, वह निश्चय ही बहुमुख- प्रशंसनीय ऐतिहासिक महत्त्व का कार्य है।
ग्रन्थ की ‘प्रतिज्ञा' यह है कि आचार - दर्शन मूलतः नैतिक विचारों से जुड़ा हुआ है। नैतिक आचार-विचार भी विशिष्ट धर्म या सम्प्रदाय तक ही सीमित न होकर धर्म या सम्प्रदाय - समूह की आचार - समष्टि का प्रतिमान हो सकता है। इस पर सिद्धान्त और व्यवहार दोनों ही दृष्टियों से ध्यान न देने के कारण नैतिक आचार-विचार संकीर्ण भावभूमि के धर्म-दर्शन के रूप ग्रहण करते आ रहे हैं। प्रज्ञाप्रौढ़ विचारक डॉ० सागरमलजी ने इस संकीर्ण सीमा को गहराई से न केवल लक्ष्य किया है, अपितु उसे तीव्रता से अनुभव भी किया है, इसलिए उन्होंने वैश्विक परिस्थितिको दृष्टि में रखते हुए नैतिक आचार-विचार को समग्र मानव संस्कृति का विषय मानकर अपने चिन्तन को विस्तार दिया है। भारतीय नैतिकता के क्षेत्र में इस प्रकार के उदार दृष्टिमूलक अध्ययन का महत्त्वपूर्ण एवं महार्ष स्थान है और इस ग्रन्थ की यही रचनात्मक विशिष्टता है।
७२
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इस ग्रन्थ के यथोक्त तीन-तीन खण्डों में उपस्थापित, दोनों ही भागों में समाहित विषय प्रायः नीति और आचार पर केन्द्रित हैं। इस कारण यह कृति नीतिशास्त्र (एथिक्स) का दिशा-निर्देशक एवं क्रोशशिलात्मक ग्रन्थ बन गई है। आज जहाँ हम वैचारिकी की सार्वभौमता या भूमण्डलीकरण या फिर खगोलीकरण की बात करते हैं, वहाँ उदारमना लेखक डॉ० सागरमलजी के इस ग्रन्थ का ऐतिहासिक महत्त्व है। इसलिए कि उन्होंने इसके पूर्ववर्ती जैनदृष्टिमूलक नैतिक आचार-विचारों से सन्दर्भित सीमित संकुचित एवं व्यतिरेकी अवधारणाओं को बौद्ध चिन्तन और गीता में प्रतिपादित आचार के समानान्तर और समन्वयपरक व्यापक पृष्ठभूमि प्रदान की है। यह ग्रन्थ एक सार्थक प्रस्तवन है और जैनशास्त्रोक्त नैतिक मूल्यों की अतिव्यापक लोकहितैषणा धर्मिता को उद्घावित करने वाली अन्वर्थनामा कृति के रूप में प्रतिष्ठापनीय है।
प्रस्तुत ग्रन्थ से स्पष्ट है कि इसके प्रणेता डॉ० सागरमलजी पौरस्त्य और पाश्चात्य नीतिशास्त्र के गम्भीर अध्येता हैं। इस दिशा में उनके द्वारा स्थापित चिन्तन-निष्कर्ष उनकी चूडान्तविद्वत्ता और अविराम शोध-श्रम के परिणाम हैं। उन्होंने अपने तुलनात्मक अध्ययन द्वारा अर्हतों के नैतिक चिन्तन की, नवीन तर्कशक्ति के साथ ठोस आधारभूमि पर प्राण प्रतिष्ठा की है। नैतिक आचार-विचारों के समन्वयधर्मी चिन्तन के पूर्व की प्रक्रिया अवबोधन की होती है। इसमें ऐसी वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक कल्पना की अवश्यकता होती है, जो सत्य की सीमा में नियन्त्रित रहे । अवबोधन की इस दृष्टि से डॉ० सागरमलजी की चिन्तन प्रक्रिया में उनकी अपनी बुद्धि और उनके अपने हृदय की समन्वयात्मक तथा सहानुभूतिशील एवं सत्य-नियन्त्रित कल्पना-शक्ति का आश्चर्यकारी अभिज्ञान प्राप्त होता है। उन्होंने कहीं भी और किसी प्रकार से भी राग-द्वेष से आहत न होकर जैन, बौद्ध और गीता के आचार- दर्शनों के गुण-दोष निरूपण में एक तटस्थ चिन्तक की भूमिका का निर्वाह किया है जो प्रायोविरल होता है। निस्सन्देह डॉ० सागरमलजी अगर्वज्ञान के धनी चिन्तकों में पक्तिय है।
प्रस्तुत कृतिकार की प्रज्ञापूत लेखनी की निष्पक्षता स्वीकृत संकल्प के प्रत्येक पक्ष में दृष्टिगत होती है । तुलना की प्रत्येक कोटि में भासिक और वैचारिक सन्तुलन समानुपातिक है अमूल और अनपेक्षित कहीं नहीं है। विचारवान् लेखक के सदृश वैचारिक सहिष्णुता तो अन्यत्र जैन चिन्तन में प्रायोदुर्लभ है। स्पष्ट और निष्पक्ष चिन्तन तथा स्पष्ट और निष्पक्ष अभिव्यक्ति डॉ० सागरमलजी की विवेचना-पद्धति की निजता है।
डॉ० सागरमलजी की तुलनात्मक विश्लेषण प्रक्रिया बहुत ही सरल और प्रांजल है। गद्य की भाषा ततोऽधिक प्रवाहपूर्ण है। आत्मवाद, नियतिवाद, कर्मवाद, मोक्षवाद, ईश्वरवाद आदि शास्त्रार्थबहुल एवं तर्कसंकुल तत्त्वों को उन्होंने अपनी विवेचना की ऋजु प्रक्रिया से जिज्ञासुओं के लिए ऐसा हस्तामलक बना दिया है कि उन्हें कतई बौद्धिक व्यायाम नहीं करना पड़ेगा। तुलना के क्रम में मनीषी लेखक ने विषय की केवल उपस्थापना ही नहीं की है, वरन् बौद्धमत और गीता में यदि कोई पक्ष जैनमत से दुर्बल या तर्कहीन दिखाई पड़ा है, तो उसका उन्होंने तर्काश्रित पद्धति से निर्ममतापूर्वक खण्डन भी किया है वदतोव्याघात की स्थिति भी कहीं नहीं आ पाई है इस सन्दर्भ में 'समाधिमरण और आत्महत्या' (२.४४० ), 'नियतिवाद और यदृच्छावाद' (१.२८२) 'स्वधर्म और परधर्म' (२.१९१) आदि प्रकरण ध्यातव्य हैं।
जैन, बौद्ध और गीता के तात्विक चिन्तन की समानता को स्पष्ट करने के क्रम में 'अनासक्ति' पर निष्पक्ष प्रकाश डालते हुए विवेचनापट् लेखक ने लिखा है कि तीनों के आचार-दर्शनों का अन्तिम नैतिक सिद्धान्त अनासक्त जीवनदृष्टि है जैनदर्शन में राग के प्रहाण का, बौद्ध दर्शन में तृष्णा क्षय का और गीता में आसक्ति के नाश का जो उपदेश है, उसका लक्ष्य है अनासक्त जीवन-दृष्टि का निर्माण इस प्रकार तीनों आचारदर्शनों का सार एवं उनकी अन्तिम फलश्रुति है अनासक्त जीवन जीने की कला का विकास निश्चय ही, यही समग्र नैतिक और आध्यात्मिक जीवन का सार है और यही नैतिक पूर्णता की अवस्था है। लेखक के वाच्य की ध्वनि है। आधुनिक उपभोक्तावादी संस्कृति से मुक्ति के लिए अनासक्त जीवन जीने की दृष्टि का अंगीकरण मानव के लिए अनिवार्य है और यही उक्त जैन, बौद्ध और गीता के आचार- दर्शनों का समेकित निष्कर्ष है। समता-दृष्टि से सम्पन्न लेखक डॉ० सागरमल जी ने ततोऽधिक अर्थाभिव्यक्ति के लिए शब्दों में प्रायोगिक नवीनता से भी काम लिया
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डॉ सागरमल जैन व्यक्तित्व एवं कृतित्व
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है। जैसे: बहुप्रचलित 'अनेकान्त' शब्द के लिए 'अनाग्रह' (वैचारिक सहिष्णुता) का प्रयोग। किन्तु, 'जीवनमुक्त' अथवा 'जीवनमुक्ति' जैसे शुद्ध शब्द के बदले 'जीवन-मुक्त' अथवा 'जीवन-मुक्ति' जैसा अशुद्ध प्रयोग ( पृ० १५८) प्रामादिक प्रतीत होता है। तत्त्वान्वेषी प्राज्ञ लेखक ने विषय की उपस्थापना में भी नवीनता रखी है। विवेचना-पद्धति में प्राय: ऐसी प्रथा है कि पहले उत्तर पक्ष का खण्डन करके पूर्वपक्ष को उपस्थापित करते हैं, किन्तु डॉ० सागरमलजी ने पहले पूर्वपक्ष को उपन्यस्त करके उत्तर पक्ष का विनियोग किया है।
इस प्रकार, इस कृति में 'स्वधर्म' को अवधारणा पर भी नई दृष्टि से पहली बार विशद विवेचन सुलभ हुआ है। 'प्रतीत्यसमुत्पाद' जैसे बौद्ध सिद्धान्त की जैसी सरल व्याख्या इस कृति में मिलती है, वैसी अन्यत्र अप्राप्य है। प्रस्तुतकृति का महत्त्व इस कारण भी है कि यह जैनाचारदर्शन की पारम्परिक व्याख्या का ततोऽधिक विकासात्मक और तुलनामूलक अभिनव व्याख्याग्रन्थ है इसे हम जैन धर्म दर्शन के नैतिक स्वरूप का तुलनात्मक महाभाष्य भी कह सकते हैं। इसमें विशेषत: जैन धर्म-दर्शन और जैनाचार का विभावन बड़ी निश्चयतात्मकता के साथ हुआ है। उदारचेता लेखक ने जैन-सम्प्रदाय के साथ ही बौद्ध सम्प्रदाय और गीता में प्राप्य नैतिक मान्यताओं की समानान्तरता का तुलनात्मक और समीक्षात्मक अध्ययन गइराई से सम्पन्न किया है।
भारतीय नैतिक विचार- परम्परा का इस प्रकार का व्यवस्थित और विकसित तुलनात्मक अध्ययन वर्तमान युग में भी बहुत कम ही हो पाया है। यद्यपि इस कृति में जैन आचार दर्शन को मुख्य भूमिका में रखा गया है एवं गीता तथा बौद्धों के आचार-दर्शन समासत पारिपार्श्विक विषय के रूप में विन्यस्त हैं इसलिए, स्वभावतः बौद्ध एवं गीता के अचार - दर्शन की स्वतन्त्र और विस्तृत विवेचना अपेक्षित रह गई है।
चिन्तनशील गवेषक डॉ० सागरमलजी की इस विशिष्ट कृति में उनकी इस अवधारणा की स्पष्ट प्रतीति होगी कि वह धर्म और दर्शन में मानव की चित्तवृत्ति को प्रतिबिम्बित देखते हैं। इसलिए, वह मानव की चित्तवृत्तियों की परम्परा को परखते हुए दार्शनिक परम्परा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही नैतिक आचार-दर्शन के विवेचन का केन्द्रीय लक्ष्य मानते हैं। उनके विचार जितने समन्वयात्मक है, उतने ही निश्चित योजना की सम्पन्नता के परिचायक हैं। उन्होंने जैनों के धर्म-दर्शन तथा नैतिक आचार दर्शन को सम्पूर्ण भारतीय दर्शन से अविच्छिन्न रूप में सम्बद्ध माना है और यही उनके चिन्तन की अभिव्यंजनात्मक विशेषता है।
पुस्तक का मुद्रण प्रायः शुद्ध और स्वच्छ है । आवरण के आकल्पन में भी जैन, बौद्ध और गीता के धर्म-प्रतीकों का कलावरेण्य और नेत्रावर्जक अंकन हुआ है। निस्सन्देह, यह पुस्तक, नैतिक आचार दर्शनों के तुलनात्मक साहित्य के क्षेत्र में अतिशय अभिनन्दनीय एवं समृद्धिकर सारस्वत निक्षेप है।
भिखना पहाड़ी, पटना.
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जैन, बौद्ध और गीता का समाज दर्शन
समीक्षक - डॉ० रेवतीरमण पाण्डेय
समाज दर्शन स्वतन्त्र दर्शन की शाखा में न तो ग्रीक दर्शन में कहीं मिलता है और न ही भारतीय दर्शन में । भारतीय दर्शन तो लोक दर्शन है किन्तु इधर समाज दर्शन की एक नयी शाखा के रूप में उभरकर अपना विशिष्ट स्थान बना लिया है । भारतीय चिन्तन धारा में पाश्चात्य चिन्तन धारा के समानान्तर समाज दर्शन की प्रतिष्ठा भारतीय स्वातन्त्र्योत्तर काल की देन है । इस परिप्रेक्ष्य में इस सारगर्भित लघुपुस्तक के विद्वान् लेखक डॉ० सागरमल जैन को हम हार्दिक बधाई देते हैं। समाज दर्शन के परिप्रेक्ष्य में भारतीय चिन्तन की तीन समृद्ध परम्पराओं (जैन,बौद्ध
और गीता) में यह अवदान सर्वथा नया है। विद्वान् लेखक ने परम्पराओं की तलहटी में बैठकर उनके सार्थक पक्षों का सम्यक् अनुशीलन कर इस अध्ययन को प्रस्तुत किया है । ब्रैडले ने ठीक ही कहा है कि 'मनुष्य यदि सामाजिक नहीं तो वह पशु है, मनुष्य के शैशवकाल से ही उसके व्यक्तित्व के विकास में चिदंश अपने स्वरूप के साक्षात्कार हेतु व्यष्टि से समष्टि के प्रति उन्मुख होता है । उसका अस्तित्व सबके साथ, सबके लिए सबका होकर जीने में सार्थकता का बोध कराता है । वह विराट के प्रति जितना अधिक उन्मुख होता है, वह उतना ही अधिक अपने अस्तित्व को सार्थक पाता है । व्यष्टि की सार्थकता समष्टि हो जाने में है।
स्वतन्त्रता की अर्द्धशती के अवसर पर आज हम सभी बुद्धिजीवियों का यह नैतिक दायित्व है कि गत पचास वर्षों में हम अपना और अपने राष्ट्र के राष्ट्रीय चरित्र को उभारने में कितना सफल हुए हैं, का आलोडन-विलोडन करें। भारतीय चिन्तन की तीनों परम्पराओं में 'सर्वभूतहिते रत:' वह केन्द्र बिन्दु है, वह उत्स है जिससे चिन्तन की सभी विधाओं को ऊर्जा एवं दिशा मिलती है । इस दृष्टि से किसी भी समाज का उदय तब तक सार्थक उदय नहीं होगा जब तक स्वयं व्यक्ति अपना निर्माण नहीं करता । यदि व्यक्ति चरित्रवान् है तो समाज का चरित्र, राष्ट्र का चरित्र महनीय होगा । आज राष्ट्र को पुनः एक कृष्ण चाहिए जो कौरवों के भ्रष्ट तन्त्र का उन्मूलन कर 'सत्य मेवजयते' पर प्रतिष्ठित राष्ट्र में एक स्वच्छ, स्वस्थ एवं लोक कल्याणपरक राष्ट्रीय चेतना से भरपूर जनतन्त्र की प्रतिष्ठा कर नव चेतना का मन्त्र फूंके । इस दृष्टि से प्रोफेसर जैन की यह लघु पुस्तक बड़ी ही उपादेय है। इस पुस्तक में वैदिक चिन्तन के परम सन्देश -
समानी वा आकूति: समाना हृदयानि वः । समानमस्तु वो मनो यथा व: सुसहासति ।। x x x x x x x x x x x x x x
शत-हस्त समाहर सहस्त्रहस्त: सीकरः । को 'ईशावास्यमिदम् सर्वं' पर प्रतिष्ठित कर (तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः) का संदेश दिया है। यही अनुशासन आचार्य समन्तभद्र तीर्थंकर की वाणी के माध्यम से देते हैं - सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव' सभी के दुःख का अन्त सभी का कल्याण । इस दिशा में आचार्य शांति देव का संदेश कितना सार्थक है - .
सर्वत्यागश्च निर्वाणं निर्वाणार्थि च मे मनः ।
त्यक्तवं स चेन्मया सर्वं वरं सत्त्वेषु दीयतात् ।। प्रोफेसर सागरमल जैन के इस ग्रन्थ के प्रथम अध्याय का अन्त सर्वोदय की कामना से होता है -
सर्वेऽत्र सुखिनः सन्तु, सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःखमाप्नुयाम् ।। द्वितीय अध्याय के स्वहित बनाम लोकहित के विभिन्न पक्षों पर जैन एवं बौद्ध परम्परा में सम्यक् विचार किया गया है ।
तृतीय अध्याय में वर्णाश्रम व्यवस्था पर तीनों परम्पराओं में सम्यक् प्रतिपादन किया गया है । चतुर्थ अध्याय में स्वधर्म की अवधारणा पर गीता, जैन दृष्टियों के साथ ब्रैडले के स्वस्थान और उसके कर्तव्य का सिद्धान्त का समावेश कर पुस्तक को आधुनिक बना दिया गया है। इस अध्याय में प्लेटो के भी विचार को रखकर एक समग्र चिंतन इस विषय पर और भी उपादेय होता।
पंचम अध्याय में अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह पर तीनों परम्पराओं के परिप्रेक्ष्य में प्रभूत सामग्री प्रस्तुत की गयी है उनका सम्यक् विश्लेषण एवं विवेचन किया गया है । यहूदी, ईसाई एवं इस्लाम धर्म में अहिंसा का अर्थ विस्तार-पुस्तक को अधिक सार्थक और आकर्षक बना देता है । षष्ठ अध्याय में सामाजिक धर्म एवं दायित्व पर सम्यक् विवेचन किया गया है । इस अध्याय में ग्राम धर्म, राष्ट्रधर्म, कुलधर्म, गणधर्म, संघधर्म, गृहस्थवर्ग के सामाजिक दायित्व, भिक्षु-भिक्षुणियों की सेवा, बौद्ध परम्परा में सामाजिक धर्म एवं वैदिक परम्परा में सामाजिक धर्म पर सम्यक् प्रकाश डाला गया है।
'प्रकाशक- राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान जयपुर, १९८२ मूल्य - रु-१६
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डॉ सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
७५ पुस्तक का समापन वैदिक परम्परा के ऋणत्रय की अवधारणा से होता है । ऋणत्रय की अवधारणा वैदिक परम्परा को जो शीर्षस्थ स्थान विश्व चिंतन में देता है, वह सर्वथा अप्रतिम है । पितृऋण-से तब तक उद्धार नहीं जब तक अपनी तरह स्वस्थ सम्मुन्नत सन्तति-धारा हम आगे नहीं बढ़ाते । ऋषि ऋण से तब तक उद्धार नहीं जब तक ऋषियों से प्राप्त सारे ज्ञान-विज्ञान की धारा को हम आगे नहीं बढ़ाते । देवऋण से तब तक उद्धार नहीं जब तक देवों की प्रदत्त प्रकृति-की शस्यश्यामला नदी-पर्वत, पशु, पक्षी, वनौषधियों का हम विस्तार नहीं करते-परस्परं भावस्ततः। जब तक प्रकृति के कण-कण में हम अपनी छबि नहीं देखते तब तक हमारा उद्धार नहीं । आज विश्व बाजारीकरण एवं प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के फलस्वरूप पर्यावरण के दूषण से मनुष्य के अस्तित्व का जो संकट उत्पन्न हुआ है- वह न होता । ऋण भय का चिन्तन हमें 'सत्यं, शिवम् सुंदरम्' के साक्षात्कार के प्रति आकृष्ट करता है। विज्ञान, तकनीकी एवं वैश्वीकरण से उत्पन्न विसंगतियों से त्राण पाने की दिशा में मानवमात्र के लिए डॉ० सागरमल जैन की यह 'लघुमञ्जूषा' सर्वथा सामयिक कृति है। उन्हें पुन: बधाई ।
अध्यक्ष - धर्म एवं दर्शन विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी ।
ऋषिभाषित : एक अध्ययन*
... एक अभिमत म० विनयसागर
ऋषिभाषित जैन वाङ्मय के प्राचीनतम ग्रन्थों में से एक है तथा इसे सर्वप्रथम प्रकाश में लाने का श्रेय जर्मन विद्वानों को है। यह भारतीय संस्कृति में रही समन्वय तथा सर्व-धर्म-समभाव की भावना का प्रतिनिधि ग्रन्थ है। संघबद्धता में जब कट्टरता प्रवेश करने लगती है तब समन्वयात्मकता धीरे-धीरे कम होती जाती है। संभवत: यही कारण है कि परवर्ती अनेक जैन मान्यताओं में इस ग्रन्थ को स्थान नहीं मिला।
प्राकृत भारती ने जब इस ग्रन्थ को हिन्दी तथा अंग्रेजी अनुवादों सहित प्रकाशित करने का निर्णय किया तब प्रश्न उठा कि इस ग्रन्थ की भूमिका कौन लिखे? परम्परा के आग्रह से बंधे व्यक्ति के लिए यह कार्य दुष्कर होगा अत: स्वतन्त्र व तटस्थ दृष्टिकोण वाले विद्वानों के नामों पर विचार हुआ। अपने निराग्रह चिन्तन तथा तुलनात्मक शैली के कारण डॉ० सागरमलजी का नाम चुना गया तथा उन्होंने अपनी सभी व्यस्तताओं के बीच यह कष्टसाध्य कार्य पूर्ण किया। मूल ग्रन्थ की भावना के प्रति न्याय करते हुए उन्होंने इसके दार्शनिक पक्ष को ही नहीं ऐतिहासिक पक्ष को भी भली-भाँति प्रस्तुत किया है। ऋषिभाषित में चर्चित ऋषि केवल श्रमण परम्परा के नहीं हैं। समस्त भारतीय वाङ्मय में संभवत: यह प्रथम ग्रन्थ है जिसमें वैदिक, बौद्ध तथा जैन तीनों परम्पराओं के प्रतिनिधि ऋषियों को समान स्तर पर रखकर उनके दार्शनिक प्रतिपादनों की चर्चा की
डॉ० सागरमलजी की यह विस्तृत तथा शोधपूर्ण भूमिका ऋषिभाषित के अविभाज्य अंग की तरह बन गई है। इसे पढ़ें तो ऋषिभाषित पढ़ना पड़ेगा और ऋषिभाषित पढ़ें तो इसे पढ़ना आवश्यक हो जाएगा। इस अविभाज्यता के साथ ही यह भूमिका अपने आप में एक स्वतंत्र पुस्तक के सभी मापदण्डों को पूरा करती थी, इसी कारण इसे वह रूप भी दिया गया। इसकी उपयोगिता मूल ग्रन्थ के समान ही बहुआयामी और समयातीत है। इसी उपयोगिता को देखते हए इसका अंग्रेजी अनुवाद भी साथ ही प्रकाशित कर दिया गया था । विद्वज्जनों ने दोनों संस्करणों को ही सराहा है।
निदेशक-प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर ।
*प्रकाशक- राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान जयपुर, १९८८ मूल्य - रु- ३०
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सागर जैन-विद्या भारती भाग-१.
समीक्षक-डॉ० कमलेश कुमार जैन
प्रोफेसर सागरमल जैन ने स्वाध्याय के बल पर जैन जगत् के उन प्रबुद्ध मनीषियों की श्रेणी में अपना नाम गौरव के साथ अङ्कित किया है, जो जैनविद्याओं के विशिष्ट अध्येता हैं। शाजापुर (म० प्र०) से वाराणसी और तदनन्तर देश के विभिन्न प्रान्तों में अपनी कीर्ति-पताका फहराते हुये प्रोफेसर जैन ने सुदूरवर्ती यूरोप के अनेक देशों की यात्रा की है और अपने चिन्तनपरक गम्भीर वैदुष्य, मधुर सम्भाषण एवं वक्तृत्व शैली के माध्यम से न केवल सुधीजनों अपितु पूज्य साधु-साध्वियों एवं जनसामान्य को भी प्रभावित किया है । उन्होंने अपनी सधी हुई लेखनी से शताधिक शोध एवं चिन्तनपूर्ण निबन्धों तथा दर्जनों ग्रन्थों के लेखन एवं सम्पादन से माँ सरस्वती का शृङ्गार किया है।
प्रोफेसर जैन की लेखनी से प्रसत समीक्ष्य कृति 'सागर जैन-विद्या भारती के प्रथम भाग में अठारह निबन्धों का संकलन किया गया है। ये निबन्ध प्राय: इत:पूर्व 'श्रमण' अथवा अन्य पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं और कुछ तो एकाधिक बार भी। इनमें कुछ निबन्ध शोधपूर्ण और कुछ चिन्तनप्रधान हैं । इनमें से कुछ निबन्ध समय समय पर आयोजित विभिन्न संगोष्ठियों में पढ़े जा चुके हैं और सराहे भी गये
ये निबन्ध प्रोफेसर जैन ने अपने दीर्घकालीन अध्ययन, चिन्तन-मनन और अनुभव के आधार पर लिखे हैं, जिससे इनमें जहाँ शोध के मापदण्डों को अपनाया गया है, वहीं अपने पूर्ववर्ती आचार्यों/विद्वानों के चिन्तन को समाहित करते हये नवीन शोध-खोजों को भी प्रस्तुत किया
है।
इन निबन्धों में जहाँ जैनधर्म-दर्शन सम्बन्धी विविध सिद्वान्तों का उल्लेख है वहीं भक्ति, स्वाध्याय और साधना तथा कर्म-सिद्धान्त सम्बन्धी विषयों पर भी अच्छा प्रकाश डाला है। साथ ही वर्तमान में आवश्यक एवं उपयोगी सामाजिक एकता, पर्यावरण समस्या और भारतीय संस्कृति का समन्वित रूप जैसे विषयों का प्रतिपादन जैनधर्म के परिप्रेक्ष्य में किया है । अर्धमागधी आगमों में समाधि मरण की अवधारणा अथवा आगमों में मूल्यात्मक शिक्षा जैसे विषयों पर प्रकाश डालकर प्रोफेसर जैन ने अपने आगमिक ज्ञान का गम्भीर परिचय दिया है।
जैन कला के सन्दर्भ में यद्यपि प्रोफेसर जैन अन्यत्र भी बहुत कुछ लिख चुके हैं, किन्तु 'खजुराहों की कला और जैनाचार्यों की समन्वयात्मक एवं सहिष्णु दृष्टि' में जो कुछ लिखा है वह निश्चित ही कला के सूक्ष्म तत्त्वों का गहराई से विश्लेषण करने वाला है। इस निबन्ध में प्रोफेसर जैन ने डॉ० लक्ष्मीकान्त त्रिपाठी द्वारा जैन श्रमण पर किये गये आक्षेप का जिस शालीनता एवं युक्तिपूर्ण ढंग से जो उत्तर दिया है वह न केवल प्रशंसनीय है, अपितु अनुकरणीय भी है । इस क्रम में प्रोफेसर जैन ने जैन श्रमण की सहिष्णुता का उल्लेख करते हुये कौलों एवं कापालिकों की जैन श्रमणों की चारित्रिक निष्ठा पर पड़ी वक्रदृष्टि को भी रेखाङ्कित किया है। वैसे दोनों विद्वानों की व्याख्या ही इसमें प्रमुख है, क्योंकि मूर्तिअङ्कन तो मौन है। हम तो केवल अपनी व्याख्या से ही भावाभिव्यक्ति कर सकते हैं । विशेष इतना अवश्य है कि प्रोफेसर जैन ने देश एवं काल के परिप्रेक्ष्य में अपनी व्याख्या प्रस्तुत की है, जो उन्हें तथ्यों के समीप ले जाती है।
प्रोफेसर जैन अपने जैन सिद्धान्तों के प्रति अत्यन्त सजग हैं। वे कहीं भी और किसी भी बड़े से बड़े विद्वान के द्वारा सिद्धान्तों को तोड़मरोड़ कर प्रस्तुत किये जाने पर उसका निराकरण करने से नहीं चूकते हैं।
बौद्धदर्शन के प्रख्यात विद्वान् महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने अपने ग्रन्थ 'दर्शन दिग्दर्शन' में जैन दर्शन के सन्दर्भ में जो भी लिखा है, वह प्राय: बौद्धधर्म-दर्शन के ग्रन्थों में पूर्वपक्ष के रूप में आये जैनदर्शन के सिद्धान्तों को लक्ष्य में रखकर लिखा है, मूल ग्रन्थों को देखने का प्रयास नहीं किया है। चूंकि पूर्वपक्ष में प्रस्तुत किये जाने वाले सिद्धान्तों की आगे आलोचना की जाती है, अत: उनमें प्राय: तथ्यों/सिद्धान्तों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया जाता है, जिससे किसी भी दर्शन के हार्द अथवा उसके प्रणेता का व्यक्तित्व उभरकर नहीं आ पाता है। साथ ही द्वितीयादि स्रोतों से ग्रहण की गई विषय वस्तु मूलक्षयकरी होती है। अत: राहुल जी के लेखक में आई विसंगतियों का उद्घाटन करते हुए प्रोफेसर जैन का यह कथन युक्तिसंगत ही है कि - "चातुर्याम संवर का मार्ग महावीर का नहीं पार्श्व का है। परवर्ती काल में जब पार्श्व की निर्ग्रन्थ परम्परा महावीर की परम्परा में सम्मिलित हो गई तो त्रिपिटक संकलन कर्ताओं ने दोनों धाराओं को एक मानकर पार्श्व के विचारों को भी महावीर के नाम से प्रस्तुत किया । त्रिपिटक के संकलनकर्ताओं की इस भ्रान्ति का अनुसरण राहल जी ने भी किया और अपनी ओर से टिप्पणी के रूप में भी इस मत के परिमार्जन का कोई प्रयत्न नहीं किया।" (पृष्ठ १७९-१८०) इतना ही नहीं, प्रोफेसर जैन ने काश्यप जी की भूल को भी रेखाङ्कित किया है।
*प्रकाशक- पार्श्वनाथ विद्यापीठ मूल्य, १९९४ - रु. १००
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डॉ सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
प्रोफेसर सागरमल जैन ने अपने कथन की पुष्टि के लिये 'सुमंगल विलासिनी अट्ठकथा' से लम्बा मूल गद्यखण्ड भी उद्धत किया है, जिससे उनके द्वारा बौद्ध धर्म-दर्शन के मूल ग्रन्थों, उनकी टीकाओं और अट्ठकथाओं के अध्ययन की भी जानकारी मिलती है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि प्रोफेसर जैन ने अट्ठकथाकार की भूल को भी इङ्गित किया है और उसकी पुष्टि में जैनागमों से प्रामाणिक उद्धरण प्रस्तुत किये है। क्योंकि राहुल जी का अनुवाद अट्ठकथा पर आधारित है ।
प्रोफेसर जैन ने अपने इस निबन्ध संकलन में सम्पादन के मापदण्डों को आधार बनाकर पाठ संशोधन का भी सुझाव दिया है, जिससे उनका पाठ संशोधन-सम्पादन कला के प्रति समर्पणभाव प्रकट होता है।
प्रोफेसर जैन का अध्ययन केवल जैन-बौद्ध धर्म-दर्शन के ग्रन्थों तक ही सीमित नहीं है, अपितु उन्होंने वैदिक ग्रन्थों का भी गहराई से अध्ययन किया है और सम्प्रदाय विशेष से बाहर निकालने का प्रयास किया है। वस्तुतः भारतीय संस्कृति के उन्नायक और प्राचीन आद्य ग्रन्थ ऋग्वेद आदि किसी सम्प्रदाय विशेष की निधि हो भी नहीं सकते हैं। हाँ ! यह बात अलग है कि इन ग्रन्थों की रक्षा वैदिक संस्कृति के उपासकों ने की है और उसी संस्कृति के प्रतीकों को आधार बनाकर ऋचाओं की व्याख्या भी की है। किन्तु जब उन्हीं ऋचाओं की व्याख्या अन्य सम्प्रदायों के प्रतीकों से मेल खाती है और उनकी व्याख्या तत् तत् सम्प्रदाय अपने प्रतीकों का समावेश करके करते हैं तो उन ऋचाओं की सार्वजनीनता की पुष्टि होती है । इसी दृष्टि को ध्यान में रखते हुये प्रोफेसर जैन ने जैन प्रतीकों को आधार बनाकर वैदिक ऋचाओं की जैन दृष्टि से जो सूक्ष्म व्याख्या की है वह चिन्तन के लिये एक अवसर प्रदान करती है । बहुप्रसिद्ध एक वैदिक ऋचा है
चत्वारि शृङ्गा त्रयो अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्तहस्तासो अस्य ।
त्रिधा बद्धो वृषभो रोखीति महो देवो मर्त्यां आ विवेश ।। (४.५८.३ )
इस ऋचा की जैन प्रतीकों के आधार पर प्रोफेसर जैन द्वारा की गई व्याख्या इस प्रकार है- "तीन योगों अर्थात् मन, वचन व काय से बद्ध या युक्त ऋषभदेव ने यह उद्घोषणा की कि महादेव अर्थात् परमात्मा मृत्यों में ही निवास करता है, उसके अनन्त चतुष्टय रूप अर्थात् अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख व अनन्तवीर्य - ऐसे चार शृङ्ग हैं और सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्र रूप तीन पाद हैं। उस परमात्मा के ज्ञानउपयोग व दर्शन-उपयोग-ऐसे दो शीर्ष हैं तथा पाँच इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि-ऐसे सात हाथ हैं। शृङ्ग आत्मा के सर्वोत्तम दशा के सूचक हैं जो साध की पूर्णता पर अनन्त चतुष्टय के रूप में प्रकट होते हैं और पाद उस साधना मार्ग के सूचक है जिसके माध्यम से उस सर्वोत्तम आत्मा-अवस्था को प्राप्त किया जा सकता है। सप्त हस्त ज्ञान प्राप्ति के सात साधनों को सूचित करते हैं। ऋषभ को त्रिभाबद्ध कहने का तात्पर्य यह है कि वह मन, वचन एवं काययोगों की उपस्थिति के कारण ही संसार में है। बद्ध का अर्थ संयत या नियन्त्रित करने पर मन, वचन व काय से संयत ऐसा अर्थ भी किया जा सकता है।"
प्रोफेसर जैन द्वारा उक्त ऋचा की यह व्याख्या स्वागतेय है। साथ ही इसी प्रकार की अन्य अनेक ऋचाओं की जैन दृष्टिपरक व्याख्या एक नवीन दृष्टि देती है और विद्वानों को चिन्तन करने के लिये मजबूर करती है। किसी भी विचार का प्रवर्तन यदि विद्वज्जनों के हृदय को झकझोर दे तो उसकी सार्थकता स्वतः सिद्ध हो जाती है और यही हुआ है प्रोफेसर जैन की उक्त जैनदृष्टि परक व्याख्या से ।
-प्रोफेसर जैन ने 'निर्युक्ति साहित्य : एक पुनर्चिन्तन' में यद्यपि मुनि पुण्यविजय जी के लेख को उपजीव्य बनाया है, किन्तु उन्होंने अपने इस लेख में अन्य अनेक नवीन स्थापनायें भी प्रस्तुत की हैं और अपने निष्कर्षो को भी वे अन्तिम सत्य नहीं मानते हैं, जिससे शोध खोज के क्षेत्र में प्रोफेसर जैन की अनाग्रही दृष्टि प्रकट होती है।
जैन-बौद्ध दर्शन के पारिभाषिक शब्दों के अर्थ निर्धारण एवं उनके अनुवाद की जो समस्यायें सम्प्रति विद्वानों के सम्मुख उपस्थित हैं उन पर विचार करते हुये प्रोफेसर जैन ने अर्थ निर्धारण के लिये शास्त्रों में ही निवद्ध नियमों का पुनरुद्घाटन किया है, जिन्हें कुछ तथाकथित विद्वानों
ने
अछूत की तरह अलग-थलग कर दिया है। वस्तुतः शब्दों / पदों का अर्थ कैसे निश्चित किया जाये ? इसकी जानकारी शास्त्र स्वयं देते हैं । हमें तो केवल इतना ध्यान रखना है कि उन शब्दों अथवा पदों के प्रयोग में शास्त्रकार की मुख्य विवक्षा क्या है ?
सम्पादन के नाम पर दिगम्बर और श्वेताम्बर जैनागमों का भाषिक स्वरूप परिवर्तित कर अनेक विद्वानों ने अपने-अपने पक्ष की जो पुष्टि की है उससे प्रोफेसर जैन चिन्तित हैं। अतः आगम सम्पादन के लिये उन्होंने जिन वैज्ञानिक एवं शोधपरक मापदण्डों को प्रस्तावित किया है वे निश्चित ही मननीय है। श्रद्धा के अतिरेक में बहकर आगम सम्पादन का विरोध करने वालों के प्रति प्रोफेसर जैन का निम्न कथन युक्ति संगत ही है कि "क्या अर्धमागधी आगम अपने वर्तमान स्वरूप में सर्वज्ञ की वाणी है? क्या उनमें किसी प्रकार का विलोपन, प्रक्षेप या परिवर्तन नहीं हुआ है ? यदि ऐसा है तो उनमें अनेक स्थलों पर अन्तर्विरोध क्यों है? कहीं लौकान्तिक देवों की संख्या आठ है तो कहीं नौ क्यों है ? कहीं चार स्थावर और दो त्रस है, कहीं तीन त्रस और तीन स्थावर कहे गये तो कहीं पाँच स्थावर और एक त्रस यदि आगम शब्दश: महावीर
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
की वाणी हैं तो आगमों और विशेष रूप से अङ्गआगमों में महावीर के तीन सौ वर्ष पश्चात् उत्पन्न हुये गणों के उल्लेख क्यों हैं ? यदि कहाजाये कि भगवान् सर्वज्ञ थे और उन्होंने भविष्य की घटनाओं को जानकर यह उल्लेख किया तो प्रश्न यह है कि वह कथन व्याकरण की दृष्टि से भविष्यकालिक भाषा रूप में होना था, वह भूतकाल में क्यों कहा गया? क्या भगवती में गोशालक के प्रति जिस अशिष्ट शब्दावली का प्रयोग हुआ है क्या वह अंश वीतराग भगवान् महावीर की वाणी हो सकती है ? क्या आज प्रश्नव्याकरणदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरोपपातिक-दशा और विपाकदशा की विषयवस्तु वही है, जो स्थानांग में उल्लिखित है ? तथ्य यह है कि यह सब परिवर्तन हुआ है, आज हम उससे इंकार नहीं कर सकते हैं।"
भगवान् महावीर की निर्वाण तिथि निर्धारण के सन्दर्भ में अभिलेखीय साक्ष्यों को प्रस्तुत करते हुये प्रोफेसर जैन ने जो विचार प्रकट किये हैं वे भी मननीय हैं।
अन्त में मैं मात्र इतना ही कहना पर्याप्त समझता हूँ कि प्रोफेसर सागरमल जैन की चिन्तन पूर्ण, किन्तु अनाग्रही और असाम्प्रदायिक दृष्टि निश्चय ही उनके व्यक्तित्व के अनुरूप है ।उनकी दृष्टि दूरगामी और लक्ष्य का भेदन करने वाली है । अत: उनके इस दृष्टिकोण से देश और · समाज को लाभ लेना चाहिए।
प्राध्यापक, जैनदर्शन, संस्कृतिविद्या धर्मविज्ञान सङ्काय, काशी हिन्दू विश्वद्यिालय, वाराणसी ।
सागर जैन विद्या-भारती : भाग-२
समीक्षक-प्रो० सदुर्शन लाल जैन
डॉ० सागरमल जैन एक स्वतन्त्र-विचारक एवं लेखक हैं । आप सम्प्रदायगत अवधारणाओं को कसौटी पर कसे बिना स्वीकार नहीं करते हैं। इसीलिए आपने स्वकीय सम्प्रदाय की कतिपय स्थानों पर तीखी आलोचना भी की है । परन्तु आगमों की प्राचीनता को लेकर आपका झुकाव दिगम्बर आगम ग्रन्थों की अपेक्षा श्वेताम्बर आगमों की ओर अधिक है । आपके शोध का विषय 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन रहा है । परिणामस्वरूप आपके चिन्तन एवं लेखन में गीता, बौद्ध एवं जैन संस्कृतियों का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। 'ऋषिभाषित' नामक जैन आगम ग्रन्थ का आपने समीक्षात्मक अध्ययन करके कई नये तथ्यों का उद्घाटन किया है। इनके अतिरिक्त श्वेताम्बर जैन आगमों तथा जैन दार्शनिक ग्रन्थों के गम्भीर अध्ययन के साथ आधुनिक चिन्तकों का भी आपने अच्छा अध्ययन किया है।
भाषा शैली में सरलतास्पष्टता तथा तर्कशीलता है। छोटे-बड़े अनेक ग्रन्थों के अतिरिक्त शताधिक शोध निबन्ध आपके छप चुके हैं। कई शोध छात्र आपके निर्देशन में शोध उपाधियाँ भी प्राप्त कर चुके हैं। आपने अनेक ग्रन्थों का सम्पादन कार्य किया है इन सबसे आपके सागरसम
ध पाण्डित्य की अमिट छाप विद्वज्जगत् पर पड़ी है। ये अपने पाण्डित्य से न केवल विद्वानों को आकर्षित करते हैं अपितु अपने सरल एवं परम-कारुणिक स्वभाव से जनसामान्य को भी आकृष्ट करते हैं। वर्तमान में आप पार्श्वनाथ विद्यापीठ के मानद् निदेशक हैं।
आपकी वाणी जन-जन तक पहुँचे इस भावना से प्रेरित होकर पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी के विद्या प्रेमी सचिव श्री भूपेन्द्रनाथ जैन जी ने इनके लेखों को एकत्र संकलित करके 'सागर जैन विद्या भारती के नाम से दस खण्डों में प्रकाशित करने की योजना तैयार की जिसके तीन खण्ड (भाग) प्रकाशित हो चुके हैं ।
समालोच्य 'सागर जैन विद्या भारती' का द्वितीय भाग अपने इस ग्रन्थ रूप के साथ-साथ पार्श्वनाथ विद्यापीठ से प्रकाशित होने वाली 'श्रमण' पत्रिका में छपा है । पत्रिका एवं ग्रन्थ दोनों ही प्रयोजन हेतु साथ-साथ छपने से कमियाँ समालोच्य ग्रन्थ के सम्पादन में कुछ कमियां रह गयी। अन्तिम सात पृष्ठ 'पार्श्वनाथ विद्यापीठ' की नये प्रकाशन शीर्षक से छपे हैं, जिनमें विद्यापीठ के दस प्रकाशनों की समीक्षा दी गयी है।
इस भाग में ग्यारह लेखों का संकलन है, जिनका प्रकाशन अन्यत्र भी हुआ है । अन्तिम ग्यारहवाँ डॉ० सागरमल जैन तथा उनके शोधछात्र डॉ० रमेश चन्द्र गुप्त दोनों के संयुक्त कृतित्व के रूप में हैं। शेष दस लेख डॉ० सागरमल जैन के लेखनी से प्रसूत हैं। इन लेखों की
*प्रकाशक- पार्श्वनाथ विद्यापीठ मूल्य, १९९५ - रु. १००
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डॉ सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
७९ विषय वस्तु क्रमश: निम्न प्रकार है -
१. अर्धमागधी आगम-साहित्य : एक विमर्श - पैंतालीस पृष्ठों के इस लेख में श्वेताम्बर जैन अर्धमागधी आगम साहित्य का आलोडन किया गया है । इसमें जैन श्रमणधारा की प्राचीनता को सिद्ध करते हुए बतलाया है कि वैदिक उपनिषदों के अनेक अंश आचारांगसूत्र, . सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, ऋषिभाषित आदि प्राचीन जैन आगमों में यथावत् उपलब्ध होते हैं।
श्वेताम्बर जैन आगम को तीर्थंकर महावीर की वाणी स्वीकार करने में बाधा यह है कि उसमें तथ्यात्मक विविधतायें तथा अन्तर्विरोध स्पष्ट दिखलाई देते हैं । डा० जैन ने भी आगम रूप में मान्य सभी ग्रन्थों को महावीरवाणी नहीं मानते हैं।
डा० जैन ने शौरसेनी दिगम्बर जैनागमों (मूलाचार, भगवतीआराधना, षट्खण्डागम, नियमसार आदि) के आधार के रूप में श्वेताम्बर जैन अर्धमागधी आगमों को बतलाया है, जिस पर अभी और चिन्तन आवश्यक है, क्योंकि 'मूल आगमों के अंशों का उपलब्ध श्वेताम्बर अर्धमागधी आगमों में सर्वथा अभाव हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता है । इसी प्रसंग में डॉ० जैन ने पं० कैलाशचन्द जैन की दिगम्बर मान्यता की समीक्षा की है । आलेख में जैन आगमों का विविध रूपों में विभाजन, उनकी विषय वस्तु, वाचनायें, रचनाकाल आदि सभी पक्षों के विवेचन है । जैनसंघ के प्रामाणिक इतिहास के लिए ये विषय बड़े उपयोगी हैं। २. प्राचीन जैन आगमों में चार्वाक दर्शन का प्रस्तुतीकरण एवं समीक्षा -
तेरह पृष्ठों के इस आलेख का वाचन दिल्ली विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग की संगोष्ठी में किया गया था। इस आलेख में चार्वाक दर्शन की विषयवस्तु के लिये प्राचीन जैन आगमों को विशेषकर आचारांग, ऋषिभाषित, सूत्रकृतांग और राजप्रश्नीयसूत्र को आधार बनाया गया है । राजप्रश्नीयसूत्र एक ऐसा प्राकृत आगम ग्रन्थ है जिसमें चार्वाक मत के उच्छेदवाद और तज्जीवतच्छीरवाद को पूर्वपक्ष के रूप में प्रस्तुत करके खण्डन किया गया है । चार्वाक दर्शन को समझने के लिये प्रस्तुत आलेख महत्त्वपूर्ण है। ३. महावीर के समकालीन विभिन्न आत्मवाद एवं उसमे जैन आत्मवाद का वैशिष्ट्यष्ट्य -
दस पृष्ठों का यह आलेख सर्वप्रथम सन् १९६६' में सुधर्मा में प्रकाशित हुआ था। इसमें सूत्रकृतांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, और उत्तराध्ययन सूत्र, इन जैन आगम ग्रन्थों का कठोपनिषद्, गीता, छान्दोग्योपनिषद् और बृहदारण्यकोपनिषद्, इन हिन्दू धर्म ग्रन्थों का तथा सुत्तपिटक, दीघनिकाय, ब्रह्मजालसूत्र और मज्झिमनिकाय इन बौद्ध पालि ग्रन्थों को आधार मानकर आठ प्रकार के आत्मवादों को उपस्थित किया है । पश्चात् जैन दृष्टि से समस्त आत्मवादों का समन्वय करते हुये उसका वैशिष्ट्य प्रतिपादित किया है। ४. सकरात्मक अहिंसा की भूमिका -
अट्ठारह पृष्ठ यह आलेख पं० कन्हैयालाल जी लोड़ा के ग्रन्थ की भूमिका है । प्रश्नव्याकरण में अहिंसा के निर्वाण आदि साठ पर्यायवाची नाम मिलते हैं, जिनमें से अप्रमाद आदि ३-४ नामों को छोड़कर शेष सभी सकारात्मक हैं । डॉ० जैन ने इस लेख में आगमों को आधार मानकर जैन अनेकान्तदृष्टि से अहिंसा को अपेक्षाभेद से सकारात्मक एवं नकारात्मक (निषेधरूप) दोनों सिद्ध किया है । प्रसंग: पुण्य कर्म को रागादि के अभाव में कर्मबन्ध का कारण नहीं माना है, अन्यथा तीर्थंकर की लोक-कल्याणकारिणी देशना भी कर्मबन्ध का कारण होने लगेगी। 'अहिंसा एक पुण्य कर्म है जिसे निष्काम कर्म (वीतरागभाव) के रूप में करना चाहिए" यह आलेख का उद्देश्य है। अहिंसा पर लेखक के अन्य भी लेख प्रकाशित
५. तीर्थंकर और ईश्वर के सम्प्रत्ययों का तुलनात्मक विवेचन
छह पृष्ठीय इस लघु निबन्ध में ईश्वरवाद और तीर्थंकर के मौलिक अन्तर को स्पष्ट किया गया है। दोनों में सर्वज्ञत्व, परमकारुणिकत्त्व आदि अनेक समानतायें होने पर भी तीर्थंकरवाद से पूर्ण व्यक्ति-स्वातन्त्रय की स्थापना होती है जो ईश्वरवाद में संभव नही है । बौद्ध और जैन दोनों तीर्थकरवादी दर्शन हैं । जैनों का तीर्थकरवाद कहीं अधिक सयुक्तिक है, क्योंकि इसमें प्रत्येक आत्मा को परमात्मा माना गया है। ६. जैनधर्म में भक्ति का स्थान
चार पृष्ठों का यह लघु लेख जो 'श्रमण' में मार्च १९८०' में भी छपा था । वस्तुत: तीर्थंकरवाद और ईश्वर के सम्प्रत्ययों के लेख का पूरक है । जब जैनधर्म के तीर्थंकरवाद में सृष्टिकर्ता आदि स्वीकृत नहीं है तो फिर उसकी भक्ति क्यों की जाती है ? इसका समाधान इसमें किया गया है। ७. मन-शक्ति, स्वरूप और साधना : एक विश्लेषण
छब्बीस पृष्ठों का यह लेख पुस्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ में सन् १९७९ में छपा था। चित्त, अन्त:करण और मन ये पर्यायवाची शब्द हैं। मन संसार बन्धन और मुक्ति में किस प्रकार अपना कार्य करता है ? राग, वासना, इन्द्रियाँ और इच्छाओं का निरोध ही मनोनिग्रह है। मनोनिग्रह से मुक्ति का पथ प्रशस्त होता है । मन की अपरिमित शक्ति है । जैन दृष्टि से मन दो प्रकार का है-द्रव्यमन (जड़, भौतिक पक्ष) और भाव मन
Jain Education Interational
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८.
जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
(चेतना-पक्ष)। लेखक ने मन की विविध अवस्थाओं का चित्रण आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से बौद्ध और हिन्दू परम्परा से तुलना करते हुए किया है । रागात्मक मन बन्धन का हेतु है और वीतरागी मन मुक्ति का हेतु है । ८. जैनदर्शन में नैतिकता की सापेक्षता -
ग्यारह पृष्ठों के इस निबन्ध का प्रकाशन दार्शनिक त्रैमासिक में पहले हो चुका था । लेखक के इसी विषय से सम्बन्धित अन्य लेख भी हैं, जैसे नीति के निरपेक्ष एवं सापेक्ष तत्त्व, (दार्शनिक, त्रैमासिक, अप्रैल १९७६ में प्रकाशित), जैनदर्शन में नैतिकता की सापेक्षता और निरपेक्षता (मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ १९७७ में प्रकाशित) आदि । इन लेखों में लेखक ने 'सदाचार क्या है और दुराचार क्या है ? इसको लेकर नैतिकता का विविध पहलुओं से मूल्याङ्कन किया है । जैनदर्शन के अनेकान्त सिद्धान्तानुसार नैतिक मूल्यों की सापेक्षता सिद्ध करते हुए उसके निरपेक्ष पक्ष को भी प्रकाशित किया है। आचरण का बाह्यपक्ष देशकाल की परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तनशील हो सकता है परन्तु आन्तरिकपक्ष सदैव अपरिवर्तनशील होता है। इसी संदर्भ में आचार के उत्सर्गमार्ग (राजमार्ग या सामान्यमार्ग) और अपवादमार्ग की आगमानुसार व्यवस्था भी दी है । वस्तुत: नैतिकता सम्बन्धी सापेक्षवादी और निरपेक्षवादी दोनों धाराएँ अपने एकान्तिक रूप में अपूर्ण हैं । यह डॉ० साहब के इन लेखों का सार है।
९. सदाचार के शाश्वत मानदण्ड - सोलह पृष्ठों का यह आलेख 'दार्शनिक त्रैमासिक' तथा 'जैनधर्म दिवाकर स्मृतिग्रन्थ' में पूर्व प्रकाशित हैं। इस पर लेखक को पाँच सौ रुपयों का पुरस्कार भी दिया गया था। लेखक ने सामाजिक परिवेश और वैयक्तिक साधना को ध्यान में रखकर जैन सदाचार के नियमों की सटीक व्याख्या इस लेख में की है । राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टि को भी ध्यान में रखा है। नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता और अपरिवर्तनशीलता की भी समीक्षा की है। नैतिक संकल्प, साध्य तथा मौलिक नियम अपरिवर्तशील होते हैं परन्तु साधन परिवर्तनशील । प्रसङ्गत: पाश्चात्य विचारों की भी समीक्षा की गई है। यह आलेख वस्तुत: आठवें आलेख (नैतिकता की सापेक्षता) का पूरक है।
१०. जैनधर्म का लेश्या-सिद्धान्त : एक विमर्श - सोलह पृष्ठों का यह आलेख डॉ० शान्ता जैन के ग्रन्थ में भूमिका के रूप में प्रकाशित हुआ है । जैन दर्शन का लेश्या सिद्धान्त आधुनिक रंग-मनोविज्ञान या रंग-चिकित्सा विज्ञान की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है । जो आत्मा को कर्मों से लिप्त करे (बांधे या चिपकाये) उसे लेश्या कहा जाता है । शुभ-अशुभ मनोवृत्तियों (आवेगों) की तीव्रता और मन्दता के तारतम्य भाव के आधार पर लेश्या के छह भेद किये गये हैं । ये मनोवृत्तियाँ हमारे व्यक्तित्व को प्रभावित करती हैं। लेश्या के दो भेद भी किये जाते हैं - द्रव्यलेश्या (सूक्ष्म भौतिक तत्त्वों से निर्मित) तथा भावलेश्या (आत्मा का अध्यवसाय या अन्त:करण वृत्ति ) । इस तरह मनोदशाओं के आधार पर आचरणपरक वर्गीकरण लेश्याओं में किया जाता है। ११. प्रज्ञापुरुष पं० जगन्नाथ जी उपाध्याय की दृष्टि में बुद्ध व्यक्ति नहीं, प्रक्रिया -
चार पृष्ठों का यह लेख पं० जगन्नाथ उपाध्याय के स्मृति ग्रन्थ में प्रकाशित है । अनात्मवादी तथा एकान्त क्षणिकवादी बौद्धदर्शन में बुद्ध, बोधि सत्व, त्रिकाय, पुनर्जन्म, निर्वाण आदि की अवधारणायें कैसे सम्भव हैं ? इन प्रश्नों का समाधान लेखक द्वय ने पं० जगन्नाथ उपाध्याय जी से प्राप्त किया। तदनुसार बुद्ध के त्रिकायों की नित्यता का अर्थ परार्थक्रियाकारित्व रूप बुद्धत्व है । बुद्ध नित्य व्यक्तित्व (An Etermal Personality)नहीं है अपितु चित्त-सन्तति या चित्तधारा की एक प्रक्रिया (AProcess) है। वस्तुत: यह लेख बौद्धदर्शन के महत्त्वपूर्ण विषय से सम्बन्धित है।
इस तरह सागर जैन-विद्या भारती भाग दो के सभी लेख खोजपूर्ण एवं महत्त्वपूर्ण हैं । ग्यारहवां लेख छोड़कर शेष सभी जैन धर्म के प्ररिप्रेक्ष्य में लिखे गये हैं । धर्म, दर्शन, नीतिशास्त्र, इतिहास, आगम, मनोविज्ञान आदि की विपुल सामग्री इसमें विद्यमान है। विद्वानों और जनसामान्य दोनों के उपयोग की सामग्री इसमें निहित है।
संस्कृत विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी।
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जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय*
एक अभिमत म. विनयसागर
प्राकृत भारती तथा पार्श्वनाथ विद्यापीठ का यह संयुक्त प्रकाशन जैनों के बिखरे इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी सिद्ध होगी। लेखक उस स्तर के स्थापित विद्वानों में से है जिनकी लेखनी को जनसाधारण ही नहीं प्रबुद्ध पाठक भी प्रमाण मानता है। किन्तु लेखक ने अपने उस वैशिष्ट्य का लाभ उठाने का लोभ कहीं नहीं दर्शाया है, अपितु विशुद्ध और तटस्थ शोधकर्ता का दायित्व भली-भाँति निभाया है।
डॉ. सागरमलजी की तुलनात्मक अध्ययन की शैली ने जहां उपलब्ध और स्थापित प्रमाणों का निराग्रह उपयोग किया है वहीं अस्थापित साक्ष्यों पर से प्राचीनता की धुंध तथा अर्वाचीनता के एकांगी रंगों की पर्तों को हटाने का प्रशंसनीय प्रयत्न भी किया है।
किसी भी धर्म का एक औद्भविक काल होता है। इस काल में अवधारणाओं और सिद्धान्तों को अधिक महत्त्व दिया जाता है। इसके पश्चात् धीरे-धीरे वह संघी व्यवस्था की दिशा में अग्रसर होता है। यह नियमों, आचार संहिताओं, समाज व्यवस्थाओं के विकास का काल होता है। जब संघीय व्यवस्था स्थापित हो जाती है तब आग्रह बलवान होते जाते हैं। इसी के पश्चात् कट्टरताएं तथा एकांगी दृष्टिकोण पकने लगते हैं। संभवत: इसी कारण धर्म प्रणेताओं ने सुधार, क्रियोद्वार आदि व्यवस्थाओं को स्थान दिया था। पंथ प्रेम के ये एकांगी दृष्टिकोण साक्ष्यों के निष्पक्ष विश्लेषण की संभावनाओं को समाप्त कर देते हैं और इससे अन्य किसी को हो ना हो इतिहास को बड़ी हानि होती है।
यापनीय संप्रदाय श्वेताम्बर व दिगम्बर के बीच की कड़ी होते हुए भी यह श्वेताम्बर परम्परा के अधिक निकट थी ऐसा प्रतीत होता है; श्वेताम्बर आगमों, स्त्रीमुक्ति, आदि को मानना यही इंगित करता है। मात्र नग्नत्व इस परम्परा को दिगम्बर परम्परा से जोड़ता है। इस पुस्तक में इन सभी परम्परागत मान्यताओं व साक्ष्यों को सामने रखते हुए एक व्यापक दृष्टिकोण से सम्पूर्ण जैन इतिहास को देखा गया है। अच्छा हो कि जिस प्रकार कालान्तर में दिगम्बर परम्परा ने यापनीय ग्रन्थों को मान्य कर लिया- उसी प्रकार इस प्राचीन लुप्त परम्परा को सभी अर्वाचीन जैन परम्पराएँ अपनी पूर्वज के रूप में मान लें।
लेखक ने इस कृति द्वारा उस निष्पक्ष आकलन व विश्लेषण की परम्परा को पुनर्जीवित करने का महत् कार्य किया है।
- इस संदर्भ में लेखक के अपने शब्द उद्धृत करना समीचीन समझता हूँ- जैन संघ में जो विभिन्न सम्प्रदायों का उद्भव और विकास हुआ, वह देश-कालगत परिस्थितियों एवं अन्य सहवर्ती परम्पराओं के प्रभाव का परिणाम है-अत: उनमें मौलिक विरोध नहीं है। श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदायों का उद्भव वस्तुत: उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में देश, काल और परिस्थितियों के आधार पर हुए परिवर्तनों के परिणामस्वरूप ही हुआ है। जैन समाज का यह दुर्भाग्य रहा है कि उसने ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में अपने विभिन्न सम्प्रदायों के उद्भव और विकास को समझने का प्रयास नहीं किया और यह नहीं देखा कि वे क्यों और किन परिस्थितियों में और किनके प्रभाव से विकसित हुए हैं।
"मेरी यह कृति निश्चय ही दोनों परम्पराओं के आग्रही दृष्टिकोणों को झकझोरेगी और उनमें समवाय लिए एक नयी दिशा प्रदान करेगी। इस कृति में मेरे जो निष्कर्ष हैं वे यथा सम्भव साम्प्रदायिक आग्रहों से ऊपर उठकर मात्र ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर निकाले गये हैं।"
आशा करता हूँ कि शोधकर्ता इस पुस्तक को आधार बना इस विषय में आगे शोध करेंगे तथा इस शैली को अन्य विषयों की शोध में भी अपनाएंगे।
निदेशक-प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर ।
*प्रकाशक- पार्श्वनाथ विद्यापीठ एवं प्राकृत भारती अकादमी १९९५ मूल्य - रु- १००
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जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय
यापनीय सम्प्रदाय के विषय में एक आधारभूत ग्रन्थ
समीक्षक डॉ० रमणलाल चि० शाह *
जैन जनसाधारण ही नहीं, अपितु कितने ही जैन आचार्य एवं मुनिगण 'यापनीय' शब्द से ही परिचित नहीं हैं, तो उन्हें यापनीय सम्प्रदाय के विषय में जानकारी कहाँ से हो सकती है ? जैनों में भूतकाल में यापनीय नाम से एक महत्त्वपूर्ण सम्प्रदाय था और इस सम्प्रदाय ने जैनों के धार्मिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस सम्प्रदाय के विषय में जानना जैनों के लिए अत्यावश्यक है, क्योंकि इसने जैनों के दिगम्बर एवं श्वेताम्बर सम्प्रदायों के बीच में रहे विसंवाद को दूरकर एक सुसंवाद एवं समन्वय स्थापित करने का कार्य किया है। वापनीय सम्प्रदाय का उद्भव इन दोनों सम्प्रदायों के बीच समन्वय स्थापित करने के लिए ही हुआ और इसने भगवान महावीर के द्वारा प्रवर्तित अहिंसा और अनेकान्त की भावना को दृढ़ करने का प्रयत्न किया । यापनीय सम्प्रदाय के सम्बन्ध में अभी तक कोई सूचना देने वाली सामग्री उपलब्ध नही थी। डॉ० सागरमल जैन ने इस सम्बन्ध में अनेक ग्रंथों का अध्ययन तथा सूक्ष्म समीक्षा करने के पश्चात् तटस्थता पूर्वक यह बृहद्काय शोधग्रंथ तैयार किया जो जिज्ञासुओं की उपरोक्त इच्छा से सम्यक् प्रकार को संतुष्ट कर सकता है।
डॉ० सागरमल जैन ने प्रारम्भ में यापनीय सम्प्रदाय पर एक लघुपुस्तिका ही लिखने का निर्णय लिया था, किन्तु किस प्रकार के संयोगों में चार वर्ष की परिश्रमपूर्ण साधना से यह बृहद्काय ग्रंथ लिखा गया, इसका रोचक वृत्तान्त उन्होंने स्वयं ही अपने लेखकीय निवेदन में किया है। डॉ० सागरमल जैन को श्वेताम्बर परम्परा के आगम ग्रंथों का सम्यक् अध्ययन तो था ही, परंतु यापनीय सम्प्रदाय के विषय में जब कुछ लिखना हो तो दोनों ही सम्प्रदायों के आधारभूत ग्रंथों का अध्ययन आवश्यक होता है। अतः उन्होंने दोनों परम्परा के ग्रन्थों का पुनः गहन अभ्यास किया जिससे उनमें लेखन कार्य के लिए योग्य समझ और अधिकार प्राप्त हुआ। ऐसे संवेदनशील विषय पर लिखने के लिए लेखक को अपने साम्प्रदायिक पूर्वाग्रह और अभिनिवेश को छोड़ना पड़ता है और तभी ऐतिहासिक तथ्यों के साथ योग्य न्याय किया जा सकता है। लेखक ने इन बातों को दृष्टि में रखकर तटस्थता पूर्वक इस ग्रन्थ का लेखन कार्य किया है इसके लिए वे अभिनंदन के अधिकारी हैं। लेखक ने इस ग्रंथ को चार मुख्य अध्यायों में विभक्त किया है। प्रथम अध्ययन में यापनीय शब्द का अर्थ विकास तथा यापनीय संघ के उत्पत्ति की चर्चा की गयी है। दूसरे अध्याय में यापनीय संघ में उत्पन्न हुए विभिन्न गणों एवं अन्वयों के विकास का विवेचन किया गया है। तीसरे अध्याय में यापनीय साहित्य का सविस्तार विवेचन किया गया है और चतुर्थ अध्ययन में यापनीय संघ की विशिष्ट मान्यताओं का यथार्थ परिचय दिया गया है।
यापनीय संघ ईसा की दूसरी उत्तरी शताब्दी से लेकर पन्द्रहवीं शताब्दी तक लगभग १२ सौ वर्षों की सुदीर्घ अवधि में विद्यमान रहा है। इतने सुदीर्घ काल में इस सम्प्रदाय का अस्तित्व बना रहा इसका कारण इसकी उदार एवं समन्वयवादी दृष्टि ही हो सकती है। इस संघ ने श्वेताम्बर एवं दिगम्बर सम्प्रदायों के बीच में एक योजक कड़ी का कार्य किया है। श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायों के बीच मतभेद के मुख्य विषय मुनि का सचेल या अचेल होना, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थ एवं अन्य तैर्थिक की मुक्ति तथा केवली के कवलाहार से सम्बन्धित रहे हैं। यापनीय सम्प्रदाय ने दिगम्बर परम्परा के अनुसार मुनि के अचेलकत्व को मान्य रखा तो दूसरी ओर श्वेताम्बरों की मान्यता के अनुरूप स्त्रीमुक्ति, गृहस्थ एवं अन्यतैर्थिक की मुक्ति एवं केवली के कवलाहार को मान्यता प्रदान की। यही नहीं, उसने श्वेताम्बर सम्प्रदाय में मान्य आगमों को भी स्वीकृति प्रदान की और बताया कि उनमें जो वस्त्र पात्र के उल्लेख हैं वे मात्र आपवादिक स्थिति के सूचक है। उसने यह कार्य दोनों पक्षों को मान्यता देने के व्यावहारिक उद्देश्य से नहीं, अपितु प्रत्येक विषय की तर्कयुक्त गहन समीक्षा करके ही किया है और उन्हें जो योग्य लगा उसे समर्थन दिया । यापनीय साहित्य में इन महत्त्वपूर्ण विषयों पर गम्भीरता से विचार किया गया है। डॉ० सागरमल जैन ने भी प्रस्तुत कृति में इन विषयों पर प्रामाणिकता से विचार किया है। दिगम्बर परम्परा में स्पष्टरूप से मान्य ग्रंथों के अतिरिक्त शाकटायन, प्रभाचन्द्र, विमलसूरि, सिद्धसेन, उमास्वाति आदि के ग्रंथों की भी लेखक ने तलस्पर्शी मीमांसा करके यह स्थापित किया कि कौन सा साहित्य यापनीय संघ का माना जा सकता है और कौनसा यापनीय संघ का नहीं माना जा सकता, इसके विषय में लेखक ने निम्न कसौटी प्रस्तुत की है।
१. क्या उस ग्रन्थ में अचेलता पर बल देते हुए भी स्त्रीमुक्ति और केवलीभक्ति के निर्देश उपलब्ध हैं ?
२. क्या वह ग्रन्थ स्त्री के छेदोपस्थापनीय चारित्र अर्थात् महाव्रतारोपण का समर्थन करता है ?
३. क्या उस ग्रन्थ में गृहस्थ अथवा अन्य परंपरा के भिक्षु आदि के मुक्तिगमन का उल्लेख है ?
४. क्या उस ग्रन्थ में श्वेताम्बर परंपरा में मान्य अंगादि आगमों के अस्तित्व को स्वीकार किया गया है और अपने मत के समर्थन में
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डॉ सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व उनके उद्धरण दिये गये हैं ?
५. क्या ग्रन्थकार श्वेताम्बर आगमों में उपलब्ध महावीर के गर्भापहार, विवाह आदि तथ्यों का उल्लेख करता है ? ६. क्या ग्रन्थकार ने अपने गण अन्वयादि का उल्लेख किया है और वे गण क्या यापनीयों से सम्बन्धित हैं ? ७. क्या उस ग्रन्थ का सम्बन्ध उन आचार्यों से है, जो श्वेताम्बर और यापनीय दोनों के पूर्वज रहे हैं ? ८. क्या ग्रन्थ में ऐसा कोई विशिष्ट उल्लेख है, जिसके आधार पर उसे यापनीय परंपरा से सम्बन्धित माना जा सके ? ९. क्या उस ग्रन्थ में क्षुल्लक को गृहस्थ न मानकर अपवाद लिंगधारी मुनि कहा गया है ? १०. क्या उस ग्रन्थ में रुग्ण या वृद्ध मुनि को पात्रादि में आहार लाकर देने का उल्लेख है ?
उपरोक्त कसौटी को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि लेखक ने कितने व्यवस्थित तरीके से एवं तर्कपुरस्सर ढंग से इस सम्बंध में विचार किया है। अचेलकत्व एवं सचेलकत्व के सम्बन्ध में भी उन्होंने ऐतिहासिक, भौगोलिक परिस्थितियों के साथ-साथ आधार भूत ग्रंथों, अभिलेखों एवं पुरातात्त्विक सामग्रियों के आधार पर जो तलस्पर्शी विवेचना की है वह ध्यान देने योग्य है । इस प्रकार से डॉ० सागरमल जैन ने यापनीय संघ के विषय में एक विशालकाय और अधिकृत ग्रंथ प्रदान किया है इसके लिए उन्होंने जैन और बौद्ध परम्परा के कितने ग्रंथों का अध्ययन किया होगा यह जानकर आश्चर्य होता है उन्होंने इस ग्रन्थ में अपने विषय प्रतिपादन को तो यथार्थ न्याय प्रदान किया ही है किन्तु इसके साथ ही पाठकों के लिए विविध संदर्भो में विपुल सामग्री भी उपलब्ध करा दी है, इन सबमें जो सबसे महत्त्वपूर्ण बात है वह यह कि वे अपने विवेचन में कहीं भी साम्प्रदायिक अभिनिवेश से भ्रमित नहीं हुए हैं। उनकी उदार एवं मध्यस्थ दृष्टि उन्हें एवं उनके ग्रंथ को गौरव प्रदान करती है उनके इस अवदान के लिए वे निश्चय ही हमारे अभिनन्दन के अधिकारी हैं।
पूर्व अध्यक्ष, गुजराती विभाग, मुम्बई विश्वविद्यालय
"जैनधर्म और तान्त्रिक साधना"*
समीक्षक - प्रो० कमलेश दत्त त्रिपाठी
आगमिक तान्त्रिक दर्शन एवं साधना समस्त भारतीय दार्शनिक धार्मिक परम्परा का सामान्य दाय है । वैदिक एवम् आगमिक परम्पराओं के अन्तःसम्बन्ध का विवेचन तथा उनकी परस्पर विरुद्ध अथवा पूरक स्थिति पर विचार आधुनिक भारत-विद्या-विषयक अध्ययन का रोचक क्षेत्र रहा है । इसी प्रकार जैन एवं बौद्ध दर्शन एवं धर्म के अनुशीलन में भी आगमिक-तान्त्रिक पक्ष पर विचार विद्वानों को आकृष्ट करता रहा है। वैष्णव, शैव एवं शाक्त सम्प्रदायों की ही भाँति बौद्ध एवं जैन परम्पराओं में आगमिक-तान्त्रिक स्थिति का पर्सालोचन होता रहा है, किन्तु “जैनधर्म और तान्त्रिक साधना" शीर्षक से प्रस्तुत समीक्ष्य ग्रन्थ डॉक्टर सागरमल जैन की एतद्विषयक गवेषणा का एक ऐसा सुफल है, जो जैन तान्त्रिक साधना की साङ्गोपाङ्ग आलोचना प्रस्तुत करता है।
___ आगमिक-तान्त्रिक दर्शन एवं साधना को सुपरिभाषित करने का प्रयास अनेक विद्वानों ने किया है । इस प्रयत्न में 'आगम' एवं 'तन्त्र' शब्दों के निरुक्तिलभ्य अर्थ एवं आगमिक-तान्त्रिक ग्रन्थों के विवेच्य विषय अथवा प्रमेयभूत अर्थों को आधार बनाकर एक सुव्यवस्थित दृष्टि प्रदान करने का लक्ष्य रहा है। ऐसे समस्त प्रयासों का समुचित अर्थ यही है कि आगम तन्त्र वैदिक साधना मार्ग के समानन्तर या पूरक रूप में एक विशिष्ट साधना पद्वति प्रस्तुत करते हैं । यह आगमिक तान्त्रिक दृष्टि 'मुक्ति के साथ-साथ 'भुक्ति' को भी प्राप्तव्य के रूप में स्वीकृत करती है। आध्यात्मिक अनुभव के साथ-साथ भुक्ति के अनुभव को भी दिव्यत्व की ओर ले जाती है। दूसरे शब्दों में आगम-तन्त्र का मार्ग निषेध अथवा वर्जन का मार्ग नहीं है, अपितु 'भोग' के ही उदात्तीकरण से मुक्ति की प्राप्ति का मार्ग है। 'सिद्धि' एवं 'षट्कर्म' को भी इसी दृष्टि से है । नृतत्त्वशास्त्री तन्त्र में 'यातु' और अध्यात्म' का मिश्रण देखते हैं । वस्तुत: यहाँ विश्वास एवं गहन आध्यात्मिक रहस्य-अनुभव को सम्बद्ध कर दिया गया है। आगम-तन्त्र में एक विशेष प्रकार के योग का भी उपदेश किया गया है, जो 'कुण्डलिनी-योग' के नाम से अभिहित होता है। इस योग के साथ एक रहस्यात्मक शरीर-विज्ञान जुड़ा हुआ है, जिसमें पिण्ड का ब्रह्माण्ड और दिव्य लोक के साथ एकत्व स्वीकार किया जाता है। इसीलिए तान्त्रिक साधना में साधक का उपास्य के साथ एकत्व आवश्यक है, जिसमें आन्तर पूजा का विशिष्ट स्थान है। यहाँ तक कि बाह्य-पूजा में भी देवता का अपने हृदय में ही विसर्जन किया जाता है । इस उपासना-पद्धति में विराट 'ब्रह्मांड' का 'पिण्ड' में ही लघुरूप
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ में अवस्थान और इससे जुड़ी प्रतीक-योजना की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। आगमिक तान्त्रिक तान्त्रिक दर्शन का महत्वपूर्ण पक्ष परतत्त्व को निष्क्रिय' न मानकर 'क्रिया' से युक्त मानता है । अतएव परतत्त्व एक और अद्वय होकर भी द्विध्रुवीय माना जाता है तथा पार्यन्तिक रूप में इन दोनों ध्रुवों का सामरस्य स्वीकार किया जाता है। इसीलिए आगमिक-तान्त्रिक साधना में 'शक्ति' तत्त्व अवश्य ही स्वीकृत होता है । यह अवश्य है कि शक्ति तत्त्व ही कही कही 'परतत्त्व' माना जाता है और कहीं वह ‘परतत्त्व' को प्राप्त कराने वाला तत्त्व माना जाता है । दर्शन की एक विशिष्टता के कारण ही आगम तन्त्र में 'वाक् तत्त्व' की विशेष स्थिति है। 'वाक्' का रहस्यात्मक पक्ष आगम तन्त्र में विशेष रूप से विवेचित किया गया। वाक् को 'प्रत्यक्-चैतन्य' में अन्त् सन्निविष्ट मानवर वर्ण, पद और वाक्य के रूप में पर प्रख्यात के लिए होने वाली अभिव्यक्ति को चित् तत्त्व के सातत्य में ही देखा गया है । इसीलिए परा, पश्यन्ती मध्यमा और वैखरी वाक् के इस चतुर्विध स्वरूप तथा 'वर्ण', 'मातृका' एवं 'बीज' पर विचार हुआ है। इनसे सम्बद्ध प्रतीक का आगमिक तान्त्रिक कर्मानुष्ठान में विशेष महत्त्व है और इसीलिए मन्त्र-साधना का विशिष्ट स्थान जाता
। पर स्थूल और सूक्ष्म के स्तरों के स्वीकार के कारण एकबहुस्तरीय प्रतीक व्यवस्था के अन्तगर्त मन्त्र, यन्त्र, चक्र,मण्डल और विग्रह का उपास्य तत्त्व से ऐक्य और सातत्य का अनुभव सुगम हो जाता है । इस प्रकार भावन, जप और ध्यान के द्वारा क्रमश: बाह्य का आभ्यन्तरी करण तथा अनेक के अद्वय में पर्यवसान का मार्ग सुगम हो जाता है । स्थूल से सूक्ष्म और सूक्ष्म से पर का अनुभव आगमिक तान्त्रिक-साधना का स्वीकृत सोपान है। इसकी अनुभूति में 'मुद्रा' भूतशुद्धि और न्यास की विधि सर्वथा स्वीकृत है । बाह्य विग्रह, यन्त्र मण्डल, चक्र तथा तत्त्व की एकता का अनुभव किया जाता है । आगम-तन्त्र दिव्य और मानुष, दिव्य और आसुर, सृष्टि और संहार, ललित और भीम, मूर्त और अमूर्त को 'प्रक्रिया' के द्वारा समझते हुए एक स्वीकार करता है। उपास्य तत्त्व और गुरु तथा साधक की पार्यन्तिक एकता को समझते हुए गुरु और 'दीक्षा' का विशेष महत्त्व माना गया है । जिस प्रकार वैदिक कर्मानुष्ठान के समान ही आगमिक कर्मानुष्ठान वैदिक-धार्मिक साधना में एक दोहरा ढाँचा प्रस्तुत करते हैं, उसी प्रकार ही जैन और बौद्ध साधना में यह दोहरी स्थिति है । आगम-तन्त्र संख्या और भाषा पर आधारित प्रतीकों का विस्तार प्रस्तुत करते हैं और योग-साधना को भी रसायन, हठ-योग और सिद्ध-परम्परा से जोड़ते हैं। वे एक विशेष प्रकार के धार्मिक, आध्यात्मिक भुवन-कोष और तीर्थ के प्रतीक को प्रस्तुत करते हैं। तान्त्रिक भाषा के क्षेत्र में भी रहस्य भाषा तथा 'समाधि भाषा' को प्रस्तुत करते हैं, जिसका व्याख्यान मुख्यत: गुरु-शिष्य परम्परा से मौखिक रूप में ही होता आया है । सभी आगम-तन्त्र परम्पराओं का यह सामान्य स्वरूप है।
इस प्रकार भारतीय दर्शन एवं धर्म के विभिन्न प्रस्थानों के अपने-अपने स्वतन्त्र रूप होने के साथ-साथ उनमें एक आन्तरिक एकता उनकी साधना और योग के लक्ष्य की समानता में भी दिखाई पड़ती है। सभी धर्म अपनी साधना के द्वारा जागतिक, सखण्ड और व्यक्तिनिष्ठ अनुभव से आध्यात्मिक, अखण्ड और विराट् वैदिक एवं श्रमण योग तथा आगम-तन्त्र का अनुशीलन बहुत महत्त्वपूर्ण है । डॉ० सागरमल जैन ने 'जैन धर्म और तान्त्रिक साधना' नामक इस कृति में जैन परम्परा का गहरा विवेचन किया है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के धर्मागम विभाग तथा धर्म दर्शन विभाग ने पार्श्वनाथ विद्यापीठ एवं भारत कला भवन की सहभागिता से आगमिक तान्त्रिक दर्शन, धार्मिक साधना एवं योग, सामाजिक दृष्टि, सौन्दर्य दर्शन एवं कला पर केन्द्रित एक अखिल भारतीय संगोष्ठी का आयोजन किया था, जिसमें जैन तन्त्र को सुपरिभाषित करने के लिये पार्श्वनाथ विद्यापीठ ने एक विशेष सत्र का आयोजन किया। इस सत्र में डॉ० सागरमल जैन ने जो आलेख प्रस्तुत किया था, उसको और भी व्यापक तथा समग्र रूप में इस ग्रन्थ के आकार में प्रस्तुत किया गया है। डॉ० जैन ने इस ग्रन्थ में तन्त्र साधना और जैन जीवन दृष्टि, जैन देव कुल के विकास में हिन्दू तन्त्र के अवदान जैन पूजा विधान और धार्मिक अनुष्ठान, जैन धार्मिक अनुष्ठानों में कला तत्त्व, जैन धर्म में मन्त्र-साधना, स्तोत्र पाठ, नाम, जप, यन्त्रोपासना, ध्यान, कुण्डलिनी योग और षट्चक्र भेदन आदि विषयों पर विस्तृत विचार किया है। उन्होंने जैन तान्त्रिक साधना के विधि-विधान पर विस्तार से विचार किया है और जैन धर्म के तान्त्रिक साहित्य का भी विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया गया है । ग्रन्थ के अन्त में जैनाचार्यों द्वारा विरचित तान्त्रिक स्तोत्रों का भी संकलन किया गया है।
डॉ० सागरमल जैन की यह कृति न केवल जैनधर्म में तान्त्रिक साधना के अनुप्रवेश और उस पर हिन्दू तान्त्रिक साधना के प्रभाव पर विस्तृत और युक्तियुक्त विचार प्रस्तुत करती है, अपितु जैन तान्त्रिक साधना की अपनी विशिष्टता को भी रेखांकित करती है। डॉ० जैन तत्त्व दर्शन के साथ जैन आगमिक, तान्त्रिक साधना की संगति पर सूक्ष्य विचार करते हुए यह रेखांकित किया है कि जैन तान्त्रिक साधना वामाचार से पूर्णतया मुक्त है और इस दृष्टि से जैन आध्यात्मिक अनुभव से अविरुद्ध रूप में उसका विकास हुआ है। मारण, मोहन, उच्चाटन आदि षट्कर्मों की अवस्थिति को उन्होंने सामान्य लोगों की दुःख-निवारण और अनुकूल जीवन-स्थिति की प्राप्ति की आकांक्षा से प्रेरित और हिन्दू तान्त्रिक प्रभाव से जनित माना है । जैन तान्त्रिक देवकुल के विकास में हिन्दू तान्त्रिक प्रभाव को स्वीकार करते हुए उन्होंने जैन तान्त्रिक देवकुल का न केवल साङ्गोपांग विवरण प्रस्तुत किया है, अपितु तीर्थंकरों के साथ उसके अभिसम्बन्ध का सुस्पष्ट चित्र भी प्रस्तुत किया है। उन्होंने जैन यन्त्रों का विवरण देते हुए इनके चित्र प्रस्तुत किये हैं। पूर्ववर्ती समस्त कार्य को एकत्र प्रस्तुत कर उन्होंने भावी शोध के लिये सारी सामग्री एक साथ उपलब्ध
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डॉ सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व करा दी है । जैन पूजाविधान में स्वीकार किये गये क्रम एवं उपचार विधि का विवेचन करते हुए उन्होंने जैन साधना-सम्मत स्तोत्र पाठ, नामजप एवं यन्त्र-जप का विस्तृत विवरण दिया है । उन्होंने जैन साधना में स्वीकृत मन्त्रों का विवरण देते हुए षट्कर्म से सम्बन्धित मन तथा गृह शांति के मन्त्र तो प्रस्तुत किये ही हैं, इसके साथ ही भूमि शुद्धि, करन्यास, अङ्गन्यास, सकलीकरण, दिक्पालाह्वान, हृदयशुद्धि, मन्त्रस्नान, कल्मष दहन, पंच परमेष्ठि स्थापन, आह्वान, स्थापन, सन्निधान, सनिरोध, अवगुण्ठन, विघ्नत्रासनार्थ छोटिका, अमृतीकरण, क्षोभण, क्षामण अथवा क्षमापन, विर्सजन एवं स्तुति के क्रम एवं मन्त्रों के निवारण के साथ जैन पद्धति को प्रस्तुत किया है । 'मन्त्र' और 'विद्या' के अन्तर को सुस्पष्ट रूप में प्रस्तुत करते हुए डॉ० जैन ने समस्त जैन विद्याओं का महत्वपूर्ण विवरण प्रस्तुत किया है । इसी क्रम में उन्होंने कुण्डलिनी-योग तथा धर्म में स्वीकृत षट्चक्र-साधना को भी प्रस्तुत किया है।
इस संक्षिप्त विवरण से स्पष्ट है कि प्रस्तुत कृति जैन तान्त्रिक साधना से सम्बद्ध साहित्य, सिद्धान्त, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, साधना-पद्वति, योग से सम्बद्ध विपुल सामग्री प्रस्तुत करती है । यहाँ यह उल्लेख करना प्रासंगिक है कि जैन तान्त्रिक साधना का तुलनात्मक अध्ययन शक्ति तन्त्र की अपेक्षा वैष्णव तन्त्र के साथ किया जाना बहुत समीचीन होगा । जैसे पाश्चरात्र आगम में शक्ति की स्थिति है, उसी प्रकार की स्थिति जैन परम्परा में प्रतीत होती है । इस दृष्टि से जैन तत्त्व मीमांसा के साथ जैन तान्त्रिक साधना की प्रवृत्ति परता और पार्यन्तिक रूप में जैन निवृत्तिनिष्ठता का सामञ्जस्य संतोषजनक रीति से प्रस्तुत हो सकता है।
हमारा विश्वास है कि 'जैनधर्म और तान्त्रिक साधना' शीर्षक इस कृति का विद्वज्जगत् में समादर होगा और यह निश्चय ही जैन तान्त्रिक परम्परा के अनुशीलन को और भी आगे ले जायेगी।
आचार्य एवं अध्यक्ष, धर्मागम् विभाग, प्राच्यविद्या धर्मविज्ञान संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी।
Jan Education International
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जैनधर्म और तांत्रिक साधना
डॉ० नन्दलाल जैन
पार्श्वनाथ विद्यापीठ ज्ञान के विभिन्न क्षितिजों के अनेक उदघाटक अनुसंधानात्मक साहित्य के प्रकाशन में पिछले अनेक दशकों से अग्रणी संस्था के रूप में उभरी है । इसके ९४वें पुष्प के रूप में एक सर्वथा नवीन, ऐतिहासिक एवं तुलनात्मक विवेचना के रूप में जैन जगत् के सुप्रसिद्ध विद्वान् तथा तुलनात्मक अध्ययन के पुरोधा डॉ० सागरमल जैन की 'जैनधर्म और तांत्रिक साधना' नामक पुस्तक प्रकाशित हुई है। तांत्रिक परंपरा में मंत्र, तंत्र और साधना विधि के अनेक रूप समाहित होते हैं । फलत: इस पुस्तक में इन सभी पक्षों पर तुलनात्मक एवं सांगोपांग विवेचन हुआ है । वर्तमान बुद्धिवादी जगत् में यह विषय पर्याप्त चर्चित है और इस पर प्रामाणिक पुस्तक की आवश्यकता का अनुभव सामान्य जन को भी होता रहा है । मेरा विश्वास है कि यह पुस्तक अनेक जिज्ञासाओं और भ्रांन्तियों का समाधान करने में समर्थ होगी।
इस पुस्तक में भूमिका के अतिरिक्त बारह अध्याय, बारह सारणियां, १०५ विशिष्ट संदर्भ, ४४ सामान्य संदर्भ, ३९ श्लोक, १५० मंत्र, १४८ यंत्र तथा २६ जप-विधियाँ दी गई हैं। यंत्र-चित्रों एवं जप चित्रों आदि के कारण पुस्तक की सूचना-प्रदत्ता, मनोवैज्ञानिकता तथा आकर्षण में पर्याप्त वृद्धि हुई है।
ग्रंथ के प्रथम अध्याय में 'तंत्र' शब्द के अनेक अर्थ बताये गये हैं - (१) सामान्य पद्धति/व्यवस्था (२) विशिष्ट गुप्त विद्याएं (३) ज्ञान एवं रक्षण की क्षमता में अभिवर्धन (४) अप्रशस्त प्रवृत्तिमार्गी और भक्तिवादी लौकिक एषणाओं की पूर्ति हेतु साधना पद्धति (५) प्रशस्त भक्तिवादी अध्यात्म साधना पद्धति एवं (६) जीवात्मा के देवत्व के अभिवर्धन व्यापकीकरण एवं पशुत्व से संरक्षण की साधना पद्धति । व्युत्पत्ति की दृष्टि से यह कहना तो कठिन होता है कि 'तंत्र' शब्द 'तन्' विस्तारणा+त्र (रक्षण) से व्युत्पन्न है या 'तंत्र' नियंत्रण, नियमन (आप्टे, पेज २२९) से व्युत्पन्न है। लेखक ने इसे प्रथम आधार पर व्युत्पन्न किया लगता है जबकि इसकी दूसरी व्युत्पत्ति भी सार्थक मानी जा सकती है । इसके अनुसार, विभिन्न भोगवादी कायिक क्रियाओं के बीच भी आत्मशक्ति को विकसित करनेवाली पद्धति तंत्र है । यह पद्धति अप्रशस्त प्रवृत्तिमार्ग से निवृत्तिमार्ग की ओर या पशुत्व से देवत्व की ओर ले जाने का एक वैकल्पिक भक्तिवादी पथ है। मंत्र के समान, तंत्र शब्द भी शारीरिक या लौकिक इच्छाओं की पूर्ति या सुरक्षा का अर्थ दे सकता है। लेखक के अनुसार, जैनधर्म एवं सामान्यत: ज्ञात 'तंत्रवाद' का अध्यात्म -विकास या देवत्व अभ्युदय का लक्ष्य समान रहते हुए भी उसके प्राप्त करने की विधियों में विविधता है - एक प्रवृत्तिमार्गी और भक्तिवादी है तो दूसरी निवृत्तिमार्गी और पुरुषार्थवादी है। प्रशस्त तांत्रिक साधना एवं जैन साधना एक-दूसरे से अनेक अर्थों में सहमत हैं -दोनों ही जीवन को वांछनीय एवं रक्षणीय मानते हैं, धर्मसाधन मानते हैं (पर जैनों में स्व के साथ लोक कल्याण का भी लक्ष्य रहता है)। दोनों ही साधनाओं में मंत्र, यंत्र, जप, पूजा, ध्यान, कुंडलिनी एवं चैतन्यचक्र जागरण आदि का प्रयोग होता है।
वैदिक संस्कृति की पूर्ववर्ती श्रमण संस्कृति के निवृत्तिमार्ग ने प्रारंभ में पुरुषार्थ को ही प्रतिष्ठित किया और भक्तिवाद को त्रिपदी के एक घटक के रूप में माना । फलत: भक्तिवाद के कुछ पहलुओं के रहते हुए भी इसमें व्यक्तिवादी निवृत्ति मार्ग की ही प्रमुखता है । लेखक ने १६ बिंदुओं के आधार पर प्रवृत्ति और निवृत्ति धर्मों के दार्शनिक एवं सांस्कृतिक पक्ष को तुलनात्मकत: प्रस्तुत कर भोगमूलक प्रवृत्तिमार्ग के विषय में दिये गये शास्त्रीय विशेषणों-पापश्रुत, पापश्रमण, अनार्य, किल्विषक योनि-मूल आदि को तर्कसंगत बताया है। उन्होंने आंशिक योगवादी प्रवृत्ति को ही भारत में बौद्धधर्म के द्वारा तथा तंत्रवाद के सीमित बने रहने का महत्त्वपूर्ण कारण बताया है। उन्होंने संभोग से समाधिवाद की योगवादी धारणा का भी निरसन किया है।
निवृत्तिवादी अहिंसक एवं अनीश्वरवादी जैनपद्धति आत्मकल्याण के साथ जनकल्याण, लोकमंगल एवं धर्म-संरक्षण को भी महत्त्व देती है। इसके लिये वहां भी पूजा, स्तोत्र, जप, मंत्र, ध्यान, आदि प्रवृत्तियाँ विकसित हुई हैं और प्रचलित रही हैं। इनका लक्ष्य लौकिक एषणायें नहीं रहा फलतः प्रवृत्ति के बिना निवृत्ति हो ही कैसे सकती है ? जैन पद्धति ने भोगवाद के दमन को नहीं, नियमन एवं संयमन पर बल दिया है. उसकी पूर्ति करते रहना तो अशांति का कारण ही बनता है।
यह सही है कि अनेक आगम ग्रंथों में मंत्र आदि विद्याओं को पापश्रुत माना है, फिर भी स्थानांग, ९/२८ में नौ नैपुणिकों में मंत्रवादी और मूर्तिकर्मी का उल्लेख है । इससे यह स्पष्ट है कि महावीर एवं उनके पूर्ववर्ती पार्श्व के युग में सामान्य जनों में मंत्र-तंत्र विद्या का प्रचार एवं प्रभाव था। पार्श्व के युग में तो श्रमण अष्टांग-निमित्त होते थे । परन्तु आत्मकल्याण की दृष्टि से महावीर ने विद्याओं को स्वीकृति नहीं दी और पार्श्व परंपरा किंचित् हीन मानी गई। फिर भी, पार्श्व परंपरा के महावीर पंथ में विलिन होने पर जैनों में भी इन विद्याओं की प्रवृत्ति जनकल्याण हेतु प्रारंभ हुई । इसी लिए श्रमणों को इनका ज्ञानाभ्यास अपेक्षित था। इसके उदाहरण जैन इतिहास के विभिन्न युगों में मिलते हैं । भट्टारक और यति परंपरा और आज के कुछ साधुवृंद भी इस विद्या के पक्षधर और प्रचारक रहे हैं । मूर्तियों की प्राण-प्रतिष्ठा तथा आचार्यपद की प्रतिष्ठा के
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डॉ सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
८७ समय 'सूरिमंत्र' एवं 'अंगन्यास' क्रियायें आज भी प्रचलित हैं।
लेखक का यह मत सही प्रतीत होता है कि जैनसंघ में तंत्र-साधना का रुझान दो कारणों से बढा (१) संघीय जीवन की प्रधानता, सुरक्षा तथा श्रावकों का भौतिक कल्याण (२) वर्धमान तांत्रिक प्रभाव से श्रावकों को परिरक्षित करना
जैन इतिहास पर विहंगम दृष्टि डालने पर ज्ञात होता है कि जैन परंपरा में प्रवृत्ति मार्गी तांत्रिक साधनाओं का प्रारंभ वज्रस्वामी (प्रथमसदी) के समय से मिलने लगता है । कल्पसूत्र आदि में विद्याधर मुनि, जंघाचारी श्रमणों का उल्लेख है । मथुरा के शिलांकन में भी आकाशगामीश्रमण चित्रित हैं। श्रमणों के चैत्यवास के प्रारंभ से तो जैनों में मंत्र-तंत्र स्वीकृत होते ही गये । लेखक ने प्रथम सदी से लेकर तेरहवीं सदी के बीच दो दर्जन से अधिक जैनाचार्यों के नाम दिये हैं जिन्होंने तंत्र-विद्या के माध्यम से ही धर्म प्रभावना और संघ-रक्षा की। अन्य पंरपराओं से तंत्र की प्रभावकता देखते हुए उन्होंने जैन देव-मंडल में शासन-रक्षक, यक्ष-यक्षी, विद्यादेवी, दिक्पाल, लोकपाल, क्षेत्रपाल तथा नवग्रह आदि का समाहरण किया। अनेक विधि-विधानों का भी जैनीकरण पूर्वक समाहरण हुआ। यद्यपि जैनों में समाहरण चौथी-पांचवीं सदी से धीरे धीरे प्रारंभ हुए पर आठवीं-नवमीं सदी और उसके बाद तो ये साधना और पूजा के अनिवार्य अंग बन गये । इससे जैन उपासकों की निष्ठा अपने धर्म में बनी रही और धर्म की प्रभावना बढ़ी।
अपने गहन तुलनात्मक अध्ययन से लेखक ने यह मत व्यक्त किया है कि वर्तमान में जैनों के अनेक विधि-विधान, पूजा, मंत्र-यंत्र प्रतिष्ठा आदि के प्रचलन में तंत्र परंपरा का पर्याप्त योगदान है। ध्यान की प्रक्रिया को छोड़कर प्राय: सभी कर्मकांडों के लिए तंत्र-परंपरा ही आधार बनी है जिसमें जैनीकरण मात्र हुआ है।
द्वितीय अध्याय में जैन देव-कुल के विकास का विवरण है । सामान्यत: भक्तिवादी साधना में लौकिक एवं आध्यात्मिक उद्देश्यों के लिए अनेक देवी-देवताओं की अनेक माध्यमों से उपासना की जाती है । प्रारंभ में जैनों में २४ तीर्थंकर ही उपासक बने । उत्तरवर्तीकाल में भूत और भावी तीर्थकर तथा विदेह आदि के तीर्थंकरों का भी उपास्य के रूप में समाहरण हुआ पर उनकी वीतारागता और कर्मवाद के सिद्धांत ने मानव को मनोवैज्ञानिवतः शांत नहीं किया। वे हमारा न आध्यात्मिक और न ही भौतिक कल्याण कर सकते हैं ? अपने भौतिक कल्याण हेतु सर्वप्रथम महापुरुषों की ओर ध्यान गया। ६३ शलाका पुरुषों और बाद में कामदेव (२४) रुद्र (११), नारद (९), कुलकर (१४), और तीर्थंकरों के मातापिता (९८) इस प्रकार कुल मिलाकर १६९, (त्रिलोकप्रज्ञप्ति) का परिगणन हुआ। पर वे भी उपास्य न बन सके । फलत: ऐहिक जीवन के कल्याण हेतु अन्य परंपराओं से प्रभावित होकर तीर्थंकर-उपासक, संसारी जीवों के लिए हितकारी एवं संसारी यक्ष-यक्षी (४८) महाविद्या देवी (१६), दिक्पाल (१०), ग्रह (९), योगिनी (६४) वीर (५२) तथा अनेक क्षेत्रपालों (भैरवों) के समान देवी-देवताओं के कुल की कल्पना की गई । इनमें से अनेक उल्लेख आगमों एवं मथुरा के शिल्पांकनों में मिलते हैं। लेकिन उनका उपास्य के रूप में स्वीकरण तो पांचवीं-छठी सदी (त्रिलोकप्रज्ञप्ति) से लेकर १०-११वीं सदी के बीच विकसित होता रहा है । लेखक के मन से यह समाहरण तंत्र-साधनाओं से प्रभावित रहा है क्योंकि (१) यक्ष-यक्षियों आदि के नाम प्राय: परम्परानुसार हैं और (२) उनके प्रतिमा लक्षण भी इसी परंपरा से पर्याप्त प्रभावित हैं । दसवीं सदी के बाद से ही इस जैन देव-कुल से संबंधित साहित्य का भी बहुमात्रा में सृजन प्रारंभ हुआ। यही नहीं, जैनों ने देवकुल को विस्तारित भी किया है- विद्याओं की अधिष्ठायिका देवियां और लोकांतिक देवों की धारणा इसके प्रमाण हैं।
लेखक ने बताया है कि इस देव-कुल की उपास्यता की जैन-मान्यता उनके स्वयं के कारण नहीं, अपितु उनके तीर्थंकर उपासक होने के कारण है । यह संपूर्ण देवकल ऋद्धि-सिद्धि संपन्न होता है और ऐहिक कामनाओं की पूर्ति में सहायक होता है। इनकी उपास्यता तांत्रिक देवदेवी/शक्ति उपासना का जैनीकृत रूप है । यह देवकुल जैन कर्मकांड के लिये क्रमश: मान्य होता गया । इस पुस्तक में इस समाहरित देवकुल का संक्षिप्त पर सामान्यजन के लिए ज्ञानवर्धक विवरण, अनेक सारणियों के माध्यम से दिया गया है।
तीसरे और छठे अध्याय में पूजा-विधान, नामस्मरण एवं जपों के समान कर्मकांडों का विवरण है। वस्तुत: प्रवृत्तिमार्गी तांत्रिक साधना कर्मकांड से ही प्रारंभ होती है चाहे उसका उद्देश्य कुछ भी हो। इसके विपर्यास में, आध्यात्मिक तंत्रों में तप, स्वाध्याय एवं ध्यान समाहित होते हैं। जैनों में इनकी प्रतिष्ठा ही अधिक रही है । जैनों के प्रारंभिक ग्रन्थों में, इसीलिये, अन्य परंपराओं के उपरोक्त कर्मकाण्डों को आध्यात्मिकत: परिभाषित किया गया है और वे भौतिक कर्मकाण्ड के विरोधी रहे हैं। फिर भी, यदि आहार-विहार आदि को कर्मकांड माना जाय, तो उसका उल्लेख साधुओं के षडावश्यक तथा गृहस्थों के प्रोषध (आहार-संयमन) के रूप में प्रारम्भ से ही मिलता है । आगमों में यक्षपूजा एवं जिन-पूजा के उल्लेख मिलते है पर पूजा-विधि का समग्रवर्णन नहीं मिलता। राजप्रश्नीय में अवश्य पूजन, स्तवन, गान, नृत्य, नाटक आदि के उल्लेख हैं पर वे परवर्ती या सामयिक प्रतीत होते हैं, कुंदकुद के रयणसार में गृहस्थों के लिए पूजा और दान के उल्लेख हैं । लेखक का यह मत समुचित ही प्रतीत होता है कि इन उल्लेखों के कारण ही गृहस्थों में ये प्रवृत्तियां प्रमुख हुई हैं और व्रतपालन द्वितीयक हो गया । उत्तरकाल में पूजा को
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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
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कृतिकर्म (वैयावृत्य) एवं अतिथि संविभाग व्रत का रूप ही मान लिया गया। मथुरा के शिल्पांकनों से पुष्पपूजा के दूसरी सदी में प्रचलित होने संकेत मिलते हैं ।
लेखक के मत से जैनों के लिए सामान्यतः भावपूजा ही सिद्धांत सम्मत है जिसमें एकेंद्रियों की भी विराधना नहीं होती । पर हिन्दूपरम्परा के प्रभाव से स्तवन के बाद पुष्प पूजा के रूप में द्रव्यपूजा भी प्रारम्भ हुई जो विकसित होते-होते अष्ट द्रव्य पूजा में परिणत हो गई। वस्तुतः पूजन का पूर्वरूप स्तवन ही रहा होगा क्योंकि इसका उल्लेख ईसापूर्व सदियों के जैन ग्रंथों में पाया जाता है। प्रारंभ में उसका उल्लेख ईसापूर्व सदियों के जैन ग्रंथों में पाया जाता है। प्रारंभ में पूजा के उद्देश्य के रूप में एहिक समृद्धि कम एवं पारलौकिक समृद्धि (तद्-गुण लब्धये) अधिक माने गये । प्रत्येक पूजन द्रव्य के पृथक्-पृथक् फलादेश भी माने गये। पहले केवल तीर्थंकर पूजा ही स्वीकृत थी, पर उत्तरवर्ती काल में तंत्र के प्रभाव से शासन देव - देवियों आदि की पूजा भी चल पड़ी जिसका उद्देश्य लौकिक कामना प्रधान होता है। पर तंत्र परंपरा के विपर्यास में पूजन में प्रयुक्त सामग्री को प्रसाद न मानकर निर्माल्य मानने की पद्धति जैनों में स्वीकृत हुई। पूजा की समग्र विधि ६-७ वीं सदी तक ही पूर्णत: विकसित हो पाई। इसके बाद ही जैनों का प्रमुख पूजा साहित्य देखने को मिलता है। अब तो पूजाओं की संख्या भी अगणित होती जा रही है।
श्वेताम्बर परंपरा में पंच, अष्ट एवं सत्रह - भेदी पूजा - विकसित हुई जिसमें पूजन के आदि से अंत तक के विविध चरण समाहित हैं । राजप्रश्नीय में प्राय: एक दर्जन चरणों का उल्लेख है जो श्वेतांबर परंपरा के प्रतीक हैं और क्रमशः सत्रह चरणों में परिणत हुए हैं । (इसके विपर्यास में दिगंबर पूजा-विधि के चरण किंचित् भिन्न हैं। यह अष्ट-चरणी है और इसमें विसर्जन और शांतिपाठ भी संपादित है।) तंत्र परंपरा में पंचोपचारी, दशोपचारी एवं षोडशोपचारी पूजायें होती हैं जिनसे व्यक्त होता है कि पूजा के चरण एक दूसर से प्रभावित रहे हैं। जैन- पूजा विधि जैनीकृत की गई है। (उदाहरणार्थ, पंचप्रकारी पूजा तीर्थंकरों के पंचकल्याणकों की प्रतीक है)। पूजा के विभिन्न चरणों में स्तवन, नृत्य, गान एवं वाद्य के चरण भी हैं जो ४-५वीं सदी से पूजा या धार्मिक क्रियाकांडों के सामान्य अंग बन गये। दोनों ही परंपराओं में देवताओं के नाम को छोड़कर पदों और मंत्रों में भी समानता देखी जाती है जो तंत्र के प्रभाव को और भी रेखांकित करती है।
भक्तिवाद में मंत्र जप एवं पूजा के अतिरिक्त स्तवन एवं नामस्मरण का भी महत्त्व है। ये प्रक्रियायें दोनों परंपराओं में प्रचलित हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि स्तवन की प्रक्रिया मंत्र जप की तुलना में न केवल पूर्ववर्ती है अपितु सरल भी है। प्रारंभ में तो स्तवन गुणानुवाद और 'तद्गुण लब्धये के रूप में थे, पर उत्तरवर्ती काल में प्रथम सदी से ही इनमें याचना के स्वर भी समाहित होने लगे। बाद में स्तोत्र स्तवन याचनाप्रधान होते गये जो तंत्र का प्रभाव है। ये स्तवन (१) अध्यात्मिक साधना के आदर्श का स्मरण कराते हैं। (२) उसकी प्राप्ति के लिये प्रेरणा देते हैं और (३) संचित कर्मों को विकसित करते हैं तथा (४) लौकिक कामनाओं की पूर्ति में (उत्तरवर्ती उद्देश्य) साधक होते हैं। भद्रबाहु द्वितीय रचित उपसर्गहर स्तोत्र से प्रारंभ होकर भक्तामर स्तोत्र, कल्याण मंदिर स्रोत आदि में याचना के स्वर मुखर हो गये हैं । ये सकाम भक्ति के रूप है । लेखक ने (१) नमस्कार मंत्र, (२) तीर्थंकर (३) गणधरादि (४) श्रुतदेवी तथा (५) शासनरक्षक देवकुल से संबंधित पांच प्रकार के स्रोत्रों का अच्छा विवरण दिया है।
स्तोत्र परंपरा के साथ उत्तरवर्ती काल में प्रायः नवमी सदी के बाद जैन ग्रंथों में नाम और मंत्र जप परंपरा का समाहरण भी हुआ है । नाम-जप तो जिनसेन से प्रारम्भ हुआ कहते हैं जब विष्णु और शिव सहस्त्र नाम लोकप्रिय हो रहे थे। जैनों में नाम-जप का उद्भव हिन्दू प्रभाव को सूचित करता है। नाम-जप भक्तिवाद के, स्तवन के समान, सरलतम रूप है। फिर भी यह जैनों में हिन्दुओं के समान बहु-प्रचलन में नहीं है । उसके विपर्यास में, जैनों में स्तोत्रपाठ और मंत्र जप अधिक प्रचलित हैं। किसी भी प्रकार का जाप हो, उसमें भावों की विशुद्धता का लक्ष्य रहता है। लेखक ने तांत्रिकों के १८ प्रकार के जपों की तुलना में जैनों के २६ प्रकार के जपों की विधि व स्वरूप का सुन्दर और सचित्र विवेचन किया है। यह बताया गया है कि सशक्त जप की अपेक्षा मौन एवं मानस जप श्रेष्ठ है। श्राद्धविधि प्रकरण के अनुसार स्तोत्रपाठ एक करोड़ पूजापाठ के समकक्ष है, जप एक करोड़ स्तवन के समकक्ष है तथा निर्विकल्प ध्यान एक करोड़ ध्यान के समकक्ष होता है। परिमाणात्मकतः यह अतिशयोक्ति हो सकती है, पर इसकी गुणात्मकता असंदिग्ध है। उससे भक्तिमार्ग के विविध रूपों की कोटि का अनुमान होता है।
पूजा स्तोत्र जप ध्यान निर्विकल्प ध्यान
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चौथे अध्याय में मंत्र और उनकी साधना का सांगोपांग विवरण है यत्र मनन, मंत्रणा एवं मानसिक चंचलताओं के निराकर्ता माने जाते हैं। ये ध्वनिरूप पौड्रलिक शक्तियां हैं जो हमारी चेता को प्रभावित एवं उन्नत करती हैं। मंत्र अध्यात्मविकासी भी होते हैं और लोकेषणा साधक भी होते हैं। इनमें ध्वनि विशेष समाहारी अक्षर-रचना होती है। प्राचीन जैन ग्रंथों में सामान्यतः व्यक्तिगत लोकैषणा या षट्कर्म साधक मंत्रों का श्रमणों के लिए निषेध किया है पर संघधर्म की रक्षा, शासन प्रभावना तथा प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षार्थ इनके अभ्यास और प्रयोग की अनुमति दी है जिसके अनेक उदाहरण जैन इतिहास में मिलते हैं। मंत्र साधना की कला आज भी जीवंत है और इसके वैज्ञानिक आधार भी सुलभ हुए
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डॉ सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व हैं। लेखक ने (१) इस आध्यात्मिक (णमोकार मंत्र आदि), (२) अन्य परंपराओं के जैनीकृत परमेष्ठि या अन्य देवताओं से संबंधित) एवं (३) तात्रिक परंपरामूलक पर परिवर्धित (ज्वालामालिनी के समान ऐहिक कामना परक देवकुल-संबंधित) के रूप में तीन प्रकार के मंत्रों पर तुलनात्मक दृष्टि से अच्छा प्रकाश डाला है । इनमें द्वितीय एवं तृतीय कोटि के मंत्र अन्य पद्धतियों के प्रभाव से सिद्धांत विरुद्ध होते हुए भी ११-१२ वीं सदी तक पूर्णतः स्वीकृत एवं प्रचलित हुए हैं। लेखक ने प्रथम कोटि के मंत्रों में णमोकार मंत्र के ऐतिहासिक चतुश्चरणी विकास एवं विवेचन को प्रथम स्थान दिया है और उस पर आधारित ८८ मंत्र और दिये हैं। इसी प्रकार उन्होंने 'मंगल' ग्रह के १४ और २४ जिन-विद्यामंत्र, लोगस्स, सूरि, गणधरवलय, अंगविद्या में उपलब्ध ५, षट्कर्मसाधक ६, नवग्रहों से संबंधित ९. कुल मिलाकर १५० मंत्र दिये हैं जिनमें लौकिक प्रधान मंत्र अधिक हैं। मंत्र-साधना के २५ चरणों से संबंधित मंत्र इनसे अलग हैं । मंत्र-साधना, मालाजप, ट्विघ, करावर्त, जप, अष्टादशप्रकारी, आनपूर्वी जप के माध्यम से मानस उपांशु एवं वाचनिक जप के रूप में की जाती है। उनके ग्रंथों में मंत्रों के जप की साधकतम संख्या का भी उल्लेख किया है जो यहाँ नहीं दी गई हैं।
सामान्यत: प्रत्येक मंत्र में मातृकाक्षर (अ-क्ष) वीताक्षर (क-ह) एवं पल्लवाक्षर (नमः फट् स्वाहा आदि ) के रूप में तीन घटक होते हैं । लेखक ने पल्लवों को बीजाक्षर मानकर अनेक मंत्राक्षरों के बीजकोश दिये हैं। हाँ, हौ, ह्रः, शायद छूट गये हैं।) इसके साथ ही यह उचित होता कि मंत्रशास्त्र की पुस्तकों के आधार पर वे अन्य दो कोटि के मंत्राक्षरों का भक्ति-सामर्थ्य आदि का भी विवरण देते जिससे मंत्रों की साधकता का सहज अनुमान लग सकता। इसके अतिरिक्त मंत्र तो ध्यान के ही एक रूप हैं, अत: इनके वैज्ञानिक एवं मनोवैज्ञानिक पक्ष का किंचित् सार दिया जाता तो और भी अच्छा होता । मंत्र-साधना भक्तिवाद एवं पुरुषार्थवाद-दोनों को समाहित करती है। लेखक का यह कथन सही है कि जैनों ने मूल मंत्र को छोड़ अन्य मंत्रों की रचना का स्वरूप हिन्दू तंत्र पंरपरा से लिया है और उन्हें जैनीकृत कर लौकिक कामनापरक मंत्र बनाये
सातवें अध्याय में तंत्र साधना में प्रयुक्त होनेवाले यंत्रों का विवरण दिया गया है। ये विशिष्ट ज्यामितिक आकृति के होते हैं, जिनमें मंत्र या आनुपूर्वी संख्यायें कागज या धातुपटों पर लिखी होती हैं। कभी-कभी मंत्र-जप के साथ यंत्र-साधना भी होती है। जैनों में पूजायंत्र के अंकन
दियों में पाये जाते हैं पर धारणयंत्रों का प्रचलन प्रर्याप्त उत्तारवती है जो तंत्र परंपरा का प्रभाव है। यंत्र तो पौद्रलिक ही होते हैं और उनकी कार्यक्षमता उनके अभिमंत्रण पर आधारित है। इसका अंकन एक कठिन काम है पर विधि-विधानों के समय ये आस्थाबिंदु बने रहते हैं । जैनों में सफेद या रंग-बिरगें चावलों से भी इनके मॉडल बनाये जाते हैं। ये मंत्र-जप और ध्यान के लिए आलंबन का काम करते हैं। तांत्रिक परंपरा के पर्यास में जैन यंत्र -मंत्र बीजाक्षर एवं संख्या की दृष्टि से जैनीकृत होते हैं । जैनों में भक्तामर तंत्र (४८) एवं तीर्थंकर देवकुल यंत्र (२४) प्रसिद्ध है । जैनेद्र सिद्धान्त कोश में विभिन्न कोटि के ४८ यंत्र तथा भैरवपद्मावतीकल्प में ४४ यंत्र दिये हुए हैं । लघु विद्यानुवाद में भी अनेक यंत्र दिये गये है जिनमें ९५% यंत्र भौतिक कामनापरक हैं । पुस्तक में इनमें से अधिकांश का अंकन दिया गया है।
ऐतिहासिक दृष्टि से जैनों में यंत्र-निर्माण एवं उनकी उपासना के उल्लेख नवमी-दशमी सदी से ही उपलब्ध होते हैं। इनका विकास अन्य परंपराओं के प्रभाव से ही हुआ है । फिर भी ऐसा लगता है कि जैन यंत्रों की अपनी अनेक मौलिक विशेषतायें हैं।
आध्यात्मिक साधना के अंग हैं। ये सभी समग्र ध्यान प्रक्रिया के विविध रूप हैं। फलत: ध्यान और उसकी प्रक्रिया का वर्णन न होने पर पुस्तक में किंचित् अपूर्णता रहती । फलत: आठवें अध्याय में ध्यान का शास्त्रीय विवरण एवं विकास दिया गया है । यद्यपि ध्यान का समग्र विवरण प्राचीन ग्रंथों में नहीं मिलता पर उत्तरवर्ती ग्रंथों में ज्ञानार्णव व योगशास्त्र आदि में इसका अच्छा विवरण है । ध्यान के व्यावहारिक लाभ हैं, आध्यात्मिक लाभ है । ऐतिहासिक शारीरिक और मनोवैज्ञानिक लाभ भी हैं। जैन ध्यान ग्रंथों से ज्ञात होता है कि आचार्यों ने पतंजलि योग के अष्टांग को जैन ध्यान में समाहित किया है और तंत्र परंपरा के पिंडस्थ, पदस्थ आदि चार रूपों को आत्मसात् किया है। यह तत्त्वार्थसूत्र की परंपरा के विपर्यास में है । लेखक ने शास्त्रीय विवेचन के साथ जैन ध्यान के प्रेक्षाध्यान, समीक्षण ध्यान (आर्तध्यान) आदि वर्तमान रूपों का भी उल्ख किया है । यद्यपि जैन शास्त्रों में प्रारंभ में कुंडलिनी की धारणा (नवम अध्याय) नहीं मिलती पर उत्तरवर्ती १२-१३ वीं सदी के ग्रंथों में यह आग्रह है। यह भी ध्यान और मुद्रा-साधना का एकरूप है। आधुनिक संदर्भ में सप्तसूची यह भी ध्यान और मुद्रा-साधना का एक रूप है । आधुनिक संदर्भ में सप्तचक्रीय कुंडलिनी जागरण को चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा रूप में वर्णित किया जा सकता है । फलत: प्राचीन कुंडलिनी चैतन्य केन्द्रों पर ध्यान का रूप ले चुकी है। शास्त्रीय धारणाओं के विपर्यास में लेखक ने यह मत व्यक्त किया है कि गृहस्थ भी धर्म ध्यान का अधिकारी पात्र है अन्यथा गृहस्थलिंग सिद्ध की धारणा विसंगत बनेगी। लेखक ने जैनधर्म में ध्यान-साधना के विकास का अच्छा विवेचन किया है।
दसवें अध्याय में तांत्रिक साधना विधि का विशद वर्णन है । दसवीं सदी के बाद के अनेक जैनग्रन्थों में जैन तांत्रिक साधना विधि के ७-२० चरण दिये हैं। ये एक-दूसरे के संक्षेप-विस्तार मात्र हैं। इनमें शरीर, वस्त्र भूमि की शुद्धि मंत्रस्नान, बीजाक्षर, नवपद न्यास, मुद्रा, मंडल
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और पूजन आदि विधियाँ प्रमुख हैं। जो हिंदू तंत्र परंपरा में भी पाई जाती हैं। लेखक के अनुसार जैनों ने बीजाक्षर न्यास की विधि अन्य परंपराओं से ली है। साधना विधि के प्रत्येक चरण के लिए विनिर्दिष्ट मंत्र हैं जिन्हें लेखक ने उद्धृत किया है। विभिन्न चरणों के विशिष्ट उद्देश्य होते हैं, जो अनेक नाम से भी स्पष्ट है। तंत्र साधना के लिए दीक्षित होना भी एक चरण है। जिसकी विधि मध्ययुग के अनेक जैन ग्रंथों में दी गयी है । उनमें वर्णित कर्मकांडों पर हिन्दू तंत्र का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। कहीं-कहीं ये कर्मकांड जैनों के मूल सिद्धान्तों के विपरीत भी पड़ते हैं, फिर भी चले आ रहे हैं। इन पर पुनर्विचार अपेक्षित है।
ग्यारहवें अध्याय में लेखक ने जैनों में उपलब्ध तंत्र साहित्य के ५२ ग्रंथों का विवरण दिया है। इनमें से कुछ को छोड़ बाकी सभी आठवीं सदी के उत्तरवर्ती हैं। जैन-तंत्र जिज्ञासुओं के लिये ये उपयोगी हैं। बारहवें अध्याय में जैनों के ३५ स्तोत्र / स्तव दिये गये हैं । इनमें तीर्थंकर स्तव के साथ देवकुल स्तव भी हैं। ये सभी जैनों में लोकप्रिय हैं ।
ग्रंथ की सामग्री को देखते हुए लेखक के अथक श्रम की कल्पना की जा सकती है । एतदर्थ लेखक बधाई के पात्र हैं । यह पुस्त लोकप्रिय बने यही कामना है ।
१२ / ६४४, बजरंग नगर, रीवा, म० प्र०
Jaina Bhāṣā Darśana*
A review by Prof. K. Satchidananda Murthy
Professor Sagarmal Jain's Jaina Bhāsā Darsana is an important work and a first-rate scholarly contribution. It succintly brings together almost all that is found in Jaina literature on the origin, nature and philosophy of Language. In recent years the views of Hindu grammarians and Naiyayikas have received vogue, and the apoha-vada of Buddhists also has been expounded and discussed quite extensively. But Jaina theories of language have not come to the attention of those who are not specialists in Jaina studies. Professor Sagarmal Jain has shown that have been concerned with problems of language right from the time of Mahavira himself.
The author begins his work with an account of the debate between the great Tirthankara and his son-in law regarding the meaning of what is expressed through "vartmanakālika kṛdanta" (continuous present); and he makes it clear that the philosophical method which Mahavira favoured was the analytical (Vibhajyavada). This is followed by a survey Jaina speculation on the origin of language, its varieties and scripts. Then he goes on to explain the Jaina theories of (1) the nature and meaning of Pudgalikavada and Akrtavada, and (2) the nature of meaning of sentences which is defined as 'padānām tu tadapekṣaṇām nirapekṣaaḥ samudaya vākyam". n the later portion of this book are discussed (1) The problem ofdetermination of the intension of the speaker, (2) the capacity of language to express what it seeks to express and (3) the relation between language and truth. In all these cases it is interesting that Jainas have formulated inclusive theories after rebutting what they believe to be one-sided narrow theories of others.
Prof. Sagarmal Jain's a present study is a pioneering one based on an acquaintance with the texts in their originals. Its brevity and clarity are impressive. It should be widely known to all those interested in the philosphy of Language. As such it would be very useful if it is translated into English and published.
Fomer Vice Chairman, University Grants Commission New Delhi.
Publisher : B. L. Institute of Indology, Delhi 1996 Rs.50/
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“JainaBhāṣā-Darsana'+ (On Jaina Philosophy of Language : An Appraisal)
A review by Nagin J. Shah
Dr. Sagarmal Jain is a scholar of eminence in the field of Jaina philosophy and religion with several celebrated works to his credit. The work, under review, written by him is an important treatise on Jaina philosophy of language. He has collected data from all the major Jaina works, canonical and non-canonical, presented them systematically and expounded them in wide ranging context.
The work consists of seven chapters. The first chapter introduces the subject matter. We are told that it is the very nature of living beings to express themselves and for that purpose the prime instrument they employ is language. Dr. Jain outlines the development of language philosophy in West and India. He clearly shows that problems of language have engaged the Jaina thinkers right from the time of Lord Mahāvīrahimself whoemployed both the analytical and synthetical method to solve the philosophical problems. He informs us about the problems discussed in the Jaina philosophy of language. They are-origin, nature and structure of language, word-meaning relation, what a word denotes-universal, individual or form, how words and sentences related to truth, on what depends truth or falsity of statements.
The second chapter is devoted to the exposition of language and script. Dr. Jain observes that according to Lord Mahāvīra language is originated or created by living beings. This implies that language is as old as the world of living beings as also that language is possible in all the classes of living beings. From this follows that language has two main types-one type of language is of the nature of sounds, gestures, etc. and the othertype of language is of the nature of letters (akşarātmaka). The former is employed by living beings other than humans while the latter is employed by humans. Dr. Jain develops and explains all these points lucidly and refers to the Nyāya-Vaiseșika, Christian and Islamic theory of divine origin, Mimāṁsaka theory of eternal existence of language and Sanskrit Grammarian's theory of śabdädvaita(non-dual word as ultimate reality). He records eighteen different languages enumerated in Dhavalāand eighteen scripts mentioned in Samaväyārga, Prajñāpanāand Višesāvaśyakabhāșya. He identifies Gandharvascript with the script prevalent in Gandhara region, Bhūtascript with Bhota (Tibetan)script, and Kiriscript with the script prevalent in Crete island. He also records 64 scripts enumerated in the Buddhist work Lalitavistara. He deals with the question as to what a letter is and what its types are. Letters are the ultimate units of language. Each letter has three statesform, sound and cognition, letters form two groups-one of vowels, and the other of consonants.
The third chapter expounds the Jaina language philosophy proper. Dr. Jain clearly explains the Jaina view of the material nature of sound (sabda) and furtherexplicates how sound, once generated at a particular place, travels in all directions like waves and spreads over the entire universe within a moment through the medium of material atoms capable of being transformed into sound, these atoms being present everywhere in the universe. A living being receives the material particles capable of being transformed into sound or spoken word through the instrumentality of body, rather bodily activity. Afterwards the living being transforms them into sound or spoken word through vocal apparatus, rather vocal activity. When the material particles thus transformed into sound orspoken word are uttered or expelled out by the living being, they come in contact with other material particles capable of being transformed into sound or spoken word, generate. Specialtype of agitation in them and thereby transform them into sound orspoken word, these material particles transformed into sound or spoken word come in contact with other material particles and transform
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ them into sound orspoken word, this process goes on, the material particles transformed into sound orspoken word goes on increasing by infinite times as they travel and spread and at last reach the end of the universe (loka).
Dr. Jain discusses the question as to how a word acquire meaning. In other words, how does word-meaning relationship comes into existence. The Mīmārsaka theoreticians maintain that the relation is natural and eternal. The Nyāya-Vaisesikathinkers contend thatit is God who establishes the relation. Some are of the view that it is established by society or tradition; in other words, it is man-made. Jaina philosophers assert that thoughaword has inherent capacity to get associated with meaning, it is only conventionally associated with meaning and this convention is established through tradition and usage.
Inevery language we come acrosswords having many meanings. In their connection there arises a question as to how to determine one out of many primary meanings in a particular case/instance/sentence. Jainas are of the view that here context and intention work as determinants.
While discussing the problem as to what is denoted by words, Dr. Jain states that according to Jainathinkers a word denotes an individual characterised by universal. Thus they agree with the Nyāya-Vaišesika thinkers on this point. But it is to be borne in mind that the Jaina conception of universal is very different from the Nyāya-Vaiśesika thinkers positone self-identical impartite independent entity residing in all the members of a class and numerically identical in each of these members; they call it universal. The Jainas do not, of course, positsuch an entity because experience does not warrantus todoso. Forthem universalis nothing but similar qualities or transformations possessed by the members of a class. According to them, universal means positive common features exhibited by the members of a class. Again, Jainas do not endorse the Nyāya-Vaiśesika position that word first grasps universal and then individual because the position is nottenable. Why? It is because there does not obtain cause-effect relation between them, nor are they separate existents occupying different places. Dr. Jain expounds Grammarian's Sphota theory and Buddhist Exclusion theory and then refutes them after Jainathinkers. We reserve our consideration of them. Some have raised the question as to what the individualqualified by universal is. Is it external thing or mental image/idea? The NyāyaVaišesika theoreticians accept the former alternative while the Buddhists the latter one. But Jainathinkers synthesise the two. For them meaning of a word is neither mental image/ideanor external thing but the form of the external thing brought to mind. Dr. Jain observes that there obtains similarity between this Jaina view and Ludwig Wittgenstein's Picture theory. And he finds that Jaina acceptance of tradition, usage and context as determinants of word-meaning accomodates Wittgenstein's Usage theory.
Dr. Jain states that a group of letters which has meaning is called word (sabda). He brings out the distinction between sabda, padaand vākya(sentence). A šābda is a word withoutcase-ending while padais a word with case-ending and expects other padasin asentence to convey its meaning. This means a word which has case-ending and is employed in a sentence is called pada
Now we take up the explanation of Buddhist Exclusion theory (apohavāda) and Grammarians' Sphotatheory and their refutation by Jainathinkers, as presented by Dr. Sagarmal Jain.
According to the Buddhista word conveys orexpresses what is common to several objects but he is of the view that each objecthas just gotone positive nature which it does not share with any other. So, according to him what several objects have in common is not any positive feature or entity but justexclusion of the opposite (i.e. what cows have in common is just exclusion of non-cows). This Exclusion theory is a necessary corollary of Buddhist theories of momentarism and unique particular (svalakṣaṇa). According to the Buddhist there is no substance running through all the states/moments. He rejects substance. Similarly, for them there is no positive feature or entity common to
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डॉ सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व different individuals of a class. (nahi deśakālayoḥ vyāptir bhāvānam iha vidyate/pramana Vārtika).
The following is how Jainathinkers refute Exclusion theory:
(1) The object/meaning ofaword is universal which is not mere exclusion or mentalfigment but real. Though universal is not physically separate from individuals in which it is embeded, yet it is real. Universal is positive generic features found in individuals of a class. These features are not absolutely different from individuals of which they are features. Thus Jainas do not endorese the Nyāya-Vaisesika position that universal is absolutely different from individual in which it inheres. Nor do they tolerate the Buddhist position that universal is not real because its nature is mere exclusion.
(2) If the object/meaning of a word is mere exclusion and notsomething real, then there will remain no ground forthe truth or falsity of a statement, because truth or falsity of a statement depends on the attainment or otherwise of the denoted real thing.
(3) If the function of a word is only to exclude the other/opposite, then this function will be of the nature of negation only. But negation always implies affirmation. Without affirmation there can never be negation, and viceversa Negation is impossible without the acceptance of affirmation as its basis. That is, the function of a word can never be negation alone but is always both negation and affirmation, negation of the nature of other/opposite things and affirmation of the thing's positive nature.
(4) Exclusion of non-cows is not possible without the knowledge of non-cow. But the knowledge of non-cow is not possible without the knowledge of cow. Knowledge of non-cow depends on that of cow, and the knowledge of cow depends on that of non-cow. Thus Exclusion theory is vitiated by the logical defect of mutual dependence (anyonyāśraya).
(5) Again, exclusion of the opposite turns out to be an affirmation of the positive. Forinstance, negation (i.e. exclusion) of non-cows, being of the nature of two negations, necessarily proves its own nature of affirmation.
Now we consider sphota theory. The upholders of this theory are grammarians. Their position is as follows: That from which meaning is manifested is sphota. It is not a word made up of letters. It is different from such word. It is called sphotaor word-sphota. It is an eternal entity which is made manifest when on this or that occasion an appropriate sound is made. It is not something audible, for what is found heard is not sphota itself but the sound that makes this sphotamanifest. A word made up of letters orasentence made up of such words cannot serve as the instrument of verbal cognition because it is impossible for man to cognise aword as a whole orasentence as a whole. This has led to the positing of corresponding eternal impartite sabda-sphota and Väkya-sphota. The letters supposed to compose aword, since they are uttered one after another, are never present together, and so it is impossible for them to be perceived together. So, it becomes necessary to maintain that the instrument of verbal cognition is not a word made up of letters but sphotawhich is impartite, eternal, orderless and inaudible. It is true that verbal cognition nevertakes place unless letters are uttered, but it should be borne in mind that the letters are required not because they are the instrument of verbal cognition but because they make manifestthe eternal sphotawhich is actually such instrument.
Dr. Jain presents two main points of Jaina refutation of the grammarian's Sphotatheory. They are as follows:
(1) The grammarian's stand that a word as a whole can never be grasped is untenable and unsound. A word as a whole can be grasped. The procedure as to how a word as a whole is grasped letter by letter is as follows. There is first grasped the first letter and this grasping produces a mental impression, then is grasped the second letter and this grasping produces a mental impression stronger than the first, and thus proceeding there is lastly grasped the last letter and this grasping produces a mental impression strongest of all; now this last mental impression produces a memory
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having for its objects all the earlier letters arranged in due order, and this memory added to the direct cognition of the last letter (acognition that yet persists) is what is called the grasping of the whole word. So there is no need of positing sphotawhich is neither ever perceived nor can ever be inferred.
(2) If letters uttered one after another cannot generate cognition of the whole word made up of these letters, then how can they uttered one after another manifest an impartite sphota?
The fourth chapterexpounds Jaina philosophy of sentence and sentential meaning. Regarding the question as to what a sentence is, there are various views. Dr. Jain first presents the Jaina view, then gives an account of other views andexpounds some salient points of Jaina criticism of these views.
Jainathinkers define a sentence as a non-expectant or expectation-freegroup of mutually expectantwords. The noteworthy point is that a sentence is a group of words. It is not something that is produced by words. It is not an effect of words. It is not different from words the manner an effect is different from its causes or causal aggregate. It is or causal aggregate. It is not something over and above the words. It is not something different from and over and above its constituent words the way the Nyāya-Vaiśesika whole (avayavas) is different from and over and above its constituent parts (avayavas). It is nothing but words that have come together. What is it that causes them to come together? It is their mutualexpectancy. They expect one another. No word which is notexpected by any member word of the group finds its place in the group. Any group of words is not a sentence. That group of words in which the member words expect one another is called a sentence. The group of words expecting one another is itself free from any expectation, it is complete in itself.
Now we take up other views for discussion one by one. Some contend that action word (verb) is a sentence. They mean to say that of all the words in a sentence it is action word that is principal, primary and main and all other words are subordinate to it. In criticism Jainas observe that even action wordexpects other words in a sentence. Other words in a sentence are as important as action word. So action word should not be regarded as principal and others subordinate to it and hence action word should not be considered as a sentence.
Accordingtosome, a group of words itself is not a sentence but it is some common entity (jāti) presentin this group of words that is called asentence. Thus on the modelof Nyāya-Vaiseśika universal they conceive a sentence which is one residing in many words and is different from words. The Jainacriticism of this conception of a sentence is exactly the same as their criticism of the Nyāya-Vaiseśika universal.
According to grammarians a sentence is nothing but sphota which is one unitary impartite eternal entity manifested by words. The reasons that led grammarians to posit sabda-sphota led them to posit vakyasphota. And we know main points of Jaina criticism of sphotatheory.
Some propound that the special order of the words in a group is a sentence. Mere co-existence of words in a group should not be regarded as a sentence. But it is the special order(krama) obtaining among the words in a group, that should be regarded as a sentence. Words, when they are in special order, assume sentencehood. So this special order has a right and legitimate claim to sentencehood. Moreover, these thinkers maintain that temporal proximity between words is necessary and that temporal gap between words breaks the order of words and leads to the abortion of a sentence. Again, they believe that the immediately succeeding word somehow assists the immediately preceding one. Jainas concede that in the structure of a sentence the order of words is an important factor. But they dislike the attempt of these thinkers to elevate the orderto the status of a sentence. Again, they point out that mutualexpectation of words necessarily implies this order.
Some contend that acollection of words that is made in the intellect of hearers is a sentence. When after having heard words one after another words expecting one another- a hearer collects them in his intellect, they assume the
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९५ status of a sentence. Jaina thinkers have no objection to this view if this internal sentence (bhāva-vākya) is the counterpart of the external one (dravya-vakya).
Some are of the view that the first word uttered by the speaker is to be regarded as a sentence because on hearing it, the hearer comes to know the remaining words also. There are several factors like context, situation, etc. which help the hearer to know the remaining words. Jainas describe this view as absurd. It makes other words-rather their utterance by the speaker-redundant. Of course, on certain occasions even one word acts as a sentence. But that does not mean that on all occasions one word acts as a sentence.
After examining various views about the definition of a sentence Dr. Jain discusses two important theories regarding sentential meaning, formulated by Kumarila and Prabhakara, known as Abhihitanvayavada and Anvitabhidhanavädarespectively. We take up these two theories one by one for consideration.
Kumārila maintains that first words of a sentence yield their respective meanings by their denotative power (abhidhāśakti), then these meanings get associated with one another in accordance with the felt-need, the proximity and the ability. So a sentence means the association of word-meanings. Kumārila's point is that the denoter-denoted relationship obtains between an individual word and its meaning while the meaning of a sentence is got by combining the meanings yielded by the individual words occurring in a sentence. This means that according to Kumarila the instrument of sentential meaning are not the words concerned but the word-meanings concerned. This contention he makes on the following two grounds.
(a) It will be too much of a burden for the words of a sentence to yield the word meanings concerned as also the sentential meaning, particularly when it can easily be supposed that the sentential meaning is yielded not by these words but by these word-meanings themselves.
(b) By the time one hears the last word one had forgotten, longer or shorter ago, the earlier words, so that these words are in no position to yield sentential meaning.
In refutation of Kumärila's theory we make the following points.
(1) If the words of asentence really cease to operate after yielding their respective meanings then sentential meaning cannot but cease to be something verbal. In other words, if the instrument of sentential meaning are not the words concerned but the word-meanings concerned then how can sentential meaning be regarded as verbal?
(2) Words of asentence singly or independently yield their respective meanings but jointly yield the sentential meaning. What is the harm in accepting this? Words mutually expecting one another get together. And a group of such words is a sentence. This sentence which is a group of mutually expectant words yields sentential meaning. So, Kumārila should accept that words of asentence yield their own respective meanings as well as the meaning of this sentence just as fuel etc. jointly undertake the operation called cooking and severally the operations like burning, etc. Kumärila himself has seen the truth in this position and hence at places he himself concedes this point. Kumärila's verse in point is as follows: Väkyärthapratyaye padarthapratipadanam
nantariyakam/pakejvāleva
kāṣthänäm
teşa
pravmttaur
[Sloka Vakya 343]
According to Prabhakara the mutually expectant and hence associated words denote the associated meanings, that is, sentential meaning. In other words, a sentence denotes sentential meaning. The individual words outside a sentence have no meaning. They have no denotative power of their own because they are never employed single, that is, outside asentence. Only words associated with one another, that is, asentence have denotative power. The individual
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ words of a sentence severally do not have any meaning. They jointly have meaning and that is sentential meaning. Prabhakra's point is that the denoter-denoted relationship obtains between a sentence as a whole and the sentential meaning concerned. He tends to blur adistinction between the role of a sentence and the role of the individual words occurring in this sentence. We may put his basic contention as follows: "Unlike a lamp, a word does not produce cognition unless its meaning is learnt. But the meaning of a word is learnt through observing the practical dealings undertaken by the elders who however in this connection always speak a sentence as a whole, never individual words. Certainly, a sentence is what one speaks, what one hears, what one observes others speaking and hearing. So what is learnt is as to what meaning is had by what sentence. But then a sentence is of the form of several words grouped together with a view to yielding acommon meaning just as fueletc. jointly undertake cooking, the palanquin-bearers jointly carry the palanquin, the three oven-stones jointly support the cooking pot, so that it is improperto suggest that a single word uncombined with other words is what yields a meaning". As can be seen, Prabhākara does not deny that a sentence is made up of individual words, but he fails to see how words can yield any meaning other that what is commonly yielded bythem in their capacity as acomponentofone common sentence. Prabhākaraknows of no word-meanings apart from the sentential meaning concerned so that on his view here is a case of word-employment with no meaning coming in picture.
Some points of refutation are already suggested. Others are as follows. Each word of a sentence is associated with the remaining words. Soon hearing the first word we should have the knowledge of the remaining words associated with it and consequently the knowledge of the whole sentence, there is no need of employing so many words instead of justone. The second point is as follows. Even when meaning is learnt through listening to the sentences uttered by elderly people what is learnt is the meaning of an individual word, not the meaning of a sentence as a whole; certainly, sentences being infinite in number it should be impossible for one to learn their meaning one by one while as a matter of fact one conversant with the words and their meanings manages to grasp the meaningeven of a sentence fresh from the pen of a poet. So Prabhākarashould not maintain that individual words do not have meaning of their own and that they do not denote their own meaning. His mistake lies in denying the denotative power as also in applying the designation denotative power to the informative power(tatparyāsakti). The right position is that words of a sentence severally yield their respective meanings through their denotative power and jointly yield the common sentential meaning through their informative power.
The fifth chapter is devoted to the determinants of the meaning of a statement. These determinants are naya and niksepa Nayameans a standpoint or intention of a speaker. Athing has infinite aspects or attributes. The speaker chooses that aspect which suits to his purpose or the occasion and conveys through words that aspect only. So his statement is always relative to his purpose or intention. It presents his standpoint, purpose or intention. To know or understand the meaning of a statement it is necessary to take into account the seaker's intention or standpoint. All statements are relative to speaker's intention, standpoint and purpose. So their meanings are govered by them. For example, every thing is constituted of two aspects, viz. substance and mode. When a person concentrates on substance, he states that the thing is permanent. The statement is made from the substantive standpoint. When he concentrates on modes, he states that the thing is impermanent. The statement is made from the modal standpoint. No statement is understood in its true sense unless it is put in the context of the speaker's standpoint. There are as many standpoints as there are aspects of athing. There are as many modes of expression as there are standpoints. Again, a thing in its entirety can never be conveyed to others through language. For that purpose one has to analyse it into various aspects and then these aspects are to beconveyed one by one through language. In fact, one conveys those aspects only of the thing which
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are useful for his purpose or the occasion. Though there are infinite standpoints corresponding to infinite objective aspects of athing yet for the sake of convenience they are divided into seventypes, viz. naigama, sangraha, vyavahāra, rjusütra, sabda, sarmabhirudhaand evarnbhūta. Dr. Jain explains them lucidly. After that he takes up the topic of niksepa.
Language is the chief means of communication. It is made up of words. Each word has a meaning. And each meaning has four facets or aspects which are called nikṣepa. On this or that occasion a word is employed to convey its meaning in one aspect only. On the occasion propriety of the one aspect and impropriety of the remaining three aspects are determined by various conditions like context etc. The four aspects of ameaning are label or name-aspect (namaniksepa), representation-aspect (sthāpanā-nikṣepa), past-future-state-aspect (dravya-niksepa) and actual-activityaspect (bhava-niksepa). When we employ the word 'raja' (meaning king) to denote a person who is given the name/ label'raja' to recognise him and who possesses no qualification appropriate to the king, the meaning king is to be taken in its label-aspect(name-aspect) only. When we employ the word 'raja' to denote a photograph, image or any representation of the king, the meaning king is to be taken in its representation-aspect ony. When we employ the word 'raja' to denote a photograph, image or any representation of the king, the meaning king is to be taken in its representation-aspect only. When we employ the word 'raja" to denote a person who was king in the past or is going to be king in future but at present is not king, the meaning king is to be taken in its past-future-state-aspect only. When we employ the word 'raja' to denote a person who is actually carrying the royal sceptre and is shining on that account, the meaning king is to be taken in its actual-activity-aspect only. Thus, a word, when employed, yields its meaning with any one of its four aspects, the aspect is to be determined by context etc.
The sixth chapter discusses the power of language to express athing or object concerned. It is pointed out that there does not obtain a relation of identity or container-contained between a word and the thing concerned. There obtains a relation of denoter-denoted between them. This is a conventional relation. A convention is fixed that a particular word will denote things of a particular class. In other words, at the time of fixing convention, the convention is fixed with regard to general features or universal of an individual which is present. Convention can never be fixed with regard to individuals because they are infinite and spread out over the three divisions of time and throughout the universe and hence all the individuals cannot be present at the time when and at the place where the convention is being fixed. And if convention is fixed with regard to a particular individual, then at the time of communication the individual perceived at the time of formation of convention will not be present. Hence it is of no use to fix convention in connection with a particular individual. So, it is maintained that convention is formed in connection with universal or generic features which charcterise all the individuals of a class- the one of which is present there at the time of formation of convention. This being the case words express generic features of an individual and not its particular features. That is, language can never convey a thing in its entirety. Again, we do not have a separate word for each and every subtle state of a thing or substance nor do we have a separate word for each and every state or shade of a quality. There are not as many words as are the varieties of states or shades. None can express in words the difference that is there in the sweetness of jaggery, honey and sugar. This shows how the power of expression is very limited. A very small portion of our experience we can convey to others through language. And only a very small aspect of a thing we can express in words.
The above discussion will certainly enable us, to a certain extent, to answer the question as to in what sense a thing is regarded as indescribable or inexpressible (avaktavya). Dr. Jain discusses the question, while giving different senses in which the term 'avaktavya' can be interpreted.
The seventh chapter is devoted to the discussion of validity or otherwise of a statement. When the meaning
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yielded by a statement corresponds to the actual external thing or event, it is regarded as valid or true. According to the other view, if a statement is free from internal contradition, it is to be regarded as valid, otherwise invalid. For example, the statement 'He is ason of abarren woman' is invalid or false because it is vitiated by internal contradiction. Jainas maintain that when a statement describes a thing or event as it is, it is a valid statment.
The question arises as to how one can determine a statement to be valid or invalid. In fact, validity or invalidity of astatement depends on validity or invalidity of cognition generated by it in the hearer. In Western philosophy three theories have been formulated in this connection. They are correspondence theory, coherenence theory and utility theory. In India, the Mīmāmsaka maintains that validity of cognition is self-evident while its invalidity is known when it is contradicted by some other strong cognition. The Naiyayika and the Buddhist hold that neither validity nor invalidity of cognition is self-evident. The two are inferred from its capacity or incapacity to produce successful activity. The Jaina logicians maintain that both validity and invalidity of cognitions are self-evident in the case of repeated acquaintance while they are known through subsequent successful activities in the case of first acquaintance. Dr. Jain draws our attention to the fact that for the first time in Jaina literature Prajnapanäsütra extensively discusses the problem of truth or falsity of language or speech. According to it, there are two main types of language, viz. paryāpta (fully developed) and aparyäpta undeveloped). The language the nature or meaning of which could be determined as true or false is called paryäpta. On the other hand, that speech the nature or meaning of which could not be determined as true or false is called aparyäpta. If its meaning is true it is regarded as true speech. If its meaning is false, it is regarded as false speech. In other words, that speech which enables us to know the thing as it is true speech; and that speech which leads us to know the thing as it is not is false speech. Thus paryāptaspeech has two sub-types, viz. true speech (satya-bhäṣa) and false speech depends on various situations and conditions. These situations and conditions being ten, the types of true or valid speech are also ten. Then follows the enumeration and explanation of ten types of true or valid speech.
The aparyāptaspeech is oftwo types, viz. satyamṛṣä(true-as-well-as-false) and asatyamṛṣā(neither-true-norfalse). The former is again of ten types and the latter of twelve types. The speech which contains half-truth or partial truth is satya-mrsåspeech. On the other hand, that speech to which the standard of truth or falsity is not applicable is called asatyamṛṣāspeech. This means the statements of address, order, prayer, wish and the like are neither valid nor invalid, and hence they fall under the head of asatyamṛṣāspeech.
Again, truth or falsity of a statement can be viewed from three different standpoints, viz. grammatical, logical and ethical/spiritual. The statement 'A hundred hords of elephants are seated on a finger-tip' is invalid or false from the standpoint of a science of logic because it is vitiated by the factual internal contradiction. But it is grammatically correct and hence true from the standpoint of the science of grammer. The person who knows in which direction deers have gone, when asked by a hunter, says, "I do not know in which direction deers have gone". The statementhe makes is grammatically true but factually (i.e. from the standpoint of logic) untrue. And from ethical/spiritual standpoint it is true because it averts killing which would have taken place on his speaking factually true statement. To describe a thing as it is or an event as it happened is generally regarded as truth, and factually no doubt it is truth, but from the ethical/spiritual standpoint it may or may not be truth. If the factual truth is beneficial or at least not harmful to others.. it is worthy of being called the truth. But if the factual truth is harmful to others, it is not worthy of being regarded as the truth. This is in harmony with what Jainas have said in connection with valid cognition (pramaņa) and invalid cognition (pramaņa). They say: In the science of logic, only that cognition is called valid-cognition (pramana) whose object is true to the concerned factual situation, while that cognition is called invalid-cognition (pramana) whose object
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डॉ सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व is not true to the same. The division of valid and invalid cognitions, based on the correspondence and noncorrespondence of cognitions with the nature of their concerned objects or with the concerned factual situations is certainly recognised in the Jaina scriptural treatises. But such treatises do not attach much importance to it. In other words in spiritual treatises, the distinction between valid-cognition and invalid-cognition that is proposed by the science of logicis no doubt admitted but is treated as secondary. Forthem that distinction is primary according to which valid-cognition is the cognition which is conducive to spiritual upgrading or development, while invalid-cognition is the cognition that is conducive to increment in worldly entanglement or spiritual degradation. This means that the distinction between valid-cognition and in-valid cognition is made from an objective standpoint in the science of logic, while the same is made from a spiritual standpoint in the treatises concerned with spiritual matters.
In a very short space of mere one hundred pages Dr. Jain has attempted to cover all the essential points and aspects of Jaina philosophy of language. This has put him under constraint to be as brief as possible, leaving full discussion of certain points and extensive criticism of rival theories for future studies. But whatever he has presented is certainly enough to clearly understand the Jaina position vis-a-vis rival positions. He has also suggested comparison of Jaina views with the views of Western philosophers like Ludwig Wittgenstein, A.J. Ayer, etc. He covers a wide range of texts, explaining and analysing materials that have not been studied so far. So his present work is going to be a valuable addition to the literature on Jaina philosophy.
Former Director, LD. Institute of indology, Ahemdabad, 23 Valkeshwar Society, Bhudhar Pura, Ambawadi, Ahemedabad.
An Introduction to Jaina Sādhanā*
(Jaina Way of Living) A review by Prof. Surendra Verma :
An Introduction to Jaina Sadhanā, subtitled (Jaina Way of Life) is a compilation of lecture delivered by Dr. Sagarmal Jain in the University of Madras, Department of Jainology as part of Annual Lectures Series 1992-93. The work is addressed to the common man without indulging in the minute details and technicalities of the subject. It explains in broad terms the Jaina Sādhanāand its relevance in the modern age.
The work is divided into seven chapters. The first chapter, Historical Development of Jaina Sādhanā, compares Jainism with Hinduism on the one hand and Budhism on the other. The second chapter deals in the antiquity of Jaina tradition Chapterthird brings oụt the main objectives of Jainism. It deals with the cause of bondage and suffering. The process of bondage and the ultimate aim-the mokșa, which is defined as a complete perfection and purification of the soul. The chapter goes on to define self as pure knower with Samatā or equanimity as its real nature.
Right knowledge, right faith and right conduct are the three ways that lead to the path of liberation. Chapter fourth deals with them and analyses the constituents and ‘limps' of right faith along with the fine types of knowledge in which the Kevalajñanarariety being the perfect knowledge. It goes on to define the relationship between the faith,
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
the knowledge and the conduct. It mentions the basics of the code of conduct, the details of which are described in chapters V&VI.
While the chapter Vis devoted wholly to the code of conduct for the house-holders, the VI deals with that of the Jaina monks. The first code includes twelve vows and the major isolations pertaining to them along with the essential duties and stages of spiritual progress of a house-holder. The code of conduct for a Jaina monk is analysed in chapter VI. It deals with the Great Vows (Mahāvratas), the types of vigilance, guptisand controlof senses, virtues and austerities. It also compares Jaina yogawith other systems of yogasuch as Jñānaand Karma. The Samyaka darśanaof Jainism can be said to the equivalent to bhaktiyoga and the samyaka jñānacan be equated with Jñāna-yoga. So far as Karma-yoga and astānga-yogaareconcerned they may be compared with samyaka-cāritsaof Jainism. He also contents that the Jaina use of the word dhyana, comprehends samadhialso. The last two stages of śukla-dhyānaof Jainism are comparable with the two samādhies of Patañjali.
Dr. Jain also emphasizes the fact that Jainism does not reject the altimistic attitude in its sādhana. The five-fold discipline of non-violence, birth, non-stealing, sexual purity and non-possession (aparigraha) is not for personal edification alone but it also aims at social good. Jainism is not confined to individual good but... iturges the universal good.
Dr. Jain further makes it clear that Jainism is not asystem that rejects the bodily needs. The main issue", he says, “is not the fulfilment or rejection of bodily needs but is the establishment of peace in the life of individual as well as of society. Hence the fulfilment of bodily needs is welcomed to the extant to which it furthers this particular cause, but when it does not, it ought to be rejected. Thus the essential teaching of Jainism is the enshewment of attachment and not the negation of life".
Is the Jaina Sadhanā relevant to the present times ? Dr. Jain gives an affirmative answer. It is really unfortunate that the modern man identifies himself with his material achievements and has forgotten his real nature. Jainism invites man to return to his Swabhāvawhich is really speaking samatā, and this can be achieved only by dissociating oneself from the "not-self".
Greed and violence are the two great malaise of the present day. Jainism with its emphasis on non-attachment and ahiṁsātries to inculcate a concern for the fellow-beings and tolerance towards other faiths. And finally, it should be noted that the Jaina code of conduct is so comprehensive that it works also for the preservation of ecological equilibrium. It finds itself one with all forms of life, whether human, animal or vegitative.
An Introduction to Jaina Sadhanägives a good insight into the practical aspect of the philosophy of Jainism. It will attract not only a scholar but also a lay man.
10 HIG, 1-Circular Road, Allahabad (U.P.)-211001
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द्वितीय खण्ड
जैन आगम साहित्य
लेखक
डॉ० सागरमल जैन
सम्पादक
डॉ० धर्मचन्द जैन
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अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श
भारतीय संस्कृति में अति प्राचीनकाल से ही दो समानान्तर धाराओं श्रमण-परम्परा के साहित्य का प्रश्न है दुर्भाग्य से वह आज हमें उपलब्ध की उपस्थिति पाई जाती है- श्रमणधारा और वैदिकधारा। जैन धर्म नहीं है, किन्तु वेदों में उस प्रकार की जीवन-दृष्टि की उपस्थिति के
और संस्कृति इसी श्रमणधारा का अङ्ग है। जहाँ श्रमणधारा निवृत्तिपरक सङ्केत यह अवश्य सूचित करते हैं कि उनका अपना कोई साहित्य रही, वहाँ वैदिकधारा प्रवृत्तिपरक। जहाँ श्रमणधारा में संन्यास का प्रत्यय भी रहा होगा, जो कालक्रम में लुप्त हो गया। आज आत्मसाधना प्रधान प्रमुख बना, वहाँ वैदिकधारा में गृहस्थजीवन का। श्रमणधारा ने सांसारिक निवृत्तिमूलक श्रमणधारा के साहित्य का सबसे प्राचीन अंश यदि कहीं जीवन की दु:खमयता को अधिक अभिव्यक्ति दी और यह माना कि उपलब्ध है, तो वह औपनिषदिक साहित्य में है। प्राचीन उपनिषदों शरीर आत्मा का बन्धन है और संसार दु:खों का सागर, अत: उसने में न केवल वैदिक कर्म-काण्डों और भौतिकवादी जीवन-दृष्टि की शरीर और संसार दोनों से ही मुक्ति को अपनी साधना का लक्ष्य माना। आलोचना की गई है, अपितु आध्यात्मिक मूल्यों की जो प्रतिष्ठा हुई उसकी दृष्टि में जैविक एवं सामाजिक मूल्य गौण रहे और अनासक्ति, है, वह स्पष्टतया इस तथ्य का प्रमाण है कि वे मूलत: श्रमण जीवन-दृष्टि वैराग्य और आत्मानुभूति के रूप में मोक्ष या निर्वाण को ही सर्वोच्च के प्रस्तोता हैं। मूल्य माना गया। इसके विपरीत वैदिकधारा ने सांसारिक जीवन को यह सत्य है कि उपनिषदों में वैदिकधारा के भी कुछ सङ्केत उपलब्ध वरेण्य मानकर जैविक एवं सामाजिक मूल्यों अर्थात् जीवन के रक्षण हैं किन्तु यह नहीं भूलना चाहिये कि उपनिषदों की मूलभूत जीवन-दृष्टि एवं पोषण के प्रयत्नों के साथ-साथ पारस्परिक सहयोग या सामाजिकता वैदिक नहीं, श्रमण है। वे उस युग की रचनायें हैं, जब वैदिकों द्वारा को प्रधानता दी। फलत: वेदों में जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति एवं श्रमण संस्कृति के जीवन मूल्यों को स्वीकृत किया जा रहा था। वे पारस्परिक सहयोग हेतु प्रार्थनाओं के स्वर अधिक मुखर हुए हैं, यथा- वैदिक संस्कृति और श्रमण संस्कृति के समन्वय की कहानी कहते हैं। हम सौ वर्ष जीयें, हमारी सन्तान बलिष्ठ हो, हमारी गायें अधिक दूध ईशावास्योपनिषद् में समन्वय का यह प्रयत्न स्पष्ट रूप से परिलक्षित दें, वनस्पति एवं अन्न प्रचुर मात्रा में उत्पन्न हों, हममें परस्पर सहयोग होता है। उसमें त्याग और भोग, प्रवृत्ति एवं निवृत्ति, कर्म और हो आदि। ज्ञातव्य है कि वेदों में वैराग्य एवं मोक्ष की अवधारणा कर्म-संन्यास, व्यक्ति और समष्टि, अविद्या (भौतिक ज्ञान) और विद्या अनुपस्थित है, जबकि वह श्रमणधारा का केन्द्रीय तत्त्व है। इस प्रकार (आध्यात्मिक ज्ञान) के मध्य एक सुन्दर समन्वय स्थापित किया ये दोनों धाराएँ दो भिन्न जीवन-दृष्टियों को लेकर प्रवाहित हुई हैं। गया है। परिणामस्वरूप इनके साहित्य में भी इन्हीं भिन्न-भिन्न जीवन-दृष्टियों उपनिषदों का पूर्ववर्ती एवं समसामयिक श्रमण परम्परा का जो का प्रतिपादन पाया जाता है।
अधिकांश साहित्य था, वह श्रमण परम्परा की अन्य धाराओं के जीवित श्रमण-परम्परा के साहित्य में संसार की दुःखमयता को प्रदर्शित न रह पाने या उनके बृहद् हिन्दू-परम्परा में समाहित हो जाने के कारण कर त्याग और वैराग्यमय जीवन-शैली का विकास किया गया, जबकि या तो विलुप्त हो गया था या फिर दूसरी जीवित श्रमण परम्पराओं वैदिक साहित्य में ऐहिक जीवन को अधिक सुखी और समृद्ध बनाने अथवा बृहद् हिन्दू-परम्परा के द्वारा आत्मसात् कर लिया गया। किन्तु हेतु प्रार्थनाओं की और सामाजिक-व्यवस्था (वर्ण-व्यवस्था) और भौतिक उसके अस्तित्व के सङ्केत एवं अवशेष आज भी औपनिषदिक साहित्य, उपलब्धियों हेतु विविध कर्मकाण्डों की सर्जना हुई। प्रारम्भिक वैदिक पालित्रिपिटक और जैनागमों में सुरक्षित हैं। प्राचीन आरण्यकों, साहित्य, जिसमें मुख्यत: वेद और ब्राह्मण ग्रन्थ समाहित हैं, में लौकिक उपनिषदों, आचाराङ्ग (प्रथम श्रुतस्कन्ध), सूत्रकृताङ्ग, उत्तराध्ययन, जीवन को सुखी और समृद्ध बनाने वाली प्रार्थनाओं और कर्मकाण्डों इसिभासियाई, थेरगाथा, सुत्तनिपात और महाभारत में इन विलुप्त या का ही प्राधान्य है। इसके विपरीत श्रमण-परम्परा के प्रारम्भिक साहित्य समाहित श्रमण परम्पराओं के अनेक ऋषियों के उपदेश आज भी पाये में संसार की दु:खमयता और क्षणभङ्गुरता को प्रदर्शित कर उससे वैराग्य जाते हैं। इसिभासियाई, सूत्रकृताङ्ग और उत्तराध्ययन में उल्लिखित
और विमुक्ति को ही प्रधानता दी गई है। संक्षेप में श्रमणपरम्परा का याज्ञवल्क्य, नारद, असितदेवल, कपिल, पाराशर, आरुणि, उद्दालक, साहित्य वैराग्य प्रधान है।
नमि, बाहुक, रामपुत्त आदि ऋषि वे ही हैं, जिनमें से अनेक के उपदेश श्रमणधारा और उसकी ध्यान और योग-साधना की परम्परा के एवं आख्यान उपनिषदों एवं महाभारत में भी सुरक्षित हैं। जैन परम्परा अस्तित्व के सङ्केत हमें मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की संस्कृति के काल में ऋषिभाषित में इन्हें अर्हत् ऋषि एवं सूत्रकृताङ्ग में सिद्धि को प्राप्त से ही मिलने लगते हैं। यह माना जाता है कि हड़प्पा संस्कृति वैदिक तपोधन महापुरुष कहा गया है और उन्हें अपनी पूर्व परम्परा से सम्बद्ध संस्कृति से भी पूर्ववर्ती रही है। ऋग्वेद जैसे प्राचीनतम ग्रन्थ में व्रात्यों बताया गया है। पालित्रिपिटक दीघनिकाय के सामञफलसुत्त में भी
और वातरशना मुनियों के उल्लेख भी इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं बुद्ध के समकालीन छह तीर्थङ्करों- अजितकेशकम्बल, प्रकुधकात्यायन, कि उस युग में श्रमणधारा का अस्तित्व था। जहाँ तक इस प्राचीन पूर्णकश्यप, सञ्जयवेलट्ठिपुत्त, मङ्खलिगोशालक एवं निग्गंठनातपुत्त की
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ मान्यताओं का निर्देश हुआ है, फिर चाहे उन्हें विकृत रूप में ही प्रस्तुत ५८) में कहा गया है "यह जो द्वादश-अङ्ग या गणिपिटक है वह क्यों न किया गया हो। इसी प्रकार थेरगाथा, सुत्तनिपात आदि के अनेक ऐसा नहीं है कि यह कभी नहीं था, कभी नहीं रहेगा और न कभी थेर (स्थविर) भी प्राचीन श्रमण परम्पराओं से सम्बन्धित रहे हैं। इस होगा। यह सदैव था, सदैव है और सदैव रहेगा। यह ध्रुव, नित्य सबसे भारत में श्रमणधारा के प्राचीनकाल में अस्तित्व की सूचना मिल शाश्वत, अक्षय, अवस्थित और नित्य है।" इस प्रकार जैन चिन्तक जाती है। पद्मभूषण पं० दलसुखभाई मालवणिया ने पालित्रिपिटक में एक ओर प्रत्येक तीर्थङ्कर के उपदेश के आधार पर उनके प्रमुख शिष्यों अजित, अरक और अरनेमि नामक तीर्थङ्करों के उल्लेख को भी खोज के द्वारा शब्द-रूप में आगमों की रचना होने की अवधारणा को स्वीकार निकाला है। ज्ञातव्य है कि उसमें इन्हें “तिस्थकरो कामेसु वीतरागो' करते हैं तो दूसरी ओर अर्थ या कथ्य की दृष्टि से समरूपता के आधार कहा गया है- चाहे हम यह माने या न मानें कि इनकी सङ्गति जैन पर यह भी स्वीकार करते हैं कि अर्थ-रूप से जिनवाणी सदैव थी परम्परा के अजित, अर और अरिष्टनेमि नामक तीर्थङ्करों से हो सकती और सदैव रहेगी। वह कभी भी नष्ट नहीं होती है। विचार की अपेक्षा है- किन्तु इतना तो मानना ही होगा कि ये सभी उल्लेख श्रमणधारा से आगमों की शाश्वतता और नित्यता मान्य करते हुए भी जैन परम्परा के अतिप्राचीन अस्तित्व को ही सूचित करते हैं।
उन्हें शब्द-रूप से सृष्ट और विच्छिन्न होने वाला भी मानती है। अनेकान्त
की भाषा में कहें तो तीर्थङ्कर की अनवरत परम्परा की दृष्टि से आगम वैदिक साहित्य और जैनागम
शाश्वत और नित्य हैं, जबकि तीर्थङ्कर-विशेष के शासन की अपेक्षा वैदिक साहित्य में वेद प्राचीनतम हैं। वेदों के सन्दर्भ में भारतीय से वे सृष्ट एवं अनित्य हैं। दर्शनों में दो प्रकार की मान्यताएँ उल्लिखित हैं। मीमांसकदर्शन के वैदिक साहित्य और जैनागमों में दूसरा महत्त्वपूर्ण अन्तर यह अनुसार वेद अपौरुषेय हैं अर्थात् किसी व्यक्ति विशेष द्वारा निर्मित है कि वेदों के अध्ययन में सदैव ही शब्द-रूप को महत्त्व दिया गया नहीं हैं। उनके अनुसार वेद अनादि-निधन हैं, शाश्वत हैं, न तो उनका और यह माना गया कि शब्द-रूप में कोई परिवर्तन नहीं होना चाहिए, कोई रचयिता है और नहीं रचनाकाल। नैयायिकों की मान्यता इससे उसका अर्थ स्पष्ट हो या न हो। इसके विपरीत जैन परम्परा में तीर्थङ्करों भिन्न है, वे वेद-वचनों को ईश्वर-सृष्ट मानते हैं। उनके अनुसार वेद को अर्थ का प्रवक्ता माना गया और इसलिए इस बात पर बल दिया अपौरुषेय नहीं, अपितु ईश्वरकृत हैं। ईश्वरकृत होते हुए भी ईश्वर के गया कि चाहे आगमों में शब्द-रूप में भिन्नता हो जाय किन्तु उनमें अनादि-निधन होने से वेद भी अनादि-निधन माने जा सकते हैं, किन्तु अर्थ-भेद नहीं होना चाहिए। यही कारण था कि शब्द-रूप की इस जब उन्हें ईश्वरसृष्ट मान लिया गया है, तो फिर अनादि कहना उचित उपेक्षा के कारण परवर्तीकाल में आगमों में अनेक भाषिक परिवर्तन नहीं है, क्योंकि ईश्वर की अपेक्षा से तो वे सादि ही होंगे। हुए और आगम पाठों की एकरूपता नहीं रह सकी। यद्यपि विभिन्न
जहाँ तक जैनागमों का प्रश्न है उन्हें अर्थ-रूप में अर्थात् सङ्गीतियों के माध्यम से एकरूपता बनाने का प्रयास हुआ, लेकिन कथ्य-विषय-वस्तु की अपेक्षा से तीर्थङ्करों के द्वारा उपदिष्ट माना जाता उसमें पूर्ण सफलता नहीं मिल सकी। यद्यपि वह शब्द-रूप परिवर्तन है। इस दृष्टि से वे अपौरुषेय नहीं हैं। वे अर्थ-रूप में तीर्थङ्करों द्वारा भी आगे निर्बाध रूप से न चले, इसलिए एक ओर उन्हें लिपिबद्ध उपदिष्ट और शब्द-रूप में गणधरों द्वारा रचित माने जाते हैं, किन्तु करने का प्रयास हुआ तो दूसरी ओर आगमों में पद, अक्षर, अनुस्वार यह बात भी केवल अङ्ग आगमों के सन्दर्भ में है। अङ्गबाह्य आगम आदि में परिवर्तन करना भी महापाप बताया गया। इस प्रकार यद्यपि ग्रन्थ तो विभिन्न स्थविरों और पूर्वधर-आचार्यों की कृति माने ही जाते आगमों के भाषागत स्वरूप को स्थिरता तो प्रदान की गयी, फिर भी हैं। इस प्रकार जैन आगम पौरुषेय (पुरुषकृत) हैं और काल विशेष शब्द की अपेक्षा अर्थ पर अधिक बल दिये जाने के कारण जैनागमों में निर्मित हैं।
का स्वरूप पूर्णतया अपरिवर्तित नहीं रह सका, जबकि वेद शब्द-रूप किन्तु जैन आचार्यों ने एक अन्य अपेक्षा से विचार करते हुए में अपरिवर्तित रहे। आज भी उनमें ऐसी अनेक ऋचायें हैं- जिनका अङ्ग आगमों को शाश्वत भी कहा है। उनके इस कथन का आधार कोई अर्थ नहीं निकलता है (अनर्थका: हि वेद-मन्त्राः)। इस प्रकार यह है कि तीर्थङ्करों की परम्परा तो अनादिकाल से चली आ रही है वेद शब्द-प्रधान है जबकि जैन आगम अर्थ-प्रधान है। और अनन्तकाल तक चलेगी, कोई भी काल ऐसा नहीं, जिसमें तीर्थङ्कर वेद और जैनागमों में तीसरी भिन्नता उनकी विषय-वस्तु की अपेक्षा नहीं होते हैं। अत: इस दृष्टि से जैन आगम भी अनादि-अनन्त सिद्ध से भी है। वेदों में भौतिक उपलब्धियों हेतु प्राकृतिक शक्तियों के प्रति होते हैं। जैन मान्यता के अनुसार तीर्थङ्कर भिन्न-भिन्न आत्माएँ होती प्रार्थनाएँ ही प्रधान रूप से देखी जाती हैं साथ ही कुछ खगोल-भूगोल हैं, किन्तु उनके उपदेशों में समानता होती है और उनके समान उपदेशों सम्बन्धी विवरण और कथाएँ भी हैं। जबकि जैन अर्धमागधी आगम के आधार पर रचित ग्रन्थ भी समान ही होते हैं। इसी अपेक्षा से नन्दीसूत्र साहित्य में आध्यात्मिक एवं वैराग्यपरक उपदेशों के द्वारा मन, इन्द्रिय में आगमों को अनादि-निधन भी कहा गया है। तीर्थङ्करों के कथन और वासनाओं पर विजय पाने के निर्देश दिये गये हैं। इसके साथ-साथ में चाहे शब्द-रूप में भिन्नता हो, किन्तु अर्थ-रूप में भिन्नता नहीं होती उसमें मुनि एवं गृहस्थ के आचार सम्बन्धी विधि-निषेध प्रमुखता से है। अत: अर्थ या कथ्य की दृष्टि से यह एकरूपता ही जैनागमों को वर्णित हैं तथा तप-साधना और कर्म-फल विषयक कुछ कथाएँ भी प्रवाह की अपेक्षा से अनादि-अनन्त सिद्ध करती है। नन्दीसूत्र (सूत्र हैं। खगोल-भूगोल सम्बन्धी चर्चा भी जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति आदि
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अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श ग्रन्थों में है। जहाँ तक जैनदर्शन का प्रश्न है उसका प्रारम्भिक रूप भिन्न थीं। यद्यपि विचार के क्षेत्र में महावीर और बुद्ध दोनों ही एकान्तवाद ही अर्धमागधी आगमों में उपलब्ध होता है।
के समालोचक थे, किन्तु जहाँ बुद्ध ने एकान्तवादों को केवल नकारा, वैदिक साहित्य में वेदों के पश्चात् क्रमश: ब्राह्मण-ग्रन्थों, आरण्यकों वहाँ महावीर ने उन एकान्तवादों का समन्वय किया। अत: दर्शन के और उपनिषदों का क्रम आता है। इनमें ब्राह्मण ग्रन्थ मुख्यतः यज्ञ-याग क्षेत्र में बुद्ध की दृष्टि नकारात्मक रही है, जबकि महावीर की सकारात्मक। सम्बन्धी कर्मकाण्डों का विवरण प्रस्तुत करते हैं। अत: उनकी शैली इस दर्शन और आचार के क्षेत्र में दोनों में जो भिन्नता थी, वह उनके
और विषय-वस्तु दोनों ही अर्धमागधी आगम-साहित्य से भिन्न है। साहित्य में भी अभिव्यक्त हुई है। फिर भी सामान्य पाठक की अपेक्षा आरण्यकों के सम्बन्ध में मैं अभी तक सम्यक् अध्ययन नहीं कर से दोनों परम्परा के ग्रन्थों में क्षणिकवाद, अनात्मवाद आदि दार्शनिक पाया हूँ अत: उनसे अर्धमागधी आगम साहित्य की तुलना कर पाना प्रस्थानों को छोड़कर एकता ही अधिक परिलक्षित होती है। मेरे लिये सम्भव नहीं है। किन्तु आरण्यकों में वैराग्य, निवृत्ति एवं वानप्रस्थ जीवन के अनेक तथ्यों के उल्लेख होने से विशेष तुलनात्मक ___ आगमों का महत्त्व एवं प्रामाणिकता अध्ययन द्वारा उनमें और जैन आगमों में निहित समरूपता को खोजा प्रत्येक धर्म-परम्परा में धर्म-ग्रन्थ या शास्त्र का महत्त्वपूर्ण स्थान जा सकता है।
होता है, क्योंकि उस धर्म के दार्शनिक सिद्धान्त और आचार व्यवस्था जहाँ तक उपनिषदों का प्रश्न है उपनिषदों के अनेक अंश आचाराङ्ग, दोनों के लिए 'शास्त्र' ही एकमात्र प्रमाण होता है। हिन्दूधर्म में वेद इसिभासियाई आदि प्राचीन अर्धमागधी आगम-साहित्य में भी यथावत् का, बौद्धधर्म में त्रिपिटक का, पारसीधर्म में अवेस्ता का, ईसाईधर्म उपलब्ध होते हैं। याज्ञवल्क्य, नारद, कपिल, असितदेवल, अरुण, में बाइबिल का और इस्लाम धर्म में कुरान का जो स्थान है, वही उद्दालक, पाराशर आदि अनेक औपनिषदिक ऋषियों के उल्लेख एवं स्थान जैनधर्म में आगम साहित्य का है। फिर भी आगम साहित्य को उपदेश इसिभासियाई, आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग एवं उत्तराध्ययन में उपलब्ध न तो वेद के समान अपौरुषेय माना गया है और न बाइबिल या कुरान हैं। इसिभासियाइं में याज्ञवल्क्य का उपदेश उसी रूप में वर्णित है, के समान किसी पैगम्बर के माध्यम से दिया गया ईश्वर का सन्देश जैसा वह उपनिषदों में मिलता है। उत्तराध्ययन के अनेक आख्यान, ही, अपितु वह उन अर्हतों व ऋषियों की वाणी का सङ्कलन है, जिन्होंने उपदेश एवं कथाएँ मात्र नाम-भेद के साथ महाभारत में भी उपलब्ध अपनी तपस्या और साधना द्वारा सत्य का प्रकाश प्राप्त किया था। हैं। प्रस्तुत प्रसङ्ग में विस्तारभय से वह सब तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत जनो के लिए आगम जिनवाणी है, आप्तवचन है, उनके धर्म-दर्शन करना सम्भव नहीं है। इनके तुलनात्मक अध्ययन हेतु इच्छुक पाठकों ___ और साधना का आधार है। यद्यपि वर्तमान में जैनधर्म का दिगम्बर को अपनी इसिभासियाई की भूमिका एवं 'जैन, बौद्ध और गीता के सम्प्रदाय उपलब्ध अर्धमागधी आगमों को प्रमाणभूत नहीं मानता है, आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' खण्ड १ एवं २ देखने की क्योंकि उसकी दृष्टि में इन आगमों में कुछ ऐसा प्रक्षिप्त अंश है, अनुशंसा के साथ इस चर्चा को यहीं विराम देता है।
जो उनकी मान्यताओं के विपरीत है। मेरी दृष्टि में चाहे वर्तमान में
उपलब्ध अर्धमागधी आगमों में कुछ प्रक्षिप्त अंश हों या उनमें कुछ पालित्रिपिटक और जैनागम
परिवर्तन-परिवर्धन भी हुआ हो, फिर भी वे जैनधर्म के प्रामाणिक पालित्रिपिटक और जैनागम अपने उद्भव-स्रोत की अपेक्षा से दस्तावेज हैं। उनमें अनेक ऐतिहासिक तथ्य उपलब्ध हैं। उनकी पूर्णत: समकालिक कहे जा सकते हैं, क्योंकि पालित्रिपिटक के प्रवक्ता भगवान् अस्वीकृति का अर्थ अपनी प्रामाणिकता को ही नकारना है। श्वेताम्बर बुद्ध और जैनागमों के प्रवक्ता भगवान महावीर समकालिक ही हैं। इसलिए मान्य इन अर्धमागधी आगमों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये दोनों के प्रारम्भिक ग्रन्थों का रचनाकाल भी समसामयिक है। दूसरे ई०पू० पाँचवीं शती से लेकर ईसा की पाँचवीं शती अर्थात् लगभग जैन-परम्परा और बौद्ध-परम्परा दोनों ही भारतीय संस्कृति की श्रमणधारा एक हजार वर्ष में जैन संघ के चढ़ाव-उतार की एक प्रामाणिक कहानी के अङ्ग हैं अत: दोनों की मूलभूत जीवन-दृष्टि एक ही है। इस तथ्य कह देते हैं। की पुष्टि जैनागमों और पालित्रिपिटक के तुलनात्मक अध्ययन से हो जाती है। दोनों परम्पराओं में समान रूप से निवृत्तिपरक जीवन-दृष्टि अर्धमागधी आगमों का वर्गीकरण को अपनाया गया है और सदाचार एवं नैतिकता की प्रस्थापना के वर्तमान में जो आगम ग्रन्थ उपलब्ध हैं, उन्हें निम्न रूप में वर्गीकृत प्रयत्न किये गये हैं, अत: विषय-वस्तु की दृष्टि से भी दोनों ही परम्पराओं किया जाता हैके साहित्य में समानता है। उत्तराध्ययन, दशवैकालिक एवं कुछ प्रकीर्णकों की अनेक गाथाएँ, सुत्तनिपात, धम्मपद आदि में मिल जाती ११ अङ्ग हैं। किन्तु जहाँ तक दोनों के दर्शन एवं आचार नियमों का प्रश्न है, १. आयार (आचाराङ्गः), २. सूयगड (सूत्रकृताङ्गः), ३. ठाण वहाँ स्पष्ट अन्तर भी देखा जाता है। क्योंकि जहाँ भगवान् बुद्ध आचार (स्थानाङ्गः), ४. समवाय (समवायाङ्गः), ५.वियाहपत्रत्ति (व्याख्याप्रज्ञप्तिः के क्षेत्र में मध्यममार्गी थे, वहाँ महावीर तप, त्याग और तितीक्षा पर या भगवती), ६. नायाधम्मकहाओ (ज्ञाताधर्मकथा:), ७. उवासगदसाओ अधिक बल दे रहे थे। इस प्रकार आचार के क्षेत्र में दोनों की दृष्टियाँ (उपासकदशा:), ८. अंतगडदसाओ (अन्तकृद्दशा:), ९. अनुत्तरोववाइय
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ दसाओ (अनुत्तरौपपातिकदशा:), १०. पण्हावागरणाई (प्रश्नव्याकरणानि), दशवैकालिक मान्य रहे हैं, अपितु यापनीय आचार्य अपराजित (नवीं ११. विवागसुर्य (विपाकश्रुतम्), १२. दृष्टिवादः (दिट्ठिवाय), जो शती) ने तो दशवैकालिक की टीका भी लिखी थी। विच्छिन्न हुआ है।
६. छेदसूत्र १२ उपाङ्ग
छेदसूत्रों के अन्तर्गत वर्तमान में १. आयारदशा (दशाश्रुतस्कन्ध), १. उववाइयं (औपपातिकं), २. रायपसेणइज (राजप्रसेनजित्कं) २. कप्प (कल्प), ३. ववहार (व्यवहार), ४. निसीह (निशीथ), अथवा रायपसेणियं (राजप्रश्नीय), ३. जीवाजीवाभिगम, ४. पण्णवणा ५. 'महानिशीथ और ६. जीयकप्प (जीतकल्प)- ये छह ग्रन्थ माने (प्रज्ञापना), ५. सूरपण्णत्ति (सूर्यप्रज्ञप्तिः), ६. जम्बुद्दीवपण्णत्ति (जम्बूद्वीप- जाते हैं। इनमें से महानिशीथ और जीतकल्प को श्वेताम्बरों की तेरापन्थी प्रज्ञप्तिः), ७. चंदपण्णत्ति (चन्द्रप्रज्ञप्तिः),८-१२.निरयावलियासुयक्खंध और स्थानकवासी सम्प्रदायें मान्य नहीं करती हैं। वे दोनों मात्र चार (निरयावलिकाश्रुतस्कन्धः), ८. निरयावलियाओ (निरयावलिकाः), ही छेदसूत्र मानते हैं। जबकि श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय उपर्युक्त ६ ९. कप्पवडिंसियाओ (कल्पावतंसिका:), १०. पुफियाओ (पुष्पिका:), छेदसूत्रों को मानता है। जहाँ तक दिगम्बर और यापनीय परम्परा का ११. पुष्फचूलाओ (पुष्पचूला:), १२. वण्हिदसाओ (वृष्णिदशा:)। प्रश्न है उनमें अङ्गबाह्य ग्रन्थों में कल्प, व्यवहार और निशीथ का उल्लेख
मिलता है। यापनीय सम्प्रदाय के ग्रन्थों में न केवल इनका उल्लेख जहाँ तक उपर्युक्त अङ्ग और उपाङ्ग ग्रन्थों का प्रश्न है। श्वेताम्बर मिलता है, अपितु इनके अवतरण भी दिये गये हैं। आश्चर्य यह है परम्परा के सभी सम्प्रदाय इन्हें मान्य करते हैं। जबकि दिगम्बर सम्प्रदाय कि वर्तमान में दिगम्बर परम्परा में प्रचलित मूलत: यापनीय परम्परा इन्हीं ग्यारह अङ्गसूत्रों को स्वीकार करते हुए भी यह मानता है कि अङ्गसूत्र के प्रायश्चित्त सम्बन्धी ग्रन्थ "छेदपिण्डशास्त्र" में कल्प और व्यवहार वर्तमान में विलुप्त हो गये हैं। उपाङ्गसूत्रों के सन्दर्भ में श्वेताम्बर परम्परा के प्रामाण्य के साथ-साथ जीतकल्प का भी प्रामाण्य स्वीकार किया के सभी सम्प्रदायों में एकरूपता है, किन्तु दिगम्बर परम्परा में बारह गया है। इस प्रकार दिगम्बर एवं यापनीय परम्पराओं में कल्प, व्यवहार, उपाङ्गों की न तो कोई मान्यता रही और न वे वर्तमान में इन ग्रन्थों निशीथ और जीतकल्प की मान्यता रही है, यद्यपि वर्तमान में दिगम्बर के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। यद्यपि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति आचार्य इन्हें मान्य नहीं करते हैं। आदि नामों से उनके यहाँ कुछ ग्रन्थ अवश्य पाये जाते हैं। साथ ही सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति को भी उनके द्वारा दृष्टिवाद १० प्रकीर्णक के परिकर्म विभाग के अन्तर्गत स्वीकार किया गया था।
इसके अन्तर्गत निम्न दस ग्रन्थ माने जाते हैं -
१. चउसरण (चतुःशरण), २. आउरपच्चक्खाण (आतुरप्रत्याख्यान), ४ मूलसूत्र
३. भत्तपरित्रा (भक्तपरिज्ञा), ४. संथारय (संस्तारक), ५. तंडुलवेयालिय सामान्यतया (१) उत्तराध्ययन, (२) दशवैकालिक, (३) आवश्यक (तंदुलवैचारिक), ६. चंदवेज्झय (चन्द्रवेध्यक), ७. देविन्दत्थय और (४) पिण्डनियुक्ति-ये चार मूलसूत्र माने गये हैं। फिर भी मूलसूत्रों (देवेन्द्रस्तव), ८. गणिविज्जा (गणिविद्या), ९. महापच्चक्खाण की संख्या और नामों के सन्दर्भ में श्वेताम्बर सम्प्रदायों में एकरूपता (महाप्रत्याख्यान) और १० वीरत्थय (वीरस्तव)। नहीं है। जहाँ तक उत्तराध्ययन और दशवैकालिक का प्रश्न है इन्हें श्वेताम्बर सम्प्रदायों में स्थानकवासी और तेरापंथी इन प्रकीर्णकों सभी श्वेताम्बर सम्प्रदायों एवं आचार्यों ने एक मत से मूलसूत्र माना को मान्य नहीं करते हैं। यद्यपि मेरी दृष्टि में इनमें उनकी परम्परा के है। समयसुन्दर, भावप्रभसूरि तथा पाश्चात्त्य विद्वानों में प्रो.ब्यूहलर, प्रो. विरुद्ध ऐसा कुछ भी नहीं है, जिससे इन्हें अमान्य किया जाये। इनमें शारपेन्टियर, प्रो. विन्टर्नित्ज़, प्रो.शुबिंग आदि ने एक स्वर से आवश्यक से ९ प्रकीर्णकों का उल्लेख तो नन्दीसूत्र में मिल जाता है। अत: इन्हें को मूलसूत्र माना है, किन्तु स्थानकवासी एवं तेरापन्थी सम्प्रदाय अमान्य करने का कोई औचित्य नहीं है। हमने इसकी विस्तृत चर्चा आवश्यक को मूलसूत्र के अन्तर्गत नहीं मानते हैं। ये दोनों सम्प्रदाय आगम संस्थान, उदयपुर से प्रकाशित 'महापच्चक्खाण' की भूमिका आवश्यक एवं पिण्डनियुक्ति के स्थान पर नन्दी और अनुयोगद्वार को में की है। जहाँ तक दस प्रकीर्णकों के नाम आदि का प्रश्न है, श्वेताम्बर मूलसूत्र मानते हैं। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में कुछ आचार्यों ने मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के आचार्यों में भी किंचित् मतभेद पाया जाता पिण्डनियुक्ति के साथ-साथ ओघनियुक्ति को भी मूलसूत्र में माना है। है। लगभग ९ नामों में तो एकरूपता है किन्तु भत्तपरिन्ना, मरणविधि इस प्रकार मूलसूत्रों के वर्गीकरण और उनके नामों में एकरूपता का और वीरस्तव ये तीन नाम ऐसे हैं जो भिन्न-भिन्न आचार्यों के वर्गीकरण अभाव है। दिगम्बर परम्परा में इन मूलसूत्रों में से दशवैकालिक, में भिन्न-भिन्न रूप से आये हैं। किसी ने भक्तपरिज्ञा को छोड़कर मरणविधि उत्तराध्ययन और आवश्यक मान्य रहे हैं। तत्त्वार्थ की दिगम्बर टीकाओं का उल्लेख किया है तो किसी ने उसके स्थान पर वीरस्तव का उल्लेख में, धवला में तथा अङ्गपण्णत्ति में इनका उल्लेख है। ज्ञातव्य है कि किया है। मुनि श्री पुण्यविजयजी ने 'पइण्णयसुत्ताई' के प्रथम भाग अङ्गपण्णत्ति में नन्दीसूत्र की भाँति ही आवश्यक के छह विभाग किये की भूमिका में प्रकीर्णक नाम से अभिहित लगभग २२ ग्रन्थों का उल्लेख गये हैं। यापनीय परम्परा में भी न केवल आवश्यक, उत्तराध्ययन एवं किया है। इनमें से अधिकांश महावीर विद्यालय से पइण्णयसुत्ताइं नाम
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अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श से २ भागों में प्रकाशित हैं। अङ्गविद्या का प्रकाशन प्राकृत टेक्स्ट स्थान पर पूर्वोक्त तीस प्रकीर्णक मानते हैं। इसके साथ दस नियुक्तियों सोसायटी की ओर से हुआ है। ये बाईस निम्न हैं
तथा यतिजीतकल्प, श्राद्धजीतकल्प, पाक्षिकसूत्र, क्षमापनासूत्र, वन्दित्तु, १. चतुःशरण, २. आतुरप्रत्याख्यान, ३. भक्तपरिज्ञा, ४.संस्तारक, तिथि-प्रकरण, कवचप्रकरण, संशक्तनियुक्ति और विशेषावश्यकभाष्य ५. तंदुलवैचारिक, ६. चन्द्रवेध्यक, ७. देवेन्द्रस्तव, ८. गणिविद्या, को भी आगमों में सम्मिलित करते हैं। ९. महाप्रत्याख्यान, १०. वीरस्तव, ११. ऋषिभाषित, १२. अजीवकल्प, इस प्रकार वर्तमानकाल में अर्धमागधी आगम साहित्य को १३. गच्छाचार, १४. मरणसमाधि, १५. तित्थोगालिय, १६. आराध- अङ्ग, उपाङ्ग, प्रकीर्णक, छेद, मूल और चूलिकासूत्र के रूप में वर्गीकृत नापताका, १७. द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, १८. ज्योतिष्करण्डक, १९.अङ्गविद्या, किया जाता है, किन्तु यह वर्गीकरण पर्याप्त परवर्ती है। १२वीं शती २०. सिद्धप्राभृत, २१. सारावली और २२. जीवविभक्ति। से पूर्व के ग्रन्थों में इस प्रकार के वर्गीकरण का कहीं उल्लेख नहीं
इसके अतिरिक्त एक ही नाम के अनेक प्रकीर्णक भी उपलब्ध मिलता है। वर्गीकरण की यह शैली सर्वप्रथम हमें आचार्य श्रीचन्द होते हैं, यथा- “आउरपच्चक्खान" के नाम से तीन ग्रन्थ उपलब्ध की 'सुखबोधा समाचारी' (ई०सन् १११२) में आंशिक रूप से उपलब्ध होते हैं। उनमें से एक तो दसवीं शती के आचार्य वीरभद्र की होती है। इसमें आगम-साहित्य के अध्ययन का जो क्रम दिया गया कृति है।
है उससे केवल इतना ही प्रतिफलित होता है कि अङ्ग, उपाङ्ग आदि इनमें से नन्दी और पाक्षिकसूत्र के उत्कालिक सूत्रों के वर्ग में की अवधारणा उस युग में बन चुकी थी। किन्तु वर्तमानकाल में जिस देवेन्द्रस्तव, तंदुलवैचारिक, चन्द्रवेध्यक, गणिविद्या, मरणविभक्ति, प्रकार से वर्गीकरण किया जाता है, वैसा वर्गीकरण उस समय तक आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान ये सात नाम पाये जाते हैं और भी पूर्ण रूप से निर्धारित नहीं हुआ था। उसमें मात्र अङ्ग-उपाङ्ग, प्रकीर्णक कालिकसूत्रों के वर्ग में ऋषिभाषित और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति ये दो नाम इतने ही नाम मिलते हैं। विशेषता यह है कि उसमें नन्दीसूत्र व पाये जाते हैं। इस प्रकार नन्दी एवं पाक्षिकसूत्र में नौ प्रकीर्णकों का अनुयोगद्वारसूत्र को भी प्रकीर्णकों में सम्मिलित किया गया है। उल्लेख मिलता है। ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समाज के कुछ सुखबोधासमाचारी का यह विवरण मुख्य रूप से तो आगम ग्रन्थों के आचार्य जो ८४ आगम मानते हैं, वे प्रकीर्णकों की संख्या १० के अध्ययन-क्रम को ही सूचित करता है। इसमें मुनि-जीवन सम्बन्धी आचार स्थान पर ३० मानते हैं। इसमें पूर्वोक्त २२ नामों के अतिरिक्त निम्न नियमों के प्रतिपादक आगम-ग्रन्थों के अध्ययन को प्राथमिकता दी गयी ८ प्रकीर्णक और माने गये हैं- पिण्डविशुद्धि, पर्यन्त-आराधना, है और सिद्धान्त ग्रन्थों का अध्ययन बौद्धिक परिपक्वता के पश्चात् योनिप्राभृत, अङ्गचूलिया, वङ्गचूलिया, वृद्धचतुःशरण, जम्बूपयन्ना और हो ऐसी व्यवस्था की गई है। कल्पसूत्र।
इसी दृष्टि से एक अन्य विवरण जिनप्रभ ने अपने ग्रन्थ जहाँ तक दिगम्बर परम्परा एवं यापनीय परम्परा का प्रश्न है, वे 'विधिमार्गप्रपा' में दिया है। इसमें वर्तमान में उल्लिखित आगमों के स्पष्टत: इन प्रकीर्णकों को मान्य नहीं करती हैं, फिर भी मूलाचार में नाम तो मिल जाते हैं, किन्तु कौन आगम किस वर्ग का है, यह उल्लेख आतुरप्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान से अनेक गाथाएँ उसके संक्षिप्त नहीं है। मात्र प्रत्येक वर्ग के आगमों के नाम एक साथ आने के कारण प्रत्याख्यान और बृहत्-प्रत्याख्यान नामक अध्यायों में अवतरित की यह विश्वास किया जा सकता है कि उस समय तक चाहे अङ्ग, उपाङ्ग गई हैं। इसी प्रकार भगवतीआराधना में भी मरणविभक्ति, आराधनापताका । आदि का वर्तमान वर्गीकरण पूर्णत: स्थिर न हुआ हो, किन्तु जैसा आदि अनेक प्रकीर्णकों की गाथाएँ अवतरित हैं। ज्ञातव्य है कि इनमें पद्मभूषण पं० दलसुखभाई का कथन है कि कौन ग्रन्थ किसके साथ अङ्ग बाह्यों को प्रकीर्णक कहा गया है।
उल्लिखित होना चाहिए ऐसा एक क्रम बन गया था, क्योंकि उसमें
अङ्ग, उपाङ्ग, छेद, मूल, प्रकीर्णक एवं चूलिकासूत्रों के नाम एक ही २ चूलिकासूत्र
साथ मिलते हैं। विधिमार्गप्रपा में अङ्ग, उपाङ्ग ग्रन्थों का पारस्परिक चूलिकासूत्र के अन्तर्गत नन्दीसूत्र और अनुयोगद्वार- ये दो ग्रन्थ सम्बन्ध भी निश्चित किया गया था। मात्र यही नहीं एक मतान्तर का माने जाते हैं। जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं कि स्थानकवासी उल्लेख करते हुए उसमें यह भी बताया गया है कि कुछ आचार्य परम्परा इन्हें चूलिकासूत्र न कहकर मूलसूत्र में वर्गीकृत करती है। फिर चन्द्रप्रज्ञप्ति एवं सूर्यप्रज्ञप्ति को भगवती का उपाङ्ग मानते हैं। जिनप्रभ भी इतना निश्चित है कि ये दोनों ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परा के सभी सम्प्रदायों ने इस ग्रन्थ में सर्वप्रथम वाचनाविधि के प्रारम्भ में अङ्ग, उपाङ्ग, प्रकीर्णक, को मान्य रहे हैं।
छेद और मूल- इन वर्गों का उल्लेख किया है। उन्होंने विधिमार्गप्रपा ___इस प्रकार हम देखते हैं कि ११ अङ्ग, १२ उपाङ्ग, ४ मूल, को ई० सन् १३०६ में पूर्ण किया था, अत: यह माना जा सकता ६ छेद, १० प्रकीर्णक, २ चूलिकासूत्र-ये ४५ आगम श्वेताम्बर है कि इसके आस-पास ही आगमों का वर्तमान वर्गीकरण प्रचलन में मूर्तिपूजक परम्परा में मान्य हैं। स्थानकवासी व तेरापन्थी इसमें से १० आया होगा। प्रकीर्णक, जीतकल्प, महानिशीथ और पिण्डनियुक्ति- इन १३ ग्रन्थों को कम करके ३२ आगम मान्य करते हैं।
आगमों के वर्गीकरण की प्राचीन शैली .. जो लोग चौरासी आगम मान्य करते हैं वे दस प्रकीर्णकों के अर्धमागधी आगम-साहित्य के वर्गीकरण की प्राचीन शैली इससे
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ भिन्न रही है। इस प्राचीन शैली का सर्वप्रथम निर्देश हमें नन्दीसूत्र एवं ३. कल्प
३. चुल्लकल्पश्रुत पाक्षिकसूत्र (ईस्वी सन् पाँचवीं शती) में मिलता है। उस युग में आगमों ४. व्यवहार
४. महाकल्पश्रुत को अङ्गप्रविष्ट व अङ्गबाह्य- इन दो भागों में विभक्त किया जाता ५. निशीथ
५. निशीथ था। अङ्गप्रविष्ट के अन्तर्गत आचाराङ्ग आदि १२ अङ्ग आते थे। शेष ८. महानिशीथ
६. राजप्रश्नीय ग्रन्थ अङ्गबाह्य कहे जाते थे। उसमें अङ्गबाह्यों की एक संज्ञा प्रकीर्णक ७. ऋषिभाषित
७. जीवाभिगम भी थी। अङ्गप्रज्ञप्ति नामक दिगम्बर ग्रन्थ में भी अङ्गबाह्यों को प्रकीर्णक
८. प्रज्ञापना कहा गया है। अङ्गबाह्य को पुन: दो भागों में बाँटा जाता था- ९. द्वीपसागरप्रज्ञप्ति
९. महाप्रज्ञापना १. आवश्यक और २. आवश्यक-व्यतिरिक्त। आवश्यक के अन्तर्गत १०. चन्द्रप्रज्ञप्ति
१०. प्रमादाप्रमाद सामायिक आदि छः ग्रन्थ थे। ज्ञातव्य है कि वर्तमान वर्गीकरण में ११. क्षुल्लिकाविमानप्रविभक्ति
११. नन्दी आवश्यक को एक ही ग्रन्थ माना जाता है और सामायिक आदि छः १२. महल्लिकाविमानप्रविभक्ति १२. अनुयोगद्वार आवश्यक अङ्गों को उसके एक-एक अध्याय रूप में माना जाता है, १३. अङ्गचूलिका
१३. देवेन्द्रस्तव किन्तु प्राचीनकाल में इन्हें छः स्वतन्त्र ग्रन्थ माना जाता था। इसकी १४. वग्गचूलिका
१४. तन्दुलवैचारिक पुष्टि अङ्गपण्णत्ति आदि दिगम्बर ग्रन्थों से भी हो जाती है। उनमें भी
१५. चन्द्रवेध्यक सामायिक आदि को छ: स्वतन्त्र ग्रन्थ माना गया है। यद्यपि उसमें १६. अरुणोपपात
१६. सूर्यप्रज्ञप्ति कायोत्सर्ग एवं प्रत्याख्यान के स्थान पर वैनयिक एवं कृतिकर्म नाम १७. वरुणोपपात
१७. पौरुषीमण्डल मिलते हैं। आवश्यक-व्यतिरिक्त के भी दो भाग किये जाते थे- १८. गरुडोपपात
१८. मण्डलप्रवेश १. कालिक और २. उत्कालिक। जिनका स्वाध्याय विकाल को छोड़कर १९. धरणोपपात
१९. विद्याचरण विनिश्चय किया जाता था, वे कालिक कहलाते थे, जबकि उत्कालिक ग्रन्थों के २०. वैश्रमणोपपात
२०. गणिविद्या अध्ययन या स्वाध्याय में काल एवं विकाल का विचार नहीं किया २१. वेलन्धरोपपात
२१. ध्यानविभक्ति जाता था। नन्दीसूत्र एवं पाक्षिकसूत्र के अनुसार आगमों के वर्गीकरण २२. देवेन्द्रोपपात
२२. मरणविभक्ति की सूची निम्नानुसार है -
२३. उत्थानश्रुत
२३. आत्मविशोधि २४. समुत्थानश्रुत
२४. वीतरागश्रुत श्रुत (आगम) २५. नागपरिज्ञापनिका
२५. संलेखणाश्रुत २६. निरयावलिका
२६. विहारकल्प (क) अङ्गप्रविष्ट
(ख) अङ्गबाह्य २७. कल्पिका
२७. चरणविधि २८. कल्पावतंसिका
२८. आतुरप्रत्याख्यान १. आचाराङ्ग
२९. पुष्पिता
२९. महाप्रत्याख्यान २. सूत्रकृताङ्ग (क) आवश्यक (ख) आवश्यक व्यतिरिक्त ३०. पुष्पचूलिका ३. स्थानाङ्ग
३१. वृष्णिदशा ४. समवायाङ्ग १. सामायिक ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति २. चतुर्विंशतिस्तव
इस प्रकार नन्दीसूत्र में १२ अङ्ग, ६ आवश्यक, ३१ कालिक ६. ज्ञाताधर्मकथा ३. वन्दना
एवं २९ उत्कालिक सहित ७८ आगमों का उल्लेख मिलता है। ज्ञातव्य ७. उपासकदशाङ्ग ४. प्रतिक्रमण
है कि आज इनमें से अनेक ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं। ८. अन्तकृद्दशाङ्ग ५. कायोत्सर्ग ९. अनुत्तरौपपातिकदशांग६. प्रत्याख्यान
यापनीय और दिगम्बर परम्परा में आगमों का वर्गीकरण १०. प्रश्रव्याकरण
यापनीय और दिगम्बर परम्पराओं में जैन आगम-साहित्य के ११.विपाकसूत्र
वर्गीकरण की जो शैली मान्य रही है, वह भी बहुत कुछ नन्दीसूत्र १२. दृष्टिवाद
की शैली के ही अनुरूप है। उन्होंने उसे उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र
से ग्रहण किया है। उसमें आगमों को अङ्ग और अङ्गबाह्य ऐसे दो (क) कालिक
(ख) उत्कालिक
वर्गों में विभाजित किया गया है। इनमें अङ्गों की बारह संख्या का
स्पष्ट उल्लेख तो मिलता है, किन्तु अङ्गबाह्य की संख्या का स्पष्ट निर्देश १. उत्तराध्ययन
१. दशवैकालिक
नहीं है। मात्र यह कहा गया है अङ्गबाह्य अनेक प्रकार के हैं। किन्तु २. दशाश्रुतस्कन्ध
२. कल्पिकाकल्पिक अपने तत्त्वार्थभाष्य (१/२०) में आचार्य उमास्वाति ने अङ्ग-बाह्य के
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अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श अन्तर्गत सर्वप्रथम सामायिक आदि छः आवश्यकों का उल्लेख किया अङ्ग बाह्यों को आवश्यक और आवश्यक-व्यतिरिक्त, ऐसे दो विभागों
ध्ययन, दशा, कल्प-व्यवहार, निशीथ में बाँटा जाता था। आवश्यक-व्यतिरिक्त में भी कालिक और उत्कालिक और ऋषिभाषित के नाम देकर अन्त में आदि शब्द से अन्य ग्रन्थों ऐसे दो विभाग सर्वमान्य थे। लगभग ग्यारहवीं-बारहवीं शती के बाद का ग्रहण किया है। किन्तु अङ्गबाह्य में स्पष्ट नाम तो उन्होंने केवल से अङ्ग, उपाङ्ग, प्रकीर्णक, छेद, मूल और चूलिकासूत्र-यह वर्तमान बारह ही दिये हैं। इसमें कल्प-व्यवहार का एकीकरण किया गया है। वर्गीकरण अस्तित्व में आया है। ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर एवं दिगम्बर एक अन्य सूचना से यह भी ज्ञात होता है कि तत्त्वार्थभाष्य में उपाङ्ग दोनों परम्पराओं में सभी अङ्गबाह्य आगमों के लिए प्रकीर्णक (पइण्णय) संज्ञा का निर्देश है। हो सकता है कि पहले १२ अङ्गों के समान ही नाम भी प्रचलित रहा है। १२ उपाङ्ग माने जाते हों। तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकार पूज्यपाद, अकलङ्क, विद्यानन्दी आदि दिगम्बर आचार्यों ने अङ्गबाह्य में न केवल उत्तराध्ययन, अर्धमागधी आगम-साहित्य की प्राचीनता एवं रचनाकाल दशवकालिक आदि ग्रन्थों का उल्लेख किया है, अपितु कालिक एवं भारत जैसे विशाल देश में अतिप्राचीनकाल से ही अनेक बोलियों उत्कालिक ऐसे वर्गों का भी नाम निर्देश (१/२०) किया है। हरिवंशपुराण का अस्तित्व रहा है, किन्तु साहित्यिक दृष्टि से भारत में तीन प्राचीन एवं धवलाटीका में आगमों का जो वर्गीकरण उपलब्ध होता है उसमें भाषाएँ प्रचलित रही हैं- संस्कृत, प्राकृत और पालि। इनमें संस्कृत १२ अङ्गों एवं १४ अङ्गबाह्यों का उल्लेख है। उसमें भी अङ्गबाह्यों के दो रूप पाये जाते हैं- छान्दस् और साहित्यिक संस्कृत। वेद में सर्वप्रथम छ: आवश्यकों का उल्लेख है, तत्पश्चात् दशवैकालिक, छान्दस् संस्कृत में है, जो पालि और प्राकृत के निकट है। उपनिषदों उत्तराध्ययन, कल्प-व्यवहार, कप्पाकप्पीय (कल्पिकाकल्पिक), महाकप्पीय की भाषा छान्दस् की अपेक्षा साहित्यिक संस्कृत के अधिक निकट (महाकल्प), पुण्डरीक, महापुण्डरीक व निशीथ का उल्लेख है। इस है। प्राकृत भाषा में निबद्ध जो साहित्य उपलब्ध है, उसमें अर्धमागधी प्रकार धवला में १२ अङ्ग और १४ अङ्गबाह्यों की गणना की गयी। आगम साहित्य प्राचीनतम है। यहाँ तक कि आचाराङ्ग का प्रथम श्रुतस्कन्ध इसमें भी कल्प और व्यवहार को एक ही ग्रन्थ माना गया है। ज्ञातव्य और ऋषिभाषित तो अशोककालीन प्राकृत अभिलेखों से भी प्राचीन है कि तत्त्वार्थभाष्य की अपेक्षा इसमें कप्पाकप्पीय, महाकप्पीय, पुण्डरीक है। ये दोनों ग्रन्थ लगभग ई०पू० पाँचवीं-चौथी शताब्दी की रचनाएँ
और महापुण्डरीक-ये चार नाम अधिक हैं। किन्तु भाष्य में उल्लिखित हैं। आचाराङ्ग की सूत्रात्मक औपनिषदिक शैली उसे उपनिषदों का दशा और ऋषिभाषित को छोड़ दिया गया है। इसमें जो चार नाम निकटवर्ती और स्वयं भगवान् महावीर की वाणी सिद्ध करती है। भाव, अधिक हैं- उनमें कप्पाकप्पीय और महाकप्पीय का उल्लेख भाषा और शैली तीनों के आधार पर यह सम्पूर्ण पालि और प्राकृत नन्दीसूत्र में भी है, मात्र पुण्डरीक और महापुण्डरीक ये दो नाम साहित्य में प्राचीनतम है। आत्मा के स्वरूप एवं अस्तित्व सम्बन्धी विशेष हैं।
इसके विवरण औपनिषदिक विवरणों के अनुरूप हैं। इसमें प्रतिपादित दिगम्बर परम्परा में आचार्य शुभचन्द्र कृत अङ्गप्रज्ञप्ति (अङ्गपण्णत्ति) महावीर का जीवनवृत्त भी अलौकिकता और अतिशयता रहित है। ऐसा नामक एक ग्रन्थ मिलता है। यह ग्रन्थ धवलाटीका के पश्चात् का प्रतीत प्रतीत होता है कि यह विवरण भी उसी व्यक्ति द्वारा कहा गया है, होता है। इसमें धवलाटीका में वर्णित १२ अङ्गप्रविष्ट व १४ अङ्गबाह्य जिसने स्वयं उनकी जीवनचर्या को निकटता से देखा और जाना होगा। ग्रन्थों की विषय-वस्तु का विवरण दिया गया है। इसमें अङ्गबाह्य ग्रन्थों अर्धमागधी आगम साहित्य में ही सूत्रकृताङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के की विषय-वस्तु का विवरण संक्षिप्त ही है। इस ग्रन्थ में और दिगम्बर छठे अध्याय, आचारङ्गचूला और कल्पसूत्र में भी महावीर की जीवनचर्या परम्परा के अन्य ग्रन्थों में अङ्गबाह्यों को प्रकीर्णक भी कहा गया है का उल्लेख है, किन्तु वे भी आचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की अपेक्षा (३.१०)। इसमें कहा गया है कि सामायिक प्रमुख १४ प्रकीर्णक परवर्ती हैं, क्योंकि उनमें क्रमश: अलौकिकता, अतिशयता और अङ्गबाह्य हैं। इसमें दिये गये विषय-वस्तु के विवरण से लगता है अतिरञ्जना का प्रवेश होता गया है। इसी प्रकार ऋषिभाषित की कि यह विवरण मात्र अनुश्रुति के आधार पर लिखा गया है, मूल साम्प्रदायिक अभिनिवेश से रहित उदारदृष्टि तथा भाव और भाषागत ग्रन्थों को लेखक ने नहीं देखा है। इसमें भी पुण्डरीक और महापुण्डरीक अनेक तथ्य उसे आचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध को छोड़कर सम्पूर्ण का उल्लेख है। इन दोनों ग्रन्थों का उल्लेख श्वेताम्बर परम्परा में मुझे प्राकृत एवं पालिसाहित्य में प्राचीनतम सिद्ध करते हैं। पालिसाहित्य कहीं नहीं मिला। यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा के सूत्रकृताङ्ग में एक अध्ययन में प्राचीनतम ग्रन्थ सुत्तनिपात माना जाता है, किन्तु अनेक तथ्यों के का नाम पुण्डरीक अवश्य मिलता है। प्रकीर्णकों में एक सारावली आधार पर यह सिद्ध हो चुका है कि ऋषिभाषित, सुत्तनिपात से भी प्रकीर्णक है। इसमें पुण्डरीक महातीर्थ (शत्रुञ्जय) की महत्ता का विस्तृत प्राचीन है। अर्धमागधी आगमों की प्रथम वाचना स्थूलिभद्र के समय विवरण है। सम्भव है कि पुण्डरीक सारावली प्रकीर्णक का ही यह अर्थात् ईसा पूर्व तीसरी शती में हुई थी, अत: इतना निश्चित् है कि दूसरा नाम हो। फिर भी स्पष्ट प्रमाण के अभाव में इस सम्बन्ध में उस समय तक अर्धमागधी आगम-साहित्य अस्तित्व में आ चुका था। अधिक कुछ कहना उचित नहीं होगा।
इस प्रकार अर्धमागधी आगम-साहित्य के कुछ ग्रन्थों के रचनाकाल इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रथम शती से लेकर दसवीं शती की उत्तर सीमा ई.पू. पाँचवीं-चौथी शताब्दी सिद्ध होती है, जो कि तक आगमों को नन्दीसूत्र की शैली में अङ्ग और अङ्गबाह्य- पुनः इस साहित्य की प्राचीनता को प्रमाणित करती है।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
फिर भी हमें यह स्मरण रखना होगा कि सम्पूर्ण अर्धमागधी आगम साहित्य न तो एक व्यक्ति की रचना है और न एक काल की। यह सत्य है कि इस साहित्य को अन्तिम रूप वीरनिर्वाण सम्बत् १८० में बलभी में सम्पन्न हुई वाचना में प्राप्त हुआ। किन्तु इस आधार पर हमारे कुछ विद्वान् मित्र यह गलत निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि अर्धमागधी आगम साहित्य ईस्वी सन् की पाँचवी शताब्दी की रचना है। यदि अर्धमागधी आगम ईसा की पाँचवी शती की रचना हैं, तो वलभी की इस अन्तिम वाचना के पूर्व भी वलभी, मथुरा, खण्डगिरि और पाटलीपुत्र में जो वाचनायें हुई थीं उनमें सङ्कलित साहित्य कौन सा था? उन्हें यह स्मरण रखना चाहिए कि वलभी में आगमों को सङ्कलित, सुव्यवस्थित और सम्पादित करके लिपिबद्ध (पुस्तकारूढ़ ) किया गया था, अतः यह किसी भी स्थिति में उनका रचनाकाल नहीं माना जा सकता है । सङ्कलन और सम्पादन का अर्थ रचना नहीं है पुनः आगमों में विषय-वस्तु, भाषा और शैली की जो विविधता और भिन्नता परिलक्षित होती है, वह स्पष्टतया इस तथ्य की प्रमाण है कि सङ्कलन और सम्पादन के समय उनकी मौलिकता को यथावत् रखने का प्रयत्न किया गया है, अन्यथा आज उनका प्राचीन स्वरूप समाप्त ही हो जाता और आचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की भाषा और शैली भी परिवर्तित हो जाती तथा उसके उपधानश्रुत नामक नवें अध्ययन में वर्णित महावीर का जीवनवृत्त अलौकिकता एवं अतिशयों से युक्त बन जाता। यद्यपि यह सत्य है कि आगमों की विषय-वस्तु में कुछ प्रक्षिप्त अंश है, किन्तु प्रथम तो ऐसे प्रक्षेष बहुत ही कम हैं और दूसरे उन्हें स्पष्ट रूप से पहचाना भी जा सकता है। अतः इस आधार पर सम्पूर्ण अर्धमागधी आगम - साहित्य को परवर्ती मान लेना सबसे बड़ी भ्रान्ति होगी।
अर्धमागधी आगम साहित्य पर कभी-कभी महाराष्ट्री प्राकृत के प्रभाव को देखकर भी उसकी प्राचीनता पर संदेह किया जाता है। किन्तु प्राचीन हस्तप्रतों के आधार पर पाठों के तुलनात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि अनेक प्राचीन हस्तप्रतों में आज भी उनका 'त' श्रुतिप्रधान अर्धमागधी स्वरूप सुरक्षित है। आचाराङ्ग के प्रकाशित संस्करणों के अध्ययन से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि परवर्तीकाल में उसमें कितने पाठान्तर हो गये हैं। इस साहित्य पर जो महाराष्ट्री प्रभाव आ गया है वह लिपिकारों और टीकाकारों की अपनी भाषा के प्रभाव के कारण है। उदाहरण के रूप में सूत्रकृताङ्ग का 'रामपुते' पाठ चूर्णि में 'रामाउते' और शीलाङ्क की टीका में 'रामगुत्ते' हो गया। अतः अर्धमागधी, आगमों में महाराष्ट्री प्राकृत के प्रभाव को देखकर उनकी प्राचीनता पर सन्देह नहीं करना चाहिये। अपितु उन ग्रन्थों की विभिन्न प्रतों एवं निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीकाओं के आधार पर पाठों के प्राचीन स्वरूपों को सुरक्षित रखने का प्रयत्न करना चाहिये । वस्तुतः अर्धमागधी आगम साहित्य में विभिन्न काल की सामग्री सुरक्षित है। इसकी उत्तर सीमा ई०पू० पाँचवीं चौथी शताब्दी और निम्न सीमा ई० सन् की पाँचवीं शताब्दी है वस्तुतः अर्धमागधी आगम साहित्य के विभिन्न ग्रन्थों का या उनके किसी अंश विशेष का
काल निर्धारित करते समय उनमें उपलब्ध सांस्कृतिक सामग्री, दार्शनिक चिन्तन की स्पष्टता एवं गहनता, भाषा-शैली आदि सभी पक्षों पर प्रामाणिकता के साथ विचार करना चाहिए। इस दृष्टि अध्ययन करने पर ही यह स्पष्ट बोध हो सकेगा कि अर्धमागधी आग साहित्य का कौन सा ग्रन्थ अथवा उसका कौन सा अंश-विशेष किस काल की रचना है।
अर्धमागधी आगमों की विषय-वस्तु सम्बन्धी निर्देश श्वेताम्बर परम्परा में हमें स्थानाङ्ग, समवायाङ्ग, नन्दीसूत्र, नन्दी चूर्णि एवं तत्त्वार्थभाष्य में तथा दिगम्बर परम्परा में तत्त्वार्थ की टीकाओं के साथ-साथ धवला, जयधवला में मिलते है तत्वार्थसूत्र की दिगम्बर परम्परा की टीकाओं और धवलादि में उनकी विषय-वस्तु सम्बन्धी निर्देश मात्र अनुश्रुतिपरक है, वे ग्रन्थों के वास्तविक अध्ययन पर आधारित नहीं हैं उनमें दिया गया विवरण तत्त्वार्थभाष्य एवं परम्परा से प्राप्त सूचनाओं पर आधारित है जबकि श्वेताम्बर परम्परा में स्थानाङ्ग, समवायाङ्ग, नन्दी आदि अर्धमागधी आगमों और उनकी व्याख्याओं एवं टीकाओं में उनकी विषय-वस्तु का जो विवरण है वह उन ग्रन्थों के अवलोकन पर आधारित है क्योंकि प्रथम तो इस परम्परा में आगमों के अध्ययन-अध्यापन की परम्परा आज तक जीवित चली आ रही है दूसरे आगम ग्रन्थों की विषय-वस्तु में कालक्रम से क्या परिवर्तन हुआ है, इसकी सूचना श्वेताम्बर परम्परा के उपर्युक्त आगम ग्रन्थों से ही प्राप्त हो जाती है। इनके अध्ययन से यह भी स्पष्ट हो जाता है। कि किस काल में किस आगम ग्रन्थ में कौन सी सामग्री जुड़ी और अलग हुई है। आचारात में आचारचूला और निशीथ के जुड़ने और पुनः निशीथ के अलग होने की घटना, समवायाङ्ग और स्थानाङ्ग में समय-समय पर हुए प्रक्षेप, ज्ञाताधर्मकथा के द्वितीय वर्ग में जुड़े हुए अध्याय, प्रश्नव्याकरण की विषय-वस्तु में हुआ सम्पूर्ण परिवर्तन, अन्तकृदशा, अनुतरोपपातिक एवं विपाक के अध्ययनों में हुए आंशिक परिवर्तन- इन सबकी प्रामाणिक जानकारी हमें उन विवरणों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन करने से मिल जाती है। इनमें प्रश्नव्याकरण की विषय-वस्तु का परिवर्तन ही ऐसा है, जिसके वर्तमान स्वरूप की सूचना केवल नन्दीचूर्णि (ईस्वी सन् सातवीं शती) में मिलती है। वर्तमान प्रश्नव्याकरण लगभग ईस्वी सन् की पाँचवीं छठीं शताब्दी में अस्तित्व में आया है। इस प्रकार अर्धमागधी आगम साहित्य लगभग एक सहस्र वर्ष की सुदीर्घ अवधि में किस प्रकार निर्मित, परिवर्धित, परिवर्तित एवं सम्पादित होता रहा है इसकी सूचना भी स्वयं अर्धमागधी आगम साहित्य और उसकी टीकाओं से मिल जाती है।
वस्तुतः अर्धमागधी आगम विशेष या उसके अंश विशेष के रचनाकाल का निर्धारण एक जटिल समस्या है, इस सम्बन्ध में विषय वस्तु सम्बन्धी विवरण, विचारों का विकासक्रम, भाषा-शैली आदि अनेक दृष्टियों से निर्णय करना होता है। उदाहरण के रूप में स्थानाङ्ग में सात निहवों और नौ गणों का उल्लेख मिलता है जो कि वीरनिर्वाण सं० ६०९ अथवा उसके बाद अस्तित्व में आये, अतः विषय-वस्तु की दृष्टि से स्थानाङ्ग के रचनाकाल की अन्तिम सीमा
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अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श वीरनिर्वाण सम्वत् ६०९ के पूर्व अर्थात् ईस्वी सन् की प्रथम शताब्दी आगमों का रचनाकाल ई.सन् की पाँचवीं शताब्दी नहीं माना जा सकता। का उत्तरार्ध या द्वितीय शताब्दी का पूर्वार्ध सिद्ध होती है। इसी प्रकार डॉ. हर्मन याकोबी ने यह निश्चित किया है कि आगमों का प्राचीन आचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की विषय-वस्तु एवं भाषा-शैली आचाराङ्ग अंश ई.पू. चौथी शताब्दी के उत्तरार्द्ध से लेकर ई.पू. तीसरी शताब्दी के रचनाकाल को अर्धमागधी आगम-साहित्य में सबसे प्राचीन सिद्ध के पूर्वार्द्ध के बीच का है। न केवल अङ्ग आगम अपितु दशाश्रुतस्कन्ध, करती है। अर्धमागधी आगम के काल-निर्धारण में इन सभी पक्षों पर बृहत्कल्प और व्यवहार भी, जिन्हें आचार्य भद्रबाहु की रचना माना विचार अपेक्षित है।
जाता है याकोबी और शुबिंग के अनुसार ई.पू. चतुर्थ शती के उत्तरार्द्ध इस प्रकार न तो हमारे कुछ दिगम्बर विद्वानों की यह दृष्टि समुचित से ई.पू. तीसरी शती के पूर्वार्द्ध में निर्मित हैं। पं. दलसुखभाई आदि है कि अर्धमागधी आगम देवर्द्धिगणि की वाचना के समय अर्थात् ईसा की मान्यता है कि आगमों का रचनाकाल प्रत्येक ग्रन्थ की भाषा, की पाँचवीं शताब्दी में अस्तित्व में आये और न कुछ श्वेताम्बर आचार्यों छन्दयोजना, विषय-वस्तु और उपलब्ध आन्तरिक और बाह्य साक्ष्यों का यह कहना ही समुचित है कि सभी अङ्ग आगम अपने वर्तमान के आधार पर ही निश्चित किया जा सकता है। आचाराङ्ग का प्रथम स्वरूप में गणधरों की रचना है और उनमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन, श्रुतस्कन्ध अपनी भाषा-शैली, विषय-वस्तु, छन्दयोजना आदि की दृष्टि परिवर्धन, प्रक्षेप या विलोप नहीं हुआ है। किन्तु इतना निश्चित है कि से महावीर की वाणी के सर्वाधिक निकट प्रतीत होता है। उसकी कुछ प्रक्षेपों को छोड़कर अर्धमागधी आगम-साहित्य शौरसेनी आगम औपनिषदिक शैली भी यही बताती है कि वह एक प्राचीन ग्रन्थ है। साहित्य से प्राचीन है। शौरसेनी आगम-साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ उसका काल किसी भी स्थिति में ई.पू. चतुर्थ शती के बाद का नहीं कसायपाहुडसुत्त भी ईस्वी सन् की तीसरी-चौथी शताब्दी से प्राचीन हो सकता। उसके द्वितीय श्रुतस्कन्ध के रूप में जो 'आयारचूला' जोड़ी नहीं है। उसके पश्चात् षट्खण्डागम, मूलाचार, भगवतीआराधाना, गयी है, वह भी ई.पू. दूसरी या प्रथम शती से परवर्ती नहीं है। सूत्रकृताङ्ग तिलोयपण्णत्ति, पिण्डछेदशास्त्र, आवश्यक (प्रतिकमणसूत्र) आदि का भी एक प्राचीन आगम है उसकी भाषा, छन्दयोजना एवं उसमें विभिन्न क्रम आता है, किन्तु पिण्डछेदशास्त्र और आवश्यक (प्रतिक्रमण) के दार्शनिक परम्पराओं तथा ऋषियों के जो उल्लेख मिले हैं उनके आधार
अतिरिक्त इन सभी ग्रन्थों में गुणस्थान सिद्धान्त आदि की उपस्थिति पर यह कहा जा सकता है कि वह भी ई.पू. चौथी-तीसरी शती से से यह फलित होता है कि ये सभी ग्रन्थ पाँचवीं शती के पश्चात् के बाद का नहीं हो सकता, क्योंकि उसके बाद विकसित दार्शनिक हैं। दिगम्बर आवश्यक (प्रतिक्रमण) एवं पिण्डछेदशास्त्र का आधार मान्यताओं का उसमें कही कोई उल्लेख नहीं है। उसमें उपलब्ध वीरस्तुति भी क्रमश: श्वेताम्बर मान्य आवश्यक और कल्प-व्यवहार, निशीथ आदि में भी अतिरञ्जनाओं का प्राय: अभाव ही है। अङ्ग आगमों में तीसरा छेदसूत्र ही रहे हैं। उनके प्रतिक्रमण सूत्र में भी वर्तमान सूत्रकृताङ्ग क्रम स्थानाङ्ग का आता है। स्थानाङ्ग, बौद्ध आगम अङ्गुत्तरनिकाय की के तेईस एवं ज्ञाताधर्मकथा के उन्नीस अध्ययनों का विवरण है तथा शैली का ग्रन्थ है। ग्रन्थ-लेखन की यह शैली भी प्राचीन रही है। स्थानाङ्ग पिण्डछेदशास्त्र में जीतकल्प के आधार पर प्रायश्चित्त देने का निर्देश में नौ गणों और सात निह्नवों के उल्लेख को छोड़कर अन्य ऐसा है। ये यही सिद्ध करते हैं कि प्राकृत आगम-साहित्य में अर्धमागधी कुछ भी नहीं है जिससे उसे परवर्ती कहा जा सके। हो सकता है कि आगम ही प्राचीनतम है चाहे उनकी अन्तिम वाचना पाँचवीं शती के जैनधर्म के इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होने के कारण ये उल्लेख उत्तरार्ध (ई.सन् ४५३) में ही सम्पन्न क्यों न हुई हो?
उसमें अन्तिम वाचना के समय प्रक्षिप्त किये गये हों। उसमें जो दस इस प्रकार जहाँ तक आगमों के रचनाकाल का प्रश्न है उसे ई.पू. दशाओं और उसमें प्रत्येक के अध्यायों के नामों का उल्लेख है, वह पाँचवीं शताब्दी से ईसा की पाँचवीं शताब्दी तक लगभग एक हजार भी उन आगमों की प्राचीन विषय-वस्तु का निर्देश करता है। यदि वर्ष की सुदीर्घ अवधि में व्याप्त माना जा सकता है क्योंकि उपलब्ध वह वलभी के वाचनाकाल में निर्मित हुआ होता तो उसमें दस दशाओं आगमों में सभी एक काल की रचना नहीं हैं। आगमों के सन्दर्भ में की जो विषय-वस्तु वर्णित है वह भिन्न होती। अत: उसकी प्राचीनता और विशेष रूप से अङ्ग आगमों के सम्बन्ध में परम्परागत मान्यता में सन्देह नहीं किया जा सकता। समवायाङ्ग, स्थानाङ्ग की अपेक्षा एक तो यही है कि वे गणधरों द्वारा रचित होने के कारण ई.पू. पाँचवीं परवर्ती ग्रन्थ है। इसके प्रारम्भ में द्वादश अङ्गों का स्पष्ट उल्लेख है। शताब्दी की रचना हैं। किन्तु दूसरी ओर कुछ विद्वान् उन्हें वलभी में साथ ही इसमें उत्तराध्ययन के ३६, ऋषिभाषित के ४४, सूत्रकृताङ्ग सङ्कलित एवं सम्पादित किये जाने के कारण ईसा की पाँचवीं शती के २३, सूत्रकृताङ्ग प्रथम श्रुतस्कन्ध के १६, आचाराङ्ग के चूलिका की रचना मान लेते हैं। मेरी दृष्टि में ये दोनों ही मत समीचीन नहीं सहित २५ अध्ययन, दशा, कल्प, व्यवहार के २६ अध्ययन आदि हैं। देवर्धि के सङ्कलन, सम्पादन एवं ताडपत्रों पर लेखन काल को का उल्लेख होने से इतना तो निश्चित है कि यह ग्रन्थ इसमें निर्दिष्ट उनका रचनाकाल नहीं माना जा सकता। अङ्ग आगम तो प्राचीन ही आगमों के स्वरूप के निर्धारित होने के पश्चात् ही बना होगा। पुन: है। ईसा पूर्व चौथी शती में पाटलीपुत्र की वाचना में जिन द्वादश अङ्गों इसमें चतुर्दश गुणस्थानों का जीवस्थान के रूप में स्पष्ट उल्लेख मिलता की वाचना हुई थी, वे निश्चित रूप से उसके पूर्व ही बने होंगे। यह है। यह निश्चित है कि गुणस्थान का यह सिद्धान्त उमास्वाति के पश्चात् सत्य है कि आगमों में देवर्धि की वाचना के समय अथवा उसके बाद अर्थात् ईसा की चतुर्थ शती के बाद ही अस्तित्व में आया है। यदि भी कुछ प्रक्षेप हुए हों, किन्तु उन प्रक्षेपों के आधार पर सभी अङ्ग इसमें जीवठाण के रूप में चौदह गुणस्थानों के उल्लेख को बाद में
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ प्रक्षिप्त भी मान लिया जाय तो भी अपनी भाषा-शैली और विषय-वस्तु उल्लिखित इसके दस अध्यायों की चर्चा होती रही है। हो सकता है की दृष्टि से इसका वर्तमान स्वरूप ईसा की ३-४ शती से पहले का कि इसकी माथुरी वाचना में ये दस अध्ययन रहे होंगे। नहीं है। हो सकता है उसके कुछ अंश प्राचीन हों, लेकिन आज उन्हें बहुत कुछ यही स्थिति अनुत्तरौपपातिकदशा की है। स्थानाङ्गसूत्र खोज पाना अति कठिन कार्य है। जहाँ तक भगवतीसूत्र का प्रश्न है, की सूचना के अनुसार इसमें निम्न दस अध्ययन कहे गये हैंविद्वानों के अनुसार इससे अनेक स्तर हैं। इसमें कुछ स्तर अवश्य १. ऋषिदास, २. धन्य, ३. सुनक्षत्र, ४. कार्तिक, ५. संस्थान, ही ई.पू. के हैं, किन्तु समवायाङ्ग की भाँति भगवती में भी पर्याप्त ६.शालिभद्र, ७. आनन्द, ८. तेतली, ९. दशार्णभद्र, १०. अतिमुक्ति। प्रक्षेप हुआ है। भगवतीसूत्र में अनेक स्थलों पर जीवाजीवाभिगम, उपलब्ध अनुत्तरौपपातिकदशा में तीन वर्ग हैं, उसमें द्वितीय वर्ग में प्रज्ञापना, अनुयोगद्वार, नन्दी आदि परवर्ती आगमों का निर्देश हुआ ऋषिदास, धन्य और सुनक्षत्र ऐसे तीन अध्ययन मिलते हैं इनमें भी है। इनके उल्लेख होने से यह स्पष्ट है कि इसके सम्पादन के समय धन्य का अध्ययन ही विस्तृत है। सुनक्षत्र और ऋषिदास के विवरण इसमें ये और इसी प्रकार की अन्य सूचनायें दे दी गयी हैं। इससे अत्यन्त संक्षेप में ही हैं। स्थानाङ्ग में उल्लिखित शेष सात अध्याय यह प्रतिफलित होता है कि वल्लभी वाचना में इसमें पर्याप्त रूप से वर्तमान अनुत्तरौपपातिकसूत्र में उपलब्ध नहीं होते। इससे यह प्रतीत परिवर्धन और संशोधन अवश्य हुआ है, फिर भी इसके कुछ शतकों होता है कि यह ग्रन्थ वलभी वाचना के समय ही अपने वर्तमान स्वरूप की प्राचीनता निर्विवाद है। कुछ पाश्चात्य एवं भारतीय विद्वान् इसके में आया होगा। प्राचीन एवं परवर्ती स्तरों के पृथक्करण का कार्य कर रहे हैं। उनके जहाँ तक प्रश्नव्याकरणदशा का प्रश्न है इतना निश्चित है कि वर्तमान निष्कर्ष प्राप्त होने पर ही इसका रचनाकाल निश्चित किया जा प्रश्नव्याकरण की विषय-वस्तु न केवल स्थानाङ्ग में उल्लिखित सकता है।
विषय-वस्तु से भिन्न है, अपितु नन्दी और समवायाङ्ग की उल्लिखित उपासकदशा आगम-साहित्य में श्रावकाचार का वर्णन करने वाला। विषय-वस्तु से भी भिन्न है। प्रश्रव्याकरण की वर्तमान आस्रव और प्रथम ग्रन्थ है। स्थानाङ्गसूत्र में उल्लिखित इसके दस अध्ययनों और संवर द्वार वाली विषय-वस्तु का सर्वप्रथम निर्देश नन्दीचूर्णि में मिलता उनकी विषय-वस्तु में किसी प्रकार के परिवर्तन होने के सङ्केत नहीं है। इससे यह फलित होता है कि वर्तमान प्रश्नव्याकरणसूत्र नन्दी के मिलते हैं। अत: मैं समझता हूँ कि यह ग्रन्थ भी अपने वर्तमान स्वरूप पश्चात् ई.सन् की पाँचवीं-छठी शती के मध्य ही कभी निर्मित हुआ में ई.पू. की ही रचना है और इसके किसी भी अध्ययन का विलोप है। इतना तो निश्चित है कि नन्दी के रचयिता देववाचक के सामने नहीं हुआ है। श्रावकव्रतों को अणुव्रत और शिक्षाव्रत के रूप में वर्गीकृत यह ग्रन्थ अपने वर्तमान स्वरूप में नहीं था। किन्तु ज्ञाताधर्मकथा, करने के सम्बन्ध में तत्त्वार्थसूत्र में स्पष्टत: इसका अनुसरण देखा जाता अन्तकृद्दशा और अनुत्तरौपपातिकदशा में जो परिवर्तन हुए थे, वे है। अत: यह तत्त्वार्थ से अर्थात् ईसा की तीसरी शती से परवर्ती नहीं नन्दीसूत्रकार के पूर्व हो चुके थे, क्योंकि वे उनके इस परिवर्तित स्वरूप हो सकता है। ज्ञातव्य है कि अनुत्तरौपपातिक में उपलब्ध वर्गीकरण का विवरण देते हैं। इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा मैंने अपने एक स्वतन्त्र परवर्ती है, क्योंकि उसमें गुणव्रत की अवधारणा आ गयी है। लेख में की है जो 'जैन आगम-साहित्य', सम्पादक डॉ. के.आर.चन्द्रा, ___अङ्ग आगम साहित्य में अन्तकृद्दशा की विषय-वस्तु का उल्लेख अहमदाबाद, में प्रकाशित है।* हमें स्थानाङ्ग सूत्र में मिलता है। इसमें इसके निम्न दस अध्याय उल्लिखित इसी प्रकार जब हम उपाङ्ग साहित्य की ओर आते हैं तो उसमें हैं- नमि, मातङ्ग, सोमिल, रामपुत्त, सुदर्शन, जमालि, भगालि, रायपसेणियसुत्त में राजा पसेणीय द्वारा आत्मा के अस्तित्व के सम्बन्ध किंकिम, पल्लतेतिय, फाल अम्बडपुत्र। इनमें से सुदर्शन सम्बन्धी कुछ में जो प्रश्न उठाये गये हैं उनका विवरण हमें पालित्रिपिटक में भी उपलब्ध अंश को छोड़कर वर्तमान अन्तकृद्दशासूत्र में ये कोई भी अध्ययन नहीं होता है। इससे यह फलित होता है कि औपपातिक का यह अंश मिलते हैं। किन्तु समवायाङ्ग और नन्दीसूत्र में क्रमश: इसके सात और कम से कम पालित्रिपिटक जितना प्राचीन तो है ही। जीवाजीवाभिगम आठ वर्गों के उल्लेख मिलते हैं। इससे यह प्रतिफलित होता है कि के रचनाकाल को निश्चित रूप से बता पाना तो कठिन है, किन्तु इसकी स्थानाङ्ग में उल्लिखित अन्तकृद्दशा का प्राचीन अंश विलुप्त हो गया विषय-वस्तु के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि वह ग्रन्थ ई.पू. है। यद्यपि समवायाङ्ग और नन्दी में क्रमश: इसके सात एवं आठ वर्गों की रचना होनी चाहिये। उपाङ्ग साहित्य में प्रज्ञापनासूत्र को तो स्पष्टत: का उल्लेख होने से इतना तय है कि वर्तमान अन्तकृद्दशा समवायाङ्ग । आर्य श्याम की रचना माना जाता है। आर्य श्याम का आचार्यकाल
और नन्दी की रचना के समय अस्तित्व में आ गया था। अत: इसका वी.नि.सं. ३३५-३७६ के मध्य माना जाता है। अत: इसका रचनाकाल वर्तमान स्वरूप ईसा की चौथी-पाँचवीं शती का है। उसके प्राचीन दस ई.पू. द्वितीय शताब्दी के लगभग निश्चित होता है। अध्यायों के जो उल्लेख हमें स्थानाङ्ग में मिलते हैं, उन्हीं दस अध्ययनों इसी प्रकार उपाङ्ग वर्ग के अन्तर्गत वर्णित चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति के उल्लेख दिगम्बर एवं यापनीय परम्परा के ग्रन्थों में यथा अकलङ्क और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति- ये तीन प्रज्ञप्तियाँ भी प्राचीन ही हैं। वर्तमान के राजवार्तिक, धवला, अङ्गप्रज्ञप्ति आदि में भी मिलते हैं। इससे यह में चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति में कोई भेद नहीं दिखाई देता है। किन्तु फलित होता है कि इस अङ्ग आगम के प्राचीन स्वरूप के विलुप्त सूर्यप्रज्ञपित में ज्योतिष सम्बन्धी जो चर्चा है वह वेदाङ्ग ज्योतिष के हो जाने के पश्चात् भी माथुरी वाचना की अनश्रति से स्थानाङ्ग में :
१. इस ग्रन्थ में भी यह लेख प्रकाशित है।
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अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श समान है, इससे इसकी प्राचीनता स्पष्ट हो जाती है। यह ग्रन्थ किसी भी संघ-भेद या सम्प्रदाय-भेद के पूर्व की रचना हैं। अत: इनकी प्राचीनता भी स्थिति में ई.पू. प्रथम शती से परवर्ती नहीं है। इन तीनों प्रज्ञप्तियों में कोई सन्देह नहीं किया जा सकता। 'आवश्यक' श्रमणों की दैनन्दिन को दिगम्बर परम्परा में भी दृष्टिवाद के एक अंश- परिकर्म के अन्तर्गत क्रियाओं का ग्रन्थ था अत: इसके कुछ प्राचीन पाठ तो भगवान् महावीर माना जाता है। अत: यह ग्रन्थ भी दृष्टिवाद के पूर्ण विच्छेद एवं सम्प्रदाय- के समकालिक ही माने जा सकते हैं। चूँकि दशवैकालिक, उत्तराध्ययन भेद के पूर्व का ही होना चाहिये।
और आवश्यक के सामायिक आदि विभाग दिगम्बर और यापनीय परम्परा छेदसूत्रों में दशाश्रुत, बृहत्कल्प और व्यवहार को स्पष्टतः भद्रबाहु में भी मान्य रहे हैं, अत: इनकी प्राचीनता असंदिग्ध है। प्रथम की रचना माना गया है। अत: इसका काल ई.पू. चतुर्थ-तृतीय प्रकीर्णक साहित्य में नौ प्रकीर्णकों का उल्लेख नन्दीसूत्र में है। शताब्दी के बाद का भी नहीं हो सकता है। ये सभी ग्रन्थ अचेल परम्परा अत: ये सभी नन्दीसूत्र से तो प्राचीन हैं ही, इसमें सन्देह नहीं किया में भी मान्य रहे हैं। इसी प्रकार निशीथ भी अपने मूल रूप में तो जा सकता। पुन: आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, मरणसमाधि आदि आचाराङ्ग की ही एक चूला रहा है, बाद में उसे पृथक् किया गया प्रकीर्णकों की सैंकड़ों गाथाएँ यापनीय ग्रन्थ मूलाचार और भगवतीआराधना है। अत: इसकी प्राचीनता में भी सन्देह नहीं किया जा सकता। याकोबी, में पायी जाती हैं, मूलाचार एवं भगवतीआराधना भी छठी शती से शुबिंग आदि पाश्चात्य विद्वानों ने एकमत से छेदसूत्रों की प्राचीनता परवर्ती नहीं हैं। अत: इन नौ प्रकीर्णकों को तो ई.सन की चौथी-पाँचवीं स्वीकार की है। इस वर्ग में मात्र जीतकल्प ही ऐसा ग्रन्थ है जो निश्चित शती के परवर्ती नहीं माना जा सकता। यद्यपि वीरभद्र द्वारा रचित कुछ ही परवर्ती है। पं०दलसुखभाई मालवणिया के अनुसार यह आचार्य प्रकीर्णक नवीं-दसवीं शती की रचनाएँ हैं। इसी प्रकार चलिकास्त्रों जिनभद्र की कृति है। ये जिनभद्र विशेषावश्यकभाष्य के कर्ता हैं। इनका के अन्तर्गत नन्दी और अनुयोगद्वार सूत्रों में भी अनुयोगद्वार को कुछ काल अनेक प्रमाणों से ई.सन् की सातवीं शती निश्चित है। अतः विद्वानों ने आर्यरक्षित के समय का माना है। अत: वह ई.सन् की जीतकल्प का भी काल वही होना चाहिये। मेरी दृष्टि में पं. दलसुखभाई __प्रथम शती का ग्रन्थ होना चाहिए। नन्दीसूत्र के कर्ता देववाचक देवर्धि की यह मान्यता निरापद नहीं है, क्योंकि दिगम्बर परम्परा में इन्द्रनन्दि से पूर्ववर्ती हैं अत: उनका काल भी पाँचवीं शताब्दी से परवर्ती नहीं के छेदपिण्डशास्त्र में जीतकल्प के अनुसार प्रायश्चित्त देने का विधान हो सकता। किया गया है, इससे फलित होता है कि यह ग्रन्थ स्पष्ट रूप से इस प्रकार हम देखते हैं कि उपलब्ध आगमों में प्रक्षेपों को छोड़कर सम्प्रदाय-भेद से पूर्व की रचना होनी चाहिये। हो सकता है इसके कर्ता अधिकांश ग्रन्थ तो ई.पू. के हैं। यह तो एक सामान्य चर्चा हुई, अभी जिनभद्र विशेषावश्यक के कर्ता जिनभद्र से भिन्न हों और उनके पूर्ववर्ती इन ग्रन्थों में से प्रत्येक के काल-निर्धारण के लिए स्वतन्त्र और सम्प्रदाय भी हों। किन्तु इतना निश्चित है कि नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में जो निरपेक्ष दृष्टि से अध्ययन की आवश्यकता बनी हुई है। आशा है जैन आगमों की सूची मिलती है उसमें जीतकल्प का नाम नहीं है। अतः विद्वानों की भावी पीढ़ी इस दिशा में कार्य करेगी। यह उसके बाद की ही रचना होगी। इसका काल भी ई.सन् की पाँचवीं शती का उत्तरार्द्ध होना चाहिये। इसकी दिगम्बर और यापनीय परम्परा आगमों की वाचनाएँ में मान्यता तभी सम्भव हो सकती है जब यह स्पष्ट रूप से संघभेद यह सत्य है कि वर्तमान में उपलब्ध श्वेताम्बर मान्य अर्धमागधी के पूर्व निर्मित हुआ हो। स्पष्ट संघ-भेद पाँचवीं शती के उत्तरार्ध में आगमों के अन्तिम स्वरूप का निर्धारण वलभी वाचना में वी.न.संवत् अस्तित्व में आया है। छेद वर्ग में महानिशीथ का उद्धार आचार्य हरिभद्र ९८० या ९९३ में हुआ किन्तु उसके पूर्व भी आगमों की वाचनाएँ ने किया था, यह सुनिश्चित है। आचार्य हरिभद्र का काल ई.सन् की तो होती रही हैं। जो ऐतिहासिक साक्ष्य हमें उपलब्ध हैं उनके अनुसार आठवीं शती माना जाता है। अत: यह ग्रन्थ उसके पूर्व ही निर्मित अर्धमागधी आगमों की पाँच वाचनाएँ होने के उल्लेख प्राप्त होते हैं। हुआ होगा। हरिभद्र इसके उद्धारक अवश्य हैं, किन्तु रचयिता नहीं। मात्र इतना माना जा सकता है कि उन्होंने इसके त्रुटित भाग की रचना प्रथम वाचना की हो। इस प्रकार इसका काल भी आठवीं शती से पूर्व का ही है। प्रथम वाचना महावीर के निर्वाण के १६० वर्ष पश्चात् हुई।
मूलसूत्रों के वर्ग में दशवकालिक को आर्य शय्यंभव की कृति परम्परागत मान्यता तो यह है कि मध्यदेश में द्वादशवर्षीय भीषण अकाल माना जाता है। इनका काल महावीर के निर्वाण के ७५ वर्ष बाद का के कारण कुछ मुनि काल-कवलित हो गये और कुछ समुद्र के तटवर्ती है। अत: यह ग्रन्थ ई.पू. पाँचवीं-चौथी शताब्दी की रचना है। उत्तराध्ययन प्रदेशों की ओर चले गये। अकाल की समाप्ति पर वे मुनिगण वापस यद्यपि एक सङ्कलन है, किन्तु इसकी प्राचीनता में कोई शंका नहीं लौटे तो उन्होंने यह पाया कि उनका आगम-ज्ञान अंशत: विस्मृत एवं है। इसकी भाषा-शैली तथा विषय-वस्तु के आधार पर विद्वानों ने इसे विशृङ्खलित हो गया है और कहीं-कहीं पाठभेद हो गया है। अत: उस ई.पू. चौथी-तीसरी शती का ग्रन्थ माना है। मेरी दृष्टि में यह पूर्व युग के प्रमुख आचार्यों ने पाटलीपुत्र में एकत्रित होकर आगमज्ञान को प्रश्नव्याकरण का ही एक विभाग था। इसकी अनेक गाथाएँ तथा कथानक व्यवस्थित करने का प्रयत्न किया। दृष्टिवाद और पूर्व साहित्य का कोई पालित्रिपिटक साहित्य, महाभारत आदि में यथावत् मिलते हैं। दशवैकालिक विशिष्ट ज्ञाता वहाँ उपस्थित नहीं था। अत: ग्यारह अङ्ग तो व्यवस्थित और उत्तराध्ययन यापनीय और दिगम्बर परम्परा में मान्य रहे हैं, अत: ये किये गये, किन्तु दृष्टिवाद और उसमें अन्तर्निहित साहित्य को व्यवस्थित
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नहीं किया जा सका, क्योंकि उसके विशिष्ट ज्ञाता भद्रबाहु उस समय नेपाल में थे। संघ की विशेष प्रार्थना पर उन्होंने स्थूलभद्र आदि कुछ मुनियों को पूर्व साहित्य की वाचना देना स्वीकार किया। स्थूलभद्र भी उनसे दस तक का ही अध्ययन अर्थ सहित कर सके और शेष चार पूर्वो का मात्र शाब्दिक ज्ञान ही प्राप्त कर पाये।
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
इस प्रकार पाटलीपुत्र की वाचना में द्वादश अङ्गों को सुव्यवस्थित करने का प्रयत्न अवश्य किया गया, किन्तु उनमें एकादश अङ्ग ही सुव्यवस्थित किये जा सके। दृष्टिवाद और उसमें अन्तर्भुक्त पूर्व साहित्य को पूर्णतः सुरक्षित नहीं किया जा सका और उसका क्रमशः विलोप होना प्रारम्भ हो गया। फलतः उसकी विषय-वस्तु को लेकर अङ्गबाह्य ग्रन्थ निर्मित किये जाने लगे।
द्वितीय वाचना
आगमों की द्वितीय वाचना ई.पू. द्वितीय शताब्दी में महावीर के निर्वाण के लगभग ३०० वर्ष पश्चात् उड़ीसा के कुमारी पर्वत पर सम्राट् खारवेल के काल में हुई थी। इस वाचना के सन्दर्भ में विशेष जानकारी प्राप्त नहीं होती है— मात्र यही ज्ञात होता है कि इसमें श्रुत के संरक्षण का प्रयत्न हुआ था। वस्तुतः उस युग में आगमों के अध्ययन-अध्यापन की परम्परा गुरु-शिष्य के माध्यम से मौखिक रूप में ही चलती थी। अतः देशकालगत प्रभावों तथा विस्मृति दोष के कारण उसमें स्वाभाविक रूप से भिन्नता आ जाती थी। अतः वाचनाओं के माध्यम से उनके भाषायी स्वरूप तथा पाठभेद को सुव्यवस्थित किया जाता था। कालक्रम में जो स्थविरों के द्वारा नवीन ग्रन्थों की रचना होती थी, उस पर भी विचार करके उन्हें इन्हीं वाचनाओं में मान्यता प्रदान की जाती थी। इसी प्रकार परिस्थितिवश आचार-नियमों में एवं उनके आगमिक सन्दर्भों की व्याख्या में जो अन्तर आ जाता था, उसका निराकरण भी इन्हीं वाचनाओं में किया जाता था। खण्डगिरि पर हुई इस द्वितीय वाचना में ऐसे किन विवादों का समाधान खोजा गया था— इसकी प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है।
तृतीय वाचना
आगमों की तृतीय वाचना वी. नि. संवत् ८२७ अर्थात् ई.सन् की तीसरी शताब्दी में मथुरा में आर्य स्कंदिल के नेतृत्व में हुई इसलिए इसे माथुरी वाचना या स्कन्दिली वाचना के नाम से भी जाना जाता है। माथुरी याचना के सन्दर्भ में दो प्रकार की मान्यताएँ नन्दी चूर्णि में हैं। प्रथम मान्यता के अनुसार सुकाल होने के पश्चात् आर्य स्कन्दिल की अध्यक्षता में शेष रहे मुनियों की स्मृति के आधार पर कालिकसूत्रों को सुव्यवस्थित किया गया है। अन्य कुछ का मन्तव्य यह है कि इस काल में सूत्र नष्ट नहीं हुआ था किन्तु अनुयोगधर स्वर्गवासी हो गये थे । अतः एक मात्र जीवित स्कन्दिल ने अनुयोगों का पुनः प्रवर्तन किया।
चतुर्थ वाचना
चतुर्थ वाचना तृतीय वाचना के समकालीन ही है। जिस समय
उत्तर, पूर्व और मध्य क्षेत्र में विचरण करने वाला मुनि संघ मथुरा में एकत्रित हुआ, उसी समय दक्षिण-पश्चिम में विचरण करने वाला मुनि संघ वल्लभी (सौराष्ट्र) में आर्य नागार्जुन के नेतृत्व में एकत्रित हुआ। इसे नागार्जुनीय वाचना भी कहते हैं।
आर्य स्कन्दिल की माथुरी वाचना और आर्य नागार्जुन की वल्लभी वाचना समकालिक हैं। नन्दीसूत्र स्थविरावली में आर्य स्कन्दिल और नागार्जुन के मध्य आर्य हिमवन्त का उल्लेख है। इससे यह फलित होता है कि आर्य स्कन्दिल और नागार्जुन समकालिक ही रहे होंगे। नन्दी स्थविरावली में आर्य स्कन्दिल के सन्दर्भ में यह कहा गया है कि उनका अनुयोग आज भी दक्षिणार्द्ध भरत क्षेत्र में प्रचलित है। इसका एक तात्पर्य यह भी हो सकता है कि उनके द्वारा सम्पादित आगम दक्षिण भारत में प्रचलित थे। ऐतिहासिक साक्ष्यों से यह ज्ञात होता है कि उत्तर भारत के निर्मन्थ संघ के विभाजन के फलस्वरूप जिस यापनीय सम्प्रदाय का विकास हुआ था उसमें आर्य स्कन्दिल के द्वारा सम्पादित आगम ही मान्य किये जाते थे और इस यापनीय सम्प्रदाय का प्रभाव क्षेत्र मध्य और दक्षिण भारत था। आचार्य पाल्यकीर्ति शाकटायन ने तो स्त्री निर्वाण प्रकरण में स्पष्ट रूप से मथुरागम का उल्लेख किया है। अतः यह स्पष्ट है कि यापनीय सम्प्रदाय जिन आगमों को मान्य करता था, वे माथुरी वाचना के आगम थे। मूलाचार, भगवतीआराधना आदि यापनीय आगमों में वर्तमान में श्वेताम्बर मान्य आचाराङ्ग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, कल्प, व्यवहार, संग्रहणीसूत्रों, नियुक्तियों आदि की सैकड़ों गाथाएँ आज भी उपलब्ध हो रही हैं। इससे यही फलित होता है कि यापनीयों के पास माथुरी वाचना के आगम थे। हम यह भी पाते हैं कि यापनीय ग्रन्थों में जो आगमों की गाथाएँ मिलती हैं वे न तो अर्धमागधी में हैं, न महाराष्ट्री प्राकृत में, अपितु वे शौरसेनी में हैं। मात्र यही नहीं अपराजित की भगवती आराधना की टीका में आचाराङ्ग, उत्तराध्ययन, कल्पसूत्र, निशीथ आदि से जो अनेक अवतरण दिबे हैं वे सभी अर्धमागधी में न होकर शौरसेनी में है।
इससे यह फलित होता है कि स्कंदिल की अध्यक्षता वाली माथुरी वाचना में आगमों की अर्धमागधी भाषा पर शौरसेनी का प्रभाव आ गया था। दूसरे माथुरी वाचना के आगमों के जो भी पाठ भगवती आराधना की टीका आदि में उपलब्ध होते हैं, उनमें बल्लभी वाचना के वर्तमान आगमों से पाठभेद भी देखा जाता है। साथ ही अचेलकत्व की समर्थक कुछ गाथाएँ और गद्यांश भी पाये जाते हैं कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में अनुयोगद्वारसूत्र, प्रकीर्णकों, नियुक्ति आदि की कुछ गाथाएँ क्वचित् पाठभेद के साथ मिलती हैं— सम्भवतः उन्होंने ये गाथाएँ यापनीयों के माथुरी वाचना के आगमों से हो ली होगी।
एक ही समय में आर्य स्कन्दिल द्वारा मथुरा में और नागार्जुन द्वारा वल्लभी में वाचना किये जाने की एक सम्भावना यह भी हो सकती है कि दोनों में किन्हीं बातों को लेकर मतभेद थे। सम्भव है कि इन मतभेदों में वस्त्र पात्र आदि सम्बन्धी प्रश्न भी रहे हो। पं. कैलाशचन्द्रजी ने जैन साहित्य का इतिहास - पूर्व पीठिका ( पृ० ५०० ) में माथुरी वाचना की समकालीन वल्लभी वाचना के प्रमुख रूप में देवर्धिगणि
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अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श
१३ का उल्लेख किया है, यह उनकी भ्रान्ति है। वास्तविकता तो यह है की वाचना के समय द्वादश अङ्गों को ही व्यवस्थित करने का प्रयत्न कि माथुरी वाचना का नेतृत्व आर्य स्कन्दिल और वल्लभी की हुआ था। उसमें एकादश अङ्ग सुव्यवस्थित हुए और बारहवें दृष्टिवाद, प्रथम वाचना का नेतृत्व आर्य नागार्जुन कर रहे थे और ये दोनों जिसमें अन्य दर्शन एवं महावीर के पूर्व पार्श्वनाथ की परम्परा का साहित्य समकालिक थे, यह बात हम नन्दीसूत्र के प्रमाण से पूर्व में ही कह समाहित था, इसका सङ्कलन नहीं किया जा सका। इसी सन्दर्भ में चुके हैं। यह स्पष्ट है कि आर्य स्कन्दिल और नागार्जुन की वाचना स्थूलिभद्र के द्वारा भद्रबाहु के सानिध्य में नेपाल जाकर चतुर्दश पूर्वो में मतभेद था।
के अध्ययन की बात कही जाती है। किन्तु स्थूलिभद्र भी मात्र दस पं०कैलाशचन्द्रजी ने यह प्रश्न उठाया है कि यदि वल्लभी वाचना पूर्वो का ही ज्ञान अर्थ सहित ग्रहण कर सके, शेष चार पूर्वो का केवल नागार्जुन की थी तो देवर्धि ने वल्लभी में क्या किया? साथ ही उन्होंने शाब्दिक ज्ञान ही प्राप्त कर सके। इसका फलितार्थ यही है कि पाटलीपुत्र यह भी कल्पना कर ली कि वादिवेतालशान्तिसूरि वल्लभी की वाचना की वाचना में एकादश अङ्गों का ही सङ्कलन और सम्पादन हुआ था। में नागार्जुनीयों का पक्ष उपस्थित करने वाले आचार्य थे। हमारा यह किसी भी चतुर्दश पूर्वविद् की उपस्थिति नहीं होने से दृष्टिवाद के दुर्भाग्य है कि दिगम्बर विद्वानों ने श्वेताम्बर साहित्य का समग्र एवं सङ्कलन एवं सम्पादन का कार्य नहीं किया जा सका। निष्पक्ष अध्ययन किये बिना मात्र यत्र-तत्र उद्धृत या अंशत: पठित उपाङ्ग साहित्य के अनेक ग्रन्थ जैसे प्रज्ञापना आदि, छेदसूत्रों अंशों के आधार पर अनेक भ्रान्तियाँ खड़ी कर दी। इसके प्रमाण के में आचारदशा, कल्प, व्यवहार आदि तथा चूलिकासूत्रों में नन्दी, रूप में उनके द्वारा उद्धृत मूल गाथा में ऐसा कहीं कोई उल्लेख ही अनुयोगद्वार आदि- ये सभी परवर्ती कृति होने से इस वाचना में नहीं है कि शान्तिसूरि वल्लभी वाचना के समकालिक थे। यदि हम सम्मिलित नहीं किये गये होंगे। यद्यपि आवश्यक, दशवैकालिक, आगमिक व्याख्याओं को देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि अनेक वर्षों उत्तराध्ययन आदि ग्रन्थ पाटलीपुत्र की वाचना के पूर्व के हैं, किन्तु तक नागार्जुनीय और देवर्धि की वाचनाएँ साथ-साथ चलती रही हैं, इस वाचना में इनका क्या किया गया, यह जानकारी प्राप्त नहीं है। क्योकि इनके पाठान्तरों का उल्लेख मूल ग्रन्थों में कम और टीकाओं हो सकता है कि सभी साधु-साध्वियों के लिये इनका स्वाध्याय आवश्यक में अधिक हुआ है।
होने के कारण इनके विस्मृत होने का प्रश्न ही न उठा हो।
पाटलीपुत्र वाचना के बाद दूसरी वाचना उड़ीसा के कुमारी पर्वत पञ्चम वाचना
(खण्डगिरि) पर खारवेल के राज्य काल में हई थी। इस वाचना के वी.नि. के ९८० वर्ष पश्चात् ई. सन् की पाँचवीं शती के उत्तरार्द्ध सम्बन्ध में मात्र इतना ही ज्ञात है कि इसमें भी श्रुत को सुव्यवस्थित में आर्य स्कन्दिल की माथुरी वाचना और आर्य नागार्जुन की वल्लभी करने का प्रयत्न किया गया था। सम्भव है कि इस वाचना में ई.पू. वाचना के लगभग १५० वर्ष पश्चात् देवर्धिगणिक्षमाश्रमण की अध्यक्षता प्रथम शती से पूर्व रचित ग्रन्थों के सङ्कलन और सम्पादन का कोई में पुन: वल्लभी में एक वाचना हुई। इस वाचना में मुख्यत: आगमों प्रयत्न किया गया हो। को पुस्तकारुढ़ करने का कार्य किया गया। ऐसा लगता है कि इस जहाँ तक माथुरी वाचना का प्रश्न है, इतना तो निश्चित है कि वाचना में माथुरी और नागार्जुनीय दोनों वाचनाओं को समन्वित किया उसमें ई.सन् की चौथी शती तक के रचित सभी ग्रन्थों के सङ्कलन गया है और जहाँ मतभेद परिलक्षित हुआ वहाँ “नागार्जुनीयास्तु पठन्ति' एवं सम्पादन का प्रयत्न किया गया होगा। इस वाचना के कार्य के ऐसा लिखकर नागार्जुनीय पाठ को भी सम्मिलित किया गया है। सन्दर्भ में जो सूचना मिलती है, उसमें इस वाचना में कालिकसूत्रों
प्रत्येक वाचना के सन्दर्भ में प्राय: यह कहा जाता है कि मध्यदेश को व्यवस्थित करने का निर्देश है। नन्दिसूत्र में कालिकसूत्र को अङ्गबाह्य, में द्वादशवर्षीय दुष्काल के कारण श्रमणसंघ समुद्रतटीय प्रदेशों की आवश्यक व्यतिरिक्त सूत्रों का ही एक भाग बताया गया है। कालिकसूत्रों
ओर चला गया और वृद्ध मुनि, जो इस अकाल में लम्बी यात्रा न के अन्तर्गत उत्तराध्ययन, ऋषिभाषित, दशाश्रुत, कल्प, व्यवहार, कर सके कालगत हो गये। सुकाल होने पर जब मुनिसंघ लौटकर निशीथ तथा वर्तमान में उपाङ्ग के नाम से अभिहित अनेक ग्रन्थ आते आया तो उसने यह पाया कि इनके श्रुतज्ञान में विस्मृति और विसंगति हैं। हो सकता है कि अङ्ग सूत्रों की जो पाटलीपुत्र की वाचना चली आ गयी है। प्रत्येक वाचना से पूर्व अकाल की यह कहानी मुझे बुद्धिगम्य । आ रही थी वह मथुरा में मान्य रही हो, किन्तु उपाङ्गों में से कुछ नहीं लगती है। मेरी दृष्टि में प्रथम वाचना में श्रमण संघ के विशृङ्खलित को तथा कल्प आदि छेदसूत्रों को सुव्यवस्थित किया गया हो। किन्तु होने का कारण अकाल की अपेक्षा मगध राज्य में युद्ध से उत्पन्न अशांति यापनीय ग्रन्थों की टीकाओं में जो माथुरी वाचना के आगमों के उद्धरण
और अराजकता ही थी क्योंकि उस समय नन्दों के अत्याचारों एवं मिलते हैं, उन पर जो शौरसेनी का प्रभाव दिखता है, उससे ऐसा चन्द्रगुप्त मौर्य के आक्रमण के कारण मगध में अशांति थी। उसी के लगता है कि माथुरी वाचना में न केवल कालिक सूत्रों का अपितु फलस्वरूप श्रमण संघ सुदूर समुद्रीतट की ओर या नेपाल आदि पर्वतीय उस काल तक रचित सभी ग्रन्थों के सङ्कलन का काम किया गया क्षेत्र की ओर चला गया था। भद्रबाहु की नेपाल यात्रा का भी सम्भवत: था। ज्ञातव्य है कि यह माथुरी वाचना अचेलता की पोषक यापनीय यही कारण रहा होगा।
परम्परा में भी मान्य रही है। यापनीय ग्रन्थों की व्याख्याओं एवं टीकाओं __ जो भी उपलब्ध साक्ष्य हैं उनसे यह फलित होता है कि पाटलिपुत्र में इस वाचना के आगमों के अवतरण तथा इन आगमों के प्रामाण्य
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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
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के उल्लेख मिलते हैं। आर्य शाकटायन ने अपनी स्त्री निर्वाण प्रकरण एवं अपने व्याकरण की स्वोपज्ञटीका में न केवल मथुरा आगम का उल्लेख किया है, अपितु उनकी अनेक मान्यताओं का निर्देश भी किया है तथा अनेक अवतरण भी दिये हैं। इसी प्रकार भगवती आराधना पर अपराजित की टीका में भी आचाराङ्ग, उत्तराध्ययन, निशीथ के अवतरण भी पाये जाते हैं, यह हम पूर्व में कह चुके हैं।
आर्य स्कंदिल की माथुरी वाचना वस्तुतः उत्तर भारत के निर्धन्य संघ के सचेल अचेल दोनों पक्षों के लिये मान्य थी और उसमें दोनों ही पक्षों के सम्पोषक साक्ष्य उपस्थित थे। यहाँ यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि यदि माथुरी वाचना उभय पक्षों को मान्य थी तो फिर उसी समय नागार्जुन की अध्यक्षता में वल्लभी में वाचना करने की क्या आवश्यकता थी मेरी मान्यता है कि अनेक प्रश्नों पर स्कंदिल और नागार्जुन में मतभेद रहा होगा। इसी कारण से नागार्जुन को स्वतन्त्र वाचना करने की आवश्यकता पड़ी।
इस समस्त चर्चा से पं. कैलाशचन्द्रजी के इस प्रश्न का उत्तर भी मिल जाता है कि वल्लभी की दूसरी वाचना में क्या किया गया ? एक ओर मुनि श्री कल्याणविजयजी की मान्यता यह है कि वल्लभी में आगमों को मात्र पुस्तकारुढ़ किया गया तो दूसरी ओर पं. कैलाशचन्द्रजी यह मानते हैं कि वल्लभी में आगमों को नये सिरे से लिखा गया, किन्तु ये दोनों ही मत मुझे एकाङ्गी प्रतीत होते हैं। यह सत्य है कि वल्लभी में न केवल आगमों को पुस्तकारूढ़ किया गया, अपितु उन्हें सङ्कलित एवं सम्पादित भी किया गया किन्तु यह सङ्कलन एवं सम्पादन निराधार नहीं था। न तो दिगम्बर परम्परा का यह कहना उचित है कि वल्लभी में श्वेताम्बरों ने अपनी मान्यता के अनुरूप आगमों को नये सिरे से रच डाला और न यह कहना ही समुचित होगा कि वल्लभी में जो आगम सङ्कलित किये गये वे अक्षुण्ण रूप से वैसे ही थे जैसे— पाटलीपुत्र आदि की पूर्व वाचनाओं में उन्हें सङ्कलित किया गया था। यह सत्य है कि आगमों की विषय-वस्तु के साथ-साथ अनेक आगम ग्रन्थ भी कालक्रम में विलुप्त हुए हैं। वर्तमान आगमों का यदि सम्यक् प्रकार से विश्लेषण किया जाय तो इस तथ्य की पुष्टि हो जाती है। आज आचाराङ्गका सातवाँ अध्ययन विलुप्त है। इसी प्रकार अन्तकृद्दशा, अनुतरौपपातिक व विपाकदशा के भी अनेक अध्याय आज अनुपलब्ध हैं। नन्दीसूत्र की सूची के अनेक आगम ग्रन्थ आज अनुपलब्ध हैं। इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा हमने आगमों के विच्छेद की चर्चा के प्रसङ्ग में की है। ज्ञातव्य है कि देवर्धि की वल्लभी वाचना में न केवल आगमों को पुस्तकारुढ़ किया गया है, अपितु उन्हें सम्पादित भी किया गया है। इस सम्पादन के कार्य में उन्होंने आगमों की अवशिष्ट उपलब्ध विषय-वस्तु को अपने ढङ्ग से पुनः वर्गीकृत भी किया था और परम्परा या अनुश्रुति से प्राप्त आगमों के वे अंश जो उनके पूर्व की वाचनाओं में समाहित नहीं थे, उन्हें समाहित भी किया। उदाहरण के रूप में ज्ञाताधर्मकथा में सम्पूर्ण द्वितीय श्रुतस्कन्ध के दस वर्ग और अध्ययन इसी वाचना में समाहित किये गये हैं, क्योंकि श्वेताम्बर, यापनीय एवं दिगम्बर परम्परा के प्रतिक्रमणसूत्र एवं अन्यत्र उसके उन्नीस अध्ययनों
काही उल्लेख मिलता है। प्राचीन ग्रन्थों में द्वितीय श्रुतस्कन्ध के दस वर्गों का कहीं कोई निर्देश नहीं है।
इसी प्रकार अन्तकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिकदशा और विपाकदशा के सन्दर्भ में स्थानान में जो दस-दस अध्ययन होने की सूचना है। उसके स्थान पर इनमें भी जो वर्गों की व्यवस्था की गई वह देवर्धि की ही देन है। उन्होंने इनके विलुप्त अध्यायों के स्थान पर अनुश्रुति से प्राप्त सामग्री जोड़कर इन ग्रन्थों को नये सिरे से व्यवस्थित किया था।
यह एक सुनिश्चित सत्य है कि आज प्रश्नव्याकरण की आस्रव संवर द्वार सम्बन्धी जो विषय-वस्तु उपलब्ध है वह किसके द्वारा सङ्कलित व सम्पादित है यह निर्णय करना कठिन कार्य है, किन्तु यदि हम यह मानते हैं कि नन्दीसूत्र के रचयिता देवर्धि न होकर देव वाचक हैं, जो देवर्धि से पूर्व के हैं तो यह कल्पना भी की जा सकती है कि देवधिं ने आस्रव व संवर द्वार सम्बन्धी विषय-वस्तु को लेकर प्रश्नव्याकरण की प्राचीन विषय-वस्तु का जो विच्छेद हो गया था, उसकी पूर्ति की होगी । इस प्रकार ज्ञाताधर्म से लेकर विपाकसूत्र तक के छः अङ्ग आगमों में जो आंशिक या सम्पूर्ण परिवर्तन हुए हैं, वे देवर्धि के द्वारा ही किये हुए माने जा सकते हैं। यद्यपि यह परिवर्तन उन्होंने किसी पूर्व परम्परा या अनुश्रुति के आधार पर ही किया होगा यह विश्वास किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त देवर्धि ने एक यह महत्त्वपूर्ण कार्य भी किया कि जहाँ अनेक आगमों में एक ही विषय-वस्तु का विस्तृत विवरण था वहाँ उन्होंने एक स्थल पर विस्तृत विवरण रखकर अन्यत्र उस प्रन्थ का निर्देश कर दिया। हम देखते है कि भगवती आदि कुछ प्राचीन स्तरों के आगमों में भी उन्होंने प्रज्ञापना, नन्दी, अनुयोगद्वार जैसे परवर्ती आगमों का निर्देश करके आगमों में विषय-वस्तु के पुनरावर्तन को कम किया। इसी प्रकार जब एक ही आगम में कोई विवरण बार-बार आ रहा था तो उस विवरण के प्रथम शब्द के बाद 'जाव' शब्द रखकर अन्तिम शब्द का उल्लेख कर उसे संक्षिप्त बना दिया। इसके साथ ही उन्होंने कुछ महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ जो यद्यपि परवर्तीकाल की थीं, उन्हें भी आगमों में दे दिया जैसे स्थानाङ्गसूत्र में सात निह्नवों और सात गणों का उल्लेख। इस प्रकार वल्लभी की वाचना में न केवल आगमों को पुस्तकारुढ़ किया गया, अपितु उनकी विषय-वस्तु को सुव्यवस्थित और सम्पादित भी किया गया। सम्भव है कि इस सन्दर्भ में प्रक्षेप और विलोपन भी हुआ होगा, किन्तु यह सभी अनुश्रुति या परम्परा के आधार पर किया गया था अन्यथा आगमों को मान्यता न मिलती।
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सामान्यतया यह माना जाता है कि वाचनाओं में केवल अनुश्रुति से प्राप्त आगमों को ही सङ्कलित किया जाता था, किन्तु मेरी दृष्टि में वाचनाओं में न केवल आगम पाठों को सम्पादित एवं सङ्कलित किया जाता था, अपितु उनमें नवनिर्मित ग्रन्थों को मान्यता भी प्रदान की जाती थी और जो आचार और विचार सम्बन्धी मतभेद होते थे उन्हें समन्वित या निराकृत भी किया जाता था। इसके अतिरिक्त इन वाचनाओं में वाचना स्थलों की अपेक्षा से आगमों के भाषिक स्वरूप में भी परिवर्तन हुआ है।
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अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श
१५ उदाहरण के रूप में आगम पटना अथवा उड़ीसा के कुमारी पर्वत हो। फिर भी देवर्धि को जो आगम परम्परा से प्राप्त थे, उनका और (खण्डगिरि) में सुव्यवस्थित किये गये थे, उनकी भाषा अर्धमागधी माथुरी वाचना के आगमों का मूलस्रोत तो एक ही था। हो सकता ही रही, किन्तु जब वे आगम मथुरा और वल्लभी में पुन: सम्पादित है कि कालक्रम में भाषा एवं विषय-वस्तु की अपेक्षा दोनों में क्वचित् किये गये तो उनमें भाषिक परिवर्तन आ गये। माथुरी वाचना में जो अन्तर आ गये हों। अत: यह दृष्टिकोण भी समुचित नहीं होगा कि आगमों का स्वरूप तय हुआ था, उस पर व्यापक रूप से शौरसेनी देवर्धि की वल्लभी वाचना के आगम माथुरी वाचना के आगमों से का प्रभाव आ गया था। दुर्भाग्य से आज हमें माथरी वाचना के आगम नितान्त भिन्न थे। उपलब्ध नहीं हैं, किन्तु इन आगमों के जो उद्धृत अंश उत्तर भारत की अचेल धारा यापनीय-संघ के ग्रन्थों में और उनकी टीकाओं में यापनीयों के आगम उद्धृत मिलते हैं, उनमें हम यह पाते हैं कि भावगत समानता के होते यापनीय संघ के आचार्य आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, उत्तराध्ययन, हुए भी शब्द-रूपों और भाषिक स्वरूप में भिन्नता है। आचाराङ्ग दशवकालिक, कल्प, निशीथ, व्यवहार, आवश्यक आदि आगमों को उत्तराध्ययन, निशीथ, कल्प, व्यवहार आदि से जो अंश भगवतीआराधना मान्य करते थे। इस प्रकार आगमों के विच्छेद होने की जो दिगम्बर की टीका में उद्धृत हैं वे अपने भाषिक स्वरूप और पाठभेद की अपेक्षा मान्यता है, वह उन्हें स्वीकार्य नहीं थी। यापनीय आचार्यों द्वारा निर्मित से वल्लभी के आगमों से किञ्चित् भिन्न हैं।
किसी भी ग्रन्थ में कहीं भी यह उल्लेख नहीं है कि अङ्गादि-आगम __अत: इन वाचनाओं के कारण आगमों में न केवल भाषिक परिवर्तन विच्छिन्न हो गये हैं। वे आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, दशवैकालिक, हुए, अपितु पाठान्तर भी अस्तित्व में आये हैं। वल्लभी की अन्तिम उत्तराध्ययन, निशीथ, बृहत्कल्प, व्यवहार, कल्प आदि को अपनी वाचना में वल्लभी की ही नागार्जुनीय वाचना के पाठान्तर तो लिये परम्परा के ग्रन्थों के रूप में उद्धृत करते थे। इस सम्बन्ध में आदरणीय गये, किन्तु माथुरी वाचना के पाठान्तर समाहित नहीं हैं। यद्यपि कुछ पं.नाथूराम प्रेमी (जैन साहित्य और इतिहास, पृ. ९१) का यह कथन विद्वानों की मान्यता है कि वल्लभी की देवर्धि वाचना का आधार माथुरी द्रष्टव्य है- “अक्सर ग्रन्थकार किसी मत का खण्डन करने के लिए वाचना के आगम थे और यही कारण था कि उन्होंने नागार्जुनीय वाचना उसी मत के ग्रन्थों का हवाला दिया करते हैं और अपने सिद्धान्त के पाठान्तर दिये हैं। किन्तु मेरा मन्तव्य इससे भिन्न है। मेरी दृष्टि को पुष्ट करते हैं। परन्तु इस टीका (अर्थात् भगवती-आराधना की में उनकी वाचना का आधार भी परम्परा से प्राप्त नागार्जुनीय वाचना विजयोदया टीका) में ऐसा नहीं है, इसमें तो टीकाकार ने अपने ही के पूर्व के आगम रहे होंगे, किन्तु जहाँ उन्हें अपनी परम्परागत वाचना आगमों का हवाला देकर अचेलता सिद्ध की है।" । का नागार्जुनीय वाचना से मतभेद दिखायी दिया, वहाँ उन्होंने नागार्जुनीय आगमों के अस्तित्व को स्वीकार कर उनके अध्ययन और स्वाध्याय वाचना का उल्लेख कर दिया, क्योंकि माथुरी वाचना स्पष्टत: शौरसेनी सम्बन्धी निर्देश भी यापनीय ग्रन्थ मूलाचार में स्पष्ट रूप से उपलब्ध से प्रभावित थी, दूसरे उस वाचना के आगमों के जो भी अवतरण होते हैं। मूलाचार (५/८०-८२) में चार प्रकार के आगम ग्रन्थों का आज मिलते हैं उनमें कुछ वर्तमान आगमों की वाचना से मेल नहीं उल्लेख है- १ गणधर कथित, २. प्रत्येकबुद्ध कथित, ३. श्रुतकेवलि खाते हैं। उनसे यही फलित होता है कि देवर्धि की वाचना का आधार कथित और ४. अभिन्न दशपूर्वी कथित। स्कंदिल की वाचना तो नहीं रही है। तीसरे माथुरी वाचना के अवतरण इसके साथ ही यह भी कहा गया है कि संयमी पुरुषों एवं स्त्रियों आज यापनीय ग्रन्थों में मिलते हैं, उनसे इतना तो फलित होता है अर्थात् मुनियों एवं आर्यिकाओं के लिए अस्वाध्यायकाल में इनका कि माथी वाचना के आगमों में भी वस्त्र-पात्र सम्बन्धी एवं स्त्री की स्वाध्याय करना वर्जित है, किन्तु इनके अतिरिक्त कुछ अन्य ऐसे ग्रन्थ तद्भव मुक्ति के उल्लेख तो थे, किन्तु उनमें अचेलता को उत्सर्ग मार्ग हैं जिनका अस्वाध्यायकाल में पाठ किया जा सकता है, जैसे---आराधना माना गया था। यापनीय ग्रन्थों में उद्धृत, अचेलपक्ष के सम्पोषक कुछ (भगवती आराधना या आराधनापताका), नियुक्ति , मरणविभक्ति, संग्रह अवतरण तो वर्तमान वल्लभी वाचना के आगमों यथा आचाराङ्ग के (पंचसंग्रह या संग्रहणीसूत्र), स्तुति (देविंदत्थु), प्रत्याख्यान (आउरपच्चक्खाण प्रथम श्रुतस्कन्ध आदि में मिलते हैं, किन्तु कुछ अवतरण वर्तमान एवं महापच्चक्खाण), धर्मकथा (ज्ञाताधर्मकथा) तथा ऐसे ही अन्य ग्रन्थ। वाचना में नहीं मिलते हैं। अतः माथुरी वाचना के पाठान्तर वल्लभी यहाँ पर चार प्रकार के आगम ग्रन्थों का जो उल्लेख हुआ है, की देवर्धि की वाचना में समाहित नहीं हुए हैं, इसकी पुष्टि होती है। उस पर थोड़ी विस्तृत चर्चा अपेक्षित है, क्योंकि मूलाचार की मूलगाया मुझे ऐसा लगता है कि वल्लभी की देवर्धि की वाचना का आधार में मात्र इन चार प्रकार के सूत्रों का उल्लेख हुआ है। उसमें इन ग्रन्थों माथुरी वाचना के आगम न होकर उनकी अपनी ही गुरु-परम्परा से का नाम निर्देश नहीं है। मूलाचार के टीकाकार वसुनन्दि न तो यापनीय प्राप्त आगम रहे होंगे। मेरी दृष्टि में उन्होंने नागार्जुनीय वाचना के ही परम्परा से सम्बद्ध थे और न उनके सम्मुख ये ग्रन्थ ही थे। अत: पाठान्तर अपनी वाचना में समाहित किये- क्योंकि दोनों में भाषा इस प्रसंग में उनकी प्रत्येक-बुद्धकथित की व्याख्या पूर्णतः भ्रान्त ही एवं विषय-वस्तु दोनों ही दृष्टि से कम ही अन्तर था। माथुरी वाचना है। मात्र यही नहीं, अगली गाथा की टीका में उन्होंने "थुदि" के आगम या तो उन्हें उपलब्ध ही नहीं थे अथवा भाषा एवं विषय-वस्तु । "पच्चक्खाण" एवं "धम्मकहा" को जिन ग्रन्थों से समीकृत किया दोनों की अपेक्षा भिन्नता अधिक होने से उन्होंने उसे आधार न बनाया है वह तो और भी अधिक भ्रामक है। आश्चर्य है कि वे "थुदि" से
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देवागमस्तोत्र और परमेष्ठिस्तोत्र को समीकृत करते हैं, जबकि मूलाचार का मन्तव्य अन्य ही है। जहाँ तक गणधरकथित ग्रन्थों का प्रश्न है वहाँ लेखक का तात्पर्य आचारांग सूत्रकतांग आदि अंग ग्रन्थों से है, प्रत्येकबुद्धकथित प्रन्थों से तात्पर्य प्रश्नव्याकरण, उत्तराध्ययन, ऋषिभाषित आदि से है, क्योंकि ये ग्रन्थ प्रत्येकबुद्धकथित माने जाते हैं ये ग्रन्थ प्रत्येकबुद्धकथित हैं, ऐसा स्पष्ट उल्लेख भी समवायांग, उत्तराध्ययननियुक्ति आदि में है। श्रुतकेवलिकथित ग्रन्थों से तात्पर्य आचार्य शय्यम्भवरचित दशवैकालिक, आचार्य भद्रबाहु (प्रथम) रचित बृहत्कल्प, दशाश्रुतस्कन्ध (आयारदसा), व्यवहार आदि से है तथा अभिन्न दशपूर्वीकथित ग्रन्थों से उनका तात्पर्य कम्मपवडी आदि "पूर्व" साहित्य के ग्रन्थों से है। यहाँ स्मरण रखने योग्य तथ्य यह है कि यदि यापनीय परम्परा में ये ग्रन्थ विच्छिन्न माने जाते, तो फिर इनके स्वाध्याय का निर्देश लगभग ईसा की छठी शताब्दी के ग्रन्थ मूलाचार में कैसे हो पाता। दिगम्बर परम्परा के अनुसार तो वीरनिर्वाण के ६८३ वर्ष पश्चात् अर्थात् ईसा की दूसरी शती में आचारांग धारियों की परम्परा भी समाप्त हो गई थी फिर वीरनिर्वाण के एक हजार वर्ष पश्चात् भी आचारांग आदि के स्वाध्याय करने का निर्देश देने का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है। ज्ञातव्य है कि मूलाचार की यही गाथा कुन्दकुन्द के सुत्तपाहुड में भी मिलती है, किन्तु कुन्दकुन्द आगमों के उपर्युक्त प्रकारों का उल्लेख करने के पश्चात् उनकी स्वाध्याय विधि के सम्बन्ध में कुछ नहीं कहते हैं जबकि मूलाचार स्पष्ट रूप से उनके स्वाध्याय का निर्देश करता है मात्र यही नहीं मूलाचार में आगमों के अध्ययन की उपधान विधि अर्थात् तपपूर्वक आगमों के अध्ययन करने की विधि का भी उल्लेख है। आगमों के अध्ययन की यह उपधान विधि श्वेताम्बरों में आज भी प्रचलित है। विधिमार्गप्रपा ( पृ० ४९ ५१ ) में इसका विस्तृत उल्लेख है। इससे यह भी स्पष्ट रूप से प्रमाणित हो जाता है कि मूलाचार आगमों को विच्छिन्न नहीं मानता था। यापनीय परम्परा में ये अंग आगम और अंगबाह्य आगम प्रचलन में थे, इसका एक प्रमाण यह भी है कि नवीं शताब्दी में यापनीय आचार्य अपराजित भगवती आराधना की टीका में न केवल इन आगमों से अनेक उद्धरण प्रस्तुत करते हैं, अपितु स्वयं दशवैकालिक पर टीका भी लिख रहे हैं। मात्र यही नहीं, यापनीय पर्युषण के अवसर पर कल्पसूत्र की वाचना भी करते थे, ऐसा निर्देश स्वयं दिगम्बराचार्य कर रहे हैं।
जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६
क्या यापनीय आगम वर्तमान श्वेताम्बर आगमों से भिन्न थे?
इस प्रसंग में यह विचारणीय है कि यापनीयों के ये आगम कौन से थे? क्या वे इन नामों से उपलब्ध वेताम्बर परम्परा के आगमों से भिन्न थे या यही थे? हमारे कुछ दिगम्बर विद्वानों ने यह कहने का अतिसाहस भी किया है कि ये आगम वर्तमान श्वेताम्बर आगमों से सर्वथा भिन्न थे। प० कैलाशचन्द्रजी (जैन साहित्य का इतिहास, पूर्व पीठिका, पृ० ५२५) ने ऐसा ही अनुमान किया है वे लिखते हैं "जैन परम्परा में दिगम्बर और श्वेताम्बर के समान एक यापनीय संघ भी था। यह संघ यद्यपि नग्रता का पक्षधर था, तथापि श्वेताम्बरी
आगमों को मानता था। इस संघ के आचार्य अपराजितसूरि की संस्कृत टीका भगवती आराधना नामक प्राचीन ग्रन्थ पर है, जो मुद्रित भी हो चुकी है। उसमें नग्नता के समर्थन में अपराजितसूरि ने आगम-ग्रन्थों से अनेक उद्धरण दिये हैं, जिनमें से अनेक उद्धरण वर्तमान आगमों में नहीं मिलते। आदरणीय पंडितजी ने यहाँ जो "अनेक " शब्द का प्रयोग किया है वह भ्रान्ति उत्पन्न करता है। मैंने अपराजितसूरि की टीका में उद्धृत आगमिक सन्दर्भों की श्वेताम्बर आगमों से तुलना करने पर स्पष्ट रूप से यह पाया है कि लगभग ९० प्रतिशत सन्दर्भों में आगमों की अर्धमागधी प्राकृत पर शौरसेनी प्राकृत के प्रभाव के फलस्वरूप हुए आंशिक पाठभेद को छोड़कर कोई अन्तर नहीं है। जहाँ किंचित् पाठभेद है वहाँ भी अर्थ भेद नहीं है। आदरणीय पंडितजी ने इस ग्रन्थ में भगवती आराधना की विजयोदया टीका ( पृ० ३२०(३२७) से एक उद्धरण दिया है, जो वर्तमान आचारांग में नहीं मिलता है । उनके द्वारा प्रस्तुत वह उद्धरण निम्म्र है—
तथा चोक्तमाचारा - सुदं *आउस्सत्तो भगवदा एवमखादा इह खलु संयमाभिमुख दुबिहा इत्थी पुरिसा जादा हवंति। तं जहा सव्वसमण्णगदे णो सव्वसमण्णागेद चैव तत्थ जे सव्वसमण्णागदे विणा हत्थपायणीपादे सव्विंदिय समण्णागदे तस्स णं णो कप्यदि एगमवि वत्थ धारिडं एवं परिहिडं एवं अण्णत्य एगेण पडिलेहगेण इति ।
निश्चय ही उपर्युक्त सन्दर्भ आचारांग में इसी रूप में शब्दश: नहीं है, किन्तु "सव्वसमन्त्रागय" नामक पद और उक्त कथन का भाव आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के अष्टम अध्ययन में आज भी सुरक्षित है। अतः इस आधार पर यह कल्पना करना अनुचित होगा कि यापनीय परम्परा का आचारांग, वर्तमान में श्वेताम्बर परम्परा में उपलब्ध आचारांग से भिन्न था। क्योंकि अपराजितसूरि द्वारा उद्धृत आचारांग के अन्य सन्दर्भ आज भी श्वेताम्बर परम्परा के इसी आचारांग में उपलब्ध हैं। अपराजित ने आचारांग के "लोकविचय" नामक द्वितीय अध्ययन के पंचम उद्देशक का उल्लेखपूर्वक जो उद्धरण दिया है, वह आज भी उसी अध्याय के उसी उद्देशक में उपलब्ध है। इसी प्रकार उसमें "अहं पुण एवं जाणेज्ज उपातिकंते हेमंते... ठविज्ज" जो यह पाठ आचारांग से उद्धृत है - वह भी वर्तमान आचारांग के अष्टम अध्ययन के चतुर्थ, उद्देशक में है। उत्तराध्ययन, सूत्रकृतांग कल्प आदि के सन्दर्भों की भी लगभग यही स्थिति है। अब हम उत्तराध्ययन के सन्दर्भों पर विचार करेंगे। आदरणीय पंडितजी ने जैन साहित्य की पूर्वपीठिका में अपराजित की भगवती आराधना की टीका की निम्न दो गाथाएँ उद्धृत की हैं— परिचत्तेसु वत्थेसु ण पुणो चेलमादिए । अबेलपवरे भिक्खु जिणरूपधरे सदा।
सचेलगो सुखी भवदि असुखी वा वि अचलगो । अहं तो सचेलो होक्खामि इदि भिक्खु न चिंताए ।
पंडितजी ने इन्हें उत्तराध्ययन की गाथा कहा है और उन्हें वर्तमान उत्तराध्ययन में उपलब्ध भी बताया है। किन्तु जब हमने स्वयं पंडितजी द्वारा ही सम्पादित एवं अनुवादित भगवती आराधना की टीका देखी तो उसमें इन्हें स्पष्ट रूप से उत्तराध्ययन की गाथाएँ नहीं कहा गया
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अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श है। उसमें मात्र “इमानि च सूत्राणि अचेलतां दर्शयन्ति" कहकर इन्हें अर्धमागधी की रचना है। इससे ऐसा लगता है कि यापनीयों ने अपने उद्धृत किया गया है। आदरणीय पंडितजी को यह भ्रान्ति कैसे हो समय के अविभक्त परम्परा के आगमों को मान्य करते हुए भी उन्हें गई, हम नहीं जानते। पुन: ये गाथाएँ भी चाहे शब्दश: उत्तराध्ययन शौरसेनी प्राकृत में रूपान्तरित करने का प्रयास किया था, अन्यथा में न हों, किन्तु भावरूप से तो दोनों ही गाथाएँ और शब्द-रूप से अपराजित की टीका में मूल आगमों के उद्धरणों का शौरसेनी रूप इनके आठ चरणों में से चार चरण तो उपलब्ध ही हैं। उपर्युक्त उद्धृत न मिलकर अर्धमागधी रूप ही मिलता। इस सम्बन्ध में पं० नाथूरामजी गाथाओं से तुलना के लिए उत्तराध्ययन की ये गाथाएँ प्रस्तुत हैं- प्रेमी (जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ६०) का निम्न वक्तव्य विचार"परिजुण्णेहि पत्थेहि होक्खामि त्ति अचेलए।
णीय हैअदुवा "सचेलए होक्खं" इदं भिक्खू न चिन्तए।।
"श्वेताम्बर सम्प्रदाय मान्य जो आगम ग्रन्थ हैं, यापनीय संघ शायद "एगया अचेलए होई सचेले यावि एगया।"
उन सभी को मानता था, परन्तु ऐसा जान पड़ता है कि दोनों के आगमों एयं धम्महियं नच्चा नाणी नो परिदेवए।।
में कुछ पाठभेद था और उसका कारण यह हो कि उपलब्ध वल्लभी - उत्तराध्ययन, २/१२-१३ वाचना के पहले की कोई वाचना (संभवत: माथुरी वाचना) यापनीय जिस प्रकार श्वेताम्बर परम्परा में ही चूर्णि में आगत पाठों और संघ के पास थी, क्योकि विजयोदया टीका में आगमों के जो उद्धरण शीलांक या अभयदेव की टीका में आगत पाठों में अर्धमागधी और हैं वे श्वेताम्बर आगमों में बिल्कुल ज्यों के त्यों नहीं बल्कि कुछ पाठभेद के महाराष्ट्री प्राकृत की दृष्टि से पाठभेद रहा है, उसी प्रकार यापनीय परम्परा साथ मिलते हैं। यापनीय के पास स्कंदिल की माथुरी वाचना के आगम के आगम के पाठ माथुरी वाचना के होने के कारण शौरसेनी प्राकृत थे यह मानने में एक बाधा आती है, वह यह कि स्कंदिल की वाचना से युक्त रहे होंगे। किन्तु यहाँ यह भी स्मरण रखना आवश्यक है कि का काल वीरनिर्वाण ८२७-८४० अर्थात् ईसा की तृतीय शती का प्राचीन स्तर के सभी आगम ग्रन्थ मूलत: अर्धमागधी के रहे हैं। उनमें अन्त और चतुर्थ शती का प्रारम्भ है, जबकि संघभेद उसके लगभग २०० जो महाराष्ट्री या शौरसेनी के शब्द-रूप उपलब्ध होते हैं, वे परवर्ती वर्ष पहले ही घटित हो चुका था।" किन्तु पं० नाथूरामजी की यह हैं। विजयोदया में आचारांग आदि के सभी आगमिक सन्दर्भो को देखने शंका इस आधार पर निरस्त हो जाती है कि वास्तविक सम्प्रदाय-भेद ईस्वी से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे पूर्णत: शौरसेनी प्रभाव से युक्त हैं। सन् की द्वितीय शताब्दी में न होकर पाँचवीं शती में हुआ। यद्यपि मूलत: आचारांग, उत्तराध्ययन आदि आगम तो निश्चित ही अर्धमागधी यह माना जाता है कि फल्गुमित्र की परम्परा की कोई वाचना थी, किन्तु में रहे हैं। यहाँ दो सम्भावनाएँ हो सकती हैं, प्रथम यही है कि इस वाचना के सम्बन्ध में स्पष्ट निर्देश कहीं भी उपलब्ध नहीं है। माथुरी वाचना के समय उन पर शौरसेनी का प्रभाव आया हो और निष्कर्ष यह है कि यापनीय आगम वही थे, जो उन नामों से यापनीयों ने उसे मान्य रखा हो। दूसरे यह है कि यापनीयों द्वारा उन आज श्वेताम्बर परम्परा में उपलब्ध हैं। मात्र उनमें किंचित् पाठभेद था आगमों का शौरसेनीकरण करते समय श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आचारांग तथा भाषा की दृष्टि से शौरसेनी का प्रभाव अधिक था। यापनीय ग्रन्थों आदि से उनमें पाठभेद हो गया हो, किन्तु इस आधार पर भी यह में आगमों के जो उद्धरण मिलते हैं उनमें कुछ तो वर्तमान श्वेताम्बर कहना उचित नहीं होगा कि यापनीय और श्वेताम्बर परम्परा के आगम परम्परा के आगमों में अनुपलब्ध हैं, कुछ पाठान्तर के साथ उपलब्ध भिन्न थे। ऐसा पाठभेद तो एक ही परम्परा के आगमों में भी उपलब्ध हैं। जो अनुपलब्ध हैं, उनके सम्बन्ध में दो विकल्प हैं-प्रथम यह है। स्वयं पं० कैलाशचन्द्रजी ने अपने ग्रन्थ जैन साहित्य का इतिहास- कि मूलागमों के वे अंश बाद के श्वेताम्बर आचार्यों ने अगली वाचना पूर्वपीठिका में अपराजितसूरि की भगवती आराधना की टीका से में निकाल दिये और दूसरा यह कि वे अंश यापनीय मान्यता के प्रक्षिप्त आचारांग का जो उपर्युक्त पाठ दिया है, उसमें और स्वयं उनके द्वारा अंश हों। किन्तु प्रथम विकल्प में इसलिए विश्वास नहीं होता कि सम्पादित भगवती आराधना की अपराजितसूरि की टीका में उद्धृत यदि परवर्ती वाचनाओं में वे सब बातें, जो उस युग के आचार्यों को पाठ में ही अन्तर है--एक में “थीण" पाठ है--दूसरे में “थीरांग' मान्य नहीं थीं या उनकी परम्परा के विरूद्ध थीं, निकाल दी गई होती पाठ है, जिससे अर्थ-भेद भी होता है। एक ही लेखक और सम्पादक तो वर्तमान श्वेताम्बर आगमों में अचेलता के समर्थक सभी अंश निकाल की कृति में भी पाठभेद हो तो भिन्न परम्पराओं में किंचित् पाठभेद दिये जाने चाहिए थे। मुझे ऐसा लगता है कि आगमों की वाचनाओं होना स्वाभाविक है, किन्तु उससे उनकी पूर्ण भिन्नता की कल्पना नहीं (संकलन) के समय केवल वे ही अंश नहीं आ पाये थे जो विस्मृत की जा सकती है। पुनः यापनीय परम्परा द्वारा उद्धृत आचारांग, हो गये थे अथवा पुनरावृत्ति से बचने के लिए "जाव" पाठ देकर उत्तराध्ययन आदि के उपर्युक्त पाठों की अचेलकत्व की अवधारणा का वहाँ से हटा दिये गये थे। मान्यता भेद के कारण कुछ अंश जानबूझकर प्रश्न है, वह श्वेताबम्बर परम्परा के आगमों में आज भी उपलब्ध है। निकाले गये हों, ऐसा कोई भी विश्वसनीय प्रमाण हमें नहीं मिलता
इसी प्रसंग में उत्तराध्ययन की जो अन्य गाथाएँ उद्धृत की गई है। किन्तु यह हो सकता है कि वे अंश किसी अन्य गण की वाचना हैं, वे आज भी उत्तराध्ययन के २३वें अध्ययन में कुछ पाठभेद के के रहे हों, जिनके प्रतिनिधि उस वाचना में सम्मिलित नहीं थे। कुछ साथ उपलब्ध हैं। आराधना की टीका में उद्धृत इन गाथाओं पर भी ऐसे प्रमाण उपलब्ध हैं कि विभिन्न गणों में वाचना-भेद या पाठभेद शौरसेनी का स्पष्ट प्रभाव है। यह भी स्पष्ट है कि मूल उत्तराध्ययन होता था।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ आगमों में पाठभेद एवं प्रक्षेप
हैं, क्योंकि इनके कारण अनेक यापनीय ग्रन्थों का यापनीय स्वरूप विभिन्न गणों के निर्माण का एक कारण वाचना भेद भी माना ही विकृत हो गया है। हमारे दिगम्बर विद्वान् श्वेताम्बर ग्रन्थों में प्रक्षेपण गया है। यह कहा जाता है कि महावीर के ग्यारह गणधरों की नौ की बात तो कहते हैं, किन्तु वे इस बात को विस्मृत कर जाते हैं वाचनाएँ थीं अर्थात् महावीर के काल में भी वाचना-भेद था क्योंकि कि स्वयं उन्होंने यापनीय और अपने ग्रन्थों में भी किस प्रकार हेरप्रत्येक वाचनाचार्य की अध्यापन शैली भिन्न होती थी। ज्ञातव्य है कि फेर किये हैं। इस सम्बन्ध में मैं अपनी ओर से कुछ न कहकर दिगम्बर जैन परम्परा में शब्द के स्थान पर अर्थ पर बल दिया जाता था, तीर्थङ्कर विद्वानों का मत प्रस्तुत करना चाहूँगा। को अर्थ का प्रवर्तक माना गया था जबकि वैदिक परम्परा शब्द प्रधान पं० कैलाशचन्द्रजी स्व-सम्पादित "भगवती आराधना" की थी। यही कारण है कि जैनों ने यह माना कि चाहे शब्द-भेद हो, पर प्रस्तावना (पृ० ९) में लिखते हैं—“विजयोदया के अध्ययन से प्रकट अर्थ-भेद नहीं होना चाहिए। यही कारण है कि वाचना भेद बढ़ते गये। होता है कि उनके सामने टीका लिखते समय जो मूलग्रन्थ उपस्थित हमें यापनीय ग्रन्थों में उपलब्ध आगमिक उद्धरणों से वर्तमान आगमों था, उसमें और वर्तमान मूल (ग्रन्थ) में अन्तर है। अनेक गाथाओं के पाठों का जो पाठभेद मिलता है उनका कारण वाचना-भेद है,अर्थ- में वे शब्द नहीं मिलते जो टीकाओं में हैं।" भेद नहीं, क्योंकि ऐसे अनुपलब्ध अंशों या पाठभेदों में विषय-प्रतिपादन इससे स्पष्ट होता है कि जब दिगम्बर आचार्यों ने इस यापनीय की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण अन्तर नहीं है। किन्तु इस सम्भावना से पूरी ग्रन्थ को अपने में समाहित किया होगा तो इसकी मूल गाथाओं के तरह इन्कार नहीं किया जा सकता कि स्वयं यापनीयों ने भी अपनी शब्दों में भी हेर-फेर कर दिया होगा। यदि पं० कैलाशचन्द्रजी ने उन मान्यता की पुष्टि के लिए कुछ अंश जोड़े हों अथवा परिवर्तित किये सभी स्थलों का जहाँ उन्हें पाठभेद प्रतीत हुआ, निर्देश किया होता हों। श्वेताम्बर परम्परा में भी वल्लभी वाचना में या उसके पश्चात् भी तो सम्भवतः हम अधिक प्रामाणिकता से कुछ बात कह सकते थे। आगमों में कुछ अंश जुड़ते रहे हैं--इस तथ्य से इन्कार नहीं किया टीका और मूल के सारे अन्तरों को हम भी अभी तक खोज नहीं जा सकता। हम पण्डित कैलाशचन्द्रजी (जैन साहित्य का इतिहास पाये हैं। अत: अभी तो उनके मत को ही विश्वसनीय मानकर संतोष पूर्वपीठिका, पृ० ५२७) के इस कथन से सहमत हैं कि वल्लभी वाचना करेंगे। स्वयंभू के रिट्ठनेमिचरिउ (हरिवंशपुराण) में भी इसी प्रकार की के समय और उसके बाद भी आगमों के स्वरूप में कुछ परिवर्तन छेड़-छाड़ हुई थी। इस सन्दर्भ में पं० नाथूरामजी प्रेमी (जैन साहित्य हुए हैं। किन्तु उनके द्वारा प्रयुक्त "बहुत" शब्द आपत्तिजनक है। और इतिहास,पृ० २०२) लिखते हैं- "इसमें तो संदेह नहीं है कि फिर भी ध्यान रखना होगा कि इनमें प्रक्षेप ही अधिक हुआ है, विस्मृति इस अन्तिम अंश में मुनि जसकित्ति (यशकीर्ति) का भी हाथ है, परन्तु को छोड़कर जान-बूझकर निकाला कुछ नहीं गया है।
यह कितना है यह निर्णय करना कठिन है। बहुत कुछ सोच-विचार किन्तु ऐसा प्रक्षेप मात्र श्वेताम्बरों ने किया है और दिगम्बरों तथा के बाद हम इस निर्णय पर पहुँचे हैं कि मुनि जसकित्ति को इस ग्रन्थ यापनीयों ने नहीं किया है--यह नहीं कहा जा सकता। सम्भव है कि की कोई ऐसी जीर्ण-शीर्ण प्रति मिली थी जिसके अन्तिम पत्र नष्ट-भ्रष्ट यापनीय परम्परा ने भी आगमों में अपने अनुकूल कुछ अंश प्रक्षिप्त थे और शायद अन्य प्रतियाँ दुर्लभ थीं, इसलिए उन्होंने गोपगिरि किये हों। मूलाचार, भगवती आराधना आदि ग्रन्थों को देखने से ऐसा (ग्वालियर) के समीप कुमरनगरी के जैन मन्दिर में व्याख्यान करने स्पष्ट लगता है कि उन्होंने अर्धमागधी आगम साहित्य की ही सैकड़ों के लिए इसे ठीक किया अर्थात् जहाँ-जहाँ जितना अंश फट गया गाथाएँ शौरसेनी प्राकृत में रूपान्तरित करके अपने इन ग्रन्थों की रचना था या नष्ट हो गया था, उसको स्वयं रचकर जोड़ दिया और जहाँकी है, मूलाचार का लगभग आधा भाग प्रकीर्णकों, नियुक्तियों एवं जहाँ जोड़ा, वहाँ-वहाँ अपने परिश्रम के एवज में अपना नाम भी जोड़ आगमों की गाथाओं से निर्मित है। यह तो निश्चित है कि प्राचीन आगम दिया। इससे स्पष्ट है कि कुछ दिगम्बर आचार्यों ने दूसरों की रचनाओं साहित्य अर्धमागधी में था। यापनीय ग्रन्थों में उपलब्ध आगमिक सन्दर्भ को भी अपने नाम पर चढ़ा लिया। के सदैव शौरसेनी रूप ही मिलते हैं, जो इस तथ्य के स्पष्ट प्रमाण इसी प्रकार तिलोयपण्णत्ति में भी पर्याप्त रूप से मिलावट हुई हैं कि उन्होंने अर्धमागधी आगम-साहित्य को शौरसेनी में अपने ढंग है। जहाँ "तिलोयपण्णत्ति' का ग्रन्थ-परिमाण ८००० श्लोक बताया से रूपान्तरित करने का प्रयत्न किया होगा और इस प्रयत्न में उन्होंने गया है वहाँ वर्तमान तिलोयपण्णत्ति का श्लोक-परिमाण ९३४० है अपने मत की पुष्टि का भी प्रयास किया होगा।
अर्थात् लगभग १३४० श्लोक अधिक हैं। पं० नाथूरामजी प्रेमी के अत: इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि यापनीय शब्दों में- “ये इस बात के संकेत देते हैं कि पीछे से इसमें मिलावट आचार्यों ने भी मूल आगमों के साथ छेड़छाड़ की थी और अपने की गयी है।" इस सन्दर्भ में पं० फूलचन्द्रशास्त्री के, जैन साहित्य मत की पुष्टि हेतु उन्होंने उनमें परिवर्धन और प्रक्षेप भी किये। भास्कर, भाग ११, अंक प्रथम में प्रकाशित “वर्तमान तिलोयपण्णत्ति
मात्र श्वेताम्बर और यापनीय ही आगमों के साथ छेड़छाड़ करने और उसके रचनाकार का विचार" नामक लेख के आधार पर वे लिखते के दोषी नहीं हैं, बल्कि दिगम्बर आचार्य और पण्डित भी इस दौड़ हैं- “उससे मालूम होता है कि यह ग्रन्थ अपने असल रूप में नहीं में पीछे नहीं रहे हैं। यापनीय ग्रन्थों में दिगम्बर परम्परा के द्वारा जो रहा है। उसमें न केवल बहुत सा लगभग एक अष्टमांश प्रक्षिप्त है, प्रक्षेपण और परिवर्तन किये गये हैं वे तो और भी अधिक विचारणीय बल्कि बहुत-सा परिवर्तन और परिशोध भी किया गया है, जो मूल
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अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श ग्रन्थ कर्ता के अनुकूल नहीं है।" इसी प्रकार कसायपाहुडसुत्त की मूल की, वहाँ यापनीयों ने श्वेताम्बर मान्य आगमों और आगमिक गाथाएँ १८० थीं, किन्तु आज उसमें २३३ गाथाएँ मिलती हैं- अर्थात् व्याख्याओं से और दिगम्बरों ने यापनीय परम्परा के ग्रन्थों से ऐसी उसमें ५३ गाथाएँ परवर्ती आचार्यों द्वारा प्रक्षिप्त हैं। यही स्थिति कुन्दकुन्द ही छेड़-छाड़ की। के समयसार, वट्टकेर के मूलाचार आदि की भी है। प्रकाशित संस्करणों निष्कर्ष यह है कि इस प्रकार की छेड़-छाड़ प्राचीन काल से में भी गाथाओं की संख्याओं में बहुत अधिक अन्तर है। समयसार लेकर वर्तमान काल तक होती रही है। कोई भी परम्परा इस सन्दर्भ के ज्ञानपीठ के संस्करण में ४१५ गाथाएँ हैं तो अजिताश्रम संस्करण में पूर्ण निर्दोष नहीं कही जा सकती। अत: किसी भी परम्परा का अध्ययन में ४३७ गाथाएँ। मूलाचार के दिगम्बर जैनग्रन्थमाला के संस्करण में करते समय यह आवश्यक है कि हम उन प्रक्षिप्त अथवा परिवर्धित १२४२ गाथाएँ हैं। तो फलटण के संस्करण में १४१४ गाथायें हैं, अंशों पर निष्पक्ष दृष्टि से विचार करें, क्योंकि इस छेड़-छाड़ में कहीं अर्थात् १६२ गाथायें अधिक हैं, यह सब इस बात का प्रमाण है कि कुछ ऐसा अवश्य रह जाता है, जिससे यथार्थता को समझा जा सकता है। दिगम्बर परम्परा के आचार्यों ने श्वेताम्बरों और यापनीयों की अपेक्षा परिवर्धनों और परिवर्तनों के बावजूद भी श्वेताम्बर आगमों की बहुत अधिक प्रक्षेप एवं परिवर्तन किया है। इन उल्लेखों के अतिरिक्त एक विशेषता है, वह यह कि वे सब बातें भी जिनका उनकी परम्परा वर्तमान में भी इस प्रकार के परिवर्तनों के प्रयास हुए हैं, जैसे “धवला" से स्पष्ट विरोध है, उनमें यथावत् रूप से सुरक्षित हैं। यही कारण के सम्पादन के समय मूल ग्रन्थ षट्खण्डागम से “संजद" पद को है कि श्वेताम्बर आगम जैन धर्म के प्राचीन स्वरूप की जानकारी देने हटा देना, ताकि उस ग्रन्थ के यापनीय स्वरूप या स्त्री-मुक्ति के समर्थक में आज भी पूर्णतया सक्षम हैं। आवश्यकता है निष्पक्ष भाव से उनके होने का प्रमाण नष्ट किया जा सके। इस सन्दर्भ में दिगम्बर समाज अध्ययन की। क्योकि उनमें बहुत कुछ ऐसा मिल जाता है, जिसमें में कितनी ऊहापोह मची थी और पक्ष-विपक्ष में कितने लेख लिखे जैनधर्म के विकास और उसमें आये परिवर्तनों को समझा जा सकता गये थे, यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है। यह भी सत्य है कि अन्त है। यही बात किसी सीमा तक यापनीय और दिगम्बर ग्रन्थों के सन्दर्भ में मूलप्रति में "संजद" पद पाया गया। तथापि ताम्रपत्र वाली प्रति में भी कही जा सकती है, यद्यपि श्वेताम्बर साहित्य की अपेक्षा वह में वह पद नहीं लिखा गया, सम्भवत: भविष्य में वह एक नई समस्या अल्प ही है। प्रक्षेप और परिष्कार के बाद भी समग्र जैन साहित्य में उत्पन्न करेगा। इस सन्दर्भ में भी मैं अपनी ओर से कुछ न कहकर __ बहुत कुछ ऐसा है, जो सत्य को प्रस्तुत करता है, किन्तु शर्त यही दिगम्बर परम्परा के मान्य विद्वान् पं० कैलाशचन्द्रजी के शब्दों को ही है कि उसका अध्ययन ऐतिहासिक और सम्प्रदाय निरपेक्ष दृष्टि से हो, उद्धृत कर रहा हूँ। पं० बालचन्द्रशास्त्री की कृति “षखण्डागम- तभी हम सत्य को समझ सकेंगे। परिशीलन" के अपने प्रधान सम्पादकीय में वे लिखते हैं-"समूचा ग्रन्थ प्रकाशित होने से पूर्व ही एक और विवाद उठ खड़ा हुआ। प्रथम जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी? भाग के सूत्र ९३ में जो पाठ हमें उपलब्ध था, उनमें अर्थ-संगति की वर्तमान में 'प्राकृत-विद्या' नामक शोध पत्रिका के माध्यम से जैन दृष्टि से “संजदासंजद" के आगे "संजद' पद जोड़ने की आवश्यकता विद्या के विद्वानों का एक वर्ग आग्रहपूर्वक यह मत प्रतिपादित कर प्रतीत हुई, किन्तु इससे फलित होने वाली सैद्धान्तिक व्यवस्थाओं से रहा है “जैन आगमों की मूल भाषा शौरसेनी प्राकृत थी, जो कालान्तर कुछ विद्वानों के मन आलोडित हुए और वे “संजद" पद को जोड़ना में परिवर्तित करके अर्धमागधी बना दी गई"। इस वर्ग का यह भी एक अनधिकार चेष्टा कहने लगे। इस पर बहुत बार मौखिक शास्त्रार्थ दावा है कि शौरसेनी प्राकृत ही प्राचीनतम प्राकृत है और अन्य सभी भी हुए और उत्तर-प्रत्युत्तर रूप लेखों की श्रृंखलाएँ भी चल पड़ी, प्राकृतें यथा- मागधी, पैशाची, महाराष्ट्री आदि इसी से विकसित जिनका संग्रह कुछ स्वतंत्र ग्रन्थों में प्रकाशित भी हुआ। इसके मौखिक हुई हैं, अत: वे सभी शौरसेनी प्राकृत से परवर्ती भी हैं। इसी क्रम समाधान हेतु जब सम्पादकों ने ताड़पत्रीय प्रतियों के पाठ की सूक्ष्मता । में दिगम्बर परम्परा में आगमों के रूप में मान्य आचार्य कुन्दकुन्द के से जाँच करायी तब पता चला कि वहाँ की दोनों भिन्न प्रतियों में हमारा ग्रन्थों में निहित अर्धमागधी और महाराष्ट्री शब्दरूपों को परिवर्तित सुझाया गया 'संजद' पद विद्यमान है। इससे दो बातें स्पष्ट हुई- कर उन्हें शौरसेनी में रूपान्तरित करने का एक सुनियोजित प्रयत्न भी एक तो यह कि सम्पादकों ने जो पाठ-संशोधन किया है, वह गम्भीर किया जा रहा है। इस समस्त प्रचार-प्रसार के पीछे मूलभूत उद्देश्य चिन्तन और समझदारी पर आधारित है और दूसरी यह कि मूल प्रतियों यह है कि श्वेताम्बर मान्य आगमों को दिगम्बर परम्परा में मान्य आगमतुल्य से पाठ मिलान की आवश्यकता अब भी बनी हुई है, क्योंकि जो ग्रन्थों से अर्वाचीन और अपने शौरसेनी में निबद्ध आगमतुल्य ग्रन्थों पाठान्तर मूडबिद्री से प्राप्त हुए थे और तृतीय भाग के अन्त में समाविष्ट को प्राचीन सिद्ध किया जाये। इस पारस्परिक विवाद का एक परिणाम किये गये थे उनमें यह संशोधन नहीं मिला।"
यह भी हो रहा है कि श्वेताम्बर-दिगम्बर परम्परा के बीच कटुता की मेरे उपर्युक्त लेखन का तात्पर्य किसी की भावनाओं को ठेस खाई गहरी होती जा रही है और इन सब में एक निष्पक्ष भाषाशास्त्रीय पहुँचाना नहीं है, किन्तु मूलग्रन्थों के साथ ऐसी छेड़-छाड़ करने के अध्ययन को पीछे छोड़ दिया जा रहा है। प्रस्तुत निबन्ध में मैं इन लिए श्वेताम्बर, दिगम्बर, यापनीय सभी समानरूप से दोषी हैं। जहाँ सभी प्रश्नों पर श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा में आगम रूप में ग्रन्थों श्वेताम्बर ने अपने ही पूर्व अविभक्त परम्परा के आगमों से ऐसी छेड़-छाड़ के आलोक में चर्चा करने का प्रयत्न करूँगा।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ क्या आगम साहित्य मूलतः शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध था?
दूसरी ओर प्राकृत-विद्या के सम्पादक डॉ. सुदीप जी का कथन ___ यहाँ सर्वप्रथम मैं इस प्रश्न की चर्चा करना चाहूँगा कि क्या जैन है कि उनके व्याख्यान की टेप हमारे पास उपलब्ध है और हमने उसे आगम साहित्य मूलतः शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध था और उसे बाद अविकल रूप से यथावत् दिया है। मात्र इतना ही नहीं डॉ. सुदीपजी में परिवर्तित करके अर्धमागधी रूप दिया गया? जैन विद्या के कुछ का तो यह भी कथन है कि तुलसीप्रज्ञा के खण्डन के बाद भी वे विद्वानों की यह मान्यता है कि जैन आगम साहित्य मूलत: शौरसेनी टॉटिया जी से मिले हैं और टॉटिया जी ने उन्हें कहा है कि वे अपने कथन प्राकृत में निबद्ध हुआ था और उसे बाद में अर्धमागधी में रूपान्तरित पर आज भी दृढ़ हैं। टॉटिया जी के इस कथन को उन्होंने किया गया। अपने इस कथन के पक्ष में वे श्वेताम्बर, दिगम्बर किन्हीं प्राकृत-विद्या जुलाई-सितम्बर ९६ के अङ्क में निम्न शब्दों में प्रस्तुत भी आगमों का प्रमाण न देकर प्रो. टॉटिया के व्याख्यान से कुछ अंश किया - उद्धृत करते हैं। डॉ. सुदीप जैन ने 'प्राकृत विद्या', जनवरी-मार्च ९६ “मैं संस्कृत विद्यापीठ की व्याख्यानमाला में प्रस्तुत तथ्यों पर के सम्पादकीय में उनके कथन को निम्न रूप में प्रस्तुत किया है- पूर्णतया दृढ़ हूँ तथा यह मेरी तथ्याधारित स्पष्ट अवधारणा है जिससे
"हाल ही में श्री लालबहादुरशास्त्री संस्कृत विद्यापीठ में सम्पत्र विचलित होने का प्रश्न ही नहीं उठता है"। (पृ. ९) . द्वितीय आचार्य कुन्दकुन्दस्मृति व्याख्यानमाला में विश्वविश्रुत भाषाशास्त्री यह समस्त विवाद दो पत्रिकाओं के माध्यम से दोनों सम्पादकों एवं दार्शनिक विचारक प्रो० नथमल जी टॉटिया ने स्पष्ट रूप से घोषित के मध्य है, किन्तु इस विवाद में सत्यता क्या है और उसका मूल किया कि "श्रमण-साहित्य का प्राचीन रूप, चाहे वे बौद्धों के त्रिपिटक मन्तव्य क्या है, इसका निर्णय तो तभी सम्भव है जब डॉ. टॉटिया
आदि हों, श्वेताम्बरों के आचाराङ्गसूत्र, दशवैकालिकसूत्र आदि हों अथवा स्वयं इस सम्बन्ध में लिखित वक्तव्य दें, किन्तु वे इस सम्बन्ध में दिगम्बरों के षट्खण्डागमसूत्र, समयसार आदि हों, सभी शौरसेनी प्राकृत मौन हैं। मैंने स्वयं उन्हें पत्र लिखा था, किन्तु उनका कोई प्रत्युत्तर में ही निबद्ध थे। उन्होंने आगे सप्रमाण स्पष्ट किया कि बौद्धों ने बाद नहीं आया। मैं डॉ. टॉटिया की उलझन समझता हूँ। एक ओर कुन्दकुन्दमें श्रीलंका में एक बृहत्सङ्गीति में योजनापूर्वक शौरसेनी में निबद्ध भारती ने उन्हें कुन्दकुन्द व्याख्यानमाला में आमन्त्रित कर पुरस्कृत किया बौद्धसाहित्य का मागधीकरण किया और प्राचीन शौरसेनी में निबद्ध है तो दूसरी और वे जैन विश्वभारती की सेवा में हैं, जब जिस मञ्च बौद्धसाहित्य के ग्रन्थों को अग्निसात् कर दिया। इसी प्रकार श्वेताम्बर से बोले होंगे भावावेश में उनके अनुकूल वक्तव्य दे दिये होंगे और जैन साहित्य का भी प्राचीन रूप शौरसेनी प्राकृत में ही था, जिसका अब स्पष्ट खण्डन भी कैसे करें? फिर भी मेरी अन्तरात्मा यह स्वीकार रूप क्रमश: अर्धमागधी में बदल गया। यदि हम वर्तमान अर्धमागधी नहीं करती है कि डॉ. टॉटिया जैसे गम्भीर विद्वान् बिना प्रमाण के आगम साहित्य को ही मूल श्वेताम्बर आगम-साहित्य मानने पर जोर ऐसे वक्तव्य दें। कहीं न कहीं शब्दों की जोड़-तोड़ अवश्य हो रही देंगे, तो इस अर्धमागधी भाषा का आज से पन्द्रह सौ वर्ष के पहिले है। डॉ. सुदीपजी प्राकृत-विद्या, जुलाई-सितम्बर ९६ में डॉ. टॉटिया अस्तित्व ही नहीं होने से इस स्थिति में हमें अपने आगम साहित्य जी के उक्त व्याख्यानों के विचार बिन्दुओं को अविकल रूप से प्रस्तुत को भी ५०० वर्ष ई. के परवर्ती मानना पड़ेगा।" उन्होंने स्पष्ट किया करते हुए लिखते हैं कि- "हरिभद्र का सारा योगशतक धवला कि आज भी आचाराङ्गसूत्र आदि की प्राचीन प्रतियों में शौरसेनी के से है।" शब्दों की प्रचुरता मिलती है, जबकि नये प्रकाशित संस्करणों में उन इसका तात्पर्य है कि हरिभद्र के योगशतक को धवला के आधार शब्दों का अर्द्धमागधीकरण हो गया है। उन्होंने कहा कि पक्षव्यामोह पर बनाया गया है। क्या टॉटिया जी जैसे विद्वान् को इतना भी इतिहास के कारण ऐसे परिवर्तनों से हम अपने साहित्य का प्राचीन मूलरूप बोध नहीं है कि योगशतक के कर्ता हरिभद्रसूरि और धवला के कर्ता खो रहे हैं। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि दिगम्बर जैन साहित्य में में कौन पहले हुआ है? यह तो ऐतिहासिक सत्य है कि हरिभद्रसूरि ही शौरसेनी भाषा के प्राचीनरूप सुरक्षित उपलब्ध हैं।"
का योगशतक (आठवीं शती), धवला (१०वीं शती) से पूर्ववर्ती है। निस्संदेह प्रोटॉटिया जैन और बौद्ध विद्याओं के वरिष्ठतम विद्वानों मुझे विश्वास ही नहीं होता है, कि टॉटिया जी जैसा विद्वान् इस ऐतिहासिक में एक हैं और उनके कथन का कोई अर्थ और आधार भी होगा। सत्य को अनदेखा कर दे। कहीं न कहीं उनके नाम पर कोई भ्रम किन्तु ये कथन उनके अपने हैं या उन्हें अपने पक्ष की पुष्टि हेतु तोड़-मरोड़ खड़ा किया जा रहा है। डॉ. टॉटिया जी को अपनी चुप्पी तोड़कर कर प्रस्तुत किया गया है, यह एक विवादास्पद प्रश्न है? क्योंकि एक इस भ्रम का निराकरण करना चाहिए। वस्तुत: यदि कोई भी चर्चा ओर तुलसीप्रज्ञा के सम्पादक का कहना है कि टॉटिया जी ने इसका प्रमाणों के आधार पर नहीं होती है तो उसको कैसे मान्य किया जा खण्डन किया है। वे तुलसीप्रज्ञा (अप्रैल-जून, ९६, खण्ड २२, अंक सकता है, फिर चाहे उसे कितने ही बड़े विद्वान् ने क्यों न कहा हो? ४) में लिखते हैं कि- "डॉ. नथमल टॉटिया ने दिल्ली की एक यदि व्यक्ति का ही महत्त्व मान्य है, तो अभी संयोग से टॉटिया जी पत्रिका में छपे और उनके नाम से प्रचारित इस कथन का खण्डन से भी वरिष्ठ अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के जैन, बौद्ध विद्याओं के महामनीषी किया है कि महावीरवाणी शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध हुई। उन्होंने स्पष्ट और स्वयं टॉटिया जी के गुरु पद्मविभूषण पं. दलसुखभाई मालवणिया मत प्रकट किया कि आचाराङ्ग, उत्तराध्ययन, सूत्रकृताङ्ग और हमारे बीच हैं, फिर तो उनके कथन को अधिक प्रामाणिक मानकर दशवैकालिक में अर्धमागधी भाषा का उत्कृष्ट रूप है।"
प्राकृत-विद्या के सम्पादक को स्वीकार करना होगा। खैर यह सब
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अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श
२१ प्रास्ताविक बातें थीं, जिससे यह समझा जा सके कि समस्या क्या अर्थ में लिखा है- “एक योजन तक भगवान की वाणी स्वयमेव है, कैसे उत्पन्न हुई और प्रस्तुत स्पष्टीकरण की क्या आवश्यकता है? सुनाई देती है। उसके आगे संख्यात योजनों तक उस दिव्यध्वनि का हमें तो व्यक्तियों के कथनों या वक्तव्यों पर न जाकर तथ्यों के प्रकाश विस्तार मगध जाति के देव करते हैं। अत: अर्धमागधी भाषा देवकृत में इसकी समीक्षा करनी है कि आगमों की मूलभाषा क्या थी और है। (षट्प्राभृतम्, चतुर्थ बोध गाथा ३२, पाहुडटीका, पृ०१७६)। अर्धमागधी और शौरसेनी में कौन प्राचीन है?
___ मात्र यही नहीं वर्तमान में भी दिगम्बर परम्परा के महान् संत
एवं आचार्य विद्यासागर जी के प्रमुख शिष्य मुनि श्री प्रमाणसागरजी आगमों की मूलभाषा अर्धमागधी
अपनी पुस्तक 'जैनर्धमदर्शन' में लिखते हैं कि 'उन भगवान् महावीर यह एक सुनिश्चित सत्य है कि महावीर का जन्मक्षेत्र और कार्यक्षेत्र का उपदेश सर्वग्राह्य अर्धमागधी भाषा में हुआ। दोनों ही मुख्य रूप से मगध और उसके समीपवर्ती क्षेत्र में ही था, अतः जब श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराएँ यह मानकर चल यह स्वाभाविक है कि उन्होंने जिस भाषा को बोला होगा वह समीपवर्ती रही हैं कि भगवान् का उपदेश अर्धमागधी में हुआ था और इसी भाषा क्षेत्रीय बोलियों से प्रभावित मागधी अर्थात् अर्धमागधी ही रही होगी। में उनके उपदेशों के आधार पर आगमों का प्रणयन हुआ तो फिर व्यक्ति की भाषा कभी भी अपनी मातृभाषा से अप्रभावित नहीं होती शौरसेनी के नाम से नया विवाद खड़ा करके इस खाई को चौड़ा क्यों है। पुनः श्वेताम्बर परम्परा में मान्य जो भी आगम साहित्य आज उपलब्ध किया जा रहा है? हैं, उनमें अनेक ऐसे सन्दर्भ हैं, जिनमें स्पष्ट रूप से यह उल्लेख है यह तो आगमिक प्रमाणों की चर्चा हुई। व्यावहारिक एवं कि महावीर ने अपने उपदेश अर्धमागधी भाषा में दिये थे। ऐतिहासिक तथ्य भी इसी की पुष्टि करते हैं - - इस सम्बन्ध में अर्धमागधी आगम-साहित्य से कुछ प्रमाण प्रस्तुत १. यदि महावीर ने अपने उपदेश अर्धमागधी में दिये तो यह स्वाभाविक किये जा रहे हैं यथा -
है कि गणधरों ने उसी भाषा में आगमों का प्रणयन किया होगा। १. भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खइ। -समवायाङ्ग, अत: सिद्ध है कि आगमों की मूल भाषा क्षेत्रीय बोलियों से प्रभावित समवाय ३४, सूत्र २२।।
मागधी अर्थात् अर्धमागधी रही है, यह मानना होगा। २. तए णं समणे भगवं महावीरे कुणिअस्स भंभसारपुत्तस्स अद्धमागहीए २. इसके विपरीत शौरसेनी आगमतुल्य मान्य ग्रन्थों में से किसी एक
भासाए भासत्ति अरिहाधम्म परिकहइ। - औपपातिकसूत्र। भी ग्रन्थ में एक भी सन्दर्भ ऐसा नहीं है, जिससे यह प्रतिध्वनित ३. गोयमा! देवाणं अद्धमागहीए भासाए भासंति सवियणं अद्धमागहा भी होता हो कि आगमों की मूल भाषा शौरसेनी प्राकृत थी। उनमें
भासा भासिज्जमाणी विसज्जति।- भगवई, लाडनूं : शतक ५, मात्र यह उल्लेख है कि तीर्थङ्करों की जो वाणी खिरती है, वह उद्देशक ४, सूत्र ९३।
सर्वभाषारूप परिणत होती है। उसका तात्पर्य मात्र इतना ही है ४. तए णं समणे भगवं महावीरे उसभदत्तमाहणस्स देवाणंदा माहणीए कि उनकी वाणी जनसाधारण को आसानी से समझ में आती
तीसे य महति महलियाए इसिपरिसाए मणिपरिसाए जइपरिसाए.... थी। वह लोकवाणी थी। उसमें मगध के निकटवर्ती क्षेत्रों की क्षेत्रीय सव्व भासणुगामणिए सरस्सईए जोयणणीहारिणासरेणं अद्धमगहाए बोलियों के शब्द रूप भी होते थे और यही कारण था कि उसे भासाइ धम्म परिकहइ। - भगवई लाडनूं, शतक ९, उद्देशक मागधी न कहकर अर्धमागधी कहा गया था। ३३, सूत्र १४९।
३. जो ग्रन्थ जिस क्षेत्र में रचित या सम्पादित होता है, उसका वहाँ ५. तए णं समणे भगवं महावीरे जामालिस्स खत्तियकुमारस्स.... की बोली से प्रभावित होना स्वाभाविक है। प्राचीन स्तर के जैन
अद्धमगाहाए भासाए भासइ धम्म परिकहइ। -भगवई, लाडनं आगम यथा आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग इसिभासियइं (ऋषिभाषित), : शतक ९, उद्देशक ३३, सूत्र १६३।
उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि मगध और उसके समीपवर्ती क्षेत्र ६. सव्वसत्तसमदरिसीहिं अद्धमागहीए भासाए सुत्तं उवदिठ्ठ। - में रचित हैं और उनमें इसी क्षेत्र के नगरों आदि की सूचनाएँ आचाराङ्गचूर्णि, जिनदासगणि, पृ० २५५।
हैं। मूल आगमों में एक भी ऐसी सूचना नहीं है कि महावीर मात्र इतना ही नहीं, दिगम्बर परम्परा में मान्य आचार्य कुन्दकुन्द ने बिहार, बङ्गाल और पूर्वी उत्तर प्रदेश से आगे विहार किया के ग्रन्थ बोधपाहुड, जो स्वयं शौरसेनी में निबद्ध है, उसकी टीका हो। अत: उनकी भाषा अर्धमागधी ही रही होगी। में दिगम्बर आचार्य श्रुतसागर जी लिखते हैं कि भगवान् महावीर ४. पुनः आगमों की प्रथम वाचना पाटलिपुत्र में और दूसरी खण्डगिरि ने अर्धमागधी भाषा में अपना उपदेश दिया। प्रमाण के लिये उस (उड़ीसा) में हुई, ये दोनों क्षेत्र मथुरा से पर्याप्त दूरी पर स्थित टीका के अनुवाद का वह अंश प्रस्तुत है - अर्ध मगध देश हैं, अत: कम से कम प्रथम और द्वितीय वाचना के समय तक भाषात्मक और अर्ध सर्वभाषात्मक भगवान् की ध्वनि खिरती है। अर्थात् ई.पू. दूसरी शती तक उनके शौरसेनी में रूपान्तरित होने शङ्का- अर्धमागधी भाषा देवकृत अतिशय कैसे हो सकती है, का या उससे प्रभावित होने का प्रश्न ही नहीं उठता है। क्योंकि भगवान् की भाषा ही अर्धमागधी है? उत्तर- मगध देव यह सत्य है कि उसके पश्चात् जब जैन धर्म एवं विद्या का केन्द्र के सान्निध्य से होने से आचार्य प्रभाचन्द्र ने नन्दीश्वर भक्ति के पाटलिपुत्र से हटकर लगभग ई.पू. प्रथम शती में मथुरा बना तो उस
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जैन विद्या के पर शौरसेनी का प्रभाव आना प्रारम्भ हुआ । यद्यपि मथुरा से प्राप्त दूसरी शती तक के अभिलेखों का शौरसेनी के प्रभाव से मुक्त होना यही सिद्ध करता है कि जैनागमों पर शौरसेनी का प्रभाव दूसरी शती के पश्चात् ही प्रारम्भ हुआ होगा। सम्भवतः फल्गुमित्र ( दूसरी शती) के समय या उसके भी पश्चात् स्कंदिल (चतुर्थ शती) की माथुरी वाचना के समय उन पर शौरसेनी प्रभाव आया था, यही कारण है कि यापनीय परम्परा में मान्य आचाराङ्ग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, निशीथ, कल्प आदि जो आगम रहे हैं, वे शौरसेनी से प्रभावित रहे हैं। यदि डॉ० टॉटिया ने यह कहा है कि आचाराङ्ग आदि श्वेताम्बर आगमों का शौरसेनी प्रभावित संस्करण भी था जो मथुरा क्षेत्र में विकसित यापनीय परम्परा को मान्य था, तो उनका कथन सत्य है, क्योंकि भगवती आराधना की टीका में आचाराङ्ग, उत्तराध्ययन, निशीथ आदि के जो सन्दर्भ दिये गये हैं वे सभी शौरसेनी से प्रभावित हैं। किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि आगमों की रचना शौरसेनी में हुई थी और बाद में वे अर्धमागधी में रूपान्तरित किये गये। ज्ञातव्य है कि यह माथुरी वाचना स्कंदिल के समय महावीर निर्वाण के लगभग आठ सौ वर्ष पश्चात् हुई थी और उसमें आगमों की वाचना हुई, वे सभी उसके पूर्व अस्तित्व में थे। यापनीयों ने आगमों के इसी शौरसेनी प्रभावित संस्करण को मान्य किया था, किन्तु दिगम्बरों को तो वे आगम भी मान्य नहीं थे, क्योंकि उनके अनुसार तो इस माथुरी वाचना के लगभग दो सौ वर्ष पूर्व ही आगम साहित्य विलुप्त हो चुका था । श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, कल्प, व्यवहार, निशीथ आदि तो ई.पू. चौथी शती से दूसरी शती तक की रचनाएँ हैं, जिसे पाश्चात्य विद्वानों ने भी स्वीकार किया है। ज्ञातव्य है कि मथुरा का जैन विद्या के केन्द्र के रूप में विकास ई.पू. प्रथम शती से ही हुआ है और उसके पश्चात् ही इन आगमों पर शौरसेनी प्रभाव आया होगा।
आगमों के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन कब और कैसे?
यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि स्कंदिल की इस माथुरी वाचना के समय ही समानान्तर रूप से एक वाचना वल्लभी (गुजरात) में नागार्जुन की अध्यक्षता में हुई थी और इसी काल में उन पर महाराष्ट्री प्रभाव भी आया क्योंकि उस क्षेत्र की प्राकृत महाराष्ट्री प्राकृत थी इसी महाराष्ट्री से प्रभावित आगम आज तक श्वेताम्बर परम्परा में मान्य हैं। प्राकृत अतः इस तथ्य को भी स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि आगमों के महाराष्ट्री प्रभावित और शौरसेनी प्रभावित संस्करण जो लगभग ईसा की चतुर्थ पञ्चम शती में अस्तित्व में आये, उनका मूल आधार अर्धमागधी आगम ही थे। यह भी ज्ञातव्य है कि न तो स्कंदिल की माथुरी वाचना में और न नागार्जुन की वलभी वाचना में आगमों की भाषा में सोच-समझ पूर्वक कोई परिवर्तन किया गया था। वास्तविकता यह है कि उस युग तक आगम कण्ठस्थ चले आ रहे थे और कोई भी कण्ठस्थ ग्रन्थ स्वाभाविक रूप से कण्ठस्थ करने वाले व्यक्ति की क्षेत्रीय बोली से अर्थात् उच्चारण शैली से अप्रभावित नहीं रह सकता
आयाम खण्ड ६
है, यही कारण था कि जो उत्तर भारत का निर्ग्रन्थ संघ मथुरा में एकत्रित हुआ उसके आगम पाठ उस क्षेत्र की बोली- शौरसेनी से प्रभावित हुए और जो पश्चिमी भारत का निर्मन्थ संघ वलभी में एकत्रित हुआ उसके आगम पाठ उस क्षेत्र की बोली महाराष्ट्री प्राकृत से प्रभावित हुए। पुनः यह भी स्मरण रखना चाहिए कि इन दोनों वाचनाओं में सम्पादित आगमों का मूल आधार तो अर्धमागधी आगम ही थे, यही कारण है कि शौरसेनी आगम न तो शुद्ध शौरसेनी में हैं और न वलभी वाचना के आगम शुद्ध महाराष्ट्री में हैं, उन दोनों में अर्धमागधी के शब्द रूप तो उपलब्ध होते ही हैं। शौरसेनी आगमों में तो अर्धमागधी के साथ-साथ महाराष्ट्री प्राकृत के शब्द रूप भी बहुलता से मिलते हैं, यही कारण है कि भाषाविद् उनकी भाषा को जैन शौरसेनी और जैन महाराष्ट्री कहते हैं। दुर्भाग्य तो यह है कि जिन शौरसेनी आगमों की दुहाई दी जा रही है, उनमें से अनेक ५० प्रतिशत से अधिक अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृत से प्रभावित है श्वेताम्बर और दिगम्बर मान्य आगमों में प्राकृत के रूपों का जो वैविध्य है उसके कारणों की विस्तृत चर्चा मैंने अपने लेख "जैन आगमों में हुआ भाषिक स्वरूप परिवर्तन' में की है।
क्या शौरसेनी आगमों के भाषिक स्वरूप में एकरूपता है?
किन्तु डॉ. सुदीप जैन का दावा है कि "आज भी शौरसेनी आगम- साहित्य में भाषिक तत्त्व की एकरूपता है, जबकि अर्धमागधी आगम साहित्य में भाषा के विविध रूप पाये जाते हैं। उदाहरणस्वरूप शौरसेनी में सर्वत्र "ण" का प्रयोग मिलता है, कहीं भी 'न' का प्रयोग नहीं है, जबकि अर्धमागधी में नकार के साथ-साथ णकार का प्रयोग भी विकल्पतः मिलता है। यदि शौरसेनी युग में नकार का प्रयोग अलग भाषा में प्रचलित होता तो दिगम्बर साहित्य में कहीं तो विकल्प से प्राप्त होता ।” (प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर, ९६, पृ०७) ।
यहाँ डॉ. सुदीप जैन ने दो बातें उठाई है— प्रथम शौरसेनी आगम साहित्य की भाषिक एकरूपता की और दूसरी 'ण' कार और 'न' कार की। क्या सुदीप जी, आपने शौरसेनी आगम साहित्य के उपलब्ध संस्करणों का भाषाशास्त्र की दृष्टि से कोई प्रामाणिक अध्ययन किया है? यदि आपने किया होता तो आप ऐसा खोखला दावा प्रस्तुत नहीं करते? आप केवल 'ण' कार का ही उदाहरण क्यों देते हैंवह तो महाराष्ट्री और शौरसेनी दोनों में सामान्य है। दूसरे शब्द रूपों की चर्चा क्यों नहीं करते हैं? नीचे मैं दिगम्बर शौरसेनी आगमतुल्य ग्रन्थों से ही कुछ उदाहरण दे रहा हूँ, जिनसे उनके भाषिकतत्त्व की एकरूपता का दावा कितना खोखला है यह सिद्ध हो जाता है मात्र यही नहीं इससे यह भी सिद्ध होता है कि शौरसेनी आगमतुल्य ग्रन्थ न केवल अर्धमागधी से प्रभावित हैं, अपितु उससे परवर्ती महाराष्ट्री प्राकृत से भी प्रभावित हैं
१. आत्मा के लिये अर्धमागधी में आता, अत्ता, अप्पा आदि शब्द रूपों का प्रयोग उपलब्ध है, जबकि शौरसेनी में "द" श्रुति के कारण "आदा" रूप बनता है। समयसार में “आदा" के साथ-साथ "अप्पा" शब्द रूप जो कि अर्धमागधी का है अनेक बार प्रयोग
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अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श
में आया है। केवल समयसार में ही नहीं, अपितु नियमसार (१२०, १२१.१८३ ) आदि में भी "अप्पा" शब्द का प्रयोग है। २. श्रुत का शौरसेनी रूप "सुद" बनता है। शौरसेनी आगमतुल्य ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर "सुद" "सुदकेवली" शब्द के प्रयोग भी हुए है, जबकि समयसार (वर्णी ग्रन्थमाला, गाथा ९ एवं १० ) में स्पष्ट रूप में "सुवकेवली" "सुयणाण" शब्दरूपों का भी प्रयोग मिलता है और ये दोनों महाराष्ट्री शब्द रूप हैं तथा परवर्ती भी हैं। अर्धमागधी में तो सदैव 'सुत' शब्द का प्रयोग होता है। ३. शौरसेनी "द" श्रुतिप्रधान है साथ ही उसमें "लोप" की प्रवृत्ति अत्यल्प है, अतः उसके क्रिया रूप “हवदि, होदि, कुणदि, गिण्हदि कुव्वदि, परिणमदि, भण्णदि, पस्सदि आदि बनते हैं। इन क्रिया रूपों का प्रयोग उन ग्रन्थों में हुआ भी है, किन्तु उन्हीं ग्रन्थों के क्रिया रूपों पर महाराष्ट्री प्राकृत का कितना व्यापक प्रभाव है, इसे निम्न उदाहरणों से जाना जा सकता है
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जाण (गाथा सं. १०), हवई (११, ३१५, ३८६, ३८४), मुणइ (३२), बुच्चइ (४५), कुब्बइ (८१, २८६, ३१९,३२१,३२५,३४०), परिणम (७६,७९,८०), (ज्ञातव्य है कि समयसार के इसी संस्करण की गाथा क्रमांक ७७, ७८७९ में परिणमदि रूप भी मिलता है)। इसी प्रकार के अन्य महाराष्ट्री प्राकृत के रूप, जैसे वेयई (८४), कुणई (७१.९६, २८९,२९३,३२२,३२६), होइ (९४, १९७३०६, ३४९, ३५८), करेई (९४२३७,२३८,३२८,३४८), हवई (४१.३२६, ३२९), जाणई (१८५,३१६,३१९,३२०,३६१), बह (१८९). सेवई (१९७), मरड (२५७,२९०), (जबकि गाथा २५८ में मरदि है), पावइ (२९१, २९२), घिप्पइ (२९६), उप्पज्जइ (३०८), विणस्स (३१२,३४५), दीसह (३२३), आदि भी मिलते हैं (समयसार वर्णी ग्रन्थमाला, वाराणसी) ये तो कुछ ही उदाहरण हैंऐसे अनेक महाराष्ट्री प्राकृत के क्रिया रूप समयसार में उपलब्ध हैं। न केवल समयसार अपितु नियमसार, पंचास्तिकायसार, प्रवचनसार आदि की भी यही स्थिति है।
बारहवीं शती में रचित वसुनन्दिकृत श्रावकाचार ( भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण) की स्थिति तो कुन्दकुन्द के इन ग्रन्थों से भी बदतर है, उसकी प्रारम्भ की सौ गाथाओं में ४० प्रतिशत क्रिया रूप महाराष्ट्री प्राकृत के हैं।
इससे फलित यह होता है कि तथाकथित शौरसेनी आगमों के भाषागत स्वरूप में तो अर्धमागधी आगमों की अपेक्षा भी न केवल अधिक वैविध्य है, अपितु उस महाराष्ट्री प्राकृत का भी व्यापक प्रभाव है, जिसे सुदीप जी शौरसेनी से परवर्ती मान रहे हैं। यदि ये ग्रन्थ प्राचीन होते तो इन पर अर्धमागधी और महाराष्ट्री का प्रभाव कहाँ से आता? प्रो. ए. एन. उपाध्ये ने प्रवचनसार की भूमिका में स्पष्टतः स्वीकार किया है कि उसकी भाषा पर अर्धमागधी का प्रभाव है। प्रो. खड़बड़ी ने तो षट्खण्डागम की भाषा को भी शुद्ध शौरसेनी नहीं माना है।
'न' कार और 'ण' कार में कौन प्राचीन
अब हम णकार और नकार के प्रश्न पर आते हैं। भाई सुदीप जी आपका यह कथन सत्य है कि अर्धमागधी में नकार और णकार दोनों पाये जाते हैं। किन्तु दिगम्बर शौरसेनी आगमतुल्य ग्रन्थों में सर्वत्र णकार का पाया जाना यही सिद्ध करता है कि जिस शौरसेनी को आप अरिष्टनेमि के काल से प्रचलित प्राचीनतम प्राकृत कहना चाहते हैं, उस णकार प्रधान शौरसेनी का जन्म तो ईसा की तीसरी शताब्दी तक हुआ भी नहीं था । "ण" की अपेक्षा न का प्रयोग प्राचीन है। ई० पू० तृतीय शती के अशोक के अभिलेख एवं ई.पू. द्वितीय शती के खारवेल के शिलालेख से लेकर मथुरा के शिलालेख (ई.पू. दूसरी शती से ईसा की दूसरी शती तक) इन लगभग ८० जैन शिलालेखों में एक भी णकार का प्रयोग नहीं है। इनमें शौरसेनी प्राकृत के रूपों यथा " णमो" "अरिहंताणं" और "णमो वद्रुमाणं" का सर्वथा अभाव है। यहाँ हम केवल उन्हीं प्राचीन शिलालेखों को उद्धृत कर रहे हैं, जिनमें इन शब्दों का प्रयोग हुआ है— शातव्य है कि ये सभी अभिलेखीय साक्ष्य जैन शिलालेख संग्रह, भाग २ से प्रस्तुत हैं, जो दिगम्बर जैन समाज द्वारा ही प्रकाशित हैं
१. हाथीगुंफा बिहार का शिलालेख - प्राकृत, जैन सम्राट् खारवेल, मौर्यकाल १६५ वाँ वर्ष, पृ० ४ लेख क्रमाङ्क २- नमो अरहंतानं, नमो सवसिधानं
२. बैकुण्ठ स्वर्गपुरी गुफा, उदयगिरि बिहार, प्राकृत मौर्यकाल १६५व वर्ष लगभग ई.पू. दूसरी शती पू. ११. ले.क्र. 'अरहन्तपसादन'।
३. मथुरा, प्राकृत महाक्षत्रप शोडाशके ८१ वर्ष का. ५.१२. क्रमा ५. 'नम अरहतो वधमानस'।
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४. मथुरा, प्राकृत काल निर्देश नहीं दिया है, किन्तु जे. एफ. फ्लीट के अनुसार लगभग १४-१३ ई. पूर्व का होना चाहिए. पू. १५, क्रमाङ्क ८, 'अरहतो वर्धमानस्य' ।
५. मथुरा, प्राकृत सम्भवतः १४ १३, ई० पू० प्रथमशती, क्रमाङ्क १० मा अरहतपूजा' ।
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६. मथुरा, प्राकृत ५.१७ क्रमाङ्क १४ मा अहतानं श्रमण अविका' । ७. मथुरा, प्राकृत पृ. १७ क्रमाङ्क १५, 'नमो अरहंतान' ८. मथुरा, प्राकृत पृ० १८, क्रमाङ्क १६, 'नमो अरहतो महाविरस' । ९. मथुरा, प्राकृत हुविष्क संवत् ३९ हस्तिस्तम्भ, पृ. ३४, क्रमा ४३, 'अययॆन रुद्रदासेन' अरहंतनं पुजाये।
१०. मथुरा, प्राकृत भग्न वर्ष ९३ पृ.४६ क्रमाङ्क ६७, 'नमो अहंतो महाविरस्य'।
११. मथुरा, प्राकृत वासुदेव सं. ९८, पृ.४७ क्रमाङ्क ६०, नमो अरहतो महावीरस्य ।
पृ. १५,
लेख
१२. मथुरा, प्राकृत ५०४८ क्रमाङ्क ७१. 'नमो अरहंतानं सिहकसं'। १३. मथुरा, प्राकृत भग्न, पृ.४८ क्रमाङ्क ७२ 'नमो अरहंतान'। १४. मथुरा, प्राकृत भग्न, पृ.४८ क्रमाङ्क ७३ 'नमो अरहंतान'।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ १५. मथुरा, प्राकृत भग्न, पृ.४८, क्रमाङ्क ७५, 'अरहंतान वधमानस्य'। के ही शौरसेनी संस्करण थे, जो यापनीय परम्परा में मान्य थे और १६. मथुरा, प्राकृत भग्न, पृ.५१, क्रमाङ्क८० 'नमो अरहंतान..द्वन"। जिनकी भाषिक स्वरूप और कुछ पाठ भेदों को छोड़कर श्वेताम्बर
शूरसेन प्रदेश, जहाँ से शौरसेनी प्राकृत का जन्म हुआ, वहाँ मान्य आगमों से समरूपता थी। इनके स्वरूप आदि के सम्बन्ध में के शिलालेखों में दूसरी-तीसरी शती तक णकार एवं 'द' श्रुति के विस्तृत चर्चा मैंने “जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय" नामक ग्रन्थ के प्रयोग का अभाव यही सिद्ध करता है कि दिगम्बर आगमों एवं नाटकों तीसरे अध्याय के प्रारम्भ में की है। इच्छुक पाठक उसे वहाँ देख की शौरसेनी का जन्म ईसा की दूसरी शती के पूर्व का नहीं है, जबकि सकते हैं। नकार प्रधान अर्धमागधी का प्रयोग तो अशोक के अभिलेखों से अर्थात् वस्तुत: आज जिन्हें हम शौरसेनी आगम के नाम से जानते हैं ई.पू. तीसरी शती से सिद्ध होता है। इससे यही फलित होता है कि उनमें मुख्यत: निम्न ग्रन्थ आते हैं - अर्धमागधी आगम प्राचीन थे, आगमों का शब्द रूपान्तरण अर्धमागधी से शौरसेनी में हुआ है, न कि शौरसेनी से अर्धमागधी में। दिगम्बर अ. यापनीय मान्य आगमों की शौरसेनी की जिस प्राचीनता का बढ़-चढ़ कर १. कसायपाहुड, लगभग ईसा की चौथी शती, गुणधर . दावा किया जाता है, वह अर्धमागधी और महाराष्ट्री दोनों से ही २. षट्खण्डागम, ईसा की पाँचवीं शती का उत्तरार्ध, पुष्पदंत और प्रभावित है और न केवल भाषायी स्वरूप के आधार पर अपितु भूतबली विषय-वस्तु के आधार पर भी ईसा की चौथी-पाँचवी शती के पूर्व ३. भगवतीआराधना, ईसा की छठी शती, शिवार्य का नहीं है।
४. मूलाचार, ईसा की छठी शती, वट्टकेर यदि शौरसेनी प्राचीनतम प्राकृत है, तो फिर सम्पूर्ण देश में ईसा ज्ञातव्य है कि ये सभी ग्रन्थ मूलत: यापनीय परम्परा के हैं और की तीसरी-चौथी शती तक एक भी अभिलेख शौरसेनी प्राकृत में क्यों इनमें अनेक गाथाएँ श्वेताम्बर मान्य आगमों, विशेष रूप से नियुक्तियों नहीं मिलता है। अशोक के अभिलेख, खारवेल के अभिलेख, बलडी और प्रकीर्णकों के समरूप हैं। के अभिलेख और मथुरा के शताधिक अभिलेख कोई भी तो शौरसेनी प्राकृत में नहीं हैं। इन सभी अभिलेखों की भाषा क्षेत्रीय बोलियों से ब. कुन्दकुन्द द्वारा रचित ईसा की लगभग छठी शती के ग्रन्थ प्रभावित मागधी ही है। अत: उसे अर्धमागधी तो कहा जा सकता है, ५. समयसार किन्तु शौरसेनी कदापि नहीं कहा जा सकता है। अत: प्राकृतों में ६. नियमसार अर्धमागधी ही प्राचीन है, क्योंकि मथुरा के प्राचीन अभिलेखों में भी ७. प्रवचनसार 'नमो अरहंतानं', 'नमो वधमानस' आदि अर्धमागधी शब्द रूप मिलते ८. पञ्चास्तिकायसार हैं। श्वेताम्बर आगमों एवं अभिलेखों में आये 'अरहंतानं' पाठ को तो ९. अष्टपाहुड (इनका कुन्दकुन्द द्वारा रचित होना सन्दिग्ध है, क्योंकि प्राकृत-विद्या में खोटे सिक्के की तरह बताया गया है, इसका अर्थ इसकी भाषा में अपभ्रंश के शब्द भी पाये जाते हैं)। है कि यह पाठ शौरसेनी का नहीं है (प्राकृत-विद्या, अक्टूबर-दिसम्बर ९४, पृ.१०-११)। अतः शौरसेनी उसके बाद ही विकसित हुई है। स अन्य ग्रन्थ, ईसा की छठी शती के पश्चात्
१०.तिलोयपण्णत्ति-यतिवृषभ शौरसेनी आगम और उनकी प्राचीनता
११.लोकविभाग जब हम आगम की बात करते हैं तो हमें यह स्पष्ट रूप से समझ १२.जम्बूद्वीपपण्णत्ति लेना चाहिए कि आचाराङ्ग आदि द्वादशाङ्गी जिन्हें श्वेताम्बर, दिगम्बर १३.अङ्गपण्णत्ति और यापनीय परम्परा आगम कहकर उल्लेख करती हैं, वे सभी मूलतः १४.क्षपणसार अर्धमागधी में निबद्ध हुए हैं। चाहे श्वेताम्बर परम्परा में नन्दीसूत्र में १५.गोम्मटसार (दसवीं शती) उल्लिखित आगम हो, चाहे मूलाचार, भगवती आराधना और उनकी किन्तु इनमें से कषायपाहुड को छोड़कर कोई भी ग्रन्थ ऐसा टीकाओं में या तत्त्वार्थ और उसकी दिगम्बर टीकाओं में उल्लिखित नहीं है, जो पाँचवीं शती के पूर्व का हो। ये सभी ग्रन्थ गुणस्थान आगम हो, अथवा अङ्गपण्णत्ति एवं धवला के अङ्ग और अङ्ग बाह्य सिद्धान्त एवं सप्तभङ्गी की चर्चा अवश्य करते हैं और गुणस्थान की के रूप में उल्लिखित आगम हो, उनमें से एक भी ऐसा नहीं है जो चर्चा जैन दर्शन में पांचवीं शती से पूर्व के ग्रन्थों में अनुपस्थित है। शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध रहा हो। हाँ इतना अवश्य है कि इनमें से श्वेताम्बर आगमों में समवायाङ्ग और आवश्यकनियुक्ति की दो प्रक्षिप्त कुछ के शौरसेनी प्राकृत से प्रभावित संस्करण माथुरी वाचना के लगभग गाथाओं को छोड़कर गुणस्थान की चर्चा पूर्णत: अनुपस्थित है, जबकि चतुर्थ शती के समय अस्तित्व में अवश्य आये थे, किन्तु इन्हें शौरसेनी षट्खण्डागम, मूलाचार, भगवती आराधना आदि ग्रन्थों में और कुन्दकुन्द आगम कहना उचित नहीं होगा, वस्तुत: ये आचाराङ्ग, उत्तराध्ययन, के ग्रन्थों में इनकी चर्चा पायी जाती है, अत: ये सभी ग्रन्थ उनसे दशवैकालिक, ऋषिभाषित आदि श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आगमों परवर्ती हैं। इसी प्रकार उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र मूल और उसके स्वोपज्ञ
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अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श
२५ भाष्य में भी गुणस्थान की चर्चा अनुपस्थित है, जबकि इसकी परवर्ती का एक भी ऐसा ग्रन्थ या अभिलेख दिखा दें, जो अर्धमागधी आगमों टीकाएँ गुणस्थान की विस्तृत चर्चा प्रस्तुत करती हैं। उमास्वाति का और मागधी प्रधान अशोक, खारवेल, आदि के अभिलेखों से प्राचीन काल तीसरी-चौथी शती के लगभग है। अत: यह निश्चित है कि गुणस्थान हो। अर्धमागधी के अतिरिक्त जिस महाराष्ट्री प्राकृत को वे शौरसेनी का सिद्धान्त पाँचवीं शती में अस्तित्व में आया है। अत: शौरसेनी से परवर्ती बता रहे हैं, उसमें सातवाहन नरेश हाल की गाथा सप्तशती प्राकृत में निबद्ध कोई भी ग्रन्थ जो गुणस्थान का उल्लेख कर रहा लगभग प्रथम शती में रचित है और शौरसेनी के किसी भी ग्रन्थ से है, ईसा की पाँचवीं शती के पूर्व का नहीं है। प्राचीन शौरसेनी आगमतुल्य प्राचीन है। ग्रन्थों में मात्र कसायपाहुड ही ऐसा है जो स्पष्टत: गुणस्थानों का पुन: मैं डॉ.सुदीप के निम्न कथन की ओर पाठकों का ध्यान उल्लेख नहीं करता है, किन्तु उसमें भी प्रकारान्तर से १२ गुणस्थानों दिलाना चाहूँगा, वे प्राकृत-विद्या, जुलाई-सितम्बर ९६ में लिखते हैं की चर्चा उपलब्ध है, अत: वह भी आध्यात्मिक विकास की उन दस कि दिगम्बरों के ग्रन्थ उस शौरसेनी प्राकृत में हैं, जिससे 'मागधी' अवस्थाओं, जिनका उल्लेख आचाराङ्गनियुक्ति और तत्त्वार्थसूत्र में है, आदि प्राकृतों का जन्म हुआ, इस सम्बन्ध में मेरा उनसे निवेदन है से परवर्ती और गुणस्थान सिद्धान्त के विकास के संक्रमण काल की कि मागधी के सम्बन्ध में 'प्रकृति: शौरसेनी' (प्राकृतप्रकाश, ११/२) रचना है, अत: उसका काल भी चौथी से पाँचवीं शती के बीच सिद्ध इस कथन की वे जो व्याख्या कर रहे हैं वह भ्रान्त है और वे स्वयं होता है।
भी शौरसेनी के सम्बन्ध में 'प्रकृतिः संस्कृतम्' (प्राकृतप्रकाश, १२/
२), इस सूत्र की व्याख्या में 'प्रकृति:' का जन्मदात्री यह अर्थ अस्वीकार शौरसेनी की प्राचीनता का दावा, कितना खोखला
कर चुके हैं। इसकी विस्तृत समीक्षा हमने अग्रिम पृष्ठों में की है। शौरसेनी की प्राचीनता का गुणगान इस आधार भी किया जाता इसके प्रत्युत्तर में मेरा दूसरा तर्क यह है कि यदि शौरसेनी प्राकृत है कि यह नारायण कृष्ण और तीर्थङ्कर अरिष्टनेमि की मातृभाषा रही ग्रन्थों के आधार पर ही मागधी के प्राकृत आगमों की रचना हुई, तो है, क्योंकि इन दोनों महापुरुषों का जन्म शूरसेन जनपद में हुआ था उनमें किसी भी शौरसेनी प्राकृत के ग्रन्थ का उल्लेख क्यों नहीं है? और ये शौरसेनी प्राकृत में ही अपना वाक् व्यवहार करते थे। डॉ.सुदीप श्वेताम्बर आगमों में वे एक भी सन्दर्भ दिखा दें, जिनमें भगवतीआराधना, जी के शब्दों में “इन दोनों महापुरुषों के प्रभावक व्यक्तित्व के महाप्रभाव मूलाचार, षट्खण्डागम, तिलोयपण्णत्ति, प्रवचनसार, समयसार, से शूरसेन जनपद में जन्मी शौरसेनी प्राकृत भाषा को सम्पूर्ण आर्यावर्त नियमसार आदि का उल्लेख हुआ हो। टीकाओं में भी मलयगिरि (तेरहवीं में प्रसारित होने का सुअवसर मिला था।" (प्राकृतविद्या-जुलाई-सितम्बर शती) ने मात्र 'समयपाहुड' का उल्लेख किया है। इसके विपरीत ९६, पृ.६)।
मूलाचार, भगवतीआराधना और षट्खण्डागम की टीकाओं में एवं यदि हम एक बार उनके इस कथन को मान भी लें, तो प्रश्न तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक आदि सभी उठता है अरिष्टनेमि के पूर्व नमि मिथिला में जन्मे थे, वासुपूज्य चम्पा दिगम्बर टीकाओं में इन आगमों एवं नियुक्तियों के उल्लेख हैं। में जन्मे थे, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ और श्रेयांस काशी जनपद में जन्मे थे, भगवतीआराधना की टीका में तो आचाराङ्ग, उत्तराध्ययन, कल्प तथा यही नहीं प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव और मर्यादा पुरुषोत्तम राम अयोध्या निशीथ से अनेक अवतरण भी दिये गये हैं। मूलाचार में न केवल में जन्मे थे। ये सभी क्षेत्र तो मगध के ही निकटवर्ती हैं, अत: इनकी अर्धमागधी आगमों का उल्लेख है, अपितु उनकी सैकड़ों गाथाएँ भी मातृभाषा तो अर्धमागधी रही होगी। भाई सुदीप जी के अनुसार यदि हैं। मूलाचार में आवश्यकनियुक्ति, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, शौरसेनी अरिष्टनेमि जितनी प्राचीन है, तो फिर अर्धमागधी तो ऋषभ चन्द्रवेध्यक, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि की अनेक गाथाएँ अपने जितनी प्राचीन सिद्ध होती है, अत: शौरसेनी से अर्धमागधी प्राचीन शौरसेनी शब्द रूपों में यथावत् पायी जाती हैं।
दिगम्बर परम्परा में जो प्रतिक्रमणसूत्र उपलब्ध हैं, उसमें ज्ञातासूत्र यदि शौरसेनी प्राचीन होती तो सभी प्राचीन अभिलेख और प्राचीन के उन्हीं १९ अध्ययनों के नाम मिलते हैं, जो वर्तमान में श्वेताम्बर आगमिक ग्रन्थ शौरसेनी में मिलते, किन्तु ईसा की चौथी, पाँचवीं परम्परा में उपलब्ध ज्ञाताधर्मकथा में उपलब्ध हैं। तार्किक दृष्टि से यह शती से पूर्व का कोई भी जैन ग्रन्थ और अभिलेख शौरसेनी में उपलब्ध स्पष्ट है कि जो ग्रन्थ जिन-जिन ग्रन्थों का उल्लेख करता है, वह उनसे क्यों नहीं होता है? पुनः नाटकों में भी भास के समय से अर्थात् परवर्ती ही होता है, पूर्ववर्ती कदापि नहीं। शौरसेनी आगम या आगमतुल्य ईसा की दूसरी शती से ही शौरसेनी के प्रयोग (वाक्यांश) उपलब्ध ग्रन्थों में यदि अर्धमागधी आगमों के नाम मिलते हैं तो फिर शौरसेनी होते हैं।
और उसका रचित साहित्य अर्धमागधी आगमों से प्राचीन कैसे हो नाटकों में शौरसेनी प्राकृत की उपलब्धता के आधार पर उसकी सकता है? प्राचीनता का गुणगान किया जाता है, मैं विनम्रतापूर्वक पूछना चाहूँगा आदरणीय टॉटिया जी के माध्यम से यह बात भी उठायी गयी कि क्या इन उपलब्ध नाटकों में कोई भी नाटक ईसा की दूसरी-तीसरी कि मूलत: आगम शौरसेनी में रचित थे और कालान्तर में उनका शती से पूर्व का है? फिर उन्हें शौरसेनी की प्राचीनता का आधार अर्धमागधीकरण (महाराष्ट्रीकरण) किया गया। यह एक ऐतिहासिक सत्य कैसे माना जा सकता है। मात्र नाटक ही नहीं, वे शौरसेनी प्राकृत है कि जैनधर्म का उद्भव मगध में हुआ और वहीं से वह दक्षिणी
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एवं उत्तरपश्चिमी भारत में फैला। अतः आवश्यकता हुई अर्धमागधी आगमों के शौरसेनी और महाराष्ट्री रूपान्तरण की, न कि शौरसेनी आगमों के अर्धमागधी रूपान्तरण की सत्य तो यह है कि अर्धमागधी आगम ही शौरसेनी या महाराष्ट्री में रूपान्तरित हुए न कि शौरसेनी आगम अर्धमागधी में रूपान्तरित हुए। अतः ऐतिहासिक तथ्यों की अवहेलना कर मात्र कुतर्क करना कहाँ तक उचित है?
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
बुद्ध वचनों की मूल भाषा मागधी थी, न कि शौरसेनी
शौरसेनी को मूलभाषा एवं मागधी से प्राचीन सिद्ध करने हेतु आदरणीय प्रो. नथमल जी टाटिया के नाम से यह भी प्रचारित किया जा रहा है कि "शौरसेनी पालि भाषा की जननी है— यह मेरा स्पष्ट चिन्तन है। पहले बौद्धों के ग्रन्थ शौरसेनी में थे, उनको जला दिया गया और पालि में लिखा गया।” (प्राकृत-विद्या, जुलाई-सितम्बर ९६, पृ० १० ।)
टॉटिया जी जैसा बौद्ध-विद्या का प्रकाण्ड विद्वान् ऐसी कपोलकल्पित बात कैसे कह सकता है? यह विचारणीय है। क्या ऐसा कोई भी अभिलेखीय या साहित्यिक प्रमाण उपलब्ध है, जिसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि मूल बुद्धवचन शौरसेनी में थे । यदि हो तो आदरणीय टॉटिया जी या भाई सुदीप जी उसे प्रस्तुत करें, अन्यथा ऐसी आधारहीन बातें करना विद्वानों के लिये शोभनीय नहीं है। यह बात तो बौद्ध विद्वान् स्वीकार करते हैं कि मूल बुद्धवचन 'मागधी' में थे और कालान्तर में उनकी भाषा को संस्कारित करके पालि में लिखा गया। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि जिस प्रकार मागधी और अर्धमागधी में किञ्चित् अन्तर है, उसी प्रकार 'मागधी' और 'पालि' में भी किञ्चित् अन्तर है, वस्तुतः 'पालि' भगवान् बुद्ध की मूल भाषा 'मागधी' का एक संस्कारित रूप ही है। यही कारण है कि कुछ विद्वान् पालि को मागधी का ही एक प्रकार मानते हैं, दोनों में बहुत अधिक अन्तर नहीं है। पालि, संस्कृत और मागधी की मध्यवर्ती भाषा है या मागधी का ही साहित्यिक रूप है। यह तो प्रमाणसिद्ध है कि भगवान् बुद्ध ने मागधी में ही अपने उपदेश दिये थे— क्योंकि उनकी जन्मस्थली और कार्यस्थली दोनों मगध और उसका निकटवर्ती प्रदेश ही था। बौद्ध विद्वानों का स्पष्ट मन्तव्य है कि मागधी ही मूल भाषा है। इस सम्बन्ध में बुद्धघोष का निम्न कथन सबसे बड़ा प्रमाण है
सा मागधी मूलभासा नरायाय आदिकप्पिका । ब्रह्मणो च अस्सुतालापा संबुद्धा चापि भासरे ।।
अर्थात् मागधी ही मूलभाषा है, जो सृष्टि के प्रारम्भ में उत्पन्न हुई और न केवल ब्रह्मा (देवता) अपितु बालक और बुद्ध भी इसी भाषा में बोलते हैं। (See-The preface to the Childer's Pali Dictionary).
इससे यही फलित होता है मूल बुद्धवचन मागधी में थे। पालि उसी मागधी का संस्कारित साहित्यिक रूप है, जिसमें कालान्तर में बुद्धवचन लिखे गये। । वस्तुतः पालि के रूप में मागधी का एक ऐसा संस्करण तैयार किया गया, जिसे संस्कृत के विद्वान् और भिन्न-भिन्न
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प्रान्तों के लोग भी आसानी से समझ सकें। अतः बुद्धवचन मूलतः मागधी में थे, न कि शौरसेनी में । बौद्ध त्रिपिटक की पालि और जैन आगमों की अर्धमागधी में कितना साम्य है, यह तो सुत्तनिपात और इसिभासियाई के तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है। प्राचीन पालि ग्रन्थों एवं प्राचीन अर्धमागधी आगमों की भाषा में अधिक दूरी नहीं है। जिस समय अर्धमागधी और पालि में अन्य रचना हो रही थी, उस समय तक शौरसेनी एक बोली थी, न कि एक साहित्यिक भाषा । साहित्यिक भाषा के रूप में उसका जन्म तो ईसा की तीसरी शताब्दी के बाद ही हुआ है। संस्कृत के पश्चात् सर्वप्रथम साहित्यिक भाषा के रूप में यदि कोई भाषा विकसित हुई है तो वे अर्धमागधी एवं पालि ही हैं, न कि शौरसेनी । शौरसेनी का कोई भी ग्रन्थ या नाटकों के अंश ईसा की दूसरी-तीसरी शती से पूर्व का नहीं हैजबकि पालि त्रिपिटक और अर्धमागधी आगम- साहित्य के अनेक ग्रन्थ ई. पू. तीसरी चौथी शती में निर्मित हो चुके थे।
'प्रकृतिः शौरसेनी' का सम्यक् अर्थ
जो विद्वान् मागधी को शौरसेनी से परवर्ती एवं उसी से विकसित मानते हैं वे अपने कथन का आधार वररुचि (लगभग ७वीं शती) के प्राकृतप्रकाश और हेमचन्द्र (लगभग १२वीं शताब्दी) के प्राकृतव्याकरण के निम्न सूत्रों को बताते हैं
अ. १. प्रकृतिः शौरसेनी । । १० / २ ।।
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अस्या: पैशाच्या: प्रकृतिः शौरसेनी स्थितायां शौरसेन्यां पैशाचीलक्षणं प्रवर्तितव्यम् ।
२. प्रकृतिः शौरसेनी ।।११/२।।
अस्याः मागध्या: प्रकृतिः शौरसेनीति वेदितव्यम् । वररुचिकृत 'प्राकृत प्रकाश' ।
ब. १. शेषं शौरसेनीवत् ||८/४ / ३०२ ।।
मागध्या यदुक्तं, ततोऽन्यच्छौरसेनीवद् द्रष्टव्यम् । २. शेषं शौरसेनीवत् ||८/४/३२३ ।।
पैशाच्यां यदुक्तं, तओअन्यच्छेषं पैशाच्यां शौरसेनीवद् भवति । 3. शेषं शौरसेनीवत् ||८/४/४४६ ।।
अपभ्रंशो प्रायः + शौरसेनीवत् कार्यं भवति ।
अप्रभंशभाषायां प्रायः शौरसेनीभाषातुल्यकार्यं जायते शौरसेनीभाषायाः ये नियमाः सन्ति तेषां प्रवृत्तिरपभ्रंशभाषायामपि जायते। हेमचन्द्रकृत 'प्राकृतव्याकरण।
अतः इस प्रसङ्ग में तो यह आवश्यक है कि हम सर्वप्रथम इन सूत्रों में 'प्रकृति' शब्द का वास्तविक तात्पर्य क्या है, इसे समझें। यदि हम यहाँ प्रकृति का अर्थ उद्भव का कारण मानते हैं, तो निश्चित ही इन सूत्रों का यह 'फलित होता है कि मागधी या पैशाची का उद्भव शौरसेनी से हुआ, किन्तु शौरसेनी को एकमात्र प्राचीन भाषा मानने वाले तथा मागधी और पैशाची को उससे उद्भूत मानने वाले ये विद्वान् वररुचि के उस सूत्र को भी उद्धृत क्यों नहीं करते, जिसमें शौरसेनी की प्रकृति संस्कृत बताई गयी है यथा- "शौरसेनी–१२/१ टोका
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अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श शूरसेनानां भाषा शौरसेनी सा च लक्ष्यलक्षणाभ्यां स्फुटीक्रियते इति उसी का देश-प्रदेश के आधार पर किया गया संस्कारित रूप संस्कृत वेदितव्यम्। अधिकारसूत्रमेतदापरिच्छेदसमाप्तेः १२/१, प्रकृतिः और उसके विभिन्न भेद, अर्थात् विभिन्न साहित्यिक प्राकृतें हैं। सत्य संस्कृतम्-१२/२। टीका- शौरसेन्यां ये शब्दास्तेषां प्रकृति: संस्कृतम्।। यह है कि बोली के रूप में तो प्राकृतें ही प्राचीन हैं और संस्कृत प्राकृतप्रकाश के उक्त सूत्र के आधार पर हमें यह भी स्वीकार करना उनका संस्कारित रूप हैं- वस्तुत: संस्कृत विभिन्न प्राकृत बोलियों होगा कि शौरसेनी प्राकृत संस्कृत से उत्पन्न हुई। इस प्रकार प्रकृति के बीच सेतु का काम करने वाली एक सामान्य साहित्यिक भाषा के का अर्थ उद्गम स्थल करने पर उसी प्राकृतप्रकाश के आधार पर यह रूप में अस्तित्व में आई। भी मानना होगा कि मूलभाषा संस्कृत थी और उसी से शौरसेनी उत्पन्न यदि हम भाषा-विकास की दृष्टि से इस प्रश्न पर चर्चा करें तो हुई। क्या शौरसेनी के पक्षधर इस सत्य को स्वीकार करने को तैयार भी यह स्पष्ट है कि संस्कृत सुपरिमार्जित; सुव्यवस्थित और व्याकरण हैं? भाई सुदीप जी, जो शौरसेनी के पक्षधर हैं और 'प्रकृतिः शौरसेनी' के आधार पर सुनिबद्ध भाषा है। यदि हम यह मानते हैं कि संस्कृत के आधार पर मागधी को शौरसेनी से उत्पन्न बताते हैं, वे स्वयं भी से प्राकृतें निर्मित हुई हैं, तो हमें यह भी मानना होगा कि मानव जाति 'प्रकृति संस्कृतम् -प्राकृतप्रकाश १२/२' के आधार पर यह मानने अपने आदिकाल में व्याकरणशास्त्र के नियमों से संस्कृत भाषा बोलती को तैयार नहीं हैं कि प्रकृति का अर्थ उससे उत्पन्न हुई ऐसा है। वे थी और उसी से अपभ्रष्ट होकर शौरसेनी और शौरसेनी से अपभ्रष्ट स्वयं लिखते हैं “आज जितने भी प्राकृत व्याकरणशास्त्र उपलब्ध हैं, होकर मागधी, पैशाची, अपभ्रंश आदि भाषाएँ निर्मित हुईं। इसका वे सभी संस्कृत भाषा में हैं एवं संस्कृत व्याकरण के मॉडल पर निर्मित अर्थ यह भी होगा कि मानव जाति की मूल भाषा अर्थात् संस्कृत से हैं। अतएव उनमें 'प्रकृति: संस्कृतम्' जैसे प्रयोग को देखकर कतिपयजन अपभ्रष्ट होते-होते ही विभिन्न भाषाओं का जन्म हुआ, किन्तु मानव ऐसा भ्रम करने लगते हैं कि प्राकृतभाषा संस्कृत भाषा से उत्पन्न हुई, जाति और मानवीय संस्कृति के विकास का वैज्ञानिक इतिहास इस ऐसा अर्थ कदापि नहीं है- 'प्राकृत-विद्या, जुलाई-सितम्बर ९६, बात को कभी भी स्वीकार नहीं करेगा। पृ.१४। भाई सुदीप जी, जब शौरसेनी की बारी आती है, तब आप वह तो यही मानता है कि मानवीय बोलियों के संस्कार द्वारा प्रकृति का अर्थ आधार मॉडल करें और जब मागधी का प्रश्न आये ही विभिन्न साहित्यिक भाषाएँ अस्तित्व में आईं अर्थात् विभिन्न बोलियों तक आप 'प्रकृति: शौरसेनी' का अर्थ मागधी शौरसेनी से उत्पन्न हुई से ही विभिन्न भाषाओं का जन्म हुआ है। वस्तुत: इस विवाद के मूल ऐसा करें- यह दोहरा मापदण्ड क्यों? क्या केवल शौरसेनी को प्राचीन में साहित्यिक भाषा और लोक भाषा अर्थात् बोली के अन्तर को नहीं और मागधी को आर्वाचीन बताने के लिये। वस्तुत: प्राकृत और संस्कृत समझ पाना है। वस्तुत: प्राकृतें अपने मूलस्वरूप में भाषाएँ न होकर शब्द स्वयं ही इस बात के प्रमाण हैं कि उनमें मूलभाषा कौन बोलियाँ रही हैं। यहाँ हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि प्राकृत कोई सी है?
एक बोली नहीं अपितु बोली समूह का नाम है। जिस प्रकार प्रारम्भ संस्कृत शब्द स्वयं ही इस बात का सूचक है कि संस्कृत स्वाभाविक में विभिन्न प्राकृतों अर्थात् बोलियों को संस्कारित करके एक सामान्य या मूल भाषा न होकर एक संस्कारित कृत्रिम भाषा है। प्राकृत शब्दों वैदिक भाषा का निर्माण हुआ, उसी प्रकार कालक्रम में विभिन्न बोलियों एवं शब्द रूपों का व्याकरण द्वारा संस्कार करके जो भाषा निर्मित होती को अलग-अलग रूप में संस्कारित करके उनसे विभिन्न साहित्यिक है, उसे ही संस्कृत कहा जा सकता है, जिसे संस्कारित न किया गया प्राकृतों का निर्माण हुआ। अत: यह एक सुनिश्चित सत्य है कि बोली हो वह संस्कृत कैसे होगी? वस्तुत: प्राकृत स्वाभाविक या सहज भाषा के रूप में प्राकृतें मूल एवं प्राचीन हैं और उन्हीं से संस्कृत का विकास है और उसी को संस्कारित करके संस्कृत भाषा निर्मित हुई है। इस एक 'कामन' (Common) भाषा के रूप में हुआ। प्राकृतें बोलियाँ हैं दृष्टि से प्राकृत मूल भाषा है और संस्कृत उससे उद्भूत हुई है। और संस्कृत भाषा। बोली को व्याकरण से संस्कारित करके एकरूपता
हेमचन्द्र के पूर्व थारापद्रगच्छीय नमिसाधु ने रुद्रट के काव्यालङ्कार देने से भाषा का विकास होता है। भाषा से बोली का विकास नहीं की टीका में प्राकृत और संस्कृत शब्द का अर्थ स्पष्ट कर दिया है। होता है। विभिन्न प्राकृत बोलियों को आगे चलकर व्याकरण के नियमों वे लिखते हैं -
से संस्कारित किया गया तो उनसे विभिन्न प्राकृतों का जन्म हुआ। सकल जगज्जन्तेनां व्याकरणादिभिरनाहितसंस्कार: सहजो वचनव्यापारः जैसे मागधी बोली से मागधी प्राकृत का, शौरसेनी बोली से शौरसेनी प्रकृति: तत्र भवं सैव वा प्राकृतम्। आरिसवयणे सिद्धं, देवाणं अद्धमागहा प्राकृत का और महाराष्ट्र की बोली से महाराष्ट्री प्राकृत का विकास वाणी इत्यादि, वचनाद्वा प्राक् पूर्वकृतं प्राकृतम्- बालमहिलादि सुबोधं हुआ। प्राकृत के शौरसेनी, मागधी, पैशाची, महाराष्ट्री आदि भेद तत्-तत् सकलभाषानिबन्धनभूतवचनमुच्यते। मेघनिर्मुक्तजलमिवैकस्वरूपं तदेव प्रदेशों की बोलियों से उत्पन्न हुए हैं न कि किसी प्राकृत विशेष से। च देशविशेषात् संस्कारकरणात् च समासादितविशेषं सत् संस्कृतादुत्तर- यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि कोई भी प्राकृत व्याकरण सातवीं शती भेदानाप्नोति। - काव्यालङ्कार टीका नमिसाधु, २/१२।
से पूर्व का नहीं है। साथ ही उनमें प्रत्येक प्राकृत के लिये अलग-अलग अर्थात् जो संसार के प्राणियों का व्याकरण आदि के लिये भी मॉडल अपनाये गये हैं। वररुचि के लिये शौरसेनी की प्रकृति संस्कृत सुबोध है और पूर्व में निर्मित होने से (प्राक्कृत) सभी भाषाओं की है, जबकि हेमचन्द्र के लिये शौरसेनी की प्रकृति (महाराष्ट्री) प्राकृत रचना का आधार है वह तो मेघ से निर्मुक्त जल की तरह सहज है, है, अत: प्रकृति का अर्थ आदर्श या मॉडल है। अन्यथा हेमचन्द्र के
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ शौरसेनी के सम्बन्ध में 'शेषं प्राकृतवत्' (८/०४/२८६) का अर्थ होगा टॉटिया जी जैसा विद्वान् इस प्रकार की मिथ्या धारणा को शौरसेनी महाराष्ट्री से उत्पन्न हुई, जो शौरसेनी के पक्षधरों को मान्य प्रतिपादित करे कि शौरसेनी आगम ही अर्धमागधी में रूपान्तरित हुएनहीं होगा।
यह विश्वसनीय नहीं लगता है। यदि टॉटिया जी का यह कथन कि
पालि त्रिपिटक और अर्धमागधी आगम मूलतः शौरसेनी में थे और क्या अर्धमागधी आगम मूलतः शौरसेनी में थे?
फिर पालि और अर्धमागधी में रूपान्तरित हुए' सत्य है, तो उन्हें या प्राकृत विद्या, जनवरी-मार्च ९६ के सम्पादकीय में डॉ.सुदीप सुदीप जी को इसका प्रमाण प्रस्तुत करना चाहिए। जैन ने प्रोटॉटिया को यह कहते हुए प्रस्तुत किया है कि "श्वेताम्बर वस्तुतः जब किसी बोली को साहित्यिक भाषा का रूप दिया जैन साहित्य का भी प्राचीन रूप शौरसेनी प्राकृतमय ही था, जिसका जाता है तो एकरूपता के लिये नियम या व्यवस्था आवश्यक होती स्वरूप क्रमश: अर्धमागधी के रूप में बदल गया"। इस सन्दर्भ में है और यही नियम भाषा का व्याकरण बनाते हैं। विभिन्न प्राकृतों को हमारा प्रश्न यह है कि यदि प्राचीन श्वेताम्बर आगम-साहित्य शौरसेनी जब साहित्यिक भाषा का रूप दिया गया तो उनके लिये भी व्याकरण प्राकृत में था, तो फिर वर्तमान उपलब्ध पाठों में कहीं भी शौरसेनी के नियम आवश्यक हुए और ये व्याकरण के नियम मुख्यत: संस्कृत की 'द' श्रुति का प्रभाव क्यों नहीं दिखाई देता। इसके विपरीत हम से गृहीत किये गये। जब व्याकरणशास्त्र में किसी भाषा की प्रकृति यह पाते हैं कि दिगम्बर परम्परा में मान्य शौरसेनी आगम-साहित्य बताई जाती है तब वहाँ तात्पर्य होता है कि उस भाषा के व्याकरण पर अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृत का व्यापक प्रभाव है, इस तथ्य के नियमों का मूल आदर्श किस भाषा के शब्द रूप हैं? उदाहरण की सप्रमाण चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं। इस सम्बन्ध में दिगम्बर के रूप में जब हम शौरसेनी के व्याकरण की चर्चा करते हैं तो हम परम्परा के शीर्षस्थ विद्वान् प्रो.ए.एन. उपाध्ये का यह स्पष्ट मन्तव्य यह मानते हैं कि उसके व्याकरण का आदर्श अपनी कुछ विशेषताओं है कि प्रवचनसार की भाषा पर श्वेताम्बर आगमों की अर्धमागधी भाषा को छोड़कर जिसकी चर्चा उस भाषा के व्याकरण में होती है, संस्कृत का पर्याप्त प्रभाव है और अर्धमागधी भाषा की अनेक विशेषताएँ के शब्द रूप हैं। उत्तराधिकार के रूप में इस ग्रन्थ को प्राप्त हुई हैं।
किसी भी भाषा का जन्म बोली के रूप में पहले होता है फिर इसमें स्वर-परिवर्तन, मध्यवर्ती व्यञ्जनों के परिवर्तन, 'य' श्रुति बोली से साहित्यिक भाषा का जन्म होता है। जब साहित्यिक भाषा इत्यादि अर्धमागधी भाषा के समान ही मिलते हैं। दूसरे वरिष्ठ दिगम्बर बनती है तब उसके लिये व्याकरण के नियम बनाये जाते हैं, ये व्याकरण विद्वान् प्रो.खडबडी का कहना है कि षट्खण्डागम की भाषा शुद्ध के नियम जिस भाषा के शब्दरूपों के आधार पर उस भाषा के शब्दरूपों शौरसेनी नहीं है। इस प्रकार जहाँ एक ओर दिगम्बर विद्वान् इस तथ्य को समझाते हैं वही भाषा की किसी प्रकृति कहलाते हैं। यह सत्य को स्पष्ट रूप से स्वीकार कर रहे हैं कि दिगम्बर आगमों पर श्वेताम्बर है कि बोली का जन्म पहले होता है, व्याकरण उसके बाद बनता है। आगमों की अर्धमागधी भाषा का प्रभाव है वहाँ यह कैसे माना जा शौरसेनी अथवा प्राकृत की प्रकृति को संस्कृत मानने का अर्थ इतना सकता है कि श्वेताम्बर आगम शौरसेनी से अर्धमागधी में रूपान्तरित ही है कि इन भाषाओं के जो भी व्याकरण बने हैं वे संस्कृत शब्द हुए। अपितु इससे तो यही फलित होता है कि अर्धमागधी आगम रूपों के आधार पर बने हैं। यहाँ पर यह भी ज्ञातव्य है कि प्राकृत ही शौरसेनी में रूपान्तरित हुए हैं। पुन: अर्धमागधी भाषा के स्वरूप का कोई भी व्याकरण प्राकृत के लिखने या बोलने वालों के लिये के सम्बन्ध में दिगम्बर विद्वानों में जो भ्रांति प्रचलित रही है उसका नहीं बनाया गया, अपितु, उनके लिये बनाया गया जो संस्कृत में लिखते स्पष्टीकरण भी आवश्यक है। सम्भवतः ये विद्वान् अर्धमागधी और या बोलते थे। यदि हमें किसी संस्कृत के जानकार व्यक्ति को प्राकृत महाराष्ट्री के अन्तर को स्पष्ट रूप से नहीं समझ पाये हैं तथा सामान्यतः के शब्द या शब्दरूपों को समझाना हो तो हमें उसका आधार संस्कृत अर्धमागधी और महाराष्ट्री को पर्यायवाची मानकर ही चलते रहे हैं। को ही बनाना होगा और उसी के आधार पर यह समझाना होगा कि यही कारण है कि डॉ.ए.एन उपाध्ये जैसे विद्वान् भी 'य' श्रुति को संस्कृत के किसी शब्द से प्राकृत का कौन सा शब्दरूप कैसे निष्पन्न अर्धमागधी का लक्षण बताते हैं। जबकि वह मूलत: महाराष्ट्री हुआ है इसलिये जो भी प्राकृत व्याकरण निर्मित किये गये अपरिहार्य प्राकृत का लक्षण है, न कि अर्धमागधी का। अर्धमागधी तो 'त' श्रुति रूप से वे संस्कृत शब्दों या शब्दरूपों को आधार मानकर प्राकृत शब्द प्रधान है।
या शब्दरूपों की व्याख्या करते हैं । संस्कृत को प्राकृत की प्रकृति यह सत्य है कि श्वेताम्बर आगमों की अर्धमागधी भाषा में कहने का इतना ही तात्पर्य है। इसी प्रकार जब मागधी, पैशाची या कालक्रम में परिवर्तन हुए हैं और उस पर महाराष्ट्री प्राकृत की 'य' अपभ्रंश की 'प्रकृति' शौरसेनी को कहा जाता है तो उसका तात्पर्य श्रुति का प्रभाव आया है, किन्तु यह मानना पूर्णत: मिथ्या है कि होता है, प्रस्तुत व्याकरण के नियमों में इन भाषाओं के शब्दरूपों को श्वेताम्बर आगमों का शौरसेनी से अर्धमागधी में रूपान्तरण हुआ है। शौरसेनी शब्दों को आधार मानकर समझाया गया है। 'प्राकृतप्रकाश' वास्तविकता यह है कि अर्धमागधी आगम ही माथुरी और वलभी की टीका में वररुचि ने स्पष्टत: लिखा है- शौरसेन्या ये शब्दास्तेषां वाचनाओं के समय क्रमश: शौरसेनी और महाराष्ट्री से प्रभावित प्रकृतिः संस्कृतम् (१२/२) अर्थात् शौरसेनी के जो शब्द हैं उनकी
प्रकृति या आधार संस्कृत शब्द हैं।
हुए हैं।
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अर्धमागधी आगम साहित्य एक विमर्श
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यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि प्राकृतों में तीन प्रकार के शब्दरूप मिलते हैं— तद्भव तत्सम और देशज देशज शब्द वे हैं जो किसी देश विशेष में किसी विशेष अर्थ में प्रयुक्त है। इनके अर्थ की व्याख्या के लिये व्याकरण की कोई आवश्यकता नहीं होती है। तदभव शब्द वे हैं जो संस्कृत शब्दों से निर्मित हैं जबकि संस्कृत के समान शब्द तत्सम हैं। संस्कृत व्याकरण में दो शब्द प्रसिद्ध हैं- प्रकृति और प्रत्यय। इनमें मूल शब्दरूप को प्रकृति कहा जाता है। मूल शब्द से जो शब्दरूप बना है वह तद्भव है। प्राकृत-व्याकरण संस्कृत शब्द से प्राकृत का तद्भव शब्दरूप कैसे बना है, इसकी व्याख्या करता है। अतः यहाँ संस्कृत को प्रकृति कहने का तात्पर्य मात्र इतना है कि तद्भव शब्दों के सन्दर्भ में संस्कृत शब्द को आदर्श मानकर या मॉडल मानकर यह व्याकरण लिखा गया है अतः प्रकृति का अर्थ आदर्श या मॉडल है। संस्कृत शब्द रूप को मॉडल / आदर्श मानना इसलिये आवश्यक था कि प्राकृत व्याकरण संस्कृत के जानकार विद्वानों को दृष्टि में रखकर या उनके लिये ही लिखे गये थे। जब डॉ. सुदीपजी शौरसेनी के सन्दर्भ में 'प्रकृतिः संस्कृतम्' का अर्थ मॉडल या आदर्श करते हैं तो उन्हें मागधी, पैशाची आदि के सन्दर्भ में प्रकृतिः शौरसेनी का अर्थ भी यही करना चाहिए कि शौरसेनी को मॉडल या आदर्श मानकर इनका व्याकरण लिखा गया है। इससे यह सिद्ध नहीं होता है कि मागधी आदि प्राकृतों की उत्पत्ति शौरसेनी से हुई है। हेमचन्द्र ने महाराष्ट्री प्राकृत को आधार मानकर शौरसेनी, मागधी आदि प्राकृतों को समझाया है। इससे यह सिद्ध नहीं होता है कि महाराष्ट्री प्राचीन है या महाराष्ट्री से मागधी, शौरसेनी आदि उत्पन्न हुई।
प्राचीन कौन ? अर्धमागधी या शौरसेनी
इसी सन्दर्भ में टॉटिया जी के नाम से यह भी प्रतिपादित किया गया है कि "यदि वर्तमान अर्धमागधी आगम- साहित्य को ही मूल आगम- साहित्य मानने पर जोर देंगे तो इस अर्धमागधी भाषा का आज से १५०० वर्ष पहले अस्तित्व ही नहीं होने से, इस स्थिति में हमें अपने आगम साहित्य को ही ५००ई० के परवर्ती मानना पड़ेगा । " ज्ञातव्य है कि यहाँ भी महाराष्ट्री और अर्धमागधी के अन्तर को न समझते हुए एक भ्रान्ति को खड़ा किया गया है। सर्वप्रथम तो यह समझ लेना चाहिए कि आगमों के प्राचीन अर्धमागधी के 'त' श्रुति प्रधान पाठ चूर्णियों और अनेक प्राचीन प्रतियों में आज भी मिल रहे हैं। उससे निःसन्देह यह सिद्ध होता है कि मूल अर्धमागधी 'त' श्रुति प्रधान थी और उसमें लोप की प्रवृत्ति नगण्य ही थी और यह अर्धमागधी भाषा शौरसेनी और महाराष्ट्री से प्राचीन भी है। यदि श्वेताम्बर आगम शौरसेनी से महाराष्ट्री में जिसे दिगम्बर विद्वान् भ्रान्ति से अर्धमागधी कह रहे हैं, बदले गये तो फिर उनकी प्राचीन प्रतियों में 'त' श्रुति के स्थान पर 'द' श्रुति के पाठ क्यों उपलब्ध नहीं होते हैं जो शौरसेनी की विशेषता है। इस प्रसङ्ग में डॉ. टॉटियाजी के नाम से यह भी कहा गया है कि आज भी आचाराङ्गसूत्र आदि की प्राचीन प्रतियों में शौरसेनी के शब्दों की प्रचुरता मिलती है। मैं आदरणीय टॉटियाजी
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से और भाई सुदीपजी से साग्रह निवेदन करूँगा की वे आचाराङ्ग, ऋषिभाषित सूत्रकृताङ्ग आदि की किन्हीं भी प्राचीन प्रतियों में 'द' श्रुति प्रधान पाठ दिखला दें। प्राचीन प्रतियों में जो पाठ मिल रहे हैं,
अर्धमागधी या आर्ष प्राकृत के हैं, न कि शौरसेनी के। यह एक अलग बात है कि कुछ शब्दरूप आर्ष अर्धमागधी और शौरसेनी में समान हैं।
वस्तुतः इन प्राचीन प्रतियों में न तो 'द' श्रुति देखी जाती है और न "न" के स्थान पर "ण" की प्रवृत्ति देखी जाती है, जिसे व्याकरण में शौरसेनी की विशेषता कहा जाता है। सत्य तो यह है कि अर्धमागधी आगमों का ही शौरसेनी रूपान्तरण हुआ है न कि शौरसेनी आगमों का अर्धमागधी रूपान्तरण । यह सत्य है कि न केवल अर्धमागधी आगमों पर अपितु शौरसेनी आगमतुल्य कुन्दकुन्द आदि के ग्रन्थों पर भी महाराष्ट्री की 'य' श्रुति का स्पष्ट प्रभाव है जिसे हम पूर्व में सिद्ध कर चुके हैं।
क्या पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व अर्धमागधी भाषा एवं श्वेताम्बर अर्धमागधी आगमों का अस्तित्व नहीं था?
डॉ. सुदीपजी द्वारा टॉटियाजी के नाम से उद्धृत यह कथन कि १५०० वर्ष पहले अर्धमागधी भाषा का अस्तित्व ही नहीं था' पूर्णतः प्रान्त है आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग ऋषिभाषित जैसे आगमों को पाश्चात्य विद्वानों ने एक स्वर से ई.पू. तीसरी चौथी शताब्दी या उससे भी पहले का माना है। क्या उस समय से आगम अर्धमागधी भाषा में निबद्ध न होकर शौरसेनी में निबद्ध थे। ज्ञातव्य है कि 'द' श्रुति प्रधान और 'ण' कार की प्रवृत्ति वाली शौरसेनी का जन्म तो उस समय हुआ ही नहीं था, अन्यथा अशोक के अभिलेखों में और मथुरा (जो शौरसेनी की जन्मभूमि है) के जैन अभिलेखों में कहीं तो इस शौरसेनी के वैशिष्ट्य वाले शब्द रूप उपलब्ध होने चाहिए थे? क्या शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध ऐसा एक भी ग्रन्थ है जो ई०पू० में रचा गया हो? सत्य तो यह है कि भास (ईसा की दूसरी शती) के नाटकों के अतिरिक्त ईसा की चौथी - पाँचवीं शताब्दी के पूर्व शौरसेनी में निबद्ध एक भी ग्रन्थ नहीं था। जबकि मागधी के अभिलेख और अर्धमागधी के आगम ई०पू० तीसरी शती से उपलब्ध हो रहे हैं। पुनः यदि ये लोग जिसे अर्धमागधी कह रहें हैं उसे महाराष्ट्री भी मान लें तो उसके भी ग्रन्थ ईसा की प्रथम शताब्दी से उपलब्ध होते हैं। सातवाहन नरेश हाल की गाथा सप्तशती महाराष्ट्री प्राकृत का प्राचीन ग्रन्थ है, जो ई०पू० प्रथम शती से ईसा की प्रथम शती के मध्य रचित है यह एक संकलन ग्रन्थ है जिसमें अनेक ग्रन्थों से गाथाएँ संकलित की गई हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि इसके पूर्व भी महाराष्ट्री प्राकृत में ग्रन्थ रचे गये थे।
कालिदास के नाटक, जिनमें शौरसेनी का प्राचीनतम रूप मिलता है भी ईसा की चतुर्थ शताब्दी के बाद के ही हैं। कुन्दकुन्द के ग्रन्थ स्पष्ट रूप से न केवल अर्धमागधी आगमों से, अपितु परवर्ती 'य' श्रुति प्रधान महाराष्ट्री से भी प्रभावित हैं, किसी भी स्थिति में ईसा की पाँचवीं, छठीं शताब्दी के पूर्व के सिद्ध नहीं होते हैं । षट्खण्डागम और कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में गुणस्थान, सप्तभंगी आदि लगभग ५ वीं
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ शती में निर्मित अवधारणाओं की उपस्थिति उन्हें श्वेताम्बर आगमों और का सृजन हुआ है। पैशाची प्राकृत के प्रभाव से युक्त मात्र एक ग्रन्थउमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र (लगभग चतुर्थ शती) से परवर्ती ही सिद्ध प्राकृत धम्मपद मिला है। इन्हीं जन-बोलियों को जब एक साहित्यिक करती हैं, क्योंकि इनमें ये अवधारणाएँ अनुपस्थित हैं। इस सम्बन्ध भाषा का रूप देने का प्रयत्न जैनाचार्यों ने किया, तो उसमें भी आधारगत में मैंने अपने ग्रन्थ 'गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण' और 'जैन विभिन्नता के कारण शब्द रूपों की विभिनता रह गई। सत्य तो यह धर्म का यापनीय सम्प्रदाय' में विस्तार से प्रकाश डाला है। इस प्रकार है कि विभिन्न बोलियों पर आधारित होने के कारण साहित्यिक प्राकृतों सत्य तो यह है कि अर्धमागधी भाषा या अर्धमागधी आगम नहीं, अपितु में भी शब्द रूपों की यह विविधता रह जाना स्वाभाविक है। शौरसेनी भाषा ईसा की दूसरी शती के पश्चात् और शौरसेनी आगम विभिन्न बोलियों की लक्षणगत विशेषताओं के कारण ही प्राकृत ईसा० की ५ वी शती के पश्चात् अस्तित्व में आये। अच्छा होगा कि भाषाओं के विविध रूप बने हैं। बोलियों के आधार पर विकसित इन भाई सुदीप जी पहले मागधी और पालि तथा अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृतों के जो मागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री आदि रूप बने हैं, उनमें के अन्तर एवं इनके प्रत्येक के लक्षणों तथा जैन आगमिक साहित्य भी प्रत्येक में वैकल्पिक शब्द रूप पाये जाते हैं। अत: उन सभी में के ग्रन्थों के कालक्रम और जैन इतिहास को तटस्थ दृष्टि से समझ व्याकरण की दृष्टि से पूर्ण एकरूपता का अभाव है। फिर भी भाषाविदों लें और फिर प्रमाण सहित अपनी कलम निर्भीक रूप से चलायें, व्यर्थ । ने व्याकरण के नियमों के आधार पर उनकी कुछ लक्षणगत विशेषताएँ की आधारहीन भ्रान्तियाँ खड़ी करके समाज में कटुता के बीज न बोयें। मान ली हैं जैसे मागधी में "स" के स्थान पर “श", "र" के स्थान
पर "ल" का उच्चारण होता है। अत: मागधी में “पुरुष" का "पुलिश" जैन आगमों में हुआ भाषिक स्वरूप परिवर्तन
और "राजा" का "लाजा' रूप पाया जाता है, जबकि महाराष्ट्री में जैन आगम मूलत: प्राकृत भाषा में निबद्ध हैं, किन्तु प्राकृत एक "पुरिस" और "राया" रूप बनता है। जहाँ अर्द्धमागधी में "त" श्रुति भाषा न होकर, भाषा समूह है। प्राकृत के इन अनेक भाषिक रूपों की प्रधानता है और व्यंजनों के लोप की प्रवृत्ति अल्प है, वहीं शौरसेनी का उल्लेख हेमचन्द्र प्रभृति प्राकृत-व्याकरणविदों ने किया है। प्राकृत में “द" श्रुति की और महाराष्ट्री में "य" श्रुति की प्रधानता पायी के जो विभिन्न भाषिक रूप उपलब्ध हैं, उन्हें निम्न भाषिक वर्गों में जाती है तथा लोप की प्रवृत्ति अधिक है। दूसरे शब्दों में अर्द्धमागधी विभक्त किया जाता है- मागधी, अर्द्धमागधी, शौरसेनी, जैन-शौरसेनी, में "त" यथावत् रहता है, शौरसेनी में "त" के स्थान पर “द" और महाराष्ट्री, जैन महाराष्ट्री, पैशाची, ब्राचड, चूलिका, ढक्की आदि। इन महाराष्ट्री में लुप्त-व्यंजन के बाद शेष रहे “अ” का “य' होता है। विभिन्न प्राकृतों से ही आगे चलकर अपभ्रंश के विविध रूपों का प्राकृतों में इन लक्षणगत विशेषताओं के बावजूद भी धातु रूपों एवं विकास हुआ और जिनसे कालान्तर में असमिया, बंगला, उड़िया, शब्द रूपों में अनेक वैकल्पिक रूप तो पाये ही जाते हैं। यहाँ यह भोजपुरी या पूर्वी हिन्दी, पंजाबी, राजस्थानी, गुजराती, मराठी आदि भी स्मरण रहे कि नाटकों में प्रयुक्त विभिन्न प्राकृतों की अपेक्षा जैन भारतीय भाषाएँ अस्तित्व में आयीं। अत: प्राकृतें सभी भारतीय भाषाओं ग्रन्थों में प्रयुक्त इन प्राकृत भाषाओं का रूप कुछ भिन्न है और किसी की पूर्वज हैं और आधुनिक हिन्दी का विकास भी इन्हीं के आधार सीमा तक उनमें लक्षणगत बहुरूपता भी है। इसीलिए जैन आगमों पर हुआ।
में प्रयुक्त मागधी को अर्धमागधी कहा जाता है, क्योंकि उसमें मागधी प्राकृत के सन्दर्भ में हमें एक दो बातें और समझ लेना चाहिए। के अतिरिक्त अन्य बोलियों के प्रभाव के कारण मागधी से भिन्न लक्षण प्रथम तो यह कि प्राकृत भाषा की आधारगत बहुविधता का कारण भी पाये जाते हैं। जहाँ अभिलेखीय प्राकृतों का प्रश्न है उनमें शब्द यह है कि उसका विकास विविध बोलियों से हुआ है और बोलियों रूपों की इतनी अधिक विविधता या भित्रता है कि उन्हें व्याकरण में विविधता होती है। साथ ही उनमें देश कालगत प्रभावों और की दृष्टि से व्याख्यायित कर पाना सम्भव ही नहीं है क्योंकि उनकी मुख-सुविधा (उच्चारण सुविधा) के कारण परिवर्तन होते रहते हैं। प्राकृत प्राकृत साहित्यिक प्राकृत न होकर स्थानीय बोलियों पर आधारित है। निर्झर की भाँति बहती भाषा है उसे व्याकरण में आबद्ध कर पाना यापनीय एवं दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में जिस भाषा का प्रयोग सम्भव नहीं है। इसीलिए प्राकृत को “बहुल" अर्थात् विविध वैकल्पिक हुआ है, वह जैन-शौरसेनी कही जाती है। उसे जैन-शौरसेनी इसलिये रूपों वाली भाषा कहा जाता है।
__ कहते हैं कि उसमें शौरसेनी के अतिरिक्त अर्द्धमागधी के भी कुछ लक्षण वस्तुतः प्राकृतें अपने मूल रूप में भाषा न होकर बोलियाँ ही पाये जाते हैं। उस पर अर्द्धमागधी- का स्पष्ट प्रभाव देखा जाता रहीं हैं। यहाँ तक कि साहित्यिक नाटकों में भी इनका प्रयोग बोलियों है क्योंकि इसमें रचित ग्रन्थों का आधार अर्द्धमागधी आगम ही थे। के रूप में ही देखा जाता है और यही कारण है कि मृच्छकटिक जैसे इसी प्रकार श्वेताम्बर आचार्यों ने प्राकृत के जिस भाषायी रूप को अपनाया नाटक में अनेक प्राकृतों का प्रयोग हुआ है, उसके विभिन्न पात्र भिन्न-भिन्न वह जैन-महाराष्ट्री कही जाती है। इसमें महाराष्ट्री के लक्षणों के अतिरिक्त प्राकृतें बोलते हैं। इन विभिन्न प्राकृतों में से अधिकांश का अस्तित्व कहीं-कहीं अर्द्धमागधी और शौरसेनी के लक्षण भी पाये जाते हैं, क्योंकि मात्र बोली के रूप में ही रहा, जिनके निदर्शन केवल नाटकों और इसमें रचित ग्रन्थों का आधार भी मुख्यत: अर्द्धमागधी और अंशत: अभिलेखों में पाये जाते हैं। मात्र अर्द्धमागधी, जैन-शौरसेनी और शौरसेनी साहित्य रहा है। जैन-महाराष्ट्री ही ऐसी भाषायें हैं, जिनमें जैनधर्म के विपुल साहित्य अत: जैन परम्परा में उपलब्ध किसी भी ग्रन्थ की प्राकृत का
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अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श स्वरूप निश्चित करना एक कठिन कार्य है, क्योंकि श्वेताम्बर और दिगम्बर कहीं क्रिया रूपों में भी "त" श्रुति उपलब्ध होती है और कहीं उसके दोनों परम्पराओं में कोई भी ऐसा ग्रन्थ नहीं मिलता, जो विशुद्ध रूप लोप की प्रवृत्ति देखी जाती है। प्राचीन आगमों में हुए इन भाषिक से किसी एक प्राकृत का प्रतिनिधित्व करता हो। आज उपलब्ध विभिन्न परिवर्तनों से उनके अर्थ में भी कितनी विकृति आयी, इसका भी डॉ. श्वेताम्बर अर्द्धमागधी आगमों में चाहे प्रतिशतों में कुछ भिन्नता हो, चन्द्रा ने अपने लेखों के माध्यम से संकेत किया है तथा यह बताया किन्तु व्यापक रूप से महाराष्ट्री का प्रभाव देखा जाता है। आचारांग है कि अर्द्धमागधी “खेतन्न' शब्द किस प्रकार "खेयन्त्र" बन गया
और ऋषिभाषित जैसे प्राचीन स्तर के आगमों में अर्द्धमागधी के लक्षण और उसका जो मूल “क्षेत्रज्ञ" अर्थ था वह बदलकर "खेदज्ञ' हो प्रमुख होते हुए भी कहीं-कहीं आंशिक रूप से महाराष्ट्री का प्रभाव गया। इन सब कारणों से उन्होंने पाठ संशोधन हेतु एक योजना प्रस्तुत आ ही गया है। इसी प्रकार दिगम्बर परम्परा के शौरसेनी ग्रन्थों में की और आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन के प्रथम एक ओर अर्द्धमागधी का तो दूसरी ओर महाराष्ट्री का प्रभाव देखा उद्देशक की भाषा का सम्पादन कर उसे प्रकाशित भी किया है। इसी जाता है। कुछ ऐसे ग्रन्थ भी हैं जिनमें लगभग ६० प्रतिशत शौरसेनी क्रम में मैंने भी आगम संस्थान उदयपुर के डॉ. सुभाष कोठारी एवं एवं ४० प्रतिशत महाराष्ट्री पायी जाती है-जैसे वसुनन्दी के श्रावकाचार डॉ. सुरेश सिसोदिया द्वारा आचारांग के विभिन्न प्रकाशित संस्करणों का प्रथम संस्करण। ज्ञातव्य है कि इसके परवर्ती संस्करणों में से पाठान्तरों का संकलन करवाया है। इसके विरोध में पहला स्वर शौरसेनीकरण अधिक है। कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में भी यत्र-तत्र महाराष्ट्री श्री जौहरीमल जी पारख ने उठाया है। श्वेताम्बर विद्वानों में आयी इस का पर्याप्त प्रभाव देखा जाता है। इन सब विभिन्न भाषिक रूपों के चेतना का प्रभाव दिगम्बर विद्वानों पर भी पड़ा और आचार्य श्री विद्यानन्द पारस्परिक प्रभाव या मिश्रण के अतिरिक्त मुझे अपने अध्ययन के दौरान जी के निर्देशन में आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों को पूर्णत: शौरसेनी एक महत्त्वूपर्ण बात यह मिली कि जहाँ शौरसेनी ग्रन्थों में जब अर्द्धमागधी में रूपान्तरित करने का एक प्रयत्न प्रारम्भ हुआ है, इस दिशा में प्रथम आगमों के उद्धरण दिये गये, तो वहाँ उन्हें अपने अर्द्धमागधी रूप कार्य बलभद्र जैन द्वारा सम्पादित समयसार, नियमसार आदि का में न देकर उनका शौरसेनी रूपान्तरण करके दिया गया है। इसी प्रकार कुन्दकुन्द भारती से प्रकाशन है। यद्यपि दिगम्बर परम्परा में ही पं. महाराष्ट्री के ग्रन्थों में अथवा श्वेताम्बर आचार्यों द्वारा लिखित ग्रन्थों ___ खुशालचन्द गोरावाला, पद्मचन्द्र शास्त्री आदि दिगम्बर विद्वानों ने इस में जब भी शौरसेनी के ग्रन्थ का उद्धरण दिया गया, तो सामान्यतया प्रवृत्ति का विरोध किया। उसे मूल शौरसेनी में न रखकर उसका महाराष्ट्री रूपान्तरण कर दिया आज श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्पराओं में आगम या आगम रूप गया। उदाहरण के रूप में भगवती आराधना की टीका में जो उत्तराध्ययन, में मान्य ग्रन्थों के भाषिक स्वरूप के पुन: संशोधन की जो चेतना आचारांग आदि के उद्धरण पाये जाते हैं, वे उनके अर्द्धमागधी रूप जागृत हुई है, उसका कितना औचित्य है, इसकी चर्चा तो मैं बाद में न होकर शौरसेनी रूप में ही मिलते हैं। इसी प्रकार हरिभद्र ने में करूँगा। सर्वप्रथम तो इसे समझना आवश्यक है कि इन प्राकृत शौरसेनी प्राकृत के “यापनीय-तन्त्र' नामक ग्रन्थ से "ललितविस्तरा" आगम ग्रन्थों के भाषिक स्वरूप में किन कारणों से और किस प्रकार में जो उद्धरण दिया, वह महाराष्ट्री प्राकृत में ही पाया जाता है। के परिवर्तन आये हैं। क्योंकि इस तथ्य को पूर्णत: समझे बिना केवल
इस प्रकार चाहे अर्द्धमागधी आगम हो या शौरसेनी आगम, उनके एक-दूसरे के अनुकरण के आधार पर अथवा अपनी परम्परा को प्राचीन उपलब्ध संस्करणों की भाषा न तो पूर्णत: अर्द्धमागधी है और न ही सिद्ध करने हेतु किसी ग्रन्थ के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन कर देना शौरसेनी। अर्द्धमागधी और शौरसेनी दोनों ही प्रकार के आगमों पर सम्भवत: इन ग्रन्थों के ऐतिहासिक क्रम एवं काल निर्णय एवं इनके महाराष्ट्री का व्यापक प्रभाव देखा जाता है जो कि इन दोनों की अपेक्षा पारस्परिक प्रभाव को समझने में बाधा उत्पन्न करेगा और इससे कई परवर्ती है। इसी प्रकार महाराष्ट्री प्राकृत के कुछ ग्रन्थों पर परवर्ती अपभ्रंश प्रकार के अन्य अनर्थ भी सम्भव हो सकते है। का भी प्रभाव देखा जाता है। इन आगमों अथवा आगम तुल्य ग्रन्थों किन्तु इसके साथ ही साथ यह भी सत्य है कि जैनाचार्यों एवं के भाषिक स्वरूप की विविधता के कारण उनके कालक्रम तथा पारस्परिक जैन विद्वानों ने अपने भाषिक व्यामोह के कारण अथवा प्रचलित भाषा आदान-प्रदान को समझने में विद्वानों को पर्याप्त उलझनों का अनुभव के शब्द रूपों के आधार पर प्राचीन स्तर के आगम ग्रन्थों के भाषिक होता है, मात्र इतना ही नहीं कभी-कभी इन प्रभावों के कारण इन स्वरूप में परिवर्तन किया है। जैन आगमों की वाचना को लेकर जो ग्रन्थों को परवर्ती भी सिद्ध कर दिया जाता है।
मान्यताएँ प्रचलित हैं, उनके अनुसार सर्वप्रथम ई.पू. तीसरी शती में आज आगमिक साहित्य के भाषिक स्वरूप की विविधता को वीर निर्वाण के लगभग एक सौ पचास वर्ष पश्चात् पाटलीपुत्र में प्रथम दूर करने तथा उन्हें अपने मूल स्वरूप में स्थिर करने के कुछ प्रयत्न वाचना हुई। इसमें उस काल तक निर्मित आगम ग्रन्थों, विशेषत: अंग भी प्रारम्भ हुए हैं। सर्वप्रथम डॉ. के. ऋषभचन्द्र ने प्राचीन अर्द्धमागधी आगमों का सम्पादन किया गया। यह स्पष्ट है कि पटना की यह वाचना आगम जैसे- आचारांग, सूत्रकृतांग में आये महाराष्ट्री के प्रभाव को मगध में हुई थी और इसलिए इसमें आगमों की भाषा का जो स्वरूप दूर करने एवं उन्हें अपने मूल स्वरूप में लाने के लिये प्रयत्न प्रारम्भ निर्धारित हुआ होगा, वह निश्चित ही मागधी रहा होगा। इसके पश्चात् किया है क्योंकि एक ही अध्याय या उद्देशक में “लोय" और "लोग" लगभग ई.पू. प्रथम शती में खारवेल के शासन काल में उड़ीसा में या “आया" और "आता" दोनों ही रूप देखे जाते हैं। इसी प्रकार द्वितीय वाचना हुई। यहाँ पर इसका स्वरूप अर्द्धमागधी रहा होगा,
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ किन्तु इसके लगभग चार सौ वर्ष पश्चात् स्कंदिल और आर्य नागार्जुन उपलब्ध है, उसमें अर्द्धमागधी का सर्वाधिक प्रतिशत इसी ग्रन्थ में की अध्ययक्षता में क्रमश: मथुरा व वलभी में वाचनाएँ हुई। सम्भव पाया जाता है। है कि मथुरा में हुई इस वाचना में अर्द्धमागधी आगमों पर व्यापक जैन आगमिक एवं आगम रूप में मान्य अर्द्धमागधी तथा शौरसेनी रूप से शौरसेनी का प्रभाव आया होगा। वलभी के वाचना वाले आगमों ग्रन्थों के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन क्यों हुआ? इस प्रश्न का उत्तर में नागार्जुनीय पाठों के तो उल्लेख मिलते हैं, किन्तु स्कंदिल की वाचना अनेक रूपों में दिया जा सकता है। वस्तुत: इन ग्रन्थों में हुए भाषिक के पाठ भेदों का कोई निर्देश नहीं है। स्कंदिल की वाचना सम्बन्धी परिवर्तनों का कोई एक ही कारण नहीं है, अपितु अनेक कारण हैं, पाठभेदों का यह अनुल्लेख विचारणीय है। नन्दीसूत्र में स्कंदिल के जिन पर हम क्रमश: विचार करेंगे। सम्बन्ध में यह कहा गया है कि उनके अनुयोग (आगम-पाठ) ही दक्षिण १. भारत में जहाँ वैदिक परम्परा में वेद वचनों को मंत्र मानकर भारत क्षेत्र में आज भी प्रचलित हैं। सम्भवत: यह संकेत यापनीय उनके स्वर-व्यंजन की उच्चारण योजना को अपरिवर्तनीय बनाये रखने आगमों के सम्बन्ध में होगा। यापनीय परम्परा जिन आगमों को मान्य पर अधिक बल दिया गया, उनके लिये शब्द और ध्वनि ही महत्त्वपूर्ण कर रही थी, उसमें व्यापक रूप से भाषिक परिवर्तन किया गया था रही और अर्थ गौण। आज भी अनेक वेदपाठी ब्राह्मण ऐसे हैं, जो और उन्हें शौरसेनी रूप दे दिया गया था। यद्यपि आज प्रमाण के वेद मंत्रों के उच्चारण, लय आदि के प्रति अत्यन्त सतर्क रहते हैं, अभाव में निश्चित रूप से यह बता पाना कठिन है कि यापनीय आगमों किन्तु वे उनके अर्थों को नहीं जानते हैं। यही कारण है कि वेद शब्द की भाषा का स्वरूप क्या था, क्योकि यापनीयों द्वारा मान्य और रूप में यथावत् बने रहे। इसके विपरीत जैन परम्परा में यह माना व्याख्यायित वे आगम उपलब्ध नहीं हैं। यद्यपि अपराजित के द्वारा गया कि तीर्थङ्कर अर्थ के उपदेष्टा होते हैं उनके वचनों को शब्द रूप दशवैकालिक पर टीका लिखे जाने का निर्देश प्राप्त होता है, किन्तु तो गणधर आदि के द्वारा दिया जाता है। जैनाचार्यों के लिये कथन वह टीका भी आज प्राप्त नहीं है। अत: यह कहना तो कठिन है कि का तात्पर्य ही प्रमुख था, उन्होंने कभी भी शब्दों पर बल नहीं दिया। यापनीय आगमों की भाषा कितनी अर्द्धमागधी थी और कितनी शौरसेनी। शब्दों में चाहे परिवर्तन हो जाय, लेकिन अर्थों में परिवर्तन नहीं होना किन्तु इतना तय है कि यापनीयों ने अपने ग्रन्थों में आगमों, प्रकीर्णकों चाहिये, यही जैन आचार्यों का प्रमुख लक्ष्य रहा। शब्द रूपों की उनकी एवं नियुक्तियों की जिन गाथाओं को गृहीत किया है अथवा उद्धृत इस उपेक्षा के फलस्वरूप आगमों के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन होते किया है वे सभी आज शौरसेनी रूपों में ही पायी जाती हैं। यद्यपि गये। आज भी उन पर बहुत कुछ अर्द्धमागधी का प्रभाव शेष रह गया है। २. आगम साहित्य में जो भाषिक परिवर्तन हुए उसका दूसरा चाहे यापनीयों ने सम्पूर्ण आगमों के भाषायी स्वरूप को अर्द्धमागधी कारण यह था कि जैनभिक्षु-संघ में विभिन्न प्रदेशों के भिक्षुगण सम्मिलित से शौरसेनी में रूपान्तरित किया हो या नहीं, किन्तु उन्होंने आगम थे। अपनी-अपनी प्रादेशिक बोलियों से प्रभावित होने के कारण उनकी साहित्य से जो गाथाएँ उद्धृत की हैं, वे अधिकांशत: आज अपने शौरसेनी उच्चारण शैली में भी स्वाभाविक भिन्नता रहती, फलत: आगम साहित्य स्वरूप में पायी जाती हैं। यापनीय आगमों के भाषिक स्वरूप में यह के भाषिक स्वरूप में भिन्नता आ गयी। परिवर्तन जानबूझकर किया गया या जब मथुरा जैनधर्म का केन्द्र बना ३. जैनभिक्षु सामान्यतया भ्रमणशील होते हैं, उनकी भ्रमणशीलता तब सहज रूप में यह परिवर्तन आ गया था, यह कहना कठिन है। के कारण उनकी बोलियों, भाषाओं पर भी अन्य प्रदेशों की बोलियों जैनधर्म सदैव से क्षेत्रीय भाषाओं को अपनाता रहा और यही कारण का प्रभाव पड़ता ही है। फलत: आगमों के भाषिक स्वरूप में भी परिवर्तन हो सकता है कि श्रुतपरम्परा से चली आयी इन गाथाओं में या तो या मिश्रण हो गया। उदाहरण के रूप में जब पूर्व का भिक्षु पश्चिमी सहज ही क्षेत्रीय प्रभाव आया हो या फिर उस क्षेत्र की भाषा को ध्यान प्रदेशों में अधिक विहार करता है तो उसकी भाषा में पूर्व एवं पश्चिम में रखकर उसे उस रूप में परिवर्तित किया गया हो।
दोनों ही बोलियों का प्रभाव आ ही जाता है। अत: भाषिक स्वरूप यह भी सत्य है कि वलभी में जो देवर्धिगणि की अध्यक्षता में की एकरूपता समाप्त हो जाती है। वी.नि.सं. ९८० या ९९३ में अन्तिम वाचना हुई, उसमें क्षेत्रगत महाराष्ट्री ४. सामान्यतया बुद्धवचन बुद्ध निर्वाण के २००-३०० वर्ष के प्राकृत का प्रभाव जैन आगमों पर विशेषरूप से आया होगा, यही अन्दर ही अन्दर लिखित रूप में आ गए। अत: उनके भाषिक स्वरूप कारण है कि वर्तमान में श्वेताम्बर मान्य अर्द्धमागधी आगमों की भाषा में उनके रचनाकाल के बाद बहुत अधिक परिवर्तन नहीं आया, तथापि का जो स्वरूप उपलब्ध है, उस पर महाराष्ट्री का प्रभाव ही अधिक उनकी उच्चारण शैली विभिन्न देशों में भिन्न-भिन्न रही और वह आज है। अर्द्धमागधी आगमों में भी उन आगमों की भाषा महाराष्ट्री से अधिक भी है। थाई, बर्मा और श्रीलंका के भिक्षुओं का त्रिपिटक का उच्चारण प्रभावित हुई है, जो अधिक व्यवहार या प्रचलन में रहे। उदाहरण भिन्न-भिन्न होता है, फिर भी उनके लिखित स्वरूप में बहुत कुछ एकरूपता के रूप में उत्तराध्ययन और दशवैकालिक जैसे प्राचीन स्तर के आगम है। इसके विपरीत जैन आगमिक एवं आगमतुल्य साहित्य एक सुदीर्घ महाराष्ट्री से अधिक प्रभावित हैं। जबकि ऋषिभाषित जैसा आगम काल तक लिखित रूप में नहीं आ सका, वह गुरुशिष्य परम्परा से महाराष्ट्री के प्रभाव से बहुत कुछ मुक्त रहा है। उस पर महाराष्ट्री प्राकृत मौखिक ही चलता रहा, फलतः देशकालगत उच्चारण भेद से उनके का प्रभाव अत्यल्प है। आज अर्द्धमागधी का जो आगम साहित्य हमें भाषिक स्वरूप में भी परिवर्तन होता गया।
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अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श
भारत में कागज का प्रचलन न होने से ग्रन्थ भोजपत्रों या ताड़पत्रों पर लिखे जाते थे। ताड़पत्रों पर ग्रन्थों को लिखवाना और उन्हें सुरक्षित रखना जैन मुनियों की अहिंसा एवं अपरिग्रह की भावना के प्रतिकूल था। लगभग ई. सन् की ५ वीं शती तक इस कार्य को पाप प्रवृत्ति माना जाता था तथा इसके लिए प्रायश्चित्त की व्यवस्था भी थी। फलतः महावीर के पश्चात् लगभग १००० वर्ष तक जैन साहित्य श्रुत-परम्परा पर ही आधारित रहा । श्रुत- परम्परा के आधार पर आगमों के भाषिक स्वरूप को सुरक्षित रखना कठिन था । अतः उच्चारण शैली का भेद आगमों के भाषिक स्वरूप के परिवर्तन का कारण बन गया।
५. आगमिक एवं आगम तुल्य साहित्य में आज भाषिक रूपों का जो परिवर्तन देखा जाता है, उसका एक कारण लहियों (प्रतिलिपिकारों) की असावधानी भी रही है। प्रतिलिपिकार जिस क्षेत्र के होते थे, उन पर भी उस क्षेत्र की बोली भाषा का प्रभाव रहता था और असावधानी से अपनी प्रादेशिक बोली के शब्द रूपों को लिख देता था। उदाहरण के रूप में चाहे मूल पाठ में " गच्छति" लिखा हो लेकिन प्रचलन में "गच्छई" का व्यवहार है. तो प्रतिलिपिकार "गच्छई" रूप ही लिख देगा।
६. जैन आगम एवं आगम तुल्य ग्रन्थ में आये भाषिक परिवर्तनों का एक कारण यह भी है कि वे विभिन्न कालों एवं प्रदेशों में सम्पादित होते रहे हैं। सम्पादकों ने उनके प्राचीन स्वरूप को स्थिर रखने का प्रयत्न नहीं किया अपितु उन्हें सम्पादित करते समय अपने युग एवं क्षेत्र के प्रचलित भाषायी स्वरूप के आधार पर उनमें परिवर्तिन कर दिया। यही कारण है कि अर्द्धमागधी में लिखित आगम भी जब मथुरा में संकलित एवं सम्पादित हुए तो उनका भाषिक स्वरूप अर्द्धमागधी की अपेक्षा शौरसेनी के निकट हो गया और जब वलभी में लिखे गये तो वह महाराष्ट्री से प्रभावित हो गया। यह अलग बात है कि ऐसा परिवर्तन सम्पूर्ण रूप में न हो सका और उसमें अर्द्धमागधी के तत्त्व भी बने रहे।
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सम्पादन और प्रतिलिपि करते समय भाषिक स्वरूप की एकरूपता पर विशेष बल नहीं दिए जाने के कारण जैन आगम एवं आगमतुल्य साहित्य अर्द्धमागधी, शौरसेनी एवं महाराष्ट्री की खिचड़ी ही बन गया और विद्वानों ने उनकी भाषा को जैन शौरसेनी और जैन महाराष्ट्री ऐसे नाम दे दिये न प्राचीन संकलन कर्ताओं ने उस पर ध्यान दिया और न आधुनिक काल के सम्पादनों, प्रकाशनों में इस तथ्य पर ध्यान दिया गया। परिणामतः एक ही आगम के एक ही विभाग में "लोक", "लोग", "लोअ" और "लोय" ऐसे चारों ही रूप देखने को मिल जाते हैं।
यद्यपि सामान्य रूप से तो इन भाषिक रूपों के परिवर्तनों के कारण कोई बहुत बड़ा अर्थ - भेद नहीं होता है, किन्तु कभी-कभी इनके कारण भयंकर अर्थ-भेद भी हो जाता है। इस सन्दर्भ में एक दो उदाहरण देकर अपनी बात को स्पष्ट करना चाहूँगा। उदाहरण के रूप में सूत्रकृतांग का प्राचीन पाठ " रामपुत्ते" बदलकर चूर्णि में "रामाउत्ते" हो गया, किन्तु वही पाठ सूत्रकृतांग की शीलांक की टीका में “रामगुत्ते" हो गया। इस प्रकार जो शब्द रामपुत्र का वाचक था, वह रामगुप्त का
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वाचक हो गया। इसी आधार पर कुछ विद्वानों ने उसे गुप्तशासक रामगुप्त मान लिया है और उसके द्वारा प्रतिष्ठापित विदिशा की जिन मूर्तियों के अभिलेखों से उसकी पुष्टि भी कर दी जबकि वस्तुतः वह निर्देश बुद्ध के समकालीन रामपुत्र नामक भ्रमण आचार्य के सम्बन्ध में था, जो ध्यान एवं योग के महान् साधक थे और जिनसे स्वयं भगवान् बुद्ध ने ध्यान प्रक्रिया सीखी थी। उनसे सम्बन्धित एक अध्ययन ऋषिभाषित में आज भी है, जबकि अंतकृददशा में उनसे सम्बन्धित जो अध्ययन था, वह आज विलुप्त हो चुका है। इसकी विस्तृत चर्चा Aspects of Jainology Vol. II में मैंने अपने एक स्वतन्त्र लेख में की है। इसी प्रकार आचारांग एवं सूत्रकृतांग में प्रयुक्त "खेत्तन" शब्द, जो " क्षेत्रज्ञ" (आत्मज्ञ) का वाची था, महाराष्ट्री के प्रभाव से आगे चलकर "खेयण" बन गया और उसे "खेदज्ञ" का वाची मान लिया गया। इसकी चर्चा प्रो. के. आर. चन्द्रा ने श्रमण १९९२ में प्रकाशित अपने लेख में की है। अतः स्पष्ट है कि इन परिवर्तनों के कारण अनेक स्थलों पर बहुत अधिक अर्थभेद भी हो गये हैं। आज वैज्ञानिक रूप से सम्पादन की जो शैली विकसित हुई है उसके माध्यम से इन समस्याओं के समाधान की अपेक्षा है जैसा कि हमने पूर्व में संकेत किया था कि आगमिक एवं आगम तुल्य ग्रन्थों के प्राचीन स्वरूप को स्थिर करने के लिए श्वेताम्बर परम्परा में प्रो. के. आर. चन्द्रा और दिगम्बर परम्परा में आचार्य श्री विद्यानन्द जी के सान्निध्य में श्री बलभद्र जैन ने प्रयत्न प्रारम्भ किया है किन्तु इन प्रयत्नों का कितना औचित्य है और इस सन्दर्भ में किन-किन सावधानियों की आवश्यकता है, यह भी विचारणीय है। यदि प्राचीन रूपों को स्थिर करने का यह प्रयत्न सम्पूर्ण सावधानी और ईमानदारी से न हुआ तो इसके दुष्परिणाम भी हो सकते हैं।
प्रथमतः, प्राकृत के विभिन्न भाषिक रूप लिये हुए इन अन्थों में पारस्परिक प्रभाव और पारस्पारिक अवदान को अर्थात् किसने किस परम्परा से क्या लिया है, इसे समझने के लिए आज जो सुविधा है, वह इनमें भाषिक एकरूपता लाने पर समाप्त हो जायेगी । आज नमस्कार मंत्र में "नमो" और "णमो" शब्द का जो विवाद है, उसका समाधान और कौन सा शब्दरूप प्राचीन है इसका निश्चय, हम खारवेल और मथुरा के अभिलेखों के आधार पर कर सकते हैं और यह कह सकते हैं कि अर्द्धमागधी का "नमो" रूप प्राचीन है, जबकि शौरसेनी और महाराष्ट्री का "णमो" रूप परवर्ती है, क्योंकि ई. की दूसरी शती तक अभिलेखों में कहीं भी " णमो" रूप नहीं मिलता। जबकि छठीं शती से दक्षिण भारत के जैन अभिलेखों में "णमो" रूप बहुतायत से मिलता है। इससे फलित यह निकलता है कि णमो रूप परवर्ती हैं और जिन ग्रन्थों में "न" के स्थान पर "ण" की बहुलता है, वे ग्रन्थ भी परवर्ती हैं। यह सत्य है कि 'नमो' से परिवर्तित होकर ही " णमो" रूप बना है। जिन अभिलेखों में "णमो" रूप मिलता है वे सभी ई. सन् की चौथी शती के बाद के ही हैं। इसी प्रकार से नमस्कार मंत्र की अन्तिम गाथा में एसो पंच नमुक्कारो सव्वपावप्पणासणो । मंगलांण च सव्वेसिं पड़र्म हवड़ मंगलं ऐसा पाठ है इनमें प्रयुक्त प्रथमाविभक्ति में "एकार" के स्थान पर "ओकार" का प्रयोग तथा "हवति" के
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ स्थान पर "हवई" शब्द रूप का प्रयोग यह बताता है कि इसकी रचना होते हुए भी महाराष्ट्री रूप “खेयन्न' बनाये रखना उचित नहीं होगा। अर्धमागधी से महाराष्ट्री के संक्रमणकाल के बीच की है और यह अंश जहाँ तक अर्द्धमागधी आगम ग्रन्थों का प्रश्न है उन पर परवर्तीकाल नमस्कार मंत्र में बाद में जोड़ा गया है। इसमें शौरसेनी रूप “होदि" में जो शौरसेनी या महाराष्ट्री प्राकृतों का प्रभाव आ गया है, उसे दूर या “हवदि" के स्थान पर महाराष्ट्री शब्द रूप “हवई" है जो यह करने का प्रयत्न किसी सीमा तक उचित माना जा सकता है, किन्तु बताता है कि यह अंश मूलत: महाराष्ट्री में निर्मित हुआ था और वहीं इस प्रयत्न में भी निम्न सावधानियाँ अपेक्षित हैंसे शौरसेनी में लिया गया है।
१. प्रथम तो यह कि यदि मूल हस्तप्रतियों में कहीं भी वह शब्द इसी प्रकार शौरसेनी आगमों में भी इसके "हवइ' शब्द रूप रूप नहीं मिलता है, तो उस शब्द रूप को किसी भी स्थिति में परिवर्तित की उपस्थिति भी यही सूचित करती है कि उन्होंने इस अंश को परवर्ती न किया जाये। किन्तु प्राचीन अर्द्धमागधी शब्द रूप जो किसी भी महाराष्ट्री प्राकृत के ग्रन्थों से ही ग्रहण किया है। अन्यथा वहाँ मूल मूल हस्तप्रति में एक दो स्थानों पर भी उपलब्ध होता है, उसे अन्यत्र शौरसेनी का “हवदि" या "होदि" रूप ही होना था। आज यदि किसी परिवर्तित किया जा सकता है। यदि किसी अर्द्धमागधी के प्राचीन ग्रन्थ को शौरसेनी का अधिक आग्रह हो, तो क्या वे नमस्कार मंत्र के इस में “लोग" एवं “लोय' दोनों रूप मिलते हों तो वहाँ अर्वाचीन रूप "हवइ" शब्द को "हवदि" या "होदि" रूप में परिवर्तित कर देंगे? "लोय" को प्राचीन रूप "लोग' में रूपान्तरित किया जा सकता है जबकि तीसरी-चौथी शती से आज तक कहीं भी “हवइ" के अतिरिक्त किन्तु इसके साथ ही यह भी ध्यान रखना होगा कि यदि एक पूरा अन्य कोई शब्द रूप उपलब्ध नहीं है।
का पूरा गद्यांश या पद्यांश महाराष्ट्री में है और उसमें प्रयुक्त शब्दों प्राकृत के भाषिक स्वरूप के सम्बन्ध में दूसरी कठिनाई यह है के वैकल्पिक अर्द्धमागधी रूप किसी एक भी आदर्श प्रति में नहीं मिलते कि प्राकृत का मूल आधार क्षेत्रीय बोलियाँ होने से उसके एक ही हैं तो उन अंशों को परिवर्तित न किया जाये, क्योंकि सम्भावना यह काल में विभिन्न रूप रहे हैं। प्राकृत व्याकरण में जो "बहुलं' शब्द हो सकती है कि वह अंश परवर्ती काल में प्रक्षिप्त हुआ हो। अत: है वह स्वयं इस बात का सूचक है कि चाहे शब्द रूप हो, चाहे धातु उस अंश के प्रक्षिप्त होने का आधार जो उसका भाषिक स्वरूप है, रूप हो, या उपसर्ग आदि हो, उनकी बहुविधता को अस्वीकार नहीं उसको बदलने से आगमिक शोध में बाधा उत्पन्न होगी। उदाहरण के किया जा सकता। एक बार हम मान भी लें कि एक क्षेत्रीय बोली रूप में आचारांग के प्रारम्भ में "सुयं मे आउसंतेण भगवया एवं में एक ही रूप रहा होगा, किन्तु चाहे वह शौरसेनी, अर्द्धमागधी या अक्खायं" के अंश को ही लें, जो सामान्यतया सभी प्रतियों में इसी महाराष्ट्री प्राकृत हो, साहित्यिक भाषा के रूप में इनके विकास के रूप में मिलता है। यदि हम इसे अर्द्धमागधी में रूपान्तरित करके "सुतं मूल में विविध बोलियाँ रही हैं। अत: भाषिक एकरूपता का प्रयत्न मे आउसन्तेणं भगवता एवं अक्खाता" कर देगें तो इसके प्रक्षिप्त प्राकृत की अपनी मूल प्रकृति की दृष्टि से कितना समीचीन होगा, होने की जो सम्भावना है वह समाप्त हो जायेगी। अतः प्राचीनस्तर यह भी एक विचारणीय प्रश्न है।
के आगमों में किस अंश के भाषिक स्वरूप को बदला जा सकता पुनः चाहे हम एक बार यह मान भी लें कि प्राचीन अर्द्धमागधी है और किसको नहीं, इस पर गम्भीर चिन्तन की आवश्यकता है। का जो भी साहित्यिक रूप रहा वह बहुविध नहीं था और उसमें व्यंजनों इसी सन्दर्भ में ऋषिभाषित के एक अन्य उदाहरण पर भी विचार के लोप, उनके स्थान पर "अ" या "य" की उपस्थिति अथवा "न" कर सकते हैं। इसमें प्रत्येक ऋषि के कथन को प्रस्तुत करते हुए के स्थान पर “ण” की प्रवृत्ति नहीं रही होगी और इस आधार पर सामान्यतया यह गद्यांश मिलता है- अरहता इसिणा बुइन्तं, किन्तु आचारांग आदि की भाषा का अर्द्धमागधी स्वरूप स्थिर करने का हम देखते हैं कि इसके ४५ अध्यायों में से ३७ में “बुइन्त" पाठ प्रयत्न उचित भी मान लिया जाये, किन्तु यह भी सत्य है कि जैन है, जबकि ७ में “बुइयं” पाठ है। ऐसी स्थिति में यदि इस “बुइयं" परम्परा में शौरसेनी का आगम तुल्य साहित्य मूलत: अर्द्धमागधी पाठ वाले अंश के आस-पास अन्य शब्दों के प्राचीन अर्द्धमागधी रूप आगम-साहित्य के आधार पर और उससे ही विकसित हुआ, अतः मिलते हों तो "बुइयं' को बुइन्तं में बदला जा सकता है। किन्तु यदि उसमें जो अर्द्धमागधी या महाराष्ट्री का प्रभाव देखा जाता है, उसे पूर्णतः किसी शब्द रूप के आगे-पीछे के शब्द रूप भी महाराष्ट्री प्रभाव वाले निकाल देना क्या उचित होगा? यदि हमने यह दुःसाहस किया भी हों, तो फिर उसे बदलने के लिए हमें एक बार सोचना होगा। तो उससे ग्रन्थों के काल-निर्धारण आदि में और उनकी पारस्परिक कुछ स्थितियों में यह भी होता है कि ग्रन्थ की एक ही आदर्श प्रभावकता को समझने में, आज जो सुगमता है, वह नष्ट हो जायेगी। प्रति उपलब्ध हो, ऐसी स्थिति में जब तक उनकी प्रतियाँ उपलब्ध
यही स्थिति महाराष्ट्री प्राकृत की भी है। उसका आधार भी न हों, तब तक उनके साथ छेड़-छाड़ करना उचित नहीं होगा। अत: अर्द्धमागधी और अंशत: शौरसेनी आगम रहे हैं। यदि उनके प्रभाव अर्द्धमागधी या शौरसेनी के भाषिक रूपों को परिवर्तित करने के किसी को निकालने का प्रयत्न किया गया तो वह भी उचित नहीं होगा। निर्णय से पूर्व सावधानी और बौद्धिक ईमानदारी की आवश्यकता है। खेयण्ण का प्राचीन रूप खेत्तन्न है। महाराष्ट्री प्राकृत के ग्रन्थ में एक इस सन्दर्भ में अन्तिम रूप से एक बात और निवेदन करना आवश्यक बार खेत्तन्न रूप प्राप्त होता है तो उसे हम प्राचीन शब्द रूप मानकर है, वह यह कि यदि मूलपाठ में किसी प्रकार का परिवर्तन किया भी रख सकते हैं, किन्तु अर्द्धमागधी के ग्रन्थ में "खेतन" रूप उपलब्ध जाता है, तो भी इतना तो अवश्य ही करणीय होगा कि पाठान्तरों
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अर्धमागधी आगम साहित्य एक विमर्श
के रूप में अन्य उपलब्ध शब्द रूपों को भी अनिवार्य रूप से रखा जाय, साथ ही भाषिक रूपों को परिवर्तित करने के लिए जो प्रति आधार रूप में मान्य की गयी हो उसकी मूल प्रतिछाया को भी प्रकाशित किया जाय, क्योंकि छेड़-छाड़ के इस क्रम में जो साम्प्रदायिक आग्रह कार्य करेंगे, उससे ग्रन्थ की मौलिकता को पर्याप्त धक्का लग सकता है।
आचार्य शान्तिसागर जी और उनके समर्थक कुछ दिगम्बर विद्वानों द्वारा षट्खण्डागम ( १/१/९३) में से "संजद" पाठ को हटाने की एवं श्वेताम्बर परम्परा में मुनि श्री फूलचन्द जी द्वारा परम्परा के विपरीत लगने वाले कुछ आगम के अंशों को हटाने की कहानी अभी हमारे सामने ताजा ही है। यह तो भाग्य ही था कि इस प्रकार के प्रयत्नों को दोनों ही समाज के प्रबुद्ध वर्ग ने स्वीकार नहीं किया और इस प्रकार से सैद्धान्तिक संगति के नाम पर जो कुछ अनर्थ हो सकता था, उससे हम बच गये। किन्तु आज भी " षट्खण्डागम" के ताम्र पत्रों एवं प्रथम संस्करण की मुद्रित प्रतियों में 'संजद' शब्द अनुपस्थित है। इसी प्रकार फूलचन्द जी द्वारा सम्पादित अंग सुत्ताणि में कुछ आगम पाठों का जो विलोपन हुआ है वे प्रतियाँ तो भविष्य में भी रहेंगी, अतः भविष्य में तो यह सब निश्चय ही विवाद का कारण बनेगा। इसलिये ऐसे किसी भी प्रयत्न से पूर्व पूरी सावधानी एवं सजगता आवश्यक है। मात्र "संजद" पद हट जाने से उस ग्रन्थ के यापनीय होने की जो पहचान है, वही समाप्त हो जाती और जैन परम्परा के इतिहास के साथ अनर्थ हो जाता।
उपर्युक्त समस्त चर्चा से मेरा प्रयोजन यह नहीं है कि अर्द्धमागधी आगम एवं आगम तुल्य शौरसेनी ग्रन्थों के भाषायी स्वरूप की एकरूपता एवं उनके प्राचीन स्वरूप को स्थिर करने का कोई प्रयत्न ही न हो। मेरा दृष्टिकोण मात्र यह है कि उसमें विशेष सतर्कता की आवश्यकता है। साथ ही इस प्रयत्न का परिणाम यह न हो कि जो परवर्ती ग्रन्थ प्राचीन अर्द्धमागधी आगम साहित्य के आधार पर निर्मित हुए हैं, उनकी उस रूप में पहचान ही समाप्त कर दी जाये और इस प्रकार आज ग्रन्थों के पौर्वापर्य के निर्धारण का जो भाषायी आधार है वह भी नष्ट हो जाये। यदि प्रश्नव्याकरण, नन्दौसूत्र आदि परवर्ती आगमों की भाषा को प्राचीन अर्द्धमागधी में बदला गया अथवा कुन्दकुन्द के ग्रन्थों का या मूलाचार और भगवती आराधना का पूर्ण शौरसेनीकरण किया गया तो यह उचित नहीं होगा, क्योंकि इससे उनकी पहचान और इतिहास ही नष्ट हो जायेगा।
जो लोग इस परिवर्तन के पूर्णतः विरोधी हैं उनसे भी मैं सहमत नहीं हूँ। मैं यह मानता हूँ आचारांग, ऋषिभाषित एवं सूत्रकृतांग जैसे प्राचीन आगमों का इस दृष्टि से पुनः सम्पादन होना चाहिए। इस प्रक्रिया के विरोध में जो स्वर उभर कर सामने आये हैं उनमें जौहरीमल जी पारख का स्वर प्रमुख है। वे विद्वान् अध्येता ओर श्रद्धाशील दोनों ही हैं। फिर भी तुलसी - प्रज्ञा में उनका जो लेख प्रकाशित हुआ है। उसमें उनका वैदुष्य श्रद्धा के अतिरेक में दब सा गया है। उनका सर्वप्रथम तर्क यह है कि आगम सर्वज्ञ के वचन है, अतः उन पर व्याकरण
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के नियम थोपे नहीं जा सकते कि वे व्याकरण के नियमों के अनुसार ही बोलें। यह कोई तर्क नहीं, मात्र उनकी श्रद्धा का अतिरेक ही है। प्रथम प्रश्न तो यही है कि क्या अर्द्धमागधी आगम अपने वर्तमान स्वरूप में सर्वज्ञ की वाणी है? क्या उनमें किसी प्रकार का विलोपन, प्रक्षेप या परिवर्तन नहीं हुआ है? यदि ऐसा है तो उनमें अनेक स्थलों पर अन्तर्विरोध क्यों है? कहीं लोकान्तिक देवों की संख्या आठ है तो कहीं नौ क्यों है? कहीं चार स्थावर और दो उस है, कहीं तीन स और तीन स्थावर कहे गये, तो कहीं पाँच स्थावर और एक त्रस यदि आगम शब्दश: महावीर की वाणी है, तो आगमों और विशेष रूप से अंग आगमों में महावीर के तीन सौ वर्ष पश्चात् उत्पन्न हुए गणों के उल्लेख क्यों हैं? यदि कहा जाय कि भगवान सर्वज्ञ थे और उन्होंने भविष्य की घटनाओं को जानकर यह उल्लेख किया तो प्रश्न यह कि वह कथन व्याकरण की दृष्टि से भविष्यकालिक भाषा रूप में होना था वह भूतकाल में क्यों कहा गया। क्या भगवती में गोशालक के प्रति जिस अशिष्ट शब्दावली का प्रयोग हुआ है क्या वह अंश वीतराग भगवान महावीर की वाणी हो सकती है? क्या आज प्रश्नव्याकरणदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिकदशा और विपाकदशा की विषयवस्तु वही है, जो स्थानांग में उल्लिखित है? तथ्य यह है कि यह सब परिवर्तन हुआ है, आज हम उससे इंकार नहीं कर सकते हैं।
आज ऐसे अनेक तथ्य है, जो वर्तमान आगमसाहित्य को अक्षरश: सर्वज्ञ के वचन मानने में बाधक हैं। परम्परा के अनुसार भी सर्वश तो अर्थ ( विषयवस्तु) के प्रवक्ता है— शब्द रूप तो उनको गणधरों या परवर्ती स्थविरों द्वारा दिया गया है क्या आज हमारे पास जो आगम हैं, वे ठीक वैसे ही हैं जैसे शब्द रूप से गणधर गौतम ने उन्हें रचा था? आगम ग्रन्थों में परवर्तीकाल में जो विलोपन, परिवर्तन परिवर्धन आदि हुआ और जिनका साक्ष्य स्वयं आगम ही दे रहे हैं, उससे क्या हम इन्कार कर सकते हैं? स्वयं देवर्धि ने इस तथ्य को स्वीकार किया है तो फिर हम नकारने वाले कौन होते हैं। आदरणीय पारखजी लिखते हैं— "पण्डितों से हमारा यही आग्रह रहेगा कि कृपया बिना भेल-सेल के वही पाठ प्रदान करें जो तीर्थकरों ने अर्थरूप में प्ररुपित और गधणरों ने सूत्ररूप में संकलित किया था। हमारे लिये वही शुद्ध है सर्वज्ञों को जिस अक्षर, शब्द, पद, वाक्य या भाषा का प्रयोग अभीष्ट था, वह सूचित कर गये, अब उसमें असर्वज्ञ फेर बदल नहीं कर सकता।” उनके इस कथन के प्रति मेरा प्रथम प्रश्न तो यही है कि आज तक आगमों में जो परिवर्तन होता रहा वह किसने किया? आज हमारे पास जो आगम है उनमें एकरूपता क्यों नहीं है? आज मुर्शिदाबाद, हैदराबाद, बम्बई, लाडनूं आदि के संस्करणों में इतना अधिक पाठ भेद क्यों है ? इनमें से हम किस संस्करण को सर्वज्ञ वचन माने और आपके शब्दों में किसे भेल सेल कहें? मेरा दूसरा प्रश्न यह है कि क्या आज पण्डित आगमों में कोई भेल सेल कर रहे हैं या फिर वे उसके शुद्ध स्वरूप को सामने लाना चाहते हैं? किसी भी पाश्चात्य संशोधक दृष्टि सम्पन्न विद्वान् ने आगमों में कोई भेल सेल किया? इसका एक भी उदाहरण हो तो हमें बतायें। दुर्भाग्य यह है कि शुद्धि के प्रयत्न को
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ भेल-सेल का नाम दिया जा रहा है और व्यर्थ में उसकी आलोचना नहीं है। की जा रही है। पुन: जहाँ तक मेरी जानकारी है डॉ. चन्द्रा ने एक वर्तमान में उपलब्ध आगमों के संस्करणों में लाडनूं और महावीर भी ऐसा पाठ नहीं सुझाया है, जो आदर्श सम्मत नहीं है। उन्होंने मात्र विद्यालय के संस्करण अधिक प्रामाणिक माने जाते हैं, किन्तु उनमें यही प्रयत्न किया है कि जो भी प्राचीन शब्द रूप किसी भी एक आदर्शप्रत भी "त" श्रुति और “य" श्रुति को लेकर या मध्यवर्ती व्यंजनों के में एक-दो स्थानों पर भी मिल गये, उन्हें आधार मानकर अन्य स्थलों लोप सम्बन्धी जो वैविध्य है, वह न केवल आश्चर्यजनक है, अपितु पर भी वही प्राचीन रूप रखने का प्रयास किया है। यदि उन्हें भेल-सेल विद्वानों के लिए चिन्तनीय भी है। करना होता तो वे इतने साहस के सभी पूज्य मुनिजनों एवं विद्वानों यहाँ महावीर विद्यालय से प्रकाशित स्थानांगसूत्र के ही एक-दो के विचार जानने के लिये उसे प्रसारित नहीं करते। फिर जब पारख उदाहरण आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ - जी स्वयं यह कहते हैं कि कुल ११६ पाठभेदों में केवल १ “आउसंतेण" चत्तारि वत्था पन्नत्ता, तंजहा-सुती नाम एगे सुती, सईनाम एगे असई, को छोड़कर शेष ११५ पाठभेद ऐसे हैं कि जिनसे अर्थ में कोई फर्क चउभंगो। नहीं पड़ता- तो फिर उन्होंने ऐसा कौन सा अपराध कर दिया जिससे एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा सुती णामं एगे सुती, उनके श्रम की मूल्यवत्ता को स्वीकार करने के स्थान पर उसे नकारा चउभंगो। जा रहा है? आज यदि आचारांग के लगभग ४० से अधिक संस्करण -(चतुर्थ) स्थान, प्रथम उद्देशक, सूत्रक्रमांक २४१, पृ० ९४) हैं- और यह भी सत्य है कि सभी ने आदर्शों के आधार पर ही इस प्रकार यहाँ आप देखेंगे कि एक ही सत्र में "सती" और पाठ छापे हैं तो फिर किसे शुद्ध और किसे अशुद्ध कहें? क्या सभी “सुई' दोनों रूप उपस्थित हैं। इससे मात्र शब्द-रूप में ही भेद नहीं को समान रूप से शुद्ध मान लिया जायेगा। क्या हम ब्यावर, जैन होता है, अर्थ भेद भी हो सकता है, क्योंकि "सुती" का अर्थ है विश्वभारती, लाडनूं और महावीर विद्यालय वाले संस्करणों को समान सूत से निर्मित, जबकि “सुई" (शुचि) का अर्थ है पवित्र। इस प्रकार महत्त्व का समझें? भय भेल-सेल का नहीं है, भय यह है कि अधिक इसी सूत्र में “णाम" और "नाम" दोनों शब्द रूप एक ही साथ उपस्थित प्रामाणिक एवं शुद्ध संस्करण के निकल जाने से पूर्व संस्करणों की हैं। इसी स्थानांगसूत्र से एक अन्य उदाहरण लीजिए- सूत्र क्रमांक सम्पादन में रही कमियाँ उजागर हो जाने का और यही खीज का मूल ४४५, पृ० १९७ पर “निर्ग्रन्थ" शब्द के लिए प्राकृत शब्दरूप"नियंठ" कारण प्रतीत होता है। पुन: क्या श्रद्धेय पारखजी यह बता सकते हैं प्रयुक्त है तो सूत्र ४४६ में “निग्गंथ" और पाठान्तर में "नितंठ' रूप कि क्या कोई भी ऐसी आदर्श प्रति है, जो पूर्णत: शुद्ध है- जब भी दिया गया है। इसी ग्रन्थ में सूत्र संख्या ४५८, पृ. १९७ पर आदर्शों में भिन्नता और अशुद्धियाँ हैं, तो उन्हें दूर करने के लिये धम्मत्थिकातं, अधम्मत्थिकातं और आगासत्थिकायं- इस प्रकार विद्वान् व्याकरण के अतिरिक्त किसका सहारा लेंगे? क्या आज तक “काय' शब्द के दो भिन्न शब्द रूप काय और कातं दिये गये हैं। कोई भी आगम ग्रन्थ बिना व्याकरण का सहारा लिये मात्र आदर्श के यद्यपि “त" श्रुति प्राचीन अर्द्धमागधी की पहचान है, किन्तु प्रस्तुत आधार पर छपा है। प्रत्येक सम्पादक व्याकरण का सहारा लेकर ही सन्दर्भ में सुती, निठंत और कातं में जो "त" का प्रयोग है वह मुझे आदर्श की अशुद्धि को ठीक करता है। यदि वे स्वयं यह मानते हैं परवर्ती लगता है। लगता है कि "य" श्रुति को "त" श्रुति में बदलने कि आदर्शों में अशुद्धियाँ स्वाभाविक हैं, तो फिर उन्हें शुद्ध किस के प्रयत्न भी कालान्तर में हुए और इस प्रयत्न में बिना अर्थ का विचार आधार पर किया जायेगा? मैं भी यह मानता हूँ कि सम्पादन में आदर्श किये "य" को "त" कर दिया गया है। शुचि का सूती, निर्ग्रन्थ का प्रति का आधार आवश्यक है। किन्तु न तो मात्र आदर्श से और न नितंठ और काय का कातं किस प्राकृत व्याकरण के नियम से बनेगा, मात्र व्याकरण के नियमों से समाधान होता है, उसमें दोनों का सहयोग मेरी जानकारी में तो नहीं है। इससे भी अधिक आश्चर्यजनक एक उदाहरण आवश्यक है। मात्र यही नहीं अनेक प्रतों को सामने रखकर तुलना हमें हर्षपुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित नियुक्तिसंग्रह में करके एवं विवेक से भी पाठ शुद्ध करना होता है। जैसा कि आचार्य ओघनियुक्ति के प्रारम्भिक मंगल में मिलता हैश्री तुलसी जी ने मुनि श्री जम्बूविजय जी को अपनी सम्पादन शैली नमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं, का स्पष्टीकरण करते हुए बताया था।
णमो लोए सव्वसाहूणं, आदरणीय पारखजी एवं उनके द्वारा उद्धृत मुनि श्री जम्बूविजयजी एसो पंचनमुक्कारो, सव्वपावप्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं का यह कथन कि आगमों में अनुनासिक परसवर्ण वाले पाठ प्रायः हवइ मंगल।।१।। नहीं मिलते हैं, स्वयं ही यह बताता है कि क्वचित् तो मिलते हैं। यहाँ हम देखते हैं कि जहाँ नमो अरिहंताणं में प्रारम्भ में "न' पुन: इस सम्बन्ध में डॉ. चन्द्रा ने आगमोदय समिति के संस्करण, रखा गया जबकि णमो सिद्धाणं से लेकर शेष चार पदों में आदि का टीका तथा चूर्णि के संस्करणों से प्रमाण भी दिये हैं। वस्तुतः लेखन "न" "ण' कर दिया गया है। किन्तु “एसो पंचनमुक्कारों" में पुन: की सुविधा के कारण ही अनुनासिक परसवर्ण वाले पाठ आदर्शों में "न" उपस्थित है। हम आदणीय पारखजी से इस बात में सहमत कम होते गये हैं। किन्तु लोकभाषा में वे आज भी जीवित हैं। अत: हो सकते हैं कि भिन्न कालों में भिन्न व्यक्तियों से चर्चा करते हुए प्राकृत चन्द्रा जी के कार्य को प्रमाणरहित या आदर्शरहित कहना उचित भाषा के भिन्न शब्द रूपों का प्रयोग हो सकता है। किन्तु ग्रन्थ-निर्माण
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अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श
३७ के समय और वह भी एक ही सूत्र या वाक्यांश में दो भिन्न रूपों वे जो कार्य कर रहे हैं वह न केवल करणीय है बल्कि एक सही का प्रयोग तो कभी भी नहीं होगा, पुन: यदि हम यह मानते हैं कि दिशा देने वाला कार्य है। हम उन्हें सुझाव तो दे सकते हैं लेकिन आगम सर्वज्ञ वचन हैं, तो जब सामान्य व्यक्ति भी ऐसा नहीं करता अनधिकृत रूप से येन-केन प्रकारेण सर्वज्ञ और शास्त्र-श्रद्धा की दुहाई है, तो फिर सर्वज्ञ कैसे करेगा? इस प्रकार की भिन्नता के लिए लेखक देकर उनकी आलोचना करने का कोई अधिकार नहीं रखते। क्योंकि नहीं, अपितु प्रतिलिपिकार ही उत्तरदायी होता है। अत: ऐसे पाठों वे जो भी कार्य कर रहे हैं वह बौद्धिक ईमानदारी के साथ, निर्लिप्त का शुद्धीकरण अनुचित नहीं कहा जा सकता। एक ही सूत्र में “सुती” भाव से तथा सम्प्रदायगत आग्रहों से ऊपर उठकर कर रहे हैं, उनकी और “सुई" "नाम" और "णाम", "नियंठ" और "निग्गंथ", "कातं" नियत में भी कोई शंका नहीं की जा सकती। अत: मैं जैन विद्या और "कायं" ऐसे दो शब्द रूप नहीं हो सकते। उनका पाठ संशोधन के विद्वानों से नम्र निवेदन करूँगा कि वे शान्तचित्त से उनके प्रयत्नों आवश्यक है। यद्यपि इसमें भी यह सावधानी आवश्यक है कि "त" की मूल्यवत्ता को समझें और अपने सुझावों एवं सहयोग से उन्हें इस श्रुति की प्राचीनता के व्यामोह में कहीं सर्वत्र “य" का "त" नहीं दिशा में प्रोत्साहित करें। दूसरी ओर मैं प्रो. चन्द्रा से भी निवेदन कर दिया जावे, जैसे शुचि-सुइ का "सुती', निग्गंथ का “नितंठ" करूँगा कि वे बिना प्रमाण के ऐसा कोई परिशोधन न करे। अथवा कायं का “कातं" पाठ महावीर विद्यालय वाले संस्करण में है। हम पारखजी से इस बात में सहमत हैं कि कोई भी पाठ आदर्श आगमों के विच्छेद की अवधारणा में उपलब्ध हुए बिना नहीं बदला जाय, किन्तु “आदर्श' में उपलब्ध आगम के विच्छेद की यह अवधारणा जैनधर्म के श्वेताम्बर एवं होने का यह अर्थ नहीं है कि "सर्वत्र" और सभी "आदर्शो' में उपलब्ध दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में उल्लिखित है। दिगम्बर परम्परा में आगमों हो। हाँ यदि आदर्शों या आदर्श के अंश में प्राचीन पाठ मात्र एक के विच्छेद की यह अवधारणा तिलोयपण्णत्ति, षट्खण्डागम की दो स्थलों पर ही मिलें और उनका प्रतिशत २० से भी कम हो तो धवलाटीका, हरिवंशपुराण, आदिपुराण आदि में मिलती है। इन सब वहाँ उन्हें प्रायः न बदला जाय। किन्तु यदि उनका प्रतिशत २० से ग्रन्थों में तिलोयपण्णत्ति अपेक्षाकृत प्राचीन है। तिलोयपण्णत्ति का अधिक हो तो उन्हें बदला जा सकता है- शर्त यही हो कि आगम रचनाकाल विद्वानों ने ईसा की छठी-सातवीं शती के लगभग माना का वह अंश परवर्ती या प्रक्षिप्त न हो-जैसे आचारांग का दूसरा श्रुतस्कन्ध है। इसके पश्चात् षट्खण्डागम की धवला टीका, हरिवंशपुराण, या प्रश्नव्याकरण। किन्तु एक ही सूत्र में यदि इस प्रकार के भिन्न रूप आदिपुराण आदि ग्रन्थ आते हैं जो लगभग ई. की नवीं शती की आते हैं तो एक स्थल पर भी प्राचीन रूप मिलने पर अन्यत्र उन्हें रचनाएँ हैं। हरिवंश पुराण में आगम-विच्छेद की चर्चा को कुछ विद्वानों परिवर्तित किया जा सकता है।
ने प्रक्षिप्त माना है, क्योंकि वह यापनीय परम्परा का ग्रन्थ है और पाठ शुद्धीकरण में दूसरी सावधानी यह आवश्यक है कि आगमों यापनीयों में नवीं-दसवीं शताब्दी तक आगमों के अध्ययन और उन में कहीं-कहीं प्रक्षिप्त अंश हैं अथवा संग्रहिणियों और नियुक्तियों की पर टीका लिखने की परम्परा जीवित रही है। सम्भव यह भी है कि अनेकों गाथाएँ भी अवतरित की गयीं, ऐसे स्थलों पर पाठ-शुद्धिकरण जिस प्रकार श्वेताम्बरों में आगमों के विच्छेद की चर्चा होते हुए भी करते समय प्राचीन रूपों की उपेक्षा करनी होगी और आदर्श में उपलब्ध आगमों की परम्परा जीवित रही उसी प्रकार यापनीयों में भी श्रुत-विच्छेद पाठ को परवर्ती होते हुए भी यथावत् रखना होगा।इस तथ्य को हम की परम्परा का उल्लेख होते हुए भी श्रुत के अध्ययन एवं उन पर इस प्रकार भी समझा सकते हैं कि यदि एक अध्ययन, उद्देशक या टीका आदि के लेखन की परम्परा जीवित रही है। पुन: हरिवंशपुराण एक पैराग्राफ में यदि ७० या ८० प्रतिशत प्रयोग महाराष्ट्री या "य" में भी मात्र पूर्व एवं अंग ग्रन्थ के विच्छेद की चर्चा है, शेष ग्रन्थ श्रुति के हैं और मात्र १० प्रतिशत प्रयोग प्राचीन अर्द्धमागधी के हैं तो थे ही। तो वहाँ पाठ के महाराष्ट्री रूप को रखना ही उचित होगा। सम्भव इन ग्रन्थों के अनुसार भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् गौतम, है कि वह. प्रक्षिप्त रूप हो, किन्तु इसके विपरीत उनमें ६० प्रतिशत सुधर्मा (लोहार्य) और जम्बू ये तीन आचार्य केवली हुए, इन तीनों प्राचीन रूप हैं और ४० प्रतिशत अर्वाचीन महाराष्ट्री के रूप हैं, तो का सम्मिलित काल ६२ वर्ष माना गया है। तत्पश्चात् विष्णु, नन्दिमित्र, वहाँ प्राचीन रूप रखे जा सकते हैं।
अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु ये पाँच आचार्य चतुर्दश पूर्वो के पुन: आगम-संपादन और पाठ-शुद्धीकरण के इस उपक्रम में दिये धारक श्रुतकेवली हुए। इन पाँच आचार्यों का सम्मिलित काल १०० जाने वाले मूलपाठ को शुद्ध एवं प्राचीन रूप में दिया जाय, किन्तु वर्ष है। इस प्रकार भद्रबाहु के काल तक अंग और पूर्व की परम्परा पाद टिप्पणियों में सम्पूर्ण पाठान्तरों का संग्रह किया जाय। इसका अविच्छिन्न बनी रही। उसके बाद प्रथम पूर्व साहित्य का विच्छेद प्रारम्भ लाभ यह होगा कि कालान्तर में यदि कोई संशोधन कार्य करें तो हुआ। भद्रबाहु के पश्चात् विशाख, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, उसमें सुविधा हो।
धृतिसेन, विजय बुद्धिल, धर्मसेन और गंगदेव- ये ग्यारह आचार्य प्रो. के.आर चन्द्रा अपनी अनेक सीमाओं के बावजूद भी आगमों दस पूर्वो के धारक हुए। इनका सम्मिलित काल १८३ वर्ष माना गया के पाठ संशोधन का जो यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और श्रमसाध्य कार्य है। इस प्रकार वीरनिर्वाण के पश्चात् ३४५ वर्ष तक पूर्वधरों का अस्तित्व कर रहे हैं, उसकी मात्र आलोचना करना कथमपि उचित नहीं है, क्योंकि रहा। इसके बाद पूर्वधरों के विच्छेद के साथ ही पूर्व ज्ञान का विच्छेद
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ हो गया। इनके पश्चात् नक्षत्र, यशपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन और कंस- तित्थोगालिय एवं अन्य ग्रन्थों के साक्ष्य से ज्ञात होता है कि ये पाँच आचार्य एकादश अंगों के ज्ञाता हुए। इनका सम्मिलित काल श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार अन्तिम चतुर्दशपूर्वधर आर्य भद्रबाहु हुए। २२० वर्ष माना गया। इस प्रकार भगवान् महावीर निर्वाण के ५६५ आर्य भद्रबाहु के स्वर्गवास के साथ ही चतुर्दश पूर्वधरों की परम्परा वर्ष पश्चात् आचारांग को छोड़कर शेष अंगों का भी विच्छेद हो गया। समाप्त हो गयी। इनका स्वर्गवास काल वीरनिर्वाण के १७० वर्ष पश्चात् इनके बाद सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहाचार्य- ये चार आचार्य । माना जाता है। इसके पश्चात् स्थूलिभद्र दस पूर्वो के अर्थ सहित और आचारांग के धारक हुए। इनका काल ११८ वर्ष रहा।इस प्रकार शेष चार पूर्वो के मूल मात्र के ज्ञाता हुए। यथार्थ में तो वे दस पूर्वो वीरनिर्वाण के ६८३ वर्ष पश्चात् अंग एवं पूर्व साहित्य के ग्रन्थों के के ही ज्ञाता थे। तित्थोगालिय में स्थूलिभद्र को दस पूर्वधरों में प्रथम पूर्णज्ञाता आचार्यों की परम्परा समाप्त हो गई। इनके बाद आचार्य कहा गया है। उसमें अन्तिम दसपूर्वी सत्यमित्र (पाठभेद से सर्वमित्र) धरसेन तक अंग और पूर्व के एकदेश ज्ञाता (आंशिकज्ञाता) आचार्यों को बताया गया है, किन्तु उनके काल का निर्देश नहीं किया गया की परम्परा चली। उसके बाद पूर्व और अंग-साहित्य का विच्छेद हो है। उसके बाद उस ग्रन्थ में यह उल्लिखित है कि अनुक्रम से भगवान् गया। मात्र अंग और पूर्व के आधार पर उनके एकदेश ज्ञाता आचार्यों महावीर के निर्वाण के १००० वर्ष पश्चात् वाचक वृषभ के समय में द्वारा निर्मित ग्रन्थ ही शेष रहे। अंग और पूर्वधरों की यह सूची हमने । पूर्वगत श्रुत का विच्छेद हो जायगा। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार दस हरिवंशपुराण के आधार पर दी है। अन्य ग्रन्थों एवं श्रवणबेलगोला पूर्वधरों के पश्चात् भी पूर्वधरों की परम्परा चलती रही है, श्वेताम्बरों के कुछ अभिलेखों में भी यह सूची दी गयी है, किन्तु इन सभी सूचियों में अभिन्न-अक्षर दसपूर्वधर और भिन्न-अक्षर दसपूर्वधर, ऐसे दो प्रकार में कहीं नामों में और कहीं क्रम में अन्तर है, जिससे इनकी प्रामाणिकता के वर्गों का उल्लेख है। जो सम्पूर्ण दस पूर्वो के ज्ञाता होते थे, वे संदेहास्पद बन जाती है। किन्तु जो कुछ साहित्यिक और अभिलेखीय अभिन्न अक्षर दसपूर्वधर कहे जाते थे और जो आंशिक रूप से दस साक्ष्य उपलब्ध हैं उन्हें ही आधार बनाना होगा, अन्य कोई विकल्प पूर्वो के ज्ञाता होते थे, उन्हें भिन्न-अक्षर दसपूर्वधर कहा जाता था। भी नहीं है। यद्यपि इन साक्ष्यों में भी एक भी साक्ष्य ऐसा नहीं है, इस प्रकार हम देखते हैं कि चतुर्दश पूर्वधरों के विच्छेद की जो सातवीं शती से पूर्व का हो। इन समस्त विवरणों से हम इस इस चर्चा में दोनों परम्परा में अन्तिम चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु को ही माना निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि दिगम्बर परम्परा में श्रुत विच्छेद की गया है। श्वेताबर परम्परा के अनुसार वीरनिर्वाण के १७० वर्ष पश्चात् इस चर्चा का प्रारम्भ लगभग छठीं-सातवीं शताब्दी में हुआ और उसमें और दिगम्बर परम्परा के अनुसार १६२ वर्ष पश्चात् चतुर्दश पूर्वधरों अंग एवं पूर्व साहित्य के ग्रन्थों के ज्ञाता आचार्यों के विच्छेद की चर्चा का विच्छेद हुआ। यहाँ दोनों परम्पराओं में मात्र आठ वर्षों का अन्तर
है। किन्तु दस पूर्वधरों के विच्छेद के सम्बन्ध में दोनों परम्पराओं में श्वेताम्बर परम्परा में पूर्व-ज्ञान के विच्छेद की चर्चा तो नियुक्ति, कोई समरूपता नहीं देखी जाती है। श्वेताम्बर परम्परानुसार आर्य सर्वमित्र भाष्य, चूर्णि आदि आगामिक व्याख्या ग्रन्थों में हुई है। किन्तु और दिगम्बर परम्परा के अनुसार आर्य धर्मसेन या आर्य सिद्धार्थ अन्तिम अंग-आगमों के विच्छेद की चर्चा मात्र तित्थोगालिय प्रकीर्णक के दस पूर्वी हुए हैं। श्वेताम्बर परम्परा में आर्य सर्वमित्र को अन्तिम दस अतिरिक्त अन्यत्र कहीं नहीं मिलती है। तित्थोगालिय प्रकीर्णक को देखने पूर्वधर कहा गया है। दिगम्बर परम्परा में भगवतीआराधना के कर्ता से लगता है कि यह ग्रन्थ लगभग छठी-सातवीं शताब्दी में निर्मित शिवार्य के गुरुओं के नामों में सर्वगुप्तगणि और मित्रगणि नाम आते हआ है। इसका रचना काल और कुछ विषय-वस्तु भी तिलोयपण्णत्ति हैं किन्तु दोनों में कोई समरूपता हो यह निर्णय करना कठिन है। से समरूप ही है। इस प्रकीर्णक का उल्लेख नन्दीसूत्र की कालिक दिगम्बर परम्परा में दस पूर्वधरों के पश्चात् एकदेश पूर्वधरों का उल्लेख
और उत्कालिक ग्रन्थों की सूची में नहीं है, किन्तु व्यवहारभाष्य (१०/ तो हुआ है, किन्तु उनकी कोई सूची उपलब्ध नहीं होती। अत: इस ७०४) में इसका उल्लेख हुआ है। व्यवहारभाष्य स्पष्टत: सातवीं शताब्दी सम्बन्ध में किसी प्रकार की तुलना कर पाना सम्भव नहीं है। की रचना है। अन्तत: तित्थोगालिय पाँचवीं शती के पश्चात् तथा सातवीं पूर्व साहित्य के विच्छेद की चर्चा के पश्चात् तित्थोगालिय में शती के पूर्व अर्थात् लगभग ईस्वी सन् की छठी शताब्दी में निर्मित अंग साहित्य के विच्छेद की चर्चा हुई है। जो निम्नानुसार हैहुआ होगा। यही काल तिलोयपण्णत्ति का भी है। इन दोनों ग्रन्थों में उसमें उल्लिखित है कि वीरनिर्वाण के १२५० वर्ष पश्चात् ही सर्वप्रथम श्रुत के विच्छेद की चर्चा है। तित्थोगालिय में तीर्थङ्करों विपाकसूत्र सहित छ: अंगों का विच्छेद हो जायेगा, इसके पश्चात् की माताओं के चौदह स्वप्न, स्त्री-मुक्ति तथा दस आश्चर्यों का उल्लेख वीरनिर्वाण सं. १३०० में समवायांग का, वीरनिर्वाण सं. १३५० होने से एवं नन्दीसूत्र, अनुयोगद्वार तथा आवश्यकनियुक्ति से इसमें में स्थानांग का, वीरनिर्वाण सं. १४०० में कल्प-व्यवहार का, वीरनिर्वाण अनेक गाथाएँ अवतरित किये जाने से यही सिद्ध होता है कि यह सं. १५०० में आयारदशा का, वीरनिर्वाण सं. १९०० में सूत्रकृतांग श्वेताम्बर ग्रन्थ है। श्वेताम्बर परम्परा में प्रकीर्णक रूप में इसकी आज का और वीरनिर्वाण सं. २००० में निशीथसूत्र का विच्छेद होगा। ज्ञातव्य भी मान्यता है। इस ग्रन्थ की गाथा ८०७ से ८५७ तक में न केवल है कि इसके पश्चात् लगभग अठारह हजार वर्ष तक विच्छेद की कोई पूर्वो के विच्छेद की चर्चा है, अपितु अंग-साहित्य के विच्छेद की चर्चा नहीं है। फिर वीरनिर्वाण सं. २०,००० में आचारांग का, भी चर्चा है।
वीरनिर्वाण सं. २०५०० में उत्तराध्ययन का, वीरनिर्वाण सं. २०९००
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अर्धमागधी आगम साहित्य एक विमर्श
में दशवैकालिक मूल का और वीरनिर्वाण सं. २१,००० में दशवैकालिक के अर्थ का विच्छेद होगा— यह कहा गया है।
ज्ञातव्य है कि पण्डित दलसुखभाई ने जैन साहित्य के बृहद् इतिहास की भूमिका (पृ. ६१) में आचारांग का विच्छेद वीरनिर्वाण के २३०० वर्ष पश्चात् लिखा है किन्तु मूल गाथा से कहीं भी यह अर्थ फलित नहीं होता। उन्होंने किस आधार पर यह अर्थ किया यह हम नहीं जानते हैं। हो सकता हैं कि उनके पास इस गाथा का कोई दूसरा पाठान्तर रहा हो।
इस प्रकार हम देखते है कि अंग आगमों के विच्छेद की चर्चा श्वेताम्बर परम्परा में भी चली है, किन्तु इसके बावजूद भी श्वेताम्बर परम्परा ने अंग साहित्य को, चाहे आंशिक रूप से ही क्यों न हो, सुरक्षित रखने का प्रयास किया है।
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प्रथम तो प्रश्न यह है कि क्या विच्छेद का अर्थ तत् तत् ग्रन्थ का सम्पूर्ण रूप से विनाश है? मेरी दृष्टि में विच्छेद का अर्थ यह नहीं कि उस ग्रन्थ का सम्पूर्ण लोप हो गया। मेरी दृष्टि में विच्छेद का तात्पर्य उसके कुछ अंशों का विच्छेद ही मानना होगा। यदि हम निष्पक्ष दृष्टि से विचार करें तो ज्ञात होता है कि श्वेताम्बर परम्परा में भी जो अंग साहित्य आज अवशिष्ट हैं वे उस रूप में तो नहीं हैं जिस रूप में उनकी विषय-वस्तु का उल्लेख स्थानांग, समवायांग, नन्दीसूत्र आदि में हुआ है। यह सत्य है कि न केवल पूर्व साहित्य का अपितु अंग साहित्य का भी बहुत कुछ अंश विच्छिन्न हुआ है। आज आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध का सातवाँ महापरिज्ञा नामक अध्याय अनुपलब्ध है। भगवतीसूत्र, ज्ञाताधर्मकथा अन्तकृदशा, अनुत्तरीपपातिक, प्रश्नव्याकरण, विपाकदशा आदि ग्रन्थों की भी बहुत कुछ सामग्री विच्छिन्न हुई है, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। स्थानांग में दस दशाओं की जो विषय-वस्तु वर्णित है, वह उनकी वर्तमान विषय-वस्तु से मेल नहीं खाती है। उनमें जहाँ कुछ प्राचीन अध्ययन विलुप्त हुए हैं, वहीं कुछ नवीन सामग्री समाविष्ट भी हुई है । अन्तिम वाचनाकार देवर्धिगणि ने स्वयं भी इस तथ्य को स्वीकार किया है कि मुझे जो भी त्रुटित सामग्री मिली है, उसको ही मैंने संकलित किया है। अतः आगम अन्धों के विच्छेद की जो चर्चा है, उसका अर्थ यही लेना चाहिये कि यह श्रुत-संपदा यथावत् रूप में सुरक्षित नहीं रह सकी वह आंशिक रूप से विस्मृति के गर्भ में चली गई। क्योंकि भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् लगभग एक हजार वर्ष तक यह साहित्य मौखिक रहा और मौखिक परम्परा में विस्मृति स्वाभाविक है। विच्छेद का क्रम तभी रुका जब आगमों को लिखित रूप दे दिया गया।
दिगम्बर परम्परा में श्रुत-विच्छेद सम्बन्धी जो चर्चा है उसके सम्बन्ध में यह बात विशेष रूप से ज्ञातव्य है कि उसमें श्रुतधरों के अर्थात् के ज्ञाता आचार्यों के विच्छेद की चर्चा हुई है न कि श्रुत ग्रन्थों श्रुत के विच्छेद की चर्चा हुई है। दूसरे यह कि पूर्व और अंग के इस विच्छेद की चर्चा में भी पूर्व और अंगों के एकदेश ज्ञाता आचार्यों का अस्तित्व तो स्वीकार किया ही गया है। धरसेन के सम्बन्ध में भी मात्र यह कहा गया है कि ये अंग और पूर्वो के एकदेश ज्ञाता
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थे। इनके बाद अंग एवं पूर्व के एकदेश ज्ञाता आचार्यों की परम्परा भी समाप्त हो गयी हो, ऐसा उल्लेख हमें किसी भी दिगम्बर अन्य में नहीं मिला। यही कारण है कि पं. दलसुखभाई मालवणिया (वही, पृ० ६२) आदि कुछ विद्वान् इन उल्लेखों को श्रुतधरों के विच्छेद का उल्लेख मानते हैं न कि श्रुत के विच्छेद का पुनः इस चर्चा में मात्र पूर्व और अंग साहित्य के विच्छेद की ही चर्चा हुई है। कालिक और उत्कालिक सूत्रों के अथवा छेदसूत्रों के विच्छेद की कहीं कोई चर्चा दिगम्बर परम्परा में नहीं उठी है दुर्भाग्य यह है कि दिगम्बर विद्वानों ने श्रुतधरों के विच्छेद को ही श्रुत का विच्छेद मान लिया और कालिक, उत्कालिक आदि आगमों के विच्छेद की कोई चर्चा न होने पर भी उनका विच्छेद स्वीकार कर लिया। यह सत्य है कि जब श्रुत के अध्ययन की परम्परा मौखिक हो तो श्रुतधर के विच्छेद से श्रुत का विच्छेद मानना होगा, किन्तु जब श्रुत लिखित रूप में भी हो, तो श्रुतधर के विच्छेद से श्रुत का विच्छेद नहीं माना जा सकता। दूसरे मौखिक परम्परा से चले आ रहे श्रुत में विस्मृति आदि के कारण किसी अंश-विशेष के विच्छेद को पूर्ण विच्छेद मानना भी समीचीन नहीं है। विच्छेद की इस चर्चा का तात्पर्य मात्र यही है कि महावीर की यह श्रुत-सम्पदा अक्षुण्ण नहीं रह सकी और उसके कुछ अंश विलुप्त हो गये। अतः आंशिक रूप में जिनवाणी आज भी है, इसे स्वीकार करने में किसी को कोई विप्रतिपत्ति नहीं होनी चाहिये ।
अर्धमागधी आगमों की विषय-वस्तु सरल है
अर्धमागधी आगम साहित्य की विषय-वस्तु मुख्यतः उपदेशपरक, आचारपरक एवं कथापरक है। भगवती के कुछ अंश, प्रज्ञापना, अनुयोगद्वार, जो कि अपेक्षाकृत परवर्ती है, को छोड़कर उनमें प्रायः गहन दार्शनिक एवं सैद्धान्तिक चर्चाओं का अभाव है। विषयप्रतिपादन सरल, सहज और सामान्य व्यक्ति के लिए भी बोधगम्य है। वह मुख्यतः विवरणात्मक एवं उपदेशात्मक है। इसके विपरीत शौरसेनी आगमों में आराधना और मूलाचार को छोड़कर लगभग सभी ग्रन्थ दार्शनिक एवं सैद्धान्तिक चर्चा से युक्त है। वे परिपक्व दार्शनिक विचारों के परिचायक हैं। गुणस्थान और कर्मसिद्धान्त की वे गहराइयाँ, जो शौरसेनी आगमों में उलब्ध हैं, अर्धमागधी आगमों में उनका प्रायः अभाव ही है। कुन्दकुन्द के समयसार के समान उनमें सैद्धान्तिक दृष्टि से अध्यात्मवाद के प्रतिस्थापन का भी कोई प्रयास परिलक्षित नहीं होता। यद्यपि ये सब उनकी कमी भी कही जा सकती है, किन्तु चिन्तन के विकास क्रम की दृष्टि से विचार करने पर स्पष्ट रूप से यह फलित होता है कि अर्धमागधी आगम साहित्य प्राथमिक स्तर का होने से प्राचीन भी है और साथ ही विकसित शौरसेनी आगमों के लिए आधारभूत भी समवायांग में जीवस्थानों के नाम से १४ गुणस्थानों का मात्र निर्देश है, जबकि षट्खण्डागम जैसा प्राचीन शौरसेनी आगम भी उनकी गम्भीरता से चर्चा करता है। मूलाचार, भगवती आराधना, कुन्दकुन्द के प्रन्थ और गोम्मटसार आदि सभी में गुणस्थानों की विस्तृत चर्चा है। चूंकि तत्त्वार्थ में गुणस्थानों की चर्चा का एवं स्याद्वाद सप्तभंगी
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ का अभाव है, अत: वे सभी रचनाएँ तत्त्वार्थ के बाद की कृतियाँ मानी के पन्द्रहवें शतक में मंखली गोशाल की समालोचना भी की गई है। जा सकती हैं। इसी प्रकार कषायप्राभृत, षट्खण्डागम, गोम्मटसार आदि इस आधार पर हम कह सकते हैं कि जैन परम्परा में अन्य परम्पराओं शौरसेनी आगम ग्रन्थों में कर्मसिद्धान्त की जो गहन चर्चा है, वह भी के प्रति उदारता का भाव कैसे परिवर्तित होता गया और साम्प्रदायिक अर्धमागधी आगम-साहित्य में अनुपलब्ध है। अत: शौरसेनी आगमों अभिनिवेश कैसे दृढमूल होते गये, इसका यथार्थ चित्रण उनमें उपलब्ध की अपेक्षा अर्धमागधी आगमों की सरल, बोधगम्य एवं प्राथमिक स्तर हो जाता है। इसी प्रकार आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध, आचारचूला, की विवरणात्मक शैली उनकी प्राचीनता की सूचक है।
दशवैकालिक, निशीथ आदि छेदसूत्र तथा उनके भाष्य और चूर्णियों
के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि जैनाचार में कालक्रम में क्या-क्या तथ्यों का सहज संकलन
परिवर्तन हुआ है। इसी प्रकार ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन, भगवती, अर्धमागधी आगमों में तथ्यों का सहज संकलन किया गया है ज्ञाताधर्म कथा आदि के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि पार्थापत्यों का अत: अनेक स्थानों पर सैद्धान्तिक दृष्टि से उनमें भिन्नताएँ भी पायी। महावीर के संघ पर क्या प्रभाव पड़ा और दोनों के बीच सम्बन्धों में जाती हैं। वस्तुत: ये ग्रन्थ अकृत्रिम भाव से रचे गये हैं और उनके कैसे परिवर्तन होता गया। इसी प्रकार के अनेक प्रश्न, जिनके कारण सम्पादन काल में भी संगतियुक्त बनाने का कोई प्रयास नहीं किया आज का जैन समाज साम्प्रदायिक कटघरों में बन्द है, अर्धमागधी आगमों गया है। एक ओर उत्सर्ग की दृष्टि से उनमें अहिंसा की सूक्ष्मता के के निष्पक्ष अध्ययन के माध्यम से सुलझाये जा सकते हैं। शौरसेनी साथ पालन करने के निर्देश हैं तो दूसरी ओर अपवाद की अपेक्षा आगमोंमें मात्र मूलाचार और भगवती आराधना को, जो अपनी से ऐसे अनेक विवरण भी हैं जो इस सूक्ष्म अहिंसक जीवनशैली के विषय-वस्तु के लिये अर्धमागधी आगम-साहित्य के ऋणी हैं, इस कोटि अनुकूल नहीं हैं। इसी प्रकार एक ओर उनमें मुनि की अचेलता का में रखा जा सकता है, किन्तु शेष आगमतुल्य शौरसेनी ग्रन्थ जैनधर्म प्रतिपादन-समर्थन किया गया है, तो दूसरी ओर वस्त्र-पात्र के साथ-साथ को सीमित घेरों में आबद्ध ही करते हैं। मुनि के उपकरणों की लम्बी सूची भी मिल जाती है। एक ओर केशलोच का विधान है तो दूसरी ओर क्षुर-मुण्डन की अनुज्ञा भी है। उत्तराध्ययन अर्धमागधी-आगमः शौरसेनी-आगम और परवर्ती महाराष्ट्री व्याख्या में वेदनीय के भेदों में क्रोध वेदनीय आदि का उल्लेख है, जो कि साहित्य के आधार कर्मसिद्धान्त के ग्रन्थों में यहाँ तक कि स्वयं उत्तराध्ययन के कर्मप्रकृति अर्धमागधी-आगम शौरसेनी-आगम और महाराष्ट्री-आगमिक नामक अध्ययन में भी अनुपलब्ध है। उक्त साक्ष्यों से ऐसा प्रतीत होता व्याख्या साहित्य के आधार रहे हैं। अर्धमागधी आगमों की व्याख्या है कि अर्धमागधी आगम साहित्य जैन संघ का निष्पक्ष इतिहास प्रस्तुत के रूप में क्रमश: नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, वृत्ति, टब्बा आदि लिखे करता है। तथ्यों का यथार्थ रूप में प्रस्तुतीकरण उसकी अपनी विशेषता गये हैं, ये सभी जैनधर्म एवं दर्शन के प्राचीनतम स्रोत हैं। यद्यपि है। वस्तुत: तथ्यात्मक विविधताओं एवं अन्तर्विरोधों के कारण शौरसेनी आगम और व्याख्या साहित्य में चिन्तन के विकास के साथ-साथ अर्धमागधी आगम साहित्य के ग्रन्थों के काल-क्रम का निर्धारण भी देश, काल और सहगामी परम्पराओं के प्रभाव से बहुत कुछ ऐसी सहज हो जाता है।
सामग्री भी है, जो उनकी अपनी मौलिक कही जा सकती है फिर भी
अर्धमागधी आगमों को उनके अनेक ग्रन्थों के मूलस्रोत के रूप में अर्धमागधी आगमों में जैनसंघ के इतिहास का प्रामाणिक रूप स्वीकार किया जा सकता है। मात्र मूलाचार में ही तीन सौ से अधिक
यदि हम अर्धमागधी आगमों का समीक्षात्मक दृष्टि से अध्ययन गाथाएँ उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, आवश्यकनियुक्ति, जीवसमास, करें, तो हमें यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन परम्परा के आचार एवं आतुरप्रत्याख्यान, चन्द्रवेध्यक (चन्दावेज्झय) आदि में उपलब्ध होती विचार में देश-कालगत परिस्थितियों के कारण कालक्रम में क्या-क्या हैं। इसी प्रकार भगवतीआराधना में भी अनेक गाथाएँ अर्धमागधी आगम परिवर्तन हुए इसको जानने का आधार अर्धमागधी आगम ही है, क्योंकि और विशेष रूप से प्रकीर्णकों (पइन्ना) से मिलती हैं। षट्खण्डागम इन परिवर्तनों को समझने के लिए उनमें उन तथ्यों के विकास क्रम और प्रज्ञापना में भी जो समानताएँ परिलक्षित होती हैं, उनकी विस्तृत को खोजा जा सकता है। उदाहरण के रूप में जैनधर्म में साम्प्रदायिक चर्चा पण्डित दलसुखभाई मालवणिया ने (प्रो.ए.एन. उपाध्ये व्याख्यानमाला अभिनिवेश कैसे दृढ़-मूल होता गया इसकी जानकारी ऋषिभाषित, में) की है। नियमसार की कुछ गाथाएँ अनुयोगद्वार एवं इतर आगमों उत्तराध्ययन, सूत्रकृतांग और भगवती के पन्द्रहवें शतक के समीक्षात्मक में भी पाई जाती हैं, जबकि समयसार आदि कुछ ऐसे शौरसेनी आगम अध्ययन से मिल जाती है। ऋषिभाषित में नारद, मंखलिगोशाल, तुल्य ग्रन्थ भी हैं, जिनकी मौलिक रचना का श्रेय उनके कर्ताओं को असितदेवल, नारायण, याज्ञवल्क्य, बाहुक आदि ऋषियों को अर्हत् ही है। तिलोयपन्नत्ति का प्राथमिक रूप विशेष रूप से आवश्यकनियुक्ति ऋषि कहकर सम्मानित किया गया है। उत्तराध्ययन में भी कपिल, नमि, तथा कुछ प्रकीर्णकों के आधार पर तैयार हुआ था, यद्यपि बाद में करकण्ड, नग्गति, गर्दभाली, संजय आदि का सम्मानपूर्वक स्मरण किया उसमें पर्याप्त रूप से परिवर्तन और परिवर्धन किया गया है। इस प्रकार गया और सूत्रकृतांग में इनमें से कुछ को आचारभेद के बावजूद भी शौरसेनी आगमों के निष्पक्ष अध्ययन से यह बात स्पष्ट हो जाती है परम्परा-सम्मत माना गया। किन्तु ज्ञाताधर्मकथा में नारद की और भगवती कि उनका मूल आधार अर्धमागधी आगम-साहित्य ही रहा है तथापि
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अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श
४१ उनमें जो सैद्धान्तिक गहराइयाँ और विकास परिलक्षित होते हैं, वे अन्त में विद्वानों से मेरी यह अपेक्षा है कि वे आगमों और विशेष उनके रचनाकारों की मौलिक देन हैं।
रूप से अर्धमागधी आगमों का अध्ययन श्वेताम्बर, दिगम्बर, मूर्तिपूजक,
स्थानकवासी या तेरापंथी दृष्टि से न करें अपितु इन साम्प्रदायिक अर्धमागधी आगमों का कर्तृत्व अज्ञात
अभिनिवेशों से ऊपर उठकर करें, तभी हम उनके माध्यम से जैनधर्म अर्धमागधी आगमों में प्रज्ञापना, दशवैकालिक और छेदसूत्रों के के प्राचीन स्वरूप का यथार्थ दर्शन कर सकेगें और प्रामाणिक रूप कर्तृत्व को छोड़कर शेष के रचनाकारों के सम्बन्ध में हमें कोई स्पष्ट से यह भी समझ सकेगें कि कालक्रम में उनमें कैसे और क्या परिवर्तन जानकारी प्राप्त नहीं होती है। यद्यपि दशवैकालिक आर्य शय्यम्भवसूरि हुए हैं। आज आवश्यकता है पं. बेचरदास जी जैसी निष्पक्ष एवं तटस्थ की, तीन छेदसूत्र आर्यभद्रबाहु की और प्रज्ञापना श्यामाचार्य की कृति बुद्धि से उनके अध्ययन की। अन्यथा दिगम्बर को उसमें वस्त्रसम्बन्धी मानी जाती है, महानिशीथ का उसकी दीमकों से भक्षित प्रति के आधार उल्लेख प्रक्षेप लगेंगे, तो श्वेताम्बर सारे वस्त्रपात्र के उल्लेखों को पर आचार्य हरिभद्र ने समुद्धार किया था, यह स्वयं उसी में उल्लिखित महावीरकालीन मानने लगेगा और दोनों ही यह नहीं समझ सकेंगे कि है, तथापि अन्य आगमों के कर्ताओं के बारे में हम अन्धकार में ही वस्त्र-पात्र का क्रमिक विकास किन परिस्थितियों में और कैसे हुआ हैं। सम्भवत: उसका मूल कारण यह रहा होगा कि सामान्यजन में इस है? इस सम्बन्ध में नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीका का अध्ययन बात का पूर्ण विश्वास बना रहे कि अर्धमागधी आगम गणधरों अथवा आवश्यक है क्योंकि ये इनके अध्ययन की कुंजियाँ हैं। शौरसेनी और पूर्वधरों की कृति है, इसलिये कर्ताओं ने अपने नाम का उल्लेख नहीं अर्धमागधी आगमों का तुलनात्मक अध्ययन भी उनमें निहित सत्य किया। यह वैसी ही स्थिति है जैसी हिन्दू-पुराणों के कर्ता के रूप को यथार्थ रूप से आलोकित कर सकेगा। आशा है युवा-विद्वान् मेरी में केवल वेद व्यास को जाना जाता है। यद्यपि वे अनेक आचार्यों इस प्रार्थना पर ध्यान देगें। की और पर्याप्त परवर्तीकाल की रचनाएँ हैं।
जैन आगम-साहित्य का परिचय देने के उद्देश्य से सम्प्रतिकाल इसके विपरीत शौरसेनी आगमों की मुख्य विशेषता यह है कि में अनेक प्रयत्न हुए हैं। सर्वप्रथम पाश्चात्य विद्वानों में हर्मन जैकोबी उनमें सभी ग्रन्थों का कर्तृत्व सुनिश्चित है। यद्यपि उनमें भी कुछ परिवर्तन शुबिंग, विण्टरनित्ज आदि ने अपनी भूमिकाओं एवं स्वतन्त्र निबन्धों
और प्रक्षेप परवर्ती आचार्यों ने किये हैं। फिर भी इस सम्बन्ध में उनकी में इस पर प्रकाश डाला। इस दिशा में अंग्रेजी में सर्वप्रथम हीरालाल स्थिति अर्धमागधी आगम की अपेक्षा काफी स्पष्ट है। अर्धमागधी आगमों रसिकलाल कापड़िया में 'A History of the Cononical Literature of में तो यहाँ तक भी हुआ है कि कुछ विलुप्त कृतियों के स्थान पर the Jainas' नामक पुस्तक लिखी। यह ग्रन्थ अत्यन्त शोधपरक दृष्टि पर्याप्त परवर्ती काल में दूसरी कृति ही रख दी गई। इस सम्बन्ध में से लिखा गया और आज भी एक प्रामाणिक ग्रन्थ के रूप में मान्य प्रश्नव्याकरण की सम्पूर्ण विषय-वस्तु के परिवर्तन की चर्चा पूर्व में किया जाता है। इसके पश्चात् प्रो. जगदीशचन्द्र जैन का ग्रन्थ 'प्राकृत ही की जा चुकी है। अभी-अभी अंगचूलिया और बंगचूलिया नामक साहित्य का इतिहास' भी इस क्षेत्र में दूसरा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। पार्श्वनाथ दो विलुप्त आगमों का पता चला, ये भोगीलाल लेहरचन्द भारतीय विद्याश्रम शोध संस्थान द्वारा जैन साहित्य का बृहद् इतिहास योजना संस्कृति विद्यामन्दिर में उपलब्ध हैं, जब इनका अध्ययन किया गया के अन्तर्गत प्रकाशित प्रथम तीनों खण्डों में प्राकृत आगम-साहित्य तो पता चला कि वे लोकाशाह के पश्चात् अर्थात् सोलहवीं या सत्रहवीं का विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है। इसी दिशा में आचार्य शताब्दी में किसी अज्ञात आचार्य ने बनाकर रख दिये हैं। यद्यपि इससे देवेन्द्रमुनिशास्त्री की पुस्तक 'जैनागम : मनन और मीमांसा' भी एक यह निष्कर्ष भी नहीं निकाल लेना चाहिए कि यह स्थिति सभी अर्धमागधी महत्त्वपूर्ण कृति है। मुनि नगराजजी की पुस्तक 'जैनागम आगमों की है। सत्य तो यह है कि उनके प्रक्षेपों और परिवर्तनों को और पाली-त्रिपिटक' भी तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से आसानी से पहचाना जा सकता है, जबकि शौरसेनी आगमों में हुए महत्त्वपूर्ण है। पं. कैलाशचन्द्र जी द्वारा लिखित 'जैन साहित्य के प्रक्षेपों को जानना जटिल है।
इतिहास की पूर्व पीठिका' में अर्धमागधी आगम-साहित्य का और ___ आगमों की विषय-वस्तु के सम्बन्ध में जिस अतिशयता की चर्चा उसके प्रथम भाग में शौरसेनी आगम साहित्य का उल्लेख हुआ है परवर्ती आचार्यों ने की है, वह उनके कथन की विश्वसनीयता पर प्रश्न किन्तु उसमें निष्पक्ष दृष्टि का निर्वाह नहीं हुआ है और अर्धमागधी चिह्न उपस्थित करती है। हमारी श्रद्धा और विश्वास चाहे कुछ भी हो आगम साहित्य के मूल्य और महत्त्व को सम्यक् प्रकार से नहीं समझा किन्तु तर्कबुद्धि और गवेषणात्मक दृष्टि से तो ऐसा प्रतीत होता है गया है। कि आगम साहित्य की विषय-वस्तु को बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया। पूज्य आचार्य श्री जयन्तसेनसूरि जी ने 'जैन आगम साहित्य यह कहना कि आचारांग के आगे प्रत्येक अंग ग्रन्थ की श्लोक संख्या : एक अनुशीलन' कृति की सृजना जनसाधारण को आगम-साहित्य एक दूसरे से क्रमशः द्विगुणित रही थी अथवा १४ वें पूर्व की विषय-वस्तु की विषय-वस्तु का परिचय देने के उद्देश्य की है, फिर भी उन्होंने इतनी थी कि उसे चौदह हाथियों के बराबर स्याही से लिखा जा सकता पूरी प्रामाणिकता के साथ संशोधनात्मक दृष्टि का भी निर्वाह था, आस्था की वस्तु हो सकती है, किन्तु बुद्धिगम्य नहीं है। किया है।
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आगम साहित्य में प्रकीर्णकों का स्थान, महत्त्व, रचनाकाल
एवं रचयिता
आगम-साहित्य में प्रकीर्णकों का स्थान
आचार्य जिनप्रभ के विधिमार्गप्रपा (लगभग ईसा की तेरहवीं शती) में किसी भी धार्मिक परम्परा का आधार उसके धर्मग्रन्थ होते हैं, मिलता है। इससे यह फलित होता है कि तेरहवीं शती से पूर्व आगमों जिन्हें वह प्रमाणभूत मानकर चलती है। जिस प्रकार मुसलमानों के के वर्गीकरण में कहीं भी प्रकीर्णक वर्ग का स्पष्ट निर्देश नहीं है, किन्तु लिये कुरान, ईसाइयों के लिये बाइबिल, बौद्धों के लिये त्रिपिटक और इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाल लेना चाहिये कि उसके पूर्व न तो हिन्दुओं के लिये वेद प्रमाणभूत ग्रन्थ हैं, उसी प्रकार जैनों के लिये प्रकीर्णक साहित्य था और न ही इनका कोई उल्लेख था। आगम प्रमाणभूत ग्रन्थ हैं। सर्वप्रथम तत्त्वार्थसूत्र, नन्दीसूत्र और अंग-आगमों में सर्वप्रथम समवायांगसूत्र में प्रकीर्णक का उल्लेख पाक्षिकसूत्र में आगमों का वर्गीकरण अंगबाह्य के रूप में किया गया हुआ है। उसमें कहा गया है कि भगवान् ऋषभदेव के चौरासी हजार है। परम्परागत अवधारणा यह है कि तीर्थङ्करों द्वारा उपदिष्ट और गणधरों शिष्यों द्वारा रचित चौरासी हजार प्रकीर्णक थे। परम्परागत अवधारणा द्वारा रचित ग्रन्थ अंगप्रविष्ट आगम कहे जाते हैं। इनकी संख्या बारह यह है कि जिस तीर्थङ्कर के जितने शिष्य होते हैं, उसके शासन में है, जो श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में समान रूप से स्वीकृत उतने ही प्रकीर्णक ग्रन्थों की रचना होती है। सामान्यतया प्रकीर्णक है। इन अंग आगमों के नाम हैं-१. आचारांग, २. सूत्रकृतांग, शब्द का तात्पर्य होता है-विविध ग्रन्थ। मुझे ऐसा लगता है कि प्रारम्भ ३. स्थानांग, ४. समवायांग, ५.व्याख्याप्रज्ञप्ति, ६. ज्ञाताधर्मकथांग, में आगमों के अतिरिक्त सभी ग्रन्थ प्रकीर्णक की कोटि में माने जाते ७. उपासकदशांग, ८. अन्तकृद्दशांग, ९. अनुत्तरौपपातिकदशा थे। अंग-आगमों से इतर आवश्यक, आवश्यक व्यतिरिक्त, कालिक १०. प्रश्नव्याकरणदशा, ११. विपाकदशा और १२. दृष्टिवाद। इनके एवं उत्कालिक के रूप में वर्गीकृत सभी ग्रन्थ प्रकीर्णक कहलाते थे। नाम और क्रम के सम्बन्ध में भी दोनों परम्पराओं में एकरूपता है। मेरे इस कथन का प्रमाण यह है कि षट्खण्डागम की धवला टीका. मूलभूत अन्तर यह है कि जहाँ श्वेताम्बर परम्परा आज भी दृष्टिवाद में बारह अंग-आगमों से भिन्न अंगबाह्य ग्रन्थों को प्रकीर्णक नाम दिया के अतिरिक्त शेष ग्यारह अंगों का अस्तित्व स्वीकार करती है, वहाँ गया है। उसमें उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, ऋषिभाषित आदि को भी दिगम्बर परम्परा आज मात्र दृष्टिवाद के आधार पर निर्मित कसायपाहुड, प्रकीर्णक ही कहा गया है। यह भी ज्ञातव्य है कि प्रकीर्णक नाम से षट्खण्डागम आदि के अतिरिक्त इन अंग-आगमों को विलुप्त मानती है। अभिहित अथवा प्रकीर्णक वर्ग में समाहित सभी ग्रन्थों के नाम के ___ अंगबाह्य वे ग्रन्थ हैं जो जिनवचन के आधार पर स्थविरों के अन्त में प्रकीर्णक शब्द नहीं मिलता है। मात्र कुछ ही ग्रन्थ ऐसे हैं द्वारा लिखे गए हैं। नन्दीसूत्र में अंग-बाह्य आगमों को भी प्रथमत: जिनके नाम के अन्त में प्रकीर्णक शब्द का उल्लेख हुआ है। फिर दो भागों में विभाजित किया गया है-१. आवश्यक और २. आवश्यक भी इतना निश्चित है कि प्रकीर्णकों का अस्तित्व अति प्राचीन काल. व्यतिरिक्त। आवश्यक के अन्तर्गत सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदना में भी रहा है, चाहे उन्हें प्रकीर्णक नाम से अभिहित किया गया हो प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान-ये छ: ग्रन्थ सम्मिलित रूप अथवा न किया गया हो। नन्दीसूत्रकार ने अंग-आगमों को छोड़कर से आते हैं, जिन्हें आज आवश्यकसूत्र के नाम से जाना जाता है। आगम रूप में मान्य सभी ग्रन्थों को प्रकीर्णक कहा है। अत: 'प्रकीर्णक' इसी ग्रन्थ में आवश्यक व्यतिरिक्त आगम-ग्रन्थों को भी पुनः दो भागों शब्द आज जितने संकुचित अर्थ में है उतना पूर्व में नहीं था। उमास्वाति में विभाजित किया गया है-१. कालिक और २. उत्कालिक। आज और देववाचक के समय में तो अंग-आगमों के अतिरिक्त शेष सभी प्रकीर्णकों में वर्गीकृत नौ ग्रन्थ इन्हीं दो विभागों के अन्तर्गत उल्लिखित आगमों को प्रकीर्णक में ही समाहित किया जाता था। इससे जैन आगम हैं। इसमें कालिक के अन्तर्गत ऋषिभाषित और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, इन साहित्य में प्रकीर्णक का क्या स्थान है, यह सिद्ध हो जाता है। प्राचीन दो प्रकीर्णकों का उल्लेख मिलता है, जबकि उत्कालिक के अन्तर्गत दृष्टि से तो अंग-आगमों के अतिरिक्त सम्पूर्ण जैन आगमिक साहित्य देवेन्द्रस्तव, तन्दुलवैचारिक , चन्द्रवेध्यक, गणिविद्या, आतुरप्रत्याख्यान, प्रकीर्णक वर्ग के अन्तर्गत आता है। महाप्रत्याख्यान और मरणविभक्ति इन सात प्रकीर्णकों का उल्लेख है। वर्तमान में प्रकीर्णक वर्ग के अन्तर्गत दस ग्रन्थ मानने की जो
प्राचीन आगमों में ऐसा कहीं भी स्पष्ट उल्लेख नहीं है कि अमुक- परम्परा है, वह न केवल अर्वाचीन है अपितु इस सन्दर्भ में श्वेताम्बर अमुक ग्रन्थ प्रकीर्णक के अन्तर्गत आते हैं। नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र आचार्यों में परस्पर मतभेद भी है कि इन दस प्रकीर्णकों में कौन दोनों में ही आगमों के विभिन्न वर्गों में कहीं भी प्रकीर्णक-वर्ग का से ग्रन्थ समाहित किये जाएँ। प्रद्युम्नसूरि ने विचारसारप्रकरण (चौदहवीं उल्लेख नहीं है। यद्यपि इन दोनों ग्रन्थों में आज हम जिन्हें प्रकीर्णक शताब्दी) में पैंतालीस आगमों का उल्लेख करते हुए कुछ प्रकीर्णकों मान रहे हैं, उनमें से अनेक का उल्लेख कालिक एवं उत्कालिक आगमों का उल्लेख किया है। आगम प्रभाकर मुनिपुण्यविजयजी ने चार के अन्तर्गत हुआ है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि आगमों का अंग, अलग-अलग सन्दर्भो में प्रकीर्णकों की अलग-अलग सूचियाँ प्रस्तुत उपांग, छेद, मूल, चूलिका और प्रकीर्णक के रूप में उल्लेख सर्वप्रथम की हैं।
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ही और तेरा
को भा नहीं थी,
आगम साहित्य में प्रकीर्णकों का स्थान, महत्त्व, रचनाकाल एवं रचयिता अत: दस प्रकीर्णक के अन्तर्गत किन-किन ग्रन्थों को समाहित प्रकीर्णक में मुख्य रूप से चतुर्विध संघ के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए करना चाहिये, इस सन्दर्भ में श्वेताम्बर आचार्यों में कहीं भी एकरूपता जैन-साधना का परिचय दिया गया है। आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, देखने को नहीं मिलती है। इससे यह फलित होता है कि प्रकीर्णक मरणसमाधि, संस्तारक, आराधनापप्ताका, आराधनाप्रकरण, भक्तप्रत्याख्यान ग्रन्थों की संख्या दस है, यह मान्यता न केवल परवर्ती है अपितु उसमें आदि प्रकीर्णक जैन-साधना के अन्तिम चरण समाधिमरण की पूर्व तैयारी एकरूपता का भी अभाव है। भित्र-भिन्न श्वेताम्बर आचार्य भिन्न-भिन्न और उसकी साधना की विशेष विधियों का चित्रण प्रस्तुत करते हैं। इस सूचियाँ प्रस्तुत करते रहे हैं उनमें कुछ नामों में तो एकरूपता होती प्रकार प्रकीर्णक साहित्य में जैनविद्या के विविध पक्षों कासमावेश हुआ है, किन्तु सभी नामों में एकरूपता का अभाव पाया जाता है। जहाँ है, जो जैन साहित्य के क्षेत्र में उनके मूल्य और महत्त्व को स्पष्ट कर देता है। तक दिगम्बर परम्परा का प्रश्न है उसमें तत्त्वार्थभाष्य का अनुसरण करते हुए अंग-आगमों के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों को प्रकीर्णक कहने की ही प्रकीर्णक साहित्य का रचनाकाल परम्परा रही है। अत: प्रकीर्णकों की संख्या अमुक ही है, यह कहने जहाँ तक प्रकीर्णकों की प्राचीनता का प्रश्न है उनमें से अनेक का कोई प्रामाणिक आधार नहीं है। वस्तुत: अंग-आगम साहित्य के प्रकीर्णकों का उल्लेख नन्दीसूत्र में होने से वे उससे प्राचीन सिद्ध हो अतिरक्ति सम्पूर्ण अंगबाह्य आगम साहित्य प्रकीर्णक के अन्तर्गत आते जाते हैं। मात्र यही नहीं प्रकीर्णक नाम से अभिहित ग्रन्थों में से अनेक हैं। इस प्रकार प्रकीर्णक साहित्य जैन आगम साहित्य के अति विशाल तो अंग-आगमों की अपेक्षा प्राचीन स्तर के रहे हैं, क्योंकि ऋषिभाषित भाग का परिचायक है और उनकी संख्या को दस तक सीमित करने का स्थानांग एवं समवायांग में उल्लेख है। ऋषिभाषित आदि कुछ का दृष्टिकोण पर्याप्त रूप से परवर्ती और विवादास्पद है। ऐसे प्रकीर्णक हैं जो भाषा-शैली, विषय-वस्तु आदि अनेक आधारों
पर आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध को छोड़कर शेष आगमों की अपेक्षा प्रकीर्णक साहित्य का महत्त्व
भी प्राचीन हैं। ऋषिभाषित उस काल का ग्रन्थ है, जब जैनधर्म सीमित यद्यपि वर्तमान में श्वेताम्बर जैनों के स्थानकवासी और तेरापंथी सीमाओं में आबद्ध नहीं हुआ था वरन् उसमें अन्य परम्पराओं के श्रमणों सम्प्रदाय प्रकीर्णकों को आगमों के अन्तर्गत मान्य नहीं करते हैं, किन्तु को भी आदर पूर्वक स्थान प्राप्त था। इस ग्रन्थ की रचना उस युग प्रकीर्णकों की विषय-वस्तु का अध्ययन करने से ऐसा लगता है कि में सम्भव नहीं थी, जब जैनधर्म भी सम्प्रदाय के क्षुद्र घेरे में आबद्ध अनेक प्रकीर्णक अंग-आगमों की अपेक्षा भी साधना की दृष्टि से हो गया। लगभग ई० पू० तीसरी शताब्दी से जैनधर्म में जो साम्प्रदायिक महत्त्वपूर्ण हैं। यद्यपि यह सत्य है कि आचार्य वीरभद्र द्वारा ईसा की अभिनिवेश दृढ़ हो रहे थे, उसके संकेत सूत्रकृतांगसूत्र और भगवतीसूत्र दसवीं शती में रचित कुछ प्रकीर्णक अर्वाचीन हैं, किन्तु इससे सम्पूर्ण जैसे प्राचीन आगमों में भी मिल रहे हैं। भगवतीसूत्र में जिस मंखलिपुत्र प्रकीर्णकों की अर्वाचीनता सिद्ध नहीं होती। विषय-वस्तु की दृष्टि से गोशालक की कटु आलोचना है, उसे ऋषिभाषित अर्हत् ऋषि कहता प्रकीर्णक साहित्य में जैनविद्या के विविध पक्षों पर प्रकाश डाला गया है। आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, तंदुलवैचारिक, मरणविभक्ति है। जहाँ तक देवेन्द्रस्तव और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति प्रकीर्णक का प्रश्न है, आदि प्रकीर्णक साहित्य के ऐसे ग्रन्थ हैं जो सम्प्रदायगत आग्रहों वे मुख्यत: जैन खगोल और भूगोल की चर्चा करते हैं। इसी प्रकार से मुक्त हैं। सूत्रकृतांगसूत्र में ऋषिभाषित के अनेक ऋषियों का तित्थोगाली प्रकीर्णक में भी जैन काल व्यवस्था का चित्रण विभिन्न सम्मानपूर्वक उल्लेख और उन्हें अर्हत् परम्परा द्वारा सम्मत माना जाना भौगोलिक क्षेत्रों के सन्दर्भ में हआ है। ज्योतिष्करण्डक और गणिविद्या- भी यही सूचित करता है कि ऋषिभाषित इन अंग-आगमों से भी प्राचीन प्रकीर्णक का सम्बन्ध मुख्यतया जैन ज्योतिष से है। तित्थोगाली प्रकीर्णक है। पुन: ऋषिभाषित जैसे कुछ प्राचीन प्रकीर्णकों की भाषा का अर्धमागधी मुख्यरूप से प्राचीन जैन इतिहास को प्रस्तुत करता है। श्वेताम्बर परम्परा स्वरूप तथा आगमों की अपेक्षा उनकी भाषा में महाराष्ट्री भाषा की में तित्थोगाली ही एकमात्र ऐसा प्रकीर्णक है जिसमें आगमज्ञान के क्रमिक अल्पता भी यही सिद्ध करती है कि ये ग्रन्थ प्राचीन स्तर के हैं। नन्दीसूत्र उच्छेद की बात कही गई है। सारावली प्रकीर्णक में मुख्य रूप से में प्रकीर्णक के नाम से अभिहित नौ ग्रन्थों का उल्लेख भी यही सिद्ध शत्रुञ्जय महातीर्थ की कथा और महत्त्व उल्लिखित है। तंदुलवैचारिक करता है कि कम से कम ये नौ प्रकीर्णक तो नन्दीसूत्र से पूर्ववर्ती प्रकीर्णक जैन जीवविज्ञान का सुन्दर और संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करता हैं। नन्दीसूत्र का काल विद्वानों ने विक्रम की पाँचवीं शती माना है, है। इसी प्रकार अंगविद्या नामक प्रकीर्णक मानव शरीर के अंग-प्रत्यंगों अत: ये प्रकीर्णक उससे पूर्व के हैं। इसी प्रकार समवायांगसूत्र में स्पष्ट के विवरण के साथ-साथ उनके शुभाशुभ लक्षणों का भी चित्रण करता रूप से प्रकीर्णकों का निर्देश भी यही सिद्ध करता है कि समवायांगसूत्र है और उनके आधार पर फलादेश भी प्रस्तुत करता है। इस प्रकार के रचनाकाल अर्थात् विक्रम की तीसरी शती में भी अनेक प्रकीर्णकों इस ग्रन्थ का सम्बन्ध शरीर-रचना एवं फलित ज्योतिष दोनों विषयों का अस्तित्व था। से है। गच्छाचार प्रकीर्णक में जैन संघ-व्यवस्था का चित्रण उपलब्ध इन प्रकीर्णकों में देवेन्द्रस्तव के रचनाकार ऋषिपालित हैं। कल्पसूत्र होता है, जबकि चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक में गुरु-शिष्य के सम्बन्ध एवं स्थविरावली में ऋषिपालित का उल्लेख है। इनका काल ईसा-पूर्व प्रथम शिक्षा- सम्बन्धों का निर्देश है। वीरस्तव प्रकीर्णक में महावीर के विविध शती के लगभग है। इसकी विस्तृत चर्चा हमने देवेन्द्रस्तव (देविंदत्थओ) विशेषण के अर्थ की व्युत्पत्तिपरक व्याख्या की गई है। चतुःशरण की प्रस्तावना में की है" (इच्छुक पाठक उसे वहाँ देख सकते हैं)।
तीसरी शतामकृतांगर
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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
अभी-अभी 'सम्बोधि' पत्रिका में श्री ललित कुमार का एक शोध-लेख प्रकाशित हुआ है, जिसमें उन्होंने पुरातात्विक आधारों पर यह सिद्ध किया है कि देवेन्द्रस्तव की रचना ई०पू० प्रथम शती में या उसके भी कुछ पूर्व हुई होगी।' प्रकीर्णकों में निम्नलिखित प्रकीर्णक वीरभद्र की रचना कहे जाते हैं- चउसरण, आउरपच्चक्खाण, भत्तपरिण्णा और आराधनापताका । आराधनापताका की प्रशस्ति में 'विक्कमनिवकालाओ अत्तरिमे- समासहस्सम्मि' या पाठभेद से अट्ठभेद से समासहस्सम्मि के उल्लेख के अनुसार इनका रचनाकाल ई० सन् १००८ या १०७८ सिद्ध होता है।" इस प्रकार प्रकीर्णक नाम से अभिहित ग्रन्थों में जहाँ ऋषिभाषित ई० पू० पाँचवीं शती की रचना है, वहीं आराध ई० सन् की दसवीं या ग्यारहवीं शती के पूर्वार्द्ध की रचना है। इस प्रकार प्रकीर्णक साहित्य में समाहित ग्रन्य लगभग पन्द्रह सौ वर्ष की सुदीर्घ अवधि में निर्मित होते रहे हैं, फिर भी चउसरण, परवर्ती आउरपच्चक्खाण, भत्तपरिण्णा, संथारंग और आराहनापडाया को छोड़कर शेष प्रकीर्णक ई० सन् की पाँचवी शती के पूर्व की रचनाएँ की रचनाएँ हैं। ज्ञातव्य है कि महावीर जैन विद्यालय, बम्बई से प्रकाशित 'पइण्णयसुत्ताई' में आउरपच्चक्खाण के नाम से तीन ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं, इनमें वीरभद्र रचित आउरपच्चक्खाण परवर्ती है, किन्तु नन्दीसूत्र में उल्लिखित आउरपच्चक्खाण तो प्राचीन ही है।
यहाँ पर यह भी ज्ञातव्य है कि प्रकीर्णकों की अनेक गाथाएँ श्वेताम्बर मान्य अंग-आगमों एवं उत्तराध्ययनसूत्र, दशवैकालिकसूत्र जैसे प्राचीन स्तर के आगम अन्यों में भी पायी जाती हैं। गद्य अंग-आगमों, में पद्यरूप में इन गाथाओं की उपस्थिति भी यही सिद्ध करती है कि उनमें ये गाथाएँ प्रकीर्णकों से अवतरित हैं। यह कार्य वलभीवाचना के पूर्व हुआ है, अतः फलित होता है कि नन्दीसूत्र में उल्लिखित प्रकीर्णक वलभीवाचना के पूर्व रचित है। तंदुलवैचारिक का उल्लेख दशवैकालिक की प्राचीन अगस्त्य सिंह चूर्णि में है। इससे उसकी प्राचीनता सिद्ध हो जाती है। यह चूर्णि अन्य चूर्णियों की अपेक्षा प्राचीन मानी गयी है।
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दिगम्बर परम्परा में मूलाचार, भगवती आराधना और कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में प्रकीर्णकों की सैकड़ों गाथाएँ अपने शौरसेनी रूपान्तरण में मिलती हैं। मूलाचार के संक्षिप्त प्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान नामक अध्यायों में तो आतुरप्रत्याख्यान एवं महाप्रत्याख्यान इन दोनों प्रकीर्णकों की लगभग सत्तर से अधिक गाथाएँ हैं। इसी प्रकार मरणविभक्ति प्रकीर्णक की लगभग शताधिक गाथाएँ भगवती आराधना में मिलती है। इससे यही फलित होता है कि ये प्रकीर्णक ग्रन्थ मूलाचार एवं भगवती आराधना से पूर्व के हैं। मूलाचार एवं भगवती आराधना के रचनाकाल को लेकर चाहे कितना भी मतभेद हो, किन्तु इतना निश्चित है कि ये ग्रन्थ ईसा की छठीं शती से परवर्ती नहीं हैं।
यद्यपि यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि प्रकीर्णक में ये गाथाएँ इन यापनीय / अचेल परम्परा के ग्रन्थों से ली गयी होंगी, किन्तु अनेक प्रमाणों के आधार पर यह दावा निरस्त हो जाता है जिनमें से कुछ प्रमाण इस प्रकार हैं
१. गुणस्थान सिद्धान्त उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र और आचारांगनियुक्ति
की रचना के पश्चात् लगभग पाँचवीं छठी शती में अस्तित्व में आया है। चूँकि मूलाचार और भगवती आराधना दोनों ग्रन्थों में गुणस्थान का उल्लेख मिलता है, अतः ये ग्रन्थ पाँचवीं शती के बाद की रचनाएँ हैं जबकि आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान और मरणसमांधि का उल्लेख नन्दीसूत्र में होने से ये ग्रन्थ पाँचवीं शती के पूर्व की रचनाएँ हैं ।
२. मूलाचार में संक्षिप्तप्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान नामक अध्ययन बनाकर उनमें आतुरप्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान नामक दोनों ग्रन्थों को समाहित किया गया है। इससे यही सिद्ध होता है। कि ये ग्रन्थ पूर्ववर्ती हैं और मूलाचार परवर्ती है।
३. भगवती आराधना में भी मरणविभक्ति की अनेक गाथाएँ समान रूप से मिलती हैं। वर्ण्य विषय की समानता होते हुए भी भगवती - आराधना में जो विस्तार है, वह मरणविभक्ति में नहीं है। प्राचीन स्तर के प्रन्थ मात्र श्रुतपरम्परा से कण्ठस्थ किये जाते थे, अतः वे आकार में संक्षिप्त होते थे ताकि उन्हें सुगमता से याद रखा जा सके, जबकि लेखन परम्परा के विकसित होने के पश्चात् विशालकाय ग्रन्थ निर्मित होने लगे। मूलाचार और भगवती आराधना दोनों विशाल ग्रन्थ हैं, अतः वे प्रकीर्णकों से अपेक्षाकृत परवर्ती हैं। वस्तुतः प्रकीर्णक साहित्य के वे सभी ग्रन्थ जो नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में उल्लिखित हैं और वर्तमान में उपलब्ध हैं, निश्चित ही ईसा की पाँचवीं शती पूर्व के हैं।
प्रकीर्णकों में ज्योतिष्करण्डक नामक प्रकीर्णक का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसमें भ्रमण गन्धहस्ती और प्रतिहस्ती का उल्लेख मिलताहै। इसमें यह भी कहा गया है कि जिस विषय का सूर्यप्रज्ञप्ति में विस्तार से विवेचन है, उसी को संक्षेप में यहाँ दिया गया है। तात्पर्य यह है कि यह प्रकीर्णक सूर्यप्रज्ञप्ति के आधार पर निर्मित किया गया है। इसमें कर्त्ता के रूप में पादलिप्ताचार्य का भी स्पष्ट उल्लेख हुआ है । पादलिप्ताचार्य का उल्लेख नियुक्ति साहित्य में भी उपलब्ध होता है ( लगभग ईसा की प्रथम शती)। इससे यही फलित होता है कि ज्योतिष्करण्डक का रचनाकाल भी ई० सन् की प्रथम शती है। अंगबाह्य . आगमों में सूर्यप्रज्ञप्ति, जिसके आधार पर इस ग्रन्थ की रचना हुई, एक प्राचीन ग्रन्थ है क्योंकि इसमें जो ज्योतिष सम्बन्धी विवरण है, वह ईस्वी पूर्व के हैं, उसके आधार पर भी इसकी प्राचीनता सिद्ध होती है। साथ ही इसकी भाषा में अर्धमागधी रूपों की प्रचुरता भी इसे प्राचीन ग्रन्थ सिद्ध करती है।
अतः प्रकीर्णकों के रचनाकाल की पूर्व सीमा ई०पू० चतुर्थ तृतीय शती से प्रारम्भ होती है। परवर्ती कुछ प्रकीर्णक जैसे कुशलानुबंधि अध्ययन, चतुःशरण, भक्तपरिशा आदि वीरभद्र की रचना माने जाते हैं, वे निश्चित ही ईसा की दसवीं शती की रचनाएँ हैं। इस प्रकार प्रकीर्णक साहित्य का रचनाकाल ई०पू० चतुर्थ शती से प्रारम्भ होकर ईसा की दसवीं शती तक अर्थात् लगभग पन्द्रह सौ वर्षों की सुदीर्घ अवधि तक व्याप्त है।
प्रकीर्णकों के रचयिता
प्रकीर्णक साहित्य के रचनाकाल के सम्बन्ध में विचार करते हुए
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आगम साहित्य में प्रकीर्णकों का स्थान, महत्त्व, रचनाकाल एवं रचयिता
४५ हमने यह पाया है कि अधिकांश प्रकीर्णक ग्रन्थों के रचयिता के सन्दर्भ सौ वर्षों की सुदीर्घ अवधि में प्रकीर्णक साहित्य लिखा जाता रहा है। में कहीं कोई उल्लेख नहीं है। प्राचीन स्तर के प्रकीर्णकों में ऋषिभाषित, किन्तु इतना निश्चित है कि अधिकांश महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ ईसा की पाँचवींचन्द्रवेध्यक, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, मरणसमाधि, गणिविद्या, छठी शताब्दी तक लिखे जा चुके थे। वे सभी प्रकीर्णक जो नन्दीसूत्र संस्तारक आदि में लेखक के नाम का कहीं भी निर्देश नहीं है। मात्र में उल्लिखित हैं, वस्तुत: प्राचीन हैं और उनमें जैनों के सम्प्रदायगत देवेन्द्रस्तव और ज्योतिष्करण्डक दो ही प्राचीन प्रकीर्णक ऐसे हैं, जिनकी विभेद की कोई सूचना नहीं है। मात्र तित्थोगाली, सारावली आदि कुछ अन्तिम गाथाओं में स्पष्ट रूप से लेखक के नामों का उल्लेख हुआ परवर्ती प्रकीर्णकों में प्रकारान्तर से जैनों के साम्प्रदायिक मतभेदों की है।५ देवेन्द्रस्तव के कर्ता के रूप में ऋषिपालित और ज्योतिष्करण्डक किञ्चित् सूचना मिलती है। प्राचीन स्तर के इन प्रकीर्णकों में से अधिकांश के कर्ता के रूप में पादलिप्ताचार्य के नामों का उल्लेख कल्पसूत्र मूलत: आध्यात्मिक साधना और विशेष रूप से समाधिमरण की साधना स्थविरावली में महावीर की पट्टपरम्परा में तेरहवें स्थान पर आता है के विषय में प्रकाश डालते हैं। ये ग्रन्थ निवृत्तिमूलक जीवनदृष्टि के
और इस आधार पर वे ई० पू० प्रथम शताब्दी के लगभग के सिद्ध प्रस्तोता हैं। यह हमारा दुर्भाग्य है कि जैन परम्परा के कुछ सम्प्रदायों होते हैं। कल्पसूत्र स्थविरावली में इनके द्वारा कोटिकगण की में विशेष रूप से दिगम्बर, स्थानकवासी और तेरापंथी परम्पराओं में ऋषिपालित शाखा प्रारम्भ हुई, ऐसा भी उल्लेख है। इस सन्दर्भ में इनकी आगम रूप में मान्यता नहीं है, किन्तु यदि निष्पक्ष भाव से
और विस्तार से चर्चा हमने देवेन्द्रस्तव प्रकीर्णक की भूमिका में की इन प्रकीर्णकों का अध्ययन किया जाय तो इनमें ऐसा कुछ भी नहीं है।१२ देवेन्द्रस्तव के कर्ता ऋषिपालित का समय लगभग ई० पू० प्रथम है जो इन परम्पराओं की मान्यता के विरोध में जाता हो। आगम संस्थान, शताब्दी है। इस तथ्य की पुष्टि श्री ललित कुमार ने अपने एक शोध-लेख उदयपुर द्वारा इन प्रकीर्णकों का हिन्दी में अनुवाद करके जो महत्त्वपूर्ण में की है, जिसका निर्देश भी हम पूर्व में कर चुके हैं। ज्योतिष्करण्डक कार्य किया जा रहा है, आशा है, उसके माध्यम से ये ग्रन्थ उन परम्पराओं के कर्ता पादलिप्ताचार्य का उल्लेख हमें नियुक्ति साहित्य में उपलब्ध में भी पहुंचेंगे और उनमें इनके अध्ययन और पठन-पाठन की रुचि होता है।१३ आर्यरक्षित के समकालिक होने से वे लगभग ईसा की विकसित होगी। वस्तुत: प्रकीर्णक साहित्य की उपेक्षा प्राकृत साहित्य प्रथम शताब्दी के ही सिद्ध होते हैं। उनके व्यक्तित्व के सन्दर्भ में भी के एक महत्त्वपूर्ण पक्ष की उपेक्षा है। इस दिशा में आगम संस्थान, चर्णि साहित्य और परवर्ती प्रबन्धों में विस्तार से उल्लेख मिलता है। उदयपुर ने साम्प्रदायिक आग्रहों से ऊपर उठकर इनके अनुवाद को
कुसलाणुबंधि अध्ययन और भक्तपरिज्ञा के कर्ता के रूप में भी प्रकाशित करने की योजना को अपने हाथ में लिया और इनका प्रकाशन आचार्य वीरभद्र का ही उल्लेख मिलता है। वीरभद्र के काल के सम्बन्ध करके अपनी उदारवृत्ति का परिचय दिया है। प्रकीर्णक साहित्य के में अनेक प्रवाद प्रचलित हैं जिनकी चर्चा हमने गच्छाचार प्रकीर्णक समीक्षात्मक अध्ययन के उद्देश्य को लेकर इनके द्वारा प्रकाशित 'प्रकीर्णक की भूमिका में की है। हमारी दृष्टि में वीरभद्र ईसा की दसवीं शताब्दी साहित्य : अध्ययन एवं समीक्षा' नामक पुस्तक प्रकीर्णकों के विषय के उत्तरार्द्ध और ग्यारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के आचार्य हैं। में विस्तृत जानकारी देती है। आशा है सुधीजन संस्था के इन प्रयत्नों
इस प्रकार निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते हैं कि ईस्वी पूर्व को प्रोत्साहित करेंगे, जिसके माध्यम से प्राकृत साहित्य की यह अमूल्य चतुर्थ शताब्दी से लेकर ईसा की दसवीं शताब्दी तक लगभग पन्द्रह निधि जन-जन तक पहुँचकर उनके आत्म-कल्याण में सहायक बनेगी।
सन्दर्भ १. 'अंगबाहिरचोद्दसपइण्णयज्झाया'-धवला, पुस्तक १३, खण्ड ५,
भाग ५,सूत्र ४८, पृ० २६७, उद्धृत-जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश,
पृ०७०। २. वही, पृ०७०। ३. नन्दीसूत्र, सम्पा० मुनि मधुकर, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर,
१९८२, सूत्र ८१ ४. उद्धृत-पइण्णयसुत्ताइं, सम्पा० मुनि पुण्यविजय, महावीर जैन
विद्यालय, बम्बई, १९८४, भाग १, प्रस्तावना, पृ०२१। ५. वही,प्रस्तावना, पृ० २०-२१। धक). स्थानाङ्गसूत्र, सम्पा० मधुकरमुनि, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर,
१९८१, स्थान १०, सूत्र ११६। (ख) समवायाङ्गसूत्र, सम्पा० मुनि मधुकर, आगम प्रकाशन समिति,
ब्यावर, १९८२, समवाय ४४, सूत्र २५८। ७. देविंदत्यओ (देवेन्द्रस्तव), आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत
संस्थान, उदयपुर, १९८८, भूमिका, पृ० १८-२२। ८. Sambodhi, L.D. Institute of Indology, Ahmedabad,
Vol. XVIII, Year 1992-93, pp. 74-76 ९. आराधनापताका (आचार्य वीरभद्र), गाथा ९८७। १०. दशवैकालिक चूर्णि, पृ० ३, पं०१२-उद्धृत पइण्णयसुत्ताई, भाग
१, प्रस्तावना, पृ०१९। ११. (क) देवेन्द्रस्तव प्रकीर्णक, गाथा ३१०।
(ख) ज्योतिष्करण्डक प्रकीर्णक, गाथा ४०३-४०६। १२. देविंदत्थओ, भूमिका, पृ० १८-२२। १३. पिंडनियुक्ति, गाथा ४९८।। १४. (क) कुसलाणुबंधि अध्ययन प्रकीर्णक, गाथा ६३।
(ख) भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक, गाथा १७२। १५. गच्छायार पइण्णयं (गच्छाचार-प्रकीर्णक), आगम अहिंसा-समता एवं
प्राकृत संस्थान, उदयपुर, १९९४, भूमिका, पृ०२०-२१।
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जिस प्रकार वेदों के शब्दों की व्याख्या के रूप में सर्वप्रथम निरुक्त सा अर्थ किस प्रसंग में उपयुक्त है, यह निर्णय करना आवश्यक होता लिखे गये, सम्भवतः उसी प्रकार जैन परम्परा में आगमों की व्याख्या है। भगवान् महावीर के उपदेश के आधार पर लिखित आगमिक ग्रन्थों के लिए सर्वप्रथम नियुक्तियाँ लिखने का कार्य हुआ। जैन आगमों की में कौन से शब्द का क्या अर्थ है, इसे स्पष्ट करना ही नियुक्ति का व्याख्या के रूप में लिखे गये ग्रन्थों में नियुक्तियाँ प्राचीनतम हैं। आगमिक प्रयोजन है।" दूसरे शब्दों में नियुक्ति जैन परम्परा के पारिभाषिक शब्दों व्याख्या साहित्य मुख्य रूप से निम पाँच रूप में विभक्त किया जा का स्पष्टीकरण है। यहाँ हमें स्मरण रहे कि जैन परम्परा में अनेक सकता है-१. नियुक्ति २. भाष्य ३. चूर्णि ४. संस्कृत वृत्तियाँ एवं शब्द अपने व्युत्पत्तिपरक अर्थ में गृहीत न होकर अपने पारिभाषिक टीकाएँ और ५. टब्बा अर्थात् आगमिक शब्दों को स्पष्ट करने के लिए अर्थ में गृहीत हैं, जैसे-अस्तिकायों के प्रसंग में 'धर्म' एवं 'अधर्म' प्राचीन मरु-गुर्जर में लिखा गया आगमों का शब्दार्थ। इनके अतिरिक्त शब्द, कर्म सिद्धान्त के सन्दर्भ में प्रयुक्त 'कर्म' शब्द अथवा स्याद्वाद सम्प्रति आधुनिक भाषाओं यथा हिन्दी, गुजराती एवं अंग्रेजी में भी में प्रयुक्त 'स्यात्' शब्द। आचारांग में 'दंसण' (दर्शन) शब्द का जो आगमों पर व्याख्याएँ लिखी जा रही हैं।
अर्थ है, उत्तराध्ययन में उसका वही अर्थ नहीं है। दर्शनावरण में दर्शन सुप्रसिद्ध जर्मन विद्वान् शान्टियर उत्तराध्ययनसूत्र की भूमिका शब्द का जो अर्थ होता है वही अर्थ दर्शनमोह के सन्दर्भ में नहीं होता में नियुक्ति की परिभाषा को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि 'नियुक्तियाँ है। अत: आगम ग्रन्थों में शब्द के प्रसंगानुसार अर्थ का निर्धारण करने मुख्य रूप से केवल विषयसूची का काम करती हैं। वे सभी विस्तारयुक्त में नियुक्तियों का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। घटनाओं को संक्षेप में उल्लिखित करती हैं।'
नियुक्तियों की व्याख्या-शैली का आधार मुख्य रूप से जैन परम्परा अनुयोगद्वारसूत्र में नियुक्तियों के तीन विभाग किये गये हैं- में प्रचलित निक्षेप-पद्धति रही है। जैन परम्परा में वाक्य के अर्थ का
१. निक्षेप नियुक्ति- इसमें निक्षेपों के आधार पर पारिभाषिक निश्चय नयों के आधार पर एवं शब्द के अर्थ का निश्चय निक्षेपों के शब्दों का अर्थ स्पष्ट किया जाता है।
आधार पर होता है। निक्षेप चार हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। २. उपोद्घात नियुक्ति- इसमें आगम में वर्णित विषय का इन चार निक्षेपों के आधार पर एक ही शब्द के चार भिन्न अर्थ हो पूर्वभूमिका के रूप में स्पष्टीकरण किया जाता है।
सकते हैं। निक्षेप-पद्धति में शब्द के सम्भावित विविध अर्थों का उल्लेख ३. सूत्रस्पर्शिक नियुक्ति- इसमें आगम की विषय-वस्तु का कर उनमें से अप्रस्तुत अर्थ का निषेध करके प्रस्तुत अर्थ का ग्रहण उल्लेख किया जाता है।
किया जाता है। उदाहरण के रूप में आवश्यकनियुक्ति के प्रारम्भ में प्रो. घाटगे ने इण्डियन हिस्टारिकल क्वार्टरली, खण्ड १२, अभिनिबोध ज्ञान के चार भेदों के उल्लेख के पश्चात् उनके अर्थों को पृ० २७० में नियुक्तियों को निम्न तीन विभागों में विभक्त किया है- स्पष्ट करते हुये कहा गया है कि अर्थों (पदार्थों) का ग्रहण अवग्रह
१. शुद्ध नियुक्तियाँ- जिनमें काल के प्रभाव से कुछ भी मिश्रण है एवं उनके सम्बन्ध में चिन्तन ईहा है। इसी प्रकार नियुक्तियों में न हुआ हो, जैसे आचारांग और सूत्रकृतांग की नियुक्तियाँ। किसी एक शब्द के पर्यायवाची अन्य शब्दों का भी संकलन किया
२. मिश्रित किन्तु व्यवच्छेद्य नियुक्तियाँ- जिनमें मूलभाष्यों का गया है, जैसे- आभिनिबोधिक शब्द के पर्याय हैं- ईहा, अपोह, संमिश्रण हो गया है, तथापि वे व्यवच्छेद्य हैं, जैसे दशवैकालिक और विमर्श, मार्गणा, गवेषणा, संज्ञा, स्मृति, मति एवं प्रज्ञा। नियुक्तियों आवश्यकसूत्र की नियुक्तियाँ।
की विशेषता यह है कि जहाँ एक ओर वे आगमों के महत्त्वपूर्ण पारिभाषिक ३. भाष्य मिश्रित-नियुक्तियाँ-वे नियुक्तियाँ जो आजकल भाष्य शब्दों के अर्थों को स्पष्ट करती हैं, वहीं आगमों के विभिन्न अध्ययनों या बृहद्भाष्य में ही समाहित हो गयी हैं और उन दोनों को पृथक्- और उद्देशकों का संक्षिप्त विवरण भी देती हैं। यद्यपि इस प्रकार की पृथक् करना कठिन है जैसे निशीथ आदि की नियुक्तियाँ। प्रवृत्ति सभी नियुक्तियों में नहीं है, फिर भी उनमें आगमों के पारिभाषिक
नियुक्तियाँ वस्तुत: आगमिक परिभाषिक शब्दों एवं आगमिक शब्दों के अर्थ का तथा उनकी विषय-वस्तु का अति संक्षिप्त परिचय विषयों के अर्थ को सुनिश्चित करने का एक प्रयत्न हैं। फिर भी नियुक्तियाँ प्राप्त हो जाता है। अति संक्षिप्त हैं, इनमें मात्र आगमिक शब्दों एवं विषयों के अर्थ-संकेत ही हैं, जिन्हें भाष्य और टीकाओं के माध्यम से ही सम्यक प्रकार से प्रमुख नियुक्तियाँ समझा जा सकता है। जैन आगमों की व्याख्या के रूप में जिन नियुक्तियों आवश्यकनियुक्ति में लेखक ने जिन दस नियुक्तियों के लिखने का प्रणयन हुआ, वे मुख्यत: प्राकृत गाथाओं में हैं। आवश्यकनियुक्ति की प्रतिज्ञा की थी, वे निम्न हैंमें नियुक्ति शब्द का अर्थ और नियुक्तियों के लिखने का प्रयोजन बताते १. आवश्यकनियुक्ति हुए कहा गया है-“एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं, अत: कौन २. दशवैकालिकनियुक्ति
प्रवृत्ति सम
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ग्रन्थ नहीं है। इनमें से पिण्डनियमानयुक्ति को भी समाति
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४७ ३. उत्तराध्ययननियुक्ति
पिण्डनियुक्ति, ओघनियुक्ति एवं आराधनानियुक्ति को भी समाविष्ट किया ४. आचारांगनियुक्ति
जाता है, किन्तु इनमें से पिण्डनियुक्ति और ओघनियुक्ति कोई स्वतन्त्र ५. सूत्रकृतांगनियुक्ति
ग्रन्थ नहीं है। पिण्डनियुक्ति दशवैकालिकनियुक्ति का एक भाग है और ६. दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति
ओघनियुक्ति भी आवश्यकनियुक्ति का एक अंश है। अत: इन दोनों ७. बृहत्कल्पनियुक्ति
को स्वतन्त्र नियुक्ति ग्रन्थ नहीं कहा जा सकता है। यद्यपि वर्तमान में ८. व्यवहारनियुक्ति
ये दोनों नियुक्तियाँ अपने मूल ग्रन्थ से अलग होकर स्वतन्त्र रूप में ९. सूर्य प्रज्ञप्तिनियुक्ति
ही उपलब्ध होती हैं। आचार्य मलयगिरि ने पिण्डनियुक्ति को १०. ऋषिभाषितनियुक्ति
दशवैकालिकनियुक्ति का ही एक विभाग माना है, उनके अनुसार वर्तमान में उपर्युक्त दस में से आठ ही नियुक्तियाँ उपलब्ध हैं, दशवैकालिक के पिण्डैषणा नामक पाँचवें अध्ययन पर विशद नियुक्ति अन्तिम दो अनुपलब्ध हैं। आज यह निश्चय कर पाना अति कठिन होने से उसको वहाँ से पृथक् करके पिण्डनियुक्ति के नाम से एक है कि ये अन्तिम दो नियुक्तियाँ लिखी भी गयी या नहीं? क्योंकि स्वतन्त्र ग्रन्थ बना दिया गया। मलयगिरि स्पष्ट रूप से कहते हैं कि हमें कहीं भी ऐसा कोई निर्देश उपलब्ध नहीं होता, जिसके आधार जहाँ दशवैकालिक नियुक्ति में लेखक ने नमस्कारपूर्वक प्रारम्भ किया, पर हम यह कह सकें कि किसी काल में ये नियुक्तियाँ रहीं और बाद वहीं पिण्डनियुक्ति में ऐसा नहीं है, अत: पिण्डनियुक्ति स्वतन्त्र ग्रन्थ में विलुप्त हो गयीं। यद्यपि मैंने अपनी ऋषिभाषित की भूमिका में नहीं है। दशवैकालिकनियुक्ति तथा आवश्यकनियुक्ति से इन्हें बहुत पहले यह सम्भावना व्यक्त की है कि वर्तमान 'इसीमण्डलत्यु' सम्भवतः ही अलग कर दिया गया था। जहाँ तक आराधनानियुक्ति का प्रश्न है, ऋषिभाषितनियुक्ति का परवर्तित रूप हो, किन्तु इस सम्बन्ध में श्वेताम्बर साहित्य में तो कहीं भी इसका उल्लेख नहीं है। प्रो० ए० निर्णयात्मक रूप से कुछ भी कहना कठिन है। इन दोनों नियुक्तियों एन० उपाध्ये ने बृहत्कथाकोश की अपनी प्रस्तावना (पृ०३१) में के सन्दर्भ में हमारे सामने तीन विकल्प हो सकते हैं
मूलाचार की एक गाथा पर वसुनन्दी की टीका के आधार पर इसी १. सर्वप्रथम यदि हम यह मानें कि इन दसों नियुक्तियों के लेखक नियुक्ति का उल्लेख किया है, किन्तु आराधनानियुक्ति की उनकी यह एक ही व्यक्ति हैं और उन्होंने इन नियुक्तियों की रचना उसी क्रम में कल्पना यथार्थ नहीं है। मूलाचार के टीकाकार वसुनन्दी स्वयं एवं प्रो० की है, जिस क्रम से इनका उल्लेख आवश्यक नियुक्ति में है, तो ए० एन० उपाध्ये जी मूलाचार की उस गाथा के अर्थ को सम्यक् ऐसी स्थिति में यह सम्भव है कि वे अपने जीवन-काल में आठ नियुक्तियों प्रकार से समझ नहीं पाये हैं। की ही रचना कर पायें हों तथा अन्तिम दो की रचना नहीं कर वह गाथा निम्नानुसार हैपायें हों।
"आराहण णिज्जुत्ति मरणविभत्ती य संगहत्युदिओ। २. दूसरे यह भी सम्भव है कि ग्रन्थों के महत्त्व को ध्यान में पच्चक्खाणावसय धम्मकहाओ य एरिसओ।" रखते हुए प्रथम तो लेखक ने यह प्रतिज्ञा कर ली हो कि वह दसों
(मूलाचार, पंचाचाराधिकार, २७९) आगम ग्रन्थों पर नियुक्ति लिखेगा, किन्तु जब उसने इन दोनों आगम अर्थात् आराधना, नियुक्ति, मरणविभक्ति, संग्रहणीसूत्र, स्तुति ग्रन्थों का अध्ययन कर यह देखा कि सूर्य प्रज्ञप्ति में जैन-आचार मर्यादाओं (वीरस्तुति), प्रत्याख्यान (महाप्रत्याख्यान, आतुरप्रत्याख्यान), आवश्यकसूत्र, के प्रतिकूल कुछ उल्लेख हैं और ऋषिभाषित में नारद, मंखलिगोशाल धर्मकथा तथा ऐसे अन्य ग्रन्थों का अध्ययन अस्वाध्याय काल में किया आदि उन व्यक्तियों के उपदेश संकलित हैं जो जैन परम्परा के लिए जा सकता है। वस्तुत: मूलाचार की इस गाथा के अनुसार आराधना विवादास्पद हैं, तो उसने इन पर नियुक्ति लिखने का विचार स्थगित एवं नियुक्ति ये अलग-अलग स्वतन्त्र ग्रन्थ हैं। इसमें आराधना से तात्पर्य कर दिया हो।
आराधना नामक प्रकीर्णक अथवा भगवती आराधना से तथा नियुक्ति ३. तीसरी सम्भावना यह भी है कि उन्होंने इन दोनों ग्रन्थों पर से तात्पर्य आवश्यक आदि सभी नियुक्तियों से है। नियुक्तियाँ लिखी हों किन्तु इनमें भी विवादित विषयों का उल्लेख होने अत: आराधनानियुक्ति नामक नियुक्ति की कल्पना अयथार्थ है। से इन नियुक्तियों को पठन-पाठन से बाहर रखा गया हो और फलतः इस नियुक्ति के अस्तित्व की कोई सूचना अन्यत्र भी नहीं मिलती है अपनी उपेक्षा के कारण कालक्रम में वे विलुप्त हो गयी हों। यद्यपि और न यह ग्रन्थ ही उपलब्ध होता है। इन दस नियुक्तियों के अतिरिक्त यहाँ एक शंका हो सकती है कि यदि जैन आचार्यों ने विवादित होते आर्य गोविन्द की गोविन्दनियुक्ति का भी उल्लेख मिलता है, किन्तु हुए भी इन दोनों ग्रन्थों को संरक्षित करके रखा, तो उन्होंने इनकी यह भी नियुक्ति वर्तमान में अनुपलब्ध है। इनका उल्लेख नन्दीसूत्र', नियुक्तियों को संरक्षित करके क्यों नहीं रखा?
व्यवहारभाष्य', आवश्यकचूर्णि", एवं निशीथचूर्णि११ में मिलता है। ४. एक अन्य विकल्प यह भी हो सकता है कि जिस प्रकार इस नियुक्ति की विषय-वस्तु मुख्य रूप से एकेन्द्रिय अर्थात् पृथ्वी, दर्शनप्रभावक ग्रन्थ के रूप में मान्य गोविन्दनियुक्ति विलुप्त हो गई पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति आदि में जीवन की सिद्धि करना था। है, उसी प्रकार ये नियुक्तियाँ भी विलुप्त हो गई हों।
इसे गोविन्द नामक आचार्य ने बनाया था और उनके नाम के आधार - नियुक्ति साहित्य में उपर्युक्त दस नियुक्तियों के अतिरिक्त पर ही इसका नामकरण हुआ है। कथानकों के अनुसार ये बौद्ध परम्परा
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से आकर जैन परम्परा में दीक्षित हुए थे। मेरी दृष्टि में यह नियुक्ति आचारांग के प्रथम अध्ययन और दशवैकालिक के चतुर्थ षड्जीवनिकाय नामक अध्ययन से सम्बन्धित रही होगी और इसका उद्देश्य बौद्धों के विरुद्ध पृथ्वी, पानी आदि में जीवन की सिद्धि करना रहा होगा। यही कारण है कि इसकी गणना दर्शन प्रभावक ग्रन्थ में की गयी है। संज्ञी श्रुत के सन्दर्भ में इसका उल्लेख भी यही बताता है। १२
इसी प्रकार संसक्तनिर्युक्ति" नामक एक और नियुक्ति का उल्लेख मिलता है। इसमें ८४ आगमों के सम्बन्ध में उल्लेख है। इसमें मात्र ९४ गाथाएँ हैं। ८४ आगमों का उल्लेख होने से विद्वानों ने इसे पर्याप्त परवर्ती एवं विसंगत रचना माना है अतः इसे प्राचीन निर्युक्ति साहित्य में परिगणित नहीं किया जा सकता है। इस प्रकार वर्तमान नियुक्तियों दस नियुक्तियों में समाहित हो जाती हैं। इनके अतिरिक्त अन्य किसी नियुक्ति नामक ग्रन्थ की जानकारी हमें नहीं है ।
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
दस नियुक्तियों का रचनाक्रम
यद्यपि दसों नियुक्तियाँ एक ही व्यक्ति की रचनायें हैं, फिर भी इनकी रचना एक क्रम में हुई होगी आवश्यकनियुक्ति में जिस क्रम से इन दस नियुक्तियों का नामोल्लेख है" उसी क्रम से उनकी रचना हुई होगी, विद्वानों के इस कथन की पुष्टि निम्र प्रमाणों से होती है
१. आवश्यकनिर्युक्ति की रचना सर्वप्रथम हुई है, यह तथ्य स्वतः सिद्ध है, क्योंकि इसी नियुक्ति में सर्वप्रथम दस नियुक्तियों की रचना करने की प्रतिज्ञा की गयी है और उसमें भी आवश्यक का नामोल्लेख सर्वप्रथम हुआ है।" पुनः आवश्यकनियुक्ति से निह्नववाद से सम्बन्धित सभी गाथाएं (गाथा ७७८ से ७८४ तक) उत्तराध्ययननियुक्ति (गाथा १६४ से १७८ तक) १७ में ली गयी है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि आवश्यकनियुक्ति के बाद ही उत्तराध्ययननियुक्ति आदि अन्य नियुक्तियों की रचना हुई है। आवश्यकनियुक्ति के बाद सबसे पहले दशवैकालिकनियुक्ति की रचना हुई है और उसके बाद प्रतिज्ञागाथा के क्रमानुसार अन्य नियुक्तियों की रचना की गई इस कथन की पुष्टि आगे दिये गये उत्तराध्ययननियुक्ति के सन्दर्भों से होती है।
२. उत्तराध्ययननियुक्ति, गाया २९ में 'विनय' की व्याख्या करते हुए यह कहा गया है 'विणओ पुव्वुद्दिट्ठा' अर्थात् विनय के सम्बन्ध में हम पहले कह चुके हैं।" इसका तात्पर्य यह है कि उत्तराध्ययननियुक्ति की रचना से पूर्व किसी ऐसी नियुक्ति की रचना हो चुकी थी, जिसमें विनय सम्बन्धी विवेचन था। यह बात दशवैकालिकनियुक्ति को देखने से स्पष्ट हो जाती है, क्योंकि दशवैकालिकनियुक्ति में विनय समाधि नामक नये अध्ययन की नियुक्ति (गाथा ३०९ से ३२६ तक) में 'विनय' शब्द की व्याख्या है। इसी प्रकार उत्तराध्ययननियुक्ति (गाथा २०७) में 'कामापुव्वुद्दिट्ठा' कहकर यह सूचित किया गया है कि काम के विषय में पहले विवेचन किया जा चुका है।" यह विवेचन भी हमें दशवैकालिकनियुक्ति की गाथा १६१ से १६३ तक में मिल जाता है। उपर्युक्त दोनों सूचनाओं के आधार पर यह बात सिद्ध होती है कि उत्तराध्ययननियुक्ति, दशवैकालिकनियुक्ति के बाद ही लिखी गयी।
३. आवश्यकनियुक्ति के बाद दशवैकालिकनियुक्ति और फिर उत्तराध्ययननियुक्ति की रचना हुई, यह तो पूर्व चर्चा से सिद्ध हो चुका है। इन तीनों नियुक्तियों की रचना के पश्चात् आचारांगनियुक्ति की रचना हुई है, क्योंकि आचारांगनिर्युक्ति की गाथा ५ में कहा गया है- 'आयारे अंगम्मि य पुव्वुद्दिट्ठा चउक्कयं निक्खेवो'– आचार और अंग के निक्षेपों का विवेचन पहले हो चुका है।" दशवैकालिकनियुक्ति में दशवैकालिकसूत्र के क्षुल्लकाचार अध्ययन की नियुक्ति (गावा ७९-८८) में 'आचार' शब्द के अर्थ का विवेचन तथा उत्तराध्ययननियुक्ति में उत्तराध्ययनसूत्र के तृतीय 'चतुरंग' अध्ययन की नियुक्ति करते हुए गाथा १४३-१४४ में 'अंग' शब्द का विवेचन किया है।" अतः यह सिद्ध होता है कि आवश्यक, दशवैकालिक एवं उत्तराध्ययन के पश्चात् ही आचारांगनियुक्ति का क्रम है।
इसी प्रकार आचारांग की चतुर्थ विमुक्तिचूलिका की नियुक्ति में 'विमुक्ति' शब्द की नियुक्ति करते हुए गाया ३३१ में लिखा है कि 'मोक्ष' शब्द की नियुक्ति के अनुसार ही 'विमुक्ति' शब्द की नियुक्ति भी समझना चाहिए । २४ चूँकि उत्तराध्ययन के अट्ठाईसवें अध्ययन की निर्युक्ति (गाथा ४९७-९८ ) में मोक्ष शब्द की नियुक्ति की जा चुकी थी। अतः इससे यही सिद्ध हुआ कि आचारांगनियुक्ति का क्रम उत्तराध्ययन के पश्चात् है। आवश्यकनियुक्ति, दशवैकालिकनियुक्ति, उत्तराध्ययननियुक्ति एवं आचारांगनियुक्ति के पश्चात् सूत्रकतांगनिर्युक्ति का क्रम आता है। इस तथ्य की पुष्टि इस आधार पर भी होती है। कि सूत्रकृतांगनियुक्ति की गाथा ९९ में यह उल्लिखित है कि 'धर्म' शब्द के निक्षेपों का विवेचन पूर्व में हो चुका है (धम्मो पुब्बुद्दिट्ठो)। " दशवैकालिकनियुक्ति में दशवेकालिकसूत्र की प्रथम गाथा का विवेचन करते समय 'धर्म' शब्द के निक्षेपों का विवेचन हुआ है।" इससे यह सिद्ध होता है कि सूत्रकृतांगनियुक्ति, दशवैकालिकनियुक्ति के बाद निर्मित हुई है। इसी प्रकार सूत्रकृतांगनिर्युक्ति की गाथा १२७ में कहा है 'बोपुल्लुट्ठिो'।" हम देखते हैं कि उत्तराध्ययननियुक्ति गाथा २६७-२६८ में अन्य शब्द के निक्षेपों का भी कथन हुआ है। इससे सूत्रकृतांग नियुक्ति भी दशवैकालिकनियुक्ति एवं उत्तराध्ययननियुक्ति से परवर्ती ही सिद्ध होती है।
४. उपर्युक्त पाँच नियुक्तियों के यथाक्रम से निर्मित होने के पश्चात् ही तीन छेद सूत्रों यथा- दशाश्रुतस्कंध, वृहत्कल्प एवं व्यवहार सूत्र पर नियुक्तियाँ भी उनके उल्लेख क्रम से ही लिखी गयीं हैं, क्योंकि दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति के प्रारम्भ में ही प्राचीनगोत्रीय सकल श्रुत के ज्ञाता और दशाश्रुतस्कंध बृहत्कल्प एवं व्यवहार के रचयिता भद्रबाहु को नमस्कार किया गया है। इसमें भी इन तीनों ग्रन्थों का उल्लेख उसी क्रम से है जिस क्रम से नियुक्ति लेखन की प्रतिज्ञा में है।" अतः यह कहा जा सकता है कि इन तीनों ग्रन्थों की नियुक्तियाँ इसी क्रम में लिखी गयी होगी। उपर्युक्त आठ नियुक्तियों की रचना के पश्चात् ही सूर्यप्रज्ञप्ति एवं इसिमासियाई की नियुक्ति की रचना होनी थी। इन दोनों ग्रन्थों पर नियुक्तियाँ लिखी भी गयीं या नहीं, आज यह निर्णय करना अत्यन्त कठिन है, क्योंकि पूर्वोक्त प्रतिज्ञा गाया के अतिरिक्त
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४९ हमें इन नियुक्तियों के सन्दर्भ में कहीं भी कोई भी सूचना नहीं मिलती विशेषावश्यक-मलधारिहेमचन्द्रसूरिकृत टीका-पत्र १. है। अत: इन नियुक्तियों की रचना होना संदिग्ध ही है। या तो इन ५. “साधूनामनुग्रहाय चतुर्दशपूर्वधरेण भगवता भद्रबाहुस्वामिना कल्पसूत्रं नियुक्तियों के लेखन का क्रम आने से पूर्व ही नियुक्तिकार का स्वर्गवास व्यवहारसूत्रं चाकारि, उभयोरपि च सूत्रस्पर्शिका नियुक्तिः।" हो चुका होगा या फिर इन दोनों ग्रन्थों में कुछ विवादित प्रसंगों का बृहत्कल्पपीठिका मलयगिरिकृत टीका-पत्र २. उल्लेख होने से नियुक्तिकार ने इनकी रचना करने का निर्णय ही स्थगित ६. "इह श्रीमदावश्यकादिसिद्धान्तप्रतिबद्धनियुक्तिशास्त्रसंसूत्रणसूत्रधारः.... कर दिया होगा।
श्रीभद्रबाहुस्वामी....कल्पनामधेयमध्ययनं नियुक्तियुक्तं निर्मूढवान्।" अत: सम्भावना यही है कि ये दोनों नियुक्तियाँ लिखी ही नहीं बृहत्कल्पपीठिका श्रीक्षेमकीर्तिसूरिअनुसन्धिता टीका-पत्र १७७। गईं, चाहे इनके नहीं लिखे जाने के कारण कुछ भी रहे हों। प्रतिज्ञा इन समस्त सन्दर्भो को देखने से स्पष्ट होता है कि श्रुतकेवली गाथा के अतिरिक्त सूत्रकृतांगनियुक्ति, गाथा १८९ में ऋषिभाषित का चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु प्रथम को नियुक्तियों के कर्ता के रूप में मान्य नाम अवश्य आया है। वहाँ यह कहा गया है कि जिस-जिस सिद्धान्त करने वाला प्राचीनतम सन्दर्भ आर्यशीलांक का है। आर्यशीलांक का या मत में जिस किसी अर्थ का निश्चय करना होता है उसमें पूर्व कहा समय लगभग विक्रम संवत् की ९ वीं-१०वीं सदी माना जाता है। गया अर्थ ही मान्य होता है, जैसे कि-ऋषिभाषित में। किन्तु यह जिन अन्य आचार्यों ने नियुक्तिकार के रूप में भद्रबाहु प्रथम को माना उल्लेख ऋषिभाषित मूल ग्रन्थ के सम्बन्ध में ही सूचना देता है न है, उनमें आर्यद्रोण, मलधारि हेमचन्द्र, मलयगिरि, शान्तिसूरि तथा कि उसकी नियुक्ति के सम्बन्ध में।
क्षेमकीर्ति सूरि के नाम प्रमुख हैं, किन्तु ये सभी आचार्य विक्रम की
दसवीं सदी के पश्चात हुए हैं। अत: इनका कथन बहुत अधिक प्रामाणिक नियुक्ति के लेखक और रचना-काल
नहीं कहा जा सकता है। उन्होंने जो कुछ भी लिखा है, वह मात्र अनुश्रुतियों नियुक्तियों के लेखक कौन हैं और उनका रचना काल क्या है के आधार पर लिखा है। दुर्भाग्य से ८-९वीं सदी के पश्चात् चतुर्दश ये दोनों प्रश्न एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। अत: हम उन पर अलग-अलग पूर्वधर श्रुतकेवली भद्रबाहु और वराहमिहिर के भाई नैमित्तिक भद्रबाहु विचार न करके एक साथ ही विचार करेंगे।
के कथानक, नामसाम्य के कारण एक-दूसरे में घुल-मिल गये और परम्परागत रूप से अन्तिम श्रुतकेवली, चतुर्दशपूर्वधर तथा दूसरे भद्रबाहु की रचनायें भी प्रथम के नाम चढ़ा दी गईं। यही कारण छेदसूत्रों के रचयिता आर्यभद्रबाहु प्रथम को ही नियुक्तियों का कर्ता रहा कि नैमित्तिक भद्रबाहु को भी प्राचीनगोत्रीय श्रुतकेवली चतुर्दश माना जाता है। मुनि श्री पुण्यविजय जी ने अत्यन्त परिश्रम द्वारा श्रुतकेवली पूर्वधर भद्रबाहु के साथ जोड़ दिया गया है और दोनों के जीवन की भद्रबाहु को नियुक्तियों के कर्ता के रूप में स्वीकार करने वाले निम्न घटनाओं के इस घाल-मेल से अनेक अनुश्रुतियाँ प्रचलित हो गईं। साक्ष्यों को संकलित करके प्रस्तुत किया है। जिन्हें हम यहाँ अविकल इन्हीं अनुश्रुतियों के परिणामस्वरूप नियुक्ति के कर्ता के रूप में चतुर्दश रूप से दे रहे हैं।
पूर्वधर भद्रबाहु की अनुश्रुति प्रचलित हो गयी। यद्यपि मुनि श्री पुण्यविजय १. “अनुयोगदायिनः - सुधर्मस्वामिप्रभृतयः यावदस्य भगवतो जी ने बृहत्कल्पसूत्र (नियुक्ति, लघुभाष्य-वृत्त्युपेतम्) के षष्ठ विभाग
नियुक्तिकारस्य भद्रबाहुस्वामिनश्चतुर्दशपूर्वधरस्याचार्योऽतस्तान् के आमुख में यह लिखा है कि नियुक्तिकार स्थविर आर्य भद्रबाहु हैं, सर्वानिति।।"
इस मान्यता को पुष्ट करने वाला एक प्रमाण जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण - आचारांगसूत्र, शीलाङ्काचार्यकृत टीका-पत्र ४. के विशेषावश्यकभाष्य की स्वोपज्ञ टीका में भी मिलता है।३३ यद्यपि २. "न च केषांचिदिहोदाहरणानां नियुक्तिकालादर्वाक्कालाभाविता उन्होंने वहाँ उस प्रमाण का सन्दर्भ सहित उल्लेख नहीं किया है। मैं
इत्यन्योक्तत्वमाशङ्कनीयम्, स हि भगवाँश्चतुर्दशपूर्ववित् श्रुतकेवली इस सन्दर्भ को खोजने का प्रयत्न कर रहा हूँ, किन्तु उसके मिल जाने कालत्रयविषयं वस्तु पश्यत्येवेति कथमन्यकृतत्वाशङ्का? इति।" । पर भी हम केवल इतना ही कह सकेंगे कि विक्रम की लगभग सातवीं
उत्तराध्ययनसूत्र शान्तिसूरिकृता पाइयटीका-पत्र १३९. शती से नियुक्तिकार प्राचीनगोत्रीय चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु हैं, ऐसी ३. "गुणाधिकस्य वन्दनं कर्त्तव्यं न त्वधमस्य, यत उक्तम् - अनुश्रुति प्रचलित हो गयी थी।
"गुणाहिए वंदणयं"। भद्रबाहुस्वामिनश्चतुर्दशपूर्वधरत्वाद् नियुक्तिकार प्राचीनगोत्रीय चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु हैं अथवा दशपूर्वधरादीनां च न्यूनत्वात् किं तेषां नमस्कारमसौ करोति? इति। नैमित्तिक (वराहमिहिर के भाई) भद्रबाहु हैं, ये दोनों ही प्रश्न विवादास्पद अत्रोच्यते- गुणाधिका एव ते, अव्यवच्छित्तिगुणाधिक्यात्, अतो हैं। जैसा कि हमने संकेत किया है नियुक्तियों को प्राचीनगोत्रीय चतुर्दश
न दोष इति।" ओघनियुक्ति द्रोणाचार्यकृत, टीका-पत्र ३. पूर्वधर आर्य भद्रबाहु की मानने की परम्परा आर्यशीलांक से या उसके ४. “इह चरणकरणक्रियाकलापतरुमूलकल्पं सामायिकादिषडध्ययनात्मक- पूर्व जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण से प्रारम्भ हुई है। किन्तु उनके इन उल्लेखों
श्रुतस्कन्धरूपमावश्यकतावदर्थतस्तीर्थकरैः सूत्रतस्तु गणधरैर्विरचितम्। में कितनी प्रामाणिकता है यह विचारणीय है, क्योंकि नियुक्तियों में अस्य चातीव गम्भीरार्थतां सकलसाधु-श्रावकवर्गस्य नित्योपयोगितां ही ऐसे अनेक प्रमाण उपस्थित हैं, जिनसे नियुक्तिकार पूर्वधर भद्रबाहु च विज्ञाय चतुर्दशपूर्वधरेण श्रीमद्भद्रबाहुनैतद्व्याख्यानरूपा' हैं, इस मान्यता में बाधा उत्पन्न होती है। इस सम्बन्ध में मुनिश्री आभिणिबोहियनाणं." इत्यादिप्रसिद्धग्रन्थरूपा नियुक्तिः कृता।" पुण्यविजय जी ने अत्यन्त परिश्रम द्वारा वे सब सन्दर्भ प्रस्तुत किये
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ हैं, जो नियुक्तिकार पूर्वधर भद्रबाहु हैं, इस मान्यता के विरोध में जाते आठवें बोटिक मत की उत्पत्ति का उल्लेख हुआ है। अन्तिम सातवाँ हैं। हम उनकी स्थापनाओं के हार्द को ही हिन्दी भाषा में रूपान्तरित निह्नव वीरनिर्वाण संवत् ५८४ में तथा बोटिक मत की उत्पत्ति वीरनिर्वाण कर निम्न पंक्तियों में प्रस्तुत कर रहे हैं
संवत् ६०९ में हुई। ये घटनाएं चतुर्दशपूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु १. आवश्यकनियुक्ति की गाथा ७६२ से ७७६ तक में वज्रस्वामी के लगभग चार सौ वर्ष पश्चात् हुई हैं। अत: उनके द्वारा रचित नियुक्ति के विद्यागुरु आर्यसिंहगिरि, आर्यवज्रस्वामी, तोषलिपुत्र, आर्यरक्षित, में इनका उल्लेख होना सम्भव नहीं लगता है। वैसे मेरी दृष्टि में बोटिक आर्य फल्गुमित्र, स्थविर भद्रगुप्त जैसे आचार्यों का स्पष्ट उल्लेख है।३४ मत की उत्पत्ति का कथन नियुक्तिकार का नहीं है- नियुक्ति में सात ये सभी आचार्य चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाह से परवर्ती हैं और तोषलिपुत्र निह्नवों का ही उल्लेख है। निह्नवों के काल एवं स्थान सम्बन्धी गाथाएँ को छोड़कर शेष सभी का उल्लेख कल्पसूत्र स्थविरावली में है। यदि भाष्य गाथाएँ है- जो बाद में नियुक्ति में मिल गई हैं। किन्तु नियुक्तियों नियुक्तियाँ चतुर्दश पूर्वधर आर्यभद्रबाहु की कृति होती तो उनमें इन में सात निह्नवों का उल्लेख होना भी इस बात का प्रमाण है कि नियुक्तियाँ नामों के उल्लेख सम्भव नहीं थे।
प्राचीनगोत्रीय पूर्वधर भद्रबाहु की कृतियाँ नहीं हैं। २. इसी प्रकार पिण्डनियुक्ति की गाथा ४९८ में पादलिप्ताचार्य५ ८. सूत्रकृतांगनियुक्ति की गाथा १४६ में द्रव्य-निक्षेप के सम्बन्ध का एवं गाथा ५०३ से ५०५ में वज्रस्वामी के मामा समितसूरि३६ में एकभविक, बद्धायुष्य और अभिमुखित नाम-गोत्र ऐसे तीन आदेशों का उल्लेख है साथ ही ब्रह्मदीपकशाला का उल्लेख भी है-ये तथ्य का उल्लेख हुआ है। ये विभिन्न मान्यताएं भद्रबाहु के काफी पश्चात् यही सिद्ध करते हैं कि पिण्डनियुक्ति भी चतुर्दश पूर्वधर प्राचीनगोत्रीय आर्य सुहस्ति, आर्य मंक्षु आदि परवर्ती आचार्यों के काल में निर्मित भद्रबाहु की कृति नहीं है, क्योंकि पादलिप्तसूरि, समितसूरि तथा हुई हैं। अत: इन मान्यताओं के उल्लेख से भी नियुक्तियों के कर्ता ब्रह्मदीपकशाखा की उत्पत्ति, ये सभी प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु से चतुर्दश पूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु हैं, यह मानने में बाधा परवर्ती हैं।
आती है। ३. उत्तराध्ययननियुक्ति की गाथा १२० में कालकाचार्य की मुनि श्री पुण्यविजय जी ने उत्तराध्ययन के टीकाकार शान्त्याचार्य, कथा का संकेत है। कालकाचार्य भी प्राचीनगोत्रीय पूर्वधर भद्रबाह से जो नियुक्तिकार के रूप में चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाह को मानते हैं, की लगभग तीन सौ वर्ष पश्चात् हुए हैं।
इस मान्यता का भी उल्लेख किया है कि नियुक्तिकार त्रिकालज्ञानी हैं। ४. ओघनियुक्ति की प्रथम गाथा में चतुर्दश पूर्वधर, दश पूर्वधर अत: उनके द्वारा परवर्ती घटनाओं का उल्लेख होना असम्भव नहीं एवं एकादश- अंगों के ज्ञाताओं को सामान्य रूप से नमस्कार किया है।४८ यहाँ मुनि पुण्यविजय जी कहते हैं कि हम शान्त्याचार्य की इस गया है,३९ ऐसा द्रोणाचार्य ने अपनी टीका में सूचित किया है।४० यद्यपि बात को स्वीकार कर भी लें, तो भी नियुक्तियों में नामपूर्वक वज्रस्वामी मुनि श्री पुण्यविजय जी सामान्य कथन की दृष्टि से इसे असंभावित को नमस्कार आदि किसी भी दृष्टि से युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता। नहीं मानते हैं, क्योंकि आज भी आचार्य, उपाध्याय एवं मुनि नमस्कारमंत्र वे लिखते हैं यदि उपर्युक्त घटनाएँ घटित होने के पूर्व ही नियुक्तियों में अपने से छोटे पद और व्यक्तियों को नमस्कार करते हैं। किन्तु में उल्लिखित कर दी गयी हों तो भी अमुक मान्यता अमुक पुरुष मेरी दृष्टि में कोई भी चतुर्दश पूर्वधर दशपूर्वधर को नमस्कार करे, द्वारा स्थापित हुई यह कैसे कहा जा सकता है।४९ यह उचित नहीं लगता। पुनः आवश्यकनियुक्ति की गाथा ७६९ में पुनः जिन दस आगम-ग्रन्थों पर निर्यक्ति लिखने का उल्लेख दस पूर्वधर वज्रस्वामी को नाम लेकर जो वंदन किया गया है, वह आवश्यकनियुक्ति में है, उससे यह स्पष्ट है कि भद्रबाहु के समय तो किसी भी स्थिति में उचित नहीं माना जा सकता है।
आचारांग, सूत्रकृतांग आदि अतिविस्तृत एवं परिपूर्ण थे। ऐसी स्थिति ५. पुन: आवश्यकनियुक्ति की गाथा ७६३ से ७७४ में यह में उन आगमों पर लिखी गयी नियुक्ति भी अतिविशाल एवं चारों कहा गया है कि शिष्यों की स्मरण शक्ति के ह्रास को देखकर आर्य अनुयोगमय होनी चाहिए। इसके विरोध में यदि नियुक्तिकार भद्रबाहु रक्षित ने, वज्रस्वामी के काल तक जो आगम अनुयोगों में विभाजित थे, ऐसी मान्यता रखने वाले विद्वान् यह कहते हैं कि नियुक्तिकार नहीं थे, उन्हें अनुयोगों में विभाजित किया,४२ यह कथन भी एक परवर्ती तो भद्रबाहु ही थे और वे नियुक्तियाँ भी अतिविशाल थीं, किन्तु बाद घटना को सूचित करता है। इससे भी यही फलित होता है कि नियुक्तियों में स्थविर आर्यरक्षित ने अपने शिष्य पुष्यमित्र की विस्मृति एवं भविष्य के कर्ता चतुर्दश पूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु नहीं हैं, अपितु आर्यरक्षित में होने वाले शिष्यों की मंद-बुद्धि को ध्यान में रखकर जिस प्रकार के पश्चात् होने वाले कोई भद्रबाहु हैं।
आगमों के अनुयोगों को पृथक् किया, उसी प्रकार नियुक्तियों को भी ६. दशवैकालिकनियुक्ति की गाथा ४ एवं ओघनियुक्ति" की व्यवस्थित एवं संक्षिप्त किया। इसके प्रत्युत्तर में मुनि श्री पुण्यविजय गाथा २ में चरणकरणानुयोग की नियुक्ति कहूँगा ऐसा उल्लेख है। यह जी का कथन है- प्रथम, तो यह कि आर्यरक्षित द्वारा अनुयोगों के भी इसी तथ्य की पुष्टि करता है कि नियुक्ति की रचना अनुयोगों के पृथक् करने की बात तो कही जाती है, किन्तु नियुक्तियों को व्यवस्थित विभाजन के बाद अर्थात् आर्यरक्षित के पश्चात् हुई है।
करने का एक भी उल्लेख नहीं है। स्कंदिल आदि ने विभिन्न वाचनाओं ७. आवश्यकनियुक्ति५ की गाथा ७७८-७८३ में तथा में 'आगमों' को ही व्यवस्थित किया, नियुक्तियों को नहीं। उत्तराध्ययननियुक्ति ६ की गाथा १६४ से १७८ तक में ७ निह्नवों और दूसरे, उपलब्ध नियुक्तियाँ उन अंग-आगमों पर नहीं हैं जो भद्रबाहु
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नियुक्ति साहित्य : एक पुनर्चिन्तन प्रथम के युग में थे। परम्परागत मान्यता के अनुसार आरक्षित के उत्तराध्ययननियुक्ति में उसके 'अकाममरणीय' नामक अध्ययन की युग में भी आचारांग एवं सूत्रकृतांग उतने ही विशाल थे, जितने भद्रबाहु नियुक्ति में निम्न गाथा प्राप्त होती हैके काल में थे। ऐसी स्थिति में चाहे एक ही अनुयोग का अनुसरण "सवे ए ए दारा मरणविभत्तीए वण्णिआ कमसो। करके नियुक्तियाँ लिखी गयी हों, उनकी विषयवस्तु तो विशाल होनी सगलणिउणे पयत्थे जिण चउदस पुवि भासंति"।।२३२।। चाहिए थी। जबकि जो भी नियुक्तियाँ उपलब्ध हैं वे सभी माथुरीवाचना (ज्ञातव्य है कि मुनिपुण्यविजय जी ने इसे गाथा २३३ लिखा द्वारा या वलभी वाचना द्वारा निर्धारित पाठ वाले आगमों का ही अनुसरण है किन्तु नियुक्तिसंग्रह में इस गाथा का क्रम २३२ ही है।) कर रही हैं। यदि यह कहा जाय कि अनुयोगों का पृथक्करण करते इस गाथा में कहा गया है कि “मरणविभक्ति में इन सभी द्वारों समय आर्यरक्षित ने नियुक्तियों को भी पुन: व्यवस्थित किया और उनमें का अनुक्रम से वर्णन किया गया है, पदार्थों को सम्पूर्ण रूप से तो अनेक गाथाएँ प्रक्षिप्त भी की, तो प्रश्न होता है कि फिर उनमें गोष्ठामाहिल जिन अथवा चतुर्दश पूर्वधर ही जान सकते हैं।" यदि नियुक्तिकार और बोटिक मत की उत्पत्ति सम्बन्धी विवरण कैसे आये, क्योंकि इन चतुर्दशपूर्वधर होते तो वे इस प्रकार नहीं लिखते। शान्त्याचार्य ने स्वयं दोनों की उत्पत्ति आर्यरक्षित के स्वर्गवास के पश्चात् ही हुई है। इसे दो आधारों पर व्याख्यायित किया। प्रथम, चतुर्दश पूर्वधरों में आपस
यद्यपि इस सन्दर्भ में मेरा मुनिश्री से मतभेद है। मेरे अध्ययन में अर्थज्ञान की अपेक्षा से कमी-अधिकता होती है, इसी दृष्टि से यह की दृष्टि से सप्त निह्नवों के उल्लेख वाली गाथाएँ तो मूल गाथाएँ कहा गया हो कि पदार्थों का सम्पूर्ण स्वरूप तो चतुर्दशपूर्वी ही बता हैं, किन्तु उनमें बोटिक मत के उत्पत्ति स्थल रथवीरपुर एवं उत्पत्तिकाल सकते हैं अथवा द्वार गाथा से लेकर आगे की ये सभी गाथाएँ भाष्य वीर नि.सं. ६०९ का उल्लेख करने वाली गाथाएँ बाद में प्रक्षिप्त हैं। गाथाएँ हों।५३ यद्यपि मुनि पुण्यविजय जी इन्हें भाष्य गाथाएँ स्वीकार वे नियुक्ति की गाथाएँ न होकर भाष्य की हैं, क्योंकि जहाँ निहवों नहीं करते हैं। चाहे ये गाथाएँ भाष्यगाथा हों या न हों किन्तु मेरी दृष्टि एवं उनके मतों का उल्लेख है वहाँ सर्वत्र सात का ही नाम आया में शान्त्याचार्य ने नियुक्तियों में भाष्य-गाथा मिली होने की जो कल्पना है जबकि उनके उत्पत्तिस्थल एवं काल को सूचित करने वाली इन की है, वह पूर्णतया असंगत नहीं है। दो गाथाओं में यह संख्या आठ हो गयी। आश्चर्य यह है कि आवश्यक पुन: जैसा पूर्व में सूचित किया जा चुका है, सूत्रकृतांग के पुण्डरीक नियुक्ति में बोटिकों की उत्पत्ति की कहीं कोई चर्चा नहीं है और यदि अध्ययन की नियुक्ति में पुण्डरीक शब्द की नियुक्ति करते समय उसके बोटिकमत के प्रस्तोता एवं उनके मन्तव्य का उल्लेख मूल आवश्यक द्रव्य निक्षेप से एकभविक, बद्धायुष्य और अभिमुखित नाम-गोत्र ऐसे नियुक्ति में नहीं है, तो फिर उनके उत्पत्ति-स्थल एवं उत्पत्ति काल तीन आदेशों का नियुक्तिकार ने स्वयं ही संग्रह किया है।५४ का उल्लेख नियुक्ति में कैसे हो सकता है? वस्तुत: भाष्य की अनेक बृहत्कल्पसूत्रभाष्य (प्रथमविभाग, पृ. ४४-४५) में ये तीनों आदेश गाथाएँ नियुक्तियों में मिल गई हैं। अतः ये नगर एवं काल सूचक आर्यसुहस्ति, आर्य मंगु एवं आर्यसमुद्र की मान्यताओं के रूप में गाथाएँ भाष्य की होनी चाहिये। यद्यपि उत्तराध्ययननियुक्ति के तृतीय उल्लिखित है।५ इतना तो निश्चित है कि ये तीनों आचार्य पूर्वधर अध्ययन के अन्त में इन्हीं सप्त निह्नवों का उल्लेख होने के बाद प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु (प्रथम) से परवर्ती हैं और उनके मतों का संग्रह अन्त में एक गाथा में शिवभूति का रथवीरपुर नगर के दीपक उद्यान पूर्वधर भद्रबाहु द्वारा सम्भव नहीं है। में आर्यकृष्ण से विवाद होने का उल्लेख है।५२ किन्तु न तो इसमें दशाश्रुतस्कंध की नियुक्ति के प्रारम्भ में निम्न गाथा दी गयी हैविवाद के स्वरूप की चर्चा है और न कोई अन्य बात, जबकि उसके "वंदामिभहबाहुं पाईणं चरिमसयलसुयनाणिं। पूर्व प्रत्येक निह्नव के मन्तव्य का आवश्यकनियुक्ति की अपेक्षा विस्तृत सुत्तस्स कारगमिसिं दसासु कप्ये य ववहारे।।" विवरण दिया गया है। अत: मेरी दृष्टि में यह गाथा भी प्रक्षिप्त है। इसमें सकलश्रुतज्ञानी प्राचीनगोत्रीय भद्रबाह का न केवल वंदन यह गाथा वैसी ही है जैसी कि आवश्यकमूलभाष्य में पायी जाती है। किया गया है, अपितु उन्हें दशाश्रुतस्कंध कल्प एवं व्यवहार का रचयिता पुन: वहाँ यह गाथा बहुत अधिक प्रासंगिक भी नहीं कही जा सकती। भी कहा है, यदि नियुक्तियों के लेखक पूर्वधर श्रुतकेवली भद्रबाह होते मुझे स्पष्ट रूप से लगता है कि उत्तराध्ययननियुक्ति में भी निह्नवों की तो, वे स्वयं ही अपने को कैसे नमस्कार करते? इस गाथा को हम चर्चा के बाद यह गाथा प्रक्षिप्त की गयी है।
प्रक्षिप्त या भाष्य गाथा भी नहीं कह सकते, क्योंकि प्रथम तो यह यह मानना भी उचित नहीं लगता कि चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु ग्रन्थ की प्रारम्भिक मंगल गाथा है, दूसरे चूर्णिकार ने स्वयं इसको के काल में रचित नियुक्तियों को सर्वप्रथम आर्यरक्षित के काल में ___ नियुक्तिगाथा के रूप में मान्य किया है। इससे यह निष्कर्ष निकलता व्यवस्थित किया गया और पुन: उन्हें परवर्ती आचार्यों ने अपने युग है कि नियुक्तिकार चतुर्दश पूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु नहीं हो सकते। की आगमिक वाचना के अनुसार व्यवस्थित किया। आश्चर्य तब और इस समस्त चर्चा के अन्त में मुनि जी इस निष्कर्ष पर पहुँचते अधिक बढ़ जाता है कि इस सब परिवर्तन के विरुद्ध भी कोई स्वर हैं कि परम्परागत दृष्टि से दशाश्रुतस्कंध, कल्पसूत्र, व्यवहारसूत्र एवं उभरने की कहीं कोई सूचना नहीं है। वास्तविकता यह है कि आगमों निशीथ ये चार छेदसूत्र, आवश्यक आदि दस नियुक्तियाँ, उवसग्गहर में जब भी कुछ परिवर्तन करने का प्रयत्न किया गया तो उसके विरुद्ध एवं भद्रबाहु संहिता ये सभी चतुर्दशपूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु स्वामी स्वर उभरे है और उन्हें उल्लिखित भी किया गया है।
की कृति माने जाते हैं, किन्तु इनमें से ४ छेद सूत्रों के रचयिता तो
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ चतुर्दश पूर्वधर आर्य भद्रबाहु ही हैं। शेष दस नियुक्तियों, उवसग्गहर गई है।६२ गोविन्दनियुक्ति के रचयिता वही आर्यगोविन्द होने चाहिए एवं भद्रबाहु संहिता के रचयिता अन्य कोई भद्रबाहु होने चाहिए और जिनका उल्लेख नन्दीसूत्र में अनुयोगद्वार के ज्ञाता के रूप में किया सम्भवत: ये अन्य कोई नहीं, अपितु वाराहसंहिता के रचयिता वराहमिहिर गया है। स्थविरावली के अनुसार ये आर्य स्कंदिल की चौथी पीढ़ी के भाई, मंत्रविद्या के पारगामी नैमित्तिक भद्रबाहु ही होने चाहिए।५५ में हैं।६३ अत: इनका काल विक्रम की पाँचवीं सदी निश्चित होता है।
मुनिश्री पुण्यविजय जी ने नियुक्तियों के कर्ता नैमित्तिक भद्रबाहु अत: मुनि श्रीपुण्यविजय जी इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि नन्दीसूत्र ही थे, यह कल्पना निम्न तर्कों के आधार पर की है५६- एवं पाक्षिकसूत्र में नियुक्ति का जो उल्लेख है वह आर्य गोविन्द की
१. आवश्यकनियुक्ति की गाथा १२५२ से १२७० तक में गंधर्व नियुक्ति को लक्ष्य में रखकर किया गया है। इस प्रकार मुनि जी दसों नागदत्त का कथानक आया है। इसमें नागदत्त के द्वारा सर्प के विष नियुक्तियों के रचयिता के रूप में नैमित्तिक भद्रबाहु को ही स्वीकार उतारने की क्रिया का वर्णन है।५७ उवसग्गहर (उपसर्गहर) में भी सर्प करते हैं और नन्दीसूत्र अथवा पाक्षिकसूत्र में जो नियुक्ति का उल्लेख के विष उतारने की चर्चा है। अतः दोनों के कर्ता एक ही हैं और है उसे वे गोविन्द नियुक्ति का मानते हैं। वे मन्त्र-तन्त्र में आस्था रखते थे।
हम मुनि श्रीपुण्यविजय जी की इस बात से पूर्णत: सहमत नहीं २. पुन: नैमित्तिक भद्रबाह ही नियुक्तियों के कर्ता होने चाहिए हो सकते हैं, क्योंकि उपर्युक्त दस नियुक्तियों की रचना से पूर्व चाहे इसका एक आधार यह भी है कि उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा गाथा में सूर्यप्रज्ञप्ति आर्यगोविन्द की नियुक्ति अस्तित्व में हो, किन्तु नन्दीसूत्र एवं पाक्षिक पर नियुक्ति लिखने की प्रतिज्ञा की थी।५८ ऐसा साहस कोई ज्योतिष सूत्र में नियुक्ति सम्बन्धी जो उल्लेख हैं, वे आचारांग आदि आगम का विद्वान् ही कर सकता था। इसके अतिरिक्त आचारांगनियुक्ति में ग्रन्थों की नियुक्ति के सम्बन्ध में हैं, जबकि गोविन्दनियुक्ति किसी आगम तो स्पष्ट रूप से निमित्त विद्या का निर्देश भी हुआ है।५९ अत: मुनिश्री ग्रन्थ पर नियुक्ति नहीं है। उसके सम्बन्ध में निशीथचूर्णि आदि में जो पुण्यविजय जी नियुक्ति के कर्ता के रूप में नैमित्तिक भद्रबाहु को स्वीकार उल्लेख हैं वे सभी उसे दर्शनप्रभावक ग्रन्थ और एकेन्द्रिय में जीव करते हैं।
की सिद्धि करने वाला ग्रन्थ बतलाते हैं।६४ अत: उनकी यह मान्यता यदि हम नियुक्तिकार के रूप में नैमित्तिक भद्रबाहु को स्वीकार कि नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में नियुक्ति के जो उल्लेख हैं, वे करते हैं तो हमें यह भी मानना होगा कि नियुक्तियाँ विक्रम की छठी गोविन्दनियुक्ति के सन्दर्भ में हैं, समुचित नहीं है। वस्तुत: नन्दीसूत्र सदी की रचनाएँ हैं, क्योंकि वराहमिहिर ने अपने ग्रन्थ के अन्त में एवं पाक्षिकसूत्र में जो नियुक्तियों के उल्लेख हैं वे आगम ग्रन्थों की शक संवत् ४२७ अर्थात् विक्रम संवत ५६६ का उल्लेख किया है।६० नियुक्तियों के हैं। अत: यह मानना होगा कि नन्दी एवं पाक्षिकसूत्र नैमित्तिक भद्रबाहु वराहमिहिर के भाई थे, अत: वे उनके समकालीन की रचना के पूर्व अर्थात् पाँचवी शती के पूर्व आगमों पर नियुक्ति हैं। ऐसी स्थिति में यही मानना होगा कि नियुक्तियों का रचनाकाल लिखी जा चुकी थी। भी विक्रम की छठी शताब्दी का उत्तरार्द्ध है।
२. दूसरे, इन दस नियुक्तियों में और भी ऐसे तथ्य हैं जिनसे यदि हम उपर्युक्त आधारों पर नियुक्तियों को विक्रम की छठीं इन्हें वराहमिहिर के भाई एवं नैमित्तिक भद्रबाहु (विक्रम संवत् ५६६) सदी में हुए नैमित्तिक भद्रबाहु की कृति मानते हैं, तो भी हमारे सामने की रचना मानने में शंका होती है। आवश्यकनियुक्ति की सामायिक कुछ प्रश्न उपस्थित होते हैं
नियुक्ति में जो निह्नवों के उत्पत्ति स्थल एवं उत्पत्तिकाल सम्बन्धी गाथायें १. सर्वप्रथम तो यह कि नन्दीसूत्र एवं पाक्षिकसूत्र में नियुक्तियों हैं एवं उत्तराध्ययननियुक्ति के तीसरे अध्ययन की नियुक्ति में जो शिवभूति के अस्तित्व का स्पष्ट उल्लेख है
का उल्लेख है, वह प्रक्षिप्त है। इसका प्रमाण यह है कि उत्तराध्ययनचूर्णि, "संखेज्जाओ निजत्तीओ संखेज्जा संगहणीओ"
जो कि इस नियुक्ति पर एक प्रामाणिक रचना है, में १६७ गाथा तक - (नन्दीसूत्र, सूत्र सं. ४६) की ही चूर्णि दी गयी है। निह्नवों के सन्दर्भ में अन्तिम चूर्णि 'जेठ्ठा "स सुत्ते सत्ये सगंथे सनिज्जुत्तिए ससंगहणिए" सुदंसण' नामक १६७ वी गाथा की है। उसके आगे निह्नवों के वक्तव्य
- (पाक्षिकसूत्र, पृ. ८०) को सामायिकनियुक्ति (आवश्यकनियुक्ति) के आधार पर जान लेना इतना निश्चित है कि ये दोनों ग्रन्थ विक्रम की छठीं सदी के चाहिए, ऐसा निर्देश है।६५ ज्ञातव्य है कि सामायिकनियुक्ति में बोटिकों पूर्व निर्मित हो चुके थे। यदि नियुक्तियाँ छठी सदी उत्तरार्द्ध की रचना का कोई उल्लेख नहीं है। हम यह भी बता चुके हैं कि उस नियुक्ति हैं तो फिर विक्रम की पाँचवीं शती के उत्तरार्द्ध या छठी शती के पूर्वार्द्ध में जो बोटिक मत के उत्पत्तिकाल एवं स्थल का उल्लेख है, वह प्रक्षिप्त के ग्रन्थों में छठीं सदी के उत्तरार्द्ध में रचित नियुक्तियों का उल्लेख है एवं वे भाष्य गाथाएँ हैं। उत्तराध्ययनच कैसे संभव है? इस सम्बन्ध में मुनिश्री पुण्यविजय जी ने तर्क दिया मिलता है कि उसमें निह्नवों की कालसूचक गाथाओं को निर्यक्तिगाथाएँ है कि नन्दीसूत्र में जो नियुक्तियों का उल्लेख है, वह गोविन्दनियुक्ति न कहकर आख्यानक संग्रहणी की गाथा कहा गया है।६६ इससे मेरे आदि को ध्यान में रखकर किया गया होगा।६१ यह सत्य है कि उस कथन की पुष्टि होती है कि आवश्यकनियुक्ति में जो निह्नवों के गोविन्दनियुक्ति एक प्राचीन रचना है क्योंकि निशीथचूर्णि में गोविन्दनियुक्ति उत्पत्तिनगर एवं उत्पत्तिकाल की सूचक गाथाएँ हैं वे मूल में नियुक्ति के उल्लेख के साथ-साथ गोविन्दनियुक्ति की उत्पत्ति की कथा भी दी की गाथाएँ नहीं हैं, अपितु संग्रहणी अथवा भाष्य से उसमें प्रक्षिप्त
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नियुक्ति साहित्य : एक पुनर्चिन्तन की गयी हैं क्योंकि इन गाथाओं में उनके उत्पत्ति नगरों एवं उत्पत्ति-समय विकसित हुई है। तत्त्वार्थसूत्र तथा आचारांगनियुक्ति दोनों ही विकसित दोनों की संख्या आठ-आठ है। इस प्रकार इनमें बोटिकों के उत्पत्तिनगर गुणस्थान सिद्धान्त के सम्बन्ध में सर्वथा मौन है, जिससे यह फलित
और समय का भी उल्लेख है-आश्चर्य यह है कि ये गाथाएँ सप्त होता है कि नियुक्तियों का रचनाकाल तत्त्वार्थसूत्र के सम-सामयिक निह्नवों की चर्चा के बाद दी गईं-जबकि बोटिकों की उत्पत्ति का (अर्थात् विक्रम की तीसरी-चौथी सदी) है। अत: वे छठी शती के उल्लेख तो इसके भी बाद में है और मात्रा एक गाथा में है। अतः उत्तरार्ध में होने वाले नैमित्तिक भद्रबाहु की रचना तो किसी स्थिति ये गाथाएँ किसी भी स्थिति में नियुक्ति की गाथाएँ नहीं मानी जा में नहीं हो सकतीं। यदि वे उनकी कृतियाँ होती तो उनमें आध्यात्मिक सकती हैं।
विकास की इन दस अवस्थाओं के चित्रण के स्थान पर चौदह गुणस्थानों पुन: यदि हम बोटिक निह्नव सम्बन्धी गाथाओं को भी नियुक्ति का भी चित्रण होता। गाथाएँ मान लें तो भी नियुक्ति के रचनाकाल की अपर सीमा को ५. नियुक्ति गाथाओं का नियुक्ति गाथा के रूप में मूलाचार वीरनिर्वाण संवत् ६१० अर्थात् विक्रम की तीसरी शती के पूर्वार्ध से में उल्लेख तथा अस्वाध्याय काल में भी उनके अध्ययन का निर्देश आगे नहीं ले जाया जा सकता है, क्योंकि इसके बाद के कोई उल्लेख यही सिद्ध करता है कि नियुक्तियों का अस्तित्व मूलाचार की रचना हमें नियुक्तियों में नहीं मिले। यदि नियुक्ति नैमित्तिक भद्रबाह (विक्रम और यापनीय सम्प्रदाय के अस्तित्व में आने के पूर्व का था। यह सुनिश्चित की छठी सदी उत्तरार्द्ध) की रचनाएँ होती तो उनमें विक्रम की तीसरी है कि यापनीय सम्प्रदाय ५ वीं सदी के अन्त तक अस्तित्व में आ सदी से लेकर छठीं सदी के बीच के किसी न किसी आचार्य एवं गया था। अत: नियुक्तियाँ ५ वीं सदी से पूर्व की रचना होनी चाहिएघटना का उल्लेख भी, चाहे संकेत रूप में ही क्यों न हो, अवश्य ऐसी स्थिति में भी वे नैमित्तिक भद्रबाहु (विक्रम की छठीं सदी उत्तरार्द्ध) होता। अन्य कुछ नहीं तो माथुरी एवं वलभी वाचना के उल्लेख तो की कृति नहीं मानी जा सकती है। अवश्य ही होते, क्योंकि नैमित्तिक भद्रबाहु तो उनके बाद ही हुए हैं। पुनः नियुक्ति का उल्लेख आचार्य कुन्दकुन्द ने भी आवश्यक वलभी वाचना के आयोजक देवर्द्धिगणि के तो वे कनिष्ठ समकालिक शब्द की नियुक्ति करते हुए नियमसार, गाथा १४२ में किया है।७२ हैं, अत: यदि वे नियुक्ति के कर्ता होते तो वलभी वाचना का उल्लेख आश्चर्य यह है कि यह गाथा मूलाचार के षडावश्यक नामक अधिकार नियुक्तियों में अवश्य करते।
में भी यथावत् मिलती है। इसमें आवश्यक शब्द की नियुक्ति की गई ३. यदि नियुक्तियाँ नैमित्तिक भद्रबाहु (छठी सदी उत्तरार्द्ध) की है। इससे भी यही फलित होता है कि नियुक्तियाँ कम से कम मूलाचार कृति होती तो उसमें गुणस्थान की अवधारणा अवश्य ही पाई जाती। और नियमसार की रचना के पूर्व अर्थात् छठी शती के पूर्व अस्तित्व छठी सदी के उत्तरार्द्ध में गुणस्थान की अवधारणा विकसित हो गई में आ गई थीं। थी और उस काल में लिखी गई कृतियों में प्राय: गुणस्थान का उल्लेख ६. नियुक्तियों के कर्ता नैमित्तिक भद्रबाह नहीं हो सकते, क्योंकि मिलता है किन्तु जहाँ तक मुझे ज्ञात है, नियुक्तियों में गुणस्थान सम्बन्धी आचार्य मल्लवादी (लगभग चौथी-पाँचवीं शती) ने अपने ग्रन्थ नयचक्र अवधारणा का कहीं भी उल्लेख नहीं है। आवश्यकनियुक्ति की जिन में नियुक्तिगाथा का उद्धरण दिया है- नियुक्ति लक्षणमाह- "वत्थूणं दो गाथाओं में चौदह गुणस्थानों के नामों का उल्लेख मिलता है,६७ संकमणं होति अवत्थूणये समभरूढे"। इससे यही सिद्ध होता है कि वे मूलत: नियुक्ति गाथाएँ नहीं हैं। आवश्यक मूल पाठ में चौदह भूतग्रामों वलभी वाचना के पूर्व नियुक्तियों की रचना हो चुकी थी। अत: उनके (जीव-जातियों) का ही उल्लेख है, गुणस्थानों का नहीं। अत: नियुक्ति रचयिता नैमित्तिक भद्रबाहु न होकर या तो काश्यपगोत्रीय आर्यभद्रगुप्त तो भूतग्रामों की ही लिखी गयी। भूतग्रामों के विवरण के बाद दो हैं या फिर गौतमगोत्रीय आर्यभद्र हैं। गाथाओं में चौदह गुणस्थानों के नाम दिये गये हैं। यद्यपि यहाँ गुणस्थान ७. पुन: वलभी वाचना के आगमों के गद्यभाग में नियुक्तियों शब्द का प्रयोग नहीं है। ये दोनों गाथाएँ प्रक्षिप्त हैं, क्योंकि हरिभद्र और संग्रहणी की अनेक गाथाएँ मिलती हैं, जैसे ज्ञाताधर्मकथा में मल्ली (आठवीं सदी) ने आवश्यकनियुक्ति की टीका में "अधुनामुमैव अध्ययन में जो तीर्थङ्कर-नाम-कर्म-बन्ध सम्बन्धी २० बोलों की गाथा गुणस्थानद्वारेण दर्शयन्नाह संग्रहणिकार:” कहकर इन दोनों गाथाओं को है, वह मूलत: आवश्यकनियुक्ति (१७९-१८१) की गाथा है। इससे संग्रहणी गाथा के रूप में उद्धृत किया है।६८ अत: गुणस्थान सिद्धान्त भी यही फलित होता है कि वलभी वाचना के समय नियुक्तियों और के स्थिर होने के पश्चात् संग्रहणी की ये गाथाएँ नियुक्ति में डाल दी संग्रहणीसूत्रों से अनेक गाथाएँ आगमों में डाली गई हैं। अत: नियुक्तियाँ गई हैं। नियुक्तियों में गुणस्थान की अवधारणा की अनुपस्थिति इस और संग्रहणियाँ वलभी वाचना के पूर्व की हैं अत: वे नैमित्तिक भद्रबाहु तथ्य का प्रमाण है कि उनकी रचना तीसरी-चौथी शती के पूर्व हई के स्थान पर लगभग तीसरी-चौथी शती के किसी अन्य भद्र नामक थी। इसका तात्पर्य यह है कि नियुक्तियाँ नैमित्तिक भद्रबाहु की रचना आचार्य की कृतियाँ हैं। नहीं है।
८. नियुक्तियों की सत्ता वलभी वाचना के पूर्व थी, तभी तो ४. साथ ही हम देखते हैं कि आचारांगनियुक्ति में आध्यात्मिक नन्दीसूत्र में आगमों की नियुक्तियों का उल्लेख है। पुनः अगस्त्यसिंह विकास की उन्हीं दस अवस्थाओं का विवेचन है६९ जो हमें तत्त्वार्थसूत्र की दशवैकालिकचूर्णि के उपलब्ध एवं प्रकाशित हो जाने पर यह बात में भी मिलती है और जिनसे आगे चलकर गुणस्थान की अवधारणा पुष्ट हो जाती है कि आगमिक व्याख्या के रूप में नियुक्तियाँ वलभी
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वाचना के पूर्व लिखी जाने लगी थीं। इस चूर्णि में प्रथम अध्ययन की दशवैकालिकनुिर्यक्ति की ५४ गाथाओं की भी चूर्णि की गई है। यह चूर्णि विक्रम की तीसरी चौथी शती में रची गई थी। इससे यह तथ्य सिद्ध हो जाता है कि नियुक्तियाँ भी लगभग तीसरी-चौथी शती की रचना हैं।
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ज्ञातव्य है कि नियुक्तियों में भी परवर्ती काल में पर्याप्त रूप से प्रक्षेप हुआ है, क्योंकि दशवैकालिक के प्रथम अध्ययन की अगस्त्यसिंहचूर्णि में मात्र ५४ नियुक्ति गाथाओं की चूर्णि हुई है, जबकि वर्तमान में दशवैकालिकनियुक्ति में प्रथम अध्ययन की नियुक्ति में १५१ गाथाएँ हैं। अतः निर्युक्तियाँ आर्यभद्रगुप्त या गौतमगोत्री रचनाएँ हैं।
इस सम्बन्ध में एक आपत्ति यह उठाई जा सकती है कि नियुक्तियाँ बलभी वाचना के आगमपाठों के अनुरूप क्यों है? इसका प्रथम उत्तर तो यह है कि नियुक्तियों का आगम पाठों से उतना सम्बन्ध नहीं है, जितना उनकी विषयवस्तु से है और यह सत्य है कि विभिन्न वाचनाओं में चाहे कुछ पाठ-भेद रहे हों किन्तु विषयवस्तु तो वही रही है और नियुक्तियाँ मात्र विषयवस्तु का विवरण देती हैं। पुनः नियुक्तियाँ मात्र प्राचीन स्तर के और बहुत कुछ अपरिवर्तित रहे आगमों पर हैं, सभी आगम ग्रन्थों पर नहीं है और इन प्राचीन स्तर के आगमों का स्वरूप निर्धारण तो पहले ही हो चुका था । माथुरीवाचना या वलभी वाचना में उनमें बहुत अधिक परिवर्तन नहीं हुआ है। आज जो नियुक्तियाँ हैं वे मात्र आचारांग, सूत्रकृतांग, आवश्यक, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, दशाश्रुतस्कन्ध, व्यवहार, बृहत्कल्प पर हैं। ये सभी ग्रन्थ विद्वानों की दृष्टि में प्राचीन स्तर के हैं और इनके स्वरूप में बहुत अधिक परिवर्तन नहीं हुआ है। अत: वलभीवाचना से समरूपता के आधार पर नियुक्तियों को उससे परवर्ती मानना उचित नहीं है।
उपर्युक्त समग्र चर्चा से यह फलित होता है कि नियुक्तियों के कर्त्ता न तो चतुर्दशपूर्वधर आर्य भद्रबाहु हैं और न वाराहमिहिर के भाई नैमित्तिक भद्रबाहु यह भी सुनिश्चित है कि नियुक्तियों की रचना छेदसूत्रों की रचना के पश्चात् हुई है। किन्तु यह भी सत्य है कि नियुक्तियों का अस्तित्व आगमों की देवर्द्धि के समय हुई वाचना के पूर्व था । अतः यह अवधारणा भी भ्रान्त है कि नियुक्तियों विक्रम की छठी सदी के उत्तरार्द्ध में निर्मित हुई हैं। नन्दीसूत्र एवं पाक्षिकसूत्र की रचना के पूर्व आगमिक नियुक्तियाँ अवश्य थीं।
अब यह प्रश्न उठता है कि यदि नियुक्तियों के कर्ता श्रुत केवली पूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु तथा वाराहमिहिर के भाई नैमित्तिक भद्रबाहु दोनों ही नहीं थे, तो फिर वे कौन से भद्रबाहु हैं जिनका नाम निर्युक्ति के कर्त्ता के रूप में माना जाता है। नियुक्ति के कर्त्ता के रूप में भद्रबाहु की अनुश्रुति जुड़ी होने से इतना तो निश्चित है कि नियुक्तियों का सम्बन्ध किसी “भद्र” नामक व्यक्ति से होना चाहिए और उनका अस्तित्व लगभग विक्रम की तीसरी चौथी सदी के आस-पास होना चाहिए। क्योंकि नियमसार में आवश्यक की नियुक्ति, मूलाचार में नियुक्तियों के अस्वाध्याय काल में भी पढ़ने का निर्देश तथा उसमें और भगवती
आराधना में नियुक्तियों की अनेक गाथाओं की नियुक्ति-गाथा के उल्लेख पूर्वक उपस्थिति, यही सिद्ध करती है कि नियुक्ति के कर्ता उस अविभक्त परम्परा के होने चाहिए जिससे श्वेताम्बर एवं यापनीय सम्प्रदायों का विकास हुआ है। कल्पसूत्र स्थाविरावली में जो आचार्य परम्परा प्राप्त होती है, उसमें भगवान् महावीर की परम्परा में प्राचीनगोत्रीय श्रुत- केवली भद्रबाहु के अतिरिक्त दो अन्य 'भद्र' नामक आचार्यों का उल्लेख प्राप्त होता है- १. आर्य शिवभूति के शिष्य काश्यपगोत्रीय आर्यभद्र और २. आर्य कालक के शिष्य गौतमगोत्रीय आर्यभद्र ।
संक्षेप में कल्पसूत्र की यह आचार्य परम्परा इस प्रकार हैमहावीर, गौतम, सुधर्मा जम्बू, प्रभव, शय्यम्भव, यशोभद्र, संभूति, विजय, भद्रबाहु ( चतुर्दशपूर्वधर), स्थूलभद्र (ज्ञातव्य है कि भद्रबाहु एवं स्थूलभद्र दोनों ही संभूतिविजय के शिष्य थे), आर्य सुहस्ति सुस्थित, इन्द्रदिन्न, आर्यदिन्न, आर्यसिंहगिरि, आर्यवज्र, आर्य वज्रसेन, आर्यरथ, आर्य पुष्यगिरि, आर्य फल्गुमित्र, आर्य धनगिरि, आर्यशिवभूति, आर्यभद्र (काश्यपगोत्रीय), आर्यकृष्ण, आर्यनक्षत्र, आर्यरक्षित, आर्यनाग, आर्यज्येष्ठिल, आर्यविष्णु, आर्यकालक, आर्यसंपलित, आर्यभद्र ( गौतमगोत्रीय), आर्यवृद्ध, आर्य संघपालित, आर्यहस्ती, आर्यधर्म, आर्यसिंह, आर्यधर्म, पाण्डिल्य (सम्भवत: स्कंदिल, जो माथुरी वाचना के वाचनाप्रमुख थे) आदि गाथाबद्ध जो स्थविरावली है उसमें इसके बाद जम्बू, नन्दिल, दुष्यगणि, स्थिरगुप्त, कुमारधर्म एवं देवर्द्धिक्षपकश्रमण के पाँच नाम और आते हैं। "
"
ज्ञातव्य है कि नैमित्तिक भद्रबाहु का नाम जो विक्रम की छठीं शती के उत्तरार्ध में हुए हैं, इस सूची में सम्मिलित नहीं हो सकता है क्योंकि यह सूची वीर निर्वाण सं. ९८० अर्थात् विक्रम सं. ५१० में अपना अन्तिम रूप ले चुकी थी।
"
इस स्थविरावली के आधार पर हमें जैन परम्परा में विक्रम की छठीं शती के पूर्वार्ध तक होने वाले भद्र नामक तीन आचार्य के नाम मिलते हैं- प्रथम प्राचीनगोत्रीय आर्य भद्रबाहु दूसरे आर्य शिवभूति के शिष्य काश्यपगोत्रीय आर्य भद्रगुप्त, तीसरे आर्य विष्णु के प्रशिष्य और आर्यकालक के शिष्य गौतमगोत्रीय आर्यभद्र। इनमें वराहमिहिर के भ्राता नैमितिक भद्रबाहु को जोड़ने पर यह संख्या चार हो जाती है। इनमें से प्रथम एवं अन्तिम को तो नियुक्तिकर्ता के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है, इस निष्कर्ष पर हम पहुँच चुके हैं। अब शेष दो रहते हैं - १. शिवभूति के शिष्य आर्यभद्रगुप्त और दूसरे आर्यकालक के शिष्य आर्यभद्र इनमें पहले हम आर्य धनगिरि के प्रशिष्य एवं आर्य शिवभूति के शिष्य आर्यभद्रगुप्त के सम्बन्ध में विचार करेगें कि क्या वे नियुक्तियों के कर्ता हो सकते हैं?
क्या आर्यभद्रगुप्त नियुक्तियों के कर्त्ता हैं?
नियुक्तियों को शिवभूति के शिष्य काश्यपगोत्रीय भद्रगुप्त की रचना मानने के पक्ष में हम निम्न तर्क दे सकते हैं
१. नियुक्तियों उत्तर भारत के निर्मन्य संघ से विकसित श्वेताम्बर एवं यापनीय दोनों सम्प्रदायों में मान्य रही हैं, क्योंकि यापनीय
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नियुक्ति साहित्य : एक पुनर्चिन्तन ग्रन्थ मूलाचार में न केवल शताधिक नियुक्ति गाथाएँ उदधृत हैं, अपितु में वस्त्र-पात्र के उल्लेख अधिक बाधक नहीं हैं। उसमें अस्वाध्याय काल में नियुक्तियों के अध्ययन न करने का निर्देश ४. चूँकि आर्यभद्र के निर्यापक आर्यरक्षित माने जाते हैं। नियुक्ति भी है। इससे फलित होता है कि नियुक्तियों की रचना मूलाचार से और चूर्णि दोनों से ही यह सिद्ध है कि आर्यरक्षित भी अचेलता के पूर्व हो चुकी थी। यदि मूलाचार को छठीं सदी की रचना भी मानें ही पक्षधर थे और उन्होंने अपने पिता को, जो प्रारम्भ में अचेल दीक्षा तो उसके पूर्व नियुक्तियों का अस्तित्व तो मानना ही होगा, साथ ही ग्रहण करना नहीं चाहते थे, योजनापूर्वक अचेल बना ही दिया था। यह भी मानना होगा कि नियुक्तियाँ मूलरूप में अविभक्त धारा में निर्मित चूर्णि में जो कटिपट्टक की बात है, वह तो श्वेताम्बर पक्ष की पुष्टि हुई थीं। चूँकि परम्परा भेद तो शिवभूति के पश्चात् उनके शिष्यों कौडिन्य हेतु डाली गयी प्रतीत होती है। और कोट्टवीर से हुआ है। अत: नियुक्तियाँ शिवभूति के शिष्य भद्रगुप्त भद्रगुप्त को नियुक्ति का कर्ता मानने के सम्बन्ध में निम्न कठिनाइयाँ की रचना मानी जा सकती है, क्योंकि वे न केवल अविभक्त धारा हैंमें हुए अपितु लगभग उसीकाल में अर्थात् विक्रम की तीसरी शती १. आवश्यकनियुक्ति एवं आवश्यकचूर्णि के उल्लेखों के अनुसार में हुए हैं, जो कि नियुक्ति का रचना काल है। ।
आर्यरक्षित भद्रगुप्त के निर्यापक (समाधिमरण कराने वाले) माने गये। २. पुन: आचार्य भद्रगुप्त को उत्तर-भारत की अचेल परम्परा । आवश्यकनियुक्ति न केवल आर्यरक्षित की विस्तार से चर्चा करती है, का पूर्वपुरुष दो-तीन आधारों पर माना जा सकता है। प्रथम तो कल्पसूत्र अपितु उनका आदरपूर्वक स्मरण भी करती है। भद्रगुप्त आर्यरक्षित की पट्टावली के अनुसार आर्यभद्रगुप्त आर्यशिवभूति के शिष्य हैं और से दीक्षा में ज्येष्ठ हैं, ऐसी स्थिति में उनके द्वारा रचित नियुक्तियों ये शिवभूति वही हैं जिनका आर्यकृष्ण से मुनि की उपधि (वस्त्र-पात्र) में आर्यरक्षित का उल्लेख इतने विस्तार से एवं इतने आदरपूर्वक नहीं के प्रश्न पर विवाद हुआ था और जिन्होंने अचेलता का पक्ष लिया आना चाहिए। यद्यपि परवर्ती उल्लेख एकमत से यह मानते हैं कि था। कल्पसूत्र स्थविरावली में आर्य कृष्ण और आर्यभद्र दोनों को आर्य आर्यभद्रगुप्त की निर्यापना आर्यरक्षित ने करवायी, किन्तु मूल गाथा शिवभूति का शिष्य कहा है। चूँकि आर्यभद्र ही ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें को देखने पर इस मान्यता के बारे में किसी को सन्देह भी हो सकता आर्यवज्र एवं आर्यरक्षित के शिक्षक के रूप में श्वेताम्बरों में और शिवभूति है, मूल गाथा निम्नानुसार हैके शिष्य के रूप में यापनीय परम्परा में मान्यता मिली है। पुनः "निज्जवण भगुत्ते वीसं पढणं च तस्स पुव्वगयं। आर्यशिवभूति के शिष्य होने के कारण आर्यभद्र भी अचेलता के पक्षधर पव्याविओ य भाया रक्खिअखमणेहिं जणओ अ"। होंगे और इसलिए उनकी कृतियाँ यापनीय परम्परा में मान्य रही होंगी।
- आवश्यकनियुक्ति, ७७६ । ३. विदिशा से जो एक अभिलेख प्राप्त हुआ है उसमें भद्रान्वय यहाँ “निज्जवण भद्दगुत्ते" में यदि 'भद्दगुत्ते' को आर्ष प्रयोग मानकर एवं आर्यकुल का उल्लेख है
कोई प्रथमाविभक्ति में समझे तो इस गाथा के प्रथम दो चरणों का शमदमवान चीकरत् (11) आचार्य- भद्रान्वयभूषणस्य अर्थ इस प्रकार भी हो सकता है- भद्रगुप्त ने आर्यरक्षित की निर्यापना शिष्यो ह्यसावार्यकुलोद्गतस्य (1) आचार्य- गोश की और उनसे समस्त पूर्वगत साहित्य का अध्ययन किया।
(जै.शि.सं. २, पृ० ५७) गाथा के उपर्युक्त अर्थ को स्वीकार करने पर तो यह माना जा सम्भावना यही है कि भद्रान्वय एवं आर्यकुल का विकास इन्हीं सकता है कि नियुक्तियों में आर्यरक्षित का जो बहुमान पूर्वक उल्लेख आर्यभद्र से हुआ हो। यहाँ के अन्य अभिलेखों में मुनि का है, वह अप्रासंगिक नहीं है। क्योंकि जिस व्यक्ति ने आर्यरक्षित की 'पाणितलभोजी' ऐसा विशेषण होने से यह माना जा सकता है कि निर्यापना करवायी हो और जिनसे पूर्वो का अध्ययन किया हो, वह यह केन्द्र अचेल धारा का था। अपने पूर्वज आचार्य भद्र की कृतियाँ उनका अपनी कृति में सम्मानपूर्वक उल्लेख करेगा ही। किन्तु गाथा होने के कारण नियुक्तियाँ यापनीयों में भी मान्य रही होगी। ओघनियुक्ति का इस दृष्टि से किया गया अर्थ चूर्णि में प्रस्तुत कथानकों के साथ या पिण्डनियुक्ति में भी जो कि परवर्ती एवं विकसित हैं, दो चार प्रसंगों एवं नियुक्ति गाथाओं के पूर्वापर प्रसंग को देखते हुए किसी भी प्रकार के अतिरिक्त कहीं भी वस्त्र-पात्र का विशेष उल्लेख नहीं मिलता है। संगत नहीं माना जा सकता है। चूर्णि में तो यही कहा गया है कि यह इस तथ्य का भी सूचक है कि नियुक्तियों के काल तक वस्त्र-पात्र आर्यरक्षित ने भद्रगुप्त की निर्यापना करवायी और आर्यवज्र से आदि का समर्थन उस रूप में नहीं किया जाता था, जिस रूप में परवर्ती पूर्वसाहित्य का अध्ययन किया। यहाँ दूसरे चरण में प्रयुक्त “तस्स" श्वेताम्बर सम्प्रदाय में हुआ। वस्त्र-पात्र के सम्बन्ध में नियुक्ति की मान्यता शब्द का सम्बन्ध आर्यवज्र से है, जिनका उल्लेख पूर्व गाथाओं में भगवती आराधना एवं मूलाचार से अधिक दूर नहीं है। आचारांगनियुक्ति किया गया है। साथ ही यहाँ ‘भद्दगुत्ते' में सप्तमी का प्रयोग है, जो में आचारांग के वस्त्रेषणा अध्ययन की नियुक्ति केवल एक गाथा में एक कार्य को समाप्त कर दूसरा कार्य प्रारम्भ करने की स्थिति में किया समाप्त हो गयी है और पात्रैषणा पर कोई नियुक्ति गाथा ही नहीं है। जाता है। यहाँ सम्पूर्ण गाथा का अर्थ इस प्रकार होगा- आर्यरक्षित अत: वस्त्र-पात्र के सम्बन्ध में नियुक्तियों के कर्ता आर्यभद्र की स्थिति ने भद्रगुप्त की निर्यापना (समाधिमरण) करवाने के पश्चात् (आर्यवज्र भी मथुरा के साधु-साध्वियों के अंकन से अधिक भिन्न नहीं है। अत: से) पूर्वो का समस्त अध्ययन किया है और अपने भाई और पिता नियुक्तिकार के रूप में आर्य भद्रगुप्त को स्वीकार करने में नियुक्तियों को दीक्षित किया। यदि आर्यरक्षित भद्रगुप्त के निर्यापक हैं और वे
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ही नियुक्तियों के कर्त्ता भी हैं, तो फिर नियुक्तियों में आर्यरक्षित द्वारा निर्यापन करवाने के बाद किये गये कार्यों का उल्लेख नहीं होना था। किन्तु ऐसा उल्लेख है, अतः नियुक्तियाँ काश्यपगोत्रीय भद्रगुप्त की कृति नहीं हो सकती हैं।
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२. दूसरी एक कठिनाई यह भी है कि कल्पसूत्र स्थविरावली के अनुसार आर्यरक्षित आर्यवज्र से ८ वीं पीढ़ी में आते हैं। अतः यह कैसे सम्भव हो सकता है कि ८ वीं पीढ़ी में होने वाला व्यक्ति अपने से आठ पीढ़ी पूर्व के आर्यवज्र से पूर्वो का अध्ययन करे। इससे कल्पसूत्र स्थविरावली में दिये गये क्रम में संदेह होता है, हालांकि कल्पसूत्र स्थविरावली एवं अन्य स्रोतों से इतना तो निश्चित होता है। कि आर्यभद्र आर्यरक्षित से पूर्व में हुए हैं। उसके अनुसार आर्यरक्षित आर्यभद्र गुप्त के प्रशिष्य सिद्ध होते हैं। यद्यपि कथानकों में आर्यरक्षित को तोषलिपुत्र का शिष्य कहा गया है। हो सकता है कि तोषलिपुत्र आर्यभद्रगुप्त के शिष्य रहे हो स्थविरावली के अनुसार आर्यभद्र के शिष्य आर्यनक्षत्र और उनके शिष्य आर्यरक्षित थे। चाहे कल्पसूत्र की स्थविरावली में कुछ अस्पष्टताएँ हों और दो आचार्यों की परम्परा को कहीं एक साथ मिला दिया गया हो, फिर भी इतना तो निश्चित है कि आर्यभद्र आर्यरक्षित से पूर्ववर्ती या ज्येष्ठ समकालिक हैं। ऐसी स्थिति में यदि नियुक्तियाँ आर्यभद्रगुप्त के समाधिमरण के पश्चात् की आर्यरक्षित के जीवन की घटनाओं का विवरण देती है, तो उन्हें शिवभूति के शिष्य काश्यपगोत्रीय आर्यभद्रगुप्त की कृति नहीं माना जा सकता।
।
यदि हम आर्यभद्र को ही नियुक्ति के कर्ता के रूप में स्वीकार करना चाहते हैं तो इसके अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है कि हम आर्यरक्षित, अन्तिम निह्नव एवं बोटिकों का उल्लेख करने वाली नियुक्ति गाथाओं को प्रक्षिप्त मानें। यदि आर्यरक्षित आर्यभद्रगुप्त के निर्वापक है तो ऐसी स्थिति में आर्यभद्र का स्वर्गवास बोर निर्वाण सं. ५६० के आस-पास मानना होगा, क्योंकि प्रथम तो आर्यरक्षित ने भद्रगुप्त की निर्यापना अपने युवावस्था में ही करवायी थी और दूसरे तब वीर निर्वाण सं. ५८४ (विक्रम की द्वितीय शताब्दी) में स्वर्गवासी होने वाले आर्यवज्र जीवित थे। अतः नियुक्तियों में अन्तिम निह्नव का कथन भी सम्भव नहीं लगता, क्योंकि अबद्धिक नामक सातवाँ निद्वय वीरनिर्वाण के ५८४ वर्ष पक्षात् हुआ है। अतः हमें न केवल आर्यरक्षित सम्बन्धी अपितु अन्तिम निह्रव एवं बोटिकों सम्बन्धी विवरण भी नियुक्तियों में प्रक्षिप्त मानना होगा। यदि हम यह स्वीकार करने को सहमत नहीं हैं, तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि काश्यपगोत्रीय आर्यभद्रगुप्त भी नियुक्तियों के कर्ता नहीं हो सकते है। अतः हमें अन्य किसी भद्र नामक आचार्य की खोज करनी होगी।
क्या गौतमगोत्रीय आर्यभट्ट नियुक्तियों के कर्त्ता हैं?
काश्यपगोत्रीय भद्रगुप्त के पश्चात् कल्पसूत्र पट्टावली में हमें गौतमगोत्रीय आर्यकालक के शिष्य और आर्य संपालित के गुरुभाई आर्यभद्र का भी उल्लेख मिलता है। यह आर्यभद्र आर्यविष्णु के
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प्रशिष्य एवं आर्यकालक के शिष्य हैं तथा इनके शिष्य के रूप में आर्यवृद्ध का उल्लेख है । यदि हम आर्यवृद्ध को वृद्धवादी मानते हैं, तो ऐसी स्थिति में ये आर्यभद्र, सिद्धसेन के दादा गुरु सिद्ध होते है यहाँ हमें यह देखना होगा कि क्या ये आर्यभद्र भी स्पष्ट संघभेद अर्थात् श्वेताम्बर, यापनीय और दिगम्बर सम्प्रदायों के नामकरण के पूर्व हुए हैं? यह सुनिश्चित है कि सम्प्रदाय भेद के पश्चात् का कोई भी आचार्य नियुक्ति का कर्ता नहीं हो सकता, क्योंकि नियुक्तियाँ यापनीय और श्वेताम्बर दोनों में मान्य है। यदि वे एक सम्प्रदाय की कृति होतीं तो दूसरा सम्प्रदाय उसे मान्य नहीं करता। यदि हम आर्य विष्णु को दिगम्बर पट्टावली में उल्लिखित आर्यविष्णु समझें तो इनकी निकटता अचेल परम्परा से देखी जा सकती है दूसरे विदिशा के अभिलेख में जिस भद्रान्वय एवं आर्य कुल का उल्लेख है उसका सम्बन्ध इन गौतमगोत्रीय आर्यभद्र से भी माना जा सकता है, क्योंकि इनका काल भी स्पष्ट सम्प्रदाय भेद एवं उस अभिलेख के पूर्व है दुर्भाग्य से इनके सन्दर्भ में आगमिक व्याख्या - साहित्य में कहीं कोई विवरण नहीं मिलता, केवल नाम साम्य के आधार पर हम इनके नियुक्तिकार होने की सम्भावना व्यक्त कर सकते हैं।
इनकी विद्वत्ता एवं योग्यता के सम्बन्ध में भी आगमिक उल्लेखों का अभाव है, किन्तु वृद्धवादी जैसे शिष्य और सिद्धसेन जैसे प्रशिष्य के गुरु विद्वान होंगे, इसमें शंका नहीं की जा सकती। साथ ही इनके प्रशिष्य सिद्धसेन का आदरपूर्वक उल्लेख दिगम्बर और यापनीय आचार्य भी करते हैं, अतः इनकी कृतियों को उत्तर भारत की अचेल परम्परा में मान्यता मिली हो, ऐसा माना जा सकता है ये आर्यरक्षित से पांचवीं पीढ़ी में माने गये हैं। अतः इनका काल इनके सी-डेढ़ सौ वर्ष पश्चात् ही होगा अर्थात् ये भी विक्रम की तीसरी सदी के उत्तरार्द्ध या चौथी के पूर्वार्द्ध में कभी हुए होगें। लगभग यही काल माथुरीवाचना का भी है। चूँकि माथुरीवाचना यापनीयों को भी स्वीकृत रही है, इसलिए इन कालक के शिष्य गौतमगोत्रीय आर्यभद्र को नियुक्तियों का कर्ता मानने में काल एवं परम्परा की दृष्टि से कठिनाई नहीं है।
यापनीय और श्वेताम्बर दोनों में नियुक्तियों की मान्यता के होने के प्रश्न पर भी इससे कोई बाधा नहीं आती, क्योंकि ये आर्यभद्र आर्य नक्षत्र एवं आर्य विष्णु की ही परम्परा के शिष्य हैं। सम्भव है कि दिगम्बर परम्परा में आर्यनक्षत्र और आर्यविष्णु की परम्परा में हुए जिन 'भद्रबाहु के दक्षिण में जाने के उल्लेख मिलते हैं, जिनसे अचेल धारा में भद्रान्वय और आर्यकुल का आविर्भाव माना जाता है, वे ये ही आर्यभद्र हों। यदि हम इन्हें नियुक्तियों का कर्ता मानते हैं, तो इससे नन्दीसूत्र एवं पाक्षिकसूत्र में जो नियुक्तियों के उल्लेख हैं वे भी युक्तिसंगत बन जाते हैं।
अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि नियुक्तियों के कर्ता आर्य नक्षत्र की परम्परा में हुए आर्य विष्णु के प्रशिष्य एवं आर्य संपालित के गुरु भ्राता गौतमगोत्रीय आर्यभद्र ही हैं। यद्यपि मैं अपने इस निष्कर्ष को अन्तिम तो नहीं कहता, किन्तु इतना अवश्य कहूँगा कि इन आर्यभद्र को नियुक्ति का कर्ता स्वीकार करने पर हम उन अनेक विप्रतिपत्तियों
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नियुक्ति साहित्य : एक पुनर्चिन्तन से बच सकते हैं, जो प्राचीनगोत्रीय पूर्वधर भद्रबाहु काश्यपगोत्रीय आशा है जैन विद्या के निष्पक्ष विद्वानों की अगली पीढ़ी इस आर्यभद्रगुप्त और वराहमिहिर के भ्राता नैमित्तिक भद्रबाह को नियुक्तियों दिशा में और भी अन्वेषण कर नियुक्ति साहित्य सम्बन्धी विभिन्न का कर्ता मानने पर आती हैं। हमारा यह दुर्भाग्य है कि अचेलधारा समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करेगी। प्रस्तुत लेखन में मुनि श्री में नियुक्तियाँ संरक्षित नहीं रह सकी, मात्र भगवती आराधना, मूलाचार पुण्यविजय जी का आलेख मेरा उपजीव्य रहा है। आचार्य हस्तीमल
और कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में उनकी कुछ गाथाएँ ही अवशिष्ट हैं। इनमें जी ने जैनधर्म के मौलिक इतिहास के लेखन में भी उसी का अनुसरण भी मूलाचार ही मात्र ऐसा ग्रन्थ है जो लगभग सौ नियुक्ति गाथाओं किया है। किन्तु मैं उक्त दोनों के निष्कर्षों से सहमत नहीं हो सका। का नियुक्ति गाथा के रूप में उल्लेख करता है। दूसरी ओर सचेल यापनीय सम्प्रदाय पर मेरे द्वारा ग्रन्थ लेखन के समय मेरी दृष्टि में धारा में जो नियुक्तियाँ उपलब्ध हैं, उनमें अनेक भाष्यगाथाएँ मिश्रित कुछ नई समस्याएँ और समाधान दृष्टिगत हुए और उन्हीं के प्रकाश हो गई हैं, अत: उपलब्ध नियुक्तियों में से भाष्य गाथाओं एवं प्रक्षिप्त में मैंने कुछ नवीन स्थापनाएँ प्रस्तुत की हैं, वे सत्य के कितनी निकट गाथाओं को अलग करना एक कठिन कार्य है, किन्तु यदि एक बार हैं, यह विचार करना विद्वानों का कार्य है। मैं अपने निष्कर्षों को अन्तिम नियुक्तियों के रचनाकाल, उसके कर्ता तथा उनकी परम्परा का निर्धारण सत्य नहीं मानता हूँ, अत: सदैव उनके विचारों एवं समीक्षाओं से हो जाये तो यह कार्य सरल हो सकता है।
लाभान्वित होने का प्रयास करूंगा। सन्दर्भ १. (अ) निज्जुत्ता ते अत्था, जं बद्धा तेण होइ णिज्जुत्ती।
११. गोविंदो... पच्छातेण एगिदिय जीव साहणं गोविंद निज्जुतिकया। - आवश्यकनियुक्ति, गाथा ८८ निशीथ भाष्य गाथा ३६५६, निशीथचूर्णि, भाग ३, पृ० २६०, (ब) सूत्रार्थयोः परस्परनियोजनं सम्बन्धनं नियुक्तिः
भाग-४, पृ० ९६। - आवश्यकनियुक्ति टीका हरिभद्र, गाथा ८३ की टीका। १२. नन्दीसूत्र, (सं. मधुकरमुनि) स्थविरावली गाथा ४१। २. अत्थाणं उग्गहणं अवग्गहं तह विआलणं इहं।
१३. (अ) प्राकृतसाहित्य का इतिहास, डॉ. जगदीश चन्द्र जैन,पृ० १९०। - आवश्यक निर्यक्ति.
(ब) जैनसाहित्य का बृहद् इतिहास, डॉ. मोहनलाल मेहता, पार्श्वनाथ ३. ईहा अपोह वीमंसा, मग्गणा य गवेसणा।
विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, भाग ३, पृ०६। सण्णा सई मई पण्णा सव्वं आभिनिबोहियं।।
१४. आवश्यकनियुक्ति, गाथा ८४-८५
- वही, १२॥ १५. वही, ८४। ४. आवस्सगस्स दसकालिअस्स तह उत्तरज्झमायारे।
१६. बहुरय पएस अव्वत्तसमुच्छादुगतिग अबद्धिया चेव। . सूयगडे निज्जुत्तिं वुच्छामि तहा दसाणं च।।
सत्तेए णिण्हणा खलु तित्थंमि उ वद्धमाणस्स।। कप्पस्स य निज्जुतिं ववहारस्सेव परमणि णस्स।
बहुरय जमालिपभवा जीवपएसा ये तीसगुत्ताओ। सूरिअपण्णत्तीए वुच्छं इसिभासियाणं च।।
अव्वत्ताऽऽसाढाओ सामुच्छेयाऽऽसमित्ताओ।। - वही, ८४-८५।
गंगाओ दोकिरिया छलुगा तरासियाण उप्पत्ती। ५. इसिभासियाइं (प्राकृत भारती, जयपुर), भूमिका, सागरमल जैन,
थेराय गोट्ठमाहिलपुट्ठमबद्धं परुविंति।। पृ० ९३।
सावत्थी उसभपुर सेयविया मिहिल उल्लुगातीरं। ६. बृहत्कथाकोष (सिंघी जैन ग्रन्थमाला) प्रस्तावना, ए.एन.उपाध्ये, पुरमिंतरंजि दसपुर-रहवीरपुरं च नगराई।। पृ०३१
चोद्दस सोलस वासा चोद्दसवीसुत्तरा य दोण्णि सया। आराधना... तस्या नियुक्तिराधनानियुक्तिः। -मूलाचार, पंचाचाराधिकार, अट्ठावीसा य दुवे पंचेव सया उ चोयाला।। गा. २७९ की टीका (भारतीय ज्ञानपीठ, १९८४)
पंच सया चुलसीया छच्चेव सया णवोत्तरा होति। ८. गोविन्दाणं पि नमो अणुओगे विउलधारणिंदाणं।
णाणुपत्तीय दुवे उप्पणा णिब्दुए सेसा।। - नन्दिसूत्र स्थविरावली, गा. ४१। एवं एए कहिया ओसप्पिणीए उ निण्हवा सत्त। ९. व्यवहारभाष्य, भाग ६, गा. २६७-२६८:
वीरवरस्स पवयणे सेसाणं पव्वयणे णत्थि।। १०. सो य हेउगोवएसो गोविन्दनिज्जुत्तिमादितो...।
- वही, ७७८-७८४। दरिसणप्पभावगाणि सत्थाणि जहा गोविंदनिज्जुत्तिमादी।
बहुरय जमालिपभवा जीवपएसा य तीसगुत्ताओ। - आवश्यकचूर्णि भाग१, पृ. ३१ एवं ३५३ भाग२, पृ० २०१, अव्वत्ताऽऽसाढाओ सामुच्छेयाऽऽसमित्ताओ।। ३२२।
गंगाए दोकिरिया छलुगा तेरासिआण उप्पत्ती।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
थेरा य गुट्ठमाहिलपुट्ठबद्धं परुविंति।। जिट्ठा सुदंसण जमालि अणुज्ज सावत्थि तिंदुगुज्जाणे। पंच सया य सहस्सं ढकेण जमालि मुत्तूणं।। रायगिहे गुणसिलए वसु चउदसपुचि तीसगुत्ताओ। आमलकप्पा नयरि मित्तसिरी कूरपिंडादि।। सियवियपोलासाढे जोगे तद्दिवसहिययसूले य। सोहम्मि नलिणगुम्मे रायगिहे पुरिय बलभद्दे ।। मिहिलाए लच्छिघरे महगिरि कोडिन्न आसमित्तो । णेउणमणुप्पवाए रायगिहे खंडरक्खा य।। नइखेडजणव उल्लग महगिरि धणगुत्त अज्जगंगे य। किरिया दो रायगिहे महातवो तीरमणिनाए।। पुरिमंतरंजि भुयगुह बलसिरि सिरिगुत्त रोहगुतते य। परिवाय पुट्टसाले घोसण पडिसेहणा वाए।। विच्छ्य सप्पे मूसग मिगी वराही य कागि पोयाई। एयाहिं विज्जाहिं सो उ परिव्वायगो कुसलो।। मोरिय नउलि बिराली वग्घी सीही य उलुगि ओवाइ। एयाओ विज्जाओ गिण्ह परिव्वायमहणीओ।। दसपुरनगरुच्छुघरे अज्जरक्खिय पुसमित्तत्तियगं च। गुट्ठामाहिल नव अट्ठ सेसपुच्छा य विंझस्स।। पुट्ठो जहा अबद्धो कंचुइणं कंचुओ समन्नेइ। एवं पुट्ठमबद्धं जीवं कम्मं समन्त्रेइ।। पच्चक्खाणं सेयं अपरिमाणेण होइ कायव्वं । जेसिं तु परीमाणं तं दुर्ल्ड होइ आसंसा।। रहवीरपुरं नयरं दीवगमुज्जाण अज्जकण्हे अ। सिवभूइस्सुवहिमि पुच्छा थेराण कहणा य।।
- उत्तराध्ययननियुक्ति, १६५-१७८। १८. वही, २९। १९. दशवैकालिकनियुक्ति, गाथा ३०९-३२६। २०. उत्तराध्ययननियुक्ति, २०७। २१. दशवैकालिकनियुक्ति, १६१-१६३। २२. आचारांगनियुक्ति, गाथा ५। २३. (अ) दशवैकालिकनियुक्ति, ७९-८८।
(ब) उत्तराध्ययननियुक्ति, १४३-१४४। २४. जो चेव होइ मुक्खो सा उ विमुत्ति पगयं तु भावेणं। देसविमुक्का साहू सव्वविमुक्का भवे सिद्धा।।
-आचारांगनियुक्ति, ३३१॥ २५. उत्तराध्ययननियुक्ति, ४९७-९२। २६. सूत्रकृतांगनियुक्ति, गाथा ९९। २७. दशवैकालिकनियुक्ति, गाथा ३। २८. सूत्रकृतांगनियुक्ति, १२७।
२९. उत्तराध्ययननियुक्ति, २६७-२६८। ३०. दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति, गाथा १। ३१. तहवि य कोई अत्यो उप्पज्जति तम्मि तंमि समयंमि। पुव्वभणिओ अणुमतो अ होइ इसिभासिएसु जहा।।
-सूत्रकृतांगनियुक्ति, १८९२। ३२क.बृहत्कल्पसूत्रम्, षष्ठ विभाग, प्रकाशक- श्री आत्मानन्द जैन सभा
भावनगर, प्रस्तावना, पृ० ४,५ ३३. वही आमुख, पृ० २ ३४क. मूढणइयं सुयं कालियं तु ण णया समोयरंति इहं।
अपुहुत्ते समोयारो, नस्थि पुहुत्ते समोयारो।।। जावंति अज्जवइरा, अपुहुत्तं कालियाणुओगे य। तेणाऽऽरेण पुहत्तं, कालियसुय दिट्ठिवाए य।।
- आवश्यकनियुक्ति, गाथा ७६२-७६३। (ख) तुंबवणसन्निवेसाओ, निग्गयं पिउसगासमल्लीणं।
छम्मासियं छसु जयं, माऊय समन्त्रियं वंदे।। जो गुज्झएहिं बालो, निमंतिओ भोयणेण वासंते। णेच्छइ विणीयविणओ, तं वइररिसिं णमंसामि।। उज्जेणीए जो जंभगेहिं आणक्खिऊण थुयमहिओ। अक्खीणमहाणसियं सीहगिरिपसंसियं वंदे।। जस्स अणुण्णाए वायगत्तणे दसपुरम्मि णयरम्मि। देवेहिं कया महिमा, पयाणुसार णमसामि।। जो कन्नाइ घणेण य, णिमंतिओ जुव्वणम्मि गिहवइणा। नयरम्मि कुसुमनामे, तं बइररिसिं णमंसामि।। जणुद्धारआ विज्जा, आगासगमा महारिण्णाओ। वंदामि अज्जवइरं, अपच्छिमो जो सुयहराणं।।
- वही, गाथा ७६४-७६९। अपहुत्ते अणुओगो, चत्तारि दुवार भासई एगो। पुहुताणुओगकरणे, ते अत्थ तओ उ वोच्छिन्त्रा।। देविंदवंदिएहिं, महाणुभागेहि रक्खिअज्जेहिं। जुगमासज्ज विभत्तो, अणुओगो तो कओ चउहा।। माया य रुद्दसोमा, पिया य नामेण सोमदेव त्ति। भाया य फग्गुरक्खिय, तोसलिपुत्ता य आयरिआ।। णिज्जवणभद्गुत्ते, वीसं पढणं च तस्स पुवगर्य। पव्वाविओ य भाया, रक्खिअखमणेहिं जणओ य।।
-वही, गाथा ७७३-७७६। ३५. जह जह पएसिणी जाणुगम्मि पालित्तओ भमाडेइ। तह तह सीसे वियणा, पणस्सइ मुरुंडरायस्स।।
-पिण्डनियुक्ति, गाथा- ४९८॥ ३६. नइ कण्ह-विन्न दीवे, पंचसया तावसाण णिवसंति।
पव्वदिवसेसु कुलवइ, पालेवुत्तार सक्कारे।।
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नियुक्ति साहित्य : एक पुनर्चिन्तन जण सावगाण खिसण, समियक्खण माइठाण लेवेण।
अट्ठावीसो य दुवे पंचेव सया उ चोयाला।। सावय पयत्तकरणं, अविणय लोए चलण धोए।।
- आवश्यकनियुक्ति, गाथा ८१-८२ पडिलाभिय वच्चंता, निव्वुड निइकूलमिलण समियाओ। ५२. रहवीरपुरं नयरं दीवगमुज्जाण अज्जकण्हे अ। विम्हिय पंच सया तावसाण पव्वज्ज साहा य।।
सिवभूइस्सुवहिमि पुच्छा थोराण कहणा य।। ---पिण्डनियुक्ति, गाथा ५०३-५०५।
- उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा १७८ ३७. (अ) वही, गाथा ५०५
५३. स्वयं चतुर्दशपूर्वित्वेऽपि यच्चतुर्दशपू[पादानं तत् तेषामपि (ब) नन्दीसूत्र स्थविरावली गाथा, ३६
षट्स्थानपतितत्वेन शेषमाहात्म्यस्थापनपरमदुष्टमेव, भाष्यगाथा वा (स) मथुरा के अभिलेखों में इस शाखा का उल्लेख ब्रह्मदासिक शाखा
द्वारगाथाद्वयादारभ्य लक्ष्यन्त इति प्रेर्यानवकाश एवेति।। के रूप में मिलता है।
-उत्तराध्ययन टीका, शान्त्याचार्य, गाथा २३३ ३८. उज्जेणी कालखमणा सागरखमणा सुवण्णभूमीए।
५४. एगभविए य बद्धाउए य अभिमुहियनामगोए य। इंदो आउयसेसं, पुच्छइ सादिव्वकरणं च।।
एते तिन्निवि देसा दव्वंमि य पांडरीयस्स।। - उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा ११९।
- सूत्रकृतांगनियुक्ति, गाथा १४६ ३९. अरहते वंदित्ता चउदसपुव्वी तहेव दसपुव्वी।
५५. ये चादेशाः यथा—आर्यमनाचार्यस्त्रिविधं शङ्खमिच्छति- एकभविकं
बद्धायुष्कमभिमुखनामगोत्रं च, आर्यसमुद्रो द्विविधम्– बद्धायुष्कमएक्कारसंगसुत्तत्थधारए सव्वसाहू य।। - ओघनियुक्ति, गाथा १।
भिमुखनामगोत्रं च, आर्यसुहस्ती एकम्- अभिमुखनाम गोत्रमिति; ४०. श्रीमती ओघनियुक्ति, संपादक- श्रीमद्विजयसूरीश्वर, प्रकाशन- जैन
- बृहत्कल्पसूत्रम्, भाष्य भाग१, गाथा १४४ ग्रन्थमाला, गोपीपुरा, सूरत, पृ० ३-४
५६. वही, षष्ठविभाग, पृ० सं. १५-१७। ४१. जेणुद्धरिया विज्जा आगासगमा महापरिन्नाओ।
५७. आवश्यकनियुक्ति, गाथा १२५२-१२६०। वंदामि अज्जवइरं अपच्छिमो जो सुअहराणं।।
५८. वही, गाथा ८५। - आवश्यकनियुक्ति गाथा, ७६९
५९. जत्थ य जो पण्णवओ कस्सवि साहइ दिसासु य णिमित्तं।
५९. जत्थ य जा पण्णवआ कस्साव साहइ दिसासु या ४२. आवश्यकनियुक्ति, गाथा ७६३-७७४।
जत्तोमुहो य ढाई सा पुव्वा पच्छवो अवरा।।
- आचारांगनियुक्ति, गाथा ५१ ४३. अपहुत्तपुहुत्ताइं निद्दिसिउं एत्य होइ अहिगारो। चरणकरणाणुओगेण तस्स दारा इमे हुंति।।
६०. सप्ताश्विवेदसंख्य, शककालमपास्य चैत्रशुक्लादौ। -दशवैकालिक नियुक्ति, गाथा ४
अर्धास्तमिते भानौ, यवनपुरे सौम्यदिवसाये।। ४४. ओहेण उ निज्जुत्तिं वुच्छं चरणकरणाणुओगाओ।
- पंचसिद्धान्तिका, उद्धृत बृहत्कल्पसूत्रम्, भाष्य षष्ठविभाग,
प्रस्तावना, पृ० १७ अप्पक्खरं महत्थं अणुग्गहत्थं सुविहियाणं।।
-ओघनियुक्ति, गाथा २
६१. बृहत्कल्पसूत्रम्, षष्ठविभाग, प्रस्तावना, पृ० १८ ४५. आवश्यकनियुक्ति, गाथा ७७८-७८३।
६२. गोविंदो नाम भिक्खू... ४६. उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा १६४-१७८।
पच्छा तेण एगिदियजीवसाहणं गोविंदनिज्जुत्ती कया।। एस नाणतेणो।। ४७. एगभविए य बद्धाउए य अभिमुहियनामगोए य।
-निशीथचूर्णि, भाग ३, उद्देशक ११, सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, पृ०
२६०। एते तित्रिवि देसा दव्वंमि य पोंडरीयस्स।।
६३. (अ) गोविंदाणं पि नमो, अणुओगे विउलधारणिंदाणं। -सूत्रकृतांगनियुक्ति, गाथा १४६।
णिच्चं खंतिदयाणं परूवणे दुल्लभिंदाणं।। ४८. उत्तराध्ययन टीका शान्त्याचार्य, उद्धृत बृहत्कल्पसूत्रम् भाष्य, षष्ठ
- नन्दीसूत्र, गाथा ८१ विभाग प्रस्तावना, पृ० १२। ४९. वही, पृ० २।
(ब) आर्य स्कंदिल ५०. बृहत्कल्पसूत्रम्, भाष्य षष्ठविभाग, आत्मानन्द जैन सभा, भावनगर,
आर्य हिमवंत पृ०, ११। ५१. सावत्थी उसभपर सेयविया मिहिल उल्लुगातीरं।
आर्य नागार्जुन पुदिमंतरंजि दसपुर रहवीरपुरं च नगराई।। चोद्दस सोलस बासा चोद्दसवीसुत्तरा य दोण्णि सथा।
आर्य गोविन्द
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देखें नन्दीसूत्र स्थविरावली, गाथा ३६-४१। ६४. पच्छा ते एगिदियजीवसाहणं गोविंदणिज्ती कया। एस णाणतेणो
एव दंसणपभावगसत्यट्ठा।
निशीषचूर्णि पृ० २६०
६५. निण्हयाण वत्तव्वया भाणियव्वा जहा सामाइयनिज्जुत्तीए । उत्तराध्ययनचूर्णि जिनदासगणिमहत्तर, विक्रम संवत् १९८९, पृ० ९५ ।
६६. इदाणिं एतेसिं कालो भण्णति चउदस सोलस बीसा' गाहाउ दो, इदाणिं भण्णति
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
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'चोदस वासा तइया' गाथा अस्खाणयसंग्रहणी। वही, पृ० ९५ । ६७. मिच्छीि सासायणे य तह सम्ममिच्छदिट्ठी य
अविरयसम्मद्दिट्ठी विरयाविरए पमत्ते य । ।
तत्तो य अप्पमत्तो नियट्ठि अनियट्ठि बायरे हुमे । उवसंत खीणमोहे होइ सजोगी अजोगी ।।
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आवश्यकनिर्युक्ति, (निर्युक्तिसंग्रह, पृ० १४० ) ६८. आवश्यकनिर्युक्ति (हरिभद्र) भाग २, प्रकाशक श्री भेरुलाल कन्हैया लाल कोठारी धार्मिक ट्रस्ट, मुम्बई, वीर सं. २५०८, पृ० १०६१०७/
६९. सम्मनुपती सावए व विरए अनंतकम्मसे।
दंसणमोहक्खव उवसामंते य उवसते ।।
खवए य खीणमोहे जिणे अ सेढी भवे असंखिज्जा । तव्विवरीओ कालो संखज्जगुणाइ सेढीए । ।
- आचारांगनिर्युक्ति, गाथा २२२-२२३ (निर्युक्तिसंग्रह, पृ०४४१) ७०. सम्यग्दृष्टिश्रावक विरतानन्तवियोजकदर्शनमोहरूपकोपशमकोपशान्त
मोहक्षपकक्षीणमोहजिना: क्रमशोऽसंख्येयगुण निर्जराः ।। तत्त्वार्थसूत्र (उमास्वाति) सुखलाल संघवी, ९.४७। ७१. णिती ती एसा कहिदा मए समासेण । अह वित्वार पंसगोऽणियोगदो होदि नादव्वो ।। आवासगणिती एवं कधिदा समासओ विहिणा । णो उवर्जुजदि णिच्च सो सिद्धिं जादि विसुद्धप्या
- मूलाचार (भारतीय ज्ञानपीठ) ६९१-६९२ । एसो अण्णो गंथो कप्पदि पढिदुं असज्झाए । आराहणा णिज्जुत्ति मरणविमत्ती य संगहत्थुदिओ । पच्चक्खाणावसय धम्मकहाओ एरिस ओ ।।
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• मूलाचार, २७८-२७९ । (ब) ण वसो अवसो अवसस्सकम्ममावस्सयति बोधव्या । जुति ति उपाअंति ण निरवयको होदि णिज्जुती ।।
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७२.
ण वसो अवसो अवसस्स कम्म वावस्सयं ति बोधव्वा । जुत्ति त्ति उवाअंति य णिरवयवो होदि णिजुत्ती ।।
- नियमसार, गाथा १४२, लखनऊ, १९३१ । ७३. देखें- कल्पसूत्र स्थविरावली विभाग ७४. देखें- मूलाचार षडावश्यक अधिकार ।
७५. धेरस्स णं अज्ज विन्दुस्समादरस्सस्स अज्जकाल धेरे अंतेवासी गोयमसगुत्ते वेरस्सणं अज्जकालस्स गोयमसगुत्तस्स इमे दुवे येरा अंतेवासी गोयमससे अज्ज संपलिए धेरै अज्जमद्दे, एएसि दुन्हवि गोयमसगुत्ताणं अज्ज बुढे थेरे ।
कल्पसूत्र (मुनि प्यारचन्दजी, रतलाम) स्थविरावली, पृ० २३३॥
मूलाचार, ५१५१
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आचारांगसूत्र एक विश्लेषण
आचारांगसूत्र जैन आगम साहित्य का एक प्राचीनतम ग्रन्थ है, यह अर्धमागधी में लिखा गया है, किन्तु इसके प्रथम और द्वितीय श्रुतस्कन्ध की भाषा एक दूसरे से पूर्णतया भिन्न है। जहाँ प्रथम श्रुतस्कन्ध में अर्धमागधी का प्राचीनतम रूप परिलक्षित होता है वहाँ द्वितीय श्रुतस्कन्ध प्रथम श्रुतस्कन्ध की अपेक्षा भाषा की दृष्टि से परवर्ती और विकसित लगता है। यद्यपि आचारांग मूलतः अर्धमागधी प्राकृत का ग्रन्थ है किन्तु उस पर महाराष्ट्री प्राकृत का प्रभाव आ गया है फिर भी प्रथम श्रुतस्कन्ध में यह प्रभाव नगण्य ही है। मेरी दृष्टि में इस प्रभाव का कारण मूलतः एक लम्बी अवधि तक इसका मौखिक बना रहना है। यह भी सम्भव है कि जो अंश स्पष्ट रूप से और सम्पूर्ण रूप से महाराष्ट्री के हैं वे बाद में जोड़े गये हों। यद्यपि इस सम्बन्ध में निश्चयात्मक रूप से कुछ भी कह पाना कठिन है। फिर भी भाषा सम्बन्धी इस प्रभाव का कारण उपर्युक्त दोनों विकल्पों में से ही है । प्रथम श्रुतस्कन्ध मूलतः औपनिषदिक सूत्रात्मक शैली में लिखा गया है जबकि दूसरा मुख्य रूप से विवरणात्मक और पद्यरूप में है। प्रथम श्रुतस्कन्ध की जो भाषा है वह गद्य और पद्य दोनों से भिन्न है। यद्यपि प्रथम श्रुतस्कन्ध में भी पद्य कुछ आ गये हैं फिर भी उसकी सूत्रात्मक शैली दूसरे श्रुतस्कन्ध की शैली से भिन्न है। हमें तो ऐसा लगता है। कि प्राकृत अन्धों की रचना में सर्वप्रथम आचारांग की प्रथम श्रुतस्कन्ध की सूत्रात्मक शैली का विकास हुआ, फिर सहज पद्म लिखे जाने लगे, फिर उसके बाद विकसित स्तर के गद्य लिखे गये भाषा और शैली के विकास की दृष्टि से आचारांग के दोनों श्रुतस्कन्धों में लगभग तीन शताब्दियों का अन्तर तो अवश्य रहा होगा। आचारांग में आचार के सिद्धान्तों और नियमों के लिये जिस मनोवैज्ञानिक आधारभूमि और मनोवैज्ञानिक दृष्टि को अपनाया गया है, वह तुलनात्मक अध्ययन के लिये अद्भुत आकर्षण का विषय है।
आचारांगसूत्र का प्रतिपाद्य विषय श्रमण-आचार का सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक पक्ष है। चूंकि मानवीय आचार मन और बुद्धि से निकट रूप से जुड़ा हुआ है, अतः यह स्वाभाविक है कि आचार के सम्बन्ध में कोई भी प्रामाणिक चिन्तन मनोवैज्ञानिक सत्यों को नकार कर आगे नहीं बढ़ सकता है। हमें क्या होना चाहिये - यह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि हम क्या हैं और क्या हो सकते हैं? हमारी क्षमताएं एवं सम्भावनाएं क्या है? आचरण के किसी साध्य और सिद्धान्त का निर्धारण साधक की मनोवैज्ञानिक प्रकृति को समझे बिना सम्भव नहीं है। हमें यह देखना है कि आचारांग में आचार के सिद्धान्तों एवं नियमों के प्रतिपादन में किस सीमा तक इस दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक एवं समाजशास्त्रीय दृष्टि का परिचय दिया गया है।
अस्तित्व सम्बन्धी जिज्ञासा: मानवीय बुद्धि का प्रथम प्रश्न आचारांगसूत्र के उत्थान में ही हमें उसकी दार्शनिक दृष्टि का
परिचय मिल जाता है। सूत्र का प्रारम्भ ही अस्तित्व सम्बन्धी मानवीय जिज्ञासा से होता है। पहला ही प्रश्न है
अत्थि मे आया उववाइए, नत्थि मे आया उववाइए । के अ' आसी के वा इओ चुओ इ पेच्चा भविस्सामि । । १/१/१/३ इस जीवन के पूर्व मेरा अस्तित्व था या नहीं अथवा इस जीवन के पश्चात् मेरी सत्ता बनी रहेगी या नहीं? मैं क्या था और मृत्यु के उपरान्त किस रूप में होऊंगा? यही अपने अस्तित्व का प्रश्न मानवीय जिज्ञासा और मानवीय बुद्धि का प्रथम प्रश्न है, जिसे सूत्रकार ने सर्व प्रथम उठाया है। मनुष्य के लिये मूलभूत प्रश्न अपने अस्तित्व या सत्ता का ही है। धार्मिक एवं नैतिक चेतना का विकास भी इसी अस्तित्वबोध या स्वरूप-बोध पर आधारित है मनुष्य की जीवन-दृष्टि क्या और कैसी होगी, यह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि अपने अस्तित्व, अपनी सत्ता और स्वरूप के प्रति उसका दृष्टिकोण क्या है ? पाप और पुण्य अथवा धर्म और अधर्म की सारी मान्यताएँ अस्तित्व की धारणा पर ही खड़ी हुई हैं। इसीलिये सूत्रकार ने कहा है कि जो इस " अस्तित्व" या स्व-सत्ता को जान लेता है वही आत्मवादी है, लोकवादी है, मवादी है और क्रियावादी है (सोहं से आयाबाई लोगाबाई कम्मवाई किरियाबाई १।१।१।४-५ ) व्यक्ति के लिये मूलभूत और सारभूत तत्त्व उसका अपना अस्तित्व ही है, और सत्ता या अस्तित्व के इस मूलभूत प्रश्न को उठाकर ग्रन्थकार ने अपनी मनोवैज्ञानिक दृष्टि का परिचय दिया है आधुनिक मनोविज्ञान में भी जिजीविषा और जिज्ञासा मानव की मूल प्रवृत्तियाँ मानी गयी हैं।
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सत्य की खोज में सन्देह (दार्शनिक जिज्ञासा) का स्थान
यह कितना आर्यजनक है कि आचारांग श्रद्धा के स्थान पर संशय को सत्य की खोज का एक आवश्यक चरण मानता है। सम्भवतया ऐसा प्रतीत होता है कि जैनधर्म के आरम्भिक काल में श्रद्धा का तत्त्व इतना प्रमुख नहीं था। आचारांग में "णिक्खित्तदंडाणं समाहियाणं पन्नाणमंताणं इह मुत्तिमग्गं" (१।६।१) कहकर समाधि एवं प्रज्ञा के रूप में जिस मुक्ति मार्ग का विधान हुआ है, वह स्वयं इस बात का संकेत करता है कि उस समय तक दर्शन या सम्यग्दर्शन शब्द श्रद्धा का सूचक नहीं था। यद्यपि आचारांग में दंसण और सम्मतदंसी शब्दों का प्रयोग देखा जाता है, किन्तु मेरी दृष्टि में कहीं भी इसका प्रयोग श्रद्धा के अर्थ में नहीं हुआ है। अधिक से अधिक ये शब्द "दृष्टिकोण" या "सिद्धान्त" के अर्थ में प्रयुक्त हुये हैं, जैसे—एवं पासगस्स दंसणं (१।३।४) । वस्तुतः मनोवैज्ञानिक दृष्टि से किसी भी धार्मिक आन्दोलन में श्रद्धा का तत्त्व उसके परवर्ती युग में जबकि वह कुछ विचारों एवं मान्यताओं से आबद्ध हो जाता है, अधिक महत्त्वपूर्ण बन जाता है।
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६२
आचारांग में संशय का जो स्थान स्वीकार किया गया है वह दार्शनिक दृष्टि से काफी उपयोगी है। मानवीय जिज्ञासावृत्ति को महत्त्व देते हुए तो यहाँ तक कहा गया है कि "संसय परिआगओ संसारे परिनये (१।५।१) " अर्थात् संशय के ज्ञान से ही संसार का ज्ञान होता है। आज समस्त वैज्ञानिक ज्ञान के विकास में संशय (जिज्ञासा) की पद्धति को आवश्यक माना गया है। संशय की पद्धति को आज एक वैज्ञानिक पद्धति के रूप में मान्यता प्राप्त है। ज्ञान के क्षेत्र में प्रगति का यही एकमात्र मार्ग है, जिसे सूत्रकार ने पूरी तरह समझा है। ज्ञान के विकास की यात्रा सन्देह ( जिज्ञासा) से ही प्रारम्भ होती है, क्योंकि संशय के स्थान पर श्रद्धा आ गयी तो विचार का द्वार ही बन्द हो जाएगा, वहाँ ज्ञान की प्रगति कैसे होगी? संशय विचार के द्वार को उद्घाटित करता है । विचार या चिन्तन से विवेक जागृत होता है, ज्ञान के नये आयाम प्रकट होने लगते हैं। आचारांग ज्ञान की विकास यात्रा के मूल में सन्देह को स्वीकार करके चलता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से जो यात्रा सन्देह से प्रारम्भ होती है, अन्त में श्रद्धा तक पहुँच जाती है। अपना समाधान पाने पर सन्देह की परिणति श्रद्धा में हो सकती है। इससे ठीक विपरीत समाधान-रहित अन्धश्रद्धा की परिणति सन्देह में होगी। जो सन्देह से चलेगा अन्त में सत्य को पाकर श्रद्धा तक पहुँच जाएगा, जबकि जो श्रद्धा से प्रारम्भ करेगा वह या तो आगे कोई प्रगति ही नहीं करेगा या फिर उसकी श्रद्धा खण्डित होकर सन्देह में परिणत हो जायगी । यह है आचारांग की दार्शनिक दृष्टि का परिचय |
जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६
आत्मा के स्वरूप का विश्लेषण
आत्मा के स्वरूप या स्वभाव का विवेचन करते हुए सूत्रकार ने स्पष्ट रूप से कहा है- जे आया से विन्नाया, जे विन्नाया से आया। जेण वियाण से आया। तं पडुच्च पडिसंखाये - १1५1५1 इस प्रकार वह ज्ञान को आत्म-स्वभाव या आत्म-स्वरूप बताता है। जहाँ आधुनिक मनोविज्ञान चेतना के ज्ञान, अनुभूति और संकल्प ऐसे तीन लक्षण बताता है, वहाँ आचारांग केवल आत्मा के ज्ञान लक्षण पर बल देता है। स्थूल दृष्टि से देखने पर यही दोनों में अन्तर प्रतीत होता है, किन्तु अनुभूति (वेदना) और संकल्प यह दोनों लक्षण शरीराश्रितद्धामा के हैं, अतः ज्ञान ही प्रथम लक्षण सिद्ध होता है। वैसे आचारांगसूत्र में तथा परवर्ती जैन ग्रन्थों में भी मनोविज्ञान सम्मत इन तीनों लक्षणों को देखा जा सकता है, फिर भी आचारांगसूत्र का आत्मा के विज्ञाता स्वरूप पर बल देने का एक विशिष्ट मनोवैज्ञानिक कारण है, क्योंकि आत्मा की अनुभूत्यात्मक एवं संकल्पात्मक अवस्था में पूर्णतः समभाव या समाधि की उपलब्धि सम्भव नहीं है, जब तक सुख-दुःखात्मक वेदना की अनुभूति है या संकल्प-विकल्प का चक्र चल रहा है, आत्मा पर भाव में स्थित होता है, वित्त समाधि नहीं रहती है। आत्मा का स्वरूप या स्वभाव धर्म तो समता है, जो केवल उसके ज्ञाता-द्रष्टा रूप में स्वरूपतः उपलब्ध होता है वेदक और कर्ता रूप में वह स्वरूपतः उपलब्ध नहीं है।
मन का ज्ञान
साधना का प्रथम चरण
निर्ग्रन्थ साधक के लक्षणों का विवेचन करते हुए सूत्रकार कहता है जो मणं परिजाणई से निग्गंधे जे मणे अपावए - २।१५।४५ ॥ जो मन को जानता है और उसे अपवित्र नहीं होने देता है, वही निर्ग्रन्थ है, इस प्रकार निर्ग्रन्थ श्रमण की साधना का प्रथम चरण है मन को जानना और दूसरा चरण है मन को अपवित्र नहीं होन देना। मन की शुद्धि भी स्वयं मनोवृत्तियों के ज्ञान पर निर्भर है। मन को जानने का मतलब है अन्दर झांककर अपनी मनोवृत्तियों को पहचानना, मन की प्रन्थियों को खोजना, यही साधना का प्रथम चरण है। रोग का ज्ञान और उसका निदान उससे छुटकारा पाने के लिये आवश्यक है। आधुनिक मनोविज्ञान की मनोविश्लेषण विधि में भी मनोग्रन्थियों से
मुक्त होने के लिये उनको जानना आवश्यक माना गया है। अन्तर्दर्शन और मनोविश्लेषण आधुनिक मनोविज्ञान की महत्त्वपूर्ण विधियाँ हैं, आचारांग में उन्हें निर्मन्थ साधना का प्रथम चरण बताया गया है। वस्तुतः आचारांग की साधना अप्रमत्तता की साधना है और यह अप्रमत्तता अपनी चित्तवृत्तियों के प्रति सतत् जागरूकता है । चित्तवृत्तियों का दर्शन सम्यग्दर्शन है, स्वस्वभाव में रमना है आधुनिक मनोविज्ञान जिस प्रकार मानसिक स्वास्थ्य के लिये मनोग्रन्थियों को तोड़ने की बात कहता है उसी प्रकार जैन दर्शन भी आत्मशुद्धि के लिए ग्रंथि भेद की बात कहता है । ग्रन्थि, ग्रन्थि-भेद और निर्ग्रन्थ शब्दों के प्रयोग स्वयं आचारांग की मनोवैज्ञानिक दृष्टि के परिचायक हैं। वस्तुतः ग्रन्थियों से मुक्ति ही साधना का लक्ष्य है— गंथेहिं विवत्तेहिं आउकालस्स पारए - ११८ | ८ | ११ | जो ग्रन्थियों से रहित है वही निर्मन्य है। निर्मन्थ होने का अर्थ है, राग-द्वेष या आसक्ति रूपी गाँठ का खुल जाना जीवन में अन्दर और बाहर से एकरूप हो जाना, मुखौटों की जिन्दगी से दूर हो जाना, क्योंकि प्रन्थि का निर्माण होता है रागभाव से आसक्ति से, मायाचार या मुखौटों की जिन्दगी से। इस प्रकार आचारांग एक मनोवैज्ञानिक सत्य को प्रस्तुत करता हैं। आचारांग के अनुसार बन्धन और मुक्ति के तत्व बाहरी नहीं, आन्तरिक हैं। वह स्पष्ट रूप से कहता है कि - 'बंधप्यमोक्खो तुज्झ अज्झत्थेव – १२५|२| बन्धन और मोक्ष हमारे अध्यवसायों किंवा मनोवृत्तियों पर निर्भर हैं। मानसिक बन्धन ही वास्तविक बन्धन है वे गाँठें जिन्होंने हमें बाँध रखा है, वे हमारे मन की ही गांठें हैं। वह स्पष्ट उद्घोषणा करता है कि - "कामेसु गिद्धा निचयं करेति " १।३।२। कामभागों के प्रति आसक्ति से ही बन्धन की सृष्टि होती है। वह गाँठ जो हमें बाँधती है, आसक्ति की गांठ है, ममत्व की गाँठ है, अज्ञान की गाँठ है। इस आसक्ति से प्रत्युत्पन्न हिंसा व्यक्ति की और संसार की सारी पीड़ाओं का मूल स्रोत है। यही जीवन में नरक की सृष्टि करती है, जीवन को नारकीय बनाती है। एस खलु गंधे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु निरए१ । १ । २ । आचारांग के अनुसार विषय भोग के प्रति जो आतुरता है, वही समस्त पीड़ाओं की जननी है (आतुरा परितावेति - १।१।२ । ) यहाँ हमें स्पष्ट रूप से विश्व की समस्त पीड़ाओं का एक मनोवैज्ञानिक
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आचारांगसूत्र : एक विश्लेषण विश्लेषण प्राप्त होता है। सूत्रकार स्पष्ट रूप से कहता है कि-"आसं वह मोह (अविद्या) को देख लेता है, और जो मोह को देखता है च छंदं च विगिंच धीरे। तुमंच चेव तं सल्लमाहट्ट-१२।४। हे धीर वह गर्भ (भावी जन्म) को देखता है और जो गर्भ को देखता है वह पुरुष! विषय भोगों की आकांक्षा और तत्संबंधी संकल्प-विकल्पों का जन्म-मरण की प्रक्रिया को देख लेता है। इस प्रकार एक कषाय का परित्याग करो। तुम स्वयं इस काँटे को अपने अन्त:करण में रखकर सम्यक् विश्लेषण उससे संबंधित अन्य कषायों का तथा उनके दुःखी हो रहे हो। इस प्रकार आचारांग बन्धन, पीड़ा या दुःख के। परिणामों और कारणों का सम्यक् बोध करा देता है (१।३।४); प्रति एक आत्मनिष्ठ एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। वह क्योंकि सभी मनोवृत्तियाँ परस्पर सापेक्ष होकर रहती हैं। जहाँ मोह कहता है-जे आसवा ते परिस्सवा जे परिस्सवा, ते आसवा (१।४।२) होता है वहाँ राग-द्वेष होते हैं, वहाँ लोभ होता ही है। जहाँ लोभवृत्ति अर्थात् बाहर में जो बन्धन के निमित्त हैं वे भी कभी मुक्ति के निमित्त होती है वहाँ माया या कपटाचार आ ही जाता है। जहाँ कपटाचार बन जाते हैं। इसका आशय यही है कि बन्धन और मुक्ति का सारा होता है वहाँ उसके पीछे मान या अहंकार का प्रश्न जुड़ा रहता खेल साधक के अंतरंग भावों पर आधारित है। यदि इसी प्रश्न पर है और जहाँ मान या अहंकार होता है उसके साथ क्रोध जुड़ा रहता हम आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से विचार करें तो यह पाते हैं कि है। राग के बिना द्वेष का और द्वेष के बिना राग का टिकाव नहीं आधुनिक मनोविकृतियों के कारणों का विश्लेषण करते हुए स्पष्ट रूप है। इसी प्रकार क्रोध का टिकाव अहंकार पर और अहंकार का टिकाव से यह बताया गया है कि आकांक्षाओं का उच्चस्तर ही मन में कुण्ठाओं मायाचार पर, मायाचार का टिकाव लोभ पर निर्भर करता है। कोई को उत्पन्न करता है और उन कुण्ठाओं के कारण मनोग्रन्थियों की रचना भी कषाय दूसरी कषाय से पूरी तरह निरपेक्ष होकर नहीं रह सकती होती है, जो अन्ततोगत्वा व्यक्ति में मनोविकृतियों को उत्पन्न है, अत: किसी एक कषाय का समग्र भाव से विजेता सभी करती है।
कषायों का विजेता बन जाता है और एक का द्रष्टा सभी का द्रष्टा
बन जाता है। मनोवृत्तियों की सापेक्षता
आचारांगसूत्र में क्रोध, मान, माया, लोभ, राग (प्रेम), द्वेष, मोह कवाय-विजय का उपाय : द्रष्टा या साक्षीभाव आदि की परस्पर की सापेक्षता को सूचित करते हुए यह बताया गया आचारांग में मुनि और अमुनि का अन्तर स्पष्ट करते हुए है कि जो इनमें से किसी एक को भी सम्यक् प्रकार जान लेता है बताया गया है कि जो सोता है, वह अमुनि है, जो जागता है वह वह अन्य सभी को जान लेता है और जो एक पर पूर्ण विजय प्राप्त मुनि है। यहाँ जागने का तात्पर्य है अपने प्रति, अपनी मनोवृत्तियों कर लेता है, वह अन्य सभी पर विजय प्राप्त कर लेता है। के प्रति सजग होना या अप्रमत्तचेता होना है। प्रश्न हो सकता है कि (जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ, जे अप्रमत्तचेता या सजग होना क्यों आवश्यक है? वस्तुत: जब एगं नामे से बहुं नामे जे बहुं नामे से एगं नामे-१३।४) आश्चर्य व्यक्ति अपने अन्तर में झाँककर अपनी वृत्तियों का द्रष्टा बनता है तो यही है कि अभी तक इन सूत्रों के तत्त्वमीमांसीय या ज्ञानमीमांसीय दुर्विचार और दुष्पवृत्तियाँ स्वयं विलीन होती जाती हैं। जब घर का अर्थ लगाये गये और इनके मनोवैज्ञानिक सन्दर्भ को ओझल किया मालिक जागता है तो चोर प्रवेश नहीं करते हैं, उसी प्रकार जो गया, जबकि ये सूत्र विशुद्ध रूप से मनोवैज्ञानिक हैं, क्योंकि इस साधक सजग हैं, अप्रमत्त हैं, तो उनमें कषायें पनप नहीं सकतीं, उद्देशक का सम्पूर्ण सन्दर्भ कषायों से सम्बन्धित है, जो मनोविज्ञान क्योंकि कषाय स्वयं प्रमाद है, तथा प्रमाद और अप्रमाद एक साथ का विषय है। इन कषायों के दुश्चक्र से वही मुक्त हो सकता है, जो नहीं रह सकते हैं। अत: अप्रमाद होने पर कषाय पनप नहीं अप्रमत्त चेता है, क्योंकि जैसे ही व्यक्ति इनके प्रति सजग बनता है, सकते। आचारांगसूत्र में बार-बार कहा गया है,-'तू देख' "तू देख इनके कारणों और परिणामों को देखने लगता है, वह मनोवृत्तियों के (पास! पास!)। यहाँ देखने का तात्पर्य है अपने प्रति या अपनी वृत्तियों पारस्परिक सम्बन्ध स्पष्ट होते हुए पाता है। जब व्यक्ति क्रोध को देखता के प्रति सजग होना। क्योंकि जो द्रष्टा है, वही निरुपाधिक दशा को है, तो क्रोध के कारणभूत द्वेषभाव और द्वेष के कारणभूत रागभाव प्राप्त हो सकता है (किमस्थि उवाही पासगस्स, ण विज्जइ? नत्थि को भी देख लेता है। जब वह अहं या मान का द्रष्टा बनता है, तो १।३।४)। अहं की तुष्टि के लिये मायावी मुखौटों का जीवन भी उसके सामने वस्तुत: आत्मा जब अपने शुद्ध ज्ञाता स्वरूप में अवस्थित होती स्पष्ट हो जाता है। सूत्रकार ने पूरी स्पष्टता के साथ इस बात को प्रस्तुत है, संसार के समस्त पदार्थ ही नहीं वरन् उसकी अपनी चित्तवृत्तियाँ किया कि किस प्रकार किसी एक मनोवृत्ति (कवाय) का द्रष्टा दूसरी और मनोभाव भी उसे 'पर' (स्व से भिन्न) प्रतीत होते हैं। जब वह सभी सापेक्ष रूप में रही हुई मनोवृत्तियों का द्रष्टा बन जाता है। वह 'पर' को 'पर' के रूप में जान लेता है और उससे अपनी पृथकता कहता है-जो क्रोध को देखता है, वह मान (अंहकार) को देख लेता का बोध कर लेता हैं तब वह अपने शुद्ध ज्ञायक स्वरूप को जानकर है। जो मान को देखता है वह माया (कपटवृत्ति) को देख लेता है। उसमें अवस्थित हो जाता है। यही वह अवसर होता है, जब मुक्ति जो माया को देखता है वह लोभ को देख लेता है। जो लोभ को का द्वार उद्घाटित होता है, क्योंकि जिसने 'पर' को 'पर' के रूप देखता है वह राग-द्वेष को देख लेता है। जो राग-द्वेष को देखता है, में जान लिया है उसके लिए ममत्व या राग के लिए कोई स्थान ही
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जैन विद्या के
नहीं रहता है। राग के गिर जाने पर वीतरागता का प्रकटन होता है, और मुक्ति का द्वार खुल जाता है।
मन के पवित्रीकरण की मनोवैज्ञानिक विधि
चित्त को अपवित्र नहीं होने देने के लिये मन की वृत्तियों को देखना जरूरी है, क्योंकि यह मन को दुष्प्रवृत्तियों से बचाने की एक मनोवैज्ञानिक पद्धति है आधुनिक मनोविज्ञान के अनुसार मन एक ही समय में द्रष्टा और कर्ता की दो भूमिकाओं का निर्वाह नहीं कर सकता है। उदाहरण के लिए वह अपने क्रोध का कर्ता एवं द्रष्टा एक साथ नहीं हो सकता। मन जब कर्ता से द्रष्टा की भूमिका में आता है तो मनोविकार स्वयं विलीन होने लगते हैं मन तो स्वतः ही वासना और विकार से मुक्त हो जाता है। इसलिये कहा गया है - अप्पमत्तो कामेहिं उवरतो - ११२।१। सव्वतो पमत्तस्स भयं— अप्पमत्तस्स नत्थि भयं - १।३।४। जो अप्रमत्त है वह कामनाओं से और पाप कर्मों से उपरत है, प्रमत्त को ही विषय विकार में फँसने का भय है अप्रमत को नहीं । अप्रमत्तता या सम्यग्द्रष्टा की अवस्था में पाप कर्म असम्भव हो जाता है, इसीलिये कहा गया है— सम्मत्तदंसी न करेइ पावं१।३।२ अर्थात् सम्यग्द्रष्टा कोई पाप नहीं करता है आचारांग में मन को जानने अथवा अप्रमत्त चेतना की जो बात बार-बार कही गई है, वह मन को वासनामुक्त करने का या मन के पवित्रीकरण का एक ऐसा उपाय है जिसकी प्रामाणिकता आधुनिक मनोविज्ञान के प्रयोगों से सिद्ध हो चुकी है। जब साधक अप्रमत्त चेतना से युक्त होकर द्रष्टाभाव में स्थित होता है तब सारी वासनायें और सारे आवेग स्वतः शिथिल हो जाते हैं। इसी प्रकार अन्यत्र यह कहकर कि "आयंकदंसी न करेइ पार्व - १०३।२।” पुनः एक मनोवैज्ञानिक सत्य को उजागर किया गया है। जो अपनी पीड़ा या वेदना को देख लेता है उसके लिये पाप कर्म में फँसना एक मनोवैज्ञानिक असम्भावना बन जाती है। जब व्यक्ति पापकर्म या हिंसा जनित पीड़ा का स्वयं आत्मनिष्ठ रूप में अनुभव करता है, हिंसा करना उसके लिये असम्भव हो जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि सूत्रकार पाप से विरत होने के लिए मनोवैज्ञानिक सत्वों पर अधिष्ठित पद्धति प्रस्तुत करता है।
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धर्म की मनोवैज्ञानिक व्याख्या
आचारांग में अहिंसा, समाधि और प्रज्ञा को मोक्षमार्ग कहा गया है। इसमें अहिंसा को पूर्ण स्थान दिया गया है। यहाँ साधना का क्रम अन्दर से बाहर की ओर न होकर बाहर से अन्दर की ओर है, जो अधिक मनोवैज्ञानिक है। अहिंसा की साधना के द्वारा जब तक परिवेश एवं चित्तवृत्ति निराकुल नहीं बनेगी, समाधि नहीं होगी और जब तक समाधि नहीं आएगी प्रज्ञा का उदय नहीं होगा। इस सन्दर्भ में आचारांग के दृष्टिकोण में और परवर्ती जैन दर्शन के दृष्टिकोण में स्पष्ट अन्तर है। वह आचार-शुद्धि से विचार-शुद्धि की ओर बढ़ता है।
आचारांग में धर्म क्या है? इसके दो निर्देश हमें उपलब्ध होते हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध के चतुर्थ अध्ययन के प्रथम उद्देशक के प्रारम्भ
आयाम खण्ड ६
में अहिंसा को शाश्वत, में अहिंसा को शाश्वत, नित्य और शुद्ध धर्म कहा गया है, (सव्वे भूया, सव्वे जीवा सव्वे सत्ता न हंतव्वा---एस धम्मे सुद्धे, निइए, सासए समिच्च लोये खेयण्णेहिं पवेइए - १।४।१) और प्रथम श्रुतस्कन्ध के आठवें अध्याय के तीसरे उद्देशक में समता को धर्म कहा गया है. समिया धम्मे आरियेहिं पवेइए (१।८।३) वस्तुतः धर्म की ये दो व्याख्याएँ दो दृष्टिकोणों का प्रतिनिधित्व करती हैं। अहिंसा व्यावहारिक समाज सापेक्ष धर्म है, जबकि वैयक्तिक एवं आन्तरिक दृष्टि से समभाव ही धर्म है। सैद्धांतिक दृष्टि से अहिंसा और समभाव में अभेद है. किन्तु व्यावहारिक दृष्टि से वे अलग हैं। समभाव की बाह्य अभिव्यक्ति अहिंसा बन जाती है और यही अहिंसा जब स्वकेन्द्रित (स्वदया) होती है तो समभाव बन जाती है।
समत्व या समता धर्म क्यों?
यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है कि समता को धर्म क्यों माना जावे? जैन परम्परा के परवर्ती ग्रन्थों में धर्म की व्याख्या 'वत्यु-सहावो धम्मो' के रूप में की गई है, अतः समता को तभी धर्म माना जा सकता है जबकि वह प्राणीय स्वभाव सिद्ध हो जावे, जरा इस प्रश्न पर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विचार करें।
जैन दर्शन में मानव प्रकृति एवं प्राणीय प्रकृति का गहन विश्लेषण किया गया है। महावीर से जब यह पूछा गया कि आत्मा क्या है ? आत्मा का साध्य या आदर्श क्या है? तब महावीर ने इस प्रश्न का जो उत्तर दिया था वह आज भी मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सत्य है। महावीर ने कहा था- आत्मा समत्व रूप है और समत्व ही आत्मा का साध्य है ( आयाए सामाइए आया सामाइस्स अट्ठे- भगवतीसूत्र ) । वस्तुतः जहाँ भी जीवन है, चेतना है, वहाँ समत्व के संस्थापन के अनवरत प्रयास चल रहे हैं। परिवेशजन्य विषमताओं को दूर कर समत्व के लिये प्रयासशील बने, यह जीवन या चेतना का मूल स्वभाव है। शारीरिक एवं मानसिक स्तर पर समत्व का संस्थापन ही जीवन का लक्षण है। डा० राधाकृष्णन् के शब्दों में 'जीवन गतिशील सन्तुलन है' (जीवन की आध्यात्मिक दृष्टि, पृ० २५९) । स्पेन्सर के अनुसार परिवेश में निहित तथ्य जीवन के संतुलन को भंग करते रहते हैं और जीवन अपनी क्रियाशीलता के द्वारा पुनः इस संतुलन को बनाने का प्रयास करता है। यह संतुलन बनाने का प्रयास ही जीवन की प्रक्रिया है (फस्ट प्रिंसिपल्स - स्पेन्सर, पृ०६६) । विकासवादियों ने इसे ही अस्तित्व के लिये संघर्ष कहा है, किन्तु मेरी अपनी दृष्टि में इसे अस्तित्व के लिये संघर्ष कहने की अपेक्षा समत्व के संस्थापन का प्रयास कहना ही अधिक उचित है। समत्व के संस्थापन एवं समायोजन की प्रक्रिया ही जीवन का महत्त्वपूर्ण लक्षण है।
इस प्रकार जैन दर्शन में समभाव या वीतराग दशा को ही नैतिक जीवन का आदर्श माना गया है। यह बात मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी सही उतरती है। संघर्ष नहीं, अपितु समत्व ही जीवन का आदर्श हो सकता है, क्योंकि यही हमारा स्वभाव है और जो स्व स्वभाव है वही आदर्श है। स्वभाव से भिन्न आदर्श की कल्पना अयथार्थ है ।
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आचारांगसूत्र : एक विश्लेषण
स्पेन्सर, डार्विन एवं आर्म्स प्रभृति कुछ पाश्चात्य विचारक संघर्ष को ही जीवन का स्वभाव मानते हैं, लेकिन यह एक मिथ्या धारणा है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार वस्तु का स्वभाव वह होता है, जिसका निराकरण नहीं किया जा सकता। जैन दर्शन के अनुसार नित्य और निरपवाद वस्तुधर्म ही स्वभाव है। यदि हम इसे कसौटी पर कसे तो संघर्ष एवं तनाव जीवन का स्वभाव सिद्ध नहीं होता है । द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के अनुसार मनुष्य स्वभाव संघर्ष है, मानवीय इतिहास वर्ग संघर्ष की कहानी है। संघर्ष ही जीवन का नियम है। किन्तु यह एक मिथ्या धारणा है। यदि संघर्ष ही जीवन का नियम है, तो फिर द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद संघर्ष का निराकरण क्यों करना चाहता है, संघर्ष मिटाने के लिए होता है। जो मिटाने की, निराकरण करने की वस्तु है, क्या उसे स्वभाव कहा जा सकता है? संघर्ष यदि मानव इतिहास का एक तथ्य है तो वह उसके दोषों का इतिहास है, उसके स्वभाव का इतिहास नहीं । मानव स्वभाव संघर्ष नहीं, संघर्ष का निराकरण या समत्व की साधना है, क्योंकि युगों से मानवीय प्रयास उसी के लिए हो रहे हैं।
संघर्ष अथवा समत्व से विचलन जीवन में पाये जाते हैं, लेकिन वे जीवन के स्वभाव नहीं हैं, क्योंकि जीवन की प्रक्रिया उनको समाप्त करने की दिशा में ही प्रयासशील है। समता की उपलब्धि ही मनोवैज्ञानिक दृष्टि से जीवन का साध्य है। कामना, आसक्ति, राग-द्वेष, वितर्क आदि सभी मानसिक असंतुलन एवं तनाव की अवस्था को अभिव्यक्त करते हैं। अतः आचारांग में इन्हें अशुभ माना गया है। इसके विपरीत वासनाशून्य वितर्कशून्य, निष्काम, अनासक्त, वीतराग अवस्था ही जीवन का आदर्श है क्योंकि वह समत्व की स्थिति है। राग और द्वेष की वृत्तियाँ हमारे चेतन समत्व को भंग करती हैं, अतः उनसे ऊपर उठकर वीतरागता की अवस्था को प्राप्त कर लेना ही सच्चे समत्व की अवस्था है। वस्तुतः समत्व की उपलब्धि आचारांग और आधुनिक मनोविज्ञान दोनों की दृष्टि से मानव जीवन का साध्य मानी जा सकती है और जो जीवन का साध्य एवं स्वभाव हो, वही धर्म कहा जा सकता है। आचारांग स्पष्ट रूप से कहता है कि जो समता को जानता है वही मुनि धर्म को जानता है।
आचारांग में अहिंसा का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण
आचारांग में अहिंसा के सिद्धान्त को मनोवैज्ञानिक आधार पर ही स्थापित करने का प्रयास किया गया है अहिंसा को अर्हत्-प्रवचन का सार और शुद्ध एवं शाश्वत धर्म बताया गया है।
सर्वप्रथम हमें विचार करना है कि अहिंसा को ही धर्म क्यों माना जाये। सूत्रकार इसका बड़ा मनोवैज्ञानिक उत्तर प्रस्तुत करता है। वह कहता है कि सभी प्राणियों में जिजीविषा प्रधान है, पुनः सभी को सुख अनुकूल और दुःख प्रतिकूल है (सव्वे पाणा पिआउया सुहसाया दुक्खपडिकूला - १।२।३), अहिंसा का अधिष्ठान यही मनोवैज्ञानिक सत्य है अस्तित्व और सुख की चाह प्राणीय स्वभाव है। जैन विचारकों ने इसी मनोवैज्ञानिक तथ्य के आधार पर अहिंसा
६५ को स्थापित किया है। यद्यपि मेकॅजी ने "भय" को अहिंसा का आधार माना है, किन्तु उसकी यह धारणा गलत है, क्योंकि भय के सिद्धान्त को यदि अहिंसा का आधार बनाया जायेगा तो व्यक्ति केवल सबल की हिंसा से विरत होगा, निर्बल की हिंसा से नहीं भय को आधार मानने पर तो जिससे भय होगा उसी के प्रति अहिंसक बुद्धि बनेगी, जबकि आचारांग तो प्राणियों के प्रति यहाँ तक कि वनस्पति, जल और पृथ्वीकायिक जीवों के प्रति भी अहिंसक होने की बात करता है। अतः आचारांग में अहिंसा को भय के आधार पर नहीं, अपति जिजीविषा और सुखाकांक्षा के मनोवैज्ञानिक सत्यों के आधार पर अधिष्ठित किया गया है। पुनः अहिंसा को इन मनोवैज्ञानिक सत्यों के साथ-साथ तुल्यता बोध के बौद्धिक सिद्धान्त पर खड़ा किया गया। वहाँ कहा गया है कि 'जे अज्झत्थं जाणड़ से बहिया जाणइ...एवं तुल्लमन्नेसिं’– १।१।७। जो अपनी पीड़ा को जान पाता है वही तुल्या बोध के आधार पर दूसरों की पीड़ा को भी समझ सकता है। यह प्राणीय पीड़ा की तुल्यता बोध के आधार पर होने वाला आत्मसंवेदन ही अहिंसा का आधार है सूत्रकार तो अहिंसा के इस सिद्धान्त को अधिक गहराई तक अधिष्ठित करने के प्रयास स्वरूप यहाँ तक कह देता है कि जिसे तू मारना चाहता है, पीड़ा देना चाहता है, सताना चाहता है, वह तू ही है (आचारांग ११५/५) | आगे कहता है कि जो लोग (लोक) का अपलाप करता है वह स्वयं अपनी आत्मा का अपलाप करता है (आचारांग १।१।३) । यहाँ अहिंसा को अधिक गहन मनोवैज्ञानिक आधार देने के प्रयास में वह जैन दर्शन के आत्मा सम्बन्धी अनेकात्मवाद के स्थान पर एकात्मवाद की बात करता सा प्रतीत होता है, क्योंकि यहाँ वह इस मनोवैज्ञानिक सत्य को देख रहा है कि केवल आत्मभाव में हिंसा असम्भव हो सकती है जब तक दूसरे के प्रति पर बुद्धि है, परायेपन का भाव है, तब तक हिंसा की सम्भावनाएँ उपस्थित हैं। व्यक्ति के लिए हिंसा तभी असम्भव हो सकती है जब उसमें प्राणी जगत् के प्रति अपनत्व या आत्मीय दृष्टि जागृत हो । अहिंसा की स्थापना के लिए जो मनोवैज्ञानिक भूमिका अपेक्षित थी उसे थी उसे प्रस्तुत करने में सूत्रकार ने आत्मा की वैयक्तिकता की धारणा का भी अतिक्रमण कर उसे अभेद की धारणा पर स्थापित करने का प्रयास किया है। हिंसा के निराकरण के प्रयास में भी सूत्रकार ने एक ओर इस मनोवैज्ञानिक सत्य को उजागर किया है कि हिंसा से हिंसा या घृणा से घृणा का निराकरण सम्भव नहीं है। वह तो स्पष्ट रूप से कहता है-शस्त्रों के आधार पर या भय और हिंसा के आधार पर शान्ति की स्थापना सम्भव नहीं है, क्योंकि एक शस्त्र का प्रतिकार दूसरे शस्त्र के द्वारा सम्भव है । शान्ति की स्थापना तो अहिंसा या प्रेम द्वारा ही सम्भव है, क्योंकि अशस्त्र से बढ़कर कुछ अन्य नहीं है ( आचारांग, है (आचारांग १।३।४ ) 1.
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आचारांग में मानवीय व्यवहार के प्रेरक तत्त्व
सामान्यतया राग और द्वेष ये दो कर्म-बीज माने गये हैं, किन्तु इनमें भी राग ही प्रमुख तथ्य है। आचारांगसूत्र में कहा गया है कि
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आसक्ति ही कर्म का प्रेरक तथ्य है ( १ । ३ । २)। आचारांग और आधुनिक मनोविज्ञान दोनों ही इस सम्बन्ध में एकमत हैं कि मानवीय व्यवहार का मूलभूत प्रेरक तत्त्व वासना या काम है। फिर भी आचारांग और आधुनिक मनोविज्ञान दोनों में वासना के मूलभूत प्रकार कितने हैं, इस सम्बन्ध में कोई निश्चित संख्या नहीं मिलती है। पाश्चात्य मनोविज्ञान में जहाँ फ्रायड काम या राग को ही एकमात्र मूल प्रेरक मानते हैं, वहीं दूसरे विचारकों ने मूलभूत प्रेरकों की संख्या सौ तक मानी है। फिर भी पाश्चात्य मनोविज्ञान में सामान्यतया निम्न १४ मूल प्रवृत्तियाँ मानी गई है
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
१. पलायनवृत्ति (भय) २. घृणा, ३. जिज्ञासा, ४. आक्रामकता (क्रोध), ५. आत्मगौरव (मान), ६. आत्महीनता, ७. मातृत्व की संप्रेरणा, ८. समूह भावना, ९ संग्रहवृत्ति १०. रचनात्मकता, ११. भोजनान्वेषण, १२. काम, १३, शरणागति और १४. हास्य (आमोद) । आचारांगसूत्र में भय, जिज्ञासा, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेष, आत्मीयता, हास्य आदि का यत्र-तत्र बिखरा हुआ उल्लेख उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त हिंसा के कारणों का निर्देश करते हुए कुछ कर्म प्रेरकों का उल्लेख उपलब्ध है। यथा जीवन जीने के लिये, प्रशंसा और मान-सम्मान पाने के लिए, जन्म-मरण से छुटकारा पाने के लिए तथा शारीरिक एवं मानसिक दुःखों की निवृत्ति हेतु प्राणी हिंसा करता है (१|१|४) |
आचारांग का सुखवादी दृष्टिकोण
आधुनिक मनोविज्ञान हमें यह भी बताता है कि सुख सदैव अनुकूल इसलिए होता है कि उसका जीवन शक्ति को बनाये रखने की दृष्टि से दैहिक मूल्य है और दु:ख इसलिए प्रतिकूल होता है कि वह जीवन शक्ति का इस करता है। यही सुख-दुःख का नियम समस्त प्राणीय व्यवहार का चालक है। आचारांग भी प्राणीय व्यवहार के चालक के रूप में इसी सुख-दुःख के नियम को स्वीकार करता है (आचारांग, १।२।३)। अनुकूल के प्रति आकर्षण और प्रतिकूल के प्रति विकर्षण, यह इन्द्रिय स्वभाव है। अनुकूल विषयों की ओर प्रवृत्ति, प्रतिकूल विषयों से निवृत्ति यह एक नैसर्गिक तथ्य है, क्योंकि सुख अनुकूल और दुःख प्रतिकूल होता है। वस्तुतः प्राणी सुख को प्राप्त करना चाहता है और दुःख से बचना चाहता है। वासना ही अपने विधानात्मक रूप में सुख और निषेधात्मक रूप में दुःख का रूप ले लेती है, जिससे वासना की पूर्ति हो वही सुख और जिससे वासना की पूर्ति न हो अथवा वासना पूर्ति में बाधा उत्पन्न हो वह दुःख । इस प्रकार वासना से ही सुख-दुःख के भाव उत्पन्न होकर प्राणीय व्यवहार का नियमन करने लगते हैं।
दमन का प्रत्यय और आचारांग
सामान्यतया आचारांग में इन्द्रियसंयम पर काफी बल दिया गया है वह तो शरीर को सुखा डालने की बात भी कहता है। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या पूर्ण इन्द्रिय-निरोध सम्भव है? आधुनिक मनोविज्ञान
की दृष्टि से इन्द्रिय व्यापारों का निरोध एक अस्वाभाविक तथ्य है। आँख के समक्ष जब उसका विषय प्रस्तुत होता है तो वह उसके सौन्दर्य दर्शन से वंचित नहीं रह सकती। भोजन करते समय स्वाद को अस्वीक नहीं किया जा सकता। अतः यह विचारणीय प्रश्न है कि इन्द्रिय दमन के सम्बन्ध में क्या आचारांग का दृष्टिकोण आधुनिक मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से सहमत है? आचारांग इस प्रश्न का उत्तर देते हुए यही बात कहता है कि इन्द्रिय व्यापारों के निरोध का अर्थ इन्द्रियों को अपने विषयों से विमुख करना नहीं, वरन् विषय सेवन के मूल में जो निहित राग-द्वेष हैं उन्हें समाप्त करना है। इस सम्बन्ध में उसमें जो मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया है, वह विशेष रूप से द्रष्टव्य है। उसमें कहा गया है कि यह शक्य नहीं कि कानों में पड़ने वाले अच्छे या बुरे शब्द सुने न जाएँ, अतः शब्दों का नहीं, शब्दों के प्रति जगने वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए। यह शक्य नहीं कि आंखों के सामने वाला अच्छा या बुरा रूप न देखा जाये अतः रूप का नहीं, अपितु रूप के प्रति जागृत होने वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए। यह शक्य नहीं है कि नासिका के समक्ष आयी हुई सुगन्ध सुँघने में न आए अतः गन्ध की नहीं, किन्तु गन्ध के प्रति आने वाले रागद्वेष की वृत्ति का त्याग करना चाहिए। यह शक्य नहीं है कि जीभ पर आया हुआ अच्छा या बुरा रस चखने में न आये। अतः रस का नहीं किन्तु रस के प्रति जागने वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिये । यह शक्य नहीं है कि शरीर से सम्पर्क होने वाले अच्छे या बुरे स्पर्श की अनुभूति न हो । अतः स्पर्श नहीं, किन्तु स्पर्श के प्रति जागने वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिये (आचारांग २।१५।१०१-१०५) । उत्तराध्ययन में भी इसकी पुष्टि की गई है। उसमें कहा गया है कि इन्द्रियों के मनोज अथवा अमनोज्ञ विषय आसक्त व्यक्ति के लिए राग-द्वेष के कारण नहीं होते हैं। ये विषय रागी पुरुषों के लिए ही दुःख (बन्धन) के कारण होते हैं, वीतरागियों के बन्धन या दुःख का कारण नहीं हो सकते हैं। काम भोग न किसी को बन्धन में डालते हैं और न किसी को मुक्त ही कर सकते हैं, किन्तु जो विषयों में राग-द्वेष करता है, वही राग-द्वेष से विकृत होता है (उत्तराध्ययन ३२ । १०० १०१)
जैन दर्शन के अनुसार साधना का सच्चा मार्ग औपशमिक नहीं वरन् क्षायिक है । औपशमिक मार्ग का अर्थ वासनाओं का दमन है। इच्छाओं के निरोध का मार्ग औपशमिक मार्ग है। आधुनिक मनोवैज्ञानिक की दृष्टि में यह दमन का मार्ग है, जबकि क्षायिक मार्ग वासनाओं के निरसन का मार्ग है । वह वासनाओं से ऊपर उठाता है। यह दमन नहीं, अपितु चित्त विशुद्धि है। दमन तो मानसिक गन्दगी को ढकने मात्र में है और जैन दर्शन इस प्रकार के दमन को स्वीकार नहीं करता। जैन दार्शनिकों ने गुणस्थान प्रकरण में यह स्पष्ट रूप से बताया है। कि वासनाओं को दबाकर आने वाली साधना विकास की अग्रिम कक्षाओं से अनिवार्यतया पदच्युत हो जाती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन-दर्शन भी आधुनिक मनोवैज्ञानिक के समान ही दमन को साधना का सच्चा मार्ग नहीं मानता है। उसके अनुसार साधना का सच्चा मार्ग
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आचारांगसूत्र : एक विश्लेषण
करता है।
अतः हम कह सकते हैं कि संक्षेप में आत्मा, पुनर्जन्म, कर्म, बन्धन, आश्रव, संवर, निर्जरा और मुक्ति इन सब अवधारणाओं को चाहे संक्षेप में ही क्यों न सही, स्वीकार करके चलता है फिर भी उपर्युक्त विवेचन से इतना स्पष्ट हो जाता है कि आचारांग, दर्शन के सम्बन्ध में केवल उन्हीं तथ्यों को रखना चाहता है जो उसके आचार- शास्त्र की पूर्व मान्यता के लिए अपरिहार्य है। जैनधर्म का जो विकसित तत्त्वज्ञान है उसका उसमें अभाव ही देखा जाता है, जीव और पुद्रल को छोड़कर आकाश, धर्म, अधर्म और काल की उसमें कोई स्वतन्त्र व्याख्या नहीं।
वासनाओं का दमन नहीं, अपतु उनसे ऊपर उठ जाना है। वह इन्द्रिय निग्रह नहीं, अपितु ऐन्द्रिक अनुभूतियों में भी मन की वीतरागता या समत्व की अवस्था है।
अतः यह स्पष्ट है कि आचारांगसूत्र अपनी विवेचनाओं में मनोवैज्ञानिक आधारों पर खड़ा हुआ है। उत्तम आचार के जो नियमउपनियम बनाये गये हैं, वे भी उसकी मनोवैज्ञानिक दृष्टि के परिचायक हैं, किन्तु यहाँ उन सबकी गहराइयों में जाना सम्भव नहीं है। यद्यपि इस सम्पूर्ण विवेचना का यह अर्थ भी नहीं है कि आचारांग में जो कुछ कहा गया, वह सभी मनोवैज्ञानिक सत्यों पर आधारित है अहिंसा, समता और अनासक्ति के जो आदर्श उसमें प्रस्तुत किये गए हैं, वे चाहे मनोवैज्ञानिक आधारों पर अधिष्ठित हों, किन्तु उनकी जीवन में पूर्ण उपलब्धि की संभावनाओं पर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से ही प्रश्न चिह्न भी लगाया जा सकता है। ये आदर्श के रूप में चाहे कितने ही सुहावने हों, किन्तु मानव जीवन में इनकी व्यावहारिक सम्भावना कितनी है, यह विवाद का विषय बन सकता है फिर भी मानवीय दुर्बलता के आधार पर उनसे विमुख होना उचित नहीं होगा। क्योंकि इनके द्वारा ही न केवल मनुष्य का आध्यात्मिक विकास होगा, अपतु लोक मंगल की भावना भी साकार बन सकेगी।
आचारांग में प्रतिपादित तत्त्वज्ञान
जैसा कि हम संकेत कर चुके हैं कि आचारांग मूलतः दर्शन का ग्रन्थ न होकर आचार शास्त्र का ग्रन्थ है फिर भी ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि उसमें दर्शन के तत्त्वों का पूर्णतः अभाव है। आचारांग का प्रारम्भ ही एक पारिणामिक नित्य आत्मा की अवधारणा से होता है। आचारांग आत्मा और पुनर्जन्म की अवधारणा को स्वीकार करके चलता है। वह कर्म की अवधारणा को भी स्वीकार करता है तथा यह मानता है कि कर्म ही बन्धन के कारण हैं। यदि हम सूक्ष्मता से देखें तो उसमें कर्म को पौगलिक मानकर कर्म शरीर का भी उल्लेख किया गया है, और साधक को कहा गया है कि वह कर्म शरीर का ही विधूनन करे। इसी प्रकार आचारांग में आश्रव, संवर और प्रकारान्तर से निर्जरा की व्यवस्थायें भी उपलब्ध हो जाती हैं। आचारांग मुक्तात्मा के अनिर्वचनीय स्वरूप की भी औपनिषदिक शैली में व्याख्या
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आचारांग के आचार - नियम
जहाँ तक आचारांग में प्रतिपादित आचार नियमों का प्रश्न है मूलतः वे सभी नियम अहिंसा के केन्द्र में रखकर बनाये गये हैं। आचारांग के आचार नियमों का केन्द्रबिन्दु अहिंसा का परिपालन ही है। जीवन में अहिंसा और अनासक्ति को किस चरमसीमा तक अपनाया जा सकता है इसका आदर्श हमें आचारांग में देखने को मिल सकता है। आचारांग के दो श्रुतस्कन्धों में जहाँ प्रथम श्रुतस्कन्ध आचार के सामान्य सिद्धान्तों को प्रस्तुत करता है वहाँ द्वितीय श्रुतस्कन्ध उसके व्यवहार पक्ष को स्पष्ट करने का प्रयास करता है। विद्वानों ने आचारांग के दूसरे श्रुतस्कन्ध को प्रथम श्रुतस्कन्ध की व्यावहारिक व्याख्या ही माना है। प्रथम श्रुतस्कन्ध में मूलतः अहिंसा, अनासक्ति तथा कषायों और वासनाओं के विजय का सूत्र रूप में संकेत किया गया है। जबकि दूसरे श्रुतस्कन्ध में इनसे ऊपर उठकर कैसा जीवन जिया जा सकता है इसका चित्रण किया गया है। दूसरा श्रुतस्कन्ध मूलतः मुनि जीवन में भोजन, वस्त्र, पात्र आदि सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति किस प्रकार की जाय इसका विस्तार से विवेचन करता है। इस श्रुतस्कन्ध का अन्तिम भाग जहाँ एक ओर महावीर का जीवनवृत्त प्रस्तुत करता है वहीं दूसरी ओर यह इन्द्रिय विजय की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया पर भी प्रकाश डालता है। यद्यपि आचारांग का आचारपक्ष व्यावहारिक दृष्टि से कठोर कहा जा सकता है, किन्तु उसमें साधना के जिस आदर्श स्वरूप का चित्रण है, उसके मूल्य को नकारा नहीं जा सकता।
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रामपुत्त या रामगुप्त सूत्रकृताङ्ग के सन्दर्भ में ?
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सूत्रकृताङ्ग के तृतीय अध्ययन में कुछ महापुरुषों के नामों का उल्लेख पाया जाता है। उनमें रामगुत्त ( रामपुत्त) का भी नाम आता है।" डॉ. भागचन्द्र जैन 'भास्कर' ने 'सम एथिकल ऐस्पेट्स ऑफ महायान बुद्धिज्म ऐज डिपिक्टेड इन सूत्रकृताङ्ग' नामक अपने निबन्ध में सूत्रकृताङ्ग में उल्लिखित रामगुप्त की पहचान समुद्रगुप्त के ज्येष्ठ पुत्र के रूप में की है।" समुद्रगुप्त के ज्येष्ठ पुत्र रामगुप्त ने चन्द्रप्रभ पुष्पदन्त एवं पद्मप्रभ की प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित करवाई थी, इस तथ्य की पुष्टि विदिशा के पुरातात्त्विक संग्रहालय में उपलब्ध इन तीर्थङ्करों की मूर्तियों से होती है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि रामगुप्त एक जैन नरेश था, जिसकी हत्या उसके ही अनुज चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने कर दी थी किन्तु सूत्रकृताङ्ग में उल्लिखित रामगुप्त की पहचान गुप्त सम्राट् समुद्रगुप्त के पुत्र रामगुप्त से करने पर हमारे सामने अनेक प्रश्न उपस्थित होते हैं सबसे प्रमुख प्रश्न तो यह है कि इस आधार पर सूत्रकृताङ्ग की रचना तिथि ईसा की चौथी शताब्दी के उत्तरार्द्ध एवं पाँचवीं शती के पूर्वार्द्ध तक चली जाती है, जबकि भाषा, शैली एवं विषयवस्तु सभी आधारों पर सूत्रकृताङ्ग ईसा पूर्व की रचना सिद्ध होता है।
सूत्रकृताङ्ग में उल्लिखित रामगुप्त की पहचान समुद्रगुप्त के पुत्र से करने पर या तो हमें सूत्रकृताङ्ग को परवर्ती रचना मानना होगा अथवा फिर यह स्वीकार करना होगा कि सूत्रकृताङ्ग में उल्लिखित रामगुप्त समुद्रगुप्त का पुत्र रामगुप्त न होकर कोई अन्य रामगुप्त है। हमारी दृष्टि में यह दूसरा विकल्प ही अधिक युक्तिसङ्गत है। इस बात के भी यथेष्ट प्रमाण हैं कि उक्त रामगुप्त की पहचान इतिभासियाई रामपुत्त अथवा पालि साहित्य के उदकरामपुत्त से की जा सकती जिनका उल्लेख हम आगे करेंगे।
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सर्वप्रथम हमें सूत्रकृताङ्ग में जिस प्रसङ्ग में रामगुप्त का नाम आया है, उस सन्दर्भ पर भी थोड़ा विचार कर लेना होगा। सूत्रकृताङ्ग में नमि, बाहुक, तारायण (नारायण), असितदेवल, द्वैपायन, पाराशर आदि ऋषियों की चर्चा के प्रसङ्ग में ही रामगुप्त का नाम आया है।" इन गाथाओं में यह बताया गया है कि नमि ने आहार का परित्याग करके, रामगुप्त ने आहार करके, बाहुक और नारायण ऋषि ने सचित्त जल का उपभोग करते हुए तथा देवल, द्वैपायन एवं पाराशर ने व एवं बीजों का उपभोग करते हुए मुक्तिलाभ प्राप्त किया। साथ ही यहाँ इन सबको पूर्वमहापुरुष एवं लोकसम्मत भी बताया गया है। वस्तुतः यह समग्र उल्लेख उन लोगों के द्वारा प्रस्तुत किया गया है, जो इन महापुरुषों का उदाहरण देकर अपने शिथिलाचार की पुष्टि करना चाहते हैं। इस सन्दर्भ में "इह सम्मता" शब्द विशेष द्रष्टव्य है।
यदि हम “इह सम्मता" का अर्थ- जिन प्रवचन या अर्हत्-प्रवचन में सम्मत – ऐसा करते हैं, तो हमें यह भी देखना होगा कि अर्हत्-प्रवचन
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में इनका कहाँ उल्लेख है और किस नाम से उल्लेख है ? इसिभासियाइं में इनमें से अधिकांश का उल्लेख है, किन्तु हम देखते हैं कि वहाँ रामगुप्त न होकर रामपुत्त शब्द है। इससे यह सिद्ध होता है कि सूत्रकृताङ्ग में उल्लिखित रामगुत्त समुद्रगुप्त का पुत्र न होकर रामपुत्त नामक कोई अर्हत् ऋषि था। यहाँ यह भी प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठाया जा सकता है कि यह रामपुत्त कौन था? पालि साहित्य में हमें रामपुत का उल्लेख उपलब्ध होता है उसका पूरा नाम 'उदकरामपुत्त' है। महावस्तु एवं दिव्यावदान में उसे उद्रक कहा गया है । अङ्गुत्तरनिकाय के वस्सकारसूत्र में राजा इल्लेय के अङ्गरक्षक यमक एवं मोग्गल को रामपुत्त का अनुयायी बताया गया है।' मज्झिमनिकाय, संयुत्तनिकाय और दीघनिकाय में भी उदकरामपुत्त का उल्लेख है। जातक में उल्लेख है कि बुद्ध ने उदकरामपुत से ध्यान की प्रक्रिया सीखी थी । यद्यपि उन्होंने उसकी मान्यताओं की समालोचना भी की है— फिर भी उनके मन में उसके प्रति बड़ा आदर था और ज्ञान प्राप्ति के बाद उन्हें धर्म के उपदेश योग्य मानकर उनकी तलाश की थी, किन्तु तब तक उनकी मृत्यु हो चुकी थी। १० इन सभी आधारों से यह स्पष्ट है कि सूत्रकृताङ्ग में उल्लिखित रामपुत्त (रामगुत्त) वस्तुतः पालि साहित्य में वर्णित उदकरामपुत्त हो है— अन्य कोई नहीं। उदकरामपुत्त की साधना पद्धति ध्यान प्रधान और मध्यमार्गी थी, ऐसा भी पालि साहित्य से सिद्ध होता है। " सूत्रकृताङ्ग में भी उन्हें आहार करते हुए मुक्ति प्राप्त करने वाला बताकर इसी बात की पुष्टि की गई है कि वह कठोर तप साधना का समर्थक न होकर मध्यममार्ग का समर्थक था। यही कारण था कि बुद्ध का उसके प्रति झुकाव था। पुनः सूत्रकृताङ्ग में इन्हें पूर्वमहापुरुष कहा गया है। यदि सूत्रकृतान के रामगुप्त की पहचान समुद्रगुप्त के पुत्र रामगुप्त से करते हैं तो सूत्रकृताङ्ग की तिथि कितनी भी आगे ले जायी जाय, किन्तु किसी भी स्थिति में वह उसमें पूर्वकालिक ऋषि के रूप में उल्लिखित नहीं हो सकता। साथ ही साथ यदि सूत्रकृताङ्ग का रामगुप्त समुद्रगुप्त का पुत्र रामगुप्त है तो उसने सिद्धि प्राप्ति की, ऐसा कहना भी जैन दृष्टि से उपयुक्त नहीं होगा, क्योंकि ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी तक जैनों में यह स्पष्ट धारणा बन चुकी थी कि जम्बू के बाद कोई भी सिद्धि को प्राप्त नहीं कर सका है, जबकि मूल गाथा में 'सिद्धा' विशेषण स्पष्ट है।
पुनः रामगुप्त का उल्लेख बाहुक के पूर्व और नमि के बाद है, इससे भी लगता है कि रामगुप्त का अस्तित्व इन दोनों के काल के मध्य ही होना चाहिए। बाहुक का उल्लेख इसिभासियाई में है और इसिभासिवाई किसी भी स्थिति में ईसा पूर्व की ही रचना सिद्ध होता है। अतः सूत्रकृताङ्ग में उल्लिखित रामगुप्त समुद्रगुप्त का पुत्र नहीं हो सकता । पालि साहित्य में भी हमें 'बाहिय' या 'बाहिक' का उल्लेख उपलब्ध होता है, जिसने बुद्ध से चार स्मृति प्रस्थानों का उपदेश प्राप्त कर उनकी साधना के द्वारा अर्हत् पद को प्राप्त किया था। पालि त्रिपिटक
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रामपुत्त या रामगुप्त : सूत्रकृताङ्ग के सन्दर्भ में
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से यह भी सिद्ध होता है कि बाहिय या बाहिक पूर्व में स्वतन्त्र रूप से साधना करता था। बाद में उसने बुद्ध से दीक्षा ग्रहण कर अर्हत्-पद प्राप्त किया था। चूँकि बाहिक बुद्ध का समकालीन था, अत: बाहिक से थोड़े पूर्ववर्ती रामपुत्त थे। पुनः रामगुत्त, बाहुक, देवल, द्वैपायन, पाराशर आदि जैन परम्परा के ऋषि नहीं रहे हैं, यद्यपि नमि के वैराग्य-प्रसङ्ग का उल्लेख उत्तराध्ययन में है। इसिभासियाइं में जिनके विचारों का सङ्कलन हुआ है, उनमें पार्श्व आदि के एक दो अपवादों को छोड़कर शेष सभी ऋषि निर्ग्रन्थ परम्परा (जैन धर्म) से सम्बन्धित नहीं हैं। इसिभासियाई और सूत्रकृताङ्ग दोनों से ही रामगुत्त (रामपुत्त) का अजैन होना ही सिद्ध होता है, न कि जैन। जबकि समुद्रगुप्त का ज्येष्ठपुत्र रामगुप्त स्पष्ट रूप से एक जैन धर्मावलम्बी नरेश है।
सम्भवत: डॉ० भागचन्द्र अपने पक्ष की सिद्धि इस आधार पर करना चाहें कि सूत्रकृताङ्ग की मूल गाथाओं में "पुत्त' शब्द न होकर "गुत्त" शब्द है और सूत्रकृताङ्ग के टीकाकार शीलाङ्क ने भी उसे रामगुप्त ही कहा है, रामपुत्त नहीं, साथ ही उसे राजर्षि भी कहा गया है, अत: उसे राजा होना चाहिए। किन्तु हमारी दृष्टि से ये तर्क बहुत सबल नहीं हैं। प्रथम तो यह कि राजर्षि विशेषण नमि एवं रामगुप्त (रामपुत्त) दोनों के सम्बन्ध में लागू हो सकता है और यह भी सम्भव है कि
नमि के समान रामपुत्त भी कोई राजा रहा हो, जिसने बाद में श्रमण दीक्षा अङ्गीकार कर ली है।
पुनः हम यदि चूर्णि की ओर जाते हैं, जो शीलाङ्क के विवरण की पूर्ववर्ती है, उसमें स्पष्ट रूप से 'रामाउत्ते' ऐसा पाठ है, न कि 'रामगुत्ते'। इस आधार पर भी रामपुत्त (रामपुत्र) की अवधारणा सुसङ्गत बैठती है। इसिभासियाइं की भूमिका में भी सूत्रकृताङ्ग के टीकाकार शीलाङ्क ने जो रामगुप्त पाठ दिया है, उसे असङ्गत बताते हुए शुब्रिङ्ग ने 'रामपुत्त' इस पाठ का ही समर्थन किया है। १३ यद्यपि स्थानाङ्गसूत्र के अनुसार अन्तकृद्ददशा के तीसरे अध्ययन का नाम 'रामगुत्ते' है। किन्तु प्रथम तो वर्तमान अन्तकृद्दशाङ्ग में उपलब्ध अध्ययन इससे भिन्न है, दूसरे यह भी सम्भव है कि किसी समय यह अध्ययन रहा होगा और उसमें रामपत्त से सम्बन्धित विवरण रहा होगा- यहाँ भी टीकाकार की भ्रान्तिवश ही 'पुत्त' के स्थान पर गुत्त हो गया है।४ टीकाकारों ने मूल पाठों में ऐसे परिवर्तन किये हैं।
इन सब आधारों पर हम यह कह सकते हैं कि सूत्रकृताङ्ग में उल्लिखित रामपुत्त (रामगुप्त) समुद्रगुप्त का ज्येष्ठ पुत्र रामगुप्त न होकर पालि त्रिपिटक साहित्य में एवं इसिभासियाई में उल्लिखित रामपुत्त ही है, जिससे बुद्ध ने ध्यान-प्रक्रिया सीखी थी।
संदर्भ १. आहेसु महापुरिसा पुव्विं तत्ततवोधणा ।
उदएण सिद्धिमावना तत्थ मंदो विसीयति।। अभुंजिया नमी विदेही रामगुप्ते य भुंजिया बाहुए उदगं भोच्चा तहा नारायणे रिसी आसिले देविले चेव दीवायण महारिसी पारासरे दगं भोच्चा बीयाणि हरियाणि य ।
- सूत्रकृताङ्ग, १/३/४/१-३। Some Ethical Aspects of Mahāyana Buddhism as depicted in the Sūtrakstānga, Page 2 (46 TTC All India Seminar on Early Buddhism and Mahayana--Deptt. of Pali and Buddhist Studies, B.H.U. Nov. 10 13, 1984 में पढ़ा गया था।) भगवतोऽर्हतो चन्द्रप्रभस्य प्रतिमेयं कारिता महाराजाधिराज श्री रामगुप्तेन उपदेशात् ।। जैनसाहित्य का बृहद् इतिहास, भाग-१, पृ. ५१-५२ तथा सेक्रड बुक्स ऑफ दी ईस्ट, भाग-२२, प्रस्तावना, पृ. ३१। सूत्रकृताङ्ग, १/३/४/२-३। एते पुव्वं महापुरिसा अहिता इह सम्मता । भोच्चा बीओदगं सिद्धा इति मेयमणुस्सुअ ।।
- वही, १/३/४/४। ७. रामपुत्तेण अरहता इसिणं बुइतं। - इसिभासियाई, २३ ।
८. ये समणे रामपुत्ते अभिप्पसन्ना।- अङ्गुत्तरनिकाय, ४/१९/७। ९. मज्झिम निकाय, २/४/५; संयुत्तनिकाय, ३४/२/५/१०। १०. अथ खो भगवतो एतदहोसि- "कस्स नु खो अहं पठमं धम्म
देसेय्यं? को इमं धम्म खिप्पमेव आजानिस्सती' ति? अथ खो भगवतो एतदहोसि- "अयं खो उद्दको रामपुत्तो पण्डितो ब्यत्तो मेधावी दीघरत्तं अप्परजक्खजातिको; यन्त्रूनाहं उद्दकस्स रामपुत्तस्स पठमं धम्म देसेय्यं, सो इमं धम्मं खिप्पमेव आजानिस्सतीति। अयं खो अन्तरहिता देवता भगवतो आरोचेसि- “अभिदोसकालंकतो, भन्ते, उद्दको रामपुत्तोति। भगवतो पिखोआणं उदपादि "अभिदोसकालंकतो उद्दको रामपुत्तो' ति।
- महावग्ग, १/६/१०/२। ११. मज्झिमनिकाय, २/४/५; २/५/१०। १२. सूत्रकृताङ्ग, १/३/४/२। १३. Isibhāsiyaim (AJaina Textof Early Period), Indtroduction,
p. 4 (L.D. Institute of Indology, Ahmedabad). अंतगड़दसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहानमि मातंगे सोमिले, रामगुत्ते सुदंसणे चेव । जमाली य भगाली य, किंकिमे पल्लए इ य ।।१।। फाले अंबड़पुत्ते य, एमए दस आहिया।।
- स्थानाङ्गसूत्र, स्थान १०/७५५।
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अन्तकृद्दशा की विषय-वस्तु : एक पुनर्विचार
समता
अन्तकृद्दशा जैन अंग-आगमों का अष्टम अंगसूत्र है। स्थानांगसूत्र अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु सम्बन्धी प्राचीन उल्लेख में इसे दश दशाओं में एक बताया गया है। अन्तकृद्दशा की विषय-वस्तु __स्थानांग में हमें सर्वप्रथम अन्तकद्दशा की विषय-वस्त का से सम्बन्धित निर्देश श्वेताम्बर आगम साहित्य में स्थानांग, समवायांग उल्लेख प्राप्त होता है। इसमें अन्तकृद्दशा के ये दस अध्ययन एवं नन्दीसूत्र में तथा दिगम्बर परम्परा में राजवार्तिक, धवला तथा । बताये गये हैं-नमि, मातंग, सोमिल, रामगुप्त (रामपुत्त), जयधवला में उपलब्ध है।
सुदर्शन, जमाली, भयाली, किंकम, पल्लतेतीय और फालअम्बपुत्र ।
यदि हम वर्तमान में उपलब्ध अन्तकृद्दशा को देखते हैं तो उसमें अन्तकृद्दशा का वर्तमान स्वरूप
उपर्युक्त दस अध्ययनों में केवल दो नाम सुदर्शन और किंकम वर्तमान में जो अन्तकद्दशा उपलब्ध है उसमें आठ वर्ग हैं। प्रथम उपलब्ध हैं। वर्ग में गौतम, समुद्र, सागर, गम्भीर, स्तिमित, अचल, काम्पिल्य, समवायांग में अन्तकृद्दशा की विषय-वस्तु का विवरण देते हुए अक्षोभ,प्रसेनजित और विष्णु ये दस अध्ययन उपलब्ध हैं। द्वितीय कहा गया है कि इसमें अन्तकृत जीवों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखण्ड, वर्ग में आठ अध्ययन हैं। श्रुतस्कन्ध इनके नाम हैं-अक्षोभ, सागर, राजा, माता-पिता,समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, इह लोक और समुद्र, हिमवन्त, अचल, धरण, पूरण और अभिचन्द्र। तृतीय वर्ग में परलोक की ऋद्धि विशेष, भोग और उनका परित्याग, प्रव्रज्या, श्रुतज्ञान निम्न तेरह अध्ययन हैं-(१) अनीयस कुमार, (२) अनन्तसेन कुमार, का ध्यान, तप तथा क्षमा आदि बहुविध प्रतिमाओं, सत्रह प्रकार के (३) अनिहत कुमार, (४) विद्वत् कुमार, (५) देवयश कुमार, (६) संयम, ब्रह्मचर्य, आकिंचन्य, समिति, गुप्ति, अप्रमाद, योग, स्वाध्याय शत्रुसेन कुमार, (७) सारण कुमार, (८) गज कुमार, (९) सुमुख कुमार, और ध्यान सम्बन्धी विवरण हैं। आगे इसमें बताया गया है कि इसमें (१०) दुर्मुख कुमार, (११) कूपक कुमार, (१२) दारुक कुमार और उत्तम संयम को प्राप्त करने तथा परिग्रहों के जीतने पर चार कर्मों (१३) अनादृष्टि कुमार। इसी प्रकार चतुर्थ वर्ग में निम्न दस अध्ययन के क्षय होने से केवलज्ञान की प्राप्ति किस प्रकार से होती है, इसका हैं-(१) जालि कुमार, (२) मयालि कुमार, (३) उवयालि कुमार, उल्लेख है साथ ही उन मुनियों की श्रमण पर्याय, प्रायोपगमन, अनशन, (४) पुरुषसेन कुमार, (५) वारिषेण कुमार, (६) प्रद्युम्न कुमार, तम और रजप्रवाह से मुक्त होकर मोक्षसुख को प्राप्त करने सम्बन्धी (७) शाम्ब कुमार, (८) अनिरुद्ध कुमार, (९) सत्यनेमि कुमार और उल्लेख हैं। समवायांग के अनुसार इसमें एक श्रुतस्कन्ध, दस अध्ययन (१०) दृढनेमि कुमार। पंचम वर्ग में दस अध्ययन हैं जिनमें आठ और सात वर्ग बतलाये गये हैं।' जबकि उपलब्ध अन्तकृद्दशा में आठ कृष्ण की प्रधान पत्नियों और दो प्रद्युम्न की पत्नियों से सम्बन्धित हैं। वर्ग हैं अत: समवायांग में वर्तमान अन्तकृद्दशा की अपेक्षा एक वर्ग प्रथम वर्ग से लेकर पाँचवें वर्ग तक के अधिकांश व्यक्ति कृष्ण के कम बताया गया है। ऐसा लगता है कि समवायांगकार ने स्थानांग परिवार से सम्बन्धित हैं और अरिष्टनेमि के शासन में हुए हैं। छठे, की मान्यता और उसके सामने उपलब्ध ग्रन्थ में एक समन्वय बैठाने सातवें और आठवें वर्ग का सम्बन्ध महावीर के शासन से है। छठे का प्रयास किया है। ऐसा लगता है कि समवायांगकार के सामने स्थानांग वर्ग के निम्न १६ अध्ययन बताये गये हैं-(१) मकाई, (२) किंकम, में उल्लिखित अन्तकृद्दशा लुप्त हो चुकी थी और मात्र उसमें १० (३) मुद्गरपाणि, (४) काश्यप, (५) क्षेमक (६) धृतिधर, (७) कैलाश, अध्ययन होने की स्मृति ही शेष थी तथा उसके स्थान पर वर्तमान (८) हरिचन्दन, (९) वारत्त, (१०) सुदर्शन, (११) पुण्यभद्र, उपलब्ध अन्तकृद्दशा के कम से कम सात वर्गों का निर्माण हो (१२) सुमनभद्र, (१३) सुप्रतिष्ठित, (१४) मेघकुमार, (१५) अतिमुक्त चुका था। कुमार और (१६) अलक्क (अलक्ष्य) कुमार। सातवें वर्ग में १३ नन्दीसूत्रकार अन्तकृद्दशा के सम्बन्ध में जो विवरण प्रस्तुत करता अध्ययनों के नाम निम्न हैं-(१) नन्दा, (२) नन्दवती, (३) नन्दोत्तरा, है वह बहुत कुछ तो समवायांग के समान ही है, किन्तु उसमें स्पष्ट (४) नन्दश्रेणिका, (५) मरुता, (६) सुमरुता, (७) महामरुता, (८) रूप से इसके आठ वर्ग होने का उल्लेख प्राप्त है। समवायांगकार मरुद्देवा, (९) भद्रा, (१०) सुभद्रा, (११) सुजाता, (१२) सुमनायिका जहाँ अन्तकृद्दशा के दस समुद्देशन कालों की चर्चा करता है वहाँ और (१३) भूतदत्ता। आठवें वर्ग में काली, सुकाली, महाकाली, कृष्ण नन्दीसूत्रकार उसके आठ उद्देशन कालों की चर्चा करता है। इस प्रकार और सुकृष्णा, महाकृष्णा, वीरकृष्णा, रामकृष्णा, महासेनकृष्णा और यह स्पष्ट है कि वर्तमान में उपलब्ध अन्तकृद्दशा की रचना समवायांग महासेनकृष्णा इन दस श्रेणिक की पत्नियों का उल्लेख है। उपर्युक्त के काल तक बहुत कुछ हो चुकी थी और वह अन्तिम रूप से नन्दीसूत्र सम्पूर्ण विवरण को देखने से लगता है कि केवल किंकम और सुदर्शन की रचना के पूर्व अपने अस्तित्व में आ चुका था। श्वेताम्बर परम्परा ही ऐसे अध्याय हैं जो स्थानांग में उल्लिखित विवरण से नाम साम्य में उपलब्ध तीनों विवरणों से हमें यह ज्ञात होता है कि स्थानांग में रखते हैं, शेष सारे नाम भिन्न हैं।
उल्लिखित अन्तकृद्दशा प्रथम संस्करण की विषयवस्तु किस प्रकार से
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अन्तकृद्दशा की विषय-वस्तु : एक पुनर्विचार
७१ उससे अलग कर दी गई और नन्दीसूत्र के रचना काल तक उसके अन्तकृद्दशा का सातवाँ अध्ययन भयाली (भगाली) है। 'भगाली मेतेज्ज' स्थान पर नवीन संस्करण किस प्रकार अस्तित्व में आ गया। ऋषिभाषित के १३ वें अध्ययन में उल्लिखित है। स्थानांग की सूची
यदि हम दिगम्बर साहित्य की दृष्टि से इस प्रश्न पर विचार करें में अन्तकृद्दशा के आठवें अध्ययन का नाम किंकम या किंकस है। तो हमें सर्वप्रथम तत्त्वार्थवार्तिक में अन्तकृद्दशा की विषय-वस्तु से वर्तमान में उपलब्ध अन्तकृद्दशा में छठे वर्ग के द्वितीय अध्याय का सम्बन्धित विवरण उपलब्ध होता है। उसमें निम्न दस अध्ययनों की नाम किंकम है, यद्यपि यहाँ तत्सम्बन्धी विवरण का अभाव है। स्थानांग सूचना प्राप्त होती है-नमि, मातंग, सोमिल, रामपुत्त, सुदर्शन, में अन्तकृद्दशा के ९वें अध्ययन का नाम चिल्वक या चिल्लवाक है। यमलीक, वलीक, किष्कम्बल और पातालम्बष्ठपुत्र। यदि हम स्थानांग कुछ प्रतियों में इसके स्थान पर 'पल्लेतीय' ऐसा नाम भी मिलता है। में उल्लिखित अन्तकृद्दशा के दस अध्ययनों से इनकी तुलना करते इसके सम्बन्ध में भी हमें कोई विशेष जानकारी नहीं हैं। दिगम्बर आचार्य हैं तो इसके यमलिक और वलिक ऐसे दो नाम हैं, जो स्थानांग के अकलंकदेव भी इस सम्बन्ध में स्पष्ट नहीं है। स्थानांग में दसवें अध्ययन उल्लेख से भिन्न है। वहाँ इनके स्थान पर जमाली, मयाली (भगाली) का नाम फालअम्बडपुत्त बताया है, जिसका संस्कृतरूप पालअम्बष्ठपुत्र ऐसे दो अध्ययनों का उल्लेख है। पुनः चिल्वक का उल्लेख हो सकता है। अम्बड संन्यासी का उल्लेख हमें भगवतीसूत्र में विस्तार तत्त्वार्थवार्तिककार ने नहीं किया है। उसके स्थान पर पाल और अम्बष्ठपुत्र से मिलता है। अम्बड के नाम से एक अध्ययन ऋषिभाषित में भी ऐसे दो अलग-अलग नाम मान लिये हैं। यदि हम इसकी प्रामाणिकता है। यद्यपि विवाद का विषय यह हो सकता है कि जहाँ ऋषिभाषित की चर्चा में उतरें तो स्थानांग का विवरण हमें सर्वाधिक प्रामाणिक और भगवती उसे अम्बड परिव्राजक कहते हैं, वहाँ उसे अम्बडपुत्त लगता है।
कहा गया है। स्थानांग में अन्तकृद्दशा के जो दस अध्याय बताये गये हैं उनमें ऐतिहासिक दृष्टि से गवेषणा करने पर हमें ऐसा लगता है कि नमि नामक अध्याय वर्तमान में उत्तराध्ययनसूत्र में उपलब्ध है। यद्यपि स्थानांग में अन्तकृद्दशा के जो १० अध्ययन बताये गये हैं वे यह कहना कठिन है कि स्थानांग में उल्लिखित 'नमि' नामक अध्ययन यथार्थ व्यक्तियों से सम्बन्धित रहे होंगे क्योंकि उनमें से अधिकांश के
और उत्तराध्ययन में उल्लिखित 'नमि' नामक अध्ययन की विषय-वस्तु उल्लेख अन्य स्रोतों से भी उपलब्ध हैं। इनमें से कुछ तो ऐसे हैं एक थी या भिन्न-भिन्न थी। नमि का उल्लेख सूत्रकृतांग में भी उपलब्ध जिनका उल्लेख बौद्ध परम्परा में मिल जाता है यथा—रामपुत्त, सोमिल, होता है। वहाँ पाराशर, रामपुत्त आदि प्राचीन ऋषियों के साथ उनके मातंग आदि। नाम का भी उल्लेख हआ है। स्थानांग में उल्लिखित द्वितीय 'मातंग' अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु के सम्बन्ध में विचार करते समय नामक अध्ययन ऋषिभाषित के २६वें मातंग नामक अध्ययन के रूप हम सुनिश्चितरूप से इतना कह सकते हैं कि इन सबमें स्थानांग में आज उपलब्ध है। यद्यपि विषय-वस्तु की समरूपता के सम्बन्ध सम्बन्धी विवरण अधिक प्रामाणिक तथा ऐतिहासिक सत्यता को में यहाँ भी कुछ कह पाना कठिन है। सोमिल नामक तृतीय अध्ययन लिये हुए है। समवायांग में एक ओर इसके दस अध्ययन बताये गये का नाम साम्य ऋषिभाषित के ४२वें सोम नाम अध्याय के साथ देखा हैं तो दूसरी ओर समवायांगकार सात वर्गों की भी चर्चा करता है। जा सकता है। रामपुत्त नामक चतुर्थ अध्ययन भी ऋषिभाषित के तेईसवें इससे ऐसा लगता है कि समवायांग के उपर्युक्त विवरण लिखे अध्ययन के रूप में उल्लिखित है। समवायांग के अनुसार द्विगृद्धिदशा जाने के समय स्थानांग में उल्लिखित अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु के एक अध्ययन का नाम भी रामपुत्त था। यह भी सम्भव है कि बदल चुकी थी, किन्तु वर्तमान में उपलब्ध अन्तकृद्दशा का पूरी तरह अन्तकृद्दशा, इसिभासियाइं और द्विगृद्धिदशा के रामपुत्त नामक अध्ययन निर्माण भी नहीं हो पाया था। केवल सात ही वर्ग बने थे। वर्तमान की विषय-वस्तु भिन्न हो चाहे व्यक्ति वही हो। सूत्रकृतांगकार ने रामपुत्त में उपलब्ध अन्तकृद्दशा की रचना नन्दीसूत्र में तत्सम्बन्धी विवरण लिखे का उल्लेख अर्हत् प्रवचन में एक सम्मानित ऋषि के रूप में किया जाने के पूर्व निश्चित रूप से हो चुकी थी क्योंकि नन्दीसूत्रकार उसमें है। रामपुत्त का उल्लेख पालित्रिपिटक साहित्य में हमें विस्तार से मिलता १० अध्ययन होने का कोई उल्लेख नहीं करता है। साथ ही वह है। स्थानांग में उल्लिखित अन्तकृद्दशा का पाँचवाँ अध्ययन सुदर्शन आठ वर्गों की चर्चा करता है। वर्तमान अन्तकृद्दशा के भी आठ वर्ग है। वर्तमान अन्तकृद्दशा में छठे वर्ग के दशवें अध्ययन का नाम सुदर्शन ही हैं। है। स्थानांग के अनुसार अन्तकृद्दशा का छठा अध्ययन जमाली है। उपर्युक्त विवरण से हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि वर्तमान अन्तकृद्दशा में सुदर्शन का विस्तृत उल्लेख अर्जुन मालाकार के अध्ययन में उपलब्ध अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु नन्दीसूत्र की रचना के कुछ में भी है। जमाली का उल्लेख हमें भगवतीसूत्र में भी उपलब्ध होता समय पूर्व तक अस्तित्व में आ गई थी। ऐसा लगता है कि वल्लभी है। यद्यपि भगवतीसूत्र में जमाली को भगवान् महावीर के क्रियमाणकृत वाचना के पूर्व ही प्राचीन अन्तकृद्दशा के अध्यायों की या तो उपेक्षा के सिद्धान्त का विरोध करते हुए दर्शाया गया है। श्वेताम्बर परम्परा कर दी गयी या उन्हें यत्र-तत्र अन्य ग्रन्थों में जोड़ दिया गया था और जमाली को भगवान् महावीर का जामातृ भी मानती है। परवर्ती साहित्य इस प्रकार प्राचीन अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु के स्थान पर नवीन नियुक्ति, भाष्य और चूर्णियों में भी जमाली का उल्लेख पाया जाता विषयवस्तु रख दी गयी। यहाँ यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उत्पन्न है और उन्हें एक निह्नव बताया गया है। स्थानांग की सूची के अनुसार हो सकता है कि ऐसा क्यों किया गया। क्या विस्मृति के आधार पर
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ प्राचीन अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु लुप्त हो गयी अथवा उसकी प्राचीन यापनीय और श्वेताम्बरों का भेद होने तक स्थानांग में उल्लिखित सामग्री विषयवस्तु सप्रयोजन वहाँ से अलग कर दी गई।
अन्तकृद्दशा में प्रचलित रही हो और तत्सम्बन्धी जानकारी अनुश्रुति मेरी मान्यता यह है कि विषयवस्तु का यह परिवर्तन विस्मृति के माध्यम से तत्त्वार्थवार्तिककार तक पहुँची हो। तत्त्वार्थवार्तिककार के कारण नहीं, परन्तु सप्रयोजन ही हुआ है। अन्तकृद्दशा की प्राचीन को भी कुछ नामों के सम्बन्ध में अवश्य ही भ्रान्ति है, अगर उसके विषयवस्तु में जिन दस व्यक्तित्वों के चरित्र का चित्रण किया गया था सामने मूलग्रन्थ होता तो ऐसी भ्रान्ति की सम्भावना नहीं रहती। जमाली उनमें निश्चित रूप से मातंग, अम्बड, रामपुत्त, भयाली (भगाली), जमाली का तो संस्कृत रूप यमलीक हो सकता है, किन्तु भगाली या भयाली आदि ऐसे हैं जो चाहे किसी समय तक जैन परम्परा में सम्मान्यरूप का संस्कृत रूप वलीक किसी प्रकार नहीं बनता। इसी प्रकार किंकम से रहे हों, किन्तु अब वे जैन परम्परा के विरोधी या बाहरी मान लिये का किष्कम्बल रूप किस प्रकार बना यह भी विचारणीय है। चिल्वक गये थे। जिनप्रणीत, अंगसूत्रों में उनका उल्लेख रखना समुचित नहीं या पल्लतेत्तीय के नाम का अपलाप करके पालअम्बष्ठपुत्त को भी अलगमाना गया अत: जिस प्रकार प्रश्नव्याकरण से ऋषिभाषित को ऋषियों अलग कर देने से ऐसा लगता है कि वार्तिककार के समक्ष मूल ग्रन्थ के उपदेशों से सप्रयोजन अलग किया गया उसी प्रकार अन्तकृद्दशा नहीं है, केवल अनुश्रुति के रूप में ही वह उनकी चर्चा कर रहा है। से इनके विवरण को भी सप्रयोजन अलग किया। यह भी सम्भव है जहाँ श्वेताम्बर चूर्णिकार और टीकाकार विषयवस्तु सम्बन्धी दोनों ही कि जब जैन परम्परा में श्रीकृष्ण को वासुदेव के रूप में स्वीकार कर प्रकार की विषयवस्तु से अवगत हैं वहाँ दिगम्बर आचार्यों को (मात्र लिया गया तो उनके तथा उनके परिवार से सम्बन्धित कथानकों को प्राचीन संस्करण) उपलब्ध अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु के सम्बन्ध में कहीं स्थान देना आवश्यक था। अत: अन्तकृद्दशा की प्राचीन विषयवस्तु जो कि छठी शताब्दी में अस्तित्व में आ चुकी थी, कोई जानकारी को बदल कर उसके स्थान पर कृष्ण और उनके परिवार से सम्बन्धित नहीं थी। अत: उनका आधार केवल अनुश्रुति था ग्रन्थ नहीं। जब कि पाँच वर्गों को जोड़ दिया गया।
श्वेताम्बर परम्परा के आचार्यों का आधार एक ओर ग्रन्थ था तो दूसरी अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु की चर्चा करते हुए सबसे महत्त्वपूर्ण ओर स्थानांग का विवरण। धवला और जयधवला में अन्तकृद्दशा सम्बन्धी तथ्य हमारे सामने यह आता है कि दिगम्बर परम्परा में अन्तकृद्दशा जो विवरण उपलब्ध है वह निश्चित रूप से तत्त्वार्थवार्तिक पर आधारित की जो विषयवस्तु तत्वार्थवार्तिक में उल्लिखित है वह स्थानांग की है। स्वयं धवलाकार वीरसेन 'उक्तं च तत्त्वार्थभाष्ये' कहकर उसका सूची से बहुत कुछ मेल खाती है। यह कैसे सम्भव हुआ? दिगम्बर उल्लेख करता हैं। इससे स्पष्ट है कि धवलाकार के समक्ष भी प्राचीन परम्परा जहाँ अङ्ग आगमों के लोप की बात करती है तो फिर विषयवस्तु का कोई ग्रन्थ उपस्थित नहीं था। तत्त्वार्थवार्तिककार को उसकी प्राचीन विषयवस्तु के सम्बन्ध में जानकारी अत: हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि प्राचीन अन्तकृद्दशा कैसे हो गई। मेरी ऐसी मान्यता है कि श्वेताम्बर आगम साहित्य के की विषयवस्तु ईसा की चौथी-पाँचवीं शताब्दी के पूर्व ही परिवर्तित सम्बन्ध में दिगम्बर परम्परा में जो कुछ जानकारी प्राप्त हुई है वह हो चुकी थी और छठी शताब्दी के अन्त तक वर्तमान अन्तकृद्दशा यापनीय परम्परा के माध्यम से प्राप्त हुई है और इतना निश्चित है कि अस्तित्व में आ चुकी थी।
सन्दर्भ : १. स्थानाङ्ग (सं० मधुकरमुनि) दशम स्थान, सूत्र ११० एवं ११३
दस दसाओ पण्णताओ, तं जहा-कम्मविवागदसाओ, उवासगदसाओ, अंतगडदसाओ, अणुत्तरोववाइयदसाओ, आयारदसाओ, पण्हावागरण- दसाओ, बंधदसाओ, दोगिद्धिदसाओ, दीहदसाओ, संखेवियदसाओ।
एवं अंतगडदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहाणमि मातंगे सोमिले, रामगुत्ते सुदंसणे चेव। जमाली य भगाली य, किंकमे चिल्लएतिय। फाले अंबडपत्ते य एमेते दस आहिता ।।
भोगपरिच्चाया पव्वज्जाओ सुयपरिग्गहा तवोवहाणाइं पडिमाओ बहुविहाओ, खमा अज्जवं मद्दवं च, सोअंच सच्चसहियं , सत्तरसविहो य संजमो, उत्तमं च बंभं, आकिंचणया तवो चियाओ समिइगुत्तीओ चेव, तह अपप्मायजोगो, सज्झायज्झाणाण य उत्तमाण दोणहंपि लक्खणाई। पत्ताण य संजमुत्तमं जियपरीसहाणं चउब्विहकम्मखयम्मि जह केवलस्स लंभो, परियाओ जत्तिओ य जह पालिओ मुणिहिं, पायोवग्ओ य जो जहिं, जत्तियाणि भत्ताणि छेयइत्ता अंतगडो मुणिवरो तमरयोघविप्पमुक्को, मोक्खसुहमणुत्तरं च पत्ता। एए अण्णे य एवमाइ वित्थारेणं परूवेई। अंतगडदसासु णं पस्ति वायणा, संखेज्जा अणुओगदारा, संखेज्जाओ पडिवत्तीओ संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ संखेज्जाओ संगहणीओ। से णं अंगट्ठयाए अट्ठमे अंगे एगे सुयक्खंधे दस अज्झयणा सत्त वग्गा दस उद्देसणकाला दस समुद्देसणकाला संखेज्जाई पयसयसहस्साई पयग्गेणं, संखेज्जा अक्खरा, अणंता गमा
समवायाङ्ग(सं० मधुकरमुनि) प्रकीर्णक समवाय सूत्र, ५३९-५४०। से किं तं अतंगडदसाओ? अन्तगडदसासु णं अन्तगडाणं नगराई उज्जाणाई चेइयाई वणसंडाइं रायाणो अम्मापियरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोइय-परलोइया इडिविसेसा
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अन्तकृद्दशा की विषय-वस्तु : एक पुनर्विचार अणंता पज्जवा परित्ता तसा अणंता थावरा सासया कडा णिबद्धा भावा आघविजंति, पन्नविज्जति, परूविज्जंति, दंसिज्जंति णिकाइया जिणपण्णत्ताभावा आघविज्जति पण्णा विज्जति निदंसज्जंति, उवदंसिज्जंति। परूविज्जति दंसिज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जंति।
से एवं आया, एवं नाया, एवं विनाया, एवं चरणकरणपरूवणा से एवं आया एवं णाया एवं विण्णाया एवं चरण-करण
आघविज्जइ। से तं अंतगडदसाओ। परूवणया आघविज्जति पण्णविज्जंति परूविज्जंति दंसिज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जंति। सेत्तं अंतगडदसाओ।
तत्त्वार्थवार्तिक– पृष्ठ ५१।।
संसारस्यान्तः कृतो यैस्तेऽन्तेकृत: नमिमतंगसोमिलरामपुत्रसुदर्शन नन्दीसूत्र (सं० मधुकरमुनि) सूत्र ५३, पृ०१८३
समवांमीकवलोकनिष्वबलपालम्वष्टपुत्रा इत्येते दश से किं तं अंतगडदसाओ?
वर्धमानतीर्थङ्करतीर्थे।। अंतगडदसासु णं अंतगडाणं नगराई, उज्जाणाई , चेइआई, वणसंडाइं समोसरणाई, रायाणो, अम्मा-पियरो, धम्मायरिया, ५. षट्खण्डागम धवला १/१/२, खण्ड एक, भाग एक, पुस्तक धम्मकहाओ, इहलोइअ-परलोइआ, इड्डिविसेसा, भोगपरिच्चाया एक- पृष्ठ १०३-४।। पव्वज्जाओ, परिआगा, सुअपरिग्गहा, तवोवहाणाई संलेहणाओ, अंतयडदसा णाम अंगं तेवीस लक्ख-अट्ठावीस-सहस्स-पदेहि भत्तपच्चक्खाणाई पाओवगमणाई अंतकिरिआओ आघविज्जन्ति। २३२८०० एक्केक्कमिह य तित्थे दारुणे बहुविहोवसग्गे अंतगडदसासु णं परित्ता वायणा, संखिज्जा अणुओगदारा, सहिऊण पाडिहेरं लक्ष्ण णिव्वागं गदे दस दस वण्णेदि। उक्तं संखेज्जावेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ, च तत्त्वार्थभाष्ये- संसारस्यान्त:कृतो यैस्तेऽन्तकृत: नमि-मतङ्ग संखेज्जाओ संगहणीओ, संखेज्जाओ पडिवत्तीओ।
सोमिल-रामपुत्र-सुदर्शन- यमलीक-वलीककिष्कंविल पालम्बष्टपुत्रा से णं अंगट्ठयाए अट्ठमे अंगे, एगे सुअखंधे अट्ठ वग्गा, अट्ठ इति एते दश वर्द्धमानतीर्थङ्करतीर्थे। एवमृषभादीनां उद्देसणकाला, वट्ठ समुद्देसणकाला संखेज्जा पयसहस्सा पयग्गेणं, त्रयोविंशतेस्तीर्थेष्वन्येऽन्ये, एवं दश दशानगारा: दारुणानुपसंखेज्जा अक्खरा, अणंता गमा, अर्णता पज्जवा, परित्ता तसा, सर्गानिर्जित्य कृत्स्नकर्मक्षयावस्तकृतो दशास्यां वर्ण्यन्त इति अणता थावरा, सासय-कड-निबद्ध-निकाइआ जिणपण्णत्ता अन्तकृद्दशा।
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प्रश्नव्याकरणसूत्र की प्राचीन विषयवस्तु की खोज
श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराएं यह स्वीकार करती हैं कि प्रश्नव्याकरणसूत्र (पण्हवागरण) जैन अंग-आगम साहित्य का दसवां अंग-ग्रन्थ है, किन्तु दिगम्बर परम्परा के अनुसार अंग-आगम साहित्य का विच्छेद (लुप्त) हो जाने के कारण वर्तमान में यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। श्वेताम्बर परम्परा अंग साहित्य का विच्छेद नहीं मानती है । अतः उसके उपलब्ध आगमों में प्रश्नव्याकरण नामक ग्रन्थ आज भी पाया जाता है। किन्तु समस्या यह है कि क्या श्वेताम्बर परम्परा के वर्तमान प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु वही है जिसका निर्देश अन्य श्वेताम्बर प्राचीन आगम ग्रन्थों में है अथवा यह परिवर्तित हो चुकी है। प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु सम्बन्धी प्राचीन निर्देश श्वेताम्बर परम्परा के स्थानांग (ठाणंग), समवायांग, अनुयोगद्वार एवं नन्दीसूत्र में और दिगम्बर परम्परा के राजवार्तिक, धवला एवं जयधवला नामक टीका ग्रन्थों में उपलब्ध है। इनमें स्थानांग और समवायांग लगभग ३ री - ४थी शती एवं नन्दी लगभग ५वीं छठी शताब्दी, राजवार्तिक ८वीं शताब्दी तथा धवला एवं जयधवला १०वीं शताब्दी के ग्रन्थ स्वीकार किये गये हैं।
प्रश्नव्याकरण नाम क्यों?
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‘प्रश्नव्याकरण' इस नाम को लेकर प्राचीन टीकाकारों एवं विद्वानों में यह धारणा बन गयी थी कि जिस ग्रन्थ में प्रश्नों के समाधान किये गये हों, वह प्रश्नव्याकरण है। मेरी दृष्टि में प्रश्नव्याकरण के प्राचीन संस्करण की विषयवस्तु प्रश्नोत्तरशैली में नहीं थी और न वह प्रश्न विद्या अर्थात् निमित्तशास्त्र से ही सम्बन्धित थी। गुरु-शिष्य सम्वाद की प्रश्नोत्तर शैली में आगम ग्रन्थ की रचना एक परवर्ती घटना है- भगवती या व्याख्या प्रशप्ति इसका प्रथम उदाहरण है। यद्यपि समवायांग एवं नन्दौसूत्र में यह माना गया है कि प्रश्नव्याकरण में १०८ पूछे गये १०८ नहीं पूछे गये और १०८ अंशत: पूछे गये और अंशत: नहीं पूछे गये प्रश्नों के उत्तर हैं। किन्तु यह अवधारणा काल्पनिक ही लगती है। प्रश्नव्याकरण की प्राचीनतम विषयवस्तु प्रश्नोत्तर रूप में थी या उसमें प्रश्नों का उत्तर देने वाली विद्याओं का समावेश था- समवायांग और नन्दी सूत्र के उल्लेखों के अतिरिक्त आज इसका कोई प्रबल प्रमाण उपलब्ध नहीं है। प्राचीनकाल में ग्रन्थों को प्रश्नों के रूप में विभाजित करने की परम्परा थी। इसका सबसे महत्त्वपूर्ण उदाहरण आपस्तम्बीय धर्मसूत्र है। जिसकी विषयवस्तु को दो प्रश्नों में विभक्त किया है। इसके प्रथम प्रश्न में ११ पटल और द्वितीय प्रश्न में ११ पटल हैं। यह सम्पूर्ण ग्रन्थ प्रश्नोत्तर रूप में भी नहीं है। इसी प्रकार बौधायन धर्मसूत्र की विषयवस्तु भी प्रश्नों में विभक्त है। अतः प्रश्नोत्तर शैली में होने के कारण या प्रश्नविद्या से सम्बन्धित होने के कारण इसे प्रश्नव्याकरण नाम दिया गया था, यह मानना उचित नहीं होगा। वैसे इसका प्राचीन
नाम 'वागरण' (व्याकरण) ही था। ऋषिभाषित में इसका इसी नाम से उल्लेख है। प्राचीनकाल में तात्त्विक व्याख्या को व्याकरण कहा
जाता था।
प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु
प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु के सम्बन्ध में अन्य ग्रन्थों में जो निर्देश है उससे वर्तमान प्रश्नव्याकरण निश्चय ही भिन्न है। यह परिवर्तन किस रूप में हुआ है, यही विचारणीय है। यदि हम ग्रन्थ के कालक्रम को ध्यान में रखते हुए प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु के सम्बन्ध में उपलब्ध विवरणों को देखें, तो हमें उसकी विषयवस्तु में हुए परिवर्तनों की स्पष्ट सूचना उसमें मिल जाती है।
(अ) स्थानांग - प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु के सम्बन्ध में प्राचीनतम उल्लेख स्थानांगसूत्र में मिलता है। इसमें प्रश्नव्याकरण की गणना दस दशाओं में की गई है तथा उसके निम्न दस अध्ययन बताये गये हैं-
१. उपमा, २ संख्या ३. ऋषिभाषित ४ आचार्यभाषित ५. महावीरभाषित ६ क्षोभिकप्रश्न ७ कोमलप्रश्न ८. आदर्शप्रश्न (आद्रकप्रश्न), ९. अंगुष्ठप्रश्न, १०. बाहुप्रश्न । इससे फलित होता है कि सर्वप्रथम यह दस अध्यायों का अन्य था। दस अध्यायों के ग्रन्थ दसा (दशा) कहे जाते थे।
(ब) समवायांग- स्थानांग के पश्चात् प्रश्नव्याकरणसूत्र की विषयवस्तु का अधिक विस्तृत विवेचन करने वाला आगम समवायांग है। समवायांग में उसकी विषयवस्तु का निर्देश करते हुए कहा गया है कि प्रश्नव्याकरण सूत्र में १०८ प्रश्नों १०८ अप्रश्नों और १०८ प्रश्नाप्रश्नों की विद्याओं के अतिशयों (चमत्कारों) का तथा नागों सुपर्णों के साथ दिव्य संवादों का विवेचन है। यह प्रश्नव्याकरण दशा स्वसमय-परसमय के प्रज्ञापक एवं विविध अर्थों वाली भाषा के प्रवक्ता प्रत्येक बुद्धों के द्वारा भाषित अतिशय गुणों एवं उपशमभाव के धारक तथा ज्ञान के आकर आचार्यों के द्वारा विस्तार से भाषित और जगत के हित के लिए वीर महर्षि के द्वारा विशेष विस्तार से भाषित है। यह आदर्श (अद्दाग), अंगुष्ठ, बाहु, असि, मणि, क्षौम (वस्त्र) एवं आदित्य (के आश्रय से) भाषित है इसमें महाप्रश्न विद्या मनप्रश्नविद्या, देवप्रयोग आदि का उल्लेख है। इसमें सब प्राणियों के प्रधान गुणों के प्रकाशक, दुर्गुणों को अल्प करने वाले, मनुष्यों की मति को विस्मित करने वाले, अतिशयमय कालश एवं शमदम से युक्त उत्तम तीर्थकरों के प्रवचन में स्थित करने वाले, दुरभिगम, दुरवगाह, सभी सर्वज्ञों के द्वारा सम्मत सभी अज्ञजनों को बोध कराने वाले प्रत्यक्ष प्रतीतिकारक, विविधगुणों से और महान् अर्थों से युक्त जिनवर प्रणीत प्रश्न (वचन) कहे गये हैं।
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प्रश्नव्याकरणसूत्र की प्राचीन विषयवस्तु की खोज
७५ प्रश्नव्याकरण अंग की सीमित वाचनायें हैं, संख्यात अनुयोग में ऋषिभाषित, आचार्यभाषित और महावीरभाषित ही इसकी प्रमुख द्वार हैं, संख्यात प्रतिपत्तियाँ हैं, संख्यात वेढ हैं, संख्यात श्लोक हैं, विषयवस्तु रही होगी। ऋषिभाषित में 'वागरण' ग्रन्थ का एवं उसकी संख्यात नियुक्तियाँ हैं और संख्यात सग्रहणियाँ हैं।
विषयवस्तु की ऋषिभासित से समानता का उल्लेख है। इससे प्रश्नव्याकरण अंगरूप से दसवाँ अंग है, इसमें एक श्रुतस्कन्ध । प्राचीनकाल (ई०पू० ४थी या ३री शताब्दी) में उसके अस्तित्त्व की है, पैंतालीस उद्देशन काल हैं, पैंतालीस समुद्देशन काल हैं, पद-गणना सूचना तो मिलती ही है साथ ही प्रश्नव्याकरण और ऋषिभाषित का की अपेक्षा संख्यात लाख पद कहे गये हैं। इसमें संख्यात अक्षर हैं, सम्बन्ध भी स्पष्ट होता है। अनन्त गम हैं, अनन्त पर्याय हैं, परीत त्रस हैं, अनन्त स्थावर हैं, स्थानांगसूत्र में प्रश्नव्याकरण का वर्गीकरण दस दशाओं में किया इसमें शाश्वत कृत, निबद्ध, निकाचित जिन-प्रज्ञप्त भाव कहे जाते हैं, है। सम्भवत: जब प्रश्नव्याकरण के इस प्राचीन संस्करण की रचना प्रज्ञापित किये जाते हैं, प्ररूपित किये जाते हैं, निदर्शित किये जाते हुई होगी तब ग्यारह अंगों अथवा द्वादश गणिपिटिक की अवधारणा हैं और उपदर्शित किये जाते हैं। इस अंग के द्वारा आत्मा ज्ञाता होता भी स्पष्ट रूप से नहीं बन पायी थी। अंग-आगम साहित्य के ५ ग्रन्थ है, विज्ञाता होता है। इस प्रकार चरण और करण की प्ररूपणा के उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, प्रश्नव्याकरणदशा, अनुत्तरौपपातिक दशा द्वारा वस्तु-स्वरूप का कथन, प्रज्ञापन, निदर्शन और उपदर्शन किया तथा कर्मविपाकदशा (विपाकदशा) दस दशाओं में ही परिगणित किये जाता हैं।
जाते थे। आज इन दशाओं में उपर्युक्त पाँच तथा आचारदशा, जो (स) नन्दीसूत्र- नन्दीसूत्र में प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु का । आज दशाश्रुतस्कन्ध के नाम से जानी जाती है, को छोड़कर शेष चारजो उल्लेख है वह समवायांग के विवरण का मात्र संक्षिप्त रूप है। बन्धदशा, द्विगृद्धिदशा, दीर्घदशा और संक्षेपदशा-अनुपलब्ध हैं। उसके भाव और भाषा दोनों ही समान हैं। मात्र विशेषता यह है कि उपलब्ध छह दशाओं में भी उपासकदशा और आयारदशा की विषयवस्तु इसमें प्रश्नव्याकरण के ४५ अध्ययन बताये गये हैं, जबकि समवायांग स्थानांग में उपलब्ध विवरण के अनुरूप है। कर्मविपाक और में केवल ४५ समुद्देशन कालों का उल्लेख है, ४५ अध्ययन का उल्लेख अनुसरौपपातिकदशा की विषयवस्तु में कुछ समानता है और कुछ भित्रता समवायांग में नहीं है।
है। जबकि प्रश्नव्याकरणदशा और अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु पूरी तरह (द) तत्त्वार्थवार्तिक- तत्त्वार्थवार्तिक में प्रश्नव्याकरण की व्याख्या बदल गई है। स्थानांग में प्रश्नव्याकरण की जो विषयवस्तु सूचित की करते हुए कहा गया है कि आक्षेप और विक्षेप के द्वारा हेतु और नय गई है वही इसका प्राचीनतम संस्करण लगता है, क्योंकि यहाँ तक के आश्रय से प्रश्नों के व्याकरण को प्रश्नव्याकरण कहते है। इसमें इसकी विषयवस्तु में नैमित्तिक विद्याओं का अधिक प्रवेश नहीं देखा लौकिक और वैदिक अर्थों का निर्णय किया जाता है।६
जाता है। स्थानांग प्रश्नव्याकरण के जिन दश अध्ययनों का निर्देश (इ) धवला- धवला में प्रश्नव्याकरण की जो विषयवस्तु बताई करता है, उनमें भी मेरी दृष्टि में इसिभासियाई, आयरियभासियाइं और गई है वह तत्त्वार्थवार्तिक में प्रतिपादित विषय-वस्तु से किंचित् विभिन्नता महावीरभासियाइं-ये तीन प्राचीन प्रतीत होते हैं। 'उवमा' और 'संखा' रखती है। उसमें कहा गया है कि प्रश्नव्याकरण में आक्षेपणी, विक्षेपणी, की सामग्री क्या थी? कहा नहीं जा सकता। यद्यपि मेरी दृष्टि में 'उवमा' संवेदनी और निवेदनी-इन चार प्रकार की कथाओं का वर्णन है। उसमें में कुछ रूपकों के द्वारा धर्म-बोध कराया गया होगा। जैसा कि यह भी स्पष्ट किया गया है कि आक्षेपणी कथा परसमयों (अन्य मतों) ज्ञाताधर्मकथा में कर्म और अण्डों के रूपकों द्वारा क्रमश: यह समझाया का निराकरण कर ६ द्रव्यों और नव तत्त्वों का प्रतिपादन करती है। गया है कि जो इन्द्रिय संयम नहीं करता है वह दुःख को प्राप्त होता विक्षेपणी कथा परसमय के द्वारा स्वसमय पर लगाये गये आक्षेपों का है और जो साधना में अस्थिर-चित्त रहता है वह फल को प्राप्त नहीं निराकरण कर स्वसमय की स्थापना करती है। संवेदनी कथा पुण्यफल करता है। इसी प्रकार ‘संखा' में स्थानांग और समवायांग के समान की कथा है। इसमें तीर्थङ्कर, गणधर, ऋषि, चक्रवर्ती आदि की ऋद्धि संख्या के आधार पर वर्णित सामग्री हो। यद्यपि यह भी संभव हैं कि का विवरण है। निवेदनी कथा पाप फल की कथा है, इसमें नरक, संखा नामक अध्ययन का सम्बन्ध सांख्य दर्शन से रहा हो। क्योंकि तिर्यंच, जरा-मरण, रोग आदि सांसारिक दुःखों का वर्णन किया जाता अन्य परम्पराओं के विचारों को प्रस्तुत करने की उदारता इस ग्रन्थ है। उसमें यह भी कहा गया है कि प्रश्नव्याकरण प्रश्नों के अनुसार में थी। साथ ही प्राचीन काल में सांख्य श्रमणधारा का ही दर्शन था हत, नष्ट, मुष्टि, चिन्ता, लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, जीवित, मरण, और जैन दर्शन से उसकी निकटता थी। ऐसा प्रतीत होता है कि जय, पराजय, नाम, द्रव्य, आयु और संख्या निरूपण करता है। अद्दागपसिणाई, बाहुपसिणाई आदि अध्यायों का सम्बन्ध भी निमित्तशास्त्र
इस प्रकार प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु के सम्बन्ध में प्राचीन से न होकर इन नामवाले व्यक्तियों की तात्त्विक परिचर्चा से रहा हो उल्लेखों में एकरूपता नहीं है।
जो क्रमश: आर्द्रक और बाहुक नामक ऋषियों की तत्त्वचर्चा से सम्बन्धित
रहे होंगे। अद्दागपसिणाई की टीकाकारों ने 'आदर्श प्रश्न' ऐसी जो प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु सम्बन्धी विवरणों की समीक्षा संस्कृत छाया की है वह भी उचित नहीं है। उसकी संस्कृत छाया
मेरी दृष्टि में प्रश्नव्याकरणसूत्र की विषयवस्तु के तीन संस्कार 'आर्द्रक प्रश्न' ऐसी होना चाहिए। आईक से हुए प्रश्नोत्तरों की चर्चा हुए होंगे। प्रथम एवं प्राचीनतम संस्कार, जो 'वागरण' कहा जाता था, सूत्रकृतांग में मिलती है साथ ही वर्तमान ऋषिभाषित में भी 'अद्दाएण'
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ (आईक) और बाहु (बाहुक) नामक अध्ययन उपलब्ध हैं। हो सकता आचार्यभाषित और महारवीरभाषित ही थी और जिसका अधिकांश भाग है कि कोमल और खोम-क्षोम भी कोई ऋषि रहे हैं। सोम का उल्लेख आज भी ऋषिभाषित आदि के रूप में सुरक्षित है। क्योंकि समवायांग भी ऋषिभाषित में है। फिर भी यदि हम यह मानने को उत्सुक ही में भी प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु को प्रत्येकबुद्धभाषित, आचार्यभाषित, हों कि ये अध्ययन निमित्तशास्त्र से सम्बन्धित थे तो हमें यह मानना महर्षिवीरभाषित कहा गया है। स्थानांग में जहाँ ऋषिभाषित शब्द है होगा कि यह सामग्री उसमें बाद में जुड़ी है, प्रारम्भ में उसका अंग वहां समवायांग में प्रत्येकबुद्धभाषित शब्द है। यह स्पष्ट है कि ऋषिभाषित नहीं थी। क्योंकि प्राचीनकाल में निमित्तशास्त्र का अध्ययन जैन भिक्षु के प्रत्येक ऋषि को आगे चलकर जैनाचार्यों ने प्रत्येकबुद्ध के रूप के लिए वर्जित था और इसे पापश्रुत माना जाता था।
में स्वीकार किया हैं और यह शब्द-परिवर्तन उसी का सूचक है। स्थानांग और समवायांग दोनों में प्रश्नव्याकरण सम्बन्धी जो यही कारण है कि इसमें ऋषिभाषित के स्थान पर प्रत्येकबुद्धभाषित विवरण हैं, वे भी एक काल के नहीं हैं। समवायांग का विवरण परवर्ती कहा गया है। हमारे कथन की पुष्टि का दूसरा आधार यह है कि समवायांग है, क्योंकि उस विवरण में मूल तथ्य सुरक्षित रहते हुए भी निमित्तशास्त्र में प्रश्नव्याकरण के एक श्रुतस्कन्ध और ४५ अध्याय माने गये हैं। सम्बन्धी विवरण काफी विस्तृत हो गया है। स्थानांग में प्रश्नव्याकरण इससे यह सिद्ध होता है कि समवायांग के प्रश्नव्याकरण की विषय-वस्तु के दस अध्ययन बताये गये हैं जबकि समवायांग उसमें ४५ उद्देशक सम्बन्धी इस विवरण के लिखे जाने तक भी यह अवधारणा अचेतनरूप होने की सूचना देता है। 'उवमा' और 'संखा' नामक स्थानांग में वर्णित में अवश्य थी कि प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु प्रत्येकबुद्धों, धर्माचार्यों प्रारम्भिक दो अध्ययनों का यहाँ निर्देश ही नहीं है। हो सकता है कि और महावीर के उपदेशों से निर्मित थी, यद्यपि इस काल तक ऋषिभाषित 'उवमा' की सामग्री ज्ञाताधर्मकथा में और 'संखा' की सामग्री-यदि को उससे अलग कर दिया गया होगा और उसके ४५ अध्ययनों के उसका सम्बन्ध संख्या से था तो स्थानांग या समवायांग में डाल दी ___ स्थान पर निमित्तशास्त्र सम्बन्धी विद्याएँ समाविष्ट कर दी गई होंगी। गई हो। 'कोमलपसिणाई' का भी उल्लेख नहीं है। इन तीनों के स्थान यद्यपि निमित्तशास्त्र के विषय जोड़ने का ही ऐसा कुछ प्रयत्न सीमितरूप पर 'असि' 'मणि' और आदित्य' ये तीन नाम नये जुड़ गये हैं, पुनः में स्थानांग में प्रश्न व्याकरण सम्बन्धी विवरण लिखे जाने के पूर्व भी इनका उल्लेख भी अध्ययनों के रूप में नहीं है। समवायांग का विवरण हुआ होगा। मेरी धारणा यह है कि प्रश्नव्याकरण में प्रथम निमित्तशास्त्र स्पष्टरूप से यह बताता है कि प्रश्नव्याकरण का वर्ण्य-विषय चमत्कारपूर्ण का विषय जुड़ा और फिर ऋषिभाषित वाला अंश अलग हुआ तथा विविध विद्याओं से परिपूर्ण है। यहाँ इसिभासियाई, आयरियभासियाई बीच का कुछ काल ऐसा रहा जब वही विषयवस्तु दोनों में
और महावीरभासियाइं इन तीन अध्ययनों का विलोप कर यह निमित्तशास्त्र समनान्तर बनी रही। यहाँ हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि जहां सम्बन्धी विवरण इनके द्वारा कथित है- यह कह दिया गया है। स्थानांग में प्रश्नव्याकरण के दस अध्ययन होने का उल्लेख है, वहां
वस्तुत: समवायांग का विवरण हमें प्रश्नव्याकरण के किसी दूसरे समवायांग में इसके ४५ उद्देशन काल और नन्दी में ४५ अध्ययन परिवर्धित संस्करण की सूचना देता है जिसमें नैमित्तशास्त्र से सम्बन्धित होने का उल्लेख है- यह आकस्मिक नहीं है। यह उल्लेख प्रश्नव्याकरण विवरण जोड़कर प्रत्येक बुद्धभाषित (ऋषिभाषित), आचार्यभाषित और और ऋषिभाषित की किसी साम्यता का संकेतक है। वर्तमान वीरभाषित (महावीरभाषित) भाग अलग कर दिये गये थे और इस प्रश्नव्याकरण में दस अध्ययन होना भी सप्रयोजन है- स्थानाङ्ग के प्रकार इसे शुद्धरूप से एक निमित्तशास्त्र का ग्रन्थ बना दिया गया था। पूर्व विवरण से संगति बैठाने के लिए ही ऐसा किया गया होगा। दस उसे प्रामाणिकता देने के लिए यहाँ तक कह दिया गया कि ये प्रत्येक और पैतालीस के इस विवाद को सुलझाने के दो ही विकल्प हैंबुद्ध, आचार्य और महावीरभाषित हैं।
प्रथम सम्भावना यह हो सकती है कि प्राचीन संस्करण में दस अध्याय तत्त्वार्थवार्तिक में प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु का जो विवरण रहे हों और उसके ऋषिभाषित वाले अध्याय के ४५ उद्देशक रहे हों उपलब्ध है वह इतना अवश्य सूचित करता है कि ग्रन्थकार के सामने अथवा मूल प्रश्नव्याकरण में वर्तमान ऋषिभाषित के ४५ अध्याय ही प्रश्नव्याकरण की कोई प्रति नहीं थी उसने प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु हों क्योंकि इनमें भी ऋषिभाषित के साथ महावीरभाषित और के सम्बन्ध में जो विवरण दिया है, वह कल्पनाश्रित ही है। यद्यपि आचार्यभाषित का समावेश हो ही जाता है। यह भी सम्भव है कि धवला में प्रश्नव्याकरण के सम्बन्ध में जो निमित्तशास्त्र से सम्बन्धित वर्तमान ऋषिभाषित के ४५ अध्यायों में से कुछ अध्याय ऋषिभाषित कुछ विवरण है, वह निश्चय ही यह बताता है कि ग्रन्थकार ने उसे के अन्तर्गत और कुछ आचार्यभाषित एवं कुछ महावीरभाषित के अन्तर्गत अनुश्रुति के रूप में श्वेताम्बर या यापनीय परम्परा से प्राप्त किया होगा। उद्देशकों के रूप में वर्गीकृत हुए हों। महत्त्वपूर्ण यह है कि समवायांग धवला में वर्णित विषयवस्तु वाला कोई प्रश्नव्याकरण अस्तित्व में भी में प्रश्नव्याकरण के ४५ अध्ययन न कहकर ४५ उद्देशन काल कहा रहा होगा, यह कहना कठिन है।
गया है, किन्तु प्रश्नव्याकरण से अलग करने के पश्चात् उन्हें एक ही जैसा कि हम पूर्व में कह चुके हैं कि समवायांग का प्रश्नव्याकरण ग्रन्थ के अन्तर्गत ४५ अध्यायों के रूप में रख दिया गया हो। एक की विषयवस्तु सम्बन्धी विवरण स्थानांग की अपेक्षा परवर्ती काल का महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि समवायांग में ऋषिभाषित के ४४ अध्ययन है। फिर भी इसमें कुछ तथ्य ऐसे अवश्य हैं जो हमारी इस धारणा कहे गये हैं जबकि वर्तमान ऋषिभाषित में ४५ अध्ययन हैं। क्या वर्धमान को पुष्ट करते हैं कि प्रश्नव्याकरण की मूलभूत विषयवस्तु ऋषिभाषित, नामक अध्ययन पहले इसमें सम्मिलित नहीं था। क्योंकि इसे
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प्रश्नव्याकरणसूत्र की प्राचीन विषयवस्तु की खोज
७७ नामक अध्ययन पहले इसमें सम्मिलित नहीं था। क्योंकि इसे क्या प्रश्नव्याकरण की प्राचीन विषयवस्तु सुरक्षित है? महावीरभाषित में परिगणित नहीं किया गया था या अन्य कोई कारण यहां यह चर्चा भी महत्त्वपूर्ण है कि क्या प्रश्नव्याकरण के प्रथम था, हम नहीं कह सकते। यह भी सम्भव है कि उत्कटवादी अध्याय और द्वितीय संस्कारों की विषयवस्तु पूर्णत: नष्ट हो गई है या वह में किसी ऋषि का उल्लेख नहीं है, साथ ही यह अध्याय चार्वाक दर्शन आज भी पूर्णत: या आंशिक रूप में सुरक्षित है। का प्रतिपादन करता है। अतः इसे ऋषिभाषित में स्वीकार नहीं किया मेरी दृष्टि में प्रश्नव्याकरण के प्रथम संस्करण में ऋषिभाषित, हो। समवायांग और नन्दीसूत्र के मूलपाठों में एक महत्त्वपूर्ण अन्तर आचार्यभाषित और महावीरभाषित के नाम से जो सामग्री थी वह आज यह है कि नन्दीसूत्र में प्रश्नव्याकरण के ४५ अध्ययन हैं- ऐसा स्पष्ट भी ऋषिभाषित, ज्ञाताधर्मकथा, सूत्रकृतांग एवं उत्तराध्ययन में बहुत पाठ है। जबकि समवायांग में ४५ अध्ययन, ऐसा पाठ न होकर ४५ कुछ सुरक्षित है। ऐसा लगता है कि ईस्वी सन् के पूर्व ही उस सामग्री उद्देशन काल है, मात्र यही पाठ है। हो सकता है कि समवायांग के को वहां से अलग कर इसिभासियाई के नाम से स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप रचना-काल तक वे उद्देशक रहे हों, किन्तु आगे चलकर वे अध्ययन में सुरक्षित कर लिया गया था। जैन परम्परा में ऐसे प्रयास अनेक कहे जाने लगे हों। यदि समवायांग के काल तक ४५ अध्ययनों की बार हुए हैं जब चूला या चूलिका के रूप में ग्रन्थों में नवीन सामग्री अवधारणा होती तो समवायांगकार उसका उल्लेख अवश्य करते क्योंकि जोड़ी जाती रही अथवा किसी ग्रन्थ की सामग्री को निकालकर उससे समवायांग में अन्य अंग आगमों की चर्चा के प्रसंग में अध्ययनों का एक नया ग्रन्थ बना दिया। उदाहरण के रूप में किसी समय निशीथ स्पष्ट उल्लेख है।
को आचारांग की चूला के रूप में जोड़ा गया और कालान्तर में उसे इस सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि क्या निमित्तशास्त्र वहाँ से अलग कर निशीथ नामक नया ग्रन्थ ही बना दिया गया। इसी एवं चामत्कारिक विद्याओं से युक्त कोई प्रश्नव्याकरण बना भी था या प्रकार आयारदशा (दशाश्रुतस्कन्ध) के आठवें अध्याय (पर्युषणकल्प) यह सब कल्पना की उड़ानें हैं? यह सत्य है कि प्रश्नव्याकरण की की सामग्री से कल्पसूत्र नामक एक नया ग्रन्थ ही बना दिया गया। पद-संख्या का समवायांग, नन्दी, नन्दीचूर्णी और धवला में जो उल्लेख अत: यह मानने में कोई आपत्ति नहीं है कि पहले प्रश्नव्याकरण में है, वह काल्पनिक है। यद्यपि समवायांग और नन्दी, प्रश्नव्याकरण इसिभासियाई के अध्याय जुड़ते रहे हों और फिर अध्ययनों की सामग्री के पदों की निश्चित संख्या नहीं देते हैं—मात्र संख्यात-शत-सहस्र- को वहां से अलग कर इसिभासियाई नामक स्वतन्त्र ग्रन्थ अस्तित्व ऐसा उल्लेख करते हैं, किन्तु नन्दीचूर्णी एवं समवायांगवृत्ति३ में उसके में आया हो। मेरा यह कथन निराधार भी नहीं है। प्रथम तो दोनों पदों की संख्या ९२१६००० और धवला'४ में ९३१६००० बतायी नामों की साम्यता तो है ही। साथ ही समवायांग में यह भी स्पष्ट गई है, जो मुझे तो काल्पनिक ही अधिक लगती है।
उल्लेख है कि प्रश्नव्याकरण में स्वसमय और परसमय के प्रज्ञापक मेरी अवधारणा यह है कि स्थानांग, समवायांग, नन्दी, तत्त्वार्थ, प्रत्येकबुद्धों के कथन हैं। (पण्हावागरणदसासुणं ससमय-परसमय राजवार्तिक, धवला एवं जयधवला में प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु पण्णवय-पत्तेअबुद्ध .......भासियाइणं, समवायांग ५४७)। इसिभासियाई का जिस रूप में उल्लेख है वह पूर्णत: काल्पनिक चाहे न हो, किन्तु के सम्बन्ध में यह स्पष्ट मान्यता है कि उसमें प्रत्येकबुद्धों के वचन उसमें सत्यांश कम और कल्पना का पुट अधिक है। यद्यपि निमित्तशास्त्र हैं। मात्र यही नहीं समवायांग ‘स-समय-पर समय पण्णवय पत्तेअबुद्ध-अर्थात् के विषय को लेकर कोई प्रश्नव्याकरण अवश्य बना होगा, फिर भी स्वसमय एवं परसमय के प्रज्ञापक प्रत्येक बुद्ध का उल्लेख कर इसकी उसमें समवायांग और धवला में वर्णित समग्र विषयवस्तु एवं चामत्कारिक पुष्टि भी कर देता है कि वे प्रत्येक बुद्ध मात्र जैन परंपरा के नहीं हैं, विद्याएं रही होंगी यह कहना कठिन ही है।
अपितु अन्य परम्पराओं के भी है। इसिभासियाई में मंखलिगोशाल, इसी सन्दर्भ में समवायांग के मूलपाठ 'अद्दागंगुट्ठबाहुअसिमणि देवनारद, असितदेवल, याज्ञवल्क्य, उद्दालक आदि से सम्बन्धित खोमआइच्चभासियाणं५ के अर्थ के सम्बन्ध में भी यहां हमें पुनर्विचार अध्याय भी इसी तथ्य को सूचित करते हैं। मेरी दृष्टि में प्रश्नव्याकरण करना होगा। कहीं अदाग, अंगुष्ठ, बाहु, असि, मणि, खोम (क्षोम) का प्राचीनतम अधिकांश भाग आज भी इसिभासियाई में तथा कुछ और आदित्य व्यक्ति तो नहीं हैं- क्योंकि इनके द्वारा भाषित कहने भाग सूत्रकृतांग, ज्ञाताधर्मकथा और उत्तराध्ययन के कुछ अध्यायों के का क्या अर्थ है? स्थानाङ्ग के विवरण की समीक्षा करते हुए जैसी रूप में सुरक्षित है। प्रश्नव्याकरण का इसिभासियाई वाला अंश वर्तमान कि मैंने सम्भावना प्रकट की है कि कहीं अदाग-आईक, बाहु-बाहुक, इसिभासियाइं (ऋषिभाषित), महावीरभासियाई में तथा आयरियभासियाई खोम-सोम नामक ऋषि तो नहीं है, क्योंकि ऋषिभाषित में इनके उल्लेख का कुछ अंश उत्तराध्ययन के अध्यनों में सुरक्षित है। ऋषिभाषित के हैं। आदित्य भी कोई ऋषि हो सकते हैं। केवल अंगुट्ठ, असि और तेतलिपुत्र नामक अध्याय की विषय सामग्री ज्ञाताधर्मकथा के १४वें मणि ये तीन नाम अवश्य ऐसे हैं, जिनके व्यक्ति होने की सम्भावना तेत्तलिपुत्र नामक अध्याय में आज भी उपलब्ध है। धूमिल है।
उत्तराध्ययन के अनेक अध्याय प्रश्नव्याकरण के अंश थे, इसकी इस समग्र चर्चा का फलित तो मात्र यही है कि प्रश्नव्याकरण पुष्टि अनेक आधारों से की जा सकती है। सर्वप्रथम उत्तराध्ययन नाम की विषयवस्तु समय-समय पर बदलती रही है।
ही इस तथ्य को सूचित करता है कि यह किसी ग्रन्थ के उत्तर-अध्ययनों
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
से बना हुआ ग्रन्थ है। इसका तात्पर्य है कि इसकी विषय-सामग्री पूर्व मुझे ऐसा लगता है कि स्थानांग में प्रस्तुत जैन साहित्य-विवरण के में किसी ग्रन्थ का उत्तरवर्ती अंश रही होगी। इस तथ्य की पुष्टि का पूर्व तक उत्तराध्ययन एक स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में अस्तित्व में नहीं दूसरा किन्तु सबसे महत्त्वपूर्ण प्रमाण यह है कि उत्तराध्ययननियुक्ति आया था, अपितु वह प्रश्नव्याकरण के एक भाग के रूप गाथा ४ में इस बात का स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि उत्तराध्ययन में था। का कुछ भाग अंग साहित्य से लिया गया है। उत्तराध्ययन नियुक्ति पुन: उत्तराध्ययन का महावीरभाषित होना उसे प्रश्नव्याकरण के की इस गाथा का तात्पर्य यह है कि बन्धन और मुक्ति से सम्बन्धित अधीन मानने से ही सिद्ध हो सकता है। उत्तराध्ययन की विषयवस्तु जिनभाषित और प्रत्येकबुद्ध के संवादरूप इसके कुछ अध्ययन अंग का निर्देश करते हुए यह भी कहा गया है कि ३६ अपृष्ट का व्याख्यान ग्रन्थों से लिये गये है। नियुक्तिकार का यह कथन तीन मुख्य बातों करने के पश्चात् ३७वें प्रधान नामक अध्ययन का वर्णन करते हुए पर प्रकाश डालता है। प्रथम तो यह कि उत्तराध्ययन के जो ३६ अध्ययन भगवान परिनिर्वाण को प्राप्त हुए। प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु की हैं, उनमें कुछ जिनभाषित (महावीरभाषित) और कुछ प्रत्येकबुद्धों के चर्चा करते हुए उसमें पृष्ट, अपृष्ट और पृष्टापृष्ट प्रश्नों का विवेचन संवाद रूप है तथा अंग साहित्य से लिये गये हैं। अब यह प्रश्न स्वाभाविक होना बताया गया है। इससे भी यह सिद्ध होता है कि प्रश्नव्याकरण रूप से उठता है कि वह अंग-ग्रन्थ कौन सा था, जिससे उत्तराध्ययन और उत्तराध्ययन की समरूपता है और उत्तराध्ययन में अपृष्ट प्रश्नों के ये भाग लिये गये? कुछ आचार्यों ने दृष्टिवाद से इसके परिषह का व्याकरण है। आदि अध्यायों को लिये जाने की कल्पना की है, किन्तु मेरी दृष्टि हम यह भी सुस्पष्ट रूप से बता चुके हैं कि पूर्व में ऋषिभाषित में इसका कोई आधार नहीं है। इसकी सामग्री उसी ग्रन्थ से ली जा ही प्रश्नव्याकरण का एक भाग था। ऋषिभाषित को परवर्ती आचार्यों सकती है जिसमें महावीरभाषित और प्रत्येकबुद्ध भाषित विषयवस्तु ने प्रत्येकबुद्धभाषित कहा है। उत्तराध्ययन के भी कुछ अध्ययनों को हो। इसप्रकार विषयवस्तु प्रश्नव्याकरण की ही थी अत: उससे ही इन्हें प्रत्येकबुद्धभाषित कहा गया है। इसका तात्पर्य यह है कि उत्तराध्ययन लिया गया होगा। यह बात निर्विवाद रूप से स्वीकार की जा सकती एवं ऋषिभाषित एक दूसरे से निकटरूप से सम्बन्धित थे और किसी है कि चाहे उत्तराध्ययन के समस्त अध्ययन तो नहीं, किन्तु कुछ अध्ययन एक ही ग्रन्थ के भाग थे। हरिभद्र (८वीं शती) आवश्यकनियुक्ति की तो अवश्य ही महावीरभाषित हैं। एक बार हम उत्तराध्ययन के ३६ वृत्ति (८/५) में ऋषिभाषित और उत्तराध्ययन को एक मानते हैं। तेरहवीं वें अध्ययन एवं उसके अन्त में दी हुई उस गाथा को जिसमें उसका शताब्दी तक भी जैन आचार्यों में ऐसी धारणा चली आ रही थी कि महावीरभाषित होना स्वीकार किया गया है, परवर्ती एवं प्रक्षिप्त मान ऋषिभाषित का समावेश उत्तराध्ययन में हो जाता है। जिनप्रभसूरि की भी लें, किन्तु उसके १८ वें अध्ययन की २४ वीं गाथा जो न केवल विधिमार्गप्रपा में, जो १४ वीं शताब्दी की एक रचना है- स्पष्ट रूप इसी गाथा के सरूप है, अपितु भाषा की दृष्टि से भी उसकी अपेक्षा से उल्लेख है कि कुछ आचार्यों के मत में ऋषिभाषित का अन्तर्भाव प्राचीन लगती है- प्रक्षिप्त नहीं कही जा सकती। यदि उत्तराध्ययन उत्तराध्ययन में हो जाता है। यदि हम उत्तराध्ययन और ऋषिभाषित के कुछ अध्ययन जिनभाषित एवं कुछ प्रत्येकबुद्धों के सम्वादरूप हैं ___ को समग्र रूप में एक ग्रन्थ मानें तो ऐसा लगता है कि उस ग्रन्थ तो हमें यह देखना होगा कि वे किस अंग ग्रन्थ के भाग हो सकते का पूर्ववर्ती भाग ऋषिभाषित और उत्तरवर्ती भाग उत्तराध्ययन कहा हैं। प्रश्नव्याकरण की प्राचीन विषयवस्तु का निर्देश करते हुए स्थानांग, जाता था। समवायांग और नन्दीसूत्र में उसके अध्यायों को महावीरभाषित एवं यह तो हुई प्रश्नव्याकरण के प्राचीनतम प्रथम संस्करण की बात। प्रत्येकबुद्धभाषित कहा गया है। इससे यही सिद्ध होता है कि उत्तराध्ययन अब यह विचार करना है कि प्रश्नव्याकरण के निमित्तशास्त्र प्रधान दूसरे के अनेक अध्याय पूर्व में प्रश्नव्याकरण के अंश रहे हैं। उत्तराध्ययन ___ संस्करण की क्या स्थिति हो सकती है- क्या वह भी किसी रूप में के अध्यायों के वक्ता के रूप में देखें तो स्पष्टरूप से उनमें नमिपव्वज्जा, सुरक्षित है? कापिलीय, संजयीया आदि जैसे कई अध्ययन प्रत्येक बुद्धों के सम्वादरूप जहां तक निमित्तशास्त्र से सम्बन्धित प्रश्नव्याकरण के दूसरे मिलते हैं। जबकि विनयसुत्त, परिषह विभक्ति, संस्कृत, अकाममरणीय, संस्करण के अस्तित्व में होने का प्रश्न है- मेरी दृष्टि में वह भी क्षुल्लक-निर्ग्रन्थीय, दुमपत्रक, बहुश्रुतपूजा जैसे कुछ अध्याय महावीरभाषित पूर्णतया विलुप्त नहीं हुआ है, अपितु मात्र हुआ यह है कि उसे हैं और केसी-गौतमीय, गद्दमीय आदि कुछ अध्याय आचार्यभाषित प्रश्नव्याकरण से पृथक् कर उसके स्थान पर आश्रयद्वार और संवरद्वार कहे जा सकते हैं। अत: प्रश्नव्याकरण के प्राचीन संस्कार की नामक नई विषयवस्तु डाल दी गई है। श्री अगरचन्द जी नाहटा ने विषय-सामग्री से इस उत्तराध्ययन के अनेक अध्यायों का निर्माण जिनवाणी, दिसम्बर १९८० में प्रकाशित अपने लेख में प्रश्नव्याकरण हुआ है।
नामक कुछ अन्य ग्रन्थों का संकेत किया है। 'प्रश्नव्याकरणाख्य यद्यपि समवायांग एवं नन्दीसूत्र में उत्तराध्ययन का नाम आया जयपायड' के नाम से एक ग्रन्थ मुनि जिनविजयजी ने सिंघी जैन है, किन्तु स्थानांग में कहीं भी उत्तराध्ययन का नामोल्लेख नहीं है। ___ग्रन्थमाला के ग्रन्थ क्रमांक ४३ में संवत् २०१५ में प्रकाशित किया जैसा कि हम पूर्व में निर्देश कर चुके है स्थानाङ्ग ही ऐसा प्रथम ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ एक प्राचीन ताड़पत्रीय प्रति के आधार पर प्रकाशित किया है जो जैन आगम-साहित्य के प्राचीनतम स्वरूप की सूचना देता है। गया है। ताड़पत्रीय प्रति खरतरगच्छ के आचार्य शाखा के ज्ञानभण्डार
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प्रश्नव्याकरणसूत्र की प्राचीन विषयवस्तु की खोज जैसलमेर से प्राप्त हुई थी और यह विक्रम संवत् १३३६ की लिखी का ग्रन्थ बना दिया गया। पुनः लगभग ७वीं शताब्दी में यह निमित्तशास्त्र हुई थी। ग्रन्थ मूलतः प्राकृत भाषा में हैं और उसमें ३७८ गाथाएं वाला हिस्सा अलग किया गया और उसके स्थान पर पांच आश्रव हैं। उसके साथ संस्कृत टीका भी है। यह प्रकाशित ग्रन्थ पार्श्वनाथ तथा पाँच संवरद्वार वाला वर्तमान संस्करण रखा गया। जैसा कि मैंने विद्याश्रम, वाराणसी के पुस्कालय में है। ग्रन्थ का विषय निमित्तशास्त्र सूचित किया कि प्रश्नव्याकरण के पूर्व के दो संस्करण भी चाहे उससे से सम्बन्धित है। इसी प्रकार जिनरत्नकोश में भी शान्तिनाथ भण्डार पृथक् कर दिये गये हों किन्तु वे ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन और खंभात में उपलब्ध जयपाहुड प्रश्नव्याकरण, नामक ग्रन्थ की सूचना प्रश्नव्याकरण नामक अन्य निमित्तशास्त्र के ग्रन्थों के रूप में अपना उपलब्ध होती है।१७ यद्यपि इसकी गाथा संख्या २२८ बताई गई है। अस्तित्व रख रहे हैं। आशा है, इस सम्बन्ध में विद्वद्वर्ग आगे और एक अन्य प्रश्नव्याकरण नामक ग्रन्थ की सूचना हमें नेपाल के महाराजा मन्थन करके किसी निष्कर्ष पर पहुँचेगा। की लायब्रेरी से प्राप्त होती है। श्री अगरचन्द जी नाहटा की सूचना के अनुसार इस ग्रन्थ की प्रतिलिपि तेरापन्थ धर्मसंघ के आचार्य मुनिश्री प्रश्नव्याकरण और ऋषिभाषित की विषयवस्तु की समरूपता का नथमलजी ने प्राप्त कर ली है। इस लेख के प्रकाशन के पूर्व श्री जौहरीमल प्रमाण जी पारख, रावटी, जोधपुर के सौजन्य से इस ग्रन्थ की फोटो कापी ऋषिभाषित और प्राचीन प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तुओं की पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान को प्राप्त हो गई है। इसे अभी पूरा एकरूपता का सबसे महत्त्वपूर्ण प्रमाण हमें ऋषिभाषित के पार्श्व नामक पढ़ा तो नहीं जा सका है, किन्तु तुलनात्मक दृष्टि से देखने पर ज्ञात ३१ वें अध्ययन में मिल जाता है। इसमें पार्श्व की दार्शनिक अवधारणाओं हुआ कि इसकी मूलगाथाएं तो सिंघी जैन ग्रन्थमाला के अन्तर्गत प्रकाशित की चर्चा है। इस चर्चा के प्रसंग में ग्रन्थकार ने स्पष्ट रूप से यह कृति के समान ही हैं, किन्तु टीका भिन्न है। इसकी एक अन्य फोटो उल्लेख किया है कि व्याकरणप्रभृति ग्रन्थों में समाहित इस अध्ययन कापी लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर, अहमदाबाद का ऐसा दूसरा पाठ भी मिलता है। यह मूलपाठ इस प्रकार हैसे भी प्राप्त हुई है। एक अन्य प्रश्नव्याकरण की सूचना हमें पाटन वागरणगंथाओं पभिति सामित्तं ज्ञान भण्डार की सूची से प्राप्त होती है। यह ग्रन्थ भी चूड़ामणि नामक इमं अज्झयणं ताव इमो बीओ पाढो दिस्सतिर टीका के साथ है और टीका का ग्रन्थांक २३०० श्लोक परिमाण बताया इसका तात्पर्य तो यह है कि ऋषिभाषित की विषयवस्तु प्रश्नगया है। यह प्रति भी काफी पुरानी हो सकती है।
व्याकरण में भी सामहित थी। यद्यपि यह एक विवादास्पद प्रश्न होगा इस सब आधारों से ऐसा लगता है कि प्रश्नव्याकरण का कि प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु से ऋषिभाषित का निर्माण हुआ या निमित्तशास्त्र से सम्बन्धित संस्करण भी पूरी तरह विलुप्त नहीं हुआ ऋषिभाषित की विषयवस्तु से प्रश्नव्याकरण का। लेकिन यह सुस्पष्ट होगा, अपितु उसे उससे अलग करके सुरक्षित कर लिया गया हो। है कि किसी समय प्रश्नव्याकरण और ऋषिभाषित की विषयवस्तु समान यदि कोई विद्वान् इन सब ग्रन्थों को लेकर उनकी विषयवस्तु को थी और उनमें कुछ पाठान्तर भी थे। अत: वर्तमान ऋषिभाषित में प्राचीन समवायांग, नन्दीसूत्र एवं धवला में प्रश्नव्याकरण की उल्लिखित विषय प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु का होना निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता सामग्री के साथ मिलान करे तो यह पता चल सकेगा कि प्रश्नव्याकरण है। साथ ही यह भी सिद्ध हो जाता है कि मूल प्रश्नव्याकरण में पार्श्व नामक जो अन्य ग्रन्थ उपलब्ध हैं वे प्रश्नव्याकरण के द्वितीय संस्करण आदि प्राचीन अर्हत् ऋषियों के दार्शनिक विचार एवं उपदेश के ही अंश हैं या अन्य हैं। यह भी सम्भव है कि समवायांग और निहित थे। नन्दी के रचनाकाल में प्रश्नव्याकरण नामक कई ग्रन्थ वाचना-भेद से प्रचलित हो और उनमें उन सभी विषयवस्तु को समाहित किया गया प्रश्नव्याकरण और जयपायड की विषयवस्तु की आंशिक समानता हो। इस मान्यता का एक आधार यह है कि ऋषिभाषित, समवायांग, 'प्रश्नव्याकरणाख्य जयपायड' नामक जिस ग्रन्थ का हमने उल्लेख नन्दी एवं अनुयोगद्वार में वागरणगंथा एवं पण्हावागरणाइं- ऐसे बहुवचन किया है, उसकी विषय सामग्री निमित्तशास्त्र से सम्बन्धित है। पुन: प्रयोग मिलते हैं। इससे ऐसा लगता है कि इस काल में वाचनाभेद उसमें कर्ता ने तीसरी गाथा में 'पण्हं जयपायडं वोच्छं' कहकर के से या अन्य रूप अनेक प्रश्नव्याकरण उपस्थित रहे होंगे। प्रश्नव्याकरण और जयपायड की समरूपता को स्पष्ट किया है। प्रस्तुत
इन प्रश्नव्याकरणों की संस्कृत टीका सहित ताड़पत्रीय प्रतियां ग्रन्थ की इसी गाथा की टीका में ग्रन्थ की विषयवस्तु को स्पष्ट करते मिलना इस बात की अवश्य सूचक हैं कि ईसा की ४-५वीं शती हुये कहा गया है कि इसमें 'नष्टमुष्टिचिन्तालाभालाभसुखदुःखजीवनमरण' में ये ग्रन्थ अस्तित्व में थे, क्योंकि ९-१०वीं शताब्दी में जब इनकी आदि सम्बन्धी प्रश्न हैं। इस उल्लेख से ऐसा लगता है कि धवलाकार टीकाएं लिखी गईं, तो उसके पूर्व भी ये ग्रन्थ अपने मूल रूप में ने प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु का जिस रूप में उल्लेख किया है रहे होंगे।
उसकी इससे बहुत कुछ समानता है। २१ प्रस्तुत ग्रन्थ के विषयों में सम्भवत: ईसा की लगभग २-३री शताब्दी में प्रश्नव्याकरण में मुष्टिविभाग प्रकरण, नष्टिका चक्र, संख्या प्रमाण, लाभ प्रकरण, निमित्तशास्त्र सम्बन्धी सामग्री जोड़ी गई हो और फिर उसमें से ऋषिभाषित अस्त्रविभाग प्रकरण आदि ऐसे हैं जिनकी विषयवस्तु समवायांग में का हिस्सा अलग किया गया और उसे विशिष्ट रूप से एक निमित्तशास्त्र प्रश्नव्याकरण के वर्णित विषयों से यत्किचित् समान हो सकती है।२२
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८०
दुर्भाग्य यह है कि प्रकाशित होते हुए भी विद्वानों को इस ग्रन्थ की जानकारी नहीं है। यह जैन निमित्तशास्त्र का प्राचीन एवं प्रमुख ग्रन्थ है।
ग्रन्थ की भाषा को देखकर सामान्यतया यह अनुमान किया जा सकता है कि यह ईस्वी सन् की चौथी - पाँचवी शताब्दी की हो सकती है अन्य के लिए प्रयुक्त पायड या पाहुड शब्द से भी यह फलित होता है कि यह ग्रन्थ लगभग पाँचवी शताब्दी के आसपास की रचना होना चाहिए, क्योंकि कसायपाहुड एवं कुन्दकुन्द के पाहुड ग्रन्थ इसी कालावधि के कुछ पूर्व की रचनाएं हैं। सूर्यप्रज्ञप्ति में भी विषयों का वर्गीकरण पाहुडों के रूप में हुआ है। अतः यह सम्भावना हो है कि जयपायड प्रश्नव्याकरण के द्वितीय संस्करण का कोई रूप हो, यद्यपि इस सम्बन्ध में अन्तिमरूप से तभी कुछ कहा जा सकता है जब प्रश्नव्याकरण के नाम से मिलने वाली सभी रचनाएं हमारे समक्ष उपस्थित हों और इनका प्रामाणिक रूप से अध्ययन किया जाये ।
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
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विषय - सामग्री में परिवर्तन क्यों?
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यद्यपि यहां यह प्रश्न स्वाभाविकरूप से उठता है कि प्रथम ऋषिभाषित आचार्यभाषित महावीरभाषित आदि भाग को हटाकर उसमें निमित्तशास्त्र सम्बन्धी विवरण रखना और फिर निमित्तशास्त्र सम्बन्धी विवरण हटाकर आश्रवद्वार और संवरद्वार सम्बन्धी विवरण रखना यह सब क्यों हुआ? सर्वप्रथम ऋषिभाषित आदि भाग क्यों हटाया गया ? मेरी दृष्टि में इसका कारण यह है कि ऋषिभाषित में अधिकांशतः अजैन परम्परा के (ऋषियों के उपदेश एवं विचार संकलित थे इसके पठनपाठन से एक उदार दृष्टिकोण का विकास तो होता था, किन्तु जैनधर्म संघ के प्रति अटूट श्रद्धा खण्डित होती थी तथा परिणामस्वरूप संघीय व्यवस्था के लिए अपेक्षित धार्मिक कट्टरता और आस्था टिक नहीं पाती थी। इससे धर्मसंघ को खतरा था। पुनः यह युग चमत्कारों द्वारा लोगों को अपने धर्मसंघ के प्रति आकर्षित करने और उनकी धार्मिक श्रद्धा को दृढ़ करने का था— चूंकि तत्कालीन जैन परम्परा के साहित्य में इसका अभाव था, अतः उसे जोड़ना जरूरी था। समवायांग में प्रश्नव्याकरण सम्बन्धी जो विवरण उपलब्ध हैं उससे भी इस तथ्य की पुष्टि होती है— उसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि लोगों को जिनप्रवचन में स्थित करने के लिए, उनकी मति को विस्मित करने के लिए सर्वज्ञ के वचनों में विश्वास उत्पन्न करने के लिए इसमेंमहाप्रश्नविद्या, मनः प्रश्नविद्या, देवप्रयाग आदि का उल्लेख किया गया है। यद्यपि यह आश्चर्यजनक है कि एक ओर निमित्तशास्त्र को पापसूत्र कहा गया, किन्तु संघहित के लिए दूसरी ओर उसे अंग आगम में सम्मिलित कर लिया गया, क्योंकि जब तक उसे अंग साहित्य का भाग बनाकर जिनप्रणीत नहीं कहा जाता तब तक लोगों की आस्था उस पर टिक नहीं पाती और जिनप्रवचन की अतिशयता प्रकट नहीं होती। अतः प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु में परिवर्तन करने का दोहरा लाभ था एक ओर अन्यतीर्थिक ऋषियों के वचनों को उससे अलग किया जा सकता था और दूसरी ओर उसमें निमित्तशास्त्र सम्बन्धी नई सामग्री जोड़कर उसकी प्रामाणिकता को भी सिद्ध किया जा सकता
था किन्तु जब परवर्ती आचायों ने इसका दुरुपयोग होते देखा होगा और मुनिवर्ग को साधना से विरत होकर इन्हीं नैमित्तिक विद्याओं की उपासना में रत देखा होगा तो उन्होंने यह नैमित्तिक विद्याओं से युक्त विवरण उससे अलग कर उसमें पांच आश्रवद्वार और पांच संवरद्वार वाला विवरण रख दिया। प्रश्नव्याकरण के टीकाकार अभयदेव एवं ज्ञानविमल ने भी विषय परिवर्तन के लिए यही तर्क स्वीकार किया है। १३
प्रश्नव्याकरण की प्राचीन विषयवस्तु कब उससे अलग कर दी गई और उसके स्थान पर पांच आश्रवद्वार और पांच संवरद्वार रूप नवीन विषयवस्तु रख दी गई, यह प्रश्न भी विचारणीय है। अभयदेवसूरे ने अपनी स्थानांग और समवायांग की टीका में भी यह स्पष्ट निर्देश किया है कि वर्तमान प्रश्नव्याकरण में इनमें सूचित विषयवस्तु उपलब्ध नहीं है ।२४ मात्र यही नहीं, उन्होंने पांच आश्रवद्वार और पांच संवरद्वार वाले वर्तमान में उपलब्ध प्रश्नव्याकरण पर ही टीका लिखी है। अतः वर्तमान संस्करण की निम्नतम सीमा अभयदेव के काल अर्थात् ईस्वी सन् १०८० से पूर्ववर्ती होना चाहिए। पुनः अभयदेव ने प्रश्नव्याकरण में एक श्रुतस्कन्ध है या दो श्रुतस्कन्ध है इस समस्या को उठाते हुए अपनी वृत्ति की पूर्वपीठिका में अपने से पूर्ववर्ती आचार्य का मत उद्धृत किया है— 'दो सुयसंघा पण्णत्ता आसवदारा य संवरदारा य- ।' अभयदेव ने पूर्वाचार्य की मान्यता को अस्वीकार भी किया है और यह भी कहा है कि यह दो श्रुतस्कन्धों की मान्यता रूढ़ नहीं है। सम्भवतः उन्होंने अपना एक श्रुतस्कन्ध सम्बन्धी मत समवायांग और नन्दी के आधार पर बनाया हो इसका अर्थ यह भी है कि अभयदेव के पूर्व भी प्रश्नव्याकरण के वर्तमान संस्करण पर प्राकृत भाषा में ही कोई व्याख्या लिखी गई थी, जिसमें दो श्रुतस्कन्ध की मान्यता को पुष्ट किया गया था। उसका काल अभयदेव से २-३ शताब्दी पूर्व अर्थात् ईसा की ८ वीं शताब्दी के लगभग अवश्य रहा होगा । पुनः आचार्य जिनदासगण महत्तर ने नन्दीसूत्र पर शक संवत् ५९८ अर्थात् ईस्वी सन् ६७६ ई० में अपनी चूर्णी समाप्त की थी। उस चूर्णी में उन्होंने प्रश्नव्याकरण में पंचवरादि की व्याख्या होने का स्पष्ट निर्देश किया है। इससे भी यह सिद्ध हो जाता है कि ईस्वी सन् ६७६ के पूर्व प्रश्नव्याकरण का पंचसंवरद्वारों से युक्त संस्करण प्रसार में आ गया था, अर्थात् आगमों के लेखनकाल के पश्चात् लगभग सौ वर्ष की अवधि में वर्तमान प्रश्नव्याकरण अस्तित्व में अवश्य आ गया था। प्रस्तुत प्रश्नव्याकरण की प्रथम गाथा, जिसमें 'वोच्छामि' कहकर ग्रन्थ के कथन का निश्चय सूचित किया गया है, की रचना शेष सभी अंग आगमों के प्रारम्भिक कथन से बिलकुल भिन्न है। यह ५वीं - ६ठीं शताब्दी में रचित ग्रन्थों की प्रथम प्राक्कथन गाथा के समान ही है। अतः प्रस्तुत प्रश्नव्याकरण रचनाकाल ईसा की छठीं शताब्दी माना जा सकता है।
२५
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि वह प्रश्नव्याकरण जिसमें उसकी विषयवस्तु ऋषिभाषित की विषयवस्तु के समरूप थी, प्राचीनतम संस्करण है जो लगभग ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी की रचना होगी। फिर ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी में उसमें निमित्तशास्त्र सम्बन्धी
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विवरण जुड़े जिनकी सूचना उसके स्थानांग के विवरण से मिलती है। इसके पश्चात् ईसा की चौथी शताब्दी में ऋषिभाषित आदि भाग अलग किये गये और उसे निमित्तशास्त्र का प्रन्थ बना दिया, समवायांग का विवरण इसका साक्षी है। इस काल में प्रश्नव्याकरण के नाम से वाचनाभेद से अनेक ग्रन्थ अस्तित्व में थे ऐसी भी सूचना हमें आगम साहित्य से मिल जाती है। लगभग ईसा की ६ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में इन ग्रन्थों के स्थान पर वर्तमान प्रश्नव्याकरण सूत्र का आश्रव एवं संवर के विवेचन से युक्त यह संस्करण अस्तित्व में आया है जो वर्तमान में हमें उपलब्ध है। यह प्रश्नव्याकरण का अन्तिम संस्करण जहां
सन्दर्भ
१. पण्हावागरणेसु अद्भुत्तरं पसिणसयं अदुत्तरं अपसिणसयं अनुत्तरं पसिणापसिणसयं विज्जाइसया नाग-सुवन्नेहिं सद्धिं दिव्व संवाया आघविज्र्ज्जति । समवायांगसूत्र, ५४६ ।
२. वागरणगंथाओ पभिति
। इसिभासियाइं- ३१ ।
३.
४.
4.
५.
प्रश्नव्याकरणसूत्र की प्राचीन विषयवस्तु की खोज
पण्हावागरणदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा उवमा, संख, इसिभासियाई, आयरियभासियाई, महावीरभासियाई, खोमगपसिणई, कोमलपसिणा, अंधारापसिणा, अंगुट्ठपसिणाई, बाहुपसिगाई स्थानांगसूत्र, १० / ११६
से किं तं पण्हावागरणाणि? पण्हावागरणेसु अद्भुत्तरं पसिणसयं अट्टुत्तरं अपसिणस, अट्टुत्तरं सिणापसिणसयं विज्जाइसया नाग-सुवन्नेहिं सद्धिं दिव्वा संवाया आघविज्जंति । पण्हावागरणदसासु णं ससमय परसमय पण्णवय- पत्ते अबुद्धविवित्थभासा- भासियाणं अइसयगुण उवसम-णाणप्पगारआयरियभासियाणं वित्थरेणं, वीरमहेसीहिं विविहवित्थरभासियाणं च जगहियाणं अद्दागंगुट्ठ - बाहु-असि मणि-खोम- आइच्चभासियाणं विविमहापसिणविज्जा-मणपसिणविज्जा देवयपयोग पहाण गुणप्पसियाणी सब्भूयद्गुणप्पभाव- नरगणमइविम्हयकराणं अइसयमईयकालसमयदम-सम- तित्थकरुत्तमस्स ठिइकरणकारणाणं दुरहिगम-दुरवगाहस्स सव्वसव्वन्नुसम्म अस्स अबुह-जण-विबोहणकरस्स पच्चक्खयपच्चयकराणं पहाणं विविगुणमहत्था जिणवरप्पणीया आघविज्जति । पन्हाचागरणेसु णं परिता वायणा, संखेज्जा अणुओगदारा, संखेज्जाओ पडिवत्तीओ, संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ निज्जुतीओ, संखेज्जाओ संग्रहणीओ।
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सेणं अंगडयाए दसमे अंगे एगे सुयवखंधे, पणयालीसं उद्देसणकाला, पणयालीसं समुद्देसणकाला, संखेज्जाणि पयसयसहस्साणि पयग्गेणं पण्णत्ताई। संखेज्जा अक्खरा, अणंता गमा, अणंता पज्जवा, परित्ता तसा, अनंता थावरा, सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविज्जति पण्णविज्जति परुविज्जेति निसिखति उपदेसिज्जति। से एवं आया, से एवं णाया, एवं विण्णाया, एवं चरण-करणपरूवणया आधविज्जति से तं पण्हावागरणाई १० ।
समवायांगसूत्र, ५४६-५४९ । से किं तं पण्हावागरणाई ? पण्हावागरणेसु णं-अङ्गुत्तरं पसिणस, अट्टुत्तरं अपसिणसयं, अट्टुत्तर पसिणापणिसयं, तंजहा अंगुट्ठपसिणाई,
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८१
तक प्रश्नव्याकरण के उपर्युक्त दो प्राचीन लुप्त संस्करणों की विषयवस्तु का प्रश्न है, उसमें से प्रथम संस्करण की विषयवस्तु अधिकांश रूप से एवं कुछ परिवर्तनों के साथ वर्तमान में उपलब्ध ऋषिभाषित (इसिभासियाई), उत्तराध्ययन सूत्रकृतांग एवं ज्ञाताधर्मकथा में समाहित है। द्वितीय निमित्तशास्त्र सम्बन्धी संस्करण की विषयवस्तु, जयपायड और प्रश्नव्याकरण के नाम से उपलब्ध अन्य निमित्तशास्त्रों के ग्रन्थों में हो सकती है। यद्यपि इस सम्बन्ध में विशेषरूप से शोध की आवश्यकता है। आशा है विद्वद्जन इस दिशा में ध्यान देंगे।
७.
८.
बाहुपसिणाई अद्दागपसिणाई, अन्नेवि विचित्ता विज्जाइसया, नाग- सुवण्णेहिं सद्धिं दिव्वा संवाया आघविज्जन्ति ।
पावागरणाणं परिता वायणा, संखेज्जा अणुओगदारा, संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ, संखेज्जाओ, संगहणीओ, संखेज्जाओ पडिवत्तीओ।
सेणं अंगट्टयाए दसमे अंगे, एगे सुयक्खंघे, पणयालीसं अज्झयणा, पणयालीसं उद्देसणकाला, पणयालीसं समुद्देसणकाला, संखेज्जाई परसहस्साइं पयग्वेणं, संखेज्जा अवखरा, अणता गमा, अनंता पज्जवा, परिता तसा अणन्ता थावरा, सासयकडनिबद्धनिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविज्जन्ति, पण्णविज्जन्ति परूविज्जन्ति, देसिज्जन्ति निर्देसिज्जन्ति उवदंसिज्जन्ति ।
से एवं आया, एवं नाया एवं विण्णाया, एवं चरणकरणपरूवणा आविज्जई स तं पण्हावागरणाई। - नन्दीसूत्र, ५४ ॥ आक्षेपविक्षेपैर्हेतुनयाश्रितानां प्रश्नानां व्याकरणं प्रश्नव्याकरणम्, तस्मिल्लौकिकवैदिकानामर्थानां निर्णयः । तत्त्वार्थवार्तिक १/२०
( पृ० ७३-७४) । अक्खेवणी विक्खेवणी संवेयणी णिव्वेयणी चेदि चडव्विहाओ कहाओ वण्णेदि तत्व अक्खेवणी नाम छद्दव्व णव पयत्वाणं सरूवं दिगंतरसमयांतर - निराकरणं मुद्धिं करेंती परूवेदि । विक्खेवणी णाम परसमएण ससमयं दूसंती पच्छा दिगंतरसुद्धिं करती ससमयं थावंती छद्दव्वा णवपयत्थे परूवेदि ।
संवेयणी णाम पुण्णफलसंकहा। काणि पुण्णफलाणि? तित्वयरगणहर-रिसि चक्कवडि बलदेव सुर- विज्जाहररिद्धीओ।
णिव्वेयणी णाम पावफलसंकहा। काणि पावफलाणि? णिरय-तिरियकुमाणुसजोणीसु जाइ जरा मरण वाहि वेयणा दालिदादीणि संसारसरीरभोगे वेरग्गुष्पाहणी णिब्वेयणीणा.........| पहाओ हद-न-मुट्ठ-चिंता-लाहालाह- सुह- दुक्ख जीविय मरणजय-पराजय-णाम- दव्वासु संखं च परूवेदि ।
-धवला, पुस्तक १, भाग १, पृ० १०७-८1 वागरणगंथाओं पभिति जाव सामित्तं इमं अज्झयणं ताव इमो बीओ पाढो दिस्सति, तंजा
इसिभासियाई, अध्याय ३१ ।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
९. नवविहे पावसुयपसंगे पण्णत्ते, तं जहा
उप्पाए, नेमित्तए, मत्ते, आइक्खए, तिगिच्छीए।
कलावरण-अन्नाणे, मिच्छापावयणत्तिय।। - स्थानाँग, स्थान ९ १०. पत्तेयबुद्धमिसिणो बीसं तित्थे अरिट्ठणेमिस्स। पासस्स य पण्णरस वीरस्स विलीणमोहस्स।।
- इसिभासियाई, पढमा संग्रहणी, गाथा, १ ११. चोयलीसं अज्झयणा इसिभासिया दियलोगचुया भासिया पण्णत्ता।
. - समवायांगसूत्र, ४४/२५८ १२. अंगट्ठाए दसमे अंगे, एगे सुअखंधे, पणयालीसं अज्झयणा।
-नन्दीसूत्र-५४। १३. (क) पदग्गं बाणउतिंलक्खा सोलस य सहस्सा।
- नन्दीचूर्णि, पृ०७०। (ख) द्विनवतिलक्षाणि षोडश च सहस्राणि।
-समवायांगवृत्ति १४. पण्हवायरणो णाम अंग तेणउदिलक्ख–सोलससहस्सपदेहि।
-धवला, भाग १, पृ० १०४ १५. समवायांग, ५४७ १६. समवायांग, ५४७ १७. प्रश्नव्याकरण, जयप्राभृत, (ग्रन्थ० २२८), जैन ग्रन्थावली,
पृ०३५५। (अ) चूडामणिवृत्ति (ग्रन्थ २३००), पाटन केटलोग, भाग १, पृ० ८ (ब) लीलावती टीका, पाटन केटलोग, भाग १, पृ० ८ एवं इन्ट्रोडक्शन,
१९. इसिभासियाइ (शुब्रिग) अध्याय ३१, पृ० ६९ २०. महमाहप्पुप्पाय, भुवणब्भंतरपवंत (वत्त) वावारं। अइसयपुण्णं णाणं, पण्हं जयपायडं वोच्छं।।
-प्रश्नव्याकरणाख्यं जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् ३। २१. नष्टमुष्टिचिन्ता-लाभालाभ-सुख-दुःख-जीवित-मरणाभिव्यजंकत्वम्।
-प्रश्नव्याकरणाख्यं जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम्, टीका। तुलनीय- पण्हादो हद-नट्ठ-पुट्ठि-चिंता-लाहालाहसुह-दुक्ख-जीवियमरण-जथ-णाम-दव्वायु-संखं च परूवेदि।
-धवला, भाग १, पृ० १०७-८ २२. प्रश्नव्याकरणाख्यं जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम्। - प्रकरण १४,
१७, २१, ३८। २३. (अ) अतिशयानां पूर्वाचार्यैरेदंयुगीनानामपुष्टालम्बनप्रतिषेविपुरुषापेक्ष
योत्तारितत्वादिति। - प्रश्नव्याकरणवृत्ति (अभयदेव) प्रारम्भ। (ब) पूर्वाचायैरेदंयुगीनपुरुषाणां तथाविधहीनहीनतरपाण्डित्यबलबुद्धिवीर्यापेक्षया ।
पुष्टालम्बनमुद्दिश्य प्रश्नादिविधास्थाने पंचाश्रव-संवररूपं समुत्तारितम्।
-प्रश्नव्याकरण टीका (ज्ञानविमल), प्रारम्भ। २४. (अ) प्रश्नानां विद्याविशेषाणां यानि व्याकरणानि तेषां प्रतिपादनपरा
दशा दशाध्ययनप्रतिबद्धाः ग्रन्थपद्धतय इति प्रश्नव्याकरणदशा:। अयं च व्युत्पत्त्यर्थोऽस्य पूर्वकालेभूत्। इदानीं त्वाश्रवपंचकसंवरापंचकव्याकृतेरेवेहोपलभ्यते। -- प्रश्नव्याकरण वृत्ति (अभयदेव) प्रारम्भ। (ब) प्रश्ना: अंगुष्ठादिप्रश्नविद्या व्याक्रियन्ते अभिघीयन्ते अस्मिन्निति प्रश्नव्याकरणम् एतादृशं पूर्वकालेऽभूत। इदानीं तु आश्रव-संवरपंचकव्याकृतिरेव लभ्यते।
-प्रश्नव्याकरण टीका (ज्ञानविमल) प्रारम्भ। २५. शकराज्ञो पंचसु वर्षशतेषु व्यतिक्रान्तेषु अष्टनवतेषु नंद्यध्ययनचूर्णी समाप्ता।।
-नन्दीचूर्णि (प्राकृत-टेक्स्ट-सोसायटी)। पाठान्तर-सकराक्रान्तेषु पंचसु वर्षशतेषु नन्द्यध्ययनचूर्णी समाप्ता।।
-नन्दीचूर्णि (ऋषभदेव केशरीमल, रतलाम)। २६. तम्हि पण्हावागरणे अंगे पंचासवदाराई वा व्याख्येयाः परप्पवादिणो य।
–णंदीत्तचूण्णि, पृ० ६९।
पृ०६।
(स) प्रदर्शनज्योतिर्वृत्ति, पाटन केटलोग, भाग १, पृ० ८ एवं
इन्ट्रोडक्शन, पृ०६। बृहद्वृत्तिटिप्पणिका (जैन साहित्य संशोधक, पूना १९:५, क्रमांक ५६०), जैन ग्रन्थावली, पृ० ३५५।
-जिनरत्नकोश, पृ० २७४ १८. जिनरत्नकोश, पृ० २७४।
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जैन, बौद्ध और औपनिषदिक ऋषियों के उपदेशों का प्राचीनतम
सङ्कलन : ऋषिभाषित
जैन आगम-साहित्य में ऋषिभाषित का स्थान
विधि को समाप्त किया है। उन्होंने जिन प्रकीर्णकों का उल्लेख किया ऋषिभाषित-(इसिभासियाई) अर्धमागधी जैन आगम-साहित्य का है उनमें ऋषिभाषित भी समाहित है। इस प्रकार वर्गीकरण की प्रचलित एक प्राचीनतम ग्रन्थ है। वर्तमान में जैन आगमों के वर्गीकरण की पद्धति में ऋषिभाषित की गणना प्रकीर्णक सूत्रों में की जा सकती है। जो पद्धति प्रचलित है, उसमें इसे प्रकीर्णक ग्रन्थों के अन्तर्गत वर्गीकृत प्राचीनकाल में जैन परम्परा में इसे एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ माना किया जाता है। दिगम्बर परम्परा में १२ अंग और १४ अंगबाह्य माने जाता था। आवश्यकनियुक्ति में भद्रबाहु ऋषिभाषित पर भी नियुक्ति गये हैं; किन्तु उनमें ऋषिभाषित का उल्लेख नहीं है। श्वेताम्बर जैन लिखने की प्रतिज्ञा करते हैं, वर्तमान में यह नियुक्ति उपलब्ध नहीं परम्परा में स्थानकवासी और तेरापंथी, जो ३२ आगम मानते हैं , होती है। आज तो यह कहना भी कठिन है कि यह नियुक्ति लिखी उनमें भी ऋषिभाषित का उल्लेख नहीं है। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा गई थी या नहीं। यद्यपि 'इसिमण्डल' जिसका उल्लेख आचारांगचूर्णि में ११ अंग, १२ उपांग, ६ छेदसूत्र, ४ मूलसूत्र, २चूलिकासूत्र और में है, इससे सम्बन्धित अवश्य प्रतीत होता है। इन सबसे इतना तो १० प्रकीर्णक, ऐसे जो ४५ आगम माने जाते हैं, उनमें भी १० प्रकीर्णको सिद्ध हो जाता है कि ऋषिभाषित एक समय तक जैन परम्परा का मे हमें कहीं ऋषिभाषित का नाम नहीं मिलता। यद्यपि नन्दीसूत्र और महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ रहा है। स्थानांग में इसका उल्लेख प्रश्नव्याकरणदशा पाक्षिकसूत्र में जो कालिक सूत्रों की गणना की गयी है उनमें ऋषिभाषित के एक भाग के रूप में हुआ है। समवायांग इसके ४४ अध्ययनों का उल्लेख है। आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थभाष्य में अंगबाह्य ग्रन्थों का उल्लेख करता है। नन्दीसूत्र, पाक्षिकसूत्र आदि में इसकी गणना की जो सूची दी है उसमें सर्वप्रथम सामायिक आदि ६ ग्रन्थों का उल्लेख कालिकसूत्रों में की गई है। आवश्यकनियुक्ति इसे धर्मकथानुयोग का है और उसके पश्चात् दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, दशा (आचारदशा), ग्रन्थ कहती है (आवश्यकनियुक्ति-हारिभद्रीयवृत्ति, पृ० २०६)। कल्प, व्यवहार, निशीथ और ऋषिभाषित का उल्लेख है। हरिभद्र आवश्यकनियुक्ति की वृत्ति में एक स्थान पर इसका उल्लेख उत्तराध्ययन ऋषिभाषित का रचनाक्रम एवं काल के साथ करते हैं और दूसरे स्थान पर 'देविंदथय' नामक प्रकीर्णक यह ग्रन्थ अपनी भाषा, छन्दयोजना और विषयवस्तु की दृष्टि के साथ।' हरिभद्र के इस भ्रम का कारण यह हो सकता है कि उनके से अर्धमागधी जैन आगम ग्रन्थों में अतिप्राचीन है। मेरी दृष्टि में यह सामने ऋषिभाषित (इसिभासियाई) के साथ-साथ ऋषिमण्डलस्तव ग्रन्थ आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध से किंचित् परवर्ती तथा सूत्रकृतांग, (इसिमण्डलथउ) नामक ग्रन्थ भी था, जिसका उल्लेख आचारांगचूर्णि उत्तराध्ययन एवं दशवैकालिक जैसे प्राचीन आगम ग्रन्थों की अपेक्षा में है और उनका उद्देश्य ऋषिभाषित को उत्तराध्ययन के साथ और पूर्ववर्ती सिद्ध होता है। इतना सुनिश्चित है कि इसकी छन्दयोजना, ऋषिमण्डलस्तव को 'देविंदथय' के साथ जोड़ने का होगा। यह भी शैली एवं भाषा अत्यन्त प्राचीन है। मेरी दृष्टि में इसका वर्तमान स्वरूप स्मरणीय है कि इसिमण्डल (ऋषिमण्डल) में न केवल ऋषिभाषित भी किसी भी स्थिति में ईसापूर्व तीसरी-चौथी शताब्दी से परवर्ती सिद्ध के अनेक ऋषियों का उल्लेख है, अपित इसिभासियाई में उनके जो नहीं होता है। स्थानांग में प्राप्त सूचना के अनुसार यह ग्रन्थ प्रारम्भ उपदेश और अध्याय हैं उनका भी संकेत है। इससे यह भी निश्चित में प्रश्नव्याकरणदशा का एक भाग था, स्थानांग में प्रश्नव्याकरणदशा होता है कि इसिमण्डल का कर्ता ऋषिभाषित से अवगत था। मात्र की जो दस दशाएँ वर्णित हैं, उनमें ऋषिभाषित का भी उल्लेख है। यही नहीं ऋषिमण्डल में तो क्रम और नामभेद के साथ ऋषिभाषित समवायांग इसके ४४ अध्ययन होने की भी सूचना देता है। अतः के लगभग सभी ऋषियों का भी उल्लेख मिलता है। इसिमण्डल का यह इनका पूर्ववर्ती तो अवश्य ही है। सूत्रकृतांग में नमि, बाहुक, रामपुत्त, उल्लेख आचारांगचूर्णि 'इसिणामकित्तणं इसिमण्डलस्थउ ' (पृ० ३७४) असितदेवल, द्वैपायन, पराशर आदि ऋषियों का एवं उनकी आचारगत में होने से यह निश्चित ही उसके पूर्व (७वीं शती) का पूर्व के ग्रन्थ मान्यताओं का किंचित् निर्देश है। इन्हें तपोधन और महापुरुष कहा है। विद्वानों को इस सम्बन्ध में विशेष रूप से चिन्तन करना चाहिए। गया है। उसमें कहा गया है कि ये पूर्व ऋषि इस (आर्हत् प्रवचन) इसिमण्डल के संबंध में यह मान्यता है कि वह तपागच्छ के धर्मघोषसूरि में ‘सम्मत' माने गये हैं। इन्होंने (सचित्त) बीज और पानी का सेवन की रचना है, किन्तु यह धारणा मुझे भ्रान्त प्रतीत होती है क्योंकि करके भी मोक्ष प्राप्त किया था। अत: पहला प्रश्न यही उठता है ये १४ वीं शती के आचार्य हैं। वस्तुत: इसिमण्डल की भाषा से भी कि इन्हें सम्मानित रूप में जैन परम्परा में सूत्रकृतांग के पहले किस ऐसा लगता है कि यह प्राचीन ग्रन्थ है और इसका लेखक ऋषिभाषित ग्रन्थ में स्वीकार किया गया है। मेरी दृष्टि में केवल ऋषिभाषित ही का ज्ञाता है। आचार्य जिनप्रभ ने विधिमार्गप्रपा में तप आराधना के एक ऐसा ग्रन्थ है, जिसमें इन्हें सम्मानित रूप से स्वीकार किया गया। साथ आगमों के स्वाध्याय की जिस विधि का वर्णन किया है, उसमें सूत्रकृतांग की गाथा का 'इस-सम्मता' शब्द स्वयं सूत्रकृतांग की अपेक्षा प्रकीर्णकों में ऋषिभाषित का उल्लेख करके प्रकीर्णक अध्ययन क्रम ऋषिभाषित के पूर्व अस्तित्व की सूचना देता है। ज्ञातव्य है कि सूत्रकृतांग
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जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६
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और ऋषिभाषित दोनों में जैनेतर परम्परा के अनेक ऋषियों यथा असितदेवल, बाहुक आदि का सम्मानित रूप में उल्लेख किया गया है। यद्यपि दोनों अ: भाषा एवं शैली भी मुख्यतः पद्यात्मक ही है, फिर भी भाषा के दृष्टिकोण से विचार करने पर सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की भाषा भी ऋषिभाषित की अपेक्षा परवर्तीकाल की लगती है क्योंकि उसकी भाषा महाराष्ट्री प्राकृत के निकट है। जबकि ऋषिभाषित की भाषा कुछ परवर्ती परिवर्तन को छोड़कर प्राचीन अर्धमागधी है। पुनः जहाँ सूत्रकृतांग में इतर दार्शनिक मान्यताओं की समालोचना की गयी है, वहाँ ऋषिभाषित में इतर परम्परा के ऋषियों का सम्मानित रूप में ही उल्लेख हुआ है। यह सुनिश्चित सत्य है कि यह ग्रन्थ जैनधर्म एवं संघ के सुव्यवस्थित होने के पूर्व लिखा गया था। इस ग्रन्थ के अध्ययन से यह भी स्पष्ट रूप से प्रतीत होता है कि इसके रचनाकाल तक जैन संघ में साम्प्रदायिक अभिनिवेश का पूर्णतः अभाव था। मंखलिगोशालक और उसकी मान्यताओं का उल्लेख हमें जैन आगम सूत्रकृतांग, भगवती और उपासकदशांगर में और बौद्ध परम्परा के सुत्तनिपात, दीघनिकाय के सामञ्ञफलसुत्त आदि में मिलता है। सूत्रकृतांग में यद्यपि स्पष्टतः मंखलिगोशालक का उल्लेख नहीं है, किन्तु उसके आर्द्रक नामक अध्ययन में नियतिवाद की समालोचना अवश्य है। यदि हम साम्प्रदायिक अभिनिवेश के विकास की दृष्टि से विचार करें तो भगवती का मंखलिगोशालक वाला प्रकरण सूत्रकृतांग और उपासकदशांग की अपेक्षा भी पर्याप्त परवर्ती सिद्ध होगा। सूत्रकृतांग, उपासकदशाङ्ग और पालित्रिपिटक के अनेक ग्रन्थ मंखलिगोशालक के नियतिवाद को प्रस्तुत करके उसका खण्डन करते हैं। फिर भी जैन आगम ग्रन्थों की अपेक्षा सुत्तनिपात में मंखलिगोशालक की गणना बुद्ध के समकालीन छ: तीर्थंकरों में करके उनके महत्व और प्रभावशाली व्यक्तित्व का वर्णन अवश्य किया गया है, १४ किन्तु पालित्रिपिटक के प्राचीनतम ग्रन्थ सुत्तनिपात की अपेक्षा भी ऋषिभाषित में उसे अर्हतऋषि कहकर सम्मानित किया गया है। अतः धार्मिक उदारता की दृष्टि से ऋषिभाषित की रचना पालित्रिपिटक की अपेक्षा भी प्राचीन है क्योंकि किसी भी धर्मसंघ के सुव्यवस्थित होने के पश्चात् ही उसमें साम्प्रदायिक अभिनिवेश का विकास हो पाता है। ऋषिभाषित स्पष्टरूप से यह सूचित करता है कि उसकी रचना जैन- परम्परा में साम्प्रदायिक अभिनिवेश आने के बहुत पूर्व हो चुकी थी । केवल आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध को छोड़कर शेष सभी जैन आगम ग्रन्थों में यह धार्मिक अभिनिवेश न्यूनाधिक रूप में अवश्य परिलक्षित होता है। अतः ऋषिभाषित केवल आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध को छोड़कर शेष सभी जैनागमों से प्राचीन सिद्ध होता है। भाषा, छन्दयोजना आदि की दृष्टि से भी यह आचारांग के प्रथमत स्कन्ध और सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के मध्य में ही सिद्ध होता है।
बौद्ध त्रिपिटक साहित्य में प्राचीनतम ग्रन्थ सुत्तनिपात है१५ किन्तु उसमें भी वह उदारता नहीं है जो ऋषिभाषित में है त्रिपिटक साहित्य में ऋषिभाषित में उल्लिखित कुछ ऋषियों यथा नारद, १६ असितदेवल, १७ पिंग, १८ मंखलिपुत्र, १९ संजय (वेलट्ठिपुत्त), वर्धमान (निग्गथं नातपुत्त), कुमापुत्तर आदि के उल्लेख हैं किन्तु इन सभी को बुद्ध से निम्न ही
बताया गया है। दूसरे शब्दों में वे प्रन्थ भी साम्प्रदायिक अभिनिवेश
मुक्त नहीं हैं, अतः यह उनका भी पूर्ववर्ती ही है। ऋषिभाषित में उल्लिखित अनेक गावांश और गाथाएँ भाव, भाषा और शब्दयोजना की दृष्टि से जैन परम्परा के सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक और बौद्ध परम्परा के सुत्तनिपात, धम्मपद आदि प्राचीन ग्रन्थों में पाई जाती है। अतः उनकी रचना शैली की अपेक्षा भी यह पूर्ववर्ती ही सिद्ध होता है । यद्यपि यह तर्क दिया जा सकता है कि यह भी सम्भव है। कि ये गाथाएँ एवं विचार बौद्धग्रन्थ सुत्तनिपात एवं जैनग्रन्थ उत्तराध्ययन एवं दशवैकालिक से ऋषिभाषित में गये हैं, किन्तु यह बात इसलिए समुचित नहीं है कि प्रथम तो ऋषिभाषित की भाषा, छन्द-योजना आदि इन ग्रन्थों की अपेक्षा प्राचीनकाल की है और आचारांग एवं सूत्रकृतांग के प्रथम स्कन्ध तथा सुत्तनिपात के अधिक निकट है। दूसरे जहाँ ऋषिभाषित में इन विचारों को अन्य परम्पराओं के ऋषियों के सामान्य सिद्धान्त के रूप में प्रस्तुत किया गया है, वहां बौद्ध त्रिपिटक साहित्य और जैन साहित्य से इन्हें अपनी परम्परा से जोड़ने का प्रयत्न किया गया है। उदाहरण के रूप में आध्यात्मिक कृषि की चर्चा ऋषिभाषित २३ में दो बार और सुत्तनिपात २४ में एक बार हुई है किन्तु जहाँ सुत्तनिपात में बुद्ध कहते हैं कि मैं इस प्रकार की आध्यात्मिक कृषि करता हूँ वहाँ ऋषिभाषित का ऋषि कहता है कि जो भी इस प्रकार की कृषि करेगा वह चाहे ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो, वैश्य हो या शूद्र हो मुक्त होगा । अतः ऋषिभाषित आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध को छोड़कर जैन और बौद्ध परम्परा के अन्य ग्रन्थों की अपेक्षा प्राचीन ही सिद्ध होता है।
भाषा की दृष्टि से विचार करने पर हम यह भी पाते हैं कि ऋषिभाषित में अर्धमागधी प्राकृत का प्राचीनतम रूप बहुत कुछ सुरक्षित है। उदाहरण के रूप में ऋषिभाषित में आत्मा के लिए 'आता' का प्रयोग हुआ है जबकि जैन आगम साहित्य में भी अत्ता, अप्पा, आदा, आया आदि शब्दों का प्रयोग देखा जाता है जो कि परवर्ती प्रयोग हैं। 'त' श्रुति की बहुलता निश्चितरूप से इस ग्रन्थ को उत्तराध्ययन की अपेक्षा पूर्ववर्ती सिद्ध करती है क्योंकि उत्तराध्ययन की भाषा में 'त' के लोप की प्रवृत्ति देखी जाती है। ऋषिभाषित में जाणति, परितप्पति, गच्छती, विज्जती, वट्टती, पवत्तती आदि रूपों का प्रयोग बहुलता से मिलता है। इससे यह सिद्ध होता है कि भाषा और विषयवस्तु दोनों की ही दृष्टि से यह एक पूर्ववर्ती ग्रन्थ है। अगन्धन कुल के सर्प का रूपक हमें उत्तराध्ययन २५, दशवैकालिक २६ और ऋषिभाषित " तीनों में मिलता है। किन्तु तीनों स्थानों के उल्लेखों को देखने पर यह स्पष्ट रूप से ज्ञात हो जाता है कि ऋषिभाषित का यह उल्लेख उत्तराध्ययन तथा दशवैकालिक की अपेक्षा अत्यधिक प्राचीन है। क्योंकि ऋषिभाषित में मुनि को अपने पथ से विचलित न होने के लिए इसका मात्र एक रूपक के रूप में प्रयोग हुआ है जबकि दशवेकालिक और उत्तराध्ययन में यह रूपक राजमती और रथनेमि की कथा के साथ जोड़ा गया है। प्रकार आध्यात्मिक कृषि का रूपक ऋषिभाषित के अध्याय २६ एवं ३२ में और सुत्तनिपात अध्याय ४ में है किन्तु सुत्तनिपात में जहाँ बुद्ध स्वयं कहते हैं कि मैं कृषि करता हूँ, वहाँ ऋषिभाषित में वह एक सामान्य उपदेश है, जिसके अन्त में यह कहा गया है कि जो इस प्रकार की कृषि करता
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जैन, बौद्ध और औपनिषदिक ऋषियों के उपदेशों का प्राचीनक सङ्कलन : ऋषिभाषित
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है वह सिद्ध (सिझंति) होता है, फिर चाहे वह ब्राह्मण हो, क्षत्रिय ऋषिभाषित का प्रश्नव्याकरण से पृथक्करण हो, वैश्य हो या शूद्र हो।२८ अत: ऋषिभाषित सुत्तनिपात, उत्तराध्ययन, अब यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है कि क्यों पहले दशवैकालिक की अपेक्षा प्राचीन है। इस प्रकार ऋषिभाषित आचारांग तो उसे प्रश्नव्याकरणदशा में डाला गया और बाद में उसे उससे अलग प्रथम श्रुतस्कन्ध का परवर्ती और शेष सभी अर्धमागधी आगम-साहित्य कर दिया गया? मेरी दृष्टि में पहले तो विशुद्ध रूप से आध्यात्मिक का पूर्ववर्ती ग्रन्थ है। इसी प्रकार पालित्रिपिटक के प्राचीनतम ग्रन्थ उपदेशों का संकलन होने से इसे अपने आगम-साहित्य में स्थान देने सुत्तनिपात की अपेक्षा भी प्राचीन होने से यह सम्पूर्ण पालित्रिपिटक में महावीर की परम्परा के आचार्यों को कोई बाधा प्रतीत नहीं हुई से भी पूर्ववर्ती कहा जा सकता है।
होगी, किन्तु जब जैन संघ सुव्यवस्थित हुआ और अपनी एक परम्परा जहाँ तक इसमें वर्णित ऐतिहासिक ऋषियों के उल्लेखों के आधार बन गई तो अन्य परम्पराओं के ऋषियों को आत्मसात् करना उसके पर कालनिर्णय करने का प्रश्न है केवल वज्जीपुत्त को छोड़कर शेष लिए कठिन हो गया। मेरी दृष्टि में प्रश्नव्याकरण से ऋषिभाषित को सभी ऋषि महावीर और बुद्ध से या तो पूर्ववर्ती हैं या उनके समकालिक हैं। अलग करना कोई आकस्मिक घटना नहीं है, अपितु एक उद्देश्यपूर्ण पालित्रिपिटक के आधार पर वज्जीयपुत्त (वात्सीयपुत्र) भी बुद्ध के घटना है। यह सम्भव नहीं था कि एक ओर तो सूत्रकृतांग, भगवती२० लघुवयस्क समकालीन ही हैं, वे आनन्द के निकट थे। वज्जीपुत्रीय सम्प्रदाय और उपासकदशांग३१ में मंखलिगोशालक की तथा ज्ञाताधर्म में नारद भी बुद्ध के निर्वाण की प्रथम शताब्दी में ही अस्तित्व में आ गया की आलोचना करते हुए उनके चरित्र के हनन का प्रयत्न किया जाये था। अत: इनका बुद्ध के लघुवयस्क समकालीन होना सिद्ध है। अत: और दूसरी ओर उन्हें अर्हत् ऋषि कहकर उनके उपदेशों को आगम ऐतिहासिक दृष्टि से भी 'ऋषिभाषित' बुद्ध और महावीर के निर्वाण की वचन के रूप में सुरक्षित रखा जाये। ईसा की प्रथम शती तक जैनसंघ प्रथम शताब्दी में ही निर्मित हो गया होगा। यह सम्भव है इसमें बाद की श्रद्धा को टिकाये रखने का प्रश्न प्रमुख बन गया था। नारद, में कुछ परिवर्तन हुआ हो। मेरी दृष्टि में यह इसके रचनाकाल की पूर्व मंखलिगोशालक, याज्ञवल्क्य, सारिपुत्र आदि को अर्हत् ऋषि मानकर उनके सीमा ई०पू० ५वीं शताब्दी और अन्तिम सीमा ई० पू० ३शती के बीच वचनों को तीर्थंकर की आगम वाणी के रूप में स्वीकार करना कठिनहो ही है। अत: यह इससे अधिक परवर्ती नहीं है। मुझे अन्त: और बाह्य गया था, यद्यपि इसे भी जैन आचार्यों का सौजन्य ही कहा जाना चाहिए कि साक्ष्यों में कोई भी ऐसा तत्त्व नहीं मिला, जो इसे इस कालावधि से परवर्ती उन्होंने ऋषिभाषित को प्रश्नव्याकरण से अलग करके भी प्रकीर्णक ग्रन्थ सिद्ध करे। दार्शनिक विकास की दृष्टि से विचार करने पर भी हम इसमें के रूप में उसे सुरक्षित रखा। साथ ही उसकी प्रामाणिकता को बनाये रखने न तो जैन सिद्धान्तों का और न बौद्ध सिद्धान्तों का विकसित रूप पाते हैं। के लिए उसे प्रत्येकबुद्धभाषित माना। यद्यपि साम्प्रदायिक अभिनिवेश मात्र पंचास्तिकाय और अष्टविध कर्म का निर्देश है। यह भी सम्भव है ने इतना अवश्य किया कि उसमें उल्लिखित पार्श्व, वर्धमान, मंखलिपुत्र कि ये अवधारणाएँ पार्थापत्यों में प्रचलित रही हों और वहीं से महावीर आदि को आगम में वर्णित उन्हीं व्यक्तित्वों से भिन्न कहा जाने लगा। की परम्परा में ग्रहण की गई हों। परिषह, कषाय आदि की अवधारणाएँ तो प्राचीन ही हैं। ऋषिभाषित के वात्सीयपुत्र, महाकाश्यप, सारिपुत्र ऋषिभाषित के ऋषियों को प्रत्येकबुद्ध क्यों कहा गया? आदि बौद्ध ऋषियों के उपदेश में भी केवल बौद्ध धर्म के प्राचीन सिद्धान्त, ऋषिभाषित के मूलपाठ में केतलिपुत्र को ऋषि, अंबड (२५) सन्ततिवाद, क्षणिकवाद आदि ही मिलते हैं। अत: बौद्ध दृष्टि से भी को परिव्राजक; पिंग (३२), ऋषिगिरि (३४) एवं श्री गिरि को ब्राह्मण यह जैनागम एवं पालित्रिपिटक से प्राचीन सिद्ध होता है। (माहण) परिव्राजक अर्हत्ऋषि, सारिपुत्र को बुद्ध अर्हत् ऋषि तथा शेष
सभी को अर्हत् ऋषि के नाम से सम्बोधित किया गया। उत्कट (उत्कल) ऋषिभाषित की रचना
नामक अध्ययन में वक्ता के नाम का उल्लेख ही नहीं है, अत: उसके ऋषिभाषित की रचना के सम्बन्ध में प्रो० शुबिंग एवं अन्य विद्वानों साथ कोई विशेषण होने का प्रश्न ही नहीं उठता है। यद्यपि ऋषिभाषित का मत है कि यह मूलत: पार्श्व की परम्परा में निर्मित हुआ होगा, के अन्त में प्राप्त होनेवाली संग्रहणी गाथा में एवं ऋषिमण्डल क्योंकि उस परम्परा का स्पष्ट प्रभाव प्रथम अध्याय में देखा जाता है में इन सबको प्रत्येकबुद्ध कहा गया है तथा यह भी उल्लेख है कि जहाँ ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को एक साथ मानकर उसे चातुर्याम इनमें से बीस अरिष्टनेमि के, पन्द्रह पार्श्वनाथ के और शेष महावीर की व्यवस्था के अनुरूप ढाला गया है।२९ पुन: पार्श्व का विस्तृत अध्याय के शासन में हुए। किन्तु यह गाथा परवर्ती है और बाद में जोड़ी भी इसी तथ्य को पुष्ट करता है। दूसरे इसे पार्श्व की परम्परा का मानने गयी लगती है। मूलपाठ में कहीं भी इनका प्रत्येकबुद्ध के रूप में उल्लेख का एक आधार यह भी है कि पार्श्व की परम्परा अपेक्षाकृत अधिक नहीं है। समवायांग में ऋषिभाषित की चर्चा के प्रसंग में इन्हें मात्र उदार थी। उसकी अन्य परिव्राजक और श्रमण परम्पराओं से आचार- देवलोक से च्युत कहा गया है, प्रत्येकबुद्ध नहीं कहा गया है। यद्यपि व्यवहार आदि में भी अधिक निकटता थी। पार्थापत्यों के महावीर के समवायांग में ही प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु का विवरण देते समय संघ में प्रवेश के साथ यह ग्रन्थ महावीर की परम्परा में आया और __ यह कहा गया है कि इसमें स्वसमय और परसमय के प्रवक्ता प्रत्येकबुद्धों उनकी परम्परा में निर्मित दशाओं में प्रश्नव्याकरणदशा के एक भाग के विचारों का संकलन है। चूंकि ऋषिभाषित प्रश्नव्याकरण का ही के रूप में सम्मिलित किया गया।
एक भाग था। इस प्रकार ऋषिभाषित के ऋषियों को सर्वप्रथम समवायांग
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
में परोक्षरूप से प्रत्येकबुद्ध मान लिया गया था।३५ यह स्पष्ट है कि से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक के १८ पापों का उल्लेख भी मिलता ऋषिभाषित के अधिकांश ऋषि जैन-परम्परा के नहीं थे अत: उनके है। यह अध्याय मोक्ष के स्वरूप का विवेचन भी करता है और उसे उपदेशों को मान्य रखने के लिए उन्हें प्रत्येकबुद्ध कहा गया। संग्रहणीगाथा शिव, अतुल, अमल, अव्याघात, अपुनर्भव, अपुनरावर्तन तथा शाश्वत तो उन्हें स्पष्टरूप से प्रत्येकबुद्ध कहती ही है। जैसा कि हमने पूर्व स्थान बताता है। मोक्ष का ऐसा ही स्वरूप हमें जैन-आगम-साहित्य में सूचित किया। इन्हें प्रत्येकबुद्ध कहने का प्रयोजन यही था कि इन्हें में अन्यत्र भी मिलता है। पाँच महाव्रतों और चार कषायों का विवरण जैन संघ से पृथक् मानकर भी इनके उपदेशों को प्रामाणिक माना जा तो ऋषिभाषित के अनेक अध्यायों में आया है। महाकाश्यप नामक सके। जैन और बौद्ध दोनों परम्पराओं में प्रत्येकबुद्ध वह व्यक्ति है, ९वें अध्ययन में पुण्य, पाप तथा संवर और निर्जरा की चर्चा उपलब्ध जो किसी निमित्त से स्वयं प्रबुद्ध होकर एकाकी साधना करते हुए ज्ञान होती है। इसी अध्याय में कषाय का भी उल्लेख है। नवें अध्याय प्राप्त करता है, किन्तु न तो वह स्वयं किसी का शिष्य बनता है और में कर्म आदान की मुख्य चर्चा करते हुए मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, न किसी को शिष्य बनाकर संघ व्यवस्था करता है। इस प्रकार प्रत्येकबुद्ध कषाय तथा योग को बन्धन का कारण कहा गया है जो कि जैन परम्परा किसी परम्परा या संघ व्यवस्था में आबद्ध नहीं होता है, फिर भी वह के पूर्णत: अनुरूप है। इसमें जैन परम्परा के अनेक पारिभाषिक शब्द समाज में आदरणीय होता है और उसके उपदेश प्रामाणिक माने जाते हैं। यथा उपक्रम, बद्ध, स्पृष्ट, निकाचित, निर्जीर्ण, सिद्धि, शैलेषी अवस्था,
प्रदेशोदय, विपाकोदय आदि पाये जाते हैं। इस अध्याय में प्रतिपादित ऋषिभाषित और जैनधर्म के सिद्धान्त
आत्मा की नित्यानित्यता की अवधारणा सिद्धावस्था का स्वरूप एवं ऋषिभाषित का समग्रतः अध्ययन हमें इस सम्बन्ध में विचार कर्मबन्धन और निर्जरा की प्रक्रिया जैन दर्शन के समान है। करने को विवश करता है कि क्या ऋषिभाषित में अन्य परम्पराओं इसी तरह अनेक अध्यायों में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की के ऋषियों द्वारा उनकी ही अपनी मान्यताओं का प्रतिपादन करवाया अवधारणा भी मिलती है। बारहवें याज्ञवल्क्य नामक अध्ययन में जैन गया है अथवा उनके मुख से जैन परम्परा की मान्यताओं का प्रतिपादन परम्परा के अनुरूप गोचरी के स्वरूप एवं शुद्धषणा की चर्चा मिल करवाया गया है। प्रथम दृष्टि के देखने पर तो ऐसा भी लगता है कि उनके जाती है। आत्मा अपने शुभाशुभ कर्मों का कर्ता और कृत कर्मों के मुख से जैन मान्यताओं का प्रतिपादन हुआ है। प्रो० शुबिंग और उनके फल का भोक्ता है, यह बात भी १५वें मधुरायन नामक अध्ययन में ही आधार पर प्रो० लल्लनजी गोपाल ने प्रत्येक ऋषि के उपदेशों की गयी है। सत्रहवें विदुर नामक अध्ययन में सावधयोग विरति और के प्रतिपादन के प्रारम्भिक और अन्तिम कथन की एकरूपता के आधार समभाव की चर्चा है। उन्नीसवें आरियायण नामक अध्याय में आर्य पर यह मान लिया है कि ग्रन्थकार ऋषियों के उपदेशों के प्रस्तुतीकरण ज्ञान, आर्यदर्शन और आर्यचरित्र के रूप में प्रकारान्तर से सम्यग्ज्ञान, में प्रामाणिक नहीं हैं। उसने इनके उपदेशों को अपने ही ढंग से प्रस्तुत सम्यग्दर्शन और सम्यक्चरित्र की ही चर्चा है। बाईसवाँ अध्याय धर्म करने का प्रयत्न किया है। अधिकांश अध्यायों में जैन पारिभाषिक के क्षेत्र में पुरुष की प्रधानता की चर्चा करता है तथा नारी की निन्दा पदावली यथा पंचमहाव्रत, कषाय , परिषह आदि को देखकर इस करता है। इसकी सूत्रकृतांग के इत्थिपरिण्णा नामक अध्ययन से समानता कथन में सत्यता परिलक्षित होने लगती है। उदाहरणार्थ प्रथम, नारद है। तेईसवें रामपुत्त नामक अध्याय में उत्तराध्ययन (२८/३५) के समान नामक अध्ययन में यद्यपि शौच के चार लक्षण बताये गये हैं, किन्तु ही ज्ञान के द्वारा जानने, दर्शन के द्वारा देखने, संयम के द्वारा निग्रह यह अध्याय जैन परम्परा के चातुर्याम का ही प्रतिपादन करता है। करने की तथा तप के द्वारा अष्टविध कर्म के विधुनन की बात कही वज्जीयपुत्त नामक द्वितीय अध्याय में कर्म के सिद्धान्त की अवधारणा गयी है। अष्टविध कर्म की यह चर्चा केवल जैन परम्परा में ही पायी का प्रतिपादन किया गया है। यह अध्याय जीव के कर्मानुगामी होने जाती है। पुन: चौबीसवें अध्याय में भी मोक्षमार्ग के रूप में ज्ञान, की धारणा का प्रतिपादन करता है, साथ ही मोह को दु:ख का मूल दर्शन एवं चारित्र की चर्चा है। इसी अध्याय में देव, मनुष्य, तिर्यश्च बताता है। यह स्पष्ट करता है कि जिस प्रकार बीज से अंकुर और और नारक-इन चतुर्गतियों की भी चर्चा है। पचीसवें अम्बड नामक अंकर से बीज की परम्परा चलती रहती है, उसी प्रकार से मोह से अध्याय में चार कषाय, चार विकथा, पाँच महाव्रत, तीन गुप्ति,पंच कर्म और कर्म से मोह की परम्परा चलती रहती है और मोह के समाप्त इन्द्रिय संयम, छ: जीवनिकाय, सात भय, आठ मद, नौ प्रकार का होने पर कर्म-सन्तति ठीक वैसे ही समाप्त होती है जैसे वृक्ष के मूल ब्रह्मचर्य तथा दस प्रकार के समाधिस्थान की चर्चा है। इस प्रकार इस को समाप्त करने पर उसके फल-पत्ती अपने आप समाप्त होते हैं। अध्याय में जैन परम्परा में मान्य अनेक अवधारणाएँ एक साथ उपलब्ध कर्म सिद्धान्त की यह अवधारणा ऋषिभाषित के अध्याय १३, १५, हो जाती हैं। इसी अध्याय में आहार करने के छ: कारणों की वह २४, और ३० में भी मिलती है। जैन परम्परा में इससे ही मिलता-जुलता चर्चा भी है, जो कि स्थानांग (स्थान ६१) आदि में मिलती है। स्मरण विवरण उत्तराध्ययन के बत्तीसवें अध्याय से प्राप्त होता है। इसी प्रकार रहे कि यद्यपि जैनागमों में अम्बड को परिव्राजक माना है, फिर भी तीसरे असितदेवल नामक अध्याय में हमें जैन परम्परा और विशेषरूप उसे महावीर के प्रति श्रद्धावान् बताया है।३६ यही कारण है कि इसमें से आचारांग में उपलब्ध पाप को लेप कहने की बात मिल जाती है। सर्वाधिक जैन अवधारणाएँ उपलब्ध हैं। ऋषिभाषित के छब्बीसवें अध्याय इस अध्याय में हमें पाँच महाव्रत, चार कषाय तथा इसी प्रकार हिंसा में उत्तराध्ययन के पचीसवें अध्याय के समान ही ब्राह्मण के स्वरूप
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जैन, बौद्ध और औपनिषदिक ऋषियों के उपदेशों का प्राचीनक सङ्कलन ऋषिभाषित
की चर्चा है। इसी अध्याय में कषाय, निर्जरा, छः जीवनिकाय और सर्वप्राणियों के प्रति दया का भी उल्लेख है। इकतीसवें पार्श्व नामक अध्ययन में पुनः चातुर्याम, अष्टविध कर्मग्रन्थि, चार गति, पंचास्तिकाय तथा मोक्ष स्थान के स्वरूप का दिग्दर्शन होता है। इसी अध्याय में जैन परम्परा के समान जीव को ऊर्ध्वगामी और पुद्गल को अधोगामी कहा गया है, किन्तु पार्श्व तो जैन परम्परा में मान्य ही हैं। अतः इस अध्याय में जैन अवधारणाएँ होनी आश्चर्यजनक नहीं है। अब विद्वानों की यह धारणा भी बनी है कि जैन दर्शन का तत्त्वज्ञान पार्श्वापत्यों की ही देन है। शुचिंग ने भी इसिभासियाई पर पार्श्वापत्यों का प्रभाव माना है । पुनः ३२वें पिंग नामक अध्याय में जैन परम्परा के अनुरूप चारों वर्णों की मुक्ति का भी प्रतिपादन किया गया है। ३४वें अध्याय में परिषह और उपसर्गों की चर्चा है। इसी अध्याय में पंच महाव्रत से युक्त, कषाय से रहित, छित्रस्रोत, अनाश्रव भिक्षु की मुक्ति की भी चर्चा है। पुनः ३५ उद्दालक नामक अध्याय में तीन गुप्ति, तीन दण्ड, तीन शल्य, चार कषाय, चार विकथा, पाँच समिति, पंचेन्द्रियसंयम, योगसन्धान एवं नवकोटि परिशुद्ध दश दोष से रहित विभिन्न कुलों की परकृत, परनिर्दिष्ट, विगतधूम, शस्त्रपरिणत भिक्षा ग्रहण करने का उल्लेख है इसी अध्याय में संज्ञा एवं २२ परिषहों का भी उल्लेख है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋषिभाषित में अनेक जैन अवधारणाएँ उपस्थित हैं। अतः यहाँ स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उठता है कि क्या जैन आचार्यों ने ऋषिभाषित का संकलन करते समय अपनी ही अवधारणाओं को इन ऋषियों के मुख से कहलवा दिया अथवा मूलतः ये अवधारणायें इन ऋषियों की ही थीं और वहाँ से जैन परम्परा में प्रविष्ट हुई। यह तो स्पष्ट है कि ऋषिभाषित उल्लिखित ऋषियों में पार्श्व और महावीर को छोड़कर शेष अन्य सभी या तो स्वतन्त्र साधक रहे हैं या अन्य परम्पराओं के रहे हैं। यद्यपि इनमें कुछ के उल्लेख उत्तराध्ययन और सूत्रकृतांग में भी हैं। यदि हम इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि इसमें जो विचार हैं वे उन ऋषियों के नहीं हैं तो ग्रन्थ की और ग्रन्थकर्ता की प्रामाणिकता खण्डित होती है, किन्तु दूसरी ओर यह मानना कि ये सभी अवधारणायें जैन परम्परा में अन्य परम्पराओं से प्रविष्ट हुई पूर्णत: सन्तोषप्रद नहीं लगता है। अतः सर्वप्रथम तो हम यह परीक्षण करने का प्रयत्न करेंगे कि ऋषिभाषित में जिन ऋषियों के उपदेश संकलित हैं वे उनके अपने हैं या जैन आचार्यों ने अपनी बात को उनके मुख से कहलवाया है।
ऋषिभाषित में उपदिष्ट अवधारणाओं की प्रामाणिकता का प्रश्न
यद्यपि ऋषिभाषित के सभी ऋषियों के उपदेश और तत्सम्बन्धी साहित्य हमें जैनेतर परम्पराओं में उपलब्ध नहीं होता फिर भी इनमें से कई के विचार और अवधारणाएँ आज भी अन्य परम्पराओं में उपलब्ध हैं। याज्ञवल्क्य का उल्लेख भी उपनिषदों में है। वज्जीवपुत्त, महाकाश्यप और सारिपुत्त के उल्लेख बौद्ध त्रिपिटक साहित्य में हैं। इसी प्रकार विदुर, नारायण, असितदेवल आदि के उल्लेख महाभारत एवं हिन्दू परम्परा के अन्य ग्रन्थों में मिल जाते हैं। ऋषिभाषित में उनके जो विचार उल्लिखित हैं, उनकी तुलना अन्य स्रोतों से करने पर हम इस
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निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि ऋषिभाषित में जिन ऋषियों के जिन विचारों का उल्लेख किया गया है, उनमें कितनी प्रामाणिकता है। ऋषिभाषित के ग्यारहवें अध्याय में मंखलिपुत्र गोशालक का उपदेश संकलित है। मंखलिपुत्र गोशालक के सम्बन्ध में हमें जैन परम्परा में भगवतीसूत्र और उपासकदशांग में, बौद्ध परम्परा में दीघनिकाय के सामज्ञमहाफलसुत्त और सुत्तनिपात में तथा हिन्दू परम्परा में महाभारत के शान्तिपर्व के १७७ वें अध्याय में मंखी ऋषि के रूप में उल्लेख प्राप्त होता है। तीनों ही स्रोत उसे नियतिवाद का समर्थक बताते हैं। यदि हम ऋषिभाषित अध्याय ११ में वर्णित मंखलिगोशालक के उपदेशों को देखते हैं तो यहाँ भी हमें परोक्ष रूप से नियतिवाद के संकेत उपलब्ध हैं। इस अध्याय में कहा गया है कि जो पदार्थों की परिणति को देखकर कम्पित होता है, वेदना का अनुभव करता है, क्षोभित होता है, आहत होता है, स्पंदित होता है, चलायमान होता है, प्रेरित होता है वह त्यागी नहीं है। इसके विपरीत जो पदार्थों की परिणति को देखकर कम्पित नहीं होता है, क्षोभित नहीं होता, दुःखित नहीं होता है वह त्यागी है परोक्षरूप से यह पदार्थों की परिणति के सम्बन्ध में नियतिवाद का प्रतिपादक है। संसार की अपनी एक व्यवस्था और गति है वह उसी के अनुसार चल रहा है, साधक को उस क्रम का ज्ञाता द्रष्टा तो होना चाहिए, किन्तु द्रष्टा के रूप में उससे प्रभावित नहीं होना चाहिए। नियतिवाद की मूलभूत आध्यात्मिक शिक्षा यही हो सकती है कि हम संसार के घटनाक्रम से साक्षी भाव से रहें। इस प्रकार यह अध्याय गोशालक के मूलभूत आध्यात्मिक उपदेश को ही प्रतिबिम्बित करता है। इसके विपरीत जैन और बौद्ध साहित्य में जो मंखलिगोशालक के सिद्धान्त का निरूपण है वह वस्तुतः गोशालक की इस आध्यात्मिक अवधारणा में निकाला गया एक विकृत दार्शनिक फलित है। वस्तुतः ऋषिभाषित का रचयिता गोशालक के सिद्धान्तों के प्रति जितना प्रामाणिक है, उतने प्रामाणिक त्रिपिटक और परवर्ती जैन आगमों के रचयिता नहीं है। महाभारत के शान्तिपर्व के १७७ अध्याय में मंखि ऋषि का उपदेश संकलित है। उसमें एक ओर नियतिवाद का समर्थन है किन्तु दूसरी ओर इसमें वैराग्य का उपदेश भी है। इस अध्याय में मूलत: द्रष्टा भाव और संसार के प्रति अनासक्ति का उपदेश है। यह अध्याय नियतिवाद के माध्यम से ही अध्यात्म का उपदेश देता है। इसमें यह बताया गया है कि संसार की अपनी व्यवस्था है। मनुष्य अपने पुरुषार्थ से भी उसे अपने अनुसार नहीं मोड़ पाता है अतः व्यक्ति को द्रष्टा भाव रखते हुए संसार से विरक्त हो जाना चाहिए। महाभारत के इस अध्याय की विशेषता यह है कि मंखि ऋषि को नियतिवाद का समर्थक मानते हुए भी उस नियतिवाद के माध्यम से उन्हें वैराग्य की दिशा में प्रेरित बताया गया है।
इस आधार पर ऋषिभाषित में मंखलिपुत्र का उपदेश जिस रूप में संकलित मिलता है वह निश्चित ही प्रामाणिक है।
इसी प्रकार ऋषिभाषित के अध्याय ९ में महाकश्यप और अध्याय ३८ में सारिपुत्त के उपदेश संकलित हैं। ये दोनों ही बौद्ध परम्परा से सम्बन्धित रहे हैं। यदि हम ऋषिभाषित में उल्लिखित इनके विचारों
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
को देखते हैं तो स्पष्ट रूप से इसमें हमें बौद्धधर्म की अवधारणा के के उपदेष्टा के रूप में किसी ऋषि का उल्लेख नहीं है, किन्तु इतना मूलतत्त्व परिलक्षित होते हैं। महाकश्यप अध्याय में सर्वप्रथम संसार निश्चित है कि इसमें चार्वाक के विचारों का पूरी प्रामाणिकता के साथ की दुःखमयता का चित्रण है। इसमें कर्म को दु:ख का मूल कहा गया प्रतिपादन हुआ है। ऋषिभाषित में वर्धमान का जो उपदेश है उसकी यथार्थ है और कर्म का मूल जन्म को बताया गया है जो कि बौद्धों के प्रतिच्छाया आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के भावना नामक अध्ययन प्रतीत्य-समुत्पाद का ही एक रूप है। इसी अध्याय में एक विशेषता में एवं उत्तराध्ययन के ३२वें अध्याय में यथावत् रूप से उपस्थित है। हमें यह देखने को मिलती है कि इसमें कर्मसिद्धान्त का प्रतिपादन उपर्युक्त आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि करते हुए 'सन्तानवाद' की चर्चा है जो कि बौद्धों का मूलभूत सिद्धान्त ऋषिभाषित में ऋषियों के उपदेश को सामान्य रूप से प्रामाणिकतापूर्वक है। इस अध्याय में निर्वाण के स्वरूप को समझाने के लिए बौद्ध दर्शन ही प्रस्तुत किया गया है। यद्यपि इसमें मुख्य रूप से उनके आध्यात्मिक के मूलभूत दीपक वाले उदाहरण को प्रस्तुत किया गया है। पूरा अध्याय और नैतिक विचारों का ही प्रस्तुतीकरण हुआ है और उसके पीछे निहित सन्तानवाद और कर्मसंस्कारों के माध्यम से वैराग्य का उपदेश प्रदान दर्शन पर इसमें कोई बल नहीं दिया गया है। दूसरे यह भी सत्य करता है। इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि इसमें बौद्धधर्म के है कि उनका प्रस्तुतीकरण या ग्रन्थ-रचना जैन परम्परा के आचार्यों मूल बीज उपस्थित हैं। इसी प्रकार ३८वें सारिपुत्त नामक अध्याय में के द्वारा हुई है। अत: यह स्वाभाविक था कि उसमें जैन परम्परा में भी बौद्ध धर्म के मूल उत्स मध्यममार्ग का प्रतिपादन मिलता है। इसके मान्य कुछ परम्परा की अवधारणाएँ प्रतिबिम्बित हो गयी हैं। पुन: इस साथ बुद्ध के प्रज्ञावाद का भी इसमें प्रतिपादन हुआ है। इस अध्याय विश्वास के भी पर्याप्त आधार हैं कि जिन्हें आज हम जैन परम्परा की में कहा गया है कि मनोज्ञ भोजन, शयनासन का सेवन करते हुए अवधारणाएँ कह रहे हैं, वे मूलत: अन्य परम्पराओं में प्रचलित रही और मनोज्ञ आवास में रहते हुए भिक्षु सुखपूर्वक ध्यान करता है, फिर हों और वहाँ से जैन परम्परा में प्रविष्ट हो गयी हों। अत: ऋषिभाषित भी प्राज्ञ पुरुष को सांसारिक पदार्थों में आसक्त नहीं होना चाहिए यही के ऋषियों के उपदेशों की प्रामाणिकता को पूर्णत: निरस्त नहीं किया बुद्ध का अनुशासन है। इस प्रकार यह अध्याय भी बुद्ध के उपदेशों जा सकता है। अधिक से अधिक हम केवल इतना ही कह सकते को प्रामाणिक रूप से प्रस्तुत करता है।
हैं कि उन पर परोक्षरूप से जैन परम्परा का कुछ प्रभाव आ गया है। इसी प्रकार याज्ञवल्क्य नामक १२वें अध्याय में भी हम देखते हैं कि याज्ञवल्क्य के मूलभूत उपदेशों का प्रतिपादन हुआ है। ऋषिभाषित ऋषिभाषित के ऋषियों की ऐतिहासिकता का प्रश्न के अतिरिक्त याज्ञवल्क्य का उल्लेख हमें उपनिषदों एवं महाभारत में भी यह एक सुस्पष्ट तथ्य है कि ऋषिभाषित में वर्णित अधिकांश मिलता है।३७ उपनिषद् में जहाँ याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी का संवाद है वहाँ ऋषिगण जैन परम्परा से सम्बन्धित नहीं हैं। उनके कुछ नामों के आगे उनकी संन्यास की इच्छा को स्पष्ट किया गया है। ऋषिभाषित में भी लगे हुए ब्राह्मण, परिव्राजक आदि शब्द ही उनका जैन परम्परा से याज्ञवल्क्य के उपदेश के रूप में लोकैषणा और वित्तैषणा के त्याग भिन्न होना सूचित करते हैं। दूसरे देव नारद, असितदेवल, अंगिरस की बात कही गयी है तथा यह कहा गया है कि जब तक लोकैषणा भारद्वाज, याज्ञवल्क्य , बाहुक, विदुर, वारिषेणवृष्ण, द्वैपायन, आरुणि, होती है तब तक वित्तैषणा होती है और जब वित्तैषणा होती है तो उद्दालक, नारायण, ऐसे नाम हैं जो वैदिक परम्परा में सुप्रसिद्ध रहे लोकैषणा होती है। इसलिए लोकैषणा और वित्तषणा के स्वरूप को हैं और आज भी उनके उपदेश उपनिषदों, महाभारत एवं पुराणों में जानकर गोपथ से जाना चाहिए, महापथ से नहीं जाना चाहिए। वस्तुत: सुरक्षित हैं, इनमें से देव नारद, असितदेवल, अंगिरस भारद्वाज, द्वैपायन ऐसा लगता है कि यहाँ निवृत्तिमार्ग को गोपथ और प्रवृत्तिमार्ग को के उल्लेख ऋषिभाषित के अतिरिक्त सूत्रकृतांगअन्तकृद्दशा, औपपातिक महापथ कहा गया है और याज्ञवल्क्य निवृत्ति मार्ग का उपदेश देते आदि जैन-ग्रन्थों में तथा बौद्ध त्रिपिटिक साहित्य में भी मिलते हैं। प्रतीत होते हैं। यहाँ सबसे विचारणीय बात यह है कि बौद्धधर्म में इसी प्रकार वज्जीयपुत्र, महाकाश्यप और सारिपुत्र बौद्ध परम्परा के जो हीनयान और महायान की अवधारणा का विकास है, कहीं वह सुप्रसिद्ध व्यक्तित्व हैं और उनका उल्लेख त्रिपिटक साहित्य में उपलब्ध गोपथ और महापथ की अवधारणा का विकसित रूप तो नहीं है। है। मंखलिपुत्र, रामपुत्त, अम्बड (अम्बष्ट), संजय (वेलट्ठिपुत्र) आदि आचारांग में महायान शब्द आया है। महाभारत के शान्तिपर्व में भी ऐसे नाम हैं जो स्वतन्त्र श्रमण परम्पराओं से सम्बन्धित हैं और इनके अध्याय ३१० से लेकर ३१८ तक याज्ञवल्क्य के उपदेशों का संकलन इस रूप में उल्लेख जैन और बौद्ध परम्पराओं में हमे स्पष्ट रूप से है। इसमें मुख्य रूप से सांख्य और योग की अवधारणा का प्रतिपादन मिलते हैं। ऋषिभाषित के जिन ऋषियों के उल्लेख बौद्ध साहित्य में है। ऋषिभाषित के इस अध्याय में मुनि की भिक्षा-विधि की चर्चा है मिलते हैं उन पर विस्तृत चर्चा प्रो०सी०एस०उपासक ने अपने लेख जो कि जैन परम्परा के अनुरूप ही लगती है। वैसे बृहदारण्यक में 'इसिभासियाइ' एण्ड पालि बुद्धिस्ट टेक्स्ट्स् : ए स्टडी' में किया भी याज्ञवल्क्य भिक्षाचर्या का उपदेश देते हैं। फिर भी इतना तो कहा है। यह लेख पं० दलसुखभाई अभिनन्दन ग्रन्थ में प्रकाशित हुआ है। जा सकता है कि ऋषिभाषित के लेखक ने याज्ञवल्क्य के मूलभूत पार्श्व और वर्द्धमान जैन परम्परा के तेईसवें और चौबीसवें तीर्थंकर के उपदेशों को विकृत नहीं किया है। ऋषिभाषित के २०वें उत्कल नामक रूप में सुस्पष्ट रूप से मान्य हैं। आईक का उल्लेख ऋषिभाषित के अध्याय में भौतिकवाद या चार्वाक दर्शन का प्रतिपादन है। इस अध्याय अतिरिक्त सूत्रकृतांग में है। इसके अतिरिक्त पुष्पशालपुत्र, वल्कलचीरी,
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जैन, बौद्ध और औपनिषदिक ऋषियों के उपदेशों का प्राचीनक सङ्कलन : ऋषिभाषित
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कुर्मापुत्र, केतलिपुत्र, तेतलिपुत्र, भयालि, इन्द्रनाग ऐसे नाम हैं जिनमें है। यह सम्भव है कि सोम, यम, वरुण, वैश्रमण इस ग्रन्थ के रचनाकाल अधिकांश का उल्लेख जैन परम्परा के इसिमण्डल एवं अन्य ग्रन्थों तक एक उपदेष्टा के रूप में लोक परम्परा में मान्य रहे हों और इसी में मिल जाता है। पुष्पशाल, वल्कलचीरी, कुर्मापुत्र आदि का उल्लेख आधार पर इनके उपदेशों का संकलन ऋषिभाषित में कर लिया गया है। बौद्ध परम्परा में भी है। किन्तु मधुरायण, सोरियायण आर्यायन आदि उपर्युक्त चर्चा के आधार पर निष्कर्ष के रूप में हम यह अवश्य जिनका उल्लेख ऋषिभाषित के अतिरिक्त हिन्दू, जैन और बौद्ध परम्परा कह सकते हैं कि ऋषिभाषित के ऋषियों में उपर्युक्त चार-पाँच नामों में अन्यत्र नहीं मिलता है उन्हें भी पूर्णतया काल्पनिक व्यक्ति नहीं कह को छोड़कर शेष सभी प्रागैतिहासिक और ऐतिहासिक काल के यथार्थ सकते। यदि हम ऋषिभाषित के ऋषियों की सम्पूर्ण सूची का अवलोकन व्यक्ति हैं, काल्पनिक चरित्र नहीं हैं। करें तो केवल सोम, यम, वरुण, वायु और वैश्रमण, ऐसे नाम हैं निष्कर्ष रूप में हम इतना ही कहना चाहेंगे कि ऋषिभाषित न जिन्हें काल्पनिक कहा जा सकता है, क्योंकि जैन, बौद्ध और वैदिक केवल जैन परम्परा की अपितु समग्र भारतीय परम्परा की एक अमूल्य तीनों ही परम्पराएँ इन्हें सामान्यतया लोकपाल के रूप में ही स्वीकार निधि है और इसमें भारतीय चेतना की धार्मिक उदारता अपने यथार्थ करती हैं, किन्तु इनमें भी महाभारत में वायु का उल्लेख एक ऋषि रूप में प्रतिबिम्बित होती है। ऐतिहासिक दृष्टि से भी इसका महत्त्वपूर्ण के रूप में मिलता है। यम को आवश्यकचूर्णि में यमदग्नि ऋषि का स्थान है, क्योंकि यह हमें अधिकांश ज्ञात और कुछ अज्ञात ऋषियों पिता कहा गया है। अत: इस सम्भावना को भी पूरी तरह निरस्त नहीं के सम्बन्ध में और उनके उपदेशों के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण एवं प्रामाणिक किया जा सकता है कि यम कोई ऋषि रहे हों। यद्यपि उपनिषदों में सूचनाएँ देता है। जैनाचार्यों ने इस निधि को सुरक्षित रखकर भारतीय भी यम को लोकपाल के रूप में भी चित्रित किया गया है। किन्तु इतिहास एवं संस्कृत की बहुमूल्य सेवा की है। वस्तुत: यह ग्रन्थ ईसापूर्व इतना ही निश्चित है कि ये एक उपदेष्टा हैं। यम और नचिकेता का १०वीं शती से लेकर ईसापूर्व ६ठीं शती तक के अनेक भारतीय ऋषियों संवाद औपनिषदिक परम्परा में सुप्रसिद्ध ही है। वरुण और वैश्रमण की ऐतिहासिक सत्ता का निर्विवाद प्रमाण है। को भी वैदिक परम्परा में मंत्रोपदेष्टा के रूप में स्वीकार किया गया १. (अ) से किं कालियं? कालियं अणेगविहं पण्णत्तं।
केसिं चि मए अंतभवंति एयाई उत्तरज्झयणे। तं जहा उत्तरज्झयणाई १ दसाओ २ कप्पो ३ ववहारो ४ णिसीहं ५ पणयालीस दिणेहिं केसि वि जोगो अणागाढो ।।६।। महानिसीहं ६ इसिभासियाई ७ जंबुद्दीवपण्णत्ती ८ दीवसागरपण्णत्ती- विधिमार्गप्रपा, पृ० ६२॥ नन्दिसूत्र ८४ (महावीर विद्यालय, बम्बई, १९६८)
(ज्ञातव्य है कि प्रकीर्णकों की संख्या के सम्बन्ध में विधिमार्गप्रपा में (ब) नमो तेसिं खमासमणाणं जेहिं इमं वाइअंग बाहिरं कालिअंभगवंतं भी मतैक्य नहीं है। 'सज्झायपट्ठवणविही' पृ० ४५ पर ११ अंग, तं जहा-१ उत्तरायणाई २ दसाओ ३ कप्पो ४ ववहारो ५ १२ उपांग, ६ छेद, ४ मूल एवं २ चूलिका सूत्र के घटाने पर लगभग इसिभासिआई ६ निसीहं ७ महानिसींह----
३१ प्रकीर्णकों के नाम मिलते हैं। जबकि पृ० ५७-५८ पर (ज्ञातव्य है कि पक्खियसुत्त में अंगबाह्यग्रन्थों की सूची में २८ ऋषिभाषित सहित १५ प्रकीर्णकों का उल्लेख है।) उत्कालिक और ३६ कालिक कुल ६४ ग्रन्थों के नाम हैं। इसमें ६ ६अ. कालियसुयं च इसिभासियाई तइओ य सूरपण्णत्ती। आवश्यक और १२ अंग मिलाने से कल ८२ की संख्या होती है, सव्वो य दिट्ठिवाओ चउत्थओ होई अणुओगो ।।१२४।। (मू० भा०) लगभग यही सूची विधिमार्गप्रपा में भी उपलब्ध होती है।) तथा ऋषिभाषितानि-उत्तराध्ययनादीनि, “तृतीयश्च" कालानुयोग:(-पक्खियसुत्त (पृ० ७९) देवचन्दलालभाई पुस्तकोद्धार फण्ड आवश्यक हारिभद्रीय वृत्ति, पृ०२०६ । सिरीज क्रमांक ९९)
(ब) आवस्सगस्स दसकालिअस्स तह उत्तरज्झमायारे। अंगबाह्यमनेकविधम्। तद्यथा-सामायिकं, चुतर्विशतिस्तवः, वन्दनं, सूयगडे निज्जुतिं वुच्छामि तहा दसाणं च ।। प्रतिक्रमणं, कायव्युत्सर्गः, प्रत्याख्यानं, दशवैकालिकं, उत्तराध्यायाः, कप्पस्स य निज्जुत्तिं ववहारस्सेव परमणिउणस्स। दशाः, कल्पव्यवहारौ, निशीथं ऋषिभाषितानीत्येवमादि।
सूरिअपण्णत्तीए वुच्छं इसिभासिआणं च ।। - तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् (स्वोपज्ञभाष्य) १/२०, (देवचन्दलालभाई
- आवश्यकनियुक्ति, ८४-८५. पुस्तकोद्धार एण्ड) क्रम-संख्या ६७.
पण्हावागरणदसाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता, तंजहा-उवमा, संखा, ३. तथा ऋषिभाषितानि उत्तराध्ययनादीनि-----|-आवश्यकनियुक्ति- इसिभासियाई, आयरियभासिताई, महावीरभासिताई,खोमपसिणाईं, हारिभद्रीयवृत्ति, पृ० २०६.
कोमलपसणाई, अद्दागपसिणाई, अंगुट्ठपसिणाई, बाहुपसिणाई। ऋषिभाषितानां च देवेन्द्रस्तवादीनां नियुक्तिं---|-वही, पृ० ४१। ठाणंगसुवे, दसम अझभयणं दसट्ठाणं। (महावीर जैन विद्यालय इसिभासियाई पणयालीसं अज्झयणाई कालियाई, तेसु दिण ४५ संस्करण, पृ० ३११) निविएहिं अणागाढजोगो। अण्णे भणंति उत्तरज्झयणेसु चेव एयाई ८. चोत्तालीसं अज्झयणा इसिभासिया दियलोगचुताभासिया पण्णत्ता। अतंभवंति। विधिमार्गप्रपा पृ० ५८।
समयवायंगसुत्त-४४। - देविंदत्थयमाई पइण्णगा होंति इगिगनिविएण।
आहेसु महापुरिसा पुव्विं तत्त तवोधणा। इसिभासियअज्झयणा आयंबलिकालतिसज्झा ।।६।।
उदएण सिद्धिभावना तत्थ मंदो विसीयति ।।१।।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
अभुंजिया नमी विदेही, रामपुते य भुंजिआ। बाहुए उदगं भोच्चा तहा नारायणे रिसी ।।२।। असिले देविले चेव दीवायण महारिसी। पारासरे दगं भोच्चा बीयाणि हरियाणि यं ।।३।। एते पुव्वं महापुरिसा आहिता इह संभता। भोच्चा बीओदगं सिद्ध इति मेयमणुस्सुअ।।४।।
-सूत्रकृताङ्ग, १/३/४/१-४ १०. वही, २/६/१-३, ७, ९, ११. भगवती शतक, १५. १२. उपासकदशांग, अध्याय ६ एवं ७. १३. (अ) सुत्तनिपात, ३२ सभियसुत्त,
(ब) दीघनिकाय, सामञफलसूत्र। १४. ये ते समणब्राह्मणा संगिनो गणिनो गणाचरिया आता यसस्सिनो
तित्थकरा साधु सम्मता, बहुजनस्स, सेप्यथीदं पूरणो कस्सपो, मक्खलिगोसालो, अजितो केसकम्बली, पकुधो कच्चायनो, संजयो
वेलटिठपुत्तो, निगण्ठो नातपुत्तो।-सुत्तनिपात, ३२-सभियंसुत्त. १५अ.भरत सिंह उपाध्याय, पालिसाहित्य का इतिहास,पृष्ठ १०२-१०४। (B) Itis ...... the oldest of the pectic books of the Buddhist
scriptures. Introduction, page-2, --Sutta-Nipata (Siter
Vajira). १६. उभो नारद पब्बता। -सुत्तनिपात ३२, सभियसुत्त, ३४। १७. असितो इसि अद्दस दिवाविहारे।-सुत्तनिपात ३७, नालकसुत्त १। १८. जिण्णेऽहमस्मि अबलो वीतवण्णे (इच्चायस्मा पिंगियो)
सुत्तनिपात ७१ पिंगियमाणवपुच्छा. १९. सुत्तनिपात, ३२ सभियसुत्त। २०. वही। २१. वही। २२. थेरगाथा ३६; डिक्सनरी ऑफ पाली प्रापर नेम्स
वाल्यूम प्रथम, पृ० ६३१, वाल्यूम द्वितीय, पृ० १५. २३. (अ) 'आता छेत्तं, तवो बीयं, संजमो जुअणंगलं।
झाणं फालो निसित्तो य, संवरो य बीयं दढं ।।८।। अकूडत्तं च कूड़ेसु, विणए णियमणे ठिते। तितिक्खा य हलीसा तु दया गुत्ती य पग्गहा ।।९।। सम्मत्तं गोत्थणवो, समिती उ समिला तहा। थितिजोत्तसुसंबद्धा सव्वण्णुवयणे रया ।।१०।। पंचैव इंदियाणि तु खन्ता दन्ता य णिज्जिता। माहणेसु तु ते गोणा गंभीरं कसते किसिं ।।११।। तवो बीयं अवंझं से, अहिंसा णिहणं परं। ववसातो घणं तस्स, जुत्ता गोणा य संगहो ।।१२।। थिती खलं वसुयिकं, सद्धा मेढी य णिच्चला। भावणा उ वती तस्स, इरिया दारं सुसंवुडं ।।१३।। कसाया मलणं तस्स, कित्तिवातो व तक्खमा। णिज्जरा तु लवामीसा इति दुक्खाण णिक्खति ।।१४।। . एतं किसिं कसित्ताणं सव्वसत्तदयावह। माहणे खत्तिए वेस्से सुद्दे वापि विसुज्झती ।।१५।।
-इसिभासियाई, २६/८-१५। (ब) "कतो छेत्तं कतो बीयं, कतो ते जुगणंगले?
गोणा वि ते ण पस्सामि, अज्जो, का णात ते किसी ।।१।। आता छेत्तं, तवो बीयं, संजमो जुगणंगलं। अहिंसा समिती जोज्जा, एसा घम्मन्तरा किसी ।।२।। एसा किसी सोभतरा अलुद्धस्स वियाहिता। एसा बहुसई होई परलोकसुहावहा ।।३।। एयं किसिं कसित्ताणं सव्वसत्तदयावहं। माहणे खत्तिए वेस्से सुद्दे वावि य सिज्झती" ||४||
-इसिभासियाई, ३२/१-४। २४. सद्धा बीजं तपो वुट्ठि पञा में युगनंगलं।
हिरि ईसा मनो योत्तं सति मे फालपाचनं ।।२।। कायगुत्तो वचीगुत्तो आहारे उदरे यतो। सच्चं करोमि निदानं सोरच्चं मे पमाचनं ।।३।। रिरियं मे धुरधोरम्हं योगक्खेमाधिवाहनं। गच्छति अनिवत्तन्तं यत्थ गन्त्वा न सोचति ।।४।। एवमेसा कसी कट्ठा सा होति अमतप्फला। एतं कसिं कसित्वान सम्बदुक्खा पमुच्चतीति ।।५।।
-सुत्तनिपात, ४-कसिभारद्वाजसुत्त। २५. अहं च भोयरायस्स तं च सि अन्धगवण्हिणो।
___ मा कुले गन्धणा होमो संजमं निहुओ चर ।। -उत्तराध्ययन,२२/४४ २६. पक्खंदे जलिय जोई, धूमकेउं दरासयं।
नेच्छति वंतयं भोत्तुं, कुले जाया अगंधणे ।। -दशवैकालिक, १/६ २७. आन्गणे कुले जातो जधा जागो महाविसो।।
मुंचिता सविसं भूतो पियन्तो जातो लाघवं ।।-इसिभासियाई,४५-४० २८. (अ) इसिभासियाई, २६/१५
(ब) इसिभासियाई, ३२/४ 29. See -- Introduction of Isibhāsiyaim, by walther
schubring, Ahmedabad-1974. ३०. देखें भगवती शतक, १५. ३१. देखें-उपासकदसांग, अध्याय ६ एवं ७. ३२. ज्ञाताधर्मकथा, द्रौपदी नामक अध्ययन। ३३. पत्तेयबुद्धमिसिणो बीसं तित्थे अरिट्ठणेमिस्स।
पासस्स य पण्णरस वीरस्स विलीणमोहस्स।।
- इसिभासियाई, संपा० मनोहरमुनि, परिशिष्ट नं० १। ३४. नारयरिसिपामुक्खे, वीसं सिरिनेमिनाहतित्थम्मि।
पन्नरस पासतित्थे, दस सिरिवीरस्स तित्थम्मि ।।४४।। पत्तेयबुद्धसाहू, नमिमो जे भासिउं सिवं पत्ता। पणयालीसं इसिभासियाइं अज्झयणपवराई ।।४५।। ऋषिमण्डलप्रकरणम्, आत्मवल्लभ ग्रन्थमाला, ग्रन्थांक १३, बालापुर,
गाथा ४४, ४५ । ३५. पण्हावागरणदसासु णं ससमय परसमय पण्णवय पतेअबुद्धविविहत्थ
भासाभासियाणं।-समवायांग, सूत्र ५४६. ३६. औपपातिक सूत्र ३८। ३७. बृहदारण्यक उपनिषद्, तृतीय अध्याय, पञ्चम ब्राह्मण, १।
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मूलाचार : एक विवेचन
मूलाचार का महत्त्व
क्योंकि अभी तक श्वेताम्बर परम्परा का कोई भी ग्रन्थ शौरसेनी प्राकृत मूलाचार को वर्तमान में दिगम्बर जैन परम्परा में आगम स्थानीय में लिखा गया हो, यह ज्ञात नहीं होता। यह सत्य है कि शौरसेनी ग्रन्थ के रूप में मान्य किया जाता है। यह ग्रन्थ मुख्यत: अचेल परम्परा प्राकृत में लेखन कार्य मुख्यत: अचेल परम्परा में ही हुआ है। के साधु-साध्वियों के आचार से सम्बन्धित है। यह भी निर्विवाद सत्य किन्तु इसमें कुछ ऐसे भी तथ्य हैं, जिनके आधार पर यह भी है कि दिगम्बर परम्परा में इस ग्रन्थ का उतना ही महत्त्व है जितना नहीं कहा जा सकता कि यह दिगम्बर परम्परा का ग्रन्थ है। सर्वप्रथम कि श्वेताम्बर परम्परा में आचारांग का। यही कारण है कि धवला और तो इसमें आर्यिका को श्रमण के समकक्ष मानकर उसकी मुक्ति का जयधवला (दसवीं शताब्दी) में इसकी गाथाओं को आचारांग की गाथा जो विधान किया गया है वह इसे दिगम्बर ग्रन्थ मानने में बाधा उत्पन्न कहकर उद्धृत किया गया है। यह स्पष्ट है कि दिगम्बर परम्परा में करता है। दिगम्बर परम्परा के बहुश्रुत विद्वान् पं० नाथूराम प्रेमी ने जब आचारांग को लुप्त मान लिया गया, तो उसके स्थान पर मूलाचार अनेक तर्कों के आधार पर कहा है कि यह दिगम्बर परम्परा का ग्रन्थ को ही आचारांग के रूप में देखा जाने लगा। वस्तुत: आचारांग के नहीं है। अत: यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है कि यदि प्राचीनतम अंश प्रथम श्रुतस्कन्ध में अचेलता का प्रतिपादन होते हुए मूलाचार श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों में से किसी परम्परा का ग्रन्थ भी मुनि के वस्त्र-ग्रहण सम्बन्धी कुछ उल्लेख, फिर चाहे वे आपवादिक नहीं है तो फिर किस परम्परा का ग्रन्थ है? यह स्पष्टत: सत्य है कि स्थिति के क्यों न हो, पाये ही जाते हैं। यही कारण था कि अचेलकत्व यह ग्रन्थ अचेलकता आदि के सम्बन्ध में दिगम्बर परम्परा के निकट पर अत्यधिक बल देने वाली यापनीय एवं दिगम्बर परम्परा उसे अपने है किन्तु स्त्री-दीक्षा, स्त्री-मुक्ति, आगमों का मान्य करने आदि कुछ सम्प्रदाय में मान्य न रख सकी और उसके स्थान पर मूलाचार को बातों में श्वेताम्बर परम्परा से भी समानता रखता है। इससे यह स्पष्ट ही अपनी परम्परा का मुनि आचार सम्बन्धी ग्रन्थ मान लिया। सिद्ध होता है कि यह ग्रन्थ एक ऐसी परम्परा का ग्रन्थ है जो कुछ
रूप में श्वेताम्बरों और कुछ रूप में दिगम्बरों से समानता रखती थी। मूलाचार के आधार प्रन्थ
डॉ० उपाध्ये, पं० नाथूराम प्रेमी के लेखों एवं प्राचीन भारतीय अभिलेखीय ___ आर्यिका ज्ञानमती जी ने भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित मूलाचार तथा साहित्यिक साक्ष्यों के अध्ययन से अब यह स्पष्ट हो गया है कि की भूमिका में यह लिखा है कि आचारांग के आधार पर चौदह सौ श्वेताम्बर और दिगम्बरों के बीच एक योजक सेतु का काम करने वाली गाथाओं में ग्रन्थकर्ता ने इस ग्रन्थ की रचना की; किन्तु हमें यह स्मरण ___यापनीय' नाम की एक तीसरी परम्परा भी थी। हम पूर्व में यह स्पष्ट रखना चाहिए कि यह ग्रन्थ आचारांग और विशेष रूप से उसके प्राचीनतम कर चुके हैं कि यापनीय परम्परा जहाँ अचेलकत्व पर बल देने के अंश प्रथम श्रुतस्कन्ध के आधार पर तो बिल्कुल ही नहीं लिखा गया कारण दिगम्बर परम्परा के निकट थी, वहीं स्त्रीमुक्ति, केवलीभुक्ति और है। जिन ग्रन्थों के आधार पर मूलाचार की रचना हुई है वे श्वेताम्बर आगमों की उपस्थिति, आपवादिक रूप में वस्त्र एवं पात्र व्यवहार आदि परम्परा के मान्य बृहद्प्रत्याख्यान, आतुरप्रत्याख्यान, आवश्यकनियुक्ति, से श्वेताम्बर परम्परा के निकट थी। मूलाचार की रचना इसी परम्परा जीवसमास आदि हैं जिनकी सैकड़ों गाथाएँ शौरसेनी रूपान्तरण के में हुई है। आइए इस सम्बन्ध में कुछ अधिक विस्तार से चर्चा करेंसाथ इसमें गृहीत की गई हैं। वस्तुत: मूलाचार श्वेताम्बर परम्परा में मान्य नियुक्तियों एवं प्रकीर्णकों की विषयवस्तु एवं सामाग्री से मूलाचार : यापनीय परम्परा का ग्रन्थ निर्मित है।
बहुश्रुत दिगम्बर विद्वान् पं० नाथूराम जी 'प्रेमी' ने इसे यापनीय
परम्परा का ग्रन्थ माना है, इस सम्बन्ध में वे लिखते हैं - मूलाचार की परम्परा
"मुझे ऐसा लगता है कि यह ग्रन्थ कुन्दकुन्द का तो नहीं ही यद्यपि हमें स्पष्ट रूप से इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए है, उनकी विचार परम्परा का भी नहीं है, बल्कि यह उस परम्परा का कि यह ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परा का ग्रन्थ नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि जान पड़ता है जिसमें शिवार्य और अपराजित हुए हैं। कुछ बारीकी इसमें मुनि के अचेलकत्व पर जितना अधिक बल दिया गया है उतना से अध्ययन करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है"श्वेताम्बर परम्परा के आचारांग को छोड़कर किसी भी आचारपरक ग्रन्थ १. मूलाचार और भगवती आराधना की पचासों गाथाएँ एक सी और में नहीं मिलता। इसे श्वेताम्बर परम्परा का ग्रन्थ मानने में दूसरी कठिनाई समान अभिप्राय प्रकट करने वाली हैं। यह है कि इसकी भाषा न तो अर्धमागधी है और न महाराष्ट्री प्राकृत २. मूलाचार की 'आचेलक्कुद्देसिय' आदि ९०९वीं गाथा भगवती ही; वस्तुत: इसमें अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृत में रचित श्वेताम्बर आराधना की ४२१वीं गाथा है। इसमें दस कल्पों के नाम हैं। आगम ग्रन्थों की सैकड़ों गाथाएँ शौरसेनी रूपान्तरण में मिलती हैं। जीतकल्पभाष्य की १९७२वीं गाथा भी यही है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय किन्तु इस आधार पर इसे श्वेताम्बर परम्परा का ग्रन्थ नहीं कह सकते के अन्य टीकाग्रन्थों और नियुक्तियों में भी यह है। प्रमेयकमलमार्तण्ड
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
के 'स्त्रीमुक्तिविचार' में प्रभाचन्द्र ने दस कल्पों की मान्यता का १८४वीं गाथा में कहा है कि आर्यिकाओं का गणधर गम्भीर दुर्धर्ष, उल्लेख श्वेताम्बर सिद्धान्त के रूप में किया है।
अल्पकौतूहल, चिरप्रवजित और गृहीतार्थ होना चाहिए। इससे जान ३. मूलाचार की 'सेज्जोगासणिसेज्जा' आदि ३९१वीं गाथा और पड़ता है कि आर्यिकाएँ मुनिसंघ के ही अन्तर्गत हैं और उनका
आराधना की ३०५वीं गाथा एक ही है। इसमें कहा है कि वैयावृत्ति गणधर मुनि ही होता है। 'गणधरो मर्यादोपदेशक: प्रतिक्रमणाद्याचार्य:' करने वाला मुनि रुग्ण मुनि का आहार, औषधि आदि से उपकार (टीका)। करें। इसी गाथा के विषय में कवि वृन्दावनदास को शंका हुई इन सब बातों से मूलाचार कुन्दकुन्द परम्परा का ग्रन्थ नहीं मालूम थी और उसका निवारण करने के लिए उन्होंने दीवान अमरचन्दजी होता। अत: मूलाचार यापनीय परम्परा का ग्रन्थ है यह निर्विवाद रूप को पत्र लिखा था। समाचार अधिकार 'गच्छे वेज्जावच्चं' आदि से सिद्ध होता है। १७४वी गाथा की टीका में भी वैयावृत्ति का अर्थ शारीरिक प्रवृत्ति इस प्रकार हम देखते हैं कि मूलाचार को यापनीय परम्परा का और आहारादि से उपकार करना लिखा है-'वेज्जावच्चं वैयावृत्यं ग्रन्थ मानने के अनेक प्रमाण हैं। पं० नाथूराम जी प्रेमी ने अपने उपर्युक्त कायिकव्यापाराहारादिभिरुपग्रहणम्।'
विवेचन में उन सभी तथ्यों का संक्षेप में उल्लेख कर दिया है जिनके ४. भगवती आराधना की ४१४वी गाथा के समान इसकी भी ३८७वीं आधार पर मूलाचार को कुन्दकुन्द की अचेल-परम्परा के स्थान पर
गाथा में आचारकल्प एवं जीतकल्प ग्रन्थों का उल्लेख है, जो यापनीयों की अचेल-परम्परा का ग्रन्थ माना जाना चाहिए। मैं पं० नाथूराम यापनीय को मान्य थे और श्वेताम्बर परम्परा में आज भी जी प्रेमी द्वारा उठाये गये इन्हीं मुद्दों पर विस्तार से चर्चा करना चाहूँगा। उपलब्ध हैं।
सर्वप्रथम मूलाचार और भगवती आराधना की अनेक गाथाएँ समान गाथा २७७-७८-७९ में कहा है कि संयमी मुनि और आर्यिकाओं और समान अभिप्राय को प्रकट करने वाली होने के कारण प्रेमी जी की चार प्रकार के सूत्र कालशुद्धि आदि के बिना नहीं पढ़ना चाहिए। ने इसे भगवतीआराधना की परम्परा का ग्रन्थ माना है। प्रेमी जी ने इनसे अन्य आराधना, नियुक्ति मरणविभक्ति, संग्रह, स्तुति, इस तथ्य का भी संकेत किया है कि मूलाचार के समान ही भगवती प्रत्याख्यान, आवश्यक और धर्मकथा आदि पढ़ना चाहिए। ये आराधना के भी कुछ ऐसे मन्तव्य हैं जो अचेल दिगम्बर परम्परा से सब ग्रन्थ मूलाचार के कर्ता के समक्ष थे, परन्तु कुन्दकुन्द की मेल नहीं खाते हैं और यदि भगवती आराधना दिगम्बर परम्परा का
परम्परा के साहित्य में इन नामों के ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं। ग्रन्थ न होकर यापनीय परम्परा का ग्रन्थ सिद्ध होता है तो फिर मूलाचार ६. मूलाचार 'बावीसं तित्थयरा'' और 'सपडिक्कमणो धम्मो'६ इन दो को भी हमें यापनीय परम्परा का ही ग्रन्थ मानना होगा। यद्यपि प्रेमी
गाथाओं में जो कुछ कहा गया है, वह कुन्दकुन्द की परम्परा में जी ने मात्र भगवती आराधना से इसकी गाथाओं की समरूपता की अन्यत्र कहीं नहीं कहा गया है। ये ही दो गाथाएँ भद्रबाहुकृत चर्चा की है। परन्तु बात यहीं समाप्त नहीं होती। मूलाचार में श्वेताम्बर आवश्यकनियुक्ति में हैं और वह श्वेताम्बर ग्रन्थ है।
परम्परा में मान्य अनेक ग्रन्थों की गाथाएँ समान रूप से उपलब्ध होती ७. आवश्यकनियुक्ति की लगभग ८० गाथाएँ मूलाचार में मिलती हैं। उनमें शौरसेनी और अर्धमागधी अथवा महाराष्ट्री के अन्तर के
हैं और मूलाचार में प्रत्येक आवश्यक का कथन करते समय अतिरिक्त कहीं किसी प्रकार का अन्तर भी नहीं है। मूलाचार के बृहद् वट्टकेर का यह कहना कि मैं प्रस्तुत आवश्यक पर समास से प्रत्याख्यान नामक द्वितीय अधिकार में अधिकांश गाथाएँ महापच्चक्खान (संक्षेप में) नियुक्ति कहूँगा, अवश्य ही अर्थसूचक है क्योंकि और आउरपच्चक्खान से मिलती हैं। मूलाचार के बृहद् प्रत्याख्यान सम्पूर्ण मूलाचार में 'षडावश्यक अधिकार' को छोड़कर अन्य और संक्षिप्त प्रत्याख्यान इन दोनों अधिकारों में क्रमश: ७१ और १४ प्रकरणों में नियुक्ति' शब्द शायद ही कहीं आया हो। षडावश्यक गाथाएँ अर्थात् कुल ८५ गाथाएँ हैं। इनमें से ७० गाथाएँ तो आतुर के अन्त में भी इस अध्याय को 'नियुक्ति' नाम से ही निर्दिष्ट प्रत्याख्यान नामक श्वेताम्बर परम्परा के प्रकीर्णक से मिलती हैं। शेष किया गया है।
१५ गाथाओं में भी कुछ महापच्चक्खान एवं चन्द्रवेध्यक में मिल जाती मूलाचार में मुनियों के लिए 'विरत' और आर्यिकाओं के लिए हैं। ये गाथाएँ श्वेताम्बर परम्परा में प्रकीर्णकों के रूप में आज भी स्वीकार्य 'विरती' शब्द का उपयोग किया गया है। (गाथा १८०)। हैं। पुनः अध्याय का नामकरण भी उन्हीं ग्रन्थों के आधार पर है। इसी मुनि-आर्यिका, श्रावक-श्राविका मिलकर चतुर्विध संघ होता है। प्रकार मूलाचार के षडावश्यक अधिकार की १९२ गाथाओं में से ८० चौथे सामाचार अधिकार (गाथा १८७) में कहा है कि अभी तक गाथाएँ आवश्यकनियुक्ति से समानरूप रखती हैं। इसके अतिरिक्त इसी कहा हुआ, यह यथाख्यातपूर्व समाचार आर्यिकाओं के लिए भी अधिकार पाठभेद के साथ उत्तराध्ययन, अनुयोगद्वार और दशवैकालिक यथायोग्य जानना। इसका अर्थ यह हुआ कि ग्रन्थ कर्ता मुनियों से अनेक गाथाएँ मिलती हैं। पंचाचार अधिकार में सबसे अधिक
और आर्यिकाओं को एक ही श्रेणी में रखते हैं (जबकि आ० २२२ गाथाएँ हैं। इसकी ५० से अधिक गाथाएँ उत्तराध्ययन और कुन्दकुन्द स्त्री-प्रव्रज्या का निषेध करते हैं।११ फिर १६६वीं गाथा जीवसमास नामक श्वेताम्बर ग्रन्थ में समान रूप से पायी जाती हैं। में कहा है कि इस प्रकार की चर्चा जो मुनि और आर्यिकायें करती इसमें जो षड्जीवनिकाय का विवेचन है उसकी अधिकांश गाथाएँ हैं वे जगत्पूजा, कीर्ति और सुख प्राप्त करके 'सिद्ध होती हैं। उत्तराध्ययन के ३६वें अध्याय और जीवसमास में हैं। इसी प्रकार ५
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मूलाचार : एक विवेचन
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समिति,३ गुप्ति आदि का जो विवेचन उपलब्ध होता है वह भी में जिस आराधना का निर्देश किया गया है, वह भगवती आराधना उत्तराध्ययन के और दशवैकालिक में किंचित् भेद के साथ उपलब्ध ही है। मूलाचार भी उसी यापनीय परम्परा का ग्रन्थ प्रतीत होता है होता है। इसी प्रकार मूलाचार के पिण्डशुद्धि अधिकार की ८३ गाथाएँ क्योंकि मूलाचार के रचनाकार ने सर्वप्रथम उसी ग्रन्थ का नामोल्लेख हैं। इनमें भी अधिकांश गाथाएँ श्वेताम्बर परम्परा के पिण्डनियुक्ति नामक किया है। दिगम्बर परम्परा में आराधना नाम का कोई ग्रन्थ नहीं है। ग्रन्थ में यथावत् रूप में उपलब्ध होती हैं।
यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा में मरणविभक्ति नाम का जो ग्रन्थ है उसकी इस प्रकार हम देखते हैं कि मूलाचार की अधिकांश सामग्री श्वेताम्बर रचना जिन आठ प्राचीन श्रृत ग्रन्थों के आधार पर मानी जाती है उनमें परम्परा के उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, पिण्डनियुक्ति, आउरपच्चक्खाण मरणविभक्ति, मरणविशोधि, मरणसमाधि, संलेखनाश्रुत, भत्तपरिज्ञा, महापच्चक्खाण, आवश्यकनियुक्ति, चन्द्रवेध्यक आदि श्वेताम्बर परम्परा आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान और आराधना हैं। प्रस्तुत गाथा में के मान्य उपर्युक्त ग्रन्थों से संकलित हैं। आश्चर्य तो यह लगता है कि मरणविभक्ति, प्रत्याख्यान और आराधना ऐसे तीन स्वतन्त्र ग्रन्थों के हमारी दिगम्बर परम्परा के विद्वान् मूलाचार में कुन्दकुन्द के ग्रन्थों से उल्लेख हैं। यह सम्भव है कि मूलाचार का आराधना से तात्पर्य इसी मात्र २१ गाथाएँ समान रूप से उपलब्ध होने पर इसे कुन्दकुन्द की प्राचीन आराधना से रहा होगा। यह आराधना भगवती आराधना की कृति सिद्ध करने का साहस करते हैं और जिस परम्परा के ग्रन्थों से रचना का भी आधार रहा है। यदि हम आराधना का तात्पर्य भगवती इसकी आधी से अधिक गाथाएँ समान रूप से मिलती हैं उसके साथ आराधना लेते हैं तो हमें इतना निश्चित रूप से स्वीकार करना होगा इसकी निकटता को दृष्टि से ओझल कर देते हैं। मूलाचार की रचना कि मूलाचार का रचनाकाल भगवती आराधना की रचना के बाद का उसी परम्परा में सम्भव हो सकती है जिस परम्परा में उत्तराध्ययन, है और दोनों ग्रन्थों के आन्तरिक साक्ष्यों के आधार पर यह निर्णय दशवैकालिक, आवश्यकनियुक्ति, पिण्डनियुक्ति, महापचक्खाण, करना होगा कि इनमें से कौन प्राचीन है। चूंकि यह एक स्वतन्त्र निबन्ध आउरपचक्खाण आदि ग्रन्थों के अध्ययन-अध्यापन की परम्परा रही का विषय होगा इसलिए इसकी अधिक गहराई में नहीं जाना चाहता, है। वर्तमान की खोजों से यह स्पष्ट हो चुका है कि यापनीय परम्परा किन्तु इतना अवश्य उल्लेख करूँगा कि यदि भगवती आराधना की से इन ग्रन्थों का अध्ययन होता था। इसी प्रकार यापनीय परम्परा में रचना मूलाचार से परवर्ती है तो मूलाचार में लिखित यह आराधना, अपराजितसूरि ने उत्तराध्ययन और दशवैकालिक पर टीकाएं लिखकर मरणसमाधि की अंगीभूत आराधना ही है। दोनों का नाम साम्य भी इसी बात की पुष्टि की है कि इसका अध्ययन और अध्यापन उनकी इस धारणा को पुष्ट करता है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि किसी परम्परा में प्रचलित था। जो परम्परा आगम ग्रन्थों का सर्वथा लोप मानती समय आराधना स्वतन्त्र ग्रन्थ था, जो आज मरणविभक्ति में समाहित है उस परम्परा में मूलाचार जैसे ग्रन्थ की रचना सम्भव नहीं प्रतीत हो गया है। होती। यह स्पष्ट है कि जहाँ दक्षिण भारत में विकसित दिगम्बर अचेल श्वेताम्बर परम्परा में आगम ग्रन्थों की प्राचीनतम व्याख्याओं के परम्परा आगमों के विच्छेद की बात कर रही थी, वहीं उत्तरभारत में रूप में नियुक्तियाँ लिखी गईं। श्वेताम्बर परम्परा में दस नियुक्तियाँ सुप्रसिद्ध विकसित होकर दक्षिण की ओर जाने वाली इस यापनीय-परम्परा में हैं। नियुक्ति सम्भवत: द्वितीय भद्रबाहु की रचना मानी जाती है, किन्तु आगमों का अध्ययन बराबर चल रहा था। अत: इससे यही सिद्ध होता कुछ नियुक्तियाँ उससे भी प्राचीन हैं। यह भी सुस्पष्ट है कि मूलाचार है कि मूलाचार की रचना कुन्दकुन्द की दिगम्बर परम्परा में न होकर के षडावश्यक अधिकार में आवश्यकनियुक्ति की ८० से अधिक गाथाएँ यापनीयों की अचेल परम्परा में हुई है।
स्पष्टत: मिलती हैं। अत: यह स्पष्ट है कि प्रस्तुत गाथा में नियुक्ति स्वयं मूलाचार के पाँचवें पंचाचार नामक अधिकार की ७९वीं का जो उल्लेख है वह श्वेताम्बर परम्परा में उपलब्ध नियुक्तियों से ही गाथा में१३ और ३८७ न० गाथा में४ आचारकल्प, जीतकल्प, है। यह भी स्पष्ट है कि अधिकांश नियुक्तियाँ भद्रबाहु द्वितीय के द्वारा आवश्यकनियुक्ति, आराधना, मरणविभक्ति, पच्चक्खाण, आवश्यक, रचित हैं और इन भद्रबाहु का समय विक्रम की पाँचवीं शताब्दी है। धर्मकथा (ज्ञाताधर्मकथा) आदि ग्रन्थों के अध्ययन के स्पष्ट निर्देश हैं। इसमें एक बात अवश्य स्पष्ट होती है कि मूलाचार विक्रम की छठी मेरी दृष्टि से उक्त गाथाओं में निम्न ग्रन्थों का निर्देश होता है-(१) शताब्दी के पूर्व की रचना नहीं है। आराधना, (२) नियुक्ति, (३) मरणविभक्ति, (४) संग्रह (पंचसंग्रह), मूलाचारकार यह कहकर 'अब मैं आचार्य परम्परा से यथागत (५) स्तुति (देविन्दत्थुई), (६) प्रत्याख्यान, (७) आवश्यक और (८) आवश्यक नियुक्ति को संक्षेप में कहूँगा' इस तथ्य की स्वयं पुष्टि करता धर्मकथा।
है कि उसके समक्ष आवश्यकनियुक्ति नामक ग्रन्थ रहा है। दूसरे सर्वप्रथम यह विचारणीय है कि इन ग्रन्थों में कौन-कौन से ग्रन्थ अस्वाध्याय काल में पढ़ने योग्य ग्रन्थों की सूची में नियुक्ति का उल्लेख श्वेताम्बर परम्परा में मान्य एवं उपलब्ध हैं और कौन-कौन से दिगम्बर भी इसी तथ्य को सूचित करता है। दिगम्बर परम्परा में नियुक्तियाँ परम्परा में मान्य एवं उपलब्ध हैं। इन ग्रन्थों में सर्वप्रथम आराधना लिखी गईं ऐसा कोई भी संकेत उपलब्ध नहीं है, अत: मूलाचार में का नाम है। आराधना के नाम से सुपरिचित ग्रन्थ शिवार्य का भगवती नियुक्ति से तात्पर्य श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित निर्युक्तयों से ही है। आराधना या मूलाराधना है। यह सुस्पष्ट है कि भगवती आराधना मूलतः इससे यह भी स्पष्ट होता है कि श्वेताम्बर और यापनीय आगमिक ग्रन्थ दिगम्बर परम्परा का ग्रन्थ न होकर यापनीय संघ का ग्रन्थ है। मूलाचार एक ही थे, उनमें मात्र शौरसेनी और महाराष्ट्री का भाषा-भेद था। मूलाचार
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
में जिस तीसरे ग्रन्थ मरणविभक्ति का उल्लेख हुआ है वह भी श्वेताम्बर का उल्लेख किया हो। थुदि या स्तुति से मूलाचार का तात्पर्य किस परम्परा के दस प्रकीर्णकों में एक है। यह मरणविभक्ति और मरणसमाधि ग्रन्थ से है यह भी स्पष्ट करना आवश्यक है। टीकाकार वसुनन्दी ने इन दो नामों से उल्लिखित है। स्वयं ग्रन्थकार ने भी इसे मरणविभक्ति इसका तात्पर्य समन्तभद्र की 'देवागम' नामक स्तुति-रचना से लिया कहा है। इससे यह सिद्ध होता है कि मूलाचार द्वारा निर्दिष्ट मरणविभक्ति है। किन्तु मेरी दृष्टि में यह उचित नहीं है। प्रथम तो समन्तभद्र का श्वेताम्बर परम्परा में उपलब्ध मरणविभक्ति ही है। दिगम्बर परम्परा में काल भी विवादास्पद है उसे किसी भी स्थिति में मूलाचार का पूर्ववर्ती मरणविभक्ति नाम का कोई ग्रन्थ रहा हो ऐसा उल्लेख मुझे देखने को मानना समुचित नहीं है। वस्तुतः थुई नाम से कोई प्राकृत रचना ही नहीं मिला है। यद्यपि मूलाचार में उल्लिखित मरणविभक्ति वर्तमान रहनी चाहिए। श्वेताम्बर परम्परा में थुई के नाम से वीरत्थुई और मरणविभक्ति का एक भाग मात्र थी- क्योंकि वर्तमान मरणविभक्ति सहित देविन्दत्थुओ इन दो का उल्लेख मिलता है। वीरत्थुई-सूत्रकृतांग का आठ प्राचीन ग्रन्थों का संकलन है।
ही एक अध्याय है जबकि देविंदत्थुओं की गणना दस प्रकीर्णकों में जिस चौथे ग्रन्थ का उल्लेख हमें मूलाचार में मिलता है, वह की जाती है। वैसे प्रकीर्णकों में ही वीरत्थओ (वीरस्तव) एक स्वतन्त्र संग्रह है। संग्रह से ग्रन्थकार का क्या तात्पर्य है, यह विचारणीय है। ग्रन्थ भी है और इसकी विषयवस्तु सूत्रकृतांग के छठे अध्याय वीरत्थुई पंच-संग्रह के नाम से कर्मसाहित्य सम्बन्धी ग्रन्थ श्वेताम्बर एवं दिगम्बर से भिन्न है। जैसा कि हमने पूर्व-चर्चा में देखा, मूलाचार की प्रस्तुत दोनों ही परम्पराओं में उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त दिगम्बर परम्परा गाथा में जिन ग्रन्थों के नामों का उल्लेख है उनमें अधिकतर श्वेताम्बर में पंचास्तिकाय को भी 'पंचत्थिकाय-संगहसत्त' कहा गया है। स्वयं परम्परा के प्रकीर्णकों के नामों से मिलते हैं। अतः प्रस्तुत: गाथा में इस ग्रन्थ के कर्ता ने भी इस ग्रन्थ को संग्रह कहा है अत: एक थुई नामक ग्रन्थ से तात्पर्य प्रकीर्णकों में समाविष्ट देविदंत्थओ और विकल्प तो यह हो सकता है कि संग्रह से तात्पर्य 'पंचत्थिकाय संगह' वीरत्थओ से ही होना चाहिए। यद्यपि मेरी दृष्टि में 'थुदि' से मूलाचार से हो, किन्तु यही एकमात्र विकल्प हो हम यह नहीं कह सकते, क्योंकि का तात्पर्य या तो सूत्रकृतांग के छठे अध्याय में अन्तर्निहित 'वीरत्थुई' अनेक आधारों पर मूलाचार पंचास्तिकाय की अपेक्षा प्राचीन है। दूसरे से रहा होगा या फिर देविंदत्थओ नामक प्रकीर्णक से होगा, क्योंकि यदि मूलाचार को कुन्दकुन्द के ग्रन्थों का उल्लेख इष्ट होता तो वे यह ईसा पूर्व प्रथम शती में रचित एक प्राचीन प्रकीर्णक है। (इस समयसार का भी उल्लेख करते है। पुन: कुन्दकुन्द द्वारा 'समय' शब्द सम्बन्ध में मेरे द्वारा सम्पादित एवं आगम संस्थान द्वारा प्रकाशित का जिस अर्थ में प्रयोग किया गया है, मूलाचार के समयसाराधिकार 'देविंदत्थओ' की भूमिका देखें)। प्रकीर्णकों में समाहित वीरत्थुओ मुझे में 'समय' शब्द उससे भिन्न अर्थ में ग्रहण हुआ है। श्वेताम्बर परम्परा मूलाचार की अपेक्षा परवर्ती रचना लगती है। पच्चक्खाण नामक ग्रन्थ में संग्रहणी सूत्र का उल्लेख उपलब्ध होता है। पंचकल्पमहाभाष्य के से मूलाचार का मन्तव्य क्या है यह भी विचारणीय है। दिगम्बर परम्परा अनुसार संग्रहणियों की रचना आचार्य कालक ने की थी। पाक्षिकसूत्र में पच्चक्खाण नामक कोई ग्रन्थ है, ऐसा ज्ञात नहीं होता है। जबकि में नियुक्ति और संग्रहणी दोनों का उल्लेख है। संग्रहणी आगमिक ग्रन्थों श्वेताम्बर परम्परा में प्रकीर्णकों के अन्तर्गत आउरपच्चक्खाण और का संक्षेप में परिचय देने वाली रचना है। चूँकि आगमों का महापच्चक्खाण नामक दो ग्रन्थ हैं। अतः स्पष्ट है कि पच्चक्खाण से अस्वाध्याय काल में पढ़ना वर्जित था, अत: यह हो सकता है कि मूलाचार का तात्पर्य आउरपच्चक्खाण तथा महापच्चक्खाण नामक ग्रन्थों आचार्य कालक आदि की जो संग्रहणी थी, उन्हीं से ग्रन्थकार का तात्पर्य से ही है। मूलाचार के टीकाकार वसुनन्दी ने इसे स्पष्ट नहीं किया रहा हो। संग्रह से पंचसंग्रह अर्थ ग्रहण करने पर समस्या उठ खड़ी __ है। केवल इतना ही कहकर छोड़ दिया है कि त्रिविध एवं चतुर्विध होती है। श्वेताम्बर् पंचसंग्रह जो चन्द्रऋषि की रचना माना जाता है, परित्याग का प्रतिपादक ग्रन्थ, किन्तु ऐसा कोई ग्रन्थ श्वेताम्बर या दिगम्बर वह किसी भी स्थिति में ७वीं शताब्दी से पूर्व का नहीं है। दिगम्बर परम्परा में रहा है ऐसा ध्यान में नहीं आता। जब मूलाचार में परम्परा का पंचसंग्रह तो और भी परवर्ती ही सिद्ध होता है। उसमें आउरपच्चक्खाण की ही ७० गाथाएँ मिल रही हैं, इसके अतिरिक्त उपलब्ध धवला आदि का कुछ अंश उसे १०वीं-११वीं शती तक महापच्चक्खाण की भी गाथाएँ उसमें थीं ही। इससे सिद्ध होता है ले जाता है। अत: मूलाचार में संग्रह के रूप में जिस ग्रन्थ का उल्लेख कि पच्चक्खाण से मूलाचारकार का तात्पर्य आउरपच्चक्खाण और है वह ग्रन्थ वर्तमान श्वेताम्बर-दिगम्बर परम्परा का उपलब्ध पंचसंग्रह महापच्चक्खाण से ही है। तो नहीं हो सकता। अन्यथा हमें मूलाचार की तिथि को काफी नीचे आवासय या आवश्यक से मूलाचारकार का तात्पर्य किस ग्रन्थ ले जाना होगा। गाथा के सन्दर्भ-स्थल को देखते हुए उसे प्रक्षिप्त भी से है-यह भी विचारणीय है। टीकाकार वसुनन्दी ने मात्र केवल इतना नहीं कहा जा सकता। यद्यपि यह बात निश्चित ही सत्य है कि पंचसंग्रह निर्देश दिया है कि आवश्यक से तात्पर्य सामायिक आदि षड्-आवश्यक में जिन ग्रन्थों का संग्रह किया गया है, उनमें कुछ ग्रन्थ शिवशर्मसूरि कार्यों का प्रतिपादक ग्रन्थ। दिगम्बर परम्परा में इस प्रकार का कोई की रचनाएँ हैं और इस दृष्टि से प्राचीन भी हैं। सम्भव, यही लगता ग्रन्थ नहीं रहा है जबकि श्वेताम्बर परम्परा में आवश्यक नामक स्वतन्त्र है कि उपलब्ध पंचसंग्रह के पूर्व भी कर्म सिद्धान्त से सम्बन्धित ग्रन्थ प्राचीन काल से उपलब्ध है और उसकी गणना ग्रन्थ के रूप कसायपाहुड, सतक, सित्तरी आदि कुछ ग्रन्थों का एक संग्रह रहा होगा में की गई है। अत: स्पष्ट है कि मूलाचारकार का आवश्यक से तात्पर्य और जो संग्रह नाम से प्रसिद्ध था। हो सकता है कि मूलाचार ने उसी श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आवश्यक सूत्र से ही है।
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मूलाचार : एक विवेचन
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अन्तिम ग्रन्थ जिसका इस गाथा में उल्लेख है, वह धर्मकथा में भी विचार कर लेना आवश्यक है । श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आगमों है। यह बात निश्चय ही विचारणीय है कि धर्मकथा से ग्रन्थकार का में छेद सूत्रों के अन्तर्गत आचारकल्प (दशाश्रुतस्कन्ध आचारदशा) और तात्पर्य किस ग्रन्थ से है। दिगम्बर परम्परा में धर्मकथानुयोग के रूप जीतकल्प उल्लेख उपलब्ध हैं। यापनीय परम्परा के एक अन्य ग्रन्थ में जो पुराण आदि साहित्य उपलब्ध है, वह किसी भी स्थिति में मूलाचार छेदशास्त्र में भी प्रायश्चित्त के सन्दर्भ में आचारकल्प और जीतकल्प से पूर्ववर्ती नहीं है। टीकाकार वसुनन्दी ने धर्मकथा से त्रिषष्टिशलाकापुरुष का उल्लेख उपलब्ध होता है। यह स्पष्ट है कि आचारकल्प और जीतकल्प चरित्र आदि का जो तात्पर्य लिया है वह तब तक ग्राह्य नहीं बन सकता मुनि जीवन के आचार नियमों तथा उनसे सम्बन्धित प्रायश्चित्तों का वर्णन जब तक कि त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र का विवेचन करने वाले मूलाचार करते हैं। पंचाचाराधिकार में तपाचार के सन्दर्भ में जो इन दो ग्रन्थों से पूर्व के कोई ग्रन्थ हों। यदि हम त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र से सम्बन्धित का उल्लेख है, वे वस्तुतः श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आचारदशा और ग्रन्थों को देखते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि ये सभी ग्रन्थ मूलाचार । जीतकल्प ही हैं। यह भी स्मरण रखना चाहिए कि दिगम्बर आचार्यों के परवर्ती ही हैं। अत: यह प्रश्न अनुत्तरित ही रहता है कि धर्मकथा ने यापनीय परम्परा के सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से कहा है कि ये कल्पसूत्र से मूलाचार का क्या तात्पर्य है। इसके उत्तर के रूप में हमारे सामने का वाचन करते हैं। स्मरण रहे कि आचारकल्प का आठवाँ अध्ययन दो विकल्प हैं या तो हम यह मानें कि मूलाचार की रचना के पूर्व पर्युषणाकल्प के नाम से प्रसिद्ध है और पर्युषण पर्व के अवसर पर भी कुछ चरित ग्रन्थ रहें होगे जो धर्मकथा के नाम से जाने जाते होंगे, श्वेताम्बर परम्परा में पढ़ा जाता है। किन्तु यह कल्पना अधिक सन्तोषजनक नहीं लगती। दूसरा विकल्प इस प्रकार देखते हैं कि मूलाचार में जिन ग्रन्थों का निर्देश किया यह हो सकता है कि धर्मकथा से तात्पर्य 'नायधम्मकहा' से तो नहीं। गया है लगभग वे सभी ग्रन्थ आज भी श्वेताम्बर परम्परा में मान्य और यह सर्वमान्य है कि 'नायधम्मकहा' की विषयवस्तु धर्मकथानुयोग से प्रचलित हैं। इससे यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि आगमिक ग्रन्थों के सम्बन्धित है। इस विकल्प को स्वीकार करने में केवल एक ही कठिनाई सन्दर्भ में मूलाचार की परम्परा श्वेताम्बर परम्परा के निकट है। यापनीयों है कि कुछ अंग-आगम भी अस्वाध्याय काल में पढ़े जा सकते हैं- के सन्दर्भ में यह स्पष्ट है कि वे श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आगम यह मानना होगा। एक और विकल्प हो सकता है। धर्मकथा से तात्पर्य साहित्य को मान्य करते थे। यह हम पूर्व में भी सूचित कर चुके हैं कहीं पउमचरिय आदि ग्रन्थ से तो नहीं है लेकिन यह कल्पनाएं ही कि उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में जिन ग्रन्थों का निर्माण ई० सन् हैं। मेरी दृष्टि में तो 'धम्मकहा' से मूलाचार का तात्पर्य 'नायधम्मकहा' की दूसरी शती तक हुआ था उसके उत्तराधिकारी श्वेताम्बर और यापनीय से होगा। मूलाचार में उपर्युक्त ग्रन्थों के अतिरिक्त 'आयारकप्प' और दोनों ही रहे हैं। अत: मूलाचार में श्वेताम्बर परम्परा में मान्य ग्रन्थों 'जीदकप्प' ऐसे दो ग्रन्थों की और सूचना मिलती है अत: इनके सम्बन्ध का उल्लेख यही सिद्ध करता है कि वह यापनीय परम्परा का ग्रन्थ है।
संदर्भ: १. मूलाचार (सं० ज्ञानमती माताजी, भारतीय ज्ञानपीठ) भूमिका,
पृ.११, साथ ही देखें- डॉ०ज्योतिप्रसाद जैन की प्रधान सम्पादकीय, पृ०६। विस्तृत चर्चा के लिये देखें- जैन साहित्य और इतिहास पं.नाथूरामजी प्रेमी, संशोधित साहित्यमाला, ठाकुर द्वार बम्बई, १९५६, पृ० ५४८-५५३। आयारजीदकप्पगुणदीवणा अप्पसोधि णिज्झंझा ।
अज्जव-मद्दव-लाघव-वुट्टी पल्हादणं च गुणा ।।३८७।। मूलाचार ४. आराहणणिज्जुत्ती मरणविभत्ती य संगहत्थुदिओ।
पच्चक्खाणावासय धम्मकहाओ य एरसिओ ।।२७९ ।। मूलाचार बावीसं तित्थयरा सामाइयसंजमं उवदिसंति । छेओवट्ठावणियं पुण भयवं उसहो उसहो य वीरो य। ७-३६ सपडिक्कमणो धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स जिणस्स। अवराहपडिक्कमणं मज्झिमयाणं जिणवराणं ।।६२८।। मूलाचार
७. देखिए, पं०सुखलाल संघवीकृत 'पंचप्रतिक्रमण सूत्र'। ८. 'आवासयणिज्जुत्ती वोच्छामि जहाकम समासेण।' 'सामाइयणिज्जुत्ती
एसा कहिया मए समासेण।' 'चउवीसयणिज्जुत्ती एसा कहिया मए
समासेण' आदि। ९. आवासयणिज्जुत्ती एवं कधिदा समासओ विहिणा । १०. एसो अज्जाणंपि अ सामाचारो जहाक्खिओ पुव्वं ।
सव्वम्हि अहोरत्ते विभासिदव्वो जधाजोग्गं ।।१८७।। ११. देखिए, कुन्दकुन्द अमृतसंग्रह, गा० २४-२७, पृ०सं०१३५।
-संपा०पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री। १२. एवं विधाणचरियं चरंति जे साधवो य अज्जाओ ।
जगपुज्जं ते कित्तिं सुहं च लभ्रूण सिझंति ।।९६।। मूलाचार १३. आराहणा निज्जुत्ति मरणविभत्तीयं संगहथुदिओ।
पच्चखाणावासय धम्मकहाओ य एरिसओ ।।२७९।। मूलाचार १४. आयार जीदकप्प गुण दीवणा..... ।।३८७।। मूलाचार
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तृतीयखण्ड
जैन दर्शन
लेखक डॉ० सागरमल जैन
संपादक डॉ० फूलचन्द जैन डॉ० रमेश चन्द्र गुप्त
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जैनदर्शन में सत् का स्वरूप
जैन आगम साहित्य की व्याख्या एवं उनमें वर्णित विषय- द्रव्यानुयोग है। वस्तु को मुख्य रूप से जिन चार विभागों में वर्गीकृत किया गया है, वे विश्व के सन्दर्भ में जैनों का दृष्टिकोण यह है कि यह विश्व अनुयोग कहे जाते हैं। अनुयोग चार हैं- (१) द्रव्यानुयोग, (२) अकृत्रिम है ('लोगो अकिट्टिमो खलु' मूलाचार, गाथा ७/२)। इस लोक गणितानुयोग, (३) चरणकरणानुयोग और (४) धर्मकथानुयोग। इन का कोई निर्माता या सृष्टिकर्ता नहीं है। अर्ध-मागधी आगम साहित्य में चार अनुयोगों में से जिस अनुयोग के अन्तर्गत विश्व के मूलभूत घटकों भी लोक को शाश्वत बताया गया है। उसमें कहा गया है कि यह लोक के स्वरूप के सम्बध में विवेचन किया जाता है,उसे द्रव्यानुयोग कहते अनादिकाल से है और रहेगा। ऋषिभाषित के अनुसार लोक की हैं। खगोल-भूगोल सम्बन्धी विवरण गणितानुयोग के अन्तर्गत आते हैं। शाश्वतता के इस सिद्वान्त का प्रतिपादन भगवान् पार्श्वनाथ ने किया था। धर्म और सदाचरण संबंधी विधि-निषेधों का विवेचन चरणकरणानुयोग आगे चलकर भगवतीसूत्र में महावीर ने भी इसी सिद्वान्त का अनुमोदन अंतर्गत होता है और धर्म एवं नैतिकता में आस्था को दृढ़ करने हेतु किया।२ जैन दर्शन लोक को जो अकृत्रिम और शाश्वत मानता है उसका सदाचारी, सतपुरुषों के जो आख्यानक (कथानक) प्रस्तुत किये जाते तात्पर्य यह है कि लोक का कोई रचयिता एवं नियामक नहीं है, वह हैं, वे धर्मकथानुयोग के अन्तर्गत आते हैं।
स्वाभाविक है और अनादिकाल से चला आ रहा है, किन्तु जैनागमों में इस प्रकार हम देखते हैं कि इन चार अनुयोगों में भी लोक के शाश्वत कहने का तात्पर्य कथमपि यह नहीं है कि उसमें कोई द्रव्यानुयोग का सम्बन्ध तात्त्विक या दार्शनिक चिन्तन से है। जहाँ तक परिवर्तन नहीं होता है। विश्व के सन्दर्भ में जैन चिन्तक जिस नित्यता हमारे दार्शनिक चिन्तन का प्रश्न है आज हम उसे तीन भागों में को स्वीकार करते हैं, वह नित्यता कूटस्थ नित्यता नहीं, परिणामी विभाजित करते हैं- १. तत्त्व-मीमांसा, २. ज्ञान-मीमांसा और ३. नित्यता है, अर्थात् वे विश्व को परिवर्तनशील मानकर भी मात्र प्रवाह या आचार-मीमांसा। इन तीनों में से तत्त्व-मीमांसा एवं ज्ञान-मीमांसा दोनों प्रक्रिया की अपेक्षा से नित्य या शाश्वत कहते हैं। ही द्रव्यानुयोग के अन्तर्गत आते हैं। इनमें भी जहाँ तक तत्त्व-मीमांसा भगवतीसूत्र में लोक के स्वरूप की चर्चा करते हुए लोक को का सम्बन्ध है, उसके प्रमुख कार्य जगत् के मूलभूत घटकों, उपादानों पंचास्तिकाय रूप कहा गया है।३ जैन दर्शन में इस विश्व के मूलभूत या पदार्थों और उनके कार्यों की विवेचना करना है। तत्त्व-मीमांसा का उपादान पाँच अस्तिकाय द्रव्य हैं-१. जीव (चेतन तत्त्व), २. पुद्गल आरम्भ तभी हुआ होगा जब मानव में जगत् के स्वरूप और उसके (भौतिक तत्त्व), ३. धर्म (गति का नियामक तत्त्व), ४. अधर्म (स्थिति मूलभूत उपादान घटकों को जानने की जिज्ञासा प्रस्फुटित हुई होगी नियामक तत्त्व) और ५. आकाश (स्थान या अवकाश देने वाला तथा उसने अपने और अपने परिवेश के संदर्भ में चिन्तन किया होगा। तत्त्व)। इसी चिन्तन के द्वारा तत्त्व-मीमांसा का प्रादुर्भाव हुआ होगा। "मैं कौन ज्ञातव्य है कि यहाँ काल को स्वतन्त्र तत्त्व नहीं माना गया है। हैं", "कहाँ से आया हूँ" “यह जगत् क्या है", जिससे यह निर्मित यद्यपि परवर्ती जैन विचारकों ने काल को भी विश्व के परिवर्तन के हुआ है, वे मूलभूत उपादान,घटक क्या हैं", "यह किन नियमों से मौलिक कारण के रूप में या विश्व में होने वाले परिवर्तनों के नियामक नियंत्रित एवं संचालित होता है" इन्हीं प्रश्नों के समाधान हेतु ही तत्त्व के रूप में स्वतन्त्र द्रव्य माना है। इसकी विस्तृत चर्चा आगे विभिन्न दर्शनों का और उनके तत्त्व-विषयक गवेषणाओं का जन्म हुआ। पंचास्तिकायों और षद्रव्यों के प्रसंग में की जायेगी। यहाँ हमारा जैन परम्परा में भी उसके प्रथम एवं प्राचीनतम आगम ग्रंथ आचारांग का प्रतिपाद्य तो यह है कि जैन दार्शनिक विश्व के मूलभूत उपादानों के रूप प्रारम्भ भी इसी चिन्तना से होता है कि "मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, में पंचास्तिकायों एवं षद्रव्यों की चर्चा करते हैं। विश्व के इन मूलभूत इस शरीर का परित्याग करने पर कहाँ जाऊँगा।"१ वस्तुत: ये ही ऐसे उपादानों को द्रव्य अथवा सत् के रूप में विवेचित किया जाता है। द्रव्य प्रश्न हैं जिनसे दार्शनिक चिन्तन का विकास होता है और तत्त्व- अथवा सत् वह है जो अपने आप में परिपूर्ण, स्वतन्त्र और विश्व का मीमांसा का आविर्भाव होता है।
मौलिक घटक है। जैन परम्परा में सामान्यतया सत्, तत्त्व, परमार्थ, तत्त्व-मीमांसा वस्तुत: विश्व-व्याख्या का एक प्रयास है। इसमें द्रव्य, स्वभाव, पर-अपर ध्येय, शुद्ध और परम इन सभी को एकार्थक जगत् के मूलभूत उपादानों तथा उनके कार्यों का विवेचन विभिन्न या पर्यायवाची माना गया है। बृहद्नयचक्र में कहा गया हैदृष्टिकोणों से किया जाता है। विश्व के मूलभूत घटक जो अपने ततं तह परमटुं दव्यसहायं तहेव परमपरं। अस्तित्व के लिये किसी अन्य घटक पर आश्रित नहीं है तथा जो कभी
धेयं सुद्धं परमं एयट्ठा हुंति अभिहाणा ।। भी अपने स्व-स्वरूप का परित्याग नहीं करते हैं वे सत् या द्रव्य
-बृहद्नयचक्र, ४११ कहलाते हैं। विश्व के तात्त्विक आधार या मूलभूत उपादान ही सत् या
जैनागमों में विश्व के मूलभूत घटक के लिए अस्तिकाय, द्रव्य कहे जाते हैं और जो इन द्रव्यों का विवेचन करता है वही तत्त्व और द्रव्य शब्दों का प्रयोग मिलता हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में हमें तत्त्व
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और द्रव्य के स्थानांग में अस्तिकाय और पदार्थ के, ऋषिभाषित, समवायांग और भगवती में अस्तिकाय के उल्लेख मिलते हैं। कुंदकुंद ने अर्थ, पदार्थ, तत्त्व, द्रव्य और अस्तिकाय इन सभी शब्दों का प्रयोग किया है। इससे यह ज्ञात होता है कि जैन आगमयुग में तो विश्व के मूलभूत घटकों के लिए अस्तिकाय, तत्त्व, द्रव्य और पदार्थ शब्दों का प्रयोग होता था। 'सत्' शब्द का प्रयोग आगम युग में नहीं हुआ उमास्वाति ही ऐसे आचार्य हैं जिन्होंने आगमिक द्रव्य, तत्त्व और अस्तिकाय शब्दों के साथ-साथ द्रव्य के लक्षण के रूप में 'सत्' शब्द का प्रयोग किया है। वैसे अस्तिकाय शब्द प्राचीन और जैन दर्शन का अपना विशिष्ट परिभाषिक शब्द है। यह अपने अर्थ की दृष्टि से सत् के निकट है, क्योंकि दोनों ही अस्तित्व लक्षण के ही सूचक हैं। तत्त्व, द्रव्य और पदार्थ शब्द के प्रयोग सांख्य और न्याय-वैशेषिक दर्शनों में भी मिलते हैं।
तत्त्वार्थसूत्र (५/२९) में उमास्वाति ने भी द्रव्य और सत् दोनों को अभिन्न बताया है। यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि सत, परमार्थ, परम तत्त्व और द्रव्य सामान्य दृष्टि से पर्यायवाची होते हुए भी विशेष दृष्टि एवं अपने व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ की दृष्टि से भिन्न-भिन्न हैं। वेद, उपनिषद् और उनसे विकसित वेदान्त दर्शन की विभिन्न दार्शनिक धाराओं में सत् शब्द प्रमुख रहा है। ऋग्वेद में स्पष्ट उल्लेख है कि "एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति” अर्थात् सत् (परम तत्त्व) एक ही हैविप्र (विद्वान) उसे अनेक रूप से कहते हैं । किन्तु दूसरी ओर स्वतन्त्र चिन्तन के आधार पर विकसित दर्शन परम्पराओं-विशेष रूप से वैशेषिक दर्शन में द्रव्य शब्द प्रमुख रहा है। ज्ञातव्य है कि व्युत्पत्तिपरक अर्थ की दृष्टि से सत् शब्द अस्तित्व का अथवा प्रकारान्तर से नित्यता या अपरिवर्तनशीलता का एवं द्रव्य शब्द परिवर्तनशीलता का सूचक है। सांख्यों एवं नैयायिकों ने इसके लिए तत्त्व शब्द का प्रयोग किया है। यद्यपि यहाँ यह स्मरण रखना चाहिये कि न्यायसूत्र के भाष्यकार ने प्रमाण आदि १६ तत्त्वों के लिए सत् शब्द का प्रयोग भी किया है फिर भी इतना स्पष्ट है कि न्याय और वैशेषिक दर्शन में क्रमशः तत्त्व और द्रव्य शब्द ही अधिक प्रचलित रहे हैं। सांख्य दर्शन भी प्रकृति और पुरुष इन दोनों को तथा इनसे उत्पन्न बुद्धि, अहंकार, पाँच ज्ञानेन्द्रियों, पाँच कर्मेन्द्रियों, पंच तन्मात्राओं और पंच महाभूतों को तत्त्व ही कहता है। इस प्रकार स्वतन्त्र चिन्तन के आधार पर विकसित इन दर्शन परम्पराओं में तत्त्व, पदार्थ, अर्थ और द्रव्य का प्रयोग प्रमुख रूप से हुआ है। सामान्यतया तो तत्त्व, पदार्थ, अर्थ और द्रव्य शब्द पर्यायवाची रूप में प्रयुक्त होते हैं किन्तु इनमें अपने तात्पर्य को लेकर भिन्नता भी मानी गयी हैं। तत्त्व शब्द सबसे अधिक व्यापक है उसमें पदार्थ और द्रव्य भी समाहित है। न्याय दर्शन में जिन तत्त्वों को माना गया है उनमें द्रव्य का उल्लेख प्रमेय के अन्तर्गत हुआ है। वैशेषिकसूत्र में द्रव्यगुण कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय ये षट् पदार्थ और प्रकारान्तर से अभाव को मिलाकर सात पदार्थ कहे जाते हैं। इनमें भी द्रव्य, गुण और कर्म इन तीन की ही अर्थ संज्ञा है। अतः सिद्ध होता है कि अर्थ की
व्यापकता की दृष्टि से तत्व की अपेक्षा पदार्थ और पदार्थ की अपेक्षा द्रव्य अधिक संकुचित है। तत्त्वों में पदार्थ का और पदार्थों में द्रव्य का समावेश होता है सत् शब्द को इससे भी अधिक व्यापक अर्थ में प्रयोग किया गया है। वस्तुतः जो भी अस्तित्ववान् है, वह सत् के अन्तर्गत आ जाता है। अतः सत् शब्द, तत्त्व, पदार्थ, द्रव्य आदि शब्दों की अपेक्षा भी अधिक व्यापक अर्थ का सूचक है।
उपर्युक्त विवेचन से एक निष्कर्ष यह भी निकाला जा सकता है कि जो दर्शनधारायें अभेदवाद की ओर अग्रसर हुईं उनमें 'सत्' शब्द की प्रमुखता रही जबकि जो धारायें भेदवाद की ओर अग्रसर हुईं उनमें 'द्रव्य' शब्द की प्रमुखता रही।
जहाँ तक जैन दर्शनिकों का प्रश्न है उन्होंने सत् और द्रव्य में एक अभिन्नता सूचित की है। तत्त्वार्थभाष्य में उमास्वाति ने 'सत् द्रव्य लक्षणं' कहकर दोनों में अभेद स्थापित किया है फिर भी हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि जहाँ 'सत्' शब्द एक सामान्य सत्ता का सूचक है वहाँ 'द्रव्य' शब्द विशेष सत्ता का सूचक है। जैन आगमों के टीकाकार अभयदेवसूरि ने और उनके पूर्व तत्त्वार्थभाष्य (१/३५) में उमास्वाति ने 'सर्वं एकं सद् विशेषात्' कहकर सत् शब्द से सभी द्रव्यों के सामान्य लक्षण अस्तित्व को सूचित किया है। अतः यह स्पष्ट है कि सत् शब्द अभेद या सामान्य का सूचक है और द्रव्य शब्द विशेष का । यहाँ हमें यह भी स्मरण रखना चाहिये कि जैन दार्शनिकों की दृष्टि में सत् और द्रव्य शब्द में तादात्म्य सम्बन्ध है। सत्ता की अपेक्षा वे अभिन्न हैं; उन्हें एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता है। क्योंकि सत् अर्थात् अस्तित्व के बिना द्रव्य भी नहीं हो सकता। दूसरी ओर द्रव्य (सत्ताविशेष) के बिना सत् की कोई सत्ता ही नहीं होगी। अस्तित्व (सत्) के बिना द्रव्य और द्रव्य के बिना अस्तित्व नहीं हो सकते। अस्तित्व या सत्ता की अपेक्षा से तो सत् और द्रव्य दोनों अभिन्न हैं। यही कारण है। कि उमास्वाति ने सत् को द्रव्य का लक्षण कहा था। स्पष्ट है कि लक्षण और लक्षित भिन्न-भिन्न नहीं होते हैं।
वस्तुतः सत् और द्रव्य दोनों में उनके व्युत्पत्तिपरक अर्थ की अपेक्षा से ही भेद है, अस्तित्व या सत्ता की अपेक्षा से भेद नहीं है। हम उनमें केवल विचार की अपेक्षा से भेद कर सकते हैं, सत्ता की अपेक्षा से नहीं। सत् और द्रव्य अन्योन्याश्रित है, फिर भी वैचारिक स्तर पर हमें यह मानना होगा कि सत् ही एक ऐसा लक्षण है जो विभिन्न द्रव्यों में अभेद की स्थापना करता है, किन्तु हमें यह भी ध्यान रखना चाहिये कि सत् द्रव्य का एकमात्र लक्षण नहीं है द्रव्य में अस्तित्व के अतिरिक्त अन्य लक्षण भी हैं, जो एक द्रव्य को दूसरे से पृथक् करते हैं। अस्तित्व लक्षण की अपेक्षा से सभी द्रव्य एक हैं किन्तु अन्य लक्षणों की अपेक्षा से वे एक-दूसरे से पृथक् भी हैं। जैसे चेतना लक्षण जीव और अजीव में भेद करता है। सत्ता में सत् लक्षण की अपेक्षा से अभेद और अन्य लक्षणों से भेद मानना यही जैन दर्शन की अनेकान्तिक दृष्टि की विशेषता है।
अर्धमागधी आगम स्थानांग और समवायांग में जहाँ अभेद
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जैनदर्शन में सत् का स्वरूप
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दृष्टि के आधार पर जीव द्रव्य को एक कहा गया है, वहीं उत्तराध्ययन विवेच्य उसके दित् या अचित् होने से है। ज्ञातव्य है कि अधिकांश में भेद-दृष्टि से जीव द्रव्य में भेद किये गये हैं।
भारतीय दर्शनों ने चित-अचित, जड़-चेतन या जीव-अजीव दोनों जहाँ तक जैन दार्शनिकों का प्रश्न है, वे सत् और द्रव्य दोनों तत्त्वों को स्वीकार किया है अत: यह प्रश्न अधिक चर्चित नहीं बना ही शब्दों को न केवल स्वीकार करते हैं, अपितु उनको एक-दूसरे से फिर भी इन सब प्रश्नों के दिये गये उत्तरों के परिणामस्वरूप भारतीय समन्वित भी करते हैं। यहाँ हम सर्वप्रथम सत् के स्वरूप का विश्लेषण चिन्तन में सत् के स्वरूप में विविधता आ गयी। करेंगे, उसके बाद द्रव्यों की चर्चा करेंगे तथा अन्त में तत्त्वों के स्वरूप पर विचार करेंगे।
सत् के परिवर्तनशील या अपरिवर्तनशील पक्ष की समीक्षा
सत् के परिवर्तनशील अथवा अपरिवर्तनशील स्वरूप के सत् का स्वरूप
सम्बन्ध में दो अतिवादी अवधारणाएँ हैं। एक धारणा यह है कि सत् जैसा कि हमने पूर्व में सूचित किया है जैन दार्शनिकों ने निर्विकार एवं अव्यय है। त्रिकाल में उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता। इन सत्, तत्त्व और द्रव्य इन तीनों को पर्यायवाची माना है किन्तु इनके विचारकों का कहना है कि जो परिवर्तित होता है, वह सत् नहीं हो शाब्दिक अर्थ की दृष्टि से इन तीनों में अन्तर है। सत् वह सामान्य सकता। परिर्वतन का अर्थ ही है कि पूर्व अवस्था की समाप्ति और लक्षण है जो सभी द्रव्यों और तत्त्वों में पाया जाता है एवं द्रव्यों के भेद नवीन अवस्था का ग्रहण। इन दार्शनिकों का कहना है कि जिसमें में भी अभेद को प्रधानता देता है। जहाँ तक तत्त्व का प्रश्न है, वह भेद उत्पाद एवं व्यय की प्रक्रिया हो उसे सत् नहीं कहा जा सकता। जो और अभेद दोनों को अथवा सामान्य और विशेष दोनों को स्वीकार अवस्थान्तर को प्राप्त हो उसे सत् कैसे कहा जाय? इस सिद्धान्त के करता है। सत् में कोई भेद नहीं किया जाता, जबकि तत्त्व में भेद किया विरोध में जो सिद्धान्त अस्तित्व में आया वह सत् की परिवर्तनशीलता जाता है। जैन आचार्यों ने तत्त्वों की चर्चा के प्रसंग पर न केवल जड़ का सिद्धान्त है। इन विचारकों के अनुसार परिवर्तनशीलता या
और चेतन द्रव्यों अर्थात् जीव और अजीव की चर्चा की है, अपितु अर्थक्रियाकारित्व की सामर्थ्य ही सत् का लक्षण है। जो गतिशील नहीं आस्रव, संवर आदि उनके पारस्परिक सम्बन्धों की भी चर्चा की है। है दूसरे शब्दों में जो अर्थक्रियाकारित्व की शक्ति से हीन है उसे सत् तत्त्व की दृष्टि से न केवल जीव और अजीव में भेद माना गया अपितु नहीं कहा जा सकता। जहाँ तक भारतीय दार्शनिक चिंतन का प्रश्न है जीवों में भी परस्पर भेद माना गया, वहीं दूसरी ओर आस्रव, बन्ध कुछ औपनिषदिक चिन्तक और शंकर का अद्वैत वेदान्त सत् के आदि के प्रसंग में उनके तादात्म्य या अभेद को भी स्वीकार किया अपरिवर्तनशील होने के प्रथम सिद्धान्त के प्रबल समर्थक हैं। आचार्य गया, किन्तु जहाँ तक 'द्रव्य' शब्द का प्रश्न है वह सामान्य होते हुए शंकर के अनुसार सत् निर्विकार और अव्यय है। वह उत्पाद और व्यय भी द्रव्यों की लक्षणगत् विशेषताओं के आधार पर उनमें भेद करता है। दोनों से रहित हैं। इसके विपरीत दूसरा सिद्धान्त बौद्ध-दार्शनिकों का 'सत्' शब्द सामान्यात्मक है, तत्त्व शब्द सामान्य-विशेष उभयात्मक है है। वे सभी एकमत से स्वीकार करते हैं कि सत् का लक्षण अर्थक्रियाकारित्व
और द्रव्य विशेषात्मक है। पुनः सत् शब्द सत्ता के अपरिवर्तनशील पक्ष है। उत्पत्ति और विनाश की प्रक्रिया से पृथक् कोई वस्तु सत् नहीं हो का, द्रव्य शब्द परिवर्तनशील पक्ष का और तत्त्व शब्द उभय-पक्ष का सकती। जहाँ तक भारतीय चिन्तकों में सांख्य दर्शनिकों का प्रश्न है वे सूचक है। जैनों की नयों की पारिभाषिक शब्दावली में कहें तो सत् शब्द चित् तत्त्व या पुरुष को अपरिवर्तनशील या कूटस्थनित्य मानते हैं संग्रहनय का, तत्त्व नैगमनय का और द्रव्य शब्द व्यवहारनय का सूचक किन्तु उनकी दृष्टि में प्रकृति कूटस्थनित्य नहीं है वह परिवर्तनशील है। सत् अभेदात्मक है, तत्त्व भेदाभेदात्मक है और द्रव्य शब्द भेदात्मक तत्त्व है। इस प्रकार सांख्य दार्शनिक अपने द्वारा स्वीकृत दो तत्त्वों में है। चूँकि जैन दर्शन भेद, भेदाभेद और अभेद तीनों को स्वीकार करता एक को परिवर्तनशील और दूसरे को अपरिवर्तनशील मानते हैं। है, अत: उसने अपने चिन्तन में इन तीनों को स्थान दिया है। इन तीनों वस्तुत: सत् को निर्विकार और अव्यय मानने में सबसे बड़ी शब्दों में हम सर्व प्रथम सत् के स्वरूप के सम्बन्ध में विचार करेंगे। बाधा यह है कि उसके अनुसार जगत् को मिथ्या या असत् ही मानना यद्यपि अपने व्युत्पत्तिपरक अर्थ की दृष्टि से सत् शब्द सत्ता के होता है, क्योंकि हमारी अनुभूति का जगत् तो परिवर्तनशील है इसमें अपरिवर्तनशील, सामान्य एवं अभेदात्मक पक्ष का सूचक है। फिर भी कुछ भी ऐसा प्रतीत नहीं होता जो परिवर्तन से रहित हो। न केवल सत् के स्वरूप को लेकर भारतीय दार्शनिकों में मतैक्य नहीं है। कोई व्यक्ति और समाज अपितु भौतिक पदार्थ भी प्रतिक्षण बदलते रहते हैं। उसे अपरिवर्तनशील मानता है तो कोई उसे परिवर्तनशील, कोई उसे सत् को निर्विकार और अव्यय मानने का अर्थ है जगत् की अनुभूतिगत एक कहता है तो कोई अनेक, कोई उसे चेतन मानता है तो कोई उसे विविधता को नकारना और कोई भी विचारक अनुभवात्मक परिवर्तनशीलता जड़। वस्तुत: सत्, परम तत्त्व या परमार्थ के स्वरूप सम्बन्धी इन को नकार नहीं सकता। चाहे आचार्य शंकर कितने ही जोर से इस बात विभिन्न दृष्टिकोणों के मूल में प्रमुख रूप से तीन प्रश्न रहे हैं। प्रथम को रखें कि निर्विकार ब्रह्म ही सत्य है और परिवर्तनशील जगत् मिथ्या प्रश्न उसके एकत्व अथवा अनेकत्व का है। दूसरे प्रश्न का सम्बन्ध है किन्तु आनुभविक स्तर पर कोई भी विचारक इसे स्वीकार नहीं कर उसके परिवर्तनशील या अपरिवर्तनशील का होने से है। तीसरे प्रश्न का सकेगा। अनुभूति के स्तर पर जो परिवर्तनशील की अनुभूति है उसे
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
कभी भी नकारा नहीं जा सकता। यदि सत् त्रिकाल में अविकारी और करेगा और जो वेतन मिलेगा वह किसी अन्य को। इसी प्रकार ऋण अपरिवर्तनशील हो तो फिर वैयक्तिक जीवों या आत्माओं के बंधन और कोई अन्य व्यक्ति लेगा और उसका भुगतान किसी अन्य व्यक्ति को मुक्ति की व्याख्या भी अर्थहीन हो जायेगी। धर्म और नैतिकता दोनों का करना होगा। ही उन दर्शनों में कोई स्थान नहीं है, जो सत् की अपरिणामी मानते हैं। यह सत्य है कि बौद्ध दर्शन में सत् के अनित्य एवं क्षणिक जैसे जीवन में बाल्यावस्था, युवावस्था और प्रौढ़ावस्था आती है, उसी स्वरूप पर अधिक बल दिया गया है। यह भी सत्य है कि भगवान् बुद्ध प्रकार सत्ता में भी परिवर्तन घटित होते हैं। आज का हमारे अनुभव का सत् को एक प्रक्रिया (Process) के रूप में देखते हैं। उनकी दृष्टि में विश्व वही नहीं है, जो हजार वर्ष पूर्व था, उसमें प्रतिक्षण परिवर्तन विश्व मात्र एक प्रक्रिया (परिवर्तनशीलता) है, उस प्रक्रिया से पृथक् घटित होते हैं। न केवल जगत् में अपितु हमारे वैयक्तिक जीवन में भी कोई सत्ता नहीं है। वे कहते हैं क्रिया है, किन्तु क्रिया से पृथक् कोई परिवर्तन घटित होते रहते हैं अत: अस्तित्व या सत्ता के सम्बन्ध में कर्ता नहीं है। इस प्रकार प्रक्रिया से अलग कोई सत्ता नहीं है किन्तु हमें अपरिवर्तनशीलता की अवधारणा समीचीन नहीं है।
यह स्मरण रखना चाहिये कि बौद्ध दर्शन के इन मन्तव्यों का आशय इसके विपरीत यदि सत् को क्षणिक या परिवर्तनशील माना एकान्त क्षणिकवाद या उच्छेदवाद नहीं है। आलोचकों ने उसे उच्छेदवाद जाता है तो भी कर्मफल या नैतिक उत्तरदायित्व की व्याख्या संभव नहीं समझकर जो आलोचना प्रस्तुत की है, चाहे वह उच्छेदवाद के संदर्भ में होती। यदि प्रत्येक क्षण स्वतन्त्र है तो फिर हम नैतिक उत्तरदायित्व की संगत हो किन्तु बौद्ध दर्शन के सम्बन्ध में नितान्त असंगत है। बुद्ध सत् व्याख्या नहीं कर सकते। यदि व्यक्ति अथवा वस्तु अपने पूर्व क्षण की के परिवर्तनशील पक्ष पर बल देते हैं किन्तु इस आधार पर उन्हें अपेक्षा उत्तर क्षण में पूर्णत: बदल जाती है तो फिर हम किसी को पूर्व उच्छेदवाद का समर्थक नहीं कहा जा सकता। बुद्ध के इस कथन का कि में किए गये चोरी आदि कार्यों के लिए कैसे उत्तरदायी बना पायेंगे? “क्रिया है, कर्ता नहीं" का आशय यह नहीं है कि वे कर्ता या
सैद्धान्तिक दृष्टि से जैन दार्शनिकों का इस धारणा के विपरीत क्रियाशील तत्त्व का निषेध करते हैं। उनके इस कथन का तात्पर्य मात्र यह कहना है कि उत्पत्ति के बिना नाश और नाश के बिना उत्पत्ति इतना ही है कि क्रिया से भिन्न कर्ता नहीं है। सत्ता और परिवर्तन में पूर्ण संभव नहीं है दूसरे शब्दों में पूर्व-पर्याय के नाश के बिना उत्तर-पर्याय तादात्म्य है। सत्ता से भिन्न परिवर्तन और परिवर्तन से भिन्न सत्ता की की उत्पत्ति संभव नहीं है किन्तु उत्पत्ति और नाश दोनों का आश्रय कोई स्थिति नहीं है। परिवर्तन और परिवर्तनशील अन्योन्याश्रित हैं, दूसरे वस्तुतत्त्व होना चाहिये। एकान्तनित्य वस्तुतत्त्व/पदार्थ में परिवर्तन संभव शब्दों में वे सापेक्ष हैं, निरपेक्ष नहीं। वस्तुत: बौद्ध दर्शन का सत् नहीं है और यदि पदार्थों को एकान्त क्षणिक माना जाय तो परिवर्तित सम्बन्धी यह दृष्टिकोण जैन दर्शन से उतना दूर नहीं है जितना माना कौन होता है, यह नहीं बताया जा सकता। आचार्य समन्तभद्र आप्तमीमांसा गया है। बौद्ध दर्शन में सत्ता को अनुच्छेद और अशाश्वत कहा गया है में इस दृष्टिकोण की समालोचना करते हुए कहते हैं कि “एकान्त अर्थात् वे न उसे एकान्त अनित्य मानते हैं और न एकान्त नित्य। वह क्षणिकवाद में प्रेत्यभाव अर्थात् पुनर्जन्म असंभव होगा और प्रेत्यभाव न अनित्य है और न नित्य है जबकि जैन दार्शनिकों ने उसे नित्यानित्य के अभाव में पुण्य-पाप के प्रतिफल और बंधन-मुक्ति की अवधारणायें कहा है, किन्तु दोनों परम्पराओं का यह अन्तर निषेधात्मक अथवा भी संभव नहीं होगी। पुन: एकान्त क्षणिकवाद में प्रत्यभिज्ञा भी संभव स्वीकारात्मक भाषा-शैली का अन्तर है। बुद्ध और महावीर के कथन का नहीं और प्रत्यभिज्ञा के अभाव में कार्यारम्भ ही नहीं होगा फिर फल मूल उत्स एक-दूसरे से उतना भिन्न नहीं है, जितना कि हम उसे मान कहाँ से?६ इस प्रकार इसमें बंधन-मुक्ति, पुनर्जन्म का कोई स्थान नहीं लेते हैं। भगवान् बुद्ध का सत् के स्वरूप के सम्बन्ध में यथार्थ मन्तव्य है। "युक्त्यानुशान" में कहा गया है कि क्षणिकवाद संवृत्ति सत्य के क्या था, इसकी विस्तृत चर्चा हमने “जैन, बौद्ध और गीता के आचार रूप में भी बन्धन-मुक्ति आदि की स्थापना नहीं कर सकता क्योंकि दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन" भाग-१ (पृ० १९२-१९४) में की उसकी दृष्टि में परमार्थ या सत् नि:स्वभाव है। यदि परमार्थ निःस्वभाव है, इच्छुक पाठक उसे वहाँ देख सकते हैं। सत् के स्वरूप के सम्बन्ध है तो फिर व्यवहार का विधान कैसे होगा?७ आचार्य हेमचन्द्र ने में प्रस्तुत विवेचना का मूल उद्देश्य मात्र इतना है कि सत् को अव्यय 'अन्ययोगव्यवच्छेदिका' में क्षणिकवाद पर पाँच आक्षेप लगाये हैं- १. है। इसी प्रकार सत् के सम्बन्ध में एकान्त अभेदवाद और एकान्त कृत-प्रणाश, २. अकृत-भोग, ३. भव-भंग, ४. प्रमोक्ष-भंग और ५. भेदवाद भी उन्हें मान्य नहीं रहे हैं। स्मृति-भंगा८ यदि कोई नित्य सत्ता ही नहीं है और प्रत्येक सत्ता
जैन दार्शनिकों के अनुसार सत्ता सामान्य-विशेषात्मक या क्षणजीवी है तो फिर व्यक्ति द्वारा किये गये कर्मों का फलभोग कैसे भेदाभेदात्मक है। वह एक भी है और अनेक भी। वे भेद में अभेद और सम्भव होगा, क्योंकि फलभोग के लिए कर्तृत्वकाल और भोक्तृत्व अभेद में भेद को स्वीकार करते हैं। दूसरे शब्दों वे अनेकता में एकता काल में उसी व्यक्ति का होना आवश्यक है अन्यथा कार्य कौन करेगा का और एकता में अनेकता का दर्शन करता है। मानवता की अपेक्षा और फल कौन भोगेगा? वस्तुतः एकान्त क्षणिकवाद में अध्ययन कोई मनुष्यजाति एक है, किन्तु देश-भेद, वर्णभेद, वर्ग-भेद या व्यक्ति भेद और करेगा, परीक्षा कोई और देगा, उसका प्रमाण-पत्र किसी और को की अपेक्षा वह अनेक है। जैन दार्शनिकों के अनुसार एकता में अनेकता मिलेगा, उस प्रमाण-पत्र के आधार पर नौकरी कोई अन्य व्यक्ति प्राप्त और अनेकता में एकता अनुस्यूत है।
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जैनदर्शन में सत् का स्वरूप
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सत् के सम्बन्ध में एकान्त परिवर्तनशीलता का या भेदवादी उत्पत्ति और विनाश दोनों के लिए किसी ऐसे आधारभूत तत्त्व की दृष्टिकोण और एकान्त अपरिवर्तनशीलता का या अभेदवादी (अद्वैतवादी) आवश्यकता होती है जिसमें उत्पत्ति के लिए विनाश की ये प्रक्रियायें दृष्टिकोण इन दोनों में से किसी एक को अपनाने पर न तो व्यवहार घटित होती हों। यदि हम ध्रौव्य पक्ष को अस्वीकार करेंगे तो उत्पत्ति जगत् की व्याख्या सम्भव है न धर्म और नैतिकता का कोई स्थान है। और विनाश परस्पर असम्बन्धित हो जायेंगे। और सत्ता अनेक एवं यही कारण था कि आचारमार्गीय परम्परा के प्रतिनिधि भगवान् महावीर असम्बन्धित क्षणजीवी तत्त्वों में विभक्त हो जायेगी इन परस्पर असम्बन्धित एवं भगवान् बुद्ध ने उनका परित्याग आवश्यक समझा। महावीर की क्षणिक सत्ताओं की अवधारणा से व्यक्तित्व की एकात्मकता का ही विशेषता यह रही कि उन्होंने न केवल एकान्त शाश्वतवाद का और विच्छेद हो जायेगा, जिसके अभाव में नैतिक उत्तरदायित्व और एकान्त उच्छेदवाद का परित्याग किया अपितु अपनी अनेकान्तवादी कर्मफल-व्यवस्था ही अर्थविहीन हो जायेगी। इसी प्रकार एकान्त और समन्वयवादी परम्परा के अनुसार उन दोनों विचारधाराओं में ध्रौव्यता को स्वीकार करने पर भी इस जगत् में चल रहे उत्पत्ति और सामंजस्य स्थापित किया। परम्परागत दृष्टि से यह माना जाता है कि विनाश के क्रम को समझाया नहीं जा सकेगा। जैन दर्शन में सत् के भगवान् महावीर ने केवल “उपन्नेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा" इस अपरिवर्तनशील पक्ष को द्रव्य और गुण तथा परिवर्तनशील पक्ष को त्रिपदी का उपदेश दिया था। समस्त जैन दार्शनिक वाङ्मय का पर्याय कहा जाता है। विकास इसी त्रिपदी के आधार पर हुआ है। परमार्थ या सत् के स्वरूप के सम्बन्ध में महावीर का उपर्युक्त कथन ही जैन दर्शन का १. आचारांग, १/१/१/१ केन्द्रीय तत्त्व है।
२. (अ) ऋषिभाषित, ३१/९, (ब) भगवती, ९/३३/२३३ इस सिद्धान्त के अनुसार उत्पत्ति, विनाश और ध्रौव्य ये तीनों ३. भगवती, २/१०/१२४-१३० ही सत् के लक्षण हैं। तत्त्वार्थ सूत्र में उमास्वाति ने सत् को परिभाषित ४. एगे आया- स्थानांग, १/१ करते हुए कहा है कि सत् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक है (तत्त्वार्थ, ५. उत्तराध्ययन, ३६/४८-२११ ५/२९) उत्पाद और व्यय सत् के परिवर्तनशील पक्ष को बताते हैं तो ६. आप्त-मीमांसा- समन्तभद्र, ४०-४१ ध्रौव्य उसके अविनाशी पक्ष को। सत् का ध्रौव्य गुण उसके उत्पत्ति एवं ७. युक्त्यानुशासन, १५-१६ विनाश का आधार है, उनके मध्य योजक कड़ी है। यह सत्य है कि ८. अन्ययोगव्यवच्छेदिका, स्याद्वादमंजरी नामक टीका, सहित, कारिका विनाश के लिए उत्पत्ति और उत्पत्ति और विनाश आवश्यक है किन्तु १८.
जैन दर्शन में द्रव्य, गुण एवं पर्याय की अवधारणा
सत्र में है। उस
क हा गया हैं इस
द्रव्य की परिभाषा
वैशेषिक दर्शन के निकट है। द्रव्य की दूसरी परिभाषा 'गुणानां समूहो जैन परम्परा में सत् और द्रव्य को पर्यायवाची माना गया है। दव्वो' के रूप में भी की गयी है। इस परिभाषा का समर्थन तत्त्वार्थसूत्र मात्र यही नहीं, उसमें सत् के स्थान पर 'द्रव्य' ही प्रमुख रहा है। आगमों की ‘सर्वार्थसिद्धि' नामक टीका (५/२/पृ०२६७/४) में आचार्य पूज्यपाद में सत् के स्थान पर 'अस्तिकाय' और 'द्रव्य' इन दो शब्दों का ही ने किया है। इसमें द्रव्य को 'गुणों का समुदाय' कहा गया है, जहाँ प्रथम प्रयोग देखा गया है। जो अस्तिकाय हैं, वे द्रव्य ही है। सर्वप्रथम द्रव्य परिभाषा द्रव्य और गुण में आश्रय-आश्रयी सम्बन्ध के द्वारा भेद का की परिभाषा उत्तराध्ययन सूत्र में है। उसमें 'गुणानां आसवो दव्वो' संकेत करती है, वहाँ यह दूसरी परिभाषा गुण और द्रव्य में अभेद (२८/६) कहकर गुणों के आश्रय स्थल को द्रव्य कहा गया हैं इस स्थापित करती है। तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर यह ज्ञात होता परिभाषा में द्रव्य का सम्बन्ध गुणों से माना गया है, किन्तु इसके पूर्व है कि जहाँ प्रथम परिभाषा वैशेषिक सूत्रकार महर्षि कणाद के अधिक गाथा में यह भी कहा गया है कि द्रव्य, गुण और पर्याय सभी को निकट है, वहाँ यह दूसरी परिभाषा बौद्ध परम्परा के द्रव्य-लक्षण के जाननेवाला ज्ञान है (उत्तराध्ययनसूत्र (२८/५) उस में यह भी माना अधिक समीप प्रतीत होती है। क्योंकि दूसरी परिभाषा के अनुसार गुणों गया है कि गुण द्रव्य के आश्रित रहते हैं और पर्याय गुण और द्रव्य से पृथक् द्रव्य का कोई अस्तित्व नहीं माना गया। इस द्वितीय परिभाषा दोनों के आश्रित रहती है। इस परिभाषा का तुलनात्मक दृष्टि से विचार में गुणों के समुदाय या स्कन्ध को ही द्रव्य कहा गया है। यह परिभाषा करने पर हम यह पाते हैं कि इसमें द्रव्य, गुण और पर्याय में आश्रय- गुणों से पृथक् द्रव्य की सत्ता न मानकर गुणों के समुदाय को ही द्रव्य आश्रयी सम्बन्ध माना गया है। यह परिभाषा भेदवादी न्याय और मान लेती है। इस प्रकार यद्यपि ये दोनों ही परिभाषायें जैन चिन्तन धारा
जहाँ प्रथम परिभा
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ में ही विकसित हैं किन्तु एक पर वैशेषिक दर्शन का और दूसरी पर प्राप्त होती है, यह पर्याय कहलाती हैं। ये परिवर्तनशील पर्याय ही द्रव्य बौद्ध दर्शन का प्रभाव है। ये दोनों परिभाषायें जैन दर्शन की अनेकान्तिक का अनित्य पक्ष है। दृष्टि का पूर्ण परिचय नहीं देती क्योंकि एक में द्रव्य और गुण में भेद इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि द्रव्य अपने स्व-लक्षण माना गया है तो दूसरे में अभेद, जबकि जैन दृष्टिकोण भेद-अभेद या गुण की अपेक्षा से नित्य और अपनी पर्याय की अपेक्षा से अनित्य मूलक है। उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र सर्वार्थसिद्धिमान्य पाठ में 'सत् द्रव्य कहा जाता है। उदाहरण के रूप में जीवद्रव्य अपने चैतन्य गुण का कभी लक्षण' (५/२९) कहकर सत् को द्रव्य का लक्षण बताया है। इस परित्याग नहीं करता, किन्तु अपने चेतना लक्षण का परित्याग के बिना परिभाषा से यह फलित होता है कि द्रव्य का मुख्य लक्षण अस्तित्व है। वह देव, मनुष्य, पशु इन विभिन्न योनियों को अथवा बालक, युवा, जो अस्तित्ववान् है, वही द्रव्य है। इसी आधार पर यह कहा गया है कि वृद्ध आदि अवस्थाओं को प्राप्त होता है। जिन गुणों का परित्याग नहीं जो त्रिकाल में अपने स्वभाव का परित्याग न करे उसे ही सत् या द्रव्य किया जा सकता वे ही गुण वस्तु के स्व-लक्षण कहे जाते हैं। जिन गुणों कहा जा सकता है। तत्त्वार्थसूत्र (५/२९) में उमास्वाति ने एक ओर अथवा अवस्थाओं का परित्याग किया जा सकता है, वे पर्याय कहलाती द्रव्य का लक्षण सत् बताया तो दूसरी ओर सत् को उत्पाद-व्यय- हैं। पर्याय बदलती रहती हैं, किन्तु गुण वही बना रहता है। ये पर्याय भी ध्रौव्यात्मक बताया। अत: द्रव्य को भी उत्पाद-व्यय ध्रौव्यात्मक कहा जा दो प्रकार की कही गयी हैं- १. स्वभाव पर्याय और २. विभाव पर्याय। सकता है। साथ ही उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र (५/३८) में द्रव्य को जो पर्याय या अवस्थायें स्व-लक्षण के निमित्त से होती हैं वे स्वभाव परिभाषित करते हुए उसे गुण, पर्याय से युक्त भी कहा है। आचार्य पर्याय कहलाती हैं और जो अन्य निमित्त से होती हैं वे विभाव पर्याय कुंदकुंद ने 'पंचास्तिकायसार' और 'प्रवचनसार' में इन्हीं दोनों लक्षणों कहलाती हैं। उदाहरण के रूप में ज्ञान और दर्शन (प्रत्यक्षीकरण) को मिलाकर द्रव्य को परिभाषित किया है। 'पंचास्तिकायसार' (१०) में सम्बन्धी विभिन्न अनुभूतिपरक अवस्थायें आत्मा की स्वभाव पर्याय हैं। वे कहते है कि "द्रव्य सत् लक्षण वाला है।" इसी परिभाषा को और क्योंकि वे आत्मा के स्व-लक्षण 'उपयोग' से फलित होती हैं, जबकि स्पष्ट करते हुए प्रवचनसार (९५-९६) में वे कहते हैं "जो अपरित्यक्त क्रोध आदि कषाय भाव कर्म के निमित्त से या दूसरों के निमित्त से होते स्वभाव वाला उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य से युक्त तथा गुण पर्याय सहित हैं, अत: वे विभाव पर्याय हैं। फिर भी इतना निश्चित है कि इन गुणों है, उसे द्रव्य कहा जाता है।" इस प्रकार कुंदकुंद ने द्रव्य की परिभाषा और पर्यायों का अधिष्ठान या उपादान तो-द्रव्य स्वयं ही हैं। द्रव्य गुण के सन्दर्भ में उमास्वाति के सभी लक्षणों को स्वीकार कर लिया है। और पर्यायों से अभिन्न हैं, वे परस्पर सापेक्ष हैं। तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति की विशेषता यह है कि उन्होंने 'गुण पर्यायवत् गुण द्रव्य' कहकर जैन दर्शन के भेद-अभेदवाद को पुष्ट किया है। यद्यपि द्रव्य को गुण और पर्यायों का आधार माना गया है। वस्तुतः तत्त्वार्थसूत्र में द्रव्य की यह परिभाषा भी वैशेषिक सूत्र के गुण द्रव्य के स्वभाव या स्व-लक्षण होते हैं। तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वाति 'द्रव्यगुणकर्मभ्योऽर्थान्तरं स सत्ता (१/२/८) नामक सूत्र के निकट ही ने 'द्रव्याश्रयानिर्गुणा गुणा:' (५/४०) कहकर यह बताया है कि गुण सिद्ध होती है। उमास्वाति ने इस सूत्र में कर्म के स्थान पर पर्याय को द्रव्य में रहते हैं, पर वे स्वयं निर्गुण होते हैं। गुण निर्गुण होते हैं यह रख दिया है। जैन दर्शन के सत् सम्बन्धी सिद्धान्त की चर्चा में हम यह परिभाषा सामान्यतया आत्म-विरोधी सी लगती है। किन्तु इस परिभाषा स्पष्ट कर चुके हैं कि द्रव्य या सत्ता परिवर्तनशील होकर भी नित्य है। की मूलभूत दृष्टि यह है कि यदि हम गुण का भी गुण मानेंगे तो फिर परिणमन यह द्रव्य का आधारभूत लक्षण है, किन्तु इसकी प्रक्रिया में अनवस्थादोष का प्रसंग आयेगा। आगमिक दृष्टि से गुण की परिभाषा द्रव्य अपने स्वरूप का परित्याग नहीं करता है। स्व-स्वरूप का परित्याग इस रूप में की गयी है कि गुण द्रव्य का विधान है यानि उसका स्वकिये बिना विभिन्न अवस्थाओं को धारण करने के कारण ही द्रव्य को लक्षण है जबकि पर्याय द्रव्य का विकार है। गुण भी द्रव्य के समान ही नित्य कहा जाता है, किन्तु प्रतिक्षण उत्पन्न होने वाले और नष्ट होने अविनाशी है। जिस द्रव्य का जो गुण है वह उसमें सदैव रहता है। दूसरे वाले पर्यायों की अपेक्षा से उसे अनित्य कहा जाता है। उसे इस प्रकार शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि द्रव्य का जो अविनाशी लक्षण है भी समझाया जा सकता है कि मृत्तिका अपने स्व-जातीय धर्म का अथवा द्रव्य जिसका परित्याग नहीं कर सकता है वही गुण है। गुण परित्याग किये बिना घट आदि को उत्पन्न करती है। घट की उत्पत्ति में वस्तु की सहभावी विशेषताओं का सूचक है। पिण्ड का विनाश होता है। जब तक पिण्ड विनष्ट नहीं होता तब तक वे विशेषताएँ या लक्षण जिनके आधार पर एक द्रव्य को घट उत्पन्न नहीं होता किन्तु इस उत्पाद और व्यय में भी मृत्तिका-लक्षण दूसरे द्रव्य से अलग किया जा सकता है, वे विशिष्ट गुण कहे जाते हैं। यथावत् बना रहता है। वस्तुत: कोई भी द्रव्य अपने स्व-लक्षण, स्व- उदाहरण के रूप में धर्म-द्रव्य का लक्षण गति में सहायक होना है। स्वभाव अथवा स्व-जातीय धर्म का परित्याग नहीं करता है। द्रव्य अपने अधर्म-द्रव्य का लक्षण स्थिति में सहायक होना है। जो सभी द्रव्यों का गुण या स्व-लक्षण की अपेक्षा से नित्य होता है, क्योंकि स्व-लक्षण का अवगाहन करता है, उन्हें स्थान देता है, वह आकाश कहा जाता है। त्याग सम्भव नहीं है। यह स्व-लक्षण ही वस्तु का नित्य पक्ष होता है। इसी प्रकार परिवर्तन काल का लक्षण है और उपयोग जीव का लक्षण स्व-लक्षण का त्याग किये बिना वस्तु जिन विभिन्न अवस्थाओं को है। अतः गुण वे हैं, जिसके आधार पर हम किसी द्रव्य को पहचानते
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जैनदर्शन में सत् का स्वरूप
१०३ हैं और उसका अन्य द्रव्य से पृथक्त्व स्थापित करते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र आचार्यों ने 'गुणाणां समूहो दव्वो' अथवा 'गुणसमुदायो द्रव्यमिति' (२८/११-१२) में जीव और पुद्गल के अनेक लक्षणों का भी चित्रण कहकर के द्रव्य को गुणों का संघात माना है। जब द्रव्य और गुण की हुआ है। उसमें ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य एवं उपयोग-ये जीव के अलग-अलग सत्ता ही मान्य नहीं है, तो वहाँ उनके तादात्म्य के लक्षण बताये गये हैं और शब्द, प्रकाश, अंधकार, प्रभा, छाया, अतिरिक्त अन्य कोई सम्बन्ध मानने का प्रश्न ही नहीं उठता है। अन्य आतप, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श आदि को पुद्गल का लक्षण कहा गया है। कोई सम्बन्ध मानने का तात्पर्य यह है कि वे एक-दूसरे से पृथक् होकर ज्ञातव्य है कि द्रव्य और गुण विचार के स्तर पर ही अलग-अलग माने अपना अस्तित्व रखते हैं। यह दृष्टिकोण बौद्ध अवधारणा से प्रभावित गये हैं लेकिन अस्तित्व की दृष्टि से वे पृथक्-पृथक् सत्ताएँ नहीं हैं। है। यह संघातवाद का ही अपररूप है जबकि जैन परम्परा संघातवाद गुणों के संदर्भ में हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि कुछ गुण को स्वीकार नहीं करती है। वस्तुत: द्रव्य के साथ गुण और पर्याय के सामान्य होते हैं और वे सभी द्रव्यों में पाये जाते हैं और कुछ गुण सम्बन्ध को लेकर तत्त्वार्थसूत्रकार ने जो द्रव्य की परिभाषा दी है, वही विशिष्ट होते हैं, जो कुछ ही द्रव्यों में पाये जाते हैं। जैसे-अस्तित्व अधिक उचित जान पड़ती है। तत्त्वार्थसूत्रकार के अनुसार जो गुण और लक्षण सामान्य है जो सभी द्रव्यों में पाया जाता है किन्तु चेतना आदि पर्यायों से युक्त है, वही (द्रव्य है)। वैचारिक स्तर पर तो गुण द्रव्य से कुछ गुण ऐसे हैं जो केवल जीव द्रव्य में पाये जाते हैं, अजीव द्रव्य में भिन्न है और उस दृष्टि से उनमें आश्रय-आश्रयी भाव भी देखा जाता है उनका अभाव होता है। दूसरे शब्दों में कुछ गुण सामान्य और कुछ किन्तु अस्तित्व के स्तर पर द्रव्य और गुण एक-दूसरे से पृथक् विशिष्ट होते हैं। सामान्य गुणों के आधार पर जाति या वर्ग की पहचान (विविक्त) सत्ताएँ नहीं हैं। अत: उनमें तादात्म्य भी है। इस प्रकार गुण होती है। वे द्रव्य या वस्तुओं का एकत्व प्रतिपादित करते हैं, जबकि और द्रव्य में कथंचित् तादात्म्य सम्बन्ध है। डॉ. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य विशिष्ट गुण एक द्रव्य का दूसरे से अन्तर स्थापित करते हैं। गुणों के जैन-दर्शन (पृ. १४४) में लिखते हैं कि गुण से द्रव्य को पृथक् नहीं सन्दर्भ में चर्चा करते हुए हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अनेक किया जा सकता, इसलिए वे द्रव्य से अभिन्न हैं। किन्तु प्रयोजन आदि गुण सहभावी रूप से एक ही द्रव्य में रहते हैं। इसीलिए जैन दर्शन में भेद से उसका विभिन्न रूप से निरूपण किया जा सकता है, अत: वे वस्तु को अनन्त धर्मात्मक कहा गया है। गुणों के सम्बन्ध में एक अन्य भिन्न भी हैं। “एक ही पुद्गल परमाणु में युगपत् रूप से रूप, रस, गंध विशेषता है कि वे द्रव्य विशेष के विभिन्न पर्यायों में भी बने रहते हैं। आदि अनेक गुण रहते हैं। अनुभूति के स्तर पर रूप, रस, गन्ध आदि द्रव्य और गुण का सम्बन्ध
पृथक्-पृथक् गुण हैं। अत: वैचारिक स्तर पर एक गुण न केवल दूसरे कोई भी द्रव्य गुण से रहित नहीं होता। द्रव्य और गुण का गुण से भिन्न है अपितु उस स्तर पर वह द्रव्य से भी भिन्न कल्पित किया विभाजन मात्र वैचारिक स्तर पर किया जाता है सत्ता के स्तर पर नहीं। जा सकता है। पुनः गुण अपनी पूर्वपर्याय को छोड़कर उत्तरपर्याय को गुण से रहित होकर न तो द्रव्य की कोई सत्ता होती है न द्रव्य से रहित धारण करता है और इस प्रकार वह परिवर्तित होता रहता है, किन्तु गुण की। अत: सत्ता के स्तर पर गुण और द्रव्य में अभेद है जबकि उसमें यह पर्याय परिवर्तन द्रव्य से भिन्न होकर नहीं होता। पर्यायों में वैचारिक स्तर पर दोनों में भेद किया जा सकता है।
होने वाले परिवर्तन वस्तुत: द्रव्य के ही परिवर्तन हैं। पर्याय और गुण जैसा कि हमने पूर्व में सूचित किया है कि द्रव्य और गुण को छोड़कर द्रव्य का कोई अस्तित्व ही नहीं है। पर्यायों और गुणों में अन्योन्याश्रित हैं। द्रव्य के बिना गुण का अस्तित्व नहीं है और गुण के होने वाले परिवर्तनों के बीच जो एक अविच्छिन्नता का नियामक तत्त्व बिना द्रव्य का अस्तित्व नहीं है। तत्त्वार्थसूत्र (५/४०) में गुण की है, वही द्रव्य है। उदाहरण के रूप में एक पुद्गल परमाणु के रूप, रस, परिभाषा देते हुए कहा गया है कि “स्व-गुण को छोड़कर जिनका अन्य गंध और स्पर्श के गुण बदलते रहते हैं और उस गुण परिवर्तन के कोई गुण नहीं होता अर्थात् जो निर्गुण है वही गुण है।" द्रव्य और गुण परिणामस्वरूप उसकी पर्याय भी बदलती रहती है, किन्तु इन परिवर्तित के पारस्परिक सम्बन्ध को लेकर जैन परम्परा में हमें तीन प्रकार के होने वाले गुणों और पर्यायों के बीच भी एक तत्त्व है जो इन परिवर्तनों सन्दर्भ प्राप्त होते हैं। आगम ग्रंथों में द्रव्य और गुण में आश्रय-आश्रयी के बीच भी बना रहता है, वही द्रव्य है। प्रत्येक द्रव्य में प्रति समय भाव माना गया है। उत्तराध्ययन सूत्र (२८/६) में द्रव्य को गुण का स्वाभाविक गुण कृत और वैभाविकगुण कृत अर्थात् पर्यायकृत उत्पाद आश्रय स्थान माना गया है। उत्तराध्ययन सूत्रकार के अनुसार गुण द्रव्य और व्यय होते रहते हैं। यह सब उस द्रव्य की सम्पत्ति या स्वरूप है। में रहते हैं अर्थात् द्रव्य गुणों का आश्रय स्थल है किन्तु यहाँ आपत्ति इसलिए द्रव्य को उत्पाद-व्यय और ध्रौव्यात्मक कहा जाता है। द्रव्य के यह हो सकती है कि जब द्रव्य और गुण की भिन्न-भिन्न सत्ता ही नहीं साथ-साथ उसके गुणों में भी उत्पाद-व्यय होता रहता है। जीव का गुण है तो उनमें आश्रय-आश्रयी भाव किस प्रकार होगा? वस्तुत: द्रव्य और चेतना है उसमें पृथक् होने पर जीव जीव नहीं रहेगा, फिर भी जीव की गुण के सम्बन्ध को लेकर किया गया यह विवेचन मूलत: वैशेषिक चेतन अनुभूतियाँ स्थिर नहीं रहती हैं, वे प्रति क्षण बदलती रहती हैं, परम्परा के प्रभाव का परिणाम है। जैनों के अनुसार सिद्धान्तत: आश्रय- अत: गुणों में भी उत्पाद-व्यय होता रहता है। पुन: वस्तु का स्व-लक्षण आश्रयी भाव उन्हीं दो तत्त्वों में हो सकता है जो एक-दूसरे से पृथक् कभी बदलता नहीं है अत: गुण में ध्रौव्यत्व पक्ष भी है। अत: गुण भी सत्ता रखते हैं। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर पूज्यपाद आदि कुछ द्रव्य के समान उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य लक्षण युक्त है।
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पर्याय
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
जैन दार्शनिकों के अनुसार द्रव्य में घटित होने वाले विभिन्न परिवर्तन ही पर्याय कहलाते हैं। प्रत्येक द्रव्य प्रति समय एक विशिष्ट अवस्था को प्राप्त होता रहता है। अपने पूर्व क्षण की अवस्था का त्याग करता है और एक नूतन विशिष्ट अवस्था को प्राप्त होता है इन्हें ही पर्याय कहा जाता है। जिस प्रकार जलती हुई दीपशिखा में प्रति क्षण जलने वाला तेल बदलता रहता है, फिर भी दीपक यथावत् जलता रहता है उसी प्रकार प्रत्येक द्रव्य सतत रूप से परिवर्तन या परिणमन को प्राप्त होता रहता है । द्रव्य में होने वाला यह परिवर्तन या परिणमन ही उसकी पर्याय है। एक व्यक्ति जन्म लेता है, बालक से किशोर और किशोर से युवक, युवक से प्रौड़ और प्रौढ़ से वृद्धावस्था को प्राप्त होता है। जन्म से लेकर मृत्यु काल तक प्रत्येक व्यक्ति के देह की शारीरिक संरचना में तथा विचार और अनुभूति की चैतसिक संरचना में परिवर्तन होते रहते हैं। उसमें प्रति क्षण होने वाले इन परिवर्तनों के द्वारा वह जो भिन्न-भिन्न अवस्थायें प्राप्त करता है, वे ही पर्याय हैं। ज्ञातव्य है कि 'पर्याय' जैन दर्शन का विशिष्ट शब्द है। जैनदर्शन के अतिरिक्त अन्य किसी भी भारतीय दर्शन में पर्याय की यह अवधारणा अनुपस्थित है।
यहाँ हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि बाल्यावस्था से युवावस्था और युवावस्था से वृद्धावस्था की यात्रा कोई ऐसी घटना नहीं है, जो एक ही क्षण में घटित हो जाती है। बल्कि यह सब क्रमिक रूप से घटित होती रहती है, हमें उसका पता ही नहीं चलता। यह प्रति समय होने वाला परिवर्तन ही पर्याय है। पर्याय शब्द का सामान्य अर्थ अवस्था विशेष है। दार्शनिक जगत् में पर्याय का जो अर्थ प्रसिद्ध हुआ है, उससे आगम में वह किंचित् भिन्न अर्थ में प्रयोग हुआ है। दार्शनिक ग्रन्थों में द्रव्य के क्रमभावी परिणाम को पर्याय कहा गया है तथा गुण एवं पर्याय से युक्त पदार्थ को द्रव्य कहा गया है। वहाँ पर एक ही द्रव्य या वस्तु की विभिन्न पर्यायों की चर्चा है । आगम में पर्याय का निरूपण द्रव्य के क्रमभावी परिणमन के रूप में नहीं हुआ है। आगम में तो एक पदार्थ जितनी अवस्थाओं में प्राप्त होता है उन्हें उस पदार्थ की पर्याय कहा गया है जैसे जीव की पर्याय है-नारक, देव, मनुष्य तिर्यच सिद्ध आदि।
पर्याय द्रव्य की भी होती है और गुण की भी होती है गुणों की पर्याय का उल्लेख अनुयोगद्वारसूत्र में इस प्रकार हुआ है-"एक गुण काला, द्विगुण काला यावत् अनन्तगुण काला।" काले गुण की अनन्त पर्याय होती हैं। इसी प्रकार नीले, पीले, लाल एवं सफेद वर्णों की पर्याय भी अनन्त होती हैं। वर्ण की भाँति गन्ध, रस, स्पर्श के भेदों की भी एक गुण से लेकर अनन्तगुण तक पर्याय होती हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में एकत्व, पृथक्त्व, संख्या, संस्थान, संयोग और विभाग को पर्याय का लक्षण कहा है। एक पर्याय का दूसरे पर्याय के साथ द्रव्य की दृष्टि से एकत्व ( तादात्म्य) होता है, पर्याय की दृष्टि से दोनों पर्याय एक दूसरे से पृथक होती है। संख्या के आधार पर भी पर्यायों में भेद होता
है। इसी प्रकार संस्थान अर्थात् आकृति की दृष्टि से भी पर्याय भेद होता है जिस पर्याय का संयोग (उत्पाद) होता है उसका वियोग (विनाश) भी निश्चित रूप से होता है। कोई भी द्रव्य कभी भी पर्याय से रहित नहीं होता। किन्तु पर्याव स्थिर भी नहीं रहती है वह प्रति समय परिवर्तित होती रहती है। जैन दार्शनिकों ने पर्याय परिवर्तन की इन घटनाओं को द्रव्य में होने वाले उत्पाद और व्यय के माध्यम से स्पष्ट किया है। द्रव्य में प्रति क्षण पूर्व पर्याय का नाश या व्यय तथा उत्तरपर्याय का उत्पाद होता रहता है। उत्पाद और व्यय की घटना जिसके या जिसमें आश्रित या घटित होती है या जो परिवर्तित होता है, वही द्रव्य है। जैन दर्शन के अनुसार द्रव्य और पर्याय की कथंचित् तादात्म्य इस अर्थ में है कि पर्याय से रहित होकर द्रव्य का कोई अस्तित्व ही नहीं है । द्रव्य की पर्याय बदलते रहने पर भी द्रव्य में एक क्षण के लिए भी ऐसा नहीं होता कि वह पर्याय से रहित हो न तो पर्यायों से पृथक् होकर द्रव्य अपना अस्तित्व रख सकता है और न द्रव्य से पृथक् होकर पर्याय का ही कोई अस्तित्व होता है सत्तात्मक स्तर पर द्रव्य और पर्याय अलगअलग सत्ताएँ नहीं हैं वे तत्वतः अभिन्न हैं। किन्तु द्रव्य के बने रहने पर भी पर्यायों की उत्पत्ति और विनाश का क्रम घटित होता रहता है। यदि पर्याय उत्पन्न होती है और विनष्ट होती है।, तो उसे द्रव्य से कथंचित् भिन्न भी मानना होगा। जिस प्रकार बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था व्यक्ति से पृथक् कहीं नहीं देखी जाती। वे व्यक्ति में ही घटित होती हैं। और व्यक्ति से अभिन्न होती हैं किन्तु एक ही व्यक्ति में बाल्यावस्था का विनाश और युवावस्था की प्राप्ति देखी जाती है। अतः अपने विनाश और उत्पत्ति की दृष्टि से वे पर्यायें व्यक्ति के पृथक् भी कही जा सकती हैं। वैचारिक स्तर पर प्रत्येक पर्याय द्रव्य से भिन्नता रखती है। संक्षेप में तात्विक स्तर पर या सत्ता की दृष्टि से हम द्रव्य और पर्याय को अलगअलग नहीं कर सकते, अतः वे अभिन्न हैं। किन्तु वैचारिक स्तर पर द्रव्य और पर्याय को परस्पर पृथक माना जा सकता है क्योंकि पर्याय उत्पन्न होती है और नष्ट होती है, जबकि द्रव्य बना रहता है, अत: वह द्रव्य से भिन्न भी है। जैन आचार्यों के अनुसार द्रव्य और पर्याय की यह कथंचित् अभिन्नता और कथंचित् भिन्नता वस्तु के अनेकांतिक स्वरूप की परिचायक है।
पर्याय के प्रकार
पर्यायों के प्रकारों की आगमिक आधारों पर चर्चा करते हुए द्रव्यानुयोग ( पृ०३८) पर उपाध्याय श्री कन्हैयालालजी म.सा. 'कमल' लिखते हैं कि प्रज्ञापनासूत्र में पर्याय के दो भेद प्रतिपादित हैं- (१) जीव पर्याय और (२) अजीव पर्याय ये दोनों प्रकार की पर्याय अनन्त होती हैं। जीव पर्याय किस प्रकार अनन्त होती है, इसका समाधान करते हुए कहा गया है कि नैरयिक, भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क, वैमानिक, पृथ्वीकायिक, अष्कायिक, तेजस्कायिक, वावुकायिक, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक और मनुष्य ये सभी जीव असंख्यात हैं, किन्तु वनस्पतिकायिक और सिद्ध जीव तो अनन्त हैं, इसलिए जीव पर्याय अनन्त हैं।
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जैनदर्शन में सत् का स्वरूप
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पुनः पर्याय दो प्रकार की होती है- (१) अर्थ पर्याय और रस, गन्ध, स्पर्श आदि की अनुभूति हमारे मन पर निर्भर करती है। (२) व्यंजन पर्याय। एक ही पदार्थ की क्रमभावी पर्यायों को अर्थ पर्याय अत: वे वस्तु के सम्बन्ध में हमारे मनोविकल्प ही हैं। उनकी कोई कहते हैं तथा पदार्थ की उसके विभिन्न प्रकारों एवं भेदों में जो पर्याय वास्तविक सत्ता नहीं है। यदि हमारी इन्द्रियों की संरचना भित्र प्रकार की होती है उसे व्यंजन पर्याय कहते हैं। अर्थ पर्याय सूक्ष्म एवं व्यंजन होती है तो उनसे हमें जो संवेदना होती वह भी भिन्न प्रकार की होती। पर्याय स्थूल होती हैं।
यदि संसार के सभी प्राणियों की आँखों की संरचना में रंग-अंधता होती .. पर्याय को ऊर्ध्व पर्याय एवं तिर्यक् पर्याय के रूप में भी तो वे संसार की सभी वस्तुओं को केवल श्वेत-श्यामल रूप में ही वर्गीकृत किया जा सकता है। जैसे भूत, भविष्य और वर्तमान के अनेक देखते और उन्हें अन्य रंगों का कोई बाध नहीं होता। अत: लालादि रंगों मनुष्यों की अपेक्षा से मनुष्य की जो अनन्त पर्यायें होती हैं वे तिर्यक् के अस्तित्व का विचार ही नहीं होता है। जिस प्रकार इन्द्रधनुष के रंग पर्याय कही जाती हैं। यदि एक ही मनुष्य के प्रति क्षण होने वाले मात्र प्रतीति हैं वास्तविक नहीं अथवा जिस प्रकार हमारे स्वप्न की परिणमन को पर्याय कहें तो वह ऊर्ध्व पर्याय है।
वस्तुएँ मात्र मनोकल्पनाएँ हैं, उसी प्रकार गुण और पर्याय भी मात्र ज्ञातव्य है कि पर्यायों में न केवल मात्रात्मक अर्थात् संख्या प्रतिभास हैं। ये हैं, चित्त-विकल्प वास्तविक नहीं हैं। और अंशों (Degree) की अपेक्षा से भेद होता है अपितु गुणों की किन्तु जैन दार्शनिक अन्य वस्तुवादी दाशनिकों (Realist) अपेक्षा से भी भेद होते हैं। मात्रा की अपेक्षा से एक अंश काला, दो के समान द्रव्य के साथ-साथ गुण और पर्याय को भी यथार्थ/वास्तविक अंश काला, अनन्त अंश काला आदि भेद होते हैं जबकि गुणात्मक मानते हैं। उनके अनुसार प्रतीति और प्रत्यय यथार्थ के ही होते हैं। जो दृष्टि से काला, लाल, श्वेत आदि अथवा खट्टा-मीठा आदि अथवा अयथार्थ हो उसका कोई प्रत्यय (Idea) या प्रतीति ही नहीं हो सकती मनुष्य, पशु, नारक, देवता आदि भेद होते हैं।
है। आकाश-कुसुम या परी आदि की अयथार्थ कल्पनाएँ भी दो यथार्थ गुण और पर्याय की वास्तविकता का प्रश्न
अनुभूतियों का चैत्तसिक स्तर पर किया गया मिश्रण मात्र है। स्वप्न भी जो दार्शनिक द्रव्य (सत्ता) और गुण में अभिन्नता, या तादात्म्य यथार्थ अनुभूतियों और उनके चैत्तसिक स्तर पर किये गये मिश्रणों से के प्रतिपादक हैं और जो परम सत्ता को तत्त्वत: अद्वैत मानते हैं, वे गुण ही निर्मित होते हैं, जन्मान्ध को कभी रंगों के कोई स्वप्न नहीं होते हैं। और पर्याय को वास्तविक नहीं, अपितु प्रातिभासिक मानते हैं, उनका अत: अयथार्थ की कोई प्रतीति नहीं हो सकती है। जैनों के अनुसार कहना है। कि रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि गुणों की परम सत्ता से अनुभूत का प्रत्येक विषय अपनी वास्तविक सत्ता रखता है। इससे न पृथक् कोई सत्ता ही नहीं है। उनके अनुसार परम सत्ता (ब्रह्म) निर्गुण है। केवल द्रव्य अपितु गुण और पर्याय भी वास्तविक (Real) हैं। सत्ता की इसी प्रकार विज्ञानवादी या प्रत्ययवादी दार्शनिकों के अनुसार परमाणु इस वास्तविकता के कारण ही प्राचीन जैन आचार्यों ने उसे अस्तिकाय भी एक ऐसा अविभागी पदार्थ है, जो विभिन्न इन्द्रियों के द्वारा रूपादि कहा है। यही कारण है कि दार्शनिकों ने जैन दर्शन को वस्तुवादी और विभिन्न गुणों की प्रतीति कराता है, किन्तु वस्तुत: उसमें इन गुणों की बहुतत्त्ववादी दर्शन कहा है। कोई सत्ता नहीं होती है। इन दार्शनिकों की मान्यता यह है कि रूप,
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जैनदर्शन में पंच अस्तिकाय और षट् द्रव्यों की अवधारणा
जैन दर्शन में 'द्रव्य' के वर्गीकरण का एक आधार अस्तिकाय और अनस्तिकाय की अवधारणा भी है। षद्रव्यों में धर्म, अधर्म, आकाश, पुट्रल और जीव ये पाँच अस्तिकाय माने गये हैं जबकि काल को अनस्तिकाय माना गया है। अधिकांश जैन दार्शनिकों के अनुसार काल का अस्तित्व तो है, किन्तु उसमें कायत्व नहीं है, अतः उसे अस्तिकाय के वर्ग में नहीं रखा जा सकता है। कुछ श्वेताम्बर आचार्यों ने तो काल को स्वतंत्र द्रव्य मानने के सम्बन्ध में भी आपत्ति उठाई है, किन्तु यह एक भिन्न विषय है, इसकी चर्चा हम आगे करेंगे।
अस्तिकाय का तात्पर्य
सर्वप्रथम तो हमारे सामने मूल प्रश्न यह है कि अस्तिकाय की इस अवधारणा का तात्पर्य क्या है ? व्युत्पत्ति की दृष्टि से 'अस्तिकाय' दो शब्दों के मेल से बना है- अस्ति+काय 'अस्ति' का अर्थ है सत्ता या अस्तित्व और 'काय' का अर्थ है शरीर, अर्थात् जो शरीर रूप से अस्तित्ववान् है वह अस्तिकाय है। किन्तु यहाँ 'काय' (शरीर) शब्द भौतिक शरीर के अर्थ में प्रयुक्त नहीं है जैसा कि जन साधारण समझता है। क्योंकि पंच-अस्तिकायों में पुद्गल को छोड़कर शेष चार तो अमूर्त हैं, अतः यह मानना होगा कि यहाँ काय शब्द का प्रयोग लाक्षणिक अर्थ में ही हुआ है। पंचास्तिकाय की टीका में कायत्व शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा गया है - "कायत्वमाख्यं सावयवत्वम्” अर्थात् कार्यत्व का तात्पर्य सावयवत्व है। जो अवयवी द्रव्य हैं वे अस्तिकाय हैं और जो निरवयवी द्रव्य हैं वे अनस्तिकाय हैं। अवयवी का अर्थ है अंगों से युक्त दूसरे शब्दों में जिसमें विभिन्न अंग, अंश या हिस्से (पार्ट) हैं, वह अस्तिकाय हैं। यद्यपि यहाँ यह शंका उठाई जा सकती है कि अखण्ड द्रव्यों में अंश या अवयव की कल्पना कहाँ तक युक्ति संगत होगी? जैन दर्शन के पंच अस्तिकायों में से धर्म, अधर्म और आकाश ये तीन एक अविभाज्य एवं अखण्ड द्रव्य हैं, अतः उनके सावयवी होने का क्या तात्पर्य है? पुनश्च, कायत्व का अर्थ सावयवत्व मानने में एक कठिनाई यह भी है कि परमाणु तो अविभाज्य, निरंश और निरवयवी हैं तो क्या वे अस्तिकाय नहीं है? जबकि जैन दर्शन के अनुसार तो परमाणु को भी अस्तिकाय माना गया है। प्रथम प्रश्न का जैन दार्शनिकों का प्रत्युत्तर यह होगा कि यद्यपि धर्म, अधर्म और आकाश अविभाज्य एवं अखण्ड द्रव्य हैं, किन्तु क्षेत्र की अपेक्षा से वे लोकव्यापी हैं अतः क्षेत्र की दृष्टि से इनमें सावयवत्व की अवधारणा या विभाग की कल्पना की जा सकती है। यद्यपि यह केवल वैचारिक स्तर पर की गई कल्पना या विभाजन है। दूसरे प्रश्न का प्रत्युत्तर यह होगा कि यद्यपि परमाणु स्वयं में निरंश, अविभाज्य और निरवयव हैं अतः स्वयं तो कायरूप नहीं हैं किन्तु वे ही परमाणु-स्कन्ध बनकर कयत्व या सावयवत्व को धारण कर लेते हैं। अतः उपचार से उनमें भी कायत्व का सद्भाव मानना चाहिये। पुनः परमाणु में भी दूसरे परमाणु को स्थान
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देने की अवगाहन शक्ति है, अतः उसमें कायत्व का सद्भाव है। जैन दार्शनिकों ने अस्तिकाय और अनस्तिकाय के वर्गीकरण का एक आधार बहुप्रदेशत्व भी माना है जो बहुप्रदेशी द्रव्य है, वे अस्तिकाय हैं और जो एक प्रदेशी द्रव्य हैं, वे अनस्तिकाय हैं। अस्तिकाय और अनस्तिकाय की अवधारणा में इस आधार को स्वीकार कर लेने पर भी पूर्वोक्त कठिनाइयाँ बनी रहती हैं। प्रथम तो धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों स्व द्रव्य अपेक्षा से तो अप्रदेशी हैं, क्योंकि अखण्ड हैं पुनः परमाणु पुद्गल भी एक प्रदेशी है । व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में तो उसे अप्रदेशी भी कहा गया है। क्या इन्हें अस्तिकाय नहीं कहा जायेगा ? यहाँ भी जैन दार्शनिकों का सम्भावित प्रत्युत्तर वही होगा जो कि पूर्व प्रसंग में दिया गया है: धर्म, अधर्म और आकाश में बहुप्रदेशत्व द्रव्यापेक्षा से नहीं, अपितु क्षेत्र की अपेक्षा से है ।
द्रव्यसंग्रह में कहा गया है
जावदियं आयासं अविभागी पुग्गलाणुवद्वद्धं । तं खुपदेसं जाणे सव्वाणुद्वाणदाणरिहं ।।
द्रव्यसंग्रह, २९ प्रो० जी०आर० जैन भी लिखते हैं- Pradesa is the unit of space occupied by one indivisible atom of matter. अर्थात् प्रदेश आकाश की वह सबसे छोटी इकाई है जो एक पुल परमाणु घेरता है। विस्तारवान् होने का अर्थ है क्षेत्र में प्रसारित होना । क्षेत्र अ से ही धर्म और अधर्म को असंख्य प्रदेशी और आकाश को अनन्त प्रदेशी कहा गया है, अतः उनमें भी उपचार से कायत्व की अवधारणा की जा सकती है। पुद्रल का जो बहुप्रदेशीपन है वह परमाणु की अपेक्षा से न होकर स्कन्ध की अपेक्षा से है। इसीलिये पुल को अस्तिकाय कहा गया है न कि परमाणु को परमाणु तो स्वयं पुट्रल का एक अंश या प्रकार मात्र है। या प्रकार मात्र है पुनः प्रत्येक पुगल परमाणु में अनन्त पुगल परमाणुओं के अवगाहन अर्थात् अपने में समाहित करने की शक्ति है- इसका तात्पर्य यह है कि पुद्गल परमाणु में प्रदेश प्रचयत्व है - चाहे वह कितना ही सूक्ष्म क्यों न हो। जैन आचार्यों ने स्पष्टतः यह माना है कि जिस आकाश प्रदेश में एक पुल परमाणु रहता है, उसी में अनन्त पुद्रल परमाणु समाहित हो जाते हैं अतः परमाणु को भी अस्तिकाय माना जा सकता है।
वस्तुतः इस प्रसंग में कायत्व का अर्थ विस्तारयुक्त होना ही है। जो द्रव्य विस्तारवान् हैं वे अस्तिकाय हैं और जो विस्तार रहित हैं वे अनस्तिकाय हैं। विस्तार की यह अवधारणा, क्षेत्र की अवधारणा पर आश्रित है। वस्तुतः कायत्व के अर्थ के स्पष्टीकरण में सावयवत्व एवं सप्रदेशत्व की जो अवधारणाएँ प्रस्तुत की गई हैं, वे सभी क्षेत्र के अवगाहन की संकल्पना से सम्बधित हैं। विस्तार का तात्पर्य है क्षेत्र का अवगाहन। जो द्रव्य जितने क्षेत्र का अवगाहन करता है वही उसका विस्तार (Extension) प्रदेश प्रचयत्व या कायत्व है। विस्तार का प्रचय
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जैनदर्शन में पंच अस्तिकाय और षट् द्रव्यों की अवधारणा
दो प्रकार का माना गया है- ऊर्ध्व प्रचय और तिर्यक् प्रचय | आधुनिक शब्दावली में इन्हें क्रमशः ऊर्ध्व एकरेखीय विस्तार (Longitudinal Extension) और बहुआयामी विस्तार (Multi-dimensional Extension) कहा जा सकता है। अस्तिकाय की अवधारणा में प्रचय या विस्तार को जिस अर्थ में ग्रहण किया जाता है वह बहुआयामी विस्तार है न कि ऊर्ध्व एकरेखीय विस्तार जैन दार्शनिकों ने केवल उन्हीं द्रव्यों को अस्तिकाय कहा है, जिनका तिर्यक् प्रचय या बहुआयामी विस्तार है। काल में केवल ऊर्ध्वं प्रचय या एक आयामी विस्तार है, अतः उसे अस्तिकाय नहीं माना गया है। यद्यपि प्रो० जी०आर० जैन ने काल को एक-आयामी (Mono-dimensional) और शेष को द्वि-आयामी (Twodimensional) माना है किन्तु मेरो दृष्टि में शेष द्रव्य त्रि-आयामी हैं, क्योंकि वे स्कंधरूप है, अतः उनमें लम्बाई चौड़ाई और मोटाई के रूप में तीन आयाम होते हैं। अतः कहा जा सकता है कि जिन द्रव्यों में त्रि-आयामी विस्तार है, वे अस्तिकाय द्रव्य है।
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यहाँ यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि काल भी लोकव्यापी है फिर उसे अस्तिकाय क्यों नहीं माना गया? इसका प्रत्युत्तर यह है कि यद्यपि लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर कालाणु स्थित हैं, किन्तु प्रत्येक कालाणु (Time grains) अपने आप में एक स्वतंत्र द्रव्य हैं, वे परस्पर निरपेक्ष हैं, स्निग्ध एवं रुक्ष गुण के अभाव के कारण उनमें बंध नहीं होता है, अर्थात् उनके स्कन्ध नहीं बनते हैं। स्कन्ध के अभाव में उनमें प्रदेश प्रचयत्व की कल्पना संभव नहीं है, अतः वे अस्तिकाय द्रव्य नहीं हैं। काल-द्रव्य को अस्तिकाय इसलिये नहीं कहा गया कि उसमें स्वरूपतः और उपचार दोनों ही प्रकार के प्रदेश प्रचय की कल्पना का अभाव है।
यद्यपि पाश्चात्य दार्शनिक देकार्त ने पुद्गल (Matter) का गुण विस्तार (Extension) माना है किन्तु जैन दर्शन की विशेषता तो यह है कि यह आत्मा, धर्म, अधर्म और आकाश जैसे अमूर्त द्रव्यों में भी विस्तार की अवधारणा को स्वीकार करता है। इनके विस्तारवान् (कायत्व से युक्त) होने का अर्थ है वे दिक् (Space) में प्रसारित या व्याप्त हैं। धर्म एवं अधर्म तो एक महास्कन्ध के रूप में सम्पूर्ण लोकाकाश के सीमित असंख्य प्रदेशी क्षेत्र में प्रसारित या व्याप्त है। आकाश तो स्वतः ही अनन्त प्रदेश होकर लोक एवं अलोक में विस्तारित है, अतः इसमें भी कायत्व की अवधारणा सम्भव है। जहाँ तक आत्मा का प्रश्न है देकार्त उसमें 'विस्तार' को स्वीकार नहीं करता है, किन्तु जैन दर्शन उसे विस्तारयुक्त मानता है। क्योंकि आत्मा जिस शरीर को अपना आवास बनाता है उसमें वह समग्रतः व्याप्त हो जाता है। हम यह नहीं कह सकते हैं कि शरीर के अमुक भाग में आत्मा है और अमुक भाग में नहीं है, वह अपने चेतना लक्षण से सम्पूर्ण शरीर को व्याप्त करता है। अतः उसमें विस्तार है, वह अस्तिकाय है। हमें इस भ्रान्ति को निकाल देना चाहिये कि केवल मूर्त्त द्रव्य का विस्तार होता है और अमूर्त का नहीं आधुनिक विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि अमूर्त द्रव्य का भी विस्तार होता है। वस्तुतः अमूर्त द्रव्य के विस्तार की
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कल्पना उसके लक्षणों या कार्यों (Functions) के आधार पर की जा सकती है, जैसे धर्म द्रव्य का कार्य गति को सम्भव बनाना है, वह गति का माध्यम माना गया है। अतः जहाँ जहाँ गति है या गति सम्भव है, वहाँ-वहाँ धर्म-द्रव्य की उपस्थिति एवं विस्तार है यह माना जा सकता है।
इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि किसी द्रव्य को अस्तिकाय कहने का तात्पर्य यह है कि वह द्रव्य दिक् में प्रसारित है या प्रसारण की क्षमता से युक्त है। विस्तार या प्रसार (Extension) ही कायत्व है क्योंकि विस्तार या प्रसार की उपस्थिति में ही प्रदेश प्रचयत्व तथा सावयवता की सिद्धि होती है। अतः जिन द्रव्यों में विस्तार या प्रसार का लक्षण है वे अस्तिकाय हैं।
अब एक प्रश्न यह शेष रहता है कि काल को अस्तिकाय क्यों नहीं माना जा सकता? यद्यपि अनादि भूत से लेकर अनन्त भविष्य तक काल के विस्तार का अनुभव किया जा सकता है, किन्तु फिर भी उसमें कायत्व का आरोपण संभव नहीं है क्योंकि काल का प्रत्येक घटक अपनी स्वतंत्र और पृथक् सत्ता रखता है। जैन दर्शन की पारम्परिक परिभाषा में कालाणुओं में स्निग्ध एवं रुक्ष गुण के अभाव होने से उनका कोई स्कन्ध या संघात नहीं बन सकता है। यदि उनके स्कन्ध की परिकल्पना भी कर ली जाय तो पर्याय- समय की सिद्धि नहीं होती है। पुनः काल के वर्तना लक्षण की सिद्धि केवल वर्तमान में ही है और वर्तमान अत्यन्त सूक्ष्म है। अतः काल में विस्तार ( प्रदेश प्रचयत्व ) नहीं माना जा सकता और इसलिए वह अस्तिकाय भी नहीं है।
अस्तिकायों के प्रदेश प्रचयत्व का अल्पबहुत्व
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ज्ञातव्य है कि सभी अस्तिकाय द्रव्यों का विस्तार क्षेत्र समान नहीं है, उसमें भिन्नताएँ हैं। जहाँ आकाश का विस्तार क्षेत्र लोक और अलोक दोनों हैं वहाँ धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य केवल लोक तक ही सीमित हैं। पुट्रल के प्रत्येक स्कन्ध और प्रत्येक जीव का विस्तार क्षेत्र भी भिन्न भिन्न है पुट्रल पिण्डों का विस्तार क्षेत्र उनके आकार पर निर्भर करता है, जबकि प्रत्येक जीवात्मा का विस्तार क्षेत्र उसके द्वारा गृहीत शरीर के आकार पर निर्भर करता है। इस प्रकार धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव अस्तिकाय होते हुए भी उनका विस्तार क्षेत्र या कायत्व समान नहीं है। जैन दर्शनिकों ने उनमें प्रदेश दृष्टि से भिन्नता स्पष्ट की है। भगवतीसूत्र में बताया गया है कि धर्म द्रव्य और अधर्म के प्रदेश अन्य द्रव्यों की अपेक्षा सबसे कम हैं। वे लोकाकाश तक (Within the limits of universe) सीमित हैं और असंख्य प्रदेशी हैं। आकाश की प्रदेश संख्या इन दोनों की अपेक्षा अनन्त गुणा अधिक मानी गयी है आकाश अनन्त प्रदेशी हैं क्योंकि वह ससोम लोक (Finite universe) तक सीमित नहीं है। उसका विस्तार अलोक में भी है। पुनः आकाश की अपेक्षा जीव द्रव्य के प्रदेश अनन्तगुणा अधिक हैं क्योंकि प्रथम तो जहाँ धर्म-अधर्म और आकाश का एकल-द्रव्य है वहाँ
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
जीव अनन्त-द्रव्य है क्योंकि जीव अनन्त हैं। पुनः प्रत्येक जीव के मौलिक और प्राचीन अवधारणा थी। उसे जब वैशेषिक दर्शन की द्रव्य असंख्य प्रदेश हैं। प्रत्येक जीव में अपने आत्म-प्रदेशों से सम्पूर्ण लोक की अवधारणा के साथ स्वीकृत किया गया, तो प्रारम्भ में तो पाँच को व्याप्त करने की क्षमता है। जीव द्रव्य के प्रदेशों की अपेक्षा भी अस्तिकायों को ही द्रव्य माना गया किन्तु जब काल को एक स्वतन्त्र पुद्गल-द्रव्य के प्रदेश अनन्त गुणा अधिक हैं क्योंकि प्रत्येक जीव के द्रव्य के रूप में मान्यता प्राप्त हो गई तो द्रव्यों की संख्या पाँच से साथ अनन्त कर्म-पुद्गल संयोजित हैं। यद्यपि काल की प्रदेश संख्या बढ़कर छह हो गई। चूँकि आगमों में कहीं भी अस्तिकाय वर्ग के पुद्गल की अपेक्षा भी अनन्त गुणी मानी गयी, क्योंकि प्रत्येक जीव और अन्तर्गत काल की गणना नहीं थी अत: काल को अनस्तिकाय वर्ग में पुद्गल-द्रव्य की वर्तमान, अनादि भूत और अनन्त भविष्य की दृष्टि से रखा गया और यह मान लिया गया कि काल जीव और पुद्गल के अनन्त पर्यायें होती हैं अत: काल की प्रदेश-संख्या सर्वाधिक होनी परिवर्तनों का निमित्त है और कालाणु तिर्यक् प्रदेश प्रचयत्व से रहित चाहिये फिर भी कालाणुओं का समावेश पुद्गल-द्रव्य के प्रदेशों में होने हैं अत: वह अनस्तिकाय है। इस प्रकार द्रव्यों के वर्गीकरण में सर्वप्रथम की वजह से अस्तिकाय में पुद्गल-द्रव्य के प्रदेशों की संख्या ही दो प्रकार के वर्ग बने- १. अस्तिकाय द्रव्य और २. अनस्तिकाय द्रव्य। सर्वाधिक मानी गई है।
अस्तिकाय द्रव्यों के वर्ग के अन्तर्गत जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और इस समग्र विवेचन से यह ज्ञात होता है कि अस्तिकाय की पुद्गल इन पाँच द्रव्यों को रखा गया और अनस्तिकाय वर्ग के अन्तर्गत अवधारणा और द्रव्य की अवधारणा के वर्ण्य-विषय एक ही हैं। काल को रखा गया। आगे चलकर द्रव्यों के वर्गीकरण का आधार
चेतना-लक्षण और मूर्तता-लक्षण को भी माना गया। चेतना-लक्षण की षद्रव्य
दृष्टि से जीव को चेतन द्रव्य और शेष पाँच-धर्म, अधर्म, आकाश, यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि प्रारम्भ में जैन दर्शन में पञ्च पुद्गल और काल को अचेतन द्रव्य कहा गया। इसी प्रकार मूर्त्तता-लक्षण अस्तिकाय की अवधारणा ही थी। अपने इतिहास की दृष्टि से यह की अपेक्षा से पुद्गल को मूर्त द्रव्य और शेष पाँच-जीव, धर्म, अधर्म, अवधारणा पार्श्वयुगीन थी। 'इसिभासियाई' के पार्श्व नामक इकतीसवें आकाश और काल को अमूर्त-द्रव्य माना गया। इस प्रकार द्रव्यों के अध्याय में पार्श्व के जगत् सम्बन्धी दृष्टिकोण का प्रस्तुतीकरण करते हुए वर्गीकरण की तीन शैलियाँ अस्तित्व में आई, जिन्हें हम निम्न सारणियों विश्व के मूल घटकों के रूप में पंचास्तिकायों का उल्लेख हुआ है। व आधार पर स्पष्टतया समझ सकते हैंभगवतीसूत्र में महावीर ने पार्श्व को इसी अवधारणा का पोषण करते हुए द्रव्यों के उपर्युक्त वर्गीकरण के पश्चात् इन षद्रव्यों के यह माना था कि लोक पंचास्तिकायरूप है। यह स्पष्ट है कि प्राचीन स्वरूप और लक्षण पर भी विचार कर लेना आवश्यक है। काल में जैन दर्शन में काल को स्वतन्त्र तत्त्व नहीं माना गया था। उसे जीव एवं पुद्गल की पर्याय के रूप में ही व्याख्यायित किया जाता था। जीव द्रव्य प्राचीन स्तर के आगमों में उत्तराध्ययन ही ऐसा आगम है जहाँ काल को जीव द्रव्य को अस्तिकाय वर्ग के अन्तर्गत रखा जाता है। सर्वप्रथम एक स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में स्वीकार किया गया है। यह स्पष्ट जीव द्रव्य का लक्षण उपयोग या चेतना को माना गया है। इसीलिए इसे है कि जैन परम्परा में उमास्वाति के काल तक, काल स्वतन्त्र द्रव्य है चेतन द्रव्य भी कहा जाता है। उपयोग या चेतना के दो प्रकारों की चर्चा या नहीं-इस प्रश्न को लेकर मतभेद था। इस प्रकार जैन आचार्यों में ही आगमों में मिलती है- निराकार उपयोग और साकार उपयोग। इन तृतीय-चतुर्थ शताब्दी तक काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने के सम्बन्ध में दोनों को क्रमश: दर्शन और ज्ञान कहा जाता है। निराकार उपयोग को दो प्रकार की विचारधाराएँ चल रही थीं। कुछ विचारक काल को स्वतन्त्र सामान्य स्वरूप का ग्रहण करने के कारण दर्शन कहा जाता है और द्रव्य नहीं मानते थे। तत्त्वार्थसूत्र का भाष्यमान पाठ 'कालश्चेत्येके' का साकार उपयोग को वस्तु के विशिष्ट स्वरूप का ग्रहण करने के कारण निर्देश करता है। इससे भी यह सिद्ध होता है कि कुछ विचारक काल ज्ञान कहा जाता है। जीव द्रव्य के सन्दर्भ में जैन दर्शन की विशेषता यह को भी स्वतन्त्र द्रव्य मानने लगे थे। लगता है कि लगभग पाँचवीं है कि वह जीव द्रव्य को एक अखण्ड द्रव्य न मानकर अनेक द्रव्य शताब्दी में आकर काल को स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में स्वीकार कर लिया मानता है। उसके अनुसार प्रत्येक जीव की स्वतन्त्र सत्ता है और विश्व गया था और यही कारण था कि सर्वार्थसिद्धिकार ने 'कालश्चेत्येके' सूत्र में जीवों की संख्या अनन्त है। इस प्रकार संक्षेप में जीव अस्तिकाय, के स्थान पर 'कालश्च' इस सूत्र को मान्य किया था। जब श्वेताम्बर और चेतन, अरूपी और अनेक द्रव्य हैं। दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में काल को एक स्वतन्त्र द्रव्य मान लिया गया, तो अस्तिकाय और द्रव्य शब्दों के वाच्य विषयों में एक अन्तर धर्म द्रव्य आ गया। जहाँ अस्तिकाय के अन्तर्गत जीव, धर्म, अधर्म, आकाश धर्म द्रव्य की इस चर्चा के प्रसंग में सर्वप्रथम हमें यह स्पष्ट और पुद्गल ये पाँच ही द्रव्य माने गये, वहाँ द्रव्य की अवधारणा के रूप से जान लेना चाहिए कि यहाँ 'धर्म' शब्द का अर्थ वह नहीं है जिसे अन्तर्गत जीव, धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और काल ये षद्रव्य सामान्यतया ग्रहण किया जाता है। यहाँ 'धर्म' शब्द न तो स्वभाव का माने गये। वस्तुतः अस्तिकाय की अवधारणा जैन परम्परा की अपनी वाचक है, न कर्तव्य का और न साधना या उपासना के विशेष प्रकार
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जैनदर्शन में पंच अस्तिकाय और षट् द्रव्यों की अवधारणा
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का, अपितु इसे जीव व पुद्गल की गति के सहायक तत्त्व के रूप में लक्षण 'अवगाहन' है। वह जीव और अजीव द्रव्यों को स्थान प्रदान स्वीकार किया गया है। जो जीव और पुद्गल की गति के माध्यम का करता है। लोक को भी अपने में समाहित करने के कारण आकाश का कार्य करता है, उसे धर्म द्रव्य कहा जाता है। जिस प्रकार मछली की विस्तार क्षेत्र लोक के बाहर भी मानना आवश्यक है। यही कारण है कि गति जल के माध्यम से ही सम्भव होती है अथवा जैसे-विद्युत धारा जैन आचार्य आकाश के दो विभाग करते हैं-लोकाकाश और अलोकाकाश। उसके चालक द्रव्य तार आदि के माध्यम से ही प्रवाहित होती है, उसी विश्व में जो रिक्त स्थान है वह लोकाकाश है और इस विश्व से बाहर जो प्रकार जीव और पुद्गल विश्व में प्रसारित धर्म द्रव्य के माध्यम से ही रिक्त स्थान है वह अलोकाकाश है। इस प्रकार जहाँ धर्म द्रव्य और इसका प्रसार क्षेत्र लोक तक सीमित है। अलोक में धर्म द्रव्य का अभाव अधर्म द्रव्य असंख्य प्रदेशी माने गए हैं वहाँ आकाश को अनन्त प्रदेशी है। इसीलिए उसमें जीव और पुद्गल की गति सम्भव नहीं होती और माना गया है। लोक की कोई सीमा हो सकती है किन्तु अलोक की कोई यही कारण है कि उसे अलोक कहा जाता है। अलोक का तात्पर्य है कि सीमा नहीं है- वह अनन्त है। चूंकि आकाश लोक और अलोक दोनों जिसमें जीव और पुद्गल का अभाव हो। धर्म द्रव्य प्रसारित स्वभाव वाला में है इसलिए वह अनन्त प्रदेशी है। संख्या की दृष्टि से आकाश को भी (अस्तिकाय) होकर भी अमूर्त (अरूपी) और अचेतन है। धर्म द्रव्य एक एक और अखण्ड द्रव्य माना गया है। उसके देश-प्रदेश आदि की
और अखण्ड द्रव्य है। जहाँ जीवात्माएँ अनेक मानी गई हैं। वहाँ धर्म कल्पना भी केवल वैचारिक स्तर तक ही सम्भव है। वस्तुत: आकाश में द्रव्य एक ही है। लोक तक सीमित होने के कारण इसे अनन्त प्रदेशी किसी प्रकार का विभाजन कर पाना सम्भव नहीं है। यही कारण है कि न कहकर असंख्य प्रदेशी कहा गया है। जैन दर्शन के अनुसार लोक उसे अखण्ड द्रव्य कहा जाता है। जैन आचार्यों की अवधारणा है कि चाहे कितना ही विस्तृत क्यों न हो वह असीम न होकर ससीम है और जिन्हें हम सामान्यतया ठोस पिण्ड समझते हैं उनमें भी आकाश अर्थात् ससीम लोक में व्याप्त होने के कारण धर्म द्रव्य को आकाश के समान रिक्त स्थान होता है। एक पुद्गल परमाणु में भी दूसरे अनन्त पुद्गल अनन्त प्रदेशी न मानकर असंख्य प्रदेशी मानना ही उपयुक्त है। परमाणुओं को अपने में समाविष्ट करने की शक्ति तभी सम्भव हो
सकती है जबकि उनमें विपुल मात्रा में रिक्त स्थान या आकाश हो। अत: अधर्म द्रव्य
मूर्त द्रव्यों में भी आकाश तो निहित ही रहता है। लकड़ी में जब हम अधर्म द्रव्य भी अस्तिकाय वर्ग के अन्तर्गत आता है। इसका कील ठोंकते हैं तो वह वस्तुत: उसमें निहित रिक्त स्थान में ही समाहित भी विस्तार क्षेत्र या प्रदेश-प्रचयत्व लोकव्यापी है। लोक में इसका होती है। इसका तात्पर्य है कि उसमें भी आकाश है। परम्परागत अस्तित्व नहीं है। अधर्म द्रव्य का लक्षण या कार्य जीव और पुद्गल की उदाहरण के रूप में यह कहा जाता है कि दूध या जल के भरे हुए स्थिति में सहायक होना माना गया है। परम्परागत उदाहरण के रूप में ग्लास में यदि धीरे-धीरे शक्कर या नमक डाला जाय तो वह उसमें यह कहा जाता है कि जिस प्रकार वृक्ष की छाया पथिक के विश्राम में समाविष्ट हो जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि दूध या जल से भरे हुए सहायक होती है उसी प्रकार अधर्म द्रव्य जीव और पुद्गल की अवस्थिति ग्लास में भी रिक्त स्थान अर्थात् आकाश था। वैज्ञानिकों ने भी यह मान में सहायक होता है। जहाँ धर्म द्रव्य गति का माध्यम (चालक) है वहाँ लिया है कि प्रत्येक परमाणु में पर्याप्त रूप से रिक्त स्थान होता है। अत: अधर्म द्रव्य गति का कुचालक है अत: उसे स्थिति का माध्यम कहा आकाश को लोकालोकव्यापी, एक और अखण्ड द्रव्य मानने में कोई गया है। यदि अधर्म द्रव्य नहीं होता तो जीव व पुद्गल की गति का बाधा नहीं आती है। नियमन असम्भव हो जाता और वे अनन्त आकाश में बिखर जाते। जिस प्रकार वैज्ञानिक दृष्टि से गुरुत्वाकर्षण आकाश में स्थिति पुद्गल पुद्गल-द्रव्य पिण्डों को नियंत्रित करता है उसी प्रकार अधर्म द्रव्य भी जीव व पुद्गल पुद्गल को भी अस्तिकाय द्रव्य माना गया है। यह मूर्त और की गति का नियमन कर उसे विराम देता है। संख्या की दृष्टि से अधर्म अचेतन द्रव्य है। पुद्गल का लक्षण शब्द, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श आदि द्रव्य को एक और अखण्ड द्रव्य माना गया है। प्रदेश-प्रचयत्व की दृष्टि माना जाता है। जैन आचार्यों ने हल्कापन, भारीपन, प्रकाश, अंधकार, से इसका विस्तार क्षेत्र लोक तक सीमित होने के कारण इसे असंख्य छाया, आतप आदि को भी पुद्गल का लक्षण माना है। जहाँ धर्म, अधर्म प्रदेशी माना जाता है, फिर भी वह एक अखण्ड द्रव्य है क्योंकि उसका और आकाश एक द्रव्य माने गये हैं वहाँ पुद्गल अनेक द्रव्य हैं। जैन विखण्डन सम्भव नहीं है। धर्म और अधर्म द्रव्यों में देश-प्रदेश आदि आचार्यों ने प्रत्येक परमाणु को एक स्वतन्त्र द्रव्य इकाई माना है। की कल्पना मात्र वैचारिक स्तर पर ही होती है।
वस्तुत: पुद्गल द्रव्य समस्त दृश्य जगत् का मूलभूत घटक है।
यह दृश्य जगत् पुद्गल द्रव्य के ही विभिन्न संयोगों का विस्तार आकाश द्रव्य
है। अनेक पुद्गल परमाणु मिलकर स्कंध की रचना करते हैं और इन आकाश द्रव्य भी अस्तिकाय वर्ग के अन्तर्गत ही आता है स्कंधों से ही मिलकर दृश्य जगत् की सभी वस्तुयें निर्मित होती हैं। किन्तु जहाँ धर्म और अधर्म द्रव्यों का विस्तार क्षेत्र लोकव्यापी है वहाँ नवीन स्कंधों के निर्माण और पूर्व निर्मित स्कन्धों के संगठन और आकाश का विस्तार क्षेत्र लोक और अलोक दोनों है। आकाश का विघटन की प्रक्रिया के माध्यम से ही दृश्य जगत् में परिवर्तन घटित
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होते हैं और विभिन्न वस्तुएँ और पदार्थ अस्तित्व में आते हैं। जैन आचार्यों ने पुल को स्कंध और परमाणु इन दो रूपों परमाणु इन दो रूपों में विवेचित किया है। विभिन्न परमाणुओं के संयोग से ही स्कंध बनते हैं। फिर भी इतना स्पष्ट है कि पुद्गल द्रव्य का अंतिम घटक तो परमाणु ही है। प्रत्येक परमाणु में स्वभाव से एक रस, एक रूप, एक गंध और शीत-उष्ण या स्निग्ध-रुक्ष में से कोई दो स्पर्श पाये जाते हैं।
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
जैन आगमों में वर्ण पाँच माने गये हैं-लाल, पीला, नीला, सफेद और काला; गंध दो हैं सुगन्ध और दुर्गन्ध; रस पाँच हैं- रिक्त, कटु, कसैला, खट्टा और मीठा और इसी प्रकार स्पर्श आठ माने गये हैं शीत और उष्ण, स्निग्ध और रुक्ष, मृदु और कर्कश तथा हल्का और भारी। ज्ञातव्य है कि परमाणुओं में मृदु, कर्कश, हल्का और भारी चार स्पर्श नहीं होते हैं। ये चार स्पर्श तभी संभव होते हैं जब परमाणुओं से स्कंधों की रचना होती है और तभी उनमें मृदु, कठोर, हल्के और भारी गुण भी प्रकट हो जाते हैं। परमाणु एक प्रदेशी होता है जबकि स्कंध में दो या दो से अधिक असंख्य प्रदेश भी हो सकते हैं। स्कंध स्कंध देश, स्कंध प्रदेश और परमाणु ये चार पुद्गल द्रव्य के विभाग हैं। चार पुल द्रव्य के विभाग हैं। इनमें परमाणु निरवयव है, आगम में उसे आदि, मध्य और अन्त से रहित बताया गया है इसके विपरीत आदि और अन्त होते हैं। न केवल भौतिक वस्तुएँ अपितु शरीर इन्द्रियाँ और मन भी स्कंधों का ही खेल है।
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काल द्रव्य
काल द्रव्य को अनस्तिकाय वर्ग के अन्तर्गत माना गया है। जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं आगमिक युग तक जैन परम्परा - में काल को स्वतंत्र द्रव्य मानने के सन्दर्भ में पर्याप्त मतभेद था। आवश्यकचूर्णि (भाग-१, पृ० ३४०-३४१) में काल के स्वरूप में सम्बन्ध में निम्न तीन मतों का उल्लेख हुआ है- (१) कुछ विचारक काल को स्वतन्त्र द्रव्य न मानकर पर्याय रूप मानते हैं। (२) कुछ विचारक उसे गुण मानते हैं। (३) कुछ विचारक उसे स्वतन्त्र द्रव्य मानते हैं। श्वेताम्बर परम्परा में सातवीं शती तक काल के सम्बन्ध में उक्त तीनों विचारधाराएँ प्रचलित रहीं और श्वेताम्बर आचार्य अपनीअपनी मान्यतानुसार उनमें से किसी एक का पोषण करते रहे, जबकि दिगम्बर आचार्यों ने एक मत से काल को स्वतन्त्र द्रव्य माना। जो विचारक काल को स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मानते थे उनका तर्क यह था कि यदि धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव द्रव्य अपनी-अपनी पर्यायों (विभिन्न अवस्थाओं) में स्वतः ही परिवर्तित होते रहते हैं तो फिर काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने की क्या आवश्यकता है? आगम में भी जब भगवान् महावीर से यह पूछा गया कि काल क्या है? तो इस प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा कि काल जीव अजीवमय है अर्थात् जीव और अजीव की पर्यायें ही काल हैं। विशेषावश्यक भाष्य में कहा २ गया है कि वर्तना अर्थात् परिणमन या परिवर्तन से भिन्न कोई काल द्रव्य नहीं है। इस प्रकार जीव और अजीव की परिवर्तनशील पर्याय को
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ही काल कहा गया है। कहीं-कहीं काल को पर्याय द्रव्य कहा गया है। इन सब विवरणों से ऐसा प्रतीत होता है कि काल कोई स्वतन्त्र द्रव्य नहीं हैं। चूँकि आगम में जीव-काल और अजीव काल ऐसे काल के दो वर्गों के उल्लेख मिलते हैं अतः कुछ जैन विचारकों ने यह माना कि जीव और अजीव द्रव्यों की पर्यायों से पृथक् काल द्रव्य का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। प्राचीन स्तर के आगमों में सर्वप्रथम उत्तराध्ययनसूत्र में काल का स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में उल्लेख पाया जाता है। जैसा कि हम पूर्व में संकेत कर चुके हैं कि न केवल उमास्वाति के युग तक अर्थात् ईसा की तृतीय चतुर्थ शताब्दी तक अपितु चूर्णिकाल अर्थात् ईसा की सातवीं शती तक काल स्वतन्त्र द्रव्य है या नहीं इस प्रश्न पर जैन दार्शनिकों में मतभेद था। इसीलिए तत्त्वार्थसूत्र के भाष्यमान पाठ में उमास्वाति को यह उल्लेख करना पड़ा कि कुछ विचारक काल को भी द्रव्य मानते हैं (कालश्चेत्ये तत्त्वार्थसूत्र ५ / ३८ ) । इसका फलितार्थ यह भी है कि उस युग में कुछ जैन दार्शनिक काल को स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मानते थे। इनके अनुसार सर्व द्रव्यों की जो पर्यायें हैं, वे ही काल हैं। इस मान्यता के विरोध में दूसरे पक्ष के द्वारा यह कहा गया कि अन्य द्रव्यों की पर्यायों से पृथक् काल स्वतन्त्र द्रव्य है क्योंकि किसी भी पदार्थ में बाह्य निमित्त अर्थात् अन्य द्रव्य के उपकार के बिना स्वत: ही परिणमन सम्भव नहीं होता है। ३ जैसे ज्ञान आत्मा का स्वलक्षण है, किन्तु ज्ञानरूप पर्यायें तो अपने ज्ञेय विषय पर ही निर्भर करती हैं। आत्मा को ज्ञान तभी हो सकता है जब ज्ञान के विषय अर्थात् ज्ञेय वस्तु तत्त्व की स्वतन्त्र सत्ता हो। अतः अन्य सभी द्रव्यों के परिणमन के लिए किसी बाह्य निमित्त को मानना आवश्यक है, उसी प्रकार चाहे सभी द्रव्यों में पर्याय परिवर्तन की क्षमता स्वतः हो, किन्तु उनके निमित्त कारण के रूप में काल द्रव्य को स्वतन्त्र द्रव्य मानना आवश्यक है। यदि काल को स्वतन्त्र द्रव्य नहीं माना जायेगा तो पदार्थों के परिणमन (पर्याय परिवर्तन) का कोई निमित्त कारण नहीं होगा। परिणमन के निमित्त कारण के अभाव में पर्यायों का अभाव होगा और पर्यायों से अभाव में द्रव्य का भी अभाव हो जायेगा क्योंकि द्रव्य का अस्तित्व भी पर्यायों से पृथक् नहीं है । इस प्रकार सर्वशून्यता का प्रसंग आ जायेगा। अतः पर्याय परिर्वतन (परिणमन) के निमित्त कारण के रूप में काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानना ही होगा। काल को स्वतन्त्र तत्त्व मानने वाले दार्शनिकों के इस तर्क के विरोध में यह प्रश्न उठाया गया कि यदि अन्य द्रव्यों के परिणमन (पर्याय परिर्वतन) के हेतु के रूप में काल नामक स्वतन्त्र द्रव्य का मानना आवश्यक है तो फिर अलोकाकाश में होने वाले पर्याय परिवर्तन का हेतु (निमित्त कारण) क्या है? क्योंकि अलोकाकाश में तो आगम में काल द्रव्य का अभाव माना गया है। यदि उसमें काल द्रव्य के अभाव में पर्याय परिवर्तन सम्भव है, तो फिर लोकाकाश में भी अन्य द्रव्यों के पर्याय परिवर्तन हेतु काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानना आवश्यक नहीं है। पुनः अलोकाकाश में काल के अभाव में यदि पर्याय परिवर्तन नहीं मानोगे तो फिर पर्याय परिवर्तन के अभाव में आकाश द्रव्य में द्रव्य का सामान्य लक्षण 'उत्पाद-व्यय-प्रौव्य' सिद्ध
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जैनदर्शन में पंच अस्तिकाय और षट् द्रव्यों की अवधारणा
नहीं हो सकेगा और यदि अलोकाकाश में पर्याय परिवर्तन माना जाता है तो उस पर्याय परिवर्तन का निमित्त काल तो नहीं हो सकता क्योंकि उसका वहाँ अभाव है। इस तर्क के प्रत्युत्तर में काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने वाले आचार्यों का प्रत्युत्तर यह है कि आकाश एक अखण्ड द्रव्य है उसमें आलोकाकाश एवं लोकाकाश ऐसे जो दो भेद किए जाते हैं वे मात्र औपचारिक हैं। लोकाकाश में काल द्रव्य के निमित्त से होने वाला पर्याय परिवर्तन सम्पूर्ण आकाश द्रव्य का हो पर्याय परिवर्तन है। अलोकाकाश और लोकाकाश दोनों आकाश द्रव्य के ही अंश हैं, वे एक-दूसरे से पृथक् नहीं हैं। किसी भी द्रव्य के एक अंश में होने वाला परिवर्तन सम्पूर्ण द्रव्य का परिवर्तन माना जाता है, अतः लोकाकाश में अत: लोकाकाश में जो पर्याय परिवर्तन होता है वह अलोकाकाश पर भी घटित होता है और लोकाकाश में पर्याय परिवर्तन काल द्रव्य के निमित्त से होता है। अतः लोकाकाश और अलोकाकाश दोनों के पर्याय परिवर्तन का निमित्त काल द्रव्य ही है। ज्ञातव्य है कि लगभग सातवीं शताब्दी से काल का स्वतन्त्र द्रव्य होना सर्वमान्य हो गया।
जैन दार्शनिकों ने काल को अचेतन, अमूर्त (अरूपी) तथा अनस्तिकाय द्रव्य कहा है। इसका कार्य या लक्षण वर्तना माना गया है। विभिन्न द्रव्यों में जो पर्याय परिवर्तन होता है उसका निमित्त कारण काल द्रव्य होता है यद्यपि उस पर्याय परिणमन का उपादान करण तो स्वयं वह द्रव्य ही होता है, जिस प्रकार धर्म-द्रव्य जीव, पुद्रल आदि की स्वतः प्रसूत गति का निमित्त कारण है या जिस प्रकार बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था प्राणी की अपनी शारीरिक संरचना के परिणामस्वरूप ही घटित होती है फिर भी उनमें निमित्त कारण के रूप में काल भी अपना कार्य करता है। जैनाचार्यों ने स्वभाव, नियति, पुरुषार्थ, काल आदि जिस कारण पंचक की चर्चा की है उनमें काल को भी एक महत्त्वपूर्ण घटक माना गया है। जैन दार्शनिक साहित्य में काल द्रव्य की चर्चा अनेक प्रकार से की गई है। सर्वप्रथम व्यवहारकाल और निश्चयकाल ऐसे काल के दो विभाग किये गये हैं। निश्चयकाल अन्य द्रव्यों की पर्यायों के परिवर्तन का निमित्त कारण है। दूसरे शब्दों में सभी द्रव्यों की वर्तना या परिणामन की शक्ति ही द्रव्य काल या निश्चय काल है । व्यवहार काल को समय, आवलिका, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर आदि रूप कहा गया है। संसार में भूत, भविष्य और वर्तमान सम्बन्धी जो काल व्यवहार है वह भी इसी से होता है। जैन परम्परा में व्यवहार काल का आधार सूर्य की गति ही मानी गई है, साथ ही यह भी माना गया है कि यह व्यवहार काल मनुष्य क्षेत्र तक ही सीमित है। देवलोक आदि में इसका व्यवहार मनुष्य क्षेत्र की अपेक्षा से ही है। मनुष्य क्षेत्र में ही समय, आवलिका, पटिका प्रहर रात-दिन, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी आदि का व्यवहार होता है। व्यक्तियों में बालक, युवा और वृद्ध अथवा नूतन, जीर्ण आदि का जो व्यवहार देखा जाता है वह सब भी काल के ही कारण हैं, वासना काल, शिक्षा काल, दीक्षा काल आदि की अपेक्षा से भी काल के अनेक भेद किये जाते हैं, किन्तु विस्तार भय से उन सबकी चर्चा
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यहाँ अपेक्षित नहीं है। इसी प्रकार कर्म सिद्धान्त के सन्दर्भ में प्रत्येक कर्म प्रकृति के सत्ता काल आदि की भी चर्चा जैनागमों में मिलती है।
संख्या की दृष्टि से अधिकांश जैन आचार्यों ने काल द्रव्य को एक नहीं, अपितु अनेक माना है। उनका कहना है कि धर्म, अधर्म, आकाश की तरह काल एक और अखण्ड द्रव्य नहीं हो सकता। काल द्रव्य अनेक हैं क्योंकि एक ही समय में विभिन्न व्यक्तियों में अथवा द्रव्यों में जो विभिन्न पर्यायों की उत्पत्ति होती है, उन सबकी उत्पत्ति का निमित्त कारण एक ही काल नहीं हो सकता। अतः काल द्रव्य को अनेक या असंख्यात द्रव्य मानना होगा। पुनः प्रत्येक पदार्थ की भूत, भविष्य की अपेक्षा से अनन्त पर्यायें होती हैं और उन अनन्त पर्यायों के निमित्त अनन्त कालाणु होंगे, अतः कालाणु अनन्त माने गये हैं। यहाँ यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि काल द्रव्य को असंख्य कहा गया किन्तु कालाणु अनन्त माने गये ऐसा क्यों ? इसका उत्तर यह है कि काल द्रव्य लोकाकाश तक सीमित है और उसकी इस सीमितता की अपेक्षा से उसे अनन्त द्रव्य न कहकर असंख्यात (ससीम) द्रव्य कहा गया। किन्तु जीव अनन्त हैं और उन अनन्त जीवों की भूत, भविष्य की अनन्त पर्यायें होती हैं उन अनन्त पर्यायों में प्रत्येक का निमित्त एक कालाणु होता है अतः कालाणु अनन्त माने गये। सामान्य अवधारणा यह है कि प्रत्येक आत्मा प्रदेश, यह है कि प्रत्येक आत्मा प्रदेश, पुद्रल परमाणु और आकाश प्रदेश पर रत्नों की राशि के समान कालाणु स्थित रहते हैं अतः कालाणु अनन्त हैं। राजवार्तिक आदि दिगम्बर परम्परा के अन्यों में कालाणुओं को अन्योन्य प्रवेश से रहित पृथक् पृथक् असंचित दशा में लोकाकाश में स्थित माना गया है।
हुए यह भी
नहीं है।
किन्तु कुछ श्वेताम्बर आचार्यों ने इस मत का विरोध करते माना है कि काल द्रव्य एक एवं लोकव्यापी है वह अणुरूप किन्तु ऐसी स्थिति में काल में भी प्रदेश- प्रचयत्व मानना होगा और प्रदेश प्रचयत्व मानने पर वह भी अस्तिकाय वर्ग के अन्तर्गत आ जायेगा। इसके उत्तर में यह कहा गया कि तिर्यक्- प्रचयत्व का अभाव होने से काल अनस्तिकाय है। ऊर्ध्वं प्रचयत्व एवं तिर्यक् प्रचयत्व की चर्चा हम पूर्व में अस्तिकाय की चर्चा के अन्तर्गत कर चुके हैं।
सूक्ष्मता की अपेक्षा से कालाणुओं की अपेक्षा आकाश प्रदेश और आकाश प्रदेश की अपेक्षा पुगल परमाणु अधिक सूक्ष्म माने गये हैं। क्योंकि एक ही आकाश प्रदेश में अनन्त पुगल परमाणु समाहित हो सकते हैं। अतः वे सबसे सूक्ष्म है। इस प्रकार परमाणु की अपेक्षा आकाश प्रदेश और आकाश प्रदेश की अपेक्षा कालाणु स्थूल हैं।
संक्षेप में काल द्रव्य में वर्तना हेतुत्व के साथ-साथ अचेतनत्व, अमूर्तत्व, सूक्ष्मत्व आदि सामान्य गुण भी माने गये हैं। इसी प्रकार उत्पाद, व्यय और धौव्य लक्षण जो अन्य द्रव्य में हैं, वे भी काल द्रव्य में पाये जाते हैं। काल द्रव्य में यदि उत्पाद, व्यय लक्षण नहीं रहे तो वह अपरिवर्तनशील द्रव्य होगा और जो स्वतः अपरिवर्तनशील हो वह दूसरों के परिवर्तन में निमित्त नहीं हो सकेगा। किन्तु काल द्रव्य का विशिष्ट लक्षण तो उसका वर्तना नामक गुण ही है जिसके माध्यम से
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वह अन्य सभी द्रव्यों के पर्याय परिवर्तन में निमित्त का कारण बनकर कार्य करता है। पुनः यदि काल द्रव्य में ध्रौव्यत्व का अभाव मानेंगे तो उसका द्रव्यत्व समाप्त हो जायेगा। अतः उसे स्वतन्त्र द्रव्य मानने पर उसमें उत्पाद व्यय के साथ-साथ धौव्यत्व भी मानना होगा।
कालचक्र
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
सन्दर्भ
1. See J. C. Sikdar, Concept of Matter in Jaina Philosophy. P.V. Research Institute, Varanasi-5
अर्धमागधी आगम साहित्य में काल की चर्चा उत्सर्पिणी काल और अवसर्पिणी काल के रूप में भी उपलब्ध होती है। इनमें प्रत्येक के छह-छह विभाग किये जाते हैं, जिन्हें आरे कहा जाता है। ये छह आरे निम्न हैं- १. सुषमा सुषमा, २. सुषमा, ३. सुषमा-दुषमा, ४. दुषमा सुषमा, ५. दुषमा और ६. दुषमा दुषमा उत्सर्पिणी काल में इनका क्रम विपरीत होता है। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल मिलकर एक कालचक्र पूरा होता है। जैनों की कालचक्र की यह कल्पना बौद्ध और हिन्दू कालचक्र की कल्पना से भिन्न है। किन्तु इन सभी में इस बात को लेकर समानता है कि इन सभी में कालचक्र के विभाजन का आधार सुख-दुःख एवं मनुष्य के नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास की
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उद्धृत Jain Conceptions of Space and Time by Nagin J. Shah, p. 374, Ref. No. 6, Studies in Jainism, Deptt. of Philosophy, University of Poona, 1994.
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भाग-२, पृ० ८४,८७,
Studies in Jainism, Ed. M. P. Marathe, P. 69.
महावीरकालीन विभिन्न आत्मवाद एवं जैन आत्मवाद का वैशिष्ट्य
धर्म और नैतिकता आत्मा सम्बन्धी दार्शनिक मान्यताओं पर अधिष्ठित रहते हैं। किसी भी धर्म एवं उसकी नैतिक विचारणा को उसके आत्मा सम्बन्धी सिद्धान्त के अभाव में समुचित रूप से नहीं समझा जा सकता। महावीर के धर्म एवं नैतिक सिद्धान्तों के औचित्य स्थापन के पूर्व उनके आत्मवाद का औचित्य स्थापन आवश्यक है। साथ ही महावीर के आत्मवाद को समझने के लिये उनके समकालीन विभिन्न आत्मवादों का समालोचनात्मक अध्ययन भी आवश्यक है।
औपनिषदिक साहित्य है, जिसमें आत्मवाद सम्बन्धी विभिन्न परिकल्पनायें, किसी एक आत्मवादी सिद्धान्त के विकास के निमित्त संकलित की जा रही थीं। उपनिषदों का आत्मवाद विभिन्न श्रमण परम्पराओं के आत्मवादी सिद्धान्तों से स्पष्ट रूप से प्रभावित है। उपनिषदों में आत्मासम्बन्धी परस्पर विपरीत धारणायें जिस बीज रूप में विद्यमान हैं वे इस तथ्य की पुष्टि में सबल प्रमाण हैं। हाँ, इन विभिन्न आत्मवादों को ब्रह्म की धारणा में संयोजित करने का प्रयास उनका अपना मौलिक है।
लेकिन यह मान लेना कि महावीर अथवा बुद्ध के समकालीन विचारकों में आत्मासम्बन्धी दार्शनिक सिद्धान्त थे ही नहीं, यह एक भ्रान्त धारणा है।
यद्यपि भारतीय आत्मवादों के सम्बन्ध में वर्तमान युग में श्री ए.सी. मुकर्जी ने अपनी पुस्तक "The Nature of Self" एवं श्री एस.के. सक्सेना ने अपनी पुस्तक "Nature of Consciousness in Hindu Philosophy" में विचार किया है लेकिन उन्होंने महावीर के समकालीन आत्मवादों पर समुचित रूप से कोई विचार नहीं किया है। श्री धर्मानन्द कौशाम्बीजी द्वारा अपनी पुस्तक "भगवान बुद्ध" में यद्यपि इस प्रकार का एक लघु प्रयास अवश्य है फिर भी इस सम्बन्ध में एक व्यवस्थित अध्ययन आवश्यक है।
पाश्चात्य एवं कुछ आधुनिक भारतीय विचारकों की यह मान्यता है कि महावीर एवं बुद्ध के समकालीन विचारकों में आत्मवादसम्बन्धी कोई निश्चित दर्शन नहीं था। तत्कालीन सभी ब्राह्मण और श्रमण मतवाद केवल नैतिक-विचारणाओं एवं कर्मकाण्डीय व्यवस्थाओं को प्रस्तुत करते थे। सम्भवतः इस धारणा का आधार तत्कालीन
क्षमता को बनाया है।
जैनों के अनुसार उत्सर्पिणी काल में क्रमश: विकास और अवसर्पिणी काल में क्रमशः पतन होता है। ज्ञातव्य है कि कालचक्र का प्रवर्तन जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र आदि कुछ विभागों में ही होता है ।
इस प्रकार पाँच अस्तिकाय द्रव्यों एवं एक अनास्तिकाय द्रव्य का विवेचन करने के पश्चात् आत्मा एवं पुल द्रव्य तथा उनके पारस्परिक सम्बन्ध को समझना आवश्यक है।
3.
४.
मेरी यह स्पष्ट धारणा है कि महावीर के समकालीन विभिन्न विचारकों की आत्मवाद सम्बन्धी विभिन्न धारणायें विद्यमान थीं। कोई उसे सूक्ष्म कहता था, तो कोई उसे विभु किसी के अनुसार आत्मा नित्य थी, तो कोई उसे क्षणिक मानता था। कुछ विचारक उसे (आत्मा को) कर्ता मानते थे, तो कुछ उसे निष्क्रिय एवं कूटस्थ मानते थे । इन्हीं विभिन्न आत्मवादों की अपूर्णता एवं नैतिक व्यवस्था को प्रस्तुत करने की अक्षमताओं के कारण ही तीन नये विचार सामने आये एक ओर था उपनिषदों का सर्व आत्मवाद या ब्रह्मवाद, दूसरी ओर या बुद्ध का अनात्मवाद और तीसरी विचारणा थी जैन आत्मवाद की, जिसने इन विभिन्न आत्मवादों को एक जगह समन्वित करने का प्रयास किया।
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महावीरकालीन विभिन्न आत्मवाद एवं जैन आत्मवाद का वैशिष्टय
११३ इन विभिन्न आत्मवादों की समालोचना के पूर्व इनके अस्तित्व
इस दृष्टि से हमारे अध्ययन में निम्न वर्गीकरण सहायक हो सम्बन्धी प्रमाण प्रस्तुत किये जाने आवश्यक हैं। बौद्ध-पालि-आगम- सकता हैसाहित्य, जैन-आगम एवं उपनिषदों के विभिन्न प्रसंग इस संदर्भ में कुछ १. नित्य या शाश्वत आत्मवाद, तथ्य प्रस्तुत करते हैं। बौद्ध-पालि-आगम के अन्तर्गत सुत्तपिटक में २. अनित्य आत्मवाद, उच्छेद आत्मवाद, देहात्मवाद, दीघनिकाय के ब्रह्मजालसुत्त एवं मज्झिमनिकाय के चूलसारोपमसुत्त में ३. कूटस्थ आत्मवाद, अक्रिय आत्मवाद, नियतिवाद, इन आत्मवादों के सम्बन्ध में कुछ जानकारी प्राप्त होती है। यद्यपि ४. परिणामी आत्मवाद, आत्म कर्तृत्ववाद, पुरुषार्थवाद, उपर्युक्त सत्तों में हमें जो जानकारी प्राप्त होती है, वह बाह्यतः नैतिक ५. सूक्ष्म आत्मवाद, आचार-सम्बन्धी प्रतीत होती है, लेकिन यह जिस रूप में प्रस्तुत की ६. विभु आत्मवाद, गई है, उसे देखकर हमें गहन विवेचना में उतरना होता है, जो ७. अनात्मवाद, अन्ततोगत्वा हमें किसी आत्मवाद-सम्बन्धी दार्शनिक निर्णय पर पहुँचा ८. सर्व आत्मवाद या ब्रह्मवाद। देती है।
प्रस्तुत निबन्ध में उपर्युक्त सभी आत्मवादों का विवेचन पालि-आगम में बुद्ध के समकालीन इन आचार्यों को जहाँ सम्भव नहीं है, दूसरे अनात्मवाद और सर्व आत्मवाद के सिद्धान्त एक ओर गणाधिपति, गण के आचार्य, प्रसिद्ध यशस्वी, तीर्थंकर तथा क्रमश: बौद्ध और वेदान्त परम्परा में विकसित हुए हैं, जो काफी बहुजनों द्वारा सुसम्मतरे कहा गया है, वहीं दूसरी ओर उनके नैतिक विस्तृत हैं साथ ही लोक प्रसिद्ध हैं। अत: उनका विवेचन प्रस्तुत सिद्धान्तों को इतने गर्हित एवं निन्द्य रूप में प्रस्तुत किया गया है कि निबन्ध में नहीं किया गया है। परिणामी आत्मवाद का सिद्धान्त स्वतन्त्र साधारण बुद्धि वाला मनुष्य भी इनकी ओर आकृष्ट नहीं हो सकता। रूप से किसका था, यह ज्ञात नहीं हो सका। अत: उसका भी विवेचन अत: यह स्वाभाविक रूप से शंका उपस्थित होती है कि क्या ऐसी इस निबन्ध में नहीं किया गया है। प्रस्तुत प्रयास में इन विभिन्न निन्ध नैतिकता का उपदेश देने वाला व्यक्ति लोकसम्मानित धर्माचार्य आत्मवादों के वर्गीकरण में मुख्यत: एक स्थूल दृष्टि रखी गई है और हो सकता है, लोकपूजित हो सकता है?
इसी हेतु कूटस्थ आत्मवाद, नियतिवाद या परिणामी आत्मवाद और यही नहीं कि ये आचार्यगण लोकपूजित ही थे वरन् वे पुरुषार्थवाद महावीर के आत्मवाद का मुख्य अंग माने गये हैं फिर भी आध्यात्मिक विकास के निमित्त विभिन्न साधनायें भी करते थे, महावीर का आत्म-दर्शन समन्वयात्मक है अत: उनके आत्म-दर्शन को उनके शिष्य एवं उपासक भी थे। उपरोक्त तथ्य किसी निष्पक्ष गहन एकान्त रूप से उस वर्ग में नहीं रखा जा सकता है। विचारणा की अपेक्षा करते हैं, जो इसके पीछे रहे हुए सत्य का उद्घाटन कर सकें।
अनित्य-आत्मवाद मेरी विनम्र सम्मति में उपर्युक्त विचारकों की नैतिक विचारणा महावीर के समकालीन विचारकों में इस अनित्यात्मवाद का को जिस रूप में प्रस्तुत किया गया है उसे देखकर ऐसा प्रतीत होता है प्रतिनिधित्व अजितकेशकम्बल करते हैं। इस धारणा के अनुसार आत्मा कि वह उन विचारकों की नैतिक विचारणा नहीं है, वरन् उनके या चैतन्य इस शरीर के साथ उत्पन्न होता है और इसके नष्ट हो जाने आत्मवाद या अन्य दार्शनिक मान्यताओं के आधार पर निकाला हुआ के साथ ही नष्ट हो जाता है। उनके दर्शन एवं नैतिक सिद्धान्तों को बौद्ध नैतिक निष्कर्ष है, जो विरोधी पक्ष के द्वारा प्रस्तुत किया गया है। आगम में इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है
जैनागमों जैसे सूत्रकृतांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवतीसूत्र), दान, यज्ञ, हवन व्यर्थ हैं, सुकृत-दुष्कृत कर्मों का फलउत्तराध्ययन आदि में भी कुछ ऐसे स्थल हैं, जिनके आधार पर विपाक नहीं। यह लोक-परलोक नहीं। माता-पिता नहीं, देवता नहीं... तत्कालीन आत्मवादों को प्रस्तुत किया जा सकता है।
आदमी चार महाभूतों का बना है, जब मरता है तब (शरीर की) पृथ्वी वैदिक साहित्य में प्राचीनतम उपनिषद् छान्दोग्य और पृथ्वी में, पानी पानी में, आग आग में और वायु वायु में मिल जाती बृहदारण्यक हैं, उनमें भी तत्कालीन आत्मवाद के सम्बन्ध में कुछ है... दान यह मूों का उपदेश है... मूर्ख हो चाहे पण्डित शरीर छोड़ने जानकारी उपलब्ध होती है। कठोपनिषद् एवं गीता में इन विभिन्न पर उच्छिन्न हो जाते हैं...। आत्मवादी धारणाओं का प्रभाव यत्र-तत्र यथेष्ट रूप से देखने को मिल बाह्य रूप से देखने पर अजित की यह धारणा स्वार्थ सुखवाद सकता है।
की नैतिक धारणा के समान प्रतीत होती है और उसका दर्शन या लेख के विस्तारभय से यहाँ उक्त सभी ग्रन्थों के विभिन्न आत्मवाद भौतिकवादी परिलक्षित होता है। लेकिन पुनः यहाँ यह शंका संकेतों के आधार पर उनसे प्रतिफलित होने वाले आत्मवादों की उपस्थित होती है कि यदि अजितकेशकम्बल नैतिक धारणा में सुखवादी विचारणा सम्भव नहीं है, अत: हम यहाँ कुछ आत्मवादों का वर्गीकृत और उनका दर्शन भौतिकवादी था तो फिर वह स्वयं साधना मार्ग और रूप में मात्र संक्षिप्त अध्ययन ही करेंगे। इनका विस्तृत और पूर्ण देह-दण्डन के पथ का अनुगामी क्यों था, उसने किस हेतु श्रमणों एवं अध्ययन तो स्वतन्त्र गवेषणा का विषय है।
उपासकों का संघ बनाया था। यदि उसकी नैतिकता भोगवादी थी तो
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उसे स्वयं संन्यास - मार्ग का पथिक नहीं बनना था, न उसके संघ में संन्यासी या गृहत्यागी का स्थान होना था।
है कि आत्मनित्यतावाद और आत्म- अनित्यतावाद में कौन सी धारणा सत्य है और कौन सी असत्य ?
सम्भवतः वस्तुस्थिति ऐसी प्रतीत होती है कि अजित दार्शनिक दृष्टि से अनित्यवादी था, जगत् की परिवर्तनशीलता पर ही उसका जोर था। वह लोक परलोक, देवता, आत्मा आदि किसी भी तत्त्व को नित्य नहीं मानता था। उसका यह कहना "यह लोक नहीं परलोक नहीं, माता-पिता नहीं, देवता नहीं..." केवल इसी अर्थ का द्योतक है कि इन सभी की शाश्वत् सत्ता नहीं है, सभी अनित्य हैं। वह आत्मा को भी अनित्य मानता था और इसी आधार पर यह कहा गया कि उसकी नैतिक धारणा में सुकृत और दुष्कृत कर्मों का विपाक नहीं
इस प्रकार यह तो निर्भ्रान्त रूप से सत्य है कि महावीर के समकालीन विचारकों में आत्म-अनित्यतावाद को मानने वाले विचारक थे। लेकिन वह अनित्य आत्मवाद भौतिक आत्मवाद नहीं, वरन् दार्शनिक अनित्य आत्मवाद था। उनके मानने वाले विचारक आधुनिक सुखवादी विचारकों के समान भौतिक सुखवादी नहीं थे, वरन् वे आत्म- शान्ति एवं आसक्तिनाश या तृष्णाक्षय के हेतु प्रयासशील थे।
ऐसा प्रतीत होता है कि अजित का दर्शन और धर्म (नैतिकता ) बौद्ध दर्शन एवं धर्म की पूर्व कड़ी था। बौद्धों ने उसके दर्शन की जो पश्चिम में यूनानी दार्शनिक हेराक्टिस (५३५ ई.पू.) भी आलोचना की थी अथवा उसके नैतिक निष्कर्ष प्रस्तुत किये थे कि इसी का समकालीन था और वह भी अनित्य वादी ही था। उसके अनुसार दुष्कृत एवं सुकृत कर्मों का विपाक नहीं, यही आलोचना पश्चात् काल में बौद्ध आत्मवाद को कृतप्रणाश एवं अकृत-कर्मभोग के दोष से युक्त कहकर हेमचन्द्राचार्य ने प्रस्तुत की।
अनित्य आत्मवाद की धारणा नैतिक दृष्टि से उचित नहीं बैठती क्योंकि उसके आधार पर कर्म विपाक या कर्म फल के सिद्धान्त को नहीं समझाया जा सकता। समस्त शुभाशुभ कर्मों का प्रतिफल तत्काल प्राप्त नहीं होता । अतः कर्म फल की धारणा के लिये नित्य आत्मवाद की ओर आना होता है। दूसरे अनित्य आत्मवाद की धारणा में पुण्य संचय, परोपकार, दान आदि के नैतिक आदर्शों का भी कोई अर्थ नहीं रहता ।
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
सम्भवतः अजित नित्य आत्मवाद के आधार पर नैतिकता की धारणा को स्थापित करने में उत्पन्न होने वाली दार्शनिक कठिनाइयों से अवगत था। क्योंकि नित्य आत्मवाद के आधार पर हिंसा की बुराई को नहीं समाप्त किया जा सकता। यदि आत्मा नित्य है तो फिर हिंसा किसकी? अतः अजित ने यश याग एवं युद्ध जनित हिंसा से मानवजाति को मुक्त करने के लिये अनित्य आत्मवाद का उपदेश दिया होगा |
साथ ही ऐसा भी प्रतीत होता है कि वह तृष्णा और आसक्ति से उत्पन्न होने वाले सांसारिक क्लेशों से भी मानव जाति को मुक्त करना चाहता था और इसी हेतु उसने गृह त्याग और देह- दण्डन, जिससे आत्म-सुख और भौतिक सुख की विभिन्नता को समझा जा सके, को आवश्यक माना था।
इस प्रकार अजित का दर्शन आत्म-अनित्यवाद का दर्शन है और उसकी नैतिकता है— आत्म-सुख (Subjective Pleasure) की
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उपलब्धि।
सम्भवतः ऐसा प्रतीत होता है कि बुद्ध ने अपने अनात्मवादी दर्शन के निर्माण में अजित का यह अनित्य आत्मवाद अपना लिया था और उसकी नैतिक धारणा में से देह दण्डन की प्रणाली को समाप्त कर दिया था। यही कारण है कि अजित की यह दार्शनिक परम्परा बुद्ध की दार्शनिक परम्परा के प्रारम्भ होने पर विलुप्त हो गई। बुद्ध के दर्शन
अजित के अनित्यतावादी आत्म-सिद्धान्त को आत्मसात् कर लिया और उसकी नैतिक धारणा को परिष्कृत कर उसे ही एक नये रूप में प्रस्तुत कर दिया।
अनित्य आत्मवाद के सम्बन्ध में जैनागम उत्तराध्ययन के १४वें अध्ययन की १८वीं गाथा में भी विवेचन प्राप्त होता है, जहाँ यह बताया गया कि यह आत्मा शरीर में उसी प्रकार रहती है जैसे तिल में तेल, अरणी में अग्नि या दूध में घृत रहता है और इस शरीर के नष्ट हो जाने के साथ ही वह नष्ट हो जाती है।
औपनिषदिक साहित्य में कठोपनिषद् की प्रथम वल्ली के अध्याय १ के २०वें श्लोक में नचिकेता भी यह रहस्य जानना चाहता
नित्य कूटस्थ आत्मवाद
वर्तमान दार्शनिक परम्पराओं में भी अनेक इस सिद्धान्त के समर्थक हैं कि आत्मा कूटस्थ ( निष्क्रिय) एवं नित्य है, सांख्य और वेदान्त भी इसके समर्थक हैं। जिन विचारकों ने आत्मा को कूटस्थ माना है, उन्होंने उसे नित्य भी माना है। अतः हमने भी अपने विवेचन हेतु नित्य आत्मवाद और कूटस्थ आत्मवाद दोनों को समन्वित रूप से एक ही साथ रखा है। महावीर के समकालीन कूटस्थ नित्य आत्मवाद के प्रतिनिधि पूर्णकश्यप थे।
पूर्णकश्यप के सिद्धान्तों का चित्रण बौद्ध साहित्य में इस प्रकार है- अगर कोई क्रिया करे, कराये, काटे, कटवाये, कष्ट दे या दिलाये― चोरी करे- प्राणियों को मार डाले - परदार गमन करे या असत्य बोले तो भी उसे पाप नहीं तीक्ष्ण धार वाले चक्र से यदि कोई इस संसार के प्राणियों के माँस का ढेर लगा दे तो भी उसे कोई पाप नहीं है, दोष नहीं है— दान, धर्म और सत्य भाषण से कोई पुण्य - प्राप्ति नहीं होती।
इस धारणा को देखकर सहज ही शंका होती है कि इस प्रकार का उपदेश देने वाला कोई यशस्वी, लोकसम्मानित व्यक्ति नहीं हो सकता, वरन् कोई धूर्त होगा। लेकिन पूर्णकश्यप एक लोकपूजित शास्ता थे, अतः यह निश्चित है कि ऐसा अनैतिक दृष्टिकोण उनका नहीं हो सकता, यह उनके आत्मवाद का नैतिक फलित होगा जो एक
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महावीरकालीन विभिन्न आत्मवाद एवं जैन आत्मवाद का वैशिष्ट्य
११५ विरोधी दृष्टिकोण वाले लोगों द्वारा प्रस्तुत किया गया है। फिर भी इसमें निष्क्रिय आत्मविकासवाद एवं नियतिवाद इतनी सत्यता अवश्य होगी कि पूर्णकश्यप आत्मा को अक्रिय मानते
आत्म-अक्रियतावाद या कूटस्थ-आत्मवाद की एक धारा थे, वस्तुत: उनकी आत्म-अक्रियता की धारणा का उपर्युक्त निष्कर्ष नियतिवाद थी। यदि आत्मा अक्रिय है एवं कूटस्थ है तो पुरुषार्थवाद के निकालकर उनके विरोधियों ने उनके मत को विकृत रूप में प्रस्तुत द्वारा आत्मविकास एवं निर्वाण-प्राप्ति की धारणा को नहीं समझाया जा किया है।
सकता था। ऐसा प्रतीत होता है कि पूर्णकश्यप के इस आत्म-अक्रियवाद मक्खलीपुत्र गोशालक जो आजीवक सम्प्रदाय का प्रमुख को उसके पश्चात् कपिल के सांख्य दर्शन और भगवद्गीता में भी था- पूर्णकश्यप की आत्म-अक्रियतावाद की धारणा का तो समर्थक अपना लिया गया था। कपिल और भगवद्गीता का काल लगभग था लेकिन अक्रिय-आत्मवाद के कारण एवं आत्म-विकास की परम्परा ४०० ई.पू. माना जाता है और इस आधार पर यह माना जा सकता है को व्यक्त करने में असमर्थ था। अत: निम्न योनि से आत्म-विकास की कि ये पूर्णकश्यप के आत्म-अक्रियवाद से अवश्य प्रभावित हुए होंगे। उच्चतम स्थिति निर्वाण को प्राप्त करने के लिये उसने निष्क्रिय आत्मकपिल के दर्शन में आत्म-अक्रियवाद के साथ ही ईश्वर का अभाव विकासवाद के सिद्धान्त को स्थापित किया। सामान्यतया उसके सिद्धान्त इस बात का सबल प्रमाण है कि वह किसी अवैदिक श्रमण परम्परा के को नियतिवाद किंवा भाग्यवाद कहा गया है, लेकिन मेरी दृष्टि में उसके दर्शन से प्रभावित था और वह दर्शन पूर्ण कश्यप का आत्म अक्रियवाद सिद्धान्त को निष्क्रिय आत्म-विकासवाद कहा जाना अधिक समुचित का दर्शन ही होगा, क्योंकि उसमें भी ईश्वर के लिये कोई स्थान नहीं है। था। सांख्य दर्शन भी आत्मा को त्रिगुणयुक्त प्रकृति से भिन्न मानता है ऐसा प्रतीत होता है गौशालक उस युग का प्रबुद्ध व्यक्ति और मारना, मरवाना आदि सभी को प्रकृति का परिणाम मानता है। था, उसने अपने आजीवक सम्प्रदाय में पूर्णकश्यप के सम्प्रदाय को भी आत्मा सबसे प्रभावित नहीं होती है। वह यह भी नहीं मानता है कि शामिल कर लिया था। प्रारम्भ में उसने भगवान् महावीर के साथ अपनी आत्मा को नष्ट किया जा सकता है। आत्मा बन्धन में नहीं आता, वरन् साधना-पद्धति को प्रारम्भ किया था लेकिन उनसे वैचारिक मतभेद होने प्रकृति ही प्रकृति को बाँधती है। अत: शुभाशुभ कार्यों का प्रभाव भी पर उसने पूर्णकश्यप के सम्प्रदाय से मिलकर आजीवक सम्प्रदाय आत्मा पर नहीं पड़ता। इस प्रकार पूर्णकश्यप का दर्शन कपिल के स्थापित कर लिया होगा, जिसका दर्शन एवं सिद्धान्त पूर्ण कश्यप की दर्शन का पूर्ववर्ती था। इसी प्रकार गीता में भी पूर्ण कश्यप के इस धारणाओं से प्रभावित थे तो साधना मार्ग का बाह्य स्वरूप महावीर की आत्म-अक्रियबाद की प्रतिध्वनि यत्र-तत्र सुनाई देती है, जो सांख्य साधना-पद्धति से प्रभावित था। दर्शन के माध्यम से उस तक पहुंची थी। स्थानाभाव से हम यहाँ उन बौद्ध आगम एवं जैनागम दोनों में ही उसकी विचारणा का सब प्रमाणों को प्रस्तुत करने में असमर्थ हैं। पाठकगण उल्लिखित कुछ स्वरूप प्राप्त होता है। यद्यपि उसका प्रस्तुतीकरण एक विरोधी पक्ष स्थानों पर उन्हें देख सकते हैं।
के द्वारा हुआ है, यह तथ्य ध्यान में रखना होगा। उपर्युक्त संदर्भो के आधार पर बौद्ध आगम में प्रस्तुत पूर्ण गोशालक की विचारणा का स्वरूप पालि आगम में निम्नानुसार कश्यप के दृष्टिकोण को एक सही दृष्टिकोण से समझा जा सकता है। हैफिर भी इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि उपर्युक्त आत्म
हेतु के बिना- प्राणी अपवित्र होता है, हेत के बिनाअक्रियवाद की धारणा नैतिक सिद्धान्तों के स्थापन में तार्किक दृष्टि से प्राणी शुद्ध होते हैं- पुरुष की सामर्थ्य से कुछ नहीं होता- सर्व उपयुक्त नहीं ठहरती है।
सत्व सर्व प्राणी, सर्वभूत, सर्वजीव, अवश, दुर्बल, निवीर्य हैं, वे यदि आत्मा अक्रिय है, वह किसी क्रिया का कर्ता नहीं है तो नियति (भाग्य), संगति एवं स्वभाव के कारण परिणित होते हैंफिर वह शुभाशुभ कार्यों का उत्तरदायी भी नहीं माना जा सकता है। इसके आगे उसकी नैतिकता की धारणा को पूर्वोक्त प्रकार स्वयं प्रकृति भी चेतना एवं शुभाशुभ के विवेक के अभाव में उत्तरदायी से भ्रष्ट रूप में उपस्थित किया गया है, जो विश्वसनीय नहीं मानी जा नहीं बनती। इस प्रकार आत्म-अक्रियवाद के सिद्धान्त में उत्तरदायित्व सकती। की धारणा को अधिष्ठित नहीं किया जा सकता और उत्तरदायित्व के उपर्युक्त आधार पर उसकी धारणा का सार यही है कि अभाव में नैतिकता, कर्तव्य, धर्म आदि का मूल्य शून्यवत् हो जाता है। आत्मा निष्क्रिय है, अवीर्य है, इसका विकास स्वभावत: होता रहता है।
- इस प्रकार आत्म-अक्रियतावाद सामान्य बुद्धि की दृष्टि से विभिन्न योनियों में होता हुआ यह जीवात्मा अपना विकास करता है एवं नैतिक नियमों के स्थापन की दृष्टि से अनुपयोगी ठहरता है, फिर और निर्वाण या मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। भी दार्शनिक दृष्टि से इसका कुछ मूल्य है क्योंकि स्वभावतया आत्मा
लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि नैतिक दृष्टि से वह व्यक्ति को अक्रिय माने बिना मोक्ष एवं निर्वाण की व्याख्या सम्भव नहीं थी। को अपनी स्थिति के अनुसार कर्तव्य करने का उपदेश देता था, यही कारण था कि आत्म-अक्रियतावाद या कूटस्थ-नित्य-आत्मवाद अन्यथा वह स्वयं भी नग्न रहना आदि देह-दण्डन को क्यों स्वीकार का प्रभाव दार्शनिक विचारणा पर बना रहा।
करता? जिस प्रकार बाद में गीता में अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
कर्तव्य करने का उपदेश दिया गया था। वर्तमान युग में ब्रेडले ने की दार्शनिक एवं नैतिक कमजोरियों को भी जानते रहे होंगे। अत: (Mystation and its duties) समाज में अपनी स्थिति के अनुसार उन्होंने अपने आत्मवाद को इनमें से किसी भी सिद्धान्त के साथ नहीं कर्तव्य करने के नैतिक सिद्धान्त को प्रतिपादित किया, उसी प्रकार वह बाँधा। उनका आत्मवाद इनमें से किसी भी एक वर्ग के अन्तर्गत नहीं छ: अभिजातियों (वर्गों) को उनकी स्थिति के अनुसार कर्त्तव्य करने आता, वरन् उनका आत्मवाद इन सबका एक सुन्दर समन्वय है। का उपदेश देता होगा और यह मानता होगा कि आत्मा अपनी
आचार्य हेमचन्द्र ने अपने वीतरागस्तोत्र में एकांत नित्य अभिजातियों के कर्तव्य का पालन करते हुए स्वत: विकास की क्रमिक आत्मवाद और एकान्त अनित्य आत्मवाद के दोषों का दिग्दर्शन कराते गति से आगे बढ़ता रहता है।
हुए बताया है कि वीतराग का दर्शन इन दोनों के दोषों से मुक्त है। पारमार्थिक दृष्टि से या तार्किक दृष्टि से नियतिवादी विचारणा विस्तारभय से यहाँ नित्य आत्मवाद और अनित्य आत्मवाद तथा का चाहे कुछ मूल्य रहा हो, लेकिन नैतिक विवेचना में नियतिवाद कूटस्थ आत्मवाद और परिणामी आत्मवाद के दोषों की विवेचना में न अधिक सफल नहीं हो पाया। नैतिक विवेचना में इच्छा-स्वातन्त्र्य पड़कर हमें केवल यही देखना है कि महावीर ने इन विभिन्न आत्मवादों (Free-will) की धारणा आवश्यक है, जबकि नियतिवाद में उसका का किस रूप से समन्वय किया हैकोई स्थान नहीं रहता है। फिर दार्शनिक दृष्टि से भी नियतिवादी तथा (१) नित्यता- आत्मा अपने अस्तित्व की दृष्टि से सदैव रहता है स्वत: विकासवादी धारणायें निर्दोष हों, ऐसी बात भी नहीं है। अर्थात् नित्य है। दूसरे शब्दों में आत्म तत्त्व रूप से नित्य है,
शाश्वत है। नित्यकूटस्थ-सूक्ष्म-आत्मवाद
(२) अनित्यता- आत्मा पर्याय की दृष्टि से अनित्य है। आत्मा के बुद्ध का समकालीन एक विचारक पकुधकच्चायन आत्मा को एक समय में जो पर्याय रहते हैं, वे दूसरे समय में नहीं रहते हैं। आत्मा नित्य और कूटस्थ (अक्रिय) मानने के साथ ही उसे सूक्ष्म मानता था। की अनित्यता व्यावहारिक दृष्टि से है, बद्धात्मा में पर्याय परिवर्तन के 'ब्रह्मजालसुत्त' के अनुसार उसका दृष्टिकोण इस प्रकार का था- कारण अनित्यत्व का गुण भी रहता है।
सात पदार्थ किसी के बने हुए नहीं हैं (नित्य हैं), वे तो (३) कूटस्थता- स्वलक्षण की दृष्टि से आत्मा कर्ता या भोक्ता अवध्य कूटस्थ- अचल हैं।- जो कोई तीक्ष्ण शस्त्र से किसी का अथवा परिणमनशील नहीं है। सिर काट डालता है, वह उसका प्राण नहीं लेता। बस इतना ही (४) परिणामीपन या कर्तृत्व- सभी बद्धात्माएँ कर्मों की कर्ता और समझना चाहिये कि सात पदार्थों के बीच अवकाश में उसका शस्त्र घुस भोक्ता हैं। यह एक आकस्मिक गुण है, जो कर्म पुद्गलों के संयोग से गया है।
उत्पन्न होता है। इस प्रकार इस धारणा के अनुसार आत्मा नित्य और कूटस्थ (५-६) सूक्ष्मता तथा विभुता- आत्मा संकोच एवं विकासशील है। तो थी ही साथ ही सूक्ष्म और अछेद्य भी थी। पकुधकच्चायन की इस आत्म-प्रदेश घनीभूत होकर इतने सूक्ष्म हो जाते हैं कि आगमिक दृष्टि धारणा के तत्त्व उपनिषदों तथा गीता में भी पाये जाते हैं। उपनिषदों से एक सूचिकाग्रभाग पर असंख्य आत्मा सशरीर निवास करती है। में आत्मा को जो, सरसों या चावल के दाने से सूक्ष्म माना गया है तथा तलवार की सूक्ष्म तीक्ष्ण धार भी सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों के शरीर तक गीता में उसे अछेद्य, अवध्य कहा गया है।
को नष्ट नहीं कर सकती। विभुता की दृष्टि से एक ही आत्मा के प्रदेश सूक्ष्म आत्मवाद की धारणा भी दार्शनिक दृष्टि से अनेक यदि प्रसारित हों तो समस्त लोक को व्याप्त कर सकते हैं। दोषों से पूर्ण है। अत: बाद में इस धारणा में काफी परिष्कार हुआ है। इस प्रकार हम देखते हैं कि महावीर का आत्मवाद तत्कालीन
विभिन्न आत्मवादों का सुन्दर समन्वय है। यही नहीं वरन् वह समन्वय महावीर का आत्मवाद
इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है कि सभी प्रकार की आत्मवादी धारायें यदि उपर्युक्त आत्मवादों का तार्किक वर्गीकरण किया जाये अपने-अपने दोषों से मुक्त हो-होकर यहाँ आकर मिल जाती हैं। तो हम उनके छ: वर्ग बना सकते हैं
हेमचन्द्र इस समन्वय की औचित्यता को एक सुन्दर उदाहरण (१) अनित्य आत्मवाद या उच्छेद आत्मवाद
द्वारा प्रस्तुत करते हैं(२) नित्य आत्मवाद या शाश्वत आत्मवाद
गुडो हि कफ हेतुःस्यात् नागरं पित्तकारणम । (३) कूटस्थ आत्मवाद या निष्क्रिय आत्मवाद एवं नियतिवाद
ब्दयात्मनि न दोषोस्ति गुडनागरभेषजे ।। (४) परिणामी आत्मवाद या कर्ता आत्मवाद या पुरुषार्थवाद'
जिस प्रकार गुड़ कफ जनक और सोंठ पित्त जनक है लेकिन (५) सूक्ष्म आत्मवाद
दोनों के समन्वय में यह दोष नहीं रहते।। (६) विभु आत्मवाद (यही बाद में उपनिषदों का सर्वात्मवाद या इसी प्रकार विभिन्न आत्मवाद पृथक्-पृथक् रूप से नैतिक ब्रह्मवाद बना है)
अथवा दार्शनिक दोषों से ग्रस्त है, लेकिन महावीर द्वारा किये गये इस महावीर अनेकान्तवादी थे, साथ ही वे इन विभिन्न आत्मवादों समन्वय में वे सभी अपने-अपने दोषों से मुक्त हो जाते हैं। यही
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जैन दर्शन में आत्मा : स्वरूप एवं विश्लेषण
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महावीर के आत्मवाद की औचित्यता है। यही उनका वैशियष्टय है।
सन्दर्भ
१. मज्झिमनिकाय, २/३/७ २. संयुक्तनिकाय, ३/१/१ ३. (अ) सूत्रकृतांग, प्रथम अध्ययन, (ब) भगवती १/९/५, शतक
१५ (स) उत्तराध्ययन १४/१८ ये प्राचीनतम माने जाने वाले उपनिषद् महावीर के समकालीन या उनसे कुछ परवर्ती ही हैं, क्योंकि महावीर के समकालीन "अजातशत्रु" का नाम निर्देश इनमें उपलब्ध है। बृहदा.२/
१५-१७ ५. गीता ३/२७/, २/२१, ८/१७ ६. अंगुत्तरनिकाय का छक्क निपातसुत्त तथा भगवान् बुद्ध, धर्मानन्द
कौशम्बी, पृ. १८
७. गोशालक की छ: अभिजातियाँ व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास
की भूमिकाएं हैं - १. कृष्ण, २. नील, ३. लोहित, ४. हरित, ५. शुक्ल, ६. परमशुक्ल, तुलनीय, जैनों का लेश्या-सिद्धान्त - (१) कृष्ण, (२) नील, (३) कपोत, (४) तेजो, (५) पद्य, (६) शुक्ल (विचारणीय तथ्य यह है कि गोशालक के अनुसार निर्ग्रन्थ साधु तीसरे लोहित नामक वर्ग में हैं जबकि जैन धारणा भी उसे
तेजोलेश्या (लोहित) वर्ग का साधक मानती है) ८. छान्दोग्य उपनिषद्, ३/१४/३
बृहदारण्यक उपनिषद्, ५/६/१
कठोपनिषद्, २/४/१२ ९. गीता, २/१८-२०.
जैन दर्शन में आत्मा : स्वरूप एवं विश्लेषण
आत्मा या जीव द्रव्य को अस्तिकाय वर्ग के अन्तर्गत रखा (२) जीव है या नहीं, यह सोचना मात्र ही किसी विचारशील जाता है। जीव द्रव्य का लक्षण उपयोग या चेतना को माना गया है। सत्ता अर्थात् जीव की सत्ता को सिद्ध कर देता है। देवदत्त जैसा सचेतन इसीलिए इसे चेतन द्रव्य भी कहा जाता है। उपयोग या चेतना के दो प्राणी ही यह सोच सकता है कि वह स्तम्भ है या पुरुषार प्रकारों की चर्चा आगमों में मिलती है-निराकार उपयोग और साकार (३) शरीर स्थित जो यह सोचता है कि 'मैं नहीं हूँ' वही तो उपयोग। इन दोनों को क्रमश: दर्शन और ज्ञान कहा जाता है। निराकार जीव है। जीव के अतिरिक्त संशयकर्ता अन्य कोई नहीं है। यदि आत्मा उपयोग, वस्तु के सामान्य स्वरूप का ग्रहण करने के कारण, दर्शन ही न हो तो ऐसी कल्पना का प्रादुर्भाव ही कैसे हो कि मैं हूँ या नहीं? कहा जाता है और साकार उपयोग, को वस्तु के विशिष्ट स्वरूप का जो निषेध कर रहा है वह स्वयं ही आत्मा है। संशय के लिए किसी ऐसे ग्रहण करने के कारण, ज्ञान कहा जाता है। जीव द्रव्य के सन्दर्भ में जैन तत्त्व के अस्तित्व की अनिवार्यता है जो उस विचार का आधार हो। दर्शन की विशेषता यह है कि वह जीव द्रव्य को एक अखण्ड द्रव्य न बिना अधिष्ठान के कोई विचार या चिन्तन सम्भव नहीं हो सकता। मानकर अनेक द्रव्य मानता है। उसके अनुसार प्रत्येक जीव की स्वतन्त्र संशय का अधिष्ठान कोई न कोई अवश्य होना चाहिए। महावीर गौतम सत्ता है और विश्व में जीवों की संख्या अनन्त है। इस प्रकार संक्षेप में से कहते हैं- हे गौतम! यदि कोई संशयकर्ता ही नहीं है तो 'मै हूँ' या जीव अस्तिकाय, चेतन, अरूपी और अनेक द्रव्य है।
__ 'नहीं हूँ' यह संशय कहाँ से उत्पन्न होता है? तुम स्वयं अपने ही विषय जीव को जैन दर्शन में आत्मा भी कहा गया है। अत: यहाँ में सन्देह कैसे कर सकते हो, फिर किसमें संशय न होगा? क्योंकि आत्मा के सम्बन्ध में कुछ मौलिक प्रश्नों पर विचार किया जा रहा है- संशय आदि जितनी भी मानसिक और बौद्धिक क्रियाएँ हैं, वे सब आत्मा का अस्तित्व
आत्मा के कारण ही हैं। जहाँ संशय होता है, वहाँ आत्मा का अस्तित्व जैन दर्शन में जीव या आत्मा को एक स्वतन्त्र तत्त्व या द्रव्य अवश्य स्वीकारना पड़ता है। वस्तुत: जो प्रत्यक्ष अनुभव से सिद्ध है, माना गया है। जहाँ तक हमारे आध्यात्मिक जीवन का प्रश्न है आत्मा उसे सिद्ध करने के लिए किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं। के अस्तित्व पर शंका करके आगे बढ़ना असम्भव है। जैन दर्शन में आत्मा स्वयंसिद्ध है, क्योंकि उसी के आधार पर संशयादि उत्पन्न होते आध्यात्मिक विकास की पहली शर्त आत्म-विश्वास है। विशेषावश्यकभाष्य हैं सुख-दुःखादि को सिद्ध करने के लिए भी किसी अन्य प्रमाण की के गणधरवाद में आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए निम्न आवश्यकता नहीं। ये सब आत्मपूर्वक ही हो सकते हैं। आचारांगसूत्र तर्क प्रस्तुत किये गये हैं
में कहा गया है कि जिसके द्वारा जाना जाता है, वही आत्मा है।४ । (१) जीव का अस्तित्व जीव शब्द से ही सिद्ध है, क्योंकि
आचार्य शंकर ब्रह्मसूत्र भाष्य में ऐसे ही तर्क देते हुए कहते असद् वस्तु की कोई सार्थक संज्ञा ही नहीं बनती।'
है कि जो निरसन कर रहा है वही तो उसका स्वरूप है।५ आत्मा के
हैं सुख-दुःख
सब आत्मपूर्वक
वही आत्मा है।'
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ अस्तित्व के लिए स्वत: बोध को आचार्य शंकर भी एक प्रबल तर्क के ही नहीं है, यदि विवाद है तो उसका सम्बन्ध आत्मा के विशेष स्वरूप रूप में स्वीकार करते हैं। वे कहते हैं कि सभी को आत्मा के अस्तित्व से है न कि उसके अस्तित्व से । स्वरूप की दृष्टि से कोई शरीर को ही में भरपूर विश्वास है, कोई भी ऐसा नहीं है जो यह सोचता हो कि 'मैं आत्मा मानता है, कोई बुद्धि को, कोई इन्द्रिय या मन को, और कोई नहीं हूँ।६ अन्यत्र शंकर स्पष्ट रूप से यह भी कहते हैं कि बोध से सत्ता विज्ञान-संघात को आत्मा समझता है। कुछ ऐसे भी व्यक्ति हैं जो इन को और सत्ता से बोध को पृथक् नहीं किया जा सकता। यदि हमें सबसे पृथक् स्वतन्त्र आत्म-तत्त्व के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं।१० आत्मा का स्वत: बोध होता है तो उसकी सत्ता निर्विवाद है। जैन दर्शन और गीता आत्मा को स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में स्वीकार करते
पाश्चात्य विचारक देकार्त ने भी इसी तर्क के आधार पर हैं। आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध किया है। वह कहता है कि सभी के आत्मा एक मौलिक तत्त्व अस्तित्व में सन्देह किया जा सकता है, परन्तु सन्देहकर्ता में सन्देह आत्मा एक मौलिक तत्त्व है अथवा अन्य किसी तत्त्व से करना तो सम्भव नहीं है, सन्देहकर्ता का अस्तित्व सन्देह से परे है। उत्पन्न हुआ है, यह प्रश्न भी महत्त्वपूर्ण है। सभी दर्शन यह मानते हैं कि सन्देह करना विचार करना है और विचारक के अभाव में विचार नहीं संसार आत्म और अनात्म का संयोग है, लेकिन इनमें मूल तत्त्व क्या हो सकता। मैं विचार करता हूँ, अत: 'मैं हूँ' इस प्रकार देकार्त के है? यह विवाद का विषय है। इस सम्बन्ध में चार प्रमुख धारणाएँ हैंअनुसार भी आत्मा का अस्तित्व स्वयंसिद्ध है।८
(१) मूल तत्त्व जड़ (अचेतन) है और उसी से चेतन की उत्पत्ति होती (४) आत्मा अमूर्त है, अत: उसको उस रूप में तो नहीं जान है। अजितकेशकम्बलिन्, चार्वाक दार्शनिक एवं भौतिकवादी इस मत सकते जैसे घट, पट आदि वस्तुओं का इन्द्रिय प्रत्यक्ष के रूप में ज्ञान का प्रतिपादन करते हैं (२) मूल तत्त्व चेतन है और उसी की अपेक्षा से होता है। लेकिन इतने मात्र से उनका निषेध नहीं किया जा सकता। जैन जड़ की सत्ता मानी जा सकती है। बौद्ध विज्ञानवाद, शांकर वेदान्त तथा आचार्यों ने इसके लिए गुण और गुणी का तर्क दिया है। घट आदि बर्कले इस मत का प्रतिपादन करते हैं। (३) कुछ विचारक ऐसे भी हैं जिन वस्तुओं को हम जानते हैं उनका भी यथार्थ बोध-प्रत्यक्ष नहीं हो जिन्होंने परम तत्त्व को एक मानते हुए भी उसे जड़-चेतन उभयरूप सकता- क्योंकि हमें जिनका बोध प्रत्यक्ष होता है, वह घट के रूपादि स्वीकार किया और दोनों को ही उसका पर्याय माना। गीता, रामानुज गुणों का प्रत्यक्ष हैं। लेकिन घट मात्र रूप नहीं है, वह तो अनेक गुणों और स्पिनोजा इस मत का प्रतिपादन करते हैं। (४) कुछ विचारक जड़ का समूह है जिन्हें हम नहीं जानते, रूप (आकार) तो उनमें से एक गुण और चेतन दोनों को ही परम तत्त्व मानते हैं और उनके स्वतंत्र अस्तित्व हैं जब रूपगुण के प्रत्यक्षीकरण को घट का प्रत्यक्षीकरण मान लेते हैं में विश्वास करते हैं। सांख्य, जैन और देकार्त इस धारणा में विश्वास
और हमें कोई संशय नहीं होता, तो फिर ज्ञानगुण से आत्मा का प्रत्यक्ष करते हैं। क्यों नहीं मान लेते।
जैन विचारक स्पष्ट रूप से कहते हैं कि कभी भी जड़ से आधुनिक वैज्ञानिक भी अनेक तत्त्वों का वास्तविक बोध चेतन की उत्पत्ति नहीं होती। सूत्रकृतांग की टीका में इस मान्यता का प्रत्यक्ष नहीं कर पाते हैं जैसे ईथर; फिर भी कार्यों के आधार पर उनका निराकरण किया गया है। शीलांकाचार्य लिखते हैं कि "भूत समुदाय अस्तित्व मानते हैं एवं स्वरूप-विवेचन भी करते हैं फिर आत्मा के स्वतन्त्रधर्मी है, उसका गुण चैतन्य नहीं है, क्योंकि पृथ्वी आदि भूतों चेतनात्मक कार्यों के आधार पर उसके अस्तित्व को क्यों न स्वीकार के अन्य पृथक्-पृथक् गुण हैं, अन्य गुणों वाले पदार्थों से या उनके किया जाये? वस्तुत: आत्मा या चेतना के अस्तित्व का प्रश्न महत्त्वपूर्ण समूह से भी किसी अपूर्व (नवीन) गुण की उत्पत्ति नहीं हो सकती, होते हुए भी विवाद का विषय नहीं है। भारतीय चिन्तकों में चार्वाक एवं जैसे रुक्ष बालुक कणों के समुदाय से स्निग्ध तेल की उत्पत्ति नहीं बौद्ध तथा पाश्चात्य चिन्तकों में ह्यूम, जेम्स आदि जो विचारक आत्मा होती। अत: चैतन्य आत्मा का ही गुण हो सकता है, भूतों का नहीं, का निषेध करते हैं, वस्तुत: उनका निषेध आत्मा के अस्तित्व का जड़ भूतों से चेतन आत्मा की उत्पत्ति नहीं हो सकती।"११ शरीर भी निषेध नहीं, वरन् उसकी नित्यता का निषेध है। वे आत्मा को एक ज्ञानादि चैतन्य गुणों का कारण नहीं हो सकता, क्योंकि शरीर भौतिक स्वतन्त्र या नित्य द्रव्य के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं, लेकिन चेतन तत्त्वों का कार्य है और भौतिक तत्त्व चेतनाशून्य हैं। जब भूतों में ही अवस्था या चेतना-प्रवाह के रूप में आत्मा का अस्तित्व तो उन्हें भी चैतन्य नहीं है तो उनके कार्य में चैतन्य कहाँ से आ जायेगा? प्रत्येक स्वीकार है। चार्वाक दर्शन भी यह नहीं कहता कि आत्मा का सर्वथा कार्य कारण में अव्यक्त रूप से रहा है। जब वह कारण कार्यरूप में अभाव है, उसका निषेध मात्र आत्मा को स्वतन्त्र या मौलिक तत्त्व . परिणत होता है, तब वह शक्ति रूप से रहा हुआ कार्य व्यक्त रूप में मानने से है। बुद्ध अनात्मवाद की प्रतिस्थापना में आत्मा (चेतना) का सामने आ जाता है। जब भौतिक तत्त्वों में चेतना नहीं है, तब यह कैसे निषेध नहीं करते, वरन् उसकी नित्यता का निषेध करते हैं। ह्यूम भी सम्भव है कि शरीर चैतन्य गुण वाला हो जाय? यदि चेतना प्रत्येक अनुभूति से भिन्न किसी स्वतन्त्र आत्म-तत्त्व का ही निषेध करते हैं। भौतिक तत्त्व में नहीं है तो उन तत्त्वों के संयोग से भी वह उत्पन्न नहीं उद्योतकर का 'न्यायवार्तिक' में यह कहना समुचित जान पड़ता है कि हो सकती। रेणु की प्रत्येक कण में न रहने वाला तेल रेणु कणों के आत्मा के अस्तित्व के विषय में दार्शनिकों में सामान्यत: कोई विवाद संयोग से उत्पन्न नहीं हो सकता। अत: यह कहना युक्ति-संगत नहीं है
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जैन दर्शन में आत्मा : स्वरूप एवं विश्लेषण
११९ कि चैतन्य महाभूतों के विशिष्ट संयोग से उत्पन्न होता है।१२ गीता भी पुद्गल ही होता है। जैन विचारणा में ज्ञान की उत्पत्ति पदार्थों के आत्मा कहती है कि असत् का प्रादुर्भाव नहीं होता और सत् का विनाश नहीं में प्रतिबिम्बित होने से ही मानी गयी है। होता है।१३ यदि चैतन्य भूतों में नहीं है तो वह उनके संयोग से निर्मित (३) अपौद्गलिक और अमूर्तिक आत्मा पौद्गलिक एवं मूर्तिक शरीर में भी नहीं हो सकता। शरीर में चैतन्य की उपलब्धि होती है। कर्मों के साथ बद्ध होकर विकारी होना कैसे सम्भव हो सकता है? (इस अत: उसका आधार शरीर नहीं, आत्मा है। आत्मा की जड़ से भिन्नता प्रकार के बन्ध का कोई दृष्टान्त भी उपलब्ध नहीं है) स्वर्ण और पाषाण सिद्ध करने के लिए शीलांकाचार्य एक दूसरी युक्ति प्रस्तुत करते हुए के अनादिबन्ध का जो दृष्टान्त दिया जाता है, वह विषम दृष्टान्त है और कहते हैं कि “पाँचों इन्द्रियों के विषय अलग-अलग हैं, प्रत्येक इन्द्रिय एक प्रकार से स्वर्णस्थानी जीव का पौद्गलिक होना ही सूचित करता है। अपने विषय का ही ज्ञान करती है, जबकि पाँचों इन्द्रियों के विषयों का (४) रागादिक को पौद्गलिक कहा गया है और रागादिक जीव एकत्रीभूत रूप में ज्ञान करने वाला अन्य कोई अवश्य है और वह के परिणाम हैं- बिना जीव के उनका अस्तित्व नहीं। (यदि जीव आत्मा है।"१४
पौद्गलिक नहीं है, तो भाव रागादि पौद्गलिक कैसे सिद्ध हो सकेंगे?) इसी सम्बन्ध में आचार्य शंकर की भी एक युक्ति है, जिसके इसके सिवाय अपौद्गलिक जीवात्मा में कृष्ण, नीलादि लेश्याएँ कैसे सम्बन्ध में प्रो० ए०सी० मुखर्जी ने अपनी पुस्तक 'नेचर ऑफ सेल्फ' बन सकती हैं? में काफी प्रकाश डाला है। शंकर पूछते हैं कि भौतिकवादियों के जैन दर्शन जड़ और चेतन के द्वैत को और उनकी स्वतन्त्र अनुसार भूतों से उत्पन्न होने वाली उस चेतना का स्वरूप क्या है? सत्ता को स्वीकार करता है। वह सभी प्रकार के अद्वैतवाद का विरोध उनके अनुसार या तो चेतना उन तत्त्वों की प्रत्यक्षकर्ता होगी या उनका करता है, चाहे वह शंकर का आध्यात्मिक अद्वैतवाद हो अथवा चार्वाक ही एक गुण होगी। प्रथम स्थिति में यदि चेतना गुणों की प्रत्यक्षकर्ता एवं अन्य वैज्ञानिकों का भौतिकवाद हो। लेकिन इस सैद्धान्तिक मान्यता होगी, तो वह उनसे प्रत्युत्पन्न नहीं होगी। दूसरे यह कहना भी हास्यास्पद से उपर्युक्त शंकाओं का समाधान नहीं होता। इसके लिए हमें जीव के होगा कि भौतिक गुण अपने ही को ज्ञान विषय-वस्तु बनाते हैं। यह स्वरूप को उस सन्दर्भ में देखना होगा जिसमें उपर्युक्त शंकाएँ प्रस्तुत मानना कि चेतना जो भैतिक पदार्थों का ही एक गुण है, उनसे ही की गयी हैं। प्रथमत: संकोच-विस्तार तथा उसके आधार पर होने वाले प्रत्युत्पन्न है और उन भौतिक पदार्थों को ही अपने ज्ञान का विषय सौक्ष्म्य एवं स्थौल्य तथा बन्धन और रागादिभाव का होना सभी बद्ध बनाती है, उतना ही हास्यास्पद है जितना यह मानना कि आग अपने जीवात्माओं या हमारे वर्तमान सीमित व्यक्तित्व के कारण हैं। जहाँ तक को ही जलाती है अथवा नट अपने ही कंधों पर चढ़ सकता है। इस सीमित व्यक्तित्व या बद्ध जीवात्मा का प्रश्न है, वह एकान्त रूप से न प्रकार शंकर का भी निष्कर्ष यही है कि चेतन (आत्मा) भौतिक तत्त्वों तो भौतिक है और न अभौतिक। जैन चिन्तक मुनि नथमल जी इन्हीं से व्यतिरिक्त और ज्ञानस्वरूप है।
प्रश्नों का समाधान करते हुए लिखते है कि "मेरी मान्यता यह है कि
हमारा वर्तमान व्यक्तित्व न सर्वथा पौद्गलिक है और न सर्वथा अपौगलिक। आक्षेप एवं निराकरण
यदि उसे सर्वथा पौद्गलिक मानें तो उसमें चैतन्य नहीं हो सकता और सामान्य रूप से जैन विचारणा में आत्मा या जीव को उसे सर्वथा अपौद्गलिक मानें तो उसमें संकोच-विस्तार, प्रकाशमय, अपौद्गलिक, विशुद्ध चैतन्य एवं जड़ से भिन्न स्वतन्त्र तत्त्व या द्रव्य अनुभव, ऊर्ध्वगामीधर्मिता, रागादि नहीं हो सकते। मैं जहाँ तक समझ माना जाता है। लेकिन अन्य दार्शनिकों का आक्षेप है कि जैन दर्शन के सकता हूँ, कोई भी शरीरधारी जीव अपौद्गलिक नहीं है। जैन आचार्यों विचार में जीव का स्वरूप बहुत कुछ पौद्गलिक बन गया है। यह आक्षेप ने उसमें संकोच-विस्तार, बन्धन आदि माने हैं, अपौद्गलिकता उसकी अजैन दार्शनिकों का ही नहीं, अनेक जैन चिन्तकों का भी है और अन्तिम परिणति है जो शरीर-मुक्ति से पहले कभी प्राप्त नहीं होती।"१७ उनके लिए आगमिक आधारों पर कुछ तर्क भी प्रस्तुत किये गये हैं। मुनि जी के इस कथन को अधिक स्पष्ट रूप में यों कहा जा सकता है पं० जुगलकिशोर मुख्तार ने इस विषय में एक प्रश्नावली भी प्रस्तुत कि जीव के अपौद्गलिक स्वरूप उसकी उपलब्धि नहीं, आदर्श हैं। जैन की थी।२६ यहाँ उस प्रश्नावली के कुछ प्रमुख मुद्दों पर ही चर्चा करना दर्शन का लक्ष्य इसी अपौगलिक स्वरूप की उपलब्धि है। जीव की अपेक्षित है, जो जीव सम्बन्धी जैन दार्शनिक मान्यताओं में ही पारस्परिक अपौद्गलिकता आदर्श है, जागतिक तथ्य नहीं, जबकि ये सभी बातें अन्तर्विरोध प्रकट करते हैं
बद्धजीवों में ही पायी जाती हैं। (१) जीव यदि पौद्गलिक नहीं है तो उसमें सौक्ष्म्य-स्थौल्य अथवा संकोच-विस्तार क्रिया और प्रदेश परिस्पन्द कैसे बन सकता है? आत्मा और शरीर में सम्बन्ध जैन विचारणा के अनुसार तो सौक्ष्य-स्थौल्य को पुद्गल की पर्याय माना महावीर के सम्मुख जब यह प्रश्न उपस्थित किया गया कि गया है।
___ "भगवान्-जीव वही है जो शरीर है या जीव भिन्न है और शरीर भिन्न (२) जीव के अपौद्गलिक होने पर आत्मा में पदार्थों का है?" महावीर ने उत्तर दिया- “हे गौतम! जीव शरीर भी है और शरीर प्रतिबिम्बित होना भी कैसे बन सकता है? क्योंकि प्रतिबिम्ब का ग्राहक से भिन्न भी है।"१८ इस प्रकार महावीर ने आत्मा और देह के मध्य
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ भिन्नत्व और एकत्व दोनों को स्वीकार किया। आचार्य कुन्दकुन्द ने १. व्यावहारिक दृष्टि से शरीयुक्त बद्धात्मा भोक्ता है। "
आत्मा और शरीर के एकत्व और भिन्नत्व को लेकर यही विचार प्रकट २. अशुद्धनिश्चयनय या पर्याय दृष्टि से आत्मा अपनी मानसिक किये हैं। आचार्य कुन्दकुन्द का कथन है कि व्यावहारिक दृष्टि से आत्मा अनुभूतियों या मनोभावों का वेदक है।
और देह एक ही है, लेकिन निश्चय दृष्टि से आत्मा और देह कदापि एक ३. परमार्थ दृष्टि से आत्मा भोक्ता और वेदक नहीं, मात्र द्रष्टा नहीं हो सकते।१९ वस्तुत: आत्मा और शरीर में एकत्व माने बिना या साक्षीस्वरूप है।२४ स्तुति, वन्दन, सेवा आदि अनेक नैतिक आचरण की क्रियाएँ सम्भव
आत्मा का भोक्तृत्व कर्म और प्रतिफल के संयोग के लिए नहीं हो सकतीं। दूसरी ओर आत्मा और देह में भिन्नता माने बिना आवश्यक है। जो कर्ता है, वह अनिवार्य रूप से उनके फलों का भोक्ता आसक्तिनाश और भेदविज्ञान की सम्भावना नहीं हो सकती। नैतिक भी है, अन्यथा कर्म और उसके फलभोग में अनिवार्य सम्बन्ध सिद्ध और धार्मिक साधना की दृष्टि से आत्मा का शरीर से एकत्व और नहीं हो सकेगा, ऐसी स्थिति में धर्म एवं नैतिकता का कोई अर्थ ही अनेकत्व दोनों अपेक्षित हैं। यही जैन नैतिकता की मान्यता है। महावीर नहीं रह जायेगा। अत: यह मानना होगा कि आत्मा भोक्ता है, लेकिन ने ऐकान्तिक वादों को छोड़कर अनैकन्तिक-दृष्टि को स्वीकार किया आत्मा का भोक्ता होना बद्धात्मा या शरीर के लिए ही समुचित है।
और दोनों वादों का समन्वय किया। उन्होंने कहा कि आत्मा और शरीर अमुक्तात्मा भोक्ता नहीं है, वह तो मात्र साक्षीस्वरूप या द्रष्टा होता है। कथंचित् भिन्न हैं और कथंचित् अभिन्न हैं।
आत्मा स्वदेह परिमाण है आत्मा परिणामी है
यद्यपि जैन विचारणा में आत्माओं को रूप, रस, गन्ध, वर्ण, जैन दर्शन आत्मा को परिणामी मानता है, जबकि सांख्य एवं स्पर्श आदि से विवर्जित कहा गया है, तथापि आत्मा को शरीराकार शांकर वेदान्त आत्मा को अपरिणामी (कूटस्थ) मानते हैं। बुद्ध के स्वीकार किया गया है। आत्मा के आकार के सम्बन्ध में प्रमुख रूप से समकालीन विचारक पूर्णकाश्यप भी आत्मा को अपरिणामी मानते थे। दो दृष्टियाँ हैं-एक के अनुसार आत्मा विभु (सर्वव्यापी) है, दूसरी के आत्मा को अपरिणामी (कूटस्थ) मानने का तात्पर्य यह है कि आत्मा में अनुसार अणु है। सांख्य, न्याय और अद्वैत वेदान्त आत्मा को विभु कोई विकार, परिवर्तन या स्थित्यन्तर नहीं होता।
मानते हैं और रामानुज अणु मानते हैं। जैन दर्शन इस सम्बन्ध में जैन आचार सम्बन्धी ग्रन्थों में यह वचन बहुतायत से उपलब्ध मध्यस्थ दृष्टि अपनाता है। उसके अनुसार आत्मा अणु भी है और विभु होते हैं कि आत्मा कर्ता है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि आत्मा भी है। वह सूक्ष्म है तो इतना है कि एक आकाश प्रदेश के अनन्तवें ही सुखों और दुःखों का कर्ता और भोक्ता है।२० यह भी कहा गया है भाग में समा सकता है और विभु है तो इतना है कि समग्र लोक को कि सिर काटने वाला शत्रु भी उतना अपकार नहीं करता जितना व्याप्त कर सकता है।२५ जैन दर्शन आत्मा में संकोच विस्तार को दुराचरण में प्रवृत्त अपनी आत्मा करती है।२१
स्वीकार करता है और इस आधार पर आत्मा को स्वदेह-परिमाण यही नहीं, सूत्रकृतांग में आत्मा को अकर्ता मानने वाले लोगों मानता है। जैसे दीपक का प्रकाश छोटे कमरे में रहने पर छोटे कमरे को की आलोचना करते हुए स्पष्ट रूप में कहा गया है-“कुछ दूसरे (लोग) और बड़े कमरे में रहने पर बड़े कमरे को प्रकाशित करता है वैसे ही तो धृष्टतापूर्वक कहते हैं कि करना, कराना आदि क्रिया आत्मा नहीं आत्मा भी जिस देह में रहता है उसे चैतन्याभिभूत कर देता है, किन्तु करता, वह तो अकर्ता है। इन वादियों को सत्य ज्ञान का पता नहीं और यह बात केवल संसारी आत्मा के सम्बन्ध में है। मुक्तात्मा का आकार न उन्हें धर्म का ही भान है।२२ उत्तराध्ययनसूत्र में शरीर को नाव और अपने त्यक्त देह का दो तिहाई होता है। जीव को नाविक कहकर जीव पर नैतिक कर्मों का उत्तरदायित्व डाला गया है।२३
आत्मा के विभुत्व की समीक्षा
१. यदि आत्मा विभु (सर्वव्यापक) है तो वह दूसरे शरीरों में आत्मा भोक्ता है
भी होगा, फिर उन शरीरों के कर्मों के लिए उत्तरदायी होगा। यदि यह यदि आत्मा को कर्ता मानना आवश्यक है तो उसे भोक्ता भी माना जाये कि आत्मा दूसरे शरीरों में नहीं है, तो फिर वह सर्वव्यापक मानना पड़ेगा। क्योंकि जो कर्मों का कर्ता है उसे ही उनके फलों का नहीं होगा। भोग भी करना चाहिए। जैसे आत्मा का कर्तृत्व कर्मपुद्गलों के निमित्त से २. यदि आत्मा विभु है तो दूसरे शरीरों में होने वाले सुखसम्भव है, वैसे ही आत्मा का भोक्तृत्व भी कर्मपुद्गलों के निमित्त से ही दुःख के भोग से कैसे बच सकेगा? सम्भव है। कर्तृत्व और भोक्तृत्व दोनों ही शरीरयुक्त बद्धात्मा में पाये ३. विभु आत्मा के सिद्धान्त में कौन आत्मा किस शरीर जाते हैं, मुक्तात्मा या शुद्धात्मा में नहीं। भोक्तृत्व वेदनीय कर्म के कारण का नियामक है, यह बताना कठिन है। वस्तुत: नैतिक और धार्मिक ही सम्भव है। जैन दर्शन आत्मा का भोक्तृत्व भी सापेक्ष दृष्टि से जीवन के लिए प्रत्येक शरीर में एक आत्मा का सिद्धान्त ही संगत शरीरयुक्त बद्धात्मा में स्वीकार करता है।
हो सकता है, ताकि उस शरीर के कर्मों के आधार पर उसे उत्तरदायी
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जैन दर्शन में आत्मा स्वरूप एवं विश्लेषण
ठहराया जा सके।
४. आत्मा की सर्वव्यापकता का सिद्धान्त अनेकात्मवाद के साथ कथमपि संगत नहीं हो सकता। साथ ही अनेकात्मवाद के अभाव में नैतिक जीवन की सुसंगत व्याख्या भी सम्भव नहीं।
आत्माएँ अनेक हैं
आत्मा एक है या अनेक यह दार्शनिक दृष्टि से विवाद का विषय रहा है। जैन दर्शन के अनुसार आत्माएँ अनेक हैं और प्रत्येक शरीर की आत्मा भिन्न है। यदि आत्मा को एक माना जाता है तो नैतिक दृष्टि से निम्न अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं
एकात्मवाद की समीक्षा
१. आत्मा को एक मानने पर सभी जीवों की मुक्ति और बन्धन एक साथ होंगे। इतना ही नहीं सभी शरीरधारियों के नैतिक विकास एवं पतन की विभिन्न अवस्थाएँ भी युगपद् होंगी। लेकिन ऐसा तो दिखता नहीं। सब प्राणियों का आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास का स्तर अलग-अलग है। यह भी माना जाता है कि अनेक व्यक्ति मुक्त हो चुके हैं और अनेक अभी बंधन में हैं। अतः आत्माएँ एक नहीं, अनेक है।
२. आत्मा को एक मानने पर वैयक्तिक नैतिक प्रयासों का मूल्य समाप्त हो जायेगा। यदि आत्मा एक ही है तो व्यक्तिगत प्रयासों एवं क्रियाओं से न तो उसकी मुक्ति सम्भव होगी न वह बन्धन में ही आयेगा ।
३. आत्मा के एक मानने पर नैतिक उत्तरदायित्व तथा तज्जनित पुरस्कार और दण्ड की व्यवस्था का भी कोई अर्थ नहीं रह जायेगा। सारांश में आत्मा को एक मानने पर वैयक्तिकता समाप्त हो जाती है और वैयक्तिकता के अभाव में नैतिक विकास, नैतिक उत्तरदायित्व और पुरुषार्थ आदि नैतिक प्रत्ययों का कोई अर्थ नहीं रह जाता । इसीलिये विशेषावश्यकभाष्य में कहा गया है कि सुख-दुःख जन्ममरण, बन्धन- मुक्ति आदि के सन्तोषप्रद समाधान के लिए अनेक आत्माओं की स्वतन्त्र सत्ता मानना आवश्यक है। २६ सांख्यकारिका में भी जन्म-मरण, इन्द्रियों की विभिन्नता, प्रत्येक की अलग-अलग प्रवृत्ति और स्वभाव तथा नैतिक विकास की विभिन्नता के आधार पर आत्मा की अनेकता सिद्ध की गयी है। २७
अनेकात्मवाद की नैतिक कठिनाई
अनेकात्मवाद नैतिक जीवन के लिए वैयक्तिकता का प्रत्यय तो प्रस्तुत कर देता है, तथापि अनेक आत्माएँ मानने पर भी कुछ नैतिक कठिनाइयाँ उत्पन्न हो जाती हैं। इन नैतिक कठिनाइयों में प्रमुखतम यह है कि नैतिकता का समग्र प्रयास जिस अहं के विसर्जन के लिए है उसी अहं (वैयक्तिकता) को ही यह आधारभूत बना देता है। अनेकात्मवाद में वैयक्तिकता कभी भी पूर्णतया विसर्जित नहीं हो
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सकती। इसी वैयक्तिकता से राग और आसक्ति का जन्म होता है, जो तृष्णा का ही एक रूप है, 'मैं' भी बन्धन ही है।
जैन दर्शन का निष्कर्ष
जैन दर्शन ने इस समस्या का भी अनेकान्तदृष्टि से सुन्दर हल प्रस्तुत किया है उसके अनुसार आत्मा एक भी है और अनेक भी। समवायांग और स्थानांगसूत्र में कहा गया है कि आत्मा एक है । २८ अन्यत्र उसे अनेक भी कहा गया है । २९ टीकाकारों ने इसका समाधान इस प्रकार किया कि आत्मा द्रव्यापेक्षा से एक है और पर्यायापेक्षा से अनेक, जैसे सिन्धु का जल न एक है और न अनेक वह जल राशि की दृष्टि से एक है और जल-बिन्दुओं की दृष्टि से अनेक भी। समस्त जल-बिन्दु अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हुए उस जल राशि से अभिन्न ही हैं। उसी प्रकार अनन्त चेतन आत्माएँ अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखते हुए भी अपनी चेतना स्वभाव के कारण एक चेतन आत्मद्रव्य ही हैं। ३०
भगवान् महावीर ने इस प्रश्न का समाधान बड़े सुन्दर ढंग से टीकाकारों के पहले ही कर दिया था। वे सोमिल नामक ब्राह्मण को अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करते हुए कहते हैं- "हे सोमिल द्रव्यदृष्टि से मैं एक हूँ, ज्ञान और दर्शन रूप दो पर्यायों की प्रधानता से मैं दो हूँ। कभी न्यूनाधिक नहीं होने वाले आत्म-प्रदेशों की दृष्टि से मैं अक्षय हूँ, अव्यय हूँ, अवस्थित हूँ। तीनों कालों में बदलते रहने वाले उपयोग स्वभाव की दृष्टि से मैं अनेक हूँ। ३१
इस प्रकार भगवान महावीर जहाँ एक ओर द्रव्यदृष्टि (Substantial view) से आत्मा के एकत्व का प्रतिपादन करते हैं, वहीं दूसरी ओर पर्यायार्थिक दृष्टि से एक ही जीवात्मा में चेतन पर्यायों के प्रवाह के रूप से अनेक व्यक्तियों की संकल्पना को भी स्वीकार कर शंकर के अद्वैतवाद और बौद्धों के क्षणिक आत्मवाद की खाई को पाटने की कोशिश करते हैं।
जैन विचारक आत्माओं में गुणात्मक अन्तर नहीं मानते हैं। लेकिन विचार की दिशा में केवल सामान्य दृष्टि से काम नहीं चलता, विशेष दृष्टि का भी अपना स्थान है। सामान्य और विशेष के रूप में विचार की दो दृष्टियाँ हैं और दोनों का अपना महत्व है। महासागर की जल राशि सामान्य दृष्टि से एक है, लेकन विशेष दृष्टि से नहीं, जलराशि अनेक जल-बिन्दुओं का समूह प्रतीत होती है। यही बात आत्मा के विषय में है। चेतना पर्यायों की विशेष दृष्टि से आत्मा अनेक हैं और चेतना द्रव्य की दृष्टि से आत्मा एक है जैन दर्शन के अनुसार आत्म द्रव्य एक है, लेकिन उसमें अनन्त वैयक्तिक आत्माओं की सत्ता है। इतना ही नहीं, प्रत्येक वैयक्तिक आत्मा भी अपनी परिवर्तनशील चैतसिक अवस्थाओं के आधार पर स्वयं भी एक स्थिर इकाई न होकर प्रवाहशील इकाई है। जैन दर्शन यह मानता है कि आत्मा का चरित्र या व्यक्तित्व परिवर्तनशील है, वह देशकालगत परिस्थितियों में बदलता रहता है, फिर भी वही रहता है। हमारे में भी अनेक व्यक्तित्व बनते और बिगड़ते रहते हैं फिर भी वे हमारे ही अंग हैं। इस आधार पर हम उनके
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
लिए उत्तरदायी बने रहते हैं। इस प्रकार जैन दर्शन अभेद में भेद, विवेक-क्षमता के आधार पर आत्मा के भेद एकत्व में अनेकत्व की धारणा को स्थान देकर धर्म और नैतिकता के विवेक-क्षमता की दृष्टि से आत्माएँ दो प्रकार की मानी गई लिए एक ठोस आधार प्रस्तुत करता है।
हैं- (१) समनस्क, (२) अमनस्क। समनस्क आत्माएँ वे हैं, जिन्हें जैन दर्शन जिन्हें जीव की पर्याय अवस्थाओं की धारा कहता विवेक-क्षमता से युक्त मन उपलब्ध है और अमनस्क आत्माएँ वे हैं, है, बौद्ध दर्शन उसे चित्त-प्रवाह कहता है। जिस प्रकार जैन दर्शन में जिन्हें ऐसी विवेक-क्षमता से युक्त मन उपलब्ध नहीं है। जहाँ तक प्रत्येक जीव अलग है, उसी प्रकार बौद्ध दर्शन में प्रत्येक चित्त-प्रवाह नैतिक जीवन के क्षेत्र का प्रश्न है, समनस्क आत्माएँ ही नैतिक अलग है। जैसे बौद्ध दर्शन के विज्ञानवाद में आलयविज्ञान है वैसे जैन आचरण कर सकती हैं और वे ही नैतिक साध्य की उपलब्धि कर दर्शन में आत्म-द्रव्य है, यद्यपि हमें इन सबमें रहे हुए तात्त्विक अन्तर सकती हैं, क्योंकि विवेक-क्षमता से युक्त मन की उपलब्धि होने पर ही को विस्मृत नहीं करना चाहिए।
आत्मा में शुभाशुभ का विवेक करने की क्षमता होती है, साथ ही इसी
विवेक-बुद्धि के आधार पर वे वासनाओं का संयमन भी कर सकती हैं। आत्मा के भेद
जिन आत्माओं में ऐसी विवेक-क्षमता का अभाव है, उनमें संयम की जैन दर्शन अनेक आत्माओं की सत्ता को स्वीकार करता है। क्षमता का भी अभाव होता है, इसलिए वे नैतिक प्रगति भी नहीं कर इतना ही नहीं, वह प्रत्येक आत्मा की विभिन्न अवस्थाओं के आधार पर सकतीं। नैतिक जीवन के लिए आत्मा में विवेक और संयम दोनों का उसके भेद करता है। जैन आगमों में विभिन्न पक्षों की अपेक्षा से आत्मा । होना आवश्यक है और वह केवल पंचेन्द्रिय जीवों में भी उन्हीं में के आठ भेद किये गये हैं३२
सम्भव है जो समनस्क हैं। यहाँ जैविक आधार पर भी आत्मा के १. द्रव्यात्मा-आत्मा का तात्त्विक स्वरूप।
वर्गीकरण पर विचार अपेक्षित है, क्योंकि जैन धर्म का अहिंसा२. कषायात्मा-क्रोध, मान, माया आदि कषायों या मनोवेगों से युक्त
सिद्धान्त बहुत कुछ उसी पर निर्भर है। चेतना की अवस्था।
जैविक आधार पर प्राणियों का वर्गीकरण ३. योगात्मा-शरीर से युक्त होने पर चेतना की कायिक, वाचिक और
जैन दर्शन के अनसार जैविक आधार पर प्राणियों का वर्गीकरण मानसिक क्रियाओं की अवस्था।
निम्न तालिका से स्पष्ट हो सकता है४. उपयोगात्मा-आत्मा की ज्ञानात्मक और अनुभूत्यात्मक शक्तियाँ।
यह आत्मा का चेतनात्मक व्यापार है। ५. ज्ञानात्मा-चेतना की चिन्तन की शक्ति। ६. दर्शनात्मा-चेतना की अनुभूत्यात्मकशक्ति ।
स्थावर
त्रस ७. चरित्रात्मा-चेतना की संकल्पात्मक शक्ति।
पृथ्वीकाय अप्काय तेजस्काय वायु वनस्पतिकाय ८. वीर्यात्मा-चेतना की क्रियात्मक शक्ति।
उपर्युक्त आठ प्रकारों में द्रव्यात्मा, उपयोगात्मा, ज्ञानात्मा और दर्शनात्मा ये चार तात्त्विक आत्मा के स्वरूप के ही द्योतक हैं, शेष .
पंचेन्द्रिय चतुरिन्द्रिय त्रीन्द्रिय द्वीन्द्रिय चार कषायात्मा, योगात्मा, चरित्रात्मा और वीर्यात्मा ये चारों आत्मा के अनुभवाधारित स्वरूप के निदर्शक हैं। तात्त्विक आत्मा द्रव्य की अपेक्षा से नित्य होती है यद्यपि उसमें ज्ञानादि की पर्यायें होती रहती हैं। जैविक दृष्टि से जैन परम्परा में दस प्राण शक्तियाँ मानी गयी अनुभवाधारित आत्मा चेतना की शरीर से युक्त अवस्था है। यह परिवर्तनशील हैं। स्थावर एकेन्द्रिय जीवों में चार शक्तियाँ होती हैं- (१) स्पर्श-अनुभव एवं विकारयुक्त होती है। आत्मा के बन्धन का प्रश्न भी इसी अनुभवाधारित शक्ति, (२) शारीरिक शक्ति, (३) जीवन (आयु) शक्ति और (४) आत्मा से सम्बन्धित है। विभिन्न दर्शनों में आत्मा-सिद्धान्त के सन्दर्भ में श्वसन शक्ति। द्वीन्द्रिय जीवों में इन चार शक्तियों के अतिरिक्त स्वाद जो परस्परिक विरोध दिखाई देता है, वह आत्मा के इन दो पक्षों में और वाणी की शक्ति भी होती है। त्रीन्द्रिय जीवों में सूंघने की शक्ति भी किसी पक्ष-विशेष पर बल देने के कारण होता है। भारतीय परम्परा में होती है। चतुरिन्द्रिय जीवों में इन छह शक्तियों के अतिरिक्त देखने की बौद्ध दर्शन ने आत्मा के अनुभवाधारित परिवर्तनशील पक्ष पर अधिक सामर्थ्य भी होती है। पंचेन्द्रिय अमनस्क जीवों में इन आठ शक्तियों के बल दिया, जबकि सांख्य और शांकर वेदान्त ने आत्मा के तात्त्विक साथ-साथ श्रवण शक्ति भी होती है और समनस्क पंचेन्द्रिय जीवों में स्वरूप पर ही अपनी दृष्टि केन्द्रित की। जैन दर्शन दोनों ही पक्षों को इनके अतिरिक्त मनःशक्ति भी होती है। इस प्रकार जैन दर्शन में कुल स्वीकार कर उनके बीच समन्वय का कार्य करता है।
दस जैविक शक्तियाँ या प्राण शक्तियाँ मानी गयी हैं। हिंसा-अहिंसा के
जीव
| पृथ्वीकाय अपका।
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जैन दर्शन में आत्मा : स्वरूप एवं विश्लेषण
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अल्पत्व और बहुत्व आदि का विचार इन्हीं जैविक शक्तियों की दृष्टि से अवस्थाएँ आत्मा में घटित नहीं होंगी। फिर स्थित्यन्तर या भिन्न-भिन्न किया जाता है। जितनी अधिक प्राण शक्तियों से युक्त प्राणी की हिंसा परिणामों, शुभाशुभ भावों की शक्यता न होने से पुण्य-पाप की विभिन्न की जाती है, वह उतनी ही भयंकर समझी जाती है।
वृत्तियाँ एवं प्रवृत्तियाँ भी सम्भव नहीं होंगी, न बन्धन और मोक्ष की
उपपत्ति ही सम्भव होगी। क्योंकि वहाँ एक क्षण के पर्याय ने जो कार्य गतियों के आधार पर जीवों का वर्गीकरण
किया था, उसका फल दूसरे क्षण के पर्याय को मिलेगा, क्योंकि वहाँ जैन परम्परा में गतियों के आधार पर जीव चार प्रकार के उन सतत परिवर्तनशील पर्यायों के मध्य कोई अनुस्यूत एक स्थायी माने गए हैं- (१) देव, (२) मनुष्य, (३) पशु (तिर्यंच) और (४) तत्त्व (द्रव्य) नहीं हैं, अत: यह कहा जा सकेगा कि जिसने किया था नारक। जहाँ तक शक्ति और क्षमता का प्रश्न है देव का स्थान मनुष्य उसे फल नहीं मिला और जिसने नहीं किया था उसे मिला, अर्थात् से ऊँचा माना गया है। लेकिन जहाँ तक नैतिक साधना की बात है जैन नैतिक कर्म सिद्धान्त की दृष्टि से अकृतागम और कृतप्रणाश का दोष परम्परा मनुष्य-जन्म को ही सर्वश्रेष्ठ मानती है। उसके अनुसार मानव- होगा,३३ अतः आत्मा को नित्य मानकर भी सतत परिवर्तनशील जीवन ही ऐसा जीवन है जिससे मुक्ति या नैतिक पूर्णता प्राप्त की जा (अनित्य) माना जाये तो उसमें शुभाशुभ आदि विभिन्न भावों की स्थिति सकती है। जैन परम्परा के अनुसार केवल मनुष्य ही सिद्ध हो सकता मानने के साथ ही उसके फलों का भावान्तर में भोग भी सम्भव हो है, अन्य कोई नहीं। बौद्ध परम्परा में भी उपर्युक्त चारों जातियाँ स्वीकृत सकेगा। इस प्रकार जैन दर्शन सापेक्ष रूप से आत्मा को नित्य और रही हैं लेकिन उनमें देव और मनुष्य दोनों में ही मुक्त होने की क्षमता अनित्य दोनों स्वीकार करता है। को मान लिया गया है। बौद्ध परम्परा के अनुसार एक देव बिना मानव उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि आत्मा अमूर्त होने के जन्म ग्रहण किये देव गति से सीधे ही निर्वाण प्राप्त कर सकता है, कारण नित्य है।२ भगवतीसूत्र में भी जीव को अनादि, अनिधन, जबकि जैन परम्परा के अनुसार केवल मनुष्य ही निर्वाण का अधिकारी अविनाशी, अक्षय, ध्रुव और नित्य कहा गया है।३५ लेकिन सब स्थानों है। इस प्रकार जैन परम्परा मानव-जन्म को चरम, मूल्यवान बना देती है। पर नित्यता का अर्थ परिणामी नित्यता ही समझना चाहिए। भगवतीसूत्र
एवं विशेषावश्यकभाष्य में इस बात को स्पष्ट कर दिया गया है। आत्मा की अमरता
भगवतीसूत्र में भगवान् महावीर ने गौतम के प्रश्न का उत्तर देते हुए आत्मा की अमरता का प्रश्न नैतिकता की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण आत्मा को शाश्वत और अशाश्वत दोनों कहा हैहै। पाश्चात्य विचारक कांट आत्मा की अमरता को नैतिक जीवन की "भगवान् ! जीव शाश्वत है या अशाश्वत ?" सुसंगत व्याख्या के लिए आवश्यक मानते हैं। भारतीय आचारदर्शनों “गौतम ! जीव शाश्वत (नित्य) भी है और अशाश्वत (अनित्य) भी।" के प्राचीन युग में आत्मा की अमरता का सिद्धान्त विवाद का विषय “भगवान् ! यह कैसे कहा गया कि जीव नित्य भी है, अनित्य भी?" रहा है। उस युग में यह प्रश्न आत्मा की नित्यता एवं अनित्यता के रूप “गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा से नित्य है, भाव की अपेक्षा से अनित्या ३६ में अथवा शाश्वतवाद और उच्छेदवाद के रूप में बहुचर्चित रहा है।
आत्मा-द्रव्य (सत्ता) की ओर से नित्य है अर्थात् आत्मा न तो वस्तुत: आत्म-अस्तित्व को लेकर दार्शनिकों में इतना विवाद नहीं है, कभी अनात्म (जड़) से उत्पन्न होती है और न किसी भी अवस्था में विवाद का विषय है-आत्मा की नित्यता और अनित्यता। यह विषय अपने चेतना लक्षण को छोड़कर जड़ बनती है। इसी दृष्टि से उसे नित्य तत्त्वज्ञान की अपेक्षा नैतिक दर्शन से अधिक सम्बन्धित है। जैन कहा जाता है। लेकिन आत्मा की मानसिक अवस्थाएँ परिवर्तित होती विचारकों ने नैतिक व्यवस्था को प्रमुख मानकर उसके आधार पर ही रहती हैं, अत: इस अपेक्षा से उसे अनित्य कहा गया है। आधुनिक नित्यता और अनित्यता की समस्या का हल खोजने की कोशिश की। दर्शन की भाषा में जैन दर्शन के अनुसार तात्त्विक आत्मा नित्य है और अत: यह देखना भी उपयोगी होगा कि आत्मा को नित्य अथवा अनित्य अनुभवाधारित आत्मा अनित्य है। जिस प्रकार स्वर्णाभूषण स्वर्ण की मानने पर नैतिक दृष्टि से कौन-सी कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं। दृष्टि से नित्य और आभूषण की दृष्टि से अनित्य है, उसी प्रकार आत्म
आत्मा-तत्त्व की दृष्टि से नित्य और विचारों और भावों की दृष्टि से आत्मा की नित्यानित्यात्मकता
अनित्य है। जैन विचारकों ने संसार और मोक्ष की उपपत्ति के लिए न तो जमाली के साथ हुए प्रश्नोत्तर में भगवान् महावीर ने अपने नित्य-आत्मवाद को उपयुक्त समझा और न अनित्य-आत्मवाद को। इस दृष्टिकोण को स्पष्ट कर दिया है कि वे किस अपेक्षा से जीव को एकान्त नित्यवाद और एकान्त अनित्यवाद दोनों ही सदोष हैं। आचार्य नित्य मानते हैं और किस अपेक्षा से अनित्य। भगवान महावीर कहते हेमचन्द्र दोनों को नैतिक दर्शन की दृष्टि से अनुपयुक्त बताते हुए हैं-“हे जमाली, जीव शाश्वत है, तीनों कालों में ऐसा कोई समय नहीं लिखते हैं, यदि आत्मा को एकान्त नित्य मानें तो इसका अर्थ होगा कि है जब यह जीव (आत्मा) नहीं था, नहीं है, अथवा नहीं होगा। इसी आत्मा में अवस्थान्तर अथवा स्थित्यन्तर नहीं होता। यदि इसे एकान्त अपेक्षा से यह जीवात्मा, नित्य, ध्रुव, शाश्वत, अक्षय और अव्यय है। अनित्य मान लिया जाये तो सुख-दुःख, शुभ-अशुभ आदि भिन्न-भिन्न हे जमाली, जीव अशाश्वत है, क्योंकि नारक मरकर तिर्यंच होता है,
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तिर्यंच मरकर मनुष्य होता है, मनुष्य मरकर देव होता है । इस प्रकार इन नानावस्थाओं को प्राप्त करने के कारण उसे अनित्य कहा जाता है।” ३७ नैतिक विचारणा की दृष्टि से आत्मा को नित्यानित्य (परिणामी नित्य) मानना ही समुचित है। नैतिकता की धारणा में जो विरोधाभास है, उसका निराकरण केवल परिणामीनित्य आत्मवाद में ही सम्भव है। नैतिकता का विरोधाभास यह है कि जहाँ नैतिकता के आदर्श के रूप में जिस आत्म-तत्त्व की विवक्षा है उसे नित्य, शाश्वत, अपरिवर्तनशील, सदैव समरूप में स्थित, निर्विकार होना चाहिए अन्यथा पुनः बन्धन एवं पतन की सम्भावनाएँ उठ खड़ी होंगी, वहीं दूसरी ओर नैतिकता की व्याख्या के लिए जिस आत्म-तत्व की विवक्षा है उसे कर्ता, भोक्ता वेदक एवं परिवर्तनशील होना चाहिए अन्यथा कर्म और उनके प्रतिफल और साधना की विभिन्न अवस्थाओं की तरतमता की उपपत्ति नहीं होगी। जैन विचारकों ने इस विरोधाभास की समस्या के निराकरण का प्रयास किया है। प्रथमतः उन्होंने एकान्त नित्यात्मवाद और अनित्यात्मवाद के दोषों को स्पष्ट कर उनका निराकरण किया, फिर यह बताया है कि विरोधाभास तो तब होता है जब नित्यता और अनित्यता को एक ही दृष्टि से माना जाय । लेकिन जब विभिन्न दृष्टियों से नित्यता और अनित्यता का कथन किया जाता है, तो उसमें कोई विरोधाभास नहीं रहता है। जैन दर्शन आत्मा को पर्यायार्थिक दृष्टि (व्यवहारनय) की अपेक्षा से अनित्य तथा द्रव्यार्थिक दृष्टि (निश्चयनय) की अपेक्षा से नित्य मानकर अपनी आत्मा सम्बन्धी अवधारणा का प्रतिपादन करता है।
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
आत्मा की अमरता और पुनर्जन्म
आत्मा की अमरता के साथ पुनर्जन्म का प्रत्यय जुड़ा हुआ है। भारतीय दर्शनों में चार्वाक को छोड़कर शेष सभी दर्शन पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं। जब आत्मा को अमर मान लिया जाता है, तो पुनर्जन्म को स्वीकार करना ही होगा। गीता कहती है- "जिस प्रकार मनुष्य वस्त्रों के जीर्ण हो जाने पर उनका परित्याग कर नये वस्त्र ग्रहण करता रहता है, वैसे ही आत्मा भी जीर्ण शरीर को छोड़कर नया शरीर ग्रहण करती रहती है।" न केवल गीता में, वरन् बौद्ध दर्शन में भी इसी आशय का प्रतिपादन किया गया है। ३८ डॉ० रामानन्द तिवारी पुनर्जन्म के पक्ष में लिखते हैं कि “एक जन्म के सिद्धान्त के अनुसार चिरन्तन आत्मा और नश्वर शरीर का सम्बन्ध एक काल विशेष में आरम्भ होकर एक काल विशेष में ही अन्त हो जाता है, किन्तु चिरन्तन का कालिक सम्बन्ध अन्याय (तर्क विरुद्ध) है और इस (एक जन्म के) सिद्धान्त से उनका कोई समाधान नहीं है पुनर्जन्म का सिद्धान्त जीवन की एक न्यायसंगत और नैतिक व्याख्या देना चाहता है। एक जन्म सिद्धान्त के अनुसार जन्मकाल में भागदेयों के भेद को अकारण एवं संयोगजन्य मानना होगा । ३९
डॉ० मोहनलाल मेहता कर्म सिद्धान्त के आधार पर पुनर्जन्म के सिद्धान्त का समर्थन करते हैं। उनके शब्दों में- "कर्म सिद्धान्त
अनिवार्य रूप से पुनर्जन्म के प्रत्यय से संलग्न है, पूर्ण विकसित पुनर्जन्म सिद्धान्त के अभाव में कर्म सिद्धान्त अर्थशून्य है । ४० आचारदर्शन के क्षेत्र में यद्यपि पुनर्जन्म सिद्धान्त और कर्म सिद्धान्त एक-दूसरे के अति निकट हैं, फिर भी धार्मिक क्षेत्र में विकसित हुए आचारदर्शनों ने कर्म को स्वीकार करते हुए भी पुनर्जन्म को स्वीकार नहीं किया है। कट्टर पाश्चात्य निरीश्वरवादी दार्शनिक नित्शे ने कर्म-शक्ति और पुनर्जन्म पर जो विचार व्यक्त किये हैं, वे महत्वपूर्ण हैं। वे लिखते हैं- “कर्मशक्ति के जो हमेशा रूपान्तर हुआ करते हैं, वे मर्यादित हैं तथा काल अनन्त हैं इसलिए कहना पड़ता है कि जो नामरूप एक बार हो चुके हैं वही फिर आगे यथापूर्व कभी न कभी अवश्य उत्पन्न होते ही हैं। ४९
ईसाई और इस्लाम आचारदर्शन यह तो मानते हैं कि व्यक्ति अपने नैतिक शुभाशुभ कृत्यों का फल अनिवार्य रूप से प्राप्त करता है और यदि वह अपने कृत्यों के फलों को इस जीवन में पूर्णतया नहीं भोग पाता है तो मरण के बाद उनका फल भोगता है, लेकिन फिर भी वे पुनर्जन्म को स्वीकार नहीं करते हैं। उनकी मान्यता के अनुसार, व्यक्ति को सृष्टि के अनन्त में अपने कृत्यों की शुभाशुभता के अनुसार हमेशा के लिए स्वर्ग या किसी निश्चित समय के लिए नरक में भेज दिया जाता है, वहाँ व्यक्ति अपने कृत्यों का फल भोगता रहता है, इस प्रकार वे कर्म सिद्धान्त को मानते हुए भी पुनर्जन्म को स्वीकार नहीं करते हैं।
जो विचारणाएँ कर्म सिद्धान्त को स्वीकार करने पर भी पुनर्जन्म को नहीं मानती हैं, वे इस तथ्य की व्याख्या करने में समर्थ नहीं हो पाती है कि वर्तमान जीवन में जो नैसर्गिक वैषम्य है उसका कारण क्या है? क्यों एक प्राणी सम्पन्न एवं प्रतिष्ठित कुल में जन्म लेता है अथवा जन्मना ऐन्द्रिक एवं बौद्धिक क्षमता से युक्त होता है और क्यों दूसरा दरिद्र एवं हीन कुल में जन्म लेता है और जन्मना हीनेन्द्रिय एवं बौद्धिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ होता है? क्यों एक प्राणी का मनुष्यशरीर मिलता है और दूसरे को पशु शरीर मिलता है? यदि इसका कारण ईश्वरेच्छा है तो ईश्वर अन्यायी सिद्ध होता है। दूसरे, व्यक्ति को अपनी अक्षमताओं और उनके कारण उत्पन्न अनैतिक कृत्यों के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकेगा। खानाबदोश जातियों में जन्म लेने वाला बालक संस्कारवश जो अनैतिक आचरण का मार्ग अपनाता है, उसका उत्तरदायित्व किस पर होगा? वैयक्तिक विभिन्नताएँ ईश्वरेच्छा का परिणाम नहीं, वरन् व्यक्ति के अपने कृत्यों का परिणाम है। वर्तमान जीवन में जो भी क्षमता एवं अवसरों की सुविधा उसे अनुपलब्ध है और जिनके फलस्वरूप उसे नैतिक विकास का अवसर प्राप्त नहीं होता है उनका कारण भी वह स्वयं ही है और उत्तरदायित्व भी उसी पर है।
नैतिक विकास केवल एक जन्म की साधना का परिणाम नहीं । है, वरन् उनके पीछे जन्म-जन्मान्तर की साधना होती है पुनर्जन्म का सिद्धान्त प्राणी को नैतिक विकास हेतु अनन्त अवसर प्रदान करता है। ब्रेडले नैतिक पूर्णता की उपलब्धि को अनन्त प्रक्रिया मानते हैं। ४२ यदि नैतिकता आत्मपूर्णता एवं आत्म-साक्षात्कार की दिशा में सतत प्रक्रिया
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जैन दर्शन में आत्मा : स्वरूप एवं विश्लेषण
१२५ है तो फिर बिना पुनर्जन्म के इस विकास की दिशा में आगे कैसे बढ़ा जन्मों में शुभाशुभ कर्मों के फल-सम्बन्ध की दृष्टि से आठ विकल्प माने जा सकता है? गीता में भी नैतिक पूर्णता की उपलब्धि के लिए अनेक गये हैं-(१) वर्तमान जन्म के अशुभ कर्म वर्तमान जन्म में ही फल देवें। जन्मों की साधना आवश्यक मानी गयी है।४३ डॉ० टाटिया भी लिखते (२) वर्तमान जन्म के अशुभ कर्म भावी जन्मों में फल देवें। (३) हैं कि “यदि आध्यात्मिक पूर्णता (मुक्ति) एक तथ्य है तो उसके भूतकालीन जन्मों के अशुभ कर्म वर्तमान जन्म में फल देवें। (४) साक्षात्कार के लिए अनेक जन्म आवश्यक हैं।"४४
भूतकालीन जन्मों के अशुभ कर्म भावी जन्मों में फल देवें। (५) वर्तमान साथ ही आत्मा के बन्धन के कारण की व्याख्या के लिए जन्म के शुभ कर्म वर्तमान जन्म में फल देवें। (६) वर्तमान जन्म के पुनर्जन्म की धारणा को स्वीकार करना होगा, क्योंकि वर्तमान बन्धन शुभ कर्म भावी जन्मों में फल देवें। (७) भूतकालीन जन्मों के शुभ कर्म की अवस्था का कारण भूतकालीन जीवन में ही खोजा जा सकता है। वर्तमान जन्म में फल देवें। (८) भूतकालीन जन्मों के शुभ कर्म भावी
जो दर्शन पुनर्जन्म को स्वीकार नहीं करते, वे व्यक्ति के साथ जन्मों में फल देवें।४६ ।। समुचित न्याय नहीं करते। अपराध के लिए दण्ड आवश्यक है, लेकिन इस प्रकार जैन दर्शन में वर्तमान जीवन का सम्बन्ध भूतकालीन इसका अर्थ यह तो नहीं कि विकास या सुधार का अवसर ही समाप्त एवं भावी जन्मों से माना गया है। जैन दर्शन के अनुसार चार प्रकार की कर दिया जाये। जैन दर्शन पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार करके योनियाँ हैं-(१) देव (स्वर्गीय जीवन), (२) मनुष्य, (३) तिर्यंच (वानस्पतिक व्यक्ति को नैतिक विकास के अवसर प्रदान करता है तथा अपने को एवं पशु जीवन) और (४) नरक (नारकीय जीवन)।४७ प्राणी अपने एक प्रगतिशील दर्शन सिद्ध करता है। पुनर्जन्म की धारणा दण्ड के शुभाशुभ कर्मों के अनुसार इन योनियों में जन्म लेता है। यदि वह शुभ सुधारवादी सिद्धान्त का समर्थन करती है, जबकि पुनर्जन्म को नहीं कर्म करता है तो देव और मनुष्य के रूप में जन्म लेता है और अशुभ मानने वाली नैतिक विचारणाएँ दण्ड के बदला लेने के सिद्धान्त का कर्म करता है तो पशु गति या नारकीय गति प्राप्त करता है। मनुष्य समर्थन करती हैं, जो कि वर्तमान युग में एक परम्परागत किन्तु मरकर पशु भी हो सकता है और देव भी। प्राणी भावी जीवन में क्या अनुचित धारणा है।
होगा यह उसके वर्तमान जीवन के आचारण पर निर्भर करता है। पुनर्जन्म के विरुद्ध यह भी तर्क दिया जाता है कि यदि वही आत्मा (चेतना) पुनर्जन्म ग्रहण करती है तो फिर उसे पूर्व-जन्मों की संदर्भ स्मृति क्यों नहीं रहती है। स्मृति के अभाव में पुनर्जन्म को किस आधार १. विशेषावश्यकभाष्य, १५७५ पर माना जाये? लेकिन यह तर्क उचित नहीं है, क्योंकि हम अक्सर २. वही १५७१ देखते हैं कि हमें अपने वर्तमान जीवन की अनेक घटनाओं की भी ३. जैन दर्शन महेन्द्रकुमार 'न्यायाचार्य' पृ० ५४ स्मृति नहीं रहती। यदि हम वर्तमान जीवन के विस्मरित भाग को ४. आचारांगसूत्र १/५/५/१६६ स्वीकार नहीं करते हैं तो फिर केवल स्मरण के अभाव में पूर्व-जन्मों की ५. ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य-३/१/७ घटनाएँ भी अचेतन स्तर पर बनी रहती हैं और विशिष्ट अवसरों पर ६. वही १/१/२ चेतना के स्तर पर भी व्यक्त हो जाती है। यह भी तर्क दिया जाता है कि ७. वही ३/२/२१, तुलनीय-आचारांग-१/५/५ हमें अपने जिन कृत्यों की स्मृति नहीं है, हम क्यों उनके प्रतिफल का ८. दिवानचंद, पश्चिमी दर्शन-पृ० १०६ भोग करें? लेकिन यह तर्क भी समुतिच नहीं हैं इससे क्या फर्क पड़ता ९. विशेषावश्यकभाष्य-१५५८ है कि हमें अपने कर्मों की स्मृति है या नहीं? यह हमने उन्हें किया है १० न्यायवर्तिक पृ० ३६६ (आत्ममीमांसा पृ०२ पर उद्धृत) तो उनका फल भोगना ही होगा। यदि कोई व्यक्ति इतना अधिक ११. सूत्रकृतांग टीका-१/१/८ मद्यपान कर ले कि नशे में उसे अपने किये हुए मद्यपान की स्मृति भी १२. जैन दर्शन पृ० १५७ नहीं रहे लेकिन इससे क्या वह उसके नशे से बच सकता है? जो किया १३. गीता-२/१६ है, उसका भोग अनिवार्य है, चाहे उसकी स्मृति हो या न हो।४५ १४. सूत्रकृतांग टीका-१/१/८
जैन चिन्तकों ने इसीलिए कर्म सिद्धान्त की स्वीकृति के १५. A.C. Mookerjee, Nature of self, p 141-143, साथ-साथ आत्मा की अमरता और पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार १६. अनेकान्त-जून, १९४२ किया है। जैन विचारणा यह स्वीकार करती है कि प्राणियों में क्षमता १७. मुनि नथमल, 'तट दो प्रवाह एक आदर्श साहित्य संघ चुरु, एवं अवसरों की सुविधा आदि का जो जन्मना नैसर्गिक वैषम्य है, पृ०५४. उसका कारण प्राणी के अपने ही पूर्व-जन्मों के कृत्य हैं। संक्षेप में १८. भगवतीसूत्र- १३/७/४९५ वंशानुगत एवं नैसर्गिक वैषम्य पूर्व-जन्मों के शुभाशुभ कृत्यों का फल १९. समयसार-२७ है। यही नहीं, वरन् अनुकूल एवं प्रतिकूल परिवेश की उपलब्धि भी २०. उत्तराध्ययन-२०/३७ शुभाशुभ कृत्यों का फल है। स्थानांगसूत्र में भूत, वर्तमान और भावी २१. वही- २०/४८
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
२२. सूत्रकृतांग-१/१/१३-२१ २३. उत्तराध्ययन २३/३७ तुलनीय-कठोपनिषद् १/३/३ २४. समयसार-८१-९२ २५. क्रमश: निगोद और केवली समुद्घात की अवस्था में ऐसा
होता है। २६. विशेषावश्यकभाष्य- १५८२ २७. सारख्यकारिका-१८(ईश्वरकृष्ण) २८. समवायांग- १/१
स्थानांग- १/१ २९. भगवतीसूत्र- २/१ ३०. समवायांग टीका १/१ ३१. भगवतीसूत्र १/८/१० ३२. वही १२/१०/४६७ ३३. वीतरागस्तोत्र-८/२/३
३४. उत्तराध्ययनसूत्र- १४/१९ ३५. भगवतीसूत्र- ९/६/३/८७ ३६. वही ७/२/२७३ ३७. वही ९/६/३८७; १/४/४२ ३८. गीता- २/२२, तुलना करें थेरगाथा- १/३८-६८८. ३९. शंकर का आचार दर्शन, पृ०६८ ४०. Jaina Psychology. 173. ४१. तिलक गीता रहस्य- पृ० २६८. ४२. F.H. Bradley, Ethical Studies P.313.. ४३. गीता ६/४५. ४४. Studies in Jaina Philosophy. P. 221. 84. Jaina Psychology P. 175. ४६. स्थानांगसूत्र- ८/२ ४७. तत्त्वार्थसूत्र ८/११
षट्जीवनिकाय में त्रस एवं स्थावर के वर्गीकरण की समस्या
षट्जीवनिकाय की अवधारणा जैनधर्म-दर्शन की प्राचीनतम वनस्पति और त्रस-ये जीवों के छ: प्रकार माने गये हैं, किन्तु इन अवधारणा है। इसके उल्लेख हमें प्राचीनतम जैन आगमिक ग्रन्थों षट्जीवनिकायों में कौन स है और कौन स्थावर है? इस प्रश्न को यथा- आचारांग', ऋषिभाषितरे, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि लेकर प्राचीनकाल से ही विभिन्न अवधारणाएं जैन परम्परा में उपलब्ध में उपलब्ध होते हैं। यह सुस्पष्ट तथ्य है कि निर्ग्रन्थ परम्परा में होती हैं। यद्यपि वर्तमान में श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं प्राचीनकाल से पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति आदि को जीवन में पृथ्वी, अप, अग्नि, वायु और वनस्पति इन पाँच को सामान्यतया युक्त माना जाता रहा है। यद्यपि वनस्पति और द्वींद्रिय आदि प्राणियों स्थावर माना जाता है। पंचस्थावरों की यह अवधारणा अब सर्व स्वीकृत में जीवन की सत्ता तो सभी मानते हैं, किन्तु पृथ्वी, जल, अग्नि और है। दिगम्बर परम्परा में तत्त्वार्थ का जो पाठ प्रचलित है उसमें तो पृथ्वी, वायु भी सजीव हैं- यह अवधारणा जैनों की अपनी विशिष्ट अवधारणा अप्, अग्नि, वायु और वनस्पति- इन पाँचों को स्पष्ट रूप से स्थावर है। यहाँ हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि पृथ्वी, जल, वायु आदि कहा गया है। किन्तु प्राचीन श्वेताम्बर मान्य आगम आचारांग, उत्तराध्ययन में सूक्ष्म जीवों की उपस्थिति को स्वीकार करना एक अलग तथ्य है आदि की तथा तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बर सम्मत पाठ और तत्त्वार्थभाष्य
और पृथ्वी, जल आदि को स्वत: सजीव मानना एक अन्य अवधारणा की स्थिति कुछ भिन्न है। इसी प्रकार दिगम्बर परम्परा में भी कुन्दकुन्द है। जैन परम्परा केवल इतना ही नहीं मानती है कि पृथ्वी, जल आदि के ग्रन्थ पंचास्तिकाय की स्थिति भी पंचस्थावरों की प्रचलित सामान्य में जीव होते हैं अपितु वह यह भी मानती है कि ये स्वयं भी जीवन- अवधारणा से कुछ भिन्न ही प्रतीत होती है। यापनीय ग्रन्थ षट्खण्डागम युक्त या सजीव हैं। इस सन्दर्भ में आचारांग में स्पष्ट रूप से उल्लेख की धवला टीका में इन दोनों के समन्वय का प्रयत्न हुआ है। मिलता है कि पृथ्वी, जल, वायु आदि के आश्रित होकर जो जीव रहते
स और स्थावर के वर्गीकरण को लेकर जैन परम्परा के इन हैं, वे पृथ्वीकायिक, अपकायिक आदि जीवों से भिन्न हैं।५ यद्यपि प्राचीन स्तर के आगमिक ग्रन्थों में किस प्रकार का मतभेद रहा हुआ है, पृथ्वीकायिक,अपकायिक जीवों की हिंसा होने पर इनकी हिंसा भी इसका स्पष्टीकरण करना ही प्रस्तुत निबन्ध का मुख्य उद्देश्य है। अपरिहार्य रूप से होती है। आचारांग के प्रथम अध्ययन के द्वितीय से सप्तम उद्देशक तक प्रत्येक उद्देशक में पृथ्वी आदि षट्जीवनिकायों १. आचारांग की हिंसा के स्वरूप, कारण और साधन अर्थात् शस्त्र की चर्चा हमें आचारांग में षट्जीवनिकाय में कौन स है और कौन स्थावर उपलब्ध होती है। आचारांग, ऋषिभासित, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक है? इसका कोई स्पष्टतः वर्गीकरण उल्लेखित नहीं है। उसके प्रथम आदि में षट्जीवनिकाय के अन्तर्गत पृथ्वी, अप्, अग्नि, वायु, श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन में जिस क्रम से षट्जीवनिकाय का
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षट्जीवनिकाय में त्रस एवं स्थावर के वर्गीकरण की समस्या
विवरण प्रस्तुत किया गया है, उसे देखकर लगता है कि ग्रन्थकार पृथ्वी, अप्, अग्नि और वनस्पति इन चार को स्पष्ट रूप से स्थावर के अन्तर्गत वर्गीकृत करता होगा, जबकि इस और वायुकायिक जीवों को वह स्थावर के अन्तर्गत नहीं मानता होगा, क्योंकि उसके प्रथम अध्ययन के द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ और पंचम इन चार उद्देशको में क्रमशः पृथ्वी, अप, अग्नि और वनस्पति- इन चार जीवनिकायों की हिंसा का विवरण प्रस्तुत किया गया है। उसके पश्चात् षष्ठ अध्ययन में उसकाय की और सप्तम अध्ययन में वायुकायिक जीवों की हिंसा का उल्लेख किया है। इसका फलितार्थ यही है कि आचारांग के अनुसार वायुकायिक जीव स्थावर न होकर उस हैं। यदि आचारांगकार को वायुकायिक जीवों को स्थावर मानना होता तो वह उनका उल्लेख जसकोय के पूर्व करता। इस प्रकार आचारांग में पृथ्वी, अप्, अग्नि और वनस्पति ये चार स्थावर और वायुकाय तथा त्रसकाय वेदो स जीव माने गये हैं- ऐसा अनुमान किया जा सकता है। यद्यपि ६ आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में ही एक सन्दर्भ ऐसा भी है, जिसके आधार पर सकाय को छोड़कर शेष पाँचों को स्थावर माना जा सकता है, क्योंकि वहाँ पर पृथ्वी, वायु, अप्, अग्नि और वनस्पति का उल्लेख करके उसके पश्चात् त्रस का उल्लेख किया गया है । ७
२. ऋषिभाषित
त्रस
जहाँ तक ऋषिभाषित का प्रश्न है, उसमें मात्र एक स्थल पर पजीवनिकाय का उल्लेख है। इस शब्द का उल्लेख भी है, किन्तु षट्जीवनिकाय में कौन त्रस है और कौन स्थावर है ऐसी चर्चा उसमें नहीं है।
३. उत्तराध्ययन
आचारांग से जब हम उत्तराध्ययन की ओर आते हैं तो यह पाते हैं कि उसके २६ वें एवं ३६ वें अध्यायों में षट्जीवनिकाय का उल्लेख उपलब्ध होता है। २६ वें अध्याय में यद्यपि स्पष्ट रूप से त्रस और स्थावर के वर्गीकरण की चर्चा तो नहीं की गई है, किन्तु उसमें जिस क्रम से षट्जीवनिकायों के नामों का निरूपण हुआ है उससे यही फलित होता है कि पृथ्वी, अप् (उदक), अग्नि, वायु और वनस्पति ये पाँच स्थावर हैं और छठीं उसकाय ही उस है, किन्तु उत्तराध्ययन के ३६ वें अध्याय की स्थिति इससे भिन्न है, एक तो उसमें सर्वप्रथम षट्जीवनिकाय को उस और स्थावर ऐसे दो वर्गों में वर्गीकृत किया गया है और दूसरे स्थावर के अन्तर्गत पृथ्वी, अप् और वनस्पति को तथा उस के अन्तर्गत अग्नि, वायु और त्रसजीवनिकाय को रखा गया है।" इस प्रकार यद्यपि उत्तराध्ययन के ३६ वें अध्याय से आचारांग की वायु को त्रसकायिक मानने की अवधारणा की पुष्टि होती है किन्तु जहाँ तक अग्निकाय का प्रश्न है, उसे जहाँ आचारांग के अनुसार स्थावर निकाय के अन्तर्गत वर्गीकृत किया जा सका है, वहाँ उत्तराध्ययन में उसे स्पष्ट रूप से त्रसनिकाय के अन्तर्गत वर्गीकृत किया गया है। इस
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प्रकार दोनों में आंशिक मतभेद भी परिलक्षित होता है। उत्तराध्ययन का यह दृष्टिकोण तत्त्वार्थसूत्र (भाष्यमान्य मूलपाठ) में और तत्त्वार्थभाष्य में भी स्वीकृत किया गया है। इससे ऐसा लगता है कि निर्बन्ध परम्परा में प्राचीनकाल में यही दृष्टिकोण विशेष रूप से मान्य रहा होगा।
४. दशवैकालिक
जहाँ तक दशवैकालिक का प्रश्न है, उसका चतुर्थ अध्याय तो षट्जीवनिकाय के नाम से ही जाना जाता है उसमें इस एवं स्थावर का स्पष्टतया वर्गीकरण तो नहीं किया गया है, किन्तु जिस क्रम में उनका प्रस्तुतिकरण हुआ है, १० उससे यह धारणा बनाई जा सकती है। कि दशवैकालिक पृथ्वी, अप, अग्नि, वायु और वनस्पति इन पाँच को स्थावर ही मानता होगा। षट्जीवनिकाय के क्रम को लेकर दशवैकालिक की स्थिति उत्तराध्ययन के २६ वें अध्ययन के समान है, किन्तु आचारांग से तथा उत्तराध्ययन के ३६ वें अध्याय से भिन्न है।
५. जीवाभिगम
,
त्रस
उपांग साहित्य में प्रज्ञापना में जीवों के प्रकारों की चर्चा ऐन्द्रिक आधारों पर की गई इस और स्थावर के आधार पर नहीं जीवों का उस और स्थावर का वर्गीकरण जीवाभिगमसूत्र में मिलता है उसमें स्पष्ट रूप से पृथ्वी, अप् (जल) और वनस्पति को स्थावर तथा अग्नि, वायु एवं द्वीन्द्रियादि को उस कहा गया है इस दृष्टि से जीवाभिगम और उत्तराध्ययन का दृष्टिकोण समान है। जीवाभिगम की टीका में मलयगिरि ने इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है कि जो सर्दी-गर्मी के कारण एक स्थान का त्याग करके दूसरे स्थान पर जाते हैं, वे त्रस है अथवा जो इच्छापूर्वक ऊर्ध्व, अघ एवं तिर्यक् दिशा में गमन करते हैं, वे उस हैं। उन्होंने लब्धि से तेज (अग्नि) और वायु को स्थावर, किन्तु गति की अपेक्षा से त्रस कहा है। ११
६. तत्त्वार्थसूत्र
जहाँ तक जैन परम्परा के महत्त्वपूर्ण सूत्र शैली के ग्रन्थ तत्त्वार्थ का प्रश्न है, उसके श्वेताम्बर सम्मत मूलपाठ में तथा तत्त्वार्थ के उमास्वाति के स्वोपज्ञ भाष्य में पृथ्वी, अप् और वनस्पति — इन तीन को स्थावरनिकाय में और शेष तीन अग्नि, वायु और द्वीन्द्रियादि को सनिकाय में वर्गीकृत किया गया है। १२ इस प्रकार तत्वार्थसूत्र और तत्वार्थभाष्य का पाठ उत्तराध्ययन के ३६ वें अध्याय के दृष्टिकोण के समान ही है तत्वार्थ का यह दृष्टिकोण आचारांग के प्राचीनतम दृष्टिकोण से इस अर्थ में भिन्न है कि इसमें अग्नि को स्पष्ट रूप से त्रस माना गया है, जब कि आचारांग के अनुसार उसे स्थावर वर्ग के अन्तर्गत वर्गीकृत किया जा सकता है।
अब हम दिगम्बर परम्परा की ओर मुड़ते हैं तो उसके द्वारा मान्य तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका के मूल पाठ और उसकी टीका- दोनों में पंचस्थावरों की अवधारणा का स्पष्ट उल्लेख है।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
दिगम्बर परम्परा की तत्त्वार्थ की टीकाओं में प्रायः सभी ने पृथ्वी, अप्, उसके पश्चात् जीवस्थान प्रकृति समुत्तकीर्तन (१/९-१/२८) की टीका अग्नि, वायु, वनस्पति इन पाँच को स्थावर माना है।
में तथा पंचम खण्ड के प्रकृति अनुयोगद्वार के नाम-कर्म की प्रकृतियों (५/५/१०) की चर्चा में इन तीनों ही स्थलों पर स्थावर और उस के वर्गीकरण का आधार गतिशीलता को न मानकर स्थावर नामकर्म एवं त्रस नामकर्म का उदय बताया गया है। इस सम्बन्ध में चर्चा प्रारम्भ करते हुए यह कहा गया है कि सामान्यतया स्थित रहना अर्थात् ठहरना ही जिनका स्वभाव है उन्हें ही स्थावर कहा जाता है, किन्तु प्रस्तुत आगम में इस व्याख्या के अनुसार स्थावरों का स्वरूप क्यों नहीं कहा गया ? इसका समाधान देते हुए कहा गया है कि जो एक स्थान पर ही स्थित रहे वह स्थावर ऐसा लक्षण मानने पर वायुकायिक, अग्निकायिक और जलकायिक जीवों को जो सामान्यतया स्थावर माने जाते हैं, त्रस मानना होगा, क्योंकि इन जीवों की एक स्थान से दूसरे स्थान में गति देखी जाती है। धवलाकार एक स्थान पर अवस्थित रहे वह स्थावर, इस व्याख्या को इसलिए मान्य नहीं करता है, क्योंकि ऐसी व्याख्या में वायुकायिक, अग्निकायिक और जलकायिक जीयों को स्थावर नहीं माना जा सकता, क्योंकि इनमें गतिशीलता देखी जाती है। इसी कठिनाई से बचने के लिए धवलाकार ने स्थावर की यह व्याख्या प्रस्तुत की कि जिन जीवों में स्थावर नामकर्म का उदय हे वे स्थावर हैं? न कि वे स्थावर है, जो एक स्थान पर अवस्थित रहते हैं।
७. पंचास्तिकाय
कुन्दकुन्द के ग्रन्थ पंचास्तिकाय और षट्खण्डागम की धवला का दृष्टिकोण सर्वार्थसिद्धि से भिन्न है । कुन्दकुन्द अपने ग्रन्थ पंचास्तिकाय में अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि पृथ्वी, अप्, तेज (अग्नि), वायु और वनस्पति ये पाँच एकेन्द्रिय जीव हैं इन एकेन्द्रिय जीवों में पृथ्वी, अप् (जल) और वनस्पति ये तीन स्थावर शरीर से युक्त हैं और शेष अनिल और अनल अर्थात् वायु और अग्नि है। १४ इस प्रकार पाँच प्रकार के एकेन्द्रिय जीवों में कुन्दकुन्द ने केवल पृथ्वी अप् और वनस्पति इन तीन को ही स्थावर माना था, शेष को वे उस मानते थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि कुन्दकुन्द का दृष्टिकोण भी तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बर मान्य पाठ तत्वार्थभाष्य और प्राचीन आगम उत्तराध्ययन के समान ही है। यद्यपि गाया क्रमांक ११० में उन्होंने पृथ्वी, अप, अग्नि, वायु और वनस्पति का जिस क्रम से विवरण दिया और वनस्पति का जिस क्रम से विवरण दिया है वह त्रस और स्थावर जीवों की अपेक्षा से न होकर एकेन्द्रिय एवं द्वीन्द्रिय आदि के वर्गीकरण के आधार पर है। यह गाया उत्तराध्ययनसूत्र के २६ वें अध्याय की गाथा के समान है— तुलना के रूप में पंचास्तिकाय और उत्तराध्ययन की गाथायें प्रस्तुत हैं.
पुढवी आउक्काए, तेऊवाऊ वणस्सइतसाण । पडिलेहणापमत्तो छण्हं पि विराहओ होइ ।। -उत्तराध्ययन, २६ / ३०
पुढवी य उदगमगणी वाउवणप्फदि जीवसंसिदाकाया । देति खलु मोह बहुलं फार्स बहुगा वि ते तेसिं ॥। - पंचास्तिकाय ११०
उस स्थावर के वर्गीकरण के ऐतिहासिक क्रम की दृष्टि से विचार करने पर हम पाते हैं कि सर्वप्रथम आचारांग में पृथ्वी, जल, अग्नि और वनस्पति इन चार को स्थावर और वायुकाय एवं उसकाय इन दो को त्रस माना गया होगा। उसके पश्चात् उत्तराध्ययन में पृथ्वी, जल और वनस्पति इन तीन को स्थावर और अग्नि, वायु और द्वीन्द्रियादि को त्रस माना गया है। अग्नि जो आचारांग में स्थावर वर्ग में थी, वह उत्तराध्ययन में उस वर्ग में मान ली गई वायु में तो स्पष्ट रूप -उत्तराध्ययन, ३६/६८, ६९, १०७ से गतिशलता थी, किन्तु अग्नि में गतिशीलता उतनी स्पष्ट नहीं थी। अतः आचारांग में मात्र वायु को ही त्रस (गतिशील) माना गया था। किन्तु अग्नि की ज्वलन प्रक्रिया में जो क्रमिक गति देखी जाती है, उसके आधार पर अग्नि को इस (गतिशील) मानने का विचार आया और उत्तराध्ययन में वायु के साथ-साथ अग्नि को भी त्रस माना गया। उत्तराध्ययन की अग्नि और वायु की त्रस मानने की अवधारणा की पुष्टि उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्रमूल, उसके स्वोपज्ञ भाष्य तथा कुन्दकुन्द
पंचास्तिकाय में भी की गई है। दिगम्बर परम्परा की स्थावरों और त्रस के वर्गीकरण की अवधारणा से अलग हटकर कुन्दकुन्द द्वारा उत्तराध्ययन और तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बर पाठ की पुष्टि इस तथ्य को ही सिद्ध
तसा य धावरा चेय, थावरा तिविहा तहिं । पुढवी आउजीवा य, तहेव य वणस्सई ।। तेकवाऊ च बोद्धव्वा उराला तसा तहा ।
ति थावरतणुजोगा अणिलाणल काइया य तेसु तसा । मणपरिणाम विरहिदा जीवा एइंदिया णेया ।। - पंचास्तिकाय १११
षट्खण्डागम दिगम्बर परम्परा के षट्खण्डागम की धवला टीका में त्रस और स्थावर के वर्गीकरण की इस चर्चा को तीन स्थलों पर उठाया गया है— सर्वप्रथम सत्परूपणा अनुयोगद्वार (१/१/३९) की टीका में,
इस प्रकार स्थावर की नई व्याख्या के द्वारा धवलाकार ने न केवल पृथ्वी, अप्, वायु, अग्नि और वनस्पति इन पाँचों को स्थावर मानने की सर्वसामान्य अवधारणा की पुष्टि की, अपितु उन अवधारणाओं का संकेत और खण्डन भी कर दिया जो गतिशीलता के कारण वायु, अग्नि आदि को स्थावर न मानकर त्रस मान रही थी। इस प्रकार उसने दोनों धारणाओं में समन्वय किया है। १५
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षट्जीवनिकाय में त्रस एवं स्थावर के वर्गीकरण की समस्या करती है कि कुछ आगमिक मान्यताओं के सन्दर्भ में कुन्दकुन्द श्वेताम्बर संगति बैठाई गई और कहा गया कि लब्धि की अपेक्षा से तो वायु एवं परम्परा के उत्तराध्ययन आदि प्राचीन आगमों की मान्यताओं के अधिक अग्नि स्थावर है, किन्तु गति की अपेक्षा से उन्हें उस कहा गया है। निकट हैं।
दिगम्बर परम्परा में धवला टीका में इसका समाधान यह कह कर किया यहाँ यह ज्ञातव्य है कि जहाँ एक ओर उत्तराध्ययन, उमास्वाति गया कि वायु एवं अग्नि को स्थावर कहे जाने का आधार उनकी के तत्त्वार्थसूत्र एवं कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय में स्पष्ट रूप से षट्जीवनिकाय गतिशीलता न होकर उनका स्थावर नामकर्म का उदय है। दिगम्बर में पृथ्वी, अप् (जल) और वनस्पति- ये तीन स्थावर और अग्नि, परम्परा में ही कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय के टीकाकार जयसेनाचार्य ने वायु और त्रस (द्वीन्द्रियादि)- ये तीन त्रस है, ऐसा स्पष्ट उल्लेख है। यह समन्वय निश्चय और व्यवहार के आधार पर किया। वे लिखते वहीं दूसरी और उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, उमास्वाति की प्रशमरति हैं- पृथ्वी, अप् और वनस्पति-ये तीन स्थावर नामकर्म के उदय एवं कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय जैसे प्राचीन ग्रन्थों में भी कुछ स्थलों पर से स्थावर कहे जाते हैं, किन्तु वायु और अग्नि पंचस्थावर में वर्गीकृत पृथ्वी, अप, अग्नि, वायु और वनस्पति- इन एकेन्द्रिय जीवों के एक किये जाते हुए भी चलन क्रिया दिखाई देने से व्यवहार से त्रस कहे साथ उल्लेख के पश्चात् त्रस का उल्लेख मिलता है। उनका त्रस के पूर्व जाते हैं।१६ । साथ-साथ उल्लेख ही आगे चलकर सभी एकेन्द्रियों को स्थावर मानने इस प्रकार लब्धि और गतिशीलता, स्थावर नामकर्म के उदय की अवधारणा का आधार बना है, क्योंकि द्वीन्द्रिय आदि के लिये तो या निश्चय और व्यवहार के आधार पर प्राचीन आगमिक वचनों और स्पष्ट रूप से त्रस नाम प्रचलित था। जब द्वीन्द्रियादि त्रस कहे ही जाते परवर्ती सभी एकेन्द्रिय जीवों को स्थावर मानने की अवधारणा के मध्य थे तो उनके पूर्व उल्लेखित सभी एकेन्द्रिय स्थावर हैं- यह माना समन्वय स्थापित किया गया। जाने लगा और फिर इनके स्थावर कहे जाने का आधार इनका अवस्थित रहने का स्वभाव नहीं मानकर स्थावर नामकर्म का उदय माना गया। सन्दर्भ किन्तु हमें यह स्मरण रखना होगा कि प्राचीन आगमों में इनका एक १. णेव सर्य छज्जीवणिकाय सत्यं समारंभेज्जा- आयारो (लाडनूं)१/ साथ उल्लेख इनके एकेन्द्रिय वर्ग के अन्तर्गत होने के कारण किया ७/१७६. गया है, न कि स्थावर होने के कारण। प्राचीन आगमों में जहाँ पाँच २. छज्जीवणिकायसुद्धनिरता- इसिभासियाई, २५/२ एकेन्द्रिय जीवों का साथ-साथ उल्लेख है वहाँ उसे त्रस और स्थावर का ३. छज्जीवकाये- उत्तराध्ययन, १२/४१ वर्गीकरण नहीं कहा जा सकता है- अन्यथा एक ही आगम में ४. छहं जीवनिकायाणं- दशवैकालिक, ४/९ अन्तर्विरोध मानना होगा, जो समुचित नहीं है। इस समस्या का मूल ५. संति पाणा उदयनिस्सिया जीवा अणेगा। कारण यह था कि द्वीन्द्रियादि जीवों को बस नाम से अभिहित किया इहं च खलु भो अणगाराणं उदयजीवा वियाहिया। आयारो (लाडनूं), जाता था- अत: यह माना गया कि द्वीन्द्रियादि से भिन्न सभी एकेन्द्रिय १/५४-५५ स्थावर है। इस चर्चा के आधार पर इतना तो मानना ही होगा कि ६. आयारो (लाडनूं), प्रथम अध्ययन, उद्देशक २-७ परवर्तीकाल में त्रस और स्थावर के वर्गीकरण की धारणा में परिवर्तन ७. पुढविं च आउकायं तेउकायं च वाउकायं च। हआ है तथा आगे चलकर श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में पणगाई बीय हरियाई तसकायं च सव्वसो नच्चा।। पंचस्थावर की अवधारणा दृढ़ीभूत हो गई। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि आयारो, ९/१/१२ जब वायु और अग्नि को त्रस माना जाता था, तब द्वन्द्रियादि त्रस के ८. पुढवी आउक्काए, तेऊवाऊवणस्सइतसाण। लिये उदार (उराल) त्रस शब्द का प्रयोग होता था। पहले गतिशीलता पडिलेहणापमत्तो, छण्हं पि विराहओ होइ।। की अपेक्षा से त्रस और स्थावर का वर्गीकरण होता था और उसमें वायु ९.. संसारत्था उ जे जीवा, दुविहा ते वियाहिया।
और अग्नि में गतिशीलता मानकर उन्हें त्रस माना जाता था। वायु की तसा य थावरा चेव, थावरा तिविहा तहिं।। गतिशीलता स्पष्ट थी अत: सर्वप्रथम उसे त्रस कहा गया। बाद में सूक्ष्म पुढवी आउ जीवा य तहेव य वणस्सई।। अवलोकन से ज्ञात हुआ कि अग्नि भी ईंधन के सहारे धीरे-धीरे गति इच्चेए थावरा तिविहा तेसिं भेए सुणह मे। करती हुई फैलती जाती है, अत: उसे भी त्रस कहा गया। जल की गति तेऊवाऊ य बोद्धव्वा उराला य तसा तहा। केवल भूमि के ढलान के कारण होती है स्वत: नहीं, अत: उसे पृथ्वी इच्चेए तसा तिविहा तेसिं भेए सुणह मे।। एवं वनस्पति के समान स्थावर ही माना गया। किन्तु वायु और अग्नि - उत्तराध्ययन, ३६/६८, ६९ एवं १०७ में स्वत: गति होने से उन्हें उस माना गया। पुनः आगे चलकर जब १०. इमा खलु सा छज्जीवणिया णाम अज्झयणं... तंजहा १ द्वीन्द्रिय आदि को भी त्रस और सभी एकेन्द्रिय जीवों का स्थावर मान पुढविकाइया, २ आउकाइया, ३ तेऊकाइया, ४ वाउकाइया, ५ लिया गया तो- पूर्व आगमिक वचनों से संगति बैठाने का प्रश्न वणस्सईकाइया, ६ तसकाइया। आया। अत: श्वेताम्बर परम्परा में लब्धि और गति के आधार पर यह - दशवकालिक, ४/३
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
११ (अ) संसारिणस्त्रसस्थावराः। पृथिव्यम्बुवनस्पतयः स्थावरा।
तेजोवायुद्वीन्द्रियादयश्च त्रसाः। - तत्त्वार्थसूत्र (भाष्यमान्य पाठ) ९/१२-१४ (ब) पृथिव्यप्तेजावायुवनस्पतयः स्थावराः। - वही,
सर्वार्थसिद्धिमान्य पाठ ९/१२ १२. तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि टीका ९/१२ १३. ति थावरतणुजोगा अपिलाणलकाइया य तेसु तसा।
मण परिणाम विरहिदा जीवा एइंदिया णेया।। -१११ १४ (अ) से किं थावरा?, तिविहा पन्न्ता, तंजहा-पुढविकाइया
आउक्काइया वणस्सइकाइया।। - जीवाभिगम प्रथम प्रतिपत्तिसूत्र १० (ब) से किं तं तसा ? तिविहा पण्णत्ता, तंजहा - तेउक्काइया वाउक्काइया ओराला तसा पाणा।।
- वही, सूत्र २२ (स) गतित्रसेष्वन्तर्भावविवक्षणात, तेजोवायूनां लब्ध्या स्थावराणामपि सतां-टीका (अ), जस्स कम्मस्सुदएण जीवाणं संचरणासंचरणभावो होदि तं कम्मं तसणाम। जस्स कम्मस्सुदएण जीवाणं थावरतं होदि तं कम्मं थावरं णाम। आउ-तेउ-वाउकाइयाणं संचरणोवलंभादो ण तसत्तमत्थि, तेसिं गमणपरिणामस्स पारिणामियत्तादो। - षट्खण्डागम ५/५/१०१, खण्ड ५, भाग १,२,३, पुस्तक
१३, पृ. ३६५ (ब). जस्स कम्मस्स उदएण जीवाणं तसत्तं होदि, तस्स कम्मस्स तसेत्ति सण्णां, कारणे कज्जुवयारादो। जदि तसणामकममं ण होज्ज, तो बीइंदियादीणमभावो होज्जा ण च एवं, तेसिमुबलभा। जस्स कम्मस्स उदएण जीवों थावरत्तं पडिवज्जदि तम्स कम्मस्स थावरसण्णा। - षद्खण्डागम १/९-१/२८, खण्ड १, भाग १, पुस्तक ६, पृ. ६१ (स). एते त्रसनामकर्मोदयवशवर्तितः। के पुन: स्थावराः इति चेत्? एकेन्द्रियाः कथमनुक्तमवगम्यते चेत्परिशेषात स्थावरकर्मण: किं कार्यमिति चेदेकस्थानावस्थापकत्वम तेजोवाय्वप्कायिकानां चलनात्मकानां तथा सत्यस्थावरत्वं स्यादिति चेत्र, स्थास्तूनां प्रयोगतश्चलच्छित्रपर्णानामिव गतिपर्यायपरिणतसमीरणाव्यतिरिक्तशरीरत्वतस्तेषां गमनाविरोधात
- षट्खण्डागम, धवलाटीका १/१/४४, पृ. २७७ १६. अथ व्यवहारेणाग्निवातकायिकानां त्रसत्वं दर्शयति
पृथिव्यब्वनस्पतयस्त्रयः स्थावरकायगोगात्सम्बन्धात्स्थावरा भण्यंते अनलानिलकायिकाः तेषु पंच स्थावरेषु मध्ये चलन क्रियां दृष्ट्वा व्यवहारेण त्रसाभण्यते। - पंचास्तिकाय: जयसेनाचार्यकृत तात्पर्यवृत्तिः, गाथा १११ की टीका
जैनदर्शन में पुद्गल और परमाणु
पुद्गल को भी अस्तिकाय द्रव्य माना गया है। यह मूर्त और जाता है। परवर्ती जैन दार्शनिकों ने तो पुद्गल शब्द का प्रयोग स्पष्टत: अचेतन द्रव्य है। पुद्गल का लक्षण शब्द, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श आदि भौतिक तत्त्व के लिए ही किया है, और उसे ही दृश्य जगत् का कारण माना जाता है। इसके अतिरिक्त जैन आचार्यों ने हल्कापन, भारीपन, माना है। क्योंकि जैन दर्शन में पुद्गल ही ऐसा तत्त्व है, जिसे मूर्त या प्रकाश, अंधकार, छाया, आतप, शब्द, बन्ध-सामर्थ्य, सूक्ष्मत्व, स्थूलत्व, इन्द्रियों की अनुभूति का विषय कहा गया है। वस्तुत: पुदगल के संस्थान, भेद, आदि को भी पुद्गल का लक्षण माना है (उत्तराध्ययन उपरोक्त गुण ही उसे हमारी इन्द्रियों के अनुभूति का विषय बनाते है। २८/१२७ एवं तत्त्वार्थ ५/२३-२४) । जहाँ धर्म, अधर्म और आकाश यहाँ यह भी ज्ञातव्य है जैन दर्शन में प्राणीय शरीर यहाँ तक एक द्रव्य माने गये हैं वहाँ पुद्गल अनेक द्रव्य है। जैन आचार्यों ने पृथ्वी, जल, अग्नि और वनस्पति का शरीर रूप दृश्य स्वरूप भी पुद्गल प्रत्येक परमाणु को एक स्वतन्त्र द्रव्य या इकाई माना है। वस्तुत: पुद्गल की ही निर्मिति है। विश्व में जो कुछ भी मूर्तिमान या इन्द्रिय-अनुभूति द्रव्य समस्त दृश्य जगत् का मूलभूत घटक हैं।
का विषय है, वह सब पुद्गल का खेल है। इस सम्बन्ध में विशेष ध्यान ज्ञातव्य है कि बौद्धदर्शन में और भगवती जैसे आगमों के देने योग्य तथ्य यह है कि जहाँ जैन दर्शन में पृथ्वी, जल, अग्नि और प्राचीन अंशों में पुद्गल शब्द का प्रयोग जीव या चेतन तत्त्व के लिए भी वायु- इन चारों को शरीर अपेक्षा पुद्गल रूप मानने के कारण इनमें हुआ है, किन्तु इसे पौद्गलिक शरीर की अपेक्षा से ही जानना चाहिए। स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण- ये चारों गुण माने गये है। जबकि वैशेषिक यद्यपि बौद्ध परम्परा में तो पुद्गल-प्रज्ञप्ति (पुग्गल पञ्चति) नामक एक आदि दर्शन मात्र पृथ्वी को ही उपर्युक्त चारों गुणों से युक्त मानते हैं वे ग्रन्थ ही है, जो जीव के प्रकारों आदि की चर्चा करता है। फिर भी जीवों जल को गन्ध रहित त्रिगुण, तेज को गन्ध और रस रहित मात्र द्विगुण के लिए पुद्गल शब्द का प्रयोग मुख्यत: शरीर की अपेक्षा से ही देखा और वायु को मात्र एक स्पर्शगुण वाला मानते हैं। यहाँ एक विशेष तथ्य
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यह भी है जहाँ अन्य दार्शनिकों ने शब्द को आकाश का गुण माना है, वहाँ जैन दार्शनिकों ने शब्द को पुद्गल का ही गुण माना है। उनके अनुसार आकाश का गुण तो मात्र अवगाह अर्थात् स्थान देना है।
यह दृश्य जगत् पुट्रल के ही विभिन्न संयोगों का विस्तार हैं अनेक पुद्गल परमाणु मिलकर स्कंध की रचना करते हैं और स्कंधों से ही मिलकर दृश्य जगत् की सभी वस्तुयें निर्मित होती हैं नवीन स्कंधों के निर्माण और पूर्व निर्मित स्कन्धों के संगठन और विघटन को प्रक्रिया के माध्यम से ही दृश्य जगत् में परिवर्तन घटित होते हैं और विभिन्न वस्तुएँ और पदार्थ अस्तित्व में आते हैं।
जैनदर्शन में पुल और परमाणु
जैन आचार्यों ने पुद्रल को स्कंध और परमाणु इन दो रूपों में विवेचित किया है। विभिन्न परमाणुओं के संयोग से ही स्कंध बनता हैं फिर भी इतना स्पष्ट है कि पुगल द्रव्य का अंतिम घटक तो परमाणु ही है उसमें स्वभाव से एक रस, एक वर्ण, एक गंध और शीत-उष्ण या स्निग्ध-रुक्ष में से कोई दो स्पर्शं पाये जाते है।
जैन आगमों में वर्ण पाँच माने गये हैं- लाल, पीला, नीला, सफेद और काला; गंध दो हैं-सुगन्ध और दुर्गन्ध; रस पाँच है तिक्त, कटु, कसैला, खट्टा और मीठा और इसी प्रकार स्पर्श आठ माने गये हैं- शीत और उष्ण, स्निग्ध और रुक्ष, मृदु और कर्कश तथा हल्का और भारी ।
इस प्रकार जैनदर्शन में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श गुणों के बीच भेद माने गये है। पुनः जैन दर्शन इनमें प्रत्येक में भी उनकी तरतमता (डिग्री या मात्रा) के आधार पर भेद करता है। उदाहरण के रूप में वर्ण में लाल, काला आदि वर्ण है किन्तु इनमें भी लालिमा और कालिमा के हल्के, तेज आदि अनेक स्तर देखे जाते है। लाल वर्ण एक गुण (डिग्री) लाल से लगाकर संख्यात, असंख्यात और अनन्तगुण लाल हो सकता है। यही स्थिति काले आदि अन्य वर्गों की भी होगी। इसी प्रकार रस में खट्टा, मीठा आदि रस भी एक ही प्रकार के नहीं होते है, उनमें भी तरतमता होती है। मीठास, खटास या सुगन्ध-दुर्गन्ध आदि के अनेकानेक स्तर है। यही स्थिति उष्ण आदि स्पर्शो की है, जैन दार्शनिकों के अनुसार उष्मा भी एकगुण (एक डिग्री) से लेकर संख्यात् असंख्यात् या अनन्त गुण (डिग्री) की हो सकती है। इस प्रकार जैन दार्शनिकों ने वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श में प्रत्येक के न केवल अवान्तर भेद किये है, अपितु तरतमता या डिग्री के आधार पर अनन्त भेद माने हैं। उनका यह दृष्टिकोण आज भी विज्ञान सम्मत है।
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वाद्यों का शब्द; ४. घन - झालर, घंट आदि का शब्द ५. शषिर - फूँककर बजाये जानेवाले शंख, बाँसुरी आदि का शब्द और ६. संघर्षदो वस्तुओं के घर्षण से उत्पन्न किया गया शब्द।
इस प्रकार परस्पर आश्लेष रूप बन्ध के भी प्रायोगिक और वैस्त्रसिक- ये दो भेद हैं। जीव और शरीर का बन्ध तथा लाख आदि से जोड़कर बनाई गई वस्तुओं का बन्ध प्रयत्नसापेक्ष होने से प्रायोगिक बन्ध है। बिजली, मेघ, इन्द्रधनुष आदि का बन्ध प्रयत्न-निरपेक्ष पौद्रलिक संश्लेष वैखसिक बन्ध है।
सूक्ष्मत्व और स्थूलत्व के भी अन्त्य तथा आपेक्षिक होने से वे दो-दो भेद हैं जो सूक्ष्मत्व तथा स्थूलत्व दोनों एक ही वस्तु में अपेक्षा भेद से घटित न हों, वे अन्त्य कहे जाते है और जो घटित हो ये आपेक्षिक कहे जाते हैं। परमाणुओं का सूक्ष्मत्व और जगत्-व्यापी महास्कन्ध का स्थूलत्व अन्त्य है, क्योंकि अन्य पुद्गल की अपेक्षा परमाणुओं में स्थूलत्व और महास्कन्ध में सूक्ष्मत्व घटित नहीं होता। द्वयणुक आदि मध्यवर्ती स्कन्धों के स्थूलत्व व स्थूलत्व दोनों आपेक्षिक हैं, जैसे आँवले का सूक्ष्मत्व और बिल्व का स्थूलत्व है सापेक्षिक, आँवला बिल्व की अपेक्षा छोटा है, अतः सूक्ष्म है और बिल्य आँवले की अपेक्षा बड़ा है, अतः स्थूल है। परन्तु वही आँवला बेर की अपेक्षास्थूल है और वही बिल्व कुष्माण्ड की अपेक्षा सूक्ष्म है प्रकार जैसे आपेक्षिक होने से एक ही वस्तु में सूक्ष्मत्व-स्थूलत्व दोनों विरुद्ध गुण-धर्म होते हैं, किन्तु अन्त्य सूक्ष्मत्व और स्थूलत्व एक वस्तु में क ही साथ नहीं होते हैं।
संस्थान इत्यंत्व और अनित्थत्व दो प्रकार का है। जिस आकार की किसी के साथ तुलना की जा सके वह इत्थंत्वरूप है और जिसकी तुलना न की जा सके वह अनित्यत्वरूप है। मेघ आदि का संस्थान ( रचना - विशेष) अनित्थंत्वरूप है, क्योंकि अनियत होने से किसी एक प्रकार से उसका निरूपण नहीं किया जा सकता। जबकि अन्य पदार्थों का संस्थान इत्थंत्वरूप है, जैसे गेंद, सिंघाड़ा आदि । गोल, त्रिकोण, चतुष्कोण, दीर्घ, पारिमण्डल ( वलयाकार ) आदि रूप में इत्यंत्व रूप संस्थान के अनेक भेद हैं।
जैन दार्शनिकों के अनुसार शब्द भाषावर्गणा के पुद्गलों का एक विशिष्ट प्रकार का परिणाम है। निमित्त भेद से उसके अनेक भेद माने जाते हैं। जो शब्द जीव के प्रयत्न से उत्पन्न होता है यह प्रायोगिक है और जो किसी के प्रयत्न के बिना ही उत्पन्न होता है वैखसिक है, जैसे बादलों का गर्जन । प्रायोगिक शब्द के मुख्यत: निम्न छह प्रकार है- का विरोधी एक परिणाम- विशेष है।
१. भाषा - मनुष्य आदि की व्यक्त और पशु, पक्षी आदि की अव्यक्त ऐसी अनेकविध भाषाएँ; २. तत - चमड़े से लपेटे हुए वाद्यों अर्थात् मृदंग, पटह आदि का शब्द ३. वितत तारवाले वीणा, सारंगी आदि
स्कन्धरूप में परिणत पुट्रलपिण्ड का विश्लेष (विभाग) होना भेद है। इसके पाँच प्रकार हैं- १. औत्करिक-चीरे या खोदे जाने पर होने वाला लकड़ी, पत्थर आदि के बड़े टुकण्डे २. चौर्णिक-कण-कण रूप में चूर्ण हो जाना, जैसे गेहूं, जौ आदि का आटा ३ खण्ड-टुकड़े-टुकड़े होकर टूट जाना, जैसे घड़े के कपालादि; ४. प्रतर परतें यह तहें निकलना, जैसे भोजपत्र आदि; ५. अनुतट छाल निकलना, जैसे बाँस, ईख आदि ।
तम अर्थात् अन्धकार देखने में रुकावट डालनेवाला, प्रकाश
छाया प्रकाश के ऊपर आवरण आ जाने से होती है। इसके दो प्रकार हैं-दर्पण आदि स्वच्छ पदार्थों में पड़नेवाला मुखादि का प्रतिबिम्ब, ज्यों-का-त्यों दिखाई देता है और अन्य अस्वच्छ वस्तुओं
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
पर पड़नेवाली परछाई प्रतिबिम्बरूप छाया है। सूर्य आदि का उष्ण स्कंध के निर्माण की प्रक्रिया प्रकाश आतप और चन्द्र, मणि, खद्योत आदि का अनुष्ण (शीतल) स्कंध की रचना दो प्रकार से होती है- एक ओर बड़े-बड़े प्रकाश उद्योत है।
स्कंधों के टूटने से या छोटे-छोटे स्कंधों के संयोग से नवीन स्कंध स्पर्श, वर्ण गन्ध, रस, शब्द आदि सभी पर्यायें पुद्गल के कार्य बनते हैं तो दूसरी ओर परमाणुओं में निहित स्वाभाविक स्निग्धता और होने से पौद्गलिक मानी जाती हैं। (तत्त्वार्थसूत्र पं० सुखलाल जी पृ०१२९- रुक्षता के कारण परस्पर बंध होता है, जिससे भी स्कंधों की रचना होती ३०)।
है। इसलिए यह कहा गया है कि संघात और भेद से स्कंध की रचना ज्ञातव्य है कि परमाणुओं में मृदु, कर्कश, हल्का और भारी होती है (संघातभेदेभ्य:उत्पद्यन्ते -तत्त्वार्थ ५/२६)। संघात का तात्पर्य चार स्पर्श नहीं हाते हैं। ये चार स्पर्श तभी संभव होते हैं जब परमाणुओं एकत्रित होना और भेद का तात्पर्य टूटना है। किस प्रकार के परमाणुओं से स्कंधों की रचना होती है और तभी उनमें मृदु, कठोर, हल्के और के परस्पर मिलने से स्कंध आदि की रचना होती है- 'इस प्रश्न पर भी भारी गुण भी प्रकट हो जाते हैं। परमाणु एक प्रदेशी होता है जबकि जैनाचार्यों ने विस्तृत चर्चा की है। स्कंध में दो या दो से अधिक असंख्य प्रदेश भी हो सकते हैं। स्कंध, पौगलिक स्कन्ध की उत्पत्ति मात्र उसके अवयवभूत परमाणुओं स्कंध-देश, स्कंध-प्रदेश और परमाणु ये चार पुद्गल द्रव्य के विभाग हैं। के पारस्परिक संयोग से नहीं होती है। इसके लिए उनकी कुछ विशिष्ट इनमें परमाणु निरवयव है। आगम में उसे आदि, मध्य और अन्त से योग्यताएं भी अपेक्षित होती है। पारस्परिक संयोग के लिए उनमें स्निग्धत्व रहित बताया गया है जबकि स्कंध में आदि और अन्त होते हैं। न (चिकनापन), रूक्षत्व (रूखापन) आदि गुणों का होना भी आवश्यक है। केवल भौतिक वस्तुएँ अपितु शरीर, इन्द्रियाँ और मन भी स्कंधों का ही जब स्निग्ध और रूक्ष परमाणु या स्कन्ध आपस में मिलते हैं तब उनका खेल हैं।
बन्ध (एकत्वपरिणम ) होता है, इसी बन्ध से व्यणुक आदि स्कन्ध
बनते हैं। स्कंधों के प्रकार
स्निग्ध और रूक्ष परमाणुओं या स्कन्धों का संयोग सदृश जैन दर्शन में स्कंध के निम्न ६ प्रकार माने गये हैं- और विसदृश दो प्रकार का होता है। स्निग्ध का स्निग्ध के साथ और
१. स्थूल-स्थूल इस वर्ग के अन्तर्गत विश्व के समस्त ठोस रूक्ष का रूक्ष के साथ बन्ध सदृश बन्ध है। स्निग्ध का रूक्ष के साथ पदार्थ आते हैं। इस वर्ग के स्कंधों की विशेषता यह है कि वे छिन्न-भिन्न बन्ध विसदृश बन्ध है। होने पर मिलने में असमर्थ होते हैं, जैसे-पत्थर।
तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार जिन परमाणुओं में स्निग्धत्व या रूक्षत्व २. स्थूल-जो स्कंध छिन्न-भिन्न होने पर स्वयं आपस में का अंश जघन्य अर्थात् न्यूनतम हो उन जघन्य गुण (डिग्री) वाले मिल जाते हैं वे स्थूल स्कंध कहे जाते है। इसके अन्तर्गत विश्व के तरल परमाणुओं का पारस्परिक बन्ध नहीं होता है। इस से यह भी फलित द्रव्य आते हैं, जैसे-पानी, तेल आदि।
होता है कि मध्यम और उत्कृष्टसंख्यक अंशोंवाले स्निग्ध एवं रूक्ष सभी ३. स्थूल-सूक्ष्म-जो पुद्गल स्कंन्ध छिन्न-भिन्न नहीं किये जा परमाणुओं या स्कन्धों का पारस्परिक बन्ध हो सकता है। परन्तु इसमें भी सकते हों अथवा जिनका ग्रहण या लाना ले जाना संभव नहीं हो किन्तु अपवाद है तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार समान अंशोंवाले स्निग्ध तथा रूक्ष जो चक्षु इन्द्रिय के अनुभूति के विषय हों वे स्थूल-सूक्ष्म या बादर-सूक्ष्म परमाणुओं का स्कन्ध नहीं बनता। इस निषेध का फलित अर्थ यह भी है कहे जाते हैं, जैसे-प्रकाश, छाया, अन्धकार आदि।
कि असमान गुणवाले सदृश अवयवी स्कन्धों का बन्ध होता है। इस ४. सक्ष्म-स्थूल- जो विषय दिखाई नहीं देते हैं किन्तु फलित अर्थ का संकोच करके तत्त्वार्थसूत्र (५/३५) में सदृश असमान हमारी ऐन्द्रिक अनुभूति के विषय बनते हैं, जैसे- सुगन्ध, शब्द आदि। अंशों की बन्धोपयोगी मर्यादा नियत की गई है। तदनुसार असमान आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से विद्युत् धारा का प्रवाह और अदृश्य किन्तु अंशवाले सदृश अवयवों में भी जब एक अवयव का स्निग्धत्व या अनुभूत गैस भी इस वर्ग के अन्तर्गत आती हैं। जैन आचार्यों ने ध्वनि, रूक्षत्व दो अंश, तीन अंश, चार अंश आदि अधिक हो तभी उन दो तरंग आदि को भी इसी वर्ग के अन्तर्गत माना है। वर्तमान युग में सदृश अवयवों का बन्ध होता है। इसलिए यदि एक अवयव के इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों द्वारा चित्र आदि का सम्प्रेषण किया जाता है, उसे स्निग्धत्व या रूक्षत्व की अपेक्षा दूसरे अवयव का स्निग्धत्व या रूक्षत्व भी हम इसी वर्ग के अर्न्तगत रख सकते हैं।
केवल एक अंश अधिक हो तो भी उन दो सदृश अवयवों का बन्ध नहीं ५. सूक्ष्म- जो स्कंध इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण नहीं किये जा होता है। उनमें कम से कम दो या दो से अधिक गुणों का अंतर होना सकते हों वे इस वर्ग के अन्तर्गत आते हैं। जैनाचार्यों ने कर्मवर्गणा, जो चाहिये। पं. सुखलाल जी लिखते हैजीवों के बंधन का कारण है, मनोवर्गणा भाषावर्गणा आदि को इसी वर्ग श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में बन्ध सम्बन्धी में माना है।
प्रस्तुत तीनों सूत्रों में पाठभेद नहीं है, पर अर्थभेद अवश्य है। अर्थभेद ६. अति सूक्ष्म- द्वयणुक आदि अत्यन्त छोट स्कंध अति की दृष्टि से ये तीन बातें ध्यान देने योग्य हैसूक्ष्म माने गये हैं।
१. जघन्यगुण परमाणु एक अंशवाला हो, तब बन्ध का
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जैनदर्शन में पुद्गल और परमाणु होना या न होना, २. 'आदि' पद से तीन आदि अंश लिए जाय या ४. जघन्य+त्र्यादि अधिक
- नहीं नहीं, और ३. बन्धविधान केवल सदृश अवयवों के लिए माना जाय ५. जघन्येतर+सम जघन्येतर अथवा नहीं।
६. जघन्येतर+एकाधिक जघन्येतर इस सम्बन्ध में पंडित जी आगे लिखते हैं
७. जघन्येतर+व्यधिक जघन्येतर १. तत्त्वार्थभाष्य और सिद्धसेनगणि की उसकी वृत्ति के ८. जघन्यतेर+त्र्यादि अधिक जघन्येतर नहीं नहीं अनुसार दोनों परमाणु जब जघन्य गुणवाले हों तभी उनके बन्ध का इस बन्ध-विधान को स्पष्ट करते हुए अपनी तत्त्वार्थसूत्र की निषेध है, अर्थात् एक परमाणु जघन्यगुण हो और दूसरा जघन्यगुण न व्याख्या में पं. सुखलालजी लिखते है कि स्निग्धत्व और रूक्षत्व दोनों हो तभी उनका बन्ध होता है। परन्तु सर्वार्थसिद्धि आदि सभी दिगम्बर स्पर्श-विशेष हैं। ये अपनी-अपनी जाति की अपेक्षा एक-एक रूप होने व्याख्याओं के अनुसार एक जघन्यगुण परमाणु का दूसरे अजघन्यगुण पर भी परिणमन की तरतमता के कारण अनेक प्रकार के होते हैं। परमाणु के साथ भी बन्ध नहीं होता।
तरतमता यहाँ तक होती है कि निकृष्ट स्निग्धत्व और निकृष्ट रूक्षत्व २. तत्त्वार्थभाष्य और उसकी वृत्ति के अनुसार सूत्र ३५ के तथा उत्कृष्ट स्निग्धत्व और उत्कृष्ट रूक्षत्व के बीच अनन्तानन्त अंशों 'आदि' पद का तीन आदि अंश अर्थ लिया जाता है। अतएव उसमें का अन्तर रहता है, जैसे बकरी और ऊँटनी के दूध के स्निग्धत्व में। किसी एक परमाणु से दूसरे परमाणु में स्निग्धत्व या रूक्षत्व के अंश स्निग्धत्व दोनों में ही होता है परन्तु एक में अत्यल्प होता है और दूसरे दो, तीन, चार तथा बढ़ते-बढ़ते संख्यात, असंख्यात अनन्त अधिक में अत्यधिक। तरतमतावाले स्निग्धत्व और रूक्षत्व परिणामों में जो होने पर भी बन्ध माना जाता है; केवल एक अंश अधिक होने पर ही परिणाम सबसे निकृष्ट अर्थात् अविभाज्य हो उसे जघन्य अंश कहते हैं। बन्ध नहीं माना जाता है। परन्तु सभी दिगम्बर व्याख्याओं के अनुस्पर जघन्य को छोड़कर शेष सभी जघन्येतर कहे जाते हैं। जघन्येतर में केवल दो अंश अधिक होने पर ही बन्ध माना जाता है, अर्थात् एक मध्यम और उत्कृष्ट संख्या आ जाती है। सबसे अधिक स्निग्धत्व अंश की तरह तीन, चार संख्यात, असंख्यात, अनन्त अंश अधिक होने परिणाम उत्कृष्ट है और जघन्य तथा उत्कृष्ट के बीच के सभी परिणाम पर बन्ध नहीं माना जाता।
मध्यम हैं। जघन्य स्निग्धत्व की अपेक्षा उत्कृष्ट स्निग्धत्व अनन्तानन्त ३. भाष्य और वृत्ति के अनुसार दो, तीन आदि अंशों के गुना अधिक होने से यदि जघन्य स्निग्धत्व को एक अंश कहा जाय तो अधिक होने पर बन्ध का विधान सदृश अवयवों पर ही लागू होता उत्कृष्ट स्निग्धत्व को अनन्तानन्त अंशपरिमित मानना चाहिए। दो, तीन है,विसदृश पर नहीं। परन्तु दिगम्बर व्याख्याओं में वह विधान सदृश यावत् संख्यात, असंख्यात और अनन्त से एक कम उत्कृष्ट तक के की भाँति विसदृश परमाणुओं के बन्ध पर भी लागू होता है। सभी अंश मध्यम हैं।
इस अर्थभेद के कारण दोनों परम्पराओं में बन्ध विषयक जो यहाँ सदृश का अर्थ है स्निग्ध का स्निग्ध के साथ या रूक्ष विधि-निषेध फलित होता है वह इस प्रकार है
का रूक्ष के साथ बन्ध होना और विसदृश का अर्थ है स्निग्ध का रूक्ष
के साथ बन्ध होना। एक अंश जघन्य है और उससे एक अधिक अर्थात् भाष्य-वृत्त्यनुसार
दो अंश एकाधिक हैं। दो अंश अधिक हों तब व्यधिक और तीन अंश गुण-अंश
सदृश विसदृश अधिक हों तब त्र्याधिक। इसी तरह चार अंश अधिक होने पर चतुरधिक १. जघन्य जघन्य
यावत् अनन्तानन्त-अधिक कहलाता है। सम अर्थात् दोनों ओर अंशों जघन्य एकाधिक
की संख्या समान हो तब वह सम है। दो अंश जघन्येतर का सम जघन्य व्यधिक
जघन्येतर दो अंश हैं, दो अंश जघन्येतर का एकाधिक जघन्येतर तीन ४. जघन्य+त्र्यादि अधिक है
अंश हैं, दो अंश जघन्येतर का व्यधिक जघन्येतर चार अंश हैं, दो ५. जघन्येतर+सम जघन्येतर
अंश जघन्येतर का व्याधिक जघन्येतर पाँच अंश हैं और चतुरधिक ६. जघन्येतर एकाधिक जघन्येतर
जधन्येतर छ: अंश हैं। इसी प्रकार तीन आदि से अनन्तांश जघन्येतर ७. जघन्येतर+व्यधिक जघन्येतर
तक के सम, एकाधिक, व्यधिक और व्यादि जघन्येतर होते हैं। ८. जघन्येतर+त्र्यादि अधिक जघन्येतर
यहाँ यह भी बात ध्यान देने योग्य है कि समांश स्थल में
सदृश बन्ध तो होता ही नहीं, विसदृश होता है, जैसे दो अंश स्निग्ध सर्वार्थसिद्धि आदि दिगम्बर व्याख्या-ग्रन्यां के अनुसार
का दो अंश रूक्ष के साथ या तीन अंश स्निग्ध का तीन अंश रूक्ष के
सदश विसदृश साथ। ऐसे स्थल में कोई एक सम दूसरे सम को अपने रूप में परिणत १. जघन्य जघन्य
नहीं कर लेता है अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार कभी स्निग्धत्व जघन्य एकाधिक
नहीं नहीं रूक्षत्व को स्निग्धत्व में बदल देता है और कभी रूक्षत्व स्निग्धत्व को ३. जघन्य+व्यधिक
रूक्षत्व में बदल देता है। परन्तु अधिकाशं स्थल में अधिकांश ही
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गुण-अंश
नहीं
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ हीनांश को अपने स्वरूप में बदल सकता है, जैसे पंचांश स्निग्धत्व तीन किन्तु यह भेद की प्रक्रिया तब तक होनी चाहिए जब पुद्गल स्कंध एक अंश स्निग्धत्व को अपने रूप में परिणत करता है अर्थात् तीन अंश प्रदेशी अंतिम इकाई के रुप में अविभाज्य न हो जाये। यह अविभाज्य स्निग्धत्व भी पाँच अंश स्निग्धत्व के सम्बन्ध से पाँच अंश परिणत हो परमाणु किसी भी इंद्रिय या अणुवीक्षण यंत्रादि से भी ग्राह्य (दृष्टिगोचर) जाता है। इसी प्रकार पाँच अंश स्निग्धत्व तीन अंश रूक्षत्व को भी स्व- नहीं होता है। जैन दर्शन में इसे केवल सर्वज्ञ के ज्ञान का विषय माना स्वरूप में मिला लेता है अर्थात् रूक्षत्व स्निग्धत्व में बदल जाता है। गया है। इस तथ्य की पुष्टि करते हुए प्रोफेसर जान पिल्ले लिखते है:रूक्षत्व अधिक हो तो वह अपने से कम स्निग्धत्व को अपने रूप का वैज्ञानिक पहले अणु को ही पुद्गल का सबसे छोटा, अभेद्य अंश मानते बना लेता है। मेरे विचार में यहाँ यह भी सम्भव है कि दोनों के मिलन थे, परन्तु जब उसके भी विभाग होने लगे, तो उन्होंने अपनी धारणा से अंशो की अपेक्ष कोई तीसरी अवस्था भी बन सकती है। बदल दी और अणु को मालीक्यूल अर्थात् सूक्ष्म स्कन्ध नाम दिया तथा
परमाणु को एटम नाम दिया। किन्तु अब तो परमाणु के भी न्यूट्रान, जैन दर्शन में परमाणु
प्रोटान और इलेक्ट्रान जैसे भेद कर दिये गये हैं, जिससे सिद्ध होता है जैन दर्शन में परमाणु को पुद्गल का सबसे छोटा अविभागी कि आधुनिक वैज्ञानिकों का परमाणु अविभागी नहीं है। जैन दर्शन तो अंश माना गया है। यथा 'जंदव्वं अविभागी तं परमाणु वियाणेहि'२ ऐसे परमाणु को भी सूक्ष्म स्कन्ध ही कहता है। पुद्गल के समान परमाणु अर्थात् जो द्रव्य अविभागी है उसको निश्चय से परमाणु जानो। इसी में भी वर्ण, रस, गंध, स्पर्श के गुण माने गये है फिर भी यह ज्ञातव्य तरह की परिभाषा डेमोक्रिटस ने भी दी है जिसका उल्लेख पूर्व में है कि प्रत्येक परमाणु में कोई एक वर्ण, एक गंध, एक रस और मात्र कर आये हैं। परमाणु का लक्षण स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द दो स्पर्श शीत और उष्ण में कोई एक तथा स्निग्ध और रूक्ष में से कोई लिखते हैं
एक-पाये जाते है। अंतादि अंतमज्झं अंतंतं णेव इंदिए गेझं।
जैनाचार्यों की यह विशेषता रही है कि उन्होंने शब्द, अंधकार, जं अविभागी दव्वं तं परमाणुं पसंसंति।।
प्रकाश, छाया, गर्मी आदि को पुद्गल द्रव्य का ही पर्याय माना है। इस
-नियमसार २९ दृष्टि से जैन दर्शन का पुद्गल विचार आधुनिक विज्ञान के बहुत अधिक ___ अर्थात् परमाणु का वही आदि, वही अंत तथा वही मध्य निकट है। होता है। वह इंद्रियग्राह्य नहीं होता। वह सर्वथा अविभागी है-उसके
जैन दर्शन की ही ऐसी अनेक मान्यतायें हैं, जो कुछ वर्षों तक टुकड़े नहीं किये जा सकते। ऐसे अविभागी द्रव्य को परमाणु कहते अवैज्ञानिक व पूर्णत: काल्पनिक लगती थीं, किन्तु आज विज्ञान से हैं। परमाणु सत् है अतः अविनाशी है। साथ ही उत्पाद व्यय धर्मा प्रमाणित हो रही हैं। उदाहरण के रूप में प्रकाश, अन्धकार, ताप, छाया अर्थात् रासायनिक स्वभाव वाला भी है। इस तथ्य को वैज्ञानिकों ने भी शब्द आदि पौद्गलिक हैं जैन आगमों की इस मान्यता पर कोई विश्वास माना है। वे भी परमाणु को रासायनिक परिवर्तन क्रिया में भाग लेने नहीं करता था, किन्तु आज उनकी पौद्गगलिकता सिद्ध हो चुकी है। जैन योग्य परिणमनशील मानते हैं। परमाणु जब अकेला-असम्बद्ध होता है आगमों का यह कथन है कि शब्द न केवल पौद्गलिक है, अपितु वह तब उसमें प्रतिक्षण स्वाभावानुकूल पर्यायें या अवस्थाएं होती रहती हैं ध्वनि रूप में उच्चरित होकर लोकान्त तक की यात्रा करता है, इस तथ्य तथा जब वह अन्य परमाणु से सम्बद्ध होकर स्कंध की दशा रूप में को कल तक कोई भी स्वीकार नहीं करता था, किन्तु आधुनिक वैज्ञानिक होता है तब उसमें विभाव या स्वभावेतर पर्यायें भी द्रवित होती रहती खोजों ने अब इस तथ्य को सिद्ध कर दिया है कि प्रत्येक ध्वनि उच्चरित हैं। इसी कारण ही उसे द्रव्य कहा जाता है। द्रव्य का व्युत्पत्ति सभ्य होने के बाद अपनी यात्रा प्रारम्भ कर देती है और उसकी यह यात्रा, चाहे अर्थ यही है कि जो द्रवित अर्थात् परिवर्तित हो। परमाणु भी इसका अत्यन्त सूक्ष्म रूप में क्यों न हो, लोकान्त तक होती है। जैनों की यह अपवाद नहीं है।
अवधारणा कि अवधिज्ञानी चर्म-चक्षु के द्वारा गृहीत नहीं हो रहे दूरस्थ
विषयों का सीधा प्रत्यक्षीकरण कर लेता है- कुछ वर्षों पूर्व तक कपोलकल्पना परमाणु की उत्पत्तिः
ही लगती थी, किन्तु आज जब टेलीविजन का आविष्कार हो चुका है, यहां परमाणु की उत्पत्ति का तात्पर्य उसका अस्तित्व में आने यह बात बहुत आश्चर्यजनक नहीं रही है। जिस प्रकार से ध्वनि की यात्रा से नहीं, क्योंकि परमाणु सत् स्वरूप है। सत् की न तो उत्पत्ति होती है होती है उसी प्रकार से प्रत्येक भौतिक पिण्ड से प्रकाश-किरणें परावर्तित और नाश। सत् तो सदाकाल अनादि- अनंत अस्तित्व वाला होता है, होती हैं और वे भी ध्वनि के समान ही लोक में अपनी यात्रा करती हैं अत: परमाणु का अस्तित्व भी अनादि-अनंत है, अत: वह अविनाशी तथा प्रत्येक वस्तु या घटना का चित्र विश्व में संप्रेषित कर देती है। आज है। यहां परमाणु की उत्पत्ति का तात्पर्य मिले हुए परमाणुओं के समूह से यदि मानव मस्तिष्क में टेलीविजन सेट की ही तरह चित्रों को ग्रहण रूप स्कंधों से विखण्डित होकर परमाणु के आविर्भाव हैं। वस्तुतः करने का सामर्थ्य विकसित हो जाये, तो दूरस्थ पदार्थों एवं घटनाओं के परमाणुओं से स्कन्ध और स्कन्ध से परमाणु अर्विभूत होते रहते है। हस्तामलकवत् ज्ञान में कोई बाधा नहीं रहेगी, क्योंकि प्रत्येक पदार्थ से तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार 'भेदादणुः' अर्थात् भेद से अणु प्रगट होता है, प्रकाश व छाया के रूप में जो किरणें परावर्तित हो रही हैं, वे तो हम
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जैनदर्शन में पुद्गल और परमाणु
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आधुनिक विज्ञान प्राचीन जैन अवधारणाओं को सम्पुष्ट करने भी बहुत कुछ ऐसा है, जो या तो आज विज्ञान सम्मत सिद्ध हो चुका है में किस प्रकार सहायक हुआ है कि उसका एक उदाहरण यह है कि जैन अथवा जिसके विज्ञान सम्मत सिद्ध होने की सम्भावना अभी पूर्णतः तत्त्व-मीमांसा में एक ओर यह अवधारणा रही है कि एक पुद्गल परमाणु निरस्त नहीं हुई है।
जितनी जगह घेरता है- वह एक आकाश प्रदेश कहलाता है, दूसरे शब्दों अनेक आगम वचन या सूत्र ऐसे हैं, जो कल तक अवैज्ञानिक . में एक आकाश प्रदेश में एक परमाणु ही रह सकता है, किन्तु दूसरी प्रतीत होते थे, वे आज वैज्ञानिक सिद्ध हो रहे हैं। मात्र इतना नहीं, ओर आगमों में यह भी उल्लेख है कि एक आकाश प्रदेश में अनन्त इन सूत्रों की वैज्ञानिक ज्ञान के प्रकाश में जो व्याख्या की गयी, वह पुद्गल परमाणु समा सकते हैं। इस विरोधाभास का सीधा समाधान हमारे अधिक समीचीन प्रतीत होती है। उदाहरण के रूप में परमाणुओं के पास नहीं था। लेकिन विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि विश्व में कुछ पारस्परिक बन्धन से स्कन्ध के निर्माण की प्रक्रिया को समझाने हेतु ऐसे ठोस द्रव्य हैं जिनका एक वर्ग इंच का वजन लगभग ८ सौ टन तत्त्वार्थसूत्र के पाँचवें अध्याय का एक सूत्र है- स्निग्धरूक्षत्वात् बन्धः। होता है। इससे यह भी फलित होता है कि जिन्हें हम ठोस समझते हैं, इसमें स्निग्ध और रुक्ष परमाणुओं के एक-दूसरे से जुड़कर स्कन्ध वे वस्तुत: कितने पोले हैं। अतः सूक्ष्म अवगाहन शक्ति के कारण यह बनाने की बात कही गयी है। सामान्य रूप से इसकी व्याख्या यह संभव है कि एक ही आकाश प्रदेश में अनन्त परमाणु भी समाहित हो कहकर ही की जाती थी कि स्निग्ध (चिकने) एवं रुक्ष (खरदुरे) जायें। परमाणुओं में बन्ध होता है, किन्तु आज इस सूत्र की वैज्ञानिक दृष्टि जैन दर्शन का परमाणुवाद आधुनिक विज्ञान के कितना निकट से व्याख्या होगी तो स्निग्ध अर्थात् धनात्मक विद्युत् से आवेशित एवं है। इसका विस्तृत विवरण श्री उत्तम चन्द जैन ने अपने लेख 'जैन दर्शन रुक्ष अर्थात् ऋणात्मक विद्युत् से आवेशित सूक्ष्म-कण, जैन दर्शन का तात्त्विक पक्ष परमाणुवाद' में दिया है। हम यहाँ उनके मन्तव्य का की भाषा में परमाणु, परस्पर मिलकर स्कन्ध (Molecule) का कुछ अंश आंशिक परिवर्तन के साथ उद्धृत कर रहे हैंनिर्माण करते हैं। इस प्रकार तो तत्त्वार्थसूत्र का यह सूत्र अधिक विज्ञान सम्मत प्रतीत होता है। प्रो० जी० आर० जैन ने अपनी पुस्तक जैन परमाणुवाद और आधुनिक विज्ञान Cosmology Old and New में इस सम्बन्ध में विस्तार से विवेचन
जैन दर्शन की परमाणुवाद पर आधारित निम्न घोषणाएं आधुनिक किया है और इस सूत्र की वैज्ञानिकता को सिद्ध किया है। विज्ञान के परीक्षणों द्वारा सत्य साबित हो चुकी है
जहाँ तक भौतिक तत्त्व के अस्तित्व एवं स्वरूप का प्रश्न है १. परमाणुओं के विभिन्न प्रकार के यौगिक, उनका विखण्डन वैज्ञानिकों एवं जैन आचार्यों में अधिक मतभेद नहीं है। परमाणु या एवं संलयन, विसरण, उनकी बंध, शक्ति, स्थिति, प्रभाव, स्वभाव, पुद्गल कणों में जिस अनन्त शक्ति का निर्देश जैन आचार्यों ने किया था संख्या आदि का अतिसूक्ष्म वैज्ञानिक विवेचन जैन ग्रन्थों में विस्तृत रूप वह अब आधुनिक वैज्ञानिक अन्वेषणों से सिद्ध हो रहा है। आधुनिक में उपलब्ध है। वैज्ञानिक इस तथ्य को सिद्ध कर चुके हैं कि एक परमाणु का विस्फोट २. पानी स्वतंत्र तत्त्व नहीं अपितु पुद्गल की ही एक अवस्था भी कितनी अधिक शक्ति का सृजन कर सकता है। वैसे भी भौतिक है। यह वैज्ञानिक सत्य है कि जल यौगिक है। पिण्ड या पुद्गल की अवधारणा को लेकर वैज्ञानिकों एवं जैन विचारकों ३. शब्द आकाश का गुण नहीं अपितु भाषावर्गणा रूप में कोई अधिक मतभेद नहीं देखा जाता। परमाणुओं के द्वारा स्कन्ध स्कंधों का अवस्थान्तर है, इसलिए यंत्रग्राह्य है। (Molecule) की रचना का जैन सिद्धान्त कितना वैज्ञानिक है, इसकी ४. विश्व किसी के द्वारा निर्मित नहीं, क्योंकि सत् की चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं। विज्ञान जिसे परमाणु कहता था, वह अब उत्पत्ति या विनाश संभव नहीं। सत् का लक्षण ही उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य टूट चुका है। वास्तविकता तो यह है कि विज्ञान ने जिसे परमाणु मान युक्त होना है। पुद्गल निर्मित विश्व मिथ्या एवं असत् नहीं है, सत् लिया था, वह परमाणु था ही नहीं, वह तो स्कन्ध ही था। क्योंकि जैनों स्वरूप है। की परमाणु की परिभाषा यह है कि जिसका विभाजन नहीं हो सके, ऐसा ५. प्रकाश-अंधकार तथा छाया ये पुद्गल की ही पृथक्-पृथक् भौतिक तत्त्व परमाणु है। इस प्रकार आज हम देखते हैं कि विज्ञान का पर्याय हैं। यंत्र ग्राह्य हैं। इनके स्वरूप की सिद्धि आधुनिक सिनेमा, तथाकथित परमाणु खण्डित हो चुका है, जबकि जैन दर्शन का परमाणु फोटोग्राफी, केमरा, आदि द्वारा हो चुकी है। अभी वैज्ञानिकों की पकड़ में आ ही नहीं पाया है। वस्तुत: जैन दर्शन में ६. आतप एवं उद्योत भी परमाणु एवं स्कंधों की ही पर्याय जिसे परमाणु कहा जाता है, उसे आधुनिक वैज्ञानिकों ने क्वार्क नाम हैं, संग्रहणीय हैं। दिया है और वे आज भी उसकी खोज में लगे हुए हैं। समकालीन ७. जीव तथा पुद्गल के एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र तक आने जाने भौतिकीविदों की क्वार्क की परिभाषा यह है कि जो विश्व का सरलतम में सहकारी अचेतन अमूर्तिक धर्म नामक द्रव्य है, जो सर्व जगत् में
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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
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व्याप्त है। विज्ञानवेत्ताओं ने उसे ईथर नाम दिया है।
९. जीव और पुद्गलों को गमन के उपरान्त 'ठहरने में अधर्म द्रव्य सहकारी है जिसे अमूर्त, अचेतन एवं विश्वव्यापी बताया गया है। वैज्ञानिकों ने इसे गुरुत्वाकर्षण शक्ति नाम दिया है।
१५. पुल को शक्ति रूप में परिवर्तित किया जा सकता है परन्तु मैटर और उसेकी शक्ति को अलग नहीं किया जा सकता।
१६. इंद्रिय, शरीर, भाषा आदि ६ प्रकार की पर्याप्तियों का १०. आकाश एक स्वतन्त्र द्रव्य है जो समस्त द्रव्यों को वर्णन आधुनिक जीवनशास्त्र में कोशिकाओं और तन्तुओं के रूप में है। अवकाश प्रदान करता है। विज्ञान की भाषा में इसे 'स्पेस' कहते हैं। १७. जीव विज्ञान तथा वनस्पति विज्ञान का जैन वर्गीकरण११. काल भी एक भिन्न स्वतंत्र द्रव्य है जिसे मिन्कों ने 'फोर आधुनिक जीवशास्त्र तथा वनस्पतिशास्त्र द्वारा आंशिक रूप में स्वीकृत 'डाइमेन्शनल थ्योरी' के नाम से अभिहित करते हुए समय को काल हो चुका है। द्रव्य की पर्याय माना है। (देखिये - सन्मति सन्देश, फरवरी, ६७, पृष्ठ २४ प्रो. निहालचन्द)
१८. तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित सूर्य, तारा, नक्षत्र आदि की आयु प्रकार, अवस्थाएं आदि का सूक्ष्म वर्णन आधुनिक सौर्य जगत् के अध्ययन से आंशिक रूप में प्रमाणित होता है। यद्यपि कुछ अन्तर भी है।
प्रयोग से प्राप्त सत्य की तरह चिन्तन से प्राप्त सत्य स्थूल आकार में सामने नहीं आता, अतः साधारणतया जनता की श्रद्धा कों अपनी ओर आकृष्ट करना विज्ञान के लिए जितना सहज है, दर्शन के लिए उतना नहीं। इतना होने पर भी दोनों कितने नजदीक हैं- यह देखकर आश्चर्य चकित होना पड़ता है'।
श्री उत्तम चन्द जैन की उपरोक्त तुलना का निष्कर्ष यही है कि जैन दर्शन का परमाणुवाद आज विज्ञान के अति निकट है। आज आवश्यकता है हम अपनी आगमिक मान्यताओं का वैज्ञानिक विश्लेषण कर उनकी सत्यता का परीक्षण करें।
१२. वनस्पति एकेन्द्रिय जीव है, उसमें स्पर्श संबंधी ज्ञान होता है। स्पर्श ज्ञान के कारण ही 'लाजवन्ती' नामक पौधा स्पर्श करते ही झुक जाता है। वनस्पति में प्राण सिद्धि करने वाले प्रसिद्ध वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र बसु है। वनस्पति शास्त्र चेतनतत्व' को प्रोटोप्लाज्म नाम देता है। १३. जैन दर्शन ने अनेकांत स्वरूप वस्तु के विवेचन की पद्धति 'स्याद्वाद' बताया, जिसे वैज्ञानिक आइंस्टीन ने सापेक्षवाद सिद्धांत के नाम से प्रसिद्ध किया है।
१४. जैन दर्शन एक लोकव्यापी महास्कंध के अस्तित्व को भी मानता है, जिसके निमित्त से तीर्थंकरों के जन्म आदि की खबर जगत् में सर्वत्र फैल जाती है, इस तथ्य को आज टेलीपैथी के रूप में
शब्द की वाच्य शक्ति
आत्माभिव्यक्ति प्राणीय प्रकृति
प्रत्येक प्राणी की यह सहज एवं स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि वह अपनी अनुभूति एवं भावनाओं को दूसरे प्राणियों के सम्मुख प्रकट करता है और इस प्रकार दूसरों को भी अपने ज्ञान, अनुभूति और भावना का सहभागी बनाता हैं। प्राणी ही इसी पारस्परिक सहभागिता की प्रवृत्ति को उमास्वाति ने तत्वार्थ सूत्र (५/२१) में 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्” नामक सूत्र के द्वारा स्पष्ट किया है। वस्तुतः यह पारस्परिक सहभागिता की प्रवृत्ति ही सामाजिक जीवन की आधार भूमि है। हम सामाजिक हैं। क्योंकि हम अपनी अनुभूतियों एवं भावनाओं में दूसरों को सहभागी बनाए बिना अथवा दूसरों की भावनाओं एवं अनुभूतियों में सहभागी बने बिना नहीं रह सकते। यदि किसी व्यक्ति को ऐसे स्थान पर बन्दी बना दिया जाए, जहां उसे जीवन जीने की सारी सुख-सुविधाएं तो उपलब्ध हों, किन्तु वह अपनी अनुभूतियों एवं भावनाओं को अभिव्यक्ति न दे सके, निश्चय ही ऐसे व्यक्ति को जीवन निस्सार लगने लगेगा और
संभव है कि वह कुछ समय पश्चात् पागल होकर आत्महत्या कर ले। मनुष्य ही क्या, पशु-पक्षी भी बिना आत्माभिव्यक्ति के नहीं जी सकते हैं। संक्षेप में आत्माभिव्यक्ति के माध्यम से दूसरों को अपनी अनुभूति और भावनाओं का सहभागी बनाना और दूसरों की अभिव्यक्तियों के अर्थ को समझकर उनकी अनुभूति और भावनाओं में सहभागी बनना यह प्राणीय प्रकृति है। अब मूल प्रश्न यह है कि यह अनुभूति और भावनाओं का सम्प्रेषण कैसे होता है ?
आत्माभिव्यक्ति के साधन
विश्व के समस्त प्राणी अपनी भावनाओं एवं अनुभूतियों की अभिव्यक्ति या तो शारीरिक संकेतों के माध्यम से करते हैं या ध्वनि संकेतों के द्वारा इन ध्वनि संकेतों के आधार पर ही बोलियों एवं भाषाओं का विकास हुआ है। विश्व के समस्त प्राणियों में मनुष्य इसी लिए सबसे अधिक सौभाग्यशाली है कि उसे अभिव्यक्ति या विचार
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जैनदर्शन में पुद्गल और परमाणु
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सम्प्रेषण के लिए भाषा मिली हुई है। शब्द प्रतीकों, जो कि सार्थक लेकर एक मध्यवर्गीय दृष्टिकोण अपनाया है। वे बौद्धों के समान यह ध्वनि संकेतों के सुव्यवस्थित रूप हैं, के माध्यम से अपने विचारों एवं मानने के लिए सहमत नहीं हैं कि शब्द अपने अर्थ या विषय का भावों के अभिव्यक्ति दे पाना यही उसकी विशिष्टता है। क्योंकि भाषा के संस्पर्श ही नहीं करता है। किन्तु वे मीमांसकों के समान यह भी नहीं माध्यम से मनुष्य जितनी स्पष्टता के साथ अपने विचारों एवं भावों का मानना चाहते हैं कि शब्द अपने विषय का समग्र चित्र प्रस्तुत कर सम्प्रेषण कर सकता है, उतनी स्पष्टता से विश्व का दूसरा कोई प्राणी सकता है। जैन दार्शनिकों के अनुसार शब्द और उसके द्वारा संकेतित नहीं। उदाहरण के लिए कोई भी व्यक्ति मात्र ध्वनि-संकेत या अंग- अर्थ या विषय में एक सम्बन्ध तो है, किन्तु वह संबंध ऐसा नहीं है कि संकेत से किसी वस्तु की स्वादानुभूति की अभिव्यक्ति उतनी स्पष्टता से शब्द अपने विषय या अर्थ का स्थान ही ले ले। दूसरे शब्दों में शब्द नहीं कर सकता है, जितनी भाषा के माध्यम से कर सकता है। यद्यपि और उनके विषयों में तद्रूपता का सम्बन्ध नहीं है। प्रभाचन्द्र शब्द और भाषा या शब्द-प्रतीकों के माध्यम से की गई यह अभिव्यक्ति अपूर्ण, अर्थ में तद्रूप संबंध का खण्डन करते हुए कहते हैं कि मोदक शब्द के आंशिक एवं मात्र संकेत ही होती है, फिर भी अभिव्यक्ति का इससे उच्चारण से मीठे स्वाद की अनुभूति नहीं होती है, अत: मोदक शब्द अधिक स्पष्ट कोई माध्यम खोजा नहीं जा सकता है।
और मोदक नामक वस्तु-दोनों भिन्न-भिन्न हैं। (न्यायकुमुदचन्द्र, भाग२,
पृ० ५३६) किन्तु इससे यह भी नहीं समझ लेना चाहिए कि शब्द और भाषा का स्वरूप
उनके विषय अर्थ के बीच कोई संबंध ही नहीं है। शब्द अर्थ या विषय __ हमने व्यक्तियों, वस्तुओं, तथ्यों, घटनाओं, क्रियाओं एवं का संकेतक तो है, किन्तु उसका स्थान नहीं ले सकता है।अर्थ बोध की भावनाओं के कुछ शब्द प्रतीक बना लिए हैं और भाषा हमारे इन शब्द- प्रक्रिया में शब्द को अपने अर्थ या विषय का प्रतिनिधि (रिप्रेजेन्टेटिव) प्रतीकों का ही एक सुनियोजित खेल है। संक्षेप में कहें तो हमने उन्हें तो कहा जा सकता है, फिर भी शब्द अपने विषय या अर्थ का हबहू "नाम" दे दिया है और इन्हीं नामों के माध्यमों से हम अपने भावों, चित्र नहीं है, जैसे नक्शे में प्रदर्शित नदी वास्तविक नदी की संकेतक विचारों एवं तथ्य संबंधी जानकारियों का सम्प्रेषण दूसरों तक करते हैं। तो है, किन्तु न तो वह वास्तविक नदी है और उसका हूबहू प्रतिबिंब उदाहरण के लिए हम कुर्सी शब्द से एक विशिष्ट वस्तु को अथवा ही है, वैसे ही शब्द और उनसे निर्मित भाषा भी अपने अर्थ या विषय "प्रेम" शब्द से एक विशिष्ट भावना को संकेतित करते हैं। मात्र यही की संकेतक तो है, किन्तु उसका हूबहू प्रतिबिंब नहीं हैं। फिर भी वह नहीं, व्यक्तियों, वस्तुओं, गुणों, तथ्यों, घटनाओं, क्रियाओं एवं भावनाओं अपने विषय का एक चित्र श्रोता या पाठक के सम्मुख अवश्य प्रस्तुत के पारस्परिक विभिन्न प्रकार के संबंधों के लिए अथवा उन संबंधों के कर देता है। जिस प्रकार ज्ञान और ज्ञेय में ज्ञापक और ज्ञाप्य संबंध है, अभाव के लिए भी शब्द प्रतीक बना लिए गए हैं। भाषा की रचना इन्हीं उसी प्रकार शब्द और अर्थ (विषय) में प्रतिपादक और प्रतिपाद्य संबंध सार्थक शब्द प्रतीकों के ताने-बाने से हुई है। भाषा शब्द-प्रतीकों की वह है।यद्यपि जैन दार्शनिक शब्द और उसके अर्थ में सम्बन्ध स्वीकार करते नियमबद्ध व्यवस्था है, जो वक्ता के द्वारा सम्प्रेषणीय भावों का ज्ञान - हैं, किन्तु यह मीमांसकों के समान नित्य सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि भाषा श्रोता को कराती है।
के प्रचलन में अनेक बार शब्दों के अर्थ (मीनिंग) बदलते रहे हैं और
एक समान उच्चारण के शब्द भी दो भिन्न भाषाओं में भिन्न अर्थ रखते शब्द एवं भाषा की अभिव्यक्ति सामर्थ्य
हैं। शब्द अपने अर्थ का संकेतक अवश्य है, किन्तु अपने अर्थ के साथ यहाँ दार्शनिक प्रश्न यह है कि क्या इन शब्द-प्रतीकों में भी उसका नित्य तथा तद्रूप संबंध नहीं है। जैन दार्शनिक मीमांसकों के अपने विषय या अर्थ की अभिव्यक्ति करने की सामर्थ्य है? क्या कुर्सी समान शब्द और अर्थ में नित्य तथा तद्रूप सम्बन्ध स्वीकार नहीं करते शब्द कुसी नामक वस्तु को और प्रेम शब्द प्रेम नामक भावना को हैं। उनकी मान्यता है कि जिस प्रकार हस्त संकेत आदि अपने अभिव्यंजनीय अपनी समग्रता के साथ प्रस्तुत कर सकता है? यह ठीक है कि शब्द अर्थ के साथ अनित्य रूप से संबंधित होकर इष्ट अर्थ की अभिव्यक्ति अपने अर्थ या विषय का वाचक अथवा संकेतक है, किन्तु क्या कोई कर देते हैं, उसी प्रकार शब्द संकेत भी अपने अर्थ से अनित्य रूप से भी शब्द अपने वाच्य विषय को पूर्णतया अभिव्यक्त करने में सक्षम है? संबंधित होकर भी अर्थबोध करा देते हैं।शब्द और अर्थ (विषय) दोनों क्या शब्द अपने विषय के समस्त गुण धर्मों और पर्यायों (अवस्थाओं) की विविक्त सत्ताएं हैं। अर्थ में शब्द नहीं है और न अर्थ शब्दात्मक ही का एक समग्र चित्र प्रस्तुत कर सकता है? वस्तुतः इस प्रश्न का उत्तर है। फिर भी दोनों में एक ऐसा संबंध अवश्य है, जिससे शब्दों में अपने कठिन है। यदि हम यह मानते हैं कि शब्द अपने अर्थ या विषय का अर्थ के वाचक होने की सीमित सामर्थ्य है। शब्द में अपने अर्थ या वाचक नहीं है तो फिर भाषा की प्रामाणिकता या उपयोगिता संदेहात्मक विषय का बोध कराने की एक सहज शक्ति होती है, जो उसकी संकेत बन जाती हैं किन्तु इसके विपरीत यह मानना भी पूर्णतया सही नहीं है शक्ति और प्रयोग पर निर्भर करती है। कि शब्द अपने अर्थ या विषय का सम्पूर्णता के साथ निर्वचन करने में इस प्रकार शब्द सहज-योग्यता, संकेतक-शक्ति और प्रयोग समर्थ है और अपने वाच्य का यथार्थ चित्र श्रोता के सम्मुख प्रस्तुत कर इन तीन के आधार पर अपने अर्थ या विषय से संबंधित होकर श्रोता देता है। जैन-आचार्यों ने शब्द और उसके अर्थ एवं विषय के संबंध को को अर्थबोध करा देता है। जैन-आचार्यों को बौद्धों का यह सिद्धान्त
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ मान्य नहीं है कि शब्द और अर्थ में कोई सम्बन्ध ही नहीं है, उनका दोनों ही सीमित हैं। उदाहरण के लिए मीठा शब्द को लीजिए। हम कथन है कि यदि शब्द का अपने अर्थ के साथ में कोई सम्बन्ध ही नहीं कहते हैं गन्ना मीठा है, गुड़ मीठा है, आम मीठा है, रसगुल्ला मीठा है, माना जायेगा तो समस्त भाषा-व्यवहार की प्रामाणिकता ही समाप्त हो तरबूज मीठा है आदि-आदि। यहां सभी के मीठेपन की अनुभूति के जाएगी और पारस्परिक अभिव्यक्ति का कोई साधन ही नहीं रहेगा। लिए एक ही शब्द “मीठा" प्रयोग कर रहे हैं, किन्तु हम यह बहुत ही इसीलिए जैन दार्शनिकों ने शब्द और अर्थ में सापेक्ष एवं सीमित स्पष्ट रूप से जानते हैं कि सबके मीठेपन का स्वाद एक समान नहीं वाच्य-वाचक सम्बन्ध माना है। शब्द अपने विषय का वाचक तो होता है। तरबूज मीठा है और आम मीठा है, इन दोनों कथनों में “मीठा" है, किन्तु उसकी समस्त विशेषताओं का सम्पूर्णता के साथ निर्वचन नामक गुण एक ही प्रकार की अनुभूति का द्योतक नहीं है। यद्यपि करने में समर्थ नहीं है। शब्दों में अर्थ (विषय) की अभिव्यक्ति की पशुओं के ध्वनि-संकेत और शारीरिक संकेत की अपेक्षा मनुष्य के सामर्थ्य सीमित और सापेक्ष ही है, असीमित या पूर्ण और निरपेक्ष नहीं। शब्द-संकेतों में भावाभिव्यक्ति एवं विषयाभिव्यक्ति की सामर्थ्य काफी "प्रेम" शब्द प्रेम नामक भावना को अभिव्यक्ति तो देता है, किन्तु उसमें व्यापक हैं, किन्तु उसकी भी अपनी सीमाएं हैं। भाषा की और शब्द प्रेम की अनुभूति की सभी गहराइयां समाविष्ट नहीं हैं। प्रेम के विविध संकेत की इन सीमाओं पर दृष्टिपात करना अति आवश्यक है। क्योंकि रूप हैं। प्रेम-अनुभूति की प्रगाढ़ता के अनेक स्तर हैं। अकेला प्रेम शब्द विश्व में वस्तुओं, तथ्यों एवं भावनाओं की जो अनन्तता है उसकी उन सबका वाचक तो नहीं हो सकता। एक प्रेमी अपनी प्रेयसी से, एक अपेक्षा हमारा शब्द-भण्डार अत्यन्त सीमित हैं। एक “लाल" शब्द को पत्र अपनी माता से, एक भाई अपने भाई से, एक मित्र अपने मित्र से ही लीजिए। वह लाल नामक रंग का वाचक है, किन्तु लालिमा की "मैं तुमसे प्रेम करता हूँ" इस पदावली का कथन करते हैं, किन्तु क्या अनेक कोटियां हैं, अनेक अंश (डिग्रीज) हैं, अनेक संयोग (कोम्बिनेशन) उन सभी व्यक्तियों के संदर्भ में इस पदावली का एक ही अर्थ होगा? हैं। क्या एक ही "लाल" शब्द भिन्न प्रकार की लालिमाओं का वाचक वे सब समान पदावली का उपयोग करते हुए भी जिस भाव-प्रवणता हो सकता है। एक और उदाहरण लीजिए-एक व्यक्ति जिसने गुड़ के की अभिव्यक्ति कर रहे हैं, वह भिन्न-भिन्न ही है। दो भिन्न संदर्भो में और स्वाद का अनुभव किया है, उस व्यक्ति से जिसने कभी गुड़ के स्वाद दो भिन्न व्यक्तियों के लिए एक ही संदर्भ में एक शब्द का एक ही अर्थ का अनुभव नहीं किया हैं, जब यह कहता है कि गुड़ मीठा होता है तो नहीं हो सकता है। मात्र यही नहीं, एक ही पदावली के संदर्भ में वक्ता क्या श्रोता उससे मीठेपन की उसी अनुभूति को ग्रहण करेगा जिसे वक्ता
और श्रोता दोनों की भाव-प्रवणता और अर्थ-ग्राहकता भिन्न-भिन्न भी हो ने अभिव्यक्त किया हैं। गुड़ की मिठास की एक अपनी विशिष्टता है सकती है। अर्थ बोध न केवल शब्द-सामर्थ्य पर निर्भर है, अपितु श्रोता उस विशिष्टता का ग्रहण किसी दूसरे व्यक्ति को तब तक ठीक वैसा ही की योग्यता पर भी निर्भर है वस्तुत: अर्थबोध के लिए पहले शब्द और नहीं हो सकता है, जब तक कि उसने स्वयं गुड़ के स्वाद की अनुभूति उसके अर्थ (विषय) में एक संबंध जोड़ लिया जाता है। बालक को जब नहीं की हो। क्यों कि शब्द सामान्य होता है, सत्ता विशेष होती है। भाषा सिखाई जाती है तो शब्द के उच्चारण के साथ उसे वस्तु को · सामान्य विशेष का संकेतक हो सकता है, लेकिन उसका समग्र दिखाते हैं। धीरे-धीरे बालक उनमें सम्बन्ध जोड़ लेता है और जब भी निर्वचन नहीं कर सकता है। शब्द अपने अर्थ (विषय) को मात्र सूचित उस शब्द को सुनता है या पढ़ता है तो उसे उस अर्थ (विषय) का बोध करता है, शब्द और उसके विषय में तद्रूपता नहीं है, शब्द को अर्थ हो जाता है, अत: अपने विषय का अर्थ बोध करा देने की शक्ति भी (मिनिंग) दिया जाता है। इसीलिए बौद्धों ने शब्द को विकल्पयोनि मात्र शब्द में नहीं, अपितु श्रोता या पाठक के पूर्व संस्कारों में भी रही (विकल्पयोनयः शब्दाःन्यायकुमुदचन्द्र,पृ० ५३७) कहा है। शब्द अपने हुई है अर्थात् वह श्रोता या पाठक की योग्यता पर भी निर्भर है। यही अर्थ या विषय का वाचक होते हुए भी उसमें और उसके विषय में कोई कारण है कि अनसीखी भाषा के शब्द हमें कोई अर्थ बोध नहीं दे पाते समानता नहीं है। यहां तक कि उसे अपने विषय का सम्पूर्ण एवं यथार्थ हैं। इसीलिए जैन दार्शनिक मीमांसा दर्शन के शब्द में स्वत: अर्थबोध चित्र नहीं कहा जा सकता। यद्यपि शब्द में श्रोता की चेतना में शब्द और देने की सामर्थ्य का खण्डन करते हैं। अनेक प्रसंगों में वक्ता का आशय अर्थ के पूर्व संयोजन के आधार पर अपने अर्थ (विषय) का चित्र कुछ और होता है और श्रोता उसे कुछ और समझ लेता है, अत: यह उपस्थित करने की सामर्थ्य तो होती है, किन्तु यह सामर्थ्य भी श्रोता मानना होगा कि शब्द और अर्थ में वाचक-वाच्य सम्बन्ध होते हए भी सापेक्ष है। वह सम्बन्ध श्रोता या पाठक सापेक्ष है, निरपेक्ष नहीं। अन्यथा दो व्यक्तियों के द्वारा एक ही पदावली का भिन्न-भिन्न रूप में अर्थ ग्रहण सत्ता कितनी वाच्य कितनी अवाच्य? करना कभी संभव ही नहीं होता।
इस प्रकार भाषा या शब्द-संकेत अपने विषयों के अपने दूसरी बात यह है कि अपने विषय का वाचक होने की शक्ति अर्थों के संकेतक तो अवश्य हैं, किन्तु उनकी अपनी सीमाएं भी हैं। भी सीमित ही है। शब्द शक्ति की सीमितता का कारण यह है कि इसीलिए सत्ता या वस्तु-तत्त्व किसी सीमा तक वाच्य होते हुए भी अनुभूतियों की एवं भावनाओं की जितनी विविधताएं हैं, उतने शब्द अवाच्य बना रहता है। वस्तुत: जब जीवन की सामान्य अनुभूतियों और नहीं हैं। अपने वाच्य विषयों की अपेक्षा शब्द संख्या और शब्द शक्ति भावनाओं को शब्दों एवं भाषा के द्वारा पूरी तरह से अभिव्यक्त नहीं
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जैनदर्शन में पुद्गल और परमाणु किया जा सकता है तो फिर परम सत्ता के निर्वचन का प्रश्न तो और कहलाता है, क्योंकि श्रुतज्ञान के दो भेद प्रसिद्ध हैं- अक्षर-श्रुत और भी जटिल हो जाता है। भारतीय चिन्तन में प्रारंभ से लेकर आज तक अनक्षर-श्रुत। अक्षरश्रुत के तीन भेद हैं- संज्ञाक्षर, व्यंजनाक्षर और सत्ता की वाच्यता का यह प्रश्न मानव-मस्तिष्क.को झकझोरता रहा है। लब्ध्यक्षर। वर्ण का ध्वनि संकेत अर्थात् शब्द-ध्वनि व्यंजनाक्षर है। वर्ण वस्तुत: सत्ता की अवाच्यता का कारण शब्द भण्डार तथा शब्द शक्ति का आकारिक संकेत अर्थात् लिपि संकेत संज्ञाक्षर है। लिपि संकेत और की सीमितता और भाषा का अस्ति और नास्ति की सीमाओं से घिरा शब्द-ध्वनि संकेत के द्वारा अर्थ को समझने की सामर्थ्य लब्ध्यक्षर है। होना है। इसीलिए प्राचीनकाल से ही सत्ता की अवाच्यता का स्वर मुखर शब्द या भाषा के बिना मात्र वस्तु संकेत, अंग संकेत अथवा ध्वनि होता रहा है।
संकेत द्वारा जो ज्ञान होता है वह अनक्षर श्रुत है। इसमें हस्त आदि तैत्तिरीय उपनिषद् में कहा गया है कि यतो वाचो निवर्तन्ते शरीर के संकेतों, झण्डी आदि वस्तु संकेतों तथा खांसना आदि ध्वनि(२/४)- वाणी वहां से लौट आती है, उसे वाणी का विषय नहीं संकेतों के द्वारा अपने भावों एवं अनुभूतियों को अभिव्यक्त किया जाता बनाया जा सकता है। इसी बात को केनोपनिषद् में “यद्वाचावभ्युदितम्" है। संक्षेप में वे सभी सांकेतिक सूचनाएं जो किसी व्यक्ति के ज्ञान, भाव (१/४) के रूप में कहा गया है। कठोपनिषद् में "नेव वाचा न मनसा या विचार को सार्थक रूप से प्रकट कर देती हैं और जिसके द्वारा पर प्राप्तुं शक्यम्" कह कर यह बताया गया है कि परम सत्ता का ग्रहण (दूसरा) व्यक्ति उनके लक्षित अर्थ का ग्रहण कर लेता है, श्रुतज्ञान है। वाणी और मन के द्वारा संभव नहीं है। माण्डूक्योपनिषद् में सत्ता को चूंकि श्रुतज्ञान प्रमाण है, अत: मानना होगा कि शब्द संकेत या भाषा अदृष्ट, अव्यवहार्य, अग्राह्य, अलक्षण, अचिन्त्य और अवाच्य कहा अपने विषय या अर्थ का प्रामाणिक ज्ञान देने में समर्थ है। दूसरे शब्दों गया है। जैन-आगम आचारांग का भी कथन है कि “वह (सत्ता) में सत् या वस्तु वाच्य भी है। इस प्रकार जैन-दर्शन में सत्ता या वस्तु ध्वन्यात्मक किसी भी शब्द की प्रवृत्ति का विषय नहीं है, वाणी उसका तत्त्व को अंशत: वाच्य या वक्तव्य और समग्रत: अवाच्य या अवक्तव्य निर्वचन करने में कथमपि समर्थ नहीं है। वहां वाणी मूक हो जाती है कहा गया है। यहां यह विचार कर लेना भी आवश्यक है कि इस तर्क की वहां तक पहुंच नहीं है, वह बुद्धि का विषय नहीं है। किसी भी अवक्तव्यता का भी क्या अर्थ है? उपमा के द्वारा उसे समझाया नहीं जा सकता है अर्थात् उसकी कोई उपमा नहीं दी जा सकती है। वह अनुपम, अरूपी सत्ता है। उस अपद अवक्तव्य का अर्थ का कोई पद नहीं है, अर्थात् ऐसा कोई शब्द नहीं है, जिस के द्वारा डॉ० पद्मराजे ने अवक्तव्य के अर्थ के विकास की दृष्टि से उसका निरूपण किया जा सके" (आवारांग १/५/६)।
चार अवस्थाओं का निर्देश किया हैउपर्युक्त सभी कथन भाषा की सीमितता और अपर्याप्तता को (१) पहला वेदकालीन निषेधात्मक दृष्टिकोण, जिसमें तथा सत्ता की अवाच्यता या अवक्तव्यता को ही सूचित करते हैं। किन्तु विश्व-कारण की खोज करते हुए ऋषि इस कारण तत्त्व को न सत् प्रश्न यह है कि क्या तत्त्व या सत्ता को किसी भी प्रकार वाणी का विषय और न असत् कहकर विवेचित करता है यहां दोनों पक्षों का नहीं बनाया जा सकता है? यदि ऐसा है तो सारा वाक् व्यवहार निरर्थक निषेध है। यहां सत्ता की अस्ति (सत्) और नास्ति (असत्) रूप होगा। श्रुतज्ञान अर्थात् शास्त्र और आगम व्यर्थ हो जायेंगे। यही कारण से वाच्यता का निषेध किया गया है। था कि जैन चिन्तकों ने सत्ता या तत्त्व को समग्रतः (एज ए होल) (२) दूसरा औपनिषदिक दृष्टिकोण, जिसमें सत्-असत् अवाच्य या अवक्तव्य मानते हुए भी अंशत: या सापेक्षत: वाच्य माना। आदि विरोधी तत्त्वों में समन्वय देखा जाता है। जैसे- “तदेजति क्योंकि उसे अवक्तव्य या वाच्य कहना भी तो एक प्रकार का वचन या तन्नेजति" "अणोरणीयान् महतो महीयान", सदसद्वरेण्यम्" आदि। वाक् व्यवहार ही है, यहां हमारा वाच्य यह है कि वह अवाच्य है। अत: यहां दोनों पक्षों की स्वीकृति है। यहां सत्ता को दो विरुद्ध धर्मों से हमें व्यवहार के स्तर पर उतर कर सत्ता की वक्तव्यता या वाच्यता को युक्त मानकर उसे अस्ति (है) और नास्ति (नहीं है) रूप भाषा से स्वीकार करना होगा। क्योंकि इसी आधार पर श्रुतज्ञान एवं आगमों की अवाच्य कहा गया है। प्रामाणिकता स्वीकार की जा सकती है।
(३) तीसरा दृष्टिकोण जिसमें तत्त्व को स्वरूपत: अव्यपदेश्य जैन-आचार्यों ने दूसरों के द्वारा किए गए संकेतों के आधार या अनिवर्चनीय माना गया है, यह दृष्टिकोण भी उपनिषदों में ही पर होने वाले ज्ञान को श्रुतज्ञान कहा है। संक्षेप में समस्त आनुभविक मिलता है। जैसे- “यतो वाचो निवर्तन्ते", यद्वाचाभ्युदित्य, नैव वाचा ज्ञान, मतिज्ञान और सांकेतिक ज्ञान शुतज्ञान हैं, श्रुतज्ञान की परिभाषा न मनसा प्राप्तुं शक्य: आदि। बुद्ध के अव्याकृतवाद एवं शून्यवाद की है- जिस ज्ञान में संकेत-स्मरण है और जो संकेतों के नियत अर्थ को चतुष्कोटि विनिर्मुक्त तत्त्व की अवधारणा में भी बहुत कुछ इसी दृष्टिकोण समझने में समर्थ है, वही श्रुतज्ञान है।दूसरे शब्दों में जो ज्ञान संकेत का प्रभाव देखा जा सकता है।
और वचन श्रवण के द्वारा होता है वह श्रुतज्ञान है (विशेषावश्याभाष्य, (४) चौथा दृष्टिकोण जैन-न्याय में सापेक्षित अवक्तव्यता या १२० एवं १२१)। सामान्यतया श्रुतज्ञान का मुख्य आधार शब्द है, सापेक्षित अनिर्वचनीयता के रूप में विकसित हुआ है जिसमें सत्ता को किन्तु हस्तसंकेत आदि अन्य साधनों से होने वाला ज्ञान भी श्रुतज्ञान अंशत: वाच्य और समग्रतः अवाच्य कहा गया है।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
सामान्यतया अवक्तव्य के निम्न अर्थ हो सकते हैं- वक्तव्य या वाच्य तो नहीं है, किन्तु वह पूर्णतया अवक्तव्य या अवाच्य
(१) सत् व असत् दोनों रूप से सत्ता की वाच्यता का निषेध भी नहीं है। यदि हम वस्तुतत्त्व को पूर्णतया अवाच्य अर्थात् अनिर्वचनीय करना।
मान लेंगे तो फिर भाषा एवं विचारों के आदान-प्रदान का कोई रास्ता (२) सत्, असत् और सदतततीनों रूपों से सत्ता की वाच्यता ही नहीं रह जायेगा। अत: जैन दृष्टिकोण वस्तुतत्त्व की अनिवर्चनीयता का निषेध करना।
या अवाच्यता को स्वीकार करते हुए भी यह मानता है कि सापेक्ष रूप (३) सत्, असत्, सत्-असत् (उभय) और न सत्- न से वह निर्वचनीय या वाच्य भी है। सत्ता अंशत: निर्वचनीय है और असत् (अनुभय) चारों रूप से सत्ता की वाच्यता का निषेध करना। अंशत: अनिर्वचनीय। क्योंकि यही बात उसके सापेक्षवादी दृष्टिकोण
(४) वस्तुतत्त्व को स्वभाव से ही अवक्तव्य या वाच्य मानना। और स्याद्वाद सिद्धांत के अनुकूल है। इस प्रकार अवक्तव्यता के पूर्व अर्थात् यह कि वस्तुतत्त्व अनुभाव में तो आ सकता है, किन्तु कहा निर्दिष्ट छह अर्थों में से पहले तीन को छोड़कर अन्तिम तीनों को मानने नहीं जा सकता। क्योंकि वह अनुभवगम्य है, शब्दगम्य नहीं। में उसे कोई बाधा नहीं आती है।
(५) सत् और असत् दोनों को युगपद् रूप से स्वीकार जैनदर्शन में सप्तभंगी की योजना में एक भंग अवक्तव्य भी करना, किन्तु उसके कथन के लिए कोई शब्द न होने के कारण है। सप्तभंगी में दो प्रकार के भंग हैं- एक मौलिक और दूसरे संयोगिक। अवक्तव्य कहना।
मौलिक भंग तीन हैं- स्याद् अस्ति, स्याद् नास्ति और स्याद् अवक्तव्य। (६) वस्तुतत्त्व अनन्त धर्मात्मक है अर्थात् वस्तुतत्त्व के धर्मों शेष चार भंग संयोगिक हैं, जो इन तीन मौलिक भंगों के संयोग से बने की संख्या अनन्त है, किन्तु शब्दों की संख्या सीमित है और इसलिए हुए हैं। प्रस्तुत निबंध का उद्देश्य जैन दर्शन में अवक्तव्य या अवाच्य के उसमें जितने धर्म हैं, उतने वाचक शब्द नहीं है। अत: वाचक शब्दों के अर्थ को स्पष्ट करना था। हमने देखा कि सामान्यतया जैन दार्शनिकों अभाव के कारण उसे अंशत: वाच्य और अंशत: अवाच्य मानना। की अवधारणा यह है कि वस्तु में एक ही समय में रहे हुए सत्-असत्,
यहां यह प्रश्न विचारणीय हो सकता है कि जैन-परंपरा में नित्य-अनित्य, एक-अनेक आदि विरुद्ध धर्मों का युगपद् रूप से इस अवक्तव्यता के कौन से अर्थ मान्य रहे हैं। सामान्यतया जैन परंपरा अर्थात् एक ही साथ प्रतिपादन करना भाषायी सीमाओं के कारण में अवक्तव्यता के प्रथम तीनों निषेधात्मक अर्थ मान्य नहीं रहे हैं। उसका अशक्य है, क्योंकि ऐसा कोई भी क्रियापद नहीं है, जो एक ही कथन मान्य अर्थ यही है कि सत् और असत् दोनों का युगपद् विवेचन नहीं में एक साथ विधान या निषेध दोनों कर सके। अत: परस्पर विरुद्ध और किया जा सकता है, इसलिए वस्तुतत्त्व अवक्तव्य है, किन्तु यदि हम भावात्मक एवं अभावात्मक धर्मों की एक ही कथन में अभिव्यक्ति की प्राचीन जैन-आगमों को देखें तो अवक्तव्यता का यह अर्थ अंतिम नहीं. भाषायी असमर्थता को स्पष्ट करने के लिए ही अवक्तव्य भंग की कहा जा सकता है। “आचारांगसूत्र" में आत्मा के स्वरूप को वचनागोचर योजना की गई। किन्तु जैन-परंपरा में अवक्तव्य का यही एक मात्र अर्थ कहा गया है। उस अपद का कोई पद नहीं है, अर्थात् ऐसा कोई पद नहीं रहा है। नहीं है, जिसके द्वारा उसका निरूपण किया जा सके। इसे देखते हुए मेरी दृष्टि में अवक्तव्य या अवाच्यता का भी एक ही रूप नहीं यह मानना पड़ेगा कि वस्तुस्वरूप ही कुछ ऐसा है कि उसे वाणी का है, प्रथम तो “है" और नहीं है" ऐसे विधि-प्रतिषेध का युगपद् (एक माध्यम नहीं बनाया जा सकता है। पुन: वस्तुतत्त्व को अनन्तधर्मात्मकता ही साथ) प्रतिपादन संभव नहीं है, अत: उसे अवक्तव्य कहा गया है।
और शब्द- संख्या की सीमितता के आधार पर भी वस्तुतत्त्व की दूसरे निरपेक्ष रूप से वस्तुतत्त्व का कथन संभव नहीं है, अतः वस्तुतत्त्व अवक्तव्य माना गया है, आचार्य नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार में अनभिलाप्यभाव अवक्तव्य है। तीसरे अपेक्षाएं अनन्त हो सकती हैं, किन्तु अनन्त का उल्लेख किया है। वे लिखते हैं कि अनुभव में आये वक्तव्य भावों अपेक्षाओं से युगपद् रूप में वस्तुतत्त्व का प्रतिपादन संभव नहीं है, के अनन्तवें भाग का ही कथन किया जा सकता है। अत: यह मान लेना इसलिए भी उसे अवक्तव्य या अवाच्य मानना होगा। चौथे वस्तु में उचित नहीं है कि जैन परंपरा में अवक्तव्यता का केवल एक ही अर्थ अनन्त विशेष गुण-धर्म हैं, किन्तु भाषा में प्रत्येक गुण-धर्म के वाचक मान्य है।
शब्द नहीं हैं, इसलिए वस्तु तत्त्व अवाच्य है। पांचवें वस्तु और उसके इस प्रकार जैनदर्शन में अवक्तव्यता के चौथे, पांचवें और छठे गुणधर्म “विशेष" होते हैं और शब्द सामान्य हैं और सामान्य शब्द, अर्थ मान्य रहे हैं। हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि सापेक्ष अवक्तव्यता विशेष की उस विशिष्टता का समग्रत: वाचक नहीं हो सकता है। इस
और निरपेक्ष अवक्तव्यता में जैन दृष्टि सापेक्ष अवक्तव्यता को स्वीकार प्रकार “सत्ता” निरपेक्ष एवं समग्र रूप से अवाच्य होते हुए भी करती है, निरपेक्ष को नहीं। वह यह मानती है कि वस्तुतत्त्व पूर्णतया सापेक्षत: एवं अंशत: वाच्य भी है।
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जैन दर्शन में ज्ञान के प्रामाण्य और कथन की सत्यता का प्रश्न
समकालीन पाश्चात्य दर्शन में भाषा-विश्लेषण का दर्शन की गणितीय ज्ञान और परिभाषाओं के सन्दर्भ, सत्यता की कसौटी ज्ञान एक स्वतन्त्र विधा के रूप में विकास हुआ और आज वह एक सबसे की आन्तरिक संगति ही होती है। वे सभी ज्ञान जिनका ज्ञेय ज्ञान से प्रभावशाली दार्शनिक सम्प्रदाय के रूप में अपना अस्तित्त्व रखता है। भिन्न नहीं है, स्वतः प्रामाण्य हैं। इसी प्रकार सर्वज्ञ का ज्ञान भी उत्पत्ति प्रस्तुत शोधनिबन्ध का उद्देश्य मात्र यह दिखाना है कि पाश्चात्य दर्शन और ज्ञप्ति दोनों ही दृष्टि से स्वत: ही प्रामाण्य है। जब हम यह मान की ये विधाएँ जैन दर्शन में सहस्त्राधिक वर्ष पूर्व किस रूप में चर्चित लेते हैं कि निश्चय दृष्टि से सर्वज्ञ अपने को ही जानता है, तो हमें रही हैं और उनकी समकालीन पाश्चात्य दर्शन से किस सीमा तक उसके ज्ञान के सन्दर्भ में उत्पत्ति और ज्ञप्ति दोनों को स्वत: मानना निकटता है।
होगा क्योंकि ज्ञान कथञ्चित् रूप से ज्ञेय से अभिन्न भी होता है जैसे
स्व-संवेदन। ज्ञान की सत्यता का प्रश्न
वस्तुगत ज्ञान में भी सत्यता की कसौटी उत्पत्ति और ज्ञप्ति सामान्यतया ज्ञान के प्रामाण्य या सत्यता का अर्थ ज्ञान की (निश्चिय) दोनों को स्वत: और परत: दोनों माना जा सकता है। जब ज्ञेय विषय के साथ समरूपता या संवादिता है। यद्यपि, ज्ञान की सत्यता कोई यह सन्देश कहे कि “आज अमुक प्रसूतिगृह में एक बन्ध्या ने पुत्र के सम्बन्ध में एक दूसरा दृष्टिकोण स्वयं ज्ञान का संगतिपूर्ण होना भी का प्रसव किया" तो हम इस ज्ञान के मिथ्यात्व के निर्णय के लिए है, क्योंकि जो ज्ञान आन्तरिक विरोध से युक्त है, वह भी असत्य माना किसी बाहरी कसौटी का आधार न लेकर इसकी आन्तरिक असंगति के गया है।जैन दर्शन में वस्तु स्वरूप को अपने यथार्थ रूप में, अर्थात् आधार पर ही इसके मिथ्यापन को जान लेते हैं। इसी प्रकार "त्रिभुज जैसा वह है उस रूप में जानना अर्थात् ज्ञान का ज्ञेय (प्रमेय) से तीन भुजाओं से युक्त आकृति है"- इस ज्ञान की सत्यता इसकी अव्यभिचारी होना ही ज्ञान की प्रामाणिकता है। यहाँ यह प्रश्न भी आन्तरिक संगति पर ही निर्भर करती है। अत: ज्ञान के प्रामाण्य एवं महत्त्वपूर्ण है कि ज्ञान की इस प्रामाणिकता या सत्यता का निर्णय कैसे अप्रामाण्य की उत्पत्ति (कसौटी) और ज्ञान के प्रामाण्य एवं अप्रामाण्य होता है? क्या ज्ञान स्वयं ही अपनी सत्यता का बोध देता है या उसके का ज्ञप्ति (निश्चय) दोनों ही ज्ञान के स्वरूप या प्रकृति के आधार पर लिए किसी अन्य ज्ञान (ज्ञानान्तर ज्ञान) की अपेक्षा होती है? अथवा स्वत: अथवा परत: और दोनों प्रकार से हो सकती है। ज्ञान की प्रामाणिकता के लिए ज्ञान और ज्ञेय की संवादिता (अनुरूपता) सकल ज्ञान, पूर्ण ज्ञान और आत्मगत ज्ञान में ज्ञान की को देखना होता है? पाश्चात्य परम्परा में ज्ञान की सत्यता के प्रश्न को प्रामाण्यता का निश्चय स्वतः होगा, जबकि विकल ज्ञान, अपूर्ण लेकर तीन प्रकार की अवधारणाएँ हैं- (५) संवादिता सिद्धान्त; (२) (आंशिक) ज्ञान या नयज्ञान और वस्तुगत ज्ञान में वह निश्चय परत: संगति सिद्धान्त और (३) उपयोगितावादी (अर्थक्रियाकारी) सिद्धान्त। होगा। पारमार्थिक प्रत्यक्ष के द्वारा होने वाले ज्ञान में उनके प्रामाण्य का भारतीय दर्शन में वह संवादिता का सिद्धान्त परतः प्रामाण्यवाद के रूप बोध स्वत: होगा, जबकि व्यावहारिक प्रत्यक्ष और अनुमानादि में में और संगति-सिद्धान्त स्वत: प्रामाण्यवाद के रूप में स्वीकृत हैं। प्रामाण्य का बोध स्वत: और परत: दोनों प्रकार से सम्भव है। पुनः अर्थक्रियाकारी सिद्धान्त को परत: प्रामाण्यवाद की ही एक विशेष विधा सापेक्ष ज्ञान में सत्यता का निश्चय परत: और स्वत: दोनों प्रकार से और कहा जा सकता है। जैन दार्शनिकों ने इस सम्बध में किसी ऐकान्तिक निरपेक्ष ज्ञान में स्वतः होगा। इसी प्रकार सर्वज्ञ के ज्ञान की सत्यता की दृष्टिकोण को न अपनाकर माना कि ज्ञान के प्रामाण्य या सत्यता का उत्पत्ति और ज्ञप्ति (निश्चय) दोनों ही स्वत: और सामान्य व्यक्ति के ज्ञान निश्चय स्वत: और परत: दोनों प्रकार से होता है। यद्यपि, जैन दार्शनिक की उत्पत्ति परत: और ज्ञप्ति स्वत: और परत: दोनों रूपों में हो सकती यह मानते हैं कि ज्ञान के प्रामाण्य और अप्रामाण्य की उत्पत्ति का है। अत: वादिदेवसूरि का यह कथन सामान्य व्यक्ति के ज्ञान को लेकर आधार (कसौटी) ज्ञान स्वयं न होकर ज्ञेय है। प्रमाणनयतत्वालोक में ही है, सर्वज्ञ के ज्ञान के सम्बन्ध में नहीं हैं। सामान्य व्यक्तियों के ज्ञान वादिदेवसूरि ने कहा है कि “तदुभयमुत्पत्तौ परत एव" अर्थात् प्रामाण्य की सत्यता का मूल्याँकन पूर्व अनुभव दशा में स्वत: और पूर्व अनुभव
और अप्रामाण्य की उत्पत्ति तो परतः ही होती है। क्योंकि ज्ञान की में अभाव में परतः अर्थात् ज्ञानान्तर ज्ञान से होता है, यद्यपि पूर्व प्रामाण्यता और अप्रामाण्यता का आधार ज्ञान न होकर ज्ञेय है और ज्ञेय अनुभव भी ज्ञान का ही रूप हैं अत: उसे भी अपेक्षा विशेष से परतः ज्ञान से भिन्न है। तथापि अभ्यास दशा में ज्ञान की सत्यता का निश्चय कहा जा सकता हैं जहाँ तक की ज्ञान की उत्पत्ति का प्रश्न है, स्वानुभव अर्थात् ज्ञप्ति तो स्वत: अर्थात् स्वयं ज्ञान के द्वारा ही हो जाती है, को छोड़कर वह परत: ही होती है, क्योंकि वह ज्ञेय अर्थात् “पर” पर जबकि अनभ्यास दशा में उसका निश्चय परत: अर्थात् ज्ञानान्तर ज्ञान से निर्भर है। अत: ज्ञान की सत्यता की उत्पत्ति या कसौटी को परत: ही होता है। यद्यपि, वादिदेवसूरि के द्वारा ज्ञान की सत्यता की कसौटी माना गया है। जहाँ तक कथन की सत्यता का प्रश्न है, वह ज्ञान की (उत्पत्ति) को एकान्तः परत: मान लेना समुचित प्रतीत नहीं होता है। सत्यता से भिन्न है।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ कथन की सत्यता का प्रश्न
सामर्थ्य की सीमितता को भी हमें ध्यान में रखना होगा। साथ ही हमें यह एक सुस्पष्ट तथ्य है कि मानव अपनी अनुभूतियों और यह भी ध्यान रखना होगा कि भाषा, तथ्य नहीं, तथ्य की संकेतक मात्र भावनाओं को भाषा के माध्यम से अभिव्यक्त करता है। भाषा शब्द है। उसकी इस सांकेतिकता के सन्दर्भ में ही उसकी सत्यता-असत्यता प्रतीकों और सार्थक ध्वनि संकेतों का एक सुव्यवस्थित रूप है। वस्तुतः का विचार किया जा सकता है। जो भाषा अपने कथ्य को जितना हमने व्यक्तियों, वस्तुओं, तथ्यों, घटनाओं, क्रियाओं एवं भावनाओं के अधिक स्पष्ट रूप से संकेतित कर सकती है वह उतनी ही अधिक सत्य लिए शब्द प्रतीक बना लिये है। इन्हीं शब्द प्रतीकों एवं ध्वनि संकेतों के निकट पहुँचती है। भाषा की सत्यता और असत्यता उसकी संकेत के माध्यम से हम अपने विचारों, अनुभूतियों और भावनाओं का शक्ति के साथ जुड़ी हुई है। शब्द-अर्थ (वस्तु या तथ्य) के संकेतक हैं सम्प्रेषण करते हैं।
वे उसके हू-ब-हू (यथार्थ) प्रतिबिम्ब नहीं हैं। शब्द में मात्र यह सामर्थ्य यहाँ मूल प्रश्न यह है कि हमारी इस भाषायी अभिव्यक्ति को रही हुई है कि वे श्रोता के मनस् पर वस्तु का मानस प्रतिबिम्ब उपस्थित हम किस सीमा तक सत्यता का अनुसांगिक मान सकते हैं। आधुनिक कर देते हैं। अत: शब्द के द्वारा प्रत्युत्पन्न मानस प्रतिबिम्ब तथ्य का पाश्चात्य दर्शन में भाषा और उसकी सत्यता के प्रश्न को लेकर एक पूरा संवादी है, उससे अनुरूपता रखता है तो वह कथन सत्य माना जाता दार्शनिक सम्प्रदाय ही बन गया है। भाषा और सत्य का सम्बन्ध आज है। यद्यपि, यहाँ भी अनुरूपता वर्तमान मानस प्रतिबिम्ब और पूर्ववर्ती के युग का एक महत्त्वपूर्ण दार्शनिक प्रश्न है किसी कथन की सत्यता या परवर्ती या परवर्ती मानस प्रतिबिम्ब में ही होती है। जब किसी मानस या असत्यता को निर्धारित करने का आधार आज सत्यापनका सिद्धान्त प्रतिबिम्ब का सत्यापन परवर्ती मानस प्रतिबिम्ब अर्थात् ज्ञानान्तर ज्ञान हैं। समकालीन दार्शनिकों की यह मान्यता है कि जिन कथनों का से होता है तो उसे परत: प्रामाण्य कहा जाता है और जब उसका सत्यापन या मिथ्यापन संभव है, वे ही कथन सत्य या असत्य हो सकते सत्यापन पूर्ववर्ती मानस प्रतिबिम्ब से होता है तो स्वतः प्रामाण्य कहा हैं। शेष कथनों का सत्यता से कोई सम्बन्ध नहीं है। ए० जे० एयर ने जाता है; क्योंकि अनुरूपता या विपरीतता मानस प्रतिबिम्बों में ही हो अपनी पुस्तक में इस समस्या को उठाया है। इस सन्दर्भ में सबसे पहले सकती हैं। यद्यपि दोनों ही प्रकार के मानस प्रतिबिम्बों का आधार या हमें इस बात का विचार कर लेना होगा कि कथन के सत्यापन से हमारा उनकी उत्पत्ति ज्ञेय (प्रमेय) से होती है। यही कारण था कि वादिदेवसूरि क्या तात्पर्य है। कोई भी कथन जब इन्द्रियानुभव के आधार पर पुष्ट या ने प्रामाण्य (सत्यता) और अप्रामाण्य दोनों की उत्पत्ति को परत: माना अपुष्ट किया जा सकता है, तब ही वह सत्यापनीय कहलाता है। जिन था। प्रामण्य और अप्रामाण्य की उत्पत्ति को परत: करने का तात्पर्य यही कथनों को हम इन्द्रियानुभव के आधार पर पुष्ट या खण्डित नहीं कर है- इन मानस प्रतिबिम्बों का उत्पादक तत्त्व इनसे भिन्न हैं। कुछ सकते, वे असत्यापनीय होते हैं। किन्तु, इन दोनों प्रकार के कथनों के विचारक यह भी मानते हैं कि कथन के सत्यापन या सत्यता के निश्चय बीच कुछ ऐसे भी कथन होते हैं जो न सत्यापनीय होते हैं और में शब्द द्वारा उत्पन्न मानस प्रतिबिम्ब और तथ्य द्वारा उत्पन्न मानस असत्यापनीय। उदाहरण के लिए मंगल ग्रह में जीव के पाये जाने की प्रतिबिम्ब में तुलना होती है। यद्यपि एकांत वस्तुवादी दृष्टिकोण यह संभावना है। यद्यपि यह कथन वर्तमान में सत्यापनीय नहीं है, किन्तु मानेगा कि ज्ञान और कथन की सत्यता का निर्धारण मानस प्रतिबिम्ब यह संभव है कि इसे भविष्य में पुष्ट या खण्डित किया जा सकता है। की तथ्य या वस्तु से अनुरूपता के आधार पर होता है। यहाँ यह स्मरण अत: वर्तमान में यह न तो सत्यापनीय है और न तो असत्यापनीय। रखना होगा कि यह अनुरूपता भी वस्तुतः मानस प्रतिबिम्ब और वस्तु किन्तु, संभावना की दृष्टि से इसे सत्यापनीय माना जा सकता है। के बीच न होकर शब्द निर्मित मानस प्रतिबिम्ब और परवर्ती इन्द्रिय भगवती-आराधना में सत्य का एक रूप संभावना सत्य माना गया है। अनुभव के द्वारा उत्पन्न मानस प्रतिबिम्ब के बीच होती है, यह तुलना
वस्तुत: कौन-सा कथन सत्य है, इसका निर्णय इसी बात पर . दो मानसिक प्रतिबिम्बों के बीच है, न कि तथ्य और कथन के बीच। निर्भर करता है कि उसका सत्यापन या मिथ्यापन संभव है या नहीं है। तथ्य और कथन दो भिन्न स्थितियाँ हैं। उनमें कोई तुलना या सत्यापन वस्तुत: जिसे हम सत्यापन या मिथ्यापन कहते हैं, वह भी उस सम्भव नहीं है। शब्द वस्तु के समग्र प्रतिनिधि नहीं, संकेतक हैं और अभिकथन और उसमें वर्णित तथ्य की संवादिता या अनुरूपता पर उनकी यह संकेत सामर्थ्य भी वस्तुत: उनके भाषायी प्रयोग (Convenनिर्भर करता है, जिसे जैन परम्परा में परतः प्रामाण्य कहा जाता है। tion) पर निर्भर करती है। हम वस्तु को कोई नाम दे देते हैं और प्रयोग सामान्यतया यह माना जाता है कि कोई भी कथन कथित तथ्य का के द्वारा उस "नाम" में एक ऐसी सामर्थ्य विकसित हो जाती है कि उस संवादी (अनुरूप) होगा तो वह सत्य होगा और विसंवादी (विपरीत) “नाम'' में श्रवण या पठन से हमारे मानस में एक प्रतिबिम्ब खड़ा हो होगा तो वह असत्य होगा। यद्यपि, वह भी स्पष्ट है कि कोई भी कथन जाता है। यदि उस शब्द के द्वारा प्रत्युत्पन्न वह प्रतिबिम्ब हमारे परवर्ती किसी तथ्य की समग्र अभिव्यक्ति नहीं दे पाता है। जैन दार्शनिकों ने इन्द्रियानुभव से अनुरूपता रखता है, हम उस कथन को -"सत्य" स्पष्ट रूप से यह माना था कि प्रत्येक कथन वस्तु-तत्त्व के सम्बन्ध में कहते हैं। भाषा में अर्थ बोध की सामर्थ्य प्रयोगों के आधार पर विकसित हमें आंशिक जानकारी ही प्रस्तुत करता है। अत: प्रत्येक कथन वस्तु के होती है। वस्तुत: कोई शब्द या कथन अपने आप में न तो सत्य होता सन्दर्भ में आंशिक सत्य का ही प्रतिपादक होगा।यहाँ भाषा की अभिव्यक्ति, है और न असत्य This is a table- यह कथन अंग्रेजी भाषा के
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जैन दर्शन में ज्ञान के प्रामाण्य और कथन की सत्यता का प्रश्न
१४३ जानकार के लिए सत्य या असत्य हो सकता है, किन्तु हिन्दी भाषा के उल्लेख हुआ है। सत्य के इन दस भेदों का विवेचन इस प्रकार हैलिए न तो सत्य है और न असत्य। कथन की सत्यता और असत्यता १. जनपद सत्य-जिस देश में जो भाषा या शब्द व्यवहार तभी सम्भव होती है, जबकि श्रोता को कोई अर्थ बोध (वस्तु का मानस प्रचलित हो, उसी के द्वारा वस्तु तत्त्व का संकेत करना जनपद सत्य है। प्रतिबिम्ब) होता है, अतः पुनरुक्तियों और परिभाषाओं को छोड़कर एक जनपद या देश में प्रयुक्त होने वाला वही शब्द दूसरे देश में कोई भी भाषायी कथन निरपेक्ष रूप से न तो सत्य होता है और न असत्य हो जावेगा। बाईजी शब्द मालवा में माता के लिए प्रयुक्त होता असत्य। किसी भी कथन की सत्यता या असत्यता किसी सन्दर्भ विशेष है, जबकि उत्तर प्रदेश में वेश्या के लिए। अत: बाईजी से माता का में ही सम्भव होती है।
अर्थबोध मालव के व्यक्ति के लिए सत्य होगा, किन्तु उत्तर प्रदेश के
व्यक्ति के लिए असत्य। जैन दर्शन में कथन की सत्यता का प्रश्न
सम्मत-सत्य- वस्तु के विभिन्न पर्यायवाची शब्दों का एक जैन दार्शनिकों ने भाषा की सत्यता और असत्यता के प्रश्न ही अर्थ में प्रयोग करना सम्मत-सत्य है, जैसे- राजा, नृप, भूपति पर गंभीरता से विचार किया है। प्रज्ञापनासूत्र (पनवन्ना) में सर्वप्रथम आदि। यद्यपि ये व्युत्पत्ति की दृष्टि से अलग-अलग अर्थों के सूचक हैं। भाषा को पर्याप्त भाषा और अपर्याप्त भाषा ऐसे दो भागों में विभाजित जनपद-सत्य एवं सम्मत-सत्यप्रयोग सिद्धान्त (Use Theory) से आधारित किया गया है। पर्याप्त भाषा वह है जिसमें अपने विषय को पूर्णत: अर्थबोध से सूचक हैं। निर्वचन करने की सामर्थ्य है और अपर्याप्त भाषा वह है जिसमें अपने ३. स्थापना सत्य- शतरंज के खेल में प्रयुक्त विभिन्न विषय का पूर्णत: निर्वचन, सामर्थ्य नहीं है। अंशतः, सापेक्ष एवं अपूर्ण आकृतियों को राजा, वजीर आदि नामों से सम्बोधित करना स्थापना कथन अपर्याप्त भाषा का लक्षण है। तुलनात्मक दृष्टि से पाखात्य सत्य है। यह संकेतीकरण का सूचक है। परम्परा की गणितीय भाषा टॉटोलाजी एवं परिभाषाएँ पर्याप्त या पूर्ण ४. नाम सत्य- गुण निरपेक्ष मात्र दिये गये नाम के आधार भाषा के समतुल्य मानी जा सकती है जबकि शेष भाषा व्यवहार पर वस्तु का सम्बोधन करना यह नाम सत्य है। एक गरीब व्यक्ति भी अपर्याप्त या अपूर्ण भाषा का ही सूचक है। सर्वप्रथम उन्होंने पर्याप्त नाम से "लक्ष्मीपति" कहा जा सकता है, उसे इस नाम से पुकारना भाषा की सत्य और असत्य ऐसी दो कोटियाँ स्थापित की। उनके सत्य है। यहाँ भी अर्थबोध संकेतीकरण के द्वारा ही होता है। अनुसार अपर्याप्त की दो कोटियाँ होती हैं- (१) सत्य-मृषा (मिश्र) ५. रूप सत्य- वेश के आधार पर व्यक्ति को उस नाम से और (२) असत्य-अमृषा।
पुकारना रूप सत्य है, चाहे वस्तुत: वह वैसा न हो, जैसे- नाटक में सत्य भाषा- वे कथन, जो वस्तु के यथार्थ स्वरूप के राम का अभिनय करने वाले व्यक्ति को "राम" कहना या साधुवेशधारी प्रतिपादक हैं, सत्य कहलाते हैं। कथन और तथ्य की संवादिता या को साधु कहना। अनुरूपता ही सत्य की मूलभूत कसौटी है। जैन दार्शनिकों ने ६. प्रतीत्य सत्य- सापेक्षिक कथन अथवा प्रतीति को सत्य पाश्चात्य अनुभववादियों के समान ही यह स्वीकार किया है कि जो मानकर चलना प्रतीत्य सत्य है। जैसे अनामिका बड़ी है, मोहन छोटा कथन तथ्य का जितना अधिक संवादी होगा, वह उतना ही अधिक है आदि। इसी प्रकार आधुनिक खगोल विज्ञान की दृष्टि से पृथ्वी स्थिर सत्य माना जायेगा। यद्यपि जैन दार्शनिक कथन की सत्यता को है, यह कथन भी प्रतीत्य सत्य है, वस्तुतः सत्य नहीं। उसकी वस्तुगत सत्यापनीयता तक ही सीमित नहीं करते हैं। वे यह ७. व्यवहार- सत्य-व्यवहार में प्रचलित भाषायी प्रयोग भी मानते हैं कि आनुभविक सत्यापनीयता के अतिरिक्त भी कथनों व्यवहार सत्य कहे जाते हैं, यद्यपि वस्तुत: वे असत्य होते हैं-घड़ा में सत्यता हो सकती है। जो कथन ऐन्द्रिक अनुभवों पर निर्भर न भरता है, बनारस आ गया, यह सड़क बम्बई जाती है। वस्तुत: घड़ा होकर अपरोक्षानुभूति के विषय होते हैं उनकी सत्यता का निश्चय तो नहीं पानी भरता है, बनारस नहीं आता, हम बनारस पहुँचते हैं। सड़क अपरोक्षानुभूति के विषय ही करते हैं। अपरोक्षानुभव के ऐसे अनेक स्थिर है वह नहीं जाती है, उस पर चलने वाला जाता है। स्तर हैं, जिनकी तथ्यात्मक संगति खोज पाना कठिन है। जैनदार्शनिकों ८. भाव सत्य- वर्तमान पर्याय में किसी एक गण की ने सत्य को अनेक रूपों में देखा है। स्थानांग, प्रश्नव्याकरण, प्रमुखता के आधार पर वस्तु को वैसा कहना भाव सत्य है। जैसे-अंगर प्रज्ञापना, मूलाधार और भगवती आराधना में सत्य के दस भेद मीठे हैं, यद्यपि उनमें खट्टापन भी रहा हआ है। बताये गये हैं:- १. जनपद सत्य, २. सम्मत सत्य, ३. स्थापना ९. योग सत्य- वस्तु के संयोग के आधार पर उसे उस नाम सत्य, ४. नाम सत्य, ५. रूप सत्य, ६. प्रतीत्य सत्य, ७. व्यवहार से पुकारना योग सत्य है; जैसे- दण्ड धारण करने वाले को दण्डी सत्य, ८. भाव सत्य, ९. योग सत्य, १० उपमा सत्य। अकलंक ने कहना या जिस घड़े में घी रखा जाता है उसे घी का घड़ा कहना। सम्मत सत्य, भाव सत्य और उपमा सत्य के स्थान पर संयोजना १०. उपमा सत्य- यद्यपि चन्द्रमा और मुख दो भिन्न तथ्य सत्य, देश सत्य और काल सत्य का उल्लेख किया है। मूलाचार हैं और उनमें समानता भी नहीं है, फिर भी उपमा में ऐसे प्रयोग होते और भगवतीआराधना में योग सत्य के स्थान पर सम्भावना सत्य का हैं- जैसे चन्द्रमुखी, मृगनयनी आदि। भाषा में इन्हें सत्य माना जाता है।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
वस्तुतः सत्य के इन दस रूपों का सम्बन्ध तथ्यगत सत्यता हों"- इस प्रकार आमंत्रण देनेवाले कथनों की भाषा आमन्त्रणी कही के स्थान पर भाषागत सत्यता से है। कथन-व्यवहार में इन्हें सत्य माना जाती है। ऐसे कथन सत्यसनीय नहीं होते। इसलिए ये सत्य या असत्य जाता है। यद्यपि कथन की सत्यता मूलत: तो उसकी तथ्य से संवादिता की कोटि से परे होते हैं। पर निर्भर करती है। अत: ये सभी केवल व्यावहारिक सत्यता के सूचक हैं, वास्तविक सत्यता के नहीं।
२. आज्ञापनीय जैन दार्शनिकों ने सत्य के साथ-साथ असत्य के स्वरूप पर “दरवाजा बन्द कर दो", "बिजली जला दो", आदि आज्ञाभी विचार किया है। असत्य का अर्थ है कथन का तथ्य से विसंवादी वाचक कथन भी.सत्य या असत्य की कोटि में नहीं आते। एजे० होना या विपरीत होना। प्रश्नव्याकरण में असत्य की काफी विस्तार से एयर प्रभृति आधुनिक तार्किकभाववादी विचारक भी आदेशात्मक भाषा चर्चा है, उनमें असत्य के ३० पर्यायवाची नाम दिये गये हैं। यहाँ हम को सत्यापनीय नहीं मानते हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने समग्र नैतिक उनमें से कुछ की चर्चा तक ही अपने को सीमित रखेंगे।
कथनों के भाषायी विश्लेषण के आधार पर यह सिद्ध किया है कि वे अलीक- जिसका अस्तित्व नहीं है, उसको अस्ति रूप विधि या निषेध रूप में आज्ञासूचक या भावनासूचक ही हैं, इसलिए वे कहना अलीक वचन है। आचार्य अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय में न तो सत्य हैं और न तो असत्य। इसे असत्य कहा है।
अपलाप- सद् वस्तु को नास्ति रूप कहना अपलाप है। ३. याचनीय
विपरीत- वस्तु के स्वरूप का भिन्न प्रकार से प्रतिपादन 'यह दो' इस प्रकार की याचना करने वाली भाषा भी सत्य करना विपरीत कथन है।
और असत्य और असत्य की कोटि से परे होती है। एकान्त- ऐसा कथन, जो तथ्य के सम्बन्ध में अपने पक्ष का प्रतिपादन करने के साथ अन्य पक्षों या पहलुओं का अपलाप करता है, ४. प्रच्छनीय वह भी असत्य माना गया है। इसे दुर्नय या मिथ्यात्व कहा गया है।
यह रास्ता कहाँ जाता है? आप मुझे इस पद्य का अर्थ इनके अतिरिक्त हिंसाकारी वचन, कटुवचन, विश्वासघात, बतायें? इस प्रकार के कथनों की भाषा प्रच्छनीय कही जाती है। चूंकि दोषारोपण आदि भी असत्य के ही रूप हैं। प्रज्ञापना में क्रोध, लोभ यह भाषा भी किसी तथ्य का विधि-निषेध नहीं करती है, इसलिए आदि के कारण नि:सृत वचन को तथ्य से संवादी होने पर भी असत्य इसका सत्यापन सम्भव नहीं है। माना गया है।
५. प्रज्ञापनीय अर्थात् उपदेशात्मक भाषा सत्य-मृषा कथन
जैसे चोरी नहीं करना चाहिए, झूठ नहीं बोलना चाहिए, वे कथन जिनका अर्थ उभय कोटिक हो सकता है, सत्य- आदि। चूँकि इस प्रकार के कथन भी तथ्यात्मक विवरण न हो करके मृषा कथन हैं। “अश्वत्थामा मारा गया" यह महाभारत का प्रसिद्ध कथन उपदेशात्मक होते हैं, इसलिए ये सत्य-असत्य की कोटि में नहीं आते। सत्य-मृषा भाषा का उदाहरण है। वक्ता और श्रोता इसके भिन्न-भिन्न आधुनिक भाषा विश्लेषणवादी दार्शनिक नैतिक प्रकथनों का अन्तिम अर्थ ग्रहण कर सकते हैं। अत: जो कथन दोहरा अर्थ रखते हैं, वे मिन विश्लेषण प्रज्ञापनीय भाषा के रूप में ही करते हैं और इसलिए इसे भाषा के उदाहरण हैं।
सत्यापनीय नहीं मानते हैं, उनके अनुसार वे नैतिक प्रकथन जो बाह्य
रूप से तो तथ्यात्मक प्रतीत होते हैं, लेकिन, वस्तुत: तथ्यात्मक नहीं असत्य-अमृषा कथन
होते; जैसे- चोरी करना बुरा है, उसके अनुसार इस प्रकार के कथनों लोकप्रकाश के तृतीय सर्ग के योगाधिकार में बारह (१२) का अर्थ केवल इतना ही है कि तुम्हें चोरी नहीं करना चाहिए या चोरी प्रकार के कथनों को असत्य-अमृषा कहा गया है। वस्तुत: वे कथन के कार्य को हम पसन्द नहीं करते हैं। यह कितना सुखद आश्चर्य है कि जिन्हें सत्य या असत्य को कोटि में नहीं रखा जा सकता, असत्य- जो बात आज के भाषा-विश्लेषक दार्शनिक प्रस्तुत कर रहे हैं, उसे अमषा कहे जाते हैं। जो कथन किसी विधेय का विधान या निषेध नहीं सहस्राधिक वर्ष पूर्व जैन विचारक सूत्र रूप में प्रस्तुत कर चुके हैं। करते, उनका सत्यापन सम्भव नहीं होता है और जैन आचार्यों ने ऐसे आज्ञापनीय और प्रज्ञापनीय भाषा को असत्य-अमृषा कहकर उन्होंने कथनों को असत्य-अमृषा कहा है, जैसे आदेशात्मक कथन। निम्न १२ आधुनिक भाषा-विश्लेषण का द्वार उद्घाटित कर दिया था। प्रकार के कथनों को असत्य अमृषा-कहा गया है
६.प्रत्याख्यानीय १. आमन्त्रणी
किसी प्रार्थी की माँग को अस्वीकार करना प्रत्याख्यानीय "आप हमारे यहां पधारें", 'आप हमारे विवाहोत्सव में सम्मलित भाषा है। जैसे, तुम्हें यहाँ नौकरी नहीं मिलेगी अथवा तुम्हें भिक्षा
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जैन दर्शन में ज्ञान के प्रामाण्य और कथन की सत्यता का प्रश्न
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नहीं दी जा सकती।
कहे जाते हैं। जैसे, सैन्धव अच्छा होता है। यहाँ वक्ता का यह तात्पर्य
स्पष्ट नहीं है कि सैन्धव से नमक अभिप्रेत है या सिन्धु देश का घोड़ा। ७. इच्छानुकूलिका
अत: ऐसे कथनों को भी न सत्य कहा जा सकता है और न असत्य। किसी कार्य में अपनी अनुमति देना अथवा किसी कार्य के प्रति अपनी पसन्दगी स्पष्ट करना इच्छानुकूलिका भाषा है। तुम्हें यह ११. व्याकृता कार्य करना ही चाहिए, इस प्रकार के कार्य को मैं पसन्द करता हूँ। मुझे व्याकृता से जैन विचारकों को क्या अभिप्रेत है, यह स्पष्ट झूठ बोलना पसन्द नहीं है। आधुनिक नीतिशास्त्र का संवेगवादी सिद्धान्त नहीं होता हैं हमारी दृष्टि में व्याकृत का अर्थ परिभाषित करना ऐसा हो भी नैतिक कथनों को अभिरुचि या पसन्दगी का एक रूप बताता है, सकता है। वे कथन, जो किसी तथ्य की परिभाषाएं हैं, इस कोटि में और उसे सत्यापनीय नहीं मानता है।
आते हैं। आधुनिक भाववादी विश्लेषक दार्शनिकों की दृष्टि से कहें तो
वे पुनरुक्तियाँ हैं। जैन विचारकों ने इन्हें भी सत्य या असत्य की कोटि ८. अनभिग्रहीत
में नहीं रखा है, क्योंकि इनका कोई अपना विधेय नहीं होता है या ये ऐसा कथन जिसमें वक्ता अपनी न तो सहमति प्रदान कोई नवीन कथन नहीं करते हैं। करता है और न असहमति, अनभिग्रहीत कहलाता है। जैसे, 'जो पसन्द हो, वह कार्य करो", "जो तुम्हें सुखप्रद हो, वैसा करो" १२. अव्याकृता आदि। ऐसे कथन भी सत्यापनीय नहीं होते। इसलिए इन्हें भी वह भाषा जो स्पष्ट रूप से कोई विधि निषेध नहीं करती असत्य-अमृषा कहा गया है।
है, अव्याकृत भाषा है। यह भी स्पष्ट रूप से विधि-निषेध को
अभिव्यक्त नहीं करती है। इसलिए यह भी सत्य-असत्य की कोटि में ९. अभिग्रहीत
नहीं आती है। किसी दूसरे व्यक्ति के कथन को अनुमोदित करना अभिग्रहीत
आज समकालीन दार्शनिकों ने भी आमंत्रणी, आज्ञापनीय, कथन है। जैसे- 'हाँ, तुम्हें ऐसा ही करना चाहिए', ऐसे कथन भी याचनीय, पृच्छनीय और प्रज्ञापनीय आदि कथनों को असत्य-अमृषा सत्य-असत्य की कोटि में नहीं आते हैं।
(असत्यापनीय) माना है। एयर आदि ने नैतिक प्रकथनों को आज्ञापनीय
मानकर उन्हें (असत्यापनीय) माना है जो जैन दर्शन की उपयुक्त १०. संदेहकारिणी
व्याख्या के साथ संगतिपूर्ण है। जो कथन व्यर्थक हो या जिनका अर्थ स्पष्ट न हो, संदेहात्मक
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जैन वाक्य दर्शन
वाक्य भाषायी अभिव्यक्ति की एक महत्त्वपूर्ण इकाई है। वाक्य के स्वरूप के सम्बन्ध में विभिन्न मत वाक्य की परिभाषा को लेकर विभिन्न दार्शनिकों के विचारों में मतभेद वाक्य के स्वरूप के सम्बन्ध में विभिन्न भारतीय दार्शनिकों पाया जाता है। प्रस्तुत विवेचन में हम सर्वप्रथम जैन आचार्यों की वाक्य के दृष्टिकोणों को स्पष्ट करने के लिए जैन दार्शनिक प्रभाचन्द्र ने अपने की परिभाषा को स्पष्ट करेंगे और उसके बाद वाक्य की परिभाषा के ग्रन्थ प्रमेयकमलमार्तण्ड में वाक्यपदीय ये दो श्लोक उद्धृत किये हैं सम्बन्ध में अन्य दार्शनिक अवधारणाओं को और उनकी जैन दार्शनिकों जिनमें उस काल में प्रचलित वाक्य की परिभाषा एवं स्वरूप सम्बन्धी द्वारा की गई समीक्षा को प्रस्तुत करेंगे तथा यह देखने का प्रयास करेंगे विभिन्न धारणाओं का एक परिचय मिल जाता है। . कि जैन दार्शनिकों ने वाक्य का जो स्वरूप निश्चित किया है, वह किस सीमा तक तर्क-संगत है।
आरण्यतशब्दः संघातो जातिसंघातवर्तिनी । प्रभाचन्द्र प्रमेयकमलमार्तण्ड में वाक्य के स्वरूप को स्पष्ट एकोऽनवयवशब्दः क्रमो बुद्ध्यनुसंहति ।। करते हुए लिखते हैं कि "अपने वाच्यार्थ को स्पष्ट करने के लिए एक पदमाधं पृथक्सर्वपदं साकांक्षमित्यपि । दूसरे की परस्पर अपेक्षा रखनेवाले पदों का निरपेक्ष समूह वाक्य है।"१ वाक्यं प्रतिमतिर्भिन्ना बहुधा न्यायवादिनाम ।। वाक्य की इस परिभाषा से हमारे सामने दो बातें स्पष्ट होती हैं। प्रथम
वाक्यपदीय - २/१-७ तो यह कि वाक्य की रचना करने वाले पद अपने वाच्यार्थ का अवबोध भारतीय दार्शनिकों में वाक्य के स्वरूप को लेकर दो महत्त्वपूर्ण कराने के लिए परस्पर एक दूसरे की अपेक्षा रखते हैं, किन्तु उनसे दृष्टिकोण उपलब्ध होते हैं। वैयाकरणिकों का मत है कि वाक्य एक निर्मित वह वाक्य अपने वाक्यार्थ का अवबोध कराने के लिए अन्य अखण्ड इकाई है, वे वाक्य में पद को महत्त्वपूर्ण नहीं मानते। उनके किसी की अपेक्षा नहीं रखता है। दूसरे शब्दों में अपना अर्थबोध कराने अनुसार, वाक्य से पृथक् पद का कोई अस्तित्त्व ही नहीं है, जबकि में वाक्य स्वयं समर्थ होता है किन्तु पद स्वयं समर्थ नहीं होते हैं। जब दूसरा दृष्टिकोण जिसका समर्थन न्याय, सांख्य, मीमांसा आदि दर्शन सापेक्ष या साकांक्ष पद परस्पर मिलकर एक ऐसे समूह का निर्माण कर करते हैं, वाक्य को खण्डात्मक इकाइयों अर्थात् शब्दों और पदों से लेते हैं जिसे अपना अर्थबोध कराने के लिए अन्य किसी की अपेक्षा निर्मित मानता है। इनके अनुसार पद वाक्य का एक महत्त्वपूर्ण अंग है नहीं रहती है, तब वाक्य बनता है। संक्षेप में साकांक्ष/सापेक्ष पदों का और अपने आप में एक स्वतन्त्र इकाई है। यद्यपि इस प्रश्न को लेकर निरपेक्ष/नि:कांक्ष समूह वाक्य है। पदों की सापेक्षता और उनसे निर्मित कि क्रियापद (आख्यात पद) अथवा उद्देश्यपद आदि में कौन-सा समूह की निरपेक्षता ही वाक्य का मूल तत्त्व है। वाक्य का प्रत्येक पद पद वाक्य का प्राण है- इन विचारकों में भी मतभेद पाया जाता है। दूसरे पद की अपेक्षा रखता है। वह दूसरे के बिना अपूर्ण-सा प्रतीत वाक्यपदीय के आधार पर प्रभाचन्द्र ने वाक्य की परिभाषा एवं होता है। अपने अर्थबोध के लिए दूसरे की आकांक्षा या अपेक्षा रखने स्वरूप के सम्बन्ध में निम्न मतों का उल्लेख किया है और उनकी वाला पद साकांक्ष पद कहलाता है और जितने साकांक्ष पदों को समीक्षा की हैमिलाकर यह आकांक्षा पूरी हो जाती है, वह इकाई वाक्य कही जाती है। इस प्रकार जैन दार्शनिकों के अनुसार यहाँ वाक्य में प्रयुक्त पद (१) आख्यात पद ही वाक्य है सापेक्ष या साकांक्ष होते हैं, वहाँ उन पदों से निर्मित वाक्य अपना कुछ दार्शनिकों के अनुसार आख्यातपद या क्रियापद ही अर्थबोध कराने की दृष्टि से निरपेक्ष या निराकांक्ष होता है। वस्तुतः वाक्य का प्राण है। वही वाक्य का अर्थ वहन करने में समर्थ है। परस्पर एक-दूसरे की अपेक्षा रखनेवाले सापेक्ष या साकांक्ष पदों को क्रियापद के अभाव में वाक्यार्थ स्पष्ट नहीं होता; अतः वाक्यार्थ के मिलाकर जब एक ऐसे समूह ही रचना कर दी जाती है, जिसे अपने अर्थबोध में क्रियापद अथवा आख्यातपद ही प्रधान है, अन्य पद अर्थबोध कराने के लिए अन्य किसी की अपेक्षा नहीं रहती है, तब गौण हैं। वाक्य बन जाता है। इस प्रकार जैन दार्शनिकों के अनुसार वाक्य में इस मत की समालोचना करते हुए प्रभाचन्द्र लिखते हैं कि पदों की दृष्टि से सापेक्षता से और पद-समूह की दृष्टि से निरपेक्षता आख्यातपद अर्थात् क्रियापद अन्य पदों से निरपेक्ष होकर वाक्य है या होती है, अत: वाक्य सापेक्ष पदों का निरपेक्ष समूह है। इसका तात्पर्य सापेक्ष होकर वाक्य है? यदि प्रथम विकल्प के आधार पर यह माना यह है कि वाक्य एक इकाई है जो सापेक्ष या साकांक्ष पदों से निर्मित जाये कि आख्यातपद अन्य पदों से निरपेक्ष होकर वाक्य है तो यह होकर भी अपने आप में निरपेक्ष होती है। पद वाक्य के आवश्यक अंग मान्यता दो दृष्टिकोणों से युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि प्रथम तो अन्य हैं और वाक्य इनसे निर्मित एक निरपेक्ष इकाई है। वाक्यखण्डात्मक पदों से निपेक्ष होने पर आख्यातपद 'पद' ही रहेगा, 'वाक्य के स्वरूप इकाइयों से रचित एक अखण्ड रचना है।
को प्राप्त नहीं होगा। दूसरे, यदि अन्य पदों से निरपेक्ष आख्यातपद
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अर्थात् क्रियापद को ही वाक्य माना जाये तो फिर आख्यातपद का ही संघात नहीं है। मात्र पदों को एकत्र रखने से वाक्य नहीं बनता है। अभाव होगा क्योंकि आख्यातपद अर्थात् क्रियापद वह है, जो उद्देश्य वाक्य बनने के लिए 'कुछ और' चाहिए और यह 'कुछ और' पदों के और विधेयपद के अथवा अपने और उद्देश्यपद के पारस्परिक सम्बन्ध एक विशेष प्रकार के एकीकरण से प्रकट होता है। यह पदों के अर्थ को सूचित करता है। उद्देश्य या विधेयपद से निरपेक्ष होकर तो वह से अधिक एवं बाहरी तत्त्व होता है। पदों के समवेत होने पर आये अपना अर्थात् आख्यातपद का स्वरूप ही खो चुकेगा; क्योंकि निरपेक्ष हुए इस 'अर्थाधिक्य' को ही संघातवादी वाक्यार्थ मानते हैं। इस होने से वह न तो उद्देश्यपद और विधेयपद के सम्बन्ध को और न प्रकार संघातवाद में वाक्य को पदसमूह के रूप में और वाक्यार्थ को उद्देश्यपद अपने सम्बन्ध को सूचित करेगा। पुन: यदि आख्यातपद पदों के अर्थसमूह के रूप में स्वीकार किया जाता है, किन्तु यहाँ अन्य पदों से सापेक्ष होकर वाक्य है, तो वह कथंचित् सापेक्ष होकर समूह या संघात ही महत्त्वपूर्ण तत्त्व है क्योंकि वह पदों के अर्थ में वाक्य है या पूर्णतया सापेक्ष होकर वाक्य। इसमें भी प्रथम मत के कुछ नयी बात को भी जोड़ता है। इस मत के अनुसार पदों के संघात अनुसार यदि यह माना जाये कि वह कथंचित् सापेक्ष होकर वाक्य है, में कुछ एक ऐसा नया तत्त्व होता है जो पदों के अलग-अलग होने तो इससे तो जैन मत का ही समर्थन होगा। पुनः यदि दूसरे विकल्प पर नहीं होता है। उदाहरण के रूप में 'घोड़ा' 'घास' 'खाता है'- ये के अनुसार यह माना जाये कि वह पूर्ण सापेक्ष होकर वाक्य है, तो तीन पद अलग-अलग रूप में जिस अर्थ के सूचक हैं, इनका संघात पूर्ण सापेक्षता के कारण उसमें वाक्यत्व का ही अभाव होगा और या संहति अर्थात् 'घोड़ा घास खाता है उससे भिन्न अर्थ का सूचक वाक्यत्व का अभाव होने से उसके प्रकृत अर्थ अर्थात् आख्यात है। इस प्रकार संघातवादी पदों के संघात को ही वाक्यार्थ के अवबोध स्वभाव का ही अभाव होगा, वह अर्द्धवाक्यवत् होगा; क्योंकि पूर्ण का मुख्य आधार मानते हैं। सापेक्षा होने के कारण उसे अपना अर्थबोध कराने के लिये अन्य संघातवाद की इस मान्यता की समालोचना करते हुए प्रभाचन्द्र किसी की अपेक्षा बनी रहेगी। अन्य किसी की अपेक्षा रहने से वह प्रमेयकमलमार्तण्ड में लिखते हैं कि पदों का यह संघात या संघटन वाक्य के स्वरूप को प्राप्त नहीं होगा; क्योंकि वाक्य तो सापेक्ष पदों देशकृत है या कालकृत। यदि पदों के संघात को देशकृत अथवा की निरपेक्ष संहति अर्थात् इकाई है। अत: जैनों के अनुसार कथंचित् कालकृत माना जाये तो यह विकल्प युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि सापेक्ष और कथंचित् निरपेक्ष होकर ही आख्यातपद वाक्य हो सकता वाक्य के सुनने में क्रमश: उत्पन्न एवं ध्वंस होने वाले पदों का एक हैं। इसका तात्पर्य है कि वह अन्य पदों से मिलकर ही वाक्य स्वरूप ही देश या एक ही काल में अवस्थित होकर संघात बनाना सम्भव को प्राप्त होता है। आख्यातपद वाक्य का चाहे एक महत्त्वपूर्ण अंग नहीं हैं। पुन: यह प्रश्न उपस्थित होता है कि वाक्यरूपता को प्राप्त हो, किन्तु वह अकेला वाक्य नहीं है।
पद वाक्य से भिन्न है या अभिन्न है। वह भिन्न नहीं हो सकता, क्योंकि यह सत्य है कि अनेक स्थितियों में केवल क्रियापद के भिन्न रहने पर वह वाक्यांश नहीं रह जायगा और वाक्य के अंश के उच्चारण से सन्दर्भ के आधार पर वाक्यार्थ का बोध हो जाता है, किन्तु रूप में उसकी प्रतीति नहीं होगी। पुनः जिस प्रकार एक वर्ण का दूसरे वहाँ भी गौणरूप से अन्य पदों की उपस्थिति तो है। 'खाओ' कहने से वर्ण से संघात नहीं होता उसी प्रकार एक पद का भी दूसरे पद के न केवल खाने की क्रिया की सूचना मिलती है, अपितु खानेवाले व्यक्ति साथ संघात नहीं होता हैं पुन: यदि संघात अभिन्न रूप में है तो यह
और खाद्य वस्तु का भी अव्यक्त रूप से निर्देश होता है; क्योंकि बिना प्रश्न उपस्थित होता है तो वह सर्वथा अभिन्न है या कथंचित् अभिन्न खानेवाले ओर खाद्य वस्तु के उसका कोई मतलब नहीं है। हिन्दी भाष है। यदि सर्वथा अभिन्न माना जायेगा तो संघात संघाती के स्वरूप में 'लीजिए' 'पाइए' आदि ऐसे आख्यातपद हैं, जो एक पद होकर भी वाला हो जायेगा, दूसरे शब्दों में पद ही वाक्यरूप हो जायेगा और वाक्यार्थ का बोध कराते हैं; किन्तु इनमें अन्य पदों का गौणरूप से ऐसी स्थिति में संघात का कोई अर्थ ही नहीं रह जायेगा। यदि यह संकेत तो हो ही जाता हैं संस्कृत भाषा में 'गच्छामि' इस क्रियापद के संघात कथंचित् अभिन्न और कथंचित् भिन्न है तो ऐसी स्थिति में जैन प्रयोग में 'अहं' और 'गच्छति' इस क्रियापद के प्रयोग में 'स:' का मत का ही समर्थन होगा क्योंकि जैनाचार्यों के अनुसार भी पद वाक्य गौणरूप से निर्देश तो रहा ही है। क्रियापद को सदैव व्यक्त या अव्यक्त से कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न होते है। इस रूप में तो यह रूप में कर्तापद की अपेक्षा तो होती ही है। अत: आख्यातपद अन्य मत जैनों को भी मान्य हो जायेगा। पदों से कथंचित् सापेक्ष होकर ही वाक्यार्थ का अवबोध करता है- यह । मानना ही समुचित है और इस रूप में यह मत जैन दार्शनिकों को भी (३) संघात में अनुस्यूत सामान्यतत्त्व (जाति) ही वाक्य है स्वीकार्य है।
कुछ विचारकों की मान्यता है कि वाक्य मात्र पदों का
संघात नहीं है। वाक्य के समस्त पदों के संघात से होने वाली एक (२) पदों का संघात वाक्य है
सामान्य प्रतीति ही वाक्य है। इन विचारकों के अनुसार पदों के संघात बौद्ध दार्शनिकों का यह कहना है कि पदों का संघात ही से एक सामान्य तत्त्व, जिसे वे 'जाति' कहते हैं, उत्पन्न होता है और वाक्य है। यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि मात्र पद-समूह यह संघात में अनुस्यूत सामान्य तत्त्व ही वाक्य है। वाक्य में पदों की
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पृथक्-पृथक् सत्ता नहीं रहती है, अपितु वे सब मिलकर एक सामान्य समालोचना करते हुए कहते हैं कि 'वाक्य एक अविभाज्य एवं अपद तत्त्व का अर्थबोध देते हैं और यही वाक्यार्थ होता है। इस मत के इकाई है', यह मान्यता एक प्रकार की कपोल-कल्पना ही है क्योंकि अनुसार यद्यपि पदों के संघात से ही वाक्य बनता है फिर भी यह वाक्य पद के बिना वाक्य नहीं होता है, वाक्य में साकांक्ष पदों का होना से पृथक् होकर उन पदों के अर्थबोध सामर्थ्य को स्वीकार नहीं करता नितान्त आवश्यक है। वाक्य में पदों की पूर्ण अवलेहना करना या यह है। यद्यपि वाक्य का प्रत्येक पद अपनी सत्ता रखता है, तथापि वाक्यार्थ मानना कि पद और पद के अर्थ का वाक्य में काई स्थान ही नहीं है, एक अलग इकाई है और पदों का कोई अर्थ हो सकता है तो वाक्य एक प्रकार से आनुभविक सत्य से विमुख होना ही है। प्रभाचन्द्र ने इस में रहकर ही हो सकता है। जैसे शरीर का कोई अंग अपनी क्रियाशीलता मत के सम्बन्ध में वे सभी आपत्तियाँ उठायी हैं जो कि स्फोटवाद के शरीर में रहकर ही बनाये रखता है, स्वतन्त्र होकर नहीं। पद वाक्य के सम्बन्ध में उठायी जा सकती हैं। यह मत वस्तुतः स्फोटवाद का ही एक अंग के रूप में ही अपना अर्थ पाते हैं।
__रूप है, जो वाक्यार्थ के सम्बन्ध में यह प्रतिपादित करता है कि पद या जैन दार्शनिक प्रभाचन्द्र इस मत की समीक्षा करते हुए कहते उनसे निर्मित वाक्य अर्थ के प्रतिपादक नहीं हैं, किन्तु स्फोट (अर्थ का हैं कि यदि जाति या सामान्यक्तत्व का तात्पर्य परस्पर सापेक्ष पदों का प्राकट्य) ही अर्थ का प्रतिपादक है।यदि शब्दार्थ के बोध के सम्बन्ध में निरपेक्ष समूह है, तो हमें कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि वह दृष्टिकोण तो स्फोटवाद एकमात्र और अन्तिम सिद्धान्त नहीं है क्योंकि यह इसे स्पष्ट स्वयं जैनों को भी स्वीकार्य है। किन्तु यदि जाति को पदों से भिन्न माना नहीं कर पाता है कि पदाभाव में अर्थका स्फोट क्यों नहीं हो जाता? जायेगा तो ऐसी स्थिति में इस मत में भी वे सभी दोष उपस्थित हो अत: वाक्य को अखण्ड और निरवयव नहीं माना जा सकता। क्योंकि जायेंगे जो संघतवाद में दिखाये गये हैं क्योंकि जिस प्रकार पदसंघात पद वाक्य के अपरिहार्य घटक हैं और वे शब्दरूप में वाक्य से स्वतन्त्र पदों से कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न होकर ही अर्थबोध प्रदान होकर भी अपना अर्थ रखते हैं, पुनः पदों के अभाव में वाक्य नहीं करता है, उसी प्रकार यह जाति या सामान्य तत्त्व भी पदों से कथंचित् होता है अत: वाक्य को निरवयव नहीं कहा जा सकता। भित्र और कथंचित् अभिन्न रहकर ही वाक्यार्थ का अवबोध करा सकता है, क्योंकि सामान्य तत्त्व या जाति को व्यक्ति (अंश) से न तो पूर्णतः (५) क्रमवाद भिन्न माना जा सकता है और न पूर्णत: अभिन्न ही। पद भी वाक्य से क्रमवाद भी संघातवाद का ही एक विशेषरूप है। इस मत के न तो सर्वथा भिन्न होते हैं और न सर्वथा अभिन्न ही। उनकी सापेक्षिक अनुसार पद को वाक्य का अपरिहार्य अंश तो माना गया है किन्तु पदों भिन्नाभिन्नता ही वाक्यार्थ की बोधक बनती है।
की सहस्थिति की अपेक्षा पदों के क्रम को वाक्यार्थ के लिए अधिक
महत्त्वपूर्ण माना गया है। क्रम ही वास्तविक वाक्य है। जिस प्रकार वर्ण (४) वाक्य अखण्ड इकाई है
यदि एक सुनिश्चितक्रम में नहीं हो तो उनसे पद नहीं बनता है, उसी वैयाकरणिक वाक्य की एक अखण्ड सत्ता मानते हैं। उनके प्रकार यदि पद भी निश्चित क्रम में न हों तो उनसे वाक्य नहीं बनेगा। अनुसार वाक्य अपने आप में एक इकाई है और वाक्य से पृथक् पद सार्थक वाक्य के लिए पदों का क्रमगत विन्यास आवश्यक है। पद का कोई अस्तित्त्व ही नहीं है। जिस प्रकार पद के बनाने वाले वर्षों में क्रम ही वस्तुत: वाक्य की रचना करता है और उसी से वाक्यार्थ का पद के अर्थ को खोजना व्यर्थ है उसी प्रकार वाक्य को बनानेवाले पदों बोध होता है। पदों का एक अपना अर्थ होता है और एक विशिष्टार्थ। में वाक्यार्थ का खोजना व्यर्थ है। वस्तुत: एकत्व में ही वाक्यार्थ का पदों का एक विशिष्ट अर्थ उनमें क्रमपूर्वक विन्यास-दशा में ही व्यक्त बोध होता है। इस मत के अनुसार वाक्य में पद और वर्ण का विभाजन होता है। पदों का यह क्रमपूर्वक विन्यास ही वाक्य का स्वरूप ग्रहण समीचीन नहीं है। वाक्य जिस अर्थ का द्योतक है, वह अर्थ पद या पदों करता है। के संघात या पद-समूह में नहीं है। वाक्य को एक इकाई मानने में जैन साथ ही क्रमवाद काल की निरन्तरता पर बल देता है और आचार्यों को भी कोई विरोध नहीं है, क्योंकि वे स्वयं वाक्य को सापेक्ष यह मानता है कि काल का व्यवधान होने से पद-क्रम टूट जाता है और पदों की एक निरपेक्ष इकाई मानते हैं। उनका कहना केवल इतना ही है पदक्रम के टूटने से वाक्य नष्ट हो जाता है। क्रमवाद में एक पद के बाद कि वाक्य को एक अखण्ड सत्ता या निरपेक्ष इकाई मानते हुए भी हमें आनेवाले दूसरे पद को प्रथम पद का उपकारक स्वीकार किया जाता है। यह नहीं भूल जाना चाहिए कि उनकी रचना में पदों का एक महत्वपूर्ण पदों का यह नियत क्रम ही उपचीयमान अर्थात् प्रकट होनेवाले अर्थ का स्थान है। अंश से पूर्णतया पृथक् अंशी की कल्पना जिस प्रकार द्योतक होता है। समुचित नहीं, उसी प्रकार पदों की पूर्ण उपेक्षा करके वाक्यार्थ का बोध जैन दार्शनिक प्रभाचन्द्र इस मत को संघातवाद से अधिक सम्भव नहीं है। वाक्य निरपेक्ष इकाई होते हुए भी सापेक्ष पद समूह से भिन्न नहीं मानते हैं मात्र अन्तर यह है कि जहाँ संघातवाद पदों की ही निर्मित है। अत: वे भी वाक्य का एक महत्वपूर्ण घटक हैं, अतः सहवर्तिता पर बल देता है, वहाँ क्रमवाद क्रम पर। उनके अनुसार इस अर्थबोध में उन्हें उपेक्षित नहीं किया जा सकता है।
मत में भी वे सभी दोष हैं जो संघातवाद में हैं क्योंकि यहाँ भी देश और आचार्य प्रभाचन्द्र वाक्य के इस अखण्डता सिद्धान्त की काल की विभिन्नता का प्रश्न उठता है- एक देश और काल में क्रम
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सम्भव नहीं और अलग-अलग देश और काल में पदों की स्थिति मानने ही वाक्यार्थ का बोध होता है। उदाहरण रूप में जब राज मिस्त्री दीवार पर अर्थबोध में कठिनाई आती है। यद्यपि वाक्य-विन्यास में पदों का क्रम की चुनाई करते समय 'ईंट' या 'पत्थर' शब्द का उच्चारण करता है एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है किन्तु यह क्रम साकांक्ष पदों में जो कथंचित् भिन्न तो श्रोता यह समझ जाता है कि उसे ईंट या पत्थर लाने का आदेश और कथंचित् अभिन्न रूप से वाक्य में स्थित हैं, ही सम्भव है। दिया गया है। यहाँ प्रथम पद का उच्चारण सम्पूर्णवाक्य के अर्थ का
वहन करता है, किन्तु हमें यह समझ लेना चाहिए कि वह 'ईंट' या (६) बुद्धिग्रहीत तात्पर्य ही वाक्य है।
'पत्थर' शब्द प्रथम पद के रूप में केवल उस सन्दर्भ विशेष में ही कुछ दार्शनिकों की मान्यता है कि शब्द या शब्द-समूह वाक्य का स्वरूप ग्रहण करते हैं, उससे पृथक हो करके नहीं। राज के बाह्याकार मात्र है, वाक्यार्थ उसमें निहित नहीं है। अत: वाक्य वह द्वारा उच्चरित पत्थर शब्द 'पत्थर लाओ' का सूचक होगा, जबकि है जो बुद्धि के द्वारा ग्रहीत है। बुद्धि की विषयगत एकाग्रता से ही छात्र-पुलिस संघर्ष में प्रयुक्त पत्थर शब्द अन्य अर्थ का सूचक होगा। वाक्य बोला जाता है और उसी से वाक्य के अर्थ का ग्रहण होता अत: कारक पद केवल किसी सन्दर्भ विशेष में ही वाक्यार्थ का है। वाक्य का जनक एवं कारण बुद्धितत्त्व है। वक्ता द्वारा बोलने की बोधक होता है,सर्वत्र नहीं। इसलिए केवल आदि पद या कारक पद क्रिया तभी सम्भव है, जब उसमें सुविचारित रूप में कुछ कहने की को वाक्य नहीं कहा जा सकता। केवल 'पद' विशेष को ही वाक्य इच्छा होती है अत: बुद्धि या बुद्धितत्त्व ही वाक्य का जनक होता मान लेना उचित नहीं है, अन्यथा वाक्य में निहित अन्य पद अनावश्यक है। बुद्धि के अभाव में न तो वाक्य का उच्चारण सम्भव है और और निरपेक्ष होंगे और इस स्थिति में उनसे वाक्य बनेगा ही नहीं। पद न श्रोता के द्वारा उनका अर्थग्रहण ही सम्भव है। अत: वाक्य का सदैव साकांक्ष होते हैं और उन साकांक्ष पदों से निर्मित वाक्य ही आधार बुद्धि अनुसंहति है।
निराकांक्ष होता हैं। जैनाचार्य प्रभाचान्द्र इस दृष्टिकोण की समीक्षा करते हुए प्रश्न करते हैं कि यदि बुद्धि तत्त्व ही वाक्य का आधार है तो वह द्रव्यवाक्य (८) साकांक्ष पद ही वाक्य है है या भाववाक्य । बुद्धि को द्रव्यवाक्य कहना तर्कसंगत नहीं है, कुछ विचारकों के अनुसार वाक्य का प्रत्येक पद वाक्य के क्योंकि द्रव्यवाक्य तो शब्द ध्वनिरूप है, अचेतन है और बुद्धितत्व अंग के रूप में साकांक्ष होते हुए भी अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखता है। चेतन है अत: दोनों में विरोध है। अत: बुद्धि को द्रव्यवाक्य नहीं माना इस मत में प्रत्येक पद का व्यक्तित्व स्वतन्त्र रूप से स्वीकार किया जाता जा सकता । पुनः यदि यह माने कि बुद्धितत्त्व भाववाक्य है तो फिर है। इस मत के अनुसार पदों का अपना निजी अर्थ उनके सहभूत या सिद्धसाध्यता का दोष होगा। क्योंकि बुद्धि की भाववाक्यता तो सिद्ध ही समवेत स्थिति में भी रहता है। यह मत वाक्य में पदों की स्वतन्त्र सत्ता है। बुद्धितत्त्व को भाववाक्य के रूप में ग्रहण करना जैनों को भी इष्ट है। और उनके महत्व को स्पष्ट करता है। संघातवाद से इस मत की भिन्नता इस सम्बन्ध में बुद्धिवाद और जैन दार्शनिक एकमत ही हैं। वाक्य के इस अर्थ में है कि जहाँ संघातवाद और क्रमवाद में पद को प्रमुख स्थान भावपक्ष या चेतनपक्ष को बौद्धिक मानना जैनदर्शन को भी स्वीकार्य है। और वाक्य को गौण स्थान प्राप्त होता है, वहाँ इस मत में पदों को
साकांक्ष मानकर वाक्य को प्रमुखता दी जाती है। यह मत यह मानता है (७)आद्यपद (प्रथम पद) ही वाक्य है
कि पद वाक्य के अन्तर्गत ही अपना अर्थ पाते हैं, उससे बाहर नहीं। कुछ विचारकों की मान्यता है कि वाक्य के प्रथम पद का उच्चारण ही सम्पूर्ण वाक्यार्थ को अभिव्यक्त करने की सामर्थ्य रखता वाक्य के सम्बन्ध में जैन दृष्टिकोण है। इस मत के अनुसार वक्ता का अभिप्राय प्रथमपद के उच्चारण मात्र
जैन मत भी साकांक्ष पदों के निरपेक्ष समूह को वाक्य कहता से ही स्पष्ट हो जाता है, क्योंकि अन्य पद तो विवक्षा को वहन करने है, किन्तु वह पद और वाक्य दोनों को ही समान बल देता है। जैन वाले होते हैं। वाक्यपदीय में कहा गया है कि क्रिया से यदि कारक का दार्शनिकों के अनुसार न तो पदों के अभाव में वाक्य सम्भव है और न विनिश्चय सम्भव है तो फिर कारक से क्रिया का निश्चय भी सम्भव वाक्य के अभाव में पद ही अपने विशिष्ट अर्थ का प्रकाशन करने में होगा। यह सिद्धान्त यद्यपि वाक्य में कारक पद के महत्व को स्पष्ट सक्षम होते हैं। पद वाक्य में रहकर ही अपना अर्थ पाते हैं। उससे करता है फिर भी पूर्णत: सत्य नहीं माना जा सकता। जैनाचार्य स्वतन्त्र होकर नहीं। अत: पद और वाक्य दोनों का सापेक्षिक अस्तित्व प्रभाचन्द्र का कहना है कि चाहे वाक्य का प्रथम पद अर्थात् कारकपद एवं सापेक्षिक महत्त्व है। दोनों में से कोई भी एक दूसरे के अभाव में हो अथवा अन्तिम पद अर्थात् क्रियापद हो, वे अन्य पदों की अपेक्षा अपना अर्थबोध नहीं करा सकता है। अर्थबोध कराने के लिए पद को से ही वाक्यार्थ के बोधक होते हैं। यदि एक ही पद वाक्यार्थ के बोध वाक्य सापेक्ष और वाक्य को पद सापेक्ष होना होगा। जैन मत में ऊपर में समर्थ हो तो फिर वाक्य में अन्य पदों की आवश्यकता ही नहीं रह वर्णित सभी मतों की सापेक्षिक सत्यता को स्वीकार किया जाता है जायेगी। दूसरे शब्दों में वाक्य में उनके अभाव का प्रसंग होगा। यह किन्तु किसी एक पक्ष पर अनावश्यक बल नहीं दिया जाता है। उनका सही है कि अनेक प्रसंगों में प्रथम पद (कारक पद) के उच्चारण से कहना यह है कि कोई पद और वाक्य एक दूसरे से पूर्णतया निरपेक्ष
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होकर अर्थबोध कराने में समर्थ नहीं है। उनकी अर्थबोध सामर्थ्य उनकी जब तक पदों के अर्थों अर्थात् पदार्थों के पारस्परिक सम्बन्ध का ज्ञान पारस्परिक सापेक्षता में ही निहित है। विभिन्न पदों की पारस्परिक नहीं होता है तब तक वाक्यार्थ का बोध नहीं होता है। वाक्यार्थ के बोध सापेक्षता (साकांक्षता) और पद एवं वाक्य की सापेक्षता में ही वाक्यार्थ के लिए दो बातें आवश्यक हैं- प्रथम पदों के अर्थ का ज्ञान और दूसरे की अभिव्यक्ति होती है। परस्पर निरपेक्ष पद तथा वाक्य निरपेक्ष पद पदों के पारस्परिक सम्बध का ज्ञान। पुन: पदों के पारस्परिक सम्बन्ध के और पद निरपेक्ष वाक्य की न तो सत्ता ही होती है और न उनमें भी चार आधार हैं- (१) आकांक्षा, (२) योग्यता, (३) सन्निधि और अर्थबोध कराने की सामर्थ्य ही होती है।
(४) तात्पर्य।
१. आकांक्षा- प्रथम पद को सुनकर जो दूसरे पद को सुनने वाक्यार्थबोध सम्बन्धी सिद्धान्त
की जिज्ञासा मन में उत्पन्न होती है- वही आकांक्षा है। पुनः एक पद की वाक्य के अर्थ (वाच्य-विषय) का बोध किस प्रकार होता है दूसरे पद को जो अपेक्षा रहती है वही आकांक्षा है। आकांक्षारहित इस प्रश्न को लेकर भारतीय चिन्तकों में विभिन्न मत पाये जाते हैं। अर्थात् परस्पर निरपेक्ष-गाय, अश्व, पुरुष, स्त्री आदि अनेक पदों के नैयायिक तथा भाट्ट-मीमांसक इस सम्बन्ध में अभिहितान्वयवाद की उच्चारण से वाक्य नहीं बनता है। जब कि साकांक्ष अर्थात् परस्पर स्थापना करते हैं। इनके विरोध में मीमांसक प्रभाकर का सम्प्रदाय सापेक्ष पद ही वाक्य की रचना करते हैं। अन्विताभिधानवाद की स्थापना करता है। हम इन सिद्धान्तों का विवेचन २. योग्यता- 'योग्यता' का तात्पर्य है कि अभिहित पदार्थों
और जैन दार्शनिकों के द्वारा की गई इनकी समीक्षा प्रस्तुत करते हुए के पारस्परिक सम्बन्ध में विरोध या बाधा नहीं होना चाहिए अर्थात् हम यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि वाक्यार्थबोध के सम्बन्ध में समुचित उनमें पारस्परिक सम्बन्ध की सम्भावना होना चाहिए। उदाहरणार्थ आग दृष्टिकोण क्या हो सकता है?
से सींचो- इस पद समुदाय में योग्यता नहीं है क्योंकि आग का सींचने
से कोई सम्बन्ध है। अत: ऐसे असम्बन्धित या योग्यता से रहित पदों अभिहितान्वयवाद (पूर्वपक्ष)
से सार्थक वाक्य नहीं बनता है। कुमारिलभट्ट की मान्यता है कि वाक्यार्थ के बोध में हमें
३. सन्निधि- सन्निधि का तात्पर्य है- एक ही व्यक्ति द्वारा सर्वप्रथम पदों के श्रवण से उन पदों के वाच्य-विषयों अर्थात् पदार्थों बिना लम्बे अन्तराल के पदों का उच्चारण होना। न तो अनेक व्यक्तियों का बोध होता है। उसके पश्चात् उनके पूर्व में अज्ञात पारस्परिक सम्बन्ध द्वारा बिना अन्तराल के अर्थात् एक साथ बोले गये पदों से वाक्य बनते का बोध होता है और उनकी सम्बद्धता के बोध से वाक्यार्थ की प्रतीति हैं और न एक व्यक्ति द्वारा लम्बे अन्तराल अर्थात् घण्टे-घण्टे भर बाद होती है। इस प्रकार अभिहितान्वयवाद के अनुसार वाक्यार्थ के प्रति होने वाले पदों के उच्चारण से वाक्य बनता है। पदार्थों का ज्ञान ही कारणभूत है, दूसरे शब्दों में पदों के अर्थपूर्वक ही ४. तात्पर्य- वक्ता के अभिप्राय को तात्पर्य कहते हैं। नैयायिकों वाक्यार्थ अवस्थित है। संक्षेप में पदों से अभिधाशक्ति के द्वारा पदार्थ के अनुसार यह भी वाक्यार्थ के बोध की आवश्यक शर्त है। बिना वक्ता का बोध होता है, फिर वक्ता के तात्पर्य अर्थात् वक्ता द्वारा किये गये के अभिप्राय को समझे वाक्यार्थ का सम्यक् निर्णय सम्भव नहीं होता विभक्ति प्रयोग के आधार पर उन पदों के पारस्परिक सम्बन्ध (अन्य) है। विशेष रूप से तब जब कि वाक्य में प्रयुक्त कोई शब्द द्वयार्थक हो, का ज्ञान होता है और इस अन्वयबोध (पदों के सम्बध ज्ञान) से जैसे 'सैन्धव', 'नव'। इसी प्रकार जब कोई शब्द किसी विशिष्ट अर्थ में वाक्यार्थ का बोध होता है। यही अभिहितान्वयवाद है क्योंकि इसमें या व्यंग्य रूप में प्रयुक्त किया गया हो या फिर वाक्य में कोई पद अभिहित अर्थात् पद द्वारा वाच्य पदार्थ के अन्वय अर्थात् पारस्परिक अव्यक्त रह गया हो। विभक्ति प्रयोग ही वक्ता के तात्पर्य को समझने का सम्बन्ध के ज्ञान से वाक्यार्थ का ज्ञान होता है। इस सिद्धान्त में वाक्यार्थ एक आधार होता है। का बोध तीन चरणों में होता है- प्रथम चरण में पदों को सुनकर उनके
संक्षेप में, पदों को सुनने से प्रथम अनन्वित (असम्बन्धित) वाच्य अर्थात् पदार्थों का बोध होता है उसके पश्चात् दूसरे चरण में उन पदार्थ उपस्थित होते हैं फिर आकांक्षा, योग्यता, सन्निधि और तात्पर्य पदार्थों के पारस्परिक सम्बन्ध (अन्वय) का ज्ञान होता है। तब तीसरे अर्थात् विभक्ति-प्रयोग के आधार पर उनके परस्पर सम्बन्ध का बोध चरण में इस अन्वय से वाक्यार्थ का बोध होता है। इस सिद्धान्त के होकर वाक्यार्थ का बोध होता है। यही अभिहितान्वयवाद है। अनुसार वाक्य से स्वतन्त्र पदों (शब्दों) का एक अलग अर्थ होता है और पदों के इस अर्थ के ज्ञान के आधार पर ही वाक्यार्थ का निश्चय अभिहितान्वयवाद की समीक्षा होता है। दूसरे शब्दों में वाक्यार्थ का बोध पदों के अर्थबोध पर ही निर्भर जैन तार्किक प्रभाचन्द्र अपने ग्रन्थ 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' में करता है, पदों के अर्थ से स्वतन्त्र होकर वाक्य का कोई अर्थ नहीं होता कुमारिल भट्ट के अभिहितान्वयवाद की समीक्षा करते हुए लिखते हैं कि है। अभिहितान्वयवाद के अनुसार पदों का वाक्य से एवं दूसरे पदों से यदि वाक्य को सुनकर प्रथम परस्पर असम्बन्धित या अनन्वित पदार्थों निरपेक्ष स्वतन्त्र अर्थ भी होता है वाक्य पदों के 8 से निरपेक्ष किन्तु का बोध होता है और फिर उनका पारस्परिक सम्बन्ध या अन्वय ज्ञात अपना अर्थ नहीं रखता है। पद वाक्य से स्वतन्त्र अपना अर्थ रखता है। होता है तो प्रश्न यह उपस्थित होता है कि उनका यह अन्वय (सम्बद्धीकरण)
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१५१ किस आधार पर होता है? क्या वाक्य से बाह्य किन्हीं अन्य शब्दों/पदों द्रव्य वाक्य में शब्द अलग-अलग होते हैं किन्तु भाव वाक्य (बुद्धि) में के द्वारा इनका अन्वय या पारस्परिक सम्बन्ध स्थापित होता है या बुद्धि वे परस्पर सम्बन्धित या अन्वित होते हैं। (ज्ञान) के द्वारा इनका अन्वय होता है? प्रथम विकल्प मान्य नहीं है। यहाँ हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि चाहे वाक्यों से क्योंकि सम्पूर्ण पदों के अर्थों को विषय करने वाला ऐसा कोई अन्वय पृथक् शब्दों का अपना अर्थ होता हो, किन्तु जब वे वाक्य में प्रयुक्त का निमित्त भूत अन्य शब्द ही नहीं है, पुन: जो शब्द/पद वाक्य में किये गये हों, तब उनका वाक्य से स्वतन्त्र कोई अर्थ नहीं रह जाता है। अनुपस्थित हैं, उनके द्वारा वाक्यस्थ पदों का अन्वय नहीं हो सकता है। उदाहरण के रूप में शतरंज खेलते समय उच्चरित वाक्य 'राजा मर यदि दूसरे विकल्प के आधार पर यह माना जाये कि ये बुद्धि के द्वारा गया' या मैं तुम्हारे राजा को मार दूंगा' में पदों के वाक्य से स्वतंत्र अन्वित होते हैं या बुद्धितत्त्व इनमें अन्वय/सम्बन्ध स्थापित करता है तो अपने निजी अर्थ से वाक्यार्थ बोध में कोई सहायता नहीं मिलती है। इससे कुमारिल का अभिहितान्वयवाद सिद्ध न होकर उसका विरोधी यहाँ सम्पूर्ण वाक्य का एक विशिष्ट अर्थ होता है जो प्रयुक्त शब्दों/पदों सिद्धान्त अन्विताभिधानवाद ही सिद्ध होता हैं क्योंकि पदों के परस्पर के पृथक् अर्थों पर बिलकुल ही निर्भर नहीं करता है। अत: यह मानना अन्वितरूप में देखनेवाली बुद्धि तो स्वयं ही भाववाक्यरूप है। यद्यपि कि वाक्यार्थ के प्रति अनन्वित पदों के अर्थ ही कारणभूत हैं, न्यायसंगत कुमारिल की ओर से यह कहा जा सकता है कि चाहे वाक्य अपने नहीं है। परस्पर अन्वित पदों से भिन्न नहीं हो क्योंकि वह उन्हीं से निर्मित होता है, किन्तु उसके अर्थ का बोध तो उन अनन्वित पदों के अर्थ के बोध अन्विताभिधानवाद पूर्वपक्ष पर ही निर्भर करता है, जो सापेक्ष बुद्धि में परस्पर सम्बन्धित या मीमांसा दर्शन के दूसरे प्रमुख आचार्य प्रभाकर के मत को अन्वित प्रतीत होते हैं। इस सम्बन्ध में प्रभाचन्द्र का तर्क यह है कि पद अन्विताभिधानवाद कहा गया है।जहाँ कुमारिल भट्ट अपने अभिहितान्वयवाद अपने धातु, लिंग, विभक्ति, प्रत्यय आदि से भिन्न नहीं है, क्योंकि जब में यह मानते हैं कि वाक्यार्थ के बोध में पहले पदार्थ अभिहित होता हो वे कहे जाते हैं तब अपने अवयवों सहित कहे जाते हैं और उनके अर्थ और उसके बाद उनके अन्वय से वाक्यार्थ का बोध होता है- वहाँ का बोध उनके परस्पर अन्वित अवयवों के बोध से होता है, अर्थात् प्रभाकर अन्विताभिधानवाद में यह मानते हैं कि अन्वित पदार्थों का ही हमें जो बोध होता है वह अन्वितों का होता है, अनन्वितों का नहीं होता अभिधा शक्ति से बोध होता है। वाक्य में पद परस्पर सम्बन्धित होकर है। इसके प्रत्युत्तर में अपने अभिहितान्वयवाद के समर्थन हेतु कुमारिल ही वाक्यार्थ का बोध कराते हैं। इनके पारस्परिक सम्बन्ध के ज्ञान यह तर्क दे सकते हैं कि लोक व्यवहार एवं वेदों में वाक्यार्थ की (अन्वय) से ही वाक्यार्थ का बोध होता है। वाक्य से प्रयुक्त पदों का प्रतिपत्ति के लिए निरंश शब्द/पद का प्रयोग होता है केवल उनकी सामूहिक एक समग्र अर्थ होता है। वाक्य से पृथक् उनका कोई अर्थ धातु, लिंग, विभक्ति या प्रत्यय का नहीं; धातु, लिंग, विभक्ति, प्रत्यय नहीं होता है। आदि तो उनकी व्युत्पत्ति समझाने के लिए उनसे पृथक किये जाते हैं। इस सिद्धान्त में पद से पदार्थ बोध के पश्चात् उनके अन्वय एक शब्द एक वर्ण के समान अन्वयव (निरंश) होता है, उसके अर्थ को न मानकर वाक्य को सुनकर सीधा अन्वित पदार्थों का ही बोध को समझने के लिए कल्पना के द्वारा उसके अवयवों को एक दूसरे से माना गया है इसलिए इस सिद्धान्त में तात्पर्य-आख्या-शक्ति की भी पृथक् किया जाता है। कुमारिल के इस तर्क के विरुद्ध प्रभाचन्द्र का आवश्यकता नहीं मानी गई है। इस मत के अनुसार पदों को सुनकर कहना है कि जिस आधार शब्द को अपने अर्थबोध के लिए निरंश या संकेत ग्रहण केवल अनन्वित पदार्थ में नहीं होता है, अपितु किसी के अखण्ड इकाई माना जा सकता है उसी आधार पर वाक्य को भी निरंश साथ अन्वित या सम्बन्धित पदार्थ में ही होता है। अतएव अभिहित का माना जा सकता है और यह कहा जा सकता है कि वाक्य की संरचना अन्वय न मानकर अन्वित का अभिधान मानना चाहिए, यही इस बात को स्पष्ट करने के लिए शब्दों को (कल्पना में) पृथक् किया जाता है। का सार है। यह मत मानता है कि वाक्यार्थ वाक्य ही होता है, तात्पर्य वस्तुत: वाक्य अखण्ड इकाई है। लोक व्यवहार में एवं वेदों में वाक्यों शक्ति से वाद को प्रतीत नहीं होता है। का प्रयोग इसलिए किया जाता है कि पदार्थों की प्राप्ति या अप्राप्ति के
उदाहरण के रूप में ताश खेलते समय उच्चरित वाक्य- 'ईंट लिए क्रिया की जा सके। वाक्य ही क्रिया का प्रेरक होता है, पद नहीं। चलो' के अर्थबोध में प्रथम पदों के अर्थ का बोध और फिर उनके अत: वाक्य एक इकाई है।
अन्वय से वाक्यार्थ का बोध नहीं होता है अपितु सीधा ही वाक्यार्थ का इस प्रकार प्रभाचन्द्र इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि जिस बोध होता है, क्योंकि यहाँ ईंट शब्द ईंट का वाचक न होकर ईंट की प्रकार शब्द पद से धातु, लिंग, प्रत्यय आदि आंशिक रूप से भिन्न आकृति से युक्त पत्ते का वाचक है और चलना शब्द गमन क्रिया का और आंशिक रूप से अभिन्न होते हैं उसी प्रकार पद भी वाक्य से वाचक न होकर पत्ता डालने का वाचक है। इस आधार पर अन्विताभिधान आंशिक रूप से भिन्न और आंशिक रूप से अभिन्न होता है। पद अपने की मान्यता है कि वाक्यार्थ के बोध में पद परस्पर अन्वित प्रतीत होते वाक्य के घटक पदों से अन्वित या सम्बद्ध होता है और अन्य वाक्य हैं। प्रत्येक पूर्ववर्ती पद अपने परवर्ती पद से अन्वित होकर ही वाक्यार्थ के घटक पदों से अनन्वित, असम्बद्ध या भिन्न (अनन्वित) होता है। का बोध कराता है अत: वाक्य को सुनकर अन्वितों का ही अभिधान
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ (ज्ञान) होता है।
इस सम्बन्ध में मीमांसक प्रभाकर ने कहा है कि पदों के दो
कार्य होते हैं प्रथम-अपने अर्थ का कथन करना और दूसरा पदान्तर के अन्विताभिधानवाद की समीक्षा
अर्थ में गमक व्यापार अर्थात् उनका स्मरण कराना। अत: अन्विताभिधानवाद प्रभाचन्द्र अपने ग्रन्थ प्रमेयकमलमार्तण्ड में अन्विताभिधानवाद मानने में कोई आपत्ति नहीं होना चाहिए। किन्तु जैनों की दृष्टि में उनका के विरुद्ध निम्न आक्षेप प्रस्तुत करते हैं
यह मानना भी तर्क-संगत नहीं है, क्योंकि पद-व्यापार से अर्थ-बोध प्रथमत: यदि यह माना जाता है कि वाक्य के पद परस्पर समान होने पर भी किसी को अभिधीयमान और किसी को गम्यमान अन्वित अर्थात् एक दूसरे से सम्बन्धित होकर ही अनुभूत होते हैं मानना उचित नहीं है। अर्थात् अन्वित रूप में ही उनका अभिधान होता है तो फिर प्रथम पद पुन: प्रभाचन्द्र का प्रश्न यह है कि बुद्धिमान व्यक्ति पद का के श्रवण से वाक्यार्थ का बोध हो जाना चाहिए। ऐसी स्थिति में अन्य प्रयोग पद के बोध के लिए करते हैं या वाक्यार्थ बोध के लिए। पद के पदों का उच्यारण ही व्यर्थ हो जायेगा। साथ ही प्रथम पद को वाक्यत्व अर्थ बोध के लिए तो कर नहीं सकते क्योंकि पद प्रवृत्ति का हेतु नहीं प्राप्त हो जायेगा अथवा वाक्य का प्रत्येक पद स्वतन्त्र रूप से वाक्यत्व हैं। यदि दूसरा विकल्प कि पद का प्रयोग वाक्य के अर्थबोध के लिए को प्राप्त कर लेगा। क्योंकि पूर्वापर पदों के परस्पर अन्वित होने के करते हैं- यह माना जावे तो इससे अन्विताभिधानवाद की ही पुष्टि कारण एक पद के श्रवण से ही सम्पूर्ण वाक्यार्थ का बोध हो जायेगा। होगी। इसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य प्रभाचन्द्र कहते हैं कि 'वृक्ष पद के प्रभाचन्द्र के इस तर्क के विरोध में यदि अन्विताभिधानवाद की ओर से प्रयोग से शाखा, पल्लव आदि से युक्त अर्थ का बोध होता है। उस यह कहा जाये कि अविवक्षित (अवांछित) पदों के व्यवच्छेद (निषेध) अर्थ बोध से 'तिष्ठति' (खड़ा है) इत्यादि पद स्थान आदि विषय का के लिए अन्य पदों का उच्चारण व्यर्थ नहीं माना जा सकता है तो सामर्थ्य से बोध कराते हैं। स्थान आदि के अर्थबोध में 'वृक्ष' पद की उनका प्रत्युत्तर यह होगा कि ऐसी स्थिति में अन्वित प्रथम पद के द्वारा साक्षात् प्रवृत्ति नहीं होने से उसे उस अर्थ-बोध का कारण नहीं माना जा जो प्रतिपत्ति (अर्थबोध) हो चुकी है, वाक्य के अन्य पदों के द्वारा मात्र सकता है। यदि यह माना जाए की वृक्षपद 'तिष्ठति' पद के अर्थ-बोध उसकी पुनरुक्ति होगी अतः पुनरुक्ति का दोष तो होगा ही। यद्यपि यहाँ में परम्परा से अर्थात् परोक्षरूप से कारण होता है तो मानना इसलिए अपने बचाव के लिए अन्विताभिधानवादी यह कह सकते हैं कि प्रथम समुचित नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर यह भी मानना होगा कि हेतु पद के द्वारा जिस वाक्यार्थ का प्रधान रूप से प्रतिपादन हुआ है अन्य वचन की साध्य की प्रतिपत्ति में प्रवृत्ति होती है और ऐसी स्थिति में पद उसके सहायक के रूप में गौण रूप से उसी अर्थ का प्रतिपादन अनुमान-ज्ञान भी शाब्दिक कहलायेगा, जो कि तर्कसंगत नहीं है। करते हैं। अत: यहाँ पुनरुक्ति का दोष नहीं होता है किन्तु जैनों को पुन: मीमांसक प्रभाकर यदि यह कहें कि हेतुवाचक शब्द से उनकी यह दलील मान्य नहीं है।
होने वाली हेतु की प्रतीति ही शब्द-ज्ञान है, शब्द से ज्ञात हेतु के द्वारा अन्विताभिधानवादी प्रभाकर की यह मान्यता भी समुचित जो साध्य का ज्ञान होता है उसे शाब्दिक ज्ञान न मानकर अनुमान ही नहीं है कि पूर्व पदों के अभिधेय अर्थों से अन्वित अन्तिम पद के मानना होगा अन्यथा अतिप्रसंग दोष होगा तो जैन दार्शनिक प्रत्युत्तर में उच्चारण से ही वाक्यार्थ का बोध होता है। इस सम्बन्ध में जैनतार्किक कहेंगे कि फिर वृक्ष शब्द से स्थानादि की प्रतीत में भी अतिप्रसंग दोष प्रभाचन्द्र का कहना है कि जब सभी पद परस्पर अन्वित हैं तो फिर यह तो मानना होगा। क्योंकि जिस प्रकार हेतु शब्द का व्यापार अपने अर्थ मानने का क्या आधार है कि केवल अन्तिम पद के अन्वित अर्थ की (विषय) की प्रतीति कराने तक ही सीमित है उसी प्रकार वृक्ष शब्द को प्रतिपत्ति से ही वाक्यार्थ का बोध होता है और अन्य पदों के अर्थ की भी अपने अर्थ की प्रतीति तक ही सीमित मानना होगा। प्रतिपत्ति से वाक्यार्थ का बोध नहीं होता है।
दूसरी आपत्ति यह है कि विशेष्यपद विशेष्य को विशेषणप्रभाकर अपने अन्विताभिधानवाद के पक्ष में यह तर्क दे सामान्य से, या विशेष-विशिष्ट से या विशेषण-सामान्य और विशेष सकते हैं कि उच्चार्यमान पद का अर्थ अभिधीयमानपद (जाना गया) से (उभय) से अन्वित कहता है। प्रथम विकल्प अर्थात् विशेष्य विशेषण अन्वित न होकर गम्यमान अर्थात् पदान्तरों से गोचरीकृत पद से सामान्य से अन्वित करके होता है? यह मानने पर विशिष्ट वाक्यार्थ अन्वित होता है। दूसरे शब्दों में प्रत्येक पूर्व-पूर्व पद अपने उत्तरपद से की प्रतिपत्ति सम्भव नहीं है- क्योंकि विशेष्य पद का सामान्य-विशेषण अन्वित होता है अत: किसी एक पद से ही वाक्यार्थ का बोध होना से अन्वित होने पर विशेष-वाक्यार्थ का बोध सम्भव नहीं होगा। दूसरा सम्भव नहीं होगा। उनकी इस अवधारणा की समालोचना में जैनों का विकल्प मानने पर निश्चयात्मक-ज्ञान नहीं होगा-क्योंकि (मीमांसकों के तर्क यह है कि प्रत्येक पूर्वपद का अर्थ केवल अपने उत्तरपद से अन्वित अनुसार) शब्द से जिसका निर्देश किया गया है, ऐसे प्रतिनियत होता है ऐसा मानना उचित नहीं है क्योंकि अन्वय/सम्बद्धता सापेक्ष विशेषण से अपने उक्त विशेष्य में अन्वय करने में संशय उत्पन्न होगा होती है अत: उत्तरपद भी पूर्वपद से अन्वित होगा। अत: केवल अन्तिम क्योंकि विशेष्य में दूसरे अनेक विशेषण भी सम्भव हैं अत: अपने इस पद से ही वाक्यार्थ का बोध इस अन्विताभिधानवाद सिद्धान्त की दृष्टि विशेष्य में अमुक विशेषण ही अन्वित है, ऐसा निश्चय नहीं हो सकेगा। से तो तर्क-संगत नहीं कहा जा सकता है।
यदि पूर्वपक्ष अर्थात् मीमांसक प्रभाकर की ओर से यह कहा जाये कि
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जैन वाक्य दर्शन
वक्ता के अभिप्राय से प्रतिनियत विशेषण का उसे विशेष्य में अन्वय हो जाता है तो यह कथन भी समीचीन नहीं है, क्योंकि जिस पुरुष के प्रति शब्द का उच्चरण किया गया है उसे तो वक्ता का अभिप्राय ज्ञात नहीं होता है। अतः विशेषण का निर्णय सम्भव नहीं होगा। यदि यह कहा जाये कि वक्ता को अपने अभिप्राय का बोध होता ही है अतः वह तो प्रतिनियत विशेषका निश्चय कर ही लेगा। किन्तुऐसा मानने पर शाब्दिक कथन करना अनावश्यक होगा; क्योंकि शब्द का कथन दूसरों का अर्थ की प्रतिपत्ति कराने के लिए होता है स्वयं अपने लिए नहीं। तीसरा विकल्प अर्थात् विशेष्यपद विशेष्य को उभय से अन्वित कहता है, यह माने पर उभयपक्ष के दोष आयेंगे अर्थात् न तो विशिष्ट वाक्यार्थ का बोध होगा और न निश्चयात्मक ज्ञान होगा।
इसी प्रकार की आपत्तियों विशेष्य को क्रियापद और क्रिया विशेषण से अन्वित मानने के सम्बन्ध में भी उपस्थित होगी। पुनः पूर्वपक्ष के रूप में मीमांसक प्रभाकर यदि यह कहें कि पद से पद के अर्थ का ज्ञान उत्पन्न होता है और फिर वह वाक्यार्थ का निश्चय करता है किन्तु ऐसा मानने पर तो रूपादि के ज्ञान से गंधादि का निश्चय भी मानना होगा, जो कि तर्कसंगत नहीं माना जा सकता हैं। अतः अन्वित अभिधानवाद अर्थात् पदों से पदान्तरों के अर्थों से अन्वित अर्थों का ही कथन होता है पदों के अर्थ की प्रतीति से वाक्य के अर्थ की प्रतीति होती है ऐसा प्रभाकर का मत श्रेयष्कर नहीं है।
वस्तुतः अभिहितान्वयवाद और अन्विताभिधानवाद दोनों ही एकांगी हैं। जैन दार्शनिक अभिहितान्वयवाद की इस अवधारणा से सहमत हैं कि पदों का शब्द के रूप में वाक्य से स्वतन्त्र अर्थ भी होता है किन्तु साथ ही वे अन्विताभिधानवाद से सहमत होकर यह भी मानते हैं कि वाक्य में प्रयुक्त प्रत्येक पद अपने अर्थबोध के लिए परस्पर सापेक्ष होता है अर्थात् वे परस्पर अन्वित (सम्बन्धित) होते हैं और सम्पूर्ण वाक्य के श्रवण के पश्चात् उससे हमें जो अर्थबोध होता है उसमें पद परस्पर अन्वित या सापेक्ष ही प्रतीत होते हैं, निरपेक्ष नहीं हैक्योंकि निरपेक्ष पदों से वाक्य की रचना ही नहीं होती है। जिस प्रकार शब्द के अर्थबोध के लिए वर्णों की सापेक्षता आवश्यक है, उसी प्रकार
१५३ वाक्य के अर्थबोध के लिए पदों की सापेक्षता / सम्बन्धितता आवश्यक है। जैनाचार्यों के अनुसार परस्पर सापेक्ष पदों का निरपेक्ष समूह वाक्य है अतः वाक्यार्थ के बोध में पद सापेक्ष अर्थात् परस्परान्वित ही प्रतीत होते हैं।
वे
यद्यपि इस समग्र विवाद के मूल में दो भिन्न भिन्न दृष्टियाँ कार्य कर रही है। अभिहितान्वयवाद के अनुसार वाक्य पद सापेक्ष है। वाक्य में पदों की सत्ता को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। जबकि अन्विताभिधानवाद में पदों का अर्थ वाक्य सापेक्ष है, वाक्य में पदों का अर्थ वाक्य सापेक्ष है, वाक्य से स्वतन्त्र न तो पदों की कोई सत्ता ही है और न उसका कोई अर्थ ही है। वे पदों के अर्थ को वाक्य सापेक्ष मानते हैं अभिहितान्वयवाद में पद, वाक्य की महत्त्वपूर्ण इकाई है जबकि अन्विताभिधानवाद में वाक्य ही महत्त्वपूर्ण एवं समग्र इकाई है, पद गौण है यही दोनों का मुख्य अन्तर है जबकि जैन दार्शनिक दोनों को ही परस्पर सापेक्ष और वाक्यार्थ के बोध में आवश्यक मानते हैं। इस प्रकार वे इन दोनों मतों में समन्वय स्थापित करते हैं और कहते हैं कि वाक्यार्थ के बोध में पद और वाक्य दोनों की ही महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
संदर्भ
१. (अ) पदानां तु तदपेक्षाणां निरपेक्षः समुदायो वाक्यमिति। -प्रमयेकमलमार्तण्ड, पृ० ४५८। (ब) पदानां पुनर्वाक्यार्थं प्रत्यायने विधेयेऽन्योन्यनिर्मिततोपकारमनुसरतां वाक्यान्तरस्थपदाक्षेपारहितासंहतिर्वाक्यमभिधीयते ।
- स्याद्वादरत्नाकर, पृ० ९४१ । २. (अ) पदार्थानां तु मूलत्वमिष्टं तद्भावनावतः । मीमांसाश्लोकवार्तिक वाक्यपद १११।
(ब) पदार्थपूर्वकस्तस्माद्वाक्यार्थोयमवस्थितः।। मीमांसाश्लोकवार्तिक वाक्यपदी ३३६ ।
३. प्रमयेकमलमार्तण्ड (प्रभाचन्द्र), पृ० ४६४-६५। ४. देखें- काव्यप्रकाश आचार्य विश्वेश्वर पृ० ३७ ५. प्रमेयकमलमार्तण्ड ३ / १०१ पृ० ४५९-४६४।
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स्याद्वाद और सप्तभंगी : एक चिन्तन
स्याद्वाद का अर्थ विश्लेषण :
स्याद्वाद शब्द स्यात् और वाद इन दो शब्दों से निष्पन्न हुआ है। अतः स्याद्वाद को समझने के लिए इन दोनों शब्दों का अर्थ विश्लेषण आवश्यक है। स्यात् शब्द के अर्थ के सन्दर्भ में जितनी भ्रान्ति दार्शनिकों में रही है, सम्भवतः उतनी अन्य किसी शब्द के सम्बन्ध में नहीं। विद्वानों द्वारा हिन्दी भाषा में स्यात् का अर्थ "शायद”, “सम्भवतः”, “कदाचित्" और अंग्रेजी भाषा में Probable, may be, perhaps, some how आदि किया गया है और इन्हीं अर्थों के आधार पर उसे संशयवाद, सम्भावनावाद या अनिश्चयवाद समझने की भूल की जाती रही है। यह सही है कि किन्हीं संदर्भों में स्यात् शब्द का अर्थ कदाचित् शायद, सम्भव आदि भी होता है किन्तु इस आधार पर स्याद्वाद को संशयवाद या अनिश्चयवाद मान लेना एक भ्रान्ति ही होगी। हमें यहाँ इस बात को भी स्पष्ट रूप से ध्यान में रखना चाहिए कि प्रथम तो एक ही शब्द के अनेक अर्थ हो सकते है, दूसरे अनेक बार शब्दों का प्रयोग उनके प्रचलित अर्थ में न होकर विशिष्ट अर्थ में होता है, जैसे जैन परम्परा में धर्म शब्द का प्रयोग धर्म-द्रव्य के रूप में होता है। जैन आचार्यों ने स्यात् शब्द का प्रयोग एक विशिष्ट पारिभाषिक अर्थ में ही किया है। यदि स्याद्वाद के आलोचक विद्वानों ने स्याद्वाद सम्बन्धी किसी भी मूलग्रन्थ को देखने की कोशिश की होती, तो उन्हें स्यात् शब्द का जैन परम्परा में क्या अर्थ है, यह स्पष्ट हो जाता। स्यात् शब्द के अर्थ के सम्बन्ध में जो भ्रान्ति उत्पन्न होती हैं, उसका मूल कारण उसे तिहन्त पद मान लेना हैं, जबकि समन्तभद्र, विद्यानन्दि, अमृतचन्द्र, मल्लिषेण आदि सभी जैन आचार्यों ने इसे निपात या अव्यय माना है। समन्तभद्र स्यात् शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए आप्तमीमांसा में लिखते हैं कि स्यात् यह निपात शब्द है, जो अर्थ के साथ संबंधित होने पर वाक्य में अनेकान्तता का द्योतक और विवक्षित अर्थ का एक विशेषण है। इसी प्रकार पंचास्तिकाय की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र भी स्यात् शब्द के अर्थ को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि 'स्यात्' एकान्तता का निषेधक, अनेकान्तता का प्रतिपादक तथा कथंचित् अर्थ का द्योतक एक निपात शब्द है। रे
मल्लिषेण ने भी स्याद्वादमंजरी में स्वात् शब्द को अनेकान्तता का द्योतक एक अव्यय माना है। इस प्रकार यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जैन विचारकों की दृष्टि में स्यात् शब्द संशयपरक न होकर अनेकान्तिक किन्तु निश्चयात्मक अर्थ का द्योतक है। मात्र इतना ही नहीं जैन दार्शनिक इस सम्बन्ध में भी सहज थे कि आलोचक या जनसाधारण द्वारा स्यात् शब्द का संशयपरक अर्थ ग्रहण किया जा सकता है, इसलिए उन्होंने स्यात् शब्द के साथ "एव" शब्द के प्रयोग की योजना भी की है, जैसे- "स्यादस्त्येव घटः " अर्थात् किसी अपेक्षा से यह घड़ा ही है। यह स्पष्ट है कि " एव" शब्द निश्चयात्मकता का द्योतक है।
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" स्यात्" तथा "एव" शब्दों का एक साथ प्रयोग श्रोता की संशयात्मकता को समाप्त कर उसे सापेक्षिक किन्तु निश्चित ज्ञान प्रदान करता है। वस्तुत: इस प्रयोग में "एव" शब्द 'स्वात्' शब्द की अनिश्चितता को समाप्त कर देता है और "स्यात्" शब्द "एव" शब्द की निरपेक्षता एवं एकान्तता को समाप्त कर देता है और इस प्रकार वे दोनों मिलकर कथित वस्तु-धर्म की सीमा नियत करते हुए सापेक्ष किन्तु निश्चित ज्ञान प्रस्तुत करते हैं अतः स्याद्वाद को संशयवाद या सम्भावनाबाद नहीं का जा सकता है। “वाद” शब्द का अर्थ कथनविधि है । इस प्रकार स्याद्वाद सापेक्षिक कथन पद्धति या सापेक्षिक निर्णय पद्धति का सूचक है। वह एक ऐसा सिद्धान्त है, जो वस्तुतत्त्व का विविध पहलुओं या विविध आयामों से विश्लेषण करता है और अपने उन विश्लेषित विविध निर्णयों को इस प्रकार की भाषा में प्रस्तुत करता है कि वे अपने पक्ष की स्थापना करते हुए भी वस्तुतत्त्व में निहित अन्य “अनुक्त" अनेकानेक धर्मों एवं सम्भावनाओं (पर्यायों) का निषेध न करें। वस्तुतः स्याद्वाद हमारे निर्णयों एवं तज्जनित कथनों को प्रस्तुत करने का एक निर्दोष एवं अहिंसक तरीका है, अविरोधपूर्वक कथन की एक शैली है। उसका प्रत्येक भंग अनेकान्तिक ढंग से एकान्तिक कथन करता है, जिसमें वक्ता अपनी बात इस ढंग से कहता है कि उसका वह कथन अपने प्रतिपक्षी कथनों का पूर्ण निषेधक न बने। संक्षेप में स्याद्वाद अपने समग्र रूप में अनेकान्त है और प्रत्येक भंग की दृष्टि से सम्यक् एकान्त भी है। सप्तभंगी अनन्तधर्मात्मक वस्तुतत्त्व के संबंध में एक ऐसी कथनपद्धति या वाक्य योजना है, जो उसमें अनुक्त धर्मों को संभावना का निषेध करते हुए सापेक्षिक किन्तु निश्चयात्मक ढंग से वस्तुतत्त्व के पूर्ण स्वरूप को अपनी दृष्टि में रखते हुए उसके किसी एक धर्म का मुख्य रूप से प्रतिपादन या निषेध करती है। इसी प्रकार अनेकांतवाद भी वस्तुतत्त्व के सन्दर्भ में एकाधिक निर्णयों को स्वीकृत करता है। वह कहता है कि एक ही वस्तुतत्त्व के सन्दर्भों में विभिन्न अपेक्षाओं के आधार पर अनेक निर्णय (कथन) दिये जा सकते हैं अर्थात् अनेकांत वस्तु स्वरूप के सम्बन्ध में अनेक निर्णयों या निष्कर्षो की सम्भाव्यता का सिद्धांत है। जैनाचार्यों ने अनेकांत को परिभाषित करते हुए लिखा है कि 'सर्वचैकान्त प्रतिक्षेपलक्षणोऽानेकांत' अर्थात् अनेकांत मात्र एकांत का निषेध है और वस्तु में निहित परस्पर विरुद्ध धर्मों का प्रकाशक है।
स्याद्वाद के आधारः
सम्भवतः यह प्रश्न उपस्थित किया जा सकता है कि स्याद्वाद या सापेक्षिक कथन पद्धति की क्या आवश्यकता है? स्याद्वाद या सापेक्षिक कथन पद्धति की आवश्यकता के मूलतः चार कारण हैं१. वस्तुतत्त्व की अनन्तधर्मात्मकता,
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स्याद्वाद और सप्तभंगी : एक चिन्तन
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२. मानवीय ज्ञान प्राप्ति के साधनों की सीमितता,
है जिसका स्पष्टीकरण भगवतीसूत्र में स्वयं भगवान् महावीर ने विविध ३. मानवीय ज्ञान की अपूर्णता एवं सापेक्षता तथा
प्रसंगों में किया है। उदाहरणार्थ जब महावीर से गौतम ने यह पूछा कि ४. भाषा के अभिव्यक्ति सामर्थ्य की सीमितता एवं सापेक्षता। हे भगवन्! जीव नित्य या अनित्य है? हे गौतम! जीव अपेक्षाभेद से
नित्य भी है और अनित्य भी। भगवन्! यह कैसे? हे गौतम! द्रव्य दृष्टि (अ) वस्तुतत्त्व की अनन्तधर्मात्मकता :
से जीव नित्य है, पर्याय दृष्टि से अनित्या इसी प्रकार एक अन्य प्रश्न सर्वप्रथम स्याद्वाद के औचित्य स्थापन के लिए हमें वस्तुतत्त्व के उत्तर में उन्होंने सोमिल को कहा था कि-हे सोमिल! द्रव्य-दृष्टि से के उस स्वरूप को समझ लेना होगा, जिसके प्रतिपादन का हम प्रयास मैं एक हूँ, किन्तु परिवर्तनशील चेतनावस्थाओं (पर्यायों) की अपेक्षा से करते हैं। वस्तुतत्त्व मात्र सीमित लक्षणों का पुंज नहीं है, जैन दार्शनिकों में अनेक भी हूँ। वस्तुतत्त्व के इस अनन्तधर्मात्मक एवं अनेकान्तिक ने उसे अनन्तधर्मात्मक कहा है। यदि हम वस्तुतत्त्व के भावात्मक गुणों स्वरूप का यह प्रतिपादन उक्त आगम में बहुत ही विस्तार के साथ हुआ पर ही विचार करें तो उनकी संख्या भी अनेक होगी। उदाहरणार्थ गुलाब है किन्तु लेख की मर्यादा को दृष्टिगत रखते हुए उपर्युक्त एक-दो का फूल गन्ध की दृष्टि से सुगन्धित है, तो वर्ण की दृष्टि से किसी एक उदाहरण ही पर्याप्त होंगे। या एकाधिक विशिष्ट रंगों से युक्त हैं, स्पर्श की दृष्टि से उसकी वस्तुतत्त्व की यह अनन्तधर्मात्मकता तथा उसमें विरोधी पंखुड़ियाँ कोमल हैं, किन्तु डंठल तीक्ष्ण हैं, उसमें एक विशिष्ट स्वाद धर्म-युगलों की एक साथ उपस्थिति अनुभव-सिद्ध है। एक ही आम्रफल है, आदि आदि। यह तो हुई वस्तु के भावात्मक धर्मों की बात, किन्तु खट्टा और मधुर (खट्टा-मीठा) दोनों ही हो सकता है। पितृत्व और उसके अभावात्मक धर्मों की संख्या तो उसके भावात्मक धर्मों की पुत्रत्व के दो विरोधी गुण अपेक्षा भेद से एक ही व्यक्ति में एक ही समय अपेक्षा कई गुना अधिक होगी, जैसे गुलाब का फूल, चमेली का, में साथ-साथ सिद्ध हो सकते हैं। वास्तविकता तो यह है कि जिन्हें हम मोगरे का या पलास का फूल नहीं है। वह अपने से इतर सभी वस्तुओं विरोधी धर्म युगल मान लेते हैं, उनमें सर्वथा या निरपेक्ष रूप से विरोध से भिन्न है और उसमें उन सभी वस्तुओं के अनेकानेक धर्मों का अभाव नहीं है। अपेक्षा भेद से उनका एक ही वस्तुतत्त्व में एक ही समय में भी है। पुन: यदि हम वस्तुतत्त्व की भूत एवं भावी तथा व्यक्त और होना सम्भव है। भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से एक ही व्यक्ति छोटा या बड़ा अव्यक्त पर्यायों (सम्भावनाओं) पर विचार करें तो उसके गुण धर्मों की कहा जा सकता है अथवा एक ही वस्तु ठण्डी या गरम कही जा सकती यह संख्या और भी अधिक बढ़कर निश्चित ही अनन्त तक पहुँच है। जो संखिया जनसाधरण की दृष्टि में विष (प्राणापहारी) है, वही एक जावेगी। अत: यह कथन सत्य है कि वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मों, अनन्तगुणों वैद्य की दृष्टि में औषधि (जीवन-संजीवनी) भी है। अत: यह एक एवं अनन्तपर्यायों का पुंज है। मात्र इतना ही नहीं वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मात्मक अनुभवजन्य सत्य है कि वस्तु में अनेक विरोधी धर्म-युगलों की होने के साथ-साथ अनेकान्तिक भी है, मानव बुद्धि जिन्हें परस्पर उपस्थिति देखी जाती है। यहाँ हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि विरोधी गुण मान लेती है वे एक ही वस्तुतत्त्व में अपेक्षा भेद से एक वस्तु में अनेक विरोधी धर्म युगलों की उपस्थिति नहीं है। इस सम्बन्ध साथ रहते हुए देखे जाते हैं।
में धवला का निम्न कथन द्रष्टव्य है--"यदि (वस्तु में) सम्पूर्ण धर्मों का अस्तित्व नास्तित्व पूर्वक है और नास्तित्व अस्तित्व पूर्वक एक साथ रहना मान लिया जावे तो परस्पर विरुद्ध चैतन्य, अचैतन्य, है। एकता में अनेकता और अनेकता में एकता अनुस्यूत है, जो द्रव्य भव्यत्व और अभव्यत्व आदि धर्मों का एक साथ आत्मा में रहने का दृष्टि से नित्य है, वही पर्यायदृष्टि से अनित्य भी है। उत्पत्ति के बिना प्रसंग आ जावेगा। अत: यह मानना अधिक तर्कसंगत है कि वस्तु में विनाश और विनाश के बिना उत्पत्ति संभव नहीं है। पुन: उत्पत्ति और केवल वे ही विरोधी धर्म युगल युगपत् रूप में रह सकते हैं, जिनका विनाश के लिए ध्रौव्यत्व भी अपेक्षित है अन्यथा उत्पत्ति और विनाश उस वस्तु में अत्यन्ताभाव नहीं है। किन्तु इस बात से वस्तुतत्त्व का किसका होगा? क्योंकि विश्व में विनाश के अभाव से उत्पत्ति जैसी भी अनन्तधर्मात्मक स्वरूप खण्डित नहीं होता है और वस्तुतत्त्व में नित्यताकोई स्थिति नहीं है। यद्यपि ध्रौव्यत्व और उत्पत्ति-विनाश के धर्म अनित्यता, एकत्व-अनेकत्व, अस्तित्व-नास्तित्व, भेदत्व-अभेदत्व आदि परस्पर विरोधी हैं, किन्तु दोनों को सहवर्ती माने बिना विश्व की व्याख्या अनेक विरोधी धर्म युगलों की युगपत् उपस्थिति मानी जा सकती है। असम्भव है। यही कारण था कि भगवान् महावीर ने अपने युग में आचार्य अमृतचन्द्र 'समयसार' की टीका में लिखते हैं कि अपेक्षा भेद प्रचलित शाश्वतवादी और उच्छेदवादी आदि परस्पर विरोधी विचारधाराओं से जो है, वही नहीं भी है, जो सत् है वह असत् भी है, जो एक है वह के मध्य में समन्वय करते हुए अनेकान्तिक दृष्टि से वस्तुतत्त्व को अनेक भी है, जो नित्य है वही अनित्य भी है।९ वस्तु एकान्तिक न उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक कहकर परिभाषित किया। जिनोपदिष्ट होकर अनेकान्तिक है। आचार्य हेमचन्द्र अन्ययोग-व्यवच्छेदिका में यह त्रिपदी ही अनेकान्तवादी विचार-पद्धति का आधार है। स्याद्वाद लिखते हैं कि विश्व की समस्त वस्तुएँ स्याद्वाद् की मुद्रा से युक्त हैं,
और नयवाद सम्बन्धी विपुल साहित्य मात्र इसका विस्तार है। त्रिपदी ही कोई भी उसका उल्लंघन नहीं कर सकता।१० यद्यपि वस्तुतत्त्व का यह जिन द्वारा वपित वह "बीज" है जिससे स्याद्वाद रूपी वट वृक्ष अनन्तधर्मात्मक एवं अनेकान्तिक स्वरूप हमें असमंजस में अवश्य विकसित हुआ है। यह वस्तुतत्त्व के उस अनेकान्तिक स्वरूप की सूचक डाल देता है किन्तु यदि वस्तु स्वभाव ऐसा ही है, तो हम क्या करें?
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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६ व्यक्ति सापेक्ष ही होता है।
बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति के शब्दों में यदिदं स्वयमर्थेभ्यो रोचते के वयं'? पुनः हम जिस वस्तु या द्रव्य की विवेचना करना चाहते हैं, वह है क्या? जहाँ एक ओर द्रव्य को गुण और पर्यायों का आश्रय कहा और पर्यायों का आश्रय कहा गया है, वहीं दूसरी ओर उसे गुणों का समूह भी कहा गया है। गुण और पर्यायों से पृथक् द्रव्य की कोई सत्ता ही नहीं है और द्रव्य से पृथक् गुण और पर्यायों की कोई सत्ता नहीं है। यह है वस्तु की सापेक्षितता और यदि वस्तुतत्त्व सापेक्षिक, अनन्तधर्मात्मक और अनेकान्तिक है, तो फिर उसका ज्ञान एवं उसकी विवेचना निरपेक्ष एवं एकान्तिक दृष्टि कैसे सम्भव है? इसलिए जैन आचार्यों का कथन है कि (अनन्तधर्मात्मक) मिश्रित तत्त्व की विवेचना बिना अपेक्षा से सम्भव नही है। ११
(ब) मानवीय ज्ञान प्राप्ति के साधनों का स्वरूप :
यह तो हुई वस्तु स्वरूप की बातें, किन्तु जिस वस्तु स्वरूप का ज्ञान हम प्राप्त करना चाहते हैं, उसके लिए हमारे पास साधन क्या है, हमें उन साधनों के स्वरूप एवं उनके द्वारा प्रदत्त ज्ञान के स्वरूप पर
भी विचार कर लेना होगा। मनुष्य के पास अपनी सत्याभीप्सा और (स) मानवीय ज्ञान की सीमितता एवं सापेक्षता : जिज्ञासा की सन्तुष्टि के लिए ज्ञान प्राप्ति के दो साधन है:
किन्तु मानव मन कभी भी इन्द्रियानुभूति या प्रतीति के ज्ञान को ही अन्तिम सत्य मानकर सन्तुष्ट नहीं होता, वह उस प्रतीति के पीछे भी झांकना चाहता है। इस हेतु वह अपनी तर्कबुद्धि का सहारा लेता है। किन्तु क्या तार्किक ज्ञान निरपेक्ष हो सकता है ? प्रथम तो तार्किक ज्ञान भी पूरी तरह से इन्द्रिय संवेदनों से निरपेक्ष नहीं होता है, दूसरे तार्किक ज्ञान वस्तुतः एक सम्बन्धात्मक ज्ञान है। बौद्धिक चिन्तन कारण कार्य, एक-अनेक, अस्ति नास्ति आदि विचार विधाओं से घिरा हुआ है और अपनी इन विचार - विधाओं के आधार पर वह सापेक्ष ही होगा। तर्कबुद्धि जब भी किसी वस्तु के स्वरूप का निश्चय कर कोई निर्णय प्रस्तुत करती है, तो वह हमें दो तथ्यों के बीच किसी सम्बन्ध या असम्बन्ध की ही सूचना प्रदान करत है और ऐसा सम्बन्धात्मक ज्ञान सम्बन्ध सापेक्ष ही होगा, निरपेक्ष नहीं क्योंकि सभी सम्बन्ध (Relations) सापेक्ष होते हैं।
१. इन्द्रियाँ और २. तर्कबुद्धि ।
यह
मानव अपने इन्हीं सीमित साधनों द्वारा वस्तुतत्त्व को जानने का प्रयत्न करता है। जहाँ तक मानव के ऐन्द्रिक ज्ञान का प्रश्न है, स्पष्ट है कि ऐन्द्रिक ज्ञान न पूर्ण है और न निरपेक्ष मानव इन्द्रियों की क्षमता सीमित है, अतः वे वस्तुतत्व का जो भी स्वरूप जान पाती हैं, वह पूर्ण नहीं हो सकता है इन्द्रियाँ वस्तु को अपने पूर्ण स्वरूप में देख पाने के लिए सक्षम नहीं हैं। यहाँ हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि हम वस्तुतत्त्व को जिस रूप में वह है वैसा नहीं जान कर उसे जिस रूप में इन्द्रियाँ हमारे समक्ष प्रस्तुत करती हैं, उसी रूप में जानते हैं। हम इन्द्रिय संवेदनों को जान पाते हैं, वस्तुतत्त्व को नहीं। इसका अर्थ यह हुआ कि हमारा आनुभविक ज्ञान इन्द्रिय-सापेक्ष है। मात्र इतना ही नहीं, वह इन्द्रिय सापेक्ष होने के साथ-साथ उन कोणों पर भी निर्भर रहता है जहाँ से वस्तु देखी जा रही है और यदि हम उस कोण (स्थिति) के विचार का अपने शान से अलग करते हैं, तो निश्चित ही हमारा ज्ञान भ्रान्त हो जायेगा। उदाहरणार्थं एक गोल सिक्का अपने अनेक कोणों से हमें वृत्ताकार न लग कर अण्डाकार दिखाई देता है। विभिन्न गुरुत्वाकर्षणों एवं विभिन्न शारीरिक स्थितियों से एक ही वस्तु हल्की या भारी प्रतीत होती है। हमारी पृथ्वी को जब हम उसके गुरुत्वाकर्षण की सीमा से ऊपर जाकर देखते हैं तो गतिशील दिखाई देती है, किन्तु यहाँ वह हमें स्थिर प्रतीत होती है । दूर से देखने पर वस्तु छोटी और पास से देखने पर बड़ी दिखाई देती हैं एक टेबल के जब विविध कोणों से फोटो लिए जाते हैं तो वे परस्पर भिन्न-भिन्न होते हैं। इस प्रकार हमारा सारा आनुभविक ज्ञान सापेक्ष्य ही होता है, निरपेक्ष नहीं इन्द्रिय संवेदनों को क्या सर्वज्ञ का ज्ञान निरपेक्ष होता है? उन सब अपेक्षाओं (Conditions) से अलग हटकर नहीं समझा जा सकता है, जिनमें कि वे हुए हैं। अतः ऐन्द्रिकज्ञान दिक, काल और
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वस्तुतः वस्तुतत्त्व का यथार्थ एवं पूर्ण ज्ञान सीमित क्षमता वाले मानव के लिए सदैव ही एक जटिल प्रश्न रहा है । अपूर्ण के द्वारा पूर्ण को जानने के समस्त प्रयास आंशिक सत्य के ज्ञान से आगे नहीं जा पाये हैं और जब इस आंशिक सत्य को पूर्ण सत्य मान लिया जाता है तो वह सत्य, सत्य न रह करके असत्य बन जाता है। वस्तुतत्त्व केवल उतना ही नहीं है जितना कि हम इसे जान पा रहे है। मनुष्य की ऐन्द्रिक ज्ञान क्षमता एवं तर्क बुद्धि इतनी अपूर्ण है कि वह सम्पूर्ण सत्य को एक साथ ग्रहण नहीं कर सकती। साधारण मानव - बुद्धि पूर्ण सत्य को एक साथ ग्रहण नहीं कर सकती। अतः साधारण मानव पूर्ण सत्य का साक्षात्कार नहीं कर पाता है। जैन दृष्टि के अनुसार सत्य अज्ञेय तो नहीं है किन्तु बिना पूर्णता को प्राप्त किये उसे पूर्ण रूप से नहीं जाना जा सकता। प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टीन ने कहा था कि "हम केवल सापेक्षिक सत्य को जान सकते हैं, निरपेक्ष सत्य को तो कोई पूर्ण द्रष्टा ही जान सकेगा । १२ और ऐसी स्थिति में जबकि हमारा समस्त ज्ञान आंशिक, अपूर्ण तथा सापेक्षिक है, हमें यह दावा करने का कोई अधिकार नहीं है कि मेरी दृष्टि ही एकमात्र सत्य है और सत्य मेरे ही पास है। हमारा आंशिक, अपूर्ण और सापेक्षिक ज्ञान निरपेक्ष सत्यता का दावा नहीं कर सकता है। अतः ऐसे ज्ञान के लिए हमें ऐसी कथन पद्धति की योजना करनी होगी, जो कि दूसरों के अनुभूत सत्यों का निषेध नहीं करते हुए अपनी बात कह सके। हम अपने ज्ञान की सीमितता के कारण अन्य सम्भावनाओं (Possibilities) को निरस्त नहीं कर सकते हैं।
यद्यपि जैन दर्शन में यह माना गया है कि सर्वज्ञ या केवली सम्पूर्ण सत्य का साक्षात्कार कर लेता है, अतः यह प्रश्न स्वाभाविक
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स्याद्वाद और सप्तभंगी : एक चिन्तन
१५७ रूप से उठता है कि क्या सर्वज्ञ का ज्ञान निरपेक्ष है। इस सन्दर्भ में जैन चाहे निरपेक्ष ज्ञान को सम्भव भी मान लिया जाये, किन्तु निरपेक्ष कथन दार्शनिकों में भी मतभेद पाया जाता है। कुछ समकालीन जैन विचारक तो कदापि सम्भव नहीं है, क्योंकि जो कुछ भी कहा जाता है, वह सर्वज्ञ के ज्ञान को निरपेक्ष मानते हैं जबकि दूसरे कुछ विचारकों के किसी न किसी सन्दर्भ में (in a certain context) कहा जाता है और अनुसार सर्वज्ञ का ज्ञान भी सापेक्ष होता है। श्री दलसुखभाई मालवणिया उस सन्दर्भ में ही उसे ठीक प्रकार से समझा जा सकता है अन्यथा ने “स्याद्वादमंजरी" की भूमिका में सर्वज्ञ के ज्ञान को निरपेक्ष सत्य भ्रान्ति होने की संभावना रहती है। इसीलिए जैन-आचार्यों का कथन है बताया है। जबकि मुनि श्री नगराजजी ने “जैन दर्शन और आधुनिक कि जगत् में जो कुछ भी कहा जा सकता है, वह सब किसी विवक्षा या विज्ञान" नामक पुस्तिका में यह माना है कि सर्वज्ञ का ज्ञान भी कहने नय से गर्भित होता है। जिन या सर्वज्ञ की वाणी भी अपेक्षा रहित नहीं भर को ही निरपेक्ष है क्योंकि स्यादस्ति स्यानास्ति से परे वह भी नहीं होती है। वह सापेक्ष ही होती है। अत: वक्ता का कथन समझने के लिए है। किन्तु वस्तुस्थिति यह है कि जहाँ तक सर्वज्ञ के वस्तु जगत के ज्ञान भी अपेक्षा का विचार आवश्यक है। का प्रश्न है उसे निरपेक्ष नहीं माना जा सकता क्योंकि उसके ज्ञान का
पुनश्च जब वस्तुतत्त्व में अनेक विरुद्ध धर्म-युगल में रहे हुए विषय अनन्तधर्मात्मक वस्तु है। अत: सर्वज्ञ भी वस्तुतत्त्व के अनन्त हैं, तो शब्दों द्वारा उनका एक साथ प्रतिपादन सम्भव नहीं है। उन्हें गुणों को अनन्त-अपेक्षाओं से ही जान सकता है। वस्तुगत ज्ञान या क्रमिक रूप में ही कहा जा सकता है। शब्द एक समय में एक ही धर्म वैषयिक ज्ञान (Objective knowledge) कभी भी निरपेक्ष नहीं हो को अभिव्यक्त कर सकता है। अनन्तधर्मात्मक वस्तुतत्त्व के समस्त धर्मों सकता, फिर चाहे वह सर्वज्ञ का ही क्यों न हो? इसीलिए जैन- का एक साथ कथन भाषा की सीमा के बाहर है। अत: किसी भी कथन आचार्यों का कथन है कि दीप से लेकर व्योम तक वस्तु-मात्र स्याद्वाद में वस्तु के अनेक धर्म अनुक्त (अकथित) ही रह जायेंगे और एक की मुद्रा से अंकित हैं। किन्तु हमें यह ध्यान रखना होगा कि जहाँ तक निरपेक्ष कथन अनुक्त धर्मों का निषेध करने के कारण असत्य हो सर्वज्ञ के आत्म-बोध का प्रश्न है वह निरेपक्ष हो सकता है क्योंकि वह जावेगा। हमारा कथन सत्य रहे और हमारे वचन व्यवहार से श्रोता को विकल्प रहित होता है। सम्भवत: इसी दृष्टिकोण को लक्ष्य में रखकर कोई भ्रान्ति न हो इसलिए सापेक्षिक कथन पद्धति ही समुचित हो आचार्य कुन्दकुन्द को यह कहना पड़ा था कि व्यवहार दृष्टि से सर्वज्ञ सकती है। जैनाचार्यों ने स्यात् को सत्य का चिह्न १३ इसीलिए कहा है सभी द्रव्यों को जानता है किन्तु परमार्थत: तो वह आत्मा को ही जानता कि वह अपेक्षा पूर्वक कथन करके हमारे कथन को अविरोधी और सत्य है। वस्तुस्थिति यह है कि सर्वज्ञ का आत्म-बोध तो निरपेक्ष होता है बना देता है तथा श्रोता को कोई भ्रान्ति भी नहीं होने देता है। किन्तु उसका वस्तु-विषयक ज्ञान सापेक्ष होता है।
स्याद्वाद और अनेकान्त : (द) भाषा की अभिव्यक्ति-सामर्थ्य की सीमितता और सापेक्षता : साधारणतया अनेकान्त और स्याद्वाद पर्यायवाची माने जाते
सर्वज्ञ या पूर्णज्ञ के लिए भी, जो सम्पूर्ण सत्य का साक्षात्कार हैं।१४ अनेक जैनाचार्यों ने इन्हें पर्यायवाची बताया भी है। किन्तु फिर कर लेता है, सत्य का निरपेक्ष कथन या अभिव्यक्ति सम्भव नहीं है। भी दोनों में थोड़ा अन्तर है। अनेकान्त स्याद्वाद की अपेक्षा अधिक सम्पूर्ण सत्य को चाहे जाना जा सकता हो किन्तु कहा नहीं जा सकता। व्यापक अर्थ का द्योतक है। जैनाचार्यों ने दोनों में व्यापक-व्याप्य भाव उसकी अभिव्यक्ति का जब भी कोई प्रयास किया जाता है, तो वह माना है। अनेकान्त व्यापक है और स्याद्वाद व्याप्या अनेकान्त वाच्य है सापेक्षिक बन जाता है। क्योंकि सर्वज्ञ को भी अपनी अभिव्यक्ति के तो स्याद्वाद वाचक। अनेकान्त वस्तु स्वरूप है, तो स्याद्वाद उस अनेकान्तिक लिए उसी भाषा का सहारा लेना होता है, जो कि सीमित एवं अपूर्ण वस्तु स्वरूप के कथन की निर्दोष भाषा-पद्धति। अनेकान्त दर्शन है, तो है। "है" और "नहीं है" की सीमा से घिरी हुई है। अत: भाषा पूर्ण स्याद्वाद उसकी अभिव्यक्ति का ढंग। सत्य को निरपेक्षतया अभिव्यक्त नही कर सकती है।
प्रथम तो वस्तुतत्त्व के धर्मों की संख्या अनन्त है, जबकि विभज्जवाद और स्याद्वाद : मानवीय भाषा की शब्द संख्या सीमित है। जितने वस्तु-धर्म हैं, उतने विभज्जवाद स्याद्वाद का ही एक अन्य पर्यायवाची एवं पूर्ववर्ती शब्द नहीं हैं। अत: अनेक धर्म अनुक्त (अकथित) रहेंगे ही। पुनः मानव है। सूत्रकृतांग में महावीर ने भिक्षुओं के लिए यह स्पष्ट निर्देश दिया कि की जितनी अनुभूतियाँ हैं, उन सबके लिए भी भाषा में पृथक-पृथक् वे विभज्जवाद की भाषा का प्रयोग करें।१५ इसी प्रकार भगवान बुद्ध ने शब्द नहीं हैं। हम गुड़, शक्कर, आम आदि की मिठास को भाषा में भी मज्झिमनिकाय में स्पष्ट रूप से कहा था कि हे माणवक! मैं पूर्ण रूप से अभिव्यक्ति नहीं कर सकते क्योंकि सभी की मिठास के विभज्जवादी हूँ, एकान्तवादी नहीं। विभज्जवाद वह सिद्धान्त है, जो लिए अलग-अलग शब्द नहीं हैं। आचार्य नेमिचन्द्र 'गोम्मटसार' में प्रश्न को विभाजित करके उत्तर देता है। जब बुद्ध से यह पूछा गया कि लिखते हैं कि हमारे अनुभूत भावों को केवल अनन्तवाँ भाग ही गृहस्थ आराधक होता है या प्रव्रजित? उन्होंने इस प्रश्न के उत्तर में यह कथनीय होता है और जितना कथनीय है, उसका भी एक अंश ही कहा कि गृहस्थ एवं त्यागी यदि मिथ्यावादी हैं तो आराधक नहीं हो भाषा में निबद्ध करके लिखा जाता है (गोम्मटसार, जीवकाण्ड ३३४)। सकते। किन्तु यदि दोनों ही सम्यक् आचरण करने वाले हैं तो दोनों ही
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ आराधक हो सकते हैं।१६ इसी प्रकार जब महावीर से जयंती ने यह विशेष रूप से द्रष्टव्य है। पूछा कि सोना अच्छा है या जागना, तो उन्होंने कहा था कि कुछ जीवों का सोना अच्छा है और कुछ का जागना। पापी का सोना अच्छा है और सप्तभंगी : धर्मात्माओं का जागना।१७ इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वक्ता सप्तभंगी स्याद्वाद की भाषायी अभिव्यक्ति के सामान्य विकल्पों को उसके प्रश्न का विश्लेषणपूर्वक उत्तर देना विभज्जवाद है। प्रश्नों के को प्रस्तुत करती है। हमारी भाषा विधि-निषेध की सीमाओं से घिरी हुई उत्तरों की यह विश्लेषणात्मक शैली विचारों को सुलझाने वाली तथा है। "है" और "नहीं है" हमारे कथनों के दो प्रारूप हैं। किन्तु कभीवस्तु के अनेक आयामों को स्पष्ट करने वाली है। इससे वक्ता का कभी हम अपनी बात को स्पष्टतया "है" (विधि) और "नहीं है" विश्लेषण एकांगी नहीं बनता है। बुद्ध और महावीर का यह विभज्जवाद (निषेध) की भाषा में प्रस्तुत करने में असमर्थ होते हैं। अर्थात् सीमित ही आगे चलकर शून्यवाद और स्याद्वाद में विकसित हुआ है। शब्दावली की यह भाषा हमारी अनुभूति को प्रकट करने में असमर्थ
होती है। ऐसी स्थिति में हम एक तीसरे विकल्प "अवाच्य" या शून्यवाद और स्याद्वाद:१८
"अवक्तव्य" का सहारा लेते हैं, अर्थात् शब्दों के माध्यम से "है" और भगवान् बुद्ध ने शाश्वतवाद और उच्छेदवाद-इन दोनों को “नहीं है" की भाषायी सीमा में बाँधकर उसे कहा नहीं जा सकता है। अस्वीकार किया और अपने मार्ग को मध्यम मार्ग कहा। जबकि भगवान् इस प्रकार विधि, निषेध और अवक्तव्यता से जो सात प्रकार का वचन महावीर ने शाश्वतवाद और उच्छेदवाद को अपेक्षाकृत रूप से स्वीकृत विन्यास बनता है, उसे सप्तभंगी कहा जाता है।१९ सप्तभंगी में स्यात् करके एक विधिमार्ग अपनाया। भगवान् बुद्ध की परम्परा में विकसित अस्ति, स्यात् नास्ति और स्यात् अवक्तव्य-ये तीन असंयोगी मौलिक शून्यवाद और जैन परम्परा में विकसित स्याद्वाद दोनों का ही लक्ष्य भंग हैं। शेष चार भंग इन तीनों के संयोग से बनते हैं। उनमें स्यात् एकान्तिक दार्शनिक विचारधाराओं की अस्वीकृति ही था। दोनों में फर्क अस्ति-नास्ति, स्यात् अस्ति-अवक्तव्य और स्यात् नास्ति-अवक्तव्यों ये इतना ही है कि जहां शून्यवाद एक निषेधप्रधान दृष्टि है वहीं स्याद्वाद तीन द्विसंयोगी और अन्तिम स्यात-अस्ति-नास्ति-अव्यक्तव्य, यह त्रिसंयोगी में एक विधायक दृष्टि है। शून्यवाद जो बात संवृति सत्य और परमार्थ भंग है। निर्णयों की भाषायी अभिव्यक्ति विधि, निषेध और अवक्तव्य, सत्य के रूप में कहता है, वही बात जैन दार्शनिक व्यवहार और निश्चय इन तीन ही रूप- में होती है। अत: उससे तीन ही मौलिक भंग बनते नय के आधार पर प्रतिपादित करता है। शून्यवाद और स्याद्वाद में हैं और इन तीन मौलिक भंगों में से गणितशास्त्र के संयोग नियम मौलिक भेद अपने निष्कर्षों के सम्बन्ध में है। शून्यवाद अपने निष्कर्षों (Law of Combination) के आधार पर सात भंग ही बनते हैं, न में निषेधात्मक है और स्याद्वाद विधानात्मक है। शून्यवाद अपनी सम्पूर्ण कम न अधिक। अष्टसहस्री टीका में आचार्य विद्यानन्दि ने इसीलिए तार्किक विवेचना में इस निष्कर्ष पर आता है कि वस्तुतत्त्व शाश्वत नहीं यह कहा है कि जिज्ञासा और संशय और उनके समाधान सप्त प्रकार है, उच्छिन्न नहीं है, एक नहीं है, अनेक नहीं है, सत् नहीं है, असत् के हो सकते हैं। अत: जैन-आचार्यों की सप्तभंगी की यह व्यवस्था नहीं है। जबकि स्याद्वाद अपने निष्कर्षों को विधानात्मक रूप से प्रस्तुत निर्मल नहीं है। वस्तुतत्त्व के अनन्त धर्मों में से प्रत्येक को लेकर एककरता है कि वस्तुशाश्वत भी है, अशाश्वत भी है, एक भी है, अनेक भी एक सप्तभंगी और इस प्रकार अनन्त सप्तभंगियाँ तो बनाई जा. सकी है, सत् भी है, असत् भी है। एकान्त में रहा हुआ दोष शून्यवादी और हैं किन्तु अनन्तभंगी नहीं। श्वेताम्बर आगम भगवतीसूत्र में षट्प्रदेशी स्याद्वादी दोनों ही देखते हैं। इस एकान्त के दोष से बचने की तत्परता स्कन्ध के संबंध में जो २३ भंगों की योजना है, वह वचन-भेद-कृत में शून्यवाद द्वारा प्रस्तुत शून्यता-शून्यता की धारणा और स्याद्वाद द्वारा संख्याओं के कारण है। उसमें भी मूल भंग सात ही है।२० पंचास्तिकाय प्रस्तुत अनेकान्त की अनेकान्तता की धारणा भी विशेष रूप से द्रष्टव्य और प्रवचनसार आदि प्राचीन दिगम्बर आगम ग्रन्थों में और शेष है। किन्तु जहाँ शून्यवादी उस दोष के भय से एकान्त को अस्वीकार परवर्ती साहित्य में सप्तभंग ही मान्य रहे हैं। अतः विद्वानों को इन भ्रमों करता है, वहीं स्याद्वादी, उसके आगे स्यात् शब्द रखकर उस सदोष का निवारण कर लेना चाहिये कि ऐसे संयोगों से सप्तभंगी ही क्यों एकान्त को निर्दोष बना देता है। दोनों में यदि कोई मौलिक भेद है तो अनन्त भंगी भी हो सकती हैं अथवा आगमों में सात भंग नहीं है। वह अपनी निषेधात्मक और विधेयात्मक दृष्टियों का ही है। शून्यवाद सप्तभंगी भी एक परवर्ती विकास है। का वस्तुतत्त्व जहाँ चतुष्कोटिविनिर्मुक्त शून्य है, वहीं जैन दर्शन का सप्तभंगी का प्रत्येक भंग एक सापेक्षिक निर्णय प्रस्तुत करता वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मात्मक है। किन्तु शून्य और अनन्त का गणित तो है। सप्तभंगी में स्यात् अस्ति आदि जो सात भंग हैं, वे कथन के एक ही है। इन दोनों की विभिन्नता तो उस दृष्टि का ही परिणाम है, जो तार्किक आकार (Logical forms) हैं,उसमें स्यात् शब्द कथन की कि वैचारिक आग्रहों से जनमानस को मुक्त करने के लिए बुद्ध और सापेक्षिकता का सूचक है और अस्ति एवं नास्ति कथन के विधानात्मक महावीर ने प्रस्तुत की थी। बुद्ध के निषेधात्मक दृष्टिकोण का परिणाम (Affirmative) और निषेधात्मक (Negative) होने के सूचक हैं। शून्यवाद था तो महावीर के विधानात्मक दृष्टिकोण का परिणाम स्याद्वाद। कुछ जैन विद्वान् अस्ति को सत्ता की भावात्मकता का और नास्ति को इस सम्बन्ध में आदरणीय दलसुखभाई का लेख 'शून्यवाद और स्याद्वाद' अभावात्मकता का सूचक मानते हैं किन्तु यह दृष्टिकोण जैन दर्शन को
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मान्य नहीं हो सकता। उदाहरण के लिए जैन दर्शन में आत्मा भाव रूप है वह अभाव रूप नहीं हो सकता है। अतः हमें यह स्पष्ट रूप से जान लेना चाहिए कि स्यात् अस्ति स्यात् नास्ति अपने आपमें कोई कथन नहीं हैं, अपितु कथन के तार्किक आकार हैं, वे कथन के प्रारूप हैं। उन प्रारूपों के लिए अपेक्षा तथा उद्देश्य और विधेय पदों का उल्लेख आवश्यक है। जैसे स्याद अस्ति भंग का ठोस उदाहरण होगा-द्रव्य की अपेक्षा आत्मा नित्य है। यदि हम इसमें अपेक्षा (द्रव्यता) और विधेय (नित्यता) का उल्लेख नहीं करें और कहें कि स्याद् आत्मा है, तो हमारा कथन भ्रम पूर्ण होगा। अपेक्षा और विधेय पद के उल्लेख के अभाव में सप्तभंगी के आधार पर किये गये कथन अनेक भ्रान्तियों को जन्म देते हैं। जिसका विशेष विवेचन हमने द्वितीय भंग की चर्चा के प्रसंग में किया है। आधुनिक तर्कशास्त्र की दृष्टि से सप्तभंगी का प्रत्येक भंग एक सापेक्षिक कथन है जिसे एक हेतुफलाश्रित वाक्य के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। सप्तभंगी के प्रसंग में उत्पन्न भ्रान्तियों से बचने के लिए उसे निम्न सांकेतिक रूप में व्यक्त किया जा सकता है। सप्तभंगी के इस सांकेतिक प्रारूप के निर्माण में हमने चिह्नों का प्रयोग उनके सामने दर्शित अर्थों में किया है:
चिह्न
D
अ
स्यात् नास्ति
य
भंगों के आगमिक स्यात् अस्ति
स्याद् अवक्तव्य
00
स्यात् अस्ति च अवक्तव्य च
उ
वि
स्याद् अस्ति नास्ति च अवि~है,
अवि नहीं है
अरे उवि नहीं है
रूप भंगों के सांकेतिक रूप अवि है
(ar2.ar2) 3 अवक्तष्य है
अवि है. (art.ar) a) अवक्तव्य है अथवा
स्याद्वाद और सप्तभंगी एक चिन्तन :
अर्थ यदि तो (हेतुफलाश्रित कथन ) अपेक्षा (दृष्टिकोण)
संयोजन (और)
युगपत् (एकसाथ) अनन्तत्व
व्याघातक
उद्देश्य विधेय
ठोस उदाहरण यदि द्रव्यकी अपेक्षा से विचार करते हैं तो आत्मा नित्य है।
यदि पर्याय की अपेक्षा से विचार करते हैं तो आत्मा नित्य नहीं है।
यदि द्रव्य की अपेक्षा से विचार करते हैं तो आत्मा नित्य है और यदि पर्याय की अपेक्षा ते विचार
करते हैं तो आत्मा नित्य नहीं है।
यदि द्रव्य और पर्याय दोनों की अपेक्षा से एक साथ विचार करते हैं तो आत्मा अवक्तव्य है। (क्योंकि दो भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से दो अलग-अलग कथन हो सकते हैं किन्तु एक कथन नहीं हो सकता)
यदि द्रव्य की अपेक्षा से विचार करते हैं तो आत्मा नित्य है किन्तु यदि आत्मा
की द्रव्य पर्याय दोनों या अनन्त की दृष्टि से विचार करते हैं तो आत्मा अवक्तव्य है।
स्यात् नास्ति च
अवक्तव्य च
स्यात् अस्ति च नास्ति च अवक्तव्य च
अउ वि है. (37 ∞0) 3 अवक्तव्य है
अवि नहीं है. (अ. अरे) अवक्तव्य है
अथवा
(अ)
(अ)
उवि नहीं है. अवक्तव्य है
अवि है. अवि नहीं है. (अ)
अथवा
अवक्तव्य है
अवि है. अउ वि नहीं है. (अ. अ)
१५९
यदि पर्याय की अपेक्षा से विचार करते हैं तो आत्मा नित्य नहीं है किन्तु यदि अनन्त अपेक्षा की दृष्टि से विचार करते हैं तो आत्मा अवक्तव्य है।
यदि द्रव्य दृष्टि से विचार करते हैं तो आत्मा नित्य है और यदि पर्याय दृष्टि से विचार करते हैं तो आत्मा नित्य नहीं है किन्तु यदि अपनी अनन्त अपेक्षाओं की दृष्टि से विचार करते हैं तो आत्मा अवक्कष्य
है।
अवक्तव्य है
सप्तभंगी के प्रस्तुत सांकेतिक रूप में हमने केवल दो अपेक्षाओं का उल्लेख किया है किन्तु जैन विचारकों ने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ऐसी चार अपेक्षाएँ मानी हैं, उसमें भी भाव अपेक्षा व्यापक है। उसमें वस्तु की अवस्थाओं (पर्यायों) एवं गुणों दोनों पर विचार किया जाता है। किन्तु यदि हम प्रत्येक अपेक्षा की संभावनाओं पर विचार करें तो ये अपेक्षाएँ भी अनन्त होंगी क्योंकि वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मात्मक है। अपेक्षाओं की इन विविध सम्भावनाओं पर विस्तार से विचार किया जा सकता है किन्तु इस छोटे से लेख में यह सम्भव नहीं है।
इस सप्तभंगी का प्रथम भंग "स्याद् अस्ति" है। यह स्वचतुष्टय को अपेक्षा से वस्तु के भावात्मक धर्म या धर्मों का विधान करता है। जैसे अपने द्रव्य की अपेक्षा से यह घड़ा मिट्टी का है, क्षेत्र की अपेक्षा से इन्दौर नगर में बना हुआ है, काल की अपेक्षा से शिशिर ऋतु बना हुआ है, भाव अर्थात् वर्तमान पर्याय की अपेक्षा से लाल रंग का है या घटाकार है आदि। इस प्रकार वस्तु के स्व द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की अपेक्षा से उसके भावात्मक गुणों का विधान करना यह प्रथम 'अस्ति' नामक भंग का कार्य है। दूसरा स्यात् "नास्ति" नामक भंग वस्तुतत्त्व के अभावात्मक धर्म या धर्मों की अनुपस्थिति या नास्तित्व की सूचना देता है। वह यह बताता है कि वस्तु में स्व से भिन्न पर चतुष्टय का अभाव है। जैसे यह घड़ा ताम्बे का नहीं है, भोपाल नगर से बना हुआ नहीं है, ग्रीष्म ऋतु का बना हुआ नहीं है, कृष्ण वर्ण का नहीं है आदि । मात्र इतना ही नहीं यह भंग इस बात को भी स्पष्ट करता है कि घड़ा, पुस्तक, टेबल, कलम, मनुष्य आदि नहीं है। जहाँ प्रथम भंग यह कहता है कि घड़ा घड़ा ही है, वहाँ दूसरा भंग यह बताता है कि घड़ा, घट इतर अन्य कुछ नहीं है। कहा गया है कि "सर्वमस्ति स्वरूपेण पररूपेण नास्ति च" अर्थात् सभी वस्तुओं की सत्ता स्वरूप से है पररूप से नहीं। यदि वस्तु में अन्य वस्तुओं के गुण धर्मों की सत्ता भी मान ली जायेगी तो फिर वस्तुओं का पारस्परिक भेद ही समाप्त हो जावेगा और वस्तु का स्व-स्वरूप ही नहीं रह जावेगा, अतः वस्तु में पर चतुष्टय का निषेध करना द्वितीय भंग है। प्रथम भंग बताता है कि वस्तु क्या है, जबकि दूसरा भंग यह बताता है कि वस्तु क्या नहीं है।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
सामान्यतया इस द्वितीय भंग को " स्यात् नास्ति घटः " अर्थात् किसी अपेक्षा से घड़ा नहीं है, इस रूप में प्रस्तुत किया जाता है, किन्तु इसके प्रस्तुतीकरण का यह ढंग थोड़ा भ्रान्तिजनक अवश्य है, स्थूल दृष्टि से देखने पर ऐसा लगता है कि प्रथम भंग में घट के अस्तित्व का जो विधान किया गया था, उसी का द्वितीय भंग में निषेध कर दिया गया है और ऐसी स्थिति में स्याद्वाद को सन्देहवाद या आत्मा विरोधी कथन करने वाला सिद्धान्त समझ लेने की भ्रान्ति हो जाना स्वाभाविक है।
१६०
नहीं, अपितु घट में पर द्रव्यादि का निषेध करना चाहते हैं। वे कहना यह चाहते हैं कि घट पट नहीं है या घट में पट आदि के धर्म नहीं हैं, किन्तु स्मरण रखना होगा कि इस कथन में प्रथम और द्वितीय भंग में अपेक्षा नहीं बदली है। यदि प्रथम भंग से यह कहा जाने कि घड़ा मिट्टी का है और दूसरे भंग में यह कहा जावे कि घड़ा पीतल का नहीं है तो दोनों में अपेक्षा एक ही है अर्थात् दोनों कथन द्रव्य की या उपादान की अपेक्षा से हैं। अब दूसरा उदाहरण लें। किसी अपेक्षा से घड़ा नित्य है, किसी अपेक्षा से घड़ा नित्य नहीं है, यहाँ दोनों भंगों में अपेक्षा बदल जाती है। यहाँ प्रथम भंग में द्रव्य की अपेक्षा से घड़े को नित्य कहा गया और दूसरे भंग में पर्याय की अपेक्षा से घड़े को नित्य नहीं कहा गया है। द्वितीय भंग के प्रतिपादन के ये दोनों रूप भिन्न-भिन्न हैं। दूसरे यह कहना कि परचतुष्टय की अपेक्षा से घट नहीं है या पट की अपेक्षा घट नहीं है, भाषा की दृष्टि से थोड़ा भ्रान्तिजनक अवश्य है क्योंकि परचतुष्टय वस्तु की सत्ता का निषेधक नहीं हो सकता है। वस्तु में परचतुष्टय अर्थात् स्व-भिन्न पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का अभाव तो होता है किन्तु उनकी अपेक्षा वस्तु का अभाव नहीं होता है क्या यह कहना कि कुर्सी की अपेक्षा टेबल नहीं है या पीतल की अपेक्षा यह घड़ा नहीं है, भाषा के अभ्रान्त प्रयोग हैं? इस कथन में जैनाचार्यों का आशय तो यही है कि टेबल कुर्सी नहीं है या घड़ा पीतल का नहीं है। अतः परचतुष्टय की अपेक्षा से वस्तु नहीं है, यह कहने की अपेक्षा यह कहना कि वस्तु में परचतुष्टय का अभाव है, भाषा का सम्यक् प्रयोग होगा। विद्वानों से मेरी विनती है कि वे सप्तभंगी के विशेष रूप से द्वितीय एवं तृतीय भंग के भाषा के स्वरूप पर और स्वयं उनके आकारिक स्वरूप पर पुनर्विचार करें और आधुनिक तर्कशास्त्र के सन्दर्भ में उसे पुनर्गठित करें तो जैन न्याय के क्षेत्र में एक बड़ी उपलब्धि होगी क्योंकि द्वितीय एवं तृतीय भंगों की कथन विधि के विविध रूप परिलक्षित होते हैं। अतः यहाँ द्वितीय भंग के विविध स्वरूपों पर थोड़ा विचार करना अप्रासंगिक नहीं होगा। मेरी दृष्टि में द्वितीय भंग के निम्न चार रूप हो सकते हैं:
शंकरप्रभृति विद्वानों ने स्याद्वाद की जो आलोचना की थी, उसका मुख्य आधार यही भ्रान्ति है 'स्यात् अस्ति घट' और 'स्यात् नास्ति घट' में जब स्यात् शब्द को दृष्टि से ओझल कर या उसे सम्भावना के अर्थ में ग्रहण कर 'अस्ति' और 'नास्ति' पर बल दिया जाता है तो आत्म-विरोध का आभास होने लगता है जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ स्याद्वाद का प्रतिपादन करने वाले किसी आचार्य की दृष्टि में द्वितीय भंग का कार्य प्रथम भंग में स्थापित किये गये गुणधर्म का उसी अपेक्षा से निषेध करना नहीं है, अपितु या तो प्रथम भंग में अस्ति रूप माने गये गुण धर्म से इतर गुण धर्मों का निषेध करना है अथवा फिर अपेक्षा को बदल कर उसी गुण धर्म का निषेध करना होता है और इस प्रकार द्वितीय भंग प्रथम भंग के कथन को पुष्ट करता है, खण्डित नहीं। यदि द्वितीय भंग के कथन को उसी अपेक्षा से प्रथम भंग का निषेधक या विरोधी मान लिया जावेगा तो निश्चय ही यह सिद्धान्त संशयवाद या आत्म विरोध के दोषों से प्रसित हो जायेगा, किन्तु ऐसा नहीं है। यदि प्रथम भंग में 'स्यादस्त्येव घटः' का अर्थ किसी अपेक्षा से घड़ा है ही और द्वितीय भंग में “स्यान्नास्त्येव घटः " का अर्थ किसी अपेक्षा से घड़ा ही नहीं है ऐसा करेंगे तो आभास होगा कि दोनों कथन विरोधी हैं। क्योंकि इन कथनों के भाषायी स्वरूप से ऐसा आभास होता है कि इन कथनों में घट के अस्तित्व और नास्तित्व को ही सूचित किया गया है। जबकि जैन आचार्यों की दृष्टि में इन कथनों का बल उनमें प्रयुक्त " स्यात्" शब्द में ही है, वे यह नहीं मानते हैं कि द्वितीय भंग प्रथम भंग में स्थापित सत्य का प्रतिषेध करता है। दोनों भंगों में घट के सम्बन्ध में जिनका विधान या. निषेध किया गया है वे अपेक्षाश्रित धर्म है न कि घट का स्वयं का अस्तित्व या नास्तित्व। पुनः दोनों भंगों के “अपेक्षाश्रित धर्म” एक नहीं हैं, भिन्न-भिन्न हैं। प्रथम भंग में जिन अपेक्षाश्रित धर्मों का निषेध हुआ है, वे दूसरे अर्थात् पर चतुष्टय के हैं। अतः प्रथम भंग के विधान और द्वितीय भंग के निषेध में कोई आत्म विरोध नहीं है। मेरी दृष्टि में इस भ्रान्ति का मूल कारण प्रस्तुत वाक्य में उस विधेय पद (Predicate) के स्पष्ट उल्लेख का अभाव है, जिसका कि विधान या निषेध किया जाता है। यदि "नास्ति" पद को विधेय स्थानीय माना जाता है तो पुनः यहाँ यह भी प्रश्न उठ सकता है। कि जो घट अस्ति रूप है. वह नास्ति रूप कैसे हो सकता है? यदि यह कहा जाये कि पर द्रव्यादि की अपेक्षा से घट नहीं है, तो पर द्रव्यादि द्वितीय भंग- अरे उ विन्है घट के अस्तित्व के निषेधक कैसे बन सकते हैं?
(३) प्रथम भंग अर उवि है.
यद्यपि यहीं पूर्वाचार्यो का मन्तव्य स्पष्ट है कि वे घट का
हि
चिह्न
(१) प्रथम भंग- अवि है
द्वितीय भंग- अरे नहीं है
(२) प्रथम भंग-अ⊃उवि है द्वितीय भंग- अवि है
अर्थ
(१) प्रथम भंग में जिस धर्म (विधेय) का विधान
किया गया है। अपेक्षा बदलकर द्वितीय भंग में उसी धर्म (विधेय) का निषेध कर देना। जैसे: द्रव्यदृष्टि से घड़ा नित्य है। पर्यायदृष्टि से घड़ा नित्य नहीं है।
(२) प्रथम भंग में जिस धर्म का विधान किया
गया है, अपेक्षा बदलकर द्वितीय भंग में उसके विरुद्ध धर्म का प्रतिपादन कर देना है। जैसे द्रव्यदृष्टि से घड़ा नित्य है। (३) प्रथम भंग में प्रतिपादित धर्म को पुष्ट करने
हेतु उसी अपेक्षा से द्वितीय भंग में उसके विरुद्ध धर्म या भिन्न धर्म का वस्तु में निषेध कर देना।
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स्याद्वाद और सप्तभंगी : एक चिन्तन
१६१ जैसे-रंग की दृष्टि से यह कमीज नीली है। अर्थ के विकास की दृष्टि से चार अवस्थाओं का निर्देश किया हैरंग की दृष्टि से यह कमीज पीली नहीं है।
(१) पहला वेदकालीन निषेधात्मक दृष्टिकोण, जिसमें विश्व अथवा अपने स्वरूप की दृष्टि से आत्मा में चेतना
के कारण की खोज करते हुए ऋषि उस कारण तत्त्व को न सत् और
न असत् कहकर विवेचित करता है, यहाँ दोनों पक्षों का निषेध है। अपने स्वरूप की दृष्टि आत्मा अचेतन नहीं (२) दूसरा औपनिषदिक विधानात्मक दृष्टिकोण, जिसमें
सत, असत् आदि विरोधी तत्त्वों में समन्वय देखा जाता है। जैसेअथवा उपादान की दृष्टि से यह घड़ा मिट्टी का है।
ही “तदेजति तन्नेजति" "अणोरणीयान् महतो महीयान" आदि। यहाँ दोनों
तदजात तन्नजात "अणारणायान् महता महायान" उपादान की दृष्टि से यह घड़ा स्वर्ण का नहीं पक्षों की स्वीकृति है।
(३) तीसरा दृष्टिकोण जिसमें तत्त्व को स्वरूपतः अव्यपदेश्य (४) प्रथम भंग-अ उ है (४) जब प्रतिपादित कथन देश या काल या
या अनिर्वचनीय माना गया है, यह दृष्टिकोण भी उपनिषदों में ही द्वितीय भंग-अ उ नहीं है
दोनों के सम्बन्ध में हो तब देश-काल आदि की अपेक्षा को बदलकर प्रथम भंग में प्रति
मिलता है उसे “यतो वाचो निवर्तन्ते", "यद्वाचानभ्युदितं, नैव वाचा न पादित कथन का निषेध कर देना। मनसा प्राप्तुं शक्योः " आदि। बुद्ध के अव्याकृतवाद एवं शून्यवाद की जैसे-२७ नवम्बर की अपेक्षा मैं यहाँ पर हूँ। चतष्टकोटि विनिर्मुक्त तत्त्व की अवधारणा में भी बहुत कुछ इसी २० नवम्बर की अपेक्षा मैं यहाँ पर नहीं था।
दृष्टिकोण का प्रभाव देखा जा सकता है। द्वितीय भंग के उपर्युक्त चारों रूपों में प्रथम और द्वितीय रूप
(४) चौथा दृष्टिकोण जैन न्याय में सापेक्षिक अवक्तव्यता या में बहुत अधिक मौलिक भेद नहीं है। अन्तर इतना ही है कि जहाँ प्रथम
सापेक्षिक अनिर्वचनीयता के रूप में विकसित हुआ है। रूप में एक ही धर्म का प्रथम भंग में विधान और दूसरे भंग में निषेध
सामान्यतया अवक्तव्य के निम्न अर्थ हो सकते हैंहोता है वहाँ दूसरे रूप में दोनों भंगों में अलग-अलग रूप में दो विरुद्ध
(१) सत् व असत् दोनों का निषेध करना। धर्मों का विधान होता है। प्रथम रूप की आवश्यकता तब होती है जब
(२) सत्, असत् और सदसत् तीनों का निषेध करना। वस्तु में एक ही गुण अपेक्षा भेद से कभी उपस्थित रहे और कभी
(३) सत्, असत्, सत्-असत् (उभय) और न सत् न असत् उपस्थित नहीं रहे। इस रूप के लिए वस्तु में दो विरुद्ध धर्मों के युगल
(अनुभय) चारों का निषेध करना। का होना जरूरी नहीं है, जबकि दूसरे रूप का प्रस्तुतीकरण केवल उसी स्थिति में सम्भव होता है, जबकि वस्तु में धर्म विरुद्ध युगल हो। तीसरा
(४) वस्तुतत्त्व को स्वभाव से ही अवक्तव्य मानना, अर्थात्
यह कि वस्तुतत्त्व अनुभव में तो आ सकता है किन्तु कहा नहीं जा रूप तब बनता है, जबकि उस वस्तु में प्रतिपादित धर्म के विरुद्ध धर्म
सकता। की उपस्थिति ही न हो। चतुर्थ रूप की आवश्यकता तब होती है, जब
(५) सत् और असत् दोनों को युगपत् रूप से स्वीकार कि हमारे प्रतिपादन में विधेय.का स्पष्ट रूप से उल्लेख न हो। द्वितीय
करना, किन्तु उसके कथन के लिए कोई शब्द न होने के कारण भंग के पूर्वोक्त रूपों में प्रथम रूप में अपेक्षा बदलती है, धर्म (विधेय)
अवक्तव्य कहना। वही रहता है और क्रिया पद निषेधात्मक होता है। द्वितीय रूप में
(६) वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मात्मक है अर्थात् वस्तुतत्त्व के धर्मों अपेक्षा बदलती है, धर्म (विधेय) के स्थान पर उसका विरुद्ध धर्म
की संख्या अनन्त है किन्तु शब्दों की संख्या सीमित है और इसलिए (विधेय का व्याघातक पद) होता है और क्रियापद विधानात्मक होता है।
उसमें जितने धर्म हैं, उतने वाचक शब्द नहीं है। अत: वाचक शब्दों के तृतीय रूप में अपेक्षा वही रहती है, धर्म (विधेय) के स्थान पर उसका
अभाव के कारण उसे अंशत: वाच्य और अंशत: अवाच्य मानना। विरुद्ध या विपरीत पद रखा जाता है और क्रियापद निषेधात्मक होता
यहाँ यह प्रश्न विचारणीय हो सकता है कि जैन विचार है तथा अन्तिम चतुर्थ रूप में अपेक्षा बदलती है और प्रतिपादित कथन
परम्परा में इस अवक्तव्यता के कौन से अर्थ मान्य रहे हैं। सामान्यता का निषेध कर दिया जाता है।
जैन परम्परा में अवक्तव्यता के प्रथम तीनों निषेधात्मक अर्थ मान्य नहीं • सप्तभंगी का तीसरा मौलिक भंग अवक्तव्य है अत: यह
रहे हैं। उसका मान्य अर्थ यही है कि सत् और असत् दोनों का युगपत् विचारणीय है कि इस भंग की योजना का उद्देश्य क्या है? सामान्यतया ।
विवेचन नहीं किया जा सकता है इसलिए वस्तुतत्त्व अवक्तव्य है; किन्तु यह माना जाता है कि वस्तु में एक ही समय में रहते हुए सत्-असत्,
यदि हम प्राचीन जैन आगमों को देखें तो अवक्तव्यता का यह अर्थ नित्य-अनित्य आदि विरुद्ध धर्मों का युगपत् अर्थात् एक साथ प्रतिपादन
अन्तिम नहीं कहा जा सकता। आचारांगसूत्र में आत्मा के स्वरूप को करने वाला कोई शब्द नहीं है। अत: विरुद्ध धर्मों की एक साथ
जिस रूप में वचनागोचर कहा गया है वह विचारणीय है। वहाँ कहा अभिव्यक्ति की शाब्दिक असमर्थता के कारण अवक्तव्य भंग की योजना
गया है कि 'आत्मा ध्वन्यात्मक किसी भी शब्द की प्रवृत्ति का विषय की गई है, किन्तु अवक्तव्य का यह अर्थ उसका एकमात्र अर्थ नहीं है।
नहीं है। वाणी उसका निर्वचन करने में कथमपि समर्थ नहीं है। वहाँ यदि हम अवक्तव्य शब्द पर ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करते हैं तो
वाणी मूक हो जाती है, तर्क की वहाँ तक पहँच नहीं है, (मति) उसे उसके अर्थ में एक विकास देखा जाता है। डॉ० पद्यराजे ने अवक्तव्य के
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
१६२ ग्रहण करने में असमर्थ है अर्थात् वह वाणी, विचार और बुद्धि का सप्तभंगी और त्रिमूल्यात्मक तर्कशास्त्र: विषय नहीं है। किसी उपमा के द्वारा भी उसे नहीं समझाया जा सकता वर्तमान युग में पाश्चात्य तर्कशास्त्र के विचारकों में ल्यूसाइविकनकी है क्योंकि उसे कोई उपमा नहीं दी जा सकती, वह अनुपम है, अरूपी एक नयी दृष्टि दी है, उसके अनुसार तार्किक निर्णयों में केवल सत्य, सत्तावान् है। उस अपद का कोई पद नहीं है अर्थात् ऐसा कोई शब्द असत्य ऐसे दो मूल्य ही नहीं होते, अपितु सत्य, असत्य और नहीं है जिसके द्वारा उसका निरूपण किया जा सके।"२१ इसे देखते सम्भावित सत्य ऐसे तीन मूल्य होते हैं। इसी संदर्भ में डॉ० एस०एस० हुए यह मानना पड़ेगा कि वस्तुस्वरूप ही कुछ ऐसा है कि उसे वाणी बारलिंगे ने जैन न्याय को त्रिमूल्यात्मक सिद्ध करने का प्रयास जयपुर का माध्यम नहीं बनाया जा सकता है। पुनः वस्तुतत्त्व की अनन्तधर्मात्मकता की एक गोष्ठी में किया था। यद्यपि जहाँ तक जैनन्याय या स्याद्वाद के
और शब्दसंख्या की सीमितता के आधार पर भी वस्तुतत्त्व को अवक्तव्य सिद्धांत का प्रश्न है उसे त्रिमूल्यात्मक माना जा सकता हैं क्योंकि जैन माना गया है। आचार्य नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार में अनभिलाप्य भाव का न्याय में प्रमाण, सुनय और दुर्नय ऐसे तीन क्षेत्र माने गये हैं, इसमें उल्लेख किया है। वे लिखते हैं कि अनुभव में आये अवक्तव्य भावों का प्रमाण सुनिश्चित सत्य, सुनय सम्भावितसत्य और दुर्नय असत्यता के अनन्तवाँ भाग ही कथन किया जाने योग्य है।२२ अत: यह मान लेना परिचायक हैं। पुन: जैन दर्शनिकों ने प्रमाणवाक्य और नयवाक्य ऐसे उचित नहीं है कि जैन परम्परा में अवक्तव्यता का केवल एक ही अर्थ दो प्रकार के वाक्य मानकर प्रमाणवाक्य को सकलादेश (सुनिश्चित मान्य है।
सत्य या पूर्ण सत्य) कहा है। नयवाक्य को न सत्य कहा जा सकता है इस प्रकार जैन दर्शन में अवक्तव्यता के चौथे, पाँचवें और और न असत्य। अत: सत्य और असत्य के मध्य एक तीसरी कोटि छठे अर्थ मान्य रहे हैं। फिर भी हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि सापेक्ष आंशिक सत्य या सम्भावित सत्य मानी जा सकती है। पुनः वस्तुतत्त्व अव्यक्तव्यता और निरपेक्ष अवक्तव्यता में जैन दृष्टि सापेक्ष अवक्तव्य की अनन्तधर्मात्मकता एवं स्याद्वाद सिद्धांत भी सम्भावित सत्यता के को स्वीकार करती है, निरपेक्ष को नहीं। वह यह मानती है कि वस्तुतत्त्व समर्थक हैं क्योंकि वस्तुतत्त्व की अनन्तधर्मात्मकता अन्य सम्भावनाओं पूर्णतया वक्तव्य तो नहीं है किन्तु वह पूर्णतया अवक्तव्य भी नहीं है। को निरस्त नहीं करती है और स्याद्वाद उस कथित सत्यता के अतिरिक्त यदि हम वस्तुतत्त्व को पूर्णतया अवक्तव्य अर्थात् अनिर्वचनीय मान अन्य सम्भावित सत्यताओं को स्वीकार करता है। लेंगे तो फिर भाषा एवं विचारों के आदान-प्रदान का कोई अर्थ ही नहीं इस प्रकार जैन दर्शन की वस्तुतत्त्व की अनन्तधर्मात्मकता रह जायेगा। अत: जैन दृष्टिकोण वस्तुतत्त्व की अनिर्वचनीयता को तथा प्रमाण, नय और दुर्नय की धारणाओं के आधार पर स्याद्वाद स्वीकार करते हुए भी यह मानता है कि सापेक्ष रूप से वह निर्वचनीय सिद्धांत त्रिमूल्यात्मक तर्कशास्त्र (Three valued logic) या बहुमूल्यात्मक भी है। सत्ता अंशत: निर्वचनीय है और अंशत: अनिर्वचनीय। क्योंकि तर्कशास्त्र (Many valuedlogic) का समर्थक माना जा सकता है यही बात उसके सापेक्षवादी दृष्टिकोण और स्याद्वाद सिद्धान्त के अनुकूल किन्तु जहां तक सप्तभंगी का प्रश्न है उसे त्रिमूल्यात्मक नहीं कहा जा है। इस प्रकार पूर्व निर्दिष्ट पाँच अर्थों में से पहले दो को छोड़कर सकता, क्योंकि उसमें नास्तिर नामक भंग एवं अवक्तव्य नामक भंग अन्तिम तीनों को मानने में उसे कोई बाधा नहीं आती है। मेरी दृष्टि में क्रमश: असत्य एवं अनियतता (Indeterminate) के सूचक नहीं हैं। अवक्तव्य भंग का भी एक ही रूप नहीं है, प्रथम तो “है" और "नहीं सप्तभंगी का प्रत्येक भंग सत्य-मूल्य का सूचक है यद्यपि जैन विचारकों है" ऐसे विधि-प्रतिषेध का युगपद् (एक साथ) प्रतिपादन सम्भव नहीं ने प्रमाण-सप्तभंगी और नय-सप्तभंगी के रूप में सप्तभंगी के जो दो है, अत: अवक्तव्य भंग की योजना है। दूसरे निरपेक्ष रूप से वस्तुतत्त्व रूप माने हैं, उसके आधार पर यहाँ कहा जा सकता है कि प्रमाणका कथन सम्भव नहीं है, अतः वस्तुतत्त्व अवक्तव्य है। तीसरे अपेक्षाएँ सप्तभंगी के सभी भंग सुनिश्चित सत्यता और नय सप्तभंगी के सभी अनन्त हो सकती हैं किन्तु अनन्त अपेक्षाओं से युगपद् रूप में भंग सम्भावित या आंशिक सत्यता का प्रतिपादन करते हैं। असत्य का वस्तुतत्त्व का प्रतिपादन संभव नहीं है इसलिए भी उसे अवक्तव्य मानना सूचक तो केवल दुर्नय ही है। अत: सप्तभंगी त्रिमूल्यात्मक नहीं है। होगा। इसके निम्न तीन प्रारूप हैं
किन्तु मेरे शिष्य डॉ भिखारी राम यादव ने अपने प्रस्तुत (१) (अ.अ)यु उ अवक्तव्य है,
शोध निबन्ध में अत्यन्त श्रमपूर्वक सप्तभंगी को सप्तमूल्यात्मक सिद्ध (२) अ. उ अवक्तव्य है,
किया है और अपने पक्ष के समर्थन में समकालीन पाश्चात्य तर्कशास्त्र (३) (अ) उ अवक्तव्य है।
के प्रमाण भी प्रस्तुत किये हैं। आशा है विद्वज्जन उनके इस प्रयास का सप्तभंगी के शेष चारों भंग संयोगिक हैं। विचार की स्पष्ट सम्यक् मूल्यांकन करेंगे। आज मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि मेरे ही अभिव्यक्ति की दृष्टि से इनका महत्त्व तो अवश्य है किन्तु इनका अपना शिष्य ने चिन्तन के क्षेत्र में मुझसे एक कदम आगे रखा है। हम गुरुकोई स्वतन्त्र दृष्टिकोण नहीं है, ये अपने संयोगी मूलभंगों की अपेक्षा शिष्य में कौन सत्य है या असत्य है यह विवाद हो सकता है यह को दृष्टिगत रखते हुए ही वस्तुस्वरूप का स्पष्टीकरण करते हैं। अतः निर्णय तो पाठकों को करना है; किन्तु अनेकान्त शैली में अपेक्षाभेद से इन पर यहाँ विस्तृत विचार अपेक्षित नहीं है।
दोनों भी सत्य हो सकते हैं। वैसे शास्त्रकारों ने कहा है कि शिष्य से पराजय गुरु के लिए परम आनन्द का विषय होता है क्योंकि वह उसके
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स्याद्वाद और सप्तभंगी एक चिन्तन
जीवन की सार्थकता का अवसर है।
स्याद्वाद का लक्ष्य एक समन्वयात्मक दृष्टि का विकास : (अ) दार्शनिक विचारों के समन्वय का आधार स्याद्वाद :
भगवान् महावीर और बुद्ध के समय भारत में वैचारिक संघर्ष और दार्शनिक विवाद अपने चरम सीमा पर था। जैन आगमों के अनुसार उस समय ३६३ और बौद्ध आगमों के अनुसार ६२ दार्शनिक मत प्रचलित थे। वैचारिक आग्रह और मतान्धता के इस युग में एक ऐसे दृष्टिकोण की आवश्यकता थी, जो विवादों से ऊपर उठने के लिए दिशा निर्देश दे सके। भगवान् बुद्ध ने इस आग्रह एवं मतान्धता से ऊपर उठने के लिए विवाद पराङ्मुखता को अपनाया । सुत्तनिपात में वे कहते हैं कि मैं विवाद के दो फल बताता हूँ। एक तो वह अपूर्ण व एकांगी होता है और दूसरे कलह एवं अशान्ति का कारण होता है। अतः निर्वाण को निर्विवाद भूमि समझने वाला साधक विवाद में न पड़े। २३ ने अपने युग में प्रचलित सभी पर विरोधी दार्शनिक बुद्ध दृष्टिकोणों को सदोष बताया और इस प्रकार अपने को किसी भी दार्शनिक मान्यता के साथ नहीं बाँधा। वे कहते हैं पंडित किसी दृष्टि या बाद में नहीं पड़ता। २४ बुद्ध की दृष्टि में दार्शनिक वादविवाद निर्वाण मार्ग के साधक के कार्य नहीं है अनासक्त मुक्त पुरुष के पास विवाद रूपी युद्ध के लिए कोई कारण ही शेष नहीं रह जाता। २५ इसी प्रकार भगवान् महावीर ने भी आग्रह को साधना का सम्यक् पथ नहीं समझा। उन्होंने भी कहा कि आग्रह, मतान्धता या एकांगी दृष्टि उचित नहीं है जो लोग अपने मत की प्रशंसा और दूसरों को निन्दा करने में ही पांडित्य दिखाते हैं, वे संसार चक्र में घूमते रहते हैं। २६ इस प्रकार भगवान् महावीर व बुद्ध दोनों ही उस युग की आग्रह वृत्ति एवं मतान्धता से जन मानस को मुक्त करना चाहते थे फिर भी बुद्ध और महावीर की दृष्टि में थोड़ा अन्तर था जहाँ बुद्ध इन विवादों से बचने की सलाह दे रहे थे, वहीं महावीर इनके समन्वय की एक ऐसी विधायक दृष्टि प्रस्तुत कर रहे थे, जिसका परिणाम स्वाद्वाद है।
स्याद्वाद विविध दार्शनिक एकान्तवादों में समन्वय करने का प्रयास करता है। उसकी दृष्टि में नित्यवाद, द्वैतवाद-अद्वैतवाद, भेदवादअभेदवाद आदि सभी वस्तु स्वरूप के आंशिक पक्षों को स्पष्ट करते हैं। इनमें से कोई भी असत्य तो नहीं है किन्तु पूर्ण सत्य भी नहीं है। यदि इनको कोई असत्य बनाता है तो वह आंशिक सत्य को पूर्ण सत्य मान - लेने का उनका आग्रह ही है। स्याद्वाद अपेक्षा भेद में इन सभी के बीच समन्वय करने का प्रयास करता है और यह बताता है कि सत्य तभी 'असत्य बन जाता है, जबकि हम आग्रही दृष्टि से उसे देखते हैं। यदि हमारी दृष्टि अपने को आग्रह के ऊपर उठाकर देखे तो हमें सत्य का दर्शन हो सकता है। सत्य का सच्चा प्रकाश केवल अनाग्रही को ही मिल सकता है। महावीर के प्रथम शिष्य गौतम का जीवन स्वयं इसका एक प्रत्यक्ष साक्ष्य है। गौतम के केवल ज्ञान में आखिर कौन सा तत्त्व बाधक बन रहा था। महावीर ने स्वयं इसका समाधान करते हुए गौतम
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से कहा था- हे गौतम तेरा मेरे प्रति जो ममत्व है वही तेरे केवलज्ञान (सत्य दर्शन) का बाधक है। महावीर की स्पष्ट घोषणा थी कि सत्य का सम्पूर्ण दर्शन आग्रह के घेरे में रहकर नहीं किया जा सकता। आग्रहबुद्धि या दृष्टिराग सत्य को असत्य बना देता है। सत्य का प्रगटन आग्रह में नहीं, अनाग्रह में होता है, विरोध में नहीं, समन्वय में होता है। सत्य का साधक अनाग्रही और वीतरागी होता है, उपाध्याय यशोविजयजी स्याद्वाद की इसी अनाग्रही एवं समन्वयात्मक दृष्टि को स्पष्ट करते हुए अध्यात्मसार में लिखते हैं
यस्य सर्वत्र समता नयेषु तनयेष्विव, तस्यानेकान्तवादस्य क्व क्य न्यूनाधिकशेमुषी तेन स्वाद्वामालंव्य सर्वदर्शन तुल्यताम् । मोक्षोदेविशेषेण यः पश्यति स शास्त्रवित् ।। माध्यस्थमेव शास्त्रार्थो येन तच्चारु सिद्ध्यति । स एव धर्मवादः स्यादन्यद्बालिश वल्गनम् ।। माध्यस्थसहितं होकपदज्ञानमापि प्रमा । शास्त्रकोटिवृथैवान्या तथा चौक्तं महात्मना ।। - अध्यात्मोपनिषद्, ६१,७०-७२ सच्चा अनेकान्तवादी किसी दर्शन से द्वेष नहीं करता। वह सम्पूर्ण दृष्टिकोण (दर्शनों) को इस प्रकार वात्सल्य दृष्टि से देखता है जैसे कोई पिता अपने पुत्र को, क्योंकि अनेकान्तवादी को न्यूनाधिक बुद्धि नहीं हो सकती। सच्चा शास्त्रज्ञ कहे जाने का अधिकारी तो वही है, जो स्याद्वाद का आलम्बन लेकर सम्पूर्ण दर्शनों में समान भाव रखता है। वास्तव में माध्यस्थभाव ही शास्त्रों का गूढ़ रहस्य है, यही धर्मवाद है। मध्यस्थ भाव रहने पर शास्त्र के एक पद पर ज्ञान भी सफल
है अन्यथा करोड़ों शास्त्रों का ज्ञान भी वृथा है क्योंकि जहाँ आग्रह बुद्धि होती है वहीं विपक्ष में निहित सत्य का दर्शन संभव नहीं होता। वस्तुतः शाश्वतवाद, उच्छेदवाद, नित्यवाद, अनित्यवाद, भेदवाद, अभेदवाद, द्वैतवाद, अद्वैतवाद, हेतुवाद, अहेतुवाद, नियतिवाद पुरुषार्थवाद, आदि जितने भी दार्शनिक मत-मतान्तर हैं, वे सभी परम सत्ता के विभिन्न पहलुओं से लिये गये चित्र हैं और आपेक्षिक रूप से सत्य हैं द्रव्य दृष्टि और पर्याय दृष्टि के आधार पर इन विरोधी सिद्धान्तों में समन्वय किया जा सकता है। अतः एक सच्चा स्याद्वादी किसी भी दर्शन से द्वेष नहीं करता है, वह सभी दर्शनों का आराधक होता है। परमयोगी आनन्दघनजी लिखते है
षट् दरसण जिन अंग भणीजे, न्याय षडंग जो साधे रे । नमि जिनवरना चरण उपासक, घटदर्शन आराधे रे ।। १ ।। जिन सुर पादप पाय बखाणुं, सांख्य जोग दोय भेदे रे । आतम सत्ता विवरण करता, लही दुय अंग अखेदे रे ।। २ ।। भेद अभेद सुगत मीमांसक, जिनवर दोय कर भारी रे। लोकालोक अवलंबन भजिये, गुरुगमथी अवधारी रे ।।३।। लोकायतिक सुख कूख जिनवरकी, अंश विचार जो कीजे ।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
तत्त्व विचार सुधारस धारा, गुरुगम बिण केम पीजे ||४|| जैन जिनेश्वर उत्तम अंग, अंतरंग बहिरंगे रे ।। अक्षर न्यास धरा आराधक, आराधे घरी संगे रे ।।५।।
(ब) राजनैतिक क्षेत्र में स्याद्वाद के सिद्धान्त का उपयोग
अनेकान्त का सिद्धान्त न केवल दार्शनिक अपितु राजनैतिक विवाद भी हल करता है। आज का राजनैतिक जगत् भी वैचारिक संकुलता से परिपूर्ण है। पूंजीवाद, समाजवाद, साम्यवाद, फासीवाद, नाजीवाद आज अनेक राजनैतिक विचारधाराएँ तथा राजतन्त्र, कुलतन्त्र अधिनायक तन्त्र, आदि अनेकानेक शासन प्रणालियां वर्तमान में प्रचलित हैं। मात्र इतना ही नहीं उनमें से प्रत्येक एक दूसरे की समाप्ति के लिए प्रत्यनशील हैं। विश्व के राष्ट्र खेमों में बंटे हुए हैं और प्रत्येक खेमे का अग्रणी राष्ट्र अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने हेतु दूसरे के विनाश में तत्पर है। मुख्य बात यह है कि आज का राजनैतिक संघर्ष आर्थिक हितों का संघर्ष, न होकर वैचारिक संघर्ष है। आज अमेरिका और रूस अपनी वैचारिक प्रभुसत्ता के प्रभाव को बढ़ाने के लिये ही प्रतिस्पर्धा में लगे हुए हैं। एक दूसरे को नाम शेष करने की उनकी यह महत्त्वाकांक्षा कहीं मानव जाति को ही नाम शेष न कर दे।
आज के राजनैतिक जीवन में स्याद्वाद के दो व्यावहारिक फलित वैचारिक सहिष्णुता और समन्वय अत्यन्त उपादेय हैं। मानव जाति ने राजनैतिक जगत् में, राजतन्त्र से प्रजातन्त्र तक की जो लम्बी यात्रा तय की है उसकी सार्थकता स्याद्वाद दृष्टि को अपनाने में ही है। विरोधी पक्ष द्वारा की जाने वाली आलोचना के प्रति सहिष्णु होकर उसके द्वारा अपने दोषों को समझना और उन्हें दूर करने का प्रयास करना, आज के राजनैतिक जीवन की सबसे बड़ी आवश्यकता है। विपक्ष की धारणाओं में भी सत्यता हो सकती है और सबल विरोधी दल की उपस्थिति से हमें अपने दोषों के निराकरण का अच्छा अवसर मिलता है, इस विचार दृष्टि और सहिष्णु भावना में ही प्रजातन्त्र का भविष्य उज्ज्वल रह सकता है। राजनैतिक क्षेत्र में संसदीय प्रजातन्त्र (पार्लियामेन्टरी डेमोक्रेसी) वस्तुतः राजनैतिक स्वाद्वाद है। इस परम्परा में बहुमत दल द्वारा गठित सरकार अल्पमत दल को अपने विचार प्रस्तुत करने का अधिकार मान्य करती है और यथा सम्भव उससे लाभ भी उठाती है। दार्शनिक क्षेत्र में जहाँ भारत स्याद्वाद का सर्जक है, वहीं वह राजनैतिक क्षेत्र में संसदीय प्रजातन्त्र का समर्थक भी है। अतः आज स्याद्वाद सिद्धान्त को व्यावहारिक क्षेत्र में उपयोग करने का दायित्व भारतीय राजनीतिज्ञों पर है इसी प्रकार हमें यह भी समझना है कि राज्य-व्यवस्था का मूल लक्ष्य जनकल्याण है। अतः जन कल्याण को दृष्टि में रखते हुए विभिन्न राजनैतिक विचारधाराओं के मध्य एक सांग संतुलन स्थापित करना है। आवश्यकता सैद्धांतिक विवादों की नहीं अपितु जनहित से संरक्षण एवं मानव की पाशविक वृत्तियों के नियन्त्रण की है।
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(स) अनेकांत धार्मिक सहिष्णुता के क्षेत्र में:
सभी धर्म साधना पद्धतियों का मुख्य लक्ष्य राग, आसक्ति, अहं एवं तृष्णा की समाप्ति रहा है। जैन धर्म की साधना का लक्ष्य वीतरागता है, तो बौद्ध धर्म की साधना लक्ष्य वीततृष्ण होना माना गया है। वहीं वेदान्त में अहं और असक्ति से ऊपर उठना ही मानव का साध्य बताया गया है। लेकिन क्या एकांत या आग्रह वैचारिकराग, वैचारिक आसक्ति, वैचारिक तृष्णा अथवा वैचारिक अहं के ही रूप नहीं हैं और जब तक वे उपस्थित हैं धार्मिक साधना के क्षेत्र में लक्ष्य की सिद्धि कैसे होगी ? जिन साधना पद्धतियों में अहिंसा के आदर्श को स्वीकार किया गया उनके लिए आग्रह या एकान्त वैचारिक हिंसा का प्रतीक भी बन जाता है। एक ओर साधना के वैयक्तिक पहलू की दृष्टि से मताग्रह वैचारिक आसक्ति या राग का ही रूप है तो दूसरी ओर साधना के समाजिक पहलू की दृष्टि से वह वैचारिक हिंसा है। वैचारिक आसक्ति और वैचारिक हिंसा से मुक्ति के लिए धार्मिक क्षेत्र में अनाग्रह और अनेकान्त की साधना अपेक्षित है। वस्तुतः धर्म का आविर्भाव मानव जाति में शांति और सहयोग के विस्तार के लिए हुआ था। धर्म मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने के लिए था लेकिन आज वही धर्म मनुष्यमनुष्य में विभेद की दीवारें खींच रहा है धार्मिक मतान्धता में हिंसा, संघर्ष, छल, छद्म, अन्याय, अत्याचार क्या नहीं हो रहा है? क्या वस्तुतः इसका कारण धर्म हो सकता है? इसका उत्तर निश्चित रूप से 'हाँ' में नहीं दिया जा सकता। यथार्थ में 'धर्म' नहीं किन्तु धर्म का आवरण डाल कर मानव की महत्त्वाकांक्षा, उसका अहंकार ही यह सब करवाता रहा है। यह धर्म नहीं, धर्मका नकाब डाले अधर्म है।
मूल प्रश्न यह है कि क्या धर्म अनेक है या हो सकते हैं? इस प्रश्न का उत्तर अनेकांतिक शैली से यह होगा कि धर्म एक भी है। और अनेक भी। साध्यात्मक धर्म या धर्मों का साध्य एक है जबकि साधनात्मक धर्म अनेक हैं। साध्य रूप में धर्मों की एकता और साधना रूप से अनेकता को ही यथार्थ दृष्टिकोण कहा जा सकता है। सभी धर्मों का साध्य है, समत्य लाभ (समाधि) अर्थात् आन्तरिक तथा बाह्य शान्ति की स्थापना तथा उसके लिए विक्षोभ के जनक राग-द्वेष और अस्मिता (अहंकार) का निराकरणा लेकिन राग-द्वेष और अस्मिता के निराकरण के उपाय क्या हों? यहीं विचार-भेद प्रारम्भ होता है, लेकिन यह विचार-भेद विरोध का आधार नहीं बन सकता। एक ही साध्य की ओर उन्मुख होने से वे परस्पर विरोधी नहीं कहे जा सकते। एक ही केन्द्र से योजित होने वाली परिधि से खिंची विभिन्न रेखाओं में पारस्परिक विरोध प्रतीत अवश्य होता है किन्तु वह यथार्थ में होता नहीं है क्योंकि केन्द्र से संयुक्त प्रत्येक रेखा में एक दूसरे को काटने की क्षमता नहीं होती है किन्तु जैसे ही वह केन्द्र का परित्याग करती है वह दूसरी रेखाओं को अवश्य ही काटती है साध्य एकता में ही साधना रूप धर्मों की अनेकता स्थित है। यदि धर्मों का साध्य एक है तो उनमें विरोध कैसा? अनेकान्त, धर्मों की साध्यपरक मूलभूत एकता और साधना परक अनेकता को इंगित करता है।
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स्याद्वाद और सप्तभंगी : एक चिन्तन
१६५ विश्व के विभिन्न धर्माचार्यों ने अपने युग की तात्कालिक करने का प्रयास हो सकता है। लेकिन इनके लिए प्राथमिक आवश्यकता परिस्थितियों से प्रभावित होकर अपने सिद्धान्तों एवं साधनों के बाह्य है धार्मिक सहिष्णुता और सर्व धर्म समभाव की। नियमों का प्रतिपादन किया। देशकालगत परिस्थितियों और साधक की अनेकांत के समर्थक जैनाचार्यों ने इसी धार्मिक सहिष्णुता का साधना की क्षमता की विभिन्नता के कारण धर्म साधना के बाह्य रूपों परिचय दिया है। आचार्य हरिभद्र की धार्मिक सहिष्णुता तो सर्व विदित में विभिन्नताओं का आ जाना स्वाभाविक ही था और ऐसा हुआ भी। ही है। अपने ग्रन्थ शास्त्रवार्तासमुच्चय में उन्होंने बुद्ध के अनात्मवाद, किन्तु मनुष्य को अपने धर्माचार्य के प्रति ममता (रागात्मकता) और न्याय दर्शन के ईश्वर कर्तृत्ववाद और वेदान्त के सर्वात्मवाद (ब्रह्मवाद) उसके अपने मन में व्याप्त आग्रह और अहंकार ने अपने-अपने धर्म या में भी संगति दिखाने का प्रयास किया। अपने ग्रन्थ लोकतत्त्व संग्रह में साधना पद्धति को ही एक मात्र एवं अन्तिम सत्य मानने को बाध्य आचार्य हरिभद्र लिखते हैं:किया। फलस्वरूप विभिन्न धर्मिक सम्प्रदायों और उनके बीच साम्प्रदायिक
पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु। वैमनस्य का प्रारम्भ हुआ। मुनिश्री नेमीचन्द्रजी ने धर्म सम्प्रदायों के युक्तिमद्वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः।। उद्भव की एक सजीव व्याख्या प्रस्तुत की है, वे लिखते हैं कि 'मनुष्य मुझे न तो महावीर के प्रति पक्षपात है और न कपिलादि स्वभाव बड़ा विचित्र है उसके अहं को जरा सी चोट लगते ही वह मुनिगणों के प्रति द्वेष है। जो भी वचन तर्कसंगत हो उसे ग्रहण करना अपना अखाड़ा अलग बनाने को तैयार हो सकता है। यद्यपि वैयक्तिक चाहिए। अहं धर्म-सम्प्रदायों के निर्माण का एक कारण अवश्य है लेकिन वही इसी प्रकार आचार्य हेमचन्द्र ने शिव-प्रतिमा को प्रणाम करते एक मात्र कारण नहीं है। बौद्धिक भिन्नता और देशकालगत तथ्य भी समय सर्व देव समभाव का परिचय देते हुा कहा था:इसके कारण रहे हैं और इसके अतिरिक्त पूर्व प्रचलित परम्पराओं में भववीजांकुरजनना, रागाद्या क्षयमुपागता यस्य । आयी हुई विकृतियों के संशोधन के लिए भी सम्प्रदाय बने। उनके ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो, जिनो वा नमस्तस्मै ।। अनुसार सम्प्रदाय बनने के निम्न कारण हो सकते हैं:
संसार परिभ्रमण के कारण रागादि जिसके क्षय हो चुके हैं (१) ईर्ष्या के कारण (२) किसी व्यक्ति की प्रसिद्धि की उसे, मैं प्रणाम करता हूँ चाहे वे ब्रह्मा हों, विष्णु हों, शिव हों या लिप्सा के कारण (३) किसी वैचारिक मतभेद (मताग्रह) के कारण (४) जिन हों। किसी आचार संबंधी नियमोपनियम में भेद के कारण (५) किसी व्यक्ति या पूर्व सम्प्रदाय द्वारा अपमान या खींचतान होने के कारण (६) किसी (द) पारिवारिक जीवन में स्याद्वाद दृष्टि का उपयोग : विशेष सत्य को प्राप्त करने की दृष्टि से (७) किसी साम्प्रदायिक कौटुम्बिक क्षेत्र में इस पद्धति का उपयोग परस्पर कुटुम्बों में परम्परा या क्रिया में द्रव्य, क्षेत्र एवं काल के अनुसार संशोधन या और कुटुम्ब के सदस्यों में संघर्ष को टालकर शान्तिपूर्ण वातावरण का परिवर्तन करने की दृष्टि से। उपर्युक्त कारणों में अंतिम दो को छोड़कर निर्माण करेगा। सामान्यतया पारिवारिक जीवन में संघर्ष के दो केन्द्र शेष सभी कारणों से उत्पन्न सम्पद्राय आग्रह, धार्मिक असहिष्णुता और होते हैं- पिता-पुत्र तथा सास-बहू। इन दोनों विवादों में मूल कारण साम्प्रदायिक विद्वेष को जन्म देते हैं।
दोनों का दृष्टिभेद है। पिता जिस परिवेश में बड़ा हुआ, उन्हीं संस्कारों विश्व इतिहास का अध्येता इसे भलीभांति जानता है कि के आधार पर पुत्र का जीवन ढालना चाहता है। जिस मान्यता को स्वयं धार्मिक असहिष्णुता ने विश्व में जघन्य दुष्कृत्य कराये। आश्चर्य तो यह मानकर बैठा है, उन्हीं मान्यताओं को दूसरे से मनवाना चाहता है। पिता है कि इस दमन, अत्याचार, नृशंसता और रक्त प्लावन को धर्म का की दृष्टि अनुभव प्रधान होती है, जबकि पुत्र की दृष्टि तर्कप्रधान। एक बाना पहनाया गया। शान्ति प्रदाता धर्म ही अशांति का कारण बना। प्राचीन संस्कारों से ग्रसित होता है तो दूसरा उन्हें समाप्त कर देना आज के वैज्ञानिक युग में धार्मिक अनास्था का मुख्य कारण उपर्युक्त भी चाहता है। है। यद्यपि विभिन्न मतों, पंथों और वादों में बाह्य भिन्नता परिलक्षित यही स्थिति सास-बहू में होती है। सास यह अपेक्षा करती है होती है किन्तु यदि हमारी दृष्टि व्यापक और अनाग्रही हो तो उसमें भी कि बहू ऐसा जीवन जिये जैसा उसने स्वयं बहू के रूप में किया था, एकता और समन्वय के सूत्र परिलक्षित हो सकते हैं।
जब कि बहू अपने युग के अनुरूप और अपने मातृ पक्ष के संस्कारों से अनेकांत विचार-दृष्टि विभिन्न धर्म सम्प्रदायों की समाप्ति प्रभावित जीवन जीना चाहती है। मात्र इतना ही नहीं, उसकी अपेक्षा यह द्वारा एकता का प्रयास नहीं करती है क्योंकि वैयक्तिक रुचि भेद एवं भी होती है कि वह उतना ही स्वतन्त्र जीवन जिये, जैसा वह अपने क्षमता भेद तथा देश काल गत भिन्नताओं के होते हुए विभिन्न धर्म एवं माता-पिता के पास जीती थी। इसके विपरीत स्वसुर पक्ष उससे एक विचार- सम्प्रदायों की उपस्थिति अपरिहार्य है। एक धर्म या एक अनुशासित जीवन की अपेक्षा करता है। यही सब विवाद के कारण सम्प्रदाय का नारा असंगत एवं अव्यावहारिक नहीं अपितु अशांति और बनते हैं। इसमें जब तक सहिष्णु दृष्टि और दूसरे की स्थिति को समझने संघर्ष का कारण भी है। अनेकांत विभिन्न धर्म सम्प्रदायों की समाप्ति का का प्रयास नहीं किया जाता, तब तक संघर्ष समाप्त नहीं हो सकता। प्रयास न होकर उन्हें एक व्यापक पूर्णता में सुसंगत रूप से संयोजित वस्तुत: इसके मूल में जो दृष्टिभेद है, उसे अनेकान्त पद्धति से सम्यक्
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प्रकार जाना जा सकता है।
वास्तविकता यह है कि हम जब दूसरे के सम्बन्ध में कोई विचार करें, कोई निर्णय लें तो हमें स्वयं अपने को उस स्थिति में खड़ा कर सोचना चाहिए। दूसरे की भूमिका में स्वयं को खड़ा करके ही उसे सम्यक् प्रकार से जाना जा सकता है। पिता-पुत्र से जिस बात की अपेक्षा करता है, उसके पहले अपने को पुत्र की भूमिका में खड़ा कर विचार कर ले। अधिकारी कर्मचारी से किस ढंग से काम लेना चाहता है, उसके पहले स्वयं को उस स्थिति में खड़ा करे, फिर निर्णय ले यही एक ऐसी दृष्टि है, जिसके अभाव में लोक व्यवहार असम्भव है और जिस आधार पर अनेकान्तवाद जगद्गुरु होने का दावा करता है। कहा है
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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
जेण विणा वि लोगस्स वबहारो सव्वहा न निव्वडई । तस्स भुवणेक्कगुरुणो णमो अणेगंतवायस्स ।। इस प्रकार हम देखते हैं कि अनेकांत एवं स्याद्वाद के सिद्धान्त दार्शनिक धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक एवं पारिवारिक जीवन के विरोधों के समन्वय की एक ऐसी विधायक दृष्टि प्रस्तुत करते हैं जिससे मानव जाति को संघयों के निराकरण में सहायता मिल सकती है। संक्षेप में अनेकान्त विचार पद्धति के व्यावहारिक क्षेत्र में तीन प्रमुख योगदान हैं
बौद्ध आचार दर्शन में वैचारिक अनाग्रह:
बौद्ध आचारदर्शन में मध्यम मार्ग की धारणा अनेकान्तवाद की विचारसरणी का ही एक रूप है। इसी मध्यम मार्ग के वैचारिक क्षेत्र में अनाग्रह की धारणा का विकास हुआ है। बौद्ध विचारकों ने भी सत्य को अनेक पहलुओं से युक्त देखा और यह माना कि सत्य को अनेक पहलुओं के साथ देखना ही विद्वता है थेरगाथा में कहा गया है कि जो सत्य का एक ही पहलू देखता है, वह मूर्ख है । २७ पण्डित तो सत्य को सौ ( अनेक पहलुओं से देखता है। वैचारिक आग्रह और विवाद का जन्म एकांगी दृष्टिकोण से होता है, एकांगदर्शी ही आपस में झगड़ते हैं और विवाद में उलझते हैं । २८
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(१) विवाद परामुखता या वैचारिक संघर्ष का निराकरण (२) वैचारिक सहिष्णुता या वैचारिक अनाग्रह (विपक्ष में निहित सत्य का दर्शन ) ।
(३) वैचारिक समन्वय और एक उदार एवं व्यापक दृष्टि का अनुपयुक्त समझते हैं। उनकी दृष्टि में यह पक्षाग्रह या वाद-विवाद
निर्माण।
निर्वाण मार्ग के पथिक का कार्य नहीं है। यह तो मल्लविद्या हैराजभोजन से पुष्ट पहलवान के पास भेजना चाहिए, क्योंकि मुक्त पुरुषों के पास विवादरूपी बुद्ध के लिए कोई कारण ही शेष नहीं रहा। जो किसी दृष्टि को ग्रहण कर विवाद करते हैं और अपने मत को सत्य बताते हैं उनसे कहना चाहिए कि विवाद उत्पन्न होने पर तुम्हारे साथ बहस करने को यहाँ कोई नहीं है । ३१ इस प्रकार हम देखते हैं कि बुद्ध ने भी महावीर के समान ही दृष्टि राग को अनुपयुक्त माना है और बताया कि सत्य का सम्पूर्ण प्रकटन वहीं होता है, जहाँ सारी दृष्टियों शून्य हो जाती हैं यह भी एक विचित्र संयोग है कि महावीर के अन्तेवासी इन्द्रभूति के समान ही बुद्ध के अन्तेवासी आनन्द को भी बुद्ध के जीवन काल में अर्हत् पद प्राप्त नहीं हो सका। सम्भवतः यहाँ भी यही मानना होगा कि शास्ता के प्रति आनन्द का जो दृष्टिराग था, वही उसके अर्हत् होने में बाधा था। इस सम्बन्ध में दोनों धर्मों के निष्कर्ष समान प्रतीत होते है।
बौद्ध विचारधारा के अनुसार आग्रह, पक्ष या एकांगीदृष्टि राग में रत होता है। वह जगत् में कलह और विवाद का सृजन करता है और स्वयं भी आसक्ति के कारण बन्धन में पड़ा रहता है। इसके विपरीत जो मनुष्य दृष्टि, पक्ष या आग्रह से ऊपर उठ जाता है, वह न तो विवाद में पड़ता है और न बन्धन में। बुद्ध के निम्न शब्द बड़े मर्मस्पर्शी हैं, जो अपनी दृष्टि से दृढ़ाग्रही हो दूसरे को मूर्ख और अशुद्ध बतानेवाला होता है वह स्वयं कलह का आह्वान करता है
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किसी धारणा पर स्थित हो, उसके द्वारा वह संसार में विवाद उत्पन्न करता है, जो सभी धारणाओं को त्याग देता है, वह मनुष्य संसार में कलह नहीं करता । २९
मैं विवाद के फल बताता हूँ। एक, यह अपूर्ण या एकांगी होता है; दूसरे, वह विग्रह या अशान्ति का कारण होता है। निर्वाण को निर्विवाद भूमि समझने वाले यह भी देखकर विवाद न करें। साधारण मनुष्यों की जो कुछ दृष्टियाँ हैं, पण्डित इन सब में नहीं पड़ता । दृष्टि और श्रुति को ग्रहण न करने वाला, आसक्तिरहित वह क्या ग्रहण करें। (लोग) अपने धर्म को परिपूर्ण बताते हैं और दूसरे के धर्म को हीन बताते हैं। इस प्रकार भिन्न मत वाले ही विवाद करते हैं और अपनी धारणा को सत्य बताते हैं। यदि कोई दूसरे की अवज्ञा (निन्दा) करके हीन हो जाय तो धर्मों में श्रेष्ठ नहीं होता। जो किसी वाद में आसक्त है, वह शुद्धि को प्राप्त नहीं होता, क्योंकि वह किसी दृष्टि को मानता है । विवेकी ब्राह्मण तृष्णा दृष्टि में नहीं पड़ता। वह तृष्णा दृष्टि का अनुसरण नहीं करता। मुनि इस संसार में ग्रन्थियों को छोड़कर वादियों में पक्षपाती नहीं होता। अशान्तों में शान्त वह जिसे अन्य लोग ग्रहण करते हैं उसकी अपेक्षा करता है। बाद में अनासक्त दृष्टियों से पूर्ण रूप से मुक्त वह धीर संसार में लिप्त नहीं होता। जो कुछ दृष्टि, श्रुति या विचार है, उन सब पर वह विजयी है। पूर्ण रूप से मुक्त, मार- त्यक्त वह संस्कार, उपरति तथा तृष्णा रहित है। ३०
इतना ही नहीं, बुद्ध सदाचरण और आध्यात्मिक विकास के क्षेत्र में इस प्रकार के वाद-विवाद या वाग्विलास या आग्रह वृत्ति को
गीता में अनाग्रह :
वैदिक परम्परा में भी अनाग्रह का समुचित महत्त्व और स्थान है। गीता के अनुसार आग्रह की वृत्ति आसुरी वृत्ति है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि आसुरी स्वभाव के लोग दम्भ, मान और मद से युक्त होकर किसी
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स्याद्वाद और सप्तभंगी : एक चिन्तन
१६७ प्रकार भी पूर्ण न होने वाली कामनाओं का आश्रय ले अज्ञान से मिथ्या आज प्रत्येक राष्ट्र का एवं विश्व का वातावरण तनावपूर्ण एवं विक्षुब्ध है। सिद्धान्तों को ग्रहण करके भ्रष्ट आचरणों से युक्त हो संसार में प्रवृत्ति एक ओर प्रत्येक राष्ट्र की राजनैतिक पार्टियाँ या धार्मिक सम्प्रदाय करते रहते हैं।३२ इतना ही नहीं, आग्रह का प्रत्यय तप, ज्ञान और उसके आन्तरिक वातावरण को विक्षुब्ध एवं जनता के पारस्परिक धारणा सभी को विकृत कर देता है। गीता में आग्रहयुक्त तप को और सम्बन्धों को तनावपूर्ण बनाये हुये हैं तो दूसरी ओर राष्ट्र स्वयं भी अपने आग्रहयुक्त धारणा को तामस कहा है।३३ आचार्य शंकर तो जैन परम्परा को किसी एक निष्ठा से सम्बन्धित कर गुट बना रहे हैं और इस प्रकार के समान वैचारिक आग्रह को मुक्ति में बाधक मानते हैं। विवेकचूड़ामणि विश्व के वातावरण को तनावपूर्ण एवं विक्षुब्ध बना रहे हैं। मात्र इतना में वे कहते हैं कि विद्वानों की वाणी की कुशलता, शब्दों की धारावाहिता, ही नहीं यह वैचारिक असहिष्णुता, सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन शास्त्र-व्याख्यान की पटुता और विद्वत्ता यह सब राग का ही कारण हो को विषाक्त बना रही है। पुरानी और नई पीढ़ी के वैचारिक विरोध के सकते हैं, मोक्ष का नहीं।३४ शब्दजाल चित्त को भटकाने वाला एक कारण आज समाज और पारिवार का वातावरण भी अशान्त और महान् वन है। वह चित्तभ्रान्ति का ही कारण है।३५ आचार्य विभिन्न मत- कलहपूर्ण हो रहा है। वैचारिक आग्रह और मतान्धता के इस युग में एक मतान्तरों से युक्त शास्त्राध्ययन को भी निरर्थक मानते हैं। वे कहते हैं कि ऐसे दृष्टिकोण की आवश्यकता है जो लोगों को आग्रह और मतान्धता यदि परमतत्त्व का अनुभव नहीं किया तो शास्त्राध्ययन निष्फल है और से ऊपर उठने के लिए दिशा-निर्देश दे सके। भगवान बुद्ध और यदि परमत्त्व का ज्ञान हो गया तो शास्त्राध्ययन अनावश्यक है।३६ इस भगवान् महावीर दो ऐसे महापुरुष हुए हैं जिन्होंने इस वैचारिक असहिष्णुता प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य शंकर की दृष्टि में वैचारिक आग्रह या की विध्वंसकारी शक्ति को समझा था और उससे बचने का निर्देश दिया दार्शनिक मान्यताएँ आध्यात्मिक साधना की दृष्टि से अधिक मूल्य नहीं था। वर्तमान में भी धार्मिक, राजनैतिक और सामाजिक जीवन में जो रखती। वैदिक नीति-वेत्ता शुक्राचार्य आग्रह को अनुचित और मूर्खता वैचारिक संघर्ष और तनाव उपस्थित हैं उनका सम्यक् समाधान इन्हीं का कारण मानते हुए कहते हैं कि अत्यन्त आग्रह नहीं करना चाहिए महापुरुषों की विचारसरणी द्वारा खोजा जा सकता है। आज हमें विचार क्योंकि अति सब जगह नाश का कारण है। अत्यन्त दान से दरिद्रता, करना होगा कि बुद्ध और महावीर की अनाग्रह दृष्टि द्वारा किस प्रकार अत्यन्त लोभ से तिरस्कार और अत्यन्त आग्रह से मनुष्य की मूर्खता धार्मिक, राजनैतिक और सामाजिक सहिष्णुता को विकसित किया जा परिलक्षित होती है।३७ वर्तमान युग में महात्मा गाँधी ने भी वैचारिक सकता है। आग्रह को अनैतिक माना और सर्वधर्म समभाव के रूप में वैचारिक अनाग्रह पर जोर दिया। वस्तुतः आग्रह सत्य का होना चाहिए, विचारों संदर्भ:का नहीं। सत्य का आग्रह तभी तो हो सकता है जब हम अपने वैचारिक १. वाक्येष्वनेकांतद्योती गम्यं प्रति विशेषणम्। आग्रहों से ऊपर उठे। महात्माजी ने सत्य के आग्रह को तो स्वीकार स्यान्निपातोऽर्थयोगित्वात्तव केवलिनामपि।। किया, लेकिन वैचारिक आग्रहों को कभी स्वीकार नहीं किया। उनका -आप्तमीमांसा, कारिका १०३ सर्वधर्म समभाव का सिद्धान्त इसका ज्वलन्त प्रमाण है। इस प्रकार हम २. सर्वथात्वनिषेधकोनैकांतता द्योतकः कथंचिदर्थे स्याच्छब्दो निपातः। देखते हैं कि जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों की परम्पराओं में अनाग्रह -पंचास्तिकाय, गाथा १४ की अमृतचन्द्रकृत टीका को समाजिक जीवन की दृष्टि से सदैव महत्त्व दिया जाता रहा है, ३. स्यादित्यव्ययमनेकांतद्योतकं। क्योंकि वैचारिक संघर्षों से समाज को बचाने का एक मात्र मार्ग अनाग्रह -स्याद्वादमंजरी
कीदृशं वस्तु? नाना धर्मयुक्तं विविधस्वभावैः सहितं, कथंचित्
अस्तित्वनास्तित्वैकत्वानेकत्वनित्यत्वानित्यत्व-भिन्नत्व प्रमुखेराविष्टम् वैचारिक सहिष्णुता का आधार-अनाग्रह (अनेकान्त दृष्टि) :
-स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा-टीका शुभचन्द्र; २५३ जिस प्रकार भगवान् महावीर और भगवान् बुद्ध के काल में ५. उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्-तत्त्वार्थसूत्र ५-२९ वैचारिक संघर्ष उपस्थित थे और प्रत्येक मतवादी अपने को सम्यकदृष्टि गोयमा! जीवा सिय सासया सिय असासया-दव्वट्ठयाए
और दूसरे को मिथ्यादृष्टि कह रहा था, उसी प्रकार वर्तमान युग में भी सासया भावट्ठयाए असासया-भगवती सूत्र ७-३-२७३। वैचारिक संघर्ष अपनी चरम सीमा पर है। सिद्धान्तों के नाम पर मनुष्य- भगवतीसूत्र-१.८-१०॥ मनुष्य के बीच भेद की दीवारें खींची जा रही हैं। कहीं धर्म के नाम पर ८. धवला खण्ड १, भाग १, सूत्र ११, पृ० ११, पृ० १६७एक दूसरे के विरुद्ध विषवमन किया जा रहा है। धार्मिक या राजनैतिक उद्धृत तीर्थंकर महावीर- डॉ० भारिल्ल साम्प्रदायिकता जनता के मानस को उन्मादी बना रही है। प्रत्येक ९. यदेव तत् तदेव अतत् यदेवैकं तदेवानेकं, यदेव सत् तदेवासत, धर्मवाद या राजनैतिक वाद अपनी सत्यता का दावा कर रहा है और यदेव नित्यं तदेवानित्य-समयसार टीका (अमृतचन्द्र) परिशिष्ट दूसरे को भ्रान्त बता रहा है। इस धार्मिक एवं राजनैतिक उन्माद एवं १०. आदीपमाव्योमसमस्वभावं स्याद्वादमुद्रा नतिभेदि वस्तु असहिष्णुता के कारण मानव-मानव के रक्त का प्यासा बना हुआ है। -अन्ययोगव्यवच्छेदिका ५।
६.
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
१६८ ११. न विवेचयितुं शक्यं विनाऽपेक्षां हि मिश्रितम्।-अभिधानराजेन्द्र अपयस्स पयं नत्थि। आचारांग १-५-१७१ कोश, खण्ड ४, पृ० १८५३
२२. पण्णवणिज्जा भावा अणंतभांगो दु अणभिलप्पानं। 87. "We can only know the relative truth, the real truth पण्णवणिज्जाणं पुण अणंतभागो सुदनिबद्धो।। गोम्मटसार, जीव is known only to the universal Observer."
काण्ड ३३४। Quoted in Cosmology Old and New, P.XIII. २३. सुत्तनिपात ५१-२१. १३. स्यात्कार: सत्यलाञ्छनः।
२४. सुत्तनिपात ५१-३. १४. तत: स्याद्वाद अनेकांतवाद-स्याद्वादमंजरी।
२५. सुत्तनिपात्त ४६-८-९. १५. भिक्खू विभज्जवायं च वियागरेज्जा-सूत्रकृतांग-१/१/४/२२। २६. सयं सयं पसंसंता गरहन्ता परं वयं। १६. मज्झिमनिकाय-सूत्र ९९ (उद्धृत, आगमयुग का जैन दर्शन, पृ० जे उ तत्थ विउस्सयन्ति संसारेते विउस्सिया- सूत्रकृतांग १ ५३)।
२-२३॥ १७. भगवतीसूत्र १२-२-४४३।
२७. थेरगाथा, १/१०६ १८. देखिए-शून्यवाद और स्याद्वाद नामक लेख-पं० दलसुखभाई २८. उदान, ६/४ मालवणिया।
२९. सुत्तनिपात, ४०/१६-१७ -आचार्य आनन्द ऋषिजी अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० २६५।
३०. सुत्तनिपात, ५१/२, ३, १०, ११, १६-२०. १९. (अ) सप्तभिः प्रकारैर्वचनविन्यासः सप्तभंगीतिगीयते। ३१. वही, ४६/८-९. -स्याद्वादमंजरी कारिका २३ की टीका।
३२. गीता, १६-१०. (ब) प्रश्नवशादेकस्मिन् वस्तुनि अविरोधेन विधिप्रतिषेधविकल्पना ३३. वही, १७.१९, १८/३५. सप्तभंगी। -राजवार्तिक १-६-५।
३४. विवेकचूड़ामणि, ६० २०. देखें-जैन दर्शन-डॉ० मोहनलाल मेहता, पृ० ३००-३०७। ३५. वही, ६२ सव्वे सरा नियटृति, तक्का जत्थ न विज्जइ
३६. वही, ६१ मई तत्थ न गहिया......उवमा न विज्जइ
३७. शुक्रनीति, ३/२११-२१३.
प्रमाण-लक्षण-निरूपण में प्रमाणमीमांसा का अवदान
जैन न्याय का विकास :
समन्वयात्मक सिद्धान्त बन सके। पं० सुखलालजी के अनुसार जैन न्याय एवं प्रमाण-चर्चा के क्षेत्र में सामान्य रूप से जैन ज्ञान-मीमांसा ने मुख्यत: तीन युगों में अपने क्रमिक विकास को पूर्ण दार्शनिकों का और विशेष रूप से आचार्य हेमचन्द्र के ग्रन्थ प्रमाणमीमांसा किया है -- १. आगम युग, २. अ का क्या अवदान है, यह जानने के लिये जैन न्याय के विकासक्रम को न्याय प्रमाण स्थापन युग। यहाँ हम इन युगों की विशिष्टताओं की चर्चा जानना आवश्यक है। यद्यपि जैनों का पंचज्ञान का सिद्धान्त पर्याप्त न करते हुए केवल इतना कहना चाहेंगे कि जैनों ने अपने अनेकान्त प्राचीन है और जैन विद्या के कुछ विद्वान उसे पार्श्व के युग तक ले सिद्धान्त को स्थिर करके फिर प्रमाण विचार के क्षेत्र में कदम रखा। जाते हैं, किन्तु जहाँ तक प्रमाण-विचार का क्षेत्र है, उसमें जैनों का उनके इस परवर्ती प्रवेश का एक लाभ तो यह हुआ कि पक्ष और प्रवेश नैयायिकों, मीमांसकों और बौद्धों के पश्चात् ही हुआ है। प्रमाण- प्रतिपक्ष का अध्ययन कर वे उन दोनों की कमियों और तार्किक चर्चा के प्रसंग में जैनों का प्रवेश चाहे परवर्ती हो, किन्तु इस कारण वे असंगतियों को समझ सके तथा दूसरे पूर्व-विकसित उनकी अनेकान्त इस क्षेत्र में जो विशिष्ट अवदान दे सके है, वह हमारे लिये गौरव की दृष्टि का लाभ यह हुआ कि वे उन दोनों के मध्य समन्वय स्थापित कर वस्तु है।
सके। उन्होंने पक्ष और प्रतिपक्ष के बीच समन्वय स्थापित करने का जो इस क्षेत्र में परवर्ती होने का लाभ यह हुआ कि जैनों ने पक्ष प्रयास किया, उसी में उनका सिद्धान्त स्थिर हो गया और यही उनका और प्रतिपक्ष के सिद्धान्तों के गुण-दोषों का सम्यक् मूल्यांकन करके इस क्षेत्र में विशिष्ट अवदान कहलाया। इस क्षेत्र में उनकी भूमिका सदैव फिर अपने मन्तव्य को इस रूप में प्रस्तुत किया कि वह पक्ष और एक तटस्थ न्यायाधीश की रही। उन्होंने अपने पूर्ववर्ती सिद्धान्तों की प्रतिपक्ष की तार्किक कमियों का परिमार्जन करते हुए एक व्यापक और समीक्षा के माध्यम से सदैव अपने को समृद्ध किया और जहाँ आवश्यक
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जैन दर्शन के 'तर्क प्रमाण' का आधुनिक सन्दर्भों में मूल्यांकन
यह कि इनकी विचार की विषय वस्तु भिन्न-भिन्न हैं दूसरे यह कि ईहा, प्राक्कल्पना और तर्क का प्रतीकात्मक स्वरूप भी एक नहीं है । सम्भवतः न्याय दार्शनिक इसी भ्रान्ति के कारण तर्क को सीधे-सीधे व्याप्ति ग्राहक नहीं मानकर मात्र सहयोगी मानते रहें। यदि 'तर्क' का भी वास्तविक रूप सम्भावनामूलक ही है तो निश्चय ही न्याय दार्शनिकों की यह धारणा सत्य होगी कि इस पद्धति से व्याप्ति ग्रहण नहीं हो सकता हैं प्रथम तो यह कि सम्भावित विकल्पों का निरसन करते हुए हमारे पास जो अवशिष्ट विकल्प रह जायेगा वह भी सम्भावित ही होगा निर्णायक नहीं। दूसरे यह कि सम्भावित विकल्पों के निरसन की इस पद्धति के द्वारा अविनाभाव या व्याप्ति ग्रहण कभी भी सम्भव नहीं है। क्योंकि इस बात की क्या गारण्टी है कि सभी सम्भावित विकल्पों को जान लिया गया है और उस तथ्य की व्याख्या के सम्बन्ध में जितने भी विकल्प हो सकते हैं उनमें एक को छोड़कर शेष सभी निरस्त हो गये। जब तक हम इस सम्बन्ध में आश्वस्त नहीं हो जाते (जो कि सम्भव नहीं है) व्याप्ति या अविनाभाव को नहीं जान सकते। तीसरे यदि यह विधि ऐन्द्रिक अनुभव पर आधारित है, तो केवल जो कारण नहीं है उनके निरसन में ही सहायक हो सकती है, व्याप्ति ग्राहक नहीं। जैन दार्शनिकों का यह मानना कि चाहे ईहात्मक ज्ञान प्रामाणिक हो, किन्तु उससे व्याप्ति ग्रहण नहीं होता, उचित ही है। पाश्चात्य तार्किकों के द्वारा कारण सम्बन्ध की खोज में प्राक्कल्पना की सुझावात्मक भूमिका मानना भी सही है और यदि तर्क का यही स्वरूप होता तो नैयायिकों का यह मानना भी सही होता कि तर्क व्याप्ति ग्रहण में मात्र सहयोगी हैं, किन्तु मेरी दृष्टि में तर्क का वास्तविक स्वरूप ऐसा नहीं है, जैसा कि वात्स्यायन एवं जयन्त आदि टीकाकारों ने मान लिया है। स्वयं डा० बारलिंगे ने भी तर्क स्वरूप के सम्बन्ध में उनके इस दृष्टिकोण को समुचित नहीं माना है वे लिखते हैं- It appears to me that this particular function of Tarka has been overlooked by com mentators of Nyaya sutra and by many other Logicians (A modern Introduction to Indian Logic P. 123 ) सर्वप्रथम तो हमें यह जान लेना चाहिए कि तर्क का विषय वस्तु के गुणों का ज्ञान या विधेय ज्ञान नहीं हैं अपितु कार्यकारण सम्बन्ध, अविनाभाव सम्बन्ध या आपादान सम्बन्ध का ज्ञान है। 'यह पुरुष हो सकता' इस प्रकार के ज्ञान का तर्क से कोई लेना-देना नहीं है। यह प्रत्यक्षात्मक ज्ञान हैं। इस समस्त भ्रान्ति के पीछे न्याय सूत्र में दी गई तर्क की परिभाषा की गलत व्याख्या हैं न्याय सूत्र में तर्क की निम्न परिभाषा दी गई हैअविज्ञातत्त्वे अर्थ कारणोपपतितः तत्वज्ञानार्थम् कहा तर्कः न्यायसूत्र १/१/४०
वस्तुतः यहाँ तर्क का तात्पर्य मात्र अविज्ञात वस्तु के यथार्थ स्वरूप के ज्ञान के लिए की गई कहा (बौद्धिक कल्पना) से नहीं है। अपितु इसमें महत्त्वपूर्ण शब्द है- 'कारणोपपत्तितः' वह कारण सम्बन्ध की युक्ति द्वारा होने वाला तत्त्वज्ञान है या दो तथ्यों के बीच कार्य-कारण सम्बन्ध का ज्ञान है। जब तर्क कार्य कारण सम्बन्ध सूचित करता है तो
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फिर तर्क सम्भावना मूलक एवं अनिश्चित ज्ञान है यह कहने का क्या आधार है? उपपत्तित: शब्द सिद्ध होने (To be provod) का सूचक है और जब कार्य कारण भाव सिद्ध हो गये तो फिर वह सम्भावना मूलक एवं अनिश्चित ज्ञान कैसे कहा जा सकता है? दूसरे मूल सूत्र में कहीं ऐसा संकेत नहीं है कि जिससे यह कहा जा सके कि तर्क सम्भावनात्मक या अनिश्चित ज्ञान हैं अतः नैयायिकों की यह धारणा कि तर्क सम्भावना मूलक ज्ञान है स्वतः खण्डित हो जाती है। साथ ही सूत्र में रखा गया 'तत्त्वज्ञानार्थम्' शब्द भी इस बात को सिद्ध करता है कि तर्क वस्तु के मूर्त या बाह्य स्वरूप का ज्ञान नहीं, अपितु अमूर्त स्वरूप का ज्ञान है। वह वस्तु ज्ञान (Material knowledge) नहीं, तत्व ज्ञान (Metaphysical knowledge) है।
जैसा कि हमने पूर्व में बताया तर्क का विषय अविनाभाव सम्बन्ध, कार्य-कारण सम्बन्ध, व्यक्ति-जाति सम्बन्ध, वर्ग सदस्यता सम्बन्ध आदि है। तर्क किसी धूम विशेष या अग्नि विशेष को नहीं अपितु धूम जाति और अग्नि जाति को अपना विषय बनाता हैं क्योंकि धूम विशेष या अग्नि विशेष के हजारों उदाहरण भी व्याप्ति सम्बन्ध का ज्ञान नहीं दे सकते हैं। यद्यपि यह सत्य है कि इसके लिए विशेष का प्रत्यक्षीकरण आवश्यक है क्योंकि जैन दर्शन के अनुसार सामान्य विशेष से पृथक नहीं पाया जाता है। फिर भी व्याप्ति या अविनाभाव सम्बन्ध की सिद्धि सामान्य के ज्ञान से होगी विशेष के ज्ञान से नहीं तर्क सामान्य का ज्ञान है। न्याय दार्शनिक तर्क की इस प्रकृति को स्पष्ट नहीं कर सके, अतः व्याप्ति ग्रहण की इस समस्या को सुलझाने हेतु उन्हें सामान्य लक्षणाप्रत्यासत्ति के नाम से प्रत्यक्ष के एक नये प्रकार की कल्पना करनी पड़ी। तुलनात्मक दृष्टि से जैन दर्शन का तर्क न्याय दर्शन के तर्क और सामान्य लक्षणा प्रत्यासत्ति के योग के बराबर हैं मात्र यही नहीं जैन दार्शनिकों ने तर्क की जो व्याख्या प्रस्तुत की है वह इतनी व्यापक है कि उसमें व्याप्ति ग्रहण के इतर साधनों का भी समावेश हो जाता है । स्याद्वादमंजरी में तर्क की निम्न परिभाषा दी गई है।
उपलम्भानुपलम्भसम्भवं त्रिकालीकलितसाध्यसाधनसम्बन्धाद्या लम्बनमिदस्मिन् सत्येव भवतीत्याद्याकारं संवेदनमूहस्तर्कापरपर्यायः यथा यावान् कश्चिद धूमः स सर्वो वह्नौ सत्येव भवतीति तस्मिन्त्रसति असौ न भवत्येवेतिया।
- स्याद्वादमंजरी २८ उपलम्भ अर्थात् सहचार के दर्शन और अनुपलम्भ अर्थात् व्याभिचार अदर्शन से फलित साध्यसाधन के त्रैकालिक सम्बन्ध आदि के ज्ञान के आधार पर तथा 'इसके होने पर ही यह होगा' जैसे यदि कोई धुआँ है तो वह सब अग्नि के होने पर ही होता है और अग्नि के नहीं होने पर नहीं होता है— इस आकार वाला जो (मानसिक) संवेदन है, वह ऊह है। उसका ही दूसरा नाम तर्क है। लगभग सभी जैन दार्शनिकों ने तर्क की अपनी व्याख्याओं में उपलम्भ और अनुपलम्भ शब्दों का प्रयोग किया है। सामान्यता उपलम्भ का अर्थ उपलब्ध होता
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
१७८ है लाक्षणिक दृष्टि से उपलम्भ का अर्थ है एक की उपलब्धि पर दूसरे एवं अन्तःप्रज्ञात्मक हैं डा० बारलिंगे ने भी स्वयं इस बात को स्वीकार की उपलब्धि अर्थात् अन्वय या सहचार और अनुपलम्भ का अर्थ है किया हैं वे लिखते हैं- It is not also ordinary perception एक की अनुपलब्धि (अभाव) पर दूसरे की अनुपलब्धि (अभाव) because there is no Indriya Sanni Karsha with smoke in अर्थात् व्यतिरेक। किन्तु अनुपलम्भ का एक दूसरा भी अर्थ है वह है all the cases. उन्होंने इस बात को भी स्पष्ट किया है कि अमूर्त जाति व्याघात के उदाहरण की अनुपलब्धि अर्थात् व्यभिचार अदर्शन। इस सम्बन्ध के ज्ञान के लिए ऐसी ही अनानुभविक पद्धति आवश्यक हैं प्रकार जैन दर्शन के अनुसार अन्वय, व्यतिरेक रूप सहचार दर्शन और जैन दार्शनिकों ने तर्क को एक अतीन्द्रिय अर्थात् ऐन्द्रिक अनुभवों पर व्यभिचार अदर्शन के निमित्त से तर्क के द्वारा व्याप्ति ज्ञान होता है। यहाँ आधारित किन्तु उनसे पार जाने वाला, उनका अतिक्रमण करने वाला यह ध्यान रखना चाहिए कि अन्वय और व्यतिरेक दोनों सहचार के ही मानकर इस आवश्यकता की पूर्ति कर ली हैं। डा० प्रणवकुमार सेन ने रूप हैं। एक उपस्थिति में सहचार है और दूसरा अनुपस्थिति में सहचार विश्व दर्शन परिषद् के देहली अधिवेशन में प्रस्तुत अपने लेख में इस है। फिर भी ये तीनों सीधे व्याप्ति से ग्राहक नहीं हैं क्योंकि आनुभविक बात का स्पष्ट संकेत किया है कि समस्या चाहे आगमन की हो या तथ्य प्रत्यक्ष के ही रूप हैं (जैन दार्शनिक अनुपलब्धि या अभाव का भी निगमन की उन्हें बिना अन्तः प्रज्ञात्मक आधार के सुलझाया नहीं जा समावेश भी प्रत्यक्ष में ही करते हैं)। अत: इनसे व्याप्ति ग्रहण सम्भव सकता है (देखिए Knowledge, Culture and Value, P.41-50) नहीं है। कोई भी अनुभविक पद्धति चाहे वह अन्वय व्यतिरेकी हो या जैन दार्शनिकों के अनुसार व्यक्ति और जाति में कथचित् अभेद है अत: उनका ही मिलाजुला कोई अन्य रूप हो, व्याप्ति सम्बन्ध का ज्ञान नहीं तर्क अपनी अन्तः प्रज्ञात्मक शक्ति के द्वारा विशेष के प्रत्यक्षीकरण के करा सकती है। पाश्चात्य दार्शनिक ह्यूम ने भी इस बात को स्पष्ट करने समय ही सामान्य को भी जान लेता है और इस प्रकार विशेषों के का प्रयास किया है कि अनुभववाद या प्रत्यक्ष के माध्यम से कार्य प्रत्यक्ष के आधार पर सामान्य वाक्य की स्थापना कर सकता है। यह कारण ज्ञान अर्थात् व्याप्ति ज्ञान सम्भव नहीं है। प्रत्यक्षाधारित आगमन कार्य अन्तःप्रज्ञा या तर्क के अतिरिक्त प्रत्यक्ष, अनुमान आदि किसी भी कभी भी सार्वकालिक और सार्वदेशिक सामान्य वाक्य की स्थापना नहीं अन्य प्रमाण के द्वारा सम्भव नहीं है। कर सकता हैं इसलिए जैन दार्शनिकों ने तर्क की परिभाषा में अन्वय, व्यतिरेक एवं व्यभिचार अदर्शन रूप प्रत्यक्ष के तथ्यों को केवल व्याप्ति ईहा का स्वरूप और तर्क से उसकी भिन्नताः का निमित्त या सहयोगी मात्र माना। उनके अनुसार वस्तुत: व्याप्ति का यह सत्य है कि जैन दार्शनिकों ने प्रारम्भ में ईहा और तर्क ग्रहण उस आकारिक (मानसिक) संवेदन से होता है जो त्रैकालिक को पर्यायवाची माना था, किन्तु प्रमाण युग में ईहा और तर्क दोनों साध्य-साधन सम्बन्ध को अपना विषय बनाकर यह निर्णय देता है कि स्वतन्त्र प्रमाण मान लिये गये थे। यद्यपि यह प्रश्न स्वतन्त्र रूप से 'इसके होने पर यह होगा। तर्क की उपरोक्त परिभाषा में महत्वपूर्ण शब्द विचारणीय अवश्य है कि जैन दार्शनिकों ने ईहा के स्वरूप को, जिस है- इति आकारं संवेदनं ऊहः तर्कापरपर्याय।
रूप में प्रस्तुत किया है, उस रूप में क्या उसे प्रमाण माना जा सकता __ इस प्रकार व्याप्ति ज्ञान के ग्राहक तर्क में एक अन्तःप्रज्ञात्मक है? क्योंकि ईहा निर्णयात्मक ज्ञान नहीं होकर तो मात्र ज्ञान प्रक्रिया है तत्त्व होता है, जो प्रत्यक्ष के अनुभवों को अपना आधार बनाकर अपना इसका क्रम इस प्रकार हैकालिक निर्णय देता है या सामान्य वाक्य की स्थापना करता है।
ऐन्द्रिक संवेदन→ अवग्रह → संशय → ईहा → अवायतर्क तथा आगमन की प्रकृति को लेकर अभी काफी विवाद धारणा → स्मृति → प्रत्यभिज्ञा → तर्क → अनुमान चल रहा है। डा. बारलिंगे तर्क को आपादन (Implication) या
इसमें संशय और धारणा को छोड़कर शेष सभी को प्रमाण निगमनात्मक मानते हैं। उन्होंने बड़ी गम्भीरता के साथ इस मत का माना है- यद्यपि ये किस अर्थ में प्रमाण है यह एक अलग प्रश्न हैप्रतिपादन अपने ग्रन्थ AModerm Introduction to Indian Logic जिस पर किसी स्वतन्त्र निबन्ध में विचार किया जा सकता है, किन्तु मैं में किया है। इसके विपरीत डा० भारद्वाज ने विश्व दर्शन कांग्रेस के अभी इस प्रश्न को हाथ में लेना नहीं चाहूँगा। यहाँ मूल प्रश्न यह है कि देहली अधिवेशन में पठित अपने निबन्ध में न्याय सूत्र के टीकाकारों के ईहा से स्वतन्त्र तर्क को प्रमाण क्यों मानना पड़ा- मेरी दृष्टि में इसका मत की रक्षा करते हुए तर्क को व्यभिचार शंका प्रतिबन्धक (Tarka as मूल आधार व्याप्ति ग्रहण की समस्या ही रहा होगा। अनुमान के लिए Contrafactual conditional) माना है जो कि उसके आगमनात्मक व्याप्ति ग्रहण एक अनिवार्य पूर्व शर्त है (Pre-condition) और ईहा पक्ष पर बल देता हैं, किन्तु ऐसा तर्क व्याप्ति ग्राहक नहीं बन सकता से व्याप्ति ग्रहण सम्भव नहीं था। प्रमाणमीमांसा में ईहा की चर्चा के केवल सहयोगी बन सकता, अत: उसमें अन्तः प्रज्ञात्मक पक्ष को प्रसंग में यह प्रश्न उठाया गया था कि यदि ईहा और तर्क एक ही अर्थ स्वीकार करना आवश्यक है। स्वयं डा. बारलिंगे ने तर्क को अनानुभविक के द्योतक हैं तो फिर ईहा से पृथक् तर्क को पृथक् प्रमाण क्यों माना (Non-empirical) माना हैं वस्तुत: व्याप्ति ग्रहण के हेतु एक अनानुभविक गया? उसे उत्तर में कहा गया कि ईहा वर्तमान में उपस्थित अर्थ को ही पद्धति चाहिए। इसीलिए न्याय दार्शनिकों ने व्याप्ति ग्रहण का अन्तिम अपना विषय बनाती है। अत: उसके आधार पर त्रैकालिक व्याप्ति एवं सीधा उपाय सामान्यलक्षणा प्रत्यासत्ति को माना, जो कि अनानुभविक सम्बन्ध का ज्ञान सम्भव नहीं है। पुन: ईहा प्रत्यक्ष के विषय को अर्थात
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जैन दर्शन के 'तर्क प्रमाण' का आधुनिक सन्दर्भो में मूल्यांकन
१७९ मूर्त को वस्तु ज्ञान का विषय बनाती है किन्तु व्याप्ति ज्ञान या कार्य लिया है। सहचार दर्शन के पश्चात् जो विकल्प या संशय बनते हैं उनका कारण भाव या जाति के प्रत्यय अमूर्त है, अत: वे ऐन्द्रिक ज्ञान के निरसन व्यभिचार अदर्शन से हो जाता है। जहाँ तक न्याय दार्शनिकों विषय नहीं बनते। तर्क एवं ईहा के स्वरूप में भी अन्तर है- (१) का प्रश्न है वे स्पष्ट रूप से तर्क को 'क्वचिच्छंकानिवर्तक' कहते हैं। सर्वप्रथम ईहा विशेष का ज्ञान है जबकि तर्क सामान्य का ज्ञान है, (२) अत: इस सम्बन्ध में विचार करना अपेक्षित है कि तर्क किस प्रकार के दूसरे ईहा वस्तु के गुण धर्मों का ज्ञान है जबकि तर्क सम्बन्धों का ज्ञान संशय को छिन्न करता हैं। यह स्पष्ट किया जा चुका है कि तर्क विधेय है, (३) तीसरे ईहा निर्णय के पूर्व की या संशय और निर्णय के मध्य सम्बन्ध का ज्ञान नहीं है अत: उसके द्वारा जिन संशयों को छिन्न किया निर्णयोन्मुख दोलन की अवस्था है जबकि तर्क निर्णयात्मक है, (४) जाता है वे इस रूप में नहीं होते कि यह स्तम्भ है या पुरुष? अथवा चौथे ईहा ऐन्द्रिक और बौद्धिक ज्ञान है जबकि तर्क में अन्त: प्रज्ञा यह स्वर स्त्री का है या पुरुष का? अत: तर्क में संशय का प्रतीकात्मक का तत्व होता है, (५) पाँचवां ईहा वर्तमान कालिक ज्ञान है जबकि स्वरूप त,-क, Vक, ऐसा नहीं है। यहाँ संशय वस्तु के स्वरूप के तर्क त्रैकालिक ज्ञान हैं अत: ईहा और तर्क में पर्याप्त अन्तर है बारे में न होकर आपादन, अविनाभाव और कार्य-कारण आदि के क्योंकि तर्क व्याप्ति-ग्राहक है और ईहा व्याप्ति ग्राहक नहीं है। अतः सम्बन्धों के बारे में होते हैं। जब संशय सम्बन्ध के बारे में ही होता है तर्क को ईहा से स्वतन्त्र प्रमाण इसलिए मानना पड़ा कि ईहा का उसका प्रतीकात्मक स्वरूप निम्न होगा ( हे सा)v~ (हे - सा)। अन्तर्भाव तो लौकिक प्रत्यक्ष में होता है जबकि तर्क का अन्तर्भाव यहाँ विकल्प व्याप्ति के होने या नहीं होने के बारे में ही होता है। इस परोक्ष ज्ञान में किया गया है। अतः दोनों को अलग-अलग प्रमाण संशय का निवर्तन तभी हो सकता है जब हेतु (धूम) साध्य (अग्नि) के मानना आवश्यक है।
अभाव में भी कहीं उपलब्ध हो, ऐसा प्रत्यक्ष में उदाहरण नहीं मिलने ईहा का प्रतीकात्मक स्वरूप भी तर्क से भिन्न है। ईहा के पूर्व से अर्थात् व्यभिचार के अदर्शन से संशय छिन्न हो जाता है। क्योंकि जो संशय होता है वह कार्य कारण, अविनाभाव या आपादन के यदि धम और अग्नि में अविनाभाव नहीं होता तो अग्नि के अभाव में सम्बन्ध में नहीं होकर केवल विधेय के सम्बन्ध में होता है। यह स्वर भी कहीं धूम उपलब्ध होता अर्थात् 'हे~सा अथवा-सा है' का स्त्री का है या पुरुष का? तथा यह स्तम्भ है या पुरुष? ऐसे वाक्यों में उदाहरण मिलना था कि ऐसा उदाहरण नहीं मिला है अत: उनमें संशय इस बारे में भी होता है कि विधेय के इन वैकल्पिक वर्गों में व्याप्ति है। न्याय दर्शन तर्क को केवल संशय छेदक मानता है किन्तु उद्देश्य किस वर्ग का सदस्य है अत: ईहा का जो सुझावात्मक निर्णय जैन दर्शन व्याप्ति ग्राहक के रूप में उसके निश्चयात्मक एवं विधायक होता है वह आपादन के बारे में न होकर वर्ग सदस्यता के बारे में होता कार्य को भी स्पष्ट कर देता है। जैन दार्शनिक यह मानते हैं कि हैं उसका प्रतीकात्मक रूप होता है
अनुपलब्धि अर्थात् व्यभिचार अदर्शन से सन्देह का निवर्तन हो जाने सं (वि' । वि२) ....संशय
पर जो ज्ञान होगा वह निश्चयात्मक ही होगा। अत: यह तर्क संशय
निवर्तक है तो वह उसी समय व्याप्ति ग्राहक भी है। ...विकल्प निषेध .:. उc सं (वि) ...सम्भावित निर्णय (ईहा) तर्क का प्रतीकात्मक स्वरूप :
तर्क का कोई प्रतीकात्मक स्वरूप निश्चित कर पाना इसलिए उ = उद्देश्य
कठिन है कि वह एक कुदान की अवस्था है। विशेषों के ज्ञान के आधार वि = विधेय
पर हम सामान्य की स्थापना अवश्य करते हैं किन्तु इसका कोई नियम सं = सम्भावना
नहीं बताया जा सकता है, यह अन्तःप्रज्ञा की आश्वस्ति हैं। पाश्चात्य विधेय सम्बन्ध या सदस्यता
तर्कशास्त्र में जिस कार्य-करण सम्बन्ध के ज्ञान के आधार पर या प्रकृति ~ = निषेध
की समरूपता के नियम के आधार पर सामान्य ज्ञान का दावा किया इस प्रकार प्रतीकात्मक दृष्टि से विचार करने पर तीनों की
सीहो जाता है वह भी आनुभविक आधार पर तो सिद्ध नहीं होता है। ह्यूम ने भिन्नता स्पष्ट हो जाती है।
इसीलिए उसे एक विश्वास मात्र कहा था। फिर भी यह न तो अन्ध
विश्वास है और न साधारण विश्वास ही, अपितु वह हमारी अन्तः प्रज्ञा तर्क का संशय निवर्तक स्वरूपः
की आश्वस्ति है, एक विवेक पूर्ण बौद्धिक आस्था है, जिसकी सत्यता न्याय दार्शनिक तर्क को संशय निवर्तक मानते हैं। जैन
के बारे में हमें कोई अनिश्चय नहीं हैं। यदि हम तर्क के इस स्वरूप को दार्शनिकों ने स्पष्ट रूप से तर्क के इस स्वरूप पर प्रकाश नहीं डाला मा
- मान्य करते हैं तो उसे कोई प्रतीकात्मक रूप देना कठिन है। किन्तु जैन है। इसका कारण यह हो सकता है कि उनके अनुसार तर्क व्याप्ति दार
दार्शनिकों ने 'व्याप्तिज्ञानमूहः' कहकर प्रमाण और प्रमाणफल में अभेद ग्राहक है, अत: संशय का निवर्तन उसकी पूर्व अवस्था ही हो सकती मानत हुए तक का तादात्म्य व्या
र मानते हुए तर्क का तादात्म्य व्याप्ति ज्ञान से किया है अत: व्याप्ति ज्ञान है, स्वरूप नहीं। उन्होंने इस प्रक्रिया को अंतर्भाव अनुपलम्भ में कर
- की जो प्रक्रिया है उसके आधार पर तर्क के प्रतीकात्मक स्वरूप का
का
जबकि
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
१८० निर्धारण किया जा सकता है
सकते हैं। इस प्रकार जैन दर्शन न्याय दर्शन से एक कदम आगे बढ़कर
यह निर्णय देता है कि हे - सा अर्थात् धूम सद्भाव अग्नि के सद्भाव का (१) हे . सा- सहभाव एवं क्रमभाव का अन्वय दृष्टान्त- भावात्मक सूचक हैं। धूम के में सद्भाव और अग्नि के सद्भाव में भी व्याप्ति सम्बध उपलम्भ
हैं। अत: जैन दर्शन के इस दृष्टिकोण का समर्थन नव्य न्याय में हमें (२)~ सा. ~हे ~ सहभाव एवं क्रमभाव का अन्वय व्यतिरेक दृष्टान्त मिलता हैं। वह तर्क के व्याप्ति परिशोधक तर्क और व्याप्ति ग्राहक तर्क अभावात्मक उपलम्भ
ऐसे दो विभाग करता है।
उपरोक्त उदाहरण में छठा चरण व्याप्ति परिशोधक तर्क का (३) ~(हे. ~ सा ~ (~ सा.हे)- व्यभिचार अदर्शन, अनुपलम्भ
और सातवाँ तथा आठवाँ चरण व्याप्ति ग्राहक तर्क का है। यद्यपि इस (४) :.सं (हेसा)- व्याप्ति सुझाव
सब में तर्क का मुख्य कार्य तो वहाँ है जब हम सद्भाव एवं क्रमभाव के (५) (हे - सा) V~(हे-सा)- संशय
अन्वय और व्यतिरेक के साधक दृष्टान्तों तथा व्यभिचार दर्शन रूप (६)~(~ सा. हे)- संशय निरसन व्यभिचार अदर्शन के आधार पर बाधक दृष्टान्त के अभाव में व्याप्ति सम्बन्ध का निश्चय करते हैं। यह (७) .:. ~ सा ~ हे- व्याप्ति (अभावात्मक)
विशेषके दृष्टान्तों से सामान्य नियम की ओर अथवा सहभाव एवं
क्रमभाव से आपादन (Implication) या कार्य कारण सम्बन्ध की ओर (८) हे - सा-व्याप्ति (भावात्मक)
जो छलांग लगाते हैं तर्क उसी का प्रतीक है। यद्यपि तर्क के इस जबकि
प्रतीकात्मक स्वरूप के बारे में अभी काफी विचार और संशोधन की हे = हेतु
आवश्यकता है किन्तु फिर भी इसे मान्य करना इसलिए आवश्यक है सा = साध्य
कि हम भाषा सम्बन्धी कुछ सम्भावित भ्रान्तियों से बच सके। उदाहरण सहभाव
के लिए जैनन्याय के अद्वितीय विद्वान् पं० कैलाशचन्द जी जैन न्याय
नामक ग्रन्थ में तर्क की परिभाषा की व्याख्या करते हुए लिखते है, आपादन
उपलम्भ–साध्य के होने पर ही साधन का होना और अनुपलम्भनिषेध
साध्य के अभाव में साधन का न होना, के निमित्त से होने वाले व्याप्ति आपादन निषेध, व्याप्ति निषेध
ज्ञान को तर्क कहते हैं (जैन न्याय पृ० २०९) किन्तु क्या साध्य
(अग्नि) के सद्भाव से साधन या हेतु (धुएँ) का सद्भाव सिद्ध हो सकता इसे निम्न ठोस उदाहरण से भी स्पष्ट किया जाता है- यदि हम है? कदापि नहीं। वस्तुत: यहाँ ‘साध्य के होने पर ही साधन का वह परम्परागत उदाहरण लें जिसमें धुआँ हेतु है और अग्नि साध्य है, तो होना'- इस कथन का अर्थ भावात्मक न होकर अभावात्मक ही है सर्वप्रथम (१) धुआँ के साथ अग्नि का सहचार देखा जाता है (यत् सत्त्वे अर्थात् यह साध्य के अभाव में साधन के अभाव का द्योतक है न कि तत् सत्ता इत्यन्वयः)। (२) अग्नि के अभाव में धुएं का भी अभाव देखा साध्य के सद्भाव में साधन के सद्भाव का। क्योंकि धूम ही अग्नि से जाता है (यद्भावे तदभावः इति व्यतिरेकः)। इस प्रकार अन्वय और नियत है, अग्नि धूम से नियत नहीं है। इसका नियम है साधन (हेतु) का व्यतिरेक दोनों में सहचार देखा जाता है पुनः (३) ऐसा कोई भी सद्भाव साध्य के सद्भाव का और साध्य का अभाव साधन या हेतु के उदाहरण नहीं देखा जाता है कि धुआँ है किन्तु अग्नि नहीं है अथवा अभाव का सूचक है, जिसका प्रतीकात्मक रूप होगा हे - सा तथा ~ अग्नि नहीं है और धुआँ है। (४) इसलिए सम्भावना यह प्रतीत होती है सा ~ है। अत: इस नियम का कोई भी व्यतिक्रम असत्य निष्कर्ष की कि धूम और अग्नि में व्याप्ति सम्बन्ध या अविनाभाव सम्बन्ध होना और ले जावेगा। हम साध्य की उपस्थिति से हेतु की उपस्थिति या चाहिए। (५) पुन: यह संशय हो सकता है कि धुएं और अग्नि में व्याप्ति अनुपस्थिति के सम्बध में कोई भी निर्णय नहीं ले सकते हैं। भावात्मक सम्बन्ध होगा या नहीं होगा। (६) किन्तु यह दूसरा विकल्प सत्य नहीं है दृष्टान्तों में व्याप्ति हेतु ओर साध्य अर्थात् धूम के सद्भाव और अग्नि के क्योंकि अग्नि के अभाव में धूम की उपस्थिति का एक भी व्यभिचारी सद्भाव के बीच होती है किन्तु अभावात्मक दृष्टान्त में वह साध्य और उदाहरण नहीं मिला हैं (७) अतः निष्कर्ष यह है कि अग्नि के अभाव हेतु अर्थात् अग्नि के अभाव और धूम के अभाव के बीच होती हैं। इसका में धुएँ का अभाव व्याप्ति या अविनाभाव सम्बन्ध का सूचक है। (८) निर्देश हमारे प्राचीन आचार्यों ने भी व्याप्य-व्यापक भाव या गम्य-गमक इसी आधार पर धूम के सद्भाव में और अग्नि के सद्भाव में व्याप्ति भाव के रूप में किया है। उन्होंने यह बताया है कि धूम की उपस्थिति से सम्बन्ध सिद्ध हो जावेगा। यहाँ हमें यह ध्यान रखना होगा कि जहाँ न्याय अग्नि की उपस्थिति का और अग्नि की अनुपस्थिति से धूम की अनुपस्थिति दर्शन केवल सा. हे को तर्क का प्रतीक मानता है वहाँ जैन दर्शन-सा का निश्चय किया जा सकता है। किन्तु इस नियम का कोई भी व्यतिक्रम हे और हे. सा दोनों को ही स्वीकार करता है। डा० बारलिंगे ने भी माना सत्य नहीं होगा। क्योंकि धूम व्याप्य है और अग्नि व्यापक है प्रतीकात्मकता है कि- सा ~हे से हम हे - सा के निष्कर्ष पर निर्दोष रूप से पहुँच से यह बात अधिक स्पष्ट हो जाती है। वर्ग सदस्यता का निम्न चित्र
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रेखांकन भी इसे स्पष्ट कर देता है
अअग्नि
जैन दर्शन के 'तर्क प्रमाण' का आधुनिक सन्दर्भों में मूल्यांकन
अ
धूम
כ
अग्नि
धूम
अग्नियुक्त किन्तु धूमरहित
भूपरहित
ole
धूम युक्त
रहित
१८१
सम्बन्ध है अर्थात् जहाँ एक होगा वहाँ दूसरा नहीं है। जो धूमयुक्त है वह अग्नि रहित नहीं हो सकता और जो अग्नि रहित है वह धूमयुक्त नहीं हो
सकता।
(१) सब धूमयुक्त वस्तुयें अग्नियुक्त वस्तुयें हैं, क्योंकि धूमयुक्त वस्तुओं के वर्ग का प्रत्येक सदस्य अग्नियुक्त वस्तुओं के वर्ग का सदस्य है, धूमयुक्त वस्तुओं का वर्तुल अग्नियुक्त वस्तुओं के वर्तुल में समाविष्ट है। अर्थात् धूम व्याप्य है और अग्नि व्यापक है। अतः धूम और अग्नि में व्याप्ति सम्बन्ध है। किन्तु इसके विपरीत अग्नि और धूम में व्याप्ति सम्बन्ध नहीं बनता है क्योंकि अग्नियुक्त वस्तुओं की जाति (वर्ग) के सभी सदस्य धूमयुक्त वस्तुओं की जाति (वर्ग) के सदस्य नहीं है। क्योंकि हे (धू) सा (अ) – सत्य सा (अ) हे (धू)
-असत्य
(२) अब अग्नि रहित वस्तुयें धूम रहित वस्तुयें हैं, क्योंकि अग्नि रहित वस्तुओं के वर्ग का प्रत्येक सदस्य धूम रहित वस्तुओं के वर्ग का सदस्य है या अग्नि रहित वस्तुओं का वर्तुल धूम रहित वस्तुओं के वर्तुल में समाविष्ट है अर्थात् अग्नि रहित वस्तुयें व्याप्य हैं। और धूमरहित वस्तुयें व्यापक हैं। अतः अग्नि रहित वस्तु और धूमरहित वस्तु में व्याप्ति सम्बन्ध है, किन्तु इसके विपरीत धूमरहित और अग्निरहित वस्तु में व्याप्ति सम्बन्ध नहीं बनता है, इसमें व्यभिचार हो सकता है, क्योंकि धूमरहित वस्तुओं की जाति के सभी सदस्य अग्निरहित "मस्तुओं की जाति के सदस्य नहीं है।
-
हे (~ असा (~धू) – सत्य सा (~ धू) (अ) असत्य
2
प्रथम उदाहरण में धूम हेतु है और अग्नि साध्य है। जबकि दूसरे उदाहरण अग्निरहित हेतु है और धूमरहित साध्य है।
(३) कोई भी धूमयुक्त वस्तु अग्निरहित नहीं है क्योंकि धूमयुक्त वस्तुओं का वर्तुल अग्नि रहित वस्तुओं के वर्तुल से पृथक है। अतः धूमयुक्त और अग्नि रहित में व्याप्ति या अविनाभाव निषेध
हे (धू) ~सा (अ)- सत्य सा (अ) हे (धू) सत्य सा (धू) सत्य
हे (अ)
सा (धू) हे (अ)- सत्य
अर्थात् निषेधात्मक व्याप्ति में दोनों ही सत्य हैं।
ܒ
כ
तर्क को व्याप्ति ग्रहण का साधन और स्वतन्त्र प्रमाण क्यों मानें? जैन तार्किकों ने तर्क को स्वतन्त्र प्रमाण इसीलिए माना था कि तर्क प्रमाण माने बिना व्याप्ति ज्ञान तथा अनुमान की प्रामाणिकता सम्भव नहीं है? यदि हम अनुमान को प्रमाण मानते हैं तो हमें तर्क को भी प्रमाण मानना होगा क्योंकि अनुमान की प्रामाणिकता व्याप्ति ज्ञान की प्रामाणिकता पर निर्भर है और व्याप्ति ज्ञान की प्रामाणिकता स्वयं उसके ग्राहक साधन तर्क की प्रामाणिकता पर निर्भर होगी। यदि व्याप्ति का निश्चय करने वाला साधन तर्क ही प्रमाण नहीं है तो व्याप्ति ज्ञान भी
प्रामाणिक नहीं होगा और फिर उसी व्याप्ति सम्बन्ध के ज्ञान पर आश्रित अनुमान प्रमाण कैसे होगा ? अतः तर्क को प्रमाण मानना आवश्यक है ।
पुनश्च यदि हम तर्क को प्रमाण नहीं मानते हैं तो हमें यह मानना होगा कि व्याप्ति ग्रहण तर्क से इतर अन्य किसी प्रमाण से होता है, किन्तु तर्क से अन्य प्रमाण व्याप्ति ज्ञान के ग्राहक नहीं हो सकते। सर्वप्रथम इस सम्बन्ध में प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाण की समीक्षा करके देखें कि क्या उनसे व्याप्ति ग्रहण सम्भव है। इस सम्बन्ध में जैन तार्किकों का उत्तर स्पष्ट है कि प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणों के द्वारा व्याप्ति ग्रहण सम्भव नहीं है।
लौकिक प्रत्यक्ष अर्थात् ऐन्द्रिक प्रत्यक्ष से व्याप्ति या अविनाभाव सम्बन्ध का निश्चय इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि प्रथम तो प्रत्यक्ष का विषय विशेष होता है और विशेषों के कितने ही उदाहरणों के ज्ञान से सामान्य का ज्ञान सम्भव नहीं है हम मोहन, सोहन आदि हजारों या
लाखों मनुष्यों को मरता हुआ देखकर भी उसके आधार पर यह दावा नहीं कर सकते कि सब मनुष्य मरणशील हैं। दूसरे विशेषों के सभी उदाहरणों को जान पाना भी सम्भव नहीं है। पुनः प्रत्यक्ष वर्तमान काल को ही विषय बनाता है जबकि व्याप्ति का निश्चय तो त्रैकालिक ज्ञान के बिना सम्भव नहीं । भूत काल के अनेकों उदाहरणों की स्मृति भी यह गारण्टी नहीं देती है कि भविष्य में भी ऐसा होगा। भूतकाल के अनेकानेक (लगभग सभी) मनुष्य मर गये और वर्तमान में अनेक मर रहे हैं किन्तु इससे हम यह कैसे कह सकते हैं कि भविष्यकाल के सभी मनुष्य मरेंगे ही, हो सकता है कि भविष्य में कोई ऐसी ओषधि निकल आये कि मनुष्य अमर हो जायें। प्रत्यक्ष के विषय सदैव ही दैशिक और कालिक तथ्य होते हैं अतः उससे सार्वभौमिक और सार्वकालिक
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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
व्याप्ति सम्बन्ध का ग्रहण नहीं हो सकता ।
प्रत्यक्ष अथवा प्रेक्षण पर आधारित व्याप्ति स्थापन की कई विधियाँ है जैसे अन्वय व्यतिरेक, भूयो दर्शन, नियत सहचार दर्शन, व्यभिचार अदर्शन और सामान्य लक्षण प्रत्यासत्ति आदि। इनमें से सामान्य लक्षण प्रत्यासत्ति के अतिरिक्त अन्य कोई भी विधि त्रैकालिक व्याप्ति सम्बन्ध को ग्रहण करने में समर्थ नहीं है। जहाँ तक सामान्य लक्षणा प्रत्यासत्ति का प्रश्न है उसे प्रत्यक्षात्मक कहना भी कठिन है, यह मूलतः जैन दर्शन के 'तर्क' के प्रत्यय से भिन्न नहीं है क्योंकि दोनों की मूल प्रकृति अन्तः प्रज्ञात्मक है, वे इन्द्रिय ज्ञान नहीं अपितु प्रातिभज्ञान हैं यह सुनिश्चित सत्य है कि मात्र प्रत्यक्ष पर आधारित कोई भी विधि त्रैकालिक व्याप्ति सम्बन्ध या अविनाभाव सम्बन्ध का ज्ञान नहीं दे सकती है जब तक कि वह तर्क या प्रातिभ ज्ञान का सहारा नहीं लेती है।
सामान्यतः व्याप्ति स्थापन में अन्वय और व्यतिरेक को महत्त्वपूर्ण माना जाता है। अन्वय का अर्थ है हेतु और साध्य का सभी उदाहरणां में साथ पाया जाना । उदाहरणार्थ जहाँ-जहाँ धुआँ देखा गया उसके साथ आग भी देखी गई है तो हम धुएँ और आग में व्याप्ति मान लेते हैं किन्तु अन्वय के आधार पर व्याप्ति की स्थापना सम्भव नहीं है। यदि दो चीजें सदैव एक दूसरे के साथ देखी जायें तो उनमें व्याप्ति हो ही यह आवश्यक नहीं है। अन्वय के आधार पर व्याप्ति मानने में सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि अन्वय के सभी दृष्टान्त नहीं देखे जा सकते हैं और केवल इन कुछ दृष्टान्तों के आधार पर व्याप्ति का ग्रहण सम्भव नहीं है। केवल व्यतिरेक के आधार पर व्याप्ति की स्थापना नहीं की जा सकती है। अन्वय और व्यतिरेक व्याप्ति संयुक्त रूप से भी व्याप्ति स्थापन नहीं कर सकते हैं। यह ठीक है कि अन्वय और व्यतिरेक के दृष्टान्तों के प्रेक्षण से व्याप्ति की धारणा पुष्ट होती है किन्तु ये केवल इतना सुझाव देते हैं कि इन दो तथ्यों के बीच व्याप्ति सम्बन्ध हो सकता है। इनसे व्याप्ति का निश्चय या सिद्धि नहीं होती हैं क्योंकि अन्वय, व्यतिरेक और अन्वय व्यतिरेक की संयुक्त विधि तीनों ही में सीमित उदाहरणों का प्रत्यक्षीकरण सम्भव होता है। अतः इनके आधार पर त्रैकालिक व्याप्ति की स्थापना सम्भव नहीं है। तीनों कालों में और तीनों लोकों में जो कुछ धूम है वह सब अग्नियुक्त है इतना व्यापान प्रत्यक्ष के द्वारा सम्भव नहीं है फिर वह प्रत्यक्ष चाहे अन्वय रूप हो या व्यतिरेक रूप नैयायिकों ने इस कठिनाई से बचने के लिए अन्वय व्यतिरेक भूयो दर्शन को व्याप्ति स्थापन का आधार बनाने का प्रयास किया था 'किरणावली में भूयः अवलोकन को ही व्याप्ति निश्चय के प्रतिकारणभूत उपाय माना गया है। भूयोदर्शन का अर्थ है अन्वय और व्यतिरेक के दृष्टान्तों का बार-बार अवलोकन करना । यह ठीक है कि अन्वय और व्यतिरेक के दृष्टान्तों के बार-बार अवलोकन से व्याप्ति होने की धारणा की पुष्टि होती है । किन्तु यह भूयो दर्शन या बार-बार अवलोकन प्रथमतः त्रैकालिक नहीं हो सकता है अतः इससे त्रैकालिक व्याप्ति ज्ञान की सम्भावना नहीं हैं। दूसरे भूयो दर्शन से उपाधि से
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अभाव का निश्चय नहीं हो सकता। जहां जहां धूम होता है वहां-वहां आग होती है, इस प्रकार अन्वय के सैकड़ों उदाहरण तथा जहां-जहां अग्नि नहीं है वहां-वहां धूम नहीं है इस प्रकार व्यतिरेक के सैकड़ों उदाहरण अग्नि का धूम के साथ स्वाभविक व त्रैकालिक सम्बन्ध सूचित नहीं कर सकते। ईंधन के गीलेपन की उपाधि से दूषित होने के कारण यह औपाधिक सम्बन्ध है, स्वाभाविक नहीं सहचार दर्शन स्वाभाविक सम्बन्ध रूप व्याप्ति का चाहे निश्चय कर भी ले, किन्तु औपाधिक सम्बन्ध रूप व्याप्ति का निश्चय उसके द्वारा सम्भव नहीं है। गंगेश ने इसकी आलोचना में लिखा है कि साध्य और सहचार का भूयो दर्श क्रमिक अथवा सामूहिक रूप से व्याप्ति ज्ञान का कारण नहीं है । रघुनाथ शिरोमणि, गदाधर भट्टाचार्य, विश्वनाथ, अन्नम भट्ट तथा नीलकंठ ने एक मत से भूयो दर्शन को व्याप्ति ग्राह्य प्रमाण नहीं माना है। श्रीधर के अनुसार व्याप्ति का निश्चय प्रतिपक्ष शंका रहित अन्तिम प्रत्यक्ष से होता है, जिसमें उसे सहभाव विषयक प्रत्यक्ष से उत्पन्न होने वाले संस्कार की सहायता भी अपेक्षित रहती है किन्तु प्रत्यक्ष के द्वारा व्यभिचार शंकाओं का पूर्णतः निर्मूलन न होने के कारण यह मत भी युक्ति संगत नहीं है।
जयन्त भट्ट ने नियमित सहचार दर्शन को ही व्याप्ति निश्चित का कारणीभूत उपाय माना है किन्तु यह मत इसलिए समीचीन नहीं है कि नियत सहचार दर्शन केवल अतीत और वर्तमान पर आधारित है किन्तु उसकी क्या गारण्टी है कि यह सम्बन्ध भविष्य के लिए भी तथा देशान्तर और कालान्तर में भी कार्यकारी सिद्ध होगा। इस शंका का निरसन करने के लिए सहचार नियम क्षमताशीलं नहीं है।
इस प्रकार प्रेक्षण या इन्द्रिय प्रत्यक्ष पर आधारित कोई भी विधि व्याप्ति स्थापन में समर्थ नहीं है। अनुमान से भी व्याप्ति ज्ञान सम्भव नहीं है क्योंकि प्रथम तो अनुमान की वैधता तो स्वयं ही व्याप्ति सम्बन्ध के ज्ञान की वैधता पर निर्भर है। यदि हमारा व्याप्ति सम्बन्ध का ज्ञान प्रामाणिक नहीं है तो अनुमान तो प्रामाणिक हो ही नहीं सकता।
अनुमान को व्याप्ति ज्ञान का आधार मानने में मुख्य कठिनाई यह है कि जब तक व्याप्ति ज्ञान न हो जाय, अनुमान की कल्पना ही नहीं हो सकती। यदि अनुमान स्वयं ही अपनी व्याप्ति का ग्राहक है तो हम आत्माश्रय दोष से बच नहीं सकते। इससे भिन्न यदि हम यह मानें कि एक अनुमान की व्याप्ति का ग्रहण दूसरे अनुमान से होगा तो ऐसी स्थिति में एक अनुमान की व्याप्ति के ग्रहण के लिए दूसरे अनुमान की और दूसरे अनुमान की व्याप्ति के लिए तीसरे अनुमान की और तीसरे अनुमान की व्याप्ति के लिए चौथे अनुमान की आवश्यकता होगी और इस श्रृंखला का कहीं अन्त नहीं होगा अर्थात् अनवस्था दोष का प्रसंग उत्पन्न होगा।
इस प्रकार हम देखते हैं कि न तो प्रत्यक्ष से, न अनुमान से ही व्याप्ति का ग्रहण हो सकता है। यद्यपि कुछ विचारकों ने इन कठिनाइयों को जानकर व्याप्ति ग्रहण के अन्य उपाय भी सुझाए हैं। इन उपायों में एक अन्य उपाय निर्विकल्प प्रत्यक्ष के पश्चात् होने वाले
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जैन दर्शन के 'तर्क प्रमाण' का आधुनिक सन्दर्भो में मूल्यांकन
१८३ विकल्प ज्ञान को व्याप्ति ग्रहण का आधार मानता हैं यह सही है। कि सहायता प्राप्त होती है किन्तु इससे उस प्रमाण की स्वतन्त्रता पर कोई निर्विकल्प प्रत्यक्ष अविचारक होने से व्याप्ति का ग्रहण नहीं कर सकता बाधा नहीं होती। अनुमान के लिए भी प्रत्यक्ष और व्याप्ति सम्बन्ध की किन्तु उस पर आधारित विकल्प व्याप्ति का ग्रहण करता है। किन्तु यदि अपेक्षा होती है, किन्तु इससे उसके स्वतन्त्र प्रमाण होने में कोई बाधा निर्विकल्प प्रत्यक्ष के द्वारा गृहीत विषय तक ही विकल्प की प्रवृत्ति है नहीं आती। जैन दार्शनिकों की विशेषता यह है कि वे तर्क को केवल तो भी उसमें व्याप्ति ज्ञान सम्भव नहीं है। यदि वह विकल्प निर्विकल्प शंका का निवर्तक ही नहीं, अपितु ज्ञान प्रदान करने वाला भी मानते हैं। प्रत्यक्ष की अपेक्षा नहीं रखता है और उसका विषय उससे व्यापक हो अत: वह स्वतन्त्र प्रमाण है। जैन दर्शन और न्याय दर्शन में तर्क की सकता है तो निश्चय ही उसमें व्याप्ति ग्रहण माना जा सकता है। महत्ता को लेकर मात्र विवाद इतना ही है कि जहाँ न्याय दर्शन तर्क का
यदि हम उस विकल्प को प्रमाण मानते हैं तो हमें उसे प्रत्यक्ष कार्य निषेधात्मक मानता है वहाँ जैन दर्शन में तर्क का विधायक कार्य और अनुमान से अलग ही प्रमाण मानना होगा और ऐसी स्थिति में भी स्वीकार किया है। उसका स्वरूप वही होगा जिसे जैन दार्शनिक तर्क प्रमाण कहते हैं। यदि पाश्चात्य निगमनात्मक न्याय युक्ति में प्रामाणिक निष्कर्ष की हम उस विकल्प ज्ञान को प्रमाण नहीं मानते हैं तो व्याप्ति प्रामाणिक प्राप्ति के लिए कम से कम एक आधार वाक्य का सामान्य होना नहीं होगी। अप्रामाणिक ज्ञान से चाहे यथार्थ व्याप्ति प्राप्त भी हो जाये आवश्यक है, किन्तु ऐसे सामान्य वाक्य की, जो कि दो तथ्यों के बीच किन्तु उसे प्रमाण नहीं मान सकते। यह ठीक ऐसा ही होगा जैसे कि स्थित कार्य-कारण सम्बन्ध पर आधारित होता है, की स्थापना कौन असत्य आधार वाक्य से सत्य निष्कर्ष प्राप्त करना। इसलिए जैन करे? इसके लिए उस आगमनात्मक तर्कशास्त्र का विकास हुआ जो कि दार्शनिकों ने व्यंग्य में इसे हिजड़े से सन्तान उत्पन्न करने की आशा ऐन्द्रिक अनुभवों पर आधारित था किन्तु ऐन्द्रिक अनुभववाद (प्रत्यक्षकरने के समान माना है।
वाद) और उसी भित्ति पर स्थित मिल की अन्वय व्यतिरेक आदि की वैशेषिकों ने प्रत्यक्ष के फलस्वरूप होने वाले ऊहापोह को पाँचों आगमनिक विधियाँ भी निर्विवाद रूप से कार्य करण सम्बन्ध पर व्याप्ति ग्रहण का साधन माना है। यदि इस ऊहापोह का विषय मात्र आधारित सामान्य वाक्य की स्थापना में असफल ही रही हैं। श्री कोहेन प्रत्यक्ष ज्ञान अथवा स्मृति रहती है तो फिर उसमें भी कोई विशिष्टता एवं श्री हेगेल अपनी पुस्तक (Logic and Scientific Method में नहीं रहती है क्योंकि उसका विषय प्रत्यक्ष जितना सीमित ही रहता है। मिल की आगमनात्मक युक्तियों की अक्षमता को स्पष्ट करते हुए यदि इस ऊहापोह का विषय प्रत्यक्ष से व्यापक है, तो उसे अपनी इस लिखते हैं-The cannons of experimental inquiry are not thereविशिष्टता के कारण एक अन्य प्रमाण ही मानना होगा और यहाँ वह fore capable of demonstrating any casual laws. The exजैन दर्शन के तर्क प्रमाण से भिन्न नहीं कहा जा सकेगा।
perimental methods areneither methods of proof nor methन्याय दार्शनिकों ने तर्क सहकृत भूयो दर्शन को व्याप्ति ods of discovery (P.266-67) वस्तुत: कोई भी अनुभवात्मक पद्धति ग्राहक साधन माना है। वाचस्पति मिश्र ने न्यायवार्तिक तात्पर्य टीका में जो निरीक्षण या प्रयोग पर आधारित होगी एक अधिक यक्तिसंगत इसे स्पष्ट किया है कि अकेले प्रत्यक्ष से व्याप्ति का ग्रहण नहीं होता प्राक्कल्पना से अधिक कुछ नहीं प्रदान कर सकती है। ह्यूम तो अनुभववाद अपितु तर्क सहित प्रत्यक्ष से व्याप्ति का ग्रहण होता है क्योंकि व्याप्ति की इस अक्षमता को बहुत पहले ही प्रकट कर चुका था अतः पाश्चात्य उपाधिविहीन स्वाभाविक सम्बन्ध है चूँकि भयो दर्शन या प्रत्यक्ष से तर्कशास्त्र में आगमनात्मक कुदान (Inductive leap) की जो समस्या सकल उपाधियों का उन्मूलन सम्भव नहीं है, अत: इस हेतु एक नवीन अभा भा बना हुई है उस भा जन दर्शन के इस तक प्रमाण को अन्त: उपकरण की आवश्यकता होगी और वह उपकरण तर्क है। किन्त यह प्रज्ञात्मक पद्धति के आलोक में सुलझाने का एक प्रयास अवश्य किया अकेला प्रत्यक्ष व्याप्ति ग्रहण में समर्थ नहीं है तो ऐसी स्थिति में व्याप्ति जा सकता है। वस्तुतः आगमन के क्षेत्र में विशेष से सामान्य की ओर का ग्राहक अन्तिम साधन तर्क को ही मानना होगा। यद्यपि यह सही है जाने के लिए जिन आगमनात्मक कुदान की आवश्यकता होती है- तर्क कि तर्क प्रत्यक्ष के अनुभवों को साधक अवश्य बनाता है किन्त व्याप्ति उसी का प्रतीक है वह विशेष और सामान्य के बीच की खाई के लिए का ग्रहण प्रत्यक्ष से नहीं होकर तर्क से ही होता है इसलिए तर्क के एक पुल का काम करता है जिसके माध्यम से हम प्रत्यक्ष से व्याप्ति महत्त्व को स्वीकार करना होगा तर्क को प्रमाण की कोटि में स्वीकार न ज्ञान की ओर तथा विशेष से सामान्य की ओर बढ सकते हैं। कर, उसकी महत्ता को अस्वीकार करना, कृतघ्नता ही होगी। इसीलिए आचार्य हेमचन्द्र ने व्यंग्य करते हुए कहा था कि यह तो तपस्वी के यश संदर्भ को समाप्त करने जैसा ही है।
१. से किं तं प्रमाण? प्रमाणे चउविहे पण्णते तं जहा पच्चवक्खे, जहाँ तक इस बात का प्रश्न है कि तर्क प्रत्यक्ष की सहायता
अणुमाणे ओवम्मे, आगमे, जहा अणुओगद्वारे। से ही व्याप्ति का ग्रहण करता है तो जैन दार्शनिकों का इससे कोई
-भगवती ५/४/१९१-१९२ विरोध नहीं है। उन्होंने तर्क की परिभाषा में ही इस बात को स्वीकार कर २. तिविहे व्यवसाए पण्णते तं जहाँ-पच्चक्खे, पच्चइए, अनुगामिए। लिया है कि प्रत्यक्ष आदि के निमित्त से तर्क की प्रवृत्ति होनी है। यह
-स्थानांग १८५ भी सही है कि प्रत्येक परवर्ती प्रमाण को अपने पूर्ववर्ती प्रमाण की
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ ३. अहवा हेउ चउविहे पण्णते तं जहाँ पच्चक्खे, अणुमाणे, ओवम्म ७. मीमांसा कोष, पृ० १६३८
__ -स्थानांग ३३८ ८. तत्रोहो नाम प्रकृतावन्यथा दृषष्य विकृतावन्यथा भावः। ४. मतिः स्मृति: संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम-तत्वार्थ १/१ १०. न्यायसूत्र पर वात्सयान भाष्य १/१/१, पृ० ५३ ५. तत्त्वार्थ भाष्य १/१५
११. न्यायसूत्र पर विश्वनाथ वृत्ति १/१/४० ६. भारतीय दर्शन का इतिहास, भाग ४ पृ० १९०-१९१ १२. न्यायसूत्र पर वात्सायन भाष्य, पृ० ३२०-२१
मूल्य दर्शन और पुरुषार्थ चतुष्टय
मूल्य-दर्शन का उद्भव एवं विकास
से ग्रसित हैं। वास्तव में मूल्य एक अनैकान्तिक, व्यापक एवं बहुएक नवीन दार्शनिक प्रस्थान के रूप में 'मूल्य दर्शन' का आयामी प्रत्यय है, वह एक व्यवस्था है, एक संस्थान है, उसमें भौतिक विकास लौत्से, ब्रेन्टानो, एरनफेल्स, माइनांग, हार्टमन, अरबन, अवरेट, और आध्यात्मिक, श्रेय और प्रेय, वांछित और वांछनीय, उच्च और मैक्स शिलर आदि विचारकों की रचनाओं के माध्यम से १९वीं निम्न, वासना और विवेक सभी समन्वित हैं। वे यथार्थ और आदर्श की शताब्दी के अन्तिम चरण में प्रारम्भ होता है, तथापि श्रेय एवं प्रेय के खाई के लिए एक पुल का काम करते हैं। अत: उन्हें किसी ऐकान्तिक विवेक के रूप में परम सुख की खोज के रूप में एवं पुरुषार्थ की एवं निरपेक्ष दृष्टिकोण के आधार पर परिभाषित नहीं किया जा सकता। विवेचना के रूप में मूल्य-बोध और मूल्य-मीमांसा के मूलभूत प्रश्नों मूल्य एक नहीं, अनेक हैं और मूल्य-दृष्टियाँ भी अनेक हैं। अत: प्रत्येक की समीक्षा एवं तत्सम्बन्धी चिन्तन के बीज पूर्व एवं पश्चिम के प्राचीन मूल्य किसी दृष्टि विशेष के प्रकाश में ही आलोकित होता है। वस्तुतः दार्शनिक चिन्तन में भी उपलब्ध होते हैं। वस्तुत: मूल्य-बोध मानवीय मूल्यों की और मूल्य-दृष्टियों की इस अनेकविधता और बहु-आयामी प्रज्ञा के विकास के साथ ही प्रारम्भ होता है। अत: वह उतना ही प्राचीन प्रकृति को समझे बिना मूल्यों का सम्यक् मूल्यांकन भी सम्भव नहीं हो है, जितना मानवीय प्रज्ञा का विकास। मूल्य-विषयक विचार-विमर्श की सकता है। यह धारा जहाँ भारत में 'श्रेय' एवं 'मोक्ष' को परम मूल्य मान कर आध्यात्मिकता की दिशा में गतिशील होती रही, वहीं पश्चिम में 'शुभ मूल्यबोध की सापेक्षता एवं 'कल्याण' पर अधिक बल देकर ऐहिक, सामाजिक एवं बुद्धिवादी मूल्य-बोध में मानवीय चेतना के विविध पहलू एक-दूसरे से बनी रही। फिर भी अर्थ, काम और धर्म के त्रिवर्ग को स्वीकार कर न संयोजित होते हैं। मूल्यांकन करने वाली चेतना भी बहु-आयामी है, तो भारतीय विचारकों ने ऐहिक और सामाजिक जीवन के मूल्यों की उसमें ज्ञान, भाव और संकल्प तीनों ही उपस्थित रहते हैं। विद्वानों ने उपेक्षा की है और न सत्य, शिव एवं सुन्दर के परम मूल्यों को स्वीकार इस बात को सम्यक् प्रकार से न समझ कर ही मूल्यों के स्वरूप को कर पश्चिम के विचारकों ने मूल्यों की आध्यात्मिक अवधारणा की समझने में भूल की है। यहाँ हमें दो बातों को ठीक प्रकार से समझ लेना उपेक्षा की है।
होगा-एक तो यह कि सभी मूल्यों का मूल्यांकन चेतना के किसी एक
ही पक्ष के द्वारा सम्भव नहीं है, दूसरे यह कि मानवीय चेतना के सभी मूल्य का स्वरूप
पक्ष एक-दूसरे से पूर्णतया निरपेक्ष होकर कार्य नहीं करते हैं। यदि हम मूल्य क्या है? इस प्रश्न के अभी तक अनेक उत्तर दिये गये इन बातों की उपेक्षा करेंगे तो हमारा मूल्य-बोध अपूर्ण एवं एकांगी हैं- सुखवादी विचारपरम्परा के अनुसार, जो मनुष्य की किसी इच्छा की होगा। फिर भी मूल्य-दर्शन के इतिहास में ऐसी उपेक्षा की जाती रही है। तृप्ति करता है अथवा जो सुखकर, रुचिकर एवं प्रिय है, वही मूल्य है। एरेनफेल्स ने मूल्य को इच्छा (डिज़ायर) का विषय माना तो माइनांग विकासवादियों के अनुसार जो जीवनरक्षक एवं संवर्द्धक है, वही मूल्य ने उसे भावना (फीलिंग) का विषय बताया। पैरी ने उसे रुचि (इंट्रेस्ट) है। बुद्धिवादी कहते हैं कि मूल्य वह है जिसे मानवीय प्रज्ञा निरपेक्ष रूप का विषय मानकर मूल्य-बोध में इच्छा और भावना का संयोग माना है। से वरेण्य मानती है और जो एक विवेकवान् प्राणी के रूप में मनुष्य- सारले ने उसे अनुमोदन (एप्रीसियेशन) का विषय मान कर उसमें ज्ञान जीवन का स्वत: साध्य है। अन्तत: पूर्णतावादी आत्मोपलब्धि को ही और भावना का संयोग माना है। फिर भी ये सभी विचारक किसी सीमा मूल्य मानते हैं और मूल्य के सम्बन्ध में एक व्यापक दृष्टिकोण प्रस्तुत तक एकांगिकता के दोष से नहीं बच पाये हैं। करते हैं। वस्तुत: मूल्य के सन्दर्भ में ये सभी दृष्टिकोण किसी सीमा तक मूल्य-बोध न तो कुर्सी और मेज़ के ज्ञान के समान तटस्थ ऐकान्तिकता एवं अवान्तर-कल्पना के दोष (Naturalistic Fallacy) ज्ञान है और न प्रेयसी के प्रति प्रेम की तरह मात्र भावावेश ही। वह मात्र
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मूल्य दर्शन और पुरुषार्थ चतुष्टय
१८५ इच्छा या रुचि का निर्माण भी नहीं है। वह न तो निरा तर्क है और न होती है उतनी विवेक या भाव की नहीं। यह बात तो मूल्य विशेष की निरी भावना या संवेदना। मूल्यात्मक चेतना में इष्टत्व, सुखदता अथवा प्रकृति पर निर्भर है कि उसका मूल्य-बोध करते समय कौन सा पक्ष इच्छा-तृप्ति का विचार अवश्य उपस्थित रहता है, किन्तु यह इच्छा- प्रधान होगा। इतना ही नहीं, मूल्य-बोध में देश-काल और परिवेश के तृप्ति का विचार या इष्टत्व का बोध विवेक-रहित न होकर विवेक-युक्त तत्त्व भी चेतना पर अपना प्रभाव डालते हैं और हमारे मूल्यांकन को होता है। इच्छा स्वयं में कोई मूल्य नहीं, उसकी अथवा उसके विषय प्रभावित करते हैं। इस प्रकार मूल्य-बोध एक सहज प्रक्रिया न होकर की मूल्यात्मकता का निर्णय स्वयं इच्छा नहीं, विवेक करता है, भूख एक जटिल प्रक्रिया है और उसकी इस जटिलता में ही उसकी सापेक्षता स्वयं मूल्य नहीं है, रोटी मूल्यवान है, किन्तु रोटी की मूल्यात्मकता भी निहित है। जो आचार किसी देश, काल परिस्थिति विशेष में शुभ माना स्वयं रोटी पर नहीं अपितु उसका मूल्यांकन करने वाली चेतना पर तथा जाता है वही दूसरे देश, काल और परिस्थिति में अशुभ माना जा क्षुधा की वेदना पर निर्भर है। किसी वस्तु के वांछनीय, ऐषणीय या सकता है। सौंदर्य-बोध, रसानुभूति आदि के मानदण्ड भी देश, काल मूल्यवान् होने का अर्थ है-निष्पक्ष विवेक की आँखों में वांछनीय होना। और व्यक्ति के साथ परिवर्तित होते रहते हैं। आज सामान्यजन फिल्मी मात्र इच्छा या मात्र वासना अपने विषय को वांछनीय या एषणीय नहीं गानों में जो रस-बोध पाता है वह उसे शास्त्रीय संगीत में नहीं मिलता बना देती है, यदि उसमें विवेक का योगदान न हो। मूल्य का जन्म है। इसी प्रकार रुचि-भेद भी हमारे मूल्य-बोध को एवं मूल्यांकन को वासना और विवेक तथा यथार्थ और आदर्श के सम्मिलन में ही होता प्रभावित करता है। वस्तुत: मूल्य-बोध की अवस्था चेतना की निष्क्रिय है। वासना मूल्य के लिए कच्ची सामग्री है तो विवेक उसका रूपाकार। अवस्था नहीं है। जो विचारक यह मानते हैं कि मूल्य-बोध एक प्रकार उसमें भोग और त्याग, तृप्ति और निवृत्ति एक साथ उपस्थित रहते हैं। का सहज ज्ञान है, वे उसके स्वरूप से ही अनभिज्ञ हैं। मात्र यही नहीं, इस सन्दर्भ में श्री संगमलाल जी पांडेय का मूल्यों की त्यागरूपता का रसानुभूति या सौंदर्यानुभूति में और तत्सम्बन्धी मूल्य-बोध में भी अन्तर सिद्धान्त भी एकांगी ही लगता है। उनका यह कहना कि “निवृत्ति ही है। रसानुभूति या सौंदर्यानुभूति में मात्र भावपरक पक्ष की उपस्थिति मूल्यसार है" ठीक नहीं है। मूल्य में निवृत्ति और संतुष्टि (प्रवृति) दोनों पर्याप्त होती है, उसमें विवेक का कोई तत्त्व उपस्थित हो ही यह ही अपेक्षित हैं। उन्होंने अपने लेख में निवृत्ति शब्द का दो भिन्न अर्थों आवश्यक नहीं है, किन्तु तत्सम्बन्धी मूल्य-बोध में किसी न किसी में प्रयोग किया है, जो एक भ्रान्ति को जन्म देता है। क्षुधा की निवृत्ति विवेक का तत्त्व अवश्य ही उपस्थित रहता है। मूल्य-बोध और मूल्यया कामवेग की निवृत्ति में त्याग नहीं भोग है पुन: इस निवृत्ति को भी लाभ सक्रिय एवं सृजनात्मक चेतना के कार्य हैं। मूल्य-बोध और मूल्यसन्तुष्टि का ही दूसरा रूप कहा जा सकता है। (देखिए-दार्शनिक लाभ में मानवीय चेतना के विविध पक्षों का विविध आयामों में एक त्रैमासिक, जुलाई १९७६)।
प्रकार का द्वन्द्व चलता है। वासना और विवेक अथवा भावना या विवेक पुनश्च, यह मानना भी उचित नहीं है कि मूल्य-बोध में विवेक के अन्तर्द्वन्द्व में ही मनुष्य मूल्य-विश्व का आभास पाता है यद्यपि या बुद्धि ही एकमात्र निर्धारक तत्त्व है। मूल्य-बोध की प्रक्रिया में मूल्यांकन करने वाली चेतना मूल्य-बोध में इस द्वन्द्व का अतिक्रमण निश्चित ही विवेक-बुद्धि का महत्त्वपूर्ण स्थान है, किन्तु यही एकमात्र करती है। वस्तुत: इस द्वन्द्व में जो पहलू विजयी होता है उसी के आधार निर्धारक तत्त्व नहीं है। मूल्य-बोध न तो मात्र जैव-प्रेरणा या इच्छा से पर व्यक्ति की मूल्य-दृष्टि बनती है और जैसी मूल्य-दृष्टि बनती है वैसा उत्पन्न होता है और न मात्र विवेक-बुद्धि से। मूल्य-बोध में भावात्मक ही मूल्यांकन या मूल्य-बोध होता है। जिनमें जिजीविषा प्रधान हो, पक्ष का भी महत्त्वपूर्ण स्थान होता है, किन्तु केवल भावोन्मेष भी मूल्य- जिनकी चेतना को जैव प्रेरणाएँ ही अनुशासित करती हों, उन्हें रोटी बोध नहीं दे पाता है। डॉ. गोविन्दचन्द्रजी पांडे के शब्दों में "यह अर्थात् जीवन का संवर्द्धन ही एकमात्र परम मूल्य लग सकता है, किन्तु (मूल्य-बोध) केवलभाव-सघनता या इच्छोद्वेलन न होकर व्यक्त या अनेक परिस्थितियों में विवेक के प्रबुद्ध होने पर कुछ व्यक्तियों को अव्यक्त विवेक से अलौकिक है, उसमें अनुभूति की जीवन्त सघनता चारित्रिक एवं अन्य उच्च मूल्यों की उपलब्धि हेतु जीवन का बलिदान
और रागात्मकता (लगाव) के साथ ज्ञान की स्वच्छता और तटस्थता ही एकमात्र परम मूल्य लग सकता है। किसी के लिए वासनात्मक एवं (अलगाव) उपस्थित होती है (मूल्य-मीमांसा)। इस प्रकार मूल्य-चेतना जैविक मूल्य ही परम मूल्य हो सकते हों और जीवन सर्वतोभावेन में ज्ञान, भाव और इच्छा तीनों ही उपस्थित होते हैं। फिर भी यह रक्षणीय माना जा सकता हो, किन्तु किसी के लिए चारित्रिक या नैतिक विचारणीय है कि क्या सभी प्रकार के मूल्यांकन में ये सभी पक्ष समान मूल्य इतने उच्च हो सकते हैं कि वह उनकी रक्षा के लिए जीवन का रूप से बलशाली रहते हैं? यद्यपि प्रत्येक मूल्य-बोध एवं मूल्यांकन में बलिदान कर दे। इस प्रकार मूल्य-बोध की विभिन्न दृष्टियों का निर्माण ज्ञान, भाव और इच्छा के तत्त्व उपस्थित रहते हैं, फिर भी विविध प्रकार चेतना के विविध पहलुओं में से किसी एक की प्रधानता के कारण के मूल्यों का मूल्यांकन या मूल्य-बोध करते समय इनके बलाबल में अथवा देश-काल तथा परिस्थितिजन्य तत्त्वों के कारण होता है और तरतमता अवश्य रहती है। उदाहरणार्थ-सौंदर्य-बोध में भाव या उसके परिणामस्वरूप मूल्य-बोध तथा मूल्यांकन भी प्रभावित होता है। अनुभूत्यात्मक पक्षका जितना प्राधान्य होता है उतना अन्य पक्षों का अत: हम कह सकते हैं कि मूल्य-बोध भी किसी सीमा तक दृष्टिनहीं। आर्थिक एवं जैविक मूल्यों के बोध में इच्छा की जितनी प्रधानता सापेक्ष है, किन्तु इसके साथ ही हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि
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१८६ स्वयं दृष्टि भी मूल्य-बोध से प्रभावित होती है। इस प्रकार मूल्य-बोध मानते हैं। भौतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की श्रेष्ठता अथवा कनिष्ठता और मनुष्य की जीवन-दृष्टि परस्पर सापेक्ष हैं। अरबन का यह कथन कि के सम्बन्ध में भी जो मतभेद हैं वे सभी दृष्टि-सापेक्ष ही हैं। वस्तुत: जो मूल्यांकन मूल्य को निर्धारित नहीं अपितु मूल्य ही अपनी पूर्ववर्ती किसी एक दृष्टि से सर्वोच्च मूल्य हो सकता है वही दूसरी दृष्टि से निम्न वस्तुनिष्ठता के द्वारा मूल्यांकन को प्रभावित करते हैं, आंशिक सत्य ही मूल्य भी सिद्ध हो सकता है। बलवत्ता या तीव्रता की दृष्टि से जहाँ कहा जा सकता है। मूल्य न तो पूर्णतया वस्तुतन्त्र है और न आत्मतन्त्र जैविक मूल्य सर्वोच्च ठहरते हैं, वहीं विवेक एवं संयम की दृष्टि से ही। हमारा मूल्य-बोध आत्म और वस्तु दोनों से प्रभावित होता है। आध्यात्मिक एवं अतिजैविक मूल्य उच्चतर माने जा सकते हैं। पुनः, सौंदर्य-बोध में, काव्य के रस-बोध में आत्मनिष्ठता और वस्तुनिष्ठता किसी एक ही दृष्टि के आधार पर मूल्यों की तरतमता का निर्धारण भी के इन दोनों पक्षों को स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है। सौंदर्य-बोध सम्भव नहीं है, क्योंकि मूल्य और मूल्य-दृष्टियाँ बहु-आयामी हैं, वे अथवा काव्य की रसानुभूति न पूरी तरह कृति-सापेक्ष है, न पूरी तरह एक-रेखीय न होकर बहुरेखीय हैं। एक मूल्य पर एक दृष्टि से विचार आत्म-सापेक्ष। इस प्रकार हमें यह मानना होगा कि मूल्यांकन करने किया जा सकता है। इस प्रकार मूल्य-बोध और उनकी तरतमता का वाली चेतना और मूल्य दोनों ही एक-दूसरे से निरपेक्ष नहीं हैं। बोध दृष्टि-सापेक्ष है और वह दृष्टि-चेतना के विविध पहलुओं के मूल्यांकन की प्रक्रिया में दोनों परस्पराश्रित हैं। एक ओर मूल्य अपनी बलाबल पर निर्भर करता है। पुनश्च, चेतना के वासनात्मक और मूल्यवत्ता के लिए चेतन सत्ता की अपेक्षा करते हैं दूसरी ओर चेतन विवेकात्मक पहलुओं में कब, कौन, कितना बलशाली होगा यह बात सत्ता मूल्य-बोध के लिए किसी वस्तु, कृति या घटना की अपेक्षा करती भी आंशिक रूप से देश-काल और परस्थितियों पर निर्भर होगी और है। मूल्य न तो मात्र वस्तुओं से प्रकट होते हैं और न मात्र आत्मा से। आंशिक रूप से व्यक्ति के संस्कार और मूल्य-दृष्टि पर भी। इस प्रकार अत: मूल्य-बोध की प्रक्रिया को समझाने में विषयीतंत्रता या वस्तुतंत्रता यह कहा जा सकता है कि मूल्य-बोध मूल्य-दृष्टि पर निर्भर करता है ऐकांतिक धारणाएँ है। मूल्य का प्रकटीकरण चेतना और वस्तु (यहाँ और मूल्य-दृष्टि स्वयं मूल्य-बोध पर। वे अन्योन्याश्रित हैं, बीज-वृक्ष वस्तु में कृति या घटना अन्तर्भूत हैं) दोनों के संयोग में होता है। पेरी न्याय के समान उनमें से किसी की पूर्वतया-प्राथमिकता का निश्चय कर सीमा तक सत्य के निकट हैं जब वे यह कहते हैं कि मूल्य वस्तु और पाना कठिन है। विचार के ऐच्छिक सम्बन्ध में प्रकट होते हैं।
अरबन का आध्यात्मिक मूल्यवाद और भारतीय मूल्य दर्शन मूल्यों की तरतमता का प्रश्न
अरबन के अनुसार मूल्यांकन एक निर्णयात्मक प्रक्रिया है, मूल्य-बोध के साथ जुड़ा हुआ दूसरा सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न जिसमें सत् के प्रति प्राथमिक विश्वासों के ज्ञान का तत्त्व भी होता है। है, मूल्यों के तारतम्य का बोध। हमें केवल मूल्य-बोध नहीं होता अपितु इसके साथ ही उसमें भावात्मक तथा संकल्पात्मक अनुक्रिया भी है। मूल्यों के उच्चावच क्रम का या उनकी तरतमता का भी बोध होता है। मूल्यांकन संकल्पात्मक प्रक्रिया का भावपक्ष है। अरबन मूल्यांकन की वस्तुत: हमें मूल्य का नहीं अपितु मूल्यों का, उनकी तरतमता-सहित प्रक्रिया में ज्ञानपक्ष के साथ-साथ भावना एवं संकल्प की उपस्थिति भी बोध होता है। हम किसी भी मूल्य-विशेष का बोध मूल्य-विश्व में ही आवश्यक मानते हैं। मूल्यांकन में निरन्तरता का तत्त्व उनकी प्रामाणिकता करते हैं, अलग एकाकी रूप में नही। अत: किसी मूल्य के बोध के का आधार है। जितनी अधिक निरन्तरता होगी उतना ही अधिक वह समय ही उसकी तरतमता का भी बोध हो जाता है। किन्तु यह तरतमता प्रामाणिक होगा। मूल्यांकन और मूल्य में अन्तर स्पष्ट करते हुए अरबन का बोध भी दृष्टि-निरपेक्ष नहीं होकर दृष्टि-सापेक्ष होता है। हम कुछ कहते हैं कि मूल्यांकन मूल्य को निर्धारित नही करता, वरन् मूल्य ही मूल्यों को उच्च मूल्य और कुछ मूल्यों को निम्न मूल्य कहते हैं किन्तु अपनी पूर्ववर्ती वस्तुनिष्ठता के द्वारा मूल्यांकन को निर्धारित करते हैं। मूल्यों की इस उच्चावचता या तरतमता का निर्धारण कौन करता है? अरबन के अनुसार मूल्य न कोई गुण है, न वस्तु और न क्या मूल्यों की अपनी कोई ऐसी व्यवस्था है जिसमें निरपेक्ष रूप से सम्बन्ध। वस्तुत: मूल्य अपरिभाष्य है तथापि उसकी प्रकृति को उसके उसकी तरमता का बोध हो जाता है? यदि मूल्यों की तरतमता की कोई सत्ता से सम्बन्ध के आधार पर जाना जा सकता है। वह सत्ता और ऐसी वस्तुनिष्ठ व्यवस्था होती है तो फिर तरतमता सम्बन्धी हमारे असत्ता के मध्य स्थित है। अरबन मिनांग के समान उसे वस्तुनिष्ठ विचारों में मतभेद नहीं होता। किन्तु स्थिति ऐसी नहीं है। अत: स्पष्ट है कहता है, किन्तु उसका अर्थ 'होना चाहिए' (Ought to be) में है। कि मूल्यों की तरतमता का बोध भी दृष्टि-सापेक्ष है।
मूल्य सदैव अस्तित्व का दावा करते हैं, उनका सत् होना इसी पर भारतीय परम्परा में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की मूल्य- निर्भर है कि सत् को ही मूल्य के उस रूप में विवेचित किया जाये, दृष्टियों की विविधता मूल्य-बोध की सापेक्षता को ही सूचित करती है। जिसमें सत्ता और अस्तित्व भी हो। पश्चिम में भी सत्य, शिव एवं सुन्दर के सम्बन्ध में इसी प्रकार का
मूल्य की वस्तुनिष्ठता के दो आधार हैं-प्रथम यह कि प्रत्येक दृष्टिभेद परिलक्षित होता है। कुछ लोग सत्य को परम मूल्य मानते हैं वस्तु विषय मूल्य की विधा में आता है और दूसरे प्रत्येक मूल्य उच्च तो दूसरे कुछ लोग शिव (कल्याण) को अथवा सुन्दर को परम मूल्य और निम्न के क्रम से स्थित है। अरबन के अनुसार मूल्यों की अनुभूति
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मूल्य दर्शन और पुरुषार्थ चतुष्टय
१८७ उनकी किसी क्रम में अनुभूति है, यह बिना मूल्यों में पूर्वापरता माने, जिनमें बौद्धिक, सौन्दर्यात्मक और धार्मिक मूल्य भी समाहित हैं, उच्च केवल मनोवैज्ञानिक अवस्था पर निर्भर नहीं हो सकती। इस प्रकार मूल्य प्रकार के हैं। एक-दूसरे की अपेक्षा रखते हैं।
अरबन की दृष्टि में मूल्यों की इसी क्रम-व्यवस्था के आधार __मूल्य की सामान्य चर्चा के बाद अरबन नैतिक मूल्य पर आते पर आत्मसाक्षात्कार के स्तर हैं। आत्मसाक्षात्कार के लिए प्रस्थित हैं। अरबन के अनुसार नैतिक दृष्टि से मूल्यवान होने का अर्थ है मनुष्य आत्मा की पूर्णता उस स्तर पर है, जिसे मूल्यांकन करने वाली चेतना के लिए मूल्यवान होना। नैतिक शुभत्व मानवीय मूल्यांकन के सिद्धान्त सर्वोच्च मूल्य समझती है और सर्वोच्च मूल्य वह है जो अनुभूति की पर निर्भर है। मानवीय मूल्यांकन के सिद्धान्त को कुछ लोगों ने पूर्णता में तथा जीवन के सम्यक् संचालन में सबसे अधिक योगदान आकारिक नियमों की व्यवस्था के रूप में और कुछ लोगों ने सुखया करता है। जैन दृष्टि में इसे हम वीतरागता और सर्वज्ञता की अवस्था की गणना के रूप में देखा था, लेकिन अरबन के अनुसार मानवीय कह सकते हैं। मूल्यांकन के सिद्धान्त का तीसरा एकमात्र सम्भावित विकल्प है एक अन्य आध्यात्मिक मूल्यवादी विचारक डब्ल्यू. आर० 'आत्मसाक्षात्कार'। आत्मसाक्षात्कार के सिद्धान्त के समर्थन में अरबन साली जैन परम्परा के निकट आकर यह कहते हैं कि नैतिक पूर्णता अरस्तू की तरह ही तर्क प्रस्तुत करते हैं। वे कहते हैं कि वस्तुओं का ईश्वर के समान बनने में है। किन्तु कुछ भारतीय परम्परायें तो इससे भी शुभत्व उनकी कार्यकुशलता में है, अंगों का शुभत्व जीवन जीने में आगे बढ़कर यह कहती हैं कि नैतिक पूर्णता परमात्मा होने में है। उनके योगदान में है और जीवन का शुभत्व आत्मपूर्णता में है। मनुष्य आत्मा से परमात्मा, जीव से जिन, साधक से सिद्ध, अपूर्ण से पूर्ण की 'आत्म' (Self) है और यदि यह सत्य है तो फिर मानव का वास्तविक उपलब्धि में ही नैतिक जीवन की सार्थकता है। शुभ उसकी आत्मपरिपूर्णता में ही निहित है। अरबन की यह दृष्टि
अरबन की मूल्यों की क्रम-व्यवस्था भी भारतीय परम्परा के भारतीय परम्परा के अति निकट है जो यह स्वीकार करती है कि दृष्टिकोण के निकट ही है। जैन एवं अन्य भारतीय दर्शनों में भी अर्थ, आत्मपूर्णता ही नैतिक जीवन का लक्ष्य है।
काम, धर्म और मोक्ष पुरुषार्थों में यही क्रम स्वीकार किया गया है। अरबन के अनुसार 'आत्म' सामाजिक जीवन से अलग कोई अरबन के आर्थिक मूल्य अर्थपुरुषार्थ के, शारीरिक एवं मनोरंजनात्मक व्यक्ति नहीं है, वरन् वह तो सामाजिक मर्यादाओं में बँधा हुआ है और मूल्य कामपुरुषार्थ के, साहचर्यात्मक और चारित्रिक मूल्य धर्मपुरुषार्थ समाज को अपने मूल्यांकन से और अपने को सामाजिक मूल्यांकन से के तथा सौन्दर्यात्मक, ज्ञानात्मक और धार्मिक मूल्य मोक्षपुरुषार्थ के प्रभावित पाता है।
तुल्य हैं। ___ अरबन के अनुसार स्वहित और परहित की समस्या का सही समाधान न तो परिष्कारित स्वहितवाद में है और न बौद्धिक परहितवाद भारतीय दर्शनों में जीवन के चार मूल्य में है, वरन् सामान्य शुभ की उपलब्धि के रूप में स्वहित और परहित जिस प्रकार पाश्चात्य आचारदर्शन में मूल्यवाद का सिद्धान्त से ऊपर उठ जाने में है। यह दृष्टिकोण भारतीय परम्परा में भी ठीक इसी लोकमान्य है उसी प्रकार भारतीय नैतिक चिन्तन में पुरुषार्थ-सिद्धान्त, रूप में स्वीकृत रहा है। जैन परम्परा भी स्वहित और लोकहित की जो कि जीवन-मूल्यों का ही सिद्धान्त है, पर्याप्त लोकप्रिय रहा है। सीमाओं से ऊपर उठ जाना ही नैतिक जीवन का लक्ष्य मानती है। भारतीय विचारकों ने जीवन के चार पुरुषार्थ या मूल्य माने हैं
__ अरबन इस समस्या का समाधान भी प्रस्तुत करते हैं कि १. अर्थ (आर्थिक मूल्य)-जीवन-यात्रा के निर्वाह के लिए मूल्यांकन करने वाली मानवीय चेतना के द्वारा यह कैसे जाना जाय कि भोजन, वस्त्र, आवास आदि की आवश्कता होती है, अत: दैहिक कौन से मूल्य उच्च कोटि के हैं और कौन से मूल्य निम्न कोटि के? आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले इन साधनों को उपलब्ध करना ही अरबन इसके तीन सिद्धान्त बताते हैं
अर्थपुरुषार्थ है। पहला सिद्धान्त यह है कि साध्यात्मक या आन्तरिक मूल्य
२. काम (मनोदैहिक मूल्य)-जैविक आवश्यकताओं की साधनात्मक या बाह्य मूल्यों की अपेक्षा उच्च हैं। दूसरा सिद्धान्त यह पूर्ति के साधन जुटाना अर्थपुरुषार्थ और उन साधनों का उपभोग करना हैं कि स्थायी मूल्य अस्थायी मूल्यों की अपेक्षा उच्च हैं और तीसरा कामपुरुषार्थ है। दूसरे शब्दों में विविध इंद्रियों के विषयों का भोग सिद्धान्त यह है कि उत्पादक मूल्य अनुत्पादक मूल्यों की अपेक्षा कामपुरुषार्थ है। उच्च हैं।
३.धर्म (नैतिक मूल्य)-जिन नियमों के द्वारा सामाजिक अरबन इन्हें व्यावहारिक विवेक के सिद्धान्त या मूल्य के जीवन या लोकव्यवहार सुचारु रूप से चले, स्व-पर कल्याण हो नियम कहते हैं। ये हमें बताते हैं कि जैविक मूल्य जिनमें आर्थिक, और जो व्यक्ति को आध्यात्मिक पूर्णता की दिशा में ले जाये, वह शारीरिक और मनोरंजनात्मक मूल्य समाहित हैं; की अपेक्षा सामाजिक धर्मपुरुषार्थ है। मूल्य जिनमें साहचर्य और चारित्र के मूल्य भी समाहित हैं, उच्च प्रकार ४. मोक्ष (आध्यात्मिक मूल्य)-आध्यात्मिक शक्तियों का के हैं। उसी प्रकार सामाजिक मूल्यों की अपेक्षा आध्यात्मिक मूल्य, पूर्ण प्रकटीकरण मोक्ष है।
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(अ) जैन दृष्टि में पुरुषार्थचतुष्टय
विरोधी मानते हों, किन्तु जिनवाणी के अनुसार तो वे कुशल अनुष्ठान सामान्यतया यह समझा जाता है निवृत्तिप्रधान जैन दर्शन में में अवतरित होने के कारण परस्पर असपत्न (अविरोधी) हैं। अपनीमोक्ष ही एकमात्र पुरुषार्थ है। धर्मपुरुषार्थ की स्वीकृति उसके मोक्षानुकूल अपनी भूमिका के योग्य विहित अनुष्ठान रूप धर्म, स्वच्छाशय प्रयुक्त होने में ही है। अर्थ और काम इन दो पुरुषार्थों का उसमें कोई स्थान नहीं अर्थ और विस्त्रम्भयुक्त अर्थात् मर्यादानुकूल वैवाहिक नियन्त्रण से है। जैन-विचारकों के अनुसार अर्थ अनर्थ का मूल है,२ सभी काम स्वीकृत काम, जिनवाणी के अनुसार, परस्पर अविरोधी हैं। ये पुरुषार्थ दुःख उत्पन्न करने वाले हैं। लेकिन यह विचार एकांगी ही माना परस्पर अविरोधी तभी होते हैं जब वे मोक्षाभिमुख होते हैं और जब वे जायेगा। कोई भी जिनवचन एकान्त या निरपेक्ष नहीं है। जैन विचारकों मोक्षाभिमुख होकर परस्पर अविरोध की स्थिति में हों, असपत्न हों, तो ने सदैव ही व्यक्ति को स्वपुरुषार्थ से धनोपार्जन की प्रेरणा दी है। वे यह वे सम्यक् होते हैं, इसलिए आचरणीय होते हैं। किन्तु जब मोक्ष-मार्ग मानते हैं कि व्यक्ति को केवल अपने पुरुषार्थ से उपार्जित सम्पत्ति के से विमुख होकर पुरुषार्थ-चतुष्टय परस्पर विरोध में या निरपेक्ष होते हैं, भोग करने का अधिकार है। दूसरों के द्वारा उपार्जित सम्पत्ति के भोग तब वे असम्यक् या अनुचित एवं अनाचरणीय होते हैं। करने का उसे कोई अधिकार नहीं है। गौतमकुलक में कहा गया है कि पिता के द्वारा उपार्जित लक्ष्मी निश्चय ही पुत्र के लिए बहन होती है और (ब) बौद्ध दर्शन में पुरुषार्थ चतुष्टय दूसरों की लक्ष्मी परस्त्री के समान होती है। दोनों का ही भोग वर्जित है। भगवान् बुद्ध यद्यपि निवृत्तिमार्गी श्रमण परम्परा के अनुगामी अत: स्वयं अपने पुरुषार्थ से धन का उपार्जन करके ही उसका भोग हैं, तथापि उनके विचारों में अर्थ एवं काम पुरुषार्थ के सम्बन्ध में भी करना न्यायसंगत है। जैनाचार्यों ने विभिन्न वर्ण के लोगों को किन- दिशाबोध उपलब्ध है। दीघनिकाय में अर्थ की उपलब्धि के लिए श्रम किन साधनों से धनार्जन करना चाहिए, इसका भी निर्देश किया है। करते रहने का सन्देश उपलब्ध होता है। बुद्ध कहते हैं- आज बहुत सर्दी ब्राह्मणों को मुख (विद्या) से, क्षत्रियों को असि (रक्षण) से, वणिकों को है, आज बहुत गर्मी है, अब तो सन्ध्या (देर) हो गयी, इस प्रकार श्रम वाणिज्य से और कर्मशील व्यक्तियों को शिल्पादि कर्म से धनार्जन से दूर भागता हुआ मनुष्य धनहीन हो जाता है। किन्तु जो सर्दी-गर्मी करना चाहिए, क्योंकि इन्हीं की साधना में उनकी लक्ष्मी का निवास आदि को सहकर कठोर परिश्रम करता है, वह कभी सुख से वंचित है।५ यद्यपि यह सही है कि मोक्ष या निर्वाण की उपलब्धि में जो अर्थ नहीं होता जैसे प्रयत्नवान रहने से मधुमक्खी का छत्ता बढ़ता है,
और काम बाधक हैं, वे जैनदृष्टि के अनुसार अनाचरणीय एवं हेय हैं। चींटी का वल्मीक बढ़ता है, वैसे ही प्रयत्नशील मनुष्य का ऐश्वर्य लेकिन दर्शन यह कभी नहीं कहता कि अर्थ और काम पुरुषार्थ एकान्त बढ़ता है। इतना ही नहीं, प्राप्त सम्पदा का उपयोग किस प्रकार हो, रूप से हेय हैं। यदि वे एकान्त रूप से हेय होते तो आदि तीर्थंकर इस सम्बन्ध में भी बुद्ध का निर्देश है कि सद्गृहस्थ प्राप्त धन के एक भगवान् ऋषभदेव स्त्रियों की ६४ और पुरुषों की ७२ कलाओं का भाग का उपभोग करे, दो भागों को व्यापार आदि कार्यक्षेत्र में लगाये विधान कैसे करते? क्योंकि उनमें अधिकांश कलाएँ अर्थ और काम और चौथे भाग को आपत्ति काल में काम आने के लिए सुरक्षित रख पुरुषार्थ से सम्बन्धित हैं।६ न्यायपूर्वक उपार्जित अर्थ और वैवाहिक छोड़े।११ आज का प्रगतिशील अर्थशास्त्री भी आर्थिक प्रगति के लिए मर्यादानुकूल काम का जैन विचारणा में समुचित स्थान है। जैन विचारकों इससे अच्छे सूत्र प्रस्तुत नही कर सकता। बुद्ध केवल अर्थशास्त्री के रूप ने जिसके त्याग पर बल दिया है वह इन्द्रिय-विषयों का भोग नहीं, में ही नहीं, वरन् एक सामाजिक अर्थशास्त्री के रूप में हमारे सामने भोगों के प्रति आसक्ति या राग-द्वेष की वृत्ति है। जैन मान्यता के आते हैं। वे इस बारे में भी पूर्ण सतर्क हैं कि यदि समाज में धन का अनुसार कर्म-विपाक से उपलब्ध भोगों से बचा नही जा सकता। समुचित वितरण नहीं होगा तो अराजकता और असुरक्षा उत्पन्न होगी। इन्द्रियों के सम्मुख उनके विषय उपस्थित होने पर उनके आस्वाद से भी वे कहते हैं, निर्धनों को धन नहीं दिये जाने से दरिद्रता बहुत बढ़ गयी बचना सम्भव नही है, जो सम्भव है वह यह कि उनमें राग-द्वेष की वृत्ति और दरिद्रता के बहुत बढ़ जाने से चोरी बहुत बढ़ गयी।१२ चोरी के न रखी जाये। इतना ही नहीं, जैनाचार्यों ने जीवन के वासनात्मक एवं बहुत बढ़ने का अर्थ धन की असुरक्षा है। इसके पीछे बुद्ध का निर्देश सौन्दर्यात्मक पक्ष को धर्मोन्मुखी बनाने तथा उनके पारस्परिक विरोध यही है कि समाज में धन का समवितरण होना चाहिए ताकि समाज का को समाप्त करने का भी प्रयास किया है। उनके अनुसार मोक्षाभिमुख कोई भी वर्ग अभाव से पीड़ित न हो। बुद्ध की दृष्टि में अर्थ को कभी परस्पर अविरोध में रहे हुए सभी पुरुषार्थ आचरणीय हैं। आचार्य भी धर्म से विमुख नहीं होना चाहिए, वे धर्मयुक्त व्यवसाय में नियोजित हेमचन्द्र कहते हैं कि गृहस्थ उपासक धर्मपुरुषार्थ और कामपुरुषार्थ का होने का ही निर्देश देते हैं।१३ जो जीवन में धन का दान एवं भोग के इस प्रकार आचरण करे कि कोई किसी का बाधक न हो।७ रूप में समुचित उपयोग नहीं करता, उसका धन निरर्थक है, क्योंकि
भद्रआर्य (दूसरी सती) ने तो आचार्य हेमचन्द्र (११वीं शताब्दी) मरनेवाले के पीछे उसका धन आदि नहीं जाता है और न धन से के पूर्व ही यह उद्घोषणा कर दी थी कि जैन परम्परा में तो पुरुषार्थचतुष्टय जरामरण से ही छुटकारा मिल सकता है।१४ कामपुरुषार्थ के सम्बन्ध में अविरोध रहते हैं। आचार्य बड़े ही स्पष्ट एव मार्मिक शब्दों में लिखते बुद्ध का दृष्टिकोण मध्यम मार्ग का प्रतिपादन करता है। उदान में बुद्ध हैं कि धर्म, अर्थ और काम को भले ही अन्य कोई विचारक परस्पर कहते हैं, “ब्रह्मचर्य जीवन के साथ व्रतों का पालन करना ही सार है,
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मूल्य दर्शन और पुरुषार्थं चतुष्टय यह एक अन्त है। कामभोगों के सेवन में कोई दोष नहीं, यह दूसरा अन्त है। इन दोनों अन्तों के सेवन से संस्कारों की वृद्धि होती है, मिथ्याधारणा बढ़ती है, व्यक्ति मार्ग से भ्रष्ट हो जाता है। " १५ इस आधार पर कामपुरुषार्थ के सम्बन्ध में बुद्ध का दृष्टिकोण यही प्रतीत होता है कि जो काम धर्म-अविरुद्ध है, जिससे आध्यात्मिक प्रगति या चित की विकलता समाप्त होती है, वह काम आचरणीय है इसके विपरीत धर्मविरुद्ध मानसिक अशान्तिकारक काम या विषयभोग अनाचरणीय है।
बुद्ध की दृष्टि में भी जैन विचार के समान धर्मपुरुषार्थ निर्वाण या मोक्षपुरुषार्य का साधन है। मज्झिमनिकाय में बुद्ध कहते हैं, “भिक्षुओं मैंने बेड़े की भाँति पार जाने के लिए (निर्वाणलाभ के लिए) तुम्हें धर्म का उपदेश दिया है, पकड़ रखने के लिए नहीं।” १६ अर्थात् निर्वाण की दिशा में ले जानेवाला धर्म ही आचरणीय है । बुद्ध की दृष्टि में जो धर्म निर्वाण की दिशा में नहीं ले जाता, जिससे निर्वाणलाभ में बाधा आती हो वह त्याग देने योग्य है। इतना ही नहीं, बुद्ध धर्म को एक साधन के रूप में स्वीकार करते हैं और साध्य की उपलब्धि के लिए उसे भी छोड़ देने का सन्देश देते हैं। उनकी दृष्टि में परम मूल्य तो निर्वाण ही है।
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बिना यज्ञ के जो भोग करता है, वह चोर है, तो उसका प्रमुख दृष्टिकोण कामपुरुषार्थ को धर्माभिमुख बनाने का ही है । २२
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन, बौद्ध और गीता की विचारधाराओं में चारों पुरुषार्थ स्वीकृत हैं, यद्यपि सभी ने इस बात पर बल दिया है कि अर्थ और काम पुरुषार्थ को धर्म-अविरुद्ध होना चाहिए और धर्म को सदैव ही मोक्षाभिमुख होना चाहिए। वस्तुतः यह दृष्टिकोण न केवल जैन, बौद्ध और गीता की परम्पराओं का है, वरन् समग्र भारतीय चिन्तन की इस सन्दर्भ में यही दृष्टि है। मनु कहते हैं कि धर्मविहीन अर्थ और काम को छोड़ देना चाहिए । २३ महाभारत में भी कहा है कि जो अर्थ और काम धर्म विरोधी हों, उन्हें छोड़ देना चाहिए । २४ कौटिल्य अपने अर्थशास्त्र में और वात्स्यायन अपने कामसूत्र में लिखते हैं कि धर्म से अविरोध में रहे हुए काम का ही सेवन करना चाहए । २५
इस प्रकार भारतीय चिन्तकों का प्रयास वही रहा है कि चारों पुरुषार्थों को इस प्रकार संयोजित किया जाये कि वे परस्पर सापेक्ष होकर अविरोध की अवस्था में रहे। इस हेतु उन्होंने उनका पारस्परिक सम्बन्ध निश्चित करने का प्रयास भी किया। कौन सा पुरुषार्थ सर्वोच्च मूल्यवाला है इस सम्बन्ध में महाभारत में गहराई से विचार किया गया है और इसके फलस्वरूप विभिन्न दृष्टिकोण सामने भी आये
१. अर्थ ही परम पुरुषार्थ है, क्योंकि धर्म और काम दोनों अर्थ के होने पर उपलब्ध होते हैं। धन के अभाव में न तो काम भोग ही प्राप्त होते हैं, और न दान-पुण्यादि रूप धर्म ही किया जा सकता है। २६ कौटिल्य ने भी अर्थशास्त्र में इसी दृष्टिकोण को प्रतिपादित किया है। २७
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गीता में पुरुषार्थ चतुष्टय पुरुषार्थ चतुष्ट सम्बन्ध में गीता का दृष्टिकोण जैन परम्परा से भिन्न नहीं है। गीता की दृष्टि में भी मोक्ष ही परम पुरुषार्थ है वही परम मूल्य है। धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ सम्बन्धी धृति को गीताकार ने राजसी कहा है। १७ लेकिन यह मानना भी भ्रान्तिपूर्ण होगा कि गीता में इन पुरुषार्थों का कोई स्थान नहीं है। गीताकार जब काम की निन्दा करता है, १८ धर्म को छोड़ने की बात करता है, १९ तो मोक्षपुरुषार्थं या परमात्मा की प्राप्ति की अपेक्षा से ही मोक्ष ही परमाराध्य है, धर्म, अर्थ और काम का मोक्ष के निमित्त परित्याग किया जा सकता है। गीताकार की दृष्टि में भी यदि धर्म, अर्थ और काम मोक्ष के अविरोधी हैं तो वे ग्राह्य हैं। गीताकार की मान्यता भी यही प्रतीत होती है कि अर्थ और काम को धर्माधीन होना चाहिए और धर्म को मोक्षाभिमुख होना चाहिए। धर्मयुक्त, यज्ञ (त्याग) पूर्वक एवं वर्णानुसार किया गया आजीविकोपार्जन गीता के अनुसार विहित ही है। यद्यपि धन की चिन्ता में डूबे रहनेवाले और धन का तथा धन के द्वारा किये गये दान पुण्यादि .. का अभिमान करनेवाले को गीता में अज्ञानी कहा गया है२० तथापि इसका तात्पर्य यही है कि न तो धन को एकमात्र साध्य बना लेना ' चाहिए और न उसका तथा उसके द्वारा किये गये सत्कार्यों का अभिमान ही करना चाहिए। इसी प्रकार कामपुरुषार्थ के सम्बन्ध में गीता और अनासक्ति यही परम कल्याणकारक है। ३२ का दृष्टिकोण यही है कि उसे धर्म अविरुद्ध होना चाहिए । श्रीकृष्ण
२. काम ही परम पुरुषार्थ है, क्योंकि विषयों की इच्छा या काम के अभाव में न तो कोई धन प्राप्त करना चाहता है, और न कोई धर्म करना चाहता है काम हो अर्थ और धर्म से श्रेष्ठ है। १८ जैसे दही कासार मक्खन है, वैसे ही अर्थ और धर्म का सार काम हैं । २९
३. अर्थ, काम और धर्म तीनों ही स्वतन्त्र पुरुषार्थ है, तीनों का समान रूप से सेवन करना चाहिए जो एक का सेवन करता है वह अधम है, जो दो के सेवन में निपुण है वह मध्यम है और जो इन तीनों में समान रूप से अनुरक्त है, वही मनुष्य उत्तम है । ३०
४. धर्म ही श्रेष्ठ गुण (पुरुषार्थ) है, अर्थ मध्यम है और काम सबकी अपेक्षा निम्न है क्योंकि धर्म से ही मोक्ष की उपलब्धि होती है, धर्म पर ही लोक व्यवस्था आधारित है और धर्म में ही अर्थ समाहित है। ३९ ।
५. मोक्ष ही परम पुरुषार्थ है। मोक्ष के उपाय के रूप में ज्ञान
कहते हैं कि प्राणियों में धर्म-अविरुद्ध काम मैं हूँ। २९ सभी भोगों से चारों पुरुषार्थों की तुलना एवं क्रमनिर्धारण
विमुख होने की अपेक्षा गीताकार की दृष्टि में यही उचित है कि उनमें आसक्ति का त्याग किया जाये। वस्तुतः यह दृष्टिकोण भोगों को मोक्ष के अविरोध में रखने का प्रयास है। इसी प्रकार गीता जब यह कहती है कि
पुरुषार्थ चतुष्टय के सम्बन्ध में उपर्युक्त विभिन्न दृष्टिकोण परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं, लेकिन सापेक्षिक दृष्टि से इनमें विरोध नहीं रह जाता है साधन की दृष्टि से विचार करने पर अर्थ ही प्रधान
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
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प्रतीत होता है, क्योंकि अर्थाभाव में दैहिक माँगों (काम) की पूर्ति नहीं ही लाता है। इसी आशय को सामने रखते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा होती। दूसरी ओर, लोक के अर्थाभाव से पीड़ित होने पर धर्मव्यवस्था गया है कि 'धन' में प्रमत्त पुरुष का धन अर्थात् उस व्यक्ति का धन या नीति भी समाप्त हो जाती है। कहा ही गया है-भूखा कौन सा पाप जिसके लिए धन ही साध्य है न तो इस लोक में और न परलोक में ही नहीं करता? ३३
ऐसे आदमी की रक्षा कर सकता है। धन के असीम मोह से मूढ़ बना यदि साधक (व्यक्ति) की दृष्टि से विचार करें तो दैहिक मूल्य हुआ वह व्यक्ति, दीपक के बुझ जाने पर जैसे मार्ग को जानते हुए भी (काम) ही प्रधान प्रतीत होता है। मनोदैहिक मूल्यों (इच्छा एवं काम) के मार्ग नहीं देखता, वैसे ही वह भी न्यायमार्ग या धर्ममार्ग को जानते हुए अभाव में न तो नीति-अनीति का प्रश्न खड़ा होता है और न आर्थिक भी उसे नहीं देख पाता। जैसे एक ही नगर को जाने वाले भिन्न-भिन्नः साधनों की ही कोई आवश्यकता होती है। दूसरे धर्मसाधन और मार्ग परस्पर भिन्न दिशाओं में स्थित होते हुए भी परस्पर विरोधी नहीं आध्यात्मिक प्रगति भी शरीर से सम्बन्धित है। कहा गया है-धर्मसाधन कहे जाते, उसी प्रकार परस्पर विरोधी पुरुषार्थ मोक्षाभिमुख होने पर के लिए शरीर ही प्राथमिक है।३४ दैहिक माँगों की पूर्ति के अभाव में असपत्न (अविरोधी) बन जाते हैं। यहीं उनमें एक मूल्यात्मक तारतम्य चित्त-शान्ति भी कैसे होगी और जिनका चित्त अशान्त है वह क्या स्पष्ट हो जाता है, जिसमें सर्वोच्च स्थान मोक्ष का है, उसके बाद धर्म आध्यात्मिक विकास करेगा?
का स्थान है। धर्म के बाद काम और सबसे अन्त में अर्थ का स्थान इसी प्रकार जब हम साधनामार्ग पर सामाजिक सन्दर्भ में आता है। किन्तु अर्थपुरुषार्थ जब लोकोपकार के लिए होता है, तब विचार करते हैं, तो धर्म ही प्रधान प्रतीत होता है। धर्म ही सामाजिक उसका स्थान कामपुरुषार्थ से ऊपर होता है। पाश्चात्य विचारक अरबन व्यवस्था का आधार है। धर्म के अभाव में सामाजिक जीवन अस्त- ने मूल्य-निर्धारण के तीन नियम प्रस्तुत किये हैं-(१) साधनात्मक या व्यस्त हो जाता है और अस्त-व्यस्त सामाजिक जीवन में अर्थोत्पादन परत: मूल्यों की अपेक्षा साध्यात्मक या स्वत: मूल्य उच्चतर हैं, (२) एवं आध्यात्मिक साधना दोनों ही सम्भव नहीं होती। भोगों की समरसता अस्थायी या अल्पकालिक मूल्यों की अपेक्षा स्थायी एवं दीर्घकालिक समाप्त हो जाती है।
मूल्य उच्चतर हैं और (३) असृजक मूल्यों की अपेक्षा सृजक मूल्य साध्य या आदेश की दृष्टि से विचार करने पर मोक्ष ही प्रधान उच्चतर हैं।३६ प्रतीत होता है, क्योंकि सारे प्रयास जिसके लिए हैं, वह तो आध्यात्मिक यदि प्रथम नियम के आधार पर विचार करें, तो धन, पूर्णता की प्राप्ति ही है। संक्षेप में साधनात्मक दृष्टि से आर्थिक मूल्य सम्पत्ति, श्रम, आदि आर्थिक मूल्य जैविक, सामाजिक और धार्मिक (अर्थ,) जैविक दृष्टि से मनोदैहिक मूल्य (काम), सामाजिक दृष्टि से (काम और धर्म) मूल्यों की पूर्ति के साधनमात्र हैं, वे स्वत: साध्य नहीं नैतिक मूल्य (धर्म) और साध्यात्मक दृष्टि से आध्यात्मिक मूल्य (मोक्ष) हैं। भारतीय चिन्तन में धन की तीन गतियाँ मानी गयी हैं-(१) दान,
(२) भोग और (३) नाश। वह दान के रूप में धर्मपुरुषार्थ का और लेकिन ये सभी मूल्य या पुरुषार्थ एक-दूसरे से स्वतन्त्र या भोग के रूप में कामपुरुषार्थ का साधन सिद्ध होता है। कामपुरुषार्थ निरपेक्ष होकर नहीं रह सकते। मोक्ष या आध्यात्मिक मूल्यों की प्राप्ति सामान्य रूप में स्वत: साध्य प्रतीत होता है, लेकिन विचारपूर्वक देखने के लिए धर्म आवश्यक है और धर्मसाधना के लिए शरीर आवश्यक पर वह भी स्वतः साध्य नहीं कहा जा सकता। प्रथमत: जैविक है, शरीर के निर्वाह के लिए शरीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति (काम) आवश्यकताओं की पूर्ति के रूप में जो भोग किये जाते हैं, वे स्वयं आवश्यक है। और उनकी पूर्ति के लिए साधन (अर्थ) जुटाना आवश्यक साध्य नहीं, वरन् जीवन या शरीर-रक्षण के साधनमात्र हैं। इन सबका है। इस प्रकार सभी परस्पर सापेक्ष हैं और सभी आवश्यक भी हैं। जैन साध्य स्वास्थ्य एवं जीवन है। हम जीने के लिए खाते हैं, खाने के लिए ग्रन्थ निशीथभाष्य में कहा गया है कि ज्ञानादि मोक्ष के साधन हैं और नहीं जीते हैं। यदि हम कामपुरुषार्थ को कला, दाम्पत्य, रति या स्नेह ज्ञानादि का साधन देह है और देह का साधन आहार है।३५ इस प्रकार के रूप में मानें तो वह भी आनन्द का एक साधन ही ठहरता है। इस चारों पुरुषार्थों का महत्त्व स्वीकार कर लिया गया है, तथापि सभी का प्रकार कामपुरुषार्थ का भी स्वत: मूल्य सिद्ध नहीं होता। उसका जो भी मूल्य समान नहीं माना गया है। जैन विचारकों के अनुसार चारों स्थान हो सकता है वह मात्र उसके द्वारा व्यक्ति के आनन्द में की गयी पुरुषार्थों में एक साध्य-साधन भाव है जिसमें अर्थ मात्र साधन है और अभिवृद्धि पर निर्भर करता है। यदि अल्पकालिकता या स्थायित्व की मोक्ष मात्र साध्य है। काम अर्थ की अपेक्षा से साध्य और धर्म की दृष्टि से विचार करें तो कामपुरुषार्थ मोक्ष एवं धर्म की अपेक्षा अल्पकालिक अपेक्षा से साधन है। धर्म को अर्थ और काम का साध्य और मोक्ष का ही है। भारतीय विचारकों ने कामपुरुषार्थ को निम्न स्थान उसकी साधन माना गया है। जब साधन ही साध्य बन जाता है। तो वह दूसरे क्षणिकता के आधार पर ही दिया है। तीसरे अपने फल या परिणाम के के विरोध में खड़ा हो जाता है और जीवन के विकास को अवरुद्ध आधार पर भी काम-पुरुषार्थ निम्न स्थान पर ठहरता है, क्योंकि वह करता है। जैनागम साहित्य में मम्मन सेठ की कथा अर्थ को साध्य मान अपने पीछे दुष्पूर-तृष्णा को छोड़ जाता है। उससे उपलब्ध होने वाले लेने का सबसे अच्छा उदाहरण है, जिससे प्रकट है कि जब 'धन' आनन्द की तुलना खुजली खुजाने से की गयी है, जिसकी फलनिष्पत्ति साध्य बन जाता है तो वह ऐहिक और पारलौकिक दोनों जीवन में कष्ट क्षणिक सुख के बाद तीव्र वेदना में होती है। धर्मपुरुषार्थ सामाजिक
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मूल्य दर्शन और पुरुषार्थ चतुष्टय
१९१ धार्मिक मूल्य के रूप मे स्वत: साध्य है, लेकिन वह भी मोक्ष का मूल्य जैविक मूल्य हैं। आर्थिक मूल्य मौलिक-रूप से साधन-मूल्य हैं, साधन माना गया है जो सर्वोच्च मूल्य है। इस प्रकार अरबन के उपर्युक्त साध्य नहीं। आर्थिक शुभ स्वत: मूल्यवान् नहीं है, उनका मूल्य केवल मूल्य-निर्धारण के नियमों के आधार पर भी अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष शारीरिक, सामाजिक और आध्यात्मिक मूल्यों को अर्जित करने के पुरुषार्थों का यही क्रम सिद्ध होता है जो कि जैन और दूसरे भारतीय साधन होने में है। सम्पत्ति स्वत: वाञ्छनीय नहीं है, बल्कि अन्य शुभों आचार दर्शनों में स्वीकृत हैं, जिसमें अर्थ सबसे निम्न मूल्य है और का साधन होने के कारण वाञ्छनीय है। सम्पत्ति एक साधन-मूल्य है, मोक्ष सर्वोच्च मूल्य है।
साध्य-मूल्य नहीं। शारीरिक मूल्य भी वैयक्तिक मूल्यों के साधक हैं।
स्वास्थ्य और शक्ति से युक्त परिपुष्ट शरीर को व्यक्ति अच्छे जीवन के मोक्ष सर्वोच्च मूल्य क्यों?
अन्य मूल्यों के अनुसरण में प्रयुक्त कर सकता है। क्रीड़ा स्वयं मूल्य है, इस सम्बन्ध में ये तर्क दिये जा सकते हैं
किन्तु वह भी मुख्यतया साधक-मूल्य है। उसका साध्य है शारीरिक १. मनोवैज्ञानिक दृष्टि से जीवमात्र की प्रवृत्ति दुःख-निवृत्ति स्वास्थ्य। मनोरंजन चित्तविक्षोभ को समाप्त करने का साधन है। क्रीड़ा की ओर है। क्योंकि मोक्ष दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति है, अत: वह और मनोरंजन उच्चतर मूल्यों के अनुसरण के लिए हमें शारीरिक एवं सर्वोच्च मूल्य है। इसी प्रकार आनन्द की उपलब्धि भी प्राणीमात्र का मानसिक दृष्टि से स्वस्थ रखते हैं। लक्ष्य है, चूंकि मोक्ष परम आनन्द की अवस्था है, अत: वह सर्वोच्च २. सामाजिक मूल्य-सामाजिक मूल्यों के अन्तर्गत साहचर्य मूल्य है।
तथा चरित्र के मूल्य आते हैं। आज के मानवतावादी युग में तो इन २. मूल्यों की व्यवस्था में साध्य-साधक की दृष्टि से एक क्रम मूल्यों का महत्त्व अत्यन्त व्यापक हो गया है। यद्यपि ये दोनों मूल्य होना चाहिए और उस क्रम में कोई सर्वोच्च एवं निरपेक्ष मूल्य होना किसी अन्य साध्य के साधन-स्वरूप प्रयुक्त होते हैं, परन्तु कुछ महान् चाहिए। मोक्ष पूर्ण एवं निरपेक्ष स्थिति है। अत: वह सर्वोच्च मूल्य है। पुरुषों ने सच्चरित्रता एवं समाजसेवा को जीवन के परम लक्ष्य के रूप मूल्य वह है जो किसी इच्छा की पूर्ति करे। अत: जिसके प्राप्त हो जाने में ग्रहण किया है। मनुष्य समाज का अंग है। एक असीम आत्मा का पर कोई इच्छा ही नहीं रहती है, वही परम मूल्य है। मोक्ष में कोई इच्छा साक्षात्कार समाज के साथ अपनी वैयक्तिकता का एकाकार करके ही नहीं रहती है, अत: वह परम मूल्य है।
किया जा सकता है। ३. सभी साधन किसी साध्य के लिए होते हैं और साध्य की ३. आध्यात्मिक मूल्य-मूल्यों के इस वर्ग के अन्तर्गत बौद्धिक, अनुपलब्धि अपूर्णता की सूचक है। मोक्ष की प्राप्ति के पश्चात् कोई सौन्दर्यात्मक एवं धार्मिक-तीन प्रकार के मूल्य आते हैं। ये तीनों मूल्य साध्य नहीं रहता, इसलिए वह परम मूल्य है। यदि हम किसी अन्य मूलत: साध्य मूल्य हैं। ये आत्मा की सर्वश्रेष्ठ या परम आदर्श प्रकृति मूल्य को स्वीकार करेंगे तो वह साधन-मूल्य ही होगा और साधन-मूल्य अर्थात् सत्यं, शिवं और सुन्दरं की अभिरुचियों को तृप्ति प्रदान करते को परम मूल्य मानने पर नैतिकता में सार्वलौकिकता एवं वस्तुनिष्ठता हैं तथा जैविक एवं सामाजिक मूल्यों से श्रेष्ठ कोटि के हैं। समाप्त हो जायेगी।
तुलनात्मक दृष्टि से भारतीय दर्शनों के पुरुषार्थ चतुष्टय में ४. मोक्ष अक्षर एवं अमृतपद है, अत: स्थायी मूल्यों में वह अर्थ और काम जैविक मूल्य हैं तथा धर्म और मोक्ष अतिजैविक मूल्य सर्वोच्च मूल्य है।
हैं। अरबन ने जैविक मूल्यों में आर्थिक, शारीरिक और मनोरंजनात्मक ५. मोक्ष आन्तरिक प्रकृति या स्वस्वभाव है। वही एकमात्र मूल्य माने हैं। इनमें आर्थिक मूल्य अर्थ-पुरुषार्थ तथा शारीरिक और परम मूल्य हो सकता है, क्योंकि उसमें हमारी प्रकृति के सभी पक्ष मनोरंजनात्मक मूल्य कामपुरुषार्थ के समान हैं। अरबन के द्वारा अतिजैविक अपनी पूर्ण अभिव्यक्ति एवं पूर्ण समन्वय की अवस्था में होते हैं। मूल्यों में सामाजिक और आध्यात्मिक मूल्य माने गये हैं। उनमें सामाजिक
मूल्य धर्मपुरुषार्थ से और आध्यात्मिक मूल्य मोक्षपुरुषार्थ से सम्बन्धित भारतीय और पाश्चात्य मूल्य सिद्धान्तों की तुलना
हैं। जिस प्रकार अरबन ने मूल्यों में सबसे नीचे आर्थिक मूल्य माने हैं, . अरबन और एबरेट ने जीवन के विभिन्न मूल्यों की उच्चता उसी प्रकार भारतीय दर्शन में भी अर्थपुरुषार्थ को तारतम्य की दृष्टि से
एवं निम्नता का जो क्रम निर्धारित किया है, वह भी भारतीय चिन्तन से सबसे नीचे माना है। जिस प्रकार अरबन के दर्शन में शारीरिक और । काफी साम्य रखता है। अरबन ने मूल्यों का वर्गीकरण इस प्रकार किया मनोरंजन सम्बन्धी मूल्यों का स्थान आर्थिक मूल्यों से ऊपर, लेकिन
सामाजिक मूल्यों से नीचे है उसी प्रकार भारतीय दर्शनों में भी कामपुरुषार्थ अरबन ने सबसे पहले मूल्यों को दो भागों में बाँटा है-(१) अर्थपुरुषार्थ से ऊपर लेकिन धर्मपुरुषार्थ से नीचे है। जिस प्रकार अरबन जैविक और (२) अति जैविक। अति जैविक मूल्य भी सामाजिक और ने आध्यात्मिक मूल्यों को सर्वोच्च माना है, उसी प्रकार भारतीय दर्शन आध्यात्मिक ऐसे दो प्रकार के हैं। इस प्रकार मूल्यों के तीन वर्ग बन में भी मोक्ष को सर्वोच्च पुरुषार्थ माना गया है। अरबन के दृष्टिकोण की जाते हैं
भारतीय चिन्तन से कितनी अधिक निकटता है, इसे निम्न तालिका से १. जैविक मूल्य-शारीरिक, आर्थिक और मनोरंजन के समझा जा सकता है
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पुरुषार्थ
अर्थ
जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
१९२ पाश्चात्य दृष्टिकोण भारतीय दृष्टिकोण जैन दृष्टिकोण ६. देखिए-कल्पसूत्र, सं० देवेन्द्रमुनि; तारकगुरु ग्रन्थमाला उदयपुर १९७५. मूल्य
७. योगशास्त्र, १/५२. जैविक मूल्य
८. दशवैकालिकनियुक्ति, २६२-२६४.
९. दीघनिकाय,३/८/२. १. आर्थिक मूल्य अर्थ पुरुषार्थ २. शारीरिक मूल्य कामपुरुषार्थ काम
१०. वही, ३/८/४. " " ३. मनोरंजनात्मक मूल्य
११. वही, ३/८/४. सामाजिक मूल्य
१२. वही, ३/३/४. ४. संगठनात्मक मूल्य धर्मपुरुषार्थ व्यवहारधर्म
१३. सुत्तनिपात, २६/२९. ५. चारित्रिक मूल्य निश्चयधर्म
१४. मज्झिमनिकाय, २/३२/४. आध्यात्मिक मूल्य
१५. उदान, जात्यन्धवर्ग, ८. ६. कलात्मक आनन्द (संकल्प) अनन्त सुख एवं शक्ति
१६. मज्झिमनिकाय, १/२२/४. ७. बौद्धिक चित् (ज्ञान) अनन्तज्ञान
१७. गीता, १८/३४. ८. धार्मिक सत् (भाव) अनन्तदर्शन
१८. वही, १७/२१. इस प्रकार अपनी मूल्य-विवेचना में प्राच्य और पाश्चात्य
१९. वही, १८/६६. विचारक अन्त में एक ही निष्कर्ष पर आ जाते हैं और वह निष्कर्ष यह
२०. वही, १६/१०, १२, १५. है कि आध्यात्मिक मूल्य या आत्मपूर्णता ही सर्वोच्च मूल्य है एवं वही
२१. वही, ७/११. नैतिक जीवन का साध्य है।
२२. वही, ३/१३. यद्यपि भारतीय दर्शन में सापेक्ष दृष्टि से मूल्य सम्बन्धी सभी विचार स्वीकार कर लिये गये हैं, फिर भी उसकी दृष्टि में आत्मपूर्णता,
२३. मनुस्मृति, ४/१७६.
२४. महाभारत, अनुशासनपर्व, ३/१८-१९. वीतरागावस्था या समभाव की उपलब्धि ही उसका एकमात्र परम मूल्य
२५. कौटिलीय अर्थशास्त्र, १/१७. है, किन्तु उसके परममूल्य होने का अर्थ एक सापेक्षिक क्रम व्यवस्था
२६. महाभारत, शान्तिपर्व, १६७/१२-१३. में सर्वोच्च होना है। किसी मूल्य की सर्वोच्चता भी अन्यमूल्य सापेक्ष ही
२७. कौटिलीय अर्थशास्त्र, १/७. होती है, निरपेक्ष नहीं। अत: मूल्य, मूल्य-विश्व और मूल्यबोध सभी
२८. महाभारत, शान्तिपर्व, १६७/२९. सापेक्ष है।
२९. वही, १६७/३५. ३०. वही, १६७/४०.
३१. वही, १६७/८. १. Contemporary Ethical Theories,Chapter-17 pp.774
३२. वही, १६७/४६. 284.
३३. बुभुक्षित: किं न करोति पापम? मरणसमाधि, ६०३.
३४. शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्। उत्तराध्ययन, १३/१६.
३५. निशीथभाष्य, ४१५९. प्राकृत सूक्तिसरोज, ११/११.
३६. फण्डामेण्टल आफ एथिक्स, पृ० १७०-१७१. ५. प्राकृत सूक्तिसरोज, ११/७.
संदर्भ
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जैन शिक्षा दर्शन
अधिक।
वर्तमान युग ज्ञान-विज्ञान का युग है। मात्र बीसवीं सदी में का काम नहीं चल सकता। दैहिक जीवन-मूल्यों में उदरपूर्ति व्यक्ति ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में जितना विकास हुआ है, उतना विकास की प्राथमिक आवश्यकता है, इससे इंकार भी नहीं किया जा सकता है मानवजाति के अस्तित्व की सहस्रों शताब्दियों में नहीं हुआ था। आज किन्तु इसे ही शिक्षा का “अथ और इति" नहीं बनाया जा सकता, ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा एवं शोधकार्य में संलग्न सहस्रों विश्वविद्यालय, क्योंकि यह कार्य शिक्षा के अभाव में भी सम्भव है। यदि उदरपूर्ति/ महाविद्यालय और शोध-केन्द्र हैं। यह सत्य है कि आज मनुष्य ने आजीविका अर्जन ही जीवन का एक मात्र लक्ष्य हो तो फिर मनुष्य पशु भौतिक जगत के सम्बन्ध में सूक्ष्मतम ज्ञान प्राप्त कर लिया है। आज से भिन्न नहीं होगा। कहा भी हैउसने परमाणु को विखण्डित कर उसमें निहित अपरिमित शक्ति को "आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतद पशुभिः नराणाम। पहचान लिया है, किन्तु यह दुर्भाग्य ही है कि शिक्षा एवं शोध के इन ज्ञानो हि तेषामधिको विशेषो ज्ञानेन हीना पशुभिः समाना ।।" विविध उपक्रमों के माध्यम से हम एक सभ्य, सुसंस्कृत एवं शान्तिप्रिय पुन: यदि यह कहा जाय कि शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य को मानव समाज की रचना नहीं कर सके।
अधिक सुख-सुविधा पूर्ण जीवन जीने योग्य बनाना है, तो उसे भी हम वस्तुत: आज की शिक्षा हमें बाह्य जगत और दूसरों के शिक्षा का उद्देश्य नहीं कह सकते। क्योंकि मनुष्य के दुःख और पीड़ाएँ सम्बन्ध में बहुत कुछ जानकारी प्रदान कर देती है, किन्तु उन उच्च भौतिक या दैहिक स्तर की ही नहीं हैं, वे मानसिक स्तर की भी हैं। जीवन मूल्यों के सम्बन्ध में वह मौन ही है, जो एक सुसभ्य समाज सत्य तो यह है कि स्वार्थपरता, भोगाकांक्षा और तृष्णाजन्य मानसिक के लिये आवश्यक है। आज शिक्षा के माध्यम से हम विद्यार्थियों को पीड़ाएँ ही अधिक कष्टकर हैं, वे ही मानवजाति में भय एवं संत्रास का सूचनाओं से तो भर देते हैं, किन्तु उन्हें जीवन के उद्देश्यों और कारण हैं। यदि भौतिक सुख-सुविधाओं का अम्बार लगा देने में ही जीवन-मूल्यों के सन्दर्भ में हम कोई जानकारी नहीं देते हैं। आज सुख होता तो आज अमेरिका (U.S.A.) जैसे विकसित देशों का समाज में जो स्वार्थपरताजन्य, संघर्ष और हिंसा पनप रही है, उसका व्यक्ति अधिक सुखी होता, किन्तु हम देखते हैं वह संत्रास और तनाव कारण शिक्षा की यही गलत दिशा ही है। हम शिक्षा के माध्यम से से अधिक ग्रस्त है। यह सत्य है कि मनुष्य के लिये रोटी आवश्यक व्यक्ति को सूचनाओं से भर देते हैं, किन्तु उसके व्यक्तित्व का है, लेकिन वही उसके जीवन की इति नहीं है। ईसा मसीह ने ठीक ही निर्माण नहीं करते हैं।
कहा था कि मनुष्य केवल रोटी से नहीं जी सकता है। हम मनुष्य को वस्तुत: आज शिक्षा का उद्देश्य ही उपेक्षित है। आज शिक्षक भौतिक सुखों का अम्बार खड़ा करके भी सुखी नहीं बना सकते। सच्ची और शिक्षार्थी, शासक और समाज कोई भी यह नहीं जानता कि हम शिक्षा वही है जो मनुष्य को मानसिक संत्रास और तनाव से मुक्त कर क्यों पढ़ रहे हैं और क्यों पढा रहे हैं? यदि वह जानता भी है तो या सके। उसमें सहिष्णुता, समता, अनासक्ति, कर्तव्यपरायणता के गुणों तो वह उदासीन है या फिर अपने को अकर्मण्यता की स्थिति में पाता को विकसित कर, उसकी स्वार्थपरता पर अंकुश लगा सके। जो शिक्षा है। आज शिक्षा के क्षेत्र में सर्वत्र में आराजकता है। इस अराजकता या मनुष्य में मानवीय मूल्यों का विकास न कर सके उसे क्या शिक्षा कहा दिशाहीनता की स्थिति के सम्बन्ध में भी जो कुछ चिन्तन हुआ है, जा सकता है? यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि आज शिक्षा का सम्बन्ध उसमें शिक्षा को आजीविका से जोड़ने के अतिरिक्त कुछ नहीं हुआ। 'चारित्र' से नहीं 'रोटी' से जोड़ा जा रहा है। आज शिक्षा की सार्थकता वर्तमान में रोजगारोन्मुख शिक्षा की बात अधिक जोर से कही जाती है। को चरित्र निर्माण में नहीं, चालाकी (डिप्लोमेसी) में खोजा जा रहा है। यह माना जाता है कि शिक्षा के रोजगारोन्मुख न होने से ही आज शासन भी इस मिथ्या धारणा से ग्रस्त है। नैतिक शिक्षा या चरित्र की समाज में अशान्ति है, किन्तु मेरी दृष्टि में वर्तमान सामाजिक संघर्ष शिक्षा में शासन को धर्म की 'बू' आती है, उसे अपनी धर्मनिरपेक्षता और तनाव का कारण व्यक्ति का जीवन के उद्देश्यों या मूल्यों के दूषित होती दिखाई देती है, किन्तु क्या धर्मनिरपेक्षता का अर्थ धर्महीनता सम्बन्ध में अज्ञान या गलत दृष्टिकोण ही है। स्वार्थपरक भौतिकवादी या नीतिहीनता है? मैं समझता हूँ धर्मनिरपेक्षता का मतलब केवल 'जीवन-दृष्टि ही समस्त मानवीय दुःखों का मूल है।
इतना ही है कि शासन किसी धर्म विशेष के साथ आबद्ध नहीं रहेगा। सबसे पहले हमें यह निश्चय करना होगा कि हमारी शिक्षा आज हुआ यह है कि धर्म-निरपेक्षता के नाम पर इस देश में शिक्षा के का प्रयोजन क्या है? यदि यह कहा जाय कि शिक्षा का प्रयोजन रोजी- क्षेत्र से नीति और चरित्र की शिक्षा को भी बहिष्कृत कर दिया गया है। रोटी कमाने या मात्र उदरपूर्ति के योग्य बना देना है, तो यह एक भ्रान्त चाहे हम अपने मोनोग्रामों में 'सा विद्या या विमुक्तये' की सूक्तियाँ धारणा होगी क्योंकि रोजी-रोटी की व्यवस्था तो अशिक्षित भी कर उद्धृत करते हों, किन्तु हमारी शिक्षा का उससे दूर का भी कोई रिश्ता लेता है। पशु-पक्षी भी तो अपना पेट भरते ही हैं। अत: शिक्षा को नहीं रह गया है। आज की शिक्षा योजना में आध्यात्मिक एवं नैतिक रोजी-रोटी से जोड़ना गलत है। यह सत्य है कि बिना रोटी के मनुष्य मूल्यों की शिक्षा का कोई स्थान नहीं है, जबकि उच्च शिक्षा एवं
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
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माध्यमिक शिक्षा के सम्बन्ध में अभी तक बिठाये गये तीनों आयोगों ने इमा विज्जा महाविज्जा, सव्यविज्जाण उत्तमा। अपनी अनुशंसाओं में आध्यात्मिक एवं नैतिक मूल्यों की शिक्षा की जं विज्जं साहइत्ताणां, सव्वदुक्खाण मुच्चती।। महती आवश्यकता प्रतिपादित की है। आज का शिक्षक और शिक्षार्थी जेण बन्धं च मोक्खं च, जीवाणं गतिरागति। दोनों ही अर्थ के दास हैं। एक ओर शिक्षक इसलिये नहीं पढ़ाता है कि आयाभावं च जाणाति, सा विज्जया दुक्खमोयणी।। उसे विद्यार्थी के चरित्र निर्माण या विकास में कोई रुचि है, उसकी दृष्टि
• इसिभासियाई, १७/१-२ केवल वेतन दिवस पर टिकी है। वह पढ़ने के लिये नहीं पढ़ाता, वही विद्या महाविद्या है और वही विद्या समस्त विद्याओं में अपितु पैसे के लिये पढ़ाता है। दूसरी ओर शासन, सेठ और विद्यार्थी उत्तम है, जिसकी साधना करने से समस्त दुःखों से मुक्ति मिलती है। उसे गुरु नहीं 'नौकर' समझते हैं। जब गुरु नौकर है तो फिर संस्कार विद्या दुःख- मोचनी है। जैन आचार्यों ने उसी विद्या को उत्तम माना है एवं चरित्र निर्माण की अपेक्षा करना ही व्यर्थ है। आज तो गुरु-शिष्य जिसके द्वारा दुःखों से मुक्ति हो और आत्मा के शुद्ध स्वरूप का के बीच भाव-मोल होता है, सौदा होता है। चाहे हमारे प्राचीन ग्रन्थों में साक्षात्कार हो। 'विद्ययामृतमश्नुऽते' की बात कही गई हो, किन्तु आज तो विद्या अब प्रश्न यह उपस्थित है कि दुःख क्या है और किस दुःख अर्थकारी हो गयी है। शिक्षा के मूल-भूत उद्देश्य को ही हम भूल रहे हैं। से मुक्त होना है? यह सत्य है कि दुःख से हमारा तात्पर्य दैहिक दुःखों वर्तमान सन्दर्भ में फिराक का यह कथन कितना सटीक है, जब वे से भी होता है, किन्तु ये दैहिक दुःख प्रथम तो कभी भी पूर्णतया कहते हैं
समाप्त नहीं होते, क्योंकि उनका केन्द्र हमारी चेतना न होकर हमारा सभी कुछ हो रहा है, इस तरक्की के जमाने में, शरीर होता है। जैन परम्परा के अनुसार तीर्थंकर अपनी वीतराग दशा मगर क्या गजब है कि, आदमी इनसां नहीं होता। में भी दैहिक दुःखों से पूर्णत: मुक्त नहीं हो सकता। जब तक देह है
आज की शिक्षा चाहे विद्यार्थी को वकील, डॉक्टर, इंजीनियर क्षुधा, पिपासा आदि दुःख तो रहेंगे ही। अत: जिन दुःखों से विमुक्ति आदि सभी कुछ बना रही है, किन्तु यह निश्चित है कि वह इन्सान नहीं प्राप्त करनी है, वे दैहिक नहीं मानसिक है। व्यक्ति की रागात्मकता, बना पा रही है। जब तक शिक्षा को चरित्र निर्माण के साथ, नैतिक एवं आसक्ति या तृष्णा ही एक ऐसा तत्त्व है, जिसकी उपस्थिति में मनुष्य आध्यात्मिक मूल्यों के साथ नहीं जोड़ा जाता है तब तक वह मनुष्य का दुःखों से मुक्ति प्राप्त नहीं कर पाता है। इससे स्पष्ट होता है कि जैन निर्माण नहीं कर सकेगी। हमारा प्राथमिक दायित्व मनुष्य को मनुष्य आचार्यों की दृष्टि में शिक्षा का प्रयोजन मात्र रोजी-रोटी प्राप्त कर लेना बनाना है। बालक को मानवता के संस्कार देना है। अमेरिका के प्रबुद्ध नहीं रहा है। जो शिक्षा व्यक्ति को आध्यात्मिक आनन्द या आत्मतोष विचारक टफ्ट्स शिक्षा के उद्देश्य, पद्धति और स्वरूप को स्पष्ट नहीं दे सकती, वह शिक्षा व्यर्थ है। आत्मतोष ही शिक्षा का सम्यक् करते हुये लिखते हैं- 'शिक्षा चरित्र निर्माण के लिये, चरित्र के द्वारा, प्रयोजन है। शिक्षा-पद्धति को स्पष्ट करते हुए ‘इसिभासियाई' में कहा चरित्र की शिक्षा है।' इस प्रकार उनकी दृष्टि में शिक्षा का अथ और इति गया है कि जिस प्रकार एक योग्य चिकित्सक सर्वप्रथम रोग को जानता दोनों ही बालकों में चरित्र निर्माण एवं सुसंस्कारों का वपन है। भारत है, फिर उस रोग के कारणों का निश्चय करता है, फिर रोग की औषधि की स्वतन्त्रता के पश्चात् शिक्षा के स्वरूप का निर्धारण करने हेतु का निर्णय करता है और फिर उस औषधि द्वारा रोग की चिकित्सा सुप्रसिद्ध दार्शनिक डॉ. राधाकृष्णन्, सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. दौलतसिंह करता है। उसी प्रकार हमें सर्वप्रथम मनुष्यों के दु:ख के स्वरूप को कोठारी और शिक्षा शास्त्री डॉ. मुदालियर की अध्यक्षताओं में जो समझना होता है, तत्पश्चात् दुःख के कारणों का विश्लेषण करके विभिन्न आयोग गठित हुये थे उन सबका निष्कर्ष यही था कि शिक्षा को फिर उन कारणों के निराकरण का उपाय खोजना होता है और अन्त में मानवीय मूल्यों से जोड़ा जाय। जब तक शिक्षा मानवीय मूल्यों से नहीं इन उपायों द्वारा उन कारणों का निराकरण किया जाता है। यही बातें जुडेगी, उससे चरित्र निर्माण और सुसंस्कारों के वपन का प्रयास नहीं जैनधर्म में शिक्षा के प्रयोजन एवं पद्धति को स्पष्ट करती है। सम्यक होगा, तब तक विद्यालयों एवं महाविद्यालयों रुपी शिक्षा के इन कारखानों शिक्षा वही है जो मानवीय दुःखों के स्वरूप को समझे, उनके कारणों से साक्षर नहीं, राक्षस ही पैदा होंगे।
का विश्लेषण करे फिर उनके निराकरण के उपाय खोजें और उन __भारतीय चिन्तन प्राचीनकाल से ही इस सम्बन्ध में सजग उपायों का प्रयोग करके दुःखों से मुक्त हो। वस्तुत: आज की हमारी रहा। औपनिषदिक युग में ही शिक्षा के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए जो शिक्षा नीति है, उसमें हम इस पद्धति को नहीं अपनाते। शिक्षा से कहा गया था- “सा विद्या या विमुक्तये" अर्थात् विद्या वही जो हमारा तात्पर्य मात्र बालक के मस्तिष्क को सूचनाओं से भर देना है। विमुक्ति प्रदान करे। प्रश्न हो सकता है कि यहाँ विमुक्ति से हमारा क्या जब तक उसके सामने जीवन-मूल्यों को स्पष्ट नहीं करते, तब तक हम तात्पर्य है? विमुक्ति का तात्पर्य मानवीय संत्रास और तनावों से मुक्ति शिक्षा के प्रयोजन को न तो सम्यक् प्रकार से समझ ही पाते हैं, न है, अपनत्व और ममत्व के क्षुद्र घेरों से विमुक्ति है। मुक्ति का तात्पर्य मनुष्य के दुःखों का निराकरण ही कर पाते हैं। जैन आगमों में है- अहंकार, आसक्ति, राग-द्वेष और तृष्णा से मुक्ति। यही बात ऋषिभाषित एवं आचारांग से लेकर प्रकीर्णकों तक में शिक्षा के उद्देश्य जैन आगम इसिभासियाई (ऋषिभासित) में कही गई है
की विभिन्न दृष्टियों से विवेचना की गयी है। यदि उस समग्र विवेचना
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करते हुए
जैन शिक्षा दर्शन
१९५ को एक ही वाक्य में कहना हो तो जैन आचार्यों की दृष्टि में शिक्षा का ३. मैं अपने आप को धर्म में स्थापित करूँगा, इसलिए अध्ययन प्रयोजन चित्तवृत्तियों एवं आचार की विशुद्धि है। चित्तवृत्तियों का दर्शन करना चाहिये। ज्ञान-यात्रा का प्रारम्भ है। आचारांग में मैं कौन हूँ? इसे ही साधना-यात्रा ४. मैं स्वयं धर्म में स्थित होकर दूसरों को धर्म में स्थित करूँगा, का प्रारम्भ बिन्दु कहा गया है। आचारांग ही नहीं सम्पूर्ण भारतीय इसलिए अध्ययन करना चाहिये।११ साहित्य में आत्म जिज्ञासा से ही ज्ञान साधना का प्रारम्भ माना गया है। इस प्रकार दशवैकालिक के अनुसार अध्ययन का प्रयोजन उपनिषद् का ऋषि कहता है 'आत्मानं विद्धि', आत्मा को जानो। बुद्ध ज्ञान प्राप्ति के साथ-साथ चित्त की एकाग्रता तथा धर्म (सदाचार) में ने 'अत्तानं गवेसेथ' कहकर इसी तथ्य की पुष्टि की। ज्ञातव्य है कि स्वयं स्थित होना तथा दूसरों को स्थित करना माना गया है। जैन यहाँ आत्मज्ञान का तात्पर्य अमूर्त आत्मतत्त्व की खोज नहीं, अपितु आचार्यों की दृष्टि में जो शिक्षा चरित्रशुद्धि में सहायक नहीं होती, अपने. ही चित्त की विकृतियों और वासनाओं का दर्शन है। चित्तवृत्ति उसका कोई अर्थ नहीं है। चंद्रवेध्यक नामक प्रकीर्णक में ज्ञान और और आचार की विशुद्धि की प्रक्रिया तब ही प्रारम्भ हो सकती है, जब सदाचार में तादात्म्य स्थापित करते हुए कहा गया है कि जो विनय है, हम अपने विकारों और वासनाओं को देखें, क्योंकि जब तक चित्त में वही ज्ञान है और जो ज्ञान है उसे ही विनय कहा जाता है।१२ श्रुतज्ञान विकारों, वासनाओं और उनके कारणों के प्रति सजगता नहीं आती, में कुशल, हेतु और कारण का जानकार व्यक्ति भी यदि अविनीत और तब तक चरित्र शुद्धि की प्रक्रिया प्रारम्भ ही नहीं हो सकती। आचारांग अहंकारी है तो वह ज्ञानियों द्वारा प्रशंसनीय नहीं है।१३ जो अल्पश्रुत में ही कहा गया है कि जो मन का ज्ञाता होता है, वही निर्ग्रन्थ (विकार- होकर भी विनीत है वही कर्म का क्षय कर मुक्ति प्राप्त करता है, जो मुक्त) है।
बहुश्रुत होकर भी अविनीत, अल्पश्रद्धा और संवेग युक्त है वह चरित्र जैन आचार्यों की दृष्टि में उस शिक्षा या ज्ञान का कोई अर्थ की आराधना नहीं कर पाता है।१४ जिस प्रकार अन्धे व्यक्ति के लिये नहीं है जो हमें चारित्र शुद्धि या आचार शुद्धि की दिशा में गतिशील न करोड़ों दीपक भी निरर्थक हैं उसी प्रकार अविनीत (असदाचारी) करता हो। इसीलिए सूत्रकृतांग में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि व्यक्ति के बहुत अधिक शास्त्रज्ञान का भी क्या प्रयोजन? जो व्यक्ति 'विज्जाचरणं पमोक्खं ६ अर्थात् विद्या और आचरण से ही विमुक्ति की जिनेन्द्र द्वारा उपादिष्ट अति विस्तृत ज्ञान को जानने में चाहे समर्थ न ही प्राप्ति होती है। उत्तराध्ययनसूत्र में शिक्षा के प्रयोजन को स्पष्ट करते हुए हो, फिर भी जो सदाचार से सम्पन्न है वस्तुत: वह धन्य है, और वही कहा गया है कि श्रुत की आराधना से जीव अज्ञान का क्षय करता है ज्ञानी है।१५ जैन आचार्य यह मानते हैं कि ज्ञान आचरण का हेतु है,
और संक्लेश को प्राप्त नहीं होता है। इसे और स्पष्ट करते हुए इसी मात्र वह ज्ञान जो व्यक्ति की आचार शुद्धि का कारण नहीं होता, ग्रन्थ में पुन: कहा गया है कि जिस प्रकार धागे से युक्त सुई गिर जाने निरर्थक ही माना गया है। जिस प्रकार शस्त्र से रहित योद्धा और योद्धा पर भी विनष्ट नहीं होती है अर्थात् खोजी जा सकती है, उसी प्रकार श्रुत से रहित शस्त्र निरर्थक होता है, उसी प्रकार ज्ञान से रहित आचरण सम्पन्न जीव संसार में विनष्ट नहीं होता। इसी ग्रन्थ में अन्यत्र यह भी और आचरण से रहित ज्ञान निरर्थक होता है। कहा गया है कि ज्ञान, अज्ञान और मोह का विनाश करके सर्व विषयों जैनागम उत्तराध्ययनसूत्र में शिक्षा प्राप्ति में बाधक निम्न पाँच को प्रकाशित करता है। यह स्पष्ट है कि ज्ञान साधना का प्रयोजन कारणों का उल्लेख हुआ है- (१) अभिमान, (२) क्रोध, (३) अज्ञान के साथ-साथ मोह को भी समाप्त करना है। जैन आचार्यों की प्रमाद, (४) आलस्य और (५) रोग।१६ इसके विपरीत उसमें उन आठ दृष्टि में अज्ञान और मोह में अन्तर है। मोह अनात्म विषयों के प्रति कारणों का भी उल्लेख हुआ है जिन्हें हम शिक्षा प्राप्त करने के साधक आत्मबुद्धि है, वह राग या आसक्ति का उद्भावक है उसी से क्रोध, तत्त्व कह सकते हैं- (१) जो अधिक हँसी-मजाक नहीं करता हो, मान, माया और लोभ इन चारों कषायों का जन्म होता है। अतः (२) जो अपनी वासनाओं पर नियन्त्रण रखता हो, (३) जो किसी की उत्तराध्ययन के अनुसार जो व्यक्ति की क्रोध, मान, माया आदि की गुप्त बात को प्रकट नहीं करता हो, (४) जो अश्लील अर्थात् आचारहीन
दूषित चित्तवृत्तियों पर अंकुश लगाये, वही सच्ची शिक्षा है। केवल न हो, (५) जो दूषित आचार वाला न हो, (६) जो रस लोलुप न हो, .. वस्तुओं के सन्दर्भ में जानकारी प्राप्त कर लेना शिक्षा का प्रयोजन नहीं (७) जो क्रोध न करता हो और (८) जो सत्य में अनुरक्त हो।२७ इससे है। उसका प्रयोजन तो व्यक्ति को वासनाओं और विकारों से मुक्त यही फलित होता है कि जैनधर्म में शिक्षा का सम्बन्ध चारित्रिक मूल्यों कराना है। शिक्षा व्यक्तित्व या चरित्र का उदात्तीकरण है। जब तक से रहा है। शिक्षा को केवल जानकारियों तक सीमित रखा जायेगा तब तक वह वस्तुत: जैन आचार्यों को ज्ञान और आचरण का द्वैत मान्य व्यक्तित्व की निर्माता नहीं बन सकेगी। दशवैकालिकसूत्र में शिक्षा के नही है। वे कहते हैं- जो ज्ञान है, वही आचरण है, जो आचरण है, चार उद्देश्यों को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि
वहीं आगम-ज्ञान का सार है।१८ इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन १. मुझे श्रुत ज्ञान (आगम ज्ञान) प्राप्त होगा, इसलिए अध्ययन परम्परा में उस शिक्षा को निरर्थक ही माना गया है जो व्यक्ति के करना चाहिए।
चारित्रिक विकास या व्यक्तित्व विकास करने में समर्थ नहीं है। जो २. मैं एकाग्रचित्त होऊँगा, इसलिए अध्ययन करना चाहिए। शिक्षा मनुष्य को पाशविक वासनाओं से ऊपर नहीं उठा सके, वह
दी है।
व्यक्ति के
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
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हा
वास्तविक शिक्षा नहीं है।
की शिक्षा-व्यवस्था की बात करते हैं, वह मूल में भ्रांति है, जहाँ जैन आचार्य शिक्षा का अर्थ व्यक्ति को जीवन और जगत के शिल्पाचार्य और कलाचार्य वृत्तिमूलक शिक्षा प्रदान करते थे वहाँ सम्बन्ध में जानकारियों से भर देना नहीं मानते हैं, अपितु वे इसका धर्माचार्य निवृत्तिमूलक शिक्षा प्रदान करते थे। पुन: यह भी आवश्यक उद्देश्य व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास या सद्गुणों का विकास है कि जो आचार्य जिस प्रकार की जीवन शैली जीता है वह वैसी ही मानते हैं, किन्तु इसका तात्पर्य यह भी नहीं है कि वे शिक्षा को शिक्षा प्रदान कर सकता है। अतः धर्माचार्य से अर्थ और काम की आजीविका या कलात्मक कुशलता से अलग कर देते हैं। रायपसेनीयसुत्त शिक्षा शिल्पाचार्य एवं कलाचार्य से धर्म एवं मोक्ष पुरुषार्थ की शिक्षा में तीन प्रकार के आचार्यों का उल्लेख है- १. कलाचार्य, २. की अपेक्षा करना उचित नहीं है। वर्तमान सन्दर्भ में यह आवश्यक है। शिल्पाचार्य एवं ३. धर्माचार्य।१९ उसमें इन तीनों आचार्यों के प्रति कि हम शिक्षा के विविध क्षेत्रों का दायित्व विविध आचार्यों को सौंपे शिष्य के कर्तव्यों का भी निर्देश है। इससे यह फलित है कि जैन और इस बात का विशेष ध्यान रखें कि जो व्यक्ति जिस प्रकार की चिन्तकों की दृष्टि में शिक्षा-व्यवस्था तीन प्रकार की थी। कलाचार्य का शिक्षा के देने के लिए योग्य हो, वही उसका दायित्व सम्भालें। जब कार्य जीवनोपयोगी कलाओं अर्थात् ज्ञान-विज्ञान और ललित कलाओं तक ऐसा नहीं होगा तब तक शिक्षा के क्षेत्र में मानव के सर्वांगीण की शिक्षा देना था। भाषा, लिपि, गणित के साथ-साथ खगोल, विकास की कल्पना सार्थक नहीं होगी। 'रायपसेनीयसुत्त' में जो कलाचार्य, भूगोल, ज्योतिष आयुर्वेद संगीत नृत्य आदि की भी शिक्षा कलाचार्य शिल्पाचार्य और धर्माचार्य की व्यवस्था दी गयी है इससे यह स्पष्ट होता देते थे। वस्तुत: आज हमारे विश्वविद्यालयों में कला, सामाजिक है कि शिक्षा के ये तीनों क्षेत्र मानव जीवन के तीन मूल्यों से सम्बन्धित विज्ञान एवं विज्ञान संकाय जो कार्य करते हैं, उन्हीं से मिलता-जुलता थे तथा एक-दूसरे से पृथक् थे और सामान्य व्यक्ति तीनों ही प्रकार की कार्य कलाचार्य का था। जैनागमों में पुरुष की ६४ एवं स्त्री की ७२ शिक्षायें प्राप्त करता था। फिर भी प्राचीनकाल में यह शिक्षा पद्धति कलाओं का निर्देश उपलब्ध है२०। इससे हम अनुमान लगा सकते हैं व्यक्ति के लिये भार स्वरूप नहीं थी। कि जैनाचार्यों की दृष्टि में शिक्षा जीवन के सभी पहलुओं का स्पर्श जहाँ तक आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा का प्रश्न था यह करती है।
धर्माचार्य के सानिध्य में उपदेशों के श्रवण के माध्यम से प्राप्त की कलाचार्य के बाद दूसरा स्थान शिल्पाचार्य का था। शिल्पाचार्य जाती थी। इसके लिये व्यक्ति को कुछ व्यय नहीं करना होता था। वस्तुत: वह व्यक्ति होता था जो आजीविका अर्जन से सम्बन्धित सामान्यतया श्रमण परम्परा में धर्माचार्य भिक्षाचर्या से ही अपनी उदरपूर्ति विविध प्रकार के शिल्पों की शिक्षा देता था। आज जिस प्रकार विभिन्न करते थे और उनके कोई स्थायी आश्रम आदि भी नहीं होते थे, अत:
औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थायें प्रशिक्षण प्रदान करती हैं, उस काल में वे व्यक्ति और समाज पर भार-स्वरूप नहीं होते थे। इसके विपरीत यही कार्य शिल्पाचार्य करते थे। इनके ऊपर धर्माचार्य का स्थान था। वैदिक परम्परा में धर्माचार्य सपरिवार अपने आश्रमों में रहते थे तथा इनका दायित्व वस्तुत: व्यक्ति के चारित्रिक गुणों का विकास करना था। धर्माचार्य और कलाचार्य का कार्य एक ही व्यक्ति करता था। कुछ वे शील और सदाचार की शिक्षा देते थे। इस प्रकार प्राचीन काल में कलाचार्य सम्पन्न व्यक्तियों या राजाओं या सामन्तों के घर जाकर भी शिक्षा को तीन भागों में विभक्त किया गया था और इन तीनों विभागों शिक्षा प्रदान करते थे, फिर भी सामान्यतया, वे शिक्षा अपने आश्रमों का दायित्व तत्-तत् विषयों के आचार्य निर्वाह करते थे।
में ही प्रदान करते थे। आश्रम पद्धति की विशेषता यह थी कि विद्यार्थी जैन परम्परा में कलाचार्य, शिल्पाचार्य और धर्माचार्य के जो और शिक्षक अपनी आजीविका या तो अपने श्रम से उपार्जित करते निर्देश उपलब्ध होते हैं उनसे ऐसा लगता है कि भारतीय चिन्तन में अथवा भिक्षाचर्या के माध्यम से उसकी पूर्ति करते। इसलिए उस युग में जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चार पुरुषार्थ या जीवन-मूल्य माने गये शिक्षा न तो व्यक्ति पर भार-स्वरूप थी और न राज्य पर। समृद्ध हैं, उनमें मोक्ष तो साध्य पुरुषार्थ है, अत: शेष तीन पुरुषार्थों की शिक्षा व्यक्ति अथवा राजा समय-समय पर दानादि देकर शिक्षकों को की व्यवस्था अलग-अलग तीन आचार्यों के लिए नियत की गई थी। सम्मानित अवश्य करते थे। विद्यार्थी भी अपनी शिक्षापूर्ण करने के शिल्पाचार्य का कार्य अर्थ पुरुषार्थ की शिक्षा देना था, तो कलाचार्य का पश्चात् जब स्वयं आजीविका अर्जन करने लगता, तो वह भी गुरुकाम भाषा लिपि और गणित की शिक्षा के साथ-साथ काम पुरुषार्थ की दक्षिणा देकर अपने गुरु को सम्मानित करता था। फिर भी यह समग्र शिक्षा देना था। धर्माचार्य का कार्य मात्र धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ से ही व्यवस्था मूलत: ऐच्छिक थी। शिल्पाचार्य आजीविका अर्जन से सम्बन्धित सम्बन्धित था इस प्रकार विविध जीवन-मूल्यों की शिक्षा के लिए विभिन्न शिल्पों की शिक्षा देते थे। विद्यार्थी शिल्पाचार्य के सान्निध्य में विविध आचार्यों की व्यवस्था थी। चूँकि जैनधर्म मूलत: एक निवृत्ति- रहकर ही शिल्प सिखते थे। इसमें शिक्षण और आजीविका अर्जन की मूलक और संन्यासपरक धर्म था इसलिए धर्माचार्य का कार्य धर्म और प्रक्रिया साथ-साथ ही चलती थी। सामान्यतया यह शिक्षा पिता-पुत्र की मोक्ष पुरुषार्थ की शिक्षा देने तक ही सीमित रखा गया था। इस प्रकार परम्परा से चलती थी। किन्तु कभी-कभी व्यक्ति दूसरों के सान्निध्य में जीवन के विविध मूल्यों के आधार पर शिक्षा की व्यवस्था भी अलग- भी ऐसी शिक्षा प्राप्त करता था। 'रायपसेनीय' में स्पष्ट रूप में यह अलग थी। आज हम सम्पूर्ण जीवन-मूल्यों के लिए जो एक ही प्रकार उल्लिखित है कि किस प्रकार के शिक्षक को किस प्रकार से सम्मानित
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करना चाहिए । २१ शिल्पाचार्य और कलाचार्य के सम्मान की पद्धति धर्माचार्य के सम्मान की पद्धति से भिन्न थी। कलाचार्य और शिल्पाचार्य की शिष्यगण तेलमालिश, स्नान आदि के द्वारा न केवल शारीरिक सेवा करते थे, अपितु उन्हें वस्त्र, आभूषण आदि से अलंकृत कर सरस भोजन करवाते थे तथा उनकी आजीविका एवं उनके पुत्रादि के भरणपोषण की योग्य व्यवस्था भी करते थे। दूसरी ओर धर्माचार्य को वन्दन नमस्कार करना, उसके उपदेशों को श्रद्धापूर्वक सुनना, भिक्षार्थ आने पर आहारादि से उसका सम्मान करना यही शिक्षार्थी का कर्तव्य माना गया था।२२ ज्ञातव्य है कि जहाँ शिल्पाचार्य और कलाचार्य अपने शिष्यों से भूमि, मुद्रा आदि के दान की अपेक्षा करते थे, वहाँ धर्माचार्य अपरिग्रही होने के कारण अपने प्रति श्रद्धाभाव को छोड़कर अन्य कोई अपेक्षा नहीं रखते थे। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि शिल्पाचार्य और कलाचार्य सामान्यतया गृहस्थ होते थे और इसलिए उन्हें अपने पारिवारिक दायित्वों को सम्पन्न करने के लिए शिष्यों से मुद्रा आदि की अपेक्षा होती थी, किन्तु धर्माचार्य की स्थिति इससे भिन्न थी, वे सामान्य रूप से संन्यासी और अपरिग्रही होते थे, अतः उनकी कोई अपेक्षा नही होती थी। वस्तुतः नैतिकता और सदाचार की शिक्षा देने का अधिकारी वही व्यक्ति हो सकता था जो स्वयं अपने जीवन में नैतिकता का आचरण करता हो और यही कारण था कि उसके उपदेशों एवं आदेशों का प्रभाव होता था। आज हम नैतिक एवं आध्यात्मिक शिक्षा देने का प्रथम तो कोई प्रयत्न ही नहीं करते दूसरे उसकी अपेक्षा भी हम उन शिक्षकों से करते हैं जो स्वयं उस प्रकार का जीवन नहीं जी रहे होते हैं, फलतः उनको शिक्षा का कोई प्रभाव भी नहीं होता। यही कारण है कि आज विद्यार्थियों में चरित्र निष्ठा का अभाव पाया जाता है, क्योंकि यदि शिक्षक स्वयं चरित्रवान नहीं होगा तो वह अपने विद्यार्थियों को वैसी शिक्षा नहीं दे पायेगा, कम से कम धर्माचार्य के सन्दर्भ में तो यह बात आवश्यक है। जब तक उसके जीवन में चारित्रिक और नैतिक मूल्य साकार नहीं होंगे, वह अपने शिष्यों पर उनका प्रभाव डालने में समर्थ नहीं होगा। चंद्रवेध्यक प्रकीर्णक कहता है कि सम्यक शिक्षा के प्रदाता आचार्य निश्चय ही सुलभ नहीं होते। २३
जैन आगमों में इस प्रश्न पर भी गम्भीरता से विचार किया गया है कि शिक्षा प्राप्त करने का अधिकारी कौन है ? चंद्रवेध्यक प्रकीर्णक में उन व्यक्तियों को शिक्षा के अयोग्य माना गया है, जो अविनीत हों, जो आचार्य का और विद्या का तिरस्कार करते हों मिध्यादृष्टिकोण से युक्त हों तथा मात्र सांसारिक भोगों के लिए विद्या प्राप्त करने की आकांक्षा रखते हों। २४ इसी प्रकार योग्य आचार्य कौन हो सकता है इसकी चर्चा करते हुए कहा गया है कि जो देश और काल का ज्ञाता, अवसर को समझने वाला, अभ्रान्त, धैर्यवान, अनुवर्तक और अमायावी होता है, साथ ही लौकिक, आध्यात्मिक और वैदिक शास्त्रों का ज्ञाता होता है वही शिक्षा देने का अधिकारी है। इस ग्रन्थ में आचार्य की उपमा दीपक से दी गयी है। दीपक के समान आचार्य स्वयं भी प्रकाशित होते हैं और दूसरों को भी प्रकाशित करते हैं। २६
जैन शिक्षा दर्शन
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श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में आचार्य के गुणों की संख्या ३६ स्वीकार की गयी हैं, किन्तु ये ३६ गुण कौनकौन हैं इस सम्बन्ध में विभिन्न ग्रन्थकारों के विभिन्न दृष्टिकोण हैं। भगवती आराधना में आचारत्व आदि ८ गुणों के साथ-साथ, १० स्थिति कल्प, १२ तप और ६ आवश्यक ऐसे ३६ गुण माने गये हैं। २७ इसी के टीकाकार अपराजितसूरि ने ८ ज्ञानाचार, ८ दर्शनाचार, १२ तप, ५ समिति और ३ गुप्ति- ये ३६ गुण मानें हैं। २८ श्वेताम्बर परम्परा में स्थानांग में आचार्य को आठ प्रकार की निम्न गणि-सम्पदाओं से युक्त बतलाया गया है — १. आचार - सम्पदा, २. श्रुत-सम्पदा, ३. शरीर-सम्पदा, ४ वचन सम्पदा, ५. वाचना- सम्पदा, ६ मति सम्पदा, ७ प्रयोग सम्पदा (वादकौशल) और ८. संग्रह परिज्ञा (संघ व्यवस्था में निपुणता ) | २९ प्रवचनसारोद्धार में आचार्य के ३६ गुणों का तीन प्रकार से विवेचन किया गया है। सर्वप्रथम उपरोक्त ८ गणि-सम्पदा के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से ३२ भेद होते हैं, इनमें आचार्य, श्रुत, विक्षेपणा और निर्धाटन — ये विनय में चार भेद सम्मलित करने पर कुल ३६ भेद होते हैं। प्रकारान्तर से ज्ञानाचार, दर्शनाचार और चरित्राचार के आठ-आठ भेद करने पर २४ भेद होते हैं, इनमें १२ प्रकार का तप मिलाने पर ३६ भेद होते हैं। कहीं-कहीं आठ गणि- सम्पदा, १० स्थितिकल्प, १२ तप और ६ आवश्यक मिलाकर आचार्य में ३६ गुण माने गये हैं। प्रवचनसारोद्धार के टीकाकार ने आचार्य के निम्न ३६ गुणों का भी उल्लेख किया गया है- १. देशयुत, २. कुलयुत, ३ जातियुत, ४ रूपयुत, ५. संहननयुत, ६. घृतियुत, ७ अनाशंसी, ८. अविकथन, ९. अयाची, १०. स्थिर परिपाटी, ११. गृहीतवाक्य, १२. जितपर्षद्, १३. जितनिद्रा, १४ मध्यस्थ, १५. देशश, १६. कालश, १७. भावश १८. आसन्नलब्धप्रतिम, १९. नानाविधदेश भाषा भाषज्ञ, २०. ज्ञानाचार, २१. दर्शनाचार, २२. चारित्राचार, २३. तपाचार, २४ वीर्याचार, २५. सूत्रपात, २६. आहरनिपुण, २७. हेतुनिपुण, २८. उपनयनिपुण, २९. नयनिपुण, ३०. ग्राहणाकुशल, ३१. स्वसमयश, ३२. परसमयज्ञ, ३३. गम्भीर, ३४. दीप्तीमान, ३५. कल्याण करने वाला और ३६. सौम्य । ३०
इन गुणों की चर्चा से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन आगमों में आचार्य कैसा होना चाहिए इस प्रश्न पर गम्भीरता पूर्वक विचार किया गया था और मात्र चरित्रवान एवं उच्च मूल्यों के प्रति निष्ठावान व्यक्ति को ही आचार्यत्व के योग्य माना गया था।
इससे यह फलित भी होता है कि जो साधक अहिंसादि महाव्रतों का स्वयं पालन करता है तथा आजीविका अर्जन हेतु मात्र भिक्षा पर निर्भर रहता है, जो स्वार्थ से परे है वही व्यक्ति आध्यात्मिक एवं नैतिक मूल्यों का शिक्षक होने का अधिकारी है।
विद्यार्थी कैसा होना चाहिये, इसकी चर्चा करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि जो भिक्षाजीवी, विनीत, सज्जन व्यक्तियों के गुणों को जानने वाला, आचार्य की मनोभावों के अनुरूप
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
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आचरण करने वाला, सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास आदि को सहन करने ३. आचारांग, १/१/१ वाला, लाभ-अलाभ में विचलित नहीं होने वाला, सेवा तथा स्वाध्याय ४. कठोपनिषद्, ३/३ हेतु तत्पर, अहंकार रहित और आचार्य के कठोर वचनों को सहन करने आचारांग, २/३/१५/१ में समर्थ शिष्य ही शिक्षा का अधिकारी है।३१ ग्रन्थकार यह भी कहता ६. सूत्रकृतांग, १/१२/११ है कि शास्त्रों में शिष्य की जो परीक्षा-विधि कही गयी है उसके माध्यम ७. उत्तराध्ययन, ३२/२ से शिष्य की परीक्षा करके ही उसे मोक्ष-मार्ग में प्रवृत्त करना चाहिये।३२ ८. वही, २९/६०
उत्तराध्ययनसूत्र में शिष्य के आचार-व्यवहार के सन्दर्भ में ९. वही, ३२/२ निर्देश करते हुए कहा गया है कि जो शिष्य गुरु के सान्निध्य में रहता १०. वही, ३२/१०२-१०६ है, गुरु के संकेत व मनोभावों को समझता है वही विनीत कहलाता ११. दशवकालिक ९/४ है। इसके विपरीत आचरण वाला अविनीता योग्य शिष्य सदैव गुरु के १२. चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक (चन्दावेज्झया)-सं० डॉ० सुरेश सिसोदिया निकट रहे, उनसे अर्थ पूर्ण बात सीखे और निरर्थक बातों को छोड़ दे, आगम-अहिंसा संस्थान, उदयपुर, ६२ गुरु द्वारा अनुशासित होने पर क्रोध न करे, शूद्र व्यक्तियों के संसर्ग से १३. वही, ५६ दूर रहे, यदि कोई गलती हो गयी हो तो उसे छिपाये नहीं अपितु यथार्थ १४. वही, ६४ रूप में प्रकट कर दे। बिना पूछे गुरु की बातों में बीच में न बोले, १५. वही, ६८ अध्ययन काल में सदैव अध्ययन करे। आचार्य के समक्ष बराबरी से न १६. उत्तराध्ययनसूत्र, ११/३ बैठे, न उनके आगे, न पीछे सटकर बैठे। गुरु के समीप उनसे अपने १७. वही, ११/४-५ शरीर को सटाकर भी नहीं बैठे, बैठे-बैठे ही न तो कुछ पूछे और न १८. चन्द्रवेध्यक, ७७ उत्तर दे। गुरु के समीप उकडू आसन से बैठकर हाथ जोड़कर जो पूछना १९. रायपसेनीयसुत्त (घासीलाल जी म.) सूत्र ९५६, पृ. ३३८हो उसे विनयपूर्वक पूछे।३३
ये सभी तथ्य यह सूचित करते हैं कि जैन शिक्षा-व्यवस्था में २०. समवायांग-समवाय ७२ (देखें-टीका) शिष्य के लिए अनुशासित जीवन जीना अवश्यक था। यह कठोर २१. रायपसेनीयसुत्त (घासीलालजी म.) सूत्र ९५६, पृ. ३३८अनुशासन वस्तुत: बाहर से थोपा हुआ नहीं था, अपितु मूल्यात्मक ३४१ शिक्षा के माध्यम से इसका विकास अन्दर से ही होता था, क्योंकि जैन २२. वही, पृ. ३३८-३४१ शिक्षा-व्यवस्था में सामान्यतया शिष्य में ताड़न-वर्जन की कोई व्यवस्था २३. चन्द्रवेध्यक, २० नहीं थी। आचार्य और शिष्य दोनों के लिए ही आगम में उल्लेखित २४. वही, ५१-५३ अनुशासन का पालन करना आवश्यक था। जैन शिक्षा विधि में २५. वही, २५,२६ अनुशासन आत्मानुशासन था। व्यक्ति को दूसरे को अनुशासित करने २६. वही, ३० का अधिकार तभी माना गया था, जब वह स्वयं अनुशासित जीवन २७. भगवतीआराधना सं०५० कैलाशचंदजी, भारतीय ज्ञानपीठ, जीता हो। आचार्य तुलसी ने 'निज' पर शासन फिर अनुशासन का जो देहली, ५२८ सूत्र दिया है वह वस्तुत: जैन शिक्षा विधि का सार है। शिक्षा के साथ २८. वही, टीका जब तक जीवन में स्वस्फूर्त अनुशासन नहीं आयेगा तब तक वह २९. स्थानांगसूत्र-स्थान, ८/१५ सार्थक नहीं होगी।
३०. प्रवचनसारोद्धार, द्वार ६४
३१. देखें- उत्तराध्ययनसूत्र, अध्याय १ एवं ११ सन्दर्भ
३२. चन्द्रवेध्यक, ५३ १. बाइबिल, उद्धृत नये संकेत, आचार्यरजनीश, पृ. ५७ ३३. उत्तराध्ययनसूत्र, १/२-२२ २. इसिभासियाई, १७/३
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जैन कर्मसिद्धान्त : एक विश्लेषण
कर्मसिद्धान्त का उद्भव एवं विकास
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कर्मसिद्धान्त का उद्भव सृष्टि वैचित्र्य, वैयक्तिक भिन्नताओं, व्यक्ति की सुख-दुःखात्मक अनुभूतियों एवं शुभाशुभ मनोवृत्तियों के कारण की व्याख्या के प्रयासों में ही हुआ है। सृष्टि वैचित्र्य एवं वैयतिक भिन्नताओं के कारण की खोज के इन प्रयासों से विभिन्न विचारधारायें अस्तित्व में आयीं। श्वेताश्वतरोपनिषद्, अंगुत्तरनिकाय और सूत्रकृतांग में हमें इन विभिन्न विचारधाराओं की उपस्थिति के संकेत मिलते हैं। महाभारत के शान्तिपर्व में इन विचारधाराओं की समीक्षा भी की गई है। इस सम्बन्ध में प्रमुख मान्यताएँ निम्न हैं-
१. कालवाद यह सिद्धान्त सृष्टि वैविध्य और वैयक्तिक विभिन्नताओं -- - - का कारण काल को स्वीकार करता है। जिसका जो समय या काल होता है तभी वह घटित होता है, जैसे- अपनी ऋतु (समय) आने पर ही वृक्ष में फल लगते हैं।
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२. स्वभाववाद - संसार में जो भी घटित होगा या होता है, उसका आधार वस्तुओं का अपना-अपना स्वभाव है। संसार में कोई भी स्वभाव का उल्लंघन नहीं कर सकता है।
३. नियतिवाद-संसार का समग्र घटनाक्रम पूर्व नियत है, जो जिस रूप में होना होता है वैसा ही होता है, उसे कोई अन्यथा नहीं कर
सकता।
४. यदृच्छावाद किसी भी घटना का कोई नियत हेतु या कारण नहीं होता है। समस्त घटनाएँ मात्र संयोग का परिणाम हैं। यदृच्छावाद हेतु के स्थान पर संयोग (Chance) को प्रमुख बना देता है।
५. महाभूतवाद समग्र अस्तित्व के मूल में पंचमहाभूतों की सत्ता रही है। संसार उनके वैविध्यमय विभिन्न संयोगों का ही परिणाम है। ६. प्रकृतिवाद विश्व वैविध्य त्रिगुणात्मक प्रकृति का ही खेल है मानवीय सुख-दुःख भी प्रकृति के ही अधीन है।
७. ईश्वरवाद - ईश्वर ही इस जगत् का रचयिता एवं नियामक है, जो कुछ भी होता है, वह सब उसकी इच्छा या क्रियाशक्ति का परिणाम है। ८. पुरुषवाद- वैयक्तिक विभिन्नता और सांसारिक घटनाक्रम के मूल में पुरुष का पुरुषार्थ ही प्रमुख है।
वस्तुत: जगत्-वैविध्य और वैयक्तिक भिन्नताओं की तार्किक या के इन्हीं प्रयत्नों में कर्मसिद्धान्त का विकास हुआ है जिसमें श्रुरूषवाद की प्रमुख भूमिका रही है। कर्मसिद्धान्त उपर्युक्त सिद्धान्तों का पुरुषवाद के साथ समन्वय का प्रयत्न है।
श्वेताश्वतरोपनिषद् के प्रारम्भ में ही प्रश्न उठाया गया है कि हम किसके द्वारा प्रेरित होकर संसार यात्रा का अनुवर्तन कर रहे हैं। आगे ऋषि यह जिज्ञासा प्रकट करता है कि क्या काल, स्वभाव नियति यदृच्छा, भूत-योनि अथवा पुरुष या इन सबका संयोग ही
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इसका कारण है। वस्तुतः इन सभी विचारधाराओं में पुरुषवाद को छोड़कर शेष सभी विश्व वैचित्र्य और वैयक्तिक वैविध्य की व्याख्या के लिए किसी न किसी बाह्य-तथ्य पर ही बल दे रही थीं। हम इनमें से किसी भी सिद्धान्त को मानें वैविध्य का कारण व्यक्ति से भिन्न ही मानना होगा, किन्तु ऐसी स्थिति में व्यक्ति पर नैतिक दायित्व का आरोपण सम्भव नहीं हो पाता है। यदि हम जो कुछ भी करते हैं और जो कुछ भी पाते हैं, उसका कारण बाह्य तथ्य ही हैं, तो फिर हम किसी भी कार्य के लिए नैतिक दृष्टि से उत्तरदायी ठहराये नहीं जा सकते। यदि व्यक्ति काल, स्वभाव, नियति अथवा ईश्वर की इच्छाओं का एक साधन मात्र है, तो वह उस कठपुतली के समान है, जो दूसरे के इशारों पर ही कार्य करती है। किन्तु ऐसी स्थिति में पुरुष में इच्छा - स्वातन्त्र्य का अभाव मानने पर नैतिक उत्तरदायित्व की समस्या उठती है । सामान्य मनुष्य को नैतिकता के प्रति आस्थावान बनाने के लिए आवश्यक है। कि व्यक्ति को उसके शुभाशुभ कर्मों के प्रति उत्तरदायी बनाया जा सके और यह तभी सम्भव है जब उसके मन में विश्वास हो कि उसे उसकी स्वतन्त्र इच्छा से किये गये अपने ही कर्मों का परिणाम प्राप्त होता है। यही कर्मसिद्धान्त है। ज्ञातव्य है कि कर्मसिद्धान्त ईश्वरीय कृपा या अनुग्रह के विरोध में जाता है, वह यह मानता है कि ईश्वर भी कर्मफलव्यवस्था को अन्यथा नहीं कर सकता है। कर्म का नियम ही सर्वोपरि है।
कर्मसिद्धान्त और कार्यकारण का नियम
आचार के क्षेत्र में इस कर्मसिद्धान्त की उतनी ही आवश्यकता है जितनी विज्ञान के क्षेत्र में कार्य-कारण- सिद्धान्त की। जिस प्रकार कार्यकारण सिद्धान्त के अभाव में वैज्ञानिक व्याख्यायें असम्भव होती है, उसी प्रकार कर्म सिद्धान्त के अभाव में नीतिशास्त्र भी अर्थ - शून्य हो जाता है।
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प्रो० वेंकटरमण के शब्दों में कर्मसिद्धान्त कार्यकारण- सिद्धान्त के नियमों एवं मान्यताओं का मानवीय आचार के क्षेत्र में प्रयोग है, जिसकी उपकल्पना यह है कि जगत् में सभी कुछ किसी नियम के अधीन है। मैक्समूलर लिखते हैं कि यह विश्वास कि कोई भी अच्छा बुरा कर्म बिना फल दिए समाप्त नहीं होता, नैतिक जगत् का वैसा ही विश्वास है, जैसा भौतिक जगत् में ऊर्जा की अविनाशिता का नियम है। यद्यपि कर्मसिद्धान्त एवं वैज्ञानिक कार्यकारण सिद्धान्त में सामान्य रूप से समानता प्रतीत होती हैं किन्तु उनमें एक मौलिक अन्तर भी है। यह कि जहाँ कार्य-कारण सिद्धान्त का विवेच्य जड़ तत्व के क्रियाकलाप हैं वहीं कर्म सिद्धान्त का विवेच्य चेतना सत्ता के क्रिया-कलाप हैं। अतः कर्मसिद्धान्त में वैसी पूर्ण नियतता नहीं होती, जैसी कार्यकारण सिद्धान्त में होती है। यह नियतता एवं स्वतंत्रता का समुचित संयोग है।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
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कर्मसिद्धान्त की मौलिक स्वीकृति यही है कि प्रत्येक शुभाशुभ क्रिया जैन कर्मसिद्धान्त का विकास क्रम का कोई प्रभाव या परिणाम अवश्य होता है। साथ ही उस कर्म-विपाक जैन कर्मसिद्धान्त का विकास किस क्रम में हुआ, इस प्रश्न या परिणाम का भोक्ता वही होता है, जो क्रिया का कर्ता होता है और का समाधान उतना सरल नहीं है, जितना कि हम समझते हैं। सामान्य कर्म एवं विपाक की यह परम्परा अनादि काल से चल रही है। विश्वास तो यह है कि जैन धर्म की तरह यह भी अनादि है, किन्तु
विद्वत्-वर्ग इसे स्वीकार नहीं करता है। यदि जैन कर्मसिद्धान्त के कर्मसिद्धान्त की उपयोगिता
विकास का कोई समाधान देना हो तो, वह जैन आगम एवं कर्मसिद्धान्त कर्मसिद्धान्त की व्यावहारिक उपयोगिता यह है कि वह न सम्बन्धी ग्रन्थों के कालक्रम के आधार पर ही दिया जा सकता है, इसके केवल हमें नैतिकता के प्रति आस्थावान बनाता है, अपितु वह हमारे अतिरिक्त अन्य विकल्प नहीं है। जैन आगमसाहित्य में आचारांग सुख-दुःख आदि का स्त्रोत हमारे व्यक्तित्व में ही खोजकर ईश्वर एवं प्राचीनतम है। इस ग्रन्थ में जैन कर्मसिद्धान्त का चाहे विकसित स्वरूप प्रतिवेशी अर्थात् अन्य व्यक्तियों के प्रति कटुता का निवारण करता है। उपलब्ध न हो, किन्तु उसकी मूलभूत अवधारणाएँ अवश्य उपस्थित हैं। कर्मसिद्धान्त की स्थापना का प्रयोजन यही है कि नैतिक कृत्यों के कर्म से उपाधि या बन्धन होता है, कर्म रज है, कर्म का आस्त्रव होता अनिवार्य फल के आधार पर उनके प्रेरक कारणों एवं अनुवर्ती परिणामों है, साधक को कर्मशरीर को धुन डालना चाहिए आदि विचार उसमें की व्याख्या की जा सके, तथा व्यक्तियों को अशुभ या दुष्कर्मों से परिलक्षित होते हैं। इससे यह फलित होता है कि आचारांग के काल में विमुख किया जा सके।
कर्म को स्पष्ट रूप से बन्धन का कारण माना जाता था और कर्म के
भौतिक पक्ष की स्वीकृति के साथ यह भी माना जाता था कि कर्म की जैन कर्मसिद्धान्त और अन्य दर्शन :
निर्जरा की जा सकती है। साथ ही आचारांग में शुभाशुभ कर्मों का ऐतिहासिक दृष्टि से वेदों में उपस्थित ऋत का सिद्धान्त कर्म- शुभाशुभ विपाक होता है, यह अवधारणा भी उपस्थित है। उसके नियम का आदि स्त्रोत है। यद्यपि उपनिषदों के पूर्व के वैदिक साहित्य अनुसार बन्धन का मूल कारण ममत्व है। बन्धन से मुक्ति का उपाय में कर्म सिद्धान्त का कोई सुस्पष्ट विवेचन नहीं मिलता, फिर भी उसमें ममत्व का विसर्जन और समत्व का सर्जन है। उपस्थित ऋत के नियम की व्याख्या इस रूप में की जा सकती है। पं० सूत्रकृतांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध भी आचारांग से किंचित दलसुख मालवणिया के शब्दों में कर्म (जगत् वैचित्र्य का) कारण है, ही परवर्ती माना जाता है। सूत्रकृतांग के काल में यह प्रश्न बहुचर्चित ऐसा वाद उपनिषदों का सर्व-सम्मतवाद हो, नहीं कहा जा सकता। था, कि कर्म का फल संविभाग सम्भव है या नहीं? इसमें स्पष्ट रूप भारतीय चिन्तन में कर्म सिद्धान्त का विकास जैन, बौद्ध और वैदिक से यह प्रतिपादित किया गया है कि व्यक्ति अपने स्वकृत कर्मों का तीनों परम्पराओं में हुआ है। यद्यपि यह एक भिन्न बात है कि जैनों ने ही विपाक अनुभव करता है। बन्धन के सम्बन्ध में सूत्रकृतांग (१/ कर्मसिद्धान्त का जो गंभीर विवेचन प्रस्तुत किया वह अन्य परम्पराओं ८/२) स्पष्ट रूप से कहता है कि कुछ व्यक्ति कर्म को और कुछ में उपलब्य नहीं हैं। वैदिकों के लिए जो महत्त्व ऋत का, मीमांसको अकर्म को वीर्य (पुरुषार्थ) कहते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि कर्म के लिए अपूर्व का, नैयायिकों के लिए अदृष्ट का, वैदान्तियों के लिए के सन्दर्भ में यह विचार लोगों के मन में उत्पन्न हो गया था, कि यदि माया का और सांख्यों के लिए प्रकृति का है, वही जैनों के लिए कर्म कर्म ही बन्धन है तो फिर अकर्म अर्थात् निष्क्रियता ही बन्धन से का है। यद्यपि सामान्य दृष्टि से देखने पर वेदों का ऋत, मीमांसकों का बचने का उपाय होगा, किन्तु सूत्रकृतांग के अनुसार अकर्म का अर्थ अपूर्व, नैयायिकों का अदृष्ट, अद्वैतियों की माया, सांख्यों की प्रकृति निष्क्रिष्यता नहीं है। इसमें प्रतिपादित है कि प्रमाद कर्म है और एवं बौद्धों की अविद्या या संस्कार पर्यायवाची से लगते हैं, क्योंकि अप्रमाद अकर्म है (१/८/३) । वस्तुतः किसी क्रिया की बन्धकता व्यक्ति के बन्धन एवं उसके सुख-दुःख की स्थितियों में इनकी मुख्य उसके क्रिया-रूप होने पर नहीं, अपितु उसके पीछे रही प्रमत्तता या भूमिका है, फिर भी इनके स्वरूप में दार्शनिक दृष्टि से अन्तर भी है, अप्रमत्तता पर निर्भर है। यहाँ प्रमाद का अर्थ है आत्मचेतना (Selfयह बात हमें दृष्टिगत रखनी होगी। ईसाईधर्म और इस्लामधर्म में भी awareness) का अभाव। जिस आत्मा का विवेक जागृत नहीं हैं कर्म-नियम को स्थान मिला है। फिर भी ईश्वरीय अनुग्रह पर अधिक और जो कषाययुक्त है, वही परिसुप्त या प्रमत्त है और जिसका बल देने के कारण उनमें कर्म-नियम के प्रति आस्था के स्थान पर ईश्वर विवेक जागृत है और जो वासना-मुक्त है वही अप्रमत्त है। सूत्रकृतांग के प्रति विश्वास ही प्रमुख रहा है। ईश्वर की अवधारणा के अभाव के (२/२/१) में ही हमें क्रियाओं के दो रूपों की चर्चा भी मिलती हैकारण भारत की श्रमण परम्परा कर्मसिद्धान्त के प्रति अधिक आस्थावान १. साम्परायिक और २. ईर्यापथिक। राग, द्वेष, क्रोध आदि कषायों रही, बौद्ध-दर्शन में भी जैनों के समान ही कर्म-नियम को सर्वोपरि से युक्त क्रियायें साम्परायिक कही जाती हैं, जबकि इनसे रहित माना गया। हिन्दूधर्म में भी ईश्वरीय व्यवस्था को कर्म-नियम के अधीन क्रियायें ईर्यापथिक कही जाती हैं। साम्परायिक क्रियायें बन्धक होती लाया गया, उसमें ईश्वर कर्म-नियम का व्यवस्थापक होकर भी उसके हैं, जबकि ईर्यापथिक बन्धनकारक नहीं होतीं। इससे इस निष्कर्ष पर अधीन ही कार्य करता है।
पहुचते हैं कि सूत्रकृतांग में कौन सा कर्म बन्धन का कारण होगा
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जैन कर्मसिद्धान्त और कौन सा कर्म बन्धन का कारण नहीं होगा, इसकी एक कसौटी प्रस्तुत कर दी गई है। आचारांग में प्रतिपादित ममत्व की अपेक्षा इसमें प्रमत्तता और कषाय को बन्धन का प्रमुख कारण माना गया है। यदि हम बन्धन के कारणों का ऐतिहासिक दृष्टि से विश्लेषण करें, तो यह पाते हैं कि प्रारम्भ में ममत्व (मेरेपन) को बन्धन का कारण माना गया, फिर आत्मविस्मृति या प्रमाद को जब प्रमाद की व्याख्या का प्रश्न आया, तो स्पष्ट किया गया कि राग-द्वेष की उपस्थिति ही प्रमाद है। अतः राग-द्वेष को बन्धन का कारण बताया गया है। इनमें मोह मिथ्यात्व और कषाय का संयुक्त रूप है। प्रमाद के साथ इनमें अविरति एवं योग के जुड़ने पर जैन परम्परा में बन्धन के ५ कारण माने जाने लगे । समयसार आदि में प्रमाद को कषाय का ही एक रूप मानकर बन्धन के चार कारणों का उल्लेख मिलता है। इनमें योग बन्धनकारक होते हुए भी वस्तुतः जब तक कषाय के साथ युक्त नहीं होता है, बन्धन का कारण नहीं बनता है। अतः प्राचीन ग्रन्थों में बन्धन के कारणों की चर्चा में मुख्य रूप से राग-द्वेष ( कषाय) एवं मोह ( मिथ्यादृष्टि) की ही चर्चा हुई है।
जैन कर्मसिद्धान्त के इतिहास की दृष्टि से कर्मप्रकृतियों का विवेचन भी महत्त्वपूर्ण माना जाता है। कर्म की अष्ट मूलप्रकृतियों का सर्व प्रथम निर्देश हमें ऋषिभाषित के पार्श्व नामक अध्ययन में उपलब्ध होता है११। इसमें ८ प्रकार की कर्मग्रन्थियों का उल्लेख है। यद्यपि वहाँ इनके नामों की कोई चर्चा उपलब्ध नहीं होती है। ८ प्रकार की कर्मप्रकृतियों के नामों का स्पष्ट उल्लेख हमें उत्तराध्ययन के ३३वें अध्याय में और स्थानांग में मिलता है। १२ स्थानांग की अपेक्षा भी उत्तराध्ययन में यह वर्णन विस्तृत है, क्योंकि इसमें अवान्तर कर्म प्रकृतियों की चर्चा भी हुई है। इसमें ज्ञानावरण कर्म की ५, दर्शनावरण की ९, वेदनीय की २, मोहनीय की २ एवं २८, नामकर्म की २ एवं अनेक, आयुष्यकर्म की ४ गोत्रकर्म की २ और अन्तराय कर्म की ५ अवान्तर प्रकृतियों का उल्लेख मिलता है१३। आगे जो कर्मसाहित्य सम्बन्धी ग्रन्थ निर्मित हुए उनमें नामकर्म की प्रकृतियों की संख्या में और भी वृद्धि हुई, साथ ही उनमें आत्मा में किस अवस्था में कितनी कर्मप्रकृतियों का उदय, सत्ता, बन्ध आदि होते है, इसकी भी चर्चा हुई वस्तुतः जैन कर्मसिद्धान्त ई.पू. आठवीं शती से लेकर ईस्वी सन् की सातवीं शतीं तक लगभग पन्द्रह सौ वर्ष की सुदीर्घ अवधि में व्यवस्थित होता रहा है। यह एक सुनिश्चित सत्य है कि कर्मसिद्धान्त का जितना गहन विश्लेषण जैन परम्परा के कर्मसिद्धान्त सम्बन्धी साहित्य में हुआ, उतना अन्यत्र किसी भी परम्परा में नहीं हुआ है।
'कर्म' शब्द का अर्थ
जब हम जैन कर्मसिद्धान्त की बात करते हैं, तो हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि उसमें 'कर्म' शब्द एक विशेष अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। वह अर्थ कर्म के उस सामान्य अर्थ की अपेक्षा अधिक व्यापक है। सामान्यतया कोई भी क्रिया कर्म कहलाती है,
एक विश्लेषण
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प्रत्येक हलचल चाहे वह मानसिक हो, वाचिक हो या शरीरिक हो, कर्म है। किन्तु जैन परम्परा में जब हम 'कर्म' शब्द का प्रयोग करते हैं, तो वहाँ ये क्रियायें तभी कर्म बनती हैं, जब ये बन्धन का कारण हों मीमांसादर्शन में कर्म का तात्पर्य यज्ञ याग आदि क्रियाओं से लिया जाता है। गीता आदि में कर्म का अर्थ अपने वर्णाश्रम के अनुसार किये जाने वाले कर्मों से लिया गया है। यद्यपि गीता एक व्यापक अर्थ में भी कर्म शब्द का प्रयोग करती है। उसके अनुसार मनुष्य जो भी करता है या करने का आग्रह रखता है, वे सभी प्रवृत्तियाँ कर्म की श्रेणी में आती हैं। बौद्धदर्शन में चेतना को ही कर्म कहा गया है। बुद्ध कहते हैं कि “भिक्षुओं कर्म, चेतना ही है", ऐसा मैं इसलिए कहता हूँ कि चेतना के द्वारा ही व्यक्ति कर्म को करता है, काया से, मन से या वाणी से १४ । इस प्रकार बौद्धदर्शन में कर्म के समुत्थान या कारक को ही 'कर्म' कहा गया है। बौद्धदर्शन में आगे चलकर चेतना कर्म और चेतयित्वा कर्म की चर्चा हुई है । चेतना कर्म मानसिक कर्म है, चेतयित्वा कर्म वाचिक एवं कायिक कर्म है १५ । किन्तु हमें ध्यान रखना चाहिए कि जैन कर्मसिद्धान्त में कर्म शब्द अधिक व्यापक अर्थ में गृहीत हुआ है। उसमें मात्र क्रिया को ही कर्म नहीं कहा गया, अपितु उसके हेतु (कारण) को भी कर्म कहा गया है। आचार्य देवेन्द्रसूरि लिखते हैं--जीव की क्रिया का हेतु ही कर्म है १६ किन्तु हम मात्र हेतु को भी कर्म नही कह सकते हैं। हेतु उससे निष्पन्न क्रिया और उस क्रिया का परिणाम, सभी मिलकर जैन दर्शन में कर्म की परिभाषा को स्पष्ट करते हैं। पं० सुखलाल जी संघवी लिखते हैं कि मिथ्यात्व कषाय आदि कारणों से जीव द्वारा जो किया जाता है कर्म कहलाता है मेरी दृष्टि से इसके साथ ही साथ कर्म में उस क्रिया के विपाक को भी सम्मिलित करना होगा। इस प्रकार कर्म के हेतु, क्रिया और क्रिया-विपाक, सभी मिलकर कर्म कहलाते हैं। जैन दार्शनिकों ने कर्म के दो पक्ष माने हैं--१. राग-द्वेष एवं कषाय ये सभी मनोभाव, भाव कर्म कहे जाते हैं। २. कर्म-पुद्रल द्रव्यकर्म कहे जाते हैं। ये भावकर्म के परिणाम होते हैं, साथ ही मनोजन्यकर्म की उत्पत्ति का निमित्त कारण भी होते हैं। यह भी स्मरण रखना होगा कि ये कर्म हेतु (भावकर्म) और कर्मपरिणाम (द्रव्यकर्म) भी परस्पर कार्य कारण भाव रखते हैं।
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सभी आस्तिक दर्शनों ने एक ऐसी सत्ता को स्वीकार किया है, जो आत्मा या चेतना की शुद्धता को प्रभावित करती है। उसे वेदान्त में माया, सांख्य में प्रकृति, न्यायदर्शन में अदृष्ट एवं मीमांसा में अपूर्व कहा गया है। बौद्धदर्शन में उसे ही अविद्या और संस्कार (वासना) के नाम से जाना जाता है। योगदर्शन इसी आत्मा की विशुद्धता को प्रभावित करने वाली शक्ति को कर्म कहता है। जैन दर्शन में कर्म के निमित्त कारणों के रूप में कर्म पुद्गल को भी स्वीकार किया गया है, जबकि इसके उपादान के रूप में आत्मा को ही माना गया हैं। आत्मा के बन्धन में कर्म पुद्रल निमित्त कारण है और स्वयं आत्मा उपादान कारण होता है।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
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कर्म का भौतिक स्वरूप
हमारे स्वभाव में परिवर्तन का कारण हमारे जैव-रसायनों एवं रक्तजैनदर्शन में कर्म चेतना से उत्पन्न क्रिया मात्र नहीं है,अपितु रसायनों का परिवर्तन है। उसी प्रकार कर्मवर्गणाएँ हमारे मनोविकारों के यह स्वतन्त्र तत्त्व भी है। आत्मा के बन्धन का कारण क्या है? जब सृजन में निमित्त कारण होती हैं। पुन: जिस प्रकार हमारे मनोभावों के यह प्रश्न जैन दार्शनिकों के समक्ष आया तो उन्होंने बताया कि आधार पर हमारे जैव-रसायन एवं रक्तरसायन में परिवर्तन होता है, वैसे आत्मा के बन्धन का कारण केवल आत्मा नहीं हो सकती। वस्तुतः ही आत्मा में विकारी भावों के कारण जड़ कर्मवर्गणा के पुद्गल कर्म कषाय (राग-द्वेष) अथवा मोह (मिथ्यात्व) आदि जो बन्धक मनोवृत्तियाँ रूप में परिणित हो जाते हैं। अत: द्रव्यकर्म और भावकर्म भी परस्पर हैं, वे भी स्वत: उत्पन्न नहीं हो सकतीं, जब तक कि वे पूर्वबद्ध सापेक्ष हैं। पं० सुखलाल जी लिखते हैं भावकर्म के होने में द्रव्यकर्म, कर्मवर्गणाओं के विपाक (संस्कार) के रूप में चेतना के समक्ष निमित्त है और द्रव्यकर्म के होने में भावकर्म निमित्त है१९। दोनों आपस उपस्थित नहीं होती है। जिस प्रकार मनोवैज्ञानिक दृष्टि से शरीर में बीजांकुर की तरह सम्बद्ध हैं। जिस प्रकार बीज से वृक्ष और वृक्ष से रसायनों के परिवर्तन से संवेग (मनोभाव) उत्पत्र होते हैं और उन बीज उत्पन्न होता है, उनमें किसी को पूर्वापर नहीं कहा जा सकता है, संवेगों के कारण ही शरीर-रसायनों में परिवर्तन होता है। यही स्थिति वैसे इनमें भी किसी की पूर्वापरता का निश्चय नहीं हो सकता है। प्रत्येक आत्मा की भी है। पूर्व कर्मों के कारण आत्मा में राग-द्वेष आदि द्रव्यकर्म की अपेक्षा से भावकर्म पूर्व होगा तथा प्रत्येक भावकर्म की मनोभाव उत्पत्र (उदित) होते हैं और इन उदय में आये मनोभावों के अपेक्षा से द्रव्यकर्म पूर्व होगा। क्रियारूप परिणित होने पर आत्मा नवीन कर्मों का संचय करता है। द्रव्यकर्म एवं भावकर्म की इस अवधारणा के आधार पर बन्धन की दृष्टि से कर्मवर्गणाओं के कारण मनोभाव उत्पन्न होते हैं जैन-कर्मसिद्धान्त अधिक युक्तिसंगत बन गया है। जैन कर्मसिद्धान्त कर्म
और उन मनोभावों के कारण जड़ कर्मवर्गणाएँ कर्म का स्वरूप के भावात्मक पक्ष पर समुचित बल देते हुए भी जड़ और चेतन के मध्य ग्रहण कर आत्मा को बन्धन में डालती हैं। जैन विचारकों के अनुसार एक वास्तविक सम्बन्ध बनाने का प्रयास करता है। कर्म जड़-जगत् एवं एकान्त रूप से न तो आत्मा स्वत: ही बन्धन का कारण है, न चेतना के मध्य एक योजक कड़ी है। जहाँ एक ओर सांख्य-योग दर्शन कर्मवर्गणा के पुद्गल ही। दोनों निमित्त एवं उपादान के रूप में एक के अनुसार कर्म-पूर्णत: जड़ प्रकृति से सम्बन्धित है, अत: उनके दूसरे से संयुक्त होकर ही बन्धन की प्रक्रिया को जन्म देते हैं। अनुसार वह प्रकृति ही है, जो बन्धन में आती है और मुक्त होती है,
वहीं दूसरी ओर बौद्ध दर्शन के अनुसार कर्म संस्कार रूप है अत: वे द्रव्यकर्म और भावकर्म
चैतसिक हैं। इसलिए उन्हें मानना पड़ा कि चेतना ही बन्धन एवं मुक्ति कर्मवर्गणाएँ या कर्म का भौतिक पक्ष, द्रव्यकर्म कहलाता है। का कारण है। किन्तु जैन विचारक इन एकांगी दृष्टिकोणों से सन्तुष्ट जबकि कर्म की चैतसिक अवस्थाएँ अर्थात् मनोवृत्तियाँ, भावकर्म है। नहीं हो पाये। उनके अनुसार संसार का अर्थ है-जड़ और चेतन का आत्मा के मनोभाव या चेतना की विविध विकारित अवस्थाएँ भावकर्म पारस्परिक बन्धन या उनकी पारस्परिक प्रभावशीलता तथा मुक्ति का हैं और ये मनोभाव जिस निमित्त से उत्पन्न होते हैं, वह पुद्गल-द्रव्य अर्थ है-- जड़ एवं चेतन की एक दूसरे को प्रभावित करने की सामर्थ्य द्रव्यकर्म हैं। आचार्य नेमिचन्द गोम्मटसार में लिखते हैं कि पुद्गल का समाप्त हो जाना। द्रव्यकर्म है और उसकी चेतना को प्रभावित करने वाली शक्ति भावकर्म है १७ आत्मा में जो मिथ्यात्व और कषाय अथवा राग-द्वेष आदि भाव भौतिक एवं अभौतिक पक्षों की पारस्परिक प्रभावकता हैं, वे ही भाव कर्म हैं, और उनकी उपस्थिति में कर्मवर्गणा के जो जिन दार्शनिकों ने चरम-सत्य के सम्बन्ध में अद्वैत की पुद्गल परमाणु ज्ञानावरण आदि कर्मप्रकृतियों के रूप में परिणत होते धारणा के स्थान पर द्वैत की धारणा स्वीकार की, उनके लिए यह प्रश्न हैं, वे ही द्रव्यकर्म हैं। द्रव्यकर्म का कारण भावकर्म है और भावकर्म का बना रहा कि वे दोनों तत्त्व एक दूसरे को किस प्रकार प्रभावित करते हैं। कारण द्रव्य कर्म है। आचार्य विद्यानन्दि ने अष्टसहस्त्री में द्रव्यकर्म को अनेक विचारकों ने द्वैत को स्वीकारते हुए भी उनके पारस्परिक सम्बन्ध आवरण व भावकर्म को दोष कहा है। चूंकि द्रव्यकर्म आत्मशक्ति के को अस्वीकार किया। किन्तु जगत् की व्याख्या इनके पारस्परिक सम्बन्ध प्रकटन को रोकता है, इसलिए वह आवरण है और भाव कर्म स्वयं के अभाव में सम्भव नहीं है। पश्चिम में यह समस्या देकार्त के सामने आत्मा की विभाव अवस्था है, अत: वह दोष है १८५ कर्मवर्गणा के प्रस्तुत हुई थी। देकार्त ने इसका हल पारस्परिक प्रतिक्रियावाद के पुद्गल तब तक कर्म रूप में परिणित नहीं होते हैं, जब तक ये आधार पर किया भी, किन्तु स्पिनोजा उससे सन्तुष्ट नहीं हुए, उन्होंने भावकों द्वारा प्रेरित नहीं होते हैं। किन्तु साथ ही यह भी स्मरण रखना प्रश्न उठाया कि दो स्वतन्त्र सत्ताओं में परस्पर प्रतिक्रिया सम्भव कैसे होगा कि आत्मा में जो विभावदशाएँ हैं, उनके निमित्त कारण के रूप है? अत: स्पिनोजा ने प्रतिक्रियावाद के स्थान पर समानान्तरवाद की में द्रव्यकर्म भी अपना कार्य करते हैं। यह सत्य है कि दूषित मनोविकारों स्थापना की। लाईबिनीत्ज ने पूर्वस्थापित सामञ्जस्य की अवधारणा का जन्म आत्मा में ही होता है, किन्तु उसके निमित्त (परिवेश) के रूप प्रस्तुत की२°। भारतीय चिन्तन में भी प्राचीन काल से इस सम्बन्ध में में कर्मवर्गणाएँ अपनी भूमिका का अवश्य निर्वाह करती हैं। जिस प्रकार प्रयत्न हुए है। उसमें यह प्रश्न उठाया गया कि लिंगशरीर या कर्मशरीर
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जैन कर्मसिद्धान्त : एक विश्लेषण
२०३ आत्मा को कैसे प्रभावित कर सकता है? सांख्य दर्शन पुरुष और शरीर से युक्त होता है, तभी तक कर्मवर्गणा के पुद्गल उसे प्रभावित प्रकृति के द्वैत को स्वीकार करके भी इनके पारस्परिक सम्बन्ध को नहीं कर सकते हैं। आत्मा में पूर्व से उपस्थित कर्मवर्गणा के पुद्गल ही समझा पाया, क्योंकि उसने पुरुष को कूटस्थ नित्य मान लिया था, बाह्य-जगत् के कर्मवर्गणाओं को आकर्षित कर सकते हैं। मुक्त अवस्था किन्तु जैन दर्शन ने अपने वस्तुवादी और परिणामवादी विचारों के में आत्मा अशरीरी होता है अत: उसे कर्मवर्गणा के पुद्गल प्रभावित आधार पर इनकी सफल व्याख्या की है। वह बताता है कि जिस प्रकार करने में समर्थ नहीं होते हैं। जड़ मादक पदार्थ चेतना को प्रभावित करते हैं, उसी प्रकार जड़ कर्मवर्गणाओं का प्रभाव चेतन आत्मा पर पड़ता है, इसे स्वीकार किया कर्म एवं उनके विपाक की परम्परा जा सकता है। संसार का अर्थ है-- जड़ और चेतन का वास्तविक कर्म एवं उनके विपाक की परम्परा से ही यह संसार-चक्र सम्बन्ध। इस सम्बन्ध की वास्तविकता को स्वीकार किये बिना जगत् प्रवर्तित होता है। दार्शनिक दृष्टि से यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है कि कर्म और की व्याख्या सम्भव नहीं है।
आत्मा का सम्बन्ध कब से हुआ। यदि हम यह सम्बन्ध सादि अर्थात्
काल विशेष में हुआ, ऐसा मानते हैं, तो यह मानना होगा कि उसके मूर्तकर्म का अमूर्त आत्मा पर प्रभाव
पहले आत्मा मुक्त था और यदि मुक्त आत्मा को बन्धन में आने की यह भी सत्य है कि कर्म मूर्त है और वे हमारी चेतना को सम्भावना हो तो फिर मुक्ति का कोई मूल्य ही नहीं रह जाता है। यदि प्रभावित करते हैं। जैसे मूर्त भौतिक विषयों की चेतना व्यक्ति से सम्बद्ध यह माना जाय कि आत्मा अनादिकाल से बन्धन में है, तो फिर यह होने पर सुख-दु:ख आदि का अनुभव या वेदना होती है, वैसे ही कर्म मानना होगा कि यदि बन्धन अनादि है तो वह अनन्त भी होगा, ऐसी के परिणाम स्वरूप भी वेदना होती है, अत: वे मूर्त हैं। किन्तु दार्शनिक स्थिति में मुक्ति की सम्भावना ही समाप्त हो जायेगी। दृष्टि से यह प्रश्न किया जा सकता है कि यदि कर्म मूर्त है तो, वह
जैन दार्शनिकों ने इस समस्या का समाधान इस रूप में किया अमूर्त आत्मा पर प्रभाव कैसे डालेगा? जिस प्रकार वायु और अग्नि कि कर्म और विपाक की यह परम्परा कर्म विशेष की अपेक्षा से तो अमूर्त आकाश पर किसी प्रकार का प्रभाव नहीं डाल सकती है, उसी सादि और सान्त है, किन्तु प्रवाह की अपेक्षा से अनादि और अनन्त है। प्रकार कर्म का अमूर्त आत्मा पर भी कोई प्रभाव नहीं होना चाहिए। पुनः कर्म और विपाक की परम्परा का यह प्रवाह भी व्यक्ति विशेष की जैनदार्शनिक यह मानते हैं कि जैसे अमूर्त ज्ञानादि गुणों पर मूर्त दृष्टि से अनादि तो है, अनन्त नहीं। क्योंकि प्रत्येक कर्म अपने बन्धन मदिरादि का प्रभाव पड़ता है, वैसे ही अमूर्त जीव पर भी मूर्त कर्म का की दृष्टि से सादि है। यदि व्यक्ति नवीन कर्मों का आगमन रोक सके तो प्रभाव पड़ता है। उक्त प्रश्न का दूसरा तर्क-संगत एवं निर्दोष समाधान यह परम्परा स्वत: ही समाप्त हो जायेगी, क्योंकि कर्म-विशेष तो सादि यह भी है कि कर्म के सम्बन्ध से आत्मा कंथचित् मूर्त भी है। क्योंकि है ही और जो सादि है वह कभी समाप्त होगा ही। संसारी आत्मा अनादिकाल से कर्मद्रव्य से सम्बद्ध है, इस अपेक्षा से जैन दार्शनिकों के अनुसार राग-द्वेष रूपी कर्मबीज के भुन आत्मा सर्वथा अमूर्त नहीं है, अपितु कर्म से सम्बद्ध होने के कारण जाने पर कर्म प्रवाह की परम्परा समाप्त हो जाती है। कर्म और विपाक स्वरूपतः अमूर्त होते हुए भी वस्तुतः कथंचित् मूर्त है। इस दृष्टि से भी की परम्परा के सम्बन्ध में यही एक ऐसा दृष्टिकोण है जिसके आधार आत्मा पर मूर्तकर्म का उपघात, अनुग्रह और प्रभाव पड़ता है। वस्तुतः पर बन्धन का अनादित्व व मुक्ति से अनावृत्ति की समुचित व्याख्या जिस पर कर्मसिद्धान्त का नियम लागू होता है, वह व्यक्तित्व अमूर्त सम्भव है। नहीं है। हमारा वर्तमान व्यक्तित्व शरीर (भौतिक) और आत्मा (अभौतिक) का एक विशिष्ट संयोग है। शरीरी आत्मा भौतिक बाह्य तथ्यों से कर्मफलसंविभाग का प्रश्न अप्रभावित नहीं रह सकता। जब तक आत्मा-शरीर (कर्म-शरीर) के
क्या एक व्यक्ति अपने शुभाशुभ कर्मों का फल दूसरे को दे बन्धन से मुक्त नहीं हो जाती, तब तक वह अपने को भौतिक प्रभावों सकता है या नहीं अथवा दूसरे के कर्मों का फल उसे प्राप्त होता है या से पूर्णतया अप्रभावित नहीं रख सकती। मूर्त शरीर के माध्यम से ही नहीं, यह दार्शनिक दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। भारतीय चिन्तन में उस पर मूर्तकर्म का प्रभाव पड़ता है।
हिन्दू परम्परा मानती है कि व्यक्ति के शुभाशुभ कर्मों का फल उसके म आत्मा और कर्मवर्गणाओं में वास्तविक सम्बन्ध स्वीकार पूर्वजों व सन्तानों को मिल सकता है। इस प्रकार वह इस सिद्धान्त को करने पर यह प्रश्न उठता है कि मुक्त अवस्था में भी जड़ कर्मवर्गणाएँ मानती है कि कर्मफल का संविभाग सम्भव है।२१ इसके विपरीत बौद्ध आत्मा को प्रभावित किए बिना नहीं रहेंगी, क्योंकि मुक्ति-क्षेत्र में भी परम्परा कहती है कि व्यक्ति के पुण्यकर्म का ही संविभाग हो सकता है, कर्मवर्गणाओं का अस्तित्व तो है ही। इस सन्दर्भ में जैन आचार्यों का पापकर्म का नहीं। क्योंकि पापकर्म में उसकी अनुमति नहीं होती हैं। उत्तर यह है कि जिस प्रकार कीचड़ में रहा लोहा जंग खाता है, परन्तु पुनः उनके अनुसार पाप सीमित होता है अत: इसका संविभाग नहीं हो स्वर्ण नहीं, उसी प्रकार जड़कर्म पुद्गल उसी आत्मा को विकारी बना सकता, किन्तु पुण्य के अपरिमित होने से उसका ही संविभाग सम्भव सकते हैं, जो राग-द्वेष से अशुद्ध है। वस्तुत: जब तक आत्मा भौतिक है।२२ किन्तु इस सम्बन्ध में जैनों का दृष्टिकोण भिन्न है, उनके अनुसार
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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
व्यक्ति अपने कर्मों का फल विपाक न तो दूसरों को दे सकता है और न दूसरे के शुभाशुभ कर्मों का फल उसे मिल सकता है। जैन दर्शनिक स्पष्ट रूप से यह कहते हैं कि कर्म और उसका विपाक व्यक्ति का अपना स्वकृत होता है। १३
जैन कर्मसिद्धान्त में कर्मफलसंविभाग का अर्थ समझने के लिए हमें निमित्त कारण और उपादान कारण के भेद को समझना होगा। दूसरा व्यक्ति हमारे सुख-दुःख में और हम दूसरे के सुख-दुःख में निमित्त हो सकते हैं, किन्तु भोक्ता और कर्ता तो वही होता है। अतः उपादान की दृष्टि से तो कर्म और उसका विपाक अर्थात् सुख-दुःख का अनुभव स्वकृत है। निमित्त की दृष्टि से उन्हें परकृत कहा जा सकता है, किन्तु निमित्त अपने आप में महत्त्वपूर्ण नहीं हैं, क्योंकि कर्म संकल्प तो हमारा अपना ही होता है एवं कर्म के विपाक की अनुभूति भी हमारी हो होती है। अतः उपादान कारण की दृष्टि से तो कर्म एवं उसके विपाक में संविभाग सम्भव नही है न तो दूसरा व्यक्ति हमें सुखी या दुःखी कर सकता है और न हम दूसरे को सुखी या दुःखी कर सकते हैं। हम कर्म की विभिन्न अवस्थाएँ २४
अधिक से अधिक दूसरे के सुख-दुःख के निमित्त हो सकते हैं। लेकिन ऐसी निमित्तता तो भौतिक पदार्थों के सन्दर्भ में भी होती है। सत्य तो यह है कि कर्म और उसका विपाक दोनों ही व्यक्ति के अपने होते हैं।
कर्मविपाक की नियतता व अनियतता
कर्मसिद्धान्त की दृष्टि से यह प्रश्न भी महत्त्वपूर्ण है कि क्या जिन कर्मों का बन्ध किया गया है, उनका विपाक व्यक्ति को भोगना ही होता है। जैन कर्मसिद्धान्त में कर्मों को दो भागों में बांटा गया है-- १. नियतविपाकी और २. अनियतविपाकी । कुछ कर्म ऐसे होते हैं, जिनका जिस फलविपाक को लेकर बन्ध किया गया है, उसी रूप में उनके फल के विपाक का वेदन करना होता है, किन्तु इसके अतिरिक्त कुछ कर्म ऐसे भी होते हैं, जिनका विपाक का वेदन उसी रूप में नहीं करना होता, जिस रूप में उनका बन्ध होता है। जैन कर्मसिद्धान्त मानता है कि जो कर्म तीन कषायों से उद्भूत होते हैं उनका बन्ध भी प्रगाढ़ होता है और विपाक भी नियत होता है। पारम्परिक शब्दावली में उन्हें निकाचित कहते हैं। इसके विपरीत जिन कर्मों के सम्पादन के पीछे कषायभाव अल्प होता है, उनका बन्धन शिथिल होता है और उनके विपाक का संवेदन आवश्यक नहीं होता है। वे तप एवं पश्चाताप के द्वारा अपना फल विपाक दिये बिना ही समाप्त हो जाते हैं।
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की विरोधी धारणाओं के समन्वय के अभाव में नैतिक जीवन की यथार्थ व्याख्या सम्भव नहीं होती है। यदि एकान्त रूप से कर्मविपाक की नियतता को स्वीकार किया जाता है, तो नैतिक आचरण का चाहे निषेधात्मक रूप में कुछ सामाजिक मूल्य बना रहे, लेकिन उसका विधायक मूल्य तो पूर्णतया समाप्त हो जाता है, क्योंकि नियत भविष्य के बदलने की सामर्थ्य नैतिक जीवन में नहीं रह पाती है। दूसरे, यदि कर्मों को पूर्णतः अनियतविपाकी माना जाये, तो नैतिक व्यवस्था का ही कोई अर्थ नहीं रह जाता है। विपाक की पूर्णनियतता को मानने पर निर्धारणवाद और विपाक की पूर्ण अनियतता मानने पर अनिर्धारणवाद की सम्भावना होगी, लेकिन दोनों ही धारणाएँ ऐकान्तिक रूप में नैतिक जीवन की समुचित व्याख्या कर पाने में असमर्थ हैं। अतः कर्मविपाक की आंशिक नियतता ही एक तर्कसंगत दृष्टिकोण है, जो नैतिक दर्शन की सम्यक् व्याख्या प्रस्तुत करता है।
3
जैन दर्शन में कर्मों की विभिन्न अवस्थाओं पर चिन्तन हुआ है और बताया गया है कि कर्म के बन्ध और विपाक (उदय) के बीच कोन-कौन सी अवस्थायें घटित हो सकती हैं, पुनः वे किस सीमा तक आत्मस्वातन्त्र्य को कुण्ठित करती हैं अथवा किसी सीमा तक आत्मस्वातन्त्र्य को अभिव्यक्त करती हैं, इसकी चर्चा भी की गयी है ये अवस्थाएँ निम्न हैं-
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१. बन्ध - कषाय एवं योग के फलस्वरूप कर्मवर्गणा के पुद्गलों का आत्मप्रदेशों से जो सम्बन्ध स्थापित होता है, उसे बन्ध कहते हैं। २. संक्रमण - एक कर्म के अनेक अवान्तर भेद होते हैं। जैन कर्मसिद्धान्त के अनुसार कर्म का एक भेद अपने सजातीय दूसरे भेद में बदल सकता है अवान्तर कर्म प्रकृतियों का यह अदल-बदल संक्रमण कहलाता है। संक्रमण में आत्मा पूर्वबद्ध कर्म प्रकृति का नवीन कर्मप्रकृति का बन्ध करते समय रूपान्तरण करता है। उदाहरण के रूप में पूर्व बद्ध दुःखद संवेदन रूप असातावेदनीय कर्म का नवीन सातावेदनीय कर्म का बन्ध करते समय सातावेदनीय कर्म के रूप में संक्रमण किया जा सकता है। संक्रमण की यह क्षमता आत्मा की पवित्रता के साथ ही बढ़ती जाती है। जो आत्मा जितनी पवित्र होती है, उसमें संक्रमण की क्षमता भी उतनी ही अधिक होती है। आत्मा में कर्मप्रकृतियों के संक्रमण की सामर्थ्य होना यह बताता है, जहाँ अपवित्र आत्माएँ परिस्थितियों की दास होती हैं, वहीं पवित्र आत्मा परिस्थितियों की स्वामी होती हैं। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि प्रथम तो मूल कर्मप्रकृतियों का एक दूसरे में कभी भी संक्रमण नहीं होता है जैसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण में नहीं बदलता है। मात्र यही नहीं, दर्शनमोह कर्म, चारित्रमोह कर्म और आयुष्य कर्म की अवान्तर प्रकृतियों का भी परस्पर संक्रमण नहीं होता है।
वैयक्तिक दृष्टि से सभी आत्माओं में कर्मविपाक परिवर्तन करने की क्षमता नहीं होती है। केवल वे ही व्यक्ति जो आध्यात्मिक ऊंचाई पर स्थित हैं, कर्मविपाक में परिवर्तन कर सकते हैं। पुनः वे भी उन कर्मों के विपाक को अन्यथा कर सकते हैं, जिनका बन्ध अनियतविपाकी कर्म के रूप में हुआ है। नियतविपाकी कर्मों का भोग तो अनिवार्य है। इस प्रकार जैन कर्मसिद्धान्त अपने को नियतिवाद और यदृच्छावाद दोनों की एकांगिकता से बचाता है।
३. उद्वर्तना- नवीन बन्ध करते समय आत्मा पूर्वबद्ध कर्मों की वस्तुतः कर्मसिद्धान्त में कर्मविपाक की नियतता और अनियतता काल मर्यादा (स्थिति) और तीव्रता (अनुभाग) को बड़ा भी सकता
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जैन कर्मसिद्धान्त है। काल मर्यादा और तीव्रता को बढ़ाने की यह प्रक्रिया उद्वर्तना कहलाती है।
४. अपवर्तना— नवीन बन्ध करते समय पूर्व बद्ध कर्मों की काल मर्यादा (स्थिति) और तीव्रता (अनुभाग) को कम भी किया जा सकता है, इसे अपर्वतना कहते है।
कर्मप्रकृति का उदय या भोग चल रहा हो, उसकी सजातीय कर्मप्रकृति की ही उदीरणा सम्भव होती है।
८. उपशमन - उदय में आ रहे कर्मों के फल देने की शक्ति को कुछ समय के लिए दवा देना अथवा काल-विशेष के लिए उन्हें फल देने से अक्षम बना देना उपशमन है। उपशमन में कर्म की सत्ता समाप्त नहीं होती, मात्र उसे काल विशेष के लिए फल देने में अक्षम बना दिया जाता है। इसमें कर्म राख से दबी अग्नि के समान निष्क्रिय होकर सत्ता में बने रहते हैं।
५. सत्ता - कर्म के बद्ध होने के पश्चात् तथा उसके विपाक से पूर्व बीच की अवस्था सत्ता कहलाती है। सत्ता काल में कर्म अस्तित्व में तो रहता है, किन्तु वह सक्रिय नहीं होता ।
६. उदय - जब कर्म अपना फल देना प्रारम्भ करते हैं तो वह अवस्था उदय कहलाती है। उदय दो प्रकार का माना गया है- १- १. विपाकोदय और २. प्रदेशोदय । कर्म का अपना अपने फल की चेतन अनुभूति कराये बिना ही निर्जरित होना प्रदेशोदय कहलाता है। जैसे अचेतन कर्म का शुभत्व और अशुभत्व १५
अवस्था में शल्य क्रिया की वेदना की अनुभूति नहीं होती, यद्यपि वेदना की घटना घटित होती है। इसी प्रकार बिना अपनी फलानुभूति करवाये जो कर्म परमाणु आत्मा से निर्जरित होते हैं, उनका उदय प्रदेशोदय होता है। इसके विपरीत जिन कर्मों की अपने विपाक के समय फलानुभूति होती है उनका उदय विपाकोदय कहलाता है। ज्ञातव्य है कि विपाकोदय में प्रदेशोदय अनिवार्य रूप से होता है, लेकिन प्रदेशोदय में विपाकोदय हो, यह आवश्यक नहीं है।
७. उदीरणा— अपने नियतकाल से पूर्व ही पूर्वबद्ध कर्मों को प्रयासपूर्वक उदय में लाकर उनके फलों को भोगना, उदीरणा है। ज्ञातव्य है कि जिस
९. निश्पत्ति— कर्म की वह अवस्था निघत्ति है, जिसमें कर्म न तो अपने अवान्तर भेदों में रूपान्तरित या संक्रमित हो सकते हैं और न अपना फल प्रदान कर सकते हैं, लेकिन कर्मों की समय-मर्यादा और विपाक-तीव्रता (परिमाण) को कम अधिक किया जा सकता है अर्थात् इस अवस्था में उत्कर्षण और अपकर्षण सम्भव है, संक्रमण नहीं ०११०. निकाचना— कर्मों के बन्धन का इतना प्रगाढ़ होना कि उनकी -काल मर्यादा एवं तीव्रता में कोई भी परिवर्तन न किया जा सके, न समय से पूर्व उनका भोग ही किया जा सके, निकाचना कहलाता है। इस दशा में कर्म का जिस रूप में बन्धन हुआ होता है, उसको उसी रूप में अनिवार्यतया भोगना पड़ता है।
इस प्रकार जैन कर्मसिद्धान्त में कर्म के फल विपाक की नियतता और अनियतता को सम्यक् प्रकार से समन्वित करने का प्रयास किया गया है तथा यह बताया गया है कि जैसे-जैसे आत्मा
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एक विश्लेषण
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कषायों से मुक्त होकर आध्यात्मिक विकास की दिशा में बढ़ता है, वह कर्म के फल विपाक की नियतता को समाप्त करने में सक्षम होता जाता है। कर्म कितना बलवान होगा यह बात मात्र कर्म के बल पर निर्भर नहीं है, अपितु आत्मा की पवित्रता पर भी निर्भर है। इन अवस्थाओं का चित्रण यह भी बताता है कि कर्मों का विपाक या उदय एक अलग स्थिति है तथा उनसे नवीन कर्मों का बन्ध होना या न होना यह एक अलग स्थिति है। कषाय युक्त प्रमत्त आत्मा कर्मों के उदय में नवीन कर्मों का बन्ध करता है, इसके विपरीत कषाय-मुक्त अप्रमत्त आत्मा कर्मों के विपाक में नवीन कर्मों का बन्ध नहीं करता है, मात्र पूर्वबद्ध कर्मों को निर्जरित करता है।
और अशुभ,
ऐसे
तीन वर्गों में विभक्त किया गया है। तुलनात्मक दृष्टि से इन्हें निम्न तालिका से स्पष्ट किया जा सकता है:
कर्मों को सामान्तया शुद्ध (अकर्म), शुभ
कर्म जैन बौद्ध
१. शुद्ध
२.
शुभ ३. अशुभ
गीता अकर्म
ईर्यापथिंक अव्यक्तकर्म पुण्यकर्म पुण्यकर्म कुशल (शुक्ल) कर्म पाप कर्म अकुशल (कृष्ण) कर्म जैन दर्शन में कर्म के बन्धक होने के आधार पर मुख्य रूप से दो विभाग किये गये हैं— १. ईर्ष्यापथिक और २. साम्परायिक है- (अ) अशुभ (पाप) और (ब) शुभ (पुण्य)। आगे हम इसी सन्दर्भ इनमें साम्परायिक कर्म को पुनः दो विभागों में विभाजित किया गया
में चर्चा करेंगे।
पाश्चात्य
अनैतिक कर्म
कर्म
विकर्म
नैतिक कर्म
अनैतिक कर्म
अशुभ या पाप कर्म
जैन आचार्यों ने पाप की यह परिभाषा दी है कि वैयक्तिक सन्दर्भ में जो आत्मा को बन्धन में डालें जिसके कारण आत्मा हो, जो आत्मा के आनन्द का शोषण करे और आत्मशक्तियों का क्षय करे, वह पाप है २६ सामाजिक सन्दर्भ में जो परपीड़ा या दूसरों के दुःख का कारण है, वह पाप है (पापाय परपीडनं)। वस्तुतः जिस विचार एवं आचार से अपना और पर का अहित हो और जिससे सभी कर्म जो स्वार्थ, घृणा या अज्ञान के कारण दूसरे का अहित करने अनिष्ट फल की प्राप्ति हो वह पाप है। नैतिक जीवन की दृष्टि से वे की दृष्टि से किये जाते हैं, पाप कर्म हैं। इतना ही नहीं, सभी प्रकार के दुर्विचार और दुर्भावनाएँ भी पाप कर्म है।
पाप या अकुशल कर्मों का वगीकरण
जैन दार्शनिकों के अनुसार पाप कर्म १८ प्रकार के हैं- १. (चौर्य कर्म), ४. मैथुन (काम-विकार), ५. परिग्रह (ममत्व, मूर्छा, प्राणातिपात (हिंसा), २. मृषावाद (असत्य भाषण), ३. अदत्तादान तृष्णा या संचयवृत्ति), ६. क्रोध (गुस्सा), ७. मान (अहंकार), ८.
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
२०६ माया (कपट, छल, षड्यन्त्र और कूटनीति), ९. लोभ (संचय या को पुण्योपार्जन का कारण कहा गया है।३३ स्थानांगसूत्र में नौ प्रकार के संग्रह वृत्ति), १०. राग (आसक्ति), द्वेष (घृणा, तिरस्कार, ईर्ष्या पुण्य निरूपित है३४आदि), ११. क्लेश (संघर्ष, कलह, लड़ाई, झगड़ा आदि), १२. १. अन्नपुण्य भोजनादि देकर क्षुधात की क्षुधा-निवृत्ति करना। अभ्याख्यान (दोषारोपण), १३. पिशुनता (चुगली), १४. परपरिवाद २. पानपुण्य- तृषा (प्यास) से पीड़ित व्यक्ति को पानी पिलाना। (परनिन्दा), १५. रति-अरति (हर्ष और शोक), १६. माया-मृषा (कपट ३. लयनपुण्य- निवास के लिए स्थान देना जैसे धर्मशालाएँ सहित असत्य भाषण), १७. मिथ्यादर्शनशल्य (अयथार्थ जीवनदृष्टि)।२७
आदि बनवाना।
४. शयनपुण्य- शय्या, बिछौना आदि देना। पुण्य (कुशल कर्म)
५. वस्त्रपुण्य- वस्त्र का दान देना। पुण्य वह है जिसके कारण सामाजिक एवं भौतिक स्तर पर ६. मनपुण्य- मन से शुभ विचार करना। जगत् के मंगल की समत्व की स्थापना होती है। मन, शरीर और बाह्य परिवेश में सन्तुलन
शुभकामना करना। बनाना यह पुण्य का कार्य है। पुण्य क्या है इसकी व्याख्या में तत्त्वार्थसूत्रकार ७. वचनपुण्य- प्रशस्त एवं संतोष देनेवाली वाणी का प्रयोग कहते हैं- शुभास्रव पुण्य है२८, लकिन पुण्य मात्र आस्रव नहीं है,
करना। वह बन्ध ओर विपाक भी है। वह हेय ही नहीं है, उपादेय भी है। अतः ८ कायपुण्य- रोगी, दुःखित एवं पूज्य जनों की सेवा करना। अनेक आचार्यों ने उसकी व्याख्या दूसरे प्रकार से की है। आचार्य ९. नमस्कारपुण्य- गुरूजनों के प्रति आदर प्रकट करने के लिए हेमचन्द्र पुण्य की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि-पुण्य (अशुभ) कर्मों
उनका अभिवादन करना। का लाघव है और शुभ कर्मों का उदय है।२९ इस प्रकार आचार्य हेमचन्द्र की दृष्टि में पुण्य अशुभ (पाप) कर्मों की अल्पता और शुभ पुण्य और पाप (शुभ और अशुभ) की कसौटी कर्मों के उदय के फलस्वरूप प्राप्त प्रशस्त अवस्था का द्योतक है। पुण्य
शुभाशुभता या पुण्य-पाप के निर्णय के दो आधार हो सकते के निर्वाण की उपलब्धि में सहायक स्वरूप की व्याख्या आचार्य हैं- (१) कर्म का बाह्य-स्वरूप अर्थात् समाज पर उसका प्रभाव और अभयदेव की स्थानांगसूत्र की टीका में मिलती है। आचार्य अभयदेव (२) कर्ता का अभिप्राय। इन दोनों में कौन-सा आधार यथार्थ है, यह कहते हैं कि पुण्य वह है जो आत्मा को पवित्र करता है अथवा पवित्रता विवाद का विषय रहा है। गीता और बौद्ध-दर्शन में कर्ता के अभिप्राय की ओर ले जाता है।३० आचार्य की दृष्टि में पुण्य आध्यात्मिक साधना को ही कृत्यों की शुभाशुभता का सच्चा आधार माना गया। गीता स्पष्ट में सहायक तत्त्व है। मुनि सुशील कुमार लिखते हैं कि- "पुण्य रूप से कहती है कि-जिसमें कर्तृत्व भाव नहीं है, जिसकी बृद्धि मोक्षार्थियों की नौका के लिए अनुकूल वायु है, जो नौका को भवसागर निर्लिप्त है, वह इन सब लोगों को मार डालें तो भी यह समझना से शीघ्र पार करा देती है।३१ जैन कवि बनारसीदासजी समयसार चाहिए कि उसने न तो किसी को मारा है और न वह उस कर्म से बन्धन नाटक में कहते हैं कि- “जिससे भावों की विशुद्धि हो, जिससे को प्राप्त होता है।३५ धम्मपद में बुद्ध-वचन भी ऐसा ही है (नैष्कर्म्यस्थिति आत्मा आध्यात्मिक विकास की ओर बढ़ता है और जिससे इस संसार को प्राप्त) ब्राह्मण माता-पिता को, दो क्षत्रिय राजाओं को एवं प्रजासहित में भौतिक समृद्धि और सुख मिलता है, वही पुण्य है।३२
राष्ट्र को मारकर भी निष्पाप होकर जाता है।३६ बौद्ध दर्शन में कर्ता के जैन तत्त्वज्ञान के अनुसार, पुण्य-कर्म वे शुभ पुद्गल-परमाणु अभिप्राय को ही पुण्य-पाप का आधार माना गया है। इसका प्रमाण हैं, जो शुभवृत्तियों एवं क्रियाओं के कारण आत्मा की ओर आकर्षित सूत्रकृतांगसूत्र के आद्रक सम्वाद में भी मिलता है।३७ जहाँ तक जैन हो बन्ध करते हैं और अपने विपाक के अवसर पर शुभ अध्यवसायों, मान्यता का प्रश्न है, विद्वानों के अनुसार उसमें भी कर्ता के अभिप्राय शुभ विचारों एवं क्रियाओं की ओर प्रेरित करते हैं तथा आध्यात्मिक, को ही कर्म की शुभाशुभता का आधार माना गया है। मुनि सुशीलकुमारजी मानसिक एवं भौतिक अनुकूलताओं के संयोग प्रस्तुत कर देते हैं। जैनधर्म पृ.१६० पर लिखते हैं, “शुभ-अशुभ कर्म के बन्ध का मुख्य आत्मा की वे मनोदशाएँ एवं क्रियाएँ भी पुण्य कहलाती हैं जो शुभ आधार मनोवृत्तियां ही हैं। एक डॉक्टर किसी को पीड़ा पहुंचाने के लिए पुद्गल परमाणु को आकर्षित करती हैं। साथ ही दूसरी ओर वे पुद्गल- उसका व्रण चीरता है। उससे चाहे रोगी को लाभ ही हो जाये परन्तु परमाणु जो उन शुभ वृत्तियों एवं क्रियाओं को प्रेरित करते हैं और डॉक्टर तो पाप-कर्म के बन्ध का ही भागी होगा। इसके विपरीत वही अपने प्रभाव से आरोग्य, सम्पत्ति एवं सम्यक् श्रद्धा, ज्ञान एवं संयम के डॉक्टर करुणामय अपनी शुभ-भावना के कारण पुण्य का बन्ध करता अवसर उपस्थित करते हैं, पुण्य कहे जाते हैं। शुभ मनोवृत्तियाँ भावपुण्य है।" पंडित सुखलालजी भी यही कहते हैं, पुण्य-बन्ध की कसौटी हैं और शुभ-पुद्गल-परमाणु द्रव्यपुण्य हैं।
केवल ऊपरी क्रिया नहीं है, किन्तु उसकी यथार्थ कसौटी कर्ता का
आशय ही है (दर्शन और चिन्तन खण्ड २.पृ.२२६)। पुण्य या कुशल कर्मों का वर्गीकरण
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जैन धर्म में भी कर्मों की भगवतीसूत्र में अनुकम्पा, सेवा, परोपकार आदि शुभ-प्रवृत्तियों शुभाशुभता के निर्णय का आधार मनोवृत्तियां ही हैं, फिर भी उसमें
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जैन कर्मसिद्धान्त : एक विश्लेषण
२०७ कर्म का बाह्य-स्वरूप अपेक्षित नहीं है। निश्चयदृष्टि से तो मनोवृत्तियाँ कर्ता के अभिप्राय को शुभाशुभता के निर्णय का आधार ही कर्मों की शुभाशुभता की निर्णायक हैं, फिर भी व्यवहारदृष्टि से माने, या कर्म के समाज पर होने वो परिणाम को, दोनों स्थितियों में कर्म का बाह्य-स्वरूप भी शुभाशुभता का निश्चय करता है। सूत्रकृतांग किस प्रकार का कर्म पुण्य-कर्म या उचित कर्म कहा जायेगा, इस प्रश्न (२/६) में आद्रककुमार बौद्धों की एकांगी धारणा का निरसन करते पर विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है। सामान्यतया भारतीय हुए कहते हैं कि जो मांस खाता हो- चाहे न जानते हुए भी खाता चिन्तन में पुण्य-पाप की विचारणा के सन्दर्भ में सामाजिक दृष्टि ही हो- तो भी उसको पाप लगता ही है। हम जानकर नहीं खाते, प्रमुख है। जहां कर्म-अकर्म का विचार व्यक्ति-सापेक्ष है, तो वैयक्तिक इसलिए दोष (पाप) नहीं लगता, ऐसा कहना असत्य नहीं तो क्या कर्म-प्रेरक या वैयक्तिक चेतना की विशुद्धता (वीतरागता) ही हमारे है? इससे स्पष्ट है कि जैन दृष्टि में मनोवृत्ति के साथ ही कर्मों का निर्णय का आधार बनती है। लेकिन जब हम पुण्य-पाप का विचार बाह्य-स्वरूप भी शुभाशुभता की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। वास्तव में करते हैं तो समाजकल्याण या लोकहित ही हमारे निर्णय का आधार सामाजिक दृष्टि या लोक-व्यवहार में तो यही प्रमुख निर्णायक होता होता है। वस्तुत: भारतीय चिन्तन में जीवनादर्श तो शुभाशुभत्व की है। सामाजिक न्याय में तो कर्म का बाह्य स्वरूप ही उसकी शुभाशुभता सीमा से ऊपर उठना है। उस सन्दर्भ में वीतराग या अनासक्त जीवनदृष्टि का निश्चय करता है, क्योंकि आन्तरिक वृत्ति को व्यक्ति स्वयं जान का निर्माण ही व्यक्ति का परम साध्य माना गया है और वही कर्म के सकता है, दूसरा नहीं। जैन दृष्टि एकागी नहीं है, वह समन्वयवादी बन्धन या अबन्धन का आधार है, लेकिन शुभ और अशुभ दोनों में ही
और सापेक्षवादी है। वह व्यक्ति-सापेक्ष होकर मनोवृत्ति को कर्मों की राग तो होता ही है, राग के अभाव में तो कर्म शुभाशुभ से ऊपर उठकर शुभाशुभता का निर्णायक मानती है और समाज-सापेक्ष होकर कर्मों अतिनैतिक (शुद्ध) होगा। शुभाशुभ कर्मों में प्रमुखता राग की उपस्थिति के बाह्य स्वरूप पर उनकी शुभाशुभता का निश्चय करती हैं। उसमें या अनुपस्थिति की नहीं, वरन् उसकी प्रशस्तता या अप्रशस्तता की है। द्रव्य (बाह्य) और भाव (आन्तरिक) दोनों का मूल्य हैं। योग (बाह्य प्रशस्त-राग शुभ या पुण्यबन्ध का कारण माना गया है और अप्रशस्तक्रिया) और भाव (मनोवृत्ति) दोनों ही बन्धन के कारण माने गये हैं, राग अशुभ या पापबन्ध का कारण है। राग की प्रशस्तता उसमें द्वेष की यद्यपि उसमें मनोवृत्ति शुभ हो और क्रिया अशुभ हो, यह सम्भव कमी के आधार पर निर्भर करती है। यद्यपि राग और द्वेष साथ-साथ नहीं। मन में शुभ भाव हो तो पापाचरण सम्भव नहीं है। वह एक रहते हैं, तथापि जिस राग के साथ द्वेष की मात्रा जितनी अल्प और समालोचक दृष्टि से कहती है कि मन में शुभ भाव हो तो पापाचरण मन्द होगी वह राग उतना प्रशस्त होगा और जिस राग के साथ द्वेष की सम्भव नहीं है। वह एक समालोचक दृष्टि से कहती है कि मन में मात्रा और तीव्रता जितनी अधिक होगी, राग उतना ही अप्रशस्त होगा। सत्य को समझते हुए भी बाहर से दूसरी बातें (अशुभाचरण) करना द्वेषविहीन राग या प्रशस्तराग ही निष्काम प्रेम कहा जाता है। क्या संयमी पुरुषों का लक्षण है? उसकी दृष्टि में सिद्धान्त और उस प्रेम से परार्थ या परोपकारवृत्ति का उदय होता है जो शुभ का सृजन व्यवहार में अन्तर आत्मप्रवंचना है। मानसिक हेतु पर ही जोर देने करती है। उसी से लोक-मंगलकारी प्रवृत्तियों के रूप में पुण्य-कर्म वाली धारणा का निरसन करते हुए सूत्रकृतांग (१/१/२४-२९) में निस्सृत होते हैं, जबकि द्वेषयुक्त अप्रशस्त राग ही घृणा को जन्म देकर कहा गया है, कर्म-बन्धन का सत्य ज्ञान नहीं बताने वाले इस वाद स्वार्थ-वृत्ति का विकास करता है। उससे अशुभ, अमंगलकारी पापकर्म को मानने वाले कितने ही लोग संसार में फंसते रहते हैं क्योंकि पाप निस्सृत होते हैं। संक्षेप में जिस कर्म के पीछे प्रेम और परार्थ होता है, लगने के तीन स्थान हैं- स्वयं करने से, दूसरे से कराने से, दूसरों वह पुण्य कर्म है और जिस कर्म के पीछे घृणा और स्वार्थ होता है, वह के कार्य का अनुमोदन करने से। परन्तु यदि हृदय पाप-मुक्त हो तो पाप कर्म है। इन तीनों के करने पर भी निर्वाण अवश्य मिले। यह वाद अज्ञान है, जैन आचारदर्शन पुण्य कर्मों के वर्गीकरण में जिन तथ्यों पर मन से पाप को पाप समझते हुए जो दोष करता है, उसे निर्दोष नहीं अधिक जोर देता है वे सभी समाज-सापेक्ष हैं। वस्तुत: शुभ-अशुभ के माना जा सकता, क्योंकि वह संयम (वासना-निग्रह) में शिथिल है। वर्गीकरण में सामाजिक दृष्टि ही प्रधान है। भारतीय चिन्तकों की दृष्टि में परन्तु भोगासक्त लोग उक्त बातें मानकर पाप में पड़े हैं। पुण्य और पाप के समग्र चिन्तन का सार निम्न कथन में समाया हुआ
पाश्चात्य आचारदर्शन में भी सुखवादी दार्शनिक कर्म की है कि 'परोपकार पुण्य है और परपीड़न पाप है।' जैन विचारकों ने फलश्रुति के आधार पर उनकी शुभाशुभता का निश्चय करते हैं, जब कि पुण्य-बन्ध के दान, सेवा आदि जिन कारणों का उल्लेख किया है मार्टिन्यू कर्मप्रेरक पर उनकी शुभाशुभता का निश्चय करता है। जैन उनका प्रमुख सम्बन्ध सामाजिक कल्याण या लोक मंगल से है। इसी दर्शन के अनुसार इन दोनों पाश्चात्य विचारणाओं में अपूर्ण सत्य है-- प्रकार पाप के रूप में जिन तथ्यों का उल्लेख किया गया है, वे सभी एक का आधार लोकदृष्टि है तथा दूसरी का आधार परमार्थ-दृष्टि या लोक अमंगलकारी तत्त्व हैं।३८ इस प्रकार जहाँ तक शुभ-अशुभ या शुद्ध-दृष्टि है। एक व्यावहारिक सत्य है और दूसरा पारमार्थिक सत्य। पुण्य-पाप के वर्गीकरण का प्रश्न है, हमें सामाजिक सन्दर्भ में उसे नैतिकता व्यवहार से परमार्थ की ओर प्रयाण है, अत: उसमें दोनों का देखना होगा, यद्यपि बन्धन की दृष्टि से विचार करते समय कर्ता के ही मूल्य है।
आशय को भुलाया नहीं जा सकता।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
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सामाजिक जीवन में आचरण के शुभत्व का आधार
पुण्य-पाप दोनों को बन्धन का कारण कहकर दोनों के बन्धकत्व का यह सत्य है कि कर्म के शुभत्व और अशुभत्व का निर्णय अन्तर भी स्पष्ट कर देते हैं। समयसार में वे कहते है कि- अशुभ अन्य प्राणियों या समाज के प्रति किए गये व्यवहार अथवा दृष्टिकोण कर्म पाप (कुशील) और शुभ कर्म पुण्य (सुशील) कहे जाते हैं, के सन्दर्भ में होता है, लेकिन अन्य प्राणियों के प्रति हमारा कौन-सा फिर भी पुण्य कर्म एवं पाप कर्म दोनों ही संसार (बन्धन) का कारण व्यवहार या दृष्टिकोण शुभ होगा और कौन-सा अशुभ होगा इसका है जिस प्रकार स्वर्ण की बेड़ी भी लौह-बेड़ी के समान ही व्यक्ति को निर्णय किस आधार पर किया जाये? भारतीय चिन्तन ने इस सन्दर्भ में बन्धन में रखती है, उसी प्रकार जीवकृत सभी शुभाशुभ कर्म भी जो कसौटी प्रदान की है, वह यही है कि जैसा व्यवहार हम अपने लिए बन्धन के कारण हैं।४४ फिर भी आचार्य पुण्य को स्वर्ण-बेड़ी प्रतिकूल समझते हैं वैसा आचरण दूसरे के प्रति नहीं करना और जैसा कहकर उसकी पाप से किंचित श्रेष्ठता सिद्ध कर देते हैं। आचार्य व्यवहार हमें अनुकूल है वैसा व्यवहार दूसरे के प्रति करना यही अमृतचन्द्र का कहना है कि पारमार्थिक दृष्टि से पुण्य और पाप दोमें शुभाचरण है। इसके विपरीत जो व्यवहार हमें अपने लिए प्रतिकूल में भेद नहीं किया जा सकता, क्योंकि अन्ततोगत्वा दोनों ही बन्धन लगता है वैसा व्यवहार दूसरे के प्रति करना और जैसा व्यवहार हमें हैं।४५ यही बात पं. जयचन्द्रजी भी कहते हैंअपने लिए अनुकूल लगता है वैसा व्यवहार दूसरों के प्रति नहीं करना पुण्य पाप दोऊ करम, बन्यरूप दुई मानि। अशुभाचरण है। भारतीय ऋषियों का यही संदेश है। संक्षेप में सभी शुद्ध आत्मा जिन लयो, नभु चरन हित जानि।।४६ प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि ही व्यवहार के शुभत्व का प्रमाण है।
जैनाचार्यों ने पुण्य को निर्वाण की दृष्टि से हेय मानते हुए भी जैन दर्शन के अनुसार जिस व्यक्ति में संसार के सभी उसे निर्वाण का सहायक तत्त्व स्वीकार किया है। निर्वाण प्राप्त करने के प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि है, वही नैतिक कर्मों का स्रष्टा है। लिए अन्ततोगत्वा पुण्य को त्यागना ही होता है, फिर भी वह निर्वाण दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि समस्त प्राणियों को जो अपने में ठीक उसी प्रकार सहायक है जैसे साबुन वस्त्र के मैल को साफ करने समान समझता है और जिसका सभी के प्रति समभाव है, वह पाप-कर्म में सहायक है फिर भी उसे अलग करना होता है, वैसे ही निर्वाण या का बन्ध नहीं करता।३९ सूत्रकृतांग के अनुसार भी धर्म-अधर्म (शुभाशुभत्व) शुद्धात्म-दशा में पुण्य का होना भी अनावश्यक है, उसे भी छोड़ना के निर्णय में अपने समान दूसरे को समझना चाहिए।४०
होता है। जिस प्रकार साबुन मल को दूर करता है और मैल छूटने पर
स्वयं अलग हो जाता है, वैसे ही पुण्य भी पापरूप मल को अलग शुभ और अशुभ से शुद्ध की ओर
करने में सहायक होता है। अत: व्यक्ति जब अशुभ (पाप) कर्म से ऊपर जैन दृष्टिकोण- जैन विचारणा में शुभ-अशुभ अथवा मंगल- उठ जाता है, तब उसका शुभ कर्म भी शुद्ध बन जाता है। द्वेष पर पूर्ण अमंगल की वास्तविकता स्वीकार की गयी है। उत्तराध्ययनसूत्र के विजय पा जाने पर राग भी नहीं रहता है, अत: राग-द्वेष के अभाव में अनुसार तत्त्व नौ हैं जिनमे पुण्य और पाप स्वतन्त्र तत्त्व हैं। १ तत्त्वार्थसूत्रकार उससे जो कर्म निस्सृत होते हैं, वे शुद्ध (ईर्यापथिक) होते हैं। जैनाचारदर्शन उमास्वाति ने जीव, अजीव, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष ये में राग-द्वेष से रहित होकर किया गया शुद्ध कार्य ही मोक्ष या निर्वाण सात तत्त्व गिनाये हैं, इनमें पुण्य और पाप को नहीं गिनाया है।४२ का कारण माना गया है और आसक्तिपूर्वक किया गया शुभ कार्य भी लेकिन यह विवाद महत्त्वपूर्ण नहीं क्योंकि जो परम्परा उन्हें स्वतंत्र तत्त्व बन्धन का कारण माना गया है। यहाँ पर गीता का अनासक्त कर्म-योग नहीं मानती है वह भी उनको आस्रव तत्त्व के अन्तर्गत मान लेती है। जैन दर्शन के अत्यन्त समीप आ जाता है। जैन दर्शन के अनुसार यद्यपि पुण्य और पाप मात्र आस्रव नहीं है, वरन् उनका बन्ध भी होता आत्मा का लक्ष्य अशुभ कर्म से शुभ कर्म की ओर और शुभकर्म से है और विपाक भी होता है। अत: आस्रव के शुभास्रव और अशुभास्रव शुद्धकर्म (वीतराग दशा) की प्राप्ति है। आत्म का शुद्धोपयोग ही जैन ये दो विभाग करने से काम नहीं बनता, बल्कि बन्ध और विपाक में भी धर्म का अन्तिम साध्य है। दो-दो भेद करने होंगे। इस कठिनाई से बचने के लिए ही पाप एवं पुण्य को स्वतंत्र तत्त्वों के रूप में गिन लिया गया है।
शुद्ध कर्म (अकर्म) फिर भी जैन विचारणा निर्वाण-मार्ग के साधक के लिए शुद्ध कर्म वह जीवन-व्यवहार है, जिसमें क्रियाएँ राग-द्वेष से दोनों को हेय और त्याज्य मानती हैं, क्योंकि दोनों ही बन्धन के रहित मात्र कर्तव्यबुद्धि से सम्पादित होती हैं तथा जो आत्मा को बन्धन कारण हैं। वस्तुत: नैतिक जीवन की पूर्णता शुभाशुभ या पुण्य-पाप में नहीं डालतीं। अबन्धक कर्म ही शुद्धकर्म हैं। जैन आचारदर्शन इस से ऊपर उठ जाने में है। शुभ (पुण्य) और अशुभ (पाप) का भेद जब प्रश्न पर गहराई से विचार करता हैं कि आचरण (क्रिया) एवं बन्धन में तक बना रहता है, नैतिक पूर्णता नहीं आती। अशुभ पर पूर्ण विजय क्या सम्बन्ध है? क्या 'कर्मणा बध्यते जन्तुः' की उक्ति सर्वाशत: सत्य के साथ ही व्यक्ति शुभ (पुण्य) से भी ऊपर उठकर शुद्ध दशा में है? एक तो कर्म या क्रिया के सभी रूप बन्धन की दृष्टि से समान नहीं स्थित हो जाता है। ऋषिभाषित सूत्र में ऋषि कहता है कि पूर्वकृत हैं फिर यह भी सम्भव है कि आचरण एवं क्रिया के होते हुए भी कोई पुण्य और पाप संसार संतति का मूल है४३। आचार्य कुन्दकुन्द बन्धन नहीं हो। लेकिन यह निर्णय कर पाना कि बन्धक कर्म क्या है
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जैन कर्मसिद्धान्त : एक विश्लेषण
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और अबन्धक कर्म क्या है, अत्यन्त कठिन है। गीता कहती है कि कर्म करने का प्रयास करते हैं कि 'कर्म का अर्थ शरीरादि की चेष्टा एवं (बन्धक कर्म) क्या है और अकर्म (अबन्धक कर्म) क्या है, इसके अकर्म का अर्थ शरीरादि की चेष्टा का अभाव' ऐसा नहीं मानना चाहिए। विषय में विद्वान् भी मोहित हो जाते हैं।४७ कर्म के यथार्थ स्वरूप के वे अत्यन्त सीमित शब्दों में कहते हैं कि प्रमाद कर्म है, अप्रमाद अकर्म ज्ञान का विषय अत्यन्त गहन है। यह कर्म-समीक्षा का विषय अत्यन्त है।५१ ऐसा कहकर महावीर यह स्पष्ट कर देते हैं कि अकर्म निष्क्रयता गहन और दुष्कर क्यों है, इस प्रश्न का उत्तर हमें जैनागम सूत्रकृतांग में नहीं, वह तो सतत् जागरूकता है। अप्रमत्त अवस्था या आत्म-जागृति भी मिलता है। उसमें कहा गया है कि कर्म, क्रिया या आचरण समान की दशा में क्रियाशीलता भी अकर्म हो जाती है, जबकि प्रमत्त दशा या होने पर भी बन्धन की दृष्टि से वे भिन्न-भिन्न प्रकृति के हो सकते हैं। आत्म-जागृति के अभाव में निष्क्रियता भी कर्म (बन्धन) बन जाती है। मात्र आचरण, कर्म या पुरुषार्थ को देखकर यह निर्णय देना सम्भव नहीं वस्तुत: किसी क्रिया का बन्धकत्व मात्र क्रिया के घटित होने में नहीं, कि वह नैतिक दृष्टि से किस प्रकार का है। ज्ञानी और अज्ञानी दोनों ही वरन् उसके पीछे रहे हुए कषाय-भावों एवं राग-द्वेष की स्थिति पर समान वीरता को दिखाते हुए (अर्थात् समानरूप से कर्म करते हुए) भी निर्भर है। जैन दर्शन के अनुसार, राग-द्वेष एवं कषाय (जो कि आत्मा अधूरे ज्ञानी और सर्वथा अज्ञानी का, चाहे जितना पराक्रम (पुरुषार्थ) की प्रमत्त दशा हैं) ही किसी क्रिया को कर्म बना देते हैं, जबकि कषाय हो, पर वह अशुद्ध है और कर्म-बन्ध का कारण है, परन्तु ज्ञान एवं एवं आसक्ति से रहित होकर किया हुआ कर्म अकर्म बन जाता है। बोध सहित मनुष्य का पराक्रम शुद्ध है और उसका कुछ फल नहीं महावीर ने स्पष्ट रूप से कहा है कि- जो आस्रव या बन्धन कारक भोगना पड़ता। योग्य रीति से किया हुआ तप भी यदि कीर्ति की इच्छा क्रियाएँ हैं, वे ही अनासक्ति एवं विवेक से समन्वित होकर मुक्ति का से किया गया हो तो शुद्ध नहीं होता।४८ बन्धन की दृष्टि से कर्म का साधन बन जाती है।५२ इस प्रकार जैन विचारणा में कर्म और अकर्म विचार उसके बाह्य-स्वरूप के आधार पर ही नहीं किया जा सकता, अपने बाह्य-स्वरूप की अपेक्षा कर्ता के विवेक और मनोवृत्ति पर निर्भर उसमें कर्ता का प्रयोजन, कर्ता का विवेक एवं देशकालगत परिस्थितियाँ होते हैं। भी महत्त्वपूर्ण हैं और कर्मों का ऐसा सर्वांगपूर्ण विचार करने में विद्वत् वर्ग भी कठिनाई में पड़ जाता है। कर्म में कर्ता के प्रयोजन को, जो कि ईर्यापथिक कर्म और साम्परायिक कर्म५३ एक आन्तरिक तथ्य है, जान पाना सहज नहीं होता।
जैन दर्शन में बन्धन की दृष्टि से क्रियाओं को दो भागों में लेकिन, कर्ता के लिए जो कि अपनी मनोदशा का ज्ञाता भी बाँटा गया है--(१) ईर्यापथिक क्रियाएँ (अकर्म) और (२) साम्प्ररायिक है, यह आवश्यक है कि कर्म और अकर्म का यथार्थ स्वरूप समझे, क्रियाएँ (कर्म)। ईर्यापथिक क्रियाएँ निष्काम वीतरागदृष्टिसम्पन्न व्यक्ति क्योंकि उसके अभाव में मुक्ति सम्भव नहीं है। कृष्ण अर्जुन से कहते हैं की क्रियाएँ हैं, जो बन्धनकारक नहीं है और साम्परायिक क्रियाएँ कि- मैं तुझे कर्म के उस रहस्य को बताऊँगा जिसे जानकर तू मुक्त आसक्त व्यक्ति की क्रियाएँ हैं, जो बन्धनकारक हैं। संक्षेप में वे हो जायेगा।४९ नैतिक विकास के लिए बन्धक और अबन्धक कर्म के समस्त क्रियाएँ जो आस्रव एवं बन्ध की कारण हैं, कर्म हैं और वे यथार्थ स्वरूप को जानना आवश्यक है। बन्धन की दृष्टि से कर्म के समस्त क्रियाएँ जो संवर एवं निर्जरा की हेतु हैं, अकर्म हैं। जैन दृष्टि यथार्थ स्वरूप के सम्बन्ध में जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का में अकर्म या ईर्यापथिक कर्म का अर्थ है--राग-द्वेष एवं मोह रहित दृष्टिकोण निम्नानुसार है
होकर मात्र कर्त्तव्य अथवा शरीर-निर्वाह के लिए किया जाने वाला
कर्म। कर्म का अर्थ है--राग-द्वेष और मोह से युक्त कर्म, वह बन्धन जैन दर्शन में कर्म-अकर्म विचार
में डालता है, इसलिए वह कर्म है। जो क्रिया व्यापार राग-द्वेष और कर्म के यथार्थ स्वरूप को समझने के लिए उस पर दो मोह से रहित होकर कर्तव्य या शरीरनिर्वाह के लिए किया जाता है, दृष्टियों से विचार किया जा सकता है। (१) उसकी बन्धनात्मक शक्ति वह बन्धन का कारण नहीं है, अत: अकर्म है। जिन्हें जैन दर्शन में के आधार पर और (२) उसकी शुभाशुभता के आधार पर। बन्धनात्मक ईर्यापथिक क्रियाएँ या अकर्म कहा गया है, उन्हें बौद्ध परम्परा शक्ति के आधार पर विचार करने पर हम पाते हैं कि कुछ कर्म बन्धन अनुपचित, अव्यक्त या अकृष्ण-अशुक्ल कर्म कहती है और जिन्हें में डालते हैं, और कुछ कर्म बन्धन में नहीं डालते हैं। बन्धक कर्मों को जैन-परम्परा साम्परायिक क्रियाएँ या कर्म कहती है, उन्हें बौद्ध कर्म और अबन्धक कर्मों को अकर्म कहा जाता है। जैन दर्शन में कर्म परम्परा उपचित कर्म या कृष्ण-शुक्ल कर्म कहती हैं। इस सम्बन्ध में
और अकर्म के यथार्थ स्वरूप का विवेचन हमें सर्वप्रथम आचारांग एवं विस्तार से विचार करना आवश्यक है। सूत्रकृतांग में मिलता है। सूत्रकृतांग में कहा गया है कि कर्म और अकर्म को वीर्य (पुरुषार्थ) कहते हैं।५° इसका तात्पर्य यह है कि कुछ बन्धन के कारणों में मिथ्यात्व और कषाय की प्रमुखता का प्रश्न५४ विचारकों की दृष्टि में सक्रियता ही पुरुषार्थ या नैतिकता है, जबकि जैन कर्मसिद्धान्त के उद्भव व विकास की चर्चा करते हुए दूसरे विचारकों की दृष्टि में निष्क्रियता ही पुरुषार्थ या नैतिकता है। इस हमनें बन्धन के पाँच सामान्य कारणों का उल्लेख किया था। वैसे सम्बन्ध में महावीर अपने दृष्टिकोण को प्रस्तुत करते हुए यह स्पष्ट जैन ग्रन्थों में भिन्न-भिन्न कर्मों के बन्धन के भिन्न-भिन्न कारणों की
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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
विस्तृत चर्चा भी उपलब्ध होती है। किन्तु सामान्य रूप से बन्धन के ५ कारण मानें गए हैं - १. मिथ्यात्व २. अविरति ३. प्रमाद ४ कषाय और ५. योग 1
इन पाँच कारणों में योग को अर्थात् मानसिक, वाचिक व शारीरिक क्रियाओं को बन्धन का कारण कहा गया है, किन्तु हमें स्मरण रखना चाहिए कि यदि पूर्व के चार का अभाव हो, तो मात्र योग से कर्मवर्गणाओं का आस्रव होकर, जो बन्ध होगा, वह ईर्यापथिक बन्ध कहलाता है। उसके सन्दर्भ में कहा गया है उसका प्रथम समय में बन्ध होता है और दूसरे समय में निर्जरा हो जाती है। ईर्यापथिक बन्ध ठीक वैसा ही है, जैसे चलते समय शुभ आर्द्रता से रहित कपड़े पर गिरे हुए बालू के कण, जो गति की प्रक्रिया में ही आते हैं और फिर अलग भी हो जाते हैं। वस्तुतः यह बन्ध वास्तविक बन्ध नहीं है। अतः हम समझते हैं कि इन ५ कारणों में योग महत्वपूर्ण कारण नहीं है। यद्यपि अविरति, प्रमाद एवं कषाय को अलग-अलग कारण कहा गया है, किन्तु इनमें भी बहुत अन्तर नहीं है। जब हम प्रमाद को व्यापक अर्थ में लेते हैं तब कषायों का अन्तर्भाव प्रमाद में हो जाता है। दूसरे कषायों की उपस्थिति में ही प्रमाद सम्भव होता है। उनकी अनुपस्थिति में प्रमाद सामान्यतया तो रहता ही नहीं है और यदि रहे भी तो अति निर्बल होता है। इसी प्रकार अविरति के मूल में भी कषाय ही होते हैं। यदि हम कषाय को व्यापक अर्थ में लें तो अविरति और प्रमाद दोनों उसी में अन्तर्भावित हो जाते है। अतः बन्धन के दो ही प्रमुख कारण शेष रहते हैंमिथ्यात्व और कषाय ।
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सामान्यतया लोभ (राग), द्वेष एवं मोह को बन्धन का कारण कहा गया है । बोद्ध परम्परा में भी इनको परस्पर सापेक्ष ही माना गया है। मोह को बौद्ध परम्परा में अविद्या भी कहा गया है। बौद्ध विचारणा यह मानती है कि अविद्या (मोह) के कारण तृष्णा (राग) होती है और तृष्णा के कारण मोह होता है। आचार्य नरेन्द्रदेव लिखते हैं- लोभ एवं द्वेष का हेतु मोह है, किन्तु पर्याय से लोभ व मोह भी द्वेष के हेतु हैं। बौद्ध दर्शन में भी जैन दर्शन के समान ही अविद्या और तृष्णा को अन्योन्याश्रित-माना गया है और कहा गया है कि इनमें से किसी की भी पूर्व कोटि निर्धारित करना सम्भव नहीं है सांख्य एवं योग दर्शन में क्लेश या बन्धन के ५ कारण हैं- अविद्या, अस्मिता (अहंकार), राग, द्वेष, अभिनिवेश। इनमें भी अविद्या प्रमुख है। शेष चारों उसी पर आधारित हैं न्याय दर्शन भी जैन और बौद्धों के समान ही राग-द्वेष एवं मोह को बन्धन का कारण मानता है। इस प्रकार लगभग सभी दर्शन प्रकारान्तर से राग-द्वेष एवं मोह (मिध्यात्व) को बन्धन का कारण मानते हैं।
बन्धन के चार प्रकारों से बन्धनों के कारण का सम्बन्ध
जैन कर्म सिद्धान्त में बन्धन के चार प्रारूप कहे गए है :- १. प्रकृति बन्ध, २ प्रदेश बन्ध, ३. स्थिति बन्ध एवं ४. अनुभाग बन्ध । १. प्रकृतिबन्ध बन्धन के स्वभाव का निर्धारण प्रकृति बन्ध करता है । यह, यह निश्चय करता है कि कर्मवर्गणा के पुद्गल आत्मा की ज्ञान, दर्शन आदि किस शक्ति को आवृत करेंगे।
२. प्रदेश बन्ध - यह कर्मपरमाणुओं की आत्मा के साथ संयोजित होने वाली मात्रा का निर्धारण करता है। अतः यह मात्रात्मक होता है। ३. स्थितिबन्ध - कर्मपरमाणु कितने समय तक आत्मा से संयोजित रहेंगे और कब निर्जरित होंगे, इस काल मर्यादा का निक्षय स्थिति बन्ध करता है। अतः यह बन्धन की समय-मर्यादा का सूचक है।
४. अनुभागबन्ध— कर्मों के बन्धन और विपाक की तीव्रता एवं मन्दता का निश्चय करना, यह अनुभाग बन्ध का कार्य है। दूसरे शब्दों में यह बन्धन की तीव्रता या गहनता का सूचक है।
मिथ्यात्व एवं कषाय में कौन प्रमुख कारण है, यह वर्तमान युग में एक बहुचर्चित विषय है। इस सन्दर्भ में पक्ष व प्रतिपक्ष में पर्याप्त लेख लिखे गये हैं। आचार्य विद्यासागरजी एवं उनके समर्थक विद्वत् वर्ग का कहना है कि मिथ्यात्व अकिंचितकर है और कषाय ही बन्धन का प्रमुख कारण है, क्योंकि कषम्य की उपस्थिति के कारण ही मिथ्यात्व होता है। कानजीस्वामी समर्थक दूसरे वर्ग का कहना है कि मिथ्यात्व ही बन्धन का प्रमुख कारण है। वस्तुतः यह विवाद अपने अपने एकांगी दृष्टिकोणों के कारण है। कषाय और मिथ्यात्व ये दोनों ही अन्योन्याश्रित हैं। कषाय के अभाव में मिथ्यात्व की सत्ता नहीं रहती और न मिथ्यात्व के अभाव में कषाय ही रहते हैं। मिथ्यात्व तभी समाप्त होता है, जब अनन्तानुबन्धी कषायें समाप्त होती है और कषायें भी तभी समाप्त होती है, जब मिथ्यात्व का प्रहाण होता है। वे ताप और प्रकाश के समान सहजीवी हैं। इनमें एक के अभाव में दूसरे की सत्ता क्षीण होने लगती है। वैसे मिथ्यात्व, अज्ञान एवं मोह का पर्यायवाची है। आवेगों अर्थात् कषायों की उपस्थिति में ही मोह या मिथ्यात्व सम्भव होता है। आठ प्रकार के कर्म और उनके बन्धन के कारण ५६ वास्तविकता यह है कि मोह (मिथ्यात्व) से कषाय उत्पन्न होते हैं और कषायों के कारण ही मोह (मिथ्यात्व) होता है। अतः कषाय और मियात्व अन्योन्याश्रित हैं और बीज एवं वृक्ष की भांति इनमें से किसी की पूर्व कोटि निर्धारित नहीं की जा सकती है।
उपरोक्त चार प्रकार के बन्धनों में प्रकृति बन्ध एवं प्रदेश बन्ध का सम्बन्ध मुख्यतया योग अर्थात् कायिक, वाचिक एवं मानसिक क्रियाओं से है, जबकि बन्धन की तीव्रता (अनुभाग ) एवं समयावधि (स्थिति) का निश्चय कर्म के पीछे रही हुई कषाय-वृत्ति और मिथ्यात्व पर आधारित होता है। संक्षेप में योग का सम्बन्ध प्रदेश एवं प्रकृति बन्ध से है, जबकि कषाय का सम्बन्ध स्थिति एवं अनुभाग बन्ध से है।
जिस रूप में कर्मपरमाणु आत्मा की विभिन्न शक्तियों के प्रकटन का अवरोध करते हैं और आत्मा का शरीर से सम्बन्ध स्थापित करते हैं उनके अनुसार उनके विभाग किये जाते हैं। जैनदर्शन के अनुसार कर्म आठ प्रकार के हैं१. ज्ञानावरणीय २. यदि हम इसी प्रश्न पर बौद्ध दृष्टि से विचार करें तो उसमें दर्शनावरणीय ३. वेदनीय ४. मोहनीय ५. आयुष्य ६. नाम ७. गोत्र
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जालनाा
जैन कर्मसिद्धान्त : एक विश्लेषण
२११ और ८. अन्तराय।
प्रकार जो कर्मवर्गणाएँ आत्मा की दर्शन-शक्ति में बाधक होती हैं, वे
दर्शनावरणीय कर्म कहलाती हैं। ज्ञान से पहले होने वाला वस्तु-तत्त्व १. ज्ञानावरणीय कर्म
का निर्विशेष (निर्विकल्प) बोध, जिसमें सत्ता के अतिरिक्त किसी जिस प्रकार बादल सूर्य के प्रकाश को ढंक देते हैं, उसी विशेष गुण धर्म की प्राप्ति नहीं होती, दर्शन कहलाता है। दर्शनावरणीय प्रकार जो कर्मवर्गणाएँ आत्मा की ज्ञानशक्ति को ढंक देती हैं और ज्ञान कर्म आत्मा के दर्शन-गुण को आवृत करता है। की प्राप्ति में बाधक बनती हैं, वे ज्ञानावरणीय कर्म कही जाती हैं। दर्शनावरणीय कर्म के बन्य के कारण-ज्ञानावरणीय कर्म के समान ज्ञानावरणीय कर्म के बन्धन के कारण-जिन कारणों से ज्ञानावरणीय ही छ: प्रकार के अशुभ आचरण के द्वारा दर्शनावरणीय कर्म का बन्ध कर्म के परमाणु आत्मा से संयोजित होकर ज्ञान-शक्ति को कुंठित करते होता है- (१) सम्यक् दृष्टि की निन्दा (छिद्रान्वेषण) करना अथवा हैं, वे छ: हैं
उसके प्रति अकृतज्ञ होना, (२) मिथ्यात्व या असत् मान्यताओं का १. प्रदोष- ज्ञानी का अवर्णवाद (निन्दा) करना एवं उसके अवगुण प्रतिपादन करना, (३) शुद्ध दृष्टिकोण की उपलब्धि में बाधक बनना, निकालना।
(४) सम्यग्दृष्टि का समुचित विनय एवं सम्मान नहीं करना, (५) २. निह्नव-ज्ञानी का उपकार स्वीकार न करना अथवा किसी विषय सम्यग्दृष्टि पर द्वेष करना (६) सम्यग्दृष्टि के साथ मिथ्याग्रह सहित को जानते हुए भी उसका अपलाप करना।
विवाद करना। ३. अन्तराय- ज्ञान की प्राप्ति में बाधक बनना, ज्ञानी एवं ज्ञान के दर्शनावरणीय कर्म का विपाक-उपर्युक्त अशुभ आचरण के कारण साधन पुस्तकादि को नष्ट करना।
आत्मा का दर्शन गुण नौ प्रकार से कुंठित हो जाता है४. मात्सर्य- विद्वानों के प्रति द्वेष-बुद्धि रखना, ज्ञान के साधन (१) चक्षुदर्शनावरण- नेत्रशक्ति का अवरुद्ध हो जाना। पुस्तक आदि में अरुचि रखना।
(२) अचक्षुदर्शनावरण-नेत्र के अतिरिक्त शेष इन्द्रियों की सामान्य ५. असादना- ज्ञान एवं ज्ञानी पुरुषों के कथनों को स्वीकार नहीं अनुभवशक्ति का अवरुद्ध हो जाना। करना, उनका समुचित विनय नहीं करना।
(३) अवधिदर्शनावरण-सीमित अतीन्द्रिय दर्शन की उपलब्धि में ६. उपघात- विद्वानों के साथ मिथ्याग्रह युक्त विसंवाद करना अथवा बाधा उपस्थित होना। स्वार्थवश सत्य को असत्य सिद्ध करने का प्रयत्न करना।
(४) केवल दर्शनावरण-परिपूर्ण दर्शन की उपलब्धि का नहीं होना। उपर्युक्त छ: प्रकार का अनैतिक आचरण व्यक्ति की ज्ञानशक्ति (५) निद्रा- सामान्य निद्रा। के कुंठित होने का कारण है।
(६) निद्रानिद्रा- गहरी निद्रा। ज्ञानावरणीय कर्म का विपाक-विपाक की दृष्टि से ज्ञानावरणीय (७) प्रचला-बैठे-बैठे आ जाने वाली निद्रा। कर्म के कारण पाँच रूपों में आत्मा की ज्ञान-शक्ति का आवरण (८) प्रचला-प्रचला-चलते-फिरते भी आ जाने वाली निद्रा। होता है
(९) स्त्यानगृद्धि-जिस निद्रा में प्राणी बड़े-बड़े बल-साध्य कार्य कर (१) मतिज्ञानावरण- ऐन्द्रिक एवं मानसिक ज्ञान-क्षमता का अभाव, डालता है। (२) श्रुतज्ञानावरण- बौद्धिक अथवा आगमज्ञान की अनुपलब्धि,
अन्तिम दो अवस्थाएँ आधुनिक मनोविज्ञान के द्विविध (३) अवधि ज्ञानावरण- अतीन्द्रिय ज्ञान-क्षमता का अभाव व्यक्तित्व के समान मानी जा सकती हैं। उपर्युक्त पाँच प्रकार की (४) मनःपर्याय ज्ञानावरण-दूसरे की मानसिक अवस्थाओं का ज्ञान निद्राओं के कारण व्यक्ति की सहज अनुभूति की क्षमता में अवरोध प्राप्त करने लेने की शक्ति का अभाव
उत्पन्न हो जाता है। (५) केवलज्ञानावरण-पूर्णज्ञान प्राप्त करने की क्षमता का अभाव।
कहीं-कहीं विपाक की दृष्टि से इसके १० भेद भी बताये गये ३. वेदनीय कर्म हैं-१. सुनने की शक्ति का अभाव, २. सुनने से प्राप्त होने वाले ज्ञान जिसके कारण सांसारिक सुख-दुःख की संवेदना होती है, को अनुपलब्धि, ३. दृष्टि शक्ति का अभाव, ४. दृश्यज्ञान की अनुपलब्धि, उसे वेदनीय कर्म कहते हैं। इसके दो भेद हैं- १. सातावेदनीय 4. गंधग्रहण करने की शक्ति का अभाव, ६. गन्ध सम्बन्धी ज्ञान की और २. असातावेदनीय। सुख रूप संवेदना का कारण सातावेदनीय अनुपलब्धि, ७. स्वाद ग्रहण करने की शक्ति का अभाव, ८. स्वाद और दुःख रूप संवेदना का कारण असातावेदनीय कर्म कहलाता है। सम्बन्धी ज्ञान की अनुपलब्धि, ९. स्पर्श-क्षमता का अभाव और १०. सातावेदनीय कर्म के कारण- दस प्रकार का शुभाचरण करने स्पर्श सम्बन्धी ज्ञान की अनुपलब्धि।
वाला व्यक्ति सुखद-संवदेना रूप सातावेदनीय कर्म का बन्ध करता
है- (१) पृथ्वी, पानी आदि के जीवों पर अनुकम्पा करना। (२) २. दर्शनावरणीय कर्म
वनस्पति, वृक्ष, लतादि पर अनुकम्पा करना। (३) द्वीन्द्रिय आदि जिस प्रकार द्वारपाल राजा के दर्शन में बाधक होता है, उसी प्राणियों पर दया करना। (४) पंचेन्द्रिय पशुओं एवं मनुष्यों पर
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
२१२ अनुकम्पा करना। (५) किसी को भी किसी प्रकार से दुःख न देना। मोहनीय कर्म के बन्ध के कारण- सामान्यतया मोहनीय कर्म का (६) किसी भी प्राणी को चिन्ता एवं भय उत्पन्न हो ऐसा कार्य न बन्ध छ: कारणों से होता है- (१) क्रोध, (२) अहंकार, (३) कपट, करना। (७) किसी भी प्राणी को शोकाकुल नहीं बनना। (८) किसी (४) लोभ, (५) अशुभाचरण और (६) विवेकाभाव (विमूढ़ता)। प्रथम भी प्राणी को रुदन नहीं कराना। (९) किसी भी प्राणी को नहीं मारना पाँच से चारित्रमोह का और अन्तिम से दर्शनमोह का बन्ध होता है।
और (१०) किसी भी प्राणी को प्रताड़ित नहीं करना। कर्मग्रन्थों में कर्मग्रन्थ में दर्शनमोह और चारित्रमोह के बन्धन के कारण अलगसातावेदनीय कर्म के बन्धन का कारण गुरुभक्ति, क्षमा, करुणा, अलग बताये गये हैं। दर्शनमोह के कारण हैं-उन्मार्ग देशना, सन्मार्ग व्रतपालन, योग-साधना, कषायविजय, दान और दृढ़श्रद्धा माना का अपलाप, धार्मिक सम्पत्ति का अपहरण और तीर्थंकर, मुनि, चैत्य गया है। तत्त्वार्थसूत्रकार का भी यही दृष्टिकोण है।
(जिन-प्रतिमाएँ) और धर्म-संघ के प्रतिकूल आचरण। चारित्रमोह कर्म सातावेदनीय कर्म का विपाक- उपर्युक्त शुभाचरण के फलस्वरूप के बन्धन के कारणों में कषाय, हास्य आदि तथा विषयों के अधीन प्राणी निम्न प्रकार की सुखद संवेदना प्राप्त करता है- (१) मनोहर, होना प्रमुख है। तत्त्वार्थ-सूत्र में सर्वज्ञ, श्रुत, संघ, धर्म और देव के कर्णप्रिय, सुखद स्वर श्रवण करने को मिलते हैं, (२) सुस्वादु भोजन- अवर्णवाद (निन्दा) को दर्शनमोह का तथा कषायजनित आत्म-परिणाम पानादि उपलब्ध होती है, (३) वांछित सुखों की प्राप्ति होती है, (४) को चारित्रमोह का कारण माना गया है। समवायांगसूत्र में तीव्रतम शुभ वचन, प्रशंसादि सुनने का अवसर प्राप्त होता है, (५) शारीरिक मोहकर्म के बन्धन के तीस कारण बताये गये हैं- (१) जो किसी त्रस सुख मिलता है।
प्राणी को पानी में डुबाकर मारता है। (२) जो किसी त्रस प्राणी को तीव्र असातावेदनीय कर्म के कारण- जिन अशुभ आचरणों के कारण अशुभ अध्यवसाय से मस्तक को गीला चमड़ा बांधकर मारता है। (३) प्राणी को दुःखद संवेदना प्राप्त होती है वे १२ प्रकार के हैं- (१) जो किसी त्रस प्राणी को मुँह बाँध कर मारता है। (४) जो किसी त्रस किसी भी प्राणी को दुःख देना, (२) चिन्तित बनाना, (३) शोकाकुल प्राणी को अग्नि के धुएँ से मारता है। (५) जो किसी त्रस प्राणी के बनाना, (४) रुलाना, (५) मारना और (६) प्रताड़ित करना, इन छ: मस्तक का छेदन करके मारता है। (६) जो किसी त्रस प्राणी को छल क्रियाओं की मन्दता और तीव्रता के आधार पर इनके बारह प्रकार हो से मारकर हँसता है। (७) जो मायाचार करके तथा असत्य बालेकर जाते हैं। तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार- (१) दुःख (२) शोक (३) ताप अपना अनाचार छिपाता है। (८) जो अपने दुराचार को छिपाकर दूसरे ९४) आक्रन्दन (५) वध और (६) परिदेवन ये छ: असातावेदनीय पर कलंक लगता है। (९) जो कलह बढ़ाने के लिए जानता हुआ मिश्र कर्म के बन्ध के कारण हैं, जो 'स्व' और 'पर' की अपेक्षा से १२ भाषा बोलता है। (१०) जो पति-पत्नी में मतभेद पैदा करता है तथा प्रकार के हो जाते हैं। स्व एवं पर की अपेक्षा पर आधारित तत्त्वार्थसूत्र उन्हें मार्मिक वचनों से लज्जित कर देता है। (११) जो स्त्री में आसक्त का यह दृष्टिकोण अधिक संगत है। कर्मग्रन्थ में सातावेदनीय के बन्ध व्यक्ति अपने-आपको कुंवारा कहता है। (१२) जो अत्यन्त कामुक के कारणों के विपरीत गुरु का अविनय, अक्षमा, क्रूरता, अविरति, व्यक्ति अपने आप को ब्रह्मचारी कहता है। (१३) जो चापलूसी करके योगाभ्यास नहीं करना, कषाययुक्त होना, तथा दान एवं श्रद्धा का अपने स्वामी को ठगता है। (१४) जो जिनकी कृपा से समृद्ध बना है, अभाव असातावेदनीय कर्म के कारण माने गये हैं। इन क्रियाओं के ईर्ष्या से उनके ही कार्यों में विघ्न डालता है। (१५) जो प्रमुख पुरुष की विपाक के रूप में आठ प्रकार की दुःखद संवेदनाएँ प्राप्त होती हैं- हत्या करता है। (१६) जो संयमी को पथभ्रष्ट करता है। (१७) जो (१) कर्ण-कटु, कर्कश स्वर सुनने को प्राप्त होते हैं (२) अमनोज्ञ एवं अपने उपकारी की हत्या करता है। (१८) जो प्रसिद्ध पुरुष की हत्या सौन्दर्यविहीन रूप देखने को प्राप्त होता है, (३) अमनोज्ञ गन्धों की करता है। (१९) जो महान् पुरुषों की निन्दा करता है। (२०) जो उपलब्धि होती है, (४) स्वादविहीन भोजनादि मिलता है, (५) अमनोज्ञ, न्यायमार्ग की निन्दा करता है। (२१) जो आचार्य, उपाध्याय एवं गुरु कठोर एवं दुःखद संवेदना उत्पन्न करने वाले स्पर्श की प्राप्ति होती है, की निन्दा करता है। (२२) जो आचार्य, उपाध्याय एवं गुरु का अविनय (६) अमनोज्ञ मानसिक अनुभूतियों का होना, (७) निन्दा अपमानजनक करता है। (२३) जो अबहुश्रुत होते हुए भी अपने-आपको बहुश्रुत वचन सुनने को मिलते हैं और (८) शरीर में विविध रोगों की उत्पत्ति कहता है। (२४) जो तपस्वी न होते हुए भी अपने-आपको तपस्वी से शरीर का दुःखद संवेदनाएँ प्राप्त होती हैं।
कहता है। (२५) जो अस्वस्थ आचार्य आदि की सेवा नहीं करता।
(२६) जो आचार्य आदि कुशास्त्र का प्ररूपण करते हैं। (२७) जो ४. मोहनीय कर्म
आचार्य आदि अपनी प्रशंसा के लिए मंत्रादि का प्रयोग करते हैं। (२८) जैसे मदिरा आदि नशीली वस्तु के सेवन से विवेक-शक्ति जो इहलोक और परलोक में भोगोपभोग पाने की अभिलाषा करता है। कुंठित हो जाती है, उसी प्रकार जिन कर्म-परमाणुओं से आत्मा की (२९) जो देवताओं की निन्दा करता है या करवाता है। (३०) जो विवेक-शक्ति कुंठित होती है और अनैतिक आचरण में प्रवृत्ति होती है, असर्वज्ञ होते हुए भी अपने आपको सर्वज्ञ कहता है। उन्हें मोहनीय (विमोहित करने वाले) कर्म कहते हैं। इसके दो भेद हैं- (अ) दर्शन-मोह- जैन-दर्शन में 'दर्शन' शब्द तीन अर्थों में प्रयुक्त दर्शनमोह और चारित्रमोह।
हुआ है- (१) प्रत्यक्षीकरण, (२) दृष्टिकोण और (३) श्रद्धा। प्रथम
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जैन कर्मसिद्धान्त : एक विश्लेषण
२१३ अर्थ का सम्बन्ध दर्शनावरणीय कर्म से है, जबकि दूसरे और तीसरे आयुष्य-कर्म के बन्ध के चार-चार कारण माने गये हैं। अर्थ का सम्बन्ध मोहनीय कर्म से है। दर्शन-मोह के कारण प्राणी में (अ) नारकीय जीवन की प्राप्ति के चार कारण- (१) महारम्भ सम्यक दृष्टिकोण का अभाव होता है और वह मिथ्या धारणाओं एवं (भयानक हिंसक कर्म), (२) महापरिग्रह (अत्यधिक संचय वृत्ति),(३) विचारों का शिकार रहता है, उसकी विवेकबुद्धि असंतुलित होती है। मनुष्य, पशु आदि का वध करना, (४) मांसाहार और शराब आदि दर्शनमोह तीन प्रकार का है--(१) मिथ्यात्व मोह- जिसके कारण नशीले पदार्थों का सेवन। प्राणी असत्य को सत्य तथा सत्य को असत्य समझता है। शुभ को (ब) पाशविक जीवन की प्राप्ति के चार कारण- (१) कपट करना अशुभ और अशुभ को शुभ मानना मिथ्यात्व मोह है। (२) सम्यक- (२) रहस्यपूर्ण कपट करना (३) असत्य भाषण (४) कम ज्यादा तोलमिथ्यात्व मोह- सत्य एवं असत्य तथा शुभ एवं अशुभ के माप करना। कर्म-ग्रन्थ में प्रतिष्ठा कम होने के भय से पाप का प्रकट न सम्बन्ध में अनिश्चयात्मक और (३) सम्यक्तव मोह-क्षायिक सम्यक्तव करना भी तिर्यंच आयु के बन्ध का कारण माना गया है। तत्त्वार्थसूत्र में की उपलब्धि में बाधक सम्यक्तव मोह है अर्थात् दृष्टिकोण की माया (कपट) को ही पशुयोनि का कारण बताया है। आंशिक विशुद्धता।
(स) मानव जीवन की प्राप्ति के चार कारण- (१) सरलता, (२) (ब) चारित्र-मोह-चारित्र-मोह के कारण प्राणी का आचरण अशुभ विनयशीलता, (३) करुणा और (४) अहंकार एवं मात्सर्य से रहित होता है। चारित्र-मोहजनित अशुभाचरण २५ प्रकार का है- (१) होना। तत्त्वार्थसूत्र में- (१) अल्प आरम्भ, (२) अल्प परिग्रह, (३) प्रबलतम क्रोध, (२) प्रबलतम मान, (३) प्रबलतम माया (कपट), स्वभाव की सरलता और (४) स्वभाव की मृदुता को मनुष्य आयु के (४) प्रबलतम लोभ, (५) अति क्रोध, (६) अति मान, (७) अति बन्ध का कारण कहा गया है। माया (कपट), (८) अति लोभ, (९) साधारण क्रोध, (१०) साधारण (द) दैवीय जीवन की प्राप्ति के चार कारण- (१) सराग (सकाम) मान, (११) साधारण माया (कपट) (१२) साधारण लोभ, (१३) संयम का पालन, (२) संयम का आंशिक पालन, (३) सकाम-तपस्या अल्प क्रोध, (१४) अल्प मान, (१५) अल्प माया (कपट) और (बाल-तप) (४) स्वाभाविक रूप में कर्मों के निर्जरित होने से। तत्त्वार्थसूत्र (१६) अल्प लोभ- ये सोलह कषाय हैं। उपर्युक्त कषायों को उत्तेजित में भी यही कारण माने गये हैं। कर्मग्रन्थ के अनुसार अविरत सम्यग्दृष्टि करने वाली नौ मनोवृत्तियाँ (उपकषाय) हैं- (१) हास्य, (२) रति मनुष्य या तिर्यंच, देशविरत श्रावक, सरागी-साधु, बाल-तपस्वी और (स्नेह, राग), (३) अरति (द्वेष) (४) शोक, (५) भय, (६) जुगप्सा इच्छा नहीं होते हुए भी परिस्थिति वश भूख-प्यास आदि को सहन (घृणा), (७) स्त्रीवेद (पुरुष-सहवास की इच्छा), (८) पुरुषवेद (स्त्री- करते हुए अकाम-निर्जरा करने वाले व्यक्ति देवायु का बन्ध करते हैं। सहवास की इच्छा), (९) नपुंसकवेद (स्त्री-पुरुष दोनों के सहवास की आकस्मिकमरण-प्राणी अपने जीवनकाल में प्रत्येक क्षण आयु कर्म इच्छा )।
को भोग रहा है और प्रत्येक क्षण में आयु कर्म के परमाणु भोग के मोहनीय कर्म विवेकाभाव है और उसी विवेकाभाव के कारण पश्चात् पृथक् होते रहते हैं। जिस समय वर्तमान आयुकर्म के पूर्वबद्ध अशुभ की ओर प्रवृत्ति की रुचि हाती है। अन्य परम्पराओं में जो स्थान समस्त परमाणु आत्मा से पृथक् हो जाते हैं उस समय प्राणी को अविद्या का है, वही स्थान जैन परम्परा में मोहनीय कर्म का है। जिस वर्तमान शरीर छोड़ना पड़ता है। वर्तमान शरीर छोड़ने के पूर्व ही नवीन प्रकार अन्य परम्पराओं में बन्धन का मूल कारण अविद्या है, उसी प्रकार शरीर के आयुकर्म का बन्ध हो जाता है। लेकिन यदि आयुष्य का भोग जैन परम्परा में बन्धन का मूल कारण मोहनीय कर्म। मोहनीय कर्म का इस प्रकार नियत है तो आकस्मिकमरण की व्याख्या क्या? इसके क्षयोपशम ही आध्यात्मिक विकास का आधार है।
प्रत्युत्तर में जैन-विचारकों ने आयुकर्म का भेद दो प्रकार का माना
(१) क्रमिक, (२) आकस्मिक। क्रमिक भोग में स्वाभाविक रूप से ५. आयुष्य कर्म
आयु का भोग धीरे-धीरे होता रहता है, जबकि आकस्मिक भोग में जिस प्रकार बेड़ी स्वाधीनता में बाधक है, उसी प्रकार जो किसी कारण के उपस्थित हो जाने पर आयु एक साथ ही भोग ली कर्म परमाणु आत्मा को विभिन्न शरीरों में नियत अवधि तक कैद रखते जाती है। इसे ही आकस्मिकमरण या अकाल मृत्यु कहते हैं। स्थानांगसूत्र मी, उन्हें आयुष्य कर्म कहते हैं। यह कर्म निश्चय करता है कि आत्मा को में इसके सात कारण बताये गये हैं- (१) हर्ष-शोक का अतिरेक, किस शरीर में कितनी समयावधि तक रहना है। आयुष्य कर्म चार प्रकार (२) विष अथवा शस्त्र का प्रयोग, (३) आहार की अत्यधिकता अथवा है- (१) नरक आयु, (२) तिर्यंच आयु (वानस्पतिक एवं पशु सर्वथा अभाव (४) व्याधिजनित तीव्र वेदना, (५) आघात (६) सर्पदंशादि जीवन) (३) मनुष्य आयु और (४) देव आयु।
और (७) श्वासनिरोध। आयुष्य-कर्म के बन्ध के कारण- सभी प्रकार के आयुष्य-कर्म के बन्ध का कारण शील और व्रत से रहित होना माना गया है। फिर भी ६.नाम कर्म किस प्रकार के आचरण से किस प्रकार का जीवन मिलता है, उसका जिस प्रकार चित्रकार विभिन्न रंगों से अनेक प्रकार के चित्र निर्देश भी जैन आगमों में उपलब्ध है। स्थानांगसूत्र में प्रत्येक प्रकार के बनाता है, उसी प्रकार नाम-कर्म विभिन्न कर्म परमाणुओं से जगत् के
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प्राणियों के शरीर की रचना करता है। मनोविज्ञान की भाषा में नाम-कर्म को व्यक्तित्व का निर्धारक तत्त्व कह सकते हैं। जैन दर्शन में व्यक्तित्व के निर्धारक तत्त्वों को नामकर्म की प्रकृति के रूप में जाना जाता है, जिनकी संख्या १०३ मानी गई है लेकिन विस्तारभय से उनका वर्णन सम्भव नहीं है। उपर्युक्त सारे वर्गीकरण का संक्षिप्त रूप हैं- १. शुभनामकर्म (अच्छा व्यक्तित्व) और २. अशुभनामकर्म ( बुरा व्यक्तित्व)। प्राणी जगत् में, जो आर्यजनक वैचित्र्य दिखाई देता है, उसका आधार नामकर्म है।
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
शुभनाम कर्म के बन्ध के कारण
जैनागमों में अच्छे व्यक्तित्व की उपलब्धि के चार कारण माने गये हैं- १. शरीर की सरलता, २ वाणी की सरलता, ३. मन या विचारों की सरलता, ४ अहंकार एवं मात्सर्य से रहित होना या सामंजस्यपूर्ण जीवन
शुभनामकर्म का विपाक
उपर्युक्त चार प्रकार के शुभाचरण से प्राप्त शुभ व्यक्तित्व का विपाक १४ प्रकार का माना गया है- (१) अधिकारपूर्ण प्रभावक वाणी (इष्ट शब्द) (२) सुन्दर सुगठित शरीर (इष्ट-रूप) (३) शरीर से निःसृत होने वाले मलों में भी सुगंधि (इष्ट-गंध) (४) जैवीय रसों की समुचितता (इष्ट-रस) (५) त्वचा का सुकोमल होना (इष्ट-स्पर्श) (६) अचपल योग्य गति (इष्ट गति) (७) अंगों का समुचित स्थान पर होना (इष्ट-स्थिति) (८) लावण्य (९) यशःकीर्ति का प्रसार (इष्ट-यश: कीर्ति) (१०) योग्य शारीरिक शक्ति (इष्ट-उत्थान, कर्म, बलवीर्य, पुरुषार्थ और पराक्रम) (११) लोगों को रुचिकर लगे ऐसा स्वर (१२) कान्त स्वर (१३) प्रिय स्वर और (१४) मनोज्ञ स्वर अशुभ नाम कर्म के कारण निम्न चार प्रकार के अशुभाचरण से व्यक्ति (प्राणी) को अशुभ व्यक्तित्व की उपलब्धि होती है- (१) शरीर की वक्रता, (२) वचन की वक्रता (३) मन की वक्रता और ( ४ ) अहंकार एवं मात्सर्य वृत्ति या असामंजस्य पूर्ण जीवन। अशुभनाम कर्म का विपाक १. अप्रभावक वाणी (अनिष्ट शब्द), २. असुन्दर शरीर (अनिष्ट-स्पर्श), ३. शारीरिक मलों का दुर्गन्धयुक्त होना (अनिष्टगंध), ४. जैवीयरसों की असमुचितता (अनिष्टरस), ५. अप्रिय स्पर्श, ६. अनिष्ट गति, ७. अंगों का समुचित स्थान पर न होना (अनिष्ट स्थिति), ८. सौन्दर्य का अभाव, ९. अपयश, १० पुरुषार्थं करने की शक्ति का अभाव, ११. हीन स्वर, १२. दीन स्वर, १३. अप्रिय स्वर और १४. अकान्त स्वर ।
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७. गोत्र कर्म
जिसके कारण व्यक्ति प्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित कुलों में जन्म लेता है, वह गोत्र कर्म है। यह दो प्रकार का माना गया है- १. उच्च गोत्र (प्रतिष्ठित कुल) और २. नीच गोत्र (अप्रतिष्ठित कुल ) ।
२१४ किस प्रकार के आचरण के कारण प्राणी का अप्रतिष्ठित कुल में जन्म होता है और किस प्रकार के आचरण से प्राणी का प्रतिष्ठित कुल में जन्म होता है, इस पर जैनाचार - दर्शन में विचार किया गया है। अहंकारवृत्ति ही इसका प्रमुख कारण मानी गई है। उच्च-गोत्र एवं नीच गोत्र के कर्मबन्ध के कारण निम्न आठ बातों का अहंकार न करने वाला व्यक्ति भविष्य में प्रतिष्ठित कुल में जन्म लेता है- १. जाति, २. कुल ३. बल (शरीरिक शक्ति), ४. रूप (सौन्दर्य), ५. तपस्या (साधना ), ६. ज्ञान (श्रुत), ७. लाभ (उपलब्धियां) और ८. स्वामित्व (अधिकार)। इनके विपरीत जो व्यि उपर्युक्त आठ प्रकार का अहंकार करता है, वह नीच कुल में जन्म लेता है। कर्मग्रन्थ के अनुसार भी अहंकार रहित गुणग्राही दृष्टि वाला, अध्ययन-अध्यापन में रुचि रखने वाला तथा भक्त उच्च-गोत्र को प्राप्त करता है। इसके विपरीत आचरण करने वाला नीच गोत्र को प्राप्त करना है । तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार पर-निन्दा, आत्मप्रशंसा, दूसरों के सद्गुणों का आच्छादन और असद्गुणों का प्रकाशन ये नीच गोत्र के बन्ध के हेतु हैं। इसके विपरीत पर प्रशंसा, आत्म-निन्दा, सद्गुणों का प्रकाशन, असद्गुणों का गोपन और नम्रवृत्ति एवं निरभिमानता ये उच्च-गोत्र के बन्ध के हेतु हैं।
गोत्र कर्म का विपाक - विपाक (फल) दृष्टि से विचार करते हुए यह ध्यान रखना चाहिए कि जो व्यक्ति अहंकार नहीं करता, वह प्रतिष्ठित कुल में जन्म लेकर निम्नोक्त आठ क्षमताओं से युक्त होता है- १. निष्कलंक मातृ पक्ष (जाति), २. प्रतिष्ठित पितृ पक्ष (कुल), ३. सबल शरीर, ४. सौन्दर्ययुक्त शरीर, ५. उच्च साधना एवं तप-शक्ति, ६. तीव्र बुद्धि एवं विपुलशान राशि पर अधिकार ७. लाभ एवं विविध उपलब्धियाँ और ८. अधिकार, स्वामित्व एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति। लेकिन अहंकारी व्यक्तित्व उपर्युक्त समग्र क्षमताओं से अथवा इनमें से किन्हीं विशेष क्षमताओं से वंचित रहता है।
८. अन्तराय कर्म
अभीष्ट की उपलब्धि में बाधा पहुँचाने वाले कारण को अन्तराय कर्म कहते है। यह पाँच प्रकार का है
१. दानान्तराय-दान की इच्छा होने पर भी दान नहीं किया जा सके, २. लाभान्तराय - कोई प्राप्ति होने वाली हो लेकिन किसी कारण से उसमें बाधा आ जाना,
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३. भोगान्तराय भोग में बाधा उपस्थित होना जैसे व्यक्ति सम्पन्न हो, भोजनगृह में अच्छा सुस्वादु भोजन भी बना हो लेकिन अस्वस्थता के कारण उसे मात्र खिचड़ी ही खानी पड़े,
४. उपभोगान्तराय — उपभोग की सामग्री के होने पर भी उपभोग करने में असमर्थता,
५. वीर्यान्तराय शक्ति के होने पर भी पुरुषार्थ में उसका उपयोग नहीं किया जा सकना । (तत्त्वार्थसूत्र, ८.१४ )
जैन नीति दर्शन के अनुसार जो व्यक्ति किसी भी व्यक्ति के
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जैन कर्मसिद्धान्त : एक विश्लेषण
२१५ दान, लाभ, भोग, उपभोग-शक्ति के उपयोग में बाधक बनता है, वह हैं- १. सर्वघाती और २. देशघाती। सर्वघाती कर्म प्रकृति किसी भी अपनी उपलबध सामग्री एवं शक्तियों का समुचित उपयोग नहीं कर आत्मगुण को पूर्णतया आवरित करती है और देशघाती कर्म-प्रकृति पाता है। जैसे कोई व्यक्ति किसी दान देने वाले व्यक्ति को दान प्राप्त उसके एक अंश को आवरित करती है। करने वाली संस्था के बारे में गलत सूचना देकर या अन्य प्रकार से दान आत्मा के स्वाभाविक सत्यानुभूति नामक गुण को मिथ्यात्व देने से रोक देता है अथवा किसी भोजन करते हुए व्यक्ति को भोजन (अशुद्ध दृष्टिकोण) सर्वरूपेण आच्छादित कर देता है। अनन्तज्ञान पर से उठा देता है, तो उसकी उपलब्धियों में भी बाधा उपस्थित होती (केवलज्ञान) और अनन्तदर्शन (केवलदर्शन) नामक आत्मा के गुणों है अथवा भोग-सामग्री के होने पर भी वह उसके भोग से वंचित रहता का आवरण भी पूर्ण रूप से होता है। पाँचों प्रकार की निद्राएँ भी आत्मा है। कर्मग्रन्थ के अनुसार जिन-पूजा आदि धर्म-कार्यों में विघ्न उत्पन्न की सहज अनुभूति की क्षमता को पूर्णतया आवरित करती हैं। इसी करने वाला और हिंसा में तत्पर व्यक्ति भी अन्तराय कर्म का संचय प्रकार चारों कषायों के पहले तीनों प्रकार, जो कि संख्या में १२ होते करता है। तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार भी विघ्न या बाधा डालना ही हैं, भी पूर्णतया बाधक बनते हैं। अनन्तानुबन्धी कषाय सम्यक्त्व का, अन्तराय-कर्म के बन्ध का कारण हैं।
प्रत्याख्यानी कषाय देशव्रती चारित्र (ग्रहस्थ धर्म) का और अप्रत्याख्यानी
कषाय सर्वव्रती चारित्र (मुनिधर्म) का पूर्णतया बाधक बनता है। अत: ये घाती और अघाती कर्म
२० प्रकार की कर्मप्रकृतियाँ सर्वघाती कही जाती हैं। शेष ज्ञानावरणीय कर्मों के इस वर्गीकरण में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय कर्म की ४, दर्शनावरणीय कर्म की ३, मोहनीय कर्म की १३, और अन्तराय- इन चार कर्मों को 'घाती' और नाम, गोत्र, आयुष्य अन्तराय कर्म की ५, कुल २५ कर्मप्रकृतियाँ देशघाती कही जाती हैं। और वेदनीय- इन चार कर्मों को 'अघाती' माना जाता है। घाती कर्म सर्वघात का अर्थ मात्र इन गुणों के पूर्ण प्रकटन को रोकना है, न कि आत्मा के ज्ञान, दर्शन, सुख और शक्ति नामक गुणों का आवरण करते इन गुणों का अनस्तित्व। क्योंकि ज्ञानादि गुणों के पूर्ण अभाव की हैं। ये कर्म आत्मा की स्वभावदशा को विकृत करते हैं, अत: जीवन- स्थिति में आत्म-तत्त्व और जड़-तत्त्व में अन्तर ही नहीं रहेगा। कर्म तो मुक्ति में बाधक होते हैं। इन घाती कर्मों में अविद्या रूप मोहनीय कर्म आत्मगुणों के प्रकटन में बाधक तत्त्व हैं, वे आत्मगुणों को विनष्ट नहीं ही आत्मस्वरूप की आवरण-क्षमता, तीव्रता और स्थितिकाल की दृष्टि कर सकते। नन्दीसूत्र में तो कहा गया है कि जिस प्रकार बादल सूर्य के से प्रमुख हैं। वस्तुतः मोहकर्म ही एक ऐसा कर्म-संस्कार है, जिसके प्रकाश को चाहे कितना ही आवरित क्यों न कर लें, फिर भी वह न तो कारण कर्म-बन्ध का प्रवाह सतत् बना रहता है। मोहनीय कर्म उस बीज उसकी प्रकाश-क्षमता को नष्ट कर सकता है और न उसके प्रकाश के के समान है, जिसमें अंकुरण की शक्ति है। जिस प्रकार उगने योग्य प्रकटन को पूर्णतया रोक सकता है। उसी प्रकार चाहे कर्म ज्ञानादि बीज हवा, पानी आदि के सहयोग से अपनी परम्परा को बढ़ाता रहता आत्मगुणों को कितना ही आवृत क्यों न कर ले, फिर भी उनका एक है, उसी प्रकार मोहनीय रूपी कर्म-बीज, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंश हमेशा ही अनावृत रहता है। अन्तराय रूप हवा, पानी आदि के सहयोग से कर्म-परम्परा को सतत् बनाये रखता है। मोहनीय कर्म ही जन्म-मरण, संसार या बन्धन का कर्म बन्धन से मुक्ति मूल है, शेष घाती कर्म उसके सहयोगी मात्र हैं। इसे कर्मों का सेनापति
जैन कर्मसिद्धान्त की यह मान्यता है कि प्रत्येक कर्म अपना कहा गया है। जिस प्रकार सेनापति के पराजित होने पर सारी सेना विपाक या फल देकर आत्मा से अलग हो जाता है। इस विपाक की हतप्रभ हो शीघ्र ही पराजित हो जाती है, उसी प्रकार मोह कर्म पर अवस्था में यदि आत्मा राग-द्वेष अथवा मोह से अभिभूत होता है, तो विजय प्राप्त कर लेने पर शेष सारे कर्मों को आसानी से पराजित कर वह पुनः नये कर्म का संचय कर लेता है। इस प्रकार यह परम्परा सतत् आत्मशुद्धता की उपलब्धि की जा सकती है। जैसे ही मोह नष्ट हो जाता रूप से चलती रहती है। व्यक्ति के अधिकार क्षेत्र में यह नहीं है कि वह है, वैसे ही ज्ञानावरण ओर दर्शनावरण का पर्दा हट जाता है, अन्तराय कर्म के विपाक के परिणाम स्वरूप होने वाली अनुभूति से इंकार कर या बाधकता समाप्त हो जाती है और व्यक्ति (आत्मा) जीवन-मुक्त बन दे। अत: यह एक कठिन समस्या है कि कर्म के बन्धन व विपाक की जाता है।
इस प्रक्रिया से मुक्ति कैसे हो, यदि कर्म के विपाक के फलस्वरूप हमारे अघाती कर्म वे हैं जो आत्मा के स्वभाव दशा की उपलब्धि अन्दर क्रोधादि कषाय भाव अथवा कामादि भोग भाव उत्पन्न होना ही और विकास में बाधक नहीं होते। अघाती कर्म भुने हुए बीज के समान है तो फिर स्वाभाविक रूप से प्रश्न उठता है कि हम विमुक्ति की दिशा हैं, जिनमें नवीन कर्मों की उत्पादन-क्षमता नहीं होती। वे कर्म-परम्परा में आगे कैसे बढ़ें? इस हेतु जैन आचार्यों ने दो उपायों का प्रतिपादन का प्रवाह बनाये रखने में असमर्थ होते हैं और समय की परिपक्वता के किया है-- (१) संवर और (२) निर्जरा। संवर का तात्पर्य है कि विपाक साथ ही अपना फल देकर सहज ही अलग हो जाते हैं।
की स्थिति में प्रतिक्रिया से रहित रहकर नवीन कर्मास्रव एवं बन्ध को सर्वघाती और देशघाती कर्म-प्रकृतियाँ- आत्मा के स्व-लक्षणों का नहीं होने देना और निर्जरा का तात्पर्य है पूर्व कर्मों के विपाक की आवरण करने वाले घाती कर्मों की ४५ कर्म-प्रकृतियाँ भी दो प्रकार की समभाव पूर्वक अनुभूति करते हुए उन्हें निर्जरित कर देना या फिर तप
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साधना द्वारा पूर्वबद्ध अनियत विपाकी कर्मों को समय से पूर्व उनके विपाक को प्रदेशोदय के माध्यम से निर्जरित करना।
यह सत्य है कि पूर्ववद्ध कर्मों के विपाकोदय की स्थिति में क्रोधादि आवेग अपनी अभिव्यक्ति के हेतु चेतना के स्तर पर आते हैं, किन्तु यदि आत्मा उस समय अपने को राग-द्वेष से ऊपर उठाकर साक्षीभाव में स्थिर रखे और उन उदय में आ रहे क्रोधादि भावों के प्रति मात्र द्रष्टा भाव रखे, तो वह भावी बन्धन से बचकर पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा कर देता है और इस प्रकार वह बन्धन से विमुक्ति की ओर अपनी यात्रा प्रारम्भ कर देता है। वस्तुतः विवेक व अप्रमत्तता ऐसे तथ्य हैं जो हमें नवीन बन्धन से बचाकर विमुक्ति की ओर अभिमुख करते हैं। व्यक्ति में जितनी अप्रमत्तता या आत्म चेतनता होगी, उसका विवेक उतना जागृत रहेगा। वह बन्धन से विमुक्ति की दिशा में आगे बढ़ेगा। जैन कर्म सिद्धान्त बताता है कि कर्मों के विपाक के सम्बन्ध में हम विवशं या परतन्त्र होते हैं, किन्तु उस विपाक की दशा में भी हममें इतनी स्वतन्त्रता अवश्य होती है कि हम नवीन कर्म परम्परा का संचय करें या न करें, ऐसा निश्चय कर सकते हैं। वस्तुतः कर्म विपाक के सन्दर्भ में हम परतन्त्र होते हैं, किन्तु नवीन कर्म बन्ध के सन्दर्भ में हम आंशिक रूप में स्वतन्त्र है। इसी आंशिक स्वतन्त्रता द्वारा हम मुक्ति अर्थात् पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त कर सकते हैं। जो साधक विपाकोदय के समय साक्षी भाव या ज्ञाता द्रष्टा भाव में जीवन जीना जानता है, वह निश्चय ही कर्म-विमुक्ति को प्राप्त कर लेता है।
२.
३.
४.
५.
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
१४.
मण्डल)
रविन्द्रनाथ मिश्रा, जैन कर्म सिद्धान्त का उद्भव एवं विकास (पार्श्वनाथ शोधपीठ, वाराणसी-५, १९८५), पृ. ८ वही, पृ. ९-१०
रागो व दोसो वि य कम्मवीर्य, उत्तराध्ययनसूत्र ३२/७ (अ) समवायांग ५/४ (ब) इसिभासियाई ९/५ (स) तत्वार्थसूत्र
८ / १
१०.
कुन्दकुन्द, समयसार १७१
११. (अ) अट्ठविहं कम्मगंवि इसिभासियाई ३१
६.
७.
८.
९.
(ब) अट्ठविहंकम्मरयमलं-- इसिभासियाई २३ १२. उत्तराध्ययनसूत्र (सं. मधुकरमुनि), ३३/२-३ १३. वही, ३३/४-१५
१५.
१६.
सन्दर्भ सूची
१. डॉ. सागरमल जैन- जैनकर्म सिद्धान्त का तुलनात्मक अध्ययन, प्राकृत भारती संस्थान, जयपुर, १९८२, पृ. ४ श्वेताश्वतरोपनिषद् (गीता प्रेस, गोरखपुर) १/१-२
The Philosophical Quarterly, April 1932, P. 72. Maxmullar-Three Leacturers on Vedanta Philosophy, P. 165.
पं. दलसुखभाई मालवणिया- आत्ममीमांसा (जैन संस्कृति संशोधन २९.
३०.
३१.
३२.
३३.
१७.
१८.
१९.
पं. सुखलाल संघवी, दर्शन व चिन्तन पृ. २२५ आचार्य नेमिचन्द, गोम्मटसार, कर्मकाण्ड-६
आचार्य विद्यानन्दी, अष्टसहस्री, पृ. ५१, उद्धृत--Tatia Dr. P Nathmal Tatia, Studies in Jaina Philosophy (P.V. Rsearch Institute, Varanasi-5, p. 227
कर्मग्रन्थ प्रथम, कर्म विपाक भूमिका पं. सुखलाल संघवी, पृ. २४
२१. सागरमल जैन जैन कर्म सिद्धान्त का तुलनात्मक अध्ययन पृ. १७-१८
२०.
२२.
२३.
२४.
२१६
अगुत्तरनिकाय उद्धृत उपाध्याय भरतसिंह, बौद्धदर्शन और अन्य भारतीय दर्शन, पू. ४६३
देखें- आचार्य नरेन्द्रदेव, बौद्ध धर्म दर्शन, पृ. २५० देवेन्द्रसूरि कर्मग्रन्थ प्रथम, कर्मविपाक, गाथा १
२७.
२८.
(ब) भगवतीसूत्र १ / २ / ६४
२५. देखें-- (अ) Nathmal Tatia, Tatia, Studies in Jaina Philosophy (P.V.R.I.), P. 254.
(ब) सागरमल जैन जैन कर्मसिद्धान्त का तुलनात्मक अध्ययन, पृ. २४-२७
२६. सागरमल जैन जैन कर्मसिद्धान्त का तुलनात्मक अध्ययन, पृ.
३५-३६
वही, पृ. ३६-४०
ज्ञातव्य है कि प्रस्तुत विवरण तत्त्वार्थसूत्र ६ एवं ८, कर्म ग्रन्थ प्रथम कर्मविपाक, पृ. ५४ ६१ समवायांग ३०/१ तथा स्थानांग १२/४/४/३७३ पर आधारित है।
३४.
३५.
(अ) महाभारत शान्तिपर्व (गीता प्रेस, गोरखपुर) पृ. १२९ (ब) लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, गीतारहस्य, पृ. २६८ आचार्य नरेन्द्र देव, बौद्ध धर्म दर्शन, पृ. २७७
(अ) देखें उत्तराध्ययनसूत्र--सम्पादक मधुकरमुनि ४/४/१३, २३/१/३०
·
योगशास्त्र (हेमचन्द्र ), ४/१०७.
स्थानांग टीका (अभयदेव), १/११-१२
जैनधर्म, मुनिसुशीलकुमार, पृ. ८४
समयसारनाटक, बनारसीदास, उत्थानिका २८
"
भगवतीसूत्र, ७/१०/१२१
स्थानांगसूत्र स्थान, ९
भगवद्गीता १८ / १७
३६.
३७.
३८.
३९. दशवौकलिकसूत्र, ४/९
४०.
सूत्रकृतांगसूत्र, २/२/४
४१. उत्तराध्ययनसूत्र, २८/१४
धम्मपद, २४९
सूत्रकृतांग, द्वितीय श्रुतस्कन्ध, आद्रकसंवाद २/६
सागरमल जैन, जैनकर्मसिद्धान्त का तुलनात्मक अध्ययन,
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प्राचीन जैनागमों में चार्वाक दर्शन का प्रस्तुतीकरण एवं समीक्षा
२१७ ४२. तत्त्वार्थसूत्र, १/४
५१. वही, १/८/३ ४३. इसिभासियाई (ऋषिभाषित), ९/२
५२. आचारांगसूत्र, १/४/२/१ ४४. समयसार (कुन्दकुन्द), १४५-१४६
५३. सागरमल जैन-जेन कर्मसिद्धान्त का तुलनात्मक अध्ययन, पृ. ४५. प्रवचनसार टीका (अमृतचन्द्र), १/७२ की टीका
५२-५५ ४६. समयसार वचनिका, जयचन्द छाबड़ा, गाथा १४५-१४६ की ५४. वही, पृ. ६१-६७ वचनिका पृ.२०७
५५. वही, पृ. ५७ ४७. भगवद्गीता, ४/१६
५६. (अ) वही, पृ. ६७-७९ ४८. सूत्रकृतांग, १/८/२२-२४
(ब) प्रस्तुत विवरण तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ६ एवं ८, कर्मग्रन्थ ४९. भगवद्गीता ४/१६
प्रथम, (कर्मविपाक) पृ. ५४-६२, समवायांग ३०/१ तथा ५०. सूत्रकृतांगसूत्र, १/८/१-२
स्थानांग १/४/४/३७३ पर आधारित है।
प्राचीन जैनागमों में चार्वाक दर्शन का प्रस्तुतीकरण एवं समीक्षा
चार्वाक या लोकायत दर्शन का भारतीय दार्शनिक चिन्तन सिद्धसेनगणि, मलयगिरि और मुनिचन्द्रसूरि ने राजा प्रसेनजित को में भौतिकवादी दर्शन के रूप में विशिष्ट स्थान है। भारतीय चिन्तन ही माना है, जो ऐतिहासिक दृष्टि से अधिक प्रामाणिक लगता है। में भौतिकवादी जीवनदृष्टि की उपस्थिति के प्रमाण अति प्राचीन प्रसेनजित को श्वेताम्बिका (सेयविया) नगरी का राजा बताया गया है काल से ही उपलब्ध होने लगते हैं। भारत की प्रत्येक धार्मिक एवं जो इतिहास-सिद्ध है। उनका सारथि चित्त केशीकुमार को श्रावस्ती से दार्शनिक चिन्तन धारा में उसकी समालोचना की गई है। जैन-धर्म यहाँ केवल इसीलिये लेकर आया था कि राजा की भौतिकवादी जीवन एवं दर्शन के ग्रन्थों में भी इस भौतिकवादी जीवनदृष्टि का प्रतिपादन दृष्टि को परिवर्तित किया जा सके। कथावस्तु की प्राचीनता, प्रामाणिकता एवं समीक्षा अति प्राचीन काल से ही मिलने लगती है। जैन धार्मिक तथा तार्किकता की दृष्टि से ही हमने इसे भी प्रस्तुत विवेचन में एवं दार्शनिक साहित्य में महावीर के युग से लेकर आज तक समाहित किया है। लगभग २५०० वर्ष की सुदीर्घ कालावधि में इस विचारधारों की प्रस्तुत विवेचना में मुख्यरूप से चार्वाक दर्शन के समालोचना होती रही है। इस समग्र विस्तृत चर्चा को प्रस्तुत निबन्ध तज्जीवतच्छरीरवाद एवं परलोक तथा पुण्य-पाप की अवधारणाओं के में समेट पाना सम्भव नहीं है, अतः हम प्राकृत आगम साहित्य तक उसके द्वारा किये गये खण्डनों के प्रस्तुतीकरण के साथ-साथ उनकी ही अपनी इस चर्चा को सीमित रखेंगे।
इन आगमों में उपलब्ध समीक्षाएं भी प्रस्तुत की गई हैं। इसमें भी प्राचीनतम प्राकृत आगम साहित्य में मुख्यतया आचारांग, ऋषिभाषित (ई.पू. चौथी शती) में भौतिकवादी जीवन दृष्टि का जो सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन और ऋषिभाषित को समाहित किया जा सकता प्रस्तुतीकरण है, वह उपर्युक्त विवरण से कुछ विशिष्ट प्रकार का है। है। ये सभी ग्रन्थ ई.पू. पाँचवीं शती से लेकर ई०पू० तीसरी शती के उसमें जो दण्डोक्कल, रज्जूक्कल, स्तेनोक्कल, देसोक्कल, सव्वोक्कल बीच निर्मित हुए हैं, ऐसा माना जाता है। इसके अतिरिक्त उपांग के नाम से भौतिवादियों के पाँच प्रकारों का उल्लेख है, वह अन्यत्र साहित्य के एक ग्रन्थ राजप्रश्नीय को भी हमने इस चर्चा में समाहित किसी भी भारतीय साहित्य में उपलब्ध नहीं है। इसी प्रकार सूत्रकृतांग किया है। इसका कारण यह है कि राजप्रश्नीय का वह भाग जो चार्वाक के द्वितीय श्रुतस्कन्ध एवं राजप्रश्नीय में चार्वाक दर्शन की स्थापना दर्शन का प्रस्तुतीकरण और समीक्षा करता है एक तो चार्वाक दर्शन की और खण्डन दोनों के लिए जो तर्क प्रस्तुत किये गये हैं वे भी स्थापना एवं समीक्षा-दोनों ही दृष्टि से अति समृद्ध है, दूसरे अतिप्राचीन महत्त्वपूर्ण कहे जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त प्राकृत आगमिकभी माना जाता है, क्योंकि ठीक यही चर्चा हमें बौद्ध त्रिपिटक साहित्य व्याख्या साहित्य में मुख्यत विशेषावश्यकभाष्य (छठी शती) के में बुद्ध और राजा ‘पयासीय' के बीच होने का उल्लेख मिलता है।२ जैन गणधरवाद५ में लगभग पाँच सौ गाथाओं में भौतिकवादी चार्वाक परम्परा में इस चर्चा को पापित्य परम्परा के महावीर के समकालीन दर्शन की विभिन्न अवधारणाओं की समीक्षा महावीर और गौतम आदि आचार्य केशीकुमार श्रमण और राजा 'पयासी', बौद्ध त्रिपिटक में बुद्ध ११ गणधरों के मध्य हुए वाद-विवाद के रूप में प्रस्तुत की गई है, और पयासी के बीच सम्पन्न हुआ बताया गया है। यद्यपि कुछ जैन वह भी दार्शनिक दृष्टि से अतिमहत्त्वपूर्ण कही जा सकती है। अन्य आचार्यों ने पयेसी का संस्कृत रूप प्रदेशी मान लिया है किन्तु देववाचक, आगमिक संस्कृत टीकाओं (१०वीं-११वीं शती) में भी चार्वाक दर्शन
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
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की जैन दार्शनिकों द्वारा की गई समीक्षाओं की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण विनाश होने पर देही का भी विनाश हो जाता है। साथ ही यह भी सामग्री उपलब्ध है। इन आगमों की प्राकृत एवं संस्कृत आगमिक बताया गया है कि व्यक्ति चाहे मूर्ख हो या पण्डित प्रत्येक की अपनी व्याख्याओं, यथा-नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, वृत्ति, टीका आदि के आत्मा होती है जो मृत्यु के बाद नहीं रहती। प्राणी औपपातिक अर्थात् अतिरिक्त जैन दार्शनिक ग्रन्थों में भी भौतिकवादी जीवन दृष्टि की पुर्नजन्म ग्रहण करने वाले नहीं है। शरीर का नाश होने पर देही अर्थात् समीक्षाएं उपलब्ध हैं। किन्तु इन सबको तो किसी एक स्वतन्त्र ग्रन्थ में आत्मा का भी नाश हो जाता है। इस लोक से परे न तो कोई लोक ही समेटा जा सकता है। अत: इस निबन्ध की सीमा मर्यादाओं का है और न पुण्य और पाप ही है। इस प्रकार सूत्रकृतांग के प्रथम ध्यान रखते हुए हम अपनी विवेचना को पूर्व निर्देशित प्राचीन स्तर के श्रुतस्कन्ध में भी चार्वाक दर्शन की मान्यताएं परिलक्षित होती है। यद्यपि प्राकृत आगमों तक ही सीमित रखेंगे।
सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में चार्वाक दर्शन की समीक्षा प्रस्तुत
की गई है, किन्तु विद्वानों ने उसे किंचित् परवर्ती माना है। अत: इसके आचारांग में लोकसंज्ञा के रूप में लोकायत दर्शन का निर्देश पूर्व हम उत्तराध्ययन का विवरण प्रस्तुत करेंगे। इसमें चार्वाक दर्शन को
जैन आगमों में आचारांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध अतिप्राचीन जन-श्रद्धा (जन-सद्धि) कहा गया है।१० सम्भवत: लोकसंज्ञा और जनमाना जाता है। विद्वानों में ऐसी मान्यता है कि इस ग्रन्थ में स्वयं श्रद्धा, ये लोकायत दर्शन के ही पूर्व नाम हैं। उत्तराध्ययन में स्पष्ट रूप महावीर के वचनों का संकलन हुआ है। इसका रचनाकाल चौथी-पाँचवीं से कहा गया है कि ये सांसारिक विषय ही हमारे प्रत्यक्ष के विषय हैं। शताब्दी ई.पू. माना जाता है। आचारांग में स्पष्ट रूप से लोकायत दर्शन परलोक को तो हमने देखा ही नहीं। वर्तमान के काम-भोग हस्तगत हैं का उल्लेख तो नहीं है किन्तु इस ग्रन्थ में इसकी समीक्षा की गई है। जबकि भविष्य में मिलने वाले स्वर्ग-सुख अनागत अर्थात् संदिग्ध हैं। सूत्र के प्रारम्भ में कहा गया है कि कुछ लोगों को यह ज्ञात नहीं होता कौन जानता है कि परलोक है भी या नहीं? इसलिए मैं तो जन-श्रद्धा कि मेरी आत्मा औपपातिक (पुनर्जन्म करने वाली) है। मैं कहाँ से आया के साथ होकर रहूँगा।११ इस प्रकार उत्तराध्ययन के पंचम अध्याय में हूँ और यहाँ से अपना जीवन समाप्त करके कहाँ जन्म ग्रहण करूँगा? चार्वाकों की पुर्नजन्म के निषेध की अवधारणा का उल्लेख एवं खण्डन सूत्रकार कहता है कि व्यक्ति को यह जानना चाहिए कि मेरी आत्मा किया गया है। इसी प्रकार उत्तराध्ययन के चौदहवें अध्याय में भी
औपपातिक (पुनर्जन्म ग्रहण करने वाली) है जो इन दिशाओं और चार्वाकों के असत् से सत् की उत्पत्ति के सिद्धान्त का प्रस्तुतीकरण विदिशाओं में संचरण करती है और वही मैं हूँ। वस्तुत: जो यह जानता किया गया है। क्योंकि चार्वाकों का पंचमहाभूत से चेतना की उत्पत्ति है वही आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी है। इस का सिद्धान्त वस्तुत: असत् से सत् की उत्पत्ति का सिद्धान्त है यद्यपि प्रकार इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में चार्वाक दर्शन की मान्यताओं के विरुद्ध उत्तराध्ययन में असत्कार्यवाद का जो उदाहरण प्रस्तुत किया गया है, चार बातों की स्थापना की गई है.... आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद वह असत्कार्यवाद के पक्ष में न जाकर सत्कार्यवाद के पक्ष में ही जाता और क्रियावाद। आत्मा की स्वतन्त्र और नित्य सत्ता को स्वीकार करना है। उसमें कहा गया है कि जैसे- अरणि में अग्नि, दूध में घृत और आत्मवाद है। संसार को यथार्थ और आत्मा को लोक में जन्म-मरण तिल में तेल असत् होकर भी उत्पन्न होता है, उसी प्रकार शरीर में जीव करने वाला समझना लोकवाद है। आत्मा को शुभाशुभ कर्मों की कर्ता- भी असत् होकर ही उत्पन्न होता है और उस शरीर का नाश हो जाने भोक्ता एवं परिणामी (विकारी) मानना क्रियावाद है। इसी प्रकार आचारांग पर वह भी नष्ट हो जाता है।१२ सम्भवत: उत्तराध्ययन में चार्वाकों के में लोकसंज्ञा का परित्याग करके इन सिद्धान्तों में विश्वास करने का भी असत्कार्यवाद की स्थापना के पक्ष में ये सत्कार्यवाद की सिद्धि करने निर्देश दिया गया है। ज्ञातव्य है कि आचारांग में लोकायत या चार्वाक वाले उदाहरण इसीलिये दिये गये होंगे ताकि इनकी समालोचना सरलता दर्शन का निर्देश लोक-संज्ञा के रूप में हुआ है। यद्यपि इसमें इन पूर्वक की जा सके। उत्तराध्ययन में आत्मा को अमूर्त होने के कारण मान्यताओं की समालोचना तो की गई है किन्तु उसकी कोई तार्किक इन्द्रिय ग्राह्य नहीं माना गया है, अमूर्त होने से नित्य कहा गया भूमिका प्रस्तुत नहीं की गई है।
है।१३ उपरोक्त विवरण से चार्वाकों के सन्दर्भ में निम्न जानकारी
मिलती हैसूत्रकृतांग में लोकायत दर्शन
१. चार्वाक दर्शन को “लोक-संज्ञा" और "जन-श्रद्धा" के आचारांग के पश्चात् सूत्रकृतांग का क्रम आता है। इसके नाम से अभिहित किया जाता था। प्रथम श्रुतस्कन्ध को भी विद्वानों ने अतिप्राचीन (लगभग ई.पू. चौथी
२. चार्वाक दर्शन आत्मा को स्वतन्त्र तत्त्व नहीं मानता था। शती) माना है। सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्याय में हमें वह पंचमहाभूतों से चेतना की उत्पत्ति बताता था। चार्वाक दर्शन के पंचमहाभूतवाद और तज्जीवतच्छरीरवाद के उल्लेख ३. इसी कारण वह असत्कार्यवाद अर्थात् असत् से सत् की प्राप्त होते हैं। इसमें पंचमहाभूतवाद को प्रस्तुत करते हुए कहा गया है उत्पत्ति के सिद्धान्त को स्वीकार करता था। कि पृथ्वी, अप, तेजस, वायु और आकाश ऐसे पाँच महाभूत माने गये ४. शरीर के नाश के साथ आत्मा के विनाश को स्वीकार हैं। उन पाँच महाभूतों से ही प्राणी की उत्पत्ति होती है और देह का करता था, तथा पुनर्जन्म के सिद्धान्त को अस्वीकार करता था। पुनर्जन्म
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प्राचीन जैनागमों में चार्वाक दर्शन का प्रस्तुतीकरण एवं समीक्षा की अस्वीकृति के साथ-साथ वह परलोक अर्थात् स्वर्ग-नरक की सत्ता मुक्ति पा लेता है। को भी अस्वीकार करता था।
इस ग्रन्थ में चार्वाक दर्शन के सन्दर्भ में सबसे महत्त्वपूर्ण ५. वह पुण्य पाप अर्थात् शुभाशुभ कर्मों के शुभाशुभ फलों बात यह है कि इसमें कर्म सिद्धान्त का उत्थापन करने वालों चार्वाकों को भी अस्वीकार करता था, अत: कर्म सिद्धान्त का विरोधी था। के पाँच प्रकारों का उल्लेख हुआ है और ये प्रकार अन्य दार्शनिक ग्रन्थों
६. उस युग में दार्शनिकों का एक वर्ग अक्रियावाद का में मिलने वाले देहात्मवाद, इन्द्रियात्मवाद, मन:आत्मवाद आदि प्रकारों समर्थक था। जैनों के अनुसार अक्रियावादी वे दार्शनिक थे, जो आत्मा से भिन्न हैं और सम्भवतः अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं होते हैं। इसमें को अकर्ता और कूटस्थनित्य मानते थे। आत्मवादी होकर भी शुभाशुभ निम्न पाँच प्रकार के उक्कलों की उल्लेख है- दण्डोक्कल, रज्जूक्कल, कर्मों के शुभाशुभ फल (कर्म सिद्धान्त) के निषेधक होने से ये प्रच्छन्न स्तेनोक्कल, देशोक्कल और सब्बुक्कल।१५ इस प्रसंग में सबसे चार्वाकी ही थे।
पहले तो यही विचारणीय है कि उक्कल शब्द का वास्तविक अर्थ क्या इस प्रकार आचारांग सूत्रकृतांग और उत्तराध्ययन में चार्वाक है? प्राकृत के उक्कल शब्द को संस्कृत में निम्न चार शब्दों के समीप दर्शन के जो उल्लेख हमें उपलब्ध होते हैं। वे मात्र उसकी अवधारणाओं माना जा सकता है- उत्कट, उत्कल, उत्कुल और उत्कूल। संस्कृत को संक्षेप में प्रस्तुत करते हैं। उनमें इस दर्शन की मान्यताओं से साधक कोशों में उत्कट शब्द का अर्थ उन्मत्त दिया गया है। चूंकि चार्वाक को विमुख करने के लिए इतना तो अवश्य कहा गया है कि यह दर्शन आध्यात्मवादियों की दृष्टि में उन्मत्त प्रलापवत् ही था, अत: उसे विचारधारा समीचीन नहीं है। किन्तु इन ग्रन्थों में चार्वाक दर्शन की उत्कट कहा गया हो। किन्तु उक्कल का संस्कृत रूप उत्कट मानना मान्यताओं का प्रस्तुतीकरण और निरसन दोनों ही न तो तार्किक है उचित नहीं है। उसके स्थान पर उत्कल, उत्कूल या उत्कुल मानना और न विस्तृत।
अधिक समीचीन है। 'उत्कल' का अर्थ है जो निकाला गया हो, इसी
प्रकार 'उत्कुल' शब्द का तात्पर्य है जो कुल से निकाला गया है या ऋषिभाषित में प्रस्तुत चार्वाक दर्शन
जो कुल से बहिष्कृत है।१६ चार्वाक आध्यात्मिक परम्पराओं से बहिष्कृत ऋषिभाषित का बीसवाँ "उक्कल" नामक सम्पूर्ण अध्ययन माने जाते थे, इसी दृष्टि से उन्हें उत्कल या उत्कुल कहा गया होगा। ही चार्वाक दर्शन की मान्यताओं के तार्किक प्रस्तुतीकरण से युक्त है। यदि हम इसे उत्कूल से निष्पन्न मानें तो इसका अर्थ होगा किनारे से चार्वाक दर्शन के तज्जीवतच्छरीरवाद का प्रस्तुतीकरण इस ग्रन्थ में अलग हटा हुआ। 'कूल' शब्द किनारे अर्थ में प्रयुक्त होता है, अर्थात् निम्नवत् हुआ है... “पादतल से ऊपर और मस्तक के केशान से नीचे जो किनारे से अलग होकर अर्थात् मर्यादाओं को तोड़कर अपना तथा सम्पूर्ण शरीर की त्वचापर्यन्त जीव आत्मपर्याय को प्राप्त हो प्रतिपादन करता है वह उत्कल है। चूंकि चार्वाक नैतिक मर्यादाओं को जीवन जीता है और इतना ही मात्र जीवन है। जिस प्रकार बीज के भुन अस्वीकार करते थे अत: उन्हें उत्कूल कहा गया होगा। अब हम इन जाने पर उससे पुन: अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती है, उसी प्रकार शरीर उक्कलों के पाँच प्रकारों की चर्चा करेंगेके दग्ध हो जाने पर उससे पुन: जीव की उत्पत्ति नहीं होती है। इसीलिए जीवन इतना ही है अर्थात् शरीर की उत्पत्ति से विनाश तक की दण्डोक्कल कालावधि पर्यन्त ही जीवन है न तो परलोक है न सुकृत और दुष्कृत ये विचारक दण्ड के दृष्टांत द्वारा यह प्रतिपादित करते थे कि कर्मों का फल विपाक है। जीव का पुनर्जन्म भी नहीं होता है। पुण्य जिस प्रकार दण्ड के आदि, मध्य और अन्तिम भाग पृथक-पृथक होकर
और पाप जीव का संस्पर्श नहीं करते हैं और इस तरह कल्याण और दण्ड संज्ञा को प्राप्त नहीं होता है उसी प्रकार शरीर से भिन्न होकर पाप निष्फल है। ऋषिभाषित में चार्वाकों की इस मान्यता की समीक्षा जीव, जीव नहीं होता है। अत: शरीर के नाश हो जाने पर भव अर्थात् करते हुए पुनः कहा गया है कि “पादतल से ऊपर तथा मस्तक के जन्म-परम्परा का भी नाश हो जाता है। उनके अनुसार सम्पूर्ण शरीर में केशान से नीचे और शरीर की सम्पूर्ण त्वचा पर्यन्त आत्मपर्याय को व्याप्त होकर जीव जीवन को प्राप्त होता है।१७ वस्तुत: शरीर और प्राप्त यह जीव है, यह मरणशील है, किन्तु जीवन इतना ही नहीं है। जीवन की अपृथक्ता या सामुदायिकता ही इन विचारकों की मूलभूत जिस प्रकार बीज के जल जाने पर उससे पुन: उत्पत्ति नहीं होती उसी दार्शनिक मान्यता थी। दण्डोक्कल देहात्मवादी थे। प्रकार शरीर के दग्ध हो जाने पर भी उससे पुन: उत्पत्ति नहीं होती है। इसलिए जीवन में पुण्य-पाप का अग्रहण होने से सुख-दुख की रज्जूक्कल सम्भावना का अभाव हो जाता है और पाप कर्म के अभाव में शरीर के रज्जूक्कलवादी यह मानते हैं कि जिस प्रकार रज्जू तन्तुओं दग्ध होने पर पुनः शरीर की उत्पत्ति नहीं होती अर्थात् पुनर्जन्म नहीं का समुदाय मात्र है उसी प्रकार जीव भी पंचमहाभूतों का स्कन्ध मात्र है। होता है। इस प्रकार व्यक्ति मुक्ति प्राप्त कर लेता है। यहाँ हम देखते उन स्कन्धों के विच्छिन्न होने पर भव-सन्तति का भी विच्छेद हो जाता हैं कि ग्रन्थकार चार्वाकों के उनके ही तर्क का उपयोग करके यह सिद्ध है।१८ वस्तुतः ये विचारक पंचमहाभूतों के समूह को ही जगत् का मूल कर देता है कि पुण्य-पाप से ऊपर उठकर व्यक्ति पुनर्जन्म से चक्र से तत्त्व मानते थे और जीव को स्वतन्त्र तत्त्व के रूप में स्वीकार नहीं करते
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
२२० थे। रज्जूक्कल स्कन्धवादी थे।
१. ग्रन्थकार उपरोक्त विचारकों को "उक्कल" नाम से
अभिहित करता है जिसके संस्कृत शब्द रूप उत्कल, उत्कुल अथवा स्तेनोक्कल
उत्कूल होते हैं। जिनके अर्थ होते हैं बहिष्कृत या मर्यादा का उल्लंघन ऋषिभाषित के अनुसार स्तेनोक्कल भौतिकवादी अन्य शास्त्रों करने वाला, इन विचारकों के सम्बन्ध में इस नाम का अन्यत्र कहीं के दृष्टान्तों को लेकर उनकी स्वपक्ष में उद्भावना करके यह कहते थे प्रयोग हुआ हो ऐसा हमें ज्ञात नहीं होता। कि यह हमारा कथन है।१९ इस प्रकार ये दूसरों के सिद्धान्तों का २. इसमें इन विचारकों के पाँच वर्ग बताये गये हैं-- दण्डोत्कल, उच्छेद करते हैं।
रज्जूत्कल, स्तेनोत्कल, देशोत्कल और सर्वोत्कल। विशेषता यह है कि, परपक्ष के दृष्टान्तों का स्वपक्ष में प्रयोग का तात्पर्य सम्भवतः - इसमें स्कन्धवादी (बौद्ध स्कन्धवाद का पूर्व रूप) सर्वोच्छेदवादी (बौद्ध वाद-विवाद में 'छल' का प्रयोग हो। सम्भवत: स्तेनोक्कल या तो शून्यवाद का पूर्व रूप) और आत्म-अकर्तावादी (अक्रियावादी-सांख्य नैयायिकों का कोई पूर्व रूप रहे होंगे या संजयवेलट्ठीपुत्र के सिद्धान्त और वेदान्त का पूर्व रूप) को भी इसी वर्ग में सम्मिलित किया गया है। का यह प्राचीन कोई विधायक रूप था, जो सम्भवतः आगे चलकर क्योंकि ये सभी कर्म सिद्धान्त एवं धर्म व्यवस्था के अपलापक माने जैनों के अनेकान्तवाद का आधार बना हो। ज्ञातव्य है कि ऋषिभाषित गये। यद्यपि आत्म-अकर्तावादियों को देशोत्कल अर्थात् आंशिक रूप स्वयं में देहात्मवादियों के तर्कों से ही मुक्ति की प्राप्ति का प्रतिपादन से अपलाप करने वाले कहा गया है। किया गया है।
३. इसमें शरीर पर्यन्त आत्म-पर्याय मानने का जो सिद्धान्त
प्रस्तुत किया गया है वही जैनों द्वारा आत्मा को देह परिमाण मानने के देशोक्कल
सिद्धान्त का पूर्व रूप प्रतीत होता है। क्योंकि इस ग्रन्थ में शरीरात्मवाद ऋषिभाषित में जो आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करके भी के निराकरण के समय इस कथन को स्वपक्ष में भी प्रस्तुत किया गया जीव को अकर्ता मानते थे उन्हें देशोक्कल कहा गया है।२० आत्मा को है। इस प्रकार इसमें जैन, बौद्ध और सांख्य तथा औपनिषदिक वेदान्त अकर्ता मानने पर पुण्य-पाप, बन्धन-मोक्ष की व्यवस्था नहीं बन पाती की दार्शनिक मान्यताओं के पूर्व रूप या बीज परिलक्षित होते हैं। कहीं है। इसलिए इस प्रकार के विचारकों को भी आंशिक रूप से उच्छेदवादी ऐसा तो नहीं है कि इन मान्यताओं को सुसंगत बनाने के प्रयास में ही ही कहा गया है। सम्भवतः ऋषिभाषित ही एक ऐसा ग्रन्थ है जो आत्म इन दर्शनों का उदय हुआ हो। अकर्तावादियों को उच्छेदवादी कहता है। वस्तुतः ये सांख्य और ४. इसमें जो देहात्मवाद का निराकरण किया गया है वह औपनिषदिक वेदान्त के ही पूर्व रूप थे। जैन उन्हें उत्कूल या उच्छेदवादी ठोस तार्किक आधारों पर स्थित नहीं है। मात्र यह कह दिया गया है कि इसलिए मानते थे कि इन मान्यताओं से लोकवाद (लोक की यथार्थता) जीव का जीवन शरीर की उत्पत्ति और विनाश की काल सीमा तक कर्मवाद (कर्म सिद्धान्त) और आत्मकर्तावाद (क्रियावाद) का खण्डन सीमित नहीं है। होता था।
सूत्रकृतांग (द्वितीय श्रुतस्कन्य) में चार्वाक दर्शन का प्रस्तुतीकरण सयुक्कल
एवं समीक्षा सर्वोत्कूल अभाव से ही सबकी उत्पत्ति बताते थे। ऐसा चार्वाकों अथवा तज्जीवतच्छरीरवादियों के पक्ष का तार्किक कोई भी तत्त्व नहीं है जो सर्वथा सर्व प्रकार से सर्वकाल में रहता हो, दृष्टि से प्रस्तुतीकरण और उसकी तार्किक समीक्षा का प्रयत्न जैन इस प्रकार ये सर्वोच्छेदवाद की संस्थापना करते थे।२१ दूसरे शब्दों आगम साहित्य में सर्व प्रथम सूत्रकृतांग के द्वितीय पुण्डरीक नामक में जो लोग समस्त सृष्टि के पीछे किसी नित्य तत्त्व को स्वीकार नहीं अध्ययन में और उसके पश्चात् राजप्रश्नीय सूत्र में उपलब्ध होता है। करते थे और शन्य या अभाव से ही सृष्टि की उत्पत्ति मानते थे वे अब हम सूत्रकृतांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध के आधार पर सर्वोत्कल थे। वे कहते थे कि कोई भी तत्त्व ऐसा नहीं है जो सर्वथा तज्जीवतच्छरीरवादियों के पक्ष का प्रस्तुतीकरण करेंगे और उसकी और सर्वकालों में अस्तित्व रखता हो। संसार के मूल में किसी भी समीक्षा प्रस्तुत करेंगे। तज्जीवतच्छरीरवादी यह प्रतिपादित करते हैं सत्ता को अस्वीकार करने के कारण ये सर्वोच्छेदवादी कहलाते थे। कि पादतल से ऊपर, मस्तक के केशों के अग्रभाग से नीचे तथा सम्भवत: यह बौद्ध ग्रन्थों में सूचित उच्छेदवादी दृष्टि का कोई समस्त त्वक्पर्यन्त जो शरीर है वही जीव है। इस शरीर के जीवित प्राचीनतम रूप था, जो तार्किकता से युक्त होकर बौद्धों के शून्यवाद रहने तक ही यह जीव जीवित रहता है और शरीर के नष्ट हो जाने के रूप में विकसित हुआ होगा।
पर नष्ट हो जाता है। इसलिए शरीर के अस्तित्व पर्यन्त ही जीव का इस प्रकार ऋषिभाषित में आत्मा, पुनर्जन्म, धर्म-व्यवस्था अस्तित्त्व है। इस सिद्धान्त को युक्ति-युक्त समझना चाहिए। क्योंकि एवं कर्म-सिद्धान्त के अपलापक विचारकों का जो चित्रण उपलब्ध होता जो लोग युक्तिपूर्वक यह प्रतिपादित करते हैं कि शरीर अन्य है और है उसे संक्षेप में इस प्रकार रखा जा सकता है--
जीव अन्य है, वे भी जीव और शरीर को पृथक-पृथक् करके नहीं
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प्राचीन जैनागमों में चार्वाक दर्शन का प्रस्तुतीकरण एवं समीक्षा
२२१ दिखा सकते। वे यह भी नहीं बता सकते कि आत्मा दीर्घ है या ह्रस्व प्रस्तुत ग्रन्थ में पंचमहाभूतवादियों के उपरोक्त विचारों के है। वह परिमण्डलाकार अथवा गोल है। वह किस वर्ण और किस साथ-साथ पंचमहाभूत और छठा आत्मा ऐसे छः तत्वों को मानने वाले गन्ध से युक्त है अथवा वह भारी है, हल्का है, स्निग्ध है या रुक्ष है, विचारकों का भी उल्लेख हुआ है। इनकी मान्यता को प्रस्तुत करते हुए अत: जो लोग जीव और शरीर को भिन्न नहीं मानते उनका ही मत कहा गया है कि सत् का विनाश नहीं होता और असत् की उत्पत्ति नहीं युक्ति संगत है। क्योंकि जीव और शरीर को निम्नोक्त पदार्थों की होती। इतना ही जीवकाय है, इतना ही अस्तिकाय है और इतना ही तरह पृथक्-पृथक् करके नहीं दिखाया जा सकता, यथा- समग्र लोक है। पंचमहाभूत ही लोक का कारण है। संसार में तृण१. तलवार और म्यान की तरह २. मुंज और इषिका (सरकण्डा)
कम्पन से लेकर जो कुछ होता है वह सब इन पाँच महाभूतों से होता की तरह ३. मांस और हड्डी की तरह ४. हथेली और आँवले की
है। आत्मा के असत् अथवा अकर्ता होने से हिंसा आदि कार्यों में पुरुष तरह ५. दही और मक्खन की तरह ६. तिल की खली और तेल की दोष का भागी नहीं होता क्योंकि सभी कार्य भूतों के हैं। सम्भवतः यह तरह ७. ईख के रस और उसके छिलके की तरह ८. अरणि की विचारधारा सांख्य दर्शन का पूर्ववर्ती रूप है। इसमें पंचमहाभूतवादियों लकड़ी और आग की तरह। इस प्रकार जैनागमों में प्रस्तुत ग्रन्थ में की दृष्टि से आत्मा को असत् और पंचमहाभूत और षष्ठ आत्मवादियों ही सर्वप्रथम देहात्मवादियों के दृष्टिकोण को तार्किक रूप से प्रस्तत की दृष्टि से आत्मा को अकर्ता कहा गया है। सूत्रकृतांग इनके अतिरिक्त करने का प्रयत्न किया गया है। पन: उनकी देहात्मवादी मान्यता के ईश्वर कारणवादी और नियतिवादी जीवन दृष्टियों को भी कर्म-सिद्धान्त आधार पर उनकी नीति सम्बन्धी अवधारणाओं को निम्न शब्दों में का विरोधी होने के कारण मिथ्यात्व का प्रतिपादक ही मानता है। इस प्रस्तुत किया गया है....
प्रकार ऋषिभाषित के देशोत्कल और सूत्रकृतांग के पंचमहाभूत एवं यदि शरीर मात्र ही जीव है तो परलोक नहीं है। इसी प्रकार षष्ठ आत्मवादियों के उपरोक्त विवरण में पर्याप्त रूप से निकटता क्रिया, अक्रिया, सुकृत, दुष्कृत, कल्याण, पाप, भला-बुरा, सिद्धि
देखी जा सकती है। जैनों की मान्यता यह थी कि वे सभी विचारक असिद्धि, स्वर्ग-नरक आदि भी नहीं है। अत: प्राणियों के वध करने. मिथ्यादृष्टि हैं, जिनकी दार्शनिक मान्यताओं में धर्माधर्म व्यवस्था या भूमि को खोदने, वनस्पतियों को काटने, अग्नि को जलाने, भोजन
कर्म सिद्धान्त की अवधारणा नहीं होती है। हम यह देखते हैं कि यद्यपि पकाने आदि क्रियाओं में भी कोई पाप नहीं है।
सूत्रकृतांग में शरीर आत्मवाद की स्थापना करते हुए देह और आत्मा प्रस्तुत ग्रन्थ में देहात्मवाद की यक्ति-यक्त समीक्षा न करके भिन्न-भिन्न हैं, इस मान्यता का तार्किक रूप से निरसन किया गया है मात्र यह कहा गया है कि ऐसे लोग हमारा ही धर्म सत्य है ऐसा किन्तु यह मान्यता क्यों समुचित नहीं है? इस सम्बन्ध में स्पष्ट रूप प्रतिपादन करते हैं और श्रमण होकर भी सांसारिक भोग विलासों में से कोई भी तर्क नहीं दिये गये हैं। सूत्रकृतांग भी देहात्मवाद के फंस जाते हैं।
दृष्टिकोण के समर्थन में तो तर्क देता है, किन्तु उसके निरसन में कोई इसी अध्याय में पुन: पंचमहाभूतवादियों तथा पंचमहाभूत तक न
तर्क नहीं देता है। और छठाँ आत्मा मानने वाले सांख्यों का भी उल्लेख हुआ है। प्रस्तुत ग्रन्थ की सूचना के अनुसार पंचमहाभूतवादी स्पष्ट रूप से यह मानते थे राजप्रश्नीयसूत्र में चार्वाक मत का प्रस्तुतीकरण एवं समीक्षा२३ कि इस जगत् में पंचमहाभूत ही सब कुछ है। जिनसे हमारी क्रिया,
चार्वाक दर्शन के देहात्मवादी दृष्टिकोण के समर्थन में और अक्रिया, सुकृत-दुष्कृत, कल्याण-पाप, अच्छा-बुरा, सिद्धि-असिद्धि, उसके खण्डन के लिए तर्क प्रस्तुत करने वाला प्रथम ग्रन्थ राजप्रश्नीय नरक गति या नरक के अतिरिक्त अन्यगति, अधिक कहाँ तक कहें सूत्र है। यही एक मात्र ऐसा प्राकृत आगम ग्रन्थ है जो चार्वाक दर्शन के तिनके के हिलने जैसी क्रिया भी (इन्हीं पंचमहाभतों से) होती है। उच्छेदवाद और तज्जीवतच्छरीरवाद के पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों के
उस भत समवाय (समहको पशक-पक नाम से जानना सन्दर्भ में अपने तर्क प्रस्तुत करता है। राजप्रश्नीय में चार्वाकों की इन चाहिए जैसे कि पृथ्वी एक महाभूत है, जल दसरा महाभत है. तेज मान्यताओं के पूर्व पक्ष को और उनका खण्डन करने वाले उत्तर पक्ष तीसरा महाभूत है, वायु चौथा महाभूत है और आकाश पाँचवा महाभत को निम्न रूप में प्रस्तुत किया गया है
ये पाँच महाभूत किसी कर्ता के द्वारा निर्मित नहीं है न ही ये किसी १. राजा प्रसेनजित या पएसी कहता है, हे! केशीकुमार कर्ता द्वारा बनवाये हए हैं, ये किये हये नहीं है.न ही ये कत्रिम हैं और श्रमण! मेरे दादा अत्यन्त अधार्मिक थे। आपके कथनानुसार वे अवश्य न ये अपनी उत्पत्ति के लिए किसी की अपेक्षा रखते हैं। ये पाँचों ही नरक में उत्पन्न हुए होंगे। मैं अपने पितामह को अत्यन्त प्रिय था. महाभत आदि एवं अन्त रहित हैं तथा अवन्ध्य-आवश्यक कार्य करने अतः पितामह को आकर मुझसे यह कहना चाहिए कि हे पौत्र! मैं वाले हैं। इन्हें कार्य में प्रवृत्त करने वाला कोई दूसरा पदार्थ नहीं है, ये तुम्हारा पितामह था और इसी सेयंविया (श्वेताम्बिका) नगरी में अधार्मिक स्वतन्त्र एवं शाश्वत नित्य है। यह ज्ञातव्य है कि जैनागमों में ऐसा कोई यावत् प्रजाजनों से राजकर लेकर भी यथोचित रूप में उनका पालनभी सन्दर्भ उपलब्ध नहीं होता है, जिसमें मात्र चार महाभूत (आकाश रक्षण नहा करता था। इस कारण बहुत एव अताव कलुष
रक्षण नहीं करता था। इस कारण बहुत एवं अतीव कलुषित पापकर्मों को छोड़कर) मानने वाले चार्वाकोंडल्लेख हुआ हो।
का संचय करके मैं नरक में उत्पन्न हुआ हूँ। किन्तु हे पौत्र! तुम
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२२२
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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६ बराबर होता है अतः एक दिन का भी विलम्ब होने पर वहाँ मनुष्य कालधर्म को प्राप्त हो जाता है पुनः मनुष्य लोक इतना दुर्गन्धित और अनिष्टकर है कि उसकी दुर्गन्ध के कारण मनुष्य लोक में देव आना नहीं चाहते हैं अतः तुम्हारी दादी के स्वर्ग से नहीं आने पर यह श्रद्धा रखना उचित नहीं है कि जीव और शरीर भिन्न भिन्न नहीं हैं।
केशीकुमार श्रमण के इस प्रत्युत्तर को सुनकर राजा ने एक अन्य तर्क प्रस्तुत किया। राजा ने कहा कि मैंने एक चोर को जीवित ही एक लोहे की कुम्भी में बन्द करवा कर अच्छी तरह से लोहे से उसका मुख ढक दिया फिर उस पर गरम लोहे और रांगे से लेप करा दिया तथा उसकी देख-रेख के लिए अपने विश्वास पात्र पुरुषों को रख दिया। कुछ दिन पश्चात् मैंने उस कुम्भी को खुलवाया तो देखा कि वह मनुष्य मर चुका था किन्तु उस कुम्भी में कोई भी छिद्र, विवर या दरार नहीं थी, जिससे उसमें बन्द पुरुष का जीव बाहर निकला हो, अतः जीव और शरीर भिन्न भिन्न नहीं है।
अधार्मिक नहीं होना, प्रजाजनों से कर लेकर उनके पालन रक्षण में प्रमाद मत करना और न बहुत से मलिन पाप कर्मों का उपार्जन संचय ही करना । देहात्मवादियों के इस तर्क के प्रत्युत्तर में केशीकुमार श्रमण ने निम्न समाधान प्रस्तुत किया हे राजन! जिस प्रकार अपने अपराधी को इसलिए नहीं छोड़ देते हो कि वह जाकर अपने पुत्र मित्र और ज्ञाति जनों को यह बताये कि मैं अपने पाप के कारण दण्ड भोग रहा हूँ, तुम ऐसा मत करना। इसी प्रकार नरक में उत्पन्न तुम्हारे पितामह तुम्हें प्रतिबोध देने के लिए आना चाहकर भी यहाँ आने में समर्थ नहीं है। नारकीय जीव निम्न चार कारणों से मनुष्य लोक में नहीं आ सकते। सर्वप्रथम तो उनमें नरक से निकल कर मनुष्य लोक में आने की सामर्थ्य ही नहीं होती। दूसरे नरकपाल उन्हें नरक से बाहर नकलने की अनुमति भी नहीं देते। तीसरे नरक सम्बन्धी असातावेदनीय कर्म के क्षय नहीं होने से वे वहाँ से नहीं निकल पाते। चौथे उनका नरक सम्बन्धी आयुष्य कर्म जब तक क्षीण नहीं होता तब तक वे वहाँ से नहीं आ सकते। अतः तुम्हारे पितामह के द्वारा तुम्हें आकर प्रतिबोध न दे पाने के कारण यह मान्यता मत रखो कि जीव और शरीर अन्य है, अपितु यह मान्यता रखो कि जीव अन्य है और शरीर एक ही है। स्मरण रहे कि दीघनिकाय में भी नरक से मनुष्य लोक में न आ पाने के इन्हीं चार कारणों का उल्लेख किया गया है। केशिकुमार श्रमण के इस प्रत्युत्तर को सुनकर राजा ने दूसरा तर्क प्रस्तुत किया—
के
हे श्रमण! मेरी दादी अत्यन्त धार्मिक थीं, आप लोगों के मत अनुसार वह निश्चित ही स्वर्ग में उत्पन्न हुई होगी। मैं अपनी दादी का अत्यन्त प्रिय था, अतः उसे मुझे आकर यह बताना चाहिए कि हे पौत्र ! - अपने पुण्य कर्मों के कारण मैं स्वर्ग में उत्पन्न हुई हूँ। तुम भी मेरे समान धार्मिक जीवन बिताओ जिससे तुम भी विपुल पुण्य का उपार्जन कर स्वर्ग में उत्पन्न होओ। क्योंकि मेरी दादी ने स्वर्ग से आकर मुझे ऐसा प्रतिबोध नहीं दिया, अतः मैं यही मानता हूँ कि जीव और शरीर भिन्न-भिन्न नहीं हैं। राजा के इस तर्क के प्रत्युत्तर में केशीकुमार श्रमण ने निम्न तर्क प्रस्तुत किया— हे राजन् ! यदि तुम स्नान, बलिकर्म और कौतुकमंगल करके देवकुल में प्रविष्ट हो रहे हो उस समय कोई पुरुष शौचालय में खड़ा होकर यह कहे कि हे स्वामिन्! यहाँ आओ कुछ समय के लिए यहाँ बैठो, खड़े होओ, तो क्या तुम उस पुरुष की बात को स्वीकार करोगे । निश्चय ही तुम उस अपवित्र स्थान पर जाना नहीं चाहोगे। इसी प्रकार हे राजन! देव लोक में उत्पन्न देव वहाँ के दिव्य काम भागों में इतने मूर्च्छित, गृद्ध और तल्लीन हो जाते हैं कि वे मनुष्य लोक में आने की इच्छा ही नहीं करते। दूसरे देवलोक सम्बन्धी दिव्य भोगों में तल्लीन हो जाने के कारण उनका मनुष्य सम्बन्धी प्रेम व्युच्छिन्न हो जाता है, अतः वे मनुष्य लोक में नहीं आ पाते। तीसरे देवलोक में उत्पन्न वे देव वहाँ के दिव्य कामभागों में मूर्च्छित या तल्लीन होने के कारण अभी जाता हूँ-- अभी जाता हूँ ऐसा सोचते रहते हैं, किन्तु उतने समय में अल्पायुष्य वाले मनुष्य कालधर्म को जाते हैं। क्योंकि देवों का एक दिन-रात मनुष्य लोक के
प्राप्त हो सौ वर्ष के
इसके प्रत्युत्तर में केशीकुमार श्रमण ने निम्न तर्क प्रस्तुत किया जिस प्रकार एक ऐसी कूटागारशाला जो अच्छी तरह से आच्छादित हो उसका द्वार गुप्त हो यहाँ तक कि उसमें कुछ भी प्रवेश नहीं कर सके। यदि उस कूटागारशाला में कोई व्यक्ति जोर से भेरी बजाये तो तुम बताओ कि वह आवाज बाहर सुनायी देगी कि नहीं? निश्चय ही वह आवाज सुनायी देगी। अतः जिस प्रकार शब्द अप्रतिहत गति वाला है उसी प्रकार आत्मा भी अप्रतिहत गति वाला है अत: तुम यह श्रद्ध करो कि जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं। ज्ञातव्य है कि अब यह तर्क विज्ञान सम्मत नहीं रह गया है, यद्यपि आत्मा की अमूर्तता के आधार पर राजा के उपरोक्त तर्क का प्रति उत्तर दिया जा सकता है। केशकुमार श्रमण के इस प्रत्युत्तर को सुनकर राजा ने एक अन्य तर्क प्रस्तुत किया
मैंने एक पुरुष को प्राण रहित करके एक लौह कुम्भी में डलवा दिया तथा ढक्कन से उसे बन्द करके उस पर शीशे का लेप करवा दिया। कुछ समय पश्चात् जब उस कुम्भी को खोला गया तो उसे कृमिकुल से व्याप्त देखा, किन्तु उसमें कोई दरार या छिद्र नहीं था जिससे आकर उसमें जीव उत्पन्न हुए हो अतः जीव और शरीर भिन्न भिन्न नहीं है। राजा के इस तर्क के प्रत्युत्तर में केशिकुमार श्रमण ने अग्नि से तपाये लोहे के गोले का उदाहरण दिया। जिस प्रकार लोहे के गोले में छेद नहीं होने पर भी अग्नि उसमें प्रवेश कर जाती है उसी प्रकार जीव भी अप्रतिहत गति वाला होने से कहीं भी प्रवेश कर जाता है।
केशिकुमार श्रमण का यह प्रत्युत्तर सुनकर राजा ने पुन: एक नया तर्क प्रस्तुत किया। उसने कहा कि, मैंने एक व्यक्ति को जीवित रहते हुए और मरने के बाद दोनों ही दशाओं में तौला; किन्तु दोनों के तौल में कोई अन्तर नहीं था। यदि मृत्यु के बाद आत्मा उसमें से निकला होता तो उसका वजन कुछ कम अवश्य होना चाहिए था । से इसके प्रत्युत्तर में केशीकुमार भ्रमण ने वायु से भरी हुई और वायु रहित मशक का उदाहरण दिया और यह बताया कि जिस प्रकार वायु
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प्राचीन जैनागमों में चार्वाक दर्शन का प्रस्तुतीकरण एवं समीक्षा
अगुरुलघु है उसी प्रकार जीव भी अगुरुलघु है । अतः तुम्हारा यह तर्क युक्ति संगत नहीं है कि जीव और शरीर भिन्न भिन्न नहीं है। अब यह तर्क भी वैज्ञानिक दृष्टि से युक्ति संगत नहीं रह गया है क्योंकि वैज्ञानिक यह मानते हैं कि वायु में वजन होता है। दूसरे यह भी प्रयोग करके देखा गया है कि जीवित और मृत शरीर के वजन में अन्तर पाया जाता है । उस युग में सूक्ष्म तुला के अभाव के कारण यह अन्तर ज्ञात नहीं होता रहा होगा।
राजा ने फिर एक अन्य तर्क प्रस्तुत किया और कहा कि मैंने एक चोर के शरीर के विभिन्न अंगों को काट कर चीर कर देखा लेकिन मुझे कहीं भी जीव नहीं दिखाई दिया। अतः शरीर से पृथक् जीव की सत्ता सिद्ध नहीं होती। इसके प्रत्युत्तर में केशिकुमार श्रमण ने निम्न उदाहरण देकर समझाया
हे राजन! तू बंड़ा मूड मालूम होता है, मैं तुझे एक उदाहरण देकर समझाता हूँ। एक बार कुछ वन-जीवी साथ में अग्नि लेकर एक बड़े जंगल में पहुँचे। उन्होंने अपने एक साथी से कहा, हे देवानुप्रिय ! हम जंगल में लकड़ी लेने जाते हैं, तू इस अरणी से आग जलाकर हमारे लिए भोजन बनाकर तैयार रखना। यदि अग्नि बुझ जाय तो लकड़ियों को घिस कर अग्नि जला लेना। संयोग वश उसके साथियों के चले जाने पर थोड़ी ही देर बाद आग बुझ गई। अपने साथियों के आदेशानुसार वह लकड़ियों को चारों ओर से उलट-पुलट कर देखने लगा, लेकिन आग कहीं नजर नहीं आई। उसने अपनी कुल्हाडी से लकड़ियों को चीरा, उनके छोछे-छोटे टुकड़े किये, किन्तु फिर भी आग दिखाई नहीं दी। वह निराश होकर बैठ गया और सोचने लगा कि देखो, मैं अभी तक भी भोजन तैयार नहीं कर सका। इतने में जंगल में से उसके साथी लौटकर आ गये, उसने उन लोगों से सारी बातें कहीं। इस पर उनमें से एक साथी ने शर बनाया और शर को अरणि के साथ घिस कर अग्नि जलाकर दिखायी और फिर सबने भोजन बना कर खाया। हे पएसी जैसे लकड़ी को चीर कर आग पाने की इच्छा रखने वाला उक्त मनुष्य मूर्ख था, वैसे ही शरीर को चीर कर जीव देखने की इच्छा वाले तुम भी कुछ कम मूर्ख नहीं हो। जिस प्रकार अरणि के माध्यम से अग्नि अभिव्यक्त होती है किन्तु तुम्हारी प्रक्रिया उसी प्रकार मूर्खता पूर्ण है जैसे अरणि को चीर-फाड़ करके अग्नि को देखने की प्रक्रिया, अतः हे राजा! यह श्रद्धा करो कि आत्मा अन्य है और शरीर अन्य है।
यहाँ यह कहा जा सकता है कि ये सभी तर्क वैज्ञानिक युग इतने सबल नहीं रह गये हैं, किन्तु प्राचीन काल में सामान्यतया चार्वाकों के पक्ष के समर्थन में और उनका खण्डन करने के लिये ये ही तर्क प्रस्तुत किये जाते थे ।
अतः चार्वाक दर्शन के ऐतिहासिक विकास क्रम की दृष्टि से इनका अपना महत्त्व है। जैन और बौद्ध परम्पराओं में इनमें से अधिकांश तर्क समान होने से इनकी ऐतिहासिक प्रामाणिकता और प्राचीनता भी स्वतः सिद्ध है।
२२३
जैन साहित्य में दार्शनिक दृष्टि से जहाँ तक चार्वाक दर्शन के तर्कपुरस्सर प्रस्तुतीकरण एवं समीक्षा का प्रश्न है, उसे आगमिक व्याख्या साहित्य के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ विशेषावश्यकभाष्य में देखा जा सकता है। जिनभद्रगणि क्षमा-श्रमण द्वारा ईस्वी सन् की छठीं शती में प्राकृत भाषा में निबद्ध इस ग्रन्थ की लगभग ५०० गाथायें तो आत्मा, कर्म, पुण्यपाप, स्वर्ग-नरक, बन्धन मुक्ति आदि अवधारणाओं की तार्किक समीक्षा से सम्बन्धित है। इस ग्रन्थ का यह अंश गणधरवाद के नाम से जाना जाता है और अब स्वतन्त्र रूप से प्रकाशित भी हो चुका है। प्रस्तुत निबन्ध में इस समग्र चर्चा को समेट पाना सम्भव नहीं था, अतः इस निबन्ध को वहीं विराम दे रहे हैं।
सन्दर्भ
१.
२.
३. ४.
५.
६.
७.
८. ९.
१०.
११.
१२.
१३.
१४.
१५.
१६.
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भाग १, भूमिका, पृ. ३९ दीघनिकाय, नवनालन्दा विहार, नालन्दा, पयासीसुत्त राजप्रश्नीयसूत्र (संपा० मधुकरमुनि), भूमिका, पृ. १८ ऋषभाषित (इसिभासियाई), प्राकृत भारती जयपुर, अध्याय २० विशेषावश्यकभाष्य गाथा १५४९-२०२४
से
एवमेगेसि णो णातं भवति अतित्थ मे आया उववाइए....... आयावादी लोगावादी कम्मावादी किरियावादी ।
आचारांग (सं० मधुकरमुनि), १/१/१/१-३ छणं परिण्णाय लोगसपणं सव्वसो
आचारांग, १/२/६/१०४
सूत्रकृतांग (संपा० मधुकरमुनि), १/१/१ / ७-८ वही, ११-१२
जणेण सद्धि होक्खामि उत्तराध्ययनसूत्र, ५/७ वही, ५/५-७
—
जहा व अग्गी अरणी 35 सन्तो खीरे घयं तेल्ल महातिलेसु । एमेव जाया ! सरीरंसि सत्ता संमुच्छई नासइ नावचिट्ठे । उत्तराध्ययनसूत्र, १४/१८.
नो इन्दियग्गेज्न अमुत्तभावा अमुत्तभावा वि य होइ निच्चो वही,
१४ / १९
ऋषिभाषित (इसिभासियाई), अध्याय २०
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वही, अध्याय २०
उत्कल, उत्कुल और उत्कूल शब्दों के अर्थ के लिए देखिएसंस्कृत-इंगलिश डिक्शनरी (मोनियर विलियम्स), पृ. १७६ ऋषिभाषित (इसिमासियाई), अध्याय २०
१७. १८.
वही,
१९. वही,
२०. वही
२१.
वही,
२२.
सूत्रकृतांग (सं० मधुकरमुनि) द्वितीय श्रुतस्कन्ध अध्याय १, सूत्र ६४८-६५८
२३. राजप्रश्नीय (मधुकरमुनि), पृ. २४२-२६०
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अद्वैतवाद में आचार-दर्शन की सम्भावना : जैनदृष्टि से समीक्षा
आचार्य शंकर सत् को अद्वय, अविकारी और आध्यात्मिक जायेगा तो आश्रयानुपपत्ति का आक्षेप लागू होगा। शंकर का अद्वैतवाद मानते हैं। सत् के स्वरूप-सम्बन्धी इस अद्वैतवादी धारणा में आचार- चाहे तार्किक दृष्टि से सबल हो किन्तु नैतिकता की सम्यक् व्याख्या दर्शन की क्या सम्भावना हो सकती है, यह विचारणीय है। यदि सत् प्रस्तुत करने में तो निर्बल पड़ ही जाता है। भेदातीत है, यदि ब्रह्म अद्वय है, तो उसमें वैयक्तिक साधक की सत्ता अनेक पाश्चात्य चिन्तकों ने भी इस अद्वैतवादी मत की ही नहीं बचती है। अद्वैतवाद में बन्धन और मुक्ति के प्रत्यय भी मात्र धारणा में आचार-दर्शन की सम्भावना के प्रति शंका प्रकट की है। काल्पनिक रह जाते हैं। यदि ब्रह्म से भिन्न कोई सत्ता ही नहीं है तो फिर मैक्समूलर ने शंकर के वेदान्त को कठोर एकत्ववाद की संज्ञा देकर न तो कोई बन्धन में आने वाला ही शेष रहता है और न कोई मुक्त होने उसमें आचार-दर्शन की सम्भावना को अस्वीकार किया है। डा० अर्कहार्ट वाला ही। यदि यह कहा जाय कि जीवात्मा बन्धन में आता है और वही ने अपने शोध-ग्रन्थ 'सर्वेश्वरवाद और जीवन-मूल्य' में लिखा है कि अपनी ज्ञानात्मक साधना के द्वारा मुक्त होता है, तो यह भी ठीक नहीं, 'ब्रह्म निर्गुण और भेदातीत है अत: शुभाशुभ-भेद से परे है और क्योंकि जीवात्मा भी तो ब्रह्म से अभिन्न ही है। इसका अर्थ तो यह होगा शुभाशुभ-भेद का निराकरण आचारशास्त्र के आधार को ही उन्मूलित कि ब्रह्म ही बन्धन में आता है और ब्रह्म ही मुक्त होता है। किन्तु यह कर देता है। वेदान्त में व्यक्तित्व को भी मिथ्या माना गया है। शुभाशुभ एक उपहासास्पद धारणा ही होगी। यदि यह कहा जाय कि जीव विवर्त भेद का निराकरण नैतिक निर्णय को असम्भव बना देता है और उसके है तो फिर जीव के सम्बन्ध में होने वाले बन्धन और मुक्ति भी विवर्त साथ ही व्यक्ति की वास्तविक सत्ता का निषेध नैतिक निर्णय को होंगे और बन्धन और मुक्ति के विवर्त होने पर सारी नैतिकता भी विवर्त अनावश्यक भी बना देता है।२ कठोर अद्वैतवाद के दर्शन की नैतिक होगी। ऐसी विवर्त-मूलक नैतिकता का क्या मूल्य होगा यह स्वयं अक्षमता का चित्रण करते हुए जैनाचार्य समन्तभद्र आप्त मीमांसा में अद्वैतवादियों के लिये भी विचारणीय है।
लिखते हैं कि एकान्त अद्वैतवाद की धारणा में शुभाशुभ आदि कर्मदूसरे, यदि उनके सिद्धान्त में विकार या परिवर्तन के लिये भेद, सुख-दुःखादि फल-भेद, स्वर्ग-नर्क आदि लोक-भेद सम्यक्ज्ञानकोई स्थान नहीं है, यदि सत्ता विकार और परिवर्तन से रहित है, तो भी मिथ्याज्ञान आदि ज्ञान-भेद तथा बन्धन और मुक्ति का भेद नहीं रहता नैतिक पतन या विकास अथवा बन्धन और मुक्ति की धारणायें टिक है। अत: ऐसा सिद्धान्त नैतिक दृष्टि से सक्षम नहीं हो सकता है। नही पाती हैं। नैतिक पतन एवं विकास को परिवर्तन के अभाव में नैतिकता के लिए तो द्वैत, अनेकता आवश्यक है। आदरणीय डा० समझ पाना कठिन होगा।
नथमल टाटिया लिखते हैं कि 'एकान्त अद्वैतवादी धारणा को स्वीकार तीसरे, यदि परम सत्ता मात्र आध्यात्मिक है तो फिर बन्धन करने का अर्थ यह होगा कि समाज, वातावरण, परलोक तथा नैतिक कैसे होता है? बन्धन का कारण क्या है? वह स्वभाव तो नहीं है और और धार्मिक नियमों की पूर्ण समाप्ति। लेकिन ऐसा दर्शन, जो समस्त बिना किसी अन्य कारण के विभाव की कल्पना असंगत है। दूसरे तत्त्व सामाजिक, नैतिक और धार्मिक जीवन एवं तत्सम्बन्धी संस्थाओं को की सत्ता माने बिना विभाव या बन्धन की समीचीन व्याख्या दे पाना परिसमाप्त कर देता हो, मानव-जाति के लिए उपादेय नहीं कहा जा कठिन है।
सकता४ स्वयं अद्वैतवाद को भी अनेकता और बन्धन के कारण की अद्वैतवाद में आचार-दर्शन की सम्भावना सिद्ध करने के व्याख्या के लिए माया के प्रत्यय को स्वीकार करना पड़ा है। परमतत्त्व लिये डा० रामानन्द तिवारी ने भी अपने शोध प्रबन्ध 'शंकराचार्य का के समानान्तर अनादि और अनिर्वचनीय माया की धारणा कठोर एकत्ववादी आचार-दर्शन' में एकत्ववादी, सर्वेश्वरवादी एवं मायावादी विचारनिष्ठा के प्रतिकूल है। बन्धन की कारणभूत माया असत् तो नहीं मानी प्रणाली का निरसन कर शंकर-दर्शन में भी जीव एवं जगत की सत्ता जा सकती क्योंकि जो असत् है वह कारण नहीं हो सकता। पुनः, को स्वीकार किया है। वे लिखते हैं 'जीवन और जगत् दोन अत्यन्त असत् या मिथ्या कारण का कार्य भी असत् होगा और ऐसी स्थिति में विविक्त सत्तायें हैं, चाहे वे ब्रह्म से पृथक् कल्पनीय न हों। मायावाद का बन्धन भी असत् या मिथ्या होगा। स्वयं आचार्य शंकर ने भी माया को प्रसिद्ध सिद्धान्त जगत् की सत्ता के प्रसंग में नितान्त असंगत है। जीवन असत् नहीं माना है। किन्तु यदि उसे असत् नहीं माना जायेगा तो सत् की सत्ता वेदान्त का मूलाधार है। मोक्षावस्था में जीवतत्त्व और व्यक्तित्व मानना होगा और माया को सत् मानने पर स्वयं अद्वैतवाद खण्डित हो के अक्षुण्ण रहने की सम्भावनाओं के साथ वेदान्त में आचार-दर्शन की जायेगा। पुनः, यदि माया अनिर्वचनीय है तो उसे असत् या अभाव रूप सम्भावना भी अवगम्य हो जाती है।५। भी नहीं माना जा सकता है। यदि वह भावात्मक सत्ता है तो फिर ब्रह्म इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार-दर्शन की सम्भावना के समक्ष एक दूसरी सत्ता खड़ी हो जायेगी और अद्वैतवाद टिक नहीं के लिये सत्-सम्बन्धी कठोर अद्वैतवाद एवं अविकार्यता के सिद्धान्त पायेगा। यदि माया को स्वतन्त्र सत्ता नहीं मानकर ब्रह्म के आश्रित माना छोड़ना आवश्यक सा हो जाता है। डॉ० रामानन्द ने आचार्य शंकर
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२२५ के दर्शन में आचार-दर्शन की सम्भावना को सिद्ध करने के प्रयास की अपेक्षा विशेष से ही है, एक अपेक्षा के द्वारा दूसरी अपेक्षाओं का में उसे जिस स्तर पर लाकर खड़ा किया है, वहाँ शंकर सत् की समग्र निषेध तो कभी भी नहीं हो सकता। किसी तीसरी अपेक्षा से दोनों कठोर अद्वैतवादी धारणा से दूर हटकर अभेदाश्रितभेद की धारणा परं ही यथार्थ हो सकते हैं। यदि हम कहें कि राम दशरथ की अपेक्षा से पुत्र आ जाते हैं और शंकर एवं रामानुज में कोई विशेष दूरी नहीं रह है और पिता नहीं है, तो इसमें उनके पितृत्व का समग्र निषेध नहीं होता जाती है। स्वयं डॉ० रामानन्द भी इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि है। लव और कुश की अपेक्षा से वे पिता हो सकते हैं। अद्वैतवादी रामानुज और शंकर में वह दूरी नहीं है जैसी परवर्ती शंकरानुयायियों गलती यह करते हैं कि वे परमार्थ की अपेक्षा से व्यवहार का पूर्ण ने बतायी है। अस्तु।
निषेध मान लेते हैं। जिस प्रकार दशरथ की अपेक्षा से राम का पितृत्व ___अद्वैतवाद में आचार-दर्शन की सम्भावना तो तब समाप्त हो मिथ्या है और पुत्रत्व सत्य है और लव-कुश की अपेक्षा से राम का जाती है जब हर स्तर पर ही अभेद माना जाये। लेकिन अद्वैत के पुत्रत्व मिथ्या है और पितृत्व सत्य है लेकिन स्वयं राम की अपेक्षा से प्रस्तोता आचार्य शंकर भी हर स्तर पर अभेद की धारणा को स्वीकार न पितृत्व मिथ्या है न पुत्रत्व मिथ्या है वरन् दोनों ही यथार्थ हैं, उसी नहीं करते। वे कहते हैं कि भेद असत् है लेकिन भेद या अनेकता के प्रकार पारमार्थिक दृष्टि से भेद मिथ्या है और अभेद सत्य है, व्यावहारिक असत् होने का अर्थ यह नहीं है कि वह प्रतीति का विषय नहीं है यद्यपि दृष्टि से भेद सत्य और अभेद मिथ्या है लेकिन परमतत्त्व की अपेक्षा से यह समस्या है कि असत् अनेकता कैसे प्रतीति का विषय बन जाती तो न अभेद मिथ्या है और न भेद मिथ्या है अपितु दोनों ही सत्य हैं। है? लेकिन यहाँ इस चर्चा की गहराई में जाना इष्ट नहीं है। अद्वैतवाद कठोर अद्वैतवादी विचारक यह भूल जाते हैं कि भेद और अभेद तो यह मान कर चलता है कि प्रतीति की दृष्टि से न केवल वस्तुगत परमतत्त्व के सम्बन्ध में दो दृष्टियाँ हैं, वे स्व अपेक्षा से सत्य और पर अनेकता है वरन् व्यक्तिगत अनेकता भी है, और प्रतीति के क्षेत्र में इस अपेक्षा से मिथ्या होते हुए भी परम तत्त्व की अपेक्षा से दोनों ही सत्य भेद तथा अनेकता के कारण बन्धन और मुक्ति एवं नैतिकता और धर्म हो सकती हैं। अद्वैतवादी दर्शन का मानदण्ड लेकर नापने वाले मनीषी की सम्भावनाएँ भी हैं। इस प्रकार अद्वैतवादी भी केवल पारमार्थिक स्तर डा० राधाकृष्णन् ने अनेकान्तवादी यथार्थवाद को बीच मार्ग में पड़ाव पर ही अभेद को मानते हैं। व्यावहारिक स्तर पर तो उन्हें भी भेद जैसा कहा है। जबकि वास्तविकता यह है कि अद्वैतवादी दर्शन केवल स्वीकार है। व्यावहारिक स्तर पर जब भेद स्वीकार कर लिया जाता है पारमार्थिक या तत्त्व दृष्टि से भेद का निषेध कर स्वयं बीच मार्ग में तो आचार-दर्शन की सम्भावना अवगम्य हो जाती है। मेरी अपनी दृष्टि पड़ाव डाल देता है। वह आगे बढ़कर यह क्यों नहीं कहता है कि में शंकर जब तक पारमार्थिक स्तर पर अभेद और अद्वयता और व्यावहारिक दृष्टि से अभेद भी मिथ्या है। इससे भी आगे बढ़कर वह व्यावहारिक स्तर पर भेद और अनेकता को स्वीकार करते हैं तब तक यह क्यों नहीं स्वीकार करता है कि परम तत्त्व की अपेक्षा से भेद और वे कोई गलती नहीं करते। स्वयं जैन एवं बौद्ध विचारक भी पारमार्थिक अभेद दोनों ही सत्य हैं। पारमार्थिक और व्यावहारिक दृष्टियाँ सत् के स्तर पर अभेद एवं व्यावहारिक स्तर पर भेद की संकल्पना को स्वीकार सम्बन्ध में क्रमश: अभेदगामी और भेदगामी दृष्टियाँ हैं, उनमें से कोई करते हैं।
भी असत्य नहीं है, दोनों ही अपनी-अपनी अपेक्षा से सत्य हैं। अद्वैतवादी दर्शन की मूल भूत कमजोरी :
व्यावहारिक भेद भी उतना ही यथार्थ है जितना पारमार्थिक अभेद। दोनों इस आधार पर अद्वैतवाद की आलोचना करना उचित नहीं में कोई तुलना नहीं हो सकती है, दो भिन्न-भिन्न स्थितियों से खींचे गये होगा कि अद्वैतवाद में नैतिक दर्शन की अवगम्यता व्यावहारिक स्तर वस्तु के दो चित्रों में कोई भी मिथ्या नहीं कहा जा सकता है। सत् का तक होती है। स्वयं जैन एवं बौद्ध विचारणाओं में भी नैतिकता की भेदवादी दृष्टिकोण भी उतना ही यथार्थ है जितना सत् का अभेदवादी अवधारणा व्यावहारिक स्तर पर ही सम्भव है।
दृष्टिकोण। क्योंकि दोनों सत्ता के ही दो पक्ष हैं। यदि अद्वैतवाद पारमार्थिक दृष्टि से अभेद को ही सत्य और व्यवहार के भेद पारमार्थिक और व्यावहारिक ऐसी दो सत्ताएँ खड़ी करता है तो स्वयं को मिथ्या कहकर भी शंकर कोई गलती नहीं करते हैं। परमार्थ की दृष्टि अपने सिद्धान्त से पीछे हट जाता है यदि परमार्थ और व्यवहार दोनों से व्यवहार मिथ्या है यह ठीक है, लेकिन उससे आगे बढ़कर हमें यह को ही वास्तविक मानता है तो उसका अद्वैत खण्डित हो जाता है। और भी मानना पड़ेगा कि व्यवहार की अपेक्षा से अभेद भी मिथ्या होगा, यदि व्यवहार को मिथ्या कहता है तो आनुभविक जगत् की यथार्थता क्योंकि वस्तु-तत्त्व स्वापेक्षा से सत्य होता है किन्तु परापेक्षा से मिथ्या और आचार-दर्शन की सम्भावना निरस्त हो जाती है। कुमारिल ने भी होता है। जिस प्रकार परमार्थ की अपेक्षा से अभेद सत्य है और भेद शंकर के दर्शन में यही दोष दिखाया है। वस्तुत: परमार्थ और व्यवहार मिथ्या है उसी प्रकार व्यवहार की अपेक्षा से भेद सत्य और अभेद सत् के सम्बन्ध में दो दृष्टियाँ हैं, दोनों सत्ता के दो पहलू हैं और दोनों मिथ्या होंगे। शंकर आधी दूर आकर रुक जाते हैं। वे आगे बढ़कर ही यथार्थ हैं। व्यवहार की अपेक्षा से अभेद को मिथ्या कहने का साहस क्यों नहीं हमारा अद्वैतवाद से न तो इसलिए कोई विवाद है कि वह करते? जब परमार्थ की अपेक्षा व्यवहार को असत् कहा जाता है तो हमें पारमार्थिक दृष्टि से अभेद को मानता है, क्योंकि तत्त्व या द्रव्य दृष्टि से यह ध्यान में रखना होगा कि यहाँ उसके असत् का प्रतिपादन परमार्थ अभेद को तो सभी ने स्वीकार किया है। और न इसलिए कोई विरोध
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
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है कि वह व्यावहारिक स्तर पर नैतिकता की धारणा को स्वीकार करता व्यावहारिक स्तर पर होने वाले भेद एवं परिवर्तन भी असत् नहीं कहे है, क्योंकि यह दृष्टिकोण जैन, बौद्ध आदि लगभग सभी प्रमुख दर्शनों जा सकते। भेद भी उतना ही सत्य है, जितना अभेद और ऐसी स्थिति को भी मान्य है। हमारा अगर अद्वैतवाद से कोई विरोध है तो वह मात्र में शंकर के अद्वैतवाद में आचार-दर्शन की सम्भावना स्पष्ट हो जाती है। यही कि अद्वैत व्यवहार को क्यों मिथ्या मानता है? अद्वैत के इस दृष्टिकोण के प्रति हमारा आक्षेप यह है कि असत् व्यवहार से सत् संदर्भ परमार्थ को कैसे प्राप्त किया जा सकता है? असत् नैतिकता सत् परम १. विवेकचूडामणि, अनु० मुनिलाल, गीता प्रेस गोरखपुर, सं० तत्त्व का साक्षात्कार नहीं करा सकती। असत् व्यावहारिक नैतिकता और २००१ माया-निरूपण सत् पारमार्थिक परम तत्त्व में कोई सम्बन्ध ही नहीं बन पाता, क्योंकि २. रामानन्द तिवारी, शंकराचार्य का आचार दर्शन, हिन्दी साहित्य उनमें एक असत् और दूसरा सत् है। लेकिन जब हम व्यवहार और सम्मेलन, प्रयाग, सं० २००६, पृ० १६-१७ परमार्थ को सत् सम्बन्धी दो दृष्टियाँ मानते हैं तो वे परस्पर सम्बन्धित ३. आप्तमीमांसा, २५ । हो जाती हैं लेकिन जब उनमें से परमार्थ को सत्ता और व्यवहार को ४. Studies in Jain Philosophy, P.V. Research Instiदृष्टि मानते हैं तो वे परस्पर विरोधी एवं असम्बन्धित हो जाती हैं। सत् tute, Varanasi, 1951, P. 178. से ही सत् पाया जा सकता है असत् से सत् नहीं पाया जा सकता। ५. शंकराचार्य का आचार-दर्शन, पृ० ६६-६७ लेकिन यदि विचारपूर्वक देखें तो अद्वैतवाद भी व्यवहार को असत् ६. डा० राधाकृष्णन, भारतीय दर्शन, राजपाल एण्ड सन्स, देहली कहने का साहस नहीं कर सकता क्योंकि उसकी व्यावहारिक सत्ता की १९६६, खण्ड १, पृष्ठ ३११ धारणा माया पर अवलम्बित है और यदि माया असत् नहीं है तो
महापण्डित राहुल सांकृत्यायन के जैनधर्म सम्बन्धी मन्तव्यों की समालोचना
महापण्डित राहुल सांकृत्यायन भारतीय वाङ्मय के विश्रुत किन्तु वह एक आलोचक दृष्टि से ही लिखा गया है, अत: उनके विद्वान् थे। हिन्दी साहित्य की विविध-विधाओं में भारतीय वाङ्मय को व्यक्तित्व को सम्यक् रूप में प्रस्तुत नहीं करता है। महावीर के सम्बन्ध उनका अवदान अविस्मरणीय है। दर्शन के क्षेत्र में राहुलजी ने जितना में दीघनिकाय के आधार पर वे लिखते हैंअधिक पाश्चात्य दर्शनों, विशेष रूप से द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद एवं 'महावीर की मुख्य शिक्षा को बौद्धत्रिपिटक में इस प्रकार बौद्धदर्शन के सम्बन्ध में लिखा, उसकी अपेक्षा जैनदर्शन के क्षेत्र में उद्धृत किया गया है- निर्ग्रन्थ (जैन साधु) चार संवरों (संयमों) से उनका लेखन बहुत ही अल्प है। उनके ग्रन्थ 'दर्शन-दिग्दर्शन' में संवृत्त रहता है। १. निर्ग्रन्थ जल के व्यवहार का वारण करता है, वर्धमान महावीर और अनेकान्तवादी जैन दर्शन, के सम्बन्ध में जो कुछ (जिससे जल के जीव न मारे जावें), २. सभी पापों का वारण करता लिखा है, उसे अथवा बौद्धग्रन्थों में आने वाली जैनधर्म-दर्शन सम्बन्धी है, ३. सभी पापों के वारण करने से वह पाप रहित (धूतपाप) होता समीक्षाओं के हिन्दी अनुवाद को छोड़कर उन्होंने जैनदर्शन के क्षेत्र में है, ४. सभी पापों के वारण में लगा रहता है।... चूँकि निर्ग्रन्थ इन चार कुछ लिखा हो, ऐसा मुझे ज्ञात नहीं। अत: यहाँ जैनदर्शन के क्षेत्र में प्रकार के संवरों से संवृत्त रहता है इसलिए वह-गतात्मा (अनिच्छुक), उनके विचारों की समीक्षा इन्हीं ग्रन्थांशों के आधार पर की गई है। यतात्मा (संयमी) और स्थितात्मा कहलाता है।' (दर्शन-दिग्दर्शन, प्र.
उन्होंने अपने ग्रन्थ 'दर्शन-दिग्दर्शन' में जैन परम्परा का ४९५) उल्लेख विशेषरूप से दो स्थलों पर किया है- एक तो बुद्ध के इस विवरण में महावीर की शिक्षाओं को चातुर्याम संवर समकालीन छः तीर्थंकरों के सन्दर्भ में और दूसरा जैनदर्शन के स्वतन्त्र के रूप में प्रस्तुत करते हुए, उन्होंने जिस चातुर्याम संवर का प्रतिपादन के क्षेत्र में। बौद्धग्रन्थों में वर्णित छ: तीर्थंकरों में वर्द्धमान उल्लेख किया है, वस्तुत: वह चातुर्याम संवर का मार्ग महावीर का महावीर का उल्लेख उन्होंने सर्वज्ञतावादी के रूप में किया है, किन्तु नहीं, पार्श्व का है। परवर्तीकाल में जब पार्श्व की निर्ग्रन्थ परम्परा उन्होंने यह समग्र विवरण बौद्धग्रन्थों के आधार पर ही प्रस्तुत किया है। महावीर की परम्परा में सम्मिलित हो गयी, तो त्रिपिटक संकलनकर्ताओं बुद्ध के समकालीन छ: तीर्थंकरों और विशेष रूप से वर्द्धमान महावीर ने दोनों धाराओं को एक मानकर पार्श्व के विचारों को भी महावीर के सन्दर्भ में यदि वे बौद्धेतर स्रोतों को भी आधार बनाते तो उनके के नाम से ही प्रस्तुत किया। त्रिपिटक के संकलन कर्ताओं की इस साथ अधिक न्याय कर सकते थे। क्योंकि बौद्धग्रन्थों में महावीर का जो भ्रान्ति का अनुसरण राहुलजी ने भी किया और अपनी ओर से चित्रण निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र (नातपुत्त) के रूप में है उसमें सत्यांश तो है, टिप्पणी के रूप में भी इस भूल के परिमार्जन का कोई प्रयत्न नहीं
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किया। जबकि उनके सहकर्मी बौद्धभिक्षु जगदीश काश्यपजी ने इस सासनानुलोम पि अत्थि, असुद्धलद्धितायन सब्बा दिट्ठयेव जाता।भूल के परिमार्जन का प्रयत्न दीघनिकाय की भूमिका में विस्तार से सुमंगल विलासिनी अट्टकथा (पृ. १८९) ऐसा कहने पर भन्ते। किया है, वे लिखते हैं- 'सामअयफलसुत्त' में वर्णित छ: तैर्थिकों निगण्ठनाथपुत्त ने यह उत्तर दिया- महाराज! निगण्ठ चार संवरों से के मतों के अनुसार, वे अपने-अपने साम्प्रदायिक संगठनों के केन्द्र संवृत्त रहता है। महाराज! निगण्ठ चार संवरों से कैसे संवृत रहता है? अवश्य रहे होंगे। इनके अवशेष खोजने के लिए देश के वर्तमान महाराज! १. निगण्ठ जल के व्यवहार का वारण करता है (जिसमें जल धार्मिक-जीवन में खोज करना सार्थक होगा। कम से कम 'निगण्ठ- के जीवन मारे जावें), २. सभी पापों का वारण करता है, ३. सभी नातपुत्त' से हमलोग निश्चित रूप से परिचित हैं। वे जैनधर्म के पापों के वारण करने से धूतपाप होता है, ४. सभी पापों के वारण करने अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर ही हैं। पालि-संस्करण में वे ही में लगा रहता है। महाराज निगण्ठ इस प्रकार चार संवरों से संवृत रहता 'चातुर्याम संवर' सिद्धान्त के प्रवर्तक कहे जाते हैं। सम्भवत: ऐसा है। महाराज निगण्ठ इन चार प्रकार के संवरों से संवृत रहता है, भूल से हो गया है। वास्तव में 'चातुर्याम-धर्म' के प्रवर्तक उनके इसीलिए वह निर्ग्रन्थ, गतात्मा, यतात्मा और स्थितात्मा कहलाता है।' पूर्ववर्ती तीर्थंकर पार्श्वनाथ थे- सव्वातो पाणातिवायाओ वेरमणं वस्तुत: यहाँ राहुल जी जिन्हें चातुर्याम संवर कह रहे हैं, वे एवं मुसावायाओ वेरमणं, सव्वातो अदिनादाणाओ वेरमणं, सव्वातो चातुर्याम संवर न होकर निर्ग्रन्थ साधक चातुर्याम संवर का पालन किस बहिद्धादाणाओ वेरमणं (ठाणांग (ठाण ४), पृ. २०१, सूत्र २६६. प्रकार करता है उसके सम्बन्ध में उल्लेख है। मेरी दृष्टि में यहाँ “कथं"
उपर्युक्त वर्णित 'चातुर्याम संवर' सिद्धान्त में परिग्गहवेरमणं का अर्थ कौन से न होकर किस प्रकार है चातुर्याम के रूप में जैनागमों नामक एक और व्रत जोड़कर पार्श्वनाथ के परवर्ती तीर्थंकर महावीर ने में जिनका विवरण प्रस्तुत किया गया है वे निम्न हैं'पंचमहाव्रत-धर्म' का प्रवर्तन किया। ज्ञातव्य है कि यहाँ काश्यपजी से १. प्राणातिपात विरमण भी भूल हो गयी है वस्तुत: महावीर ने परिग्रह विरमण नहीं, मैथुनविरमण २. मृषावाद विरमण या ब्रह्मचर्य का महाव्रत जोड़ा था। 'बहिद्धादाण' का अर्थ तो परिग्रह है ३. अदत्तादान विरमण ही। पार्श्व स्त्री को भी परिग्रह ही मानते थे।
४. बहिर्दादान विरमण (परिग्रह त्याग) यह भी विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि जिस रूप में
जैन आगम स्थानांग, समवायांग आदि में चातुर्याम संवर का पालि में 'चातुर्यामसंवर' सिद्धान्त का उल्लेख मिलता है, वैसा जैन उल्लेख इसी रूप में मिलता है। साहित्य में कहीं भी उपलब्ध नहीं होता। पालि में यह इस प्रकार वर्णित दीघनिकाय के इस अंश का जो अर्थ राहुलजी ने किया है है- 'सब्बवारिवारित्त च होति, सब्बवारियुत्तो च, सब्बवारिधुतो च, वह भी त्रुटिपूर्ण है। प्रथमत: यहाँ वारि शब्द का अर्थ जल न होकर सब्बवारिफुटो' और इसका अर्थ भी स्पष्ट ज्ञात नहीं होता। इसे देखकर वारण करने योग्य अर्थात् पाप है। सूत्रकृतांग में वीरस्तुति में महावीर यह ज्ञात होता है कि सम्भवत: यह तोड़-मरोड़ के ही कारण है।' को 'वारिय सव्ववारं' (सूत्रकृतांग, १/६/२८) कहा गया है। यहाँ 'वार' (दीघनिकाय-नालंदा संस्करण, प्रथम भाग की भूमिका, पृ.१३-१४) शब्द 'पाप' के अर्थ में ही है, जल के अर्थ में नहीं है। पुन: जैन मुनि अत: राहुलजी ने चार संवरों का उल्लेख जिस रूप में किया है, वह मात्र सचित्तजल (जीवनयुक्त जल) के उपयोग का त्याग करता है,
और दीघनिकाय के इस अंश का जो हिन्दी अनुवाद राहुलजी ने किया सर्वजल का नहीं। अत: सुमंगलविलासिनी अट्ठकथाकार एवं राहुलजी है वह भी, निर्दोष नहीं है। दीघनिकाय का वह मूलपाठ, उसकी द्वारा यहाँ वारि या जल अर्थ करना अयुक्तिसंगत है। क्योंकि एक अट्ठकथा और अनुवाद इस प्रकार है- “एवं वुत्ते, भन्ते, निगण्ठो. वाक्यांश में 'वारि' का अर्थ जल करना और दूसरे में उसी 'वारि' शब्द नाटपुत्तो मं एतदवोच- इध महाराज, निगण्ठो चातुयामसंवरसंवुतो होति? का अर्थ 'पाप' करना समीचीन नहीं है। चूँकि निर्ग्रन्थ सचित्त (जीवनमहाराज निगण्ठो कथं च महाराज निगण्ठो चातुयाम संवरोसंवुतो होति? युक्त) जल के त्यागी होते थे, स्नान नहीं करते थे वस्त्र नहीं धोते थे। इध सब्बवारिवारितो च होति, सब्बवारियुततो च, सब्बवारिधुतो च, अत: इन्हीं बातों को आधार मानकर यहाँ 'सव्ववारिवारितो' का अर्थ सब्बवारिफटो च एवं खो, महाराज, निगण्ठो चातुयामसंवरसंवतो जल का त्याग करते हैं, यह मान लिया गया, किन्तु स्वयं सुमंगल झोति- अयं वुच्चाति, महाराज निगण्ठो गतत्तो च यतत्तो च ठितत्तो विलासिनी टीका या अट्ठकथा में भी स्पष्ट उल्लेख है कि निर्ग्रन्थ मात्र चा ति (दीघनिकाय २/५/२८) नाटपुत्तपादे चातुयामसंवरसंवुतो हि सचित्त जल का त्यागी होता है, सर्वजल का नहीं, अत: वारि का अर्थ चतुकोट्ठासेन संवरेन संवुतो। सब्बवारितो चाति वारितसब्बउदको जल करना उचित नहीं है। दीघनिकाय की अट्ठकथा में 'वारि' का जो पटिक्खित्तसब्बसीतोदको ति अत्थो। सो किर सीतोदके सत्तसंज्ञ भ्रान्त अर्थ जल किया गया था, राहुलजी का यह अनुवाद भी उसी पर होति, तस्मा न तं वलजेति। सब्बवारियुत्तो ति सब्बेन पापवारणेन आधारित है। अत: इस भ्रान्त अर्थ करने के लिये राहुलजी उतने दोषी युत्तो। सब्बवारिधुतो ति सब्बेन पापवारणेन धुतपापो। सब्बवारिफुटो ति नहीं हैं, जितने सुमंगलविलासिनी के कर्ता। सम्भवतः निर्ग्रन्थों ने सब्बेन पापवारणेन फुट्ठो। गतत्तो ति कोटिप्पत्तचित्तो। यतत्तो ति संयतचित्तो। जलीय जीवों की हिंसा से बचने के लिये जल के उपयोग पर जो ठितत्तो (दी.नि. १.५०) ति सुप्पतिट्ठितचित्तो। एतस्स वादे किंचि प्रतिबन्ध लगाये गये थे, उसी से अर्थ और टीका में यह भ्रान्ति हुई
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है। आगे इसी क्रम में उन्होंने स्वयं 'वारि' का अर्थ 'पाप' करके सर्व पापों से अस्पर्शित होता है। यहाँ भी राहलजी ने अर्थ की संगति सब्बवारियुत्तो का अर्थ वह सब पापों का वारण करता है, किया है। बैठाने का जो प्रयास किया है वह उचित तो है। किन्तु मूल पाठ एवं किन्तु यह अर्थ मूलपाठ के अनुरूप नहीं है, क्योंकि यहाँ वारि का अर्थ अट्ठकथा (टीका) के सम्बन्ध में उनकी और कोई टिप्पणी नहीं होना पाप करके भी युत्तो का अर्थ वारण करना किया गया है, वह पाठक के लिये एक समस्या बन जाती है। मेरी दृष्टि में दीघनिकाय के समुचित नहीं है, क्योंकि पालि कोशों के अनुसार युत्तो शब्द का अर्थ उस समग्र अंश का पाठ शुद्धि के पश्चात् वास्तविक अर्थ इस प्रकार किसी भी स्थिति में 'वारण' नहीं हो सकता है। कोश के अनुसार तो होना चाहिये- 'हे महाराज, निर्ग्रन्थ चातुर्याम संवर से संवृत होता है, इस युत्त का अर्थ लिप्त होता है, अत: इस वाक्यांश का अर्थ होगा- वह चातुर्याम संवर से किस प्रकार संवृत होता है? हे महाराज! निर्ग्रन्थ वह सर्व पापों से युक्त या लिप्त होता है- जो निश्चय ही इस प्रसंग सब पापों का वारण करता है। वह सर्वपापों के प्रति संयत या उसका में गलत है। मेरी दृष्टि में यहाँ मूलपाठ में भ्रान्ति है- सम्भवतः नियन्त्रण करने वाला होता है। वह सभी पापों से रहित (धूत) और सभी मूलपाठ ‘युत्तो' न होकर 'यतो' होना चाहिए। क्योंकि मूलपाठ में आगे पापों से अस्पर्शित होता है। निम्रन्थ के लिये 'यतो' विशेषण का प्रयोग हुआ है, जो 'यतो' पाठ की
इसी प्रसंग में आदरणीय राहुलजी ने महावीर को सर्वज्ञतावादी पुष्टि करता है। यदि हम मूलपाठ 'युत्तो' ही मानते हैं तो उसे 'अयुत्तो कहा है (दर्शन-दिग्दर्शन, पृ. ४९४) यह सत्य है कि महावीर को मानकर वारिअयत्तो की संधि प्रक्रिया में 'अङ्ग का लोप मानना होगा। प्राचीनकाल से ही 'सर्वज्ञ' कहा जाता था। आचारांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध प्राकृत व्याकरण और सम्भवतः पालि व्याकरण में भी स्वर-सन्धि के के पन्द्रहवें अध्याय में उन्हें सर्वप्रथम सर्वज्ञ (सव्वन्नू) कहा गया हैनियमों में दो स्वरों की सन्धि में विकल्प से एक स्वर का लोप माना किन्तु प्राचीनकाल में जैन परम्परा में सर्वज्ञ का अर्थ आत्मज्ञ ही होता जाता है। अत: मूल पाठ 'अयुत्तो' होना चाहिये, किन्तु सुमंगलविलासिनी था। आचारांग के-जे एर्ग जाणई ते सव्वं जाणई एवं भगवती के में ऐसा कोई निर्देश नहीं है। (पठमो भागो, पृ.१८९), अपितु उसमें केवलि सिय जाणइ सिय ण जाणइ'- पाठ से तथा कुन्दकुन्द के संधि तोड़कर 'युत्तो' पाठ ही है। किन्तु यतो पाठ मानने पर इस अंश इस कथन से 'केवलि निश्चय नय से केवल आत्मा को जानता है'का अर्थ होगा, वह सब पापों के प्रति संयमवान् या उनका नियंत्रण इसी तथ्य की पुष्टि होती है। सर्वज्ञ का यह अर्थ है कि वह सर्वद्रव्यों करने वाला होता है। अत: राहुलजी का यह अनुवाद भी मेरी दृष्टि में एवं पर्यायों का त्रिकाल ज्ञाता होता है, परवर्तीकाल में निर्धारित हुआ। मूलपाठ से संगतिपूर्ण नहीं है, फिर भी उन्होंने वह सर्वपापों का वारण आगे चलकर सर्वज्ञ का यही अर्थ रूढ़ हो गया और सर्वज्ञ के इसी करता है, ऐसा जो अर्थ किया है, वह सत्य के निकट है। मूलपाठ व्युत्पत्तिपरक अर्थ को मानकर बौद्ध त्रिपिटक में उनकी सर्वज्ञता की भ्रान्त और टीका के अस्पष्ट होते हुए भी, उन्होंने यह अर्थ किस आधार निन्दा भी की गई। 'सर्वज्ञ' या 'केवलि' शब्द के प्राचीन पारिभाषिक पर किया मैं नहीं जानता, सम्भवत: यह उनकी स्वप्रतिभा से ही प्रसूत एवं लाक्षणिक अर्थ के स्थान पर इस व्युत्पत्तिमूलक अर्थ पर बल देने हुआ होगा। फिर भी पालि के विद्वानों को इस समस्या पर विचार से ही यह भ्रान्ति उत्पन्न हुई है। किन्तु यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना बुद्ध और करना चाहिए। इसके आगे सब्बवारिधुतो का अर्थ-वह सभी पापों से महावीर दोनों के साथ घटित हुई, जो बुद्ध सर्वज्ञतावाद के आलोचक रहित होता है- संगतिपूर्ण है। किन्तु आगे सब्बवारिफुटो का अर्थ रहे, उन्हें भी परवर्ती बौद्ध साहित्य में उसी अर्थ में सर्वज्ञ मान लिया पुनः मूल से संगति नहीं रखता है। राहुलजी ने इसका अर्थ वह सभी गया है, जिस अर्थ में परवर्ती जैन परम्परा में तीर्थंकरों को और न्याय पापों के वारण में लगा रहता है-किस प्रकार किया, मैं नहीं समझ परम्परा में ईश्वर को सर्वज्ञ कहा गया है। वास्तविक रूप में प्राचीनकाल पा रहा हूँ। क्योंकि किसी भी स्थिति में 'फुटों' का अर्थ-वारण करने में में महावीर को उस अर्थ में सर्वज्ञ नहीं कहा जाता था, जिस अर्थ में लगा रहता है, नहीं होता है। पालि के विद्वान् इस पर भी विचार करें। पालित्रिपिटक व परवर्ती जैन साहित्य में उन्हें सर्वज्ञ कहा गया है। मूल के फुटो अथवा सुमंगलविलासिनी टीका के फुटो का संस्कृत रूप दुर्भाग्य से राहुल जी ने भी सर्वज्ञ का यही परवर्ती अर्थ ले लिया है। स्पृष्ट या स्पष्ट होगा। इस आधार पर इसका अर्थ होगा वह सब पापों जबकि सर्वज्ञ का प्राचीन अर्थ तो जैन परम्परा में आत्मज्ञ और बौद्ध से स्पृष्ट अर्थात् स्पर्शित या व्याप्त होता है, किन्तु यह अर्थ भी परम्परा में हेय, ज्ञेय और उपादेय का ज्ञाता ही रहा है। संगतिपूर्ण नहीं लगता है-निम्रन्थ ज्ञातृपुत्र स्वयं अपने निर्ग्रन्थों को राहुल जी का यह कथन भी किसी सीमा तक सत्य है कि सब पापों से स्पर्शित तो नहीं कह सकते हैं। यहाँ भी राहुल जी ने अर्थ जैनधर्म में प्रारम्भ से ही शारीरिक कार्मों की प्रधानता पर एवं शारीरिक को संगतिपूर्ण बनाने का प्रयास तो किया, किन्तु वह मूलपाठ के साथ तपस्या पर बल दिया गया है (दर्शन-दिग्दर्शन, पृ.४९५-४९६)। संगति नहीं रखता है। पालि अंग्रेजी कोश में राइसडेविड्स ने भी इन किन्तु उनकी इस धारणा का आधार भी बौद्धत्रिपिटक साहित्य में दोनों शब्दों के अर्थ निश्चय में कठिनाई का अनुभव किया है। मेरी दृष्टि महावीर के जीवन और दर्शन का जिस रूप में प्रस्तुतिकरण हुआ है में यहाँ भी या तो मूलपाठ में कोई प्रान्ति है या पालि व्याकरण के स्वर वही है- यहाँ भी उन्होंने जैन आगमों को देखने का प्रयास नहीं किया संधि के नियम से 'अफुटो' के 'अ का लोप हो गया है। मेरी दृष्टि में है। वास्तविकता तो यह है कि जैनदर्शन भी बौद्धों के समान ही मूलपाठ होना चाहिए- सब्बवारिअफुटो, तभी इसका अर्थ होगा वह मानसकर्म को ही प्रधान मानता है, फिर भी इतना अवश्य सत्य है। कि
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२२९ वह कायिककर्म या कायिकसाधना को मानसिककर्म की अनिवार्य पाँच तत्त्वों का उल्लेख किया है वे हैं- जीव, अजीव, धर्म, आकाश फलश्रुति मानता है वह कहता है कि जो विचार में होता है वही आचार और पुद्गल। इसमें अजीव को निरर्थक रूप में जोड़ा है और 'अधर्म' में होता है। विचार (मानसकर्म) और आचार (कायिककर्म) का द्वैत उसे को छोड़ दिया है, धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल सभी अजीव ही मान्य नहीं है। विचार से कुछ और आचार में कुछ, इसे जैनधर्म आत्म माने गये हैं। प्रवञ्चना मानता है, मन से सत्य को समझते हुए अन्यथा रूप में
जैनधर्म के सम्बन्ध में राहुलजी की यह टिप्पणी कि उनकी आचरण करना पाप है। मन में अहिंसा और करुणा तथा व्यवहार में पृथ्वी, जल आदि के जीवों की अहिंसा के विचार ने जैनधर्म के क्रूरता या हिंसा यह छलना ही है।
अनुयायियों को कृषि के विमुख कर वणिक् बना दिया। वे उत्पादक राहुलजी की यह टिप्पणी भी सत्य है कि महावीर ने स्वयं श्रम से हटकर परोपजीवी हो गये। उनका यह मन्तव्य भी किसी अपने जीवन में और जैनसाधना में शारीरिक तपों को आवश्यक माना सीमा तक उचित तो है- किन्तु पूर्णतः सत्य नहीं है। आज भी है। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि महावीर मात्र देह-दण्डन या बुन्देलखण्ड, मेवाड़, महाराष्ट्र और कर्नाटक में जैनजातियाँ कृषि पर आत्म-पीड़न के समर्थक थे। उन्होंने उत्तराध्ययन में तप के बाह्य और आधारित हैं और उन्हें कृषिकर्म करते हुए देखा जा सकता है। आभ्यन्तर ऐसे दो पक्ष माने थे और दोनों पर ही समान बल दिया था। प्राचीन आगम भगवतीसूत्र से इस प्रश्न पर कि कृषिकर्म में कृमि स्वाध्याय, सेवा और ध्यान भी उनकी दृष्टि में तप के ही महत्त्वपूर्ण अंग आदि की हिंसा की जो घटना घटित हो जाती है, उसके लिये गृहस्थ हैं। अत: राहुलजी का महावीर को मात्र शारीरिक पक्ष पर बल देने वाला उत्तरदायी है या नहीं, गंभीर रूप से विचार हुआ है। उसमें यह माना
और आभ्यन्तर पक्ष की अवहेलना कर लेने वाला, मानना-समुचित गया है कि कोई भी गृहस्थ की जाने वाली हिंसा का उत्तरदायी होता नहीं है।
है, हो जाने वाली हिंसा का नहीं। कृषि करते हए जो प्राणीहिंसा हो अनेकान्तवादी जैनदर्शन के सम्बन्ध में उनकी यह टिप्पणी है जाती है, उसके लिये गृहस्थ उत्तरदायी नहीं है। इसी प्रकार जैनों का कि अनेकान्त और स्याद्वाद का विकास संजय वेलट्ठीपुत्त के विक्षेपवाद अहिंसा का सिद्धान्त व्यक्ति को कायर या भगोड़ा नहीं बनाता है। से हुआ, भी पूर्णत: सत्य नहीं है (दर्शन-दिग्दर्शन, पृ. ५९५)। वह गृहस्थ के लिये आक्रामक हिंसा का निषेध करता है, सुरक्षात्मक वस्तुत: संजय के विक्षेपवाद का,बौद्धों के विभज्यवाद एवं शून्यवाद का हिंसा (विरोधी-हिंसा) का नहीं। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनधर्म
और जैनों के अनेकान्तवाद और स्याद्वाद का विकास औपनिषदिक के सम्बन्ध में राहुलजी के मन्तव्य आंशिक सत्य होकर भी अपूर्ण चतुष्कोटियों और विभज्यवादी दृष्टिकोण से हुआ है।
या एकांगी है। क्योंकि उन्होंने इस सम्बन्ध में जैन-स्रोतों की खोजदर्शन-दिग्दर्शन (पृ.५९७) में एक स्थल पर उन्होंने जैनधर्म बीन का प्रयत्न नहीं किया है। के जिन पाँच तत्त्वों का उल्लेख किया वह भी भ्रान्त है- उन्होंने जिन
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जैनदर्शन और आधुनिक विज्ञान
यह सत्य है कि आधुनिक विज्ञान की प्रगति के परिणामस्वरूप विभिन्न धर्मों और दर्शनों की लोक के स्वरूप एवं सृष्टि सम्बन्धी तथा खगोल- भूगोल सम्बन्धी अनेक प्राचीन मान्यताओं पर प्रश्न चिह्न लग गये हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि कुछ प्रबुद्ध जनों ने वैज्ञानिक मान्यताओं को चरम सत्य स्वीकार करके विविध धर्मों की परम्परागत मान्यताओं को काल्पनिक एवं अप्रामाणिक बताना प्रारम्भ कर दिया। फलस्वरूप अनेक धर्मानुयायिओं की श्रद्धा को ठेस पहुँची और आप्त पुरुषों के वचन या सर्वज्ञ के कथन में अथवा आगमों के आप्तप्रणीत होने में उन्हें सन्देह होने लगा। इस सम्बन्ध में अनेक पत्र-पत्रिकाओं में गवेषणापरक लेखों के माध्यम से पर्याप्त उहापोह भी हुआ और दोनों पक्षों ने अपनी बात को युक्तिसंगत सिद्ध करने का प्रयत्न किया। विशेष रूप यह बात तब अधिक विवादास्पद विषय बन गई, जब पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने चन्द्रमा की सफल यात्रा कर ली और उस सम्बन्ध में अनेक ऐसे ठोस प्रमाण प्रस्तुत कर दिए, जो विभिन्न धर्मों की खगोल- भूगोल सम्बन्धी मान्यताओं के विरोध में जाते हैं।
यह सत्य है कि विज्ञान के माध्यम से धर्म के क्षेत्र में अन्धविश्वास एवं मिथ्या धारणायें समाप्त हुई हैं, किन्तु जो लोग वैज्ञानिक निष्कर्षो को चरम सत्य मानकर धर्म व दर्शन के निष्कर्षो पर और उनकी उपयोगिता पर चिह्न लगा रहे हैं वे भी किसी प्रान्ति में हैं यह एक सुस्पष्ट तथ्य है कि कालक्रम में पूर्ववर्ती अनेक वैज्ञानिक धारणायें अवैज्ञानिक बन चुकी है। न तो विज्ञान और न प्रबुद्ध वैज्ञानिक इस बात का दावा करते है कि हमारे जो निष्कर्ष है वे अन्तिम सत्य हैं। जैसे-जैसे वैज्ञानिक ज्ञान में प्रगति हो रही है वैसे-वैसे वैज्ञानिकों की ही पूर्व स्थापित मान्यताएं निरस्त होकर नवीन नवीन निष्कर्ष एवं मान्यताएं सामने आ रही हैं। अतः आज न तो विज्ञान से भयभीत होने की आवश्यकता है और न पूर्ववर्ती मान्यताओं को पूर्णतः निरर्थक या काल्पनिक कहकर अस्वीकार कर देने में कोई औचित्य है। उचित यही है कि धर्म और दर्शन के क्षेत्र में जो मान्यताएं निर्विवाद रूप से विज्ञानसम्मत सिद्ध हो रही हैं, उन्हें स्वीकार कर लिया जाय, शेष को भावी वैज्ञानिक परीक्षणों के लिए परिकल्पना के रूप में मान्य किया जाय। क्योंकि धर्मग्रन्थों में उल्लिखित जो घटनाएं एवं मान्यताएं कुछ वर्षों पूर्व तक कपोल कल्पित लगती थीं वे आज विज्ञानसम्मत सिद्ध हो रही हैं। सौ वर्ष पूर्व धर्मग्रन्थों में उल्लिखित आकाशगामी विमानों की बात अथवा दूरस्थ ध्वनियों को सुन पाने और दूरस्थ घटनाओं को देख पाने की बात काल्पनिक लगती थी, किन्तु आज वे यथार्थ बन चुकी हैं।
जैनधर्म की ही ऐसी अनेक मान्यतायें हैं, जो कुछ वर्षों पूर्व तक अवैज्ञानिक व पूर्णतः काल्पनिक लगती थी, आज विज्ञान से प्रमाणित हो रही है। उदाहरण के रूप में प्रकाश, अन्धकार, ताप,
छाया और शब्द आदि पौद्गलिक है- जैन आगमों की इस मान्यता पर कोई विश्वास नहीं करता था, किन्तु आज उनकी पौद्गलिकता सिद्ध हो चुकी है। जैन आगमों का यह कथन है कि शब्द न केवल पौद्गलिक है, अपितु वह ध्वनि रूप में उच्चरित होकर लोकान्त तक की यात्रा करता है, इस तथ्य को कल तक कोई भी स्वीकार नहीं करता था किन्तु आधुनिक वैज्ञानिक खोजों ने अब इस तथ्य को सिद्ध कर दिया है कि प्रत्येक ध्वनि उच्चरित होने के बाद अपनी यात्रा प्रारम्भ कर देती है और उसकी यह यात्रा, चाहे अत्यन्त क्षीण रूप में ही क्यों न हो, लोकान्त तक होती है। जैनों की केवलज्ञान सम्बन्धी यह अवधारणा कि केवली या सर्वज्ञ समस्त लोक के पदार्थों को हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष रूप से जानता है अथवा अवधिज्ञान सम्बन्धी यह अवधारणा कि अवधिज्ञानी चर्म चक्षु के द्वारा ग्रहीत नहीं हो रहे दूरस्थ विषयों का सीधा प्रत्यक्षीकरण कर लेता है— कुछ वर्षों पूर्व तक यह सब कपोलकल्पना ही लगती थी, किन्तु आज जब टेलीविजन का आविष्कार हो चुका है, यह बात बहुत आश्चर्यजनक नहीं रही है। जिस प्रकार से ध्वनि की यात्रा होती है उसी प्रकार से प्रत्येक भौतिक पिण्ड से प्रकाशकिरणें परावर्तित होती हैं और वे भी ध्वनि के समान ही लोक में अपनी यात्रा करती हैं तथा प्रत्येक वस्तु या घटना का चित्र विश्व में संप्रेषित कर देती हैं आज यदि मानव मस्तिष्क में टेलीविजन सेट की ही तरह चित्रों को ग्रहण करने की सामर्थ्य विकसित हों जायें, तो दूरस्थ पदार्थों एवं घटनाओं के हस्तामलकवत् ज्ञान में कोई बाधा नहीं रहेगी, क्योंकि प्रत्येक पदार्थ से प्रकाश व छाया के रूप में जो किरण परावर्तित हो रही हैं, वे तो हम सबके पास पहुंच ही रही हैं। आज यदि हमारे चैतन्य मस्तिष्क की ग्रहण सामर्थ्य विकसित हो जाय, तो दूरस्थ विषयों का ज्ञान असम्भव नहीं है। इससे यह स्पष्ट होता है कि प्राचीन धार्मिक कहे जाने वाले साहित्य में भी बहुत कुछ ऐसा है, जो या तो आज विज्ञानसम्मत सिद्ध हो चुका है अथवा जिसके विज्ञानसम्मत सिद्ध होने की सम्भावना अभी पूर्णतः निरस्त नहीं हुई है।
अनेक आगम-वचन या सूत्र ऐसे है, जो कल तक अवैज्ञानिक प्रतीत होते थे, वे आज वैज्ञानिक सिद्ध हो रहे हैं। मात्र इतना ही नहीं, इन सूत्रों की वैज्ञानिक ज्ञान उनके प्रकाश में है जो व्याख्या की गयी, वह अधिक समीचीन प्रतीत होती है। उदाहरण के रूप में परमाणुओं के पारस्परिक बन्धन से स्कन्ध के निर्माण की प्रक्रिया को समझाने हेतु तत्त्वार्थ सूत्र के पाँचवें अध्याय का एक सूत्र आता है— स्निग्धरूक्षत्वाद बन्धः इसमें स्निग्ध और रूक्ष परमाणुओं के एक दूसरे से जुड़कर स्कन्ध बनाने की बात कही गयी है। सामान्य रूप से इसकी व्याख्या यह कहकर ही की जाती थी, कि स्निग्ध (चिकने) एवं रूक्ष (खुरदुरे) परमाणुओं में बन्ध होता है, किन्तु आज जब हम इस सूत्र की वैज्ञानिक व्याख्या करते हैं कि स्निग्ध अर्थात् घनात्मक विद्युत् से आवेशित एवं
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जैनदर्शन और आधुनिक विज्ञान
रूक्ष अर्थात् ऋणात्मक विद्युत् से आवेशित सूक्ष्म कण जैन दर्शन की भाषा में परमाणु परस्पर मिलकर स्कन्ध (Molecule) का निर्माण करते हैं, तो तत्त्वार्थसूत्र का यह सूत्र अधिक विज्ञानसम्मत प्रतीत होता है। इसी प्रकार आचारांग सूत्र में वानस्पतिक जीवन की प्राणीय जीवन से जो तुलना की गई है, वह आज अधिक विज्ञानसम्मत सिद्ध हो रही है । आचारांग का यह कथन कि वानस्पतिक जगत् में उसी प्रकार की संवेदनशीलता है जैसी प्राणी जगत् में इस तथ्य को सामान्यतया पाश्चात्य वैज्ञानिकों की आधुनिक खोजों के पूर्व सत्य नहीं माना जाता था, किन्तु सर जगदीशचन्द बसु और अन्य जैव-वैज्ञानिकों ने अब इस तथ्य की पुष्टि कर दी है कि वनस्पति में भी प्राणी जगत् की तरह ही संवेदनशीलता है। अतः आज आचारांग का कथन विज्ञानसम्मत सिद्ध होता है।
हमें यह बात ध्यान में रखना है कि न तो विज्ञान धर्म का शत्रु है और न धार्मिक आस्थाओं को खण्डित करना ही उसका उद्देश्य है, वह जिसे खण्डित करता है वे हमारे तथाकथित धार्मिक अन्धविश्वास होते हैं। साथ ही हमें यह भी समझना चाहिये कि वैज्ञानिक खोजों के परिणामस्वरूप अनेक धार्मिक अवधारणायें पुष्ट ही हुई हैं। अनेक धार्मिक आचार-नियम जो केवल हमारी शास्त्र के प्रति श्रद्धा के बल पर टिके थे, अब उनकी वैज्ञानिक उपयोगिता सिद्ध हो रही है।
जैन परम्परा में रात्रि भोजन का निषेध एक सामान्य नियम है, चाहे परम्परागत रूप में रात्रि भोजन के साथ हिंसा की बात जुड़ी हो, किन्तु आज रात्रि भोजन का निषेध मात्र हिंसा-अहिंसा के आधार पर स्थित न होकर जीव-विज्ञान, चिकित्साशास्त्र और आहारशास्त्र की दृष्टि से अधिक विज्ञानसम्मत सिद्ध हो रहा है। सूर्य के प्रकाश में भोजन के विषाणुओं को नष्ट करने की तथा शरीर में भोजन को पचाने की जो सामर्थ्य होती है, वह रात्रि के अन्धकार में नहीं होती- यह बात अब विज्ञानसम्मत सिद्ध हो चुकी है। इसी प्रकार सूर्यास्त के बाद भोजन चिकित्साशास्त्र की दृष्टि से भी अनुचित माना जाने लगा है। चिकित्सकों ने बताया है कि रात्रि में भोजन के बाद अपेक्षित मात्रा में पानी न ग्रहण करने से भोजन का परिपाक सम्यक् रूप से नहीं होता है। यदि व्यक्ति जल की सम्यक् मात्रा का ग्रहण करने का प्रयास करता है, तो उसे बार-बार मूत्र त्याग के लिए उठना होता है, फलस्वरूप निद्रा भंग होती है। नींद पूरी न होने के कारण वह सुबह देरी से उठता है और इस प्रकार न केवल उसकी प्रातःकालीन दिनचर्या अस्त-व्यस्त हती है, अपितु वह अपने शरीर को भी अनेक विकृतियों का घर बना लेता है।
जैनों में सामान्य रूप से अवधारणा थी कि वे अन्नकण जो अंकुरित हो रहे हैं अथवा किसी वृक्ष आदि का वह हिस्सा जहाँ अंकुरण हो रहा है, वे अनन्तकाय हैं और अनन्तकाय का भक्षण अधिक पापकारी है। आज तक यह एक साधारण सिद्धान्त लगता था, किन्तु आज वैज्ञानिक गवेषणा के आधार पर यह सिद्ध हो रहा है कि जहाँ भी जीवन के विकास की सम्भावनाएं हैं, उसके भक्षण या हिंसा से अनन्त
२३१ जीवों की हिंसा होती है क्योंकि जीवन के विकास की वह प्रक्रिया कितने जीवों को जन्म देगी यह बता पाना भी सम्भव नहीं है, यदि हम उसकी हिंसा करते हैं तो जीवन की जो नवीन सतत् धारा चलने वाली थी, उसे ही हम बीच में अवरुद्ध कर देते हैं। इस प्रकार अनन्त जीवन विनाश के कर्त्ता सिद्ध होते हैं।
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इसी प्रकार मानव का स्वाभाविक आहार शाकाहार है, मांसाहार एवं अण्डे आदि के सेवन से कौन से रोगों की उत्पत्ति होती है आदि तथ्यों की प्रामाणिक जानकारी आधुनिक वैज्ञानिक खोजों के द्वारा ही सम्भव हुई है। आज वैज्ञानिकों और चिकित्साशास्त्रियों ने अपनी खोजों के माध्यम से मांसाहार के दोषों की जो विस्तृत विवेचनाएं की हैं, वे सब जैन आचारशास्त्र कितना वैज्ञानिक है, इसकी ही पुष्टि करते हैं।
इसी प्रकार पर्यावरण की शुद्धि के लिए जैन परम्परा में वनस्पति, जल आदि के अनावश्यक दोहन पर जो प्रतिबन्ध लगाया गया है, वह आज कितना सार्थक है यह बात आज हम बिना वैज्ञानिक खोजों के नहीं समझ सकते। पर्यावरण के महत्व के लिए और उसे दूषित होने से बचाने के लिए जैन आचारशास्त्र की भूमिका कितनी महत्त्वपूर्ण है इसकी पुष्टि आज वैज्ञानिक खोजों के माध्यम से ही सम्भव हो सकी है। आज वैज्ञानिक ज्ञान के परिणामस्वरूप हम धार्मिक आचार सम्बन्धी अनेक मान्यताओं का सम्यक् मूल्यांकन कर सकते हैं और इस प्रकार विज्ञान की खोज धर्म के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकती है। जैन धर्म एवं दर्शन की जो बातें कल तक अवैज्ञानिक सी लगती थीं, आज वैज्ञानिक खोजों के फलस्वरूप सत्य सिद्ध हो रही हैं। अतः विज्ञान को धर्म व दर्शन का विरोधी न मानकर उसका सम्पूरक ही मानना होगा। आज जब हम जैन तत्त्वमीमांसा जैवविज्ञान और आचारशास्त्र की आधुनिक वैज्ञानिक खोजों के परिप्रेक्ष्य में समीक्षा करते हैं, तो हम यही पाते हैं कि विज्ञान ने जैन अवधारणाओं की पुष्टि ही की है।
वैज्ञानिक खोजों के परिणाम स्वरूप जो सर्वाधिक प्रश्न चिह्न लगे हैं वे जैन धर्म की खगोल व भूगोल सम्बन्धी मान्यताओं पर हैं। यह सत्य है कि खगोल व भूगोल सम्बन्धी जैन अवधारणायें आज की वैज्ञानिक खोजों से भिन्न पड़ती है और आधुनिक विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में उनका समीकरण बैठा पाना भी कठिन है। यहाँ सबसे पहला प्रश्न यह है कि क्या जैन खगोल व भूगोल सर्वज्ञ प्रणीत है या सर्वज्ञ की वाणी है? इस सम्बन्ध में पर्याप्त विचार की आवश्यकता है।
सर्वप्रथम तो हमें जान लेना चाहिए कि जैन खगोल व भूगोल संबंधी विवरण स्थानांग, समवायांग एवं भगवती को छोड़कर अन्य अंग-आगमों में कही भी उल्लिखित नहीं हैं। स्थानांग और समवायांग में भी वे सुव्यवस्थित रूप में प्रतिपादित नहीं है, मात्र संख्या के संदर्भ क्रम में उनकी सम्बन्धित संख्याओं का उल्लेख कर दिया गया है। वैसे भी जहाँ तक विद्वानों का प्रश्न है, वे इन्हें संकलनात्मक एवं अपेक्षाकृत परवर्ती ग्रन्थ मानते हैं। साथ ही यह भी मानते हैं कि इनमें समय-समय पर सामग्री प्रक्षिप्त होती रही है, अतः उनका वर्तमान स्वरूप पूर्णतः
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
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जिन-प्रणीत नहीं कहा जा सकता है। जैन खगोल व भूगोल सम्बन्धी और भारतीय इतिहास की दृष्टि से बहुत ही महत्त्व है। फिर भी हमें यह जो अवधारणायें उपलब्ध हैं, उनका आगमिक आधार चन्द्रप्रज्ञप्ति, स्मरण रखना होगा कि आगमों के नाम पर हमारे पास जो कुछ उपलब्ध सूर्यप्रज्ञप्ति एवं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, जिन्हें वर्तमान में उपांग के रूप में है, उसमें पर्याप्त विस्मरण, परिवर्तन, परिवर्धन और प्रक्षेपण भी हआ मान्य किया जाता है, किन्तु नन्दीसूत्र की सूची के अनुसार ये ग्रन्थ है। अत: इस तथ्य को स्वयं अन्तिम वाचनाकार देवर्द्धि ने भी स्वीकार आवश्यक व्यतिरिक्त अंग बाह्य आगमों में परिगणित किये जाते हैं। किया है। अत: आगम वचनों में कितना अंश जिन वचन है- इस परम्परागत दृष्टि से अंग-बाह्य आगमों के उपदेष्टा एवं रचयिता जिन न सम्बन्ध में पर्याप्त समीक्षा, सतर्कता और सावधानी आवश्यक है। होकर स्थविर ही माने गये हैं और इससे यह फलित होता है कि ये आज दो प्रकार की अतियाँ देखने में आती है- एक अति । ग्रन्थ सर्वज्ञ प्रणीत न होकर छद्यस्थ जैन आचार्यों द्वारा प्रणीत हैं। अत: यह है कि चाहे पन्द्रहवीं शती के लेखक ने महावीर-गौतम के संवा यदि इनमें प्रतिपादित तथ्य आधुनिक विज्ञान के प्रतिकूल जाते हैं, तो के रूप में किसी ग्रन्थ की रचना की हो, उसे भी बिना समीक्षा के जिन उससे. सर्वज्ञ की सर्वज्ञता पर आँच नहीं आती है। हमें इस भय का वचन के रूप में मान्य किया जा रहा है और उसे ही चरम सत्य माना परित्याग कर देना चाहिए कि यदि हम खगोल एवं भूगोल के सम्बन्ध जाता है- दूसरी ओर सम्पूर्ण आगम साहित्य को अन्धविश्वास में आधुनिक वैज्ञानिक गवेषणाओं को मान्य करेंगे तो उससे जिन की कहकर नकारा जा रहा है। आज आवश्यकता है नीर-क्षीर बुद्धि से सर्वज्ञता पर कोई आंच आयेगी। यहाँ यह भी स्मरण रहे कि सर्वज्ञ या आगम-वचनों की समीक्षा करके मध्यम मार्ग अपनाने की। जिन केवल उपदेश देते हैं ग्रन्थ लेखन का कार्य तो उनके गणधर या
आज न तो विज्ञान ही चरम सत्य है और न आगम के नाम अन्य स्थविर आचार्य ही करते हैं। साथ ही यह भी स्मरण रखना चाहिए पर जो कुछ है वही चरम सत्य है। आज न तो आगमों को नकारने से कि सर्वज्ञ के लिए उपदेश का विषय तो अध्यात्म व आचारशास्त्र ही कुछ होगा और न वैज्ञानिक सत्यों को नकारने से। विज्ञान और आगम होता है खगोल व भूगोल उनके मूल प्रतिपाद्य नहीं है। खगोल व के सन्दर्भ में आज एक तटस्थ समीक्षक बुद्धि की आवश्यकता है। भूगोल सम्बन्धी जो अवधारणायें जैन परम्परा में मिलती हैं वह थोड़े
जैन सृष्टिशास्त्र और जैन खगोल-भूगोल में भी, जहाँ तक अन्तर के साथ समकालिक बौद्ध एवं हिन्दू परम्परा में भी पायी जाती सृष्टिशास्त्र का सम्बन्ध है, वह आधुनिक वैज्ञानिक अवधारणाओं के हैं। अत: यह मानना ही उचित होगा कि खगोल एवं भूगोल सम्बन्धी साथ एक सीमा तक संगति रखता है। जैन सृष्टिशास्त्र के अनुसार
जैन मान्यताएँ आज यदि विज्ञान-सम्मत सिद्ध नहीं होती हैं तो उससे सर्वप्रथम इस जगत् को अनादि और अनन्त माना गया है, किन्तु उसमें न तो सर्वज्ञ की सर्वज्ञता पर आँच आती है और न जैन धर्म की जगत् की अनादि अनन्तता उसके प्रवाह की दृष्टि से है। इसे अनादि आध्यात्मशास्त्रीय, तस्वमीमांसीय एवं आचारशास्त्रीय अवधारणाओं अनन्त इसलिए कहा जाता है कि कोई भी काल ऐसा नहीं था जब सृष्टि पर कोई खरोंच आती है। सूर्यप्रज्ञप्ति जैसा ग्रन्थ जिसमें जैन आचारशास्त्र नहीं थी या नहीं होगी। प्रवाह की दृष्टि से जगत् अनादि-अनन्त होते और उसकी अहिंसक निष्ठा के विरुद्ध प्रतिपादन पाये जाते हैं, किसी हुए भी इसमें प्रतिक्षण उत्पत्ति और विनाश अर्थात् सृष्टि और प्रलय का भी स्थिति में सर्वज्ञ प्रणीत नहीं माना जा सकता है। जो लोग खगोल- क्रम भी चलता रहता है, दूसरे शब्दों में यह जगत् अपने प्रवाह की भूगोल सम्बन्धी वैज्ञानिक तथ्यों को केवल इसलिए स्वीकार करने से अपेक्षा से शाश्वत होते हुए भी इसमें सृष्टि एवं प्रलय होते रहते हैं कतराते हैं कि इससे सर्वज्ञ की अवहेलना होगी, वे वस्तुत: जैन क्योंकि जो भी उत्पन्न होता है उसका विनाश अपरिहार्य है। फिर भी आध्यात्मशास्त्र के रहस्यों से या तो अनभिज्ञ हैं या उनकी अनुभूति से इसका सृष्टा या कर्ता कोई भी नहीं है। यह सब प्राकृतिक नियम से ही रहित हैं। क्योंकि हमें सर्वप्रथम तो यह स्मरण रखना होगा कि जो शासित है। यदि वैज्ञानिक दृष्टि से इस पर विचार करें तो विज्ञान को आत्म द्रष्टा सर्वज्ञ प्रणीत हैं ही नहीं उसके अमान्य होने से सर्वज्ञ की भी इस तथ्य को स्वीकार करने में आपत्ति नहीं है कि यह विश्व अपने सर्वज्ञता कैसे खण्डित हो सकती है? आचार्य कुन्दकुन्द ने तो स्पष्ट मूल तत्त्व या मूल घटक की दृष्टि से अनादि-अनन्त होते हुए भी इसमें रूप से कहा है कि सर्वज्ञ आत्मा को जानता है, यही यथार्थ/सत्य है। सृजन और विनाश की प्रक्रिया सतत् रूप से चल रही है। यहाँ तक सर्वज्ञ बाह्य जगत् को जानता है यह केवल व्यवहार है। भगवतीसूत्र का विज्ञान व जैनदर्शन दोनों साथ जाते हैं। दोनों इस संबंध में भी एक मत यह कथन भी कि 'केवली सिय जाणइ सिय ण जाणइ'- इस सत्य हैं कि जगत् का कोई सृष्टा नहीं है और यह प्राकृतिक नियम से शासित को उद्घाटित करता है कि सर्वज्ञ आत्म द्रष्टा होता है। वस्तुत: सर्वज्ञ है। साथ ही अनन्त विश्व में सृष्टि-लोक की सीमितता जैन दर्शन एवं का उपदेश भी आत्मानुभूति और आत्म-विशुद्धि के लिए होता है। जिन विज्ञान दोनों को मान्य है। इन मूल-भूत अवधारणाओं में साम्यता के साधनों से हम शुद्धात्मा की अनुभूति कर सके, आत्मशुद्धि या आत्मविमुक्ति होते हुए भी जब हम इनके विस्तार में जाते हैं, तो हमें जैन आगमिक को उपलब्ध कर सके, वही सर्वज्ञ द्वारा प्रतिपाद्य है।
मान्यताओं एवं आधुनिक विज्ञान दोनों में पर्याप्त अन्तर भी प्रतीत यह सत्य है कि आगमों के रूप में हमारे पास जो कुछ होता है। उपलब्ध है उसमें जिन वचन भी संकलित हैं और यह भी सत्य है कि
अधोलोक, मध्यलोक एवं स्वर्गलोक की कल्पना लगभग आगमों का और उनमें उपलब्ध सामग्री का जैनधर्म, प्राकृत साहित्य सभी धर्म-दर्शनों में उपलब्ध होती है, किन्तु आधुनिक विज्ञान के द्वारा
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जैनदर्शन और आधुनिक विज्ञान
२३३ खगोल का जो विवरण प्रस्तुत किया जाता है, उसमें इस प्रकार की कल्पना को स्वीकार नहीं करे, लेकिन वह जीवन एवं उसके विविध कोई कल्पना नहीं है। वह यह भी नहीं मानता है कि पृथ्वी के नीचे रूपों से इंकार नहीं कर सकता है। जीव-विज्ञान का आधार ही जीवन नरक व ऊपर स्वर्ग है। आधुनिक खगोल विज्ञान के अनुसार इस विश्व के अस्तित्व की स्वीकृति पर अवस्थित है। मात्र इतना ही नहीं, अब में असंख्य सौर मण्डल हैं और प्रत्येक सौर मण्डल में अनेक ग्रह-नक्षत्र वैज्ञानिकों ने अतीन्द्रिय ज्ञान तथा पुनर्जन्म के सन्दर्भ में भी अपनी व पृथ्वियां हैं। असंख्य सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र की अवधारणा जैन शोध यात्रा प्रारम्भ कर दी है। विचार सम्प्रेषण या टेलीपैथी का सिद्धान्त परम्परा में भी मान्य है। यद्यपि आज तक विज्ञान यह सिद्ध नहीं कर अब वैज्ञानिकों की रुचि का विषय बनता जा रहा है और इस सम्बन्ध पाया है कि पृथ्वी के अतिरिक्त किन ग्रह-नक्षत्रों पर जीवन पाया जाता में हुई खोजों के परिणाम अतीन्द्रिय-ज्ञान की सम्भावना को पुष्ट करते है, किन्तु उसने इस संभावना से भी इन्कार नहीं किया कि इस ब्रह्माण्ड हैं। इसी प्रकार पुनर्जन्म की अवधारणा के सन्दर्भ में भी अनेक खोजें में अनेक ऐसे ग्रह-नक्षत्र हो सकते हैं जहाँ जीवन की संभावनाएं हैं। हुई हैं। अब अनेक ऐसे तथ्य प्रकाश में आये हैं, जिनकी व्याख्याएं अतः इस विश्व में जीवन केवल पृथ्वी पर है यह भी चरम सत्य नहीं बिना पुनर्जन्म एवं अतीन्द्रिय ज्ञान-शक्ति को स्वीकार किये बिना है। पृथ्वी के अतिरिक्त कुछ ग्रह-नक्षत्रों पर जीवन की संभावनाएं हो सम्भव नहीं हैं। अब विज्ञान जीवन-धारा की निरन्तरता और उसकी सकती हैं। यह भी संभव है कि पृथ्वी की अपेक्षा कहीं जीवन अधिक अतीन्द्रिय शक्तियों से अपरिचित नहीं है, चाहे अभी वह उनकी सुखद एवं समृद्ध हो और कहीं वह विपन्न और कष्टकर स्थिति में हो। वैज्ञानिक व्याख्याएं प्रस्तुत न कर पाया हो। मात्र इतना ही नहीं अनेक अतः चाहे स्वर्ग एवं नरक और खगोल एवं भूगोल सम्बन्धी हमारी प्राणियों में मानव की अपेक्षा भी अनेक क्षेत्रों में इतनी अधिक ऐन्द्रिकअवधारणाओं पर वैज्ञानिक खोजों के परिणाम स्वरूप प्रश्न चिह्न लगें, ज्ञान सामर्थ्य होती है जिस पर सामान्य बुद्धि विश्वास नहीं करती है, किन्तु इस पृथ्वी के अतिरिक्त इस विश्व में कहीं भी जीवन की किन्तु उसे अब आधुनिक विज्ञान ने सिद्ध कर दिया है। अत: इस विश्व संभावना नही है, यह बात तो स्वयं वैज्ञानिक भी नहीं कहते हैं। पृथ्वी में जीवन का अस्तित्व है और वह जीवन अनन्त शक्तियों का पुंज हैके अतिरिक्त ब्रह्माण्ड के अन्य ग्रह-नक्षत्रों पर जीवन की सम्भावनाओं इस तथ्य से अब वैज्ञानिकों का विरोध नहीं है। को स्वीकार करने के साथ ही प्रकारान्तर से स्वर्ग एवं नरक की
जहाँ तक भौतिक तत्त्व के अस्तित्व एवं स्वरूप का प्रश्न है अवधारणायें भी स्थान पा जाती हैं। उड़न तश्तरियों सम्बन्धी जो भी वैज्ञानिकों एवं जैन-आचार्यों में अधिक मतभेद नहीं है। परमाणु या खोजें हुई हैं, उससे इतना तो निश्चित सिद्ध ही होता है कि इस पृथ्वी पुद्गल कणों में जिस अनन्तशक्ति का निर्देश जैन-आचार्यों ने किया के अतिरिक्त अन्य ग्रह-नक्षत्रों पर भी जीवन है और वह पृथ्वी से था वह अब आधुनिक वैज्ञानिक अन्वेषणों से सिद्ध हो रही है। आधुनिक अपना सम्पर्क बनाने के लिए प्रयत्नशील भी है। उड़न-तश्तरियों के वैज्ञानिक इस तथ्य को सिद्ध कर चुके हैं कि एक परमाणु का विस्फोट प्राणियों का यहाँ आना व स्वर्ग से देव लोगों की आने की परम्परागत भी कितनी अधिक शक्ति का सृजन कर सकता है। वैसे भी भौतिक कथा में कोई बहुत अन्तर नहीं है। अत: जो परलोक सम्बन्धी अवधारणा पिण्ड या पुद्गल की अवधारणा ऐसी है जिस पर वैज्ञानिकों एवं जैन उपलब्ध होती है वह अभी पूर्णतया निरस्त नहीं की जा सकती, हो विचारकों में कोई अधिक मतभेद नहीं देखा जाता। परमाणुओं के द्वारा सकता है कि वैज्ञानिक खोजों के परिणाम स्वरूप ही एक दिन पुनर्जन्म स्कन्ध (Molecule) की रचना का जैन सिद्धान्त कितना वैज्ञानिक है, व लोकोत्तर जीवन की कल्पनाएं यथार्थ सिद्ध हो सकें।
इसकी चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं। विज्ञान जिसे परमाणु कहता था, जैन परम्परा में लोक को षड्द्रव्यमय कहा गया है। ये वह अब टूट चुका है। वास्तविकता तो यह है कि विज्ञान ने जिसे षड्द्रव्य निम्न हैं - जीव, धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल एवं काल। परमाणु मान लिया था, वह परमाणु था ही नहीं, वह तो स्कन्ध ही था। इनमें से जीव (आत्मा), धर्म, अधर्म, आकाश व पुद्गल ये पाँच क्योंकि जैनों की परमाणु की परिभाषा यह है कि जिसका विभाजन अस्तिकाय कहे जाते हैं। इन्हें अस्तिकाय कहने का तात्पर्य यह है कि नहीं हो सके, ऐसा भौतिक तत्त्व परमाणु है। इस प्रकार आज हम ये प्रसरित है। दूसरे शब्दों में जिसका आकाश में विस्तार होता है वह देखते हैं कि विज्ञान का तथाकथित परमाणु खण्डित हो चुका है। अस्तिकाय कहलाता है। षड्द्रव्यों में मात्र काल को अनस्तिकाय कहा जबकि जैन-दर्शन का परमाणु अभी वैज्ञानिकों की पकड़ में आ ही नहीं गया है, क्योंकि इसका प्रसार बहुआयामी न होकर एक रेखीय है। यहाँ पाया है। वस्तुत: जैन दर्शन में जिसे परमाणु कहा जाता है उसे हम सर्वप्रथम तो यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि षड्द्रव्यों की जो आधुनिक वैज्ञानिकों ने क्वार्क नाम दिया है और वे आज भी उसकी अवधारणा है वह किस सीमा तक आधुनिक विज्ञान के साथ संगति खोज में लगे हुए हैं। समकालीन भौतिकी-विदों की क्वार्क की परिभाषा रखती है।
यह है कि जो विश्व का सरलतम और अन्तिम घटक है, वही क्वार्क षड्द्रव्यों में सर्वप्रथम हम जीव के सन्दर्भ में विचार करेंगे। है। आज भी क्वार्क को व्याख्यायित करने में वैज्ञानिक सफल नहीं हो चाहे विज्ञान आत्मा की स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार न करता हो, किन्तु पाये हैं। वह जीवन के अस्तित्व से इंकार भी नहीं करता है, क्योंकि जीवन की आधुनिक विज्ञान प्राचीन अवधारणाओं को सम्पुष्ट करने में उपस्थिति एक अनुभूत तथ्य है। चाहे विज्ञान एक अमर आत्मा की किस प्रकार सहायक हुआ है कि उसका एक उदाहरण यह है कि जैन
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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
तत्त्वमीमांसा में एक ओर यह अवधारणा रही है कि एक पुद्गल परमाणु जितनी जगह घेरता है— वह एक आकाश प्रदेश कहलाता है— दूसरे शब्दों में मान्यता यह है कि एक आकाश प्रदेश में एक परमाणु ही रह सकता है किन्तु दूसरी ओर आगमों में यह भी उल्लेख है कि एक आकाश प्रदेश में असंख्यात पुद्गल परमाणु समा सकते हैं। इस विरोधाभास का सीधा समाधान हमारे पास नहीं था। लेकिन विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि विश्व में कुछ ऐसे ठोस द्रव्य है जिनका एक वर्ग इंच का वजन लगभग ८ सौ टन होता है। इससे यह भी फलित होता है कि जिन्हें हम ठोस समझते हैं, वे वस्तुतः कितने पोले हैं। अतः सूक्ष्म अवगाहन शक्ति के कारण यह संभव है कि एक ही आकाश प्रदेश में अनन्त परमाणु भी समाहित हो जायें।
धर्म-द्रव्य एवं अधर्म-द्रव्य की जैन अवधारणा भी आज वैज्ञानिक सन्दर्भ में अपनी व्याख्याओं की अपेक्षाएँ रखती हैं जैन परम्परा में धर्मास्तिकाय को न केवल एक स्वतन्त्र द्रव्य माना गया है, अपितु धर्मास्तिकाय के अभाव में जड़ व चेतन किसी की भी गति संभव नहीं होगी — ऐसा भी माना गया है। यद्यपि जैन दर्शन में धर्मास्तिकाय को अमूर्त द्रव्य कहा गया है, किन्तु अमूर्त होते हुए भी यह विश्व का महत्त्वपूर्ण घटक है। यदि विश्व में धर्म द्रव्य एवं अधर्म जिन्हें दूसरे शब्दों में हम गति व स्थिति के नियामक तत्त्व कह सकते हैं, न होंगे तो विश्व का अस्तित्व ही सम्भव नहीं होगा। क्योंकि जहाँ अधर्म - द्रव्य विश्व की वस्तुओं की स्थिति को सम्भव बनाता है और पुद्गल पिण्डों को अनन्त आकाश में बिखरने से रोकता है, वहीं धर्म-द्रव्य उनकी गति को सम्भव बनाता है। गति एवं स्थति यही विश्व व्यवस्था का मूल आधार है।
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यदि विश्व में गति एवं स्थिति संभव न हो, तो विश्व नहीं हो सकता है। गति के नियमन के लिये स्थिति एवं स्थिति की जड़ता को तोड़ने के लिए गति आवश्यक है। यद्यपि जड़ व चेतन में स्वयं गति करने एवं स्थित रहने की क्षमता है, किन्तु उनकी यह क्षमता कार्य के रूप में तभी परिणत होगी जब विश्व में गति और स्थिति के नियामक तत्त्व या कोई माध्यम हो जैन दर्शन के धर्म द्रव्य व अधर्मं द्रव्य को आज विज्ञान की भाषा में ईधर एवं गुरुत्वाकर्षण की शक्ति के नाम से भी जाना जाता है।
यहाँ यह प्रश्न उठता है कि यदि धर्म द्रव्य नाम की वस्तु है तो उसके अस्तित्व को कैसे जाना जायेगा ? वैज्ञानिकों ने जो ईश्वर की कल्पना की है उसे हम जैन धर्म की भाषा में धर्मद्रव्य कहते हैं । वैज्ञानिकों के अनुसार ईथर को स्वीकार नहीं करते हैं, तो प्रश्न उठता है कि प्रकाश किरणों के यात्रा का माध्यम क्या है? यदि प्रकाश किरणें यथार्थ में किरणें हैं तो उनका परावर्तन किसी माध्यम से ही सम्भव होगा और जिसमें ये प्रकाश किरणें परावर्तित होती हैं, वह भौतिक पिण्ड नहीं, अपितु ईथर ही है। यदि मात्र आकाश हो, किन्तु ईथर न हो तो कोई गति सम्भव नहीं होगी। किसी भी प्रकार की गति के लिए कोई न कोई माध्यम आवश्यक है। जैसे मछली को तैरने के लिए
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जल। इसी गति के माध्यम को विज्ञान ईथर और जैन दर्शन धर्म द्रव्य
साथ ही हम यह भी देखते है कि विश्व में केवल गति ही नहीं नहीं है, अपितु स्थिति भी है। जिस प्रकार गति का नियामक तत्व आवश्यक है, उसी प्रकार से स्थिति का भी नियामक तत्त्व आवश्यक है। विज्ञान इसे गुरुत्वाकर्षण के नाम से जानता है, जैन दर्शन उसे ही अधर्म द्रव्य कहता है व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में अधर्म द्रव्य को विश्व की स्थिति के लिए आवश्यक माना गया है, यदि अधर्म द्रव्य न हो और केवल अनन्त आकाश और गति ही हो तो समस्त पुद्गल पिण्ड अनन्त आकाश में छितर जायेंगे और विश्व व्यवस्था समाप्त हो जायेगी। अधर्म द्रव्य एक नियामक शक्ति है जो एक स्थिर विश्व के लिए आवश्यक है। इसके अभाव में एक ऐसी अव्यवस्था होगी कि विश्व विश्व ही न रह जायेगा। आज जो आकाशीय पिण्ड अपने-अपने यात्रा पथ में अवस्थित रहते है- जैनों के अनुसार उसका कारण अधर्मद्रव्य है, तो विज्ञान के अनुसार उसका कारण गुरुत्वाकर्षण है।
इसी प्रकार आकाश की सत्ता भी स्वीकार करना आवश्यक है, क्योंकि आकाश के अभाव में अन्य द्रव्य किसमें रहेंगे, जैनों के अनुसार आकाश मात्र एक शून्यता नहीं, अपितु वास्तविकता है। क्योंकि लोक आकाश में ही अवस्थित है। अतः जैनाचायों ने आकाश के लोकाकाश और अलोकाकाश ऐसे दो भागों की कल्पना की। लोक जिसमें अवस्थित है वही लोकाकाश है।
इसी अनन्त आकाश के एक भाग विशेष अर्थात् लोकाकाश में अवस्थित होने के कारण लोक को सीमित कहा जाता है, किन्तु उसकी यह सीमितता आकाश की अनन्तता की अपेक्षा से ही है। वैसे जैन आचार्यों ने लोक का परिमाण १४ राजू माना है। जो कि वैज्ञानिकों के प्रकाशवर्ष के समान एक प्रकार का माप विशेष है। यह लोक नीचे चौड़ा, मध्य में पतला पुनः ऊपरी भाग के मध्य में चौड़ा व अन्त में पतला है। इसके आकार की तुलना कमर पर हाथ रखे खडे हुए पुरुष के आकार से की जाती है। इस लोक के अधोभाग में सात नरकों की अवस्थिति मानी गयी है— प्रथम नरक से ऊपर और मध्यलोक से नीचे बीच में भवनपति देवों के आवास हैं इस लोक के मध्य भाग में मनुष्यों एवं तिर्यंचों का आवास है। इसे मध्य लोक या तिर्यक्-लोक कहते हैं । तिर्यक्-लोक के मध्य में मेरु पर्वत है, उसके आस-पास का समुद्र पर्यंत भू-भाग जम्बूद्वीप के नाम से जाना जाता है। यह गोलाकार है । उसे वलयाकार लवण समुद्र घेरे हुए हैं। लवण समुद्र को वलयाकार में घेरे हुए धातकी खण्ड है। उसको वलयाकार में घेरे हुए कालोदधि नामक समुद्र है। उसको पुनः वलयाकार में घेरे हुए पुष्कर द्वीप है। उसके आगे पुनः वलयाकार में पुष्कर समुद्र है। इनके पश्चात् अनुक्रम से एक के बाद एक वलयाकार में एक दूसरे को घेरे हुए असंख्यात द्वीप एवं समुद्र हैं। ज्ञातव्य है कि हिन्दू परम्परा में मात्र सात द्वीपों एवं समुद्रों की कल्पना है, जिसकी जैन आगमों में आलोचना की गई है। किन्तु जहाँ तक मानव जाति का प्रश्न है, वह केवल जम्बूद्वीप, धातकी
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जैनदर्शन और आधुनिक विज्ञान
२३५ खण्ड और पुष्करावर्त द्वीप के अर्धभाग में ही उपलब्ध होती है। उसके जहाँ तक आधुनिक खगोल विज्ञान का प्रश्न है वह भी आगे मानव जाति का अभाव है। इस मध्यलोक या भूलोक से ऊपर अनेक सूर्य व चन्द्र की अवधारणा को स्वीकार करता है। फिर भी सूर्य, आकाश में सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र व तारों के आवास या विमान हैं। चन्द्र आदि के क्रम एवं मार्ग, उनका आकार एवं उनकी पारस्परिक यह क्षेत्र ज्योतिषिक देव क्षेत्र कहा जाता है। ये सभी सूर्य, चन्द्र, ग्रह, दूरी आदि के सम्बन्ध में आधुनिक खगोल-विज्ञान एवं जैन आगमिक नक्षत्र, तारे आदि मेरुपर्वत को केन्द्र बनाकर प्रदक्षिणा करते हैं। इस क्षेत्र मान्यताओं में स्पष्ट रूप से अन्तर देखा जाता है। सूर्य, चन्द्र, ग्रह, के ऊपर श्वेताम्बर मान्यतानुसार क्रमश: १२ अथवा दिगम्बर मतानुसार नक्षत्र एवं तारा गण आदि की अवस्थिति सम्बन्धी मान्यताओं को लेकर १६ स्वर्ग या देवलोक हैं। उनके ऊपर क्रमश: ९ ग्रैवेयक और पाँच भी जैन धर्म दर्शन व आधुनिक विज्ञान में मतैक्य नहीं है। जहाँ अनुत्तर विमान हैं। लोक के ऊपरी अन्तिम भाग को सिद्ध क्षेत्र या आधुनिक खगोल विज्ञान के अनुसार चन्द्रमा पृथ्वी के अधिक निकट लोकाग्र कहते हैं, यहाँ सिद्धों या मुक्त आत्माओं का निवास है। यद्यपि एवं सूर्य दूरी पर है, वहाँ जैन ज्योतिष शास्त्र में सूर्य को निकट व सभी धर्म परम्पराओं में भूलोक के नीचे नरक या पाताल-लोक और चन्द्रमा को दूर बताया गया है। जहाँ आधुनिक विज्ञान के अनुसार ऊपर स्वर्ग की कल्पना समान रूप से पायी जाती है, किन्तु उनकी चन्द्रमा का आकार सूर्य की अपेक्षा छोटा बताया गया वहाँ जैन परम्परा संख्या आदि के प्रश्न पर विभिन्न परम्पराओं में मतभेद देखा जाता है। में सूर्य की अपेक्षा चन्द्रमा को बृहत् आकार माना गया है। इस प्रकार खगोल एवं भूगोल का जैनों का यह विवरण आधुनिक विज्ञान से अवधारणागत दृष्टि से कुछ निकटता होकर भी दोनों में भिन्नता ही कितना संगत अथवा असंगत है? यह निष्कर्ष निकाल पाना सहज नहीं अधिक देखी जाती है। है। इस सम्बन्ध में आचार्य श्री यशोदेवसूरिजी ने संग्रहणीरत्न-प्रकरण जो स्थिति जैन खगोल एवं आधुनिक खगोल विज्ञान सम्बन्धी की भूमिका में विचार किया है। अत: इस सम्बन्ध में अधिक विस्तार में मान्यताओं में मतभेद की स्थिति है, वहीं स्थिति प्राय: जैन भूगोल और न जाकर पाठकों को उसे आचार्य श्री की गुजराती भूमिका एवं हिन्दी आधुनिक भूगोल की है। इस भूमण्डल पर मानव जाति के अस्तित्व की व्याख्या में देख लेने की अनुशंसा करते हैं।
दृष्टि से ढाई द्वीपों की कल्पना की गयी है-जम्बूद्वीप, धातकी खण्ड खगोल-भूगोल सम्बन्धी जैन अवधारणा का अन्य धर्मों की और पुष्करार्ध। जैसा कि हमने पूर्व में बताया है कि जैन मान्यता के अवधारणाओं से एवं आधुनिक विज्ञान की अवधारणा से क्या सम्बन्ध अनुसार मध्यलोक के मध्य में जम्बूद्वीप है, जो कि गोलाकार है, उसके है, यह एक विचारणीय प्रश्न है। इस सम्बन्ध में हमें दो प्रकार के आस-पास उससे द्विगुणित क्षेत्रफल वाला लवणसमुद्र है, फिर लवणसमुद्र परस्पर विरोधी दृष्टिकोण उपलब्ध होते हैं। जहाँ विभिन्न धर्मों में सूर्य, से द्विगुणित क्षेत्रफल वाला वलयाकार धातकी खण्ड है। धातकी खण्ड चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, तारा आदि को देव के रूप में चित्रित किया गया है, के आगे पुनः क्षीरसमुद्र है जो क्षेत्रफल में जम्बूद्वीप से आठ गुणा बड़ा वहीं आधुनिक विज्ञान में वे अनन्ताकाश में बिखरे हुए भौतिक पिण्ड है उसके आगे पुन: वलयाकार में पुष्कर द्वीप है, जिसके आधे भाग ही हैं। धर्म उनमें देवत्व का आरोपण करता है, किन्तु विज्ञान उन्हें मात्र में मनुष्यों का निवास है। इस प्रकार एक दूसरे से द्विगुणित क्षेत्रफल एक भौतिक संरचना मानता है। जैन दृष्टि में इन दोनों अवधारणाओं का वाले असंख्य द्वीप-समुद्र वलयाकार में अवस्थित है। यदि हम जैन एक समन्वय देखा जाता है। जैन विचारक यह मानते हैं कि जिन्हें हम भूगोल की अढ़ाई द्वीप की इस कल्पना को आधुनिक भूगोल की दृष्टि सूर्य, चन्द्र आदि मानते हैं वह उनके विमानों से निकलने वाला प्रकाश से समझने का प्रयत्न करें तो हम कह सकते हैं कि आज भी स्थल रूप है, ये विमान सूर्य, चन्द्र आदि देवों के आवासीय स्थल हैं, जिनमें उस में एक से जुड़े हुए अफ्रीका, यूरोप व एशिया, जो किसी समय एक नाम वाले देवगण निवास करते हैं।
दूसरे से सटे हुए थे, मिलकर जम्बूद्वीप की कल्पना को साकार करते इस प्रकार जैन विचारकों ने सूर्य-विमान, चन्द्र-विमान आदि है। ज्ञातव्य है कि किसी प्राचीन जमाने में पश्चिम में वर्तमान अफ्रीका को भौतिक संरचना के रूप में स्वीकार किया है और उन विमानों में और पूर्व में जावा, सुमात्रा एवं आस्ट्रेलिया आदि एशिया महाद्वीप से निवास करने वालों को देव बताया। इसका फलित यह है कि जैन सटे हुए थे, जो गोलाकार महाद्वीप की रचना करते थे। यही गोलाकार विचारक वैज्ञानिक दृष्टि तो रखते थे, किन्तु परम्परागत धार्मिक मान्यताओं महाद्वीप जम्बूद्वीप के नाम से जाना जाता था। उसके चारों ओर के समद्र को भी ठुकराना नहीं चाहते थे। इसीलिए उन्होंने दोनों अवधारणाओं को घेरे हुए उत्तरी अमेरिका व दक्षिणी अमेरिका की स्थिति आती है। के बीच एक समन्वय करने का प्रयास किया है।
यदि हम पृथ्वी को सपाट मानकर इस अवधारणा पर विचार करें तो जैन ज्योतिषशास्त्र की विशेषता है कि वह भी वैज्ञानिकों के उत्तर-दक्षिण अमेरिका मिलकर इस जम्बूद्वीप को वलयाकार रूप में समान इस ब्रह्माण्ड में असंख्य सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र व तारागणों का घेरे हुए प्रतीत होते हैं। इसी प्रकार आर्कटिका को हम पुष्कारार्ध के रूप अस्तित्व मानता है। उनकी मान्यता है कि जंबूद्वीप में दो सूर्य और दो में कल्पित कर सकते हैं। इस प्रकार मोटे रूप से अढ़ाई द्वीप की जो चन्द्रमा हैं, लवण समुद्र में चार सूर्य व चार चन्द्रमा हैं। धातकी खण्ड कल्पना है, यह सिद्ध तो हो जाती है, फिर भी जैनों ने जम्बूद्वीप आदि में आठ सूर्य व आठ चन्द्रमा हैं। इस प्रकार प्रत्येक द्वीप व समुद्र में में जो ऐरावत, महाविदेह क्षेत्रों आदि की कल्पना की है वह आधुनिक सूर्य व चन्द्रों की संख्या द्विगुणित होती जाती है।
भूगोल से अधिक संगत नहीं बैठती है। वास्तविकता यह है कि प्राचीन
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
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भूगोल जो जैन, बौद्ध व हिन्दुओं में लगभग समान रहा है, उसकी भरतक्षेत्र कितना लम्बा चौड़ा है, मेरु पर्वत की ऊंचाई क्या है? सूर्य व सामान्य निरीक्षणों के आधार पर ही कल्पना की गई थी, फिर भी उसे चन्द्र की गति क्या है? उनमें ऊपर कौन है आदि? ऐसे अनेक प्रश्न पूर्णतः असत्य नहीं कहा जा सकता।
हैं जिनका धर्म व साधना से कोई सम्बन्ध नहीं है। हम देखते हैं कि न आज हमें यह सिद्ध करना है कि विज्ञान धार्मिक आस्थाओं केवल जैन-परम्परा में अपितु बौद्ध व ब्राह्मण-परम्परा में भी ये मान्यतायें का संहारक नहीं पोषक भी हो सकता है। आज यह दायित्व उन समान रूप से प्रचलित रही हैं। एक तथ्य और हमें समझ लेना होगा वैज्ञानिकों का एवं उन धार्मिकों का है, जो विज्ञान व धर्म को परस्पर वह यह कि तीर्थंकर या आप्त पुरुष केवल हमारे बंधन व मुक्ति के विरोधी मान बैठे हैं, उन्हें यह दिखाना होगा कि विज्ञान व धर्म एक सिद्धान्तों को प्रस्तुत करते हैं। वे मनुष्य की नैतिक कमियों को इंगित दूसरे के संहारक नहीं, अपितु पोषक हैं। यह सत्य है कि धर्म और करके वह मार्ग बताते हैं जिससे नैतिक कमजोरियों पर या वारमामय दर्शन के क्षेत्र में कुछ ऐसी अवधारणाएं हैं जो वैज्ञानिक ज्ञान के कारण जीवन पर विजय पायी जा सके। उनके उपदेशों का मुख्य संबंध व्यक्ति ध्वस्त हो चुकी हैं, लेकिन इस सम्बन्ध में हमें चिन्तित होने की के आध्यात्मिक विकास, सदाचार तथा सामाजिक जीवन में शान्ति व आवश्यकता नहीं है। प्रथम तो हमें यह निश्चित करना होगा कि धर्म सह अस्तित्व के मूल्यों पर बल देने के लिए होता है। अतः सर्वज्ञ के का सम्बन्ध केवल मानवीय जीवन मूल्यों से है, खगोल के वे तथ्य जो नाम पर कही जाने वाली सभी मान्यतायें सर्वज्ञप्रणीत हैं, ऐसा नहीं है। आज वैज्ञानिक अवधारणा के विरोध में हैं, उनका धर्म व दर्शन से कोई कालक्रम में ऐसी अनेक मान्यताएं आयी जिन्हें बाद में सर्वज्ञ प्रणीत सीधा संबंध नही है। अत: उनके अवैज्ञानिक सिद्ध होने पर भी धर्म कहा गया। जैन धर्म में खगोल व भूगोल की मान्यतायें भी किसी अंश अवैज्ञानिक सिद्ध नहीं होता। हमें यह ध्यान रखना होगा कि धर्म के में इसी प्रकार की हैं। पुनः विज्ञान कभी अपनी अंतिमता का दावा नहीं नाम पर जो अनेक मान्यतायें आरोपित कर दी गयी हैं वे सब धर्म का करता है अत: कल तक जो अवैज्ञानिक कहा जाता था, वह नवीन अनिवार्य अंग नहीं है। अनेक तथ्य ऐसे हैं जो केवल लोक व्यवहार वैज्ञानिक खोजों से सत्य सिद्ध हो सकता है। आज न तो विज्ञान से के कारण धर्म से जुड़ गये हैं।
भयभीत होने की आवश्यकता है और न उसे नकारने की। आवश्यकता आज उनके यथार्थ स्वरूप को समझने की आवश्यकता है। है विज्ञान और अध्यात्म के रिश्ते के सही मूल्यांकन की।
भय
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चतुर्थखण्ड
नीति दर्शन और आचार शास्त्र
लेखक डॉ० सागरमल जैन
संपादक प्रो० सुदर्शनलाल जैन डॉ० कमलेशकुमार जैन
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जैन नीति-दर्शन के मनोवैज्ञानिक आधार
नैतिक-दर्शन का प्रमुख कार्य जीवन के साध्य का निर्धारण कर अप्रभावित है। सच्चा जीवन तो जागृति है, अप्रमत्त चेतना है। उस सन्दर्भ में हमारे आचरण का मूल्याङ्कन करना है। नैतिक-दर्शन जैन-दर्शन इसे ही जीव या आत्मा का स्वरूप कहता है।
और मनोविज्ञान दोनों के अध्ययन की विषय-वस्तु प्राणीय-व्यवहार है। मनोविज्ञान का कार्य व्यवहार की तथ्यात्मक प्रकृति का अध्ययन चेतना के तीन पक्ष और जैन-दर्शन है तथा नैतिक दर्शन का कार्य व्यवहार के आदर्श (साध्य) का निर्धारण मनोवैज्ञानिकों ने चेतना का विश्लेषण कर उसके तीन पक्ष माने एवं व्यवहार का मूल्याङ्कन है, किन्तु आदर्श का निर्धारण तथ्यों की हैं- ज्ञान, अनुभूति और सङ्कल्प। चेतना को अपने इन तीन पक्षों अवहेलना करके नहीं हो सकता है। हमें क्या होना चाहिए? यह बहुत से भिन्न कहीं देखा नहीं जा सकता है। चेतना इन तीन प्रक्रियाओं कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि हम क्या हैं? हमारी क्षमताएँ के रूप में ही अभिव्यक्त होती है। चेतन-जीव ज्ञान, अनुभूति और क्या हैं? ऐसा साध्य या आदर्श जिसे उपलब्ध करने की क्षमताएँ हममें सङ्कल्प की क्षमताओं के विकास के रूप में परिलक्षित होता है। जैन न हों, एक छलना ही होगा। जैन-दर्शन ने इस मनोवैज्ञानिक तथ्य विचारकों की दृष्टि में चेतना के ये तीनों पक्ष नैतिक आदर्श एवं नैतिक को अधिक गम्भीरता से समझा है और अपने नैतिक दर्शन को ठोस साधना-मार्ग से निकट रूप से सम्बन्धित हैं। जैन आचार-दर्शन में मनोवैज्ञानिक नींव पर खड़ा किया है।
चेतना के इन तीन पक्षों के आधार पर ही नैतिक आदर्श का निर्धारण
किया गया है। जैन-दर्शन का आदर्श मोक्ष है और मोक्ष अनन्त चतुष्टय नैतिक साधक (Moral Agent) का स्वरूप
अर्थात् अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सौख्य और अनन्त शक्ति जैन-दर्शन में हमें मानव-प्रकृति एवं प्राणीय-प्रकृति का गहन की उपलब्धि है। वस्तुत: मोक्ष चेतना के इन तीनों पक्षों की पूर्णता विश्लेषण प्राप्त होता है। जब महावीर से यह पूछा गया था कि आत्मा का द्योतक है। जीवन के ज्ञानात्मक पक्ष की पूर्णता अनन्त ज्ञान एवं क्या है? और आत्मा का साध्य या आदर्श क्या है? तब महावीर अनन्त दर्शन में, जीवन के भावात्मक या अनुभूत्यात्मक पक्ष की पूर्णता ने इस प्रश्न का जो उत्तर दिया था वह आज भी मनोवैज्ञानिक दृष्टि अनन्त सौख्य में और सङ्कल्पनात्मक पक्ष की पूर्णता अनन्त शक्ति से सत्य है। महावीर ने कहा था- आत्मा समत्व रूप है और समत्व में मानी गयी है। जैन नैतिक साधना पथ भी चेतना के इन्हीं तीन ही आत्मा का साध्य है। वस्तुत: जहाँ-जहाँ भी जीवन है, चेतना है, तत्त्वों- ज्ञान, भाव और सङ्कल्प के साथ सम्यक् विशेषण का प्रयोग वहाँ-वहाँ समत्व-संस्थापन के अनवरत प्रयास चल रहे हैं। परिवेशजन्य करके निर्मित किया गया है। ज्ञान से सम्यक् ज्ञान, भाव से सम्यक् विषमताओं को दूरकर समत्व के लिए प्रयासशील बने रहना यह जीवन दर्शन और सङ्कल्प से सम्यक्चारित्र का निर्माण हुआ है। इस प्रकार या चेतना का मूल स्वभाव है। शारीरिक एवं मानसिक स्तर पर समत्व जैन-दर्शन में साध्य, साधक और साधना पथ तीनों पर मनोवैज्ञानिक का संस्थापन ही जीवन का लक्ष्य है। डॉ० राधाकृष्णन् के शब्दों में दृष्टि से विचार हुआ है। जीवन गतिशील सन्तुलन है'। स्पेन्सर मानता है कि परिवेश में निहित तथ्य हमारे सन्तुलन को भङ्ग करते रहते हैं और जीवन अपनी नैतिक जीवन का साध्यः समत्व का संस्थापन क्रियाशीलता के द्वारा पुन: इस सन्तुलन को बनाने का प्रयास करता हमारे नैतिक आचरण का लक्ष्य क्या है? यह प्रश्न मनोविज्ञान है। यह सन्तुलन बनाने का प्रयास ही जीवन की प्रक्रिया है। और नैतिक दर्शन दोनों ही दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। जैन-दर्शन में विकासवादियों ने इसे ही अस्तित्व के लिए संघर्ष कहा है, किन्तु मेरी इसे मोक्ष कहकर अभिव्यक्त किया गया है, किन्तु यदि हम जैन-दर्शन अपनी दृष्टि में इसे अस्तित्व के लिए संघर्ष कहने की अपेक्षा समत्व के अनुसार मोक्ष का विश्लेषण करें तो मोक्ष 'वीतरागता की अवस्था वे संस्थापन का प्रयास कहना ही अधिक उचित है। समत्व का है और वीतरागता 'चेतना के पूर्ण समत्व की अवस्था है। इस प्रकार संस्थापन एवं समायोजन की प्रक्रिया ही जीवन का महत्त्वपूर्ण लक्षण जैन-दर्शन में समत्व को ही नैतिक जीवन का आदर्श माना गया है। है। समायोजन और संतुलन के प्रयास की उपस्थिति ही जीवन है और यह बात मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी सही उतरती है। संघर्ष नहीं, अपितु उसका अभाव मृत्यु है। मृत्यु अन्य कुछ नहीं, मात्र शारीरिक स्तर समत्व ही मानवीय जीवन का आदर्श हो सकता है, क्योंकि यह ही पर सन्तुलन बनाने की इस प्रक्रिया का असफल होकर टूट जाना है। हमारा स्वभाव है और जो स्वभाव है, वही आदर्श है। स्वभाव से अध्यात्मशास्त्र के अनुसार जीवन न तो जन्म है और न मृत्यु। प्रथम भिन्न आदर्श की कल्पना अयथार्थ है। स्पेन्सर, डार्विन, मार्क्स प्रभृति उसका एक शरीर में प्रारम्भ बिन्दु है तो दूसरा उसके अभाव की उद्घोषणा कुछ विचारक संघर्ष को ही जीवन का स्वभाव मानते हैं, लेकिन यह करने वाला तथ्य। जीवन दोनों से ऊपर है जन्म और मृत्यु तो एक एक मिथ्या धारणा है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार वस्तु का स्वभाव शरीर में उसके आगमन और चले जाने की सूचनाएँ भर हैं, वह उनसे वह होता है, जिसका निराकरण नहीं किया जाता है। जैन-दर्शन के
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अनुसार नित्व और निरपवाद वस्तु-धर्म ही स्वभाव है। यदि हम इस कसौटी पर कसे तो संघर्ष जीवन का स्वभाव सिद्ध नहीं होता है। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के अनुसार मनुष्य का स्वभाव संघर्ष है, मानवीय इतिहास वर्ग संघर्ष की कहानी है, संघर्ष ही जीवन का नियम है। किन्तु यह एक मिथ्या धारणा है। यदि संघर्ष ही जीवन का नियम है तो फिर इन्द्वात्मक भौतिकवाद संघर्ष का निराकरण क्यों करना चाहता है? संघर्ष मिटाने के लिए होता है। जो मिटाने की या निराकरण करने की वस्तु है, उसे स्वभाव कैसे कहा जा सकता है। 'संघर्ष' यदि मानव इतिहास का एक तथ्य है तो वह उसके दोषों का, उसके विभाव का इतिहास है, उसके स्वभाव का नहीं। मानव स्वभाव संघर्ष नहीं, अपितु संघर्ष का निराकरण या समत्व की अवस्था है, क्योंकि युगों से मानवीय प्रयास उसी के लिए होते रहे हैं सच्चा मानव इतिहास संघर्ष की कहानी नहीं, संघर्षो के निराकरण की कहानी है।
संघर्ष अथवा असमत्व से जीवन में विचलन पाए जाते हैं लेकिन वे जीवन का स्वभाव नहीं हैं, क्योंकि जीवन की प्रक्रिया उनके समाप्त करने की दिशा में ही प्रयासशील है। समत्व की उपलब्धि ही मनोवैज्ञानिक दृष्टि से जीवन का साध्य है समत्व शुभ है और विषमता अशुभ है। कामना, आसक्ति, राग-द्वेष, वितर्क आदि सभी जीवन की विषमता, असन्तुलन एवं तनाव की अवस्था को अभिव्यक्त करते हैं, अतः जैन दर्शन में इन्हें अशुभ माना गया है। इसके विपरीत वासना-शून्य, वितर्क शून्य, निष्काम, अनासक्त, वीतराग अवस्था ही नैतिक है, शुभ है, वही जीवन का आदर्श है, क्योंकि वह समत्व की स्थिति है। जैन दर्शन के अनुसार समत्व एक आध्यात्मिक सन्तुलन है। राग और द्वेष की वृत्तियाँ हमारे चेतना के समत्व को भङ्ग करती हैं। अतः उनसे ऊपर उठकर वीतरागता की अवस्था को प्राप्त कर लेना ही सच्चे समत्व की अवस्था है। वस्तुत समत्व की उपलब्धि जैन दर्शन और आधुनिक मनोविज्ञान दोनों की दृष्टि से मानव जीवन का साध्य मानी जा सकती है।
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नैतिक जीवन का साध्यः आत्मपूर्णता
जैन दर्शन के अनुसार मोक्ष आत्मपूर्णता की अवस्था भी है। पूर्ण - समत्व के लिए आत्मपूर्णता भी आवश्यक है, क्योंकि अपूर्णता या अभाव भी एक मानसिक तनाव है। हमारे व्यावहारिक जीवन में हमारे सम्पूर्ण प्रयास हमारी चेतना के ज्ञानात्मक, भावात्मक और सङ्कल्पात्मक शक्तियों के विकास के निमित्त होते हैं। हमारी चेतना सदैव इस दिशा में प्रयत्नशील होती है कि वह अपने इन तीनों पक्षों की देश कालगत सीमाओं का अतिक्रमण कर सके व्यक्ति अपनी ज्ञानात्मक, भावात्मक और सङ्कल्पात्मक क्षमता की पूर्णता चाहता है । यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि मनुष्य अपनी सीमितता और अपूर्णता से छुटकारा पाना चाहता है। वस्तुतः मानव मन की इस स्वाभाविक इच्छा की पूर्ति ही जैन दर्शन में मोक्ष के प्रत्यय के रूप में अभिव्यक्त हुई है। सीमितता और अपूर्णता, जीवन की वह प्यास है जो पूर्णता के जल से परिशान्त होना चाहती है हमारी चेतना में जो अपूर्णता
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का बोध है, वह स्वयं ही हमारे में निहित पूर्णता की चाह का सङ्केत भी है। पाश्चात्य विचारक ब्रेडले का कथन है कि चेतना अनन्त है, क्योंकि वह अनुभव करती है कि उसकी क्षमताएँ सान्त एवं सीमित हैं। लेकिन सीमा या अपूर्णता को जानने के लिए असीम एवं पूर्ण का बोध भी आवश्यक है जब हमारी चेतना यह ज्ञान रखती है कि वह सान्त, सीमित एवं अपूर्ण है, तो उसका यह सीमित होने का ज्ञान स्वयं उसे इस सीमा के परे ले जाता है। इस प्रकार ब्रेडले स्व में निहित पूर्णता की चाह का सङ्केत करते हैं।" आत्मा पूर्ण है अर्थात् अनन्त चतुष्टय से युक्त है, यह बात जैन दर्शन के एक विद्यार्थी के लिए नवीन नहीं है। वस्तुतः जैन दर्शन के अनुसार पूर्णता हमारी क्षमता है, योग्यता नहीं पूर्णता के प्रकाश में ही हमें अपनी अपूर्णता का बोध होता है, यह अपूर्णता का बोध पूर्णता की चाह का सङ्केत अवश्य है, लेकिन पूर्णता की उपलब्धि नहीं। जैन दर्शन की दृष्टि से ज्ञान, भाव और संकल्प का अनन्त ज्ञान, अनन्त सौख्य और अनन्त शक्ति के रूप में विकसित हो जाना ही आत्मपूर्णता है आत्म शक्तियों का अनावरण एवं उनकी पूर्ण अभिव्यक्ति में ही आत्मपूर्णता है और यही नैतिक जीवन का साध्य है। इस प्रकार जैन दर्शन में आत्मपूर्णता का नैतिक सांध्य भी मानवीय चेतना के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण पर आधारित है।
साध्य, साधक और साधना का पारस्परिक सम्बन्ध
जैन आचार-दर्शन में साध्य और साधक में अभेद माना गया है। समयसार टीका में आचार्य अमृतचन्द्र सूरि लिखते हैं कि पर-द्रव्य का परिहार और शुद्ध आत्म-तत्त्व की उपलब्धि ही सिद्धि है।' आचार्य हेमचन्द्र साध्य और साध्यक में अभेद बताते हुए लिखते हैं कि कषायों और इन्द्रियों से पराजित आत्मा ही संसार है और उनको विजित करने वाला आत्मा ही मोक्ष है।" अध्यात्मतत्वालोक में मुनि न्यायविजयजी लिखते हैं कि आत्मा ही संसार है और आत्मा ही मोक्ष है जहाँ तक आत्मा कषाय और इन्द्रियों के वशीभूत है, संसार है और उनको ही जब अपने वशीभूत कर लेता है, मोक्ष कहा जाता है।' इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन दर्शन का नैतिक साध्य और साधक दोनों ही आत्मा है। दोनों में मौलिक अन्तर यही है कि आत्मा जब तक विषय और कषायों के वशीभूत होता है तब तक बन्धन में होता है और जब उन पर विजय लाभ कर लेता है तब वही मुक्त बन जाता है। आत्मा की विषय-वासनाओं के मल से युक्त अवस्था ही उसका बन्धन कही जाती है और आत्म-तत्व की विशुद्ध अवस्था ही मुक्ति कही जाती है। आसक्ति को बन्धन और अनासक्ति को मुक्ति मानना एक मनोवैज्ञानिक सत्य है।
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जैन आचार- दर्शन में साध्य और साधक दोनों में अन्तर इस बात को लेकर है कि आत्मा की विभाव अवस्था ही साधक अवस्था है और आत्मा की स्वभाव अवस्था ही सिद्धावस्था है। जैन नैतिक साधना का लक्ष्य अथवा आदर्श कोई बाह्य तत्त्व नहीं, वह तो साधक का अपना ही निज रूप है। उसकी ही अपनी पूर्णता की अवस्था है। साधक का आदर्श उसके बाहर नहीं वरन् उसके अन्दर ही है।
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२३९ साधक को उसे पाना भी नहीं है, क्योंकि पाया तो वह जाता है, जो कर लेती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जो साधक चेतना का स्वरूप व्यक्ति के अपने में न हो अथवा अपने से बाह्य हो। नैतिक साध्य है वही सम्यक् बनकर साधना-पथ बन जाता है और उसी की पूर्णता बाह्य-उपलब्धि नहीं आन्तरिक-उपलब्धि है। दूसरे शब्दों में कहें तो साध्य होती है। वह निज-गुणों का पूर्ण प्रकटन है। यहाँ भी हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि आत्मा के निज गुण या स्व-लक्षण तो सदैव ही उसमें जैन-दर्शन में मानवीय व्यवहार के प्रेरक तत्त्व उपस्थित हैं, साधक को केवल उन्हें प्रकटित करना है। हमारी क्षमताएँ जैन-दर्शन में राग और द्वेष ये दो कर्मबीज माने गए हैं, किन्तु साधक अवस्था और सिद्ध अवस्था में वही हैं। साधक और सिद्ध इनमें भी राग ही प्रमुख है। आचाराङ्ग सूत्र में कहा गया है कि आसक्ति अवस्था में अन्तर क्षमताओं का ही नहीं, वरन् क्षमताओं को योग्यताओं ही कर्म का प्रेरक तत्त्व है। जैन-दर्शन और आधुनिक मनोविज्ञान दोनों में बदल देने का है। जैसे बीज ही वृक्ष के रूप में विकसित होता ही इस सम्बन्ध में एक मत हैं कि मानवीय व्यवहार का मूलभूत प्रेरक है वैसे ही मुक्तावस्था में आत्मा के निज गुण पूर्ण रूप से प्रकटित तत्त्व वासना या काम है। फिर भी जैन-दर्शन और आधुनिक मनोविज्ञान हो जाते हैं। साधक आत्मा के ज्ञान, भाव (अनुभूति), और सङ्कल्प दोनों में वासना के मूलभूत प्रकार कितने हैं? इस सम्बन्ध में कोई के तत्त्व ही मोक्ष की अवस्था में अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त निश्चित संख्या नहीं मिलती है। पाश्चात्य मनोविज्ञान में जहाँ फ्रायड सौख्य और अनन्त शक्ति के रूप में प्रकट हो जाते हैं। वह आत्मा, काम या राग को ही एकमात्र मूल प्रेरक मानते हैं, वहाँ दूसरे विचारकों जो कषाय रूप राग-द्वेष से युक्त है और इनसे युक्त होने के कारण ने मूलभूत प्रेरकों की संख्या सौ तक मान ली है फिर भी पाश्चात्य बद्ध, सीमित और अपूर्ण है, वही अपने में निहित अनन्त ज्ञान, अनन्त मनोविज्ञान में सामान्यतया १४ निम्न मूल प्रवृत्तियाँ मानी गयी हैंसौख्य और अनन्त शक्ति को प्रकट कर मुक्त एवं पूर्ण बन जाता है। १. पलायनवृत्ति (भय), २. घृणा, ३. जिज्ञासा, ४. आक्रामकता (क्रोध), उपाध्याय अमर मुनिजी कहते हैं कि जैन साधना में स्व में स्व को ५. आत्म-गौरव (मान), ६. आत्महीनता, ७. मातृत्व की संप्रेरणा, उपलब्ध करना है, निज में निज की शोध करना है, अपने में पूर्णरूपेण ८. समूह भावना, ९. संग्रहवृत्ति, १०. रचनात्मकता, ११. भोजनान्वेषण रमण करना है-आत्मा के बाहर एक कण में भी साधना की उन्मुखता १२. काम, १३. शरणागति और १४. हास्य (आमोद)। नहीं है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन विचारणा में तात्त्विक दृष्टि से साध्य और साधक दोनों एक ही हैं। पर्यायार्थिक दृष्टि या व्यवहारनय जैन-दर्शन में व्यवहार के प्रेरक तत्त्वों (संज्ञाओं) का वर्गीकरण से उनमें भेद माना गया है। आत्मा की स्वभाव-पर्याय या स्वभाव-दशा जहाँ तक जैन-विचारणा का प्रश्न है उसमें भी हमें इनकी संख्या साध्य है और आत्मा की विभाव-पर्याय की अवस्था ही साधक है, के सम्बन्ध में एकरूपता नहीं मिलती है। जैनागमों में चेतनापरक शब्द
और विभाव से स्वभाव की ओर आना यही साधना है। जीव अपनी संज्ञा (सण्णा) व्यवहार के प्रेरक तत्त्वों के अर्थ में रूढ़ हो गया है। विभाव-पर्याय में आत्मा है, स्वभाव पर्याय में परमात्मा है और विभाव संज्ञा शारीरिक आवश्यकताओं एवं भावों की मानसिक चेतना है, जो से स्वभाव की ओर जाने की अवस्था में महात्मा है।
परवर्ती व्यवहार की प्रेरक बनती है। किसी सीमा तक जैन-दर्शन के
संज्ञा शब्द को मूलप्रवृत्ति का समानार्थक माना जा सकता है। जैनागमों 'साधना पथ और साध्य
में संज्ञा का वर्गीकरण अनेक प्रकार से किया गया है, जिनमें निम्न जिस प्रकार साधक और साध्य में अभेद माना गया है, उसी तीन वर्गीकरण प्रमुख हैं - प्रकार साधना मार्ग और साध्य में भी अभेद है। जीवात्मा अपने ज्ञान, (अ) चतुर्विध वर्गीकरण-१. आहार संज्ञा, २. भय संज्ञा, अनुभूति और सङ्कल्प के रूप में साधक कहा जाता है, उसके यही ३. परिग्रह संज्ञा और ४. मैथुन संज्ञा। ज्ञान, अनुभूति और संकल्प सम्यक् दिशा में नियोजित होने पर साधना- (ब) दशविध वर्गीकरण-१. आहार, २. भय, ३. परिग्रह, पथ बन जाते हैं, वही जब अपनी पूर्णता को प्राप्त कर लेते हैं तो ४. मैथुन, ५. क्रोध, ६. मान, ७. माया, ८. लोभ और १० ओघ।१० सिद्धि बन जाते हैं। जैन-दर्शन के अनुसार सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, (स) षोडशविध वर्गीकरण-१. आहार, २. भय, ३. परिग्रह, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप यह साधना पथ है और जब सम्यक् ४. मैथुन, ५. सुख, ६. दु:ख, ७. मोह, ८. विचिकित्सा, ९. क्रोध, ज्ञान, सम्यक् दर्शन, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप, अनन्त ज्ञान, १०. मान, ११. माया, १२. लोभ, १३. शोक, १४. लोक, अनन्त शक्ति अर्थात् अनन्त चतुष्टय की उपलब्धि कर लेते हैं तो यही १५. धर्म और १६. ओघ। अवस्था सिद्धि बन जाती है। आत्मा का ज्ञानात्मक पक्ष सम्यक् ज्ञान उपर्युक्त वर्गीकरणों में प्रथम वर्गीकरण केवल शारीरिक प्रेरकों की साधना के द्वारा अनन्त ज्ञान को प्रकट कर लेता है, आत्मा का का विवेचन प्रस्तुत करता है, जबकि अन्तिम वर्गीकरण में शारीरिक अनुभूत्यात्मक पक्ष सम्यक्-दर्शन की साधना के द्वारा अनन्त दर्शन के साथ बौद्धिक, मानसिक एवं सामाजिक प्रेरकों का भी समावेश हो की उपलब्धि कर लेता है) आत्मा का सङ्कल्पात्मक सम्यक् चारित्र की जाता है। दूसरे एवं तीसरे वर्गीकरण में क्रोधादि कुछ कषायों को भी साधना के द्वारा अनन्त सौख्य की उपलब्धि कर लेता है और आत्मा संज्ञा के वर्गीकरण में समाविष्ट कर लिया गया है। संज्ञा और कषाय की क्रियाशक्ति सम्यक् तप की साधना के द्वारा अनन्त शक्ति को उपलब्ध में अन्तर ठीक उसी आधार पर किया जा सकता है जिस आधार पर
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लिए होता है,
इसलिए जल का निया
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ पाश्चात्य मनोविज्ञान में मूलप्रवृत्ति और उसके संलग्न संवेग में किया यह शक्य नहीं है कि आँखों के सामने आने वाला अच्छा या बुरा जाता है। क्रोध की संज्ञा क्रोध कषाय से ठीक उसी प्रकार भिन्न है रूप न देखा जाए, अत: रूप का नहीं, अपितु रूप के प्रति जाग्रत जिस प्रकार आक्रामकता की मूल प्रवृत्ति से क्रोध का संवेग भिन्न है। होने वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए। यह शक्य नहीं कि नासिका फिर भी तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर जैन-दर्शन की संज्ञा एवं के समक्ष आया हुआ सुगन्ध सूंघने में न आए, अत: गन्ध का नहीं, मनोविज्ञान की मूल प्रवृत्तियों के वर्गीकरण में बहुत कुछ समरूपता । किन्तु गन्ध के प्रति जगने वाली राग-द्वेष की वृत्ति का त्याग करना पायी जाती है।
चाहिए। यह शक्य नहीं है कि जीभ पर आया हुआ अच्छा या बुरा
रस चखने में न आए, अत: रस का नहीं, किन्तु रस के प्रति जगने , जैन-दर्शन का सुखवादी दृष्टिकोण
वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए। यह शक्य नहीं है कि शरीर आधुनिक मनोविज्ञान हमें यह भी बताता है कि सुख सदैव के सम्पर्क से होने वाले अच्छे या बुरे स्पर्श की अनुभूति न हो, अत: अनुकूल इसलिए होता है, कि उसका जीवनशक्ति को बनाए रखने स्पर्श का नहीं, किन्तु स्पर्श के प्रति जगने वाले राग-द्वेष का त्याग की दृष्टि से दैहिक मूल्य है और दुःख इसलिए प्रतिकूल होता है कि करना चाहिए। १३ जैन-दार्शनिक कहते हैं कि इन्द्रियों के मनोज्ञ अथवा वह जीवन-शक्ति का ह्रास करता है। यही सुख-दु:ख का नियम अमनोज्ञ विषय आसक्त व्यक्ति के लिए ही राग-द्वेष का कारण बनते समस्त प्राणीय व्यवहार का चालक है। जैन-दार्शनिक भी प्राणीय व्यवहार हैं, वीतरागी (अनासक्त) के लिए वे राग-द्वेष का करण नहीं होते हैं। के चालक के रूप में इसी सुख-दुःख के नियम को स्वीकार करते ये विषय, रागी पुरुषों के लिए ही दुःख (बन्धन) के कारण होते हैं, हैं।१२ अनुकूल के प्रति आकर्षण और प्रतिकूल के प्रति विकर्षण, यह वीतरागियों के लिए बन्धन या दुःख का कारण नहीं हो सकते हैं। इन्द्रिय-स्वभाव है। अनुकूल विषयों की ओर प्रवृत्ति और प्रतिकूल काम-भोग न किसी को बन्धन में डालते हैं और न किसी को मुक्त विषयों से निवृत्ति यह एक नैसर्गिक तथ्य है, क्योंकि सुख अनुकूल ही कर सकते हैं, किन्तु जो विषयों में राग-द्वेष करता है, वही राग-द्वेष
और दुःख प्रतिकूल होता है, इसलिए प्राणी सुख को प्राप्त करना से विकृत होता है।१४ चाहता है और दुःख से बचना चाहता है। वस्तुत: वासना ही अपने जैन-दर्शन के अनुसार साधना का सच्चा मार्ग औपशमिक नहीं विधानात्मक रूप में सुख और निषेधात्मक रूप में दुःख का रूप ले वरन् क्षायिक है। औपशमिक-मार्ग का अर्थ वासनाओं का दमन है। लेती है जिससे वासना की पूर्ति हो वही सुख और जिससे वासना इच्छाओं के निरोध का मार्ग ही औपशमिक मार्ग है। आधुनिक की पूर्ति न हो अथवा वासना-पूर्ति में बाधा उत्पन्न हो वह दुःख। इस मनोवैज्ञानिक की भाषा में यह दमन का मार्ग है। जबकि क्षायिक-मार्ग प्रकार वासना से ही सुख-दुःख के भाव उत्पन्न होकर प्राणीय व्यवहार वासनाओं के निरसन का मार्ग है, वह वासनाओं से ऊपर उठाता है। का नियमन करने लगते हैं। किन्तु जैन-दर्शन में भौतिक सुखों से यह दमन नहीं अपितु चित्त-विशुद्धि है। दमन तो मानसिक गन्दगी भिन्न एक आध्यात्मिक सुख भी माना गया है, जो वासना-क्षय से उपलब्ध ___ को ढकना मात्र है और जैन-दर्शन इस प्रकार के दमन को स्वीकार होता है।
नहीं करता। जैन-दार्शनिकों ने गुणस्थान प्रकरण में स्पष्ट रूप से यह
बताया है कि वासनाओं को दबाकर आगे बढ़ने वाला साधक विकास दमन का प्रत्यय और जैन-दर्शन
की अग्रिम कक्षाओं से अनिवार्यतया पदच्युत हो जाता है। जैन-विचारणा जैन-दर्शन में इन्द्रिय-संयम पर काफी बल दिया गया है। लेकिन के अनुसार यदि कोई साधक उपशम या दमन के आधार पर नैतिक प्रश्न यह है कि क्या इन्द्रिय-निरोध सम्भव है? आधुनिक मनोविज्ञान एवं आध्यात्मिक प्रगति करता है तो वह पूर्णता के लक्ष्य के अत्यधिक की दृष्टि से इन्द्रिय-व्यापारों का निरोध एक अस्वाभाविक तथ्य है। निकट पहुँचकर भी पुनः पतित हो जाता है। उनकी पारिभाषिक शब्दावली आँख के समक्ष जब उसका विषय प्रस्तुत होता है तो वह उसके में ऐसा साधक ११वें गुणस्थान तक पहुँच कर वहाँ से ऐसा पतित सौन्दर्य-दर्शन से वञ्चित नहीं रह सकती। भोजन करते समय स्वाद होता है कि पुन: निम्नतम प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में आ जाता है। को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। अत: यह विचारणीय प्रश्न है इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन-दर्शन भी आधुनिक मनोविज्ञान के कि इन्द्रिय-दमन के सम्बन्ध में जैन-दर्शन.का दृष्टिकोण क्या आधुनिक समान ही दमन को साधना का सच्चा मार्ग नहीं मानता है। उनके मनोविज्ञानिक दृष्टिकोण से सहमत है? जैन-दर्शन इस प्रश्न का उत्तर अनुसार साधना का सच्चा मार्ग वासनाओं का दमन नहीं अपितु उनके देते हुए यही कहता है कि इन्द्रिय-व्यापारों के निरोध का अर्थ इन्द्रियों ऊपर उठ जाना है। वह इन्द्रिय-निग्रह नहीं अपितु ऐन्द्रिक अनुभूतियों को अपने विषयों से विमुख करना नहीं, वरन् विषय-सेवन के मूल्य में भी मन की वीतरागता या समत्व की अवस्था है। में जो निहित राग-द्वेष है उसे समाप्त करना है। इस सम्बन्ध में जैनागम इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन-दर्शन अपनी विवेचनाओं में आचाराङ्ग सूत्र में जो मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया है वह मनोवैज्ञानिक आधारों पर खड़ा हुआ है। उसके कषाय-सिद्धान्त और विशेष रूप से द्रष्टव्य है। उसमें कहा गया है कि यह शक्य नहीं कि लेश्या-सिद्धान्त भी उसकी मनोवैज्ञानिक दृष्टि के परिचायक हैं। यहाँ कानों में पड़ने वाले अच्छे या बुरे शब्द सुने न जाएँ, अत: शब्दों उन सबकी गहराइयों में जाना सम्भव नहीं है। अत: हम केवल उनका का नहीं शब्दों के प्रति जगने वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए। यह नाम-निर्देश मात्र करके ही विराम करना चाहेंगे।
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सन्दर्भ:
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५.
नैतिक प्रतिमान: एक या अनेक ?
आयाए सामाइए आया सामाइस्स अट्ठे ।
भगवतीसूत्र
डॉ० राधाकृष्णन् जीवन की आध्यात्मिक दृष्टि, राजपाल एण्ड सन्स,
दिल्ली, पृष्ठ २५९।
हर्बर्ट स्पेन्सर, फर्स्ट प्रिन्सपल्स, वाट्स एण्ड को०, छठा संस्करण लंदन, पृष्ठ ६६।
C.D. Board, Five Types of Ethical Theories, p. 16.
F.H. Bradley, Ethical Studies, Oxford University Publication, Chapter II.
सामान्यतया एक विचारशील प्राणी के नाते मनुष्य को स्वयं अपने और दूसरे व्यक्तियों के चरित्र एवं व्यवहार की उचितता तथा अनुचितता के सम्बन्ध में अथवा मानव जीवन के किसी साध्य के शुभत्व और अशुभत्व के बारे में निर्णय लेने होते हैं। युगों से मनुष्य इस प्रकार के निर्णय लेता रहा है कि अमुक शुभ है और अमुक अशुभ है। यह करना उचित है और यह करना अनुचित है। फिर भी मानव जीवन के साध्य एवं आचरण के सम्बन्ध में लिये जाने वाले इन निर्णयों को लेकर मनुष्यों में एकरूपता नहीं देखी जाती है । एक ही प्रकार के आचरण को किसी एक देश, काल एवं सभ्यता में उचित ठहराया जाता है तो दूसरे में अनुचित मात्र यही नहीं, एक व्यक्ति जिसे अच्छा (शुभ) कहता है, दूसरा व्यक्ति उसी आचार-व्यवहार को बुरा (अशुभ) कहता है। मूल प्रश्न यह है कि नैतिकता-सम्बन्ध इन निर्णयों की विविधता का क्या कारण है— वस्तुतः मनुष्यों की नीति सम्बन्धी अवधारणाओं, मापदण्डों या प्रतिमानों की विविधता ही नैतिक निर्णयों की इस भिन्नता का कारण मानी जा सकती है। जब भी हम नैतिक मूल्याङ्कन करते हैं तो हमारे सामने नीति सम्बन्धी कोई मापदण्ड, प्रतिमान या मानक (Moral Standard) अवश्य होता है, जिसके आधार पर हम किसी व्यक्ति के चरित्र, आचरण अथवा कर्म का नैतिक मूल्यांकन (Moral Valuation) करते हैं। विभिन्न देश कॉल, समाज और संस्कृतियों में ये नैतिक मापदण्ड या प्रतिमान अलग-अलग रहे हैं और समय-समय पर इनमें परिवर्तन होता रहा है प्राचीन ग्रीक संस्कृति में जहाँ साहस और न्याय को नैतिकता का प्रतिमान माना जाता था, वहीं परवर्ती ईसाई संस्कृति में सहनशीलता और त्याग को नैतिकता का प्रतिमान माना जाने लगा। यह एक वास्तविकता है कि नैतिक प्रतिमान या नैतिकता के मापदण्ड अनेक रहे हैं तथा विभिन्न व्यक्ति और विभिन्न समाज अलग-अलग नैतिक प्रतिमानों का उपयोग करते रहे हैं। मात्र यही नहीं एक ही व्यक्ति अपने
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७.
समयसार टीका, गाथा ३०५ ।
योगशास्त्र, ४/५ । अध्यात्मतत्त्वालोक ४/६
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८.
९.
आचाराङ्ग, १/३/२।
१०. समवायाङ्ग ४-५, प्रज्ञापना पद ८ । ११. अभिधान राजेन्द्र, खण्ड ७, पृ० ३०१
१२. आचाराङ्ग, १/२/३/८१।
१३. आचाराङ्ग, २/३/१५/१०१-१०५ ।
१४. उत्तराध्ययन ३२/१००, १०१।
नैतिक प्रतिमान : एक या अनेक ?
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ही जीवन में दो भिन्न भिन्न परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न नैतिक प्रतिमानों का उपयोग करता है। नैतिक प्रतिमान के इस प्रश्न पर न केवल जन साधारण में अपितु नीतिवेत्ताओं में भी गहरा मतभेद है।
नैतिक प्रतिमानों (Moral Standards) की इस विविधता और परिवर्तनशीलता को लेकर अनेक प्रश्न उपस्थित होते हैं क्या ऐसे सार्वभौम नैतिक प्रतिमान सम्भव है जिन्हें सार्वलौकिक और सार्वकालीन मान्यता प्राप्त हो? यद्यपि अनेक नीतिवेत्ताओं ने अपने नैतिक प्रतिमान का सार्वलौकिक, सार्वकालीन एवं सार्वजनीन सिद्ध करने का दावा अवश्य किया है, किन्तु जब वे ही आपस में एक मत नहीं हैं, तो फिर उनके इस दावे को कैसे मान्य किया जा सकता है? नीतिशास्त्र के इतिहास में नियमवादी सिद्धान्तों में कबीले के बाह्यनियमों की अवधारणा से लेकर अन्तरात्मा के आदेश तक, तथा साध्यवादी परम्परा में स्थूल स्वार्थमूलक सुखवाद से प्रारम्भ करके बुद्धिवाद, पूर्णतावाद और मूल्यवाद तक अनेक नैतिक प्रतिमान प्रस्तुत किये गये हैं।
यदि हम नैतिक मूल्याङ्कन का आधार नैतिक आवेगों (Moral Sentiments) को स्वीकार करते हैं, तो नैतिक मूल्याङ्कन सम्भव ही नहीं होगा, उनमें विविधता स्वाभाविक है। नैतिक आवेगों की इस विविधता को समकालीन विचारक एडवर्ड वेस्टरमार्क ने स्वयं स्वीकार किया है। उनके अनुसार इस विविधता का कारण व्यक्तियों के परिवेश, धर्म और विश्वासों में पायी जाने वाली भित्रता है जो विचारक कर्म के नैतिक औचित्य एवं अनौचित्य के निर्धारण के लिये विधानवादी प्रतिमान अपनाते हैं और जाति, समाज, राज्य या धर्म के द्वारा प्रस्तुत विधि - निषेध (यह करो और यह मत करो) की नियमावलियों को नैतिक प्रतिमान स्वीकार करते हैं, उनमें भी प्रथम तो इस प्रश्न को लेकर ही मतभेद है कि जाति (समाज) राज्यशासन और धर्मग्रन्थों द्वारा प्रस्तुत अनेक नियमावलियों में से किसे स्वीकार किया जावे ? पुनः प्रत्येक जाति, राज्य और धर्मग्रन्थ द्वारा प्रस्तुत ये नियमावलियाँ भी अलग-अलग
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ हैं। इस प्रकार बाह्य-विधानवाद नैतिक-प्रतिमान का कोई एक सिद्धान्त जावे। इस सन्दर्भ में सुखवाद और बुद्धिवाद का विवाद तो सुप्रसिद्ध प्रस्तुत कर पाने में असमर्थ है। समकालीन अनुमोदनात्मक सिद्धान्त ही है। जहाँ सुखवाद मनुष्य के अनुभूत्यात्मक (वासनात्मक) पक्ष की (Approvative Theories) भी जो नैतिक प्रतिमान को वैयक्तिक संतुष्टि को मानव जीवन का साध्य घोषित करता है वहाँ बुद्धिवाद रुचि-सापेक्ष अथवा सामाजिक एवं धार्मिक अनुमोदन पर निर्भर मानते भावना-निरपेक्ष बुद्धि के आदेशों के परिपालन में ही नैतिक कर्तव्यों हैं किसी एक सार्वभौम नैतिक प्रतिमान दे पाने का दावा करने में असमर्थ की पूर्णता को देखता है। इस प्रकार सुखवाद और बुद्धिवाद के नैतिक हैं। व्यक्तियों का रुचि-वैविध्य और समाजिक आदर्शों में पायी जाने प्रतिमान एक दूसरे से भिन्न हैं। इसका मूल कारण दोनों की मूल्यवाली भिन्नताएँ सुस्पष्ट ही हैं। धार्मिक अनुशंसा भी अलग-अलग होती दृष्टि ही भिन्न है, एक भोगवाद का समर्थक है तो दूसरा वैराग्यवाद हैं; एक धर्म जिन कर्मों का अनुमोदन करता है और उन्हें नैतिक ठहराता का। मात्र यही नहीं सुखवादी विचारक को कौन सा सुख साध्या है? है, दूसरा धर्म उन्हीं कर्मों को निषिद्ध और अनैतिक ठहराता है। इस प्रश्न पर एक मत नहीं हैं। कोई वैयक्तिक सुख को साध्य बताता वैदिकधर्म और इस्लाम जहाँ पशुबलि को वैध मानते हैं वही जैनधर्म है तो कोई सष्टि के सुख को अथवा अधिकतम लोगों के अधिकतम
और बौद्धधर्म उन्हें अनैतिक और अवैध मानते हैं। निष्कर्ष यही है सुख को। पुन: यह सुख ऐन्द्रिक सुख हो या मानसिक सुख हो अथवा कि वे सभी सिद्धान्त किसी एक सार्वभौम नैतिक प्रतिमान का दावा आध्यात्मिक आनन्द हो; इस प्रश्न पर भी मतभेद हैं। वैराग्यवादी परम्पराएँ करने में असमर्थ हैं, जो नैतिकता की कसौटी वैयक्तिक रुचि, सामाजिक भी सुख को साध्य मानती हैं, किन्तु वे जिस सुख की बात करती अनुमोदन अथवा धर्मशास्त्र की अनुशंसा को मानते हैं।
हैं वह सुख वस्तुगत नहीं। वह इच्छा, आसक्ति या तृष्णा के समाप्त अन्तःप्रज्ञावाद अथवा सरल शब्दों में कहें तो अन्तरात्मा के होने पर चेतना की निर्द्वन्द्व, तनावरहित समाधिपूर्ण अवस्था है। इस अनुमोदन का सिद्धान्त भी किसी एक नैतिक प्रतिमान को दे पाने प्रकार सुख को साध्य मानने के प्रश्न पर उनमें आम-सहमति होते हुए में असमर्थ है। यद्यपि यह कहा जाता है कि अन्तरात्मा के निर्णय भी उनके नैतिक प्रतिमान भिन्न-भिन्न ही होंगे, क्योंकि सुख की प्रकृति सरल, सहज और अपरोक्ष होते हैं, फिर भी अनुभव यही बताता है भिन्न-भिन्न है। कि अन्तरात्मा के निर्णयों में एकरूपता नहीं पायी जाती है। प्रथम यद्यपि पूर्णतावाद आत्मोपलब्धि को साध्य मानकर सुखवाद और तो स्वयं अन्तःप्रज्ञावादी ही इस सम्बन्ध में एकमत नहीं हैं कि इस बुद्धिवाद के बीच समन्वय साधने का प्रयत्न अवश्य करता है, किन्तु अन्तःप्रज्ञा की प्रकृति क्या है- बौद्धिक या भावनापरक। पुन: यह वह इस प्रयास में सफल हुआ है, यह नहीं कहा जा सकता। पुन: मानना कि सभी की अन्तरात्मा एक सी है, ठीक नहीं है, क्योंकि वह भी किसी एक सार्वभौम नैतिक प्रतिमान को प्रस्तुत कर सकता अन्तरात्मा की प्रकृति और उसके निर्णय भी हमारे संस्कारों पर आधारित है, यह मानना भ्रान्तिपूर्ण है, क्योकि व्यक्तियों के हित न केवल भिन्न-भिन्न होते हैं। पशुबलि के सम्बन्ध में उन लोगों की अन्तरात्मा के निर्णय, हैं, अपितु परस्पर विरोधी भी हैं। रोगी का कल्याण और डाक्टर का जिनके धर्मों में बलि वैध मानी गई है, उनसे किसी वैष्णव एवं जैन कल्याण एक नहीं है। श्रमिक का कल्याण उसके स्वामी के कल्याण परिवार में संस्कारित व्यक्ति की अन्तरात्मा के निर्णय एक समान नहीं से पृथक् ही है। किसी सार्वभौम शुभ (Universal Good) की बात होवो अन्तरात्मा कोई सरल तथ्य नहीं है, जैसा कि अन्तःप्रज्ञावाद मानता कितनी ही आकर्षक क्यों हो, वह भ्रान्ति ही है। सार्वभौम शुभ है अपितु वह विवेकात्मक चेतना के विकास, पारिवारिक एवं सामाजिक (Universal good) और वैयक्तिक हितों के योग के अतिरिक्त संस्कारों तथा परिवेशजन्य तथ्यों के द्वारा निर्मित एक जटिल रचना किसी सामान्य हित (Common Good) की कल्पना, मात्र अमूर्त कल्पना है और ये तीनों बातें हमारी अन्तरात्मा को और उसके निर्णयों को है। न केवल व्यक्तियों के हित या शुभ अलग-अलग होंगे अपितु प्रभावित करती हैं।
दो भिन्न-परिस्थितियों में एक ही व्यक्ति के हित भी पृथक-पृथक होंगे। इसी प्रकार साध्यवादी सिद्धान्त भी किसी सार्वभौम नैतिक एक ही व्यक्ति दो भिन्न-भिन्न स्थितियों में दान देने वाला ओर दान मानदण्ड का दावा नहीं कर सकते हैं। सर्वप्रथम तो उनमें इस प्रश्न लेने वाला दोनों हो सकता है, किन्तु क्या दोनों स्थितियों में उसका को लेकर ही मतभेद है कि मानव-जीवन का साध्य क्या हो सकता हित समान होगा? समाज में एक का हित दूसरे के हित का बाधक है? मानवतावादी विचारक जो मानवीय गुणों के विकास को ही नैतिकता हो सकता है। मात्र यही नहीं हमारा एक हित हमारे ही दूसरे हित की कसौटी मानते हैं, इस बात पर आपस में सहमत नहीं हैं कि में बाधक हो सकता है। रसनेन्द्रिय या यौन-वासना की संतुष्टि का आत्मचेतनता, विवेकशीलता और संयम में किसे सर्वोच्च मानवीय शुभ और स्वास्थ्य सम्बन्धी शुभ भी सहभागी हो, यह आवश्यक नहीं गुण माना जावे। समकालीन मानवतावादियों में जहाँ वारनरफिटे है। वस्तुत: यह धारणा कि 'मनुष्य या मनुष्यों का कोई सामान्य शुभ आत्मचेतना को प्रमुख मानते हैं वहाँ सी०बी०गर्नेट और इस्रायल है' अपने आपमें अयथार्थ है। जिसे हम सामान्य शुभ कहना चाहते लेविन-विवेकशीलता को तथा इरविंग बबिट आत्मसंयम को प्रमुख हैं वह विभिन्न शुभों का एक ऐसा स्कन्ध है जिसमें न केवल भिन्न-भिन्न नैतिक गुण मानते हैं। पुनः साध्यवादी परम्परा के सामने यह प्रश्न भी शुभों की पृथक्-पृथक् सत्ता है अपितु वे एक दूसरे के विरोध में भी महत्त्वपूर्ण रहा है कि मानवीय चेतना के ज्ञानात्मक, अनुभूत्यात्मक खड़े हुए हैं। शुभ एक नहीं, अनेक हैं और उनमें पारस्परिक विरोध और सङ्कल्पात्मक पक्ष में से किसकी संतुष्टि को सर्वाधिक महत्त्व दिया भी है। क्या आत्मज्ञान और आत्मत्याग के बीच कोई विरोध नहीं है?
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नैतिक-प्रतिमान : एक या अनेक?
२४३ यदि पूर्णतावादी निम्न-आत्मा (Lower Self) के त्याग के द्वारा उच्चात्मा हित एक नहीं, अनेक होंगे और जब मनुष्य के शुभ या हित (Good) (Higher Self) के लाभ की बात कहते हैं, तो वे स्वयं ही जीवन ही विविध हैं तो फिर नैतिक प्रतिमान भी विविध होंगे। किसी परम के इन दोनों पक्षों में विरोध को स्वीकार करते हैं। पुन: निम्नात्मा भी शुभ (Ultimate Reality) के प्रसङ्ग में चाहे सही भी हो किन्तु मानवीय हमारी आत्मा है और यदि हम उसके निषेध की बात स्वीकार करते अस्तित्व के प्रसङ्ग में सही नहीं है। हमें मनुष्य को मनुष्य मानकर हैं तो हमें पूर्णतावाद के सिद्धान्त को छोड़कर प्रकारान्तर से बुद्धिवाद चलना होगा, देवता या ईश्वर मानकर नहीं, और एक मनुष्य के रूप या वैराग्यवाद को स्वीकार करना होगा। इसी प्रकार वैयक्तिक आत्मा में उसके हित या साध्य विविध ही होंगे। साथ ही हितों या साध्यों और सामाजिक आत्मा का अथवा स्वार्थ और परार्थ का अन्तर्विरोध की यह विविधता नैतिक प्रतिमानों की अनेकता को ही सूचित करेगी। भी समाप्त नहीं किया जा सकता। इसीलिए मूल्यवाद किसी एक मूल्य पुनः नैतिक प्रतिमान का आधार व्यक्ति की जीवनदृष्टि या मूल्यदृष्टि की बात न कहकर 'मूल्यों' या विश्व-मूल्यों की बात करता है। मूल्यों होगी किन्तु यह मूल्यदृष्टि या जीवनदृष्टि व्यक्तियों के बौद्धिक विकास, के विपुलता के इस सिद्धान्त में नैतिक प्रतिमान की विविधता स्वाभाविक संस्कार एवं पर्यावरण के आधार पर ही निर्मित होती है। व्यक्तियों ही होगी क्योंकि प्रत्येक मूल्य का मूल्याङ्कन किसी दृष्टिविशेष के आधार के बौद्धिक विकास, पर्यावरण और संस्कारों में भिन्नतायें स्वाभाविक पर ही होगा। चूंकि मनुष्यों की जीवनदृष्टियाँ या मूल्यदृष्टियाँ विविध है, अत: उनकी मूल्यदृष्टियाँ अलग-अलग होंगी और यदि मूल्यदृष्टियाँ हैं, अत: उन पर आधारित नैतिक प्रतिमान भी विविध ही होंगे। पुनः भिन्न-भिन्न होंगी तो नैतिक प्रतिमान भी विविध होंगे। यह एक आनुभाविक मूल्यवाद में भी मूल्यों के तारतम्य को लेकर सदैव ही विवाद रहा तथ्य है कि विविध दृष्टिकोणों के आधार पर एक ही घटना का नैतिक है। एक दृष्टि से जो सर्वोच्च मूल्य लगता है, वही दूसरी दृष्टि से मूल्याङ्कन अलग-अलग होता है। उदाहरण के रूप में परिवार नियोजन निम्न मूल्य हो सकता है। चूँकि मनुष्य की जीवनदृष्टि या मूल्यदृष्टि की धारणा, जनसंख्या के बाहुल्यवाले देशों की दृष्टि से चाहे अनुचित का निर्माण भी स्वयं उसके संस्कारों एवं परिवेशजन्य तथ्यों से प्रभावित हो, किन्तु अल्प जनसंख्या वाले देशों एवं जातियों की दृष्टि से उचित होता है। अतः मूल्यवाद नैतिक प्रतिमान के सन्दर्भ में विविधता की होगी। 'राष्ट्रवाद' अपनी जाति-अस्मिता की दृष्टि से चाहे अच्छा हो धारणा को ही पुष्ट करता है।
किन्तु सम्पूर्ण मानवता की दृष्टि से अनुचित है। हम भारतीय ही एक इस प्रकार हम देखते हैं कि नैतिक-प्रतिमान (Moral standard) ओर जातिवाद एवं सम्प्रदायवाद को कोसते हैं तो दूसरी ओर भारतीयता के प्रश्न पर न केवल विविध दृष्टिकोणों से विचार हुआ है अपितु नैतिक के नाम पर अपने को गौरवान्वित अनुभव करते हैं। क्या हम यहाँ प्रतिमान का प्रत्येक सिद्धान्त स्वयं भी इतने अन्तर्विरोधों से युक्त है दोहरे मापदण्ड का उपयोग नहीं करते हैं? स्वतन्त्रता की बात को ही कि वह किसी एक सार्वभौम नैतिक मापदण्ड या नैतिक प्रतिमान को लें। क्या स्वतन्त्रता और सामाजिक-अनुशासन सहगामी होकर चल प्रस्तुत करने का दावा करने में असमर्थ है। आज भी इस सम्बन्ध सकते हैं? आपातकाल को ही लीजिये, वैयक्तिक स्वतन्त्रता के हनन में किसी सर्वमान्य सिद्धान्त का अभाव ही है।
की दृष्टि से या नौकरशाही के हावी होने की दृष्टि से हम उसकी आलोचना वस्तुत: नैतिक मानदण्डों की यह विविधता स्वाभाविक ही है। जो कर सकते हैं किन्तु अनुशासन बनाये रखने और अराजकता को समाप्त लोग किसी एक सर्वमान्य नैतिक प्रतिमान की बात करते हैं वे कल्पनालोक करने की दृष्टि से उसे उचित ठहराया जा सकता है। वस्तुत: उचितता में ही विचरण करते हैं। नैतिक प्रतिमानों की इस स्वाभाविक विविधता के और अनुचितता का मूल्याङ्कन किसी एक दृष्टिकोण के आधार पर कई कारण हैं। सर्वप्रथम तो नैतिकता और अनैतिकता का यह प्रश्न मनुष्य नहीं होकर विविध दृष्टिकोणों के आधार पर होता है, जो एक अपेक्षा के सन्दर्भ में है और उस मनुष्य के सन्दर्भ में है जिसकी प्रकृति ही से नैतिक हो सकता है वही दूसरी अपेक्षा से अनुचित हो सकता है, बहुआयामी (Multi-dimentional) और अन्तर्विरोधों से परिपूर्ण है। जो एक व्यक्ति के लिये उचित है वही दूसरे के लिये अनुचित हो मनुष्य केवल चेतना सत्ता नहीं है, अपितु चेतना युक्त शरीर है- सकता है। एक स्थूल शरीरवाले व्यक्ति के लिये स्निग्ध पदार्थों का पुन: वह निरा एकाकी व्यक्ति भी नहीं है, अपितु समाज में जीने वाला सेवन अनुचित है, किन्तु कृशकाय व्यक्ति के लिये उचित है। अत: व्यक्ति है। उसके अस्तित्व में वासना और विवेक तथा वैयक्तिकता और हम कह सकते हैं कि नैतिक मूल्याङ्कन के विविध दृष्टिकोण हैं और समाजिकता के तत्त्व समाहित हैं। यहाँ हमें यह भी समझ लेना है कि इन विविध दृष्टिकोणों के आधार पर विविध नैतिक प्रतिमान बनते वासना और विवेक में तथा व्यक्ति और समाज में स्वभावत: सङ्गति हैं, जो एक ही घटना का अलग-अलग नैतिक मूल्याङ्कन करते हैं। (Harmony) नहीं है। वे स्वभावत: एक दूसरे के विरोध में हैं। इस प्रकार नैतिक मूल्याङ्कन परिस्थिति-सापेक्ष एवं दृष्टि-सापेक्ष मनोवैज्ञानिक भी यह मानते हैं कि 'इड' (वासनातत्त्व) और 'सुपर इगो' मूल्याङ्कन है, अत: उनकी सार्वभौम सत्यता का दावा करना भी व्यर्थ (आदर्श तत्त्व) मानवीय चेतना के समक्ष प्रतिपक्षी के रूप में ही उपस्थित है। किसी दृष्टि-विशेष या अपेक्षा-विशेष के आधार पर ही वे सत्य होते हैं। पुनः उनमें समर्पण और शासन की दो विरोधी मूलप्रवृत्तियाँ होते हैं। एक साथ काम करती हैं। वह एक ओर अपनी अस्मिता को बचाये संक्षेप में, सभी नैतिक प्रतिमान मूल्यदृष्टि सापेक्ष हैं और मूल्यदृष्टि रखना चाहता है तो दूसरी ओर अपने व्यक्तित्व को व्यापक भी बनाना स्वयं व्यक्तियों के बौद्धिक विकास, संस्कार, सांस्कृतिक परिवेश, चाहता है। ऐसी बहुआयामी एवं अविरोधों से युक्त सत्ता का शुभ या सामाजिक चेतना एवं भौतिक पर्यावरण पर निर्भर करती है। चूंकि
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
व्यक्तियों के बौद्धिक विकास, संस्कार तथा सांस्कृतिक, सामाजिक यदि परम् शुभ इन भिन्न-भिन्न मानवीय शुभों को अपने में अन्तर्निहित एवं भौतिक पर्यावरण की विविधता और परिवर्तनशीलता है। अतः करेगा तो वह भी नैतिक प्रतिमानों की अनेकता को स्वीकार करेगा नैतिक प्रतिमानों में विविधता या अनेकता स्वभाविक ही है। और यदि वह इन मानवीय शुभों से पृथक् होगा तो नीतिशास्त्र के
वैयक्तिक शुभ की दृष्टि से प्रस्तुत नैतिक प्रतिमान और सामाजिक लिए व्यर्थ ही होगा। क्योंकि नीतिशास्त्र का पूरा सन्दर्भ मानव का शुभ की दृष्टि से प्रस्तुत नैतिक प्रतिमान भिन्न होगा। इसी प्रकार वासना संदर्भ है। नैतिक प्रतिमान का प्रश्न तभी तक महत्त्वपूर्ण है जब तक पर आधारित नैतिक प्रतिमान, विवेक पर आधारित नैतिक प्रतिमान मनुष्य, मनुष्य के स्तर से ऊपर उठकर देवत्व को प्राप्त कर लेता से अलग होगा। राष्ट्रवादी व्यक्ति की नैतिक कसौटी अन्तर्राष्ट्रीयता है या मनुष्य के स्तर से नीचे उतर कर पशु बन जाता है, तो उसके ।' समर्थक या मानवतावादी व्यक्ति की नैतिक कसौटी से पृथक् होगी। लिये नैतिकता या अनैतिकता का कोई अर्थ नहीं रह जाता है और पूँजीवाद और साम्यवाद के नैतिक मानदण्ड भिन्न-भिन्न ही रहेंगे। अत: ऐसे वास्तविक मनुष्य के लिये नैतिक प्रतिमान अनेक ही होंगे। क्योंकि हमें नैतिक मानदण्डों में अनेकता को स्वीकार करना होगा। कुछ लोग उसका अस्तित्व बहुआयामी और अन्तर्विरोधों से युक्त है। इस प्रकार यहाँ परम् शुभ की आवधारणा के आधार पर एक नैतिक प्रतिमान नैतिक प्रतिमानों के सन्दर्भ में अनैकान्तिक दृष्टिकोण ही सम्यक् होगा। का दावा कर सकते हैं। किन्तु उनका यह परम शुभ या तो इन विभिन्न हमारी इस स्थापना को यदि कोई नाम देना हो तो हम इसे नैतिक शुभों या हितों को अपने में अन्तर्निहित करेगा या इनसे पृथक् होगा। प्रतिमानों का 'अनेकान्तवाद' कह सकते हैं।
नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता
नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता का प्रश्न प्राचीन काल से ही क्या नीति की मूल्यवत्ता पर वैसा प्रश्न-चिह्न लगाया जा सकता दार्शनिक चिन्तन का विषय रहा है, किन्तु आज जब परिवर्तन की है? क्या नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता फैशनों की परिवर्तनशीलता हवा तेजी से बह रही है और परिवर्तन के नाम पर स्वयं नीति की के समान है, जिन्हें जब चाहें तब और जैसा चाहें वैसा बदला जा मूल्यवत्ता पर ही प्रश्न चिन्ह लगाया जा रहा है, तब यह प्रश्न अधिक सकता है? आइये, जरा प्रश्नों पर थोड़ी गम्भीर चर्चा करें। गम्भीर चिन्तन की अपेक्षा करता है।
सर्वप्रथम तो आज जिस परिवर्तनशीलता अथवा गत्यात्मकता नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता पर विचार करते समय सबसे की बात कही जा रही है, उससे तो स्वयं नैतिकता के मूल्य होने पहले हमें यह निश्चित कर लेना होगा कि उक्त परिवर्तनशीलता से में ही अनास्था उत्पन्न हो गई है। आज का मनुष्य अपनी पाशविक हमारा क्या तात्पर्य है? कुछ लोग परिवर्तनशीलता का अर्थ स्वयं नीति वासनाओं की पूर्ति के लिए विवेक एवं संयम की नियामक मर्यादाओं की मूल्यवत्ता की अस्वीकृति से लेते हैं। आज जब नैतिक मूल्यों को की अवहेलना को ही मूल्य-परिवर्तन मान रहा है। वर्षों के चिन्तन सांवेगिक अभिव्यक्ति या वैयक्तिक एवं सामाजिक अनुमोदन एवं रुचि और साधना से फलित ये मर्यादायें आज उसे कोरी लग रही हैं और का पर्याय माना जा रहा हो, तब परिवर्तनशीलता का अर्थ स्वयं उनकी इन्हें तोड़-फेंकने में ही उसे मूल्य-क्रान्ति परिलक्षित हो रही है। स्वतन्त्रता मूल्यवत्ता को नकारना ही होगा। आज नीति की मूल्यवत्ता स्वयं अपने के नाम पर वह अतन्त्रता और अराजकता को ही मूल्य मान बैठा है। अर्थ की तलाश कर रही है। यदि नैतिक प्रत्यय अर्थहीन है, यदि किन्तु यह सब मूल्य विभ्रम या मूल्य-विपर्यय ही है जिसके कारण वे मात्र प्रत्ययाभास (Pseudo-concepts) हैं, तो फिर उनकी परिवर्तनशीलता नैतिक मूल्यों के निर्मूल्यीकरण को ही परिवर्तन कहा जा रहा है। का भी कोई विशेष अर्थ नहीं रह जाता। क्योंकि यदि नैतिक मूल्यों यहाँ हमें यह समझ लेना होगा कि मूल्य-संक्रमण या मूल्यान्तरण का यथार्थ एवं वस्तुगत अस्तित्व ही नहीं है, यदि ये मात्र मनोकल्पनायें मूल्यनिषेध नहीं है। परिवर्तनशीलता का तात्पर्य स्वयं नीति के मूल्य हैं तो उनके परिवर्तन का ठोस आधार भी नहीं होगा। दूसरे, जब हम होने में अनास्था नहीं है। यह सत्य है कि नैतिक मूल्यों में और शुभ एवं अशुभ अथवा औचित्य एवं अनौचित्य के प्रत्ययों को वैयक्तिक नीति-सम्बन्धी धारणाओं में परितर्वन हुए हैं और होते रहेंगे, किन्त एवं सामाजिक अनुमोदन या पसन्दगी किंवा नापसन्दगी के रूप में मानव-इतिहास में कोई भी काल ऐसा नहीं है जब स्वयं नीति की देखते हैं, तो उनकी परिवर्तनशीलता का अर्थ फैशन की परिवर्तनशीलता मूल्यवत्ता को ही अस्वीकार किया गया हो। वस्तुत: नैतिक मूल्यों की से अधिक नहीं रह जाता है।
परिवर्तनशीलता में भी कुछ ऐसा अवश्य है जो बना रहता है और
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नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता
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वह है, स्वयं नीति की मूल्यवत्ता। नैतिक मूल्यों की विषय-वस्तु बदलती कि यूथचारी प्राणियों में होती है। उसकी सामाजिकता उसके बुद्धितत्व रहती है, किन्तु उनका आकार बना रहता है। मात्र इतना ही नहीं, का प्रतिफल है, वह विचार की देन है, स्वभाव की नहीं। यही कारण कुछ मूल्य ऐसे भी हैं जो अपनी मूल्यवत्ता को भी नहीं खोते, मात्र है कि वह समाज का और सामाजिक मर्यादाओं का सर्जक भी है और उनकी व्याख्या के सन्दर्भ एवं अर्थ बदलते हैं।
संहारक भी, वह उन्हें स्वीकार भी करता है और उनकी अवहेलना आज स्वयं नीति की मूल्यवत्ता के निषेध की बात दो दिशाओं भी करता है; अत: वह समाज से ऊपर भी है। बेडले का कथन है से खड़ी हुई है- एक ओर भौतिकवादी और साम्यवादी दर्शनों के कि यदि मनुष्य सामाजिक नहीं है तो वह मनुष्य ही नहीं है, किन्तु द्वारा और दूसरी ओर विश्लेषणवादियों के द्वारा। यह कहा जाता है यदि वह केवल सामाजिक है तो वह पशु से अधिक नहीं है। मनुष्य कि वर्तमान में साम्यवादी दर्शन नीति की मूल्यवत्ता को अस्वीकार की मनुष्यता उसके अतिसामाजिक एवं नैतिक प्राणी होने में है। अत: करता है; किन्तु इस सम्बन्ध में स्वयं लेनिन का वक्तव्य द्रष्टव्य है। मनुष्य के लिए नीति की मूल्यवत्ता की अस्वीकृति असम्भव है। यदि वे कहते हैं कि प्राय: यह कहा जाता है कि हमारा अपना कोई नीतिशास्त्र हम परिवर्तनशीलता के नाम पर स्वयं नीति की मूल्यवत्ता को ही नहीं है; बहुधा मध्य वित्तीय वर्ग कहता है कि हम सब प्रकार के नीतिशास्त्र अस्वीकार करेंगे तो वह मानवीय संस्कृति का ही अवमूल्यन होगा। का खण्डन करते हैं किन्तु उनका यह तरीका विचारकों को भ्रष्ट करना अवमूल्यन ही नहीं, उसकी इतिश्री भी होगी। है, श्रमिकों और कृषकों की आँखों में धूल झौंकना है। हम उनका पुनश्च, नैतिक प्रत्ययों को सांवेगिक अभिव्यक्ति या रुचि-सापेक्ष खण्डन करते हैं जो ईश्वरीय आदेशों से नीतिशास्त्र को आविर्भूत मानते मानने पर भी, न तो स्वयं नीति की मूल्यवत्ता को निरस्त किया जा है। हम कहते हैं यह धोखाधड़ी है, श्रमिकों और कृषकों के मष्तिष्कों सकता है और न नैतिक मूल्यों को फैशनों के समान परिवर्तनशील को पूँजीपतियों तथा भूपतियों के स्वार्थ के लिए सन्देह में डालना माना जा सकता है यदि नैतिक प्रत्यय सांवेगिक अभिव्यक्ति हैं तो है, हम कहते हैं कि हमारा नीतिशास्त्र सर्वहारा वर्ग के वर्ग-संघर्ष के प्रश्न यह है कि नैतिक आवेगों का दूसरे सामान्य आवेगों के अन्तर हितों के अधीन है: जो शोषक समाज को नष्ट करे, जो श्रमिकों को का आधार क्या है? वह कौन-सा तत्त्व है जो नैतिक आवेग को दूसरे संगठित करे और साम्यवादी समाज की स्थापना करे, वही नीति है, आवेगों से अलग करता है? यह तो सुनिश्चित सत्य है कि नैतिक शेष सब अनीति है। इस प्रकार साम्यवादी दर्शन नैतिक मूल्यों का आवेग दूसरे आवेगों से भिन्न हैं। दायित्व-बोध का आवेग, अन्याय मूल्यान्तरण तो करता है, किन्तु स्वयं नीति की मूल्यवत्ता का निषेध के प्रति आक्रोश का आवेग और क्रोध का आवेग, ये तीनों भिन्न-भिन्न नहीं करता; वह उस नीति का समर्थक है जो अन्याय एवं शोषण स्तरों के आवेग हैं और जो चेतना इनकी भिन्नता का बोध करती है, की विरोधी है और सामाजिक-समता की संस्थापक है; जो पीड़ित वही नैतिक मूल्यों की द्रष्टा भी है। नैतिक मूल्यों को स्वीकार किये और शोषित को अपना अधिकार दिलाती है और सामाजिक-न्याय बिना हम भिन्न-भिन्न प्रकार के आवेगों का अन्तर नहीं कर सकते। की स्थापना करती है।
यदि इसका आधार पसन्दगी या रुचि है, तो फिर पसन्दगी या नासन्दगी वह भौतिकवादी दर्शन, जो सामाजिक एवं साहचर्य के मूल्यों के भावों की उत्पत्ति का आधार क्या है? क्यों हम चौर्य-कर्म को नापसन्द का समर्थक है, नीति की मूल्यवत्ता का निषेधक नहीं हो सकता है। करते हैं और क्यों ईमानदारी को पसन्द करते हैं? नैतिक भावों की यदि हम मनुष्य को एक विवेकवान्-सामाजिक प्राणी मानते हैं, तो व्याख्या मात्र पसन्दगी और नापसन्दगी के रूप में नहीं की जा सकती हमें नैतिक मूल्यों को अवश्य स्वीकार करना होगा। वस्तुतः नीति का है। मानवीय पसन्दगी या नापसन्दगी अथवा रुचि केवल मन की मौज अर्थ है किन्हीं विवेकपूर्ण साध्यों की प्राप्ति के लिए वैयक्तिक और या मन की तरंग (Whim) पर निर्भर नहीं है। इन्हें पूरी तरह आत्मनिष्ठ सामाजिक जीवन में आचार और व्यवहार के किन्हीं ऐसे आदर्शों एवं (Subjective) नहीं माना जा सकता, इनके पीछे एक वस्तुनिष्ठ आधार मर्यादाओं की स्वीकृति, जिनके अभाव में मानव की मानवता और भी होता है। आज हमें उन आधारों का अन्वेषण करना होगा जो हमारी मानवीय समाज का अस्तित्व ही खतरे में होगा। यदि नीति की मूल्यवत्ता पसन्दगी और नापसन्दगी को बनाते या प्रभावित करते हैं। वे कुछ का निषेध कोई दृष्टि कर सकती है, तो वह मात्र पाशविक भोगवादी आदर्श, सिद्धान्त, दृष्टियाँ या मूल्य-बोध हैं, जो हपारी पसन्दगी या दृष्टि है। यह दृष्टि मनुष्य को एक पशु से अधिक नहीं मानती है। नापसन्दगी को बनाते हैं और जिनके आधार पर हमारी रुचियाँ गठित यह सत्य है कि यदि मनुष्य मात्र पशु है तो नीति का कोई अर्थ नहीं होती हैं। मानवीय रुचियाँ और मानवीय पसन्दगी या नापसन्दगी है, किन्तु क्या आज मनुष्य का अवमूल्यन पशु के स्तर पर किया आकस्मिक एवं प्राकृतिक (Natural) नहीं है। जो तत्त्व इनको बनाते जा सकता है? क्या मनुष्य निरा पशु है? यदि मनुष्य निरा पशु होता हैं, उनमें नैतिक मूल्य भी हैं। पूर्णतया व्यक्ति और समाज की रचना है तो वह पूरी तरह प्राकृतिक नियमों से शासित होता है और निश्चय भी नहीं हैं, अपितु व्यक्ति के मूल्य-संस्थान के बोध से भी उत्पन्न ही उसके लिए नीति की कोई आवश्यकता नहीं होती। किन्तु आज होती हैं। वस्तुत: मूल्यों की सत्ता अनुभव की पूर्ववर्ती है; मनुष्य मूल्यों का मनुष्य पूर्णत: प्राकृतिक नियमों से शासित नहीं है, वह तो प्राकृतिक का द्रष्टा है, सृजक नहीं। अत: इस धारणा के आधार पर स्वयं नीति नियमों एवं मर्यादाओं की अवहेलना करता है, अत: पशु भी नहीं की मूल्यवत्ता को निरस्त नहीं किया जा सकता है। दुसरे, यदि हम है। उसकी सामाजिकता भी उसके स्वभाव से निसृत नहीं है, जैसी औचित्य एवं अनौचित्य का आधार सामाजिक उपयोगिता को मानते
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
हैं, तो यह भी ठीक नहीं। मेरे व्यक्तिगत स्वार्थों से सामाजिक हित किन्तु नैतिक मूल्य इस प्रकार नहीं बदलते हैं। ग्रीक नैतिक मूल्यों क्यों श्रेष्ठ एवं वरेण्य है? इस प्रश्न का हमारे पास क्या उत्तर होगा? का ईसाइयत के द्वारा तथा भारतीय वैदिक युग के मूल्यों का औपनिषदिक सामाजिक हितों की वरेण्यता का उत्तर नीति की मूल्यवत्ता को स्वीकार एवं जैन-बौद्ध संस्कृतियों के द्वारा आंशिक रूप से मूल्यांतरण अवश्य किये बिना नहीं दिया जा सकता है। इस प्रकार परिवर्तनशीलता के हुआ, किन्तु श्रमण-संस्कृति तथा ईसाइयत द्वारा स्वीकृत मूल्यों का नाम पर स्वयं नीति की मूल्यवत्ता पर प्रश्न-चिन्ह नहीं लगाया जा इन दो हजार वर्षों में भी मूल्यांतरण नहीं हो सका है। आज जिस सकता। नैतिक मूल्यों के अस्तित्व की स्वीकृति में ही उनकी आमूल परिवर्तन की बात कही जा रही है या जिन नये मूल्यों के परिवर्तनशीलता का कोई अर्थ हो सकता है, उनके नकाराने में सूजन की अपेक्षा की जा रही है, वह भी इन पूर्ववर्ती मूल्य-धाराओं नहीं है।
के ही किन्हीं मूल्यों की प्रधान रूप से स्वीकृति या मूल्य-समन्वय यहाँ हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि समाज भी नैतिक मूल्यों से अधिक कुछ नहीं है। मूल्य-विश्व में आमूल परिवर्तन या निरपेक्ष का सृजक नहीं है। समाज किन्हीं आचरण के प्रारूपों को विहित या परिवर्तन सम्भव नहीं होता। नैतिक मूल्यों के सन्दर्भ में जिस प्रकार अविहित मान सकता है किन्तु सामाजिक विहितता और अविहितता का परिवर्तन होता है वह एक सापेक्ष और सीमित प्रकार का परिवर्तन नैतिक औचित्य या अनौचित्य से भिन्न है। एक कर्म अनैतिक होते है। इसमें दो प्रकार के परिवर्तन परिलक्षित होते हैं। परितर्वन का एक हुए भी विहित माना जा सकता है। अथवा नैतिक होते हुए भी अविहित रूप वह होता है, जिसमें कोई नैतिक मूल्य विवेक के विकास के माना जा सकता है। कंजर जाति में चोरी, आदिम कबीलों में नरबलि ___ साथ व्यापक अर्थ ग्रहण करता जाता है तथा उसके पुराने अर्थ अनैतिक या मुस्लिम समाज में बहु पत्नी-प्रथा विहित है। राजपूतों में लड़की और नये अर्थ नैतिक माने जाने लगते हैं, जैसा कि अहिंसा और को जन्मते ही मार डालना, कभी विहित रहा था। अनेक देशों में परार्थ के प्रत्ययों के साथ हुआ है। एक समय में इन प्रत्ययों का वेश्या-वृत्ति, सम-लैंगिकता, मद्यपान आज भी विहित और वैधानिक अर्थ-विस्तार परिजनों, स्वजातियों एवं स्वधर्मियों तक सीमित था। आज है, किन्तु क्या इन्हें नैतिक कहा जा सकता है? नग्नता को या शासनतन्त्र वह स्वराष्ट्र तक विकसित होता हुआ सम्पूर्ण मानव जाति एवं प्राणी की आलोचना को अविहित एवं अवैधानिक माना जा सकता है, किन्तु जगत तक अपना विस्तार पा रहा है। आत्मीय परिजनों जाति-बन्धुओं इससे नग्न रहना या शासक वर्ग के गलत कार्यों की आलोचना करना एवं स्वधर्मी बन्धुओं का हित-साधन करना किसी युग में नैतिक माना अनैतिक नहीं कहा जा सकेगा। मानवों के समुदाय विशेष के द्वारा जाता था, किन्तु आज हम उसे भाई-भतीजावाद, जातिवाद एवं किसी कर्म को विहित या वैधानिक मान लेने मात्र से वह नैतिक नहीं सम्प्रदायवाद कहकर अनैतिक मानते हैं। आज राष्ट्रीय हित साधन नैतिक हो जाता। गर्भपात वैधानिक हो सकता है लेकिन नैतिक कभी नहीं। माना जाता है, किन्तु आने वाले कल में यह भी अनैतिक माना नैतिक मूल्यवत्ता निष्पक्ष विवेक के प्रकाश में आलोकित होती है। जा सकता है। यही बात अहिंसा के प्रत्यय के साथ घटित हुई है। वह सामाजिक विहितता या वैधानिकता से भिन्न है। समाज किसी कर्म आदिम कबीलों में परिजनों की हिंसा ही हिंसा मानी जाती थी, आगे को विहित या अविहित बना सकता है, किन्तु उचित या अनुचित नहीं। चलकर मनुष्य की हिंसा को हिंसा माना जाने लगा; वैदिक धर्म एवं
पुन: नैतिक मूल्यों की परितर्वनशीलता फैशनों की परिवर्तनशीलता यहूदी धर्म ही नहीं, ईसाई धर्म भी अहिंसा के प्रत्यय को मानव जाति के समान भी नहीं है, क्योंकि नैतिक मूल्य मात्र रुचि-सापेक्ष न होकर से अधिक अर्थ विस्तार नहीं दे पाया, किन्तु वैष्णव परम्परा में अहिंसा स्वयं रुचियों के सृजक भी हैं। अतः जिस प्रकार रुचियाँ या तद्जनित का प्रत्यय प्राणी जगत तक और जैन परम्परा में वनस्पति-जगत तक फैशन बदलते हैं, वैसे नैतिक मूल्य नहीं बदलते हैं। फैशन जितनी अपना अर्थ-विस्तार पा गया। इस प्रकार नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता तेजी से बदलते रहते हैं, उतनी तेजी से कभी भी नैतिक मूल्य नहीं का एक अर्थ मूल्यों के अर्थों का विस्तार या संकोच भी है। इसमें बदलते। यह सही है कि नैतिक मूल्यों में देश, काल एवं परिस्थितियों मूलभूत प्रत्यय की मूल्यवत्ता बनी रहती है, केवल उसके अर्थ विस्तार के आधार पर परिवर्तन होता है, किन्तु फिर भी उनमें एक स्थाई तत्त्व या संकोच ग्रहण करते जाते हैं। नरबलि, पशुबलि या विधर्मी की होता है। अहिंसा, न्याय, आत्म-त्याग, संयम आदि अनेक नैतिक हत्या, हिंसा है या नहीं? इस प्रश्न के उत्तर भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, मूल्य ऐसे हैं, जिनकी मूल्यवत्ता सभी देशों एवं कालों में समान रूप किन्तु इससे अहिंसा की मूल्यवत्ता अप्रभावित है। दण्ड के सिद्धान्त से स्वीकृत रही है। यद्यपि इनमें अपवाद माने गये हैं, किन्तु अपवाद और दण्ड के नियम बदल सकते हैं, किन्तु इससे न्याय की मूल्यवत्ता की स्वीकृति इनकी मूल्यवत्ता का निषेध नहीं होकर, वैयक्तिक असमर्थता समाप्त नहीं होती। यौन नैतिकता एवं अनैतिकता के सन्दर्भ में भी अथवा परिस्थिति विशेष में उनकी सिद्धि की विवशता की ही सूचक इसी प्रकार का अर्थ-विस्तार या अर्थ-संकोच हुआ है। इसकी एक हैं। अपवाद तो अपवाद है, वह मूल नियम का निषेध नहीं है। इस अति यह रही कि पर-पुरुष का दर्शन भी पाप माना गया तो दूसरी प्रकार कुछ नैतिक मूल्य अवश्य ही ऐसे हैं जो सार्वभौम और ओर स्वच्छन्द यौन सम्बन्धों को भी विहित माना गया। किन्तु इन दोनों अपरिवर्तनीय है। साथ ही नैतिक मूल्यों का परिवर्तन फैशनों के परिवर्तन अतियों के बावजूद भी पति-पत्नी सम्बंध में प्रेम, निष्ठा एवं त्याग की अपेक्षा कहीं अधिक स्थायित्व लिये हुए होता है। फैशन एक दशाब्द के तत्त्वों की अनिवार्यता सर्वमान्य रही तथा ब्रह्मचर्य की मूल्यवत्ता से दूसरे दशाब्द में ही नहीं, अपितु दिन प्रतिदिन बदलते रहते है; पर कोई प्रश्न चिह्न नहीं लगाया गया।
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नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता
नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता का एक रूप वह होता है, जिसमें किसी मूल्य की मूल्यवत्ता को अस्वीकार नहीं किया, किन्तु उनका पदक्रम बदलता रहता है; अर्थात् मूल्यों का निर्मूल्पीकरण नहीं होता, अपितु उनका स्थान संक्रमण होता है किसी युग में जो नैतिक गुण प्रमुख माने जाते रहे हैं, वे दूसरे युग में गौण हो सकते हैं; और जो मूल्य गौण थे वे प्रमुख हो सकते हैं। उच्च मूल्य निम्न स्थान पर तथा निम्न मूल्य उच्च स्थान पर या साध्य या मूल्य साधन स्थान पर तथा साधन-मूल्य साध्य स्थान पर आ जा सकते हैं। कभी न्याय का मूल्य प्रमुख और अहिंसा का मूल्य गौण था; न्याय की स्थापना के लिए हिंसा को विहित माना जाता था; किन्तु जब अहिंसा का प्रत्यय प्रमुख बन गया तो अन्याय को सहन करना भी विहित माना जाने लगा। ग्रीक मूल्यों के स्थान पर ईसाईयत के मूल्यों की स्थापना में ऐसा ही परिवर्तन हुआ। आज साम्यवादी दर्शन सामाजिक न्याय के हेतु खूनी क्रान्ति की उपादेयता की स्वीकृति के द्वारा पुनः अहिंसा के स्थान पर न्याय को ही प्रमुख मूल्य के पद पर स्थापित करना चाहता है। किन्तु इसका अर्थ यह कभी नहीं है कि ग्रीक सभ्यता में या साम्यवादी दर्शन में अहिंसा पूर्णतया निर्मूल्य है, ईसाइयत में न्याय का कोई स्थान ही नहीं है। मात्र होता यह है कि युग की परिस्थितियों के अनुरूप मूल्य-विश्व के कुछ मूल्य उभरकर प्रमुख बन जाते हैं, और दूसरे उनके परिपार्श्व में चले जाते हैं साम्यवाद और प्रजातंत्र के राजनैतिक दर्शनों का विरोध, मूल्य-विरोध नहीं, मूल्यों की प्रधानता का विरोध है साम्यवाद के लिए रोटी और सामाजिक न्याय प्रधान मूल्य हैं और स्वतन्त्रता गौण मूल्य है, जबकि प्रजातन्त्र में स्वतन्त्रता प्रधान मूल्य है और रोटी गौण है। आज स्वच्छन्द यौनाचार का समर्थन भी संयम के स्थान पर स्वतन्त्रता (अतन्त्रता) को ही प्रधान मूल्य मानने के एक अतिवादी दृष्टिकोण का परिणाम है सुखवाद और बुद्धिवाद का मूल्य- विवाद भी ऐसा ही है, न तो सुखवाद बुद्धि तत्त्व को निर्मूल्य मानता है और न बुद्धिवाद सुख को निर्मूल्य मानता है। मात्र इतना ही है कि सुखवाद में सुखप्रधान मूल्य है और बुद्धि गौण मूल्य है, जबकि बुद्धिवाद में विवेक प्रधान मूल्य है और सुख गौण मूल्य है। इस प्रकार मूल्य परिवर्तन का अर्थ उनके तारतम्य में परिवर्तन है, जो कि एक प्रकार का सापेक्षित परिवर्तन ही है कभी-कभी मूल्य विपर्यय को ही मूल्य परिवर्तन मानने की भूल की जाती है, किन्तु हमें यह ध्यान रखना होगा कि मूल्य-विपर्यय मूल्य-परिवर्तन नहीं है। मूल्य विपर्यय में हम अपनी चारित्रिक दुर्बलताओं को जो कि वास्तव
मूल्य है ही नहीं मूल्य मान लेते हैं— जैसे स्वच्छन्द यौनाचार को नैतिक मान लेना। दूसरे यदि 'काम' की मूल्यवत्ता के नाम पर कामुकता तथा रोटी की मूल्यवत्ता के नाम पर स्वाद- लोलुपता या पेटूपन का समर्थन किया जाये, तो यह मूल्य परिवर्तन नहीं होगा, मूल्य विपर्यय या मूल्याभास ही होगा। क्योंकि 'काम' या 'रोटी' मूल्य हो सकते हैं किन्तु 'कामुकता' या 'स्वाद लोलुपता' किसी भी स्थिति में मूल्य नहीं हो सकते हैं। इसी संदर्भ में एक तीसरे प्रकार का मूल्य परिवर्तन परिलक्षित होता है। जिसमें मूल्य-विश्व के ही कुछ मूल्य अपनी
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आनुषंगिकता के कारण नैतिक मूल्यों के वर्ग में सम्मिलित हो जाते हैं और कभी-कभी तो नैतिक जगत के प्रमुख मूल्य या नियामक मूल्य बन जाते हैं। अर्थ और काम ऐसे ही मूल्य हैं जो स्वरूपः नैतिक मूल्य नहीं हैं फिर भी नैतिक मूल्यों के वर्ग में सम्मिलित होकर उसका नियमन और क्रम - निर्धारण भी करते हैं। यह सम्भव है कि जो एक परिस्थिति में प्रधान मूल्य हो, वह दूसरी परिस्थिति में प्रधान मूल्य न हो, किन्तु इससे उनकी मूल्यवता समाप्त नहीं हो जाती है। पारिस्थितिक या सापेक्ष मूल्य दूसरे मूल्यों के निषेधक नहीं होते हैं। दो परस्पर विरोधी मूल्य भी अपनी-अपनी परिस्थिति में अपनी मूल्यवत्ता को बनाये रख सकते हैं। वे दोनों मूल्य अपने-अपने दृष्टिकोण से अपनी अपनी मूल्यवत्ता रखते हैं। एक दृष्टि से जो मूल्य लगता है। वह दूसरी दृष्टि से निर्मूल्य हो सकता है, किन्तु अपनी दृष्टि या अपेक्षा से तो वह मूल्यवान् बना रहता है लेकिन यह बात पारिस्थितिक मूल्यों के सम्बन्ध में ही अधिक सत्य लगती है।
मूल्य परिवर्तन के आधार
वस्तुतः मूल्यों के तारतम्य या उच्चावच क्रम में यह परिवर्तन दैशिक और कालिक आवश्यकता के अनुरूप होता है । मनुस्मृति में कहा गया है—
अन्ये कृत- युगे धर्मास्त्रतायां द्वापरे परे । अन्ये कलियुगे नृणां युग- ह्रासानुरूपतः ।। "
युग के हास के अनुरूप सत्य, त्रेता, द्वापर और कलियुग के धर्म अलग-अलग होते हैं । किन्तु युगानुरूप मूल्य - परिवर्तन का अर्थ यह नहीं है कि पूर्वमूल्य निर्मूल्य हैं, अपितु इतना ही है कि वर्तमान परिस्थिति में उनकी वह मूल्यवत्ता या प्रधानता नहीं रह गई है जो कि उस परिस्थिति में थी अतः परिस्थितियों के परिवर्तन से होने वाला मूल्य परिवर्तन एक प्रकार का सापेक्षिक परिवर्तन ही होगा।
यह सही है कि मनुष्य को जिस विश्व में जीवन जीना है वह परिस्थिति निरपेक्ष नहीं है। दैशिक एवं कालिक परिस्थितियों के परिवर्तन हमारे मूल्यबोध को प्रभावित करते हैं, किन्तु इसमें मात्र यही होता है कि कोई मूल्य प्रधान दिखाई देता है और दूसरे परिपार्श्व में चले जाते हैं। दैशिक और कालिक परिवर्तन के कारण यह सम्भव है कि जो कर्म एक देश और काल में विहित हो, वही दूसरे देश और काल में अविहित हो जावे । अष्टक - प्रकरण में कहा गया है
उत्पद्यते हि साऽवस्था देशकालोभयान् प्रति । यस्यामकार्य कार्य स्यात् कर्म कार्य च वर्जयेत् ॥
दैशिक और कालिक स्थितियों के परिवर्तन से ऐसी अवस्था उत्पन्न हो जाती है, जिसमें कार्य अकार्य की कोटि में और अकार्य कार्य की कोटि में आ जाता है। किन्तु यह अवस्था सामान्य अवस्था नहीं, अपितु कोई विशिष्ट अवस्था होती है जिसे आपवादिक अवस्था के रूप में जानते हैं। किन्तु आपवादिक स्थिति में होने वाला मूल्य परिवर्तन सामान्य स्थिति में होने वाले मूल्य परिवर्तन से भिन्न स्वरूप का होता है। उसे वस्तुतः मूल्य परिवर्तन कहना भी कठिन है।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
यह भी सही है कि कभी-कभी दैशिक और कालिक परिस्थितियों तथ्य को हम उसका साधना बना लेते हैं। उदाहरण के लिए जब हमें में इतना असाधारण और कुछ स्थायी परिवर्तन हो जाता है कि जिसके जीवन-रक्षण हो एकमात्र मूल्य प्रतीत होता है तो उस अवस्था में हम कारण मूल्यों का मूल्यांतरण आवश्यक हो जाता है। किन्तु इसमें जिन हिंसा, असत्य-भाषण, चोरी आदि को अनैतिक नहीं मानते हैं। इस मूल्यों का परिवर्तन होता है, वे मुख्यत: साधन-मूल्य होते हैं। क्योंकि प्रकार अपवाद में एक साधन मूल्य साध्य स्थान पर चला जाता है साधन-मूल्य आचरण से सम्बन्धित होते हैं और आचरण परिस्थिति-निरपेक्ष और अपने साधनों को मूल्यवत्ता प्रदान करता प्रतीत होता है, किन्तु नहीं हो सकता, अत: उसमें परिस्थितियों के परिवर्तन के साथ परिवर्तन यह मूल्य भ्रम ही है। उस समय भी चोरी या हिंसा मूल्य नहीं बन होता रहा है। दूसरे, व्यक्ति को समाज में जीवन जीना होता है और जाते हैं क्योंकि उनका स्वत: कोई मूल्य नहीं है, वे तो उस साध्य समाज परिस्थिति-निरपेक्ष नहीं होता है, अत: सामाजिक-नैतिकता की मूल्यवत्ता के कारण मूल्य के रूप में प्रतीत या आभाषित होई अपरिवर्तनीय नहीं कही जा सकती। उसमें देशकालगत परिवर्तनों का हैं। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि अहिंसा के स्थान पर हिंसा प्रभाव पड़ता है किन्तु उसकी यह परिवर्तनशीलता देशकाल-सापेक्ष या सत्य के स्थान पर असत्य नैतिक मूल्य भी बन जाते हैं। साधु होती है, इसमें मुख्यत: मात्र मूल्यों का संक्रमण या पदक्रम परिवर्तन पुरुष की रक्षा के लिए दुष्टजन की हिंसा की जा सकती है, किन्तु होता है। अपवाद की स्थिति इन सामान्य परिवर्तनों से भिन्न प्रकार इससे हिंसा मूल्य नहीं बन जाती है। किसी प्रत्यय की नैतिक की होती है, उसमें कभी-कभी मूल्य का विरोधी तत्त्व ही मूल्यवान मूल्यवत्ता उसके किसी परिस्थिति विशेष में आचारित होने या नहीं प्रतीत होने लगता है।
होने से अप्रभावित भी रह सकती है। प्रथम तो यह कि अपवाद की
मूल्यवत्ता केवल उस परिस्थिति विशेष में ही होती है, उसके आधार क्या आपद्धर्म नैतिक-मूल्यों की परिवर्तनशीलता का सूचक है? पर जीवन का कोई सामान्य नियम नहीं बनाया जा सकता। साथ ही
क्या अपवाद की स्वीकृति नैतिक मूल्य की मूल्यवत्ता को ही जब व्यक्ति आपद्धर्म का आचरण करता है तब भी उसकी दृष्टि में निरस्त कर देती है? यह सत्य है कि किसी परिस्थिति विशेष में सामान्य मूल नैतिक नियम की मूल्यवत्ता अक्षुण्ण बनी रहती है। यह तो रूप में स्वीकृत मूल्य के विरोधी मूल्य की सिद्धि नैतिक हो जाती परिस्थितिगत या व्यक्तिगत विवशता है, जिसके कारण उसे वह आचरण है। महाभारत में कहा गया है
करना पड़ रहा है। दूसरे सार्वभौम नियम में और अपवाद में अन्तर स एव धर्मः सोऽधों देश-काले प्रतिष्ठितः।
है। अपवाद की यदि कोई मूल्यवत्ता है, तो वह केवल विशिष्ट आदानमनृतं हिंसा धर्मोह्यावस्थिकः स्मृतः ।।
परिस्थिति में ही रहती है, जबकि सामान्य नियम की मूल्यवत्ता । अर्थात् कभी ऐसी स्थिति आ जाती है कि जब हिंसा, झूठ तथा सार्वदेशिक है, सार्वकालिक और सर्वजनीन होती है। अत: आपद्धर्म चौर्य कर्म ही धर्म हो जाते हैं। प्राचीनतम जैन आगम आचाराङ्ग में की स्वीकृति मूल्य-परिवर्तन की सूचक नहीं है। वह सामान्यतया भी कहा गया है
किसी मूल्य को न तो निर्मूल्य करती है और न मूल्य-संस्थान में उसे जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते आसवा।। अपने स्थान से पदच्युत ही करती है। अत: वह मूल्यान्तरण भी
जो आस्रव (पाप) के स्थान होते हैं, वे संवर (धर्म) के स्थान नहीं है। हो जाते हैं और जो संवर के स्थान होते हैं वे ही आस्रव (पाप) के नैतिक कर्म के दो पक्ष होते हैं- एक बाह्य पक्ष, जो आचरण स्थान हो जाते हैं। किन्तु यह परिवर्तन साधन-मूल्यों का ही होता है। के रूप में होता है और दूसरा आन्तरिक पक्ष, जो कर्ता के मनोभावों आपद्धर्म में कोई एक साध्य इतना प्रधान हो जाता है कि उसकी सिद्धि के रूप में होता है। आपद्धर्म का सम्बन्ध केवल बाह्य पक्ष से होता के लिए किसी दूसरे मूल्य का निषेध आवश्यक हो जाता है। जैसे है, अत: उससे किसी नैतिक मूल्य की मूल्यवत्ता प्रभावित नहीं होती। अन्याय के प्रतिकार के लिए हिंसा अथवा शरीररक्षण या दूसरों के मात्र कर्म का बाह्य पक्ष उसे नैतिक-मूल्य प्रदान नहीं करता है। जीवन-रक्षण के लिए चोरी आवश्यक हो जाती है। मान लीजिये देश में अकाल की स्थिति के कारण हजारों लोग मृत्यु के ग्रास बन रहे नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता का मूल्याङ्कन हों, दूसरी ओर कुछ लोगों ने अधिक मुनाफा कमाने के लिए अनाज नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता के सम्बन्ध में हमें जान डिर्वी को गोदामों मे बन्द कर रखा हो। ऐसी स्थिति में जनजीवन की रक्षा का दृष्टिकोण अधिक संगतिपूर्ण जान पड़ता है। वे यह मानते हैं कि के लिए हिंसा या चोरी भी मूल्य बन जाती है और अहिंसा या आचौर्य वे परिस्थितियाँ, जिसमें नैतिक-आदर्शों की सिद्धि की जाती है, सदैव के मूल्यों का निषेध आवश्यक लगता है। किन्तु यह निषेध परिस्थिति- परिवर्तनशील है और नैतिक नियमों, नैतिक कर्तव्यों और नैतिक विशेष तक सीमित रहता है। उस परिस्थिति के सामान्य होने पर पुनः मूल्याङ्कनों के लिए इन परिवर्तनशील परिस्थितियों के साथ समायोजन धर्म, धर्म बन जाता है और अधर्म अधर्म बन जाता है। वस्तुतः करना आवश्यक होता है, किन्तु यह मान लेना मूर्खतापूर्ण ही होगा आपवादिक अवस्था में कोई एक मूल्य इतना प्रधान प्रतीत होता है कि नैतिक सिद्धान्त इतने परिवर्तनशील हैं कि किसी सामाजिक स्थिति कि उसकी उपलब्धि के लिए हम अन्य मूल्यों की उपेक्षा कर देते में उनमें कोई नियामक शक्ति ही नहीं होती है। शुभ की विषयवस्तु हैं, अथवा कभी-कभी सामान्य रूप से स्वीकृत उसी मूल्य के विरोधी बदल सकती है किन्तु शुभ का आकार नहीं। दूसरे शब्दों में नैतिकता
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नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता
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का शरीर परिवर्तनशील तो है किन्तु नैतिकता की आत्मा नहीं। नैतिक परिवर्तनीय होते हैं। यद्यपि हमें यह मानने में कोई आपत्ति नहीं है मूल्यों का विशेष स्वरूप समय-समय पर वैसे-वैसे बदलता रहता है, कि अनेक परिस्थितियों में सामान्य नियमों के भी अपवाद हो सकते जैसे-जैसे सामाजिक या सांस्कृतिक स्तर और परिस्थिति बदलती रहती हैं और वे नैतिक भी हो सकते हैं, फिर भी इतना तो ध्यान में रखना है। किन्तु मूल्यों की नैतिकता का सामान्य स्वरूप स्थिर रहता है। आवश्यक है कि अपवाद को कभी भी नियम का स्थान नहीं दिया
वस्तुतः नैतिक मूल्यों की वास्तविकता प्रकृति में परिवर्तनशीलता जा सकता है। और अपरिवर्तनशीलता के दोनों ही पक्ष उपस्थित हैं। नीति का कौन यहाँ एक बात जो विचारणीय है वह यह कि मौलिक नियमों सा पक्ष परिवर्तनशील होता है और कौन-सा पक्ष अपरिवर्तनशील होता एवं साध्य-मूल्यों की अपरिवर्तनशीलता भी एकान्तिक नहीं है। वस्तुत: है, इसे निम्नाङ्कित रूप में समझा जा सकता है।
नैतिक मूल्यों के सन्दर्भ में एकान्त रूप से अपरिवर्तनशीलता और १. सङ्कल्प का नैतिक मूल्य अपरिवर्तनशील होता है और आचरण एकान्त रूप से परिवर्तनशीलता को स्वीकार नहीं किया जा सकता। का नैतिक मूल्य परिवर्तनशील होता है। हिंसा का सङ्कल्प कभी नैतिक यदि नैतिक मूल्य एकान्त रूप से परिवर्तनशील होंगे तो उनकी कोई नहीं होता, यद्यपि हिंसा का कर्म सदैव अनैतिक हो, यह आवश्यक नियमकता ही नहीं रह जावेगी। इसी प्रकार वे यदि एकान्त रूप से नहीं। दूसरे शब्दों में कर्म का जो मानसिक या बौद्धिक पक्ष है वह अपरिवर्तनशील होंगे तो सामाजिक सन्दर्भो के अनुरूप नहीं रह सकेंगे। निरपेक्ष एवं अपरिवर्तनीय है किन्तु कर्म का जो व्यावहिरक एवं नैतिक-मूल्य इतने निलोंच तो नहीं है कि वे परिवर्तनशील सामाजिक आचरणात्मक पक्ष है, वह सापेक्ष एवं परिवर्तनशील है। सङ्कल्प का परिस्थितियों के साथ समायोजन नहीं कर सकें, किन्तु वे इतने लचीले क्षेत्र, प्रज्ञा का क्षेत्र एक ऐसा क्षेत्र है, जहाँ चेतना ही सर्वोच्च शासक भी नहीं कि हर कोई उन्हें अपने अनुरूप ढालकर उनके स्वरूप को है। अन्तस् में व्यक्ति स्वयं अपना शासक है। वहाँ परिस्थितियों या ही विकृत कर दे। समाज का शासन नहीं है, अत: इस क्षेत्र में नैतिक-मूल्यों की निरपेक्षता एवं अपरिवर्तनशीलता सम्भव है। निष्काम कर्म-योग का दर्शन इसी परिवर्तनशीलता : प्रगति या प्रतिगति सिद्धान्त पर स्थित है, क्योंकि अनेक स्थितियों में कर्म का बाह्यात्मक आज परिवर्तनशीलता को प्रगति का लक्षण माना जाने लगा है, रूप कर्ता के मनोभावों का यथार्थ परिचायक नहीं होता। अत: यह किन्तु क्या परिवर्तनशीलता प्रगति की परिचायक है? इस प्रश्न का माना जा सकता है कि वे मूल्य जो मनोवृत्यात्मक या भावनात्मक उत्तर भी एकान्त रूप से नहीं दिया जा सकता है। परिवर्तनशीलता नीति से सम्बन्धित हैं, अपरिवर्तनीय हैं; किन्तु वे मूल्य जो आचरणात्मक प्रगति भी हो सकती है और प्रतिगति भी। पुन: कोई मूल्य-परिवर्तन या व्यवहारात्मक हैं, परिवर्तनीय हैं।
एक दृष्टि से प्रगति कहा जा सकता है, वहीं दूसरी दृष्टि से प्रतिगति २. दूसरे, नैतिक-साध्य या नैतिक-आदर्श अपरिवर्तनशील होता भी कहा जा सकता है। वर्तमान युग के जीवन-मूल्य एक दृष्टि से है किन्तु उस साध्य के साधन परिवर्तनीय होते हैं। जो सर्वोच्च शुभ प्रगतिशील हो सकते हैं तो दूसरी दृष्टि से प्रतिगति के परिचायक भी है वह अपरिवर्तनीय है, किन्तु उस सर्वोच्च शुभ की प्राप्ति के जो कहे जा सकते हैं। आज एक ओर मनुष्य का ज्ञान बढ़ा है, समृद्धि नियम या मार्ग हैं वे विविध एवं परिवर्तनीय हैं, क्योंकि एक ही साध्य बढ़ी है, उसकी प्रकृति पर शासन करने की शक्ति बढ़ी है; किन्तु की प्राप्ति के अनेक साधन हो सकते हैं। यहाँ हमें यह भी स्मरण दूसरी ओर जीवन में अक्षमता बढ़ी है, वासनाएँ बढ़ी हैं, असन्तोष रखना होगा कि सर्वोच्च शुभ को छोड़कर कुछ अन्य साध्य कभी साधन बढ़ा है। इसे क्या कहें प्रगति या प्रतिगति? आज नारी स्वातन्त्र्य को भी बन जाते हैं। अत: साध्य-साधन का वर्गीकरण निरपेक्ष नहीं है, एवं स्वच्छन्द यौन सम्बन्धों को, प्रगति कहा जाता है, किन्तु पाण्डु-कुन्ती उनमें परिवर्तन सम्भव है। यद्यपि जब तक कोई मूल्य साध्य स्थान सम्वाद में जो नारी-स्वातन्त्र्य का चित्र है, उसकी अपेक्षा से तो आज पर बना रहता है, तब तक उसकी मूल्यवत्ता अपरिवर्तनीय रहती है। का यूरोप भी पिछड़ा हुआ ही कहा जावेगा। पाण्डु कहते हैंकिन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि किसी स्थिति में जो साध्यमूल्य अनावृताः किल पुरा स्त्रिय आसन् वरानने । है, वह कभी साधन-मूल्य नहीं बनेगा। मूल्य-विश्व के अनेकों मूल्य कामाचारविहारिण्यः स्वतन्त्राश्चारुहासिनि ।। ऐसे हैं, जो कभी साधन-मूल्य है, वही कभी साध्य-मूल्य है। अत: तासां व्युच्चरमाणानां कौमारात् सुभगे पतीन् । उनकी मूल्यवत्ता अपने स्थानपरिवर्तन के साथ परिवर्तित हो सकती नाधर्मोऽभूद्वरारोहे स हि धर्मः पुराभवत् ।।१० है। पुनः वैयक्तिक रुचियों, क्षमताओं और स्थितियों की भिन्नता के _ 'पूर्व काल में स्त्रियाँ अनावृत्त थीं, वे भोग-विलास के लिए स्वतन्त्र आधार पर सभी के लिए समान नियमों का प्रतिपादन सम्भव नहीं होकर घूमा करती थीं, वे कौमार्य अवस्था में काम-सेवन करती थीं, है। अत: साधनमूल्यों को परिवर्तनीय मानना ही एक यथार्थ दृष्टिकोण वह उनके लिए अधर्म नहीं था।' आज समाज में इन्हीं मूल्यों की पुन: हो सकता है।
स्थापना करके हम प्रगति करेंगे या प्रतिगति, यह तो स्वयं हमारे विचारने ३. तीसरे, नैतिक नियमों में कुछ नियम मौलिक होते हैं और की वस्तु है। केवल प्रचलित एवं परम्परागत मूल्यों का निषेध नैतिक कुछ नियम उन मौलिक नियमों के सहायक होते हैं। साधारणतया सामान्य प्रगति का लक्षण नहीं है। आज हमें मानवीय विवेक के आलोक में या मूलभूत नियम ही अपरिवर्तनीय माने जा सकते हैं, विशेष नियम सर्वप्रथम मूल्यों का पुनर्मूल्याङ्कन करना होगा। हमारी नैतिक प्रगति
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का अर्थ होगा- उन मूल्यों की संस्थापना, जो विवेकशीलता की आँखों में मानवीय गुणों के विकास और मानवीय कल्याण के लिए सहायक हों, जिनके द्वारा मनुष्य की मनुष्यता जीवित रह सके। आज मनुष्य चाहे भौतिक दृष्टि से प्रगति की राह पर अग्रसर हो, किन्तु नैतिक दृष्टि से भी वह प्रगति कर रहा है यह कहना कठिन ही है। एक उर्दू शायर ने कहा है
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
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तालीम का शोर इतना, तहजीब का गुल इतना, फिर भी तरक्की न है, नीयत की खराबी है।
सन्दर्भ :
१.
बौद्धिक विकास से प्राप्त विशाल ज्ञानराशि, वैज्ञानिक तकनीक से प्राप्त भौतिक सुख-सुविधा एवं आर्थिक समृद्धि मनुष्य की आध्यात्मिक, मानसिक एवं सामाजिक विपन्नता को दूर नहीं कर पाई है ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा देने वाले सहस्राधिक विश्वविद्यालयों के होते हुए भी आज का शिक्षित मानव अपनी स्वार्थपरता और भोग-लोलुपता पर विवेक और संयम का अंकुश नहीं लगा पाया है।
Lectures in the youth League - उद्धृत नीतिशास्त्र का सर्वेक्षण, पृ० ३४४-३४५।
२.
Ethical Studies -- p. 223.
३.
देखिए - विषय और आत्म (यशदेव शल्य), पृ० ८८-८९ । ४. मनुस्मृति, १/८५ ।
५.
अष्टकप्रकरण (हरिभद्र) २७/५ की टीका में उद्धृत
सदाचार और दुराचार का अर्थ
जब हम सदाचार के किसी शाश्वत मानदण्ड को जानना चाहते हैं, तो सबसे पहले हमें यह देखना होगा कि सदाचार का तात्पर्य क्या है और किसे हम सदाचार कहते हैं ? शाब्दिक व्युत्पत्ति की दृष्टि से सदाचार शब्द सत् और आचार, इन दो शब्दों से मिलकर बना है, अर्थात् जो आचरण सत् या उचित है वह सदाचार है। फिर भी यह प्रश्न बना रहता है कि सत् या उचित आचरण क्या है? यद्यपि हम आचरण के कुछ प्रारूपों को सदाचार और कुछ प्रारूपों को दुराचार कहते हैं किन्तु मूल प्रश्न यह है कि वह कौन-सा तत्त्व है जो किसी आचरण को सदाचार या दुराचार बना देता है। हम अक्सर यह कहते हैं कि झूठ बोलना, चोरी करना, हिंसा करना, व्यभिचार करना आदि दुराचार है और करुणा, दया, सहानुभूति, ईमानदारी, सत्यवादिता आदि सदाचार हैं, किन्तु वह आधार कौन सा है जो प्रथम प्रकार के आचरणों को दुराचार और दूसरे प्रकार के आचरणों को सदाचार बना देता है?
भौतिक सुख-सुविधाओं का यह अम्बार आज भी उसके मानस को सन्तुष्ट नहीं कर पा रहा है आज शीघ्रगामी आवागमन के साधनों से विश्व की दूरी कम हो गई है किन्तु हृदय की दूरी तो बढ़ रही है। सुरक्षा के साधनों की यह बहुलता आज भी मानव मन में अभय का विकास नहीं कर सकी है। आज भी मनुष्य उतना ही आशंकित, आतंकित, आक्रामक और स्वार्थी है जितना आदिम युग में रहा होगा। मात्र इतना ही नहीं, आज तो जीवन की सहजता और स्वाभाविकता-भी उससे छिन गई है। आज जीवन में छद्मों का बाहुल्य है। भीतर वासना की उद्दाम ज्वालायें और बाहर सच्चरित्रता और सदाशयता का ढोंग; यही आज के मानव की त्रासदी है। इसे प्रगति कहें या प्रतिगति ? आज हमें यह निश्चित करना है कि हमारे मूल्य परिवर्तन की दिशा क्या हो? हमें मनुष्य को दोहरे जीवन की त्रासदी से बचाना है, किन्तु यह ध्यान भी रखना होगा कि कहीं इस बहाने हम उसे पशुत्व की ओर तो नहीं ढकेल रहे हैं।
६.
७.
८.
९.
महाभारत शान्तिपर्व ३६ / ११ ।
आचाराङ्ग, १/४/२/१३० ।
Contemporary Ethical Theories, p. 163. देखिये — नीति- सापेक्ष और निरपेक्ष तत्त्वदार्शनिक, अप्रैल १९७६ ।
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१०. महाभारत आदिपर्व १२२/४-५ ।
सदाचार के शाश्वत मानदण्ड और जैनधर्म
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डॉ० सागरमल जैन
चोरी या हिंसा क्यों दुराचार है और ईमानदारी या सत्यवादिता क्यों सदाचार है? यदि हम सत् या उचित के अंग्रेजी पर्याय (Right) पर विचार करते हैं तो यह शब्द लैटिन शब्द (Rectus) से बना है, जिसका अर्थ होता है नियमानुसार, अर्थात् जो आचरण नियमानुसार है, वह सदाचार है और जो नियमविरुद्ध है, वह दुराचार है। यहाँ नियम से तात्पर्य सामाजिक एवं धार्मिक नियमों या परम्पराओं से है। भारतीयपरम्परा में भी सदाचार शब्द की ऐसी ही व्याख्या मनुस्मृति में उपलब्ध होती है, मनु लिखते हैं
तस्मिन्देशे य आचार: पारम्पर्यक्रमागतः ।
वर्णानां सान्तरालानां स सदाचार उच्यते ।। २ / १८ ।
अर्थात् जिस देश, काल और समाज में जो आचरण परम्परा से चला आता है वही सदाचार कहा जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि जो परम्परागत आचार के नियम हैं, उनका पालन करना ही सदाचार है। दूसरे शब्दों में जिस देश, काल और समाज में आचरण की जो
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सदाचार के शाश्वत मानदण्ड और जैनधर्म
२५१ परम्पराएं स्वीकृत रही हैं, उन्हीं के अनुसार आचरण सदाचार कहा पारम्परिक शब्दावली में परभाव से हटकर स्वभाव में स्थित हो जाना जावेगा। किन्तु यह दृष्टिकोण समुचित प्रतीत नहीं होता है। वस्तुतः ही मोक्ष है। यही कारण था कि जैन-दार्शनिकों ने धर्म की एक विलक्षण कोई आचरण किसी देश, काल और समाज में आचरित एवं अनुमोदित एवं महत्त्वपूर्ण परिभाषा दी है। उनके अनुसार धर्म वह है जो वस्तु होने से सदाचार नहीं बन जाता।
का निज स्वभाव है (वत्थुसहावो धम्मो)। व्यक्ति का धर्म या साध्य कोई आचरण केवल इसलिए सत् या उचित नहीं होता है कि वही हो सकता है जो उसकी चेतना या आत्मा का निज-स्वभाव है वह किसी समाज में स्वीकृत होता रहा है, अपितु वास्तविकता तो और जो हमारा निज-स्वभाव है उसे पा लेना ही मुक्ति है। अत: उस यह है कि वह इसलिए स्वीकृत होता रहा है क्योंकि वह सत् है। स्वभाव-दशा की ओर ले जाने वाला आचरण ही सदाचरण कहा जा किसी आचरण का सत् या असत् होना अथवा सदाचार या दुराचार सकता है। होना स्वयं उसके स्वरूप पर निर्भर होता है, न कि उसके आचरित पुन: यह प्रश्न उठता है कि हमारा स्वभाव क्या है? भगवती-सूत्र अथवा अनाचरित होने पर। महाभारत में दुर्योधन ने कहा था- में गौतम ने भगवान् महावीर के सन्मुख यह प्रश्न उपस्थित किया था। जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिः ।
वे पूछते हैं- हे भगवन् ! आत्मा का निज स्वरूप क्या है और आत्मा ... जानाम्यधर्म न च मे निवृत्तिः ।। शान्तिपर्व
का साध्य क्या है? महावीर ने उनके इन प्रश्नों का जो उत्तर दिया ___अर्थात् मैं धर्म को जानता हूँ किन्तु उस ओर प्रवृत्ति नहीं होती, था, वह आज भी समस्त जैन आचार-दर्शन में किसी कर्म के नैतिक उसका आचरण नहीं करता। मैं अधर्म को भी जानता हूँ परन्तु उससे मूल्याङ्कन का आधार है। महावीर ने कहा था- आत्मा समत्व स्वरूप निवृत्ति नहीं होती हूँ। अत: हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि है और उस समस्व स्वरूप को प्राप्त कर लेना ही आत्मा का साध्य किसी आचरण का सदाचार या दुराचार होना इस बात पर निर्भर नहीं है। दूसरे शब्दों में समता या समभाव आत्मा का स्वभाव है और विषमता है कि वह किसी वर्ग या समाज द्वारा स्वीकृत या अस्वीकृत होता विभाव है। विभाव से स्वभाव की दिशा में अथवा विषमता से समता रहा है। सदाचार और दुराचार की मूल्यवत्ता उनके परिणामों पर या की दिशा में ले जाने वाला आचरण ही सदाचार है। संक्षेप में जैनधर्म उस साध्य पर निर्भर होती है, जिसके लिए उनका आचरण किया के अनुसार सदाचार या दुराचार का शाश्वत मानदण्ड समता एवं विषमता जाता है। आचरण की मूल्यवत्ता, स्वयं आचरण. पर ही नहीं, अपितु अथवा स्वभाव एवं विभाव है। स्वभाव दशा से फलित होने वाला उसके साध्य या परिणाम पर निर्भर होती है। किसी आचरण की आचरण सदाचार है और विभाव-दशा या पर-भाव से फलित होने मूल्यवत्ता का निर्धारण उसके समाज पर पड़ने वाले प्रभाव के आधार वाला आचरण दुराचार है। पर भी है, फिर भी उसकी मूल्यवत्ता का अन्तिम आधार तो कोई यहाँ हमें समता के स्वरूप पर भी विचार कर लेना होगा। यद्यपि आदर्श या साध्य पर ही विचार करना होगा जिसके आधार पर किसी द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि से समता का अर्थ पर-भाव से हटकर शुद्ध कर्म को सदाचार या दुराचार की कोटि में रखा जाता है। वस्तुतः स्वभाव दशा में स्थित हो जाना है किन्तु अपनी विविध अभिव्यक्तियों मानव-जीवन का परम साध्य ही वह तत्त्व है, जो सदाचार का मानदण्ड की दृष्टि से विभिन्न स्थितियों में इसे विभिन्न नामों से पुकारा जाता या कसौटी बनता है। पाश्चात्य आचार-दर्शनों में सदाचार और दुराचार है। आध्यात्मिक दृष्टि से समता या समभाव का अर्थ है- राग-द्वेष के जो मानदण्ड स्वीकृत रहे हैं उन्हें मोटे-मोटे रूप से दो भागों में से ऊपर उठकर वीतरागता या अनासक्त भाव की उपलब्धि। मनोवैज्ञानिक बाँटा जाता है-१. नियमवादी और २. साध्यवादी। नियमवादी-परम्परा दृष्टि से मानसिक समत्व का अर्थ है समस्त इच्छाओं, आकांक्षाओं सदाचार और दुराचार का मानदण्ड सामाजिक अथवा धार्मिक नियमों से रहित मन की शान्त एवं विक्षोभ (तनाव) रहित अवस्था। यही समत्व को मानती है, जबकि साध्यवादी-परम्परा सुख अथवा आत्म-पूर्णता को। जब हमारे सामुदायिक या सामाजिक जीवन में फलित होता है तो
इसे हम अहिंसा के नाम से अभिहित करते हैं। वैचारिक दृष्टि से इसे जैन-दर्शन में सदाचार का मापदण्ड
हम अनाग्रह या अनेकान्त-दृष्टि कहते हैं। जब हम इसी समत्व के ___ जैन-दर्शन मानव के चरम-साध्य के बारे में स्पष्ट है। उसके अनुसार आर्थिक पक्ष पर विचार करते हैं तो इसे अपरिग्रह के नाम से पुकारते व्यक्ति का चरम-साध्य मोक्ष या निर्वाण की प्राप्ति है। वह यह मानता हैं- 'साम्यवाद' एवं 'न्यासी-सिद्धान्त' इसी अपरिग्रह-वृत्ति की
कि जो आचरण निर्वाण या मोक्ष की दिशा में ले जाता है, वही आधुनिक अभिव्यक्तियाँ हैं। यह समत्व ही मानसिक क्षेत्र में अनासक्ति "सदाचार की कोटि में आता है। दूसरे शब्दों में जो आचरण मुक्ति या वीतरागता के रूप में, सामाजिक क्षेत्र में अहिंसा के रूप में, वैचारिकता
का कारण है वह सदाचार है और जो आचरण बन्धन का कारण है, के क्षेत्र से अनाग्रह या अनेकान्त के रूप में और आर्थिक क्षेत्र में अपरिग्रह वह दुराचार है। किन्तु यहाँ पर हमें यह भी स्पष्ट करना होगा कि के रूप में अभिव्यक्त होता है। अत: समत्व को निर्विवाद रूप से सदाचार उसका मोक्ष अथवा निर्वाण से क्या तात्पर्य है? जैनधर्म के अनुसार का मानदण्ड स्वीकार किया जा सकता है। किन्तु 'समत्व' को सदाचार निर्वाण या मोक्ष स्वभाव-दशा एवं आत्मपूर्णता की प्राप्ति है। वस्तुतः का मानदण्ड स्वीकार करते हुए भी हमें उसके विविध पहलुओं पर हमारा जो निज-स्वरूप है उसे प्राप्त कर लेना अथवा हमारी बीजरूप विचार तो करना ही होगा क्योंकि सदाचार का सम्बन्ध अपने साध्य क्षमताओं को विकसित कर आत्मपूर्णता की प्राप्ति ही मोक्ष है। उसकी के साथ-साथ उन साधनों से भी होता है जिसके द्वारा हम उसे पाना
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चाहते हैं और जिस रूप में वह हमारे व्यवहार में और सामुदायिक जीवन में प्रकट होता है।
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
जहाँ तक व्यक्ति के चैतसिक या आन्तरिक समत्व का प्रश्न है हम उसे वीतराग मनोदशा या अनासक्त चित्तवृत्ति की साधना मान सकते हैं। फिर भी समत्व की यह साधना का हमारे वैयक्तिक एवं आन्तरिक जीवन से अधिक सम्बन्धित है। वह व्यक्ति की मनोदशा की परिचायक है। यह ठीक है कि व्यक्ति की मनोदशा का प्रभाव उसके आचरण पर भी होता है और हम व्यक्ति के आचरण का मूल्याङ्गन करते समय उसके इस आन्तरिक पक्ष पर विचार भी करते है किन्तु सदाचार या दुराचार का यह प्रश्न हमारे व्यवहार के बाह्य पक्ष एवं सामुदायिकता के साथ अधिक जुड़ा हुआ है। जब भी हम सदाचार एवं दुराचार के किसी मानदण्ड की बात करते हैं तो हमारी दृष्टि व्यक्ति के आचरण के बाह्य-पक्ष पर अथवा उस आचरण का दूसरों पर क्या प्रभाव या परिणाम होता है, इस बात पर अधिक होती है। सदाचार या दुराचार का प्रश्न केवल कर्ता के आन्तरिक मनोभावों या वैयक्तिक जीवन से तो सम्बन्धित नहीं है, वह आचरण के बाह्य प्रारूप तथा हमारे सामाजिक जीवन में उस आचरण के परिणामों पर भी विचार करता है। यहाँ हमें सदाचार और दुराचार की व्याख्या के लिए कोई ऐसी कसौटी खोजनी होगी जो आचार के बाह्य पक्ष अथवा हमारे व्यवहार के सामाजिक पक्ष को भी अपने में समेट सके। सामान्यतया भारतीय चिन्तन में इस सम्बन्ध एक सर्वमान्य दृष्टिकोण यह है कि परोपकार ही पुण्य है और पर- पीड़ा ही पाप है तुलसीदास ने इसे निम्न शब्दों में प्रकट किया है"परहित सरिस धरम नहीं भाई। पर पीड़ा सम नहीं अधमाई ।' अर्थात् वह आचरण जो दूसरों के लिए कल्याणकारी या हितकारी है सदाचार है, पुण्य है और जो दूसरों के लिए अकल्याणकारी है, अहितकर है, पाप है, दुराचार है। जैनधर्म में सदाचार के एक ऐसे ही शाश्वत मानदण्ड की चर्चा हमें आधारात सूत्र में उपलब्ध होती है। वहाँ कहा गया है- "भूतकाल में जितने अर्हत हो गये हैं, वर्तमान काल में जितने अर्हत हैं और भविष्य में जितने अर्हत होंगे वे सभी यह उपदेश करते हैं कि सभी प्राणी, सभी भूतों, सभी जीवों और सभी सत्वों को किसी प्रकार का परिताप, उद्वेग या दुःख नहीं देना चाहिए, किसी का हनन करना चाहिए यही शुद्ध, नित्य और शाश्वत धर्म है।' किन्तु मात्र दूसरे की हिंसा नहीं करने के रूप में अहिंसा के निषेधात्मक पक्ष को या दूसरों के हित साधन को ही सदाचार की कसौटी नहीं माना जा सकता है। ऐसी अवस्थाएँ तब सम्भव है जबकि मेरे असत्य सम्भाषण एवं अनैतिक आचरण के द्वारा दूसरों का हित साधन होता हो, अथवा कम से कम किसी का अहित न होता हो, किन्तु क्या हम ऐसे आचरण को सदाचार कहने का साहस कर सकेंगे? क्या वेश्यावृत्ति के माध्यम से अपार धनराशि एकत्र कर उसे लोकहित के लिए व्यय करने मात्र से कोई स्त्री सदाचारिणी की कोटि में आ सकेगी? क्या यौन-वासना की संतुष्टि के वे रूप जिसमें किसी भी दूसरे प्राणी की प्रकट में हिंसा नहीं होती है, दुराचार की कोटि में नहीं आवेंगे? सूत्रकृताङ्ग में सदाचारिता का एक ऐसा ही दावा अन्य तैर्थिकों द्वारा प्रस्तुत भी किया गया था,
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न
जिसे भगवान् महावीर ने अमान्य कर दिया था। क्या हम उस व्यक्ति को, जो डाके डालकर उस सम्पत्ति को गरीबों में वितरित कर देता है, सदाचारी मान सकेंगे? एक चोर और एक सन्त दोनों ही व्यक्ति को सम्पत्ति के पाश से मुक्त करते हैं फिर भी दोनों समान-कोटि के नहीं माने जाते । वस्तुतः सदाचार या दुराचार का निर्णय केवल एक ही आधार पर नहीं होता है। उसमें आचरण का प्रेरक आन्तरिक पक्ष अर्थात् कर्ता की मनोदशा और आचरण का बाह्य परिणाम अर्थात् सामाजिक जीवन पर उसका प्रभाव दोनों ही विचारणीय हैं। आचार की शुभाशुभता विचार पर और विचार या मनोभावों की शुभाशमता स्वयं व्यवहार पर निर्भर करती है। सदाचार या दुराचार का मानदण्ड तो ऐसा होना चाहिए जो इन दोनों को समाविष्ट कर सके।
साधारणतया जैनधर्म सदाचार का शाश्वत मानदण्ड अहिंसा को स्वीकार करता है, किन्तु यहाँ हमें यह विचार करना होगा कि क्या केवल किसी को दुःख या पीड़ा नहीं देना या किसी की हत्या नहीं करना, मात्र यही अहिंसा है यदि अहिंसा की मात्र इतनी ही व्याख्या है, तो फिर वह सदाचार और दुराचार का मानदण्ड नहीं बन सकती, यद्यपि जैन आचार्यों ने सदैव उसे सदाचार का एकमात्र आधार प्रस्तुत किया है। आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा है कि अनृतवचन, स्तेय, मैथुन, परिग्रह आदि पापों के जो भिन्न-भिन्न नाम दिये गये हैं वे तो केवल शिष्य-बोध के लिए हैं, मूलतः तो वे सब हिंसा ही हैं (पुरुषार्थसिद्ध्युपाय)। वस्तुतः जैन आचार्यों ने अहिंसा को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में विचारा है। वह आन्तरिक भी है और बाह्य भी उसका सम्बन्ध व्यक्ति से भी है और समाज से भी । हिंसा को जैन परम्परा में स्व की हिंसा और पर की हिंसा, ऐसे दो भागों में बाँटा गया है। जब वह हमारे स्व-स्वरूप या स्वभाव दशा का घात करती है तो स्व-हिंसा है और जब दूसरों के हितों को चोट पहुँचाती है, तो वह पर की हिंसा है। स्व की हिंसा के रूप में वह आन्तरिक पाप है, तो पर की हिंसा के रूप में वह सामाजिक पाप किन्तु उसके ये दोनों रूप दुराचार की कोटि में आते हैं। अपने इस व्यापक अर्थ में हिंसा को दुराचार की और अहिंसा को सदाचार की कसौटी माना जा सकता है।
सदाचार के शाश्वत मानदण्ड की समस्या
यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या सदाचार का कोई शाश्वत मानदण्ड हो सकता है। वस्तुतः सदाचार और दुराचार के मानदण्ड का निश्चय कर लेना इतना सहज नहीं है। यह सम्भव है कि जो आचरण किसी परिस्थिति विशेष से सदाचार कहा जाता है, वही दूसरी परिस्थिति में दुराचार बन जाता है। और जो सामान्यतया दुराचार कहे जाते हैं। वे किसी परिस्थिति विशेष में सदाचार हो जाते हैं । शीलरक्षा हेतु की जाने वाली आत्महत्या सदाचार की कोटि में आ जाती है जबकि सामान्य स्थिति में वह अनैतिक (दुराचार) मानी जाती है। जैन आचार्यों का तो यह स्पष्ट उदघोष है "जे आसवा ते परिसवा, जे परिसवा ते आसवा", अर्थात् आचार के जो प्रारूप सामान्यतया बन्धन के कारण हैं, वे ही परिस्थिति विशेष में मुक्ति के साधन बन जाते हैं।
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सदाचार के शाश्वत मानदण्ड और जैनधर्म
२५३ और इसी प्रकार सामान्य स्थिति में जो मुक्ति के साधन हैं, वे ही किसी वाला मूल्य-परिवर्तन एक प्रकार का सापेक्षिक परिवर्तन ही होगा। यह परिस्थिति विशेष में बन्ध के कारण बन जाते हैं। प्रशमरतिप्रकरण सही है कि मनुष्य को जिस विश्व में जीवन जीना होता है वह (१४६) में उमास्वाति का कथन है
परिस्थिति-निरपेक्ष नहीं है। दैशिक एवं कालिक परिस्थितियों के परिवर्तन देशं कालं पुरुषमवस्थामुपघातशुद्धपरिणामान् ।
हमारी सदाचार-सम्बन्धी धारणाओं को प्रभावित करते हैं। दैशिक और प्रसमीक्ष्य भवति कल्प्यं नैकान्तात्कल्प्यते कल्प्यम्।।
कालिक-परिवर्तन के कारण यह सम्भव है कि जो कर्म एक देश और अर्थात् एकान्त रूप से न तो कोई कर्म आचरणीय होता है और काल में विहित हों, वे दूसरे देश और काल में अविहित हो जावें। न एकान्त रूप से अनाचरणीय होता है, वस्तुतः किसी कर्म की अष्टकप्रकरण की टीका (२७/५) में कहा गया हैआचरणीयता और अनाचरणीयता देश, काल, व्यक्ति, परिस्थिति और उत्पद्यते हि साऽवस्था देशकालोभयान् प्रति। मन:स्थिति पर निर्भर होती है। महाभारत में भी इसी दृष्टिकोण का यस्यामकार्यं कार्यं स्यात् कर्म कायं च वर्जयेत् ।। समर्थन किया गया है, उसमें लिखा है
दैशिक और कालिक स्थितियों के परिवर्तन से ऐसी अवस्था स एव धर्मः सोऽधमों देशकाले प्रतिष्ठितः ।
उत्पन्न हो जाती है, जिसमें कार्य, अकार्य की कोटि में और अकार्य, आदानमनृतं हिंसा धर्मोह्यावस्थिकस्मृतः ।।
कार्य की कोटि में आ जाता है, किन्तु यह अवस्था सामान्य अवस्था
- शान्तिपर्व, ३६/११। नहीं, अपितु कोई विशिष्ट अवस्था होती है, जिसे हम आपवादिक अर्थात् जो किसी देश और काल में धर्म (सदाचार) कहा जाता है, अवस्था के रूप में जानते हैं, किन्तु आपवादिक स्थिति में होने वाला वही किसी दूसरे देश और काल में अधर्म (दुराचार) बन जाता है यह परिवर्तन सामान्य स्थिति में होने वाले मूल्य-परिवर्तन से भिन्न
और जो हिंसा, झूठ, चौर्यकर्म आदि सामान्य अवस्था में अधर्म (दुराचार) । स्वरूप का होता है। उसे वस्तुत: मूल्य-परिवर्तन कहना भी कठिन कहे जाते हैं, वही किसी परिस्थति विशेष में धर्म बन जाते हैं। वस्तुतः है। इसमें जिन मूल्यों का परिवर्तन होता है, वे मुख्यतः साधन-मूल्य कभी-कभी ऐसी परिस्थितियाँ निर्मित हो जाती हैं, जब सदाचार-दुराचार होते हैं। क्योंकि साधन-मूल्य आचरण से सम्बन्धित होते हैं और आचरण की कोटि में और दुराचार, सदाचार की कोटि में होता है। द्रौपदी परिस्थिति-निरपेक्ष नहीं हो सकता। अत: उसमें परिस्थितियों के परिवर्तन का पाँचों पाण्डवों के साथ यद्यपि पति-पत्नी का सम्बन्ध था फिर भी के साथ परिवर्तन होता रहता है। इस प्रकार साधनभूत परम-आचरण उसकी गणना सदाचारी सती स्त्रियों में की जाती है, जबकि वर्तमान के नैतिक मानदण्ड परिवर्तित होते रहते हैं। समाज में इस प्रकार का आचरण दुराचार ही कहा जावेगा। किन्तु क्या दूसरे, व्यक्ति को समाज में जीवन जीना होता है और समाज इस आधार पर हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि सदाचार-दुराचार परिस्थिति-निरपेक्ष नहीं होता है, अत: सामाजिक नैतिकता अपरिवर्तनीय का कोई शाश्वत मानदण्ड नहीं हो सकता है। वस्तुतः सदाचार या नहीं कही जा सकती, उसमें देशकालगत परिवर्तनों का प्रभाव पड़ता दुराचार के किसी मानदण्ड का एकान्त रूप से निश्चय कर पाना कठिन है किन्तु उसकी यह परिवर्तनशीलता भी देशकाल सापेक्ष ही होती है। जो बाहर नैतिक दिखाई देता है, वह भीतर से अनैतिक हो सकता है। वस्तुत: किसी परिस्थिति में किसी एक साध्य का नैतिक मूल्य है और जो बाहर से अनैतिक दिखाई देता है, वह भीतर से नैतिक इतना प्रधान हो जाता है कि उसकी सिद्धि के लिए किसी दूसरे नैतिक हो सकता है। एक ओर तो व्यक्ति की आन्तरिक मनोवृत्तियाँ और मूल्य का निषेध आवश्यक हो जाता है, जैसे अन्याय के प्रतिकार के दूसरी ओर जागतिक परिस्थितियाँ किसी कर्म की नैतिक मूल्यवत्ता लिए हिंसा। किन्तु यह निषेध परिस्थिति-विशेष तक ही सीमित रहता को प्रभावित करती रहती हैं। अत: इस सम्बन्ध में कोई एकान्त नियम है। उस परिस्थिति के सामान्य होने पर धर्म पुन: धर्म बन जाता है कार्य नहीं करता है। हमें उन सब पहलुओं पर भी ध्यान देना होता और अधर्म, अधर्म बन जाता है। वस्तुत: आपवादिक अवस्था में कोई है जो कि किसी कर्म की नैतिक मूल्यवत्ता को प्रभावित कर सकते एक मूल्य इतना प्रधान प्रतीत होता है कि उसकी उपलब्धि के लिए हैं। जैन विचारकों ने सदाचार या नैतिकता के परिवर्तनशील और अपरि- हम अन्य मूल्यों की उपेक्षा कर देते हैं अथवा कभी-कभी सामान्य वर्तनशील अथवा सापेक्ष और निरपेक्ष दोनों पक्षों पर विचार किया है। रूप से स्वीकृत उसी मूल्य के विरोधी तथ्य को हम उसका साधन
बना लेते हैं। उदाहरण के लिए जब हमें जीवन-रक्षण ही एकमात्र मूल्य मंदाचार के मानदण्ड की परिवर्तनशीलता का प्रश्न
प्रतीत होता है तो उस अवस्था में हम हिंसा, असत्य-भाषण, चोरी , वस्तुत: सदाचार के मानदण्डों में परिवर्तन दैशिक और कालिक आदि को अनैतिक नहीं मानते हैं। इस प्रकार अपवाद की अवस्था आवश्यकता के अनुरूप होता है। मनुस्मृति में कहा गया है कि- में एक मूल्य साध्य स्थान पर चला जाता है और अपने साधनों को अन्ये कृतयुगे धर्मस्त्रेतायां द्वापरेऽपरे ।
मूल्यवत्ता प्रदान करता प्रतीत होता है, किन्तु यह मूल्य-भ्रम ही है, अन्ये कलियुगे नृणां युगह्रासानुरूपतः ।।।
उस समय भी चोरी या हिंसा मूल्य नहीं बन जाते हैं क्योंकि उनका
- मनुस्मृति, १/८५। स्वत: कोई मूल्य नहीं है, वे तो उस साध्य की मूल्यवत्ता के कारण युग के ह्रास के अनुरूप सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग मूल्य के रूप में प्रतीत या आभासित होते हैं। इसका यह अर्थ कदापि के धर्म अलग-अलग होते हैं। यह परिस्थतियों के परिवर्तन से होने नहीं है कि अहिंसा के स्थान पर हिंसा, या सत्य के स्थान पर असत्य
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ नैतिक मूल्य बन जाते हैं। साधुजन की रक्षा के लिए दुष्टजन की हिंसा जा सकता है? क्या नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता फैशनों की . की जा सकती है किन्तु इससे हिंसा मूल्य नहीं बन जाती है। किसी परिवर्तनशीलता के समान है, जिन्हें जब चाहें तब और जैसा चाहें वैसा प्रत्यय की नैतिक मूल्यवत्ता उसके किसी परिस्थिति विशेष में आचरित बदला जा सकता है। आयें, जरा इन प्रश्नों पर थोड़ी गम्भीर चर्चा करें। होने या नहीं होने से अप्रभावित भी रह सकती है। प्रथम तो यह कि सर्वप्रथम तो आज जिस परिवर्तनशीलता की बात कही जा रही अपवाद की मूल्यवत्ता केवल उस परिस्थिति विशेष में ही होती है, है, उससे तो स्वयं सदाचार के मूल्य होने में ही अनास्था उत्पन्न हो उसके आधार पर सदाचार का कोई सामान्य नियम नहीं बनाया जा गई है। आज का मनुष्य अपनी पाशविक वासनाओं की पूर्ति के लिए सकता। साथ ही जब व्यक्ति आपद्धर्म का आचरण करता है तब भी विवेक एवं संयम की नियामक मर्यादाओं की अवहेलना को ही उसकी दृष्टि में मूल नैतिक नियम या सदाचार की मूल्यवत्ता अक्षुण्ण मूल्य-परिवर्तन मान रहा है। वर्षों के चिन्तन और साधना से फलित बनी रहती है। यह तो परिस्थितिगत या व्यक्तिगत विवशता है, जिसके ये मर्यादाएँ आज उसे कोरी लग रही हैं और इन्हें तोड़ फेंकी में कारण उसे वह आचरण करना पड़ रहा है। दूसरे सार्वभौम नियम ही उसे मूल्य-क्रान्ति परिलक्षित हो रही है। स्वतन्त्रता के नाम पर वह में और अपवाद में अन्तर है। अपवाद की यदि कोई मूल्यवत्ता है, अतंत्रता और अराजकता को ही मूल्य मान बैठा है, किन्तु यह सब तो वह केवल विशिष्ट परिस्थिति में ही रहती है, जबकि सामान्य नियम मूल्य-विभ्रम या मूल्य-विपर्यय ही है जिसके कारण नैतिक मूल्यों के की मूल्यवत्ता है, तो वह केवल विशिष्ट परिस्थिति में ही रहती है, निर्मूल्यीकरण को ही परिवर्तन कहा जा रहा है। किन्तु हमें यह समझ जबकि सामान्य नियम की मूल्यवत्ता सार्वदेशिक, सार्वकालिक और लेना होगा कि मूल्य-संक्रमण या मूल्यान्तरण मूल्य-निषेध नहीं है। सार्वजनीन होती है। अत: आपद्धर्म या अपवाद मार्ग की स्वीकृति परिवर्तनशीलता का तात्पर्य स्वयं नीति के मूल्य होने में अनास्था नहीं जैनधर्म में मूल्य परिवर्तन की सूचक नहीं है। यह सामान्यतया किसी है। यह सत्य है कि नैतिक मूल्यों में और नीति सम्बन्धी धारणाओं मूल्य को न तो निर्मूल्य करती है और न मूल्य संस्थान में उसे अपने में परिवर्तन हुए हैं और होते रहेंगे, किन्तु मानव-इतिहास में कोई स्थान से पदच्युत ही करती है, अत: वह मूल्यान्तरण भी नहीं है। भी काल ऐसा नहीं है, जब स्वयं नीति की मूल्यवत्ता को ही अस्वीकार
नैतिक कर्म के दो पक्ष होते हैं- एक बाह्यपक्ष, जो आचरण किया गया हो। वस्तुत: नैतिक मूल्यों या सदाचार के मानदण्डों की के रूप में होता है और दूसरा आन्तरिक पक्ष, जो कर्ता के मनोभावों परिवर्तनशीलता में भी कुछ ऐसा अवश्य है, जो बना रहता है और के रूप में होता हैं। अपवादमार्ग का सम्बन्ध केवल बाह्य पक्ष से होता वह है, स्वयं उनकी मूल्यवत्ता। नैतिक मूल्यों की विषयवस्तु बदलती है, अत: उससे किसी नैतिक मूल्य की मूल्यवत्ता प्रभावित नहीं होती रहती है, किन्तु उनका मूल आधार बना रहता है। मात्र इतना ही नहीं, है। कर्म का मात्र बाह्य-पक्ष उसे कोई नैतिक मूल्य प्रदान नहीं करता है। कुछ मूल्य ऐसे भी हैं, जो अपनी मूल्यवत्ता को नहीं खोते हैं, मात्र
उनकी व्याख्या के सन्दर्भ एवं अर्थ बदलते हैं। सदाचार के मानदण्डों की परिवर्तनशीलता का अर्थ
आज स्वयं सदाचार या नैतिकता की मूल्यवत्ता के निषेध की सदाचार के मानदण्डों की परिवर्तनशीलता पर विचार करते समय बात दो दिशाओं से खड़ी हुई है- एक ओर भौतिकवादी और साम्यवादी सबसे पहले हमें यह निश्चित कर लेना होगा कि परिवर्तनशीलता से दर्शनों के द्वारा और दूसरी ओर पाश्चात्य अर्थ-विश्लेषणवादियों के हमारा क्या तात्पर्य है? कुछ लोग परिवर्तनशीलता का अर्थ स्वयं सदाचार द्वारा। यह कहा जाता है कि वर्तमान में साम्यवादी-दर्शन नीति की की मूल्यवत्ता की अस्वीकृति से लेते हैं। आज जब पाश्चात्य विचारकों मूल्यवत्ता को अस्वीकार करता है, किन्तु इस सम्बन्ध में स्वयं लेनिन के द्वारा नैतिक मूल्यों को सांवेगिक अभिव्यक्ति या वैयक्तिक एवं का वक्तव्य द्रष्टव्य है। वे कहते हैं- “प्रायः यह कहा जाता है कि सामाजिक अनुमोदन एवं रुचि का पर्याय माना जा रहा हो, तब हमारा अपना कोई नीति-शास्त्र नहीं है, बहुधा मध्य वित्तीय वर्ग कहता परिवर्तनशीलता का अर्थ स्वयं उनकी मूल्यवत्ता को नकारना ही होगा। है कि हम सब प्रकार के नीति-शास्त्र का खण्डन करते हैं, किन्तु उनका आज सदाचार की मूल्यवत्ता स्वयं अपने ही अर्थ की तलाश कर रही यह तरीका विचारों को भ्रष्ट करना है, श्रमिकों और कृषकों की आँख है। यदि सदाचार की धारणा अर्थहीन है, मात्र सामाजिक अनुमोदन में धूल झोंकना है। हम उसका खण्डन करते हैं जो ईश्वरीय आदेशों है, तो फिर उसकी परिवर्तनशीलता का भी कोई विशेष अर्थ नहीं से नीति-शास्त्र को आविर्भूत करता है। हम कहते हैं कि यह धोखाधड़ी रह जाता है क्योंकि यदि सदाचार के मूल्यों का यथार्थ एवं वस्तुगत है और श्रमिकों तथा कृषकों के मस्तिष्कों को पूंजीपतियों तथा भू-पतियों अस्तित्व ही नहीं है, यदि वे मात्र मनोकल्पनाएँ हैं तो उनके परिवर्तन के स्वार्थ के लिए सन्देह में डालता है। हम कहते हैं कि हमारा नीति-शास्त्र का ठोस आधार भी नहीं होगा? दूसरे, जब हम सदाचार-दुराचार, सर्वहारा वर्ग के वर्ग-संघर्ष के हितों के अधीन है, जो शोषक-समाज शुभ-अशुभ अथवा औचित्य-अनौचित्य के प्रत्ययों को वैयक्तिक एवं को नष्ट करे, जो श्रमिकों को संगठित करे और साम्यवादी-समाज की सामाजिक अनुमोदन या पसन्दगी किंवा नापसन्दगी के रूप में देखते स्थापना करे, वही नीति है, शेष सब अनीति है।" इस प्रकार साम्यवादी हैं तो उनकी परिवर्तनशीलता का अर्थ फैशन की परिवर्तनशीलता से दर्शन नैतिक मूल्यों का मूल्यान्तरण तो करता है, किन्तु स्वयं नीति की अधिक नहीं रह जावेगा।
मूल्यवत्ता का निषेध नहीं करता है। वह उस नीति का समर्थक है जो किन्तु क्या सदाचार की मूल्यवत्ता पर ही कोई प्रश्न चिह्न लगाया अन्याय एवं शोषण की विरोधी है और सामाजिक समता की संस्थापक
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सदाचार के शाश्वत मानदण्ड और जैनधर्म
२५५ है, जो पीड़ित और शोषित को अपना अधिकार दिलाती है और सामाजिक मानवीय पसन्दगी या नापसन्दगी केवल मन की मौज या मन की तरङ्ग न्याय की स्थापना करती है। वह सामाजिक न्याय और आर्थिक समता (Whim) पर निर्भर नहीं है। इन्हें पूरी तरह आत्मनिष्ठ (Subjective) की स्थापना को ही सदाचार का मानदण्ड स्वीकार करती है। अत: नहीं माना जा सकता, इनके पीछे एक वस्तुनिष्ठ आधार भी होता है। वह सदाचार और दुराचार की धारणा को अस्वीकार नहीं करती है। आज हमें उन आधारों का अन्वेषण करना होगा, जो हमारी पसन्दगी
वह भौतिकवादी दर्शन, जो सामाजिक एवं साहचर्य के मूल्यों और नापसन्दगी को बनाते या प्रभावित करते हैं। वे कुछ आदर्श, सिद्धान्त का समर्थक है, नीति की मूल्यवत्ता का निषेधक नहीं हो सकता है। दृष्टियाँ या मूल्य-बोध हैं, जो हमारी पसन्दगी या नापसन्दगी को बनाते यदि हम मनुष्य को एक विवेकवान् सामाजिक प्राणी मानते हैं, तो हैं और जिनके आधार पर हमारी रुचियाँ सृजित होती हैं। मानवीय हमें नैतिक मूल्यों को अवश्य स्वीकार करना होगा। वस्तुतः नीति का रुचियाँ और मानवीय पसन्दगी या नापसन्दगी आकस्मिक एवं प्राकृतिक अर्थ है किन्हीं विवेकपूर्ण साध्यों की प्राप्ति के लिए वैयक्तिक और (Natural) नहीं हैं। जो तत्त्व इनको बनाते हैं, उनके नैतिक मूल्य सामाजिक जीवन में आचार और व्यवहार के किन्हीं ऐसे आदर्शों एवं या सदाचार की अवधारणाएँ भी है। ये पूर्णतया व्यक्ति और समाज मर्यादाओं की स्वीकृति, जिसके अभाव में मानव की मानवता और की रचना भी नहीं हैं, अपितु व्यक्ति के मूल्य-संस्थान के बोध से भी मानवीय समाज का अस्तित्व ही खतरे में होगा, यदि नीति की मूल्यवत्ता उत्पन्न होती हैं। वस्तुत: मूल्यों की सत्ता अनुभव की पूर्ववर्ती है, मनुष्य का या सदाचार की धारणा का निषेध कोई दृष्टि कर सकती है तो मूल्यों का द्रष्टा है, सृजक नहीं। अत: पसन्दगी की इस धारणा के वह मात्र पाशविक भोगवादी दृष्टि है, किन्तु यह दृष्टि मनुष्य को एक आधार पर स्वयं सदाचार की मूल्यवत्ता को निरस्त नहीं किया जा सकता पशु से अधिक नहीं मानती है। यह सत्य है कि यदि मनुष्य मात्र है। दूसरे यदि हम औचित्य एवं अनौचित्य या सदाचार-दुराचार का पशु है तो नीति का, सदाचार का कोई अर्थ नहीं है, किन्तु क्या आज आधार सामाजिक उपयोगिता को मानते हैं, तो यह भी ठीक नहीं है। मनुष्य का अवमूल्यन पशु के स्तर पर किया जा सकता है? क्या मेरे व्यक्तिगत स्वार्थों से सामाजिक हित क्यों श्रेष्ठ एवं वरेण्य हैं? मनुष्य निरा पशु है? यदि मनुष्य निरा पशु होता तो वह पूरी तरह इस प्रश्न का हमारे पास क्या उत्तर होगा? सामाजिक हितों की वरेण्यता प्राकृतिक नियमों से शासित होता और निश्चय ही उसके लिए सदाचार का उत्तर सदाचार के किसी शाश्वत मानदण्ड को स्वीकार किये बिना की कोई आवश्यकता नहीं होती। किन्तु आज का मनुष्य पूर्णत: प्राकृतिक नहीं दिया जा सकता है। इस प्रकार परिवर्तनशीलता के नाम पर स्वयं नियमों से शासित नहीं है, वह तो प्राकृतिक नियमों एवं मर्यादाओं सदाचार की मूल्यवत्ता पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया जा सकता। सदाचार की अवहेलना करता है। अत: पशु भी नहीं है। उसकी सामाजिकता के मूल्यों के अस्तित्व की स्वीकृति में ही उनकी परिवर्तनशीलता का भी उसके स्वभाव से नि:सृत नहीं है, जैसी कि यूथचारी प्राणियों में कोई अर्थ हो सकता है, उनके नकारने में नहीं है। होता है। उसकी सामाजिकता उसके बुद्धितत्त्व का प्रतिफल है, वह यहाँ हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि समाज भी सदाचार विचार की देन है, स्वभाव की नहीं। यही कारण है कि वह समाज के किसी मानदण्ड का सृजक नहीं है। अक्सर यह कहा जाता है कि का और सामाजिक मर्यादाओं का सर्जक भी है और संहारक भी है, सदाचार या दुराचार की धारणा समाज-सापेक्ष है। एक उर्दू शायर ने वह उन्हें स्वीकार भी करता है और उनकी अवहेलना भी करता है, कहा हैअत: वह समाज से ऊपर भी है। बेडले का कथन है कि यदि मनुष्य बजा कहे आलम उसे बजा समझो। सामाजिक नहीं है तो वह मनुष्य ही नहीं है, किन्तु यदि वह केवल जबानए खल्क को नक्कारए खुदा समझो।। सामाजिक है तो वह पशु से अधिक नहीं है। मनुष्य की मनुष्यता अर्थात् जिसे समाज उचित कहता है उसे उचित और जिसे अनुचित उसके अति सामाजिक एवं नैतिक प्राणी होने में है। अतः मनुष्य के कहता है उसे अनुचित मानो क्योंकि समाज की आवाज ईश्वर की आवाज लिए सदाचार की मूल्यवत्ता की अस्वीकृति असम्भव है। यदि हम है। सामान्यतया सामाजिक मानदण्डों को सदाचार का मानदण्ड मान परिवर्तनशीलता के नाम पर स्वयं सदाचार की मूल्यवत्ता को ही अस्वीकार लिया जाता है किन्तु गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर यह बात प्रामाणिक करेंगे तो वह मानवीय संस्कृति का ही अवमूल्यन होगा। मात्र अवमूल्यन सिद्ध नहीं होती है। समाज किन्हीं आचरण के प्रारूपों को विहित या नहीं, उसकी इतिश्री भी होगी।
अविहित मान सकता है किन्तु सामाजिक विहितता और अविहितता पुनश्च सदाचार की धारणाओं को सांवेगिक अभिव्यक्ति या नैतिक औचित्य या अनौचित्य से भिन्न है। एक कर्म अनैतिक होते "रुचि-सापेक्ष मानने पर भी, न तो सदाचार की मूल्यवत्ता को निरस्त हुए भी विहित माना जा सकता है अथवा नैतिक होते हुए भी अविहित किया जा सकता है और न सदाचार एवं दुराचार के मानदण्डों को फैशनों माना जा सकता है। कंजर जाति में चोरी, आदिम कबीलों में नरबलि के समान परिवर्तनशील माना जा सकता है। यदि सदाचार और दुराचार या मुस्लिम समाज में बहु-पत्नी-प्रथा विहित है। राजपूतों में लड़की के आधार पसन्दगी या नापसन्दगी है तो फिर पसन्दगी या नापसन्दगी __ को जन्मते ही मार डालना कभी विहित रहा था। अनेक देशों में के भावों की उत्पत्ति का आधार क्या है? क्यों हम चौर्य-कर्म को नापसन्द वेश्यावृत्ति, सम-लैंगिकता या मद्यपान आज भी विहित और वैधानिक करते हैं और क्यों ईमानदारी को पसन्द करते हैं? सदाचार एवं दुराचार की है- किन्तु क्या इन्हें नैतिक कहा जा सकता है। क्या आचार के व्याख्या मात्र पसन्दगी और नापसन्दगी के रूप में नहीं की जा सकती। ये रूप सदाचार की कोटि आ जा सकते हैं? नग्नता को और शासनतन्त्र
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की आलोचना को, अविहित एवं अवैधानिक माना जा सकता है, किन्तु इससे नग्न रहना या शासक वर्ग के गलत कार्यों की आलोचना करना अनैतिक मान लेने मात्र से वह असदाचार की कोटि में नहीं आ जाता। गर्भपात वैधानिक हो सकता है लेकिन नैतिक कभी नहीं । नैतिक मूल्यवत्ता निष्पक्ष विवेक के प्रकाश में आलोकित होती है वह सामाजिक विहितता या वैधानिकता से भिन्न है । समाज किसी कर्म को विहित या अविहित बना सकता है, किन्तु उचित या अनुचित नहीं ।
यद्यपि सदाचार के मानदण्डों में परिवर्तन होता है किन्तु उनकी परिवर्तनशीलता फैशनों की परिवर्तनशीलता के समान भी नहीं है, क्योंकि नैतिक मूल्य या सदाचार के मानदण्ड मात्र रुचि सापेक्ष न होकर स्वयं रुथियों के सृजक भी हैं। अतः जिस प्रकार रुचियाँ या तज्जानित फैशन बदलते हैं वैसे ही सदाचार के मानदण्ड नहीं बदलते हैं। यह सही है कि उनमें देश, काल एवं परिस्थितियों के आधार पर कुछ परिवर्तन होता है किन्तु फिर भी उनमें एक स्थायी तत्त्व होता है। अहिंसा, न्याय, आत्म-त्याग, संयम आदि अनेक नैतिक मूल्य या सदाचार के प्रत्यय ऐसे है, जिनकी मूल्यवत्ता सभी देशों एवं कालों में समान रूप से स्वीकृत रही है। यद्यपि इनमें अपवाद माने गये हैं, किन्तु अपवाद की स्वीकृति इनकी मूल्यवत्ता का निषेध नहीं होकर, वैयक्तिक असमर्थता अथवा परिस्थिति विशेष में उनकी सिद्धि की विवशता की ही सूचक है। अपवाद, अपवाद है, वह मूल-नियम का निषेध नहीं है। जैन दर्शन उत्सर्ग-मार्ग और अपवाद मार्ग का विधान करता है उसमें उत्सर्ग मार्ग को शाश्वत और अपवाद मार्ग को परिवर्तनशील माना गया है। इस प्रकार कुछ नैतिक मूल्य या सदाचार की धारणाएँ अवश्य ही ऐसी हैं जो सार्वभौम और अपरिवर्तनीय हैं। प्रथमतः सदाचार की धारणाओं में बहुत ही कम परिवर्तन होता है और यदि होता भी है तो कहीं अधिक स्वामित्व लिए हुए होता है। फैशन एक दशाब्दी से दूसरी दशाब्दी में ही नहीं, अपितु दिन-प्रतिदिन बदलते रहते हैं, किन्तु नैतिक मूल्य या सदाचार सम्बन्धी धारणाएँ इस प्रकार नहीं बदलती हैं। ग्रीक नैतिक मूल्यों का ईसाइयत के द्वारा तथा भारतीय वैदिक युग के मूल्यों का औपनिषदिक एवं जैन-बौद्ध संस्कृतियों के द्वारा आंशिक रूप से मूल्यान्तरण अवश्य हुआ है किन्तु श्रमण संस्कृति तथा जैनधर्म के द्वारा स्वीकृत मूल्यों का इन दो हजार वर्षों में भी मूल्यान्तरण नहीं हो सका है। इन्होंने सदाचार या दुराचार के जो मानदण्ड स्थिर किये थे वे आज भी स्वीकृत हैं । आज आमूल परिवर्तन के नाम पर उनके उखाड़ फेंकने की जो बात कही जा रही है, वह भ्रान्तिजनक ही है मूल्य-विश्व में आमूल परिवर्तन या निरपेक्ष परिवर्तन सम्भव ही नहीं होता है। नैतिक मूल्यों या सदाचार की धारणाओं के सन्दर्भ में जिस प्रकार का परिवर्तन होता है वह एक सापेक्ष और सीमित प्रकार का परिवर्तन है। इसमें दो प्रकार के परिवर्तन परिलक्षित होते हैं— परिवर्तन का एक रूप वह होता है, जिसमें कोई नैतिक मूल्य विवेक के विकास के साथ व्यापक अर्थ ग्रहण करता जाता है तथा उसके पुराने अर्थ अनैतिक और नये अर्थ नैतिक माने जाने लगते हैं, जैसा कि अहिंसा और परार्थ के प्रत्ययों के साथ हुआ है। एक समय में
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इन प्रत्ययों का अर्थ विस्तार परिजनों, स्वजातियों एवं स्वधर्मियों तक सीमित था। आज वह राष्ट्रीयता या स्वराष्ट्र तक विकसित होता हुआ सम्पूर्ण मानव जाति एवं प्राणी जगत् तक अपना विस्तार पा रहा है। आत्मीय-परिजनों, जाति-बन्धुओं एवं सधर्मी बन्धुओं का हित साधन करना किसी युग में नैतिक माना जाता था किन्तु आज हम उसे भाई-भतीजावाद, जातिवाद एवं सम्प्रदायवाद कहकर अनैतिक मानते हैं आज राष्ट्रीय हित साधन नैतिक माना जाता है, किन्तु आने वाले कल में यह भी अनैतिक माना जा सकता है। यही बात अहिंसा के प्रत्यय के साथ भी घटित हुई है, आदिम कबीलों में परिजनों की हिंसा ही हिंसा मानी जाती थी, आगे चलकर मनुष्य की हिंसा को हिंसा माना जाने लगा, वैदिक धर्म एवं यहूदी धर्म ही नहीं, ईसाई धर्म भी, अहिंसा के प्रत्यय को मानव जाति से अधिक अर्थ विस्तार नहीं दे पाया, किन्तु वैष्णव परम्परा में अहिंसा का प्रत्यय प्राणी जगत् तक और जैन परम्परा में वनस्पति जगत् तक अपना अर्थ विस्तार पा गया। इस प्रकार नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता का एक अर्थ उनके अर्थों को विस्तार या संकोच देना भी है। इसमें मूलभूत प्रत्यय की मूल्यवत्ता बनी रहती है, केवल उसके अर्थ विस्तार या संकोच ग्रहण करते जाते हैं। नरबलि पशुबलि या विधर्मी की हत्या हिंसा है या नहीं है? इस प्रश्न के उत्तर लोगों के विचारों की भित्रता से भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, किन्तु इससे न्याय की मूल्यवता समाप्त नहीं होती है। यौन-नैतिकता के सन्दर्भ में भी इसी प्रकार का अर्थ विस्तार या अर्थ संकोच हुआ है। इसकी एक अति यह रही है कि एक ओर पर पुरुष का दर्शन भी पाप माना गया तो दूसरी ओर स्वच्छन्द यौन-सम्बन्धों को भी विहित माना गया किन्तु इन दोनों अतियों के बावजूद पति-पत्नी सम्बन्ध में प्रेम, निष्ठा एवं त्याग के तत्त्वों की अनिवार्यता सर्वमान्य रही तथा संयम एवं ब्रह्मचर्य की मूल्यवत्ता पर कोई प्रश्नचिह्न नहीं लगाया गया । नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता का एक रूप वह होता है, जिसमें किसी मूल्य की मूल्यवता को अस्वीकार नहीं किया जाता, किन्तु उनका पदक्रम बदलता रहता है अर्थात् मूल्यों का निर्मूल्यीकरण नहीं होता अपितु उनका स्थान संक्रमण होता है। किसी युग में जो नैतिक गुण प्रमुख माने जाते रहे हों, वे दूसरे युग में गौण हो सकते हैं और जो मूल्य गौण थे, वे प्रमुख हो सकते हैं। उच्च मूल्य निम्न स्थान पर तथा निम्न मूल्य उच्च स्थान पर या साध्य मूल्य साधन स्थान पर तथा साधन मूल्य साध्य स्थान पर आ जा सकते हैं। कभी न्याय' का मूल्य प्रमुख और अहिंसा का मूल्य गौण था— न्याय की स्थापना के लिए हिंसा को विहित माना जाता था किन्तु जब अहिंसा का प्रत्यय प्रमुख बन गया तो अन्याय को सहन करना भी विहित माना जाने लगा। ग्रीक मूल्यों के स्थान पर ईसाईयत के मूल्यों की स्थापना में ऐसा ही परिवर्तन हुआ है आज साम्यवादी दर्शन सामाजिक न्याय के हेतु खूनी क्रान्ति की उपादेयता की स्वीकृति के द्वारा पुनः अहिंसा के स्थान पर न्याय को ही प्रमुख मूल्य के पद पर स्थापित करना चाहता है। किन्तु इसका अर्थ यह कभी नहीं है कि ग्रीक सभ्यता में या साम्यवादी दर्शन में अहिंसा पूर्णतया निर्मूल्य है या ईसाईयत में
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सदाचार के शाश्वत मानदण्ड और जैनधर्म
२५७ न्याय का कोई स्थान ही नहीं है। मात्र होता यह है कि युग की परिस्थिति जैन-नैतिकता का अपरिवर्तनशील या निरपेक्ष-पक्ष के अनुरूप मूल्य-विश्व के कुछ मूल्य उभरकर प्रमुख बन जाते हैं और हमने जैन दर्शन में नैतिकता के सापेक्ष-पक्ष पर विचार किया। दूसरे उनके परिपार्श्व में चले जाते हैं। मात्र इतना ही नहीं, कभी-कभी लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि जैन-दर्शन में नैतिकता का केवल बाहर से परस्पर विरोध में स्थित दो मूल्य वस्तुत: विरोधी नहीं होते सापेक्ष पक्ष ही स्वीकार किया गया है। जैन विचारक कहते हैं कि हैं- जैसे न्याय और अहिंसा। कभी-कभी न्याय की स्थापना के लिए नैतिकता का एक-दूसरा पहलू भी है जिसे हम निरपेक्ष कह सकते हिंसा का सहारा लिया जाता है, किन्तु इससे मूलत: वे परस्पर विरोधी हैं। जैन तीर्थङ्करों का उद्घोष था कि “धर्म शुद्ध है, नित्य है और नहीं कहे जा सकते हैं क्योंकि अन्याय भी तो हिंसा ही है। साम्यवाद शाश्वत है।" यदि नैतिकता में कोई निरपेक्ष एवं शाश्वत तत्त्व नहीं और प्रजातन्त्र के राजनैतिक-दर्शनों का विरोध मूल्य-विरोध नहीं, मूल्यों है तो फिर धर्म की नित्यता और शाश्वतता को कोई अर्थ नहीं रह की प्रधानता का विरोध है। साम्यवाद के लिए रोटी और सामाजिक जाता है। जैन-नैतिकता यह स्वीकार करती है कि भूत, वर्तमान, भविष्य न्याय प्रधान मूल्य है और स्वतन्त्रता गौण मूल्य है, जबकि प्रजातन्त्र के सभी धर्म-प्रवर्तकों (तीर्थङ्करों) की धर्म-प्रज्ञप्ति एक ही होती है लेकिन में स्वतन्त्रता प्रधान मूल्य है और रोटी गौण मूल्य है। आज स्वच्छन्द इसके साथ-साथ वह यह भी स्वीकार करती है कि सभी तीर्थङ्करों की यौनाचार का समर्थन भी, संयम के स्थान पर स्वतन्त्रता (अतन्त्रता) धर्म-प्रज्ञप्ति एक होने पर भी तीर्थङ्करों के द्वारा प्रतिपादित आचार-नियमों को ही प्रधान मूल्य मानने के एक अतिवादि दृष्टिकोण का परिणाम है। में ऊपर से विभिन्नता मालूम हो सकती है, जैसी महावीर और पार्श्वनाथ सुखवाद और बुद्धिवाद का मूल्य-विवाद भी ऐसा ही है, न तो सुखवाद के द्वारा प्रतिपादित आचार-नियमों में थी। जैन विचारणा यह स्वीकार बुद्धितत्त्व को निर्मूल्य मानता है और न बुद्धिवाद सुख को निर्मूल्य करती है कि नैतिक आचरण के आन्तर और बाह्य ऐसे दो पक्ष होते मानता है। मात्र इतना ही है कि सुखवाद में सुख प्रधान मूल्य है और हैं। जिन्हें पारिभाषिक शब्दों में द्रव्य और भाव कहा जाता है। जैन बुद्धि गौण मूल्य है जबकि बुद्धिवाद में विवेक प्रधान मूल्य है और विचारकों के अनुसार आचरण का वह बाह्य पक्ष देश एवं कालगत सुख गौण मूल्य है। इस प्रकार मूल्य-परिवर्तन का अर्थ उनके तारतम्य परिवर्तनों के आधार पर परिवर्तनशील होता है, सापेक्ष होता है। जबकि में परिवर्तन है जो कि एक प्रकार का सापेक्षिक-परिवर्तन ही है। आचरण का आन्तरपक्ष सदैव एकरूप होता है और अपरिवर्तनशील
कभी-कभी मूल्य-विपर्यय को ही मूल्य-परिवर्तन मानने की भूल होता है, दूसरे शब्दों में निरपेक्ष होता है। वैचारिक हिंसा या भाव-हिंसा की जाती है, किन्तु हमें यह ध्यान रखना होगा कि मूल्य-विपर्यय सदैव-सदैव अनैतिक होती है, कभी भी धर्ममार्गी अथवा नैतिक जीवन मूल्य-परिवर्तन नहीं है। मूल्य-विपर्यय में हम अपनी चारित्रिक दुर्बलताओं का नियम नहीं कहला सकती, लेकिन द्रव्य-हिंसा या बाह्यरूप में को, जो कि वास्तव में मूल्य है ही नहीं, मूल्य मान लेते हैं- जैसे परिलक्षित होने वाली हिंसा सदैव ही अनैतिक अथवा अनाचरणीय स्वच्छन्द यौनाचार को नैतिक मान लेना। दूसरे यदि “काम' की ही हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता। आन्तर-परिग्रह अर्थात् तृष्णा या मूल्यवत्ता के नाम पर कामुकता तथा रोटी की मूल्यवत्ता के नाम पर आसक्ति सदैव अनैतिक है लेकिन द्रव्य-परिग्रह सदैव अनैतिक नहीं स्वाद-लोलुपता या पेटूपन का समर्थन किया जावे, तो यह कहा जा सकता। संक्षेप में जैन विचारणा के अनुसार आचरण के बाह्य मूल्य-परिवर्तन नहीं होगा, मूल्य-विपर्यय या मूल्याभास ही होगा, क्योंकि __ रूपों में नैतिकता सापेक्ष ही हो सकती है और होती है लेकिन आचरण “काम' या “रोटी" मूल्य हो सकते हैं किन्तु “कामुकता" या के आन्तर रूपों या भावों या सङ्कल्पों के रूप में वह सदैव निरपेक्ष "स्वादलोलुपता' किसी भी स्थिति में नैतिक मूल्य नहीं हो सकते है। सम्भव है कि बाह्य रूप में अशुभ दिखने वाला कोई कर्म अपने हैं। इसी सन्दर्भ में हमें एक तीसरे प्रकार का मूल्य-परिवर्तन परिलक्षित अन्तर में निहित किसी सदाशयता के कारण शुभ हो जाए लेकिन होता है जिसमें मूल्य-विश्व के ही कुछ मूल्य अपनी आनुषंगिकता के अन्तः का अशुभ सङ्कल्प किसी भी स्थिति में नैतिक नहीं हो सकता। कारण नैतिक मूल्यों के वर्ग में सम्मिलित हो जाते हैं और कभी-कभी जैन-दृष्टि में नैतिकता अपने हेतु या सङ्कल्प की दृष्टि से निरपेक्ष तो नैतिक जगत् के प्रमुख मूल्य या नियामक मूल्य बन जाते हैं। अर्थ होती है। लेकिन परिणाम अथवा बाह्य आचरण की दृष्टि से सापेक्ष और काम ऐसे ही मूल्य हैं जो स्वरूपत: नैतिक मूल्य नहीं हैं फिर होती है। दूसरे शब्दों में नैतिक सङ्कल्प निरपेक्ष होता है लेकिन नैतिकभी नैतिक मूल्यों के वर्ग में सम्मिलित होकर उनका नियमन और कर्म सापेक्ष होता है। इसी कथन को जैन पारिभाषिक शब्दों में इस व-निर्धारण भी करते हैं। यह सम्भव है कि जो एक परिस्थिति में प्रकार कहा जा सकता है कि व्यवहारनय (व्यवहारदृष्टि) से नैतिकता प्रधान मूल्य हो, वह दूसरी परिस्थिति में प्रधान मूल्य न हो, किन्तु सापेक्ष है या व्यावहारिक-नैतिकता सापेक्ष है लेकिन निश्चयनय इससे उनकी मूल्यवत्ता समाप्त नहीं होती है। परिस्थितिजन्य मूल्य या (पारमार्थिक दृष्टि) से नैतिकता निरपेक्ष है या निश्चय नैतिकता निरपेक्ष सापेक्ष मूल्य दूसरे मूल्यों के निषेधक नहीं होते हैं। दो परस्पर विरोधी मूल्य है। जैन दृष्टि में व्यावहारिक नैतिकता वह है जो कर्म के परिणाम भी अपनी-अपनी परिस्थिति में अपनी मूल्यवत्ता को बनाए रख सकते या फल पर दृष्टि रखती है जबकि निश्चय-नैतिकता वह है जो कर्ता हैं। एक दृष्टि से जो मूल्य लगता है वह दूसरी दृष्टि से निर्मूल्य हो सकता के प्रयोजन या सङ्कल्प पर दृष्टि रखती है। युद्ध का सङ्कल्प किसी है, किन्तु अपनी दृष्टि या अपेक्षा से तो वह मूल्यवान् बना रहता है। भी स्थिति में नैतिक नहीं हो सकता, लेकिन युद्ध का कर्म सदैव अनैतिक यह बात परिस्थितिक मूल्यों के सम्बन्ध में ही अधिक सत्य लगती है। हो, यह आवश्यक नहीं है। आत्म-हत्या का संकल्प सदैव अनैतिक
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ होता है लेकिन आत्महत्या का कर्म सदैव अनैतिक हो, यह आवश्यक है, अत: इस क्षेत्र में नैतिक मूल्यों की निरपेक्षता एवं अपरिवर्तनशीलता नहीं है, वरन् कभी-कभी तो वह नैतिक ही हो जाता है, जैसे- चन्दना सम्भव है। निष्काम कर्म-योग का दर्शन इसी सिद्धान्त पर स्थित है, की माता के द्वारा की गई आत्महत्या या चेडा महाराज के द्वारा किया क्योंकि अनेक स्थितियों में कर्म का बाह्य-रूप कर्ता के मनोभावों का गया युद्ध।
यथार्थ परिचायक नहीं होता। अत: यह माना जा सकता है कि वे जैन नैतिक-विचारणा में नैतिकता को निरपेक्ष तो माना गया लेकिन मूल्य जो मनोवृत्त्यात्मक या भावनात्मक नीति से सम्बन्धित हैं केवल सङ्कल्प के क्षेत्र तक। जैन-दर्शन "मानस् कर्म' के क्षेत्र में नैतिकता अपरिवर्तनीय हैं किन्तु वे मूल्य जो आचरणात्मक या व्यवहारात्मक को विशुद्ध रूप में निरपेक्ष एवं अपरिवर्तनशील स्वीकार करता है। हैं, परिवर्तनीय हैं। मानस का क्षेत्र आत्मा का अपना क्षेत्र है वहाँ वही सर्वोच्च शासक २. दूसरे, नैतिक-साध्य या नैतिक-आदर्श अपरिवर्तनशील होता है अत: वहाँ तो नैतिकता को निरपेक्ष रूप में स्वीकार किया जा सकता है किन्तु उस साध्य के साधन परिवर्तनशील होते हैं। जो सर्वोच्च शुभ है। लेकिन आचरण के क्षेत्र में चेतन तत्त्व एकमात्र शासक नहीं, वहाँ है वह अपरिवर्तनीय है, किन्तु उस सर्वोच्च शुभ की प्राप्ति के जो तो अन्य परिस्थितियाँ भी शासन करती हैं, अत: यह उस क्षेत्र में नियम या मार्ग हैं वे विविध एवं परिवर्तनीय हैं, क्योंकि एक ही साध्य नैतिकता के प्रत्यय को निरपेक्ष नहीं बनाया जा सकता।
की प्राप्ति के अनेक साधन हो सकते हैं। यहाँ हमें यह भी स्मरण
रखना होगा कि सर्वोच्च शुभ को छोड़कर कुछ अन्य साध्य भी कभी नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता एवं अपरिवर्तनशीलता का साधन भी बन जाते हैं। साध्य-साधन का वर्गीकरण निरपेक्ष नहीं है, मूल्याङ्कन
उनमें परिवर्तन सम्भव है। यद्यपि जब तक कोई मूल्य साध्य स्थान नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता के सम्बन्ध में हमें डीवी का पर बना रहता है, तब तक उसकी मूल्यवत्ता अपरिवर्तनीय रहती है। दृष्टिकोण अधिक सङ्गतिपूर्ण जान पड़ता है। वे यह मानते हैं कि वे किन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि किसी स्थिति में जो साध्य-मूल्य परिस्थितियाँ, जिनमें नैतिक आदर्शों की सिद्धि की जाती है, सदैव है, वह कभी साधन-मूल्य नहीं बनेगा। मूल्य-विश्व के अनेक मूल्य परिवर्तनशील हैं और नैतिक नियमों, नैतिक कर्तव्यों और नैतिक ऐसे हैं जो कभी साधन-मूल्य होते हैं और कभी साध्य-मूल्य। अत: मूल्याङ्कनों के लिए इन परिवर्तनशील परिस्थितियों के साथ समायोजन उनकी मूल्यवत्ता अपने स्थान-परिवर्तन के साथ परिवर्तित हो सकती करना आवश्यक होता है, किन्तु यह मान लेना मूर्खतापूर्ण ही होगा है। पुन: वैयक्तिक रुचियों, क्षमताओं और स्थितियों की भिन्नता के कि नैतिक सिद्धान्त इतने परिवर्तनशील हैं कि किसी सामाजिक स्थिति आधार पर सभी के लिए समान नियमों का प्रतिपादन सम्भव नहीं में उनमें कोई नियामक शक्ति ही नहीं होती है। शुभ की विषयवस्तु है। अत: साधन-मूल्यों को परिवर्तनीय मानना ही एक यथार्थ दृष्टिकोण बदल सकती है किन्तु शुभ का आकार नहीं। दूसरे शब्दों में नैतिकता हो सकता है। का शरीर परिवर्तनशील है किन्तु नैतिकता की आत्मा नहीं। नैतिक ३. तीसरे, नैतिक नियमों में कुछ नियम मौलिक होते हैं। मूल्यों का विशेष स्वरूप समय-समय पर वैसे-वैसे बदलता रहता है, साधारणतया सामान्य या मूल-भूत नियम ही अपरिवर्तनीय माने जा जैसे-जैसे सामाजिक या सांस्कृतिक स्तर और परिस्थितियाँ बदलती सकते हैं, विशेष नियम तो परिवर्तनीय होते हैं। यद्यपि हमें यह मानने रहती हैं। किन्तु मल्यों की नैतिकता का सामान्य स्वरूप स्थिर में कोई आपत्ति नहीं है कि अनेक परिस्थितियों में सामान्य नियमों रहता है।
के भी अपवाद हो सकते हैं और वे नैतिक भी हो सकते हैं, फिर वस्तुत: नैतिक मूल्यों की वास्तविक प्रकृति में परिवर्तनशीलता भी इतना तो ध्यान में रखना आवश्यक है कि अपवाद को कभी भी और अपरिवर्तनशीलता के दोनों ही पक्ष उपस्थित हैं। नीति का कौन-सा नियम का स्थान नहीं दिया जा सकता है। पक्ष परिवर्तनशील होता है और कौन-सा पक्ष अपरिवर्तनशील होता यहाँ एक बात जो विचारणीय है वह यह कि मौलिक नियमों है, इसे निम्नांकित रूप में समझा जा सकता है
एवं साध्य-मूल्यों की अपरिवर्तनशीलता भी एकान्तिक नहीं है। वस्तुतः १. सङ्कल्प का नैतिक मूल्य अपरिवर्तनशील होता है और जैन-दर्शन में नैतिक मूल्यों या सदाचार के मानदण्डों के सन्दर्भ में आचरण का नैतिक मूल्य परिवर्तनशील होता है। हिंसा का सङ्कल्प एकान्तरूप से अपरिवर्तनशीलता और एकान्त रूप से परिवर्तनशीलता कभी नैतिक नहीं होता, यद्यपि हिंसा का कर्म सदैव अनैतिक हो, को स्वीकार नहीं किया जा सकता। यदि नैतिक मूल्य या सदाचार यह आवश्यक नहीं। दूसरे शब्दों में, कर्म का जो मानसिक या बौद्धिक के मानदण्ड एकान्त रूप से अपरिवर्तनशील होंगे तो सामाजिक सन्दर्भो · पक्ष है वह निरपेक्ष एवं अपरिवर्तनीय है, किन्तु कर्म का जो के अनुरूप नहीं रह सकेंगे। सदाचार के मानदण्ड इतने निलोंच तो व्यवहारिक एवं आचरणात्मक पक्ष है, वह सापेक्ष एवं परिवर्तनशील नहीं हैं कि वे परिवर्तनशील सामाजिक परिस्थितियों के साथ समायोजन है। दूसरे शब्दों में, नीति की आत्मा अपरिवर्तनशील है और नीति नहीं कर सकें, किन्तु वे इतने लचीले भी नहीं हैं कि हर कोई उन्हें का शरीर परिवर्तनशील है। सङ्कल्प का क्षेत्र या प्रज्ञा का क्षेत्र एक अपने अनुरूप ढाल कर उनके स्वरूप को ही विकृत कर दे। सारांश ऐसा क्षेत्र है, जहाँ चेतना ही सर्वोच्च शासक है। अन्तस् में व्यक्ति यह है कि सदाचार के मानदण्ड अन्तरङ्ग रूप से स्थायी हैं और बाह्य स्वयं अपना शासक है, वहाँ परिस्थितियों या समाज का शासन नहीं रूप से परिवर्तनशील हैं।
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जैन दर्शन में नैतिक मूल्याङ्कन का विषय
कर्ता का प्रत्येक कर्म जो नैतिक मूल्याङ्कन का विषय बनता है, उसके अनुसार नैतिकता का अर्थ ऐसे परिणामों को उत्पन्न करना है, किसी हेतु से अभिप्रेरित होकर प्रारम्भ होता है और अन्त में किसी जिससे जन साधारण के कल्याण में अभिवृद्धि हो। फिर भी यहाँ हमें परिमाण को निष्पन्न कर परिसमाप्त होता है। इस प्रकार कार्य का इस सम्बन्ध में स्पष्ट हो जाना चाहिए कि पाश्चात्य फलवाद की दृष्टि विश्लेषण हमें यह बताता है कि प्रत्येक कार्य में एक हेतु (उद्देश्य) में नैतिक मूल्याङ्कन के लिए परिणाम की भौतिक परिनिष्पत्ति उतनी होता है, जिससे कार्य का प्रारम्भ होता है और एक फल होता है महत्त्वपूर्ण नहीं है जितनी की परिणाम की वांछितता अथवा परिणाम जिसमें कार्य की परिसमाप्ति होती है। दूसरे शब्दों में हेतु को कार्य का अग्रावलोकन। बेंथम और मिल भी यह नहीं कहते कि यदि किसी का मानसिक पक्ष और फल को उसका भौतिक परिणाम कहा जा सकता सर्जन द्वारा किये गये आपरेशन से रोगी की मृत्यु हो जाए तो उसका है। हेतु का निकट सम्बन्ध कर्ता के मनोभावों से है, जबकि फल का कार्य निन्दनीय है; यदि सर्जन का वांछित परिणाम या अग्रावलोकित निकट सम्बन्ध कर्म से है। हेतु पर दिया निर्णय वस्तुत: कर्ता के सम्बन्ध परिणाम आपरेशन के द्वारा उसकी जीवन रक्षा करना था तो उसका में होता है जबकि फल पर दिया हुआ निर्णय वस्तुत: कर्म के सम्बन्ध वह कार्य नैतिक दृष्टि से उचित ही था चाहे वह उसमें सफल नहीं में होता है। नीतिज्ञों के लिए यह प्रश्न विवाद का रहा है कि कार्य हुआ हो। किन्तु मिल एवं बेन्थम के अनुसार इस बात से सर्जन की के शुभत्व एवं अशुभत्व का मूल्याङ्कन उसके हेतु के सम्बन्ध में किया नैतिकता में कोई अन्तर नहीं पड़ता कि उसने वह कार्य धनार्जन के जाए या उसके फल के सम्बन्ध में, क्योंकि कभी-कभी शुभत्व एवं लिए किया अथवा अपनी प्रतिष्ठा के लिए किया अथवा दया से प्रेरित अशुभत्व की दृष्टि से हेतु और फल परस्पर भिन्न पाए जाते हैं- होकर किया। फलवाद के अनुसार धन, यश और दया के प्रेरक तत्त्व शुभ हेतु में भी अशुभ परिणाम की निष्पत्ति और अशुभ हेतु में भी नैतिक मूल्याङ्कन की दृष्टि से कोई अर्थ नहीं रखते। इस धारणा के शुभ परिणाम की निष्पत्ति देखी जा सकती है। यद्यपि ग्रीन यह मानते विपरीत हेतुवाद में सङ्कल्प अथवा प्रेरक ही नैतिक मूल्य रखते हैं। हैं कि शुभेच्छा या शुभ हेतु से किया गया कार्य सर्वदा शुभ परिणाम हेतुवाद के अनुसार यदि प्रेरक अशुभ था, तो कार्य भी अशुभ ही देने वाला होता है, लेकिन जागतिक अनुभव हमें यह बताता है कि माना जायेगा। यदि कोई डाक्टर किसी सुन्दर स्त्री की जीवन-रक्षा इस कभी-कभी कर्ता द्वारा अनपेक्षित कर्म-परिणाम भी प्राप्त हो जाते हैं भाव से प्रेरित होकर करता है कि वह उसे अपनी वासनापूर्ति का साधन और अनपेक्षित कर्म-परिणाम को परिणाम मानने पर ग्रीन की कर्म बनाएगा, तो हेतुवाद की दृष्टि में परिणाम के शुभ होने पर भी डाक्टर के उद्देश्य और फल में एकरूपता की धारणा टिक नहीं पाती है। का वह कार्य नैतिक दृष्टि से अशुभ ही होगा। इस प्रकार पाश्चात्य यदि कार्य के हेतु और कार्य के वास्तविक परिणाम में एकरूपता नहीं नैतिक विचारणा में ये दोनों वाद कार्य के दो भिन्न सिरों पर अनावश्यक हो तो यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि इनमें से किसे नैतिक निर्णय का बल देकर एकपक्षीय धारणा का विकास करते हैं। हेतुवाद के लिए विषय बनाया जाये। पाश्चात्य नैतिक चिन्तन में इस समस्या को लेकर कार्य का आरम्भ ही सब कुछ है, जबकि फलवाद के लिए कार्य का स्पष्टतया दो प्रमुख मतवादों का निर्माण हुआ है, जो फलवाद और अन्त ही सब कुछ बन गया है। ये विचारक यह भूल जाते हैं कि हेतुवाद के नाम से जाने जाते हैं। फलवादी धारणा का प्रतिनिधित्व आरम्भ और अन्त अन्ततोगत्वा सिक्के के दो पहलुओं के समान कार्य बेन्थम और मिल करते हैं। बेन्थम की मान्यता में हेतुओं का अच्छा के ही दो पहलू हैं, जिन्हें अलग-अलग देखा जा सकता है, लेकिन या बुरा होना उनके परिणामों पर निर्भर है। मिल की दृष्टि में ‘हेतु' किया नहीं जा सकता। इन विचारकों की भ्रान्ति यह नहीं है, कि इन्होंने के सम्बन्ध में विचार करना यह नैतिकता का प्रश्न ही नहीं है, उनका कार्य के इन दो पहलुओं पर गहराई से विचार नहीं किया, वरन् भ्रान्ति कथन है कि हेतु को कार्य की नैतिकता से कुछ भी करना नहीं होता। यह है, कि इन्होंने इन्हें अलग-अलग करने का असफल प्रयास किया। दूसरी ओर हेतुवादी परम्परा का प्रतिनिधित्व कांट, बटलर आदि करते जिस प्रकार शरीर के विभिन्न अङ्गों को अलग-अलग करके उसे ठीक है। मिल के ठीक विपरीत कांट का कहना है कि "हमारी क्रियाओं रूप से समझा नहीं जा सकता उसी प्रकार कर्म-प्रेरक को कर्म-परिणाम के परिणाम उनको नैतिक मूल्य नहीं दे सकते।"२ बटलर कहते हैं से और कर्म-परिणाम को कर्म-प्रेरक से अलग करके ठीक रूप से कि किसी कार्य कि अच्छाई या बुराई बहुत अधिक उस हेतु पर निर्भर समझा नहीं जा सकता। यही उनके सिद्धान्तों की अपूर्णता थी। भारतीय है जिससे वह किया जाता है।" इस प्रकार हम देखते हैं कि नैतिक चिन्तन में भी कर्म-परिणाम और कर्म-हेतु पर विचार तो हुआ लेकिन निर्णय के विषय को लेकर स्पष्ट रूप से दो दृष्टिकोण हैं- १. फलवाद उसमें इतनी एकाङ्गिता कभी नहीं आई। आइए भारतीय सन्दर्भ में इस की दृष्टि में नैतिक निर्णय कृत्य के सम्बन्ध में होते हैं, २. जबकि समस्या पर विचार करें। हेतुवाद की दृष्टि में नैतिक निर्णय का सम्बन्ध कर्ता से होता है। फलवाद पाश्चात्य आचार-विज्ञान का यह विवादात्मक प्रश्न भारतीय नैतिक की दृष्टि में परिणाम ही नैतिक मूल्य रखते हैं। फलवाद सारा बल चिन्तना के प्रारम्भिक युग से ही विवाद का विषय रहा है। यद्यपि कार्य के उस वस्तुनिष्ठ तत्त्व पर, जो वास्तव में क्रिया है, देता है। इस सम्बन्ध में भारत में उतनी बाल की खाल नहीं उतारी गई, जितनी
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
पश्चिम में। जैनागम सूत्रकृताङ्ग में बौद्ध-विचारणा की हेतुवाद सम्बन्धी कि वह मिल और बेन्थम के लिए है। धारणा का रोचक उपहास प्रस्तुत किया गया है। बौद्धागम मज्झिमनिकाय जहाँ तक गीता की विचारणा का प्रश्न है, अपने आचार-दर्शन में भी बुद्ध ने स्वयं को हेतुवाद का समर्थक माना है और निर्ग्रन्थ में वह भी हेतुवाद का समर्थन करती है। गीताकार की दृष्टि में भी (जैन) परम्परा को फलवाद का समर्थक बताया है। यद्यपि निर्ग्रन्थ कर्म के नैतिक मूल्याङ्कन का आधार कर्म का परिणाम न होकर उसका परम्परा को एकान्तत: फलवादी मानना एक असङ्गत धारणा है; क्योंकि हेतु ही है। गीता का निष्काम कर्मयोग का सिद्धान्त “कर्मपरिणाम" पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती जैनागमों में हेतुवाद का भी प्रबल समर्थन की अपेक्षा कर्म-हेतु पर ही अधिक बल देता है। गीता में जिस आधार किया गया है, जिस पर प्रमाणपूर्वक थोड़ी गहराई से विचार करना पर अर्जुन के लिए युद्ध के औचित्य का समर्थन किया गया है उसमें - आवश्यक है।
कर्म-हेतु को ही प्रमुखता दी गई है, कर्म-परिणाम को नहीं। गीई यह तो निर्विवाद सत्य है कि बौद्धदर्शन हेतुवाद का समर्थक में कृष्ण स्पष्ट रूप से कहते हैं- “हे अर्जुन! अमुक कर्म का यह है। बौद्ध विचारणा नैतिक मूल्याङ्कन की दृष्टि से कर्ता के हेतु अथवा फल मिले यह बात (मन में) रखकर कर्म करने वाला न हो।'६ कार्य कार्य के मानसिक प्रत्यय को ही प्रमुखता देती है। धम्मपद के प्रारम्भ के परिणाम पर दृष्टि रखकर आचरण करना गीताकार को अभिप्रेत में ही बुद्ध कहते हैं- "सभी प्रकार के शुभाशुभ आचरण में मानसिक नहीं है, क्योंकि वह तो कर्म-फल पर व्यक्ति का अधिकार ही नहीं व्यापार (हेतु) ही प्राथमिक हैं, मन की दुष्टता और प्रसन्नता अर्थात् मानता है। गीताकार की दृष्टि में कर्मफल पर दृष्टि रखकर आचरण मन के भले-बुरे होने पर ही कर्म भी शुभाशुभ हुआ करते हैं, और करने वाले कृपण अर्थात् दीन या निचले दर्जे के हैं। बालगङ्गाधर उसी से सुख-दुःख मिलता है। (धम्मपद १.२)। यहीं नहीं मज्झिमनिकाय तिलक भी गीता के आचार-दर्शन को हेतुवाद का समर्थक मानते हैं, में एक और प्रबल प्रमाण है, जहाँ बुद्ध कर्म के मानसिक प्रत्यय की उनके अनुसार कर्म के बाह्य-परिणाम के आधार पर नैतिक निर्णय प्रमुखता के आधार पर ही बौद्ध परम्परा और निर्ग्रन्थ परम्परा में अन्तर देना असङ्गत है। वे लिखते हैं- कर्म छोटे या बड़े हों या बराबर भी स्थापित करते हैं। बुद्ध कहते हैं"- मैं (निग्रन्थों के) काय-दण्ड, हों उनमें नैतिक दृष्टि से जो भेद हो जाता है, वह कर्ता के हेतु के वचन-दण्ड और मनो-दण्ड के बदले काय-कर्म, वचन-कर्म और कारण ही हुआ करता है। गीता में भगवान् ने अर्जुन से कुछ यह मनस्-कर्म कहता हूँ और निर्ग्रन्थों की तरह काय-कर्म (कर्म के बाह्य सोचने को नहीं कहा, कि युद्ध करने से कितने मनुष्यों का कल्याण स्वरूप) की नहीं, वरन् मनस-कर्म (कर्म के मानसिक प्रत्यय) की प्रधानता होगा और कितने लोगों की हानि होगी; बल्कि अर्जुन से भगवान् यही मानता हूँ।
कहते हैं। इस समय यह विचार गौण है कि तुम्हारे युद्ध करने से भीष्म जैनागम सूत्रकृताङ्ग भी इस तथ्य का समर्थन करता है कि बौद्ध मरेंगे या द्रोण। मुख्य प्रश्न यही है कि तुम किस बुद्धि (हेतु या उद्देश्य) परम्परा हेतुवाद की समर्थक है। ग्रन्थकार ने बौद्ध हेतुवाद का से युद्ध करने को तैयार हुए हो, यदि तुम्हारी बुद्धि स्थित-प्रज्ञों के उपहासात्मक चित्र प्रस्तुत किया है। सूत्रकार प्रव्रज्या ग्रहण करने को समान शुद्ध होगी और यदि तुम उस पवित्र बुद्धि से अपना कर्तव्य तत्पर आर्द्रक कुमार के सम्मुख एक बौद्ध श्रमण के द्वारा ही बौद्ध करने लगोगे तो फिर चाहे भीष्म मरे या द्रोण; तुम्हें उसका पाप नहीं दृष्टिकोण को निम्न शब्दों में प्रस्तुत करवाते हैं -
लगेगा। गीता काँट के समान सङ्कल्प को ही समस्त कार्यों का मूल ___ “खोल के पिण्ड को मनुष्य जानकर भाले से छेद डाले और मानती है। गीता-शाङ्करभाष्य में कहा गया है “सभी कामनाओं का उसको आग पर सेके अथवा कुमार जानकर तूमड़े को ऐसा करे तो मूल सङ्कल्प है।"९ आचार्य शङ्कर ने मनुस्मृति (२/३) तथा महाभारत हमारे मत के अनुसार प्राणिवध का पाप लगता है। परन्तु खोल का से उद्धरण देकर भी इसे सिद्ध किया है। महाभारत के शान्तिपर्व में पिण्ड मानकर कोई श्रावक मनुष्य को भाले से छेदकर आग पर सेकें ___ कहा गया है, 'हे काम! मैं तेरे मूल को जानता हूँ, तू निस्संदेह “सङ्कल्प" अथवा तूमड़ा मानकर कुमार को ऐसा करे तो हमारे मत के अनुसार से ही उत्पन्न होता है, मैं तेरा सङ्कल्प नहीं करूँगा, अत: फिर तू मुझे उसको प्राणिवध का पाप नहीं लगता है'।
प्राप्त नहीं होगा। मज्झिमनिकाय और सूत्रकृताङ्ग के उपरोक्त सन्दर्भो के आधार यद्यपि अर्जुन के लिए युद्ध के औचित्य का समर्थन करते समय पर यह सिद्ध होता है कि बौद्ध नैतिकता हेतुवाद का समर्थन करती गीता कर्म के नैतिक मूल्याङ्कन के लिए बाह्य परिणाम पर विचार करने है, दूसरे शब्दों में उसके अनुसार कर्म की शुभाशुभता का आधार की दृष्टि को ओझल कर देती है और ऐसा प्रतीत होता है कि गीता कर्ता का आशय है, न कि कर्म परिणाम। फिर भी हमें यह स्मरण एकान्त हेतुवाद का समर्थन करती है। लेकिन यदि गीता के समग्र रखना चाहिए कि सैद्धान्तिक दृष्टि से हेतुवाद का समर्थन करते हुए स्वरूप को दृष्टिगत रखते हुए विचार किया जाए तो हमें अपनी इस
भी व्यवहारिक रूप में बौद्ध नैतिकता फलवाद की अवहेलना नहीं करती। धारणा के परिष्कार के लिए विवश होना पड़ता है। यदि गीता की विनयपिटक में ऐसे अनेकों प्रसङ्ग हैं जहाँ कर्म के हेतु को महत्त्व नहीं दृष्टि में कर्म का बाह्य परिणाम अपना कोई नैतिक मूल्य नहीं रखता देकर मात्र कर्म-परिणाम के लोक-निन्दनीय होने के आधार पर ही उसका है तो फिर गीता के कर्मयोग और लोकसंग्रह के हेतु कर्म करते रहने आचरण भिक्षुओं के लिए अविहित ठहराया गया है। भगवान् बुद्ध के उपदेश का कोई अर्थ नहीं रह जाता। चाहे कृष्ण ने अर्जुन के के लिए कर्म-परिणाम का अग्रावलोकन उतना ही महत्त्वपूर्ण है, जितना द्वारा प्रस्तुत युद्ध के परिणाम स्वरूप कुलक्षय और वर्ण-सङ्करता की
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जैन दर्शन में नैतिक मूल्याङ्कन का विषय
२६१ उत्पत्ति के विचार की एक बारगी उपेक्षा कर दी हो, लेकिन अन्त मानना पड़ेगा, दूसरे शब्दों में उन्हें नैतिकता की परिसीमा में मानना में उन्हें स्वयं ही यह स्वीकार करना पड़ा कि “यदि मैं कर्म न करूं होगा, क्योंकि उनके क्रिया-कलाप भी किसी के सुख और दुःख के तो यह लोक भ्रष्ट हो जाए और मैं वर्णसङ्कर का करने वाला होऊ कारण तो बनते ही हैं और ऐसी दशा में उन्हें शुभाशुभ का बन्ध तथा इस सारी प्रजा का मारने वाला बनें।" क्या यह कृष्ण की फल भी होगा ही। दूसरे यदि शुभ का अर्थ स्वयं का दुःख और अशुभ दृष्टि नहीं है? स्वयं तिलकजी भी गीता-रहस्य में इसे स्वीकार करते का अर्थ स्वयं का सुख हो तो वीतराग तपस्या के द्वारा शुभ का बन्ध हैं, उनके शब्दों में गीता यह कभी नहीं कहती कि बाह्य कर्मों की करेगा एवं ज्ञानी आत्मसंतोष की अनुभूति करते हुए भी अशुभ या
ओर कुछ भी ध्यान न दो। किसी मनुष्य की विशेषकर अनजाने मनुष्य पाप का बन्ध करेगा। की बुद्धि की समता की परीक्षा करने के लिए यद्यपि केवल उसका अत: यह सिद्ध होता है कि स्वयं का अथवा दूसरों का सुख बाह्य कर्म या आचरण, प्रधान साधन है; तथापि केवल इस बाह्य आचरण अथवा दुःख रूप परिणाम शुभाशुभता का निर्णायक नहीं हो सकता, द्वारा ही नीतिमत्ता की अचूक परीक्षा हमेशा नहीं हो सकती। ११ इस वरन् उसके पीछे रहा हुआ कर्ता का शुभाशुभ प्रयोजन ही किसी कार्य प्रकार सैद्धान्तिक दृष्टि से गीता हेतुवाद की समर्थक होते हुए भी के शुभत्व और अशुभत्व का निश्चय करता है। व्यावहारिक दृष्टि से कर्म के बाह्य परिणाम की उपेक्षा नहीं करती है। अष्टसहस्री में आचार्य विद्यानन्दी फलवाद या कर्म के बाह्य परिणाम गीता कर्मफलाकांक्षा का या कर्मफलासक्ति का निषेध करती है, न कि के आधार पर नैतिक मूल्याङ्कन करने की वस्तुनिष्ठ पद्धति का विरोध कर्म-परिणाम के अग्रावलोकन या पूर्व विचार का। यह ठीक है कि करते हैं। वे कहते हैं कि किसी दूसरे के हिताहित के आधार पर पुण्य-पाप उसकी दृष्टि में शुभाशुभत्व के निर्णय का विषय कर्म-सङ्कल्प है। का मूल्याङ्कन नहीं किया जा सकता, क्योंकि कुछ तत्त्व तो पुण्य-पाप
अब यदि कार्य के मानसिक हेतु और भौतिक परिणाम में कौन के इस माप से नीचे हैं, जैसे जड़ पदार्थ और कुछ पुण्य-पाप के नैतिक मूल्याङ्कन का विषय है? इस समस्या पर जैन दृष्टि से विचार इस माप के ऊपर हैं, जैसे अर्हत्। पुण्य-पाप के क्षेत्र में अपनी क्रियाओं करें, तो हम पाते हैं कि जैन दृष्टिकोण ने इस समस्या के निराकरण के आधार पर वे ही लोग आते हैं जो वासनाओं से युक्त हैं। दूसरे का समुचित प्रयास किया है। जैन दृष्टि एकाङ्गी मान्यताओं की विरोधी शब्दों में बन्धन के हेतुरूप में वासना ही सामान्य तत्त्व है। अत: मात्र रही है और यही कारण है कि प्रथमत: उसने हेतुवाद की एकाङ्गी किसी को सुख देने या दुःख देने से कोई कार्य पुण्य-पाप नहीं होता मान्यता का खण्डन किया है।
वरन् उस कार्य के पीछे जो वासना है, वही कार्य को शुभाशुभ बनाती जैनागम सूत्रकृताङ्ग में हेतुवाद का जो खण्डन किया गया है वह है। अर्हत् की वीतरागता के कारण किसी को सुख या दुःख तो हो एकाङ्गी हेतुवाद का है। जैन दार्शनिकों द्वारा किए गए हेतुवाद के खण्डन सकता है, लेकिन उसकी अपनी कोई वासना या प्रयोजन नहीं है, के आधार पर उसे फलवादी परम्परा का समर्थक मान लेना स्वयं में अत: उसे पुण्य-पाप का बन्ध नहीं होता है। सबसे बड़ी भ्रान्ति होगी। जैन चिन्तकों द्वारा हेतुवाद का फलवाद से निष्कर्ष यह है कि जैन दृष्टि के अनुसार भी कर्ता का प्रयोजन भी अधिक समर्थन किया गया है, जिसे अनेक तथ्यों से परिपष्ट किया या अभिसंधि ही शुभाशुभत्व की अनिवार्य शर्त है, न कि मात्र सुख-दुःख जा सकता है। आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार में, आचार्य समन्तभद्र के परिणाम। की आप्तमीमांसा की वृत्ति में तथा आचार्य विद्यानन्दी की अष्टसहस्री भारतीय दर्शन के अधिकारी विद्वान् श्री यदुनाथ सिन्हा भी जैन टीका में फलवाद का खण्डन और हेतुवाद का मण्डन पाया जाता नैतिक विचारणा को इसी रूप में देखते हैं, वे लिखते हैं कि “जैन है। आचार्य कुन्दकुन्द समयसार में स्पष्ट रूप से लिखते हैं कि “हिंसा आचार दर्शन कार्य के परिणाम (फल) से व्यतिरिक्त उसके हेतु की का अध्यवसाय अर्थात् मानसिक हेतु ही बंधन का कारण है, चाहे शुद्धता पर ही बल देता है। उसके अनुसार यदि कार्य किसी शुद्ध बाह्य रूप में हिंसा हुई हो या न हुई हो। १२ वस्तु (घटना) नहीं वरन् प्रयोजन से किया गया है तो वह शुभ ही होगा, चाहे उससे दूसरों सङ्कल्प ही बन्धन का कारण है। १३ दूसरे शब्दों में बाह्य रूप में घटित को दुःख क्यों नहीं पहुँचा हो। कार्य यदि अशुभ प्रयोजन से किया कर्म-परिणाम नैतिक या अनैतिक नहीं है, वरन् व्यक्ति का कर्म-सङ्कल्प गया है तो अशुभ ही होगा, चाहे परिणाम के रूप में उससे दूसरों या हेतु ही नैतिक या अनैतिक होता है। इसी सन्दर्भ में आचार्य समन्तभद्र को सुख हुआ हो।'१५ श्री सुशीलकुमार मैत्रा भी लिखते हैं- "शुभाशुभ
और विद्यानन्दी के दृष्टिकोणों का उल्लेख सुशीलकुमार मैत्रा और यदुनाथ का विनिश्चय बाह्य परिणामों पर नहीं वरन् कर्ता के आत्मगत प्रयोजन - सिन्हा ने भी किया है।४ जैन दार्शनिक समन्तभ्रद बताते हैं कि कार्य की प्रकृति के आधार पर करना चाहिए।"१६ तुलनात्मक दृष्टि से
का शुभत्व केवल इस तथ्य में निहित नहीं है कि उससे दूसरों को अपने-अपने हेतुवाद के समर्थन में जैन, बौद्ध और गीता के आचार सुख होता है और स्वयं को कष्ट होता है। इसी प्रकार कार्य का अशुभत्व दर्शनों में अद्भुत साम्य परिलक्षित होता है। हम विषय की गहराई इस बात पर निर्भर नहीं करता कि उसकी फल-निष्पत्ति के रूप में में प्रवेश नहीं करते हुए मात्र तुलना की दृष्टि से धम्मपद और गीता दूसरों को दुःख होता है और स्वयं को सुख होता है। क्योंकि यदि के एक श्लोक को प्रस्तुत करेंगे। जैन ग्रन्थ पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में आचार्य शुभ का अर्थ दूसरों का सुख और अशुभ का अर्थ दूसरों का दुःख अमृतचन्द्र कहते हैं- "रागादि से रहित अप्रमाद युक्त आचरण करते हो तो हमें अचेतन जड़ पदार्थ और वीतराग संत को भी बन्धन में हुए यदि प्राणाघात हो जाए तो वह हिंसा नहीं है अर्थात् ऐसा व्यक्ति
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ निष्पाप होकर बन्धन में नहीं आता।"१७ बौद्ध ग्रन्थ धम्मपद में कहा यह ठीक है कि कभी-कभी कर्म के कर्ता के हेतु और उसके परिणाम गया है- “माता, पिता, दो क्षत्रिय राजा एवं अनुचरों सहित राष्ट्र में एकरूपता नहीं रह पाती है, लेकिन यह अपवादात्मक स्थिति ही का हनन करने पर भी वीततृष्ण ज्ञानी (बाह्मण) निष्पाप ही होता है।"१८ है और अपवाद के आधार पर सामान्य नियम की प्रतिस्थापना नहीं गीता कहती है जिसमें आसक्ति और कर्तृत्व भाव नहीं है वह इस की जा सकती है। जनसाधारण की मान्यता तो यह है कि बाह्य आचरण समग्र लोक को मारकर भी न तो मारता है और न बन्धन में आता कर्ता की मनोदशाओं का ही प्रतिबिम्ब है। है।" वस्तुत: ऐसी हिंसा हिंसा नहीं है।९ यद्यपि समालोच्य आचार यही कारण था कि जैन नैतिक विचारणा ने कार्य के नैतिक दर्शनों में इतनी वैचारिक एकरूपता है फिर भी जहाँ तक गीता और मूल्याङ्कन के लिए सैद्धान्तिक दृष्टि से जहाँ कर्ता के मानसिक हेतु
जैनाचार दर्शन का प्रश्न है इस एकरूपता के होते हुए भी एक अन्तर का महत्त्व स्वीकार किया, वहाँ व्यावहारिक दृष्टि से कार्य के बाहाई है और वह अन्तर यह है कि गीता के अनुसार स्थित-प्रज्ञ अवस्था परिणाम की अवहेलना भी नहीं की है। श्री सिन्हा भी लिखते हैं कि में रहकर हिंसा की जा सकती है जबकि जैन विचारणा कहती है कि 'जैन-आचार दर्शन व्यक्तिनिष्ठ नैतिकता पर बल देते हुए भी कार्यों इस अवस्था में रहकर हिंसा की नहीं जा सकती है, मात्र वह हो के परिणामों पर भी समुचित रूप से विचार करता है।"२२ जैनाचारजाती है।
दर्शन के अनुसार यदि कर्ता मात्र अपने उद्देश्य की शुद्धता की ओर प्रश्न होता है कि यदि जैन चिन्तन को प्रयोजन या हेतुवाद स्वीकार्य ही दृष्टि रखता है और कर्म-परिणाम के सम्बन्ध में पूर्व से ही विचार है तो फिर उसे हेतुवाद के समर्थक बौद्धदर्शन का उपहास करने या नहीं करता है तो उसका वह कर्म अयतना (अविवेक) और प्रमाद उसकी आलोचना करने का क्या अधिकार रह जाता है। लेकिन वस्तु के कारण अशुभता की कोटि में ही माना जाता है और साधक प्रायश्चित स्थिति ऐसी नहीं है। यदि जैन चिन्तकों को केवल हेतुवाद स्वीकार्य का पात्र बनता है। कर्म-परिणाम का अग्रावलोकन या पूर्व-विवेक जैन, होता तो वे बौद्ध दार्शनिकों का उपहास नहीं करते। जैन विचारणा नैतिकता में आवश्यक तथ्य है। सैद्धान्तिक दृष्टि से हेतुवाद का विरोध नहीं करती है, उसका विरोध वास्तविकता यह है कि नैतिक मूल्याङ्कन सामाजिक और वैयक्तिक उस एकाङ्गी हेतुवाद से है जिसमें व्यवहार की अवहेलना की जाती इन दोनों दृष्टियों से किया जा सकता है, जब हम सामाजिक दृष्टि है। एकाङ्गी हेतवाद में जैन विचारणा ने जो सबसे बड़ा खतरा देखा, से किसी कर्म का नैतिक मूल्याङ्कन करते हैं तो हमें तथ्य परक दृष्टि वह यह था कि एकाङ्गी हेतुवाद नैतिक मूल्याङ्कन की वस्तुनिष्ठ कसौटी से ही मूल्याङ्कन करना होता है और उस अवस्था में कार्य के परिणाम को समाप्त कर देता है, फलस्वरूप हमारे पास दूसरे के कार्यों का ही नैतिक निर्णय का विषय होंगे। लेकिन जब वैयक्तिक दृष्टि से किसी नैतिक मूल्याङ्कन या माप करने की कोई कसौटी ही नहीं रह जाती कर्म का नैतिक मूल्याङ्कन करते हैं, तो हमें आत्मपरक दृष्टि से मूल्याङ्कन है। यदि अभिसंधि या कर्ता का प्रयोजन ही हमारे कर्मों की शुभाशुभता करना होगा और उस अवस्था में कार्य के प्रेरक ही नैतिक निर्णय का एकमात्र निर्णायक है, तो फिर कोई भी व्यक्ति दूसरे के आचरण । के विषय होंगे। जैनाचार-दर्शन की भाषा में यदि कहें तो फल के के सम्बन्ध में कोई भी नैतिक निर्णय नहीं दे सकेगा, क्योंकि कर्ता आधार पर कर्म का नैतिक मूल्याङ्कन करना यह व्यवहारदृष्टि है और का प्रयोजन जो कि एक वैयक्तिक तथ्य है, दूसरे के द्वारा जाना नहीं कर्ता के हेतु के आधार पर कर्म का नैतिक मूल्याङ्कन करना यह निश्चयदृष्टि जा सकता है। दूसरे व्यक्ति के आचरण के सम्बन्ध में तो नैतिक निर्णय या परमार्थ दृष्टि है। जैनाचार-दर्शन के अनुसार दोनों ही अपने अपने उसके कार्य के बाह्य परिणाम के आधार पर ही दिया जा सकता है। क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण हैं और आचार दर्शन के समग्र स्वरूप की दृष्टि साथ ही लोग बाह्य रूप से अनैतिक आचरण करते हुए भी यह कहकर से किसी की भी अवहेलना नहीं की जा सकती। लेकिन जहाँ तक कि उसमें हमारा प्रयोजन शुभ था, स्वयं के नैतिक या धार्मिक होने आत्मनिष्ठ नैतिकता का प्रश्न है हमें यह स्वीकार करना होगा कि नैतिक का दम्भ कर सकते हैं। स्वयं महावीर के युग में भी बाह्य रूप में निर्णय का विषय कोई आत्मपरक तथ्य ही हो सकता है, वस्तुपरक अनैतिक आचरण करते हुए, अनेक व्यक्ति स्वयं को धार्मिक या नैतिक तथ्य नहीं हो सकता। आत्मनिष्ठ नैतिकता में निर्णय का विषय कर्ता होने का दम्भ करते थे। यही कारण था कि सूत्रकृताङ्ग में महावीर की मानसिक अवस्थाएँ होती हैं, बाह्य घटनाएँ नहीं। पाश्चात्य विचारक को यह कहना पड़ा कि “मन से सत्य को समझते हुए भी बाहर से मिल को भी अन्त में यह स्वीकार कर लेना पड़ा कि नैतिक निर्णय दूसरी बातें करना क्या यह संयमी पुरुषों का लक्षण है?"२० हेतुवाद का विषय कर्ता द्वारा अभीप्सित फल (वाञ्छित परिणाम) है न कि का सबसे बड़ा दोष यही है कि उसमें नैतिकता का दम्भ पनपता है। बाह्य-घटित भौतिक परिणाम। लेकिन जैसे ही हम कर्ता के वाञ्छित दूसरे एकान्त हेतुवाद में मन और कर्म की एकरूपता का कोई अर्थ परिणाम की बात करते हैं, किसी आन्तरिक तथ्य की ओर सङ्केत करते ही नहीं रह जाता है। हेतुवाद यह मान लेता है कि कार्य के मानसिक हैं और नैतिक निर्णय के विषय के रूप में बाह्य घटनाओं या फल पक्ष और उसके परिणामात्मक पक्ष में एकरूपता आवश्यक नहीं है, के स्थान पर कर्म के मानसिक पक्ष को स्वीकार कर लेते हैं, वैसे दोनों स्वतन्त्र हैं, उनमें एक प्रकार का द्वैत है। जबकि सच्चे नैतिक ही हम कर्म के भौतिक पहलू से मानसिक पहलू की ओर बढ़ते हैं, जीवन का अर्थ है, मनसा वाचा कर्मणा व्यवहार की एकरूपता।२१ हमारी विवेचना का केन्द्र कर्म के स्थान पर कर्ता बन जाता है। बाह्य नैतिक जीवन की पूर्णता तो मन और कर्म के पूर्ण सामञ्जस्य में है। घटित भौतिक परिणाम कर्ता के मानस के प्रतिबिम्ब अवश्य हैं, लेकिन
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-दुश्चरित्र विरति
-सच्चरित्र
जैन दर्शन में नैतिक मूल्याङ्कन का विषय
२६३ वे सदैव उसे यथार्थ रूप में प्रतिबिम्बित नहीं करते। अत: अभ्रान्त द्वारा उनकी एकाङ्गिता को दूरकर एक समग्र दृष्टिकोण प्रदान नैतिक निर्णय के लिए कर्म के चैतसिक पक्ष या कर्ता की मानसिक करती है। अवस्थाओं पर विचार करना आवश्यक हो जाता है। जैन-आचार-दर्शन जैन विचारणा में शुभत्व और अशुभत्व का निकटस्थ सम्बन्ध यह स्वीकार करता है कि नैतिक निर्णय का विषय कर्ता की मनोदशाएँ क्रमशः संवर और आस्रव से माना जा सकता है। हम कह सकते हैं, बाह्य परिणाम उसी अवस्था तक नैतिक निर्णय का विषय माने हैं कि जिससे आस्रव होकर कर्मबन्ध हो वह अशुभ है और जिससे जा सकते हैं, जब तक कि वे कर्ता की मनोदशा को यथार्थ रूप में संवर हो कर्म बंधन नहीं होता तो वह शुभ है। जैन विचारणा में आस्रव प्रतिबिम्बित करते हैं। लेकिन आचरण का मानसिक पक्ष भी इतना के पाँच कारण हैं- १. मिथ्यादृष्टि, २. कषाय, ३. अविरति, अधिक व्यापक है कि पाश्चात्य विचारकों ने उसके एक-एक पहलू को ४. प्रमाद और ५. योग। इसी प्रकार संवर के ५ कारण हैंलेकर नैतिक निर्णय के विषय की दृष्टि से उस पर गहराई से विचार १. सम्यग्दृष्टि, २. अकषाय, ३. विरति, ४. अप्रमाद और ५. अयोग। किया। इसके फलस्वरूप निम्न चार विभिन्न दृष्टिकोण सामने आते पाश्चात्य विचारणा के १. सङ्कल्प, २. प्रेरक, ३. चरित्र और ४. अभिप्राय
(इरादा) अपने लाक्षणिक अर्थों में निम्न प्रकार से इनके समानार्थक (१) मिल का कहना था कि "कार्य की नैतिकता पूर्णत: अभिप्राय माने जा सकते हैं। पर अर्थात् कर्ता जो कुछ करना चाहता है, उस पर निर्भर है।" मिल
मिथ्यादृष्टि
१. सङ्कल्प- १. की दृष्टि में अभिप्राय (इरादा) से तात्पर्य कर्म के उस रूप से है,
दृष्टि सम्यग्दष्टि जिस रूप में कर्ता उसे करना चाहता है। २३ मान लीजिए कोई व्यक्ति २. प्रेरक- २. कषाय (वासना) किसी व्यक्ति विशेष की हत्या करने के लिए उस सवारी गाड़ी को ३. चरित्र- ३. अविरति । उलटना चाहता है, जिससे वह व्यक्ति यात्रा कर रहा है। उसका प्रयास
४. प्रमाद ।
अप्रमाद । सफल होता है और उस व्यक्ति के साथ-साथ और भी अनेकों यात्री मारे जाते हैं। इस घटना में मिल के अनुसार उस व्यक्ति को केवल वस्तुत: पाश्चात्य विचारणा के १. सङ्कल्प, २. प्रेरक, ३. चरित्र एक व्यक्ति की हत्या में दोषी नहीं मानकर सभी की हत्या का दोषी और ४. अभिप्राय: जैन दर्शन के आस्रव एवं संवर के ५ मूल कारणों माना जायेगा; क्योंकि वह गाड़ी को ही उलटना चाहता था। के पर्यायवाची हैं और जैन दर्शन में शुभाशुभता का निर्णय उन पाँचों
(२) कांट के अनुसार नैतिक निर्णय का विषय मात्र कर्ता का पर ही होता है। अतः हमें यह मानना पड़ेगा कि जैन दर्शन में पाश्चात्य सङ्कल्प है। यदि उपर्युक्त घटनाक्रम के सम्बन्ध में विचार करें तो कांट विचारणा के ये चारों मतवाद अविरोधपूर्वक समन्वित हैं। के अनुसार वह व्यक्ति केवल उस व्यक्ति विशेष की हत्या का दोषी उपर्युक्त चार मतवादों के आधार पर यदि समालोच्य आचार दर्शनों होगा, न कि सभी की हत्या का, क्योंकि उसे केवल उसी व्यक्ति की की तुलना करें तो हम कह सकते हैं कि गीता का दृष्टिकोण कांट मृत्यु अभीप्सित थी।
के सङ्कल्पवाद और बौद्ध दर्शन का दृष्टिकोण मार्टिन्यू के अभिप्रेरकवाद . (३) इस सम्बन्ध में एक तीसरा दृष्टिकोण मार्टिन्यू का है, उनके के अधिक निकट है। क्योंकि गीता के अनुसार नैतिक निर्णय का अनुसार नैतिक निर्णय का विषय वह अभिप्रेरक है जिससे प्रेरित होकर विषय कर्ता की व्यावसायिक बुद्धि को माना गया है, जो कि कांट कर्ता ने वह कार्य किया है। उपर्युक्त दृष्टान्त के आधार पर मार्टिन्यू के सङ्कल्प के निकट ही नहीं वरन् समानार्थक भी है। इसी प्रकार बौद्ध के मत का विचार करें तो मार्टिन्यू कहेंगे कि यदि कर्ता उसकी हत्या विचारणा में शुभाशुभता के निर्णय का आधार प्राणी की वासना (तृष्णा) वैयक्तिक विद्वेष या स्वार्थ से प्रेरित होकर करना चाहता था तो वह को माना गया है। यही तृष्णा सारी जागतिक प्रवृत्तियों की प्रेरक है। दोषी होगा, लेकिन यदि वह राष्ट्रभक्ति या लोकहित से प्रेरित होकर इस प्रकार तृष्णा प्रेरक के समानार्थक है, अत: कहा जा सकता है करना चाहता था तो वह निर्दोष ही माना जायेगा।
कि बौद्ध दृष्टिकोण मार्टिन्यू के अधिक निकट है। जहाँ तक जैन दृष्टिकोण (४) चौथा दृष्टिकोण मैकन्जी का है, उनके अनुसार कर्म के का प्रश्न है उसे किसी सीमा तक मैकेन्जी के चरित्रवाद के निकट माना सम्बन्ध में कर्ता का चरित्र ही नैतिक निर्णय का विषय है। मान लीजिए जा सकता है, क्योंकि चरित्र शब्द में जो अर्थ-विस्तार है वह जैन कोई व्यक्ति नशे में गोली चला देता है और उससे किसी की हत्या समन्वयवादी दृष्टि के अनुकूल है, फिर भी इन विवेच्य आचार दर्शनों हो जाती है। सम्भव है कि कांट और मार्टिन्यू की धारणा में वह निर्दोष को किसी एक मतवाद के साथ बांध देना सङ्गत नहीं होगा, क्योंकि हो, लेकिन मैकन्जी की दृष्टि में तो वह अपने चरित्र की दूषितता के उनमें सभी विचारणाओं के तथ्य खोजे जा सकते हैं। गीता में काम कारण दोषी माना जायेगा।
और क्रोध के अभिप्रेरक और बौद्ध विचारणा की निराकार अविद्या नीतिवेत्ताओं ने उपर्युक्त चारों मतों का परीक्षा की और उन्हें एकाङ्गी भी नैतिक निर्णय के महत्त्वपूर्ण विषय हैं। वास्तविकता यह है कि एवं दोषपूर्ण पाया है। यहाँ पर विस्तारभय से यह सब देना सम्भव भारतीय विचार दृष्टि समस्या के किसी एक पहलू को अन्य से अलग नहीं है। इस विवेचना से हमारा तात्पर्य मात्र यह दिखा देना है कि कर उस पर विचार नहीं करती वरन् सम्पूर्ण समस्या का उसके विभिन्न किस प्रकार जैन विचारणा इन चारों विरोधी मतवादों के समन्वय के पहलुओं सहित विचार करती है। यही कारण था कि जब बौद्ध विचारकों
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ ने बन्धन के कारण पर विचार किया तो अविद्या, तृष्णा आदि में से बल नहीं दिया, अपितु मिथ्यात्व, कषाय, अविरति, प्रमाद और योग किसी एक को कारण नहीं माना, वरन् उनकी प्रतीत्यसमुत्पाद के रूप के पंचक को स्वीकार किया। यह सम्भव है कि किसी एक दृष्टि विशेष में शृङ्खला खड़ी कर दी। जैन विचारकों ने जब आस्रव के कारण से विचार करते समय एक पक्ष को प्रमुखता दी गई हो, लेकिन दूसरे पर विचार किया तो केवल मिथ्यात्व या कषाय में से किसी एक पर पक्षों को झुठलाया नहीं गया है।
mi; i
सन्दर्भ :
(अभिसंधि) thought it leads to unhappiness to others. It १. नीतिशास्त्र की रूपरेखा, डॉ० रामनाथ शर्मा, मेरठ, पृ० ७५। considers an action to be wrong if it is actuated by bad नीतिशास्त्र की रूपरेखा, पृ० ७५।
intention though it leads to happiness of others. नीतिशास्त्र की रूपरेखा, पृ० ७६।
-- History of Indian philosophy. ४. मज्झिमनिकाय, सुत्त ५६।
१६. Hence right and wrong are to be determined not by सूत्रकृताङ्ग, २/६/२६-२७।
objective consequences but by the nature of the subjective ६. मा फलेषु कदाचन, मा कर्मफलहेतुर्भूः - गीता, २/४७।
intention of the agent. ७. कृपणा: फलहेतवः- गीता २/४९।
-- The Ethics of the Hindus P. 289. गीता रहस्य, बालगंगाधर तिलक, पृ० ४८१।
१७. युक्ताचरणस्य सतो रागद्याबशमन्तरेणाऽपि । सङ्कल्पमूला हि सर्वेकामाः। - गीता शाङ्करभाष्य, गीताप्रेस
नहि भवति जातु हिंसा प्राणव्यपरोपणादेव ।। गोरखपुर, ६/४।
-पुरुषार्थसिद्धयुपाय (अमृतचन्द्र), ४५। १०. कामं जानामि ते मूलं सङ्कल्पान्त्वं हि जायसे।
१८. मातरं पितरं हन्त्वा राजानो द्वे च खत्तिये । न त्वां सङ्कल्पयिष्यामि तेन मे न भविष्यसि।।
र8 सानुचरं हन्त्वा अनिघो याति ब्राह्मणो ।। -धम्मपद, २९४ । - महाभारत, शान्तिपर्व, गीताप्रेस. १७७/२५। १९. यस्य नाहकृता भावा बुाद्धयस्य न लिप्यत।। ११. गीता रहस्य, ३/२४ की टीका।
हत्वापि स इमाल्लोकान हन्ति न निबध्यते ।। - गीता, १८/१७। १२. अज्झवसिदेण बंधो सत्ते मारेउ मा वा मारेउ। – समयसार २६२। २०. सूत्रकृताङ्ग, २/६/३२! १३. ण य वत्थुदो दु बंधो अज्झवसाणेण बंधोत्थि।-समयसार २६५।।
२१. मनस्यैकं वचस्यैकं कर्मण्येकं महात्मनाम्। १४. (अ) एस० के मैत्रा–दि ऐथिक्स ऑफ दि हिन्दूज, पृ०
२२. The Jain Ethics stresses subjective morality though it
२ ३२१-३२३।
gives due consideration to the consequences of actions. (ब) जे०एन०सिन्हा-इन्डियन फिलासफी, जैन फिलासफी।
--History of Indian Philosophy.
२३. टिप्पणी- जैन दर्शन में जिस प्रकार योग मानसिक और शारीरिक १५. The Jain Ethics emphasises purity of motives as
कृत्यता है उसी प्रकार मिल के अनुसार अभिप्राय भी कृत्यता है। अत: distinguished from consequences of action. It considers
दोनों ही समान माने जा सकते हैं। an action to be right if it is actuated by good intention
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जैनधर्म में नैतिक और धार्मिक कर्तव्यता का स्वरूप
नात
मॉरल आब्लीगेशन के लिए हिन्दी भाषा में नैतिक प्रभुशक्ति, (सदाचार) की दिशा में प्रवृत्त होता है। नैतिक बाध्यता, नैतिक दायित्व या नैतिक कर्तव्यता शब्दों का प्रयोग चूँकि जैन दर्शन किसी ऐसे ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं हुआ है। वस्तुत: मॉरल आब्लीगेशन् दायित्व-बोध या कर्तव्यबोध की करता है, जो “कर्म के नियम" का नियामक या अधिशास्ता है, अत: उस स्थिति का सूचक है जहाँ व्यक्ति यह अनुभव करता है कि “यह उसमें नैतिक और धार्मिक बाध्यता बाह्य-आदेश नहीं, अपितु, कर्म मुझे करना चाहिए।" पाश्चात्य नीतिवेत्ताओं के अनुसार नैतिक कर्तव्यता नियम की द्रष्टा अन्तरात्मा का ही आदेश है। उसमें बाध्यता तो है, का स्वरूप “यह करना चाहिए" इस प्रकार का है, न कि “यह करना किन्तु, यह बाध्यता निरपेक्ष न होकर सापेक्ष है। होगा।" पाश्चात्य परम्परा में नैतिक कर्तव्यता को “चाहिए" (ought) जैन-दर्शन के अनुसार वस्तु स्वभाव को ही धर्म कहा जाता है के रूप में और धार्मिक कर्तव्यता को 'होगा' (Must) के रूप में देखा और यदि वस्तु स्वभाव ही धर्म है, तो धार्मिक कर्तव्यों की बाध्यता गया; क्योंकि धर्म को ईश्वरीय आदेश माना गया। जबकि भारतीय का उद्भव बाहर से ही न होकर अन्दर से होगा। जैन दर्शन में आत्मा परम्परा में विशेष रूप से जैन परम्परा में नैतिक और धार्मिक दोनों का स्वभाव "समता" बताया गया है। अत: “समभाव की साधना" ही प्रकार को कर्तव्यता की प्रकृति एक सोपाधिक कथन के रूप में की कर्तव्यता का आधार बाहरी न होकर आन्तरिक है। इसी प्रकार है, उसमें चाहिए का तत्त्व तो है, किन्तु, उसके साथ एक बाध्यता प्राणीय प्रकृति का स्वाभाविक गुण जिजीविषा है और अहिंसा की नैतिक का भाव भी है। उसमें "चाहिए" (ought) और "होगा" (Must) कर्तव्यता इसी जिजीविषा के कारण है। कहा गया है- "सभी जीना का सुन्दर समन्वय है। उसका स्वरूप इस प्रकार का है- यदि तुम चाहते हैं, कोई मरना नहीं चाहता।" अत: प्राण-वध का निषेध किया ऐसा चाहते हो तो तुम्हें ऐसा करना होगा अर्थात् यदि तुम मुक्ति चाहते गया है। इस प्रकार जैन धर्म में चाहे समभाव की साधना की कर्तव्यता हो तो तुम्हें सम्यक् चारित्र का पालन करना होगा। उसमें बाध्यता में का प्रश्न हो या अहिंसा के व्रत के पालन का प्रश्न हो, उनकी बाध्यता भी स्वतन्त्रता निहित है। इसका कारण यह है कि भारतीय परम्परा अन्तरात्मा से ही आती है, वह किसी बाह्यतत्त्व पर आधारित नहीं है। में और विशेष रूप से जैन और बौद्ध परम्पराओं में धर्म और नीति के बीच कोई विभाजक रेखा नहीं खींची गई और न उन्हें एक दूसरे जैन-धर्म में नैतिक और धार्मिक कर्तव्यों की अभिन्नता से पृथक् माना गया है। पुन: जैन दर्शन के अनुसार नैतिक एवं धार्मिक सामान्यतया कुछ पाश्चात्य दार्शनिकों ने धर्म और नीति के बीच दायित्व या कर्तव्यता की इस बाध्यता का उद्गम आत्मा द्वारा एक विभाजक रेखा खींची है और इसी आधार पर वे नैतिक और कर्म-सिद्धान्त की स्वीकृति में रहा है। यद्यपि कर्म-सिद्धान्त एक वस्तुनिष्ठ धार्मिक कर्तव्यों में भी अन्तर करते हैं। वे नैतिक कर्तव्यता को 'करना नियम है, किन्तु, उसका नियामक तत्त्व स्वयं आत्मा ही है। कर्म-नियम चाहिए' के रूप में और धार्मिक कर्तव्यता को “करना होगा' के रूप पर आत्मा की यह नियामकता उसके आचार की पवित्रता के साथ में लेते हैं। किन्तु, सामान्य रूप से भारतीय दार्शनिक और विशेष बढ़ती है।
रूप से जैन दार्शनिक नैतिक एवं धार्मिक कर्तव्यता को अभिन्न रूप जैन परम्परा में तीन प्रकार की आत्माएँ मानी गयी हैं— बहिरात्मा, से ही ग्रहण करते हैं। वे धर्म और नीति के बीच कोई सीमा रेखा अन्तरात्मा ओर परमात्मा। इसमें बहिरात्मा इन्द्रियमय आत्मा है और नहीं खींचते हैं। भारत में धर्म शब्द का व्यवहार अधिकांश रूप में अन्तरात्मा विवेकमय आत्मा है। नैतिक और धार्मिक दोनों ही प्रकार कर्तव्य एवं सदाचार के अर्थ में ही हुआ है और इस प्रकार वह नीतिशास्त्र के दायित्वों की कर्तव्यता का उद्भव विवेकमय आत्मा से होता है, का प्रत्यय बन जाता है। भारत में नीतिशास्त्र के लिए धर्मशास्त्र शब्द जो इन्द्रियमय आत्मा को वैसा करने के लिए बाध्य करती है। जैन का ही प्रयोग हुआ है। धर्म और नीति में यह विभाजन मुख्यतया दर्शन और जे०एस०मिल इस सन्दर्भ में एकमत हैं कि सम्पूर्ण नैतिकता मानवीय चेतना के भावात्मक और सङ्कल्पात्मक पक्षों के आधार पर
और धार्मिकता के दायित्व की चेतना का आधार कर्तव्य के विधान । किया गया है। पाश्चात्य विचारक यह मानते हैं कि धर्म का आधार से उत्पन्न विवेकमय अन्तरात्मा की तीव्र वेदना ही है। अन्तर केवल विश्वास या श्रद्धा है, जबकि नैतिकता का आधार सङ्कल्प है। धर्म का इतना ही है कि जहाँ मिल का आन्तरिक आदेश मात्र भावनामूलक सम्बन्ध हमारे भावनात्मक पक्ष से है, जबकि नैतिकता का सम्बन्ध है वहाँ जैन दर्शन का आन्तरिक आदेश भावना और विवेक के समन्वय हमारे सङ्कल्पात्मक पक्ष से है। सेम्युअल एलेक्जेण्डर के शब्दों में धार्मिक में उद्भूत होता है। वह कहता है कि यदि तुम्हें अमुक आदर्श प्राप्त होना' इससे अधिक कर्तव्य नहीं है, जैसे कि 'भूखा होना' कोई कर्तव्य करना है तो अमुक प्रकार से आचरण करना ही होगा। सम्यग्चारित्र है। जिस प्रकार भूख एकमात्र सांवेगिक अवस्था है, उसी प्रकार धर्म का विकास सम्यग्दर्शन (भावना) और सम्यग्ज्ञान (विवेक) के आधार भी एक सांवेगिक अवस्था है। विलियम जेम्स का कहना है कि “यदि पर होता है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान नैतिक और धार्मिक कर्तव्यता हमें धर्म का कोई निश्चित अर्थ लेना है तो हमें उसे भावनाओं के अतिरेक के लिए एक आबन्ध प्रस्तुत करते हैं, परिणामत: आत्मा सम्यग्चारित्र और उत्साहपूर्ण आलिङ्गन के अर्थ में लेना चाहिए। जहाँ तथाकथित
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
नैतिकता केवल सिर झुका देती है और राह छोड़ देती है।" वस्तुत: कुछ पाश्चात्य विचारकों की यह मान्यता है कि बिना धार्मिक भारत में धर्म और नैतिकता दो अलग-अलग तथ्य नहीं रहे हैं। मानवीय कर्तव्यों का पालन किये भी व्यक्ति सदाचारी हो सकता है। सदाचारी चेतना के भावात्मक और सङ्कल्पात्मक पक्षों को चाहे एक दूसरे से जीवन के लिए धार्मिकता अनिवार्य तत्त्व नहीं है। आज साम्यवादी पृथक् देखा जा सकता हो, किन्तु उन्हें एक दूसरे से अलग नहीं किया देशों में इसी धर्मविहिन नैतिकता का पाठ पढ़ाया जाता है। यदि धर्म जा सकता। भावना, विवेक और सङ्कल्प, मानवीय चेतना के तीन का अर्थ किसी वैयक्तिक ईश्वर के प्रति आस्था या पूजा के क्रिया-काण्डों पक्ष हैं। चूँकि मनुष्य एक समग्रता है, अत: ये तीनों पक्ष एक दूसरे तक सीमित है, तब तो यह सम्भव है कि कोई व्यक्ति धार्मिक हुए के साथ मिले हुए हैं। इसीलिए मैथ्यु आरनॉल्ड को यह कहना पड़ा बिना भी नैतिक हो सकता है। किन्तु, जब धार्मिकता का अर्थ ही था कि भावनायुक्त नैतिकता ही धर्म है। पश्चिम में यह प्रश्न भी महत्त्वपूर्ण सदाचारिता हो तो फिर क्या यह सम्भव है कि बिना सदाचारी हुए रूप से चर्चित रहा है कि धार्मिक और नैतिक कर्तव्यों में कौन प्राथमिक कोई व्यक्ति धार्मिक हो जाये? जैन दर्शन हमें धर्म की जो व्याख्या है? डेकार्ट, लॉक प्रभृति अनेक विचारक नैतिक नियमों को ईश्वरीय देता है वह न तो किसी वैयक्तिक ईश्वर के प्रति आस्था की बात कहता आदेश से प्रतिफलित मानते हैं और इस अर्थ में वे धर्म को नैतिकता है और न धर्म के कुछ क्रिया-काण्डों तक सीमित रखता है। उसने से प्राथमिक मानते हैं। जबकि कॉण्ट, मार्टिन्यू आदि नैतिकता पर धर्म की परिभाषा करते हुए चार दृष्टिकोण प्रस्तुत किये हैंधर्म को अधिष्ठित करते हैं। कॉण्ट के अनुसार, धर्म नैतिकता पर (१) वस्तु का स्वभाव धर्म है; आधारित है और ईश्वर का अस्तित्व नैतिकता के अस्तित्व के कारण (२) क्षमा आदि सद्गुणों का आचरण धर्म है; है। जहाँ तक भारतीय चिन्तन और विशेष रूप से जैन परम्परा का (३) सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यग्चारित्र ही धर्म है: और प्रश्न है वे धर्म और नैतिकता को एक दूसरे से पृथक् नहीं करते हैं। (४) जीवों की रक्षा करना ही धर्म है। 'आचार: प्रथमो धर्म:' के रूप में नीति की प्रतिष्ठा धर्म के साथ जुड़ी यदि इन परिभाषाओं के सन्दर्भ को देखें तो यह स्पष्ट हो जाता हुई है। जैन दर्शन की भाषा में कहें तो दोनों अन्योन्याश्रित हैं। सम्यग्चारित्र है कि धार्मिक होना और नैतिक होना यह दो अलग-अलग तथ्य नहीं का आधार सम्यग्दर्शन है और सम्यग्चारित्र के अभाव में सम्यग्दर्शन हैं। 'धर्म' नैतिकता की आधारभूमि है और 'नैतिकता' धर्म की बाह्य भी नहीं होता है। सदाचरण के बिना सम्यक् श्रद्धा और सम्यक् श्रद्धा अभिव्यक्ति। धर्म नैतिकता की आत्मा है और नैतिकता धर्म का शरीर। के बिना सदाचरण सम्भव नहीं है। धर्म न नैतिकताविहीन है और अत: जैन विचारक धार्मिक और नैतिक कर्तव्यता के बीच कोई विभाजक न तो नैतिकता धर्मविहीन। ब्रैडले के शब्दों में यह असम्भव है कि रेखा नहीं खींचते हैं। उनके अनुसार आन्तरिक निष्ठापूर्वक सदाचार एक व्यक्ति धार्मिक होते हुए अनैतिक आचरण करे। ऐसी स्थिति में का पालन करना अर्थात् नैतिक दायित्वों या कर्तव्यों का पालन करना या तो वह धर्म का ढोंग कर रहा है या उसका धर्म ही मिथ्या है। ही धार्मिक होना है। कुछ लोग धर्म और नैतिकता का अन्तर इस आधार पर करते हैं कि नैतिकता का क्षेत्र शुभाशुभ का क्षेत्र है। जहाँ तक शुभ और अशुभ जैनधर्म में नैतिक और धार्मिक कर्तव्यता का व्यावहारिक पक्ष का संघर्ष है वहाँ तक नैतिकता का क्षेत्र है। धर्म के क्षेत्र में शुभ और जैनधर्म में हम नैतिक और धार्मिक कर्तव्यता में कोई अशुभ का द्वन्द्व समाप्त हो जाता है। क्योंकि धार्मिक तभी हुआ जा विभाजक रेखा खींचना चाहें तो उसे सामाजिक कर्तव्यता और सकता है, जबकि व्यक्ति अशुभ से पूर्णतया विरत हो जाये और जब वैयक्तिक कर्तव्यता के आधार पर ही खींचा जा सकता है। हमारे अशुभ नहीं रहता तो शुभ भी नहीं रहता। जैन दार्शनिकों में आचार्य कर्तव्य और दायित्व दो प्रकार के होते हैं, एक जो दूसरों के प्रति कुन्दकुन्द ने पुण्य (शुभ) और पाप (अशुभ) दोनों से ऊपर उठने का हैं और दूसरे जो अपने प्रति हैं। जो दूसरों अर्थात् समाज के प्रति निर्देश दिया है। यद्यपि हमें यह स्मरण रखना होगा कि अशुभ से हमारे दायित्व हैं वे नैतिकता की परिसीमा में आते हैं- अहिंसा, निवर्तन के लिए प्रथम शुभ की साधना आवश्यक है। धर्म का क्षेत्र सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के व्रतों का जो बाह्य या व्यवहार पुण्य-पाप के अतिक्रमण का क्षेत्र है; अत: वह नैतिकता से ऊपर है, पक्ष है, उसका पालन नैतिक कर्तव्यता है, जबकि समभाव, द्रष्टाभाव फिर भी हमें यह मानना होगा कि धार्मिक होने के लिए जिन कर्तव्यों या साक्षीभाव जिसे जैन पारिभाषिक शब्दावली में 'सामायिक' कहा का विधान किया गया है वे स्वरूपतः नैतिक ही हैं। जैन धर्म के गया है, की साधना धार्मिक कर्तव्यता है। जैन धर्म में आचार और पाँच व्रतों, बौद्ध धर्म के पञ्चशीलों और योग दर्शन के पञ्चयमों का पूजा-उपासना की जो दूसरी प्रक्रियाएँ हैं उनका महत्त्व या मूल्य इसी सीमाक्षेत्र नैतिकता का सीमा-क्षेत्र ही है। भारतीय परम्परा में धार्मिक बात में है कि समभाव जो हमारा सहज स्वभाव है, की उपलब्धि में, होने के लिए नैतिक होना आवश्यक है। इस प्रकार आचरण की दृष्टि किस सीमा तक सहायक है। यदि हमें जैन धर्म में नैतिक और धार्मिक से नैतिक-कर्तव्यता प्राथमिक है और धार्मिक-कर्तव्यता परवर्ती है। यद्यपि कर्तव्यता को अति संक्षेप में कहना हो तो उन्हें क्रमश: 'अहिंसा' और नैतिक और धार्मिक दोनों ही प्रकार के कर्तव्यों की बाध्यता का उद्भव ___'समता' के रूप में कहा जा सकता है, उसमें अहिंसा सामाजिक या कर्म के नियम से होता है, अत: इन कर्तव्यों की बाध्यता का उद्भव नैतिक कर्तव्यता की सूचक है और समता (सामायिक) धार्मिक कर्तव्यता मूलतः धार्मिक ही है।
की सूचक है।
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जैन आचार में उत्सर्ग-मार्ग और अपवाद-मार्ग
उत्सर्ग और अपवाद
स्थविरकल्प में यह अनिवार्य हो गया कि जितना “प्रतिषेध" का पालन जैन आचार्यों ने आचार सम्बन्धी जो विभिन्न विधि-निषेध प्रस्तुत आवश्यक है, उतना ही आवश्यक “अनुज्ञा" का आचरण भी है। किये हैं वे निरपेक्ष नहीं हैं। देश-काल और व्यक्ति के आधार पर उनमें बल्कि परस्थितिविशेष में "अनुज्ञा" के अनुसार आचण नहीं करने परिवर्तन सम्भव हो सकता है। आचार के जिन नियमों का विधि-निषेध पर प्रायश्चित का भी विधान करना पड़ा है। जिस प्रकार प्रतिषेध का जिस सामान्य स्थिति को ध्यान में रखकर किया गया है उसमें वे आचार भंग करने पर प्रायश्चित है उसी प्रकार अपवाद का आचरण नहीं करने के विधि-निषेध यथावत् रूप में पालनीय माने गये हैं, किन्तु देश-काल, पर भी प्रायश्चित है अर्थात् “प्रतिषेध" और "अनुज्ञा" उत्सर्ग और परिस्थिति अथवा वैयक्तिक परिस्थितियों की भित्रता में उनमें परिवर्तन अपवाद दोनों ही समबल माने गये हैं। दोनों में ही विशुद्धि है। किन्तु भी स्वीकार किया गया है। व्यक्ति और देश-कालगत सामान्य यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उत्सर्ग राजमार्ग है, जिसका अवलम्बन परिस्थितियों में जिन नियमों का पालन किया जाता है वे उत्सर्ग मार्ग साधक के लिए सहज है, किन्तु अपवाद, यद्यपि आचरण में सरल कहे जाते हैं किन्तु जब देशकालगत और वैयक्तिक विशेष परिस्थितियों है, तथापि सहज नहीं है।" में उन सामान्य विधि-निषेधों को शिथिल कर दिया जाता है तो उसे वस्तुत: जीवन में नियमों उपनियमों की जो सर्व सामान्य विधि अपवाद मार्ग कहा जाता है। वस्तुत: आचार के सामान्य नियम उत्सर्ग होती है वह उत्सर्ग और जो विशेष विधि है वह अपवाद विधि है। मार्ग कहे जाते हैं और विशिष्ट नियम अपवाद मार्ग कहे जाते हैं। उत्सर्ग सामान्य अवस्था में आचरणीय होता है और अपवाद विशेष दोनों की व्यावहारिकता परिस्थिति-सापेक्ष होती है। जैन आचार्यों की संकटकालीन अवस्था में। यद्यपि दोनों का उद्देश्य एक ही होता है मान्यता रही है कि सामान्य परिस्थितियों में उत्सर्ग मार्ग का अवलम्बन कि साधक का संयम सुरक्षित रहे। समर्थ साधक के द्वारा संयम रक्षा किया जाना चाहिए किन्तु देशकाल, परिस्थिति अथवा व्यक्ति के स्वास्थ्य के लिए जो अनुष्ठान किया जाता है वह उत्सर्ग है और असमर्थ साधक एवं क्षमता में किसी विशेष परिवर्तन के आ जाने पर अपवाद मार्ग के द्वारा संयम की रक्षा के लिए ही उत्सर्ग से विपरीत जो अनुष्ठान का अवलम्बन किया जा सकता है। यहाँ इस तथ्य को भी स्पष्ट रूप किया जाता है वह अपवाद है। अनेक परिस्थितियों में यह स्थिति से समझ लेना चाहिए कि अपवाद मार्ग का सम्बन्ध केवल आचरण उत्पन्न हो जाती है कि व्यक्ति उत्सर्ग मार्ग के प्रतिपालन के द्वारा संयम सम्बन्धी बाह्य विधि-निषेधों से होता है और आपवादिक परिस्थिति और ज्ञानादि गुणों की सुरक्षा नहीं कर पाता तब उसे अपवाद मार्ग में किये गये सामान्य नियम के खण्डन से न तो उस नियम का मूल्य का ही सहारा लेना होता है। यद्यपि उत्सर्ग और अपवाद परस्पर विरोधी कम होता है और न सामान्य रूप से उसके आचरणीय होने पर कोई प्रतीत होते हैं किन्तु लक्ष्य की दृष्टि से विचार करने पर उनमें वस्तुत: प्रभाव पड़ता है। जहाँ तक आचार के आन्तरिक पक्ष का प्रश्न है, विरोध नहीं होता है। दोनों ही साधना की सिद्धि के लिए होते है, जैनाचार्यों ने उसे सदैव निरपेक्ष या उत्सर्ग के रूप में स्वीकार किया उसकी सामान्यता एवं सार्वभौमिकता खण्डित होती है। उत्सर्गमार्ग को है। हिंसा का विचार या हिंसा की भावना किसी भी परिस्थिति में नैतिक सार्वभौम कहने का तात्पर्य भी यह नहीं है कि अपवाद का कोई स्थान या आचरणीय नहीं मानी जाती। जिस सम्बन्ध में अपवाद की चर्चा नहीं है। उसे सार्वभौम कहने का तात्पर्य इतना ही है कि सामान्य की जाती है वह अहिंसा के बाह्य विधि निषेधों से सम्बन्धित होता परिस्थितियों में उसका ही आचरण किया जाना चाहिए। उत्सर्ग और है। मान लीजिए कि हम किसी निरपराध प्राणी का जीवन बचाने के अपवाद दोनों की आचरणीयता परिस्थिति-सापेक्ष है, निरपेक्ष नहीं। लिए अथवा किसी स्त्री का शील सुरक्षित रखने के लिए हिंसा अथवा यह उस परिस्थिति पर निर्भर होता है कि व्यक्ति उसमें उत्सर्ग का असत्य का सहारा लेते हैं तो इससे अहिंसा या सत्यसम्भाषण का अवलम्बन ले या अपवाद का। कोई भी आचार, परिस्थिति निरपेक्ष सामान्य नैतिक आदर्श समाप्त नहीं हो जाता। अपवाद मार्ग न तो नहीं हो सकता। अत: आचार के नियमों के परिपालन में परिस्थिति कभी मौलिक एवं सार्वभौमिक नियम बनता है और न अपवाद आचरण के विचार को सम्मिलित किया गया है। फलत: अपवाद मार्ग की का कारण माना जाता है, उसी प्रकार अनुज्ञा के अनुसार अर्थात् अपवाद आवश्यकता स्वीकार की गई है। मार्ग पर चलने पर भी आचरण को विशुद्ध ही माना जाना चाहिए। जैन संघ में अपवाद मार्ग का कैसे विकास हुआ? इस सम्बन्ध यदि ऐसा न माना जाता तब तो एकमात्र उत्सर्ग मार्ग पर ही चलना में पं० दलसुख भाई मालवणिया का कथन है कि आचारांग में निर्ग्रन्थ अनिवार्य हो जाता, फलस्वरूप अपवाद मार्ग का अवलम्बन करने के और निम्रन्थी संघ के कर्तव्य और अकर्तव्य के मौलिक उपदेशों का लिए कोई भी किसी भी परिस्थिति में तैयार ही न होता। परिणाम संकलन है किन्तु देश-काल अथवा क्षमता आदि के परिवर्तित होने यह होता कि साधना मार्ग में केवल जिनकल्प को ही मानकर चलना से उत्सर्ग मार्ग पर चलना कठिन हो जाता है। अस्तु ऐसी स्थिति पड़ता। किन्तु जब से साधकों के संघ एवं गच्छ बनने लगे, तब से में आचारांग की ही निशीथ नामक चूला में उन आचार नियमों के केवल औत्सर्गिक मार्ग अर्थात् जिनकल्प संभव नहीं रहा। अतएव विषय में जो वितथकारी है उनका प्रायश्चित बताया गया है। अपवादों
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ का मूल सूत्रों में कोई विशेष निर्देश नहीं है। किन्तु नियुक्ति, भाष्य, मार्ग का निर्धारण कर लेना चाहिए। परिस्थितिविशेष उत्पन्न होने पर चूर्णि आदि में स्थान-स्थान पर विस्तृत वर्णन है। जब एक बार यह जो अपवाद मार्ग का अनुसरण नहीं करता उसे जैन आचार्यों ने प्रायश्चित स्वीकार कर लिया जाता है कि आचार के नियमों की व्यवस्था के का भागी बताया है किन्तु जिस परिस्थिति में अपवाद का अवलम्बन सन्दर्भ में विचारणा को अवकाश है तब परिस्थिति को देखकर मूलसूत्रों लिया गया था उसके समाप्त हो जाने पर भी यदि कोई साधक उस के विधानों में अपवादों की सृष्टि करना गीतार्थ आचार्यों के लिए सहज उपवाद मार्ग का परित्याग नहीं करता है तो वह भी प्रायश्चित का भागी हो जाता है। उत्सर्ग और अपवाद के बलाबल के सम्बन्ध में विचार होता है। कब उत्सर्ग का आचरण किया जाये और कब अपवाद का? करते हुए पं० जी पुन: लिखते हैं कि “संयमी पुरुष के लिए जितने इसका निर्णय देश कालगत परिस्थितियों अथवा व्यक्ति के शरीर-सामर्थ्य, भी निषिद्ध कार्य न करने योग्य कहे गये है, वे सभी “प्रतिषेध" के पर निर्भर होता है। एक बीमार साधक के लिए अकल्प्य आहार एषानीय अन्तर्गत आते हैं और जब परिस्थितिविशेष में उन्हीं निषिद्ध कार्यों माना जा सकता है किन्तु उसके स्वस्थ हो जाने पर वही आहार उसके को करने की “अनुज्ञा' दी जाती है, तब वे ही निषिद्ध कर्म “विधि' लिए अनैषणीय हो जाता है। बन जाते हैं। परिस्थिति विशेष में अकर्तव्य भी कर्तव्य बन जाता है, यहाँ यह प्रश्न भी स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है कि साधक किन्तु प्रतिषेध को विधि में परिणत कर देने वाली परिस्थिति का औचित्य __कब अपवाद मार्ग का अवलम्बन करे? और इसका निश्चय कौन करे?
और परीक्षण करना, साधारण साधक के लिए सम्भव नहीं है। अतएव जैनाचार्यों ने इस सन्दर्भ में गीतार्थ की आवश्यकता अनुभव की और ये "अपवाद', "अनुज्ञा" या "विधि" सब किसी को नहीं बताये कहा कि गीतार्थ को ही यह अधिकार होता है कि वह साधक को जाते। यही कारण है कि “अपवाद' का दूसरा नाम "रहस्य' उत्सर्ग या अपवाद किसका अवलम्बन लेना है, निर्णय दे। जैन परम्परा (नि०चू०,गा०४९५) पड़ा है। इससे यह भी फलित हो जाता है कि में गीतार्थ उस आचार्य को कहा जाता है जो देश, काल और परिस्थिति जिस प्रकार “प्रतिषेध" का पालन करने से आचरण विशुद्ध माना जाता को सम्यक् रूप से जानता हो और जिसने निशीथ, व्यवहार, कल्प है, उसी प्रकार अनुज्ञा के अनुसार अर्थात् अपवाद मार्ग पर चलने आदि छेदसूत्रों का सम्यक् अध्ययन किया हो। साधक को उत्सर्ग और पर भी आचरण को विशुद्ध ही माना जाना चाहिए। (देखें निशीथ एक अपवाद में किसका अनुसरण करना है? इसके निर्देश का अधिकार अध्ययन, पृ० ५४) प्रशमरति में उमास्वातिर स्पष्ट रूप से कहते हैं गीतार्थ को ही है। जहाँ तक उत्सर्ग और अपवाद इन दोनों में कौन कि परिस्थितिविशेष में जो भोजन, शय्या, वस्त्र, पात्र एवं औषधि श्रेय है और कौन अश्रेय अथवा कौन सबल है और कौन निर्बल है? आदि ग्राह्य होती है वही परिस्थिति विशेष में अग्राह्य हो जाती है और इस समस्या के समाधान का प्रश्न है, जैनाचार्यों के अनुसार दोनों जो अग्राह्य होती है वही ग्राह्य हो जाती है, निशीथ भाष्य में स्पष्ट ही अपनी-अपनी परिस्थितियों के अनुसार श्रेय व सबल हैं। आपवादिक रूप से कहा गया है कि समर्थ साधक के लिए उत्सर्ग स्थिति में जो परिस्थिति में अपवाद को श्रेय और सबल माना गया है किन्तु सामान्य द्रव्यादि निषिद्ध माने जाते हैं वे असमर्थ साधक के लिए आपवादिक परिस्थिति में उत्सर्ग को श्रेय एवं सबल कहा गया है। बृहत्कल्पभाष्य स्थिति में ग्राह्य हो जाते हैं। सत्य यह है कि देश, काल, रोग आदि के अनुसार ये दोनों (उत्सर्ग और अपवाद) अपने-अपने स्थानों में के कारण कभी-कभी जो अकार्य होता है वह कार्य बन जाता है और श्रेय व सबल होते हैं। इसे और अधिक स्पष्ट करते हुए बृहत्कल्पभाष्य जो कार्य होता है वह अकार्य बन जाता है। उदाहरण के रूप में सामान्यतया की पीठिका में कहा गया है कि जो साधक स्वस्थ एवं समर्थ है उसके ज्वर की स्थिति में भोजन निषिद्ध माना जाता है किन्तु वात, श्रम, लिए उत्सर्ग स्वस्थान है और अपवाद परस्थान है। जो अस्वस्थ एवं क्रोध, शोक और कामादि से उत्पन्न ज्वर में लंघन हानिकारक माना असमर्थ है उसके लिए अपवाद स्वस्थान है और उत्सर्ग परस्थान है। जाता है।
वस्तुत: जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं। यह सब व्यक्ति उत्सर्ग और अपवाद की इस चर्चा में स्पष्ट रूप से एक बात की सामर्थ्य एवं परिस्थितियों पर निर्भर करता है कि कब आचरणीय सबसे महत्त्वपूर्ण है वह यह कि दोनों ही परिस्थिति-सापेक्ष हैं और अनाचरणीय एवं अनाचरणीय आचरणीय हो जाता है। कभी उत्सर्ग इसलिए दोनों ही मार्ग हैं, उन्मार्ग कोई भी नहीं है। यद्यपि यहाँ यह का पालन उचित होता है तो कभी अपवाद का। वस्तुत: उत्सर्ग और प्रश्न उठ सकता है कि यह कैसे निर्णय किया जाये कि किस व्यक्ति अपवाद की इस समस्या का समाधान उन परिस्थितियों में कार्य करने को उत्सर्ग मार्ग पर चलना चाहिए और किसको अपवाद मार्ग पर। वाले व्यक्ति के स्वभाव का विश्लेषण कर किये गये निर्णय में निहित इस सम्बन्ध में जैनाचार्यों की दृष्टि यह रही है कि साधक को सामान्य है। वैसे तो उत्सर्ग और अपवाद के सम्बन्ध में भी कोई सीमा रेखा स्थिति में उत्सर्ग का अवलम्बन करना चाहिए, किन्तु यदि वह किसी निश्चित कर पाना कठिन है, फिर भी जैनाचार्यों ने कुछ आपवादिक विशिष्ट परिस्थिति में फंस गया है जहाँ उसके उत्सर्ग के आलम्बन परिस्थितियों का उल्लेख कर यह बताया है कि उनमें किस प्रकार का से स्वयं उसका अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है तो उसे अपवाद आचरण किया जाये। मार्ग का सेवन करना चाहिए फिर भी यह सदैव स्मरण रखना चाहिए सामान्यतया अहिंसा को जैन साधना का प्राण कहा जा सकता कि अपवाद का आलम्बन किसी परिस्थितिविशेष में ही किया जाता है। साधक के लिए सूक्ष्म से सूक्ष्म हिंसा भी वर्जित मानी गई है। है और उस परिस्थितिविशेष की समाप्ति पर साधक को पुन: उत्सर्ग किन्तु जब कोई विरोधी व्यक्ति आचार्य या संघ के वध के लिए तत्पर
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जैन आचार में उत्सर्ग-मार्ग और अपवाद-मार्ग
२६९ हो, किसी साध्वी का बलपूर्वक अपहरण करना चाहता हो और वह के कारण शीलभंग करे तो इस स्थिति में शीलभंग करने वाले भिक्षु उपदेश से भी नहीं मानता हो तो ऐसी स्थिति में भिक्षु, आचार्य, संघ के मनोभावों को लक्ष्य में रखकर ही प्रायश्चित का निर्धारण किया अथवा साध्वी की रक्षा के लिए पुलाकलब्धि का प्रयोग करता हुआ जाता है। भी साधक संयमी माना गया है।
जैनाचार्यों ने ब्रह्मचर्य की सुरक्षा पर सर्वाधिक बल दिया। इसलिए सामान्यतया श्रमण साधक के लिए वानस्पतिक जीवों अथवा उन्होंने न केवल मैथुन-सेवन का निषेध किया अपितु भिक्षु के लिए अप्कायिक जीवों के स्पर्श का भी निषेध है किन्तु जीवन रक्षा के लिए नवजात कन्या का और भिक्षुणी के लिए नवजात शिशु का स्पर्श भी इन नियमों के अपवाद स्वीकार किये गये है। जैसे पर्वत से फिसलते वर्जित कर दिया। आगमों में उल्लेख है कि भिक्षुणी को कोई भी समय भिक्षु वृक्ष की शाखा या लता आदि का सहारा ले सकता है। पुरुष चाहे वह उसका पुत्र या पिता ही क्यों न हो, स्पर्श नहीं करे जल में बहते हुए साधु या साध्वी की रक्षा के लिए नदी आदि में किन्तु अपवाद रूप में यह बात स्वीकार की गई कि नदी में डूबती उतर सकता है।
हुई या विक्षिप्त-चित्त भिक्षुणी को भिक्षु स्पर्श कर सकता है। इसी इसी प्रकार उत्सर्ग मार्ग में स्वामी की आज्ञा-बिना भिक्षु के लिए प्रकार सर्पदंश या कांटा लग जाने पर उसकी चिकित्सा का कोई अन्य एक तिनका भी अग्राह्य है। दशवैकालिक के अनुसार श्रमण अदत्तादान उपाय न रह जाने पर भिक्षु या भिक्षुणी परस्पर एक दूसरे की सहायता को न स्वयं ग्रहण कर सकता है, न दूसरों से ग्रहण करवा सकता कर सकते हैं। यह स्मरण रखना चाहिए कि उक्त अपवाद ब्रह्मचर्य है और न अदत्त ग्रहण करने वाले का अनुमोदन ही कर सकता है। के खण्डन से सम्बन्धित न होकर स्त्री-पुरुष के परस्पर स्पर्श से सम्बन्धित परन्तु परिस्थितिवश अपवाद मार्ग में भिक्षु के लिए अयाचित स्थान है। निशीथ भाष्य और बृहत्कल्पभाष्य के अध्ययन से स्पष्ट हो जाता आदि ग्रहण के उल्लेख हैं। जैसे भिक्षु भयंकर शीतादि के कारण या है कि जैनाचार्यों ने ब्रह्मचर्य की सुरक्षा पर कितनी गहराई से विचार हिंसक पशुओं का भय होने पर स्वामी की आज्ञा लिए बिना ही ठहरने किया। जैनाचार्यों ने इस प्रश्न पर भी विचार किया कि एक ओर व्यक्ति योग्य स्थान पर ठहर जाए तत्पश्चात् स्वामी की आज्ञा प्राप्त करने का शीलभंग नहीं करना चाहता किन्तु दूसरी ओर वासना का आवेग इतना प्रयत्न करे।
तीव्र होता है कि वह अपने पर संयम नहीं रख पाता। ऐसी स्थिति जहाँ तक ब्रह्मचर्य सम्बन्धी अपवादों का प्रश्न है उस पर हमें में क्या किया जाये? दो दृष्टियों से विचार करना है। जहाँ अहिंसा, सत्य आदि व्रतों में ऐसी स्थिति में जैनाचार्यों ने सर्वनाश की अपेक्षा अर्द्ध-विनाश अपवाद मार्ग का सेवन करने पर बिना तप-प्रायश्चित के भी विशुद्धि की नीति को भी स्वीकार किया है। इसी प्रसंग में जैनाचार्यों ने यह सम्भव मानी गई है वहाँ ब्रह्मचर्य के सम्बन्ध में तप-प्रायश्चित के बिना उपाय भी बताया है कि ऐसे भिक्षु अथवा भिक्षुणी को अध्ययन, लेखन, विशुद्धि को सम्भव नहीं माना गया है। ऐसा क्यों किया गया इस वैयावृत्य आदि कार्यों में इतना व्यस्त कर दिया जाये कि उसके पास सम्बन्ध में जैनाचार्यों का तर्क है कि हिंसा आदि में राग-द्वेषपूर्वक और काम-वासना जगने का समय ही न रहे। इस प्रकार उन्होंने काम-वासना रागद्वेष रहित दोनों ही प्रकार की प्रतिसेवना सम्भव है और यदि प्रतिसेवना पर विजय प्राप्त करने के उपाय भी बताए। रागद्वेष से रहित है तो उसके लिए विशेष प्रायश्चित नहीं है किन्तु सामान्यतया भिक्षु के लिए परिग्रह के पूर्णत: त्याग का विधान मैथुन का सेवन राग के अभाव में नहीं होता, अत: ब्रह्मचर्य व्रत की है और इसी आधार पर अचेलता की प्रशंसा की गई है। सामान्यतः स्खलना में तप-प्रायश्चित अपरिहार्य है। जिस स्खलना पर तप-प्रायश्चित आचारांग आदि सूत्रों में भिक्षु के लिए अधिकतम तीन वस्त्र और अन्य का विधान हो उसे अपवाद मार्ग नहीं कहा जा सकता। निशीथ भाष्य । परिमित उपकरण रखने की अनुमति है किन्तु यदि हम मध्यकालीन के आधार पर पं० दलसुख भाई मालवणिया का कथन है कि यदि जैन साहित्य का और साधु जीवन का अध्ययन करें तो यह स्पष्ट हिंसा आदि दोषों का सेवन संयम के रक्षण हेतु किया जाय तो तप लगता है कि धीरे-धीरे भिक्षु जीवन में रखने योग्य वस्तुओं की संख्या प्रायश्चित नहीं होता किन्तु अब्रह्मचर्य सेवन के लिए तो तप या छेद बढ़ती गई है। अन्य भी आचार सम्बन्धी कठोरतम नियम स्थिर नहीं प्रायश्चित आवश्यक है।
रह सके हैं। अत: आपवादिक रूप में कई अकरणीय कार्यों का करना यद्यपि ब्रह्मचर्य व्रत की स्खलना पर प्रायश्चित का विधान होने भी विहित मान लिया गया है जो सामान्यतया निन्दित माने जाते थे। में ब्रह्मचर्य का कोई अपवाद स्वीकार नहीं किया गया है, किन्तु अपवाद मार्ग के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा निशीथ भाष्य एवं निशीथ इसका तात्पर्य यह नहीं है कि जैनाचार्यों ने उन सब परिस्थितियों पर चूर्णि आदि में उपलब्ध हैं। साथ ही पं० दलसुखभाई मालवणिया ने विचार नहीं किया है जिनमें कि जीवन की रक्षा अथवा संघ की प्रतिष्ठा अपने ग्रन्थ “निशीथ एक अध्ययन"११ में एवं उपाध्याय अमरमुनिजी को सुरक्षित रखने के लिए शीलभंग हेतु विवश होना पड़े। निशीथ ने निशीथ चूर्णि१२ के तृतीय भाग की भूमिका में इसका विस्तार से और बृहत्कल्पभाष्य में यह उल्लेख है कि यदि ऐसा प्रसंग उपस्थित विवेचन किया है। इसी प्रकार निशीथ सूत्र हिन्दी विवेचन में भी उत्सर्ग हो जहाँ शीलभंग और जीवन-रक्षण में से एक ही विकल्प हो तो और अपवाद मार्ग का स्वरूप समझाया गया है। जिज्ञासु पाठक उसे ऐसी स्थिति में श्रेष्ठ तो यही है कि व्यक्ति मृत्यु को स्वीकार करे और वहाँ देख सकते हैं। शीलभंग न करे, किन्तु जो मृत्यु को स्वीकार करने में असमर्थ होने
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
१. पं० दलसुख मालवणिया, निशीथ : एक अध्ययन, सन्मति ज्ञानपीठ
आगरा, प्रथम संस्करण, पृ० ५४।
प्रशमरति-उमास्वाति, श्लोक १४५।। ३. निशीथभाष्य, (निशिथ चूर्णि) - संपा० उपाध्याय अमरमुनि,
सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, १७५७, ५२४५। बृहत्कल्पभाष्य, संपा० पुण्यविजयजी, आत्मानन्द जैन सभा, भावनगर, १९३३, पीठिका, गा. ३२२।
वही गा. ३२३-३२४। ६. दशवकालिक, संपा० मधुकरमुनि, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर,
(राज.), ६, १४।
७. व्यवहारसूत्रउद्देशक, संपा० मुनि कन्हैलाल जी 'कमल',८ ८. निशीथ : एक अध्ययन, पृ० ६८। ९. निशीथभाष्य, गाथा ३६६-३६७। १०. बृहत्कल्पभाष्य गाथा ४९४६-४९४७। ११. पं० दलसुखभाई मालवणिया-"निशीथ : एक अध्ययन"
पृ०५३-७०। १२. निशीथसूत्रचूर्णि, तृतीय भाग, भूमिका पृ० ७-२८। १३. छेदसूत्र, संपा० मधुकर मुनि, आगम प्रकाशन समिति, व्याव
पृष्ठ ७४-७५
जैन धर्म में प्रायश्चित्त एवं दण्ड-व्यवस्था
प्रायश्चित्त और दण्ड
प्रायश्चित्त शब्द का अर्थ जैन आचार्यों ने न केवल आचार के विधि-निषेधों का प्रतिपादन प्रायश्चित्त शब्द की आगमिक व्याख्या-साहित्य में विभिन्न परिभाषाएँ किया अपितु उनके भङ्ग होने पर प्रायश्चित्त एवं दण्ड की व्यवस्था भी प्रस्तुत की गई हैं। जीतकल्पभाष्य के अनुसार जो पाप का छेदन करता की। सामान्यतया जैन आगम ग्रन्थों में नियम-भङ्ग या अपराध के लिए है, वह प्रायश्चित्त है। यहाँ “प्रायः" शब्द को पाप के रूप में तथा प्रायश्चित्त का ही विधान किया गया और दण्ड शब्द का प्रयोग सामान्यतया “चित्त' शब्द को शोधक के रूप में परिभाषित किया गया है। हरिभद्र "हिंसा' के अर्थ में हुआ है। अत: जिसे हम दण्ड-व्यवस्था के रूप ने पञ्चाशक में प्रायश्चित्त के दोनों ही अर्थ मान्य किये हैं। वे मूलतः में जानते हैं, वह जैन परम्परा में प्रायश्चित्त-व्यवस्था के रूप में ही “पायच्छित्त" शब्द की व्याख्या उसके प्राकृत रूप के आधार पर ही मान्य है। सामान्यतया दण्ड और प्रायश्चित्त पर्यायवाची माने जाते हैं, करते हैं। वे लिखते हैं कि जिसके द्वारा पाप का छेदन होता है, वह किन्तु दोनों में सिद्धान्तत: अन्तर है। प्रायश्चित्त में अपराध-बोध की प्रायश्चित्त है। इसके साथ ही वे दूसरे अर्थ को स्पष्ट करते हुए कहते भावना से व्यक्ति में स्वतः ही उसके परिमार्जन की अन्त:प्रेरणा उत्पन्न हैं कि जिसके द्वारा चित्त का पाप से शोधन होता है, वह प्रायश्चित्त होती है। प्रायश्चित्त अन्त:प्रेरणा से स्वयं ही किया जाता है, जबकि है। प्रायश्चित्त शब्द के संस्कृत रूप के आधार पर “प्रायः" शब्द को दण्ड अन्य व्यक्ति के द्वारा दिया जाता है। जैन परम्परा अपनी प्रकर्ष के अर्थ में लेते हुए यह भी कहा गया है कि जिसके द्वारा चित्त आध्यात्मिक-प्रकृति के कारण साधनात्मक जीवन में प्रायश्चित्त का ही प्रकर्षता अर्थात् उच्चता को प्राप्त होता है वह प्रायश्चित्त है। विधान करती है। यद्यपि जब साधक अन्त:प्रेरित होकर आत्मशुद्धि दिगम्बर टीकाकारों ने "प्राय:' शब्द का अर्थ अपराध और चित्त के हेतु स्वयं प्रायश्चित्त की याचना नहीं करता है तो संघ-व्यवस्था के शब्द का अर्थ शोधन करके यह माना है कि जिस क्रिया के करने लिए उसे दण्ड देना होता है।
से अपराध की शुद्धि हो वह प्रायश्चित्त है। एक अन्य व्याख्या में यद्यपि हमें यह स्मरण रखना होगा कि दण्ड देने से साधक की "प्रायः" शब्द का अर्थ "लोक" भी किया गया है। इस दृष्टि से यह आत्मशुद्धि नहीं होती। चाहे सामाजिक या संघ-व्यवस्था के लिए दण्ड माना गया है कि जिस कर्म से साधुजनों का चित्त प्रसन्न होता है वह आवश्यक हो किन्तु जब तक उसे अन्त:प्रेरणा से स्वीकृत नहीं किया प्रायश्चित्त है। मूलाचार में कहा गया है कि प्रायश्चित्त वह तप है जिसके जाता तब तक वह आत्मविशुद्धि करने में सहायक नहीं होता। जैन द्वारा पूर्वकृत पापों की विशुद्धि की जाती है। इसी ग्रन्थ में प्रायश्चित्त प्रायश्चित्त व्यवस्था में परिहार, छेद, मूल, पाराञ्चिक आदि बाह्यत: तो के पर्यायवाची नामों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि जिसके दण्डरूप हैं, किन्तु उनकी आत्मविशुद्धि की क्षमता को लक्ष्य में रखकर द्वारा पूर्वकृत कर्मों की क्षपणा, क्षेपण, निर्जरण, शोधन, धावन, पुंछण, ही ये प्रायश्चित्त दिये जाते हैं।
निराकरण, उत्क्षेपण एवं छेदन होता है, वह प्रायश्चित्त है।
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जैन धर्म में प्रायश्चित्त एवं दण्ड-व्यवस्था प्रायश्चित्त के प्रकार
नाम भी वे ही हैं। इसप्रकार जहाँ धवला श्वेताम्बर परम्परा से संगति श्वेताम्बर परम्परा में विविध प्रायश्चित्तों का उल्लेख स्थानाङ्ग, रखती है, वहाँ मूलाचार और तत्त्वार्थ कुछ भिन्न हैं। सम्भवत: ऐसा निशीथ, बृहत्कल्प, व्यवहार, जीतकल्प आदि ग्रन्थों में मिलता है। प्रतीत होता है कि जीतकल्प सूत्र के उल्लेखानुसार जब अनवस्थाप्य किन्तु जहाँ समवायाङ्ग में प्रायश्चित्तों के प्रकारों का मात्र नामोल्लेख और पारांचिक इन दोनों प्रायश्चित्तों को भद्रबाहु के बाद व्युच्छिन्न मान है वहाँ निशीथ आदि ग्रन्थों में प्रायश्चित्त-योग्य अपराधों का भी विस्तृत लिया गया या दूसरे शब्दों में इन प्रायश्चित्तों का प्रचलन बन्द कर विवरण उपलब्ध होता है। प्रायश्चित्त सम्बन्धी विविध सिद्धान्तों और दिया गया५ तो इन अन्तिम दो प्रायश्चित्तों के स्वतन्त्र स्वरूप को समस्याओं का स्पष्टतापूर्वक विवेचन बृहत्कल्पभाष्य, निशीथभाष्य, लेकर मतभेद उत्पन्न हो गया और उनके नामों में अन्तर हो गया। व्यवहारभाष्य, निशीथचूर्णि, जीतकल्पभाष्य एवं जीतकल्पचूर्णि में मूलाचार के अन्त में परिहार का जो उल्लेख है वह अनवस्थाप्य उपलब्ध होता है। जहाँ तक प्रायश्चित्त के प्रकारों का प्रश्न है, इन प्रकारों से कोई भिन्न नहीं कहा जा सकता, किन्तु उसमें श्रद्धान प्रायश्चित्त का उल्लेख श्वेताम्बर आगम स्थानाङ्ग, बृहत्कल्प, निशीथ और जीतकल्प का क्या तात्पर्य है यह न तो मूल ग्रन्थ से और न उसकी टीका में, यापनीय ग्रन्थ मूलाचार में, दिगम्बर ग्रन्थ जयधवला में तथा से ही स्पष्ट होता है। यह अन्तिम प्रायश्चित्त है, अत: कठोरतम होना तत्त्वार्थसूत्र एवं उसकी श्वेताम्बर और दिगम्बर आचार्यों की टीकाओं चाहिये। इसका अर्थ यह माना जा सकता है कि ऐसा अपराधी जो में मिलता है।
श्रद्धान से सर्वथा रहित है अत: संघ से पूर्णतया बहिष्कृत कर दिया स्थानाङ्गसूत्र में प्रायश्चित्त के विभिन्न प्रकारों का उल्लेख हुआ है, जाये किन्तु टीकाकार वसुनन्दी ने श्रद्धान का अर्थ तत्त्वरुचि एवं उसके तृतीय स्थान में ज्ञान-प्रायश्चित्त, दर्शन-प्रायश्चित्त और चारित्र- क्रोधादि-त्याग किया है। इन प्रायश्चित्तों में जो क्रम है वह सहजता प्रायश्चित्त ऐसे तीन प्रायश्चित्तों का उल्लेख हुआ है। इसी तृतीय स्थान से कठोरता की ओर है। अत: अन्त में श्रद्धान नामक सहज प्रायश्चित्त में अन्यत्र आलोचना, प्रतिक्रमण और तदुभय ऐसे प्रायश्चित्त के तीन को रखने के लिए कोई औचित्य नहीं है। वस्तुत: जिन-प्रवचन के रूपों का भी उल्लेख हुआ है। इसी आगम ग्रन्थ में अन्यत्र छ:, प्रति श्रद्धा का समाप्त हो जाना ही वह अपराध है, जिसका दण्ड आठ और नौ प्रायश्चित्तों का भी उल्लेख हुआ है, किन्तु ये सभी प्रायश्चित्तों मात्र संघ-बहिष्कार है। अत: ऐसे श्रमण की श्रद्धा जब तक सम्यक् के प्रकार उसके दशम स्थान में जहाँ दशविध प्रायश्चित्तों का विवरण नहीं है तब तक उसे संघ से बहिष्कृत रखना ही इस प्रायश्चित्त का दिया गया है उसमें समाहित हो जाते हैं। अतः हम उनकी स्वतन्त्र तात्पर्य है। रूप से चर्चा न करके उसमें उपलब्ध दशविध प्रायश्चित्त की चर्चा प्रायश्चित्त का सर्वप्रथम रूप वह है जहाँ साधक को स्वयं ही करेंगे
अपने मन में अपराधबोध के परिणामस्वरूप आत्मग्लानि का भाव स्थानाङ्ग, जीतकल्प और धवला में प्रायश्चित्त के निम्न दस प्रकार । उत्पन्न हो। वस्तुत: आलोचना का अर्थ है- अपराध को अपराध माने गये हैं
के रूप में स्वीकार कर लेना। आलोचना शब्द का अर्थ-देखना, (१) आलोचना, (२) प्रतिक्रमण, (३) उभय, (४) विवेक, अपराध को अपराध के रूप में देख लेना ही आलोचना है। (५) व्युत्सर्ग, (६) तप, (७) छेद, (८) मूल, (९) अनवस्थाप्य सामान्यतया वे अपराध जो हमारे दैनन्दिन व्यवहार में असावधानी 'और (१०) पारांचिक।१२ यदि हम इन इस नामों की तुलना यापनीय (प्रमाद) या बाध्यतावश घटित होते हैं, आलोचना नामक प्रायश्चित्त ग्रन्थ मूलाचार और तत्त्वार्थसूत्र४ से करते हैं तो मूलाचार में प्रथम के विषय माने गये हैं। अपने द्वारा हुए अपराध या नियमभङ्ग को आठ नाम तो जीतकल्प के समान ही हैं किन्तु जीतकल्प के अनवस्थाप्य आचार्य या गीतार्थ मुनि के समक्ष निवेदित करके उनसे उसके प्रायश्चित्त के स्थान पर परिहार और पारांचिक के स्थान पर 'श्रद्धान' का उल्लेख की याचना करना ही आलोचना है। सामान्यतया आलोचना करते हुआ है। मूलाचार श्वेताम्बर परम्परा से भिन्न होकर तप और परिहार समय यह विचार आवश्यक है कि अपराध क्यों हुआ? उसका प्रेरक को अलग-अलग मानता है। तत्त्वार्थसूत्र में तो इनकी संख्या नौ मानी तत्त्व क्या है? गई है। इसमें सात नाम तो जीतकल्प के समान ही हैं किन्तु मूल के स्थान पर उपस्थापन और अनवस्थाप्य के स्थान पर परिहार का अपराध क्यों और कैसे? उल्लेख हुआ है। पारांचिक का उल्लेख तत्त्वार्थ में नहीं है। अतः अपराध या व्रतभङ्ग क्यों और किन परिस्थितियों में किया जाता वह नौ प्रायश्चित्त ही मानता है। श्वेताम्बर आचार्यों ने तप और परिहार है? इसका विवेचन हमें स्थानाङ्ग सूत्र के दशम स्थान में मिलता है। को एक माना है, किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में तप और परिहार दोनों स्वतन्त्र उसमें दस प्रकार के प्रतिसेवना का उल्लेख हुआ है। प्रतिसेवना का प्रायश्चित्त माने गये हैं, अत: तत्त्वार्थ में परिहार का अर्थ अनवस्थाप्य तात्पर्य है गृहीत व्रत के नियमों के विरुद्ध आचरण करना अथवा भोजन ही हो सकता है। इस प्रकार तत्त्वार्थ और मूलाचार दोनों तप और आदि ग्रहण करना। वस्तुतः प्रतिसेवना का सामान्य अर्थ व्रत या नियम परिहार को अलग-अलग मानते हैं और दोनों में उनका अर्थ अनवस्थाप्य के प्रतिकूल आचरण करना ही है। यह व्रतभङ्ग क्यों, कब और किन के समान है। यद्यपि दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थ धवला १७ में स्थानाङ्ग परिस्थितियों में होता है इसे स्पष्ट करने हेतु ही स्थानाङ्ग में दस और जीतकल्प के समान ही १० प्रायश्चित्तों का वर्णन है और उनके प्रतिसेवनाओं का उल्लेख है।१६
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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
एक विचारणीय प्रश्न है। योग्य और गम्भीर व्यक्ति के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति के समक्ष आलोचना करने का परिणाम यह होता है कि वह आलोचना करने वाले व्यक्ति की प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचा सकता (२) प्रमाद-प्रतिसेवना - प्रमाद एवं कषायों के वशीभूत होकर है तथा उसे अपयश का भागी बनना पड़ सकता है। अत: जैनाचार्यों जो व्रत भङ्ग किया जाता है, वह प्रमाद-प्रतिसेवना है। ने माना कि आलोचना सदैव ऐसे व्यक्ति के समक्ष करनी चाहिये जो आलोचना सुनने योग्य हो, उसे गोपनीय रख सकता हो और उसका अनैतिक लाभ न ले। स्थानाङ्ग सूत्र" के अनुसार जिस व्यक्ति के सामने आलोचना की जाती है उसे निम्नलिखित दस गुणों से युक्त होना
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(१) दर्प प्रतिसेवना- आवेश अथवा अहङ्कार के वशीभूत होकर जो हिंसा आदि करके व्रत भङ्ग किया जाता है वह दर्पप्रतिसेवना है
(३) अनाभोग- प्रतिसेवना- स्मृति या सजगता के अभाव में अभक्ष्य या नियम विरुद्ध वस्तु का ग्रहण करना अनाभोगप्रतिसेवना है।
(४) आतुर - प्रतिसेवना - भूख-प्यास आदि से पीड़ित होकर चाहिए - किया जाने वाला व्रत भङ्ग आतुर प्रतिसेवना है।
(५) आपात प्रतिसेवना किसी विशिष्ट परिस्थिति के उत्पन्न होने पर व्रत भङ्ग या नियम विरुद्ध आचरण करना आपात - प्रतिसेवना है।
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(६) शङ्कित प्रतिसेवना-शङ्का के वशीभूत होकर जो नियमभङ्ग किया जाता है, उसे शङ्कित प्रतिसेवना कहते हैं, जैसे यह व्यक्ति हमारा अहित करेगा, ऐसा मानकर उसकी हिंसा आदि कर देना। (७) सहसाकार प्रतिसेवना- अकस्मात् होने वाले व्रतभङ्ग या नियम - भङ्ग को सहसाकार प्रतिसेवना कहते हैं।
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(८) भय प्रतिसेवना- भय के कारण जो व्रत या नियम भन किया जाता है वह भय प्रतिसेवना है।
(९) प्रदोष प्रतिसेवना-द्वेषवश किसी प्राणी की हिंसा अथवा उसका अहित करना प्रदोष प्रतिसेवना है।
(१०) विमर्श प्रतिसेवना- शिष्यों की क्षमता अथवा उनकी श्रद्धा आदि के परीक्षण के लिए व्रत या नियम का भङ्ग करना विमर्श - प्रतिसेवना है। दूसरे शब्दों में किसी निश्चित उद्देश्य के लिए विचारपूर्वक व्रतभङ्ग करना या नियम के प्रतिकूल आचरण करना विमर्श या प्रतिसेवना है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि अपराध व्यक्ति केवल स्वेच्छा से जानबूझकर ही नहीं करता अपितु परिस्थतिवश भी करता है। अतः उसे प्रायश्चित्त देते समय यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि अपराध क्यों और किन परिस्थितियों में किया गया है? आलोचना करने का अधिकारी कौन?
आलोचना कौन व्यक्ति कर सकता है? इस सम्बन्ध में भी स्थानाङ्गसूत्र में पर्याप्त चिन्तन किया गया है। इसके अनुसार निम्न दस गुणों से युक्त व्यक्ति ही आलोचना करने के योग्य होता है
(१) जाति सम्पन्न, (२) कुल सम्पन्न, (३) विनय सम्पन्न, (४) ज्ञान सम्पन्न, (५) दर्शन सम्पन्न, (६) चारित्र सम्पन्न, (७) क्षान्त (क्षमासम्पन्न), (८) दान्त (इन्द्रिय-जयी), (९) अमायावी ( मायाचार रहित) और (१०) अपश्चात्तापी (आलोचना करने के बाद उसका पश्चात्ताप न करने वाला)।
आलोचना किसके समझ की जाये?
आलोचना किस व्यक्ति के समक्ष की जानी चाहिए? यह भी
(१) आचारवान् सदाचारी होना, आलोचना देने वाले व्यक्ति का प्रथम गुण है, क्योंकि जो स्वयं दुराचारी है वह दूसरों के अपराधों की आलोचना सुनने का अधिकारी नहीं है जो अपने ही दोषों को शुद्ध नहीं कर सका वह दूसरों के दोषों को क्या दूर करेगा ?
(२) आधारवान् अर्थात् उसे अपराधों और उसके सम्बन्ध में नियत प्रायश्चित्तों का बोध होना चाहिए, उसे यह भी ज्ञान होना चाहिए कि किस अपराध के लिए किस प्रकार का प्रायश्चित्त नियत है।
(३) व्यवहारवान् - उसे आगम, श्रुत, जिनाज्ञा, धारणा और जीत इन पाँच प्रकार के व्यवहारों को जानने वाला होना चाहिए क्योंकि सभी अपराधों एवं प्रायचितों की सूची आगमों में उपलब्ध नहीं है अतः आलोचना सुनने वाला व्यक्ति ऐसा होना चाहिये जो स्वविवेक से ही आगमिक आधारों पर किसी कर्म के प्रायश्चित का अनुमान कर सके।
(४) अपनीडक आलोचना सुनने वाला व्यक्ति ऐसा होना चाहिए कि आलोचना करने वाले की लज्जा छुड़ाकर उसमें आत्म-आलोचन की शक्ति उत्पन्न कर सके ।
(५) प्रकारी - आचार्य अथवा आलोचना सुनने वाले में यह सामर्थ्य होना चाहिए कि वह अपराध करने वाले व्यक्ति के व्यक्तित्व को रूपान्तरित कर सके।
(६) अपरिश्रावी - उसे आलोचना करने वाले के दोषों को दूसरे के सामने प्रगट नहीं करना चाहिये, अन्यथा कोई भी व्यक्ति उसके सामने आलोचना करने में संकोच करेगा।
(७) निर्यापक आलोचना सुनने वाला व्यक्ति ऐसा होना चाहिए कि वह प्रायश्चित विधान इस प्रकार करे कि प्रायश्चित करने वाला व्यक्ति घबराबर उसे आधे में ही न छोड़ दे उसे प्रायश्चित्त करने वाले का सहयोगी बनना चाहिए।
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(८) अपायदर्शी अर्थात् उसे ऐसा होना चाहिए कि वह आलोचना करने अथवा न करने के गुण-दोषों की समीक्षा कर सके। (९) प्रियधर्मा - अर्थात् आलोचना सुनने वाले व्यक्ति की धर्म-मार्ग में अविचल निष्ठा होनी चाहिए।
(१०) धर्मा - उसे ऐसा होना चाहिए कि वह कठिन से कठिन समय में भी धर्म-मार्ग से विचलित न हो सके।
जिसके समक्ष आलोचना की जा सकती है उस व्यक्ति की इन सामान्य योग्यताओं का निर्धारण करने के साथ-साथ यह भी माना
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गया है कि किसी गीतार्थ, बहुश्रुत एवं आगमज्ञ के समक्ष ही आलोचना की जानी चाहिए। साथ ही इनके पदक्रम और वरीयता पर विचार करते हुए यह कहा गया है कि जहाँ आचार्य आदि उच्चाधिकारी उपस्थित हों, वहाँ सामान्य साधु या गृहस्थ के समक्ष आलोचना नहीं करनी चाहिए। आचार्य के उपस्थित होने पर उसी के समक्ष आलोचना की जानी चाहिए। आचार्य की अनुपस्थिति में उपाध्याय के समक्ष, उपाध्याय की अनुपस्थिति में सांभोगिक साधर्मिक साधु के समक्ष और उनकी अनुपस्थिति में अन्य सांभोगिक साधर्मी साधु के समक्ष आलोचना करनी चाहिए। यदि अन्य सांभोगिक साधर्मी साधु भी उपलब्ध न हो तो ऐसी स्थिति में बहुश्रुत और बहुआगमज्ञ समान वेश धारक साधु के समक्ष आलोचना करे। उसके उपलब्ध न होने पर यदि पूर्व में दीक्षा - पर्याय को छोड़ा हुआ बहुश्रुत और आगमज्ञ श्रमणोपासक उपस्थित हो तो उसके समक्ष आलोचना करे। उसके अभाव में सम्यक्त्व भावित अन्तःकरण वाले के समक्ष अर्थात् सम्यक्त्वी जीव के समक्ष आलोचना करे। यदि सम्यक्त्वभावी अन्त:करण वाला भी न हो तो ग्राम या नगर के बाहर जाकर पूर्व या उत्तर दिशा में अभिमुख होकर अरिहन्त और सिद्ध की साक्षीपूर्वक आलोचना करे।"
जैन धर्म में प्रायश्चित एवं दण्ड व्यवस्था
आलोचना सम्बन्धी इस चर्चा के प्रसङ्ग में यह भी तथ्य ध्यान देने योग्य है कि आलोचना दोषमुक्त हो । स्थानाङ्ग, मूलाचार, भगवती-आराधना आदि ग्रन्थों में आलोचना के दस दोषों का उल्लेख हुआ है।"
(१) आकम्पित दोष आचार्य आदि को उपकरण आदि देकर अपने अनुकूल बना लेना आकम्पित दोष है कुछ विद्वानों के अनुसार आकम्पित दोष का अर्थ है कांपते हुए आलोचना करना, जिससे प्रायश्चित्तदाता कम से कम प्रायश्चित्त दे।
(२) अनुमानित दोष - भय से अपने को दुर्बल, रोगग्रस्त आदि दिखाकर आलोचना करना अनुमानित दोष है। ऐसा 'अल्प प्रायश्चित्त मिले इस भावना से किया जाता है।
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(३) अग्रह गुरु अथवा अन्य किसी ने जो अपराध देख लिया हो उसकी तो आलोचना करना और अद्रष्ट दोषों की आलोचना न करना यह अद्रष्ट दोष है।
(४) बादर दोष-बड़े दोषों की आलोचना करना और छोटे दोषों की आलोचना न करना बादर दोष है।
(५) सूक्ष्म दोष - छोटे-छोटे दोषों की आलोचना करना और बड़े दोषों को छिपा लेना सूक्ष्म दोष है।
(६) छन दोष आलोचना इस प्रकार से करना कि गुरु उसे पूरी तरह सुन ही न सके, यह छन्न दोष है । कुछ विद्वानों के अनुसार आचार्य के समक्ष मैंने यह दोष किया, यह न कहकर किसी बहाने से उस दोष का प्रायश्चित्त ज्ञात कर स्वयं ही उसका प्रायश्चित्त ले लेना छत्र दोष है।
(७) शब्दाकुलित दोष कोलाहलपूर्ण वातावरण में आलोचना करना जिससे आचार्य सम्यक् प्रकार से सुन न सके, यह शब्दाकुलित दोष है। दूसरे शब्दों में भीड़-भाड़ अथवा व्यस्तता के समय गुरु के
सामने आलोचना करना दोषपूर्ण माना गया है।
(८) बहुजन दोष एक ही दोष की अनेक लोगों के समक्ष आलोचना करना और उनमें से जो सबसे कम दण्ड या प्रायश्चित दे उसे स्वीकार करना बहुजन दोष है।
(९) अव्यक्त दोष- दोषों को पूर्णरूप से स्पष्ट न कहते हुए उनकी आलोचना करना अव्यक्त दोष है।
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(१०) तत्सेवी दोष - जो व्यक्ति स्वयं ही दोषों का सेवन करने वाले हैं उनके सामने दोषों की आलोचना करना तत्सेवी दोष है क्योंकि जो व्यक्ति स्वयं दोष का सेवन करने वाला है उसे दूसरे को प्रायश्चित्त देने का अधिकारी ही नहीं है। दूसरे, ऐसा व्यक्ति उचित प्रायश्चित्त भी नहीं दे पाता ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनाथायों ने आलोचना के सन्दर्भ में उसके स्वरूप, आलोचना करने व सुनने की पात्रता और उसके दोषों पर गहराई से विचार किया है। इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा निशीथ आदि में पायी जाती है। पाठकों से उसे वहाँ देखने की अनुशंसा की जाती है।
आलोचना योग्य कार्य
जीतकल्प के अनुसार जो भी करणीय अर्थात् आवश्यक कार्य हैं, वे तीर्थङ्करों द्वारा सम्पादित होने पर तो निर्दोष होते हैं, किन्तु छद्मस्थ श्रमणों द्वारा सम्पादित इन कर्मों की शुद्धि केवल आलोचना से ही मानी गयी है। जीतकल्प में कहा गया है कि आहार आदि का ग्रहण, गमनागमन, मल-मूत्र विसर्जन, गुरुवन्दन आदि सभी क्रियाएँ आलोचना के योग्य है। इन्हें आलोचना योग्य मानने का तात्पर्य यह है कि साधक इस बात का विचार करे कि उसने इन कार्यों का सम्पादन सजगतापूर्वक अप्रमत्त होकर किया या नहीं। क्योंकि प्रमाद के कारण दोष लगना सम्भव है। इसी प्रकार आचार्य से सौ हाथ की दूरी पर रहकर जो भी कार्य किये जाते हैं, वे भी आलोचना के विषय माने गये हैं। इन कार्यों की गुरु के समक्ष आलोचना करने पर ही साधक निर्दोष होता है। गुरु को यह बताये कि उसने गुरु से दूर रहकर क्या-क्या कार्य किस प्रकार सम्पादित किये हैं? इसके साथ ही किसी कारणवश या अकारण ही स्व-गण का परित्याग कर पर गण में प्रवेश करने को अथवा उपसम्पदा, विहार आदि कार्यों को भी आलोचना का विषय माना गया है। ईर्ष्या आदि पाँच समितियों और तीन गुप्तियों में लगे हुए दोष सामान्यतया आलोचना के विषय हैं। यद्यपि हमें स्मरण रखना चाहिए कि ये सभी दोष जो आलोचना के विषय हैं, वे देश-काल-परिस्थिति और व्यक्ति के आधार पर प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, परिहार, छेद आदि प्रायश्चित्त के भी योग्य हो सकते हैं।
प्रतिक्रमण
प्रायश्चित्त का दूसरा प्रकार प्रतिक्रमण है अपराध या नियमभङ्ग को अपराध के रूप में स्वीकार कर पुनः उससे वापस लौट आना
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ अर्थात् भविष्य में उसे नहीं करने की प्रतिज्ञा करना ही प्रतिक्रमण है। करना प्रस्रवण प्रतिक्रमण है। (३) इत्वर प्रतिक्रमण- स्वल्पकालीन दूसरे शब्दों में आपराधिक-स्थिति से अनपराधिक-स्थिति में लौट आना (दैवसिक, रात्रिक आदि) प्रतिक्रमण करना इत्वर प्रतिक्रमण है। ही प्रतिक्रमण है। आलोचना और प्रतिक्रमण में अन्तर यह है कि (४) यावत्कथिक प्रतिक्रमण- सम्पूर्ण जीवन के लिए पाप से निवृत्त आलोचना में अपराध को पुन: सेवन न करने का निश्चय नहीं होता, होना यावत्कथिक प्रतिक्रमण है। (५) यत्किंचिन्मिथ्या प्रतिक्रमणजबकि प्रतिक्रमण में ऐसा करना आवश्यक है।
सावधानीपूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए भी प्रमाद अथवा असावधानी __मन, वचन और काय से जो अशुभ आचरण किया जाता है, से किसी भी प्रकार का असंयमरूप आचरण हो जाने पर तत्काल उस अथवा दूसरों के द्वारा कराया जाता है और दूसरे लोगों के द्वारा आचरित भूल को स्वीकार कर लेना, 'मिच्छामि दुक्कडं' ऐसा उच्चारण करना पापाचरण का जो अनुमोदन किया जाता है, इन सबकी निवृत्ति के और उसके प्रति पश्चात्ताप करना यत्किचिन्मिथ्या प्रतिक्रम है। लिए कृत-पापों की समीक्षा करना और पुन: नहीं करने की प्रतिज्ञा (६) स्वप्नान्तिक प्रतिक्रमण-विकार-वासना रूप कुस्वप्न देखने पर करना प्रतिक्रमण है। आचार्य हेमचन्द्र प्रतिक्रमण का निर्वचन करते उसके सम्बन्ध में पश्चात्ताप करना स्वप्नान्तिक प्रतिक्रमण है। यह हुए लिखते हैं कि शुभयोग से अशुभ योग की ओर गये हुए अपने विवेचना प्रमुखतः साधुओं की जीवनचर्या से सम्बन्धित है। आचार्य आपको पुनः शुभयोग में लौटा लाना प्रतिक्रमण है। २२ आचार्य हरिभद्र भद्रबाहु ने जिन-जिन बातों का प्रतिक्रमण करना चाहिए इसका ने प्रतिक्रमण की व्याख्या में इन तीन अर्थों का निर्देश किया है- निर्देश आवश्यक नियुक्ति में किया है।२५ उनके अनुसार (१) मिथ्यात्व, (१) प्रमादवश स्वस्थान से परस्थान (स्वधर्म से परधर्म) में गये हुए (२) असंयम, (३) कषाय एवं (४) अप्रशस्त कायिक, वाचिक एवं साधक का पुन: स्वस्थान पर लौट आना यह प्रतिक्रमण है। अप्रमत्त मानसिक व्यापारों का प्रतिक्रमण करना चाहिए। प्रकारान्तर से आचार्य चेतना का स्व-चेतना केन्द्र में स्थित होना स्वस्थान है, जबकि चेतना ने निम्न बातों का प्रतिक्रमण करना भी अनिवार्य माना है- (१) गृहस्थ का बहिर्मुख होकर पर-वस्तु पर केन्द्रित होना पर-स्थान हैं। इस प्रकार एवं श्रमण उपासक के द्वारा निषिद्ध कार्यों का आचरण कर लेने पर, बाह्यदृष्टि से अन्तर्दृष्टि की ओर आना प्रतिक्रमण है। (२) क्षायोपशमिक (२) जिन कार्यों के करने का शास्त्रों में विधान किया गया है उन भाव से औदयिक भाव में परिणत हुआ साधक पुन: औदयिक भाव विहित कार्यों का आचरण न करने पर, (३) अश्रद्धा एवं शङ्का के से क्षायोपशमिक भाव में लौट आता है, तो यह भी प्रतिकूल गमन उपस्थित हो जाने पर और (४) असम्यक् एवं असत्य सिद्धान्तों का के कारण प्रतिक्रमण कहलाता है। (३) अशुभ आचरण से निवृत्त होकर प्रतिपादन करने पर प्रतिक्रमण अवश्य करना चाहिए। मोक्षफलदायक शुभ आचरण में नि:शल्य भाव से पुनः प्रवृत्त होना जैन परम्परा के अनुसार जिनका प्रतिक्रमण किया जाना चाहिए, प्रतिक्रमण है।२३
उनका संक्षिप्त वर्गीकरण इस प्रकार हैआचार्य भद्रबाह ने प्रतिक्रमण के निम्न पर्यायवाची नाम दिये (अ) २५ मिथ्यात्वों, १४ ज्ञानातिचारों और १८ पापस्थानों का हैं- (१) प्रतिक्रमण- पापाचरण के क्षेत्र से प्रतिगामी होकर प्रतिक्रमण सभी को करना चाहिए। आत्मशुद्धि के क्षेत्र में लौट आना। (२) प्रतिचरण-हिंसा, असत्य (ब) पञ्च महाव्रतों, मन, वाणी और शरीर के असंयम तथा गमन, आदि से निवृत्त होकर अहिंसा, सत्य एवं संयम के क्षेत्र में अग्रसर ____ भाषण, याचना, ग्रहण-निक्षेप एवं मलमूत्र-विसर्जन आदि से सम्बन्धित होना। (३) परिहरण- सब प्रकार के अशुभ प्रवृत्तियों एवं दुराचरणों दोषों का प्रतिक्रमण श्रमण साधकों को करना चाहिए। का त्याग करना। (४) वारण-निषिद्ध आचरण की ओर प्रवृत्ति (स) ५ अणुव्रतों, ३ गुणव्रतों, ४ शिक्षाव्रतों में लगने वाले ७५ नहीं करना। बौद्ध धर्म में प्रतिक्रमण के समान की जाने वाली क्रिया अतिचारों का प्रतिक्रमण व्रती श्रावकों को करना चाहिए। को प्रवारणा कहा गया है। (५) निवृत्ति- अशुभ भावों से निवृत्त (द) सल्लेखना के पाँच अतिचारों का प्रतिक्रमण उन साधकों होना। (६) निन्दा-गुरुजन, वरिष्ठजन अथवा स्वयं अपनी ही आत्मा के लिए जिन्होंने सल्लेखना व्रत ग्रहण किया हो। . की साक्षी से पूर्वकृत अशुभ आचरणों को बुरा समझना तथा उसके श्रमण-प्रतिक्रमण सूत्र और श्रावक-प्रतिक्रमण सूत्र में सम्बन्धित लिये पश्चात्ताप करना। (७) गर्हा- अशुभ आचरण को गर्हित समझना, सम्भावित दोषों की विवेचना विस्तार से की गई है। इसके पीछे मूल उससे घृणा करना। (८) शुद्धि- प्रतिक्रमण आलोचना, निन्दा आदि दृष्टि यह है कि उनका पाठ करते हुए आचरित सूक्ष्मतम दोष भी के द्वारा आत्मा पर लगे दोषों से आत्मा को शुद्ध बनाता है, इसलिए विचार-पथ से ओझल न हो। उसे शुद्धि कहा गया है।
प्रतिक्रमण के भेद प्रतिक्रमण किसका?
साधकों के आधार पर प्रतिक्रमण के दो भेद हैं- (१) श्रमण स्थानाङ्गसूत्र में इन छह बातों के प्रतिक्रमण का निर्देश है- प्रतिक्रमण और (२) श्रावक प्रतिक्रमण। कालिक आधार पर प्रतिक्रमण (१) उच्चार प्रतिक्रमण- मल आदि का विसर्जन करने के बाद ईर्या के पाँच भेद हैं- (१) दैवसिक- प्रतिदिन सायंकाल के समय पूरे (आने-जाने में हुई जीवहिंसा) का प्रतिक्रमण करना उच्चार प्रतिक्रमण दिवस में आचरित पापों का चिन्तन कर उनकी आलोचना करना दैवसिक है। (२) प्रस्रवण प्रतिक्रमण- पेशाब करने के बाद ईर्या का प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण है। (२) रात्रिक- प्रतिदिन प्रात:काल के समय सम्पूर्ण
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जैन धर्म में प्रायश्चित्त एवं दण्ड-व्यवस्था
२७५ रात्रि के आचरित पापों का चिन्तन कर उनकी आलोचना करना रात्रिक प्रसङ्ग में व्युत्सर्ग और कायोत्सर्ग पर्यायवाची के रूप में ही प्रयुक्त प्रतिक्रमण है। (३) पाक्षिक-पक्ष के अन्तिम दिन अर्थात् अमावस्या हुए हैं। एवं पूर्णिमा के दिन सम्पूर्ण पक्ष में आचरित पापों का विचार कर उनकी आलोचना करना पाक्षिक प्रतिक्रमण है। (४) चातुर्मासिक- तप-प्रायश्चित्त कार्तिकी पूर्णिमा, फाल्गुनी पूर्णिमा एवं आषाढ़ी पूर्णिमा को चार महीने सामान्य दोषों के अतिरिक्त विशिष्ट दोषों के लिए तप प्रायश्चित्त के आचरित पापों का विचार कर उनकी आलोचना करना चातुर्मासिक का विधान किया गया है। किस प्रकार के दोष का सेवन करने पर प्रतिक्रमण है। (५) सांवत्सरिक- प्रत्येक वर्ष में संवत्सरी महापर्व किस प्रकार के तप का प्रायश्चित्त करना होता है। उसका विस्तारपूर्वक (ऋषि पञ्चमी) के दिन वर्ष भर के पापों का चिन्तन कर उनकी आलोचना विवेचन निशीथ, बृहत्कल्प और जीतकल्प में तथा उनके भाष्यों में करना सांवत्सरिक प्रतिक्रमण है।
मिलता है। निशीथ सूत्र में तप प्रायश्चित्त के योग्य अपराधों की विस्तृत
सूची उपलब्ध है। उसमें तपः प्रायश्चित्त के विविध प्रकारों की चर्चा करते तदुभय
हुए मासलघु, मासगुरु, चातुर्मासलघु, चातुर्मासगुरु से लेकर षट्मासलघु तदुभय प्रायश्चित्त वह है जिसमें अलोचना और प्रतिक्रमण दोनों और षटमासगुरु प्रायश्चित्तों का उल्लेख मिलता है। जैसा कि हमने किये जाते हैं। अपराध या दोष को दोष के रूप में स्वीकार करके पूर्व में सङ्केत किया है मासगुरु या मासलघु आदि इनका क्या तात्पर्य फिर उसे नहीं करने का निश्चय करना ही तदुभय प्रायश्चित्त है। जीतकल्प है, यह इन ग्रन्थों के मूल में कहीं स्पष्ट नहीं किया गया है किन्तु में निम्न प्रकार के अपराधों के लिए तदुभय प्रायश्चित्त का विधान किया इन पर लिखे गये भाष्य-चूर्णि आदि में इनके अर्थ को स्पष्ट करने गया है- (१) भ्रमवश किये गये कार्य, (२) भयवश किये गये कार्य, का प्रयास किया गया है, मात्र यही नहीं लघु की लघु, लघुतर और (३) आतुरतावश किये गये कार्य, (४) सहसा किये गये कार्य, लघुतम तथा गुरु की गुरु, गुरुतर और गुरुतम ऐसी तीन-तीन कोटियाँ (५) परवशता में किये गये कार्य, (६) सभी व्रतों में लगे हुए निर्धारित की गई हैं। अतिचार।
कहीं-कहीं गुरुक, लघुक और लघुष्वक ऐसे तीन भेद भी किये
गये हैं और फिर इनमें से प्रत्येक के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ये विवेक
तीन-तीन भेद किये गये हैं। व्यवहारसूत्र की भूमिका में अनुयोगकर्ता विवेक शब्द का सामान्य अर्थ यह है कि किसी कर्म के औचित्य मुनि श्री कन्हैयालाल जी 'कमल' ने उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य प्रत्येक एवं अनौचित्य का सम्यक् निर्णय करना और अनुचित कर्म का के भी तीन-तीन विभाग किये हैं। यथा- उत्कृष्ट के उत्कृष्ट-उत्कृष्ट, परित्याग कर देना। मुनि जीवन में आहारादि के ग्राह्य और अग्राह्य उत्कृष्टमध्यम और उत्कृष्टजघन्य ये तीन विभाग हैं। ऐसे ही मध्यम अथवा शुद्ध और अशुद्ध का विचार करना ही विवेक है। यदि अज्ञात और जघन्य के भी तीन-तीन विभाग किये गये हैं। इस प्रकार तप रूप से सदोष आहार आदि ग्रहण कर लिया हो तो उसका त्याग करना प्रायश्चित्तों के ३४३४३=२७ भेद हो जाते हैं। उन्होंने विशेष रूप से ही विवेक है। वस्तुत: सदोष क्रियाओं का त्याग ही विवेक है। मुख्य जानने के लिए व्यवहारभाष्य का सङ्केत किया है किन्तु व्यवहारभाष्य रूप से भोजन, वस्त्र, मुनि जीवन के अन्य उपकरण एवं स्थानादि मुझे उपलब्ध न होने के कारण मैं इस चर्चा के प्रसङ्ग में उनके ववहारसुत्तं प्राप्त करने में जो दोष लगते हैं उनकी शुद्धि विवेक प्रायश्चित्त द्वारा के सम्पादकीय का ही उपयोग कर रहा हूँ। उन्होंने इन सम्पूर्ण २७ मानी गयी है।
भेदों और उनसे सम्बन्धित तपों का भी उल्लेख नहीं किया है। अत:
इस सम्बन्ध में मुझे भी मौन रहना पड़ रहा है। इन प्रायश्चित्तों से सम्बन्धित व्युत्सर्ग
मास, दिवस एवं तपों की संख्या का उल्लेख हमें बृहत्कल्पभाष्य गाथा व्युत्सर्ग का तात्पर्य 'परित्याग' या 'विसर्जन' है। सामान्यतया ६०४१-६०४४ में मिलता है। उसी आधार पर निम्न विवरण इस प्रायश्चित्त के अन्तर्गत किसी भी सदोष-आचरण के लिए प्रस्तुत हैशारीरिक व्यापारों का निरोध करके मन की एकाग्रतापूर्वक देह के प्रति रहे हुए ममत्व का विसर्जन किया जाता है। जीतकल्प के अनुसार प्रायश्चित्त का नाम तप का स्वरूप एवं काल गमनागमन, विहार, श्रुत-अध्ययन, सदोष स्वप्न, नाव आदि के द्वारा नदी को पार करना, भक्त-पान, शय्या-आसन, मलमूत्र-विसर्जन, काल ।
यथागुरु
छह मास तक निरन्तर पाँच-पाँच उपवास व्यतिक्रम, अर्हत एवं मुनि का अविनय आदि दोषों के लिए व्युत्सर्ग
चार मास तक निरन्तर चार-चार उपवास प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। जीतकल्प में इस तथ्य का भी
एक मास तक निरन्तर तीन-तीन उपावास(तेले) उल्लेख किया गया है कि किस प्रकार के दोष के लिए कितने समय
१० बेले १० दिन पारणे (एक मास तक या श्वासोच्छवास का कायोत्सर्ग किया जाना चाहिए। प्रायश्चित्त के
निरन्तर दो-दो उपवास)।
गुरुतर
लघु
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ लघुतर
२५ दिन तक निरन्तर एक दिन उपवास और में आहारादि रखना, धर्म की निन्दा और अधर्म की प्रशंसा करना, एक दिन भोजन।
अनन्तकाय युक्त आहार खाना, आचार्य की अवज्ञा करना, लाभालाभ यथालघु
२० दिन तक निरन्तर आयम्बिल (रूखा-सूखा का निमित्त बताना, किसी श्रमण-श्रमणी को बहकाना, किसी दीक्षार्थी भोजन)।
को भड़काना, अयोग्य को दीक्षा देना आदि क्रियाएँ गुरुचातुर्मासिक लघुष्वक
१५ दिन तक निरन्तर एकासन (एक समय प्रायश्चित्त के योग्य हैं।
भोजन)। लघुष्वकतर १० दिन तक निरन्तर दो पोरसी अर्थात् १२ तप और परिहार का सम्बन्ध बजे के बाद भोजन ग्रहण।
जैसा कि हमने पूर्व में सूचित किया है, तत्त्वार्थ और यमनीय यथालघुष्वक पाँच दिन तक निरन्तर निर्विकृति (घी, दूध परम्परा के ग्रन्थ मूलाचार में परिहार को स्वतन्त्र प्रायश्चित्त माना गया आदि से रहित भोजन)।
है। जबकि श्वेताम्बर परम्परा के आगमिक ग्रन्थों में और धवला में इसे
स्वतन्त्र प्रायश्चित्त न मानकर इसका सम्बन्ध तप के साथ जोड़ा गया लघुमासिक-योग्य अपराध
है। परिहार शब्द का अर्थ बहिष्कृत करना अथवा त्याग करना होता दारुदण्ड का पादपोंछन बनाना, पानी निकलने के लिए नाली है। श्वेताम्बर आगम ग्रन्थों के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि बनाना, दानादि लेने के पूर्व अथवा पश्चात् दाता की प्रशंसा करना, गर्हित अपराधों को करने पर भिक्षु या भिक्षुणी को न केवल तप. रूप निष्कारण परिचित घरों में दुबारा प्रवेश करना, अन्यतीर्थिक अथवा प्रायश्चित्त दिया जाता था अपितु उसे यह कहा जाता था कि वे भिक्षु-सङ्घ गृहस्थ की संगति करना, शय्या अथवा आवास देने वाले मकान-मालिक या भिक्षुणी-संघ से पृथक् होकर निर्धारित तप पूर्ण करें। निर्धारित तप के यहाँ का आहार-पानी ग्रहण करना, आदि क्रियाएँ लघुमासिक प्रायश्चित्त को पूर्ण कर लेने पर उसे पुन: संघ में सम्मिलित कर लिया जाता के कारण हैं।
था। इस प्रकार परिहार का तात्पर्य था कि प्रायश्चित्त रूप तप की निर्धारित
अवधि के लिए सङ्घ से भिक्षु का पृथक्करण। परिहार तप की अवधि गुरुमासिक-योग्य अपराध
में वह भिक्षु भिक्षुसङ्घ के साथ रहते हुए भी अपना आहार-पानी अलग अङ्गादान का मर्दन करना, अङ्गादान के ऊपर की त्वचा दूर करना, करता था। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि परिहार प्रायश्चित्त में तथा अङ्गादान को नली में डालना, पुष्पादि सूंघना, पात्र आदि दूसरों से अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त में मूलभूत अन्तर था। अनवस्थाप्य साफ करवाना, सदोष आहार का उपभोग करना आदि क्रियायें गुरुमासिक प्रायश्चित्त में जहाँ उसे गृहस्थ-वेष धारण करवाकर के ही उपस्थापन प्रायश्चित्त के कारण हैं।
किया जाता था, वहाँ परिहार में ऐसा कोई विधान न था। यह केवल
प्रायश्चित्त की तपावधि के लिए मर्यादित पृथक्करण था। सम्भवत: लघु चातुर्मासिक-योग्य अपराध
प्राचीनकाल में तप नामक प्रायश्चित्त दो प्रकार से दिया जाता रहा होगा। प्रत्याख्यान का बार-बार भङ्ग करना, गृहस्थ के वस्त्र, शैय्या आदि परिहारपूर्वक और परिहाररहित। इसी आधार पर आगे चलकर जब का उपयोग करना, प्रथम प्रहर में ग्रहण किया हुआ आहार चतुर्थ प्रहर अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्तों का प्रचलन समाप्त कर दिया तक रखना, अर्धयोजन अर्थात् दो कोस से आगे जाकर आहार लाना, गया। तब प्रायश्चित्तों की इस संख्या को पूर्ण करने के लिए यापनीय विरेचन लेना अथवा अकारण औषधि का सेवन करना, वाटिका आदि परम्परा में तप और परिहार की गणना अलग-अलग की जाने लगी। सार्वजनिक स्थानों में मल-मूत्र डालकर गन्दगी करना, गृहस्थ आदि परिहार नामक प्रायश्चित्त की अधिकतम अवधि छ: मास ही है। परिहार को आहार-पानी देना, समान आचार वाले निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी को स्थान का छेद प्रायश्चित्त से अन्तर यह है कि जहाँ छेद प्रायश्चित्त दिये जाने आदि की सुविधा न देना, गीत-गाना, वाद्य-यन्त्र बजाना, नृत्य करना, पर भिक्षुणी सङ्घ में वरीयता बदल जाती थी वहाँ परिहार प्रायश्चित्त अस्वाध्याय के काल में स्वाध्याय करना अथवा स्वाध्याय के काल से उसकी वरीयता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। मूलाचार में परिहार में स्वाध्याय न करना, अयोग्य को शास्त्र पढ़ाना, योग्य को शास्त्र को जो छेद और मूल के बाद स्थान दिया गया है, वह उचित प्रतीत न पढ़ाना, मिथ्यात्व-भावित अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ को शास्त्र पढ़ाना नहीं होता क्योंकि कठोरता की दृष्टि से छेद और मूल की अपेक्षा अथवा उससे पढ़ना आदि क्रियायें लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त की परिहार प्रायश्चित्त कम कठोर था। वसुनन्दी की मूलाचार की टीका में कारण हैं।
परिहार की 'गण से पृथक् रहकर अनुष्ठान करना' ऐसी जो व्याख्या
की गई है वह समुचित एवं श्वेताम्बर परम्परा के अनुरूप ही है। फिर गुरुचातुर्मासिक-योग्य अपराध
भी यापनीय और श्वेताम्बर परम्परा में मूलभूत अन्तर इतना तो अवश्य __ मैथुन सम्बन्धी अतिचार या अनाचारों का सेवन करना, राजपिण्ड है कि श्वेताम्बर परम्परा परिहार को तप से पृथक् प्रायश्चित्त के रूप ग्रहण करना, आधाकर्मी आहार ग्रहण करना, रात्रिभोजन करना, रात्रि में स्वीकार नहीं करती है। यहाँ यह भी स्मरण रखना चाहिए कि
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नहीं है।
जैन धर्म में प्रायश्चित्त एवं दण्ड-व्यवस्था दिगम्बर परम्परा यापनीय ग्रन्थ षट्खण्डागम की धवला टीका दर्शन और चारित्र की विराधना होने पर मूल प्रायश्चित्त दिया जा सकता
प्रायश्चित्त नहीं मानती है। उसमें श्वेताम्बर परम्परा है. परन्त व्यवहारनय की दृष्टि से ज्ञान और दर्शन की विराधना होने सम्मत दस प्रायश्चित्तों का उल्लेख हुआ है जिसमें परिहार का उल्लेख पर मूल प्रायश्चित्त दिया भी जा सकता है और नहीं भी दिया जा सकता
है परन्तु चारित्र की विराधना होने पर तो मूल प्रायश्चित्त दिया ही जाता
है। जो तप के गर्व से उन्मत्त हों अथवा जिन पर सामान्य प्रायश्चित्त छेद प्रायश्चित्त
या दण्ड का कोई प्रभाव ही न पड़ता हो, उनके लिए मूल प्रायश्चित्त जो अपराधी शारीरिक दृष्टि से कठोर तप-साधना करने में असमर्थ का विधान किया गया है। है अथवा समर्थ होते हुए भी तप के गर्व के उन्मत्त है और तप प्रायश्चित्त से उसके व्यवहार में सुधार सम्भव नहीं होता है और तप अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त प्रायश्चित्त करके पुन:-पुन: अपराध करता है, उसके लिए छेद प्रायश्चित्त अनवस्थाप्य का शाब्दिक अर्थ व्यक्ति को पद से च्युत कर देना का विधान किया गया है। छेद प्रायश्चित्त का तात्पर्य है भिक्षु या भिक्षुणी है या अलग कर देना है। इस शब्द का दूसरा अर्थ है- जो सङ्घ के दीक्षा-पर्याय को कम कर देना, जिसका परिणाम यह होता है कि में स्थापना अर्थात् रखने योग्य नहीं है। वस्तुत: जो अपराधी ऐसे अपराधी का श्रमण सङ्घ में वरीयता की दृष्टि से जो स्थान है, वह अपराध करता है जिसके कारण उसे सङ्घ से बहिष्कृत कर देना अपेक्षाकृत निम्न हो जाता है अर्थात् जो दीक्षा पर्याय में उससे लघु आवश्यक होता है वह अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त के योग्य माना जाता हैं वे उससे ऊपर हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में उसकी वरिष्ठता है। यद्यपि परिहार में भी भिक्षु को सङ्घ से पृथक् किया जाता है किन्तु (सीनियारिटी) कम हो जाती हैं और उसे इस आधार पर जो भिक्षु वह एक सीमित रूप में होता है और उसका वेष-परिवर्तन उससे कभी कनिष्ठ रहे हैं उनको उसे वन्दन आदि करना होता है। आवश्यक नहीं माना जाता। जबकि अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त के योग्य किस अपराध में कितने दिन का छेद प्रायश्चित्त आता है इसका स्पष्ट भिक्षु को सङ्घ से निश्चित अवधि के लिए बहिष्कृत कर दिया जाता उल्लेख मुझे देखने को नहीं मिला। सम्भवतः यह परिहारपूर्वक तप है और उसे तब तक पुन: भिक्षु-सङ्घ में प्रवेश नहीं दिया जाता है प्रायश्चित्त का एक विकल्प है। अर्थात् जिसके अपराध के लिए मास जब तक कि वह प्रायश्चित्त के रूप में निर्दिष्ट तप-साधना को पूर्ण या दिन के लिए तप निर्धारित हो, उस अपराध के करने पर कभी नहीं कर लेता है और सङ्घ इस तथ्य से आश्वस्त नहीं हो जाता है उतने दिन का दीक्षा छेद का प्रायश्चित्त दिया जाता है। जैसे जो अपराध कि वह पुन: अपराध नहीं करेगा। जैन परम्परा में बार-बार अपराध पाण्मासिक प्रायश्चित्त के योग्य होते हैं, उनके करने पर कभी उसे छह करने वाले आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों के लिए यह दण्ड प्रस्तावित मास का छेद प्रायश्चित्त भी दिया जाता है। दूसरे शब्दों में उसकी किया गया है। स्थानाङ्ग सूत्र के अनुसार साधर्मियों की चोरी करने वरीयता छह मास कम कर दी जाती है। अधिकतम तप की अवधि वाला, अन्य धर्मियों की चोरी करने वाला तथा डण्डे, लाठी आदि ऋषभदेव के समय में एक वर्ष, अन्य बाईस तीर्थङ्करों के समय में से दूसरे भिक्षुओं पर प्रहार करने वाला भिक्षु अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त आठ मास और महावीर के समय में छह मास मानी गई है। अत: के योग्य माना जाता है। अधिकतम एक साथ छह मास का ही छेद प्रायश्चित्त दिया जा सकता है। सामान्यतया पार्श्वस्थ, अवसन्न, कशील और संसक्त भिक्षुओं को पारांचिक प्रायश्चित्त छेद प्रायश्चित्त दिये जाने का विधान है।
वे अपराध जो अत्यन्त गर्हित हैं और जिनके सेवन से न केवल
व्यक्ति अपितु सम्पूर्ण जैनसङ्घ की व्यवस्था धूमिल होती है, वे पारांचिक मूल प्रायश्चित्त
प्रायश्चित्त के योग्य होते हैं। पारांचिक प्रायश्चित्त का अर्थ भी भिक्षु-सङ्घ ___ मूल प्रायश्चित्त का अर्थ होता था, पूर्व की दीक्षा-पर्याय को पूर्णतः से बहिष्कार ही है। वैसे जैनाचार्यों ने यह माना है कि पारांचिक अपराध समाप्त कर नवीन दीक्षा प्रदान करना। इसके परिणामस्वरूप ऐसा भिक्षु करने वाला भिक्षु यदि निर्धारित समय तक निर्धारित तप का अनुष्ठान स भिक्षुसङ्घ में जिस दिन उसे यह प्रायश्चित्त दिया जाता था वह सबसे पूर्ण कर लेता है तो उसे एक बार गृहस्थवेष धारण करवाकर पुन: कनिष्ठ बन जाता था। मूले प्रायश्चित्त अनवस्थाप्य और पारांचिक सङ्घ में प्रविष्ट किया जा सकता है। बौद्ध परम्परा में भी पारांचिक प्रायश्चित्तों से अर्थ में भिन्न था कि इसमें अपराधी भिक्षु को गृहस्थवेष अपराधों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि ऐसा अपराध करने धारण करना अनिवार्य न था। सामान्यतया पञ्चेन्द्रिय प्राणियों की हिंसा वाला भिक्षु सदैव के लिए सङ्घ से बहिष्कृत कर दिया जाता है। जीतकल्प एवं मैथुन सम्बन्धी अपराधों को मूल प्रायश्चित्त के योग्य माना जाता के अनुसार अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त भद्रबाहु के काल से है। इसी प्रकार जो भिक्षु मृषावाद, अदत्तादान और परिग्रह सम्बन्धी बन्द कर दिया गया है। इसका प्रमुख कारण शारीरिक क्षमता की कमी दोषों का पुन:-पुन: सेवन करता है वह भी मूल प्रायश्चित्त का पात्र हो जाना है। स्थानाङ्ग सूत्र में निम्न पाँच अपराधों को पारांचिक प्रायश्चित्त माना गया है। जीतकल्प भाष्य के अनुसार निश्चयनय की दृष्टि से ज्ञान, के योग्य माना गया है।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
(१) जो कुल में परस्पर कलह करता हो।
है। स्व-गण के आचार्य आदि से भी प्रायश्चित्त लिया जा सकता है। (२) जो गण में परस्पर कलह करता हो।
किन्तु अन्य गण के आचार्य तभी प्रायश्चित्त दे सकते हैं जब उनसे (३) जो हिंसा प्रेमी हो अर्थात् कुल या गण के साधुओं का घात करना इस सम्बन्ध में निवेदन किया जाये। जीतकल्प के अनुसार स्वलिङ्गी चाहता हो।
अन्य गण के आचार्य या मुनि की अनुपस्थिति में छेदसूत्र का अध्येता (४) जो छिद्रप्रेमी हो अर्थात् जो छिद्रान्वेषण करता हो।
गृहस्थ जिसने दीक्षा-पर्याय छोड़ दिया हो वह भी प्रायश्चित्त दे सकता (५) जो प्रश्न-शास्त्र का बार-बार प्रयोग करता हो।
है। इन सब के अभाव में साधक स्वयं भी पापशोधन के लिए स्वविवेक __ स्थानाङ्ग सूत्र में ही अन्यत्र अन्योन्य-मैथुनसेवी भिक्षुओं को से प्रायश्चित्त का निश्चय कर सकता है। पारांचिक प्रायश्चित्त के योग्य बताया गया है। यहाँ यह विचारणीय है कि जहाँ हिंसा करने वाले को, स्त्री से मैथुन सेवन करने वाले को क्या प्रायश्चित्त सार्वजनिक रूप में दिया जाये? मूल प्रायश्चित्त के योग्य बताया, वहाँ हिंसा की योजना बनाने वाले इस प्रश्न के उत्तर में जैनाचार्यों का दृष्टिकोण अन्य परम्पराओं एवं परस्पर मैथुन सेवन करने वालों को पारांचित प्रायश्चित्त के योग्य से भिन्न हैं। वे प्रायश्चित्त या दण्ड को आत्मशुद्धि का साधन तो मानते क्यों बताया? इसका कारण यह है कि जहाँ हिंसा एवं मैथुन सेवन हैं लेकिन प्रतिरोधात्मक सिद्धान्त के विरोधी हैं। उनकी दृष्टि में दण्ड करने वाले का अपराध व्यक्त होता है और उसका परिशोध सम्भव केवल इसलिए नहीं दिया जाता है कि उसे देखकर अन्य लोग होता है वह मूल प्रायश्चित्त के योग्य है किन्तु इन दूसरे प्रकार के व्यक्तियों अपराध करने से भयभीत हों। अत: जैन परम्परा सामूहिक रूप में, का अपराध बहुत समय तक बना रह सकता है और सङ्घ के समस्त खुले रूप में दण्ड की विरोधी है। इसके विपरीत बौद्ध परम्परा में परिवेश को दूषित बना देता है। वस्तुत: जब अपराधी के सुधार की दण्ड या प्रायश्चित्त को सङ्घ के सम्मुख सार्वजनिक रूप से देने की सभी सम्भावनाएँ समाप्त हो जाती हैं तो उसे पारांचिक प्रायश्चित्त के परम्परा है। बौद्ध परम्परा में प्रवारणा के समय साधक भिक्षु को सङ्घ योग्य माना जाता है। जीत कल्प के अनुसार तीर्थङ्कर के प्रवचन अर्थात्, के सम्मुख अपने अपराध को प्रकट कर सङ्घ-प्रदत्त प्रायश्चित्त या दण्ड श्रुत, आचार्य और गणधर की आशातना करने वाले को भी पारांचिक को स्वीकार करना होता है। वस्तुत: बुद्ध के निर्वाण के बाद किसी प्रायश्चित्त का दोषी माना गया है। दूसरे शब्दों में जो जिन-प्रवचन का सङ्घप्रमुख की नियुक्ति को आवश्यक नहीं माना गया, अतः प्रायश्चित्त अवर्णवाद करता हो वह सङ्घ में रहने के योग्य नहीं माना जाता। या दण्ड देने का दायित्व सङ्घ पर आ पड़ा। किन्तु मनोवैज्ञानिक दृष्टि जीतकल्पभाष्य के अनुसार कषायदुष्ट, विषयदुष्ट, राजा के वध की से सार्वजनिक रूप से दण्डित करने की यह प्रक्रिया उचित नहीं है, इच्छा करने वाला, राजा की अग्रमहिषी से संभोग करने वाला भी क्योंकि इससे समाज में व्यक्ति की प्रतिष्ठा गिरती है, तथा कभी-कभी पारांचिका प्रायश्चित्त का अपराधी माना गया है। वैसे परवर्ती आचार्यों सार्वजनिक रूप से दण्डित किये जाने पर व्यक्ति विद्रोही बन के अनुसार पारांचिक अपराध का दोषी भी विशिष्ट तप-साधना के जाता है। पश्चात् सङ्घ में प्रवेश का अधिकारी मान लिया गया है। पारांचिक प्रायश्चित्त का कम से कम समय छह मास, मध्यम समय १२ मास और अधिकतम अपराध की समानता पर दण्ड की समानता का प्रश्न समय १२ वर्ष माना गया है। कहा जाता है कि सिद्धसेन दिवाकर प्रायश्चित्तों की चर्चा के प्रसङ्ग में यह भी विचारणीय है कि क्या को आगमों का संस्कृत भाषा में रूपान्तरण करने के प्रयत्न पर १२ जैन सङ्घ में समान अपराधों के समान दण्ड की व्यवस्था है या एक वर्ष का पारांचिक प्रायश्चित्त दिया गया था। विभिन्न पारांचिक प्रायश्चित्त ही समान अपराध के लिए दो व्यक्तियों को अलग-अलग दण्ड दिया के अपराधों और उनके प्रायश्चित्तों का विवरण हमें जीतकल्प भाष्य जा सकता है। जैन विचारकों के अनुसार एक ही प्रकार के अपराध की गाथा २५४० से २५८६ तक मिलता है। विशिष्ट विवरण के के लिए सभी प्रकार के व्यक्तियों को एक ही समान दण्ड नहीं दिया इच्छुक विद्वद्जनों को वहाँ उसे देख लेना चाहिए।
जा सकता। प्रायश्चित्त के कठोर और मृद होने के लिए व्यक्ति की
सामाजिक स्थिति एवं वह विशेष परिस्थिति भी विचारणीय है जिसमें प्रायश्चित्त देने का अधिकार
कि वह अपराध किया गया है। उदाहरण के लिए एक ही प्रकार के सामान्यत: प्रायश्चित्त देने का अधिकार आचार्य या गणि का माना अपराध के लिए जहाँ सामान्य भिक्षु या भिक्षुणी को अल्प दण्ड की गया है। सामान्य व्यवस्था के अनुसार अपराधी को अपने अपराध व्यवस्था है। वही श्रमण सङ्घ के पदाधिकारियों को अर्थात् प्रवर्तिनी, के लिए आचार्य के समक्ष अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए और प्रवर्तक, गणि, आचार्य आदि को कठोर दण्ड देने की व्यवस्था है। आचार्य को भी परिस्थिति और अपराध की गुरुता का विचार कर उसे पुन: जैन आचार्य यह भी मानते हैं कि यदि कोई व्यक्ति स्वतः प्रेरित प्रायश्चित्त देना चाहिए। इस प्रकार दण्ड या प्रायश्चित्त देने का सम्पूर्ण होकर कोई अपराध करता है और कोई व्यक्ति परिस्थितियों से बाध्य अधिकार आचार्य, गणि या प्रवर्तक को होता है। आचार्य या. गणि होकर अपराध करता है तो दोनों के लिए अलग-अलग प्रकार के प्रायश्चित्त की अनुपस्थिति में उपाध्याय, उपाध्याय की अनुपस्थिति में प्रवर्तक की व्यवस्था है। यदि हम मैथुन सम्बन्धी अपराध को लें तो जहाँ अथवा वरिष्ठ मुनि जो छेद-सूत्रों का ज्ञाता हो, प्रायश्चित्त दे सकता बलात्कार की स्थिति में भिक्षुणी के लिए किसी दण्ड की व्यवस्था
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जैन धर्म में प्रायश्चित्त एवं दण्ड-व्यवस्था
नहीं है किन्तु उस स्थिति में भी यदि वह सम्भोग का आस्वादन लेती है तो उसके लिए प्रायश्चित्त की व्यवस्था है। अतः एक ही प्रकार के अपराध हेतु दो भिन्न व्यक्तियों व परिस्थितियों में अलग-अलग प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। यही नहीं जैनाचार्यों ने यह भी विचार किया है कि अपराध किसके प्रति किया गया है। एक सामान्य साधु के प्रति किए गये अपराध की अपेक्षा आचार्य के प्रति किया गया अपराध अधिक दण्डनीय है जहाँ सामान्य व्यक्ति के लिए किये गये अपराध को मृदु या अल्प दण्ड माना जाता है वहीं श्रमण सङ्घ के किसी पदाधिकारी के प्रति किये गये अपराध को कठोर दण्ड के योग्य माना जाता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन प्रायश्चित विधान या दण्ड प्रक्रिया में व्यक्ति या परिस्थति के महत्त्व को ओझल नहीं किया है और माना है कि व्यक्ति और परिस्थति के आधार पर सामान्य और विशेष व्यक्तियों को अलग-अलग प्रायश्चित्त दिया जा सकता है, जबकि सामान्यतया बौद्ध परम्परा में इस प्रकार के विचार का अभाव देखते हैं। हिन्दू परम्परा यद्यपि प्रायश्चित्त के सन्दर्भ में व्यक्ति की सामाजिक स्थिति का मूल्याइन करती है किन्तु उसका दृष्टिकोण जैन परम्परा से बिल्कुल विपरीत दिखाई देता है। जहाँ जैन परम्परा उसी अपराध के लिए प्रतिष्ठित व्यक्तियों एवं पदाधिकारियों के लिए कठोर दण्ड की व्यवस्था करती है वहीं हिन्दू परम्परा आचार्यों, ब्राह्मणों आदि के लिए मृदु-दण्ड की व्यवस्था करती है। उसमें एक समान अपराध करने पर भी शूद्र को कठोर दण्ड दिया जाता है और ब्राह्मण को अत्यन्त मृदु-दण्ड दिया जाता है। दोनों परम्पराओं में यह दृष्टिभेद विशेष रूप से द्रष्टव्य है। बृहत्कल्पभाष्य की टीका में इस तथ्य को स्पष्ट किया गया है कि जो पद जितना उत्तरदायित्वपूर्ण होता है उस पद के धारक व्यक्ति को उतना ही कठोर दण्ड दिया जाता था। उदाहरण के रूप में भिक्षुणियों का नदी तालाब के किनारे ठहरना, वहाँ स्वाध्याय आदि करना निषिद्ध है। उस नियम का उल्लङ्घन करने पर जहाँ स्थविर को मात्र पलघु, भिक्षुणी के षटगुरु प्रायश्चित दिया जाता है, वहाँ गणिनी को छेद और प्रवर्तिनी को मूल प्रायश्चित्त देने का विधान है सामान्य साधु की अपेक्षा आचार्य के द्वारा वही अपराध किया जाता है तो आचार्य को कठोर दण्ड दिया जाता है।
बार-बार अपराध या दोष सेवन करने पर अधिक दण्ड
जैन परम्परा में प्रथम बार अपराध करने की अपेक्षा दूसरी बार या तीसरी बार उसी अपराध को करने पर कठोर प्रायश्चित्त की व्यवस्था की गई है। यदि कोई भिक्षु या भिक्षुणी एक नियम का बार-बार अतिक्रमण करता है तो उस नियम के अतिक्रमण की संख्या में जैसे-जैसे वृद्धि होती जाती है प्रायिश्चत्त मास लघु से बढ़ता हुआ छेद एवं नई दीक्षा तक बढ़ जाता है।
प्रायश्चित्त देते समय व्यक्ति की परिस्थिति का विचार
जैन दण्ड या प्रायश्चित्त-व्यवस्था में इस बात पर भी पर्याप्त रूप
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से विचार किया गया है कि कठोर अपराध को करने वाला व्यक्ति भी यदि रुग्ण हो, अतिवृद्ध हो, विक्षिप्त चित्त हो, उन्माद या उपसर्ग से पीड़ित हो, उसे भोजन-पानी आदि सुविधापूर्वक न मिलता हो अथवा मुनि-जीवन की आवश्यक सामग्री से रहित हो तो ऐसे भिक्षुओं को तत्काल सङ्घ से बहिष्कृत करना अथवा बहिष्कृत करके शुद्धि के लिए कठोर तप आदि की व्यवस्था देना समुचित नहीं है।
आधुनिक दण्ड- सिद्धान्त और जैन प्रायश्चित्त-व्यवस्था
जैसा कि हमने प्रारम्भ में ही स्पष्ट किया है कि दण्ड और प्रायश्चित्त की अवधारणाओं में एक मौलिक अन्तर है जहाँ प्रायश्चित्त अन्त: प्रेरणा से स्वतः लिया जाता है, वहाँ दण्ड व्यक्ति को बलात् दिया जाता है। अतः आत्मशुद्धि तो प्रायश्चित्त से ही सम्भव है, दण्ड से नहीं । दण्ड में तो प्रतिशोध प्रतिकार या आपराधिक प्रवृत्ति के निरोध का दृष्टिकोण ही प्रमुख होता है।
पाश्चात्य विचारकों ने दण्ड के तीन सिद्धान्त प्रतिपादित किये हैं
(१) प्रतिकारात्मक सिद्धान्त (२) निरोधात्मक सिद्धान्त, (३) सुधारात्मक सिद्धान्त । प्रथम प्रतिकारात्मक सिद्धान्त यह मानकर चलता है कि दण्ड के समय अपराध की प्रतिशर्त की जाती है। अर्थात् अपराधी ने दूसरे की जो क्षति की है उसकी परिपूर्ति करना या उसका बदला देना ही दण्ड का मुख्य उद्देश्य है। "आँख के बदले आँख" और “दांत के बदले दांत", ही इस दण्ड सिद्धान्त की मूलभूत अवधारणा है । इस प्रकार की दण्ड-व्यवस्था से न तो समाज के अन्य लोग आपराधिक प्रवृत्तियों से भयभीत होते हैं और न उस व्यक्ति का जिसने अपराध किया है, कोई सुधार ही होता है।
अपराध का दूसरा निरोधात्मक सिद्धान्त मूलतः यह मानकर चलता है कि अपराधी को दण्ड इसलिए नहीं दिया जाता है कि उसने अपराध किया है अपितु इसलिए दिया जाता है कि दूसरे लोग अपराध करने का साहस न करें। समाज में आपराधिक प्रवृत्ति को रोकना ही दण्ड का उद्देश्य है। इसमें छोटे अपराध के लिए भी कठोर दण्ड की व्यवस्था होती है। किन्तु इस सिद्धान्त में अपराध करने वाले व्यक्ति को समाज के दूसरे व्यक्तियों को आपराधिक प्रवृत्ति से भयभीत करने के लिए साधन बनाया जाता है। अतः दण्ड का यह सिद्धान्त न्यायसङ्गत नहीं कहा जा सकता। इसमें दण्ड का प्रयोग साध्य के रूप में नहीं अपितु साधन के रूप में किया जाता है।
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दण्ड का तीसरा सिद्धान्त सुधारात्मक सिद्धान्त है, इस सिद्धान्त के अनुसार अपराधी भी एक प्रकार का रोगी है अतः उसकी चिकित्सा अर्थात् उसे सुधारने का प्रयत्न करना चाहिए। इस सिद्धान्त के अनुसार दण्ड का उद्देश्य व्यक्ति का सुधार होना चाहिए। वस्तुतः कारागृहों को सुधारगृहों के रूप में परिवर्तित किया जाना चाहिए ताकि अपराधी के हृदय को परिवर्तित कर उसे सभ्य नागरिक बनाया जा सके।
यदि हम इन सिद्धान्तों की तुलना जैन प्रायश्चित्त व्यवस्था से करते हैं तो यह कहा जा सकता है कि जैन विचारक अपनी
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
प्रायश्चित्त या दण्ड व्यवस्था में न तो प्रतिकारात्मक सिद्धान्त को और तब तक वह आपराधिक प्रवृत्तियों से विमुख नहीं होगा। यद्यपि इस न निरोधात्मक सिद्धान्त को अपनाते हैं अपितु सुधारात्मक सिद्धान्त आत्मग्लानि या अपराधबोध का तात्पर्य यह नहीं है कि व्यक्ति जीवन से सहमत होकर यह मानते हैं कि व्यक्ति में स्वतः ही अपराधबोध भर इसी भावना से पीड़ित रहे अपितु वह अपराध या दोष को दोष की भावना उत्पन्न करा सकें एवं आपराधिक प्रवृत्तियों से दूर रखकर के रूप में देखे और यह समझे कि अपराध एक संयोगिक घटना अनुशासित किया जाये। वे यह भी स्वीकार करते हैं कि जब तक है और उसका परिशोधन कर आध्यात्मिक-विकास के पथ पर आगे व्यक्ति में स्वत: ही अपराध के प्रति आत्मग्लानि उत्पन्न नहीं होगी बढ़ा जा सकता है।
सन्दर्भ : १. जीतकल्पभाष्य, जिनभद्रगणि, सं० पुण्यविजयजी, अहमदाबाद,
वि०सं० १९९४। २. पंचाशक (हरिभद्र, सं० डॉ० सागरमल जैन, पार्श्वनाथ विद्यापीठ,
वाराणसी १९९७), १६/३ (प्रायश्चित्तपंचाशक)।
वही।
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१३. मूलाचार, ५/१६५। १४. तत्वार्थसूत्र, उमास्वाति, ९/२२। १५. जीतकल्पभाष्य २५८६, जीतकल्प, १०२। १६. स्थानाङ्ग, १०/६९। १७. स्थानाङ्ग, १०/७१। १८. स्थानाङ्ग, १०/७२। १९. व्यवहारसूत्र, १/१/३३। २०. (अ) स्थानाङ्ग, १०/७०।
(ब) मूलाचार, ११/१५। २१. जीतकल्प ६, देखें- जीतकल्पभाष्य गाथा ७३१-७५७। २२. योगशास्त्र-स्वोपज्ञवृत्ति, ३। २३. आवश्यक टीका, उद्धृत श्रमणसूत्र, पृ० ८७। २४. स्थानाङ्ग सूत्र, ६/५३८। २५. आवश्यकनियुक्ति, १२५०-१२६८।
सूचना-यापनीय परम्परा में पिण्डछेदशास्त्र और छेदशास्त्र ऐसे दो ग्रन्थ हैं जिनमें प्रायश्चित्तों का विवेचन है।
अभिधानराजेन्द्र कोष, पञ्चम भाग, पृ० ८५५। तत्त्वार्थवार्तिक ९/२२/१, पृ० ६२०। वही। मूलाचार, सं०पं० पन्नालाल माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, बम्बई, वि०सं० १९७७, ५/१६४।
वही, ५/१६६। ९. स्थानाङ्ग, सं० मधुकरमुनि, ब्यावर, ३/४७०। १०. वही, ३/४४८। ११. वही, १०/७३। १२. (अ) स्थानाङ्ग, १०/७३।
(ब) जीतकल्पसूत्र, ४, जीतकल्पभाष्य गाथा ७१८-७२९। (स) धवला, १३/५, २६/६३/१।
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नीति के मानवतावादी सिद्वान्त और जैन आचार-दर्शन
'मानवतावाद' सामान्य रूप से स्वाभाविक इच्छाओं का सर्वथा तो जैन दर्शन भी प्राणी में निहित सहानुभूति के तत्त्व को स्वीकार दमन उचित नहीं मानता, वरन् उनका संयमन आवश्यक मानता है। करता है (परस्परोपग्रहो जीवानाम् –तत्त्वार्थ,५/२१) तथापि वह कर्मवह संयम का पक्षधर है, दमन का नहीं। उसके अनुसार सच्चा नियम पर भी अपनी आस्था प्रकट करके चलता है। इस सहानुभूति नैतिक जीवन इच्छाओं के दमन में नहीं, अपितु उसके नियमन या के तत्त्व के साथ-साथ कर्म-सिद्वान्त को भी नैतिकता का आधार नियन्त्रण में है।
बनाता है। मानवतावाद में नैतिकता का प्रत्यय सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, यही .. मानवतावाद सांसारिक हित-साधन पर बल देता है और कारण है कि मानवतावाद को आचारशास्त्रीय धर्म कहा जाता है। पारलौकिक सुख-कामना को व्यर्थ मानता है, यद्यपि वह मनुष्य को मानवतावादी सिद्वान्त नैतिकता को मानव की सांस्कृतिक चेतना के स्थूल सुखों तक सीमित नहीं रखता है, किन्तु कला, साहित्य, मैत्री विकास में देखते हैं। सांस्कृतिक चेतना का विकास ही नैतिकता का और सामाजिक सम्पर्क के सूक्ष्म सुखों को भी स्थान देता है। लेमान्ट आधार है। सांस्कृतिक विकास एवं नैतिक जीवन मानवीय गुणों के परम्परावादी और मानतावादी आचार दर्शन में निषेधात्मक और विकास में हैं। मानवतावादी चिन्तन में मनुष्य ही नैतिक मूल्यों का विधानात्मक दृष्टि से भेद स्पष्ट करता है। उसके अनुसार परम्परावादी मापदण्ड है और मानवीय गुणों का विकास ही नैतिकता है। मानवतावादी नैतिक दर्शन में वर्तमान के प्रति उदासीनता और परलोक में सुख विचारकों की एक लम्बी परम्परा है। प्लेटो और अरस्तू से लेकर लेमान्ट, प्राप्त करने की जो इच्छा होती है, वह निषेधात्मक है। इसके विपरीत जाकमारिता तथा समकालीन विचारकों में रसल, वारनर फिटे, मानवतावाद इस जीवन के प्रति आस्था रखता है और उसे सुखी बनाना सी०बी०गर्नेट और इस्राइल लेविन प्रभृति विचारक इस परम्परा का चाहता है, यह विधायक है। प्रतिनिधित्व करते हैं। यद्यपि उपरोक्त सभी विचारक मानवीय गुणों तुलनात्मक दृष्टि से इस प्रश्न पर विचार करते समय हम यह के विकास के संदर्भ में ही नैतिकता के प्रत्यय को देखते हैं फिर भी पाते हैं कि यद्यपि जैन दर्शन पारलौकिकता के प्रत्यय को स्वीकार प्राथमिक मानवीय गुण क्या है, इस सम्बन्ध में उनमें मत-भेद है। करता है और भावी जीवन के अस्तित्व में आस्था भी रखता है, लेकिन समकालीन मानवतावादी विचारकों में इसी प्रश्न को लेकर प्रमुख रूप इस आधार पर उसे निषेधात्मक नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि वह से तीन वर्ग हैं, जिन्हें क्रमशः आत्मचेतनतावाद, विवेकवाद और वर्तमान जीवन के प्रति उदासीनता नहीं रखता है। जैन दार्शनिक स्पष्ट आत्मसंयमवाद कहा जा सकता है। इन तीनों ही मान्यताओं का जैन रूप से यह कहते हैं कि नैतिक साधना का पारलौकिक सुख की कामना दर्शन के साथ निकट सम्बन्ध देखा जा सकता है, लेकिन इसके पहले से कोई सम्बन्ध नहीं है, वरन् पारलौकिक सुख-कामना के आधार कि हम इनके साथ जैन दर्शन की तुलना करें, मानवतावाद की कुछ पर किया गया नैतिक कर्म दूषित है। वे नैतिक-साधना को न ऐहिक सामान्य प्रवृत्तियों के सन्दर्भ में जैन दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन सुखों के लिए और न पारलौकिक सुखों के लिए मानते हैं वरन् उनके अपेक्षित है।
अनुसार तो नैतिक साधना का एकमात्र साध्य आत्म-विकास या सर्वप्रथम मानतावादी विचार-परम्परा सहानुभूति के प्रत्यय को आत्मपूर्णता है। बुद्ध ने भी स्पष्ट रूप से यह बताया है कि नैतिक ही नैतिकता का आधार बनाती है। मानवतावाद के अनुसार मनुष्य जीवन का साध्य पारलौकिक सुख की कामना नहीं है। गीता में भी का परम प्राप्तव्य इसी जगत् में केन्द्रित हैं और इसीलिए वह अपने ___ फलाकांक्षा के रूप में पारलौकिक सुख की कामना को अनुचित ही नैतिक दर्शन को किसी पारलौकिक सुख-कामना पर आधृत नहीं करता। कहा गया है। उसके अनुसार नैतिक होने के लिए किसी पारलौकिक आदर्श या साध्य जैन विचारणा नैतिक जीवन के लिए अपनी दृष्टि वर्तमान पर के प्रति निष्ठा की आवश्यकता नहीं है, वरन् मनुष्य में निहित सहानुभूति ही केन्द्रित करती है और कहती है कि - को तत्त्व ही उसे नैतिकता के प्रति आस्थावान् बनाये रखने के लिए गत वस्तु सोचे नहीं आगत वांछा नाय। पर्याप्त है। वह नैतिकता को प्रलोभन और भय के आधार पर खड़ा वर्तमान में वर्ते सही सो ज्ञानी जग माय। नहीं कर, मानव में निहित सहानुभूति के तत्त्व पर खड़ा करता है।
- आलोचना पाठ उसके अनुसार नैतिक होने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि हम जो भूत के सम्बन्ध में कोई शोक नहीं करता और भविष्य के किसी पारलौकिक सत्ता (ईश्वर) अथवा कर्म के नियम जैसे किसी सिद्वान्त सम्बन्ध में जिसकी कोई अपेक्षाएँ नहीं हैं, जो मात्र वर्तमान में ही पर आस्था रखें। उसके अनुसार मानवीय प्रकृति में निहित सहानुभूति अपने जीवन को जीता है, वही सच्चा ज्ञानी है। विशुद्ध वर्तमान में का तत्त्व ही नैतिक होने के लिए पर्याप्त है।
जीवन जीना जैन परम्परा का नैतिक आदर्श रहा है। अत: वह वर्तमान यदि हम इस प्रश्न पर जैन दर्शन का दृष्टिकोण जानना चाहें के प्रति उदासीन नहीं है, फिर भी इस अर्थ में वह मानवतावादी विचारकों
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ के साथ भी है और वह परलोक के प्रत्यय से इन्कार नहीं करती। मानवतावादी विचारणा में प्राथमिक मानवीय गुण के प्रश्न को लेकर भगवान् बुद्ध ने भी अजातशत्रु को यही बताया था कि मेरे धर्म की प्रमुख रूप से तीन विचारधाराएँ प्रचलित हैं। जैन आचार-दर्शन के साधना का केन्द्र पारलौकिक जीवन नहीं, वरन् यही जीवन है। साथ इनका तुलनात्मक अध्ययन करने के लिए हम इन तीनों पर
मानवतावाद सामान्य रूप से स्वाभाविक इच्छाओं का सर्वथा दमन अलग-अलग विचार करेंगे। उचित नहीं मानता वरन् उसका संयमन आवश्यक मानता है। वह संयम का समर्थक है, दमन का नहीं। उसके अनुसार सच्चा नैतिक जीवन आत्मचेतनावादी दृष्टिकोण और जैनदर्शन इच्छाओं के दमन में नहीं वरन् उनके संयमन में है।
मानवतावादी विचारकों में आत्मचेतनाता या आत्मजागृति को तुलनात्मक दृष्टि से यदि हम इस पर विचार करें तो यह पाते ही नैतिकता का आधार और प्राथमिक मानवीय गुण मानने वाले विकारकों हैं कि जैन, बौद्व और गीता के आचार-दर्शन भी दमन के प्रत्यय को में वारनरफिटे प्रमुख हैं। वारनरफिटे नैतिकता को आत्मचेतनका का स्वीकार नहीं करते हैं। उनमें भी इच्छाओं का दमन अनुचित माना सहगामी मानते हैं। उनकी दृष्टि में नैतिकता का परिभाषक उस समग्र गया है। जैन दर्शन में क्षायिक एवं औपशमिक साधना की दो श्रेणियाँ सामाजिक प्रक्रिया में नहीं है, जिसमें मनुष्य जीवन जीता है, वरन् मानी गयी हैं। इनमें भी केवल क्षायिक श्रेणी का साधक ही आत्म- आत्मचेतना की उस मानवीय प्रक्रिया में है, जो व्यक्ति के जीवन में पूर्णता को प्राप्त कर सकता है; उपशम श्रेणी का साधक तो साधना रही हुई है। वस्तुतः नैतिकता आत्मचेतन जीवन जीने में है। उनका की ऊँचाई पर पहुँचकर भी पतित हो जाता है। इस प्रकार वह भी कथन है कि जीवन के समग्र मूल्य जीवन की चेतना में निहित हैं। दमन को अस्वीकार करता है और केवल संयम को स्थान देता है। यही एक ऐसा दृष्टिकोण है जो जीवन के किन्ही भी मूल्यों की अवधारणा इस अर्थ में वह मानववादी विचारणा के साथ है।
कर सकता है। चेतना के नियंत्रण में जो जीवन है, वही सच्चा जीवन मानवतावाद कर्म के औचित्य और अनौचित्य का निर्धारण समाज है। नैतिक होने का अर्थ यह जानना है कि हम क्या कर रहे हैं? पर उसके परिणाम के आधार पर करता है। लेमान्ट के अनुसार कर्म-प्रेरक जागृत चेतना नैतिकता है और प्रसुप्त चेतना अनैतिकता है। शुभ एवं
और कर्म में विशेष अन्तर नहीं है। कोई भी क्रिया बिना प्रेरणा के उचित कार्य वह नहीं, जिसमें आत्मविस्मृति होती है। वरन् वह है नहीं होती है और जहाँ प्रेरणा होती है, वहाँ कर्म भी होता है। तुलनात्मक जिसमें आत्मचेतना होती है। दृष्टि से इस प्रश्न पर विचार करते समय हम यह पाते हैं कि बौद्ध दर्शन और गीता स्पष्ट रूप से कर्म के औचित्य और अनौचित्य का के अति निकट है। वारनरफिटे की नैतिक दर्शन की यह मान्यता अति निर्धारण कर्मप्रेरक के आधार पर करते हैं, कर्म-परिणाम के आधार स्पष्ट रूप में जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों में उपलब्ध है। पर नहीं और इस आधार पर वे मानवतावाद से कोई साम्य नहीं रखते। फिटे जिसे आत्मचेतना कहते हैं, उसे जैन दर्शन में अप्रमत्तता या जहाँ तक जैन दर्शन का प्रश्न है, वह व्यवहार दृष्टि से कर्म-परिणाम आत्मजागृति कहा गया है। जैन दर्शन के अनुसार प्रमाद आत्मविस्मृति को और निश्चय दृष्टि से कर्म-प्रेरक को औचित्य अनौचित्य के निर्णय की अवस्था है। जैन दर्शन में प्रमाद को अनैतिकता का प्रमुख कारण का आधार बनाता है। इस प्रकार उसकी मानवतावाद से इस सम्बन्ध माना गया है। जो भी क्रियाएँ प्रमाद के कारण होती हैं या प्रमाद की में आंशिक समानता है।
अवस्था में की जाती हैं वे सभी अनैतिक मानी गयी हैं। 'आचारांग' मानवतावाद मनुष्य को ही समग्र मूल्यों का मानदण्ड स्वीकार में महावीर ने स्पष्ट रूप से कहा है कि जो प्रसुप्त चेतना वाला है करता है। इस प्रकार वह मानवीय जीवन को सर्वधिक महत्त्व प्रदान वह अमुनि (अनैतिक) है और जो जाग्रत चेतना वाला है वह मुनि करता है। यदि हम तुलनात्मक दृष्टि से इस प्रश्न को देखें तो हमें (नैतिक) है। सूत्रकृतांग' में प्रमाद को कर्म और अप्रमाद को अकर्म यह स्पष्ट रूप से स्वीकार करना होगा कि भारतीय परम्परा भी मानवीय कहकर यही बताया गया है कि जो क्रियाएँ आत्मविस्मृति लाती हैं, जीवन के महत्त्व को स्वीकार करती है। जैन आगमों में मानव जीवन वे बन्धनकारक हैं और इसलिए अनैतिक भी हैं। इसके विपरीत हो को दुर्लभ बताया गया है। आचार्य अमितगति ने स्पष्ट रूप से कहा क्रियाएँ अप्रमत्त चेतना की अवस्था में सम्पन्न होती है, वे अबन्धकारक है कि जीवन में मनुष्य का जीवन ही सर्वश्रेष्ठ है। 'धम्मपद' में भगवान् होती हैं और इस रूप में पूर्णतया विशुद्ध और नैतिक होती हैं। इस बुद्ध ने भी मनुष्य जन्म को दुर्लभ बताया है। 'महाभारत' में व्यास प्रकार हम देखते हैं कि वारनर फिटे का आत्मचेतनतावादी दृष्टिकोण ने भी यही कहा है कि यदि कोई रहस्यमय बात है तो वह यह है जैन दर्शन के अति निकट है। कि मनुष्य से श्रेष्ठ और कोई नहीं हैं। तुलसीदासजी ने इसी तथ्य न केवल जैनदर्शन में वरन् बौद्वदर्शन में भी आत्मचेतनता को को यह कहकर प्रकट किया है कि- 'बड़े भाग मानुष तन पावा, नैतिकता का प्रमुख आधार माना गया है। 'धम्मपद' में बुर स्पष्ट रूप सुर दुर्लभ सब ग्रन्थहिं गावा'। इस प्रकार हम देखते हैं कि भारतीय से कहते हैं कि अप्रमाद अमरता का मार्ग है और प्रमाद मृत्यु का। चिन्तन में भी मनुष्य जीवन के सर्वोच्च मूल्य को स्वीकार किया गया बौद्वदर्शन में अष्टांग साधना-मार्ग में सम्यक् स्मृति भी इसी बात को है। यहाँ हम पाते हैं कि मानवतावादी विचार-परम्परा की जैन दर्शन स्पष्ट करती है कि आत्मस्मृति या जागृत चेतना ही नैतिकता का आधार से तथा सामान्य रूप से भारतीय दर्शन से निकटता है। समकालीन है, जबकि आत्मविस्मृति या प्रसुप्त चेतना अनैतिकता का आधार है।
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नीति के मानवतावादी सिद्धान्त और जैन आचार- दर्शन
बुद्ध नन्द को उपदेश देते हुए कहते हैं कि जिसके पास स्मृति नहीं है उसे आर्यसत्य कहाँ से प्राप्त होगा इसलिए चलते हुए चल रहा हूँ', खड़े होते हुए 'खड़ा हो रहा हूँ' एवं इसी प्रकार दूसरे कार्य करते समय अपनी स्मृति बनाये रखो।" इस प्रकार हम देखते हैं कि बुद्ध भी आत्मचेतनता को नैतिक जीवन का केन्द्र स्वीकार करते हैं।
गीता में भी सम्मोह से, स्मृति-विनाश और स्मृतिविन्यास से बुद्धि-नाश कहकर यही बताया गया है कि आत्मचेतना नैतिक जीवन के लिए एक आवश्यक तथ्य है । "
विवेकवाद' और जैनदर्शन
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मानवतावादी विचारकों में दूसरा वर्ग विवेक को प्राथमिक मानवीय गुण स्वीकार करता है। सी०बी० गर्नेट और इस्त्राइल लेविन के अनुसार नैतिकता विवेकपूर्ण जीवन जीने में है। गनेंट के अनुसार विवेक संगति - नहीं वरन् जीवन में कौशल या चतुराई का होना है। बौद्धिकता या तर्क उसका एक अंग हो सकता है समग्र नहीं गर्नेट, अपनी पुस्तक "विज्डम आफ कन्डक्ट में प्रज्ञा को ही सर्वोच्च सद्गुण मानते हैं और प्रज्ञा या विवेक से निर्देशित जीवन जीने में नैतिकता के सार तत्त्व की अभिव्यक्ति मानते हैं। उनके अनुसार नैतिकता की सम्यक् एवं सार्थक व्याख्या शुभ- उचित कर्तव्य आदि नैतिक प्रत्ययों की व्याख्या में नहीं वरन् आचरण में विवेक के सामान्य प्रत्यय में है। आचरण में विवेक एक ऐसा तत्त्व है जो नैतिक परिस्थिति के अस्तित्ववान पक्ष अर्थात् चरित्र, प्रेरणाएँ, आदत, रागात्मकता, विभेदीकरण, मूल्य-निर्धारण और साध्य को दृष्टिगत रखता है। इन सभी पक्षों को पूर्णतया दृष्टि में रखे बिना जीवन में विवेक पूर्ण आचरण की आशा ही नहीं की जा सकती। आचरण में विवेक एक ऐसी लोचपूर्ण दृष्टि है जो परिस्थितियों के सभी पक्षों की सम्यक् विचारणा के साथ खोज करती हुई सुयोग्य चुनावों को करती है। लेविन ने आचरण में विवेक का तात्पर्य एक समायोजनात्मक क्षमता से माना है उसके अनुसार नैतिक होने का अर्थ मानव की मूलभूत क्षमताओं की अभिव्यक्ति है।
गर्नेट और लेविन के इन दृष्टिकोणों की तुलना जैन आचार - दर्शन के साथ करने पर हम पाते हैं कि आचरण में विवेक का प्रत्यय जैन विचारणा एवं अन्य सभी भारतीय विचारणाओं में भी स्वीकृत रहा है। जैन विचारकों ने सम्यग्ज्ञान के रूप में जो साधना-मार्ग बताया है वह केवल तार्किक ज्ञान नहीं है वरन् एक विवेकपूर्ण दृष्टि है। जैन परम्परा में आचरण में विवेक के लिए या विवेकपूर्ण आचरण के लिए 'यसना' शब्द का प्रयोग हुआ है। 'दशवैकालिक सूत्र' में स्पष्ट रूप से यह बताया गया है कि जो जीवन की विभिन्न क्रियाओं को विवेक या सावधानीपूर्वक सम्पादित करता है वह अनैतिक आचरण नहीं करता है। बौद्ध परम्परा में भी यही दृष्टिकोण स्वीकृत रहा है। बुद्ध ने भी 'अङ्गुत्तरनिकाय' में महावीर के समान ही इसे प्रतिपादित किया है। गीता में कर्म- कौशल को ही योग कहा गया है जो कि विवेक दृष्टि का सूचक है। इस प्रकार हम देखते हैं कि समालोच्य आचार- दर्शनों में भी आचरण में विवेक का प्रत्यय स्वीकृत रहा है।
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गनेंट ने आचरण में विवेक के लिए उन समग्र परिस्थितियों एवं सभी पक्षों का विचार आवश्यक माना है जिनमें कर्म किया जाना है। वह कर्म के सभी पक्षों पर विचार आवश्यक मानता है, जिसे हम जैन दर्शन के अनेकान्तवाद के सिद्धान्त के द्वारा सम्यक् प्रकार से स्पष्ट कर सकते हैं। जैन दर्शन की अनेकान्तवादी धारणा भी यही निर्देश देती है कि विचार के क्षेत्र में हमें एकांगी दृष्टिकोण रखकर निर्णय नहीं लेना चाहिए वरन् एक सर्वांगीण दृष्टिकोण रखना चाहिए। इस प्रकार गर्नेट का सभी पक्षों के विचार का प्रत्यय जैन दर्शन के अनेकान्तवादी सर्वांगीण दृष्टिकोण से अधिक दूर नहीं है।
आत्मसंयम का सिद्धान्त और जैनदर्शन
मानवतावादी नैतिक दर्शन के तीसरे वर्ग का प्रतिनिधित्व इरविंग बबिट करते हैं। ११ बबिट के अनुसार मानवता एवं नैतिक जीवन का सार न तो आत्मचेतन जीवन जीने में है और न विवेकपूर्ण जीवन में, वरन् वह संयमपूर्ण जीवन या आत्म-अनुशासन में है। बबिट आधुनिक युग के संकट का कारण यह बताते हैं कि हमने परम्परागत कठोर वैराग्यवादी धारणाओं को तोड़ दिया और उनके स्थान पर ठीक रूप से आदिम भोगवाद को ही प्रस्तुत किया है। वर्तमान युग के विचारकों ने परम्परागत धारणाओं के प्रतिवाद में एक ऐसी गलत दिशा का चयन किया है, जिसमें मानवीय हितों को चोट पहुँची है। उनका कथन है। कि मनुष्य में निहित वासना रूपी पाप को अस्वीकृत करने का अर्थ उस बुराई को ही दृष्टि से ओझल कर देना है, जिसके कारण मानवीय सभ्यता का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है। मानवीय वासनाएँ पाप हैं, अनैतिक हैं, इस बात को भूलकर हम मानवीय सभ्यता का ही विनाश करेंगे, जबकि उसके प्रति जागृत रहकर हम मानवीय सभ्यता का विकास कर सकेंगे। बबिट बहुत ही ओजपूर्ण शब्दों में कहते हैं कि हम में जैविक प्रवेग तो बहुत हैं, आवश्यकता है जैविक नियंत्रण की हमें अपनी वासनाओं पर नियंत्रण करना चाहिए। केवल सहानुभूति के नाम पर सामाजिक एकता नहीं आ सकती। मनुष्यों को सहानुभूति के सामान्य तत्त्व के आधार पर नहीं वरन् अनुशासन के सामान्य तत्त्व के आधार पर ही एक दूसरे के निकट लाया जा सकता है। सहानुभूति के विस्तार का नैतिक दर्शन केवल भावनात्मक मानवतावाद की स्थापना करता है, जबकि आवश्यकता ऐसे ठोस मानवतावाद की है जो अनुशासन पर बनता है।
तुलनात्मक दृष्टि से विचार करते हुए हम यह पाते हैं कि सभी समालोच्य आचार-दर्शन संयम के प्रत्यय को स्वीकार करते हैं। जैन दर्शन नैतिक पूर्णता के लिए संयम का आवश्यक मानता है। उसके त्रिविध साधना - पथ में सम्यक् आचारण को भी वही मूल्य है जो विवेक और भावना का है 'दशवैकालिकसूत्र' में धर्म को अहिंसा, संयम और तपोमय बताया है।" वस्तुतः अहिंसा और तप भी संयम के पोषक ही हैं और इस अर्थ में संयम ही एक महत्त्वपूर्ण अंग है। जैन भिक्षु जीवन और गृहस्थ जीवन में संयम या अनुशासन को सर्वत्र ही महत्त्व दिया गया है। महावीर के सम्पूर्ण उपदेश का सार असंयम
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ से निवृत्ति और संयम में प्रवृति है। १३ इस प्रकार हम देखते हैं कि समकालीन मानवतावादी विचारकों के उपरोक्त तीनों सिद्धान्त बबिट का यह दृष्टिकोण जैन दर्शन के अति निकट है। उसका यह यद्यपि भारतीय चिन्तन में स्वीकृत रहे हैं तथापि भारतीय विचारकों कहना कि वर्तमान युग में संकट का कारण संयमात्मक मूल्यों का की यह विशेषता रही है कि उन्होंने इन तीनों को समवेत रूप में ह्रास है, जैन दर्शन को स्वीकार है। वस्तुत: आत्मसंयम और अनुशासन स्वीकार किया है। जैन दर्शन में सम्यक ज्ञान, दर्शन और चारित्र के
आज के युग की सबसे महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है, जिसे इन्कार नहीं ___ रूप में, बौद्ध दर्शन में शील, समाधि और प्रज्ञा के रूप में तथा गीता किया जा सकता।
में श्रद्धा, ज्ञान और कर्म के रूप में प्रकारान्तर से इन्हें स्वीकार किया न केवल जैन दर्शन में वरन् बौद्ध और वैदिक दर्शन में भी गया है। फिर भी गीता की श्रद्धा को आत्मचेतनता नहीं कहा जा सकता संयम और अनुशासन के प्रत्यय को आवश्यक माना गया है। भारतीय है। बौद्ध दर्शन के इस त्रिविध साधना-पथ में समाधि आत्मसनता नैतिक चिन्तन में संयम का प्रत्यय एक ऐसा प्रत्यय है जो सभी का, प्रज्ञा विवेक का और शील संयम का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसी आचार-दर्शनों में और सभी कालों में स्वीकृत रहा है। संयमात्मक जीवन प्रकार जैन दर्शन में सम्यग्दर्शन आत्मचेतनता का, सम्यग्ज्ञान विवेक भारतीय संस्कृति की विशेषता रहा है। बबिट का यह विचार भारतीय का और सम्यक्चरित्र संयम का प्रतिनिधित्व करते हैं। चिन्तन के लिए कोई नया नहीं है।
सन्दर्भ: १. देखिये -
(अ) समकालीन दार्शनिक चिन्तन, डॉ० हृदयनारायण मिश्र, पृ० ३००-३२५। (ब) कन्टेम्पररि एथिकल थ्योरीज़, पृ० १७७-१८८। (अ) माणुस्सं सुदुल्लहं। - उत्तराध्ययनसूत्र। (ब) भवेषु मानुष्यभव: प्रधानम् । - अमितगति। (स) किच्चे मणुस्स पटिलाभो। – धम्मपद, १८२। (द) गुह्यं तदिदं ब्रवीमि। न मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित् ।
- महाभारत, शान्तिपर्व, २९९/२०। ४. आचाराङ्ग, ११/३। ५. सूत्रकृताङ्ग, १/८/३।
धम्मपद, २/११ ७. सौन्दरनन्द, १४/४३-४५। ८. गीता, २/६३।
देखिये - (अ) कण्टेम्पररि एथिकल थ्योरीज़, पृ० १८१-१८४।
(ब) विज़डम ऑफ कण्डक्ट - सी०बी०गनेंट। १०. दशवैकालिक, ४/८।। ११. बबिट के दृष्टिकोण के लिए देखिये -
(अ) कण्टेम्पररि एथिकल थ्योरीज़, पृ० १८५-१८६। (ब) दि ब्रेकडाउन ऑफ इण्टरनेशनलिज्म।
- प्रकाशित 'दि नेशन' खण्ड स (८) १९१५। १२. दशवैकालिक, १/१॥ १३. उत्तराध्ययन, ३१/२।
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जैन आचार में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न
निर्ग्रन्थ-परम्परा में सचेलकत्व और अचेलकत्व का प्रश्न अति- किया है। शोरसनी आगम साहित्य में कसायपाहुड ही एकमात्र ऐसा प्राचीन काल से ही विवाद का विषय रहा है। वर्तमान में जो श्वेताम्बर ग्रन्थ है, जो अपेक्षाकृत प्राचीन स्तर का है, किन्तु दुर्भाग्य से इसमें
और दिगम्बर सम्प्रदाय हैं, उनके बीच भी विवाद का प्रमुख बिन्दु यही वस्त्र-पात्र सम्बन्धी कोई भी विवरण उपलब्ध नहीं है। शेष शौरसेनी है। पहले भी इसी विवाद के कारण उत्तर भारत का निर्ग्रन्थ संघ विभाजित आगम-ग्रन्थों में भगवती-आराधना, मूलाचार और षट्खण्डागम मूलत: हुआ था और यापनीय सम्प्रदाय अस्तित्व में आया था। दूसरे शब्दों यापनीय परम्परा के हैं। साथ ही गुणस्थान-सिद्धान्त आदि की परवर्ती में इसी विवाद के कारण जैनों में विभिन्न सम्प्रदाय अर्थात् श्वेताम्बर, अवधारणाओं की उपस्थिति के कारण ये ग्रन्थ भी विक्रम की छठी दिगम्बर और यापनीय निर्मित हुए हैं। यह समस्या मूलत: मुनि-आचार शती के पूर्व के नहीं माने जा सकते हैं, फिर भी प्रस्तुत चर्चा में से ही सम्बन्धित है, क्योंकि गृहस्थ उपासक, उपासिकाएँ और साध्वियाँ इनका उपयोग इसलिये आवश्यक है कि अचेल पक्ष को प्रस्तुत करने तो तीनों ही सम्प्रदायों में सचेल (सवस्त्र) ही मानी गई हैं। के लिये इनके अतिरिक्त अन्य कोई प्राचीन स्रोत-सामग्री हमें उपलब्ध
मुनियों के सम्बन्ध में दिगम्बर परम्परा की मान्यता यह है कि नहीं है। जहाँ तक कुन्दकुन्द के ग्रन्थों का प्रश्न है, उनमें सुत्तपाहुड मात्र अचेल (नग्र) ही मुनि पद का अधिकारी है। जिसके पास वस्त्र एवं लिंगपाहुड को छोड़कर यह चर्चा अन्यत्र कहीं नहीं मिलती है। है, चाहे वह लँगोटी मात्र ही क्यों न हो, वह मुनि नहीं हो सकता ये ग्रन्थ भी छठी शती के पूर्व के नहीं हैं। दुर्भाग्य यह है कि अचेल है। इसके विपरीत श्वेताम्बरों का कहना है कि मुनि अचेल (नग्न) परम्परा के पास सचेलकत्व और अचेलकत्व की इस परिचर्चा के लिये
और सचेल (सवस्त्र) दोनों हो सकते हैं। साथ ही वे यह भी मानते छठी शती के पूर्व की कोई भी सामग्री उपलब्ध नहीं है। यद्यपि हैं कि वर्तमान काल की परिस्थितियाँ ऐसी हैं जिसमें मुनि का अचेल दिगम्बर-परम्परा इन ग्रन्थों का काल प्रथम-द्वितीय शताब्दी नहीं (नग्र) रहना उचित नहीं है। इन दोनों परम्पराओं से भिन्न यापनीयों मानती है। की मान्यता यह है कि अचेलता ही श्रेष्ठ मार्ग है, किन्तु आपवादिक जहाँ तक अन्य परम्पराओं के प्राचीन स्रोतों का प्रश्न है, वेदों स्थितियों में मुनि वस्त्र रख सकता है। इस प्रकार जहाँ दिगम्बर परम्परा में नग्न श्रमणों या व्रात्यों के उल्लेख तो मिलते है, किन्तु वे स्पष्टत: एकान्त रूप से अचेलकत्व को ही मुनि-मार्ग या मोक्ष-मार्ग मानती निर्ग्रन्थ (जैन) परम्परा के हैं, यह कहना कठिन है। यद्यपि अनेक हिन्दू है, वहाँ श्वेताम्बर परम्परा वर्तमान में जिनकल्प (अचेल-मार्ग) का उच्छेद पुराणों में नग्न जैन श्रमणों के उल्लेख हैं, किन्तु अधिकांश हिन्दू पुराण दिखाकर सचेलता पर ही बल देती है। यापनीय परम्परा का दृष्टिकोण तो विक्रम की पाँचवीं-छठी शती या उसके भी बाद के हैं, अत: उनमें इन दोनों अतिवादियों के मध्य समन्वय करता है। वह मानती है कि उपलब्ध साक्ष्य अधिक महत्त्व के नहीं हैं। दूसरे उनमें सवस्त्र और सामान्यतया तो मुनि को अचेल या नग्र ही रहना चाहिये, क्योकि निर्वस्त्र दोनों प्रकार के जैन मुनियों के उल्लेख मिल जाते हैं, अत: वस्त्र भी परिग्रह ही है, किन्तु आपवादिक स्थितियों में संयमोपकरण उन्हें इस परिचर्चा का आधार नहीं बनाया जा सकता है। के रूप में वस्त्र रखा जा सकता है। उसकी दृष्टि में अचेलकत्व (नग्नत्व) इस दृष्टि से पालित्रिपिटक के उल्लेख अधिक महत्त्वपूर्ण हैं और उत्सर्ग मार्ग है और सचेलकत्व अपवाद मार्ग है।
किसी सीमा तक सत्य के निकट भी प्रतीत होते हैं। इस परिचर्चा प्रस्तुत परिचर्चा में सर्वप्रथम हम इस विवाद को इसके ऐतिहासिक के हेतु जो आधारभूत प्रामाणिक सामग्री हमें उपलब्ध होती है, वह परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयत्न करेंगे कि यह विवाद क्यों, कैसे और है मथुरा से उपलब्ध प्राचीन जैन मूर्तियाँ और उनके अभिलेख। प्रथम किन परिस्थितियों में उत्पन्न हुआ?
तो यह सब सामग्री ईसा की प्रथम-द्वितीय शताब्दी की है। दूसरे इसमें
किसी भी प्रकार के प्रक्षेप आदि की सम्भावना भी नहीं है। अत: यह प्रस्तुत अध्ययन की स्रोत-सामग्री
प्राचीन भी है और प्रामाणिक भी क्योंकि इसकी पुष्टि अन्य साहित्यिक इस प्रश्न पर ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करने हेतु हमारे पास स्रोतों से भी हो जाती है। अत: इस परिचर्चा में हमने सर्वाधिक उपयोग जो प्राचीन स्रोत-सामग्री उपलब्ध है, उसमें प्राचीन स्तर के अर्धमागधी इसी सामग्री का किया है। आगम, पालित्रिपिटक और मथुरा से प्राप्त प्राचीन जिन-प्रतिमाओं की पाद-पीठ पर अंकित मुनि-प्रतिमाएँ ही मुख्य हैं। श्वेताम्बर परम्परा द्वारा महावीर के पूर्व निर्ग्रन्थ-संघ में वसा की स्थिति मान्य अर्धमागधी आगमों में आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन और जैन अनुश्रुति के अनुसार इस अवसर्पिणी काल में भगवान महावीर दशवैकालिक ही ऐसे ग्रन्थ हैं जिन्हें इस चर्चा का आधार बनाया जा से पूर्व तेईस तीर्थङ्कर हो चुके थे। अत: प्रथम विवेच्य बिन्दु तो यही सकता है, क्योंकि प्रथम तो ये प्राचीन (ई०पू० के) है और दूसरे है कि अचेलता के सम्बन्ध में इन पूर्ववर्ती तीर्थङ्करों की क्या मान्यताएँ इनमें हमें सम्प्रदायातीत दृष्टिकोण उपलब्ध होता है। अनेक पाश्चात्य थीं? यद्यपि सम्प्रदाय-भेद स्थिर हो जाने के पश्चात् निर्मित ग्रन्थों में विद्वानों ने भी इनकी प्राचीनता एवं सम्प्रदाय-निरपेक्षता को स्वीकार जहाँ दिगम्बर ग्रन्थ एक मत से यह उद्घोष करते हैं कि सभी जिन
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ अचेल होकर ही दीक्षित होते है, वहाँ श्वेताम्बर ग्रन्थ यह कहते हैं उनसे भी इस तथ्य की ही पुष्टि होती है कि नग्न एवं मलिन वस्त्र कि सभी जिन एक देवदूष्य वस्त्र लेकर ही दीक्षित होते हैं। मेरी दृष्टि धारण करने वाले श्रमणों/योगियों/व्रात्यों की एक परम्परा प्राचीन भारत में ये दोनों ही दृष्टिकोण साम्प्रदायिक अभिनिवेश से युक्त हैं। श्वेताम्बर में अस्तित्व रखती थी। उस परम्परा के अग्र-पुरुष के रूप में ऋषभ
और यापनीय परम्परा के अपेक्षाकृत प्राचीन स्तर के ग्रन्थों में स्पष्ट या शिव को माना जा सकता है। किन्तु यह भी ध्यातव्य है कि इन रूप से यह उल्लेख मिलता है कि प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव और अन्तिम सीलों में उस योगी को मुकुट और आभूषणों से युक्त दर्शाया गया तीर्थङ्कर महावीर की आचार-व्यवस्था मध्यवर्ती बाईस तीर्थङ्करों की है जिससे उसके नग्न निर्ग्रन्थ मुनि होने के सम्बन्ध में बाधा आती आचार-व्यवस्था से भिन्न थी। यापनीय ग्रन्थ मूलाचार प्रतिक्रमण आदि है। ये अंकन श्वेताम्बर तीर्थङ्कर मूर्तियों से आंशिक साम्यता रखते । के सन्दर्भ में उनकी इस भिन्नता का तो उल्लेख करता है किन्तु मध्यवर्ती हैं, क्योंकि वे अपनी मूर्तियों को आभूषण पहनाते हैं। तीर्थङ्कर सचेल धर्म के प्रतिपादक थे, यह नहीं कहता है। जबकि श्वेताम्बर आगम उत्तराध्ययन में स्पष्ट रूप से यह भी उल्लेख है कि अन्तिम ऋषभ का अचेल धर्म तीर्थङ्कर महावीर ने अचेल धर्म का प्रतिपादन किया, जबकि तेईसवें प्राचीन स्तर के अर्धमागधी आगम उत्तराध्ययन में ऋषभ के नाम तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ ने सचेल धर्म का प्रतिपादन किया था। यहाँ यह का उल्लेख मात्र है, उनके जीवन के सन्दर्भ में कोई विवरण नहीं भी ज्ञातव्य है कि बृहत्कल्पभाष्य में प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्कर को है। इससे अपेक्षाकृत परवर्ती कल्पसूत्र एवं जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में ही अचेल धर्म और मध्यवर्ती बाईस तीर्थङ्करों को सचेल-अचेल धर्म का सर्वप्रथम उनका जीवनवृत्त मिलता है, फिर भी इनमें उनकी साधना प्रतिपादक कहा गया है। यद्यपि उत्तराध्ययन स्पष्टतया पार्श्व के धर्म एवं आचार-व्यवस्था का कोई विशेष विवरण नहीं है। परवर्ती श्वेताम्बर, को 'सचेल' अथवा सान्तरोत्तर (संतरुत्तर) ही कहता है, सचेल-अचेल दिगम्बर ग्रन्थों में और उनके अतिरिक्त हिन्दू पुराणों तथा विशेषरूप नहीं। 'मध्यवर्ती तीर्थङ्करों के शासन में भी अचेल मुनि होते थे, से भागवत में ऋषभदेव के द्वारा अचेलकत्व के आचरण के जो उल्लेख बृहत्कल्पभाष्य की यह स्वीकारोक्ति उसकी सम्प्रदाय-निरपेक्षता की ही मिलते हैं, उन सबके आधार पर यह विश्वास किया जा सकता है कि सूचक है। यद्यपि दिगम्बर और यापनीय परम्परा श्वेताम्बर मान्य आगमों ऋषभदेव अचेल परम्परा के पोषक रहे होंगे। ११ ऋषभ अचेल धर्म के एवं आगमिक व्याख्याओं के इन कथनों को मान्य नहीं करती हैं, किन्तु प्रवर्तक थे, यह मानने में सचेल श्वेताम्बर परम्परा को भी कोई आपत्ति हमें श्वेताम्बर आगमों के इन कथनों में सत्यता परिलक्षित होती है, नहीं है क्योकि उसकी भी मान्यता यही है कि ऋषभ और महावीर क्योंकि अन्य ऐतिहासिक स्रोतों से भी इन कथनों की बहुत कुछ पुष्टि दोनों ही अचेल धर्म के सम्पोषक थे।१२ हो जाती है।
___ऋषभ के पश्चात् और अरिष्टनेमि के पूर्व मध्य के २० तीर्थङ्करों यहाँ हमारा उद्देश्य सम्प्रदायगत मान्यताओं से ऊपर उठकर मात्र के जीवनवृत्त एवं आचार-विचार के सम्बन्ध में छठी शती के पूर्व अर्थात् प्राचीन ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर ही इस समस्या पर विचार सम्प्रदायों के स्थिरीकरण के पूर्व की कोई भी सामग्री उपलब्ध नहीं करना है। अत: इस परिचर्चा में हम परवर्ती अर्थात् साम्प्रदायिक है। अर्धमागधी आगमों में मात्र समवायांग में और शौरसेनी के मान्यताओं के दृढ़ीभूत होने के बाद के ग्रन्थों को आधार नहीं बना आगम-तुल्य ग्रन्थ तिलोयपण्णत्ति में उनके नाम, माता-पिता, जन्म-मरण
आदि सम्बन्धी छिटपुट सूचनाएँ हैं, जो प्रस्तुत चर्चा की दृष्टि से उपयोगी महावीर से पूर्ववर्ती तीर्थङ्करों में मात्र ऋषभ, अरिष्टनेमि और पार्श्व नहीं हैं। के कथानक ही ऐसे हैं, जो ऐतिहासिक महत्त्व के हैं। यद्यपि इनमें इस प्रकार मध्यवर्ती बाईसवें अरिष्टनेमि एवं तेईसवें पार्श्व ही भी ऋषभ और अरिष्टनेमि के कथानक प्रागैतिहासिक काल के हैं। वेदों ऐसे हैं जिनसे सम्बन्धित सूचनाएँ उत्तराध्ययन के क्रमश: बाईसवें एवं से भी हमें इनके सम्बन्ध में कोई विशेष जानकारी (नामोल्लेख के तेईसवें अध्ययन में मिलती हैं, किन्तु उनमें भी बाईसवें अध्ययन में अतिरिक्त) नहीं मिलती है। वेदों में भी ये नाम किस सन्दर्भ में प्रयुक्त अरिष्टनेमि की आचार-व्यवस्था का और विशेष रूप से वस्त्र-ग्रहण हुए हैं, और किसके वाचक है, यह तथ्य, आज भी विवादास्पद ही सम्बन्धी परम्परा का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है। उत्तराध्ययन के बाईसवें है। इन दोनों के जीवनवृत्त के सम्बन्ध में जैन एवं जैनेतर स्रोतों से अध्ययन में राजीमति के द्वारा गुफा में वर्षा के कारण भीगा हुआ अपना भी जो सामग्री उपलब्ध होती है वह ईसा की प्रथम शती के पूर्व की वस्त्र सुखाने का उल्लेख होने से केवल एक ही तथ्य की पुष्टि होती नहीं है।
है कि अरिष्टनेमि की परम्परा में साध्वियाँ सवस्त्र होती थीं। १३ उस वेदों एवं ब्राह्मण-ग्रन्थों में व्रात्यों एवं वातरशना मुनियों के जो गुफा में साधना में स्थित रथनेमि सवस्त्र थे या निर्वस्त्र, ऐसा कोई उल्लेख हैं', उनसे इतना तो अवश्य फलित होता है कि प्रागैतिहासिक स्पष्ट संकेत इसमें नहीं है। अत: वस्त्र-सम्बन्धी विवाद में केवल पार्श्व काल में नग्न अथवा मलिन एवं जीर्णवस्त्र धारण करने वाले श्रमणों एवं महावीर इन दो ऐतिहासिक काल के तीर्थङ्गरों के सम्बन्ध में ही की एक परम्परा अवश्य थी। सिन्धुघाटी-सभ्यता की मोहन-जोदड़ो जो कुछ साक्ष्य उपलब्ध होते हैं, उनके आधार पर ही चर्चा की जा एवं हड़प्पा से जो नग्न योगियों के अंकन वाली सीलें प्राप्त हुई हैं सकती है।
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जैन आचार में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न
२८७ पार्श्व का सचेल धर्म
तो नग्न ही थे, किन्तु पास में वस्त्र रखते थे, जिसे आवश्यकता होने . पार्श्व के सम्बन्ध में जो सूचनाएँ हमें उपलब्ध हैं उनमें भी प्राचीनता पर ओढ़ लेते थे।२९ किन्तु पण्डितजी की यह व्याख्या युक्तिसंगत नहीं की दृष्टि से ऋषिभाषित (लगभग ई०पू० चौथी-पाँचवीं शती), सूत्रकृतांग है क्योंकि संतरुत्तर से नग्नता किसी भी प्रकार फलित नहीं होती है। (लगभग तीसरी-चौथी शती), उत्तराध्ययन (ई०पू० दूसरी शती), वस्तुत: संतरुत्तर शब्द का प्रयोग आचारांग में तीन वस्त्र रखने वाले आचारांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध (ई०पू० दूसरी शती) एवं भगवती (ई०पू० साधुओं के सन्दर्भ में हुआ है और उन्हें यह निर्देश दिया गया है कि दूसरी शती से लेकर ईसा की दूसरी शती तक) के उल्लेख महत्त्वपूर्ण ग्रीष्म ऋतु के आने पर वे एक जीर्ण-वस्त्र को छोड़कर संतरुत्तर अर्थात् हैं। इनमें भी ऋषिभाषित और सूत्रकृतांग में पार्श्व की वस्त्र-सम्बन्धी दो वस्त्र धारण करने वाले हो जायें। अत: संतरुत्तर होने का अर्थ मान्यताओं की स्पष्ट जानकारी प्राप्त नहीं होती। उत्तराध्ययन का तेईसवाँ ___ अन्तरवासक और उत्तरीय ऐसे दो वस्त्र रखना है। अन्तरवस्त्र आजकल अध्ययन ही एकमात्र ऐसा आधार है, जिसमें महावीर के धर्म को अचेल का अंडरवियर अर्थात् गुह्यांग को ढकने वाला वस्त्र है। उत्तरीय शरीर एवं पार्श्व के धर्म को सचेल या संत्तरुत्तर कहा गया है। इससे यह के ऊपर के भाग को ढकने वाला वस्त्र है। 'संतरुत्तर' की शीलांक स्पष्ट है कि वस्त्र के सम्बन्ध में महावीर और पार्श्व की परम्पराएँ भिन्न की यह व्याख्या भी हमें यही बताती है कि उत्तरीय कभी ओढ़ लिया थीं। उत्तराध्ययन की प्राचीनता निर्विवाद है और उसके कथन को जाता था और कभी पास में रख लिया जाता था, क्योकि गर्मी में अप्रामाणिक नहीं माना जा सकता। पुनः नियुक्ति, भाष्य आदि परवर्ती सदैव उत्तरीय ओढ़ा नहीं जाता था। अत: संतरुत्तर का अर्थ कभी सचेल आगमिक व्याख्याओं से भी इसी तथ्य की पुष्टि होती है, अत: इस हो जाना और कभी वस्त्र को पास में रखकर अचेल हो जाना नहीं कथन की सत्यता में सन्देह करने का कोई स्थान शेष नहीं रहता है। है। यदि संतरुत्तर होने का अर्थ कभी सचेल और कभी अचेल (नग्न) किन्तु पार्श्व की परम्परा के द्वारा मान्य 'सांतरुत्तर' शब्द का क्या अर्थ होना होता तो फिर अल्पचेल और एकशाटक होने की चर्चा इसी प्रसंग है- यह विचारणीय है। सांतरुत्तर शब्द का अर्थ परवर्ती श्वेताम्बर में नहीं की जाती। तीन वस्त्रधारी साधु एक जीर्ण वस्त्र का त्याग करने आचार्यों ने विशिष्ट, रंगीन एवं बहुमूल्य वस्त्र किया है। उत्तराध्ययन पर सांतरुत्तर होता है। एक जीर्ण वस्त्र का त्याग और दूसरे जीर्ण वस्त्र की टीका में नेमिचन्द्र लिखते हैं- सान्तर अर्थात् वर्धमान स्वामी के जीर्ण भाग को निकालकर अल्प आकार का बनाकर रखने पर की अपेक्षा परिमाण और वर्ण में विशिष्ट तथा उत्तर अर्थात् महामूल्यवान् अल्पचेल, दोनों जीर्ण वस्त्रों का त्याग करने पर एकशाटक अथवा होने से प्रधान, ऐसे वस्त्र जिस परम्परा में धारण किये जायें वह धर्म ओमचेल और तीनों वस्त्रों का त्याग करने पर अचेल होता है। वस्तुत: सान्तरोत्तर है। १५ किन्तु सान्तरोत्तर (संतरुत्तर) शब्द का यह अर्थ समुचित आज भी दिगम्बर परम्परा का क्षुल्लक सान्तरोत्तर है और ऐलक नहीं है। वस्तुत: जब श्वेताम्बर आचार्य अचेल का अर्थ कुत्सितचेल एकशाटक तथा मुनि नग्न (अचेल) होता है। अतः पार्श्व की सचेल या अल्पचेल करने लगे१६, तो यह स्वाभाविक था कि सान्तरोत्तर का सान्तरोततर परम्परा में मुनि दो वस्त्र रखते थे- अधोवस्त्र और उत्तरीय। अर्थ विशिष्ट, महामूल्यवान् रंगीन वस्त्र किया जाएं, ताकि अचेल के उत्तरीय आवश्यकतानुसार शीतकाल आदि में ओढ़ लिया जाता था परवर्ती अर्थ में और संतरुत्तर के अर्थ में किसी प्रकार से संगति स्थापित और ग्रीष्मकाल में अलग रख दिया जाता था। की जा सके। किन्तु संतरुत्तर का यह अर्थ शाब्दिक व्युत्पत्ति की दृष्टि आचारांग के नवें उपधानश्रुत नामक अध्याय में महावीर का से उचित नहीं है। इससे इन टीकाकारों की अपनी साम्प्रदायिक जीवनवृत्त वर्णित है। ऐतिहासिक दृष्टि से महावीर की जीवन-गाथा मानसिकता ही प्रकट होती है। संतरुत्तर के वास्तविक अर्थ को आचार्य के सम्बन्ध में इससे प्राचीन एवं प्रामाणिक अन्य कोई सन्दर्भ हमें उपलब्ध शीलांक ने अपनी आचारांग टीका में स्पष्ट करने का प्रयत्न किया नहीं है। आचारांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध, कल्पसूत्र, भगवती और बाद है। ज्ञातव्य है कि संतरुत्तर शब्द उत्तराध्ययन के अतिरिक्त आचारांग के सभी महावीर के जीवन-चारित्र सम्बन्धी ग्रन्थ इससे परवर्ती हैं और के प्रथम श्रुतस्कन्ध में भी आया है। १८ आचारांग में इस शब्द का प्रयोग उनमें महावीर के जीवन के सथ जुड़ी अलौकिकताएँ यही सिद्ध करती उन निम्रन्थ मुनियों के सन्दर्भ में हुआ है, जो दो वस्त्र रखते थे। उसमें हैं कि वे महावीर की जीवन-गाथा का अतिरंजित चित्र ही उपस्थित तीन वस्त्र रखने वाले मूनियों के लिये कहा गया है कि हेमन्त के करते हैं। इसलिये महावीर के जीवन के सम्बन्ध में जो भी तथ्य हमें बीत जाने पर एवं ग्रीष्म ऋतु के आ जाने पर यदि किसी भिक्षु के उपलब्ध हैं, वे प्रामाणिक रूप में आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के * जीर्ण हो गये हों तो वह उन्हें स्थापित कर दे अर्थात् छोड़ दे । इसी उपधानश्रुत में उपलब्ध हैं। इसमें महावीर के दीक्षित होने का और सांतरोत्तर अथवा अल्पचेल (ओमचेल) अथवा एकशाटक अथवा जो विवरण है उससे यह ज्ञात होता है कि वे एक वस्त्र लेकर दीक्षित अचेलक हो जाये।१९ यहाँ संतरुत्तर की टीका करते हुए शीलांक कहते हुए थे और लगभग एक वर्ष से कुछ अधिक समय के पश्चात् उन्होंने हैं कि अन्तर-सहित है उत्तरीय (ओढ़ना) जिसका, अर्थात् जो वस्त्र उस वस्त्र का भी परित्याग कर दिया और पूर्णत: अचेल हो गये।२२ को आवश्यकता होने पर कभी ओढ़ लेता है और कभी पास में रख महावीर के जीवन की यह घटना ही वस्त्र के सम्बन्ध में सम्पूर्ण जैन लेता है।२०
परम्परा के दृष्टिकोण को स्पष्ट कर देती है। इसका तात्पर्य इतना ही पं० कैलाशचन्द्रजी ने संतरुत्तर की शीलांक की उपरोक्त व्याख्या है कि महावीर ने अपनी साधना का प्रारम्भ सचेलता से किया, किन्तु से यह प्रतिफलित करना चाहा है कि पार्श्व के परम्परा के साधु रहते कुछ ही समय पश्चात् उन्होंने पूर्ण अचेलता को ही अपना आदर्श माना।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ परवर्ती आगम ग्रन्थों में एवं उनकी व्याख्याओं में महावीर के एक को 'अनुधर्म' कहा गया है, अर्थात् यह परम्परा का अनुपालन मात्र वर्ष पश्चात् वस्त्र-त्याग करने के सन्दर्भ में अनेक प्रवाद या मान्यतायें था। हो सकता है कि उन्होंने मात्र अपनी कुल-परम्परा अर्थात् पापित्यप्रचलित हैं। यापनीय ग्रन्थ भगवती-आराधना और श्वेताम्बर आगमिक परम्परा का अनुसरण किया हो। श्वेताम्बर आचार्य उसकी व्याख्या में व्याख्याओं में इन प्रवादों या मान्यताओं का उल्लेख है। २३ यहाँ हम इन्द्र द्वारा प्रदत्त देवदूष्य वस्त्र ग्रहण करने की बात कहते हैं। यह मात्र उन प्रवादों में न जाकर केवल इतना ही बता देना पर्याप्त समझते परम्परागत विश्वास है, इस सम्बन्ध में कोई प्राचीन उल्लेख नहीं है। हैं कि प्रारम्भ में महावीर ने वस्त्र लिया था और बाद में वस्त्र का परित्याग आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध का उपधानश्रुत मात्र वस्त्र-ग्रहण की बात कर दिया। वह वस्त्र-त्याग किस रूप में हुआ यह अधिक महत्त्वपूर्ण कहता है। वह वस्त्र इन्द्र द्वारा प्रदत्त देवदुष्य था, ऐसा उल्लेख नहीं। नहीं है।
करता। मेरी दृष्टि में इस 'अनुधर्म' में 'अन्' शब्द का अर्थ वही यदि हम महावीर के समकालीन अन्य श्रमण-परम्पराओं की जो अणुव्रत में 'अणु' शब्द का है अर्थात् आंशिक न्यासग। वस्तुत: वस्त्र-ग्रहण सम्बन्धी अवधारणाओं पर विचार करें तो हमें ज्ञात होता महावीर का लक्ष्य तो पूर्ण अचेलता का था, किन्तु प्रारम्भ में उन्होंने है कि उस युग में सवस्त्र और निर्वस्त्र दोनों प्रकार की श्रमण-परम्पराएँ वस्त्र का आंशिक त्याग ही किया था। जब एक वर्ष की साधा से प्रचलित थीं। उनमें से पार्श्व के सम्बन्ध में उत्तराध्ययन और उसके उन्हें यह दृढ़ विश्वास हो गया कि वे अपनी काम-वासना पर पूर्ण परवर्ती साहित्य में जो कुछ सूचनाएँ उपलब्ध हैं, उन सबसे एक मत विजय प्राप्त कर चुके हैं और दो शीतकालों के व्यतीत हो जाने से से पार्श्व की परम्परा, सवस्त्र परम्परा सिद्ध होती है। स्वयं उत्तराध्ययन उन्हें यह अनुभव हो गया कि उनका शरीर उस शीत को सहने में का तेईसवाँ अध्ययन इस बात का साक्षी है कि पार्श्व की परम्परा सचेल पूर्ण समर्थ है, तो उन्होंने वस्त्र का पूर्ण त्याग कर दिया।२४ ज्ञातव्य परम्परा थी। इसी प्रकार बौद्ध परम्परा भी सचेल थी। दूसरी ओर आजीवक है कि महावीर ने दीक्षित होते समय मात्र सामायिक चारित्र ही लिया सम्प्रदाय पूर्णत: अचेलता का प्रतिपादक था। यह सम्भव है कि महावीर था, महाव्रतों का ग्रहण नहीं किया था। श्वेताम्बर आगमों का कथन ने अपने वंशानुगत पापित्यीय परम्परा के प्रभाव से एक वस्त्र ग्रहण है कि सभी तीर्थङ्कर एक देवदृष्य लेकर सामायिक चारित्र की प्रतिज्ञा करके अपनी साधना-यात्रा प्रारम्भ की हो। कल्पसूत्र में उनके दीक्षित से ही दीक्षित होते हैं।२५ यह इसी तथ्य को पुष्ट करता है कि सामायिक होते समय आभूषण-त्याग का उल्लेख हैं वस्त्र-त्याग का नहीं। यहाँ चारित्र से दीक्षित होते समय एक वस्त्र ग्रहण करने की परम्परा रही यह भी ज्ञातव्य है कि महावीर उत्तर-बिहार के वैशाली जनपद में शीत होगी। ऋतु के प्रथम मास (मार्गशीर्ष) में दीक्षित हुए थे। उस क्षेत्र की भयंकर निष्कर्ष यह है कि महावीर की साधना का प्रारम्भ सचेलता से सर्दी को ध्यान में रखकर परिवार के लोगों के अति आग्रह के कारण हुआ किन्तु उसकी परिनिष्पत्ति अचेलता में हुई। महावीर की दृष्टि में सम्भवत: महावीर ने दीक्षित होते समय एक वस्त्र स्वीकार किया हो। सचेलता अणुधर्म था और अचेलता मुख्य धर्म था। महावीर द्वारा मेरी दृष्टि में इसमें भी पारिवारिक आग्रह ही प्रमुख कारण रहा होगा। वस्त्र-ग्रहण करने में उनके कुलधर्म अर्थात् पार्थापत्य परम्परा का प्रभाव महावीर ने सदैव ही परिवार के वरिष्ठजनों को सम्मान दिया था। यही हो सकता है किन्तु पूर्ण अचेलता का निर्णय या तो उनका स्वतःस्फूर्त कारण रहा कि माता-पिता के जीवित रहते उन्होंने प्रव्रज्या नहीं ली। था या फिर आजीवक परम्परा का प्रभाव। यह सत्य है कि महावीर पुन: बड़े भाई के आग्रह से दो वर्ष और गृहस्थावस्था में रहे। सम्भवतः पार्थापत्य परम्परा से प्रभावित रहे हैं और उन्होंने पार्थापत्य परम्परा शीत ऋतु में दीक्षित होते समय भाई या परिजनों के आग्रह से उन्होंने के दार्शनिक सिद्धान्तों को ग्रहण भी किया है, किन्तु वैचारिक दृष्टि वह एक वस्त्र लिया हो। सम्भव है कि विदाई की उस बेला में परिजनों से पार्थापत्यों के निकट होते हुए भी आचार की दृष्टि से वे उनसे के इस छोटे से आग्रह को ठुकराना उन्हें उचित न लगा हो। किन्तु सन्तुष्ट नहीं थे। पार्थापत्यों के शिथिलाचार के उल्लेख और उसकी उसके बाद उन्होंने कठोर साधना का निर्णय लेकर उस वस्त्र का उपयोग समालोचना जैनधर्म की सचेल और अचेल दोनों परम्पराओं के साहित्य शरीरादि ढकने के लिये नहीं करूँगा, ऐसा निश्चय किया और दूसरे में मिलती है।२६ यही कारण था कि महावीर ने पार्थापत्यों की वर्ष के शीतकाल की समाप्ति पर उन्होंने उस वस्त्र का भी परित्याग आचार-व्यवस्था में व्यापक सुधार किये। सम्भव है कि अचेलता के कर दिया। आचारांग से इन सभी तथ्यों की पुष्टि होती है। उसके सम्बन्ध में वे आजीवकों से प्रभावित हुए हों। हर्मन जैकोबी आदि पश्चात् वे आजीवन अचेल ही रहे, इस तथ्य को स्वीकार करने में पाश्चात्य विद्वानों ने भी इस सन्दर्भ में महावीर पर आजीवकों के प्रभाव श्वेताम्बर, यापनीय और दिगम्बर तीनों में से किसी को भी कोई विप्रतिपत्ति होने की सम्भावना को स्वीकार किया है। नहीं है। तीनों ही परम्पराएँ एक मत से यह स्वीकार करती हैं कि हमारे कुछ दिगम्बर विद्वान् यह मत रखते हैं कि महावीर की महावीर अचेल धर्म के ही प्रतिपालक और प्रवक्ता थे। महावीर का अचेलता से प्रभावित होकर आजीवकों ने अचेलता (नग्नता) को स्वीकार सचेल दीक्षित होना भी स्वैच्छिक नहीं था, वस्त्र उन्होंने लिया नहीं, किया, किन्तु यह उनकी भ्रान्ति है और ऐतिहासिक दृष्टि से सत्य भी अपितु उनके कन्धे पर डाल दिया गया था। यापनीय आचार्य नहीं है। चाहे गोशालक महावीर के शिष्य के रूप में उनके साथ लगभग अपराजितसूरि ने इस प्रवाद का उल्लेख किया है- वे कहते हैं कि छ: वर्ष तक रहा हो, किन्तु न तो गोशालक से प्रभावित होकर महावीर यह तो उपसर्ग हुआ, सिद्धान्त नहीं। आचारांग में उनके वस्त्र-ग्रहण नग्न हए और न महावीर की नग्नता का प्रभाव गोशालक के माध्यम
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२८९ से आजीवकों पर ही पड़ा, क्योंकि गोशालक महावीर के पास उनके सम्भव नहीं होता है। निर्ग्रन्थ संघ में युवा मुनियों में ये घटनाएँ घटित दूसरे नालन्दा चातुर्मास के मध्य पहुँचा था, जबकि महावीर उसके आठ होती थीं, ऐसे आगमिक उल्लेख है। यदि ये घटनाएँ अरण्य में घटित मास पूर्व ही अचेल हो चुके थे। दूसरे यह कि आजीवकों की परम्परा हों, तो उतनी चिन्तनीय नहीं थीं किन्तु भिक्षा, प्रवचन आदि के समय गोशालक के पूर्व भी अस्तित्व में थी, गोशालक आजीवक परम्परा स्त्रियों की उपस्थिति में इन घटनाओं का घटित होना न केवल उस का प्रवर्तक नहीं था। न केवल भगवतीसूत्र में, अपितु पालित्रिपटक मुनि की चारित्रिक प्रतिष्ठा के लिये घातक था, बल्कि सम्पूर्ण निर्ग्रन्थ में भी गोशालक के पूर्व हुए आजीवक सम्प्रदाय के आचार्यों के उल्लेख मुनि-संघ की प्रतिष्ठा पर एक प्रश्न-चिह्न खड़ा करता था। अत: यह उपलब्ध होते हैं। यदि आजीवक सम्प्रदाय महावीर के पूर्व अस्तित्व आवश्यक समझा गया कि जब तक वासना पूर्णत: मर न जाय, तब में था तो इस सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि उसकी तक ऐसे युवा मुनि के लिये नग्न रहने या जिनकल्प धारण करने अचेलता आदि कुछ आचार परम्पराओं ने महावीर को प्रभावित किया की अनुमति न दी जाय। श्वेताम्बर मान्य आगमिक व्याख्याओं में तो हो। अत: पार्थापत्य परम्परा के प्रभाव से महावीर के द्वारा वस्त्र का यह स्पष्ट निर्देश है कि ३० वर्ष की वय के पूर्व जिनकल्प धारण ग्रहण करना और आजीवक परम्परा के प्रभाव से वस्त्र का परित्याग नहीं किया जा सकता है। सत्य तो यह है कि निर्ग्रन्थ संघ में सचेल करना मात्र काल्पनिक नहीं कहा जा सकता। उसके पीछे ऐतिहासिक और अचेल ऐसे दो वर्ग स्थापित हो जाने पर यह व्यवस्था दी गई एवं मनोवैज्ञानिक आधार है। महावीर का दर्शन पापित्यों से और कि युवा मुनियों को छेदोपस्थापनीय चारित्र न दिया जाकर मात्र सामायिक आचार आजीवकों से प्रभावित रहा है।
चारित्र दिया जाय, क्योंकि जब तक व्यक्ति सम्पूर्ण परिग्रह त्याग करके जहाँ तक महावीर की शिष्य-परम्परा का प्रश्न है यदि गोशालाक अचेल नहीं हो जाता, तब तक उसे छेदोपस्थापनीय चारित्र नहीं दिया को महावीर का शिष्य माना जाए, तो वह अचेल रूप में ही महावीर जा सकता है। ज्ञातव्य है कि महावीर ने ही सर्वप्रथम सामायिक चारित्र के पास आया था और अचेल ही रहा। जहाँ तक गौतम आदि गणधरों एवं छेदोपस्थापनीय चारित्र (महाव्रतारोपण) ऐसे दो प्रकार के चारित्रों
और महावीर के अन्य प्रारम्भिक शिष्यों का प्रश्न है मुझे ऐसा लगता की व्यवस्था की जो आज भी श्वेताम्बर परम्परा में छोटी दीक्षा और है कि उन्होंने जिनकल्प अर्थात् भगवान् महावीर की अचेलता को ही बड़ी दीक्षा के नाम से प्रचलित है। युवा मुनियों के लिये 'क्षुल्लक' स्वीकार किया होगा, क्योंकि यदि गणधर गौतम सचेल होते या सचेल शब्द का प्रयोग किया गया और उसके आचार-व्यवहार के हेतु कुछ परम्परा के पोषक होते तो श्रावस्ती में हुई परिचर्चा में केशी उनसे विशिष्ट नियम बनाये गये, जो आज भी उत्तराध्ययन और दशवैकालिक सचेलता और अचेलता के सम्बन्ध में कोई प्रश्न ही नहीं करते। अतः के क्षुल्लकाध्ययनों में उपस्थित हैं। महावीर ने छेदोपस्थापनीय चारित्र श्रावस्ती में हुई इस परिचर्चा के पूर्व महावीर का मुनि-संघ पूर्णत: की व्यवस्था उन प्रौढ़ मुनियों के लिये की, जो अपनी वासनाओं पर अचेल ही रहा होगा। उसमें वस्त्र का प्रवेश क्रमश: किन्हीं विशेष पूर्ण नियन्त्रण प्रप्त कर चुके थे और अचेल रहने में समर्थ थे। परिस्थितियों के आधार पर ही हुआ होगा। महावीर के संघ में सचेलता 'छेदोपस्थापना' शब्द का तात्पर्य भी यही है कि पूर्व दीक्षा पर्याय को के प्रवेश के निम्नलिखित कारण सम्भावित हैं
समाप्त (छेद) कर नवीन दीक्षा (उपस्थापन) देना। आज भी श्वेताम्बर १. सर्वप्रथम जब महावीर के संघ में स्त्रियों को प्रव्रज्या प्रदान परम्परा में छेदोपस्थापना के समय ही महाव्रतारोपण कराया जाता है की गई तो उन्हें सवस्त्र ही दीक्षित किया गया क्योंकि लोक-लज्जा, और तभी दीक्षित व्यक्ति की संघ में क्रम-स्थिति अर्थात् ज्येष्ठता/ मासिक-धर्म आदि शारीरिक कारणों से उन्हें नग्न रूप में दीक्षित किया कनिष्ठता निर्धारित होती है और उसे संघ का सदस्य माना जाता है। जाना उचित नहीं था। अचेलता की सम्पोषक दिगम्बर परम्परा भी इस सामायिक चारित्र ग्रहण करने वाला मुनि संघ में रहते हुए भी उसका तथ्य को स्वीकार करती है कि महावीर के संघ में आर्यिकाएँ सवस्त्र सदस्य नहीं माना जाता है। इस चर्चा से यह फलित होता है कि निर्ग्रन्थ ही होती थीं। जब एक बार आर्यिकाओं के संदर्भ में विशेष परिस्थिति मुनि-संघ में सचेल (क्षुल्लक) और अचेल (मुनि) ऐसे दो प्रकार के में वस्त्र-ग्रहण की स्वीकृति दी गई तो इसने मुनि-संघ में भी आपवादिक वर्गों का निर्धारण महावीर ने या तो अपने जीवन-काल में ही कर परिस्थिति में जैसे भगन्दर आदि रोग होने पर वस्त्र-ग्रहण का द्वार दिया होगा या उनके परिनिर्वाण के कुछ समय पश्चात् कर दिया गया उद्घाटित कर दिया। सामान्यतया तो वस्त्र परिग्रह ही था किन्तु स्त्रियों होगा। आज भी दिगम्बर परम्परा में साधक की क्षुल्लक (दो वस्त्रधारी), के लिये और अपवादमार्ग में मुनियों के लिये उसे संयमोपकरण मान ऐलक (एक वस्त्रधारी) और मुनि (अचेल) ऐसी तीन व्यवस्थाएँ हैं। लिया गया।
अत: प्राचीनकाल में भी ऐसी व्यवस्था रही होगी, इससे इन्कार नहीं १. पुन: जब महावीर के संघ में युवा दीक्षित होने लगे होंगे किया जा सकता है। ज्ञातव्य है कि इन सभी सन्दर्भो में वस्त्र-ग्रहण तो महावीर को उन्हें भी सवस्त्र रहने का अनुमति देनी पड़ी होगी, का कारण लोक-लज्जा या लोकापवाद और शारीरिक स्थिति ही था। क्योंकि उनके जीवन में लिंगोत्थान और वीर्यपात की घटनाएँ सम्भव ३. महावीर के निर्ग्रन्थ संघ में वस्त्र के प्रवेश का तीसरा कारण थीं। ये ऐसी सामान्य मनोदेहिक घटनाएँ हैं जिनसे युवा-मुनि का पूर्णतः सम्पूर्ण उत्तर भारत, हिमालय के तराई क्षेत्र तथा राजस्थान में शीत बच पाना असम्भव है। मनोदैहिक दृष्टि से युवावस्था में चाहे कामवासना का तीव्र प्रकोप होना था। महावीर के निर्ग्रन्थ संघ में स्थित वे मुनि पर नियन्त्रण रखा जा सकता हो किन्तु उक्त स्थितियों का पूर्ण निर्मूलन जो या तो वृद्धावस्था में ही दीक्षित हो रहे थे या वृद्धावस्था की ओर
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अग्रसर हो रहे थे, उनका शरीर इस भयंकर शीत के प्रकोप का सामना करने में कठिनाई का अनुभव कर रहा था। ऐसे सभी मुनियों के द्वारा यह भी सम्भव नहीं था कि वे संथारा ग्रहण कर उन शीतलहरों का सामना करते हुए अपने प्राणोत्सर्ग कर दें। ऐसे मुनियों के लिये अपवाद मार्ग के रूप में शीत-निवारण के लिये एक ऊनी वस्त्र रखने की अनुमति दी गई। ये मुनि रहते तो अचेल ही थे, किन्तु रात्रि में शीत-निवारणार्थ उस ऊनी वस्त्र (कम्बल) का उपयोग कर लेते थे। यह व्यवस्था स्थविर या वृद्ध मुनियों के लिये थी और इसलिये इसे 'स्थाविरकल्प' का नाम दिया गया। मथुरा से प्राप्त ईस्वी सन् प्रथम द्वितीय शती की जिन प्रतिमाओं की पाद पीठ पर या फलकों पर जो मुनि प्रतिमाएँ अंकित हैं वे नग्न होकर भी कम्बल और मुखवस्त्रिका लिये हुए हैं। मेरी दृष्टि में यह व्यवस्था भी आपवादिक ही था ।
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कर सकता था।
श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य स्थानांगसूत्र ( ३/३/३४७) में वस्त्रग्रहण के निम्नलिखित तीन कारणों का उल्लेख उपलब्ध होता है१. लज्जा के निवारण के लिये (लिंगोत्थान होने पर लज्जित न होना पड़े, इस हेतु) ।
२. जुगुप्सा (घृणा) के निवारण के लिये (लिंग या अण्डकोष विद्रूप होने पर लोग घृणा न करें, इस हेतु)।
हम देखते हैं कि महावीर का जो मुनि संघ दक्षिण भारत या दक्षिण मध्य भारत में रहा उसमें अचेलता सुरक्षित रह सकी, किन्तु में आपवादिक स्थितियों का भी उल्लेख है, जिनमें मुनि वस्त्र-ग्रहण जो मुनि संघ उत्तर एवं पश्चिमोत्तर भारत में रहा उसमें शीत-प्रकोप की तीव्रता की देश-कालगत परिस्थितियों के कारण वस्त्र का प्रवेश हो गया। आज भी हम देखते हैं कि जहाँ भारत के दक्षिण और दक्षिण-मध्य क्षेत्र में दिगम्बर परम्परा का बाहुल्य है, वहाँ पश्चिमोत्तर भारत में श्वेताम्बर परम्परा का बाहुल्य है। वस्तुतः इसका कारण जलवायु ही है। दक्षिण में जहाँ शीतकाल में आज भी तापमान २५-३० डिग्री सेल्सियस से नीचे नहीं जाता, वहाँ नग्न रहना कठिन नहीं है किन्तु हिमालय के तराई क्षेत्र, पश्चिमोत्तर भारत एवं राजस्थान जहाँ तापमान शून्य डिग्री से भी नीचे चला जाता है, वहाँ शीतकाल में अचेल रहना कठिन है । पुनः एक युवा साधक को शीत सहन करने में उतनी कठिनाई नहीं होती जितनी कि वृद्ध तपस्वी साधक को । अतः जिन क्षेत्रों में शीत की अधिकता थी उन क्षेत्रों में वस्त्र का प्रवेश स्वाभाविक ही था। आचारांग में हमें ऐसे मुनियों के उल्लेख उपलब्ध हैं जो शीतकाल में सर्दी से घर-थर कांपते थे। जो लोग उनके आचार ( अर्थात् आग जलाकर शीत निवारण करने के निषेध) से परिचित नहीं थे, उन्हें यह शंका भी होती थी कि कहीं उनका शरीर कामावेग में तो नहीं काँप रहा है। यह ज्ञात होने पर कि इनका शरीर सर्दी से काँप रहा है, कभी-कभी वे शरीर को तपाने के लिये आग जला देने को कहते थे, जिसका उन मुनियों को निषेध करना होता था । इस प्रकार यह स्पष्ट है कि उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में वस्त्र - प्रवेश के लिये उत्तर भारत की भयंकर सर्दी भी एक मुख्य कारण रही है।
३. परीषह (शीत परीषह) के निवारण के लिये । स्थानांगसूत्र में वर्णित उपर्युक्त तीन कारणों में प्रथम दो का समावेश लोक-लज्जा में हो जाता है, क्योंकि जुगुप्सा का निवारण भी एक प्रकार से लोक-लज्जा का निवारण ही है। दोनों में अन्तर यह है कि लज्जा का भाव स्वतः में निहित होता है और घृणा दूसरों के द्वारा की जाती है, किन्तु दोनों का उद्देश्य लोकापवाद से बचना है।
इसी प्रकार दिगम्बर परम्परा में मान्य, किन्तु मूलतः यापनीय अन्य भगवती आराधना (७६) की टीका में निम्नलिखित तीन आपवादिक स्थितियों में वस्त्र ग्रहण की स्वीकृति प्रदान की गयी है-
१. जिसका लिंग (पुरुष चिह्न) एवं अण्डकोष विद्रुप हो । २. जो महान् सम्पत्तिशाली अथवा लज्जालु हो । ३. जिसके स्वजन मिथ्यादृष्टि हों ।
४. महावीर के निर्ग्रन्थ संघ में वस्त्र के प्रवेश का चौथा कारण पार्श्व की परम्परा के मुनियों का महावीर की परम्परा में सम्मिलित होना भी है। यह स्पष्ट है कि पार्श्व की परम्परा के मुनि सचेल होते थे। वे अधोवस्त्र और उत्तरीय दोनों ही धारण करते थे। हमें सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, भगवती, राजमश्नीय आदि में न केवल पार्श्व की परम्परा के मुनियों के उल्लेख मिलते हैं अपितु उनके द्वारा महावीर के संघ में पुनः दीक्षित होने के सन्दर्भ भी मिलते हैं इन सन्दर्भों का सूक्ष्मता से विश्लेषण करने पर यह ज्ञात होता है कि पार्श्व की परम्परा के
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि प्रारम्भ में निर्धन्य संघ में मुनि के लिये वस्त्र प्रहण एक आपवादिक व्यवस्था ही थी उत्सर्ग या श्रेष्ठ मार्ग तो अचेलता को ही माना गया था। श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य आचारांग, स्थानांग और उत्तराध्ययन में न केवल मुनि की अचेलता के प्रतिपादक सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं अपितु अचेलता की प्रशंसा भी उपलब्ध होती है। उनमें भी वस्त्र ग्रहण की अनुमति मात्र लोक-लज्जा के निवारण और शीत-निवारण के लिये ही है। आचारांग में चार प्रकार के मुनियों के उल्लेख है- १. अचेल २. एक वस्त्रधारी ३. दो वस्त्रधारी, ४. तीन वस्त्रधारी ।
१. इनमें अचेल तो सर्वथा नग्न रहते थे। ये जिनकल्पी
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
कुछ मुनियों ने तो महावीर की परम्परा में सम्मिलित होते समय अचेलकत्व ग्रहण किया, किन्तु कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने अचेलता को ग्रहण नहीं किया। सम्भव है कुछ पार्श्वापत्यों को सचेल रहने की अनुमति देकर सामायिक चारित्र के साथ महावीर के संघ में सम्मिलित किया गया होगा। इस प्रकार महावीर के जीवनकाल में या उसके कुछ पश्चात् निर्मन्थ संघ में सचेल अचेल दोनों प्रकार की एक मिली-जुली व्यवस्था स्वीकार कर ली गयी थी और पार्श्व की परम्परा में प्रचलित सचेलता को भी मान्यता प्रदान कर दी गयी।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि महावीर के निर्मन्य संघ में प्रारम्भ में तो मुनि की अचेलता पर ही बल दिया गया था, किन्तु कालान्तर में लोक-लज्जा और शीत परीषद से बचने के लिये आपवादिक रूप में वस्त्र ग्रहण को मान्यता प्रदान कर दी गयी। श्वेताम्बर मान्य आगमों और दिगम्बरों द्वारा मान्य यापनीय ग्रन्थों
,
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जैन आचार में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न
२९१ कहलाते थे।
हैं उन्हें यह समझ लेना चाहिये कि वस्त्र का ग्रहण एक मनोदैहिक २. एक वस्त्रधारी भी दो प्रकार के होते थे
एवं सामाजिक आवश्यकता है और उससे श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों (अ) कुछ एक वस्त्रधारी रहते तो अचेल ही थे, किन्तु अपने ही परम्पराएँ प्रभावित हुई हैं। दिगम्बर परम्परा में ऐलक और क्षुल्लक पास एक ऊनी वस्त्र रखते थे, जिसका उपयोग नगरादि में प्रवेश के की व्यवस्था तो इस आवश्यकता की सूचक है ही, किन्तु इसके साथ समय लोक-लज्जा के निवारण के लिये और सर्दियों की रात्रियों में ही साथ उनमें जो सवस्त्र भट्टारकों की परम्परा का विकास हुआ, उसके शीत-निवारण के लिये करते थे। ये स्थविरकल्पी कहलाते थे। पीछे भी उपरोक्त मनोदैहिक कारण और लौकिक परिस्थितियाँ ही मुख्य
(ब) कुछ एक वस्त्रधारी मात्र अधोवस्त्र धारण करते थे, जैसे रहीं। क्या कारण था कि अचेलता की समर्थक इस परम्परा में भी वर्तमान में दिगम्बर परम्परा के ऐलक धारण करते हैं। ऐलक एक- लगभग १००० वर्षों तक नग्न मुनियों का अभाव रहा। आज दिगम्बर चेलक (वस्त्रधारी) का ही अपभ्रंश रूप है। इसे आगम में एकशाटक परम्परा में शान्तिसागरजी से जो नग्न मुनियों की परम्परा पुनः जीवित कहा गया है।
हुई है, उसका इतिहास तो. १०० वर्ष से अधिक का नहीं है। लगभग . ३. दो वस्त्रधारी, जिन्हें सान्तरोत्तर भी कहा गया है, एक अधोवस्त्र ग्यारहवीं शती से उन्नीसवीं शती तक दिगम्बर मुनियों का प्रायः अभाव व एक उत्तरीयवस्त्र रखते थे, जैसे वर्तमान में क्षुल्लक रखते हैं- ही रहा है। अधोवस्त्र लोक-लज्जा हेतु और उत्तरीय शीत-निवारण हेतु।। आज इन दोनों परम्पराओं में सचेलता और अचेलता के प्रश्न
४. तीन वस्त्रधारी साधु अधोवस्त्र और उत्तरीय के साथ-साथ पर जो इतना विवाद खड़ा कर दिया गया है, वह दोनों की आगमिक शीत-निवारणार्थ एक ऊनी कम्बल भी रखते होंगे। यह व्यवस्था आज व्यवस्थाओं और जीवित परम्पराओं के सन्दर्भ में ईमानदारी से विचार के श्वेताम्बर मूर्तिपूजक साधुओं में है।
करने पर नगण्य ही रह जाता है। हमारा दुर्भाग्य यह है कि हम अपने आचारांग स्पष्ट रूप से यह उल्लेख करता है कि वस्त्रधारी मुनि मताग्रहों से न तो आगमिक व्यवस्थाओं को देखने का प्रयत्न करते वस्त्र के जीर्ण होने पर एवं ग्रीष्मकाल के आगमन पर जीर्ण वस्त्रों का है और न उन कारणों का विचार करते हैं, जिनसे किसी आचार-व्यवस्था त्याग करते हुए अचेलता की दिशा में आगे बढ़े। तीन वस्त्रधारी क्रमशः में परिवर्तन होता है। दुर्भाग्य है कि जहाँ श्वेताम्बर परम्परा ने जिनकल्प अपने परिग्रह को कम करते हुए सान्तरोत्तर अथवा एक शाटक अथवा के विच्छेद के नाम पर उस अचेलता का अपलाप किया, जो उसके अचेल हो गए। हम देखते हैं कि आचारांग में वर्णित वस्त्र-सम्बन्धी पूर्वज आचार्यों के द्वारा लगभग ईसा की दूसरी शती तक आचरित यह व्यवस्था अचेलता का अति-आग्रह रखने वाली दिगम्बर परम्परा रही और जिसके सन्दर्भ उनके आगमों में आज भी हैं। वहीं दूसरी में भी मुनि, ऐलक और क्षुल्लक के रूप में आज भी प्रचलित है। ओर दिगम्बर परम्परा में सचेल मुनि ही नहीं होता है, यह कहकर उसका क्षुल्लक आचारांग का सान्तरोत्तर है, ऐलक एकशाटक तथा न केवल महावीर की मूल-भूत अनेकान्तिक दृष्टि का उल्लंघन किया मुनि अचेल है।
गया, अपितु अपने ही आगमों और प्रचलित व्यवस्थाओं को नकार श्वेताम्बर परम्परा में परवर्ती काल में भी जो वस्त्र-पात्र का विकास दिया गया। हम पूछते हैं कि क्या ऐलक और क्षुल्लक गृहस्थ हैं और हुआ और वस्त्र-ग्रहण को अपरिहार्य माना गया उसके पीछे मूल में यदि ऐसा माना जाय तो इनके मूल अर्थ का ही अपलाप होगा। परिग्रह या संचय वृत्ति न होकर देशकालगत परिस्थितियाँ, संघीय जीवन यदि हम निष्पक्ष दृष्टि से देखें तो निर्ग्रन्थ संघ में प्राचीनकाल की आवश्यकताएँ एवं संयम अर्थात् अहिंसा की परिपालना ही प्रमुख से ही क्षुल्लकों (युवा-मुनि) और स्थविरों (वृद्ध-मुनियों) के लिये थी। निर्ग्रन्थ संघ में जब अपरिग्रह महाव्रत के स्थान पर अहिंसा के वस्त्र-ग्रहण की परम्परा मान्य रही है। क्षुल्लक लोक-लज्जा के लिये महाव्रत की परिपालना पर अधिक बल दिया गया तो प्रतिलेखन या और स्थविर (वृद्ध) दैहिक आवश्यकता के लिये वस्त्र-ग्रहण करता पिच्छी से लेकर क्रमश: अनेक उपकरण बढ़ गये। श्वेताम्बर परम्परा है। 'क्षुल्लक मुनि नहीं हैं' यह उद्घोष केवल एकान्तता का सूचक के मान्य कुछ परवर्ती आगमों में मुनि के जिन चौदह उपकरणों का है। 'क्षुल्लक' शब्द अपने आप में इस बात का सूचक है कि वह उल्लेख मिलता है उनमें अधिकांश पात्र-पोछन, पटल आदि के कारण प्रारम्भिक स्तर का मुनि है, गृहस्थ नहीं, क्योंकि 'क्षुल्लक' का अर्थ होने वाली जीव हिंसा से बचने के लिये ही है। ओघनिर्यक्ति (६९१) छोटा होता है। वह छोटा मुनि ही हो सकता है, गृहस्थ नहीं। प्राचीन
स्पष्ट उल्लेख है कि जिनेन्द्र देव ने षट्काय जीवों के रक्षण के आगमों में वस्त्रधारी युवा मुनि के लिये ही 'क्षुल्लक' शब्द का प्रयोग लिये ही पात्र-ग्रहण की अनुज्ञा दी है।
हुआ है। आचारांग तथा अन्य पुरातात्त्विक साक्ष्यों से यह स्पष्ट हो शारीरिक सुख-सुविधा और प्रदर्शन की दृष्टि से जो वस्त्रादि जाता है कि निर्ग्रन्थ संघ में या तो महावीर के जीवनकाल में या निर्वाण उपकरणों का विकास हुआ है वह बहुत ही परवर्ती घटना है और के कुछ ही समय पश्चात् सचेल-अचेल मुनियों की एक मिली-जुली प्राचीन स्तर के मान्य आगमों से समर्थित नहीं है और मुनि-आचार व्यवस्था हो गई थी। यह भी सम्भव है कि ऐसी दोहरी व्यवस्था मान्य का विकृत रूप ही है और यह विकार यति परम्परा के रूप में श्वेताम्बरों करने पर परस्पर आलोचना के स्वर भी मुखरित हुए होंगे। यही कारण और भट्टारक-परम्परा के रूप में दिगम्बरों, दोनों में आया है। है कि आचारांग में स्पष्ट रूप से यह निर्देश दिया गया कि अचेल
किन्तु जो लोग वस्त्र के सम्बन्ध में आग्रहपूर्ण दृष्टिकोण रखते मुनि, एकशाटक, सान्तरोत्तर अथवा तीन वस्त्रधारी मुनि परस्पर एक
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दूसरे की निन्दा न करें। ज्ञातव्य है कि संघ-भेद का कारण यह मिली-जुली व्यवस्था नहीं थी, अपितु इसमें अपनी-अपनी श्रेष्ठता का मिथ्या अहंकार ही आगे चलकर संघ- भेद का कारण बना है। जब सचेलकों ने अचेलकों की साधना सम्बन्धी विशिष्टता को अस्वीकार किया और अचेलकों ने सचेलक को मुनि मानने से इन्कार किया तो संघ भेद होना स्वाभाविक ही था।
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
ऐतिहासिक सत्य तो यह है कि महावीर के निर्वाण के पश्चात् जो निर्धन्य मुनि दक्षिण बिहार, उड़ीसा और आन्ध्र प्रदेश के रास्ते से तमिलनाडु और कर्नाटक में पहुंचे, वे वहाँ की जलवायुगत परिस्थितियों के कारण अपनी अचेलता को यथावत कायम रख सके, क्योंकि वहाँ सर्दी पड़ती ही नहीं है। यद्यपि उनमें भी क्षुल्लक और ऐलक दीक्षाएँ होती रही होंगी, किन्तु अचेलक मुनि को सर्वोपरि मानने के कारण उनमें कोई विवाद नहीं हुआ। दक्षिण भारत में अचेल रहना सम्भव था, इसलिये उसके प्रति आदरभाव बना रहा। फिर भी लगभग पाँचवीं छठीं शती के पश्चात् वहाँ भी हिन्दू मठाधीशों के प्रभाव से सवस्त्र भट्टारक परम्परा का क्रमिक विकास हुआ और धीरे-धीरे दसवीं- ग्यारहवीं शती से व्यवहार में अचेलता समाप्त हो गयी। केवल अचलता के प्रति सैद्धान्तिक आदर भाव बना रहा। आज वहाँ जो दिगम्बर हैं, वे इस कारण दिगम्बर नहीं हैं कि वे नग्न रहते हैं अपितु इस कारण हैं कि अचेलता / दिगम्बरत्व के प्रति उनमें आदर भाव है।
महावीर का जो निर्ग्रन्थ संघ बिहार से पश्चिमोत्तर भारत की ओर आगे बढ़ा, उसमें जलवायु तथा मुनियों की बढ़ती संख्या के कारण वस्त्र पात्र का विकास हुआ। प्रथम शक, हूण आदि विदेशी संस्कृति के प्रभाव से तथा दूसरे जलवायु के कारण से इस क्षेत्र में नग्नता को हेय दृष्टि से देखा जाने लगा, जबकि दक्षिण भारत में नग्नता के प्रति हेय भाव नहीं था। लोक-लज्जा और शीत-निवारण के लिये एक वस्त्र रखा जाने लगा। प्रारम्भ में तो उत्तर भारत का यह निर्ग्रन्थ संघ रहता तो अचेल ही था, किन्तु अपने पास एक वस्त्र रखता था जिसका उपयोग नगरादि में प्रवेश करते समय लोक-लज्जा के निवारण के लिये और शीत ऋतु में सर्दी सहन न होने की स्थिति में ओढ़ने के लिये किया करता था। मथुरा से अनेक ऐसे अचेल जैन मुनियों की प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं जिनके हाथ में यह वस्त्र (कम्बल) इस प्रकार प्रदर्शित है कि उनकी नग्नता छिप जाती है। उत्तर भारत में निर्मन्थों, मुनियों की इस स्थिति को ही ध्यान में रखकर सम्भवतः पालित्रिपिटक में निर्मन्थों को एकशाटक कहा गया है। हमें प्राचीन अर्थात् ईसा की पहली दूसरी शती के जो भी साहित्यिक और पुरातात्त्विक प्रमाण मिलते हैं उनसे यही सिद्ध होता है कि उत्तर भारत के निर्मन्थ संघ में शीत और लोक-लज्जा के लिये वस्त्र ग्रहण किया जाता था । श्वेताम्बर मान्य आगमिक व्याख्याओं से जो सूचनाएँ उपलब्ध होती हैं, उनसे भी यह ज्ञात होता है कि उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में वस्त्र का प्रवेश होते हुए भी महावीर के निर्वाण के पश्चात् लगभग छः सौ वर्षों तक अचेलकत्व उत्सर्ग या श्रेष्ठमार्ग के रूप में मान्य रहा है।
श्वेताम्बर आगमिक व्याख्या साहित्य से ही हमें यह भी सूचना
मिलती है कि उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ के अनेक आचार्यों ने समय-समय पर वस्त्र ग्रहण की बढ़ती हुई प्रवृत्ति के विरोध में अपने स्वर मुखरित किये थे। आर्य भद्रबाहु के पश्चात् भी उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में आर्य महागिरि, आर्य शिवभूति, आर्य रक्षित आदि ने वस्त्रवाद का विरोध किया था। ज्ञातव्य है कि इन सभी को श्वेताम्बर परम्परा अपने पूर्वाचार्यों के रूप में ही स्वीकार करती है। मात्र यही नहीं, इनके द्वारा वस्त्रवाद के विरोध का उल्लेख भी करती है। इस सबसे यही फलित होता है कि उत्तर भारत की निर्ग्रन्थ परम्परा में लगे चलकर वस्त्र को जो अपरिहार्य मान लिया गया और वस्त्रों की संख्या में जो वृद्धि हुई वह एक परवर्ती घटना है और वही संघ भेद का मुख्य कारण भी है।
जैन साहित्यिक एवं पुरातात्विक साक्ष्यों के अतिरिक्त निर्ग्रन्थ मुनियों के द्वारा वस्त्र ग्रहण करने के सम्बन्ध में यथार्थ स्थिति का ज्ञान जैनेतर साक्ष्यों से भी उपलब्ध होता है, जो अति महत्त्वपूर्ण है। इनमें सबसे प्राचीन सन्दर्भ पालित्रिपिटक का है। पालित्रिपिटक में प्रमुख रूप से दो ऐसे सन्दर्भ हैं जहाँ निर्धन्य की वस्त्र सम्बन्धी स्थिति का संकेत मिलता है। प्रथम सन्दर्भ तो निर्मन्य का विवरण देते हुए स्पष्टतया यह कहता है कि निर्मन्थ एकशाटक थे, इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि बुद्ध के समय या कम से कम पालित्रिपिटक के रचनाकाल अर्थात् ई० पू० तृतीय- चतुर्थ शती में निर्ग्रन्थों में एक वस्त्र का प्रयोग होता था, अन्यथा उन्हें एकशाटक कभी नहीं कहा जाता। जहाँ आजीवक सर्वथा नग्न रहते थे, वहाँ निर्ग्रन्थ एक वस्त्र रखते थे। इससे यही सूचित होता है कि वस्त्र ग्रहण की परम्परा अति प्राचीन है। पुनः निर्मन्य के एकशाटक होने का यह उल्लेख पालित्रिपिटक में ज्ञातृपुत्र महावीर की चर्चा के प्रसंग में हुआ है। अतः सामान्य रूप से इसे पार्श्व की परम्परा कही देना भी ठीक नहीं होगा। फिर भी यदि इसमें चातुर्याम की अवधारणा के उल्लेख के आधार पर इसे पार्श्व की परम्परा से सम्बन्धित माने तो भी इतना अवश्य है कि महावीर के संघ में पार्श्वापत्यों के प्रवेश के साथ-साथ वस्त्र का प्रवेश हो गया था। चाहे निर्ग्रन्थ परम्परा पार्श्व की रही हो या महावीर की। यह निर्विवाद है कि निर्ग्रन्थ संघ में प्राचीनकाल से ही वस्त्र के सम्बन्ध में वैकल्पिक व्यवस्था मान्य रही है, फिर चाहे वह अपवाद मार्ग के रूप में हो या स्थविर कल्प के रूप में ही क्यों न हो।
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पालित्रिपिटक के एक अन्य प्रसंग में महावीर के स्वर्गवास के पश्चात् निर्मन्य संघ के पारस्परिक कलह और उसके दो भागों में विभाजित होने का निम्न उल्लेख मिलता है— वे एक-दूसरे की आलोचना करते हुए कहते थे, "तू इस धर्म विनय को नहीं जानता। मैं इस धर्म-विनय को जानता हूँ। तू क्या इस धर्म-विनय को जानेगा ? आदि-आदि।" इस विवाद के सम्बन्ध में विद्वानों में दो प्रकार के मत हैं। मुनि कल्याणविजय जी आदि कुछ विद्वानों के अनुसार यह विवरण महावीर के जीवन काल में ही उनके और गोशालक के बीच हुए उस विवाद का सूचक है, जिसके कारण महावीर के निर्वाण का प्रवाद भी प्रचलित हो गया था भगवतीसूत्र" में इमें इस विवाद का विस्तृत
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जैन आचार में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न
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उल्लेख मिलता है। इसमें वस्त्रादि के सन्दर्भ में कोई चर्चा नहीं है। टीकाकार अपराजित ने यहाँ उत्सर्गलिंग का अर्थ स्पष्ट करते हुए सकल मात्र महावीर पर यह आरोप है कि वे पहले अकेले वन में निवास परिग्रहत्यागरूप अचेलकत्व के ग्रहण को ही उत्सर्गलिंग कहा है। इसी करते थे, अब संघ सहित नगर या गाँव के उपान्त में निवास करते प्रकार अपवाद की व्याख्या करते हुए कारणसहित परिग्रह को हैं और तीर्थङ्कर न होकर भी अपने को तीर्थङ्कर कहते हैं। किन्तु इस अपवादलिंग कहा है। अगली गाथा की टीका में उन्होंने स्पष्ट रूप विवाद के प्रसंग में, जो सबसे महत्त्वपूर्ण बात है, वह यह कि से सचेललिंग को अपवादलिंग कहा है। इसके अतिरिक्त आराधनाकार पालित्रिपिटक में इसका सम्बन्ध धर्म-विनय से जोड़ा गया है और औदात्त शिवार्य एवं टीकाकार अपराजित ने यह भी स्पष्ट किया है कि जिनका अर्थात् श्रेष्ठ-वस्त्र धारण करने वाले निर्ग्रन्थ श्रावकों को इस विवाद पुरुष-चिह्न अप्रशस्त हो अर्थात् लिंग चर्मरहित हो, अतिदीर्घ हो, से उदासीन बताया गया है। इससे इतना तो अवश्य प्रतिफलित अण्डकोष अतिस्थूल हो तथा लिंग बार-बार उत्तेजित होता हो तो उन्हें होता है कि विवाद का मूलभूत विषय धर्म-विनय अर्थात् श्रमणाचार सामान्य दशा में तो अपवादलिंग अर्थात् सचेललिंग ही देना होता से ही सम्बन्धित रहा होगा। अत: उसका एक पक्ष वस्त्र-पात्र रखने है, किन्तु ऐसे व्यक्तियों को भी संलेखना के समय एकान्त में उत्सर्गलिंग या न रखने से सम्बन्धित हो सकता है।
अर्थात् अचेलकत्व प्रदान किया जा सकता है। किन्तु उसमें सभी इस समस्त चर्चा से यह प्रतिफलित होता है कि सचेलता और अपवादलिंगधारियों को संलेखना के समय अचेललिंग ग्रहण करना अचेलता की समस्या निम्रन्थ संघ की एक पुरानी समस्या है और इसका आवश्यक नहीं माना गया है। आगे वे स्पष्ट लिखते हैं कि जिनके आविर्भाव पार्श्व और महावीर के निर्ग्रन्थ संघ के सम्मेलन के साथ स्वजन महान् सम्पत्तिशाली, लज्जाशील और मिथ्यादृष्टि अर्थात् जैन हो गया था। साथ ही यह भी सत्य है कि जहाँ एक ओर आजीवकों धर्म को नहीं मानने वाले हों, ऐसे व्यक्तियों के लिये न केवल सामान्य की अचेलता ने महावीर के निर्ग्रन्थ संघ में स्थान पाया, वहीं पार्श्व दशा में अपितु संलेखना के समय भी अपवादलिंग अर्थात् सचेलता की सचेल परम्परा ने भी उसे प्रभावित किया। परिणामस्वरूप वस्त्र ही उपयुक्त है। के सम्बन्ध में महावीर के निर्ग्रन्थ संघ में एक मिली-जुली व्यवस्था इस समग्र चर्चा से स्पष्टत: यह फलित होता है कि यापनीय स्वीकार की गई। उत्सर्ग मार्ग में अचेलता को स्वीकार करते हुए भी सम्प्रदाय उन व्यक्तियों को, जो समृद्धिशाली परिवारों से हैं, जो लज्जालु आपवादिक स्थितियों में वस्त्र-ग्रहण की अनुमति दी गयी। पालित्रिपिटक हैं तथा जिनके परिजन मिथ्यादृष्टि हैं अथवा जिनके पुरुषचिह्न अर्थात् में आजीवकों को सर्वथा अचेलक और निम्रन्थ को एकशाटक कहा लिंग चर्मरहित है, अतिदीर्घ है, अण्डकोष स्थूल हैं एवं लिंग बार-बार गया है और इसी आधार पर वे आजीवकों और निम्रन्थ में अन्तर उत्तेजित होता है, को आपवादिक लिंग धारण करने का निर्देश करता भी करते हैं। आजीवकों के लिये 'अचेलक' शब्द का भी प्रयोग करते है। इस प्रकार वह यह मानता है कि उपर्युक्त विशिष्ट परिस्थितियों हैं। धम्मपद की टीका में बुद्धघोष कहते हैं कि कुछ भिक्षु अचेलकों में व्यक्ति सचेल लिंग धारण कर सकता है। अत: हम कह सकते की अपेक्षा निर्ग्रन्थ को वरेण्य समझते हैं क्योंकि अचेलक तो सर्वर्था हैं कि यापनीय परम्परा यद्यपि अचेलकत्व पर बल देती थी और यह नग्न रहते हैं, जबकि निर्ग्रन्थ प्रतिच्छादन रखते हैं। ३२ बुद्धघोष के इस भी मानती थी कि समर्थ साधक को अचेललिंग ही धारण करना चाहिए उल्लेख से भी यह प्रतिफलित होता है कि निम्रन्थ नगर-प्रवेश आदि किन्तु उसके साथ-साथ वह यह मानती थी कि आपवादिक स्थितियों के समय जो एक वस्त्र (प्रतिच्छादन) रखते थे, उससे अपनी नग्नता में सचेल लिंग भी धारण किया जा सकता है। यहाँ उसका श्वेताम्बर छिपा लेते थे। इस प्रकार मूल त्रिपिटक में निर्ग्रन्थ को एकशाटक कहना, परम्परा से स्पष्ट भेद यह है कि जहाँ श्वेताम्बर परम्परा जिनकल्प का बुद्धघोष द्वारा उनके द्वारा प्रतिच्छादन रखने का उल्लेख करना और विच्छेद बताकर अचेललिंग का निषेध कर रही थी, वहाँ यापनीय परम्परा मथुरा से प्राप्त निम्रन्थ मुनियों के अंकन में उन्हें एक वस्त्र से अपनी समर्थ साधक के लिये हर युग में अचेलता का समर्थन करती है। नग्नता छिपाते हुए दिखाना–ये सब साक्ष्य यही सूचित करते हैं कि जहाँ श्वेताम्बर परम्परा वस्त्र-ग्रहण को सामान्य नियम या उत्सर्ग मार्ग उत्तर भारत में निर्ग्रन्थ संघ में कम से कम ई० पू० चौथी-तीसरी शताब्दी मानने लगी वहाँ यापनीय परम्परा उसे अपवाद मार्ग के रूप में ही में एक वस्त्र रखा जाता था और यह प्रवृत्ति बुद्धघोष के काल तक स्वीकार करती रही। अत: उसके अनुसार आगमों में जो वस्त्र-पात्र अर्थात् ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी तक भी प्रचलित थी। सम्बन्धी निर्देश हैं, वे मात्र आपवादिक स्थितियों के हैं। दुर्भाग्य से
मुझे यापनीय ग्रन्थों में इस तथ्य का कहीं स्पष्ट निर्देश नहीं मिला वस के सम्बन्ध में यापनीय दृष्टिकोण
कि आपवादिक लिंग में कितने वस्त्र या पात्र रखे जा सकते थे। यापनीय-परम्परा का एक प्राचीन ग्रन्थ भगवतीआराधना है। इसमें यापनीय ग्रन्थ भगवतीआराधना की टीका में यापनीय आचार्य दो प्रकार के लिंग बताये गये हैं-१. उत्सर्गलिंग (अचेल) और २. अपराजित सूरि लिखते हैं कि चेल (वस्त्र) का ग्रहण, परिग्रह का उपलक्षण अपवादलिंग (सचेल)। आराधनाकार स्पष्ट रूप से कहता है कि संलेखना है, अत: समस्त प्रकार के परिग्रह का त्याग ही आचेलक्य है। आचेलक्य ग्रहण करते समय उत्सर्गलिंगधारी अचेल श्रमण का तो उत्सर्गलिंग के लाभ या समर्थन में आगे वे लिखते हैंअचेलता ही होता है, अपवादलिंगधारी सचेल श्रमण का भी यदि लिंग १. अचेलकत्व के कारण त्याग धर्म (दस धर्मों में एक धर्म) प्रशस्त है तो उसे भी उत्सर्गलिंग अर्थात् अचेलकत्व ग्रहण करना चाहिये। में प्रवृत्ति होती है।
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२. जो अचेल होता है, वही अकिंचन धर्म के पालन में तत्पर होता है।
३. परिग्रह (वस्त्रादि) के लिये हिंसा (आरम्भ) में प्रवृत्ति होती है, जो अपरिग्रही है, वह हिंसा (आरम्भ ) नहीं करता है। अतः पूर्ण अहिंसा के पालन के लिये अचेलता आवश्यक है।
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
४. परिग्रह के लिये ही झूठ बोला जाता है। बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह के अभाव में झूठ बोलने का कोई कारण नहीं होता, अचेल मुनि सत्य ही बोलता है।
अतः
५. अचेल में लाघव भी होता है।
६. अचेलधर्म का पालन करने वाले का अदत्त-त्याग भी सम्पूर्ण होता है क्योंकि परिग्रह की इच्छा होने पर ही बिना दी हुई वस्तु के ग्रहण करने में प्रवृत्ति होती है।
७. परिग्रह के निमित्त क्रोध कषाय होता है, अतः परिग्रह के अभाव में क्षमा-भाव रहता है।
८. अचेल को सुन्दर या सम्पन्न होने का मद भी नहीं होता, अतः उसमें आर्जव (सरलता) धर्म भी होता है।
९. अचेल में माया (छिपाने की प्रवृत्ति) नहीं होती, अतः उसके आर्जव (सरलता) धर्म भी होता है।
१०. अचेल शीत, उष्ण, दंश, मच्छर आदि परीषहों को सहता है, अतः उसे घोर तप भी होता है।
पुनः
वे अचेलकत्व की प्रशंसा करते हुए लिखते है१. अचेलता से शुद्ध संयम का पालन होता है, पसीना, धूल और मैल से युक्त वस्त्र में उसी योनि वाले और उसके आश्रय से रहने वाले स जीव तथा स्थावर जीव उत्पन्न होते है। वस्त्रधारण करने से उन्हें बाधा भी उत्पन्न होती है। जीवों से संसक्त वस्त्रधारण करने वाले के द्वारा उठने बैठने, सोने, वस्त्रको फाड़ने, काटने, बाँधने, धोने, कूटने, धूप में डालने से जीवों को बाधा (पीड़ा होती है, जिससे महान् असंयम होता है।
२. अचेलता से इन्द्रियों पर विजय प्राप्त होती है। जिस प्रकार सर्पों से युक्त जंगल में व्यक्ति बहुत सावधान रहता है उसी प्रकार जो अचेल होता है वह इन्द्रियों (कामवासना) पर विजय प्राप्त करने में पूर्णतया सावधान रहता है क्योंकि ऐसा नहीं करने पर शरीर में विकार (कामोत्तेजना ) उत्पन्न होने पर लज्जित होना पड़ता है।
३. अचेलता का तीसरा गुण कषायरहित होना है, क्योंकि वस्त्र के सद्भाव में उसे चोरों से छिपाने के लिये मायाचार करना होता है। वस्त्र होने पर मेरे पास सुन्दर वस्त्रै, ऐसा अहंकार भी हो सकता है, वस्त्र के छीने जाने पर क्रोध तथा उसकी प्राप्ति में लोभ भी हो सकता है, जबकि अचेलक में ऐसे दोष उत्पन्न नहीं होते हैं।
४. सवस्त्र होने पर सुई, धागा, वस्त्र आदि की खोज में तथा उसके सीने, धोने, प्रतिलेखना आदि करने में ध्यान और स्वाध्याय का समय नष्ट होता है। अचेल को ध्यान स्वाध्याय में बाधा नहीं होती।
५. जिस प्रकार बिना छिलके (आवरण) का धान्य नियम से शुद्ध होता है, किन्तु छिलकेयुक्त धान्य की शुद्धि नियम से नहीं होती,
वह भाज्य होती है, उसी प्रकार जो अचेल है उसकी शुद्धि निश्चित होती है, किन्तु सचेल की शुद्धि भाज्य है ( एवमचेलवतिनियमादेव, भाज्या सचेले भगवती आराधना ४२३ पर विजयोदया टीका, पु० ३२२), अर्थात् सचेल की शुद्धि हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती है। यहाँ दिगम्बर परम्परा और यापनीय परम्परा का अन्तर स्पष्ट है । दिगम्बर परम्परा यह मानती है कि सचेल मुक्त (शुद्ध) नहीं हो सकता, चाहे वह तीर्थङ्कर ही क्यों न हो जबकि यापनीय परम्परा यह मानती है कि स्त्री, गृहस्थ और अन्यतैर्थिक सचेल हेकर भी मुक्त सकते हैं। यहाँ भाज्य (विकल्प) शब्द का प्रयोग यापनीयों की उदार और अनेकान्तिक दृष्टि का परिचायक है।
६. अचेलता में राग-द्वेष का अभाव होता है। राग-द्वेष बाह्य द्रव्य के आलम्बन से होता है। परिग्रह के अभाव में आलम्बन का अभाव होने से राग-द्वेष नहीं होते, जबकि सचेल को मनोज्ञ वस्त्र के प्रति राग भाव हो सकता है।
७. अचेलक शरीर के प्रति उपेक्षा भाव रखता है, तभी तो वह शीत और ताप के कष्ट सहन करता है।
८. अचेलता में स्वावलम्बन होता है और देशान्तर गमन में किसी की सहायता की अपेक्षा नहीं होती। जिस प्रकार पक्षी अपने पंखों के सहारे चल देता है, वैसे ही वह भी प्रतिलेखन (पीछी) लेकर चल देता है।
९. अचेलता में चित्त- विशुद्धि प्रकट करने का गुण है। लँगोटी आदि से ढँकने से भाव -शुद्धि का ज्ञान नहीं होता है ।
१०. अचेलता में निर्भयता है, क्योंकि चोर आदि का भय नहीं
रहता ।
११. सर्वत्र विश्वास भी अचेलता का गुण है। न तो वह किसी पर शंका करता है और न कोई उस पर शंका करता है।
१२. अचेलता में प्रतिलेखना का अभाव होता है। चौदह प्रकार का परिग्रह रखने वालों को जैसी प्रतिलेखना करनी होती है वैसी अचेल को नहीं करनी होती ।
१३. सचेल को लपेटना, छोड़ना, सीना, बाँधना, धोना, रंगना आदि परिकर्म करने होते हैं जबकि अचेल को ये परिकर्म नहीं करने होते ।
१४. तीर्थङ्करों के अनुरूप आचरण करना (जिनकल्प का आचरण) भी अचेलता का एक गुण है क्योंकि संहनन और बल से पूर्ण सभी तीर्थङ्कर अचेल थे और भविष्य में भी अचेल ही होंगे। जिनप्रतिमा और गणधर भी अचेल होते हैं और उनके शिष्य भी उन्हीं की तरह अचेल होते हैं जो सवस्त्र है वह जिन के अनुरूप नहीं है अर्थात् जिनकल्प का पालन नहीं करता है।
१५. अचेल ही निर्ग्रन्थ कहला सकता है। यदि अपने शरीर को वस्त्र से वेष्टित करके भी अपने को निर्मन्थ कहा जा सकता है, तो फिर अन्य परम्परा के साधु निर्मन्थ क्यों नहीं कहे जायेंगे अर्थात् उन्हें भी निर्मन्य मानना होगा।
इस प्रकार हम देखते हैं कि यापनीय परम्परा स्पष्ट रूप से
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जैन आचार में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न
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अचेलकत्व की समर्थक है। किन्तु उनके सामने एक समस्या यह थी कारण अंगों के ग्लानियुक्त होने पर देह के जुंगित (वीभत्स) होने पर कि वे श्वेताम्बर-परम्परा में स्वीकृत उन आगमों की माथुरी वाचना को अथवा परीषह (शीतपरीषह) सहन करने में असमर्थ होने पर वस्त्र धारण मान्य करते थे, जिनमें वस्त्रपात्रादि ग्रहण करने के स्पष्ट उल्लेख थे। करे। पुनः आचारांग" में यह भी कहा गया है, यदि ऐसा जाने की अत: उनके समक्ष दो प्रश्न थे-एक ओर अचेलकत्व का समर्थन शीतऋतु (हेमन्त) समाप्त हो गयी है तो जीर्ण वस्त्र प्रतिस्थापित कर करना और दूसरी ओर आगमिक उल्लेखों की अचेलकत्व के सन्दर्भ दे अर्थात् उनका त्याग कर दे। इस प्रकार (आगमों में) कारण की में सम्यक् व्याख्या करना। अपराजित सूरि ने इस सम्बन्ध में अपेक्षा से वस्त्र का ग्रहण कहा है। जो उपकरण कारण की अपेक्षा भगवतीआराधना की विजयोदया टीका में जो सम्यक् दृष्टिकोण प्रस्तुत से ग्रहण किया जाता है उसके ग्रहण करने की विधि और गृहीत किया है वह अचेलकत्व के आदर्श के सम्बन्ध में यापनीयों की यथार्थ- उपकरण का त्याग अवश्य कहा जाता है। अत: आगम में वस्त्र-पात्र दृष्टि का परिचायक है।
की जो चर्या बतायी गयी है वह कारण की अपेक्षा से अर्थात् ___ अपराजित ने सर्वप्रथम आगमों के उन सन्दर्भो को प्रस्तुत किया आपवादिक है। है, जिनमें वस्त्र-पात्र सम्बन्धी उल्लेख हैं, फिर उनका समाधान प्रस्तुत इस प्रकार हम देखते हैं कि यापनीय संघ मात्र आपवादिक स्थिति किया है। वे लिखते हैं-'आचारप्रणिधि' अर्थात् दशवैकालिक के में वस्त्र-ग्रहण को स्वीकार करता था और उत्सर्ग मार्ग अचेलता को आठवें अध्याय में कहा गया है कि पात्र और कम्बल की प्रतिलेखना ही मानता था। आचारांग के 'भावना' नामक अध्ययन में महावीर के करनी चाहिए। यदि पात्रादि नहीं होते तो उनकी प्रतिलेखना का कथन एक वर्ष तक वस्त्रयुक्त होने के उल्लेख को वह विवादास्पद मानता क्यों किया जाता? पुन: आचारांग५ के 'लोक-विचय' नामक दूसरे था। अपराजित ने इस सम्बन्ध में विभिन्न प्रवादों का उल्लेख भी किया अध्ययन के पाँचवें उद्देशक में कहा गया है कि प्रतिलेखन (पडिलेहण), है- जैसे कुछ कहते हैं कि वह छ: मास में काँटे, शाखा आदि पादपोंछन (पायपुच्छन), अवग्रह (उग्गह), कटासन (कडासण), चटाई से छिन्न हो गया। कुछ कहते हैं कि एक वर्ष से कुछ अधिक होने आदि की याचना करे। पुन: उसके 'वस्त्रैषणा'३६ अध्ययन में कहा गया पर उस वस्त्र को खण्डलक नामक ब्राह्मण ने ले लिया। कुछ कहते है कि जो लज्जाशील है वह एक वस्त्र धारण करे, दूसरा वस्त्र प्रतिलेखना है कि वह वस्त्र वायु से गिर गया और भगवान् ने उसकी उपेक्षा कर हेतु रखे। जुंगित (देश-विशेष) में दो वस्त्र धारण करे और तीसरा दी। कोई कहते हैं कि विलम्बनकारी ने उसे जिन के कन्धे पर रख प्रतिलेखना हेतु रखे, यदि शीत परीषह सहन नहीं हो तो तीन वस्त्र दिया आदि। इस प्रकार अनेक विप्रतिपत्तियों के कारण अपराजित की धारण करे और चौथा प्रतिलेखना हेतु रखे। पुन: उसके पात्रैषणारे७ दृष्टि में इस कथन में कोई तथ्य नहीं है। पुन: अपराजित ने आगम में कहा गया है कि लज्जाशील, जुंगित अर्थात् जिसके लिंग आदि से अचेलता के समर्थक अनेक सूत्र भी उद्धृत किये हैं.६, यथाहीनाधिक हो तथा पात्रादि रखता हो उसे वस्त्र रखना कल्पता है। पुनः “वस्त्रों का त्याग कर देने पर भिक्षु पुनः वस्त्र-ग्रहण नहीं करता तथा उसमें कहा गया है तुम्बी का पात्र, लकड़ी का पात्र अथवा मिट्टी का अचेल होकर जिन-रूप धारण करता है। भिक्षु यह नहीं सोचे कि सचेलक पात्र यदि जीव, बीजादि से रहित हो तो ग्राह्य है। यदि वस्त्र-पात्र ग्राह्य सुखी होता है और अचेलक दुःखी होता है, अत: मैं सचेलक हो नहीं होते तो फिर ये सूत्र आगम में क्यों आते? पुन: आचारांग८ जाऊँ। अचेल को कभी शीत बहुत सताती है, फिर भी वह धूप का के 'भावना' नामक अध्ययन में कहा गया है कि भगवान् एक वर्ष विचार न करे। मुझ निरावरण के पास कोई छादन नहीं है, अत: मैं तक चीवरधारी रहे, उसके बाद अचेल हो गये। साथ ही सूत्रकृतांग९ अग्नि का सेवन कर लूँ, ऐसा भी नहीं सोचे।" इसी प्रकार उन्होंने के 'पुण्डरीक' नामक अध्ययन में कहा गया है कि भिक्षु, वस्त्र और उत्तराध्ययन के २३ वें अध्ययन की गाथायें उद्धृत करके यह बताया पात्र के लिये धर्मकथा न कहे। निशीथ ° में कहा गया है कि जो भिक्षु कि पार्श्व का धर्म सान्तरुत्तर था। महावीर का धर्म तो अचेलक ही अखण्ड-वस्त्र और कम्बल धारण करता है उसे मास-लघु (प्रायश्चित्त था। पुन: दशवैकालिक में मुनि को नग्न और मुण्डित कहा गया है। का एक प्रकार) प्रायश्चित्त आता है। इस प्रकार आगम में वस्त्र-ग्रहण इससे भी आगम में अचेलता ही प्रतिपाद्य है, यह सिद्ध होता है। की अनुज्ञा होने पर भी अचेलता का कथन क्यों किया जाता है? इस समग्र चर्चा के आधार पर यापनीय संघ का वस्त्र-सम्बन्धी इसका समाधान करते हुए स्वयं अपराजितसूरि कहते है कि आगम दृष्टिकोण स्पष्ट हो जाता है। उनके इस दृष्टिकोण को संक्षेप में निम्न मैं कारण की अपेक्षा से आर्यिकाओं को वस्त्र की अनुज्ञा है, यदि रूप में प्रस्तुत किया जा सकता हैभिक्षु लज्जालु हैं अथवा उसकी जननेन्द्रिय त्वचारहित हो या अण्डकोष १. श्वेताम्बर परम्परा, जो जिनकल्प के विच्छेद की घोषणा के लम्बे हों अथवा वह परीषह (शीत) सहन करने में अक्षम हो तो उसे द्वारा वस्त्र आदि के सम्बन्ध में महावीर की वैकल्पिक व्यवस्था को वस्त्रधारण करने की अनुज्ञा है। आचारांग २ में ही कहा गया है कि समाप्त करके सचेलकत्व को ही एक मात्र विकल्प बना रही थी, यह संयमाभिमुख स्त्री-पुरुष दो प्रकार के होते हैं-सर्वश्रमणागत और बात यापनीयों को मान्य नहीं थी। नो-सर्वश्रमणागता। उनमें सर्वश्रमणागत स्थिरांग वाले पाणि-पात्र भिक्षु २. यापनीय यह मानते थे कि जिनकल्प का विच्छेद सुविधावादियों को प्रतिलेखन के अतिरिक्त एक भी वस्त्र धारण करना या छोड़ना की अपनी कल्पना है। समर्थ साधक इन परिस्थितियों में या इस युग नहीं कल्पता है। बृहत्कल्पसूत्र४३ में भी कहा गया है कि लज्जा के में भी अचेल रह सकता है। उनके अनुसार अचेलता (नग्नता) ही
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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६ जिन का आदर्श मार्ग है, अतः मुनि को अचेल या नग्न ही रहना चाहिये।
३. यापनीय आपवादिक स्थितियों में ही मुनि के लिये वस्त्र की ब्राह्मता को स्वीकार करते थे, उनकी दृष्टि में ये आपवादिक स्थितियाँ निम्नलिखित थीं
(क) राज परिवार आदि अतिकुलीन घराने के व्यक्ति जन साधारण के समक्ष नग्नता छिपाने के लिये वस्त्र रख सकते हैं।
(ख) इसी प्रकार वे व्यक्ति भी जो अधिक लज्जाशील हैं अपनी नग्नता को छिपाने के लिये वस्त्र रख सकते हैं।
(ग) वे नवयुवक मुनि जो अभी अपनी काम वासना को पूर्णतः विजित नहीं कर पाये हैं और जिन्हें लिंगोत्तेजना आदि के कारण निर्ग्रन्थ संघ में और जनसाधारण में प्रवाद का पात्र बनना पड़े, अपवाद रूप में वस्त्र रख सकते हैं।
(घ) वे व्यक्ति जिनके लिंग और अण्डकोष विद्रूप हैं, वे संलेखना के अवसर को छोड़कर यावज्जीवन वस्त्रधारण करके ही रहें।
(ङ) वे व्यक्ति जो शीतादि परीषह सहन करने में सर्वथा असमर्थ हैं, अपवाद रूप में वस्त्र रख सकते हैं।
(च) वे मुनि जो अर्श, भगन्दर आदि की व्याधि से ग्रस्त हों, बीमारी की स्थिति में वस्त्र रख सकते हैं।
४. जहाँ तक साध्वियों का प्रश्न था यापनीय संघ में स्पष्ट रूप से उन्हें वस्त्र रखने की अनुज्ञा थी। यद्यपि साध्वियों भी एकान्त में संलेखना के समय जिन-मुद्रा अर्थात् अचेलता धारण कर सकती थीं।
इस प्रकार वापनीयों का आदर्श अचेलकत्व ही रहा, किन्तु अपवाद मार्ग में उन्होंने वस्त्र पात्र की ग्राह्यता भी स्वीकार की। वे यह मानते हैं कि कषायत्याग और रागात्मकता को समाप्त करने के लिये सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग, जिसमें वख त्याग भी समाहित है, आवश्यक है. किन्तु वे दिगम्बर परम्परा के समान एकान्त रूप से यह घोषणा नहीं करते हैं कि वस्त्रधारी चाहे वह तीर्थङ्कर ही क्यों नहीं हो, मुक्त नहीं हो सकता। वे सवस्त्र में भी आध्यात्मिक विशुद्धि और मुक्ति की भजनीयता अर्थात् सम्भावना को स्वीकार करते हैं। इस प्रकार वे अचेलकत्व सम्बन्धी मान्यता के सन्दर्भ में दिगम्बर परम्परा के निकट खड़े होकर भी अपना भिन्न मत रखते हैं। वे अचेलकत्व के आदर्श को स्वीकार करके भी सवस्त्र मुक्ति की सम्भावना को स्वीकार करते हैं। पुनः मुनि के लिये अबेलकत्व का पुरजोर समर्थन करके भी वे यह नहीं कहते हैं कि जो आपवादिक स्थिति में वस्त्र धारण कर रहा है, वह मुनि नहीं है जहाँ हमारी वर्तमान दिगम्बर परम्परा मात्र लँगोटधारी ऐलक, एक चेलक या दो वस्त्रधारी, क्षुल्लक को मुनि न मानकर उत्कृष्ट श्रावक ही मानती है, वहाँ यापनीय परम्परा ऐसे व्यक्तियों की गणना मुनिवर्ग के अन्तर्गत ही करती है। अपराजित आचारांग का एक सन्दर्भ देकर, जो वर्तमान आचारांग में नहीं पाया जाता है, कहते हैं कि ऐसे व्यक्ति नो-सर्वश्रमणागत हैं तात्पर्य यह है कि सवस्त्र मुनि अंशतः भ्रमणभाव को प्राप्त हैं। इस प्रकार यापनीय आपवादिक स्थितियों में परिस्थितिवश वस्त्र प्रहण करने वाले श्रमणों को श्रमण ही मानते हैं,
गृहस्थ नहीं। यद्यपि यापनीय और दिगम्बर दोनों ही अचेलकत्व के समर्थक हैं, फिर भी वत्र के सम्बन्ध में यापनीयों का दृष्टिकोण अपेक्षाकृत उदार एवं यर्थाथवादी रहा है आपवादिक स्थिति में वस्त्र-ग्रहण, सचेल की मुक्ति की सम्भावना, सचेल स्त्री और पुरुष दोनों में श्रमणत्व या मुनित्व का सद्भाव - उन्हें अचेलता के प्रश्न पर दिगम्बर परम्परा से भिन्न करता है, जबकि आगमों में वख पात्र के उल्लेख मात्र आपवादिक स्थिति के सूचक हैं और जिनकल्प का विच्छेद नहीं है, यह बात उन्हें सेताम्बरों से अलग करती है।
जिनकल्प एवं स्थविरकल्प
अचेलकत्व एवं सचेलकत्व सम्बन्धी इस चर्चा के प्रसंग में जिनकल्प और स्थाविरकल्प की चर्चा भी अप्रासंगिक नहीं होगी। वेताम्बर मान्य आगमों एवं आगमिक व्याख्याओं में जिनकल्प और स्थविरकल्प की जो चर्चा मिलती है, उससे यह फलित होता है कि प्रारम्भ में अचेलता अर्थात् नग्नता को जिनकल्प का प्रमुख लक्षण माना गया था, किन्तु कालान्तर में जिनकल्प शब्द की व्याख्या में क्रमशः परिवर्तन हुआ है जिनकल्पी की कम से कम दो उपाधि (मुखयस्त्रिका और रजोहरण) मानी गई किन्तु ओघनियुक्ति के लिये जिनकल्प शब्द का सामान्य अर्थ तो जिन के अनुसार आचरण करना है। जिनकल्प की बारह उपाधियों का भी उल्लेख है। कालान्तर में श्वेताम्बर आचार्यों ने उन साधुओं को जिनकल्पी कहा जो गच्छ का परित्याग करके एकाकी विहार करते थे तथा उत्सर्ग मार्ग के ही अनुगामी होते थे। वस्तुतः जब श्वेताम्बर परम्परा में अचेलता का पोषण किया जाने लगा तो जिनकल्प की परिभाषा में भी अन्तर हुआ निशीथचूर्णि में जिनकल्प और स्थविरकल्प की परिभाषा देते हुए कहा है कि जिनकल्प में मात्र उत्स मार्ग का ही अनुसरण किया जाता है। अतः उसमें कल्पप्रतिसेवना और दर्पप्रतिसेवना दोनों का अर्थात् किसी भी प्रकार के अपवाद के अवलम्बन का ही निषेध है जबकि स्थविरकल्प में उत्सर्ग और अपवाद दोनों ही मार्ग स्वीकार किये गए हैं। यद्यपि अपवाद मार्ग में भी मात्र कल्पप्रतिसेवना को ही मान्य किया गया है। दर्पप्रतिसेवना को किसी भी स्थिति में मान्य नहीं किया गया है।
श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आगमों में प्रारम्भ में तो भगवान् महावीर के समान नग्नता को ग्रहण कर, कर पात्र में भोजन ग्रहण करते हुए अपवादरहित जो मुनिधर्म की कठिन साधना की जाती है, उसे ही जनकल्प कहा गया है किन्तु कालान्तर में इस परिभाषा में परिवर्तन हुआ। यापनीय परम्परा में जिनकल्प का उल्लेख हमें भगवती आराधना और उसकी विजयोदया टीका में मिलता है उसमें कहा गया है कि "जो राग-द्वेष और मोह को जीत चुके हैं, उपसर्ग को सहन करने में समर्थ हैं, जिन के समान एकाकी विहार करते हैं. वे जिनकल्पी कहलाते हैं" क्षेत्र आदि की अपेक्षा से विवेचन करते हुए उसमें आगे कहा गया है कि जिनकल्पी सभी कर्मभूमियों और सभी कालों में होते हैं। इसी प्रकार चारित्र की दृष्टि से वे सामायिक और छेदोपस्थापनीय चारित्र वाले होते हैं। वे सभी तीर्थङ्करों के तीर्थ में पाए जाते हैं और
"
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जन्म की अपेक्षा से ३० वर्ष की वय और मुनि जीवन की अपेक्षा से १९ वर्ष की दीक्षा - पर्याय वाले होते हैं। ज्ञान की दृष्टि से नव-दस पूर्व- ज्ञान के धारी होते हैं। वे तीनों शुभ लेश्याओं से युक्त होते हैं और वज्रऋषभ नाराच संहनन के धारक होते हैं। *"
४७
अपराजित के अतिरिक्त जिनकल्प और स्थाविरकल्प का उल्लेख यापनीय आचार्य शाकटायन के स्त्रीमुक्तिप्रकरण में भी है। ४८ इससे यह प्रतीत होता है कि जिनकल्प की अवधारण श्वेताम्बर एवं यापनीय दोनों परम्पराओं में लगभग समान ही थी। मुख्य अन्तर यह है कि यापनीय परम्परा में जिनकल्पी के द्वारा वस्त्र ग्रहण का कोई उल्लेख नहीं है, क्योंकि उसमें मुनि के लिये वस्त्र पात्र की स्वीकृति केवल अपवाद मार्ग में है, उत्सर्ग मार्ग में नहीं और जिनकल्पी उत्सर्ग मार्ग का अनुसारण करता है। अतः यापनीय परम्परा के अनुसार वह किसी भी स्थिति में वस्त्र - पात्र नहीं रख सकता। वह अचेल ही रहता है और पाणि-पात्री होता है। जबकि श्वेताम्बर परम्परा के मान्य ग्रन्थों के अनुसार जिनकल्पी अचेल भी होता है और सचेल भी वे पाणि-पात्री भी होते हैं और सपात्र भी होते हैं ओपनियुक्ति (गाथा ७८-७९ ) में उपधि (सामग्री) के आधार पर जिनकल्प के भी अनेक भेद किये गए हैं।
1
जैन आचार में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न
इसी प्रकार निशीथभाष्य में भी जिनकल्पी की उपधि को लेकर विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है उसमें सर्वप्रथम यह बताया गया है कि पात्र की अपेक्षा से जिनकल्पी दो प्रकार के होते हैं- पाणिपात्र अर्थात् बिना पात्र वाले और पात्रधारी इसी प्रकार वस्त्र की अपेक्षा से भी उसमें जिनकल्पियों के दो प्रकार बताए गए हैं— अचेलक और सचेलक । पुनः इनकी उपधि की चर्चा करते हुए कहा गया है कि अचेलक और पाणिपात्रभोजी जिनकल्पी होते हैं वे रजोहरण और मुखवस्त्रिका ये दो उपकरण रखते हैं। जो सपात्र और सवस्त्र होते हैं उनकी उपधि की संख्या कम से कम तीन और अधिक से अधिक बारह होती है। स्थाविरकल्पी की जिन चौदह उपधियों का उल्लेख
सन्दर्भ
१.
।।
णिच्चेलपाणिपत्तं उवइटुं परमजिण वरिंदेहि । एक्को विमोक्खमग्गो सेसा य अमग्गया सव्वे सूत्रप्राभूत, १०॥ एगया चेलए होइ सचेले यावि एगया। • उत्तराध्ययन, २/१३। ३. उस्सग्गियलिंगकदस्स लिंगमुस्सग्गियं तयं चेव । अववादियलिंगस्स वि पसत्यमुवसग्गियं लिंगं।।
२.
५.
-
- भगवती आराधना, ७६। वि सिज्झ वत्थधरो जिणसासणे जइवि होइ तित्थयरो । णग्गो विमोक्ख मग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे ।।
सूत्रप्राभृत, २३। (अ) से बेमि जे य अईया जे य पडुप्पन्ना जे य आगमेस्सा अरहंता भगवंतो जे य पव्वयंति जे उन पव्वइस्संति सव्वे ते सोवही धम्मो देसिअव्वोत्ति कट्टु तित्यधम्मत्याए एसाएणुधम्मिग ति एवं देवदूसमायाए पव्वसुं वा पव्वयंति वा पव्वइसंति वा ।
आचारांग १/९/१-१ (शीलांक टीका), भाग, पृ० २७३,
-
२९७
किया गया है उनमें मात्रक और चूलपट्टक ये दो उपधि जिनकल्पी नहीं रखते हैं।
यापनीयों की दूसरी विशेषता यह है कि वे श्वेताम्बरों के समान जिनकल्प का विच्छेद नहीं मानते उनके अनुसार समर्थ साधक सभी कालों में जिनकल्प को धारण कर सकते हैं, जबकि श्वेताम्बरों के अनुसार जनकल्पी केवल तीर्थङ्कर की उपस्थिति में ही होते हैं। यद्यपि यापनीयों की इस मान्यता में उनकी ही व्याख्यानुसार एक अन्तर्विरोध आता है, क्योंकि उन्होंने अपनी जिनकल्पी की व्याख्या में यह माना है कि जिनकल्पी नौ-दस पूर्वधारी और प्रथम संहनन के धारक होते हैं। चूँकि उनके अनुसार भी वर्तमान में पूर्वों का ज्ञान और प्रथम संहनन (वज्र - ऋषभ नाराच संहनन) का अभाव है, अतः जिनकल्प सर्वकालों में कैसे सम्भव होगा ? इन दो-तीन बातों को छोड़कर यापनीय और श्वेताम्बर परम्परा में जिनकल्प के सम्बन्ध में विशेष अन्तर नहीं है। विशेष जानकारी के लिये भगवती आराधना की टीका और बनक के तत्सम्बन्धी विवरणों को देखा जा सकता है।
ज्ञातव्य है कि दिगम्बर- ग्रन्थ गोम्मटसार और यापनीय ग्रन्थ भगवती आराधना की टीका में जिनकल्प को लेकर एक महत्त्वपूर्ण अन्तर परिलक्षित होता है, वह यह कि जहाँ गोम्मटसार में जिनकल्पी मुनि को मात्र सामायिक चारित्र माना गया है, वहाँ भगवती आराधना में उनमें सामायिक और छेदोपस्थापनीय ऐसे दो चारित्र माने गए हैं। वस्तुतः यह अन्तर इसलिये आया कि जब दिगम्बर परम्परा में छेदोपस्थापनीय चारित्र का अर्थ महाव्रतारोपण से भिन्न होकर प्रायश्चित रूप पूर्व-दीक्षा पर्याय के छेद के अर्थ में लिया गया, तो जिनकल्पी में प्रायश्चित्त रूप छेदोपस्थापनीय चारित्र का निषेध मानना आवश्यक हो गया, गया, क्योंकि जिनकल्पी की साधना निरपवाद होती है। हमें जिनकल्प और स्थविरकल्प का उल्लेख प्राय: श्वेताम्बर एवं यापनीय परम्परा में ही देखने को मिला है। दिगम्बर परम्परा में यापनीय प्रभावित ग्रन्थों को छोड़कर प्राय: इस चर्चा का अभाव ही है।
सिद्धचक्र साहित्य प्रचारक समिति, सूरत, १९३५. (ब) सब्वेऽवि एगदूसेण, निग्गया जिनवरा चउव्वीसं
६.
७.
- आवश्यकनियुक्ति २२७, हर्षपुष्यामृत जैन प्रन्थमाला, लाखाचावल, शांतिपुरी (सौराष्ट्र), १९८९ ।
(अ) आवश्यकनियुक्ति, गाथा १२५८। (ब) वही, १२६० । अचलगो व जो धम्मो जो इमोसंतरुत्तरो देसिओ वद्धमाणेण पासेण य महाजसा ।।
उत्तराध्यययन, २३/२९
८.
वही, २३/२४ ।
९. मुनयो वातरशना पिशङ्गा वसते मलाः । वातस्यानु धाजिम यंति यद्देवासो अविक्षत।। ऋग्वेद १०/१३६/२० १०. ऋग्वेद में अहं और ऋषभवाची ऋचाएँ एक अध्ययन, डॉ० सागरमल जैन, संधान, अंक ७, राष्ट्रीय मानव संस्कृति शोध
:
-
.
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________________
२९८
संस्थान, वाराणसी, १९९३, पृ० २२।
११. श्रीमद्भागवत, २/७/१००
१२. (अ) उत्तराध्ययनसूत्र, २३ / २६ ।
(ब) यथोक्तम् - पुरिमं पच्छिमाणं अरहंताणं भगवंताणं अचेल पत्थे भवइ । उत्तराध्ययन— नेमिचन्द की टीका, आत्मवल्लभ, ग्रन्थांक २२. बालापुर, १९३७, २/१३, पृ० २२ पर उद्धत उत्तराध्ययन, २२ / ३३-३४।
१३.
१४. वही, २३ / २९ ।
१५. 'जो इमो' त्ति यश्चायं सान्तराणि वर्धमानस्वामियत्यपेक्षयामानवर्णविशेषत: सविशेषाणि उत्तराणि महामूल्यतया प्रधानानि प्रक्रमाद् वस्त्राणि यस्मिन्नसौ सान्तरोत्तरो धर्मः पार्श्वेन देशित इतीहाऽप्यपेक्ष्यते।
उत्तराध्ययन, नेमिचन्दकृत सुखबोधावृत्ति सहित, पृ० २९५, बालापुर, २३ / १२, वीर नि० सं० २४६३
१६. परिसुद्धं जुण्णं कुच्छितं थोवाणियत ऽण्ण भोगभोगेहि मुणयो मुच्छारहिता संतेहि अचेलया होंति । ।
—
,
।
विशेषावश्यकभाष्य, पं० दलसुख मालवणिया, लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मंदिर, अहमदाबाद, गाथा ३०८२, १९६६। १७. अहपुण एवं जाणिज्जा उवाइक्कते खलु हेमंते गिम्हे पडिवन्ने अहापरिजुन्नाइं वत्थाइं परिट्ठविज्जा, अदुवा संतरुत्तरे अदुवा ओमचेले अदुवा एगसाडे अदुवा अचेले अपगते शीते वखाणि त्याज्यानि अथवा क्षेत्रादिगुणाद्धिमकणिनि वाते वाति सत्यात्मपरितुलनार्थं शीतपरीक्षार्थं च सान्तरोत्तरो भवेत् सान्तरमुत्तरं प्रावरणीयं यस्य स तथा क्वचित्प्रावृणोति क्वचित्पार्श्ववर्ति विभर्ति शीताशङ्कया नाद्यापि परित्यजति, अथवाऽवमचेल एककल्पपरित्यागात्, द्विकल्पधारीत्यर्थ: अथवा शनैः-शनैः शीतेऽपगच्छति सति द्वितीयमपि कल्पं परित्यजेत् तत् एकशाटक: संवृत्तः अथवा 55त्यन्तिके शीताभावे तदपि परित्यजेदतोऽचेलो भवति।
आचारांग (शीलांकवृत्ति), सं० जम्बूविजय, १/८/४, सूत्र २१२, पृ० २७७ ।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
१८. देखें, उपरोक्त ।
१९. देखें, उपरोक्त । २०. देखें उपरोक्त
२१. कैलाशचन्द्र शास्त्री, जैन साहित्य का इतिहास ( पूर्वपीठिका), गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला, वाराणसी, वी०नि० सं० २४८९, पृ० ३९९ ।
२२. णो चेविमेण वत्येण पिहिस्सामि तंसि हेमंते ।
से पारए आवकहाए एवं खु अणुधम्मियं तस्स ।। संवच्छरं साहियं माझं जं पण रिक्कासि वत्थगं भगवं । अचेलए ततो चाई तं वोसज्ज वत्थमणगारे ।।
२३. (अ) यच्च भावनायामुक्तं
-- आयारो, ९/९/१/२ एवं ३ वरिसं चीवरधारी तेण परमबेलगो जिणोत्ति - तदुक्तं विप्रतिपत्तिबहुलत्वात्। कथं केचिद्वदन्ति तस्मिन्नेव दिने तद्वस्त्रं वीरजिनस्य विलम्बनकारिणा गृहीतमिति । अन्ये षण्मासाच्छिन्नं तत्कण्टकशाखादिभिरिति । साधिकेन वर्षेण तदखं खण्डलकब्राह्मणेन गृहीतमिति केचित्कथयन्ति । केचिद्वातेन पतितमुपेक्षित जिनेनेति ।
अपरे वदन्ति विलम्बनकारिणा जिनस्य स्कन्धे तदारोपितमिति । - भगवती आराधना, गाथा ४२३ की विजयोदया टीका, सम्पादक पं० कैलाशचन्द्रजी, भाग १, ०३२५-३२६.
(ब) तच्च सुवर्णवालुकानदीपूराहतकण्टकावलग्नं धिरजातिना गृहीतमिति । आचारांग, शीलांकवृत्ति १/९/१/४ की वृत्ति। (स) तहावि सुवण्णबालुगानदीपूरे अवहिले कंटराएगं... किमिति वुच्चति चिरधरियता सहसा व लज्जता थंडिले चुतं णविति विप्पेण, केणति
- आचारांगचूर्णि ऋषभदेव केसरीमल संस्था, रतलाम, पृ० ३०० (द) सामी दक्खिणवाचालाओ उत्तरवाचालं वच्चति, तत्थ सुव्वण्णकुलाए बुलिणे तं वत्थं कंटियाए लग्गं साहे तं चितं सामी गतो पुणो य अवलोइतं, किं निमित्तं ? केती भांति जहा ममत्तीए अन्ने भांति मा अत्यंडिले पडित अवलोइतं सुलभ वत्थं पत्तं सिस्साणं भविस्सति ? तं च भगवता य तेरसमासे अहाभावेणं धारियं ततो वोसरियं पच्छा अचेलते तं एतेण पितुवंतस चिज्जातितेण गहितं । -- आवश्यकचूर्णि भाग १. ऋषभदेव केसरीमल संस्थान, रतलाम, पृ० २७७ ।
,
3
इससे यह फलित होता है कि उनके त्याग के सम्बन्ध में जो विभिन्न प्रवाद प्रचलित थे उनका उल्लेख न केवल यापनीय अपितु श्वेताम्बर आचार्य भी कर रहे थे।
२४. २५.
दिहुँ ।
३१.
३२.
३३.
-
आचारांग शीलांकवृत्ति १/९/१/१-४, पृ० २७३। (अ) सब्वेऽवि एगदूसेण, निग्गया जिणवरा चडब्बीसं । न य नाम अण्णलिंगे, नो गिहिलिंगे कुलिंगे वा ।।
(ब) बावीसं तित्थयरा सामाइयसंजम उवइसंति । छेओवट्ठावणयं पुण वयंति उसभो य वीरो य । ।
- आवश्यकनिर्युक्ति, १२६०. २६. (अ) एवमेगे उ पासत्था। सूत्रकृतांग, १/३/४/९(ब) पासत्थादीपणयं णिच्चं वज्जेह सव्वधा तुम्हे । हंदि ह मेलणदोसेण होइ पुरिसस्स तम्मयदा ।।
-भगवती आराधना, गाथा ३४१.
- आवश्यकनिर्मुक्ति, २२७.
२७. छक्कायरक्खणट्ठा पायग्गहणं जिणेहिं पन्नत्तं जे य गुणा संभोए हवंति ते पायगहणेवि । ।
- ओषनियुक्ति, ६९१. २८. निग्गंथा एक साटका । मज्झिमनिकाय - महासिंहनादसुत्त, १/१/२ 1 २९. देखें-- दीघनिकाय, अनु० भिक्षु राहुल सांकृत्यायन एवं भिक्षु जगदीश कश्यप, महाबोधि सभा, बनारस १९३६, पासादिकसुत ३/ ६, पृ० २५२।
३०. भगवई, पनरसं सतं १०१-१५२, सं० मुनि नथमल जैन विश्वभारती लाडनूँ, वि० सं० २१३१, पृ० ६७७-६९४ । देखें- दीघनिकाय, पासादिकसुत्तं, ३/६, पृ०२५२ धम्मपद, अट्टकथा, तृतीय भाग, गाथा ४८९ ।
भगवती आराधना, विजयोदया टीका, गाथा ४२३. सं० कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, १९३८, पृ०३२४ ।
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३४. धुवं च पडिलेहेज्जा जोगसा पायकंबलं । सेज्जमुच्चारभूमिं च संथारं अदुवासणं ।।
दशवैकालिक, ८/१७, नवसुत्ताणि, सं० युवाचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्वभारती, लाडनूँ, १९६७, पृ० ६८.
३५. आचारांग, १/५/८९, सं० युवाचार्य मधुकर मुनि, आगम प्रकाशन समिति, व्यावर
३६. (अ) एसेहिरिमणे सेगं वत्थं वा धारेज्ज पडिलेहणगं विदियं तत्थ एसे जुग्नि देसे दुवे वत्थाणि धारिज्ज पडिलेहणगं तदियं ।
आचारांग वस्त्रैषणा उद्धत भगवती आराधना, विजयोदया टीका, गाथा ४२३, पृ० ३२४.
(ब) जे ग्गिंचे तरुणे जुगवं बलवं अप्पायंके विरसंघयणे, से एगं वत्यं धारेज्जा णो वितियं
— आचारचूला, द्वितीयश्रुतस्कन्ध, २/५/१/२, पृ० १६१। ३७. (अ) हिरिमणे वा जुग्गिदे चावि अण्णगे वा तस्स णं कप्यदि वत्यादिकं पादचारित्तए इति ।
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जैन आचार में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न
वही, गाथा ४२३, पृ० ३२४। (ब) जे निग्गंथे तरुणे जुगवं बलवं अप्पायंके थिरसंघयणे, से एगं पायं धारेज्जा णो बीर्य
"
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-- आचारांगसूत्र, आचारचूला, २/६/१/२० ३८. संवच्छरं साहियं मासं, जंण रिक्कासि वत्थगं भगवं । अचेलए ततो चाई, तं वोसज्ज वत्थमणणारे।। - आचारांग, १/९/१/४/ वत्थपत्तादिहेदुमिति ।
३९. (अ) ण कहेज्जो धम्मक
सूत्रकृतांग, पुंडरीक अध्ययन, उद्धृत भगवती आराधना, विजयोदया टीका, गाथा ४२३, पृ० ३२४.
(ब) णो पाणस्स ( पायस्स) हे धम्ममाइक्खेज्जा णो वत्यस्स हेड
धम्माइवखेज्जा — सूत्रकृताङ्ग २/१/६८, पृ० ३६६.
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४०. (अ) कसिणाई वत्थकंबलाई जो भिक्खू पडिग्गहिदि आपज्जदि
मासिगं लहुगं ।
निशीथसूत्र, २/२३ उद्धत भगवती आराधना, विजयोदया टीका, गाथा ४२३, पृ० ३२४.
(ब) जे भिक्खू कसिणाई वत्वाई धरति धरेतं वा सातिज्जति ।
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४१.
४२.
२९९
निशीसूत्र, २/२३, उद्धृत भगवती आराधना, विजयोदया टीका, गाथा ४२३, पृ० ३२४.
भगवती आराधना, विजयोदया टीका, गाथा ४२३, पृ० ३२४. भगवती आराधना में उल्लिखित प्रस्तुत सन्दर्भ वर्तमान आचारांग में अनुपलब्ध है। उसमें मात्र स्थिरांग मुनि के लिये एक वस्त्र और एक पात्र से अधिक रखने की अनुशा नहीं है। सम्भवतः यह परिवर्तन परवर्ती काल में हुआ है।
४३. (अ) हिरिहेतुकं व होइ देहदुगुछंति देहे जुग्गदगे। धारेज्ज सिया वत्थं परिस्सहाणं च ण विहासीति ।।
कल्पसूत्र से उद्धृत- भगवती आराधना, विजयोदया टीका. गाथा ४२३, पृ० ३२४.
(ब) प्रस्तुत सन्दर्भ उपलब्ध बृहत्कल्पसूत्र में प्राप्त नहीं होता है। यद्यपि वस्त्र धारण करने के इन कारणों का उल्लेख स्थानांगसूत्र, स्थान ३ में निम्न रूप में मिलता है— कप्पति णिग्गंधाण वा गिरीण वा तओ वत्थाइं धारितए वा परिहरितए वा, तंजहा- जंगिए, भंगिए, खोमिए ।
ठाणांग, ३/३४५ ।
आचारांग, शीलांकवृत्ति, १/७/४, सूत्र, २०९, पृ० २५१ । (अ) भगवती आराधना, विजयोदया टीका, पृ० ३२५-३२६. तुलनीय आवश्यकचूर्णि भाग १, पृ० २७६.
(ब) आवश्यकसूत्रं (उत्तरभागं ) चूर्णि सहित, ऋषभदेव, केशरीमल श्वेताम्बर संस्था, रतलाम, १९२९.
४६. भगवती आराधना, विजयोदया टीका, पृ० ३२६-३२७, पालित्रिपिटक, कन्कोर्डेन्स, पृ० ३४५.
४७. भगवती आराधना भाग १ (विजयोदया टीका) गाथा १५७ की
४४.
४५.
و
टीका, पु० २०५.
४८. (अ) शाकटायन व्याकरणम्, स्त्री-मुक्तिप्रकरणम् ७, सम्पादक पं० शम्भुनाथ त्रिपाठी, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, वाराणसी, १९७१, पृ० १ ।
(ब) बृहत्कल्पसूत्र ६/९, सम्पादक मधुकर मुनि, ब्यावर, १९९२ । ४९. (अ) बृहत्कल्पसूत्र ६ / २०.
(ब) पञ्चकल्पभाष्य (आगमसुधासिन्धु), ८१६-८२२।
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जैन नीति-दर्शन की सामाजिक सार्थकता
जैन धर्म को जिन आधारों पर सामाजिक जीवन से कटा हुआ व्यक्ति के नैतिक विकास के परिणामस्वरूप जो सामाजिक जीवन फलित माना जाता है, वे दो हैं- एक वैयक्तिक मुक्ति को प्रमुखता और दूसरा होगा, वह सुव्यवस्था और शान्ति से युक्त होगा, उसमें संघर्ष और... निवृत्ति-प्रधान आचार-मार्ग का प्रस्तुतीकरण। यह सत्य है कि जैन धर्म तनाव का अभाव होगा। जब तक व्यक्तिगत जीवन में निवृत्ति नहीं निवृत्तिपरक है और वैयक्तिक मोक्ष को जीवन का परम साध्य स्वीकार आती, तब तक सामाजिक जीवन की प्रवृत्ति विशुद्ध नहीं हो सकती। करता है, किन्तु इस आधार पर यह मान लेना कि उसके नीतिदर्शन अपने व्यक्तिगत जीवन का शोधन करने के लिये राग-द्वेष के मनोविकारों की कोई सामाजिक सार्थकता नहीं है, क्या एक भ्रांति नहीं होगी? और असत्कर्मों से निवृत्ति आवश्यक है। जब व्यक्तिगत जीवन में यद्यपि यह सही है कि वह वैयक्तिक चरित्रनिर्माण पर बल देता है निवृत्ति आयेगी, तो जीवन पवित्र और निर्मल होगा, अंतःकरण विशुद्ध किन्तु वैयक्तिक चरित्र के निर्माण हेतु उसने जिस मार्ग का प्रस्तुतीकरण होगा और तब जो भी सामाजिक प्रवृत्ति फलित होगी वह लोकहितार्थ किया है, वह सामाजिक मूल्यों से विहीन नहीं है। प्रस्तुत निबन्ध में और लोकमंगल के लिये होगी। जब तक व्यक्तिगत जीवन में संयम हम इन्हीं मूल प्रश्नों के सन्दर्भ में यह देखने का प्रयास करेंगे कि और निवृत्ति के तत्त्व नहीं होंगे, तब तक सच्चा सामाजिक जीवन फलित जैन नीतिदर्शन की सामाजिक उपादेयता क्या है?
ही नहीं होगा। जो व्यक्ति अपने स्वार्थों और अपनी वासनाओं का
नियंत्रण नहीं कर सकता, वह कभी सामाजिक हो ही नहीं सकता। क्या निवृत्ति सामाजिक विमुखता की सूचक है?
उपाध्याय अमरमुनि के शब्दों में जैनदर्शन की निवृत्ति का मर्म यही सर्वप्रथम यह माना जाता है कि जो आचार-दर्शन निवृत्ति परक है कि व्यक्तिगत जीवन में निवृत्ति और सामाजिक जीवन में प्रवृत्ति। हैं, वे व्यक्ति-परक हैं। जो आचार दर्शन प्रवृत्ति-परक हैं, वे समाजपरक लोकसेवक या जनसेवक अपने व्यक्तिगत स्वार्थों एवं द्वन्द्वों से दूर रहे, हैं। पं.सुखलालजी भी लिखते हैं कि प्रवर्तक धर्म का संक्षेप सार यह यह जैन दर्शन की आचार-संहिता का पहला पाठ है। अपने व्यक्तिगत है कि जो और जैसी समाज-व्यवस्था हो, उसे इस तरह नियम और जीवन में मर्यादाहीन भोग और आकांक्षाओं से निवृत्ति लेकर ही कर्तव्यबद्ध करना कि जिससे समाज का प्रत्येक सदस्य अपनी-अपनी समाज-कल्याण के लिये प्रवृत्त होना जैनदर्शन का पहला नीति धर्म स्थिति और कक्षा के अनुरूप सुख लाभ करे। प्रवर्तक धर्म समाजगामी है।' सामाजिक नैतिकता और व्यक्तिगत नैतिकता परस्पर विरोधी नहीं है, इसका मतलब यह है कि प्रत्येक व्यक्ति समाज में रहकर सामाजिक हैं। बिना व्यक्तिगत नैतिकता को उपलब्ध किये सामाजिक नैतिकता कर्तव्यों का, जो ऐहिक जीवन से संबध रखते हैं, पालन करे। निवर्तक की दिशा में आगे नहीं बढ़ा जा सकता है। चरित्रहीन व्यक्ति सामाजिक धर्म व्यक्तिगामी है। निवर्तक धर्म समस्त सामाजिक और धार्मिक कर्तव्यों जीवन के लिये घातक ही होगा। अतः हम कह सकते हैं कि जैन से बद्ध होने की बात नहीं मानता है। उसके अनुसार व्यक्ति के लिये दर्शन में निवृत्ति का जो स्वर मुखर हुआ है, वह समाजविरोधी नहीं मुख्य कर्तव्य एक ही है और वह यह कि जिस तरह भी हो आत्मसाक्षात्कार है, वह सच्चे अर्थों में सामाजिक जीवन का साधक है। चरित्रवान् व्यक्ति का और उसमें रुकावट डालने वाली इच्छा के नाश का प्रयत्न करे। और व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठे हुए व्यक्ति ही किसी आदर्श-समाज 'यद्यपि जैन धर्म निवर्तक-परम्परा का हामी है, लेकिन उसमें सामाजिक का निर्माण कर सकते हैं। वैयक्तिक स्वार्थों की पूर्ति के निमित्त जो भावना से पराङमुखता नहीं दिखाई देती है। वह यह तो अवश्य मानता संगठन या समुदाय बनते हैं, वे सामाजिक जीवन के सच्चे प्रतिनिधि है कि वैयक्तिक साधना की दृष्टि से एकाकी जीवन लाभप्रद हो सकता नहीं हैं। क्या चोर, डाकू और शोषकों का समाज, समाज कहलाने है, किन्तु साथ ही वह यह भी मानता है कि उस साधना से प्राप्त का अधिकारी है? समाज जीवन की प्राथमिक आवश्यकता है। सिद्धि का उपयोग सामाजिक कल्याण की दिशा में भी होना चाहिए। व्यक्ति अपने और पराये के भाव से तथा अपने व्यक्तिगत क्षुद्र महावीर का जीवन स्वयं इस बात का साक्षी है। बारह वर्षों तक एकाकी स्वार्थी से ऊपर उठे, चूंकि जैन नीति-दर्शन हमें इन्हीं तत्त्वों की शिक्षा साधना करने के पश्चात् वे पुनः सामाजिक जीवन में लौट आए और देता हैं, अत: वह सच्चे अर्थों में सामाजिक है, असामाजिक नहीं है। चतुर्विध संघ की स्थापना की एवं उसको जीवन भर मार्गदर्शन देते जैन दर्शन का निवृत्तिपरक होना सामाजिक विमुखता का सूचक नहीं रहे। वस्तुत: उनकी निवृत्ति उनके द्वारा किये जानेवाले सामाजिक-कल्याण है। अशुभ से निवृत्ति ही शुभ में प्रवृत्ति का साधन बन सकती है। में साधक ही बनी है, बाधक नहीं। वैयक्तिक जीवन के नैतिक स्तर महावीर की नैतिक शिक्षा का सार यही है। वे 'उत्तराध्ययनसूत्र' में का विकास लोकजीवन या सामुदायिक जीवन की प्राथमिकता है। महावीर कहते हैं-एक ओर से निवृत्त होओ और एक ओर प्रवृत्त होओ। असंयम सामाजिक-सुधार और सामाजिक-सेवा की आवश्यकता तो मानते थे से निवृत्त होओ, संयम में प्रवृत्त होओ। वैयक्तिक जीवन में निवृत्ति किन्तु वे व्यक्ति-सुधार से समाज-सुधार की दिशा में बढ़ना चाहते थे। ही सामाजिक प्रवृत्ति का आधार है। संयम ही सामाजिक जीवन का व्यक्ति समाज की प्रथम इकाई है, वह सुधरेगा तो ही समाज सुधरेगा। आधार है।
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जैन नीति-दर्शन की सामाजिक सार्थकता
सर्वहित और लोकहित के सन्दर्भ में जैन-दृष्टि
साधना मार्ग में आता है और अपनी आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त यद्यपि जैन दर्शन में आत्मकल्याण और वैयक्तिक मुक्ति को कर लेने के पश्चात् भी लोकहित में लगा रहता है। सर्वहित, सर्वोदय जीवन का चरम लक्ष्य माना गया है। किन्तु इस आधार पर भी उसे और सर्वलोक का कल्याण ही उसके जीवन का ध्येय बन जाता हैं। असामाजिक नहीं कहा जा सकता है। जिस करुणा और लोकहित की २. गणधर-सहवर्गीय हित के संकल्प को लेकर साधना-क्षेत्र अनुपम भावना से अर्हत्-प्रवचन का प्रस्फुटन होता है, उसे नहीं झुठलाया में प्रविष्टि पानेवाले और अपनी आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त कर लेने जा सकता है।
के पश्चात् भी सहवर्गियों के हित एवं कल्याण के लिये प्रयत्नशील जैनाचार्य समन्तभद्र जिन-स्तुति करते हुए कहते हैं-भगवन! रहनेवाले साधक गणधर कहलाते हैं। समूह-हित या गण-कल्याण गणधर आपकी यह संघ (समाज) व्यवस्था सभी प्राणियों के सर्व दुःखों का के जीवन का ध्येय होता है।११। अन्त करनेवाली और सबका कल्याण (सर्वोदय) करने वाली है। इससे ३. सामान्य केवली-अत्मकल्याण को ही जिसने अपनी साधना बढ़कर लोक-आदर्श और लोकमंगल की कामना क्या हो सकती है? का ध्येय बनाया है और जो इसी आधार पर साधना मार्ग में प्रवृत्त प्रश्नव्याकरणसूत्र में कहा गया है- भगवान् का यह सुकथित होता हुआ आध्यात्मिक पूर्णता की उपलब्धि करता है, वह सामान्य प्रवचन संसार के सभी प्राणियों के रक्षण एवं करुणा के लिये है। केवली कहलाता है। १२ । जैन-साधना लोकमंगल की धारणा को लेकर ही आगे बढ़ती है। उसी साधारण रूप में विश्व-कल्याण, वर्ग-कल्याण और वैयक्तिक-कल्याण सूत्र में आगे यह भी बताया गया है कि जैन साधना के पाँचों महाव्रत की भावानओं को लेकर तदनुकूल प्रवृत्ति करने के कारण ही साधकों सर्वप्रकार से लोकहित के लिये ही हैं।६ अहिंसा-विवेचना करते हुए की ये कक्षाएँ निर्धारित की गई हैं। जिनमें विश्वकल्याण के लिए प्रवृत्ति कहा गया है कि साधना के प्रथम स्थान पर स्थित यह अहिंसा सभी करने के कारण ही तीर्थंकर को सर्वोच्च स्थान दिया जाता है। जिस प्राणियों का कल्याण करने वाली है। यह भगवती अहिंसा प्राणियों प्रकार बौद्ध विचारणा में बोधिसत्व और अर्हत के आदर्शों में भिन्नता के लिये निर्बाध रूप से हितकारिणी है। यह प्यासों को पानी के समान, है, उसी प्रकार जैन साधना में तीर्थंकर और सामान्य केवली के आदर्शों भूखों को भोजन के समान, समुद्र में जहाज के समान, रोगियों के में तारतम्य है। लिए ओषधि के समान और अटवी में सहायक के समान है': इन सबके अतिरिक्त जैन साधना में संघ (समाज) को सर्वोपरि
तीर्थङ्कर नमस्कारसूत्र (नमोत्थुणं) में तीर्थंकर के लिए लोकनाथ, माना गया है। संघहित समस्त वैयक्तिक साधनाओं से भी ऊपर है, लोकहितकर, लोकप्रदीप, अभय के दाता आदि जिन विशेषणों का विशेष परिस्थितियों में तो संघ के कल्याण के लिये वैयक्तिक साधना प्रयोग हुआ है वे भी जैन दृष्टि की लोक मंगलकारी भावना को स्पष्ट का परित्याग करना भी आवश्यक माना गया है। जैन साहित्य में आचार्य करते हैं। तीर्थंकरों का प्रवचन एवं धर्म-प्रवर्तन प्राणियों के अनुग्रह भद्रबाहु एवं कालक की कथा इसका उदाहरण है।१३।। के लिए होता है, न कि पूजा या सत्कार के लिए। यदि ऐसा माना स्थानांगसूत्र में जिन दस धर्मों (कर्तव्यों) का निर्देश दिया गया जाय कि जैन साधना केवल आत्महित या आत्म-कल्याण की बात है, उनमें संघधर्म, गणधर्म, राष्ट्रधर्म, नगरधर्म, ग्रामधर्म और कुलधर्म कहती है तो फिर तीर्थंकर के द्वारा तीर्थ-प्रवर्तन या संघ-संचालन का की उपस्थिति इस बात का सबल प्रमाण है कि जैन दृष्टि न केवल कोई अर्थ ही नहीं रह जाता; क्योंकि कैवल्य की उपलब्धि के बाद आत्महित या वैयक्तिक विकास तक सीमित है, वरन् उसमें लोकहित उन्हें अपने कल्याण के लिए कुछ करना शेष ही नहीं रहता है। अतः या लोक-कल्याण का अजस्र प्रवाह भी प्रवाहित हो रहा है। मानना पड़ेगा कि जैनसाधना का आदर्श मात्र आत्मकल्याण ही नहीं, यद्यपि जैनाचारदर्शन लोकहित, लोकमगल की बात कहता है, वरन् लोककल्याण भी है।
लेकिन उसकी एक शर्त है कि परार्थ के लिये स्वार्थ का विसर्जन जैन दार्शनिकों ने आत्महित की अपेक्षा लोकहित की श्रेष्ठता किया जा सकता है, लेकिन आत्मार्थ का नहीं। उसके अनुसार वैयक्तिक को सदैव ही महत्त्व दिया है। जैन विचारणा के अनुसार साधना की भौतिक उपलब्धियों को लोक-कल्याण के लिये समर्पित किया जा सकता सर्वोच्च उँचाई पर स्थित सभी जीवन्मुक्त आध्यात्मिक पूर्णता की दृष्टि है और किया भी जाना चाहिए, क्योंकि वे हमें जगत् से ही मिली से यद्यपि समान ही होते हैं, फिर भी जैन विचारकों ने उनकी हैं वे वस्तुत: संसार की हैं, हमारी नहीं, सांसारिक उपलब्धियाँ संसार "आत्महितकारिणी और लोकहितकारिणी दृष्टि के तारतम्य को लक्ष्य के लिए हैं, अतः उनका लोकहित के लिये विसर्जन किया जाना चाहिए। में रखकर उनमें उच्चावच्च अवस्था को स्वीकार किया है। एक सामान्य लेकिन उसे यह स्वीकार नहीं है कि आध्यात्मिक विकास या वैयक्तिक केवली (जीवन्मुक्त) और तीर्थकर में आध्यात्मिक पूर्णताएँ तो समान नैतिकता को लोकहित के नाम पर कुंठित किया जाये। ऐसा लोकहित, ही होती हैं, फिर भी तीर्थंकर को उसकी लोकहित की दृष्टि के कारण जो व्यक्ति के चरित्र के पतन अथवा आध्यात्मिक कुंठन से फलित होता सामान्य केवली की अपेक्षा श्रेष्ठ माना गया है। जीवन्मुक्तावस्था को हो, उसे स्वीकार नहीं है। लोकहित और आत्महित के संदर्भ में उसका प्राप्त कर लेने वाले व्यक्तियों के, उनकी लाकोपकारिता के आधार स्वर्णिम सूत्र है 'आत्महित करो और यथाशक्ति लोकहित भी करो, लेकिन पर, तीन वर्ग होते हैं- १.तीर्थंकर, २. गणधर और ३. सामान्य केवली। जहाँ आत्महित और लोकहित में द्वन्द्व हो और आत्महित के कुंठन
१. तीर्थंकर-तीर्थकर वह है जो सर्वहित के संकल्प को लेकर पर ही लोकहित फलित होता हो तो वहाँ आत्मकल्याण ही श्रेष्ठ है। १५
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
आत्महित स्वार्थ ही नहीं है - यहाँ हमें यह ध्यान रखना चाहिए था कि आपकी भक्ति करने वाले तथा वृद्ध, ग्लान एवं रोगी की सेवा कि जैन धर्म का यह आत्महित स्वार्थवाद नहीं है। आत्म-काम वस्तुत: करने वाले में कौन श्रेष्ठ है? तो महावीर का उत्तर था कि सेवा करने निष्काम होता है, क्योंकि उसकी कोई कामना नहीं होता है, अत: वाला ही श्रेष्ठ है। जैन समाज के द्वारा आज भी जन-सेवा और प्राणी-सेवा उसका स्वार्थ भी नहीं होता है। आत्मार्थी कोई भौतिक उपलब्धि नहीं के जो अनेक कार्य किये जा रहे हैं, वे इसके प्रतीक हैं। फिर भी चाहता है। वह तो उनका विसर्जन करता है। स्वार्थी तो वह है जो यह एक ऐसा स्तर है जहाँ हितों का संघर्ष होता है। एक का हित यह चाहता है कि सभी उसकी भौतिक उपलब्धियों के लिये कार्य करें। दूसरे के अहित का कारण बन जाता है। अतः द्रव्य लोकहित एकान्त स्वार्थ और आत्मकल्याण में मौलिक अन्तर यह है कि स्वार्थ की साधना रूप से आचरणीय भी नहीं कहा जा सकता है। यह सापेक्ष नैतिकता। में राग और द्वेष की वृत्तियाँ काम करती हैं। जबकि आत्मकल्याण का क्षेत्र है। भौतिक स्तर पर स्वहित की पूर्णतया उपेक्षा भी नहीं की का प्रारम्भ ही राग-द्वेष की वृत्तियों की क्षणिकता से होता है। राग-द्वेष जा सकती है। यहां तो स्वहित और परहित में उचित समन्वय बनानौ, से युक्त होकर आत्मकल्याण की सम्भावना ही नहीं रहती। यथार्थ यही अपेक्षित है। पाश्चात्य नैतिक विचारणा के परिष्कारित स्वार्थवाद, आत्महित में रागद्वेष का अभाव है। स्वार्थ और परार्थ में संघर्ष की बौद्धिक परार्थवाद और सामान्य शुभतावाद का विचार-क्षेत्र लोकहित सम्भावना भी तभी तक है जबतक उनमें कहीं राग-द्वेष की वृत्ति निहित का यह भौतिक स्वरूप ही है। हो। रागदि भाव या स्वहित की वृत्ति से किया जानेवाला परार्थ भी २. भाव लोकहित'. यह लोकहित भौतिक स्तर से ऊपर स्थित सच्चा लोकहित नहीं है, वह तो स्वार्थ ही है। जिस प्रकार शासन है, यहाँ पर लोकहित के जो साधन हैं वे ज्ञानात्मक या चैतसिक होते के द्वारा नियुक्त एवं प्रेरित समाज-कल्याण-अधिकारी वस्तुतः लोकहित हैं। इस स्तर पर परार्थ और स्वार्थ में संघर्ष की सम्भावना अल्पतम का कर्ता नहीं है, वह तो वेतन के लिए लोकहित करता है। उसी होती है। मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ की भावनाएं इस स्तर प्रकार राग से प्रेरित होकर लोकहित करने वाला भी सच्चे अर्थों में को अभिव्यक्ति करती हैं। लोकहित का कर्ता नहीं है, उसके लोकहित के प्रयत्न राग की अभिव्यक्ति, ३.पारमार्थिक लोकहित-यह लोकहित का सर्वोच्च स्तर है, प्रतिष्ठा की रक्षा, यश: अर्जन की भावना या भावी-लाभ की प्राप्ति जहां स्वहित और परहित में कोई संघर्ष नहीं रहता, द्वैत नहीं रहता। के हेतु ही होते हैं। ऐसा परार्थ वस्तुतः स्वार्थ ही है। सच्चा आत्महित यहां पर लोकहित का रूप होता है- यथार्थ जीवनदृष्टि के सम्बन्ध
और सच्चा लोकहित, राग-द्वेष से शून्य अनासक्ति की भूमि पर प्रस्फुटित में मार्गदर्शन। यहाँ इसका रूप स्वयं अहित नहीं करना और अहित होता है लेकिन उस अवस्था में न तो अपना रहता है न पराया क्योंकि करने वाले का हृदय-परिवर्तन कर उसे सामाजिक अहित से विमुख जहाँ राग है वहीं 'मेरा है' और जहाँ मेरा हैं वहीं पराया है। राग की करना है। शून्यता होने पर अपने और पराये का विभेद ही समाप्त हो जाता है। ऐसी राग-शून्यता की भूमि पर स्थित होकर किया जाने वाला युगीन सामाजिक परिस्थितियों में जैन नीतिदर्शन का योगदान आत्महित भी लोकहित होता है और लोकहित आत्महित होता है। जैन आचार-दर्शन ने न केवल अपने युग की समस्याओं का दोनों में कोई संघर्ष नहीं है, कोई द्वैत नहीं है। उस दशा में तो सर्वत्र समाधान किया है वरन् वह वर्तमान युग की समस्याओं के समाधान आत्म-दृष्टि होती है जिसमें न कोई अपना है, न कोई पराया है। में भी पूर्णतया सक्षम है। वस्तुस्थिति यह है कि चाहे प्राचीन युग हो स्वार्थ-परार्थ जैसी समस्या यहाँ रहती ही नहीं है!
या वर्तमान युग, मानव जीवन की समस्यायें सभी युगों में लगभग जैन विचारणा के अनुसार स्वार्थ और परार्थ के मध्य सभी समान रही हैं। मानव जीवन की समस्याएँ विषमता-जनित है। वस्तुत: अवस्थाओं में संघर्ष रहे, यह आवश्यक नहीं। व्यक्ति जैसे-जैसे भौतिक विषमता ही समस्या है और समता ही समाधान हैं। ये विषमताएँ अनेक जीवन से आध्यात्मिक जीवन की ओर ऊपर उठता जाता है, वैसे-वैसे रूपों में अभिव्यक्त होती हैं। प्रमुख रूप से वर्तमान मानव जीवन की स्वार्थ एवं परार्थ का संघर्ष भी समाप्त होता जाता है। जैन विचारकों विषमताएँ निम्न हैं-१. सामाजिक वैषम्य, २. आर्थिक वैषम्य, ३. ने परार्थ या लोकहित के तीन स्तर माने हैं।
वैचारिक वैषम्य और ४. मानसिक वैषम्य। अब हमें विचार यह करना १.द्रव्य लोकहित, २.भाव लोकहित और ३.पारमार्थिक लोकहित। है कि क्या जैन आचार दर्शन इन विषमताओं का निराकरण कर
१.द्रव्य लोकहित'. यह लोकहित का भौतिक स्तर है। भौतिक समत्व का संस्थापन करने में समर्थ है? नीचे हम प्रत्येक प्रकार की उपादानों जैसे भोजन, वस्त्र, आवास आदि तथा शारीरिक सेवा के विषमताओं के कारणों का विश्लेषण और जैन दर्शन द्वारा प्रस्तुत उनके द्वारा लोकसेवा करना द्रव्य लोकहित है। यह दान और सेवा का क्षेत्र समाधानों पर विचार करेंगे। है। पुण्य के नव प्रकारों में आहारदान, वस्त्रदान, औषधिदान आदि १. सामाजिक विषमता- व्यक्ति को चेतन जगत् के अन्य का उल्लेख यह बताता है कि जैनदर्शन दान और सेवा के दर्शन को प्राणियों के साथ जीवन जीना होता है। यह सामुदायिक जीवन है। स्वीकार करता है। तीर्थंकर द्वारा दीक्षा के पूर्व दिया जाने वाला दान सामुदायिक जीवन का आधार सम्बन्ध है और नैतिकता उस सम्बन्धों जैन-दर्शन में सामाजिक सेवा और सहयोग का क्या स्थान है, इसे की शुद्धि का विज्ञान है। पारस्परिक सम्बन्ध निम्न प्रकार के हैंस्पष्ट कर देता है। मात्र यहीं नहीं, महावीर से जब यह पूछा गया १. व्यक्ति और परिवार, २. व्यक्ति और जाति, ३. व्यक्ति और समाज,
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जैन नीति-दर्शन की सामाजिक सार्थकता
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४. व्यक्ति और राष्ट्र, ५. व्यक्ति और विश्व। इन सम्बन्धों की विषमता के मूल में व्यक्ति की राग-भावना ही काम करती है। सामान्यतया राग-द्वेष का सहगामी होता है। जब तक सम्बन्ध राग-द्वेष के आधार पर खड़ा होता है, तब तक इन सम्बन्धों में विषमता स्वाभाविक रूप से उपस्थित रहती है। जब राग का तत्त्व द्वेष का सहगामी होकर काम करने लगता है तो पारस्परिक सम्बन्धों में संघर्ष और टकराहट प्रारम्भ हो जाती है। राग के कारण ‘मेरा' या ममत्व का भाव उत्पन्न होता है। मेरे सम्बन्धी, मेरी जाति, मेरा धर्म, मेरा राष्ट्र, ये विचार विकसित होते हैं। परिणामस्वरूप भाई-भतीजावाद, जातिवाद, सांप्रदायिकता और राष्ट्रवाद का जन्म होता है। आज के हमारे सुमधुर सामाजिक सम्बन्धों में ये ही तत्त्व सबसे अधिक बाधक हैं। ये मनुष्य को पारिवारिक, जातीय, साम्प्रदायिक और राष्ट्रीय क्षुद्र स्वार्थों से ऊपर उठने नहीं देते हैं। यही आज की सामाजिक-विषमता के मूल कारण हैं।
अनैतिकता का मूल 'स्व' की संकुचित सीमा है। व्यक्ति जिसे अपना मानता है, उसके हित की कामना करता है और जिसे पराया मानता है उसके हित की उपेक्षा करता है। सामाजिक जीवन में शोषण, क्रूर-व्यवहार, घृणा आदि सभी उन्हीं के प्रति किये जाते है, जिन्हें हम अपना नहीं मानते हैं। यद्यपि यह बड़ा कठिन कार्य है। हम अपनी रागात्मकता या ममत्व वृत्ति का पूर्णतया विसर्जन किये बिना अपेक्षित नैतिक एवं सामाजिक जीवन का विकास नहीं कर सकते। व्यक्ति का 'स्व' चाहे वह व्यक्तिगत-जीवन या पारिवारिक-जीवन या राष्ट्र की सीमा तक विस्तृत हो, हमें स्वार्थ-भावना से ऊपर नहीं उठने देता। स्वार्थवृत्ति चाहे वह परिवार के प्रति हो या राष्ट्र के प्रति, समान रूप से नैतिकता एवं सामाजिकता की विरोधी ही सिद्ध होती है। उसके होते हुए सच्चा नैतिक एवं सामाजिक जीवन फलित नहीं हो सकता। मुनि नथमलजी लिखते हैं कि 'परिवार के प्रति ममत्व का सघन रूप जैसे जाति या राष्ट्र के प्रति बरती जाने वाली अनैतिकता का नियमन नहीं करता, वैसे ही जाति या राष्ट्र के प्रति ममत्व अन्तरराष्ट्रीय अनैतिकता का नियामक नहीं होता। मुझे लगता है कि राष्ट्रीय अनैतिकता की अपेक्षा अन्ताराष्ट्रीय अनैतिकता कहीं अधिक है। जिन राष्ट्रों में व्यावहारिक सच्चाई है, प्रामाणिकता है, वे भी अन्ताराष्ट्रीय क्षेत्र में सत्य-निष्ठ और प्रामाणिक नहीं हैं। १८ इस प्रकार हम देखते हैं कि व्यक्ति का जीवन जब तक राग या ममत्व से ऊपर नहीं उठता, तब तक नैतिकता का सद्भाव सम्भव ही नहीं होता। रागयुक्त नैतिकता, चाहे उसका आधार अष्ट्र ही क्यों न हो, सच्चे अर्थों में नैतिक नहीं हो सकती। सच्चा नैतिक जीवन वीतराग अवस्था में ही सम्भव हो सकता है और जैन आचार दर्शन इसी वीतराग जीवन दृष्टि को ही अपनी नैतिक साधना का आधार बनाता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वह सामाजिक जीवन के लिए एक वास्तविक आधार प्रस्तुत करता है। यही एक ऐसा आधार है जिस पर सामाजिक नैतिकता को खड़ा किया जा सकता है और सामाजिक जीवन के वैषम्यों को समाप्त किया जा सकता है। सराग नैतिकता कभी भी सुमधुर सामाजिक सम्बन्धों का निर्माण नहीं कर सकती है। स्वार्थों के आधार पर खड़ा सामाजिक जीवन अस्थायी
ही होगा।
दूसरे इस सामाजिक सम्बन्ध में व्यक्ति का अहं-भाव भी बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य करता है। शासन की इच्छा या आधिपत्य की भावना इसके प्रमुख तत्त्व हैं। इनके कारण भी सामाजिक जीवन में विषमता उत्पन्न होती है। शासक और शासित अथवा जातिभेद एवं रंगभेद आदि की श्रेष्ठता के मूल में यही कारण है। वर्तमान युग में बड़े राष्ट्रों में जो अपने प्रभावक क्षेत्र बनाने की प्रवृत्ति है, उसके मूल में भी अपने राष्ट्रीय अहं की पुष्टि का प्रयत्न है। स्वतंत्रता के अपहार का प्रश्न इसी स्थिति में होता है। जब व्यक्ति में आधिपत्य की वृत्ति या शासन की भावना होती है तो वह दूसरे के अधिकारों का हनन करता है। जैन आचार दर्शन अहं के प्रत्यय के विगलन के द्वारा सामाजिक जीवन में परतंत्रता को समाप्त करता है। दूसरी ओर जैन दर्शन का अहिंसा सिद्धांत भी सभी प्राणियों के समान अधिकारों को स्वीकार करता है। अधिकारों का हनन एक प्रकार की हिंसा है। अत: अहिंसा का सिद्धांत स्वतंत्रता के साथ जुड़ा हुआ है। जैन एवं बौद्ध आचार दर्शन जहाँ एक ओर अहिंसा के सिद्धांत के आधार पर व्यक्तिगत स्वतंत्रता का समर्थन करते हैं, वहीं दूसरी ओर वर्णभेद, जातिभेद एवं ऊँच-नीच की भावना को समाप्त करते हैं।
यदि हम सामाजिक सम्बन्धों में उत्पन्न होने वाली विषमता के कारणों का विश्लेषण करें तो यह पाते हैं कि उसके मूल में रागात्मकता ही है। यही राग एक ओर अपने और पराये के भेद को उत्पन्न कर सामाजिक सम्बन्धों को अशुद्ध बनाता है तथा दूसरी ओर अहं भाव का प्रत्यय उत्पन्न कर सामाजिक जीवन में ऊंच नीच की भावनाओं का निर्माण करता है। इस प्रकार राग का तत्त्व ही मान के रूप में एक दूसरी दिशा ग्रहण कर लेता है जो सामाजिक विषमता को उत्पन्न करता है। यही राग की वृत्ति ही संग्रह (लोभ) और कपट की भावनाओं को भी विकसित करती है। इस प्रकार सामाजिक जीवन में विषमता के उत्पन्न होने के चार मूलभूत कारण होते हैं- १. संग्रह (लोभ) २. आवेश (क्रोध) ३. गर्व (बड़ा मानना) और ४. माया (छिपाना)। जिन्हें चार कषाय कहा जाता है। ये ही चारों अलग-अलग रूप में सामाजिक जीवन में विषमता, संघर्ष एवं अशान्ति के कारण बनते हैं। १. संग्रह की मनोवृत्ति के कारण शोषण, अप्रमाणिकता, स्वार्थपूर्ण-व्यवहार, क्रूर-व्यवहार, विश्वासघात आदि विकसित होते हैं। २. आवेश की मनोवृत्ति के कारण संघर्ष, युद्ध, आक्रमण एवं हत्याएँ आदि होते हैं। ३. गर्व की मनोवृत्ति के कारण घृणा, अमैत्रीपूर्ण व्यवहार और क्रूर व्यवहार होता है। ४. इसी प्रकार माया की मनोवृत्ति के कारण अविश्वास एवं अमैत्रीपूर्ण व्यवहार उत्पन्न होता है। १९ इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन दर्शन में जिन्हें चार कषाय कहा जाता है, उन्हीं के कारण सारा सामाजिक जीवन दूषित होता है। जैन दर्शन इन्हीं कषायों के निरोध को अपनी नैतिक साधना का आधार बनाता है। अत: यह कहना उचित ही होगा कि जैन दर्शन अपने साधना मार्ग के रूप में सामाजिक विषमताओं को समाप्त कर, सामाजिक-समत्व की स्थापना का प्रयत्न करता है।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
२. आर्थिक वैषम्य-आर्थिक वैषम्य व्यक्ति और भौतिक जगत नहीं करता है। अत: आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य में स्वत: के सम्बन्धों से उत्पन्न हुई विषमता है। चेतना का जब भौतिक जगत ही त्याग की वृत्ति का उदय हो और वह स्वेच्छा से ही सम्पत्ति के से सम्बन्ध होता है तो उसे अनेक वस्तुएँ अपने प्राणमय जीवन के विसर्जन की दिशा में आगे आवे। भारतीय परंपरा और विशेषकर जैन लिए आवश्यक प्रतीत होती हैं। यही आवश्यकता जब आसक्ति में परंपरा न केवल सम्पत्ति के विसर्जन की बात करती है वरन् उसके बदल जाती है तो एक ओर संग्रह होता जाता है, दूसरी ओर संग्रह
सम-वितरण पर भी जोर देती है। हमारे प्राचीन साहित्य में दान के की लालसा बढ़ती जाती है, इसीसे सामाजिक जीवन में आर्थिक विषमता स्थान पर संविभाग शब्द का ही अधिक प्रयोग हुआ है। जो यह बताया के बीज का वपन होता है। जैसे-जैसे एक ओर संग्रह बढ़ता है, दूसरी है कि जो कुछ हमारे पास है, उसका समविभावजन करना है। महावीर ओर गरीबी बढ़ती है और परिणामस्वरूप आर्थिक वैषम्य बढ़ता जाता का यह उद्घोष कि 'असंविभागी णहु तस्स मोक्खो स्पष्ट बतता है है। आर्थिक वैषम्य के मूल में संग्रह भावना ही अधिक है। कहा यह कि जैन आचार दर्शन आर्थिक विषमता के निराकरण के लिये समवितरण जाता है कि अभाव के कारण संग्रह की चाह उत्पन्न होती है लेकिन की धारणा को प्रतिपादित करता है। जैन दर्शन के इन सिद्धांतों को वस्तुस्थिति कुछ और ही है। स्वाभाविक अभाव की पूर्ति सम्भव है यदि उन्हें युगीन सन्दर्भो में नवीन दृष्टि से उपस्थित किया जाय तो और शायद विज्ञान हमें इस दिशा में सहयोग दे सकता है लेकिन समाज की आर्थिक समस्याओं का निराकरण खोजा जा सकता है। कृत्रिम अभाव की पूर्ति सम्भव नहीं। उपाध्याय अमरमुनि जी लिखते वर्तमान युग में भ्रष्टाचार के रूप में समाज के आर्थिक क्षेत्र में है कि “गरीबी स्वयं में कोई समस्या नहीं, किन्तु पहाड़ों की असीम जो बुराई पनप रही है, उसके मूल में भी या तो व्यक्ति की संग्रहेच्छा ऊंचाईयों ने इस धरती पर जगह-जगह गड़े पैदा कर दिये हैं। पहाड़ है या भोगेच्छा। भ्रष्टाचार केवल अभावजनित बीमारी नहीं है, वरन् टूटेंगे, तो गड्ढे अपने आप भर जायेंगे, सम्पत्ति का विसर्जन होगा, वह एक मानसिक बीमारी है, जिसके मूल में संग्रहेच्छा एवं भोगेच्छा तो गरीबी अपने आप दूर हट जाएगी।"२० वस्तुत: आवश्यकता इस । के कीटाणु हैं। वस्तुत: वह आवश्यकताओं के कारण नहीं वरन् तृष्णा बात की है कि व्यक्ति में परिग्रह के विसर्जन की भावना उद्भूत हो। के कारण उत्पन्न होती है। आवश्यकताओं का निराकरण पदार्थों को परिग्रह के विसर्जन से ही आर्थिक वैषम्य समाप्त किया जा सकता उपलब्ध करके किया जा सकता है, लेकिन इस तृष्णा का निराकरण है। जब तक संग्रह की वृत्ति समाप्त नहीं होती, आर्थिक-समता नहीं पदार्थों के द्वारा संभव नहीं है। इसलिए जैन दर्शन ने अनासक्ति की आ सकती।
वृत्ति को नैतिक जीवन में प्रमुख स्थान दिया है। तृष्णाजनित विकृतियाँ आर्थिक-वैषम्य का निराकरण असंग्रह की वृत्ति से ही सम्भव केवल अनासक्ति द्वारा ही दूर की जा सकती हैं। हमारे वर्तमान युग है और जैन दर्शन अपने अपरिग्रह के सिद्धांत के द्वारा इस आर्थिक की प्रमुख कठिनाई यह नहीं है कि हमें सामान्य जीवन जीने के साधन वैषम्य के निराकरण का प्रयास करता है। जैन आचार दर्शन में गृहस्थ उपलब्ध नहीं हैं अथवा उनका अभाव है, वरन् कठिनाई यह है कि जीवन के लिये भी जिस परिग्रह एवं उपभोग-परिभोग के सीमांकन । आज का मानव तृष्णा से इतना अधिक ग्रसित है कि वह एक अच्छा का विधान किया गया है, वह आर्थिक वैषम्य के निराकरण का एक सुखद एवं शांतिपूर्ण जीवन नहीं जी सकता है। मनुष्य की वासनाएँ प्रमख साधन हो सकता है। आज हम जिस समाजवाद एवं साम्यवाद ही उसे अच्छे जीवन जीने में बाधक हैं। यदि किसी सीमा तक हम की चर्चा करते हैं, उसका दिशा-संकेत महावीर ने अपने व्रत-विधान यह भी मान लें कि अभाव के कारण आर्थिक-भ्रष्टाचार का जन्म होता में किया था। जैन दर्शन सम्पदा के उत्पादन पर नहीं, अपित उसके है तो जहाँ तक कृत्रिम अभाव का प्रश्न है वह कुल व्यक्तियों के द्वारा अपरिमित संग्रह और उपभोग पर नियंत्रण लगाता है।
किये गये अवैध संग्रह का परिणाम है। किन्तु जैन नीति दर्शन ने आर्थिक वैषम्य का निराकरण अनासक्ति और अपरिग्रह की साधना गृहस्थ साधक के अनर्थदण्ड-विरमण व्रत में उपभोग के पदार्थों के के द्वारा ही संभव है। यदि हम सामाजिक जीवन में आर्थिक समानता अनावश्यक संग्रह को निषिद्ध ठहराया है। यदि अभाव वास्तविक हो की बात करना चाहते हैं तो हमें व्यक्तिगत उपभोग एवं सम्पत्ति की तो उसे उपभोग का नियंत्रण करके दूर किया जा सकता है जिसके सीमा का निर्धारण करना ही होगा। परिग्रह का विसर्जन ही आर्थिक लिए उपभोग-परिभोग मर्यादा नामक व्रत का विधान है। इस प्रकार जीवन में समत्व का सृजन कर सकता है। जैन दर्शन का अपरिग्रह जैन दर्शन परिग्रह और उपभोग के परिसीमन के द्वारा समाज में व्याप्त सिद्धांत इस संबंध में पर्याप्त सिद्ध होता है। वर्तमान युग में मार्क्स आर्थिक विषमता की समाप्ति का सूत्र प्रस्तुत करता है। ने आर्थिक वैषम्य को दूर करने का जो सिद्धांत साम्यवादी समाज ३. वैचारिक-वैषम्य-विभिन्न वाद और उनके कारण उत्पन्न के रचना के रूप में प्रस्तुत किया, वह यद्यपि आर्थिक विषमताओं वैचारिक-संघर्ष भी सामाजिक जीवन का एक बड़ा अभिशाप है। वर्तमान के निराकरण का एक महत्त्वपूर्ण साधन है, लेकिन उसकी मूलभूत युग में राष्ट्रों के जो संघर्ष हैं, उनके मूल में आर्थिक और राजनैतिक कमी यही है कि वह मानव समाज पर ऊपर से थोपा जाता है, उसके प्रश्न इतने महत्त्वपूर्ण नहीं हैं जितने कि वैचारिक साम्राज्यवाद की अन्त: से सहज उभारा नहीं जाता है। जिस प्रकार बाह्य दबावों से स्थापना। वर्तमान युग में न तो राजनैतिक अधिकार लिप्सा से उत्पन्न वास्तविक नैतिकता प्रकट नहीं होती, उसी प्रकार केवल कानून के साम्राज्यवाद की भावना पाई जाती है और न आर्थिक साम्राज्यों की बल पर लाया गया आर्थिक साम्य सच्चे आर्थिक समत्व का प्रकटन स्थापना का प्रश्न ही महत्त्वूपर्ण है, वरन् वर्तमान युग में बड़े राष्ट्र
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अपने वैचारिक साम्राज्यों की स्थापना के लिए प्रयत्नशील देखे जाते हैं। जैन आचार दर्शन अपने अनेकान्तवाद और अनाग्रह के सिद्धांत के आधार पर इन वैचारिक संघर्षो का निराकरण प्रस्तुत करता है। अनेकांत का सिद्धांत वैचारिक आग्रह के विसर्जन की बात करता है और वैचारिक क्षेत्र में दूसरे के विचारों एवं अनुभूतियों को भी उतना ही महत्त्व देता है, जितना कि स्वयं के विचारों एवं अनुभूतियों को
जैन नीति-दर्शन की सामाजिक सार्थकता
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उपर्युक्त तीनों प्रकार की विषमताएँ हमारे सामाजिक जीवन से सम्बन्धित हैं जैन आचार दर्शन उपर्युक्त तीनों विषमताओं के निराकरण के लिए अपने आचार दर्शन में तीन सिद्धांत प्रस्तुत करता है। सामाजिक वैषम्य के निराकरण के लिये उसने अहिंसा एवं सामाजिक समता का सिद्धांत प्रस्तुत किया हैं। आर्थिक वैषम्य के निराकरण के लिए उसने परिग्रह एवं उपभोग के परिसीमन का सिद्धांत प्रस्तुत किया है। इसी प्रकार बौद्धिक एवं वैचारिक संघर्षो के निराकरण के लिए अनाग्रह और अनेकांत के सिद्धांत प्रस्तुत किये गये हैं। ये सिद्धांत क्रमशः सामाजिक समता, आर्थिक समता और वैचारिक समता की स्थापना करते हैं। लेकिन ये सभी नैतिकता के बाह्य एवं सामाजिक आधार हैं। नैतिकता का आन्तरिक आधार तो हमारा मनोजगत् ही है। जैन आचार दर्शन मानसिक तनावों एवं विक्षोभों के निराकरण के लिये भी विशेष रूप से विचार करता है क्योंकि यदि व्यक्ति का मानस विक्षोभ एवं तनावयुक्त है तो सामाजिक जीवन भी अशांत होगा ।
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४. मानसिक वैषम्य – मानसिक वैषम्य मनोजगत् में तनाव की अवस्था का सूचक है। जैन आचार दर्शन ने राग-द्वेष एवं चतुर्विध कषायों को मनोजगत् के वैषम्य का मूल कारण माना है। क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों आवेग या कषाय हमारे मानसिक समत्व को भंग करते है। यदि हम व्यक्तिगत जीवन के विघटनकारी तत्त्वों का मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विश्लेषण करें तो हम उनके मूल में कही न कहीं जैन दर्शन में प्रस्तुत कषायों एवं नौ कषायों (आवेगों और उप- आवेगों) की उपस्थिति ही पाते हैं। जैन आचार दर्शन कषाय-त्याग के रूप में हमें मनोजगत् के तनावों के निराकरण का संदेश देता है। वह बताता है कि हम जैसे-जैसे इन कषायों के ऊपर विजय लाभ करते हुए आगे बढ़ेगे वैसे ही हमें व्यक्तित्व की पूर्णता का प्रकटन भी होगा जैन दर्शन में साधकों की चार श्रेणियाँ मानी गई हैं, जो इन पर क्रमिक विजय को प्रकट करती हैं। इनके प्रथम तीव्रतम रूप पर विजय पाने पर साधक में सम्यक दृष्टिकोण का उद्भव होता है। द्वितीय मध्यम रूप पर विजय प्राप्त करने से साधक श्रावक या गृहस्थ-उपासक की श्रेणी में जाता है। तृतीय रूप पर विजय करने " पर वह श्रमणत्व का लाभ करता है और उनके सम्पूर्ण विजय पर वह आत्मपूर्णता को प्रकट कर लेता है। कषायों को पूर्ण समाप्ति पर एक पूर्ण व्यक्तित्व का प्रकटन हो जाता है। इस प्रकार जैन आचार दर्शन राग-द्वेष एवं कषाय के रूप में हमारे मानसिक तनावों का कारण प्रस्तुत करता है और कषाय-जय के रूप में मानसिक समता के निर्माण की धारणा को स्थापित करता है।
प्रत्येक व्यक्ति यह अपेक्षा करता है कि उसका जीवन शान्त एवं
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सुखी हो लेकिन मानव मन की अशान्ति एवं उसके अधिकांश दुःख कषाय चतुष्क-जनित हैं। अतः शान्त और सुखी जीवन के लिये मानसिक तनावों एवं मनोवेगों से मुक्ति पाना आवश्यक है। क्रोधादि कषायों पर विजय लाभ करके समत्व के सृजन के लिये हमें मनोवेगों से ऊपर उठना होगा। जैसे-जैसे हम मनोवेगों या कषाय चतुष्क से ऊपर उठेंगे वैसे-वैसे सच्ची शान्ति का लाभ प्राप्त करेंगे।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन आचार दर्शन सामाजिक जीवन से विषमताओं के निराकरण और समत्व के सृजन के लिए एक ऐसी आचार विधि प्रस्तुत करता है जिसके सम्यक् परिपालन से सामाजिक और वैयक्तिक दोनों ही जीवन में सच्ची शान्ति और वास्तविक सुख का लाभ प्राप्त किया जा सकता है। उसने सामाजिक जीवन में सम्बन्धों के शुद्धिकरण पर अधिक बल दिया है। यही कारण है कि उसके द्वारा प्रस्तुत सामाजिक आदेश अपनी प्रकृति में निषेधात्मक अधिक प्रतीत होते हैं यद्यपि विधायक सामाजिक आदेशों का उसमें पूर्ण अभाव नहीं है। उसके कुछ प्रमुख सामाजिक आदेश निम्न हैं
निष्ठा सूत्र
१. सभी आत्मायें स्वरूपतः समान हैं, अतः सामाजिक जीवन में ऊँच-नीच के वर्गभेद या वर्णभेद खड़े मत करो।
२. सभी आत्मायें समान रूप से सुखाभिलाषी हैं, अतः दूसरे के
हितों का हनन, शोषण या अपहरण करने का अधिकार किसी को नहीं है। सभी के साथ वैसा व्यवहार करो जैसा तुम उनसे स्वयं के प्रति चाहते हो ।
३. संसार में प्राणियों के साथ मैत्री भाव रखो, किसी से भी घृणा एवं विद्वेष मत रखो |
४. गुणीजनों के प्रति आदर भाव और दुष्टजनों के प्रति उपेक्षा भाव रखो।
५. संसार में जो दुःखी एवं पीड़ित जन हैं, उनके प्रति करुणा और वात्सल्य भाव रखो और अपनी स्थिति के अनुरूप उन्हें सेवा और सहयोग प्रदान करो।
व्यवहार सूत्र
१. किसी निर्दोष प्राणी को बन्दी मत बनाओ अर्थात् सामान्यजनों की स्वतंत्रता में बाधक मत बनो ।
२. किसी का वध या अंगभेद मत करो, किसी से भी मर्यादा से अधिक काम मत लो।
३. किसी की आजीविका में बाधक मत बनो ।
४.
पारस्परिक विश्वास को भंग मत करो न तो किसी की अमानत हड़पो और न तो किसी के रहस्यों को प्रकट करो।
५. सामाजिक जीवन में गलत सलाह मत दो, अफवाह मत फैलाओ और दूसरों के चरित्र हनन का प्रयास मत करो।
६. अपने स्वार्थ की सिद्धि के हेतु असत्य घोषणा मत करो। न तो स्वयं चोरी करो, न चोर को सहयोग दो, चोरी का माल
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
भी मत खरीदो।
परनिन्दा, काम-कुचेष्टा शस्त्र-संग्रह आदि मत करो। ८. व्यवसाय के क्षेत्र में नाप तौल में अप्रमाणिकता मत रखो और १५. यथासम्भव अतिथियों की, संतजनों की, पीड़ित एवं असहाय वस्तुओं में मिलावट मत करो।
व्यक्तियों की सेवा करो। अन्न, वस्त्र, आवास, औषधि आदि राजकीय नियमों का उल्लंघन और राज्य के करों का अपवंचन के द्वारा उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करो। मत करो।
१६. क्रोध मत करो, सबसे प्रेम-पूर्ण व्यवहार करो। १०. अपने यौन सम्बन्धों में अनैतिक आचरण मत करो। परस्त्री-संसर्ग, १७. अहंकार मत करो अपितु विनीत बनो, दूसरों का आदर वेश्यावृत्ति एवं वेश्यावृत्ति के द्वारा धन-अर्जन मत करो।
करो। ११. अपनी सम्पत्ति का परिसीमन करो और उसे लोकहितार्थ व्यय १८. कपटपूर्ण व्यवहार मत करो वरन् व्यवहार में निश्छल एवं करो।
प्रामाणिक रहो। १२. अपने व्यवसाय के क्षेत्र को सीमित करो और वर्जित व्यवसाय १९. अविचारपूर्वक कार्य मत करो। मत करो।
२०. तृष्णा मत रखो। १३. अपनी उपभोग सामग्री की मर्यादा करो और उसका अति-संग्रह उपर्युक्त और अन्य कितने ही आचार नियम ऐसे हैं जो जैन मत करो।
नीति की सामाजिक सार्थकता को स्पष्ट करते हैं।२९ आवश्यकता इस १४. वे सभी कार्य मत करो, जिनसे तुम्हारा कोई हित नहीं होता। बात की है हम आधुनिक संदर्भ में उनकी व्याख्या एवं समीक्षा करें
है किन्तु दूसरों का अहित सम्भव हो अर्थात् अनावश्यक गपशप, तथा उन्हें युगानुकूल बनाकर प्रस्तुत करें।
सन्दर्भ : १. जैनधर्म का प्राण, पं० सुखलालजी, सस्ता साहित्य मण्डल, देहली,
पृ० ५६-५९ २. अमरभारती, अप्रैल १९६६, पृ० २१ ३. उत्तराध्ययन, ३१/२ ४. सर्वोदय दर्शन, आमुख, पृ० ६ पर उद्धृत ।
प्रश्नव्याकरणसूत्र २/१/२२ ५. प्रश्नव्याकरण १/१/२१ ७. वही, १/१/३ ८. वही, १/२/२२ ९. सूत्रकृतांग (टीका) १/६/४ १०. योगबिन्दु, आचार्य हरिभद्र, २८५-२८८
११. योगबिन्दु २८९ १२. योगबिन्दु २९० १३. निशीथचूर्णि, सं० अमरमुनि, सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, भाष्य गा०,
२८६० १४. स्थानांग, १०/७६० १५. उद्धृत, आत्मसाधना संग्रह, पृ० ४४१ १६. अभिधान राजेन्द्र, खण्ड ५, पृ० ६९७ १७. अभिधान राजेन्द्र, खण्ड ५, पृ० ६९७ १८. नैतिकता का गुरुत्वाकर्षण, पृष्ठ ३-४ १९. नैतिकता का गुरुत्वाकर्षण, पृ० २ २०. जैन प्रकाश, ८ अप्रैल १९६९, पृ० १ २१. देखिए- श्रावक के बारह व्रत, उनके अतिचार और मार्गानुसारी गुण।
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जैनधर्म में अहिंसा की अवधारणा एक विश्लेषण
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अहिंसा का अर्थ विस्तार एवं उसके विविध आयाम
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विश्व के लगभग सभी धर्मों एवं धर्मग्रन्थों में किसी न किसी रूप में अहिंसा की अवधारणा पायी जाती है अहिंसा के सिद्धान्त की इस सार्वभौम स्वीकृति के बावजूद भी अहिंसा के अर्थ को लेकर उन सबमें एकरूपता नहीं है। हिंसा और अहिंसा के बीच खीची गई भेद-रेखा सभी में अलग-अलग है कहीं पशुवध को ही नहीं, नर बलि को भी हिंसा की कोटि में नहीं माना गया है, तो कहीं वानस्पतिक हिंसा अर्थात् पेड़-पौधों को पीड़ा देना भी हिंसा माना जाता है। चाहे अहिंसा की अवधारणा उन सबमें समानरूप से उपस्थित हो किन्तु अहिंसक चेतना का विकास उन सबमें सामानरूप से नहीं हुआ क्या मूसा के Thou shalt not kill आदेश का वही अर्थ है जो महावीर की 'सव्वे सत्ता न हंतव्वा' की शिक्षा है? यद्यपि हमें यह ध्यान रखना होगा कि अहिंसा के अर्थविकास की यह यात्रा किसी कालक्रम में न होकर मानव जाति की सामाजिक चेतना मानवीय विवेक एवं संवेदनशीलता के विकास के परिणामस्वरूप हुई है। जो व्यक्ति या समाज जीवन के प्रति जितना अधिक संवेदनशील बना उसने अहिंसा के प्रत्यय को उतना ही अधिक व्यापक अर्थ प्रदान किया । अहिंसा के अर्थ का यह विस्तार भी तीनों रूपों में हुआ है— एक ओर अहिंसा के अर्थ को व्यापकता दी गई, तो दूसरी ओर अहिंसा का विचार अधिक गहन होता चला गया। एक ओर स्वजाति और स्वधर्मी मनुष्य की हत्या के निषेध से प्रारम्भ होकर षट्जीवनिकाय की हिंसा के निषेध तक इसने अर्थविस्तार पाया है तो दूसरी ओर प्राणवियोजन के बाह्य रूप से द्वेष, दुर्भावना और असावधानी (प्रमाद) के आन्तरिक रूप तक, इसने गहराईयों में प्रवेश किया है पुनः अहिंसा ने 'हिंसा मत करो' के निषेधात्मक अर्थ से लेकर दया, करुणा, दान, सेवा और सहयोग के विधायक अर्थ तक भी अपनी यात्रा की है। इस प्रकार हम देखते हैं कि अहिंसा का अर्थविकास त्रिआयामी (श्री डाईमेन्शनल) है। अतः जब भी हम अहिंसा की अवधारणा लेकर कोई चर्चा करना चाहते हैं तो हमें उसके सभी पहलुओं की ओर ध्यान देना होगा।
जैनागमों के संदर्भ में अहिंसा के अर्थ की व्याप्ति को लेकर कोई चर्चा करने के पूर्व हमें यह देख लेना होगा कि अहिंसा की इस अवधारणा ने कहाँ कितना अर्थ पाया है?
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यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्म में अहिंसा का अर्थविस्तार
मूसा ने धार्मिक जीवन के लिए जो दस आदेश प्रसारित किये थे उनमें एक है 'तुम हत्या मत करो, किन्तु इस आदेश का अर्थ यहूदी समाज के लिए व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए अपनी जातीय भाई की हिंसा नहीं करने से अधिक नहीं रहा। धर्म के नाम पर तो हम स्वयं पिता को अपने पुत्र की बलि देते हुए देखते हैं। इस्लाम ने चाहे अल्लाह को 'रहिमानुर्रहोम' – करुणाशील कहकर सम्बोधित किया
हो, और चाहे यह भी मान लिया हो कि सभी जीवधारियों को जीवन उतना ही प्रिय है, जितना तुम्हें अपना है, किन्तु उसमें अल्लाह की इस करुणा का अर्थ स्वधर्मियों तक ही सीमित रहा इतर मनुष्यों के प्रति इस्लाम आज तक संवेदनशील नहीं बन सका । पुन: यहूदी और इस्लाम दोनों ही धर्मों में धर्म के नाम पर पशुबलि को सामान्य रूप से आज तक स्वीकृत किया जाता है। इस प्रकार इन धर्मों में मनुष्य की संवेदनशीलता स्वजाति और स्वधर्मी अर्थात् अपनों से अधिक अर्थविस्तार नहीं पा सकी है। इस संवेदनशीलता का अधिक विकास हमें ईसाई धर्म में दिखाई देता है। ईसा शत्रु के प्रति भी करुणाशील होने की बात कहते हैं। वे अहिंसा, करुणा और सेवा के क्षेत्र में अपने और पराये, स्वधर्मी और विधर्मी, शत्रु और मित्र के भेद से ऊपर उठ जाते हैं। इस प्रकार उनकी करुणा सम्पूर्ण मानवता के प्रति बरसी है। यह बात अलग है कि मध्ययुग में ईसाईयों ने धर्म के नाम पर खून की होली खेली हो और ईश्वर-पुत्र के आदेशों की अवहेलना की हो किन्तु ऐसा तो हम सभी करते हैं। धर्म के नाम पर पशु बलि की स्वीकृति भी ईसाई धर्म में नहीं देखी जाती है। इस प्रकार उसमें अहिंसा की अवधारणा अधिक व्यापक बनी है उसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमें सेवा तथा सहयोग के मूल्यों के माध्यम से अहिंसा को एक विधायक दिशा भी प्रदान की है। फिर भी सामान्य जीवन में पशुवध और मांसाहार के निषेध की बात वहीं नहीं उठाई गई है। अतः उसकी अहिंसा की अवधारणा मानवता तक ही सीमित मानी जा सकती है. वह भी समस्त प्राणी जगत् की पीड़ा के प्रति संवेदनशील नहीं बन सका।
भारतीय चिन्तन में अहिंसा का अर्थ विस्तार
चाहे वेदों में 'पुमांसं परिपातु विश्वतः' (ऋग्वेद ६.७५.१४) के रूप में एक दूसरे की सुरक्षा की बात कही गई हो अथवा 'मित्रास्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे' (यजुर्वेद, ३६.१८) के रूप में सर्व प्राणियों के प्रति मित्रभाव की कामना की गई हो किंतु वेदों की यह अहिंसक चेतना मानवजाति तक ही सीमित रही है। मात्र इतना ही नहीं, वेदों में अनेक ऐसे प्रसंग हैं जिनमें शत्रु वर्ग के विनाश के लिए प्रार्थनाएँ भी की गई हैं। यज्ञों में पशुबलि स्वीकृत रही, वेद - विहित हिंसा को हिंसा की कोटि में नहीं माना गया। इस प्रकार उनमें धर्म के नाम पर की जाने वाली हिंसा को समर्थन ही दिया गया। वेदों में अहिंसा की अवधारणा का अर्थविस्तार उतना ही है जितना की यहूदी और इस्लाम धर्म में अहिंसक चेतना का सर्वाधिक विकास हुआ है श्रमण परम्परा में। इसका मुख्य कारण यह था कि गृहस्थ जीवन में रहकर पूर्ण अहिंसा के आदर्श को साकार कर पाना सम्भव नहीं था। जीवनयापन अर्थात् आहार, सुरक्षा आदि के लिए हिंसा आवश्यक तो है ही, अतः उन सभी धर्म परम्पराओं में जो मूलतः निवृत्तिपरक या संन्यासमार्गीय नहीं थीं, अहिंसा को उतना अर्थविस्तार
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प्राप्त नहीं हो सका जितना श्रमण धारा या संन्यासमार्गीय परम्परा में हो। फिर भी यह अतिशयोक्ति नहीं है कि अहिंसा को जितना व्यापक सम्भव था। यद्यपि श्रमण परम्पराओं के द्वारा हिंसापरक यज्ञ-यागों की अर्थ जैन परम्परा में दिया गया है, उतना अन्यत्र अनुपलब्ध ही है। आलोचना और मानवीय विवेक एवं संवेदनशीलता के विकास का एक परिणाम यह हुआ कि वैदिक परम्परा में भी एक ओर वेदों के जैन-परम्परा में अहिंसा का अर्थविस्तार पशु-हिंसापरक पदों का अर्थ अहिंसक रीति से किया जाने लगा।महाभारत संभवत: विश्व साहित्य में उपलब्ध प्राचीनतम जैन ग्रन्थ आचारांग के शान्तिपर्व में राजा वसु का आख्यान (अध्याय ३३७-३३८) इसका ही ऐसा है, जिसमें अहिंसा को सर्वाधिक अर्थविस्तार दिया गया है। प्रमाण है। तो दूसरी ओर धार्मिक जीवन के लिए कर्मकाण्ड को अनुपयुक्त उसमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस प्राणी के रूप मानकर औपनिषदिक धारा के रूप में ज्ञानमार्ग का और भागवत धर्म में षट्जीवनिकाय के हिंसा का निषेध किया गया है। उसके प्रथमध्याय के रूप में भक्तिमार्ग का विकास हुआ। इसमें अहिंसा का अर्थविस्तार का नाम ही शस्त्र-परिज्ञा है, जो अपने नाम के अनुरूप ही हिंसा के सम्पूर्ण प्राणीजगत् अर्थात् त्रस चीजों की हिंसा के निषेध तक हुआ कारण और साधनों का विवेक कराता है। हिंसा-अहिंसा के विवेक है। वैदिक परम्परा में संन्यासी को कन्दमूल एवं फल का उपभोग करने के सम्बन्ध में षट्जीवनिकाय की अवधारणा आचारांग की अपनी की स्वतन्त्रता है, इस प्रकार वहाँ वानस्पतिक हिंसा का विचार उपस्थित विशेषता है जो कि परवर्ती सम्पूर्ण जैन साहित्य में स्वीकृत रही है। नहीं है। फिर भी यह तो सत्य है कि अहिंसक चेतना को सर्वाधिक आचारांग में न केवल अहिंसा की अवधारणा को अर्थ-विस्तार दिया विकसित करने का श्रेय श्रमण परम्पराओं को ही है। भारत में ई०पू० गया है अपितु उसे अधिक गहन और मनोवैज्ञानिक बनाने का भी ६ ठीं शताब्दी का जो भी इतिवृत्त हमें प्राप्त होता है उससे ऐसा लगता प्रयत्न किया गया है। है कि उस युग में पूर्ण अहिंसा के आदर्श को साकार बनाने में श्रमण आचारांग में धर्म की दो प्रमुख व्याख्यायें उपलब्ध हैं। प्रथम सम्प्रदायों में होड़ लगी हुई थी। कम से कम हिंसा ही श्रामण्य-जीवन व्याख्या है-सेमियाए धम्मे आरियेहिं पवेइए (१/८/३), आर्यजनों की श्रेष्ठता का प्रतिमान था। सूत्रकृतांग में आर्द्रक कुमार की विभिन्न ने समता (समभाव) को धर्म कहा है। धर्म की दूसरी व्याख्या हैमत वाले श्रमणों से जो चर्चा है उसमें मूल प्रश्न यही है कि कौन सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता, न हंतव्वा। एस धम्मे सुद्धे, सबसे अधिक अहिंसक है (देखिये, सूत्रकृतांग २/६)। त्रस प्राणियों निइए, सासए, समिच्च लोयं खेयन्नेहिं पवेइए (१/४१), किसी भी (पश, पक्षी, कीट-पतंग आदि) की हिंसा तो हिंसा थी ही किन्तु प्राणी, जीव और सत्व की हिंसा नहीं करना, यही शुद्ध, नित्य और वानस्पतिक और सूक्ष्म प्राणियों की हिंसा को भी हिंसा माना जाने शाश्वत धर्म है, जिसका उपदेश समस्त लोक की पीड़ा को जानकर लगा। मात्र इतना ही नहीं, मनसा, वाचा, कर्मणा और कृत, कारित दिया गया है। वस्तुत: धर्म की ये दो व्याख्याएँ दो भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों
और अनुमोदित के प्रकारभेदों से नवकोटिपूर्ण अहिंसा का विचार प्रविष्ट पर आधारित हैं। 'समभाव' के रूप में धर्म की परिभाषा समाज-निरपेक्ष हुआ, अर्थात् मन, वचन और शरीर से हिंसा करना नहीं, करवाना वैयक्तिक धर्म की परिभाषा है, क्योंकि समभाव सैद्धान्तिक और नहीं और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करना। बौद्ध और आजीवक मनोवैज्ञानिक दृष्टि से हमारे स्व-स्वभाव का परिचायक है। जबकि अहिंसा परम्परा के श्रमणों ने भी इस नवकोटिक अहिंसा के आदर्श को स्वीकार एक व्यावहारिक एवं समाज-सापेक्ष धर्म है, क्योंकि वह लोक की पीड़ा कर उसके अर्थ को गहनता और व्यापकता प्रदान की। फिर भी बौद्ध के निवारण के लिए है। अहिंसा समभाव की साधना की बाह्य अभिव्यक्ति परम्परा में षट्जीवनिकाय का विचार उपस्थित नहीं था। बौद्ध भिक्षु है। समभाव अहिंसा का सारतत्त्व है और अहिंसा की आधार-भूमि है। नदी-नालों के जल को छानकर उपयोग करते थे। दूसरे उनके यहाँ नवकोटि अहिंसा की. यह अवधारणा भी स्वयं की अपेक्षा से थी- अहिंसा का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण दूसरा हमारे निमित्त क्या करता है इसका विचार नहीं किया गया, जबकि आचारांग में अहिंसा के सिद्धान्त को मनोवैज्ञानिक आधार पर जैन परम्परा में श्रमण के निमित्त से की जाने वाली हिंसा का भी विचार भी स्थापित करने का प्रयास किया गया है। वहां अहिंसा को आर्हत् किया गया। निर्ग्रन्थ परम्परा का कहना था कि केवल इतना ही पर्याप्त प्रवचन का सार और शुद्ध एवं शाश्वत धर्म बताया गया है। सर्वप्रथम नहीं है कि हम मनसा, वाचा, कर्मणा हिंसा न करें, न करावें और हमें यह विचार करना है कि अहिंसा को ही धर्म क्यों माना जावे? न उसे अनुमोदन दें अपितु यह भी आवश्यक है कि दूसरों को हमारे सूत्रकार इसका बड़ा मनोवैज्ञानिक उत्तर प्रस्तुत करता है, वह कहता निमित्त हिंसा करने का अवसर भी नहीं देवें और उनके द्वारा की गई है कि सभी प्राणियों में जिजीविषा प्रधान है, पुन: सभी को सुख अनुकूल हिंसा में भागीदार न बनें। यही कारण था कि जहाँ बुद्ध और बौद्ध और दुःख प्रतिकूल है-सव्ये पाणा पिआउया सुहसाया दुःखपडिकूला, भिक्षु निमन्त्रित भोजन को स्वीकार करते थे वहाँ निर्ग्रन्थ परम्परा में (१/२/३)। अहिंसा का अधिष्ठान यही मनोवैज्ञानिक सत्य है। अस्तित्व
औद्देशिक आहार भी अग्राह्य माना गया था, क्योंकि उसमें नमत्तिक और सुख की चाह प्राणीय स्वभाव है। जैन विचारकों ने इसी मनोवैज्ञानिक हिंसा के दोष की सम्भावना थी। यद्यपि पिटकग्रंथों में बौद्ध भिक्षु के तथ्य के आधार पर अहिंसा को स्थपित किया है। यद्यपि मैकेंजी ने लिए ऐसा भोजन निषिद्ध माना गया है, जिसमें उसके लिए प्राणिहिंसा अपने ग्रन्थ Hindu Ethics में अहिंसा का आधार 'भय' को माना है की गई हो और वह इस बात को जानता हो या उसने ऐसा सुना किन्तु उसकी यह धारणा गलत है क्योंकि भय के सिद्धांत को यदि
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अहिंसा का आधार बनाया जावेगा तो व्यक्ति केवल सबल की हिंसा शाश्वत अहिंसाधर्म का प्रवर्तन लोक की पीड़ा को जानकर ही किया से विरत होगा, निर्बल की हिंसा से नहीं। भय को आधार मानने पर गया है फिर भी तीर्थंकरों की यह असीम करुणा विधायक बनकर बह तो जिससे भय होगा उसी के प्रति अहिंसक बुद्धि बनेगी। जबकि आचारांग रही हो ऐसा प्रतीत नहीं होता है। आचारांग और सूत्रकृतांग में पूर्ण तो सभी प्राणियों के प्रति यहाँ तक कि वनस्पति, जल और पृथ्वीकायिक अहिंसा का यह आदर्शन निषेधात्मक ही रहा है। जीवों के प्रति भी अहिंसक होने की बात कहता है। अत: आचारांग यद्यपि यहाँ यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि ऐसा क्यों हुआ? में अहिंसा को भय के आधार पर नहीं अपितु जिजीविषा और सुखाकांक्षा इसका उत्तर यही है कि अहिंसा को विधायकरूप देने का कोई भी के मनोवैज्ञानिक सत्यों के आधार पर अधिष्ठित किया गया है। पुनः प्रयास हिंसा के बिना सम्भव नहीं होगा; जब भी हम जीवन-रक्षण इन मनोवैज्ञानिक सत्यों के साथ ही उसमें अहिंसा को तुल्यता बोध (दया), दान, सेवा से और सहयोग की कोई क्रिया करेंगे तो निश्चित का बौद्धिक आधार भी दिया गया है। वहाँ कहा गया है कि 'जो अज्झत्थं ही वह बिना हिंसा के सम्भव नहीं होगी। नव-कोटिपूर्ण अहिंसा का जाणई से बहिया जाणई एयं तुल्लमन्नसिं',(१/१/७)जो अपनी पीड़ा आदर्श कभी भी जीवन-रक्षण, दान, सेवा और सहयोग के मूल्यों का को जान पाता है, वही तुल्यता-बोध के आधार पर दूसरों की पीड़ा सहगामी नहीं हो सकता। यही कारण था कि आचरांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध को भी समझ सकता है। प्राणीय पीड़ा की तुल्यता के बोध के आधार के दूसरे अध्याय के ५ वें उद्देशक में मुनि के लिए चिकित्सा करने पर होने वाला आत्मसंवेदन ही अहिंसा का आधार है। सूत्रकार तो और करवाने का भी निषेध कर दिया गया। सत्य तो यह है कि अहिंसा के इस सिद्धान्त को अधिक गहराई तक अधिष्ठित करने के जीवन-रक्षण और पूर्ण अहिंसा के आदर्श का परिपालन एक साथ प्रयास में यहां तक कह देता है कि जिसे तू मारना चाहता है, पीड़ा सम्भव नहीं है। पुन: सामुदायिक और पारिवारिक जीवन में तो उसका देना चाहता है, सताना चाहता है वह तू ही है (आचारांग, १/५/ परिपालन अशक्य ही है। हम देखते हैं कि अहिंसक जीवन जीने के ५)। आगे वह कहता है कि जो लोक का अपलाप करता है वह स्वयं लिए जिस आदर्श की कल्पना आचारांग में की गई थी उससे जैन अपनी आत्मा का अपलाप करता है (आचारांग, १/१/३)। अहिंसा परम्परा को भी नीचे उतरना पड़ा है। आचारांग के दूसरे श्रुतस्कन्ध को अधिक गहन मनोवैज्ञानिक आधार देने के प्रयास में वह जैन दर्शन में ही अहिंसक मुनि-जीवन में कुछ अपवाद स्वीकार कर लिये हैं, के आत्मा संबंधी अनेकात्मवाद के स्थान पर एकात्मवाद की बात करता जैसे—नौकागमन, गिरने की सम्भावना होने पर लता-वृक्ष आदि का प्रतीत होता है क्योंकि यहां वह इस मनोवैज्ञानिक सत्य को देख रहा सहारा लेकर उतरना आदि। इसी प्रसंग में हिंसा-अहिंसा विवेक के है कि केवल आत्मभाव में हिंसा असम्भव हो सकती है। जब तक सम्बन्ध में अल्प-बहुत्व का विचार सामने आया। जब हिंसा अपरिहार्य दूसरे के प्रति पर-बुद्धि है, परायेपन का भाव है तब तक हिंसा की ही बन गई हो तो बहु-हिंसा की अपेक्षा अल्प-हिंसा को चुनना ही संभावनायें उपस्थित है। व्यक्ति के लिए हिंसा तभी असंभव हो सकती उचित माना गया। सूत्रकृतांग के आर्द्रक नामक अध्याय में हस्ति-तापसों है जब उसमें प्राणी जगत् के प्रति अपनत्व या आत्मीय-दृष्टि जागृत की चर्चा है। ये हस्तितापस यह मानते थे कि आहार के लिए अनेक हो। अहिंसा की स्थापना के लिए जो मनोवैज्ञानिक भूमिका अपेक्षित वानस्पतिक एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा करने की अपेक्षा एक महाकाय थी उसे प्रस्तुत करने में सूत्रकार ने आत्मा की वैयक्तिकता की धारणा हाथी को मार लेना अल्प हिंसा है और इस प्रकार वे अपने को अधिक का भी अतिक्रमण कर उसे अभेद की धारणा पर स्थापित करने का अहिंसक सिद्ध करते थे। जैन परम्परा ने इसे अनुपयुक्त बताया और प्रयास किया है। हिंसा के निराकरण के प्रयास में भी सूत्रकार ने एक कहा कि हिंसा-अहिंसा के विवेक में कितने प्राणियों की हिंसा हुई स्थान पर जिस मनोवैज्ञानिक सत्य को उजागर किया है वह यह है इस विचार से काम नहीं चलेगा, अपितु किस प्राणी की हिंसा हुई कि हिंसा से हिंसा का और घृणा से घृणा का निराकरण संभव नहीं यह और भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। भगवतीसूत्र में इसी प्रश्न को लेकर है। वह तो स्पष्ट रूप से कहता है, शस्त्रों के आधार पर अभय और यह कहा गया है कि स्थावर जीवों की अपेक्षा त्रस-जीव की और त्रस हिंसा के आधार पर शान्ति की स्थापना संभव नहीं है क्योंकि एक जीवों में पंचेन्द्रिय की, पंचेन्द्रियों में मनुष्य की और मनुष्य में ऋषि शस्त्र का प्रतिकार दूसरे शस्त्र के द्वारा संभव है, शान्ति की स्थापना की हिंसा अधिक निकृष्ट है, मात्र यही नहीं, जहाँ त्रस जीव की हिंसा तो निर्वैरता या प्रेम के द्वारा ही संभव है क्योंकि अशस्त्र से बढ़कर करने वाला अनेक जीवों की हिंसा का भागी होता है, वहाँ ऋषि की अन्य कुछ नहीं है (आचारांग, १/३/४)।
हिंसा करने वाला अनन्त जीवों की हिंसा का भागी होता है। अत: आचारांग और सूत्रकृतांग में श्रमण-साधक के लिए जिस जीवनचर्या हिंसा-अहिंसा के विवेक में संख्या का प्रश्न इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है का विधान है उसे देखकर हम सहज ही यह कह सकते हैं कि वहां जितना कि प्राणी की ऐन्द्रिक एवं आध्यात्मिक क्षमता का विकास। जीवन में पूर्ण अहिंसा के आदर्श को साकार बनाने का एक प्रयत्न अवश्य यह मान्यता कि सभी आत्माएँ समान हैं, अतः सभी हिंसाएँ समान हुआ है। किन्तु उनमें अहिंसक मुनि जीवन का, जो आदर्शचित्र उपस्थित हैं, समुचित नहीं है। कुछ परम्पराओं ने सभी प्राणियों की हिंसा को किया गया है, वह अहिंसा के निषेधात्मक पहलू को ही प्रकट करता समान स्तर का मानकर अहिंसा के विधायक पक्ष का जो निषेध कर है। अहिंसा के विधायक पहलू की वहां कोई चर्चा नहीं है। यद्यपि दिया वह तर्कसंगत नहीं है। उसके पीछे भ्रांति यह है कि हिंसा का आचारांग में यह स्पष्टरूप से कहा गया है कि इस शुद्ध, नित्य और सम्बन्ध आत्मा से जोड़ दिया गया है। हिंसा आत्मा की नहीं प्राणों
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
की होती है। अत: जिन प्राणियों की प्राणसंख्या अर्थात् जैविक शक्ति बाह्य पक्ष पर गहनतापूर्वक विचार किया है। वह यह मानती है कि अधिक विकसित है, उनकी हिंसा अधिक निकृष्ट है। पुनः हिंसा में किन्हीं अपवादात्मक अवस्थाओं को छोड़कर सामान्यतया जो विचार स्तर भेद स्वीकार करके ही अहिंसा को विधायक रूप दिया जा सकता में है, जो आन्तरिक है, वही व्यवहार में प्रकट होता है। अन्तरंग और है। हिंसा और अहिंसा के सम्बन्ध में यह प्रश्न इसलिए भी अधिक बाह्य अथवा विचार और आचार के सम्बन्ध में द्वैत-दृष्टि उसे स्वीकार्य महत्त्वपूर्ण बन गया कि इसका सीधा सम्बन्ध मांसाहार और शाकाहार नहीं है। उसकी दृष्टि में अन्त: में अहिंसकवृत्ति के होते हुए बाह्य रूप के प्रश्न से जुड़ा हुआ था। यदि हम शाकाहार का समर्थन करना चाहते में हिंसक आचारण कर पाना एक प्रकार की भ्रांति है, छलन है, हैं तो हमें यह मानना होगा कि हिंसा-अहिंसा के सम्बन्ध में संख्या आत्मा-प्रवंचना है। सूत्रकृतांग सूत्र में कहा गया है कि 'यदि हृदय का प्रश्न महत्त्वपूर्ण नहीं है। महत्त्वपूर्ण है उसका ऐन्द्रिक और पापमुक्त हो तो (हिंसादि) क्रिया करने पर भी निर्वाण अवश्य मिलता आध्यात्मिक विकास। मात्र यही नहीं, सूत्रकृतांग में अल्प आरम्भ है' यह एक मिथ्या धारणा है। यदि गीता का यह मन्तव्य हो कि अन्त: (अल्पहिंसा) युक्त गृहस्थ धर्म को भी एकान्त सम्यक् कहकर में अहिंसक वृत्ति के होते हुए भी हिंसात्मक क्रिया की जा सकती हिंसा-अहिंसा के प्रश्न को एक दूसरी ही दिशा प्रदान की गई। अहिंसा है तो जैन विचारणा का स्पष्ट रूप से उसके साथ विरोध है। जैन का सम्बन्ध बाहर की अपेक्षा अन्दर से जोड़ा जाने लगा। हिंसा-अहिंसा विचारणा कहती है कि अन्त: में अहिंसक वृत्ति के होते हुए हिंसा के विवेक में बाह्य घटना की अपेक्षा साधक की मनोदशा को अधिक की नहीं जा सकती, यद्यपि हिंसा हो सकती है। हिंसा किया जाना महत्त्वपूर्ण माना जाने लगा। यद्यपि सूत्रकृतांग के आर्द्रक नामक अध्याय सदैव ही संकल्पात्मक होगा और आन्तरिक विशुद्धि के होते हुए में बौद्ध धर्म की इस धारणा की आलोचना की गई है कि 'हिंसा-अहिंसा हिंसात्मक कर्म का संकल्प सम्भव ही नहीं है (सूत्रकृतांग, २/६/३५)। का प्रश्न व्यक्ति की मनोदशा के साथ जुड़ा हुआ, है न कि बाह्य घटना वस्तुत: हिंसा-अहिंसा की विवक्षा में जैन दृष्टि का सार यह है पर।' किन्तु हम देखते हैं कि जैन परम्परा के परवर्ती ग्रंथों में मनोदशा कि हिंसा चाहे बाह्य हो या आन्तरिक, वह आचारण का नियम नहीं को ही हिंसा-अहिंसा के विवेक का आधार बनाया गया है। जहाँ हो सकती है। दूसरे, हिंसा-अहिंसा की विवक्षा में बाह्य पक्ष की अवहेलना द्रव्य-हिंसा (बाह्य घटना) और भाव-हिंसा (मनोदशा) का प्रश्न सामने मात्र कतिपय अपवादात्मक अवस्थाओं में ही क्षम्य हो सकती है। हिंसा आया वहाँ यह माना जाने लगा कि भाव हिंसा ही वास्तविक हिंसा का हेतु मानसिक प्रवृत्तियां, कषायें हैं, यह मानना तो ठीक है, लेकिन है। भगवती (७/१/६-७), प्रवचनसार (३/१७), ओघनियुक्ति यह मानना कि मानसिक-वृत्तियों या कषायों के अभाव में की गई (७४८-७५८), निशीथचूर्णि (९२) आदि ग्रन्थों में एक स्वर से यह द्रव्यहिंसा हिंसा नहीं है, यह उचित नहीं कहा जा सकता। यह ठीक बात स्वीकार की गई है कि जो अप्रमत्त और कषायरहित है, उसके है कि संकल्पजन्य हिंसा अधिक निकृष्ट है, लेकिन संकल्प के अभाव द्वारा बाह्य रूप से होनेवाली हिंसा वस्तुत: हिंसा नहीं है। यह भी माना में होने वाली हिंसा हिंसा नहीं है या उससे कर्म-आस्रव नहीं होता गया कि जिस हिंसा में हिंसा करते हुए जितनी मनोभावों की क्रूरता है, यह जैन कर्म सिद्धान्त के अनुकूल नहीं है। व्यावहारिक जीवन अपेक्षित है वह हिंसा उतनी निकृष्ट कोटि की है। वनस्पति की हिंसा में हमें इसको हिंसा मानना होगा। की अपेक्षा पशु की हिंसा में और पशु की हिंसा की अपेक्षा मनुष्य की हिंसा में अधिक क्रूरता अपेक्षित है। अत: हिंसक भावों या कषायों पूर्ण अहिंसा के आदर्श की संभावना का प्रश्न की तीव्रता के कारण मनुष्य की हिंसा अधिक निकृष्ट कोटि की होगी। यद्यपि अन्त: और बाह्य रूप से पूर्ण अहिंसा के आदर्श की
. इस प्रकार हम देखते हैं कि हिंसा-अहिंसा का विवेक रखते समय उपलब्धि जैन विचारणा का साध्य है, लेकिन व्यवहार के क्षेत्र में इस बाह्य घटना पर ही नहीं वरन् कर्ता की मनोवृत्ति पर भी विचार करना आदर्श की उपलब्धि सहज नहीं है। अहिंसा एक आध्यात्मिक आदर्श होता है।
है और आध्यात्मिक स्तर पर ही इसकी पूर्ण उपलब्धि सम्भव है लेकिन
व्यक्ति का वर्तमान जीवन अध्यात्म और भौतिकता का एक सम्मिश्रण अहिंसा के बाह-पक्ष की अवहेलना उचित नहीं
है। जीवन के आध्यात्मिक स्तर पर पूर्ण अहिंसा सम्भव है लेकिन यह ठीक है कि हिंसा-अहिंसा के विचार में भावात्मक या आन्तरिक भौतिक स्तर पर पूर्ण अहिंसा की कल्पना समीचीन नहीं है। अहिंसक पहलू महत्त्वपूर्ण है किन्तु बाह्य पक्ष को अवहेलना उचित नहीं है। जीवन की सम्भावनाएं भौतिक स्तर से ऊपर उठने पर विकसित होती वैयक्तिक साधनाकी दृष्टि से आध्यात्मिक एवं आन्तरिक पक्ष ही सर्वाधिक हैं- व्यक्ति जैसे-जैसे भौतिकता के स्तर से ऊपर उठता जाता है, मूल्यवान् होता है। लेकिन जहाँ सामाजिक एवं व्यावहारिक जीवन का अहिंसक जीवन की पूर्णता की दिशा में बढ़ता जाता है। इसी आधार प्रश्न है वहाँ हिंसा-अहिंसा की विवक्षा में बाह्य पहलू को झुठलाया पर जैन विचारणा में अहिंसा की दिशा में बढ़ने के लिए कुछ स्तर नहीं जा सकता। क्योंकि व्यावहारिक जीवन और सामाजिक व्यवस्था निर्धारित किये गये हैं। की दृष्टि से जिस पर विचार किया जा सकता है वह तो आचरण हिंसा का यह रूप जिसे संकल्पजा हिंसा कहा जाता है, का बाह्य-पक्ष ही है।
सभी के लिये त्याज्य है। संकल्पजा हिंसा हमारे वैचारिक या मानसिक गीता और बौद्ध आचार दर्शन की अपेक्षा जैन विचारणा ने इस जगत् पर निर्भर है। मानसिक संकल्प के कर्ता के रूप में व्यक्ति में
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जैनधर्म में अहिंसा की अवधारणा : एक विश्लेषण
स्वतन्त्रता की सम्भावनाएं सर्वाधिक विकसित हैं। अपने मानसिक जगत् जैन विचारणा में गृहस्थ उपासक के लिए उद्योग, व्यवसाय एवं जीवनके क्षेत्र में व्यक्ति अपेक्षाकृत अधिक स्वतन्त्र है। इस स्तर पर परी रक्षण के लिए भी त्रस प्राणियों की हिंसा का निषेध किया गया है। तरह से अहिंसा का पालन अधिक सहज एवं सम्भव है। बाह्य स्थितियां लेकिन जब व्यक्ति शरीर और सम्पत्ति के मोह से ऊपर उठ जाता इस स्तर पर हमें प्रभावित कर सकती है, लेकिन शासित नहीं कर है तो वह पूर्ण अहिंसा की दिशा में और आगे बढ़ जाता है। जहां सकती। व्यक्ति स्वयं अपने विचारों का स्वामी होता है, अत: इस तक श्रमण साधक या संन्यासी का प्रश्न है, वह निष्परिग्रही होता है, स्तर पर अहिंसक होना सभी के लिए आवश्यक है। व्यावहारिक दृष्टि उसे अपने शरीर पर भी ममत्व नहीं होता अत: वह सर्वतोभावेन हिंसा से संकल्पजा हिंसा आक्रमणात्मक हिंसा है। यह न तो जीवन के रक्षण के विरत होने का व्रत लेता है। शरीरधारण मात्र के लिए कुछ अपवादों के लिए है और न जीवन-निर्वाह के लिए है, अत: इसे सभी के को छोड़कर वह संकल्पपूर्वक और विवशतावश दोनों ही परिस्थितियों द्वारा छोड़ा जा सकता है।
में त्रस और स्थावर की हिंसा से पूर्ण विरत हो जाता है। मुनि नथमलजी हिंसा का दूसरा रूप विरोधजा है। यह प्रत्याक्रमण या सुरक्षात्मक के शब्दों में कोई भी व्यक्ति एक ही डग में चोटी तक नहीं पहुँच सकता। है। स्व एवं पर के जीवन एवं स्वत्वों के रक्षण के लिए इसे करना वह धीमे-धीमे आगे बढ़ता है। भगवान् महावीर ने अहिंसा की पहुँच पड़ता है। इसमें बाह्य परिस्थितिगत तत्त्वों का प्रभाव प्रमख होता है। के कुछ स्तर निर्धारित किये हैं। वे वस्तुस्थिति पर आधारित हैं। उन्होंने बाह्य स्थितियां व्यक्ति को बाध्य करती हैं कि वह अपने एवं अपने हिंसा को तीन भागों में विभक्त किया-(१) संकल्पजा. (२) विरोधजा साथियों के जीवन एवं स्वत्वों के रक्षण के लिए प्रत्याक्रमण के रूप और (३) आरम्भजा। संकल्पजा हिंसा आक्रमणात्मक हिंसा है। वह सबके में हिंसा करे। जो भी व्यक्ति शरीर एवं अन्य भौतिक संस्थानों पर लिए सर्वथा परिहार्य है। विरोधजा हिंसा प्रत्याक्रमण हिंसा है। उसे अपना स्वत्व रखना चाहते हैं, अथवा जो भी अपने और अपने साथियों छोड़ने में वह असमर्थ होता है, जो भौतिक संस्थानों पर अपना अस्तित्व के अधिकारों में आस्था रखते हैं, इस विरोधजा हिंसा को छोड़ने में रखना चाहता है। आरम्भजा हिंसा आजीविकात्मक हिंसा है। उसे छोड़ने असमर्थ हैं। गृहस्थ उपासक हिंसा के इस रूप को पूरी तरह छोड़ में वे सब असमर्थ होते हैं, जो भौतिक साधनों के अर्जन-संरक्षण द्वारा पाने में असमर्थ होते हैं क्योंकि वे शरीर एवं अन्य भौतिक वस्तुओं अपना जीवन चलाना चाहते हैं (तट दो, प्रवाह एक, पृष्ठ ४०)। पर अपना स्वत्व रखना चाहते हैं। इसी प्रकार शासक वर्ग एवं राजनैतिक प्रथम स्तर पर हम आसक्ति, तृष्णा आदि के वशीभूत होकर नेता जो मानवीय अधिकारों में एवं राष्ट्रीय हितों में आस्था रखते हैं, की जानेवाली अनावश्यक आक्रमणात्मक हिंसा से बचें; फिर दूसरे इसे पूरी तरह छोड़ पाने में असमर्थ हैं।
स्तर पर जीवनयापन एवं आजीविकोपार्जन के निमित्त होने वाली त्रस आधुनिक युग में गांधी एक ऐसे विचारक अवश्य हैं, जिन्होंने प्राणियों की हिंसा से विरत होवें; तीसरे स्तर पर विरोध के अहिंसक विरोध का अहिंसक तरीका प्रस्तुत किया और उसमें सफलता भी प्राप्त तरीके को अपना कर प्रत्याक्रमणात्मक हिंसा से विरत होवें। इस प्रकार की। किन्त अहिंसक के रूप में विरोध कर पाना, उसमें सफलता प्राप्त जीवन के लिये आवश्यक बनी हुई हिंसा से क्रमशः ऊपर उठते हए कर लेना हर किसी के लिए सम्भव नहीं है। अहिंसक रीति से अधिकारों चौथे स्तर पर शरीर और परिग्रह की आसक्ति का परित्याग कर का संरक्षण करने में वही व्यक्ति सफल हो सकता है जिसे शरीर के सर्वतोभावेन पूर्ण अहिंसा की दिशा में आगे बढ़ें। प्रति मोह न हो, पदार्थों में आसक्ति न हो और जिसके हृदय में विद्वेष इस प्रकार पूर्ण अहिंसा का आदर्श पूर्णतया अव्यावहारिक नहीं का भाव न हो। यही नहीं, अहिंसक रीति से अधिकारों के संरक्षण रहता है। व्यक्ति जैसे-जैसे सम्पत्ति और शरीर के मोह से ऊपर उठता की कल्पना एक सभ्य एवं सुसंस्कृत मानव समाज में ही सम्भव हो जाता है अहिंसा का आदर्श उसके लिए व्यवहार्य बनता जाता है। सकती है। यदि विरोधी पक्ष मानवीय स्तर पर हो, तब तो अहिंसक- पूर्ण अनासक्त जीवन में पूर्ण अहिंसा व्यवहार्य बन जाती है। यद्यपि विरोध सफल हो जाता है, लेकिन यदि विरोधी पक्ष पाशविक स्तर यह ध्यान रखना होगा कि शरीरधारी रहते हुए पूर्ण अहिंसा एक आदर्श पर हो तो अहिंसक विरोध की सफलता सन्देहास्पद बन जाती है। ही रहेगी, वह यथार्थ नहीं बन पावेगी। जब शरीर के संरक्षण का मोह पुन: मानव में मानवीय गुणों की सम्भावना की आस्था ही अहिंसक समाप्त होगा तभी वह आदर्श यथार्थ की भूमि पर अवतरित होगा। विरोध का केन्द्रीय तत्त्व है। मानवीय गुणों में हमारी आस्था जितनी फिर भी एक बात ध्यान में रखनी होगी, वह यह कि जब तक शरीर बलशाली होगी और विरोधी में मानवीय गुणों का जितना अधिक प्रकटन है और शरीर के संरक्षण की वृत्ति है, चाहे वह साधना के लिए ही होगा, अहिंसक-विरोध की सफलता भी उतनी ही अधिक होगी। क्यों न हो, यह कथमपि सम्भव नहीं है कि व्यक्ति पूर्ण अहिंसा के
जहां तक उद्योगजा और आरम्भजा हिंसा का प्रश्न है, एक गृहस्थ आदर्श को पूर्णरूपेण साकार कर सके। शरीर के लिए आहार आवश्यक उपासक उससे नहीं बच सकता क्योकि जब तक शरीर और सम्पत्ति है, कोई भी आहार बिना हिंसा के सम्भव नहीं होगा। चाहे हमारा का मोह है, आजीविका का अर्जन और शारीरिक आवश्यकता की मुनिवर्ग यह कहता भी हो कि हम औद्देशिक आहार नहीं लेते हैं किंतु पूर्ति दोनों ही आवश्यक हैं। इस स्तर पर हिंसा को त्रस प्राणियों की क्या उनकी विहार-यात्रा में साथ चलने वाला पूरा लवाजिमा, सेवा हिंसा और स्थावर प्राणियों की हिंसा, इन दो भागों में बांटा जा सकता में रहने के नाम पर लगने वाले चौके औद्देशिक नहीं? जब समाज है और व्यक्ति अपने को त्रस प्राणियों की हिंसा से बचा सकता है। में रात्रिभोजन सामान्य हो गया हो, क्या सन्ध्याकालीन गोचरी में
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अनौदेशिक आहार मिल पाना सम्भव है? क्या कश्मीर से कन्याकुमारी तक और बम्बई से कलकत्ता तक की सारी यात्राएं औदेशिक आहार के अभाव में निर्विघ्न सम्भव हो सकती हैं? क्या आर्हत प्रवचन की प्रभावना के लिए मंदिरों का निर्माण, पूजा और प्रतिष्ठा के समारोह, संस्थाओं का संचालन मुनिजनों के स्वागत और विदाई समारोह तथा अधिवेशन षनिकाय की नवकोटि युक्त अहिंसा के परिपालन के साथ कोई संगति रख सकते हैं? हमें अपनी अन्तरात्मा से यह सब पूछना होगा। हो सकता है कि कुछ विरल सन्त और साधक हों जो इन कसौटियों पर खरे उतरते हों, मैं उनकी बात नहीं कहता, वे शतशः वन्दनीय हैं, किन्तु सामान्य स्थिति क्या है? फिर भिक्षाचर्या, पाद - विहार, शरीर-संचालन, वासोच्छवास किसमें हिंसा नहीं है। महाभारत के शान्ति पर्व में कहा गया हैं, जल में जीव हैं, पृथ्वी पर और वृक्षों के फलों में अनेक जीव हैं, ऐसा कोई मनुष्य नहीं जो इन्हें नहीं मारता हो, पुनः कितने ही ऐसे सूक्ष्म प्राणी हैं जो इन्द्रियों से नहीं, अनुमान से जाने जाते हैं, मनुष्य की पलकों के झपकने मात्र से ही जिनके कंधे टूट जाते हैं। अतः जीव-हिंसा से बचा नहीं जा सकता (१५/ २५-२६)। एक ओर षट्जीवनिकाय की अवधारणा और दूसरी ओर पूर्ण नवकोटियुक्त पूर्ण अहिंसा का आदर्श, जीवित रहकर इन दोनों में संगति बिठा पाना अशक्य है। अत: जैन आचार्यों को भी यह कहना पड़ा कि 'अनेकानेक जीव-समूहों से परिव्याप्त विश्व में साधक का अहिंसकत्व अन्त में आध्यात्मिक विशुद्धि की दृष्टि से ही है' (ओघनियुक्ति ७४७)। लेकिन इसका यह अर्थ भी नहीं है कि हम अहिंसा को अव्यवहार्य मानकर तिलांजलि दे देवें । यद्यपि एक शरीरधारी के नाते यह हमारी विवशता है कि हम द्रव्य और भाव दोनों अपेक्षा से पूर्ण अहिंसा के आदर्श को उपलब्ध नहीं कर सकते हैं किन्तु उस दिशा में क्रमशः आगे बढ़ सकते हैं और जीवन की पूर्णता के साथ ही पूर्ण अहिंसा के आदर्श को भी उपलब्ध कर सकते हैं। कम से कम हिंसा की दिशा में आगे बढ़ते हुए साधक के लिए जीवन का अन्तिम क्षण अवश्य ही ऐसा है, जब वह पूर्ण अहिंसा के आदर्श को साकार कर सकता है जैनधर्म की पारिभाषिक शब्दावली में कहें तो पादोपगमन संथारा एवं चौदहवें अयोगी केवली गुणस्थान की अवस्थाएं ऐसी हैं जिनमें पूर्ण अहिंसा का आदर्श साकार हो जाता है।
पुनः अहिंसा की सम्भावना पर हमें न केवल वैयक्तिक दृष्टि से विचार करना है अपितु सामाजिक दृष्टि से भी विचार करना है। चाहे यह सम्भव भी हो, व्यक्ति शरीर, सम्पत्ति संघ और समाज से निरपेक्ष होकर पूर्ण अहिंसा के आदर्श को उपलब्ध कर सकता है; फिर भी ऐसी निरपेक्षता किन्हीं विरल साधकों के लिए ही सम्भव होगी, सर्व सामान्य के लिए तो सम्भव नहीं कही जा सकती है। अतः मूल प्रश्न यह है। कि क्या सामाजिक जीवन पूर्ण अहिंसा के आदर्श पर खड़ा किया जा सकता है? क्या पूर्ण अहिंसक समाज की रचना सम्भव है? इस प्रश्न का उत्तर देने के पूर्व मैं आपसे समाज रचना के स्वरूप पर कुछ बातें कहना चाहूँगा। एक तो यह कि अहिंसक चेतना अर्थात् संवेदनशीलता के अभाव में समाज की कल्पना ही सम्भव नहीं है। समाज जब भी
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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
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खड़ा होता है आत्मीयता, प्रेम और सहयोग के आधार पर खड़ा होता है अर्थात् अहिंसा के आधार पर खड़ा होता है क्योंकि हिंसा का अर्थ है—घृणा, विद्वेष, आक्रामकता और जहाँ भी ये वृत्तियाँ बलवती होंगी सामाजिकता की भावना ही समाप्त हो जावेगी, समाज ढह जावेगा। अतः समाज और अहिंसा सहगामी हैं। दूसरे शब्दों में यदि हम मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी मानते हैं तो हमें यह मानना होगा कि अहिंसा उसके लिए स्वाभाविक ही है जब भी कोई समाज खड़ा होगा और टिकेगा तो वह अहिंसा की भित्ति पर ही खड़ा होगा और टिकेगा। किंतु एक दूसरा पहलू भी है, वह यह कि समाज के लिए भी अपने अस्तित्व और अपने सदस्यों के हितों के संरक्षण का प्रश्न मुख्य है और जहाँ अस्तित्व की सुरक्षा और हितों के संरक्षण का प्रश्न है, वहाँ हिंसा अपरिहार्य है। हितों में टकराव स्वाभाविक है, अनेक बार तो एक का हित दूसरे के अहित पर, एक का अस्तित्व दूसरे के विनाश पर खड़ा होता है, ऐसी स्थिति में समाज जीवन में भी हिंसा अपरिहार्य होगी। पुनः समाज का हित और सदस्य - व्यक्ति का हित भी परस्पर विरोध में हो सकता है। जब वैयक्तिक और सामाजिक हितों के संघर्ष की स्थिति हो तो बहुजन हितार्थ हिंसा अपरिहार्य भी हो सकती है। जब समाज या राष्ट्र का कोई सदस्य या वर्ग अथवा दूसरा राष्ट्र अपने हितों के लिये हिंसा पर अथवा अन्याय पर उतारू हो जावे तो निश्चय ही अहिंसा की दुहाई देने से काम न चलेगा। जब तक जैन आचार्यों द्वारा उद्घोषित 'मानव जाति एक है' की कल्पना साकार नहीं हो पाती, जब तक सम्पूर्ण मानव समाज ईमानदारी के साथ अहिंसा के पालन के लिए प्रतिबद्ध नहीं होता, तब तक अहिंसक समाज की बात कहना कपोल कल्पना ही कहा जावेगा। आचारांग, सूत्रकृतांग आदि जैनागम जिस पूर्ण अहिंसा के आदर्श को प्रस्तुत करते हैं उसमें भी जब संघ की या संघ के किसी सदस्य की सुरक्षा या न्याय का प्रश्न आया तो हिंसा को स्वीकार करना पहा गणाधिपति चेटक और आचार्य कालक के उदाहरण इसके प्रमाण हैं। यही नहीं, निशीथचूर्ण में तो यहाँ तक स्वीकार कर लिया गया है कि संघ की सुरक्षा के लिए मुनि भी हिंसा का सहारा ले सकता है। ऐसे प्रसंगों में पशु हिंसा तो क्या मनुष्य की हिंसा भी उचित मान ली गई है। जब तक मानव समाज का एक भी सदस्य पाशविक प्रवृत्तियों में आस्था रखता है यह सोचना व्यर्थ ही है कि सामुदायिक जीवन में पूर्ण अहिंसा का आदर्श व्यवहार्य बन सकेगा। निशीथचूर्णि में अहिंसा के अपवादों को लेकर जो कुछ कहा गया है, उसे चाहे कुछ लोग साध्वाचार के रूप में सीधे मान्य करना न चाहते हों; किंतु क्या यह नपुंसकता नहीं होगी जब किसी मुनि संघ के सामने किसी तरुणी साध्वी का अपहरण हो रहा हो या उस पर बलात्कार हो रहा हो और वे अहिंसा की दुहाई देते हुए मौन दर्शक बने रहें? क्या उनका कोई दायित्व नहीं है? यह बात चाहे हास्यास्पद लगती हो कि अहिंसा की रक्षा के लए हिंसा आवश्यक है किन्तु व्यावहारिक जीवन में अनेक बार ऐसी परिस्थितियाँ आ सकती हैं जिनमें अहिंसक संस्कृति की रक्षा के लिए हिंसकवृत्ति अपनाना पड़े। यदि हिंसा में आस्था रखनेवाला कोई समाज किसी अहिंसक समाज को पूरी तरह मिटा देने को तत्पर हो जावे, तो
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जैनधर्म में अहिंसा की अवधारणा : एक विश्लेषण
क्या उस अहिंसक समाज को अपने अस्तित्व के लिए कोई संघर्ष नहीं विवशता में संकल्प करना होता है। फिर भी पहली अधिक निकृष्ट करना चाहिये? हिंसा-अहिंसा का प्रश्न अब निरा वैयक्तिक प्रश्न नहीं कोटि की है क्योकि आक्रमणात्मक हैं। यह अनर्थदण्ड है, अर्थात् है। जब तक सम्पूर्ण मानव समाज एक साथ अहिंसा की साधना के अनावश्यक है, वह या तो मनोरंजन के लिए की जाती है या शासन लिए तत्पर नहीं होता है, किसी एक समाज या राष्ट्र द्वारा की जानेवाली करने के लिए, या स्वाद के लिए। हिंसा का यही रूप ऐसा है जो अहिंसा के आदर्श की बात कोई अर्थ नहीं रखती है। संरक्षणात्मक और सबके द्वारा छोड़ा जा सकता है, क्योंकि यह हमारे जीवन जीने के सुरक्षात्मक हिंसा समाजजीवन के लिए अपरिहार्य है। समाज-जीवन में लिए जरूरी नहीं है। हिंसा का दूसरा रूप जिसमें हिंसा करनी पड़ती इसे मान्य भी करना ही होगा। इसी प्रकार उद्योग-व्यवसाय और कृषि है, हिंसा तो है किन्तु इसे छोड़ा नहीं जा सकता, क्योंकि यह आवश्यक कार्यों में होनेवाली हिंसा भी समाज-जीवन में बनी ही रहेगी। मानव है, अर्थदण्ड है। जैसा कि हमने अहिंसा की सम्भावना के प्रसंग में समाज में मांसाहार एवं तज्जन्य हिंसा को समाप्त करने की दिशा में देखा था। वे सभी गृहस्थ उपासक जो अपने स्वत्वों का रक्षण करना सोचा तो जा सकता है किन्तु उसके लिये कृषि के क्षेत्र में एवं अहिंसक चाहते हैं, जो जीवन जीने के लिए उद्योग और व्यवसाय में लगे हुए आहार की प्रचुर उपलब्धि के सम्बन्ध में व्यापक अनुसंधान एवं तकनीकी हैं, जो समाज, संस्कृति और राष्ट्र की सुरक्षा एवं विकास का दायित्व विकास की आवश्यकता होगी। यद्यपि हमें यह समझ लेना होगा कि लिये हुए हैं, इससे नहीं बच सकते। न केवल गृहस्थ उपासक अपितु जब तक मनुष्य की संवेदनशीलता को पशुजगत् तक विकसित नहीं किया मुनिजन भी, जो किसी धर्म, समाज एवं संस्कृति के रक्षण, विकास जावेगा और मानवीय आहार को सात्विक नहीं बनाया जावेगा, मनुष्य एवं प्रसार का दायित्व अपने ऊपर लिये हुए हैं, इस प्रकार की अपरिहार्य की आपराधिक प्रवृत्तियों पर पूरा नियन्त्रण नहीं होगा। आदर्श अहिंसक हिंसा से नहीं बच सकते हैं। समाज की रचना हेतु हमें समाज से आपराधिक प्रवृत्तियों को समाप्त फिर भी यह आवश्यक है कि हम ऐसी हिंसा को हिंसा के रूप करना होगा और आपराधिक प्रवृत्तियों के नियमन के लिए हमें मानव जाति में समझते रहें, अन्यथा हमारा करुणा का स्रोत सूख जावेगा। विवशता में संवेदनशीलता, संयम एवं विवेक के तत्त्वों को विकसित करना होगा। में चाहे हमें हिंसा करनी पड़े, किन्तु उसके प्रति आत्मग्लानि और
हिंसित के प्रति करुणा की धारा सूखने नहीं पावे, अन्यथा वह हिंसा हिंसा और अहिंसा का सीमा-क्षेत्र
हमारे स्वभाव का अंग बन जावेगी, जैसे-कसाई बालक में। हिंसा-अहिंसा हिंसा और अहिंसा के सीमा-क्षेत्र को समझने के लिए हमें हिंसा के विवेक का मुख्य आधार मात्र यही नहीं है कि हमारा हृदय कषाय के तीन रूपों को समझ लेना होगा-१. हिंसा की जाती है, से मुक्त हो, किन्तु यह भी है कि हमारी संवेदनशीलता जागृत रहे, २. हिंसा करनी पड़ती है और ३. हिंसा हो जाती है। हिंसा का वह हृदय में दया और करुणा की धारा प्रवाहित होती रहे। हमें अहिंसा रूप जिसमें हिंसा की नहीं जाती वरन् हो जाती है-हिंसा की कोटि को हृदय-शून्य नहीं बनाना है। क्योंकि यदि हमारी संवेदनशीलता जागृत में नहीं आता है, क्योंकि इसमें हिंसा का संकल्प पूरी तरह अनुपस्थित बनी रही तो निश्चय ही हम जीवन में हिंसा की मात्रा को अल्पतम रहता है; मात्र यही नहीं, हिंसा से बचने की पूरी सावधानी भी रखी करते हुए पूर्ण अहिंसा के आदर्श को उपलब्ध करेंगे, साथ ही वह जाती हैं, हिंसा के संकल्प के अभाव में एवं सम्पूर्ण सावधानी के हमारी अहिंसा विधायक बन कर मानव समाज में सेवा और सहयोग बावजूद भी यदि हिंसा हो जाती है तो वह हिंसा के सीमाक्षेत्र में नहीं की गंगा भी बहा सकेगी। आती हैं। हमें यह भी समझ लेना होगा कि किसी एक संकल्प की साथ ही जब अपरिहार्य बन गई दो हिंसाओं में किसी एक को पूर्ति के लिए की जानेवाली क्रिया के दौरान सावधानी के बावजूद चुनना अनिवार्य हो तो हमें अल्प-हिंसा को चुनना होगा। किन्तु कौन-सी अन्य कोई हिंसा की घटना घटित हो जाती है, जैसे-गृहस्थ उपासक हिंसा अल्प-हिंसा होगी, यह निर्णय देश, काल परिस्थिति आदि अनेक द्वारा भूमि जोतते हुए किसी त्रस-प्राणी की हिंसा हो जाना अथवा किसी बातों पर निर्भर करेगा। यहाँ हमें जीवन की मूल्यवत्ता को भी आंकना मुनि के द्वारा पदयात्रा करते हुए सप्राणी की हिंसा हो जाना, तो उन्हें होगा। जीवन की यह मूल्यवत्ता दो बातों पर निर्भर करती है-१. उस हिंसा के प्रति उत्तरदायी नहीं माना जा सकता है क्योंकि उनके प्राणी का ऐन्द्रिक एवं आध्यात्मिक विकास और २. उसकी सामाजिक मन में उस हिंसा का कोई संकल्प ही नहीं है। अत: ऐसी हिंसा हिंसा उपयोगिता। सामान्यत: मनुष्य का जीवन अधिक मूल्यवान् है और नहीं है। जैन परम्परा में हिंसा के निम्न चार स्तर माने गये हैं- मनुष्यों में भी एक सन्त का, किन्तु किसी परिस्थिति में किसी मनुष्य १. संकल्पजा, २. विरोधजा, ३. उद्योगजा, ४. आरम्भजा। इनमें की अपेक्षा किसी पशु का जीवन भी अधिक मूल्यवान् हो सकता है। 'संकल्पजा' हिंसा वह है जो की जाती है, जबकि विरोधजा, उद्योगजा सम्भवत: हिंसा-अहिंसा के विवेक में जीवन की मूल्यवत्ता का यह विचार
और आरम्भजा हिंसा, हिंसा की वे स्थितियां हैं जिनमें हिंसा करनी हमारी दृष्टि में उपेक्षित ही रहा, यही कारण था कि हम चीटियों के पड़ती है। फिर भी चाहे हिंसा की जाती हो या हिंसा करनी पड़ती प्रति तो संवेदन-शील बन सके किन्तु मनुष्य के प्रति निर्मम ही बने हो दोनों ही अवस्थाओं में हिंसा का संकल्प या इरादा अवश्य होता रहे। आज हमें अपनी संवेदनशीलता को माड़ना है और मानवता के है, यह बात अलग है कि एक अवस्था में हम बिना किसी परिस्थितिगत प्रति अहिंसा को सकारात्मक बनाना है। दबाव के स्वतंत्ररूप में हिंसा का संकल्प करते हैं और दूसरे में हमें
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अहिंसा : एक तुलनात्मक अध्ययन
जैनदर्शन में अहिंसा का स्थान
बुद्ध हिंसा एव युद्ध के नीतिशास्त्र के तीव्र विरोधी हैं, धम्मपद अहिंसा जैनदर्शन का प्राण है। जैनदर्शन में अहिंसा वह धुरी में कहा गया है कि विजय से वैर उत्पन्न होता है, पराजित दुःखी है जिस पर समग्र जैन आचार-विधि घूमती है। जैनागमों में अहिंसा होता है जो जय पराजय को छोड़ चुका है उसे ही सुख है, उसे ही भगवती है। उसकी विशिष्टता का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं- शांति है। 'भयभीतों को जैसे शरण, पक्षियों को जैसे गगन, तृषितों को जैसे अंगुत्तरनिकाय में बुद्ध इस बात को अधिक स्पष्ट कर देते हैं जल, भूखों को जैसे भोजन, समुद्र के मध्य जैसे जहाज, रोगियों को कि हिंसक व्यक्ति इसी जगत में नारकीय जीवन का सृजन कर लेता जैसे ओषधि और वन में जैसे सार्थवाह का साथ, आधारभूत है वैसे है जबकि अहिंसक व्यक्ति इसी जगत् में स्वर्गीय जीवन का सृजन ही अहिंसा प्राणियों के लिए आधारभूत है। अहिंसा चर एवं अचर कर लेता है। वे कहते हैं- 'भिक्षुओ, तीन धर्मों से युक्त प्राणी ऐसा सभी प्राणियों का कल्याण करने वाली है। वही मात्र एक ऐसा शाश्वत होता है जैसे लाकर स्वर्ग में डाल दिया गया हो। कौन से तीन? धर्म है, जिसका जैन तीर्थंकर उपदेश करते हैं। आचशंगसूत्र में कहा 'स्वयं प्राणी-हिंसा से विरक्त रहता है, दूसरे को प्राणी-हिंसा की ओर गया है-भूत, भविष्य और वर्तमान के सभी अर्हत् यही उपदेश करते नहीं घसीटता और प्राणी-हिंसा का समर्थन नहीं करता। हैं कि सभी प्राणियों, सभी भूतों, सभी जीवों और सभी सत्वों को महायान सम्प्रदाय में करुणा और मैत्री की भावना का जो चरम किसी प्रकार का परिताप, उद्वेग या दु:ख नहीं देना चाहिए और न उत्कर्ष देखा जाता है, उसकी पृष्ठभूमि में यही अहिंसा का सिद्धान्त किसी का हनन करना चाहिए। यही शुद्ध नित्य और शाश्वत धर्म है, रहा हुआ है। जिसका समस्त लोक के दुःख को जानकर अर्हतों के द्वारा प्रतिपादन किया गया है। सूत्रकृतांगसूत्र के अनुसार ज्ञानी होने का सार यह हिन्दू दर्शन और गीता में अहिंसा का स्थान है कि हिंसा न करें, अहिंसा ही समग्र धर्म का सार है, इसे सदैव गीता में अहिंसा का महत्त्व स्वीकृत करते हुए उसे भगवान् का स्मरण रखना चाहिए। दशवकालिक सूत्र में कहा गया है कि सभी ही भाव कहा गया है, उसको देवी-सम्पदा एवं सात्विक तप बताया प्राणियों के प्रति संयम में अहिंसा के सर्वश्रेष्ठ होने के कारण महावीर है।१२ महाभारत में तो जैन विचारणा के समान ही अहिंसा में सभी ने इसको 'प्रथम स्थान पर कहा है। भक्तपरिज्ञा नामक ग्रन्थ में कहा धर्मों को अन्तर्भूत मान लिया गया है। १३ मात्र यही नहीं उसमें भी गया है कि अहिंसा के समान दूसरा धर्म नहीं है।
धर्म के उपदेश का उद्देश्य प्राणियों को हिंसा से विरत करना माना आचार्य अमृतचन्द्र सूरि के अनुसार तो जैन आचार-विधि का गया है। 'अहिंसा ही धर्म का सार है' इसे स्पष्ट करते हुए महाभारत सम्पूर्ण क्षेत्र अहिंसा से व्याप्त है, उसके बाहर उसमें कुछ है ही नहीं। के लेखक का कथन है-"प्राणियों की हिंसा न हो इसलिए धर्म का सभी नैतिक नियम और मर्यादाएं इसके अन्तर्गत हैं; आचार के नियमों उपदेश दिया गया है अत: जो अहिंसा से युक्त है वही धर्म है"१४ के दूसरे रूप जैसे असत्यभाषण नहीं करना, चोरी नहीं करना आदि लेकिन यह प्रश्न हो सकता है कि गीता में तो बार-बार अर्जुन तो जनसाधारण को सुलभ रूप से समझाने के लिए भिन्न-भिन्न नामों को युद्ध करने का निर्देश दिया गया है, उसका युद्ध से विमुख होना से कहे जाते हैं। वस्तुत: वे सभी अहिंसा के ही विभिन्न पक्ष है। निन्दनीय एवं कायरतापूर्ण माना गया है। फिर गीता को अहिंसा की जैन आचार-दर्शन में अहिंसा वह आधार-वाक्य है जिससे आचार के विचारणा की समर्थक कैसे माना जाए? इस सम्बन्ध में मैं अपनी ओर सभी नियम निर्गमित होते हैं। भगवती-आराधना में कहा गया है कि से कुछ कहूँ; इसके पहले हमें गीता के व्याख्याकारों की दृष्टि से ही अहिंसा सब आश्रमों का हृदय है, सब शास्त्रों का गर्भ (उत्पत्ति इसका समाधान पा लेने का प्रयास करना चाहिये। गीता के आद्य स्थान) है।
टीकाकार आचार्य शंकर 'युद्धस्व' (युद्धकर) शब्द की टीका में लिखते
हैं कि यहाँ युद्ध की कर्तव्यता का विधान नहीं है।५ मात्र यही नहीं बौद्ध आचार-दर्शन में अहिंसा का स्थान
आचार्य गीता के 'आत्मोपम्येन सर्वत्र' के अधार पर गीता में अहिंसा बौद्ध दर्शन के दस शीलों में अहिंसा का स्थान प्रथम है। चतु:शतक के सिद्धान्त की पुष्टि करते हैं"। जैसे मुझे सुख प्रिय है, वैसे ही में कहा गया है- तथागत ने संक्षेप में केवल 'अहिंसा' इन अक्षरों सभी प्राणियों को सुख अनुकूल है और जैसे दुःख मुझे अप्रिय एवं में धर्म का वर्णन किया है। धम्मपद में बुद्ध ने हिंसा को अनार्य प्रतिकूल हैं वैसे सब प्राणियों को भी दुःख अप्रिय व प्रतिकूल है। कर्म कहा है। वे कहते हैं जो प्राणियों की हिंसा करता है वह आर्य इस प्रकार जो सब प्राणियों में अपने समान ही सुख और दुःख को नहीं होता, सभी प्राणियों के प्रति अहिंसा का पालन करने वाला ही तुल्यभाव से अनुकूल और प्रतिकूल देखता है, किसी के भी प्रतिकूल आर्य कहा जाता है।
आचरण नहीं करता वह अहिंसक है। ऐसा अहिंसक पुरुष पूर्णज्ञान
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अहिंसा : एक तुलनात्मक अध्ययन
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में स्थित है वह सब योगियों में पर उत्कृष्ट माना जाता है"१६ निर्ग्रन्थ प्राणवध (हिंसा) का निषेध करते हैं।२० वस्तुतः प्राणियों के
महात्मा गांधी भी गीता को अहिंसा की प्रतिपादक मानते हैं उनका जीवित रहने का नैतिक अधिकार ही अहिंसा के कर्तव्य की स्थापना कथन है "गीता की मुख्य शिक्षा हिंसा नहीं, अहिंसा है-हिंसा बिना करता है। जीवन के अधिकार का सम्मान ही अहिंसा है। उत्तराध्ययन क्रोध, आसक्ति एवं घृणा के नहीं होती और गीता हमें सत्व, रजस् सूत्र में समत्व के आधार पर अहिंसा के सिद्धान्त की स्थापना करते
और तमस् गुणों के रूप में घृणा, क्रोध आदि की अवस्थाओं से ऊपर हुए कहा गया है कि 'भय और वैर से मुक्त साधक, जीवन के प्रति उठने को कहती है फिर हिंसा कैसे हो सकती है। डा० राधाकृष्णन प्रेम रखने वाले सभी प्राणियों को सर्वत्र अपनी आत्मा के समान जानकर, भी गीता को अहिंसा की प्रतिपादक मानते हैं, वे लिखते हैं “कृष्ण उनकी कभी भी हिंसा न करें।२१ यह मैकेन्जी की भय पर अधिष्ठित अर्जुन को युद्ध करने का परामर्श देते हैं, तो इसका अर्थ यह नहीं अहिंसा की धारणा का सचोट उत्तर है। जैन आगम आचारांगसूत्र में है कि वे युद्ध की वैधता का समर्थन कर रहे हैं। युद्ध तो एक ऐसा तो आत्मीयता की भावना के आधार पर ही अहिंसा सिद्धान्त की प्रस्तावना अवसर आ पड़ा है, जिसका उपयोग गुरु उस भावना की ओर संकेत की गई है। जो लोक (अन्य जीव समूह) का अपलाप करता है वह करने के लिए करता है, जिस भावना के साथ सब कार्य, जिनमें युद्ध स्वयं अपनी आत्मा का भी अपलाप करता है।२२ इसी ग्रन्थ में आगे भी सम्मिलित है, किये जाने चाहिये। यहाँ हिंसा या अहिंसा का प्रश्न पूर्ण-आत्मीयता की भावना को परिपुष्ट करते हुए भगवान् महावीर कहते नहीं है, अपितु अपने उन मित्रों के विरुद्ध हिंसा के प्रयोग का प्रश्न हैं—जिसे तू मारना चाहता है वह तू ही है, जिसे तू शासित करना है, जो अब शत्रु बन गये हैं। युद्ध के प्रति उसकी हिचक आध्यात्मिक चाहता है वह तू ही है और जिसे तू परिताप देना चाहता है वह भी विकास या सत्व गुण की प्रधानता का परिणाम नहीं है, अपितु अज्ञान तू ही है।२३ भक्तपरिज्ञा से भी इसी कथन की पुष्टि होती है उसमें
और वासना की उपज है। अर्जुन इस बात को स्वीकार करता है कि लिखा है किसी भी अन्य प्राणी की हत्या वस्तुत: अपनी ही हत्या वह दुर्बलता और अज्ञान के वशीभूत हो गया है। गीता हमारे सम्मुख है और अन्य जीवों पर दया अपनी ही दया है।२४ जो आदर्श उपस्थित करती है, वह हिंसा का नहीं अपितु अहिंसा का भगवान बुद्ध ने भी अहिंसा के आधार के रूप में इसी 'आत्मवत् है। कृष्ण अर्जुन को आवेश या दुर्भावना के बिना, राग और द्वेष के सर्वभूतेषु' की भावना को ग्रहण किया था। सुत्तनिपात में वे कहते बिना युद्ध करने को कहता है और यदि हम अपने मन को ऐसी स्थिति हैं कि जैसा मैं हूँ वैसे ही ये सब प्राणी हैं, और जैसे ये सब प्राणी में ले जा सकें, तो हिंसा असम्भव हो जाती है।१८
हैं वैसा ही मैं हूँ इस प्रकार अपने समान सब प्राणियों को समझकर इस प्रकार हम देखते हैं कि गीता भी अहिंसा की समर्थक है। न स्वयं किसी का वध करे और न दूसरों से कराये।२५ । मात्र अन्याय के प्रतिकार के लिए अद्वेष-बुद्धि पूर्वक विवशता में करना गीता में भी अहिंसा की भावना के आधार के रूप में 'आत्मवत् पड़े ऐसी हिंसा का जो समर्थन गीता में दिखाई पड़ता है उससे यह सर्वभूतेषु' की उदात्त धारणा ही है। यदि हम गीता को अद्वैतवाद की नहीं कहा जा सकता कि गीता हिंसा की समर्थक है। अपवाद के रूप समर्थक माने तो अहिंसा के आधार की दृष्टि से जैन दर्शन और अद्वैतवाद में हिंसा का समर्थन नियम नहीं बन जाता। ऐसा समर्थन तो हमें जैनागमों में यह अन्तर हो सकता है कि जहाँ जैन परम्परा में सभी आत्माओं में भी उपलब्ध हो जाता है।
की तात्त्विक समानता के आधार पर अहिंसा की प्रतिष्ठा की गई है
वहां अद्वैतवादी विचारणा में तात्त्विक अभेद के आधार पर अहिंसा अहिंसा का आधार
की स्थापना की गई है। कोई भी सिद्धान्त हो, अहिंसा के उद्भव की अहिंसा की भावना के मूलाधार के सम्बन्ध में विचारकों में कुछ दृष्टि से महत्त्व की बात यही है कि अन्य जीवों के साथ समानता भ्रान्त-धारणाओं को प्रश्रय मिला है। अत: उन पर सम्यकरूपेण विचार या अभेद का वास्तविक संवेदन ही अहिंसा की भावना का मूल उद्गम कर लेना अवश्यक है। मैकेन्जी ने अपने 'हिन्दू एथिक्स' में इस भ्रान्त है।२६ जब व्यक्ति में इस संवेदनशीलता का सच्चे रूप में उदय हो विचारणा को प्रस्तुत किया है कि अहिंसा के प्रत्यय का निर्माण भय जाता है, तो हिंसा का विचार असम्भव हो जाता है। के आधार पर हुआ है। वे लिखते हैं- असभ्य मनुष्य जीव के विभिन्न रूपों को भय की दृष्टि से देखते हैं और भय की यह धारणा ही अहिंसा जैनागमों में अहिंसा की व्यापकता का मूल है। लेकिन मैं समझता हूँ कोई भी प्रबुद्ध विचारक मैकेन्जी जैन विचारणा में अहिंसा का क्षेत्र कितना व्यापक है, इसका की इस धारणा से सहमत नहीं होगा। जैनागमों के आधार पर भी बोध हमें प्रश्नव्याकरणसूत्र से हो सकता है, जिसमें अहिंसा के इस धारणा का निराकरण किया जा सकता है। अहिंसा का मूलाधार निम्न साठ पर्यायवाची नाम दिये गये हैं-२७ १. निर्वाण, २. निर्वृत्ति, जीवन के प्रति सम्मान एवं समत्वभावना है। समत्वभाव से सहानुभूति, ३. समाधि, ४. शान्ति, ५. कीर्ति, ६. कान्ति, ७. प्रेम ८. वैराग्य, समानुभूति एवं आत्मीयता उत्पन्न होती है और इन्हीं से अहिंसा का ९. श्रुतांग, १०. तृप्ति, ११. दया, १२. विमुक्ति, १३. क्षान्ति, १४. विकास होता है। अहिंसा जीवन के प्रति भय से नहीं, जीवन के प्रति सम्यक् आराधना, १५. महती, १६. बोधि, १७. बुद्धि, १८. धृति, सम्मान से विकसित होती है। दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है- १९. समृद्धि, २०. ऋद्धि, २१. वृद्धि, २२. स्थिति (धारक), सभी प्राणी जीवित रहना चाहते हैं, कोई मरना नहीं चाहता, अत: २३. पुष्टि (पोषक), २४. नन्द (आनन्द) २५. भद्रा, २६. विशुद्धि,
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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
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२७. लब्धि, २८. विशेष दृष्टि २९. कल्याण, ३०, मंगल, ३१. प्रमोद ३२. विभूति, ३३. रक्षा, ३४ सिद्धावास, ३५. अनास्रव, ३६. कैवल्यस्थान, ३७. शिव, ३८. समिति, ३९. शील, ४०. संयम, ४१. शील- परिग्रह, ४२. संवर, ४३. गुप्ति, ४४ व्यवसाय, ४५. उत्सव, ४६. यज्ञ, ४७. आयतन, ४८ यतन, ४९. अप्रमाद, ५०. आश्वासन, ५१. विश्वास, ५२. अभय, ५३. सर्व अनाघात (किसी को न मारना) ५४. चोक्ष (स्वच्छ) ५५. पवित्र, ५६. शुचि, ५७: पूता, ५८. विमला, ५९. प्रभात और ६०. निर्मलतर ।
इस प्रकार जैन आचार दर्शन में अहिंसा शब्द एक व्यापक दृष्टि को लेकर उपस्थित होता है, उसके अनुसार सभी सद्गुण अहिंसा के ही विभिन्न रूप हैं और अहिंसा ही एकमात्र सगुण है।
अहिंसा क्या है?
हिंसा का प्रतिपक्ष अहिंसा है, २८ यह अहिंसा की निषेधात्मक परिभाषा है। लेकिन मात्र हिंसा का छोड़ना अहिंसा नहीं है। निषेधात्मक अहिंसा जीवन के समग्र पक्षों का स्पर्श नहीं करती। वह एक आध्यात्मिक उपलब्धि नहीं कही जा सकती है। निषेधात्मक अहिंसा मात्र बाह्य बनकर रह जाती है, जबकि आध्यात्मिकता तो आन्तरिक होती है। हिंसा नहीं करना यह अहिंसा का शरीर हो सकता है अहिंसा की आत्मा नहीं। किसी को नहीं मारना, यह अहिंसा के सम्बन्ध में मात्र स्थूल दृष्टि है लेकिन यह मानना भ्रान्तिपूर्ण होगा कि जैन विचारणा अहिंसा की इस स्थूल एवं बहिर्मुखी दृष्टि तक सीमित रही है। जैन आचार दर्शन का केन्द्रीय तत्त्व अहिंसा शाब्दिक रूप में यद्यपि नकरात्मक है, लेकिन उसकी अनुभूति नकारात्मक नहीं है। उसकी अनुभूति सदैव ही विधायक रही है। सर्व के प्रति आत्मभाव, करुणा और मैत्री की विधायक अनुभूतियों से ही अहिंसा की धारा प्रवाहित हुई है। हिंसा नहीं करना, यही मात्र अहिंसा नहीं है अहिंसा क्रिया नहीं, सत्ता है, वह हमारी आत्मा की एक अवस्था है। आत्मा की प्रमत्त अवस्था ही हिंसा है और अप्रमत्त अवस्था ही अहिंसा है। आचार्य भद्रबाहु ओघनियुक्ति में लिखते हैं— पारमार्थिक दृष्टिकोण से आत्मा ही हिंसा है और आत्मा ही अहिंसा है; प्रमत्त आत्मा हिंसक है और अप्रमत्त आत्मा ही अहिंसा है। २९
द्रव्य एवं भाव हिंसा
अहिंसा को सम्यक् रूप से समझने के लिए पहले यह जान लेना आवश्यक है कि जैन विचारणा हिंसा के दो पक्षों पर विचार करती है, एक हिंसा का बाह्य पक्ष है, जिसे जैन पारिभाषिक शब्दावली में द्रव्य हिंसा कहा गया है। द्रव्य हिंसा के सम्बन्ध में एक स्थूल एवं बाह्य दृष्टिकोण है। यह एक क्रिया है जिसे प्राणातिपात, प्राणवध, प्राणहनन आदि नामों से जाना जाता है। जैन विचारणा आत्मा को अपेक्षाकृत रूप से नित्य मानती है। अतः हिंसा के द्वारा जिसका हनन होता है वह आत्मा नहीं, वरन् 'प्राण' है— प्राण जैविक शक्ति है। जैन विचारणा में प्राण दस माने गये हैं। पांच इन्द्रियों की पाँच शक्तियां,
मन, वाणी और शरीर इन का विविध बल तथा श्वसन क्रिया एवं आयुष्य, ये दस प्राण हैं और इन प्राण-शक्तियों के वियोजीकरण को ही द्रव्य दृष्टि से हिंसा कहा जाता है।" यह हिंसा की द्रव्य दृष्टि से की गई परिभाषा है। जो कि हिंसा के बाह्य पक्ष पर बल देती है।
भाव हिंसा हिंसक विचार है, जबकि द्रव्य-हिंसा हिंसक कर्म है।
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भाव-हिंसा मानसिक अवस्था है। आचार्य अमृतचन्द्र ने भावानात्मक पक्ष पर बल देते हुए हिंसा-अहिंसा की परिभाषा की है। उनका कथन है कि रागादि कषायों का अभाव अहिंसा है और उनका उत्पन्न होना हिंसा है। " हिंसा की एक पूर्ण परिभाषा तत्त्वार्थ सूत्र में मिलती है। तत्वार्थ सूत्र के अनुसार राग, द्वेष, अविवेक आदि प्रमादों से युक्त होकर किया जाने वाला प्राण-वध हिंसा है। स
हिंसा के प्रकार
जैन विचारकों ने द्रव्य और भाव इन दो आधारों पर हिंसा के चार विभाग किये है- १. मात्र शारीरिक हिंसा २ मात्र वैचारिक हिंसा ३. शारीरिक एवं वैचारिक हिंसा और ४ शाब्दिक हिंसा मात्र शारीरिक हिंसा - यह ऐसी द्रव्य हिंसा है, जिसमें हिंसक क्रिया तो सम्पन्न हुई हो लेकिन हिंसा के विचार का अभाव हो। उदाहरणार्थ सावधानी पूर्वक चलते हुए भी दृष्टिदोष या सूक्ष्म जन्तु के नहीं दिखाई देने पर हिंसा हो जाना मात्र वैचारिक हिंसा यह भाव हिंसा है इसमें हिंसा की क्रिया तो अनुपस्थित होते है लेकिन हिंसा का संकल्प उपस्थिती होता है । अर्थात् कर्ता हिंसा के संकल्प से युक्त होता है लेकिन बाह्य परिस्थिति वश उसे क्रियान्वित करने में सफल नहीं हो पाता है। जैसे कैदी का न्यायाधीश की हत्या करने का विचार (परम्परागत दृष्टि के अनुसार तंदुलमच्छ एवं कालकौसरिक कसाई के उदाहरण इसके लिए दिये जाते हैं) । वैचारिक एवं शारीरिक हिंसा - जिसमें हिंसा का विचार और हिंसा की क्रिया दोनों ही उपस्थित हों जैसे संकल्प पूर्वक की गई हत्या । शाब्दिक हिंसा - जिसमें न तो हिंसा का विचार हो और न हिंसा की क्रिया, मात्र हिंसक शब्दों का उच्चारण हो, जैसे सुधार - भावना की दृष्टि से माता-पिता का बालकों पर या गुरु का शिष्य पर कृत्रिम रूप से कुपित होना। २ नैतिकता या बंधन की तीव्रता की दृष्टि से हिंसा के इन चार रूपों में क्रमश: शाब्दिक हिंसा की अपेक्षा संकल्परहित मात्र शारीरिक हिंसा, संकल्परहित शारीरिक हिंसा की अपेक्षा मात्र वैचारिक हिंसा और मात्र वैचारिक हिंसा की अपेक्षा संकल्प युक्त शारीरिक हिंसा अधिक निकृष्ट मानी गई है।
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हिंसा की विभिन्न स्थितियाँ
वस्तुतः हिंसा की तीन अवस्थाएँ हो सकती हैं- १. हिंसा की गई हो, २. हिंसा करना पड़ी हो और ३. हिंसा हो गई हो। पहली स्थिति में यदि हिंसा चेतन रूप से की गई हो तो वह संकल्प युक्त है और यदि अचेतन रूप से की गई हो तो वह प्रमाद युक्त है। हिंसक क्रिया चाहे संकल्प से उत्पन्न हुई वहाँ या प्रमाद के कारण हुई हो कर्ता दोषी है। दूसरी स्थिति में हिंसा चेतन रूप से किन्तु
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अहिंसा : एक तुलनात्मक अध्ययन
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विवशता वश करनी पड़ती है, यह बाध्यता शारीरिक हो सकती है एवं वनस्पति ही जीवनयुक्त हैं, वरन् समग्र लोक ही सूक्ष्म जीवों से अथवा बाह्य परिस्थितिजन्य, यहां भी कर्ता दोषी है, कर्म का बंधन भरा हुआ है। क्या ऐसी स्थिति में कोई व्यक्ति पूर्ण अहिंसक हो सकता भी होता है लेकिन पाश्चात्ताप या ग्लानि के द्वारा वह उससे शुद्ध हो है? महाभारत में भी जगत् को सूक्ष्म जीवों से व्याप्त मानकर यही जाता है। बाध्यता की अवस्था में की गई हिंसा के लिए कर्ता को प्रश्न उठाया गया है। जल में बहुतेरे जीव हैं, पृथ्वी पर तथा वृक्षों दोषी मानने का आधार यह है कि समग्र बाध्यताएं स्वयं के द्वारा आरोपित के फलों में भी अनेक जीव (प्राण) होते हैं। ऐसा कोई भी मनुष्य हैं। बाध्यता के लिए कर्ता स्वयं उत्तरदायी है। बाध्यताओं की स्वीकृति नहीं है जो इनमें से किसी को कभी नहीं मारता हो, पुन: कितने ही कायरता एवं शरीर-मोह की प्रतीक है। बंधन में होना और बंधन को ऐसे सूक्ष्म प्राणी हैं जो इन्द्रियों से नहीं, मात्र अनुमान से ही जाने मानना यह दोनों ही कर्ता की विकृतियाँ हैं और जब तक ये विकृतियां जाते हैं। मनुष्य के पलकों के गिरने मात्र से ही जिनके कंधे टूट जाते हैं कर्ता स्वयं दोषी है ही। तीसरी स्थिति में हिंसा न तो प्रमाद के हैं अर्थात् मर जाते हैं। तात्पर्य यह है कि जीवों की हिंसा से नहीं कारण होती है और न विवशता वश ही, वरन् सम्पूर्ण सावधानी के बचा जा सकता है। प्राचीन युग से ही जैन विचारकों की दृष्टि भी बावजूद भी हो जाती है। जैन विचारणा के अनुसार हिंसा की यह इस प्रश्न की ओर गई है। ओघनियुक्ति में आचार्य भद्रबाहु इस प्रश्न तीसरी स्थिति कर्ता की दृष्टि से निर्दोष मानी जा सकती है। के सन्दर्भ में जैन दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं-जिनेश्वर
भगवान् का कथन है कि अनेकानेक जीव समूहों से परिव्याप्त विश्व हिंसा के विभिन्न रूप
में साधक का अहिंसकत्व अन्त: में आध्यात्म-विशुद्धि की दृष्टि से हिंसक-कर्म की उपरोक्त तीन विभिन्न अवस्थाओं में यदि तीसरी ही है, बाह्य हिंसा या अहिंसा की दृष्टि से नहीं।३५ जैन विचारणा के हिंसा हो जाने की अवस्था को छोड़ दिया जावे तो हमारे समक्ष हिंसा अनुसार भी बाह्य हिंसा से पूर्णतया बच पाना सम्भव नहीं। जब तक के दो रूप बचते हैं। १. हिसा की गई हो और २. हिंसा करनी पड़ी शरीर तथा शारीरिक क्रियायें हैं तब तक कोई भी व्यक्ति बाह्य दृष्टि हो। वे दशाएं जिनमें हिंसा करना पड़ती है, दो प्रकार की हैं। से पूर्ण अहिंसक नहीं रह सकता। १. रक्षणात्मक और २. आजीविकात्मक-जिसमें भी दो बातें सम्मिलित हैं जीवन जीने के साधनों का अर्जन और उनका उपभोग, हिंसा, अहिंसा का सम्बन्ध व्यक्ति के अन्तःकरणहै -
जैन आचार-दर्शन में इसी आधार पर हिंसा के चार वर्ग माने हिंसा और अहिंसा का प्रत्यय बाह्य घटनाओं पर उतना निर्भर गये है
नहीं है जितना वह साधक की आन्तरिक अवस्था पर आधारित है। १. संकल्पजा-संकल्प या विचार पूर्वक हिंसा करना। यह हिंसा और अहिंसा के विवेक का आधार प्रमुख रूप से आन्तरिक आक्रमणात्मक हिंसा है।
है। हिंसा-विचार में संकल्प की प्रमुखता जैन आगमों में स्वीकार की २. विरोधजा-स्वयं और दूसरे लोगों के जीवन एवं स्वत्वों गई है। भगवतीसूत्र में एक संवाद के द्वारा इसे स्पष्ट किया गया है। (अधिकारों) के आरक्षण के लिए विवशता वश हिंसा करना। यह गणधर गौतम, महावीर से प्रश्न करते हैं- हे भगवन्! किसी रक्षणात्मक हिंसा है।
श्रमणोपासक ने त्रस प्राणी के वध नहीं करने की प्रतिज्ञा ली हो लेकिन ३. उद्योगजा-आजीविका के उपार्जन अथवा उद्योग एवं व्यवसाय पृथ्वीकाय की हिंसा की प्रतिज्ञा नहीं ग्रहण की हो। यदि भूमि खोदते के निमित्त होने वाली हिंसा। यह उपार्जनात्मक हिंसा है। हुए उससे किसी प्राणी का वध हो जाए तो क्या उसकी प्रतिज्ञा भंग
४. आरम्भजा-जीवन-निर्वाह के निमित्त होने वाली हिंसा-जैसे । हुई? इस प्रश्न के उत्तर में महावीर कहते हैं कि यह मानना उचित भोजन के पकाने में। यह निर्वाहात्मक हिंसा है।
नहीं है, उसकी प्रतिज्ञा भंग नहीं हुई है।३६ इस प्रकार हम देखते हैं
कि संकल्प की उपस्थिति अथवा साधक की मानसिक स्थिति ही हिंसा हिंसा के कारण
अहिंसा के विचार में प्रमुख तत्त्व है। परवर्ती जैन साहित्य में भी यह जैन आचार्यों ने हिंसा के कारण माने हैं- १. राग, २. द्वेष, धारणा पुष्ट होती रही है। आचार्य भद्रबाहु का कथन है कि 'सावधानी ३. कषाय और ४. प्रमाद।
पूर्वक चलने वाले साधु के पैर के नीचे भी कभी-कभी कीट, पतंग
आदि क्षुद्र प्राणी आ जाते हैं और दबकर मर भी जाते हैं, लेकिन हिंसा के साधन
उक्त हिंसा के निमित्त से उसे सूक्ष्म कर्मबन्ध भी नहीं बताया गया है, जहाँ तक हिंसा के मूल साधनों का प्रश्न है, वे तीन हैं-मन, क्योंकि वह अन्तः में सर्वतोभावेन उस हिंसा-व्यापार से निर्लिप्त होने वचन और शरीर। व्यक्ति सभी प्रकार की हिंसा इन्हीं तीन साधनों के के कारण निष्पाप है। जो विवेकवान्, अप्रमत्त साधक हृदय से निष्पाप द्वारा करते हैं।
है और आगमविधि के अनुसार आचरण करता है, उसके द्वारा हो
जाने वाली हिंसा भी कर्म-निर्जरा का कारण है३८ लेकिन जो प्रमत्त क्या पूर्ण अहिंसक होना संभव है?
व्यक्ति है उसकी किसी भी चेष्टा से जो भी प्राणी मर जाते हैं वह जैन विचारणा के अनुसार न केवल पृथ्वी, पानी, वायु, अग्नि निश्चित रूप से उन सबका हिंसक होता है। मात्र यही नहीं वरन जो
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
प्राणी नहीं मारे गये हैं, प्रमत्त उनका भी हिंसक है क्योंकि वह अन्तर में सर्वतोभावेन पापात्मा है।९ इस प्रकार आचार्य का निष्कर्ष यही है कि केवल दृश्यमान् पाप रूप हिंसा से ही कोई हिंसक नहीं हो जाता।
आचार्य कुन्दकुन्द प्रवचनसार में लिखते हैं कि बाहर में प्राणी मरे या जीये अयताचारी-प्रमत्त को अन्दर में हिंसा निश्चित है। परन्तु जो अहिंसा की साधना के लिए प्रयत्नशील है, संयताचारी है उसको बाहर से होने वाली हिंसा से कर्म-बन्ध नहीं है।" आचार्य अमृतचन्द्र सूरि लिखते हैं कि रागादि कषायों से मुक्त नियमपूर्वक आचारण करते हुए भी यदि प्राणाघात हो जावे तो वह हिंसा हिंसा नहीं है। निशीथ चूर्णि में भी कहा गया है कि प्राणातिपात (हिंसा) होने पर भी अप्रमत्त साधक अहिंसक है और प्राणातिपात न होने पर भी प्रमत्त व्यक्ति हिंसक है।४३
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन आचार्यों की दृष्टि में हिंसा अहिंसा का प्रश्न मुख्य रूप से आन्तरिक रहा है। जैन आचार्यों के
इस दृष्टिकोण के पीछे जो प्रमुख विचार है, वह यह है कि व्यवहारिक रूप में पूर्ण अहिंसा का पालन और जीवन में सद्गुण के विकास की दृष्टि से जीवन को बनाए रखने का प्रयास ये दो ऐसी स्थितियां हैं जिनको साथ-साथ चलाना संभव नहीं होता है, अत: जैन विचारकों को अन्त में यही स्वीकार करना पड़ा कि हिंसा अहिंसा का सम्बन्ध बाहरी घटनाओं की अपेक्षा आन्तरिक वृत्तियों से है।
इस दृष्टिकोण का समर्थन हमें गीता और धम्मपद में भी मिलता है। गीता कहती है-जो अहंकार की भावना से मुक्त है, जिसकी बुद्धि मलिन नहीं है, वह इन सब मनुष्यों को मारता हुआ भी मारता नहीं है और वह [ अपने कर्मों के कारण ] बन्धन में नहीं पड़ता।४५
धम्मपद में भी कहा गया है 'वीततृष्ण व्यक्ति ब्राह्मण माता-पिता को, दो क्षत्रिय राजाओं को एव प्रजा-सहित राष्ट्र को मार कर भी निष्पाप होकर जीता है क्योंकि वह पाप-पुण्य से ऊपर उठ जाता है'४६। इस प्रकार हम देखते हैं कि हिंसा और अहिंसा की विवेचना के मूल में प्रमाद या रागादि भाव ही प्रमुख तथ्य हैं।
सन्दर्भ : १. अहिंसाए भगवतीए-एसा सा भगवती अहिंसा।-प्रश्नव्याकरणसूत्र
२/१/२१-२२। जे अईया, जे य पडुप्पन्ना, जे आगमिस्सा अरहंता भगवंतो ते सव्वे एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं पण्णविंति एवं परुविंति-सव्वे पाणा, सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता, न हंतव्वा, न अज्जावेयव्वा, न परिधित्तव्वा; न परितावेयव्वा, न उद्दवेयव्वा, एस धम्मे सुद्धे, निइए, सासए समिच्च लोये खेयण्णाहिं पवेइए। -आचारांग, (सं० आत्मारामजी, जैन स्थानक लुधियाना, १९६४)
४/१२७॥ ३. एवं खु णाणिणो सारं जं ण हिंसइ किंचनं। __ अहिंसा समय चेव एतांवतं वियाणिया। -सूत्रकृताङ्ग १/४/१०
तत्थिमं पढ़मं ठाणं महावीरेण देसियं।
अहिंसा निउणा दिट्ठा सव्वभूए सुसंजमो। -दशवैकालिक, ६/९। ५. धम्ममहिंसा समं नत्थि। भक्तपरिज्ञा ९।
अनृतवचनादिकेवलमुदाहृतं शिष्यबोधाय। पुरुषार्थसिद्धयुपाय ४२॥ ७. सव्वेसिमासमाणं हिदयं गब्भो व सव्व सत्थाणं-भगवती आराधना,९० ८. धर्म समासतोऽहिंसा वर्णयन्ति तथागता -चतुःशतक ९. न तेन अरिया होति येन पाणानि हिंसति।
अहिंसा सव्वपाणानं, अरियो ति पवुच्चाति। -धम्मपद २७० १०. जयवेरं पसवति दुःख सेति पराजितो
उपसन्तो सुखं सेति जयपराजयो॥-धम्मपद २०१। ११. अंगुतरनिकाय, तीसरा निपात १५३ १२. गीता १०/५-७, १६/२, ७/१४ १३. एवं सर्वमहिंसायां धर्मार्थमपिधीयते।
-महाभारत,शान्तिपर्व, गीताप्रेस, गोरखपुर, २४५/१९ १४. अहिंसार्थाय भूतानां धर्मप्रवचनं कृतम्। यः स्यादहिंसासम्पृक्तः स धर्म इति निश्चयः।
-महाभारत,शान्तिपर्व १०९/१२।
१५. न हि अत्र युद्धः कर्तव्यो विधीयते। -गीता, शांकरभाष्य २/१८ । १६. गीता, शांकरभाष्य ६/३२ १७. दी भगवद्गीता एण्ड चेंजिंग वर्ल्ड, पृष्ठ १२२ १८. भगवद्गीता-राधाकृष्णन्। -पृष्ठ ७४-७५ १९. Hidnu Ethics २०. सव्वे जीवा वि इच्छति जीविउं न मरिज्जिउं
तम्हा पाणिवहं घोरं निग्गंथा वज्जयंतिणं-दसवैकालिक ६/११ २१. अज्झत्थं सव्वओ सव्वं दिस्स पाणेपियायए।
ण हणे पाणिणो पाणे भयवेराओ उवरए।। उत्तरा ६/७ २२. जे लोगं अब्भाइक्खति से अत्ताणं अब्भाइक्खति।
-आचारांग १३/३। २३. तुमंसि नाम तं चेव जं हन्तव्वं ति मनसि, तुमंसि नाम तं चेव जं अज्जावेयव्वति मन्नसि, तुमंसि नाम त चेव जं परियावेयव्वति मन्त्रसि।
-आचारांग १/५-४ २४. जीववहो अप्पवहो जीवदया अप्पणो दया होई। भक्तपरिज्ञा ९३ २५. यथा अहं तथा एते, यथा एते तथा अहं। अत्तानं उपमं कत्वा, न हनेय्य न घातये।।
-सुत्तनिपात ३/३७/२७ २६. दर्शन और चिन्तन, खण्ड २, पृष्ठ १२५। २७. प्रश्न व्याकरणसूत्र, २/२१ । २८. हिंसाए पडिवक्खो होई अहिंसा -दशवैकालिक,नियुक्ति ६० २९. आया चेव अहिंसा आया हिंसत्ति निच्छयो एसो।
जो होइ अप्पमत्तो अहिंसओ इयरो।। ओघनियुक्ति ७५४ ३०. पंचेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं चउच्छ्वासनिश्वासमथान्यदायुः।
प्राणा: दशैतेभगवद्भिरुक्तास्तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा।।
- अभिधानराजेन्द्र, खण्ड ७, पृष्ठ १२२८। ३१. अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति। तेषामेवोत्पत्ति हिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ।।
-पुरुषार्थसिद्धयुपाय, ४४
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भगवान् महावीर का अपरिग्रह सिद्धान्त और उसकी उपादेयता
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३२. प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा-तत्त्वार्थसूत्र ७/८ ३३. अभिधानराजेन्द्र, खण्ड ७, पृष्ठ १२३१
३९. जे य पमत्तो पुरिसो, तस्स य जोग पडुच्च जे सत्ता। ३४. उदके बहवः प्राणाः पृथिव्यां च फलेषु च।
वावज्जते नियमा, तेसिं सो हिंसओ होई।।। न च कश्चिन्न तान् हन्ति किमन्यत् प्राणयापनात्।
जे वि न वावज्जंती, नियमा तेसिं पि हिंसओ सोउ। सूक्ष्मयोनीनि भूतानि तर्कगम्यानि कानिचित्।
सावज्जो उ पओगेण, सव्वभावेण सो जम्हा।। पक्ष्मणोऽपि निपातेन येषां स्यात् स्कन्धपर्ययः।।
-ओघनियुक्ति ७५२-५३। - महाभारत शान्तिपर्व १५/२५-२६। ४०. न य हिंसामेत्तेणं, सावज्जेणावि हिंसओ होई। -ओघनियुक्ति ७५८ ३५. अज्झत्थ विसोहीए जीवनिकाएहिं संथडे लोए।
४१. मरदु व जियदु व जीवो, अयदाचारस्सणिच्छिदा हिंसा। देसियमहिंसगंत्त जिणेहिंतिलोयदरिसीहिं।। -ओघ नियुक्ति, ७४७। पयदस्स नत्थि बंधो हिसामेत्तेण समिदस्स।। -प्रवचनसार २१७ ३६. समणोवागस्सणंभते। पुव्वामेव तस पाण समारम्भे पच्चखाए भवई, ४२. युक्ताचरणस्य सतो रागाद्यावशमन्तरेणाऽपि।
पुढवी समारम्भेण पच्चखाए भवइ, से य पुढवि खणमाणे अण्णयरं न हि भवति जातु हिंसा प्राणव्यपरोपणादेव।। तसपाणं विहिंसेज्जा सेणं भंते तं वयं अतिचरित? नो इणढे समढे
-पुरुषार्थसिद्ध्युपाय ४५ नो खलु से तस अइवायाए आउट्ठई। -भगवती ७/१ ४३. सति पाणातिवाए अप्पमत्तो अवहगो भवति। ३७. उच्चालियंमि पाए, ईरियासमियस्स संकमट्ठाए।
एवं असति पाणातिवाए पम्मत्ताए वहगो भवति।। वावज्जेज्ज कुलिंगी, मरिज्ज तं जोगमासज्ज।
-निशीथचूर्णि ९२। न य तस्स तन्निमित्तो, बंधो सुहुमो वि देसिओ समए।
४४. देखिए-दर्शन और चिन्तन, खण्ड २, पृष्ठ ४१४ अणावज्जो उ पओगेण, सव्वभावेण सो जम्हा।।
४५. यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
-ओघनियुक्ति ७४८-४९ हत्वापि स इमाल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते।। -गीता १८/१७ ३८. जा जयमाणस्स भवे, विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स। ___४६. मातरं पितरं हन्त्वा राजानो द्वे च खत्तिये। सा होई निज्जरफला, अज्झत्थविसोहिजुत्तस्स।।
रटुं सानुचरं हन्त्वा अनिधो याति ब्राह्मणो। -धम्मपद २९४ - ओघनियुक्ति ५५९।
भगवान् महावीर का अपरिग्रह-सिद्धान्त और उसकी उपादेयता
संग्रहवृत्ति का उद्भव एवं विकास
विचार ही उत्पन्न नहीं हुआ था क्योंकि उस युग में न तो सम्पत्ति ही अपरिग्रह का प्रश्न सम्पत्ति के स्वामित्व से जुड़ा हुआ है और थी और न उसके स्वामित्व का विचार ही था। मानव उदार प्रकृति सम्पत्ति की अवधारणा का विकास मानव जाति के विकास का सहगामी की गोद में पलता और पोषित होता था। जैन परम्परा में इसे यौगलिक है। मानव इस पृथ्वी पर कैसे और कब अस्तित्व में आया? यह प्रश्न युग (अकर्म-युग) कहा जाता है। साम्यवादी विचारधारा की दृष्टि से आज भी वैज्ञानिकों के लिए एक गूढ़ पहेली बना हुआ है। विकासवादी यह प्रारम्भिक साम्यवाद(PrimitiveSocialism) की अवस्था थी। सामान्यतया दार्शनिक मानव-सृष्टि को विकास की प्रक्रिया का ही एक अंग मानते इस युग में मानव की आकाक्षायें इतनी बढ़ी-चढ़ी नहीं थीं, और एक हैं और अमीबा जैसे एक कोषीय प्राणी से प्राणियों की विभिन्न जातियों दृष्टि से वह सुखी और सन्तुष्ट था। की विकास प्रक्रिया के माध्यम से मनुष्य की उत्पत्ति की व्याख्या करते किन्तु धीरे-धीरे एक ओर जनसंख्या बढ़ी तथा दूसरी ओर प्रकृति हैं, जबकि जैन दर्शन सृष्टि को आरोह और अवरोह की एक सतत की समृद्धिता कम होने लगी; अत: जीवन जीना जटिल होने लगा, प्रक्रिया (कन्टीन्यूइंग प्रोसेस) बताता है और मानव जाति के अस्तित्व यहीं से श्रम की उद्भावना हुई। जैन-परम्परा के अनुसार ऐसी अवस्था को भी इस आरोह और अवरोह-क्रम के सन्दर्भ में ही विवेचित करता में सर्वप्रथम भगवान् ऋषभदेव ने मानव जाति को कृषि की शिक्षा है। फिर भी नृतत्वविज्ञान, विकासवादी दर्शन और जैन दर्शन इस दी। कृषि में जहाँ एक ओर मानव-श्रम लगने लगा वहीं दूसरी ओर सम्बन्ध में एक मत हैं कि मानव की वर्तमान सभ्यता का विकास उस श्रम के परिणाम स्वरूप उत्पन्न अन्न-सामग्री के संचयन और स्वामित्व उसके प्राकृतिक जीवन से हुआ है। एक समय था जबकि मनुष्य विशुद्ध का प्रश्न भी उठ खड़ा हुआ। वस्तुतः कृषि से उत्पन्न सामग्री ऐसी रूप से एक प्राकृतिक जीवन जीता था और प्रकृति भी इतनी समृद्ध नहीं, जो वर्ष में हर समय सुलभ हो सके, केवल वर्षा पर आश्रित थी कि उसे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए न तो कोई विशिष्ट वह कृषि नियत समय पर ही अपनी उपज दे पाती थी और इसलिए श्रम करना होता था और न संग्रह ही। अत: उस युग में परिग्रह का सम्पूर्ण वर्ष भर के लिये अन्न का संचयन आवश्यक था। जीवन-रक्षण
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
के लिये संचयन की इस वृत्ति से परिग्रह का विचार विकसित हुआ के पास विपुल सम्पत्ति तथा अर्थोपार्जन के प्रमुख साधन विपुल मात्रा है। मनुष्य की यह संग्रह वृत्ति कृषि-उत्पादन के संचयन और स्वामित्व में थे तो दूसरी ओर कुछ लोग अभाव और गरीबी का जीवन जी तक ही सीमित नहीं रही अपितु कृषि-भूमि और कृषि में सहयोगी रहे थे। महावीर ने समाज में उपस्थित इस आर्थिक वैषम्य के कारण पशुओं के स्वामित्व का प्रश्न भी सामने आया। हो सकता है कि की खोज की और मानव की तृष्णा को इसका मूल कारण माना। कुछ समय तक मानव ने समूह के सामूहिक स्वामित्व की धारणा के आधार पर कार्य चलाया हो, किन्तु संचयन और स्वामित्व की वृत्ति संग्रहवृत्ति या परिग्रह का मूल-कारण 'तृष्णा' के परिणामस्वरूप स्वार्थ का उद्भव स्वाभाविक ही था। मानव की इस भगवान् महावीर ने 'उत्तराध्ययन सूत्र' में आर्थिक वैषम्य तथा स्वामित्व की भूख और स्वार्थ-लिप्सा ने सामन्तवाद को जन्म दिया। तज्जनित सभी दुःखों का कारण तृष्णा की वृत्ति को माना। वे कहते राज्य एवं उनके स्वामी राजा, महाराजा और सामन्त अस्तित्व में आये हैं कि जिसकी तृष्णा समाप्त हो जाती है, उसके दुःख भी समाप्त
और परिणाम स्वरूप मानव जाति स्वामी और दास वर्ग में विभाजित हो जाते हैं। वस्तुत: तृष्णा का ही दूसरा नाम लोभ है और इसी हो गई। मानव के शोषण-पीड़न और अत्याचार के एक नये युग का लोभ से संग्रहवृत्ति का उदय होता है। 'दशवैकालिकसूत्र' में लोभ को सूत्रपात हुआ। भगवान् ऋषभ के द्वारा प्रवर्तित वही कृषि-क्रांति जो समस्त सद्गों का विनाशक माना गया है। जैन विचारधारा के अनुसार मानव जाति की सुख-सुविधा और शांति का संदेश लेकर आयी थी, तृष्णा एक ऐसी दुष्पूर खाई है जिसका कभी अन्त नहीं आता। भगवान महावीर के युग तक आते-आते स्वार्थलिप्सा से युक्त हाथों 'उत्तराध्ययनसूत्र' में इसी बात को स्पष्ट करते हुए भगवान् महावीर में पहुँचकर न केवल मानव जाति में दास और स्वामी का, तथा शोषित ने कहा है कि यदि सोने और चाँदी के कैलाश के समान असंख्य
और शोषक का वर्ग भेद खड़ा कर रही थी, अपितु मानव समाज के पर्वत भी खड़े कर दिये जाए तो भी यह तृष्णा शान्त नहीं हो सकती, एक बहुत बड़े भाग के संताप और पीड़ा का कारण भी बन गई थी। क्योकि धन चाहे कितना भी हो वह सीमित है और तृष्णा अनन्त
(असीम) है अत: सीमित साधनों से असीम तृष्णा की पूर्ति नहीं की महावीर के युग की सामाजिक और आर्थिक स्थिति
जा सकती। भगवान महावीर के युग में तत्कालीन समाज-व्यवस्था कैसी थी? वस्तुतः तृष्णा के कारण संग्रहवृत्ति का उदय होता है और यह उसमें आर्थिक वैषम्य-जन्य द्वेष, ईर्ष्या, शोषण और पीड़न आदि संग्रहवृत्ति आसक्ति के रूप में बदल जाती है और यही आसक्ति परिग्रह विद्यमान थे या नहीं? यह महत्त्वपूर्ण प्रश्न कई विचारकों के सम्मुख का मूल है। 'दशवैकालिकसूत्र के अनुसार आसक्ति ही वास्तविक परिग्रह है। तत्कालीन समाज-व्यवस्था का जो चित्र जैन आगमों में विद्यमान है। भारतीय ऋषियों के द्वारा अनुभूत यह सत्य आज भी उतना ही है, उससे यह नि:संकोच कहा जा सकता है कि उस युग में भी आर्थिक- यथार्थ है, जितना कि उस युग में था जबकि इसका कथन किया गया विषमता और तज्जन्य द्वेष, ईर्ष्या आदि सब कुछ थे। तत्कालीन होगा। न केवल जैन दर्शन में अपितु बौद्ध और वैदिक दर्शनों में समाज-व्यवस्था का जो शब्द-चित्र लगभग २५०० वर्ष के पश्चात् आज भी तृष्णा को समस्त सामाजिक वैषम्य और वैयक्तिक दु:खों का मूल भी उपलब्ध है, उससे यह कहा जा सकता है कि उस समय समाज कारण माना गया है। क्योकि तृष्णा से संग्रहवृत्ति उत्पन्न होती हैके सदस्यों में संग्रहवृत्ति भी थी। इस कारण जहाँ तक एक व्यक्ति संग्रह शोषण को जन्म देता है और शोषण से अन्याय का चक्र चलता बहुत अधिक धनी था वहाँ दूसरा व्यक्ति अत्यधिक अभावग्रस्त था। है। भगवान् बुद्ध का भी कहना है कि यह तृष्णा दुष्पूर है और जब एक ओर शालिभद्र जैसे श्रेष्ठि थे तो दूसरी ओर पुणिया जैसे निर्धन तक तृष्णा नष्ट नहीं होती तब तक दु:ख भी नष्ट नहीं होता। 'धम्मपद' श्रावक। बड़े-बड़े सामन्त और सेठ अपने यहाँ नौकर-चाकर रखते में वे कहते हैं कि जिसे यह विषैली नीच तृष्णा घेर लेती है उसके थे, केवल यही नहीं अपितु दास-प्रथा तक विद्यमान थी। डॉ० दुःख उसी प्रकार बढ़ते हैं जिस प्रकार खेतों में वीरण घास बढ़ती जगदीशचन्द्र ने अपनी पुस्तक “जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज" है। भगवान् बुद्ध ने इस तृष्णा को तीन प्रकार का माना है- (१) में 'ऋणदास', दुर्भिक्षदास आदि का उल्लेख करते हुए यह भी बताया भव-तृष्णा (२) विभव-तृष्णा और (३) काम-तृष्णा। भव-तृष्णा है कि इस प्रकार के दासों की मुक्ति किस प्रकार हुआ करती थी? अस्तित्व या बने रहने की है, यह राग-स्थानीय है। विभव तृष्णा समाप्त तात्पर्य यह है कि तत्कालीन समाज-व्यवस्था में अर्थ के सद्भाव तथा हो जाने या नष्ट हो जाने की तृष्णा है, यह द्वेषस्थानीय है। कामतृष्णा अभाव (Haves and Haves not) की समस्या थी। निश्चित रूप में भोगों की उपलब्धि की तृष्णा है और यही परिग्रह का मूल है। गीता इस कारण विषमता, द्वेष, ईर्ष्या सब हुआ करती होगी। यदि हम जैन में भी आसक्ति को ही जागतिक दु:खों का मूल कारण माना गया है। आगम उपासकदशांग' का अवलोकन करें तो हमें यह स्पष्ट हो जायेगा 'गीता' में यह स्पष्ट किया गया है कि आसक्ति का तत्त्व ही व्यक्ति कि कुछ लोगों के पास कितनी प्रचुर मात्रा में सम्पत्ति थी। केवल यही को संग्रह और भोगवासना के लिये प्रेरित करता है। 'गीता' यह भी नहीं, अपितु धन के उत्पादन के मुख्य साधन (भूमि, श्रम, पूंजी एवं स्पष्ट रूप से कहती है कि आसक्ति में बंधा हुआ व्यक्ति काम-भोगों प्रबन्ध) पर उनका अधिकार (चाहे एकाधिकार न हो) था। संक्षेप में की पूर्ति के लिये अन्यायपूर्वक संग्रह करता है। इस प्रकार सम्पूर्ण यह कहा जा सकता है कि उस युग में एक ओर समाज के कुछ सदस्यों भारतीय चिन्तन संग्रहवृत्ति के मूल कारण के रूप में तृष्णा को स्वीकार
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भगवान् महावीर का अपरिग्रह सिद्धान्त और उसकी उपादेयता
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करता है। सन्त सुन्दरदास जी ने इस तथ्य का एक सुन्दर चित्र खींचा रूप देने के लिये गृहस्थ जीवन में परिग्रह-मर्यादा और श्रमण जीवन है। वे बताते हैं कि किस प्रकार यह तृष्णा संग्रह की उद्दाम वृत्तियों में समग्र परिग्रह के त्याग का निर्देश दिया गया है। दिगम्बर जैन मुनि को जन्म दे देती है। वे लिखते हैं
के अपरिग्रही जीवन का आदर्श अनासक्त दृष्टि का एक जीवित प्रमाण जो दस बीस पचास भये, शत होइ हजार तु लाख मंगेगी। है। यद्यपि यह संभव है कि अपरिग्रही होते हुए भी व्यक्ति के मन कोटि अरब्ब खरब्ब असंख्य, धरापति होने की चाह जगेगी। में आसक्ति का तत्त्व रह सकता है लेकिन इस आधार पर यह मानना स्वर्ग पताल को राज करो, तिसना अधिकी अति आग लगेगी। कि विपुल संग्रह को रखते हुए भी अनासक्त वृत्ति का पूरी तरह निर्वाह 'सुन्दर' एक संतोष बिना, शठ तेरी तो भूख कबहूँ न भगेगी। हो सकता है, समुचित नहीं है।
पाश्चात्य विचारक महात्मा टालस्टाय ने भी How Much भगवान् महावीर ने आर्थिक वैषम्य, भोग-वृत्ति और शोषण की Land Does A Man Need नामक कहानी में एक ऐसा ही सुन्दर चित्र समाप्ति के लिए मानव जाति को अपरिग्रह का सन्देश दिया। उन्होंने खींचा है। कहानी का सारांश यह है कि कथा-नायक भूमि की असीम बताया कि इच्छा आकाश के समान अनन्त होती है (इच्छा हु आगासतृष्णा के पीछे अपने जीवन को समाप्त कर देता है और उसके द्वारा समा अणंतया) और यदि व्यक्ति अपनी इच्छओं पर नियंत्रण नहीं रखे उपलब्ध किये गये विस्तृत भू-भाग में केवल उसके शव को दफनाने तो वह शोषक बन जाता है। अत: भगवान् महावीर ने इच्छाओं के जितना भू-भाग ही उसके उपयोग में आता है।
नियंत्रण पर बल दिया। जैन-दर्शन में जिस अपरिग्रह सिद्धान्त को इस प्रकार हम देखते हैं कि मानव में संग्रहवृत्ति या परिग्रह की प्रस्तुत किया गया है उसका एक नाम 'इच्छा-परिमाण व्रत' भी है। धारणा का विकास उसकी तृष्णा के कारण ही हुआ है। मनुष्य के भगवान् महावीर ने मानव की संग्रहवृत्ति को अपरिग्रह व्रत एवं अन्दर रही हुई तृष्णा या आसक्ति मुख्यत: दो रूपों में प्रकट होती इच्छा-परिमाण व्रत के द्वारा नियन्त्रित करने का उपदेश दिया है, साथ है-(१) संग्रह भावना और (२) भोग-भावना। संग्रह-भावना और ही उसकी भोग वासना और शोषण की वृत्ति के नियन्त्रण के लिये भोग-भावना से प्रेरित होकर ही मनुष्य दूसरे व्यक्तियों के अधिकार ब्रह्मचर्य, उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत तथा अस्तेय व्रत का विधान की वस्तुओं का अपहरण करता है। इस प्रकार आसक्ति का बाह्य किया गया है। मनुष्य अपनी संग्रह वृत्ति को इच्छा-परिमाण व्रत के प्रकटन निम्नलिखित तीन रूपों में होता है-(१) अपहरण (शोषण), द्वारा या परिग्रह- परिमाण व्रत के द्वारा नियंत्रित करे। इस प्रकार अपनी (२) भोग और (३) संग्रह।
भोग-वृत्ति एवं वासनाओं को उपभोग परिभोग-परिमाण व्रत एवं ब्रह्मचर्य
व्रत के द्वारा नियंत्रित करे, साथ ही समाज को शोषण से बचाने के संग्रहवृत्ति एवं परिग्रहजन्य समस्याओं के निराकरण के उपाय लिए अस्तेय व्रत और अहिंसा व्रत का पालन करे। ___ भगवान महावीर ने संग्रहवृत्ति के कारण उत्पन्न समस्याओं के इस प्रकार हम देखते हैं कि महावीर ने मानव जाति को आर्थिक समाधान की दिशा में विचार करते हुए यह बताया कि संग्रहवृत्ति पाप वैषम्य और तज्जनित परिणामों से बचाने के लिये एक महत्त्वपूर्ण दृष्टि है। यदि मनुष्य आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह करता है प्रदान की है। मात्र इतना ही नहीं, महावीर ने उन लोगों को जिनके तो वह समाज में अपवित्रता का सूत्रपात करता है। संग्रह फिर चाहे पास संग्रह था, दान का उपदेश भी दिया। अभाव पीड़ित समाज के धन का हो या अन्य किसी वस्तु का, वह समाज के अन्य सदस्यों सदस्यों के प्रति व्यक्ति के दायित्व को स्पष्ट करते हुये महावीर ने को उनके उपभोग के लाभ से वंचित कर देता है। परिग्रह या संग्रह- श्रावक के एक आवश्यक कर्तव्यों में दान का विधान भी किया है। वृत्ति एक प्रकार की सामाजिक हिंसा है। जैन आचार्यों की दृष्टि में यद्यपि हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि जैन-दर्शन और अन्य भारतीय समग्र परिग्रह हिंसा से प्रत्युत्पन्न है। व्यक्ति संग्रह के द्वारा दूसरों के दर्शनों में दान अभावग्रस्त पर कोई अनुग्रह नहीं है अपितु उनका अधिकार हितों का हनन करता है और इस रूप में संग्रह या परिग्रह हिंसा का है। दान के लिये संविभाग शब्द का प्रयोग किया गया है। भगवान् ही एक रूप बन जाता है। अहिंसा के सिद्धान्त को जीवन में उतारने महावीर ने स्पष्ट रूप से यह कहा कि जो व्यक्ति समविभाग और के लिये जैन आचार्यों ने यह आवश्यक माना कि व्यक्ति बाह्य परिग्रह सम-वितरण नहीं करता, उसकी मुक्ति सम्भव नहीं है। ऐसा व्यक्ति का भी विसर्जन करे। परिग्रहत्याग अनासक्त दृष्टि का बाह्य जीवन में पापी है। सम-विभाग और समवितरण सामाजिक न्याय एवं आध्यात्मिक दिया गया प्रमाण है। एक ओर विपुल संग्रह और दूसरी ओर अनासक्ति विकास के अनिवार्य अंग माने गये हैं। जब तक जीवन में समविभाग का सिद्धान्त, इन दोनों में कोई मेल नहीं हो सकता, यदि मन में और समवितरण की वृत्ति नहीं आती है और अपने संग्रह का विसर्जन अनासक्ति की भावना का उदय है तो उसका बाह्य व्यवहार में अनिवार्य नहीं किया जाता, तब तक आध्यात्मिक जीवन या समत्व की उपलब्धि रूप से प्रकटन होना चाहिये। अनासक्ति की धारणा को व्यावहारिक भी सम्भव नहीं होती।
संदर्भ : १. उत्तराध्ययन, ३२/८। २. उत्तराध्ययन, ९/४८।
३. दशवैकालिक, ६/२१॥ ४. धम्मपद, ३३५। ५. उत्तराध्ययन सूत्र १७/११, प्रश्न व्याकरण २/३।
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श्रावक-आचार की प्रासङ्गिकता का प्रश्न
गृहस्थ-वर्ग का उत्तरदायित्व
यहाँ तक कह दिया गया है कि चाहे सभी सामान्य गृहस्थों की अपेक्षा जैन धर्म श्रमण-परम्परा का धर्म है। दूसरे शब्दों में वह निवृत्तिमार्गी श्रमणों को श्रेष्ठ मान लिया जाये किन्तु कुछ गृहस्थ ऐसे भी हैं, जो या संन्यासमार्गी धर्म है। यह बात भी निस्संकोच रूप से स्वीकार की श्रमणों की अपेक्षा संयम के परिपालन में श्रेष्ठ होते हैं। बात स्पष्ट जा सकती है कि वैदिक-परम्परा के विपरीत इसमें संन्यास को ही और साफ है कि आध्यात्मिक साधना का सम्बन्ध न केवल वेश से जीवन का चरम आदर्श स्वीकार किया गया है; किन्तु इस आधार है और न केवल आचार के बाह्य नियम से। यद्यपि समाज या पर यह निष्कर्ष निकाल लेना कि जैनधर्म में गृहस्थ या उपासक वर्ग संघ-व्यवस्था की दृष्टि में बाह्य आचार-नियमों का पालन आवश्यक का महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं है, अनुचित ही होगा। चाहे जैनधर्म के प्रारम्भिक है। उत्तराध्ययनसूत्र (३६/४९) में स्पष्ट रूप से यह बात भी स्वीकार युग में संन्यास को अधिक महत्ता मिली हो, किन्तु आगे चलकर कर ली गयी है कि गृहस्थ जीवन से भी निर्वाण को प्राप्त किया जा जैन-परम्परा में गृहस्थ धर्म को भी महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हो गया। सकता है। इस सम्बन्ध में मरुदेवी और भरत के उदाहरण लोकविश्रुत जैन धर्म में जो चतुर्विध सङ्घ व्यवस्था हुई उसमें साधु-साध्वियों के हैं। यदि गृहस्थ धर्म से श्री परिनिर्वाण या मुक्ति सम्भव है तो इस साथ ही साथ श्रावकों और श्राविकाओं को भी स्थान दिया गया। मात्र विवाद का कोई अधिक मूल्य नहीं रह जाता कि मुनि धर्म और गृहस्थ यही नहीं, श्रावक और श्राविकाओं को श्रमणों और श्रमणियों के धर्म में साधना का कौन सा मार्ग श्रेष्ठ है। वस्तुत: आध्यात्मिक विकास माता-पिता के रूप में स्वीकार किया गया। दूसरे शब्दों में उन्हें के क्षेत्र में श्रेष्ठता और निम्नता का आधार आध्यात्मिक जागरूकता, साधु-साध्वियों का संरक्षक मान लिया गया। वैदिक परम्परा में भी अप्रमत्तता और निराकुलता है, जिसने अपनी विषय-वासनाओं और गृहस्थ आश्रम को सभी आश्रमों का मूल बताया गया था। प्रकारान्तर कषायों पर नियन्त्रण पा लिया है, जिसका चित्त निराकुल और शान्त से इसे जैन परम्परा में गृहस्थ वर्ग को श्रमण वर्ग का संरक्षक एवं हो गया है, जो अपने कर्तव्यपथ पर पूरी ईमानदारी से चल रहा है, आधार मानकर स्वीकार कर लिया गया। जैन परम्परा में गृहस्थ उपासक फिर चाहे वह गृहस्थ हो या मुनि, उसकी आध्यात्मिक श्रेष्ठता में कोई न केवल इसलिए महत्त्वपूर्ण था कि वह श्रमणों के भोजन, स्थान आदि अन्तर नहीं पड़ता। आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में न तो वेश महत्त्वपूर्ण आवश्यकताओं की पूर्ति करता था अपितु उसे श्रमण साधकों के चारित्र है और न बाह्य आचार, अपितु उसमें महत्त्वपूर्ण है 'अन्तरात्मा की का प्रहरी भी मान लिया गया। कुछ समय पूर्व तक श्रावक वर्ग की निर्मलता और विशुद्धता'। अन्त:करण की निर्मलता ही साधना का यह महत्ता अक्षुण्ण थी। उसे यह अधिकार प्राप्त था कि यदि कोई मूलभूत आधार है। साधु या साध्वी श्रमण मर्यादाओं का सम्यकपेण पालन नहीं करता है तो वह उनका वेश लेकर उन्हें श्रमण संघ से पृथक् कर दे। इसी गृहस्थ धर्म की श्रेष्ठता का प्रश्न प्रकार मुनि एवं आर्यिका वर्ग में प्रवेश के लिए भी श्रावक संघ की गृहस्थधर्म और मुनिधर्म में यदि साधना की दृष्टि से हम श्रेष्ठता अनुमति आवश्यक थी।
की बात करें तो भी वस्तुत: गृहस्थ जीवन ही अधिक श्रेष्ठ प्रतीत वर्तमान युग में साधु-साध्वियों के आचार में जो शिथिलता होती होगा। वीतरागता की साधना के लिए संन्यास एक निरापद मार्ग है, जा रही है, उसका एकमात्र कारण यही है कि गृहस्थवर्ग मुनि आचार क्योकि गृहस्थ जीवन में रहकर वीतरागता की साधना करना अधिक से अवगत न रहने के कारण अपने उपर्युक्त कर्तव्य को भूल गया कठिन है। क्योंकि साधक जीवन में विघ्नों से दूर रहकर निर्दोष चरित्र है। आज हमें इस बात को बहुत स्पष्ट रूप से समझ लेना होगा कि का पालन करना उतना कठिन नहीं है, जितना कि विघ्नों के बीच जैनधर्म और संस्कृति की रक्षा का दायित्व मुनिवर्ग की अपेक्षा गृहस्थ रहकर उसका पालन करना। संन्यास मार्ग एक ऐसा मार्ग है, जिसमें वर्ग पर ही अधिक है और यदि वह अपने इस दायित्व की उपेक्षा अनासक्ति या वीतरागता की साधना के लिए विघ्न-बाधाओं की सम्भावना करेगा, तो अपनी संस्कृति एवं धर्म की सुरक्षा करने में असफल रहेगा। कम होती है। संन्यासमार्ग की साधना कठोर होते हुए भी सुसाध्य
यह तो हुआ केवल समाज या संघ व्यवस्था की दृष्टि से श्रावक है, जबकि गृहस्थ मार्ग की साधना व्यावहारिक दृष्टि से सुसाध्य प्रतीत वर्ग का महत्त्व एवं उत्तरदायित्व। किन्तु न केवल सामाजिक दृष्टि से होते हुए भी दुःसाध्य है, क्योंकि आध्यात्मिक विकास के लिए जिस अपितु आध्यात्मिक एवं साधनात्मक दृष्टि से भी गृहस्थ का स्थान उतना अनासक्त चेतना की आवश्यकता है, वह संन्यस्त जीवन में सहज प्राप्त निम्न नहीं है, जितना कि सामान्यतया मान लिया जाता है। सूत्रकृतांग हो जाती है, उसमें चित्त विचलन के अवसर अतिन्यून होते हैं, जब (२/२/३९) में स्पष्ट रूप से निर्देश है कि 'आरम्भ नो आरम्भ' कि गृहस्थ जीवन में चित्त-विचलन के अवसर अत्यधिक हैं। गिरि-कन्दरा (गृहस्थधर्म) का यह स्थान भी आर्य है तथा समस्त दुःखों का अन्त में रहकर ब्रह्मचर्य का पालन उतना कठिन नहीं है, जितना कि नारियों करने वाला मोक्षमार्ग है। यह जीवन भी पूर्णतया सम्यक् एवं साधु (सुन्दरियों) के मध्य रहकर उनका पालन करना। प्रेमिका वेश्या के है। मात्र यही नहीं, उत्तराध्ययनसूत्र (५/२०) में तो स्पष्ट रूप से घर में चातुर्मास के लिए स्थित होकर ब्रह्मचर्य की साधना करने वाले
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श्रावक आचार की प्रासङ्गिकता का प्रश्न
स्थूलभद्र को उन सैकड़ों-हजारों मुनियों की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ माना गया, जो गिरिकन्दराओं में रहकर मुनिधर्म की साधना कर रहे थे। क्या विजय सेठ और सेठानी की ब्रह्मचर्य की कठोर साधना की तुलना किसी गृहस्थ जीवन का परित्याग करने वाले मुनि की ब्रह्मचर्य साधना से की जा सकती है? राग-द्वेष, आसक्ति और ममत्व के प्रसंगों की उपस्थिति गृहस्थ जीवन में अधिक होती है उन प्रसंगों में भी जो अपने को निराकुल और नियंत्रित रख सकता है, वह महान् है।
संन्यास मार्ग में तो इन प्रसंगों की उपस्थिति के अवसर ही अत्यल्प होते हैं। अतः संन्यास मार्ग निरापद और सरल है। गृहस्थ धर्म से आध्यात्मिक विकास की ओर जाने वाला मार्ग फिसलन भरा है, जिसमें कदम-कदम पर सजगता की आवश्यकता है। यदि साधक एक क्षण के लिए भी वासना के आवेगों में नहीं संभला तो उसका पतन हो जाता है। वासनाओं के बवण्डर के मध्य रहते हुए भी उनसे अप्रभावित रहना सरल नहीं है। अतः कह सकते हैं कि गृहस्थ जीवन की साधना मुनि जीवन की साधना की अपेक्षा अधिक दुःसाध्य है और जो ऐसे साधना पथ पर चलकर आध्यात्मिक उच्चता को प्राप्त करता है वह मुनियों की अपेक्षा कई गुना श्रेष्ठ है।
वस्तुतः गृहस्थ धर्म का पालन इसलिए अधिक दुःसाध्य है कि उसमें काजल की कोठरी में रहकर भी अपनी चरित्र रूपी चादर को बेदाग रखना होता है। काजल की कोठरी से बाहर रहकर तो कोई भी चरित्र रूपी चादर को बेदाग रख सकता है, किन्तु कोठरी में रहते हुए उसे बेदाग रख पाना अधिक सजगता और आत्मनियन्त्रण की अपेक्षा रखता है। फिसलन भरे रास्ते में चलकर जो साधना की ऊँचाइयों तक पहुँचता है, उसकी महत्ता तो कुछ और है संसाररूपी और वासनारूपी कर्दम में रहकर भी कमलपत्र के समान अलिप्त रहना निश्चय ही एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है।
यद्यपि मेरे यह सब कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि मैं मुनि जीवन की महत्ता और गरिमा को नकार रहा हूँ, इस विषय-वासनारूपी काजल की कोठरी से निकलकर उन पर नियन्त्रण कर लेना भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। मुनि जीवन की अपनी साधनागत गरिमा और महत्ता है, उसे मैं अस्वीकार नहीं करता। मेरे कहने का तात्पर्य यही है कि जो गृहस्थ जीवन में रहकर भी साधना की उन्हीं आध्यात्मिक ऊँचाइयों को छू लेता है, जिसे एक मुनि छूता है तो वह गृहस्थ मुनि से श्रेष्ठ है। उत्तराध्ययन में गृहस्य को मुनि की अपेक्षा जो श्रेष्ठ कहा गया है, वह इसी अपेक्षा से कहा गया है।
अपनी अस्मिता को पहचाने
गृहस्थ धर्म की इस महत्ता के प्रतिपादन का एकमात्र उद्देश्य यही है कि हम अपने पद की महत्ता और गरिमा को समझें वर्तमान संदर्भों में इस महत्ता और गरिमा का प्रतिपादन इसलिए आवश्यक है कि आज का श्रावक वर्ग न केवल अपने कर्तव्यों और दायित्वों को भूल बैठा है, अपितु वह अपनी अस्मिता को भी खो बैठा है। आज ऐसा
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समझा जाने लगा है कि धर्म और संस्कृति का संरक्षण तथा आध्यात्मिक साधना सभी कुछ साधुओं का काम है। गृहस्थ तो मात्र उपासक है, उसके कर्तव्य की इतिश्री साधु-साध्वियों को दान देने तक ही है। आज हमें इस बात का अहसास करना होगा कि जैन धर्म की संघ व्यवस्था में हमारा क्या और कितना गरिमामय स्थान है? खाट के चार पायों में अगर एक चरमराता और टूटता है तो दूसरों का अस्तित्व निरापद नहीं रह सकता। यदि श्रावक वर्ग अपने कर्तव्यों, दायित्वों एवं अपनी गरिमा को विस्मृत करता है तो संघ के शेष घटकों का अस्तित्व भी निरापद नहीं रह सकता। आज के साधुवर्ग और श्रावकवर्ग की स्थिति को देखकर यह शेर बरबस याद आ जाता है
हम तो डूबेंगे सनम, तुम्हें भी ले डूबेंगे।
आज वास्तविक स्थिति यह है कि हमारा भ्रमण और श्रमणी वर्ग भी शिथिलाचार में आकण्ठ डूबता जा रहा है। यदि कोई उसके अन्दर झांक कर देखता है तो उसके अन्दर रही हुयी सड़ांध से अपना मुँह नफरत से फेर लेता है आज जिन्हें हम आदर्श और वन्दनीय मान रहे हैं, उनके जीवन में छल, छद्म, दुराग्रह एवं अहं के पोषण की प्रवृत्तियाँ और वासनामय जीवन के प्रति ललक को देखकर मन पीड़ा से भर उठता है, किन्तु उनके इस पतन का उत्तरदायी दूसरा कोई नहीं, श्रावक वर्ग ही है या तो हमने उन्हें इस पतन के मार्ग की ओर ढकेला है या फिर कम से कम उनके सहभागी बने हैं। साधु-साध्वियों में शिथिलाचार हमारे प्रश्रय से बढ़ता है, यह सत्य है कि आज श्रावक, उनमें भी विशेष रूप से सम्पन्न श्रावक वर्ग धर्म के नाम पर होने वाले बाह्याडम्बरों में अधिक रुचि ले रहा हैउनकी और उनके तथाकथित गुरुओं दोनों की रुचि धर्म के नाम पर अपने-अपने अहं का पोषण करने की है। वही साधु और वही श्रावक अधिक प्रतिष्ठित होता है, जो जितनी भीड़ इकट्ठी करता है जो मजमा जमाने में जितना अधिक कुशल है, वही उतना अधिक प्रतिष्ठित है। इन सब में साधना-प्रिय साधु और श्रावक तो कहीं ओझल हो गये हैं। मैं यह सब जो कुछ कह रहा हूँ उसका कारण मुनिवर्ग के प्रति मेरी दुर्भावना नहीं है, अपितु उस यथार्थता को देखकर मन में जो एक पीड़ा और व्यथा है, उसी का प्रकटन है। बाल्यकाल से लेकर जीवन की इस प्रौढ़ावस्था तक मैंने जैन मुनि संघ को अति निकट से देखा और परखा है एवं उस निकटता में मैंने जो कुछ अनुभव किया है, उसी यथार्थता की बात कह रहा हूँ। हो सकता है कि इसके कुछ अपवाद हों, लेकिन सामान्य स्थिति यही है। जीवन का दोहरापन आज मुनिवर्ग का यथार्थ बनता जा रहा है, लेकिन इस सबके लिए मैं अपने को और अपने साथ ही गृहस्थ वर्ग को अधिक उत्तरदायी मानता हूँ।
आज गृहस्थ वर्ग न केवल अपने संरक्षक होने के दायित्व को भूला है, अपितु वह स्वयं अपनी अस्मिता को खोकर चारित्रिक पतन की ओर तेजी से गिरता जा रहा है। जब हम ही नहीं संभलेंगे तो दूसरों को संभालने की बात क्या करेंगे। आज का गृहस्थ वर्ग जिस पर जैन धर्म और संस्कृति के संरक्षण का दायित्व है, उसका ज्ञान
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ और आचारण दोनों ही दिशाओं में तेजी से पतन हुआ है। आज सम्यग्दर्शन : गृहस्थ-धर्म का प्रवेशद्वार हमारी स्थिति यह है कि हमें न तो श्रमण जीवन के नैतिक और श्रावक धर्म की भूमिका को प्राप्त करने के पूर्व सम्यग्दर्शन की आध्यात्मिक मूल्यों का बोध है और न हम गृहस्थ जीवन के आवश्यक प्राप्ति आवश्यक मानी गई है। जैन परम्परा में सम्यग्दर्शन के अर्थ कर्तव्यों और दायित्वों के सन्दर्भ में भी कोई जानकारी रखते हैं। में एक विकास देखा जाता है। सम्यग्दर्शन का प्राथमिक अर्थ आग्रह आगम-ज्ञान तो बहुत दूर की बात है, हमें श्रावक-जीवन के सामान्य और व्यामोह से रहते, यथार्थ दृष्टिकोण रहा है, वह यथार्थ वीतराग नियमों का भी बोध नहीं है। दूसरी ओर जिन सप्त व्यसनों से बचना जीवन दृष्टि था। कालान्तर में वह जिनप्रणीत तत्त्वों के प्रति निश्चल श्रावक-जीवन की सर्वप्रथम भूमिका है और आध्यात्मिक साधना का श्रद्धा के रूप में प्रचलित हुआ। वर्तमान सन्दर्भो में सम्यक् दर्शन का प्रथम चरण है और जिनके आधार पर वैयक्तिक, पारिवारिक और अर्थ देव, गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धा है। सामान्यतया वीतरागी को सामाजिक सुख-शान्ति निर्भर है, वे दुर्व्यसन तेजी से समाज में प्रविष्ट देव, निम्रन्थ मुनि को गुरु और अहिंसा को धर्म मानने को सम्यक् होते जा रहे हैं और वे जितनी तेजी से व्याप्त होते जा रहे हैं वह दर्शन कहा गया है। यह सत्य है कि साधना के क्षेत्र में बिना अटल हमारे धर्म और संस्कृति के अस्तित्व के लिए एक बहुत बड़ा खतरा श्रद्धा या निश्चल आस्था के आगे बढ़ना सम्भव नहीं है। 'संशयात्मा है। जैन परिवारों में प्रविष्ट होता हुआ मद्यपान और सामिष आहार विनश्यति' की उक्ति सत्य है। जब तक साधक में श्रद्धा का विकास क्या हमारी सांस्कृतिक गरिमा के मूल पर. ही प्रहार नहीं है? किसी नहीं होता, तब तक वह साधना के क्षेत्र में प्रगति नहीं कर सकता, भी धर्म और संस्कृति का टिकाव और विकास उसके ज्ञान और चरित्र न केवल धर्म के क्षेत्र में श्रद्धा की आवश्यकता है अपितु हमारे व्यावहारिक के दो पक्षों पर निर्भर करता है, किन्तु आज का गृहस्थ वर्ग इन दोनों जीवन में भी वह आवश्यक है। वैज्ञानिक गवेषणा का प्रारम्भ बिना ही क्षेत्रों में तेजी से पतन की ओर बढ़ रहा है। आज स्थिति यह किसी परिकल्पना (Hypothesis) की स्वीकृति के नहीं होता है। गणित है कि धर्म केवल दिखावे में रह गया है। वह जीवन से समाप्त होता के अनेक सवालों को हल करने के लिए प्रारम्भ में हमें मानकर ही जा रहा है। किन्तु हमें यह याद रखना होगा कि धर्म यदि जीवन में चलना होता है। कोई भी व्यवसायी बिना इस बात पर आस्था रखे नहीं बचेगा तो उसका बाह्य कलेवर बहुत अधिक दिनों तक कायम कि ग्राहक आयेंगे और माल बिकेगा, अपने व्यवसाय का प्रारम्भ नहीं नहीं रह पायेगा। जिस प्रकार शरीर से चेतना के निकल जाने के बाद कर सकता। कोई भी पथिक अपने गन्तव्य को जाने वाले मार्ग के शरीर सड़ांध मारने लगता है, वही स्थिति आज धर्म की हो रही है। प्रति आस्थावान् हुए बिना उस दिशा में कोई गति नहीं करता। कुछ व्यक्तिगत उदाहरणों को छोड़कर यदि सामान्य रूप से कहूँ तो लोक-जीवन और साधना सभी क्षेत्रों में आस्था और विश्वास अपेक्षित आज चाहे वह मुनि वर्ग हो या गृहस्थ वर्ग, जीवन से धर्म की आत्मा है, किन्तु हमें आस्था (श्रद्धा) और अन्धश्रद्धा में भेद करना होगा। निकल चुकी है। हमारे पास केवल धर्म का कलेवर शेष बचा है और जैन आचार्यों ने गृहस्थोपासक के लिए जिस सम्यक् श्रद्धा की हम उसे ढो रहे हैं। यह सत्य है कि विगत कुछ वर्षों में धर्म के नाम आवश्यकता बताई, वह विवेक-समन्वित श्रद्धा है। आचार्य समन्तभद्र पर शोर-शराबा बढ़ा है, भीड़ अधिक इकट्ठी होने लगी है, मजमें जमने ने अपने श्रावकाचार में धर्म के नाम पर प्रचलित लौकिक मूढ़ताओं लगे हैं। किन्तु मुझे ऐसा लगता है कि यह सब धर्म के कलेवर की से बचने का स्पष्ट निर्देश किया है। किन्तु वर्तमान सन्दर्भो में हमारा अन्त्येष्टि की तैयारी से अधिक कुछ नहीं है।
सम्यक् दर्शन स्वयं इन मूढ़ताओं से आक्रान्त होता जा रहा है। आज सम्भवत: अब हमें सावधान हो जाना चाहिए, अन्यथा हम अपने सम्यक् दर्शन को, जो कि एक आन्तरिक आध्यात्मिक अनुभूति से अस्तित्व को खो चुके होंगे। जैसा कि मैंने पूर्व में कहा इस सबके । फलित उपलब्धि है, लेन-देन की वस्तु बना दिया गया है। आज हमारे लिए अन्तिम रूप से कोई भी उत्तरदायी ठहराया जायेगा तो वह गृहस्थ तथाकथित गुरुओं के द्वारा सम्यक्त्व दिया और लिया जा रहा है। वर्ग ही होगा। जैनधर्म में गृहस्थ वर्ग की भूमिका दोहरी है। वह साधक कहा जाता है कि "अमुक गुरु का सम्यक्त्व वोसरा दो (छोड़ दो) भी है और साधकों का प्रहरी भी। आज जब हम श्रावक धर्म की और हमारा सम्यक्त्व ग्रहण कर लो" यह तो सत्य है कि गुरुजन प्रासंगिकता की चर्चा करना चाहते हैं तो हमें पहले उस यथार्थ की साधक को देव, गुरु और धर्म का यथार्थ स्वरूप बता सकते हैं, किन्तु भूमिका को देख लेना होगा, जहाँ आज का श्रावक वर्ग जी रहा है। सम्यक्त्व भी कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जिसे किसी को दिया और श्रावक जीवन के जो आदर्श और नियम हमारे आचार्यों ने प्रस्तुत लिया जा सकता है। मेरी तुच्छ बुद्धि में यह बात समझ में नहीं आती किये हैं, उनकी प्रासंगिकता तो आज भी उतनी ही है; जितनी उस है कि सम्यक्त्व क्या कोई बाहरी वस्तु है, जिसे कोई दे या ले सकता समय थी, जबकि उनका निर्माण किया गया होगा। क्या सप्त दुर्व्यसनों है। सम्यक्त्व परिवर्तन के नाम पर आज जो साम्प्रदायिक घेराबन्दी के त्याग, मार्गानुसारी गुणों के पालन एवं श्रावक के अणुव्रत, गुणव्रत की जा ही है, वह मिथ्यात्व के पोषण के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं और शिक्षाव्रतों की उपयोगिता और प्रासंगिकता को कभी भी नकारा है। उसके आधार पर श्रावकों में दरार डाली जा रही है और लोगों जा सकता है? वे तो मानव जीवन के शाश्वत मूल्य हैं, उनके अप्रासंगिक के मन में यह बात बैठायी जा रही है कि हम ही केवल सच्चे गुरु होने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता है।
हैं और हम जो कह रहे हैं, वह वीतराग की वाणी है। सम्यक्त्व के
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श्रावक आचार की प्रासङ्गिकता का प्रश्न
३२५ यथार्थ स्वरूप से अनभिज्ञ हम गुरुडमवाद के दलदल में फंसते चले नहीं होता है। श्रावक धर्म के पालन के लिए उपर्युक्त चतुर्विध कषायों
पर नियन्त्रण की क्षमता का विकास आवश्यक है। जब तक व्यक्ति आज वीतरागता के प्रति हमारी श्रद्धा कितनी जर्जर हो चुकी अपने क्रोध, मान, माया, लोभ-इन चार कषायों पर किसी भी प्रकार है, इसका प्रमाण यही है कि आज सामान्य मुनिजनों, आचार्यों से का नियन्त्रण कर पाने में अक्षम होता है, तब तक वह श्रावक धर्म लेकर गृहस्थ उपासक तक सभी लौकिक एषणाओं की पूर्ति के लिए की साधना नहीं कर सकता। क्रोध, मान, माया और लोभ की प्रवृत्तियों वीतराग की निष्काम भक्ति को भूलकर तीर्थङ्कर या देवी-देवताओं की पर नियन्त्रण कर लेने की क्षमता का विकसित हो जाना ही श्रावक सकाम-भक्ति में लगे हुए हैं। आज वीतराग तीर्थङ्कर देव के स्थान पर धर्म की उपलब्धि का प्रथम चरण है। पद्मावती, चक्रेश्वरी, भौमिया जी, घंटाकर्ण महावीर और नाकोड़ा भैरव वर्तमान सन्दर्भो में इन चारों अशुभ आवेगों के नियन्त्रण की अधिक महत्त्वपूर्ण हो गये हैं। हमारे अधिकांश साधु-साध्वी ही नहीं, उपयोगिता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। जैनागमों के अनुसार आचार्य तक यक्षों और देवियों की साधना में लगे हुए हैं। वीतरागता क्रोध का तत्त्व पारस्परिक सौहार्द (प्रीति) को समाप्त करता है और के उपासक इस धर्म में आज यन्त्र-मन्त्र व जादू-टोना सभी कुछ प्रविष्ट सौहार्द के अभाव में एक दूसरे के प्रति सन्देह और आशंका होती होते जा रहे हैं। वीतरागता के साधक कहे जाने वाले मुनिजन भी है। यह स्पष्ट है कि सामाजिक जीवन में पारस्परिक अविश्वास और अपनी चमत्कार-शक्ति का बड़े गौरव के साथ बखान करते हैं। जिस आशंकाओं के कारण असुरक्षा का भाव पनपता है और फलत: हमें धर्म की उत्पत्ति लौकिक मूढ़ताओं और अन्ध-श्रद्धाओं को समाप्त करने अपनी शक्ति का बहुत कुछ अपव्यय करना पड़ता है। आज अन्तर्राष्ट्रीय के लिए हुई हो, वही आज अन्ध-विश्वासों में आकण्ठ डूबता जा रहा क्षेत्र में जो शस्त्र-संग्रह और सैन्य-बल बढ़ाने की प्रवृत्ति परिलक्षित है। हमारी आस्थाएँ वीतरागता के साथ न जुड़कर लौकिक-एषणाओं हो रही है और जिस पर अधिकांश राष्ट्रों की राष्ट्रीय आय का ५० की पूर्ति के लिए जुड़ रही हैं। आज महावीर के पालने की अपेक्षा प्रतिशत के अधिक व्यय हो रहा है, वह सब इस पारस्परिक अविश्वास लक्ष्मी जी का स्वप्न महंगा बिकता है। अगर हमारी आस्थाएँ धर्म के का परिणाम है। आज धार्मिक और सामाजिक जीवन में जो असहिष्णुता नाम पर लौकिक एषणाओं की पूर्ति तक ही सीमित हैं, तब फिर हमारा है, उसके मूल में घृणा, विद्वेष एवं आक्रोश का तत्त्व ही है। यह वीतराग के उपासक होने का दावा करना व्यर्थ है। आज जब हम ठीक है कि व्यक्ति जब तक परिवार, समाज एवं राष्ट्र से जुड़ा है, गृहस्थ धर्म की प्रासंगिकता की चर्चा करना चाहते हैं, हमें इस यथार्थ उसमें किसी सीमा तक क्रोध या आक्रोश होना आवश्यक है, अन्यथा स्थिति को समझ लेना होगा। जीवन में या साधना के क्षेत्र में सम्यक् उसका अस्तित्व ही खतरे में होगा, किन्तु उसे नियन्त्रण में होना चाहिये श्रद्धा की कितनी आवश्यकता है? यह निर्विवाद रूप से सिद्ध है, और अपरिहार्य स्थिति में ही उसका प्रकटन होना चाहिये। किन्तु श्रद्धा के नाम पर अन्धविश्वासों का जो एक दुश्चक्र हम पर हावी हमारे पारस्परिक सामाजिक सम्बन्धों में दरार का दूसरा महत्त्वपूर्ण होता जा रहा है, उससे कैसे बचा जाय? यही आज का महत्त्वपूर्ण कारण व्यक्ति का अहंकार या घमण्ड है। एक गृहस्थ के लिए यह प्रश्न है। वस्तुत: इस सबका मूल कारण यह है कि आज श्रावक वर्ग आवश्यक है कि वह अपनी अस्मिता एवं स्वाभिमान का बोध रखे, को धर्म के यथार्थ स्वरूप का कोई बोध नहीं रह गया है। हमारी श्रद्धा किन्तु उसे अपने अहंकार पर नियन्त्रण रखना आवश्यक है। समाज समझपूर्वक स्थिर नहीं हो रही है, श्रद्धा का तत्त्व व्यक्ति का आध्यात्मिक में जो विघटन या टूटन पैदा होती है, उसका मुख्य कारण समाज विकास कर सकता है, लेकिन वह तभी सम्भव है जब श्रद्धा ज्ञानसम्मत के कर्णधारों, फिर चाहे वे गृहस्थ हों या मुनि, का अहंकार ही है। हो और हमारी विवेक की आंखें खुली हों। आज हम उस उक्त को अहंकार पारस्परिक विनय एवं सम्मान में भी बाधक होता है। इससे भूल गये हैं, जिसमें कहा गया है कि ‘पण्णा समिक्खए धम्मो' अर्थात् दूसरों के अहं पर चोट पहुँचती है और उसके परिणाम स्वरूप सामाजिक धर्म के स्वरूप की प्रज्ञा के द्वारा समीक्षा करो।
सम्बन्धों में दरार पड़ने लगती है। अहंकार पर चोट लगते ही व्यक्ति
अपना अलग अखाड़ा जमा लेता है, जिसके परिणाम स्वरूप धार्मिक कषाय-जय : गृहस्थ धर्म की साधना की आधार- भूमि एवं साम्प्रदायिक संघर्ष होते हैं। सभी साम्प्रदायिक अभिनिवेशों के
श्रावक धर्म और उसकी प्रासंगिकता की चर्चा करते समय हमें पीछे कुछ व्यक्तियों के अपने अहं के पोषण की भावना के अतिरिक्त श्रावक-आचार के मूलभूत नियमों की वर्तमान युग में क्या उपयोगिता अन्य कोई कारण नहीं है। कपट-वृत्ति या दोहरा-जीवन वर्तमान है? इस पर विचार कर लेना होगा। जैन धर्म के अनुसार श्रावकत्व सामाजिक जीवन का एक सबसे बड़ा अभिशाप है। झूठे अहं के पोषण की भूमिका को प्राप्त करने के लिए सर्व प्रथम व्यक्ति को क्रोध, मान, के निमित्त अथवा अपने व्यक्तिगत स्वार्थों के साधने के लिए जो छल-छद्म माया और लोभ-इन चार कषायों की अतितीव्र, अनियन्त्रित, नियन्त्रित सामाजिक जीवन में बढ़ रहे हैं, उनका मूलभूत कारण कपट-वृत्ति (माया)
और अत्यल्प इन चार अवस्थाओं में से प्रथम दो अवस्थाओं पर ही है। विजय-प्राप्ति अपरिहार्य माना गया है। साधक जब तक अपने क्रोध, इस प्रकार अनियन्त्रित लोभ संग्रह-वृत्ति का विकास करता है मान, माया और लोभ पर नियन्त्रण रखने की क्षमता को विकसित और उसके कारण शोषण पनपता है और परिणाम स्वरूप समाज में नहीं कर लेता, तब तक श्रावकत्व की भूमिका को प्राप्त करने योगय गरीब और अमीर की खाई बढ़ती जाती है। पूँजीपति और श्रमिकों
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ में मध्य होने वाला वर्ग-संघर्ष इसी लोभवृत्ति या संग्रह वृत्ति का परिणाम १. द्यूत-क्रीड़ा (जुआ), २. मांसाहार, ३. मद्यपान,४. वेश्यागमन, है। आज जैन समाज में अपरिग्रह की अवधारणा का कोई अर्थ ही ५. परस्त्रीगमन, ६. शिकार और. ७. चौर्य-कर्म। नहीं रह गया है। उसे केवल मुनियों के सन्दर्भ में ही समझा जाने उपर्युक्त सप्त दुर्व्यसनों के सेवन से व्यक्ति का कितना चारित्रिक लगा है। जैन धर्म में गृहस्थोपासक के लिए धनार्जन का निषेध नहीं पतन होता है, इसे हर कोई जानता है। किया गया, पर यह अवश्य कहा गया है कि व्यक्ति को एक सीमा १. धूत-क्रीड़ा-वर्तमान युग में सट्टा, लाटरी आदि द्यूत-क्रीड़ा से अधिक संचय नहीं करना चाहिए। उसकी संचयवृत्ति या लोभ पर के विविध रूप प्रचलित हो गये हैं। इनके कारण अनेक परिवारों का नियन्त्रण होना चाहिए। आज समाज में जो आर्थिक वैषम्य बढ़ता जा जीवन संकट में पड़ जाता है। अत: इस दुर्व्यसन के त्याग को कौन रहा है, उसके पीछे अनियन्त्रित लोभ या संग्रह-वृत्ति ही मुख्य है। अप्रासंगिक कह सकता है। द्यूत-क्रीड़ा के त्याग की प्रासंगिकता के यदि धनार्जन के साथ ही व्यक्ति की अपने भोग की वृत्ति पर अकुंश सम्बन्ध में कोई भी विवेकशील मनुष्य दो मत नहीं हो सकता। वस्तुत: होता है और संग्रह-वृत्ति का परिसीमन होता है, तो वह अर्जित धन वर्तमान युग में घूत-क्रीड़ा के जो विविध रूप हमारे सामने उभर कर का प्रवाह लोक-मंगल के कार्यों में बहता है, जिससे सामाजिक आये हैं, उनका आधार केवल मनोरंजन नहीं है, अपितु उसके पीछे सौहार्द और सहयोग बढ़ता है तथा धनवानों के प्रति अभावग्रस्तों के बिना किसी श्रम के अर्थोपार्जन की दुष्प्रवृत्ति है। सट्टे के व्यवसाय मन में सद्भाव उत्पन्न होता है। जैन धर्म के इतिहास में ऐसे अनेक का प्रवेश जैन परिवारों में सर्वाधिक हुआ है। व्यक्ति जब इस प्रकार श्रावक रत्नों के उदाहरण हैं, जिन्होंने अपनी समग्र सम्पत्ति को के धन्धे में अपने को नियोजित कर लेता है, तो श्रमपूर्वक अर्थोपार्जन समाज-हित में समर्पित कर दी, आज उसी आदर्श के पुनर्जागरण की के प्रति उसकी निष्ठा समाप्त हो जाती है। ऐसी स्थिति में चोरी, ठगी आवश्यकता है।
आदि दूसरी बुराइयाँ पनपती हैं। आज इसके प्रकट-अप्रकट विविध संक्षेप में सामाजिक जीवन में जो भी विषमता और संघर्ष वर्तमान रूप हमारे समक्ष आ रहे हैं। उनसे सतर्क रहना आवश्यक है, अन्यथा में हैं, उन सबके पीछे कहीं न कहीं अनियन्त्रित आवेश, अहंकार, हमारी भावी पीढ़ी में श्रमपूर्वक अर्थोपार्जन की निष्ठा समाप्त हो जावेगी। छल-छद्म (कपट-वृत्ति) तथा संग्रह-वृत्ति है। इन्हीं अनियन्त्रित कषायों यद्यपि इस दुर्गुण का प्रारम्भ एक मनोरंजन के साधन के रूप में होता के कारण सामाजिक जीवन में विषमता और अशान्ति उत्पन्न होती है, किन्तु आगे चलकर यह भयंकर परिणाम उपस्थित करता है। जैन है। आवेश या अनियन्त्रित क्रोध के कारण पारस्परिक संघर्ष, आक्रमण, समाज के सम्पन्न परिवारों में और विवाह आदि के प्रसंगों पर इसका युद्ध एवं हत्याएँ होती हैं। आवेशपूर्ण व्यवहार दूसरों के मन में अविश्वास जो प्रचलन बढ़ता जा रहा है, उसके प्रति हमें एक सजग दृष्टि रखनी उत्पन्न करता है। और फलत: सामान्य जीवन में जो सौहार्द होना चाहिए, हागी, अन्यथा इसके दुष्परिणामों को भुगतना होगा; आज का युवावर्ग वह भंग हो जाता है। वर्ग या अहंकार की मनोवृत्ति के कारण ऊँच-नीच जो इन प्रवृत्तियों में अधिक रस लेता है, इसके दुष्परिणामों को जानते का भेद-भाव, पारस्परिक-घृणा और विद्वेष पनपते हैं। सामाजिक जीवन हुए भी अपनी भावी पीढ़ी को इससे रोक पाने में असफल रहेगा। में जो दरारें उत्पन्न होती हैं, उनका आधार अहंकार ही होता है। माया २. मांसाहार-विश्व में यदि शाकाहार का पूर्ण समर्थक कोई या कपट की मनोवृत्ति भी जीवन को छल-छद्म से युक्त बनाती है। धर्म है, तो वह मात्र जैन-धर्म है। जैनधर्म में गृहस्थोपासक के लिए इससे जीवन में दोहरापन आता है तथा अन्त:-बाह्य की एकरूपता मांसाहार सर्वथा त्याज्य माना गया है। किन्तु आज समाज में मांसाहार समाप्त हो जाती है। फलत: मानसिक एवं समाजिक शांति भंग होती के प्रति एक ललक बढ़ती जा रही है और अनेक जैन परिवारों में है। संग्रह की मनोवृत्ति के कारण शोषण और व्यावसायिक जीवन में उसका प्रवेश हो गया है। अत: इसकी प्रासंगिकता पर चर्चा करना अप्रमाणिकता फलित होती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि अति आवश्यक है। श्रावक-जीवन में कषाय-चतुष्टय पर जो नियन्त्रण लगाने की बात कही मांसाहार के निषेध के पीछे मात्र हिंसा और अहिंसा का प्रश्न गई है, वह सौहार्द एवं सामञ्जस्यपूर्ण जीवन एवं मानसिक तथा सामाजिक ही नहीं, अपितु अन्य दूसरे भी कारण हैं। यह सत्य है कि मांस का शान्ति के लिये आवश्यक है। उसकी प्रासंगिकता कभी भी नकारी उत्पादन बिना हिंसा के सम्भव नहीं है और हिंसा क्रूरता के बिना सम्भव नहीं जा सकती है।
नहीं है। यह सही है कि मानवीय आहार के अन्य साधनों में भी किसी
सीमा तक हिंसा जुड़ी हुई है, किन्तु मांसाहार के निमित्त जो हिंसा सप्त दुर्व्यसन-त्याग और उसकी प्रासंगिकता
या वध किया जाता है, उसके लिए वध-कर्ता का अधिक क्रूर होना सप्त दुर्व्यसनों का त्याग गृहस्थ-धर्म की साधना का प्रथम चरण अनिवार्य है। क्रूरता के कारण दया, करुणा, आत्मीयता जैसे कोमल है। उनके त्याग को गृहस्थ-आचार के प्राथमिक नियम या मूल गुणों गुणों का ह्रास होता है और समाज में भय, आतंक एवं हिंसा का के रूप में स्वीकार किया गया है। 'वसुनन्दि-श्रावकाचार' में सप्त ताण्डव प्रारम्भ हो जाता हैं। यह अनुभूत सत्य है कि वे सभी देश दुर्व्यसनों के त्याग का विधान किया है। आज भी दुर्व्यसन-त्याग एवं कौमें, जो मांसाहारी हैं और हिंसा जिनके धर्म का एक अंग मान गृहस्थ-धर्म का प्राथमिक एवं अनिवार्य चरण माना जाता है। सप्त लिया गया है, उनमें होने वाले हिंसक-ताण्डव को देखकर आज भी दुर्व्यसन निम्न है
दिल दहल उठता है। मुस्लिम राष्ट्रों में आज मनुष्य के जीवन का
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श्रावक आचार की प्रासङ्गिकता का प्रश्न
३२७ मूल्य गाजर और मूली से अधिक नहीं रह गया है। केवल व्यक्तिगत ने तो इस दुष्प्रवृत्ति को रोकने के लिए अपने पंचशीलों में अपरिग्रह हितों के लिए ही धर्म और राजनीति के नाम पर वहाँ जो कुछ हो के स्थान पर मद्यपान-निषेध को स्थान दिया था। यह एक ऐसी बुराई रहा है, वह हम सभी जानते हैं। यदि हम यह मानते हैं कि मानव-जीवन है, जो मानव समाज के गरीब और अमीर दोनों ही वर्गों में हावी से क्रूरता समाप्त हो और कोमल गुणों का विकास हो, तो हमें उन है। जैन परम्परा में मद्यपान का निषेध न केवल इसलिए किया गया कारणों को भी दूर करना होगा, जिनसे जीवन में क्रूरता आती है। कि वह हिंसा से उत्पादित है, अपितु इसलिए कि इससे मानवीय मांसाहार और क्रूरता पर्यायवाची हैं। यदि दया, करुणा, वात्सल्य का विवेक कुण्ठित होता है और जब मानवीय विवेक ही कुण्ठित हो जाएगा विकास करना है, तो मांसाहार का त्याग अपेक्षित है।
तो दूसरी सारी बुराइयाँ व्यक्ति के जीवन में स्वाभाविक रूप से प्रविष्ट दूसरे, मांसाहार की निरर्थकता को मानव-शरीर की संरचना के हो जावेंगी। आर्थिक और चारित्रिक सभी प्रकार के दुराचरणों के मूल आधार पर भी सिद्ध किया जा सकता है। मानव-शरीर की संरचना में नशीले पदार्थों का सेवन है। सामान्यतया यह कहा जा सकता है उसे निरामिष प्राणी ही सिद्ध करती है। मांसाहार मानव-स्वास्थ्य के कि मादक द्रव्यों के सेवन से मनुष्य अपनी मानसिक चिन्ताओं को लिए कितना हानिकारक है, यह बात अनेक वैज्ञानिक अनुसन्धानों भूल कर अपने तनावों को कम करता है, किन्तु यह एक भ्रान्त धारणा से प्रमाणित हो चुका है। इस लघु निबन्ध में उस सबकी चर्चा कर ही है। तनाव के कारण जीवित रखकर केवल क्षण भर के लिए अपने पाना तो सम्भव नहीं है, किन्तु यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि मांसाहार विवेक को खो कर विस्मृति के क्षणों में जाना, तनावों के निराकरण शरीरिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है और मनुष्य स्वभावत: एक एवं परिमार्जन का सार्थक उपाय नहीं है। मद्यपान को सभी दुर्गुणों शाकाहारी प्राणी है।
का द्वार कहा गया है। वस्तुत: उसकी समस्त बुराइयों पर विचार करने मांसाहार के समर्थन में सबसे बड़ा तर्क यह दिया जाता है कि के लिए एक स्वतन्त्र निबन्ध आवश्यक होगा। यहां केवल इतना कहना बढ़ती हुई मानव-जाति की आबादी को देखते हुए भविष्य में मांसाहार ही पर्याप्त है कि सारी बुराईयाँ विवेक के कुण्ठित होने पर पनपती के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प शेष नहीं रहेगा, जिससे मानव जाति हैं और मद्यमान विवेक को कुण्ठित करता है। अत: मनुष्य के मानवीय की क्षुधा को शान्त किया जा सके। किन्तु उसके विपरीत कृषि के गुणों को जीवित रखने के लिए इसका त्याग आवश्यक है। क्षेत्र में भी ऐसे अनेक वैज्ञानिक प्रयोग हुए हैं और हो रहे हैं जो स्पष्ट मनुष्य और पशु के बीच यदि कोई विभाजक रेखा है। तो वह रूप से यह प्रतिपादित करते हैं कि मनुष्य को अभी शताब्दियों तक विवेक ही है। और जब विवेक ही समाप्त हो जायेगा तो मनुष्य और निरामिष भोजी बनाकर जिलाया जा सकता है। अनेक आर्थिक सर्वेक्षणों पशु में कोई अन्तर ही नहीं रह जाएगा। मादक द्रव्यों का सेवन मनुष्य में यह भी प्रमाणित हो चुका है कि शाकाहार मांसाहार की अपेक्षा को मानवीय स्तर से गिराकर उसे पाशविक स्तर पर पहुँचा देता है। अधिक सुलभ और सस्ता है। अत: मनुष्य की स्वाद-लोलुपता के यह भी एक सुविदित तथ्य है कि जब यह दुर्व्यसन गले लग जाता अतिरिक्त और कोई तर्क ऐसा नहीं है, जो मांसाहार का समर्थक हो है तो अपनी अति पर पहुँचाए बिना समाप्त नहीं होता। वह न केवल सके। शक्तिदायक आहार के रूप में मांसाहार के समर्थन का एक खोखला विवेक को ही समाप्त करता है अपितु आर्थिक और शारीरिक दृष्टि दावा है। यह सिद्ध हो चुका है कि मांसाहारियों की अपेक्षा शाकाहारी से व्यक्ति को जर्जर बना देता है। आज जैन समाज के सम्पन्न परिवारों अधिक शक्ति-सम्पन्न होते हैं और उनमें अधिक काम करने की क्षमता में यह दुर्व्यसन भी प्रवेश कर चुका है। मैं ऐसे अनेक परिवारों को होती है। शेर आदि मांसाहारी प्राणी शाकाहारी प्राणियों पर जो विजय जानता हूँ जो धर्म के क्षेत्र में अग्रणी श्रावक माने जाते हैं किन्तु इस प्राप्त कर लेते हैं, उसका कारण उनकी शक्ति नहीं बल्कि उनके नख, दुर्व्यसन से मुक्त नहीं हैं। आज हमें इस प्रश्न पर गम्भीरता से विचार दांत आदि क्रूर शारीरिक अङ्ग ही हैं।
करना होगा कि समाज को इससे किस प्रकार बचाया जाए। जैन समाज जैन समाज के लिए आज यह विचारणीय प्रश्न है कि वह समाज ने जो चारित्रिक गरिमा, आर्थिक सम्पन्नता तथा समाज में प्रतिष्ठा अर्जित में बढ़ती जा रही सामिष-भोजन की ललक को कैसे रोकें? आज की थी उसका मूलभूत आधार इन दुर्व्यसनों से मुक्त रहना ही था। आवश्यकता इस बात की है कि हमें मांसाहार और शाकाहार के गुण-दोषों इन दुर्व्यसनों के प्रवेश के साथ हमारी चारित्रिक उच्चता और सामाजिक की समीक्षा करते हुए तुलनात्मक विवरण से युक्त ऐसा साहित्य प्रकाशित प्रतिष्ठा धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है। और तब एक दिन ऐसा करना होगा, जो आज के युवक को तर्क-संगत रूप से यह अहसास भी आएगा जब हम अपनी आर्थिक सम्पन्नता से हाथ धो बैठेंगे। यदि करवा सके कि मांसाहार की अपेक्षा शाकाहार एक उपयुक्त भोजन है। हम सजग नहीं हुए तो भविष्य हमें क्षमा नहीं करेगा। दूसरे समाज में जो मांसाहार के प्रति ललक बढ़ती जा रही है, उसका ४. वेश्यागमन-श्रावक के सप्त दुर्व्यसन-त्याग के अन्तर्गत कारण समाज-नियन्त्रण का अभाव तथा मांसाहारी समाज में बढ़ता वेश्यागमन के त्याग का भी विधान किया गया है। यह सुनिश्चित सत्य हुआ घनिष्ठ परिचय है, जिस पर किसी सीमा तक अंकुश लगाना है कि वेश्यागमन न केवल सामाजिक दृष्टि से आवांछनीय है, अपितु आवश्यक है।
आर्थिक एवं शारीरिक-स्वास्थ्य की दृष्टि से भी अवांछनीय माना गया ३. मद्यपान- तीसरा दुर्व्यसन मद्यपान माना गया है और है। उसके अनौचित्य पर यहाँ कोई विशेष चर्चा करना आवश्यक प्रतीत गृहस्थोपासक को इसके त्याग का स्पष्ट निर्देश दिया गया है। बुद्ध नहीं होती। सामाजिक सदाचार और पारिवारिक सुख-शान्ति के लिए
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वेश्यागमन का त्याग उचित ही है। यह एक शुभ संकेत ही है कि न केवल जैन समाज में अपितु समग्र भारतीय समाज में वेश्यागमन की प्रवृत्ति और वेश्यावृत्ति धीरे-धीरे क्षीण होती जा रही है। यद्यपि इस प्रवृत्ति के जो दूसरे रूप सामने आ रहे हैं वे उसकी अपेक्षा अधिक चिन्तनीय हैं, यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि चाहे खुले रूप में वेश्यावृत्ति पर कुछ अंकुश लगा हो, किन्तु छद्मरूप में यह प्रवृत्ति बढ़ी ही है। जैन समाज के सम्पन्न वर्ग में इन छद्म रूपों के प्रति ललक बढ़ती जा रही है, जिस पर अंकुश लगाना आवश्यक है।
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
५. परस्त्रीगमन - परस्त्रीगमन परिवार एवं समाज व्यवस्था का घातक है, इसके परिणाम स्वरूप न केवल एक ही परिवार का पारिवारिक जीवन दूषित एवं अशान्त बनता है, अपितु अनेक परिवारों के जीवन अशान्त बन जाते हैं। वेश्यावृत्ति की अपेक्षा यह अधिक दोषपूर्ण है। क्योंकि इसमें छल छद्म और जीवन का दोहरापन भी जुड़ जाता है। अतः सामाजिक दृष्टि से यह बहुत बड़ा अपराध है । आज कामवासना की तृप्ति का यह छद्म रूप अधिक फैलता जा रहा है। पाश्चात्य देशों की वासनात्मक उच्छृंखलता का प्रभाव हमारे देश में भी हुआ है। क्लबों और होटलों के माध्यम से यह विकृति अधिक तेजी से व्याप्त होती जा रही है। जैन समाज का भी कुछ सम्पन्न एवं धनी वर्ग इसकी गिरफ़्त में आने लगा है। यद्यपि अभी समाज का बहुत बड़ा भाग इस दुर्गुण से मुक्त है किन्तु धीरे-धीरे फैल रही विकृति के प्रति सजग होना आवश्यक है।
६. शिकार - मनोरंजन के निमित्त अथवा मांसाहार के लिए जंगल के प्राणियों का वध करना शिकार कहा जाता है। यह व्यक्ति को क्रूर बनाता है। यदि मनुष्य को मानवीय कोमल गुणों से युक्त बनाये रखना है तो इस वृत्ति का त्याग अपेक्षित है। आज शासन द्वारा भी वन्य प्राणियों के संरक्षण के लिए शिकार की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया जा रहा है। अतः इस प्रवृत्ति के त्याग का औचित्य निर्विवाद है। आज हम इस बात को गौरव से कह सकते हैं कि जैन समाज इस दुर्गुण से मुक्त है, किन्तु आज सौन्दर्य-प्रसाधनों, जिनका उपभोग समाज में धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है. इस निमित्त अव्यक्त रूप से हो रही हिंसा के प्रति सजग रहना आवश्यक है। क्योंकि उनका उत्पादन उपभोक्ताओं के निमित्त ही होता है और यदि हम उनका उपभोग करते हैं तो उस हिंसा एवं क्रूरता से अपने को बच्चा नहीं सकते हैं सौन्दर्य-प्रसाधनों के निर्माण एवं परीक्षण के निमित्त हिंसा के जो क्रूरतम रूप अपनाए जाते हैं वे जैन पत्र-पत्रिकाओं में बहुचर्चित रहे हैं। अतः उन सब पर यहां विचार करना आवश्यक प्रतीत नहीं होता । किन्तु इस सन्दर्भ में हमें सजग अवश्य रहना चाहिए कि हम क्रूरता के भागी न बनें।
७. चौर्य - कर्म - दूसरों की सम्पत्ति या दूसरों के अधिकार की वस्तुओं को उनकी बिना अनुमति के ग्रहण करना चोरी है। अपनी आवश्यकता से अधिक संग्रह और संचय को भी चोरी कहा जा सकता है। जैनाचार्यों ने व्यावसायिक अप्रमाणिकता कर अप्रवंचन तथा राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध कार्य करना आदि को भी चोरी के अन्तर्गत माना है यद्यपि सामान्यतया जैन परिवार इस दुर्व्यसन से मुक्त कहे जा सकते
हैं किन्तु जैनाचार्यों ने इसकी जो सूक्ष्म व्याख्या की है, उस आधार पर आज का गृहस्थ वर्ग इस दुर्व्यसन से कितना मुक्त है, यह कहना कठिन है। व्यावसायिक अप्रमाणिकता और कर अपवंचन आज सामान्य हो गये हैं। व्यावसायिक अप्रमाणिकता के इस युग में इसकी प्रासंगिकता को नकारा तो नहीं जा सकता किन्तु वर्तमान युग में कौन इससे कितना बच सकेगा, इस पर व्यावहारिक दृष्टि से विचार करना अपेक्षित है।
गृहस्थ जीवन की व्यावहारिक नीति
गृहस्थ जीवन में कैसे जीना चाहिए? इस सम्बन्ध में थोड़ा निर्देश आवश्यक है। गृहस्थ उपासक का व्यावहारिक जीवन कैसा हो, इस सम्बन्ध में जैन आगमों में यत्र-तत्र बिखरे हुए कुछ निर्देश मिल जाते हैं। लेकिन बाद के जैन विचारकों ने कथा - साहित्य, उपदेश- साहित्य एवं आचार सम्बन्धी साहित्य में इस सन्दर्भ में एक निश्चित रूप रेखा प्रस्तुत की है। यह एक स्वतन्त्र शोध का विषय है। हम अपने विवेचन को आचार्य नेमिचन्द्र के प्रवचनसारोद्धार, आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र तथा पं० आशाधरजी के सागारधर्मामृत तक ही सीमित रखेंगे।
सभी विचारकों की यह मान्यता है कि जो व्यक्ति जीवन के सामान्य व्यवहारों में कुशल नहीं है, वह आध्यात्मिक जीवन की साधना में आगे नहीं बढ़ सकता। धार्मिक या आध्यात्मिक होने के लिए व्यावहारिक या सामाजिक होना पहली शर्त है। व्यवहार से ही परमार्थ साधा जा सकता है। धर्म की प्रतिष्ठा के पहले जीवन में व्यवहारपटुता एवं सामाजिक जीवन जीने की कला का आना आवश्यक है। जैनाचार्यों ने इस तथ्य को बहुत पहले ही समझ लिया था। अतः अणुव्रत-साधना के पूर्व ही इन योग्यताओं का सम्पादन आवश्यक है।
आचार्य हेमचन्द्र ने इन्हें "मार्गानुसारी" गुण कहा है। धर्म-मार्ग का अनुसारण करने के लिए इन गुणों का होना आवश्यक है। उन्होंने योगशास्त्र के द्वितीय एवं तृतीय प्रकाश में निम्न ३५ मार्गानुसारी गुणों का विवेचन किया है: (१) न्याय नीतिपूर्वक ही धनोपार्जन करना । (२) समाज में जो ज्ञानवृद्ध और वयोवृद्ध शिष्ट जन हैं, उनका यथोचित सम्मान करना, उनसे शिक्षा ग्रहण करना और उनके आचार की प्रशंसा करना। (३) समान कुल और आचार-विचार वाले, स्वधर्मी किन्तु भिन्न गोत्रोत्पन्न जनों की कन्या के साथ विवाह करना (४) चोरी, परस्त्रीगमन, असत्यभाषण आदि पापकर्मों का ऐहिक पारलौकिक कटुक-विपाक जानकर, पापाचार का त्याग करना। (५) अपने देश के कल्याणकारी आचार-विचार एवं संस्कृति का पालन करना तथा संरक्षण करना। (६) दूसरों की निन्दा न करना। (७) ऐसे मकान में निवास करना जो न अधिक खुला और न अधिक गुप्त हो, जो सुरक्षा वाला भी हो और जिसमें अव्याहत वायु एवं प्रकाश आ सके। (८) सदाचारी जनों की संगति करना । (९) माता-पिता का सम्मान सत्कार करना, उन्हें सब प्रकार से सन्तुष्ट रखना। (१०) जहाँ वातावरण शान्तिप्रद न हो, जहाँ निराकुलता के साथ जीवन यापन करना कठिन हो, ऐसे ग्राम या नगर में निवास न करना । (११) देश, जाति एवं कुल से विरुद्ध कार्य न करना, जैसे मदिरापान आदि। (१२) देश और काल के अनुसार
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श्रावक आचार की प्रासङ्गिकता का प्रश्न
३२९ वस्त्राभूषण धारण करना। (१३) आय से अधिक व्यय न करना और (परोपकारी) और (२१) लब्धलक्ष्य (जीवन के साध्य का ज्ञाता)। अयोग्य क्षेत्र में व्यय न करना। आय के अनुसार वस्त्र पहनना। (१४) पं० आशाधर जी ने अपने ग्रंथ सागार-धर्मामृत में निम्न गुणों धर्मश्रवण की इच्छा रखना, अवसर मिलने पर श्रवण करना, शास्त्रों का निर्देश किया है: (१) न्यायपूर्वक धन का अर्जन करने वाला, का अध्ययन करना, उन्हें स्मृति में रखना, जिज्ञासा से प्रेरित होकर (२) गुणीजनों को माननेवाला, (३) सत्यभाषी, (४) धर्म, अर्थ और शास्त्रचर्चा करना, विरुद्ध अर्थ से बचना, वस्तुस्वरूप का परिज्ञान प्रापत काम (त्रिवर्ग) का परस्पर विरोधरहित सेवन करनेवाला, (५) योग्य करना और तत्त्वज्ञ बनना बुद्धि के इन आठ गुणों को प्राप्त करना। स्त्री, (६) योग्य स्थान (मोहल्ला), (७) योग्य मकान से युक्त, (८) (१५) धर्मश्रवण करके जीवन को उत्तरोत्तर उच्च और पवित्र बनाना। लज्जाशील, (९) योग्य आहार, (१०) योग्य आचरण, (११) श्रेष्ठ (१६) अजीर्ण होने पर भोजन न करना, यह स्वास्थ्यरक्षा का मूल पुरुषों की संगति, (१२) बुद्धिमान्, (१३) कृतज्ञ, (१४) जितेन्द्रिय, मन्त्र है। (१७) समय पर प्रमाणोपेत भोजन करना, स्वाद के वशीभूत (१५) धर्मोपदेश श्रवण करने वाला, (१६) दयालु, (१७) पापों से हो अधिक न खाना। (१८) धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ का इस डरने वाला-ऐसा व्यक्ति सागारधर्म (गृहस्थ धर्म) का आचरण करे। प्रकार सेवन करना कि जिससे किसी में बाधा उत्पन्न न हो। धनोपार्जन पं० आशाधर जी ने जिन गुणों का निर्देश किया है उनमें से अधिकांश के बिना गृहस्थाश्रम चल नहीं सकता और गृहस्थ काम-पुरुषार्थ का का निर्देश दोनों पूर्ववर्ती आचार्यों के द्वारा किया जा चुका है। भी सर्वथा त्यागी नहीं हो सकता, तथापि धर्म को बाधा पहुँचा कर उपर्युक्त विवेचना से जो बात अधिक स्पष्ट होती है, वह यह अर्थ-काम का सेवन न करना चाहिए। (१९) अतिथि, साधु और दीन है कि जैन आचार-दर्शन मनुष्य जीवन के व्यावहारिक पक्ष की उपेक्षा जनों को यथायोग्य दान देना। (२०) आग्रहशील न होना। (२१) करके नहीं चलता। जैनाचार्यों ने जीवन के व्यावहारिक पक्ष को गहराई सौजन्य, औदार्य, दाक्षिण्य आदि गुणों को प्राप्त करने के लिए से परखा है और उसे इतना सुसंस्कृत बनाने का प्रयास किया है कि प्रयत्नशील होना। (२२) अयोग्य देश और अयोग्य काल में गमन जिसके द्वारा व्यक्ति इस जगत् में भी सफल जीवन जी सकता है। न करना। (२३) देश, काल, वातावरण और स्वकीय सामर्थ्य का यही नहीं, इन सद्गुणों में से अधिकांश का सम्बन्ध हमारे सामाजिक विचार करके ही कोई कार्य प्रारम्भ करना। (२४) आचारवृद्ध और जीवन से है। वैयक्तिक जीवन में इनका विकास सामाजिक जीवन के ज्ञानवृद्ध पुरुषों को अपने घर आमन्त्रित करना, आदरपूर्वक बिठलाना, मधुर सम्बन्धों का सृजन करता है। ये वैयक्तिक जीवन के लिए जितने सम्मानित करना और उनकी यथोचित सेवा करना। (२५) माता-पिता, उपयोगी हैं, उससे अधिक सामाजिक जीवन के लिए आवश्यक हैं। पत्नी, पुत्र आदि आश्रितों का यथायोग्य भरण-पोषण करना, उनके जैनाचार्यों के अनुसार ये आध्यात्मिक साधना के प्रवेशद्वार हैं। साधक विकास में सहायक बनना। (२६) दीर्घदर्शी होना। किसी भी कार्य इनका योग्य रीति से आचरण करने के बाद ही अणुव्रतों और महाव्रतों को प्रारम्भ करने के पूर्व ही उसके गुणावगुण पर विचार कर लेना। की साधना की दिशा में आगे बढ़ सकता है। (२७) विवेकशील होना। जिसमें हित-अहित, कृत्य-अकृत्य का विवेक नहीं होता, उस पशु के समान पुरुष को अन्त में पश्चात्ताप करना पड़ता श्रावक के बारह व्रतों की प्रासंगिकता है। (२८) गृहस्थ को कृतज्ञ होना चाहिए। उपकारी के उपकार को जैनधर्म में श्रावक के निम्न बारह व्रत हैंविस्मरण कर देना उचित नहीं। (२९) अहंकार से बचकर विनम्र होना। (१) अहिंसा-अणुव्रत (३०) लज्जाशील होना। (३१) करुणाशील होना। (३२) सौम्य होना। (२) सत्य-अणुव्रत (३३) यथाशक्ति परोपकार करना। (३४) काम, क्रोध, मोह, मद और (३) अचौर्य-अणुव्रत मात्सर्य, इन आन्तरिक रिपुओं से बचने का प्रयत्न करना और (३५) (४) स्वपत्नी-संतोषव्रत इन्द्रियों को उच्छंखल न होने देना। इन्द्रियविजेता गृहस्थ ही धर्म की (५) परिग्रह-परिमाण व्रत आराधना करने की पात्रता प्राप्त करता है।
(६) दिक्-परिमाण व्रत आचार्य नेमिचन्द्र ने प्रवचनसारोद्धार में भिन्न रूप से श्रावक के (७) उपभोग-परिभोग-परिमाण व्रत २१ गुणों का उल्लेख किया है और यह माना है कि इन २१ गुणों (८) अनर्थदण्ड-विरमण व्रत को धारण करने वाला व्यक्ति ही अणुव्रतों की साधना का पात्र होता (९) सामायिक व्रत है। आचार्य द्वारा निर्देशित श्रावक के २१ गुण निम्न हैं:-(१) अक्षुद्रपन (१०) देशावकासिक व्रत (विशाल-हृदयता), (२) स्वस्थता, (३) सौम्यता, (४) लोकप्रियता, (११) प्रोषधोपवास व्रत (५) अक्रूरता, (६) पापभीरुता, (७) अशठता, (८) सुदक्षता (१२) अतिथि-संविभाग व्रत (दानशीलता), (९) लज्जाशीलता, (१०) दयालुता, (११) गुणानुरागता, अंहिसा-अणुव्रत-गृहस्थोपासक संकल्पपूर्वक त्रसप्राणियों (चलने (१२) प्रियसम्भाषण या सौम्यदृष्टि, (१३) माध्यस्थवृत्ति, (१४) फिरने वाले) की हिंसा का त्याग करता है। हिंसा के चार रूप हैंदीर्घदृष्टि, (१५) सत्कथक एवं सुपक्षयुक्त, (१६) नम्रता, (१७) १. आक्रामक (संकल्पी), २. सुरक्षात्मक (विरोधजा), ३. औद्योगिक विशेषज्ञता, (१८) वृद्धानुगामी, (१९) कृतज्ञ, (२०) परहितकारी (उद्योगजा), ४. जीवन-यापन के अन्य कार्यों में होने वाली (आरम्भजा)।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ हिंसा के ये चारों रूप भी दो वर्गों में विभाजित किये गये हैं- ३. भूमि आदि के स्वामित्व के सम्बन्ध में असत्य जानकारी १. हिंसा की जाती है और २. हिंसा करनी पड़ती है। इसमें आक्रामक देना। में हिंसा की जाती है, जबकि सुरक्षात्मक, औद्योगिकी और आरम्भजा ४. किसी धरोहर को दबाने या अपने व्यक्तिगत स्वार्थ को सिद्ध में हिंसा करनी पड़ती है। सुरक्षात्मक, औद्योगिक और आरम्भजा हिंसा करने हेतु असत्य बोलना। में हिंसा का निर्णय तो होता है, किन्तु वह निर्णय विवशता में लेना ५. झूठी साक्षी देना। होता है, अत: उसे स्वतन्त्र ऐच्छिक निर्णय नहीं कह सकते हैं। इन इस अणुव्रत के पांच अतिचार या दोष निम्न हैंस्थितियों में हिंसा की नहीं जाती, अपितु करनी पड़ती है। सुरक्षात्मक १. अविचारपूर्वक बोलना या मिथ्या-दोषारोपण करना। हिंसा और औद्योगिक हिंसा में त्रस जीवों की हिंसा भी करनी पड़ २. गोपनीयता भंग करना। सकती है, यद्यपि औद्योगिक हिंसा में भी त्रस जीवों की हिंसा केवल ३. स्वपत्नी या मित्र के गुप्त रहस्यों का प्रकट करना। सुरक्षात्मक दृष्टि से ही करनी पड़ती है। इसके अतिरिक्त हिंसा का ४. मिथ्या-उपदेश अर्थात् लोगों को बहकाना। एक रूप वह है, जिसमें हिंसा हो जाती है, जैसे-कृषिकार्य करते ५. कूट-लेखकरण अर्थात् झूठे दस्तावेज तैयार करना, नकली हुए सावधानी के बावजूद हो जाने वाली वस-हिंसा। जीवनरक्षण एवं मुद्रा (मोहर) लगाना या जाली हस्ताक्षर करना। आजीविकोपार्जन में होने वाली हिंसा से उसका व्रत दूषित नहीं माना उपर्युक्त सभी निषेधों की प्रासंगिकता आज भी निर्विवाद है। गया है। सामान्यतया यह कहा जाता है कि जैनधर्म में अहिंसा का वर्तमान युग में भी ये सभी दूषित प्रवृत्तियाँ प्रचलित हैं तथा शासन पालन जिस सूक्ष्मता के साथ किया जाता है, वह उसे अव्यावहारिक और समाज इन पर रोक लगाना चाहता है। बना देता है किन्तु यदि हम गृहस्थ उपासक के अहिंसा-अणुव्रत के ३. अस्तेयाणुव्रत-वस्तु के स्वामी की अनुमति के बिना किसी उपर्युक्त विवेचन को देखते हैं तो यह निस्संकोच कहा जा सकता है वस्तु का गहण करना चोरी है। गृहस्थ साधक को इस दूषित प्रवृत्ति कि अहिंसा की जैन अवधारणा किसी भी स्थिति में अप्रासंगिक और से बचने का निर्देश दिया गया है। इसकी विस्तृत चर्चा हम सप्त दुर्व्यसन अव्यावहारिक नहीं है। वह न तो व्यक्ति या राष्ट्र के आत्म-सुरक्षा के के संदर्भ में कर चुके हैं, अत: यहाँ केवल इसके निम्न अतिचारों प्रयत्न में बाधक है और न उसकी औद्योगिक प्रगति में। उसका विरोध की प्रासंगिकता की चर्चा करेंगेहै तो मात्र आक्रामक हिंसा से और आज कोई भी विवेकशील प्राणी १. चोरी की वस्तु खरीदना। या राष्ट्र आक्रामक हिंसा का समर्थक नहीं हो सकता है।
२. चौर्यकर्म में सहयोग देना। गृहस्थ उपासक के अहिंसाणुव्रत के जो पांच अतिचार (दोष) ३. शासकीय नियमों का अतिक्रमण तथा कर अपवंचन। बताये गये हैं वे भी पूर्णतया व्यावहारिक और प्रासंगिक हैं। इन अतिचारों ४. माप-तौल की अप्रमाणिकता। की प्रासंगिक व्याख्या निम्न है
५. वस्तुओं में मिलावट करना। १. बन्धन-प्राणियों को बंधन में डालना। आधुनिक सन्दर्भ उपर्युक्त पाँचों दुष्पवृत्तियाँ आज भी अनुचित एवं शासन द्वारा में अधीनस्थ कर्मचारियों को निश्चित समयावधि से अधिक रोककर दण्डनीय मानी जाती हैं। अत: इनका निषेध अप्रासंगिक या कार्य लेना अथवा किसी की स्वतन्त्रता का अपहरण करना भी इसी अव्यावहारिक नहीं है। वर्तमान युग में ये दुष्प्रवृत्तियाँ बढ़ती जा रही कोटि में आता है।
हैं, अत: इन नियमों का पालन अपेक्षित है। २. वध-अंगोपांग का छेदन और घातक प्रहार करना।
४. स्वपत्नी-संतोष व्रत-गृहस्थोपासक की काम-प्रवृत्ति पर ३. वृत्तिच्छेद-किसी की आजीविका को छीनना या उसमें बाधा अंकुश लगाने के हेतु इस व्रत का विधान किया है। यह यौन सम्बन्धों डालना।
को नियन्त्रित एवं परिष्कारित करता है और इस संदर्भ में सामाजिक ४. अतिभार-प्राणी की सामर्थ्य से अधिक बोझ लादना या व्यवस्था को सुदृढ़ करता है। स्वपत्नी के अतिरिक्त अन्यत्र यौन सम्बन्ध कार्य लेना।
रखना जैन श्रावक के लिये निषिद्ध है। पारिवारिक एवं सामाजिक शान्ति ५. भक्त-पान-निरोध-अधीनस्थ पशुओं एवं कर्मचारियों की एवं सुव्यवस्था की दृष्टि से इस व्रत की उपयोगिता निर्विवाद है। यह समय पर एवं आवश्यक भोजन-पानी की व्यवस्था न करना। उपर्युक्त व्रत पति-पत्नी के मध्य एक-दूसरे के प्रति आस्था जागृत करता है अनैतिक आचरणों की प्रासंगिकता आज भी यथावत् है। शासन ने और उनके पारस्परिक प्रेम एवं समर्पणभाव को सुदृढ़ करता है। जब इनकी प्रासंगिकता के आधार पर इन्हें रोकने हेतु नियम बनाये हैं जबकि भी इस व्रत का भंग होता है, पारिवारिक जीवन में अशांति एवं दरार जैनाचार्यों ने दो हजार वर्ष पूर्व इन नियमों की व्यवस्था कर दी थी। पैदा हो जाती है।
२. सत्याणुव्रत-गृहस्थ को निम्न पाँच कारणों से असत्य-भाषण इस व्रत के निम्न पांच अतिचार या दोष माने गये हैंका निषेध किया गया है
१. अल्पवय की विवाहिता स्त्री से अथवा समय-विशेष के लिए १. वर-कन्या के सम्बन्ध में असत्य जानकारी देना। ग्रहण की गई स्त्री से अर्थात् वेश्या आदि से सम्भोग करना। २. पशु आदि के क्रय-विक्रय हेतु असत्य जानकारी देना। २. अविवाहित स्त्री-जिसमें परस्त्री और वेश्या भी समाहित है,
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ये यौन सम्बन्ध स्थापित करना।
३. अप्राकृतिक साधनों से काम-वासना को सन्तुष्ट करना, जैसेहस्त मैथुन, गुदा-मैथुन, समलिंगी-मैथुन आदि।
४. पर विवाहकरण अर्थात् स्व-सन्तान के अतिरिक्त दूसरों के विवाह सम्बन्ध करवाना। वर्तमान संदर्भ में इसकी एक व्याख्या यह भी हो सकती है कि एक पत्नी के होते हुए दूसरा विवाह करना।
श्रावक आचार की प्रासङ्गिकता का प्रश्न
५. काम भोग की तीव्र अभिलाषा
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७. उपभोग - परिभोग- परिमाण व्रत-व्यक्ति की भोगवृत्ति पर
उपर्युक्त पांच निषेधों में कोई भी ऐसा नहीं है, जिसे अव्यावहारिक अंकुश लगाना ही इस व्रत का मूल उद्देश्य है। इस व्रत के अन्तर्गत और वर्तमान संदर्भों में अप्रासंगिक कहा जा सके।
श्रावक को अपने दैनंदिन जीवन के उपयोग की प्रत्येक वस्तु की संख्या, मात्रा आदि निर्धारित करनी होती है— जैसे वह कौन सा मंजन करेगा, किस प्रकार के चावल, दाल, सब्जी, फल- मिष्ठान्न आदि का उपभोग करेगा, उनकी मात्रा क्या होगी, उसके वस्त्र, जूते, शय्या आदि किस प्रकार के और कितने होंगे। वस्तुतः इस व्रत के माध्यम में उसकी भोग-वृत्ति को संयमित कर उसके जीवन को सात्विक और सादा बनाने का प्रयास किया गया है, जिसकी उपयोगिता को कोई भी विचारशील व्यक्ति अस्वीकार नहीं करेगा। आज जब मनुष्य उद्दाम भोग- वासना में आकण्ठ डूबता जा रहा है, इस व्रत का महत्त्व स्पष्ट है।
जैन आचार्यों ने उपभोग- परिभोग-परिमाण व्रत के माध्यम से यह भी स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि गृहस्थ उपासक को किन साधनों के द्वारा अपनी अजीविका का उपार्जन करना चाहिए और किन साधनों से आजीविका का उपार्जन नहीं करना चाहिए। गृहस्थ उपासक के लिए निम्नलिखित पन्द्रह प्रकार के व्यवसायों के द्वारा आजीविका अर्जित करना निषिद्ध माना गया है
५. परिग्रह- परिमाण व्रत इस व्रत के अन्तर्गत गृहस्थ उपासक से यह अपेक्षा की गई है कि वह अपनी सम्पति अर्थात् जमीन-जायदाद, बहुमूल्य धातुएँ, धन-धान्य, पशु एवं अन्य वस्तुओं की एक सीमा रेखा निश्चित करे और उसका अतिक्रमण नहीं करे व्यक्ति में संग्रह की स्वाभाविक प्रवृत्ति है और किसी सीमा तक गृहस्थ जीवन में संग्रह आवश्यक भी है, किन्तु यदि संग्रह वृत्ति को नियन्त्रित नहीं किया जावेगा तो समाज में गरीब और अमीर की खाई अधिक गहरी होगी और वर्ग संघर्ष अपरिहार्य हो जावेगा। परिग्रह परिमाणव्रत या इच्छापरिमाणव्रत इसी संग्रह-वृत्ति को नियन्त्रित करता है और आर्थिक वैषम्य का समाधान प्रस्तुत करता है । यद्यपि प्राचीन ग्रन्थों में इस सम्बन्ध में कोई सीमा रेखा नियत नहीं की गई है, उसे व्यक्ति के स्व-विवेक पर छोड़ दिया गया था, किन्तु आधुनिक संदर्भ में हमें व्यक्ति की आवश्यकता और राष्ट्र की सम्पन्नता के आधार पर सम्पत्ति या परिग्रह की कोई अधिकतम सीमा निर्धारित करनी होगी, यही एक ऐसा उपाय है जिससे गरीब और अमीर के बीच की खाई को पाटा जा सकता है। यह भय निरर्थक है कि अनासक्ति और अपरिग्रह के आदर्श से आर्थिक-प्रगति प्रभावित होगी। जैन धर्म अर्जन का उसी स्थिति में विरोधी है, जब कि उसके साथ हिंसा और शोषण की बुराइयाँ जुड़ती हैं। हमारा आदर्श है— सौ हाथों से इकट्ठा करो और हजार हाथों से बाँट दो। गृहस्थ अर्थोपार्जन करे, किन्तु वह न तो संग्रह के लिये हो और न स्वयं के भोग के लिये, अपितु उसका उपयोग लोक-मंगल के लिये और दीन-दुखियों की सेवा में हो; वर्तमान सन्दर्भ में इस व्रत की उपयोगिता निर्विवाद है। यदि आज हम स्वेच्छा से नहीं अपनाते हैं तो या तो शासन हमें इसके लिये बाध्य करेगा या फिर अभावग्रस्त वर्ग हमसे छीन लेगा, अतः हमें समय रहते सम्हल जाना चाहिये । ६. दिक् परिमाणव्रत - तृष्णा असीम है, धन के लोभ में मनुष्य कहाँ-कहाँ नहीं भटका है। राज्य की तृष्णा ने साम्राज्यवाद को जन्म दिया, तो धन-लोभ में व्यावसायिक उपनिवेश बने। अर्थ-लोलुपता तथा विषय वासनाओं की पूर्ति के निमित्त आज भी व्यक्ति देश-विदेश में भटकता है। दिक् परिमाणव्रत मनुष्य की इसी भटकन को नियन्त्रित करता है। गृहस्थ उपासक के लिये यह आवश्यक है कि वह अपने अर्थोपार्जन एवं विषय भोग का क्षेत्र सीमित करे। इसीलिए उसे विविध दिशाओं में अपने आवागमन का क्षेत्र मर्यादित कर लेना होता है। यद्यपि वर्तमान संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि इससे व्यक्ति का
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कार्यक्षेत्र सीमित हो जावेगा किन्तु जो वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति से अवगत हैं, वे यह भली प्रकार जानते हैं कि आज कोई भी राष्ट्र विदेशी व्यक्ति को अपने यहाँ पैर जमाने देना नहीं चाहता है, दूसरे यदि हम अन्तर्राष्ट्रीय शोषण को समाप्त करना चाहते हैं तो हमें इस बात से सहमत होना होगा कि व्यक्ति के धनोपार्जन की गतिविधि का क्षेत्र सीमित हो । अतः इस व्रत को अप्रासंगिक नहीं कहा जा सकता है।
१. अङ्गारकर्म जैन आचार्यों ने इसके अन्तर्गत आदमी को अग्नि प्रज्ज्वलित करके किये जाने वाले सभी व्यवसायों को निषिद्ध बताया है; जैसे—कुम्भकार, स्वर्णकार, लौहकार आदि के व्यवसाय । किन्तु मेरी दृष्टि में इसका तात्पर्य जंगल में आग लगाकर कृषियोग्य भूमि तैयार करना है।
२. वनकर्म — जंगल कटवाने का व्यवसाय ।
३. शकटकर्म- बैलगाडी, रथ आदि बनाकर बेचने का व्यवसाय ४. भाटककर्म-बैल, अश्व आदि पशुओं को किराये पर चलाने
का व्यवसाय ।
५. स्फोटिकर्म खान खोदने का व्यवसाय
६. दन्तवाणिज्य - हाथी दाँत आदि हड्डी का व्यवसाय । उपलक्षण से चमड़े तथा सींग आदि के व्यवसायी भी इसमें सम्मिलित हैं।
७. लाक्षा- वाणिज्य – लाख का व्यवसाय ।
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८. रस- वाणिज्य – मद्य, मांस, मधु आदि का व्यापार । ९. विष वाणिज्य - विभिन्न प्रकार के वियों का व्यापार । १०. केष-वाणिज्य -- बालों एवं रोमयुक्त चमड़े का व्यापार । ११. यन्त्रपीडनकर्म - यन्त्र, साँचे, कोल्हू आदि का व्यापार । उपलक्षण से अस्त्र-शस्त्रों का व्यापार भी इसी में सम्मिलित है।
१२. नीलाच्छनकर्म — बैल आदि पशुओं को नपुंसक बनाने का
व्यवसाय ।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ १३. दावाग्निदापन-जंगल में आग लगाने का व्यवसाय। तनावों की स्थिति में जी रहा है, सामायिक व्रत की साधना की उपयोगिता १४. तालाब, झील और सरोवर आदि को सुखाना। सुस्पष्ट हो जाती है। वर्तमान में मात्र वेशपरिवर्तन करके कुछ समय
१५. व्यभिचार-वृत्ति के लिए वेश्या आदि को नियुक्त कर उनके के लिए बाह्य हिंसक प्रवृत्तियों से दूर हो जाना सामायिक का बाह्य द्वारा धनोपार्जन करवाना। उपलक्षण से दुष्कर्मों के द्वारा आजीविका रूप तो हो सकता है, किन्तु वह उसकी अन्तरात्मा नहीं है। आज का अर्जन करना।
___हमारी सामायिक की साधना में समभावरूपी अन्तरात्मा मृतप्राय होती आधुनिक सन्दर्भ में उपर्युक्त निषिद्ध व्यवसायों की सूची में जा रही है और वह एक रूढ़-क्रिया मात्र बन कर रह गयी है। सामायिक परिमार्जन की आवश्यकता प्रतीत होती है। आज व्यवसायों के ऐसे से मानसिक तनावों का निराकरण और चित्तवृत्ति को शान्त और निराकुल बहुत से रूप सामने आये हैं, जो अधिक अनैतिक और हिंसक हैं। बनाने के लिए कोई उपयुक्त पद्धति विकसित की जाये, यह आज अतः इस सन्दर्भ में पर्याप्त विचार-विमर्श करके निषिद्ध व्यवसायों के युग की महती आवश्यकता है। की एक नवीन तालिका बनायी जानी चाहिए।
१०.देशावकासिक व्रत-इस व्रत का मुख्य उद्देश्य आंशिक ८. अनर्थदण्ड-परित्याग-मानव अपने जीवन में अनेक ऐसे रूप से गृहस्थ-जीवन से निवृत्ति प्राप्त करना है। मनुष्य स्वाभाविक पापकर्म करता है, जिनके द्वारा उसका अपना कोई हित साधन नहीं रूप से परिवर्तनप्रिय है। घर-गृहस्थी के कोलाहलपूर्ण और अशान्त होता। इन निष्पयोजन किये जाने वाले पाप कर्मों से गृहस्थ उपासक जीवन से निवृत्ति लेकर एक शान्त जीवन का अभ्यास एवं आस्वाद को बचाना इस व्रत का मुख्य उद्देश्य है। निष्प्रयोजन हिंसा और करना ही इसका लक्ष्य है। वैसे भी हम सप्ताह में एक दिन अवकाश असत्य-सम्भाषण की प्रवृत्तियाँ मनुष्य में सामान्य रूप से पायी जाती मनाते हैं। देशावकासिक व्रत इसी साप्ताहिक अवकाश का आध्यात्मिक है। जैसे, स्नान में आवश्यकता से अधिक जल का अपव्यय करना, साधना के क्षेत्र में उपयोग है और इस दृष्टि से इसकी सार्थकता को भोजन में जूठन छोड़ना, सम्भाषण में अपशब्दों का प्रयोग करना, स्वास्थ्य अस्वीकार नहीं किया जा सकता।। के लिए हानिकर मादक द्रव्यों का सेवन करना, अश्लील और कामवर्द्धक ११. प्रौषाधोपवास-यह व्रत भी मुख्य रूप से निवृत्तिपरक साहित्य का पढ़ना, आदि! निरर्थक प्रवृत्तियाँ अविवेकी और अनुशासनहीन जीवन की साधना के निमित्त है। उपवासपूर्वक विषयवासनाओं पर जीवन की द्योतक हैं। इस व्रत के अन्तर्गत गृहस्थ उपासक से यह नियन्त्रण रखना ही इस व्रत का मूल उद्देश्य है। इसे हम एक दिन अपेक्षा की जाती है कि वह अशुभचिन्तन, पापकर्मोपदेश, हिंसक के लिए ग्रहण किया हुआ श्रमण-जीवन भी कह सकते हैं। इसकी उपकरणों के दान तथा प्रमादाचरण से बचे। इस व्रत के निम्नलिखित सार्थकता वैयक्तिक साधनात्मक जीवन की दृष्टि से ही ऑकी जा पांच अतिचार माने गये हैं
सकती है। १. कामवासना को उत्तेजित करने वाली चेष्टाएँ करना।
१२. अतिथि-संविभाग व्रत-अतिथि-संविभाग व्रत गृहस्थ के २. हाँथ, मुँह, आँख आदि से अभद्र चेष्टाएँ करना। सामाजिक दायित्व का सूचक है। अपने और अपने परिजनों के उदरपोषण ३. अधिक वाचाल होना या निरर्थक बात करना। __ के साथ-साथ गृहस्थ पर निवृत्त-साधकों और समाज के असहाय एवं
४. अनावश्यक रूप से हिंसा के साधनों का संग्रह करना और अभावग्रस्त व्यक्तियों के भरण-पोषण का दायित्व भी है। प्रस्तुत व्रत उन्हें दूसरों को देना।
का उद्देश्य गृहस्थ में सेवा और दान की वृत्ति को जागृत करना है। ५. आवश्यकता से अधिक उपभोग की सामग्री का संचय करना। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। हमारा जीवन पारस्परिक सहयोग और
यदि हम उपर्युक्त व्रत और उसके दोषों के सन्दर्भ में विचार करें सहभागिता के आधार पर ही चलता है। दूसरों के सुख-दुःख में सहभागी तो वर्तमान युग में इसकी सार्थकता स्पष्ट हो जाती है। मानव-समाज बनना और अभावग्रस्तों, पीड़ितों और दीन-दुःखियों की सेवा करनामें आज भी ये सभी चारित्रिक विकृतियाँ विद्यमान हैं और एक सभ्य यह गृहस्थ का अनिवार्य धर्म है। यद्यपि आज इस प्रवृत्ति को भिक्षावृत्ति समाज के निर्माण के लिए इनका परिमार्जन आवश्यक है। को प्रोत्साहन देने वाली मानकर अनुपयुक्त कहा जाता है, किन्तु जब
श्रावक के उपर्युक्त पांच अणुव्रतों और तीन गुणव्रतों का बहुत तक समाज में अभावग्रस्त, पीड़ित और रोगी व्यक्ति हैं-सेवा और कुछ सम्बन्ध हमारे सामाजिक जीवन से है और हमने जब उनकी सहकार की आवश्यकता अपरिहार्य रूप से बनी रहेगी और यदि शासन प्रासंगिकता की कोई चर्चा की है तो वह सामाजिक दृष्टि से ही की इस दायित्व को नही सम्भालता है तो यह प्रत्येक गृहस्थ का कर्तव्य है। गृहस्थ उपासक के शेष चार शिक्षाव्रतों में सामायिक, देशावकासिक, है कि वह दान और सेवा के मूल्यों को जीवित बनाये रखे। यह प्रश्न प्रौषधोपवास का सम्बन्ध विशिष्ट रूप से वैयक्तिक जीवन से है। यद्यपि मात्र दया या करुणा का नहीं है, अपितु दायित्व-बोध का है। अतिथि-संविभाग व्रत की व्याख्या पुन: सामाजिक सन्दर्भ में की जा । सकती है।
उपसंहार ९. सामायिक व्रत- सामायिक समभाव की साधना है। जैन धर्म के श्रावक-आचार की उपर्युक्त समीक्षा करने के पश्चात् सुख-दुःख, हानि-लाभ, जय-पराजय में चित्तवृत्ति का समत्व ही यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन श्रावकों के लिए प्रतिपादित आचार सामायिक है। आज के युग में जब मनुष्य मानसिक विक्षोभों और के नियम वर्तमान सामाजिक सन्दर्भो में भी प्रासंगिक सिद्ध होते हैं।
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श्रावक आचार की प्रासङ्गिकता का प्रश्न श्रावक-आचार के विधि-निषेधों में युगानुकूल जो छोटे-मोटे परिवर्तन जमीकन्द-खाना चाहिए या नहीं खाना चाहिए, ऐसे छोटे-छोटे प्रश्न अपेक्षित हैं, उन पर विचार किया जा सकता है और युगानुकूल श्रावक उठा लिये जाते हैं, किन्तु श्रावक-आचार की मूलभूत दृष्टि क्या हो? धर्म की आचार-विधि आगमिक नियमों को यथावत् रखते हुए बनायी और उसके लिए युगानुकूल सर्वसामान्य आचार-विधि क्या हो? इस जा सकती है। आज हमारा दुर्भाग्य यही है कि हम जैन मुनि के बात पर हमारी कोई दृष्टि नहीं जाती। यह एक शुभ संकेत है कि आचार-नियमों पर तो अभी भी गम्भीर चर्चाएँ करते है, किन्तु श्रावक अरिवल भारती जैन विद्वत् परिषद् ने इस प्रश्न को लेकर एक धर्म की आचार-विधि पर कोई गम्भीरतापूर्वक विचार नहीं किया जाता। विचार-गोष्ठी आयोजित की। यद्यपि यह एक प्रारम्भिक बिन्दु है किन्तु आज यह मान लिया गया है कि आचार सम्बन्धी विधि-निषेध मुनियों मुझे विश्वास है कि यह प्राथमिक प्रयास भी कभी बृहद् रूप लेगा और के सन्दर्भ में ही हैं। गृहस्थों की आचार-विधि ऐसी है या ऐसी होनी हम अपने श्रावक वर्ग को एक युगानुकूल आचारविधि दे पाने में चाहिए, इस बात पर हमारा कोई ध्यान नहीं जाता। यद्यपि कभी-कभी सफल होंगे।
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पंचमखण्ड
जैन धर्म और साधना
लेखक डॉ० सागरमल जैन
सम्पादक
डॉ. विजय कुमार जैन श्री ओम प्रकाश सिंह
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जैन धर्म के मूलतत्त्व
जैन धर्म का उद्भव और विकास
जिन के द्वारा प्रवर्तित धर्म जैन धर्म कहा जाता है और जो अपनी इन्द्रियों, वासनाओं और इच्छाओं पर विजय पा लेता है, वह जिन है। जैन धर्म का एक प्राचीन नाम निर्ग्रन्थ धर्म भी है। अशोक आदि के अति प्राचीन शिलालेखों में इसका इसी नाम से उल्लेख मिलता है। निर्मन्य शब्द का अर्थ है— जिसके हृदय में छल-कपट, रागद्वेष, अहंकार, लोभ आदि की कोई गाँठ नहीं है और जो आन्तरिक और बाह्य परिग्रह से मुक्त है, वही निर्मन्य है। जैन धर्म को आर्हत् धर्म भी कहते हैं। अर्हत् शब्द का अर्थ है- जिसने राग-द्वेष पर विजय प्राप्त कर ली है और जो अपनी आध्यात्मिक पवित्रता के कारण जगत् का वन्दनीय बन गया, वह अर्हत् है और उसका उपासक आर्हत्। जहाँ वैदिक धर्म में यज्ञ-याग और कर्मकाण्ड पर विशेष बल दिया गया वही श्रमणधर्म, विशेष रूप से जैन धर्म में तप, त्याग व वैराग्य पर अधिक बल दिया गया। अतः वैदिक धर्म को प्रवृत्तिमूलक और श्रमण धर्म को निवृत्तिमूलक धर्म भी कहते हैं। निवृत्तिमूलक धर्म का मुख्य प्रयोजन होता है— सांसारिक दुःखों से मुक्ति हेतु संन्यास के मार्ग का अनुसरण करना। इस प्रकार जैन धर्म संन्यास प्रधान या वैराग्य-प्रधान धर्म है।
मानव व्यक्तित्व में दो तत्त्व पाये जाते हैं—१. वासना और २. विवेक । मनुष्य में वासनाओं की उपस्थिति उसे दैहिक आवश्यकताओं एवं इच्छाओं की पूर्ति की ओर अर्थात् भौतिक सुख-सुविधाओं की उपलब्धि की ओर प्रेरित करती है। जबकि विवेक यह बताता है कि इच्छाएँ अनन्त हैं, उनकी पूर्ण सन्तुष्टि कभी भी सम्भव नहीं है, इसलिए शान्ति के इच्छुक मनुष्य को इच्छाओं की सन्तुष्टि की दिशा में न भागकर इच्छाओं का संयम करना चाहिए। इच्छाओं एवं वासनाओं के संयम की यही बात संन्यासमूलक जैन धर्म की उत्पत्ति का आधार है।
यह प्रश्न भी स्वाभाविक रूप से उठता है कि जैन धर्म का प्रारम्भ कब से हुआ। इसके प्रथम प्रवक्ता कौन है? जैन परम्परा के अनुसार इस कालचक्र में जैन धर्म की स्थापना भगवान् ऋषभदेव ने की। ऋषभदेव के उल्लेख ऋग्वेद एवं पुराण साहित्य में भी हैं। अत: जैन धर्म संसार का एक अति प्राचीन धर्म है। जैन परम्परा के अनुसार इस कालचक्र में संन्यासमूलक धर्म का प्रथम उपदेश भगवान् ऋषभदेव ने दिया था। श्रीमद्भागवत् में भी ऋषभदेव को संन्यास धर्म अर्थात् परमहंस मार्ग का प्रर्वतक कहा गया है। ऋषभदेव से पूर्व मानव समाज पूर्णतः प्रकृति पर आश्रित था। काल क्रम में जब मनुष्यों की जनसंख्या में वृद्धि और प्राकृतिक संसाधनों में कमी होने लगी तो मनुष्यों में संचय वृत्ति का विकास हुआ तथा स्त्रियों, पशुओं और खाद्य पदार्थों को लेकर एक दूसरे से छीना-झपटी होने लगी। ऐसी स्थिति में ऋषभदेव ने सर्वप्रथम समाज-व्यवस्था एवं शासन व्यवस्था की नींव डाली तथा कृषि एवं
शिल्प के द्वारा अपने ही श्रम से अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करना सिखाया। किन्तु मनुष्य की बढ़ती हुई भोगाकांक्षा एवं संचय वृत्ति के कारण वैयक्तिक जीवन एवं सामाजिक जीवन में जो अशांति एवं विषमता आयी, उसका समाधान नहीं हो सका। भगवान् ऋषभदेव ने यह अनुभव किया कि भोग सामग्री की प्रचुरता भी मनुष्य की आकांक्षा व तृष्णा को समाप्त करने में समर्थ नहीं है। यदि वैयक्तिक एवं समाजिक जीवन में शांति एवं समता स्थापित करनी है, तो मनुष्य को त्याग एवं संयम के मार्ग की शिक्षा देनी होगी। उन्होंने स्वयं परिवार एवं राज्य का त्याग करके वैराग्य का मार्ग अपनाया और लोगों को त्याग एवं वैराग्य की शिक्षा देना प्रारम्भ किया। बस यही जैन धर्म की उत्पत्ति की कहानी है।
आगे चलकर ऋषभदेव की परम्परा में क्रमशः अन्य २३ तीर्थंकर हुए। उनमें बाईसवें अरिष्टनेमि, तेईसवें पार्श्वनाथ एवं चौबीसवें भगवान् महावीर हुए। बाईसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि भगवान् कृष्ण के चचेरे भाई थे और उन्होंने अहिंसा पर विशेष रूप से बल दिया। अपने विवाह के अवसर पर वैवाहिक भोज हेतु एकत्रित पशु-पक्षियों की चीत्कार सुनकर उन्होंने न केवल उन्हें मुक्त करवाया, अपितु वैवाहिक जीवन से मुख मोड़कर तप साधना का मार्ग अपनाया और ज्ञान प्राप्त किया तथा अहिंसा और संयम का उपदेश दिया। उन्होंने कहाधम्मो मंगलमुक्किट्ठ अहिंसा संजमो तवो । देवा वि तं नमसंति जे धम्मे समा मनो
अर्थात् अहिंसा, संयम व तप रूपी धर्म ही सर्वोत्कृष्ट मंगल है। जिसका मन सदैव इस धर्म में लगा रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं।
तेईसवें तीर्थंकार भगवान् पार्श्वनाथ वाराणसी में उत्पन्न हुए थे, इन्होंने तप साधना में जो आत्मपीड़न एवं परपीड़न की प्रवृत्ति विकसित हो रही थी, उसका विरोध किया। उन्होंने कहा कि ऐसा तप जिससे दूसरे प्राणियों को कष्ट होता हो और अपने तपस्वी होने के अहंकार की पुष्टि हो तथा जो लौकिक इच्छाओं की पूर्ति के लिये किया जाता हो, उचित नहीं है। तप का प्रयोजन तो आत्मशुद्धि होना चाहिए. अतः विवेकपूर्ण अहिंसक तप ही श्रेष्ठ है।
भगवान् पार्श्वनाथ के बाद भगवान महावीर स्वामी हुए। महावीर ने इन्द्रिय संयम के साथ-साथ ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह की साधना पर अधिक बल दिया। उन्होंने पार्श्व के चार्तुयाम धर्म में ब्रह्मचर्य को जोड़कर अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की साधना का उपदेश दिया। महावीर स्वामी का विशेष बल आचारशुद्धि और व्यवहारशुद्धि पर था। उन्होंने कहा कि आचारो प्रथमोधर्मः अर्थात् आचार ही प्रथम धर्म है। व्यावहारिक जीवन हेतु उन्होंने अहिंसा, अनेकांत और अपरिग्रह पर विशेष बल दिया।
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जैन धर्म के मूलतत्त्व
३३५ दुःख और दुःख-विमुक्ति
करती है। जिससे हमारा चैतसिक समत्व भंग होता है। वह सामाजिक महाश्रमण महावीर के चिन्तन का मल स्रोत जीवन की दुःखमयता जीवन में संग्रह एवं शोषण की वृत्ति को जन्म देकर सामाजिक विषमता का बोध ही है। उत्तराध्ययनसूत्र में वे कहते हैं
का कारण बनती है। इसीलिए महावीर ने यह निर्देश दिया कि पदार्थों जम्म दुक्खं जरा दुक्खं रोगा य मरणाणि य।
की ओर भागने की अपेक्षा आत्मोन्मुख बनो, क्योंकि जो पदार्थ या अहो दुक्खो हु संसारो जत्थ कीसन्ति जन्तवो।। परापेक्षी होता है वह परतन्त्र होता है, किन्तु जो आत्मापेक्षी होता है
जन्म दुःखमय है, वृद्धावस्था भी दुःखमय है,रोग और मृत्यु भी वह स्वतन्त्र होता है। यदि तुम वस्तुत: तनावमुक्त होना चाहते हो तथा दुःखमय है, अधिक क्या यह सम्पूर्ण सांसारिक अस्तित्व ही दुःख वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन में शान्ति चाहते हो तो, आत्मकेन्द्रित रूप है। संसार की दुःखमयता के इसी बोध से दुःख के कारण की बनो, क्योंकि जो पराश्रित या पर-केन्द्रित होता है, वह दुःखी होता खोज एवं दुःख-विमुक्ति (मोक्ष या निर्वाण) के चिन्तन का विकास है और जो स्वाश्रित या स्वकेन्द्रित होता है, वह सुखी होता है। आतुरहुआ है। जैन चिन्तकों ने यह माना है कि सांसारिकता में सुख नहीं प्रत्याख्यान नामक जैन ग्रन्थ में कहा गया है कि समस्त सांसारिक है। जिसे हम सुख मान लेते हैं, वह ठीक उसी प्रकार का है जिस उपलब्धियाँ संयोगजन्य हैं। इन्हें अपना मानने या इन पर ममत्व रखने प्रकार खुजली की बीमारी से पीड़ित व्यक्ति खाज को खुजलाने में से प्राणी दुःख परम्परा को प्राप्त होता है। अत: इन सायोगिक उपलब्धियों सुख मान लेता है, वस्तुत: वह सुख भी दुःख रूप ही है। संसार के प्रति ममत्ववृत्ति का विसर्जन कर देना चाहिए। यही दुःख-विमुक्ति में धनी-निर्धन, शासित-शासक सभी तो दु:खी हैं। कहा है- का एक मात्र उपाय है। आचारांगसूत्र में कहा गया है कि जहाँ-जहाँ
धन बिना निर्धन दुःखी, तृष्णावश धनवान। ममत्व है, वहाँ-वहाँ दुःख है। इच्छाओं की पूर्ति से दु:ख-विमुक्ति का कबहु न सुख या संसार में, सब जग देख्यो छान।। प्रयास ठीक वैसा ही है जैसे छलनी को जल से भरने का प्रयास।
संसार के इन दुःखों को हम दो भागों में विभाजित कर सकते । हम बाह्य जगत् में रस लेने के लिए जैसे ही उसमें अपना आरोपण हैं- एक तो भौतिक दुःख, जो प्राकृतिक विपदाओं और बाह्य तथ्यों करते हैं, वैसे ही एक प्रकार का द्वैत प्रकट हो जाता है। जिसमें हम के कारण होते हैं और दूसरे मानसिक दुःख जो मनुष्य की आकांक्षाओं अपनेपन का आरोपण करते हैं, आसक्ति रखते हैं, वह हमारे लिए व तृष्णाओं से जन्म लेते हैं। महावीर की दृष्टि में इन समस्त भौतिक 'स्व' बन जाता है और उससे भिन्न या विरोधी 'पर' बन जाता है। एवं मानसिक दु:खों का मूल व्यक्ति की भोगाशक्ति ही है। मनुष्य अपनी आत्मा की समत्व के केन्द्र से यह च्युति ही उसे इन 'स्व' और 'पर' कामनाओं की पूर्ति के द्वारा इन दुःखों के निवारण का प्रयत्न तो करता के दो विभागों में बाँट देती है। इन्हें हम क्रमश: राग और द्वेष कहते है, किन्तु वह उस कारण का उच्छेद नहीं करता जिससे दुःख प्रस्फुटित हैं। राग आकर्षण का सिद्धान्त है और द्वेष विकर्षण का। अपना-पराया, होता है, क्योंकि वह बाहर न होकर हमारी चित्तवृत्ति में होता है। संयम राग-द्वेष अथवा आकर्षण-विकर्षण के कारण हमारी चेतना में सदैव (ब्रह्मचर्य) और सन्तोष (अपरिग्रह) के अतिरिक्त मनुष्य की तृष्णा को ही तनाव, संघर्ष अथवा द्वन्द्व बना रहता है, यद्यपि चेतना या आत्मा समाप्त करने का कोई उपाय नहीं है। महावीर ने कहा था कि बाह्य अपनी स्वाभाविक शक्ति के द्वारा सदैव साम्यावस्था या संतुलन बनाने पदार्थों से इच्छाओं की पूर्ति का प्रयास वैसा ही है जैसे घृत डालकर का प्रयास करती रहती है। लेकिन राग एवं द्वेष किसी भी स्थायी अग्नि को शान्त करना या शाखाओं को काटकर जड़ों को पानी देने सन्तुलन की अवस्था को सम्भव नहीं होने देते। यही कारण है कि के समान है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि
जैन-दर्शन में राग-द्वेष से ऊपर उठना सम्यक्-जीवन की अनिवार्य शर्त सुवण्ण-रूप्पस्स उ पव्वया भवे सिया हु केलाससमा असंखया। मानी गई है। ममत्व व राग-द्वेष की उपस्थिति ही मानवीय पीड़ा का नरस्स लुद्धस्स न तेहिं किंचि इच्छा उ आगाससमा अणन्तिया।। मूल कारण है। यदि मनुष्य को मानसिक तनावों से मुक्ति पाना है
चाहे स्वर्ण व रजत के कैलाश के समान असंख्य पर्वत क्यों तो, इसके लिए निर्ममत्व या अनासक्ति की साधना ही एक मात्र न खड़े कर दिये जायें, किन्तु वे मनुष्य की तृष्णा को पूर्ण करने में विकल्प है। समर्थ नहीं हैं, क्योंकि इच्छा तो आकाश के समान अनन्त है। समस्त दुःखों का मूल कारण भोगाकांक्षा, तृष्णा या ममत्वबुद्धि ही है। किन्तु आत्मा का बन्धन और मुक्ति इस भोगाकांक्षा की समाप्ति का उपाय इच्छाओं की पूर्ति नहीं है, अपितु जैन धर्म के अनुसार यह संसार दुःखमय है, अत: इन सांसारिक संयम एवं निराकांक्षता ही है। यदि हम व्यक्ति को मानसिक विक्षोभों दुःखों से मुक्त होना ही व्यक्ति का मुख्य प्रयोजन होना चाहिए। मनुष्य एवं तनावों से तथा मानव जाति को हिंसा एवं शोषण से मुक्त करना में उपस्थित राग-द्वेष की वृत्तियाँ ही उसका वास्तविक बन्धन है और चाहते हैं, तो हमें अपने को संयम एवं सन्तोष की दिशा में मोड़ना यही दुःख है। जैन दर्शन के अनुसार मनुष्य जब राग-द्वेष अथवा क्रोध, होगा। भोगवादी सुखों की लालसा में दौड़ता है और उसकी उपलब्धि मान आदि कषायों के वशीभूत होकर कोई भी शारीरिक, वाचिक या हेतु चोरी, शोषण एवं संग्रह जैसी सामाजिक बुराइयों को जन्म देता मानसिक प्रवृत्ति करता है तो उसके परिणामस्वरूप कर्म-परमाणुओं का है। महावीर के अनुसार भोगवादी जीवनदृष्टि इच्छाओं और आकांक्षाओं आकर्षण होता है, जिसे वे आस्रव कहते हैं। जब चित्तवृत्ति में क्रोधादि को जन्म देकर हमारे वैयक्तिक जीवन में तनावों एवं विक्षोभों को उत्पन्न कषाय विद्यमान हो तथा शरीर एवं इन्द्रियों की प्रवृत्ति असंयमित हो
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ तो उसके परिणामस्वरूप कर्म का बन्ध होता है या कर्म-संस्कार बनते गयी है। निर्जरा का अर्थ है कर्म-मल को अलग कर देना या झाड़. हैं। प्रत्येक कर्म-संस्कार कालक्रम में अपना विपाक या फल देता है देना। आत्मा पर लगे कर्म-मल को अलग करने का प्रयत्न ही निर्जरा
और इस प्रकार कर्म और विपाक की परम्परा चलती रहती है। इस है। जिस प्रकार कमरे की सफाई के लिए यह आवश्यक है कि पहले तथ्य को हम ऐसे भी समझा सकते हैं कि जब व्यक्ति द्वेष आदि के तो हम कमरे की खिड़कियाँ बन्द कर दें, ताकि बाहर से धूल न वशीभूत होकर क्रोध करता है तो उसमें क्रोध के संस्कार बनते हैं। आये, किन्तु पूर्व की उपस्थित धूल या मल की सफाई के लिए कमरे समय-समय पर क्रोध के इन संस्कारों की अभिव्यक्ति होने से क्रोध को झाड़ना भी आवश्यक होता है, उसी प्रकार आत्मा में जो गंदगी उसकी जीवन-शैली का ही अंग बन जाता है और यही उसका है उसे दूर करने के लिए निर्जरा आवश्यक है। जैन धर्म के अनुसार बन्धन है।
निर्जरा के द्वारा ही आत्मा के पूर्व संचित कर्म-मल का शोधन सम्भव जैन धर्म के अनुसार प्रत्येक आत्मा में जो अनन्त ज्ञान, अनन्त है। निर्जरा का दूसरा नाम 'तप-साधना' है। कहा गया है कि तप के दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त शक्ति रही हुई है, वह इन कर्म-संस्कारों द्वारा आत्मा करोड़ों भवों के पूर्व संचित कर्मों को नष्ट कर देता है। के कारण कुंठित हो जाती है। आत्मिक शक्ति का कुंठित होना ही जिस प्रकार शुद्ध घी को प्राप्त करने के लिए हमें मक्खन को किसी बन्धन है। कर्म का यह बन्धन आठ प्रकार का माना गया है- १. बर्तन में रखकर तपाना होता है, उसी प्रकार आत्मा की शुद्धि के लिये जो कर्म आत्मा की ज्ञानात्मक शक्ति को कुंठित करते हैं, वे ज्ञानावरण उसे भी शरीर रूपी भोजन के द्वारा तपाना होता है। जैन धर्म में तपस्या कहलाते हैं, २. जिनके द्वारा आत्मा की अनुभूति सामर्थ्य सीमित होती का मतलब शरीर को कष्ट देना नहीं अपितु शरीर के प्रति रागात्मकता है, उसे दर्शनावरण कहते हैं, ३. जिसके द्वारा सुख-दुःख की अनुभूति ___ या ममत्वबुद्धि को दूर करना है। इसीलिए आत्मा की देहासक्ति को होती है, वे वेदनीय कर्म हैं, ४. जिन कर्म-संस्कारों के कारण व्यक्ति तोड़ने का जो प्रयत्न है, वही तपस्या है। यह सत्य है कि सभी दुराचरणों का दृष्टिकोण एवं चारित्र दूषित हो उसे मोहनीय-कर्म कहा गया है। का मूल कारण व्यक्ति की ममता या आसक्ति है, इस आसक्ति में भी ५. जो कर्म हमारे व्यक्तित्व या चैतसिक एवं शारीरिक संरचना के देहासक्ति सबसे घनीभूत होती है। इसे समाप्त करने के लिए ही जैन कारण होते हैं, उन्हें नामकर्म कहते हैं, ६. जिन कर्मों के कारण व्यक्ति धर्म में अनशन आदि बाह्य तपों और स्वाध्याय आदि आन्तरिक तपों को अनुकूल व प्रतिकूल परिवेश उपलब्ध होता है, वह गोत्रकर्म है, का विवेचन किया गया है। ७. इसी प्रकार जो कर्म एक शरीर विशेष में हमारी आयु मर्यादा को जब तपस्या द्वारा आत्मा की आसक्ति और कर्म-मल समाप्त हो निश्चित करता है, उसे आयुष्यकर्म कहते हैं। ८. अन्त में जिस जाते हैं तो आत्मा की अनन्त ज्ञान आदि क्षमताएँ प्रकट हो जाती कर्म द्वारा हमें प्राप्त होने वाली उपलब्धियों में बाधा हो वह अन्तराय- हैं। आसक्ति और कर्म-मल का क्षय होकर आध्यात्मिक शक्तियों का कर्म है।
पूर्ण प्रकटन ही जैन धर्म में मुक्ति या निर्वाण है। इसे ही परमात्मदशा जैन दर्शन के अनुसार इन कर्मों के वश होकर प्राणी संसार की प्राप्ति भी कहते हैं। जब आत्मा कर्म-मल से रहित पूर्ण निर्ममत्व में जन्म-मरण करता है और सांसारिक सुख-दुःख की अनुभूति एवं निरावरण अवस्था को प्राप्त कर लेता है और अपने आत्म स्वरूप करता है।
में लीन हो जाता है, तो वही परमात्मा बन जाता है। आत्मा को परमात्मा जैन धर्म का प्रयोजन आत्मा को इस कर्म-मल से मुक्त कर विशुद्ध की अवस्था तक पहुँचाना ही जैन साधना का मूल प्रयोजन है। बनाना है। इसके लिए संवर का उपदेश दिया गया है। जिस प्रकार कमरे की खिड़कियाँ खुली रहने पर उसमें धूल के आगमन को नहीं आत्मा और परमात्मा रोका जा सकता है, उसी प्रकार जब आत्मा की इन्द्रियाँ रूपी खिड़कियाँ आत्मा की विभावदशा अर्थात् उसकी विषय-वासनाओं में आसक्ति खुली हों तो, उसमें कर्म-रज रूपी मल के आगमन को रोका नही या रागभाव ही उसका बन्धन है। अपने इस रागभाव, आसक्ति या जा सकता है। अत: आत्मविशुद्धि के लिये यह आवश्यक है कि व्यक्ति ममता को तोड़ने का जो प्रयास है, वह साधना है और उस आसक्ति, इन इन्द्रियरूपी खिड़कियों को बन्द करें अर्थात् इन्द्रियों का संयम करें। ममत्व या रागभाव का टूट जाना ही मुक्ति है, यही आत्मा का परमात्मा जैन धर्म में इन्द्रिय संयम का मतलब यह नहीं हैं कि इन्द्रियों की बन जाना है। जैन साधकों ने आत्मा की तीन अवस्थाएँ मानी हैंप्रवृत्ति ही न होने दी जाये। महावीर स्वामी ने कहा था कि इन्द्रियों
१. बहिरात्मा २. अन्तरात्मा और ३. परमात्मा। एवं उनके विषयों की उपस्थिति की दशा में इन्द्रियों का अपने विषयों सन्त आनन्दघन जी कहते हैंसे सम्पर्क न हो, यह सम्भव नहीं है। संयम का तात्पर्य है इन ऐन्द्रिक त्रिविध सकल तनुधर गत आतमा, बहिरातम अधरूप सुज्ञानी। विषयों की अनुभूति की दशा में हमारा चित्त राग-द्वेष की वृत्ति से बीजो अन्तर आतमा तीसरो परमातम अविच्छेद सुज्ञानी।। आक्रान्त न हो। सतत् अभ्यास द्वारा जब ऐन्द्रिक अनुभूतियों में चित्त विषय-भोगों में उलझा हुआ आत्मा बहिरात्मा है। संसार के विषयअनासक्त रहना सीख जाता है तो संयम की साधना सफल होती है। भोगों से उदासीन साधक अन्तरात्मा है और जिसने अपनी विषय
जब तक चित्त में पुराने कर्म-मल उपस्थित हैं तब तक आध्यात्मिक वासनाओं पर विजय प्राप्त कर लिया है, जो विषय-विकार से रहित विशुद्धि सम्भव नहीं। इसके लिए जैन धर्म में निर्जरा की बात कही अनन्त चतुष्टय से युक्त होकर ज्ञाता-द्रष्टा भाव में स्थित है, वह
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जैन धर्म के मूलतत्त्व परमात्मा है।
___के दर्शन से अपने प्रसुप्त सिंहत्व को प्रकट कर लेता है, उसी प्रकार आत्मा और परमात्मा के पारस्परिक सम्बन्ध को लेकर कहा । साधक परमात्मा के गुणकीर्तन या स्तवन के द्वारा निज में जिनत्व गया है
की शोध कर लेता है, स्वयं में निहित परमात्मशक्ति को प्रकट कर 'अप्पा सो परमप्पा'।
लेता है। जैन साधना यह स्वीकार करती है कि भगवान् की स्तुति आत्मा ही परमात्मा है।
प्रसुप्त अन्तश्चेतना को जाग्रत करती है और हमारे सामने साधना के प्रत्येक प्राणी/ प्रत्येक चेतनसत्ता परमात्मा स्वरूप है। आदर्श का एक जीवन्त चित्र उपस्थित करती है। इतना ही नहीं, वह
मोह और ममता के कोहरे में हमारा वह परमात्म स्वरूप छुप उस आदर्श की प्राप्ति के लिए प्रेरणा भी बनती है। फिर भी जैन गया है। जैसे बादलों के आवरण में सूर्य का प्रकाशपुंज छिप जाता मान्यता तो यह है कि व्यक्ति अपने ही प्रयत्नों से आध्यात्मिक उत्थान है और अन्धकार घिर जाता है, उसी प्रकार मोह-ममता और राग- या पतन कर सकता है। स्वयं पाप से मुक्त होने का प्रयत्न न करके द्वेष रूपी आवरण से आत्मा का अनन्त आनन्द स्वरूप तिरोहित हो केवल भगवान् से मुक्ति की प्रर्थना करना, जैन-विचारणा की दृष्टि से जाता है तथा जीव दु:ख और पीड़ा से भर जाता है।
सर्वथा निरर्थक है। ऐसी विवेकशून्य प्रार्थनाओं ने मानव जाति को आत्मा और परमात्मा में स्वरूपत: भेद नहीं है। धान और चावल सब प्रकार से दीन, हीन एवं परापेक्षी बनाया है। जब मनुष्य किसी एक ही है, अन्तर मात्र इतना है कि एक आवरण सहित है और दूसरा ऐसे उद्धारक में विश्वास करने लगता है, जो उसकी स्तुति से प्रसन्न निरावरण। इसी प्रकार आत्मा और परमात्मा एक ही है, फर्क केवल होकर उसे पाप से उबार लेगा, तो ऐसी निष्ठा से सदाचार की मान्यताओं कर्म रूप आवरण का है।
को गहरा धक्का लगता है। जैन विचारकों की यह स्पष्ट मान्यता है जिस प्रकार धान के सुमधुर भात का आस्वादन तभी प्राप्त हो कि केवल परमात्मा की स्तुति करने से मोक्ष एवं समाधि की प्राप्ति सकता है जब उसका छिलका उतार दिया जावे, उसी प्रकार अपने नहीं होती, जब तक कि मनुष्य स्वयं उसके लिए प्रयास न करे। मुक्ति ही परमात्मस्वरूप की अनुभूति तभी सम्भव है, जब हम अपनी चेतना या परमात्मदशा की प्राप्ति के लिये साधना अपेक्षित है। से मोह-ममता और राग-द्वेष की खोल को उतार फेकें। छिलके सहित धान के समान मोह-ममता की खोल में जकड़ी हुई चेतना बद्धात्मा त्रिविध साधनामार्ग है और छिलके-रहित शुद्ध शुभ्र चावल के रूप में निरावरण शुद्ध जैनदर्शन में मोक्ष की प्राप्ति के लिए त्रिविध साधनामार्ग बताया चेतना परमात्मा है। कहा है
गया है। तत्त्वार्थसूत्र में सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन और सम्यग्चरित्र को सिद्धा जैसो जीव है, जीव सोय सिद्ध होय।
मोक्षमार्ग कहा गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, कर्म मैल का आंतरा, बूझे बिरला कोय।।
सम्यग्चरित्र और सम्यग्तप ऐसे चतुर्विध मोक्षमार्ग का भी विधान है, मोह-ममता रूपी परदे को हटाकर उस पार रहे हुए अपने ही किन्तु जैन आचार्यों ने तप का अन्तर्भावचारित्र में करके इस त्रिविध परमात्मस्वरूप का दर्शन सम्भव है। हमें प्रयत्न परमात्मा को पाने का साधनामार्ग को ही मान्य किया है। नहीं, इस परदे को हटाने का करना है, परमात्मा तो उपस्थित है ही। कुछ भारतीय विचारकों ने इस त्रिविध साधनामार्ग के किसी एक हमारी गलती यही है कि हम परमात्मस्वरूप को प्राप्त करना तो चाहते ही पक्ष को मोक्ष की प्राप्ति का साधन मान लिया है। आचार्य शंकर हैं, किन्तु इस आवरण को हटाने का प्रयास नहीं करते। हमारे प्रयत्नों मात्र ज्ञान से और रामानुज मात्र भक्ति से मुक्ति की संभावना को स्वीकार की दिशा यदि सही हो तो अपने में ही निहित परमात्मा का दर्शन करते हैं। लेकिन जैन दार्शनिक ऐसी किसी एकान्तवादिता में नहीं दूर नहीं है। हमारा दुर्भाग्य तो यही है कि आज स्वामी ही दास बना गिरते हैं। उनके अनुसार तो ज्ञान, कर्म और भक्ति की समवेत साधना हुआ है। हमें अपनी क्षमता का अहसास ही नहीं है। किसी उर्दू शायर ही मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग है। इनमें से किसी एक के अभाव में ने ठीक ही कहा है
मोक्ष की प्राप्ति सम्भव नहीं है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार दर्शन के इन्सा की बदबख्ती अंदाज से बाहर है।
बिना ज्ञान नहीं होता और ज्ञान के अभाव में आचरण सम्यक् नहीं कमबख्त खुदा होकर बंदा नज़र आता है।।
होता है और सम्यक्-आचरण के अभाव में मुक्ति भी नहीं होती है। जैन धर्म में परमात्मा की अवधारणा एक आदर्श पुरुष के रूप इस प्रकार मुक्ति की प्राप्ति के लिए तीनों ही अंगों का होना में की गयी है। परमात्मा न तो किसी को मुक्ति देता है और न दण्ड आवश्यक हैं। ही। परमात्मा की स्तुति का प्रयोजन मात्र अपने शुद्ध स्वरूप का बोध करना है। जैन दर्शन में भक्ति के सच्चे स्वरूप को स्पष्ट करते हुए सम्यग्दर्शन उपाध्याय देवचन्द्रजी लिखते है
जैन परम्परा में सम्यग्दर्शन आत्म-साक्षात्कार, तत्त्वश्रद्धा, अज-कुल-गत केशरी लहेरे, निज पद सिंह निहार।
अन्तर्बोध, दृष्टिकोण, श्रद्धा और भक्ति आदि अनेक अर्थों को अपने तिम प्रभु भक्ति भवी लहेरे, आतम शक्ति संभार।। में समेटे हुए है। सम्यग्दर्शन को चाहे यथार्थ दृष्टि कहें या तत्त्वार्थ-श्रद्धा, जिस प्रकार अज कुल में पालित सिंहशावक वास्तविक सिंह उसमें वास्तविकता की दृष्टि से अधिक अन्तर नहीं होता है। अन्तर
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ होता है उनकी उपलब्धि की विधि में। एक वैज्ञानिक स्वत: प्रयोग की दृष्टि से वीतरागता को उपलब्ध करने के लिए वैचारिक आग्रह के आधार पर किसी सत्य का उद्घाटन कर वस्तुतत्त्व के यथार्थ स्वरूप का परित्याग एवं अनाग्रही दृष्टि का निर्माण आवश्यक है और इसके को जानता है, किन्तु दूसरा वैज्ञानिकों के कथनों पर विश्वास करके माध्यम से प्राप्त ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है। सम्यग्ज्ञान का अर्थ है- वस्तु वस्तुतत्त्व के यथार्थ स्वरूप को जानता है। यद्यपि यहाँ दोनों का ही को उसके अनन्त पहलुओं से जानना। दृष्टिकोण यथार्थ होगा, फिर भी एक ने स्वानुभूति से पाया है तो दूसरे जैन धर्म में सम्यग्ज्ञान का अर्थ आत्म-अनात्म का विवेक भी ने उसे श्रद्धा के माध्यम से। श्रद्धा ही सम्यग्दृष्टि हो तो भी वह अर्थ है। यह सही है कि आत्मतत्त्व को ज्ञान का विषय नहीं बनाया जा अन्तिम नहीं है, अन्तिम अर्थ स्वानुभूति ही है और यही सम्यग्दर्शन सकता, उसे ज्ञाता-ज्ञेय के द्वैत के आधार पर नहीं जाना जा सकता, का वास्तविक अर्थ है। ऐसा सम्यग्दर्शन होता है निर्विकार, निराकुल क्योंकि वह स्वयं ज्ञान-स्वरूप है, ज्ञाता है और ज्ञाता कभी ज्ञेय नहीं चित्तवृत्ति से।
बन सकता, अत: आत्मज्ञान दुरूह है। लेकिन अनात्म तत्त्व तो ऐसा __ जैन धर्म में सम्यग्दर्शन के निम्न पाँच लक्षण बताये गये हैं- है जिसे हम ज्ञाता और ज्ञेय के द्वैत के आधार पर जान सकते हैं। १. सम अर्थात् समभाव, २. संवेग अर्थात् आत्मा के आनन्दमय स्वरूप सामान्य व्यक्ति भी अपने साधारण ज्ञान के द्वारा इतना तो जान ही की अनुभूति अथवा सत्याभीप्सा, ३. निवेद अर्थात् अनासक्ति या वैराग्य, सकता है कि उसके ज्ञान के विषय क्या हैं? और इससे वह यह ४. अनुकम्पा अर्थात् दूसरे व्यक्ति की पीड़ा को आत्मवत् समझना निष्कर्ष निकाल सकता है कि जो उसके ज्ञान के विषय हैं, वे उसके
और उसके प्रति करुणा का भाव रखना तथा ५. आस्तिक्य अर्थात् स्वस्वरूप नहीं है, वे अनात्म हैं। सम्यग्ज्ञान आत्म-ज्ञान है, किन्तु पुण्य-पाप, पुनर्जन्म, कर्म-सिद्धान्त और आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार आत्मा को अनात्म के माध्यम से ही पहचाना जा सकता है। अनात्म करना।
के स्वरूप को जानकर अनात्म से आत्म का भेद करना, भेद-विज्ञान जिस प्रकार बौद्ध साधना के अनुसार दुःख है, दुःख का कारण है और यही जैन दर्शन में सम्यग्ज्ञान का मूल अर्थ है। जैनों की पारिभाषिक है, दुःख से निवृत्ति हो सकती है और दुःखनिवृत्ति का मार्ग है--इन शब्दावली में इसे भेद-विज्ञान कहा जाता है। आचार्य अमृतचन्द्र सूरि चार आर्य-सत्यों की स्वीकृति सम्यग्दृष्टि है, उसी प्रकार जैन साधना के अनुसार जो कोई भी सिद्ध हुए हैं वे इस आत्म-अनात्म के विवेक के अनुसार षट् स्थानों (छह बातों) की स्वीकृति सम्यग्दर्शन है- या भेद-विज्ञान से ही सिद्ध हुए हैं और जो बन्धन में हैं. वे इसके (१) आत्मा है, (२) आत्मा नित्य है, (३) आत्मा अपने कर्मों का अभाव के कारण ही हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में इस भेद-विज्ञान कर्ता है, (४) आत्मा कृत कर्मों के फल का भोक्ता है, (५) आत्मा का अत्यन्त गहन विवेचन किया है। मुक्ति प्राप्त कर सकता है और (६) मक्ति का उपाय (मार्ग) है। जैन तत्त्व-विचारणा के अनुसार इन षट्स्थानकों पर दृढ़ प्रतीति, सम्यग्दर्शन सम्यक्चारित्र की साधना का आवश्यक अंग है। दृष्टिकोण की विशुद्धता एवं सदाचार जैन परम्परा में साधना का तीसरा चरण सम्यक्चरित्र है। इसके दोनों ही इन पर निर्भर है, ये षट्स्थानक जैन साधना के केन्द्र दो रूप माने गए हैं-१. व्यवहारचारित्र और २. निश्चयचारित्र। आचरण
का बाह्य पक्ष या आचरण के विधि-विधान व्यवहारचारित्र कहे जाते
हैं। जबकि आचरण की अन्तरात्मा निश्चयचारित्र कही जाती है। जहाँ सम्यग्ज्ञान
तक व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास का प्रश्न है, निश्चयात्मकचारित्र दृष्टिकोण की विशुद्धि पर ही ज्ञान की सम्यक्त निर्भर करती ही उसका मूलभूत आधार है। लेकिन जहाँ तक सामाजिक जीवन का है। अत: जैन साधना का दूसरा चरण है सम्यग्ज्ञान। सम्यग्ज्ञान को प्रश्न है, चारित्र का बाह्य पक्ष ही प्रमुख है। निश्चय दृष्टि (Real view मुक्ति का साधन स्वीकार किया गया है, लेकिन कौन सा ज्ञान मुक्ति point) से चारित्र का सच्चा अर्थ समभाव या समत्व की उपलब्धि के लिए आवश्यक है, यह विचारणीय है। जैन दर्शन में सम्यग्ज्ञान है। वस्तुत: चारित्र का यह पक्ष आत्म-रमण की स्थिति है। नैश्चयिक के दो रूप पाये जाते हैं। सामान्य दृष्टि से सम्यग्ज्ञान वस्तुतत्त्व का चारित्र का प्रादुर्भाव केवल अप्रमत्त अवस्था में ही होता है। अप्रमत्त उसके अनन्त पहलुओं से युक्त ज्ञान है और इस रूप में वह विचार चेतना की अवस्था में होने वाले सभी कार्य शुद्ध ही माने गए हैं। शद्धि का माध्यम है। जैन दर्शन के अनुसार एकांगी ज्ञान मिथ्यात्व चेतना में जब राग-द्वेष, कषाय और वासनाओं की अग्नि पूरी तरह है, क्योंकि वह सत्य के अनन्त पक्षों का अपलाप करता है। जब तक शान्त हो जाती है, तभी सच्चे नैतिक एवं धार्मिक जीवन का उद्भव आग्रहबुद्धि है तब तक वीतरागता सम्भव ही नहीं है और जब तक होता है और ऐसा ही सदाचार मोक्ष का कारण होता है। वीतराग दृष्टि नहीं है तब तक यथार्थ ज्ञान भी असम्भव है। जैन दर्शन व्यवहारचारित्र का सम्बन्ध आचार के नियमों के परिपालन से के अनुसार सत्य के अनन्त पहलुओं को जानने के लिए अनेकान्त है। व्यवहारचारित्र को सर्वव्रती और देशव्रतीचारित्र-ऐसे दो वर्गों में दृष्टि सम्यग्ज्ञान की अनिवार्य शर्त है। एकान्त दृष्टि या वैचारिक आग्रह विभाजित किया गया है। देशव्रतीचारित्र का सम्बन्ध गृहस्थ उपासकों अपने में निहित राग के कारण सत्य को रंगीन कर देता है। अतः से और सर्वव्रतीचारित्र का सम्बन्ध श्रमण वर्ग से है। जैन परम्परा में एकान्त और आग्रह सत्य के साक्षात्कार में बाधक हैं। जैन साधना गृहस्थाचार के अन्तर्गत अष्टमूलगुण, षट्कर्म, बारह व्रत और ग्यारह
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जैन धर्म के मूलतत्त्व •
प्रतिमाओं का पालन आता है श्रमणाचार के अन्तर्गत पंचमहाव्रत, रात्रि भोजन- निषेध, पंचसमिति, तीन गुप्ति, दस यतिधर्म, बारह अनुप्रेक्षाएँ, बाईस परीषह, अट्ठाईस मूलगुण, बावन अनाचार आदि का विवेचन उपलब्ध है। किन्तु इस सबके मूल में अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह की साधना ही मुख्य है।
जैन धर्म के केन्द्रीय तत्त्व अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह
जैन धर्म में सम्यक् चारित्र की दृष्टि से अहिंसा और अनासक्ति ये दो केन्द्रीय सिद्धान्त है। वैचारिक क्षेत्र में अहिंसा और अनासक्ति मिलकर अनाग्रह या अनेकान्तवाद को जन्म देते हैं। आग्रह वैचारिक आसक्ति है और एकान्त वैचारिक हिंसा अनासक्ति का सिद्धान्त ही अहिंसा से समन्वित हो सामाजिक जीवन में अपरिग्रह का आदेश प्रस्तुत करता है। संग्रह वैयक्तिक जीवन के सन्दर्भ में आसक्ति और सामाजिक जीवन के सन्दर्भ में हिंसा है। इस प्रकार जैन दर्शन सामाजिक नैतिकता के तीन केन्द्रीय सिद्धान्त प्रस्तुत करता है१. अहिंसा, २. अनाग्रह (वैचारिक सहिष्णुता ) और ३. अपरिग्रह (असंग्रह ) । सम्यग्आचरण एक प्रकार से जीवन शुद्धि का प्रयास है, अतः मानसिक कर्मों की शुद्धि के लिए अनासक्ति (अपरिग्रह), वाचिक कर्मों की शुद्धि के लिए अनेकान्त (अनाग्रह) और कायिक कर्मों की शुद्धि के लिए अहिंसा के पालन का निर्देश किया गया है। जैन दर्शन का सार इन्हीं तीन सिद्धान्तों में निहित है। जैन धर्म की परिभाषा करने वाला यह श्लोक सर्वाधिक प्रचलित हो है—
स्याद्वादो वर्ततेऽस्मिन् पक्षपातो न विद्यते । नास्त्यन्यं पीडनं किंचित् जैनधर्मः स उच्यते ।।
सच्चा जैन वही है जो पक्षपात (समत्व) से रहित है, अनामही और अहिंसक है।
अहिंसा
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अहिंसा जैन आचार दर्शन का प्राण है अहिंसा वह धुरी है। जिस पर समग्र जैन आचार - विधि घुमती है। जैनगामों में अहिंसा को भगवती कहा गया है प्रश्नव्याकरणसूत्र में कहा गया है कि भयभीतों को जैसे शरण, पक्षियों को जैसे गगन, रूषितों को जैसे जल भूखों को जैसे भोजन, समुद्र के मध्य जैसे जहाज, रोगियों को जैसे औषध और वन में जैसे सार्थवाह का साथ आधारभूत है, वैसे ही अहिंसा प्राणियों के लिए आधारभूत है। अहिंसा सभी प्राणियों का कल्याण करने वाली है। वह शाश्वत धर्म है, जिसका उपदेश तीर्थंकर करते हैं। आचारांगसूत्र में कहा गया है भूत, भविष्य और वर्तमान के सभी अर्हत् यह उपदेश करते हैं कि किसी भी प्राण, पूत, जीव और सत्त्व को किसी प्रकार का परिताप, उद्वेग या दुःख नहीं देना चाहिए, न किसी का हनन करना चाहिए। यही शुद्ध, नित्य और शाश्वत धर्म है । समस्त लोक की पीड़ा को जानकर अर्हतों ने इसका प्रतिपादन किया है। सूत्रकृतांगसूत्र के अनुसार ज्ञानी होने के सार यह है कि किसी भी प्राणी की हिंसा न करे। अहिंसा ही समग्र धर्म का सार
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है, इसे सदैव स्मरण रखना चाहिए। दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि सभी प्राणियों के हित साधन में अहिंसा के सर्वश्रेष्ठ होने से महावीर ने इसको प्रथम स्थान दिया है अहिंसा के समान दूसरा धर्म नहीं है।
आचारांग में अहिंसा के सिद्धान्त को मनोवैज्ञानिक आधार पर स्थापित करने का प्रयास किया गया है। वह कहता है कि सभी प्राणियों में जिजीविषा प्रधान है, पुनः सभी को सुख अनुकूल और दुःख प्रतिकूल है अहिंसा का अधिष्ठान यही मनोवैज्ञानिक सत्य है अस्तित्व और सुख की चाह प्राणीय स्वभाव है। जैन विचारकों ने इसी मनोवैज्ञानिक तथ्य के आधार पर अहिंसा को स्थापित किया है। वस्तुत: अहिंसा जीवन के प्रति सम्मान, समत्वभाव एवं अद्वैतभाव है। समत्वभाव से सहानुभूति तथा अद्वैतभाव से आत्मीयता उत्पन्न होती है और इन्हीं से अहिंसा का विकास होता है। वस्तुतः प्राणियों के जीवित रहने का नैतिक अधिकार ही अहिंसा के कर्तव्य को जन्म देता है। जीवन के अधिकार का सम्मान ही अहिंसा है। उत्तराध्ययनसूत्र में समत्व के आधार पर अहिंसा के सिद्धान्त की स्थापना करते हुए कहा गया है कि भय और वैर से मुक्त साधक, जीवन की इच्छा रखने वाले सभी प्राणियों को सर्वत्र अपनी आत्मा के समान जान कर उनकी कभी भी हिंसा न करे। इस प्रकार जैन धर्म में अहिंसा का आधार आत्मवत् दृष्टि ही है आज विश्व शान्ति का एक मात्र विकल्प अहिंसा की समवेत साधना है। महावीर ने कहा था- 'शस्त्र एक से बढ़ कर एक हो सकते हैं, किन्तु अहिंसा (अशस्त्र) से बढ़कर कुछ नहीं है।
अनाग्रह
अनाग्रह या अनेकान्त का सिद्धान्त वैचारिक अहिंसा है। अनाग्रह अपने विचारों की तरह दूसरे के विचारों का सम्मान करना सिखाता है। वह उस भ्रान्ति का निराकरण करता है कि सत्य मेरे पास है, दूसरे के पास नहीं हो सकता। वह हमें यह बताता है कि सत्य हमारे पास भी हो सकता है और दूसरे के पास भी । सत्यता का बोध हमें ही हो सकता है, केवल दूसरों को सत्य का बोध नहीं हो सकतायह कहने का हमें अधिकार नहीं है। सत्य का सूर्य न केवल हमारे घर को प्रकाशित करता है, वरन् दूसरों के घरों को भी प्रकाशित करता है। वस्तुतः वह सर्वत्र प्रकाशित है। जो भी उन्मुक्त दृष्टि से उसे देख पाता है, वह उसे पा जाता है। सत्य केवल सत्य है, वह न मेरा है और न दूसरे का है। जिस प्रकार अहिंसा का सिद्धान्त कहता है कि जीवन जहाँ कहीं हो, उसका सम्मान करना चाहिए, उसी प्रकार अनाग्रह का सिद्धान्त कहता है कि सत्य जहाँ भी हो, उसका सम्मान करना चाहिए। वस्तुतः पक्षाग्रह की धारणा से विवाद का जन्म होता है। व्यक्ति जब स्व-मत की प्रशंसा और दूसरों की निन्दा करता है, तो परिणामस्वरूप सामाजिक जीवन में संघर्ष का प्रादुर्भाव हो जाता है। वैचारिक आग्रह न केवल वैयक्तिक विकास को कुण्ठित करता है, वरन् सामाजिक जीवन में विग्रह, विषाद और वैमनस्य के बीज बो देता है । सूत्रकृतांगसूत्र में कहा गया है कि जो अपने-अपने मत
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ की प्रशंसा और दूसरे मत की निन्दा करने में ही अपना पाण्डित्य है। अत: आसक्ति के प्रहाण के लिए व्यावहारिक रूप में परिग्रह का दिखाते हैं और लोक को सत्य से भटकाते हैं, वे एकान्तवादी स्वयं त्याग भी आवश्यक है। संसारचक्र में भटकते रहते हैं। वस्तुत: जहाँ भी आग्रहबुद्धि होगी, परिग्रह या संग्रहवृत्ति सामाजिक हिंसा है। जैन आचार्यों की दृष्टि विपक्ष में निहित सत्य का दर्शन नहीं होगा और जो विपक्ष में निहित में समग्र परिग्रह हिंसा से प्रत्युत्पन्न है, क्योकि बिना हिंसा (शोषण) सत्य नहीं देखेगा, वह सम्पूर्ण सत्य का द्रष्टा नहीं होगा। जैनधर्म के के संग्रह असम्भव है। व्यक्ति संग्रह के द्वारा दूसरों के हितों का हनन अनुसार सत्य का प्रकटन आग्रह में नहीं, अनाग्रह में होता है। सत्य करता है और इस रूप में संग्रह या परिग्रह हिंसा का ही एक रूप का साधक वीतराग और अनाग्रही होता है। जैन धर्म अपने अनेकान्त है। अनासक्ति को जीवन में उतारने के लिए जैन आचार्यों ने यह आवश्यक के सिद्धान्त के द्वारा एक अनाग्रही एवं समन्वयात्मक दृष्टि प्रस्तुत करता माना कि मनुष्य बाह्य-परिग्रह का भी त्याग या परिसीमन करे। परिग्रहहै, ताकि वैचारिक एवं धार्मिक असहिष्णता को समाप्त किया जा सके। त्याग अनासक्त दृष्टि का बाह्य जीवन में दिया गया प्रमाण है। एक
ओर विपुल संग्रह और दूसरी ओर अनासक्ति, इन दोनों में कोई मेल अनासक्ति
नहीं है। यदि मन में अनासक्ति की भावना का उदय है तो उसे बाह्य व्यक्ति के अन्दर निहित आसक्ति दो रूपों में प्रकट होती हैं- व्यवहार में अनिवार्य रूप से प्रकट होना चाहिए। जैन दर्शन के अनुसार १. संग्रह-भावना और २. भोग-भावना। संग्रह-भावना और भोग-भावना समविभाग और समवितरण साधना का आवश्यक अंग है। इसके बिना से प्रेरित होकर ही मनुष्य दूसरों के अधिकार की वस्तुओं का अपहरण आध्यात्मिक उपलब्धि भी सम्भव नहीं। अत: जैन आचार्यों ने साधना करता है। इस प्रकार आसक्ति बाह्यतः तीन रूपों में प्रकट होती है- की दृष्टि से अपरिग्रह को अनिवार्य तत्त्व माना है। १. अपहरण (शोषण), २. भोग और ३. संग्रह। आसक्ति के तीन इस प्रकार वृत्ति में अनासक्ति, विचार में अनेकान्त और व्यवहार रूपों का निग्रह करने के लिए जैन आचार दर्शन में अस्तेय, ब्रह्मचर्य में अहिंसा जैन साधना का सार हैं। जैन साधक सदैव ही यह प्रार्थना और अपरिग्रह महाव्रतों का विधान है। संग्रहवृत्ति का अपरिग्रह से, करता हैभोगवृत्ति का ब्रह्मचर्य से और अपहरणवृत्ति का अस्तेय महाव्रत से सत्वेषु मैत्री, गुणीषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वं। निग्रह होता है। जैन आचार्यों ने जिस अपरिग्रह के सिद्धान्त का प्रतिपादन माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ सदाममात्मा विद्धातु देव।। किया, उसके मूल में यही अनासक्ति की जीवन दृष्टि कार्य कर रही हे प्रभु! मेरे हृदय में प्राणीमात्र के प्रति मैत्रीभाव, गुणीजनों के है। यद्यपि आसक्ति एक मानसिक तथ्य है, मन की ही एक वृत्ति है, प्रति समादरभाव, दुःखियों के प्रति करुणाभाव और विरोधियों के प्रति तथापि उसका प्रकटन बाह्य है। वह सामाजिक जीवन को दृषित करती मध्यस्थ भाव बना रहे।
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अध्यात्म और विज्ञान
औपनिषदिक ऋषिगण, बुद्ध और महावीर भारतीय अध्यात्म परम्परा के उन्नायक रहे हैं। उनके आध्यात्मिक चिन्तन ने भारतीय मानस को आत्मतोष प्रदान किया है। किन्तु आज हम विज्ञान के युग में जीवन जी रहे हैं। वैज्ञानिक उपलब्धियाँ भी आज हमें उद्वेलित कर रही हैं। आज का मनुष्य दो तलों पर जीवन जी रहा है। यदि विज्ञान को नकारता है तो जीवन की सुख-सुविधा और समृद्धि के खोने का खतरा है। दूसरी ओर अध्यात्म को नकारने पर आत्म- शान्ति से वश्चित होता है आज आवश्यकता है इन ऋषि महर्षियों द्वारा प्रतिस्थापित आध्यात्मिक मूल्यों और आधुनिक विज्ञान की उपलब्धियों के समन्वय की निश्चय ही 'विज्ञान और अध्यात्म की चर्चा आज प्रासङ्गिक है।
सामान्यतया आज विज्ञान और अध्यात्म को परस्पर विरोधी अवधारणाओं के रूप में देखा जाता है जहाँ अध्यात्म को धर्मवाद और पारलौकिकता के साथ जोड़ा जाता है, वहीं विज्ञान को भौतिकता और इहलौकिकता के साथ जोड़ा जाता है। आज दोनों में विरोध माना जाता है, लेकिन यह अवधारणा भी भ्रान्त है। प्राचीन युग में तो विज्ञान और अध्यात्म ये शब्द भी परस्पर भिन्न अर्थ के बोधक नहीं थे। महावीर ने आचाराङ्गसूत्र में कहा है कि जो आत्मा है वही विज्ञाता है और जो विज्ञाता है वही आत्मा है।" यहाँ आत्मज्ञान और विज्ञान दोनों एक ही हैं। वस्तुतः विज्ञान शब्द वि+ज्ञान से बना है, 'वि' उपसर्ग विशिष्टता का द्योतक है अर्थात् विशिष्ट शान ही विज्ञान है। आज जो विज्ञान शब्द केवल पदार्थ - ज्ञान के रूप में रूढ़ हो गया है, वह मूलतः विशिष्ट ज्ञान या आत्मज्ञान ही था। आत्मज्ञान ही विशन है। पुनः अध्यात्म शब्द भी अधि+आत्म से बना है 'अधि' उपसर्ग भी विशिष्टता काही सूचक है, जो आत्म की विशिष्टता है, वही अध्यात्म है। चूँकि आत्मा ज्ञान स्वरूप ही है, अतः ज्ञान की विशिष्टता ही अध्यात्म है और वही विज्ञान है। फिर भी आज विज्ञान पदार्थ- ज्ञान के अर्थ में और अध्यात्म आत्मज्ञान के अर्थ में रूढ़ हो गया है। मेरी दृष्टि में विज्ञान साधकों का ज्ञान है तो अध्यात्म साध्य का ज्ञान । प्रस्तुत निबन्ध में इन्हीं रूद्र अर्थों में विज्ञान और अध्यात्म शब्द का प्रयोग किया जा रहा है। एक हमें बाह्य जगत् में जोड़ता है तो दूसरा हमें आत्म-जगत् से दोनों ही 'योग' हैं। एक साधन योग है तो दूसरा साध्य योग एक हमें जीवन-शैली (Life style) देता है तो दूसरा हमें जीवन - साध्य (Goal of life) देता है। आज हमारा दुर्भाग्य यही है कि जो एक-दूसरे के पूरक हैं उन्हें हमने एक-दूसरे का विरोधी मान लिया है। आज आवश्यकता इस बात की है कि इनकी परस्पर पूरक शक्ति या अभ को समझा जाये।
आज हम विज्ञान को पदार्थ विज्ञान मानते हैं। यद्यपि आज हमने 'पर' या 'अनात्म' के सन्दर्भ में इतना अधिक ज्ञान अर्जित कर लिया
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है कि 'स्व' या 'आत्म' को विस्मृत कर बैठे हैं। हमने परमाणु के आवरण को तोड़कर उसके जरें जरें को जानने का प्रयास किया, किन्तु दुर्भाग्य यही है कि अपनी आत्मा के आचरण को भेदकर अपने आपको नहीं जान सके। हम परिधि को व्यापकता देने में केन्द्र को ही भुला बैठे। मनुष्य की यह परकेन्द्रितता ही उसे अपने आप से बहुत दूर ले गई है। यही आज के जीवन की त्रासदी है वह दुनिया को समझता है, जानता है, परखता है, किन्तु अपने प्रति तन्द्राग्रस्त है । उसे स्वयं यह बोध नहीं है कि मैं कौन हूँ? मेरा कर्तव्य क्या है? लक्ष्य क्या है? वह भटक रहा है, मात्र भटक रहा है। आज से २५०० वर्ष पूर्व महावीर ने मनुष्य की उस पीड़ा को समझा था । उन्होंने कहा था कि कितने ही लोग ऐसे हैं जो नहीं जानते कि मैं कौन हूँ? कहाँ से आया हूँ मेरा गन्तव्य क्या है? यह केवल महावीर ने कहा हो ऐसी बात नहीं है । बुद्ध ने भी कहा था 'अदानं गवेस्सेथ' अपने को खोजो । औपनिषदिक ऋषियों ने कहा- 'आत्मानं विद्धि' अपने आपको जानो यही जीवन परिशोध का मूलमन्त्र है। आज हमें पुनः इन्हीं प्रश्नों के उत्तर को खोजना है। आज का विज्ञान आपको पदार्थ जगत् के सन्दर्भ में सूक्ष्मतम सूचनायें दे सकता है किन्तु वे सूचनायें हमारे लिए ठीक उसी तरह अर्थहीन हैं जिस प्रकार जब तक आँख न खुली हो, प्रकाश का कोई मूल्य नहीं । विज्ञान प्रकाश है, किन्तु अध्यात्म की आँख के बिना उसकी कोई सार्थकता नहीं है। आचार्य भद्रबाहु ने कहा थाअंधे व्यक्ति के सामने करोड़ों दीपक जलाने से क्या लाभ? जिसकी आँख खुली हो उसके लिए एक ही दीपक पर्याप्त है। आज के मनुष्य की भी यही स्थिति है। वह विज्ञान और तकनीक के सहारे बाह्य जगत् में चकाचौध विद्युत फैला रहा है किन्तु अपने अन्तर्चक्षु का उन्मीलन नहीं कर पा रहा है। प्रकाश की चकाचौंध में हम अपने को ही नहीं देख पा रहे हैं। यह सत्य है कि प्रकाश आवश्यक है, किन्तु आँखें खोले बिना उसका कोई मूल्य नहीं है। विज्ञान ने मनुष्य को शक्ति दी है। आज वह ध्वनि से भी अधिक तीव्र गति से यात्रा कर सकता है। किन्तु स्मरण रहे विज्ञान जीवन के लक्ष्य का निर्धारण नहीं कर सकता। लक्ष्य का निर्धारण तो अध्यात्म ही कर सकता है। विज्ञान साधन देता है, लेकिन उनका उपयोग किस दिशा में करना होगा यह बतलाना अध्यात्म का कार्य है। पूज्य विनोबा जी के शब्दों में 'विज्ञान में दोहरी शक्ति होती है एक विनाश-शक्ति और दूसरी विकास शक्ति वह सेवा भी कर सकता है और संहार भी अग्नि नारायण की खोज हुई तो उससे रसोई भी बनाई जा सकती है और उससे आग भी लगाई जा सकती है। अग्नि का प्रयोग घर फूँकनें में करना या चूल्हा जलाने में यह अक्ल विज्ञान में नहीं है। अक्ल तो आत्मशान में है।" आगे वे कहते हैं— आत्मज्ञान है— आँख और विज्ञान है— पांव । अगर मानव को आत्मज्ञान नहीं है तो वह अन्धा है । कहाँ चला जायेगा
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कुछ पता नहीं। दूसरे शब्दों में कहें तो अध्यात्म देखता तो है, लेकिन चल नहीं सकता। उसमें लक्ष्य बोध तो है, किन्तु गति की शक्ति नहीं । विज्ञान में शक्ति तो है किन्तु गति की शक्ति नहीं | विज्ञान में शक्ति तो है किन्तु आँख नहीं है, लक्ष्य का बोध नहीं है । जिस प्रकार अन् और लंगड़े दोनों ही परस्पर सहयोग के अभाव में दावानल में जल मरते हैं, ठीक इसी प्रकार यदि आज विज्ञान और अध्यात्म परस्पर एक दूसरे के पूरक नहीं होंगे तो मानवता अपने ही द्वारा लगाई गई विस्फोटक शस्त्रों की इस आग में जल मरेगी। बिना विज्ञान के संसार में सुख नहीं आ सकता और बिना अध्यात्म के शान्ति नहीं आ सकती। मानव समाज की सुख (Pleasure) और शांति (Peace) के लिए दोनों का परस्पर होना आवश्यक है। वैज्ञानिक शक्तियों का उपयोग मानव-कल्याण में हो या मानव-संहार में इस बात का निर्धारण विज्ञान से नहीं, आत्मज्ञान या अध्यात्म से करना होगा। अणु शक्ति का उपयोग मानव के संहार में हो या मानव के कल्याण में, यह निर्णय करने का अधिकार उन वैज्ञानिकों को भी नहीं है, जो सत्ता, स्वार्थ और समृद्धि के पीछे अन्धे राजनेताओं के दास है यह निर्णय तो मानवीय विवेक सम्पन्न निःस्पृह साधकों को ही करना होगा। यह सत्य है कि विज्ञान के सहयोग से तकनीक का विकास हुआ है और उसने मानव के भौतिक दुःखों को बहुत कुछ कम कर दिया है, किन्तु दूसरी ओर उसने मारक शक्ति के विकास के द्वारा भय या संत्रास की स्थिति उत्पन्न कर मानव की शान्ति को भी छीन लिया है। आज मनुष्य जाति भयभीत और संत्रस्त है। आज वह विस्फोटक अस्त्रों के ज्वालामुखी पर खड़ी है, जो कब विस्फोट कर हमारे अस्तित्व को निगल लेगी, यह कहना कठिन है। आज हमारे पास जिन संहारक अस्त्रों का संग्रह है, वे पृथ्वी के सम्पूर्ण जीवन को अनेक बार समाप्त कर सकते हैं। पूज्य 'विनोबा जी लिखते हैं- 'जो विज्ञान एक ओर क्लोरोफार्म की खोज करता है जिससे करुणा का कार्य होता है, वही विज्ञान अणु अस्त्रों की खोज करता है जिससे भयङ्कर संहार होता है। एक बाजू सिपाही को जख्मी करता है दूसरा बाजू उसको दुरुस्त करता है, ऐसा गोरखधन्धा आज विज्ञान की मदद से चल रहा है। इस हालत में विज्ञान का सारा कार्य उसको मिलने वाले मार्गदर्शन पर आधारित है उसे जैसा मार्गदर्शन मिलेगा, वह वैसा कार्य करेगा।"
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
यदि विज्ञान पर सत्ता के आकांक्षियों का राजनीतिज्ञों का और अपने स्वार्थ की रोटी सेंकने वालों का अधिकार होगा तो वह मनुष्य जाति का संहारक ही बनेगा। किन्तु इसके विपरीत यदि विज्ञान पर मानव मङ्गल के द्रष्टा अनासक्त ऋषियों-महर्षियों का अधिकार होगा, तो वह मानव के विकास में सहायक होगा। आज हम विज्ञान के माध्यम से तकनीकी प्रगति की ऊँचाई तक पहुँच चुके हैं जहाँ से लौटना भी सम्भव नहीं है। आज मनुष्य उस दोराहे पर खड़ा है, जहाँ पर उसे हिंसा और अहिंसा दो राहों में से किसी एक को चुनना है। आज उसे यह समझना है कि वह विज्ञान के साथ किसको जोड़ना चाहता है, हिंसा को या अहिंसा को आज उसके सामने दोनों विकल्प प्रस्तुत हैं। विज्ञान+अहिंसा विकास विज्ञान+हिंसा विनाश। जब विज्ञान अहिंसा
के साथ जुड़ेगा तो वह समृद्धि और शान्ति लायेगा, किन्तु जब उसका गठबन्धन हिंसा से होगा तो संहारक होगा और अपने ही हाथों अपना विनाश करेगा।
आज विज्ञान के सहारे मनुष्य ने इतना पाशविक बल संगृहीत कर लिया है कि वह उसका रक्षक न होकर कहीं भक्षक न बन जाय, यह उसे सोचना है महावीर ने स्पष्ट रूप से कहा था— 'अत्थि सत्येन परंपरं, नत्थि असत्येन परंपरं ।' शस्त्र एक से बढ़कर एक हो सकता है किन्तु अहिंसा से बढ़कर अन्य कुछ नहीं हो सकता। आज सम्पूर्ण मानव समाज को यह निर्णय लेना होगा कि वे वैज्ञानिक शक्तियों का प्रयोग मानवता के कल्याण के लिए करना चाहते हैं या उसके संहार के लिए। आज तकनीकी प्रगति के कारण मनुष्य मनुष्य के बीच की दूरी कम हो गई है आज विज्ञान ने मानव समाज को एक-दूसरे के निकट लाकर खड़ा कर दिया है। आज हम परस्पर इतने निर्भर बन गये हैं कि एक-दूसरे के बिना खड़े भी नहीं रह सकते । किन्तु दूसरी ओर आध्यात्मिक दृष्टि के अभाव के कारण हमारे हृदयों की दूरी अधिक विस्तीर्ण हो गई है। हृदय की इस दूरी को पाटने का काम विज्ञान नहीं अध्यात्म ही कर सकता है।
विज्ञान का कार्य है विश्लेषित करना और अध्यात्म का कार्य है— संश्लेषित करना विज्ञान तोड़ता है, अध्यात्म जोड़ता है। विज्ञान वियोजक है तो अध्यात्म संयोजक विज्ञान पर केन्द्रित है तो अध्यात्म आत्म- केन्द्रित | विज्ञान सिखाता है कि हमारे सुख-दुःख का केन्द्र वस्तुएँ हैं, पदार्थ हैं, इसके विपरीत अध्यात्म कहता है कि सुख-दुःख का केन्द्र आत्मा है। विज्ञान की दृष्टि बाहर देखती है, अध्यात्म अन्दर में देखता है विज्ञान की यात्रा अन्दर से बाहर की ओर है तो अध्यात्म की यात्रा बाहर से अन्दर की ओर मनुष्य को आज यह समझना है कि यदि यात्रा बाहर की ओर होती रही तो वह शान्ति, जिसकी उसे खोज है, कभी नहीं मिलेगी। क्योंकि बहिर्मुखी यात्री शान्ति की खोज वहाँ करता है जहाँ वह नहीं है । शान्ति अन्दर है उसकी खोज बाहर व्यर्थ है।
इस सम्बन्ध में एक रूपक याद आता है। एक वृद्धा शाम के समय कुछ सी रही थी। संयोग से अंधेरा बढ़ने लगा और सुई उसके हाथ से छूटकर कहीं गिर पड़ी। महिला की झोपड़ी में प्रकाश का साधन नहीं था और प्रकाश के बिना सुई की खोज असम्भव थी। बुढ़िया ने सोचा क्या हुआ, अगर प्रकाश बाहर है तो सूई को वहीं खोजा जाये। वह उस प्रकाश में सूई खोजती रही, खोजती रही, किन्तु सूई वहीं कब मिलने वाली थी, क्योंकि वह वहाँ थी ही नहीं प्रातः होने वाला था कि कोई यात्री उधर से निकला, उसने वृद्धा से उसकी परेशानी का कारण पूछा। उसने पूछा— अम्मा सूई गिरी कहाँ थी ? वृद्धा ने उत्तर दिया- 'बेटा' सूई तो झोपड़ी में थी, किन्तु उजाला नहीं था अतः वहाँ खोजना सम्भव नहीं था । उजाला बाहर था, इसलिए मैं यहाँ खोज रही थी। यात्री ने उत्तर दिया यह सम्भव नहीं है अम्मा जो चीज जहाँ नहीं है वहाँ खोजने पर मिल जाये। सूर्य का प्रकाश होने को है उस प्रकाश में सूई वहीं खोजें जहाँ गिरी है। आज
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अध्यात्म और विज्ञान
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मानव समाज की स्थिति भी उसी वृद्धा के समान है। हम शान्ति की आज विज्ञान ने मनुष्य को सुख-सुविधा और समृद्धि तो प्रदान खोज वहाँ कर रहे हैं, जहाँ वह होती ही नहीं। शान्ति आत्मा में है, कर दी है, फिर भी मनुष्य भय और तनाव की स्थिति में जी रहा अन्दर है। विज्ञान के सहारे आज शान्ति की खोज के प्रयत्न उस है। उसे आन्तरिक शान्ति उपलब्ध नहीं है उसकी समाधि भंग हो चुकी बुढ़िया के प्रयत्नों के समान निरर्थक ही होंगे। विज्ञान, साधन दे सकता है। यदि विज्ञान के माध्यम से कोई शान्ति आ सकती है तो वह केवल है, शक्ति दे सकता है किन्तु लक्ष्य का निर्धारण तो हमें ही करना श्मशान की शान्ति होगी। बाहरी साधनों से न कभी आन्तरिक शान्ति होगा।
मिली है, न उसका मिलना सम्भव ही है। इस प्रसंग में उपनिषदों आज विज्ञान के कारण मानव के पूर्वस्थापित जीवन मूल्य समाप्त का एक प्रसंग याद आ रहा है-नारद जीवन भर वेद-वेदांग का अध्ययन हो गये हैं। आज श्रद्धा का स्थान तर्क ने ले लिया है। आज मनुष्य करते रहे। उन्होंने अनेक विद्यायें (भौतिक विद्यायें) प्राप्त कर ली, किन्तु पारलौकिक उपलब्धियों के स्थान पर इहलौकिक उपलब्धियों को चाहता उनके मन को कहीं सन्तोष नहीं मिला। वे सनत्कुमार के पास आये है। आज के तर्कप्रधान मनुष्य को सुख और शान्ति के नाम पर बहलाया और कहने लगे मैंने अनेक शास्त्रों का अध्ययन किया। मैं शास्त्रविद् नहीं जा सकता, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि आज हम अध्यात्म के तो हूँ किन्तु आत्मविद् नहीं। आज के वैज्ञानिक भी नारद की भाँति अभाव में नये जीवन मूल्यों का सृजन नहीं कर पा रहे हैं। आज विज्ञान ही हैं। वे शास्त्रविद् तो हैं, किन्तु आत्मविद् नहीं। आत्मविद् हुए बिना का युग है। आज उस धर्म को, जो पारलौकिक जीवन की सुख-सुविधाओं शांति को नहीं पाया जा सकता। यद्यपि मेरे कहने का तात्पर्य यह के नाम पर मानवीय भावनाओं का शोषण कर रहा है, जानना होगा। नहीं है कि हम विज्ञान और उसकी उपलब्धियों को तिलांजलि दे दें। आज तथाकथित वे धर्म परम्परायें जो मनुष्य को भविष्य के सुनहरे वैज्ञानिक उपलब्धियों का परित्याग न तो सम्भव है, न औचित्यपूर्ण सपने दिखाकर फुसलाया करती थीं, अब तर्क की पैनी छेनी के आगे है। किन्तु अध्यात्म या मानवीय विवेक को इनका अनुशासक होना अपने को नहीं बचा सकतीं। अब स्वर्ग में जाने के लिए नहीं जीना चाहिए। अध्यात्म ही विज्ञान का अनुशासक हो तभी एक समग्रता है अपितु स्वर्ग को धरती पर लाने के लिए जीना होगा। विज्ञान ने या पूर्णता आयेगी और मनुष्य एक साथ समृद्धि और शान्ति को पा हमें वह शक्ति दे दी है, जिससे स्वर्ग को धरती पर उतारा जा सकता सकेगा। ईशावास्योपनिषद् में जिसे हम पदार्थ ज्ञान या विज्ञान कहते है। अब यदि हम इस शक्ति का उपयोग धरती पर स्वर्ग उतारने के हैं उसे अविद्या कहा गया है और जिसे हम अध्यात्म कहते हैं विद्या स्थान पर, धरती को नरक बनाने में करेंगे तो इसकी जवाबदेही हम कहा गया है। उपनिषद्कार दोनों के सम्बन्ध को उचित बताते हुए पर ही होगी। आज वैज्ञानिक शक्तियों का उपयोग इस दृष्टि से करना कहता है- जो पदार्थ विज्ञान या अविद्या की उपासना करता है वह है कि वे मानव-कल्याण में सहभागी बनकर इस धरती को ही स्वर्ग अन्धकार में, तमस में प्रवेश करता है, क्योंकि विज्ञान या पदार्थ विज्ञान बना सकें। विनोबा जी ने सत्य ही कहा है- आज विज्ञान का तो अन्धा है। किन्तु साथ ही वह यह भी चेतावनी देता है कि जो केवल विकास हुआ किन्तु वैज्ञानिक उत्पन्न ही नहीं हुआ क्योंकि वैज्ञानिक विद्या में रत हैं, वे उससे अधिक अन्धकार में चले जाते हैं( अन्धं वह है जो निरपेक्ष होता है। आज का वैज्ञानिक राजनीतिज्ञों और तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते। ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां पूँजीपतियों के इशारे पर चलने वाला व्यक्ति है। वह पैसे से खरीदा रताः')। वस्तुत: वह जो अविद्या और विद्या दोनों को एक साथ उपासना जा सकता है। यह तो वैज्ञानिक की गुलामी है। ऐसे लोग अवैज्ञानिक करता है वह अविद्या द्वारा मृत्यु को पार करता है अर्थात् वह सांसारिक हैं यदि वैज्ञानिक (Scientist) वैज्ञानिक (Scientific) नहीं बना तो विज्ञान कष्टों से मुक्ति पाता है और विद्या द्वारा अमृत प्राप्त करता है। विद्या मनुष्य के लिए ही घातक सिद्ध होगा। आज विज्ञान का उपयोग कैसे चाविद्यां च यस्तवेदोमयं सह। अविद्यया मृत्यु ती विद्ययामृतमश्नुते।। किया जाय इसका उत्तर विज्ञान के पास नहीं अध्यात्म के पास है। वस्तुतः यह अमृत आत्म-शान्ति या आत्मतोष ही है। अत: जब विज्ञान विनोबा जी लिखते हैं कि आज युग की माँग से विज्ञान की जितनी और अध्यात्म का समन्वय होगा तभी मानवता का कल्याण होगा। ही शक्ति बढ़ेगी। आत्मज्ञान को उतनी ही शक्ति बढ़ानी होगी। आज विज्ञान जीवन के कष्टों को समाप्त कर देगा और अध्यात्म आन्तरिक अमेरिका इसलिए दुःखी है कि वहां विज्ञान तो है, पर अध्यात्म है शान्ति को प्रदान करेगा। आचारांगसूत्र में महावीर ने अध्यात्म के लिए नहीं, अत: सुख तो है, शान्ति नहीं। इसके विपरीत भारत में आध्यात्मिक 'अज्झत्थ' शब्द का प्रयोग किया है और यह बताया है कि इसी के विकास के कारण मानसिक शान्ति तो है, किन्तु समृद्धि नहीं। आज द्वारा आत्म-विशुद्धि को प्राप्त किया जा सकता है। वस्तुत: अध्यात्म जहाँ समृद्धि है वहाँ शान्ति नहीं और जहाँ शान्ति है वहाँ समृद्धि नहीं। कुछ नहीं है, वह आत्म-उपलब्धि या आत्म-विशुद्धि की ही एक प्रक्रिया इसका समाधान आध्यात्म और विज्ञान के समन्वय में निहित है। अध्यात्म है; उसका प्रारम्भ आत्मज्ञान से है और उसकी परिनिष्पत्ति आध्यात्मिक शान्ति देगा तो विज्ञान समृद्धि। जब समृद्धि और शान्ति दोनों ही एक मूल्यों के प्रति अटूट निष्ठा में है। वस्तुत: आज जितनी मात्रा में पदार्थ साथ उपस्थित होंगी, मानवता अपने विकास के परम शिखर पर होगा। विज्ञान विकसित हुआ है उतनी ही मात्रा में आत्मज्ञान को विकसित मानव स्वयं अतिमानव के रूप में विकसित हो जायगा। किन्तु इसके होना चाहिए। विज्ञान की दौड़ में अध्यात्म पीछे रह गया है। पदार्थ लिए प्रयत्न करना होगा। बिना अडिग आस्था और सतत पुरुषार्थ के को जानने के प्रयत्नों में हम अपने को भुला बैठे हैं। मेरी दृष्टि में यह सम्भव नहीं।
आत्मज्ञान कोई अमूर्त, तात्त्विक आत्मा की खोज नहीं है, बल्कि अपने
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ आपको जानना है। अपने आपको जानने का तात्पर्य अपने में निहित हेतु शोषण और संग्रह जैसी सामाजिक बुराइयों को जन्म देता है, वासनाओं और विकारों को देखना है। आत्मज्ञान का अर्थ होता है जिससे वह स्वयं तो संत्रस्त होता ही है, साथ ही साथ समाज को हम यह देखें कि हमारे जीवन में कहाँ अहंकार छिपा पड़ा है और भी संत्रस्त बना देता है। इसके विपरीत अध्यात्मवाद हमें यह सिखाता कहाँ किसके प्रति घृणा-विद्वेष के तत्त्व पल रहे हैं। आत्मज्ञान कोई है कि सुख का केन्द्र वस्तु में न होकर आत्मा में है। सुख-दुःख हौव्वा नहीं है, वह तो अपने अन्दर झांककर अपनी वृत्तियों और आत्म-केन्द्रित है। आत्मा या व्यक्ति ही अपने सुख-दुःख का कर्ता वासनाओं को पढ़ने की कला है। विज्ञान द्वारा प्रदत्त तकनीक के सहारे और भोक्ता है। वही अपना मित्र और वही अपना शत्रु है। सुप्रतिष्ठित हम पदार्थों का परिशोधन करना तो सीख गये और परिशोधन से कितनी अर्थात् सद्गुणों में स्थित आत्मा मित्र है और दुःप्रतिष्ठित अर्थात् दुर्गुणों किसे शक्ति प्राप्त होती है यह भी जान गये, किन्तु आत्मा के परिशोधन में स्थित आत्मा शत्रु है। वस्तुत: आध्यात्मिक आनन्द की उपलब्धि की जो कला अध्यात्म के नाम से हमारे ऋषि-मुनियों ने दी, आज पदार्थों में न होकर सद्गुणों में स्थित आत्मा में होती है। अध्यात्मवाद हम उसे भूल चुके हैं।
के अनुसार देहादि सभी आत्मेतर पदार्थों के प्रति ममत्वबुद्धि का विसर्जन फिर भी विज्ञान ने आज हमारी सुख-सुविधा प्रदान करने के साधना का मूल उत्स है। ममत्व का विसर्जन और ममत्व का सृजन अतिरिक्त जो सबसे बड़ा उपकार किया है, वह यह कि धर्मवाद के यही जीवन का परम मूल्य है। जैसे ही ममत्व का विसर्जन होगा समत्व नाम पर जो अन्धश्रद्धा और अन्धविश्वास पल रहे थे उन्हें तोड़ दिया का सृजन होगा, और जब समत्व का सृजन होगा तो शोषण और है। इसका टूटना आवश्यक भी था, क्योंकि परलोक की लोरी सुनाकर संग्रह की सामाजिक बुराइयां समाप्त होंगी। परिमाणत: व्यक्ति आत्मिक मानव समाज को अधिक समय तक भ्रम में रखना सम्भव नहीं था। शान्ति का अनुभव करेगा। अध्यात्मवादी समाज में विज्ञान तो रहेगा विज्ञान ने अच्छा ही किया हमारा यह भ्रम तोड़ दिया। किन्तु हमें किन्तु उसका उपयोग संहार में न होकर सृजन में होगा, मानवता के यह भी स्मरण रखना होगा कि भ्रम का टूटना ही पर्याप्त नहीं है। कल्याण में होगा। इससे जो रिक्तता पैदा हुई है उसे आध्यात्मिक मूल्यनिष्ठा के द्वारा अन्त में पुन: मैं यही कहना चाहूँगा कि विज्ञान के कारण जो ही भरना होगा। यह आध्यात्मिक मूल्यनिष्ठा उच्च मूल्यों के प्रति निष्ठा एक संत्रास की स्थिति मानव समाज में दिखाई दे रही है उसका मूलभूत है, जो जीवन को शान्ति और आत्मसंतोष प्रदान करते हैं। कारण विज्ञान नहीं, अपितु व्यक्ति की संकुचित और स्वार्थवादी दृष्टि
अध्यात्म और विज्ञान का संघर्ष वस्तुत: भौतिकवाद और ही है। विज्ञान तो निरपेक्ष है, वह न अच्छा है और न बुरा। उसका अध्यात्मवाद का संघर्ष है। अध्यात्म की शिक्षा यही है कि भौतिक अच्छा या बुरा होना उसके उपयोग पर निर्भर करता है और इस उपयोग सुख-सुविधाओं की उपलब्धि ही अन्तिम लक्ष्य नहीं है। दैहिक एवं का निर्धारण व्यक्ति के अधिकार की वस्तु है। अत: आज विज्ञान को आत्मिक मूल्यों से परे सामाजिकता और मानवता के उच्च मूल्य भी नकारने की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता है उसे सम्यक्-दिशा हैं। महावीर की दृष्टि में अध्यात्मवाद का अर्थ है पदार्थ को परम मूल्य में नियोजित करने की और यह सम्यक्-दिशा अन्य कुछ नहीं, यह न मानकर आत्मा को ही परम मूल्य मानना। भौतिकवादी दृष्टि के सम्पूर्ण मानवता के कल्याण की व्यापक आकांक्षा ही है और इस आकांक्षा अनुसार सुख और दुःख वस्तुगत तथ्य हैं। अत: भौतिकवादी सुखों की पूर्ति अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय में है। काश मानवता इन की लालसा में वह वस्तुओं के पीछे दौड़ता है तथा उनकी उपलब्धि दोनों में समन्वय कर सके बल्कि यही कामना है।
सन्दर्भ: १. जे आया से विण्णाया, जे विण्णाया से आया।
-आचाराङ्गसूत्र, संपा० मधुकर मुनि, श्री आगम प्रकाशन समिति,
ब्यावर, १९८०, २/५/५। २. वही, १/१/१। ३. आत्मज्ञान और विज्ञान (बिनोवा)।
४. वही । ५. वही । ६. अप्पा खलु मित्तं अमित्तं च सुपट्ठिओ दुपट्ठिओ। ७. ईशावास्योपनिषद्, (गीताप्रेस, गोरखपुर, वि०सं० २०१७).९। ८. वही, ११।
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धर्म का मर्म : जैन दृष्टि
धर्म शब्द जिसे अंग्रेजी में Religion (रिलीजन) कहा जाता है, किसी कवि ने कहा हैउसकी व्युत्पत्ति हमें यह बताती है कि धर्म एक योजक तत्त्व है, वह
न हिन्दू बुरा है न मुसलमां बुरा है। जोड़ता है। रिलीजन शब्द री+लीजेर से बना है। जिसका अर्थ होता
बुरा वह है जिसका दिल बुरा है ।। है- पुन: जोड़ने वाला। जबकि सम्प्रदाय या School शब्द विभाजन सम्प्रदाय वह रंगीन चश्मा है जो सबको अपने ही रङ्ग में देखना का सूचक है। इस प्रकार जहाँ धर्म का कार्य जोड़ना है, वहाँ सम्प्रदाय चाहता है और जो भी उसे अपने से भिन्न रङ्ग में दिखायी देता है का कार्य विभाजित करना है। यदि हम इस आधार पर ही कोई निष्कर्ष उसे वह गलत मान लेता है। जबकि धर्म खुली आँखों से उस सारभूत निकालें तो हमें कहना होगा कि साम्प्रदायिकता में धर्म नहीं (रहा हुआ) तत्त्व को देखता है, जो सभी के मूल में समान रूप से समाया हुआ है। धर्म में रहकर तो सम्प्रदाय में रहा जा सकता है, किन्तु सम्प्रदाय है। इसीलिए धार्मिक होकर तो सम्प्रदाय में हुआ जा सकता है, किन्तु में रहकर कोई धर्म में नहीं रह सकता है। यदि इसे और अधिक स्पष्ट सम्प्रदाय में होकर कोई व्यक्ति धर्म में नहीं हो सकता। सम्प्रदाय धर्म करें तो इसका तात्पर्य होगा कि यदि व्यक्ति धार्मिक है और वह किसी साधना की एक विशिष्ट प्रक्रिया को अपनाने वाले लोगों का एक समूह सम्प्रदाय से जुड़ा है तो वह बुरा नहीं, किन्तु यदि व्यक्ति सम्प्रदाय है, किन्तु जब यही लोग धर्म के मूल उत्स को छोड़कर मात्र बाह्य में ही जीता है और धर्म में नहीं, तो वह निश्चय ही समाज के लिए क्रियाकाण्डों को ही सब कुछ समझ लेते हैं तो वे धार्मिक न रहकर एक चिन्ता का विषय है। आज स्थिति यह है कि हम सब सम्प्रदायों साम्प्रदायिक बन जाते हैं और यही साम्प्रदायिकता बुरी है। पूर्व में में जीते हैं, धर्म में नहीं। इसीलिए आज साम्प्रदायिकता मानव मात्र जो यह कहा गया है कि सम्प्रदायों में धर्म नहीं, उसका तात्पर्य यही के लिए खतरा बन रही है।
है कि साम्प्रदायिक आग्रहों के साथ कोई व्यक्ति धार्मिक नहीं हो सकता। धर्म स्वभाव है, वह आन्तरिक है। सम्प्रदाय का सम्बन्ध आचार धर्म को यदि हम केन्द्र-बिन्दु मानें तो सम्प्रदाय व्यक्ति रूपी परिधि-बिन्दु की बाह्य रुढ़ियों तक सीमित है इसलिए वह बाहरी है। सम्प्रदाय यदि को केन्द्र से जोड़ने वाली त्रिज्या रेखा के समान है। एक केन्द्र-बिन्दु धर्म से रहित है तो वह ठीक वैसा ही है जैसा आत्मा से रहित शरीर। से परिधि-बिन्दुओं को जोड़ने वाली अनेक रेखायें खींची जा सकती सम्प्रदाय धर्म का शरीर है और शरीर का होना बुरा भी नहीं, किन्तु हैं। यदि वे सभी रेखायें परिधि-बिन्दु को केन्द्र से जोड़ती हैं तब तो जिस प्रकार शरीर में से आत्मा के निकल जाने के बाद वह शव हो वे एक-दूसरे को नहीं काटती अपितु एक-दूसरे से मिलती हैं किन्तु जाता है और परिवेश में सड़ांध व दुर्गन्ध फैलाता है उसी प्रकार धर्म कोई भी रेखा जब केन्द्र का परित्याग कर चलती है तो वह दूसरे से रहित सम्प्रदाय भी समाज में घृणा और अराजकता उत्पन्न करते को काटने लगती है, यही स्थिति सम्प्रदाय की है। सम्प्रदाय जब तक हैं, सामाजिक जीवन को गलित व सड़ांधयुक्त बनाते हैं। शायद यहाँ धर्म की ओर उन्मुख है तब तक वे एक-दूसरे के विरोध में खड़े नहीं पूछा जा सकता है कि धर्म और सम्प्रदाय में अन्तर का आधार क्या होते, किन्तु जब सम्प्रदाय धर्म से विमुख हो जाते हैं तो वे एक दूसरे है? वस्तुत: धर्म आस्था/निष्ठा के साथ मानवीय सद्गुणों को जीवन को काटने लगते हैं। यदि विभिन्न सम्प्रदाय परस्पर सौजन्य एवं सहिष्णुता में जीने के प्रयास से भी जुड़ा है, जबकि सम्प्रदाय केवल कुछ रुढ़ के साथ जीवित हैं तो वे वस्तुतः धर्म ही हैं, क्योंकि उनके मूल में क्रियाओं को ही पकड़कर चलता है। नैतिक सद्गुण कालिक सत्य धार्मिकता का उत्स समाया हुआ है, किन्तु जब वे सम्प्रदाय एक-दूसरे हैं, वे सदैव शुभ हैं। जबकि साम्प्रदायिक रुढ़ियों का मूल्य युग विशेष के विरोध में खड़े होते हैं तो वे 'सम्प्रदाय' होते हैं, 'धर्म' नहीं; और
और समाज विशेष में ही होता है अत: वे सापेक्ष हैं। जब इन सापेक्षिक ऐसे धर्मरहित सम्प्रदाय ही सामाजिक जीवन में असद्भाव और वैमनस्य सत्यों को ही एक सार्वभौम सत्य मान लिया जाता है तो इसी से को जन्म देते हैं। सम्प्रदायवाद का जन्म होता है। यह सम्प्रदायवाद वैमनस्य और घृणा धर्म के दो पक्ष होते हैं- एक उसका शाश्वत और सार्वभौम के बीज बोता है। अतः कहा जा सकता है कि जहाँ धर्म आपस में पक्ष होता है तथा दूसरा दैशिक और कालिक पक्ष। धर्म का शाश्वत प्रेम करना सिखाता है वहीं सम्प्रदाय आपस में घृणा के बीज बोता और सार्वभौम पक्ष उसका सारतत्त्व कहा जा सकता है, जबकि दैशिक है। यदि हम धर्मों के मूल सारतत्त्व को देखें तो उनमें कोई बहुत और कालिक पक्ष उसका बाह्यरूप कहा जा सकता है, जो कि समय-समय बड़ा अन्तर नजर नहीं आता, क्योंकि सभी धर्मों की मूलभूत शिक्षाएँ पर परिवर्तित होता रहता है। धार्मिक असहिष्णुता का जन्म तब होता समान ही हैं। न केवल मूलभूत शिक्षायें ही समान हैं अपितु सभी है जब हम धर्म के इस रुढ़िगत बाह्य रूप को ही उसका सर्वस्व मान का व्यावहारिक लक्षण भी समान है। वे मनुष्य को एक ऐसी जीवन लेते हैं और धर्म के मूल उत्स को भुला देते हैं। मनुष्य ने धर्म के शैली प्रदान करते हैं जिसमें व्यक्ति और समाज दोनों ही शान्ति व सारतत्त्व के आचरण पर बल न देकर रुढ़ियों और कर्मकाण्डों को सुख का अनुभव कर सकें।
ही धर्म का सर्वस्व मान लिया। परिणामतः धर्मों की मूलभूत एकता
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
विस्मृत हो गयी और उनके भेद ही प्रमुख बन गये। इसकी फलश्रुति कहा हैधार्मिक असहिष्णुता और धार्मिक संघर्षों के रूप में प्रकट हुई। यदि तालीम का शोर इतना, तहजीब का गुल इतना। हम धर्म के मूल उत्स और शिक्षाओं को देखें तो मूसा की दस आज्ञायें, बरकत जो नहीं होती, नीयत की खराबी है।। ईसा के पर्वत पर के उपदेश, बुद्ध के पञ्चशील, महावरी के पञ्चमहाव्रत, आज मनुष्य का सबसे बड़ा दुर्भाग्य तो यह है कि इस तथाकथित
और पतञ्जलि के पञ्चयम एक-दूसरे से अधिक भिन्न नहीं हैं। वस्तुत: सभ्यता के विकास के साथ उसकी आदिम युग की एक सहज, सरल ये धर्म की मूलभूत शिक्षायें हैं और इन्हें जीवन में जीकर व्यक्ति न एवं स्वाभाविक जीवन-शैली भी उससे छिन गई है, आज जीवन के केवल एक अच्छा ईसाई, जैन, बौद्ध या हिन्दू बनता है अपितु वह हर क्षेत्र में कृत्रिमता और छयों का बाहुल्य है। मनुष्य आज न तो सच्चे अर्थ में धार्मिक भी बनता है।
अपनी मूलप्रवृत्तियों एवं वासनाओं का शोधन या उदात्तीकरण कर पाया दुर्भाग्य से आज धार्मिक साम्प्रदायिकता ने पुनः मानव समाज है और न इस तथाकथित सभ्यता के आवरण को बनाये रखने के को अपनी गिरफ्त में ले लिया है और धर्म के कुछ तथाकथित ठेकेदार लिए उन्हें सहज रूप में प्रकट ही कर पा रहा है। उसके भीतर उसका अपनी शूद्र ऐषणाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए धर्म के नाम ‘पशुत्व' कुलाँचें भर रहा है, किन्तु बाहर वह अपने को 'सभ्य' दिखाना पर मानव समाज में न केवल बिखराव पैदा कर रहे हैं, अपितु वे चाहता है। अन्दर वासना की उद्दाम ज्वालाएँ और बाहर सच्चरित्रता एक वर्ग को दूसरे वर्ग के विरुद्ध उभाड़ रहे हैं।
और सदाशयता का छद्म जीवन, यही आज के मानस की त्रासदी है,
पीड़ा है। आसक्ति, भोगलिप्सा, भय, क्रोध, स्वार्थ और कपट की मनुष्य की दुविधा-अध्यात्मवाद । भौतिकवाद
दमित मूलप्रवृत्तियाँ और उनसे जन्य दोषों के कारण मानवता आज आज मनुष्य अंशात, विक्षुब्ध एवं तनावपूर्ण स्थिति में है। बौद्धिक भी अभिशिप्त है, आज वह दोहरे संघर्ष से गुजर रही है- एक आन्तरिक विकास से प्राप्त विशाल ज्ञान-राशि और वैज्ञानिक तकनीक से प्राप्त और दूसरा बाह्य। आन्तरिक संघर्षों के कारण आज उसका मानस भौतिक सुख-सुविधा एवं आर्थिक समृद्धि मनुष्य की आध्यात्मिक, तनावयुक्त है, विक्षुब्ध है, तो बाह्य संघर्षों के कारण मानव-जीवन अशान्त मानसिक एवं सामाजिक विपन्नता को दूर नहीं कर पायी है। ज्ञान-विज्ञान और अस्त-व्यस्त। आज मनुष्य का जीवन मानसिक तनावों, सांवेगिक की शिक्षा देने वाले सहस्राधिक विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों के असन्तुलनों और मूल्य संघर्षों से युक्त है। आज का मनुष्य परमाणु होते हुए भी आज का शिक्षित मानव अपनी स्वार्थपरता और तकनीक की बारीकियों को अधिक जानता है किन्तु एक सार्थक भोग-लोलुपता पर विवेक एवं संयम का अंकुश नहीं लगा पाया है। सामञ्जस्यपूर्ण जीवन के आवश्यक मूल्यों के प्रति उसका उपेक्षाभाव भौतिक सुख-सुविधाओं का यह अम्बार आज भी उसके मन की माँग है। वैज्ञानिक प्रगति से समाज के पुराने मूल्य ढह चुके हैं और नये को सन्तुष्ट नहीं कर सका है। आवागमन के सुलभ साधनों ने विश्व मूल्यों का सृजन अभी हो नहीं पाया है। आज हम मूल्यरिक्तता की की दूरी को कम कर दिया है, किन्तु मनुष्य-मनुष्य के बीच हृदय स्थिति में जी रहे हैं और मानवता नये मूल्यों की प्रसव-पीड़ा से गुजर की दूरी आज ज्यादा हो गयी है। यह कहीं धर्म के नाम पर तो कहीं रही है। आज वह एक निर्णायक मोड़ पर खड़ी हुई है; उसके सामने जाति एवं वर्ण के नाम एक-दूसरे से कटते चले जा रहे हैं। सुरक्षा दो ही विकल्प हैं- या तो पुन: अपने प्रकृत आदिम जीवन की ओर के साधनों की यह बहुलता आज भी उसके मन में अभय का विकास लौट जाये या फिर एक नये मानव का सृजन करे, किन्तु पहला विकल्प नहीं कर पायी है, आज भी वह उतना ही आशंकित, आतंकित और अब न तो सम्भव है और न वरेण्य। अत: आज एक ही विकल्प आक्रामक है, जितना आदिम युग में रहा होगा। मात्र इतना ही नहीं, शेष है- एक नये आध्यात्मिक मानव का निर्माण, अन्यथा आज आज विध्वंसकारी शस्त्रों के निर्माण के साथ उसकी यह आक्रामक हम उस कगार पर खड़े हैं, जहाँ मानव जाति का सर्वनाश हमें पुकार वृत्ति अधिक विनाशकारी बन गयी है और वह शस्त्र-निर्माण की इस रहा है। यहाँ जोश का यह कथन कितना मौजूं हैदौड़ में सम्पूर्ण मानव जाति की अन्त्येष्टि की सामग्री तैयार कर रहा सफाइयाँ हो रही हैं जितनी, दिल उतने ही हो रहे हैं मैले। है। आर्थिक सम्पन्नता की इस अवस्था में भी मनुष्य उतना ही अधिक अन्धेरा छा जायेगा जहाँ में, अगर यही रोशनी रहेगी।। अर्थलोलुप है, जितना कि वह पहले कभी रहा होगा। आज मनुष्य इस निर्णायक स्थिति में मानव को सर्वप्रथम यह तय करना है की इस अर्थलोलुपता ने मानव जाति को शोषक और शोषित ऐसे कि आध्यात्मवादी और भौतिकवादी जीवन दृष्टियों में से कौन उसे दो वर्गों में बाँट दिया है, जो एक दूसरे को पूरी तरह निगल जाने वर्तमान संकट से उबार सकता है? जैन धर्म कहता है कि भौतिकवादी की तैयारी कर रहे हैं। एक भोगाकांक्षा और तृष्णा की दौड़ में पागल दृष्टि मनुष्य की उस भोग-लिप्सा तथा तद्जनित स्वार्थ एवं शोषण है तो दूसरा पेट की ज्वाला को शान्त करने के लिए व्यग्र और विक्षुब्ध। की पाशविक प्रवृत्तियों का निरसन करने में सर्वथा असमर्थ है, क्योंकि आज विश्व में वैज्ञानिक तकनीक और आर्थिक समृद्धि की दृष्टि से भौतिकवादी दृष्टि में मनुष्य मूलत: पशु ही है। वह मनुष्य को एक सबसे अधिक विकसित राष्ट्र यू०एस०ए०, मानसिक तनावों एवं आध्यात्मिक (Spiritual being) न मानकर एक विकसित सामाजिक आपराधिक प्रवृत्तियों के कारण सबसे अधिक परेशान है, इससे पशु (Developed social animal) ही मानती है। जबकि जैन धर्म सम्बन्धित आँकड़े चौंकाने वाले हैं। किसी उर्दू शायर ने ठीक ही मानव को विवेक और संयम की शक्ति से युक्त मानता है। भौतिकवाद
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धर्म का मर्म : जैन दृष्टि
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के अनुसार मनुष्य का निःश्रेयस् उसकी शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक को मानती है, उसके अनुसार सुख-दुःख वस्तुगत लक्ष्य हैं। अत: माँगों की सन्तुष्टि में ही है। वह मानव की भोग-लिप्सा की सन्तुष्टि भौतिकवादी मानव सुख की लालसा में वस्तुओं के पीछे दौड़ता है को ही उसका चरम लक्ष्य घोषित कर देता है। यद्यपि वह एक आरोपित और उनके संग्रह हेतु स्तेय, शोषण एवं संघर्ष जैसी सामाजिक बुराइयों सामाजिकता के द्वारा मनुष्य की स्वार्थ एवं शोषण की पाशविक वृत्तियों को जन्म देता है। इसके विपरीत जैन धर्म या अध्यात्म हमें यह सिखाता का नियमन करना अवश्य चाहता है, किन्तु इस आरोपित सामाजिकता है कि सुख-दुःख आत्मकृत हैं। बाहर न कोई शत्रु है और न कोई का परिणाम मात्र इतना ही होता है कि मनुष्य प्रत्यक्ष में शान्त और मित्र। आत्मा ही अपना मित्र और शत्रु है। सुप्रस्थित आत्मा मित्र है सभ्य होकर भी परोक्ष में अशान्त एवं उद्दीप्त बना रहता है और उन और दुःप्रस्थित आत्मा शत्रु है। अत: सुख-दुःख की खोज पदार्थों में अवसरों की खोज करता है जब समाज की आँख बचाकर अथवा न कर आत्मा में करना है। जैन आचार्य कहते हैं कि यह ज्ञान-दर्शन सामाजिक आदर्शों के नाम पर उसकी पाशविक वृत्तियों को छद्म रूप स्वरूप शाश्वत आत्म तत्त्व ही अपना है, शेष सभी संयोगजन्य पदार्थ में खुलकर खेलने का अवसर मिले। भौतिकवाद मानव की पाशविक आत्मा से भिन्न हैं, अपने नहीं हैं। इन सांयोगिक उपलब्धियों में वृत्तियों के नियन्त्रण का प्रयास तो करता है, किन्तु वह उस दृष्टि का ममत्वबुद्धि दुःख-परम्परा का कारण है, अत: आनन्द की प्राप्ति हेतु उन्मूलन नहीं करता है, जो कि इस पाशविक वृत्तियों का मूल उद्गम इनके प्रति ममत्वबुद्धि का सर्वथा त्याग करना अपेक्षित है। संक्षेप में है। उसका प्रयास जड़ों को सींचकर शाखाओं के काटने का प्रयास देहादि आत्मेतर पदार्थों के प्रति ममत्वबुद्धि का त्याग और भौतिक है। वह रोग के कारणों को खोजकर उन्हें समाप्त नहीं करता है, अपितु उपलब्धियों के स्थान पर आत्मोपलब्धि अर्थात् वीतराग दशा की उपलब्धि मात्र रोग के लक्षणों को दबाने का प्रयास करता है। यदि जीवन की को जीवन का निःश्रेयस स्वीकार करना अध्यात्मविद्या और जैनधर्म मूल दृष्टि भौतिक उपलब्धि और दैहिक वासनाओं की सन्तुष्टि हो तो का मूलतत्त्व है और यही मानव जाति के मङ्गल का मार्ग है, क्योंकि स्वार्थ और शोषण का चक्र भी समाप्त नहीं होगा। उसके लिए हमें इसी के द्वारा आधुनिक मानव को आन्तरिक एवं बाह्य तनावों से मुक्त जीवन के उच्च मूल्यों या आदर्शों को स्वीकार करना होगा। जब तक कर निराकुल बनाया जा सकता है। एक आध्यात्मिक दृष्टि के आधार पर सामाजिकता को विकसित नहीं किया जाता है, तब तक आरोपित सामाजिकता से मानव की स्वार्थ ममता का विसर्जन / दुःख का निराकरण एवं शोषण की वृत्तियों का वास्तविक रूप में निराकरण असम्भव है। आध्यात्मिक मूल्यों की स्वीकृति का यह तात्पर्य नहीं है कि
शारीरिक एवं भौतिक मूल्यों की पूर्णतया उपेक्षा की जाये। जैन धर्म दुःख का मूल ममता
के अनुसार शारीरिक मूल्य अध्यात्म के बाधक नहीं, साधक हैं। भगवान् महावीर ने इस तथ्य को गहराई से समझा था कि निशीथभाष्य में कहा गया है कि मोक्ष का साधन ज्ञान है, ज्ञान का भौतिकवाद मानवीय दुःखों की मुक्ति का सम्यक्-मार्ग नहीं है, क्योंकि साधन शरीर है, शरीर का आधार आहार है। शरीर शाश्वत आनन्द वह उस कारण का उच्छेद नहीं कर सकता जिससे दुःख-परम्परा की के कूल पर ले जाने वाली नौका है। इस दृष्टि से उसका मूल्य भी यह धारा प्रस्फुटित होती है। वे उत्तराध्ययन सूत्र में कहते हैं कि है, महत्त्व भी है और उसका सार-सम्भाल भी करना है। किन्तु ध्यान "कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं जं काइयं माणसियं च किंचि” अर्थात् रहे, दृष्टि नौका पर नहीं, कूल पर होना है, नौका साधन है, साध्य समस्त भौतिक एवं मानसिक दुःखों का मूल कारण कामासक्ति है। नहीं। भौतिक एवं शारीरिक आवश्यकताओं की एक साधन के रूप भौतिकवाद के पास इस कामासक्ति या ममत्वबुद्धि को समाप्त करने में स्वीकृति जैन धर्म और सम्पूर्ण अध्यात्मविद्या का हार्द है। यह वह का कोई उपाय नहीं है। न केवल जैन धर्म ने अपितु लगभग सभी विभाजक रेखा है, जो अध्यात्म. और भौतिकवाद में अन्तर स्पष्ट करती धर्मों ने इस बात को एकमत से स्वीकार किया है कि समस्त दुःखों है। भौतिकवाद में भौतिक उपलब्धियाँ या जैविक मूल्य स्वयमेव साध्य का मूल कारण आसक्ति, तृष्णा या ममत्वबुद्धि है। यदि हम मानव हैं, अन्तिम हैं, जबकि अध्यात्म में वे किन्हीं उच्च मूल्यों का साधन जाति को स्वार्थ, हिंसा, शोषण, भ्रष्टाचार एवं तद्जनित दुःखों से हैं। जैन धर्म की भाषा में कहें तो साधक का वस्तुओं का त्याग और मुक्त करना चाहते हैं तो हमें भौतिकावादी दृष्टि का परित्याग कर उस वस्तुओं का ग्रहण दोनों ही संयम (समत्व) की साधना के लिए हैं। आध्यात्मिक दृष्टि का विकास करना होगा जिसके अनुसार भौतिक जैन धर्म की सम्पूर्ण साधना का मूल लक्ष्य तो एक ऐसे निराकुल, सुख-सुविधाओं की उपलब्धि ही जीवन का अन्तिम लक्ष्य नहीं है। निर्विकार, निष्काम और वीतराग मानस की अभिव्यक्ति है, जो कि हमें यह मानना होगा कि दैहिक सुख-सुविधाओं की उपलब्धि ही जीवन वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन के समस्त तनावों एवं संघर्षों को समाप्त का अन्तिम लक्ष्य नहीं है। दैहिक एवं आर्थिक मूल्यों से परे अन्य कर सके। उसके सामने मूल प्रश्न दैहिक एवं भौतिक मूल्यों की स्वीकृति उच्च मूल्य भी हैं। आध्यात्म-दृष्टि अन्य कुछ नहीं, अपितु इन उच्च या अस्वीकृति का नहीं है; अपितु वैयक्तिक और सामाजिक जीवन मूल्यों की स्वीकृति है। जैन-धर्म के अनुसार अध्यात्म का अर्थ है- में समत्व के संस्थापन का है। अत: जहाँ तक और जिस रूप में दैहिक परार्थ को परम मूल्य न मानकर आत्म को परम मूल्य मानना। पदार्थवादी और भौतिक उपलब्धियाँ उसमें साधक हो सकती हैं, वहाँ तक वे दृष्टि मानवीय दु:खों और सुखों का आधार 'वस्तु' या बाह्य परिस्थिति स्वीकार्य हैं और जहाँ तक वे उसमें बाधक हैं वहाँ तक त्याज्य हैं।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
भगवान् महावीर ने आचाराङ्गसूत्र एवं उत्तराध्ययनसूत्र में इस बात को या विश्वास। अक्सर हम धर्म से यही तीसरा अर्थ लेते हैं। जबकि बहुत ही स्पष्टता के साथ प्रस्तुत किया है। वे कहते हैं कि जब इन्द्रियों यह तीसरा अर्थ धर्म का अभिरुढ़ अर्थ है, वास्तविक अर्थ नहीं है। का अपने विषयों से सम्पर्क होता है, तब उस सम्पर्क के परिणामस्वरूप सच्चा धर्म सिर्फ धर्म है, वह न हिन्दू होता है, न जैन, न बौद्ध, न सुखद-दुःखद अनुभूति भी होती है और जीवन में यह शक्य नहीं ईसाई, न इस्लाम। ये सब नाम आरोपित हैं। हमारा सच्चा धर्म तो है कि इन्द्रियों का अपने विषयों से सम्पर्क न हो और उसके कारण वही है जो हमारा निज-स्वभाव है। इसीलिये जैन आचार्यों ने 'वत्थु सुखद या दुःखद अनुभूति न हो, अत: त्याग इन्द्रियानुभूति का नहीं सहावो धम्मो' के रूप में धर्म को पारिभाषित किया है। प्रत्येक के अपितु उसके प्रति चित्त में उत्पन्न होने वाले राग-द्वेष का करना है, लिये जो उसका निज-गुण है, स्व-स्वभाव है, वही धर्म है, स्व-स्वभाव क्योंकि इन्द्रियों के मनोज्ञ या अमनोज्ञ विषय आसक्तचित्त के लिए से भिन्न जो भी होगा, वह उसके लिये धर्म नहीं, अधर्म ही होगा। ही राग-द्वेष (मानसिक विक्षोभों) का कारण बनते हैं, अनासक्त या इसीलिये गीता में कहा गया है 'स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः' वीतराग के लिए नहीं। अत: जैन धर्म की मूल शिक्षा ममत्व के विसर्जन (गीता, ३/३५)। परधर्म अर्थात् दूसरे के स्वभाव को इसलिये भयावह की है, जीवन के निषेध की नहीं, क्योकि उसकी दृष्टि में ममत्व या कहा गया, क्योंकि वह हमारे लिये स्वभाव न होकर विभाव होगा और आसक्ति ही वैयक्तिक और समाजिक जीवन की समस्त विषमताओं जो विभाव है, वह धर्म न होकर अधर्म ही होगा। अत: आपका धर्म का मूल है और इसके निराकरण के द्वारा ही मनुष्य के समस्त दुःखों वही है जो आपका निज-स्वभाव है। किन्तु आप सोचते होंगे कि बात का निराकरण सम्भव है।
अधिक स्पष्ट नहीं हुई। इससे हम कैसे जान लें कि हमारा धर्म क्या धर्म साधना का उद्देश्य है- व्यक्ति को शान्ति प्रदान करना, है? वस्तुत: हमें अपने धर्म को समझने के लिए अपने स्वभाव या किन्तु दुर्भाग्य से आज धर्म के नाम पर पारस्परिक संघर्ष पनप रहे अपनी प्रकृति को जानना होगा। किन्तु यहाँ यह बात भी समझ लेनी हैं- एक धर्म के लोगों को दूसरे धर्म के लोगों से लड़ाया जा रहा होगी कि अनेक बार हम आरोपित या पराश्रित गुणों को भी अपना है। शान्तिप्रदाता धर्म ही आज अशान्ति का कारण बन गया है। वस्तुतः स्वभाव या प्रकृति मान लेते हैं। अत: हमें स्वभाव और विभाव में इसका कारण धर्म नहीं, अपितु धर्म का लबादा ओढ़े अधर्म ही है। अन्तर को समझ लेना है। स्वभाव वह है, जो स्वत: (अपने आप) हमारा दुर्भाग्य यह है कि हमने 'धर्म के मर्म' को समझा नहीं है। थोथे होता है और विभाव वह है, जो दूसरे के कारण होता है, जैसे पानी क्रियाकाण्ड और बाह्य आडम्बर ही धर्म के परिचायक बन गये हैं। में शीतलता स्वाभाविक है, किन्तु उष्णता वैभाविक है, क्योंकि उसके आयें देखें धर्म का सच्चा स्वरूप क्या है?
लिये उसे आग के संयोग की आवश्यकता होती है। दूसरे शब्दों में,
जिसे होने के लिये किसी बाहरी तत्त्व की अपेक्षा है वह सब विभाव धर्म का स्वरूप
है, पर-धर्म है। शीतलता पानी का धर्म है और जलाना आग का धर्म - धर्म के स्वरूप को जानने की जिज्ञासा प्रत्येक मानव में पाई है। पुनः जिस गुण को छोड़ा जा सकता है वह उस वस्तु का धर्म जाती है। धर्म क्या है? इस प्रश्न के आजतक अनेक उत्तर दिये गये नहीं हो सकता है। किन्तु जो गुण पूरी तरह छोड़ा नहीं जा सकता हैं, किन्तु जैन आचार्यों ने जो उत्तर दिया है वह विलक्षण है तथा है वही उस वस्तु का स्व-धर्म होता है। आग चाहे किसी भी रूप गम्भीर विवेचना की अपेक्षा करता है। वे कहते हैं -
में हो वह जलायेगी ही, पानी चाहे आग के संयोग से कितना ही धम्मो वत्थुसहावो, खमादिभावो य दसविहो धम्मो । गरम क्यों न हो यदि उसे आग पर डालेंगे तो वह आग को शीतल रयणत्तयं च धम्मो, जीवाणं रक्खणं धम्मो ।। ही करेगा। आप सोचते होंगे कि आग और पानी की धर्म की इस
वस्तु का स्वभाव धर्म है। क्षमा आदि भावों की अपेक्षा से वह चर्चा से मनुष्य के धर्म को हम कैसे जान पायेंगे? यहाँ इस चर्चा दस प्रकार का है। रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र) की उपयोगिता यही है कि हम स्वभाव और विभाव का अन्तर समझ भी धर्म है तथा जीवों की रक्षा करना भी धर्म है। सर्वप्रथम वस्तु स्वभाव लें, क्योंकि अनेक बार हम आरोपित गुणों को ही स्वभाव मानने की को धर्म कहा गया है, आयें जरा इस पर गम्भीरता से विचार करें। भूल कर बैठते हैं, अक्सर हम कहते हैं उसका स्वभाव क्रोधी है। सामान्यतया धर्म शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। हिन्दी भाषा प्रश्न यह उठता है कि क्या क्रोध स्वभाव है या हो भी सकता है? में जब हम कहते हैं कि आग का धर्म जलाना है, पानी का धर्म शीतलता बात ऐसी नहीं है। इस कसौटी पर क्रोध और शान्ति के दो गुणों है तो यहाँ धर्म से हमारा तात्पर्य वस्तु के स्वाभाविक गुणों से होता को कसिये और देखिये, इनमें से मनुष्य का स्वधर्म क्या है? पहली है। किन्तु जब यह कहा जाता है कि दुःखी एवं पीड़ितजनों की सेवा बात तो यह है कि क्रोध कभी स्वत: नहीं होता, बिना किसी बाहरी करना मनुष्य का धर्म है अथवा गुरु की आज्ञा का पालन शिष्य का कारण के हम क्रोध नहीं करते हैं। गुस्से या क्रोध का कोई न कोई धर्म है तो यहाँ धर्म का अर्थ होता है कर्तव्य या दायित्व। इसी प्रकार बाह्य कारण अवश्य होता है, गुस्सा कभी अकारण नहीं होता है। साथ जब हम यह कहते हैं कि मेरा धर्म जैन है या उसका धर्म ईसाई है, ही गुस्से के लिए किसी दूसरे का होना जरुरी है, गुस्सा या क्रोध तो हम एक तीसरी ही बात कहते हैं। यहाँ धर्म का मतलब है किसी बिना किसी प्रतिपक्षी के स्वत: नहीं होता है, अकेले में नहीं होता दिव्य-सत्ता, सिद्धान्त या साधना-पद्धति के प्रति हमारी श्रद्धा, आस्था है। किसी गुस्से से भरे आदमी को अकेले में ले जाइये, आप देखेंगे
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धर्म का मर्म जैन दृष्टि
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उसका गुस्सा धीरे-धीरे शान्त हो रहा है— गुस्से के बाह्य कारणों एवं प्रतिपक्षी के दूर हो जाने पर गुस्सा ठहर नहीं सकता है। पुनः गुस्सा आरोपित है, वह छोड़ा जा सका है, कोई भी व्यक्ति चौबीसों घण्टे क्रोध की स्थिति में नहीं रह सकता, किन्तु शान्त रह सकता है अतः मनुष्य के लिये क्रोध विधर्म है, अधर्म है और शान्ति स्वधर्म है, निजगुण है। क्या धर्म है और क्या अधर्म है, इसका निर्णय इसी पद्धति से सम्भव है।
हमारे सामने मूल प्रश्न तो यह है कि मनुष्य का धर्म क्या है? इस प्रश्न के उत्तर के लिये हमें मानव प्रकृति या मानव स्वभाव को जानना होगा जो मनुष्य का स्वभाव होगा वही मनुष्य के लिये धर्म होगा । हमें यह विचार करना है कि एक मनुष्य के रूप में हम क्या हैं? मानव अस्तित्व द्विआयामी (Two Dimensional) है। मनुष्य विवेकात्मक चेतना से युक्त एक शरीर है शरीर और चेतना यह हमारे अस्तित्व के दो पक्ष हैं, किन्तु इसमें भी हमारे अस्तित्त्व का मूल आधार जीवन एवं चेतना ही है, चेतन-जीवन के अभाव में शरीर का कोई मूल्य नहीं है शरीर का महत्त्व तो है, किन्तु वह उसकी चेतन जीवन से युति पर निर्भर है। चेतन-जीवन स्वतः मूल्यवान् है और शरीर परतः मूल्यावान् है जिस प्रकार कागजी मुद्रा का स्वयं में कोई मूल्य नहीं होता उसका मूल्य सरकार की साख पर निर्भर करता है, उसी प्रकार शरीर का मूल्य चेतन जीवन की शक्ति पर निर्भर करता है। हमारे अस्तित्व का सार हमारी चेतना है चेतन जीवन ही वास्तविक जीवन है। चेतना के अभाव में शरीर को 'शव' कहा जाता है। चेतना ही एक ऐसा तत्व है जो 'शव' को 'शिव' बना देता है। अतः जो चेतना का स्वभाव होगा वही हमारा वास्तविक धर्म होगा। हमें अपने 'धर्म' को समझने के लिये 'चेतना' के स्वलक्षण को जानना होगा। चेतना क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर हमें भगवान् महावीर और गौतम के बीच हुए एक सम्वाद में मिलता है। गौतम पूछते हैं— भगवन्! आत्मा क्या है? और आत्मा का अर्थ या साध्य क्या है? महावीर उत्तर देते हैं- गौतम! आत्मा का स्वरूप 'समत्व' है और 'समत्व' को प्राप्त कर लेना ही आत्मा का साध्य है ( भगवतीसूत्र )। यह बात न केवल दार्शनिक दृष्टि से सत्य है अपितु जीवशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी सत्य है। जीवशास्त्र (Biology) के अनुसार चेतन जीव का लक्षण आन्तरिक और बाह्य संतुलन को बनाये रखना है। फ्रायड नामक सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक का कथन है— चैत्त जीवन और स्नायुजीवन का स्वभाव यह है कि वह विक्षोप और तनाव को मिटाकर समत्व की स्थापना करता है। विक्षोभ तनाव और मानसिक इन्द्रो से ऊपर उठकर शान्त निर्द्वन्द्व मनः स्थिति को प्राप्त करना यह हमारी स्वाभाविक अपेक्षा है और यही धर्म है।
विश्व के लगभग सभी धर्मों ने समाधि, समभाव या समता को धार्मिक जीवन का मूलभूत लक्षण माना है आचाराङ्गसूत्र में 'समियाए धम्मे आरियेहिं पवेइए' (१/८/३) कहकर धर्म को 'समता' के रूप में परिभाषित किया गया है। समता धर्म है, विषमता अधर्म है। वस्तुतः ये सभी तत्त्व जो हमारी चेतना में विक्षोभ, तनाव या विचलन उत्पन्न
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करते हैं अर्थात् चेतना के सन्तुलन को भंग करते हैं, विभाव के सूचक है, इसीलिये अधर्म हैं अक्सर हम राग-द्वेष, घृणा, आसक्ति, ममत्व, तृष्णा, काम, क्रोध, अहङ्कार आदि को अधर्म (पाप) कहते हैं और क्षमा, शान्ति, अनासक्ति, निर्वैरता, वीतरागता, विरागता, निराकुलता आदि को धर्म कहते हैं, ऐसा क्यों है? बात स्पष्ट है। प्रथम वर्ग के तथ्य जहाँ हमारी आकुलता को बढ़ाते हैं, हमारे मन में विक्षोभ और चेतना में तनाव (Tension) उत्पन्न करते हैं वहीं दूसरे वर्ग के तथ्य उस आकुलता, विक्षेभि या तनाव को कम करते हैं, मिटाते हैं। पूर्वोक्त गाथा में क्षमादि भावों को जो धर्म कहा गया है, उसका आधार यही है।
मानसिक विक्षोभ या तनाव हमारा स्वभाव या स्वलक्षण इसलिये नहीं माना जा सकता है क्योंकि हम उसे मिटाना चाहते हैं, उसका निराकरण करना चाहते हैं और जिसे आप छोड़ना चाहते हैं, मिटाना चाहते हैं, वह आपका स्वभाव नहीं हो सकता । पुनः राग, आसक्ति, ममत्व, अहङ्कार, क्रोध आदि सभी 'पर' की अपेक्षा करते हैं, उनके विषय 'पर' हैं। उनकी अभिव्यक्ति अन्य के लिए होती है। राग, आसक्ति या ममत्व किसी पर होगा। इसी प्रकार क्रोध या अहङ्कार की अभिव्यक्ति भी दूसरे के लिये है। इन सबके कारण सदैव ही बाह्य जगत् में होते हैं ये स्वतः नहीं होते, परत होते हैं इसीलिये ये आत्मा के विभाव कहे जाते हैं और जो भी विभाव हैं, वे सब अधर्म हैं। जबकि जो स्वभाव है या विभाव से स्वभाव की ओर लौटने के प्रयास हैं वे सब धर्म हैं। भाषाशास्त्र की दृष्टि से धर्म शब्द 'धृ' धातु से बना है जिसका अर्थ होता है— धारण करना। सामान्यतया जो प्रजा को धारण करता है, वह धर्म है, 'धर्मों धारयते प्रजा' इस रूप में धर्म को परिभाषित किया जाता है, किन्तु मेरी दृष्टि में जो हमारे अस्तित्व या सत्ता के द्वारा धारित है अथवा जिसके आधार, अस्तित्व या सत्ता रही हुई है। वही 'धर्म' है। किसी भी वस्तु का धर्म वही है जिसके कारण वह वस्तु उस वस्तु के रूप में अपना अस्तित्व रखती है और जिसके अभाव में उसकी सत्ता ही समाप्त हो जाती है। उदाहरण के लिये विवेक और संयम के गुणों के अभाव में मनुष्य और पशु में कोई अन्तर नहीं रहेगा, यदि विवेक और संयम के गुण हैं तो ही मनुष्य, मनुष्य है।
यदि हम मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी मानते हैं और धर्म को 'धर्मो धारयते प्रजा' के अर्थ में लेते हैं तो उस स्थिति में धर्म का अर्थ होगा जो हमारी समाज व्यवस्था को बनाये रखता है, वही धर्म है। वे सब बातें जो सामाजिक जीवन में बाधा उपस्थित करती हैं और हमारे स्वार्थों को पोषण देकर हमारी सामाजिकता को खण्डित करती हैं, सामाजिक जीवन में अव्यवस्था और अशान्ति में कारणभूत होती हैं, अधर्म हैं। इसीलिये तृष्णा, विद्वेष, हिंसा, शोषण, स्वार्थपरता आदि को अधर्म और परोपकार, करुणा, दया, सेवा आदि को धर्म कहा गया है, क्योंकि जो मूल्य हमारी सामाजिकता की स्वाभाविक वृत्ति का रक्षण करते हैं, वे धर्म हैं और उसे जो खण्डित करते हैं, वे अधर्म है। यद्यपि धर्म की यह व्याख्या दूसरों के सन्दर्भ में है,
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
इसे समाज-धर्म कह सकते हैं।
ले किन्तु कुपत्य को छोड़े नहीं। धर्म के नाम पर आत्म-प्रवंचना एवं स्वभाव या आत्मधर्म ऐसा तत्त्व है जो बाहर से लाया नहीं जाता छलछद्म पनप रहा है, इसका मूल कारण है धर्म के सारतत्त्व के बारे है, वह तो विभाव के हटते ही स्वत: प्रकट हो जाता है जैसे आग में हमारा गहरा अज्ञान। हम धर्म के बारे में जानते हैं किन्तु धर्म को के संयोग के हटते ही पानी स्वत: शीतल हो जाता है, वैसे ही धर्म नहीं जानते हैं। के लिये कुछ करना नहीं होता, केवल अधर्म को छोड़ना होता है, आज हमने आत्म-धर्म क्या है, हमारा निजगुण या स्वभाव क्या विभावदशा को दूर करना होता है, क्योंकि उसे ही छोड़ा या त्यागा है, इसे समझा ही नहीं है और निष्प्राण कर्मकाण्डों और रीतिरिवाजों जा सकता है जो आरोपित होता है और वह विभाव होगा, स्वभाव को ही धर्म मान बैठे हैं। आज हमारे धर्म चौके-चूल्हे में, मन्दिरों-मस्जिदों नहीं। धर्म साधना के नाम पर जो भी प्रयास हैं, वे सब अधर्म को और उपासना गृहों में सीमित हो गये हैं, जीवन से उनका कोई सम्पर्क त्यागने के लिये है, विभाव-दशा को मिटाने के लिये हैं धर्म तो आत्मा नहीं है। इसीलिये वह जीवित धर्म नहीं, मुर्दा धर्म है। किसी शायर की शुद्धता है, उसे लाना नहीं है, क्योंकि वह बाहरी नहीं है, केवल ने ठीक ही कहा हैविषय कषाय रूप मल को हटाना है। जैसे बादल के हटते प्रकाश मस्जिद तो बना दी पल भर में इमां की हरारत वालों ने । स्वत: प्रकट हो जाता है वैसे ही अधर्म या विभाव के हटते धर्म या मन वही पुराना पापी रहा, बरसों में नमाजी न हो सका ।। स्वभाव प्रकट हो जाता है। इसीलिये धर्म ओढ़ा नहीं जाता है, धर्म आज धर्म के नाम पर जो भी किया जाता है उसका सम्बन्ध जिया जाता है। अधर्म आरोपित होता है, वह एक दोहरा जीवन प्रस्तुत परलोक से जोड़ा जाता है। आज धर्म उधार सौदा बन गया है और करता है, क्योंकि उसके पापखण्ड भी दोहरे होते हैं। अधार्मिकजन इसीलिए आज धर्म से आस्था उठती जा रही है। किन्तु याद रखिये दूसरों से अपने प्रति जिस व्यवहार की अपेक्षा करता है, दूसरों के वास्तविक धर्म उधार सौदा नहीं, नकद सौदा है। उसका फल तत्काल प्रति उसके ठीक विपरीत व्यवहार करना चाहता है। इसीलिये धर्म है। भगवान् बुद्ध से किसी ने पूछा कि धर्म का फल इस लोक में की कसौटी आत्मवत् व्यवहार माना गया। 'आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां मिलता है या परलोक में? उन्होंने कहा था- धर्म का फल तो उसी मा समाचरेत्' के पीछे भी यही ध्वनि रही है। धर्म का सार है- समय मिलता है। जैसे ही मोह टूटता है, तृष्णा छूटती है, चाह और निश्छलता, सरलता, स्पष्टता; जहाँ भी इनका अभाव होगा, वहाँ धर्म चिन्ता कम हो जाती है, मन शान्ति और आनन्द से भर जाता है, को जिया नहीं जायेगा अपितु ओढ़ा जायेगा। वहाँ धर्म नहीं, धर्म का यही तो धर्म का फल है। हम यदि अपनी अन्तरात्मा से पूछे कि हम दम्भ पनपेगा और हमें याद रखना होगा कि वह धर्म का दम्भ अधार्मिकता क्या चाहते हैं? उत्तर स्पष्ट है हमें सुख चाहिये, शान्ति चाहिये, समाधि से अधिक खतरनाक है। क्योंकि इसमें अधर्म, धर्म की पोषाक को या निराकुलता चाहिये और जो कुछ आपकी अन्तरात्मा आपसे माँगती ओढ़ लेता है, वह दीखता धर्म है, किन्तु होता है अधर्म। मानव जाति है वही तो आपका स्वभाव है, आपका धर्म है। जहाँ मोह होगा, राग का दुर्भाग्य यही है कि आज धर्म के नाम पर जो कुछ चल रहा है होगा, तृष्णा होगी, आसक्ति होगी, वहाँ चाह बढ़ेगी, जहाँ चाह बढ़ेगी, वह सब आरोपित है, ओढ़ा गया है और इसीलिये धर्म के नाम पर वहाँ चिन्ता बढ़ेगी और जहाँ चिन्ता होगी वहाँ मानसिक असमाधि अधर्म पनप रहा है। आज धर्म को कितने ही थोथे और निष्प्राण या तनाव होगा और जहाँ मानसिक तनाव या विक्षोभ है वहीं तो दुःख कर्मकाण्डों से जोड़ दिया गया है, क्या पहनें और क्या नहीं पहनें, है, पीड़ा है। जिस दुःख को मिटाने की हमारी ललक है उसकी जड़े क्या खायें और क्या नहीं खायें, प्रार्थना के लिये मुँह किस दिशा हमारे अन्दर हैं, किन्तु दुर्भाग्य यही है कि हम उसे बाहर के भौतिक में करें और किस दिशा में नहीं करें, प्रार्थना की भाषा क्या हो, पूजा साधनों से मिटाने का प्रयास करते रहे हैं। यह तो ठीक वैसा ही हुआ के द्रव्य क्या हों? आदि आदि। ये सब बातें धर्म का शरीर हो सकती जैसे घाव कहीं और हो और मलहम कहीं और लगायें। अपरिग्रहवृत्त हैं, क्योंकि ये शरीर से गहरे नहीं जाती हैं, किन्तु निश्चय ही ये धर्म या अनासक्ति को जो धर्म कहा गया, उसका आधार यही है कि वह की आत्मा नहीं है। धर्म की आत्मा तो है- समाधि, शान्ति, निराकलता। ठीक उस जड़ पर प्रहार करता है, जहाँ से दुःख की विषवेल फूटती धर्म तो सहज और स्वाभाविक है। दुर्भाय यही है कि आज लोग धर्म है, आकुलता पैदा होती है। वह धर्म इसीलिये है कि वह हमें आकुलता के नाम पर बहुत कुछ कर रहे हैं परन्तु अधर्म या विभावदशा को से निराकुलता की दिशा में, विभाव से स्वभाव की दिशा में ले जाती छोड़ नहीं रहे हैं। आज धर्म को ओढ़ा जा रहा है, इसीलिये आज है। किसी कवि ने कहा हैका धर्म निरर्थक बन गया है। यह कार्य तो ठीक वैसा ही है जैसे चाह गई, चिन्ता मिटी मनुआ भया बेपरवाह। किसी दुर्गन्ध के ढेर को स्वच्छ सुगन्धित आवरण से ढक दिया गया जिसको कुछ न चाहिये, वह शहंशाहों का शहंशाह।। हो। यह बाह्य प्रतीति से सुन्दर होती है किन्तु वास्तविकता कुछ और निराकुलता एवं आकुलता ही धर्म और अधर्म की सीधी और ही होती है। यह तथाकथित धर्म ही धर्म के लिये सबसे बड़ा खतरा साफ कसौटी है। जहाँ आकुलता है, तनाव है, असमाधि है वहाँ अधर्म है, इसमें अधर्म को छिपाने के लिये धर्म किया जाता है। आज धर्म है और जहाँ निराकुलता है, शान्ति है, समाधि है, वहाँ धर्म है। जिन के नाम पर जो कुछ किया जा रहा है उसका कोई लाभ नहीं मिल बातों से व्यक्ति में अथवा उनके सामाजिक परिवेश में आकुलता बढ़ती रहा है। आज हमारी दशा ठीक वैसे ही है जैसे कोई रोगी दवा तो है, तनाव पैदा होता है, अशान्ति बढ़ती है, विषमता बढ़ती है, वे
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धर्म का मर्म : जैन दृष्टि
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सब बातें अधर्म हैं, पाप हैं। इसके विपरीत जिन बातों से व्यक्ति में ही जीवन में धर्म का प्रकटन होगा। क्योकि मनुष्य के लिये यह सम्भव और उसके सामाजिक परिवेश में निराकुलता आये, शान्ति आये, तनाव नहीं है कि उसके जीवन में उतार और चढ़ाव नहीं आये। सुख-दु:ख, घटे, विषमता समाप्त हो, वे सब धर्म हैं। धार्मिकता के आदर्श के लाभ-अलाभ, मान-अपमान आदि ये जीवन-चक्र के दुर्निवार पहलू रूप में जिस वीतराग, वीततृष्णा और अनासक्त जीवन की कल्पना हैं, कोई भी इनसे बच नहीं सकता। जीवन-यात्रा का रास्ता सीधा और की गई है, उसका अर्थ यही है कि जीवन में निराकुलता, शान्ति और सपाट नहीं है, उसमें उतार-चढ़ाव आते ही रहते हैं। बाह्य परिस्थितियों समाधि आए। धर्म का सार यही है, फिर चाहे हम इसे कुछ भी नाम पर आपका अधिकार नहीं है, आपके अधिकार में केवल एक ही बात क्यों न दें। श्री सत्यनारायणजी गोयनका कहते हैं -
है, वह यह कि आप इन अनुकूल और प्रतिकूल स्थितियों में अपने धर्म न हिन्दू बौद्ध है, धर्म न मुस्लिम जैन ।
मन को, अपनी चेतना को निराकुल और अनुद्विग्न बनाये रखें; मानसिक धर्म चित्त की शुद्धता, धर्म शान्ति सुख चैन ।।
समता और शांति को भंग नहीं होने दें। यही धर्म है। श्री गोयनका कुदरत का कानून है, सब पर लागू होय ।
जी के शब्दों मेंविकृत मन व्याकुल रहे, निर्मल सुखिया होय ।।
सुख दुःख आते ही रहें, ज्यों आवे दिन रैन । यही धर्म की परख है, यही धर्म का माप ।
तू क्यों खोवे बावला, अपने मन की चैन ।। जन-मन का मंगल करे, दूर करे सन्ताप ।।
अत: मन की चैन नहीं खोना ही धर्म और धार्मिकता है। जो जिस प्रकार मलेरिया, मलेरिया है, वह न जैन है, न बौद्ध है व्यक्ति जीवन की अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपनी न हिन्दू और न मुसलमान, उसी प्रकार क्रोध, मान, माया, लोभ आदि चित्त की शान्ति नहीं खोता है, वही धार्मिक है उसी के जीवन में आध्यात्मिक विकृतियाँ हैं, वे भी हिन्दू, बौद्ध या जैन नहीं हैं, हम धर्म का अवतरण हुआ है। कौन धार्मिक है और कौन अधार्मिक है, ऐसा नहीं कहते हैं कि यह हिन्दू क्रोध है यह जैन या बौद्ध क्रोध इसकी पहचान यही है कि किसका चित्त शान्त है और किसका अशान्त। है। यदि क्रोध हिन्दू, बौद्ध या जैन नहीं है तो फिर उसका उपशमन जिसका चित्त या मन अशान्त है वह अधर्म में जी रहा है, विभाव भी हिन्दू, बौद्ध या जैन नहीं कहा जा सकता है। विकार, विकार है में जी रहा है और जिसका मन या चित्त शांत है वह धर्म में जी रहा
और स्वास्थ्य, स्वास्थ्य है, वे हिन्दू, बौद्ध या जैन नहीं हैं। जिन्हें है, स्वभाव में जी रहा है। एक सच्चे धार्मिक पुरुष की जीवनदृष्टि हम हिन्दू, जैन, बौद्ध या अन्य किसी धर्म के नाम से पुकारते हैं, अनुकूल एवं प्रतिकूल संयोगों में कैसी होगी इसका एक सुन्दर चित्रण वह विकारों के उचार की शैली विशेष है जैसे एलोपैथी, आयुर्वेदिक, उर्दू शायर ने किया है, वह कहता है - यूनानी, होम्योपैथी आदि शारीरिक रोगों के उपचार की पद्धति है। लायी हयात आ गये, कजा ले चली चले चले।
न अपनी खुशी आये, न अपनी खुशी गये।। समता धर्म/ममता अधर्म
जिन्दगी और मौत दोनों ही स्थितियों में जो निराकुलता और धर्म क्या है? इस प्रश्न का सबसे संक्षिप्त और सरल उत्तर यही शान्त बना रहता है वही धार्मिक है, धर्म का प्रकटन उसी के जीवन है कि वह सब धर्म है, जिसमें मन की आकुलता समाप्त हो, चाह में हुआ है। धार्मिकता की कसौटी पर नहीं है कि तुमने कितना पूजा-पाठ और चिन्ता मिटे तथा मन निर्मलता, शांति, समभाव और आनन्द किया है, कितने उपवास और रोजे रखे हैं, अपितु यही है कि तुम्हारा से भर जाये। इसीलिये महावीर ने धर्म को समता या समभाव के मन कितना अनुद्विग्न और निराकुल बना है। जीवन में जब तक चाह रूप में परिभाषित किया था। समता ही धर्म है और ममता अधर्म और चिन्ता बनी हुई है धार्मिकता का आना सम्भव नहीं है। फिर वह है। वीतराग, अनासक्त और वीततृष्णा होने में जो धार्मिक आदर्श की चाह और चिन्ता परिवार की हो या शिष्य-शिष्याओं की, घर और परिपूर्णता देखी गई, उसका कारण भी यही है कि यह आत्मा की दुकान की हो, मठ और मन्दिर की, धन-सम्पत्ति की हो या पूजा-प्रतिष्ठा निराकुलता या शान्ति की अवस्था है। आत्मा की इसी निराकुल दशा की, इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता है। को हिन्दू और बौद्ध परम्परा में समाधि तथा जैन परम्परा में सामायिक जब तक जीवन में तृष्णा और स्पृहा है, दूसरों के प्रति जलन या समता कहा गया है। हमारे जीवन में धर्म है, या नहीं है इसको की भट्टी सुलग रही है, धार्मिकता सम्भव नहीं है। धार्मिक होने का जानने की एकमात्र कसौटी यह है कि सुख-दुःख, मान-अपमान, मतलब है मन की उद्विग्नता या आकुलता समाप्त हो, मन से घृणा, लाभ-हानि, जय-पराजय आदि की अनुकूल एवं प्रतिकूल अवस्थाओं विद्वेष और तृष्णा की आग शान्त हो। इसीलिये गीता कहती हैमें हमारा मन कितना अनुद्विग्न और शान्त बना रहता है। यदि अनुकूल दुःखेष्वनुद्विग्नमना: सुखेषु विगतस्पृहः । परिस्थितियों में मन में सन्तोष न हो चाह और चिन्ता बनी रहे तथा वीतराग भयक्रोधः स्थितधीमुनिरुच्यते ।। गीता २/५६। प्रतिकूल स्थितियों में मन दुःख और पीड़ा से भर जावे तो हमें समझ जिसका मन दुःखों की प्राप्ति में भी दुःखी नहीं होता और सुख लेना चाहिये कि जीवन में अभी धर्म नहीं आया है। धर्म का सीधा की प्राप्ति में जिसकी लालसा तीव्र नहीं होती है, जिसके मन में ममता, सम्बन्ध हमारी जीवनदृष्टि और जीवनशैली से है। बाह्य परिस्थितियों भय और क्रोध समाप्त हो चुके हैं वही व्यक्ति धार्मिक है, स्थिर बुद्धि से हमारी चेतना जितनी अधिक अप्रभावित और अलिप्त रहेगी उतना है, मुनि है। वस्तुतः चेतना जितनी निराकुल बनेगी उतना ही जीवन
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
में धर्म का प्रकटन होगा। क्योंकि यह निराकुलता या समता ही हमारा मानव धर्म निज-धर्म है, स्व-स्वभाव है। आकुलता का मतलब है आत्मा की 'पर' धर्म क्या है? इस प्रश्न पर अभी तक हमने इस दृष्टिकोण से (पदार्थों) में उन्मुखता और निराकुलता का मतलब है 'पर' से विमुख विचार किया था कि एक चेतन सत्ता के रूप में हमारा धर्म क्या है? होकर स्व में स्थिति। इसीलिए जैन परम्परा में पर-परिणति को अधर्म अब हम इस दृष्टि से विचार करेंगे कि मनुष्य के रूप में हमारा धर्म और आत्म-परिणति को धर्म कहा गया है।
क्या है? दूसरे प्राणियों से मनुष्य को जिन मनोवैज्ञानिक आधारों से चेतना और मन की निराकुलता हमारा निज-धर्म या स्व-स्वभाव अलग कर सकते हैं, वे हैं- आत्मचेतनता, विवेकशीलता और इसीलिए है कि यह हमारी स्वाभाविक माँग है, स्वाश्रित है अर्थात् आत्मसंयम। मनुष्य के अलावा दूसरे प्राणियों में इन गुणों का अभाव अन्य किसी पर निर्भर नहीं है। आपकी चाह, आपकी चिन्ता, आपके देखा जाता है। मनुष्य न केवल चेतन है, अपितु आत्मचेतन है। उसकी मन की आकुलता सदैव ही अन्य पर आधारित है, पराश्रित है, ये विशेषता यह है कि उसे अपने ज्ञान की, अपनी अनुभूति की अथवा पर वस्तु के संयोग से उत्पन्न होती है और उन्हीं के आधार पर बढ़ती अपने भावावेशों की भी चेतना होती है। मनुष्य जब क्रोध या काम है एवं जीवित रहती है। समता (निराकुलता) स्वाश्रित है इसीलिए की भाव-दशा में होता है तब भी वह यह जानता है कि मुझे क्रोध स्वधर्म है, जबकि ममता और तज्जनित आकुलता पराश्रित है, इसीलिए हो रहा है या काम सता रहा है। पशु को क्रोध होता है किन्तु वह विधर्म है, अधर्म है। जो स्वाश्रित या स्वाधीन है वही आनन्द को यह नहीं जानता कि मैं क्रोध में हूँ। उसका व्यवहार काम से प्रेरित प्राप्त कर सकता है, जो पराश्रित या पराधीन है उसे आनन्द और होता है किन्तु वह यह नहीं जानता है कि काम मेरे व्यवहार को प्रेरित शान्ति कहाँ? यहाँ हमें यह समझ लेना चाहिये कि पदार्थों के प्रति कर रहा है। आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से पशु का व्यवहार मात्र ममत्वभाव और उनके उपभोग में अन्तर है। धर्म उनके उपभोग का मूलप्रवृत्यात्मक (Instinctive) है; जो अंध प्रेरणा मात्र है, किन्तु मनुष्य विरोध नहीं करता है अपितु उनके प्रति ममत्वं-बुद्धि या ममता के का जीवन प्रेरणा से चालित न होकर विचार या विवेक से प्रेरित होता भाव का विरोध करता है। जो पराया है उसे अपना समझ लेना, मान लेना है। उसमें आत्मचेतनता है। अधर्म है, पाप है, क्योंकि इसी से मानसिक शांति और चेतना का मनुष्य और पशु में सबसे महत्त्वपूर्ण अन्तर आत्मचेतनता के समत्व भंग होता है, आकुलता और तनाव उत्पन्न होते हैं। इसे भी सम्बन्ध में है। जहाँ भी व्यवहार और आचरण मात्र मूल-प्रवृत्ति या शास्त्रों में अनात्म में आत्म-बुद्धि या परपरिणति कहा गया है। जिस अन्ध प्रेरणा से चालित होता है वहाँ मनुष्यत्व नहीं, पशुत्व ही प्रधान प्रकार संसार में वह प्रेमी दुःखी होता है जो किसी ऐसी स्त्री से प्रेम होता है, ऐसा मानना चाहिये। मनुष्य की मनुष्यता इसी में है कि अपने कर बैठता है जो उसकी अपनी होकर रहने वाली नहीं है, उसी प्रकार व्यवहार और आचरण के प्रति उसमें आत्मचेतनता या सजगता हो। उन पदार्थों के प्रति जिनका वियोग अनिवार्य है, ममता रखना ही दुःख यही सजगता उसे पशुत्व से पृथक् करती है। मनुष्य की ही यह विशेषता का कारण है और जो दु:ख का कारण है वही अधर्म है, पाप है। है कि वह अपने विचारों, अपनी भावनाओं और अपने व्यवहार का आदरणीय गोयनकाजी ने बहुत ही सुन्दर बात कही है
द्रष्टा या साक्षी है। उसमें ही यह क्षमता है कि कर्ता और द्रष्टा दोनों सुख-दुःख दोनों एक से, मान और अपमान ।
की भूमिकाओं में अपने को रख सकता है। वह अभिनेता और दर्शक चित्त विचलित होये नहीं, तो सच्चा कल्याण ।। दोनों ही है। उसका हित इसी में है कि वह अभिनय करके भी अपने जीवन में आते रहें, पतझड़ और बसन्त । दर्शक होने की भूमिका को नहीं भूले। यदि उसमें यह आत्मचेतनता मन की समता न छूटे, तो सुख-शान्ति अनन्त ।। अथवा द्रष्टा-भाव या साक्षी-भाव नहीं रहता है तो हम यह कह सकते विषम जगत में चित्त की, समता रहे अटूट । हैं कि उसमें मनुष्यता की अपेक्षा पशुता ही अधिक है। मनुष्य में परमात्मा तो उत्तम मंगल जगे, होय दुःखों में छूट ।।
और पशु दोनों ही उपस्थित हैं। वह जितना आत्मचेतन या अपने प्रति समता स्वभाव है और ममता विभाव है। ममता छटेगी तो समता सजग बनता है, उसमें उतना ही परमात्मा का प्रकटन होता है और अपने आप आ जायेगी। स्वभाव बाहरी नहीं है, अत: उसे लाना भी जितना असावधान रहता है, भावना और वासनाओं के अन्ध प्रवाह नहीं है, मात्र विभाव को छोड़ना है। रोग या बिमारी हटेगी तो स्वस्थता में बहता है, उतना ही पशुता के निकट होता है। जो हमें परमात्मा तो आयेगी ही। इसलिए प्रयत्न बिमारी को हटाने के लिए करना है। के निकट ले जाता है वही धर्म है और जो पशुता के निकट ले जाता जिस प्रकार बिमारी बनी रहे और आप पृष्टिकारक पथ्य लेते रहे तो है वही अधर्म है। इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि एक वह लाभकारी नहीं होता है, उसी प्रकार जब तक मोह और ममता मनुष्य के रूप में आत्मचेतनता मनुष्य का वास्तविक धर्म है। इसी बनी रहेगी, समता जीवन में प्रकट नहीं होगी। जब मोह और ममता आत्मचेतनता को ही शास्त्रों में अप्रमाद कहा गया है। मनुष्य जिस के बादल छटेंगे तो समता का सूर्य स्वतः ही प्रकट हो जायेगा। जब सीमा तक आत्मचेतन है, अपने ही विचारों, भावनाओं और व्यवहारों मोह और ममता की चट्टानें टूटेंगी तो समता के शीतल जल का झरना का दर्शक है उसी सीमा तक वह मनुष्य है, धार्मिक है, क्योंकि वह स्वत: ही प्रकट होगा। जिसमें स्नान करके युग-युग का ताप शीतल आत्मचेतन होना या आत्मद्रष्टा होना ऐसा आधार है जिससे मानवीय हो जायेगा।
विवेक और सदाचरण का विकास सम्भव है। बीमारी से छुटकारा पाने
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धर्म का मर्म : जैन दृष्टि
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के लिये पहले उसी बीमारी के रूप में देखना और जानना जरुरी है। है, अपने प्रति सजग बनता है, वह भावावेशों से ऊपर उठता जाता यही आत्मचेतनता अथवा साक्षी-भाव या द्रष्टा-भाव ही एक ऐसा तत्त्व है। पूर्ण आत्मचेतना की स्थिति में आवेश या आवेग नहीं रह पायेंगे, है जिस पर धर्म की आधारशिला खड़ी हुई है। जैन आगमों में अप्रमाद और आवेश के अभाव में हिंसा सम्भव नहीं है। अत: आत्मचेतनता को धर्म (अकर्म) और प्रमाद को अधर्म (कर्म) कहा गया है। प्रमाद के साथ हिंसा का कर्म सम्भव ही नहीं होगा। अनुभव और आधुनिक का सीधा और साफ अर्थ है आत्मचेतनता या आत्मजागृति का अभाव। मनोविज्ञान दोनों ही इस बात का समर्थन करते हैं कि दुष्कर्म जितना अप्रमत्त वही है जो मनोभावों और प्रवृत्तियों का द्रष्टा है। मनुष्य की बड़ा होगा, उसे करते समय व्यक्ति उतने ही भावावेश में होगा। हत्याएँ, मनुष्यता और धार्मिकता इसी बात में है कि वह सदैव अपने आचार बलात्कार आदि सभी दुष्कर्म भावावेशों में ही सम्भव होते हैं। वासना
और विचार के प्रति सजग रहे। प्रत्येक क्रिया के प्रति हमारी चेतना का आवेग जितना तीव्र है, आत्मचेतना उतनी ही धूमिल होती है, सजग होनी चाहिये। खाते समय खाने की चेतना और चलते समय कुण्ठित होती है और उसी स्थिति में पाप का या बुराइयों का उद्भव चलने की चेतना, क्रोध में क्रोध की चेतना और काम में काम की होता है। रागाभाव, ममत्व, आसक्ति, तृष्णा आदि को इसीलिए पाप चेतना बनी रहना आवश्यक है। आप जो भी कर रहे हैं उसके प्रति और अधर्म के मूल माने गये हैं, क्योंकि ये आवेगों को उत्पन्न कर यदि आप पूरी तरह से आत्मचेतन हैं तो ही आप सही अर्थ में धार्मिक हमारी सजगता को कम करते हैं। जब भी व्यक्ति काम में होता है, हैं। जिसे हम सम्यक्-दर्शन कहते हैं मेरी धारणा में उसका अर्थ यही क्रोध में होता है लोभ में होता है अपने आप को भूल जाता है, उसके आत्मदर्शन या आत्मजागृति अथवा द्रष्टा एवं साक्षी-भाव की स्थिति आवेग इतने तीव्र बनते जाते हैं कि वह आत्मविस्तृत होता जाता है, है। आत्मचेतन या अप्रमत्त या आत्मद्रष्टा होने का मतलब है खुद के । अपना आपा खो बैठता है, अत: वे सब बातें जो आत्म-विस्मृति लाती अन्दर झांकना; अपनी वृत्तियों, अपने विचारों एवं अपनी भावनाओं हैं पाप मानी गई हैं, अधर्म मानी गयी हैं। वस्तुत: धर्म और अधर्म को देखना। सरल शब्दों में कहें तो जो अपने मन के नाटक को देखता की एक कसौटी यह है कि जहाँ आत्म-विस्मृति है वहाँ अधर्म है और है वही आत्मद्रष्टा या आत्मचेतन है। जो अपने कर्मों के प्रति, अपने जहाँ आत्म-स्मृति है, आत्म चेतना है, सजगता है, वहाँ धर्म है। विचारों के प्रति साक्षी या द्रष्टा नहीं बन सकता वह धार्मिक भी नहीं दूसरी बात, जिस आधार पर हम मनुष्य और पशु में कोई अन्तर बन सकता है। भगवान् बुद्ध ने इसी आत्मचेतनता को स्मृति के रूप कर सकते हैं और जिसे मानव की विशेषता या स्वभाव कहा जा सकता में पारिभाषित किया है। सम्यक्-स्मृति बौद्ध धर्म के साधनामार्ग का है वह है, विवेकशीलता। अक्सर मनुष्य की परिभाषा हम एक बौद्धिक एक महत्त्वपूर्ण चरण है। भगवान् बुद्ध ने साधकों को बार-बार यह प्राणी के रूप में करते हैं और मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है तो निर्देश दिया है कि अपनी स्मृति को सदैव जागृत बनाये रखो। धम्मपद यह विवेक या ज्ञान का तत्त्व ही एक ऐसा तत्त्व है जो इसे पशु से में वे कहते हैं- अपमादो अमत पदं पमादो मच्चुनो पदं' अर्थात् पृथक् कर सकता है। कहा भी गया हैअप्रमाद ही अमृत पद है, अमरता का मार्ग है और प्रमाद मृत्यु का। आहारनिद्राभयमैथुनश्च सामान्यमेतद् पशुभिः नाराणाम् । स्मृतिवान होना, सजग, अप्रमत्त होना यह धर्म और धार्मिकता की ज्ञानो ही तेषां अधिको विशेषो, ज्ञानेन हीना नर: पशुभिः समाना।। आवश्यक कसौटी है। आचाराङ्ग में भगवान् महावीर ने एक बहुत ही हम से यह पूछा जा सकता है कि यह विवेकशीलता क्या है? सुन्दर बात कही है- 'सुत्ता अमुणी, मुणिणो सया जागरन्ति' अर्थात् वस्तुत: यदि हम सरल भाषा में कहें तो किसी भी क्रिया के करने जो सोया हुआ है, सजग या आत्मचेतन नहीं है वह अमुनि है और के पूर्व उसके सम्भावित अच्छे और बुरे परिणामों पर विचार कर लेना जो सजग है, जागृत है, आत्मचेतन है वह मुनि है। मनुष्य की यह ही विवेक है। हम जो कुछ करने जा रहे हैं या कर रहे हैं उसका विशेषता है कि वह अपने प्रति सजग या आत्मचेतन रह सकता है, परिणाम हमारे लिये या समाज के लिए हितकर है या अहितकर इस अपने अन्दर झाँक सकता है, चेतना में स्थित विषय वासना रूपी बात का विचार कर लेना ही विवेक है। यदि आप अपने प्रत्येक आचरण गन्दगी को देख सकता है। आत्मद्रष्टा या आत्मचेतन होने का मतलब को सम्पादित करने के पहले उसके परिणामों पर पूरी सावधानी के यही है कि हम अपने में निहित या उत्पन्न होने वाली वासनाओं, साथ विचार करते हैं तो आप विवेकशील माने जा सकते हैं। जिसमें भावावेशों, विषय-विकारों, राग-द्वेष की वृत्तियों एवं क्रोध, मान, माया, अपने हिताहित या दूसरों के हिताहित को समझने की शक्ति है वही लोभादि कषायों के प्रति सजग रहें, सावधान रहें, उन्हें देखते रहें। विवेकशील या धार्मिक हो सकता है। जो व्यक्ति अपने और दूसरों समकालीन मानवतावादी विचारकों में वारनर फिटे ऐसे विचारक हैं, के हिताहितों पर पूर्व में विचार नहीं करता है वह कभी भी धार्मिक जो यह मानते हैं कि आत्मचेतनता (Selfawarenessही एक ऐसी नहीं कहला सकता। यह बात बहुत स्पष्ट है कि जो व्यक्ति अपने प्रत्येक स्थिति है जिसे किसी कर्म की नैतिकता और अनैतिकता की कसौटी आचरण को करने के पहले तौलेगा, उसके हिताहित का विचार करेगा माना जा सकता है। यद्यपि यहाँ कोई यह प्रश्न उठा सकता है कि वह कभी भी दुराचरण, अधर्म और अनैतिकता की ओर अग्रसर नहीं क्या आत्मचेतना के साथ या पूरी सजगता के साथ किया जाने वाला हो सकेगा। इसलिए हम कह सकते हैं कि विवेकशील होना मनुष्य हिंसादि कर्म धार्मिक या नैतिक होगा? वस्तुत: इस सम्बन्ध में हमें का एक महत्त्वपूर्ण गुण है और जिस सीमा तक उसमें इस गुण का एक भ्रांति को दूर कर लेना चाहिए। व्यक्ति जितना आत्म-चेतन बनता विकास हुआ है उसी सीमा तक उसमें धार्मिकता है। वस्तुत: जहाँ
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जीवन में विवेकशीलता होगी वहाँ धर्म के नाम पर पनपने वाले छलछ अंधश्रद्धा तथा ढोंग और आडम्बर अपने आप ही समाप्त हो जायेंगे । यदि हमें धार्मिक होना है तो हमें सबसे पहले विवेकी बनना होगा। जो व्यक्ति सजग नहीं है, जो अपने आचरण और व्यवहार के हिताहित का विचार नहीं करता है वह कदापि धार्मिक नहीं कहा जा सकता। जहाँ भी व्यक्ति में सजगता और विचारशीलता का अभाव है वहीं अधर्म की सम्भावनाएं है। यदि हम आत्मचेतनता को सम्यक् दर्शन कहें तो विवेकशीलता को सम्यक् ज्ञान कहा जा सकता है। जब हमारे आचरण के साथ आत्मचेतनता और विवेकशीलता जुड़ेगी तभी हमारा आचरण धार्मिक बनेगा।
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
विवेक एक ऐसा तत्त्व है जो प्रत्येक आचार और व्यवहार का देश, काल और परिस्थिति के सन्दर्भ में सम्यक् मूल्याङ्कन करता है। विवेक व्यक्ति के मूल्याङ्कन की क्षमता का परिचायक है। विवेक एक ऐसी क्षमता है जो सम्पूर्ण परिस्थिति को दृष्टि में रखकर आचरण के परिणामों का निष्पक्ष मूल्याङ्कन करती है। जीवन में जब विवेक का विकास होता है, तो दूसरों के दुःख और पीड़ा का आत्मवत् दृष्टि से मूल्याङ्कन होता है स्वार्थवृत्ति क्षीण होने लगती है, समता का विकास होता है और जीवन में धर्म का प्रकटन होता है। इस प्रकार विवेक धर्म और धार्मिकता का आवश्यक लक्षण है। धर्म और धार्मिकता का विकास विवेक की भूमि पर ही सम्भव है, अतः विवेक धर्म है।
आप धार्मिक है या नहीं? इसकी सीधी और साफ पहचान यही है कि आप किसी क्रिया को करने के पूर्व उसके परिणामों पर सम्यक् रूप से विचार करते हैं। क्या आप अपने हितों और दूसरों के हितों का समान रूप से मूल्याङ्कन करते हैं? यदि इन प्रश्नों का उत्तर सकारात्मक है तो निश्चय ही आप धार्मिक हैं। विवेक के आलोक में विकसित आत्मवत्-दृष्टि ही धर्म और धार्मिकता का आधार है।
मनुष्य और पशु में तीसरा और सबसे महत्त्वपूर्ण अन्तर इस बात को लेकर है कि मनुष्य में संयम की शक्ति है, वह अपने आचार और व्यवहार को नियन्त्रित कर सकता है यदि हम पशु का जीवन देखें तो हमें लगेगा कि वे एक प्राकृतिक जीवन जीते हैं। पशु तभी खाता है जब भूखा होता है। पशु के लिए यह सम्भव नहीं है कि भूखा होने पर खाद्य सामग्री की उपस्थिति में वह उसे न खाये । किन्तु मनुष्य के आचरण की एक विशेषता है, वह भूखा होते हुए भी और खाद्य सामग्री के उपलब्ध होते हुए भी भोजन करने से इन्कार कर देगा दूसरी ओर मनुष्य के लिए यह भी सम्भव है कि भरपेट भोजन के बाद भी वह सुस्वादु पदार्थ उपलब्ध होने पर उन्हें खा लेता है। इस प्रकार मनुष्य में एक ओर आत्मसंयम की सम्भावनाएँ हैं तो दूसरी ओर वासनाओं से प्रेरित हो कर वह एक अप्राकृतिक जीवन भी जी सकता है। इसीलिए हम कह सकते हैं कि यदि कोई मनुष्य की विशेषता हो सकती है तो वह उसमें निहित आत्म नियन्त्रण या संयम का सामर्थ्य है इसीलिये कहा गया है कि मनुष्य में जैविक आवेग तो बहुत हैं, आवश्यकता इस बात की है कि उसके आवेगों को कैसे नियन्त्रित
किया जाय? जैविक आवेगों के अनियन्त्रण का जीवन अधर्म का जीवन है। मनुष्य का धर्म और धार्मिकता इसी में है कि वह आत्मचेतन होकर विवेकशीलता के साथ अपनी वासनाओं को संयमित करे यदि वह इतना कर पाता है तो ही उसे हम धार्मिक कह सकते हैं। मनुष्य के धार्मिक होने का मतलब है उसकी चेतना सजग रहे और उसका विवेक वासनाओं को नियन्त्रित करता रहे।
मनुष्य का सामाजिक धर्म
धर्म को जब हम वस्तु स्वभाव के रूप में ग्रहण करते हैं तो हमारे सामने प्रश्न उपस्थित होता है कि एक मनुष्य के रूप में हमारा धर्म क्या है? मनुष्य का मूल स्वभाव मनुष्यता ही हो सकता है, लेकिन प्रश्न है कि मनुष्यता से हमारा क्या तात्पर्य है? वह कौन सा तत्त्व है जो मनुष्य को पशु से भिन्न करता है। इस सम्बन्ध में चर्चा करते हुए हमने देखा था कि आत्मचेतना (Self Awareness), विवेक और संयम ये तीन ऐसे तत्त्व हैं जो मनुष्य को अपनी उपस्थिति के कारण पशु से ऊपर उठा देते हैं।
इन सबके साथ ही एक और विशिष्ट गुण मनुष्य का है जो उसे महनीयता प्रदान करता है, वह है उसकी सामाजिक चेतना पाश्चात्य विचारकों ने मनुष्य की परिभाषा एक सामाजिक प्राणी के रूप में की है सामाजिकता मनुष्य का एक विशिष्ट गुण है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है (Man is a social animal) वैसे तो सामूहिक जीवन पशुओं में भी पाया जाता है, किन्तु मनुष्य की यह सामूहिक जीवन शैली उनसे कुछ भिन्न है। पशुओं में पारस्परिक सम्बन्ध तो होते हैं किन्तु उन्हें उन सम्बन्धों की चेतना नहीं होती है। मनुष्य जीवन की विशेषता यह है कि उसे उन पारस्परिक सम्बन्धों की चेतना होती है और उसी चेतना के कारण उसमें एक-दूसरे के प्रति दायित्व बोध और कर्तव्य-बोध होता है। पशुओं में भी पारस्परिक हित साधन की प्रवृत्ति तो होती है, किन्तु वह एक अन्ध मूलप्रवृत्ति है। उस अन्ध-प्रवृत्ति के अनुसार ही आचरण करने में पशु विवश होता है। उसके सामने यह विकल्प नहीं होता है कि वह वैसा आचरण करे या नहीं करे। किन्तु इस सम्बन्ध में मानवीय चेतना स्वतन्त्र होती है उसमें अपने दायित्व बोध की चेतना होती है। किसी उर्दू शायर ने कहा भी है
वह आदमी ही क्या है जो दर्द आशना न हो ! पत्थर से कम है, दिल शरर गर निहा नहीं । जैनाचार्य उमास्वाति ने भी न केवल मनुष्य का, अपितु समस्त जीवन का लक्षण पारस्परिक हित साधन को माना है । तत्त्वार्थसूत्र में कहा है — "परस्परोपग्रहोजीवानाम्।" एक दूसरे के कल्याण में सहयोगी बनना यही जीवन की विशिष्टता है। इसी अर्थ में हम कह सकते हैं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और दूसरे मनुष्यों एवं प्राणियों का हित साधन उसका धर्म है। धार्मिक होने का एक अर्थ यह है कि हम एक-दूसरे के सहयोगी बनें दूसरे के दुःख और पीड़ा को अपनी पीड़ा समझें तथा उसके निराकरण का प्रयत्न करें। जैन आगम आचाराङ्गसूत्र में धर्म की परिभाषा करते हुए बहुत स्पष्ट रूप से कहा गया है।
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धर्म का मर्म : जैन दृष्टि
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"सवे सत्ता ण हंतव्वा,
जब सारे जहाँ का दर्द किसी के हृदय में समा जाता है तो वह एस धम्मे सुद्धे णिइए सासए समिच्च लोयं खेयण्णेहिं पवेइए" लोककल्याण के मङ्गलमयमार्ग पर चल पड़ता है। उसका यह चलना
"अर्थात भूतकाल में जो अर्हत् हुए हैं, वर्तमानकाल में जो अर्हत् बाहरी नहीं होता है। उसके सारे व्यवहार में अन्तश्चेतना काम करती हैं और भविष्यकाल में जो अर्हत होंगे, वे सभी एक ही सन्देश देते है और यही अन्तश्चेतना धार्मिकता का मूल उत्स (Essence) है, इसे हैं कि किसी पाणी की, किसी सत्व की हिंसा नहीं करनी चाहिाए, ही दायित्व-बोध की सामाजिक चेतना कहा जाता है। जब यह उसका घात - ही करना चाहिए, उसे पीड़ा नहीं पहुँचानी चाहिए, यही दायित्व-बोध की सामाजिक चेतना जाग्रत होती है, तो मनुष्य में धार्मिकता एकमात्र शुद्ध, नित्य और शाश्वत धर्म है।" इस धर्म की लोक-कल्याणकारी प्रकट होती है। दूसरों के प्रति आत्मीयता के भाव का जाग्रत होना चेतना का ! कुटन लोक की पीड़ा के निवारण के लिए ही हुआ है ही धार्मिक बनने का सबसे पहला उपक्रम है। और यही १ का सारतत्त्व है। कहा है
यहि हमारे जीवन में दूसरों की पीड़ा, दूसरों का दर्द अपना नहीं __ यही है इबादत, यही है दीनो इमाँ।'
बना है तो हमें यह निश्चित ही समझ लेना चाहिए कि हममें धर्म कि काम आये दुनिया में, इंसां के इंसां।
का अवतरण नहीं हुआ है। दूसरों की पीड़ा की आत्मनिष्ठ अनुभूति दूसरों की पीड़ा को समझकर उसके निवारण का प्रयत्न करना, से जागृत दायित्व-बोध की अन्तश्चेतना के बिना सारे धार्मिक यही धर्म की मूल आत्मा हो सकती है। सन्त तुलसीदास जी ने भी क्रिया-काण्ड, पाखण्ड या ढोंग हैं। उनका धार्मिकता से दूर का कहा है
रिश्ता नहीं है। जैन धर्म के सम्यक्-दर्शन, जो कि धार्मिकता की परहित सरिस धरम नहिं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई। आधारभूमि है-के जो पाँच अङ्ग माने गये हैं, उनमें समभाव और
अहिंसा की चेतना का विकास तभी सम्भव है, जब मनुष्य में अनुकम्पा सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। सामाजिक दृष्टि से समभाव 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना का विकास होगा। जब हम दूसरों का अर्थ है- दूसरों को अपने समान समझना। क्योंकि अहिंसा एवं के दर्द को अपना दर्द समझेंगे तभी हम लोकमङ्गल की दिशा में अथवा लोककल्याण की अन्तश्चेतना का उद्भव इसी आधार पर होता है। परपीड़ा के निवारण की दिशा में आगे बढ़ सकेंगे। परपीड़ा की यह आचाराङ्गसूत्र में कहा गया है कि “जिस प्रकार मैं जीना चाहता हूँ, आत्मानुभूति भी वस्तुनिष्ठ न होकर आत्मनिष्ठ होनी चाहिए। हम दूसरों मरना नहीं चाहता हूँ उसी प्रकार संसार के सभी प्राणी जीवन के की पीड़ा के मूक दर्शक न रहें। ऐसा धर्म और ऐसी अहिंसा, जो इच्छुक हैं और मृत्यु से भयभीत हैं, जिस प्रकार मैं सुख की प्राप्ति दूसरों की पीड़ा की मूक दर्शन बनी रहती है, वस्तुत: वह न धर्म चाहता हूँ और दुःख से बचना चाहता हूँ उसी प्रकार विश्व के सभी है और न अहिंसा। अहिंसा केवल दूसरों को पीड़ा न देने तक सीमित प्राणी सुख के इच्छुक हैं और दुःख से दूर रहना चाहते हैं।" यही नहीं है, उसमें लोकमङ्गल और लोककल्याण का अजस्र-स्रोत भी वह दृष्टि है जिस पर अहिंसा का, धर्म का और नैतिकता का विकास प्रवाहित है। जब लोक-पीड़ा अपनी पीड़ा बन जाती है, तभी धार्मिकता होता है। का स्रोत अन्दर से प्रवाहित होता है। तीर्थङ्करों, अर्हतों और बुद्धों जब तक दूसरों के प्रति हमारे मन में समभाव अर्थात् समानता ने जब लोक-पीड़ा की यह अनुभूति आत्मनिष्ठ रूप में की, तो वे का भाव, जागृत नहीं होता, अनुकम्पा नहीं आती अर्थात् उनकी पीड़ा लोककल्याण के लिए सक्रिय बन गये। जब दूसरों की पीड़ा और हमारी पीड़ा नहीं बनती तब तक सम्यक्-दर्शन का उदय भी नहीं होता, वेदना हमें अपनी लगती है तब लोककल्याण भी दूसरों के लिए न जीवन में धर्म का अवतरण नहीं होता। असर लखनवी का यह निम्न होकर अपने ही लिए हो जाता है। उर्दू शायर अमीर ने कहा है- शेर इस सम्बन्ध में कितना मौजूं है - खञ्जर चले किसी पे, तड़फते हैं हम मीर ।
ईमां गलत उसूल गलत, उद्दुआ गलत। सारे जहाँ का दर्द, हमारे ज़िगर में है ।।
इंसां की दिलदिही, अगर इंसां न कर सके।।
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धार्मिक सहिष्णुता और जैन धर्म
धार्मिक सहिष्णुता: आज की आवश्यकता
आज का युग बौद्धिक विकास और वैज्ञानिक प्रगति का युग है। मनुष्य के बौद्धिक विकास ने उसकी तार्किकता को पैना किया है। आज मनुष्य प्रत्येक समस्या पर तार्किक दृष्टि से विचार करता है, किन्तु दुर्भाग्य यह है कि इस बौद्धिक विकास के बावजूद भी एक ओर अंधविश्वास और रूढ़िवादिता बराबर कायम है, तो दूसरी ओर वैचारिक संघर्ष अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया है। धार्मिक एवं राजनीतिक साम्प्रदायिकता आज जनता के मानस को उन्मादी बना रही है। कहीं धर्म के नाम पर कहीं राजनीतिक विचारधाराओं के नाम पर, कहीं धनी और निर्धन के नाम पर, कहीं जातिवाद के नाम पर, कहीं काले और गोरे के भेद को लेकर मनुष्य मनुष्य के बीच भेद की दीवारें खींची जा रही हैं। आज प्रत्येक धर्म-सम्प्रदाय, प्रत्येक राजनीतिक दल और प्रत्येक वर्ग अपने हितों की सुरक्षा के लिए दूसरे के अस्तित्व को समाप्त करने पर तुला हुआ है। सब अपने को मानव-कल्याण का एकमात्र ठेकेदार मानकर अपनी सत्यता का दावा कर रहे हैं और दूसरे को भ्रान्त तथा भ्रष्ट बता रहे हैं। मनुष्य की असहिष्णुता की वृत्ति मनुष्य के मानस को उन्मादी बनाकर पारस्परिक घृणा, विद्वेष और बिखराव के बीज बो रही है। एक ओर हम प्रगति की बात करते हैं तो दूसरी ओर मनुष्य-मनुष्य के बीच दीवार खड़ी करते हैं। 'इकबाल' इसी बात को लेकर पूछते हैं
फ़िर्केबन्दी है कहीं, और कहीं जाते हैं,
क्या जमाने में पनपने की यही बाते हैं ?
यद्यपि वैज्ञानिक तकनीक से प्राप्त आवागमन के सुलभ साधनों ने आज विश्व की दूरी को कम कर दिया है, हमारा संसार सिमट रहा है; किन्तु आज मनुष्य मनुष्य के बीच हृदय की दूरी कहीं अधिक ज्यादा हो रही है। वैयक्तिक स्वार्थलिप्सा के कारण मनुष्य एक-दूसरे को कटता चला जा रहा है आज विश्व का वातावरण तनावपूर्ण एवं विक्षुब्ध है। एक ओर इजरायल और अरब में यहूदी और मुसलमान लड़ रहे हैं, तो दूसरी ओर इस्लाम धर्म के ही दो सम्प्रदाय शिया और सुन्नी इराक और ईरान में लड़ रहे हैं। भारत में भी कहीं हिन्दू और मुसलमानों को तो कहीं हिन्दू और सिखों को एक-दूसरे के विरूद्ध लड़ने के लिए उभाड़ा जा रहा है. अफ्रीका में काले और गोरे का संघर्ष चल रहा है, तो साम्यवादी रूस और पूँजीवादी संयुक्त राज्य अमेरिका एक-दूसरे को नेस्तनाबूद करने पर तुले हुए हैं। आज मानवता उस कगार पर आकर खड़ी हो गई है, जहाँ से उसने यदि अपना रास्ता नहीं बदला तो उसका सर्वनाश निकट है। 'इकबाल' स्पष्ट शब्दों में हमें चेतावनी देते हुए कहते हैं
"
अगर अब भी न समझोगे तो मिट जाओगे दुनियाँ से तुम्हारी दास्ताँ तक भी न होगी दास्तानों में ।।
विज्ञान और तकनीक की प्रगति के नाम पर हमने मानव जाति के लिए विनाश की चिता तैयार कर ली है। यदि मनुष्य की इस उन्मादी प्रवृत्ति पर कोई अंकुश नहीं लगा, तो कोई भी छोटी सी घटना इस चिता को चिनगारी दे देगी और तब हम सब अपने हाथों तैयार की गयी इस चिता में जलने को मजबूर हो जायेंगे। असहिष्णुता और वर्ग-विद्वेष- फिर चाहे वह धर्म के नाम पर हो, राजनीति के नाम पर हो, राष्ट्रीयता के नाम पर हो या साम्प्रदायिकता के नाम पर - हमें विनाश के गर्त की ओर ही लिये जा रहे हैं। आज की इस स्थिति के सम्बन्ध में उर्दू के शायर 'चकबस्त' ने ठीक ही कहा हैमिटेगा दीन भी और आबरू भी जाएगी। तुम्हारे नाम से दुनिया को शर्म आएगी ।।
अतः आज एक ऐसे दृष्टिकोण की आवश्यकता है जो मानवता को दुराग्रह और मतान्धता से ऊपर उठाकर सत्य को समझने के लिए एक समग्र दृष्टि दे सके, ताकि वर्गीय हितों से ऊपर उठकर समग्र मानवता के कल्याण को प्राथमिकता दी जा सके।
धार्मिक मतान्यता क्यों?
धर्म को अंग्रेजी में 'रिलीजन' (Religion) कहा जाता है। रिलीजन शब्द रिलीजेर से बना है। इसका शाब्दिक अर्थ होता है— फिर से जोड़ देना। धर्म मनुष्य को मनुष्य से और आत्मा को परमात्मा से जोड़ने की कला है। धर्म का अवतरण मनुष्य को शाश्वत शान्ति और सुख देने के लिए हुआ है, किन्तु हमारी मतान्धता और उन्मादी वृत्ति के कारण धर्म के नाम पर मनुष्य मनुष्य के बीच भेद की दीवारें खड़ी की गयीं और उसे एक-दूसरे का प्रतिस्पर्धी बना दिया गया। मानव जाति के इतिहास में जितने युद्ध और संघर्ष हुए हैं, उनमें धार्मिक मतान्धता एक बहुत बड़ा कारण रही है। धर्म के नाम पर मनुष्य ने अनेक बार खून की होली खेली है और आज भी खेल रहे हैं। विश्वइतिहास का अध्येता इस बात को भलीभांति जानता है कि धार्मिक असहिष्णुता ने विश्व में जघन्य दुष्कृत्य कराये हैं। आश्चर्य तो यह है कि दमन, अत्याचार, नृशंसता और रक्तप्लावन की इन घटनाओं क का जामा पहनाया गया और ऐसे युद्धों को धर्मयुद्ध कहकर मनुष्य को एक-दूसरे के विरूद्ध उभाड़ा गया, फलतः शान्ति, सेवा और समन्वय का प्रतीक धर्म ही अशान्ति, तिरस्कार और वर्ग-विद्वेष का कारण बन गया।
यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि धर्म के नाम पर जो कुछ किया या कराया जाता है, वह सब धार्मिक नहीं होता । इन सबके पीछे वस्तुतः धर्म नहीं, धर्म के नाम पर पलने वाली व्यक्ति की स्वार्थपरता काम करती है। वस्तुतः कुछ लोग अपने क्षुद्र स्वायों की पूर्ति के लिए मनुष्यों को धर्म के नाम पर एक-दूसरे के विरोध में खड़ा कर देते हैं। धर्म भावना प्रधान है और भावनाओं को उभाड़ना सहज होता है।
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धार्मिक सहिष्णुता और जैन धर्म
३५७ अत: धर्म ही एक ऐसा माध्यम है जिसके नाम पर मनुष्यों को एक अपने साथी प्राणियों के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख समझ सके। दूसरे के विरूद्ध जल्दी उभाड़ा जा सकता है। इसीलिए मतान्धता, यदि यह सब उसमें नहीं है तो वह मनुष्य ही नहीं है, तो फिर उसके उन्मादी और स्वार्थी तत्त्वों ने धर्म को सदैव ही अपने हितों की पूर्ति धार्मिक होने का प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि कोई पशु धार्मिक या का साधन बनाया है। जो धर्म मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने के लिए अधार्मिक नहीं होता, मनुष्य ही धार्मिक या अधार्मिक होता है। यदि था, उसी धर्म के नाम पर अपने से विरोधी धर्मवालों को उत्पीड़ित मानवीय शरीर को धारण करने वाला व्यक्ति अपने पशुत्व से ऊपर करने और उस पर अत्याचार करने के प्रयत्न हुए हैं और हो रहे हैं। नहीं उठ पाया है, तो उसके धार्मिक होने का प्रश्न तो बहुत दूर की किन्तु धर्म के नाम पर हिंसा, संघर्ष और वर्ग-विद्वेष की जो भावनाएँ बात है। मानवीयता धार्मिकता की प्रथम सीढ़ी है। उसे पार किये बिना उभाड़ी जा रही हैं, उसका कारण क्या धर्म है? वस्तुतः धर्म नहीं, कोई धर्ममार्ग में प्रवेश नहीं कर सकता। मनुष्य का प्रथम धर्म अपितु धर्म का आवरण डालकर मानव की महत्वाकांक्षा, उसका अहंकार मानवता है। और उसकी क्षुद्र स्वार्थपरता ही यह सब कुछ करवा रही है। यथार्थ वस्तुत: यदि हम जैन धर्म की भाषा में धर्म को वस्तु-स्वभाव में यह धर्म का नकाब डाले हए अधर्म ही है।
माने तो हमें समग्र चेतन सत्ता के मूल स्वभाव को ही धर्म कहना
होगा। भगवतीसूत्र में आत्मा का स्वभाव समता-समभाव कहा गया धर्म के सारतत्त्व का ज्ञान : मतान्यता से मुक्ति का मार्ग है। उसमें गणधर गौतम भगवान् महावीर से प्रश्न करते हैं कि आत्मा
. दुर्भाग्य यह है कि आज जनसामान्य, जिसे धर्म के नाम पर क्या है और आत्मा का साध्य क्या है? प्रत्युत्तर में भगवान् कहते सहज ही उभाड़ा जाता है, धर्म के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ है, हैं-आत्मा सामायिक (समत्ववृत्ति) रूप है और उस समत्वभाव को वह धर्म के मूल हार्द को नहीं समझ पाया है। उसकी दृष्टि में कुछ प्राप्त कर लेना ही आत्मा का साध्य है। आचाराङ्गसूत्र भी समभाव कर्मकाण्ड और रीति-रिवाज ही धर्म है। हमारा दुर्भाग्य यह है कि हमारे को ही धर्म कहता है। सभी धर्मों का सार समता तथा शान्ति है। तथाकथित धार्मिक नेताओं ने हमें धर्म के मूल हार्द से अनभिज्ञ रखकर, मनुष्य में निहित काम, क्रोध, अहंकार, लोभ और उनके जनक रागइन रीति-रिवाजों और कर्मकाण्डों को ही धर्म कहकर समझाया है। द्वेष और तृष्णा को समाप्त करना ही सभी धार्मिक साधनाओं का मूलभूत वस्तुत: आज आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य धर्म के वास्तविक लक्ष्य रहा है। इस सम्बन्ध में श्री सत्यनारायण जी गोयनका के निम्न स्वरूप को समझे। आज मानव समाज के समक्ष धर्म के उस सारभूत विचार द्रष्टव्य हैं-'क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष आदि न हिन्दू हैं, न बौद्ध, न तत्त्व को प्रस्तुत किये जाने की आवश्यकता है, जो सभी धर्मों में जैन, न पारसी, न मुस्लिम, न ईसाई। वैसे इनसे विमुक्त रहना भी सामान्यतया उपस्थित है और उनकी मूलभूत एकता का सूचक है। न हिन्दू है न बौद्ध; न जैन है न पारसी; न मुस्लिम है न ईसाई। आज धर्म के मूल हार्द और वास्तविक स्वरूप को समझे बिना हमारी विकारों से विमुक्त रहना ही शुद्ध धर्म है। क्या शीलवान, समाधिवान धार्मिकता सुरक्षित नहीं रह सकती है। यदि आज धर्म के नाम पर और प्रज्ञावान होना केवल बौद्धों का ही धर्म है? क्या वीतराग, वीतद्वेष विभाजित होती हुई इस मानवता को पुन: जोड़ना है तो हमें धर्म के और वीतमोह होना जैनों का ही धर्म है? क्या स्थितप्रज्ञ, अनासक्त, उन मूलभूत तत्त्वों को सामने लाना होगा, जिनके आधार पर इन टूटी जीवन-मुक्त होना हिन्दुओं का ही धर्म है? धर्म की इस शुद्धता को हुई कडियों को पुन: जोड़ा जा सके।
समझें और धारण करें। (धर्म के क्षेत्र में) निस्सार छिलकों का अवमूल्यन
हो, उन्मूलन हो; शुद्धसार का मूल्यांकन हो, प्रतिष्ठापन हो।' जब धर्म का मर्म
यह स्थिति आयेगी, धार्मिक सहिष्णुता सहज ही प्रकट होगी। यह सत्य है कि आज विश्व में अनेक धर्म प्रचलित हैं। किन्तु यदि हम गम्भीरतापूर्वक विचार करें तो इन विविध धर्मों का मूलभूत साधनागत विविधता : असहिष्णुता का आधार नहीं लक्ष्य है-मनुष्य को एक अच्छे मनुष्य के रूप में विकसित कर उसे तृष्णा, राग-द्वेष और अहंकार अधर्म के बीज हैं। इनसे मानसिक परमात्म तत्त्व की ओर ले जाना। जब तक मनुष्य, मनुष्य नहीं बनता और सामाजिक समभाव भंग होता है। अतः इनके निराकरण को सभी
और उसकी यह मनुष्यता देवत्व की ओर अग्रसर नहीं होती, तब धार्मिक साधना-पद्धतियाँ अपना लक्ष्य बनाती हैं। किन्तु मनुष्य का तक वह धार्मिक नहीं कहा जा सकता। यदि मनुष्य में मानवीय गुणों अहंकार, मनुष्य का ममत्व कैसे समाप्त हो, उसकी तृष्णा या आसक्ति का विकास ही नहीं हुआ है तो वह किसी भी स्थिति में धार्मिक का उच्छेद कैसे हो? इस साधनात्मक पक्ष को लेकर ही विचारभेद नहीं है। 'अमन' ने ठीक ही कहा है
प्रारम्भ होता है। कोई परम सत्ता या ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण में इन्सानियत से जिसने बशर को गिरा दिया।
ही आसक्ति, ममत्व और अहंकार के विसर्जन का उपाय देखता है, या रब! वह बन्दगी हुई या अबतरी हुई।।
तो कोई उसके लिए जगत् की दुःखमयता, पदार्थों की क्षणिकता और मानवता के बिना धार्मिकता असम्भव है। मानवता धार्मिकता अनात्मता का उपदेश देता है, तो कोई उस आसक्ति या रागभाव की का प्रथम चरण है। मानवता का अर्थ है-मनुष्य में विवेक विकसित विमुक्ति के लिए आत्म और अनात्म अर्थात् स्व-पर के विवेक को हो, वह अपने विचारों, भावनाओं और हितों पर संयम रख सके तथा धार्मिक साधना का प्रमुख अंग मानता है। वस्तुत: यह साधनात्मक
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ भेद ही धर्मों की अनेकता का कारण है। किन्तु यह अनेकता धार्मिक है किअसहिष्णुता या विरोध का कारण नहीं बन सकती। आचार्य हरिभद्र जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते आसवा। ने योगदृष्टिसमुच्चय में धार्मिक साधना की विविधताओं का सुन्दर जो आस्रव अर्थात् बन्धन के कारण हैं, वे ही परिस्रव अर्थात् विश्लेषण प्रस्तुत किया है। वे लिखते हैं
मुक्ति के कारण हो सकते हैं और इसके विपरीत जो मुक्ति के कारण यद्वा तत्तत्रयापेक्षा तत्कालादिनियोगतः।
हैं, वे ही बन्धन के कारण बन सकते हैं। अनेक बार ऐसा होता है ऋषिभ्यो देशना चित्रा तन्मूलैषापि तत्त्वतः।।।
कि बाह्य रूप में हम जिसे अनैतिक और अधार्मिक कहते हैं, वह अर्थात् प्रत्येक ऋषि अपने देश, काल और परिस्थिति के आधार देश, काल, व्यक्ति और परिस्थितियों के आधार पर नैतिक और धार्मिक पर भिन्न-भिन्न धर्ममार्गों का प्रतिपादन करते हैं। देश और कालगत हो जाता है। धार्मिक जीवन में साधना का बाह्य कलेवर इतना महत्त्वपूर्ण विविधताएँ तथा साधकों की रुचि और स्वभावगत विविधताएँ धार्मिक नहीं होता जितना उसके मूल में रही हुई व्यक्ति की भावनाएँ होती साधनाओं की विविधताओं के आधार हैं। किन्तु इस विविधता को हैं। बाह्य रूप से किसी युवती की परिचर्या करते हुए एक व्यक्ति अपनी धार्मिक असहिष्णुता का कारण नहीं बनने देना चाहिए। जिस प्रकार मनोभूमिका के आधार पर धार्मिक हो सकता है, तो दूसरा अधार्मिक। एक ही नगर को जाने वाले विविध मार्ग परस्पर भिन्न-भिन्न दिशाओं वस्तुत: परिचर्या करते समय परिचर्या की अपेक्षा भी जो अधिक में स्थित होकर भी विरोधी नहीं कहे जाते हैं; एक ही केन्द्र को योजित महत्त्वपूर्ण है, वह उस परिचर्या के मूल में निहित प्रयोजन, प्रेरक या होने वाली परिधि से खींची गयी विविध रेखाएँ चाहें बाह्य रूप से मनोभूमिका होती है। एक व्यक्ति निष्काम भावना से किसी की सेवा विरोधी दिखायी दें, किन्तु यथार्थतः उनमें कोई विरोध नहीं होता है; करता है, तो दूसरा व्यक्ति अपनी वासनाओं अथवा अपने क्षुद्र स्वार्थों उसी प्रकार परस्पर भिन्न-भिन्न आचार-विचार वाले धर्ममार्ग भी वस्तुतः की पूर्ति के लिए किसी की सेवा करता है। बाहर से दोनों सेवाएँ विरोधी नहीं होते। यह एक गणितीय सत्य है कि एक केन्द्र से योजित एक हैं, किन्तु उनमें एक नैतिक और धार्मिक है, तो दूसरी अनैतिक होने वाली परिधि से खींची गयीं अनेक रेखाएँ एक-दूसरे को काटने और अधार्मिक। हम देखते हैं कि अनेकानेक लोग लौकिक एषणाओं की क्षमता नहीं रखती हैं, क्योंकि उन सबका साध्य एक ही होता की पूर्ति के लिए प्रभु-भक्ति और सेवा करते हैं किन्तु उनकी वह सेवा है। वस्तुत: उनमें एक-दूसरे को काटने की शक्ति तभी आती है जब धर्म का कारण न होकर अधर्म का कारण होती है। अत: साधनागत वे अपने केन्द्र का परित्याग कर देती हैं। यही बात धर्म के सम्बन्ध बाह्य विभिन्नताओं को न तो धार्मिकता का सर्वस्व मानना चाहिए और में भी सत्य है। एक ही साध्य की ओर उन्मुख बाहर से परस्पर विरोधी न उन पर इतना अधिक बल दिया जाना चाहिए, जिससे पारस्परिक दिखाई देने वाले अनेक साधना-मार्ग तत्त्वत: परस्पर विरोधी नहीं होते विभेद और भिन्नता की खाई और गहरी हो। वस्तुत: जब तक देश हैं। यदि प्रत्येक धार्मिक साधक अपने अहंकार, राग-द्वेष और तृष्णा और कालगत भिन्नताएँ हैं, जब तक व्यक्ति की रुचि या स्वभावगत की प्रवृत्तियों को समाप्त करने के लिए, अपने काम, क्रोध और लोभ भिन्नताएँ हैं, तब तक साधनागत विभिन्नताएँ स्वाभाविक ही हैं। आचार्य के निराकरण के लिए, अपने अहंकार और अस्मिता के विसर्जन के हरिभद्र अपने ग्रन्थ योगदृष्टिसमुच्चय में कहते हैंलिए साधनारत है, तो फिर उसकी साधना-पद्धति चाहे जो हो, वह चित्रा तु देशनैतेषां स्याद् विनेयानुगुण्यतः। दूसरी साधना-पद्धतियों का न तो विरोधी होगा और न असहिष्णु। यस्मादेते महात्मानो भाव्याधि भिषग्वराः।। यदि धार्मिक जीवन में साध्यरूपी एकता के साथ साधनारूपी अनेकता अर्थात् जिस प्रकार एक अच्छा वैद्य रोगी की प्रकृति, ऋतु आदि रहे तो भी वह संघर्ष का कारण नहीं बन सकती। वस्तुत: यहाँ हमें को ध्यान में रखकर एक ही रोग के लिए दो व्यक्तियों को अलग-अलग यह विचार करना है कि धर्म और समाज में धार्मिक असहिष्णुता का औषधि प्रदान करता है, उसी प्रकार धर्ममार्ग के उपदेष्टा ऋषिगण भी जन्म क्यों और कैसे होता है?
भिन्न-भिन्न स्वभाव वाले व्यक्तियों के लिए अलग-अलग साधना-विधि वस्तुत: जब यह मान लिया जाता है कि हमारी साधना-पद्धति प्रस्तुत करते हैं। देश, काल और रुचिगत वैचित्र्य धार्मिक साधना ही एकमात्र व्यक्ति को अन्तिम साध्य तक पहुँचा सकती है तब धार्मिक पद्धतियों की विभिन्नता का आधार है। वह स्वभाविक है, अत: उसे असहिष्णुता का जन्म होता है। इसके स्थान पर यदि हम यह स्वीकार अस्वीकार भी नहीं किया जा सकता है। धर्मक्षेत्र में साधनागत विविधताएँ कर लें कि वे सभी साधना-पद्धतियाँ जो साध्य तक पहुंचा सकती सदैव रही हैं और रहेंगी, किन्तु उन्हें विवाद का आधार नहीं बनाया हैं, सही हैं, तो धार्मिक संघर्षों का क्षेत्र सीमित हो जाता है। देश जाना चाहिए। हमें प्रत्येक साधना-पद्धति की उपयोगिता और और कालगत विविधताएँ तथा व्यक्ति की अपनी प्रवृत्ति और योग्यता अनुपयोगिता का मूल्यांकन उन परिस्थितियों में करना चाहिए जिसमें आदि ऐसे तत्त्व हैं, जिनके कारण साधनागत विविधताओं का होना उनका जन्म होता है। उदाहरण के रूप में, मूर्तिपूजा का विधान और स्वाभाविक है। वस्तुत: जिससे व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास होता मूर्तिपूजा का निषेध दो भिन्न देशगत और कालगत परिस्थितियों की है, वह आचार के बाह्य विधि-निषेध या बाह्य औपचारिकताएँ या देन हैं और उनके पीछे विशिष्ट उद्देश्य रहे हुए हैं। यदि हम उन संदर्भो क्रियाकाण्ड नहीं, मूलत: साधक की भावना या जीवन-दृष्टि है। में उनका मूल्यांकन करते हैं, तो इन दो विरोधी साधना-पद्धतियों में प्राचीनतम जैन आगम आचारांगसूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया भी हमें कोई विरोध नजर नहीं आयेगा। सभी धार्मिक साधना-पद्धतियों
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धार्मिक सहिष्णुता और जैन धर्म का एक लक्ष्य होते हुए भी उनमें देश, काल, व्यक्ति और परिस्थिति करो, झूठ मत बोलो, चोरी मत करो, व्यभिचार मत करो, नशीले के कारण साधनागत विभिन्नताएँ आई हैं। उदाहरण के रूप में, हिन्दू पदार्थों का सेवन मत करो, संचयवृत्ति से दूर रहो और अपने धन धर्म और इस्लाम दोनों में उपासना के पूर्व एवं पश्चात् शारीरिक शुद्धि का दीन-दुःखियों की सेवा में उपयोग करो-ये सब सभी धर्मशास्त्रों का विधान है। फिर भी दोनों की शारीरिक शुद्धि की प्रक्रिया भिन्न-भिन्न में समान रूप से प्रतिपादित हैं, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि हम इन है। मुसलमान अपनी शरीरिक शुद्धि इस प्रकार से करता है कि उसमें मूलभूत आधार स्तम्भों को छोड़कर उन छोटी-छोटी बातों को ही अधिक जल की अत्यल्प मात्रा का व्यय हो, वह हाथ और मुँह को नीचे से पकड़ते हैं, जिनसे पारस्परिक भेद की खाई और गहरी होती है। ऊपर की ओर धोता है, क्योंकि इसमें पानी की मात्रा कम खर्च होती जैनों के सामने भी शास्त्र की सत्यता और असत्यता का प्रश्न है। इसके विपरीत हिन्दू अपने हाथ और मुँह ऊपर से नीचे की ओर आया था। किसी सीमा तक उन्होंने सम्यक्-श्रुत और मिथ्या-श्रुत के धोता है। इसमें जल की मात्रा अधिक खर्च होती है। शारीरिक शद्धि नाम पर तत्कालीन शास्त्रों का विभाजन भी कर लिया था, किन्तु फिर का लक्ष्य समान होते हुए भी अरब देशों में जल का अभाव होने भी उनकी दृष्टि संकुचित और अनुदार नहीं रही। उन्होंने ईमानदारीपूर्वक के कारण एक पद्धति अपनायी गई, तो भारत में जल की बहुलता इस बात को स्वीकार कर लिया कि जो सम्यक्-श्रुत है, वह मिथ्या-श्रुत होने के कारण दूसरी पद्धति अपनायी गयी। अत: आचार के इन बाहरी भी हो सकता है और जो मिथ्या-श्रुत है वह सम्यक्-श्रुत भी हो सकता रूपों को लेकर धार्मिकता के क्षेत्र में जो विवाद चलाया जाता है, वह है। श्रुति या शास्त्र का सम्यक् होना या मिथ्या होना शास्त्र के शब्दों उचित नहीं है। चाहे प्रश्न मूर्तिपूजा का हो या अन्य कोई, हम देखते पर नहीं, अपितु उसके अध्येता और व्याख्याता पर निर्भर करता है। हैं कि उन सभी के मूल में कहीं न कहीं देश, काल और व्यक्ति के जैन आचार्य स्पष्टरूप से कहते हैं कि 'एक मिथ्यादृष्टि के लिए रुचिगत वैचित्र्य का आधार होता है। इस्लाम ने चाहे कितना ही बुतपरस्ती सम्यक्-श्रुत भी मिथ्या-श्रुत हो सकता है और एक सम्यग्दृष्टि के लिए का विरोध किया हो किन्तु मुहर्रम, कब-पूजा आदि के नाम पर प्रकारान्तर मिथ्या-श्रुत भी सम्यक्-श्रुत हो सकता है। सम्यक्-दृष्टि व्यक्ति मिथ्या-श्रुत से उसमें मूर्तिपूजा प्रविष्ट हो ही गयी है। इसी प्रकार इस्लाम एवं अन्य में से भी अच्छाई और सारतत्त्व ग्रहण कर लेता है, तो दूसरी ओर परिस्थितियों के प्रभाव से हिन्दू और जैन धर्म में अमूर्तिपूजक सम्प्रदायों एक मिथ्यादृष्टि व्यक्ति सम्यक्-श्रुत में भी बुराई और कमियाँ देख सकता का विकास हुआ। अत: धार्मिक जीवन की बाह्य आचार एवं रीति-रिवाज है। अत: शास्त्र के सम्यक् और मिथ्या होने का प्रश्न मूलत: व्यक्ति सम्बन्धी दैशिक, कालिक और वैयक्तिक भिन्नताओं को धर्म का मूलाधार के दृष्टिकोण पर निर्भर है। ग्रन्थ और इसमें लिखे शब्द तो जड़ होते न मानकर, इन भिन्नताओं के प्रति एक उदार और व्यापक दृष्टिकोण हैं, उनको व्याख्यायित करने वाला तो व्यक्ति का अपना मनस है। रखना आवश्यक है। हमें इन सभी विभिन्नताओं को उनके उद्भव की अत: श्रुत सम्यक् और मिथ्या नहीं होता है, सम्यक् या मिथ्या होता मुलभूत परिस्थितियों में समझने का प्रयत्न करना चाहिए। है उनसे अर्थ-बोध प्राप्त करने वाले व्यक्ति का मानसिक दृष्टिकोण।
एक व्यक्ति सुन्दर में भी असुन्दर देखता है तो दूसरा व्यक्ति असुन्दर शाख की सत्यता का प्रश्न
में भी सुन्दर देखता है। अत: यह विवाद निरर्थक और अनुपयोगी धार्मिकता के क्षेत्र में अनेक बर यह विवाद भी प्रमुख हो जाता है कि हमारा शास्त्र ही सम्यक्-शास्त्र है और दूसरे का शास्त्र मिथ्या-शास्त्र है कि हमारा धर्मशास्त्र ही सच्चा धर्मशास्त्र है और दूसरों का धर्मशास्त्र है। हम शास्त्र को जीवन से नहीं जोड़ते हैं अपितु उसे अपने-अपने सच्चा और प्रामाणिक नहीं है। इस विषय में प्रथम तो हमें यह जान ढंग से व्याख्यायित करके उस विचार-भेद के आधार पर विवाद करने लेना चाहिए कि धर्मशास्त्र का मूल स्रोत तो धर्म-प्रवर्तक के उपदेश का प्रयत्न करते हैं। परन्तु शास्त्र को जब भी व्याख्यायित किया जाता ही होते हैं और सामान्यतया प्राचीन धर्मों में वे मौखिक ही रहे हैं। है, वह देश, काल और वैयक्तिक रुचि भेद से अप्रभावित हुए बिना जिन्होंने उन्हें लिखित रूप दिया, वे देश और कालगत परिस्थितियों नहीं रहता। एक ही गीता को शंकर और रामानुज दो अलग-अलग से सर्वथा अप्रभावित रहे, यह कहना बड़ा कठिन है। महावीर के उपदेश दृष्टि से व्याख्यायित कर सकते हैं। वही गीता तिलक, अरविंद और उनके परिनिर्वाण के एक हजार वर्ष बाद लिखे गये-क्या इतनी लम्बी राधाकृष्णन् के लिए अलग-अलग अर्थ की बोधक हो सकती है। अत: कालावधि में उसमें कुछ घटाव-बढ़ाव नहीं हुआ होगा? न केवल यह शास्त्र के नाम पर धार्मिक क्षेत्र में विवाद और असहिष्णुता को बढ़ावा प्रश्न जैन शास्त्रों का है अपितु हिन्दू और बौद्ध धर्म के शास्त्रों का देना उचित नहीं है। शास्त्र और शब्द जड़ है, उससे जो अर्थबोध भी है। दुर्भाग्य से किसी भी धर्म का धर्मशास्त्र, उसके उपदेष्टा के किया जाता है, वही महत्त्वपूर्ण है और यह अर्थबोध की प्रक्रिया श्रोता जीवनकाल में नहीं लिखा गया। न महावीर के जीवन में आगम लिखे या पाठक की दृष्टि पर निर्भर करती है; अत: महत्त्व दृष्टि का है, गये, न बुद्ध के जीवन में त्रिपिटक लिखे गये, न ईसा के जीवन शास्त्र के निरे शब्दों का नहीं है। यदि दृष्टि उदार और व्यापक हो, में बाइबिल और न मुहम्मद के जीवन में कुरान। पुनः यदि प्रत्येक हममें नीर-क्षीर विवेक की क्षमता हो और शास्त्र के वचनों को हम धर्मशास्त्र में से दैशिक, कालिक और वैयक्तिक तथ्यों को अलग कर उस परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयास करें जिसमें वे कहे गये हैं, तो धर्म के उत्स या मूलतत्त्व को देखा जाये, तो उनमें बहुत बड़ी भिन्नता हमारे विवाद का क्षेत्र सीमित हो जायेगा। जैनाचार्यों ने नन्दीसूत्र में भी दृष्टिगोचर नहीं होती है। आचार के सामान्य नियम-हत्या मत जो यह कहा कि सम्यक्-श्रुत मिथ्यादृष्टि के लिए मिथ्या-श्रुत हो जाता
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ है और मिथ्या-श्रुत भी सम्यक्-दृष्टि के लिए सम्यक्-श्रुत होता है, जैन आचार्यों ने दर्शनमोह को भी तीन भागों में बाँटा है—सम्यक्त्व उसका मूल आशय यही है।
मोह, मिथ्यात्वमोह और मिश्रमोह। मिथ्यात्व-मोह का अर्थ तो सहज
ही हमें समझ में आ जाता है। मिथ्यात्व-मोह का अर्थ है-मिथ्या धार्मिक असहिष्णुता का बीज-पागात्मकता
सिद्धान्तों और मिथ्या विश्वासों का आग्रह अर्थात् गलत सिद्धान्तों और धार्मिक असहिष्णुता का बीज तभी वपित होता है, जब हम अपने गलत आस्थाओं में चिपके रहना। किन्तु सम्यक्त्वमोह का अर्थ धर्म या साधना-पद्धति को ही एकमात्र और अन्तिम मानने लगते हैं सामान्यतया हमारी समझ में नहीं आता है। सामान्यतया सम्यक्त्व-मोह तथा अपने धर्म-गुरु को ही एकमात्र सत्य का द्रष्टा मान लेते हैं। यह का अर्थ सम्यक्त्व का मोह अर्थात् सम्यक्त्व का आवरण-ऐसा किया अवधारणा ही धार्मिक वैमनस्यता का मूल कारण है।
जाता है, किन्तु ऐसी स्थिति में वह भी मिथ्यात्व का ही सूचक होता __ वस्तुत: जब व्यक्ति की रागात्मकता धर्मप्रवर्तक, धर्ममार्ग और है। वस्तुतः सम्यक्त्वमोह का अर्थ है-दृष्टिराग अर्थात् अपनी धार्मिक धर्मशास्त्र के साथ जुड़ती है, तो धार्मिक कदाग्रहों और असहिष्णुता मान्यताओं और विश्वासों को ही एकमात्र सत्य समझना और अपने का जन्म होता है। जब हम अपने धर्म-प्रवर्तक को ही सत्य का एकमात्र से विरोधी मान्यताओं और विश्वासों को असत्य मानना। जैन दार्शनिक द्रष्टा और उपदेशक मान लेते हैं, तो हमारे मन में दूसरे धर्मप्रवर्तकों यह मानते हैं कि आध्यात्मिक पूर्णता या वीतरागता की उपलब्धि के के प्रति तिरस्कार की धारणा विकसित होने लगती है। राग का तत्त्व लिए जहाँ मिथ्यात्वमोह का विनाश आवश्यक है वहाँ सम्यक्त्वमोह जहाँ एक ओर व्यक्ति को किसी से जोड़ता है, वहीं दूसरी ओर वह अर्थात् दृष्टिराग से ऊपर उठना भी आवश्यक है। न केवल जैन परम्परा उसे कहीं से तोड़ने भी लगता है। जैन परम्परा में धर्म के प्रति इस में अपितु बौद्ध परम्परा में भी भगवान् बुद्ध के अन्तेवासी शिष्य आनन्द ऐकान्तिक रागात्मकता को दृष्टिराग कहा गया है और इस दृष्टिराग के सम्बन्ध में भी यह स्थिति है। आनन्द भी बुद्ध के जीवन काल को व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास में बाधक भी माना गया है। भगवान् में अर्हत् अवस्था को प्राप्त नहीं कर पाये। बुद्ध के प्रति उनकी रागात्मकता महावीर के प्रथम शिष्य एवं गणधर इन्द्रभूति गौतम को जब तक भगवान् ही उनके अर्हत् बनने में बाधक रही। चाहे वह इन्द्रभूति गौतम हो महावीर जीवित रहे, कैवल्य (सर्वज्ञत्व) की प्राप्ति नहीं हो सकी, वे या आनन्द हो, यदि दृष्टिराग क्षीण नहीं होता है, तो अर्हत् अवस्था वीतरागता को उपलब्ध नहीं कर पाये। आखिर ऐसा क्यों हुआ? वह की प्राप्ति सम्भव नहीं है। वीतरागता की उपलब्धि के लिए अपने कौन सा तत्त्व था जो गौतम की वीतरागता और सर्वज्ञता की प्राप्ति धर्म और धर्मगुरु के प्रति भी रागभाव का त्याग करना होगा। में बाधक बन रहा था? प्राचीन जैन साहित्य में यह उल्लिखित है कि एक बार इन्द्रभूति गौतम ५०० शिष्यों को दीक्षित कर भगवान् धार्मिक मतान्यता को कम करने का उपाय-गुणोपासना महावीर के पास ला रहे थे। महावीर के पास पहुँचते-पहुँचते उनके धार्मिक असहिष्णुता के कारणों में एक कारण यह है कि हम वे सभी शिष्य वीतराग और सर्वज्ञ हो चुके थे। गौतम को इस घटना गुणों के स्थान पर व्यक्तियों से जुड़ने का प्रयास करते हैं। जब हमारी से एक मानसिक खिन्नता हुई। वे विचार करने लगे कि जहाँ मेरे द्वारा आस्था का केन्द्र या उपास्य आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास की अवस्था दीक्षित मेरे शिष्य वीतरागता और सर्वज्ञता को उपलब्ध कर रहे हैं विशेष न होकर व्यक्ति विशेष बन जाता है, तो वहाँ मैं अभी भी इसको प्राप्त नहीं कर पा रहा हूँ। उन्होंने अपनी से ही आग्रह का घेरा खड़ा हो जाता है। हम यह मानने लगते हैं इस समस्या को भगवान् महावीर के सामने प्रस्तुत किया। गौतम पूछते कि महावीर हमारे हैं, बुद्ध हमारे नहीं। राम हमारे उपास्य हैं, कृष्ण हैं-हे भगवन्! ऐसा कौन-सा कारण है, जो मेरी सर्वज्ञता या वीतरागता या शिव हमारे उपास्य नहीं हैं। की प्राप्ति में बाधक बन रहा है? महावीर ने उत्तर दिया-हे गौतम! अत: यदि हम व्यक्ति के स्थान पर आध्यात्मिक विकास की भूमिका तुम्हारा मेरे प्रति जो रागभाव है, वही तुम्हारी सर्वज्ञता और वीतरागता विशेष को अपना उपास्य बनायें तो सम्भवतः हमारे आग्रह और मतभेद में बाधक है। जब तीर्थंकर महावीर के प्रति रहा हुआ रागभाव भी कम हो सकते हैं। इस सम्बन्ध में जैनों का दृष्टिकोण प्रारम्भ से ही वीतरागता का बाधक हो सकता है तो फिर सामान्य धर्मगुरु और धर्मशास्त्र उदार रहा है। जैन परम्परा में निम्न नमस्कार मन्त्र को परम पवित्र माना के प्रति हमारी रागात्मकता क्यों नहीं हमारे आध्यात्मिक विकास में गया हैबाधक होगी? यद्यपि जैन परम्परा धर्मगुरु और धर्मशास्त्र के प्रति ऐसी नमो अरहताणं। नमो सिद्धाणं। रागात्मकता को प्रशस्त-राग की संज्ञा देती है, किन्तु वह यह मानती नमो आयरियाणं। नमो उवज्झायाणं। है कि यह प्रशस्त-राग भी हमारे बन्धन का कारण है। राग राग है, नमो लोए सव्व साहूणं। फिर चाहे वह महावीर के प्रति क्यों न हो? जैन परम्परा का कहना प्रत्येक जैन के लिए इसका पाठ आवश्यक है, किन्तु इसमें किसी है कि आध्यात्मिक विकास की सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त करने के व्यक्ति के नाम का उल्लेख नहीं है। इसमें जिन पाँच पदों की वंदना लिए हमें इस रागात्मकता से भी ऊपर उठना होगा। ___ की जाती है, वे व्यक्तिवाचक न होकर गुणवाचक हैं। अर्हत, सिद्ध,
जैन कर्मसिद्धान्त में मोह को बन्धन का प्रधान कारण माना गया आचार्य, उपाध्याय और साधु व्यक्ति नहीं है, वे आध्यात्मिक और है। यह मोह दो प्रकार का है—(१) दर्शनमोह और (२) चारित्रमोह। नैतिक विकास की विभिन्न भूमिकाओं के सूचक हैं। प्राचीन जैनाचार्यों
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धार्मिक सहिष्णुता और जैन धर्म
३६१ की दृष्टि कितनी उदार थी कि उन्होंने इन पांच पदों में किसी व्यक्ति रंगने का स्वप्न न केवल दिवास्वप्न हैं, अपितु एक दुःस्वप्न भी है। का नाम नहीं जोड़ा। यही कारण है कि आज जैनों में अनेक सम्प्रदायगत महावीर ने सूत्रकृतांग में बहुत ही स्पष्ट रूप से कहा हैमतभेद होते हुए भी नमस्कार मंत्र सर्वमान्य बना हुआ है। यदि उसमें सयं सयं पसंसंता गरहंता परं वयं। कहीं व्यक्तियों के नाम जोड़ दिये जाते तो सम्भवत: आज तक उसका जे उ तत्थ विउस्संति संसारे ते विउस्सिया।।१२ । स्वरूप न जाने कितना परिवर्तित और विकृत हो गया होता। नमस्कार अर्थात् जो लोग अपने-अपने मत की प्रशंसा और दूसरे मत महामंत्र जैनों की धार्मिक उदारता और सहिष्णुता का सबसे महत्त्वपूर्ण की निन्दा करते हैं तथा दूसरों के प्रति द्वेष का भाव रखते हैं वे संसार प्रमाण है। उसमें भी 'लमों लोए सव्व साहूणं" यह पद तो धार्मिक में परिभ्रमण करते रहते हैं। जैन परम्परा का यह विश्वास रहा है कि उदारता का सर्वोच्च शिखर कहा जा सकता है। इसमें साधक कहता सत्य का सूर्य सभी के आँगन को प्रकाशित कर सकता है। उसकी है कि मैं लोक के सभी साधुओं को नमस्कार करता हूँ। वस्तुत: जिसमें किरणें सर्वत्र विकीर्ण हो सकती हैं। जैनों के अनुसार वस्तुत: मिथ्यात्व। भी साधुत्व या मुनित्व है वह वन्दनीय है। हमें साधुत्व को जैन व असत्यता तभी उत्पन्न होता है, जब हम अपने को ही एकमात्र सत्य बौद्ध आदि किसी धर्म या किसी सम्प्रदाय के साथ न जोड़कर गुणों और अपने विरोधी को असत्य मान लेते हैं। जैन आगम साहित्य में के साथ जोड़ना चाहिए। साधुत्व, मुनित्व या श्रमणत्व वेश या व्यक्ति मिथ्यात्व के जो विविध रूप बताये गये हैं, उनमें एकान्त और आग्रह नहीं है, वरन् एक आध्यात्मिक विकास की भूमिका है, एक स्थिति को भी मिथ्यात्व कहा गया है। कोई भी कथन जब वह अपने विरोधी है, वह कहीं भी और किसी भी व्यक्ति में हो सकती है। उत्तराध्ययनसूत्र कथन का एकान्तरूप से निषेधक होता है, मिथ्या हो जाता है और में कहा गया है कि
जब उन्हीं मिथ्या कहे जाने वाले कथनों की सापेक्षिक सत्यता को स्वीकार न वि मुंडिएण समणो न ओंकारेण बंभणो।
कर लिया जाता है तो वह सत्य बन जाता है। जैन आचार्यों ने जैन न मुणी रण्णवासेणं कुसचीरेण न तावसो।।
धर्म को मिथ्यामतसमूह कहा है। आचार्य सिद्धसेन सन्मतितर्क प्रकरण समयाए समणो होइ बंभचेरेण बंभणो।
में कहते हैंनाणेण य मुणी होइ तवेण होइ तावसो।११
भई मिच्छादसण समूहमइयस्स अमयसारस्स। सिर मुंडा लेने से कोई श्रमण नहीं होता, ओंकार का जाप करने जिणवयस्स भगवओ संविग्ग सुहाहिगम्मस्स।। १३ ।। से कोई ब्राह्मण नहीं होता, जंगल में रहने से कोई मुनि नहीं होता अर्थात् 'मिथ्यादर्शनसमूहरूप अमृतरस प्रदायी और मुमुक्षुजनों 'और कुशचीवर धारण करने से कोई तापस नहीं होता। समता से को सहज समझ में आने वाले जिनवचन का कल्याण हो।' यहाँ जिनधर्म श्रमण, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि और तपस्या से तापस को 'मिथ्यादर्शनसमूह' कहने का तात्पर्य है कि वह अपने विरोधी मतों कहलाता है।
की भी सत्यता को स्वीकार करता है। जैन धर्म को मिथ्यामतसमूह ___ धर्म के क्षेत्र में अपने विरोधी पर नास्तिक, मिथ्यादृष्टि, काफ़िर कहना सिद्धसेन की विशालहृदयता का भी परिचायक है। वस्तुत: जैन आदि का आक्षेपण हमने बहुत किया है। हम सामान्यतया यह मान धर्म में यह माना गया है कि सभी धर्ममार्ग देश, काल और लेते हैं कि हमारे धर्म और दर्शन में विश्वास रखने वाला व्यक्ति ही वैयक्तिक-रुचि-वैभित्र्य के कारण भिन्न-भिन्न होते हैं, किन्तु वे सभी आस्तिक, सम्यग्दृष्टि और ईमानवाला है तथा दूसरे धर्म और दर्शन किसी दृष्टिकोण से सत्य भी होते हैं। में विश्वास रखने वाला नास्तिक है, मिथ्यादृष्टि है, काफिर है, वस्तुतः इन सबके मूल में दृष्टि यह है- मैं ही सच्चा हूँ और मेरा विरोधी मुक्ति का द्वारः सभी के लिए उद्घाटित झूठा। यही दृष्टिकोण असहिष्णुता और धार्मिक संघर्षों का मूलभूत वस्तुत: धार्मिक असहिष्णुता और धार्मिक संघर्षों का एक कारण कारण है। हमारा दुर्भाग्य इससे भी अधिक है, वह यह कि हम न यह भी होता है कि हम यह मान लेते हैं कि मुक्ति केवल हमारे धर्म केवल दूसरों को नास्तिक, मिथ्यादृष्टि या काफ़िर समझते हैं, अपितु में विश्वास करने से या हमारी साधना-पद्धति को अपनाने से ही सम्भव उन्हें सम्यग्दृष्टि और ईमानवाले बनाने की जिम्मेदारी भी अपने सिर है या प्राप्त हो सकती है। ऐसी स्थिति में हम इसके साथ-साथ यह पर ओढ़ लेते हैं। हम यह मान लेते हैं कि दुनियाँ को सच्चे रास्ते भी मान लेते हैं कि दूसरे धर्म और विश्वासों के लोग मुक्ति प्राप्त नहीं पर लगाने का ठेका हमने ही ले रखा है। हम मानते हैं कि मुक्ति कर सकते हैं। किन्तु यह मान्यता एक भ्रान्त आधार पर खड़ी है। हमारे धर्म और धर्मगुरु की शरण में ही होगी। इस एक अंधविश्वास वस्तुत: दु:ख या बन्धन के कारणों का उच्छेद करने पर कोई भी व्यक्ति या मिथ्या धारणा ने दुनिया में अनेक बार जिहाद या धर्मयुद्ध कराये मुक्ति का अधिकारी हो सकता है, इस सम्बन्ध में जैनों का दृष्टिकोण हैं। दूसरों को आस्तिक, सम्यग्दृष्टि और ईमानवाला बनाने के लिए सदैव ही उदार रहा है। जैन धर्म यह मानता है कि जो भी व्यक्ति हमने अनेक बार खून की होलियाँ खेली हैं। पहले तो अपने से भिन्न बन्धन के मूलभूत कारण राग-द्वेष और मोह का प्रहाण कर सकेगा, धर्म या सम्प्रदाय वाले को नास्तिकता या कुफ्र का फतवा दे देना और वह मुक्ति को प्राप्त कर सकता है। ऐसा नहीं है कि केवल जैन ही फिर उसके सुधारने की जिम्मेदारी अपने सिर पर ओढ़ लेना, एक मोक्ष को प्राप्त करेंगे और दूसरे लोग मोक्ष को प्राप्त नहीं करेंगे। दोहरो मूर्खता है। दुनिया को अपने ही धर्म या सम्प्रदाय के रंग में उत्तराध्ययनसूत्र में, जो कि जैन परम्परा का एक प्राचीन आगम ग्रन्थ
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ है, 'अन्य लिंगसिद्ध' का उल्लेख प्राप्त होता है
अर्थात् संसार-परिभ्रमण के कारणभूत राग-द्वेष के तत्त्व जिसके इत्थी पुरिससिद्धा य तहेव य नपुंसगा।
क्षीण हो चुके हैं उसे हमारा प्रणाम है, वह चाहे.ब्रह्मा हो, विष्णु हो, सलिंगे अनलिंगे य गिहिलिंगे तहेव य।।१४ महादेव हो या जिन। 'अन्यलिंग' शब्द का तात्पर्य जैनेतर धर्म और सम्प्रदाय के लोगों वस्तुत: हम अपने-अपने आराध्य के नामों को लेकर विवाद से है। जैन धर्म के अनुसार मुक्ति का आधार न तो कोई धर्म सम्प्रदाय करते रहते हैं। उसकी विशेषताओं को अपनी दृष्टि से ओझल कर है और न कोई विशेष वेश-भूषा ही। आचार्य रत्नशेखरसूरि सम्बोधसत्तरी देते हैं। सभी धर्म और दर्शनों में उस परम तत्त्व या परम सत्ता को में स्पष्ट रूप से कहते हैं कि
राग-द्वेष, तृष्णा और आसक्ति से रहित, विषय-वासनाओं से ऊपर सेयंबरो य आसंबरो य बुद्धो य अहव अन्नो वा।
उठी हुई पूर्णप्रज्ञ तथा परम कारुणिक माना गया है। हमारी दृष्टि उस समभावभाविअप्पा लहेय मुक्खं न संदेहो।।१५ परम तत्त्व के इस मूलभूत स्वरूप पर न होकर नामों पर टिकी होती
अर्थात् जो भी समभाव की साधना करेगा वह निश्चित ही मोक्ष है और इसी के आधार पर हम विवाद करते हैं। जबकि यह नामों को प्राप्त करेगा फिर चाहे वह श्वेताम्बर हो या दिगम्बर हो, बौद्ध हो का भेद अपने आप में कोई अर्थ नहीं रखता है। आचार्य हरिभद्र या अन्य किसी धर्म को मानने वाला हो। इसी बात का अधिक स्पष्ट कहते हैं - प्रतिपादन आचार्य हरिभद्र के ग्रन्थ उपदेशतरंगिणी में भी है।
सदाशिवः परं ब्रह्म सिद्धात्मा तथातेति च। वे लिखते हैं कि
शब्दैस्तद् उच्यतेऽन्वर्थाद् एकं एवैवमादिभिः।।११ नासाम्बरत्वे न सिताम्बरत्वे, न तर्कवादे न च तत्त्ववादे। अर्थात् यह एक ही तत्त्व है चाहे उसे सदाशिव कहें, परब्रह्म न पक्षसेवाश्रयेन मुक्ति, कषाय मुक्तिः किल मुक्तिरेव।।१६ कहें, सिद्धात्मा कहें या तथागत कहें। नामों को लेकर जो विवाद किया
अर्थात् मुक्ति न तो सफेद वस्त्र पहनने से होती है न दिगम्बर जाता है उसकी निस्तारता को स्पष्ट करने के लिए एक सुन्दर उदाहरण रहने से; तार्किक वाद-विवाद और तत्त्वचर्चा से भी मुक्ति प्राप्त नहीं दिया जाता है। एक बार भिन्न भाषा-भाषी लोग किसी नगर की धर्मशाला हो सकती। किसी एक सिद्धान्त विशेष में आस्था रखने या किसी में एकत्रित हो गये। वे एक ही वस्तु के अलग-अलग नामों को लेकर व्यक्ति विशेष की सेवा करने से भी मुक्ति असम्भव है। मुक्ति तो वस्तुत: परस्पर विवाद करने लगे। संयोग से उसी समय उस वस्तु का विक्रेता कषायों अर्थात्, क्रोध, मान, माया और लोभ से मुक्त होने में है। उसे लेकर वहाँ आया। सब उसे खरीदने के लिए टूट पड़े और अपने एक दिगम्बर आचार्य ने भी स्पष्ट रूप से कहा है -
विवाद की निस्सारता को समझने लगे। धर्म के क्षेत्र में भी हमारी संघो को विन तारइ, कट्ठो मूलो तहेव णिप्पिच्छो। यही स्थिति है। हम सभी अज्ञान, तृष्णा, आसक्ति, या राग-द्वेष के अप्पा तारइ अप्पा तम्हा अप्पा व झाएहि।। तत्त्वों से ऊपर उठना चाहते हैं, किन्तु आराध्य के नाम या आराधना
अर्थात् कोई भी संघ या सम्प्रदाय हमें संसार-समुद्र से पार नहीं विधि को लेकर व्यर्थ में विवाद करते हैं और इस प्रकार परम आध्यात्मिक करा सकता; चाहे वह मूलसंघ हो, काष्ठासंघ हो या निपिच्छिकसंघ अनुभूति से वंचित रहते हैं। वस्तुतः यह नामों का विवाद तभी तक हो। वस्तुतः जो आत्मबोध को प्राप्त करता है वही मुक्ति को प्राप्त रहता है जब तक कि हम उस आध्यात्मिक अनुभूति के रस का रसास्वादन करता है। मुक्ति तो अपनी विषय-वासनाओं से, अपने अहंकार और नहीं करते हैं। व्यक्ति जैसे ही वीतराग, वीततृष्णा या अनासक्त की अमर्ष से तथा राग-द्वेष के तत्त्वों से ऊपर उठने पर प्राप्त होती है। भूमिका का स्पर्श करता है, उसके सामने ये सारे नामों के विवाद अत: हम कह सकते हैं कि जैनों के अनुसार मुक्ति पर न तो व्यक्ति निरर्थक हो जाते हैं। सतरहवीं शताब्दी के आध्यात्मिक साधक आनन्दघन विशेष का अधिकार है और न तो किसी धर्म विशेष का अधिकार कहते हैंहै। मुक्त पुरुष चाहे वह किसी धर्म या सम्प्रदाय का रहा हो सभी के राम कहो रहिमान कहो कोउ काण्ह कहो महादेव री। लिए वन्दनीय और पूज्य होता है। आचार्य हरिभद्र लोकतत्त्वनिर्णय पारसनाथ कहो कोउ ब्रह्मा सकल ब्रह्म स्वयमेव री।। में कहते हैं
भाजन भेद कहावत नाना एक मृतिका का रूप री। यस्य अनिखिलाश्च दोषा न सन्ति सवें गुणाश्च विद्यन्ते।
तापे खंड कल्पनारोपित आप अखंड अरूप री।। ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै।। १७ राम-रहीम, कृष्ण-करीम, महादेव और पार्श्वनाथ सभी एक ही
अर्थात् जिसके सभी दोष विनष्ट हो चुके हैं और जिसमें सभी सत्य के विभिन्न रूप हैं। जैसे एक ही मिट्टी से बने विभिन्न पात्र गुण विद्यमान हैं, वह फिर ब्रह्मा हो, महादेव हो, विष्णु हो या फिर अलग-अलग नामों से पुकारे जाते हैं, किन्तु उनकी मिट्टी मूलत: एक जिन, हम उसे प्रणाम करते हैं। इसी बात को आचार्य हेमचन्द्र ही है। वस्तुत: आराध्य के नामों की यह भिन्नता वास्तविक भिन्नता महादेवस्तोत्र में लिखते हैं
नहीं है। यह भाषागत भिन्नता है, स्वरूपगत भिन्नता नहीं है। अत: भव-बीजांकुरजनना रागाद्या क्षयमुपागता यस्य।
इस आधार पर विवाद और संघर्ष निरर्थक है तथा विवाद करने वाले ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै।।१८ लोगों की अल्पबुद्धि के ही परिचायक हैं।
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धार्मिक सहिष्णुता और जैन धर्म ।
३६३ धार्मिक संघर्ष का नियंत्रक तत्त्व-प्रज्ञा
से नहीं बचा सकेंगे। श्रद्धा भावना प्रधान है, भावनाओं को उभाड़ना धर्म के क्षेत्र में अनुदारता और असहिष्णुता के कारणों में एक सहज होता है। अत: धर्म के नाम पर अपने निहित स्वार्थों की सिद्धि कारण यह भी है कि हम धार्मिक जीवन में बुद्धि या विवेक के तत्त्वों में लगे हुए कुछ लोग अपने उन स्वार्थों की पूर्ति के लिए सामान्य को नकार कर श्रद्धा को ही एकमात्र आधार मान लेते हैं। यह ठीक जनमानस की भावनाओं को उभाड़कर उसे उन्मादी बना देते हैं तथा है कि धर्म श्रद्धा पर टिका हुआ है। धार्मिक जीवन के आधार हमारे शास्त्र में से कोई एक वचन प्रस्तुत कर उसे इस प्रकार व्याख्यायित विश्वास और आस्थाएँ हैं, लेकिन हमें यह ध्यान रखना होगा कि यदि करते हैं कि जिससे लोगों की भावनाएँ या धर्मोन्माद उभड़े और उन्हें हमारे ये विश्वास और आस्थाएँ विवेक-बुद्धि को नकार कर चलेंगे तो अपने निहित स्वार्थों की सिद्धि का अवसर मिले। वे यह भी कहते वे अंधविश्वासों में परिणित हो जायेंगे और ये अंधविश्वास ही धार्मिक हैं कि शास्त्र में एक शब्द का भी परिवर्तन करना या शास्त्र की अवहेलना संघर्षों के मूल कारण हैं। धार्मिक जीवन में विवेक-बुद्धि या प्रज्ञा को करना बहुत बड़ा पाप है। मात्र यही नहीं, वे जनसामान्य को शास्त्र श्रद्धा का प्रहरी बनाया जाना चाहिए, अन्यथा हम अंध-श्रद्धा से कभी के अध्ययन का अनधिकारी मानकर अपने को ही शास्त्र का एकमात्र भी मुक्त नहीं हो सकेंगे। आज का युग विज्ञान और तर्क का युग सच्चा व्याख्याता सिद्ध करते हैं और शास्त्र के नाम पर जनता को है, फिर भी हमारा अधिकांश जनसमाज, जो अशिक्षित है, वह श्रद्धा मूर्ख बनाकर अपना हित साधन करते रहते हैं। धर्म के नाम पर युगों-युगों के बल पर जीता है। हमें यह स्मरण रखना होगा कि श्रद्धा यदि विवेक से जनता का इसी प्रकार शोषण होता रहा है। अत: यह आवश्यक प्रधान नहीं होती तो वह सर्वाधिक घातक होती। इसीलिए जैन आचार्यों है कि शास्त्र की सारी बातों और उनकी व्याख्याओं को विवेक की ने अपने मोक्षमार्ग की विवेचना में सम्यग्दर्शन के साथ-साथ सम्यग्ज्ञान. तराजू पर तौला जाये। उनके सारे नियमों और मर्यादाओं का युगीन को भी आवश्यक माना है। जैन परम्परा में भी जब आचार के बाह्य सन्दर्भ में मूल्यांकन और समीक्षा की जाये। जब तक यह सब नहीं विधि-निषेधों को लेकर पार्श्वनाथ और महावीर की संघ-व्यवस्था में होता है, तब तक धार्मिक जीवन में आयी हुई संकीर्णता को मिटा जो मतभेद थे, उन्हें सुलझाने का प्रयत्न किया गया, तब उसके लिए पाना संभव नहीं है। विवेक ही एक ऐसा तत्त्व है जो हमारी दृष्टि श्रद्धा के स्थान पर प्रज्ञा अर्थात् विवेक-बुद्धि को ही प्रधानता दी गयी। को उदार और व्यापक बना सकता है। श्रद्धा आवश्यक है किन्तु उसे उत्तराध्ययनसूत्र के तेईसवें अध्ययन में पार्श्वनाथ की परम्परा के तत्कालीन विवेक का अनुगामी होना चाहिए। विवेकयुक्त श्रद्धा ही सम्यक् श्रद्धा पमुख आचार्य केशी महावीर के प्रधान शिष्य इन्द्रभूति गौतम से यह है। वही हमें सत्य का दर्शन करा सकती है। विवेक से रहित श्रद्धा प्रश्न करते हैं कि एक ही लक्ष्य की सिद्धि के लिए प्रयत्नशील पार्श्वनाथ अंध-श्रद्धा होगी और हम उसके आधार पर अनेक अंधविश्वासों के शिकार
और महावीर के आचार-नियमों में यह अन्तर क्यों है? इससे समाज बनेंगे। आज धार्मिक उदारता और सहिष्णुता के लिए श्रद्धा को विवेक में मतिभ्रम उत्पन्न होता है कि
से समन्वित किया जाना चाहिए। इसलिए जैनाचार्यों ने कहा था कि पन्ना समिक्खए धम्मं तत्तं तत्तविणिच्छय।२०
सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन (श्रद्धा) में एक सामंजस्य होना चाहिए। __ अर्थात् धार्मिक आचार के नियमों की समीक्षा और मूल्यांकन प्रज्ञा के द्वारा करना चाहिए। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि धार्मिक जैन धर्म में धार्मिक सहिष्णुता का आधार-अनेकान्तवाद जीवन में अकेली श्रद्धा ही आधारभूत नहीं मानी जानी चाहिए, उसके जैन आचार्यों की मान्यता है कि परमार्थ, सत् या वस्तुतत्त्व अनेक साथ-साथ तर्क-बुद्धि, प्रज्ञा एवं विवेक को भी स्थान मिलना चाहिए। विशेषताओं और गुणों का पुंज है। उनका कहना है कि 'वस्तुतत्त्व भगवान् बुद्ध ने आलारकलाम को कहा था कि तुम किसी के वचनों अनन्तधर्मात्मक' है। २२ उसे अनेक दृष्टियों से जाना जा सकता है और को केवल इसलिए स्वीकार मत करो कि इनका कहने वाला श्रमण कहा जा सकता है। अत: उसके सम्बन्ध में कोई भी निर्णय निरपेक्ष हमारा पूज्य है। हे कलामों! जब तुम आत्मानुभव से अपने आप ही और पूर्ण नहीं हो सकता है। वस्तुतत्त्व के सम्बन्ध में हमारा ज्ञान और यह जान लो कि ये बातें कुशल हैं, ये बातें निर्दोष हैं, इनके अनुसार कथन दोनों ही सापेक्ष है अर्थात् वे किसी सन्दर्भ या दृष्टिकोण के चलने से हित होता है, सुख होता है, तभी उन्हें स्वीकार करो। एक आधार पर ही सत्य हैं। आंशिक एवं सापेक्ष ज्ञान/कथन को या अपने अन्य बौद्ध ग्रन्थ तत्त्वसंग्रह में भी कहा गया है
से विरोधी ज्ञान/कथन को असत्य कहकर नकारने का अधिकार नहीं तापाच्छेदाच्च निकषात् सुवर्णमिव पण्डितैः।
है। इसे हम निम्न उदाहरण से स्पष्टतया समझ सकते हैं- कल्पना परीक्ष्य भिक्षवो ग्राह्यं मद्वचो न तु गौरवात्।।२१
कीजिए कि अनेक व्यक्ति अपने-अपने कैमरों से विभिन्न कोणों से एक जिस प्रकार स्वर्ण को काटकर, छेदकर, कसकर और तपाकर वृक्ष का चित्र लेते हैं। ऐसी स्थिति में सर्वप्रथम तो हम यह देखेंगे परीक्षा की जाती है, उसी प्रकार से धर्म की भी परीक्षा की जानी चाहिए। कि एक ही वृक्ष के विभिन्न कोणों से, विभिन्न व्यक्तियों के द्वारा उसे केवल शास्ता के प्रति आदरभाव के कारण स्वीकार नहीं करना हजारों-हजार चित्र लिये जा सकते हैं। साथ ही इन हजारों-हजार चित्रों चाहिये। धार्मिक जीवन में जब तक विवेक या प्रज्ञा को विश्वास और के बावजूद भी वृक्ष का बहुत कुछ भाग ऐसा है जो कैमरों की पकड़ आस्था का नियंत्रक नहीं माना जायेगा, तब तक हम मानव जाति को से अछूता रह गया है। पुन: जो हजारों-हजार चित्र भिन्न-भिन्न कोणों धार्मिक संघर्षों और धर्म के नाम पर खेली जाने वाली खून की होली से लिए गये हैं, वे एक-दूसरे से भिन्नता रखते हैं। यद्यपि वे सभी
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ उसी वृक्ष के चित्र हैं। केवल उसी स्थिति में दो चित्र समान होंगे जब मान लिया जाता है तो वह असत्य बन जाता है और इसे ही जैनों उनका कोण और वह स्थल, जहाँ से वह चित्र लिया गया है-एक की परम्परागत शब्दावली में मिथ्यात्व कहा गया है। जिस प्रकार ही हो। अपूर्णता और भिन्नता दोनों ही बातें इन चित्रों में हैं। यही अलग-अलग कोणों से लिये गये चित्र परस्पर भिन्न-भिन्न और विरोधी बात मानवीय ज्ञान के सम्बन्ध में भी है। मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियों की होकर भी एक साथ यथार्थ के परिचायक होते हैं, उसी प्रकार क्षमता और शक्ति सीमित है। वह एक अपूर्ण प्राणी है। अपूर्ण के अलग-अलग संदर्भो में कहे गये भिन्न-भिन्न विचार परस्पर विरोधी होते द्वारा पूर्ण को जानने के समस्त प्रयास आंशिक सत्य के ज्ञान से आगे हुए भी सत्य हो सकते हैं। सत्य केवल उतना नहीं है, जितना हम नहीं जा सकते हैं। हमारा ज्ञान, जब तक कि वह ऐन्द्रिकता का अतिक्रमण जानते हैं। अत: हमें अपने विरोधियों के सत्य का निषेध करने का नहीं कर जाता, सदैव आंशिक और अपूर्ण होता है। इसी आंशिक अधिकार भी नहीं है। वस्तुत: सत्य केवल तभी असत्य बनता है, ज्ञान को जब पूर्ण सत्य मान लिया जाता है, तो विवाद और वैचारिक जब हम उस अपेक्षा या दृष्टिकोण को दृष्टि से ओझल कर देते हैं, संघर्षों का जन्म होता है। उपर्युक्त उदाहरण में वृक्ष के सभी चित्र उसके जिसमें वह कहा गया है। जिस प्रकार चित्र में वस्तु की सही स्थिति किसी एक अंश विशेष को ही अभिव्यक्त करते हैं। वृक्ष के इन सभी को समझने के लिए उस कोण का भी ज्ञान अपेक्षित होता है, उसी अपूर्ण एवं भिन्न-भिन्न और दो विरोधी कोणों से लिये जाने के कारण प्रकार वाणी में प्रकट सत्य को समझने के लिए उस दृष्टिकोण का किसी सीमा तक परस्पर विरोधी अनेक चित्रों में हम यह कहने का विचार अपेक्षित है जिसमें वह कहा गया है। समग्र कथन संदर्भ सहित साहस नहीं कर सकते हैं कि यह चित्र उस वृक्ष का नहीं है अथवा होते हैं और उन सन्दर्भो से अलग हटकर उन्हें नहीं समझा जा सकता यह चित्र असत्य है। इसी प्रकार हमारे आंशिक दृष्टिकोणों पर आधारित है। जो ज्ञान सन्दर्भ सहित है, वह सापेक्ष है और जो सापेक्ष है, वह सापेक्ष ज्ञान को यह अधिकार नहीं है कि वह अपने से विरोधी मन्तव्यों अपनी सत्यता का दावा करते हुए भी दूसरे की सत्यता का निषेधक को असत्य कहकर नकार दे। वस्तुत: हमारी ऐन्द्रिक क्षमता, तर्कबुद्धि, नहीं हो सकता है। सत्य के सम्बन्ध में यही एक ऐसा दृष्टिकोण है शब्दसामर्थ्य और भाषायी अभिव्यक्ति सभी अपूर्ण, सीमित और सापेक्ष जो विभिन्न धर्म और संप्रदायों की सापेक्षिक सत्यता एवं मूल्यवत्ता हैं। ये सम्पूर्ण सत्य की एक साथ अभिव्यक्ति में सक्षम नहीं हैं। मानव को स्वीकार कर उनमें परस्पर सौहार्द्र और समन्वय स्थापित कर सकता बुद्धि सम्पूर्ण सत्य का नहीं, अपितु उसके एकांश का ग्रहण कर सकती है। अनेकान्त की आधारभूमि पर ही यह मानना सम्भव है कि हमारे है। तत्त्व या सत्ता अज्ञेय तो नहीं है, किन्तु बिना पूर्णता को प्राप्त और हमारे विरोधी के विश्वास और कथन दो भिन्न-भिन्न परिप्रेक्ष्यों में हुए उसे पूर्णरूप से जाना भी नहीं जा सकता। आइन्स्टीन ने कहा एक साथ सत्य हो सकते हैं। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर सन्मतितर्क था- हम सापेक्ष सत्य को जान सकते हैं, निरपेक्ष सत्य को तो कोई में कहते हैंनिरपेक्ष द्रष्टा ही जानेगा। जब तक हमारा ज्ञान अपूर्ण, सीमित या सापेक्ष णिययवयणिज्जसच्चा सव्वनया परवियालणे मोहा। है तब तक हमें दूसरों के ज्ञान और अनुभव को, चाहे वह हमारे ज्ञान ते उण ण दिट्ठसमओ विभयइ सच्चे व अलिए वा।।२४ का विरोधी क्यों न हो, असत्य कहकर निषेध करने का कोई अधिकार अर्थात् सभी नय (अर्थात् सापेक्षिक वक्तव्य) अपने-अपने नहीं है। आंशिक सत्य का ज्ञान दूसरों के द्वारा प्राप्त ज्ञान का निषेधक दृष्टिकोण से सत्य हैं। वे असत्य तभी होते हैं, जब वे अपने से विरोधी नहीं हो सकता है। ऐसी स्थिति में यह कहना कि मेरी दृष्टि ही सत्य दृष्टिकोणों के आधार पर किये गये कथनों का निषेध करते हैं। इसीलिए है, सत्य मेरे ही पास है, दार्शनिक दृष्टि से एक भ्रान्त धारणा ही अनेकान्त दृष्टि का समर्थक या शास्त्र का ज्ञाता उन परस्पर विरोधी है। यद्यपि जैनों के अनुसार सर्वज्ञ या पूर्ण-पुरुष संपूर्ण सत्य का सापेक्षिक कथनों में ऐसा विभाजन नहीं करता है कि ये सच्चे हैं और साक्षात्कार कर लेता है, फिर भी उसका ज्ञान और कथन उसी प्रकार ये झूठे हैं। किसी कथन या विश्वास की सत्यता और असत्यता उस निरपेक्ष (अपेक्षा से रहित) नहीं हो सकता है, जिस प्रकार बिना किसी सन्दर्भ अथवा दृष्टिकोण विशेष पर निर्भर करती है जिसमें वह कहा कोण के किसी भी वस्तु का कोई भी चित्र नहीं लिया जा सकता गया है। वस्तुत: यदि हमारी दृष्टि उदार और व्यापक है, तो हमें परस्पर है। पूर्ण सत्य का बोध चाहे संभव हो, किन्तु उसे न तो निरपेक्ष रूप विरोधी कथनों की सापेक्षिक सत्यता को स्वीकार करना चाहिए। से जाना जा सकता है और न कहा ही जा सकता है। उसकी अभिव्यक्ति परिणामस्वरूप विभिन्न धर्मवादों में पारस्परिक विवाद या संघर्ष का का जब भी कोई प्रयास किया जाता है, वह आंशिक और सापेक्ष कोई कारण शेष नहीं बचता। जिस प्रकार परस्पर झगड़ने वाले व्यक्ति बनकर ही रह जाता है। पूर्ण-पुरुष को भी हमें समझाने के लिए हमारी किसी तटस्थ व्यक्ति के अधीन होकर मित्रता को प्राप्त कर लेते हैं, उसी भाषा का सहारा लेना पड़ता है जो सीमित, सापेक्ष और अपूर्ण उसी प्रकार परस्पर विरोधी विचार और विश्वास अनेकान्त की उदार है। 'है' और 'नहीं है' की सीमा से घिरी हुई भाषा पूर्ण सत्य का और व्यापक दृष्टि के अधीन होकर पारस्परिक विरोध को भूल जाते प्रकटन कैसे करेगी। इसीलिए जैन परम्परा में कहा गया है कि कोई हैं।२५ उपाध्याय यशोविजय जी लिखते हैंभी वचन (जिनवचन भी) नय (दृष्टिकोण विशेष) से रहित नहीं होता यस्य सर्वत्र समता नयेषु तनयेष्विव। है अर्थात् सर्वज्ञ के कथन भी सापेक्ष हैं, निरपेक्ष नहीं है। २३ जैन परम्परा तस्यानेकान्तवादस्य क्व न्यूनाधिकशेमुषी।। के अनुसार जब सापेक्ष सत्य को निरपेक्ष रूप से दूसरे सत्यों का निषेधक तेन स्याद्वादमालंब्य सर्वदर्शनतुल्यताम्।
साना
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धार्मिक सहिष्णुता और जैन धर्म
३६५ मोक्षोद्देशाविशेषेण य: पश्यति स शास्त्रवित्।।
सूत्रकृतांग का ही उदाहरण लें, उसमें अनेक विरोधी विचारधाराओं माध्यस्थ्यमेव शास्त्रार्थों येन तच्चारु सिध्यति।।
की समीक्षा की गयी है। किन्तु शालीनता यह है कि कहीं भी किसी स एव धर्मवादः स्यादन्यद्वालिशवल्गनम्।।
धर्ममार्ग या धर्मप्रवर्तक पर वैयक्तिक छींटाकशी नहीं है। ग्रन्थकार केवल माध्यस्थ्यसहितं ह्येकपदज्ञानमपि प्रमा।
उनकी विचारधाराओं का उल्लेख करता है, उनके मानने वालों का शास्त्रकोटिवृथैवान्या तथा चोक्तं महात्मना।।२६
नामोल्लेख नहीं करता है। वह केवल इतना कहता है कि कुछ लोगों अर्थात् सच्चा अनेकान्तवादी किसी भी दर्शन से द्वेष नहीं करता की यह मान्यता है या कुछ लोग यह मानते हैं, जो कि संगतिपूर्ण है। वह सम्पूर्ण दृष्टिकोणों (दर्शनों) को इस प्रकार वात्सल्य दृष्टि से है। इस प्रकार वैयक्तिक या नामपूर्वक समालोचना से, जो कि विवाद देखता है, जिस प्रकार कोई पिता अपने पुत्र को। एक सच्चे अनेकान्त- या संघर्ष का कारण हो सकती है, वह सदैव दूर रहता है।२८ जैनागम वादी की दृष्टि न्यूनाधिक नहीं होती है। वह सभी के प्रति समभाव साहित्य में हम ऐसे अनेक सन्दर्भ भी पाते हैं, जहां अपने से विरोधी रखता है अर्थात् प्रत्येक विचारधारा या धर्म-सिद्धान्त की सत्यता का विचारों और विश्वासों के लोगों के प्रति समादर दिखाया गया है। सर्वप्रथम विशेष परिप्रेक्ष्य में दर्शन करता है। आगे वे पुन: कहते हैं कि सच्चा आचारांगसूत्र में जैन मुनि को यह स्पष्ट निर्देश दिया गया है कि वह शास्त्रज्ञ कहे जाने का अधिकारी वही है जो स्याद्वाद अर्थात् उदार दृष्टिकोण अपनी भिक्षावृत्ति के लिए इस प्रकार जाये कि अन्य परम्पराओं के का आलम्बन लेकर सम्पूर्ण विचारधाराओं को समान भाव से देखता श्रमणों, परिव्राजकों और भिक्षुओं को भिक्षा प्राप्त करने में कोई बाधा है। वस्तुत: माध्यस्थभाव ही शास्त्रों का गूढ़ रहस्य है और यही सच्चा न हो। यदि वह देखे कि अन्य परम्परा के श्रमण या भिक्षु किसी गृहस्थ धर्मवाद है। माध्यस्थभाव अर्थात् उदार दृष्टिकोण के रहने पर शास्त्र उपासक के द्वार पर उपस्थित हैं तो वह या तो भिक्षा के लिए आगे के एक पद का ज्ञान भी सफल है, अन्यथा करोड़ो शास्त्रों का ज्ञान प्रस्थान कर जाये या फिर सबके पीछे इस प्रकार खड़ा रहे कि उन्हें भी वृथा है।
भिक्षाप्राप्ति में कोई बाधा न हो। मात्र यही नहीं यदि गृहस्थ उपासक
उसे और अन्य परम्पराओं के भिक्षुओं के सम्मिलित उपभोग के लिए जैन धर्म और धार्मिक सहिष्णुता के प्रसंग ।
जैन भिक्षु को यह कह कर भिक्षा दे कि आप सब मिलकर खा लेना, जैनाचार्यों का दृष्टिकोण प्रारम्भ से ही उदार और व्यापक रहा तो ऐसी स्थिति में जैन भिक्षु का यह दायित्व है कि वह समानरूप है। यही कारण है कि उन्होंने दूसरी विचारधाराओं और विश्वासों के से उस भिक्षा को सभी में वितरित करे। वह न तो भिक्षा में प्राप्त अच्छी लोगों का सदैव आदर किया है। इसका सबसे महत्त्वपूर्ण उदाहरण सामग्री को अपने लिए रखे न भिक्षा का अधिक अंश ही ग्रहण करे।२९ जैन परम्परा का एक प्राचीनतम ग्रन्थ है-ऋषिभाषित। ऋषिभाषित भगवतीसूत्र के अन्दर हम यह देखते हैं कि भगवान् महावीर के अन्तर्गत उन पैंतालीस अर्हत् ऋषियों के उपदेशों का संकलन है, के ज्येष्ठ अन्तेवासी गणधर इन्द्रभूति गौतम को मिलने के लिए उनका जिनमें पार्श्वनाथ और महावीर को छोड़कर लगभग सभी जैनेतर परम्पराओं पूर्वपरिचित मित्र स्कन्ध, जो कि अन्य परम्परा के परिव्राजकके रूप के हैं। नारद, भारद्वाज, नमि, रामपुत्र, शाक्यपुत्र गौतम, मंखलि गोशाल में दीक्षित हो गया था, आता है तो महावीर स्वयं गौतम को उसके आदि अनेक धर्ममार्ग के प्रवर्तकों एवं आचार्यों के विचारों का इसमें सम्मान और स्वागत का आदेश देते हैं। गौतम आगे बढ़कर अपने जिस आदर के साथ संकलन किया गया है, वह धार्मिक उदारता और मित्र का स्वागत करते हैं और कहते हैं-हे स्कन्ध! तुम्हारा स्वागत सहिष्णुता का परिचायक है। इन सभी को अर्हत् ऋषि कहा गया है२७ है, सुस्वागत है।३० अन्य परम्परा के श्रमणों और परिव्राजकों के प्रति और इनके वचनों को आगमवाणी के रूप में स्वीकार किया गया है। इस प्रकार का सम्मान एवं आदरभाव निश्चित ही धार्मिक सहिष्णुता सम्भवतः प्राचीन धार्मिक साहित्य में यही एकमात्र ऐसा उदाहरण है, और पारस्परिक सद्भाव में वृद्धि करता है। जहां विरोधी विचारधारा और विश्वासों के व्यक्तियों के वचनोंको उत्तराध्ययनसूत्र में हम देखते हैं कि भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा आगमवाणी के रूप में स्वीकार कर समादर के साथ प्रस्तुत किया के तत्कालीन प्रमुख आचार्य श्रमणकेशी और भगवान् महावीर के प्रधान गया हो।
गणधर इन्द्रभूति गौतम जब संयोग से एक ही समय श्रावस्ती में उपस्थित जैन परम्परा की धार्मिक उदारता की परिचायक सूत्रकृतांगसूत्र होते हैं तो वे दोनों परम्पराओं के पारस्परिक मतभेदों को दूर करने की पूर्वनिर्दिष्ट वह गाथा भी है, जिसमें यह कहा गया है कि जो के लिए परस्पर सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में मिलते हैं। एक ओर ज्येष्ठकुल अपने-अपने मत की प्रशंसा करते हैं और दूसरों के मतों की निन्दा का विचार कर गौतम स्वयं श्रमणकेशी के पास जाते हैं तो दूसरी करते हैं तथा उनके प्रति विद्वेषभाव रखते हैं, वे संसारचक्र में परिभ्रमित ओर श्रमणकेशी उन्हें श्रमणपर्याय में ज्येष्ठ मानकर पूरा समादर प्रदान होते रहते हैं। सम्भवतः धार्मिक उदारता के लिए इससे महत्त्वपूर्ण और करते हैं। जिस सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में वह चर्चा चलती है और कोई वचन नहीं हो सकता। यद्यपि यह सत्य है कि अनेक प्रसंगों पारस्परिक मतभेदोंका निराकरण किया जाता है, वह सब धार्मिक में जैन आचार्यों ने भी दूसरी विचारधाराओं और मान्यताओं की सहिष्णुता और उदार दृष्टिकोण का एक अद्भुत उदाहरण है।३१ समालोचना की है, किन्तु उन सन्दर्भो में भी कुछ अपवादों को छोड़कर दूसरी धर्म परम्पराओं और सम्प्रदायों के प्रति ऐसा ही उदार और सामान्यतया हमें एक उदार दृष्टिकोण का परिचय मिलता है। हम समादर का भाव हमें आचार्य हरिभद्र के ग्रंथों में भी देखने को मिलता
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है। हरिभद्र संयोग से उस युग में उत्पन्न हुए जब पारस्परिक आलोचना- प्रत्यालोचना अपनी चरम सीमा पर थी। फिर भी हरिभद्र न केवल अपनी समालोचनाओं में संयत रहे अपितु उन्होंने सदैव ही अन्य परम्पराओं के आचार्यों के प्रति आदरभाव प्रस्तुत किया। शास्त्रवार्तासमुच्चय उनकी इस उदारवृत्ति और सहिष्णुदृष्टि की परिचायक एक महत्त्वपूर्ण कृति है। बौद्ध दर्शन की दार्शनिक मान्यताओं की समीक्षा करने के उपरान्त वे कहते हैं कि बुद्ध ने जिन क्षणिकवाद, अनात्मवाद और शून्यवाद के सिद्धान्तों का उपदेश दिया, वह वस्तुतः ममत्व के विनाश और तृष्णा के उच्छेद के लिए आवश्यक ही था। वे भगवान् बुद्ध को अर्हत्, महामुनि और सुवैद्य की उपमा देते हैं और कहते है कि जिस प्रकार एक अच्छा वैद्य रोगी के रोग और प्रकृति को ध्यान में रखकर एक ही रोग के लिए भिन्न-भिन्न रोगियों को भिन्न-भिन्न औषधि प्रदान करता है, उसी प्रकार भगवान् बुद्ध ने अपने अनुयायियों के विभिन्न स्तरों को ध्यान में रखते हुए इन विभिन्न सिद्धान्तों का उपदेश दिया है। ऐसा ही उदार दृष्टिकोण वे सांख्य दर्शन के प्रस्तोता महामुनि कपिल और न्यायदर्शन के प्रतिपादकों के प्रति भी व्यक्त करते हैं। कपिल के लिए भी वे महामुनि शब्द का प्रयोग कर अपना आदर भाव प्रकट करते हैं । ३२ विभिन्न विरोधी दार्शनिक विचारधाराओं में किस प्रकार संगति स्थापित की जा सकती है इसका एक अच्छा उदाहरण उनका यह ग्रन्थ है।
१२ वीं शताब्दी के पसिद्ध जैनाचार्य हेमचन्द्र ने भी इसी प्रकार मार्मिक सहिष्णुता और उदारवृत्ति का परिचय दिया है। उन्होंने न केवल भगवान् शिव की स्तुति में महादेवस्तोत्र की रचना की अपितु शिवमन्दिर में जाकर शिव की वन्दना करते हुए कहा- जिसने संसार परिभ्रमण के कारणभूत राग-द्वेष के तत्वों को क्षीण कर दिया है, उसे मैं प्रणाम करता हूँ चाहे वह ब्रह्मा हो, विष्णु हो, शिव हो या जिन जैनों की इस धार्मिक उदारता का एक प्रमाण यह भी है कि महाराजा कुमारपाल और विष्णुवर्धन ने जैन होकर भी शिव और विष्णु के अनेक मन्दिरों का निर्माण करवाया और उनकी व्यवस्था के लिए भूमिदान किया । कुमारपाल के धर्मगुरु आचार्य हेमचन्द्र ने न केवल उसकी इस उदारवृत्ति
१.
२०
आयाणे अज्जो सामाइए, आयाणे अज्जो सामाइयस्स अट्ठेव्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, संपा० मधुकरमुनि प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर १९९२ १/९.
समियाए धम्मे आरिएहिं पवेइए - आचारांगसूत्र, संपा० मुधकरमुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, १९८०, १/८/३. धर्म जीवन जीने की कला - पृ० ७-८.
३.
४. योगदृष्टिसमुच्चय, हरिभद्र, विजय कमल केशर ग्रन्थमाला, खम्भात्,
वि०सं० १९९२ १३७.
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
५.
आचारांगसूत्र, संपा० मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, १९८०, १/४/२.
६. योगदृष्टिसमुच्चय, हरिभद्र, विजय कमल केशर ग्रन्थमाला, सम्वत्, वि०सं० १९९२, १३३.
णाणाजीवा णाणा कम्मं णाणाविहं हवे लद्धी ।
तन्हा वदविवाद सगपरसनएहिं वज्जिजो नियमसार, अनु०
11
७.
को प्रोत्साहित किया अपितु शिवमन्दिर में स्वयं उपस्थित होकर अपने उदारवृत्ति का परिचय भी दिया। हेमचंद्र के समान इस उदार परम्परा का निर्वाह अन्य जैनाचार्यों ने भी किया था, जिसके अभिलेखीय प्रमाण आज भी उलब्ध होते हैं दिगम्बर जैनाचार्य रामकीर्ति ने तोकलजी में मंदिर के लिए और श्वेताम्बर आचार्य जयमंगलसूरि ने चामुण्डा के मन्दिर के लिए प्रशस्ति-काव्य लिखे। उपाध्याय यशोविजय की धार्मिक सहिष्णुता का उल्लेख हम पूर्व में कर ही चुके है उनका यह कहना कि माध्यस्थ या सहिष्णु भाव ही धर्मवाद है, धार्मिक सहिष्णुता का मुद्रालेख है। इसी प्रकार जैन रहस्यवादी सन्तकवि आनन्दघन भी कहते हैं
षडदर्शन जिन अंगभणोजे न्यायषडंग जे साधे रे । नमिजिनवरना चरम उपासक षड्दर्शन आराधे रे।।
अर्थात् सभी दर्शन जिन के अंग हैं और जिन का उपासक सभी दर्शनों की उपासना करता है। जैनों की यह उदार और सहिष्णुवृत्ति वर्तमान युग तक यथार्थतः जीवित है। आज भी जैनों की सर्वप्रिय प्रार्थना का प्रारम्भ इसी उदार भाव के साथ होता है
जिसने रागद्वेष कामादिक जीते, सब जग जान लिया। सब जीवों को मोक्ष मार्ग का, निस्पृह हो उपदेश दिया। बुद्ध वीर जिन हरि हर ब्रह्मा, या उसको स्वाधीन कहो। भक्तिभाव से प्रेरित हो, यह चित्त उसी में लीन रहो । वस्तुतः यदि हम विश्व में शान्ति की स्थापना चाहते हैं, यदि हम चाहते हैं कि मनुष्य-मनुष्य के बीच घृणा और विद्वेष की भावनाएँ समाप्त हों और सभी एक-दूसरे के विकास में सहयोगी बनें, तो हमें आचार्य अमितगति के निम्न चार सूत्रों को अपने जीवन में अपनाना होगा। वे कहते हैं३३—
सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम्। माध्यस्य भावं विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव ।। हे प्रभु! प्राणीमात्र के प्रति मैत्रीभाव, गुणीजनों के प्रति समादरभाव, दुःख एवं पीड़ित जनों के प्रति कृपाभाव तथा विरोधियों के प्रति माध्यस्थभाव – समताभाव मेरी आत्मा में सदैव रहे ।
८.
पं० परमेष्ठीदास न्यायतीर्थ, प्रका० सत्साहित्य प्रकाशन एवं प्रचार विभाग, श्री कुन्दकुन्द महान जैन दिगम्बर तीर्थ सुरक्षा ट्रस्ट, जयपुर, १९८८, १५६ ।
एवाई मिच्छद्दिस्सि मिच्छत्तपरिग्गहियाई मिच्छसुयं एयाणि चेव सम्मदिद्विस्स सम्मत्तपरिहियाई सम्मसूयं अहवा मिच्छदिट्ठिस्स वि सम्मसूर्य कम्हा? सम्मलहेउत्तणओ, जम्हा ते मिच्छदिट्टिया तेहिं चेव समएहिं चोइया समाणा केइ सपक्खदिडीओ वयेति से तं मिच्छसुयं । नन्दीसूत्र, प्रका० धर्मदास जैन मित्र मंडल, रतलाम, सं० २००५,
७२।
९अ. भगवती — अभयदेवकृत वृत्ति, प्रका० केशरीमल जैन श्वेताम्बर संस्था, सूरत, १९३७, १४/७/ पृ० ११८८।
(ब) मुक्खमग्ग पवन्नानं सिनेहो वज्जसिंखला।
वीरे जीवन्तए जाओ गोयम जं न केवलि ।।
- उद्धृतत कल्पसूत्र टीका विनयविजय प्रका० हीरालाल जैन,
.
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धार्मिक सहिष्णुता और जैन धर्म
३६७ जामनगर, १९३९, पृ० १२०।
२४. सन्मतितर्क, संपा० सुखलाल संघवी, प्रका० पूंजीभाई ग्रन्थमाला १०. सम्मत्तं चेव मिच्छत्तं, सम्मामिच्छत्तमेव य।
कार्यालय, अहमदाबाद, १९३२, १.२८। एयाओ तिन्त्रिपयडीओ मोहणिज्जस्स दंसणे।।- उत्तराध्यययन २५. सव्वे समयंति सम्मं चेगवसाओ नया विरुद्धा वि। संपा०- साधवी चन्दना, प्रका० वीरायतन प्रकाशन, आगरा, मिच्च ववहारिणो इव, राआदासीण वसवत्ती।। १९७२, ३३/९।
-विशेषाभाष्य, श्री जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण टीका हेमचन्द्र, प्रका० ११. वही, २५/३१-३२।
हर्षचन्द्र भूराभाई, बनारस, सं० २४४१, २२६७। १२. सूत्रकृतांगसूत्र, संपा० मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन २६. अध्यात्मोपनिषद्, यशोविजय, न्यायाचार यशोविजयकृत ग्रन्थमाला, समिति, ब्यावर, १९८२, १/१/२/२३.
प्रका० श्री जैनधर्म प्रकारक सभा, भावनगर, वि०सं० १९६५, १३. सन्मतितर्कप्रकरण, ३/६९ ।
६१,७०, ७१,७३। १४. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा० साधवी चन्दना, प्रका० वीरायतन प्रकाशन, २७. अरहता इसिणा बुइयं-इसिभासियाई, संपा० महोपाध्याय विनयसागर, आगरा, १९७२, ३६/४९।
प्रका० प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, १९८८, १। १५. सम्बोधसप्ततिका, अनु० डॉ० रविशंकर मिश्र, प्रका० पार्श्वनाथ २८. एवमेगे उ पासत्था ते भुज्जो विप्पगब्धिया। विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९८६, २।
एवं उवट्ठिता संता ण ते दुक्खविमोक्खया।। १६. उपदेशतरङ्गिणी, संपा० विजय जिनेन्द्रसूरि, प्रका० श्री हर्ष पुष्पामृत -सूत्रकृतांगसूत्र, संपा० मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन जैन ग्रन्थमाला, सौराष्ट्र, १९८६, १/८।
समिति, ब्यावर, १९८२, १/२/३१-३२। १७. लोकतत्त्वनिर्णय, १४०.
२९. आचारांगसूत्र, संपा० मधुकरमुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन १८. महादेवस्तोत्र, ४४.
समिति, ब्यावर, २/१/५/२९। १९. योगदृष्टिसम्मुच्चय, हरिभद्र, प्रका० विजय कमल केशर ग्रन्थमाला, ३०. हे खंदया! सागयं, खंदया ! सुसागयं- भगवतीसूत्र, संपा० घासी खम्भात् , वि०सं० १९९२, १३०.
लाल जी, प्रका० अ०भा०श्वे०स्था० जैन शास्त्रोद्धार समिति, २०. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा० साध्वी चन्दना, प्रका० वीरायतन प्रकाशन, राजकोट, १९६२। आगरा, १९७२, २३/२५.
३१. उत्तराध्यययन संपा० साधवी चन्दना, प्रका० वीरायतन प्रकाशन, २१. तत्त्वसंग्रह, संपा० द्वारिका प्रसाद शास्त्री, प्रका० बौद्ध भारती, आगरा, १९७२, अध्याय २३। वाराणसी, १९६८, ३५८८।
३२. देखें-शास्त्रवार्तासमुच्चय, हरभिद्रसूरि, प्रका० लालभाई, दलपतभाई २२. अनन्तधर्मात्मकमेव तत्वम्, २२-अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका, भारतीय विद्या मंदिर, अहमदाबाद, १९६८, ३/२०६, ३/२३७,
हेमचंद्र, प्रका० जैन ग्रन्थ प्रकाशन सभा, भावनगर, वि०सं० ६/६४-६७। १९९६।
३३. सामायिकपाठ, संपा० प्रेमराज बोगावत, प्रका० सम्यग्ज्ञान प्रचारक २३. नत्थि नयहिविहूणं सुत्तं अत्यो य जिणवये किंचि-आवयकनियुक्ति,५४४ मण्डल, जयपुर, १९७५, १।
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जैन साधना के मनोवैज्ञानिक आधार
साधना का लक्ष्य साध्य की उपलब्धि या सिद्धि है। यह हमें चेतना के तीन पक्ष और जैन दर्शन बाताती है कि हमें क्या होना है, किन्तु हमें क्या होना है, यह बहुत मनोवैज्ञानिकों ने चेतना का विश्लेषण कर उसके तीन पक्ष माने कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि हम क्या हैं? हमारी क्षमताएँ हैं- ज्ञान, अनुभूति और संकल्प। चेतना को अपने इन तीन पक्षों एवं सम्भावनायें क्या हैं? ऐसा साध्य या आदर्श, जिसे उपलब्ध करने से भिन्न कहीं देखा नहीं जा सकता है। चेतना इन तीन प्रक्रियाओं की क्षमताएँ हममे न हों, जिसको प्राप्त करना हमारे लिये सम्भव नहीं के रूप में ही अभिव्यक्त होती है। चेतन जीवन ज्ञान, अनुभूति और हो, एक छलना ही होगा। जैन दर्शन ने इस मनोवैज्ञानिक तथ्य को संकल्प की क्षमताओं के विकास के रूप में परिलक्षित होता है। जैन अधिक गम्भीरता से समझा है और अपनी साधना-पद्धति को ठोस विचारकों की दृष्टि में चेतना के ये तीनों पक्ष नैतिक आदर्श एवं नैतिक मनोवैज्ञानिक नींव पर खड़ा किया है।
साधना-मार्ग से निकट रूप से सम्बन्धित हैं। जैन दर्शन में चेतना
के इन तीन पक्षों के आधार पर ही नैतिक आदर्श का निर्धारण किया हमारा निज स्वरूप
गया है। जैन धर्म का आदर्श मोक्ष है और मोक्ष अनन्तचतुष्टय अर्थात् ___ जैन दर्शन में मानव प्रकृति एवं प्राणीय प्रकृति का गहन अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द और अनन्त शक्ति की विश्लेषण किया गया है। महावीर से जब यह पूछा गया कि आत्मा उपलब्धि है। वस्तुत: मोक्ष चेतना के इन तीनों पक्षों की पूर्णता का क्या है? आत्मा का साध्य या आदर्श क्या है? तब महावीर ने इस द्योतक है। जीवन के ज्ञानात्मक पक्ष की पूर्णता अनन्त ज्ञान एवं दर्शन प्रश्न का जो उत्तर दिया था वह आज भी मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सत्य में, जीवन के भावात्मक या अनुभूत्यात्मक पक्ष की पूर्णता अनन्त सौख्य है। महावीर ने कहा था- 'आत्मा समत्व रूप है और समत्व ही में और संकल्पात्मक पक्ष की पूर्णता अनन्त शक्ति में मानी गई है। आत्मा का साध्य है।' वस्तुत: जहाँ-जहाँ भी जीवन है, चेतना है, जैन साधना-पथ भी चेतना के इन्हीं तीन तत्वों-ज्ञान, भाव और संकल्प वहाँ-वहाँ समत्व संस्थापन के अनवरत प्रयास चल रहे हैं। परिवेशजन्य के साथ सम्यक् विशेषण का प्रयोग करके निर्मित किया गया है। ज्ञान विषमताओं को दूर कर समत्व के लिए प्रयासशील बने रहना जीवन से सम्यग्ज्ञान, भाव से सम्यग्दर्शन और संकल्प से सम्यग्चारित्र का या चेतना का मूल स्वभाव है। शारीरिक एवं मानसिक स्तर पर समत्व निर्माण हुआ है। इस प्रकार जैन दर्शन में साध्य, साधक और साधना-पथ का संस्थापन ही जीवन का लक्षण है। डॉ० राधाकृष्णन् के शब्दों में इन तीनों पर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विचार हुआ है। जीवन गतिशील सन्तुलन है। स्पेन्सर के अनुसार परिवेश में निहित तथ्य जीवन के सन्तुलन को भंग करते रहते हैं और जीवन अपनी जीवन का साध्यः समत्व का संस्थापन क्रियाशीलता के द्वारा पुन: इस सन्तुलन को बनाने का प्रयास करता हमारे नैतिक आचरण का लक्ष्य क्या है? यह प्रश्न मनोविज्ञान है। यह सन्तुलन बनाने का प्रयास ही जीवन की प्रक्रिया है। विकासवादियों और नैतिक दर्शन दोनों की ही दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। जैन दर्शन में ने इसे ही अस्तित्व के लिए संघर्ष कहा है, किन्तु मेरी अपनी दृष्टि इसे मोक्ष कहकर अभिव्यक्त किया गया है, किन्तु यदि हम जैन दर्शन में इसे अस्तित्व के लिए संघर्ष कहने की अपेक्षा समत्व के संस्थापन के अनुसार मोक्ष का विश्लेषण करें तो मोक्ष वीतरागता की अवस्था का प्रयास कहना ही अधिक उचित है। समत्व के संस्थापन एवं समायोजन है और वीतरागता चेतना के पूर्ण समत्व की अवस्था है। इस प्रकार की प्रक्रिया ही जीवन का महत्वपूर्ण लक्षण है। समायोजन और संतुलन जैन दर्शन में समत्व को ही नैतिक जीवन का आदर्श माना गया है। के प्रयासों की उपस्थिति ही जीवन है और उसका अभाव मृत्यु है। यह बात मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी सही उतरती है। संघर्ष नहीं, अपितु मृत्यु और कुछ नहीं, मात्र शारीरिक स्तर पर सन्तुलन बनाने की इस समत्व ही जीवन का आदर्श हो सकता है, क्योंकि यह ही हमारा प्रक्रिया का असफल होकर टूट जाना है। अध्यात्मशास्त्र के अनुसार _स्वभाव है और जो स्व-स्वभाव है वही आदर्श है। स्वभाव से भिन्न जीवन न तो जन्म है और न मृत्यु। एक उसका किसी शरीर में प्रारम्भ आदर्श की कल्पना अयथार्थ है। स्पेन्सर, डार्विन एवं आर्सा प्रभृति बिन्दु है तो दूसरा उसके अभाव की उद्घोषणा करने वाला तथ्य। कुछ पाश्चात्य विचारक संघर्ष को ही जीवन का स्वभाव मानते हैं, लेकिन जीवन इन दोनों से ऊपर है, जन्म और मृत्यु तो एक शरीर में उसके यह एक मिथ्या धारणा है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार वस्तु का आगमन और चले जाने की सूचनाएँ भर हैं, वह इनसे अप्रभावित स्वभाव वह होता है जिसका निराकरण नहीं किया जाता। जैन दर्शन है। सच्चा जीवन तो आत्मचेतनता है, अप्रमत्तदशा है, समभाव में के अनुसार नित्य और निरापवाद वस्तु धर्म ही स्वभाव है। यदि हम अवस्थिति है। जैन दर्शन में इसे ही स्व-स्वरूप में रमण कहा इस कसौटी पर कसें, तो संघर्ष जीवन का स्वभाव सिद्ध नहीं होता गया है।
है। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के अनुसार मनुष्य-स्वभाव संघर्ष है, मानवीय
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जैन साधना के मनोवैज्ञानिक आधार
३६९ इतिहास वर्ग-संघर्ष की कहानी है। संघर्ष ही जीवन का नियम है। है, क्योंकि वह अनुभव करती है कि उसकी क्षमतायें सान्त एवं सीमित किन्तु यह एक मेथ्या धारणा है। यदि संघर्ष ही जीवन का नियम हैं। सीमा या अपूर्णता को जानने के लिए असीम एवं पूर्ण का बोध है तो फिर द्वन्दात्मक भौतिकवाद संघर्ष का निराकरण क्यों करना भी आवश्यक है। जब हमारी चेतना यह ज्ञान रखती है कि वह सान्त, चाहता है? सई मिटाने के लिए होता है; जो मिटाने की, सीमित एवं अपूर्ण है, तो उसका सीमित होने का यह ज्ञान ही स्वयं निराकरण करने की वस्तु है, क्या उसे स्वभाव कहा जा सकता है? उसे इस सीमा के परे ले जाता है। इस प्रकार बेडले स्व में निहित संघर्ष यदि मानव इतिहास का एक तथ्य है तो वह उसके दोषों का, पूर्णता की चाह का संकेत करते हैं।' आत्मा पूर्ण है अर्थात् अनन्त उसके विभाव का इतिहास है, उसके स्वभाव का इतिहास नहीं। चतुष्टय से युक्त है, यह बात जैन दर्शन के एक विद्यार्थी के लिए मानव-स्वभाव सघर्ष नहीं, संघर्ष का निराकरण या समत्व की अवस्था नहीं है। वस्तुत: जैन दर्शन के अनुसार पूर्णता हमारी क्षमता है, योग्यता है, क्योकि युगों से मानवीय प्रयास उसी के लिए हो रहे हैं। सच्चा नहीं। पूर्णता के प्रकाश में हमें अपनी अपूर्णता का बोध होता है। मानव इतिहास संघर्ष की कहानी नहीं, संघर्षों के निराकरण की यह अपूर्णता का बोध पूर्णता की चाह का संकेत अवश्य है, लेकिन कहानी है।
पूर्णता की उपलब्धि नहीं। यह आत्मपूर्णता ही हमारा साध्य है। जैन संघर्ष अथवा समत्व से विचलन जीवन में पाये जाते हैं, दर्शन की दृष्टि से हमारा ज्ञान, भाव और संकल्प की शक्तियों का लेकिन वे जीवन के स्वभाव नहीं क्योंकि जीवन की प्रक्रिया उनके अनन्त ज्ञान, अनन्त आनन्द और अनन्त शक्ति के रूप में विकसित समाप्त करने की दिशा में ही प्रयासशील है। समत्व की उपलब्धि हो जाना ही आत्मपूर्णता है। आत्मशक्तियों का अनावरण एवं उनकी ही मनोवैज्ञानिक दृष्टि से जीवन का साध्य है। समत्व शुभ और विषमता पूर्ण अभिव्यक्ति में ही आत्मपूर्णता है और यही नैतिक जीवन का साध्य अशुभ है। कामना, आसक्ति, राग-द्वेष, वितर्क आदि सभी जीवन की है। इस प्रकार जैन दर्शन का आत्मपूर्णता का नैतिक साध्य भी मानवीय विषमता, असन्तुलन एवं तनाव की अवस्था को अभिव्यक्त करते हैं, चेतना के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण पर ही आधारित है। अत: जैन दर्शन में इन्हें अशुभ माना गया है। इसके विपरीत वासनाशून्य, वितर्कशून्य, निष्काम, अनासक्त, वीतराग अवस्था ही नैतिक शुभ है, साध्य, साधक और साधना का पारस्परिक सम्बन्ध वही जीवन का आदर्श है, क्योंकि वह समत्व की स्थिति है। जैन जैन आचार दर्शन में साध्य और साधक में अभेद माना गया दर्शन के अनुसार समत्व एक आध्यात्मिक सन्तुलन है। राग और द्वेष है। समयसार टीका में आचार्य अमृतचन्द्रसूरि लिखते हैं कि परद्रव्य की वृत्तियाँ हमारे चेतन समत्व को भंग करती हैं। अत: उनसे ऊपर का परिहार और शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि ही सिद्धि है।' आचार्य उठकर वीतरागता की अवस्था को प्राप्त कर लेना ही सच्चे समत्व हेमचन्द्र साध्य और साधक में अभेद बताते हुए लिखते हैं कि कषायों की अवस्था है। वस्तुत: समत्व की उपलब्धि जैन दर्शन और और इन्द्रियों से पराजित आत्मा ही संसार है और उनको विजित करने आधुनिक मनोविज्ञान दोनों की दृष्टि से मानव जीवन का साध्य मानी वाली आत्मा ही प्रबुद्ध पुरुषों द्वारा मोक्ष कही जाती है। अध्यात्मतत्त्वालोक जा सकती है।
में मुनि न्यायविजयजी कहते हैं कि आत्मा ही संसार है और आत्मा
ही मोक्ष है। जहाँ तक आत्मा कषाय और इन्द्रियों के वशीभूत है, नैतिक साधना का लक्ष्य आत्मपूर्णता के रूप में
संसार है और जब उनको ही अपने वशीभूत कर लेता है, मोक्ष कहा जैन दर्शन के अनुसार मोक्ष आत्मपूर्णता की अवस्था भी है और जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन दर्शन का नैतिक साध्य पूर्ण समत्व के लिए आत्मपूर्णता भी आवश्यक है, क्योंकि अपूर्णता और साधक दोनों ही आत्मा है। दोनों में मौलिक अन्तर यही है कि या अभाव भी एक मानसिक तनाव है। हमारे व्यावहारिक जीवन में आत्मा जब तक विषय और कषायों के वशीभूत होता है तब तक हमारे सम्पूर्ण प्रयास, हमारी चेतना के ज्ञानात्मक, भावात्मक और बन्धन में होता है और जब उन पर विजय लाभ कर लेता है तब संकल्पात्मक शक्तियों के विकास के निमित्त होते हैं। हमारी चेतना वही मुक्त बन जाता है। आत्मा की वासनाओं के मल से युक्त अवस्था सदैव ही इस दिशा में प्रयत्नशील होती है कि वह अपने इन तीनों ही उसका बन्धन कही जाती है और विशुद्ध आत्म-तत्त्व की अवस्था पक्षों की देश-कालगत सीमाओं का अतिक्रमण कर सके। व्यक्ति अपनी ही मुक्ति कही जाती है। आसक्ति को बन्धन और अनासक्ति को मुक्ति ज्ञानात्मक, भावात्मक और संकल्पात्मक क्षमता की पूर्णता चाहता है। मानना एक मनोवैज्ञानिक सत्य है। यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि मनुष्य अपनी सीमितता और अपूर्णता जैन दर्शन में साध्य और साधक दोनों में अन्तर इस बात को से छुटकारा पाना चाहता है। वस्तुत: मानव मन की इस स्वाभाविक लेकर है कि आत्मा की विभाव अवस्था ही साधक अवस्था है और इच्छा की पूर्ति ही जैन दर्शन में मोक्ष के प्रत्यय के रूप में अभिव्यक्त आत्मा की स्वभाव अवस्था ही सिद्धावस्था है। जैन साधना का लक्ष्य हुई है। सीमितता और अपूर्णता, जीवन की वह प्यास है जो पूर्णता अथवा आदर्श कोई बाह्य तत्त्व नहीं, वह तो साधक का अपना ही के जल से परिशान्त होना चाहती है। हमारी चेतना में जो अपूर्णता निज रूप है। उसकी ही अपनी पूर्णता की अवस्था है। साधक का का बोध है वह स्वयं ही हमारे अन्तस में निहित पूर्णता की चाह का आदर्श उसके बाहर नहीं वरन् उसके अन्दर ही है। साधक को उसे संकेत भी है। पाश्चात्य विचारक ब्रेडले का कथन है कि चेतना अनन्त पाना भी नहीं है, क्योंकि पाया तो वह जाता है, जो व्यक्ति में अपने
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ में नहीं हो अथवा अपने से बाह्य हो। नैतिक साध्य बाह्य उपलब्धि दशा साध्य है और आत्मा की विभाव पर्याय की अवस्था ही साधक नहीं, आन्तरिक उपलब्धि है। दूसरे शब्दों में कहें तो वह निज गुणों है तथा विभाव से स्वभाव की ओर आना ही साधना है। का पूर्ण प्रकटन है। यहाँ भी हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि आत्मा साधना-पथ और साध्य-जिस प्रकार साधक और साध्य में के निज गुण या स्व लक्षण तो सदैव ही उसमें उपस्थित हैं, साधक अभेद माना गया है, उसी प्रकार साधना-मार्ग और साध्य में भी अभेद को केवल उन्हें प्रकटित करना है। हमारी क्षमताएँ साधक अवस्था है। जीवात्मा अपने ज्ञान, अनुभूति और संकल्प के रूप में साधक और सिद्ध अवस्था में वही हैं। साधक और सिद्ध अवस्था में अन्तर कहे जाते हैं, उसके यही ज्ञान, अनुभूति और संकल्प सम्यक्-दिशा क्षमताओं का नहीं, वरन् क्षमताओं को योग्यताओं में बदल देने का में नियोजित होने पर साधना-पथ बन जाते हैं, वे जब अपनी पूर्णता है। जैसे बीज वृक्ष के रूप में विकसित होता है वैसे ही मुक्तावस्था को प्रकट कर लेते हैं तो सिद्ध बन जाते हैं। जैन दर्शन के अनुसार में आत्मा के निज गुण पूर्ण रूप में प्रकटित हो जाते हैं। साधक आत्मा सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यग्चारित्र और सम्यग्तप अनन्त ज्ञान, अनन्त के ज्ञान, भाव (अनुभूति) और संकल्प के तत्त्व ही मोक्ष की अवस्था दर्शन, अनन्त आनन्द और अनन्त शक्ति रूपी अनन्त चतुष्टय की में अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द और अनन्त शक्ति के उपलब्धि कर लेते हैं तो यही अवस्था सिद्ध बन जाती है। आत्मा रूप में प्रकट हो जाते हैं। वह आत्मा जो कषाय और राग-द्वेष से का ज्ञानात्मक पक्ष सम्यग्ज्ञान की साधना के द्वारा अनन्त ज्ञान को प्रक युक्त है और इनसे युक्त होने के कारण बद्ध, सीमित और अपूर्ण है, कर लेता है, आत्मा का अनुभूत्यात्मक पक्ष सम्यग्दर्शन की साधना वही आत्मा अपने अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द और के द्वारा अनन्त दर्शन की उपलब्धि कर लेता है, आत्मा का संकल्पात्मक अनन्त शक्ति के रूप में मुक्त एवं पूर्ण बन जाता है। उपाध्याय अमरमुनिजी पक्ष सम्यग्चारित्र की साधना के द्वारा अनन्त आनन्द की उपलब्धि कर के शब्दों में- “जैन साधना में स्व में स्व को उपलब्ध करना है, लेता है और आत्मा की क्रियाशक्ति सम्यगतप की साधना के द्वारा अनन्त निज में निज का शोध करना है, अनन्त में पूर्ण रूपेण रमण होना शक्ति को उपलब्ध कर लेता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जो साधक है-आत्मा के बाहर एक कण में भी साधना की उन्मुखता नहीं है।” चेतना का स्वरूप है वही सम्यक् बन कर साधना-पथ बन जाता है इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन विचारणा में तात्त्विक दृष्टि से साध्य और उसी की पूर्णता साध्य होती है। साधना-पथ और साध्य दोन
और साधक दोनों एक ही हैं, यद्यपि पर्यायार्थिक दृष्टि या व्यवहारनय आत्मा की ही अवस्थायें हैं। आत्मा की सम्यक् साधना पथ है और से उनमें भेद माना गया है। आत्मा की स्वभाव पर्याय या स्वभाव पूर्ण अवस्था साध्य है।
2. .
सन्दर्भ : १. जीवन की आध्यात्मिक दृष्टि, डॉ० राधाकृष्णन्, प्रका०राजकमल
प्रकाशन, दिल्ली, १९६७, पृ० २५९। First Principles, Herbert spencer, pub. watts & co. London, VIIth Ed. p. 66.
Five Types of Ethical Theories, p. 16. ४. Ethical Studies, F.H. Bradlay, Oxford Universtiy Press
London,, 1935, Chapter II. ५. समयसार टीका, अमृतचन्द्र, प्रका०- अहिंसा प्रकाशन मन्दिर,
दरियागंज, दिल्ली, १९५९, ३०५। ६. योगशास्त्र, सम्पा० मुनि समदर्शी, सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा
१९६३, ४/५। अध्यात्मतत्त्वालोक, मुनि न्यायविजय, प्रका० श्री हेमचन्द्राचार्य जैन सभा (पाटण), १९४३, ४/७।
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मन-शक्ति, स्वरूप और साधना : एक विश्लेषण
जैन साधना में मन का स्थान
आस्रव मन के अधीन है, लेकिन जो पुरुष मन का निरोध नहीं करता भारतीय दर्शन जीवात्मा के बन्धन और मुक्ति की समस्या की है उसके कर्मों (बन्धन) की अभिवृद्धि होती रहती है।"२ एक विस्तृत व्याख्या है। भारतीय चिन्तकों ने केवल मुक्ति के उपलब्धि बौद्धदर्शन में चित्त, विज्ञप्ति आदि मन के पर्यायवाची शब्द हैं। के हेतु आचार-मार्ग का उपदेश ही नहीं दिया वरन् उन्होंने यह बताने तथागत बुद्ध का कथन है “सभी प्रवृत्तियों का आरम्भ मन से होता का भी प्रयास किया कि बन्धन और मुक्ति का मूल कारण क्या है? है, मन की उनमें प्रधानता है वे प्रवृत्तियाँ मनोमय हैं। जो सदोष मन अपने चिन्तन और अनुभूति के प्रकाश में उन्होंने इस प्रश्न का जो से आचरण करता है, भाषण करता है उसका दुःख वैसे ही अनुगमन उत्तर पाया वह है- “मन ही बन्धन और मुक्ति का कारण है।" जैन, करता है जैसे- रथ का पहिया घोड़े के पैरों का अनुगमन करता बौद्ध और हिन्दू दर्शनों में यह तथ्य सर्वसम्मत रूप से ग्राह्य है। जैन है। किन्तु जो स्वच्छ (शुद्ध) मन से भाषण एवं आचरण करता है दर्शन में बन्ध और मुक्ति की दृष्टि से मन की अपार शक्ति मानी गई उसका सुख वैसे ही अनुगमन करता है जैसे साथ नहीं छोड़ने वाली है। बन्धन की दृष्टि से वह पौराणिक ब्रह्मास्त्र से भी बढ़कर भयंकर छाया।" कुमार्ग पर लगा हुआ चित्त सर्वाधिक अहितकारी और सन्मार्ग है। कर्म सिद्धान्त का एक विवेचन है कि आत्मा के साथ कर्म-बन्ध पर लगा हुआ चित्त सर्वाधिक हितकारी है। अत: जो इसका संयम की क्या स्थिति है? मात्र काययोग से मोहनीय जैसे कर्म का बन्ध करेंगे वे मार के बन्धन से मुक्त हो जायेंगे। लंकावतारसूत्र में कहा उत्कृष्ट रूप में एक सागर की स्थिति तक का हो सकता है। वचनयोग गया है, “चित्त की ही प्रवृत्ति होती है और चित्त की ही विमुक्ति मिलते ही पच्चीस सागर की स्थिति का उत्कृष्ट बन्ध हो सकता है। होती है।'' प्राणेन्द्रिय अर्थात् नासिका के मिलने पर पचास सागर का, चक्षु के वेदान्त परम्परा में भी सर्वत्र यही दृष्टिकोण मिलता है कि जीवात्मा मिलते ही सौ सागर का और श्रवणेन्द्रिय अर्थात् कान के मिलते ही के बन्धन और मुक्ति का कारण मन ही है। ब्रह्मबिन्दु उपनिषद् में कहा हजार सागर तक का बन्ध हो सकता है। किन्तु यदि मन मिल गया गया है कि "मनुष्य के बन्धन और मुक्ति का कारण मन ही है। उसके तो मोहनीयकर्म का बन्ध लाख और करोड़ सागर को भी पार कर विषयासक्त होने पर बन्धन है और उसका निर्विषय होना ही मुक्ति है।" सकता है। सत्तर क्रोड़ाक्रोड़ी (करोड़ करोड़) सागरोपम का सर्वोत्कृष्ट गीता में कहा गया है-“इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि ही इस वासना के मोहनीयकर्म "मन" मिलने पर ही बाँधा जा सकता है।
वास स्थान कहे गये हैं और यह वासना इनके द्वारा ही ज्ञान को यह है मन की अपार शक्ति, इसलिए मन को खुला छोड़ने से आवृत्त कर समाप्त हो गई है ऐसे ब्रह्मभूत योगी को ही उत्तम आनन्द पहले विचार करना होगा कि कहीं वह आत्मा को किसी गहन गर्त प्राप्त होता है।"१० में तो नहीं धकेल रहा है? जैन विचारणा में मन मुक्ति के मार्ग का आचार्य शंकर भी विवेकचूड़ामणि में लिखते हैं कि मन से ही प्रथम प्रवेश द्वार भी है। वहाँ केवल समनस्क प्राणी ही इस मार्ग पर बन्धन की कल्पना होती है और उसी से मोक्ष की। मन ही देहादि आगे बढ़ सकते हैं। अमनस्क प्राणियों को तो इस राजमार्ग पर चलने विषयों में राग को बाँधता है और फिर विषवत् विषयों में विरसता का अधिकार ही प्राप्त नहीं है। सम्यग्दृष्टित्व केवल समनस्क प्राणियों उत्पन्न कर मुक्त कर देता है। इसीलिए इस जीव के बन्धन और मुक्ति को हो सकता है और वे ही अपनी साधना में मोक्ष-मार्ग की ओर के विधान में मन ही कारण है। रजोगुण से मलिन हुआ मन बन्धन बढ़ने के अधिकारी हो सकते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में भगवान् महावीर का हेतु होता है तथा रज-तम से रहित शुद्ध सात्विक होने पर मोक्ष कहते हैं कि “मन के संयमन से एकाग्रता आती है जिससे ज्ञान (विवेक) का कारण होता है।११ प्रकट होता है और उस विवेक से सम्यक्त्व की उपलब्धि होती है यद्यपि उपरोक्त प्रमाण यह तो बता देते हैं कि मन बन्धन और
और अज्ञान (मिथ्यात्व) समाप्त हो जाता है।" इस प्रकार अज्ञान का मुक्ति का प्रबलतम एकमात्र कारण है। लेकिन फिर भी यह प्रश्न अभी निवर्तन और सत्य दृष्टिकोण की उपलब्धि, जो मुक्ति (निर्वाण) की अनुत्तरित ही रह जाता है कि मन ही को क्यों बन्धन और मुक्ति का अनिवार्य शर्त है, बिना मन:शुद्धि के सम्भव ही नहीं है। जैन विचारणा कारण माना गया है? में मन मुक्ति का आवश्यक हेतु है। शुद्ध संयमित मन निर्वाण का हेतु बनता है जबकि अनियन्त्रित मन ही अज्ञान अथवा मिथ्यात्व का जैन साधना में मन ही बन्धन और मुक्ति का कारण क्यों? कारण होकर प्राणियों के बन्धन का हेतु बनता है। इसी तथ्य को आचार्य यदि हम इस प्रश्न का उत्तर जैन तत्त्वज्ञान की दृष्टि से खोजने हेमचन्द्र ने निम्न रूप में प्रस्तुत किया है। वे कहते हैं, “मन का निरोध का प्रयास करें, तो हमें ज्ञात होता है कि जैन तत्त्वमीमांसा में जड़ हो जाने पर कर्म (बन्ध) में पूरी तरह रुक जाते हैं, क्योंकि कर्म का और चेतन ये दो मूल तत्त्व हैं। शेष आस्रव, संवर, बन्ध, मोक्ष और
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मन-शक्ति, स्वरूप और साधना : एक विश्लेषण
३७१ निर्जरा तो इन दो मूल तत्त्वों के सम्बन्ध की विभिन्न अवस्थाएँ हैं। जैन विचारणा के समान गीता में भी यह कहा गया है कि इन्द्रियाँ, शुद्ध आत्मा तो बन्धन का कारण नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें मानसिक, मन और बुद्धि इस "काम" के वास स्थान हैं। इनके आश्रयभूत होकर वाचिक और कायिक क्रियाओं (योग) का अभाव है, दूसरी ओर मनोभाव ही यह काम ज्ञान को आच्छादित कर जीवात्मा को मोहित किया करता से पृथक् कायिक और वाचिक कर्म एवं जड़कर्म परमाणु भी बन्धन है।१२ ज्ञान आत्मा का कार्य है लेकिन ज्ञान में जो विकार आता है के कारण नहीं होते हैं। बन्धन के कारण राग, द्वेष, मोह आदि मनोभाव वह आत्मा का कार्य न होकर मन का कार्य है। फिर भी हमें यह आत्मिक अवश्य माने गये हैं, लेकिन इन्हें आत्मगत इसलिए कहा स्मरण रखना चाहिए जहाँ गीता में विकार या काम का वास स्थान गया है कि बिना चेतन-सत्ता के ये उत्पन्न नहीं होते हैं। चेतन सत्ता मन को माना गया है वहीं जैन विचारणा में विकार या कामादि का रागादि के उत्पादन का निमित्त कारण अवश्य है लेकिन बिना मन वासस्थान आत्मा को ही माना गया है। वे मन के कार्य अवश्य हैं के वह रागादि भाव उत्पन्न नहीं कर सकती। इसीलिए यह कहा गया लेकिन उनका वास स्थान आत्मा ही है। जैसे रंगीन देखना चश्मे का कि मन ही बन्धन और मुक्ति का कारण है। दूसरे हिन्दू, बौद्ध और कार्य है, लेकिन रंगीनता का ज्ञान तो चेतना में ही होता है। जैन आचार दर्शन इस बात में एकमत हैं कि बन्धन का कारण अविद्या सम्भवतः यहाँ शंका हो सकती है कि जैन विचारणा में तो अनेक (मोह) है। अब प्रश्न यह है कि इस अविद्या का वास स्थान कहाँ बद्ध प्राणियों को अमनस्क माना गया है, फिर उनमें जो अविद्या या है? आत्मा को इसका वास स्थान मानना भ्रान्ति होगी, क्योंकि जैन मिथ्यात्व है वह किसका कार्य है? इसका उत्तर यह है कि जैन विचारणा
और वेदांत दोनों परम्पराओं में आत्मा का स्वभाव तो सम्यग्ज्ञान है। के अनुसार प्रथम तो सभी प्राणियों में भाव मन की सत्ता स्वीकार मिथ्यात्व, मोह किंवा अविद्या आत्माश्रित हो सकते हैं लेकिन वे की गई है। दूसरे श्वेताम्बर परम्परा के अनुरूप यदि मन को सम्पूर्ण
आत्मगुण नहीं हैं और इसलिए उन्हें आत्मगत मानना युक्तिसंगत नहीं शरीरगत मानें तो वहाँ द्रव्य मन भी है, लेकिन वह केवल ओघसंज्ञा है। अविद्या को जड़ प्रकृति का गुण मानना भी भ्रान्ति होगी क्योंकि है। दूसरे शब्दों में, उन्हें केवल विवेकशक्ति-विहीन मन (irational वह ज्ञानाभाव ही नहीं वरन् विपरीत ज्ञान भी है। अत: अविद्या का mind) प्राप्त है। जैन शास्त्रों में जो समनस्क और अमनस्क प्राणियों वासस्थान मन को ही माना जा सकता है, जो जड़ और चैतन्य के का भेद किया गया है वह दूसरी विवेकसंज्ञा (Faculty of reasoning) संयोग से निर्मित है। अतः उसी में अविद्या निवास करती है उसके की अपेक्षा से है। जिन्हें शास्त्र में समनस्क प्राणी कहा गया है उनसे निवर्तन पर शुद्ध आत्मदशा में अविद्या की सम्भावना किसी भी स्थिति तात्पर्य विवेक शक्ति युक्त प्राणियों से है। जो अमनस्क प्राणी कहे में नहीं हो सकती।
गये हैं उनमें विवेकक्षमता नहीं होती है। वे न तो सुदीर्धभूत की स्मृति मन आत्मा के बन्धन और मुक्ति में किस प्रकार अपना भाग रख सकते हैं, न भविष्य की और न शुभाशुभ का विचार कर सकते अदा करता है, इसे निम्न रूपक से समझा जा सकता है। मान लीजिए, हैं। उनमें मात्र वर्तमानकालिक संज्ञा होती है और मात्र अंध वासनाओं कर्मावरण से कुंठित शक्ति वाला आत्मा उस आँख के समान है जिसकी (मूल प्रवृत्तियों) से उनका व्यवहार चालित होता है। अमनस्क प्राणियों देखने की क्षमता क्षीण हो चुकी है। जगत् एक श्वेत वस्तु है और में सत्तात्मक मन तो है, लेकिन उनमें शुभाशुभ का विवेक नहीं होता मन ऐनक है। आत्मा को मुक्ति के लिए जगत् के वास्तविक स्वरूप है, इसी विवेकाभाव की अपेक्षा से ही उन्हें अमनस्क कहा जाता है। का ज्ञान करना है, लेकिन अपनी स्व शक्ति के कुंठित होने पर वह जैन विचारणा के अनुसार नैतिक विकास का प्रारम्भ विवेक स्वयं तो सीधे रूप में यथार्थ ज्ञान नहीं पा सकता। उसे मन रूपी क्षमतायुक्त मन की उपलब्धि से ही होता है-जब तक विवेक-क्षमतायुक्त चश्मे की सहायता आवश्यक होती है, लेकिन यदि ऐनक रंगीन काँचों मन प्राप्त नहीं होता है तब तक शुभाशुभ का विभेद नहीं किया जा का हो तो वह वस्तु का यथार्थ ज्ञान न देकर भ्रांत ज्ञान ही देता है। सकता और जब तक शुभाशुभ का ज्ञान प्राप्त नहीं होता है तब तक इसी प्रकार यदि मन रागद्वेषादि वृत्तियों से दूषित (रंगीन) है तो वह नैतिक विकास की सही दिशा का निर्धारण और नैतिक प्रगति नहीं यथार्थ ज्ञान नहीं देता और हमारे बन्धन का कारण बनता है। लेकिन हो पाती है। अत: विवेक-क्षमतायुक्त (Rational mind) नैतिक प्रगति यदि मन रूपी ऐनक निर्मल है तो वह वस्तुतत्त्व का यथार्थ ज्ञान देकर की अनिवार्य शर्त है। बेडले, प्रभृति आदि पाश्चात्य विचारकों ने भी हमें मुक्त बना देता है। जिस प्रकार ऐनक में बिना किसी चेतन आँख बौद्धिक क्षमता या शुभाशुभ विवेक को नैतिक प्रगति के लिए आवश्यक के संयोग के देखने की कोई शक्ति नहीं होती, उसी प्रकार जड़ माना है। फिर भी जैन विचारणा का उनसे प्रमुख मतभेद यह है कि मन-परमाणुओं में भी बिना किसी चेतन आत्मा के संयोग के बन्धन वे नैतिक उत्तरदायित्व (Moral responsibility) और नैतिक प्रगति
और मुक्ति की कोई शक्ति नहीं है। वस्तुस्थिति यह है कि जिस प्रकार (Moral progress) दोनों के लिए विवेक-क्षमता को आवश्यक मानते ऐनक से देखने वाले नेत्र हैं लेकिन विकास या रंगीनता का कार्य हैं, जबकि जैन विचारक नैतिक प्रगति के लिए तो विवेक आवश्यक ऐनक में है, उसी प्रकार बन्धन के कारण रागद्वेषादि विकार न तो मानते हैं लेकिन नैतिक उत्तरदायित्व के लिए विवेकशक्ति को आवश्यक आत्मा के कार्य हैं और न जड़ तत्त्व के कार्य हैं, वरन् मन के ही नहीं मानते हैं। यदि कोई प्राणी विवेकाभाव में भी अनैतिक कर्म करता कार्य हैं।
है तो जैन दृष्टि से वह नैतिक रूप से उत्तरदायी होगा, क्योंकि
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ प्रथमतः, विवेकाभाव ही प्रमत्तता है और यही अनैतिकता का कारण जीवन को किस प्रकार प्रभावित करता है, इस तथ्य पर भी विचार है। अत: विवेकपूर्वक कार्य नहीं करने वाला नैतिक उत्तरदायित्व से करें। मुक्त नहीं है। दूसरे, विवेकशक्ति तो सभी चेतन आत्माओं में है। जिसमें मन के स्वरूप के विश्लेषण की प्रमुख समस्या यह है कि क्या वह प्रसुप्त है, उस प्रसुप्ति के लिए भी वह स्वयं ही उत्तरादायी है। मन भौतिक तत्त्व है अथवा आध्यात्मिक तत्त्व? बौद्ध विचारणा मन तीसरे अनेक प्राणी तो ऐसे हैं जिनमें विवेक का प्रकटन हो चुका को चेतन तत्त्व मानती है जबकि सांख्य दर्शन और योगवासिष्ठ में था, (जो कभी समनस्क या विवेकवान प्राणी थे) लेकिन उन्होने उस उसे जड़ माना गया है।१४ गीता सांख्य विचारणा के अनुरूप मन को विवेकशक्ति का यथार्थ उपयोग नहीं किया। फलस्वरूप उनमें वह जड़ प्रकृति से ही उत्पन्न और त्रिगुणात्मक मानती है।५।। विवेकशक्ति पुन: कुण्ठित हो गई। अतः ऐसे प्राणियों को नैतिक जैन विचारणा में मन के भौतिक पक्ष को "द्रव्यमन" और चेतन उत्तरदायित्व से मुक्त नहीं माना जा सकता।
पक्ष को “भावमन" कहा गया है। १६ विशेषावश्यकभाष्य में बताया गया सूत्रकृतांगसूत्र में इस सम्बन्ध में स्पष्ट उल्लेख मिलता है- कई है कि द्रव्यमन मनोवर्गणा नामक परमाणुओं से बना हुआ है। यह जीव ऐसे भी हैं, जिनमें जरा-सी तर्कशक्ति, प्रज्ञाशक्ति, मन या वाणी मन का भौतिक पक्ष (Physical or structural aspect of mind) है। की शक्ति नहीं होती है। वे मूढ़ जीव भी सबके प्रति समान दोषी साधारण रूप से इसमें शरीरस्थ सभी ज्ञानात्मक एवं संवेदनात्मक अंग हैं और उसका कारण यह है कि सब योनियों के जीव एक जन्म में आ जाते हैं। मनोवर्गणा के परमाणुओं से निर्मित उस भौतिक रचनासंज्ञा (विवेक) वाले होकर अपने किये हुए कर्मों के कारण दूसरे जन्म तन्त्र में प्रवाहित होने वाली चैतन्यधारा भाव मन है। दूसरे शब्दों में, में असंज्ञी (विवेकशून्य) बनकर जन्म लेते हैं। अतएव विवेकवान होना इस रचना-तन्त्र को आत्मा से मिली हुई चिन्तन-मनरूप चैतन्य शक्ति या न होना अपने ही किये हए कर्मों का फल होता है, इससे विवेकाभाव ही भाव मन (Psychical aspect of mind) है। की दशा में जो कुछ पाप-कर्म होते हैं उनकी जवाबदारी भी उनकी यहाँ पर एक विचारणीय प्रश्न यह भी उठता है कि द्रव्यमन ही होती है।
और भावमन शरीर के किस भाग में स्थित हैं। दिगम्बर सम्प्रदाय के यद्यपि जैन तत्त्वज्ञान में जीवों के अव्यवहार-राशि की जो कल्पना ग्रन्थ गोम्मटसार के जीवकाण्ड में द्रव्यमन का स्थान हृदय माना गया की गई है, उस वर्ग के जीवों के नैतिक उत्तरदायित्व की व्याख्या है, जबकि श्वेताम्बर आगमों में ऐसा कोई निर्देश उपलब्ध नहीं है कि सूत्रकृतांगसूत्र के इस आधार पर नहीं हो सकती, क्योंकि अव्यवहार-राशि मन शरीर के किस विशेष भाग में स्थित है। पं० सुखलाल जी अपने के जीवों को तो विवेक कभी प्रकटित ही नहीं हुआ। वे तो केवल गवेषणापूर्ण अध्ययन के आधार पर यह मानते हैं कि “श्वेताम्बर परम्परा इस आधार पर ही उत्तरदायी माने जा सकते हैं कि उनमें जो विवेकक्षमता का समग्र स्थूल शरीर ही द्रव्यमन का स्थान इष्ट है।" जहाँ तक भावमन प्रसुप्त है वे उसका प्रकटन नहीं कर रहे हैं।
के स्थान का प्रश्न है, उसका स्थान आत्मा ही है। क्योकि आत्म-प्रदेश एक प्रश्न यह भी है कि यदि नैतिक प्रगति के लिए "सविवेक सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है। अत: भावमन का स्थान भी सम्पूर्ण शरीर मन" आवश्यक है तो फिर जैन विचारणा के अनुसार वे सभी प्राणी ही सिद्ध होता है। जिनमें ऐसे "मन" का अभाव है, नैतिक प्रगति के पथ पर कभी आगे यदि हम तुलनात्मक दृष्टि से विचार करें तो बौद्ध दर्शन में मन नहीं बढ़ सकेंगे। जैन विचारणा के अनुसार इस प्रश्न का उत्तर यह को हृदयप्रदेशवर्ती माना गया है, जो दिगम्बर सम्प्रदाय की द्रव्यमन होगा कि "विवेक" के अभाव में भी कर्म का बन्ध और भोग तो सम्बन्धी मान्यता के निकट आता है। जबकि सांख्य परम्परा श्वेताम्बर चलता है, लेकिन फिर भी जब विचारक-मन का अभाव होता है तो सम्प्रदाय के निकट है। पं० सुखलाल जी लिखते हैं कि सांख्य आदि कर्म वासना-संकल्प से युक्त होते हुए भी वैचारिक संकल्प से युक्त दर्शनों की परम्परा के अनुसार मन का स्थान केवल हृदय नहीं माना नहीं होते हैं और कर्मों के वैचारिक संकल्प से युक्त नहीं होने के कारण जा सकता, क्योंकि उस परम्परा के अनुसार मन सूक्ष्मलिंग शरीर में, बन्धन में तीव्रता भी नहीं होती है। इस प्रकार नवीन कर्मों का बन्ध जो अष्टादश तत्त्वों का विशिष्ट निकायरूप है, प्रविष्ट है और सूक्ष्म होते हुए भी तीव्र बन्ध नहीं होता है और पुराने कर्मों का भोग चलता शरीर का स्थान समस्त स्थूल शरीर ही मानना उचित जान पड़ता है। रहता है। अत: नदी-पाषाण न्याय के अनुसार संयोग से कभी न कभी अतएव उस परम्परा के अनुसार मन का स्थान समग्र स्थूल शरीर ही वह अवसर आ जाता है, जब प्राणी विवेक को प्राप्त कर लेता है सिद्ध होता है। और नैतिक विकास की ओर अग्रसर होने लगता है।
जैन विचारणा मन के आध्यात्मिक और भौतिक दोनों स्वरूपों
को स्वीकार करके ही संतोष नहीं मान लेती वरन् इन भौतिक और मन का स्वरूप
आध्यात्मिक पक्षों के बीच गहन सम्बन्ध को भी स्वीकार कर लेती इस प्रकार हम देखते हैं कि मन आचार दर्शन का केन्द्रबिन्दु है। जैन नैतिक विचारणा में बन्धन के लिए अमूर्त चेतन आत्मतत्त्व है। जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों की परम्परायें मन को और जड़ कर्मतत्त्व का जो सम्बन्ध स्वीकार किया गया है, उसकी नैतिक जीवन के सन्दर्भ में अत्यधिक महत्त्वूपर्ण स्थान प्रदान करती व्याख्या के लिए उसे मन के स्वरूप का यही सिद्धान्त अभिप्रेत हो हैं। अत: यह स्वाभाविक है कि मन का स्वरूप क्या है और वह नैतिक सकता है। अन्यथा जैन विचारणा की बन्धन और मुक्ति की व्याख्या
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मन-शक्ति, स्वरूप और साधना : एक विश्लेषण
३७३ ही असम्भव होगी। वेदान्तिक अद्वैतवाद, बौद्ध विज्ञानवाद एवं शून्यवाद अद्वैतवादी आचार्य शंकर ने किया। यदि दूसरी ओर चेतन की स्वतन्त्र के दर्शनों में बन्धन का कारण अन्य तत्त्व को नहीं माना जाता। अतः सत्ता का निषेध कर मात्र जड़तत्व की सत्ता को ही माना जाये तो वहां सम्बन्ध की समस्या ही नहीं आती। सांख्य दर्शन में आत्मा को भौतिकवाद में आना होगा, जिसमें नैतिक जीवन के लिए कोई स्थान कूटस्थ मानने के कारण वहां भी पुरुष और प्रकृति के सम्बन्ध की शेष नहीं रहेगा। डॉ० राधाकृष्णन् लिखते हैं- "जैन दार्शनिकों ने कोई समस्या नहीं रहती। इसलिए वे मन को एकांत जड़ अथवा चेतन मन और शरीर का द्वैत स्वीकार किया, इसलिए वे समानान्तरवाद मानकर अपना काम चला लेते हैं। लेकिन जड़ और चेतन के मध्य को भी उसकी समस्त सीमाओं सहित स्वीकार कर लेते हैं। वे चैतसिक सम्बन्ध मानने के कारण जैन दर्शन के लिए मन को उभयरूप मानना और अचैतसिक तथ्यों में एक पूर्व संस्थापित सामजस्य (Preआवश्यक है। जैन विचारणा में मन अपने उभयात्मक स्वरूप के कारण established harmony) स्वीकार करते हैं।"१७ लेकिन जैन विचारणा ही जड़ कर्मवर्गणा के पुद्गल और चेतन आत्म-तत्त्व के मध्य योजक द्रव्यमन और भावमन के मध्य केवल समानान्तरवाद या पूर्व संस्थापित कड़ी बन गया है। मन की शक्ति चेतना में है और उसका कार्य-क्षेत्र सामंजस्य ही नहीं मानती है, अपितु व्यावहारिक दृष्टि से तो जैन विचारक भौतिक जगत् है। जड़ पक्ष की ओर से वह भौतिक पदार्थों से प्रभावित उनमें वास्तविक सम्बन्ध भी मानते हैं। समानान्तरवाद या पूर्व संस्थापित होता है और अपने चेतन-पक्ष की ओर से आत्मा को प्रभावित करता सामंजस्य तो केवल पारमार्थिक या द्रव्यार्थिक दृष्टि से स्वीकार किया है। इस प्रकार जैन दार्शनिक मन के द्वारा आत्मतत्त्व और जड़तत्त्व गया है। इस प्रकार जैन दार्शनिक तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में जड़ और चेतन के मध्य अपरोक्ष सम्बन्ध बना देते हैं तथा इस सम्बन्ध के आधार में नितान्त भित्रता मानते हुए भी अनुभव के स्तर पर या मनोवैज्ञानिक पर ही अपनी बन्धन की धारणा को सिद्ध करते हैं। मन, जड़ जगत् स्तर पर उनमें वास्तविक सम्बन्ध को स्वीकार कर लेते हैं। डॉ० कलघटगी
और चेतन जगत् के मध्य अवस्थित एक ऐसा माध्यम है, जो दोनों लिखते हैं कि “जैन चिन्तकों ने मानसिक भावों को जड़ कर्मों से स्वतन्त्र सत्ताओं में सम्बन्ध बनाये रखता है, जब तक यह माध्यम प्रभावित होने के सन्दर्भ में एक परिष्कारित समानान्तरवाद प्रस्तुत किया रहता है तभी तक जड़ एवं चेतन जगत् में पारस्परिक प्रभावकता रहती है- उनका समानान्तरवाद व्यक्ति के मन और शरीर के सम्बन्ध में है, जिसके कारण बन्धन का क्रम चलता रहता है। निर्वाण की प्राप्ति एक प्रकार का मनोभौतिक समानान्तरवाद है- यद्यपि वे मानसिक के लिए पहले मन के इन उभय पक्षों को अलग-अलग करना होता और शारीरिक तथ्यों के मध्य होने वाली पारस्परिक क्रिया-प्रतिक्रिया है। इनके अलग-अलग होने पर मन की प्रभावक शक्ति क्षीण होने की धारणा को स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त करते हैं- जैन दृष्टिकोण लगती है और अन्त में मन का ही विलय होकर निर्वाण की उपलब्धि जड़ और चेतन के मध्य रहे हुए तात्त्विक विरोध के समन्वय का एक हो जाती है। निर्वाण दशा में इस उभय स्वरूप मन का ही अभाव प्रयास है, जो वैयक्तिक मन एवं शरीर के मध्य पारस्परिक होने से बन्धन की सम्भावना नहीं रहती।
क्रिया-प्रतिक्रिया की धारणा की संस्थापना करता हैं। १८ उभयात्मक मन के माध्यम से जड़ और चेतन में पारस्परिक इस प्रकार हमने यह देखा कि जैन विचारणा में बाह्य प्रभावकता (Interaction) मान लेने मात्र से समस्या का पूर्ण समाधान भौतिक जगत् से सम्बन्धित मन का द्रव्यात्मक पक्ष किस प्रकार अपने नहीं होता। प्रश्न यह है कि बाह्य भौतिक घटनायें एवं क्रियायें आत्मतत्त्व भावात्मक पक्ष को प्रभावित करता है और जीवात्मा को बन्धन में को कैसे प्रभावित करती हैं, जबकि दोनों स्वतन्त्र हैं यदि उभयरूप डालता है। लेकिन मन जिन साधनों के द्वारा बाह्य जगत् से सम्बन्ध मन को उनका योजक तत्त्व मान भी लिया जाय तो इससे समस्या बनाता है वे तो इन्द्रियाँ हैं, मन की विषय-सामग्री तो इन्द्रियों के का निराकरण नहीं होता। यह तो समस्या को टालना मात्र है। जो माध्यम से आती है। बाह्य जगत् से मन का सीधा सम्बन्ध नहीं होता सम्बन्ध की समस्या भौतिक जगत् और आत्मतत्त्व के मध्य थी, उसे है वरन् वह इन्द्रियों के माध्यम से जागतिक विषयों से अपना केवल द्रव्यमन और भावमन के नाम से मनोजगत् में स्थानान्तरित सम्बन्ध बनाता है। मन जिस पर कार्य करता है वह सारी सामग्री तो कर दिया गया है। द्रव्यमन और भावमन कैसे एक-दूसरे को प्रभावित इन्द्रिय-संवेदन से प्राप्त होती है। अत: मन के कार्य के सम्बन्ध में करते हैं यह समस्या अभी बनी हुई है। चाहे यह सम्बन्ध की समस्या विचार करने से पहले हमें इन्द्रियों के सम्बन्ध में भी थोड़ा विचार भौतिक और आध्यात्मिक स्तर पर हो, चाहे जड़-कर्म-परमाणु और कर लेना होगा। चेतन आत्मा के मध्य हो अथवा मन के भौतिक और अभौतिक स्तरों पर हो, समस्या अवश्य बनी रहती है। उसके निराकरण के दो ही मन के साधन-इन्द्रियाँ मार्ग हैं- या तो भौतिक और आध्यात्मिक संज्ञाओं में से किसी एक इन्द्रिय शब्द के अर्थ की विशद विवेचना न करते हुए यहाँ हम के अस्तित्त्व का निषेध कर दिया जाए अथवा उनमें एक प्रकार का केवल यही कहें कि “जिन-जिन कारणों की सहायता से जीवात्मा विषयों समानान्तरवाद मान लिया जाए। जैन दार्शनिकों ने पहले विकल्प में की ओर अभिमुख होता है अथवा विषयों के उपभोग में समर्थ होता यह दोष पाया कि यदि केवल चेतनतत्त्व की सत्ता मानी जाए तो समस्त है वे इन्द्रियाँ हैं।" इस अर्थ को लेकर गीता या जैन आगमों में कहीं भौतिक जगत् को मिथ्या कहकर अनुभूति के तथ्यों को छुटकरा देना कोई विवाद नहीं पाया जाता। यद्यपि कुछ विचारकों की दृष्टि में इन्द्रियाँ होगा, जैसा कि विज्ञानवादी एवं शून्यवादी बौद्ध दार्शनिकों तथा "मन" का साधन या "कारण' मानी जाती हैं।
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इन्द्रिय
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ इन्द्रियों की संख्या
ये विषय-भोग आत्मा को बाह्यमुखी बना देते हैं। प्रत्येक इन्द्रिय जैन दृष्टि में इन्द्रियाँ पाँच मानी जाती हैं- (१) श्रोत्र, (२) अपने-अपने विषयों की ओर आकर्षित होती है और इस प्रकार आत्मा चक्षु, (३) घाण, (४) रसना और (५) स्पर्शन्। सांख्य विचारणा में का आन्तरिक समत्व भंग हो जाता है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया इन्द्रियों की संख्या ११ मानी गई है-५ ज्ञानेन्द्रियाँ, ५ कर्मेन्द्रियाँ है कि “साधक शब्द, रूप, रस, गन्ध तथा स्पर्श इन पाँचों प्रकार और १ मन। जैन विचारणा में ५ ज्ञानेन्द्रियाँ तो उसी रूप में मानी के कामगुणों (इन्द्रिय-विषयों) को सदा के लिए छोड़ दे,२२ क्योंकि गई है किन्तु मन को नोइन्द्रिय (Quasi sense-organ) कहा गया है। ये इन्द्रियों के विषय आत्मा में विकार उत्पन्न करते हैं। पाँच कर्मेन्द्रियों की तुलना उनकी १० बल की धारणा में वाक्बल, इन्द्रियाँ अपने विषयों से किस प्रकार सम्बन्ध स्थापित करती शरीरबल एवं श्वासोच्छ्वास बल से की जा सकती है। १९ बौद्ध हैं और आत्मा को उन विषयों से कैसे प्रभावित करती हैं, इसकी विसुद्धिमग्गो में इन्द्रियों की संख्या २२ मानी गई है।२० बौद्ध विचारणा विस्तृत व्याख्या प्रज्ञापनासूत्र और अन्य जैन ग्रन्थों में मिलती है। विस्तार में उक्त पाँच इन्द्रियों के अतिरिक्त पुरुषत्व, स्त्रीत्व, सुख-दुःख तथा भय से हम इस विवेचना में जाना नहीं चाहते हैं। हमारे लिए इतना शुभ एवं अशुभ आदि को भी इन्द्रिय माना गया है। जैन दर्शन में ही जान लेना पर्याप्त है कि जिस प्रकार द्रव्यमन भावमन को प्रभावित इन्द्रियाँ दो प्रकार की होती हैं- (१) द्रव्येन्द्रिय (२) भावेन्द्रिय। इन्द्रियों करता है और भावमन से आत्मा प्रभावित होती है, उसी प्रकार द्रव्येन्द्रिय की आंगिक संरचना (Structural aspect) द्रव्येन्द्रिय कहलाती हैं और (Structural aspect of sense organ) का विषय से सम्पर्क होता है आन्तरिक क्रियाशक्ति (Functional aspect) भावेन्द्रिय कहलाती है। और वह भावेन्द्रिय (Functional and Psychic aspect of sence organ) इनमें से प्रत्येक के पुन: उप-विभाग किये गये हैं, जिन्हें संक्षेप में को प्रभावित करती है और भावेन्द्रिय (आत्मा की शक्ति होने के कारण) निम्न सारिणी से समझा जा सकता है :
से आत्मा प्रभावित होती है। नैतिक चेतना की दृष्टि से मन और इन्द्रियों के महत्त्व तथा स्वरूप के सम्बन्ध में यथेष्ट रूप से विचार कर लेने
के पश्चात् यह जान लेना उचित होगा कि मन और इन्द्रियों का ऐसा द्रव्येन्द्रिय
भावेन्द्रिय कौन सा महत्त्वपूर्ण कार्य है, जिसके कारण उन्हें नैतिक चेतना में इतना
स्थान दिया जाता है। उपकरण (इन्द्रिय रक्षक अङ्ग) निवृत्ति (इन्द्रिय अङ्ग)
वासना प्राणीय व्यवहार का प्रेरक तत्त्व बहिरङ्ग अंतरङ्ग बहिरङ्ग अंतरङ्ग
मन और इन्द्रियों के द्वारा विषयों का सम्पर्क होता है। इस सम्पर्क
से कामना उत्पन्न होती है। यही कामना या इच्छा नैतिकता की परिसीमा लब्धि (शक्ति) उपयोग (चेतना) में आने वाले व्यवहार का आधारभूत प्रेरक तत्त्व है। सभी भारतीय
आचार दर्शन यह स्वीकार करते हैं कि वासना, कामना या इच्छा से इन्द्रियों के व्यापार या विषय
प्रसूत समस्त व्यवहार ही नैतिक विवेचना का विषय है। स्मरण रखना (१) श्रोत्रेन्द्रिय का विषय शब्द है। शब्द तीन प्रकार का माना चाहिए कि भारतीय दर्शनों में वासना, कामना, कामगुण, इच्छा, आशा, गया है- जीव का शब्द, अजीव का शब्द और मिश्र शब्द। कुछ लोभ, तृष्णा, आसक्ति आदि शब्द लगभग समानार्थक रूप में प्रयुक्त विचारक सात प्रकार के शब्द मानते हैं। (२) चक्षुरिन्द्रिय का विषय हुए हैं, जिनका सामान्य अर्थ मन और इन्द्रियों की अपने विषयों की रंग-रूप है। रंग काला, नीला, पीला, लाल और श्वेत, पाँच प्रकार “चाह" से है। बन्धन का कारण इन्द्रियों का उनके विषयों से होने के हैं। शेष रंग इन्हीं के सम्मिश्रण के परिणाम हैं। (३) घ्राणेन्द्रिय वाले सम्पर्क या सहज शारीरिक क्रियाएँ नहीं हैं, वरन् वासना है। का विषय गन्ध है। गन्ध दो प्रकार की होती है- सुगन्ध और दुर्गन्ध। नियमसार में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सामान्य व्यक्ति का (४) रसना का विषय रसास्वादन है। रस पाँच प्रकार के होते हैं- उठना-बैठना, चलना-फिरना, देखना-जानना आदि क्रियाएँ वासना से कटु, अम्ल, लवण, तिक्त और कषाय। (५) स्पर्शेन्द्रिय का विषय युक्त होने के कारण बन्धन का कारण है जबकि केवली (सर्वज्ञ या स्पर्शानुभूति है। स्पर्श आठ प्रकार के होते हैं- उष्ण, शीत, रूक्ष, जीवनमुक्त) की ये सभी क्रियाएँ वासना या इच्छारहित होने के कारण चिकना, हल्का, भारी, कर्कश और कोमल। इस प्रकार श्रोत्रेन्द्रिय के। बन्धन का कारण नहीं होती। इच्छा या संकल्प (परिणाम) पूर्वक किए ३, चक्षुरिन्द्रिय के ५, घाणेन्द्रिय के २, रसनेन्द्रिय के ५ और स्पर्शेन्द्रिय हुए वचन आदि कार्य ही बन्धन के कारण होते हैं। इच्छारहित कार्य के ८, कुल मिलाकर पाँचों इन्द्रियों के २३ विषय होते हैं। बन्धन के कारण नहीं होते।२३
जैन विचारणा में सामान्य रूप से यह माना गया है कि पाँचों इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि जैन आचार दर्शन में वासनात्मक इन्द्रियों के द्वारा जीव उपरोक्त विषयों का सेवन करता है। गीता में तथा ऐच्छिक व्यवहार ही नैतिक निर्णय का प्रमुख आधार है। जैन कहा गया है यह जीवात्मा श्रोत्र, चक्ष, त्वचा, रसना, घ्राण और मन । नैतिक विवेचना की दृष्टि से वासना (इच्छा) को ही समग्र जीवन के के आश्रय से ही विषयों का सेवन करता है।२१
व्यवहार क्षेत्र का चालक तत्त्व कहा जा सकता है। पाश्चात्य आचार
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मन-शक्ति, स्वरूप और साधना : एक विश्लेषण दर्शन में जीववृत्ति (Want), क्षुधा (Appetite), इच्छा (Desire), प्रवृत्त होना और प्रतिकूल विषयों से बचना यही वासना है। जो इन्द्रियों अभिलाषा (Wish) और संकल्प (will) में अर्थ वैभिन्य एवं क्रम माना के अनुकूल होता है वही सुखद और जो प्रतिकूल होता है वही दु:खद गया है। उनके अनुसार इस समग्र क्रम में चेतना की स्पष्टता के आधार है।२६ अतः सुखद की ओर प्रवृत्ति करना और दु:खद से निवृत्ति चाहना, पर विभेद किया जा सकता है। जीववृत्ति चेतना के निम्नतम स्तर वनस्पति यही वासना की चालना के दो केन्द्र हैं, जिनमें सुखद विषय धनात्मक जगत् में पायी जाती है। पशुजगत् में जीववृत्ति के साथ-साथ क्षुधा तथा दुःखद विषय ऋणात्मक चालना के केन्द्र हैं। इस प्रकार वासना, का भी योग होता है, लेकिन चेतना के मानवीय स्तर पर आकर तो तृष्णा या कामगुण ही समस्त व्यवहार का प्रेरक तत्त्व है। भारतीय जीववृत्ति से संकल्प तक के सारे ही तत्त्व उपलब्ध होते हैं। वस्तुतः चिन्तन में व्यवहार के प्रेरक के रूप में जिस वासना को स्वीकारा गया जीववृत्ति से लेकर संकल्प तक के सारे स्तरों में वासना के मूलतत्त्व है, वही वासना पाश्चात्य फ्रायडीय मनोविज्ञान में "काम" और मेकोगल में मूलत: कोई अन्तर नहीं है, अन्तर है, केवल चेतना में उसके बोध के प्रयोजनवादी मनोविज्ञान में हार्मी (Harme) या अर्ज (Urge) अथवा का। दूसरे शब्दों में, इनमें मात्रात्मक अन्तर है, गुणात्मक अन्तर नहीं मूलप्रवृत्ति कही जाती है। पाश्चात्य और भारतीय परम्पराएँ इस सम्बन्ध है। यही कारण है भारतीय दर्शन में इस क्रम के सम्बन्ध में कोई में एकमत हैं कि प्राणीय व्यवहार का प्रेरक तत्त्व वासना, कामना या विवेचना उपलब्ध नहीं होती है। भारतीय साहित्य में वासना, कामना, तृष्णा है। इनके दो रूप बनते हैं- राग और द्वेष। राग धनात्मक इच्छा और तृष्णा आदि शब्द तो अवश्य मिलते हैं और वासना की और द्वेष ऋणात्मक है। आधुनिक मनोविज्ञान में कर्ट लेविन ने इन्हें तीव्रता की दृष्टि से इनमें अन्तर भी किया जा सकता है, फिर भी क्रमशः आकर्षण शक्ति (positive valence) और विकर्षण शक्ति सामान्य रूप से समानार्थक रूप में ही उनका प्रयोग हुआ है। भारतीय (negative valence) कहा है। दर्शन की दृष्टि से वासना को जीववृत्ति (Want) तथा क्षुधा (Appetite), कामना को इच्छा (Desire), इच्छा को अभिलाषा (Desire), और व्यवहार की चालना के दो केन्द्र-सुख और दुःख तृष्णा को संकल्प (Will) कहा जा सकता है। पाश्चात्य विचारक जहाँ अनुकूल विषय की ओर आकर्षित होना और प्रतिकूल विषयों वासना के केवल उस रूप को, जिसे हम संकल्प (Will) कहते हैं, से विकर्षित होना- यह इन्द्रिय स्वभाव है, लेकिन प्रश्न यह उठता नैतिक निर्माण का विषय बनाते हैं, वहीं भारतीय चिन्तन में वासना है कि इन्द्रियाँ क्यों अनुकूल विषयों में प्रवृत्ति और प्रतिकूल विषयों के वे रूप भी जिनमें वासना की चेतना का स्पष्ट बोध नहीं है, नैतिकता से निवृत्ति रखना चाहती हैं। यदि इसका उत्तर मनोविज्ञान के आधार की परिसीमा में आ जाते हैं।
पर देने का प्रयास किया जाए तो हमें मात्र यही कहना होगा कि अनुकूल चाहे वासना के रूप में अन्ध ऐन्द्रिक अभिवृत्ति हो या मन का विषयों की ओर प्रवृत्ति और प्रतिकूल विषयों से निवृत्ति एक नैसर्गिक विमर्शात्मक संकल्प हो, दोनों के ही मूल में वासना का तत्त्व निहित तथ्य है, जिसे हम सुख-दुःख का नियम भी कहते हैं। मनोविज्ञान है और यही वासना प्राणीय व्यवहार की मूलभूत प्रेरक है। व्यवहार प्राणी जगत् की इस नैसर्गिक वृत्ति का विश्लेषण तो करता है, लेकिन की दृष्टि से वासना (जीववृत्ति) और तृष्णा (संकल्प) में अन्तर यह यह नहीं बता सकता है कि ऐसा क्यों है? है कि पहली स्पष्ट रूप से चेतना के स्तर पर नहीं होने के कारण यही सुख-दुःख का नियम समस्त प्राणीय व्यवहार का चालक मात्र अन्धप्रवृत्ति होती है जबकि दूसरी चेतना के स्तर पर होने के तत्त्व है। जैन दार्शनिक भी प्राणीय व्यवहार के चालक तत्त्व के रूप कारण विमर्शात्मक होती है। चेतना में इच्छा के स्पष्ट बोध का अभाव में इसी सुख-दुःख के नियम को स्वीकार करते हैं। मन एवं इन्द्रियों इच्छा का अभाव नहीं है। इसीलिये जैन और बौद्ध विचारणा ने पशु के माध्यम से इसी नियम के अनुसार प्राणीय व्यवहार का संचालन आदि चेतना के निम्न स्तरों वाले प्राणियों के व्यवहार को भी नैतिकता होता है। की परिसीमा में माना है। वहां पाशविक स्तर पर पायी जाने वाली इस प्रकार हम देखते हैं कि वासना ही अपने विधेयात्मक रूप वासना की अन्ध प्रवृत्ति ही नैतिक निर्णयों का विषय बनती है। में सुख और निषेधात्मक रूप में दुःख का रूप ले लेती है। जिससे
वासना की पूर्ति हो वही सुख और जिससे वासना की पूर्ति न हो वासना क्यों होती है?
अथवा वासना-पूर्ति में बाधा उत्पन्न हो वह दु:ख है। इस प्रकार वासना गणधरवाद में कहा गया है कि जिस प्रकार देवदत्त अपने महल से ही सुख-दुःख के भाव उत्पन्न होकर प्राणीय व्यवहार का निर्धारण की खिड़कियों से बाह्य जगत् को देखता है, उसी प्रकार प्राणी इन्द्रियों करने लगते हैं। के माध्यम से बाह्य पदार्थों से अपना सम्पर्क बनाता है।४ कठोपनिषद् अपने अनुकूल विषयों की ओर आकृष्ट होना और उन्हें ग्रहण में भी कहा गया है कि इन्द्रियों को बहिर्मुख करके हिंसित कर दिया करना, यह इन्द्रियों की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। मन के अभाव में यह गया है इसलिए जीव बाह्य विषयों की ओर ही देखता है अन्तरात्मा इन्द्रियों की अन्धप्रवृत्ति होती है, लेकिन जब इन्द्रियों के साथ मन को नहीं।२५
का योग हो जाता है तो इन्द्रियों में सुखद अनुभूतियों की पुन:-पुन इन्द्रियों का विषयों से सम्पर्क होने पर कुछ विषय अनुकूल और प्राप्ति की तथा दुःखद अनुभूति से बचने की प्रवृत्ति विकसित हो कुछ विषय प्रतिकूल प्रतीत होते हैं। अनुकूल विषयों की ओर पुन:-पुनः जाती है।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
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बस यहीं इच्छा, तृष्णा या संकल्प का जन्म होता है। जैनाचार्यों ने इच्छा की परिभाषा करते हुए लिखा है— मन और इन्द्रियों के अनुकूल विषयों की पुनः प्राप्ति की प्रवृत्ति ही इच्छा है, " अथवा इन्द्रियों के विषयों की प्राप्ति की अभिलाषा का अतिरेक ही इच्छा है।" यह इन्द्रियों की सुखद अनुभूति को पुनः पुनः प्राप्त करने की लालसा या इच्छा ही तीव्र होकर आसक्ति या राग का रूप ले लेती है। दूसरी ओर दुःखद अनुभूतियों से बचने की अभिवृत्ति घृणा एवं द्वेष का रूप ले लेती है। भगवान महावीर ने कहा है- "मनोज, प्रिय या अनुकूल विषय ही राग का कारण होते हैं और प्रतिकूल या अमनोज्ञ विषय द्वेष का कारण होते हैं । २९
सुखद अनुभूतियों से राग और दुःखद अनुभूतियों से द्वेष तथा इस राग-द्वेष से अन्यान्य कषाय और अशुभ वृत्तियाँ कैसे प्रतिफलित होती हैं, इसे उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि इन्द्रिय और मन में उनके विषयों को सेवन करने की लालसा जागृत होती है। सुखद अनुभूति को पुनः पुनः प्राप्त करने की इच्छा और दुःख से बचने की इच्छा से ही राग या आसक्ति उत्पन्न होती है। इस आसक्ति से प्राणी मोह या जड़ता के समुद्र में डूब जाता है कामगुण (इन्द्रियों के विषयों) में आसक्ति उत्पन्न होती है। इस आसक्ति से प्राणी मोह या जड़ता के समुद्र में डूब जाता है कामगुण (इन्द्रियों के विषयों) में आसक्त होकर जीव क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, घृणा, हास्य, भय, शोक तथा स्त्री, पुरुष और नपुसंक भाव की वासनाएँ आदि अनेक प्रकार के शुभाशुभ भावों को उत्पन्न करता है और उन भावों की पूर्ति के प्रयास में अनेक रूपों (शरीरों) को धारण करता है ।
इस प्रकार इन्द्रियों और मन के विषयों में आसक्त प्राणी जन्म-मरण के चक्र में फँसकर विषयासक्ति से अवश, दीप, लज्जित और करुणाजनक स्थिति को प्राप्त हो जाता है। ३०
गीता में भी यही दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि " मन से इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन किए जाने पर उन विषयों से सम्पर्क की इच्छा उत्पन्न होती है और उस सम्पर्क इच्छा से कामना या आसक्ति का जन्म होता है। आसक्त विषयों की प्राप्ति में जब बाधा उत्पन्न होती है तो क्रोध (घृणा, द्वेष) उत्पन्न हो जाता है। क्रोध में मूढ़ता या अविवेक, अविवेक से स्मृतिनाश और स्मृतिनाश से बुद्धि विनष्ट हो जाती है तथा बुद्धि के विनष्ट होने से व्यक्ति विनाश की ओर चला जाता है । ३"
इस प्रकार हम देखते है कि जब इन्द्रियों का अनुकूल या सुखद विषयों से सम्पर्क होता है तो उन विषयों में आसक्ति तथा राग के भाव जागृत होते हैं और जब इन्द्रियों का प्रतिकूल या दुःखद विषयों से संयोग होता है अथवा अनुकूल विषयों की प्राप्ति में कोई बाधा आती है तो घृणा या विद्वेष के भाव जागृत होते हैं इस प्रकार सुख-दुःख का प्रेरक नियम एक दूसरे रूप में बदल जाता है, जहाँ सुख का स्थान राग या आसक्ति का भाव ले लेता है और दुःख का स्थान घृणा या द्वेष का भाव ले लेता है ये राग-द्वेष की वृत्तियाँ ही व्यक्ति के नैतिक अध: पतन एवं जन्म-मरण की परम्परा का कारण होती हैं, सभी भारतीय
दर्शन इसे स्वीकार करते हैं। जैन विचारक कहते हैं- "राग और द्वेष ये दोनों ही कर्म-परम्परा के बीज हैं और यही कर्म-परम्परा के कारण हैं । ३२ इसे भी सभी भारतीय आचार दर्शन स्वीकार करते हैं। गीता में कहा गया है- "हे अर्जुन! इच्छा (राग) और द्वेष के इन्द्व में मोह से आवृत होकर प्राणी इस संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं। " ३३ तथागत बुद्ध कहते हैं— “जिसने राग-द्वेष और मोह को छोड़ दिया है, वही फिर माता के गर्भ में नहीं पड़ता।'
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इस समय विवेचना को हम संक्षेप में इस प्रकार रख सकते हैं। कि विविध इन्द्रियों एवं मन के द्वारा उनके विषयों के ग्रहण की चाह में वासना के प्रत्यय का निर्माण होता है। वासना का प्रत्यय पुनः अपने विधेयात्मक एवं निषेधात्मक पक्षों के रूप में सुख और दुःख की भावनाओं को जन्म देता है यही सुख और दुःख की भावनाएं राग और द्वेष की वृत्तियों का कारण बन जाती हैं। यही राग-द्वेष की वृत्तियाँ क्रोध, मान, माया, लोभादि विविध प्रकार के अनैतिक व्यापार का कारण होती हैं। लेकिन इन सबके मूल में तो ऐन्द्रिक एवं मनोजन्य व्यापार ही है, इसलिये साधारण रूप से यह माना गया कि नैतिक आचरण एवं नैतिक विकास के लिए इन्द्रिय और मन की वृत्तियों का निरोध कर दिया जाए। आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं कि इन्द्रियों पर काबू किये बिना रागद्वेष एवं कषायों पर विजय पाना सम्भव नहीं होता है । ३५ अतः अब इस सम्बन्ध में विचार करना इष्ट होगा कि क्या इन्द्रिय और मन के व्यापारों का निरोध सम्भव है और यदि निरोध सम्भव है तो उसका वास्तविक रूप क्या है ?
इन्द्रिय निरोध: सम्भावना और सत्य
इन्द्रियों के विषय अपनी पूर्ति के प्रयास में किस प्रकार नैतिक पतन की ओर ले जाते है इसका सजीव चित्रण उत्तराध्ययनसूत्र के बत्तीसवें अध्ययन में मिलता है। वहाँ कहा गया है— रूप को ग्रहण करने वाली चक्षुरिन्द्रिय है और रूप चक्षुरिन्द्रिय से ग्रहण होने योग्य है प्रिय रूप राग का और अप्रिय रूप द्वेष का कारण है। "
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जिस प्रकार दृष्टि के राग में आतुर होकर पतंगा मृत्यु पाता है, उसी प्रकार रूप में अत्यन्त आसक्त होकर जीव अकाल में ही मृत्यु पाते हैं। २७ रूप की आशा में पड़ा हुआ गुरुकर्मी, अज्ञानी जीव, त्रस और स्थावर जीवों की अनेक प्रकार से हिंसा करता है, परिताप उत्पन्न करता है तथा पीड़ित करता है । ३८ रूप में मूर्च्छित जीव उन पदार्थों के उत्पादन, रक्षण एवं व्यय में और वियोग की चिन्ता में लगा रहता है। उसे सुख कहाँ है? वह संयोग काल में भी अतृप्त रहता है। " रूप में आसक्त मनुष्य को थोड़ा भी सुख नहीं होता, जिस वस्तु की प्राप्ति में उसने दुःख उठाया, उसके उपयोग के समय भी वह दुःख पाता है । ४०
श्रोत्रेन्द्रिय शब्द की ग्राहक और शब्द श्रोत्र का शाहा है प्रिय शब्द राग का और अप्रिय शब्द द्वेष का कारण है । ४१ जिस प्रकार राग में गृद्ध बना हुआ मृग मुग्ध होकर शब्द में सन्तोषित न होता हुआ मृत्यु पा लेता है, उसी प्रकार शब्दों के विषय में अत्यन्त मूर्च्छित
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मन-शक्ति, स्वरूप और साधना : एक विश्लेषण
३७७ होने वाला जीव अकाल में ही नष्ट हो जाता है।४२ शब्द की आसक्ति क्या स्थिति होगी।५९ में पड़ा हुआ भारी कर्मी जीव, अज्ञानी होकर त्रस और स्थावर जीवों गीता में भी श्रीकृष्ण ने इन्द्रिय-दमन के सम्बन्ध में कहा है कि की अनेक प्रकार से हिंसा करता है, परिताप उत्पन्न करता है और जिस प्रकार जल में वायु नाव को हर लेती है, वैसे ही मन सहित पीड़ा देता है।
विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से एक ही इन्द्रिय इस पुरुष की वह मनोहर शब्द वाले पदार्थों की प्राप्ति, रक्षण एवं व्यय में बुद्धि को हरण कर लेने में समर्थ होती है। साधना में प्रयत्नशील तथा वियोग की चिंता में लगा रहता है, उनके संभोग काल के समय बुद्धिमान् पुरुष के मन को भी ये प्रमथन स्वभाव वाली इन्द्रियाँ बलात्कार में भी अतृप्त ही बना रहता है, फिर उसे सुख कहाँ है। तृष्णावश से हर लेती हैं और उसे साधना से च्युत कर देती हैं। अत: सम्पूर्ण वह जीव चोरी, झूठ और कपट की वृद्धि करता हुआ अतृप्त ही रहता इन्द्रियों को वश में करके तथा समाहित चित्त होकर मन को मेरे में है, दुःख से नहीं छूट सकता।४५
लगा। जिस व्यक्ति की इन्द्रियाँ अपने अधिकार में हैं, वही प्रज्ञावान नासिका गन्ध को ग्रहण करती है और गंध नासिका का ग्राह्य है। अन्यत्र पुन: कहा गया है कि साधक-सबसे पहले इन्द्रियों को वश है। सुगन्ध राग का कारण है और दुर्गन्ध द्वेष का कारण है। जिस में करके ज्ञान के विनाश करने वाले इस काम का परित्याग करें।६० प्रकार सुगन्ध में मूर्च्छित हुआ सर्प बाँबी से बाहर निकलकर मारा जाता धम्मपद में तथागत बुद्ध भी कहते हैं कि “जो मनुष्य इन्द्रियों है, उसी प्रकार गन्ध में अत्यन्त आसक्त जीव अकाल में ही मृत्यु के विषयों में असंयत रहता है, उसे मार (काम) साधना से उसी प्रकार पा लेता है। सुगन्ध के वशीभूत होकर बालजीव अनेक प्रकार से गिरा देता है, जिस प्रकार दुर्बल वृक्ष को हवा गिरा देती है। लेकिन
स और स्थावर जीवों का घात करता है, उन्हें दुःख देता है।८ वह जो इन्द्रियों के विषयों में सुसंयत रहता है, उसे मार (काम) उसी प्रकार जीव सुगन्धित पदार्थों की प्राप्ति, रक्षण, व्यय तथा वियोग की चिन्ता साधना से विचलित नहीं कर सकता जैसे वायु पर्वत को विचलित में ही लगा रहता है, अत: वह उनके भोगकाल में भी अतृप्त ही रहता नहीं कर सकता।"६१ है, फिर उसे सुख कहां है। जिह्वा रस को ग्रहण करती है और रस जिह्वा का ग्राह्य है। मनपसन्द रस राग का कारण और मन के प्रतिकूल जैन दर्शन और गीता में इन्द्रिय-दमन का वास्तविक अर्थ रस द्वेष का कारण कहा गया है। जिस प्रकार मांस खाने के लालच प्रश्न यह है कि यदि इन्द्रिय-व्यापार बन्धन के कारण हैं तो में फँसा हुआ मच्छ काँटे में फँसकर मारा जाता है, उसी प्रकार रसों फिर क्या इनका निरोध सम्भव है? यदि हम इस प्रश्न पर गम्भीरतापूर्वक में अत्यन्त गृद्ध जीव अकाल में मृत्यु का ग्रास बन जाता है।५१ उसे विचार करें तो यह पायेंगे कि जब तक जीव देह धारण किये है, उसके कुछ भी सुख नहीं होता, वह रसभोग के समय भी दुःख और क्लेश द्वारा इन्द्रिय-व्यापारों का निरोध सम्भव नहीं है। कारण यह है कि वह ही पाता है।५२ इसी प्रकार अमनोज्ञ रसों में द्वेष करने वाला जीव भी एक ऐसे वातावरण में रहता है जहाँ उसे इन्द्रियों के विषयों से साक्षात् दुःख परम्परा बढ़ाता है और कलुषित मन से कर्मों का उपार्जन करके सम्पर्क रखना ही पड़ता है। आँख के समक्ष दृश्य-विषय प्रस्तुत होने उसके दु:खद फल को भोगता है।५३ ।।
पर वह उसके रूप और रंग के दर्शन से वंचित नहीं रह सकता, भोजन शरीर स्पर्श को ग्रहण करता है और स्पर्श शरीर का ग्राह्य है। करते समय उसके रस को अस्वीकार नहीं कर सकता, किसी शब्द सुखद स्पर्श राग का तथा दुःखद स्पर्श द्वेष का कारण है।५४ जो जीव के उपस्थित होने पर कर्ण यन्त्र उसकी आवाज को सुने बिना नहीं सुखद स्पर्शों में अति आसक्त होता है, वह जंगल के तालाब के ठण्डे रह सकता और ठीक इसी प्रकार अन्यान्य इन्द्रियोंके विषय उपस्थित पानी में पड़े हुए मगर द्वारा ग्रसित भैंसे की तरह अकाल में ही मृत्यु होने पर वह उन्हें अस्वीकार नहीं कर सकता अर्थात् मनोवैज्ञानिक दृष्टि पाता है।५ स्पर्श की आशा में पड़ा हुआ वह गुरुकर्मी जीव चराचर से इन्द्रिय-व्यापारों का निरोध एक असम्भव तथ्य है। तथापि यह प्रश्न जीवों की अनेक प्रकार से हिंसा करता है, उन्हें दुःख देता है।५६ सुखद उठता है कि बन्धन से कैसे बचा जाय? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए स्पर्शों में मूर्छित हुआ प्राणी उन वस्तुओं की प्राप्ति, रक्षण, व्यय जैन दर्शन कहता है कि बन्धन का कारण इन्द्रिय-व्यापार नहीं वरन् एवं वियोग की चिन्ता में ही घुला करता है। भोग के समय भी वह उनके मूल में निहित राग और द्वेष की वृत्तियाँ ही हैं। जैसा कि तृप्त नहीं होता फिर उसके लिए सुख कहाँ? ५७ स्पर्श में आसक्त जीवों उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट उल्लेख है कि इन्द्रियों और मन के विषय, को किंचित् भी सुख नहीं होता है। जिस वस्तु की प्राप्ति क्लेश एवं रागी पुरुषों के लिए ही दुःख (बन्धन) के कारण होते हैं, ये विषय दु:ख से हुई उसके भोग के समय भी कष्ट ही मिलता है।५८ वीतरागियों के लिए बन्धन या दुःख का कारण नहीं हो सकते।६२
आचार्य हेमचन्द्र भी योगशास्त्र में कहते हैं कि स्पर्शेन्द्रिय के कामभोग किसी को भी सम्मोहित नहीं कर सकते है, न किसी में वशीभूत होकर हाथी, रसनेन्द्रिय के वशीभूत होकर मछली, घ्राणेन्द्रिय विकार ही पैदा कर सकते है, किन्तु जो विषयों में राग-द्वेष करता के वशीभूत होकर भ्रमर, चक्षुरिन्द्रिय के वशीभूत होकर पतंगा और है, वही राग-द्वेष से विकृत होता है। श्रवणेन्द्रिय के वशीभूत होकर हरिण मृत्यु का ग्रास बनता है। जब गीता में भी इसी प्रकार निर्देश दिया गया है कि साधक इन्द्रिय एक-एक इन्द्रिय के विषयों में आसक्ति मृत्यु का कारण बनती है, के विषयों अर्थात् भोगों में उपस्थित जो राग और द्वेष हैं, उनके वश फिर भला पाँचों इन्द्रियों के विषयों के सेवन में आसक्त मनुष्य की में नहीं हों, क्योंकि ये दोनों ही कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ महान् शत्रु हैं।६४ इन्द्रियों के द्वारा विषयों को न ग्रहण करने वाले रक्षा करना अत्यन्त कठिन है, इसकी वृत्तियों का कठिनता से ही निवारण पुरुष के केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, किन्तु राग निवृत्त नहीं किया जा सकता है। अत: बुद्धिमान मनुष्य इसे ऐसे ही सीधा करे होते। जबकि निर्वाण लाभ के लिए राग का निवृत्त होना परमावश्यक जैसे इषुकार (बाण बनाने वाला) बाण को सीधा करता है। यह चित्त
कठिनता से निग्रहित होता है, अत्यन्त शीघ्रगामी और यथेच्छ विचरण वास्तविकता यह है कि निरोध इन्द्रिय-व्यापारों का नहीं वरन् करने वाला है इसलिए इसका दमन करना ही श्रेयस्कर है, दमित किया उनमें निहित राग-द्वेष का करना होता है, क्योंकि बन्धन का वास्तविक हुआ चित्त ही सुखवर्धक होता है।''७४ जैन आचार्य हेमचन्द्र कहते कारण इन्द्रिय-व्यापार नहीं, वरन् राग-द्वेष की प्रवृत्तियाँ हैं। जैन दार्शनिक हैं, "आँधी की तरह चंचल मन मुक्ति प्राप्त करने के इच्छुक एवं तप कहते हैं- इन्द्रियों के शब्दादि मनोज्ञ अथवा अमनोज्ञ विषयासक्त करने वाले मनुष्य को भी कहीं का कहीं ले जाकर पटक देता है, व्यक्ति के लिए ही राग-द्वेष के कारण होते हैं, वीतराग के लिये नहीं।६७ अतः जो मनुष्य मुक्ति चाहते हों उन्हें समग्र विश्व में भटकने वाले गीता कहती है कि राग-द्वेष से विमुक्त व्यक्ति इन्द्रिय-व्यापारों को करता लम्पट मन का निरोध करना चाहिए।"७५ हुआ भी पवित्रता को ही प्राप्त होता है।६८ इस प्रकार जैनदर्शन और मनोनिग्रहण के उपरोक्त सन्दर्भो के आधार पर भारतीय नैतिक गीता इन्द्रिय-व्यापारों के निरोध की बात नहीं कहते, वरन् इन्द्रियों चिन्तन पर यह आक्षेप लगाया जा सकता है कि वह आधुनिक के विषयों के प्रति राग-द्वेष की वृत्तियों के निरोध की धारणा को प्रस्थापित मनोविज्ञान की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। आधुनिक मनोविज्ञान करते हैं।
इच्छाओं के दमन एवं मनोनिग्रह को मानसिक समत्व का हेतु नहीं इसी प्रकार मनोनिरोध के सम्बन्ध में कुछ भ्रान्त धारणाएँ बना मानता, वरन् इसके ठीक विपरीत उसे चित्त विक्षोभ का कारण मानता ली गई हैं, यहाँ हम उसका भी यथार्थ स्वरूप प्रस्तुत करने का प्रयास है। दमन, निग्रह, निरोध आज की मनोवैज्ञानिक धारणा में मानसिक करेंगे।
सन्तुलन के भंग करने वाले माने गये हैं। फ्रायड ने मनोविघटन एवं
मनोविकृतियों का प्रमुख कारणदमन और प्रतिरोध को ही माना है। इच्छानिरोध या मनोनिग्रह
आधुनिक मनोविज्ञान की इस मान्यता को झुठलाया नहीं जा सकता भारतीय आचार दर्शन में इच्छानिरोध एवं वासनाओं के निग्रह कि इच्छानिरोध और मनोनिग्रहण मानसिक स्वास्थ्य के लिये अहितकर का स्वर काफी मुखरित हुआ है। आचार दर्शन के अधिकांश विधि-निषेध है। यही नहीं इच्छाओं के दमन में जितनी अधिक तीव्रता होती है इच्छाओं के दमन से सम्बन्धित हैं, क्योंकि इच्छाएँ तृप्ति चाहती हैं वे दमित इच्छाएँ उतने ही वेग से विकृत रूप से प्रकट होकर न केवल
और इस प्रकार चित्त शान्ति या आध्यात्मिक समत्व का भंग हो जाता अपनी पूर्ति का प्रयास करती हैं, वरन् व्यक्ति के व्यक्तित्व को भी है। अत: यह माना गया कि समत्व के नैतिक आदर्श की उपलब्धि विकृत बना देती हैं। यदि हम इस तथ्य को स्वीकार करते हैं तो फिर के लिए इच्छाओं का दमन कर दिया जाय। मन इच्छाओं एवं संकल्पों नैतिक जीवन से इस दमन की धारणा को ही समाप्त कर देना होगा। का उत्पादक है, अत: इच्छानिरोध का अर्थ मनोनिग्रह ही मान लिया प्रश्न होता है कि क्या भारतीय नीति निर्माताओं की दृष्टि से यह तथ्य गया। पतंजलि ने तो यहाँ तक कह दिया कि चित्तवृत्ति का निरोध ओझल था? लेकिन बात ऐसी नहीं है जैन, बौद्ध और गीता के ही योग है। यह माना जाने लगा कि मन स्वयं ही समग्र क्लेशों का ___आचार-दर्शन के निर्माताओं की दृष्टि में दमन के अनौचित्य की धारणा धाम है। उसमें जो भी वृत्तियाँ उठती हैं वे सभी बन्धनरूप हैं। अतः अत्यन्त स्पष्ट थी, जिसे सप्रमाण प्रस्तुत किया जा सकता है। यदि उन मनोव्यापारों का सर्वथा अवरोध कर देना ही निर्विकल्पक समाधि गहराई से देखें तो गीता स्पष्ट रूप से दमन या निग्रह के अनौचित्य है, नैतिक जीवन का आदर्श है। जैन, बौद्ध और गीता के आचार को स्वीकार करती है। गीता में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि "प्राणी दर्शनों में इच्छानिरोध और मनोनिग्रह के प्रत्यय को स्वीकार किया अपनी प्रकृति के अनुसार ही व्यवहार करते हैं वे निग्रह कैसे कर सकते गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है- “यह मन उस दुष्ट और हैं।'७६ योगवासिष्ठ में इस बात को अधिक स्पष्ट करते हुए कहा गया भयंकर अश्व के समान है जो चारों दिशाओं में भागता है।"६९ अत: है कि “हे राजर्षि! तीनों लोक में जितने भी प्राणी हैं स्वभाव से ही साधक समरम्भ, समारम्भ और आरम्भ में प्रवृत्त होने वाले इस मन उनकी देह द्वयात्मक है। जब तक शरीर रहता है तब तक शरीरधर्म का निग्रह करें।७० गीता में भी कहा गया है- “यह मन अत्यन्त स्वभाव से ही अनिवार्य है अर्थात् प्राकृतिक वासना का दमन या निरोध ही चंचल, विक्षोभ उत्पन्न करने वाला और बड़ा बलवान है, इसका नहीं होता।"७७ निरोध करना वायु के रोकने के समान अत्यन्त ही दुष्कर है।"७१ फिर गीता कहती है कि यद्यपि विषयों को ग्रहण नहीं करने वाले भी कृष्ण कहते हैं कि “निस्संदेह इस मन का कठिनता से निग्रह होता अर्थात् इन्द्रियों को उनके विषयों के उपभोग करने से रोक देने वाले है, किन्तु अभ्यास और वैराग्य के द्वारा इसका निग्रह सम्भव है,"७२ व्यक्तियों के द्वारा विषयों के भोग का तो निग्रह हो जाता है, लेकिन इसलिए हे अर्जुन! तू मन की वृत्तियों का निरोध कर इस मन को उनका रस (आसक्ति) बना रहता है। अर्थात् वे मूलतः नष्ट नहीं हो मेरे में लगा।७३ बौद्ध ग्रन्थ धम्मपद में भी कहा गया है कि "यह चित्त पाते और अनुकूल परिस्थितियों में पुन: व्युत्थित हो जाते हैं। अत्यन्त ही चंचल है, इस पर अधिकार कर, क्योकि कुमार्ग से इसकी "रसवर्जरसोऽत्यस्य' का पद स्पष्ट रूप से यह संकेत करता है कि
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मन-शक्ति, स्वरूप और साधना : एक विश्लेषण
३७९ गीता में नैतिक विकास का वास्तविक मार्ग निग्रह का नहीं है। न केवल मार्ग नहीं माना। उन्होंने कहा- विकास का सच्चा मार्ग वासना-संस्कार गीता के आचार दर्शन में दमन को अनुचित माना गया है, वरन् बौद्ध को दबाना नहीं है अपितु उनका क्षय करना है। वास्तव में दमन का
और जैन विचारणाओं में भी यही दृष्टिकोण अपनाया गया है। बुद्ध मार्ग स्वाभाविक नहीं है, वासनाओं या इच्छाओं के निरोध करने की के मध्यममार्ग के उपदेश का सार यही है कि आध्यात्मिक विकास अपेक्षा वे क्षीण हो जाएँ, यही अपेक्षित है। प्रश्न होता है कि वासनाओं के मार्ग में वासनाओं का दमन इतना महत्त्वूपर्ण नहीं है जितना उनसे के क्षय और निरोध में क्या अन्तर है। ऊपर उठ जाना। वासनाओं के दमन का मार्ग और वासनाओं के भोग निरोध में चित्त में वासना उठती है और फिर उसे दबाया जाता का मार्ग दोनों ही बुद्ध की दृष्टि में साधना के सच्चे मार्ग नहीं हैं। है, जबकि क्षय में वासना का उठना ही शनैः-शनैः कम होकर समाप्त तथागत बुद्ध ने जिस मध्यममार्ग का उपदेश दिया उसका स्पष्ट आशय हो जाता है। आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि में दमन की क्रिया में यही था कि साधना में दमन पर जो अत्यधिक बल दिया जा रहा वासनात्मक अहं (Id) और आदर्शात्मक अहं (Super-ego) में संघर्ष था उसे कम किया जाय। बौद्ध साधना का आदर्श तो चित्तशान्ति है, चलता रहता है। लेकिन क्षय में यह संघर्ष नहीं होता है। वहाँ तो जबकि दमन तो चित्तक्षोभ या मानसिक द्वन्द्व को ही जन्म देता है। वासना उठती ही नहीं है। दमन या उपशम में हमें क्रोध का भाव बौद्धाचार्य अनंगवज्र कहते हैं कि “चित्त-क्षुब्ध होने से कभी भी मुक्ति आता है और हम उसे दबाते हैं या उसे अभिव्यक्त होने से रोकते नहीं होती, अत: इस तरह बरतना चाहिए कि जिससे मानसिक क्षोभ हैं, जबकि क्षायिक भाव में क्रोधादि विकार समाप्त हो जाते हैं। उपशमन उत्पन्न न हो।''८ दमन की प्रक्रिया चित्तक्षोभ की प्रक्रिया है, चित्तशान्ति (दमन) में मन में क्रोध का भाव होता है, मात्र क्रोध-भाव का प्रगटीकरण की नहीं। बोधिचर्यावतार की भूमिका में लिखा है कि बुद्ध के धर्म नहीं होता जिसे साधारण भाषा में गुस्सा पी जाना कहते हैं। उपशम में जहाँ दूसरे को पीड़ा पहुँचाना मना है वहाँ अपने को पीड़ा देना भी गुस्से का पी जाना ही है। इसमें लोकमर्यादा आदि बाह्य तत्त्व ही भी अनर्थ कर्म कहा गया है। सौगत तन्त्र ने आत्मपीड़ा के मार्ग को उसके निरोध का कारण बनते हैं। इसलिए यह आत्मिक विकास नहीं ठीक नहीं समझा। क्या दमन मात्र से चित्त-विक्षोभ सर्वथा चला जाता है, अपितु उसका ढोंग है, एक आरोपित आवरण है। क्षायिक भाव होगा? दबायी हुई वृत्तियाँ जाग्रतावस्था में न सही स्वप्नावस्था में तो में क्रोध उत्पन्न ही नहीं होता है। साधारण भाषा में हम कहते हैं कि अवश्य ही चित्त को मथ डालती होगी। ७९ जब तक चित्त में भोग-लिप्सा ऐसे साधक को गुस्सा आता ही नहीं है, अत: यही विकास का सच्चा है, तब तक चित्तक्षोभ का उत्पन्न होना स्वाभाविक है। इस प्रकार हम मार्ग है। जैन विचारणा के अनुसार यदि कोई साधक नैतिक एवं देखते हैं कि बौद्ध विचारणा को दमन का प्रत्यय अभिप्रेत नहीं है। आध्यात्मिक प्रगति करता है तो वह पूर्णता के अपने लक्ष्य के अत्यधिक दमन के विरोध में उठ खड़ी बौद्ध विचारणा की चरम परिणति चाहे निकट पहुँच कर भी पुनः पतित हो जाता है। जैन विचारणा की परिभाषिक वामाचार के रूप में हुई हो, फिर भी उसके दमन के विरोध को शब्दावली में कहें तो उपशम मार्ग का साधक आध्यात्मिक पूर्णता के अवास्तविक नहीं कहा जा सकता है। चित्तशान्ति के साधनामार्ग में चौदह गुणस्थान (सीढ़ियों) में से ग्यारहवें गुणस्थान तक पहुँच कर दमन का महत्त्वूपर्ण स्थान नहीं हो सकता। जहाँ तक जैन विचारणा कभी-कभी वहाँ से ऐसा गिरता है कि पुनः निम्नतम अवस्था प्रथम का प्रश्न है वह अपनी पारिभाषिक भाषा में स्पष्ट रूप से कहती है मिथ्यात्व गुणस्थान में आ जाता है। यह तथ्य जैन साधना में दमन कि “साधना का सच्चा मार्ग उपशमिक नहीं वरन् क्षायिक है।" की परम्परा का क्या अनौचित्य है इसे स्पष्ट कर देता है। यहाँ पर
जैन दृष्टिकोण के अनुसार औपशमिक मार्ग वह मार्ग है जिसमें यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है कि आगम ग्रन्थों में मन मन की वृत्तियों, वासनाओं को दबाकर साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ा के निरोध का उपदेश अनेक स्थानों पर दिया गया है, वहाँ निरोध जाता है। इच्छाओं के निरोध का मार्ग ही औपशमिक मार्ग है। जिस का क्या अर्थ है? वहाँ पर निरोध का अर्थ दमन नहीं लगाना चाहिए प्रकार आग को राख से ढक दिया जाता है उसी प्रकार उपशम में अन्यथा औपशमिक और क्षायिक दृष्टियों का कोई अर्थ ही नहीं रह कर्म-संस्कार या वासना-संस्कार को दबाते हुए नैतिकता के मार्ग पर जाएगा। अत: वहाँ निरोध का अर्थ क्षायिक दृष्टि से ही करना समुचित आगे बढ़ा जाता है। आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में कहें तो यह है। प्रश्न होता है कि क्षायिक दृष्टि से मन का शुद्धीकरण कैसे किया दमन (Repression) का मार्ग है। साधना के क्षेत्र में वासना-संस्कार जाय? को दबाकर आगे बढ़ने का मार्ग दमन का मार्ग है, लेकिन यह मनःशुद्धि उत्तराध्ययनसूत्र में मन के निग्रह के सम्बन्ध में जो रूपक प्रस्तुत का वास्तविक मार्ग नहीं है, यह तो मानसिक गन्दगी को ढकना मात्र किया गया है उसमें श्रमणकेशी गौतम से पूछते हैं- आप एक दुष्ट है, छिपाना मात्र है। जैन विचारकों ने गुणस्थान प्रकरण में बताया भयानक अश्व पर सवार हैं, जो बड़ी तीव्र गति से भागता है, वह है कि यह वासनाओं को दबाकर आगे बढ़ने की अवस्था नैतिक विकास आपको उन्मार्ग की ओर न ले जाकर सन्मार्ग पर कैसे ले जाता है? में आगे तक नहीं चलती है। जैन विचारणा यह मानती है कि ऐसा गौतम ने इस लाक्षणिक चर्चा को स्पष्ट करते हुए बताया हैसाधक पदच्युत हो जाता है। जिस दमन को आधुनिक मनोविज्ञान “यह मन ही साहसिक, दुष्ट एवं भयंकर अश्व है, जो चारों ओर भागता में व्यक्तित्व के विकास में बाधक माना गया है, वही विचारणा जैन है। मैं उसका जातिवान अश्व की तरह श्रुतरूपी रस्सियों से बाँधकर दर्शन में मौजूद थी। जैन दार्शनिकों ने भी दमन को विकास का सच्चा समत्व एवं धर्म-शिक्षा से निग्रह करता हूँ।"
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ इस श्लोक के प्रसंग में दो शब्द महत्त्वपूर्ण हैं- सम्मे तथा की वृत्तियाँ उत्पन्न न हों। वह किंचित् भी संकल्प-विकल्प नहीं करे, धम्मसिक्खाये। धर्म-शिक्षण द्वारा मन को निग्रह करने का अर्थ दमन क्योंकि चित्त संकल्पों से व्याकुल होता है। सभी चित्त-विक्षोभ नहीं है वरन् उनका उदात्तीकरण है। धर्म-शिक्षण का अर्थ- मन को संकल्पजन्य है। अत: संकल्पयुक्त चित्त में स्थिरता नहीं आ सकती सद्प्रवृत्तियों में संलग्न कर देना ताकि वह अनर्थ मार्ग पर जाए ही है। वस्तुत: यहाँ आचार्य का मन्तव्य यह है कि चित्त को शान्त नहीं। ऐसे ही श्रुत रूप रस्सी से बाँधने का अर्थ है- विवेक एवं करने के लिये उसे संकल्प से मुक्त करना होगा और इस हेतु ज्ञाता, ज्ञान के द्वारा उसे ठीक ओर चलाना (यह समत्व के अर्थ में है)। द्रष्टा या साक्षी बनाना होगा। जब चित्त या मन द्रष्टा, साक्षी और अप्रमत्त समत्व के द्वारा निग्रहण का अर्थ भी दमन नहीं है, वरन् मनोदशा होगा तो स्वाभाविक रूप से वह वासनाओं एवं विक्षोभों से मुक्त हो को समभाव से युक्त बनाना है। मन का समत्व दमन में तो सम्भव जाएगा। चित्त-विक्षोभ केवल प्रमत्तदशा में रह सकता है, अप्रमत्तदशा ही नहीं होता, क्योंकि वह तो संघर्ष की अवस्था है। जब तक वासनाओं में नहीं। यह बात आधुनिक मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी सत्य है। जब और नैतिक आदर्श का संघर्ष है तब तक समत्व हो ही नहीं सकता। मन स्वयं अपनी वृत्तियों का द्रष्टा बनेगा तो वह उनका कर्ता नहीं जैन साधना पद्धति तो समत्व (समभाव) की साधना है। वासनाओं रह जाएगा, क्योंकि एक ही मन एक ही समय में द्रष्टा और कर्ता के दमन का मार्ग तो चित्त-क्षोभ उत्पन्न करता है, अत: वह उसे स्वीकार्य दोनों नहीं हो सकता। जिस समय वह द्रष्टाभाव में होगा उसी समय नहीं है। जैन साधना का आदर्श क्षायिक साधना है जिसमें वासना-दमन उसमें कर्त्ताभाव नहीं रह सकता। उदाहरण के लिए जब हम क्रोध करते नहीं, वरन् वासनाशून्यता ही साधना का लक्ष्य है। गीता में भी मन हैं, उस समय अपनी क्रोध की अवस्था को जानते नहीं हैं और जब के निग्रह का जो उपाय बताया गया है वह है- वैराग्य और अभ्यास। अपनी क्रोध की अवस्था को जानने का प्रयास करते हैं तो क्रोध शान्त वैराग्य मनोवृत्तियों अथवा वासनाओं का दमन नहीं है, अपितु भोगों होने लगता है। मनोविज्ञान का यह नियम है कि जब विवेक जाग्रत के प्रति एक अनासक्त वृत्ति है। तटस्थ वृत्ति या उदासीन वृत्ति दमन होगा तो वासना क्षीण होगी और जब वासना जाग्रत होगी तो विवेक से बिलकुल भिन्न है, वह तो भोगों के प्रति राग-भाव की अनुपस्थिति क्षीण होगा। अतः साधना में आवश्यकता होती है विवेक को जाग्रत है। दूसरी ओर अभ्यास शब्द भी दमन का समर्थक नहीं है। यदि बनाये रखने की। वासना-क्षय का सम्यग्मार्ग वासनाओं का दमन नहीं, गीताकार को दमन ही इष्ट होता तो वह अभ्यास की बात नहीं कहता। अपितु विवेक को जाग्रत करना है। साधक को अपनी शक्ति वासनाओं दमन में अभ्यास की आवश्यकता नहीं होती है, क्योंकि यदि दमन से संघर्ष करने में नहीं, अपितु विवेक को जाग्रत करने में लगानी ही करना हो तो फिर अभ्यास किसलिये? अभ्यास होता है विलयन, चाहिए। वस्तुत: मन में जब विवेक का प्रकाश होता है तो वासना परिष्कार या उदात्तीकरण के लिए। वस्तुत: साधना का लक्ष्य वासना उसमें प्रवेश नहीं कर पाती, जैसे- जब घर का मालिक जागता है या चैतसिक आवेगों का विलयन (समाप्ति) होता है न कि उनका तो चोर घर में प्रवेश नहीं करता, वैसे ही जब मन अप्रमत्त या जाग्रत दमन, क्योंकि जब तक दमन है तब तक चित-विक्षोभ है। किन्तु साधना रहता है तो वासनाएँ स्वयं विलुप्त हो जाती हैं। का लक्ष्य तो समाधि है। समाधि वासनाओं के दमन से नहीं, अपितु उनके विलयन से फलित होती है।दमन में वासना रहती है अत: उसमें मन की विभिन्न अवस्थायें चित्त-विक्षोभ भी रहता है। जबकि विलयन में वासना ही समाप्त हो वासना से विवेक की ओर, प्रमत्तता से अप्रमत्तता की ओरजाती है अत: वह चित्त की शान्त अवस्था है। यही चित्त की शान्त मन की यह यात्रा अनेक सोपानों से होती है। जैन, बौद्ध और हिन्दू एवं निर्विकल्पक अवस्था सम्पूर्ण साधना-पद्धतियों का लक्ष्य है। यही परम्परा में इस सम्बन्ध में समानान्तर रूप से इन सोपानों का उल्लेख समाधि है, वीतरागता है।
मिलता है। आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में मन की चार अवस्थाओं
का उल्लेख किया हैवासनाक्षय या मनोजय का सम्यग्मार्ग
१.विक्षिप्त मन-यह मन की विषयासक्त और संकल्प-विकल्पयुक्त चित्तवृत्तियों या वासनाओं का विलयन (वासनाशून्यता) कैसे हो? विक्षुब्ध अवस्था है। इसे प्रमत्तता की अवस्था भी कह सकते हैं। इस सम्बन्ध में आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में एक समुचित मार्ग २. यातायात मन- मन इस अवस्था में कभी बहिर्मुखी हो प्रस्तुत किया है। वे लिखते हैं कि, “मन जिन-जिन विषयों में प्रवृत्त विषय की ओर दौड़ता है, तो कभी अन्तर्मुखी हो द्रष्टा या साक्षी बनने होता है, उनसे उसे बलात् रोकना नहीं चाहिए, क्योकि बलात् रोकने का प्रयास करता है। साधना की प्रारम्भिक स्थिति में मन की यह अवस्था से वह उस ओर अधिक दौड़ने लगता है और न रोकने से शान्त रहती है। यह प्रमत्ताप्रमत्त अवस्था है। हो जाता है। जैसे मदोन्मत्त हाथी को रोका जाये तो वह और अधिक ३. श्लिष्ट मन- यह चित्त की अप्रमत्त अवस्था है। यहाँ चित्त प्रेरित होता है, अगर उसे नहीं रोका जाये तो वह इष्ट विषय प्राप्त निर्विषय तो नहीं होता, किन्तु उसके विषय शुभ-भाव होते हैं। यह करके शान्त हो जाता है। यही स्थिति मन की है।" साधक अपने अशुभ मनोभावों की विलय की अवस्था है, अत: इसे आनन्दमय अवस्था विषयों को ग्रहण करते हुए इन्द्रियों को न तो रोके और न प्रवृत्त करे, भी कहा गया है। अपितु इतना सजग (अप्रमत्त) रहे कि उनके कारण मन में राग-द्वेष ४. सुलीन मन- यहाँ चित्तवृत्तियों का पूर्ण विलयन हो जाता
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मन-शक्ति, स्वरूप और साधना : एक विश्लेषण है और चित्त शुभ-अशुभ दोनों से ऊपर उठ जाता है। यह उसकी के अनुसार इस अवस्था में चित्त में वासनाओं की बहुलता तथा विकलता शुद्ध ज्ञाता-द्रष्टा अवस्था है, इसे परमानन्द या समाधि की अवस्था रहती है। इसी प्रकार यातायात मन, रूपावचर चित्त और विक्षिप्त चित्त भी कहा जा सकता है।
भी समानार्थक ही हैं, क्योंकि सभी ने इसे चित्त की अल्पकालिक, जैन परम्परा के अनुरूप बौद्ध और हिन्दु परम्पराओं में भी प्रयाससाध्य स्थिरता की अवस्था माना है। यहाँ वासनाओं का वेग मनोभूमियों का उल्लेख उपलब्ध है। बौद्ध दर्शन में जैन दर्शन के समान तथा चित्त विक्षोभ तो बना रहता है, किन्तु उसमें कुछ मन्दता ही चित्त की १. कामावचर, २. रूपावचर, ३. अरूपावर और अवश्य आ जाती है। तीसरे स्तर पर जैन दर्शन का श्लिष्ट मन, बौद्ध ४. लोकोत्तर- इन चार अवस्थाओं का उल्लेख है जो कि क्रमशः दर्शन का अरूपावचर चित्त और योग-दर्शन का एकाग्रचित्त भी विक्षिप्त, यातायात, श्लिष्ट और सुलीन के समतुल्य है। योग दर्शन समकक्ष है, क्योंकि इसे सभी ने मन की स्थिरता और अप्रमत्तता की में मन की निम्न पाँच अवस्थाओं का उल्लेख है- १. क्षिप्त, २. अवस्था माना है। चित्त की अन्तिम अवस्था, जिसे जैन दर्शन में मूढ़, ३. विक्षिप्त, ४. एकाग्र और ५. निरुद्ध। इसमें भी यदि हम सुलीन मन, बौद्ध दर्शन में लोकोत्तर चित्त और योग दर्शन में क्षिप्त और मूढ़ चित्त को एक ही वर्ग में रखें, तो तुलनात्मक दृष्टि निरुद्ध चित्त कहा गया है, स्वरूप की दृष्टि से समान ही है, क्योंकि से यहाँ भी जैन दर्शन से समानता ही परिलक्षित होती है। जिसे निम्न इसमें सभी ने वासना-संस्कार एवं संकल्प-विकल्प का पूर्ण अभाव तालिका से स्पष्ट किया जा सकता है
माना है। जैन दर्शन बौद्ध दर्शन योग दर्शन
वस्तुत: सभी साधना पद्धतियों का चरम लक्ष्य मन की उस विक्षिप्त कामावचर क्षिप्त एवं मूढ़ वासनाशून्य, निर्विकार, निर्विचार एवं अप्रमत्तदशा को प्राप्त करना है, यातायात रूपावचर विक्षिप्त
जिसे सभी ने समाधि के सामान्य नाम से अभिहितं किया है। साधना श्लिष्ट अरूपावचर एकाग्र
है- वासना से विवेक की ओर, प्रमत्तता से अप्रमत्ता की ओर तथा लोकोत्तर निरुद्ध
चित्त-क्षोभ से चित्त-शान्ति की ओर प्रगति। मन का यह स्वरूप विश्लेषण जैन दर्शन का विक्षिप्त मन, बौद्ध-दर्शन का कामावचर चित्त हमें इस दिशा में निर्देशित कर सकता है किन्तु प्रयास तो स्वयं और योग दर्शन के क्षिप्त एवं मूढ़ चित्त समानार्थक हैं, क्योंकि सभी ही करने होंगे। साधन केवल स्व-प्रयासों से ही फलवती होती है।
सुलीन
सन्दर्भ १. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा० साध्वी चन्दना, प्रका०, वीरायतन प्रकाशन,
आगरा १९७२, २९/५६। २. योगशास्त्र (हेमचन्द्र), संपा०, मुनि समदर्शी, प्रका०, श्री ऋषभचन्द्र
जौहरी, किशन लाल जैन, दिल्ली १९६३, ४/३८। धम्मपद, अनु०, राहुल सांकृत्यायन, प्रका०, बुद्ध विहार लखनऊ, १। वही, वर्ग २। वही, वर्ग ४३। वही, वर्ग ३७। चित्तं वर्तते चित्तं, चित्तमेव विमुच्यते। चित्तंहि जायते नान्यच्चित्तमेव निरुध्यते।। - लंकावतारसूत्र, संपा०, श्री परशुराम शर्मा, मिथिला विद्यापीठ, दरभंगा १९६३, १४५। ब्रह्मबिन्दु उपनिषद्, अष्टोतर शतोपनिषद, संपा०, वासुदेव शर्मा,
निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, १९३२, २। ९. गीता, संपा०, स्वामी प्रभुपाद, प्रका०, भक्तिवेदान्त बुक ट्रस्ट, बम्बई
१९९३, ३/४०। १०. वही, ६/२७ ११. वही, ३/४० १२. वही, ३/४० १३. देखिये-दर्शन और चिन्तन, पं०सुखलालजी, प्रका० गुजरात,
विद्या सभा, अहमदाबाद १९५७, भाग १, पृ० १४० तथा भाग
२, पृ० ३११। १४. मनश्चैव जडं मन्य-योगवासिष्ठ, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई १९१८,
निर्वाण प्रकरण, सर्ग ७८/२१ । १५. भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा। - गीता, संपा०, स्वामी प्रभुपाद, प्रका०, भक्तिवेदान्त बुक ट्रस्ट,
बम्बई १९९३, ७/४। १६. मनः द्विविध:-द्रव्यमन: भावमन: च। १७. राधाकृष्णन-भारतीय दर्शन, राजपाल एण्ड सन्स, दिल्ली १९६६,
भाग १ १८. The Jaina's have given a modified parallelism with reference
to psychic activity as determined by the Karmic matter -- They presented a sort of psycho-physical parallelism concerning individual mind & bodies yet they were not unaware of interaction between the mental and bodily activity -- Jiana's do not speak merely interms of pre-established harmony their theory transcends parallelism and postulates a more intimate connection between body and mind their motion of the structure of the mind and functional aspects of the mind shows that they were aware of the significance of interaction. Jaina theory was an attempt at the integration of metaphysical dichotomy of Jiva and Ajiva and the establishment of the interaction of individual mind and body. -- Some Problems of Jaina Psychology, University of Karntaka, Dharwar, 1961, Page 29.
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१९. विशद तुलनात्मक विवेचना के लिये देखिये- दर्शन और चिन्तन, पं० सुखलालजी, प्रका०, गुजरात विद्या सभा अहमदाबाद, १९५७, भाग १, पृ० १३४-१३५।
२०. विशद विवेचना के लिए देखिए - विशुद्धिमग्गो, अनु० भिक्षुधर्मरक्षित, प्रका०, महाबोधि सभा, बनारस १९५६-५७, भाग २, पृ० १०३ - १२८ ( हिन्दी अनुवाद)।
२१. गीता, संपा०, स्वामी प्रभुपाद, प्रका०, भक्ति वेदान्त बुक ट्रस्ट, बम्बई १९९३, १५/९।
२२. सद्दे रुवे य गन्धे य, रसे फासे तहेव य।
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
पंचविहे कामगुणे, निच्दसो परिवज्जए ।। -उत्तराध्ययनसूत्र, संपा०, साध्वी चन्दना, प्रका०, वीरायतन
प्रकाशन, आगरा १९७२, १६ / १० ।
२३. जाणतो परसंतो ईहापुव्वं ण होई केवलिणो । केवलिणाणी तम्हा तेण दु सोऽबन्धगो भणिदो।। परिणामपुव्ववयणं जीवस्स य बंधकारणं होई। परिणामरहियवयणं तम्हा गाणीस्स ण हि बन्धो ईहापुख्वं वयणं जीवस्स व बंधकारणं होई। ईहारहयं वयणं तम्हा णाणीस्स ण हि बन्धो ।। ठाणणिसेज्जविहारा ईहापुव्वं ण होई केवलिणो । तम्हा ण होई बन्धो साकडं मोहसणीयस्स ।।
नियमसार, अनु०, पं० परमेष्ठीदास न्यायतीर्थ, प्रका० सत्साहित्य प्रकाशन एवं प्रचार विभाग, श्री कुन्दकुन्द महान दिगम्बर जैन तीर्थ सुरक्षा ट्रस्ट जयपुर १९८८ ई०, १७१, १७२, १७३, १७४ ।
टिप्पणी-- ईहा शब्द विमर्शात्मक संकल्प की अपेक्षा विमर्शरहित " वासना" के अधिक निकट है।
२४. गणधरवाद, प्रका०, भैरोंदान जेठमल सेठिया, बीकानेर वी०सं०, २४५८, वायुभूति से चर्चा |
२५. परांचि खानि व्यतृणत्स्वयंभू स्तस्मात्परापश्चति नान्तरात्मन् कठ ० २/१/१।
२६. सव्वे सुहसाया दुक्खपडिकूला — आचारांगसूत्र, संपा०, मधुकरमुनि, प्रका०, श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर १९८०, १/२/२। २७. इन्द्रिय मनोनुकूलायाम्प्रवृत्तो।
- अभिधानराजेन्द्रकोश, श्री विजयराजेन्द्रसूरि, रतलाम, खण्ड २, पृ० ५७५।
२८. लाभस्यार्थस्याभिलाषातिरेके— वही, पृ० ५७५
२९. रागस्स हेउं समणुन्नमाहु दोसस्सं हेउं अमणुन्नमाहु-- उत्तराध्ययनसूत्र, संपा०, साध्वी चन्दना, प्रका०, वीरायतन प्रकाशन, आगरा १९७२, ३२/२३।
तुलना कीजिये: राग की उत्पत्ति के दो हेतु हैं - १. शुभ (अनुकूल) करके देखना,
२. अनुचित विचार । द्वेष की उत्पति के दो हेतु हैं - १. प्रतिकूल करके देखना तथा २. अनुचित विचार ।
अंगुत्तर निकाय, अनु०, भदन्त आनन्द को सत्यायन, प्रका०,
महाबोधि सभा, कलकत्ता दूसरा निपात ११/६-७१
३०. तओ से जायंति पओयणाई, निमज्जिडं मोहमहण्णवम्मि । सुहेसिणो दुक्खविणोयणा, तप्पच्चयं उज्जमए य रागी ।। कोहं च माणं च तहेव मायं, लोहं दुगुंछं अरई रई च । हासं भंय सोगपुमित्थिवेयं, नपुंसवेयं विविहे य भावे ।। आवज्जई एयमणेगरूवे एवंविहे कामगुणेसु सत्तो । अत्रे य एयप्यभवे विसेसे कारुण्णदीणे हिरिमे वहस्से ||
३१. ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते ।
— उत्तराध्ययनसूत्र, संपा०, साध्वी चन्दना, प्रका०, वीरायतन प्रकाशन, आगरा १९७२, ३२/१०५, १०२, १०३।
३२. रागो या दोसो वि य कम्पनी कम्पं च मोहप्पभवं वयति।
३४.
३५.
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधाऽभिजायते ।। क्रोधाद् भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः । स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति । ।
- गीता, संपा०, स्वामी प्रभुपाद, प्रका०, भक्ति वेदान्त ट्रस्ट, बम्बई १९९३, २/६२-६३।
३३. इच्छा-द्वेष समुत्थेन इन्दमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप । ।
- गीता, संपा०, स्वामी प्रभुपाद, प्रका० भक्ति वेदान्त बुक ट्रस्ट, बम्बई १९९३, ७/२७/
३७.
३८.
कम्मं च जाइमरणस्स मूलं दुक्खं च जाईमरणं वयंति । ।
- उत्तराध्ययनसूत्र, संपा०, साध्वी चन्दना, प्रका०, वीरायतन प्रकाशन, आगरा १९७२, ३२/७/
संयुत्तनिकाय, नन्दन वर्ग, पृ० १२
विनेन्द्रियजयं नैव कषायान् जेतुमीश्वरः योगशास्त्र, संपा०, मुनि समदर्शी, प्रका० श्री ऋषभचन्द जौहरी किशन लाल जैन, दिल्ली १९६३, ४/२४।
३६. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा०, साध्वी चन्दना, प्रका०, वीरायतन प्रकाशन,
आगरा, १९७२३२/२३ ।
वही, ३२/२४
वही, ३२ / २७
३९. वही, ३२ / २८
४०.
वही, ३२ / ३२
४९.
वही, ३२ / ३६
४२.
वही, ३२ / ३७
४३. वही, ३२/४०
४४. वही, ३२/४१
४५. वही, ३२/४३ ४६. वही, ३२ / ४९ ४७. वही, ३२/५०
४८. वही, ३२/५३
४९. वही, ३२/५४ ५०. वही, ३२ / ६२ ५१. वही, ३२/६३
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मन-शक्ति, स्वरूप और साधना : एक विश्लेषण
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५२. वही, ३२/७१ ५३. वही, ३२/७२ ५४. वही, ३२/७५ ५५. वही, ३२/७६ ५६. वही, ३२/७९ ५७. वही, ३२/८० ५८. वही, ३२/८४ ५९. योगशास्त्र (हेमचन्द्र) संपा०, मुनि समदर्शी, प्रका०, श्री ऋषभचन्द
जौहरी किशन लाल जैन, दिल्ली १९६३, ४/२८-३३। ६०. गीता, संपा०, स्वामी प्रभुपाद, प्रका०, भक्ति वेदान्त बुक ट्रस्ट,
बम्बई १९९३, २/६०-६७, ३/४१। ६१. धम्मपद, अनु०, राहुल सांकृत्यायन, प्रका०, बुद्ध बिहार, लखनऊ
१/७-८। उत्तराध्ययनसूत्र, संपा०, साध्वी चन्दना, प्रका०, वीरायतन प्रकाशन,
आगरा, १९७२, ३२/१००। ६३. वही, ३२/१०१। ६४. गीता, ३/४३ ६५. गीता, ३/६ ६६. गीता, २/५९ ६७. उत्तराध्ययनसूत्र, ३२/१०९ ६८. गीता, संपा०, स्वामी प्रभुपाद, प्रका०, भक्तिवेदान्त बुक ट्रस्ट, बम्बई
१९९३, २/६४। ६९. मणो साहसिओ भीमो दुट्ठसो परिधावई।
-उत्तराध्ययनसूत्र, संपा०, साध्वी चन्दना, प्रका०, वीरायतन प्रकाशन, आगरा १९७२, २३/५८
७०. संरम्भ-समारम्भे आरम्भे य तहेव य।
मणं पवत्तमाणां तु नियत्तिज्ज जयं जई।। ---उत्तराध्ययनसूत्र, संपा०, साध्वी चन्दना, प्रका०, वीरायतन
प्रकाशन, आगरा १९७२, २४/११ ७१. गीता, संपा०, स्वामी प्रभुपाद, प्रका०, भक्तिवेदान्त बुक ट्रस्ट, बम्बई
१९९३, ६/३४। ७२. वही, ६/३५। ७३. मन:संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ।-वही, ६/१४। ७४. धम्मपद, (चित्तवर्ग), अनु०, राहुलसांकृत्यायन, बुद्ध विहार,
लखनऊ, ३३-३५। ७५. योगशास्त्र (हेमचन्द्र), ३६-३९। ७६. प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति।
-गीता, संपा०, स्वामी प्रभुपाद, प्रका०, भक्तिवेदान्त बुक ट्रस्ट,
बम्बई, १९९३, ३/३३। ७७. सर्वावस्या एवं राजर्षि! भूतजातैर्जगत्त्रये।
देवादेवारपि देहोज्ञयं द्वयात्मैव स्वभावतः। अज्ञमस्वथ तज्ज्ञ वा यावत्स्वान्तं शरीरकर्म।।
-योगवासिष्ठ, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, १९१८,१०५/१०९। ७८. तथा तथा प्रवर्तेत यथा न क्षुभ्यते मनः।
संक्षुब्धे चित्तरत्ने तु सिद्धिर्नैव कदाचन।।
प्रज्ञोपायविनिश्चय,५/४० (उद्धृत बोधिचर्यावतार, भूमिका),पृ०२०। ७९. बोधिचर्यावतार, भूमिका, पृ० २० । ८०. विशेष जानकारी के लिये देखिये-गुणस्थानारोहण। ८१. योगशास्त्र, संपा०, मुनि समदर्शी, प्रका०, श्री ऋषभचन्द्र जौहरी,
किशनलाल जैन, दिल्ली १९६३, १२/३३-३६।
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जैन धर्म का लेश्या-सिद्धान्त : एक मनोवैज्ञानिक विमर्श
-व्यक्ति का व्यक्तित्व उसकी मनोवृत्तियों अथवा आवेगों पर निर्भर में छाया पुद्गल से प्रभावित जीव के परिणामों (मनोभावों) को लेश्या करता है। व्यक्ति जितना आवेगों से ऊपर उठेगा, उसके व्यक्तित्व में माना है। इसी आधार पर देवेन्द्रमुनि शास्त्री ने लेश्या को एक प्रकार उतनी स्थिरता एवं परिपक्वता आती जायेगी। जिस व्यक्ति में आवेगों का पौद्गलिक पर्यावरण माना है, जो मनोवृत्तियों को निर्धारित करता (कषायों) की जितनी अधिकता एवं तीव्रता होगी, उसका व्यक्तित्व है। डॉ० शान्ता जैन ने भी अपने शोध-निबन्ध में भगवतीसूत्र (१/ उतना ही निम्नस्तरीय एवं अशान्त होगा। आवेगों (मनोवृत्तियों) की ९) की टीका के आधार पर लेश्या को औदारिक आदि शरीरों का तीव्रता और उनकी शुभाशुभता दोनों ही हमारे व्यक्तित्व को प्रभावित वर्ण माना है। वे लिखती हैं कि लेश्या एक पौद्गलिक परिणाम है। करती हैं। वस्तुत: आवेगों में जितनी अधिक तीव्रता होगी, व्यक्तित्व जैनागमों में लेश्या दो प्रकार की मानी गयी है-१. द्रव्य-लेश्या में उतनी ही अस्थिरता होगी और व्यक्तित्व में जितनी अधिक अस्थिरता और २. भाव-लेश्या। अत: हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि इनमें होगी उतनी ही चारित्रिक दृढ़ता में कमी होगी। आवेगात्मक अस्थिरता मात्र द्रव्य ही पौद्गलिक है, भाव-लेश्या नहीं। भाव लेश्या तो द्रव्य ही अनैतिकता की जननी है। इस प्रकार आवेगात्मकता, चरित्र-बल लेश्या के आधार पर बनने वाली चित्तवृत्तियाँ हैं। इन दोनों में कार्यकारण
और व्यक्तित्व तीनों ही एक-दूसरे से जुड़े हैं। यहाँ हमें यह भी स्मरण भाव या निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध तो हैं किन्तु दोनों अलग-अलग हैं। रखना चाहिए कि व्यक्ति के मूल्यांकन के सन्दर्भ में न केवल आवेगों १. द्रव्य-लेश्या-द्रव्य-लेश्या सूक्ष्म भौतिक तत्त्वों से निर्मित की तीव्रता पर विचार करना चाहिए, वरन् उनकी प्रशस्तता और वह संरचना है, जो हमारे मनोभावों एवं तज्जनित कर्मों का सापेक्ष अप्रशस्तता पर भी विचार करना आवश्यक है। प्राचीन काल से ही रूप में कारण अथवा कार्य बनती है। जिस प्रकार पित्त द्रव्य की विशेषता व्यक्ति के आवेगों तथा मनोभावों के शुभत्व एवं अशुभत्व का सम्बन्ध से स्वभाव में क्रुद्धता आती है और क्रोध के कारण पित्त का निर्माण उसके व्यक्तित्व से जोड़ा जाता रहा है। व्यक्तित्व के वर्गीकरण या बहुल रूप से होता है, उसी प्रकार इन सूक्ष्म भौतिक तत्त्वों से मनोभाव. श्रेणी-विभाजन के शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक अनेक आधारों में एक बनते हैं और मनोभाव के होने पर इन सूक्ष्म संरचनाओं का निर्माण आधार व्यक्ति की प्रशस्त और अप्रशस्त मनोवृत्तियाँ भी रही हैं। जिस होता है। लेश्या-द्रव्य या द्रव्य-लेश्या-स्वरूप के सम्बन्ध में आचार्य व्यक्ति में जिस प्रकार की मनोवृत्तियाँ होती हैं, उसी आधार पर उसके राजेन्द्रसूरिजी' एवं पं० सुखलालजी ने निम्न तीन मतों को उद्धृत व्यक्तित्व का वर्गीकरण किया जाता है। मनोवृत्तियों की शुभाशुभता किया है - एवं तीव्रता और मन्दता के आधार पर व्यक्तित्व के वर्गीकरण की परम्परा (१) लेश्या-द्रव्य कर्मवर्गणा से बने हुए हैं। यह मत उत्तराध्ययन बहुत पुरानी है। जैन, बौद्ध और हिन्दू परम्परा के ग्रन्थों में ऐसा वर्गीकरण की टीका में है। या श्रेणी-विभाजन उपलब्ध है। जैन परम्परा में इस वर्गीकरण का आधार (२) लेश्या-द्रव्य बध्यमान कर्मप्रवाह रूप में है। यह मत भी उसका लेश्या-सिद्धान्त है। यद्यपि जैन परम्परा में नैतिक एवं आध्यात्मिक उत्तराध्ययन की टीका में वादिवैताल शान्तिसूरि का है। विकास के आधार पर व्यक्तित्व के वर्गीकरण के अन्य सिद्धान्त यथा- (३) लेश्या-योग परिणाम है अर्थात् शारीरिक, वाचिक और बहिरात्मा-अन्तरात्मा का सिद्धान्त एवं गुणस्थान के सिद्धान्त भी प्रचलित मानसिक क्रियाओं का परिणाम है। यह मत आचार्य हरिभद्र का है। है, किन्तु इन सबमें लेश्या-सिद्धान्त ही सबसे प्रचीन है, क्योंकि त्रिविध मेरी दृष्टि से द्रव्य-लेश्या को हम व्यक्ति का आभा मण्डल कह आत्मा की अवधारणा और गुणस्थान सिद्धान्त दोनों ही ईसा की पाँचवीं सकते है। डॉ० शान्ता जैन ने अपने शोध-प्रबन्ध में और उनसे पूर्व शती के पूर्व उपलब्ध नहीं होते हैं। जबकि लेश्या-सिद्धान्त भगवती युवाचार्य महाप्रज्ञ ने अपने ग्रन्थ आभामण्डल में इस पर विस्तार से और उत्तराध्ययन जैसे ईस्वी पूर्व के आगमों में भी उपलब्ध हैं। अन्य प्रकाश डाला है। श्रमण परम्पराओं में लेश्या-सिद्धान्त का स्थान अभिजाति की कल्पना २. भाव-लेश्या-भाव-लेश्या आत्मा का अध्यवसाय या ने लिया है। गीता में इसे दैवी एवं आसुरी सम्पदा के रूप में वर्णित अन्त:करण की वृत्ति है। पं० सुखलाल जी के शब्दों में भाव-लेश्या किया गया है।
मनोभाव विशेष है, जो संक्लेश और योग से अनुगत है।
संक्लेश के तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम, मन्द, मन्दतर, मन्दतम आदि लेश्या-सिद्धान्त और नैतिक व्यक्तित्व
अनेक भेद होने से लेश्या (मनोभाव) वस्तुः अनेक प्रकार की है तथापि जैन विचारकों के अनुसार लेश्या की परिभाषा यह है कि जो संक्षेप में छ: भेद करके (जैन) शास्त्र में उसका स्वरूप वर्णन किया आत्मा को कर्मों से लिप्त करती है या जिसके द्वारा आत्मा कर्मों से गया है। लिप्त होती है अर्थात् बन्धन में आती है, वह लेश्या है। उत्तराध्ययन उत्तराध्ययनसूत्र में लेश्याओं के स्वरूप का निर्वचन वर्ण, गन्ध, की बृहद्-वृत्ति में लेश्या का अर्थ आण्विक आभा, कान्ति, प्रभा या रस, स्पर्श, मनोभाव, कर्म आदि अनेक पक्षों के आधार पर हुआ छाया किया गया है। यापनीय आचार्य शिवार्य ने भगवती आराधना है, लेकिन हम अपने विवेचन को लेश्याओं के भावात्मक पक्ष तक
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जैन धर्म का लेश्या-सिद्धान्त : एक मनोवैज्ञानिक विमर्श
३८५ सीमित रखना उचित समझेंगे। मनोदशाओं में संक्लेश की न्यूनाधिकता विचार अत्यन्त निम्न कोटि के एवं क्रूर होते हैं। वासनात्मक पक्ष जीवन अथवा मनोभावों की अशुभत्व से शुभत्व की ओर बढ़ने की स्थितियों के सम्पूर्ण कर्मक्षेत्र पर हावी रहता है। प्राणी अपनी शारीरिक, मानसिक के आधार पर ही उनके विभाग किये गये हैं। अप्रशस्त और प्रशस्त एवं वाचिक क्रियाओं पर नियन्त्रण करने में अक्षम रहता है। वह अपनी इन द्विविध मनोभावों के उनकी तरतमता के आधार पर छ: भेद इन्द्रियों पर नियन्त्रण न रख पाने के कारण बिना किसी प्रकार के शुभाशुभ वर्णित हैं
विचार के सदैव इन्द्रियों के विषयों की पूर्ति में निमग्न रहता है। इस अप्रशस्त मनोभाव
प्रशस्त मनोभाव प्रकार भोग-विलास में आसक्त हो, वह उनकी पूर्ति के लिए हिंसा, १. कृष्ण-लेश्या-तीव्रतम अप्रशस्त मनोभात | ४. तेजो-लेश्या - मंद प्रशस्त मनोभाव चोरी, व्यभिचार और संग्रह में लगा रहता है। स्वभाव से वह निर्दयी २. नील-लेश्या-तीव्र अप्रशस्त मनोभाव |५. पद्म-लेश्या- तीव्र प्रशस्त मनोभाव व नृशंस होता है और हिंसक कार्य करने में उसे तनिक भी अरूचि ३. कापोत-लेश्या-मंद अप्रशस्त मनोभाव ६ शुक्ल-लेश्या-तीव्रतमप्रशस्त मनोभाव नहीं होती तथा अपने छोटे से स्वार्थ के निमित्त दूसरे का बड़ा से
बड़ा अहित करने में वह संकोच नहीं करता। मात्र यही नहीं वह लेश्याएं एवं व्यक्तित्व का श्रेणी-विभाजन
दूसरों को निरर्थक पीड़ा या त्रास देने में आनन्द मानता है। कृष्ण लेश्याएं मनोभावों का वर्गीकरण मात्र नहीं हैं, वरन् चरित्र के लेश्या से युक्त प्राणी वासनाओं के अन्धप्रवाह से ही शासित होता आधार पर किये गये व्यक्तित्व के प्रकार भी हैं। मनोभाव अथवा संकल्प है, इसलिए भावावेश में उसमें स्वयं के हिताहित का विचार करने आन्तरिक तथ्य ही नहीं हैं, वरन् वे क्रियाओं के रूप में बाह्य अभिव्यक्ति की क्षमता भी नहीं होती। वह दूसरे का अहित मात्र इसलिए नहीं भी चाहते हैं। वस्तुत: संकल्प ही कर्म में रूपान्तरित होते हैं। बेडले करता कि उससे उसका स्वयं का कोई हित होगा, वरन् वह तो अपने का यह कथन उचित है कि कर्म संकल्प का रूपान्तरण है। मनोभूमि क्रूर स्वभाव के वशीभूत हो, अपने हित के अभाव में भी दूसरे का या संकल्प व्यक्ति के आचरण का प्रेरक सूत्र है, लेकिन कर्मक्षेत्र में अहित करता रहता है। संकल्प और आचरण दो अलग-अलग तत्त्व नहीं रहते हैं। आचरण २. नील-लेश्या (अशुभतर मनोभाव) से युक्त व्यक्तित्व के से संकल्पों की मनोभूमि का निर्माण होता है और संकल्पों की मनोभूमिका लक्षण-व्यक्तित्व का यह प्रकार पहले की अपेक्षा कुछ ठीक होता पर ही आचरण स्थित होता है। मनोभूमि और आचरण (चरित्र) का है, लेकिन होता अशुभ ही है। इस अवस्था में भी प्राणी का व्यवहार घनिष्ठ सम्बन्ध है । इतना ही नहीं, मनोवृत्ति स्वयं में भी एक आचरण वासनात्मक पक्ष से शासित होता है। लेकिन वह अपनी वासनाओं है। मानसिक कर्म भी कर्म ही है। अत: जैन विचारकों ने जब लेश्या की पूर्ति में अपनी बुद्धि का प्रयोग करने लगता है। अत: इसका व्यवहार परिणाम की चर्चा की तो, वे मात्र मनोदशाओं की चर्चाओं तक ही प्रकट रूप में तो कुछ परिमार्जित सा रहता है, लेकिन उसके पीछे सीमित नहीं रहे, वरन् उन्होंने उस मनोदशा से प्रत्युत्पन्न जीवन के कुटिलता ही काम करती है। यह विरोधी का अहित अप्रत्यक्ष रूप कर्म क्षेत्र में घटित होने वाले बाह्य व्यवहारों की चर्चा भी की और से करता है। ऐसा प्राणी ईर्ष्यालु, सहिष्णु, असंयमी, अज्ञानी, कपटी, इस प्रकार जैन लेश्या-सिद्धान्त व्यक्तित्व के वर्गीकरण का व्यवहारिक निर्लज्ज,लम्पट, द्वेष-बुद्धि से युक्त, रसलोलुप एवं प्रमादी होता है।११ सिद्धान्त बन गया। जैन विचारकों ने इस सिद्धान्त के आधार पर यह वह अपनी सुख-सुविधा का सदैव ध्यान रखता है और दूसरे का अहित बताया कि मनोवृत्ति एवं आचरण की दृष्टि से व्यक्ति का व्यक्तित्व अपने हित के निमित्त करता है, यहाँ तक कि वह अपने अल्प हित या तो शुभ (नैतिक) होगा या अशुभ (अनैतिक)। इन्हें धार्मिक और के लिए दूसरे का बड़ा अहित भी कर देता है। जिन प्राणियों से उसका अधार्मिक अथवा शुक्ल-पक्षी और कृष्ण-पक्षी भी कहा गया है। वस्तुतः स्वार्थ सधता है उन प्राणियों का अज-पोषण-न्याय के अनुसार वह एक वर्ग वह है जो नैतिकता या शुभत्व की ओर उन्मुख है। दूसरा कुछ ध्यान अवश्य रखता है, लेकिन मनोवृत्ति दूषित ही होती है। वर्ग वह है जो अनैतिकता या अशुभत्व की ओर उन्मुख है। इस प्रकार जैसे बकरा पालने वाला बकरे को इसलिए नहीं खिलाता कि उस बकरे गुणात्मक अन्तर के आधार पर व्यक्तित्व के ये दो प्रकार बनते हैं। का हित होगा वरन् इसलिए खिलाता है कि उसे मारने पर अधिक लेकिन जैन विचारक मात्र गुणात्मक वर्गीकरण से सन्तुष्ट नहीं हुए और मांस मिलेगा। ऐसा व्यक्ति दूसरे का बाह्य रूप में जो भी हित करता उन्होंने उन दो गुणात्मक प्रकारों को तीन-तीन प्रकार के मात्रात्मक अन्तरों दिखाई देता है, उसके पीछे उसका गहन स्वार्थ रहता है। (जघन्य, मध्यम एवं उत्कृष्ट) के आधार पर छ: भागों में विभाजित ३. कापोत-लेश्या (अशुभ मनोवृत्ति) से युक्त व्यक्तित्व के किया। जैन लेश्या-सिद्धान्त का ट्विध वर्गीकरण इसी आधार पर लक्षण-यह मनोवृत्ति भी दूषित है। इस मनोवृत्ति में प्राणी का व्यवहार हुआ है। जैन विचारकों ने इन मात्रात्मक अन्तरों के तीन, नौ, इक्यासी मन, वचन, कर्म से एकरूप नहीं होता। उसकी करनी-कथनी
और दो सौ तैंतालिस उपभेद भी गिनायें है, लेकिन प्राचीन ट्विध भिन्न होती है। मनोभावों में सरलता नहीं होती, कपट और अहंकार वर्गीकरण ही अधिक प्रचलित रहा है। निम्न पंक्तियों में हम इन छः होता है। वह अपने दोषों को सदैव छिपाने की कोशिश करता है। प्रकार के व्यक्तियों की चर्चा करेंगे
उसका दृष्टिकोण अयथार्थ एवं व्यवहार अनार्य होता है। वह वचन १. कृष्ण-लेश्या (अशुभ भाव) से युक्त व्यक्तित्व के लक्षण- से दूसरे की गुप्त बातों को प्रकट करने वाला अथवा दूसरे के रहस्यों यह व्यक्तित्व का सबसे निकृष्ट रूप है। इस अवस्था में प्राणी के को प्रकट करके उससे अपने हित साधने वाला, दूसरे के धन का
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ अपहरण करने वाला एवं मात्सर्य भावों से युक्त होता है। फिर भी दृष्टि से इसने चातुर्वर्ण्य के सिद्धान्त का रूप ग्रहण किया था, जिसपर ऐसा व्यक्ति दूसरे का अहित तभी करता है, जब उससे उसकी स्वार्थ जन्मना और कर्मणा दृष्टिकोणों को लेकर श्रमण और वैदिक परम्परा सिद्धि नहीं होती है।१२
में काफी विवाद भी रहा है। साधनात्मक दृष्टिकोण से गुण-कर्म के ४. तेजो-लेश्या (शुभ मनोवृत्ति) से युक्त व्यक्तित्व के लक्षण- आधार पर व्यक्तित्व का वर्गीकरण करने का प्रयास न केवल जैन, यह मनोदशा पवित्र होती है। इस मनोभूमि में प्राणी पापभीरु होता बौद्ध और हिन्दू परम्परा ने किया है, वरन् अन्य लुप्त श्रमण परम्पराओं है। यद्यपि वह अनैतिक आचरण की ओर प्रवृत्त नहीं होता, तथापि में भी ऐसे वर्गीकरणा उपलब्ध होते हैं। दीघनिकाय में आजीवक सम्प्रदाय वह सुखापेक्षी होता है। लेकिन किसी अनैतिक आचरण द्वारा उन सुखों के आचार्य मंखलिपुत्र गोशालक एवं अंगुत्तरनिकाय में पूर्णकश्यप के की प्राप्ति या अपना स्वार्थ साधन नहीं करता। धार्मिक और नैतिक नाम के साथ ही वर्गीकरण का निर्देश हुआ है। ज्ञातव्य है कि दीघनिकाय आचरण में उसकी पूर्ण आस्था होती है। अत: उन कृत्यों के सम्पादन के सामंजफलसुत्त में गोशालक सम्बन्धी विवरण में मात्र “छस्वेवाभिमें आनन्द प्राप्त करता है, जो धार्मिक या नैतिक दृष्टि से शुभ है। जातीसु" इतना उल्लेख है, जबकि अंगुत्तरनिकाय में पूर्णकश्यप के इस मनोभूमि में दूसरे के कल्याण की भावना भी होती है। संक्षेप द्वारा प्रस्तुत विवरण में इन छहों अभिजातियों में कौन किस वर्ग में में, इस मनोभूमि में स्थित प्राणी पवित्र आचरण वाला, नम्र, निष्कपट, आता है, इसका भी उल्लेख है। किन्तु इसमें आजीवक, श्रमणों और आकांक्षारहित, विनीत, संयमी एवं योगी होता है। १३ वह प्रिय एवं आचार्यों को सर्वोच्च वर्गों में रखना यही सूचित करता है कि यह दृढ़धर्मी तथा परहितैषी होता है। इस मनोभूमि में दूसरे का अहित सिद्धान्त मूलत: आजीवकों अर्थात् मंखलि गोशालक की परम्परा का तो सम्भव होता है, लेकिन केवल उसी स्थिति में जबकि दूसरा उसके रहा है। अंगुत्तरनिकाय में या तो भ्रान्तिवश अथवा पूर्णकश्यप द्वारा हितों का हनन करने पर उतारू हो जाये।
भी मान्य होने के कारण इसे उनके नामों से कहा गया है। इसकी जैन आगमों में तेजोलेश्या की शक्ति को प्राप्त करने के लिये मान्यता के अनुसार कृष्ण, नील, लोहित, हरिद्र, शुक्ल और परमशुक्ल विशिष्ट साधना-विधि का उल्लेख भी प्राप्त होता है। गोशालक ने महावीर ये छ: अभिजातियाँ है। उक्त वर्गीकरण में कृष्ण अभिजाति में निर्गन्थ से तेजोलेश्या की जो साधना सीखी थी उसका दुरुपयोग उसने स्वयं और आजीवक श्रमणों के अतिरिक्त अन्य श्रमणों को, लोहित अभिजाति भगवान् महावीर और उनके शिष्यों के प्रति किया। इस प्रकार तेजोलेश्या में निर्ग्रन्थ श्रमणों को, हरिद्र अभिजाति में आजीवक गृहस्थों को, शुक्ल का उपयोग शुभत्व और अशुभत्व दोनों ही दिशा में सम्भव हो अभिजाति आजीवक के प्रणेता आचार्य-वर्ग को रखा गया है। ज्ञातव्य सकता है।
है कि चतुर्थ वर्ग के अर्थ में पूज्य आचार्य देवेन्द्रमुनिजी ने अपने ५. पद्म-लेश्या (शुभतर मनोवृत्ति) से युक्त व्यक्तित्व के लक्षण- 'पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ' में एवं डॉ० शान्ता जैन ने अपने शोधइस मनोभूमि में पवित्रता की मात्रा पिछली भूमि की अपेक्षा अधिक प्रबन्ध में जो श्वेतवस्त्रधारी या निर्वस्त्र का अर्थ लिखा है वह उचित होती है। इस मनोभूमि में क्रोध, मान, माया एवं लोभरूप अशुभ । नहीं है उसमें मूलशब्द है-"ओदात्तवसनी अचेलसावका"। इसका मनोवृत्तियाँ अतीव अल्प अर्थात् समाप्तप्राय हो जाती हैं। प्राणी संयमी अर्थ है उदात्त वस्त्र वाले अचेलकों (आजीवकों) के श्रावक। इसमें तथा योगी होता है तथा योग-साधना के फलस्वरूप आत्मजयी एवं अचेलसावका का अर्थ अचेलकों के श्रावक ऐसा है। ओदात्तवसना प्रफुल्लित होता है। वह अल्पभाषी, उपशान्त एव जितेन्द्रिय होता है।१४ यह श्रावकों का विशेषण है।
६. शुक्ल-लेश्या (परमशुभ मनोवृत्ति) से युक्त व्यक्तित्व के उपर्युक्त वर्गीकरण का जैन विचारणा के लेश्या-सिद्धान्त से बहुत लक्षण-यह मनोभूमि शुभ मनोवृत्ति की सर्वोच्च भूमिका है। पिछली कुछ शब्द साम्य है, लेकिन जैन दृष्टि से यह वर्गीकरण इस अर्थ में मनोवृत्ति के सभी शुभ गुण इस अवस्था में वर्तमान रहते हैं, लेकिन भिन्न है कि एक तो यह केवल मानव जाति तक सीमित है, जबकि उनकी विशुद्धि की मात्रा अधिक होती है। प्राणी उपशान्त, जितेन्द्रिय जैन वर्गीकरण इसमें सम्पूर्ण प्राणी वर्ग का समावेश करता है। दूसरे, एवं प्रसन्नचित्त होता है। उसके जीवन का व्यवहार इतना मृदु होता जैन दृष्टिकोण व्यक्तिपूरक है, जो साम्प्रदायिकता से ऊपर उठकर कहता है कि वह अपने हित के लिए दूसरे को तनिक भी कष्ट नहीं देना है कि प्रत्येक व्यक्ति या व्यक्ति समूह अपनी मनोवृत्तियों एवं कर्मों चाहता है। मन-वचन-कर्म से एकरूप होता है तथा उनपर उसका पूर्ण के आधार पर किसी भी वर्ग या अभिजाति में सम्मिलित हो सकता नियन्त्रण होता है। उसे मात्र अपने आदर्श का बोध रहता है। बिना है। यहाँ यह विशेष रूप से द्रष्टव्य है कि जहाँ गोशालक द्वारा दूसरे किसी अपेक्षा के वह मात्र स्व-कर्तव्य के परिपालन के प्रति जागरूक श्रमणों को नील अभिजाति में रखा गया, वहीं निर्गन्थों को लोहित रहता है। सदैव स्व-धर्म एवं स्व-स्वरूप में निमग्न रहता है। अभिजाति में रखना उनके प्रति कुछ समादर भाव का द्योतक अवश्य
है। सम्भव है कि महावीर एवं गोशालक का पूर्व सम्बन्ध ही इसका लेश्या-सिद्धान्त और अन्य विचारणाएँ
कारण रहा हो। जहाँ तक भगवान् बुद्ध की तत्सम्बन्धी मान्यता का भारत में व्यक्ति के मनोवृत्तियों गुणों एवं कमों के आधार पर प्रश्न है, वे पूर्णकश्यप अथवा गोशालक की मान्यता से अपने को वर्गीकरण करने की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। यह वर्गीकरण सामाजिक सहमत नहीं कर पाते हैं। वे व्यक्ति के नैतिक स्तर के आधार पर एवं साधनात्मक दोनों दृष्टिकोणों से किया जाता रहा है। सामाजिक वर्गीकरण तो प्रस्तुत करते हैं, लेकिन वे अपने वर्गीकरण को जैन
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जैन धर्म का लेश्या-सिद्धान्त : एक मनोवैज्ञानिक विमर्श
३८७ विचारणा के समान ही सार्वभौम एवं वस्तुनिष्ठ ही रखना चाहते हैं। किये गये हैं। गीता का कथन है कि प्राणियों या मनुष्यों की प्रकृति वे यह भी नहीं बताते कि अमुक वर्ग या व्यक्ति इस वर्ग का है, वरन् दो ही प्रकार की होती है- दैवी या आसुरी।८ उसमें भी दैवी गण यही कहते हैं कि जिसकी मनोभूमिका एवं आचारण जिस वर्ग के अनुसार मोक्ष के हेतु हैं और आसुरी गुण बन्धन के हेतु हैं। १९ गीता में हमें होगा, वह उस वर्ग में आ जायेगा। पूर्णकश्यप के दृष्टिकोण की द्विविध वर्गीकरण ही मिलता है, जिन्हें हम दैवी और आसुरी प्रकृति समालोचना करते हुए भगवान् बुद्ध आनन्द से कहते हैं कि 'मैं कहें, चाहे कृष्ण और शुक्लपक्षी कहें या कृष्ण और शुक्ल अभिजाति अभिजातियों को तो मानता हूँ लेकिन मेरा मन्तव्य दूसरों से पृथक् कहें। षट् लेश्याओं की जैन विचारणा के विवेचन में भी दो ही मूल है'।१६ मनोदशाओं के आधार पर आचरणपरक वर्गीकरण बौद्ध विचारणा प्रकार हैं-प्रथम तीन कृष्ण, नील और कापोत-लेश्या को अविशुद्ध, का प्रमुख मन्तव्य था।
अप्रशस्त और संक्लिष्ट कहा गया है और अन्तिम तीन तेजो, पद्म बौद्ध विचारणा में प्रथमतः प्रशस्त और अप्रशस्त मनोभाव तथा और शुक्ल-लेश्या को विशुद्ध प्रशस्त और असंक्लिष्ट कहा गया है।२० कर्म के आधार पर मानव जाति को कृष्ण और शुक्ल वर्ग में रखा उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट कहा गया है कि कृष्ण, नील एवं कापोत अधर्म गया। जो क्रूर कर्मी हैं वे कृष्ण अभिजाति के हैं और जो शुभ कर्मी लेश्यायें हैं, इनके कारण जीवन दुर्गति में जाता है और तेजों, पद्म हैं वे शुक्ल अभिजाति के हैं। पुन: कृष्ण प्रकार वाले और शुक्ल एवं शुक्ल धर्मलेश्यायें हैं, इनके कारण जीव संगति में जाता है।२१ प्रकार वाले मनुष्यों को गुण-कर्म के आधार पर तीन-तीन भागों में पं० सुखलाल जी लिखते हैं कि कृष्ण और शुक्ल के बीच की लेश्यायें, बाँटा गया है। जैनागम उत्तराध्ययन में भी लेश्याओं को प्रशस्त और विचारगत अशुभता के विविध मिश्रण मात्र हैं।२२ जैन दृष्टि के अनुसार अप्रशस्त इन दो भागों में बाँटकर प्रत्येक के तीन-तीन विभाग किये धर्म लेश्यायें या प्रशस्त लेश्यायें मोक्ष की हेतु तो होती है एवं जीवनमुक्त गये हैं। बौद्ध विचारणा ने शुभाशुभ कर्मों एवं मनोभावों के आधार अवस्था तक विद्यामान भी रहती हैं, लेकिन विदेह मुक्ति उसी अवस्था पर छ: वर्ग तो मान लिये, लेकिन इसके अतिरिक्त उन्होंने एक वर्ग में होती है जब प्राणी इनसे भी ऊपर उठ जाता है। इसलिए यहाँ उन लोगों का भी माना जो शुभाशुभ से ऊपर उठ गये हैं और इसे यह कहा गया है कि धर्म लेश्यायें सुगति का कारण हैं, निर्वाण अकृष्ण शुक्ल कहा, जैसे जैन दर्शन में अर्हत् को अलेशी कहा गया का नहीं । निर्वाण का कारण तो लेश्याओं से अतीत होना है। है। इस प्रकार बुद्ध ने निम्न छ: अभिजातियाँ प्रतिपादित की है
जैन विचारणा विवेचना के क्षेत्र में विश्लेषणात्मक अधिक रही १. कोई व्यक्ति कृष्णाभिजातिक (नीच कुल में पैदा हुआ) हो है। अतएव वर्गीकरण करने की स्थिति में भी उसने काफी गहराई और कृष्ण धर्म (पापकृत्य) करता है।
तक जाने की कोशिश की और इसी आधार पर यह षट्विध विवेचन २. कोई व्यक्ति कृष्णाभिजातिक हो और शुक्ल धर्म करता है। किया। लेकिन तथ्य यह है कि गुणात्मक अन्तर के आधार पर तो
३. कोई व्यक्ति कृष्णाभिजातिक हो अकृष्ण-अशुक्ल निर्वाण को दो ही भेद होते हैं, शेष वर्गीकरण मात्रात्मक ही हैं। इस प्रकार यदि समुत्पन्न करता है।
मूल आधारों की दृष्टि रखें तो जैन और गीता की विचारणा को अतिनिकट ४. कोई व्यक्ति शुक्लाभिजातिक (उच्चकुल में समुत्पन्न हुआ) ही पाते हैं। जहाँ तक जैन दर्शन की धर्म और अधर्म लेश्याओं में हो तथा शुक्ल धर्म (पुण्य) करता है।
तथा गीता की देवी और आसुरी सम्पदा में प्राणी की मन:स्थिति एवं ५. कोई व्यक्ति शुक्लाभिजातिक हो और कृष्णकर्म करता है। आचरण का जो चित्रण किया गया है, उसमें बहुत कुछ शब्द एवं
६. कोई व्यक्ति शुक्लाभिजातिक हो अशुक्ल-अकृष्ण निर्वाण भाव साम्य है। को समुत्पन्न करता है।
इस वर्गीकरण में भगवान् बुद्ध ने जन्म और कर्म दोनों को ही। धर्म लेश्याओं में प्राणी की मन दैवी सम्पदा से युक्तप्राणीकीमनःस्थिति अपना आधार बनाया है जबकि जैन परम्परा मनोभावों और कर्मों को।
स्थिति एवं चारित्र (उत्तराध्ययन एवं चारित्र (गीता" का दृष्टिकोण) ही महत्त्व देती है, जन्म को नहीं। फिर भी उसमें देव एवं नारक के
के आधार पर जैन दृष्टिकोण)" सम्बन्ध में जो लेश्या की चर्चा है उससे ऐसा लगता है कि वे वर्ग
शान्तचित्त एवं स्वच्छ अन्तःकरण वाला विशेष में जन्म के साथ लेश्या विशेष की उपस्थिति मानते थे। २. ज्ञान, ध्यान और तप में रत तत्त्वज्ञान के लिए ध्यान में निरन्तर दढ़
स्थिति लेश्या-सिद्धान्त और गीता
३. इन्द्रियों को वश में रखने वाला स्वाध्यायी, दानी एवं उत्तम कर्म करने
वाला गीता में भी प्राणियों के गुण-कर्म के अनुसार व्यक्तित्व के वर्गीकरण की धारणा मिलती है। गीता न केवल सामाजिक दृष्टि से प्राणियों
४. स्वाध्यायी
स्वाध्यायी, दानी एवं उत्तम कर्म करने
वाला को गुण-कर्म के अनुसार चार वर्गों में वर्गीकृत करती है, वरन् वह
५. हितैषी
अहिंसायुक्त, दयाशील तथा अभय आचरण की दृष्टि से भी एक अलग वर्गीकरण प्रस्तुत करती है। गीता
६. क्रोध की न्यूनता
अक्रोधी, क्षमाशील के १६वें अध्याय में प्राणियों की आसुरी एवं दैवी ऐसी दो प्रकार
७. मान, माया और लोभ का त्यागी की प्रकृति बतलायी गई है और इसी आधार पर प्राणियों के दो विभाग
त्यागी
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ ८. अल्पभाषी अपिशुनी तथा सत्यशील
अवधारणा की स्पष्ट समीक्षा भी की थी। उन्होंने कहा था कि न तो ९. इन्द्रिय और मन पर अधिकार अलोलुप (इन्द्रिय विषयों में अनासक्त) सभी शूद्र काले होते हैं और न सभी ब्राह्मण शक्ल वर्ण के होते हैं। करने वाला
__साथ ही महाभारत में वर्गों के आधार पर जीवों की उच्च एवं १०. तेजस्वी तेजस्वी
निम्न गतियों का भी उल्लेख हुआ है। सभी वर्गों की चर्चा करते हुए ११. दृढ़धर्मी धैर्यवान
भी बताया गया है कि नारकीय जीवों का वर्ण कृष्ण होता है, जो १२. नम्र एवं विनीत कोमल
नरक से निकलते हैं उनका वर्ण धूम्र होता है। मानव जाति का वर्ण १३. चपलता रहित तथा शांत चपलतारहित (अचपल)
नीला होता है। देवों का वर्ण रक्त (लाल) होता है। अनुग्रहशील विशिष्ट १४. पापभीरु, शान्त
लोक और शास्त्रविरुद्ध आचरण में देवों का वर्ण हारिद्र और साधकों का वर्ण शुक्ल होता है। इस प्रकार लज्जा
हम देखते हैं कि वर्णों (रंगों) के आधार पर प्राणियों का वर्गीकरण
अनेक दृष्टियों से किया गया है। अप्रशस्त या अधर्म लेश्याओं में आसुरी सम्पदा से युक्त प्राणी की मनःप्राणियों की मनःस्थिति एवं स्थिति एवं चारित्र(गीताका दृष्टिकोण) योगसूत्र एवं लेश्या-सिद्धान्त चारित्र (उत्तराध्ययन के आधार
पतंजलि ने अपने योगसूत्र में चार जातियाँ प्रतिपादित की हैंपर जैन दृष्टिकोण)
१. कृष्ण, २. कृष्ण-शुक्ल, ३. शुक्ल और ४. अशुक्ल-अकृष्ण। १. अज्ञानी
कर्तव्याकर्तव्य के ज्ञान का अभाव __इन्हें क्रमश: अशुद्धतर, अशुद्ध, शुद्ध और और शुद्धतर कहा गया २. -
नष्टात्मा एवं चिन्ताग्रस्त ३. मन, वचन एवं कर्म से अगुप्त मानसिक एवं कायिक शौच से रहित उपरोक्त आधारों पर यह कहा जा सकता है कि प्रारम्भ में कृष्ण (अपवित्र)
और शुक्ल इन दो वणों की कल्पना की इन्हेंमनोवृत्ति, आचरण,गति ४. दुराचारी अशुद्ध आचार (दुराचारी)
आदि से जोड़ा गया। जैन दर्शन में इन्हें कृष्णपक्षी और शुक्लपक्षी ५. कपटी कपटी, मिथ्याभाषी
कहा गया तथा कृष्णपक्षी को मिथ्यादृष्टि और शुक्लपक्षी को सम्यक्६. मिथ्यादृष्टि
आत्मा और जगत् के विषय में मिथ्या दृष्टि माना गया। बौद्ध ग्रन्थ धम्मपद में कृष्ण धर्म और शक्ल धर्म दृष्टिकोण
का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि पण्डित कृष्ण धर्म का परित्याग ७. अविचारपूर्वक कर्म करने वाला अल्पबुद्धि
कर शुक्ल धर्म का अनुसरण करे। आगे चलकर अकृष्ण-अशुक्ल रूप ८. नृशंस कूरकर्मी
निर्वाण कल्पना के साथ तीन वर्ग बनाये गये। फिर जन्म के आधार ९. हिंसक
हिंसक, जगत् का नाश करने वाला पर कृष्ण-अभिजाति और शुक्ल-अभिजाति की कल्पना का कर्म की १०. रसलोलुप एवं विषयी कामभोग परायण तथा क्रोधी दृष्टि से उक्त तीन अवस्थाओं से संयोग करके बौद्ध धर्म में भी छ: ११. अविरत तृष्णायुक्त
वर्ग बने, जिनकी चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं। इस प्रकार कृष्ण १२. चोर चोर
और शुक्ल दोनों के संयोग से कृष्ण-शुक्ल नामक तीसरे और दोनों
का अतिक्रमण करने से चौथे वर्ग की कल्पना की गयी और इस प्रकार महाभारत और लेश्या-सिद्धान्त
एक चतुर्विध वर्गीकरण भी हुआ। पतंजलि और बौद्ध दर्शन में यह गीता महाभारत का अंग है और महाभारत में सनत्कुमार एवं चतुर्विध वर्गीकरण भी मिलता है। इस प्रकार कृष्ण और शुक्ल वर्ण वृत्रासुर के संवाद में प्राणियों के छ: प्रकार के वर्णों का निर्देश हुआ के मध्यवर्ती अन्य वर्गों की कल्पना के साथ आजीवक आदि कुछ है। वे वर्ण हैं- कृष्ण, धूम्र, नील, रक्त, हारिद्र और शुक्ल। इन प्राचीन श्रमण धाराओं में षट् अभिजातियों की और जैनधारा में लेश्याओं छ:- वर्गों की सुखात्मक स्थिति का चित्रण करते हुए कहा गया की अवधारणा सामने आयी है। है कि कृष्ण, धूम्र और नील वर्ण का सुख मध्यम होता है, रक्त वर्ण का सुख सह्य होता है, हारिद्र वर्ण सुखकर होता है और शुक्ल वर्ण लेश्या-सिद्धान्त एवं पाश्चात्य नीतिवेत्ता रॉस के नैतिक व्यक्तित्व का सर्वाधिक सुखकर होता है।
वर्गीकरण ज्ञातव्य है कि जैन परम्परा में भी षट्-लेश्याओं की सुखदुःखात्मक पाश्चत्य नीतिशास्त्र में डब्ल्यू० रॉस भी एक ऐसा वर्गीकरण प्रस्तुत स्थितियों की चर्चा उपलब्ध होती है। इसके अतिरिक्त महाभारत में करते हैं जिसकी तुलना जैन लेश्या-सिद्धान्त से की जा सकती है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र आदि इन चार वर्णो के चार रंगों (वणों) रॉस कहते हैं कि नैतिक शुभ एक ऐसा शुभ है जो हमारे कार्यो, इच्छाओं, का भी उल्लेख मिलता है। इसमें शूद्र को कृष्ण,वैश्य को नील, क्षत्रिय संवेगों तथा चरित्र से सम्बन्धित है। नैतिक शुभता का मूल्य केवल को रक्त, और ब्राह्मण को शुक्ल वर्ण कहा गया है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य इसी बात में नहीं है कि उसका प्रेरक क्या है, वरन् उसकी अनैतिकता है कि जैनाचार्य जटासिंह नन्दी ने वरांगचरित (७वीं शती) में इस के प्रति अवरोधक शक्ति से भी है। उनके अनुसार नैतिक शुभत्व के
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जैन धर्म का लेश्या-सिद्धान्त : एक मनोवैज्ञानिक विमर्श
३८९ सन्दर्भ में मनोभावों का,उनके निम्नतम रूप से उच्चतम रूप तक के लिए किसी नैतिक शुभाशुभता का विचार नहीं करता है। वह जो निम्न प्रकार से वर्गीकरण किया जा सकता:
कुछ भी करता है वह मात्र स्वार्थ-प्रेरित होता है। रॉस के तीसरे स्तर १. दूसरों को जितना अधिक दुःख दिया जा सकता है, देने में व्यक्ति नैतिक दृष्टि से अनुचित सुख प्राप्त करना चाहता है। इस की इच्छा।
प्रकार यहाँ पर भी रॉस एवं जैन दृष्टिकोण विचार-साम्य रखते हैं। २. दूसरों को किसी विशेष प्रकार का अस्थायी दुःख उत्पन्न रॉस के चौथे, पाँचवें और छठे स्तरों की संयुक्त रूप से तुलना करने की इच्छा।
जैन दृष्टि की तेजोलेश्या के स्तर के साथ हो सकती है। रास चौथे ३. नैतिक दृष्टि से अनुचित सुख प्राप्त करने की इच्छा। स्तर में प्राणी की प्रकृति इस प्रकार बताते हैं कि व्यक्ति सुख तो पाना
४. ऐसा सुख प्राप्त करने की इच्छा जो, नैतिक दृष्टि से उचित चाहता है, लेकिन वह उन्हीं सुखों की प्राप्ति का प्रयास करता है जो न हो, लेकिन अनुचित भी न हो।
नैतिक दृष्टि से अनुचित भी नहीं हो, पाँचवें स्तर पर प्राणी नैतिक ५. नैतिक दृष्टि से उचित सुख प्राप्त करने की इच्छा। दृष्टि से उचित सुखों को प्राप्त करना चाहता है तथा छठे स्तर पर ६. दूसरों को सुख देने की इच्छा।
वह दूसरों को सुख देने का प्रयास भी करता है। जैन विचारणा के ७. कोई शुभ कार्य करने की इच्छा।
अनुसार भी तेजोलेश्या के स्तर पर प्राणी नैतिक दृष्टि से उचित से ८. अपने नैतिक कर्तव्य के परिपालन की इच्छा।२७ । उचित सुखों को ही पाने की इच्छा रखता है, साथ-साथ वह दूसरे
रॉस अपने इस वर्गीकरण में जैन लेश्या-सिद्धान्त के काफी निकट की सुख-सुविधाओं का भी ध्यान रखता है। आ जाते हैं। जैन विचारक और रॉस दोनों स्वीकार करते हैं कि नैतिक रॉस के सातवें स्तर की तुलना जैनदृष्टि में पद्म-लेश्या से की शुभ का समन्वय हमारे कार्यों, इच्छाओं, संवेगों तथा चरित्र से है। जा सकती है, क्योंकि दोनों के अनुसार इस स्तर पर व्यक्ति दूसरों यही नहीं दोनों व्यक्ति के नैतिक विकास का मूल्यांकन इस बात से के हित का ध्यान रखता है तथा दूसरों के हित के लिए उन सब करते हैं कि व्यक्ति के मनोभावों एवं आचरण में कितना परिवर्तन हुआ कार्यों को करने में तत्पर रहता है, जो नैतिक दृष्टि से शुभ है। है और वह विकास की किस भूमिका में स्थित है। रॉस के वर्गीकरण रॉस के अनुसार मनोभावों के आठवें सर्वोच्च स्तर पर व्यक्ति के पहले स्तर की तुलना कृष्ण-लेश्या की मनोभूमिका से की जा सकती को मात्र अपने कर्तव्य का बोध रहता है। वह हिताहित की भूमिकाओं है, दोनों ही दृष्टिकोणों के अनुसार इस स्तर में प्राणी की मनोवृत्ति से ऊपर उठ जाता है। इसी प्रकार जैन विचारणा के अनुसार भी नैतिकता दूसरों को यथासम्भव दुःख देने की होती है। जैन विचारणा का जामुन की इस उच्चतम भूमिका में जिसे शुक्ल-लेश्या कहा जाता है, व्यक्ति के वृक्ष वाला उदाहरण भी यही बताता है कि कृष्ण-लेश्या वाला व्यक्ति को समत्व भाव की उपलब्धि हो जाती है, अत: वह स्व और पर उस जामुन वृक्ष के मूल को प्राप्त करने की इच्छा रखता है अर्थात् भेद से ऊपर उठकर मात्र आत्मस्वरूप में स्थित रहता है। जितना विनाश किया जा सकता है या जितना सुःख दिया जा सकता इस प्रकार हम देखते हैं कि न केवल जैन, बौद्ध और बृहद् है, उसे देने की इच्छा रखता है। दूसरे स्तर की तुलना नील लेश्या हिन्दू परम्परा वरन् पाश्चात्य विचारक भी इस विषय में एकमत हैं कि से की जा सकती है। रॉस के अनुसार व्यक्ति इस स्तर में दूसरों को व्यक्ति के मनोभावों से उसके व्यक्तित्व का निर्माण होता है। व्यक्ति अस्थायी दुःख देने की इच्छा रखता है, जैनदृष्टि के अनुसार भी इस का आचरण एक ओर उसके मनोभावों का परिचायक है, तो दूसरी अवस्था में प्राणी दूसरों को दुःख उसी स्थिति में देना चाहता है, जब ओर उसके नैतिक व्यक्तित्व का निर्माता भी है। मनोभाव एवं तज्जनित उनके दुःख देने से उसका स्वार्थ सधता है। इस प्रकार इस स्तर पर आचरण जैसे-जैसे अशुभ से शुभ की ओर बढ़ता है, वैसे-वैसे व्यक्ति प्राणी दूसरों को तभी दुःख देता है जब उसका स्वार्थ उसे टकराता में भी परिपक्वता एवं विकास दृष्टिगत होता है। ऐसे शुद्ध, संतुलित, हो। यद्यपि जैनदृष्टि यह स्वीकार करती है कि इस स्तर में व्यक्ति स्थिर एवं परिपक्व व्यक्तित्व का निर्माण जीवन का लक्ष्य है। अपने छोटे से हित के लिए दूसरों का बड़ा अहित करने में नहीं सकुचाता। जैन विचारणा के उपर्युक्त उदाहरण में बताया गया है कि नील-लेश्या लेश्या-सिद्धान्त का ऐतिहासिक विकासक्रम वाला व्यक्ति फल के लिए समूल वृक्ष का नाश तो नहीं करता, लेकिन जहाँ तक लेश्या की अवधारणा के ऐतिहासिक विकासक्रम का उसकी शाखा को काट देने की मनोवृत्ति रखता है अर्थात् उस वृक्ष प्रश्न है, डॉ० ल्यूमेन और डॉ० हरमन जैकोबी की मान्यता यह है का पूर्ण नाश नहीं, वरन् उसके एक भाग का नाश करता है। दूसरे कि आजीवकों की षट्-अभिजातियों की कल्पना से ही जैनों में षट्शब्दों में आंशिक दुःख देता है। रॉस के तीसरे स्तर की तुलना जैन लेश्याओं की अवधारणा का विकास हुआ है। षट्-लेश्याओं के नाम दृष्टि की कापोतलेश्या से की जा सकती है। जैन दृष्टि यह स्वीकार आदि की षट्-अभिजातियों के नामों से बहुत कुछ साम्यता को देखकर करती है कि नील और कापोत-लेश्या के इन स्तरों में व्यक्ति सुखापेक्षी उनका यह मान लेना अस्वाभाविक तो नहीं कहा जा सकता है, फिर होता है, लेकिन जिन सुखों की वह गवेषणा करता है, वे वासनात्मक भी यदि अभिजाति-सिद्धान्त और लेश्या-सिद्धान्त की मूल प्रकृति को सुख ही होते हैं। दूसरे, जैन विचारणा यह भी स्वीकार करती है कि देखें तो हमें दोनों में एक अन्तर प्रतीत होता है। अभिजाति का सिद्धान्त कापोत-लेश्या के स्तर तक व्यक्ति अपने स्वार्थ या सुखों की प्राप्ति धार्मिक विश्वासों और साधनाओं के बाह्य आधार पर किया गया व्यक्ति
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ का वर्गीकरण है, जबकि लेश्या का सिद्धान्त मनोवृत्तियों के आधार नहीं है कि उसमें कोई विकास नहीं हुआ। यदि हम जैन साहित्य में पर होने वाले मनोदैहिक परिवर्तनों और व्यक्ति के व्यक्तित्व की चारित्रिक उपलब्ध लेश्या सम्बन्धी विवरणों को पढ़े ते स्पष्ट हो जाता है कि विशिष्टताओं का सूचक है। अत: नाम साम्यता होते हुए भी दोनों लेश्या-अवधारणा की अनेक दृष्टियों से विवेचना की गयी है। सर्वप्रथम में दृष्टिगत भिन्नता है। दूसरे यह है कि पूर्णकश्यप, मंखली गोशालक उत्तराध्ययनसूत्र२९ में नाम, वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श, परिणाम, लक्षण, आदि आजीवक आचार्य भी महावीर के समकालिक ही हैं, अत: किससे स्थान, स्थिति, गति और आयु इन ग्यारह विचार बिन्दुओं (द्वारों) से किसने लिया है यह कहना कठिन है। पुन: लेश्या शब्द जैनों का अपना उस पर विचार किया गया है। जबकि भगवतीसूत्र एवं प्रज्ञापनासूत्र पारिभाषिक शब्द है, किसी भी अन्य परम्परा में इस अर्थ में यह शब्द में निम्न पन्द्रह विचार बिन्दुओं (द्वारों) से लेश्या की चर्चा की गयी है। मिलता ही नहीं है। अत: इस अवधारणा के विकास का श्रेय तो जैन १. परिणाम, २. वर्ण, ३. रस, ४. गन्ध, ५. शुद्ध, ६. अप्रशस्त, परम्परा को देना ही होगा। हो सकता है कि षट्-अभिजाति आदि उस ७. संक्लिष्ट, ८. उष्ण, ९. गति, १०. परिणाम, ११. प्रदेश, १२ युग में समानान्तर रूप से प्रचलित अन्य सिद्धान्तों से उन्होंने कृष्ण, वर्गणा, १३. अवगाहना, १४. स्थान एवं १५. अल्प-बहुत्व। शुक्ल, नील आदि नाम ग्रहण किये हों, किन्तु यह भी ज्ञातव्य है इसके पश्चात् दिगम्बर परम्परा में अकलंक ने तत्त्वार्थराजवार्तिक १ कि षट्-अभिजातियों एवं षट्-लेश्याओं के नामों में भी पूरी समानता में लेश्या की विवेचना के निम्न सोलह अनुयोगों की चर्चा की हैनही है। केवल कृष्ण, नील और शुक्ल ये तीन समान हैं, किन्तु १. निर्देश, २. वर्ण, ३. परिणाम, ४. संक्रम, ५. कर्म, ६. लक्षण, लोहित, हारिद्र, पद्म-शुक्ल ये तीन नाम लेश्या-सिद्धान्त में नहीं है, ७. गति ८. स्वामित्व, ९. संख्या, १०. साधना, ११. क्षेत्र १२. उनके स्थान पर कापोत, तेजों एवं पद्म ये तीन नाम मिलते हैं। अत: स्पर्शन, १३. काल, १४. अन्तर, १५. भाव और १६. अल्प-बहुत्व। लेश्या सिद्धान्त अभिजाति सिद्धान्त की पूर्णत: अनुकृति नहीं है। अकलंक के पश्चात् गोम्मटसार के जीवकाण्ड२२ में भी लेश्या मनोभावों, चारित्रिक विशुद्धि, लोककल्याण की प्रवृत्ति आदि के आधार की विवेचना के उपर्युक्त १६ ही अधिकारों का उल्लेख हुआ है। पर व्यक्तियों अथवा उनके व्यक्तित्व के वर्गीकरण की परम्परा सभी विस्तारभय से हम यहाँ इन सभी की चर्चा नहीं कर रहे हैं, किन्तु धर्म परम्पराओं में और सभी कालों में पाई जाती है। प्रत्येक धर्म परम्परा तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर स्पष्ट होता है कि ऐतिहासिक ने अपनी-अपनी दृष्टि से उस पर विचार किया है।
दृष्टि से लेश्या-सिद्धान्त का प्राचीन होने पर भी इसमें क्रमिक विकास ऐतिहासिक दृष्टि से लेश्या शब्द का प्रयोग अति प्राचीन है। देखने को मिलता है। इसकी विस्तृत चर्चा डॉ० शान्ता जैन ने अपने इतना निश्चित है कि प्राचीन पालि त्रिपिटक के दीघनिकाय और शोध-प्रबन्ध में की है। अंगुत्तरनिकाय, जिनमें आभिजाति का सिद्धान्त पाया जाता है, की अपेक्षा आचारांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध भाषा, शैली और विषयवस्तु तीनों ही आधुनिक विज्ञान और लेश्या-सिद्धान्त दृष्टियों से प्राचीन है। विद्वान् उसे ई० पू० पाँचवी-चौथी शती का हम देखते हैं कि ई० पू० पाँचवी शताब्दी से ई० सन् दशवीं ग्रन्थ मानते हैं और उसमें अबहिलेस्से२८ शब्द की उपस्थिति यही सूचित शताब्दी तक लेश्या सम्बन्धी चिन्तन में जो क्रमिक विकास हुआ था, करती है कि लेश्या की अवधारणा महावीर के समकालीन है। पुनः वह ११वीं-१२वीं शताब्दी के बाद प्रायः स्थिर हो गया था। किन्तु उत्तराध्ययनसूत्र जो आचारांगसूत्र और सूत्रकृतांगसूत्र के अतिरिक्त अन्य आधुनिक युग में मनोविज्ञान, रंग-मनोविज्ञान, रंग-चिकित्सा आदि ज्ञान सभी आगमों से प्राचीन माना जाता है, में लेश्याओं के सम्बन्ध में की नयी विधाओं के विकास के साथ जैन दर्शन की लेश्या सम्बन्धी एक पूरा अध्ययन उपलब्ध होना यही सूचित करता है कि लेश्या की विवेचनाओं को एक नया मोड़ प्राप्त हआ। जैन दर्शन के लेश्याअवधारणा एक प्राचीन अवधारणा है। जैन दर्शन में आध्यात्मिक और सिद्धान्त को आधुनिक विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित करने का चारित्रिक विशुद्धि की दृष्टि से परवर्ती काल में जो त्रिविध-आत्मा के मुख्य श्रेय आचार्य तुलसी के विद्वान् शिष्य आचार्य महाप्रज्ञ जी को सिद्धान्त और गुणस्थान के सिद्धान्त अस्तित्व में आये, उसकी अपेक्षा जाता है। उन्होंने आधुनिक व्यक्तित्व मनोविज्ञान के साथ-साथ लेश्या का सिद्धान्त प्राचीन है, क्योंकि न केवल आचारांगसूत्र और आभामण्डल, रंग-मनोविज्ञान, रंग-चिकित्सा आदि अवधारणाओं को उत्तराध्ययनसूत्र में अपितु सूत्रकृतांगसूत्र में 'सुविशुद्धलेसें' तथा लेकर 'आभामण्डल' जैनयोग आदि अपने ग्रन्थ में इसका विस्तार से औपपातिकसूत्र में 'अपडिलेस्स" शब्दों का उल्लेख मिलता है। यहाँ वर्णन किया है। प्राचीन और अर्वाचीन अवधारणाओं को लेकर सर्वत्र लेश्या शब्द मनोवृत्ति का ही परिचायक है और साधक की आत्म- डॉ० शान्ता जैन ने लेश्या का मनोवैज्ञानिक अध्ययन नामक एक शोधविशुद्धि की स्थिति को सूचित करता है।
प्रबन्ध लिखा है जिसमें लेश्या के विभिन्न पक्षों की चर्चा की गयी वस्तुत: लेश्या-सिद्धान्त में आत्मा के संक्लिष्ट अथवा विशुद्ध है। उन्होंने अपने इस शोध-ग्रन्थ में लेश्या का सैद्धान्तिक पक्ष, परिणामों की चर्चा रंगों के आधार पर की गयी है। यह रंगों के आधार मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में लेश्या, रंगों की मनोवैज्ञानिक प्रस्तुति, लेश्या पर व्यक्तियों और उनके मनोभावों के वर्गीकरण की परम्परा भारतीय और आभामण्डल, व्यक्तित्व और लेश्या, सम्भव है व्यक्तित्व बदलाव साहित्य में अतिप्राचीन काल से रही है।
और लेश्या ध्यान, रंगध्यान और लेश्या आदि लेश्या के विभिन्न आयामों लेश्या की अवधारणा को प्राचीन कहने से हमारा यह तात्पर्य पर गम्भीरता से विचार किया है।
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जैन धर्म का लेश्या-सिद्धान्त : एक मनोवैज्ञानिक विमर्श
३९१ वस्तुत: उनका यह ग्रन्थ लेश्या की प्राचीन अवधारणा की आधुनिक है, उसे नया आयाम प्रदान करेंगे और साथ ही मानव के चारित्रिक ज्ञान-विज्ञान के सन्दर्भ में एक नवीन व्याख्या है और भावी लेश्या बदलाव और आध्यात्मिक विशुद्धि की दिशा में सहयोगी बनेंगे। आज सम्बन्धी अध्ययनों के लिए मार्ग प्रदर्शक है। इसके अध्ययन से यह पर्यावरण की विशुद्धि पर ध्यान तो दिया जाने लगा है, किन्तु इस प्रतिफलित होता है कि भारतीय चिन्तन की प्राचीन अवधारणाओं को भौतिक पर्यावरण की अपेक्षा जो हमारा मनोदैहिक और मानसिक आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के सन्दर्भ में किस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता पर्यावरण है, जिसे जैन परम्परा में लेश्या कहा गया है, उसे भी शुद्ध है और उनकी समकालिक प्रासंगिकता को कैसे सिद्ध किया जा सकता रखने की आवश्यकता है। मैं समझता हूँ कि लेश्या की आवधारणा है। आशा है आधुनिक विज्ञान और मनोविज्ञान के अध्येता इस दिशा हमें यही इंगित करती है कि हम संक्लिष्ट मानसिक परिणामों से ऊपर में अपने प्रयत्नों को आगे बढ़ायेंगे और इस प्रकार के अध्ययन का उठकर अपने मानसिक पर्यावरण को किस प्रकार शुद्ध रख जो द्वार आचार्य महाप्रज्ञ और डॉ० शान्ता जैन ने उद्घाटित किया सकते हैं।
सन्दर्भ
१. देखें-अभिदानराजेन्द्रकोष, श्री विजय राजेन्द्रसूरि, रतलाम, खण्ड
३, पृ० ३९५ २. लेश्या-अतीव चक्षुरादीपिका स्निग्ध, दीप्त, रूपा छाया।
-उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति पत्र ६५० ३. देखें-भगवती आराधना, भाग २, सम्पादक पं० कैलाशचन्द्र जी
शास्त्री, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, १९३५, गाथा १९०९ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ, संपा० देवेन्द्रमुनि शास्त्री, प्रका०, तारकगुरु जैन ग्रन्थालय, शास्त्री सर्कल, उदयपुर, १९७९, खण्ड पंचम, पृ० ४६१।
डॉ० शान्ता जैन, लेश्या का मनोवैज्ञानिक अध्ययन, प्रथम अध्याय ६. अभिधान राजेन्द्रकोष, श्री विजयराजेन्द्रसूरि, रतलाम, खण्ड ६,
पृ०६७५। ७. (अ) दर्शन और चिन्तन, पं० सुखलालजी संघवी, प्रका०, गुजरात
विद्यासभा, अहमदाबाद, १९५७, भाग २, पृ० २९७ (ब) अभिधानराजेन्द्रकोष, श्री विजयराजन्देसूरि, रतलाम खण्ड ६,
पृ० ६७५। ८. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा०- रतनलाल दोशी, श्रमणोपासक जैन
पुस्तकालय, सैलाना वीर सं० २४७८, ३४/३ एथिकल स्टडीज, ब्रेडले, आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय प्रेस,लंदन,
१९२७ पृ०६५। १०. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा०- रतनलाल दोशी, श्रमणोपासक जैन
पुस्तकालय, सैलाना, वीर सं० २४७८, ३४/२१-२२ ११. वही, ३४/२१-२२ १२. वही, ३४/२५-२६ १३. वही, ३४/२७-२८ १४. वही, ३४/२९-३० १५. वही, ३४/३१-३२
१६. अंगुत्तरनिकाय, अनु० भदन्त आनन्द कौसल्यायन, महाबोधि सभा,
कलकत्ता, ६/३ १७. वही, ६/३ १८. गीता, गीता प्रेस, गोरखपुर, वि० सं० २०१८, १६/६ १९. वही १६/५ २०. अभिधानराजेन्द्रकोष, श्री विजयराजेन्द्रसूरि, रतलाम, खण्ड ६,
पृ०६८७ २१. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा०, रतनलाल दोशी, श्रमणोपासक जैन
पुस्तकालय, सैलाना, वीर सं० २४७८, ३४/५६-५७ २२. दर्शन और चिन्तन, पं० सुखलालजी संघवी, गुजरात विधासभा
अहमदाबाद, १९५७, भाग -२, पृ० ११२ । २३. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा०- रतनलाल दोशी, श्रमणोपासक जैन
पुस्तकालय, सैलाना-वीर सं० २४७८, ३४/२७-३२ २४. गीता, गीता प्रेस, गोरखपुर, वि सं० २०१८, १६/१-३ २५. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा०- रतनलाल दोशी, श्रमणोपासक जैन
पुस्तकालय, सैलाना-वीर सं० २४७८, ३४/२१-३६ २६. गीता, गीता प्रेस, गोरखपुर, वि० सं० २०१८, १६/७-१८ २७. फाउण्डेशन ऑफ एथिक्स-उद्धृत, २८. आयारो, संपा०-आचार्य तुलसी, प्रका०-जैन विश्वभारती, लाडन,
सं० २०३१, -६/१०६ २९. उत्तराध्ययनसूत्र- संपा०- रतनलाल दोशी, श्रमणोपासक जैन
पुस्तकालय, सैलाना, वीर सं० २४७८, ३४/२ ३०. प्रज्ञापनासूत्र, संपा० आचार्य अमोलक ऋषि, प्रका०-लाला ज्वाला
प्रसाद, हैदराबाद, १७/४११ ३१. तत्त्वार्थराजवार्तिक, संपा०- डॉ महेन्द्रकुमार जैन, प्रका०- भारतीय
ज्ञानपीठ काशी, पृ० २३८ ३२. गोम्मटसार (जीवकाण्ड), संपा०- डॉ एन० एन० उपाध्ये, प्रका०
भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, वाराणसी १९७८, गाथा ४९१-४९२
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जैन धर्म में मुक्ति की अवधारणा : एक तुलनात्मक अध्ययन
जैन दर्शन के अनुसार संवर के द्वारा कर्मों के आगमन का निरोध कर देता है। सांख्य सौख्य एवं वीर्य को तथा न्याय-वैशेषिक ज्ञान हो जाने पर और निर्जरा के द्वारा समस्त पुरातन कर्मों का क्षय हो और दर्शन को भी अस्वीकार कर देते हैं। बौद्ध-शून्यवाद अस्तित्व जाने पर आत्मा की जो निष्कर्म शुद्धावस्था होती है, उसे 'मोक्ष' कहा का भी निरास कर देता है और चार्वाक दर्शन मोक्ष की अवधारणा जाता है। कर्म मलों के अभाव में कर्म-जनित आवरण या बन्धन भी को ही समाप्त कर देता है। वस्तुतः मोक्षावस्था को अनिर्वचनीय मानते नहीं रहते और यह बन्धन का अभाव ही मुक्ति है। मोक्ष आत्मा की हुए भी विभिन्न दार्शनिक मान्यताओं के प्रति उत्तर के लिए ही मोक्ष शुद्ध स्वरूपावस्था है। अनात्मा अर्थात् पर में ममत्व या आसक्ति रूप की इस भावात्मक अवस्था का चित्रण किया गया है। भावात्मक दृष्टि आत्माभिमान का दूर हो जाना ही मुक्ति है। यही आत्मा की शुद्धावस्था से जैन विचारणा मोक्षावस्था में अनन्त चतुष्टय की उपस्थिति पर बल है। बन्धन और मुक्ति की यह समग्र व्याख्या पर्यायदृष्टि का विषय देती है। अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सौख्य और अनन्त शक्ति है। आत्मा की विरूप पर्याय ही बन्धन है और स्वरूप पर्याय मोक्ष को जैन विचारणा में अनन्त चतुष्टय कहा जाता है। बीज रूप में वह है। पर पदार्थ, पुद्गल परमाणु या जड़ कर्म वर्गणाओं के निमित्त से अनन्त चतुष्टय सभी जीवात्माओं में उपस्थित है, मोक्ष-दशा में इनके आत्मा में जो पर्यायें उत्पन्न होती हैं और जिनके कारण पर मै (मेरा अवरोधक कर्मों का क्षय हो जाने से ये पूर्ण रुप में प्रगट हो जाते पन) उत्पन्न होता है यही विरूप पर्याय है, परपरिणति है, स्व की हैं। यह प्रत्येक आत्मा का स्वभाविक गुण है जो मोक्षावस्था में पूर्ण पर में अवस्थिति है, यही बन्धन है और इसका अभाव ही मुक्ति है। रूप से अभिव्यक्त हो जाता है। अनन्त चतुष्टय में अनन्तज्ञान, बन्धन और मुक्ति दोनों एक ही आत्म-द्रव्य या चेतना की दो अवस्थाएँ अनन्तदर्शन, अनन्त शक्ति और अनन्त सौख्य (अव्यबाघसुख) आते मात्र हैं, जिस प्रकार स्वर्ण कुण्डल और स्वर्ण मुकुट स्वर्ण की दो हैं। लेकिन अष्टकर्मों के प्रहाण के आधार पर सिद्धों के आठ गुणों अवस्थाएँ हैं। लेकिन यदि मात्र विशुद्ध तत्त्वदृष्टि से विचार किया जाए की मान्यता भी जैन विचारणा में प्रचलित है। १. ज्ञानवरणीय कर्म तो बन्धन और मुक्ति दोनों की व्याख्या सम्भव नहीं है, क्योंकि आत्मतत्त्व के नष्ट हो जाने से मुक्तात्मा अनन्त ज्ञान या पूर्ण ज्ञान से युक्त होता स्व स्वरूप का परित्याग कर परस्वरूप में कभी भी परिणित नहीं होता। है। २. दर्शनावरणीय कर्म के नष्ट हो जाने से अनन्त दर्शन से सम्पन्न विशुद्ध तत्त्वदृष्टि से तो आत्मा नित्य मुक्त है। लेकिन जब तत्त्व की होता है। ३. वेदनीय कर्म के क्षय हो जाने से विशुद्ध, अनश्वर, पर्यायों के सम्बन्ध में विचार प्रारम्भ किया जाता है, तो बन्धन और आध्यात्मिक सुखों से युक्त होता है। ४. मोहनीय कर्म नष्ट हो जाने मुक्ति की सम्भावनाएँ स्पष्ट हो जाती हैं, क्योंकि बन्धन और मुक्ति से यथार्थ दृष्टि (क्षायिक सम्यक्त्व) से युक्त होता है। मोहकर्म के दर्शन पर्याय अवस्था में ही सम्भव होती हैं। मोक्ष को तत्त्व माना गया है मोह और चारित्रमोह ऐसे, दो भाग किए जाते हैं। दर्शनमोह के प्रहाण . लेकिन वस्तुतः मोक्ष बन्धन के अभाव का ही नाम है। जैनागमों में से यथार्थ दृष्टि और चारित्रमोह के प्रहाण से यथार्थ चारित्र (क्षायिक मोक्ष तत्त्व पर तीन दृष्टियों से विचार किया गया है-१. भावात्मक चारित्र) का प्रगटन होता है, लेकिन मोक्ष-दशा में क्रिया रूप चारित्र दृष्टिकोण २. अभावात्मक दृष्टिकोण ३. अनिर्वचनीय दृष्टिकोण। नहीं होता, मात्र दृष्टि रूप चारित्र होता है अत: उसे क्षायिक सम्यक्त्व
के अन्तर्गत ही माना जा सकता है, वैसे आठ कर्मों की प्रकृतियों मोक्ष पर भावात्मक दृष्टिकोण से विचार
के प्रहाण के आधार पर सिद्धों के ३१ गुण माने गये हैं, उसमें यथाख्यात ___ जैन दार्शनिकों ने मोक्षावस्था पर भावात्मक दृष्टिकोण से विचार चारित्र का स्वतंत्र गुण माना गया है। ५आयुकर्म के क्षय हो जाने से करते हुए उसे निर्बाध अवस्था कहा है। मोक्ष में समस्त बाधाओं के मुक्तात्मा अशरीरी हो जाता है अतः वह इन्द्रियग्राह्य नहीं होता। अभाव के कारण आत्मा के निज गुण पूर्ण रूप से प्रकट हो जाते ७ गोत्रकर्म के नष्ट हो जाने से वह अगुरुलघुत्व से मुक्त हो जाता हैं। मोक्ष बाधक तत्त्वों की अनुपस्थिति और पूर्णता का प्रगटन है। है अर्थात् सभी सिद्ध समान होते हैं उनमें छोटा-बड़ा या ऊँच-नीच आचार्य कुन्दकुन्द ने मोक्ष की भावात्मक दशा का चित्रण करते हुए का भाव नहीं होता। ८. अन्तरायकर्म का प्रहाण हो जाने से बाधा उसे शुद्ध, अनन्त चतुष्टय युक्त, अक्षय, अविनाशी, निर्बाध, अतीन्द्रिय रहित होता है, अर्थात् अनन्त शक्ति सम्पन्न होता है। अनन्त शक्ति अनुपम, नित्य, अविचल एवं अनालम्ब कहा है। आचार्य उसी ग्रन्थ का यह विचार मूलत: निषेधात्मक ही है, यह मात्र बाधाओं का अभाव में आगे चलकर मोक्ष में निम्न बातों की विद्यमानता की सूचना करते है। लेकिन इस प्रकार अष्ट कर्मों के प्रहाण के आधार पर मुक्तात्मा हैं-(१) पूर्णज्ञान (२) पूर्णदर्शन (३) पूर्णसौख्य (४) पूर्णवीर्य (शक्ति) के आठ गुण की व्याख्या करना मात्र एक व्यावहारिक संकल्पना ही (५) पूर्णदर्शन (६) अस्तित्व (७) सप्रदेशता। आचार्य कुन्दकुन्द ने है, उसके वास्तविक स्वरूप का निर्वचन नहीं है। व्यावहारिक दृष्टि मोक्ष-दशा के जिन सात भावात्मक तथ्यों का उल्लेख किया है वे सभी से उसे समझने का प्रयास मात्र है, जो उसका मात्र व्यवहारिक मूल्य भारतीय दर्शनों को स्वीकार नहीं हैं। वेदान्त सप्रदेशता को अस्वीकार है। वस्तुतः तो वह अनिर्वचनीय है। आचार्य नेमीचन्द्र गोम्मटसार में
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जैन धर्म में मुक्ति की अवधारणा : एक तुलनात्मक अध्ययन स्पष्ट रूप से कहते हैं, सिद्धों के इन गुणों का विधान मात्र सिद्धात्मा नहीं समझाया जा सकता है, क्योंकि उसे कोई उपमा नहीं दी जा के स्वरूप के सम्बन्ध में जो ऐकान्तिक मान्यताएँ हैं, उनके निषेध सकती, वह अनुपम है, अरूपी सत्ताधान है। उस अपद का कोई पद के लिए है। मुक्तात्मा में केवल ज्ञान और दर्शन के रूप में ज्ञानोपयोग नहीं है अर्थात् ऐसा कोई शब्द नहीं है जिसके द्वारा उसका निरूपण
और दर्शनोपयोग को स्वीकार करके मुक्तात्मा को जड़ मानने वाली किया जा सके। उसके बारे में केवल इतना ही कहा जा सकता है, वैभाषित बौद्धों और न्याय-वैशेषिक दर्शन की धारणा का प्रतिषेध किया वह अरूप, अरस, अवर्ण, अगंध और अस्पर्श है क्योंकि वह इन्द्रियग्राह्य गया है। मुक्तात्मा के अस्तित्व या अक्षयता को स्वीकार कर मोक्ष को नहीं है। अभावात्मक रूप में मानने वाले जड़वादी तथा सौत्रान्तिक बौद्धों की मान्यता का निरसन किया गया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि मोक्ष-दशा गीता में मोक्ष का स्वरूप का समग्र भावात्मक चित्रण अपना निषेधात्मक मूल्य ही रखता है। गीता की समग्र साधना का लक्ष्य परमतत्त्व, ब्रह्म, अक्षर पुरुष यह विधान भी निषेध के लिए है।
अथवा पुरुषोत्तम की प्राप्ति कहा जा सकता है। गीताकार प्रसंगान्तर
से उसे ही मोक्ष, निर्वाणपद, अव्यय पद, परमपद, परमगति और अभावात्मक दृष्टि से मोक्ष तत्त्व पर विचार
परमधाम भी कहता है। जैन एवं बौद्ध विचारणा के समान गीताकार जैनागमों में मोक्षावस्था का चित्रण निषेधात्मक रूप से भी हुआ की दृष्टि में भी संसार पुनरागमन या जन्म-मरण की प्रक्रिया से युक्त है। प्राचीनतम जैनागम आचारांग में मुक्तात्मा का निषेधात्मक चित्रण है जबकि मोक्ष पुनरागमन या जन्म-मरण का अभाव है। गीता का निम्न प्रकार से प्रस्तुत किया गया है- मोक्षावस्था में समस्त कर्मों साधक इसी प्रेरणा को लेकर आगे बढ़ता है (जरामरणमोक्षाय का क्षय हो जाने से मुक्तात्मा में समस्त कर्म-जन्य उपाधियों का भी ७.२९) और कहता है, “जिसको प्राप्त कर लेने पर पुन: संसार में अभाव होता है, अत: मुक्तात्मा न दीर्घ है, न ह्रस्व है, न वृत्ताकार नहीं लौटना होता है उस परम पद की गवेषणा करनी चाहिए""| है, न त्रिकोण है, न चतुष्कोण है, न परिमण्डल संस्थान वाला है। गीता का ईश्वर भी साधक को आश्वस्त करते हुए यही कहता है कि वह कृष्ण, नील, पीत, रक्त और श्वेतवर्ण वाला भी नहीं है, वह सुगन्ध “जिसे प्राप्त कर लेने पर पुन: संसार में आना नहीं होता, वही मेरा
और दुर्गन्धवाला भी नहीं है। न वह तीक्ष्ण, कटु, खट्टा, मीठा एवं परमधाम (स्वस्थान) है।" परमसिद्धि को प्राप्त हुए महात्माजन मेरे अम्ल रस वाला है। उसमें गुरु, लघु, कोमल, कठोर, स्निग्ध, रूक्ष, को प्राप्त होकर दु:खों के घर इस अस्थिर पुर्नजन्म को प्राप्त नहीं शीत एवं उष्ण आदि स्पर्श गुणों का भी अभाव है। वह न स्त्री है, होते हैं। ब्रह्मलोक पर्यन्त समग्र जगत् पुनरावृत्ति युक्त है। लेकिन जो न पुरुष है, न नपुंसक है । इस प्रकार मुक्तात्मा में रूप, रस, वर्ण, भी मुझे प्राप्त कर लेता है उसका पुर्नजन्म नहीं होता। १५ मोक्ष के गन्ध और स्पर्श भी नहीं है। आचार्य कुन्दकुन्द नियमसार में मोक्ष-दशा अनावृत्ति रूप लक्षण को बताने के साथ ही मोक्ष के स्वरूप का निर्वचन का निषेधात्मक चित्रण प्रस्तुत करते हए लिखते हैं मोक्ष-दशा में न करते हुए गीता कहती है- इस अव्यक्त से भी परे अन्य सनातन सुख है न दुःख है, न पीड़ा है, न बाधा है, न जन्म है, न मरण अव्यक्त तत्त्व है, जो सभी प्राणियों में रहते हुए भी उनके नष्ट होने है। न वहाँ इन्द्रियाँ है, न उपसर्ग है, न मोह है, न व्यामोह है, न पर नष्ट नहीं होता है अर्थात् चेतना पर्यायों में जो अव्यक्त है उनसे निद्रा है, न वहाँ चिन्ता है, न आर्त-रौद्र विचार ही है, वहाँ तो धर्म भी परे उनका आधारभूत आत्मतत्त्व है। चेतना की अवस्थाएँ नश्वर (शुभ) और शुक्ल (प्रशस्त) विचारों का भी अभाव है। मोक्षावस्था हैं, लेकिन उनसे परे रहने वाला यह आत्मतत्त्व सनातन है जो प्राणियों तो सर्व संकल्पों का अभाव है, वह बुद्धि और विचार का विषय नहीं में चेतना (ज्ञान) पर्यायों के रूप में अभिव्यक्त होते हुए भी उन प्राणियों है वह पक्षातिक्रांत है। इस प्रकार मुक्तावस्था का निषेधात्मक विवेचन तथा उनका चेतना पर्यायों (चेतन अवस्थाओं) के नष्ट होने पर भी उसकी अनिर्वचनीयता को बताने के लिए है।
नष्ट नहीं होता है। उसी आत्मा को अक्षर और अव्यक्त कहा गया
है और उसे ही परमगति भी कहते हैं, वही परमधाम भी है, वही मोक्ष का अनिर्वचनीय स्वरूप
मेरा परमात्म स्वरूप आत्मा का निज स्थान है, जिसे प्राप्त कर लेने मोक्षतत्त्व का निषेधात्मक निर्वचन अनिवार्य रूप से हमें उसकी पर पुन: निवर्तन नहीं होता। उसे अक्षर ब्रह्म, परमतत्त्व, स्वभाव अनिर्वचनीयता की ओर ले जाता है। पारमार्थिक दृष्टि से विचार करते (आत्मा की स्वभाव-दशा) और आध्यात्म भी कहा जाता है। गीता हुए जैन दार्शनिकों ने उसे अनिर्वचनीय ही माना है।
की दृष्टि में मोक्ष निर्वाण है परमशान्ति का अधिष्ठान है। जैन दार्शनिकों आचारांगसूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है- समस्त स्वर वहाँ के समान गीता भी यह स्वीकार करती है कि मोक्ष सुखावस्था है। से लौट आते हैं, अर्थात् मुक्तात्मा ध्वन्यात्मक किसी भी शब्द की गीता के अनुसार मुक्तात्मा ब्रह्मभूत होकर अनन्त सुख (अनन्त सौख्य) प्रवृत्ति का विषय नहीं है, वाणी उसका निर्वचन करने में कदापि समर्थ का अनुभव करता है।९। यद्यपि गीता एवं जैन दर्शन में मुक्तात्मा में नहीं है। वहाँ वाणी मूक हो जाती है, तर्क की वहाँ तक पहुँच नहीं जिस सुख की कल्पना की गई है वह न ऐन्द्रिय सुख है न वह मात्र है, बुद्धि (मति) उसे ग्रहण करने में असमर्थ है, अर्थात् वह वाणी, दुःखाभाव रूप सुख है, वरन् वह अतीन्द्रिय ज्ञानगम्य अनश्वर विचार और बुद्धि का विषय नहीं है। किसी उपमा के द्वारा भी उसे सुख है।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ बौद्ध दर्शन में निर्वाण का स्वरूप
___ होता है। इसका तात्पर्य यह है कि निर्वाण की दशा में अनास्त्रव विशुद्ध भगवान् बुद्ध की दृष्टि में निर्वाण का स्वरूप क्या है? यह प्रश्न चेतना का अस्तित्व बना रहता है। वैभाषिकों के इस उप सम्प्रदाय प्रारम्भ से विवाद का विषय रहा है। स्वयं बौद्ध दर्शन के अवान्तर का यह दृष्टिकोण जैन विचारण के निर्वाण के अति समीप आ जाता सम्प्रदायों में भी निर्वाण के स्वरूप को लेकर आत्यन्तिक विरोध पाया है, क्योंकि यह जैन विचारणा के समान निर्वाणावस्था में सत्ता (अस्तित्व) जाता है। आधुनिक विद्वानों ने भी इस सम्बन्ध में परस्पर विरोधी निष्कर्ष और चेतना (ज्ञानोपयोग एवं दर्शनोपयोग) दोनों को स्वीकार करता निकाले हैं, जो एक तुलनात्मक अध्येता को अधिक कठिनाई में डाल है। वैभाषिक दृष्टिकोण निर्वाण को संस्कारों की दृष्टि से अभावात्मक, देते हैं। वस्तुतः इस कठिनाई का मूल कारण पालि निकाय में निर्वाण द्रव्य सत्यता की दृष्टि से भावात्मक एवं बौद्धिक विवेचना की दृष्टि का विभिन्न दृष्टियों से अलग-अलग प्रकार से विवेचन किया जाना से अनिर्वचनीय मानता है, फिर भी उसकी व्याख्याओं में निर्वाण का है। आदरणीय श्री पुसे२१ एवं प्रोफेसर नलिनाक्ष दत्त ने बौद्ध निर्वाण भावात्मक या सत्तात्मक पक्ष अधिक उभरा है। सौत्रान्तिक सम्प्रदाय, के सम्बन्ध में विद्वानों के दृष्टिकोणों को निम्न रूप से वर्गीकृत वैभाषिक सम्प्रदाय के समान यह मानते हुए भी कि निर्वाण संस्कारों किया है
का अभाव है, वह स्वीकार नहीं करता है कि असंस्कृत धर्म की कोई (१) निर्वाण एक अभावात्मक तथ्य है।
भावात्मक सत्ता होती है। इनके अनुसार केवल परिवर्तनशीलता ही (२) निर्वाण अनिवर्चनीय अव्यक्त अवस्था है।
तत्त्व का यथार्थ स्वरूप है। अत: सौत्रान्तिक निर्वाण की दशा में किसी (३) निर्वाण की बुद्ध ने कोई व्याख्या नहीं दी है। असंस्कृत अपरिवर्तनशील नित्य तत्त्व की सत्ता को स्वीकार नहीं करते। (४) निर्वाण भावात्मक विशुद्ध पूर्ण चेतना की अवस्था है। उनकी मान्यता में ऐसा करना बुद्ध के अनित्यवाद और क्षणिकवाद
बौद्ध दर्शन के अवान्तर प्रमुख सम्प्रदायों का निर्वाण के स्वरूप की अवहेलना करना है। शरवात्स्की के अनुसार सौत्रान्तिक सम्प्रदाय के सम्बन्ध में निम्न प्रकार से दृष्टि भेद है
में 'निर्वाण का अर्थ है जीवन की प्रक्रिया समाप्त हो जाना, इसके (१) वैभाषिक सम्प्रदाय के अनुसार निर्वाण संस्कारों या संस्कृत पश्चात् ऐसा कोई जीवनशून्य तत्त्व शेष नहीं रहता है, जिसमें जीवन धर्मों का अभाव है, क्योंकि संस्कृत धर्मता ही अनित्यता है, यही बन्धन की प्रक्रिया समाप्त हो गई है। निर्वाण क्षणिक चेतना-प्रवाह का समाप्त है, यही दुःख है, लेकिन निर्वाण तो दुःख निरोध है, बन्धनाभाव है हो जाना है, जिसके समाप्त हो जाने पर कुछ भी अवशेष नहीं रहता, इसलिए वह एक असंस्कृत धर्म है और असंस्कृत धर्म के रूप में क्योंकि इनके अनुसार परिवर्तन ही सत्य है। परिवर्तनशीलता के उसकी भावात्मक सत्ता है। वैभाषिक मत के निर्वाण के स्वरूप को अतिरिक्त तत्त्व की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है और निर्वाण-दशा में अभिधर्मकोष व्याख्या में निम्न प्रकार से बताया गया है- “निर्वाण परिवर्तनों की श्रृंखला समाप्त हो जाती है, अत: उसके परे कोई सत्ता नित्य असंस्कृत स्वतन्त्र सत्ता, पृथक्-भूत, सत्य पदार्थ (द्रव्यसत) है"२३। शेष नहीं रहती है। इस प्रकार सौत्रान्तिक निर्वाण मात्र अभावात्मक निर्वाण में संस्कारों के अभाव का अर्थ अनसित्त्व नहीं है, वरन् एक अवस्था है। वर्तमान में वर्मा और लंका के बौद्ध निर्वाण को अभावात्मक भावात्मक अवस्था ही है। निर्वाण असंस्कृत धर्म है। प्रोफेसर एवं अनस्तित्त्व के रूप में देखते हैं। निर्वाण के भावात्मक, अभावात्मक शरवात्स्की२४ ने वैभाषिक निर्वाण को अनन्त मृत्यु कहा है। उनके अनुसार और अनिर्वचनीय पक्षों की दृष्टि से विचार करने पर ऐसा प्रतीत होता निर्वाण आध्यात्मिक अवस्था नहीं वरन् चेतना एवं क्रिया शून्य जड़ है कि सौत्रान्तिक विचारणा निर्वाण के अभावात्मक पक्ष पर अधिक अवस्था है। लेकिन समादरणीय एस० के० मुकर्जी, प्रोफेसर नलिनाक्ष बल देती है। इस प्रकार सौत्रान्तिक सम्प्रदाय का निर्वाण सम्बन्धी अभावात्मक दत्त५ और प्रोफेसर मूर्ति ने प्रोफेसर शरवात्सकी के इस दृष्टिकोण दृष्टिकोण जैन विचारणा के विरोध में जाता है। लेकिन सौत्रान्तिको का विरोध किया है। इन विद्वानों के अनुसार वैभाषिक निर्वाण निश्चित में भी एक ऐसा उपसम्प्रदायदशा था।' जिसके अनुसार निर्वाण अवस्था रूप से एक भावात्मक अवस्था है। इसमें यद्यपि संस्कारों का अभाव में भी विशुद्ध चेतना पर्यायों का प्रवाह रहता है। यह दृष्टिकोण जैन होता है फिर भी उसकी असंस्कृत धर्म के रूप में भावात्मक सत्ता विचारणा की इस मान्यता के निकट आता है, जिसके अनुसार निर्वाण होती है। वैभाषिक निर्वाण में चेतना का अस्तित्व होता है या नहीं? की अवस्था में भी आत्मा में परिणामीपन बना रहता है अर्थात् मोक्ष-दशा यह प्रश्न भी विवादास्पद है। प्रोफेसर शरवात्सकी निर्वाण-दशा में चेतना में आत्मा में चैतन्य ज्ञान धारा सतत् रूप से प्रवाहित होती रहती है। का अभाव मानते हैं लेकिन प्रोफेसर मुकर्जी इस सम्बन्ध में एक (३) विज्ञानवाद (योगाचार)-महायान के प्रमुख ग्रन्थ लंकावतारसूत्र परिष्कारित दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं, उनके अनुसार (यशोमित्र की के अनुसार निर्वाण सप्त प्रवृत्ति विज्ञानों की अप्रवृतावस्था है; चित्त अभिधर्मकोष की टीका के आधार पर निर्वाण की दशा में विशुद्ध प्रवृत्तियों का निरोध है।२९ स्थिरमति के अनुसार निर्वाण क्लेशावरण मानस या चेतना रहती है।
__ और ज्ञेयावरण का क्षय है। असंग के अनुसार निवृत्त चित्त (निर्वाण) (२) डॉ० लाड ने अपने शोध-प्रबन्ध में एवं विद्वत्वर्य बलदेव उचित है, क्योंकि वह विषयों का ग्राहक नहीं है। वह अनुपलम्भ है, उपाध्याय ने बौद्ध दर्शन मीमांसा में वैभाषिक बौद्धों के एक तिब्बतीय क्योंकि उसको कोई बाह्य आलम्बन नहीं है और इस प्रकार आलम्बन उप सम्प्रदाय का उल्लेख किया है। जिसके अनुसार निर्वाण की अवस्था रहित होने से लोकोत्तर ज्ञान है। दौष्ठुल्य अर्थात् आवरण (क्लेशावरण में केवल वासनात्मक एवं क्लेशोत्पादक (सास्त्रव) चेतना का ही अभाव और ज्ञेयावरण) के नष्ट हो जाने से निवृत्त चित्त (आलयविज्ञान) परावृत
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जैन धर्म में मुक्ति की अवधारणा एक तुलनात्मक अध्ययन
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नहीं होता, प्रवृत्त नहीं होता। वह अनावरण और आस्त्रवधातु है, लेकिन असंग केवल इस निषेधात्मक विवेचन से सन्तुष्ट नहीं होते हैं, वे निर्वाण की अनिर्वचनीय एवं भावात्मक व्याख्या भी प्रस्तुत करते हैं। निर्वाण अचिन्त्य है, क्योंकि तर्क से उसे जाना नहीं जा सकता लेकिन अचिन्त्य होते हुए भी वह कुशल है, शाश्वत है, सुख रूप है, विमुक्तकाय है, और धर्माख्य है । ३२ इस प्रकार विज्ञानवादी मान्यता में निर्वाण की अभावपरक और भावपरक व्याख्याओं के साथ-साथ उनकी अनिर्वचनीयता को भी स्वीकार किया गया है। वस्तुतः निर्वाण के अनिर्वचनीय स्वरूप के विकास का श्रेय विज्ञानवाद और शून्यवाद को ही है। लंकावतारसूत्र में निर्वाण के अनिर्वचनीय स्वरूप का सर्वोच्च विकास देखा जा सकता है लंकावतारसूत्र के अनुसार निर्वाण विचार की कोटियों से परे है, फिर भी विज्ञानवादी निर्वाण को इस आधार पर नित्य माना जा सकता है कि निर्वाण लाभ से ज्ञान उत्पन्न होता है।
तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर विज्ञानवादी निर्वाण का जैन विचारणा से निम्न अर्थों मे साम्य है – १. निर्वाण चेतना का अभाव नही है, वरन् विशुद्ध चेतना की अवस्था है। २. निर्वाण समस्त संकल्पों का क्षय है, वह चेतना की निर्विकल्पावस्था है । ३ निर्वाणावस्था में भी चैतन्य धारा सतत् प्रवाहमान रहती है (आत्मपरिणमीपन) । यद्यपि डॉ० ० चन्द्रधर शर्मा ने आलय विज्ञान को अपरिवर्तनीय या कूटस्थ माना है । ३३ लेकिन आदरणीय बलदेव उपाध्याय उसे प्रवाहमान या परिवर्तनशील ही मानते हैं। ४ ४. निर्वाणावस्था सर्वज्ञता की अवस्था है। जैन विचारणा के अनुसार उस अवस्था में केवलज्ञान और केवल दर्शन है। असंग ने महायान सूत्रालंकार में धर्मकाय को जो कि निर्वाण की पर्यायवाची है, स्वाभाविक काय कहा है।" जैन विचारणा में भी मोक्षको स्वभाव - दशा कहा जाता है। स्वाभाविक काय और स्वभाव-दशा अनेक अर्थों मे अर्थ साम्य रखते हैं।
(४) शून्यवाद - बौद्ध दर्शन के माध्यमिक सम्प्रदाय में निर्वाण के अनिर्वचनीय स्वरूप का सर्वाधिक विकास हुआ है। जैन तथा अन्य दार्शनिकों ने शून्यता को अभावात्मक रूप में देखा है, लेकिन यह उस सम्प्रदाय के दृष्टिकोण को समझने में सबसे बड़ी भ्रान्ति ही कही जा सकती है। माध्यमिक दृष्टि से निर्वाण अनिवर्चनीय है, चतुष्कोटि विनिर्मुक्त है, वही परमतत्त्व है वह न भाव है, न अभाव है। यदि वाणी से उसका विवेचन करना ही आवश्यक हो तो मात्र यह कहा जा सकता है कि निर्वाण अप्रहाण असम्प्राप्त, अनुच्छेद, अशाश्वत, अनिरुद्ध एवं अनुत्पन्न है । ३७ निर्वाण को भाव रूप इसलिए नहीं माना जा सकता है कि भावात्मक वस्तु या तो नित्य होगी या अनित्य । नित्य मानने पर निर्वाण के लिए किये गये प्रयासों का कोई अर्थ नहीं होगा । अनित्य मानने पर बिना प्रयास ही मोक्ष होगा। निर्वाण को अभाव भी नहीं कहा जा सकता, अन्यथा तथागत के द्वारा उसकी प्राप्ति का उपदेश क्यों दिया जाता निर्वाण को प्रहाण और सम्प्राप्त भी नही कहा जा सकता, अन्यथा निर्वाण कृतक एवं कालिक होगा और यह मानना पड़ेंगा कि वह काल विशेष में उत्पन्न हुआ है और यदि वह उत्पन्न हुआ है तो वह जरा-मरण के समान अनित्य ही होगा। निर्वाण
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को उच्छेद या शाश्वत भी नहीं कहा जा सकता अन्यथा शास्ता के मध्यम मार्ग का उल्लंघन होगा और हम उच्छेदवाद या शाश्वतवाद की मिथ्या दृष्टि से ग्रसित होंगे। इसलिए माध्यमिक नय में निर्वाण भाव और अभाव दोनों नहीं है। वह तो सर्व संकल्पनाओं का क्षय है, प्रपंचोपशमता है।
बौद्ध दार्शनिकों एवं वर्तमान युग के विद्वानों में बौद्ध दर्शन में निर्वाण के स्वरूप को लेकर जो मतभेद दृष्टिगत होता है उसका मूल कारण बुद्ध द्वारा निर्वाण का विविध दृष्टिकोणों के आधार पर विविध रूप से कथन किया जाना है। पाली निकाय में निर्वाण के इन विविध स्वरूपों का विवेचन उपलब्ध होता है उदान नामक एक लघु प्रन्य में ही निर्वाण के इन विविध रूपों को देखा जा सकता है।
निर्वाण एक भावात्मक तथ्य है
इस सन्दर्भ में बुद्ध वचन इस प्रकार है- “भिक्षुओं! (निर्वाण ) अजात, अभूत, अकृत, असंस्कृत है। भिक्षुओं! यदि वह अजात, अभूत, अकृत, असंस्कृत नहीं होता तो जात, भूत, कृत और संस्कृत का व्युपशम नहीं हो सकता। भिक्षुओं क्योंकि वह अजात, अभूत, अकृत और असंस्कृत है इसलिए जात भूत, कृत और संस्कृत का व्युपशम जाना जाता है । २८ धम्मपद में निर्वाण को परम सुख, ३९ अच्युत स्थान और अमृत पद" कहा गया है जिसे प्राप्त कर लेने पर न च्युति का भय होता है, न शोक होता है उसे शान्त संसारोपशम एवं सुख पद भी कहा गया है। इतिवृत्तक में कहा गया है— वह ध्रुव, न उत्पन्न होने वाला है, शोक और राग रहित है, सभी दुःखों का वहाँ निरोध हो जाता है, वहाँ संस्कारों की शान्ति एवं सुख है ४२ । आचार्य बुद्धघोष निर्वाण की भावात्मकता का समर्थन करते हुए विशुद्धिमग्ग में लिखते हैं— निर्वाण नहीं है, ऐसा नहीं कहना चाहिए। प्रभव और जरामरण के अभाव से नित्य है— अशिथिल, पराक्रम सिद्ध, विशेष ज्ञान से प्राप्त किए जाने से और सर्वज्ञ के वचन तथा परमार्थ से निर्वाण अविधमान नहीं है। ४३
निर्वाण की अभावात्मकता
निर्वाण की अभावात्मकता के सम्बन्ध में उदान के रूप में निम्न बुद्ध वचन है, "लोहे पर घन की चोट पड़ने पर जो चिनगारियाँ उठती हैं वो तुरन्त ही बुझ जाती हैं, कहाँ गई कुछ पता नहीं चलता। इसी प्रकार काम बन्धन से मुक्त हो निर्वाण पाये हुए पुरुष की गति का कोई भी पता नहीं लगा सकता । ४४
शरीर छोड़ दिया, संज्ञा निरुद्ध हो गई, सारी वेदनाओं को भी बिलकुल जला दिया। संस्कार शान्त होगए; विज्ञान अस्त हो गया।
लेकिन दीप शिखा और अग्नि के बुझ जाने अथवा संज्ञा के निरुद्ध हो जाने का अर्थ अभाव नहीं माना जा सकता, आचार्य बुद्धघोष विशुद्धिमग्ग में कहते है— निरोध का वास्तविक अर्थ तृष्णाक्षय अथवा विराग है४६ । प्रोफेसर कीथ एवं प्रोफेसर नलिनाक्षदत्त अग्गि वच्छगोत्तमुत्त के आधार पर यह सिद्ध करते हैं कि बुझ जाने का अर्थ अभावात्मकता
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नहीं है, वरन् अस्तित्व की रहस्यमय, अवर्णनीय अवस्था है। प्रोफेसर कीथ के अनुसार निर्वाण अभाव नहीं वरन चेतना का अपने मूल (वास्तविक शुद्ध) स्वरूप में अवस्थित होना है प्रोफेसर नलिनाक्षदत्त के शब्दों में निर्वाण की अग्नि शिखा के बुझ जाने से की जाने वाली तुलना समुचित है, क्योंकि भारतीय चिन्तन में आग के बुझ जाने
४७
तात्पर्य उसके अस्तित्व से न होकर उसका स्वाभाविक शुद्ध अदृश्य, अव्यक्त में चला जाना है, जिसमें कि वह अपने दृश्य प्रकटन के पूर्व रही हुई थी। बौद्ध दार्शनिक संघभद्र का भी यही निरूपण है कि अग्नि की उपमा से हमको यह कहने का अधिकार नहीं है कि निर्वाण अभाव है। मिलिन्दप्रश्न के अनुसार भी निर्वाण अस्ति धर्म (अत्यिधम्म) एकान्त सुख एवं अप्रतिभाग है, उसका लक्षण स्वरूपतः नहीं बताया जा सकता किन्तु गुणतः दृष्टान्त के रूप में कहा जा सकता है कि जिस प्रकार जल प्यास को शान्त करता है, इसी प्रकार निर्वाण त्रिविध तृष्णा को शान्त करता है। निर्वाण को अकृत कहने से भी उसकी एकान्त अभावात्मकता सिद्ध नहीं होती। आर्य (साधक) निर्वाण का उत्पाद नहीं करता फिर भी वह उसका साक्षात्कार (साक्षीकरोति) एवं प्रतिलाभ (प्राप्नोति) करता है। वस्तुतः निर्वाण को अभावात्मक रूप में इसीलिए कहा जाता है कि अनिर्वचनीय का निर्वचन करना भावात्मक भाषा की अपेक्षा अभावात्मक भाषा अधिक युक्तिपूर्ण होता है।
निर्वाण की अनिर्वचनीयता - निर्वाण की अनिर्वचनीयता के सम्बन्ध में निम्न बुद्ध वचन उपलब्ध है- "भिक्षुओं! न तो मैं उसे अगति और न गति कहता हूँ, न स्थिति और न च्युति कहता हूँ, उसे उत्पत्ति भी नहीं कहता हूँ वह न तो कहीं ठहरता है, न प्रवर्तित होता है और न उसका कोई आधार है, यही दुःखों का अन्त है। *" भिक्षुओं! अनन्त४९ का समझना कठिन है, निर्वाण का समझना आसान नहीं । ज्ञानी की तृष्णा नष्ट हो जाती है उसे (रागादिक्लेश) कुछ नहीं है।५° जहाँ (निर्वाण) जल, पृथ्वी, अग्नि और वायु नहीं ठहरती, वहाँ न तो शुक्र और न आदित्य प्रकाश करते हैं। वहाँ चन्द्रमा की प्रभा भी नहीं है, न वहाँ अंधकार ही होता है। जब क्षीणाश्रव भिक्षु अपने आपको जान लेता है तब रूप-अरूप तथा सुख-दुःख से छूट जाता है । ५१ उदान का यह वचन हमें गीता के उस कथन की याद दिला देता है, जहाँ श्रीकृष्ण कहते हैं जहाँ न पवन बहता है, न चन्द्र सूर्य प्रकाशित होते हैं, जहाँ जाने से पुन: इस संसार में आया नहीं जाता वही मेरा ( आत्मा का) परम धाम (स्वस्थान) है।”
बौद्ध निर्वाण की यह विशद विवेचना हमें इस निष्कर्ष पर ले जाती है कि प्रारम्भिक बौद्ध दर्शन का निर्वाण अभावात्मक तथ्य नहीं था। इसके लिए निम्न तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं
(१) निर्वाण यदि अभाव मात्र होता तो तृतीय आर्य सत्य कैसे होता? क्योंकि अभाव आर्य सत् का आलम्बन नहीं हो सकता।
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६ दृष्टि कहा है।
(२) तृतीय आर्य सत्य का विषय द्रव्य सत् नहीं है तो उसके उपदेश का क्या मूल होगा?
(३) यदि निर्वाण मात्र निरोध या अभाव है तो उच्छेद-दृष्टि सम्यग्दृष्टि होगी लेकिन बुद्ध ने तो सदैव ही उच्छेद- दृष्टि को मिथ्या
(४) महायान की धर्मकाय की धारणा और उसकी निर्वाण से एकरूपता तथा विज्ञानवाद के आलयविज्ञान की धारणा निर्वाण की अभावात्मक व्याख्या के विपरीत पड़ते हैं। अतः निर्वाण का तात्त्विक स्वरूप अभाव सिद्ध नहीं होता है उसे अभाव या निरोध कहने का तात्पर्य यही है कि उसमें वासना या तृष्णा का अभाव है। लेकिन जिस प्रकार रोग का अभाव, जिस प्रकार रोग का अभाव, अभाव होते हुए भी सदभूत है, उसे
आरोग्य कहते हैं, उसी प्रकार तृष्णा का अभाव भी सदभूत है उसे
सुख कहा जाता है। दूसरे उसे अभाव इसलिए भी कहा जाता है कि साधक में शाश्ववतवाद की मिध्यादृष्टि भी उत्पन्न नहीं हो राग का प्रहाण होने से निर्वाण में मैं (अत्त) और मेरापन (अत्ता) नहीं होता, इस दृष्टिकोण के आधार पर उसे अभाव कहा जाता है। निर्वाण राग तथा अहं का पूर्ण विगलन है। लेकिन अहं या ममत्व की समाप्ति को अभाव नहीं कहा जा सकता। निर्वाण की अभावात्मक कल्पना 'अनत्त' शब्द का गलत अर्थ समझने से उत्पन्न हुई है। बौद्ध दर्शन में अनात्म (अनत्त) शब्द आत्म (तत्व) का अभाव नहीं बताता वरन् यह बताता है कि जगत में अपना या मेरा कोई नहीं है, अनात्म का उपदेश आसक्ति प्रहाण के लिए, तृष्णा के क्षय के लिए है। निर्वाण 'तत्त्व' का अभाव नहीं वरन् अपनेपन या अहं का अभाव है। वह वैयक्तिकता का अभाव है, व्यक्तित्त्व का नहीं, अनत्त (अनात्म) वाद की पूर्णता यह बताने में है कि जगत में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे मेरा या अपना कहा जा सके। सभी अनात्म है। इस शिक्षा का सच्चा अर्थ यही है कि मेरा कुछ भी नहीं है। क्योंकि जहाँ मेरापन (अत्त भाव) आता है वहाँ राग एवं तृष्णा का उदय होता है स्व पर में अवस्थित होता है, आत्मदृष्टि (ममत्व) उत्पन्न होती है। लेकिन यही आत्मदृष्टि स्व का पर में अवस्थित होना अथवा राग एवं तृष्णा की वृत्ति बन्धन है, जो तृष्णा है, वही राग है; और जो राग है वही अपनापन है। निर्वाण में तृष्णा का क्षय होने से राग नहीं होता, राग नहीं होने से अपनापन (अता) भी नहीं होता बौद्ध निर्वाण की अभावात्मकता का सही अर्थ इस अपनेपन का अभाव है, तत्व अभाव नहीं है। वस्तुतः तत्त्व लक्षण की दृष्टि से निर्वाण एक भावात्मक अवस्था है। मात्र वासनात्मक पर्यायों के अभाव के कारण ही वह अभाव कहा जाता है अतः प्रोफेसर कीथ और नलिनाक्षदत की वह मान्यता कि बौद्ध निर्वाण अभाव नहीं है, बौद्ध विचारणा की मूल विचारदृष्टि के निकट ही है। यद्यपि बौद्ध निर्वाण एक भावात्मक तथ्य है, फिर भी भावात्मक भाषा उसका यथार्थ चित्र प्रस्तुत करने में समर्थ नहीं है, क्योंकि भाव किसी पक्ष को बताता है और पक्ष के लिए प्रतिपक्ष की स्वीकृति अनिवार्य है जबकि निर्वाण तो पक्षातिक्रांत है। निषेधमूलक कथन की यह विशेषता होती है कि उसके लिए किसी प्रतिपक्ष की स्वीकृति को आवश्यक नहीं बढ़ा सकता । अतः अनिर्वचनीय का निर्वचन करने में निषेधात्मक भाषा का प्रयोग ही अधिक समीचीन है। इस निषेधात्मक विवेचन शैली ने निर्वाण की अभावात्मक कल्पना को अधिक प्रबल बनाया है। वस्तुतः निर्वाण अनिर्वचनीय है।
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जैन धर्म में मुक्ति की अवधारणा : एक तुलनात्मक अध्ययन कृत्स्न कर्मक्षयान् मोक्षः, तत्वार्थसूत्र, विवे०, पं० सुखलाल संधवी, २०. सुखमात्यन्तिकं यत्ताबुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्। -वही, ६/२१।
प्रका०, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी १९७६, १०१। २१. इनसाइक्लोपेडिया आफ इथिक्स एण्ड रिलीजन, संपा०, जेम्स २. बन्ध वियोगो मोक्ष:-अभिधानराजेन्द्रकोष, श्री विजय राजेन्द्र सूरि हैस्टिंग, प्रका०, टी०एण्ड टी० क्लार्क, एडिनबर्ग। जी, रतलाम, खण्ड ६, पृ० ४३१
२२. आस्पेक्टस ऑफ महायान इन रिलेशन टु हीनयान। ३. मुक्खो जीवस्स शुदद्ध रूचस्स-वही, खण्ड ६, पृ० ४३१ २३. द्रव्यं सत् प्रतिसंख्या निरोधः सत्यचतुष्टय-निर्देश-निर्द्धिष्टत्वात्, ४. तुलना कीजिए-(अ) आत्म मीमांसा (दलसुखभाई), पृ०६६-६७ मार्ग सत्येव इति वैभाषिकाः। -यशोमित्र-अभिधर्मकोष व्याख्या, (ब) ममेति वध्यते जन्तुर्नममेति प्रमुच्यते। - गरुड़ पुराण।
पृ० १७। अव्वावाहं अवत्थाणं-अभिधानराजेन्द्रकोष, खण्ड ६, पृ०४३१। २४. बुद्धिस्ट निर्वाण, पृ० २७। ६. नियमसार, अनु० अगरसेन, अजिताश्रम, लखनऊ, १९६३, २५. आस्पेक्ट्स ऑफ महायान इन रिलेशन टु हीनयान, पृ० १६२ १७६-१७७।
२६. सेंट्रल फिलॉसफी ऑफ बुद्धिज्म, टी०आर०वी० मूर्ति, प्रका० जॉर्ज, ७. विज्जदि केवलणाणं, केवलसोक्खं च केवलविरियं।
एलेन एण्ड टी०क्लार्क, एडिनबर्ग १९५५, पृष्ठ १२९, केवलदिट्ठि अमुत्तं अत्थित्तं सप्पदेसत ।। -वही, १८१
पृ० २७२-७३। कुछ विद्वानों ने अगुरुलघुत्व का अर्थ न हल्का न भारी ऐसा भी २७. बुद्धिस्ट फिलासफी ऑफ युनिवर्सल फ्लक्स, सत्कारी मुखर्जी, किया है।
प्रका०, कलकत्ता विश्वविद्यालय प्रेस १९३५, पृ० २५२। ९. प्रवचनसारोद्धार, संपा०, नेमिचन्द्रसूरि, निर्णय सागर प्रेस, बबई, २८. ए कम्परेटिव स्टेडी ऑफ दी कानसेप्ट ऑफ लिबरेशन इन इंडियन १९२२, द्वार २७६, गाथा १५९३-१५९४।
फिलॉसफी, डॉ. अशोक कुमार लाड, प्रका० गिरधारी लाल १०. सदासिव सखो मक्कडि बुद्धौ णैयाइयो य वेसेसी।
केशवदास, बुरहानपुर, पृ०६९।। ईसर मडलि दंसण विदूसणटुं कयं एदं ।। -गोम्मटसार (नेमिचन्द्र) (ब) बौद्ध दर्शन मीमांसा, आचार्य बलदेव उपाध्याय, प्रका०, संपा०, पं० खूबचन्द्र जैन, प्रका०, परमश्रुत प्रभावक मण्डल, चौखम्बा विद्या भवन वाराणसी, १९७८, पृ० १४७। आगास, वि०सं० २०२२।
२९. लंकावतारसूत्र, संपा०, श्री परशुराम शर्मा, मिथिला विद्यापीठ, से न दीहे, न हस्से, न वट्टे, न तंसे, न चउरंसे, न परिमंडले, न दरभंगा १९६३, २/६२। । किण्हे, न नीले, न लोहिते, न हालिद्दे, न सुकिल्ले, न सुरभिगन्धे, ३०. क्लेशज्ञेयावरण प्रहाणभपि मोक्ष सर्वज्ञात्वाघिगमार्थम।-स्थिरमति न दुब्भिगन्धे, न तिते, न कडुए, न कसाए, न अंबिले, न महुरे, त्रिशिंका विज्ञप्ति भाष्य, पृ० १५, उद्धृत-आचार्य बलदेव उपाध्याय, न कक्खड़े, न मउए, न गुरुए, न लहुए, न सीए, न उण्हे, न निद्धे, बौद्धदर्शनमीमांसा, पृष्ठ १३२। न लुक्खे, न काऊ, न रूहे, न संगे, न इत्थी, न पुरिसे, न अनहा, ३१. अचित्तोऽनुपलम्भो सो ज्ञानं लोकोत्तरं च तत्। आश्रयस्यपरावृतिद्विघासे न सद्दे, न रूवे, न गंधे, न रसे, न फासे। -आचारांगसूत्र, दौष्ठुल्य हानितः। -त्रिशिंका २९ संपा०, मधुकर मुनि, प्रका०, श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, ३२. स एवानास्त्रवो धातुरचिन्त्यः कुशलो ध्रुवः।-त्रिशिंका ३० १९८०, १/५/६।
33. Acritical Survey of Indian Philosophy, Pub. - Motilal णवि दु:क्खं णवि सुक्खं णवि पीडा व विज्जदे बाहा ।
Banarasidas, Delhi, 1979, p. 109. णवि मरणं णवि जणणं तत्थेव य होई णिव्वाणं ।।
३४. बौद्ध दर्शन मीमांसा, पृष्ठ १२६-१३८। मोहो विम्हियो ण णिद्दाय।
३५. महायान सूत्रालंकार, सपां० एस०एस०बागची, प्रका० मिथिला त्थेव हवदि णिव्वाणं ।। -नियमसार, संपा० पं० परमेष्ठीदास विद्यापीठ, दरभंगा १९७०, ९/६० (महायान-शान्तिभिक्षु, पृष्ठ७३) न्यायतीर्थ, प्रका० दिग० जैन तीर्थ सुरक्षा ट्रस्ट, जयपुर, १९८८, ३६. भावाभाव परामर्शक्षयो निर्वाणं उच्यते। -माध्यमिककारिकावृति,
अनु० अगरसेन, अजिताश्रम, लखनऊ, १९६३, १७८-१७९। पृष्ठ ५२४। १३. मनसा सह-तैत्तरीय २/९ –मुण्डक ३/१/८
(उद्धृत दी सेंट्रल फिलासफी ऑफ बुद्धीज्म (टी. आर. वी. मूर्ति) पृष्ठ १४. यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः। -गीता, गीताप्रेस, गोरखपुर, २७४। वि०सं० २०१८, १५/४।
३७. अप्रहीणमसम्प्राप्तमनुच्छिन्त्रमशाश्वतम्। १५. (अ) यं प्राप्य न निर्वतन्ते तद्धाम परमं मम। -वही, ८/२१। अनिरूद्धमनुत्पन्नमेतन्निर्वाणमुच्यते ।। -माध्यमिककारिकावृत्ति।
(ब) यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम। -वही, १५/६। पृ० ५२१, उद्धृत आचार्य बलदेव उपाध्याय, बौद्ध दर्शन मीमांसा, (स) मामुपेत्य पुर्नजन्म दुःखालयमशाश्वतम्।
पृष्ठ १३३। नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः। -वही, ८/१५। ३८. उदान अनु० जगदीश कश्यप, प्रका० महाबोधि सभा, सारनाथ १६. गीता-८/२०-२१
वाराणसी, ८/३ पृ० ११०-१११ (ऐसा ही वर्णन इतिवृत्तक १७. अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यत्ममुच्यते। -वही, ८/३।
२/२/६ में भी है) १८. शान्तिं निर्वाणपरमां। -वही, ६/१५।
३९. धम्मपद, अनु० पं०राहुल सांकृत्यायन, प्रका०, बुद्ध विहार, १९. सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते। -वही, ६/२८
लखनऊ, २०३, २०४।
१२.
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ ।। ४०. अमतं सन्ति निव्वाण पदमच्चुतं-सुत्तनिपात-पारायण वग्ग, अनु० ४८. उदान, अनु० जगदीश कश्यप, ८/१।
भिक्षु धर्मरत्न, प्रका०, महाबोधिसभा, बनारस १९५०।। ४९. मूल पाली में, यहाँ पाठान्तर है–तीन पाठ मिलते हैं १. अनत्तं २. ४१. पदं सन्तं संखारूपसमं सुखं-धम्मपद, अनु० पं०राहुल सांकृत्यायन, अनत ३. अनन्तं। हमने यहाँ “अनन्त" शब्द का अर्थ ग्रहण किया ३६८।
है। आदरणीय काश्यपजी ने अनत (अनात्म) पाठ को अधिक उपयुक्त ४२. इत्तिवुत्तक, धर्मरक्षित, प्रका०, महाबोधि सभा, सारनाथ बुद्धाब्द, माना है लेकिन अट्ठकथा में दोनों ही अर्थ लिए गए हैं। २४९९, २/२/६।
५०. उदान, अनु० जगदीश कश्यप, ८/३।। ४३. विशुद्धिमग्ग, अनु० भिक्षुधर्मरक्षित, प्रका०, महाबोधिसभा, वाराणसी ५१. यत्थ आपो न पठवी तेजो वायो न गाधति।
१९५६, परिच्छेद १६, भाग २, पृ० ११९-१२१ (हिन्दी अनु० न तत्थ सुक्का जोतन्ति आदिच्चो नप्पकासति ।। - वही,१/१०। भिक्षु धर्मरक्षित)
न तत्थ चन्दिमा भाति तमो तत्थ न विज्जति। ४४. उदान, अनु०, जगदीश कश्यप, प्रका० महाबोधि सभा, सारनाथ तुलना कीजिए-न तद्भासयते सूर्यो न शशांको न पावकः। वाराणसी, पाटलिग्राम वर्ग ८/१०।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ।। ४५. वही, ८/९।
- गीता, वही, १/१० तथा गीताप्रेस, गोरखपुर, वि०सं० ४६. विशुद्धिमग्ग, अनु० भिक्षुधर्मरक्षित, परिच्छेद ८ एवं १६।
२०१८, १५/६। ४७. बौद्ध धर्म दर्शन, पृ० २९४ पर उद्धृत।
स्त्री, अन्यतैर्थिक एवं सवस्त्र की मुक्ति का प्रश्न
यापनीय परम्परा के विशिष्ट सिद्धान्तों में स्त्रीमुक्ति, सग्रन्थमुक्ति परम्परा में भी उत्तराध्ययन की मान्यता थी और उसके अध्ययन-अध्यापन (गृहस्थमुक्ति) और अन्यतैर्थिकमुक्ति ऐसी अवधारणाएँ हैं, जो उसे की परम्परा उसमें लगभग नवीं शती तक जीवित रही है, क्योंकि दिगम्बर परम्परा से पृथक् करती हैं। एक और यापनीय संघ अचेलकत्व अपराजित ने अपनी भगवतीआराधना की टीका में उत्तराध्ययन से अनेक (दिगम्बरत्व) का समर्थक है, तो दूसरी ओर वह स्त्रीमुक्ति, सग्रन्थ गाथाएँ उद्धृत की हैं, जो क्वचित् पाठभेद के साथ वर्तमान उत्तराध्ययन (गृहस्थ) मुक्ति, अन्यतैर्थिक (अन्यलिंग) मुक्ति आदि का भी समर्थक में भी उपलब्ध हैं। समवायांग, नन्दीसूत्र आदि श्वेताम्बर मान्य आगमों है। यही बात उसे श्वेताम्बर आगमिक परम्परा के समीप खड़ा कर में अंगबाह्य के रूप में, तत्त्वार्थभाष्य के साथ-साथ तत्त्वार्थसूत्र की दिगम्बर देती है। यद्यपि स्त्रीमुक्ति की अवधारणा तो श्वेताम्बर परम्परा के प्राचीन टीकाओं में एवं षट्खण्डागम की धवला टीका में भी प्रकीर्णक ग्रन्थ आगम साहित्य उत्तराध्ययन, ज्ञाताधर्मकथा आदि में भी उपस्थित रही के रूप में उत्तराध्ययन का उल्लेख पाया जाता है। पाश्चात्य विद्वानों है, फिर भी तार्किक रूप से इसका समर्थन सर्वप्रथम यापनीयों ने ही ने उत्तराध्ययन को ई०पू० तृतीय से ई०पू० प्रथम शती के मध्य की किया। ऐसा प्रतीत होता है कि स्त्रीमुक्ति निषेध के स्वर सर्वप्रथम पाँचवीं- रचना माना है। उत्तराध्ययन की अपेक्षा किंचित् परवर्ती श्वेताम्बर मान्य छठी शती में दक्षिण भारत में ही मुखर हुए और चूँकि यहाँ आगमिक आगम ज्ञाताधर्मकथा (ई०पू० प्रथम शती) में मल्लि नामक अध्याय परम्परा को मान्य करने वाला यापनीय संघ उपस्थित था, अत: उसे (ई० सन् प्रथम शती) में तथा अन्तकृद्दशांग के अनेक अध्ययनों में ही उसका प्रत्युत्तर देना पड़ा।
स्त्रीमुक्ति के उल्लेख हैं। आगमिक व्याख्या आवश्यकचूर्णि (सातवीं श्वेताम्बरों को स्त्रीमुक्ति सम्बन्धी विवाद की जानकारी यापनीयों शती) में भी मरुदेवी की मुक्ति का उल्लेख पाया जाता है। इसके से प्राप्त हुई। श्वेताम्बर आचार्य हरिभद्र (आठवीं शती) ने सर्वप्रथम अतिरिक्त दिगम्बर परम्परा द्वारा मान्य यापनीय ग्रन्थ कषायप्राभृत एवं इस चर्चा को अपने ग्रन्थ ललितविस्तरा में यापनीय तन्त्र के उल्लेख षट्खण्डागम भी स्त्रीमुक्ति के समर्थक हैं। इससे ऐसा प्रतीत होता है के साथ उठाया है। इसके पूर्व, भाष्य और चूर्णि साहित्य में यह चर्चा कि ईस्वी सन् की पाँचवीं-छठी शताब्दी तक जैन परम्परा में कहीं अनुपलब्ध है। अत: सर्वप्रथम तो हमें यह देखना होगा कि इस तार्किक भी स्त्रीमुक्ति का निषेध नहीं था। स्त्रीमुक्ति एवं सग्रन्थ (सवस्त्र) की चर्चा के पहले स्त्रीमुक्ति से समर्थक और निषेधक निर्देश किन ग्रन्थों मुक्ति का सर्वप्रथम निषेध आचार्य कुन्दकुन्द ने सुत्तपाहुड में किया में मिलते हैं। सर्वप्रथम हमें उत्तराध्ययनसूत्र के अन्तिम अध्ययन (ई० है। यद्यपि यापनीय ग्रन्थ षट्खण्डागम भी सुत्तपाहुड का ही समकालीन पू० द्वितीय-प्रथम शती) में स्त्री की तद्भव मुक्ति का स्पष्ट उल्लेख ग्रन्थ माना जा सकता है, फिर भी उसमें स्त्रीमुक्ति का निषेध नहीं है, प्राप्त होता है। ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर परम्परा के अतिरिक्त यापनीय अपितु मूल ग्रन्थों में तो पर्याप्त मनुष्यनी (स्त्री) में चौदह गुणस्थानों
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स्त्री, अन्यतैर्थिक एवं सवस्त्र की मुक्ति का प्रश्न की सम्भावना स्वीकार कर प्रकारान्तर से उसकी तद्भव मुक्ति स्वीकार विशेषावश्यकभाष्य (छठी शती) और आवश्यकचूर्णि (सातवीं शती) की गई है। इस प्रकार हम देखते हैं कि स्त्रीमुक्ति के निर्देश हमें ईस्वी में हमें अचेलकत्व और सचेलकत्व के प्रश्न को लेकर आर्य शिवभूति पूर्व के आगमिक ग्रन्थों से लेकर ईसा की सातवीं शती तक की आगमिक और आर्य कृष्ण के मध्य हुए विवाद के पक्ष और प्रतिपक्ष के विविध व्याख्याओं में मिलते हैं। फिर भी उनमें कहीं भी स्त्रीमुक्ति की तार्किक तर्कों का उल्लेख तो मिलता है, किन्तु चूर्णि के काल तक अर्थात् सिद्धि का कहीं कोई प्रयत्न नहीं देखा जाता। इसकी तार्किक सिद्धि सातवीं शताब्दी के अन्त तक हमें एक भी संकेत ऐसा नहीं मिलता, की आवश्यकता तो तब होती, जब किसी ने उसका निषेध किया होता। जिसमें श्वेताम्बर आचार्यों ने स्त्रीमुक्ति का तार्किक समर्थन किया हो। स्त्रीमुक्ति का निषेध कुन्दकुन्द के पूर्व किसी भी आचार्य ने किया हो, इससे ऐसा लगता है कि सातवीं शताब्दी तक उन्हें इस तथ्य की जानकारी ऐसा एक भी प्रमाण नहीं है। यद्यपि यह विवाद का विषय रहा है भी नहीं थी कि स्त्रीमुक्ति के सन्दर्भ में कोई प्रतिपक्ष भी है। स्त्री की कि सुत्तपाहुड कुन्दकुन्द की रचना है या नहीं। फिर भी एक बार यदि प्रव्रज्या (महाव्रतारोपण) और स्त्रीमुक्ति का निषेध सर्वप्रथम आचार्य हम यह मान भी लें कि सुत्तपाहुड कुन्दकुन्द की ही रचना है, तो कुन्दकुन्द ने लगभग छठी शताब्दी में किया और उस सम्बन्ध में अपने भी उस ग्रन्थ एवं उसके कर्ता का काल छठी शताब्दी के पूर्व का कुछ तर्क भी दिये। पूज्यपाद ने स्त्रीमुक्ति का निषेध तो किया, फिर तो नहीं हो सकता, क्योंकि कुन्दकुन्द की रचनाओं में गुणस्थान और भी उन्होंने स्त्रीमुक्ति के खण्डन के सन्दर्भ में कोई तर्क प्रस्तुत नहीं सप्तभंगी की अवधारणाएँ स्पष्ट रूप से उल्लिखित हैं जो लगभग पाँचवीं- किया। आचार्य कुन्दकुन्द ने ही सर्वप्रथम सुत्तपाहुड में यह कहा है छठी शती में अस्तित्व में आ चुकी थी। एम० ए० ढाकी ने कुन्दकुन्द कि जिन-मार्ग में सवस्त्र की मुक्ति नहीं हो सकती चाहे वह तीर्थङ्कर के समय पर पूर्व मान्यताओं की समीक्षा करते हुए विस्तार से विचार ही क्यों न हों? सवस्त्र की मुक्ति के निषेध में स्त्रीमुक्ति का निषेध किया है और वे उन्हें छठी शताब्दी के पूर्व का किसी भी स्थिति में गर्भित है, क्योंकि स्त्री निर्वस्त्र नहीं हो सकती है। स्त्री का महाव्रतारोपण स्वीकार नहीं करते हैं।
__अर्थात् प्रव्रज्या क्यों नहीं हो सकती इसके सन्दर्भ में यह कहा गया तत्त्वार्थभाष्य (लगभग चतुर्थ शती) में सिद्धों के अनुयोगद्वार की है कि इसके कुक्षि (गर्भाशय), नाभि और स्तन में सूक्ष्म जीव होते चर्चा करते हुए लिंगानुयोगद्वार की दृष्टि से भी विचार किया गया है।६ हैं, इसलिए उसकी प्रव्रज्या कैसे हो सकती है? १० पुन: यह भी कहा भाष्य की विशेषता यह है कि वह लिंग शब्द पर उसके दोनों अर्थों गया है कि उसमें मन की पवित्रता नहीं होती, वे अस्थिरमना होती की दृष्टि से विचार करता है। अपने प्रथम अर्थ में लिंग का तात्पर्य हैं तथा उनमें रजस्राव होता है इसलिये उनका ध्यान चिन्तारहित नहीं है-पुरुष, स्त्री या नपुंसक रूप शारीरिक रचनाएँ। लिंग के इस प्रथम हो सकता। ११ । अर्थ की दृष्टि से उसमें उत्तराध्ययन के समान ही स्त्री, पुरुष और नपुंसक इस प्रकार हम देखते हैं कि सर्वप्रथम कुन्दकुन्द के सुत्तपाहुड तीनों लिगों से मुक्ति का उल्लेख है। साथ ही यह भी उल्लेख है कि में ही स्त्रीमुक्ति का तार्तिक खण्डन उपलब्ध होता है। दूसरे शब्दों में प्रत्युत्पन्नभाव अर्थात् वर्तमान में काम-वासना की उपस्थिति की दृष्टि दिगम्बर परम्परा में स्त्रीमुक्ति का तार्किक निषेध छठी शताब्दी से प्रारम्भ से अवेद अर्थात् काम-वासना से रहित व्यक्ति की ही मुक्ति होती है। हुआ। इसके पूर्व इस परम्परा में इस सम्बन्ध में क्या मान्यता थी, किन्तु पूर्व भव की अपेक्षा से तो तीनों वेदों से सिद्धि होती है। साथ यह जानने का हमारे पास कोई स्रोत नहीं है। श्वेताम्बर परम्परा में ही उसमें लिंग का अर्थ वेश करते हुए कहा गया है प्रत्युत्पन्न भव सातवीं शताब्दी तक स्त्रीमुक्ति के इस तार्किक निषेध का कहीं कोई अर्थात् वर्तमान भव की अपेक्षा से तो अलिंग अर्थात् लिंग के प्रति खण्डन किया गया हो, ऐसी सूचना भी उपलब्ध नहीं होती। सम्भवत: ममत्व से रहित व्यक्ति ही सिद्ध होते हैं, किन्तु पूर्व भव-लिंग की सातवीं शताब्दी तक श्वेताम्बर आचार्य किसी ऐसी परम्परा से अवगत अपेक्षा से स्व-लिंग ही सिद्ध होते हैं। पुन: द्रव्य-लिंग अर्थात् बाह्य ही नहीं थे जो स्त्रीमुक्ति का निषेध करती थी। स्त्रीमुक्ति के निषेधक वेश की अपेक्षा से स्व-लिंग, अन्य-लिंग और गृह-लिंग तीनों ही विकल्प तर्कों का सर्वप्रथम उत्तर श्वेताम्बरों ने नहीं, अपितु अचेलकत्व की समर्थक से सिद्ध होते हैं।
यापनीय परम्परा ने ही दिया। चूँकि कुन्दकुन्द दक्षिण में हुए थे और तत्त्वार्थभाष्य के पश्चात् तत्त्वार्थ की दिगम्बर परम्परा की टीकाओं यापनीय भी दक्षिण में ही उपस्थित थे, अत: पहली चोट भी उन्हीं में सर्वप्रथम सर्वार्थसिद्धि में कहा गया है कि वेद की दृष्टि से तीनों पर हुई थी और पहला प्रत्युत्तर भी उन्हें ही देना पड़ा था। इस प्रकार वेदों के अभाव में ही सिद्धि होती है। द्रव्य-लिंग अर्थात् शारीरिक सर्वप्रथम लगभग सातवीं शती में यापनीयों ने इसका प्रत्युत्तर दिया संरचना की दृष्टि से पुल्लिंग ही सिद्ध होते हैं किन्तु भूतपूर्व नय की था। यापनीय सम्प्रदाय के इन तर्कों का अनुसरण परवर्ती श्वेताम्बर अपेक्षा से तो सग्रन्थलिंग से भी सिद्धि होती है। इस प्रकार हम देखते आचार्यों ने भी किया। श्वेताम्बर आचार्यों में सर्वप्रथम हरिभद्र ने आठवीं हैं कि सर्वप्रथम सर्वार्थसिद्धि में इस बात का प्रतिपादन किया गया शती में ललितविस्तरा में स्त्रीमुक्ति का समर्थन किया है, किन्तु उन्होंने है कि मुक्ति पुरुष लिंग से ही प्राप्त हो सकती है। उसके पश्चात् भी अपनी ओर से कोई तर्क न देकर इस सम्बन्ध में यापनीयतन्त्र राजवार्तिककार अकलंक भी सर्वार्थसिद्धि के उल्लेख का ही समर्थन नामक (वर्तमान में अनुपलब्ध) किसी यापनीय प्राकृत ग्रन्थ को उद्धृत करके रह जाते हैं। उससे अधिक वे भी कुछ नहीं कहते हैं। मात्र किया है। इससे ऐसा लगता है कि कुन्दकुन्द ने लगभग छठी
श्वेताम्बर परम्परा में आवश्यकमूलभाष्य (पाँचवीं शती), शताब्दी में स्त्रीमुक्ति के निषेध के सन्दर्भ में जो तर्क दिये थे, उसका
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ खण्डन यापनीयों ने लगभग सातवीं शताब्दी में किया और यापनीयों गई। अचेल परम्परा में भी कुन्दकुन्द के पूर्व स्त्रियाँ दीक्षित होती थीं के तर्कों को गृहीत करके ही आठवीं शताब्दी से श्वेताम्बर परम्परा में और उनको महाव्रत भी प्रदान किये जाते थे। दिगम्बर परम्परा में कुन्दकुन्द भी स्त्रीमुक्ति निषेध दिगम्बर परम्परा का खण्डन किया जाने लगा। ही ऐसे प्रथम आचार्य प्रतीत होते हैं जिन्होंने स्पष्ट रूप से स्त्री की यापनीयतन्त्र के पश्चात् स्त्रीमुक्ति के समर्थन में सर्वप्रथम यापनीय आचार्य प्रव्रज्या का निषेध किया था और यह तर्क दिया था कि स्त्रियाँ स्वभाव शाकटायन ने लगभग नवीं शती में 'स्त्री-निर्वाण-प्रकरण' नामक स्वतन्त्र से ही शिथिल परिणाम वाली होती हैं, इसलिये उनके चित्त की विशद्धि ग्रन्थ की रचना की और उस पर स्वोपज्ञवृत्ति भी लिखी। इसके बाद सम्भव नहीं है। साथ ही यह भी कहा गया कि स्त्रियाँ मासिक धर्म दोनों ही परम्पराओं में स्त्रीमुक्ति के पक्ष एवं विपक्ष में लिखा जाने वाली होती हैं, अत: स्त्रियों में नि:शंका ध्यान सम्भव नहीं है। यह लगा। स्त्रीमुक्ति के पक्ष में श्वेताम्बर परम्परा में हरिभद्र (आठवीं शती) सत्य है कि शारीरिक तथा सामाजिक कारणों में पूर्ण नग्नता स्त्री के के पश्चात् अभयदेव (ई० सन् १०००), शान्तिसूरि (ई० सन् ११२०), लिये सम्भव नहीं है और जब सवस्त्र की प्रव्रज्या एवं मुक्ति का निषेध मलयगिरि (ई० सन् ११५०), हेमचन्द्र (ई० सन् ११६०), वादिदेव कर दिया गया तो स्त्रीमुक्ति का निषेध तो उसका अनिवार्य परिणाम (ई० सन् ११७०), रत्नप्रभ (ई० सन् १२५०), गुणरत्न (ई० सन् था ही। पुन: आचार्य कुन्दकुन्द ने अपरिग्रह के साथ-साथ स्त्री के द्वारा १४००), यशोविजय (ई० सन् १६६०), मेघविजय (ई० सन् अहिंसा का पूर्णत: पालन भी असम्भव माना। उनका तर्क है कि स्त्रियों १७००) ने अपनी कलम चलाई। दूसरी ओर स्त्रीमुक्ति के विपक्ष में के स्तनों के अन्दर में, नाभि एवं कुक्षि (गर्भाशय) में सूक्ष्मकाय जीव दिगम्बर परम्परा में वीरसेन (लगभग ई० सन् ८००), देवसेन (ई० होते हैं। इसलिये उनकी प्रव्रज्या कैसे हो सकती है।१६ यहाँ यह स्मरणीय सन् ९८०), नेमिचन्द (ई० सन् १०५०), प्रभाचन्द (ई० सन् ९८०- है कि कुन्दकुन्द ने जो तर्क प्रस्तुत किये हैं वे वस्तुत: स्त्री की प्रव्रज्या १०६५), जयसेन (ई ० सन् ११५०), भावसेन (ई० सन् १२७५) । के निषेध के लिये हैं। स्त्रीमुक्ति का निषेध तो उसका अनिवार्य फलित आदि ने अपनी लेखनी चलाई।१२ यहाँ हमारे लिये उन सबकी विस्तृत अवश्य है क्योंकि जब अचेलता ही एकमात्र मोक्ष-मार्ग है और स्त्री चर्चा करना सम्भव नहीं है। इस सन्दर्भ में हम यापनीय आचार्यों के के लिये अचेलता सम्भव नहीं है तो फिर उसके लिये न तो प्रव्रज्या कुछ प्रमुख तों का उल्लेख करके इस विषय को विराम देंगे। जो सम्भव होगी और न ही मुक्ति। पाठक इस सम्बन्ध में विशेष जानने को इच्छुक हों, उन्हें प्रो० पद्मनाभ हम देखते हैं कि कुन्दकुन्द के इन तर्कों का सर्वप्रथम उत्तर सम्भवत: जैनी के ग्रन्थ (Gender Salvation) को देखना चाहिये। यापनीय परम्परा के 'यापनीयतन्त्र' (यापनीय-आगम) नामक ग्रन्थ में
जैसा कि हमने पूर्व में सूचित किया है, श्वेताम्बर मान्य आगम दिया गया है। वर्तमान में यह ग्रन्थ अनुपलब्ध है किन्तु इसका साहित्य में स्त्रीमुक्ति के उल्लेख तो मिलते हैं किन्तु उनमें कहीं भी वह अंश जिसमें स्त्रीमुक्ति का समर्थन किया गया है, हरिभद्र के उसका तार्किक समर्थन नहीं हुआ है। दिगम्बर परम्परा में स्त्रीमुक्ति का ललितविस्तरा में उद्धृत होने से सुरक्षित है। उसमें कहा गया है कि सर्वप्रथम तार्किक खण्डन कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में मिलता है। कुन्दकुन्द स्त्री अजीव नहीं है, न वह अभव्य है, न सम्यग्दर्शन के अयोग्य है, ने इस सम्बन्ध में सर्वप्रथम तो यही तर्क दिया था कि जिनशासन न अमनुष्य है, न अनार्यक्षेत्र में उत्पन्न है, न असंख्यात आयष्यवाली में वस्त्रधारी सिद्ध नहीं हो सकता चाहे वह तीर्थङ्कर ही क्यों न हो? १३ है, न वह अतिक्रूरमति है, न उपशान्त-मोह है, न अशुद्धाचारी है, इससे ऐसा लगता है कि स्त्रीमुक्ति के निषेध की आवश्यकता तभी न अशुद्धशरीरा है, न वह वर्जित व्यवसायवाली है, न अपूर्वकरण हुई जब अचेलता को ही एक मात्र मोक्षमार्ग मान लिया गया। हमें की विरोधी है, न नवें गुणस्थान से रहित है, न लब्धि से रहित है यहां कहने में संकोच नहीं है कि अचेलता के एकान्त आग्रह ने ही और न अकल्याण भाजन है तो फिर वह उत्तम धर्म अर्थात् मोक्ष की इस अवधारणा को जन्म दिया, क्योकि शारीरिक आवश्यकता एवं आराधक क्यों नहीं हो सकती? १७ । सामाजिक मर्यादा के कारण स्त्री नग्न नहीं रह सकती। नग्न हुए बिना आचार्य हरिभद्र ने उक्त यापनीय सन्दर्भ की विस्तृत व्याख्या भी मुक्ति नहीं होती, इसलिये स्त्री मुक्त नहीं हो सकती। इसी आग्रह के की है। वे लिखते हैं-जीव ही सर्वोत्तम धर्म, मोक्ष की साधना कर कारण गृहस्थलिंगसिद्ध और अन्यलिंगसिद्ध (सग्रन्थ-मुक्ति) की आगमिक सकता है और स्त्री जीव है, इसलिये वह सर्वोत्तम धर्म की आराधक अवधारणा का निषेध भी आवश्यक हो गया। आगे चलकर जब स्त्री क्यों नहीं हो सकती? यदि यह कहा जाय कि सभी जीव तो मुक्ति को प्रव्रज्या के अयोग्य बताने के लिये तर्क आवश्यक हुए, तो यह के अधिकारी नहीं है जैसे अभव्य, तो इसका उत्तर यह है कि सभी कहा गया कि यदि स्त्री, दर्शन से शुद्ध तथा मोक्षमार्ग से मुक्त होकर स्त्रियाँ तो अभव्य भी नहीं होती। पुन: यह तर्क भी दिया जा सकता घोर चारित्र का पालन कर रही हो, तो भी उसे प्रव्रज्या नहीं दी जा है कि सभी भव्य भी तो मोक्ष के अधिकारी नहीं है। जैसे-मिथ्यादृष्टिसकती। १४ वास्तविकता यह है कि जब प्रव्रज्या को अचेलता से भी भव्यजीव, तो इसका उत्तर यह है कि सभी स्त्रियाँ तो सम्यक् दर्शन जोड़ दिया गया तब यह कहना आवश्यक हो गया कि स्त्री पंचमहाव्रत के अयोग्य भी नहीं कही जा सकती। यदि इस पर यह कहा जाय रूप दीक्षा की अधिकारिणी नहीं है। यह भी प्रतिपादन किया गया कि स्त्री के सम्यग्दृष्टि होने से क्या होता है, पशु भी सम्यग्दृष्टि हो कि जो सवस्त्रलिंग है वह श्रावकों का है। अत: क्षुल्लक एवं ऐलक सकता है, किन्तु वह तो मोक्ष का अधिकारी नहीं होता है। इस पर के साथ-साथ आर्यिका की गणना भी श्रावक/श्राविका के वर्ग में की यापनीयों का प्रत्युत्तर यह है कि स्त्री पशु नहीं, मनुष्य है। पुन: यह
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स्त्री. अन्यतैर्थिक एवं सवस्त्र की मुक्ति का प्रश्न
४०१ आपत्ति उठाई जा सकती है कि सभी मनुष्य भी तो सिद्ध नहीं होते, इसके प्रत्युत्तर में यह कहा गया है कि स्त्रियाँ कल्याण-भाजन होती जैसे अनार्य-क्षेत्र में या भोगभूमि में उत्पन्न मनुष्य। इसका प्रत्युत्तर यह हैं, क्योंकि वे तो तीर्थङ्करों को जन्म देती हैं। अत: स्त्री उत्तम धर्म है कि स्त्रियाँ आर्य देश में भी तो उत्पन्न होती हैं। यदि यह कहा जाय अर्थात् मोक्ष की अधिकारिणी हो सकती है। हरिभद्र ने इसके अतिरिक्त कि आर्य देश में उत्पन्न होकर भी असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले सिद्धों के पन्द्रह भेदों की चर्चा करते हुए सिद्धप्राभृत का भी एक सन्दर्भ अर्थात् योगलिक मुक्ति के योग्य नहीं होते, तो इसका प्रत्युत्तर यह प्रस्तुत किया है। सिद्धप्राभृत में कहा गया है कि सबसे कम स्त्री-तीर्थङ्कर है कि सभी स्त्रियाँ असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाली भी नहीं होती। (तीर्थङ्करी) सिद्ध होती हैं।१८ उनकी अपेक्षा स्त्री तीर्थङ्कर के तीर्थ में पुन: यदि यह तर्क दिया जाय कि संख्यात वर्ष की आयु वाले होकर नौ तीर्थङ्कर सिद्ध असंख्यातगुणा अधिक होते हैं। उनकी अपेक्षा स्त्री भी जो अतिक्रूरमति हों, वे भी मुक्ति के पात्र नहीं होते तो इसका तीर्थङ्कर के तीर्थ में नौ तीर्थङ्करी सिद्ध (स्त्री शरीर से सिद्ध) असंख्यातगुणा उत्तर यह है कि सभी स्त्रियाँ अतिक्रूरमति भी नहीं होती क्योंकि स्त्रियों अधिक होते हैं। सिद्धप्राभृत (सिद्धपाहुड) एक पर्याप्त प्राचीन ग्रन्थ में तो सप्तम नरक की आयुष्य बाँधने योग्य तीव्र रौद्रध्यान का अभाव है, जिसमें सिद्धों के विभिन्न अनुयोगद्वारों की चर्चा हुई है। ज्ञातव्य होता है। यह उसमें अतिक्रूरता के अभाव का तथा उसके करुणामय है कि हरिभद्र के समकालीन सिद्धसेनगणि ने अपने तत्त्वार्थभाष्य की स्वभाव का प्रमाण है और इसलिये उसमें मुक्ति के योग्य प्रकृष्ट शुभभाव वृत्ति में सिद्धप्राभृत का एक सन्दर्भ दिया है। यह ग्रन्थ अनुमानत: का अभाव नहीं माना जा सकता। पुन: यदि यह कहा जाय कि स्वभाव नन्दीसूत्र के पश्चात् लगभग सातवीं शती में निर्मित हुआ होगा। से करुणामय होकर भी जो मोह को उपशान्त करने में समर्थ नहीं इस प्रकार यापनीय परम्परा में ही सर्वप्रथम स्रीमुक्ति का तार्किक होता, वह भी मुक्ति का अधिकारी नहीं होता, तो ऐसा भी नहीं है, समर्थन करने का प्रयास हुआ है। यह हम पूर्व में ही कह चुके हैं क्योकि कुछ स्त्रियाँ मोह का उपशमन करती हुई देखी जाती हैं। यदि कि श्वेताम्बर आचार्यों ने स्त्रीमुक्ति के समर्थन में जो तर्क दिये हैं वे यह कहा जाय कि मोह का उपशान्त करने पर भी यदि कोई व्यक्ति मुख्यतः यापनीयों का ही अनुसरण हैं। ललितविस्तरा में अपनी ओर अशुद्धाचारी है, तो वह मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता तो इसके निराकरण से एक भी नया तर्क नहीं दिया गया है, मात्र यापनीयतन्त्र के कथन के लिये कहा गया है कि सभी स्त्रियाँ अशुद्धाचारी (दुराचारी) नहीं का स्पष्टीकरण किया गया है । इसका कारण यह है कि श्वेताम्बरों होती। इस पर यदि कोई तर्क करे कि शुद्ध आचार वाली होकर भी को स्त्रीमुक्ति निषेधक परम्परा का ज्ञान यापनीयों के माध्यम से ही हुआ, स्त्रियाँ शुद्ध शरीर वाली नहीं होती, इसलिये वे मोक्ष की अधिकारिणी क्योंकि कुन्दकुन्द की स्त्रीमुक्ति निषेधक परम्परा सुदूर दक्षिण में ही नहीं हैं, तो इसके प्रत्युत्तर में यह कहा गया है कि सभी स्त्रियाँ तो प्रस्थापित हुई थी। अत: उसका उत्तर भी दक्षिण में अपने पैर जमा अशुद्ध शरीर वाली नहीं होती। पूर्व कर्मों के कारण कुछ स्त्रियों की रही यापनीय परम्परा को ही देना पड़ा। कुक्षि, स्तन-प्रदेश आदि अशुचि से रहित भी होते हैं। यह तर्क कुन्दकुन्द यापनीय आचार्य शाकटायन ने तो स्री-निर्वाण-प्रकरण नामक की अवधारणा का स्पष्ट प्रत्युत्तर है। पुनः शुद्ध शरीर वाली होकर स्वतन्त्र ग्रन्थ की ही रचना की है। वे अपने ग्रन्थ के प्रारम्भ मे ही भी यदि स्त्री परलोक हितकारी प्रवृत्ति से रहित हो तो मोक्ष की अधिकारिणी कहते हैं कि शक्ति और मुक्ति के प्रदाता निर्मल अर्हत् के धर्म को नहीं हो सकती, परन्तु ऐसा भी नहीं देखा जाता। कुछ स्त्रियाँ परलोक प्रणाम करके मैं संक्षेप में स्त्री-निर्वाण और केवली-भुक्ति को कहूँगा।२० सुधारने के लिये प्रयत्नशील भी देखी जाती हैं। यदि यह कहा जाय इसी ग्रन्थ में शाकटायन कहते हैं कि रत्नत्रय की सम्पदा से युक्त होने कि परलोक हितार्थ प्रवृत्ति करने वाली स्त्री भी यदि अपूर्वकरण आदि के कारण पुरुष के समान ही स्त्री का भी निर्वाण सम्भव है। यदि से रहित हो, तो मुक्ति के योग्य नहीं हैं। किन्तु शास्त्र में स्त्री भाव यह कहा जाय कि स्त्रीत्व, रत्नत्रय की उपलब्धि में वैसे ही बाधक के साथ अपूर्वकरण का भी कोई विरोध नहीं दिखलाया गया है। इसके है, जैसे देवत्व आदि, तो यह तुम्हारा अपना कथन हो सकता है। विपरीत शास्त्र में स्त्री में भी अपूर्वकरण का सद्भाव प्रतिपादित है। आगम में और अन्य ग्रन्थों में इसका कोई प्रमाण नहीं है। एक साध्वी पुन: यदि यह कहा जाय कि अपूर्वकरण से युक्त होकर भी यदि कोई जिन-वचनों को समझती है, उन पर श्रद्धा रखती है और उनका निर्दोष स्त्री नवम गुणस्थान को प्राप्त करने में अयोग्य हो तो वह मुक्ति की रूप से पालन करती है, इसलिये रत्नत्रय की साधना का स्त्रीत्व से अधिकारिणी नहीं हो सकती। किन्तु आगम में स्त्री में नवम गुणस्थान कोई भी विरोध नहीं है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि रत्नत्रय का भी सद्भाव प्रतिपादित है। पुन: यदि यह तर्क दिया जाय कि की साधना स्त्रीत्व के लिये अशक्य है तथा जो अदृष्ट अर्थात् अशक्य नवम गुणस्थान को प्राप्त करने में समर्थ होने पर भी यदि स्त्री में लब्धि है उसके साथ असंगति बताने का तो कोई अर्थ ही नहीं है। यदि प्राप्त करने की योग्यता नहीं है तो वह कैवल्य आदि को प्राप्त नहीं यह कहा जाय कि स्त्री में सातवें नरक में जाने की योग्यता का अभाव कर पाती है। इसके प्रत्युत्तर में कहा गया है कि वर्तमान में भी स्त्रियों है, इसलिये वह निर्वाण-प्राप्ति के योग्य नहीं है। किन्तु ऐसा अविनाभाव में आमर्ष-लब्धि अर्थात् शरीर के मलों का औषधि रूप में परिवर्तित या व्याप्ति सम्बन्ध द्वारा सिद्ध नहीं किया जा सकता, क्योंकि जो सातवें हो जाना आदि लब्धि स्पष्ट रूप से देखी जाती है। अत: वह लब्धि नरक में नहीं जा सकता वह निर्वाण को प्राप्त नहीं कर सकता। चरम से रहित भी नहीं है। यदि यह कहा जाय कि स्त्री लब्धि योग्य होने शरीरी जीव तद्भव में भी सातवें नरक में नहीं जा सकते, किन्तु तद्भव पर भी कल्याण-भाजन न हो तो वह मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकेगी। मोक्ष जाते हैं। पुनः ऐसा कोई नियम नहीं है कि जो जितना निम्न
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जैन विद्या के. आयाम खण्ड-६ गति में जा सकता है, उतना ही उच्च गति में जा सकता है। कुछ प्रति कोई ममत्व नहीं हो तो वह अपरिग्रही कहा जायेगा। इसके विपरीत प्राणी ऐसे हैं जो निम्न गति में बहुत निम्न स्थिति तक नहीं जाते, किन्तु एक व्यक्ति जो नग्न रहता है किन्तु उसमें ममत्व और मूर्छा का भाव वे सभी उच्च गति में भी समान रूप से जाते हैं, जैसे सम्मूर्छिम है तो वह अचेल होकर भी परिग्रही ही कहा जायेगा। साध्वी इसलिये जीव प्रथम नरक से आगे नहीं जा सकते, परिसर्प आदि द्वितीय नरक वस्त्र धारण नहीं करती है कि उसमें वस्त्र के प्रति कोई ममत्व है अपितु से आगे नहीं जा सकते, पक्षी तृतीय नरक से आगे नहीं जा सकते, ___ वह वस्त्र को जिनाज्ञा मानकर ही धारण करती है। पुनः वस्त्र उसके चतुष्पद चतुर्थ नरक से आगे नहीं जा सकते, सर्प पंचम नरक से लिये उसी प्रकार परिग्रह नहीं है, जिस प्रकार यदि किसी ध्यानस्थ आगे नहीं जा सकते। इस प्रकार निम्न गति में जाने से इन सब में नग्नमुनि के शरीर पर उपसर्ग के निमित्त से डाला गया वस्त्र उस मुनि भिन्नता है, किन्तु उच्चगति में ये सभी सहस्रार स्वर्ग तक बिना किसी के लिये परिग्रह नहीं होता। इसके विपरीत एक नग्न व्यक्ति भी यदि भेदभाव के जा सकते हैं। इसलिये यह कहना कि जो जितनी निम्न अपने शरीर के प्रति ममत्व भाव रखता है तो वह परिग्रही ही कहा गति तक जाने में सक्षम होता है, वह उतनी ही उच्च गति तक जाने जायेगा और ऐसा व्यक्ति नग्न होकर भी मोक्ष-प्राप्ति के अयोग्य ही में सक्षम होता है, तर्कसंगत नहीं है। अधोगति में जाने की अयोग्यता होता है। जबकि वह व्यक्ति जिसमें ममत्वभाव का पूर्णत: अभाव है, से उच्च गति में जाने की अयोग्यता सिद्ध नहीं होती।
शरीर धारण करते हुए भी अपरिग्रह ही कहा जायगा। अत: जिनाज्ञा यदि यह कहा जाय कि वाद आदि की लब्धि से रहित, दृष्टिवाद के कारण संयमोपकरण के रूप में वस्त्र धारण करते हए भी नियमवान के अध्ययन से वंचित, जिनकल्प को धारण करने में असमर्थ और स्त्री अपरिग्रही ही है और मोक्ष की अधिकारिणी भी। मनःपर्यय ज्ञान को प्राप्त न कर पाने के कारण स्त्री की मुक्ति नहीं जिस प्रकार जन्तुओं से व्याप्त इस लोक में मुनि के द्वारा द्रव्यहो सकती, तो फिर यह मानना होगा कि जिस प्रकार आगम में जम्बूस्वामी हिंसा होती रहने पर भी कषाय के अभाव में वह अहिंसक ही माना के पश्चात् इन जिन बातों के विच्छेद का उल्लेख किया गया है, उसी जाता है, उसी प्रकार वस्त्र के सद्भाव में भी निर्ममत्व के कारण साध्वी प्रकार स्त्री के लिये मोक्ष के विच्छेद का भी उल्लेख होना चाहिये था। अपरिग्रही मानी जाती है। यह ज्ञातव्य है कि यदि हम हिंसा और अहिंसा
यदि यह माना जाय कि स्त्री दीक्षा की अधिकारिणी न होने के की व्याख्या बाह्य घटनाओं अर्थात् द्रव्य-हिंसा (जीवघात) के आधार कारण मोक्ष की अधिकारिणी नहीं है,तो फिर आगमों में दीक्षा के अयोग्य पर न करके व्यक्ति के मनोभावों अर्थात् कषायों की उपस्थिति के आधार व्यक्तियों की सूची में जिस प्रकार शिशु को दुध पिलाने वाली स्त्री पर करते हैं, तो फिर परिग्रह के लिये भी यही कसौटी माननी होगी। तथा गर्भिणी स्त्री आदि का उल्लेख किया गया, उसी प्रकार सामान्य यदि हिंसा की घटना घटित होने पर भी कषाय एवं प्रमाद का अभाव स्त्री का भी उल्लेख किया जाना चाहिये था।
होने से मुनि अहिंसक ही रहता है, तो फिर वस्त्र के होते हुए भी पुन: यदि यह कहा जाय कि वस्त्र धारण करने के कारण स्त्री मूर्छा के अभाव में साध्वी अपरिग्रही क्यों नहीं मानी जा सकती है। मोक्ष-प्राप्ति की अधिकारिणी नहीं है अथवा दूसरे शब्दों में वस्त्ररूपी स्त्री का चारित्र वस्त्र के बिना नहीं होता ऐसा अर्हत् ने कहा है। परिग्रह ही उसकी मुक्ति में बाधक है तो फिर प्रतिलेखन का ग्रहण तो फिर स्थविरकल्पी आदि के समान उसकी मुक्ति क्यों नहीं हो सकती? आदि भी मुक्ति में बाधक क्यों नहीं होंगे? यदि प्रतिलेखन का ग्रहण, ज्ञातव्य है कि स्थविरकल्पी मुनि भी जिनाज्ञा के अनुरूप वस्त्र-पात्र आदि उसका संयम उपकरण होने के कारण परिग्रह के अन्तर्गत नहीं माना ग्रहण करते हैं। पुन: अर्श, भगन्दर आदि रोगों में जिनकल्पी अचेल जाता है तो स्त्री के लिये वस्त्र भी जिनोपदिष्ट संयमोपकरण है, अतः । मुनि को भी वस्त्र ग्रहण करना होता है अत: उनकी भी मुक्ति सम्भव उसे परिग्रह कैसे माना जा सकता है?
नहीं हो सकती। यद्यपि वस्त्र परिग्रह है, फिर भी भगवान् ने साध्वियों के लिये पुन: अचेलकत्व उत्सर्ग-मार्ग है, यह बात जब तक सिद्ध नहीं संयमोपकरण के रूप में उसको ग्रहण करने की अनुमति दी है, क्योकि होगी तब तक सचेल मार्ग को अपवाद मार्ग नहीं माना जायेगा। उत्सर्ग वस्त्र के अभाव में उनके लिये सम्पूर्ण चारित्र का ही निषेध हो जायेगा,अतः भी अपवाद सापेक्ष है । अपवाद के अभाव में उत्सर्ग, उत्सर्ग नहीं वस्त्र धारण करने में अल्प दोष होते हुए भी संयम पालन हेतु उसकी रह जाता। यदि अचेलता उत्सर्ग-मार्ग है तो सचेलता भी अपवादअनुमति दी गई है। जो संयम के पालन में उपकारी होता है, वह मार्ग है, दोनों ही मार्ग हैं, अमार्ग कोई भी नहीं हैं। अत: दोनों से धमोंपकरण या संयमोपकरण कहा जाता है, परिग्रह नहीं। अत: निम्रन्थी ही मुक्ति माननी होगी। का वस्त्र संयमोपकरण है, परिग्रह नहीं।
पुन: जिस तरह आगमों में आठ वर्ष के बालक आदि की दीक्षा आगमों में साध्वी के लिये निर्ग्रन्थी शब्द का प्रयोग सर्वत्र हुआ का निषेध किया गया है, उसी प्रकार आगमों में यह भी कहा गया है। यदि यह माना जाय कि वस्त्र ग्रहण परिग्रह ही है तो फिर आगम है कि जो व्यक्ति तीस वर्ष की आयु को पार कर चुका हो और जिसकी में उसके लिये इस शब्द का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिये था, क्योंकि दीक्षा को उन्नीस वर्ष व्यतीत हो गये हों, वही जिनकल्प की दीक्षा निर्ग्रन्थ का अर्थ है परिग्रह से रहित। यदि संयमोपकरण परिग्रह है का अधिकारी है। यदि मुक्ति के लिये जिनकल्प अर्थात् नग्नता आवश्यक तो फिर कोई मुनि भी निर्ग्रन्थ नहीं कहा जा सकता। यदि एक व्यक्ति होती, तो यह भी कहा जाना चाहिए था कि तीस वर्ष मे कम उम्र वस्त्र और आभूषणों से सुसज्जित भी है किन्तु उसके मन में उनके का व्यक्ति मुक्ति के अयोग्य है। किन्तु सभी परम्पराएँ एक मत से
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स्त्री, अन्यतैर्थिक एवं सवस्त्र की मुक्ति का प्रश्न यह मानती हैं कि मुक्ति के लिये तीस वर्ष की आयु होना आवश्यक भी सिद्ध-क्षेत्र उल्लिखित नहीं है तो यह बात अनेक पुरुषों के सम्बन्ध नहीं है। सामान्य रूप से इसका अर्थ हुआ कि जिनकल्प अर्थात् नग्नता में भी कही जा सकती है। सभी पुरुषों के सिद्ध-क्षेत्र तो प्रसिद्ध के बिना भी मुक्ति सम्भव है, अतः स्त्रीमुक्ति सम्भव है। नहीं हैं।
आगमों में संवर और निर्जरा के हेतु रूप बहुत प्रकार की तप यदि यह तर्क प्रस्तुत किया जाय कि स्त्रियों में पुरुषार्थ की कमी विधियों का निर्देश है। जिस प्रकार योग और चिकित्सा की अनेक होती है इसलिये वे मुक्ति की अधिकारिणी नहीं है, किन्तु हम देखते विधियाँ होती हैं और व्यक्ति की अपनी प्रकृति के अनुसार उनमें से हैं कि आगमों में ब्राह्मी, सुन्दरी, राजीमति, चन्दना आदि अनेक स्त्रियों कोई एक ही विधि उपकारी सिद्ध होती है, सबके लिये एक ही विधि के उल्लेख हैं जो पुरुषार्थ और साधना में पुरुषों से कम नहीं थीं। उपकारी सिद्ध नहीं होती; उसी प्रकार आचार में भी कोई जिनकल्प अत: यह तर्क भी युक्तिसंगत नहीं है। की साधना के योग्य होता है तो कोई स्थविरकल्प की साधना के। पुन: एक तर्क यह भी दिया जा सकता है कि जो व्यक्ति बहुत इसलिये वस्त्र का त्याग होने से स्त्री के लिये मोक्ष का अभाव नहीं पापी.और मिथ्यादृष्टिकोण से युक्त होता है वही स्त्री के रूप में जन्म है, क्योंकि मोक्ष के लिये तो रत्नत्रय के अतिरिक्त अन्य कोई भी बात लेता है। सम्यग्दृष्टि प्राणी स्त्री के रूप में जन्म ही नहीं लेता। तात्पर्य आवश्यक नहीं है।
यह है कि स्त्री-शरीर का ग्रहण पाप के परिणामस्वरूप होता है इसलिये पुन: स्त्री की ननदीक्षा का निषेध कर देने का अर्थ भी उसकी स्त्री-शरीर मुक्ति के योग्य नहीं है। साथ ही दिगम्बर परम्परा यह भी मुक्ति की योग्यता का निषेध नहीं है, क्योंकि जिनशासन की प्रभावना मानती है कि एक सम्यग्दृष्टि व्यक्ति स्त्री, पशु-स्त्री, प्रथम नरक के के लिये उन व्यक्तियों की प्रव्रज्या का निषेध भी किया जाता है जो बाद के नरक, भूत-पिशाच आदि और देवी के रूप में जन्म नहीं लेता। रत्नत्रय के पालन में सक्षम होते हैं। तात्पर्य है कि किसी के अचेल पापी आत्मा ही इन शरीरों को धारण करता है। अत: स्त्री-शरीर मुक्ति दीक्षा के निषेध से उसकी मुक्ति का निषेध सिद्ध नहीं होता है। के योग्य नहीं है। इस सम्बन्ध में यापनीयों का कथन है कि दिगम्बर
यदि यह कहा जाय कि स्त्रियाँ इसलिये सिद्ध नहीं हो सकती परम्परा की यह मान्यता प्रमाणरहित है। दूसरे जब सम्यग्दर्शन का उदय हैं क्योंकि वे मुनियों के द्वारा वन्दनीय नहीं होती, जैसा कि आगम होता है, तब सभी कर्म मात्र एक कोटाकोटि सागरोपम की स्थिति में कहा गया है कि सौ वर्ष की दीक्षिता साध्वी भी एक दिन के नव के रह जाते हैं, ६९ कोटाकोटि सागरोपम स्थिति के कर्म तो मिथ्यादृष्टि दीक्षित मुनि को वन्दन करे। इसके प्रत्युत्तर में शाकटायन कहते हैं व्यक्ति भी समाप्त कर सकता है। अत: सम्यग्दर्शन का उदय होने कि मुनि के द्वारा वन्दनीय न होने से उन्हें मोक्ष के अयोग्य मानोगे पर स्त्रियाँ अवशिष्ट मात्र एक कोटाकोटि सागरोपम के कर्मों को क्यों तो फिर यह भी मानना पड़ेगा कि अर्हत् (तीर्थङ्कर) के द्वारा वन्दनीय क्षय नहीं कर सकती? फिर भी स्त्री में कर्म-क्षय करने की शक्ति का न होने से कोई भी व्यक्ति मोक्ष का अधिकारी नहीं होगा क्योंकि अर्हत् अभाव मानना युक्तिसंगत नहीं है। तो किसी को भी वन्दन नहीं करता है। इसी प्रकार स्थविरकल्पी मुनि, पुनः आगमों में स्त्रीमुक्ति के उल्लेख भी हैं। मथुरागम में कहा जिनकल्पी मुनि के द्वारा वन्दनीय नहीं हैं, अत: यह भी मानना होगा गया है कि एक समय में अधिकतम १०८ पुरुष, २० स्त्रियाँ और कि स्थविरकल्पी मुनि भी मोक्ष के अधिकारी नहीं हैं। इसी प्रकार जिन, १० नपुंसक सिद्ध हो सकते हैं।२१ ज्ञातव्य है कि यह उल्लेख गणधर को वन्दन नहीं करते हैं, अत: गणधर भी मोक्ष के अधिकारी उत्तराध्ययनसूत्र का है, जिसकी माथुरीवाचना यापनीयों को भी मान्य नहीं हैं। यह लौकिक व्यवहार मुक्ति का कारण नहीं है। मुक्ति का कारण थी। इसके अतिरिक्त आगम में स्त्री के १४ गुणस्थान कहे गये हैं। तो व्रत-पालन है और व्रत-पालन में स्त्री-पुरुष समान ही माने सम्भवतः शाकटायन का यह निर्देश षट्खण्डागम के प्रसंग में है। गए हैं।
ज्ञातव्य है कि षट्खण्डागम दिगम्बरों को भी मान्य है। इस वचन के सभी सांसारिक विषयों में तो स्त्रियाँ पुरुषों से निम्न ही मानी प्रति दिगम्बर परम्परा का यह कहना है कि यहाँ स्त्री से तात्पर्य भावस्त्री जाती हैं। अत: मोक्ष के सम्बन्ध में भी उन्हें निम्न ही क्यों नहीं माना (स्त्रीवेदी जीव) अर्थात् उस पुरुष से है जिसका स्वभाव स्त्रैण हो। इस जाना चाहिए? तीर्थङ्कर पद भी तो केवल पुरुष को ही प्राप्त होता सम्बन्ध में शाकटायन का प्रत्युत्तर यह है कि किसी शब्द का दूसरा है इसलिए पुरुष ही मुक्ति का अधिकारी है। इसके प्रत्युत्तर में यापनीयों गौण अर्थ होते हुए भी, जब तक उस सन्दर्भ में उसका प्रथम अर्थ का तर्क यह है कि तीर्थङ्कर तो केवल क्षत्रिय होते हैं, ब्राह्मण, शूद्र, उपयुक्त हो तब तक दूसरा गौण अर्थ नहीं लिया जा सकता। प्रत्येक वैश्य तो तीर्थङ्कर नहीं होते, तो फिर क्या यह माना जाय कि ब्राह्मण, शब्द का अपना एक निश्चित रूढ़ अर्थ होता है और बिना पर्याप्त शूद्र, वैश्य मुक्ति के अधिकारी नहीं होते? पुन: सिद्ध न तो स्त्री है, कारण के उस निश्चित रूढ़ अर्थ का त्याग नहीं किया जा सकता। न पुरुष। अत: सिद्ध का लिंग से कोई सम्बन्ध ही नहीं है। पुनः जब तक व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ या रूढ़ अर्थ ग्राह्य है, तब तक दूसरा
यदि यह तर्क दिया जाय कि स्त्रियाँ कपटवृत्ति वाली या मायावी अर्थ लेने की आवश्यकता नहीं है। स्त्री शब्द स्त्रीशरीरधारी अर्थात् होती हैं तो इसका प्रत्युत्तर यह है कि व्यवहार में तो पुरुष भी मायावी स्तन, गर्भाशय आदि से युक्त प्राणी के लिये ही प्रयुक्त होता है। यहाँ देखे जाते हैं।
(षट्खण्डागम के प्रस्तुत प्रसंग में) स्त्री शब्द का अन्य कोई अर्थ उसी पुनः याद यह कहा जाय कि पुरुष के समान स्त्रियों का कोई प्रकार निरर्थक है जैसे कोई अग्निपुत्र नामक व्यक्ति का अर्थ अग्नि से
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ उत्पन्न पुत्र करे। पुनः जब आगमों में यह कहा जाता है कि स्त्री छठे जैन परम्परा में वेद और लिंग अलग-अलग शब्द रहे हैं। लिंग का नरक से आगे नहीं जाती, वहाँ आप स्त्री शब्द को उसके मुख्य अर्थ तात्पर्य शारीरिक संरचना अथवा बाह्य चिह्नों से होता है जबकि वेद में लें और आगे जब आगम में यह कहा जाये कि स्त्री में चौदह गुणस्थान का तात्पर्य कामवासना सम्बन्धी मनोभावों से होता है। होते हैं तो वहाँ स्त्री को उसके गौण अर्थ अर्थात् भावस्त्री के रूप में सामान्यतया जैसी शरीर-रचना होती है, तद्रूप ही वेद अर्थात् लें, यह उचित नहीं है। शाकटायन यहाँ स्पष्ट रूप से वीरसेन के काम-वासना का उदय होता है। यदि किसी व्यक्ति में अपनी शरीरषटखण्डागम के सत्प्ररूपणाखण्ड के ९३वें सूत्र की व्याख्या पर कटाक्ष रचना से भिन्न प्रकार की कामवासना पाई जाती है तो यह मानना होगा करते हुए प्रतीत होते हैं। षट्खण्डागम में सत्प्ररुपणा की गतिमार्गणा कि उस व्यक्ति में पुरुष और स्त्री अर्थात् दोनों प्रकार की कामवासना में यह कहा गया है कि पर्याप्त मनुष्यनी में संयतासंयत, संयत आदि है। परन्तु आगम की दृष्टि से ऐसा व्यक्ति नपुंसकलिंगी कहा गया है। गुणस्थान होते हैं। वीरसेन ने यहाँ मनुष्यनी शब्द की भाव-स्त्री या जैन-परम्परा में नपुंसक शब्द का तात्पर्य पुरुषत्व से हीन अर्थात् स्त्री स्त्री-वेदी पुरुष ऐसी जो व्याख्या की है, वह शाकटायन को स्वीकार्य का भोग करने में असमर्थ व्यक्ति, ऐसा नहीं है। जैन परम्परा के अनुसार नहीं है। शाकटायन का स्पष्ट मत है कि आगम (षट्खण्डागम) में नपुंसक वह है, जिसमें उभयलिंग की कामवासनाएँ उपस्थित हो। पुन: जो मनुष्यनी शब्द प्रयुक्त हुआ है वहाँ उसका मुख्य अर्थ 'स्त्री' ही शाकटायन का यह भी कहना है कि यदि किसी पुरुष का काम-व्यवहार ग्राह्य है। ज्ञातव्य है कि यहाँ मनुष्यनी का अर्थ स्त्रीवेदी पुरुष (स्त्रैण- दूसरी स्त्री के साथ पुरुषवत् हो तो यह उसकी अपनी विकृत कामवासना पुरुष) इसलिए भी ग्राह्य नहीं हो सकता है, क्योंकि यह चर्चा गतिमार्गणा का ही रूप है। कभी-कभी तो मनुष्य पशुओं से भी अपनी कामवासना के सन्दर्भ में है, वेदमार्गणा के सम्बन्ध में नहीं है। वेदमार्गणा की की पूर्ति करते हुए देखे जाते हैं। क्या ऐसी स्थिति में हम यह मानेंगे चर्चा तो आगे की ही गई है। अत: प्रस्तुत सन्दर्भ में 'मनुष्यनी' का कि उसमें पशु सम्बन्धी कामवासना है? वस्तुत: यह उसकी अपनी अर्थ स्त्री-वेदी मनुष्य/भाव-स्त्री नहीं किया जा सकता है। कामवासना का ही एक विकृत रूप है। पुन: यदि यह कहा जाय कि
पुन: स्त्रीवेद (कामवासना) की उपस्थिति में तो मुक्ति सम्भव ही आगम में विगत वेद (भवों) की अपेक्षा से स्त्री में चौदह गुणस्थान नहीं होती है, वेद तो नवें गुणस्थान में ही समाप्त हो जाता है। किन्तु माने गए हैं तो फिर विगत भव की अपेक्षा से देव में भी चौदह गुणस्थान स्त्रीवेद शरीर की उपस्थिति में सम्भव है, क्योकि शरीर तो चौदहवें सम्भव होंगे, किन्तु आगम में उनमें तो चौदह गुणस्थान नहीं कहे गए गुणस्थान अर्थात मुक्ति के लक्षण तक रहता है।
हैं। वस्तुत: आगम में जो मनुष्यनी में चौदह गुणस्थानों की सम्भावना पुनः पुरुष शरीर में स्त्रीवेद अर्थात् पुरुष द्वारा भोगे जाने सम्बन्धी स्वीकार की गई है, वह स्त्रीवेद के आधार पर नहीं, अपितु स्त्रीलिंग काम-वासना अथवा स्त्री-शरीर में पुरुषवेद अर्थात् स्त्री की भोगने सम्बन्धी (स्त्रीरूपी शरीर-रचना) के आधार पर ही है। आगम में गतिमार्गणा काम-वासना का उदय मानना भी मनोवैज्ञानिक दृष्टि से युक्तिसंगत नहीं के सन्दर्भ में मनुष्यनी में पर्याप्त गुणस्थानों की चर्चा हुई है। अत: है। यदि यह माना जायेगा कि पुरुष की आंगिक संरचना में स्त्री रूप मनुष्यनी का अर्थ भावस्त्री अर्थात् स्त्रैण-वासना से युक्त पुरुष करना से भोगे जाना और स्त्री. की शारीरिक रचना में पुरुष रूप से स्त्री को उपयुक्त नहीं है, क्योंकि भाव या वेद की चर्चा तो भिन्न अनुयोगद्वारों भोग करना सम्भव होता है तो फिर समलिंगी विवाह-व्यवस्था को भी में की गई है। अत: आगम (षटखण्डागम) में मनुष्यनी का अर्थ भावमानना होगा। साथ ही यदि पुरुष में स्त्रीवेद का उदय अर्थात् दूसरे स्त्री न होकर द्रव्य-स्त्री ही है और यदि आगमानुसार मनुष्यनी में चौदह पुरुष के द्वारा स्त्री रूप में भोगे जाने सम्बन्धी कामवासना का उदय गुणस्थान सम्भव हैं तो फिर उसकी मुक्ति भी सम्भव है। इस प्रकार सम्भव मानेंगे, तो फिर मुनियों का परस्पर साथ में रहना भी सम्भव यापनीय परम्परा आगमिक आधारों पर स्त्रीमुक्ति की समर्थक रही है। नहीं होगा, क्योंकि किसी श्रमण में कब स्त्रीवेद का उदय हो जाय, यह कहना कठिन होगा और स्त्रीवेदी श्रमण के साथ पुरुषवेदी श्रमण अन्यतैर्थिक और गृहस्थमुक्ति का प्रश्न का रहना श्रमणाचार नियमों के विरुद्ध होगा। किसी भी व्यक्ति में भिन्न- स्त्रीमुक्ति के साथ-साथ दो अन्य प्रश्न भी जुड़े हुए हैं, वे हैं लिंगी कामवासना का उदय मानना सम्भव नहीं है। व्यवहार में बाह्य अन्यतैर्थिक की मुक्ति एवं सवस्त्रमुक्ति (गृहस्थमुक्ति)। यह स्पष्ट है कि शरीर रचना के आधार पर ही निर्णय लिये जाते हैं। समलैंगिक कामप्रवृत्ति उत्तराध्ययनसूत्र जैसे प्राचीन जैन आगमों से स्त्रीमुक्ति के साथ-साथ या पशु-मनुष्य कामप्रवृत्ति वस्तुत: अप्राकृतिक मैथुन या विकृत अन्यतैर्थिकों (अन्य लिंग) और गृहस्थों की मुक्ति को भी स्वीकार किया कामवासना के रूप हैं. शरीर-रचना से भिन्न वेद (कामवासना) का गया है। उनकी मान्यता यह थी कि व्यक्ति चाहे किसी अन्य परम्परा उदय नहीं होता है। अत: मनुष्यनी शब्द का अर्थ स्तन, योनि आदि में दीक्षित हुआ हो या गृहस्थ ही हो, यदि वह समभाव की साधना से युक्त मनुष्यनी (मानव स्त्री) ही है, न कि स्त्री सम्बन्धी कामवासना में पूर्णता प्राप्त कर लेता है, राग-द्वेष से ऊपर उठकर वीतरागदशा से युक्त पुरुष। पुनः इस कथन का कोई प्रमाण भी नहीं है कि पुरुष ___ को प्राप्त हो जाता है, तो वह अन्यतैर्थिक या गृहस्थ के वेश में भी शरीर-रचना से स्त्रैण कामवासना का उदय होता है। ऐसी स्थिति में मुक्ति को प्राप्त हो सकता है। उत्तराध्ययनसूत्र में शरीर की अपेक्षा यह भी मानना होगा कि स्त्री-शरीर में भी पुरुष सम्बन्धी कामवासना से स्त्री, पुरुष एवं नपुंसक की तथा वेश की अपेक्षा से स्व-लिंग अर्थात् स्त्री को भोगने की इच्छा उत्पन्न होती होगी। ज्ञातव्य है कि (निर्ग्रन्थ मुनिवेश),अन्य-लिंग (तापस आदि अन्यतैर्थिक के वेश में)
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स्त्री, अन्यतैर्थिक एवं सवस्त्र की मुक्ति का प्रश्न
४०५ एवं गृही-लिंग (गृहस्थवेश) से मुक्ति की सम्भावना को स्वीकार किया ग्रन्थ में स्त्री, अन्यतैर्थिक एवं गृहस्थ की मुक्ति के स्पष्ट निषेध सम्बन्धी गया है।२२ सूत्रकृतांगसूत्र में नमि, बाहुक, असितदेवल, नारायण आदि कोई भी उल्लेख नहीं मिले हैं। श्वेताम्बर मान्य आगम सूत्रकृतांग और ऋषियों के द्वारा अन्य परम्परा के आचार एवं वेशभूषा का अनुसरण उत्तराध्ययन में तो स्पष्ट रूप से इन तीनों की मुक्ति का उल्लेख हआ करते हुए भी सिद्धि प्राप्त करने का स्पष्ट उल्लेख है।२३ ऋषिभाषित है, यह हम पूर्व में बता चुके हैं। कुन्दकुन्द और पूज्यपाद के समय में औपनिषदिक, बौद्ध एवं अन्य श्रमण-परम्परा के ऋषियों को अर्हत् से ही जैन विद्वानों में यह मतभेद अस्तित्व में है। हमारी दृष्टि में कुन्दकुन्द ऋषि कहकर सम्मानित किया गया है।२४ वस्तुत: मुक्ति का सम्बन्ध भी पूज्यपाद के समकालीन लगभग छठी शती के ही हैं। अत: पूज्यपाद आत्मा की विशुद्धि से है। उसका बाह्य वेश या स्त्री-पुरुष आदि के के साथ-साथ उन्होंने भी सूत्रप्राभृत२८ में 'वस्त्रधारी' की मुक्ति का निषेध शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं है। श्वेताम्बर आचार्य रत्नशेखरसूरि कहते किया है। वे कहते हैं कि-"यदि तीर्थङ्कर भी वस्त्रधारी हो तो वह हैं कि व्यक्ति चाहे श्वेताम्बर हो, दिगम्बर हो, बौद्ध या अन्य किसी भी मुक्त नहीं हो सकता" इस निषेध में स्त्री, अन्यतैर्थिक एवं गृहस्थ धर्म-परम्परा का हो, यदि वह समभाव से युक्त है तो मुक्ति अवश्य तीनों की मुक्ति का ही निषेध हो जाता है, क्योंकि ये तीनों ही वस्त्रधारी प्राप्त करेगा।२५ चूँकि यापनीय भी आगमिक परम्परा के अनुयायी थे, हैं। इस प्रकार दिगम्बर परम्परा में कुन्दकुन्द एवं पूज्यपाद के काल अत: यापनीय शाकटायन ने इस सम्बन्ध में आगम-प्रमाण का उल्लेख से स्त्रीमुक्ति के साथ-साथ अन्यतैर्थिक एवं गृहस्थ की मुक्ति का भी किया है। वे स्त्रीमुक्ति के साथ-साथ अन्यतैर्थिकमुक्ति के भी समर्थक निषेध कर दिया गया। वस्तुत: कोई भी धर्म परम्परा जब साम्प्रदायिक थे। किन्तु जब अचेलता को ही एकमात्र मोक्ष-मार्ग स्वीकार करके मूर्छादि संकीर्णताओं में सिमटती जाती है तो उसमें अन्य परम्पराओं के प्रति भावपरिग्रह के साथ-साथ वस्त्र-पात्रादि द्रव्य-परिग्रह का भी पूर्ण त्याग उदारता समाप्त होती जाती है। अन्यतैर्थिकों एवं गृहस्थों की मुक्ति आवश्यक मान लिया गया तो यह स्वाभाविक ही था कि स्त्रीमुक्ति का निषेध इसी का परिणाम था। के निषेध के साथ ही साथ अन्यतैर्थिक और गृहस्थों की मुक्ति का परवर्ती श्वेताम्बर एवं दिगम्बर ग्रन्थों में इस सम्बन्ध में जो भी भी निषेध कर दिया गया । दिगम्बर परम्परा में चूँकि अचेलता को चर्चाएँ हुईं, वह मुख्य रूप से स्त्रीमुक्ति के प्रश्न को लेकर हुईं। गृहस्थ ही एकमात्र मोक्ष-मार्ग माना गया था, इसलिये उसने यह माना कि एवं अन्यतैर्थिक की मुक्ति का प्रश्न वस्तुत: स्त्री के प्रश्न से ही जुड़ा अन्यतैर्थिक या गृहस्थवेश में कोई भी व्यक्ति मुक्त नहीं हो सकता। हुआ था। अत: परवर्ती साहित्य में इन दोनों के सम्बन्ध में पक्ष व इसके विपरीत श्वेताम्बर और यापनीय दोनों ही स्पष्ट रूप से यह मानते विपक्ष में कुछ लिखा गया हो, ऐसा मुझे ज्ञात नहीं है। तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक २९ रहे कि यदि व्यक्ति की रागात्मकता या ममत्ववृत्ति समाप्त हो गयी में विद्यानन्द ने एकमात्र तर्क यह दिया है कि 'यदि सग्रन्थ अवस्था है तो बाह्यरूप से वह चाहे गृहस्थवेश धारण किये हुए हो उसकी में मुक्ति होती है तो फिर परिग्रह-त्याग की क्या आवश्यकता है?' मुक्ति में कोई बाधा नहीं है। तत्त्वार्थभाष्य'६ में तत्त्वार्थसूत्र के दसवें जिस प्रकार यापनीय आचार्य 'शाकटायन' ने और श्वेताम्बर आचार्य अध्याय के सातवें सूत्र का भाष्य करते हुए उमास्वाति ने वेश की हरिभद्र आदि ने स्त्रीमुक्ति के समर्थन में विविध तर्क दिये उसी प्रकार अपेक्षा से द्रव्य-लिंग के तीन भेद किये-(१) स्व-लिंग, (२) गृह- के तर्क गृहस्थ या अन्यतैर्थिक की मुक्ति के सम्बन्ध में यापनीय एवं लिंग, (३) अन्य-लिंग और यह बताया कि इन तीनों लिंगों से मुक्ति श्वेताम्बर आचार्यों ने नहीं दिये हैं। सम्भवत: इसका कारण यही रहा हो भी सकती है, और नहीं भी हो सकती है। इस प्रकार उमास्वाति कि जब एक बार सचेल स्त्री की मुक्ति की सम्भावना स्वीकार की जाती अन्यतैर्थिकों एवं गृहस्थों की मुक्ति को विकल्प से स्वीकार करते हैं, है तो फिर गृहस्थ और अन्यतैर्थिक की मुक्ति की सम्भावना स्वीकार किन्तु इसी सूत्र की व्याख्या में पूज्यपाद सर्वार्थसिद्धि में द्रव्य-लिंग करने में कोई बाधा नहीं रहती, क्योंकि गृहस्थ और अन्यतैर्थिक की की दृष्टि से निर्ग्रन्थ-लिंग से ही सिद्धि मानते हैं। यद्यपि उन्होंने यह मुक्ति का प्रश्न सीधा स्त्रीमुक्ति की समस्या के साथ जुड़ा हुआ था। माना है कि भूतपूर्व नय की अपेक्षा से सग्रन्थ-लिंग से भी सिद्धि होती अत: उस पर स्वतन्त्र रूप से पक्ष व विपक्ष में अधिक चर्चा नहीं हुई है। है।२७ किन्तु तत्त्वार्थसूत्र के प्रस्तुत सूत्र (१०/७) में सिद्ध जीवों का जहाँ तक यापनीय परम्परा का प्रश्न है वे स्त्रीमुक्ति के साथक्षेत्र, काल, गति, लिंग, तीर्थ आदि की अपेक्षा से जो विचार किया साथ गृहस्थ एवं अन्यतैर्थिक की मुक्ति स्वीकार करते थे। यापनीय गया है, वह उनके मुक्ति प्राप्त करने के समय की स्थिति के सन्दर्भ ग्रन्थों से इस तथ्य की पुष्टि हो जाती है। आचार्य हरिषेण के में है। अत: भूतपूर्व नय का यहाँ कोई प्रयोजन ही नहीं है। क्योंकि 'बृहत्कथाकोश'३० में स्पष्ट रूप से गृहस्थमुक्ति का उल्लेख है। इसमें यदि भूतपूर्व नय से कहना होता तो उसमें तो सभी लिंग, सभी वेद, कहा गया है कि अणुव्रत, गुणव्रत, शिक्षाव्रत से अन्वित और मौनव्रत सभी गति, सभी क्षेत्र आदि से मुक्ति मानी जा सकती थी। भूतपूर्व से समन्वित मुमुक्षु सिद्धि को प्राप्त होता है। इसी प्रकार हरिवंश पुराण नय का कथन मात्र आगम और अपनी परम्परा के मध्य संगति बिठाने (जिनसेन और हरिषेण) में भी अन्यतैर्थिक की मुक्ति का उल्लेख किया हेतु किया गया है। फिर भी इससे यह तो फलित होता ही है कि गया है। उसके बयालीसवें सर्ग में नारद को 'अन्त्यदेह' कहा गया पूज्यपाद के समय में दिगम्बर परम्परा में अन्यतैर्थिक और गृहस्थमुक्ति है। पुनः उसके पैसठवें सर्ग में तो स्पष्ट रूप से यह कहा गया है के निषेध की अवधारणा स्पष्ट रूप से आ गयी थी। पूज्यपाद की कि "नरश्रेष्ठ नारद ने प्रव्रजित होकर तपस्या के बल से भवपरम्परा सर्वार्थटीका से पहले हमें श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा के किसी भी का क्षय करके अक्षय मोक्ष को प्राप्त किया।३२ इसके विपरीत दिगम्बर
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ग्रन्थों में नारद को नरकगामी कहा गया है। इससे यह फलित होता है कि यापनीय परम्परा, श्वेताम्बर परम्परा की ही तरह उदार थी और सन्दर्भ
१.
२.
वीरायतन प्रकाशन,
आगरा १९७२, ३६/४९.
(अ) ज्ञाताधर्मकथा, अष्टम अध्ययन के अन्त में मल्लि के तीर्थङ्कर एवं मुक्त होने का उल्लेख है।
(ब) अन्तकृद्दशांग वर्ग आठ के सभी अध्ययनों के अन्त में स्त्रीमुक्ति के उल्लेख हैं।
४.
३. आवश्यकचूर्णि भाग १. पृ० १८१ एवं भाग २, पृ० २१२. अष्टप्राभृत सुत्तपाहुड, प्रका० परमश्रुत प्रभावक मंडल, अगास, गाथा २३-२६.
५.
M.A. Dhaky "The Date of Kundakundacharya", Aspects of Jainology, Vol. III, Pt. D.D. Malvania Felicitation Volume, P.V. Research Institute, 1991, p. 187.
६. तत्त्वार्थभाष्य संपा० पं० खूबचन्द सिद्धान्त शास्त्री, प्रका० श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास १९३२, १० / ७. सर्वार्थसिद्धि, संपा० पं० फूलचन्द सिद्धान्त शास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, १९५५, १०/९.
राजवार्तिक, संपा०- महेन्द्र कुमार जैन, प्रका० भारतीय ज्ञानपीठ, काशी १९५३, १०/९.
अष्टप्राभृत सुत्तपाहुड, प्रका० परमश्रुत प्रभावक मंडल, अगास, गाथा २३.
७.
इत्थी पुरिससिद्धा य तहेव य नपुंसगाः । सलिंगे अत्र लिंगे य गिहिलिंगे तहेव च ।।
संपादक - साध्वी चंदनाजी, उत्तराध्ययन,
८.
९.
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
१०. वही, गाथा २४.
१९. वही, गाथा २५-२६
१२. Padmanabh S. Jaini, Gender and Salvation, Munshiram Manoharlal Publishers (P) Ltd. New Delhi, 1992, p. 4. १३. गवि सिन्झइ वत्यधरो जिणसासणे जइवि होइ तित्ययरो जग्गो विमोक्ख मग्गो साउम्मरया सव्वे ॥
-अष्टप्राभृत, सुत्तपाहुड, प्रकाशक परमश्रुत प्रभावक मंडल, अगास. गाथा २३ ।
१४. वही, गाथा २५.
१५. वही, गाथा २६.
१६. वही, गाथा २४.
१७. हरिभद्र ललितविस्तर, प्रका० श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी ताम्बर संस्था, रतलाम, वि० सं० १९९० पृ० ५७-५९.
१८. सव्वत्योआ तित्ययरिसिद्धा तिष्ययरितित्वे, गोत्थियरसिद्धा असंखेज्ज गुण तित्थयरितित्थे, णो तित्ययरिसिद्धा असंखेज्ज गुणओ । - सिद्धप्राभूत, उद्धृत ललितविस्तरा, पृ० ५६.
१९. अत्थितित्थकरसिद्ध तित्थकरतित्थे, ने तित्थसिद्धा तित्थकर तित्थे, तित्थसिद्धा तित्थकरतित्थे तित्थ सिद्धाणो, तित्थकरीसिद्धा तित्थकरी
स्त्रीमुक्ति के साथ-साथ अन्यतैर्थिक एवं गृहस्थों की मुक्ति की सम्भावना को भी स्वीकार करती थी।
तित्थणो तित्थसिद्धा तित्थकरी तित्थे तित्थसिद्धा तित्थकरी तित्थे तित्यसिद्धाओ।
तत्त्वार्थाधिमगसूत्र—स्वोपज्ञभाष्येण श्री सिद्धसेनगणिकृत टीकायां च समलंकृतम्, प्रका० जीवचंद साकरचंद झवेरी, सूरत, १९३०, द्वितीय विभाग १० / ७, पृ० ३०८
२०. प्रणिपत्य मुक्तिमुक्ति प्रमदमलं धर्ममर्हतो दिशतः ।
वक्ष्ये स्त्रीनिर्वाणं केवलिभुक्तिं संक्षेपात् ।।
शाकटायन व्याकरण, 'स्त्रीमुक्तिप्रकरण, संपा० हीरालाल जैन एवं ए०एन० उपाध्ये, प्रका० भारतीय ज्ञानपीठ, काशी १९७१, श्लोक १, पृ० १२१.
२१. दस चेव नपुंसेवीसं इत्थिवासु य
पुरिसेसु य असयं समरणेगेण सिज्झई । उत्तराध्ययन संपा०रतनलाल दोशी, श्रमणोपासक जैन पुस्तकालय सैलाना, वीर सं० २४७८, ३६/५१
२२. इत्थी पुरिससिद्धा य तहेव य नपुंसगा ।
सलिंगे अत्रलिंगे व गिहिलिंगे सहेव य । वही ३६/४९.
२३. सूत्रकृतांगसूत्र, संपा० मधुकरमुनि श्री आगमप्रकाशन समिति, ब्यावर १९८२, १/३/४/१-१.
२४. देवनारदे अरहता इसिणा बुइयं । इसिभासियाई,
२८. २९.
सम्पादक महोपाध्याय विनयसागर, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर
१/१ 1
२५. सयंबरो य आसंबरो व बुद्धो य अहेव अन्नो या
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समभावभाविअप्पा लहेय मुक्खं न संदेहो । सम्बोधसत्तरी, २. २६. लिंगे पुनरन्यो विकल्प उच्यते - द्रव्यलिंग भावलिंग अलिंगमिति ।
प्रत्युत्पन्न भावप्रज्ञापनीय प्राप्तसिद्धयति तत्वार्थभाष्य, संपा० पं० खूबचन्द सिद्धान्त शास्त्री, प्रका० श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास, १९३२, १०/७.
२७. लिंगेन केन सिद्धि ? अवेदत्वेन विभ्यो वा वेदभ्यः सिद्धिभवितो न
द्रव्यतः पुल्लिंगेनेव । अथवा निर्ग्रन्थलिंगेन। संग्रथलिंगेन वा सिद्धिर्भूतपूर्व नयापेक्षया सर्वार्थसिद्धि, सम्पादक फूलचन्द सिद्धान्तशास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी १९७८, पृ० ४७२.
सूत्रप्राभृत, २३.
साक्षन्निग्रंथालिंगेन पारम्पर्यात्ततोन्यतः साक्षात्सग्रंथलिंगेन सिद्धौ निर्ग्रन्थता वृथा तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, संपा० पं० महेन्द्र कुमार जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, १९५७, १०/९.
३०. बृहत्कथाकोश, संपा० ए० एन० उपाध्ये, भारतीय विद्याभवन बम्बई, वि० सं० १९९९, ५७/५६२.
३१. अन्त्यदेहः प्रकृत्यैव निः कषायोएप्यसौक्षितौ हरिवंशपुराण, संपा०पन्नालाल जैन, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, १९६२, ४२/२२. ३२. वही, ६५ / २४.
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यद्यपि यह सत्य है आत्मा के पूर्व कर्म संस्कारों के कारण बन्धन की प्रक्रिया अविराम गति से चलती रहती है। पूर्व कर्म संस्कार अपने विपाक के अवसर पर आत्मा को प्रभावित करते हैं और उसके परिणाम स्वरूप मानसिक एवं शारीरिक क्रिया व्यापार होते हैं, उस क्रिया व्यापार के कारण नवीन कर्मास्रव एवं बन्ध होता है। अतः यह प्रश्न उपस्थित होता है कि इस बन्धन से मुक्त किस प्रकार हुआ जाये। जैन दर्शन बन्धन से बचने के लिए जो उपाय बताता है, उन्हें संवर और निर्जरा कहते हैं।
बन्धन से मुक्ति की ओर
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संवर का अर्थ
तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार आव निरोध संबर है। दूसरे शब्दों मे कर्मवर्गणा के पुगलों का आत्मा में आने की क्रिया का रूक जाना संवर है। वही संवर मोक्ष का कारण तथा नैतिक साधना का प्रथम सोपान है। संवर शब्द 'सम' उपसर्ग पूर्वक 'वृ' धातु से बना है। वृ धातु का अर्थ है रोकना या निरोध करना। इस प्रकार संवर शब्द का अर्थ किया गया है— आत्मा को प्रभावित करने वाले कर्मवर्गणा के पुद्रलों के आस्रव को रोक देना सामान्य रूप से शारीरिक, वाचिक एवं मानसिक क्रियाओं का यथाशक्य निरोध करना (रोकना) संवर कहा जाता है, क्योंकि क्रियाएँ ही आस्रव का आधार हैं। जैन परम्परा में संवर को कर्म परमाणुओं के आस्रव को रोकने के अर्थ में और बौद्ध परम्परा में क्रिया के निरोध के अर्थ में स्वीकार किया गया है, क्योंकि बौद्ध परम्परा में कर्मवर्गणा (परमाणुओं) का भौतिक स्वरूप मान्य नहीं है, अतः वे संबर को जैन परम्परा के अर्थ में नहीं लेते हैं। उसमें संवर का अर्थ मन, वाणी एवं शरीर के क्रिया व्यापार या ऐन्द्रिक प्रवृत्तियों का संयम ही अभिप्रेत है। वैसे जैन परम्परा में भी संवर को कायिक, वाचिक एवं मानसिक क्रियाओं के निरोध के रूप में माना गया है, क्योंकि संवर के पाँच अंगों में अयोग (अक्रिया) भी एक माना गया है। यदि हम इस परम्परागत अर्थ को मान्य करते हुए भी इससे थोड़ा ऊपर उठकर देखें तो संवर का वास्तविक अर्थ संयम ही माना जा सकता है। जैन परम्परा में भी संवर के रूप में जिस जीवन प्रणाली का विवेचन किया गया है वह संयमात्मक जीवन की प्रतीक है। स्थानांगसूत्र में संवर के पाँच भेदों का विवेचन पाँचों इन्द्रियों के संयम के रूप में किया गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में तो संवर के स्थान पर संयम को ही आसव-निरोध का कारण माना गया है। वस्तुतः संबर का अर्थ है अनैतिक या पापकारी प्रवृत्तियों से अपने को बचाना। संवर शब्द इस अर्थ में संयम का पर्याय ही सिद्ध होता है। बौद्ध परम्परा में संवर शब्द का प्रयोग संयम के अर्थ में ही हुआ है। धम्मपद' आदि में प्रयुक्त संवर शब्द का अर्थ संयम ही किया गया है। संवर शब्द का यह अर्थ करने में जहाँ एक ओर हम तुलनात्मक विवेचन को सुलभ बना सकेंगे वही दूसरी ओर जैन परम्परा के मूल आशय
से भी दूर नहीं होयेंगे लेकिन संवर का यह निषेधक अर्थ ही सब कुछ नहीं है, वरन् उसका एक विधायक पक्ष भी है शुभ अध्यवसाय भी संवर के अर्थ में स्वीकार किये गये हैं, क्योंकि अशुभ की निवृत्ति के लिए शुभ का अंगीकार प्राथमिक स्थिति में आवश्यक है। वृत्तिशून्यता के अभ्यासी के लिए प्रथम शुभ वृत्तियों को अंगीकार करना होता है, क्योंकि चित्त के शुभवृत्ति से परिपूर्ण होने पर अशुभ के लिए कोई स्थान नहीं रहता है। अशुभ को हटाने के लिए शुभ आवश्यक है। दूसरे शुभ को हटाना तो इतना सुसाध्य होता है कि उसका सहज निराकरण हो जाता है। अतः संवर का अर्थ शुभ वृत्तियों का अभ्यास भी है। यद्यपि वहाँ शुभ का वह अर्थ नहीं है, जिसे हम पुण्यासव या पुण्यबन्ध के रूप में जानते हैं।
जैन परम्परा में संवर का वर्गीकरण
(अ) जैन दर्शन में संवर के दो भेद हैं- १. द्रव्य संवर और २. भाव संवर द्रव्यसंग्रह में कहा गया है कि कर्मास्रव को रोकने में सक्षम आत्मा की चैत्तसिक स्थिति भावसंवर है, और द्रव्यास्त्रव को रोकने वाला उस चैत्तसिक स्थिति का जो परिणाम है वह द्रव्यसंवर कहा जाता है । ५
(ब) सामान्य रूप से संवर के पाँच अंग या द्वार बताये गये हैं- १. सम्यक्त्व - यथार्थ दृष्टिकोण, २. विरति मर्यादित या संयमित जीवन, ३ अप्रमत्तता आत्म चेतनता, ४ अकषायवृत्ति-क्रोधादि मनोवेगों का अभाव और ५. अयोग अक्रिया ।
(स) स्थानांगसूत्र में संवर के आठ भेद निम्नानुसार बताए गये हैं - १. श्रोत इन्द्रिय का संयम, २. चक्षु इन्द्रिय का संयम, ३. घ्राण इन्द्रिय का संयम, ४. रस इन्द्रिय का संयम, ५. स्पर्श इन्द्रिय का संयम, ६. मन का संयम, ७ वचन का संयम और ८. शरीर का संयम । *
(द) प्रकारान्तर से जैन आगम ग्रन्थों में संवर के सत्तावन भेद भी माने गये हैं। जिसमें पाँच समितियाँ, तीन गुप्तियाँ, दस प्रकार का यति धर्म, बारह अनुप्रेक्षाएँ (भावनाएँ), बाईस परिषह और सामायिक आदि पाँच चरित्र सम्मिलित है। ये सभी कर्मास्रव का निरोध कर आत्मा को बन्धन से बचाते हैं, अतः संवर कहे जाते हैं।
यदि उपरोक्त आधारों पर हम देखें तो हमें यह स्पष्ट हो जाता है कि संवर का तात्पर्य ऐसी मर्यादित जीवन प्रणाली है जिसमें विवेक पूर्ण आचरण ( क्रियाओं का सम्पादन), मन, वाणी और शरीर की अयोग्य प्रवृत्तियों का संयमन, सद्गुण का ग्रहण, कष्टों, सहिष्णुता और समत्व की साधना समाविष्ट हो। जैन दर्शन में संवर के साधक से अपेक्षा यही की गई है कि उसका प्रत्येक आचरण संयत एवं विवेकपूर्ण हो, चेतना सदैव जाग्रत हो, ताकि इन्द्रियों के विषय उसमें राग-द्वेष की प्रवृत्तियों को पैदा नहीं कर सकें। जब इन्द्रियाँ और मन अपने विषयों के सम्पर्क में आते हैं तो उनके इस सम्पर्क से आत्मा में विकार
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
या वासना उत्पन्न होने की सम्भावना उठ खड़ी होती है। अत: हो जाने पर अपना विपाक (फल) देकर आत्मा से अलग हो जाता साधना-मार्ग के पथिक को सदैव ही जाग्रत रहते हुए, विषय सेवनरूप है, यह यथाकाल निर्जरा कही जाती है। इसे सविपाक, अकाम और छिद्रों से आने वाले कर्मास्रव या विकार से अपनी रक्षा करनी है। अनौपक्रमिक निर्जरा भी कहते हैं। यह सविपाक निर्जरा इसलिए कही सूत्रकृतांगसूत्र में कहा गया है कि कछुआ जिस प्रकार अपने अंगों जाती है कि इसमें कर्म अपना विपाक देकर अलग होता है अर्थात् को अन्दर में समेट कर खतरे से बाहर हो जाता है, वैसे ही साधक इसमें फलोदय (विपाकोदय) होता है। इसे अकाम निर्जरा इस आधार भी अध्यात्म योग के द्वारा अन्तर्मुख होकर अपने को पाप वृत्तियों पर कहा गया है कि इसमें कर्म के अलग करने में व्यक्ति के संकल्प से सुरक्षित रखे। मन, वाणी, शरीर और इन्द्रिय व्यापारों का संयमन का तत्त्व नहीं होता है। उपक्रम शब्द प्रयास के अर्थ में आता है, ही साधना का लक्ष्य माना गया है। सच्चे साधक की व्याख्या करते इसमें वैयक्तिक प्रयास का अभाव होता है, अत: अनौपक्रमिक भी हुए दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि जो सूत्र तथा उसके रहस्य कहा जाता है। को जानकर हाथ, पैर, वाणी तथा इन्द्रियों का यथार्थ संयम रखता २. दूसरे जब तपस्या के माध्यम से कर्मों को उनके फल देने है (अर्थात् सन्मार्ग में विवेकपूर्वक लगता है), अध्यात्म रस में ही के समय के पूर्व अर्थात् उनकी काल-स्थिति परिपक्व होने के पहिले जो मस्त रहता है और अपनी आत्मा को समाधि में लगाता है वही ही प्रदेशोदय के द्वारा भोगकर बलात् अलग-अलग कर दिया जाता सच्चा साधक है।
है तो ऐसी निर्जरा को सकाम निर्जरा कहा जाता है, क्योंकि निर्जरित
होने में समय का तत्त्व अपनी स्थिति को पूरी नहीं करता है। इसे निर्जरा का अर्थ
अविपाक निर्जरा भी कहते हैं, क्योंकि इसमें विपाकोदय या फलोदय __आत्मा के साथ कर्म-पुद्गल का सम्बन्ध होना बन्ध है और आत्मा नहीं होता है, मात्र प्रदेशोदय होता है। से कर्मवर्गणा का अलग होना निर्जरा है। संवर नवीन आने वाले विपाकोदय और प्रदेशोदय में क्या अन्तर है, इसे निम्न उदाहरण कर्म-पुद्गल का रोकना है, परन्तु मात्र संवर से निर्वाण की प्राप्ति से समझा जा सकता है। जब क्लोरोफार्म सुंघाकर किसी व्यक्ति की सम्भव नहीं । उत्तराध्ययनसूत्र में बताया गया है कि जैसे किसी बड़े चीर-फाड़ की जाती है तो उसमें उसे असातावेदनीय (दु:खानुभूति) तालाब के जल स्रोतों (पानी के आगमन के द्वारों) को बन्द कर दिया नामक कर्म का प्रदेशोदय होता है लेकिन विपाकोदय नहीं होता है। जाए और उसके अन्दर रहे हुए जल को उलीचा जाय तथा ताप से उसमें दुःखद वेदना के तथ्य तो उपस्थित होते हैं लेकिन दुःखद वेदना सुखाया जाए तो वह विस्तीर्ण तालाब भी सूख जायेगा। प्रस्तुत रूपक की अनुभूति नहीं है। इसी प्रकार प्रदेशोदय कर्म के फल का तथ्य में आत्मा ही सरोवर है, कर्म पानी है, कर्म का आस्रव ही पानी का तो उपस्थित हो जाता है, लेकिन उसकी फलानुभूति नहीं होती है। आगमन है। उस पानी के आगमन के द्वारों को निरुद्ध कर देना संवर अत: यह अविपाक निर्जरा कही जाती है। इसे सकाम निर्जरा भी कहा है और पानी का उलीचना और सुखाना निर्जरा है। यह रूपक यह जाता है, क्योंकि इसमें कर्म-परमाणुओं को आत्मा से अलग करने बताता है कि संवर से नये कर्म रूपी जल का आगमन (आस्रव) तो का संकल्प होता है। यह औपक्रमिक निर्जरा भी कही जाती है क्योंकि रुक जाता है लेकिन पूर्व में बन्धे हुए, सत्तारूप कर्मों का जल तो इसमें उपक्रम या प्रयास होता है। प्रयास पूर्वक, तैयारी सहित, कर्मवर्गणा आत्मा रूपी तालाब में शेष रहा हुआ है जिसे सुखाना है। यह कर्म के पुद्गलों को आत्मा से अलग किया जाता है। यह कर्मों को निर्जरित रूपी जल को सुखाना निर्जरा है।
(क्षय) करने का कृत्रिम प्रकार है।
अनौपक्रमिक या सविपाक निर्जरा अनिच्छापूर्वक, अशान्त एवं द्रव्य और भाव निर्जरा
व्याकुल चित्तवृत्ति से, पूर्व संचित कर्म के प्रतिफलों का सहन करना __निर्जरा शब्द का अर्थ है पूर्णत: जर्जरित कर देना, झाड़ देना है जबकि अविपाक निर्जरा इच्छापूर्वक समभावों से जीवन की आई अर्थात् आत्मतत्त्व से कर्म-पुद्गल का अलग हो जाना अथवा अलग हुई परिस्थितियों का मुकाबला करना है। कर देना निर्जरा है। जैनाचार्यों ने यह निर्जरा दो प्रकार की मानी है। आत्मा की वह चैतसिक अवस्था जिसके द्वारा कर्म-पुद्गल अपना फल जैन साधना में औपक्रमिक निर्जरा का स्थान देकर अलग हो जाते हैं, भाव निर्जरा कही जाती है। भाव निर्जरा आत्मा जैन साधना की दृष्टि से निर्जरा का पहला प्रकार जिसे सविपाक की वह विशुद्ध अवस्था है, जिसके कारण कर्म-परमाणु आत्मा से या अनौपक्रमिक निर्जरा कहते हैं, अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है। यह पहला अलग हो जाते हैं। यही कर्म-परमाणुओं का आत्मा से पृथक्करण द्रव्य प्रकार साधना के क्षेत्र में ही नहीं आता है, क्योंकि कर्मों के बन्ध और निर्जरा है। भाव निर्जरा कारण-रूप है और द्रव्य निर्जरा कार्य-रूप है। निर्जरा का यह क्रम तो सतत् रूप से चला आ रहा है। हम प्रतिक्षण
पुराने कर्मों की निर्जरा करते रहते हैं लेकिन जब तक नवीन कर्मों सकाम और अकाम निर्जरा
का सृजन समाप्त नहीं होता ऐसी निर्जरा से सापेक्षिक रूप में कोई पुन: निर्जरा के दो अन्य प्रकार भी माने गये हैं- १. कर्म लाभ नहीं होता। जैसे कोई व्यक्ति पुराने ऋण का भुगतान तो करता जितनी काल मर्यादा (अवधिकाल) के साथ बँधा है, उसके समाप्त रहे, लेकिन नवीन ऋण भी लेता रहे तो वह ऋण मुक्त नहीं होता है।
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जैन विचारणा के अनुसार यह सविपाक निर्जरा तो आत्मा अनादिकाल से करता आ रहा है, लेकिन निर्वाण का लाभ प्राप्त नहीं कर सका। आचार्य कुन्दकुन्द " कहते हैं - यह चेतन आत्मा कर्म विपाक काल में सुखद और दुःखद फलों की अनुभूति करते हुए पुनः दुःख के बीज रूप आठ प्रकार के कर्मों का बन्ध कर लेता है, क्योंकि कर्म जब अपना विपाक देते हैं तो किसी निमित्त से देते हैं और अज्ञानी आत्मा शुभ निमित्त पर राग और अशुभ निमित्त पर द्वेष करके नवीन बन्ध कर लेता है।
बन्धन से मुक्ति की ओर
अतः साधना मार्ग के पथिक के लिए पहले यह निर्देश दिया गया कि वह प्रथम ज्ञान युक्त हो कर्मास्स्रव का निरोध कर अपने आपको संवृत करे। संवर के अभाव में जैन साधना में निर्जरा का कोई मूल्य नहीं, वह तो अनादिकाल से होती आ रही है किन्तु भव परम्परा को समाप्त करने में सहायक नहीं हुई। दूसरे यदि आत्मा संवर का समाचरण करता हुआ भी इस यथाकाल होने वाली निर्जरा की प्रतीक्षा में बैठा
सन्दर्भ संकेत
१. तत्त्वार्थसूत्र, विवे० पं० सुखलक संघवी, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९७६, ९/१
२. स्थानांगसूत्र, संपा० मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, १९८१, ५/२/४२७/
३. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा० साध्वी चन्दना, प्रका० वीरायतन प्रकाशन, आगरा, १९७२, २९ / २६ ।
धम्मपद, अनु० पं० राहुल सांकृत्यायन, प्रका० बुद्धविहार, लखनऊ, ३९०-३९३।
५.
द्रव्य संग्रह।
६. समवायांगसूत्र, संपा० मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, १९८२, ५/५/
७. स्थानांगसूत्र, संपा० मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति,
४.
४०९
रहे तो भी वह शायद ही मुक्त हो सके, क्योंकि जैन मान्यता के अनुसार प्राणी के साथ बन्ध इतना अधिक है कि वह अनेक जन्मों में ही शायद इस कर्मबन्ध से स्वाभाविक निर्जरा के माध्यम से मुक्त हो सके। लेकिन इतनी लम्बी समयावधि में संवर से स्खलित होकर नवीन कर्मों के बन्ध की सम्भावना भी तो रही हुई है। अतः साधना मार्ग के पथिक के लिए जो मार्ग बताया गया है, वह है औपक्रमिक या अविपाक निर्जरा का महत्त्व इसी तप जन्य निर्जरा का है। ऋषिभाषितसूत्र १२ में ऋषि कहता है कि संसारी आत्मा प्रतिक्षण नए कर्मों का बन्ध और पुराने कर्मों की निर्जरा कर रहा है, लेकिन तप से होने वाली निर्जरा ही विशेष (महत्त्वपूर्ण ) है । बन्ध और निर्जरा का प्रवाह अविराम गति से बह रहा है किन्तु (जो) साधक संवर द्वारा नवीन आस्रव को निरुद्ध कर तपस्या द्वारा पुरातन कर्मों को क्षीण करता चलता है, वह अन्त में पूर्ण रूप से निष्कर्म बन जाता है, मुक्ति को प्राप्त कर लेता है । १३
ब्यावर, १९८१, ८/३/५९८ ।
सूत्रकृताङ्गसूत्र, संपा० मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, १९८२, १/८/१६ ।
९. दशवैकालिकसूत्र, संपा० मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, १९८५, १०/१५ ।
८.
१०. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा० साध्वी चन्दना, प्रका० वीरायतन प्रकाशन, आगरा, १९७२, ३० / ५-६ ।
११. समयसार, कुन्दकुन्द प्रका० अहिंसा प्रकाशन मन्दिर, दरियागंज, देहली, १९५९, ३८९।
१२. ऋषिभाषित सं० महोपाध्याय विनयसागर जी प्रका० प्राकृत अकादमी, जयपुर।
१३. जैनधर्म, मुनि सुशील कुमार, प्रका० श्री अ० भा० श्वे० स्थानकवासी, जैन कान्फरेन्स, देहली, पृ० ८७ ।
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जैन धर्म का त्रिविध साधना मार्ग
जैन दर्शन मोक्ष की प्राप्ति के लिए त्रिविध साधना मार्ग प्रस्तुत करता है। तत्वार्थ सूत्र के प्रारम्भ में ही कहा गया है सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यग्वारित्र मोक्ष का मार्ग है। उत्तराध्ययनसूत्र में सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यग्चारित्र और सम्यग्तप ऐसे चतुर्विध मोक्ष मार्ग का भी विधान है। परवती जैन आचार्यों ने तप का अन्तर्भाव चारित्र में किया है और इसलिए परवर्ती साहित्य में इसी त्रिविध साधना मार्ग का विधान मिलता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार एवं नियमसार में आचार्य अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थसिद्धयुपाय में आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में त्रिविध साधना पथ का विधान किया है।
त्रिविध साधनामार्ग ही क्यों ?
यह प्रश्न उठ सकता है कि त्रिविध साधना मार्ग का ही विधान क्यों किया गया है? वस्तुतः त्रिविध साधना मार्ग के विधान में पूर्ववर्ती ऋषियों एवं आचार्यों की गहन मनोवैज्ञानिक सूझ रही है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मानवीय चेतना के तीन पक्ष माने गये है ज्ञान, भाव, और संकल्प जीवन का साध्य चेतना के इन तीनों पक्षों के परिष्कार में माना गया है। अत: यह आवश्यक ही था कि इन तीनों पक्षों के परिष्कार के लिए त्रिविध साधना पथ का विधान किया जाये चेतना के भावात्मक पक्ष को सम्यक् बनाने के लिए एवं उसके सही विकास के लिए सम्यग्दर्शन या श्रद्धा (भाव) की साधना का विधान किया गया। इसी प्रकार ज्ञानात्मक पक्ष के लिए ज्ञान का और संकल्पात्मक पक्ष के लिए सम्यग्चारित्र का विधान किया गया। इस प्रकार हम देखते हैं कि त्रिविध साधना पथ के विधान के पीछे जैनों की एक मनोवैज्ञानिक दृष्टि रही है । तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर हम पाते हैं कि बौद्ध दर्शन में शील, समाधि और प्रज्ञा के रूप में और गीता में ज्ञानयोग, भक्तियोग एवं कर्मयोग के रूप में भी त्रिविध साधना मार्ग के उल्लेख हैं।
पाश्चात्य चिन्तन में त्रिविध साधना पथ
पाश्चात्य परम्परा' में तीन नैतिक आदेश उपलब्ध होते हैं(१) स्वयं को जानो
(२) स्वयं को स्वीकार करो
(३) स्वयं ही बन जाओ
पाश्चात्य चिन्तन के ये तीन नैतिक आदेश जैन परम्परा के सम्यक ज्ञान, दर्शन और चारित्र के त्रिविध साधना मार्ग के समकक्ष ही हैं। आत्मज्ञान में ज्ञान का तत्त्व, आत्म-स्वीकृति में श्रद्धा का तत्त्व और आत्म-निर्माण में चारित्र का तत्त्व स्वीकृत है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि त्रिविध साधना मार्ग के विधान में जैन, बौद्ध और वैदिक परम्परायें ही नहीं, पाक्षात्य विचारक भी एकमत हैं। तुलनात्मक रूप में उन्हें निम्न प्रकार से प्रस्तुत किया जा
सकता है
जैन दर्शन
सम्यग्ज्ञान,
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बौद्ध दर्शन
श्रद्धा, चित्त, समाधि
प्रज्ञा
सम्यग्दर्शन
सम्यग्चारित्र शीत वीर्य
गीता
ज्ञान,
परिप्रश्न
उपनिषद्
मनन
पाश्चात्य दर्शन
Know thyself
श्रद्धा,
प्रणिपात
कर्म सेवा निदिध्यासन Be Thyself
श्रवण
Accept thyself
साधना-त्रय का परस्पर सम्बन्ध
जैन आचायों ने नैतिक साधना के लिए इन तीनों साधना मार्गों को एक साथ स्वीकार किया है। उनके अनुसार नैतिक साधना की पूर्णता त्रिविध साधना पथ के समग्र परिपालन में ही सम्भव है। जैन विचारक तीनों के समवेत से ही मुक्ति मानते हैं उनके अनुसार न अकेला ज्ञान, न अकेला कर्म और न अकेली भक्ति मुक्ति देने में समर्थ है, जबकि कुछ भारतीय विचारकों ने इनमें से किसी एक को ही मोक्ष प्राप्ति का साधन मान लिया है। आचार्य शङ्कर केवल ज्ञान से और रामानुज केवल भक्ति से मुक्ति की सम्भावना को स्वीकार करते हैं, लेकिन जैन दार्शनिक ऐसी किसी एकान्तवादिता में नहीं पड़ते हैं। उनके अनुसार तो ज्ञान, कर्म और भक्ति की समवेत साधना में ही मोक्ष सिद्धि सम्भव है। इनमें से किसी एक के अभाव में मोक्ष या समत्वरूपी साध्य की प्राप्ति सम्भव नहीं है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है कि दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता और जिसमें ज्ञान नहीं है उसका आचरण सम्यक् नहीं होता । सम्यक् आचरण के अभाव में आसक्ति से मुक्त नहीं हुआ जा सकता है और जो आसक्ति से मुक्त नहीं उसका निर्वाण या मोक्ष नहीं होता। इस प्रकार शास्त्रकार यह स्पष्ट कर देता है कि निर्वाण या आत्मपूर्णता की प्राप्ति के लिए इन तीनों की समवेत रूप में आवश्यकता है। वस्तुतः साध्य के रूप में जिस पूर्णता को स्वीकार नहीं किया गया है वह चेतना के किसी एक पक्ष की पूर्णता नहीं वरन् तीनों पक्षों की पूर्णता है और इसके लिए साधना के तीनों पक्ष आवश्यक हैं।
यद्यपि धर्म साधना के लिए सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यग्चारित्र या शील, समाधि और प्रज्ञा अथवा श्रद्धा, ज्ञान और कर्म तीनों आवश्यक हैं, लेकिन साधना की दृष्टि से इनमें एक पूर्वापरता का क्रम भी है।
सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का पूर्वापर सम्बन्ध
ज्ञान और दर्शन की पूर्वापरता को लेकर ज्ञानमीमांसा की दृष्टि से जैन विचारणा में काफी विवाद रहा है कुछ आचार्य दर्शन को
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जैन धर्म का त्रिविध साधना-मार्ग
४११ प्राथमिक मानते हैं तो कुछ ज्ञान को, कुछ ने दोनों का यौगपत्य में प्राप्त हुई श्रद्धा से नहीं हो सकता। ज्ञानाभाव में जो श्रद्धा होती (समानान्तरता) स्वीकार किया है। यद्यपि आचारमीमांसा की दृष्टि से है, उसमें संशय होने की सम्भावना हो सकती है। ऐसी श्रद्धा यथार्थ दर्शन की प्राथमिकता ही प्रबल रही है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है श्रद्धा नहीं वरन् अन्धश्रद्धा ही हो सकती है। जिन प्रणीत तत्त्वों में कि दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता। इस प्रकार ज्ञान की अपेक्षा भी यथार्थ श्रद्धा तो उनके स्वानुभव एवं तार्किक परीक्षण के पश्चात् दर्शन को प्राथमिकता दी गयी है। तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति ने भी ही हो सकती है। यद्यपि साधना के लिए, आचरण के लिए श्रद्धा अपने ग्रन्थ में दर्शन को ज्ञान और चारित्र के पहले स्थान दिया है।६ अनिवार्य तत्त्व है, लेकिन वह ज्ञानप्रसूत होनी चाहिए। उत्तराध्ययनसूत्र आचार्य कुन्दकुन्द दर्शनपाहुड में कहते हैं कि धर्म (साधना-मार्ग) में स्पष्ट कहा है कि धर्म की समीक्षा प्रज्ञा के द्वारा करें, तर्क से तत्त्व दर्शन-प्रधान है।
का विश्लेषण करें। इस प्रकार मेरी मान्यता के अनुसार यथार्थ दृष्टिपरक लेकिन दूसरी ओर कुछ सन्दर्भ ऐसे भी हैं जिनमें ज्ञान को प्रथम अर्थ में सम्यग्दर्शन को ज्ञान के पूर्व लेना चाहिए, जबकि श्रद्धापरक माना गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में, उसी अध्याय में मोक्ष-मार्ग की विवेचना अर्थ में उसे ज्ञान के पश्चात् स्थान देना चाहिए। में जो क्रम है उसमें ज्ञान का स्थान प्रथम है। वस्तुत: साधनात्मक जीवन की दृष्टि से भी ज्ञान और दर्शन में किसे प्राथमिक माना जाय, सम्यग्दर्शन और सम्यग्चारित्र का पूर्वापर सम्बन्य यह निर्णय करना सहज नहीं है। इस विवाद के मूल में यह तथ्य चारित्र और ज्ञान दर्शन के पूर्वापर सम्बन्ध को लेकर जैन विचारणा है कि श्रद्धावादी दृष्टिकोण सम्यग्दर्शन को प्रथम स्थान देता है, जबकि में कोई विवाद नहीं है। चारित्र की अपेक्षा ज्ञान और दर्शन को प्राथमिकता ज्ञानवादी दृष्टिकोण श्रद्धा के सम्यक् होने के लिए ज्ञान की प्राथमिकता प्रदान की गई है। चारित्र साधना-मार्ग में गति है, ज्ञान साधना पक्ष को स्वीकार करता है। वस्तुतः इस विवाद में कोई ऐकान्तिक निर्णय का बोध है और दर्शन यह विश्वास जाग्रत करता है कि वह पथ उसे लेना अनुचित ही होगा। यहाँ समन्वयवादी दृष्टिकोण ही संगत होगा। अपने लक्ष्य की ओर ले जाने वाला है। सामान्य पथिक भी यदि पथ नवतत्त्वप्रकरण में ऐसा ही समन्वयवादी दृष्टिकोण अपनाया गया है, के ज्ञान एवं इस दृढ़ विश्वास के अभाव में कि वह पथ उसके वांछित जहाँ दोनों को एक-दूसरे का पूर्वापर बताया है। कहा है कि जो जीवादि लक्ष्य को ले जाता है, अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता तो नव पदार्थों को यथार्थ रूप से जानता है उसे सम्यक्त्व होता है। इस फिर आध्यात्मिक साधना-मार्ग का पथिक बिना ज्ञान और आस्था (श्रद्धा) प्रकार ज्ञान को दर्शन के पूर्व बताया गया है, लेकिन अगली पंक्ति के कैसे आगे बढ़ सकता है? उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि में ही ज्ञानाभाव में केवल श्रद्धा से ही सम्यक्त्व की प्राप्ति मान ली गई ज्ञान से (यथार्थ साधना मार्ग को) जानें, दर्शन के द्वारा उस पर विश्वास है और कहा गया है कि जो वस्तुतत्त्व को स्वत: नहीं जानता हुआ करें और चारित्र से उस साधना-मार्ग पर आचरण करता हुआ तप भी उसके प्रति भाव से श्रद्धा करता है उसे सम्यक्त्व हो जाता है। से अपनी आत्मा का परिशोधन करें।१२
हम अपने दृष्टिकोण से इनमें से किसे प्रथम स्थान दें, इसका यद्यपि लक्ष्य को पाने के लिए चारित्र रूप प्रयास आवश्यक है, निर्णय करने के पूर्व दर्शन के अर्थ का निश्चय कर लेना जरुरी है। लेकिन प्रयास को लक्ष्योन्मुख और सम्यक् होना चाहिए। मात्र अन्धे दर्शन शब्द के तीन अर्थ हैं- (१) यथार्थ दृष्टिकोण, (२) श्रद्धा और प्रयासों से लक्ष्य प्राप्त नहीं होता। यदि व्यक्ति का दृष्टिकोण यथार्थ (३) अनुभूति। इसमें अनुभूतिपरक अर्थ का सम्बन्ध तो ज्ञानमीमांसा नहीं है तो ज्ञान यथार्थ नहीं होगा और ज्ञान के यथार्थ नहीं होने पर है और उस सन्दर्भ में वह ज्ञान का पूर्ववर्ती है। यदि हम दर्शन का चारित्र या आचरण भी यथार्थ नहीं होगा। इसलिए जैन आगमों में यथार्थ दृष्टिकोणपरक अर्थ लेते हैं तो साधना-मार्ग की दृष्टि से उसे चारित्र से दर्शन (श्रद्धा) की प्राथमिकता बताते हुए कहा गया है कि प्रथम स्थान देना चाहिए, क्योकि यदि व्यक्ति का दृष्टिकोण ही मिथ्या सम्यग्दर्शन के अभाव में सम्यग्चारित्र नहीं होता।१३ है, अयथार्थ है तो न तो उसका ज्ञान सम्यक् (यथार्थ) होगा और न भक्तपरिज्ञा में कहा गया है कि दर्शन से भ्रष्ट (पतित) ही वास्तविक चारित्र ही। यथार्थ दृष्टि के अभाव में यदि ज्ञान और चारित्र सम्यक् भ्रष्ट है, चारित्र से भ्रष्ट नहीं है, क्योंकि जो दर्शन से युक्त है वह प्रतीत भी हों, तो भी वे सम्यक् नहीं कहे जा सकते। वह तो सांयोगिक संसार में अधिक परिभ्रमण नहीं करता जबकि दर्शन से भ्रष्ट व्यक्ति प्रसङ्ग मात्र है। ऐसा साधक दिग्भ्रान्त भी हो सकता है। जिसकी दृष्टि संसार से मुक्त नहीं होता। कदाचित् चारित्र से रहित सिद्ध भी हो जाये, दूषित है, वह क्या सत्य को जानेगा और क्या उसका आचरण करेगा? लेकिन दर्शन से रहित कभी भी मुक्त नहीं होता।१४ दूसरी ओर यदि हम सम्यग्दर्शन का श्रद्धापरक अर्थ लेते हैं तो उसका वस्तुत: दृष्टिकोण या श्रद्धा ही एक ऐसा तत्त्व है जो व्यक्ति के स्थान ज्ञान के पश्चात् ही होगा। क्योंकि अविचल श्रद्धा तो ज्ञान के ज्ञान और आचरण का सही दिशा-निर्देश करता है। आचार्य भद्रबाहु बाद ही उत्पन्न हो सकती है। उत्तराध्ययनसूत्र में भी दर्शन का श्रद्धापरक आचाराङ्गनियुक्ति में कहते हैं कि सम्यग्दृष्टि से ही तप, ज्ञान और अर्थ करते समय उसे ज्ञान के बाद ही स्थान दिया गया है, उसमें सदाचरण सफल होते हैं।५ सन्त आनन्दघन दर्शन की महत्ता को सिद्ध कहा गया है कि ज्ञान से पदार्थ (तत्त्व) स्वरूप को जानें और दर्शन करते हुए अनन्त जिन के स्तवन में कहते हैं - के द्वारा उस पर श्रद्धा करें। व्यक्ति के स्वानुभव (ज्ञान) के पश्चात्
शुद्ध श्रद्धा बिना सर्व किरिया करी, ही जो श्रद्धा उत्पन्न होती है, उसमें जो स्थायित्व होता है वह ज्ञानाभाव
छार (राख) पर लीपणु तेह जाणो रे।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र की पूर्वापरता
इस प्रकार जैन आचार्यों ने साधना-त्रय में ज्ञान को अत्यधिक जैन विचारकों ने चारित्र को ज्ञान के बाद ही रखा है। दशवैकालिक महत्त्व दिया है। आचार्य अमृतचन्द्र का उपर्युक्त दृष्टिकोण तो जैनदर्शन सूत्र में कहा गया है कि जो जीव और जीव के स्वरूप को नहीं जानता, को शङ्कर के निकट खड़ा कर देता है। फिर भी यह मानना कि जैन ऐसा जीव और अजीव के विषय में अज्ञानी साधक क्या धर्म (संयम) दृष्टि में ज्ञान ही मात्र मुक्ति का साधन है, जैन विचारणा के मौलिक का आचरण करेगा? १६ उत्तराध्ययनसूत्र में भी यही कहा है कि सम्यग्ज्ञान मन्तव्य से दूर होना है। यद्यपि जैन साधना में ज्ञान मोक्ष-प्राप्ति का के अभाव में सदाचरण नहीं होता। इस प्रकार जैन दर्शन ज्ञान को प्राथमिक एवं अनिवार्य कारण है, फिर भी वह एकमात्र कारण नहीं चारित्र से पूर्व मानता है। जैन दार्शनिक यह तो स्वीकार करते हैं कि माना जा सकता। ज्ञानाभाव में मुक्ति सम्भव नहीं है, किन्तु मात्र ज्ञान सम्यक् आचरण के पूर्व सम्यक् ज्ञान का होना आवश्यक है, फिर से भी मुक्ति सम्भव नहीं है। जैन आचार्यों ने ज्ञान को मुक्ति का अनिवार्य भी वे यह स्वीकार नहीं करते हैं कि अकेला ज्ञान ही मुक्ति का साधन कारण स्वीकार करते हुए यह बताया कि श्रद्धा और चारित्र का है। ज्ञान आचरण का पूर्ववर्ती अवश्य है, यह भी स्वीकार किया गया आदर्शोन्मुख एवं सम्यक् होने के लिए ज्ञान महत्त्वपूर्ण तथ्य है, सम्यग्ज्ञान है कि ज्ञान के अभाव में चारित्र सम्यक् नहीं हो सकता। १८ लेकिन के अभाव में अन्धश्रद्धा होगी और चारित्र या सदाचरण एक ऐसी कागजी यह प्रश्न विचारणीय है कि क्या ज्ञान ही मोक्ष का मूल हेतु है? मुद्रा के समान होगा, जिसका चाहे बाह्य मूल्य हों, लेकिन आन्तरिक
मूल्य शून्य ही होगा। आचार्य कुन्दकुन्द, जो ज्ञानवादी परम्परा का साधना-प्रय में ज्ञान का स्थान
प्रतिनिधित्व करते हैं, वे भी स्पष्ट कहते हैं कि कोरे ज्ञान से निवार्ण जैनाचार्य अमृतचन्द्रसूरि ज्ञान की चारित्र से पूर्वता को सिद्ध करते नहीं होता यदि श्रद्धा न हो और केवल श्रद्धा से भी निर्वाण नहीं होता हुए एक चरम सीमा स्पर्श कर लेते हैं। वे अपनी समयसार टीका यदि संयम (सदाचरण) न हो। २३ । में लिखते हैं कि ज्ञान ही मोक्ष का हेतु है, क्योंकि ज्ञान का अभाव जैन दार्शनिक शङ्कर के समान न तो यह स्वीकार करते हैं कि होने से अज्ञानियों में अन्तरङ्ग व्रत, नियम, सदाचरण और तपस्या मात्र ज्ञान से मुक्ति हो सकती है, न रामानुज प्रभृति भक्ति-मार्ग के आदि की उपस्थिति होते हुए भी मोक्ष का अभाव है। क्योंकि अज्ञान आचार्यों के समान यह स्वीकार करते हैं कि मात्र भक्ति से मुक्ति होती तो बन्ध का हेतु है, जबकि ज्ञानी में अज्ञान का सद्भाव न होने से है। उन्हें मीमांसा दर्शन की यह मान्यता भी ग्राह्य नहीं है कि मात्र बाह्य व्रत, नियम, सदाचरण, तप आदि की अनुपस्थिति होने पर भी कर्म से मुक्ति हो सकती है। वे तो श्रद्धा-समन्वित ज्ञान और कर्म दोनों मोक्ष का सद्भाव है। १९ आचार्य शङ्कर भी यह मानते हैं कि एक ही से मुक्ति की सम्भावना स्वीकार करते हैं। कार्य ज्ञान के अभाव में बन्धन का हेतु और ज्ञान की उपस्थिति में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र का पूर्वापर सम्बन्ध भी मोक्ष का हेतु होता है। इससे यही सिद्ध होता है कि कर्म नहीं ज्ञान ऐकान्तिक नहीं है। जैन विचारणा के अनुसार साधना-त्रय में एक क्रम ही मोक्ष का हेतु है। आचार्य अमृतचन्द्र भी ज्ञान को त्रिविध साधनों तो माना गया है, यद्यपि इस क्रम को भी ऐकान्तिक रूप में स्वीकार में प्रमुख मानते हैं। उनकी दृष्टि में सम्यग्दर्शन और सम्यग्चारित्र भी करना उसकी स्याद्वाद की धारणा का अतिक्रमण ही होगा, क्योंकि जहाँ ज्ञान के ही रूप हैं। वे लिखते हैं कि मोक्ष के कारण सम्यग्दर्शन, आचरण के सम्यक् होने के लिए सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन आवश्यक ज्ञान और चारित्र हैं। जीवादि तत्त्वों के यथार्थ श्रद्धान् रूप से जो ज्ञान है वहीं दूसरी ओर सम्यग्ज्ञान एवं दर्शन की उपलब्धि के पूर्व भी आचरण है वह तो सम्यग्दर्शन है और उनका ज्ञान-स्वभाव में ज्ञान होना सम्यग्ज्ञान का सम्यक् होना आवश्यक है। जैन दर्शन के अनुसार जब तक तीव्रतम है तथा रागादि के त्याग-स्वभाव के ज्ञान का होना सम्यग्चारित्र है। (अनन्तानुबन्धी) क्रोध, मान, माया और लोभ चार कषायें समाप्त नहीं इस प्रकार ज्ञान ही परमार्थत: मोक्ष का कारण है।२१
होती, तब तक सम्यग्दर्शन और ज्ञान भी प्राप्त नहीं होता। आचार्य यहाँ पर आचार्य दर्शन और चारित्र को ज्ञान के अन्य दो पक्षों शङ्कर ने भी ज्ञान की प्राप्ति के पूर्व वैराग्य का होना आवश्यक माना के रूप में सिद्ध कर मात्र ज्ञान को ही मोक्ष का हेतु सिद्ध करते हैं। है। इस प्रकार सदाचरण और संयम के तत्त्व सम्यग्दर्शन और ज्ञान उनके दृष्टिकोण के अनुसार दर्शन और चारित्र भी ज्ञानात्मक हैं, ज्ञान की उपलब्धि के पूर्ववर्ती भी सिद्ध होते हैं।, दूसरे, इस क्रम या पूर्वापरता की पर्यायें हैं। यद्यपि यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि आचार्य के आधार पर भी साधन-त्रय में किसी एक को श्रेष्ठ मानना और दूसरे मात्र ज्ञान की उपस्थिति में मोक्ष के सद्भाव की कल्पना करते हैं, फिर को गौण मानना जैन दर्शन को स्वीकृत नहीं है। वस्तुत: साधन-त्रय भी वे अन्तरङ्ग चारित्र की उपस्थिति से इन्कार नहीं करते हैं। अन्तरङ्ग मानवीय चेतना के तीन पक्षों के रूप में ही साधना-मार्ग का निर्माण चारित्र तो कषाय आदि के क्षय के रूप में सभी साधकों में करते हैं। धार्मिक चेतना के इन तीन पक्षों में जैसी पारस्परिक प्रभावकता उपस्थित होता है। साधक आत्मा पारमार्थिक दृष्टि से ज्ञानमय ही है और अवियोज्य सम्बन्ध रहा है, वैसी ही पारस्परिक प्रभावकता और और वही ज्ञानमय आत्मा उसका साध्य है। इस प्रकार ज्ञानस्वभावमय अवियोज्य सम्बन्ध मानवीय तीनों पक्षों में है। आत्मा ही मोक्ष का उपादान कारण है क्योकि जो ज्ञान है, वह आत्मा है और जो आत्मा है वह ज्ञान है।२२ अत: मोक्ष का हेतु ज्ञान ही ज्ञान और क्रिया के सहयोग से मुक्ति सिद्ध होता है।
साधना-मार्ग में ज्ञान और क्रिया (विहित आचरण) के श्रेष्ठत्व
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जैन धर्म का त्रिविध साधना मार्ग
को लेकर विवाद चला आ रहा है। वैदिक युग में जहाँ विहित आचरण की प्रधानता रही है, वहीं औपनिषदिक युग में ज्ञान पर बल दिया जाने लगा। भारतीय चिन्तकों के समक्ष प्राचीन समय से ही यह समस्या रही है कि ज्ञान और क्रिया के बीच साधना का यथार्थ तत्त्व क्या है ? जैन परम्परा ने प्रारम्भ से ही साधना मार्ग में ज्ञान और क्रिया का समन्वय किया है। पार्श्वनाथ के पूर्ववर्ती युग में जब श्रमण परम्परा देहदण्डनपरक तप साधना में और वैदिक परम्परा यज्ञयागपरक क्रियाकाण्डों में ही साधना की इतिश्री मानकर साधना के मात्र आचरणात्मक पक्ष पर बल देने लगी थी, तो उन्होंने उसे ज्ञान से समन्वित करने का प्रयास किया था महावीर और उनके बाद जैन विचारकों ने भी ज्ञान और आचरण दोनों से समन्वित साधना पथ का उपदेश दिया। जैन विचारकों का यह स्पष्ट निर्देश था कि मुक्ति न तो मात्र ज्ञान से प्राप्त हो सकती है और न केवल सदाचरण से । ज्ञानमार्गी औपनिषदिक एवं सांख्य परम्पराओं की समीक्षा करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट कहा गया है कि कुछ विचारक मानते हैं कि पाप का त्याग किए बिना ही मात्र आर्यतत्त्व (यथार्थता) को जानकर ही आत्मा सभी दुःखों से छूट जाती है, लेकिन बन्धन और मुक्ति के सिद्धान्त में विश्वास करने वाले ये विचारक संयम का आचरण नहीं करते हुए केवल वचनों से ही आत्मा को आश्वासन देते हैं । २४ सूत्रकृताङ्गसूत्र में कहा है कि
"
मनुष्य चाहे वह ब्राह्मण हो, भिक्षुक हो, अनेक शास्त्रों का जानकार हो अथवा अपने को धार्मिक प्रकट करता हो, यदि उसका आचरण अच्छा नहीं है तो वह अपने कर्मों के कारण दुःखी होगा । २५ अनेक भाषाओं एवं शास्त्रों का ज्ञान आत्मा को शरणभूत नहीं होता । मन्त्रादि विद्या भी उसे कैसे बचा सकती है? असद् आचरण में अनुरक्त अपने आप को पण्डित मानने वाले लोग वस्तुतः मूर्ख ही है।" आवश्यक नियुक्ति में ज्ञान और चारित्र के पारस्परिक सम्बन्ध का विवेचन विस्तृत रूप में है। उसके कुछ अंश इस समस्या का हल खोजने में हमारे सहायक हो सकेंगे। नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाहु कहते हैं कि "आचरणविहिन अनेक शास्त्रों के ज्ञाता भी संसार - समुद्र से पार नहीं होते मात्र शास्त्रीय ज्ञान से बिना आचरण के कोई मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। जिस प्रकार निपुण चालक भी वायु या गति की क्रिया के अभाव में जहाज को इच्छित किनारे पर नहीं पहुँचा सकता वैसे ही ज्ञानी आत्मा भी तप संयम रूप सदाचरण के अभाव में मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकती । २७ मात्र जान लेने से कार्य सिद्धि नहीं होती । तैरना जानते हुए भी कोई कायचेष्टा नहीं करे तो डूब जाता है, वैसे ही शास्त्रों को जानते हुए भी जो धर्म का आचरण नहीं करता, वह डूब जाता है। १८ जैसे चन्दन ढोने वाला चन्दन से लाभान्वित नहीं होता, मात्र भार वाहक ही बना रहता है वैसे ही आचरण से हीन ज्ञानी ज्ञान के भार का वाहक मात्र है, इससे उसे कोई लाभ नहीं होता । २९ ज्ञान और क्रिया के पारस्परिक सम्बन्ध को लोक प्रसिद्ध अंध-पशु न्याय के आधार पर स्पष्ट करते हुए आचार्य लिखते हैं कि जैसे वन में दावानल लगने पर पङ्गु उसे देखते हुए भी गति के अभाव में जल मरता है और अन्धा सम्यक मार्ग न खोज पाने के कारण जल मरता
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है वैसे ही आचरणविहीन ज्ञान पशु के समान है और ज्ञानचक्षुविहीन पङ्गु आचरण अन्धे के समान है। आचरणविहीन ज्ञान और ज्ञानविहीन आचरण दोनों निरर्थक हैं और संसार रूपी दावानल से साधक को बचाने में असमर्थ है। जिस प्रकार एक चक्र से रथ नहीं चलता, अकेला अन्धा तथा अकेलापन इच्छित साध्य तक नहीं पहुँचते, वैसे ही मात्र ज्ञान अथवा मात्र क्रिया से मुक्ति नहीं होती, वरन् दोनों के सहयोग से मुक्ति होती है।" व्याख्याप्रज्ञप्ति में ज्ञान और क्रिया में से किसी एक को स्वीकार करने की विचारणा को मिथ्या विचारणा कहा गया है।" महावीर ने साधक की दृष्टि से ज्ञान और क्रिया के पारस्परिक सम्बन्ध की एक चतुर्भङ्गी का कथन इसी सन्दर्भ में किया है—
(१) कुछ व्यक्ति ज्ञान सम्पन्न है, लेकिन चारित्र सम्पन्न नहीं हैं।
(२) कुछ व्यक्ति चारित्र - सम्पन्न हैं, लेकिन ज्ञान- सम्पन्न नहीं हैं।
(३) कुछ व्यक्ति न ज्ञान- सम्पन्न हैं, न चारित्र सम्पन्न हैं । (४) कुछ व्यक्ति ज्ञान-सम्पन्न भी हैं और चारित्र सम्पन्न
भी हैं।
महावीर ने इनमें से सच्चा साधक उसे ही कहा है, जो ज्ञान और क्रिया, श्रुत और शील दोनों से सम्पन्न है। इसी को स्पष्ट करने के लिए निम्न रूपक भी दिया जाता है।
(१) कुछ मुद्राएँ ऐसी होती हैं जिनमें धातु भी खोटी होती है, मुद्रांकन भी ठीक नहीं होता ।
(२) कुछ मुद्राएँ ऐसी होती हैं जिनमें धातु तो शुद्ध होती हैं, लेकिन मुद्रांकन ठीक नहीं होता।
(३) कुछ मुद्राएँ ऐसी होती हैं जिनमें धातु अशुद्ध होती हैं, लेकिन मुद्रांकन ठीक होता है।
(४) कुछ मुद्राएँ ऐसी होती हैं जिनमें धातु भी शुद्ध है और मुद्रांकन भी ठीक होता है।
बाजार में वही मुद्रा ग्राह्य होती है जिसमें भी धातु शुद्ध होती है और मुद्रांकन भी ठीक होता है इसी प्रकार सच्चा साधक वही होता है जो ज्ञान सम्पन्न भी हो और चारित्र सम्पन्न भी हो। इस प्रकार जैन विचारणा यह बताती है कि ज्ञान और क्रिया दोनों ही नैतिक साधना के लिए आवश्यक हैं। ज्ञान और चारित्र दोनों की समवेत साधना से ही दुःख का क्षय होता है। क्रियाशून्य ज्ञान और ज्ञानशून्य क्रिया दोनों ही एकान्त हैं और एकान्त होने के कारण जैन दर्शन की अनेकान्तवादी विचारणा के अनुकूल नहीं हैं।
तुलनात्मक दृष्टि से विचार
जैन परम्परा में साधन अन्य के समवेत में ही मोक्ष की निष्पत्ति मानी गई है, जबकि वैदिक परम्परा में ज्ञाननिष्ठा, कर्मनिष्ठा और भक्तिमार्ग ये तीनों ही अलग-अगल मोक्ष के साधन माने जाते रहे हैं। और इन आधारों पर वैदिक परम्परा में स्वतन्त्र सम्प्रदायों का उदय
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भी हुआ है। वैदिक परम्परा में प्रारम्भ से ही कर्ममार्ग और ज्ञानमार्ग की धाराएँ अलग-अलग रूप में प्रवाहित होती रही हैं। भागवत सम्प्रदाय के उदय के साथ भक्तिमार्ग एक नई निष्ठा के रूप में प्रतिष्ठित हुआ । इस प्रकार वेदों का कर्ममार्ग, उपनिषदों का ज्ञानमार्ग और भागवत सम्प्रदाय का भक्तिमार्ग तथा इनके साथ-साथ ही योग सम्प्रदाय का ध्यानमार्ग सभी एक-दूसरे से स्वतन्त्र रूप में मोक्ष मार्ग समझे जाते रहे हैं। सम्भवतः गीता एक ऐसी रचना अवश्य है जो इन सभी साधना विधियों को स्वीकार करती है। यद्यपि गीताकार ने इन विभिन्न धाराओं को समेटने का प्रयत्न तो किया, लेकिन वह उनको समन्वित नहीं कर पाया। यही कारण था कि परवर्ती टीकाकारों ने अपने पूर्व संस्कारों के कारण गीता को इनमें से किसी एक साधना-मार्ग का प्रतिपादन बताने का प्रयास किया और गीता में निर्देशित साधना के दूसरे मार्गों को गौण बताया। शङ्कर ने ज्ञान को, रामानुज ने भक्ति को, तिलक ने कर्म को गीता का प्रमुख प्रतिपाद्य विषय माना।
लेकिन जैन विचारकों ने इस त्रिविध साधना पथ को समवेत रूप में ही मोक्ष का कारण माना और यह बताया कि ये तीनों एक-दूसरे से अलग होकर नहीं, वरन् समवेत रूप में ही मोक्ष को प्राप्त करा सकते हैं। उसने तीनों को समान माना और उनमें से किसी को भी एक के अधीन बनाने का प्रयास नहीं किया। हमें इस भ्रांति से बचना होगा कि श्रद्धा, ज्ञान और आचरण ये स्वतन्त्र रूप में नैतिक पूर्णता के मार्ग हो सकते हैं। मानवीय व्यक्तित्व और नैतिक साध्य एक पूर्णता है और उसे समवेत रूप में हो पाया जा सकता है।
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
बौद्ध परम्परा और जैन परम्परा दोनों ही एकाङ्गी दृष्टिकोण नहीं रखते हैं। बौद्ध परम्परा में शील, समाधि और प्रज्ञा अथवा प्रज्ञा, श्रद्धा और वीर्य को समवेत रूप में ही निर्वाण का कारण माना गया है। इस प्रकार बौद्ध और जैन परम्पराएँ न केवल अपने साधना मार्ग के प्रतिपादन में, वरन् साधन त्रय के बलाबल के विषय में भी समान दृष्टिकोण रखती हैं।
वस्तुतः नैतिक साध्य का स्वरूप और मानवी प्रकृति, दोनों ही यह बताते हैं कि त्रिविध साधना मार्ग अपने समवेत रूप में ही नैतिक पूर्णता की प्राप्ति करा सकता है यहाँ इस त्रिविध साधना पथ का मानवीय प्रकृति और नैतिक साध्य से क्या सम्बन्ध है, इसे स्पष्ट कर लेना उपयुक्त होगा ?
मानवीय प्रकृति और त्रिविध साधना पथ
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मानवीय चेतना के तीन कार्य है- (१) जानना, (२) अनुभव करना और (३) संकल्प करना । हमारी चेतना का ज्ञानात्मक पक्ष न
सन्दर्भ :
१. तत्त्वार्थसूत्र, संपा० पं० सुखलाल संघवी, प्रका० पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १ / १ |
उत्तराध्ययनसूत्र, संपा० रतनलाल दोशी, श्रमणोपासक जैन पुस्तकालय सैलाना, वीर सं० २४७८, २८/२०
३. साइकोलॉजी एण्ड मॉरल्स, जे०ए० हैडफील्ड, १९३६.५० १८०१
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केवल जानना चाहता है, वरन् वह सत्य को ही जानना चाहता है। ज्ञानात्मक चेतना निरन्तर सत्य की खोज में रहती है। अतः जिस विधि से हमारी ज्ञानात्मक चेतना सत्य को उपलब्ध कर सके उसे ही सम्यग्ज्ञान कहा गया है। सम्यग्ज्ञान चेतना के ज्ञानात्मक पक्ष को सत्य की उपलब्धि की दिशा में ले जाता है चेतना का दूसरा पक्ष अनुभूति के रूप में आनन्द की खोज करता है। सम्यग्दर्शन चेतना में राग-द्वेषात्मक जो तनाव हैं, उन्हें समाप्त कर उसे आनन्द प्रदान करता है। चेतना का तीसरा सङ्कल्पात्मक पक्ष शक्ति की उपलब्धि और कल्याण की क्रियान्विति चाहता है। सम्यग्वारित्र संकल्प को कल्याण के मार्ग में नियोजित कर शिव की उपलब्धि कराता है। इस प्रकार सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारित्र का यह त्रिविध साधना-पथ चेतना के तीनों पक्षों को सही दिशा में निर्देशित कर उनके वांछित लक्ष्य सत्, सुन्दर और शिव अथवा अनन्त ज्ञान, अनन्त आनन्द और अनन्त शक्ति की उपलब्धि कराता है। वस्तुतः जीवन के साध्य को उपलब्ध करा देना ही इस त्रिविध साधना पथ का कार्य है। जीवन का साध्य अनन्त एवं पूर्ण ज्ञान, अक्षय आनन्द और अनन्त शक्ति को उपलब्धि है, जिसे त्रिविध साधना पथ के तीनों अङ्गों के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। चेतना के ज्ञानात्मक पक्ष को सम्यग्ज्ञान की दिशा में नियोजित कर ज्ञान की पूर्णता को, चेतना के भावात्मक पक्ष को सम्यग्दर्शन में नियोजित कर अक्षय आनन्द की और चेतना के सङ्कल्पात्मक पक्ष को सम्यक्चारित्र में नियोजित कर अनन्त शक्ति की उपलब्धि की जा सकती है वस्तुतः जैन आचार दर्शन में साध्य, साधक और साधना-पथ तीनों में अभेद माना गया है। ज्ञान, अनुभूति और सङ्कल्पमय चेतना साधक है और यही चेतना के तीनों पक्ष सम्यक् दिशा में नियोजित होने पर साधना-पथ कहलाते हैं और इन तीनों पक्षों की पूर्णता ही साध्य है। साधक, साध्य और साधना पथ भिन्न भिन्न नहीं, वरन चेतना की विभिन्न अवस्थाएँ है। उनमें अभेद माना गया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में और आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में इस अभेद को अत्यन्त मार्मिक शब्दों में स्पष्ट किया है। आचार्य कुन्दकुन्द समयसार में कहते हैं कि यह आत्मा ही ज्ञान, दर्शन और चारित्र है।" आचार्य हेमचन्द्र इसी अभेद को स्पष्ट करते हुए योगशास्त्र में कहते हैं कि आत्मा ही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र है, क्योंकि आत्मा इसी रूप में शरीर में स्थित है। ३३ आचार्य ने यह कहकर कि आत्मा ज्ञान, दर्शन और चारित्र के रूप में शरीर में स्थित है, मानवीय मनोवैज्ञानिक प्रकृति को ही स्पष्ट किया है। ज्ञान, चेतना और सङ्कल्प तीनों सम्यक् होकर साधना-पथ का निर्माण कर देते हैं और यही पूर्ण होकर साध्य बन जाते हैं। इस प्रकार जैन आचार-दर्शन में साधक, साधना-पथ और साध्य में अभेद हैं।
उत्तराध्यनसूत्र, संपा० रतनलाल दोशी, प्रका० श्रमणोपासक जैन पुस्तकालय, सैलाना, वीर सं० २४७८, २८/३० । वही, २८/३० ।
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६. तत्त्वार्थसूत्र, संपा० पं० सुखलाल संघवी, प्रका० पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १/१०
दर्शनपाहुड, (अष्टप्राभृत), आचार्य कुन्दकुन्द, प्रका० परमश्रुत
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७.
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जैन धर्म का त्रिविध साधना-मार्ग । प्रभावक मण्डल, अगास, १९६९, २।
दरियागंज, देहली, १९५९, १५५। ८. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा० रतनलाल दोशी, प्रका० श्रमणोपासक जैन २२. जे आया से विन्नाया, जे विन्नाया से आया। पुस्तकालय, सैलाना, वीर सं० २४७८, २८/२।
जेण वियाणइ से आया, तं पडुच्च पढिसंखाए। नवतत्त्वप्रकरण, उद्धृत आत्म-साधना संग्रह, मोतीलाल माण्डोत, - आचाराङ्ग, संपा० मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन पृ० १५१।
समिति, ब्यावर, १९८०, १/५/५। १०. उद्धृत, आत्मसाधना संग्रह, पृ० १५१।
२३. प्रवचनसार, कुन्दकुन्दाचार्य, प्रका० परमश्रुत प्रभावक मण्डल, ११. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा० रतनलाल दोशी, प्रका० श्रमणोपासक जैन बम्बई, १९३५, चारित्राधिकार, ३। पुस्तकालय, सैलाना, वीर०सं० २४७८, २३/२५।
२४. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा० रतनलाल दोशी, प्रका० श्रमणोपासक जैन १२. वही, २८/३५।
पुस्तकालय, सैलाना, वीर सं०, २४७८, ६/९-१०। १३. वही, २८/२९।
२५. सूत्रकृताङ्गसूत्र, संपा० श्री मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन १४. भक्तपरिज्ञा, पइण्णयसुत्ताइं, संपा० पुण्यविजयमुनि, प्रका० श्री समिति, ब्यावर, १९८२, २/१/७। महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, १९८४, ६५-६६।
२६. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा० रतनलाल दोशी, प्रका० श्रमणोपासक जैन १५. आचाराङ्गनियुक्ति, भद्रबाहु, प्रका०- श्री हर्षपुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला, पुस्तकालय, सैलाना, वीर सं० २४७८, ६/११।
शांतिपुरी (सौराष्ट्र), १९८९, रतलाम, १९४१, २२१। २७. आवश्यकनियुक्ति (हरिभद्रीय वृत्ति) प्रका० बी०के० कोठारी, १६. दशवेकालिकसूत्र, संपा० मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन रिलीजियस ट्रस्ट, बम्बई, १९८१, ९५-९७। समिति, ब्यावर, १९८५, ४/१२।
२८. वही, ११५१-५४। १७. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा० रतनलाल दोशी, प्रका० श्रमणोपासक जैन २९. वही, १००। पुस्तकालय, सैलाना, २४७८, २८/३०।
३०. वही, १०१-१०२। १८. व्यवहारभाष्य, प्रका० केशवलाल प्रेमचन्द्र, अहमदाबाद, ७/२१७। ३१. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, संपा० मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन १९. समयसार टीका, अमृतचन्द्र, प्रका० अहिंसा प्रकाशन मन्दिर, समिति, ब्यावर, १९८२, ८/१०/४१। दरियांगज, देहली, १९५९, १५३।
३२. समयसार, कुन्दकुन्द, अहिंसा प्रकाशन मन्दिर, दरियागंज, देहली, २०. गीता (शां०) गीता प्रेस, गोरखपुर, वि०सं० २०१८, अ० ५ १९५९, २७७। पीठिका।
३३. योगशास्त्र, संपा० मुनि समदर्शी, प्रका० सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, २१. समयसार टीका, अमृतचन्द्र, प्रका० अहिंसा प्रकाशन मन्दिर, १९६३, ४/१।
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भेद विज्ञान: मुक्ति का सिंहद्वार
सभी भारतीय विचारणाएँ इस सम्बन्ध में एक मत हैं कि अनात्म में आत्मबुद्धि, ममत्वबुद्धि या मेरापन ही बन्धन का मूल कारण है। जो हमारा स्वरूप नहीं है, उसे अपना मान लेना - यही बन्धन है, इसलिए साधना के क्षेत्र में स्व-रूप का बोध आवश्यक माना गया। जिस प्रक्रिया के द्वारा स्वरूप बोध उपलब्ध हो सकता है, वह जैन विचारणा में भेद विज्ञान कही जाती है। आचार्य अमृतचन्द्रसूरि कहते हैं कि जो कोई सिद्ध हुए हैं, वे इस भेद-विज्ञान से ही हुए हैं और जो कर्म में अंधे हैं वे इसी भेद-विज्ञान के अभाव में बंधे हुए हैं। भेद विज्ञान का प्रयोजन आत्मतत्त्व को जानना है। साधना के लिए आत्मतत्त्व का बोध अनिवार्य है। प्राच्य एवं पाश्चात्य सभी विचारक आत्मबोध पर बल देते हैं। उपनिषद् के ऋषियों का सन्देश है कि आत्मा को जानो । पाश्चात्य विचारणा भी आत्मज्ञान, आत्मश्रद्धा और आत्म- अवस्थिति को स्वीकार करती है। लेकिन 'स्व' को जानना अपने आप में एक दार्शनिक समस्या है, क्योंकि जो भी जाना जा सकता है, वह 'स्व' कैसे होगा? वह तो 'पर' का ही होगा। जानना तो 'पर' हो सकता है, 'स्व' तो वह है जो जानता है 'स्व' शाता है, उसे ज्ञेय (ज्ञान का विषय) नहीं बनाया जा सकता और जब तक 'स्व' को ज्ञान का विषय नहीं बनाया जा सकता तब तक उसका ज्ञान कैसे होगा? ज्ञान तो ज्ञेय का होता है, ज्ञाता का ज्ञान कैसे हो सकता है? क्योंकि शान की प्रत्येक अवस्था में ज्ञाता ज्ञान के पूर्व उपस्थित होगा और इस प्रकार ज्ञान के हर प्रयास में वह अज्ञेय ही बना रहेगा। ज्ञाता को जानने की चेष्टा तो आँख को उसी आँख से देखने की चेष्टा की भाँति होगी। जिस प्रकार आग स्वयं को जला नहीं सकती, नट स्वयं के कन्धे पर चढ़ नहीं सकता, वैसे ही ज्ञाता व्यावहारिक ज्ञान के माध्यम से स्वयं को नहीं जान सकता। ज्ञाता जिसे भी जानेगा वह तो ज्ञाता के ज्ञान का विषय होगा और ज्ञाता के ज्ञान का विषय होने से ज्ञाता से भिन्न होगा। अतः आत्मा स्वयं अपने द्वारा नहीं जानी जा सकेगी, क्योंकि उसके ज्ञान के लिए किसी अन्य ज्ञाता की आवश्यकता होगी और यह स्थिति हमें तार्किक दृष्टि से अनन्तता के दुशक में फंसा देगी।
इसीलिए उपनिषद् के ऋषियों को भी कहना पड़ा था कि विज्ञाता को कैसे जाना जाए? केनोपनिषद् में कहा गया है कि वहाँ तक न तो किसी इन्द्रिय की पहुँच है, न वाणी और मन की, अतः उसे किस प्रकार जाना जाए यह हम नहीं जानते, वह हमारी समझ से परे है। यह विदित से अन्य ही है तथा अविदित से भी परे है, जो वाणी से प्रकाशित नहीं है, किन्तु वाणी ही जिससे प्रकाशित होती है, जो मन से मनन नहीं किया जा सकता बल्कि मन ही जिससे मनन किया हुआ कहा जाता है। जिसे कोई नेत्र द्वारा देख नहीं सकता वरन् नेत्र ही जिसकी सहायता से देखते हैं, जो कान से नहीं सुना जा सकता
वरन् जिसके होने पर कानों में सुनने की शक्ति आती है।' इस प्रकार हम देखते हैं कि उपनिषद् का ऋषि भी 'आत्म' या 'स्व' के बोध को एक जटिल समस्या के रूप में ही पाता है। वास्तविकता तो यह है कि यह आत्मा ही सम्पूर्ण ज्ञान का आधार है, उसे ज्ञेय कैसे बनाया जाए? तर्क भी अस्ति और नास्ति की विधाओं से सीमित है, वह विकल्पों से परे नहीं जा सकता, जब कि आत्मा या स्व तो बुद्धि की विधाओं से परे है। आचार्य कुन्दकुन्द ने उसे नयपक्षातिक्रान्त कहा है। बुद्धि या तर्क भी ज्ञायक आत्मा के आधार पर ही स्थित है। वे आत्मा के समग्र स्वरूप का ग्रहण नहीं कर सकते।
मैं सब को जान सकता हूँ, लेकिन उसी तरह स्वयं को नहीं जान सकता। शायद इसीलिए आत्मज्ञान जैसी घटना भी कठिन और दुरूह बनी हुई है। वास्तविकता यह है कि आत्मतत्त्व अथवा परमार्थ अज्ञेय नहीं है, लेकिन वह उसी प्रकार नहीं जाना जा सकता जिस प्रकार से हम सामान्य वस्तुओं को जानते हैं। निश्चय ही आत्मज्ञान अथवा परमार्थ बोध वह ज्ञान नहीं है जिससे हम परिचित हैं। परमार्थ ज्ञान में ज्ञाता ज्ञेय का सम्बन्ध नहीं है, इसीलिए उसे परम ज्ञान कहा गया है, क्योंकि उसे जान लेने पर कुछ भी जानना शेष नहीं रहता है; फिर भी उसका ज्ञान पदार्थ ज्ञान की प्रक्रिया से नितान्त भिन्न होता है पदार्थ ज्ञान में विषय-विषयी का सम्बन्ध है, जबकि आत्मज्ञान में विषय-विषयी का अभाव। पदार्थ ज्ञान में ज्ञाता और शेय होते हैं, लेकिन आत्मज्ञान में ज्ञाता और ज्ञेय का द्वैत नहीं रहता । वहाँ तो मात्र ज्ञान होता है। वह शुद्ध ज्ञान है, क्योंकि उसमें ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय तीनों अलग-अलग नहीं रहते। ज्ञान की इस पूर्ण शुद्धावस्था का नाम ही आत्मज्ञान है। इसे ही परमार्थ ज्ञान कहा जाता है। लेकिन प्रश्न तो यह है कि ऐसे विषय और विषयी से अथवा ज्ञाता और ज्ञेय से रहित ज्ञान की उपलब्धि कैसे हो? साधारण व्यक्ति जिस ज्ञान से परिचित है वह तो ज्ञाता और ज्ञेय का सम्बन्ध है, अतः उसके लिए ऐसा कौन-सा मार्ग प्रस्तुत किया जाए, जिससे वह इस परमार्थ-बोध को प्राप्त कर सके।
यद्यपि यह सही है कि आत्मतत्त्व को ज्ञाता ज्ञेयरूप ज्ञान के द्वारा नहीं जाना जा सकता; लेकिन अनात्मतत्त्व तो ऐसा है जिसे इस ज्ञाता ज्ञेयरूप के ज्ञान का विषय बनाया जा सकता है। सामान्य व्यक्ति भी इस साधारण ज्ञान के द्वारा इतना तो जान सकता है कि अनात्म, या उसके ज्ञान के विषय क्या हैं? अनात्म के स्वरूप को जानकर आत्म से विभेद स्थापित किया जा सकता है और इस प्रकार परोक्ष विधि के माध्यम से हम आत्मज्ञान की दिशा में बढ़ सकते हैं। सामान्य बुद्धि चाहे हमें यह न बता सकती हो कि परमार्थ क्या है? किन्तु निषेधात्मक विधि द्वारा साधक परमार्थ बोध की दिशा में आगे बढ़ सकता है। जैन, बौद्ध और वेदान्त दर्शनों की परम्परा में इस विधि
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भेद-विज्ञान : मुक्ति का सिंहद्वार
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को बहुलता से निर्देश हुआ है। इसे ही 'भेद-विज्ञान' या 'आत्म-अनात्म अपनी भिन्नता का बोध करना होता है, जो अपेक्षाकृत कठिन-कठिनतर विवेक' कहा जाता है। अगली पंक्तियों में हम इसी भेद-विज्ञान को है, क्योंकि यहाँ इनके और हमारे बीच तादात्म्य का बोध बना रहता जैन, बौद्ध और गीता की विचारणा के आधार पर प्रस्तुत कर रहे हैं। है। फिर भी हमें यह जान लेना होगा कि जो कुछ पर के निमित्त
है वह हमारा स्वरूप नहीं है। हमारे रागादि भाव भी पर के निमित्त जैन विचारणा में भेद-विज्ञान
ही हैं, अत: वे हम में होते हुए भी हमारे निज रूप नहीं हो सकते। आचार्य कुन्दकुन्द 'समयसार'२ में इस भेद-विज्ञान की प्रक्रिया यद्यपि वे आत्मा में होते हैं फिर भी आत्मा से भिन्न हैं, क्योंकि उनका को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- 'रूप आत्मा नहीं है, क्योंकि वह निजस्वरूप नहीं है। जैसे उष्ण पानी में रही हुई उष्णता, उसमें रहते कुछ नहीं जानता, अत: रूप अन्य है और आत्मा अन्य है, ऐसा जिन हुए भी उसका स्वरूप नहीं है, क्योंकि वह अग्नि के संयोग के कारण कहते हैं।
है वैसे ही रागादिभाव आत्मा में होते हुए भी उनका अपना स्वरूप 'वर्ण आत्मा नहीं है, क्योंकि वह कुछ नहीं जानता, अत: वर्ण नहीं है। यह स्वरूप-बोध ही जैन साधना का सार है, जिसकी विधि अन्य है और आत्मा अन्य है, ऐसा जिन कहते हैं।
है- भेद-विज्ञान अर्थात् जो 'स्व' से भिन्न है उसे 'पर' के रूप में गंध आत्मा नहीं है, क्योंकि वह कुछ नहीं जानता, अत: गंध जानकर उसमें रहे हुए तादात्म्य-बोध को तोड़ देना। वस्तुतः भेद-विज्ञान अन्य है और आत्मा अन्य है, ऐसा जिन कहते हैं।
की यह प्रक्रिया हमें जैन दर्शन के अतिरिक्त अन्य दर्शनों में भी उपलब्ध ___ 'रस आत्मा नहीं है, क्योंकि वह कुछ नहीं जानता, अत: रस होती है। अन्य है और आत्मा अन्य है, ऐसा जिन कहते हैं। ___'स्पर्श आत्मा नहीं है, क्योंकि वह कुछ नहीं जानता, अत: स्पर्श बौद्ध विचारणा में भेदाभ्यास अन्य है और आत्मा अन्य है, ऐसा जिन कहते हैं।
जिस प्रकार जैन साधना में सम्यक-ज्ञान का वास्तविक उपयोग 'कर्म आत्मा नहीं है, क्योंकि कर्म कुछ नहीं जानता, अत: कर्म भेदाभ्यास माना गया उसी प्रकार बौद्ध साधना में भी प्रज्ञा का वास्तविक अन्य है और आत्मा अन्य है, ऐसा जिन कहते हैं।'
उपयोग अनात्म की भावना में माना गया है। भेदाभ्यास की साधना 'अध्यवसाय आत्मा नहीं है, क्योंकि अध्यवसाय कुछ नहीं जानता में जैन साधक वस्तुत: स्वभाव के यथार्थज्ञान के आधार पर 'स्व' स्वरूप (मनोभाव भी किसी ज्ञायक के द्वारा जाने जाते हैं, स्वत: कुछ नहीं (आत्म) और 'पर' स्वरूप (अनात्म) में भेद स्थापित करता है तथा जानते- क्रोध के भाव को जानने वाला ज्ञायक उससे भिन्न है), अतः अनात्म में रही हुई आत्मबुद्धि का परित्याग कर अन्त में अपनी साधना अध्यवसाय अन्य है और आत्मा अन्य है।
के लक्ष्य अर्थात् निर्वाण की प्राप्ति करता है। बौद्ध साधना में भी साधक 'अपने शुद्ध ज्ञायक स्वरूप की दृष्टि से आत्मा न राग है, न प्रज्ञा के सहारे जागतिक उपादानों (धर्म) के स्वभाव का ज्ञान कर, द्वेष है, न मोह है, न क्रोध है, न मान है, न माया है, न लोभ है। उनके अनात्म स्वरूप में आत्मबुद्धि का परित्याग कर, निर्वाण का लाभ अपने शुद्ध ज्ञायक स्वरूप में वह इनका कारण और कर्ता भी नहीं करता है। दोनों ही विचारणाएँ यह स्वीकार करती हैं कि स्वभाव का
बोध होने पर ही निर्वाण की उपलब्धि होती है। अनात्म के स्वभाव वस्तुत: आत्मा जब अपने शुद्ध ज्ञाता स्वरूप में अवस्थित होती का ज्ञान और उसमें आत्मबुद्धि का परित्याग, दोनों दर्शनों में साधना है, संसार के समस्त पदार्थ ही नहीं वरन् उसकी अपनी चित्तवृत्तियाँ का अनिवार्य तत्त्व है। जिस प्रकार जैन विचारकों ने रूप, वर्ण, देह,
और मनोभाव भी उसे 'पर' (स्व से भित्र) प्रतीत होते हैं। जब वह इन्द्रिय, मन और अध्यवसाय आदि को अनात्म कहा, उसी प्रकार 'पर' को 'पर' के रूप में जान लेता है और उससे अपनी पृथक्ता बौद्ध आगमों में भी देह, इन्द्रियाँ और उनके विषय- शब्द, रूप, का बोध कर लेता है, तब वह अपने शुद्ध ज्ञायक स्वरूप को जानकर गन्ध, रस, स्पर्श तथा मन आदि को अनात्म कहा गया है तथा दोनों उसमें अवस्थित हो जाता है। यही वह अवसर होता है, जब मुक्ति विचारणाओं ने साधक के लिए यह स्पष्ट निर्देश किया कि वह उनमें का द्वार उद्घाटित होता है, क्योंकि जिसने पर को पर के रूप में आत्मबुद्धि न रखे। लगभग समान शब्दों और शैली में दोनों ही जान लिया है उसके लिए ममत्व या राग कोई स्थान ही नहीं रखता अनात्मभावना या भेद-विज्ञान की अवधारणा को प्रस्तुत करते हैं, जो है। राग के गिर जाने पर वीतराग का प्रकटन होता है और मुक्ति का तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययनकर्ता के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। आपने द्वार खुल जाता है।
जैन साधना में भेदाभ्यास की इस धारणा का आस्वादन किया, अब भेद-विज्ञान की इस प्रक्रिया में आत्मा सब से पहले वस्तुओं जरा इसी सन्दर्भ में बुद्ध-वाणी के निर्झर में भी अवगाहन कीजिये; एवं पदार्थों से अपनी भिन्नता का बोध करती है। चाहे अनुभति के बुद्ध कहते हैंस्तर पर इनसे भिन्नता स्थापित कर पाना कठिन हो, किन्तु ज्ञान के 'भिक्षुओं! चक्षु अनित्य है जो अनित्य है वह दुःख है, जो दु:ख स्तर पर यह कार्य कठिन नहीं है; क्योंकि यहाँ तादात्म्य नहीं रहता है वह अनात्म है, जो अनात्म है न मेरा है, न मैं हूँ, न मेरी आत्मा है, अत: पृथकता का बोध सुस्पष्ट रूप से होता है। किन्तु इसके बाद है, इसे यथार्थतः प्रज्ञापूर्वक जान लेना चाहिए। क्रमश: उसे शरीर से, मनोवृत्तियों से एवं स्वयं के रागादि भावों से “भिक्षुओं! प्राण अनित्य है, जिह्वा अनित्य है, काया अनित्य
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
है, मन अनित्य है, जो अनित्य है वह दुःख है, जो दुःख है वह को 'परमार्थ के अर्थ में ग्रहण किया। वस्तुतः राग का प्रहाण हो जाने अनात्म है, जो अनात्म है, वह न मेरा है, न मैं हूँ, न मेरी आत्मा पर 'मेरा' तो शेष रहता ही नहीं है, जो कुछ रहता है वह मात्र परमार्थ है, इसे यथार्थतः प्रज्ञापूर्वक जान लेना चाहिए।
होता है। चाहे उसे आत्मा कहें, चाहे उसे शून्यता, विज्ञान या परमार्थ 'भिक्षुओं! रूप अनित्य है, जो अनित्य है वह दुःख है, जो दु:ख कहें, अन्तर शब्दों में हो सकता है, मूल भावना में नहीं। है वह अनात्म है, जो अनात्म है वह न मेरा है, न मैं हूँ, न मेरी आत्मा है, इसे यथार्थत: प्रज्ञापूर्वक जान लेना चाहिए।
गीता में आत्म-अनात्म विवेक (भेद विज्ञान) ____ भिक्षुओं! शब्द, अनित्य है, जो अनित्य है वह दुःख है जो गीता का आचार दर्शन अनासक्त दृष्टि से उदय और अहं के दुःख है वह अनात्म है, जो अनात्म है वह न मेरा है, न मैं हूँ, न विगलन को साधना का महत्त्वपूर्ण तथ्य मानता है; लेकिन यह कैसे मेरी आत्मा है, इसे यथार्थत: प्रज्ञापूर्वक जान लेना चाहिए। हो? डॉ० राधाकृष्णन् के शब्दों में हमें उद्धार की उतनी आवश्यकता ___भिक्षुओं! इसे जानकर पण्डित, आर्यश्रावक चक्षु में वैराग्य करता नहीं है जितनी अपनी वास्तविक प्रकृति को पहचानने की, लेकिन है, श्रोत्र में, प्राण में, जिह्वा में, काया में, मन में वैराग्य करता है। अपनी वास्तविक प्रकृति को कैसे पहचाना जाए? इसके साधन के वैराग्य करने से, रागरहित होने से विमुक्त हो जाता है, विमुक्त होने रूप में गीता भी भेद-विज्ञान को स्वीकार करती है। गीता का तेरहवाँ से विमुक्त हो गया ऐसा ज्ञात होता है। जाति क्षीण हुई, ब्रह्मचर्य पूरा अध्याय हमें इसी भेद-विज्ञान को सिखाता है, जिसे गीताकार की भाषा हो गया, जो करना था सो कर लिया, पुन: जन्म नहीं होगा यह जान में 'क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-ज्ञान' कहा गया है। गीताकार ज्ञान की व्याख्या करते लेता है।
हुए कहता है कि 'क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ को यथार्थ रूप में जानने वाला भिक्षुओं! इसे जानकर पण्डित आर्यश्रावक अतीत के रूप में ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान है। गीता के अनुसार शरीर क्षेत्र है और भी अनपेक्ष होता है, अनागत रूप आदि का अभिनन्दन नहीं करता इसको जानने वाली ज्ञायक स्वभाव युक्त आत्मा ही क्षेत्रज्ञ है। वस्तुतः
और वर्तमान रूप आदि के निर्वेद, विराग और निरोध के लिए यत्नशील समस्त जगत् जो ज्ञान का विषय है, वह क्षेत्र है; और परमात्मस्वरूप होता है।
विशुद्ध आत्मतत्त्व ही ज्ञाता है, क्षेत्रज्ञ है। इन्हें क्रमश: प्रकृति और इस प्रकार हम देखते हैं कि दोनों विचारणाएँ भेदाभ्यास या अनात्म पुरुष भी कहा जाता है। गीता के अनुसार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ, प्रकृति भावना के चिन्तन में एक-दूसरे के अत्यन्त समीप आ जाती हैं। बौद्ध और पुरुष या अनात्म और आत्म का यथार्थ विवेक या भिन्नता का विचारणा में समस्त जागतिक उपादानों को 'अनात्म' सिद्ध करने का बोध कर लेना ही सच्चा ज्ञान है। गीता में सांख्य शब्द का ज्ञान के आधार है-उनकी अनित्यता एवं तज्जनित दु:खमयता। जैन विचारणा अर्थ में प्रयोग हुआ है और उसकी व्याख्या में आचार्य शङ्कर ने यही ने अपने भेदाभ्यास की साधना में जागतिक उपादानों में अन्यत्व भावना दृष्टि अपनायी है। वे लिखते हैं कि 'यह त्रिगुणात्मक जगत् या प्रकृति का आधार उनकी संयोगिकता को माना है, क्योंकि यदि सभी संयोगजन्य ज्ञान के विषय हैं, मैं उनसे भिन्न हूँ (क्योंकि ज्ञाता और ज्ञेय, दृष्टि हैं तो निश्चय ही संयोगकालिक होगा और इस आधार पर वह अनित्य और दृश्य एक नहीं हो सकते), उनके व्यापारों का द्रष्टा या साक्षी भी होगा।
मात्र हूँ, उनसे विलक्षण हूँ, इस प्रकार आत्मस्वरूप का चिन्तन करना बुद्ध और महावीर दोनों ने ज्ञान के समस्त विषयों में 'स्व' या ही ज्ञान है। ज्ञायक स्वरूप आत्मा को अपने यथार्थ स्वरूप के बोध 'आत्मा' का अभाव पाया और उनमें ममत्व-बुद्धि के निषेध की बात के लिए जगत् के जिन अनात्म तथ्यों से विभेद स्थापित करना होता कही, लेकिन बुद्ध ने साधनात्मक जीवन की दृष्टि पर विश्रान्ति लेना है वे हैं- पञ्च महाभूत, देह अहंभाव, विषययुक्त बुद्धि, सूक्ष्म प्रकृति, उचित समझा, उन्होंने साधक को यही बताया कि तुझे यह जान लेना पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, मन, पाँचों इन्द्रियों के विषय-ईर्ष्या, है कि 'पर' या अनात्म क्या है, 'स्व' को जानने का प्रयास करना द्वेष, सुख, दुःख, सुख-दुःखादि भावों की चेतना आदि। ये सभी क्षेत्र ही व्यर्थ है। इस प्रकार बुद्ध ने मात्र निषेधात्मक रूप में अनात्म का हैं अर्थात् ज्ञान के विषय हैं और इसलिए ज्ञायक आत्मा इनसे भिन्न प्रतिबोध कराया, क्योकि आत्मा के प्रत्यक्ष में उन्हें अहं, ममत्व या है। गीता यह मानती है कि 'आत्म का अनात्म से अपनी भिन्नता आसक्ति की ध्वनि प्रतीत हुई। जबकि महावीर की परम्परा ने अनात्म का बोध नहीं होना ही बन्धन का कारण है।' जब वह पुरुष प्रकृति के निराकरण के साथ आत्म की स्वीकृति भी आवश्यक मानी। पर से उत्पन्न हुए त्रिगुणात्मक पदार्थों को प्रकृति में स्थित होकर भोगता या अनात्म का परित्याग और स्व या आत्म का ग्रहण यह दोनों प्रत्यय है तो अनात्म प्रकृति में आत्मबुद्धि के कारण ही वह अनेक अच्छी-बुरी जैन विचारणा में स्वीकृत रहे हैं। आचार्य कुन्दकुन्द सयमसार' में लिखते योनियों में जन्म लेता है'।१० दूसरे शब्दों में अनात्म में आत्मबुद्धि हैं कि इस शुद्धात्मा को जिस तरह पहले प्रज्ञा से भिन्न किया था, करके जब उसका भोग किया जाता है तो उस आत्मबुद्धि के कारण उसी तरह प्रज्ञा के द्वारा ग्रहण करना। लेकिन जैन और बौद्ध परम्पराओं ही आत्मा बन्धन में आ जाती है। वस्तत: इस शरीर में स्थित होती का यह विवाद इसलिए अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है कि बौद्ध परम्परा हुई भी आत्मा इससे भिन्न ही है, यही परमात्मा कही जाती है।११ ने आत्म शब्द से 'मेरा' अर्थ ग्रहण किया जबकि जैन परम्परा ने आत्मा पर परमात्मस्वरूप आत्मा शरीर आदि विषयों में आत्मबुद्धि करके ही
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भेद-विज्ञान : मुक्ति का सिंहद्वार
४१९ बन्धन में रहती है, अत: जब भी इस भेद-विज्ञान के द्वारा अपने यथार्थ तो समयसार में आचार्य कुन्दकुन्द प्रज्ञा-छैनी से इस आत्म और अनात्म स्वरूप का बोध हो जाता है वह मुक्त हो जाती है। अनात्म में रही (जड़) को अलग-अलग करने की बात करते हैं। १३, १३अ हुई आत्मबुद्धि को समाप्त करना यही भेद-विज्ञान है और यही इस तरह हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि जैन, बौद्ध और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-ज्ञान है। इसी के द्वारा अनात्म एवं आत्म के यथार्थ स्वरूप गीता सभी में भेद-विज्ञान, अनात्म-विवेक या क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-ज्ञान ज्ञानात्मक का बोध होता है और यही मुक्ति का मार्ग भी है। गीता कहती है- साधना का लक्ष्य है। यह निर्वाण की उपलब्धि का एक आवश्यक 'जो व्यक्ति अनात्म त्रिगुणात्मक प्रकृति और परमात्मस्वरूप ज्ञायक आत्मा अङ्ग है। जब तक अनात्म में आत्मबुद्धि का परित्याग नहीं होगा तब के यथार्थ स्वरूप को तत्त्व-दृष्टि से जान लेता है वह संसार में रहता तक आसक्ति समाप्त नहीं होगी और आसक्ति के समाप्त न होने से हुआ भी तत्त्व रूप से इस संसार से ऊपर उठ जाता है, वह पुर्नजन्म निर्वाण या मुक्ति की उपलब्धि नहीं होगी। आचाराङ्गसूत्र में कहा गया को प्राप्त नहीं होता है'।१२
है- जो 'स्व' से अन्यत्र दृष्टि नहीं रखता वह 'स्व' से अन्यत्र रमता इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन विचारणा के समान गीता भी भी नहीं है और जो 'स्व' से अन्यत्र रमता नहीं है वह 'स्व से अन्यत्र इसी आत्म-अनात्म-विवेक पर बल देती है। दोनों के निष्कर्ष समान दृष्टि भी. नहीं रखता है।१४ हैं। शरीरस्थ ज्ञायक स्वरूप आत्मा का बोध कर लेना, यही दोनों आचार इस आत्म-दृष्टि का उदय भेद-विज्ञान के द्वारा ही होता है और दर्शनों का मन्तव्य है। गीता में श्रीकृष्ण ज्ञान-असि के द्वारा अनात्म भेद-विज्ञान की कला से निर्वाण या परमपद की प्राप्ति होती है। में आत्मबुद्धि रूप जो अज्ञान है उसके छेदन का निर्देश करते हैं,
सन्दर्भ : १. केनोपनिषद्, प्रका०- संस्कृति संस्थान, बरेली, १/४। २. समयसार, कुन्दकुन्द, प्रका० - अहिंसा प्रकाशन मन्दिर, दरियागंज,
देहली, १९५९, ३९२-४०२। ३. नियमसार, अनु०- अगरसेन, प्रका०- अजिताश्रम, लखनऊ,
१९६३, ७७-८१। संयुक्तनिकाय, संपा०- भिक्षु जगदीश काश्यप एवं भिक्षु धर्मरक्षित, प्रका० - महाबोधिसभा, सारनाथ, वाराणसी, १९५४, परिच्छेद-४, चक्खुसुत्त, २४/१-१०। समयसार, कुन्दकुन्द, अहिंसा प्रका०- प्रकाशन मन्दिर, दरियागंज, देहली, १९५९, २९६। भगवद्गीता, डॉ. राधाकृष्णन्, अनु०- विराज, प्रका०- राजपाल
एण्ड सन्स, देहली, १९६२, पृष्ठ ५४३।
गीता, प्रका०- गीता प्रेस, गोरखपुर, वि०सं० २०१८, १३/२। ८. वही, १३/२। ९. वही, १३/५-६। १०. वही, १३/२१। ११. वही, १३/२१॥ १२. वही, १३/२३। १३. वही, ४/४३। १३अ.समयसार, कुन्दकुन्द, प्रका०- अहिंसा प्रकाशन मन्दिर, दरियागंज
देहली, १९५९, २९४। १४. आचाराङ्गसूत्र, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन
समिति, ब्यावर, १९८०, १/२/६।
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समाधिमरण ( मृत्युवरण) : एक तुलनात्मक तथा समीक्षात्मक अध्ययन
जैन परम्परा के सामान्य आचार नियमों में संलेखना या संथारा (मृत्युवरण) एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है। जैन गृहस्थ उपासकों एवं श्रमण साधकों दोनों के लिए स्वेच्छापूर्वक मृत्युवरण का विधान जैन आगमों में उपलब्ध है। जैन आगम साहित्य ऐसे साधकों की जीवन गाथाओं से भरा पड़ा है जिन्होंने समाधिमरण का व्रत ग्रहण किया था। अन्तकृत्दशांगसूत्र एवं अनुत्तरोपातिकसूत्र में उन भ्रमण साधकों का और उपासकदशांगसूत्र में आनन्द आदि उन गृहस्थ साधकों का जीवन दर्शन उपलब्ध है, जिन्होंने अपने जीवन की संध्या वेला में समाधि-मरण का व्रत लिया था। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार मृत्यु के दो रूप हैं१. समाधिमरण या निर्भयतापूर्वक मृत्युवरण और २. भयपूर्वक मृत्यु से प्रसित हो जाना। समाधिमरण में मनुष्य का मृत्यु पर शासन होता है, जबकि अनिच्छापूर्वक मरण में मृत्यु मनुष्य पर शासन करती है। पहले को पण्डितमरण कहा गया है जबकि दूसरे को बालमरण (अज्ञानीमरण) कहा गया है। एक ज्ञानीजन की मौत है, दूसरी अज्ञानी की। अज्ञानी विषयासक्त होता है और इसलिए वह मृत्यु से डरता है, जबकि सच्चा ज्ञानी अनासक्त होता है अतः वह मृत्यु से नहीं डरता है। जो मृत्यु से भय खाता है, उससे बचने के लिए भागा भागा फिरता है, मृत्यु भी उसका सदैव पीछा करती रहती है, लेकिन जो निर्भय हो मृत्यु का स्वागत करता है, उसे आलिंगन करता है, मृत्यु उसके लिए निरर्थक हो जाती है जो मृत्यु से भय खाता है, वह मृत्यु का शिकार होता है, लेकिन जो मृत्यु से निर्भय हो जाता है वह अमरता की दिशा में आगे बढ़ जाता है। साधकों के प्रति महावीर का सन्देश यही था कि मृत्यु के उपस्थित होने पर शरीरादि से अनासक्त होकर उसे आलिंगन दे दो। महावीर के दर्शन में अनासक्त जीवन शैली की यही महत्त्वपूर्ण कसौटी है, जो साधक मृत्यु से भागता है, वह सच्चे अर्थ में अनासक्त जीवन जीने की कला से अनभिज्ञ है। जिसे अनासक्त मृत्यु की कला नहीं आती उसे अनासक्त जीवन की कला भी नहीं आ सकती। इसी अनासक्त मृत्यु की कला को महावीर ने संलेखना व्रत कहा है। जैन परम्परा में संथारा, संलेखना, समाधिमरण, पण्डितमरण और सकाममरण आदि निष्काम मृत्युवरण के ही पर्यायवाची नाम है। आचार्य समन्तभद्र संलेखना की परिभाषा करते हुए लिखते हैं कि आपत्तियों, अकालों, अतिवृद्धावस्था एवं असाध्य रोगों में शरीर त्याग करने को संलेखना कहते है, अर्थात् जिन स्थितियों में मृत्यु अनिवार्य सी हो गई हो उन परिस्थितियों में मृत्यु के भय से निर्भय होकर देहासक्ति का विसर्जन कर मृत्यु का स्वागत करना ही संलेखना व्रत है।
समाधिमरण के भेद आगम
जैन आगम ग्रन्थों में मृत्युवरण के अवसरों की अपेक्षा के आधार पर समाधि-मरण के दो प्रकार माने गये है- १. सागारी संचारा, और २. सामान्य संथारा ।
सागारी संथारा : जब अकस्मात् कोई ऐसी विपत्ति उपस्थित हो, जिसमें से जीवित बच निकलना सम्भव प्रतीत न हो, जैसे आग में गिर जाना, जल में डुबने जैसी स्थिति हो जाना अथवा हिंसक पुशु या किसी ऐसे दुष्ट व्यक्ति के अधिकार में फँस जाना जहाँ सदाचार से पतित होने की सम्भावना हो, ऐसे संकटपूर्ण अवसरो पर जो संथारा, ग्रहण किया जाता है, वह सागारी संथारा कहलाता है। यदि व्यक्ति उस विपत्ति या संकटपूर्ण स्थिति से बाहर हो जाता है तो वह पुनः देह-रक्षण के सामान्य क्रम को चालू रख सकता है। संक्षेप में अकस्मात् मृत्यु का अवसर उपस्थित हो जाने पर जो संथारा ग्रहण किया जाता है, वह सागारी संथारा मृत्यु- पर्यन्त के लिए नहीं, वरन् परिस्थिति विशेष के लिए होता है अत: उस परिस्थिति विशेष के समाप्त हो जाने पर उस व्रत की मर्यादा भी समाप्त हो जाती है।"
सामान्य संथारा : जब स्वाभाविक जरावस्था अथवा असाध्य रोग के कारण पुनः स्वस्थ होकर जीवित रहने की समस्त आशाएँ धूमिल हो गयी हो, तब यावज्जीवन तक जो देहासक्ति एवं शरीरपोषण के प्रयत्नों का त्याग किया जाता है और जो देहपात पर ही पूर्ण होता है वह सामान्य संथारा है । सामान्य संथारा ग्रहण करने के लिए जैन आगमों में निम्न स्थितियों आवश्यक मानी गयी हैं
',
जब शरीर की सभी इन्द्रियों अपने-अपने कार्यों के सम्पादन करने में अयोग्य हो गयी हों, जब शरीर का माँस एवं शोणित सूख जाने से शरीर अस्थिपंजर मात्र रह गया हो, पचन-पाचन, आहार-निहार आदि शारीरिक क्रियाएँ शिथिल हो गयी हों और इनके कारण साधना और संयम का परिपालन सम्यक् रीति से होना सम्भव नहीं हो, इस प्रकार मृत्यु का जीवन की देहली पर उपस्थित हो जाने पर ही सामान्य संथारा ग्रहण किया जा सकता है। सामान्य संथारा तीन प्रकार का होता है(अ) भक्तप्रत्याख्यान - आहार आदि का त्याग करना । (ब) इङ्गितमरण - एक निश्चित भू-भाग पर हलन चलन आदि शारीरिक क्रियाएँ करते हुए आहार आदि का त्याग कर देना।
(स) पादोपगमन - आहार आदि के त्याग के साथ-साथ शारीरिक क्रियाओं का निरोध करते हुए मृत्यु पर्यन्त निश्चल रूप से लकड़ी के तख्ते के समान स्थिर पड़े रहना ।
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समाधिमरण (मृत्युवरण) : एक तुलनात्मक तथा समीक्षात्मक अध्ययन
४२१ उपरोक्त सभी प्रकार के समाधि-मरणों में मन का समभाव में वैदिक परम्परा में मृत्युवरण स्थित होना अनिवार्य माना गया है।
सामान्यतया हिन्दू धर्मशास्त्रों में आत्महत्या को महापाप माना
गया है। पाराशरस्मृति में कहा गया है कि जो क्लेश, भय, घमण्ड समाधिमरण ग्रहण करने की विधि
और क्रोध के वशीभूत होकर आत्महत्या करता है, वह साठ हजार जैन आगमों में समाधिमरण ग्रहण करने की विधि निम्नानुसार वर्ष तक नरकवास करता है, लेकिन इनके अतिरिक्त हिन्दू धर्मशास्त्रों बताई गयी है-सर्वप्रथम मलमूत्रादि अशुचि विसर्जन के स्थान का में ऐसे भी अनेक सन्दर्भ हैं जो स्वेच्छापूर्वक मृत्युवरण का समर्थन अवलोकन कर नरम तृणों की शैय्या तैयार कर ली जाती है। तत्पश्चात् करते हैं। प्रायश्चित्त के निमित्त से मृत्युवरण का समर्थन मनुस्मृति (११/ अरिहन्त, सिद्ध और धर्माचार्यों को विनयपूर्वक नमस्कार कर पूर्वगृहीत ९०-९१) याज्ञवल्क्यस्मृति (३/२५३, गौतमस्मृति (२३/१), प्रतिज्ञाओं में लगे हुए दोषों की आलोचना और उनका प्रायश्चित ग्रहण वशिष्ठधर्मसूत्र (२०/२२, १३/१४) और आपस्तंबसूत्र (१/९/२५/ किया जाता है। इसके बाद समस्त प्राणियों से क्षमा-याचना की जाती १-३, ६) में भी किया गया है। मात्र इतना ही नहीं, हिन्दू धर्मशास्त्रों है और अन्त में अठारह पापस्थानो, अन्नादि चतुर्विध आहारों का त्याग में ऐसे. भी अनेक स्थल हैं, जहाँ मृत्युवरण को पवित्र एवं धार्मिक करके शरीर के ममत्व एवं पोषणक्रिया का विसर्जन किया जाता है। आचरण के रूप में देखा गया है। महाभारत के अनुशासनपर्व (२५/ साधक प्रतिज्ञा करता है कि मैं पूर्णत: हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह, ६२-६४), वनपर्व (८५/८३) एवं मत्स्यपुराण (१८६/३४/३५) में क्रोध, मान, माया, लोभ यावत् मिथ्यादर्शन शल्य से विरत होता हूँ, अग्निप्रवेश, जलप्रवेश, गिरिपतन, विषयप्रयोग या उपवास आदि के अन्न आदि चारो प्रकार के आहार का यावज्जीवन के लिए त्याग करता द्वारा देह त्याग करने पर ब्रह्मलोक या मुक्ति प्राप्त होती है ऐसा माना हूँ। मेरा यह शरीर जो मुझे अत्यन्त प्रिय था, मैने इसकी बहुत रक्षा गया है। अपरार्क ने प्राचीन आचार्यों के मत को उद्धृत करते हुए की थी, कृपण के धन के समान इसे सम्भालता रहा था, इस पर लिखा है कि यदि कोई गृहस्थ असाध्य रोग से पीड़ित हो, जिसने मेरा पूर्ण विश्वास था (कि यह मुझे कभी नहीं छोड़ेगा), इसके समान अपने कर्तव्य पूरे कर लिए हों, वह महाप्रस्थान हेतु अग्नि या जल मुझे अन्य कोई प्रिय नहीं था, इसलिए मैंने इसे शीत, गर्मी, क्षुधा, में प्रवेश कर अथवा पर्वतशिखर से गिरकर अपने प्राणों की आहुति तृष्णा आदि अनेक कष्टों से एवं विविध रोगों से बचाया और दे सकता है। ऐसा करके वह कोई पाप नहीं करता। उसकी मृत्यु सावधानीपूर्वक इसकी रक्षा करता रहा था, अब मैं इस देह का विसर्जन तो तपों से भी बढ़कर है। शास्त्रानुमोदित कर्तव्यों के पालन में अशक्त करता हूँ और इसके पोषण एवं रक्षण के प्रयासों का परित्याग होने पर जीवन जीने की इच्छा रखना व्यर्थ है। श्रीमद्भागवत के करता हूँ।
११वें स्कन्ध के १८वें अध्याय में भी स्वेच्छापूर्वक मृत्युवरण को स्वीकार
किया गया है। वैदिक परम्परा में स्वेच्छा मृत्युवरण का समर्थन न केवल बौद्ध परम्परा में मृत्युवरण
शास्त्रीय आधारों पर हुआ है वरन् व्यावहारिक जीवन में इसके अनेक यद्यपि बुद्ध ने जैन परम्परा के समान ही धार्मिक आत्महत्याओं उदाहरण भी परम्परा में उपलब्ध हैं। महाभारत में पाण्डवों के द्वारा को अनुचित माना है, तथापि बौद्ध साहित्य में कुछ ऐसे सन्दर्भ अवश्य हिमालय-यात्रा में किया गया देहपात मृत्युवरण का एक प्रमुख उदाहरण हैं जो स्वेच्छापूर्वक मृत्युवरण का समर्थन करते है। संयुक्तनिकाय में है। डॉ० पाण्डुरंग वामन काणे ने वाल्मीकि रामायण एवं अन्य वैदिक असाध्य रोग से पीड़ित भिक्षु वक्कलि कुलपुत्र भिक्षु छन्न द्वारा की धर्मग्रन्थों तथा शिलालेखों के आधार पर शरभंग, महाराजा रघु, कलचुरी गई आत्महत्याओं का समर्थन स्वयं बुद्ध ने किया था और उन्हें निर्दोष के राजा गांगेय, चंदेल कुल के राजा गंगदेव, चालुक्यराज सोमेश्वर कह कर दोनो ही भिक्षुओं को परिनिर्वाण प्राप्त करने वाला बताया आदि के स्वेच्छा मृत्युवरण का उल्लेख किया है। मैगस्थनीज ने था। जापानी बौद्धों में तो आज भी हरीकरी की प्रथा मृत्युवरण की भी ईश्वी पूर्व चतुर्थ शताब्दी में प्रचलित स्वेच्छामरण का उल्लेख किया सूचक है।
है। प्रयाग में अक्षयवट से कूद कर गंगा में प्रणान्त करने की प्रथा फिर भी जैन परम्परा और बौद्ध परम्परा में मृत्युवरण के प्रश्न तथा काशी में करवत लेने की प्रथा वैदिक परम्परा में मध्य युग तक को लेकर कुछ अन्तर भी है। प्रथम तो यह कि जैन परम्परा के विपरीत भी काफी प्रचलित थी। यद्यपि ये प्रथाएँ आज नामशेष हो गयी हैं बौद्ध परम्परा में शस्त्रवध से तत्काल ही मृत्युवरण कर लिया जाता फिर भी वैदिक संन्यासियों द्वारा जीवित समाधि लेने की प्रथा आज है। जैन आचार्यों ने शस्त्रवध के द्वारा तात्कालिक मृत्युवरण का विरोध भी जनमानस की श्रद्धा का केन्द्र है। इसलिए किया था कि उन्हें उसमें मरणाकांक्षा की सम्भावना प्रतीत इस प्रकार हम देखते है कि न केवल जैन और बौद्ध परम्पराओं हुई। उनके अनुसार यदि मरणाकांक्षा नहीं है तो फिर मरण के लिए में, वरन् वैदिक परम्परा में भी मृत्युवरण को समर्थन दिया गया है। उतनी आतुरता क्यों? इस प्रकार जहाँ बौद्ध परम्परा शस्त्रवध के द्वारा लेकिन जैन और वैदिक परम्पराओं में प्रमुख अन्तर यह है कि जहाँ की गई आत्महत्या का समर्थन करती है, वहीं जैन परम्परा उसे वैदिक परम्परा में जल एवं अग्नि से प्रवेश, गिरिशिखर से गिरना, अस्वीकार करती है। इस सन्दर्भ में बौद्ध परम्परा वैदिक परम्परा के विष या शस्त्र प्रयोग आदि विविध साधनों से मृत्युवरण का विधान अधिक निकट है।
मिलता है, वहाँ जैन परम्परा में सामान्यतया केवल उपवास द्वारा ही
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४२२
जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ देहत्याग का समर्थन मिलता है। जैन परम्परा शस्त्र आदि से होने वाली ने इसीलिए सामान्य स्थिति में शस्त्रवध, अग्निप्रवेश या गिरिपतन आदि तात्कालिक मृत्यु की अपेक्षा उपवास द्वारा होने वाली क्रमिक मृत्यु साधनों के द्वारा तात्कालिक मृत्युवरण को अनुचित ही माना है क्योंकि को ही अधिक प्रशस्त मानती है। यद्यपि ब्रह्मचर्य की रक्षा आदि कुछ उनके पीछे मरणाकांक्षा की सम्भावना रही हुई है। समाधिमरण में प्रसंगों में तात्कालिक मृत्युवरण को स्वीकार किया गया है, तथापि आहारादि के त्याग में मृत्यु की चाह नहीं होती, मात्र देह-पोषण का सामान्यतया जैन आचार्यों ने तात्कालिक मृत्युवरण जिसे प्रकारान्तर विसर्जन किया जाता है। मृत्यु उसका परिणाम अवश्य है लेकिन उसकी से आत्महत्या भी कहा जा सकता है, की आलोचना की है। आचार्य आकांक्षा नहीं। जैसे ब्रण की चीर फाड़ के परिणामस्वरूप वेदना अवश्य समन्तभद्र ने गिरिपतन या अग्निप्रवेश के द्वारा किये जाने वाले मृत्युवरण होती है लेकिन उसमें वेदना की आकांक्षा नहीं होती है। जैन आचार्य को लोकमूढ़ता कहा है। जैन आचार्यों की दृष्टि में समाधि-मरण ने कहा है कि समाधिमरण की क्रिया मरण के निमित्त नहीं होकर उसके का अर्थ मृत्यु की कामना नहीं, वरन् देहासक्ति का परित्याग है। उनके प्रतिकार के लिए है। जैसे व्रण का चीरना वेदना के निमित्त नहीं होकर अनुसार तो जिस प्रकार जीवन की आकांक्षा दूषित मानी गई है, उसी वेदना के प्रतिकार के लिए होता है। यदि ऑपरेशन की क्रिया में प्रकार मृत्यु की आकांक्षा को भी दूषित मानी गयी है।
हो जाने वाली मृत्यु हत्या नहीं हैं तो फिर समाधिमरण में हो जाने
वाली मृत्यु आत्महत्या कैसे हो सकती है? एक दैहिक जीवन की समाधिमरण के दोष
रक्षा के लिए है तो दूसरी आध्यात्मिक जीवन की रक्षा के लिए है। जैन आचार्यों ने समाधिमरण के लिए निम्न पाँच दोषों से बचने समाधिमरण और आत्महत्या में मौलिक अन्तर है। आत्महत्या में व्यक्ति का निर्देश किया है- १. जीवन की आकांक्षा, २. मत्यु की आकांक्षा, जीवन के संघर्षों से ऊब कर जीवन से भागना चाहता है, उसके मूल ३. ऐहिक सुखों की कामना, ४. पारलौकिक सुखों की कामना और में कायरता है। जबकि समाधिमरण में देह और संयम की रक्षा के ५. इन्द्रियों के विषयों के भोग की आकांक्षा।
अनिवार्य विकल्पों में से संयम की रक्षा के विकल्प को चुनकर मृत्यु जैन परम्परा के समान बुद्ध ने भी जीवन की तृष्णा और मृत्यु का साहसपूर्वक सामना किया जाता है। समाधिमरण में जीवन से भागने की तृष्णा दोनों को ही अनैतिक माना है। बुद्ध के अनुसार भवतृष्णा का प्रयास नहीं वरन् जीवन-बेला की अन्तिम संध्या में द्वार पर खड़ी और विभवतृष्णा क्रमशः जीविताशा और मरणाशा की प्रतीक हैं और हई मृत्यु का स्वागत है। आत्महत्या में जीवन से भय होता है, जबकि जब तक ये आशाएँ या तृष्णाएँ उपस्थित हैं तब तक नैतिक पूर्णता समाधिमरण में मृत्यु से निर्भयता होती है। आत्महत्या असमय मृत्यु सम्भव नहीं है। अत: साधक को इनसे बच के ही रहना चाहिए। लेकिन का आमंत्रण है जबकि संथारा या समाधिमरण मात्र मृत्यु के उपस्थित फिर भी यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि क्या समाधिमरण मृत्यु की होने पर उसका सहर्ष आलिंगन है। आत्महत्या के मूल में या तो भय आकांक्षा नहीं है?
होता है या कामना, जबकि समाधिमरण में भय और कामना दोनों
की अनुपस्थिति आवश्यक होती है। समाधिमरण और आत्महत्या
समाधिमरण आत्म-बलिदान से भी भिन्न है। पश-बलि के समान जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों की परम्पराओं में जीविताशा और आत्म-बलि की प्रथा भी शैव और शाक्त सम्प्रदायों में प्रचलित रही मरणाशा दोनों को अनुचित माना गया है तो यह प्रश्न स्वाभाविक है। लेकिन समाधिमरण को आत्म-बलिदान नहीं कहा जा सकता, क्योंकि रूप से खड़ा होता है कि क्या समाधिमरण मरणाकांक्षा नहीं है? वस्तुत: आत्म-बलिदान भी भावना का अतिरेक है। भावातिरेक आत्म-बलिदान यह न तो मरणाकांक्षा है और न आत्महत्या ही। व्यक्ति आत्महत्या की अनिवार्यता है जबकि समाधिमरण में भावातिरेक नहीं वरन् विवेक या तो क्रोध के वशीभूत होकर करता है या फिर सम्मान या हितों का प्रकटन आवश्यक है। को गहरी चोट पहुँचने पर अथवा जीवन के निराश हो जाने पर करता समाधिमरण के प्रत्यय के आधार पर आलोचकों ने यह कहने है, लेकिन ये सभी चित्त की सांवेगिक अवस्थाएँ हैं जब की समाधि- का प्रयास भी किया है कि जैन दर्शन जीवन से इकरार नहीं करता मरण तो चित्त की समत्व की अवस्था है। अत: वह आत्महत्या नहीं वरन् जीवन से इन्कार करता है, लेकिन गम्भीरतापूर्वक विचार करने कही जा सकती। दूसरे आत्महत्या या आत्मबलिदान में मृत्यु को निमंत्रण पर यह धारणा भ्रान्त ही सिद्ध होती है। उपाध्याय अमर मुनिजी लिखते दिया जाता है। व्यक्ति के अन्तस् में मरने की इच्छा छिपी हुई होती हैं-वह (जैन दर्शन) जीवन से इन्कार नहीं करता है अपितु जीवन है, लेकिन समाधिमरण में मरणाकांक्षा का अभाव ही अपेक्षित है, क्योंकि के मिथ्या मोह से इन्कार करता है। जीवन जीने में यदि कोई महत्त्वपूर्ण समाधिमरण के प्रतिज्ञा-सूत्र में ही साधक यह प्रतिज्ञा करता है कि लाभ है और वह स्व-पर की हित साधना में उपयोगी है तो जीवन मैं मृत्यु की आकांक्षा से रहित होकर आत्मरमण करुंगा (काल अकंखमाणं सर्वतोभावेन संरक्षणीय है। आचार्य भद्रबाहु भी ओघनिर्यक्ति में कहते विहरामि) यदि समाधिमरण में मरने की इच्छा ही प्रमुख होती तो उसके हैं-साधक का देह ही नहीं रहा तो संयम कैसे रहेगा, अत: संयम प्रतिज्ञा-सूत्र में इन शब्दों के रखने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी। की साधना के लिए देह का परिपालन इष्ट है। लेकिन देह के परिगलन जैन विचारकों ने तो मरणाकांक्षा को समाधिमरण का दोष ही माना की क्रिया संयम के निमित्त है, अत: देह का ऐसा परिपालन जिसमें है। अत: समाधिमरण को आत्महत्या नहीं कहा जा सकता। जैन विचारकों संयम ही समाप्त हो, किस काम का! साधक का जीवन न तो जीने
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समाधिमरण (मृत्युवरण) : एक तुलनात्मक तथा समीक्षात्मक अध्ययन
४२३ के लिए है न मरण के लिए है। वह तो ज्ञान, दर्शन और चारित्र नहीं कहें, निराश होकर, कायर होकर या डर के मारे शरीर छोड़ की सिद्धि के लिए है। यदि जीवन से ज्ञानादि आध्यात्मिक गुण की देना यह एक किस्म की हार ही है। उसे हम जीवन-द्रोह भी कह सकते सिद्धि एवं शुद्ध वृद्धि हो तो जीवन की रक्षा करते हुए वैसा करना हैं। सब धर्मों ने आत्महत्या की निन्दा की है लेकिन जब मनुष्य सोचता चाहिए, किन्तु यदि जीवन से भी ज्ञानादि की अभिष्ट सिद्धि नहीं होती है कि उसके जीवन का प्रयोजन पूर्ण हुआ, ज्यादा जीने की आवश्यकता हो तो वह मरण भी साधक के लिए शिरसा श्लाघनीय है। नहीं रही तब वह आत्म-साधना के अन्तिम रूप के तौर पर अगर
शरीर छोड़ दे तो वह उसका हक है। मैं स्वयं व्यक्तिश: इस अधिकार समाधिमरण का मूल्यांकन
का समर्थन करता हूँ।२३ स्वेच्छामरण के सम्बन्ध में पहला प्रश्न यह है कि क्या मनुष्य समकालीन विचारकों में आदरणीय धर्मानन्द कौसम्बी और महात्मा को प्राणान्त करने का नैतिक अधिकार है? पं० सुखलाल जी ने जैन गांधी ने भी मनुष्य को प्राणान्त करने के अधिकार का समर्थन नैतिक द्रष्टि से इन प्रश्न का जो उत्तर दिया है उसका संक्षिप्त रूप यह है दृष्टि से किया था। महात्माजी का कथन है कि जब मनुष्य पापाचार कि जैन धर्म सामान्य स्थितियों में चाहे वह लौकिक हो या धार्मिक, का वेग बलवत्तर हुआ देखता है और आत्महत्या के बिना अपने को प्राणान्त करने का अधिकार नहीं देता है लेकिन जब देह और आध्यात्मिक पाप से नहीं बचा सकता तब होने वाले पाप से बचने के लिए उसे सद्गुण इनमें से किसी एक की पसन्दगी करने का विषम समय आ आत्महत्या करने का अधिकार है।२४ कौसम्बीजी ने भी अपनी पुस्तक गया हो तो देह का त्याग करके भी अपनी विशुद्ध आध्यात्मिक स्थिति ‘पार्श्वनाथ का चार्तुयाम धर्म' में स्वेच्छामरण का समर्थन किया था और को बचाया जा सकता है, जैसे सती स्त्री दूसरा मार्ग न देखकर देह उसकी भूमिका में पं० सुखलाल जी ने 'उन्होंने अपनी स्वेच्छा-मरण नाश के द्वारा भी अपने सतीत्व की रक्षा कर लेती है।२१ जब तक की इच्छा को भी अभिव्यक्त किया था' यह उद्धृत किया है। देह और संयम दोनों की समान भाव से रक्षा हो सके तो तब तक काका कालेलकर स्वेच्छामरण को महत्त्वपूर्ण मानते हुए जैन दोनों की ही रक्षा कर्तव्य है पर जब एक की ही पसन्दगी करने का परम्परा के समान ही कहते हैं कि जब तक यह शरीर मुक्ति का साधन सवाल आये तो सामान्य व्यक्ति देह की रक्षा पसन्द करेंगे और हो सकता है तब तक अपरिहार्य हिंसा को सहन करके भी इसे जिलाना आध्यात्मिक संयम की उपेक्षा करेंगे, जबकि समाधिमरण का अधिकारी चाहिए। जब हम यह देखें कि आत्मा के अपने विकास के प्रयत्न इससे उल्टा करेगा। जीवन तो दोनों ही हैं-दैहिक और आध्यात्मिक। में शरीर बाधा रूप ही होता है तब हमें उसे छोड़ना चाहिए। जो किसी आध्यात्मिक जीवन जीने वालों के लिए प्राणान्त या अनशन की इजाजत हालत में जीना चाहता है उसकी निष्ठा तो स्पष्ट है ही, लेकिन जो है, पामरों, भयभीतों और लालचियों के लिए नहीं। भयंकर दुष्कर जीवन से उब कर अथवा केवल मरने के लिए मरना चाहता है, तो आदि तंगी में देहरक्षा के निमित्त संयम से पतित होने का अवसर उसमें भी विकृत शरीर-निष्ठा है। जो मरण से डरता है और जो मरण आ जाये या अनिवार्य रूप से मरण लाने वाली बीमरियों के कारण ही चाहता है, वे दोनों जीवन का रहस्य नहीं जानते। व्यापक जीवन खुद को और दूसरों को निरर्थक परेशानी होती हो, फिर संयम और में जीना और मरना दोनों का अन्तर्भाव होता है, उन्मेष और निमेष सद्गुण की रक्षा सम्भव न हो तब मात्र समभाव की दृष्टि से संथारे दोनों क्रियाएँ मिलकर ही देखने की एक क्रिया पूरी होती है२६॥ या स्वेच्छामरण का विधान है. इस प्रकार जैन दर्शन मात्र सद्गुणों भारतीय नैतिक चिन्तन में केवल जीवन जीने की कला पर ही की रक्षा के निमित्त प्राणान्त करने की अनुमति देता है, अन्य स्थितियों नहीं वरन् उसमें जीवन की कला के साथ मरण की कला पर भी विचार में नहीं। यदि सद्गुणों की रक्षा के निमित्त देह का विसर्जन किया किया गया है। नैतिक चिन्तन की दृष्टि से किस प्रकार जीवन जीना जाता है तो वह अनैतिक नहीं हो सकता। नैतिकता की रक्षा के लिए चाहिए यही महत्त्वपूर्ण नहीं है वरन् किस प्रकार मरना चाहिए यह किया गया देह-विसर्जन अनैतिक कैसे होगा।
भी मूल्यावान है। मृत्यु की कला जीवन की कला से भी महत्त्वपूर्ण जैन दर्शन के इस दृष्टिकोण का समर्थन गीता में भी उपलब्ध है, आदर्श मृत्यु ही नैतिक जीवन की कसौटी है। जीवन का जीना है। गीता कहती है कि यदि जीवित रहकर (आध्यात्मिक सद्गुणों के तो विद्यार्थी के सूत्रकालीन अध्ययन के समान है, जबकि मृत्यु परीक्षा विनाश के कारण) अपकीर्ति की सम्भावना हो तो उस जीवन से मरण का अवसर है। हम जीवन की कमाई का अन्तिम सौदा मृत्यु के समय ही श्रेष्ठ है।
करते हैं। यहाँ चूके तो फिर पछताना होता है और इसी अपेक्षा से आदरणीय काका कालेलकर लिखते है कि मृत्यु शिकारी के कहा जा सकता है कि जीवन की कला की अपेक्षा मृत्यु की कला समान हमारे पीछे पड़े और हम बचने के लिए भागते जायें, यह दृश्य अधिक मूल्यवान है। भारतीय नैतिक चिन्तन के अनुसार मृत्यु का मनुष्य को शोभा नहीं देता। जीवन का प्रयोजन समाप्त हुआ, ऐसा अवसर ऐसा अवसर है, जब हममें से अधिकांश अपने भावी जीवन देखते ही मृत्यु को आदरणीय अतिथि समझ कर उसे आमन्त्रण देना, का चुनाव करते हैं। गीता का कथन है कि मृत्यु के समय जैसी भावना उसका स्वागत करना और इस तरह से स्वेच्छा-स्वीकृत मरण के द्वारा होती है वैसी ही योनि जीव प्राप्त करता है (१८/५-६)। जैन परम्परा जीवन को कृतार्थ करना, यह एक सुन्दर आदर्श है। आत्महत्या को में खन्धक मुनि की कथा यही बताती है कि जीवन भर कठोर साधना नैतिक दृष्टि से उचित मानते हुए वे कहते हैं कि इसे हम आत्महत्या करनेवाला महान् साधक जिसने आपनी प्रेरणा एवं उद्बोधन से अपने
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ सहचारी पाँच सौ साधक शिष्यों को उपस्थित मृत्यु की विषम परिस्थिति सहमत नहीं हैं। वस्तुत: स्वेच्छामरण की आवश्यकता उस व्यक्ति में समत्व की साधना के द्वारा निर्वाण का अमृतपान कराया वही साधक के लिए नहीं है जो जीवनमुक्त है और जिसकी देहासक्ति समाप्त हो स्वयं की मृत्यु के अवसर पर क्रोध के वशीभूत हो किस प्रकार अपने गई है, वरन् उस व्यक्ति के लिए है, जिसमें देहासक्ति रही हुई है, साधना-पथ से विचलित हो गया। वैदिक परम्परा में जड़भरत का कथानक क्योकि समाधिमरण तो इसी देहासक्ति को समाप्त करने के लिए है। भी यही बताता है कि इतने महान साधक को भी मरण बेला में हरिण पर समाधिमरण एक साधन है, इसलिए वह जीवनमुक्त के लिए (सिद्ध आसक्ति रखने के कारण पशु योनि को प्राप्त होना पड़ा। उपरोक्त कथानक के लिए) आवश्यक नहीं है। जीवनमुक्त को तो समाधिमरण सहज हमारे सामने मृत्यु का मूल्य उपस्थित कर देते हैं। मृत्यु इस जीवन की ही प्राप्त होता है । उसके लिए इसकी साधना का कोई अर्थ नहीं साधना का परीक्षा काल है। वह इस जीवन में लक्षोपलब्धि का अन्तिम रह जाता है। जहाँ तक उनके इस आक्षेप का प्रश्न है कि समाधिअवसर और भावी जीवन की कामना का आरम्भ बिन्दु है। इस प्रकार मरण में यथार्थ की आपेक्षा आडम्बर ही अधिक परिलक्षित होता है, वह अपने में दो जीवनों का मूल्य संजोए हुए है। मरण जीवन का उसमें आंशिक सत्यता अवश्य हो सकती है लेकिन इसका सम्बन्ध अवश्यम्भावी अंग है। उसकी अवहेलना नहीं की जा सकती। वह जीवन संथारे या समाधिमरण के सिद्धान्त से नहीं, वरन् उसके वर्तमान में का उपसंहार है, जिसे सुन्दर बनाना हमारा एक आवश्यक कर्तव्य है। प्रचलित विकृत रूप से है, लेकिन इस आधार पर उसके सैद्धान्तिक
इस प्रकार हम देखते हैं कि सम्प्रति युग के प्रबुद्ध विचारक भी मूल्य में कोई कमी नहीं आती है। यदि व्यावहारिक जीवन में अनेक समाधिमरण को अनैतिक नहीं मानते हैं। अत: जैन दर्शन पर लगाया व्यक्ति असत्य बोलते हैं तो क्या उससे सत्य के मूल्य पर कोई आँच जाने वाला यह आक्षेप कि वह जीवन के मूल्य को अस्वीकार करता आती है? वस्तुत: स्वेच्छामरण के सैद्धान्तिक मूल्य को अस्वीकार नहीं है, उचित नहीं माना जा सकता। वस्तुतः समाधिमरण पर जो आपेक्ष किया जा सकता है। लगाये जाते हैं उनका सम्बन्ध समाधिमरण से न होकर आत्महत्या मृत्युवरण तो मृत्यु की वह कला है, जिसमें न केवल जीवन से है। कुछ विचारकों ने समाधिमरण और आत्महत्या के वास्तविक ही सार्थक होता है वरन् मरण भी सार्थक हो जाता है। आदरणीय अन्तर को नहीं समझा और इसी आधार पर समाधिमरण को अनैतिक काका कालेलकर ने खलील जिबान की यह वचन उद्धृत किया है कहने का प्रयास किया, लेकिन जैसा कि हम पूर्व में सिद्ध कर चुके कि “एक आदमी ने आत्मरक्षा के हेतु खुदकशी की, आत्महत्या की, हैं, कि समाधिमरण या मृत्युवरण आत्महत्या नहीं है और इसलिए यह वचन सुनने में विचित्र सा लगता है।"२८ आत्महत्या से आत्मरक्षा उसे अनैतिक भी नहीं कहा जा सकता। जैन आचार्यों ने स्वयं भी का क्या सम्बन्ध हो सकता है? वस्तुत: यहाँ आत्मरक्षा का अर्थ आत्महत्या को अनैतिक माना है, लेकिन उनके अनुसार आत्महत्या आध्यात्मिक एवं नैतिक मूल्यों का संरक्षण है और आत्महत्या का मतलब समाधिमरण से भिन्न है।
शरीर का विसर्जन। जब नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों के संरक्षण डॉ० ईश्वरचन्द्र ने जीवनमुक्त व्यक्ति के स्वेच्छामरण को तो के लिए शारीरिक मूल्यों का विसर्जन आवश्यक हो तो उस स्थिति आत्महत्या नहीं माना है लेकिन उन्होंने जैन परम्परा में किये जाने वाले में देह-विसर्जन या स्वेच्छापूर्वक मृत्युवरण ही उचित है। आध्यात्मिक संथारे को आत्महत्या की कोटि में रख कर उसे अनैतिक भी बताया मूल्यों की रक्षा प्राणरक्षा से श्रेष्ठ है। गीता में स्वयं अकीर्तिकर जीवन है।२७ इस सम्बन्ध में उनके तर्क का पहला भाग यह है कि स्वेच्छा- की अपेक्षा मरण को श्रेष्ठ मान कर ऐसा ही संकेत दिया है।२९ काका मरण का व्रत लेने वाले सामान्य जैन मुनि जीवनमुक्त एवं अलौकिक कालेलकर के शब्दों में जब मनुष्य देखता है कि विशिष्ट परिस्थिति शक्ति से युक्त नहीं होते और अपूर्णता की दशा में लिया गया आमरण में यदि जीना है तो हीन स्थिति और हीन विचार या हीन सिद्धान्त व्रत (संथारा) नैतिक नहीं हो सकता। अपने तर्क के दूसरे भाग में मान्य रखना जरूरी ही है, तब श्रेष्ठ पुरुष कहता है कि जीने से नहीं वे कहते हैं कि जैन परम्परा में स्वेच्छामृत्युवरण (संथारा) करने में मर कर ही आत्मरक्षा होती है।३० यथार्थता की अपेक्षा आडम्बर अधिक होता है इसलिए वह अनैतिक वस्तुत: समाधिमरण का यह व्रत हमारे आध्यात्मिक एवं नैतिक भी है। जहाँ तक उनके इस दृष्टिकोण का प्रश्न है कि जीवनमुक्त एवं मूल्यों के संरक्षण के लिए ही लिया जाता है और इसलिए यह पूर्णत: अलौकिक शक्ति सम्पन्न व्यक्ति ही स्वेच्छामरण का अधिकारी है, हम नैतिक है। १. अकाममरणं चेव सकाममरणं तहा। -उत्तराध्ययन, संपा० मधुकरमुनि, धर्माय तनुविमोचनमाहुः संल्लेखनामार्याः ।। प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, १९८४, ५/२।
-- रत्नकरण्डश्रावकाचार, समन्तभद्र, प्रका० माणिकचन्द्र दिगम्बर बालाणं अकामं तु मरणं असई भवे।
जैन ग्रन्थमाला, बम्बई, १९२६, अध्याय ५। पंडियाणं सकामं तु उक्कोसेण सई भवे।।
देखिये--अतंकृतदशांगसूत्र के अर्जुनमाली के अध्याय में सुदर्शन - वही, १९८४, ५/३।
सेठ के द्वारा किया गया सागारी संथारा। अहकालम्मि संपत्ते आघायाय समुस्सयं।
देखिये--अंतकृतदशांगसूत्र, संपा० मधुकरमुनि, प्रका० श्री आगम सकाममरणं मरई निण्हमन्नयरं मुणी।। - वही, ५/३२॥
प्रकाशन समिति, ब्यावर, १९८१, वर्ग ८ अध्याय१। ४. उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निष्प्रतीकारे।
प्रतिक्रमण सूत्र, संल्लेखना का पाठ, संपा० रत्नाकर विजय जी,
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समाधिमरण (मृत्युवरण) : एक तुलनात्मक तथा समीक्षात्मक अध्ययन
४२५ प्रका० अजीतनाथ जैन धर्मकरण, उदयपुर, वि०सं० २०३९। -उद्धृत दर्शन और चिन्तन, पं० सुखलाल जी संधवी, गुजरात संयुक्तनिकाय, अनु० जगदीश कश्यप एवं धर्मरक्षित महाबोधि सभा, विधानसभा, अहमदाबाद, १९५७, पृ० ५३६। सारनाथ, बनारस, १९५४, २१/२/४/५।
१८. श्री अमर भारती मार्च १९६५ पृ० २६ ९. संयुक्तनिकाय, अनु० जगदीश कश्यप एवं धर्मरक्षित महाबोधि सभा, १९. संजमहेउं देहो घारिज्जइ सो कओ उ तदमावे। सारनाथ, बनारस, १९५४, ३४/२/४/४।
संजम-फाइनिमित्तं देह परिपालणा इट्ठा।। १० अतिमानादत्रिक्रोधात्स्नेहाद्वा यदि वा भयात्।
- ओधनियुक्ति ४७ उद्ध्नीयात्स्त्री पुमान्वा गतिरेषा विधीयते
२०. श्रीअमरभारती, जैन संस्कृति की साधना, प्रका० सन्मति ज्ञानपीठ, पूयशोणितसम्पूणे अन्धे तमसि मज्जति।
आगरा, मार्च १९६५ पृ० २६। षष्टि वर्षसहस्राणि नरकं प्रतिपद्यते ।। -पराशरस्मृति ४/१/२ तुलना कीजिए-विसुद्धिमग्ग १/१३३। ११. महाभारत आदि पर्व १७९/२०
२१. दर्शन और चिन्तन, पं० सुखलाल संधवी, गुजरात विद्या सभा, १२. विशेष जानकारी के लिए देखिये-धर्मशास्त्र का इतिहास पृ० ४८८ अहमदाबाद, १९५७, खण्ड २ पृ० ५३३-३४।
-अपरार्क पृ० ५३६ २२. संभावितस्य चाकीर्तिमरणदतिरिच्यते।-गीता, गीता प्रेस, गोरखपुर, १३. धर्मशास्त्र का इतिहास पृ० ४८७
वि०सं० २०१८, २/३४। १४. धर्मशास्त्र का इतिहास पृ० ४८८
२३. परमसखा मृत्यु, काका कालेलकर, प्रका० सस्ता साहित्य मण्डल, १५. रत्नकरण्डश्रावकाचार २२
नई दिल्ली, १९७९, पृ० ३१ १६. देखिये
२४. वही, काका कालेलकर, प्रका० सस्ता साहित्य मण्डल, नई दिल्ली, (अ) दर्शन और चिन्तन, पं० सुखलालजी, गुजरात, विद्या सभा, १९७९, पृ० २६। अहमदाबाद, १९५७, पृ० ५३६।
२५. पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म-भूमिका। (ब) नाभिनन्देत मरणं नाभिनन्देत जीवितम् -मनु
२६. परमसखा मृत्यु, काका कालेलकर, प्रका० सस्ता साहित्य मण्डल, उद्धृत परमसखा मृत्यु, काका कालेलकर, सस्ता साहित्य मण्डल, नई दिल्ली, १९७९, पृ० १९। नई दिल्ली,, १९७९, पृ०.२४।
२७. पाश्चात्य आचार विज्ञान का आलोचनात्मक अध्ययन पृ० २७३। (स) भवतृष्णा (जीने की तीव्र इच्छा) और विभवतृष्णा (मरने की तीव्र २८. परमसखा मृत्यु, काका कालेलकर, प्रका० सस्ता साहित्य मण्डल,
इच्छा) बुद्ध ने साधक को इन दोनों से बचने का निर्देश किया है। नई दिल्ली , १९७९, पृ० ४३। (द) जीवियं नाभिकंखेज्जा मरणं नावि पत्थए।
२९. गीता २/३४। १७. मरणपडियार भूया एसा एवं च ण मरणनिमित्ता जह गंडछेअकिरिआ ३०. परमसखा मृत्यु, काका कालेलकर, प्रका० सस्ता साहित्य मण्डल, णो आयविराहणारूपा।
नई दिल्ली, १९७९, पृ० ४३।
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जैन आगमों में समाधिमरण की अवधारणा
अर्धमागधी आगम साहित्य में समाधिमरण की अवधारणा का अति विस्तृत विवेचन उपलब्ध है। पौर्वात्य एवं पाश्चात्य विद्वानों ने अर्धमागधी आगम साहित्य के गन्धों का जो कालक्रम निर्धारित किया है, उसके आधार पर समाधिमरण से सम्बन्धित आगमों को हम निम्न क्रम में रख सकते हैं। अति प्राचीन स्तर के आगम ग्रन्थों में आचाराङ्गसूत्र एवं उत्तराध्ययनसूत्र ये दो ऐसे प्रन्थ है जिनमें समाधिमरण के सम्बन्ध में विस्तृत विवरण मिलता है। आचाराङ्गसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध का 'विमोक्ष' नामक अष्टम अध्ययन समाधिमरण के तीन प्रकारों— भक्त प्रत्याख्यान, इङ्गितिमरण एवं प्रायोपगमन की विस्तृत चर्चा करता है। इसी प्रकार उत्तराध्ययनसूत्र का पञ्चम "अकाम-मरणीय" अध्ययन भी अकाम-मरण और सकाम-मरण (समाधिमरण) की चर्चा से सम्बन्धित है। इसके साथ ही किंचित् परवर्ती माने गये उत्तराध्ययन के ३६ वें अध्ययन में भी समाधिमरण की विस्तृत चर्चा है। इसमें समयावधि की दृष्टि से उत्कृष्ट, मध्यम एवं जघन्य ऐसे तीन प्रकार के समाधिमरणों का उल्लेख है। प्राचीन स्तर के अर्धमागधी आगमों में दशवैकालिक का भी महत्वपूर्ण स्थान है इसके आठवें 'आचार-प्रणिधी' नामक अध्ययन में समाधिमरण के पूर्व की साधना का उल्लेख हुआ है। इसमें कषायों को अल्प करने या उन पर विजय प्राप्त करने का निर्देश है।
इसके अतिरिक्त कालक्रम की दृष्टि से किंचित् परवर्ती माने गये अर्धमागधी आगमों में तृतीय अङ्ग - आगम स्थानाङ्गसूत्र के द्वितीय अध्ययन के चतुर्थ उद्देशक में मरण के विविध प्रकारों की चर्चा के प्रसङ्ग में समाधिमरण के विविध रूपों के उल्लेख उपलब्ध होते हैं। चतुर्थ अङ्ग - आगम समवायाङ्ग में मरण के सतरह भेदों की चर्चा है। ज्ञातव्य है कि नाम एवं क्रम के कुछ अन्तरों को छोड़कर मरण के इन सतरह भेदों की चर्चा भगवती आराधना में भी मिलती है। इसमें बालमरण, बाल- पण्डितमरण, पण्डितमरण, भक्त - प्रत्याख्यान, इङ्गितिमरण, प्रायोपगमन आदि की चर्चा है। इसी प्रकार पाचवें अङ्ग-आगम भगवतीसूत्र में अम्बड संन्यासी एवं उसके शिष्यों के द्वारा गङ्गा की बालू पर अदत्त जल का सेवन नहीं करते हुए समाधिमरण करने का उल्लेख पाया जाता है। सातवें अङ्ग उपासकदशसूत्र में भगवान् महावीर के १० गृहस्थ उपासकों के द्वारा लिये गये समाधिमरण और उसमें उपस्थित विघ्नों की विस्तृत चर्चा मिलती है। आठवें अङ्ग- आगम अन्तकृतदशासूत्र एवं नवें अङ्ग- आगम अनुत्तरौपपातिकदशासूत्र में भी अनेक श्रमणों एवं श्रमणियों के द्वारा लिये गये समाधिमरण का उल्लेख मिलता है। अन्तकृतदशासूत्र की विशेषता यह है कि उसमें समाधिमरण लेने वालों की समाधिमरण के पूर्व की शारीरिक स्थिति कैसी हो गई थी, इसका सुन्दर विवरण उपलब्ध है।
उपाङ्ग - साहित्य में मात्र औपपातिकसूत्र और रायप्रश्रीयसूत्र में समाधिमरण ग्रहण करने वाले कुछ साधकों का उल्लेख है, किन्तु इनमें समाधिमरण की अवधारणा के सम्बन्ध में कोई विवेचन उपलब्ध नहीं
है । इस सम्बन्ध में जो स्वतन्त्र ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं, उन्हें अर्धमागधी आगम साहित्य में प्रकीर्णक वर्ग के अन्तर्गत रखा गया है। प्रकीर्णकों में आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, भक्तपरिज्ञा, संस्तारक, आराधनापताका, मरणविभक्ति, मरणसमाधि एवं मरणविशुद्धि प्रमुख हैं। वर्तमान में जो मरणविभक्ति के नाम से प्रकीर्णक उपलब्ध हो रहा है, उसमें मरणविभक्ति सहित मरणविशुद्धि, मरणसमाधि, संलेखनासूत्र, भक्तपरिज्ञा, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, आराधना पताका इन आठ ग्रन्थों को समाहित कर लिया गया है। यद्यपि भक्तपरिज्ञा, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, संलेखनासूत्र, संस्तारक, आराधनापताका आदि अन्य स्वतन्त्र रूप से भी उपलब्ध हैं। इसके अतिरिक्त तन्दुल- वैचारिक नामक प्रकीर्णक के अन्त में भी समाधिमरण का विस्तृत विवरण पाया जाता है। यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा में समाधिमरण का विस्तृत विवरण एवं उपदेश देने वाले संस्कृत एवं प्राकृत के परवर्ती आचार्यों के अनेक ग्रन्थ हैं, किन्तु प्रस्तुत विवेचन में हम अपने को मात्र अर्धमागधी आगम साहित्य तक ही सीमित रखेंगे शौरसेनी आगम साहित्य में समाधिमरण का विवरण प्रस्तुत करने वाले आगमतुल्य जो ग्रन्थ हैं, उनमें मूलाचार एवं भगवती आराधना नामक यापनीय परम्परा के दो ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। इनमें मूलाचार समाधिमरण का विवरण प्रस्तुत करने के साथ ही मुनि आचार के अन्य पक्षों पर भी प्रकाश डालता है। यद्यपि इसके संक्षिप्त प्रत्याख्यान एवं बृहत प्रत्याख्यान नामक अध्यायों में आतुरमहाप्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान नामक प्रकीर्णकों की शताधिक गाथाएँ यथावत अपने शौरसेनी रूपान्तर में मिलती हैं। इसी प्रकार इसमें आवश्यकनिर्युक्ति की भी शताधिक गाथाएँ आवश्यकनियुक्ति के नाम से ही मिलती हैं।
जहाँ तक भगवती आराधना का प्रश्न है, उसमें भी अर्धमागधी आगम साहित्य की विशेष रूप से समाधिमरण से सम्बन्धित प्रकीर्णकों की शताधिक गाथाएँ उपलब्ध होती हैं। ज्ञातव्य है कि भगवती आराधना का मूल प्रतिपाद्य समाधिमरण है और यह ग्रन्थ अनेक दृष्टियों से मरणसमाधि, अपरनाम मरणविभक्ति और आराधनापताका से तुलनीय हैं। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि आराधनापताका नामक ग्रन्थ श्वेताम्बर आचार्य वीरभद्र के द्वारा भवगती आराधना का अनुकरण करके लिखा गया है। यद्यपि यह अभी शोध का विषय है। इसमें भक्तपरिज्ञा, पिण्डनिर्युक्ति और आवश्यकनुिर्यक्ति की भी सैकड़ो गाथाएँ उद्धृत की गयी हैं। इसमें कुल १११० गाथाएँ हैं ।
इस प्रकार मरणविभक्ति और संस्तारक में समाधिमरण ग्रहण करने वालों के जो विशिष्ट उल्लेख उपलब्ध होते हैं, वे ही उल्लेख भगवती आराधना में भी बहुत कुछ समान रूप से मिलते हैं आज मरणविभक्ति आदि प्रकीर्णकों का भगवती आराधना से तुलनात्मक अध्ययन बहुत ही अपेक्षित है, क्योंकि यह ग्रन्थ यापनीय परम्परा में निर्मित हुआ है और यापनीय अर्धमागधी आगमों को मान्य करते थे। अतः दोनों
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जैन आगमों में समाधिमरण की अवधारणा
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परम्पराओं में काफी कुछ आदान-प्रदान हुआ है। इसी प्रकार यापनीय का रक्षण वरेण्य नहीं है। उसमें कहा गया है कि जब साधक यह परम्परा के ग्रन्थ बृहद्कथाकोश में भी मरणविभक्ति, भक्तपरिज्ञा, संस्तारक जाने कि वह निर्बल और मरणान्तिक रोग से आक्रान्त हो गया है, आदि की अनेक कथाएँ संकलित हैं। मेरी दृष्टि में बृहद्कथाकोश की नियम या मर्यादा पूर्वक आहार आदि प्राप्त करने में असमर्थ है, कथाओं का मूल स्रोत चाहे प्रकीर्णक ग्रन्थ रहे हों, किन्तु ग्रन्थकार तो वह आहारादि का परित्याग कर शरीर के पोषण के प्रयत्नों को ने भगवती आराधना की कथाओं का अनुकरण करके ही यह ग्रन्थ बन्द कर दे। इससे देह के प्रति निर्ममत्व की साधना पूर्ण लिखा हैं। आज आवश्यकता है कि दोनों परम्पराओं के समाधिमरण होती है। सम्बन्धी इन ग्रन्थों एवं उनकी कथाओं का तुलनात्मक विवरण प्रस्तुत २. जब व्यक्ति को लगे कि अपनी वृद्धावस्था अथवा असाध्य करने की।
रोग के कारण उसका जीवन पूर्णत: दूसरों पर निर्भर हो गया है, वह यद्यपि मैं इस आलेख में तुलनात्मक अध्ययन को प्रस्तुत करना संघ के लिए भार स्वरूप बन गया है तथा अपनी साधना करने में चाहता था, किन्तु समय सीमा को ध्यान में रखकर वर्तमान में यह भी असमर्थ हो गया है तो ऐसी स्थिति में वह आहारादि का त्याग सम्भव नहीं हो सका है।
___ करके देह के प्रति निर्ममत्व की साधना करते हुए देह का विसर्जन समाधिमरण की यह अवधारणा अति प्राचीन है। भारतीय संस्कृति कर सकता है। की श्रमण और ब्राह्मण- इन दोनों परम्पराओं में इसके उल्लेख मिलते ३. इसी प्रकार साधक को जब यह लगे कि सदाचार या ब्रह्मचर्य हैं, जिसकी विस्तृत चर्चा हमनें 'समाधिमरण (मृत्युवरण) : एक का खण्डन किए बिना जीवन जीना सम्भव नहीं है, अर्थात् चरित्रनाश तुलनात्मक तथा समीक्षात्मक अध्ययन' नामक लेख में की है। वस्तुतः और जीवित रहने में एक ही विकल्प सम्भव है तो वह तत्काल भी यहाँ हमारा विवेच्य मात्र अर्धमागधी आगम है। इनमें आचाराङ्गसूत्र प्राचीन श्वास निरोध आदि करके अपना देहपात कर सकता है। ज्ञातव्य है एवं प्रथम अङ्ग-आगम है। आचाराङ्गसूत्र के अनुसार समत्व या वीतरागता कि यहाँ मूल-पाठ में शीत-स्पर्श है, जिसका टीकाकारों ने ब्रह्मचर्य की साधना ही धर्म का मूलभूत प्रयोजन है। आचाराङ्गकार की दृष्टि के भङ्ग का अवसर ऐसा अर्थ किया है, किन्तु मूल-पाठ और पूर्वप्रसङ्ग में समत्व या वीतरागता की उपलब्धि में बाधक तत्त्व ममत्व है। इस को देखते हुए इसका यह अर्थ भी हो सकता है कि जिस मुनि ने ममत्व का घनीभूत केन्द्र व्यक्ति का अपना शरीर होता है। अतः अचेलता को स्वीकार कर लिया है, वह शीत सहन न कर पाने की आचाराङ्गकार निर्ममत्व की साधना हेतु देह के प्रति निर्ममत्व की साधना स्थिति में चाहे देह त्याग कर दे, किन्तु नियम भङ्ग न करे। को आवश्यक माना है। समाधिमरण देह के प्रति निर्ममत्व की साधना इससे यह फलित होता है कि आचाराङ्गकार न तो जीवन को का ही प्रयास है। यह न तो आत्महत्या है और न जीवन से भागने अस्वीकार ही करता और न वह जीवन से भागने की बात कहता है। का प्रयत्न। अपितु जीवन के द्वार पर दस्तक दे रही अपरिहार्य बनी वह तो मात्र यह प्रतिपादित करता है कि जब मृत्यु जीवन के द्वार मृत्यु का स्वागत है। वह देह के पोषण के प्रयत्नों का त्याग करके पर दस्तक दे रही हो और आचार-नियम अर्थात् ली गई प्रतिज्ञा भङ्ग देहातीत होकर जीने की एक कला है।
किए बिना जीवन जीना सम्भव नहीं है, तो ऐसी स्थिति में मृत्यु का
वरण करना ही उचित है। इसी प्रकार दूसरों पर भार बनकर जीना आचाराङ्गसूत्र और समाधिमरण
अथवा जब शरीर व्यक्तिगत साधना अथवा समाज सेवा दोनों के लिए आचाराङ्गसूत्र में जिन परिस्थितियों में समाधिमरण की अनुशंसा सार्थक नहीं रह गया हो, ऐसी स्थिति में भी येनकेन-प्रकारेण शरीर की गयी है, वे विशेष रूप से विचारणीय हैं। सर्वप्रथम तो आचाराङ्ग को बचाने के प्रयत्न की अपेक्षा मृत्यु का वरण ही उचित है। जब में समाधिमरण का उल्लेख उसके प्रथम श्रुतस्कन्ध के विमोक्ष नामक साधक को यह लगे कि सदाचार और मुनि आचार के नियमों का अष्टम अध्ययन में हुआ है। यह अध्ययन विशेष रूप से शरीर, आहार, भङ्ग करके आहार एवं औषधि के द्वारा तथा शीतनिवारण के लिए वस्त्र आदि के प्रति निर्ममत्व एवं उनके विसर्जन की चर्चा करता है। वस्त्र अथवा अग्नि आदि के उपयोग द्वारा ही शरीर को बचाया जा इसमें वस्त्र एवं आहार के विजर्सन की प्रक्रिया को समझाते हुए ही सकता है अथवा बह्मचर्य को भङ्ग करके ही जीवित रहा जा सकता अन्त में देह-विसर्जन की साधना का उल्लेख हुआ है। आचाराङ्गसूत्र है तो उसके लिए मृत्यु का वरण ही उचित है। समाधिमरण किन स्थितियों में लिया जा सकता है, इसकी संक्षिप्त आचाराङ्गकार ने नैतिक मूल्यों के संरक्षण और जीवन के संरक्षण किन्तु महत्त्वपूर्ण विवेचना प्रस्तुत करता है। इसमें समाधिमरण स्वीकार में उपस्थित विकल्प की स्थिति में मृत्यु के वरण को ही वरेण्य माना करने की तीन स्थितियों का उल्लेख है
है। ऐसी स्थिति में वह स्पष्ट निर्देश देता है कि ऐसा व्यक्ति मृत्यु १. जब शरीर इतना अशक्त व ग्लान हो गया हो कि व्यक्ति का वरण कर ले। यह उसके लिए काल-मृत्यु ही है, क्योंकि इसके संयम के नियमों का पालन करने में असमर्थ हो और मुनि के आचार द्वारा वह संसार का अन्त करने वाला होता है। वह स्पष्ट रूप से कहता . नियमों को भंग करके ही जीवन बचाना सम्भव हो, तो ऐसी स्थिति है कि यह मरण विमोह आयतन, हितकर, सुखकर, कालोचित, निःश्रेयस
में यह कहा गया है कि आचार नियमों के उल्लंघन की अपेक्षा देह और भविष्य के लिए कल्याणकारी होता है। आचाराङ्गसूत्र में समाधिमरण का विसर्जन ही नैतिक है। आचार-मर्यादा का उल्लंघन करके जीवन के तीन रूपों का उल्लेख हुआ- भक्तप्रत्याख्यान, इङ्गितिमरण,
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प्रायोपगमन उसमें समाधिमरण के लिए दो तथ्य आवश्यक माने गए हैं- पहला कषायों का कृशीकरण और दूसरा शरीर का कृशीकरण । इसमें भी मुख्य उद्देश्य तो कषायों का कृशीकरण है । भक्तपरिज्ञा में प्रथम तो मुनि के लिए कल्प का विचार किया गया है और उसके अन्त में यह बताया गया है कि अकल्प का सेवन करने की अपेक्षा शरीर का विसर्जन कर देना ही उचित है उसमें कहा गया है कि जब भिक्षु को यह अनुभव हो कि मेरा शरीर अब इतना दुर्बल अथवा रोग से आक्रान्त हो गया है कि गृहस्थों के घर भिक्षा हेतु परिभ्रमण करना मेरे लिए सम्भव नहीं है, साथ ही मुझे गृहस्थ के द्वारा मेरे सम्मुख लाया गया आहार आदि ग्रहण करना योग्य नहीं है। ऐसी स्थिति में एकाकी साधना करने वाले जिनकल्पी मुनि के लिए आहार का त्याग करके संथारा ग्रहण करने का विधान है। यद्यपि आचाराङ्गसूत्र के अनुसार संघस्थ मुनि की बीमारी अथवा वृद्धावस्थाजन्य शारीरिक दुर्बलता की स्थिति में आहारादि से एक-दूसरे का उपकार अर्थात् सेवा कर सकते हैं, किन्तु इस सम्बन्ध में भी चार विकल्पों का उल्लेख हुआ है
१. कोई भिक्षु यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं ( साधर्मिक भिक्षुओं के लिए) आहार आदि लाऊंगा और (उनके द्वारा) लाया हुआ स्वीकार भी करूंगा।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
अथवा
२. कोई यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं (दूसरों के लिए) आहार आदि नहीं लाऊँगा, किन्तु (उनके द्वारा) लाया हुआ स्वीकार करूंगा।
अथवा
३. कोई भिक्षु यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं (दूसरों के लिए) आहार आदि लाऊंगा, किन्तु उनके द्वारा लाया स्वीकार नहीं करूंगा ।
अथवा
४. कोई भिक्षु यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं न तो (दूसरों के लिए) आहार आदि लाऊंगा और न (उनके द्वारा) लाया हुआ स्वीकार
उपरोक्त चार विकल्पों में से जो भिक्षु प्रथम दो विकल्प स्वीकार करता है, वह आहारादि के लिए संघस्य मुनियों की सेवा ले सकता है किन्तु जो अन्तिम दो विकल्प स्वीकार करता है, उसके लिए आहारादि के लिये दूसरों की सेवा लेने में प्रतिज्ञा भङ्ग का दोष आता है। ऐसी स्थिति में आचाराङ्गकार का मन्तव्य यही है कि प्रतिज्ञा भङ्ग नहीं करनी चाहिये, भले ही भक्तप्रत्याख्यान कर देह त्याग करना पड़े। आचाराङ्गकार के अनुसार ऐसी स्थिति में जब भिक्षु को यह संकल्प उत्पन्न हो कि मैं इस समय संयम साधना के लिए इस शरीर को वहन करने में ग्लान (असमर्थ ) हो रहा हूँ, तब वह क्रमशः आहार का संवर्तन (संक्षेप) करे। आहार का संक्षेप कर कषायों (क्रोध, मान, माया और लोभ) को कृश करे। कषायों को कृश कर समाधिपूर्ण भाव वाला शरीर और कषाय दोनों ओर से कृश बना हुआ वह भिक्षु फल का वस्थित हो समाधिमरण के लिए उत्थित (प्रयत्नशील) होकर शरीर का उत्सर्ग करे। संथारा ग्रहण करने का निश्चय कर लेने के पश्चात् वह किस प्रकार
समाधिमरण ग्रहण करे इसका उल्लेख करते हुए आचाराङ्गकार कहता है कि ऐसे भिक्षु ग्राम, नगर, कर्वट, आश्रम आदि में जाकर घास की याचना करे और उसे प्राप्त कर गांव के बाहर एकांत में जाकर जीव-जन्तु, बीज, हरित आदि से रहित स्थान को देखकर घास का बिस्तर तैयार करे और उस पर स्थित होकर इत्वरिक अनशन अथवा प्रायोपगमन स्वीकार करें।
ज्ञातव्य है कि आचाराङ्गकार भक्तप्रत्याख्यान, इङ्गितिमरण और प्रायोपगमन ऐसे तीन प्रकार के समाधिमरण का उल्लेख करता है। भक्तप्रत्याख्यान में मात्र आहारादि का त्याग किया जाता है, किन्तु शारीरिक हलन चलन और गमनागमन की कोई मर्यादा निश्चित नहीं की जाती है। इङ्गितमरण में आहार त्याग के साथ ही साथ शारीरिक हलन-चलन और गमनागमन का एक क्षेत्र निश्चित कर लिया जाता है और उसके बाहर गमनागमन का त्याग कर दिया जाता है। प्रायोपगमन या पादोपगमन में आहार आदि के त्याग के साथ-साथ शारीरिक क्रियाओं का निरोध करते हुए मृत्यु पर्यन्त निश्चल रूप से लकड़ी के तख्ते के समान स्थिर पड़े रहना पड़ता है। इसीलिए आचाराङ्गकार ने प्रायोपगमन संथारे के प्रत्याख्यान में स्पष्ट रूप से यह लिखा है कि काय, योग एवं ईर्ष्या का प्रत्याख्यान करें। वस्तुतः यह तीनों संथारे की क्रमिक अवस्थाएँ हैं।
आचाराङ्गसूत्र में समाधिमरण का विवरण
क्रम से निर्ममत्व की स्थिति को प्राप्त धैर्यवान्, आत्मनिग्रही और गतिमान साधक इस अद्वितीय समाधिमरण की साधना हेतु तत्पर हो वह धर्म के पारगामी ज्ञानपूर्वक अनुक्रम से दोनों ही प्रकार के आरम्भ का (हिंसा का ) परित्याग कर दें वह कषायों को कृश करते हुए आहार की मात्रा को भी अल्प करें और परिषों को सहन करें। इस प्रकार करते हुए जब अति ग्लान हो जाय तो आहार का भी त्याग कर दें। ऐसी स्थिति में न तो जीवन की आकांक्षा रखे और न मरण की, अपितु जीवन एवं मरण दोनों में ही आसक्त न हो वह निर्जरापेक्षी मध्यस्थ समाधि भाव का अनुपालन करे तथा राग-द्वेष आदि आन्तरिक परिग्रह और शरीर आदि बाह्य परिग्रह का त्याग कर शुद्ध अध्यात्म का अन्वेषण करे।
यदि उसे अपने साधनाकाल में किसी भी रूप में आयुष्य के विनाश का कोई कारण जान पड़े, तो वह शीघ्र ही समाधिमरण का प्रयत्न करे। ग्राम अथवा अरण्य में जहाँ हरित एवं प्राणियों आदि का अभाव (अल्पता) हो, उस स्थण्डिल भूमि पर तृण का बिछौना तैयार करे और वहाँ निराहार होकर शान्त भाव से लेट जाये मनुष्य कृत अथवा अन्य किसी प्रकार के परीषह से आक्रान्त होने पर भी मर्यादा का उल्लङ्घन न करे तथा परिषहों को समभावपूर्वक सहन करे। आकाश में विचरण करने वाले पक्षी एवं रेंगने वाले प्राणी यदि उसके शरीर का मांस नोंचे रक्त पीये तो भी न उन्हें मारे और न उनका निवारण करे तथा न उस स्थान से उठकर अन्यत्र जाये, अपितु यह विचार करें कि ये प्राणी मेरे शरीर का ही नाश कर रहे हैं, मेरे ज्ञानादि गुणों
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जैन आगमों में समाधिमरण की अवधारणा
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का नहीं। वह आस्रवों से रहित एवं आत्मतुष्ट हो उस पीड़ा को समभाव के समय भय से संत्रस्त होता है और हारने वाले धूर्त जुआरी की से सहन करे। ग्रन्थियों अर्थात् अन्तर-बाह्य परिग्रह से रहित मृत्यु के तरह शोक करता अकाम-मरण को अर्थात् निप्रयोजन मरण को प्राप्त अवसर पर पारङ्गत भिक्षु के इस समाधिमरण को संयमी जीवन के होता है, जबकि सकाम-मरण पण्डितों को प्राप्त होता है। संयत जितेन्द्रिय लिए अधिक श्रेष्ठ माना गया है।
पुण्यात्माओं को ही अति प्रसन्न अर्थात् निराकुल एवं आधातरहित यह भक्तप्रत्याख्यान के अतिरिक्त समाधिमरण का एक रूप इङ्गितिमरण मरण प्राप्त होता है। ऐसा मरण न तो सभी भिक्षुओं को मिलता है, बताया है। इसमें साधक दूसरों से सेवा लेने का त्रिविध रूप से परित्याग न सभी गृहस्थों को। जो भिक्षु हिंसा आदि से निवृत्त होकर संयम कर देता है, ऐसा भिक्षु हरियाली पर नहीं सोए अपितु जीवों से रहित का अभ्यास करते हैं, उन्हें ही ऐसा सकाम-मरण प्राप्त होता है। स्थण्डिल भूमि पर ही सोए। वह अनाहार भिक्षु देह आदि के प्रति उत्तराध्ययनसूत्र यह स्पष्ट निर्देश देता है कि मेधावी साधक ममत्व का विसर्जन करके परीषहों से आक्रान्त होने पर उन्हें समभाव बालमरण व पण्डितमरण की तुलना करके सकाम-मरण को स्वीकार से सहन करे। इन्द्रियों के ग्लान हो जाने पर वह मुनि समितिपूर्वक कर मरण काल में क्षमा और दया धर्म से युक्त हो, तथाभूत आत्मभाव ही अपने हाथ-पैर आदि का संकोच-विस्तार करे, क्योंकि जो अचल में मरण करे। जब मरण काल उपस्थित हो तो जिस श्रद्धा से प्रव्रज्या एवं समभाव से युक्त होता है वह निन्दित नहीं होता। वह जब लेटे-लेटे स्वीकार की थी, उसी श्रद्धा व शान्त भाव से शरीर के भेद अर्थात् या बैठे-बैठे थक जाय तो शरीर के संधारण के लिए थोड़ा गमनागमन देहपात की प्रतिज्ञा करे। मृत्यु के समय आने पर तीन प्रकार के एक करे या हाथ-पैरों को हिलाए, किन्तु सम्भव हो तो अचेतनवत् निश्चेष्ट से एक श्रेष्ठ समाधिमरणों से शरीर का परित्याग करे। हो जाये। इस अद्वितीय मरण पर आसीन व्यक्ति उन काष्ठ-स्तम्भों इस प्रकार हम देखते हैं कि उत्तराध्ययनसूत्र के पञ्चम अध्याय या फलक आदि का सहारा न ले, जो दीमक आदि से युक्त हो अथवा में भी उन्हीं तीनों प्रकार के समाधिमरणों का उल्लेख है जिसकी चर्चा वर्जित हो। जो साधक इङ्गितिमरण से भी उच्चतर प्रायोपगमन या हम आचाराङ्गसूत्र के सम्बन्ध में कर चुके हैं। फिर भी ज्ञातव्य है कि पादोपगमन संथारे को ग्रहण करता है, वह सभी अङ्गों का निरोध करके उत्तराध्ययनसूत्र का यह विवरण समाधिमरण के हेतु प्रेरणा प्रदान करने अपने स्थान से चलित नहीं होता है-यह प्रायोपगमन, भक्त प्रत्याख्यान की ही दृष्टि से है। दूसरे शब्दों में यह मात्र उपदेशात्मक विवरण है। और इङ्गितिमरण की अपेक्षा उत्तम स्थान है। ऐसा भिक्षु जीव-जन्तु इसमें किन परिस्थतियों में समाधिमरण ग्रहण किया जाय इसकी चर्चा से रहित भूमि को देखकर वहाँ निश्चेष्ट होकर रहे और वहाँ अपने शरीर नहीं है। मात्र यत्र-तत्र समाधिमरण के कुछ सङ्केत ही हैं। उत्तराध्ययनसूत्र को स्थापित कर यह विचार करे कि जब शरीर ही मेरा नहीं है तो में समाधिमरण या संलेखना के काल आदि के सम्बन्ध में और उसकी फिर मुझे परीषह या पीड़ा कैसी? वह संसार के सभी भोगों को नश्वर प्रक्रिया के सम्बन्ध में जो उल्लेख है वह उसके ३६वें अध्याय में जानकर, उनमें आसक्त न हो। देवों द्वारा निमन्त्रित होने पर वह देव इस प्रकार से वर्णित हैमाया पर श्रद्धा न करे। सभी भोगों में अमर्छित होकर मृत्य के अवसर अनेक वर्षों तक श्रामण्य का पालन करके मुनि इस अनुक्रम का पारगामी वह तितिक्षा को ही परम हितकर जानकर निर्ममत्वभाव से आत्मा की संलेखना के विकारों को क्षीण करे। उत्कृष्ट संलेखना को अन्यतम साध्य माने।
बारह वर्ष की होती है, मध्यम एक वर्ष की और जघन्य छह मास
की होती है। प्रथम चार वर्षों में दुग्ध आदि विकृतियों का नि!हण-त्याग उत्तराध्ययनसूत्र और समाधिमरण
करें, दूसरे चार वर्षों में विविध प्रकार के तप करे, फिर दो वर्षों तक इस प्रकार हम देखते हैं कि आचाराङ्गसूत्र में समाधिमरण के एकान्तर तप (एक दिन उपवास और फिर एक दिन भोजन) करें। प्रकार, उसकी प्रक्रिया तथा उसे किन स्थितियों में ग्रहण किया जा भोजन के दिन आचाम्ल करे। उसके बाद ग्यारहवें वर्ष में पहले छह सकता है, इसकी विस्तृत चर्चा है। आचाराङ्गसूत्र के पश्चात् प्राचीन महिनों तक कोई भी अतिविकृष्ट (तेला, चौला आदि) तप न करे। स्तर के अर्धमागधी आगम उत्तराध्ययन में भी समाधिमरण का विवरण उसके बाद छह महीने तक विकृष्ट तप करे। इस पूरे वर्ष में परिपित उसके ५वें एवं ३६वें अध्याय में उपलब्ध होता है। उसके पाँचवें अध्याय (पारणों के दिन) आचाम्ल करे। बारहवें वर्ष में एक वर्ष तक कोटि में सर्वप्रथम मृत्यु के दो रूपों की चर्चा है- १. अकाम-मरण और सहित अर्थात् निरन्तर, आचाम्ल करके फिर मुनि पक्ष या एक मास २. सकाम-मरण। उसमें यह बताया गया है कि अकाम-मरण बार-बार का आहार से तप अर्थात् अनशन करे। कादपी, अभियोगी, किल्बिषिकी, होता है- जबकि सकाम-मरण एक ही बार होता है। ज्ञातव्य है कि मोही और आसुरी भावनाएँ दुर्गति देने वाली हैं। ये मृत्यु के समय यहाँ अकाम-करण का तात्पर्य कामना से रहित मरण न होकर आत्म में संयम की विराधना करती हैं। अत: जो मरते समय मिथ्या-दर्शन पुरुषार्थ से रहित निरुद्देश्य या निष्प्रयोजनपूर्वक मरण से है। इसी प्रकार में अनुरक्त है, निदान से युक्त है और हिंसक है, उसे बोधि बहुत सकाम-मरण का तात्पर्य पुरुषार्थ या साधना से युक्त सोद्देश्यमरण या दुर्लभ है। जो सम्यग्दर्शन में अनुरक्त है, निदान से रहित है, शुक्ल-लेश्या मुक्ति के प्रयोजनपूर्वक मरण से है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार में अवगाढ़- प्रविष्ट है, उसे बोधि सुलभ है। जो जिन वचन में अनुरक्त अकाम-करण करने वाला व्यक्ति संसार में आसक्त होकर अनाचार का है, जिन वचनों का भावपूर्वक आचरण करता है, वह निर्मल और सेवन करता है और काम-भोगों के पीछे भागता है, ऐसा व्यक्ति मृत्यु रागादि से असंक्लिष्ट होकर परीत संसारी (परिमित संसार वाला) होता है।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
अन्य अङ्ग-आगम और समाधिमरण
उपासकदशासूत्र में भगवान् महावीर के आनन्द, कामदेव, सकडालपुत्र, आचाराङ्गसूत्र व उत्तराध्ययनसूत्र के पश्चात् अर्धमागधी में चुलिनीपिता आदि दश गृहस्थ उपासकों द्वारा समाधिमरण ग्रहण करने स्थानाङ्गसूत्र और समवायाङ्गसूत्र में समाधिमरण से सम्बन्धित मात्र कुछ और उनमें विघ्नों के उपस्थित होने तथा आनन्द को इस अवस्था में सङ्केत हैं। स्थानाङ्गसूत्र (२/४) में दो-दो के वर्गों में विभाजित करते विस्तृत अवधिज्ञान उत्पन्न होने, गौतम के द्वारा आनन्द से क्षमा-याचना हुए श्रमण भगवान् महावीर द्वारा अनुमोदित मरणों का उल्लेख है। करने आदि के उल्लेख हैं। इसी प्रकार अन्तकृत्दशासूत्र में कुछ श्रमणों महावीर ने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए दो प्रकार के मरण कभी भी वर्णित, और आर्यिकाओं द्वारा समाधिमरण स्वीकार करने और उस दशा में कीर्तित, उक्त, प्रशंसित और अननुमोदित नहीं किये हैं- वलन्मरण कैवल्य एवं मोक्ष प्राप्त करने के निर्देश हैं। किन्तु विस्तार भय से और वशार्तमरण। इसी प्रकार निदानमरण और तद्भवमरण, गिरिपतन इन सबकी चर्चा में जाना हम यहाँ आवश्यक नहीं समझते। इतना और तरुपतनमरण, जलप्रवेशमरण और अग्निप्रवेशमरण, विषभक्षणमरण अवश्य ज्ञातव्य है कि इनमें से कुछ कथाओं के निर्देश श्वेताम्बर परम्परा और शास्त्रावपातनमरण। ये दो-दो प्रकार के मरण श्रमण-निर्ग्रन्थों के में मरणविभक्ति में तथा अचेल परम्परा के भगवती आराधना में भी लिए श्रमण भगवान् महावीर ने कभी भी वर्णित, कीर्तित, उक्त, प्रशंसित पाये जाते हैं। यहाँ हम केवल अन्तकृत्दशासूत्र (वर्ग८, अध्याय१)
और अनुमोदित नहीं किये हैं। किन्तु कारण-विशेष होने पर वैहायस का वह उल्लेख करना चाहेंगे जिसमें साधक किस स्थिति में समाधिमरण (वैरवानस) और गृद्धपृष्ठ ये दो मरण अनुमोदित किये हैं। श्रमण महावीर ग्रहण करता था, इसका सुन्दर चित्रण किया गया है - ने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए दो प्रकार के मरण सदा वर्णित, कीर्तित, “तत्पश्चात् काली आर्या, उस उराल-प्रधान, विपुल, दीर्घकालीन, उक्त, प्रशंसित और अनुमोदित किये हैं- प्रायोपगमनमरण और भक्त विस्तीर्ण, सश्रीक-शोभासम्पन्न, गुरु द्वारा प्रदत्त अथवा प्रयत्नसाध्य, प्रत्याख्यानमरण। प्रायोपगमनमरण दो प्रकार का कहा गया है- निर्हारिम बहुमानपूर्वक गृहीत, कल्याणकारी, निरोगता-जनक, शिव-मुक्ति के
और अनिर्हारिम। प्रायोपगमनमरण नियमतः अप्रतिकर्म होता है। कारण-भूत, धन्य, माङ्गल्य, पापविनाशक, उदग्र-तीव्र, उदार-निष्काम भक्तप्रत्याख्यानमरण दो प्रकार का कहा गया है- निरिम और होने के कारण औदार्य वाले, उत्तम, अज्ञान अन्धकार से रहित और अनि रिम। भक्तप्रत्याख्यानमरण नियमतः सप्रतिकर्म होता है। महान् प्रभाव वाले, तप-कर्म से शुष्क, नीरस शरीर वाली, रुक्ष, मांस
समवायाङ्गसूत्र (समवाय १७) में मरण के निम्न सतरह प्रकारों रहित और नसों से व्याप्त हो गयी थी। जैसे कोई कोयलों से भरी का उल्लेख हुआ है -
गाड़ी हो, सूखी लकड़ियों से भरी गाड़ी हो, पत्तों से भरी गाड़ी हो, १. आवीचिमरण, २. अवधिमरण, ३. आत्यान्तिकमरण, धूप में डालकर सुखाई हो अर्थात् कोयला, लकड़ी पत्ते आदि खूब ४. वलन्मरण, ५. वशार्तमरण, ६. अन्त:शल्यमरण, ७. तद्भव मरण, सूखा लिये गये हों और फिर गाड़ी में भरे गये हों, तो वह गाड़ी ८. बालमरण, ९. पण्डितमरण, १०. बालपण्डितमरण, ११. छद्मस्थ- खड़-खड़ आवाज करती हुई चलती है और ठहरती है, उसी प्रकार मरण, १२. केवलिमरण, १३. वैखानसमरण, १४. गृद्धपृष्टमरण, काली आर्या हाड़ों की खड़-खड़ाहट के साथ चलती थी और १५. भक्तप्रत्याख्यानमरण, १६. इङ्गितिमरण एवं १७. पादोपगमनमरण।। खड़-खड़ाहट के साथ ठहरती थी। वह तपस्या से तो उपचित-वृद्धि
इनमें से बालपण्डितमरण, पण्डितमरण, छद्मस्थमरण, केवलीमरण, को प्राप्त थी, मगर मांस और रुधिर से अपचित-ह्रास को प्राप्त हो भक्तप्रत्याख्यानमरण, इङ्गितिमरण व प्रायोपगमनमरण का सम्बन्ध गयी थी। भस्म के समूह से आच्छादित अग्नि की तरह तपस्या के समाधिमरण से है। किन्हीं स्थितियों में वैखानसमरण, गृद्धपृष्टमरण तेज से देदीप्यमान वह तपस्तेज की लक्ष्मी से अतीव शोभायमान हो को जैन परम्परा में भी उचित माना गया है। किन्तु ये दोनों अपवादिक रही थी। स्थिति में ही उचित माने गये हैं, जैसे जब ब्रह्मचर्य के पालन और एक दिन रात्रि के पिछले प्रहर में काली आर्या के हृदय में स्कन्दमुनि जीवन के संरक्षण में एक ही विकल्प हो, तो ऐसी स्थिति में वैखानसमरण के समान यह विचार उत्पन्न हुआ- "इस कठोर तपसाधना के कारण द्वारा शरीर त्याग को उचित माना गया है। ज्ञातव्य है कि भगवती मेरा शरीर अत्यन्त कृश हो गया है। तथापि जब तक मेरे इस शरीर आराधना में भी समवायाङ्ग के समान ही मरण के उपर्युक्त सतरह प्रकारों में उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषाकार-पराक्रम है, मन में श्रद्धा, का उल्लेख है। यद्यपि कहीं-कहीं उनके नाम एवं क्रम में अन्तर दिखायी धैर्य एवं वैराग्य है तब तक मेरे लिये उचित है कि कल सूर्योदय देता है। उदाहरणार्थ समवायाङ्ग में छद्मस्थमरण का उल्लेख है जबकि होने के पश्चात् आर्या चन्दना से पूछकर, उनकी आज्ञा प्राप्त होने पर, भगवती आराधना में इसका उल्लेख नहीं है। इसके स्थान पर उसमें संलेखना झूषणा का सेवन करती हुई भक्तपान का त्याग करके, मृत्यु
ओसन्नमरण का उल्लेख है। समवायाङ्गसूत्र के पश्चात् ज्ञाताधर्मकथासूत्र, के प्रति निष्काम होकर विचरण करूँ।" ऐसा सोचकर वह अगले दिन उपासकदशासूत्र, अन्तकृत्शासूत्र, अनुत्तरौपपातिकदशासूत्र तथा विपाकदशा- सूर्योदय होते ही जहाँ आर्या चन्दना थी वहाँ आई और वन्दना-नमस्कार सूत्र, आदि अङ्ग आगमों में जीवन के अन्तिम काल में संलेखना द्वारा कर इस प्रकार बोली- "हे आयें! आपकी आज्ञा हो तो मैं संलेखना शरीर त्यागने वाले साधकों की कथाएँ हैं। इसमें भगवतीसूत्र में अम्बड़ झूषणा करती हुई विचरना चाहती हूँ।" आर्या चन्दना ने कहा- “हे संन्यासी और उसके ५०० शिष्यों के द्वारा अदत्त जल का सेवन नहीं देवानुप्रिये! जैसे तुम्हें सुख हो, वैसा करो। सत्कार्य में विलम्ब न करो।" करते हुए गङ्गा की बालू पर समाधिमरण लेने का उल्लेख है। तब आर्या चन्दना की आज्ञा पाकर काली आर्या संलेखना झूषणा ग्रहण
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जैन आगमों में समाधिमरण की अवधारणा
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करके यावत् विचरने लगी। काली आर्या ने आर्या चन्दना के पास भी गुरु के समीप अपने दोषों की आलोचना करके मृत्यु के समय सामायिक से लेकर ग्यारह अङ्गों का अध्ययन किया और पूरे आठ शुद्ध अवस्था को प्राप्त होता है। जो साधु मरणकाल में आसक्त नहीं वर्ष तक चारित्रधर्म का पालन करके एक मास की संलेखना से आत्मा होता, वही आराधक है। इस प्रकार चन्द्रवेध्यक मुख्य रूप से समाधिमरण को झोषित कर साठ भक्त का अनशन पूर्ण कर, जिस हेतु से संयम करने वाले साधक की जीवन दृष्टि कैसी होनी चाहिए, इसकी चर्चा ग्रहण किया था यावत् उसको अन्तिम श्वासोच्छ्वास तक पूर्ण किया करता है। तथा सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गई।
चन्द्रवेध्यक के पश्चात् जो प्रकीर्णक ग्रन्थ पूर्णतः समाधिमरण की इस प्रकार हम देखते हैं कि अन्तकृत् दशा में जब शरीर पूर्णतया अवधारणा को ही अपना विषय बनाते हैं, उनमें आतुरप्रत्याख्यान और ग्लान हो जाय, ऐसी स्थिति में ही समाधिमरण लेने का उल्लेख है। महाप्रत्याख्यान प्रमुख हैं।
ज्ञातव्य है कि आतुरप्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान की लगभग प्रकीर्णक और समाधिमरण
एक सौ गाथाएँ मूलाचार के संक्षिप्त प्रत्याख्यान और बृहद्-प्रत्याख्यान श्वेताम्बर परम्परा में समाधिमरण से सम्बन्धित जो ग्रन्थ लिखे नामक अध्ययनों में उपलब्ध होती हैं। आतुरप्रत्याख्यान के नाम से गये हैं, उनमें चन्द्रवेध्यक, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, संस्तारक, तीन प्रकीर्णक ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। एक आतुरप्रत्याख्यान में तीस भक्तपरिज्ञा और मरणविभक्ति आदि प्रमुख हैं। चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक गाथाएँ और कुछ गद्य भाग हैं, जबकि दूसरे में चौतीस गाथाएँ हैं और का अन्तिम लक्ष्य तो समाधिमरण का निरूपण ही है, किन्तु उसकी तीसरे में एकहत्तर गाथाएँ हैं। वैसे इन सभी आतुरप्रत्याख्यान नामक पूर्व भूमिका के रूप में विनय गुण, आचार्य गुण, विनयनिग्रह गुण, प्रकीर्णकों का विषय समाधिमरण ही है। प्रथम आतुरप्रत्याख्यान में ज्ञान गुण और चरण गुणद्वार नामक प्रथम पाँच द्वारों में समाधिमरण पञ्चमङ्गल के पश्चात् अरिहंत आदि से क्षमा-याचना और उत्तम अर्थ से सम्बन्धित विषयों का विवरण दिया गया है और अन्त में छठां अर्थात् समाधिमरण की आराधना के लिए १८ पाप स्थानों का और समाधिमरण द्वार है। इस प्रकीर्णक में १७५ गाथाएँ हैं, किन्तु कुछ शरीर के संरक्षण का परित्याग तथा अन्त में सागार एवं निरागार प्रतियों में ७५ गाथाएँ और भी मिलती हैं, जिनमें से अधिकांश गाथायें समाधिमरण के प्रत्याख्यान की चर्चा है। इसके अन्त में संसार के आतुरप्रत्याख्यान में यथावत् उपलब्ध होती हैं। ग्रन्थ के अन्त में मरण सभी प्राणियों से क्षमा-याचना के सन्दर्भ में १३ गाथाएँ हैं और अन्त गुणद्वार नामक सप्तम द्वार में सबसे अधिक ५८ गाथाएँ हैं। इसमें में एकत्व भावना का उल्लेख है। जिसमें कहा गया है कि "ज्ञान-दर्शन अकृतयोगी और कृत-योग के माध्यम से यह बताया गया है कि जो से युक्त एक मेरी आत्मा ही शाश्वत है, शेष सभी बाह्य पदार्थ सांयोगिक व्यक्ति विषय-वासनाओं के वशीभूत होकर जीवन जीता है, वह हैं। सांयोगिक पदार्थों के प्रति ममत्व ही दुःख परम्परा का कारण है। अकृत-योग है तथा जो इसके विपरीत वासनाओं एवं कषायों पर नियन्त्रण अत: त्रिविध रूप से संयोग का परित्याग कर देना चाहिए।" ज्ञातव्य कर जीवन जीता है वह कृतयोगी है और जो कृतयोगी है, उसी का है कि ये गाथाएँ भगवती आराधना एवं मूलाचार के साथ-साथ कुंदकुंद मरण सार्थक है या समाधिमरण है। इसमें किस प्रकार की जीवनदृष्टि के ग्रन्थों में भी यथावत रूप में उपलब्ध होती हैं। आतुरप्रत्याख्यान व आचार-विचार का पालन करते हुए व्यक्ति समाधिमरण को प्राप्त नामक दूसरे ग्रन्थ में अविरति का प्रत्याख्यान, ममत्वत्याग, देव के कर सकता है, इसका विस्तृत विवेचन है। इसमें कहा गया है कि प्रति उपालम्भ, शुभ भावना, अरहंत आदि का स्मरण तथा समाधिमरण जो सम्यक्त्व से युक्त लब्धबुद्धि साधक आलोचना करके मरण को के अङ्गों की चर्चा है। इसी नाम के तृतीय प्रकीर्णक में एकहत्तर गाथाएँ प्राप्त होता है, उसका मरण शुद्ध होता है इसके विपरीत जो इन्द्रिय हैं। इसमें मुख्य रूप से बालपण्डितमरण और पण्डितमरण ऐसे दो सुखों की ओर दौड़ता है वह अकृत परिक्रम जीव आराधना काल प्रकार के समाधिमरणों की चर्चा की गयी है। इसमें प्रथम चार गाथाओं में विचलित हो जाता है। जिस प्रकार लक्ष्य भेद का साधक अपना में देशव्रती श्रावक के लिए बालपण्डितमरण का विधान है। जबकि ध्यान बाह्य विषयों की ओर न लगाकर केवल लक्ष्य की ओर रखता मुनि के लिए पण्डितमरण का विधान है। इसमें उत्तम अर्थ समाधिमरण है, उसी प्रकार जो व्यक्ति राग-द्वेष का निग्रह करता है, त्रिदण्ड और की प्राप्ति के लिए किस प्रकार के ध्यानों (विचारों) की आवश्यकता चार कषायों से अपनी आत्मा को लिप्त नहीं होने देता, पाँचों इन्द्रियों है, इसकी चर्चायें हैं। इसके पश्चात् सब पापों के प्रत्याख्यान के साथ पर नियन्त्रण रखता है, वह छह जीव निकाय की हिंसा एवं सात भयों आत्मा के एकत्व की अनुभूति की चर्चा भी है। अन्त में आलोचनादायक से रहित मार्दव भाव से युक्त होता है, आठ मदों से रहित होकर नौ और आलोचनाग्राहक के गुणों की चर्चा करते हुए तीन प्रकार के मरणों प्रकार से ब्रह्मचर्य का पालन करता है तथा दस धर्म का पालन करते की चर्चा की गई है- बालमरण, बालपण्डितमरण, पण्डितमरण। हुए शुक्ल ध्यान के अभिमुख होता है और वही व्यक्ति मरणकाल इसके पश्चात् असमाधिमरण के फल की चर्चा की गयी है और फिर में कृतयोगी होता है। जो व्यक्ति जिन उपदिष्ट समाधिमरण की आराधना यह बताया गया है कि बालमरण और पण्डितमरण क्या है? शस्त्र-ग्रहण, करता है, वह धूत क्लेश होकर भावशल्यों का निवारण करके शुद्ध विष-भक्षण, जल-प्रवेश, अग्नि-प्रवेश आदि द्वारा मृत्य को प्राप्त करना अवस्था को प्राप्त होता है। जिस प्रकार सकुशल वैद्य भी अपनी व्याधि बालमरण है तथा इसके विपरीत अनशन द्वारा देहासक्ति का त्याग कर को अन्य से कहकर उसकी चिकित्सा करवाता है, उसी प्रकार साधु कषायों को क्षीण करना पण्डितमरण है। अन्त में पण्डितमरण की
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भावनाएँ और उसकी विधि की चर्चा है।
महाप्रत्याख्यान नामक प्रकीर्णक में १४२ गाथाएँ हैं। इसमें बाह्य एवं आभ्यन्तर परिग्रह का परित्याग, सर्वजीवों से क्षमा-याचना, आत्मालोचन, ममत्व का छेदन, आत्मस्वरूप का ध्यान, मूल एवं उत्तर गुणों की आराधना, एकत्व भावना, संयोग सम्बन्धों के परित्याग आदि की चर्चा करते हुए आलोचक के स्वरूप का भी विवरण दिया गया है। इसी प्रसङ्ग में पाँच महाव्रतों एवं समिति गुप्ति के स्वरूप की चर्चा भी है। साथ ही साथ तप के महत्त्व को बताया गया है। फिर अकृत- योग एवं कृत योग की चर्चा करके पण्डितमरण की प्ररूपणा की गयी है। इसी प्रसङ्ग में ज्ञान की प्रधानता का भी चित्रण हुआ है। अन्त में संसारतरण एवं कर्मों से निस्तार पाने का उपदेश देते हुए आराधना रूपी पताका को फहराने का निर्देश है। साथ ही पाँच प्रकार की आराधना व उनके फलों की चर्चा करते हुए धीरमरण (समाधिमरण) की प्रशंसा की गयी है।
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
संस्तारक प्रकीर्णक का विषय भी समाधिमरण ही है। इस प्रकीर्णक में १२२ गाथाएँ हैं। प्रारम्भ में मङ्गल के साथ-साथ कुछ श्रेष्ठ वस्तुओं और सद्गुणों की चर्चा है। इसमें कहा गया है कि समाधिमरण परमार्थ, परम- आयतन, परमकल्प और परमगति का साधक है। जिस प्रकार पर्वतों में मेरुपर्वत एवं तारागणों में चन्द्र श्रेष्ठ है, उसी प्रकार सुविहित जनों के लिए संथारा श्रेष्ठ है। इसी में आगे १२ गाथाओं में संस्तारक के स्वरूप का विवेचन है। इस प्रसन में यह बताया गया है कि कौन व्यक्ति समाधिमरण को ग्रहण कर सकता है? यह ग्रन्थ क्षपक के लाभ एवं सुख की चर्चा करता है। इसमें संथारा ग्रहण करने वाले कुछ व्यक्तियों के उल्लेख हैं, यथा सुकोशल ऋषि, अवन्ति-सुकुमाल, कार्तिकेय, पाटलीपुत्र के चंदक- पुत्र (सम्भवत: चन्द्रगुप्त ) तथा चाणक्य आदि।
ज्ञातव्य है कि इसकी अधिकांश कथाएँ यापनीय ग्रन्थ भगवती आराधना में भी उपलब्ध होती हैं। विद्वानों से अनुरोध है कि संस्तारक एवं मरणविभक्ति में वर्णित इन कथाओं की बृहत्कथाकोश तथा आराधना कोश से तुलना करें अन्त में संस्तारक की भावनाओं का चित्रण है। इसकी अनेक गाथाएँ आतुरप्रत्याख्यान एवं चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक में भी मिलती हैं।
श्वेताम्बर आगम साहित्य में समाधिमरण के सम्बन्ध में सबसे विस्तृत ग्रन्थ मरणविभक्ति है। वस्तुतः मरणविभक्ति एक ग्रन्थ न होकर
समाधिमरण से सम्बन्धित प्राचीन आठ अन्यों के आधार पर निर्मित हुआ एक सङ्कलन ग्रन्थ है । यद्यपि इसमें इन आठ ग्रन्थों की गाथाएँ कहीं शब्द रूप में, तो कहीं भाव रूप से ही गृहीत हैं। फिर भी समाधिमरण सम्बन्धित सभी विषयों को एक स्थान पर प्रस्तुत करने की दृष्टि से यह ग्रन्थ अति महत्त्वपूर्ण है। इसमें ६६३ गाथाएँ हैं। यह ग्रन्थ संक्षिप्त होते हुए भी भगवती आराधना के समान ही अपने विषय को समग्र रूप से प्रस्तुत करता है । विस्तार भय से यहाँ इसकी समस्त विषय-वस्तु का प्रतिपादन कर पाना सम्भव नहीं है इसमें १४ द्वार अर्थात् अध्ययन हैं। इस ग्रन्थ में भी संस्तारक के समान ही पण्डित - मरणपूर्वक मुक्ति प्राप्त करने वाले साधकों के दृष्टान्त हैं। जिनमें से अधिकांश भगवती आराधना एवं संस्तारक में मिलते हैं। इसी ग्रन्थ में अनित्य आदि बारह भावनाओं का भी विवेचन है।
इसके अतिरिक्त आराधनापताका नामक एक ग्रन्थ और है। यह ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित है। कुछ विद्वानों का ऐसा कहना है कि यह ग्रन्थ यापनीय ग्रन्थ भगवती आराधना के आधार पर आचार्य वीरभद्र द्वारा निर्मित हुआ है, किन्तु इस ग्रन्थ में भक्तपरिज्ञा, पिण्डनिर्युक्ति और आवश्यकनियुक्ति की अनेकों गाथाएँ भी हैं। अतः यह किस ग्रन्थ के आधार पर निर्मित हुआ है, यह शोध का विषय है।
इसी प्रकार श्वेताम्बर परम्परा में समाधिमरण से सम्बन्धित अनेक ग्रन्थ परवर्ती श्वेताम्बराचार्यों द्वारा भी लिखे गये हैं, जिनमें पूर्ण विस्तार के साथ समाधिमरण सम्बन्धी विवरण है, किन्तु ये ग्रन्थ परवर्तीकाल के हैं और हम अपने विषय को अर्धमागधी आगम साहित्य तक ही सीमित रखने के कारण इनकी विशेष चर्चा यहाँ नहीं करना चाहेंगे। यह समस्त चर्चा भी हमने सङ्केत रूप में ही की है। विद्वानों से अनुरोध है कि वे इस तुलनात्मक अध्ययन को आगे बढ़ायें। इस सम्बन्ध में अनेक आगमिक व्याख्या ग्रन्थ जैसे आचाराङ्गनिर्युक्ति, सूत्रकृताङ्गनिर्युक्ति, आवश्यकनियुक्ति, निशीषभाष्य बृहत्कल्पभाष्य, व्यवहारभाष्य, निशीथचूर्णि आदि भी उनके उपजीव्य हो सकते हैं। इसी प्रकार आगमों की शीलाइ और अभयदेव की वृत्तियाँ भी बहुत कुछ सूचनायें प्रदान कर सकती हैं। उदाहरण के रूप में क्षपक अर्थात् संलेखना लेने वाले श्रमण के मरणोपरान्त देह को किस प्रकार विसर्जित किया जाये, इसकी चर्चा भगवती आराधना और निशीथचूर्णि में समान रूप से मिलती है। आशा है विद्वानों की आगामी पीढ़ी इस तुलनात्मक चर्चा को पूर्णता प्रदान करेंगी।
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जैन धर्म में स्वाध्याय का अर्थ एवं स्थान
जैन साधना का लक्ष्य समभाव (सामायिक) की उपलब्धि है और कोई है और न भविष्य में कोई होगा। इस प्रकार जैन परम्परा में स्वाध्याय समभाव की उपलब्धि हेतु स्वाध्याय और सत्साहित्य का अध्ययन को आध्यत्मिक साधना के क्षेत्र में विशेष महत्त्व दिया गया है। आवश्यक है। सत्साहित्य का स्वाध्याय मनुष्य का एक ऐसा मित्र है, उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि स्वाध्याय से ज्ञान का प्रकाश प्राप्त जो अनुकूल एवं प्रतिकूल दोनों स्थितियों में उसका साथ निभाता है होता है, जिससे समस्त दुःखों का क्षय हो जाता है। वस्तुत: स्वाध्याय और उसका मार्ग-दर्शन कर उसके मानसिक विक्षोभों एवं तनावों को ज्ञान प्राप्ति का एक महत्त्वपूर्ण उपाय है। कहा भी हैसमाप्त करता है। ऐसे साहित्य के स्वाध्याय से व्यक्ति को सदैव ही नाणस्स सव्वस्स पगासणाए, अनाण-मोहस्स विवज्जणाए। आत्मतोष और आध्यात्मिक आनन्द की अनुभूति होती है, मानसिक रागस्स दोसस्स य संखएणं, एगन्तसोक्खं समुवेई मोक्खं ।। तनावों से मुक्ति मिलती है। यह मानसिक शान्ति का अमोघ तस्सेस मग्गो गुरु-विद्धसेवा, वज्जणा बालजणस्स दूरा। उपाय है।
सज्झाय-एगन्तनिसेवणा य, सुत्तत्थसंचिन्तणया घिई य ।।
अर्थात् सम्पूर्ण ज्ञान के प्रकाशन से, अज्ञान और मोह के परिहार स्वाध्याय का महत्त्व
से, राग-द्वेष के पूर्ण क्षय से जीव एकान्त सुख-रूप मोक्ष को प्राप्त सत्साहित्य स्वाध्याय का महत्त्व अति प्राचीन काल से ही स्वीकृत करता है। गुरुजनों की और वृद्धों की सेवा करना, अज्ञानी लोगों के रहा है। औपनिषदिक चिन्तन में जब शिष्य अपनी शिक्षा पूर्ण करके सम्पर्क से दूर रहना, सूत्र और अर्थ का चिन्तन करना स्वाध्याय करना गुरु के आश्रम से बिदाई लेता था, तो उसे दी जाने वाली अन्तिम और धैर्य रखना—यही दुःखों से मुक्ति का उपाय है। शिक्षाओं में एक शिक्षा होती थी---स्वाध्यायान् मा प्रमदः अर्थात् स्वाध्याय में प्रमाद मत करना। स्वाध्याय एक ऐसी वस्तु है जो गुरु स्वाध्याय का अर्थ की अनुपस्थिति में भी गुरु का कार्य करती थी। स्वाध्याय से हम कोई- स्वाध्याय शब्द का सामान्य अर्थ है-स्व का अध्ययन। न-कोई मार्ग-दर्शन प्राप्त कर ही लेते हैं। महात्मा गांधी कहा करते वाचस्पत्यम् में स्वाध्याय शब्द की व्याख्या दो प्रकार से की गयी हैथे कि “जब भी मैं किसी कठिनाई में होता हूँ, मेरे समाने कोई जटिल १. स्व अधि ईण, जिसका तात्पर्य है स्व का अध्ययन करना। दूसरे समस्या होती है, जिसका निदान मुझे स्पष्ट रुप से प्रतीत नहीं होता शब्दों में स्वाध्याय आत्मानुभूति है, अपने अन्दर झांक कर अपने आप है। मैं गीता-माता की गोद में चला जाता हूँ, वहाँ मुझे कोई-न-कोई को देखना है। वह स्वयं अपना अध्ययन है। मेरी दृष्टि में अपने विचारों, समाधान अवश्य मिल जाता है।" यह सत्य है कि व्यक्ति कितने ही वासनाओं व अनुभूतियों को जानने व समझने का प्रयत्न ही स्वाध्याय तनाव में क्यों न हो, अगर वह ईमानदारी से सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय है। वस्तुत: वह अपनी आत्मा का अध्ययन ही है, आत्मा के दर्पण करता है तो उसे उनमें अपनी पीड़ा से मुक्ति का मार्ग अवश्य ही में अपने को देखना है। जब तक स्व का अध्ययन नहीं होगा, व्यक्ति दिखाई देता है।
अपनी वासनाओं एवं विकारों का द्रष्टा नहीं बनेगा तब तक वह उन्हें जैन परम्परा में जिसे मुक्ति कहा गया है, वह वस्तुत: राग-द्वेष दूर करने का प्रयत्न भी नहीं करेगा और जब तक वे दूर नहीं होंगे, से मुक्ति है, मानसिक तनावों से मुक्ति है और ऐसी मुक्ति के लिए तब तक आध्यात्मिक पवित्रता या आत्म-विशुद्धि सम्भव नहीं होगी पूर्व कर्म संस्कारों का निर्जरण या क्षय आवश्यक माना गया है। निर्जरा और आत्म-विशुद्धि के बिना मुक्ति असम्भव है। यह एक सुस्पष्ट तथ्य का अर्थ है- मानसिक ग्रन्थियों को जर्जरित करना अर्थात् मन की है कि जो गृहिणी अपने घर की गन्दगी को देख पाती है, वह उसे राग-द्वेष, अहंकार आदि की गांठों को खोलना। इसे ग्रन्थि-भेद करना दूर कर घर को स्वच्छ भी रख सकती है। इसी प्रकार जो व्यक्ति अपनी भी कहते हैं। निर्जरा एक साधना है। वस्तुत: वह तप की ही साधना मनोदैहिक विकृतियों को जान लेता है और उनके कारणों का निदान है। जैन परम्परा में तप साधना के जो १२ भेद माने गए है, उनमें कर लेता है, वही सुयोग्य वैद्य के परामर्श से उनकी योग्य चिकित्सा स्वाध्याय की गणना आन्तरिक तप के अन्तर्गत होती है । इस प्रकार करके अन्त में स्वास्थ्य लाभ करता है। यही बात हमारी आध्यात्मिक स्वाध्याय मुक्ति का मार्ग है, जैन साधना का एक आवश्यक अंग है। विकृतियों को दूर करने की प्रक्रिया में भी लागू होती है। जो व्यक्ति
उत्तराध्ययनसूत्र में स्वाध्याय को आन्तरिक तप का एक प्रकार स्वयं अपने अन्दर झाँककर अपनी चैतसिक विकृतियों अर्थात् कषायों बताते हुए उसके पाँचों अंगों एवं उनकी उपलब्धियों की विस्तार से को जान लेता है, वही योग्य गुरु के सानिध्य में उनका निराकरण चर्चा की गई है। बृहत्कल्पभाष्य में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है करके आध्यात्मिक विशुद्धता को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार स्वाध्याय कि “नवि अस्थि न वि अ होही, सज्झाय समं तवोकम्म" अर्थात् अर्थात् स्व का अध्ययन आत्म-विशुद्धि की एक अनुपम साधना सिद्ध स्वाध्याय के समान दूसरा तप न अतीत में कोई था, न वर्तमान में होती है। हमें स्मरण रखना होगा स्वाध्याय का मूल अर्थ जो, स्वयं
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ में झांकने की प्रक्रिया है। स्वयं को जानने और पहचानने की वृत्ति के स्पष्टीकरण के निमित्त प्रश्न-उत्तर करना। के अभाव से सूत्रों या ग्रन्थों के अध्ययन का कोई भी लाभ नहीं होता। ३. पूर्व पठित ग्रन्थ की पुनरावृत्ति या पारायण करना, यह अन्तर्चक्षु के उन्मीलन के बिना ज्ञान का प्रकाश सार्थक नहीं बन पाता परावर्तना है। है। कहा भी है
४.पूर्व पठित विषय के सन्दर्भ में चिन्तन-मनन करना सुबहंपि सुयमहीयं, किं काही? चरणविप्पहीणस्स।
अनुप्रेक्षा है। अंधस्स जह पलित्ता, दीवसयसहस्स कोडिवि ।।
५. इसी प्रकार अध्ययन के माध्यम से जो ज्ञान प्राप्त हुआ है, अप्पंपि सुयमहीयं, पयासयं होई चरणजुत्तस्स।।
उसे दूसरों को प्रदान करना या धर्मोपदेश देना धर्मकथा है। इक्को वि जह पईवो, सचक्खुअस्स पयासेई ।।
यहाँ यह भी स्मरण रखना है कि स्वाध्याय के क्षेत्र में इन पाँच अर्थात् जैसे अंधे व्यक्ति के लिए करोड़ों दीपकों का प्रकाश भी अवस्थाओं का एक क्रम है। इनमें प्रथम स्थान वाचना का है। अध्ययन व्यर्थ है, किन्तु आँख वाले व्यक्ति के लिए एक भी दीपक का प्रकाश किए गए विषय के स्पष्ट बोध के लिए प्रश्नोत्तर के माध्यम से शंका सार्थक होता है, उसी प्रकार जिसके अन्तर्चक्षु खुल गये हैं, जिसकी का निवारण करना, इसका क्रम दूसरा है, क्योंकि जब तक अध्ययन अन्तर्यात्रा प्रारम्भ हो चुकी है, ऐसे आध्यात्मिक साधक के लिए स्वल्प नहीं होगा तब तक शंका आदि भी नहीं होगें। अध्ययन किए गए अध्ययन भी लाभप्रद होता है, अन्यथा आत्म-विस्मृत व्यक्ति के लिए विषय के स्थिरीकरण के लिए उसका पारायण आवश्यक है। इससे करोड़ों पदों का ज्ञान भी निरर्थक है। स्वाध्याय में अन्तर्चक्षु का खुलना, एक ओर स्मृति सुदृढ़ होती है तो दूसरी ओर क्रमश: अर्थ-बोध में आत्मद्रष्टा बनना, स्वयं में झांकना, पहली शर्त है तथा शास्त्र का पढ़ना स्पष्टता का विकास होता है। इसके पश्चात् अनुप्रेक्षा या चिन्तन का या अध्ययन करना उसका दूसरी शर्त है।
क्रम आता है। चिन्तन के माध्यम से व्यक्ति पठित विषय को न केवल स्वाध्याय शब्द की दूसरी व्याख्या सु+आ+अधि ईङ्- इस रूप स्थिर करता है, अपितु वह उसके अर्थबोध की गहराई में जाकर स्वत: में भी की गई है। इस दृष्टि से स्वाध्याय की परिभाषा होती है- की अनुभूति के स्तर पर उसे समझने का प्रयत्न करता है। इस प्रकार शोभनोऽध्याय: स्वाध्यायः अर्थात् सत्साहित्य का अध्ययन करना ही चिन्तन एवं मनन के द्वारा जब विषय स्पष्ट हो जाय, तो व्यक्ति को स्वाध्याय है। स्वाध्याय की इन दोनों परिभाषाओं के आधार पर एक धर्मोपदेश देने या अध्ययन कराने का अधिकार मिलता है। बात जो उभर कर सामने आती है वह यह कि सभी प्रकार का पठनपाठन स्वाध्याय नहीं है। आत्म-विशुद्धि के लिए किया गया अपनी स्वाध्याय के लाभ स्वकीय वृत्तियों, भावनाओं व वासनाओं अथवा विचारों का अध्ययन उत्तराध्ययनसूत्र में यह प्रश्न उपस्थित किया गया है कि स्वाध्याय या निरीक्षण तथा ऐसे सद्ग्रन्थों का पठन-पाठन, जो हमारी चैत्तसिक से जीव को क्या लाभ होता है? इसके उत्तर में कहा गया है कि विकृतियों के समझने और उन्हें दूर करने में सहायक हों, ही स्वाध्याय स्वाध्याय से ज्ञानावरणकर्म का क्षय होता है। दूसरे शब्दों में आत्मा के अन्तर्गत आता है। विषय-वासनावर्द्धक, भोगाकांक्षाओं को उदीप्त मिथ्याज्ञान का आवरण दूर करके सम्यग्ज्ञान का अर्जन करता है। करने वाले, चित्त को विचलित करने वाले तथा आध्यात्मिक शान्ति स्वाध्याय के इस सामान्य लाभ की चर्चा के साथ उत्तराध्ययनसूत्र में
और समता को भंग करने वाले साहित्य का अध्ययन स्वाध्याय की स्वाध्याय के पाँचों अंगों-वाचना, प्रतिपृच्छना, धर्मकथा आदि के कोटि में नहीं आता है। उन्हीं ग्रन्थों का अध्ययन ही स्वाध्याय की अपने-अपने क्या लाभ होते हैं इसकी भी चर्चा की गयी है, जो निम्न कोटि में आता है जिससे चित्तवृत्तियों की चंचलता कम होती हो, मन रूप में पायी जाती हैप्रशान्त होता हो और जीवन में सन्तोष की वृत्ति विकसित भन्ते! वाचना (अध्ययन) से जीव को क्या प्राप्त होता है? होती हो।
वाचना से जीव कर्मों की निर्जरा करता है, श्रुतज्ञान की आशातना
के दोष से दूर रहने वाला वह तीर्थ-धर्म का अवलम्बन करता है तथा स्वाध्याय का स्वरूप
गणधरों के समान जिज्ञासु शिष्यों को श्रुत प्रदान करता है। तीर्थ-धर्म स्वाध्याय के अन्तर्गत कौन सी प्रवृत्तियाँ आती हैं, इसका का अवलम्बन लेकर कर्मों की महानिर्जरा करता है और महापर्यवसान विश्लेषण जैन परम्परा में विस्तार से किया गया है। स्वाध्याय के पाँच (संसार का अन्त) करता है। अंग माने गये हैं.-१. वाचना २. प्रतिपच्छना ३. परावर्तन ४. अनुप्रेक्षा भन्ते! प्रतिपृच्छना से जीव को क्या प्राप्त होता है? और ५. धर्मकथा।
प्रतिपृच्छना (पूर्वपठित शास्त्र के सम्बन्ध में शंका निवृत्ति के लिए १. गुरु के सानिध में सद्ग्रन्थों का अध्ययन करना वाचना है। प्रश्न करना) से जीव सूत्र, अर्थ और तदुभय अर्थात् दोनों से सम्बन्धित वर्तमान सन्दर्भ में हम किसी सद्ग्रन्थों के पठन-पाठन एवं अध्ययन कांक्षामोहनीय (संशय) का निराकरण करता है। को वाचना के अर्थ में गृहित कर सकते हैं।
भन्ते! परावर्तना से जीव को क्या प्राप्त होता है? २. प्रतिपृच्छना का अर्थ है पठित या पढ़े जाने वाले ग्रन्थ के परावर्तना से अर्थात् पठित पाठ के पुनरावर्तन से व्यंजन (शब्दअर्थबोध में सन्देह आदि की निवृत्ति हेतु जिज्ञासावृत्ति से, या विषय पाठ) स्थिर होता है और जीव पदानुसारिता आदि व्यंजना-लब्धि को
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जैन धर्म में स्वाध्याय का अर्थ एवं स्थान
प्राप्त होता है।
भन्ते! अनुप्रेक्षा से जीव को क्या प्राप्त होता है? अनुप्रेक्षा अर्थात् सूत्रार्थ के चिन्तन-मनन से जीव आयुष्यकर्म को छोड़कर शेष ज्ञानावरणादि सात कर्मों की प्रकृतियों के प्रगाढ़ बन्धन को शिथिल करता है। उनकी दीर्घकालीन स्थिति को अल्पकालीन करता है। उनके तीव्र रसानुभाव को मन्द करता है। बहुकर्म-प्रदेशों को अल्पप्रदेशों में परिवर्तित करता है। आयुष्यकर्म का बन्ध कदाचित् करता है, कदाचित् नहीं भी करता है असातावेदनीयकर्म का पुनः पुनः उपचय नहीं करता है जो संसार अटवी अनादि एवं अनन्त है, दीर्घमार्ग से युक्त है, जिसके नरकादि गतिरूप चार अन्त (अवयव) है, उसे शीघ्र ही पार करता है।
भन्ते! धर्मकथा (धर्मोपदेश) से जीव को क्या प्राप्त होता है? धर्मकथा से जीव कर्मों की निर्जरा करता है और प्रवचन ( शासन एवं सिद्धान्त) की प्रभावना करता है। प्रवचन की प्रभावना करने वाला जीव भविष्य में शुभ फल देने वाले पुण्य कर्मों का बन्ध करता है।
इसी प्रकार स्थानांगसूत्र' में भी शास्त्राध्ययन से क्या लाभ हैं? इसकी चर्चा उपलब्ध होती है। इसमें कहा गया है कि सूत्र की वाचना से पाँच लाभ हैं- १. वाचना से श्रुत का संग्रह होता है अर्थात् यदि अध्ययन का क्रम बना रहे तो ज्ञान की वह परम्परा अविच्छिन्न रूप से चलती रहती है। २. शास्त्राध्ययन-अध्यापन की प्रवृत्ति से शिष्य का हित होता है, क्योंकि वह उसके ज्ञान की प्राप्ति का महत्त्वपूर्ण साधन है । ३. शास्त्राध्ययन अर्थात् अध्यापन की प्रवृत्ति बनी रहने से ज्ञानावरण कर्म की निर्जरा होती है अर्थात् अज्ञान का नाश होता है। ४. अध्ययन-अध्यापन की प्रवृत्ति के जीवित रहने से उसके विस्मृत होने की सम्भावना नहीं रहती है। ५. जब श्रुत स्थिर रहता है तो उसकी अविच्छिन्न परम्परा चलती रहती है।
स्वाध्याय का प्रयोजन
स्थानांगसूत्र में स्वाध्याय क्यों करना चाहिए इसकी चर्चा उपलब्ध होती है। इसमें यह बताया गया है कि स्वाध्याय के निम्र पाँच प्रयोजन होने चाहिए—
१. ज्ञान की प्राप्ति के लिये २. सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति के लिये ३. सदाचरण में प्रवृत्ति हेतु ४. दुराग्रहों और अज्ञान का विमोचन करने के लिये ५. यथार्थ का बोध करने के लिए या अवस्थित भावों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए।.
आचार्य अकलंक ने स्वाध्याय के निम्न पाँच प्रयोजनों की भी चर्चा की है
१. बुद्धि की निर्मलता, २ प्रशस्त मनोभावों की प्राप्ति, ३. जिनशासन की रक्षा, ४. संशय की निवृत्ति, ५. परवादियों की शंका का निरसन, ६. तप त्याग की वृद्धि और अतिचारों (दोषों)
की शुद्धि ।
स्वाध्याय का साधक जीवन में स्थान
स्वाध्याय का जैन परम्परा में कितना महत्त्व रहा है, इस सम्बन्ध में मैं अपनी ओर से कुछ न कहकर उत्तराध्ययनसूत्र के माध्यम से ही अपनी बात को स्पष्ट करूंगा उसमें मुनि की जीवन-चर्या की चर्चा करते हुए कहा गया है-
दिवसस्स चउरो भागे कुज्जा भिक्खू वियक्खणो । तओ उत्तरगुणे कुज्जा दिभागेसु चउसु वि ।। पढमं पोरिसिं सज्झायं बीयं झाणं झियायई । तइयाए भिक्खाचरियं पुणो चउत्थीए सज्झायं । रत्तिं पि चउरो भागे भिक्खू कुज्जा वियक्खणो । तओ उत्तरगुणे कुज्जा राइभाए चउसु वि ।। पढमं पोरिसि सज्ज्ञायं बीयं झियायई।
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तइयाए निद्दमोक्खं तु चउत्थी भुज्जो वि सज्झायं ॥ उत्तराध्ययनसूत्र २६/११,१२,१७,१८ मुनि दिन के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करे, दूसरे प्रहर में ध्यान करे, तीसरे में भिक्षा-चर्या एवं दैहिक आवश्यकता की निवृत्ति का कार्य करे। पुनः चतुर्थ प्रहर में स्वाध्याय करे इसी प्रकार रात्रि के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे में ध्यान, तीसरे में निद्रा व चौथे में पुनः स्वाध्याय का निर्देश है। इस प्रकार मुनि प्रतिदिन चार प्रहर अर्थात् १२ घंटे स्वाध्याय में रत रहे। दूसरे शब्दों में साधक जीवन का आधा भाग स्वाध्याय के लिये नियत था। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन परम्परा में स्वाध्याय का महत्व प्राचीन काल से ही सुस्थापित रहा है. क्योंकि यही एक ऐसा माध्यम था जिसके द्वारा व्यक्ति के अज्ञान का निवारण तथा आध्यात्मिक विशुद्धि सम्भव थी।
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सत्साहित्य के अध्ययन की दिशायें
सत्साहित्य के पठन के रूप में स्वाध्याय की क्या उपयोगिता है? यह सुस्पष्ट है वस्तुतः सत्साहित्य का अध्ययन व्यक्ति की जीवन दृष्टि को ही बदल देता है। ऐसे अनेक लोग हैं जिनकी सत्साहित्य के अध्ययन से जीवन की दिशा ही बदल गयी। स्वाध्याय एक ऐसा माध्यम है, जो एकान्त के क्षणों में हमें अकेलापन महसूस नहीं होने देता और एक सच्चे मित्र की भाँति सदैव साथ देता है तथा मार्ग-दर्शन करता है।
वर्तमान युग में यद्यपि लोगों में पढ़ने-पढ़ाने की रूचि विकसित हुई है, किन्तु हमारे पठन की विषय वस्तु सम्यक् नहीं है। आज के व्यक्ति के पठन-पाठन का मुख्य विषय पत्र-पत्रिकाएँ हैं। इनमें मुख्य रूप से वे ही पत्रिकाएं अधिक पसन्द की जा रही हैं जो वासनाओं को उभारने वाली तथा जीवन के विद्रूपित पक्ष को यथार्थ के नाम पर प्रकट करने वाली हैं। आज समाज में नैतिक मूल्यों का जो पतन है उसका कारण हमारे प्रसार माध्यम भी हैं। इन माध्यमों में पत्र-पत्रिकाएँ तथा आकाशवाणी एवं दूरदर्शन प्रमुख हैं। आज स्थिति ऐसी है कि ये सभी अपहरण, बलात्कार, गबन, डकैती, चोरी, हत्या
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ ___इन सबकी सूचनाओं से भरे पड़े होते हैं और हम उनको पढ़ने इन विकृत परिस्थितियों में यदि मनुष्य के चरित्र को उठाना है तथा देखने में अधिक रस लेते हैं। इनके दर्शन और प्रदर्शन से हमारी और उसे सन्मार्ग एवं नैतिकता की ओर प्रेरित करना है तो हमें अपने जीवनदृष्टि ही विकृत हो चुकी है, आज सच्चरित्र व्यक्तियों एवं उनके अध्ययन की दृष्टि को बदलना होगा। आज साहित्य के नाम पर जो जीवन वृत्तान्तों की सामान्य रूप से, इन माध्यमों के द्वारा उपेक्षा की भी है वह पठनीय है, ऐसा नहीं है। आज यह आवश्यक है कि सत्जाती है। अत: नैतिक मूल्यों और सदाचार से हमारी आस्था उठती साहित्य का प्रसारण हो और लोगों में उसके अध्ययन की अभिरुचि जा रही है।
जागृत हो। यही सच्चे अर्थ में स्वाध्याय है।
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१.
उत्तराध्ययनसूत्र- संपा०- रतनलाल दोशी, प्रका०- श्रमणोपासक जैन
पुस्तकालय, सैलाना, वीर सं० २४७८, ३२/२-३। २. आवश्यकनियुक्ति (हरिभद्रीय वृत्ति), संपा०- बी० के० कोठारी,
प्रका० रिलीजियस ट्रस्ट, बम्बई, १९८१, ८८-८९। ३. उत्तराध्ययनसूत्र, २९/२०-२४। ४. स्थानांगसूत्र, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन
५. ६.
समिति, ब्यावर, १९८१, ५/३/२२३। वही- ५/३/२२४।। तत्त्वार्थराजवार्तिक, संपा०- डॉ० महेन्द्रकुमार जैन, प्रका० - भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, १९५७, ९/२५। उत्तराध्ययनसूत्र, संपा०-रतनलाल दोशी, प्रका०- श्रमणोपासक जैन पुस्तकालय, सैलाना, वीर सं० २४७८, २६/११,१२,१७,१८।
जैन धर्म में भक्ति की अवधारणा
जैनधर्म में भक्ति की अवधारणा का विवेचन करने के पूर्व यह और भगवान् या आराध्य और आराधक के मध्य की यह दूरी सिमटती विचार करना आवश्यक है कि 'भक्ति' शब्द का तात्पर्य या अर्थ क्या जाती है और एक ऐसा समय आता है जब व्यक्ति उस द्वैत को समाप्त है और वह जैनधर्म में किस अर्थ में स्वीकृत है। भक्ति शब्द 'भज्' कर स्वयं में भगवत्ता की अनुभूति कर लेता है। यही भक्ति का परिपाक धातु में क्तिन् प्रत्यय लगकर बना है। 'भज्' धातु का अर्थ है-सेवा है, यहाँ ही वह पूर्णता को प्राप्त होती है। जैन धर्म की विशेषता करना। किन्तु यथार्थ में भक्ति शब्द का अर्थ इससे कहीं अधिक व्यापक यही है कि उसमें भक्ति का प्रयोजन इस द्वैत या दूरी को समाप्त करना है। सामान्यतया आराध्य या उसके विग्रह की गुणसंकीर्तन, स्तुति, ही माना गया है। वन्दना, प्रार्थना, पूजा और अर्चा के रूप में जो सेवा की जाती है, जैनों के अनुसार यह द्वैत तब ही समाप्त होता है, जब भक्त उसे हम भक्ति नाम देते हैं। यद्यपि यह स्मरण रखना है कि सब क्रियायें स्वयं भगवान् बन जाता है। यद्यपि हमें स्मरण रखना होगा कि भी तब तक भक्ति नहीं कही जा सकती हैं, जब तक इनके मूल में अनीश्वरवादी एवं प्रत्येक आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता मानने वाले जैन आराध्य के प्रति पूज्यबुद्धि, श्रद्धा, अनुराग और समर्पण का भाव नहीं दर्शन में इस द्वैत के समाप्त होने का अर्थ अद्वैत वेदान्त की तरह हो। जैनाचार्य पूज्यपाद देवनन्दी ने भक्ति की व्याख्या निम्न रूप में भक्त की वैयक्तिक सत्ता का ब्रह्म में विलय नहीं है। साथ ही जैनदर्शन की है
द्वैतवादियों या विशिष्टाद्वैतवादियों की तरह यह भी नहीं मानता है कि अर्हदाचार्येषु बहुश्रुतेषु प्रवचने च भावविशुद्धियुक्तोऽनुरागो भक्तिः। भक्ति की चरम निष्पत्ति में भी भक्त और भगवान् का द्वैत बना रहता
अर्थात् अर्हत्, आचार्य, बहुश्रुत एवं आगम के प्रति भावविशुद्धि है, चाहे वह सारूप्य मुक्ति को ही क्यो न प्राप्त कर लें। पूर्वक जो अनुराग है, वह भक्ति है। प्रो० रामचन्द्र शुक्ल ने प्रेमपूर्ण जैनदर्शन के अनुसार भक्ति की चरम निष्पत्ति आत्मा द्वारा अपने श्रद्धा को भक्ति कहा है। कुछ विद्वानों ने इसे आराध्य और आराधक ही निरावरण शुद्ध स्वरूप या परमात्म स्वरूप को प्राप्त करना है अर्थात् के मध्य एक रागात्मक सम्बन्ध माना है। किन्तु मेरी दृष्टि में भक्ति स्वयं परमात्मा बन जाना है। यह स्वयं के द्वारा स्वयं को पाना है। शब्द का तात्पर्य इन सबसे अधिक है।
यह सत्य है कि भक्ति का उदय उपास्य और उपासक या भक्त भक्ति और प्रेम और भगवान के बीच एक दूरी या द्वैत में ही होता है, किन्तु इसकी सामान्यतया भक्ति में अनुराग या प्रेम को एक आवश्यक तत्त्व चरम निष्पत्ति इस द्वैत को समाप्त करने में ही है। जैसे-जैसे भक्त माना गया है। परमात्मा के प्रति निश्छल प्रेम भक्ति का आधार है।
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किन्तु यहाँ प्रश्न यह उपस्थित होता है कि क्या वीतरागता के उपासक द्योतक है और वह निष्ठा सिद्धान्त अथवा व्यक्ति किसी के प्रति भी जैन धर्म में भक्ति की अवधारणा के साथ प्रेम को अपरिहार्य माना हो सकती है। श्रद्धा कारण है, भक्ति कार्य। भक्ति तो श्रद्धा की जा सकता है। यह सत्य है कि अनुराग या प्रेम की उत्कटता ही भक्ति बाह्याभिव्यक्ति है, वह चित्त की सक्रिय भावदशा है। पूज्य-बुद्धि और का रूप लेती है किन्तु एक ओर राग के प्रहाण या वीतरागदशा की पूजा में जो अन्तर है वही अन्तर श्रद्धा और भक्ति में है। श्रद्धा पूज्य-बुद्धि प्राप्ति का प्रयास और दूसरी ओर अनुराग या प्रेम की साधना—ये है, पूजा नहीं। पूजा पूज्य-बुद्धि की बाह्याभिव्यक्ति है। सत्य तो यह दोनों एक साथ कैसे सम्भव है? वीतरागता का साधक राग या अनुराग है कि श्रद्धा जब सक्रिय होकर क्रियात्मक रूप में बाह्य जगत् में अभिव्यक्त से कैसे जुड़ सकता है। यद्यपि यह भी सत्य है कि जैन परम्परा में होती है, तो वह भक्ति बन जाती है। वह श्रद्धा एवं कर्म का समन्वय जहाँ भक्ति भाव की अभिव्यक्ति हुई है, वहाँ किसी न किसी रूप में है। वह श्रद्धा युक्त कर्म है। निर्गुण भक्ति में भी चाहे प्रतिमा-पूजा या तीर्थकर प्रभु के प्रति प्रेम या अनुराग की चर्चा अवश्य हुई है। जैन अचर्ना न हो, किन्तु नाम-स्मरण, संकीर्तन आदि कर्मों तथा विह्वलता परम्परा में राग दो प्रकार का माना गया है
आदि भावों की बाह्य अभिव्यक्ति तो है ही , श्रद्धा और भक्ति दोनों (१) प्रशस्त राग और (२) अप्रशस्त राग।
ही वैयक्तिक है, सार्वजनिक नहीं। फिर भी श्रद्धा नितान्त वैयक्तिक यदि हम भक्ति को रागात्मक सम्बन्ध या अनुराग मानते हैं तो है, मात्र चैत्तसिक है, उसे किसी भी स्थिति में सामूहिक नहीं बनाया जैन धर्म में भक्ति का स्थान इसी प्रशस्त राग के अन्तर्गत हो सकता जा सकता है, वहाँ भक्ति के नाम संकीर्तन, पूजा आदि रूपों में बाह्य है। किन्तु ऐसा प्रशस्त राग भी जैन साधना का आदर्श नहीं माना अभिव्यक्ति सम्भव होने से उसे सामूहिक या सार्वजनिक बनाया जा जा सकता है। जैन परम्परा में गौतम से अधिक श्रेष्ठ भक्त और कौन सकता है। यदि हम भक्ति के घटकों की चर्चा करें तो उसमें श्रद्धा, हो सकता है? महावीर के प्रति उनकी अनन्य भक्ति या अनुराग प्रेम, समर्पण, नाम-स्मरण, स्तुति, विग्रह-पूजा और सेवा सभी समाहित लोकविश्रुत है। किन्तु जैन विचारक यह मानते हैं कि ऐसा प्रशस्त हैं। इस प्रकार भक्ति एक व्यापक परिप्रेक्ष्य को अभिव्यक्त करती है। राग भी मोक्ष-मार्ग के पथिक के लिए बाधक ही है। गौतम की महावीर श्रद्धा तो भक्ति का अंग मात्र है, भक्ति में श्रद्धा आवश्यक है, किन्तु के प्रति यह अनन्य भक्ति या रागात्मकता उनकी मोक्ष प्राप्ति में बाधक श्रद्धा भक्ति के रूप ले, यह आवश्यक नहीं है। जैन धर्म में जब हम ही मानी गयी है। वे महावीर के जीवित रहते वीतरागदशा या कैवल्य भक्ति की चर्चा करते हैं तो हमें श्रद्धा एवं भक्ति के इस अन्तर को को उपलब्ध नहीं कर सके। महावीर ने स्वयं कहा था कि स्नेह या दृष्टिगत रखना होगा, क्योंकि जैनधर्म मूलत: निवृत्तिपरक है, अत: अनुराग तो मोक्ष मार्ग में एक अर्गला है। जैन परम्परा में भक्ति श्रद्धा उसमें श्रद्धा की ही प्रधानता रही है। पुन: जैन धर्म निरीश्वरवादी है, पर आधारित तो मानी गयी, किन्तु उसे राग या प्रेम रूप में स्वीकार अत: उसमें श्रद्धा या भक्ति का केन्द्र सृष्टिकर्ता या जगत् नियन्ता ईश्वर नही किया गया। यह एक अलग बात है कि परवर्ती जैनाचार्यों ने न होकर शुद्धात्मस्वरूप वीतराग दशा ही रही है। उसकी श्रद्धा के भक्ति के इस रागात्मक स्वरूप को अपनी परम्परा में स्थान दिया। केन्द्र हैं—देव (वीतरागदशा प्राप्त व्यक्ति), गुरु और धर्म। किन्तु जैन यह भी ठीक है कि एक भावुक आदमी वासनात्मक प्रेम या अप्रशस्त धर्म में जैसे ही प्रतीकोपासना या जिन-प्रतिमा की पूजा की परम्परा राग से छुटकारा पाने के लिए प्रशस्त राग का सहारा ले, किन्तु स्वीकृत हुई, उसमें तीर्थकर-प्रतिमा की उपासना के साथ भक्ति के अन्य अन्ततोगत्वा हमें यही मानना होगा कि वीतरागता की उपासक जैन पक्षों का विकास प्रारम्भ हो गया। परम्परा में रागात्मकता को भक्ति का आधार नहीं माना जा सकता है। प्रेम चाहे कैसा भी हो, वह बन्धन है। अत: उसे अतिक्रान्त करना भारत में भक्ति की अवधारणा का विकास आवश्यक है।
भारतीय धर्मदर्शन के क्षेत्र में भक्ति की अवधारणा अति प्राचीन
काल से उपस्थित रही है। मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा से प्राप्त हुई श्रद्धा और भक्ति
सीलों के परिदृश्यों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता भक्ति में श्रद्धा का तत्त्व प्रमुख होता है, किन्तु हमें यह भी स्मरण है कि उस समय भी मूर्ति-पूजा या प्रतीक-पूजा अस्तित्व में थी और रखना होगा कि श्रद्धा एवं भक्ति में एक महत्त्वपूर्ण अन्तर भी है। श्रद्धा इस दृष्टि से यह मानने में कोई बाधा नहीं है कि उस युग में किसी
और भक्ति में मुख्य अन्तर तो यह है कि जहाँ श्रद्धा आराध्य अथवा न किसी रूप में भक्ति की अवधारणा भी उपस्थित थी। यदि हम वैदिक सिद्धान्त अथवा दोनों के प्रति हो सकती है, वहीं भक्ति सदैव ही आराध्य साहित्य की ओर मुड़ते हैं, तो उसमें भी जो ऋग्वेदादि प्राचीन स्तर के प्रति होती है, सिद्धान्त के प्रति नहीं। सिद्धान्त के प्रति तो मात्र के ग्रन्थ हैं, उनमें चाहे मूर्ति-पूजा या विग्रह-पूजा का निर्देश नहीं हो, श्रद्धा/आस्था होती है, भक्ति नहीं, क्योंकि भक्ति वैयक्तिक (Personal) किन्तु यह भी नहीं कहा जा सकता है कि वहाँ भक्ति की अवधारणा होती है। पुन: जहाँ भक्ति के लिए श्रद्धा आवश्यक तत्त्व है, वहाँ श्रद्धा पूर्णतया अनुपस्थित है, क्योंकि ऋग्वेद के सूक्तों में भी स्तुति सम्बन्धी के लिए भक्ति आवश्यक नहीं होती। अपने प्रचलित अर्थ की दृष्टि सूक्त ही सर्वाधिक हैं। स्तुति के साथ भी पूज्य-बुद्धि और श्रद्धा का से श्रद्धा और भक्ति में एक महत्त्वपूर्ण अन्तर यह भी है कि श्रद्धा तत्त्व तो जुड़ा ही होता है। इसलिए हम यह कह सकते हैं कि वैदिक मात्र एक निष्क्रिय भावदशा है, वह किसी के प्रति अनन्य निष्ठा की काल में चाहे विग्रह-पूजा या मूर्ति-पूजा न रही हो, किन्तु श्रद्धा व
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
स्तुति के रूप में उसमें भक्ति के तत्त्व तो हैं ही। आगे चलकर दृष्टि से जैन परम्परा में भक्ति की अवधारणा मौर्यकाल में पल्लवित
औपनिषदिक काल और विशेष रूप से गीता के रचनाकाल में तो एवं विकसित हुई है। पुन: इस दिशा में जो भी साक्ष्य उपलब्ध हैं हमें भक्ति की एक सुस्थापित परम्परा उपलब्ध होती है। गीता में जिन वे सब इसी तथ्य को संपोषित करते हैं कि जैन धर्म में भक्ति का योगों (साधना-विधियों) की चर्चा मिलती है, उसमें भक्तियोग सबसे विकास अपनी सहवर्ती हिन्दू परम्परा से प्रभावित होता रहा है। हिन्दू महत्त्वपूर्ण है। यद्यपि गीता की ज्ञानयोगपरक एवं कर्मयोगपरक परम्परा में भक्ति के विविध रूपों का जिस प्रकार क्रमिक विकास हुआ व्याख्याएँ भी की गयीं, किन्तु यदि हम गीता की अन्तरात्मा में झांककर है उसी प्रकार जैन परम्परा में भी भक्ति का क्रमिक विकास हुआ है। देखें तो लगता है कि उसमें भक्ति या समर्पण भाव ही केन्द्रिय तत्त्व फिर भी जैन और हिन्दू धर्म की मूलभूत दार्शनिक अवधारणाओं में है। कर्म की निष्कामता का आधार भी कर्म-फल की आकांक्षा का जो अन्तर है उसके आधार पर दोनों की भक्तियों की अवधारणा में प्रभु के प्रति समर्पण ही है। यह बात अलग है कि गीता ज्ञान एवं और उसके लक्ष्य में भी अन्तर है। यह स्पष्ट है कि जहाँ हिन्दू धर्म कर्म को भी समान रूप से महत्त्व देती है, किन्तु उसमें इन्हें भी भक्ति ईश्वरवादी है वहीं जैन धर्म निरीश्वरवादी है। उसमें सृष्टि के निर्माता के कारण व कार्य के रूप में व्याख्यायित किया जा सकता है। परमात्मा और पालनकर्ता तथा संहारक ईश्वर की अवधारणा पूर्णत: अनुपस्थित के स्वरूप का ज्ञान, जो कि गीता के ज्ञानयोग का प्रतिपाद्य है, है। दूसरा अन्तर यह है कि जहाँ हिन्दू धर्म का ईश्वर कृपा के माध्यम अन्ततोगत्वा प्रभु के प्रति अनन्य निष्ठा में परिणित होता है। दूसरी से अपने भक्तों के कल्याण की सामर्थ्य रखता है वहाँ जैन धर्म के
ओर गीता यह कहती है कि श्रद्धावान ही प्रभु के ज्ञान को प्राप्त होता सिद्ध परमात्मा निष्क्रिय हैं। वे न तो अपने भक्तों का कल्याण कर है। पुन: गीता का कर्मयोग भी वस्तुत: परमात्मा के प्रति न केवल सकते हैं और न दुष्टों का दमन। जैन धर्म में भक्ति का तत्त्व उपस्थित कर्मफल या पूर्ण समर्पण है अपितु समर्पित भाव से उसके आदेशों तो है, किन्तु वह हिन्दू परम्परा में उपलब्ध भक्ति की अवधारणा से का परिपालन भी है। गीता लोकसेवा को भी प्रभु की सेवा में अफ़्रभावित किंचित भिन्न है, आगे हम इस सन्दर्भ में विस्तार से विचार करेंगे। कर कर्मयोग को भक्तियोग बना देती है। गीता में ज्ञान वह है जिससे सामान्यतया जैन भक्ति परम्परा में श्रद्धा, सर्मपण, गुण-संकीर्तिन या भक्ति की धारा प्रसूत होती है और कर्म उस भक्ति की व्यापक भजन, पूजा और अर्चा या सेवा के तत्त्व उपस्थित रहे हैं। श्रद्धा उसका बाह्याभिव्यक्ति है। यही कारण है कि रामानुज, वल्लभ आदि भक्तिमार्गी प्रस्थान-बिन्दु है और सेवा अन्तिम चरण है। श्रद्धा एवं सर्मपण-भाव आचार्यों ने गीता की भक्तिपरक व्याख्या प्रस्तुत की। अतः हम यह उसके मानसिक रूप हैं और सेवा उसकी कायिक अभिव्यक्ति। अब कह सकते हैं कि भारत में प्रारम्भिक काल से लेकर सूर व तुलसी हम यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि जैन धर्म में इन तत्त्वों का विकास के माध्यम से आधुनिक काल तक भक्ति की एक अजस्र धारा प्रवाहित कैसे हुआ ? होती रही है और जैन परम्परा भी इससे प्रभावित होती रही है। जैनधर्म में भक्ति की अवधारणा कैसे व किस रूप में आयी
यह विचार करना भी आवश्यक है। जहाँ तक मेरी जानकारी है आगमों जैन धर्म में भक्ति
में सत्थारभक्ति५ 'भत्तिचित्ताओ' (ज्ञाताधर्म) शब्द मिलते हैं। सर्वप्रथम जैन दर्शन में भक्ति की अवधारणा के विकास को समझने के ज्ञाताधर्म में तीर्थकर पद की प्राप्ति में सहायक जिन २० कारणों की लिए भक्ति के भारतीय परिप्रेक्ष्य को समझना आवश्यक है, क्योंकि चर्चा है उनमें श्रुतभक्ति (सुयभत्ति) का स्पष्ट उल्लेख है। इसके साथ जैन धर्म में भक्ति का जो विकास हुआ वह इन समसामयिक परिस्थितियों ही उसमें अरहंत, सिद्ध, प्रवचन, गुरु, स्थविर, तपस्वी आदि के प्रति से अप्रभावित नहीं रहा है। जैन धर्म की भक्ति-साधना में अन्य परम्पराओं वत्सलता का उल्लेख हुआ है, जो भक्ति का ही एक रूप है। तत्त्वार्थसूत्र से आये तत्त्व आज इस तरह आत्मसात् हो गये हैं कि उन्हें अलग में अर्हत् आचार्य, बहुश्रुत एवं प्रवचन (शास्त्र) की भक्ति को तीर्थकरत्व कर पाना भी कठिन है।
प्राप्त करने के १६ कारणों में परिगणित किया गया है। जैन धर्म में साहित्यिक साक्ष्य के रूप में जो प्राचीनतम सन्दर्भ इस प्रकार हम देखते हैं कि ज्ञाताधर्मकथा और आवश्यकनियुक्ति उपलब्ध हैं, वे आचारांग, सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित और उत्तराध्ययन जहाँ अर्हत्, सिद्ध, आचार्य आदि के प्रति वत्सलता अर्थात् अनुराग पर आधारित हैं। इनमें आचारांग एवं सूत्रकृतांग में भक्ति तत्त्व अनुपस्थित की बात करते हैं, वहाँ तत्त्वार्थसूत्र स्पष्ट रूप से इनकी भक्ति की बात है। आचारांगसूत्र मात्र यह बताता है कि मेरी आज्ञा का पालन धर्म कहता है, किन्तु भक्ति और वात्सल्य में अर्थ की दृष्टि से अन्तर नहीं है (१/६/२/४८)। ऋषिभाषित और उत्तराध्ययन में यद्यपि श्रद्धा को माना जा सकता है। आगे चलकर तो वात्सल्य को भक्ति का एक स्थान मिला है, किन्तु वह श्रद्धा मात्र तत्त्वश्रद्धा है। जैन धर्म में अंग ही मान लिया गया है। ज्ञातव्य है कि भक्ति या वात्सल्य दोनों सम्यग्दर्शन, जो भक्ति का आधार है, प्रारम्भ में मात्र तत्त्वश्रद्धा ही रहा का अर्थ श्रद्धायुक्त सेवा भाव ही है। आवश्यकनियुक्ति में सर्वप्रथम है। देव, गुरु एवं धर्म के प्रति श्रद्धा यह उसका परवर्ती अर्थ विकास भक्ति के फल की चर्चा हुई है। उसमें कहा गया है किहै। पुरातात्त्विक साक्ष्यों में तो हमें मौर्यकाल से ही जैन परम्परा में भत्तीइ जिणवराणं खिज्जंती पुव्वसंचिया कम्मा मूर्ति-पूजा के प्रमाण मिलने लगते हैं। मथुरा में तो मूर्ति-पूजा के परिदृश्य आयरिअनमुक्कारेण विज्जा मंता य सिज्झंति भी अंकित हैं। अत: यह मानने में हमें कोई आपत्ति नहीं है कि ऐतिहासिक भत्तीइ जिणवराणं परमाए खीणपिज्जदोसाणं
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आरूग्गबोहिलाभं समाहिमरणं च पावंति ।
अवस्था में है राग-द्वेष का अतिक्रमण कर लेना सम्भव नहीं है। ऐसी अर्थात् जिन की भक्ति से पूर्व संचित कर्म क्षीण होते हैं और स्थिति में यह माना गया है कि जब तक व्यक्ति स्वयं सत्य का साक्षात्कार आचार्य से नमस्कार के विद्या और मंत्र सिद्ध होते हैं। पुन: जिनेन्द्र न कर लें, उसे वीतराग परमात्मा, जिन्होंने स्वयं सत्य का साक्षात्कार की भक्ति से राग-द्वेष समाप्त होकर आरोग्य, बोधि और समाधि लाभ किया है, उनके कथनों पर विश्वास करना चाहिए। जैन साहित्य में होता है।
सम्यक्-दर्शन के जिन पाँच अंगों की चर्चा मिलती है, उनमें श्रद्धा भारतीय परम्परा में नवधा भक्ति का उल्लेख मिलता है- भी एक है। लगभग उत्तराध्ययन (ई०पू० ३री-२री शती) के काल श्रवणं कीर्तनं स्मरणं पादसेवनम्।
तक जैन परम्परा में सम्यक् दर्शन का श्रद्धापरक अर्थ स्वीकार हो चुका अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्।
था। किन्तु हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि उत्तराध्ययन एवं १. श्रवण, २. कीर्तन, ३. स्मरण, ४. पादसेवन, ५. अर्चन, तत्त्वार्थसूत्र (ई० सन् ३री शती) के काल तक जैन धर्म में श्रद्धा तत्त्वश्रद्धा ६. वंदन, ७. दास्य, ८. सख्य और ९. आत्मनिवेदन। थी। वह जिन या परमात्मा के प्रति श्रद्धा के रूप में सुस्थापित नहीं
भक्ति के इन नव तत्त्वों में कौन किस रूप में जैन परम्परा में हुई थी। प्राचीन स्तर के ग्रन्थों में श्रद्धा को तत्त्व श्रद्धा या सिद्धान्त मान्य रहा है, इसका संक्षिप्त विवरण अपेक्षित है। इनमें से श्रवण के प्रति निष्ठा के रूप में ही देखा गया। किन्तु जब श्रद्धा के क्षेत्र शास्त्र-श्रवण या जिनवाणी-श्रवण के रूप में जैन परम्परा में सदैव ही में तत्त्व या सिद्धान्त के स्थान पर व्यक्ति को प्रमुखता दी गयी, तो मान्य रहा है। उसमें कहा गया है कि व्यक्ति को कल्याण-मार्ग और जिन और जिनवचन के प्रति श्रद्धा ही सम्यक् दर्शन का प्रतीक मानी पाप-मार्ग का बोध श्रवण से ही होता है, दोनों को सुनकर ही जाना गयी। आगे चलकर जिनवचन के प्रस्तोता गुरु के प्रति भी श्रद्धा को जाता है।११ जहाँ तक कीर्तन एवं स्मरण का प्रश्न है, इन दोनों का स्थान मिला। इस प्रकार श्रद्धा का अर्थ हुआ-देव, गुरु एवं धर्म के अन्तर्भाव जैन परम्परा के 'स्तवन' में होता है। इसे षडावश्यकों अर्थात् प्रति श्रद्धा। श्रमण एवं श्रावक के कर्त्तव्यों में दूसरा स्थान प्राप्त है। पादसेवन और जैन साधना के क्षेत्र में सामान्यतया दर्शन (श्रद्धा) को प्राथमिकता वंदन को भी जैन परम्परा के तृतीय आवश्यक कर्त्तव्य के रूप में वंदन दी गई है। कहा गया है धर्म दर्शन (श्रद्धा) मूलक है। जब तक में अन्तर्निहित माना जा सकता है। अर्चन को जैन परम्परा में जिन- दर्शन शब्द अनुभूति या दृष्टिकोण का सूचक रहा तब तक दर्शन को पूजा के रूप में स्वीकृत किया गया है। जैन परम्परा में मुनि के लिये ज्ञान की अपेक्षा प्रधानता मिली, किन्तु जब दर्शन का अर्थ तत्त्व श्रद्धा भाव-पूजा और गृहस्थ के लिये द्रव्य-पूजा का विधान है। जिस प्रकार मान लिया गया तो उसका स्थान ज्ञान के बाद निर्धारित हुआ। वैष्णव परम्परा में पंचोपचार-पूजा और षोडशोपचार-पूजा का विधान उत्तराध्ययनसूत्र१२ में जहाँ दर्शन का श्रद्धापरक अर्थ किया गया है वहाँ है उसी प्रकार जैन परम्परा में अष्टप्रकारी पूजा और सतरहभेदी पूजा स्पष्ट रूप से कहा है कि ज्ञान से तत्त्व के स्वरूप को जानें और दर्शन का विधान है।
के द्वारा उस पर श्रद्धा करें। यह सत्य है कि ज्ञान के अभाव में जो यद्यपि दास, सख्य एवं आत्मनिवेदन रूप भक्ति की विधाओं श्रद्धा होगी उसमें संशय की सम्भावना होगी, अत: ऐसी श्रद्धा अंध-श्रद्धा का स्पष्ट प्रतिपादन तो प्राचीन जैन आगमों में नहीं मिलता है किन्तु होगी। यह सत्य है कि जैनों ने श्रद्धा को अपनी साधना में स्थान जिनाज्ञा के परिपालन, आत्मालोचन तथा वात्सल्य के रूप में इनके दिया किन्तु वे इस सन्दर्भ में सर्तक रहे कि श्रद्धा को ज्ञानाधिष्ठित मूल तत्त्व जैन परम्परा में उपलब्ध हैं। भक्ति के इन अंगों की विस्तृत होना चाहिए। श्रद्धा, प्रज्ञा और तर्क से समीक्षित होकर ही सम्यक् चर्चा अग्रिम पंक्तियों में की गई है।
श्रद्धा बन सकती है। १३ इस प्रकार जैन चिन्तन में भक्ति के मूल आधार
श्रद्धा के तत्त्व को स्थान तो मिला, किन्तु उसे अनुभूति या ज्ञान से जैन धर्म में श्रद्धा
समन्वित किया गया, ताकि श्रद्धा अन्ध-श्रद्धा न बन सके। जैन धर्म जैन परम्परा में श्रद्धा के लिए सामान्यतया सम्यक् दर्शन शब्द में श्रद्धा मूलत: तत्त्व-श्रद्धा या सिद्धान्त के प्रति आस्था रही। उसमें प्रचलित है। इसका मूल अर्थ तो देखना या अनुभूति ही है, किन्तु जो वैयक्तिकता का तत्त्व प्रविष्ट हुआ और वह देव तथा गुरु के प्रति आगे चलकर जैन परम्परा में दर्शन शब्द श्रद्धा के अर्थ में रूढ़ हो श्रद्धा बनी है, उसके मूल में रहे हुए हिन्दू परम्परा के प्रभाव को विस्मृत गया। जैन ग्रन्थों के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि दर्शन शब्द नहीं किया जा सकता है। हिन्दु परम्परा में जो ईश्वर के प्रति अथवा का श्रद्धापरक अर्थ एक परवर्ती विकास है और उसके प्रकारों के वर्गीकरण उसके वचन के रूप में वेदादि के प्रति जो आस्था की बात कही गई के परिणाम स्वरूप अस्तित्व में आया है। जैन धर्म में सम्यक् दर्शन थी, उसे जैन आचार्यों ने जिनवाणी के प्रति श्रद्धा के रूप में ग्रहीत के मुख्यत: दो प्रकार माने गये हैं-निसर्गत: और अधिमगज। सम्यक् करके अपनी परम्परा में स्थान दिया। फिर भी यह स्मरण रखना होगा दर्शन का एक रूप वह होता है, जहाँ साधक अपनी अनुभूति से सत्य भक्ति की अवधारणा का विकास जिस रूप में हिन्दू धर्म में हुआ, का साक्षात्कार करता है। ‘सत्य का साक्षात्कार' ही सम्यक् दर्शन का। उस रूप में जैन धर्म में नहीं हुआ है। जैनाचार्यों ने अपनी तात्त्विक मूल अर्थ है, किन्तु यह तब तक सम्भव नहीं है जब तक व्यक्ति अपने मान्यताओं के आधार पर ही अपनी परम्परा में भक्ति के स्वरूप को को राग-द्वेष के पंजों से मुक्त नहीं कर लेता। जब तक व्यक्ति साधक निर्धारित किया है। उन्होंने अपनी सहवती हिन्दू परम्परा से बहुत कुछ
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
जिन
ग्रहण किया, किन्तु उसे अपनी तत्त्व योजना के चौखटे में प्रस्तुत से किसी प्रकार की उपलब्धि की अपेक्षा नहीं होती। तीर्थकर एवं सिद्ध करने का प्रयास किया है, यद्यपि कहीं-कहीं इसमें स्खलना भी परमात्मा मात्र साधना के आदर्श हैं। वे न तो किसी को संसार से
पार करा सकते हैं और न उसकी किसी प्रकार की उपलब्धि में सहायक
होते हैं। फिर भी स्तुति के माध्यम से साधक उनके गुणों के प्रति जैन धर्म में स्तुति, गुण-संकीर्तन एवं प्रार्थना का प्रयोजन अपनी श्रद्धा को सजीव बना लेता है। साधक के सामने उनका महान्
जैन धर्म में भक्ति के जो दूसरे रूप स्तुति, गुण-संकीर्तन, प्रार्थना आदर्श जीवन्त रूप में उपस्थित हो जाता है। वह अपने हृदय में तीर्थंकरों आदि हैं, उनका स्वरूप वर्तमान में तो बहुत कुछ हिन्दु परम्परा के के आदर्श का स्मरण करता हुआ आत्मा में एक आध्यात्मिक पूर्णता समान ही हो गया है और जैन भक्त भी अपने प्रभु से सब कुछ माँगने की भावना प्रकट करता है। वह विचार करता है कि आत्मतत्त्व के लगा है। किन्तु अपने प्राथमिक रूप में जैन स्तुतियों का हिन्दू परम्परा रूप में मेरी आत्मा और तीर्थकरों की आत्मा समान ही है, यदि मैं की स्तुतियों से एक अन्तर रहा है। हिन्दु परम्परा अपने प्राचीन काल स्वयं प्रयत्न करूँ, तो उनके समान ही बन सकता हूँ। मुझे अपने से ही इस तथ्य में विश्वास करती रही है कि स्तुति या भक्ति के माध्यम पुरुषार्थ से उनके समान बनने का प्रयत्न करना चाहिए। जैन मान्यता हम जिस प्रभु की आराधना करते हैं, वह प्रसन्न होकर हमारे कष्टों तो यह है कि व्यक्ति अपने ही प्रयत्नों से अपना आध्यात्मिक उत्थान को मिटा देता है। उसमें ईश्वरीय या देवीकृपा का तत्त्व सदैव ही स्वीकृत या पतन कर सकता है। स्वयं पाप से मुक्ति होने का प्रयत्न न करके रहा है। गीता में भक्त और भक्ति के चार रूपों की चर्चा है-१. अर्थार्थी, केवल भगवान् से मुक्ति की प्रार्थना करना जैन विचारणा की दृष्टि से २. आर्त, ३. जिज्ञासु एवं ४. ज्ञानी। यद्यपि गीता ने जिज्ञासु या सर्वथा निरर्थक है। ऐसी विवेक शून्य प्रार्थनाओं ने मानव जाति को ज्ञानी को ही सच्चा भक्त निरूपति किया है, किन्तु भक्ति का जो रूप सब प्रकार से हीन, दीन एवं परापेक्षी बनाया है। जब मनुष्य किसी हिन्दू धर्म में प्रचलित रहा है, उसमें ईश्वरीय या दैवीय कृपा की प्राप्ति ऐसे उद्धारक में विश्वास करने लगता है, जो उसकी स्तुति से प्रसन्न का प्रयोजन तो सदैव ही प्रमुख रहा है, किन्तु जैनधर्म में उसको कोई होकर उसे पाप से उबार लेगा, तो ऐसी निष्ठा से सदाचार की मान्यताओं खास स्थान नहीं है, क्योंकि जैनों का परमात्मा किसी का कल्याण को भी गहरा धक्का लगता है। जैन विचारकों की यह स्पष्ट मान्यता या अकल्याण करने में समर्थ नहीं है।सामान्यतया व्यक्ति दुःख या पीड़ा है कि केवल तीर्थंकरों की स्तुति करने से मोक्ष एवं समाधि की प्राप्ति की स्थिति में उससे त्राण पाने के लिए प्रभु की भक्ति करता है। वह नहीं होती, जब तक कि मनुष्य स्वयं उसके लिए प्रयास न करे। भक्ति के नाम पर भगवान् से भी कोई सौदा ही करता है। वह कहता जैन विचारकों के अनुसार तीर्थंकर तो साधना मार्ग के प्रकाशस्तम्भ है कि यदि मेरी अमुक मनोकामना पूर्ण होगी तो मैं आप की विशिष्ट हैं। जिस प्रकार गति करना जहाज का कार्य है, उसी प्रकार साधना रूप से पूजा करूँगा या विशिष्ट प्रसाद समर्पित करुंगा। चूँकि जैन की दिशा में आगे बढ़ना साधक का कार्य है। जैसे प्रकाश-स्तम्भ की धर्म में प्रारम्भ से ही तीर्थंकर को वीतराग माना गया है, अत: वह उपस्थिति में भी जहाज समुद्र में बिना गति के उस पार नहीं पहुँचता, न तो भक्तों का कल्याण कर सकता है और न दुष्टों का संहार। जहाँ वैसे ही केवल नाम-स्मरण या भक्ति साधक को निर्वाण-लाभ नहीं गीता तथा अन्य ग्रन्थों में प्रभु के अवतरण का मुख्य प्रयोजन दुष्टों करा सकती, जब तक कि उसके लिए सम्यक् प्रयत्न न हो। हमें स्मरण का संहार एवं धर्म-मार्ग की स्थापना माना गया है, वहाँ जैन परम्परा रखना चाहिए कि जैन परम्परा में भक्ति का लक्ष्य आत्मा के शुद्धमें तीर्थंकर का उद्देश्य मात्र धर्म-मार्ग की संस्थापना करना है। जैनों स्वरूप का बोध या साक्षात्कार है, अपने में निहित परमात्मशक्ति को का परमात्मा गीता के परमात्मा के समान इस प्रकार का कोई आश्वासन अभिव्यक्त करना है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं- “सम्यग्ज्ञान और नहीं दे पाता है कि तुम मेरे प्रति पूर्णत: समर्पित हो जाओ, मैं तुम्हें आचरण से युक्त हो निर्वाणाभिमुख होना ही गृहस्थ और श्रमण की सब पापों से मुक्ति दूँगा। जैन धर्म में प्राचीन काल में स्तुति का प्रयोजन वास्तविक भक्ति है। मुक्ति को प्राप्त पुरुषों के गुणों का कीर्तन करना प्रभु से कुछ पाना नहीं रहा है। स्तुति के प्रयोजन को स्पष्ट करते हुए व्यावहारिक भक्ति है। वास्तविक भक्ति तो आत्मा को मोक्षपथ में योजित आचार्य समन्तभद्र अपने ग्रन्थ देवागमस्तोत्र में कहते हैं कि- . करना है। राग-द्वेष एवं विकल्पों का परिहार करके विशुद्ध आत्मतत्त्व
हे प्रभु ! न तो मैं आपको प्रसन्न करने के लिए आपकी भक्ति से योजित होना ही वास्तविक भक्ति-योग है। ऋषभ आदि सभी तीर्थकर या पूजा करता हूँ क्योंकि मैं जानता हूँ कि आप वीतराग हैं अतः इसी भक्ति के द्वारा परमपद को प्राप्त हुए हैं।" इस प्रकार भक्ति या मेरी पूजा से प्रसन्न होने वाले नहीं है।
स्तवन मूलत: आत्मबोध है, वह अपना ही कीर्तन और स्तवन है। इसी प्रकार आप निन्दा करने पर कुपित भी नही होंगे चूँकि आप जैन दर्शन में भक्ति के सच्चे स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उपाध्याय विवान्त-वैर हैं, मै तो आप की भक्ति केवल इसलिए करता हूँ कि देवचन्द्रजी लिखते हैंआप के पुण्य गुणों की स्मृति से मेरा चित्त पाप रूपी मल से रहित अज-कुल-गत केशरी लहरे, निज पद सिंह निहाल। होगा।
तिम प्रभु भक्ति भवी लहेरे, आतम शक्ति संभाल।। स्मरण रखना चाहिए कि जैन विचारधारा के अनुसार साधना जिस प्रकार अज कुल में पालित सिंहशावक वास्तविक सिंह के आदर्श के रूप में जिनकी स्तुति की जाती है, उन आदर्श पुरुषों के दर्शन से अपने प्रसुप्त सिंहत्व को प्रकट कर लेता है, उसी प्रकार
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जैन धर्म में भक्ति की अवधारणा
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साधक तीर्थंकरों के गुणकीर्तन या स्तवन के द्वारा निज में जिनत्व की किन्तु उसमें कही भी कुछ प्राप्त करने की कामना नहीं की गई है। शोध कर लेता है, स्वयं में निहित परमात्मशक्ति को प्रकट कर लेता इसी प्रकार शक्रस्तव अर्थात् इन्द्र के द्वारा की गई तीर्थकर की स्तुति है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि जैन साधना में भगवान् की के नाम से जाने वाले 'नमोत्थुणं' नामक स्तोत्र (ई० पू० ३री शती) स्तुति निरर्थक है। जैन साधना यह स्वीकार करती है कि भगवान् की में भी अरहंत एवं तीर्थंकर के गुणों का चित्रण होते हुए भी उनसे स्तुति प्रसुप्त अन्तश्चेतना को जाग्रत करती है और हमारे सामने साधना कहीं कोई उपलब्धि की आकांक्षा प्रदर्शित नहीं की गई है। जहाँ तक के आदर्श का एक जीवन्त चित्र उपस्थित करती है। इतना ही नहीं, मुझे स्मरण है, जैन परम्परा में सर्वप्रथम परमात्मा या प्रभु से कोई वह उस आदर्श की प्राप्ति के लिए प्रेरणा बनती है। जैन विचारकों याचना की गयी तो वह चतुर्विंशतिस्तवन (ई० सन् १ली शती) में ने यह भी स्वीकार किया है कि भगवान् की स्तुति के माध्यम से मनुष्य है। इस स्तवन में सर्वप्रथम प्रभु से आरोग्य, बोधि और समाधि की अपना आध्यात्मिक विकास कर सकता है। यद्यपि प्रयत्न व्यक्ति का याचना की गयी है। इसमें भी बोधि एवं समाधि तो आध्यात्मिक प्रत्यय ही होता है, तथापि साधना के आदर्श उन महापुरुषों का जीवन उसकी है, किन्तु आरोग्य को चाहे आध्यात्मिक साधना में आवश्यक माना प्रेरणा का निमित्त होता है। उत्तराध्ययनसूत्र (२९/९०) में कहा है कि जाय फिर भी वह एक लौकिक प्रत्यय ही है। प्रभु से आरोग्य की स्तवन से व्यक्ति की दर्शन-विशुद्धि होती है। यह भी कहा है कि कामना करना यह सूचित करता है कि जैन परम्परा की भक्ति की भगवद्भक्ति के फलस्वरूप पूर्वसंचित कर्मों का क्षय होता है। यद्यपि अवधारणा में अपनी सहवर्ती हिन्दू परम्परा का प्रभाव आया है, क्योंकि इसका कारण परमात्मा की कृपा नहीं, वरन् व्यक्ति के दृष्टिकोण की जैन दार्शनिक मान्यता के अनुसार तो प्रभु किसी को आरोग्य भी प्रदान विशुद्धि ही है। आचार्य भद्रबाहु ने इस बात को बड़े ही स्पष्ट रूप नहीं करते है। अरहंत के रूप में वह हमें मोक्ष-मार्ग या मुक्ति-पथ में स्वीकार किया है कि भगवान् के नाम-स्मरण से पापों का पुंज नष्ट का मात्र बोध कराते है, उसे भी चल कर पाना तो हमें ही होता है। होता है। आचार्य विनयचन्द्र भगवान् की स्तुति करते हुए कहते हैं- अतः इस चतुर्विंशति स्तवन में जो आरोग्य की कामना है वह निश्चित
पाप-पराल को पुंज वण्यो अति, मानो मेरू आकारो। रूप से जैन परम्परा पर अन्य परम्परा के प्रभाव का सूचक है। भविष्य ते तुम नाम हुताशन सेती, सहज ही प्रजलत सारो।। में तो इस प्रकार अन्य प्रयत्न भी हुए। जैन परम्परा में उवसग्गहर
इस प्रकार जैन धर्म में स्तुति या गुण-संकीर्तन को पाप का प्रणाशक स्तोत्र भी पर्याप्त रूप से प्रसिद्ध है। यह सामान्यतया भद्रबाहु द्वितीय तो माना गया किन्तु इसे ईश्वरीय कृपा का फल मान लेना उचित नहीं की कृति मानी जाती है। इसमें प्रभु से भक्त को उपसर्ग से छुटकारा है। जैन धर्म के अनुसार व्यक्ति के पापों के क्षय का कारण परमात्मा दिलाने की प्रार्थना की गई है। जिन विपत्तियों की चर्चा है उनमें ज्वर, की कृपा नहीं, किन्तु प्रभु स्तुति के माध्यम से हुए उसके शुद्ध सर्पदंश आदि भी सम्मिलित हैं। यह स्तोत्र इस बात का प्रमाण है आत्म-स्वरूप का बोध है। प्रभु की स्तुति के माध्यम से जब साधक कि जैन परम्परा में भक्ति का सकाम स्वरूप भी अन्ततोगत्वा विकसित अपने शुद्ध आत्म स्वरूप को जान लेता है, अपनी शक्ति का पहचान हो ही गया। यद्यपि जैन आचार्यों ने यहाँ जिन की स्तुति के साथ लेता है तो वह ज्ञाता-द्रष्टा भाव में अर्थात् आत्म-स्वभाव में स्थित पार्श्व-यक्ष की स्तुति को भी जोड़ दिया है। हो जाता है। फलतः वासनायें स्वतः ही क्षीण होने लगती हैं। इस वस्तुत: जब आचार्यों ने देखा होगा कि उपासकों को जैन धर्म प्रकार जैन धर्म में स्तुति से पापों का क्षय और आत्मविशुद्धि तो मानी में तभी स्थित रखा जा सकता है, जब उन्हें उनके भौतिक मङ्गल का गई किन्तु इसका कारण ईश्वरीय कृपा नहीं, अपितु अपने शुद्ध स्वरूप आश्वासन दिया जा सके। चूँकि तीर्थङ्कर द्वारा किसी भी स्थिति में भक्तों का बोध माना गया।
के भौतिक मङ्गल की कोई सम्भावना नहीं थी, इसलिए तीर्थङ्कर के इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन परम्परा में स्तवन या गुण- शासन-संरक्षक देवों के रूप में शासन देवता (यक्ष-यक्षी) की कल्पना संकीर्तन के रूप में जिस भक्ति तत्त्व का विकास हुआ, वह निष्काम। आयी और इस रूप में हिन्दू परम्परा के ही अनेक देव-देवियों को भक्ति का ही एक रूप था।
न केवल समाहित किया गया, अपितु यह भी माना गया कि उनकी
उपासना या भक्ति करने पर वे प्रसन्न होकर भौतिक दुःखों को दूर जैनधर्म और सकाम भक्ति
करते हैं। यक्ष-यक्षिणियों के जैन धर्म में प्रवेश के साथ ही उसमें हिन्दू निष्काम भक्ति की यह अवधारणा आदर्श होते हुए भी सामान्यजन धर्म की कर्म-काण्डपरक तान्त्रिक उपासना पद्धति भी कुछ संशोधनों के लिए दुःसाध्य ही है। सामान्यजन एक ऐसे भगवान् की कल्पना एवं परिवर्तनों के साथ समाहित कर ली गई। करते हैं जो प्रसन्न होकर उसके दुःखों को दूर कर उसे इहलौकिक जैन स्तोत्र साहित्य में संस्कृत में जो सुन्दर स्तुतियाँ लिखी गईं सुख प्रदान कर सके। यही कारण रहा कि जैन धर्म में स्तुति की निष्कामता उनमें सिद्धसेन दिवाकर की द्वात्रिंशिकाएँ तथा समन्तभद्र के देवागम धीरे-धीरे कम होती गयी और स्तुतियाँ तथा प्रार्थनायें ऐहिक लाभ आदि स्तोत्र प्रसिद्ध हैं। संस्कृत में रचित ये स्तुतियाँ न केवल जिन-स्तुति के साथ जुड़ती गयीं। जैन परम्परा में स्तुति का सबसे प्राचीन रूप हैं, अपितु जिन-स्तुति के ब्याज से प्रचलित दार्शनिक मान्यताओं की सूत्रकृतांग (ई०पू०४थी-३री शती) के छठे अध्ययन में 'वीर-स्तुति' सुन्दर समीक्षा भी हैं। इन स्तुतियों में जैन धर्म का दार्शनिक स्वरूप के नाम से उपलब्ध है। इसमें महावीर के गुणों का संकीर्तन तो है अधिक उभरकर सामने आया है। इसलिए इन स्तुतियों को भक्तिपरक
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कम और दर्शनपरक अधिक माना जा सकता है।
आठवीं नवीं शती के पश्चात् जिन भक्तिपरक स्तोत्रों की रचना जैन परम्परा में हुई, उनमें भक्तामरस्तोत्र, कल्याणमंदिरस्तोत्र आदि • प्रसिद्ध हैं। यद्यपि ये स्तोत्र जैन परम्परा में सकाम भक्ति की अवधारणा के विकास के बाद ही रचित है। इनमें पद-पद पर लौकिक कल्याण की प्रार्थनाएँ भी हैं। परवर्ती काल में तो मरू गुर्जर, पुरानी हिन्दी आदि में बहुत सी स्तुतियाँ लिखी गईं, जिनमें आध्यात्मिक कल्याण के साथ-साथ लौकिक कल्याण की प्रार्थना की गई। आनन्दघन और देवचन्द जैसे कवियों की चौबीसियाँ भक्तिरस से ओत-प्रोत हैं । मध्यकाल में विष्णुसहस्रनाम के समान जैन परम्परा में भी जिनसहस्त्रनाम जैसे ग्रन्थ लिखे गए। इस प्रकार हम देखते है कि जैन परम्परा में स्तुतियों एवं स्तुतिपरक साहित्य की रचना अति प्राचीनकाल से लेकर वर्तमान युग तक जीवित रही है और हजारों की संख्या में भक्ति गीत लिखे गये जिनका सम्पूर्ण विवरण प्रस्तुत करना इस लेख में सम्भव नहीं है।
यद्यपि जैन धर्म में सकाम स्तुतियों या प्रार्थनाओं के रूप यत्र-तत्र परिलक्षित होते हैं, किन्तु वीतरागता और मुक्ति की आकांक्षी जैन परम्परा में फलाकांक्षा से युक्त सकाम भक्ति का कोई स्थान नहीं हो सकता है, यह हमें स्मरण रहना चाहिए, क्योंकि जैन परम्परा में फलाकांक्षा को शल्य (कांटा) कहा गया है। फलाकांक्षा सहित भक्ति को निदान शल्य कहा गया है। जैन परम्परा में भक्ति का यथार्थ आदर्श क्या है? इसे जैन कवि धनञ्जय ने निम्न शब्दों में अभिव्यक्त किया है इति स्तुतिं देव विधाय दैन्याद्, वरं न याचे त्वमुपेक्षकोऽसि । छाया तरुं सश्रयतः स्वतः स्यात् कश्छाया याचितयाऽऽत्मलाभः । अथास्ति दित्सा यदिवोपरोधः त्वय्येव सक्तां दिश भक्ति बुद्धिं । करिष्यते देव तथा कुपां मे को वात्मपोष्ये सुमुखो न सूरीः ।
"हे प्रभु! इस प्रकार आपकी स्तुति करके मैं आपसे कोई वरदान नहीं मांगना चाहता हूँ, क्योंकि कुछ मांगना तो एक प्रकार की दीनता है, पुनः आप राग-द्वेष से रहित है, बिना राग के कौन किस की आकांक्षा पूरी करता है, पुनः छायावाले वृक्ष के नीचे बैठकर छाया की याचना करना तो व्यर्थ ही है। वह तो स्वतः ही प्राप्त हो जाती है।" इस प्रकार जैन दर्शन में भक्ति का उत्स तो निष्कामता ही है उसमें सकामता जो तत्त्व प्रविष्ट हुआ है, वह हिन्दू परम्परा और समसामयिक परिस्थितियों का प्रभाव है।
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
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जैन परम्परा में स्तुति या स्तवन का महत्त्व तो इसी तथ्य से स्पष्ट हो जाता है, उसमें मुनि अथवा गृहस्थ के जो दैनिक षट् आवश्यक कर्तव्य बताये गए हैं, उसमें दूसरे क्रम पर स्तुति का निरुपण है । अतः हम कह सकते हैं कि श्रद्धा के साथ-साथ जैन धर्म में भक्ति का दूसरा महत्त्वपूर्ण पक्ष स्तुति भी स्वीकृत रहा है।
स्तुति वस्तुतः उपास्य के गुणों का ही संकीर्तन है। जैन परम्परा में जो स्तुतियाँ उपलब्ध हैं, उनमें अरहंत, सिद्ध या तीर्थङ्कर के गुणों का संकीर्तन किया जाता है, किन्तु इसका मुख्य उद्देश्य तो आत्मा की शुद्ध स्वभाव-दशा की उपलब्धि ही है संत आनन्दघन जी लिखते हैं"
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आपनो आतम भावजे एक चेतननो अधार रे । अवर सवि साथ संजोगथी, ए निज परिकर सार रे ।। प्रभु मुख थी इम सांभली, कहै आतमराम रे । थाहरै दरिसणे निस्तरयो, मुझ सीधा सवि काम रे || शांति जिन स्तवन
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वंदन
वंदन का जैन परम्परा में मुनि व गृहस्थ दोनों के षट् आवश्यक कर्त्तव्यों में तीसरा स्थान है । पुण्य कर्म के विवेचन में भी नमस्कार
पुण्य कहा गया है। नमस्कार या वंदन तभी सम्भव होता है जब उसमें वंदनीय के प्रति पूज्य - बुद्धि या समादर भाव हो। इस प्रकार वंदन भी भक्ति का एक रूप है। जैनों के पवित्र नमस्कार मन्त्र में पाँच पदों को वंदन किया गया है। वे पाँच पद हैं— १. अरहंत, २. सिद्ध, ३. आचार्य, ४. उपाध्याय और ५. साधु यहाँ विशेष रूप से ज्ञातव्य यह है कि इस नमस्कार मन्त्र में विशिष्ट गुणों के धारण करने वाले पदों को नमस्कार किया गया है। वंदन में मुख्य रूप से अरहंत, सिद्ध आचार्य, गुरु एवं अपने से पद योग्यता, दीक्षा आदि में ज्येष्ठ व्यक्ति को वंदनीय माना जाता है। वंदन का यह तत्त्व एक ओर व्यक्ति के अहंकार को विगलित करने का साधन है तो दूसरी ओर विनय गुण का भी विकास करता है। यह सुस्पष्ट है कि अहंकार को सभी धर्म और परम्पराओं में दुर्गुण माना गया है। जैन धर्म में विनय को धर्म का मूल या आधार कहा गया है।
जैन परम्परा में इस प्रश्न पर भी गम्भीरता से विचार किया गया है कि वंदनीय कौन है? जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं, जैन परम्परा में उपर्युक्त पाँच पद को धारण करने वाले व्यक्ति ही वंदनीय माने गये हैं । किन्तु साथ ही यह भी कहा गया है कि जिन व्यक्तियों में इन पदों के लिए वर्णित योग्यता का अभाव है वे वेश या पद पर स्थापित हो जाने मात्र से वंदनीय नहीं बन जाते। जैन परम्परा स्पष्ट रूप से शिथिलाचारियों के वंदन और संसर्ग का निषेध करती है, क्योंकि इनके माध्यम से समाज में दुष्प्रवृत्तियों को न केवल बढ़ावा मिलता है अपितु सामाजिक जीवन में भी शिथिलाचार आने की सम्भावना रहती है। अतः वंदन किसको किया जाय और किसे न किया जाय, इस सम्बन्ध में विवेक को आवश्यक माना गया है। वंदन कैसे किया जाय, इस सम्बन्ध में भी जैन परम्परा में विस्तार से चर्चा उपलब्ध होती है, साथ ही उसमें सदोष वंदन के ३२ दोषों का चित्रण भी हुआ है। विस्तारभय से उसकी चर्चा यहाँ अपेक्षित नहीं है। जैनों के नमस्कार मन्त्र में जो पाँच पद वंदनीय है उनमें नीर या अर्हत् के लिए केवल सिद्ध पद वंदनीय होता है। आचार्य के लिए अरहंत और सिद्ध ये दो पद वंदनीय हैं। इसीलिए प्राचीन अभिलेखों में सामान्यतया अरहंत व सिद्ध ऐसे दो पदों के नमस्कार का उल्लेख है उपाध्याय के लिए अरहंत, सिद्ध एवं आचार्य, ये तीन पद वंदनीय है। जबकि सामान्य मुनियों के लिए अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और अपने से दीक्षा में ज्येष्ठ मुनि इस प्रकार पाँचों ही पद वंदनीय होते हैं। इसी प्रकार गृहस्थ के लिए भी उपर्युक्त पाँचों ही पद वंदनीय
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जैन धर्म में भक्ति की अवधारणा
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माने गये हैं। जैन परम्परा में जो वंदन के पाठ उपलब्ध हैं उनके अनुसार देवदूष्य-युगल पहनाया। देवदूष्य पहनाकर पुष्प, माला, गन्ध, चूर्ण, वंदन में पूज्य-बुद्धि या सम्मान का भाव आवश्यक माना गया है। वस्त्र और आभूषण चढ़ाये। इन सबको चढ़ाने के अनन्तर फिर ऊपर पूज्य-बुद्धि के अभाव में वंदन का कोई अर्थ नहीं रह जाता। से नीचे तक लटकती हुई लम्बी-लम्बी गोला मालाएँ पहनाईं। मालाएँ स्तुति एवं वंदन दोनों में ही गुण-संकीर्तन की भावना स्पष्ट रूप से पहनाकर पञ्चरङ्गे पुष्पगणों को हाथ में लेकर उनकी वर्षा की और मांडने जुड़ी है।
मांडकर उस स्थान को सुशोभित किया। फिर उन जिन-प्रतिमाओं के
सन्मुख शुभ्र, सलौने, रजतमय अक्षत तन्दुलों (चावलों) से आठ-आठ पूजा, अर्चा और भक्ति
मङ्गलों का आलेखन किया, यक्ष, स्वास्तिक यावत् दर्पण। जैन परम्परा में मूर्ति-पूजा की अवधारणा अति प्राचीन काल से तदनन्तर उन जिन-प्रतिमाओं के सम्मुख श्रेष्ठ काले अगर, कुन्दरु, पायी जाती है। तीर्थङ्करों की प्रतिमाओं की पूजा का विधान आगमों तुरूष्क और धूप की महकती सुगन्ध से व्याप्त और धूपबत्ती के समान में उपलब्ध है। परवर्ती काल में शासन-देवता के रूप में यक्ष-यक्षी सुरभिगन्ध को फैलाने वाले स्वर्ण एवं मणिरत्नों से रचित, चित्र-विचित्र एवं क्षेत्रपालों (भैरव) की पूजा भी होने लगी। जैन परम्परा में तीर्थङ्कर रचनाओं से युक्त वैडूर्यमन धूपदान को लेकर धूपक्षेप किया तथा विशुद्ध प्रतिमाओं का निर्माण ई.पू. तीसरी शती से तो स्पष्ट रूप से होने अपूर्व अर्थ सम्पन्न अपुनरुक्त महिमाशाली एक सौ आठ छन्दों में स्तुति लगा था, क्योंकि मौर्यकाल की जिन-प्रतिमा उपलब्ध होती है। इससे की। स्तुति करके सात-आठ पग पीछे हटा और फिर पीछे हटकर पूर्व भी नन्द राजा के द्वारा कलिङ्ग-जिन की प्रतिमा को उठाकर ले बायां घुटना ऊँचा किया और दायां घुटना जमीन पर टिकाकर तीन जाने का जो खारवेल का अभिलेखीय साक्ष्य उपलब्ध है, उसके आधार बार मस्तक को भूमि तल पर नमाया। नमाकर कुछ ऊँचा उठा तथा पर यह माना जा सकता है कि मौर्य काल से पूर्व भी तीर्थङ्कर प्रतिमाओं मस्तक ऊँचा करके दोनों हाथ जोड़कर आवर्तपूर्वक मस्तक पर अञ्जलि का निर्माण प्रारम्भ हो गया था। किन्तु उस युग की जिन-प्रतिमा की करके प्रभु की स्तुति की। पूजा-अर्चा की विधि को बताने वाला कोई ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं इससे यह फलित होता है कि मुनिजन जो सचित्त द्रव्य का स्पर्श है। जैन परम्परा में पूजा-अर्चा के विधि-विधान एवं मन्दिर-निर्माण नहीं करते थे, वे केवल वंदन या गुण-स्तवन ही करते थे किन्तु गृहस्थ कला आदि को सूचित करने वाले जो ग्रन्थ उपलब्ध हैं, वे लगभग पूजन-सामग्री में सचित्त द्रव्यों का उपयोग करते थे। यद्यपि उस सम्बन्ध ई० सन् की प्रारम्भिक सदियों के हैं। जैन आगमों में स्थानाङ्ग, ज्ञाताधर्म में अनेक सतर्कताएँ बरती जाती थीं, जिनका उल्लेख ७-८वीं शती एवं राजप्रश्नीय सूत्र में मन्दिर-संरचना एवं जिन-प्रतिमाओं की पूजन के जैन आचार्यों ने किया है। जैनों की पूजा-विधि की जब हम विधि के उल्लेख हैं। मथुरा के प्रथम शती के अङ्कनों से भी इस तथ्य वैष्णव-विधि से तुलना करते हैं तब हम पाते हैं कि दोनों में काफी की पुष्टि होती है, क्योंकि उनमें कमल-पुष्प ले जाते हुए श्रावक- समानता थी। मात्र यही नहीं जैनों ने अपनी पूजा-विधि को वैष्णव श्राविकाओं को अंकित किया गया है। जो पूजा-विधि राजप्रश्नीयसूत्र परम्परा से गृहीत किया था। उनके आह्वान, विसर्जन आदि के मन्त्र
और परवर्ती ग्रन्थों में उपलब्ध है उसके अनुसार मुनि और साध्वियाँ न केवल हिन्दु परम्परा की नकल हैं, अपितु उनकी दार्शनिक मान्यताओं तो जिन-प्रतिमाओं की वंदना एवं स्तुति के रूप में भाव-पूजा ही करते के विरोध में भी हैं। इसकी स्वतन्त्रचर्चा हमने अन्य लेख में की है हैं। मात्र गृहस्थ ही उनकी पूजा-सामग्री से द्रव्य पूजा करता है। गृहस्थ (श्रमण १९९०) वीतराग परमात्मा की जिसने त्याग, वैराग्य व तप की पूजा विधि के अनुसार कूप अथवा पुष्करणी में स्नान करके वहाँ का उपदेश दिया उसकी पूजा, पुष्प, फल, नैवेद्य, धूप, दीप आदि से कमल-पुष्प और जल लेकर जिन-प्रतिमा का पूजन किया जाता से की जाय यह स्पष्ट रूप से अन्य परम्परा का प्रभाव है। चूँकि वैष्णव था। ज्ञाताधर्म द्रोपदी द्वारा मात्र पूजा करने का उल्लेख है। परम्परा में यह विधि प्रचलित थी, जैनों ने उन्हीं से गृहीत कर लिया किन्तु राजप्रश्नीय में जिन-प्रतिमा की पूजा-विधि निम्न प्रकार से और वे जिन-पूजा के अङ्ग मान लिये गए। वैष्णव परम्परा में वर्णित है
पञ्चोपचार-पूजा व षोडषोचार-पूजा के उल्लेख मिलते हैं। जैनों में उसके “तत्पश्चात् सूर्याभदेव चार हजार सामानिक देवों यावत् और दूसरे स्थान पर अष्टप्रकारी-पूजा एवं सतरह भेदी पूजा के उल्लेख हैं। दोनों बहुत से देवों और देवियों से परिवेष्ठित होकर अपनी समस्त ऋद्धि, में नाम क्रम आदि देखने पर यह सिद्ध होता है कि जैन परम्परा में वैभव यावत् वाद्यों की तुमुल ध्वनिपूर्वक जहाँ सिद्धायतन था, वहाँ पूजा-विधि का विकास वैष्णव परम्परा से प्रभावित है। सामान्यतया आया। पूर्व द्वार से प्रवेश करके जहाँ देवछंदक और जिन-प्रतिमाएँ भक्ति के क्षेत्र में विग्रह-पूजा की प्राथमिकता रही है और जैन परम्परा थीं, वहाँ आया। वहाँ आकर उसने जिन-प्रतिमाओं को देखते ही प्रणाम में भी चाहे किंचित परवर्ती क्यों न हों, किन्तु जिन-मूर्तियों की पूजा करके लोममयी प्रमार्जनी (मयूर-पिच्छ की पूंजनी) हाथ में ली और के रूप में इसका प्रचलन हुआ। जैन पूजा-पद्धति वैष्णव भक्ति परम्परा प्रमार्जनी को लेकर जिन-प्रतिमाओं को प्रमार्जित किया। प्रमार्जित करके से न केवल प्रभावित रही, अपितु उसका अनुकरण मात्र है तथा जैन सुरभि गन्धोदक से उन जिन-प्रतिमाओं का प्रक्षालन किया। प्रक्षालन दर्शन की मान्यताओं के विरुद्ध है, इस तथ्य की पं० फूलचन्द्र जी करके सरस गोशीर्ष चन्दन का लेप किया। लेप करके काषायिक सुरभि सिद्धान्त शास्त्री ने भी ज्ञानपीठ पूजाञ्जलि में विस्तार से चर्चा की है। गन्ध से सुवासित वस्त्र से उनको पोछा। उन जिन-प्रतिमाओं को अखण्ड मैंने भी अपने लेख जैन धर्म के धार्मिक अनुष्ठान एवं कला तत्त्व
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
में विस्तार से चर्चा की है। यहाँ इसका उल्लेख मात्र यह बताता है विरह-भक्ति के अनेक गीत लिखे हैं। उनके कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैंकि जैन परम्परा में भक्तिमार्ग का जो विकास है, वह हिन्दू परम्परा ऋषभ जिणेसर प्रीतम माहरो, और न चाहूँ कंत । से प्रभावित होकर ही हुआ है।
रीझ्यों साहब सैज न परिहरे, भांगे सादि अनन्त ।। जहाँ तक दास, सख्य एवं आत्म-निवेदन रूप भक्तियों के उल्लेख प्रीत सगाई जग मां सह करै, प्रीत सगाई न कोय । का प्रश्न है, अनीश्वरवादी जैन परम्परा में स्वामी-सेवक भाव से प्रभु प्रीत सगाई निरूपाधिक कही रे, सोपाधिक धन खोय।। की उपासना स्वीकृत नहीं रही है, क्योंकि उसमें भक्ति का लक्ष्य उस परमात्मदशा की प्राप्ति है जिसमें स्वामी-सेवक का भाव समाप्त हो प्रीतम प्रान पति बिना, प्रिया कैसे जीवै हो । जाता है। फिर भी साधकदशा में परमात्मा के प्रति पूज्य-बुद्धि जैन प्रान-पवन विरहा-दशा, भुअंगनि पीवै हो ।। परम्परा में भी मान्य रही और उस रूप में जैन साधक अपने को परमात्मा सीतल पंखा कुमकुमा, चन्दन कहा लावै हो । का सेवक भी सूचित करता है। जैन भक्ति गीतों में अनेक स्थानों पर अनल न विरहानल यहै, तन ताप बढ़ावै हो।। भक्त अपने को परमात्मा के सेवक के रूप में प्रस्तुत भी करता है। जैन संत आनन्दघन जी लिखते हैं
वेदन विरह अथाह है, पानी नव नेजा हो। एक अरज सेवक तणीरे, अवधारो जिनदेव ।
कोन हबीब तबीब है, टारै करक करेजा हो।। कृपा करी मुझ दीजिए रे, आनन्दघन पद सेव ।।
गाल हथेली लगाई कै, सुरसिंधु हमेली हो।
- विमल जिनस्तवन अँसुवन नीर बहाय कै, सींच कर बेली हो।। फिर भी वैष्णव भक्ति परम्परा में जो सदैव ही परमात्मा का सेवक बने रहने की उत्कट भावना है, वह जैन परम्परा में नहीं पायी जाती। मिलापी आन मिलावो रे, मेरे अनुभव मीठडे मीत। उसका आदर्श तो स्वयं परमात्मपद को प्राप्त कर लेना है। इसमें सर्वोच्च चातिक पिउ पिउ करै रे, पीउ मिलावे न आन। स्थिति में स्वामी और सेवक का भेद नहीं रह जाता। भक्त सदैव ही जीव पीवन पीउं पीउं करै प्यारे, जीउ निउ आन अयान।। यह प्रार्थना करता है कि भक्त और भगवान के बीच का यह अन्तर इस प्रकार जैन परम्परा में विरह व प्रेम को लेकर अनेक भक्ति कैसे समाप्त हो? सन्त आनन्दघन जी लिखते हैं
गीतों की रचनाएँ हुई हैं। उसमें शुद्ध चैतन्य आत्मा को पति तथा पद्यप्रभु जिन तुझ मुज आंतरू रे, किम भांजै भगवंत। आत्मा के समता रूप स्वाभाविक दशा को पत्नी तथा आत्मा की ही कर्म विपाके कारण जोइने कोई कहे मतिमंत ।। वैभाविक दशा को सौत के रूप में चित्रित कर आध्यात्मिक प्रेम का
अन्त में उस अन्तर को समाप्त होने की पूर्ण आस्था रखते हुए अनूठा वर्णन किया गया है। भक्त कहता है१९ -
नारद भक्तिसूत्र में प्रेम स्वरूपा भक्ति के निम्न ग्यारह प्रकारों का तुझ मुझ अन्तर अन्ते भांजसे बाजस्यै मंगल तूर । उल्लेख हुआ हैजैन भक्ति का आदर्श वाक्य है
१. गुणमहात्म्यासक्ति, २. रूपासक्ति, ३. पूजासक्ति, ४. स्मरणावन्दे तद् गुणलब्धये -तत्त्वार्थसूत्र-मङ्गलाचरण। सक्ति ५. दास्यासक्ति, ६. सख्यासक्ति, ७. कान्तासक्ति, ८. वात्सल्याइस प्रकार जैनधर्म में भक्ति का प्रयोजन परमात्मदशा को प्राप्त सक्ति, ९. आत्मनिवेदनासक्ति, १०. तन्मयतासक्ति, ११. परमविरहासक्ति। कर स्वामी-सेवक-भाव समाप्त करना ही रहा है।
इनमें भी रूपासक्ति, स्मरणासक्ति, गुणमहात्मयासक्ति और इस प्रकार सख्यभाव से भक्ति के उल्लेख भी जैन परम्परा में पूजासक्ति तो स्तवन, वंदन एवं पूजन के रूप में जैन परम्परा में भी मिल जाते हैं। फिर भी दोनों परम्परा में जो मौलिक अन्तर है उसे पाई जाती हैं। शेष दास सख्य, कान्ता, वात्सल्य आदि को भी परवर्ती लक्ष्य में रखना ही होगा। जैन परमपरा में परमात्मा कोई एक व्यक्ति जैनाचार्यों ने अपनी परम्परागत दार्शनिक मान्यताओं के अनुरूप बनाकर विशेष नहीं है जिससे सख्यभाव जोड़ा जा सके। अपितु प्रत्येक आत्मा प्रस्तुत किया है। का अपना शुद्ध स्वरूप ही उसका सखा या मित्र है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन परम्परा में भक्ति की इसी प्रकार वैष्णव परम्परा में परमात्मा को पति मानकर भक्ति अवधारणा स्तवन, वंदन, विनय, पूजा और सेवा इन-सभी पक्षों को की परम्परा भी पायी जाती है। प्रेम और विरह के रूप में भक्ति गीतों समाहित किये हुए है। सेवा के क्षेत्र में भक्ति के दो रूप रहे हैंकी परम्परा अति प्राचीन है। यद्यपि जैन परम्परा की साधना का मुख्य एक तो स्वयं आराध्य आदि की प्रतिमा की सेवा करना, दूसरे गीता उद्देश्य तो राग-भाव से ऊपर उठना ही रहा है, फिर भी परमात्मा के के युग से ही संसार के सभी प्राणियों को प्रभु का प्रतिनिधि मानकर प्रति अनन्य प्रेम का प्रकटन उसमें भी हुआ है। यद्यपि मेरी दृष्टि में उनकी सेवा को भी भक्ति में स्थान दिया गया। जैन परम्परा में भी यह सब वैष्णव भक्तिमार्गी परम्परा का ही प्रभाव रहा है। समयसुन्दर, निशीथचूर्णि (सातवीं शती) में यह प्रश्न उठा है कि एक व्यक्ति जो आनन्दघन, यशोविजय, देवचन्द्र आदि जैन कवियों ने परमात्मा को प्रभु का नाम स्मरण करता है, दूसरा जो ग्लान वृद्ध व रोगियों की पति मानकर अनेक भक्ति गीतों की रचना की है। आनन्दघन ने सुश्रुषा करता है, उनमें श्रेष्ठ है? इस सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से यह
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जैन धर्म में भक्ति की अवधारणा
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कहा गया है कि जो वृद्ध, रोगी आदि की सेवा करता है, वह भगवान् की ही सेवा करता है। इस प्रकार भक्ति में सेवा की जो अवधारणा
थी, उसने एक लोक-कल्याणकारी रूप ग्रहण किया, यही जैन भक्ति की विशेषता है।
१. सर्वार्थसिद्धि, संपा० पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री, प्रका० भारतीय
ज्ञानपीठ, काशी, १९५५, ६/२४/१२। २. कल्पसूत्रटीका, जिनविजयजी, प्रका० हीरालाल हंसराज जैन, जामनगर,
१९३९, पृ० १२०। ३. गीता, गीता प्रेस, गोरखपुर, २०१८, ४/३९। ४. आचाराङ्गसूत्र, संपा० मधुकरमुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन
समिति, ब्यावर, १९८०। सूत्रकृताङ्गसूत्र, संपा०मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन
समिति, ब्यावर, १९८२, १/१४/२०॥ ६. ज्ञाताधर्मकथा, संपा० मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन
समिति, ब्यावर, १६/१४। ७. तत्त्वार्थसूत्र, विवे०सुखलाल संधवी, प्रका० पार्श्वनाथ विद्यापीठ शोध
संस्थान, वाराणसी, १९७६, ६/२३। आवश्यकनियुक्ति, संपा० बी०के०कोठारी, प्रका० रिलीजियस
ट्रस्ट, बम्बई, १९८१, ४५१-४५३। ९. वही, ११९०-११११। १०. श्रीमद्भागवत् , गीताप्रेस, गोरखपुर, २००६, ७/५/२३।
११. दशवैकालिकसूत्र, संपा० मधुकरमुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन
समिति, ब्यावर, १९७४, ४/३४। १२. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा० मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन
समिति, ब्यावर, १९८४, २८/३५। १३. वही। १४. नियमसार, अनु० आर्यिका ज्ञानमती, वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला,
हस्तिनापुर, १९८४, १३४-१४०। १५. आवश्यकनियुक्ति, संपा० बी०के०कोठारी, प्रका०रिलीजिएस ट्रस्ट,
बम्बई, १९८१, १११०। आनन्दघन ग्रन्थावली, संपा० महताबचन्द खारैड विशारद, प्रका० श्री विजयचन्द जरगड, जौहरी बाजार, ईमली वाले पंसारी के ऊपर,
जयपुर, वि० सं० २०३१, शांति जिनस्तवन, १६/११,१२। १७. वही, विमल जिनस्तवन- १३/१७। १८. वही, पद्मप्रभ जिनस्तवन, - ६/१,२। १९. वही, ६/६। २०. वही, ऋषभ जिनस्तन, १/१,२ तथा वही पद २६, ४९-३२,
४४-३०॥
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जैन साधना का आधार सम्यग्दर्शन
सामान्यतया जैनागमों में अज्ञान और अयथार्थ ज्ञान दोनों के को सम्यक्-रूप से नहीं जान पाता है। बुद्ध कहते हैं- “आस्वाद दोष लिए मिथ्यात्व शब्द का प्रयोग हुआ है। यही नहीं किन्हीं सन्दर्भो में और मोक्ष को यथार्थत: नहीं जानता है, यही अविद्या है।'६ मिथ्या अज्ञान, अयथार्थ ज्ञान, मिथ्यात्व और मोह समानार्थक रूप में प्रयुक्त भी स्वभाव को स्पष्ट करते हुए बुद्ध कहते हैं 'जो मिथ्यादृष्टि है- मिथ्या हुए हैं। यहाँ पर हम अज्ञान शब्द का प्रयोग एक विस्तृत अर्थ में कर रहे समाधि है। इसी को मिथ्या स्वभाव कहते हैं।"७ मिथ्यात्व को हम एक हैं जिसमें उसके उपरोक्त सभी अर्थ समाहित हैं। नैतिक दृष्टि से अज्ञान ऐसा दृष्टिकोण कह सकते हैं जो सत्यता की दिशा से विमुख है। संक्षेप नैतिक-आदर्श के अज्ञान का अभाव और शुभाशुभ विवेक की कमी को में मिथ्यात्व असत्याभिरुचि है, राग और द्वेष के कारण दृष्टिकोण का अभिव्यक्त करता है। जब तक प्राणी को स्व-स्वरूप का यथार्थ ज्ञान नहीं विकृत हो जाना है। होता है अर्थात् मैं क्या हूँ? मेरा आदर्श क्या है? या मुझे क्या प्राप्त करना है? तब तक वह नैतिक जीवन में प्रविष्ट ही नहीं हो सकता। जैन जैन-दर्शन में मिथ्यात्व के प्रकार विचारक कहते हैं कि जो आत्मा के स्वरूप को नहीं जानता, जड़ पदार्थों आचार्य पूज्यपाद देवनन्दी ने मिथ्यात्व को उत्पत्ति की दृष्टि से के स्वरूप को नहीं जानता, वह क्या संयम की आराधना (नैतिक दो प्रकार का बताया है: । साधना) करेगा?
१. नैसर्गिक (अनर्जित)- जो मिथ्यात्व मोहकर्म के उदय से ऋषिभाषितसूत्र में तरुण साधक अर्हत् गाथापतिपुत्र कहते होता है, वह नैसर्गिक मिथ्यात्व है। हैं- अज्ञान ही बहुत बड़ा दुःख है। अज्ञान से ही भय का जन्म होता २. परोपदेशपूर्वक- जो मिथ्या धारणा वाले लोगों के हैं। समस्त देहधारियों के लिए भव-परम्परा का मूल विविध रूपों में उपदेश से स्वीकार किया जाता है। अत: यह अर्जित या परोपदेशपूर्वक व्याप्त अज्ञान ही है जन्म-जरा और मृत्यु, भय-शोक, मान और मिथ्यात्व है। अपमान सभी जीवात्मा के अज्ञान से उत्पन्न हुए हैं। संसार का प्रवाह यह अर्जित मिथ्यात्व चार प्रकार का है(संतति) अज्ञानमूलक है।२
(अ) क्रियावादी- आत्मा को कर्ता मानना भारतीय नैतिक चिन्तन में मात्र कर्मों की शुभाशुभता पर ही (ब प्रक्रियावादी- आत्मा को अकर्ता मानना विचार नहीं किया गया वरन् यह भी जानने का प्रयास किया गया कि (स) अज्ञानी- सत्य की प्राप्ति को सम्भव नहीं मानना कर्मों की शुभाशुभता का कारण क्या है। क्यों एक व्यक्ति अशुभ
(द) वैनयिक- रूढ़-परम्पराओं को स्वीकार करना। कृत्यों की ओर प्रेरित होता है और क्यों दूसरा व्यक्ति शुभकृत्यों की स्वरूप की दृष्टि से जैनागमों में मिथ्यात्व पाँच प्रकार का भी ओर प्रेरित होता है? गीता में अर्जुन यह प्रश्न उठाता है कि हे कृष्ण! माना गया है।"८ नहीं चाहते हुए भी सकी प्रेरणा से प्रेरित हो, वह पुरुष पापकर्म में १. एकान्त- जैनतत्त्वज्ञान में वस्तुतत्व को अनन्तधर्मात्मक नियोजित होता है?३
माना गया है। उसमें समान जाति के अनन्त गुण ही नहीं होते हैं वरन् जैन दर्शन के अनुसार इसका जो प्रत्युत्तर दिया जा सकता है, विरोधी गुण भी समाहित होते हैं। अत: वस्तु तत्त्व का एकांगी ज्ञान वह यह है कि मिथ्यात्व ही अशुभ की ओर प्रवृत्ति करने का कारण है। उसके सन्दर्भ में पूर्ण सत्य को प्रकट नहीं करता, वह आंशिक सत्य बुद्ध का भी कथन है कि मिथ्यात्व ही अशुभाचरण और सम्यग्दृष्टि ही होता है, पूर्ण सत्य नहीं। आंशिक सत्य को जबपूर्ण सत्य मान लिया सदाचरण का कारण है। गीता का उत्तर है- रजोगुण से उत्पन्न काम ही जाता है तो वह मिथ्यात्व हो जाता है। न केवल जैन विचारणा वरन् बौद्ध ज्ञान को आवृत कर व्यक्ति को बलात् पापकर्म की ओर प्रेरित करता है। विचारणा में भी ऐकान्तिक ज्ञान को मिथ्या कहा गया है। बुद्ध कहते हैंइस प्रकार हम देखते हैं कि बौद्ध, जैन और गीता के आचार-दर्शन इस "भारद्वाज! सत्यानुरक्षक विज्ञ पुरुष को एकांश से ऐसी निष्ठा करना सम्बन्ध में एक मत हैं- अनैतिक आचरण के मार्ग में प्रवृत्ति का कारण योग्य नहीं है कि यही सत्य और बाकी सब मिथ्या है।" बुद्ध इस सारे व्यक्ति का मिथ्या दृष्टिकोण ही है।
कथानक में इसी बात पर बल देते हैं कि सापेक्षिक कथन के रूप में ही
सत्यानुरक्षक होता है अन्य प्रकार से नहीं। उदान में भी बुद्ध ने कहा हैमिथ्यात्व क्या है?
जो एकांतदर्शी हैं वे ही विवाद करते हैं। इस प्रकार बुद्ध ने भी एकांत जैन विचारकों की दृष्टि में वस्तुतत्त्व का अपने यथार्थ स्वरूप को मिथ्यात्व माना है। का बोध नहीं होना ही मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व लक्ष्य विमुखता है, २. विपरीत- वस्तुतत्त्व का उसके स्व-स्वरूप के रूप में तत्त्वरुचि का अभाव हैं, सत्य के प्रति जिज्ञासा या अभीप्सा का अभाव ग्रहण नहीं कर उसके विपरीत रूप में ग्रहण करना भी मिथ्यात्व है। प्रश्न है। बुद्ध ने अविद्या को वह स्थिति माना है जिसके कारण व्यक्ति परमार्थ हो सकता है कि जब वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मात्मक है और उसमें विरोधी
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जैन साधना का आधार सम्यग्दर्शन.
धर्म भी रहे हुए हैं तो सामान्य व्यक्ति जिसका ज्ञान अंशग्राही है, इस विपरीत ग्रहण के दोष से बच नहीं सकता, क्योंकि उसने वस्तुतत्व के जिस पक्ष को ग्रहण किया उसका विरोधी धर्म भी उसमें उपस्थित है । अतः उसका समस्त ग्रहण विपरीत ही होगा; लेकिन इस विचार में एक भ्रान्ति है और वह यह है कि यद्यपि वस्तु अनन्तधर्मात्मक है लेकिन यह तो निरपेक्ष कथन है। एक अपेक्षा की दृष्टि से या जैन पारिभाषिक दृष्टि से कहें तो एक ही नय से वस्तुतत्त्व में दो विरोधी धर्म नहीं होते हैं, उदाहरणार्थ- एक ही अपेक्षा से आत्मा को नित्य और अनित्य नहीं माना जाता है। आत्मा द्रव्यार्थिक दृष्टि से नित्य है तो पर्यायार्थिक दृष्टि से अनित्य है। अतः आत्मा को पर्यायार्थिक दृष्टि से भी नित्य मानना, यह विपरीत ग्रहण मिथ्यात्व है। बुद्ध ने भी विपरीत ग्रहण को मिथ्या दृष्टित्व माना है और विभिन्न प्रकार के विपरीत ग्रहणों को स्पष्ट किया है। १९ गीता में भी विपरीत ग्रहण को अज्ञान कहा गया है। अधर्म को धर्म और धर्म को अधर्म के रूप में मानने वाली बुद्धि को गीता में तामस कहा गया है (१८/३२)।
आत्मा विनाश को ही प्राप्त होता है। १५
५. अज्ञान जैन विचारकों ने अज्ञान को पूर्वाग्रह, विपरीत ग्रहण, संशय और ऐकान्तिक ज्ञान से पृथक् माना है। उपरोक्त चारों मिथ्यात्व के विधायक पक्ष कहे जा सकते हैं; क्योंकि इनमें ज्ञान तो उपस्थिति है लेकिन वह अयथार्थ है। इनमें ज्ञानाभाव नहीं वरन् ज्ञान की अयथार्थता है; जबकि अज्ञान ज्ञानाभाव है। अतः वह मिथ्यात्व का निषेधात्मक पक्ष प्रस्तुत करता है। अज्ञान नैतिक साधना का सबसे बड़ा बाधक तत्त्व है क्योंकि ज्ञानाभाव में व्यक्ति को अपने लक्ष्य का भान नहीं हो सकता है, न वह कर्तव्याकर्तव्य का विचार कर सकता है। शुभाशुभ में विवेक करने की क्षमता का अभाव अज्ञान ही है। ऐसे अज्ञान की अवस्था में नैतिक आचरण सम्भव नहीं होता।
मिथ्यात्व के २५ प्रकार
मिध्यात्व के २५ भेदों का विवेचन हमें प्रतिक्रमणसूत्र में प्राप्त होता है जिसमें से १० भेदों का विवेचन स्थानांगसूत्र में है, मिध्यात्व के शेष भेदों का विवेचन मूलागम अन्यों में यत्र-तत्र बिखरा हुआ मिलता है। (१) धर्म को अधर्म समझना ।
(२)
अधर्म को धर्म समझना।
३. वैनयिक बिना बौद्धिक गवेषणा के परम्परागत तथ्यों, धारणाओं, नियमोपनियमों को स्वीकार कर लेना वैनयिक मिथ्यात्व है। यह एक प्रकार की रूढ़िवादिता है। वैनयिक मिध्यात्व को बौद्ध परम्परा की दृष्टि से शीलव्रत परामर्श भी कहा जा सकता है। इसे क्रियाकाण्डात्मक मनोवृत्ति भी कहा जा सकता है। गीता में इस प्रकार के केवल रूढ़ व्यवहार की निन्दा की गई है वह कहती है ऐसी क्रियाएँ जन्म-मरण को बढ़ाने वाली और त्रिगुणात्मक होती हैं। १२
संसार (बन्धन) के मार्ग को मुक्ति का मार्ग समझना। मुक्ति के मार्ग को बन्धन का मार्ग समझना । जड़ पदार्थों को चेतन (जीव) समझना। आत्मतत्त्व (जीव) को जड़ पदार्थ (अजीव) समझना। असम्यक् आचरण करने वालों को साधु समझना। सम्यक् आचरण करने वालों को असाधु समझना। मुक्तात्मा को बद्ध मानना ।
(९)
(१०)
राग-द्वेष से युक्त को मुक्त समझना १६ ।
(११)
(१२)
आभिग्रहिक मिथ्यात्व - परम्परागत रूप में प्राप्त धारणाओं को बिना समीक्षा के अपना लेना अथवा उनसे जकड़े रहना। अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व - सत्य को जानते हुए भी उसे स्वीकार नहीं करना अथवा सभी मतों को समान मूल्य वाला समझना । आभिनिवेशिक मिथ्यात्व अभिमान की रक्षा के निमित्त असत्य मान्यता को हठपूर्वक पकड़े रहना ।
४. संशय- संशयावस्था को भी जैन विचारणा में मिथ्यात्व माना गया है। यद्यपि जैन दार्शनिकों की दृष्टि में संशय को नैतिक विकास की दृष्टि से अनुपादेय माना गया है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि जैन विचारकों ने संशय को इस कोटि में रखकर उसके मूल्य को भुला दिया है। जैन विचारक भी आज के वैज्ञानिकों की तरह संशय को ज्ञान की प्राप्ति के लिए आवश्यक मानते हैं। प्राचीनतम जैनागम आचारांगसूत्र में कहा गया है "जो संशय को जानता है वही संसार के स्वरूप का परिज्ञाता होता है, जो संशय को नहीं जानता वह संसार के स्वरूप का भी परिज्ञाता नहीं हो सकता १३। लेकिन जहाँ तक साधनात्मक जीवन का (१३) प्रश्न है हमें संशय से ऊपर उठना होगा। जैन विचारक आचार्य आत्मारामजी महाराज आचारांगसूत्र की टीका में लिखते हैं- "संशय ज्ञान कराने में (१४) सांशयिक मिथ्यात्व संशयशील बने रहकर सत्य का निश्चय सहायक है परन्तु यदि वह जिज्ञासा की सरल भावना का परित्याग करके केवल सन्देह करने के कुटिल वृत्ति अपना लेता है, तो वह पतन का कारण बन जाता है। १४ संशयावस्था वह स्थिति है जिसमें प्राणी सत् और असत् की कोई निश्चित धारणा नहीं रखता है। सांशयिक अवस्था अनिर्णय की अवस्था है। सांशयिक ज्ञान सत्य होते हुए भी मिथ्या ही होगा। नैतिक दृष्टि से ऐसा साधक कब पथभ्रष्ट हो सकता है यह नहीं (१८) कहा जा सकता। वह तो लक्ष्योन्मुखता और लक्ष्यविमुखता के मध्य हिण्डोले की भाँति झूलता हुआ अपना समय व्यर्थ करता है। गीता भी (१९) यही कहती है कि संशय की अवस्था में लक्ष्य प्राप्त नहीं होता। संशयी
नहीं कर पाना।
(३)
(४)
(4)
(६)
(७)
(८)
४४७
(१५) (१६)
(१७)
अनाभोग मिथ्यात्व-विवेक अथवा ज्ञानक्षमता का अभाव । लौकिक मिथ्यात्व लोक रूढ़ि में अविचारपूर्वक बंधे रहना। लोकोत्तर मिथ्यात्व पारलौकिक उपलब्धियों के निमित्त स्वार्थवश धर्म साधना करना ।
कुप्रवचन मिथ्यात्व मिथ्या दार्शनिक विचारणाओं को स्वीकृत -
करना।
न्यून मिध्यात्व पूर्ण सत्य अथवा तत्व स्वरूप को आंशिक सत्य समझ लेना अथवा न्यून मानना ।
.
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
२०.
(२३)
(२०) अधिक मिथ्यात्व-आंशिक सत्य को उससे अधिक अथवा पूर्ण
अयोग्य कहना। सत्य समझ लेना।
प्रायश्चित्त के अयोग्य (अप्रतिकर्म) आपत्ति को प्रायश्चित्त के (२१) विपरीत मिथ्यात्व-वस्तुतत्त्व को उसके विपरीत रूप में समझना। योग्य (सप्रतिकर्म) कहना। (२२) अक्रिया मिथ्यात्व-आत्मा को ऐकान्तिक रूप से अक्रिय
मानना अथवा सिर्फ ज्ञान को महत्त्व देकर आचरण के प्रति गीता में अज्ञान : उपेक्षा रखना।
गीता के मोह, अज्ञान या तामसिक ज्ञान भी मिथ्यात्व कहे जा अज्ञान मिथ्यात्व-ज्ञान अथवा विवेक का अभाव।
सकते हैं। इस आधार पर विचार करने से गीता में मिथ्यात्व का निम्न (२४) अविनय मिथ्यात्व-पूज्य वर्ग के प्रति समुचित सम्मान स्वरूप उपलब्ध होता है
प्रकट न करना अथवा उनकी आज्ञाओं का परिपालन १. परमात्मा लोक का सर्जन करने वाला, कर्म का कर्ता एवं कर्मों नहीं करना। पूज्यबुद्धि और विनीतता का अभाव अविनय के फल का संयोग करने वाला है अथवा वह किसी के पाप-पुण्य मिथ्यात्व है।
को ग्रहण करता है, यह मानना अज्ञान है (५-१४, १५)। (२५) आसातना मिथ्यात्व-पूज्य वर्ग की निन्दा और आलोचना करना। २. प्रमाद, आलस्य और निद्रा अज्ञान है (१४-८), धन परिवार
अविनय और आसातना को मिथ्यात्व इसलिए कहा गया है एवं दान का अहंकार करना अज्ञान है (१६-१५), विपरीत कि इनकी उपस्थिति से व्यक्ति गुरुजनों का यथोचित सम्मान नहीं ज्ञान के द्वारा क्षणभंगुर नाशवान शरीर में आत्म-बुद्धि रखना करता है और फलस्वरूप उनसे मिलने वाले यथार्थता के बोध से व उसमें सर्वस्व की भाँति आसक्त रहना, जो कि तत्त्व-अर्थ से वंचित रहता है।
रहित और तुच्छ है, तामसिक ज्ञान है (१८-१२)। इसी
प्रकार असद् का ग्रहण, अशुभ आचरण (१६-१०) और बौद्ध-दर्शन में मिथ्यात्व के प्रकार
संशयात्मकता को भी गीता में अज्ञान कहा गया है। महात्मा बुद्ध ने सद्धर्म का विनाश करने वाली कुछ धारणाओं का विवेचन अंगुत्तरनिकाय१० में किया है जो कि जैन विचारणा के पाश्चात्य दर्शन में मिथ्यात्व का प्रत्यय मिथ्यात्व की धारणा के बहुत निकट है। तुलना की दृष्टि से हम उनकी मिथ्यात्व यथार्थता के बोध का बाधक तत्त्व है। वह एक ऐसा संक्षिप्त सूची प्रस्तुत कर रहे हैं, जिसके आधार पर यह जाना जा सके रंगीन चश्मा है जो वस्तुतत्त्व के यथार्थ स्वरूप को आवृत कर व्यक्ति के कि दोनों विचार परम्पराओं का इस सम्बन्ध में कितना अधिक साम्य है। समक्ष उसका अयथार्थ किंवा भ्रान्त स्वरूप ही प्रकट करता है। भारत ही अधर्म को अधर्म बताना।
नहीं, पाश्चात्य देशों के विचारकों ने भी यथार्थता या सत्य के जिज्ञासु को धर्म को धर्म बताना।
मिथ्या धारणाओं से परे रहने का संकेत किया है। पाश्चात्य दर्शन के भिक्षु अनियम (अविनय) को भिक्षुनियम (विनय) बताना। नवयुग के प्रतिनिधि फ्रांसिस बेकन शुद्ध और निर्दोष ज्ञान की प्राप्ति के भिक्षु नियम को अनियम बताना।
लिए मानस को निम्न चार मिथ्या धारणाओं से मुक्त रखने का निर्देश तथागत (बुद्ध) द्वारा अभाषित को तथागत भाषित कहना। करते हैं, चार मिथ्या धारणाएँ निम्न हैंतथागत द्वारा भाषित को अभाषित कहना।
(१) जातिगत मिथ्या धारणाएँ (Idola Tribus)-सामाजिक संस्कारों तथागत द्वारा अनाचरित को आचरित कहना।
से प्राप्त मिथ्या धारणाएँ। तथागत द्वारा आचरित को अनाचरित कहना।
बाजारू मिथ्या विश्वास (Idola Fori)- असंगत अर्थ आदि। तथागत द्वारा नहीं बनाए हुए (अप्रज्ञप्त) नियम को प्रज्ञप्त कहना। (३) व्यक्तिगत मिथ्या विश्वास (IdolaSpeces)- व्यक्ति के द्वारा
तथागत द्वारा प्रज्ञप्त (बनाए हुए नियम) को अप्रज्ञप्त बताना। बनाई गयी मिथ्या धारणाएँ (पूर्वाग्रह) ११. अनपराध को अपराध कहना।
(४) रंगमंच की भ्रान्ति (Idola Theatri)- मिथ्या सिद्धान्त या १२. अपराध को अनपराध कहना।
मान्यताएँ। लघु अपराध को गुरु अपराध कहना।
वे कहते हैं- 'इन मिथ्या विश्वासों (पूर्वाग्रहों) से मानस को मुक्त गुरु अपराध को लघु अपराध कहना।
करके ही ज्ञान को यथार्थ और निदोंष रूप में ग्रहण करना चाहिए।'१८ १५. गम्भीर अपराध को अगम्भीर कहना। अगम्भीर अपराध को गम्भीर कहना।
जैन दर्शन में अविद्या का स्वरूप निर्विशेष अपराध को सविशेष कहना।
जैन दर्शन में अविद्या का पर्यायवाची शब्द मोह भी है। मोह सविशेष अपराध को निर्विशेष कहना।
आत्मा को सत् के सम्बन्ध में यथार्थ दृष्टि को विकृत कर उसे गलत १९. प्रायश्चित्त योग्य (सप्रतिकर्म) आपत्ति को प्रायश्चित के मार्ग-दर्शन करता है और असम्यक् आचरण के लिए प्रेरित करता है।
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जैन साधना का आधार सम्यग्दर्शन
परमार्थ और सत्य के सम्बन्ध में जो अनेक भ्रान्त धारणाएँ आती हैं एवं असदाचरण होता है उनका आधार यही मोह है मिथ्यात्व मोह या अविद्या के कारण व्यक्ति की दृष्टि दूषित होती है और परिणामस्वरूप व्यक्ति की परम मूल्यों के सम्बन्ध में भ्रान्त धारणाएँ बन जाती हैं। वह उन्हें ही परम मूल्य मान लेता है जो कि वस्तुतः परम मूल्य या सर्वोच्च मूल्य नहीं होते हैं।
जैन दर्शन में अविद्या और विद्या का अन्तर करते हुए समयसार में आचार्य कुन्दकुन्द बताते हैं कि जो पुरुष अपने से अन्य पर द्रव्य सचित्त स्त्री-पुत्रादिक, अचित्त धनधान्यादिक, मिश्र ग्रामनगरादिक - इनको ऐसा समझे कि मेरे है, ये मेरे पूर्व में थे, इनका मैं पहले भी था तथा ये मेरे आगामी होंगे, मैं भी इनका आगामी होऊँगा ऐसा झूठा आत्म विकल्प करता है वह मूढ़ है और जो पुरुष परमार्थ को जानता हुआ ऐसा झूठा विकल्प नहीं करता है, वह मूढ़ नहीं है, ज्ञानी है। १९
जैन दर्शन में अविद्या या मिथ्यात्व केवल आत्मनिष्ठ (Subjective) ही नहीं है, वरन् वह वस्तुनिष्ठ भी है। जैन दर्शन में मिथ्यात्व का अर्थ है- सम्यक् ज्ञान का अभाव या विपरीत ज्ञान उसमें एकान्तिक दृष्टिकोण मिथ्याज्ञान है। दूसरे जैन दर्शन में मिथ्यात्व अकेला ही बन्धन का कारण नहीं है वह बन्धन का प्रमुख कारण होते हुए भी उसका सर्वस्व नहीं है। मिथ्या दर्शन के कारण ज्ञान दूषित होता है और ज्ञान के दूषित होने से आचरण या चारित्र दूषित होता है। इस प्रकार मिथ्यात्व अनैतिक जीवन का प्रारम्भिक बिन्दु है और अनैतिक आचरण उसकी अन्तिम परिणति है। नैतिक जीवन के लिए मिध्यात्व से मुक्त होना आवश्यक है, क्योंकि जब तक दृष्टि दूषित है, ज्ञान भी दूषित होगा और जब तक ज्ञान दूषित है तब तक आचरण भी सम्यक् या नैतिक नहीं हो सकता। नैतिक जीवन में प्रगति के लिए प्रथम शर्त है- मिथ्यात्व से मुक्त होना ।
जैन दर्शनिकों की दृष्टि में मिथ्यात्व की पूर्वकोटि का पता नहीं लगाया जा सकता, वह अनादि है, फिर भी वह अनन्त नहीं माना गया है। जैन दर्शन की पारिभाषिक शब्दावली में कहें तो भव्य जीवों की अपेक्षा से मिथ्यात्व अनादि और सान्त है और अभव्य जीवों की अपेक्षा से वह अनादि और अनन्त है। आत्मा पर अविद्या या मिथ्यात्व का आवरण कब से है यह पता नहीं लगाया जा सकता है, यद्यपि अविद्या या मिथ्यात्व से मुक्ति पाई जा सकती है। एक ओर मिथ्यात्व का कारण अनैतिकता है तो दूसरी ओर अनैतिकता का कारण मिथ्यात्व है। इसी प्रकार सम्यक्त्व का कारण नैतिकता और नैतिकता का कारण सम्यक्त्व है। नैतिक आचरण के परिणामस्वरूप सम्यक्त्व या यथार्थ दृष्टिकोण का उद्भव होता है और सम्यक्त्व या यथार्थ दृष्टिकोण के कारण नैतिक आचरण होता है।
बौद्ध दर्शन में अविद्या का स्वरूप
बौद्ध दर्शन में प्रतीत्यसमुत्पाद की प्रथम कड़ी अविद्या ही मानी गयी है। अविद्या से उत्पन्न व्यक्तित्व ही जीवन का मूलभूत पाप है।
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जन्म मरण की परम्परा और दुःख का मूल यही अविद्या है। जिस प्रकार जैन दर्शन में मिथ्यात्व की पूर्वकोटि नहीं जानी जा सकती, उसी प्रकार बौद्ध दर्शन में भी अविद्या की पूर्वकोटि नहीं जानी जा सकती है। यह एक ऐसी सत्ता है जिसको समझ सकना कठिन है। हमें बिना अधिक गहराइयों में उतरे इसके अस्तित्व को स्वीकार कर लेना पड़ेगा। अविद्या समस्त जीवन की पूर्ववर्ती आवश्यक अवस्था है, इसके पूर्व कुछ नहीं; क्योंकि जन्म मरण की प्रक्रिया का कहीं आरम्भ नहीं खोजा जा सकता है; लेकिन दूसरी ओर इसके अस्तित्व से इन्कार भी नहीं किया जा सकता है। स्वयं जीवन या जन्म-मरण की परम्परा इसका प्रमाण है कि अविद्या उपस्थित है अविद्या का उद्भव कैसे होता है, यह नहीं बताया जा सकता है। अश्वघोष के अनुसार- 'तथता' से ही अविद्या का जन्म होता है। २० डा० राधाकृष्णन् की दृष्टि में बौद्ध दर्शन में अविद्या उस परम सत्ता, जिसे आलयविज्ञान, तथागतधर्म, शून्यता, धर्मधातु एवं तथता कहा गया है, की वह शक्ति है, जो विश्व के भीतर से व्यक्तिगत जीवनों की श्रृंखला को उत्पन्न करती है । यह यथार्थ सत्ता ही अन्दर विद्यमान निषेधात्मक तत्त्व है हमारी सीमित बुद्धि इसकी तह में इससे अधिक और प्रवेश नहीं कर सकती। २१
सामान्यतया अविद्या का अर्थ चार आर्यसत्यों का ज्ञानाभाव है। माध्यमिक एवं विज्ञानवादी विचारकों के अनुसार इन्द्रियानुभूति के विषय इस जगत् की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है या परतंत्र एवं सापेक्षित है, इसे यथार्थ मान लेना वहीं अविद्या है दूसरे शब्दों में, अयथार्थ अनेकता को यथार्थ मान लेना यहीं अविद्या का कारण है, इसी में से वैयक्तिक आहं का प्रादुर्भाव होता है और यहीं से तृष्णा का जन्म होता हैं। बौद्ध दर्शन । के अनुसार भी अविद्या और तृष्णा (अनैतिकता) में पारस्पारिक कार्यकारण सम्बन्ध है। अविद्या के कारण तृष्णा और तृष्णा के कारण अविद्या उत्पन्न होती है। जिस प्रकार जैन दर्शन में मोह के दो कार्य दर्शन-मोह और चारित्र मोह - हैं उसी प्रकार बौद्ध दर्शन में अविद्या के दो कार्यज्ञेयावरण एवं क्लेशावरण हैं । ज्ञेयावरण की तुलना दर्शन-मोह से और क्लेशावरण की तुलना चारित्र मोह से की जा सकती है। जिस प्रकार वैदिक परम्परा में माया को अनिर्वचनीय माना गया है उसी प्रकार बौद्धपरम्परा में भी अविद्या को सत् और असत् दोनों ही कोटियों से परे माना गया है। विज्ञानवाद एवं शून्यवाद के सम्प्रदायों की दृष्टि में नानारूपात्मक जगत् को परमार्थ मान लेना अविद्या है। मैत्रेयनाथ ने अभूतपरिकल्प (अनेकता का शान) की विवेचना करते हुए बताया कि उसे सत् और असत् दोनों ही नहीं कहा जा सकता है वह सत् इसलिए नहीं है क्योंकि परमार्थ में अनेकता या द्वैत का कोई अस्तित्व नहीं है और वह असत् इसलिए नहीं है कि उसके प्रहाण से निर्वाण का लाभ होता है। २२ इस प्रकार हम देखते हैं कि बौद्ध दर्शन के परवर्ती सम्प्रदायों में अविद्या का स्वरूप बहुत कुछ वेदान्तिक माया के समान बन गया है।
समीक्षा
बौद्ध दर्शन के विज्ञानवाद और शून्यवाद के सम्प्रदायों में
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
अविद्या का जो स्वरूप बताया गया है वह आलोचना का विषय ही रहा प्रति आसक्ति एवं मिथ्या दृष्टिकोण है और माया एक ऐसी शक्ति है है। विज्ञानवादी और शन्यवादी विचारक अपने निरपेक्ष दृष्टिकोण के जिससे यह अनेकतामय जगत अस्तित्ववान प्रतीत होता है। माया इस आधार पर इन्द्रियानुभूति के विषयों को अविद्या या वासना का काल्पनिक नानारूपात्मक जगत् का आधार है और अविद्या हमें उससे बाँधे हुए प्रत्यय मानते हैं। दूसरे, उनके अनुसार अविद्या आत्मनिष्ठ (Subjec- रखती है। वेदान्तिक दर्शन में माया अद्वय अविकार्य परमसत्ता की tive) है। जैन दार्शनिकों ने उनकी इस मान्यता को अनुचित ही माना है नानारूपात्मक जगत् के रूप में प्रतीति हैं। वेदान्त में माया न तो सत् है क्योंकि प्रथमत: अनुभव के विषयों को अनादि अविद्या के काल्पनिक और असत् है उसे चतुष्कोटिविनिर्मुक्त कहा गया है।२७ वह सत् इसलिए प्रत्यय मानकर इन्द्रियानुभूति के ज्ञान को असत्य बताया गया है। जैन नहीं है कि उसका निरसन किया जा सकता है। वह असत् इसलिए नहीं दार्शनिकों की दृष्टि में इन्द्रियानुभूति के विषयों को असत् नहीं माना जा है कि उसके आधार पर व्यवहार होता है। वेदान्तिक दर्शन में माया जगत् सकता, वे तर्क और अनुभव दोनों को ही यथार्थ मानकर चलते हैं। की व्याख्या और उसकी उत्पत्ति का सिद्धान्त है, जबकि अविद्या वैयक्तिक उनके अनुसार तार्किक ज्ञान (बौद्धिक ज्ञान) और अनुभूत्यात्मक ज्ञान- आसक्ति है। दोनों ही यथार्थता का बोध करा सकते हैं। बौद्ध-दार्शनिकों की यह धारणा कि 'अविद्या केवल आत्मगत है' जैन दार्शनिकों को स्वीकार नहीं समीक्षा है। वे अविद्या का वस्तुगत आधार भी मानते हैं। उनकी दृष्टि में बौद्ध वेदान्त-दर्शन में माया एक अर्ध सत्य है जबकि तार्किक दृष्टिकोण एकांगी ही सिद्ध होता है। बौद्ध दर्शन के अविद्या की विस्तृत दृष्टि से माया या तो सत्य हो सकती है या असत्य। जैन-दार्शनिकों समीक्षा आदरणीय श्री नथमल टाटिया ने अपनी पुस्तक 'स्टडीज इन के अनुसार सत्य सापेक्षिक अवश्य हो सकता है लेकिन अर्ध सत्य जैन फिलॉसफी' में की है।२३ हमें विस्तार भय से और अधिक गहराई में (Half Truth) ऐसी कोई अवस्था नहीं हो सकती है। यदि अद्वय उतरना आवश्यक नहीं लगता है।
परमार्थ को नानारूपात्मक मानना यह अविद्या है तो जैन दार्शनिकों गीता में अविद्या, अज्ञान और माया शब्द का प्रयोग हमें को यह दृष्टिकोण स्वीकार नहीं है। यद्यपि जैन, बौद्ध और वैदिक मिलता है। गीता में अज्ञान और माया सामान्यतया दो भिन्न-भिन्न अर्थों परम्पराएँ अविद्या की इस व्याख्या में एकमत हैं कि अविद्या या मोह में ही प्रयुक्त हुए हैं। अज्ञान वैयक्तिक है जबकि माया एक ईश्वरीय शक्ति का अर्थ अनात्म में आत्मबुद्धि है। है। गीता में अज्ञान का अर्थ परमात्मा के उस वास्तविक स्वरूप के ज्ञान का अभाव है जिस रूप में वह जगत् में व्याप्त होते हुए भी उससे परे उपसंहार है। गीता में अज्ञान विपरीत ज्ञान, मोह, अनेकता को यथार्थ मान लेना अज्ञान, अविद्या या मोह की उपस्थिति ही हमारी सम्यक आदि अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। ज्ञान के सात्त्विक, राजस और प्रगति का सबसे बड़ा अवरोध है। हमारे क्षुद्र व्यक्तित्व और परमात्मतत्व तामस प्रकारों का विवेचन करते हुए गीता में यह स्पष्ट बताया गया है के बीच सबसे बड़ी बाधा है। उसके हटते ही हम अपने को अपने में ही कि अनेकता को यथार्थ मानने वाला दृष्टिकोण या ज्ञान राजस है। इसी उपस्थित कर परमात्मा के निकट खड़ा पाते हैं। फिर भी प्रश्न है कि इस प्रकार यह मानना कि परम तत्त्व मात्र इतना ही है, यह ज्ञान तामस है।२४ अविद्या या मिथ्यात्व से मुक्ति कैसे हो? वस्तुत: अविद्या से मुक्ति के यद्यपि गीता में माया को व्यक्ति के दुःख एवं बन्धन का कारण माना गया लिए यह आवश्यक नहीं कि हम अविद्या या अज्ञान को हटाने का प्रयत्न है। क्योंकि यह एक भ्रान्त आंशिक चेतना का पोषण करती है और उस करें क्योंकि उसके हटाने के सारे प्रयास वैसे ही निरर्थक होंगे जैसे कोई रूप में पूर्ण यथार्थता का ग्रहण सम्भव नहीं होता। फिर भी हमें यह अन्धकार को हटाने के प्रयत्न करे। जैसे प्रकाश के होते ही अन्धकार स्मरण रखना चाहिए कि गीता में माया ईश्वर की ऐसी कार्यकारी शक्ति स्वयं ही समाप्त हो जाता है उसकी प्रकार ज्ञान रूप प्रकाश या सम्यक् भी है जिसके माध्यम से परमात्मा इस नानारूपात्मक जगत् में अपने को दृष्टि के उत्पन्न होते ही अज्ञान या अविद्या का अन्धकार समाप्त हो जाता अभिव्यक्त करता है। वैयक्तिक दृष्टि से माया परमार्थ का आवरण कर हैं। आवश्यकता इस बात की नहीं है कि हम अविद्या या मिथ्यात्व को व्यक्ति को उसके यथार्थ ज्ञान से वंचित करती है, जबकि परमसत्ता की हटाने का प्रयत्न करें वरन् आवश्यकता इस बात की है कि हम अपेक्षा से वह उसकी एक शक्ति ही सिद्ध होती है।
सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की ज्योति को प्रज्वलित करें ताकि अविद्या वेदान्त दर्शन में अविद्या का अर्थ अद्वय परमार्थ में अनेकता या अज्ञान का तमिस्र समाप्त हो जाये। की कल्पना है। बृहदारण्यकोपनिषद् में कहा गया है कि जो अद्वय में अनेकता का दर्शन करता है वह मृत्यु को प्राप्त होता है।२५ इसके सम्यक्त्व विपरीत अनेकता में एकता का दर्शन यह सच्चा ज्ञान है। ईशावास्योपनिषद्
जैन परम्परा में सम्यग्दर्शन, सम्यक्त्व या सम्यग्दृष्टित्व शब्दों में कहा गया है कि जो सभी को परमात्मा में और परमात्मा में सभी को का प्रयोग समानार्थक रूप में हुआ है। यद्यपि आचार्य जिनभद्र ने स्थित देखता है, उस एकत्वदर्शी को न विजुगुप्सा होती है और न उसे विशेषावश्यकभाष्य में सम्यक्त्व और सम्यग्दर्शन के भिन्न-भिन्न अर्थों का कोई मोह या शोक होता है।२६ वेदान्तिक परम्परा में अविद्या जगत् के निर्देश किया है।२८ अपने भिन्न अर्थ में सम्यक्त्व वह है जिसकी
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जैन साधना का आधार सम्यग्दर्शन
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उपस्थिति से श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र सम्यक् बनते हैं। सम्यक्स्व का ग्रन्थकर्ता की दृष्टि में यद्यपि सम्यक्त्व यथार्थता की अभिव्यक्ति करता है अर्थ-विस्तार सम्यग्दर्शन से अधिक व्यापक है, फिर भी सामान्यतया लेकिन यथार्थता जिस ज्ञानात्मक तथ्य के रूप में उपस्थित होती है, सम्यग्दर्शन और सम्यक्त्व शब्द एक ही अर्थ में प्रयोग किए गए हैं। वैसे उसके लिए सत्याभीप्सा या रुचि आवश्यक है। सम्यक्त्व शब्द में सम्यकदर्शन निहित ही है।
दर्शन का अर्थ सम्यक्त्व का अर्थ
दर्शन शब्द भी जैनागमों में अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। सबसे पहले हमें इसे स्पष्ट कर लेना होगा कि सम्यक्त्व या जीवादि पदार्थों के स्वरूप को देखना, जानना, श्रद्धा करना दर्शन कहा सम्यक् शब्द का क्या अभिप्राय है। सामान्य रूप में सम्यक् या सम्यक्त्व जाता है।३० सामान्यतया दर्शन शब्द देखने के अर्थ में व्यवहार किया शब्द सत्यता या यथार्थता का परिचायक है, उसे हम उचितता भी कह जाता है लेकिन यहाँ पर दर्शन शब्द का अर्थ मात्र नेत्रजन्य बोध नहीं है। सकते हैं। सम्यक्त्व का अर्थ तत्त्वरुचि२९ भी है। इस अर्थ में सम्यक्त्व उसमें इन्द्रियबोध, मनबोध और आत्मबोध सभी सम्मिलित हैं। दर्शन सत्याभिरुचि या सत्य की अभीप्सा है। दूसरे शब्दों में, इसको सत्य के शब्द के अर्थ के सम्बन्ध में जैन परम्परा में काफी विवाद रहा है। दर्शन प्रति जिज्ञासावृत्ति या मुमुक्षुत्व भी कहा जा सकता है। अपने दोनों ही शब्द को ज्ञान से अलग करते हुए विचारकों ने दर्शन को अन्तबोध और अर्थों में सम्यग्दर्शन या सम्यक्त्व नैतिक जीवन के लिए आवश्यक है। ज्ञान को बौद्धिक ज्ञान कहा है।३१ नैतिक जीवन की दृष्टि से विचार करने जैन नैतिकता का चरम आदर्श आत्मा के यथार्थ स्वरूप की उपलब्धि है, पर दर्शन शब्द का दृष्टिकोणपरक अर्थ किया गया है।३२ दर्शन शब्द के लेकिन यथार्थ की उपलब्धि भी तो यथार्थता से सम्भव होगी, अयथार्थ स्थान पर दृष्टि शब्द का प्रयोग, उसके दृष्टिकोणपरक अर्थों का द्योतक से तो यथार्थ पाया नहीं जा सकता। यदि साध्य यथार्थता की उपलब्धि है है। प्राचीन जैन आगमों में दर्शन शब्द के स्थान पर दृष्टि शब्द का प्रयोग तो साधना भी यथार्थ ही चाहिए। जैन विचारणा साध्य और साधना की बहुलता से देखा जाता है। तत्त्वार्थसूत्र३३ और उत्तराध्ययनसूत्र३४ में एकरूपता में विश्वास करती है। वह यह मानती है कि अनुचित साधना दर्शन शब्द का अर्थ तत्त्वश्रद्धा माना गया है। परवर्ती जैन साहित्य में से प्राप्त किया लक्ष्य भी अनुचित ही है, वह उचित नहीं कहा जा सकता। दर्शन शब्द का देव, गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धा या भक्ति के अर्थ में भी सम्यक् को सम्यक् से ही प्राप्त करना होता है। असम्यक् से जो भी व्यवहार किया गया है।३५ इस प्रकार जैन परम्परा में सम्यक् दर्शन तत्त्वमिलता है, पाया जाता है, वह असम्यक् ही होता है। अत: आत्मा के साक्षात्कार, आत्म-साक्षात्कार, अन्तबोध, दृष्टिकोण, श्रद्धा और भक्ति यथार्थ स्वरूप की उपलब्धि के लिए उन्होंने जिन साधनों का विधान आदि अर्थों को अपने में समेटे हुए हैं। इन पर थोड़ी गहराई से विचार किया उनका सम्यक् होना आवश्यक माना गया। वस्तुत: ज्ञान, दर्शन करना अपेक्षित है।
और चारित्र का नैतिक मूल्य उनके सम्यक् होने में समाहित है। जब ज्ञान; दर्शन और चारित्र सम्यक् होते हैं तो वे मुक्ति या निर्वाण के साधन बनते क्या सम्यग्दर्शन के उपरोक्त अर्थ परस्पर विरोधी हैं हैं। लेकिन यदि वे ही ज्ञान, दर्शन और चारित्र मिथ्या होते हैं तो बन्धन सम्यग्दर्शन शब्द के विभिन्न अर्थों पर विचार करने से पहले का कारण बनते हैं। बन्धन और मुक्ति ज्ञान, दर्शन और चारित्र पर निर्भर हमें यह देखना होगा कि इनमें से कौन-सा अर्थ ऐतिहासिक दृष्टि से नहीं वरन् उनकी सम्यक्तलाऔर मिथ्यात्व पर आधारित है। सम्यक ज्ञान, प्रथम था और उसके पश्चात् किन-किन ऐतिहासिक परिस्थितियों के सम्यग्दर्शन और सम्यक-चारित्र मोक्ष का मार्ग है जबकि मिथ्याज्ञान, कारण यही शब्द अपने दूसरे अर्थों में प्रयुक्त हुआ। प्रथमतः हम देखते मिथ्यादर्शन और मिथ्याचारित्र ही बन्धन का मार्ग है।
हैं कि बुद्ध और महावीर के अपने समय में प्रत्येक धर्म-प्रवर्तक अपने आचार्य जिनभद्र की धारणा के अनुसार यदि सम्यक्त्व का सिद्धान्त को सम्यग्दृष्टि और दूसरे के सिद्धान्त को मिथ्यादृष्टि कहता था। अर्थ तत्त्वरुचि या सत्याभीप्सा करते हैं तो सम्यक्त्व का नैतिक साधना बौद्धागमों में ६२ मिथ्यादृष्टियों एवं जैनागम सूत्रकृतांग में६३ मिथ्यादृष्टियों में महत्त्वपूर्ण स्थान सिद्ध होता है। नैतिकता की साधना आदर्शोन्मुख का विवेचन मिलता है। लेकिन वहाँ पर मिथ्यादृष्टि शब्द अश्रद्धा अथवा गति है लेकिन जिसके कारण वह गति है, साधना है, वह तो सत्याभीप्सा मिथ्याश्रद्धा के अर्थ में नहीं वरन् गलत दृष्टिकोण के अर्थ में ही प्रयुक्त ही है। साधक में जब तक सत्याभीप्सा या तत्त्वरुचि जाग्रत नहीं होती तब हुआ है। बाद में जब यह प्रश्न उठा कि गलत दृष्टिकोण को किस सन्दर्भ तक वह नैतिक प्रगति की ओर अग्रसर ही नहीं हो सकता। सत्य की चाह में माना जाय, तो कहा गया कि जीव (आत्मतत्त्व) और जगत के या सत्य की प्यास ही ऐसा तत्त्व है जो उसे साधना-मार्ग में प्रेरित करता सम्बन्ध में जो गलत दृष्टिकोण है, वही मिथ्यादर्शन या मिथ्यादृष्टि है। है। जिसे प्यास नहीं, वह पानी की प्राप्ति का क्यों प्रयास करेगा? जिसमें इस प्रकार मिथ्यादृष्टि से तात्पर्य हुआ आत्मा और जगत के विषय में सत्य की उपलब्धि की चाह (तत्त्वरुचि) नहीं वह क्यों साधना करने गलत दृष्टिकोण। उस युग में प्रत्येक धर्म-मार्ग का प्रवर्तक आत्मा और लगा? प्यासा ही पानी की खोज करता है। तत्त्वरुचि या सत्याभीप्सा से जगत के स्वरूप के विषय में अपने दृष्टिकोण को सम्यक् दृष्टिकोण युक्त व्यक्ति ही आदर्श की प्राप्ति के निमित्त साधना के मार्ग पर आरूढ़ अथवा सम्यग्दर्शन और अपने विरोधी के दृष्टिकोण को मिथ्यादृष्टि होता है। उत्तराध्ययन सूत्र में दोनों अर्थों को समन्वित कर दिया गया है। अथवा मिथ्यादर्शन कहता था। बाद में प्रत्येक सम्प्रदाय जीवन और
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
जगत सम्बन्धी अपने दृष्किोण पर विश्वास करने को सम्यग्दर्शन कहने कारण को जानने के कारण वह उसका निराकरण कर सत्य को पा लगा और जो लोग उसकी मान्यताओं के विपरीत मान्यता रखते थे सकेगा। यद्यपि पूर्ण यथार्थ दृष्टि तो एक साधक व्यक्ति में सम्भव नहीं है, उनको मिथ्यावादी कहने लगा और उनकी मान्यता को मिथ्यादर्शन। इस फिर भी उसकी राग-द्वेषात्मक वृत्तियों में जब स्वाभाविक रूप से कमी हो प्रकार सम्यग्दर्शन शब्द तत्त्वार्थश्रद्धान् (जीव और जगत के स्वरूप की) जाती है तो इस स्वाभाविक परिवर्तन के कारण पूर्वानुभूति और पश्चानुभूति के अर्थ में अभिरूढ हुआ। लेकिन तत्त्वार्थश्रद्धान के अर्थ में भी सम्यग्दर्शन में अन्तर ज्ञात होता है और इस अन्तर के कारण के चिन्तन में उसे दो शब्द अपने मूल अर्थ से अधिक दूर नहीं हुआ था। यद्यपि उसकी भावना बातें मिल जाती हैं- एक तो यह कि उसका दृष्टिकोण दूषित है और में दिशा बदल चुकी थी, उसमें श्रद्धा का तत्त्व प्रविष्ट हो गया था लेकिन उसकी दृष्टि की दूषितता का अमुक कारण है। यद्यपि यहाँ सत्य तो प्राप्त वह श्रद्धा थी तत्त्व के स्वरूप की मान्यता के सन्दर्भ में। वैयक्तिक श्रद्धा नहीं होता लेकिन अपनी असत्यता और उसके कारण का बोध हो जाता का विकास बाद की बात थी। श्रमण-परम्परा में सम्यग्दर्शन का दृष्टिकोणपरक है, जिसके परिणामस्वरूप उसमें सत्याभीप्सा जाग्रत हो जाती है। यही अर्थ ही ग्राह्य था जो बाद में तत्त्वार्थश्रद्धान् के रूप में विकसित हुआ यहाँ सत्याभीप्सा उसे सत्य या यथार्थता के निकट पहुँचती है और जितने तक तो श्रद्धा में बौद्धिक पक्ष निहित था, श्रद्धा ज्ञानात्मक थी। लेकिन अंश में वह यथार्थता के निकट पहुँचाता है उतने ही अंश में उसका ज्ञान जैसे-जैसे भागवत सम्प्रदाय का विकास हुआ, उसका प्रभाव जैन और और चारित्र शुद्ध होता जाता है। ज्ञान और चारित्र की शुद्धता से पुनः राग बौद्ध श्रमण परम्पराओं पर भी पड़ा। तत्त्वार्थ की श्रद्धा जब 'बुद्ध' और और द्वेष में क्रमश: कमी होती है और उसके फलस्वरूप उसके दृष्टिकोण 'जिन' पर केन्द्रित होने लगी- वह ज्ञानात्मक से भावात्मक और निर्वैयक्तिक में और अधिक यथार्थता आ जाती है। इसी प्रकार क्रमश: व्यक्ति स्वत: से वैयक्तिक बन गई जिसने जैन और बौद्ध परम्पराओं में भक्ति के तत्त्व ही साधना की चरम स्थिति में पहुँच जाता है। आवश्यकनियुक्ति में कहा का वपन किया।३६ मेरी अपनी दृष्टि में आगम एवं पिटक ग्रन्थों के गया है कि जल जैसे-जैसे स्वच्छ होता जाता है वैसे-वैसे द्रष्टा उसमें संकलन एवं लिपिबद्ध होने तक यह सब कुछ हो चुका था। अत: प्रतिबिम्बित रूपों को स्पष्टतया देखने लगता है, उसी प्रकार अन्तर में आगम और पिटक ग्रन्थों में सम्यग्दर्शन का भाषाशास्त्रीय विवेचन पर ज्यों-ज्यों तत्त्वरुचि जाग्रत होती है त्यों-त्यों तत्त्व-ज्ञान प्राप्त होता जाता आधारित यथार्थ दृष्टिकोणपरक अर्थ ही उसका प्रथम एवं मूल अर्थ है, है। इसे जैन परिभाषा में प्रत्येकबुद्ध (स्वत: ही यथार्थता को जानने वाले) लेकिन यथार्थ दृष्टिकोण तो मात्र वीतराग पुरुष का ही हो सकता है, का साधना-मार्ग कहते हैं। जहाँ तक व्यक्ति राग और द्वेष से युक्त है उसका दृष्टिकोण यथार्थ नहीं लेकिन प्रत्येक सामान्य साधक यथार्थ दृष्टिकोण को इस प्रकार हो सकता। इस अर्थ को स्वीकार करने पर यथार्थ दृष्टिकोण तो प्राप्त नहीं करता है और उसके लिए यह सम्भव नही है; सत्य की साधनावस्था में सम्भव नहीं होगा, क्योंकि साधना की अवस्था सरागता स्वानुभूति का मार्ग कठिन हैं। सत्य को स्वयं जानने की विधि की अपेक्षा की अवस्था है। साधक- आत्मा में तो राग और द्वेष दोनों की दूसरा सहज मार्ग है और वह यह कि जिन्होंने स्वानुभूति से सत्य को उपस्थिति होती है, साधक तो साधना ही इसलिए कर रहा है कि वह जानकर उसका जो भी स्वरूप बताया है, उसको मानकर चलना। इसे ही इन दोनों से मुक्त हो, इस प्रकार यथार्थ दृष्टिकोण तो मात्र सिद्धावस्था जैनशास्त्रकारों ने तत्त्वार्थश्रद्धान् कहा है अर्थात् यथार्थ दृष्टिकोण से युक्त में होगा। लेकिन यथार्थ दृष्टिकोण की आवश्यकता तो साधक के वीतराग ने अपने यथार्थ दृष्टिकोण में सत्ता का जो स्वरूप प्रकट किया लिए है, सिद्ध को तो वह स्वाभाविक रूप में प्राप्त है। यथार्थ है, उसे स्वीकार कर लेना। मान लीजिए कोई व्यक्ति पित्त विकार से दृष्टिकोण के अभाव में व्यक्ति का व्यवहार एवं साधना सम्यक् नहीं हो पीड़ित है, अब ऐसी स्थिति में वह किसी श्वेत वस्तु के यथार्थ ज्ञान से सकती अथवा अयथार्थ दृष्टिकोण ज्ञान और जीवन के व्यवहार को वंचित होगा। उसे वस्तु के यथार्थ स्वरूप को प्राप्त करने के दो मार्ग हो सम्यक् नहीं बना सकता है। यहाँ एक समस्या उत्पन्न होती है। यथार्थ सकते हैं- पहला मार्ग यह है कि उसकी बीमारी में स्वाभाविक रूप से दृष्टिकोण का साधनात्मक जीवन में अभाव होता है और बिना यथार्थ जब कुछ कमी हो जाये और वह अपनी पूर्व और पश्चात् की अनुभूति में दृष्टिकोण के साधना हो नहीं सकती। यह समस्या हमें ऐसी स्थिति में अन्तर पाकर अपने रोग को जाने और प्रयासों द्वारा उसे शान्त कर वस्तु डाल देती कि जहाँ हमें साधना मार्ग की सम्भावना को ही अस्वीकृत के यथार्थस्वरूप का बोध पा जाये। दूसरी स्थिति में जब किसी दूसरे करना होता है। यथार्थ दृष्टिकोण के बिना साधना सम्भव नहीं और व्यक्ति द्वारा उसे यह बताया जावे कि वह श्वेत वस्तु को पीत वर्ण की यथार्थ दृष्टिकोण साधना-काल में हो नहीं सकता।
देख रहा है। यहाँ पर इस स्वस्थ दृष्टि वाले व्यक्ति की बात को स्वीकार लेकिन इस धारणा में एक भ्रान्ति है, वह यह कि साधना मार्ग कर लेने पर भी उसे अपनी रुग्णावस्था या अपनी दृष्टि की दृषितता का के लिए, दृष्टिकोण की यथार्थता के लिए, राग-द्वेष से पूर्ण विमुक्त दृष्टि ज्ञान हो जाता है और साथ ही वह वस्तुतत्त्व को यथार्थ रूप में जान भी का होना आवश्यक नहीं है, मात्र इतना आवश्यक है कि व्यक्ति लेता है। अयथार्थता को जाने और उसके कारण को जाने। ऐसा साधक यथार्थता सम्यग्दर्शन को चाहे यथार्थ दृष्टि कहें या तत्त्वार्थश्रद्धान् उनमें को नहीं जानते हुए भी सम्यग्दृष्टि ही है, क्योंकि वह असत्य मानता है वास्तविकता की दृष्टि से अन्तर नहीं होता है। अन्तर होता है उनकी और उसके कारण को जानता है अत: वह भ्रान्त नहीं है, असत्य के उपलब्धि की विधि में। एक वैज्ञानिक स्वत: प्रयोग के आधार पर किसी
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जैन साधना का आधार सम्यग्दर्शन
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सत्य का उद्घाटन करता है और वस्तुतत्त्व के यथार्थ स्वरूप को जानता होने से शुद्ध होंगे। इस प्रकार जैन विचारणा यह बताती है कि सम्यग्दर्शन हैं दूसरा व्यक्ति वैज्ञानिक के कथनों पर विश्वास करके भी वस्तुतत्त्व के के अभाव से विचार-प्रवाह सराग, सकाम या फलाशा से युक्त होता है यथार्थ स्वरूप को जानता है। दोनों दशाओं में व्यक्ति का दृष्टिकोण यथार्थ और यही कर्मों के प्रति रही हुई फलाशा बन्धन का कारण होने से ही कहा जायेगा, यद्यपि दोनों की उपलब्धि विधि में अन्तर है। एक ने पुरुषार्थ को अशुद्ध बना देती है, जबकि सम्यग्दर्शन की उपस्थिति से उसे तत्त्व-साक्षात्कार या स्वत: की अनुभूति में पाया, तो दूसरे ने श्रद्धा विचार-प्रवाह वीतरागता, निष्कामता और अनासक्ति की ओर बढ़ता है, के माध्यम से।
फलाकांक्षा समाप्त हो जाती है अत: सम्यग्दृष्टि से युक्त सारा पुरुषार्थ वस्तुतत्त्व के प्रति दृष्टिकोण की यथार्थता जिन माध्यमों से परिशुद्ध होता है।४२ प्राप्त की जा सकती है, वे दो हैं- या तो व्यक्ति स्वयं तत्त्व-साक्षात्कार करे अथवा उन ऋषियों, साधकों के कथनों पर श्रद्धा करे जिन्होंने तत्त्व- बौद्ध दर्शन में सम्यग्दर्शन का स्थान साक्षात्कार किया है। तत्त्वश्रद्धा तो मात्र उस समय तक के लिए एक बौद्ध दर्शन में सम्यग्दर्शन का क्या स्थान है, यह बुद्ध के अनिवार्य विकल्प है जब तक साधक तत्त्व-साक्षात्कार नहीं कर लेता। निम्न कथन से स्पष्ट हो जाता है। अंगुत्तरनिकाय में बुद्ध कहते हैं किअन्तिम स्थिति तो तत्त्व-साक्षात्कार की ही हैं। इस सम्बन्ध में पं० भिक्षुओं! मैं दूसरी कोई भी एक बात ऐसी नहीं जानता जिससे सुखलाल जी लिखते हैं- "तत्त्वश्रद्धा ही सम्यग्दृष्टि हो तो भी वह अर्थ अनुत्पन्न अकुशल-धर्म उत्पन्न होते हों तथा उत्पन्न अकुशल-धर्मों में अन्तिम नहीं है, अन्तिम अर्थ तो तत्त्व-साक्षात्कार है। तत्त्वश्रद्धा तो वृद्धि होती हो, विपुलता होती हो, जैसे भिक्षुओ! मिथ्या-दृष्टि। तत्त्व-साक्षात्कार का एक सोपान मात्र है। वह सोपान दृढ़ हो तभी भिक्षुओ! मिथ्यादृष्टि वाले में अनुत्पन्न अकुशल-धर्म पैदा हो यथोचित पुरुषार्थ से तत्त्व का साक्षात्कार होता है।"३८
जाते हैं, उत्पन्न अकुशल-धर्म वृद्धि को, विपुलता को प्राप्त हो जाते हैं।
भिक्षुओ! मैं दूसरी कोई भी एक बात ऐसी नहीं जानता जिससे जैन आचार दर्शन में सम्यग्दर्शन का स्थान
अनुत्पन्न कुशल-धर्म उत्पन्न हों तथा उत्पन्न कुशल-धर्मों में वृद्धि होती सम्यग्दर्शन जैन आचार-व्यवस्था का आधार है। नन्दीसूत्र में हो, विपुलता होती हो, जैसे भिक्षुओं! सम्यग्दृष्टि। सम्यग्दर्शन को संघ रूपी सुमेरु पर्वत की अत्यन्त सुदृढ़ और गहन भिक्षुओ! सम्यग्दृष्टि वाले में अनुत्पन्न कुशल-धर्म उत्पन्न हो जाते भूपीठिका (आधारशिला) कहा गया है जिस पर ज्ञान और चारित्र रूपी हैं, उत्पन्न कुशल-धर्म वृद्धि को, विपुलता को प्राप्त हो जाते हैं।४३ इस उत्तम धर्म की मेखला अर्थात् पर्वतमाला स्थित रही हुई है।३९ जैन प्रकार बुद्ध सम्यग्दृष्टि को नैतिक जीवन के लिए आवश्यक मानते हैं। उनकी आचार दर्शन में सम्यग्दर्शन को मुक्ति का अधिकार-पत्र कहा जा सकता दृष्टि में मिथ्यादृष्टिकोण इधर (संसार) का किनारा है और सम्यग्दृष्टिकोण है। उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सम्यग्दर्शन के बिना उधर (निर्वाण) का किनारा है।४ बुद्ध के ये वचन यह स्पष्ट कर देते हैं कि सम्यग्ज्ञान नहीं होता और सम्यग्ज्ञान के अभाव में आचरण में यथार्थता बौद्ध दर्शन में सम्यग्दृष्टि का कितना महत्त्वपूर्ण स्थान है। या सचारित्रता नहीं आती और सचारित्रता के अभाव में कर्मावरण से मुक्ति सम्भव नहीं और कर्मावरण से जकड़े हुए प्राणी का निर्वाण नहीं वैदिक परम्परा एवं गीता में सम्यग्दर्शन (श्रद्धा) का स्थान होता।४० आचारांगसूत्र में कहा गया है कि सम्यग्दृष्टि पापाचरण नहीं
वैदिक-परम्परा में भी सम्यग्दर्शन को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त करता।४१ जैन विचारणा के अनुसार आचरण का सत् अथवा असत् है। जैनदर्शन के समान ही मनुस्मृति में कहा गया है कि सम्यग्दृष्टि सम्पन्न होना कर्ता के दृष्टिकोण (दर्शन) पर निर्भर है। सम्यग्दृष्टित्व से परिनिष्पन्न व्यक्ति कर्म के बन्धन में नहीं आता है, लेकिन सम्यग्दर्शन से विहीन होने वाला आचरण सदैव सत् होगा और मिथ्यादृष्टि से परिनिष्पन्न होने व्यक्ति संसार में परिभ्रमित होता रहता है। वाला आचरण सदैव असत् होगा, इसी आधार पर सूत्रकृतांगसूत्र में स्पष्ट गीता में यद्यपि सम्यग्दर्शन शब्द का अभाव है फिर भी रूप से कहा गया है कि व्यक्ति प्रबुद्ध है, भाग्यवान है और पराक्रमी भी सम्यग्दर्शन को श्रद्धापरक अर्थ में लेने पर गीता में उसका महत्त्वपूर्ण है, लेकिन यदि उसका दृष्टिकोण असम्यक् है तो उसका समस्त दान, स्थान सिद्ध हो जाता है। श्रद्धा गीता के आचार दर्शन के केन्द्रीय तत्त्वों तप आदि पुरुषार्थ फलयुक्त होने के कारण अशुद्ध ही होगा। वह उसे में से एक है। श्रद्धावान् लभते ज्ञानं" कहकर गीता में उसके महत्त्व को मुक्ति की ओर नहीं ले जाकर बन्धन की ओर ही ले जायेगा, क्योंकि स्पष्ट कर दिया है। गीता यह भी स्वीकार करती है कि व्यक्ति की जैसी असम्यग्दर्शी होने के कारण वह आसक्त (सराग) दृष्टि वाला होगा और श्रद्धा होती है, उसका जीवन के प्रति जैसा दृष्टिकोण होता है, वैसा ही आसक्त या फलाशापूर्ण विचार से परिनिष्पन्न होने के कारण उसके सभी वह बन जाता है।४५ गीता में श्रीकृष्ण ने यह कहकर कि यदि दुराचारी कार्य भी फलयुक्त होंगे और फलयुक्त होने से उसके बन्धन के कारण व्यक्ति भी मुझे भजता है अर्थात् मेरे प्रति श्रद्धा रखता है तो वह शीघ्र ही होंगे। अत: असम्यग्दर्शी व्यक्ति का सारा पुरुषार्थ अशुद्ध ही कहा धर्मात्मा होकर चिरशांति को प्राप्त हो जाता है, इस कथन में सम्यग्दर्शन जायेगा, क्योंकि वह उसकी मुक्ति में बाधक होगा। लेकिन इसके विपरीत या श्रद्धा के महत्त्व को स्पष्ट कर दिया है।४६ गीता का यह कथन सम्यग्दृष्टि या वीतरागदृष्टिसम्पन्न व्यक्ति के सभी कार्य फलाशा से रहित आचारांग के उस कथन से कि 'सम्यग्दर्शी कोई पाप नहीं करता' काफी
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ अधिक साम्यता रखता है। आचार्य शंकर ने अपने गीताभाष्य में भी उनकी यथार्थता पर श्रद्धा करना, यह विस्ताररुचि सम्यक्त्व है। सम्यग्दर्शन के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि “सम्यग्दर्शननिष्ठ (८) क्रियारुचि सम्यक्त्व- प्रारम्भिक रूप से साधक जीवन पुरुष संसार के बीज रूप अविद्या आदि दोषों का उन्मूलन नहीं कर सके की विभिन्न क्रियाओं के आचरण में रुचि हो और उस साधनात्मक ऐसा कदापि सम्भव नहीं हो सकता अर्थात् सम्यग्दर्शनयुक्त पुरुष निश्चितरूप अनुष्ठान के फलस्वरूप यथार्थता का बोध हो, वह क्रियारुचि से निर्वाण-लाभ करता है।"४७ आचार्य शंकर के अनुसार जब तक सम्यक्त्व है। सम्यक्दर्शन नहीं होता तब तक राग (विषयासक्ति) का उच्छेद नहीं होता (९) संक्षेपरुचि सम्यक्त्व- जो वस्तुतत्त्व का यथार्थ स्वरूप और जब तक राग का उच्छेद नहीं होता, मुक्ति सम्भव नहीं होती। नहीं जानता है और जो आर्हत् प्रवचन (ज्ञान) में प्रवीण भी नहीं है
सम्यग्दर्शन आध्यात्मिक जीवन का प्राण है। जिस प्रकार लेकिन जिसने अयथार्थ (मिथ्यादृष्टिकोण) को अंगीकृत भी नहीं किया, चेतना से रहित शरीर शव है उसी प्रकार सम्यग्दर्शन से रहित व्यक्ति जिसमें यथार्थ ज्ञान की अल्पता होते हुए भी मिथ्या (असत्य) धारणा चलता-फिरता शव है। जिस प्रकार शव लोक में त्याज्य होता है वैसे ही नहीं है ऐसा सम्यक्त्व संक्षेपरुचि कहा जाता है। आध्यात्मिक-जगत में यह चल-शव त्याज्य होता है।४८ वस्तुत: सम्यग्दर्शन (१०) धर्मरुचि सम्यक्त्व- तीर्थंकरदेव प्रणीत धर्म में बताए एक जीवन-दृष्टि है। बिना जीवन-दृष्टि के जीवन का कोई अर्थ नहीं रह गए द्रव्य स्वरूप, आगम साहित्य एवं नैतिक नियम (चारित्र) पर जाता। व्यक्ति की जीवन-दृष्टि जैसी होती है उसी रूप में उसके चरित्र का आस्तिक्य भाव रखना, उन्हें यथार्थ मानना यह धर्मरुचि सम्यक्त्व है।५१ निर्माण हो जाता है। गीता में कहा गया है कि व्यक्ति श्रद्धामय है, जैसी श्रद्धा होती है वैसा ही वह बन जाता है।४९ असम्यग्जीवनदृष्टि पतन की सम्यक्त्व का त्रिविधि वर्गीकरण५२
ओर और सम्यग्जीवन-दृष्टि उत्थान की ओर ले जाती है इसलिए यथार्थ अपेक्षाभेद से सम्यक्त्व का विविध वर्गीकरण भी जैनाचार्यों ने जीवनदृष्टि का निर्माण जिसे भरतीय परम्परा में सम्यग्दर्शन, सम्यग्दृष्टि किया है इस वर्गीकरण के अनुसार सम्यक्त्व के कारक, रोचक और या श्रद्धा कहा गया है, आवश्यक है।
दीपक ऐसे तीन भेद किय गये : यथार्थ जीवनदृष्टि क्या है? यदि इस प्रश्न पर हम गम्भीरतापूर्वक जिस यथार्थ दृष्टिकोण (सम्यक्त्व) के होने पर व्यक्ति सदाचरण विचार करें तो हम पाते हैं कि समालोच्य सभी आचार-दर्शनों में या सम्यक्-चारित्र की साधना में अग्रसर होता है, वह 'कारक सम्यक्त्व' अनासक्त एवं वीतराग जीवनदृष्टि को ही यथार्थ जीवनदृष्टि माना गया है। है। कारक सम्यक्त्व ऐसा यथार्थ दृष्टिकोण है जिसमें व्यक्ति आदर्श की
उपलब्धि के हेतु सक्रिय एवं प्रयासशील बन जाता है। नैतिक दृष्टि से सम्यग्दर्शन का वर्गीकरण
कहें तो 'कारक-सम्यक्त्व' शुभाशुभ विवेक की वह अवस्था है जिसमें उत्तराध्ययनसूत्र में सम्यग्दर्शन के, उसकी उत्पत्ति के आधार व्यक्ति जिस शुभ का निश्चय करता है, उसका आचरण भी करता है। यहाँ पर, दस भेद किये गये हैं, जो निम्नानुसार है
ज्ञान और क्रिया में अभेद होता है। सुकरात का यह वचन कि 'ज्ञान ही (१) निसर्ग (स्वभाव) रुचि सम्यक्त्व- जो यथार्थ दृष्टिकोण व्यक्ति सद्गुण है' इस अवस्था में लागू होता है। में स्वत: ही उत्पन्न हो जाता है, वह निसर्गरुचि सम्यक्त्व कहा जाता है।
२. रोचक सम्यक्त्व सत्यबोध की वह अवस्था है जिसमें (२) उपदेशरुचि सम्यक्त्व-दूसरे व्यक्ति से सुनकर जो यथार्थ व्यक्ति शुभ को शुभ और अशुभ को अशुभ के रूप में जानता है और दृष्टिकोण या तत्त्वश्रद्धान् होता है, वह उपदेशरुचि सम्यक्त्व है। शुभ की प्राप्ति की इच्छा भी करता है, लेकिन उसके लिए प्रयास नहीं
(३) आज्ञारुचि सम्यक्त्व- वीतराग महापुरुषों के नैतिक आदेशों करता। सत्यासत्यविवेक होने पर भी सत्य का आचरण नहीं कर पाना, को मानकर जो यथार्थ दृष्टिकोण उत्पन्न होता है अथवा जो तत्त्वश्रद्धा यह रोचक सम्यक्त्व है। जैसे कोई रोगी अपनी रुग्णावस्था को भी होती है, उसे आज्ञारुचि सम्यक्त्व कहा जाता है।
जानता है, रोग की ओषधि भी जानता है और रोग से मुक्त होना भी (४) सूत्ररुचि सम्यक्त्व- अंगप्रविष्ट एवं अंगबाह्य ग्रन्थों के चाहता है लेकिन फिर भी ओषधि को ग्रहण नहीं कर पाता वैसे ही रोचक अध्ययन के आधार पर जो यथार्थ दृष्टिकोण या तत्त्वश्रद्धान् होता है, वह सम्यक्त्व वाला व्यक्ति संसार के दुःखमय यथार्थ स्वरूप को जानता है, सूत्ररुचि सम्यक्त्व कहा जाता है।
उससे मुक्त होना भी चाहता है, उसे मोक्ष-मार्ग का भी ज्ञान होता है फिर (५) बीजरुचि सम्यक्त्व- यथार्थता के स्वल्पबोध को स्वचिन्तन वह सम्यक्-चारित्र पालन (चारित्रमोहकर्म के उदय के कारण) नहीं कर के द्वारा विकसित करना, बीजरुचि सम्यक्त्व है।
पाता है। इस अवस्था को महाभारत के उस वचन के समकक्ष माना जा (६) अभिगमरुचि सम्यक्त्व- अंगसाहित्य एवं अन्य ग्रन्थों को सकता है, जिसमें कहा गया है कि धर्म को जानते हुए भी उसमें प्रवृत्ति अर्थ एवं विवेचना सहित अध्ययन करने से जो तत्त्व-बोध एवं तत्व- नहीं होती ओर अधर्म को जानते हुए भी उससे निवृत्ति नहीं होती है।५३ श्रद्धा उत्पन्न होती है, वह अभिगमरुचि सम्यक्त्व है।
(७) विस्ताररुचि सम्यक्त्व- वस्तुतत्त्व (षट् द्रव्यों) के अनेक ३. दीपकसम्यक्त्व पक्षों का विभिन्न अपेक्षाओं (दृष्टिकोणों) एवं प्रमाणों से अवबोध कर वह अवस्था जिसमें व्यक्ति अपने उपदेश से दूसरों में तत्त्वजिज्ञासा
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जैन साधना का आधार सम्यग्दर्शन
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उत्पन्न कर देता है और उसके परिणामस्वरूप होने वाले यथार्थबोध का
औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की भूमिका में सम्यक्त्व कारण बनता है, दीपक सम्यक्त्व कहलाती है। दीपक सम्यक्त्व वाला के रस का पान करने के पश्चात् जब साधक पुन: मिथ्यात्व की ओर व्यक्ति वह है जो दूसरों को सन्मार्ग पर लगा देने का कारण तो बन जाता लौटता है तो लौटने की इस क्षणिक समयावधि में वान्त सम्यक्त्व का है लेकिन स्वयं कुमार्ग का ही पथिक बना रहता है। जैसे कोई नदी के किंचित् संस्कार अवशिष्ट रहता हैं जैसे वमन करते समय वमित पदार्थों तीर पर खड़ा हुआ व्यक्ति किसी नदी के मध्य में थके हुए तैराक का का कुछ स्वाद आता है वेसे ही सम्यक्त्व को वान्त करते समय सम्यक्त्व उत्साहवर्धन कर उसके पार लगने का कारण बन जाता है यद्यपि न तो का भी कुछ आस्वाद रहता है। जीव की ऐसी स्थिति सास्वादन सम्यक्त्व स्वयं तैरना जानता है और न पार ही होता है।
कहलाती है। सम्यक्त्व का त्रिविध वर्गीकरण एक अन्य प्रकार से भी साथ ही जब जीव क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की भूमिका से किया गया है- जिसमें कर्मप्रकृतियों के क्षयोपशम के आधार पर क्षायिक सम्यक्त्व की प्रशस्त भूमिका पर आगे बढ़ता है और इस विकास उसके भेद किये हैं। जैन विचारणा में अनन्तानुबंधी (तीव्रतम) क्रोध, क्रम में जब वह सम्यक्त्वमोहनीय कर्मप्रकृति के कर्मदलिकों का अनुभव मान, माया (कप), लोभ तथा मिथ्यात्वमोह, मिश्रमोह और सम्यक्त्वमोह कर रहा होता है तो उसके सम्यक्त्व की यह अवस्था 'वेदक सम्यक्त्व' ये सात कर्म-प्रकृतियाँ सम्यक्त्व (यथार्थबोध) की विरोधी मानी गयी कहलाती है। वेदक सम्यक्त्व के अनन्तर जीव क्षायिक सम्यक्त्व को है, इसमें सम्यक्त्वमोहनीय को छोड़ शेष छह कर्म-प्रकृतियाँ उदय प्राप्त कर लेता है। होती हैं तो सम्यक्त्व का प्रकटन नहीं हो पाता। सम्यक्त्वमोह मात्र वस्तुतः सास्वादन सम्यक्त्व और वेदक सम्यक्त्व सम्यक्त्व सम्यक्त्व की निर्मलता और विशुद्धि में बाधक होता हैं कर्मप्रकृतियों की मध्यान्तर अवस्थायें है। पहली सम्यक्त्व से मिथ्यातव की ओर गिरते की तीन स्थितियाँ हैं
समय और दूसरी क्षायोपशमिक सम्यक्त्व से क्षायिक सम्यक्त्व की ओर १. क्षय, २. उपशम, और ३. क्षयोपशम।
बढ़ते समय होती है। इसी आधार पर सम्यक्त्व का यह वर्गीकरण किया गया है जिसमें सम्यक्त्व तीन प्रकार का होता है
सम्यक्त्व का विविध वर्गीकरण १. औपशमिक सम्यक्त्व २. क्षायिक सम्यक्त्व, और सम्यक्त्व का विश्लेषण अनेक अपेक्षाओं से किया गया है ३. क्षायोपशमिक सम्यक्त्व
ताकि उसके विविध पहलुओं पर समुचित प्रकाश डाला जा सके।
सम्यक्त्व का विविध वर्गीकरण चार प्रकार से किया गया हैऔपशमिक सम्यक्त्व
द्रव्य सम्यक्त्व और भाव सम्यक्त्व उपरोक्त (क्रियामाण) कर्मप्रकृतियों के उपशमित (दबाई हुई) १. द्रव्य सम्यक्त्व- विशुद्ध रूप से परिणत किये हुए मिथ्यात्व हो जाने से जिस समक्त्व गुण का प्रकटन होता है वह औपशमिक के कर्मपरमाणु द्रव्य सम्यक्त्व कहलाते हैं। सम्यक्त्व कहलाता है। औपशमिक सम्यक्त्व में स्थायित्व का अभाव २. भाव सम्यक्त्व- उपरोक्त विशुद्ध पुद्गल वर्गणा के निमित्त होता है। शास्त्रीय विवेचना के अनुसार यह एक अन्तर्मुहूर्त (४८ मिनिट) से होने वाली तत्त्वश्रद्धा भाव सम्यक्त्व कहलाती है। से अधिक नहीं टिक पाता है। उपशमित कर्मप्रकृतियाँ (वासनाएँ) पुनः (ब) निश्चय सम्यक्त्व और व्यवहार सम्यक्त्व जाग्रत होकर इसे विनष्ट कर देती हैं।
१. निश्चय सम्यक्त्व- राग-द्वेष और मोह का अत्यल्प हो
जाना, पर-पदार्थों से भेदज्ञान एवं स्व-स्वरूप में रमण, देह में रहते हुए क्षायिक सम्यक्त्व
देहाध्यास का छूट जाना, यह निश्चय सम्यक्त्व के लक्षण हैं। मेरा शुद्ध उपरोक्त सातों कर्मप्रकृतियों के क्षय हो जाने पर जिस सम्यक्त्व स्वरूप अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन और अनन्तआनन्दमय है। पर-भाव या रूप यथार्थबोध का प्रकटन होता है, वह क्षायिक सम्यक्त्व कहलाता है। आसक्ति ही मेरे बन्धन का कारण, और स्व-स्वभाव में रमण करना ही यह यथार्थबोध स्थायी होता है और एक बार प्रकट होने पर कभी भी मोक्ष का हेतु है। मैं स्वयं ही अपना आदर्श हूँ, देव-गुरु और धर्म यह विनष्ट नहीं होता है। शास्त्रीय भाषा में यह सादि एवं अनन्त होता है। मेरी आत्मा ही है। ऐसी दृढ़ श्रद्धा का होना ही निश्चय सम्यक्त्व है। दूसरे
शब्दों में आत्मकेन्द्रित होना यही निश्चय सम्यक्त्व है। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व
२. व्यवहार सम्यक्त्व- वीतराग में देवबुद्धि (आदर्श बुद्धि), मिथ्यात्वजनक उदयगत (क्रियमाण) कर्मप्रकृतियों के क्षय हो जाने पाँच महाव्रतों के पालन करने वाले मुनियों में गुरुबुद्धि और जिनप्रणीत पर और अनुदित (सत्तावान या संचित) कर्मप्रकृतियों के उपशम हो जाने पर धर्म में सिद्धान्तबुद्धि रखना, यह व्यवहार सम्यक्त्व है। जिस सम्यक्त्व का प्रगटन होता है वह क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहलाता है। यद्यपि सामान्य दृष्टि से यह अस्थायी ही है फिर भी एक लम्बी समयावधि (स) निसर्गज सम्यक्त्व और अधिगमज सम्यक्त्व५६ (छयासठ सागरोपम से कुछ अधिक) तक अवस्थित रह सकता है।
१. निसर्गज सम्यक्त्व-जिस प्रकार नदी के प्रवाह में पड़ा
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हुआ पत्थर अप्रयास ही स्वाभविक रूप से गोल हो जाता है उसी प्रकार संसार में भटकते हुए प्राणी को अनायास ही जब कर्मावरण के अल्प होने पर यथार्थता का बोध हो जाता है तो ऐसा सत्यबोध निसर्गज (प्राकृतिक) होता हैं। बिना किसी गुरु आदि के उपदेश के स्वाभाविक रूप में स्वतः उत्पन्न होने वाला ऐसा सत्य बोध निसर्गज सम्यक्त्व कहलाता है।
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
२. अधिगमज सम्यक्त्व - गुरु आदि के उपदेशरूप निमित्त से होने वाला सत्यबोध या सम्यक्त्व अधिगमज सम्यक्त्व कहलाता है। इस प्रकार जैन दार्शनिक न तो वेदान्त और मीमांसा दर्शन के अनुसार सत्य के नित्य प्रकटन को स्वीकार करते हैं और न न्याय-वैशेषिक और योगदर्शन के समान यह मानते हैं कि सत्य का प्रकटन ईश्वर के द्वारा होता है वरन् वे तो यह मानते हैं कि जीवात्मा में सत्यबोध को प्राप्त करने की स्वाभाविक शक्ति है और वह बिना किसी दूसरे की सहायता के सत्य का बोध प्राप्त कर सकता है यद्यपि किन्ही विशिष्ट आत्माओं (तीर्थकर ) द्वारा सत्य का प्रकटन एवं उपदेश भी किया जाता है । ५७
सम्यक्त्व के पाँच अंग
सम्यक्त्व यथार्थता है, सत्य है; इस सत्य की साधना के लिए जैन विचारकों ने पाँच अंगों का विधान किया है। जब तक साधक इन्हें नहीं अपना लेता है वह यथार्थता या सत्य की आराधना एवं उपलब्धि में समर्थ नहीं हो पाता। सम्यक्त्व के निम्न पाँच अंग हैं :
के तीव्रतम आकांक्षा क्योंकि जिसमें सत्याभीप्सा होगी वही सत्य को पा सकेगा, सत्याभीप्सा से ही अज्ञान से ज्ञान की ओर प्रगति होती है। यही कारण है कि उत्तराध्ययनसूत्र में संवेग का प्रतिफल बताते हुए महावीर कहते हैं कि संवेग से मिथ्यात्व की विशुद्धि होकर यथार्थ दर्शन की उपलब्धि (आराधना) होती है । ५८
३. निर्वेद - इस शब्द का अर्थ होता है उदासीनता, वैराग्य, अनासक्ति । सांसारिक प्रवृत्तियों के प्रति उदासीन भाव रखना, क्योंकि इसके अभाव में साधना मार्ग पर चलना सम्भव नहीं होता । वस्तुतः निर्वेद निष्काम भावना या अनासक्त दृष्टि के उदय का आवश्यक अंग है।
४. अनुकम्पा इस शब्द का शब्दिक निर्वचन इस प्रकार हैअनुकम्पा अनु का अर्थ है तदनुसार, कम्प का अर्थ है धूजना या कम्पित होना अर्थात् किसी अन्य के अनुसार कम्पित होना। दूसरे शब्दों में कहें तो अन्य व्यक्ति के दुःखित या पीड़ित होने पर तदनुकूल अनुभूति हमारे अन्दर उत्पन्न होना ही अनुकम्पा है। दूसरे के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख समझना यही अनुकम्पा का अर्थ है परोपकार के नैतिक सिद्धान्त का आधार यही अनुकम्पा है। इसे सहानुभूति भी कहा जा सकता है।
५. आस्तिक्य आस्तिक्य शब्द आस्तिकता का द्योतक है। जिसके मूल में अस्ति शब्द है, जो सत्ता का वाचक है। आस्तिक किसे कहा जाए इस प्रश्न का उत्तर अनेक रूपों में दिया गया है। कुछ ने कहाजो ईश्वर के अस्तित्व या सत्ता में विश्वास करता है, वह आस्तिक है। दूसरों ने कहा- जो वेदों में आस्था रखता है, वह आस्तिक है। लेकि जैन विचारणा में आस्तिक और नास्तिक के विभेद का आधार इससे मित्र है। जैन दर्शन के अनुसार जो पुण्य पाप, पुनर्जन्म, कर्म सिद्धान्त और आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करता है, वह आस्तिक है।
जैन विचारकों की दृष्टि में यथार्थता या सम्यक्त्व के निम्न पाँच दूषण (अतिचार) माने गये हैं जो सत्य या यथार्थता को अपने विशुद्ध स्वरूप में जानने अथवा अनुभूत करने में बाधक होते हैं। अतिचार वह दोष है जिससे व्रत भंग तो नहीं होता लेकिन उसकी सम्यक्त्व प्रभावित होता है। सम्यक् दृष्टिकोण की यथार्थता को प्रभावित करने वाले ३ दोष है १. चल, २. मल, और ३. अगाढ़ चल दोष से तात्पर्य यह है कि यद्यपि व्यक्ति अन्तःकरणपूर्वक तो यथार्थ दृष्टिकोण के प्रति दृढ़ रहता है लेकिन कभी-कभी क्षणिक रूप में बाह्य आवेगों से प्रभावित हो जाता है। मल वे दोष है जो यथार्थ दृष्टिकोण की निर्मलता को प्रभावित करते हैं। मल निम्न पाँच है
१. सम- सम्यक्त्व का पहला लक्षण है सम । प्राकृत भाषा का यह 'सम' शब्द संस्कृत भाषा में तीन रूप लेता है- १. सम, २. शम, ३. श्रम इन तीनों शब्दों के अनेक अर्थ होते हैं। पहले 'सम' शब्द के ही दो अर्थ होते हैं। पहले अर्थ में यह सहानुभूति या तुल्यता है अर्थात् सभी प्राणियों को अपने समान समझना है। इस अर्थ में 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' के महान् सिद्धान्त की स्थापना करता है जो अहिंसा की विचार-प्रणाली का आधार है। दूसरे अर्थ में इसे सम मनोवृत्ति या समभाव कहा जा सकता है अर्थात् सुख-दुःख, हानि-लाभ एवं अनुकूल और प्रतिकूल दोनों स्थितियों में समभाव रखना, चित्त को विचलित नहीं होने देना। यह चित्तवृत्ति संतुलन है संस्कृत के 'राम' रूप के आधार पर इसका अर्थ होता है शांत करना अर्थात् कषायाग्नि या वासनाओं को शांत करना। संस्कृत के तीसरे रूप 'श्रम' के आधार पर इसका निर्वाचन होता है प्रयास, प्रयत्न या पुरुषार्थ करना।
१. शंका वीतराग या अर्हत् के कथनों पर शंका करना,
२. संवेग संवेग शब्द का शाब्दिक विश्लेषण करने पर उसका निम्न अर्थ ध्वनित होता है-सम+वेग, सम्यक्त् उचित, वेग- गति अर्थात् सम्यक्गति । सम् शब्द आत्मा के अर्थ में भी आ सकता है। इस उनकी यथार्थता के प्रति संदेहात्मक दृष्टिकोण रखना। प्रकार इसका अर्थ होगा आत्मा की ओर गति दूसरे, सामान्य अर्थ में संवेग शब्द अनुभूति के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है यहाँ इसका तात्पर्य होगा स्वानुभूति, आत्मानुभूति अथवा आत्मा के आनन्दमय स्वरूप की अनुभूति। तीसरे, आकांक्षा की तीव्रतम अवस्था को भी संवेग कहा जाता है। इस प्रसंग में इसका अर्थ होगा सत्याभीप्सा अर्थात् सत्य को जानने प्रति संशय करना कि मेरे इस सदाचरण का प्रतिफल मिलेगा या नहीं।
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२. आकांक्षा - स्वधर्म को छोड़कर पर धर्म की इच्छा करना, आकांक्षा करना अथवा नैतिक एवं धार्मिक आचरण के फल की आकांक्षा करना। फलासक्ति भी साधना मार्ग में बाधक तत्त्व मानी गयी है। ३. विचिकित्सा नैतिक अथवा धार्मिक आचरण के फल के
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जैन साधना का आधार सम्यग्दर्शन
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जैन विचारणा में फलापेक्षा एवं फल-संशय दोनों को ही अनुचित माना साध्य, साधक और साधना-पथ तीनों पर अविचल श्रद्धा चाहिए। साधक गया है। कुछ जैनाचार्यों के अनुसार इसका अर्थ घृणा भी लगाया गया में जिस क्षण भी इन तीनों में से एक के प्रति भी सन्देहशीलता उत्पन्न है।५९ मुनिजन, रोगी एवं ग्लान व्यक्तियों के प्रति घृणा रखना घृणाभाव होती है, वह साधना के क्षेत्र में च्युत हो जाता है। यही कारण है कि जैन व्यक्ति को सेवापथ से विमुख बनाता है।
विचारणा साधनात्मक जीवन के लिए निःशंकता को आवश्यक मानती ४. मिथ्यादृष्टियों की प्रशंसा- जिन लोगों का दृष्टिकोण है। नि:शंकता की इस धारणा को प्रज्ञा और तर्क का विरोधी नहीं मानना सम्यक नहीं है ऐसे अयथार्थ दृष्टिकोण वाले व्यक्तियों अथवा संगठनों की चाहिए। संशय ज्ञान के विकास में साधन हो सकता है लेकिन उसे साध्य प्रशंसा करना।
मन लेना अथवा संशय में ही रुक जाना साधनात्मक-जीवन के उपयुक्त ५. मिथ्यादृष्टियों से अति परिचय- साधनात्मक अथवा नहीं हैं। मूलाचार में निःशंकता को निर्भयता माना गया है।६३ नैतिकता नैतिक जीवन के प्रति जिनका दृष्टिकोण अयथार्थ है, ऐसे व्यक्तियों से के लिए पूर्ण निर्भय जीवन आवश्यक है, भय पर स्थित नैतिकता सच्ची घनिष्ठ सम्बन्ध रखना। संगति का असर व्यक्ति के जीवन पर काफी नैतिकता नहीं है। अधिक होता है। चारित्र के निर्माण एवं पतन दोनों में ही संगति का २.निःकांक्षता- स्वकीय आनन्दमय परमात्मस्वरूप में निष्ठावान प्रभाव पड़ता है अत: अनैतिक आचरण करने वाले लोगों से अतिपरिचय रहना और किसी भी परभाव की आकांक्षा या इच्छा नहीं करना ही या घनिष्ठ सम्बन्ध रखना उचित नहीं माना गया है।
नि:कांक्षता है। साधनात्मक जीवन में भौतिक वैभव अथवा ऐहिक तथा पं० बनारसीदासजी ने नाटक समयसार में सम्यक्त्व के अतिचारों पारलौकिक सुख को लक्ष्य बना लेना, जैनदर्शन के अनुसार 'कांक्षा' की एक भिन्न सूची प्रस्तुत की है। उनके अनुसार सम्यग्दर्शन के निम्न है।६४ किसी भी लौकिक और पारलौकिक कामना को लेकर साधनात्मक पाँच अतिचार हैं
जीवन में प्रविष्ट होना, जैन विचारणा को मान्य नहीं है; वह ऐसी साधना १. लोकभय २. सांसारिक सुखों के प्रति आसक्ति ३. भावी को वास्तविक साधना नहीं कहती है, क्योंकि वह आत्म-केन्द्रत नहीं है। जीवन में सांसारिक सुखों के प्राप्त करने की इच्छा ४. मिथ्याशास्त्रों की भौतिक सुखों और उपलब्धियों के पीछे भागने वाला साधक चमत्कार प्रशंसा एवं ५. मिथ्या-मतियों की सेवा६०
और प्रलोभन के पीछे किसी भी क्षण लक्ष्यच्युत हो सकता है। इस प्रकार अगाढ़ दोष वह दोष है जिसमें अस्थिरता रहती है। जिस प्रकार जैन साधना में यह माना गया है कि साधक को साधना के क्षेत्र में प्रविष्ट हिलते हुए दर्पण में यथार्थ रूप तो दिखता है लेकिन वह अस्थिर होता होने के लिए नि:कांक्षित अथवा निष्काम भाव से युक्त होना चाहिए। है, उसी प्रकार अस्थिर चित्त में सत्य का प्रकटन तो होता है लेकिन वह आचार्य अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में नि:कांक्षता का अर्थ ऐकान्तिक भी अस्थिर होता है। स्मरण रखना चाहिए कि जैन विचारणा के अनुसार मान्याताओं से दूर रहना किया है।६५ इस आधार पर अनाग्रहयुक्त उपरोक्त दोषों की सम्भावना क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में होती है- उपशम दृष्टिकोण सम्यक्त्व के लिए आवश्यक माना गया है। " सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्व में नहीं होती है, क्योंकि उपशम ३. निर्विचिकित्सा- निर्विचिकित्सा के दो अर्थ माने गये हैं: सम्यक्त्व की समयावधि ही इतनी क्षणिक होती है कि दोष होने का (अ) मैं जो धर्म साधना कर रहा हूँ इसका फल मुझे अवश्य अवकाश ही नहीं रहता और क्षायिक सम्यक्त्व पूर्ण शुद्ध होता है अतः मिलेगा या नहीं, मेरी यह साधना व्यर्थ तो नहीं चली जायेगी, ऐसी उसमें दोषों की सम्भावना नहीं रहती है।
आशंका रखना 'विचिकित्सा' कहलाती हैं। इस प्रकार साधना और
नैतिक क्रिया के फल के प्रति शंकित बने रहना विचिकित्सा है। शंकित सम्यग्दर्शन के आठ अंग
ह्रदय से साधना करने वाले साधक में स्थिरता और धैर्य का अभाव होता उत्तराध्ययनसूत्र में सम्यग्दर्शन की साधना के आठ अंग प्रस्तुत है और उसकी साधना सफल नहीं हो पाती है। अत: साधक के लिए यह किये गये हैं जिनका समाचरण साधक के लिए अपेक्षित है। दर्शनविशुद्धि आवश्यक है कि वह इस प्रतीति के साथ नैतिक आचरण का प्रारम्भ करे के संवर्द्धन और संरक्षण के लिए इनका पालन आवश्यक माना गया है। कि क्रिया और फल का अविनाभावी सम्बन्ध है और यदि चरण किया उत्तराध्ययन में वर्णित यह आठ प्रकार का दर्शनाचार निम्न है- जायेगा तो निश्चित रूप से उसका फल प्राप्त होगा ही। इस प्रकार क्रिया
१.नि:शंकित २. नि:कांक्षित ३. निर्विचिकित्सा ४. अमूढ़दृष्टि के फल के प्रति सन्देह नहीं होना ही निर्विचिकित्सा है। ५. उपबृंहण ६. स्थिरीकरण ७. वात्सल्य, और ८. प्रभावना।६१
(ब) कुछ जैनाचार्यों के अनुसार तपस्वी एवं संयमपरायण १. निःशंकता- संशयशीलता का अभाव ही निःशंकता हैं मुनियों के दुर्बल एवं जर्जर शरीर अथवा मलिन वेशभूषा को देखकर मन जिनप्रणीत तत्त्व-दर्शन में शंका नहीं करना-उसे यथार्थ एवं सत्य मानना, में ग्लानि लाना विचिकित्सा है। अत: साधक की वेशभूषा एवं शरीरादि ही नि:शंकता है।६२ संशयशीलता साधनात्मक जीवन के विकास का बाह्य रूप पर ध्यान नहीं देकर उसके साधनात्मक गुणों पर विचार करना विधायक तत्त्व है। जिस साधक की मन:स्थिति संशय के हिंडोले में झूल चाहिए। वेशभूषा एवं शरीर आदि बाह्य सौन्दर्य पर दृष्टि को केन्द्रित नहीं रही हो, वह भी इस संसार में झूलता रहता है (परिभ्रमण करता रहता है) करके आत्म-सौन्दर्य की ओर उसे केन्द्रित करना यही सच्ची निर्विचिकित्सा और अपने लक्ष्य को नहीं पा सकता। साधना के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए है। आचार्य समन्तभद्र का कथन है-शरीर तो स्वभाव से ही अपवित्र है
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
उसकी पवित्रता तो सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप रत्नत्रय के सदाचरण से वाले व्यक्तियों को धर्म-मार्ग में पुनः स्थिर करना यह साधक का कर्तव्य ही होती है। अतएव गुणीजनों के शरीर से घृणा न कर उनके गुणों से माना गया है। इस पतन के दो प्रकार होते हैप्रेम करना निर्विचिकित्सा है।६६
१. दर्शन विकृति अर्थात दृष्टिकोण की विकृतता ४. अमूढदृष्टि- मूढ़ता का अर्थ है अज्ञान। हेय और उपादेय, २. चारित्र विकृति अर्थात धर्म-मार्ग या सदाचरण से च्युत योग्य और अयोग्य के मध्य निर्णायक क्षमता का अभाव ही अज्ञान है, होना। दोनों ही स्थितियों में उसे यथोचित बोध देकर स्थिर करना मूढ़ता है। जैन साहित्य में विभिन्न प्रकार की मूढ़ताओं का वर्गीकरण तीन चाहिए।६९ दिगम्बर परम्परा के श्रावकाचार विषयक ग्रन्थों में स्थिरीकरण' भागों में किया गया है
के स्थान पर 'स्थितिकरण' शब्द मिलता है। १. देवमूढ़ता,२. लोकमूढ़ता, और ३. समयमूढ़ता
७. वात्सल्य- धर्ममार्ग में समाचरण करने वाले समान शील (अ) देवमूढ़ता- साधना का आदर्श कौन है? उपास्य बनने अर्थात् सहधर्मियों के प्रति प्रेमभाव रखना वात्सल्य है। आचार्य समन्तभद्र की क्षमता किसमें है? ऐसे निर्णायक ज्ञान का अभाव ही देवमूढ़ता है, के अनुसार 'स्वधर्मियों एवं गुणियों के प्रति निष्कपट भाव से प्रीति जिसके कारण साधक अपने लिए गलत आदर्श बनने की योग्यता नहीं रखना और उनकी यथोचित सेवा -सुश्रुषा करना वात्सल्य है। वात्सल्य है उसे उपास्य बना लेना देवमूढ़ता है। काम-क्रोधादि विकारों के पूर्ण का प्रतीक गाय और गोवत्स (बछड़े) का प्रेम है। जिस प्रकार गाय बिना विजेता, वीतराग एवं अविकल ज्ञान और दर्शन से युक्त परमात्मा को ही किसी प्रतिफल की अपेक्षा के गोवत्स को संकट में देखकर अपने प्राणों अपना उपास्य और आदर्श बनाना, यही देव के प्रति अमूढदृष्टि है। को भी जोखिम में डाल देती है, ठीक उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि साधक का
(ब) लोकमढ़ता- लोक प्रवाह और रूढ़ियों का अन्धानुकरण भी यह कर्तव्य है कि वह धार्मिकजनों के सहयोग और सहकार के लिए यही लोक मूढ़ता हैं। आचार्य समन्तभद्र लोकमूढ़ता की व्याख्या करते कुछ भी उठा नहीं रखे। वात्सल्य संघ,धर्म या सामाजिक भावना का हए कहते हैं कि 'नदियों एवं सागर में स्नान करने से आत्मा की शुद्धि केन्द्रीय तत्त्व है। मानना, पत्थरों का ढेर कर उसे मुक्ति समझना अथवा पर्वत से गिरकर ८. प्रभावना- साधना के क्षेत्र में स्व-पर-कल्याण की भावना या अग्नि में जलकर प्राण विसर्जन करना आदि लोकमूढ़ताएँ हैं।'६७ होती है। जैसे पुष्प अपने सुवास से स्वयं भी सुवासित होता है और
(स) समयमुढ़ता- समय का अर्थ सिद्धान्त या शास्त्र भी माना दूसरों को भी सुवासित करता है वैसे ही साधक सदाचरण और ज्ञान की गया है। इस अर्थ में सैद्धान्तिक ज्ञान या शास्त्रीय ज्ञान का अभाव सौरभ से स्वयं भी सुरभित होता है, साथ ही जगत् को भी सुरभित करता समयमूढ़ता है।
है। साधना, सदाचरण और ज्ञान की सुरभि द्वारा जगत के अन्य प्राणियों ५. उपबृंहण- बृहि धातु के साथ 'उप' उपसर्ग लगाने से को धर्ममार्ग में आकर्षित करना, यही प्रभावना है। उपबृंह शब्द निष्पन्न हुआ है जिसका अर्थ होता है वृद्धिकरना, पोषण प्रभावना के आठ प्रकार माने गये हैंकरना। अपने आध्यात्मिक गुणों का विकास करना यह उपबृंहण है। १. प्रवचन, २. धर्म, ३. पाद, ४. नैमित्तिक, ५. तप, ६. सम्यक् आचरण करने वाले गुणीजनों की प्रशंसा आदि करके उनके विद्या, ७. प्रसिद्ध व्रत ग्रहण करना और ८. कवित्वशक्ति । सम्यक् आचरण की वृद्धि में योग देना उपबृंहण है।
६. स्थिरीकरण- साधनात्मक जीवन में कभी-कभी ऐसे सम्यग्दर्शन की साधना के ६ स्थान अवसर उपस्थित हो जाते है जब साधक भौतिक प्रलोभन एवं साधनात्मक जिस प्रकार बौद्धदर्शन में दुःख है, दुःख का कारण है, दु:ख से जीवन की कठिनाइओं के कारण पथच्युत हो जाता है। अत: ऐसे निवृत्ति हो सकती है, और दुःख निवृत्ति का मार्ग है, इन चार आर्यसत्यों की अवसरों पर स्वयं को पथच्युत होने से बचाना और पथच्युत साधकों को स्वीकृति सम्यग्दृष्टित्व है उसी प्रकार जैन साधना के अनुसार निम्न षट्स्थानकों१ धर्ममार्ग में स्थिर करना, यह स्थिरीकरण है। सम्यग्दृष्टिसम्पन्न साधक को (छ: बातों ) की स्वीकृति सम्यग्दृष्टित्व हैन केवल अपने विकास की चिन्ता करनी होती है वरन उसका यह भी १- आत्मा है। कर्तव्य है कि वह ऐसे साधकों को जो धर्ममार्ग से विचलित या पतित हो २- आत्मा नित्य है। गये हैं, उन्हें मार्ग में स्थिर करे। जैनदर्शन यह मानता है कि व्यक्ति या ३- आत्मा अपने कर्मों का कर्ता है। समाज की भौतिक सेवा सच्ची सेवा नहीं है, सच्ची सेवा तो है उसे
४- आत्मा कृतकों के फल का भोक्ता है। धर्ममार्ग में स्थिर करना। जैनाचार्यों का कथन है कि व्यक्ति अपने शरीर ५- आत्मा मुक्ति प्राप्त कर सकता है। के चमड़े के जूते बनाकर अपने माता-पिता को पहिनाये अर्थात् उनके ६- मुक्ति का उपाय या मार्ग है। प्रति इतना अधिक आत्मोत्सर्ग का भाव रखे तो भी वह उनके ऋण से
जैन तत्त्व विचारणा के अनुसार उपरोक्त षट्स्थानकों पर दृढ़ उऋण नहीं हो सकता, वह माता-पिता के ऋण से उऋण तभी माना प्रतीति सम्यग्दर्शन की साधना का आवश्यक अंग है। दृष्टिकोण की जाता है जब वह उन्हें धर्ममार्ग में स्थिर करता है । दूसरे शब्दों में, उनके विशुद्धता एवं सदाचरण दोनों ही इन पर निर्भर हैं। यह षट्स्थानक जैन साधनात्मक जीवन में सहयोग देता है। अत: धर्म-मार्ग से पतित होने नैतिकता के केन्द्र बिन्द हैं।
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जैन साधना का आधार सम्यग्दर्शन
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बौद्ध-दर्शन में सम्यक-दर्शन का स्वरूप
आवश्यक समझते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति बुद्धधर्म और संघ के प्रति जैसा कि हमने पूर्व में देखा बौद्ध परम्परा में जैन-परम्परा के निष्ठावान रहे। बुद्ध श्रद्धा को प्रज्ञा से समन्वित करके चलते हैं। मज्झिमनिकाय सम्यकदर्शन के स्थान पर सम्यक समाधि; श्रद्धा या चित्त का विवेचन में बुद्ध यह स्पष्ट कर देते हैं कि समीक्षा के द्वारा ही उचित प्रतीत होने उपलब्ध होता है। बुद्ध ने अपने त्रिविध साधना मार्ग में कहीं शील, पर धर्म का ग्रहण करना चाहिए।७२ विवेक और समीक्षा यह सदैव ही समाधि और प्रज्ञा, कहीं शील, चित्त और प्रज्ञा और कहीं शील, श्रद्धा बुद्ध को स्वीकृत रहे हैं। बुद्ध भिक्षुओं को सावधान करते हुए कहते थे
और प्रज्ञा का विवेचन किया है। इस आधार पर हम देखते है कि बौद्ध- कि भिक्षुओं, क्या तुम शास्ता के गौरव से तो हाँ नहीं कह रहे हो? परम्परा में समाधि, चित्त और श्रद्धा का प्रयोग सामान्यतया एक ही अर्थ भिक्षुओं, जो तुम्हारा अपना देखा हुआ, अपना अनुभव किया हुआ है में हुआ है। वस्तुतः श्रद्धा चित्त-विकल्प की शून्यता की ओर ही ले जाती क्या उसी को तुम कह रहे हो।७३ इस प्रकार बुद्ध श्रद्धा को प्रज्ञा से है। श्रद्धा के उत्पन्न हो जाने पर विकल्प समाप्त हो जाते हैं। उसी प्रकार समन्वित कर देते हैं। सामान्यतया बौद्ध-दर्शन में श्रद्धा को प्रथम और समाधि की अवस्था में भी चित्त विकल्प नहीं होते हैं। अत: चित्त, समाधि प्रज्ञा को अन्तिम स्थान दिया गया है। साधना-मार्ग की दृष्टि से श्रद्धा
और श्रद्धा एक ही अर्थ की अभिव्यक्ति करते हैं। यद्यपि अपेक्षा भेद से पहले आती है और प्रज्ञा उसके पश्चात् उत्पन्न होती है। श्रद्धा के कारण इनके अर्थों में भिन्नता भी रही हुई है। श्रद्धा बुद्ध, संघ और धर्म के प्रति ही धर्म का श्रवण, ग्रहण, परीक्षण और वीर्यारम्भ होता है। नैतिक जीवन अनन्य निष्ठा है तो समाधि चित्त की शांत अवस्था है।
के लिए श्रद्धा कैसे आवश्यक होती है इसका सुन्दर चित्रण बौद्ध-परम्परा बौद्ध परम्परा में सम्यग्दर्शन का अर्थसाम्य बहुत कुछ सम्यग्दृष्टि के सौन्दरनन्द नामक ग्रन्थ में किया जाता है। उसमें बुद्ध नन्द के प्रति से है। जिस प्रकार जैन-दर्शन में सम्यग्दर्शन तत्त्वश्रद्धा है उसी प्रकार कहते हैं कि पृथ्वी के भीतर जल है यह श्रद्धा जब मनुष्य को होती है तब बौद्धदर्शन में सम्यकदृष्टि चार आर्यसत्यों के प्रति श्रद्धा है। जिस प्रकार प्रयोजन होने पर पृथ्वी को प्रयत्नपूर्वक खोदता है। भूमि से अन्न की उत्पत्ति जैन धर्म में सम्यक् दर्शन का अर्थ देव, गुरु और धर्म के प्रति निष्ठा होती है, यदि यह श्रद्धा कृषक में न हो तो वह भूमि में बीज ही नहीं बोयेगा। माना गया है उसी प्रकार बौद्धदर्शन में श्रद्धा का अर्थ बुद्ध, धर्म एवं संघ धर्म की उत्पत्ति में श्रद्धा उत्तम कारण मानी गई है। जब तक मनुष्य तत्त्व को के प्रति निष्ठा है। जिस प्रकार जैन-दर्शन में देव के रूप में अरिहंत को देख या सुन नहीं लेता तब तक उसकी श्रद्धा स्थिर नहीं होती। साधना के साधना-आदर्श स्वीकार किया जाता है उसी प्रकार बौद्ध-परम्परा में क्षेत्र में प्रथम अवस्था में श्रद्धा एक परिकल्पना के रूप में ग्रहण होती है और साधना आदर्श के रूप में बुद्ध और बुद्धत्व को स्वीकार किया जाता है। वही अन्त में तत्त्वसाक्षात्कार बन जाती है। बुद्ध ने श्रद्धा और प्रज्ञा अथवा साधना-मार्ग के रूप में दोनों ही धर्म के प्रति निष्ठा का आवश्यक बताते दूसरे शब्दों में जीवन के बौद्धिक और भावात्मक पक्षों में एक समन्वय किया हैं। जहाँ तक साधना के पथ-प्रदर्शक का प्रश्न है जैन-परम्परा में पथ- है। यह एक ऐसा समन्वय है जिसमें न तो श्रद्धा अन्धश्रद्धा बनती है और प्रदर्शक के रूप में गुरु को स्वीकार किया गया है, जबकि बौद्ध-परम्परा न प्रज्ञा केवल बौद्धिक या तर्कात्मक ज्ञान बन कर रह जाती है। उसके स्थान पर संघ को स्वीकार करती है।
जिस प्रकार जैन-दर्शन में सम्यकदर्शन के शंकाशीलता, आकांक्षा, जैसा कि हमने पूर्व में निर्देश किया, जैन-दर्शन में सम्यग्दर्शन विचिकित्सा आदि दोष माने गए हैं उसी प्रकार बौद्ध परम्परा में भी पाँच के दृष्टिकोणपरक और श्रद्धापरक ऐसे दो अर्थ स्वीकृत रहे हैं। बौद्ध- नीवरण माने गाये हैं। जो इस प्रकार हैंपरम्परा में श्रद्धा और सम्यग्दृष्टि दो भिन्न भिन्न तथ्य माने गये हैं। दोनों १. कामच्छन्द (कामभोगों की चाह) समवेत रूप से जैन-दर्शन के सम्यग्दर्शन शब्द के अर्थ को बौद्ध-दर्शन २. अव्यापाद (अविहिंसा) में स्पष्ट कर देते हैं।
३. स्त्यानगृद्ध (मानसिक और चैतसिक आलस्य) जैन-परम्परा में सम्यग्दर्शन को तत्त्वदृष्टि या तत्त्वश्रद्धान् से ४. औद्धत्य-कौकृत्य (चित्त की चंचलता), और भिन्न श्रद्धापरक अर्थ में भी लिया जाता हैं। बौद्ध परम्परा में उसकी तुलना ५. विचिकित्सा (शंका)७४ श्रद्धा से की जा सकती है। बौद्ध परम्परा में श्रद्धा पाँच इन्द्रियों में प्रथम तुलनात्मक दृष्टि से अगर हम देखें तो बौद्ध-परम्परा का इन्द्रिय, पाँच बलों में अन्तिम बल और स्रोतापन्न अवस्था के चार अंगों कामच्छन्द जैन-परम्परा के कांक्षा नामक अतिचार के समान है। इसी में प्रथम अंग मानी गई है। बौद्ध परम्परा में श्रद्धा का अर्थ चित्त की प्रकार विचिकित्सा को भी दोनों ही दर्शनों में स्वीकार किया गया हैं। प्रसादमयी अवस्था माना गया है। श्रद्धा जब चित्त में उत्पन्न होती है तो जैन-परम्परा में संशय और विचिकित्सा दोनों अलग-अलग माने गए है वह चित्त को प्रीति और प्रामोद्य से भर देती है और चित्तमलों को नष्ट कर लेकिन बौद्ध परम्परा दोनों का अन्तर्भाव एक में ही कर देती है। इस देती है। यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि बौद्ध परम्परा में श्रद्धा प्रकार कुछ सामान्य मतभेदों को छोड़ कर जैन और बौद्ध दृष्टिकोण अन्धविश्वास नहीं वरन् एक बुद्धिसम्मत अनुभव है। यह विश्वास करना एक-दूसरे के निकट ही आते हैं। नहीं वरन् साक्षात्कार के पश्चात् उत्पन्न हुई तत्त्वनिष्ठा है। बुद्ध एक ओर यह मानते हैं कि धर्म का ग्रहण स्वयं के द्वारा जानकर ही करना चाहिए। गीता में श्रद्धा का स्वरूप एवं वर्गीकरण कालामासुत्त में उन्होंने इसे सविस्तार स्पष्ट किया है। दूसरी ओर वे यह भी जैसा कि हमने पूर्व में निर्देश किया कि गीता में सम्यग्दर्शन
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के स्थान पर श्रद्धा का प्रत्यय ग्राह्य है। जैन परम्परा में सामान्यतया सम्यग्दर्शन दृष्टिपरक अर्थ में स्वीकार हुआ है और अधिक से अधिक उसमें यदि श्रद्धा का तत्त्व समाहित है तो वह तत्त्वश्रद्धा ही है। लेकिन गीता में श्रद्धा शब्द का अर्थ प्रमुख रूप से ईश्वर के प्रति अनन्य निष्ठा ही माना गया है। अतः गीता में श्रद्धा के स्वरूप पर विचार करते समय हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि जैन दर्शन में श्रद्धा का जो अर्थ है वह गीता में नहीं है।
यद्यपि गीता भी यह स्वीकार करती है नैतिक जीवन के लिए संशयरहित होना आवश्यक है। श्रद्धारहित यज्ञ, तप, दान आदि सभी नैतिक कर्म निरर्थक ही माने गये हैं । ७५ गीता में श्रद्धा तीन प्रकार की मानी गई है- १. सात्विक, २. राजस और ३ तामस सात्विक श्रद्धा सतोगुण से उत्पन्न होकर देवताओं के प्रति होती है। राजस श्रद्धाक्ष और राक्षसों के प्रति होती है। इसमें रजोगुण की प्रधानता होती है। तामस श्रद्धा भूत-प्रेत आदि के प्रति होती है । ७६
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
जिस प्रकार जैन दर्शन में शंका या सन्देह को सम्यग्दर्शन का दोष माना गया है उसी प्रकार गीता में भी संशयात्मकता को दोष माना गया है।७७ जिस प्रकार जैन-दर्शन में फलाकांक्षा भी सम्यग्दर्शन का अतिचार (दोष) मानी गई है उसी प्रकार गीता में भी फलाकांक्षा को दोष ही माना गया है। गीता के अनुसार जो फलाकांक्षा से युक्त होकर श्रद्धा रखता है अथवा भक्ति करता है वह साधक निम्न श्रेणी का ही है फलाकांक्षायुक्त श्रद्धा व्यक्ति को आध्यात्मिक प्रगति की दृष्टि से आगे नहीं ले जाती है। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं जो लोग विवेक ज्ञान से रहित होकर तथा भोगों की प्राप्ति विषयक कामनाओं से युक्त हो मुझ परमात्मा को छोड़ अन्यान्य देवताओं की शरण ग्रहण करते हैं, मैं उन लोगों की श्रद्धा उनमें स्थिर कर देता हूँ और उस श्रद्धा से युक्त होकर वे उन देवताओं की आराधना के द्वारा अपनी कामनाओं की पूर्ति करते हैं। लेकिन उन अल्पबुद्धि लोगों का वह फल नाशवान होते है । देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं। लेकिन मुझ परमात्मा की भक्ति करने वाला मुझे ही प्राप्त होता है। ७८
१. ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् होने वाली श्रद्धा या भक्ति परमात्मा का साक्षात्कार कर लेने के पश्चात् उनके प्रति जो निष्ठा होती है वह एक ज्ञानी की निष्ठा मानी गई है।
इसी दैन्य भाव से किसी उद्धारक के प्रति अपनी निष्ठा को स्थित करता है। तो उसकी यह श्रद्धा या भक्ति एक दुःखी या आर्त व्यक्ति की भक्ति होती है श्रद्धा या भक्ति का यह स्तर पूर्वोक्त दोनों स्तरों से निम्न होता है।
४. श्रद्धा या भक्ति का चौथा स्तर वह है जिसमें श्रद्धा का उदय स्वार्थ के वशीभूत होकर होता है। यहाँ श्रद्धा कुछ पाने के लिए की जाती है, यह फलाकांक्षा की पूर्ति के लिए की जाने वाली श्रद्धा अत्यन्त निम्न स्तर की मानी गई है। वस्तुतः इसे श्रद्धा केवल उपचार से ही कहा जाता है। अपनी मूल भावनाओं में तो यह एक व्यापार अथवा ईश्वर को ठगने का एक प्रयत्न है। ऐसी श्रद्धा या भक्ति नैतिक प्रगति में किसी भी अर्थ में सहायक नहीं हो सकती है। नैतिक दृष्टि से केवल ज्ञान के द्वारा अथवा जिज्ञासा के लिए की गई श्रद्धा का ही कोई अर्थ और मूल्य हो सकता है। ७९
तुलनात्मक दृष्टि से विचार करते समय हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि गीता में स्वयं श्रीकृष्ण के द्वारा अनेक बार यह आश्वासन दिया गया है कि जो मेरे प्रति श्रद्धा रखेगा वह बन्धनों से छूट कर अन्त में मुझे ही प्राप्त हो जायेगा। गीता में भक्त के योगक्षेम की जिम्मेदारी स्वयं श्रीकृष्ण ही वहन करते है१० जबकि जैन और बौद्ध दर्शनों में ऐसे आश्वासनों का अभाव है गीता में वैयक्तिक ईश्वर के प्रति जिस निष्ठा का उद्बोधन है वह सामान्यतया जैन और बौद्ध दर्शनों में ऐसे आश्वासनों का अभाव है। गीता में वैयक्तिक ईश्वर के प्रति जिस निष्ठा का उद्बोधन है वह सामान्यतया जैन और बौद्ध परम्पराओं में अनुपलब्ध ही है।
उपसंहार
गीता में श्रद्धा या भक्ति अपने आधारों की दृष्टि से चार प्रकार व्यक्तित्व का निर्माण इसी जीवन दृष्टि के आधार पर होता है। गीता की मानी गई हैमें इसी तथ्य को यह कहकर बताया है कि पुरुष जिसकी श्रद्धा जैसी होती है वैसा ही वह बन जाता है। हम अपने को जैसा बनाना चाहते हैं, अपनी जीवन दृष्टि का निर्माण भी उसी के अनुरूप करें। क्योंकि व्यक्ति की जैसी दृष्टि होती है वैसा ही उसका जीवन जीने का ढंग होता है और जैसा उसका जीवन जीने का ढंग होता है वैसा ही उसका चरित्र बन जाता है। और जैसा उसका चरित्र होता है वैसा ही उसके व्यक्तित्व का उभार होता है। अतः एक यथार्थ दृष्टिकोण का निर्माण जीवन की सबसे प्राथमिक आवश्यकता है।
सम्यग्दर्शन अथवा श्रद्धा का जीवन में क्या मूल्य है, इस पर भी विचार अपेक्षित है। यदि हम सम्यग्दर्शन को दृष्टिपरक अर्थ में स्वीकार करते हैं, तो उसका हमारे जीवन में एक महत्त्वपूर्ण स्थान सिद्ध होता है। सम्यग्दर्शन जीवन के प्रति एक दृष्टिकोण है, वह अनासक्त जीवन जीने की कला का केन्द्रीय तत्त्व है। हमारे चरित्र या
२. जिज्ञासा की दृष्टि से परमात्मा पर श्रद्धा रखना। यह श्रद्धा या भक्ति का दूसरा रूप है। इसमें यद्यपि श्रद्धा तो होती है लेकिन वह पूर्णतया संशयरहित नहीं होती जबकि प्रथम स्थिति में होने वाली श्रद्धा पूर्णतया संशयरहित होती है। संशयरहित श्रद्धा तो साक्षात्कार के पश्चात् ही सम्भव है। जिज्ञासा की अवस्था में संशय बना ही रहता है अतः श्रद्धा का यह स्तर प्रथम की अपेक्षा निम्न ही माना गया है।
संदर्भ
१.
३. तीसरे स्तर की श्रद्धा आर्त व्यक्ति की होती है। कठिनाई में फँसा हुआ व्यक्ति जब स्वयं अपने को उससे उबरने में असमर्थ पाता है और २.
दशवैकालिक, ४/११
इसिमासियाई सुतं गहावइज्जं नामज्झयणं
,
.
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जैन साधना का आधार सम्यग्दर्शन
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३. गीता, ३/३६
४३. अंगुत्तरनिकाय, १/१७ ४. इसिभासियाई सुत्तं, २१/३
४४. वही, १०/१२ अंगुत्तरनिकाय, १/१७
४५. मनुस्मृति, ६/७४ संयुत्तनिकाय, २१/३/३/८
४६. वही, १७/३ ७. संयुत्तनिकाय, ४३/३/१
४७. वही, ९/३०-३१ तत्त्वार्थ सर्वार्थसिद्धि टीका-(पूज्यपाद) ८/१
४८. वही, (शां०) १८/१२ ९. मज्झिमनिकाय, चंकिसुत्त उद्धृत महायान, पृ० १२५, ४९. भावपाहुड, १४३ १०. उदान, ६/४
५०. गीता, १७/३ ११. अंगुत्तरनिकाय, १/११
५१. उत्तराध्ययन, २८/१६ १२. गीता, २/४२-४५
५२. विशेषावश्यकभाष्य, २६७५ १३. आचारांग, १/५/१/१४४
५३. देखिए-पंचदशी ६/१७६ उद्धृत-भारतीय-दर्शन, पृ० १२ १४. आचारांग, हिन्दी टीका, प्रथम भाग, पृ० ४०९
५४. वही, (टीका) १४९/९४२ १५. गीता, ४/४०
५५. प्रवचनसारोद्धार (टीका) १४९/९४२ १६. स्थानांग, स्थान १०॥ तुलना कीजिए-अंगुत्तरनिकाय १/१०- ५६. स्थानांगसूत्र, २/१/७० १२
५७. स्टडीज इन जैन फिलासफी, पृ० २६८ १७. अंगुत्तरनिकाय, १/१०-१२
५८. उत्तराध्ययन, २९/१ १८. हिस्ट्री आफ फिलॉसफी (थिली), पृ० २८७
५९. देखिए गोम्मटसार (जीवकाण्ड) गाथा २९ की अंग्रेजी टीका १९. समयसार, २१-२२।
जे० एल० जैन, पृष्ठ २२ २०. उद्धृत-जैन स्टडीज, पृ० १३६
६०. नाटक समयासार, १३/३८ २१.. भारतीय दर्शन, पृ० ३८२-३८३
६१. उत्तराध्ययन, २८/३१ २२. उद्धृत-जैन स्टडीज, पृ० १३२-१३३
६२. आचारांग, १/५/५/१६३ २३. विस्तृत विवेचना के लिए देखिए जैन स्टडीज, पृ० १२६- ६३. मूलाचार, २/५२-५३ १२७ एवं २०१-२१५
६४. रत्नकरण्डक श्रावकाचार, १२ २४. गीता, १८/२१-२२
६५. पुरुषार्थ०, २४ २५. बृहदारण्यकोपनिषद्, ४/४/१९
६६. रत्नकरण्डक श्रावकाचार, १३ २६. ईशावास्योपनिषद्, ६-७
६७. वही, १४ २७. विवेकचूड़ामणि-मायानिरूपण, १११
६८. पुरुषार्थ०, २७ २८. विशेषावश्यकभाष्य, १७८७-९०
६९. रत्नकरण्ड श्रावकाचार १६ २९. अभिधानराजेन्द्र, खण्ड ५, पृष्ठ २४२५
७०. पुरुषार्थ०, ३० ३०. वही, खण्ड ५, पृष्ठ २४२५
७१. आत्मा छे, ते नित्य छे, छे कर्ता निजकर्म। ३१. सम प्राब्लम्स इन जैन साइकोलाजी, पृष्ठ ३२
छे भोक्ता वली मोक्ष छे, मोक्ष उपाय दुधर्म।। ३२. अभि० रा०, खण्ड ५, पृ० २४२५
-आत्मसिद्धि शास्त्र (श्रीमद् राजचन्दभाई) ३३. तत्त्वार्थम१/२
७२. मज्झिमनिकाय, १/५/७ ३४. उत्तराध्ययन २८/३५
७३. वही, १/४/८ ३५. सामायिक सूत्र-सम्यक्त्व पाठ
७४. विसुद्धिग्ग, पृ० (भाग-१) ३६. देखिए स्थानांग, ५/२ उद्धृत-आत्म-साधना संग्रह, पृ० १४३ । ७५. वही, १७/१५ ३७. आवश्यकनियुक्ति, ११६३
७६. वही, १७/२-४ ३८. जैनधर्म का प्राण, पृ० २४
७७. वही, ४/४० ३९. नन्दीसूत्र, १/१२
७८. वही, ७/२१-२३ ४०. उत्तराध्ययन, २८/३०
७९. वही, ७/१६ ४१. आचारांग, १/३/२
८०. वही, १८/६५-६६ ४२. सूत्रकृतांग, १/८/२२-२३
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जैन साधना में ध्यान
भारतीय अध्यात्मवादी परम्परा में ध्यान-साधना का अस्तित्व साथ-साथ जैन और बौद्ध परम्पराओं में मिल जाते हैं। अति प्राचीनकाल से ही रहा है। यहां तक कि अति प्राचीन नगर मोहनजोदड़ो और हड़प्पा से खुदाई में, जो सीलें आदि उपलब्ध हुई हैं, जैन धर्म और ध्यान उनमें भी ध्यानमुद्रा में योगियों के अंकन पाये जाते हैं। इस प्रकार श्रमण परम्परा की निर्ग्रन्थधारा, जो आज जैन परम्परा के नाम ऐतिहासिक अध्ययन के जो भी प्राचीनतम स्रोत हमें उपलब्ध हैं, वे सभी से जानी जाती है, अपने अस्तित्व काल से ध्यान साधना से जुड़ी हुई भारत में ध्यान की परम्परा के अति प्राचीनकाल से प्रचलित होने की है। प्राकृत साहित्य के प्राचीनतम ग्रंथों आचारांग उत्तराध्ययन, ऋषिभाषित पुष्टि करते हैं उनसे यह भी सिद्ध होता है कि भारत में ध्यानमार्ग की (इसिभासियाई) में तो स्पष्ट रूप से कहा गया है कि शरीर में जो स्थान परम्परा प्राचीन है और उसे सदैव ही आदरपूर्ण स्थान प्राप्त रहा है। मस्तिष्क का है, साधना में वही स्थान ध्यान का है। उत्तराध्ययनसूत्र में
श्रमण जीवन की दिनचर्या का विवरण प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि श्रमणधारा और ध्यान
प्रत्येक श्रमणसाधक को दिन और रात्रि के दूसरे प्रहर में नियमित रूप से औपनिषदिक और उसकी सहवर्ती श्रमण परम्पराओं में साधना ध्यान करना चाहिए। आज भी जैन श्रमण को निद्रात्याग के पश्चात्, की दृष्टि से ध्यान का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। औपनिषदिक ऋषिगण भिक्षाचर्या एवं पदयात्रा से लौटने पर गमनागमन एवं मलमुत्र आदि के
और श्रमण-साधक अपनी दैनिक जीवनचर्या में ध्यान-साधना को स्थान विसर्जन के पश्चात् तथा प्रात:कालीन और सायंकालीन प्रतिक्रमण करते देते रहे हैं- यह एक निर्विवाद तथ्य है। तान्त्रिक साधना में ध्यान को जो समय ध्यान करना होता है। उसके आचार और उपासना के साथ स्थान मिला है, वह मूलत: इसी श्रमणधारा की देन है। महावीर और बुद्ध कदम-कदम पर ध्यान की प्रक्रिया जुड़ी हुई है। के पूर्व भी अनेक ऐसे श्रमण साधक थे, जो ध्यान-साधना की विशिष्ट जैन परम्परा में ध्यान का कितना महत्त्व हैं- इसका सबसे बड़ा विधियों के न केवल ज्ञाता थे, अपितु अपने सानिध्य में अनेक साधकों प्रमाण तो यह है कि जैन तीर्थकरों की प्रतिमायें चाहे वे खड्गासन में हो को उन ध्यान-साधना की विधियों का अभ्यास भी करवाते थे। इन या पद्मासन में सदैव ही ध्यानमुद्रा में उपलब्ध होती हैं। आज तक कोई आचार्यों की ध्यान-साधना की अपनी-अपनी विशिष्ट विधियाँ थीं, ऐसे भी जिन-प्रतिमा ध्यान-मुद्रा के अतिरिक्त किसी भी अन्य मुद्रा में उपलब्ध संकेत भी मिलते हैं। बुद्ध अपने साधनाकाल में ऐसे ही एक ध्यानसाधक ही नहीं हुई है। यद्यपि तीर्थंकर या जिन-प्रतिमाओं के अतिरिक्त बुद्ध की श्रमण आचार्य रामपुत्त के पास स्वयं ध्यान-साधना के अभ्यास के लिए भी कुछ प्रतिमायें ध्यानमुद्रा में उपलब्ध हुई हैं किन्तु बुद्ध की अधिकांश गये थे। रामपत्त के संबंध में त्रिपिटक साहित्य में यह भी उल्लेख मिलता प्रतिमायें तो ध्यानेतर मुद्राओं- यथा अभयमुद्रा, वरदमुद्रा और उपदेशमुद्रा है कि स्वयं भगवान् बुद्ध ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् भी अपनी साधना की में ही मिलती हैं। इसी प्रकार शिव की कुछ प्रतिमायें भी घ्यानमुद्रा में उपलब्धियों को बताने हेतु उनसे मिलने के लिए उत्सुक थे, किन्तु तब मिलती हैं- किन्तु नृत्यमुद्रा आदि में भी शिव-प्रतिमायें विपुल परिमाण तक उनकी मृत्यु हो चुकी थी।२ इन्ही रामपुत्त का उल्लेख जैन आगम में उपलब्ध होती हैं। इस प्रकार जहां अन्य परम्पराओं में अपने आराध्य साहित्य में भी आता है। प्राकृत आगमों में सूत्रकृतांग में उनके नाम के देवों की प्रतिमायें ध्यानेतर मुद्राओं में भी बनती रहीं, वहां तीर्थंकर या निर्देश के अतिरिक्त अन्तकृद्दशा ऋषिभाषित५ आदि में तो उनसे जिनप्रतिमायें मात्र ध्यानमुद्रा में भी बनती रहीं। जिनप्रतिमाओं के निर्माण संबंधित स्वतंत्र अध्याय भी रहे थे दुर्भाग्य से अन्तकृद्दशा का वह का दो सहस्त्र वर्ष का इतिहास इस बात का साक्षी है कि कभी भी कोई अध्याय तो आज लुप्त हो चुका है, किन्तु ऋषिभाषित में उनके भी जिन-प्रतिमा/तीर्थंकर प्रतिमा ध्यान-मुद्रा के अतिरिक्त किसी अन्य उपदेशों का संकलन आज भी उपलब्ध है।
मुद्रा में नहीं बनाई गयी। इससे जैन परम्परा में ध्यान का क्या स्थान रहा बुद्ध और महावीर को ज्ञान का जो प्रकाश उपलब्ध हुआ वह है- यह सुस्पष्ट हो जाता है। जैनाचार्यों ने ध्यान को साधना का मस्तिष्क उनकी ध्यान-साधना का परिणाम ही था, इसमें आज किसी प्रकार का माना है। जिस प्रकार मस्तिष्क के निष्क्रिय हो जाने पर मानव जीवन का वैमत्य नहीं है। किन्तु हमारा यह दुर्भाग्य है कि प्राचीन साहित्य में भी कोई अर्थ नहीं रह जाता है उसी प्रकार ध्यान के अभाव में जैन साधना ध्यान-साधना की इन पद्धतियों के विस्तृत विवरण आज उपलब्ध नहीं को कोई अर्थ नही रह जाता हैं। हैं, मात्र यत्र-तत्र विकीर्ण निर्देश ही हमें मिलते हैं। फिर भी जो सूचनायें उपलब्ध हैं, उनके आधार पर इतना तो कहा ही जा सकता है कि घ्यान-साधना की आवश्यकता
औपनिषदिक ऋषिगण और श्रमण साधक अपने आध्यात्मिक विकास के मानव मन स्वभावत: चंचल माना गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में लिए ध्यान-साधना की विभिन्न पद्धतियों का अनुसरण करते थे। उनकी मन को दुष्ट अश्व की संज्ञा दी गई है, जो कुमार्ग में भागता है।१० गीता ध्यान-साधना पद्धतियों के कुछ अवशेष आज भी हमें योग परम्परा के में मन को चंचल बताते हुए कहा गया है कि उसको निगृहीत करना वायु
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को कानयोग (UDHशक्तिमा
जैन साधना में ध्यान
४६३ को रोकने के समान अति कठिन है।११ चंचल मन में विकल्प उठते रहते प्रथमत: मानव मन की गतिशीलता को नियंत्रित कर उसकी हैं- इन्ही विकल्पों के कारण चैतसिक आकुलता या अशान्ति का जन्म गति की दिशा बदलनी होती है। ज्ञान या विवेकरूपी लगाम के द्वारा उस होता है। यह आकुलता ही चेतना में उद्विग्नता या तनाव की उपस्थिति मन रूपी दुष्ट अश्व को कुमार्ग से सन्मार्ग की दिशा में मोड़ा जाता है। की सूचक है, चित्त की यह उद्विग्न या तनावपूर्ण स्थिति ही असमाधि या इससे उसकी सक्रियता एकाएक समाप्त तो नहीं होती, किन्तु उसकी दुःख है। इसी चैतसिक पीड़ा या दुःख से विमुक्ति पाना समग्र आध्यात्मिक दिशा बदल जाती है, ध्यान में भी यही करना होता है। ध्यान में सर्वप्रथम साधना-पद्धतियों का मूलभूत लक्ष्य है। इसे ही निर्वाण या मुक्ति कहा मन को वासना रूपी विकल्पों से मोड़कर धर्म-चिन्तन में लगाया जाता गया है।
है। अन्त में एक ऐसी स्थिति आ जाती है जब मन पूर्णतः निष्क्रिय हो, मनुष्य में दुःख-विमुक्ति की भावना सदैव ही रही है। यह उसकी भागदौड़ समाप्त हो जाती है। ऐसा मन, मन न रहकर 'अमन' हो स्वाभाविक है, आरोपित नहीं है। क्योंकि कोई भी व्यक्ति तनाव या जाता है। मन हो 'अमन' बना देना ही ध्यान है। उद्विग्नता की स्थिति में जीना नहीं चाहता है। उद्विग्नता चेतना की इस प्रकार चैतसिक तनावों या विक्षोभों को समाप्त करने के विभावदशा है। विभावदशा से स्वभाव में लौटना ही साधना है। पूर्व या लिए अथवा निर्विकल्प और शान्त चित्त-दशा की उपलब्धि के लिए पश्चिम की सभी अध्यात्मप्रधान साधना-विधियों का लक्ष्य यही रहा है कि ध्यान-साधना आवश्यक है। उसके द्वारा संकल्प-विकल्पों में विभक्त चित्त चित्त को आकुलता, उद्विग्नता या तनावों से मुक्त करके, उसे निराकुल, को केन्द्रित किया जाता है। विविध वासनाओं आकांक्षाओं और इच्छाओं अनुद्विग्नता या तनावों से मुक्त करके, उसे निराकुल, अनुद्विग्न चित्तदशा के कारण चेतना-शक्ति अनेक रूपी में विखण्डित होकर स्वत: में ही या समाधिभाव में स्थित किया जाये। इसलिये साधना-विधियों का लक्ष्य संघर्षशील हो जाती है।१५ उस शक्ति का यह बिखराव ही हमारा निर्विकार और निर्विकल्प समतायुक्त चित्त की उपलब्धि ही है इसे ही आध्यात्मिक पतन है। ध्यान इस चैतसिक विघटन को समाप्त कर चेतना समाधि-सामायिक (प्राकृत-समाहि) कहा गया है। ध्यान इसी समाधि या को केन्द्रित करता है। चूंकि वह विघटित चेतना को संगठित करता है निर्विकल्प चित्त की उपलब्धि का अभ्यास है। यही कारण है कि वे सभी इसलिए वह योग (Unifications) है। ध्यान चेतना के संगठन की साधना-पद्धतियाँ जो व्यक्ति को को अनुद्विग्न, निराकुल, निर्विकार और कला है। संगठित चेतना ही शक्तिस्रोत हैं, इसीलिए यह माना जाता है निर्विकल्प या दूसरे शब्दों में समत्वयुक्त बनाना चाहती हैं, ध्यान को कि ध्यान से अनेक आत्मिक लब्धियों या सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। अपनी साधना में अवश्य स्थान देती हैं।
चित्तधारा जब वासनाओं, आकाक्षाओं, के मार्ग से बहती है
तो वह वासनाओं, आकांक्षाओं इच्छाओं की स्वाभाविक बहुविधता के ध्यान का स्वरूप एवं प्रक्रिया
कारण अनेक धाराओं में विभक्त होकर निर्बल हो जाती है। ध्यान इन जैनाचार्यों ने ध्यान को 'चित्तनिरोध' कहा है।१२ चित्त का विभक्त एवं निर्बल चित्तधारा एक दिशा में मोड़ने का प्रयास है। जब निरोध हो जाना ध्यान है। दूसरे शब्दों में यह मन की चंचलता को ध्यान की साधना या अभ्यास से चित्तधाराओं को एक दिशा में बहने समाप्त करने का अभ्यास है। जब ध्यान सिद्ध हो जाता है तो चित्त की लगती है, तो न केवल वह सबल होती है, अपितु नियंत्रित होने से चंचलता स्वत: ही समाप्त हो जाती है। योगदर्शन में 'योग' को परिभाषित उसकी दिशा भी सम्यक् होती है। जिस प्रकार बांध विकीर्ण जलधाराओं करते हुए भी कहा गया है कि चित्तवृत्ति का निरोध ध्यान से ही सम्भव को एकत्रित कर उन्हें सबल और सुनियोजित करता है। जिस प्रकार बांध है। अत: ध्यान को साधना का आवश्यक अंग माना गया है। द्वारा सुनियोजित जल-शक्ति का सम्यक् उपयोग सम्भव हो पाता है उसी
गीता में मन की चंचलता के निरोध को वायु को रोकने के प्रकार ध्यान द्वारा सुनियोजित चेतनशक्ति का सम्यक् उपयोग सम्भव है। समान अति कठिन माना गया है।१३ उसमें उसके निरोध के दो उपाय संक्षेप में आत्मशक्ति के केन्द्रीकरण एवं उसे सम्यक् दिशा में बताये गये हैं- १. अभ्यास, २. वैराग्य। उत्तराध्ययन में मन रूपी दुष्ट नियोजित करने के लिए ध्यान-साधना आवश्यक है। वह चित्त वृत्तियों अश्व को निगृहीत करने के लिए श्रुत रूपी रस्सियों का प्रयोग आवश्यक की निरर्थक भागदौड़ को समाप्त कर हमें मानसिक विक्षोभों एवं विकारों बताया गया है।१४ चंचल चित्त की संकल्प-विकल्पात्मक तरंगें या से मुक्त रखता है। परिणामत: वह आध्यात्मिक शान्ति और निर्विकल्प वासनाजन्य आवेग सहज ही समाप्त नहीं हो जाते हैं। पहले उनकी भाग- चित्त की उपलब्धि का अन्यतम साधन है। दौड़ को समाप्त करना होता है। किन्तु यह वासनोन्मुख सक्रिय-मन या विक्षोभित चित्त निरोध के संकल्प मात्र से नियन्त्रित नहीं हो पाता है। पुन: ध्यान के पारम्परिक लाभ यदि उसे बलात् रोकने का प्रयत्न किया जाता है तो वह अधिक विक्षुब्ध ध्यानशतक (झाणाज्झयन) में ध्यान से होने वाले पारम्परिक होकर मुनष्य को पागलपन के कगार पर पहुँचा देता है, जैसे तीव्र गति एवं व्यावहारिक लाभों की विस्तृत चर्चा हैं। उसमें कहा गया हैं कि धर्म से चलते हुए वाहन को यकायक रोकने का प्रयत्न भयंकर दुर्घटना का ध्यान से शुभास्रव, संवर, निर्जरा और देवलोक के सुख प्राप्त होते हैं। ही कारण बनता है, उसी प्रकार चित्त की चंचलता का एकाएक निरोध शुक्ल ध्यान के भी प्रथम दो चरणों का परिणाम शुभास्रव एवं अनुत्तर विक्षिप्तता का कारण बनता है।
देवलोक के सुख हैं, जबकि शुक्ल ध्यान के अन्तिम दो चरणों का फल
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
मोक्ष या निर्वाण है। यहां यह स्मरण रखने योग्य है कि जब तक ध्यान ध्यान के व्यावहारिक लाभ में विकल्प है, आकांक्षा है, चाहे वह प्रशस्त ही क्यों न हों, तब तक वह आचार्य भद्रबाहु ने कायोत्सर्ग, जो ध्यान-साधना की अग्रिम शुभास्रव का कारण तो होगा ही। फिर भी यह शुभास्रव मिथ्यात्व के स्थिति है, के लाभों की चर्चा करते हुए आवश्यकनियुक्ति में लिखा है अभाव के कारण संसार की अभिवृद्वि का कारण नही बनता है।१६ कि कायोत्सर्ग के निम्न पांच लाभ हैं-२२ १. देह जाड्य शुद्धि- श्लेष्म
पुनः ध्यान के लाभों की चर्चा करते हुए उसमें कहा गया है एवं चर्बी के कम हो जाने से देह की जड़ता समाप्त हो जाती है। कि जिस प्रकार जल वस्त्र के मल को धोकर उसे निर्मल बना देता है, कायोत्सर्ग से श्लेष्म, चर्बी आदि नष्ट होते हैं, अत: उनसे उत्पन्न होने उसी प्रकार ध्यानरूपी जल आत्मा के कर्मरूपी मल को धोकर उसे वाली जड़ता भी नष्ट हो जाती है। २. मति जाड्य शुद्धि- कायोत्सर्ग में निर्मल बना देता है। जिस प्रकार अग्नि लोहे के मैल को दूर कर देती मन की वृत्ति केन्द्रित हो जाती है, उससे बौद्धिक जड़ता क्षीण होती है। है,१७ जिस प्रकार वायु से प्रेरित अग्नि दीर्घकाल से संचित काष्ठ को ३. सुख-दुःख तितिक्षा (समताभाव) ४. कायोत्सर्ग में स्थित व्यक्ति जला देती है, उसी प्रकार ध्यानरूपी वायु से प्रेरित साधनारूपी अग्नि अनुप्रेक्षाओं या भावनाओं का स्थिरतापूर्वक अभ्यास कर सकता है। ५. पूर्वभवों के संचित कर्म संस्कारों को नष्ट कर देती है। उसी प्रकार ध्यान कायोत्सर्ग में शुभ ध्यान का अभ्यास सहज हो जाता है। इन लाभों ध्यानरूपी अग्नि आत्मा पर लगे हुए कर्मरूपी मल को दूर कर देती में न केवल आध्यात्मिक लाभों की चर्चा है अपितु मानसिक और है।१८ जिस प्रकार वायु से ताडित मेघ शीघ्र ही विलीन हो जाते हैं शारीरिक लाभों की भी चर्चा है। वस्तुत: ध्यान-साधना की वह कला है उसी प्रकार ध्यानरूपी वायु से ताडित कर्मरूपी मेघ शीघ्र विलीन हो जो न केवल चित्त की निरर्थक भाग-दौड़ को नियंत्रित करती है, अपितु जाते हैं।१९ संक्षेप में ध्यान-साधना से आत्मा, कर्मरूपी मल एवं वाचिक और कायिक (दैहिक) गतिविधियों को भी नियंत्रित कर व्यक्ति आवरण से मुक्त होकर अपनी शुद्ध निर्विकार ज्ञाता-द्रष्टा अवस्था को को अपने आप से जोड़ देती है। हमें एहसास होता है कि हमारा अस्तित्व प्राप्त हो जाता है।
चैतसिक और दैहिक गतिविधियों से भी ऊपर है और हम उनके केवल
साक्षी हैं, अपितु नियामक भी हैं। ध्यान और तनावमुक्ति
ध्यान-आत्मसाक्षात्कार की कला ध्यान के इस चार अलौकिक या आध्यात्मिक लाभों के मनुष्य के लिये, जो कुछ भी श्रेष्ठतम और कल्याणकारी है, अतिरिक्त ग्रन्थकार ने उसके ऐहिक, मनोवैज्ञानिक लाभों की भी चर्चा वह स्वयं अपने को जानना और अपने में जीना है। आत्मबोध से की है, वह कहता है कि जिसका चित्त ध्यान में संलग्न है, वह महत्त्वपूर्ण एवं श्रेष्ठतम अन्य कोई बोध है ही नहीं। आत्मसाक्षात्कार या क्रोधादि कषायों से उत्पन्न होने वाले ईर्ष्या, विषाद, आदि मानसिक आत्मज्ञान भी साधना का सारतत्त्व है। साधना का अर्थ है अपने आप के दुःखों से पीड़ित नहीं होता है।२० ग्रन्थकार के इस कथन का रहस्य प्रति जागना। वह 'कोऽहं' से 'सोऽहं' तक की यात्रा है। साधना की इस यह है कि जब ध्यान में आत्मा अप्रमत्त चेता होकर ज्ञाता-द्रष्टा भाव यात्रा में अपने आप के प्रति जागना सम्भव होता है। ध्यान में ज्ञाता में स्थिति होता है, तो उस अप्रमत्तता की स्थिति में न तो कषाय ही अपनी ही वृत्तियों, भावनाओं, आवेगों और वासनाओं को ज्ञेय बनाकर क्रियाशील होते हैं और न उनसे उत्पन्न ईर्ष्या, द्वेष, विषाद आदि भाव वस्तुत: अपना ही दर्शन करता है। यद्यपि यह दर्शन तभी संभव होता है, ही उत्पन्न होते हैं। ध्यानी व्यक्ति पूर्व संस्कारों के कारण उत्पन्न होने जब हम इनका अतिक्रमण कर जाते हैं, अर्थात्, इनके प्रति कर्ताभाव से वाले कषायों के विपाक को मात्र देखता है, किन्तु उन भावों में मुक्त होकर साक्षी भाव जगाते हैं। अत: ध्यान आत्मा के दर्शन की कला परिणित नहीं होता है। अत: काषायिक भावों की परिणति नहीं होने है। ध्यान ही वह विधि है, जिसके द्वारा हम सीधे अपने ही सम्मुख होते से उसके चित्त के मानसिक तनाव समाप्त हो जाते हैं। ध्यान मानसिक हैं, इसे ही आत्मसाक्षात्कार कहते हैं। ध्यान जीव में 'जिन' का, आत्मा तनावों से मुक्ति का अन्यतम साधन है। ध्यानशतक (झाणाज्झयण) से परमात्मा का दर्शन कराता है। के अनुसार ध्यान से न केवल आत्माविशुद्धि और मानसिक तनावों ध्यान की इस प्रक्रिया में आत्मा के द्वारा परमात्मा (शुद्धात्मा) से मुक्ति मिलती है, अपितु शारीरिक पीड़ायें भी कम हो जाती हैं। के दर्शन के पूर्व सर्वप्रथम तो हमें अपने 'वासनात्मक स्व' (id) का उसमें लिखा है कि जो चित्त ध्यान में अतिशय स्थिरता प्राप्त कर साक्षात्कार होता है- दूसरे शब्दों में हम अपने ही विकारों और वासनाओं चुका है, वह शीत, उष्ण आदि शारीरिक दुःखों से भी विचलित नहीं के प्रति जगाते हैं। जागरण के इस प्रथम चरण में हमें उनकी विद्रूपता का होता है। उन्हें निराकुलतापूर्वक सहन कर लेता है।२१ यह हमारा बोध होता है। हमें लगता है कि ये हमारे विकार भाव हैं- विभाग हैं, व्यावहारिक अनुभव है कि जब हमारी चित्तवृत्ति किसी विशेष दिशा क्योंकि हममें ये 'पर' के निमित्त से होते हैं। यही विभाव दशा का बोध में केन्द्रित होती है तो हम शारीरिक पीड़ाओं को भूल जाते हैं; जैसे साधना का दूसरा चरण है। साधना के तीसरे चरण में साधक विभाग से एक व्यापारी व्यापार में भूख-प्यास आदि को भूल जाता है। अतः रहित शुद्ध आत्मदशा की अनुभूति करता है- यही परमात्म दर्शन है, ध्यान में दैहिक पीड़ाओं का एहसास भी अल्पतम हो जाता है। स्वभावदशा में रमण है। यहां यह विचारणीय है कि ध्यान इस आत्मदर्शन
में कैसे सहायक होता है?
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जैन साधना में ध्यान
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ध्यान में शरीर को स्थिर रखकर आंख बन्द करनी होती है। सूत्र में कहा गया है "आत्मा तप से परिशुद्ध होती है।२४ सम्यक्-ज्ञान जैसे ही आंख बन्द होती है-व्यक्ति का सम्बन्ध बाह्य जगत् से टूटकर से वस्तु स्वरूप का यथार्थ बोध होता है। सम्यग्रदर्शन से तत्त्व-श्रद्धा अन्तर्जगत् से जुड़ता है, अन्तर का परिदृश्य सामने आता है, अब उत्पन्न होती है। सम्यग्चारित्र आस्रव का निरोध करता है। किन्तु इन हमारी चेतना का विषय बाह्य वस्तुएं न होकर मनोसृजनाएं होती हैं। जब तीनों से भी मुक्ति सम्भव नहीं होती, मुक्ति का अन्तिम कारण तो निर्जरा व्यक्ति इस मनोसृजनाओं (संकल्प-विकल्पों) का द्रष्टा बनता है, उसे है। सम्पूर्ण कर्मों की निर्जरा हो जाना ही मुक्ति है और कर्मों की तप से एक ओर इनकी पर-निमित्तता (विभावरूपता) का बोध होता है तथा ही निर्जरा होती है। अत: ध्यान तप का एक विशिष्ट रूप है, जो दूसरी ओर अपने साक्षी स्वरूप का बोध होता है। आत्मा-अनात्म का आत्मशुद्धि का अन्यतम कारण है। विवेक या स्व-पर के भेद का ज्ञान होता है। कर्ता-भोक्ता भाव के विकल्प
वैसे यह भी कहा जाता है कि आत्मा व्युपरत क्रिया निवृत्ति क्षीण होने लगते हैं। एक निर्विकल्प आत्म-दशा की अनुभूति होती है। नामक शुक्ल ध्यान में आरूढ़ होकर ही मुक्ति को प्राप्त होता है। अत: दूसरे शब्दों में मन की भाग-दौड़ समाप्त हो जाती है। मनोसृजनाएं या हम यह कह सकते हैं कि जैन साधना-विधि में ध्यान मुक्ति का अन्तिम संकल्प-विकल्प विलीन होने लगते हैं। चेतना की सभी विकलताएं कारण है। ध्यान एक ऐसी अवस्था है जब आत्मा पूर्ण रूप से 'स्व' में समाप्त हो जाती हैं। मन आत्मा में विलीन हो जाता है। सहज-समाधि स्थिति होती है और आत्मा का 'स्व' में स्थित होना ही मुक्ति या निर्वाण प्रकट होती है। इस प्रकार आकांक्षाओं, वासनाओं, संकल्प-विकल्पों एवं की अवस्था है। अत: ध्यान ही मुक्ति बन जाता है। तनावों से मुक्त होने पर एक अपरिमित निरपेक्ष आनन्द की उपलब्धि
योग दर्शन में ध्यान को समाधि का पूर्ण चरण माना गया है। होती है, आत्मा अपने चिदानन्द स्वरूप में लीन रहता है। इस प्रकार उसमें भी ध्यान से ही समाधि की सिद्धि होती है। ध्यान जब अपनी ध्यान आत्मा को परमात्मा या शुद्धात्मा से जोड़ता है। अत: वह पूर्णता पर पहुंचता है तो वही समाधि बन जाता है। ध्यान की इस आत्मसाक्षात्कार या परमात्मा के दर्शन की एक कला है।
निर्विकल्प दशा को न केवल जैन दर्शन में, अपितु सम्पूर्ण श्रमण
परम्परा में और न केवल सम्पूर्ण श्रमण परम्परा में अपितु सभी धर्मों की ध्यान मुक्ति का अन्यतम कारण
साधन-विधियों में मुक्ति का अंतिम उपाय माना गया है। जैन धर्म में ध्यान मुक्ति का जन्म कारण माना जा सकता है योग चाहे चित्त वृत्तियों के निरोध में निर्विकल्प समाधि हो या जैन दार्शनिकों ने आध्यात्मिक विकास को जिन १४ सोपानों (गुणस्थानों) आत्मा को परमात्मा से जोड़ने की कला हो, वह ध्यान ही है। का उल्लेख किया है, उनमें अन्तिम गुणस्थान को अयोगी केवली गुणस्थान कहा गया है। अयोगी केवली गुणस्थान वह अवस्था है जिसमें ध्यान और समाधि वीतराग-आत्मा अपने काययोग, वचनयोग, मनोयोग अर्थात् शरीर, सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक में समाधि के स्वरूप को वाणी और मन की गतिविधियों का निरोध कर लेता है और उनके निरुद्ध स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार कोष्ठागार में लगी हुई आग होने पर वह मुक्ति या निर्वाण को प्राप्त कर लेता है। यह प्रक्रिया सम्भव को शान्त करना आवश्यक है, उसी प्रकार मुनिजीवन के शीलव्रतों में है शुक्लध्यान के चतुर्थ चरण व्युपरत क्रिया निवृत्ति के द्वारा। अत: ध्यान लगी हुई वासना या आकांक्षारूपी अग्नि का प्रशमन करना भी आवश्यक मोक्ष का अन्यतम् कारण है। जैन परम्परा में ध्यान में स्थित होने के पूर्व है। यही समाधि है।२५ धवला में आचार्य वीरसेन ने ज्ञान, दर्शन और जिन पदों का उच्चारण किया जाता है, वे निम्न हैं
चारित्र में सम्यक् अवस्थिति को ही समाधि कहा है।२६ वस्तुत: चित्तवृत्ति ठाणेणं मोणेणं झाणेणं अप्पाणं वोसिरामि२३
का उद्वेलित होना ही असमाधि है और उसकी इस उद्विग्नता का समाप्त अर्थात् “मैं शरीर से स्थिर होकर, वाणी से मौन होकर, मन हो जाना ही समाधि है। उदाहरण के रूप में जब वायु के संयोग से जल को ध्यान में नियोजित कर शरीर के प्रति ममत्व का परित्याग करता हूँ।" तरंगायित होता है तो उस तरंगित जल में रही हुई वस्तुओं का बोध नहीं यहां हमें स्मरण रखना चाहिए कि 'अप्पाणं वोसिरामि' का अर्थ, आत्मा होता, उसी प्रकार तनावयुक्त उद्विग्न चित्त में आत्मा के शुद्ध स्वरूप का का विसर्जन करना नहीं है, अपितु देह के प्रति अपनेपन के भाव का साक्षात्कार नहीं होता है। चित्त की इस उद्विग्नता का या तनावयुक्त स्थिति विसर्जन करना है। क्योंकि विसर्जन या परित्याग आत्मा का नहीं अपनेपन का समाप्त होना ही समाधि है। ध्यान भी वस्तुत: चित्त की वह निष्पकम्प के भाव अर्थात् ममत्वबुद्धि का होता है। जब कायिक, वाचिक और अवस्था है जिसमें आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप का साक्षी होता है। वह मानसिक क्रियाओं पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित हो जाता है, तभी ध्यान की चित्त की समत्वपूर्ण स्थिति है। अत: ध्यान और समाधि समानार्थक हैं; सिद्धि होती है और जब ध्यान सिद्ध हो जाता है तो आत्मा अयोगदशा फिर भी दोनों में एक सूक्ष्म अन्तर है। वह अन्तर इस रूप में है कि ध्यान अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। अतः यह स्पष्ट है कि ध्यान मोक्ष का समाधि का साधन है और समाधि साध्य है। योगदर्शन के अष्टांग योग अन्यतम कारण है।
में समाधि के पूर्ण चरण ध्यान माना गया है। ध्यान जब सिद्ध हो जाता जैन परम्परा में ध्यान आन्तरिक तप का एक प्रकार है। इस है, तब वह समाधि बन जाता है। वस्तुत: दोनों एक ही हैं।२७ ध्यान की आन्तरिक तप को आत्माविशुद्धि का कारण माना गया है। उत्तराध्ययन पूर्णता समाधि में है। यद्यपि दोनों में ही चित्तवृत्ति की निष्पकंपता या
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
समत्व की स्थिति आवश्यक है। एक में उस निष्पकम्पता या समत्व का अर्थात देह-त्याग। लेकिन जब तक जीवन है तब तक शरीर का त्याग अभ्यास होता है और दूसरे में वह अवस्था सहज हो जाती है। तो संभव नहीं है। अत: कायोत्सर्ग का मतलब है- देह के प्रति ममत्व का
त्याग, दूसरे शब्दों में शारीरिक गतिविधियों का कर्ता न बनकर द्रष्टा बन ध्यान और योग
जाना। वह शरीर की मात्र ऐच्छिक गतिविधियों का नियन्त्रण है। शारीरिक यहां ध्यान का योग से क्या संबंध है? यह भी विचारणीय है। गतिविधियां भी दो प्रकार ही होती हैं-एक स्वचालित और दूसरी ऐच्छिक। जैन परम्परा में सामान्यतया मन, वाणी और शरीर की गतिशीलता को कायोत्सर्ग में स्वचालित गतिविधियों का नहीं, अपितु ऐच्छिक गतिविधियों योग कहा जाता है।२८ उसके अनुसार सामान्य रूप से समग्र साधना का नियन्त्रण किया जाता है। कायोत्सर्ग करने से पूर्ण जो आगारसूत्र का
और विशेष रूप से ध्यान-साधना का प्रयोजन योग-निरोध ही है। पाठ बोला जाता है उसमें श्वसन-प्रक्रिया, छींक, जम्हाई आदि स्वचालित वस्तुतः मानसिक, वाचिक और शारीरिक क्रियाओं में जिन्हें जैन परम्परा शारीरिक गतिविधियों के निरोध नहीं करने का भी स्पष्ट उल्लेख है।३२ में योग कहा गया है, मन की प्रधानता होती है। वाचिक योग और अत: कायोत्सर्ग ऐच्छिक शारीरिक गतविधियों के निरोध का प्रयत्न है। कायिकयोग, मनोयोग पर ही निर्भर करते हैं। जब मन की चंचलता यद्यपि ऐच्छिक गतिविधियों का केन्द्र मानवीय मन अथवा चेतना ही है। समाप्त होती है तो सहज ही शारीरिक और वाचिक-क्रियाओं में शैथिल्य अत: कायोत्सर्ग की प्रक्रिया ध्यान की प्रक्रिया के साथ अपरिहार्य रूप से आ जाता है, क्योंकि उनके मूल में व्यक्त या अव्यक्त मन ही है। अतः जुड़ी हुई है। मन की सक्रियता के निरोध से ही योग-निरोध संभव है। योग दर्शन भी, एक अन्य दृष्टि से कायोत्सर्ग को देह के प्रति निर्ममत्व की जो योग पर सर्वाधिक बल देता है, यह मानता है कि चित्तवृत्तियों का साधना भी कहा जा सकता है। वह देह में रहकर भी कर्ताभाव से उपर निरोध ही योग है।२९ वस्तुत: जहां चित्त की चंचलता समाप्त होती है, उठकर द्रष्टाभाव में स्थित होना है। यह भी स्पष्ट है कि चित्तवृत्तियों के वहीं साधना की पूर्णता है और वही पूर्णता ध्यान है। चित्त की चंचलता विचलन में शरीर भी एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। हम शरीर अथवा मन की भाग दौड़ को समाप्त करना ही जैन साधना और योग और इन्द्रियों के माध्यम से ही बाह्य विषयों से जुड़ते हैं और उनकी साधना दोनों का लक्ष्य है। इस दृष्टि से देखें तो जैन दर्शन में ध्यान की अनुभूति करते हैं इस अनुभूति का अनुकूल या प्रतिकूल प्रभाव हमारी जो परिभाषा दी जाती है वही परिभाषा योग दर्शन में योग की दी जाती चित्तवृत्ति पर पड़ता है, जो चित्त विचलन का या राग-द्वेष का कारण है। इस प्रकार ध्यान और योग पर्यायवाची बन जाते हैं।
होता है। 'योग' शब्द का एक अर्थ जोड़ना (Unification) भी है।३० इस दृष्टि से आत्मा को परमात्मा से जोड़ने की कला को योग कहा गया चित्त (मन) और ध्यान है और इसी अर्थ से योग को मुक्ति का साधन माना गया है। अपने इस
जैन दर्शन में मन की चार अवस्थाएं- जैन, बौद्ध और दूसरे अर्थ में भी योग शब्द ध्यान का समानार्थक ही सिद्ध होता है, वैदिक परम्पराओं में चित्त या मन ध्यान-साधना की आधारभूमि है, अत: क्योंकि ध्यान ही साधक को अपने में ही स्थित परमात्मा (शुद्धात्मा) या चित्त की विभिन्न अवस्थाओं पर व्यक्ति के ध्यान-साधना के विकास को मुक्ति से जोड़ता है। वस्तुत: जब चित्तवृत्तियों की चंचलता समाप्त हो आँका जा सकता है। जैन परम्परा में आचार्य हेमचन्द्र ने मन की चार जाती है, चित्त प्रशान्त और निष्पकम्प हो जाता है, तो वही ध्यान होता अवस्थाएँ मानी हैं- १. विक्षिप्त मन, २. यातायात मन, ३. श्लिष्ट मन है, वही समाधि होता है और उसे ही योग कहा जाता है। किन्तु जब और ४. सुलीन मन।३३ । कार्य-कारण भाव अथवा साध्य-साधना की दृष्टि से विचार करते हैं, तो १. विक्षिप्त मन- यह मन की अस्थिर अवस्था है, इसमें ध्यान साधना होता है, समाधि साध्य होती है। साधन से साध्य की चित्त चंचल होता है, इधर-उधर भटकता रहता है, इसके आलम्बन उपलब्धि ही योग कही जाती है।
प्रमुखतया बाह्य विषय ही होते हैं, इसमें संकल्प-विकल्प या विचारों की
भाग-दौड़ मची रहती है, अतः इस अवस्था में मानसिक शान्ति का ध्यान और कायोत्सर्ग
अभाव होता है। यह चित्त पूरी तरह बहिर्मखी होती है। जैन साधना में तप के वर्गीकरण में आभ्यन्तर तप के जो छ: प्रकार बतलाए गये हैं, उनमें ध्यान और कायोत्सर्ग इन दोनों का अलग- जाता है तो कभी अपने में स्थिर होने का प्रयत्न करता है। यह योगाभ्यास अलग उल्लेख किया गया है।३१ इसका तात्पर्य यह है कि जैन आचार्यों के प्रारम्भ की अवस्था है। इस अवस्था में चित्त अपने पूर्वाभ्यास के की दृष्टि से ध्यान और कायोत्सर्ग दो भिन्न-भिन्न स्थितियाँ हैं। ध्यान कारण बाहरी विषयों की ओर दौड़ता रहता है, वैसे थोड़े बहुत प्रयत्न से चेतना को किसी विषय पर केन्द्रित करने का अभ्यास है तो कायोत्सर्ग उसे स्थिर कर लिया जाता है। कुछ समय उस पर स्थिर रहकर पुन: बाह्य शरीर के नियन्त्रण का एक अभ्यास। यद्यपि यहाँ काया (शरीर) व्यापक विषयों के संकल्प-विकल्प में उलझ जाता है। जब-जब कुछ स्थिर होता अर्थ में गृहीत है। स्मरण रहे कि मन और वाक् ये शरीर के आश्रित ही है तब मानसिक शान्ति एवं आनन्द का अनुभव करने लगता है। हैं। शाब्दिक दृष्टि से कायोत्सर्ग शब्द का अर्थ होता है 'काया' का उत्सर्ग यातायात चित्त कथंचित् अन्तर्मुखी और कथंचित् बहिर्मुखी होता है।
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जैन साधना में ध्यान
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३. श्लिष्ट मन- यह मन की स्थिरता की अवस्था है। इस या ध्यान की अवस्था है। इस अवस्था में चित्त किसी विषय पर विचार अवस्था में चित्त की स्थिरता का आधार या आलम्बन विषय होता है। या ध्यान करता रहता है। इसलिए इसमें भी सभी चित्तवृत्तियों का निरोध इसमें जैसे-जैसे स्थिरता आती है, आनन्द भी बढ़ता जाता है। नहीं होता, तथापि यह योग की पहली सीढ़ी है। ४. सलीन मन- यह मन की वह अवस्था है जिसमें संकल्प-
५. निरुद्ध चित्त- इस अवस्था में चित्त की सभी वत्तियों का विकल्प एवं मानसिक वृत्तियों का लय हो जाता है। इसको मन की (ध्येय विषय तक का भी) लोप हो जाता है और चित्त अपनी स्वाभाविक निरुद्धावस्था भी कहा जा सकता है। यह परमानन्द है, क्योंकि इसमें स्थिर शांत अवस्था में आ जाता है। सभी वासनाओं का विलय हो जाता है।
- जैन, बौद्ध और योग दर्शन में मन की इन विभिन्न अवस्थाओं बौद्ध दर्शन में चित्त की चार अवस्थाएँ- अभिधम्मत्थसंगहो के नामों में चाहे अन्तर हो, लेकिन उनके मूलभूत दृष्टिकोण में कोई के अनुसार बौद्ध दर्शन में भी चित्त (मन) चार प्रकार का है- १. अन्तर नहीं है, जैसा कि निम्न तालिका से स्पष्ट है। कामावचर, २. रूपावचर, ३. अरूपावचर और ४. लोकोत्तर।३४ १. कामावचर चित्त- यह चित्त की वह अवस्था है जिसमें जैन दर्शन बौद्ध दर्शन
योग दर्शन कामनाओं और वासनाओं का प्राधान्य होता है। इसमें वितर्क एवं विचारों विक्षिप्त
कामावचर
क्षिप्त एवं मूढ़ की अधिकता होती है। मन सांसारिक भोगों के पीछे भटकता रहता है। यातायात
रूपावचर
विक्षिप्त २. रूपावचर चित्त- इस अवस्था में वितर्क-विचार तो होते श्लिष्ट
अरूपावचर
एकाग्र हैं, लेकिन एकाग्रता का प्रयत्न भी होता है। चित्त का आलम्बन बाह्य सुलीन
लोकोत्तर
निरुद्ध स्थूल विषय ही होते हैं। यह योगाभ्यासी चित्त की प्राथमिक अवस्था है। जैन दर्शन का विक्षिप्त मन, बौद्ध दर्शन का कामावचर चित्त
३. अरूपावचर चित्त- इस अवस्था में चित्त का आलम्बन और योगदर्शन के क्षिप्त और मूढ़ चित्त समानार्थक हैं, क्योंकि सभी के रूपवान बाह्य पदार्थ नहीं है। इस स्तर पर चित्त की वृत्तियों में स्थिरता अनुसार इस अवस्था में चित्त में वासनाओं एवं कामनाओं की बहुलता होती है लेकिन उसकी एकाग्रता निर्विषय नहीं होती। उसके विषय होती है। इसी प्रकार जैन दर्शन का यातायात मन, बौद्ध दर्शन का अत्यन्त सूक्ष्म जैसे अनन्त आकाश, अनन्त विज्ञान या अकिंचनता रूपावचर चित्त और योग दर्शन का विक्षिप्त चित्त भी समानार्थक हैं, होते हैं।
सामान्यतया सभी के अनुसार इस अवस्था में चित्त में अल्पकालिक ४. लोकोत्तर चित्त- इस अवस्था में वासना-संस्कार, राग- स्थिरता होती है तथा वासनाओं के वेग में थोड़ी कमी अवश्य हो जाती द्वेष एवं मोह का प्रहाण हो जाता है। चित्त विकल्पशून्य हो जाता है। इस है। इसी प्रकार जैन दर्शन का श्लिष्ट मन, बौद्ध दर्शन का अरूपावचर अवस्था की प्राप्ति कर लेने पर निश्चित रूप से अर्हत् पद एवं निर्वाण की चित्त और योग दर्शन का एकाग्रचित भी समान ही है। सभी ने इसको प्राप्ति हो जाती है।
मन की स्थिरता की अवस्था कहा है। चित्त की अन्तिम अवस्था जिसे योग दर्शन में चित्त की पाँच अवस्थाएँ- योगदर्शन में जैन दर्शन में सुलीन मन, बौद्ध दर्शन में लोकोत्तर चित्त और योग दर्शन चित्तभूमि (मानसिक अवस्था) के पाँच प्रकार हैं। १. क्षिप्त, २. मूढ़, ३. में निरुद्ध चित्त कहा गया है, समान अर्थ के द्योतक हैं। इसमें वासना, विक्षिप्त, ४. एकाग्र और ५. निरुद्धा३५ ।।
संस्कार एवं संकल्प-विकल्प का पूर्ण अभाव हो जाता है। ध्यान-साधना १. क्षिप्त चित्त- इस अवस्था में चित्त रजोगुण के प्रभाव में का लक्ष्य चित्त की इस वासना संस्कार एवं संकल्प-विकल्प से रहित रहता है और एक विषय से दूसरे विषय पर दौड़ता रहता है। स्थिरता अवस्था को प्राप्त करना है। आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं कि क्रम से नहीं रहती है। यह अवस्था योग के अनुकूल नहीं है क्योंकि इसमें मन अभ्यास बढ़ाते हुए अर्थात् विक्षिप्त से यातायात चित्त का, यातायात से और इन्द्रियों पर संयम नहीं रहता।
श्लिष्ट का और श्लिष्ट से सुलीन चित्त का अभ्यास करना चाहिए। इस २. मूढ़ चित्त- इस अवस्था में तन की प्रधानता रहती है और तरह अभ्यास करने से निरालम्बन ध्यान होने लगता है। निरालम्बन इसमें निद्रा, आलस्य आदि का प्रादुर्भाव होता है। निद्रावस्था में चित्त की ध्यान से समत्व प्राप्त करके परमानन्द का अनुभव करना चाहिए। योगी वृत्तियों का कुछ काल के लिए तिरोभाव हो जाता है, परन्तु यह अवस्था को चाहिए कि वह बहिरात्मभाव का त्याग करके अन्तरात्मा के साथ योगावस्था नहीं है, क्योंकि इसमें आत्मा साक्षी भाव में नहीं होता है। सामीप्य स्थापित करे और परमात्ममय बनने के लिए निरन्तर परमात्मा
३. विक्षिप्त चित्त- विक्षिप्तावस्था में मन थोड़ी देर के लिए का ध्यान करे।३६ एक विषय पर लगता है, पर तुरन्त ही अन्य विषय की ओर दौड़ जाता इस प्रकार चित्त-वृत्तियों या वासनाओं का विलयन ही समालोच्य है और पहला विषय छूट जाता है। यह चित्त की आंशिक स्थिरता की ध्यान परम्पराओं का प्रमुख लक्ष्य रहा है, क्योंकि वासनाओं द्वारा ही मन अवस्था है।
क्षोभित होता है, जिससे चेतना का समत्व भंग होता है। ध्यान इसी ४. एकाग्र चित्त- यह वह अवस्था है, जिसमें चित्त देर तक समत्व या समाधि को प्राप्त करने की साधना है। एक विषय पर लगा रहता है। यह किसी वस्तु पर मानसिक केन्द्रीकरण
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
ध्यान का सामान्य अर्थ
अवस्था है, वह ध्यान है।४३ इस गाथा में पण्डित बालचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री 'ध्यान' शब्द का सामान्य अर्थ चेतना का किसी एक विषय ने "दंसणणाणसमग्गं" का अर्थ सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान से परिपूर्ण या बिन्दु पर केन्द्रित होना है।३७ चेतना जिस विषय पर केन्द्रित होती है किया है, किन्तु मेरी दृष्टि में यह अर्थ उचित नहीं है। दर्शन और ज्ञान वह प्रशस्त या अप्रशस्त दोनों ही हो सकता है। इसी आधार पर ध्यान की समग्र (समग्गं) का अर्थ है ज्ञान का भी निर्विकल्प अवस्था में होना। के दो रूप निर्धारित हुए- १. प्रशस्त और २. अप्रशस्त। उसमें भी सामान्यतया ज्ञान विकल्पात्मक होता है और दर्शन निर्विकल्प। किन्तु अप्रशस्त ध्यान के पुन: दो रूप माने गये १. आर्त और ३.रौद्र। प्रशस्त जब ज्ञान चित्त की विकल्पता से रहित होकर दर्शन से अभिन्न हो जाता ध्यान के भी दो रूप माने गये १. धर्म और २. शुक्ल। जब चेतना राग है, तो वही ध्यान हो जाता है। इसीलिए अन्यत्र कहा भी है कि ज्ञान से या आसक्ति में डूब कर किसी वस्तु और उसकी उपलब्धि की आशा पर ही ध्यान की सिद्धि होती है।४४ ध्यान शब्द की इन परिभाषाओं में हमें केन्द्रित होती है तो उसे आर्तध्यान कहा जा सकता है। अप्राप्त वस्तु की स्पष्ट रूप से एक विकासक्रम परिलक्षित होता है। फिर भी मूल रूप में प्राप्ति की आकांक्षा या प्राप्त वस्तु के वियोग की संभावना की चिन्ता में ये परिभाषाएं एक दूसरे की विरोधी नहीं हैं। चित्त का विधि-विकल्पों से चित्त का डूबना आर्तध्यान है।३८ आर्तध्यान चित्त के अवसाद/विषाद की रहित होकर एक विकल्प पर स्थिर हो जाना और अन्त में निर्विकल्प हो अवस्था है।
जाना ही ध्यान है क्योंकि ध्यान की अन्तिम अवस्था में सभी विकल्प जब कोई उपलब्ध अनुकूल विषयों के वियोग का या अप्राप्त समाप्त हो जाते हैं। अनुकूल विषयों की उपलब्धि में अवरोध का निमित्त बनता है तो उस पर आक्रोश का जो स्थायीभाव होता है, वही रौद्रध्यान है।३६ इस प्रकार ध्यान का क्षेत्र आर्तध्यान रागमूलक होता है और रौद्रध्यान द्वेषमूलक होता है। राग-द्वेष ध्यान-साधना के दो प्रकार माने गये हैं- एक बहिरंग और के निमित्त से उत्पन्न होने के कारण ये दोनों ध्यान संसार के जनक हैं, दूसरा अन्तरंग। ध्यान के बहिरंग साधनों में ध्यान के योग्य स्थान (क्षेत्र), अत: अप्रशस्त माने गये हैं। इनके विपरीत धर्म-ध्यान और शुक्लध्यान आसन, काल आदि का विचार किया जाता है और अन्तरंग साधनों में प्रशस्त माने गये हैं। मेरी दृष्टि में स्व-पर के लिये कल्याणकारी विषयों ध्येय विषय और ध्याता के संबंध में यह विचार किया जाता है कि ध्यान पर चित्तवृत्ति का स्थिर होना धर्मध्यान है। यह लोकमंगल और आत्मविशुद्धि के योग्य क्षेत्र कौन से हो सकते हैं। आचार्य शुभचन्द्र लिखते हैं कि 'जो का साधक होता है। चूंकि धर्म ध्यान में भोक्ताभाव होता है, अत: यह स्थान निकृष्ट स्वभाव वाले लोगों से सेवित हो, दुष्ट राजा से शासित हो, शुभ आस्रव का कारण होता है। जब आत्मा की चित्त-वृत्तियाँ साक्षीभाव पाखण्डियों के समूह से व्याप्त हो, जुआरियों, मद्यपियों और व्यभिचारियों या ज्ञाता द्रष्टा भाव में अवस्थित होती हैं, तब साधक न तो कर्ताभाव से से युक्त हो, जहां का वातवरण अशान्त हो, जहां सेना का संचार हो रहा जुड़ता है और न भोक्ताभाव से जुड़ता है, यही साक्षीभाव की अवस्था ही हो, गीत वादन आदि के स्वर गुंज रहे हों, जहां जन्तुओं तथा नपुंसक शुक्ल ध्यान है। इसमें चित्त शुभ-अशुभ दोनों से ऊपर उठ जाता है। आदि निकृष्ट प्रकृति के जनों का विचरण हो, वह स्थान ध्यान के योग्य
नहीं है। इस प्रकार कांटे, पत्थर, कीचड़, हड्डी, रुधिर आदि से दूषित 'ध्यान' शब्द की जैन परिभाषाएँ
तथा कौवे, उल्लू, शृगाल, कुत्तों आदि से सेवित स्थान भी ध्यान के सामान्यतया अध्यवसायों (चित्तवृत्ति) का स्थिर होना ही ध्यान योग्य नहीं होते हैं।४५ कहा गया है। दूसरे शब्दों में मन की एकाग्रता को प्राप्त होना ही ध्यान यह बात स्पष्ट है कि परिवेश का प्रभाव हमारी चित्तवृत्तियों पर है। इसके विपरीत जो मन चंचल है उसे भावना, अनुप्रेक्षा अथवा चिन्ता पड़ता है। धर्म स्थलों एवं नीरव साधना-क्षेत्रों आदि में जो निराकुलता कहा जाता है।४० इस प्रकार ध्यान वह स्थिति है जिसमें चित्त की होती है तथा उनमें जो एक विशिष्ट प्रकार की शान्ति होती है, वह चंचलता समाप्त हो जाती है और वह किसी एक विषय पर केन्द्रित हो ध्यान-साधना के लिए उपयुक्त होती है। अत: ध्यान करते समय साधक जाती है। तत्त्वार्थसूत्र में ध्यान को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि को क्षेत्र का विचार करना आवश्यक है। संयमी साधक को समुद्र तट, अनेक अर्थों का आलम्बन देने वाली चिन्ता का निरोध ध्यान है।४१ नदी तट, अथवा सरोवर के तट, पर्वत शिखर अथवा गुफा किंवा दूसरे शब्दों में जब चिन्तन को अन्यान्य विषयों से हटा कर किसी एक प्राकृतिक दृष्टि से नीरव और सुन्दर प्रदेशों को अथवा जिनालय आदि ही वस्तु पर केन्द्रित कर दिया जाता है तो वह ध्यान बन जाता है। यद्यपि धर्म स्थानों को ही ध्यान के क्षेत्र रूप में चुनना चाहिए। ध्यान की दिशा भगवती आराधना में एक ओर चिन्ता निरोध से उत्पन्न एकाग्रता को के संबंध में विचार करते हुए कहा गया है कि ध्यान के लिए पूर्व या ध्यान कहा गया है, तो दूसरी ओर उसमें राग-द्वेष और मिथ्यात्व से उत्तर दिशा में अभिमुख होकर बैठना चाहिये। रहित होकर पदार्थ की यथार्थता को ग्रहण करने वाला जो विषयान्तर के संचार से रहित ज्ञान होता है, उसे ध्यान कहा गया है।४२ आचार्य ध्यान के आसन कुन्दकुन्द पंचास्तिकाय में ध्यान को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि दर्शन ध्यान के आसनों को लेकर भी जैन ग्रन्थों में पर्याप्त रूप से और ज्ञान से परिपूर्ण और अन्य द्रव्य के संसर्ग से रहित चेतना की जो विचार हुआ है। सामान्य रूप से पद्मासन, पर्यंकासन एवं खड्गासन
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जैन साधना में ध्यान
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ध्यान के उत्तम आसन माने गये हैं। ध्यान के आसनों के संबंध में जैन निरोग और सुगठित शरीर आवश्यक है। तत्त्वार्थसूत्र में तो ध्यान की आचार्यों की मूलदृष्टि यह है कि जिन आसनों से शरीर और मन पर परिभाषा देते हुए स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि उत्तमसंहनन वाले तनाव नहीं पड़ता हो ऐसे सुखासन ही ध्यान के योग्य आसन माने जा का एक विषय में अंत:करण की वृत्ति का नियोजन ध्यान है।५१ जैन सकते हैं। जिन आसनों का अभ्यास साधक ने कर रखा हो और जिन आचार्य यह मानते हैं कि छ: प्रकार की शारीरिक संरचना में से आसनों में वह अधिक समय पर सुखपूर्वक बैठ सकता हो तथा जिनके वज्रऋषभनाराच, अर्धवऋषभनाराच, नाराच और अर्धनाराच- ये चार कारण उसका शरीर स्वेद को प्राप्त नहीं होता हो, वे ही आसन ध्यान शारीरिक संरचनाएँ ही (संहनन) ध्यान के योग्य होती हैं।५२ यद्यपि हमें के लिए श्रेष्ठ आसन हैं।४६ सामान्यतया जैन परम्परा में पद्मासन और यहां स्मरण रखना चाहिए कि शारीरिक संरचना का सह-संबंध मुख्य खड्गासन ही ध्यान के अधिक प्रचलित आसन रहे हैं।४७ किन्तु महावीर रूप से प्रशस्त ध्यानों से ही है, अप्रशस्त ध्यानों से नहीं। यह सत्य है के द्वारा गोदहासन में ध्यान करके केवलज्ञान प्राप्त करने के भी उल्लेख कि शरीर चित्तवृत्ति की अस्थिरता का मुख्य कारण होता है। अत: ध्यान हैं।४८ समाधिमरण या शारीरिक अशक्ति की स्थिति में लेटे-लेटे भी की वे स्थितियां जिनका विषय प्रशस्त होता है और जिनके लिए ध्यान किया जा सकता है।
चित्तवृत्ति की अधिक समय तक स्थिरता आवश्यक होती है, वे केवल
सबल शरीर में ही सम्भव होती हैं। किन्तु अप्रशस्त आर्त, रौद्र आदि ध्यान का काल
ध्यान तो निर्बल शरीरवालों को ही अधिक होते हैं। अशक्त या दुर्बल सामान्यतया सभी कालों में शुभ भाव संभव होने से ध्यान- व्यक्ति ही अधिक चिन्तन एवं चिड़चिड़ा होता है। साधना का कोई विशिष्ट काल नहीं कहा गया है। किन्तु जहां तक मुनि समाचारी का प्रश्न है, उत्तराध्ययन में सामान्य रूप से मध्याह्न ध्यान किसका?
और मध्यरात्रि को ध्यान के लिए उपयुक्त समय बताया गया है।४९ ध्यान के संदर्भ में यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि उपासकदशांग में सकडाल पुत्र के द्वारा मध्याह्न में ध्यान करने का ध्यान किसका किया जाये? दूसरे शब्दों में ध्येय या ध्यान का आलम्बन निर्देश है।५° कहीं-कहीं प्रात:काल और सन्ध्याकाल में भी ध्यान क्या है? सामान्य दृष्टि से विचार करने पर तो किसी भी वस्तु या विषय करने का विधान मिलता है।
को ध्येय/ध्यान के आलम्बन के रूप में स्वीकार किया जा सकता है,
क्योंकि सभी वस्तुओं या विषयों में कमोबेश ध्यानकर्षण की क्षमता तो ध्यान की समयावधि
होती ही है। चाहे संसार के सभी विषय ध्यान के आलम्बन होने की जैन आचार्यों ने इस प्रश्न पर भी मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विचार पात्रता रखते हों, किन्तु उन सभी को ध्यान का आलम्बन नहीं बनाया जा किया है कि किसी व्यक्ति की चित्त वृत्ति अधिकतम कितने समय तक सकता है। व्यक्ति के प्रयोजन के आधार पर ही उनमें से कोई एक विषय एक विषय पर स्थिर रह सकती है। इस संबंध में उनका निष्कर्ष यह है ही ध्यान का आलम्बन बनता है। अत: ध्यान के आलम्बन का निर्धारण कि किसी एक विषय पर अखण्डित रूप से चित्तवृत्ति अन्तर्मुहूर्त से करते समय यह विचार करना आवश्यक होता है कि ध्यान का उद्देश्य अधिक स्थिर नहीं रह सकती। अन्तर्मुहूर्त से उनका तात्पर्य एक क्षण से या प्रयोजन क्या है? दूसरे शब्दों में ध्यान हम किसलिए करना चाहते कुछ अधिक तथा ४८ मिनट से कुछ कम है। किन्तु इसका तात्पर्य यह हैं? इसका निर्धारण सर्वप्रथम आवश्यक होता है। वैसे तो संसार के सभी नहीं है कि ध्यान अन्तर्मुहूर्त से अधिक समय तक नहीं किया जा सकता विषय चित्त को केन्द्रित करने का सामर्थ्य रखते हैं, किन्तु इसका अर्थ है। यह सत्य है कि इतने काल के पश्चात् ध्यान खण्डित होता है, किन्तु यह नहीं है कि बिना किसी पूर्व विचार के उन्हें ध्यान का आलम्बन चित्तवृत्ति को पुनः नियोजित करके ध्यान को एक प्रहर या रात्रिपर्यंत भी अथवा ध्येय बनाया जाये। किसी स्त्री का सुन्दर शरीर ध्यानाकर्षण या किया जा सकता है।
ध्यान का आलम्बन होने की योग्यता तो रखता है, किन्तु जो साधक
ध्यान के माध्यम से विक्षोभ या तनावमुक्त होना चाहता है, उसके लिए ध्यान और शरीर रचना
यह उचित नहीं होगा कि वह स्त्री के सुन्दर शरीर को अपने ध्यान का जैन आचार्यों ने ध्यान का संबंध शरीर से भी जोड़ा है। यह विषय बनाये, क्योंकि उसे ध्यान का विषय बनाने से उसके मन में उसके अनुभूत तथ्य है कि सबल, स्वस्थ और सुगठित शरीर ही ध्यान के लिए प्रति रागात्मकता उत्पन्न होगी, वासना जागेगी और पाने की आकांक्षा या अधिक योग्य होता है। यदि शरीर निर्बल है, सुगठित नहीं है तो भोग की आकांक्षा से चित्त में विक्षोभ पैदा होगा। अत: किसी भी वस्तु शारीरिक गतिविधियों को अधिक समय तक नियन्त्रित नहीं किया जा को ध्यान का आलम्बन बनाने के पूर्व यह विचार करना आवश्यक होता सकता और यदि शारीरिक गतिविधियां नियंत्रित नहीं रहेंगी तो चित्त भी है कि हमारे ध्यान का प्रयोजन या उद्देश्य क्या है? जो व्यक्ति अपनी नियन्त्रित नहीं रहेगा। शरीर और चित्तवृत्तियों में एक गहरा संबंध है। वासनाओं का पोषण चाहता है, वही स्त्री-शरीर के सौन्दर्य को अपने शारीरिक विकलताएं चित्त को विकल बना देती हैं और चैतसिक ध्यान का आलम्बन बनाता है और उसके माध्यम से आर्तध्यान का विकलताएं शरीर को। अत: यह माना गया है कि ध्यान के लिए सबल, भागीदार बनता है। किन्तु जो भोग के स्थान पर त्याग और वैराग्य को
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
अपने जीवन का लक्ष्य बनाना चाहता है, जो समाधि का इच्छुक है, समावेश होता है। अत: हमें यह मानना होता है कि इन अप्रशस्त ध्यानों उसके लिए स्त्री-शरीर की वीभत्सता और विद्रूपता ही ध्यान का आलम्बन की पात्रता तो आध्यात्मिक दृष्टि से अपूर्ण रूप से विकसित सभी प्राणियों होगी। अत: ध्यान के प्रयोजन के आधार पर ही ध्येय का निर्धारण करना में किसी न किसी रूप में रहती ही है। नारक, तिर्यंच, मनुष्य, देव आदि होता है। पुनः ध्यान की प्रशस्तता और अप्रशस्तता भी उसके ध्येय या सभी में आर्तध्यान और रौद्रध्यान पाये जाते हैं। किन्तु जब हम ध्यान का
आलम्बन पर आधारित होती है, अत: प्रशस्त ध्यान के साधक अप्रशस्त तात्पर्य केवल प्रशस्त ध्यान अर्थात् धर्मध्यान और शुक्लध्यान से लेते हैं विषयों को अपने ध्यान का आलम्बन या ध्येय नहीं बनाते हैं। तो हमें यह मानना होगा कि इन ध्यानों के अधिकारी सभी प्राणी नहीं हैं।
जैन दार्शनिकों की दृष्टि में प्राथमिक स्तर पर ध्यान के लिए उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में किस ध्यान का कौन अधिकारी है इसका किसी ध्येय या आलम्बन का होना आवश्यक है, क्योंकि बिना आलम्बन उल्लेख किया है।५७ इसकी विशेष चर्चा हमने ध्यान के प्रकारों के प्रसंग के चित्त की वृत्तियों को केन्द्रित करना सम्भव नहीं होता है, वे सभी में की है। साधारणतया चतुर्थ गुणस्थान अर्थात् सम्यक्दर्शन की प्राप्ति विषय और वस्तुएँ जिनमें व्यक्ति का मन रम जाता है, ध्यान का के पश्चात् ही व्यक्ति धर्मध्यान का अधिकारी बनता है। धर्मध्यान की आलम्बन बनने की योग्यता तो रखती हैं, किन्तु उनमें से किसी एक को पात्रता केवल सम्यग्दृष्टि जीवों को ही है। आर्त और रौद्र ध्यान का अपने ध्यान का आलम्बन बनाते समय व्यक्ति को यह विचार करना परित्याग करके अपने को प्रशस्त चिन्तन से जोड़ने की सम्भावना केवल होता है कि उससे वह राग की ओर जायेगा या विराग की ओर, उसके उसी व्यक्ति में हो सकती है, जिसका विवेक जाग्रत हो और जो हेय, ज्ञेय चित्त में वासना और विक्षोभ जागेंगे या समाधि सधेगी। यदि साधक का और उपादेय के भेद को समझता हो। जिस व्यक्ति में हेय-उपादेय अथवा उद्देश्य ध्यान के माध्यम से चित्त-विक्षोभों को दूर करके समाधिलाभ या हित-अहित के बोध का ही सामर्थ्य नहीं है, वह धर्मध्यान में अपने चित्त समताभाव को प्राप्त करना है तो उसे प्रशस्त विषयों को ही अपने ध्यान को केन्द्रित नहीं कर सकता। का आलम्बन बनाना होगा। प्रशस्त आलम्बन ही व्यक्ति को प्रशस्त ध्यान यह भी स्मरणीय है कि आर्त और रौद्र ध्यान पूर्व संस्कारों के की दिशा की ओर ले जाता है।
कारण व्यक्ति में सहज होते हैं, उनके लिए व्यक्ति को विशेष प्रयत्न या ध्यान के आलम्बन के प्रशस्त विषयों में परमात्मा या ईश्वर का साधना नहीं करनी होती, जबकि धर्मध्यान के लिए साधना (अभ्यास) स्थान सर्वोपरि माना गया है। जैन दार्शनिकों ने भी ध्यान के आलम्बन आवश्यक है। इसीलिए धर्मध्यान केवल सम्यग्दृष्टि को ही हो सकता है। के रूप में वीतराग परमात्मा को ध्येय के रूप में स्वीकार किया है।५३ धर्मध्यान की साधना के लिए व्यक्ति में ज्ञान के साथ-साथ वैराग्य/विरति चाहे ध्यान पदस्थ हो या पिण्डस्थ, रूपस्थ हो या रूपातीत; ध्येय तो भी आवश्यक मानी गई है और इसलिए कुछ लोगों का यह मानना है परमात्मा ही है, किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि जैन धर्म में कि धर्मध्यान पांचवें गुणस्थान अर्थात् देशव्रती को ही संभव है। अत: आत्मा और परमात्मा भिन्न नहीं है। आत्मा की शुद्धदशा ही परमात्मा स्पष्ट है कि जहाँ आर्त और रौद्रध्यान के स्वामी सम्यग्दृष्टि एवं मिथ्यादृष्टि है।५४ इसलिए जैन दर्शन में ध्याता और ध्येय अभिन्न हैं। साधक आत्मा दोनों प्रकार के जीव हो सकते हैं, वहाँ धर्मध्यान का अधिकारी सम्यग्दृष्टि ध्यान साधना में अपने ही शुद्ध स्वरूप को ध्येय बनाता है। आत्मा, श्रावक और विशेषरूप से देशविरत श्रावक या मुनि ही हो सकता है। आत्मा के द्वारा आत्मा का ही ध्यान करता है।५५ जिस परमात्मास्वरूप जहां तक शुक्लध्यान का प्रश्न है, वह सातवें गुणस्थान के अप्रमत्त को ध्याता ध्येय के रूप में स्वीकार करता है वह, उसका अपना ही शुद्ध जीवों से लेकर १४ वें अयोगी केवली गुणस्थान तक के सभी व्यक्तियों स्वरूप है।५६ पुन: ध्यान में जो ध्येय बनता है वह वस्तु नहीं, चित्त की में सम्भव है। इस संबंध में श्वेताम्बर-दिगम्बर के मतभेदों की चर्चा ध्यान वृत्ति होती है, ध्यान में चित्त ही ध्येय का आकार ग्रहण करके हमारे के प्रकारों के प्रसंग में आगे की गयी है। सामने उपस्थित होता है, अत: ध्याता भी चित्त है और ध्येय भी चित्त है। इस प्रकार ध्यान-साधना के अधिकारी व्यक्ति भिन्न-भिन्न ध्यानों जिसे हम ध्येय कहते हैं, वह हमारा अपना ही निज रूप है, हमारा की अपेक्षा से भिन्न-भिन्न कहे गये हैं। जो व्यक्ति आध्यात्मिक दृष्टि से अपना ही प्रोजेक्शन (Projection) है। ध्यान वह कला है जिसमें जितना विकसित होता है वह ध्यान के क्षेत्र में उतना ही आगे बढ़ सकता ध्याता अपने को ही ध्येय बनाकर स्वयं उसका साक्षी बनता है। हमारी है। अत: व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास उसकी ध्यान साधना से जुड़ा वृत्तियाँ ही हमारे ध्यान का आलम्बन होती हैं और उनके माध्यम से हम हुआ है। आध्यात्मिक साधना और ध्यान-साधना में विकास का क्रम अपना ही दर्शन करते हैं।
अन्योन्याश्रित है। जैसे-जैसे व्यक्ति प्रशस्त की दिशा में अग्रसर होता है
उसका आध्यात्मिक विकास होता है और जैसे-जैसे उसका आध्यात्मिक ध्यान के अधिकारी
विकास होता है, वह प्रशस्त ध्यानों की ओर अग्रसर होता है। ध्यान को व्यापक अर्थों में ग्रहण करने पर सभी व्यक्ति ध्यान के अधिकारी माने जा सकते हैं, क्योंकि जैन दर्शन के अनुसार आर्त ध्यान का साधक गृहस्थ या श्रमण? और रौद्र ध्यान तो निम्नतम प्राणियों में भी पाया जाता है। अपने व्यापक ध्यान की क्षमता त्यागी और भोगी दोनों में समान रूप से अर्थ में ध्यान में प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों ही प्रकार के ध्यानों का होती है, किन्तु अक्सर भोगी जिस विषय पर अपना ध्यान केन्द्रित करता
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है वह विषय अन्त में उसके मन को प्रमथित करके उद्वेलित ही बनाता साधु को? वस्तुत: निर्लिप्त जीवन जीने वाला व्यक्ति चाहे वह साधु हो है। अत: उसके ध्यान में यद्यपि कुछ काल तक चित्त तो स्थिर रहता है, या गृहस्थ, उसके लिए धर्मध्यान संभव हो सकता है। दूसरी ओर किन्तु उसका फल चित्तवृत्तियों की स्थिरता न होकर अस्थिरता ही होती आसक्त, दंभी और साकांक्ष व्यक्ति, चाहे वह मुनि ही क्यों न हो, उसके है। जिस ध्यान के अन्त में चित्त उद्वेलित होता हो वह ध्यान साधनात्मक लिए धर्मध्यान असंभव होता है। ध्यान की संभावना साधु और गृहस्थ ध्यान की कोटि में नहीं आता है। यही कारण है कि परवर्ती जैन होने पर निर्भर नहीं करती। उसकी संभावना का आधार ही व्यक्ति के दार्शनिकों ने अपने ग्रन्थों में आर्तध्यान और रौद्रध्यान को ध्यान के रूप चित्त की निराकुलता या अनासक्ति है। जो चित्त अनासक्त और निराकुल में परिगणित ही नहीं किया, क्योंकि वे अन्ततोगत्वा चित्त की उद्विग्नता है, फिर वह चित्त गृहस्थ का हो या मुनि का, इससे अन्तर नहीं पड़ता। के ही कारण बनते हैं। यही कारण था कि दिगम्बर परम्परा ने यह मान ध्यान के अधिकारी बनने के लिए आवश्यक यह है कि व्यक्ति का मानस लिया कि गृहस्थ का जीवन वासनाओं, आकांक्षाओं और उद्विग्नताओं से निराकांक्ष, अनाकुल और अनुद्विग्न रहे। यह अनुभूत सत्य है कि कोईपरिपूर्ण है, अत: वे ध्यान- साधना करने में असमर्थ हैं।
कोई व्यक्ति गृहस्थ जीवन में रहकर भी निराकांक्ष, अनाकुल और __ ज्ञानार्णव में इस मत का प्रतिपादन हुआ है कि गृहस्थ ध्यान अनुद्विग्न बना रहता है। दूसरी ओर कुछ साधु, साधु होकर भी सदैव का अधिकारी नहीं है।५८ इस संबंध में उसका कथन है कि गृहस्थ आसक्त, आकुल और उद्विग्न रहते हैं। अत: ध्यान का संबंध गृही जीवन प्रमाद को जीतने में समर्थ नहीं होता, इसलिए वह अपने चंचल मन या मुनि जीवन से न होकर चित्त की विशुद्धि से है। चित्त जितना विशुद्ध को वंश में नहीं रख पाता। फलत: वह ध्यान का अधिकारी नहीं हो होगा ध्यान उतना ही स्थिर होगा। पुनः जो श्वेताम्बर और यापनीय सकता। ज्ञानार्णवकार का कथन है कि गृहस्थ का मन सैंकड़ों झंझटों परम्परायें गृहस्थ में भी १४ गुणस्थान सम्भव मानती हैं, उनके अनुसार से व्यथित तथा दुष्ट तृष्णा रूप पिशाच से पीड़ित रहता है, इसलिए तो आध्यात्मिक विकास के अग्रिम श्रेणियों का अरोहण करता हुआ उसमें रहकर व्यक्ति ध्यान आदि की साधना नहीं कर सकता। जब गृहस्थ भी न केवल धर्मध्यान का अपितु शुक्ल -ध्यान का भी अधिकारी प्रलयकालीन तीक्ष्ण वायु के द्वारा स्थिर स्वभाववाले बड़े-बड़े पर्वत होता है। भी स्थान भ्रष्ट कर दिये जाते हैं, तो फिर स्त्री-पुत्र आदि के बीच रहने वाले गृहस्थ को जो स्वभाव से ही चंचल है, क्यों नहीं भ्रष्ट किया जा ध्यान के प्रकार सकता।५९ इस चर्चा को आगे बढ़ाते हुए ज्ञानार्णवकार तो यहां तक सामान्यतया जैनाचार्यों ने ध्यान का अर्थ चित्तवृत्ति का किसी कहता है कि कदाचित् आकाश-कुसुम और गधे को सींग (श्रृंग) एक विषय पर केन्द्रित होना ही माना है। अत: जब उन्होंने ध्यान के संभव भी हो६° लेकिन गृहस्थ जीवन में किसी भी देश और काल में प्रकारों की चर्चा की तो उसमें प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों ही प्रकार के ध्यान संभव नहीं होता। इसके साथ ही ज्ञानार्णवकार मिथ्यादृष्टियों, ध्यानों को गृहीत कर लिया। उन्होंने आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल ये अस्थिर अभिप्राय वालों तथा कपटपूर्ण जीवन जीने वालों में भी ध्यान ध्यान के चार प्रकार माने।६३ ध्यान के इन चार प्रकारों में प्रथम दो को की संभावना को स्वीकार नहीं करता है।६१
अप्रशस्त अर्थात् संसार का हेतु और अन्तिम दो को प्रशस्त अर्थात् मोक्ष यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या गृहस्थ जीवन में का हेतु कहा गया है।६४ इसका आधार यह माना गया है कि आर्त और ध्यान संभव नहीं है। यह सही है कि गृहस्थ जीवन में अनेक द्वन्द्व होते रौद्रध्यान राग-द्वेष जनित होने से बंधन के कारण हैं, इसलिए वे हैं और गृहस्थ आर्त और रौद्रध्यान से अधिकांश समय तक जुड़ा रहता अप्रशस्त हैं। जबकि धर्मध्यान और शुक्लध्यान कषाय भाव से रहित है। किन्तु एकान्त रूप से गृहस्थ में धर्म-ध्यान की संभावना को अस्वीकार होने से मुक्ति के कारण हैं, इसलिए वे प्रशस्त हैं। ध्यानशतक की टीका नहीं किया जा सकता। अन्यथा गृहस्थ लिंग की अवधारणा खण्डित हो में तथा अमितगति के श्रावकाचार में इन चार ध्यानों को क्रमश: जायेगी। अत: गृहस्थ में भी धर्म-ध्यान की संभावना है।
तिर्यंचगति, नरकगति, देवगति और मुक्ति का कारण कहा गया है। यह सत्य है कि जो व्यक्ति जीवन के प्रपंचों में उलझा हुआ है, यद्यपि प्राचीन जैन आगमों में ध्यान का यह चतुर्विध वर्गीकरण ही मान्य उसके लिए ध्यान संभव नहीं है। किन्तु गृहस्थ जीवन और गृही वेश में रहा है। किन्तु जब ध्यान का संबंध मुक्ति की साधना से जोड़ा गया तो रहने वाले सभी व्यक्ति आसक्त ही होते हैं, यह नहीं कहा जा सकता। आर्त और रौद्रध्यान को बंधन का कारण होने से ध्यान की कोटि में ही अनेक सम्यग्दृष्टि गृहस्थ ऐसे होते हैं, जो जल में कमलवत् गृहस्थ परिगणित नहीं किया गया। अत: दिगम्बर परम्परा की धवला टीका६५ जीवन में अलिप्त भाव से रहते हैं। ऐसे व्यक्तियों के लिए धर्म ध्यान की में तथा श्वेताम्बर परम्परा के हेमचन्द्र के योगशास्त्र६६ में ध्यान के दो ही संभावना को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। स्वयं ज्ञानार्णवकार यह प्रकार माने गए-धर्म और शुकल। ध्यान में भेद-प्रभेदों की चर्चा से स्पष्ट स्वीकार करता है कि जो साधु मात्र वेश में अनुराग रखता हुआ अपने रूप से यह ज्ञात होता है कि उसमें क्रमशः विकास होता गया है। प्राचीन को महान समझता है और दूसरों को हीन समझता है, वह साधु भी ध्यान आगमों यथा-स्थानांग, समवायांग, भगवतीसूत्र में तथा झाणाज्झया के योग्य नहीं है।६२ अत: व्यक्ति में मुनिवेशधारण करने से ध्यान की (ध्यानशतक) और तत्त्वार्थसूत्र में ध्यान के चार विभागों की चर्चा करके पात्रता नहीं आती है। प्रश्न यह नहीं कि ध्यान गृहस्थ को संभव होगा या क्रमश: उनके चार-चार विभाग किये गए हैं, किन्तु उनमें कहीं भी ध्यान
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
के पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत इन चार प्रकारों की चर्चा नहीं प्रमत्त संयत में निदान को छोड़कर अर्थात् अप्राप्त की प्राप्ति की आकांक्षा है। जबकि परवर्ती साहित्य में इनकी विस्तृत चर्चा मिलती है। सर्वप्रथम को छोड़कर अन्य तीन ही आर्तध्यान होते हैं- स्थानांगसूत्र में इनके निम्न इनका उल्लेख योगीन्दु के योगसार और देवसेन के भावसंग्रह में मिलता चार लक्षणों का उल्लेख हुआ है-७४ है।६७ मुनि पद्यसिंह ने ज्ञानसार में अर्हन्त के संदर्भ में धर्मध्यान के
- उच्च स्वर से रोना। अन्तर्गत पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ की ही चर्चा की है, किन्तु ..
२) शोचनता - दीनता प्रकट करते हुए शोक करना। उन्होंने रूपातीत का कोई स्पष्ट निर्देश नहीं किया है।६८ इस विवेचना में एक समस्या यह भी है कि पिण्डस्थ और रूपस्थ में कोई विशेष अन्तर ३) तेपनता - आंसू बहाना। नहीं दिखाया गया है। परवर्ती साहित्य में आचार्य नेमिचन्द्र के द्रव्यसंग्रह ४) परिदेवनता - करुणा-जनक विलाप करना। में ध्यान के चार भेदों की चर्चा के पश्चात् धर्मध्यान के अन्तर्गत पदों के (२) ध्यान - रौद्र ध्यान आवेगात्मक अवस्था है। रौद्र जाप और पंचपरमेष्ठि के स्वरूप का भी निर्देश किया गया है।६९ इसके
ध्यान के भी चार भेद किये गये हैं७५ टीकाकार ब्रह्मदेव ने यह भी बताया है कि जो ध्यान मंत्र वाक्यों के
१) हिंसानुबंधी - निरन्तर हिंसक प्रवृत्ति में तन्मयता करानेवाली आश्रित होता है वह पदस्थ है, जिस ध्यान में 'स्व' या आत्मा का
चित्त की एकाग्रता। चिन्तन होता है वह पिंडस्थ है, जिसमें चेतना स्वरूप या विद्रूपता का विचार किया जाता है वह रूपस्थ है तथा निरंजन व निराकार का ध्यान २) मृषानुबधा
असत्य भाषण करने सम्बन्धी चित्त की ही रूपातीत है।७° अमितगति७१ ने अपने श्रावकाचार में ध्येय या ध्यान
एकाग्रता। के आलम्बन की चर्चा करते हुए पिण्डस्थ आदि इन चार प्रकार के ३) स्तेनानुबन्धी - निरन्तर चोरी करने- कराने की प्रवृत्ति सम्बन्धी ध्यानों की विस्तार से लगभग (२७ श्लोकों में) चर्चा की है। यहां
चित्त की एकाग्रता पिण्डस्थ से पहले पदस्थ ध्यान को स्थान दिया गया है और उसकी ४) संरक्षणानबन्धी - परिग्रह के अर्जन और संरक्षण सम्बन्धी विस्तृत चर्चा भी की गई है। शुभचन्द्र७२ ने ज्ञानार्णव में पदस्थ आदि
तन्मयता। ध्यान के इन प्रकारों की पूरे विस्तार के साथ (लगभग २७ श्लोकों में)
कुछ आचार्यों ने विषयसंरक्षण का अर्थ बलात् ऐन्द्रिक भोगों चर्चा की है। परवर्ती आचार्यों में वसुनन्दि, हेमचन्द्र, भास्करनन्दि आदि का संकल्प किया है, जबकि कुछ आचार्यों ने ऐन्द्रिक विषयों के संरक्षण ने भी इनकी विस्तार से चर्चा की है। पुनः पार्थिवी, आग्नेयी, मारुति, में उपस्थित करता के भाव को ही विषयसंरक्षण कहा है। स्थानांग में वारुणी और तत्त्वभू ऐसी पिण्डस्थ ध्यान की जो पांच धारणाएं कही गई इसके भी निम्न चार लक्षणों का निर्देश है।७६ हैं उनका भी प्राचीन ग्रन्थों में कहीं उल्लेख नहीं मिलता। तत्त्वार्थसूत्र और .
१) उत्सन्नदोष - हिंसादि किसी एक पाप में निरन्तर प्रवृत्ति उसकी प्राचीन टीकाओं में लगभग ६ठी-७वीं शती तक इनका अभाव
करना। है, इससे यही सिद्ध होता है कि ध्यान के प्रकारों, उपप्रकारों, लक्षणों, आलम्बनों आदि की जो चर्चा जैन परम्परा में हुई है, वह क्रमशः ।
बहुदोष हिंसादि सभी पापों के करने में संलग्न विकसित होती रही है और उन पर अन्य परम्पराओं का प्रभाव भी है।
प्राचीन आगमिक साहित्य में स्थानांगसूत्र में ध्यान के प्रकारों, ३) अज्ञानदोष - कुसंस्कारों के कारण हिंसादि अधार्मिक कार्यों लक्षणों, आलम्बनों में अनुप्रेक्षाओं का जो विवरण मिलता है, वह इस
को धर्म मानना। प्रकार है:
४) आमरणान्त दोष - मरणकाल तक भी हिंसादि क्रूर कर्मों को (१) आर्तध्यान- आर्तध्यान हताशा की स्थिति है। स्थानांग के
करने का अनुताप न होना। अनुसार इस ध्यान के चार उपप्रकार हैं।७३ अप्रिय वस्तु के प्राप्त होने पर ३) धर्मध्यान- जैन आचार्यों ने साधना की दृष्टि से केवल उसके वियोग की सतत चिन्ता करना यह प्रथम प्रकार का आर्तध्यान है। धर्मध्यान और शक्लध्यान को ही ध्यान की कोटि में रखा है। यही कारण दःख के आने पर उसे दूर करने की चिन्ता करना यह आर्तध्यान का है कि आगमों में इनके भेद और लक्षणों की चर्चा के साथ-साथ इनके दूसरा रूप है। प्रिय वस्तु का वियोग हो जाने पर उसकी पुनः प्राप्ति के आलम्बनों और अनुप्रेक्षाओं का भी उल्लेख मिलता है। स्थानांगसूत्र आदि लिए चिन्तन करना तीसरे प्रकार का आर्तध्यान है और जो वस्तु प्राप्त में धर्मध्यान के निम्न चार भेद बताये गये हैं।७६ नहीं है उसकी प्राप्ति की इच्छा करना चौथे प्रकार का आर्त ध्यान है। १) आज्ञाविचय- वीतराग सर्वज्ञप्रभु के आदेश और उपदेश तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार यह आर्त ध्यान अविरत, देशविरत और प्रमत्तसंयत के सम्बन्ध में आगमों के अनुसार चिन्तन करना। में होता है। इसके साथ ही मिथ्यादृष्टियों में भी इस ध्यान का सद्भाव होता २) अपायविचय- दोषों और उनके कारणों का चिन्तन कर है। सैद्धान्तिक दृष्टि से मिथ्यादृष्टि, अविरत सम्यग्दृष्टि तथा देशविरत उनसे छुटकारा कैसे हो, इस सम्बन्ध में विचार करना। दूसरे शब्दों में सम्यग्दृष्टि में आर्तध्यान के उपरोक्त चारों ही प्रकार पाये जाते हैं, किन्तु हेय क्या है? इसका चिन्तन करना।
रहना।
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जैन साधना में ध्यान
३) विपाकविचयपूर्वकर्मों के विपाक के परिणाम स्वरूप उदय में आनेवाली सुखदुःखात्मक विभिन्न अनुभूतियों का समभावपूर्वक वेदन करते हुए उनके कारणों का विश्लेषण करना। दूसरे कुछ आचार्यों के अनुसार हेय के परिणामों का चिन्तन करना ही विपाकविचय धर्मध्वान है।
विपाकविचय धर्मध्यान को निम्न उदाहरण से भी समझा जा
सकता है
मान लीजिए कोई व्यक्ति हमें अपशब्द कहता है और उन अपशब्दों को सुनने से पूर्वसंस्कारों के निमित्त से क्रोध का भाव उदित होता है। उस समय उत्पन्न होते हुए क्रोध को साक्षी भाव से देखना और क्रोध की प्रतिक्रिया व्यक्त न करना तथा यह विचार करना कि क्रोध का परिणाम दुःखद होता है अथवा यह सोचना कि मेरे निमित्त से इसको कोई पीड़ा हुई होगी, अत: यह मुझे अपशब्द कह रहा है, यह विपाकविचय धर्मध्यान है। संक्षेप में कर्मविपाकों के उदय होने पर उनके प्रति साक्षी भाव रखना, प्रतिक्रिया के दुःखद परिणाम का चिन्तन करना एवं प्रतिक्रिया न करना ही विपाकविचय धर्मध्यान है।
४) संस्थानविचय- लोक के स्वरूप के चिन्तन को सामान्यरूप से संस्थानविचय धर्मध्यान कहा जाता है, किन्तु लोक एवं संस्थान का अर्थ आगमों में शरीर भी है। अतः शारीरिक गतिविधियों पर अपनी चित्तवृत्तियों को केन्द्रित करने को भी संस्थानविचय धर्मध्यान कहा जा सकता है। अपने इस अर्थ में संस्थानविचय धर्मध्यान शरीर विपश्यना या शरीर प्रेक्षा के निकट है। आगमों में धर्मध्यान के निम्न चार लक्षण कहे गये हैं- ७८
(४) शुक्लध्यान- यह धर्मध्यान के बाद की स्थिति है। शुक्लध्यान के द्वारा मन को शान्त और निष्यकम्प किया जाता है। इसकी अन्तिम १) आशारुचि- जिन आज्ञा के सम्बन्ध में विचार-विमर्श परिणति मन की समस्त प्रवृत्तियों का पूर्ण निरोध है। शुक्लध्यान चार करना तथा उसके प्रति निष्ठावान रहना ।
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प्रकार के है८३ १. पृथक्त्व-वितर्क सविचार इस ध्यान में ध्याता कभी द्रव्य का चिन्तन करते करते पर्याय का चिन्तन करने लगता है और कभी पर्याय का चिन्तन करते-करते द्रव्य का चिन्तन करने लगता है। इस ध्यान में कभी द्रव्य पर तो कभी पर्याय पर मनोयोग का संक्रमण होते रहने पर भी ध्येय द्रव्य एक ही रहता है। २. एकत्व-वितर्क-अविचारीयोग संक्रमण से रहित एक पर्याय विषयक ध्यान एकत्व-वितर्क-अविचारध्यान कहलाता है। ३. सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती मन, वचन और शरीर व्यापार का निरोध हो जाने एवं केवल श्वासोच्छ्वास की सूक्ष्म क्रिया के शेष रहने पर ध्यान की यह अवस्था प्राप्त होती है। ४. समुच्छिन्न-क्रियानिवृत्ति जब मन, वचन और शरीर की समस्त प्रवृत्तियों का निरोध हो जाता है और कोई भी सूक्ष्म क्रिया शेष नहीं रहती उस अवस्था को समुच्छित्र क्रिया निवृत्ति शुक्लध्यान कहते हैं। इस प्रकार शुक्लध्यान की प्रथम अवस्था से क्रमशः आगे बढ़ते हुए अन्तिम अवस्था में साधक कायिक, वाचिक और मानसिक सभी प्रवृत्तियों का पूर्ण निरोध कर अन्त में सिद्धावस्था प्राप्त कर लेता है, जो कि धर्म-साधना और योग-साधना का अन्तिम लक्ष्य है।
स्थानांगसूत्र में शुक्लध्यान के निम्न चार लक्षण कहे
२) निसर्गरुचि- धर्मकार्यों में स्वाभाविक रूप से रुचि होना। ३) सूत्ररुचि - आगम शास्त्रों के अध्ययन-अध्यापन में रुचि
होना । ४) अवगाड़रुचि- आगामिक विषयों के गहन चिन्तन और मनन में रुचि होना। दूसरे शब्दों में आगमिक विषयों का गम्भीरता से
अवगाहन करना।
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स्थनांगसूत्र में धर्मध्यान के आलम्बनों की चर्चा करते हुए उसमें चार आलम्बन बताये गये है०६ १. वाचन अर्थात् आगम साहित्य का अध्ययन करना, २ . प्रतिपृच्छना अध्ययन करते समय उत्पन्न शंका के निवारणार्थ जिज्ञासावृत्ति से उस सम्बन्ध में गुरुजनों से पूछना। ३. परिवर्तना- अधीत सूत्रों का पुनरावर्तन करना ४. अनुप्रेक्षा आगमों के अर्थ का चिन्तन करना। कुछ आचार्यों की दृष्टि में अनुप्रेक्षा का अर्थ संसार की अनित्यता आदि का चिन्तन करना भी है।
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धर्मध्यान के अधिकारी के सम्बन्ध में चर्चा उपलब्ध होती है। जिनभद्र ८१ के अनुसार जिस व्यक्ति में निम्न चार बातें होती हैं वहीं धर्मध्यान का अधिकारी होता है। १. सम्यग्ज्ञान (ज्ञान) २. दृष्टिकोण की विशुद्धि (दर्शन), ३. सम्यक् चारित्र या आचरण और ४. वैराग्यभाव हेमचन्द्र ८२ ने योगशास्त्र में इन्हें ही कुछ शब्दान्तर के साथ प्रस्तुत किया है। वे धर्मध्यान के लिए १. आगमज्ञान, २. अनासक्ति, ३ आत्मसंयम और ४. मुमुक्षुभाव को आवश्यक मानते हैं। धर्मध्यान के अधिकारी के सम्बन्ध में तत्त्वार्थं का दृष्टिकोण थोड़ा भिन्न है। तत्त्वार्थ के श्वेताम्बर मान्य पाठ के अनुसार धर्मध्यान अप्रमत्तसंयत, उपशांतकषाय और क्षीणकषाय में ही सम्भव है। गुणस्थान सिद्धान्त की दृष्टि से यदि हम कहें तो सातवें से लेकर ग्यारहवें और बारहवें तक में ही धर्मध्यान संभव है। यदि इसे निरंतरता में ग्रहण करें तो अप्रमत्त संयत से लेकर क्षीणकषाय तक अर्थात् सातवें गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक धर्मध्यान की संभावना है । तत्त्वार्थसूत्र के दिगम्बर मान्य मूलपाठ में धर्म ध्यान के अधिकारी की विवेचना करने वाला सूत्र है ही नहीं यद्यपि तत्त्वार्यसूत्र की दिगम्बर टीकाओं में पूज्यपाद अकलंक और विद्यानन्दि सभी ने धर्मध्यान के स्वामी का उल्लेख किया है किन्तु उनका मंतव्य श्वेताम्बर परम्परा से भित्र है। उनके अनुसार चौथे गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान तक ही धर्म ध्यान की संभावना है। आठवें गुणस्थान से श्रेणी प्रारंभ होने के कारण धर्मध्यान संभव नहीं है। इस प्रकार धर्मध्यान के अधिकारी के प्रश्न पर जैन आचार्यों में मतभेद रहा है।
स्थानांगसूत्र के अनुसार धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं कहीं गई हैं:- १. एकत्वानुप्रेक्षा, २. अनित्यानुप्रेक्षा, ३. अशरणानुप्रेक्षा और ४. संसारानुप्रेक्षा । ये अनुप्रेक्षाएँ जैन परम्परा में प्रचलित १२ अनुप्रेक्षाओं के ही अन्तर्गत हैं। जिनभद्र के ध्यानशतक तथा उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र में गये है८४
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
१) अव्यथ-परीषह, उपसर्ग आदि की व्यथा से पीड़ित होने पर चाद्ये पूर्वविदः - ९/३९) श्वेताम्बर मूलपाठ और दिगम्बर मूलपाठ में तो भी क्षोभित नहीं होना।
अन्तर नहीं है, किंतु 'च' शब्द से क्या अर्थ ग्रहण करना चाहिए, इसे २) असम्मोह-किसी भी प्रकार से मोहित नहीं होना। लेकर मतभेद है। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार उपशान्त कषाय एवं
३) विवेक- स्व और पर अर्थात आत्म और अनात्म के भेद को क्षीणकषाय पूर्वधरों में चार शुक्लध्यानों में प्रथम दो शुक्लध्यान सम्भव समझना। भेदविज्ञान का ज्ञाता होना।
हैं। बाद के दो, केवली (सायोगी केवली और आयेगी केवली) में सम्भव ४) व्युत्सर्ग- शरीर, उपधि आदि के प्रति ममत्व भाव का पूर्ण हैं। दिगम्बर परम्परा के अनुसार आठवें गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान त्याग दूसरे शब्दों में पूर्ण निर्ममत्व से युक्त होना।
तक शुक्लध्यान है। पूर्व के दो शुक्लध्यान आठवें और बारहवें गुणस्थानवर्ती इन चार लक्षणों के आधार पर हम यह बता सकते हैं कि पूर्वधरों में सम्भव होते हैं और शेष दो तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवार्ती किसी व्यक्ति में शुक्लध्यान संभव होगा या नहीं।
केवली को होते हैं।८७ स्थानांगसूत्र में शुक्लध्यान के चार आलम्बन बताये गये
जैन ध्यान साधना पर तान्त्रिक साधना का प्रभाव- पूर्व में हैं८५- १. क्षान्ति (क्षमाभाव), २. मुक्ति (निलोंभता), ३. आर्जव (सरलता) हम विस्तार से यह स्पष्ट कर चुके हैं कि ध्यान-साधना श्रमण परम्परा की
और ४. मार्दव (मृदुता)। वस्तुत: शुक्लध्यान के ये चार आलम्बन चार अपनी विशेषता है, उसमें ध्यान-साधना का मुख्य प्रयोजन आत्माविशुद्धि कषायों के त्याग रूप ही हैं, शान्ति में क्रोध का त्याग है और मुक्ति में अर्थात् चित्त को विकल्पों एवं विक्षोभों से मुक्त कर निर्विकल्पदशा या लोभ का त्याग है। आर्जव माया (कपट) के त्याग का सूचक है तो मार्दव समाधि (समत्व) में स्थित करना रहा है। इसके विपरीत तान्त्रिक साधना मान कषाय के त्याग का सूचक है।
में ध्यान का प्रयोजन मन्त्रसिद्धि और हठयोग में षटचक्रों का भेदन कर इसी ग्रन्थ में शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षाओं का उल्लेख भी कुण्डलिनी को जागृत करना है। यद्यपि उनमें भी ध्यान के द्वारा आत्मशांति हुआ है, किन्तु ये चार अनुप्रेक्षाएं सामान्य रूप से प्रचलित १२ या आत्मविशुद्धि की बात कही गई है, किन्तु यह उनपर श्रमणधारा के अनुप्रेक्षाओं से क्वचित् रूप में भिन्न ही प्रतीत होती हैं। स्थानांग में प्रभाव का ही परिणाम है, क्योंकि वैदिकधारा के अथर्ववेद आदि प्राचीन शुक्लध्यान की निम्न चार अनुप्रेक्षाएं उल्लिखित हैं८६.
ग्रन्थों में मंत्र सिद्धि का प्रयोजन लौकिक उपलब्धियों के हेतु विशिष्ट १) अनन्तवृत्तितानुप्रेक्षा-संसार के परिभ्रमण की अनन्तता का शक्तियों की प्राप्ति ही था। वस्तुतः हिन्दू तान्त्रिक साधना वैदिक और विचार करना।
श्रमण परम्पराओं के समन्वय का परिणाम है। उसमें मारण, मोहन, २) विपरिणामानुप्रेक्षा- वस्तुओं के विविध परिणमनों का विचार वशीकरण, स्तम्भन आदि षट्कर्मों के लिए मंत्र सिद्धि की जो चर्चा है करना।
वह वैदिकधारा का प्रभाव है, क्योंकि उसके बीज अथर्ववेद आदि में भी ३) अशुभानुप्रेक्षा- संसार, देह और भोगों की अशुभता का विचार हमें उपलब्ध होते हैं, जबकि ध्यान, समाधि आदि के द्वारा आत्मविशुिद्धि करना।
की जो चर्चा है वह निवृत्तिमार्गी श्रमण परम्परा का प्रभाव है। किन्तु यह ४) अपायानुप्रेक्षा- राग, द्वेष से होने वाले दोषों का विचार करना। भी सत्य है कि सामान्य रूप से श्रमणधारा और विशेष रूप से जैनधारा
शुक्लध्यान के चार प्रकारों के सम्बन्ध में बौद्धों का दृष्टिकोण भी पर भी हिन्दू तान्त्रिक साधना और विशेष रूप से कौलतंत्र का प्रभाव जैन परम्परा के निकट ही है। बौद्ध परम्परा में चार प्रकार के ध्यान माने आया है। गये हैं।
वस्तुत: जैन तंत्र में सकलीकरण, आत्मरक्षा, पूजाविधान और १) सवितर्कसविचारविवेकजन्य प्रीतिसुखात्मक-प्रथम ध्यान। षट्कर्मों के लिए मन्त्रसिद्धि के विधि-विधान हिन्दू तन्त्र से प्रभावित हैं। २) वितर्कविचाररहित समाधिजप्रीतिसुखात्मक-द्वितीय ध्यान। मात्र इतना ही नहीं, जैन ध्यान-साधना, जो श्रमणधारा की अपनी
३) राग और विराग की प्रति उपेक्षा तथा स्मृति और सम्प्रजन्य से मौलिक साधना-पद्धति है, पर भी हिन्दू तंत्र-विशेष रूप से कौलतंत्र का युक्त उपेक्षास्मृतिसुखविहारी-तृतीय ध्यान।
प्रभाव आया है। यह प्रभाव ध्यान के आलम्बन या ध्येय को लेकर है। ४) सुखदुःख एवं सौमनस्य-दौर्मनस्य से रहित असुख-अदु:खात्मक
जैन परम्परा में ध्यान-साधना के अन्तर्गत विविध आलम्बनों उपेक्षा एवं परिशुद्धि से युक्त-चतुर्थ ध्यान।
की चर्चा तो प्राचीन काल से थी, क्योंकि ध्यान-साधना में चित्त की इस प्रकार चारों शुक्लध्यान बौद्ध परम्परा में भी थोड़े शब्दिक एकाग्रता के लिए प्रारम्भ में किसी न किसी विषय का आलम्बन तो लेना अन्तर के साथ उपस्थित हैं।
ही पड़ता है। प्रारम्भ में जैन परम्परा में आलम्बन के आधार पर धर्मयोग परम्परा में भी समापत्ति के चार प्रकार बतलाये हैं, जो कि ध्यान को निम्न चार प्रकार में विभाजित किया गया थाजैन परम्परा के शुक्लध्यान के चारों प्रकारों के समान ही लगते हैं, १. अज्ञाविचय, २. अपायविचय समापत्ति के निम्न चार प्रकार हैं- १. सवितर्का, २. निर्वितर्का, ३. ३. विपाक विचय ४. संस्थानाविय सविचारा और ४. निर्विचारा।
इन चारों की विस्तृत चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं। यह भी शुक्लध्यान के स्वामी के सम्बन्ध में तत्त्वार्थसूत्र के (शुक्ले स्पष्ट है कि धर्मध्यान के ये चारों आलम्बन जैनों के अपने मौलिक हैं।
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किन्तु आगे चलकर इन आलम्बनों के संदर्भ में तंत्र का प्रभाव आया और इसके पश्चात् अपने हृदय भाग में अधोमुख आठ पंखुड़ियाँ वाले कमल लगभग ग्यारहवीं-बारहवीं शती के आलम्बन के आधार पर धर्मध्यान के का चिंतन करें और यह विचार करें कि ये आठ पखुड़ियाँ अनुक्रम से १. नवीन चार भेद किये गये
ज्ञानावरण, २. दर्शनावरम, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, ५. आयुष्य, ६. १. पिण्डस्थ २. पदस्थ
नाम, ७, गोत्र और ८. अंतराय कर्मों की प्रतिनिधि हैं। इसके पश्चात् यह ३. रूपस्थ ४. रूपातीत
चिंतन करे कि उस अहँ से जो अग्नि शिखायें निकल रही हैं, उनसे यह स्पष्ट है कि धर्मध्यान के इन आलम्बनों की चर्चा मूलतः अष्टदलकमल की अष्टकर्मों की प्रतिनिधि ये पखंड़ियाँ दग्ध हो रही हैं। कौलतन्त्रों से प्रभावित है, क्योंकि शुभचन्द्र (ग्यारहवीं शती) और अंत में यह चिंतन करे कि अहँ के ध्यान से उत्पन्न इन प्रबल अग्नि हेमचन्द्र (बारहवीं शती) के पूर्व हमें किसी भी जैन ग्रंथ में इनकी चर्चा शिखाओं ने अष्टकर्म रूपी उस अधोमुख कमल को दग्ध कर दिया है नहीं मिलती है। सर्वप्रथम शुभचन्द्र ने अपने ज्ञानार्णव में और हेमचन्द्र उसके बाद तीन कोण वाले स्वस्तिक तथा अग्निबीज रेफ से युक्त ने योगशास्त्रके अन्त में ध्यान के इन चारों आलम्बनों की चर्चा की है। वह्निपुर का चिंतन करना चाहिए और यह अनुभव करना चाहिए कि उस इनके पूर्व के किसी भी आचार्य ने इन चारों आलम्बनों की कोई चर्चा रेफ से निकली हुई ज्वालाओं ने अष्टकर्मों के साथ-साथ मेरे इस शरीर नहीं की है। मात्र यही नहीं, पिण्डस्थ- ध्यान के अन्तर्गत धारणाएँ हैं- को भी भस्मीभूत कर दिया है। इसके पश्चात् उस अग्नि के शांत होने की १. पार्थिवी, २. आग्नेयी, ३. मारुति, ४. वारुणी और ५. तत्त्ववती। धारणा करे। वस्तुत: ध्यान के इन चार आलम्बनों में और पञ्च धारणाओं में ध्यान का (ग) वायवीय धारणा- आग्नेयी धारणा के पश्चात् साधक विषय स्थूल से सूक्ष्म होता जाता है। आगे हम संक्षेप में इनकी चर्चा यह चिंतन करे कि समग्र लोक के पर्वतों को चलायमान कर देने में और करेंगे। ध्यान के इन चारों आलम्बनों या ध्येयों और पांचों धारणाओं को समुद्रों को भी क्षुब्ध कर देने में समर्थ प्रचण्ड पवन बह रहा है तथा मेरे जैनों ने कौलतंत्र से गृहीत करके अपने ढंग से किस प्रकार समायोजित देह और आठ कर्मों के भस्मीभूत होने से जो राख बनी थी, उसे वह किया है यह निम्न विवरण से स्पष्ट हो जायेगा।
प्रचण्ड पवन वेग से उड़ाकर ले जा रहा है। अंत में यह चिंतन करना (१) पिण्डस्थ ध्यान- ध्यान-साधना के लिए प्रारम्भ में कोई चहिए कि उस राख को उड़ाकर यह पवन भी शांत हो रहा है। न कोई आलम्बन लेना आवश्यक होता है। साथ ही इसके क्षेत्र में प्रगति (घ) वारुणीय धारणा- वायवीय धारणा के पश्चात् साधक के लिए यह भी आवश्यक होता है कि इन आलम्बनों का विषय क्रमशः यह चिंतन करे कि अर्धचन्द्राकार कलाबिन्दु से युक्त वरुण बीज 'वं' से स्थूल से सूक्ष्म होता जाये। पिण्डस्थ ध्यान में आलम्बन का विषय सबसे उत्पन्न अमृत के समान जल से युक्त मेघमालाओं से आकाश व्याप्त है स्थूल होता है। पिण्ड शब्द के दो अर्थ हैं- शरीर अथवा भौतिक वस्तु। और इन मेघमालाओं से जो जल बरस रहा है, उसने शरीर और कर्मों पिण्ड शब्द का अर्थ शरीर लेने पर पिण्डस्थ ध्यान का अर्थ होगा- की जो भस्मी उड़ी थी उसे भी धो दिया है। आन्तरिक शारीरिक गतिविधियों पर ध्यान केन्द्रित करना, जिसे हम
(ङ) तत्त्ववती धारणा- उपर्युक्त चारों धारणाओं के द्वारा शरीरप्रेक्षा भी कह सकते हैं, किन्तु पिण्ड का अर्थ भौतिक तत्त्व करने पर सप्तधातुओं से बने शरीर और अष्टकर्मों के समाप्त हो जाने पर साधक पार्थिवी आदि धारणायें भी पिण्डस्थ ध्यान के अन्तर्गत ही आ जाती हैं। पूर्णचन्द्र के समान निर्मल एवं उज्जवल कांति वाले विशुद्ध आत्मतत्त्व ये धारणायें निम्न हैं
का चिंतन करे और यह अनुभव करे कि उस सिंहासन पर आसीन मेरी (क) पार्थिवीधारणा- आचार्य हेमचंद्र के योगशास्त्र के अनुसार शुद्ध-बुद्ध-आत्मा अरहंत स्वरूप है। पार्थिवीधारणा में साधक को मध्यलोक के समान एक अतिविस्तृत इस प्रकार की ध्यान-साधना के फल की चर्चा करते हुए क्षीरसागर का चिंतन करना चाहिए। फिर यह विचार करना चाहिए कि आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं कि पिण्डस्थ ध्यान के रूप में इन पाँचों उस क्षीरसागर के मध्य में जम्बूद्वीप के समान एक लाख योजन विस्तार धारणाओं का अभ्यास करने वाले साधक का उच्चाटन, मारण, मोहन, वाला और एक हजार पंखुड़ियों वाला एक कमल है। उस कमल के मध्य स्तम्भन आदि सम्बन्धी दुष्ट विद्यायें और मांत्रिक शक्तियाँ कुछ भी नहीं में देदीप्यमान स्वर्णिम आभा से युक्त मेरु पर्वत के समान एक लाख बिगाड़ सकती हैं। डाकिनी-शाकिनियाँ, क्षुद्र योगिनियाँ, भूत, प्रेत, योजन ऊँची कर्णिका है, उस कर्णिका के ऊपर एक उज्जवल श्वेत पिशाचादि दुष्ट प्राणी उसके तेज को सहन करने में समर्थ नहीं हैं। उसके सिंहसान है, उस सिंहासन पर आसीन होकर मेरी आत्मा अष्टकर्मों का तेज से वे त्रास को प्राप्त होते हैं। सिंह, सर्प आदि हिंसक जन्तु भी समूल उच्छेदन कर रही है।
स्तम्भित होकर उससे दूर ही रहते हैं। (ख) आग्नेयीधारणा- ज्ञानार्णव और योगशास्त्र में इस धारणा यहाँ यह ज्ञातव्य है कि हेमचन्द्र ने अपने योगशास्त्र में (७/८के विषय में कहा गया है कि साधक अपने नाभिमण्डल में सोलह २८) तान्त्रिक परम्परा की इन पाँचों धारणाओं को स्वीकार करके भी पंखुड़ियों वाले कमल का चिंतन करे। फिर उस कमल की कर्णिका पर उन्हें जैन धर्म-दर्शन की आत्मविशुद्धि की अवधारणा से योजित किया अहं की, और प्रत्येक पंखुड़ी पर क्रमश: अ, आ, इ, ई, उ, ऊ ऋ ऋ, है। क्योंकि इन धारणाओं के माध्यम से वे अष्टकर्मों के नाश के द्वारा लू, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:- इन सोलह स्वरों की स्थापना करें। शुद्ध आत्मदशा में अवस्थित होने का ही निर्देश करते हैं, किन्तु जब वे
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इसी पिण्डस्थ ध्यान की पाँचों धारणाओं के फल की चर्चा करते हैं, तो किया जाता है। इस ध्यान का साधक-योगी सर्वप्रथम हृदयकमल में स्पष्ट ऐसा लगता है कि वे तांत्रिक परम्परा से प्राभावित हैं, क्योंकि यहाँ स्थित कर्णिका में इस पद की स्थापना करता है तथा वचन-विलास की उन्होंने उन्हीं भौतिक उपलब्धियों की चर्चा की है जो प्रकारान्तर से उत्पत्ति के अद्वितीय कारण स्वर तथा व्यंजन से युक्त, पंचपरमेष्ठि के तांत्रिक साधना का उद्देश्य होती है।
वाचक, मूर्धा में स्थित चंद्रकला से झरनेवाले अमृत के रस से सराबोर
महामंत्र प्रणव (ॐ) श्वास को निश्चल करके कुम्भक द्वारा ध्यान करता (२) पदस्थ ध्यान
है। इस ध्यान की विशेषता यह है कि स्तम्भन कार्य में पीत, वशीकरण जिस प्रकार पिण्डस्थ ध्यान में ध्येयभौतिक पिण्ड या शरीर में लाल, क्षोभन में मूंगे के रंग के समान, विद्वेषण में कृष्ण, कर्मनाश होता है उसी प्रकार पदस्थ ध्यान में ध्यान का आलम्बन पवित्र मंत्राक्षर, अवस्था में चंद्रमा की प्रभा के समान उज्जवल वर्ण का ध्यान किया बीजाक्षर या मातृकापद होते हैं। पदस्थ ध्यान का अर्थ है पदों अर्थात् स्वर जाता है।
और व्यञ्जनों की विशिष्ट रचनाओं को अपने ध्यान का आलम्बन या हेमचन्द्र के अनुसार पंचपरमेष्ठि नामक ध्यान में प्रथम हृदय में ध्येय बनाना। इस ध्यान के अन्तर्गत मातृकापदों अर्थात् स्वर-व्यञ्जनों पर आठ पंखुड़ीवाले कमल की स्थापना करके कर्णिका के मध्य में सप्ताक्षर ही ध्यान केन्द्रित किया जाता है। इस पदस्थ ध्यान में शरीर के तीन 'अरहंताणं' पद का चिन्तन किया जाता है। तत्पश्चात् चारों दिशाओं के केन्द्रों अर्थात् नाभिकमल, हृदयकमल तथा मुखकमल की कल्पना की चार पत्रों पर क्रमश: ‘णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं जाती है। इसमें नाभिकमल के रूप में सोलह पंखुड़ियों वाले कमल की तथा णमो लोए सव्वसाहूणं' का ध्यान किया जाता है तथा चार विदिशाओं कल्पना करके उसकी उन पंखुड़ियों पर सोलह स्वरों का स्थापन किया के पत्रों पर क्रमश: “एसो पंचणमुक्कारो सव्वपावप्पणासणो, मंगलाणं च जाता है। हृदयकमल में कर्णिका सहित चौबीस पटल वाले कमल की सव्वेसिं, पढमं हवइ मगलं' का ध्यान किया जाता है। शुभचंद्र के कल्पना की जाती है और उसकी मध्यकर्णिका तथा चौबीस पटलों पर मतानुसार मध्य एवं पूर्वादि चार दिशाओं में तो णमो अरहंताणं आदि का क्रमशः क, ख, ग, घ आदि 'क' वर्ग से 'प' वर्ग तक के पच्चीस तथा चार विदिशाओं में क्रमश: 'सम्यग्दर्शनाय नमः, सम्यग्ज्ञानाय नमः व्यञ्जनों की स्थापना करके उनका ध्यान किया जाता है। इसी प्रकार सम्यक् चारित्राय नमः तथा सम्यग्तपसे नम:' का चिंतन किया जाता है। अष्टपटलयुक्त मुखकमल की कल्पना करके उसके उन अष्ट पटलों पर इनके अतिरिक्त इन दोनों नमस्कारमंत्र से सम्बन्धित अनेक य, र, ल, व, श, ष, स, ह,- इन आठ वर्गों का ध्यान किया जाता ऐसे मन्त्रों या पदों का उल्लेख है जिनका ध्यान या जप करने से है। चूंकि सम्पूर्ण वाङ्मय इन्ही मातृकापदों से निर्मित है, अत: इन मनोव्याधियां शान्त होती हैं, कष्टों का परिहार होता है तथा कर्मों का मातृकापदों का ध्यान करने से व्यक्ति सम्पूर्ण श्रुत का ज्ञाता हो जाता है आस्रव रुक जाता है। इनकी विस्तृत चर्चा हम तन्त्र साधना और जैन धर्म (योगशास्त्र ८/१-५)।
नामक पुस्तक में कर चुके हैं। ज्ञानार्णव के अनुसार मंत्र व वर्णों (स्वर-व्यञ्जनों) के ध्यान में इस प्रकार पदस्थ ध्यान में चित्त को स्थित करने के लिए समस्त पदों का स्वामी 'अहं' माना गया है, जो रेफ कला एवं बिन्दु से मातृका पदों बीजाक्षरों एवं मंत्राक्षरों का आलम्बन किया जाता है। युक्त अनाहत मंत्रराज है। इस ध्यान के विषय में कहा गया है कि साधक जैनाचार्यों ने यह तो माना है कि इस पदस्थ ध्यान से विभिन्न को एक सुवर्णमय कमल की कल्पना करके उसके मध्य में कर्णिका पर लब्धियाँ या अलौकिक शक्तियाँ भी प्राप्त होती हैं, किन्तु वे साधक को विराजमान, निष्कलंक, निर्मल चंद्र की किरणों जैसे आकाश एवं संपूर्ण इनसे दूर रहने का ही निर्देश करते हैं, क्योंकि उनका लक्ष्य चित्त को दिशाओं में व्याप्त 'अहं' मंत्र का स्मरण करना चाहिए। तत्पश्चात् उसे शुद्ध और एकाग्र करना है, न कि भौतिक उपलब्धिाँ प्राप्त करना। मुखकमल में प्रवेश करते हुए, प्रवलयों में भ्रमण करते हुए, नेत्रपालकों (३) रूपस्थ ध्यान- इस ध्यान में साधक अपने मन को अहँ पर स्फुरित होते हुए, भाल मण्डल में स्थिर होते हुए, तालुरन्ध्र से बाहर पर केन्द्रित करता है अर्थात् उनके गुणों एवं आदर्शों का चिन्तन करता निकलते हुए, अमृत की वर्षा करते हुए, उज्ज्वल चंद्रमा के साथ स्पर्धा है। अर्हत के स्वरूप का आवलम्बन करके जो ध्यान किया जाता है वह करते हुए, ज्योतिर्मण्डल में भ्रमण करते हुए, आकाश में संचरण करते ध्यान रूपस्थ ध्यान कहलाता है। रूपस्थ ध्यान का साधक रागद्वेषादि हुए तथा मोक्ष के साथ मिलाप करते हुए कुम्भक के समान सम्पूर्ण विकारों से रहित समस्त गुणों, प्रतिहार्यों एवं अतिशयों से युक्त जिनेन्द्रदेव अवयवों में व्याप्त होने का चिन्तन करना चाहिए।
का निर्मल चित्त से ध्यान करता है। वस्तुत: यह सगुण परमात्मा का इस प्रकार चित्त एवं शरीर में इसकी स्थापना द्वारा मन को ध्यान है। क्रमशः सूक्ष्मता के 'अर्ह मंत्र पर केंद्रित किया जाता है। अहँ के स्वरूप (४) रूपातीत ध्यान- रूपातीत ध्यान का अर्थ है रूप-रंग से में अपने को स्थिर करने पर साधक के अन्तरंग में एक ऐसी ज्योति अतीत निरंजन, निराकार, ज्ञान स्वरूप एवं आनन्दस्वरूप सिद्ध परमात्मा प्रकट होती है, जो अक्षय तथा अतीन्द्रिय होती है। इसी ज्योति का नाम का स्मरण करना। इस अवस्था में ध्याता ध्येय के साथ एकत्व की ही आत्मज्योति है तथा इसी से साधक को आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है। अनुभूति करता है। अत: इस अवस्था को समरसीभाव भी कहा गया है।
प्रणव नामक ध्यान में अहँ के स्थान पर 'ॐ' पद का ध्यान इस तरह पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ तथा रूपातीत ध्यानों द्वारा
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जैन साधना में ध्यान
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क्रमश: भौतिक तत्त्वों या शरीर, मातृकापदों, सर्वज्ञदेव तथा सिद्धात्मा कोई विशिष्ट पद्धति थी। यह भी हो सकता है कि साधकों की प्रकृति के का चिंतन किया जाता है; क्योंकि स्थूल ध्येयों के बाद क्रमश सूक्ष्म और अनुरूप ध्यान-साधना की एकाधिक पद्धतियां भी प्रचलित रही हों, सूक्ष्मतर ध्येय का ध्यान करने से मन में स्थिरता आती है और ध्याता एवं किन्तु आगमों की अन्तिम वाचना तक वे विलुप्त होने लगी थीं। जिस ध्येय में कोई अन्तर नहीं रह जाता।
रामपुत्त का निर्देश भगवान् बुद्ध के ध्यान के शिक्षक के रूप में मिलता
है, उनका उल्लेख जैन परंपरा के प्राचीन आगमों में जैसे सूत्रकृतांग, जैन धर्म में ध्यान-साधना का विकासक्रम
अंतकृददशा, औपपातिकदशा, ऋषिभाषित आदि में होना ४ इस बात जैन धर्म में ध्यानसाधना की परम्परा प्राचीनकाल से ही उपलब्ध का प्रमाण है कि निर्ग्रन्थ परम्परा रामपुत्त की ध्यान-साधना की पद्धति से होती है। सर्वप्रथम हमें आचारांग में महावीर के ध्यान साधना संबंधी प्रभावित थी। बौद्ध परम्परा की विपश्यना और निग्रंथ परम्परा की अनेक सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं। आचारांग के अनुसार महावीर अपने आचारांग की ध्यान साधना में जो कुछ निकटता परिलक्षित होती है, वह साधनात्मक जीवन में अधिकांश समय ध्यान-साधना में ही लीन रहते यह सूचित करती है कि सम्भवत: दोनों का मूल स्रोत रामपुत्त की ध्यानथे।८८ आचारांग से यह भी ज्ञात होता है कि महावीर ने न केवल पद्धति ही रही होगी। इस संबंध में तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन किया चित्तवृत्तियों के स्थिरीकरण का अभ्यास किया था, अपितु उन्होंने दृष्टि के जाना अपेक्षित है। स्थिरीकरण का भी अभ्यास किया था। इस साधना में वे अपलक होकर षट् आवश्यकों में कायोत्सर्ग को भी एक आवश्यक माना दीवार आदि किसी एक बिन्दु पर ध्यान केन्द्रित करते थे। इस साधना में गया है। कायोत्सर्ग ध्यान-साधनापूर्वक ही होता है, इसमें कोई संदेह नहीं उनकी आंखें लाल हो जाती थीं और बाहर की ओर निकल आती थीं, है। प्रतिक्रमण में अनेक बार कायोत्सर्ग (ध्यान) किया जाता है। वर्तमानकाल जिन्हें देखकर दूसरे लोग भयभीत भी होते थे।८९ आचारांग के ये में भी यह परम्परा अविच्छिन्न रूप से जीवित है। आज भी ध्यान की इस उल्लेख इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं कि महावीर ने ध्यान-साधना की परम्परा में आचार संबंधी दोषों के चिन्तन के अतिरिक्त नमस्कार मंत्र, बाह्म और आभ्यन्तर अनेक विधियों का प्रयोग किया था। वे अप्रमत्त चतुर्विंशतिस्तव के माध्यम से पंचपरमेष्ठि अथवा तीर्थंकरों का ध्यान (जाग्रत) होकर समाधिपूर्वक ध्यान करते थे। ऐसे भी उल्लेख उपलब्ध किया जाता है। हुआ मात्र यह है कि ध्यान की इस समग्र प्रकिया में, जो होते हैं कि महावीर के शिष्य- प्रशिष्यों में भी यह ध्यान-साधना की सजगता अपेक्षित थी, वह समाप्त हो गयी है और ये सब ध्यान संबंधी प्रवृत्ति निरन्तर बनी रही। उत्तराध्ययन में मुनिजीवन की दिनचर्या का प्रक्रियाएं रूढ़ि मात्र बनकर रह गई हैं। यद्यपि इन प्रक्रियाओं की विवेचन करते हुए स्पष्ट रूप से निर्देश दिया गया है कि मुनि दिन और उपस्थिति से यह ज्ञात होता है कि ध्यान की इन प्रक्रियाओं से चेतना से रात्रि के द्वितीय प्रहर में ध्यान साधना करे।९० महावीरकालीन साधकों के सतत रूप से जाग्रत या ज्ञाता-द्रष्टा- भाव में स्थिर रखने का प्रयास ध्यान की कोष्ठोपगत विशेषता आगमों में उपलब्ध होती है। यह इस बात किया जाता रहा है। की सूचक है कि उस युग में ध्यान-साधना मुनि जीवन का एक आगम युग तक जैन धर्म में ध्यान का उद्देश्य मुख्य रूप से आवश्यक अंग थी। भद्रबाह द्वारा नेपाल में जाकर महाप्राण ध्यान की आत्मशुद्धि या चारित्रशुद्धि ही था अथवा यों कहें कि वह चित्त को साधना करने का उल्लेख भी मिलता है।९१ इसी प्रकार दुर्बलिकापुष्यमित्र समभाव में स्थिर रखने का प्रयास था। की ध्यान साधना का उल्लेख आवश्यकचूर्णि में है।९२ यद्यपि आगमों में मध्य युग में जब भारत में तंत्र और हठयोग संबंधी साधनाएं ध्यान संबंधी निर्देश तो हैं, किन्तु महावीर और उनके अनुयायियों की प्रमुख बनी तो उनके प्रभाव से जैन ध्यान की प्रक्रिया में परिवर्तन आया। ध्यान प्रक्रिया का विस्तृत विवरण उनमें उपलब्ध नहीं है।
आगमिक काल में ध्यान-साधना में शरीर, इन्द्रिय, मन और चित्तमहावीर के युग में श्रमण परम्परा में ऐसे अनेक श्रमण थे वृत्तियों के प्रति सजग होकर चेतना को द्रष्टाभाव या साक्षीभाव में स्थिर जिनकी अपनी-अपनी ध्यान-साधना की विशिष्ट पद्धतियां थी। इनमें किया जाता था, जिससे शरीर और मन के उद्वेग और आकुलताएं शान्त बुद्ध और महावीर के समकालीन किन्तु उनसे ज्येष्ठ रामपुत्त का हम हो जाती थीं। दूसरे शब्दों में वह चैतसिक समत्व अर्थात् सामायिक की प्रारम्भ में ही उल्लेख कर चुके हैं। आचारांगसूत्र में साधकों के सम्बन्ध साधना थी, जिसका कुछ रूप आज भी विपश्यना में उपलब्ध है। किन्तु में विपस्सी९३ और पासग जैसे विशेषण मिलते हैं। इससे ऐसा लगता जैसे-जैसे भारतीय समाज में तंत्र और हठयोग का प्रभाव बढ़ा वैस-वैसे है कि भगवान् महावीर की निर्ग्रन्थ परम्परा में भी ज्ञाता-द्रष्टाभाव में जैन साधनापद्धति में भी परिर्वतन आया। जैन ध्यानपद्धति में पदस्थ, चेतना को स्थिर रखने के लिए विपश्यना जैसी कोई ध्यान साधना की पिण्डस्थ, रूपस्थ आदि ध्यान की विधियाँ और पार्थिवी, आग्नेयी, पद्धति रही होगी। उसमें श्वासोच्छवास प्रेक्षा, शरीर प्रेक्षा, कषाय या चित्त वायवीय और वारुणीय जैसी धारणाएं सम्मिलित हुईं। बीजाक्षरों तथा प्रेक्षा के संकेत तो हैं किन्तु विस्तृत विवरणों के अभाव में आज उस मंत्रों का ध्यान करने की परम्परा विकसित हुई और षट्चक्रों के भेदन का पद्धति की सम्पूर्ण प्रक्रिया की चर्चा नहीं की जा सकती, परन्तु आचारांग प्रयास भी हुआ। यह स्पष्ट है कि यह सब कौलतन्त्र एवं हठयोग से जैन जैसे प्राचीन आगम में इन शब्दों की उपस्थिति इस तथ्य की सूचक परम्परा में आया। अवश्य है कि उस युग में ध्यान- साधना की जैन परम्परा की अपनी यदि हम जैन परम्परा में ध्यान की प्रक्रिया का इतिहास देखते
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हुई थी।
हैं तो यह स्पष्ट लगता है कि उस पर अन्य भारतीय ध्यान एवं योग की पुनर्स्थापित करना था। भगवान् बुद्ध की ध्यान- साधना की विपश्यना परम्पराओं का प्रभाव आया है, जो हरिभद्र के पूर्व से ही प्रारंभ हो गया पद्धति की जो एक जीवित परम्परा किसी प्रकार से बर्मा में बची रही थी, था। हरिभद्र उनकी ध्यान-विधि को लेकर भी उसमें अपनी परम्परा के वह सत्यनारायणजी गोयनका के माध्यम से पुन: भारत में अपने जीवंत अनुरूप बहुत कुछ परिवर्तन किये थे। पूर्व मध्ययुग की जैन ध्यान- रूप में लौटी। उस ध्यान की जीवंत परम्परा के आधार पर जैनों को, साधना-विधि उस युग की योग-साधना-विधि से पर्याप्त रूप से प्रभावित भगवान महावीर की ध्यान-साधना की पद्धति क्या रही होगी, इसका
आभास हुआ। जैन समाज का यह भी सद्भाग्य है कि कुछ जैन मुनि एवं मध्ययुग में ध्यान-साधना का प्रयोग भी बदला। प्राचीन काल साध्वियां उनकी विपश्यना की साधना-पद्धति से जुड़े। संयोग से मुनि श्री में ध्यान-साधना का प्रयोजन मात्र आत्म-विशुद्धि या चैतसिक समत्व नथमलजी (आचार्य महाप्रज्ञ) जैसे प्राज्ञ साधक विपश्यना साधना से जुड़े था, किन्तु उमास्वाति (ईसा की तीसरी-चौथी शती) के युग में उसके और उन्होंने विपश्यना ध्यान-पद्धति तथा हठयोग की प्राचीन ध्यानसाथ विभिन्न ऋद्धियों और लब्धियों की चर्चा भी जुड़ी और यह माना पद्धति को आधुनिक मनोविज्ञान एवं शरीरविज्ञान के आधारों पर परख जाने लगा कि ध्यान-साधना से विविध अलौकिक शक्तियाँ प्राप्त की जा और उन्हें जैन साधना परम्परा से आपूरित करके प्रेक्षाध्यान की जैनधारा सकती हैं। तत्त्वार्थभाष्य में उमास्वाति ने ध्यान से सिद्ध होने वाली विधि को पुनर्जीवित किया है। यह स्पष्ट है कि आज प्रेक्षाध्यान प्रक्रिया जैन लब्धियों की विस्तृत चर्चा की है जिनका उल्लेख हम सूरिमन्त्र की ध्यान की एक वैज्ञानिक पद्धति के रूप में अपना अस्तित्व बना चुकी है। साधना के प्रसंग में कर चुके है।
उसकी वैज्ञानिकता और उपयोगिता पर भी कोई प्रश्नचिह्न नहीं लगाया ध्यान की प्रभावशीलता को बनाए रखने के लिए यह आवश्यक जा सकता है, किन्तु उसके विकास में सत्यनारायणजी गोयनका द्वारा तो था, किन्तु इसके अन्य परिणाम भी सामने आये। जब अनेक साधक भारत लायी गयी विपश्यना ध्यान की साधना-पद्धति के योगदान को भी इन हठयोगी साधनाओं के माध्यम से ऋद्धि या लब्धि प्राप्त करने में विस्मृत नहीं किया जा सकता। आज प्रेक्षाध्यान पद्धति निश्चित रूप से असमर्थ रहे तो उन्होंने यह मान लिया कि वर्तमान युग में ध्यान-साधना विपश्यना की ऋणी है। गोयनका जी का ऋण स्वीकार किए बिना हम संभव ही नहीं है। ध्यान-साधना की सिद्धि केवल उत्तम संहनन के धारक अपनी प्रामाणिकता को सिद्ध नहीं कर सकेंगे। साथ ही इस नवीन पद्धति मुनियों अथवा पूर्वधरों को ही संभव थी। ऐसे भी अनेक उल्लेख उपलब्ध के विकास में आचार्य महाप्रज्ञजी का जो महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है, उसे होते हैं जिनमें कहा गया है कि पंचमकाल में उच्चकोटि का धर्मध्यान या भी नहीं भुलाया जा सकता। उन्होंने विपश्यना से बहुत कुछ लेकर भी शुक्लध्यान संभव नहीं है। मध्ययुग में ध्यान प्रक्रिया में कैसे-कैसे उसे प्राचीन हठयोग की षट्चक्र भेदन आदि की अवधारणा से तथा परिवर्तन हुए, यह बात प्राचीन आगमों में तत्त्वार्थसूत्र की टीकाओं, आधुनिक मनोविज्ञान और शरीर विज्ञान से जिस प्रकार समन्वित और दिगम्बर जैन पुराणों, श्रावकाचारों एवं हरिभद्र, शुभचन्द्र, हेमचन्द्र आदि परिपुष्ट किया है, वह उनकी अपनी प्रतिभा का चमत्कार है। यहाँ विस्तार के ग्रंथों के तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट हो जाती है। मध्यकाल में ध्यान से न तो विपश्यना के सन्दर्भ में और न प्रेक्षाध्यान के सन्दर्भ में कुछ कह की निषेधक और समर्थक दोनों धाराएं साथ-साथ संभव न हो, किन्तु पाना संभव है, किन्तु यह सत्य है कि ध्यान-साधना की इन पद्धतियों धर्मध्यान की साधना तो संभव है। मात्र यह ही नहीं, मध्ययुग में को अपना कर जैन साधक न केवल जैन ध्यान-पद्धति के प्राचीन स्वरूप धर्मध्यान के स्वरूप में काफी कुछ परिर्वतन किया गया और उसमें अन्य का कुछ आस्वाद करेंगे, अपितु तनावों से परिपूर्ण जीवन में आध्यात्मिक परम्पराओं की अनेक धारणाएं सम्मिलित हो गयीं। जैसे पिण्डस्थ, शान्ति और समता का आस्वाद भी ले सकेंगे। पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यान, पार्थिवी, आग्नेयी, वायवीय, सम्यक् जीवन जीने के लिए विपश्यना और प्रेक्षाध्यान पद्धतियों वारुणीय एवं तत्त्ववती धारणाएँ, मातृकापदों एवं मंत्राक्षरों का ध्यान, का अभ्यास और अध्ययन आवश्यक है। हम आचार्य महाप्रज्ञ के प्राणायाम, षट्चक्रभेदन आदि इस युग में ध्यान संबंधी स्वतंत्र साहित्य इसलिए भी ऋणी हैं कि उन्होंने न केवल प्रेक्षाध्यान-पद्धति का विकास का भी पर्याप्त विकास हुआ। झाणाज्झयण (ध्यानशतक) से लेकर किया अपितु उसके अभ्यास केन्द्रों की स्थापना भी की। साथ ही जीवन ज्ञानार्णव, ध्यानस्तव, योगशास्त्र आदि अनेक स्वतंत्र ग्रंथ भी ध्यान पर विज्ञान ग्रंथमाला के माध्यम से प्रेक्षाध्यान से संबंधित लगभग ४८ लिखे गये। मध्ययुग तन्त्र, हठयोग और जैन ध्यान के समन्वय का युग लघुपुस्तिकाएं लिखकर उन्होंने जैन ध्यान-साहित्य को महत्त्वपूर्ण अवदान कहा जा सकता हैं। इस काल में जैन ध्यान-पद्धति योग परम्परा से, भी दिया है। विशेष रूप से हठयोग की परम्परा से एवं तांत्रिक परम्परा से पर्याप्त रूप यह भी प्रसन्नता का विषय है कि विपश्यना और प्रेक्षा की से प्रभावित और समन्वित हुई।
ध्यान-पद्धतियों से प्रेरणा पाकर आचार्य नानालालजी ने समीक्षण ध्यान___आधुनिक युग तक यही स्थिति चलती रही। आधुनिक युग में विधि को प्रस्तुत किया और इस संबंध में एक-दो प्रारंभिक पुस्तिकाएं भी जैन ध्यान-साधना की पद्धति में पुनः एक क्रान्तिकारी परिवर्तन आया है। निकाली हैं; किन्तु प्रेक्षाध्यान-विधि की तुलना में उनमें न तो प्रतिपाद्य इस क्रान्ति का मूलभूत कारण तो श्री सत्यनारायणजी गोयनका द्वारा विषय की स्पष्टता है और न वैज्ञानिक प्रस्तुतीकरण ही। अभी-अभी क्रोध बौद्धों की प्राचीन विपश्यना साधना-पद्धति को बर्मा से लाकर भारत में समीक्षण आदि एक-दो पुस्तकें और भी प्रकार में आयी हैं किन्तु इस
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जैन साधना में ध्यान
४७९ पद्धति को वैज्ञानिक और प्रायोगिक बनाने के लिए अभी उन्हें बहुत कुछ ओर भी विद्वानों का ध्यान आकर्षित हुआ है। ध्यानशतक, ध्यानस्तव, करना शेष रहता है।
ज्ञानार्णव आदि ध्यान और योग संबंधी ग्रंथों की समालोचनात्मक भूमिका
तथा हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशन इस दिशा में महत्त्वपूर्ण प्रयत्न वर्तमान युग और ध्यान
कहा जा सकता है। पुनः हरिभद्र के योग संबंधी ग्रंथों का स्वतंत्र रूप से वर्तमान युग में जहां एक ओर योग और ध्यान संबंधी साधनाओं योग चतुष्टय के रूप में प्रकाशन इस कड़ी का एक अलग चरण है। पं० के प्रति आकर्षण बढ़ा है, वहीं दूसरी ओर योग और ध्यान के अध्ययन सुखलालजी का 'समदर्शी हरिभद्र' अर्हदास बंडोबा दिघे का पार्श्वनाथ
और शोध में भी विद्वानों की रुचि जागृत हुई है। आज भारत की अपेक्षा विद्याश्रम शोध संस्थान से प्रकाशित -जैन योग का आलोचनात्मक पाश्चात्य देशों में योग और ध्यान के प्रति विशेष आकर्षण देखा जाता है, अध्ययन', मंगला सांड का 'भारतीय योग' आदि गवेषाणात्मक दृष्टि से क्योंकि भौतिक आकांक्षाओं के कारण जीवन में जो तनाव आ गये हैं, महत्त्वपूर्ण प्रकाशन कहे जा सकते हैं। अंग्रेजी भाषा में विलियम जेम्स का वे उससे मुक्ति चाहते हैं। आज भारतीय योग और ध्यान की साधना- 'जैन योग', डॉ० नथमल टाटिया की 'Studies in Jaina Philosoपद्धतियों को अपने-अपने ढंग से पश्चिम के लोगों की रुचि के अनुकूल phy', पद्मनाभ जैनी का 'Jain Path of Purification' आदि भी इस बनाकर विदेशों में निर्यात किया जा रहा है। योग और ध्यान की साधना क्षेत्र की महत्त्वपूर्ण कृतियां हैं जैन ध्यान और योग को लेकर लिखी गई में शारीरिक विकृतियों और मानसिक तनावों को समाप्त करने की जो मुनिश्री नथमलजी (आचार्य महाप्रज्ञ) की 'जैन योग 'चेतना का ऊर्ध्वारोहरण', शक्ति रही हुई है, उसके कारण भोगवादी और मानसिक तनावों से 'किसने कहा मन चंचल है', 'आभामण्डल' आदि तथा आचार्य तुलसी संत्रस्त पश्चिमी देशों के लोग चैतसिक शान्ति का अनुभव करते हैं और की प्रेक्षा-अनुप्रेक्षा आदि कृतियां इस दृष्टि से अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण हैं। यही कारण है कि उनका योग और ध्यान के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है। उनमें पाश्चात्य मनोविज्ञान और शरीर-विज्ञान का तथा भारतीय हठयोग इन साधना-पद्धतियों का अभ्यास कराने के लिए भारत से परिपक्व एवं की षट्चक्र की अवधारणा को भी अपने ढंग से समन्वित किया है। अपरिपक्व दोनों ही प्रकार के गुरु विदेशों की यात्रा कर रहे हैं। यद्यपि उनकी ये कृतियां जैन योग और ध्यान-साधना के लिए अवश्य मील का अपरिपक्व, भोगाकांक्षी तथाकथित गुरुओं के द्वारा ध्यान और योग- पत्थर साबित होगी। साधना का पश्चिम में पहुंचना भारतीय ध्यान और योग परम्परा की मूल्यवत्ता एवं प्रतिष्ठा दोनों ही दृष्टि से खतरे से खाली नहीं है। आज संदर्भ जहां पश्चिम में भावातीत ध्यान, साधना भक्ति वेदान्त, रामकृष्ण मिशन १. Mohenjodaro and Indus Civilization, John marshall आदि के कारण भारतीय ध्यान एवं योग-साधना की लोकप्रियता बढ़ी है Pub.- Indological Book House, Delhi, 1973 Vol. I. वहीं रजनीश आदि के कारण उसे एक झटका भी लगा है। आज श्री Page 52चित्तमुनिजी, स्वर्गीय आचार्य सुशीलकुमारजी, डॉ० हुकमचन्द्र भारिल्ल २. Dictonary of Pali Proper Names, By G.P. Malalaआदि ने जैन ध्यान और साधना-विधि से पाश्चात्य देशों में बसे हुए जैनों Sekhara Pub.- John Murray, Albemarle Street, को परिचित कराया है। तेरापंथ की कुछ जैन समणियों ने भी विदेशों मे London, (1937) Vol. I. P. 382-83. जाकर प्रेक्षाध्यान-विधि से उन्हें परिचित कराया है। यद्यपि इनमें कौन ३. सूत्रकृतांग सूत्र, संपा, मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन कहां तक सफल हुआ है यह एक अलग प्रश्न हैं, क्योंकि सभी के
समिति, व्यावर, १९८२, १/३/४/२-३ अपने-अपने दावे हैं। फिर भी इतना तो निश्चित है कि आज पूर्व और ४.. स्थानांगसूत्र, संपा, मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन पश्चिम दोनों में ही ध्यान और योग-साधना के प्रति रुचि जागृत हुई है। समिति, व्यावर, १९८१, १०/१३३ (इसमें अन्तकृत्दशा की अत: आवश्यकता इस बात की है कि योग और ध्यान की जैन विधि
प्राचीन विषय वस्तु का उल्लेख है) सुयोग्य साधकों और अनुभवी लोगों के माध्यम से ही पूर्व-पश्चिम में ५.
इसिभसियाई- (ऋषिभाषित) संपा०- महोपाध्याय विनयसागर, विकसित हो, अन्यथा जिस प्रकार मध्ययुग में हठयोग और तंत्र साधना
प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, १९८८ अध्याय २३ से प्रभावित होकर भारतीय योग और ध्यान परम्परा विकृत हुई थी उसी ६. वही, अध्याय २३ । प्रकार आज भी उसके विकृत होने का खतरा बना रहेगा और लोगों की
वही २२/१४ उससे आस्था उठ जायेगी।
८. उत्तराध्ययनसूत्र संपा०- साध्वी चन्दना, प्रका० वीरायक्त प्रकाशन,
आगरा, १९७२; २६/१८ ध्यान एवं योग संबंधी साहित्य
९. श्रमणसूत्र (उपाध्याय अमरमुनि), प्रका०- सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, इस युग में गवेषणात्मक दृष्टि से योग और ध्यान संबंधी
सं० २००७ प्रथम संस्करण पृ० १३३-१३४ साहित्य को लेकर पर्याप्त शोधकार्य हआ है। जहां भारतीय योग साधना १०. उत्तराध्ययनसूत्र संपा०- साध्वी चन्दना, प्रका०- वीरायतन प्रकाशन, और पतञ्जलि के योगसूत्र पर पर्याप्त कार्य हुए हैं, वहीं जैन योग की
आगरा, १९७२; २३/५५-५६
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४८०
११. भगवद्गीता गीता प्रेस, गोरखपुर, ६ / ३४
१२. तत्त्वार्थसूत्र विवे० पं० सुखलाल संघवी, प्रका० पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९७६ ९/२७ १३. गीता, गीता प्रेस, गोरखपुर ६ / ३४
१४. उत्तराध्ययनसूत्र संपा० साध्वी चन्दना, प्रका० वीरायतन प्रकाशन, आगरा, १९७२; २३ / ५६
१५. पुढो छंदा इह माणवा, पुढो दुक्खं पवेदितं। आचारांग १/५/२/ १५२ अणेगचित्ते खलु अयं पुरिसे, से केयणं अरिहए पूरहत्तए - आचारांग सूत्र, संपा०- मधुकर मुनि प्रका०- श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर १९८० /३/२/११८
१६. ध्यानशतक (झाणाज्झयण) जिनभद्र क्ष्माश्रमण, विनयसुन्दर ग्रन्थमाला, जामनगर, वि०सं० १९९७९३-९६
-
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
१७. वही, ९७-१००
१८. वही, १०१
१९. वही, १०२
२०. वही, १०३ २१. वही, १०४
२२. आवश्यकनियुक्ति प्रका० सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, गा० १४६२ २३. आवश्यक सूत्र- आगारसूत्र (श्रमणसूत्र - अमरमुनि) प्र०सं० पृ० ३७६. २४. उत्तराध्ययनसूत्र संपा० साध्वी चन्दना, प्रका०- वीरायतन प्रकाशन, आगरा, १९७२ २८/३५
२७. योग: समाधि' ध्यानमित्यनर्थान्तरम् तत्त्वार्थन्तरम्। तत्त्वार्थराजवार्तिक
संपा० महेन्द्र कुमार जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, १९५७;
६/१/१२
२८. कायावाङ्मनः कर्म योगः तत्त्वार्थसूत्र विवे० पं० सुखलाल संघवी प्रका०- पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, १९७६; ६ / १
२९. योगश्चित्तवृत्ति निरोधः योगसूत्रम् संपा० पं० धुन्धीराज शास्त्री,
प्रका० चौखम्बा संस्कृत सीरीज, बनारस, १९३०१ / २ (पतंजलि ) ३०. 'युजेपी योगे' हेमचन्द्र धातुमाला, गण प्रका० जैनग्रन्य प्रकाशिक समा, अहमदाबाद, १९३०७
३१. उत्तराध्ययनसूत्र संपा० साध्वी चन्दना, प्रका० वीरायतन प्रकाशन, आगरा १९७२३०/३०
-
३२. आवश्यक सूत्र- आगारसूत्र
३३. योगशास्त्र संपा०- मुनि समदर्शी, प्रका० सन्मति ज्ञानपीठ,
आगरा, १९६३ १२/२
३४. अभिधम्मत्वसंगहो, संपा० भदन्त रेवतधम्म प्रका० संस्कृत
विश्वविद्यालय, वाराणसी, बुद्धाब्द- २५१०, ५/१ ३५. भारतीय दर्शन (दत्ता) पृ० १९०
३६. योगशास्त्र, संपा०- मुनिसमदर्शी, प्रका० सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, १९६३ १२/५-६
३७. तत्त्वार्यसूत्र विवे० पं० सुखलाल संघवी, प्रका० पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान वाराणसी १९७६ ९ / २७
३८. वहीं ९ / ३१
३९. वहीं ९ / ३६
२५. तत्त्वार्थवार्तिक संपा०- महेन्द्र कुमार जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, १९५७६/२४/८
२६. धवला, पुस्तक ८, पृ० ८८ (दंसण-णण चरित्तेसु सम्ममवट्ठाणं ५२. तत्त्वार्थ स्वोपज्ञ भाष्य, उमास्वाति ९/ २६
समाही)
४०.
४१.
४२.
ध्यानस्तव (जिनभद्र, प्र० वीर सेवा मंदिर ) २
तत्त्वार्थसूत्र विवे० पं० सुखलाल संधवी, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९७६ ९ / २७
भगवती आराधना, विजयोदया टीका- देखें ध्यानशतक प्रस्तावना पृ० २६.
४३.
पंचास्तिकाय कुन्दकुन्द, प्रका०- परमश्रुत प्रभावक मंडल, श्रीमत राजचन्द्र आश्रम, अगास, वी०सं० २४९५ १५२ ४४. गाणेण झाणसिद्धि
४५. ज्ञानार्णव संपा०- पं० बालचन्द्र शास्त्री, जैन संस्कृति संघ, सोलापुर, १९७७ २७/२३-३२
४६. वही, २८/११
४७. वही, २८/१०
४८. 'गोदोहियाए उक्कुडयनिलिज्जाए' कल्पसूत्र १२०
४९. उत्तराध्यनसूत्र संपा० साध्वी चन्दना, प्रका०- वीरायतन प्रकाशन, आगरा, १९९२ २६/१२
५०. उपासकदशांग ८ / १८२
५१. उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधे ध्यानम् तत्त्वार्थसूत्र- ९/२६
५४.
५५.
५३. ज्ञानार्णव- संपा० बालचन्द्र शास्त्री, जैन संस्कृति संघ, सोलापुर १९७७ ३२/९५, ३६/१-८, मोक्खपाहुड ७ अप्पा सो परमप्पा
तत्त्वानुशासन सिद्धसेन गणि, प्रका० जीवन चंद साकर द झवेरी, सूरत, १९३०७४
५६. मोक्खपाहुड अष्टप्राभृत, कुन्दकुन्द प्रका० परमश्रुत प्रभावक मंडल, श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, आगरा, १९६९५
तत्त्वार्थसूत्र विवे० पं० सुखलाल संघवी, प्रका० पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी १९७६ ९/३१-४१
ज्ञानार्णव संपा०- पं० बालचन्द्र शास्त्री, जैन संस्कृति संघ, सोलापुर, १९७७ ४/१०-१५
५७.
५८.
५९. वही, ४ / १६
६०.
वही, ४/१७
६१.
६२.
-
-
वही, ४/१८-१९
वही, ४/३३
-
६३. तत्त्वार्थसूत्र विवे० पं० सुखलाल संघवी, प्रका० पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान वाराणसी, १९७६ ; ९ / २९
६४. वही ९ / ३०, ध्यानशतक जिनभद्र क्षमाश्रमण विनयसुन्दर चरण
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तन्त्र-साधना और जैन जीवन दृष्टि
४८१
टीका
ग्रन्थमाला, जामनगर, वि०सं० १९९७५
८२. योगशास्त्र संपा० मुनि समदर्शी, प्रका०- सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, ६५. धवला, पुस्तक १३ पृ० ७०
१९६३ ७/२-६ ६७. योगसार, योगीन्दु देव, प्रका०- परमश्रुत प्रमावक मंडल बम्बई, ८३. स्थानांग सूत्र, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन १९३७, ९८
समिति, व्यावर, १९८१ ४/६९ ६८. ज्ञानसार, पद्मसिंह, टीका० त्रिलोकचन्द्र, म०कि० कापडिया, ८४. वही, ४/७०
दिगम्बर जैन पुस्तकालय, सूरत, वी०सं० २४२०; १८-२८ ८५. वही, ४/७१ ६९. द्रव्यसंग्रह (नेमीचन्द्र) ४८-५४ टीका ब्रह्मदव गाथा ४८ की ८६. वही, ४/७२
८७. तत्त्वार्थसूत्र विवे० पं० सुखलाल संघवी, प्रका०- पार्श्वनाथ विद्याश्रम ७०. पदस्थ मंत्रवाक्यस्थ- वही गाथा ४८ की टीका
शोध संस्थान, वाराणसी, १९७६ ९/३६-४० ७१. श्रावकाचार (अमितगति) परिच्छेद १५
८८. आचारांग सूत्र, संपा० मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन ७२. ज्ञानार्णव (शुभचन्द्र) संपा०- पं० बालचन्द्र शास्त्री, जैन संस्कृति समिति, व्यावर १९८० १/९/१/६, १/९/२/४, १/९/२/
संघ, सोलापुर, १९७७ सर्ग ३२-४० ७३. स्थानांगसूत्र संपा०- मधुकर मुनि प्रका०- श्री आगम प्रकाशन ८९. वही, १/९/१/५ समिति, ब्यावर, १९८१ ४/६०-४०
९०. उत्तराध्ययन सूत्र, संपा०- साध्वी चन्दना, प्रका० वीरायतन प्रकाशन ७४. वही, ४/६२
आगरा, १९७२ २६/१८ ७५. वही, ४/६३
९१. आवश्यकचूर्णि भाग २ पृ० १८८७ ७६. वही,४/६४
९२. वही, भाग १ पृ० ४१० ७७. वही, ४/६५
९३. आचारांग (आचार्य तुलसी) जैन विश्वभारती, लाडनूं ७८. वही, ४/६६
१/२/५/१२५ ७९. वही, ४/६७
९४. वही, १/२/३/७३, १/२/६/१८५ ८०. वही, ४/६८
९६. देखें- Prakrit Proper Names Ed.- Pt. Dalsukha ८१. ध्यानशतक जिनभद्र क्षमाश्रमण प्रका०- विनय सुन्दर चरण Malvania, Pub.-L.D. Institute, Ahamadabad, 1972 ग्रन्थमाला, जामनगर, वि०सं० १९९७ ६३
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१२
तन्त्र-साधना और जैन जीवन दृष्टि
'तन्त्र' शब्द का अर्थ
करते हैं, तब वह किसी प्रशासनिक व्यवस्था का सूचक होता है। जैन धर्म-दर्शन और साधना-पद्धति में तांत्रिक साधना के कौन-
मात्र यही नहीं, अपितु आध्यात्मिक विशुद्धि और आत्म-विशुद्धि कौन से तत्त्व किस-किस रूप में उपस्थिति हैं, यह समझने के लिए के लिए जो विशिष्ट साधना-विधियाँ प्रस्तुत की जाती हैं, उन्हें 'तंत्र' कहा सर्वप्रथम तंत्र शब्द के अर्थ को समझना आवश्यक है। विद्वानों ने तंत्र शब्द जाता है। इस दृष्टि से 'तंत्र' शब्द एक व्यापक अर्थ का सूचक है और इस की व्याख्याएँ और परिभाषाएँ अनेक प्रकार से की हैं। उनमें से कुछ आधार पर प्रत्येक साधना-विधि 'तंत्र' कही जा सकती है। वस्तुत: जब हम परिभाषाएँ व्युत्पत्तिपरक हैं और कुछ रूढार्थक। व्युत्पत्ति की दृष्टि से तन्त्र शैवतंत्र, शाक्ततंत्र, वैष्णवतंत्र, जैनतंत्र या बौद्धतंत्र की बात करते हैं, तो शब्द 'तन्' + '' से बना है। 'तन्' धातु विस्तृत होने या व्यापक होने की यहाँ तंत्र का अभिप्राय आत्म विशुद्धि या चित्तविशुद्धि की एक विशिष्ट सूचक है और 'त्र' त्राण देने या संरक्षण करने का सूचक है। इस प्रकार जो पद्धति से ही होता है। मेरी जानकारी के अनुसार इस दृष्टि से जैन परम्परा आत्मा को व्यापकता प्रदान करता है और उसकी रक्षा करता है उसे तन्त्र में 'तन्त्र' शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग आचार्य हरिभद्र ने अपने ग्रन्थों-पञ्चाशक कहा जाता है। तान्त्रिक ग्रन्थों में 'तन्त्र' शब्द की निम्न व्याख्या उपलब्ध है- और ललितविस्तरा (आठवीं शती) में किया है। उन्होंने पञ्चाशक' में जिन तनोति विपुलानर्थान् तत्त्वमन्त्रसमन्वितान् ।
आगम को और ललितविस्तरारे में जैन धर्म के ही एक सम्प्रदाय को 'तंत्र' त्राणं च कुरुते यस्मात् तन्त्रमित्यभिधीयते ।।
के नाम से अभिहित किया है। इससे फलित होता है कि लगभग आठवीं अर्थात् जो तत्त्व और मन्त्र से समन्वित विभिन्न विषयों के विपुल शती से जैन परम्परा में 'तंत्र' अभिधान प्रचलित हुआ। यहाँ यह भी ज्ञातव्य ज्ञान को प्रदान करता है और उस ज्ञान के द्वारा स्वयं एवं दूसरों की रक्षा है कि प्रस्तुत प्रसंग में आगम को ही तंत्र कहा गया है। आगे चलकर करता है, उसे तंत्र कहा जाता है। वस्तुत: तंत्र एक व्यवस्था का सूचक है। आगम का वाचक तन्त्र शब्द किसी साधनाविधि दार्शनिकविधा का वाचक जब हम तंत्र शब्द का प्रयोग राजतंत्र, प्रजातंत्र, कुलीनतंत्र आदि के रूप में बन गया। वस्तुत: तंत्र एक दार्शनिक विधा भी है और साधनामार्ग भी।
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दार्शनिक विधा के रूप में उसका ज्ञानमीमांसीय एवं तत्त्वमीमांसीय पक्ष तो है ही, किन्तु इसके साथ ही उसकी अपनी एक जीवन दृष्टि भी होती है जिसके आधार पर उसकी साधना के लक्ष्य एवं साधना विधि का निर्धारण होता है। वस्तुतः किसी भी दर्शन को जीवनदृष्टि ही एक ऐसा तत्त्व है, जो उसकी ज्ञानमीमांसा, तत्त्वमीमांसा एवं साधना विधि को निर्धारित करता है। और इन्हीं सबसे मिलकर उसका दर्शन एवं साधनातंत्र बनता है ।
व्यावहारिक रूप में वे साधना पद्धतियाँ जो दीक्षा, मंत्र, यंत्र, मुद्रा, ध्यान, कुण्डलिनी शक्ति जागरण आदि के माध्यम से व्यक्ति के पाशविक या वासनात्मक पक्ष का निवारण कर उसका आध्यात्मिक विकास करती है या उसे देवत्व के मार्गपर आगे ले जाती है, तंत्र कही जाती है। किन्तु यह तंत्र का प्रशस्त अर्थ है और अपने इस प्रशस्त अर्थ में जैन धर्मदर्शन को भी तंत्र कहा जा सकता है, क्योंकि उसकी अपनी एक सुव्यवस्थित सुनियोजित साधना विधि है, जिसके माध्यम से व्यक्ति वासनाओं और कषायों से ऊपर उठकर आध्यात्मिक विकास के मार्ग में यात्रा करता है किन्तु तंत्र के इस प्रशस्त व्युत्पत्तिपरक अर्थ के साथ ही 'तंत्र' शब्द का एक प्रचलित रूढार्थ भी है, जिसमें सांसारिक आकांक्षाओं और विषय वासनाओं की पूर्ति के लिए मद्य, मांस, मैथुन आदि पंच मकारों का सेवन करते हुए यन्त्र, मंत्र, पूजा, जप, होम, बलि आदि के द्वारा मारण, मोहन, वशीकरण, उच्चाटन, स्तम्भन, विद्वेषण आदि षट्कर्मों की सिद्धि के लिए देवी देवताओं की उपासना की जाती है और उन्हें प्रसन्न करके अपने अधीन किया जाता है। वस्तुतः इस प्रकार की साधना का लक्ष्य व्यक्ति की लौकिक वासनाओं और वैयक्तिक स्वार्थों की सिद्धि ही होता है। अपने इस प्रचलित रूढ़ार्थ में तंत्र को एक निकृष्ट कोटि की साधना पद्धति समझा जाता है। इस कोटि की तान्त्रिक साधना बहुप्रचलित रही है, जिससे हिन्दू, बौद्ध और जैन- तीनों ही साधना-विधियों पर उसका प्रभाव भी पड़ा है। फिर भी सिद्धान्तत: ऐसी तान्त्रिक साधना जैनों को कभी मान्य नहीं रही, क्योंकि वह उसकी निवृत्तिप्रधान जीवन दृष्टि और अहिंसा के सिद्धान्त के प्रतिकूल थी। यद्यपि ये निकृष्ट साधनाएं तन्त्र के सम्बन्ध में एक भ्रान्त अवधारणा ही है, फिर भी सामान्यजन तन्त्र के सम्बन्ध में इसी धारणा का शिकार रहा हैं। सामान्यतया जनसाधारण में प्राचीन काल से ही तान्त्रिक साधनाओं का यही रूप अधिक प्रचलित रहा है। ऐतिहासिक एवं साहित्यिक साक्ष्य भी तन्त्र के इसी स्वरूप का समर्थन करते हैं।
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
भोगमूलक जीवनदृष्टि और वासनोन्मुख तन्त्र की इस जीवनदृष्टि के समर्थन में भी बहुत कुछ कहा गया है। कुलार्णव में कहा गया है कि सामान्यतया जिन वस्तुओं के उपयोग को पतन का कारण माना जाता है उन्हें कौलतन्त्र में महात्मा भैरव ने सिद्धि का साधन बताया है। इसी प्रकार न केवल हिन्दू तांत्रिक साधना में अपितु बौद्ध परम्परा में भी प्रारम्भ से ही कठोर साधनाओं के द्वारा आत्मपीड़न की प्रवृत्तियों को उचित नहीं माना गया। भगवान् बुद्ध ने मध्यममार्ग के रूप में जैविक मूल्यों की पूर्ति हेतु भोगमय जीवन का भी जो आंशिक समर्थन किया था, वही आगे चलकर बौद्ध धर्म में वज्रयान के रूप में तांत्रिक भोगमूलक जीवनदृष्टि के विकास का कारण बना और उसमें भी निवृत्तिमय जीवन के प्रति विरोध के स्वर मुखरित
हुए। चाहे बुद्ध की मूलभूत जीवनदृष्टि निवृत्तिमार्गी रही हो, किन्तु उनके मध्यममार्ग के आधार पर ही परवर्ती बौद्ध आचायों ने वज्रयान या सहजयान का विकास कर भोगमूलक जीवनदृष्टि को समर्थन देना प्रारम्भ कर दिया। गुह्यसमाज तन्त्र में कहा गया है।
सर्वकामोपभोगैश्च सेव्यमानैर्यथेच्छतः । अनेन खलु योगेन लघु बुद्धत्वमाप्नुयात् ॥ दुष्करैर्नियमैस्तीत्रैः सेव्यमानो न सिद्धयति । सर्वकामोपभोगैस्तु सेवाशु सिद्धयति ॥ भोगमूलक जीवनदृष्टि के समर्थकों का तर्क यह है कि कामोपभोगों से विरत जीवन बिताने वाले साधकों में मानसिक क्षोभ उत्पन्न होते होंगे, कामभोगों की ओर उनकी इच्छा दौड़ती होगी और विनय के अनुसार वे उसे दबाते होंगे, परन्तु क्या दमनमात्र से चित्तविक्षोभ सर्वथा चला जाता होगा, दबायी हुई वृत्तियाँ जाग्रतावस्था में न सही, स्वप्नावस्था में तो अवश्य ही चित्त को मथ डालती होंगी। इन प्रमवनशील वृत्तियों को दमन करने से भी दबते न देख अवश्य ही साथकों ने उन्हें समूल नष्ट करने के लिए संयम को जागरूक अवस्था में थोड़ा अवसर दिया कि वे भोग का भी रस ले लें, ताकि उनका सर्वथा शमन हो जाये और वासनारूप से वे हृदय के भीतर न रह सकें। अनंगव ने कहा है कि चित्तक्षुब्ध होने से कभी भी सिद्धि नहीं हो सकती, अतः इस तरह बरतना चाहिए जिसमें मानसिक क्षोभ उत्पन्न ही न हो४
"
तथा तथा प्रवर्तेत यथा न क्षुभ्यते मनः । संक्षुब्ध चित्तरले तु सिद्धिर्नैव कदाचन ।
जब तक चित्त में कामभोगोपलिप्सा है, तब तक चित्त में क्षोभ का उत्पन्न होना स्वाभाविक है। इस प्रकार हम देखते हैं कि न केवल हिन्दू तांत्रिक साधनाओं में अपितु बौद्ध तांत्रिक साधना में भी किसी न किसी रूप में भोगवादी जीवनदृष्टि का समर्थन हुआ है। यद्यपि परवर्तीकाल में विकसित बौद्धों की यह भोगमूलक जीवनदृष्टि भारत में उनके अस्तित्व को ही समाप्त कर देने का कारण बनी, क्योंकि इस भोगमूलक जीवनदृष्टि को अपना लेने पर बौद्ध और हिन्दू परम्परा का अन्तर समाप्त हो गया। दूसरे इसके परिणाम स्वरूप बौद्ध भिक्षुओं में भी एक चारित्रिक पतन आया। फलतः उनके प्रति जन-साधारण की आस्था समाप्त हो गयी और बौद्ध धर्म की अपनी कोई विशिष्टता नहीं बची, फलतः वह अपनी जन्मभूमि से समाप्त हो गया।
जैन धर्म में तन्त्र की भोगमूलक जीवनदृष्टि का निषेध
तन्त्र की इस भोगवादी जीवनदृष्टि के प्रति जैन आचार्यों का दृष्टिकोण सदैव निषेधपरक हो रहा है। वैयक्तिक भौतिक हितों एवं वासनाओं की पूर्ति के निमित्त धन, सम्पत्ति, सन्तान आदि की प्राप्ति हेतु अथवा कामवासना की पूर्ति हेतु अथवा शत्रु के विनाश के लिए की जाने वाली साधनाओं के निर्देश तो जैन आगमों में उपलब्ध हो जाते हैं, जिससे यह सिद्ध होता है कि इस प्रकार की तांत्रिक साधनाएं प्राचीन काल में भी प्रचलित थीं, किन्तु प्राचीन जैन आचार्यों ने इसे सदैव हेय दृष्टि से देखा था और साधक के लिए ऐसी तांत्रिक साधनाओं का सर्वथा निषेध किया था।
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तन्त्र-साधना और जैन जीवन दृष्टि
सूत्रकृताङ्गसूत्र' में चौंसठ प्रकार की विद्याओं के अध्ययन या साधना करने वालों के निर्देश तो हैं, किन्तु उसमें इन विद्याओं को पापाश्रुत - अध्ययन कहा गया है। मात्र यह नहीं उसमें स्पष्ट रूप से यही भी कहा गया है कि जो इन विद्याओं की साधना करता है वह अनार्य है, विप्रतिपत्र है और समय आने पर मृत्यु को प्राप्त करके आसुरी और किल्यिधिक योनियों को प्राप्त होता है।
पुन: उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि जो छिद्रविद्या, स्वरविद्या, स्वप्नलक्षण, अंगविद्या आदि के द्वारा जीवन जीता है वह भिक्षु नहीं है। इसी प्रकार दशवैकालिकसूत्र" में भी स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि मुनि नक्षत्रविद्या, स्वप्नविद्या, निमित्तविद्या, मन्त्रविद्या और भैषज्यशास्त्र का उपदेश गृहस्थों को न करे। इनसे स्पष्टरूप से यह फलित होता है कि वैयक्तिक वासनाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए विभिन्न प्रकार की विद्याओं की साधना को जैन आचार्यों ने सदैव ही हेय दृष्टि से देखा है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि सांसारिक विषय-वासनाओं की पूर्ति के निमित्त पशुबलि देना, मद्य, मांस, मत्स्य, मैथुन और मुद्राओं का सेवन करना एवं मारण, मोहन, वशीकरण आदि षट्कर्मों की साधना करके अपने क्षुद्र लौकिक स्वार्थों और वासनाओं की पूर्ति करना जैन आचार्यों को मान्य नहीं हो सका, क्योंकि यह उनकी निवृत्तिप्रधान अहिंसक जीवनदृष्टि के विरुद्ध था। किन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि जैन धर्म ऐसी तान्त्रिक साधनाओं से पूर्णतः असंपृक्त रहा है। प्रथमतः विषय वासनाओं के प्रहाण के लिए अर्थात् अपने में निहित पाशविक वृत्तियों के निराकरण के लिए मंत्र, जाप, पूजा, ध्यान आदि की साधना-विधियाँ जैन धर्म में ईस्वी सन् के पूर्व से ही विकसित हो चुकी थीं। मात्र यही नहीं परवर्ती जैनग्रन्थों में तो ऐसे भी अनेक उल्लेख मिलते हैं जहाँ धर्म और संघ की रक्षा के लिए जैन आचार्यों को तांत्रिक और मान्त्रिक प्रयोगों की अनुमति भी दी गई है। किन्तु उनका उद्देश्य लोककल्याण ही रहा है।
मात्र यही नहीं, जहाँ आचारांगसूत्र' (ई०पू० पांचवी शती) में शरीर को धुन डालने या सुखा देने की बात कही गई थी, वहीं परवर्ती आगमों और आगमिक व्याख्याओं में शरीर और जैविक मूल्यों के संरक्षण की बात कही गई। स्थानांगसूत्र' में अध्ययन एवं संयम के पालन के लिए आहार के द्वारा शरीर के संरक्षण की बात कही गई । मरणसमाधि १° में कहा गया है कि उपवास आदि तप उसी सीमा तक करणीय हैं- जब तक मन में किसी प्रकार के अमंगल का चिन्तन न हो, इन्द्रियों की हानि न हो और मन, वचन तथा शरीर की प्रवृत्ति शिथिल न हो । मात्र यही नहीं, जैनाचार्यों ने अपने गुणस्थान सिद्धान्त में कषायों एवं वासनाओं के दमन को भी अनुचि मानते हुए यहाँ तक कह दिया कि उपशम श्रेणी अर्थात् वासनाओं के दमन की प्रक्रिया से आध्यात्मिक विकास की सीढ़ियों पर चढ़ने वाला साधक अनन्तः वहाँ से पतित हो जाता है फिर भी जैनाचार्यों ने वासनाओं की पूर्ति का कोई मार्ग नहीं खोला। हिन्दू तांत्रिकों एवं वज्रयानी बौद्धों के विरुद्ध वे यही कहते रहे कि वासनाओं की पूर्ति से वासनाएं शान्त नहीं होती हैं, अपितु वे घृत सिञ्चित अग्नि की तरह अधिक बढ़ती ही हैं। उनकी दृष्टि में वासनाओं का दमन तो अनुचित है, किन्तु उनका विवेकपूर्वक संयमन और
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निरसन आवश्यक है। यहाँ इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा करने के पूर्व यह विचार कर लेना आवश्यक है कि सामान्यतः भारतीय धर्मों में और विशेषरूप से जैन धर्म में तान्त्रिक साधना का विकास क्यों हुआ और किस क्रम में हुआ?
प्रवर्तक एवं निवर्तक धर्मों का विकास
यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि मानव प्रकृति में वासना और विवेक के तत्व उसके अस्तित्व काल से ही रहे हैं, पुनः यह भी एक सर्वमान्य तथ्य है कि पाशविक वासनाओं, अर्थात् पशु तत्त्व से ऊपर उठकर देवत्व की ओर अभिगमन करना ही मनुष्य के जीवन का मूलभूत लक्ष्य है। मानव प्रकृति में निहित इन दोनों तत्त्वों के आधार पर दो प्रकार की साधना पद्धतियों का विकास कैसे हुआ इसे निम्न सारिणी द्वारा समझा जा सकता है
देह
वासना
भोग
|
अभ्युदय (प्रेष)
1
स्वर्ग
1
कर्म
1
प्रवृत्ति
प्रवर्तक धर्म
समर्पणमूलक I
भक्तिमार्ग
'अलौकिक शक्तियों की उपासना
मनुष्य
1
यशमूलक
कर्ममार्ग
चेतना
T
विवेक
त्याग
I निःश्रेयस्
मोक्ष (निर्वाण )
कर्मसंन्यास
निवृत्ति
निवर्तक धर्म
आत्मोपलब्धि
चिन्तन प्रधान देहदण्डनमूलक
1 ज्ञानमार्ग
तपमार्ग
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
निवर्तक एवं प्रवर्तक धर्मों के दार्शनिक एवं सांस्कृतिक प्रदेय तनावों का निराकरण कर चैतसिक शांति या समाधि को प्राप्त करने का
प्रवर्तक और निवर्तक धर्मों का विकास भिन्न-भिन्न मनोवैज्ञानिक प्रयास किया। जहाँ प्रारम्भिक वैदिक धर्म प्रवृत्तिप्रधान रहा वहीं प्रारम्भिक आधारों पर हुआ था, अत: यह स्वाभाविक था कि उनके दार्शनिक एवं श्रमण परम्पराएं निवृत्तिप्रधान रही। किन्तु एक ओर वासनाओं की सांस्कृतिक प्रदेय भिन्न-भिन्न हों। प्रवर्तक एवं निवर्तक धर्मों के इन
सन्तुष्टि के प्रयास में चित्तशांति या समाधि सम्भव नहीं हो सकी, प्रदेयों और उनके आधार पर उनमें रही हुई पारस्परिक भिन्नता को निम्न
क्योंकि नई-नई इच्छाएँ आकांक्षाएँ और वासनाएँ जन्म लेती रहीं; तो
दूसरी ओर वासनाओं के दमन के भी चित्तशांति सम्भव न हो सकी, सारिणी से स्पष्टतया समझा जा सकता है
क्योंकि दमित वासनाएँ अपनी पूर्ति के लिए चित्त की समाधि भंग प्रवर्तक धर्म (दार्शनिक प्रदेय) निवर्तक धर्म (दार्शनिक प्रदेय) करती रहीं। इसका विपरीत परिणाम यह हुआ कि एक ओर प्रवृत्तिमार्गी १. जैविक मूल्यों की प्रधानता १. आध्यात्मिक मूल्यों की प्रधानता परम्परा में व्यक्ति ने अपनी भौतिक और लौकिक एषणाओं की पूर्ति के २. विधायक जीवनदृष्टि
२. निषेधक जीवनदृष्टि ३. समष्टिवादी
लिए दैविक शक्तियों की सहायता पाने हेतु कर्मकाण्ड का एक जंजाल ३. व्यष्टिवादी ४. व्यवहार में कर्म पर बल
व्यवहार में नैष्कर्म्यता का समर्थन खड़ा कर लिया तो दूसरी ओर वासनाओं के दमन के लिए देहदण्डनरूपी फिर भी दैवीय कृपा के
फिर भी तपस्या पर बल देने से तप साधनाओं का वर्तुल खड़ा हो गया। एक के लिए येन-केन प्रकारेण आकांक्षी होने से भाग्यवाद दृष्टि पुरुषार्थवादी
वैयक्तिक हितों की पूर्ति या वासनाओं की संतुष्टि ही वरेण्य हो गई तो एवं नियतिवाद का समर्थन
अनीश्वरवादी ५. इश्वरवादी
६. वैयक्तिक प्रयासों पर विश्वास, दूसरे के लिए जीवन का निषेध अर्थात् देहदण्डन ही साधना का लक्ष्य ६. ईश्वरीय कृपा पर विश्वास
कर्मसिद्धान्त का समर्थन
बन गया। वस्तुतः इन दोनों अतिवादों के समन्वय के प्रयास में ही एक ७ साधना के बाह्य साधनों पर बल ७. आन्तरिक विशुद्धता पर बल ८. जीवन का लक्ष्य स्वर्ग एवं ईश्वर ८. जीवन का लक्ष्य मोक्ष एवं निर्वाण
ओर जैन, बौद्ध आदि विकसित श्रमणिक साधना विधियों का जन्म के सान्निध्य की प्राप्ति। की प्राप्ति
हुआ तो दूसरी ओर औपनिषदिक् चिन्तन से लेकर सहजभक्तिमार्ग और ..(सांस्कृतिक प्रदेय)
(सांस्कृतिक प्रदेय)
तंत्र साधना तक का विकास भी इसी के निमित्त से हुआ। 'तेन त्यक्तेन ९. वर्ण व्यवस्था और जातिवाद का | ९. जातिवाद का विरोध, वर्णव्यवस्था जन्मना आधार पर समर्थन का केवल कर्मणा आधार पर समर्थन
भुञ्जीथा' का जो समन्वयात्मक स्वर औपनिषदिक ऋषियों ने दिया था, १०. गृहस्थ जीवन की प्रधानता १०. संन्यास की प्रधानता
परवर्ती समस्त हिन्दू साधना और उसकी तांत्रिक विधियाँ उसी के ११. सामाजिक जीवन-शैली ११. एकाकी जीवन-शैली
परिणाम हैं। फिर भी प्रवृत्ति और निवृत्ति के पक्षों का समुचित सन्तुलन १२. राजतन्त्र का समर्थन १२. जनतन्त्र का समर्थन
स्थिर नहीं रह सका। इनमें किसे प्रमुखता दी जाय, इसे लेकर उनकी प्रवर्तक धर्मों में प्रारम्भ में जैविक मूल्यों की प्रधानता रही, साधना-विधियों में अन्तर भी आया। वेदों में जैविक आवश्यकतओं की पूर्ति से सम्बन्धित प्रार्थनाओं के स्वर जैनों ने यद्यपि निवृत्तिप्रधान जीवनदृष्टि का अनुसरण तो अधिक मुखरित हुए हैं। उदाहरणार्थ- हम सौ वर्ष जीवें, हमारी सन्तान किया, किन्तु परवर्ती काल में उसमें प्रवृत्तिमार्ग के तत्त्व समाविष्ट होते बलिष्ठ होवें, हमारी गायें अधिक दूध देवें, वनस्पतियाँ प्रचुर मात्रा में गए। न केवल साधना के लिए जीवन रक्षण के प्रयत्नों का औचित्य हों आदि। इसके विपरीत निवर्तक धर्म ने जैविक मूल्यों के प्रति एक स्वीकार किया गया, अपितु ऐहिक-भौतिक कल्याण के लिए भी निषेधात्मक रुख अपनाया, उन्होंने सांसारिक जीवन की दुःखमयता का तांत्रिक साधना की जाने लगी। राग अलापा। उनकी दृष्टि में शरीर आत्मा का बन्धन है और संसार दुःखों का सागर। उन्होंने संसार और शरीर दोनों से ही मुक्ति को क्या जैन धर्म जीवन का निषेध सिखाता है? जीवन-लक्ष्य माना। उनकी दृष्टि में दैहिक आवश्यकताओं का निषेध, सामान्यतया यह माना जाता है कि तंत्र की जीवनदृष्टि ऐहिक अनासक्ति, विराग और आत्मसन्तोष ही सर्वोच्च जीवन मूल्य हैं। जीवन को सर्वथा वरेण्य मानती है, जबकि जैनों का जीवनदर्शन
एक ओर जैविक मूल्यों की प्रधानता का परिणाम यह हुआ निषेधमूलक है। इस आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि जैन धर्मकि प्रवर्तक धर्म में जीवन के प्रति एक विधायक दृष्टि का निर्माण हुआ दर्शन तंत्र का विरोधी है, किन्तु जैन दर्शन के सम्बन्ध में यह एक भ्रान्त तथा जीवन को सर्वतोभावेन वाञ्छनीय और रक्षणीय माना गया; तो धारणा ही होगी। जैनों ने मानव जीवन को जीने के योग्य एवं सर्वथा दूसरी ओर जैविक मूल्यों के निषेध से जीवन के प्रति एक ऐसी वरेण्य माना है। उनके अनुसार मनुष्य जीवन ही तो एक ऐसा जीवन है निषेधात्मक दृष्टि का विकास हुआ जिसमें शारीरिक माँगों को ठुकराना जिसके माध्यम से व्यक्ति विमुक्ति के पथ पर आरूढ़ हो सकता है। ही जीवन लक्ष्य मान लिया गया और देह-दण्डन ही तप-त्याग और आध्यात्मिक विकास की यात्रा का प्रारम्भ और उसकी पूर्णता मनुष्य अध्यात्म के प्रतीक बन गये। यद्यपि इन दोनों साधना- पद्धतियों का जीवन से ही संभव है। अत: जीवन सर्वतोभावेन रक्षणीय है। उसमें मूलभूत लक्ष्य तो चैतसिक और सामाजिक स्तर पर शांति ही स्थापना 'शरीर' को संसार समुद्र में तैरने की नौका कहा गया है और नौका की की रहा है किन्तु उसके लिए उनकी व्यवस्था या साधना-विधि भिन्न- रक्षा करना पार जाने के इच्छुक व्यक्ति का अनिवार्य कर्तव्य है। इसी भिन्न रही है। प्रवृत्तिमार्गी परम्परा का मूलभूत लक्ष्य यही रहा है कि स्वयं प्रकार उसका अहिंसा का सिद्धान्त भी जीवन की रक्षणीयता पर के प्रयत्न एवं पुरुषार्थ से अथवा उनके असफल होने पर दैवीय सर्वाधिक बल देता है। शक्तियों के सहयोग से जैविक आवश्यकताओं एवं वासनाओं की पूर्ति वह न केवल दूसरों के जीवन के रक्षण की बात करता है करके चैतसिक शांति का अनुभव किया जाय। दूसरी ओर निवृत्तिमार्गी अपितु वह स्वयं के जीवन के रक्षण की भी बात करता है। उसके परम्पराओं ने वासनाओं की सन्तुष्टि को विवेक की उपलब्धि के मार्ग अनुसार स्व की हिंसा दूसरों की हिंसा से भी निकृष्ट है। अत: जीवन में बाधक समझा और वासनाओं के दमन के माध्यम से वासनाजन्य चाहे अपना हो या दूसरों का वह सर्वतोभावेन रक्षणीय है। यद्यपि इतना
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तन्त्र-साधना और जैन जीवन दृष्टि
४८५ अवश्य है कि जैनों की दृष्टि में पाशविक शुद्ध स्वार्थों से परिपूर्ण, मात्र दुःखद अनुभूति न हो, अत: त्याग इन्द्रियानुभूति का नहीं, अपितु जैविक एषणाओं की पूर्ति में संलग्न जीवन न तो रक्षणीय है, न उसके प्रति चित्त में उत्पन्न होने वाले राग-द्वेष का करना है, क्योंकि वरेण्य; किन्तु यह दृष्टि तो तंत्र की भी है, क्योंकि वह भी पशु अर्थात् इन्द्रियों के मनोज्ञ का अमनोज्ञ विषय आसक्तचित्त के लिए ही राग-द्वेष पाशविक पक्ष का संहार कर पाश से मुक्त होने की बात करता है। जैनों (मानसिक विक्षोभो) का कारण बनते हैं, अनासक्त का वीतराग के लिए के अनुसार जीवन उस समीप तक वरेण्य और रक्षणीय है जिस सीमा नहीं। अत: जैनधर्म की मूल शिक्षा ममत्व के विसर्जन की है, जीवन के तक वह व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास में सहायक होता है और अपने निषेध की नहीं। आध्यात्मिक विकास के माध्यम से लोकमंगल का सृजन करता है। प्रशस्त तांत्रिक साधना और जैन साधना दोनों में ही इस सम्बन्ध में जैन तांत्रिक साधना और लोक कल्याण का प्रश्न सहमति देखी जाती है। वस्तुत: जीवन की एकान्त रूप से वरेण्यता तांत्रिक साधना का लक्ष्य आत्मविशुद्धि के साथ लोक कल्याण
और एकान्त रूप से जीवन का निषेध दोनों ही अवधारणाएँ उचित नहीं भी है। यह सत्य है कि जैन धर्म मूलतः संन्यासमार्गी धर्म है। उसकी है। यही जैनों की जीवनदृष्टि है। वासनात्मक जीवन के निराकरण द्वारा साधना में आत्मशुद्धि और आत्मोपलब्धि पर ही अधिक जोर दिया आध्यात्मिक जीवन का विकास-यही तंत्र और जैन दर्शन दोनों की गया है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि जैन धर्म में लोकमंगल या जीवनदृष्टि है और इस अर्थ में वे दोनों विरोधी नहीं हैं, सहगामी हैं। लोककल्याण का कोई स्थान ही नहीं है। जैन धर्म यह तो अवश्य
फिर भी सामान्य अवधारणा यह है कि तन्त्र दर्शन में ऐहिक मानता है कि वैयक्तिक साधना की दृष्टि से समाज निरपेक्ष, एकांकी जीवन को सर्वथा वरेण्य माना गया है। उसकी मान्यता है कि जीवन जीवन अधिक ही उपयुक्त है किन्तु इसके साथ ही साथ वह यह भी आनन्दपूर्वक जीने के लिए है। जैन धर्म में तप-त्याग की जो महिमा मानता है कि उस साधना से प्राप्त सिद्धि का उपयोग सामाजिक गायी गई है उसके आधार पर यह भ्रान्ति फैलाई जाती है कि जैन धर्म कल्याण की दिशा में होना चाहिए। महावीर का जीवन स्वयं इस बात जीवन का निषेध सिखाता है। अत: यहां इस भ्रान्ति का निराकरण कर का साक्षी है कि १२ वर्षों तक एकाकी साधना करने के पश्चात् वे पुनः देना अप्रासंगिक नहीं होगा कि जैन धर्म के तप-त्याग का अर्थ शारीरिक सामाजिक जीवन में लौट आये। उन्होंने चतुर्विध संघ की स्थापना की एवं भौतिक जीवन की अस्वीकृति नहीं है। आध्यात्मिक मूल्यों की तक्त जीवन भर उसका मार्ग-दर्शन करते रहे। स्वीकृति का यह तात्पर्य नहीं है कि शारीरिक एवं भौतिक मूल्यों की
जैन धर्म सामाजिक कल्याण और सामाजिक सेवा को आवश्यक पूर्णतया उपेक्षा की जाय। जैन धर्म के अनुसार शारीरिक मूल्य अध्यात्म तो मानता है, किन्तु वह व्यक्ति के चारित्रिक उन्नयन से ही सामाजिक के बाधक नहीं, साधक हैं। निशीथभाष्य १२ में कहा है कि मोक्ष का कल्याण की दिशा में आगे बढ़ता है। व्यक्ति समाज की मूलभूत इकाई साधन ज्ञान है, ज्ञान का साधन शरीर है, शरीर का आधार आहार है। है, जब तक व्यक्ति का चारित्रिक विकास नहीं होगा, तब तक उसके शरीर शाश्वत आनन्द के कूल में ले जाने वाली नौका है। इस दृष्टि से द्वारा सामाजिक कल्याण नहीं हो सकता है। जब तक व्यक्ति के जीवन उसका मूल्य भी है, महत्त्व भी है और उसकी सार-संभाल भी करना है। में नैतिक और आध्यात्मिक चेतना का विकास नहीं होता तब तक किन्तु ध्यान रहे, दृष्टि नौका पर नहीं कूल पर होनी चाहिए, क्योंकि सामाजिक जीवन में सुव्यवस्था और शान्ति की स्थापना नहीं हो नौका साधन है, साध्य नहीं। भौतिक एवं शारीरिक आवश्यकताओं की सकती। जो व्यक्ति अपने स्वार्थों और वासनाओं पर नियन्त्रण नहीं कर पूर्ति की एक साधना के रूप में स्वीकृति जैनधर्म और सम्पूर्ण अध्यात्म सकता वह कभी सामाजिक हो ही नहीं सकता, क्योंकि समाज जब भी विद्या का हार्द है। यह वह विभाजन रेखा है जो आध्यात्मवाद और खड़ा होता है वह त्याग और समर्पण के मूल्यों पर ही होता है। भौतिकवाद में अन्तर करती है। भौतिकवाद में उपलब्धियाँ या जैविक लोकसेवक और जनसेवक अपने व्यक्तिगत स्वार्थों और द्वन्द्वों से दूर मूल्य स्वयमेव साध्य हैं, अन्तिम हैं, जबकि अध्यात्म में वे किन्हीं उच्च रहें-यह जैन आचार संहिता का आधारभूत सिद्धान्त है। चरित्रहीन मूल्यों के साधन हैं। जैनधर्म की भाषा में कहें तो साधक के द्वारा व्यक्ति सामाजिक जीवन के लिए घातक ही सिद्ध होगें। व्यक्तिगत वस्तुओं का त्याग और ग्रहण, दोनों ही साधना के लिए हैं। स्वार्थों की पूर्ति के निमित्त जो तांत्रिक साधनाएँ की जाती हैं, वे
जैनधर्म की सम्पूर्ण साधना का मूल लक्ष्य और एक ऐसे सामाजिक जीवन के लिए घातक ही होती हैं। क्या चोर, डाकू और निराकुल, निर्विकार, निष्काम और वीतराग मानस की अभिव्यक्त है जो शोषकों का संगठन समाज कहलाने का अधिकारी है? क्या चोर, डाकू वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन के समस्त तनावों एवं संघर्षों को और लुटेरे अपने उद्देश्य मे सफल होने के लिए देवी-देवताओं को समाप्त कर सके। उसके सामने मूल प्रश्न दैहिक एवं भौतिक मूल्यों की प्रसन्न करने हेतु जो तांत्रिक साधना करते या करवाते हैं, उसे सही अर्थ स्वीकृति का नहीं है, अपितु वैयक्तिक और सामाजिक जीवन में शान्ति में साधना कहा जा सकता है? महावीर की शिक्षा का सार यही है कि की संस्थापना है। अत: जहाँ तक और जिस रूप में दैहिक और भौतिक वैयक्तिक जीवन में निवृत्ति सामाजिक कल्याण का आधार बन सकती उपलब्धियाँ उसमें साधक हो सकती हैं, वहाँ तक वे स्वीकार्य हैं और है। प्रश्नव्याकरणसूत्र१५ में कहा गया है कि भगवान् का यह सुकथित जहाँ तक उसमें बाधक हैं, वहीं तक त्याज्य हैं। भगवान महावीर ने प्रवचन संसार के सभी प्राणियों के रक्षण एवं करुणा के लिए है। जैन आचारांगसूत्र १३ एवं उत्तराध्ययनसूत्र १४ में इस बात को बहुत ही साधना में अहिंसा, सत्य, स्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-ये जो पाँच स्पष्टता के साथ प्रस्तुत किया है। वे कहते हैं कि जब इन्द्रियों का अपने व्रत माने गये हैं, वे केवल वैयक्तिक साधना के लिए नहीं है। विषयों से सम्पर्क होता है, तब उसे सम्पर्क के परिणामस्वरूप सुखद- जैन तन्त्र के दार्शनिक आधार दुःखद अनुभूति भी होती है और जीवन में यह शक्य नहीं है कि
जैन तत्त्व दर्शन के अनुसार जीव कर्मों के आवरण के कारण इन्द्रियों का अपने विषयों से सम्पर्क न हो और उसके कारण सुखद या बन्धन में है। बन्धन से मुक्ति के लिए एक ओर कर्म आवरण का
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क्षयोपशम आवश्यक है तो दूसरी ओर उस क्षयोपशम के लिए विशिष्ट साधना भी आवश्यक है किन्तु इस साधना के लिए बन्धन और बन्धन के कारणों का ज्ञान आवश्यक है। यह ज्ञान दार्शनिक अध्ययन से ही प्राप्त होता है। आत्मतत्त्व के ज्ञान के बिना साधना अधूरी रहती है। अतः जैन तन्त्र में भी तान्त्रिक साधना के पूर्वं तत्त्वमीमांसा और ज्ञानमीमांसा का सम्यक् अनुशीलन आवश्यक है। इस प्रकार जैन तत्त्व साधना में दर्शन को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है।
अब हम इस तथ्य पर विचार करेंगे कि जैन परम्परा में तांत्रिक साधना के कौन से तत्त्व किन-किन रूपों में उपस्थित हैं ? और उनका उद्भव एवं विकास कैसे हुआ ?
जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६
जैनधर्म में तान्त्रिक साधना का उद्भव एवं विकास
यदि तन्त्र का उद्देश्य वासना-मुक्ति और आत्मविशुद्धि है तो वह जैन धर्म में उसके अस्तित्व के साथ ही जुड़ी हुई है। किन्तु यदि तन्त्र का तात्पर्य व्यक्ति की दैहिक वासनाओं और लौकिक एषणाओं की पूर्ति के लिए किसी देवता - विशिष्ट की साधना कर उसके माध्यम से अलौकिक शक्ति को प्राप्त कर या स्वयं देवता के माध्यम से उन वासनाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति करना माना जाय तो प्राचीन जैन धर्म में इसका कोई स्थान नहीं था। इसे हम प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर चुके हैं। यद्यपि जैन आगमों में ऐसे अनेकों सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं, जिनके अनुसार उस युग में अपनी लौकिक एषणाओं की पूर्ति के लिए किसी देव-देवी या यक्ष पक्षी की उपासना की जाती थी। अंतगडदसा आदि आगमों में नैगमेषदेव के द्वारा सुलसा और देवकी के छः सन्तानों के हस्तांतरण की घटना, कृष्ण के द्वारा अपने छोटे भाई की प्राप्ति के लिए तीन दिवसीय उपवास के द्वारा नैगमेष देव की उपासना करना अथवा बहुपुत्रिका देवी की उपासना के द्वारा सन्तान प्राप्त करना आदि अनेक सन्दर्भ मिलते हैं, किन्तु इस प्रकार की उपासनाओं को जैन धर्म की स्वीकृति प्राप्त थी, यह कहना उचित नहीं होगा। प्रारम्भिक जैन धर्म, विशेषरूप से महावीर की परम्परा में तन्त्र-मन्त्र की साधना मुनि के लिए सर्वथा वर्जित ही मानी गई थी। प्राचीन जैन आगमों में इसको न केवल हेय दृष्टि से देखा गया, अपितु इस प्रकार की साधना करने वाले को पापश्रमण या पार्श्वस्थ तक कहा गया है। इस सम्बन्ध में सूत्रकृताङ्गसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र एवं दशवैकालिकसूत्र के सन्दर्भ पूर्व में दिये जा चुके हैं। आगमों में पार्श्वस्थ का तात्पर्य शिथिलाचारी साधु माना जाता है। यद्यपि महावीर की परम्परा ने प्रारम्भ में तन्त्र साधना को कोई स्थान नहीं दिया, किन्तु उनके पूर्ववर्ती पार्श्व (जिनका जन्म इसी वाराणसी नगरी में हुआ था) की परम्परा के साथ अष्टांगनिमित्त शास्त्र का अध्ययन और विद्याओं की साधना करते थे, ऐसे संकेत जैनागमों में मिलते हैं। यही कारण था कि महावीर की परम्परा में पार्श्व की परम्परा के साधुओं को पार्श्वस्थ अर्थात् शिथिलाचारी कहकर हेय दृष्टि से देखा जाता था । प्राकृत में 'पासत्य' शब्द के तीन अर्थ होते हैं- १. पाशस्थ अर्थात् पाश में बँधा हुआ २. पार्श्वस्थ अर्थात् पार्श्व के संघ में स्थित या ३. पार्श्वस्थ अर्थात् पार्श्व में स्थित संयमी जीवन के समीप रहने वाला।
• ज्ञाताधर्मकथासूत्र जैसे अंग- आगम के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के प्रथम वर्ग में और आवश्यकनियुक्ति, आवश्यकचूर्णि आदि आगमिक व्याख्या ग्रन्थों में ऐसे अनेक सन्दर्भ प्राप्त होते हैं, जिनमें पार्श्वापत्य श्रमणों और श्रमणियों द्वारा अष्टाङ्गनिमित्त एवं मन्त्र-तन्त्र आदि की साधना करने के उल्लेख हैं। आज भी जैन परम्परा में जो तान्त्रिक
साधनाएँ की जाती है, उनमें आराध्यदेव महावीर न होकर मुख्यतः पार्श्वनाथ अथवा उनकी शासनदेवी पद्मावती ही होती जैन तांत्रिक साधनाओं में पार्श्व और पद्मावती की प्रधानता स्वतः ही इस तथ्य का प्रमाण है कि पार्श्व की परम्परा में तांत्रिक साधना की प्रवृत्ति रही होगी। यह माना जाता है कि पार्श्व की परम्परा के ग्रन्थों, जिन्हें "पूर्व" के नाम से जाना जाता है, में एक विद्यानुप्रवाद पूर्व भी था । यद्यपि वर्तमान में यह अन्य अप्राप्त है, किन्तु इसकी विषयवस्तु के सम्बन्ध में जो निर्देश उपलब्ध हैं उनसे इतना तो सिद्ध अवश्य होता है कि इसकी विषयवस्तु में विविध विद्याओं की साधना से सम्बन्धित विशिष्ट प्रक्रियाएँ निहित रही होंगी। न केवल पार्श्व की परम्परा के पूर्व साहित्य में, अपितु महावीर की परम्परा के आगम साहित्य में भी विशेष रूप से प्रश्नव्याकरणसूत्र में विविध विद्याओं की साधना सम्बन्धी सामग्री थी, ऐसी टीकाकार अभयदेव आदि की मान्यता है। यही कारण था कि योग्य अधिकारियों के अभाव में उस विद्या को पढ़ने से कोई साधक चरित्र से भ्रष्ट न हो, इसलिए लगभग सातवीं शताब्दी में उसकी विषयवस्तु को ही बदल दिया गया। यह सत्य है कि महावीर की परम्परा में प्रारम्भ में तन्त्र-मन्त्र और विद्याओं की साधनाओं को न केवल वर्जित माना गया था, अपितु इस प्रकार की साधना में लगे हुए लोगों की आसुरी योनियों में उत्पन्न होने वाला भी कहा गया। किन्तु जब पार्श्व की परम्परा का विलय महावीर की परम्परा में हुआ तो पार्श्व की परम्परा के प्रभाव से महावीर की परम्परा के श्रमण भी तांत्रिक परम्पराओं से जुड़े। महावीर के संघ में तान्त्रिक साधनाओं की स्वीकृति इस अर्थ में हुई कि उनके माध्यम से या तो आत्मविशुद्धि की दिशा में आगे बढ़ा जाय अथवा उन्हें सिद्ध करके उनका उपयोग जैन धर्म की प्रभावना या उसके प्रसार के लिए किया जाय।
इस प्रकार महावीर के धर्मसंघ में तन्त्र साधना का प्रवेश जिनशासन की प्रभावना के निमित्त हुआ और परवर्ती अनेक जैनाचार्यों ने जैन धर्म के प्रभावना के लिए तांत्रिक साधनाओं से प्राप्त शक्ति का प्रयोग भी किया, जैन साहित्य में ऐसे संदर्भ विपुलता से उपलब्ध होते हैं। आज भी श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में किसी मुनि को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होने के पूर्व सूरिमंत्र और वर्द्धमान विद्या की साधना करनी होती है। मात्र यही नहीं श्वेताम्बर मूर्तिपूजक श्रमण और श्रमणियाँ मन्त्रसिद्ध सुगन्धित वस्तुओं का एक चूर्ण जिसे वासक्षेप कहा जाता है. अपने पास रखते हैं और उपासकों को आर्शीर्वाद के रूप में प्रदान करते हैं। यह जैन धर्म में तन्त्र के प्रभाव का स्पष्ट प्रमाण है। इसी प्रकार मंत्रसिद्ध रक्षाकवच भी उपासकों को प्रदान किये जाते हैं। न केवल श्वेताम्बर और दिगम्बर भट्टारक परम्परा में अपितु वर्तमान दिगम्बर परम्परा में भी अनेक आचार्य और मुनि विशेषरूप से आचार्य विमलसागर जी की परम्परा के मुनिगण तन्त्र-मन्त्र का प्रयोग करते हुए देखे जाते हैं। लगभग सातवीं शती के अनेक अभिलेखीय एवं साहित्यिक साक्ष्य भी उपलब्ध होते हैं जिनमें जैन मुनियों द्वारा तन्त्र-मन्त्र के प्रयोग के प्रसंग उपलब्ध हैं। वस्तुतः चैत्यवास के परिणामस्वरूप दिगम्बर सम्प्रदाय में विकसित भट्टारक परम्परा और श्वेताम्बर सम्प्रदाय में विकसित यति परम्परा स्पष्टतया इन तान्त्रिक साधनाओं से सम्बन्धित रही है, यद्यपि आध्यात्मवादी मुनिवर्ग ने इन्हें सदैव ही हेय दृष्टि से देखा है और समय-समय पर इन प्रवृत्तियों की आलोचना भी की है।
वस्तुत: जैन परम्परा में तान्त्रिक साधनाओं का विकास चौथी
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तन्त्र-साधना और जैन जीवन दृष्टि
४८७ पाँचवीं शताब्दी के पूर्व ही प्रारम्भ हो गया था। कल्पसूत्र पट्टावली में आकर्षित होने का भय था। जैन श्रमणों की जो प्राचीन आचार्य परम्परा वर्णित है उसमें विद्याधरकुल अध्यात्म के आदर्श की बात करना तो सुखद लगता है का उल्लेख मिलता है। सम्भवत: विद्याधर कुल जैन श्रमणों का वह वर्ग किन्तु उन आदर्शों को जीवन में जीना सहज नहीं है। जैन धर्म का रहा होगा जो विविध विद्याओं की साधना करता होगा। यहाँ विद्या का उपासक भी वही व्यक्ति है जिसे अपने लौकिक और भौतिक मंगल की तात्पर्य बुद्धि नहीं, अपितु देव अधिष्ठित अलौकिक शक्ति की प्राप्ति ही आकांक्षा रहती है। जैन धर्म को विशुद्ध रूप से मात्र आध्यात्मिक और है। प्राचीन जैन साहित्य में हमें जंघाचारी और विद्याचारी, ऐसे दो प्रकार निवृत्तिमार्गी बनाए रखने पर भक्तों या उपासकों के एक बड़े भाग से के श्रमणों के उल्लेख प्राप्त होते हैं। यह माना जाता है कि ये मुनि जैन धर्म के विमुख हो जाने की समभावनाएँ थीं। इन परिस्थितियों में अपनी विशिष्ट साधना द्वारा ऐसी अलौकिक शक्ति प्राप्त कर लेते थे जैन आचार्यों की यह विवशता थी कि वे अपने अनुयायियों की श्रद्धा जिसकी सहायता से वे आकाश में गमन करने में समर्थ होते थे। जैन-धर्म में बनी रहे इसके लिए उन्हें यह आवश्वासन दें कि चाहे
यह माना जाता है कि आर्य वज्रस्वामी (ईसा की प्रथमशती) तीर्थंकर उनके लौकिक-भौतिक कल्याण करने में असमर्थ हों किन्तु उन ने दुर्भिक्षकाल में पट्टविद्या की सहायता से सम्पूर्ण जैन संघ को सुरक्षित तीर्थंकरों के शासन रक्षक देव उनका लौकिक और भौतिक मगल करने स्थान पर पहुँचाया था। वज्रस्वामी द्वारा किया गया विद्या का यह प्रयोग में समर्थ हैं। जैन देवमण्डल में विभिन्न यक्ष-यक्षियों, विद्यादेवियों, परवर्ती आचार्यों और साधुओं के लिए एक उदाहरण बन गया। वज्रस्वामी क्षेत्रपालों आदि को जो स्थान मिला, उसका मुख्य लक्ष्य तो अपने के सन्दर्भ में आवश्यकनियुक्ति में स्पष्टरूप से कहा गया है कि उन्होंने अनुयायियों की श्रद्धा जैन-धर्म में बनए रखना ही था। अनेक विद्याओं का उद्धार किया था। लगभग दूसरी शताब्दी के मथुरा यही कारण था कि आठवीं-नौवीं शताब्दी में जैन आचार्यों ने के एक शिल्पांकन में आकाशमार्ग से गमन करते हुए एक जैन श्रमण अनेक तांत्रिक विधि-विधानों को जैन-साधना और पूजा-पद्धति का को प्रदर्शित भी किया गया है। इससे यही सिद्ध होता है कि ईसा की अंग बना दिया। यह सत्य है कि जैन साधना में तांत्रिक साधना की दूसरी-तीसरी शताब्दी से भी जैनों में अलौकिक सिद्धियों की प्राप्ति हेतु अनेक विधाएँ यथा मन्त्र, यन्त्र, जप, पूजा, ध्यान आदि क्रमिक रूप से तांत्रिक साधना के प्रति निष्ठा का विकास हो गया था।
विकसित होती रही है, किन्तु यह सब अपनी सहवर्ती परम्पराओं के वस्तुत: जैन धर्मसंघ में ईसा की चौथी-पाँचवीं शताब्दी से प्रभाव का परिणाम थी, जिसे जैन धर्म के उपासकों की निष्ठा को जैन चैत्यवास का आरम्भ हुआ और उसी के परिणामस्वरूप तन्त्र-मन्त्र की धर्म के बनाए रखने के लिए स्वीकार किया गया था। साधना को जैन संघ में स्वीकृति भी मिली।
संदर्भजैन परम्परा में आर्य खपुट, (प्रथम शती), आर्य रोहण १. पञ्चाशक, प्रका०- ऋषभदेव श्री, केशरीमलजी श्वे० संस्था, २/४४ (द्वितीय शती), आचार्य नागार्जुन (चतुर्थ शती) यशोभद्रसूरि, मानदेवसूरि, २. ललितविस्तरा, हरिभद्र, प्रका०- ऋषभदेव, केशरीमल श्वेताम्बर संस्था, सिद्धसेनदिवाकर (चतुर्थशती), मल्लवादी (पंचमशती) मानतुङ्गसूरि (सातवीं वी०नि०सं० २४६१, पृ० ५७-५८.
शती), हरिभद्रसूरि (आठवीं शती), बप्पभट्टिसूरि (नवीं शती), सिद्धर्षि ३. गुह्यसमाजतन्त्र, संपा०- विनयतोष भट्टाचार्य, प्रका०- ओरिएण्टल (नवीं शती), सूराचार्य (ग्यारहवीं शती), जिनेश्वरसूरि (ग्यारहवीं शती), इंस्टिट्यूट, बरोदा, १९३१, ५/४० अभयदेवसूरि (ग्यारहवीं शती) वीराचार्य (ग्यारहवीं शती), जिनदत्तसूरि ५. सूत्रकृताङ्गसूत्र, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन (बारहवीं शती), वादिदेवसूरि (बारहवीं शती), हेमचन्द्र (बारहवीं शती), समिति, ब्यावर, १९८२, २/३/१८ आचार्य मलयगिरि (बारहवीं शती), जिनचन्द्रसूरि (बारहवीं शती) ६. उत्तराध्ययनसूत्र संपा०- साध्वी चन्दना, प्रका०- वीरायतन प्रकाशन पार्श्वदेवगणि (बारहवीं शती), जिनकशल सूरि (तेरहवीं शती) आदि आगरा १९७२, १५/७ अनेक आचार्यों का उल्लेख मिलता है, जिन्होंने मन्त्र और विद्याओं की ७. दशवैकालिकसूत्र, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन साधना के द्वारा जैन धर्म की प्रभावना की। यद्यपि विविध ग्रंथों, प्रबन्धों समिति, ब्यावर, १९८५, ८/५० और पट्टावलियों में वर्णित इनके कथानकों में कितनी सत्यता है, यह एक
८. आचारांगसूत्र, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन भिन्न विषय है, किन्तु जैन साहित्य में जो इनके जीवनवृत्त मिलते हैं वे
समिति, ब्यावर, १९८०, १२/६/१६३ इतना तो अवश्य सूचित करते हैं कि लगभग चौथी-पाँचवी शताब्दी से
९. स्थानांगसूत्र, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन जैन आचार्यों का रुझान तांत्रिक साधनाओं की ओर बढ़ा था और वे जैन
समिति, ब्यावर, १९८०, ६/४१. धर्म की प्रभावना के निमित्त उसका उपयोग भी करते थे।
१०. मरणसमाधि, पइण्णय सुत्ताई, संपा०- पुण्यविजयजी, प्रका०- श्री मेरी दृष्टि से जैन परम्परा में तांत्रिक साधनाओं का जो उद्भव
महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, १९८४ और विकास हुआ है, वह मुख्यत: दो कारणों से हुआ है-प्रथम तो यह
११. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा०- साध्वी चन्दना, प्रका०- वीरायतन प्रकाशन,
आगरा, १९२२, २३/७३ कि जब वैयक्तिक साधना की अपेक्षा संघीय जीवन को प्रधानता दी गई तो संघ की रक्षा और अपने श्रावक भक्तों के भौतिक कल्याण को भी
१२. निशीथभाष्य, संपा०- मुनि अमरचंदजी, प्रका०- सन्मति ज्ञानपीठ,
आगरा, १९८२, ४१५७ साधना का आवश्यक अंग मान लिया गया। दूसरे तंत्र के बढ़ते हुए
१३. आचारांगसूत्र, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन प्रभाव के कारण जैन आचार्यों के लिए यह अपरिहार्य हो गया था कि
समिति, ब्यावर, १९८०, २/१५/१३०-१३४ वे मूलत: निवृत्तिमार्गी और आत्मविशुद्धिपरक इस धर्म को जीवित
१४. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा०- साध्वी चन्दना, प्रका०- वीरायतन प्रकाशन, बनाए रखने के लिए तांत्रिक उपासना और साधना-पद्धति को किसी
आगरा, १९७२, ३२/१००। सीमा तक स्वीकार करे, अन्यथा उपासको का इतर परम्पराओं की ओर १५. प्रश्नव्याकरणसत्र, संपा०- मनि हस्तिमलजी. प्रका०- हस्तीमल सराणा,
पाली, १९५०, २/९/२
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जैन धर्म में पूजा-विधान और धार्मिक अनुष्ठान
पूजाविधान, अनुष्ठान और कर्मकाण्डपरक साधनाएँ प्रत्येक इससे स्पष्ट है कि जैन परम्परा ने प्रारम्भ में धर्म के नाम पर तांत्रिक उपासना-पद्धति के अनिवार्य अंग हैं। कर्मकाण्डपरक अनुष्ठान किये जाने वाले कर्मकाण्डों का विरोध किया और अपने उपासकों
और पूजा विधान उसका शरीर है, तो आध्यात्म साधना उसका प्राण है। तथा साधकों को ध्यान, तप आदि की अध्यात्मिक साधना के लिए भारतीय धर्मों में प्राचीनकाल से ही हमें ये दोनों प्रकार की प्रवृत्तियाँ स्पष्ट प्रेरित किया। साथ ही साधना के क्षेत्र में किसी देवी-देवता की रूप से दृष्टिगोचर होती हैं। जहाँ प्रारम्भिक वैदिक धर्म कर्मकाण्डात्मक उपासना एवं उससे किसी प्रकार की सहायता या कृपा की अपेक्षा को अधिक रहा है, वहीं प्राचीन श्रमण परम्पराएँ आध्यात्मिक साधनात्मक अनुचित ही माना। जैन धर्म के प्राचीनतम ग्रंथों में हमें धार्मिक अधिक रहीं हैं।
कर्मकाण्डों एवं विधि-विधानों के सम्बन्ध में केवल तप एवं ध्यान की जैन परम्परा मूलत: श्रमण परमरा का ही एक अंग है और विधियों के अतिरिक्त अन्य कोई उल्लेख नहीं मिलता है। पार्श्वनाथ ने इसलिए यह भी अपने प्रारम्भिक रूप में कर्मकाण्ड की विरोधी एवं तो तप के कर्मकाण्डात्मक स्वरूप का भी विरोध किया था। आचारांगसूत्र आध्यात्मिक साधना-प्रधान रही है मात्र यही नहीं उत्तराध्ययनसूत्र जैसे के प्रथम श्रुतस्कन्ध का नवाँ अध्ययन महावीर की जीवनचर्या के प्राचीन जैन ग्रन्थों में स्नान, हवन, यज्ञ आदि कर्मकाण्ड का विरोध ही प्रसंग में उनकी ध्यान एवं तप साधना की पद्धति का उल्लेख करता परिलक्षित होता है। उत्तराध्ययनसूत्र की यह विशेषता है कि उसने धर्म के है। इसके पश्चात् आचारांगसूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध, दशवैकालिक नाम पर किये जाने वाले इन कर्मकाण्डों एवं अनुष्ठानों को एक आध्यात्मिक सूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र, आदि ग्रंथों में हमें मुनि जीवन से सम्बन्धित स्वरूप प्रदान किया है। तत्कालीन ब्राह्मण वर्ग ने यज्ञ, श्राद्ध और तर्पण भिक्षा, आहार, निवास एवं विहार सम्बन्धी विधि-विधान मिलते हैं। के नाम पर कर्मकाण्डों एवं अनुष्ठानों के माध्यम से सामाजिक शोषण उत्तराध्ययनसूत्र के तीसवें अध्याय में तपस्या के विविध रूपों की की जो प्रक्रिया प्रारम्भ की थी, जैन और बौद्ध परम्पराओं ने उनका खुला चर्चा भी हमें उपलब्ध होती है। इसी प्रकार की तपस्याओं की विविध विरोध किया और इस विरोध में उन्होंने इन सबको एक नया अर्थ प्रदान चर्चा हमें अन्तकृत्दशा में भी उपलब्ध होती है, जो कि उत्तराध्ययनसूत्र किया। भारतीय अनुष्ठानों और कर्मकाण्डों में यज्ञ, स्नान आदि अति के तप सम्बन्धी उल्लेखों की अपेक्षा परवर्ती एवं अनुष्ठानपरक है। प्राचीनकाल से प्रचलित रहे हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में यज्ञ के आध्यात्मिक यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि अंतगडदसाओं (अंतकृत्दशा) स्वरूप का विवेचन उपलब्ध होता है उसमें कहा गया है कि "जो पाँच का वर्तमान स्वरूप ईसा की ५वीं शताब्दी के पश्चात् का ही है। उसमें संवरों से पूर्णतया सुसंवृत हैं अर्थात् इन्द्रियजयी हैं जो जीवन के प्रति आठवें वर्ग में गुणरत्नसंवत्सरतप, रत्नावलीतप, लघुसिंहक्रीड़ातप, अनासक्त हैं, जिन्हें शरीर के प्रति ममत्वभाव नहीं है, जो पवित्र हैं और कनकावलीतप, मुक्तावलीतप, महासिंहनिष्क्रीडिततप, सर्वतोभद्रतप, जो विदेह भाव में रहते हैं, वे आत्मजयी महर्षि ही श्रेष्ठ यज्ञ करते हैं। भद्रोत्तरतप, महासर्वतोभद्रतप और आयम्बिलवर्धमानतप आदि के उनके लिए तप ही अग्नि है, जीवात्मा अग्निकुण्ड है। मन, वचन और उल्लेख मिलते हैं। हरिभद्र ने तप पंचाशक में आगमानुकूल उपरोक्त काय की प्रवृत्तियाँ ही कलछी (चम्मच) हैं और कर्मों (पापों) का नष्ट तपों की चर्चा के साथ ही कुछ लौकिक व्रतों एवं तपों की भी चर्चा करना ही आहुति है। यही यज्ञ संयम से युक्त होने के कारण शान्तिदायक की है जो तांत्रिक साधनों के प्रभाव से जैन धर्म में विकसित हुए थे।
और सुखकारक है। ऋषियों ने ऐसे ही यज्ञों की प्रशंसा की है।" स्नान के आध्यात्मिक स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उसमें कहा गया है- धर्म ही षडावश्यकों का विकास ह्रद (तालाब) है, ब्रह्मचर्य तीर्थ (घाट) है और अनाकुल दशारूप आत्म जहाँ तक जैन श्रमण साधकों के नित्यप्रति के धार्मिक कृत्यों प्रसन्नता ही जल है, जिसमें स्नान करने से साधक दोषरहित होकर विमल का सम्बन्ध है, हमें ध्यान एवं स्वाध्याय, के ही उल्लेख मिलते हैं। एवं विशुद्ध हो जाता है।
उत्तराध्ययन के अनुसार मुनि दिन के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, द्वितीय में बुद्ध ने भी अंगुत्तरनिकाय के सुत्तनिपात में यज्ञ के आध्यात्मिक ध्यान, तृतीय में भिक्षाचर्या और चतुर्थ में पुनः स्वाध्याय करे। इसी प्रकार स्वरूप का विवेचन किया है। उसमें उन्होंने बताया है कि कौन सी रात्रि के चार प्रहरों में भी प्रथम में स्वाध्याय, द्वितीय में ध्यान, तृतीय में अग्नियाँ त्याग करने योग्य हैं और कौन सी अग्नियाँ सत्कार करने योग्य निद्रा और चतुर्थ में पुनः स्वाध्याय करे। नित्य कर्म के सम्बन्ध में हैं। वे कहते हैं कि “कामाग्नि, द्वेषाग्नि और मोहाग्नि त्याग करने योग्य प्राचीनतम उल्लेख 'प्रतिक्रमण' अर्थात्-अपने दुष्कर्मों की समालोचना है और आह्वानीयाग्नि, गार्हपत्याग्नि और दक्षिणग्नि अर्थात् माता-पिता और प्रायश्चित के मिलते हैं। पार्श्वनाथ और महावीर की धर्मदेशना का की सेवा, पत्नी और सन्तान की सेवा तथा श्रमण-ब्राह्मणों की सेवा करने एक मुख्य अन्तर प्रतिक्रमण की अनिवार्यता रही है। महावीर के धर्म को योग्य है।३ महाभारत के शान्तिपर्व और गीता में भी यज्ञों के ऐसे ही सप्रतिक्रमण धर्म कहा गया है। महावीर के धर्मसंघ के सर्वप्रथम प्रतिक्रमण आध्यात्मिक और सेवापरक अर्थ किये गये हैं।
एक दैनिक अनुमान बना। इसी से षडावश्यकों की अवधारणा का
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जैन धर्म में पूजा-विधान और धार्मिक अनुष्ठान
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विकास हुआ। आज भी प्रतिक्रमण षडावश्यकों के साथ किया जाता है। पांचवीं शती के लगभग का माना जाता है। क्योंकि तब से जैनाचार्यों के श्वेताम्बर परम्परा के आवश्यकसूत्र एवं दिगम्बर और यापनीय परम्परा के लिए 'क्षमाश्रमण' पद का प्रयोग होने लगा था। गुरुवंदन पाठों से ही मलाचार में इन षडावश्यकों के उल्लेख हैं। ये षडावश्यक कर्म हैं- चैत्यों का निर्माण होने पर चैत्यवंदन का विकास हुआ और चैत्यवंदन सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, गुरुवंदन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग (ध्यान) की विधि को लेकर अनेक स्वतंत्र ग्रंथ भी लिखे गये है।
और प्रत्याख्यान। यद्यपि प्रारम्भ में इन षडावश्यकों का सम्बन्ध मुनि जिनपूजा-विधि का विकास जीवन से ही था, किन्तु आगे चलकर उनको गृहस्थ उपासकों के लिए इसी स्तवन एवं वंदन की प्रक्रिया का विकसित रूप जिनभी आवश्यक माना गया। आवश्यकनियुक्ति५ में वंदन कायोत्सर्ग आदि पूजा में उपलब्ध होता है, जो कि जैन अनुष्ठान का महत्त्वपूर्ण एवं की विधि एवं दोषों की जो चर्चा है, उससे इतना अवश्य फलित होता अपेक्षाकृत प्राचीन अंग है। वस्तुत: वैदिक यज्ञ-यागपरक कर्मकाण्ड है कि क्रमश: इन दैनन्दिन क्रियाओं को भी अनुष्ठानपरक बनाया गया की विरोधी जनजातियों एवं भक्तिमार्गी परम्पराओं में धार्मिक अनुष्ठान था। आज भी एक रूढ़ क्रिया के रूप में ही षडावश्यकों को सम्पन्न किया के रूप में पूजा-विधि का विकास हुआ था और श्रमण परम्परा में जाता है।
तपस्या और ध्यान का। यक्षपूजा के प्राचीनतम उल्लेख जैनागमों में जहाँ तक गृहस्थ उपासकों के धार्मिक कृत्यों या अनुष्ठानों उपलब्ध हैं। फिर इसी भक्तिमार्गीधारा का प्रभाव जैन और बौद्ध धर्मों का प्रश्न है, हमें उनके सम्बन्ध में भी ध्यान एवं उपोषथ या प्रौषध पर भी पड़ा और उनमें तप, संयम एवं ध्यान के साथ जिन एवं बुद्ध विधि के ही प्राचीन उल्लेख उपलब्ध होते हैं। उपासकदशासूत्र में की पूजा की भावना विकसित हुई। परिणामत: सर्वप्रथम स्तूप, चैत्यशकडालपुत्र एवं कुण्डकौलिक के द्वारा मध्याह्न में अशोकवन में वृक्ष आदि के रूप में प्रतीक पूजा प्रारम्भ हुई, फिर सिद्धायतन शिलापट्ट पर बैठकर उत्तरीय वस्त्र एवं आभूषण उतारकर महावीर की (जिनमन्दिर) आदि बने और बुद्ध एवं जिन-प्रतिमाओं की पूजा होने धर्मप्रज्ञप्ति की साधना अर्थात् सामायिक एवं ध्यान करने का उल्लेख लगी। फलत: जिन-पूजा एवं दान को गृहस्थ का मुख्य कर्तव्य माना है। बौद्ध त्रिपिटक साहित्य से यह ज्ञात होता है कि निग्रंथ श्रमण गया। दिगम्बर परम्परा में तो गृहस्थ के लिए प्राचीन षडावश्यकों के अपने उपासकों को ममत्वभाव का विसर्जनकर कुछ समय के लिए स्थान पर निम्न षट् दैनिक कृत्यों की कल्पना की गयी-जिन-पूजा, समभाव एवं ध्यान की साधना करवाते थे। इसी प्रकार भगवतीसूत्र में गुरु सेवा, स्वाध्याय, तप, संयम एवं दान। भोजनोपरान्त अथवा निराहार रहकर श्रावकों के द्वारा प्रौषध करने के हमें आचारांगसूत्र, सूत्रकृतांगसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र, भगवतीसूत्र, उल्लेख मिलते हैं। त्रिपिटक में बौद्धों ने निग्रंथों के उपोषथ की आदि प्राचीन आगमों में जिन-पूजा की विधि का स्पष्ट उल्लेख नहीं
आलोचना भी की है। इससे यह बात पुष्ट होती है कि सामायिक, मिलता है। अपेक्षाकृत परवर्ती आगमों-स्थानांग आदि में जिन-प्रतिमा एवं प्रतिक्रमण एवं प्रौषध की परम्परा महावीरकालीन तो है ही। जिनमन्दिर (सिद्धायतन) के उल्लेख तो हैं, किन्तु उनमें भी पूजा
सूत्रकृतांगसूत्र में महावीर की जो स्तुति उपलब्ध होती है, वह सम्बन्धी किसी अनुष्ठान की चर्चा नहीं है। जबकि 'राजप्रश्नीयसूत्र' में सम्भवत: जैन परम्परा में तीर्थंकरों के स्तवन का प्राचीनतम रूप है। सूर्याभदेव और ज्ञाताधर्मकथा में द्रौपदी के द्वारा जिन-प्रतिमाओं के पूजन उसके बाद कल्पसूत्र, भगवतीसूत्र एवं राजप्रश्नीयसूत्र में हमें वीरासन के के उल्लेख हैं। राजप्रश्नीय के वे अंश जिसमें सूर्याभदेव के द्वारा जिनशक्रस्तव (नमोत्थुणं) का पाठ करने का उल्लेख प्राप्त होता है। दिगम्बर प्रतिमा-पूजन एवं जिन के समक्ष नृत्य, नाटक, गान आदि के जो परम्परा में आज वंदन के अवसर पर जो 'नमोऽस्तु' कहने की परम्परा उल्लेख हैं, वे ज्ञाताधर्मकथा से परवर्ती हैं और गुप्तकाल के पूर्व के नहीं है वह इसी 'नमोत्थुणं' का संस्कृत रूप है। दुर्भाग्य से दिगम्बर परम्परा हैं। चाहे 'राजप्रश्नीयसूत्र' का प्रसेनजित-सम्बन्धी कथा पुरानी हो, किन्तु में यह प्राकृत का सम्पूर्ण पाठ सुरक्षित नहीं रह सका। चतुर्विंशतिस्तव सूर्याभदेव सम्बन्धी कथा प्रसंग में जिनमन्दिर के पूर्णत: विकसित स्थापत्य का एक रूप आवश्यकसूत्र में उपलब्ध है, इसे 'लोगस्स' का पाठ भी के जो संकेत हैं, वे उसे गुप्तकाल से पूर्व का सिद्ध नहीं करते हैं। फिर कहते हैं। यह पाठ कुछ परिवर्तन के साथ दिगम्बर परम्परा के ग्रंथ भी यह सत्य है कि जिन-पूजा-विधि का इससे विकसित एवं प्राचीन तिलोयपण्णत्ति में भी उपलब्ध है। तीन आवों के द्वारा 'तिक्खुत्तो' के उल्लेख श्वे० परम्परा के आगम साहित्य में अन्यत्र नहीं है। पाठ से तीर्थंकर गुरु एवं मुनि-वंदन की प्रक्रिया भी प्राचीनकाल में दिगम्बर परम्परा में आचार्य कुन्दकुन्द ने भी रयणसार में दान प्रचलित रही है। अनेक आगमों में तत्सम्बन्धी उल्लेख हैं। श्वेताम्बर और पूजा को गृहस्थ का मुख्य कर्तव्य माना है, वे लिखते हैंपरम्परा में प्रचलित 'तिखुत्तो' के पाठ का भी एक परिवर्तित रूप हमें दाणं पूजा मुक्ख सावयधम्मे ण सावया तेण विणा। षट्खण्डागम के कर्म अनुयोगद्वार के २८वें सूत्र में मिलता है। तुलनात्मक झाणज्झयणं मुक्ख जइ धम्मे ण तं विणा सो वि॥६ अध्ययन के लिए दोनों पाठ विचारणीय हैं। गुरुवंदन के लिए 'खमासमना' अर्थात् गृहस्थ के कर्तव्यों में दान और पूजा मुख्य और यति/ के पाठ की प्रक्रिया उसकी अपेक्षा परवर्ती है। यद्यपि यह पाठ आवश्यकसूत्र श्रमण के कर्तव्यों में ध्यान और स्वाध्याय मुख्य हैं। इस प्रकार उसमें भी जैसे अपेक्षाकृत प्राचीन आगम में मिलता है, फिर भी इसमें प्रयुक्त पूजा सम्बन्धी अनुष्ठानों को गृहस्थ के कर्तव्य के रूप में प्रधानता मिली। क्षमाश्रमण या क्षपकश्रमण (खमासमणो) शब्द के आधार पर इसे चौथी, परिणामत: गृहस्थों के लिए अहिंसादि अणुव्रतों का पालन उतना महत्त्वपूर्ण
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
नहीं रह गया, जितना पूजा आदि के विधि-विधानों को सम्पन्न करना। जाती थी, फिर क्रमश: धूप, चंदन ओर नैवेद्य आदि पूजा-द्रव्यों का प्रथम तो पूजा को कृतिकर्म (सेवा) का एक रूप माना गया, किन्तु आगे विकास हुआ" पद्मपुराण, हरिवंशपुराण एवं जटासिंहनन्दि के वरांगचरित चलकर उसे अतिथिसंविभाग का अंग बना दिया गया।
से भी हमारे उक्त कथन का सम्यक समर्थन होता है। दिगम्बर परम्परा में भी जैन अनुष्ठानों का उल्लेख सर्वप्रथम यापनीय परम्परा के ग्रन्थ वरांगचरित (लगभग छठी-सातवीं हमें कुन्दकुन्द रचित 'दस भक्तियों' में एवं यापनीय परम्परा से मूलाचार शती) में नाना प्रकार के पुष्प, धूप और मनोहारी गंध से भगवान् की के षडावश्यक अध्ययन में मिलता है। जैन शौरसेनी में रचित इन सभी पूजा करने का उल्लेख है। ज्ञातव्य है कि इस ग्रन्थ में पूजा में वस्त्राभूषण भक्तियों के प्रणेता कुन्दकुन्द हैं- यह कहना कठिन है, फिर भी कुन्दकुन्द समर्पित करने का उल्लेख भी है। के नाम से उपलब्ध भक्तियों में से पाँच पर प्रभाचन्द्र की 'क्रियाकलाप'
इसी प्रकार दूसरे यापनीय ग्रन्थ पद्मपुराण में उल्लिखित है कि नामक टीका है। अत: किसी सीमा तक इनमें से कुछ के कर्ता के रूप रावण स्नान कर धौतवस्त्र पहन, स्वर्ण और रत्ननिर्मित जिनबिम्बों की में कुन्दकुन्द (लगभग पांचवीं शती) को स्वीकार किया जा सकता है। नदी के तट पर पूजा करने लगा। उसके द्वारा प्रयुक्त पूजा सामग्री में दिगम्बर परम्परा में संस्कृत भाषा में रचित 'बारह भक्तियाँ' भी मिलती हैं। धूप, चंदन, पुष्प और नैवेद्य का ही उल्लेख आया है, अन्य द्रव्यों का इन सब भक्तियों के मुख्यत: पंचपरमेष्ठि-तीर्थंकर, सिद्ध, आचार्य, मुनि नहीं। देखेंएवं श्रुत आदि की स्तुतियाँ हैं। श्वेताम्बर परम्परा में जिस प्रकार नमोत्थुणं स्थापयित्वा घनामोदसमाकृष्टमधुव्रतैः (शक्रस्तव), लोगस्स (चतुर्विंशतिस्तव), चैत्यवंदन आदि उपलब्ध हैं, धूपैरालेपनैः पुष्पैर्मनोहर्बहुभक्तिभिः।।९ उसी प्रकार दिगम्बर परम्परा में भी ये भक्तियाँ उपलब्ध हैं। इनके आधार अत: स्पष्ट है कि प्रचलित अष्टद्रव्यों द्वारा पूजन करने की प्रथा पर ऐसा लगता है कि प्राचीनकाल में जिन-प्रतिमाओं के सम्मुख केवल यापनीय एवं दिगम्बर परम्परा में श्वेताम्बरों की अपेक्षा कुछ समय के स्तवन आदि करने की परम्परा रही होगी। वैसे मथुरा से प्राप्त कुषाणकालीन पश्चात् ही प्रचलित हुई होगी। पुरातत्त्वीय अवशेषों में कमल के द्वारा जिन-प्रतिमा के अर्चन के प्रमाण दिगम्बर परम्परा में सर्वप्रथम हरिवंशपुराण में जिनसेन ने पूजा मिलते हैं, इसकी पुष्टि 'राजप्रश्नीयसूत्र' से भी होती है। यद्यपि भावपूजा सामग्री में चंदन, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य का उल्लेख किया के रूप में स्तवन की यह परम्परा-जो कि जैन अनुष्ठान विधि का है। इस उल्लेख में भी अष्टद्रव्यों का क्रम यथावत् नहीं है और न जल सरलतम एवं प्राचीनरूप है, आज भी निर्विवाद रूप से चली आ रही है। का पृथक् निर्देश ही है। अभिषेक में दुग्ध, इक्षुरस, घृत, दधि एवं जल श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराएँ मुनियों के लिए तो केवल भावपूजा का निर्देश है, पर पूजन सामग्री में जल का कथन नहीं आया है। स्मरण अर्थात् स्तवन का ही विधान करती हैं, द्रव्यपूजा का विधान तो मात्र रहे कि प्रक्षालन की प्रक्रिया का अग्रिम विकास अभिषेक है, जो अपेक्षाकृत गृहस्थों के लिए ही है। मथुरा के कुषाणकालीन जैन अंकनों में मुनि को परवर्ती है। पूजा के अष्टद्रव्यों का विकास भी शनै:-शनैः हुआ है, इस स्तुति करते हुए एवं गृहस्थों को कमलपुष्प से पूजा करते हुए प्रदर्शित कथन की पुष्टि अमितगति श्रावकाचार से भी होती है, क्योंकि इसमें किया गया है। यद्यपि पुष्प-जैसे सचित द्रव्य से पूजा करना जैन धर्म के गंध, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, और अक्षत इन छ: द्रव्यों का ही उल्लेख सूक्ष्म अहिंसा सिद्धान्त के प्रतिकूल कहा जा सकता है, किन्तु दूसरी उपलब्ध होता है। शती से यह प्रचलित रही-इससे इंकार नहीं किया जा सकता। पाँचवीं वरांगचरित, पद्मपुराण, पद्मनन्दिकृत पंचविंशति, आदिपुराण, शती या उसके बाद के सभी श्वेताम्बर एवं दिगम्बर ग्रन्थों में इसके हरिवंशपुराण, वसुनन्दिश्रावकाचार आदि ग्रंथों में इन पूजा द्रव्यों का उल्लेख उपलब्ध हैं। इस सम्बन्ध में विशेष चर्चा आगे की गई है। फलादेश भी है। यह माना गया है कि अष्टद्रव्यों द्वारा पूजा करने से
द्रव्यपूजा के सम्बन्ध में राजप्रश्नीयसूत्र में वर्णित सूर्याभदेव ऐहिक और पारलौकिक अभ्युदयों की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार द्वारा की जाने वाली पूजा-विधि आज भी (श्वेताम्बर परम्परा में) उसी रूप भावसंग्रह में भी अष्टद्रव्यों का पृथक्-पृथक् फलादेश बताया गया है। में प्रचलित है। उसमें प्रतिमा के प्रमार्जन, स्नान, अंगप्रोच्छन, गंध डॉ० नेमिचन्दजी शास्त्री एवं मेरे द्वारा प्रस्तुत यह विवरण विलेपन, अथवा गंध माल्य, वस्त्र आदि के अर्पण के उल्लेख हैं। श्वेताम्बर-दिगम्बर परम्पराओं में पूजा-द्रव्यों के क्रमिक विकास को स्पष्ट राजप्रश्नीयसूत्र में उल्लिखित पूजा-विधि भी जैन परम्परा में एकदम कर देता है। विकसित नहीं हुई है। स्तवन से चैत्यवंदन और चैत्यवंदन से पुष्प आदि श्वेताम्बर परम्परा में पंचोपचारी पूजा से अष्टप्रकारी पूजा और से द्रव्य अर्चा प्रारम्भ हुई। यह सम्भव है कि जिनमन्दिरों और जिनबिम्बों उसी से सर्वोपचारी या सतरहभेदी पूजा विकसित हुई। यह सर्वोपचारी के निर्माण के साथ, ही हिन्दू परम्परा के प्रभाव से जैनों में भी द्रव्यपूजा पूजा वैष्णवों की षोडशोपचारीपूजा का ही रूप है। बहुत कुछ रूप में प्रचलित हुई होगी। फिर क्रमशः पूजा की सामग्री में वृद्धि होती गई और इसका उल्लेख राजप्रश्नीय एवं वरांगचरित१० में उपलब्ध है। अष्टद्रव्यों से पूजा होने लगी। डॉ० नेमिचन्द शास्त्री के शब्दों में- “पूजन सामग्री के विकास की एक सुनिश्चित परम्परा हमें जैन वाङ्मय में राजप्रश्नीयसूत्र में वर्णित-पूजा विधान उपलब्ध होती है। आरम्भ में पूजन विधि केवल पुष्पों द्वारा सम्पन्न की राजप्रश्नीयसूत्र-११ में सूर्याभदेव द्वारा की गई जिन-पूजा का
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जैन धर्म में पूजा-विधान और धार्मिक अनुष्ठान
४९१ वर्णन इस प्रकार है।- “सूर्याभदेव ने व्यवसाय सभा में रखे हुए पुस्तकरत्न
पञ्चोपचार पूजा में गंध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य- ये पांच को अपने हाथ में लिया, हाथ में लेकर उसे खोला, खोलकर उसे पढ़ा वस्तुएं देवता को समर्पित की जाती हैं। दशोपचार पूजा पादप्रक्षालन, और पढ़कर धार्मिक क्रिया करने का निश्चय किया, निश्चय करके पुस्तकरत्न अर्यसमर्पण, आचमन, मधुपर्क, जल, गंध, पुष्प, धूप, दीप और को वापस रखा, रखकर सिंहासन से उठा और नन्दा नामक पुष्करिणी नैवेद्यसमर्पण इन दस प्रक्रियाओं द्वारा पूजा-विधि सम्पन्न की जाती है। पर आया। नन्दा पुष्करिणी में प्रविष्ट होकर उसने अपने हाथ-पैरों का इसी प्रकार षोडशोपचार पूजा में १. आह्वान, २. आसन-प्रदान ३, प्रक्षालन किया तथा आचमन कर पूर्णरूप से स्वच्छ और शुचिभूत होकर स्वागत, ४. पाद-प्रक्षालन, ५. आचमन, ६. अर्ध्य, ७. मधुपर्क, ८. स्वच्छ श्वेत जल से भरी हुई श्रृंगार (झारी) तथा उस पुष्करिणी में उत्पन्न जल, ९. स्नान, १०, वस्त्र ११, आभूषण, १२ गन्ध, १३. पुष्प, शतपत्र एवं सहस्रपत्र कमलों को ग्रहण किया, फिर वहाँ से चलकर जहाँ १४. धूप, १५. दीप और १६. नैवेद्य से पूजा की जाती है। सिद्धायतन (जिनमंदिर) था, वहाँ आया। उसमें पूर्वद्वार से प्रवेश करके प्रकारान्तर से गायत्रीतंत्र में षोडपोपचार पूजा के निम्न अंग भी जहाँ देवछन्दक और जिन-प्रतिमा थी वहाँ आकर जिन-प्रतिमाओं को मिलते हैंप्रणाम किया। प्रणाम करके लोममयी प्रमार्जनी हाथ में ली, प्रमार्जनी से १. आह्वान २. आसन-प्रदान, ३. पाद-प्रक्षालन, ४. जिन-प्रतिमा को प्रमार्जित किया। प्रमार्जित करके सुगन्धित जल से उन अर्यसमर्पण, ५. आचमन, ६. स्नान, ७. वस्त्रअर्पण, ८. लेपन, ९. जिन-प्रतिमाओं का प्रक्षालन किया। प्रक्षालन करके उन पर गोशीर्ष चंदन यज्ञोपवीत, १० पुष्प, ११. धूप, १२. दीप (आरती) १३. नैवेद्यका लेप किया। गोशीर्ष चंदन का लेप करने के पश्चात् उन्हें सुवासित प्रसाद, १४. प्रदक्षिणा १५. मंत्रपुष्प और १६ शय्या। वस्त्रों से पोंछा, पोंछकर जिन-प्रतिमाओं को अखण्ड देवदूष्य युगल षोडशोपचार पूजा की उक्त दोनों सूचियों में मात्र नाम और पहनाया। देवदूष्य पहनाकर पुष्पमाला, गंधचूर्ण एवं आभूषण चढ़ाये। क्रम का आंशिक अन्तर है। इस पञ्चोपचार, दशोपचार और षोडशोपचार तदनन्तर नीचे लटकी लम्बी-लम्बी गोल मालाएँ पहनायीं। मलाएँ, पूजा के स्थान पर जैन धर्म में अष्टप्रकारी और सतरह भेदी पूजा प्रचलित पहनाकर पंचवर्ण के पुष्पों की वर्षा की। फिर जिन-प्रतिमाओं के समक्ष रही है। पूजा-विधान के दोनों प्रकार पूजा के द्रव्यों की संख्या एवं पूजा विभिन्न चित्रांकन किये एवं श्वेत तन्दुलों से अष्टमंगल का आलेखन के अंगों के आधार पर हैं। सिद्धान्ततः इनमें कोई भिन्नता नहीं है। किया। उसके पश्चात् जिन-प्रतिमाओं के समक्ष धूपक्षेप किया। धूपक्षेप . जैनों की सतरहभेदी पूजा में निम्न विधि से पूजा सम्पन्न की करने के पश्चात् विशुद्ध, अपूर्व, अर्थसम्पन्न महिमाशाली १००८ छन्दों जाती हैसे भगवान् की स्तुति की । स्तुति करके सात-आठ पैर पीछे हटा। पीछे १. स्नान, २. विलेपन, ३. वस्त्र युगल समर्पण ४. वासक्षेप हटकर बाँया घुटना ऊँचा किया तथा दायाँ घुटना जमीन पर झुकाकर समर्पण, ५. पुष्पसमर्पण, ६. पुष्पमालासमर्पण, ७. पंचवर्ण की अंगरचना तीन बार मस्तक पृथ्वीतल पर नमाया। फिर मस्तक ऊँचा कर दोनों हाथ (अंगविन्यास), ८. गन्ध समर्पण, ९. ध्वजा समर्पण, १०. आभूषण जोड़कर मस्तक पर अंजलि करके 'नमोत्थुणं अरहन्ताणं........ठाणं समर्पण, ११. पुष्पगृहरचना, १२. पुष्पवृष्टि १३. अष्ट मंगल रचना, संपत्ताणं नामक शक्रस्तव का पाठ किया। इस प्रकार अर्हन्त और सिद्ध १४. धूप समर्पण, १५. स्तुति, १६. नृत्य और १७. वाजिंत्र पूजा भगवान् की स्तुति करके फिर जिनमंदिर के मध्य भाग में आया। उसे (वाद्य बजना)। प्रमार्जित कर दिव्य जलधारा से सिंचित किया और गोशीर्ष चंदन का लेप यहां दोनों परम्पराओं के पूजा-विधानों में जो बहुत अधिक किया तथा पुष्पसमूहों की वर्षा की। तत्पश्चात् उसी प्रकार उसने मयूरपिच्छि समरूपता है, वह उनके पारस्परिक प्रभाव की सूचक है इनमें भी पञ्च के से द्वारशाखाओं, पुतलियों एवं व्यालों को प्रमार्जित किया तथा उनका स्थान पर अष्ट और षोडश के स्थान पर सप्तदश उपचारों के उल्लेख प्रक्षालन कर उनको चंदन से अर्चित किया तथा धूपक्षेप करके पुष्प एवं यह बताते हैं कि जैनों ने हिन्दू परम्परा से इसे ग्रहण किया है।
आभूषण चढ़ाये। इसी प्रकार उसने मणिपीठिकाओं एवं उनकी जिन- इसी प्रकार जहां तक पूजा के अंगों का प्रश्न है, जैन परम्परा प्रतिमाओं की, चैत्यवृक्ष की तथा महेन्द्र ध्वजा की पूजा-अर्चना की। में भी हिन्दू तांत्रिक परम्पराओं के ही समान आह्वान, स्थापना, सत्रिधिकरण, इससे स्पष्ट है कि राजप्रश्नीयसूत्र के काल में पूजा सम्बन्धी मन्त्रों के पूजन और विसर्जन की प्रक्रिया समान रूप से सम्पन्न की जाती है। इसमें अतिरिक्त जिन-पूजा की एक सुव्यवस्थिति प्रक्रिया निर्मित हो चुकी थी। देवता के नाम को छोड़कर शेष सम्पूर्ण मन्त्र भी समान ही हैं। पूजालगभग ऐसा ही विवरण वरांगचरित के २३वें सर्ग में भी है। विधान की इन समरूपताओं का फलितार्थ यही है कि जैन परम्परा इन
विधि-विधानों के सम्बन्ध में हिन्दू परम्परा से प्रभावित हुई है। जैन तांत्रिक पूजा-विधानों की तुलना
'राजप्रश्नीयसूत्र' के अतिरिक्त अष्टप्रकारी एवं सतरह भेदी इष्ट देवता की पूजा भक्तिमार्गीय एवं तांत्रिक साधना का भी पूजा का उल्लेख आवश्यकनियुक्ति एवं उमास्वाति के 'पूजाविधि- प्रकरण आवश्यक अंग हैं- इन सम्प्रदायों में सामान्यतया पूजा के तीन रूप में भी उपलब्ध है। यद्यपि यह कृति उमास्वाति की ही है अथवा उनके प्रचलित रहे हैं- १. पञ्चोपचार पूजा, २. दशोपचार पूजा और ३. नाम से अन्य किसी की रचना है, इसका निर्णय करना कठिन है। षोडशोपचार पूजा।
अधिकांश विचारक इसे अन्यकृत मानते हैं। इस पूजाविधि-प्रकरण में
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
यह बताया गया है कि पश्चिम दिशा में मुख करके दन्तधावन करें फिर शताब्दी से ही जैन ग्रंथों में इसका समर्थन देखा जाता है। सम्भवतः ईसा पूर्वमुख हो स्नानकर श्वेत वस्त्र धारण करें और फिर पूर्वोत्तर मुख होकर की छठी-सातवीं शती तक जैन धर्म में पूजा-प्रतिष्ठा सम्बन्धी अनेक जिनबिम्ब की पूजा करें। इस प्रकरण में अन्य दिशाओं और कोणों में कर्मकाण्डों का प्रवेश हो गया था। यही कारण है कि आठवीं शती में स्थित होकर पूजा करने से क्या हानियाँ होती हैं, यह भी बतलाया गया हरिभद्र को इनमें कर्मकाण्डों का मुनियों के लिए निषेध करना पड़ा। है। पूजाविधि की चर्चा करते हुए यह भी बताया गया है कि प्रात: काल ज्ञातव्य है कि हरिभद्र ने सम्बोधप्रकरण के कुगुरु अधिकार में चैत्यों में वासक्षेप-पूजा करनी चाहिए। इसमें पूजा में जिनबिम्ब के भाल, कंठ निवास, जिन-प्रतिमा की द्रव्यपूजा, जिन-प्रतिमा के समक्ष नृत्य, गान, आदि नव स्थानों पर चंदन के तिलक करने का भी उल्लेख है। इसमें यह नाटक आदि का जैन-मुनि के लिए निषेध किया है। यद्यपि पंचाशक में भी बताया गया है कि मध्याह्नकाल में कुसुम से तथा संध्या को धूप और उन्होंने इन पूजा-विधानों को गृहस्थ के लिए करणीय माना है। दीप से पूजा की जानी चाहिए। इसमें पूजा के लिए कीट आदि से रहित पुष्पों के ग्रहण करने का उल्लेख है। साथ-साथ यह भी बताया गया है जैनधर्म का अनुष्ठानपरक जैन साहित्य कि पूजा के लिए पुष्प के टुकड़ें करना या उन्हें छेदना निषिद्ध है। इसमे अनुष्ठान सम्बन्धी विधि-विधानों को लेकर जैन परंपरा के गंध, धूप, अक्षत, दीप, जल, नैवेद्य फल आदि अष्टद्रव्यों से पूजा का दोनों ही सम्प्रदायों में अनेक ग्रन्थ रचे गये हैं। इनमें श्वेताम्बर परंपरा में भी उल्लेख है। इस प्रकार यह ग्रंथ भी श्वेताम्बर जैन परम्परा की पूजा- उमास्वाति का 'पूजाविधिप्रकरण', पादलिप्तसूरि की 'निर्वाणकलिका' पद्धति का प्राचीनतम आधार कहा जा सकता है। दिगम्बर परम्परा में अपरनाम 'प्रतिष्ठा-विधान' एवं हरिभद्रसूरि का 'पंचाशकप्रकरण' प्रमुख जिनसेन के महापुराण में एवं यतिवृषभ की तिलोयपण्णत्ति में जिन- प्राचीन ग्रन्थ कहे जाते हैं। हरिभद्र के १९ पंचाशकों में श्रावकधर्म पंचाशक, प्रतिमा की पूजा के उल्लेख हैं।
दीक्षा पंचाशक, वंदन पंचाशक, पूजा पंचाशक (इसमें विस्तार से जिनपूजा इस समग्र चर्चा में हमें ऐसा लगता है कि जैनपरम्परा में का उल्लेख है), प्रत्याख्यान पंचाशक, स्तवन पंचाशक, जिनभवननिर्माण सर्वप्रथम धार्मिक अनुष्ठान के रूप में षडावश्यकों का विकास हुआ। पंचाशक, जिनबिम्बप्रतिष्ठा पंचाशक, जिनयात्रा विधान पंचाशक, उन्हीं षडावश्यकों में स्तवन या स्तुति का स्थान भी था। उसी से आगे श्रमणोपासकप्रतिमा पंचाशक, साधुधर्मपंचाशक, साधुसमाचारी पंचाशक, चलकर भावपूजा और द्रव्यपूजा की कल्पना सामने आई। उसमें भी पिण्डविशुद्धि पंचााशक, शील-अंग पंचाशक, आलोचना पंचाशक, द्रव्यपूजा का विधान केवल श्रावकों के लिए हुआ। तत्पश्चात् श्वेताम्बर प्रायश्चित्त पंचाशक, दसकल्प पंचाशक, भिक्षुप्रतिमा पंचाशक, तप पंचाशक
और दिगम्बर दोनों परंपराओं में जिन-पूजा सम्बन्धी जो जटिल विधि- आदि हैं। प्रत्येक पंचाशक ५०-५० गाथाओं में अपने-अपने विषय का विधानों का विस्तार हुआ, वह भी ब्राह्मण परम्परा का प्रभाव था। फिर विवरण प्रस्तुत करता है। इस पर चन्द्रकुल के नवांगीवृत्तिकार अभयदेवसूरि आगे चलकर जिनमंदिर के निर्माण एवं जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा के का विवरण भी उपलब्ध है। जैन धार्मिक क्रियाओं के सम्बन्ध में एक सम्बन्ध में अनेक प्रकार के विधि-विधान बने। पं० फूलचंदजी सिद्धान्तशास्त्री दूसरा प्रमुख ग्रन्थ 'अनुष्ठानविधि' है। यह धनेश्वरसूरि के शिष्य चन्द्रसूरि ज्ञानपीठ पूजांजलि की भूमिका में और स्व० डॉ० नेमिचंदजी शास्त्री ने की रचना है। यह महाराष्ट्री प्राकृत में रचित है तथा इसमें सम्यक्त्व अपने एक लेख पुष्पकर्म-देवपूजा: विकास एवं विधि, में इस बात को आरोपणविधि, व्रत आरोपणविधि, पाण्मासिक सामायिक विधि, स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि जैन परंपरा में पूजा-द्रव्यों का क्रमशः श्रावकप्रतिमावहनविधि, उपधानविधि, प्रकरणविधि, मालाविधि, तपविधि, विकास हुआ है। यद्यपि पुष्पपूजा प्राचीनकाल से प्रचलित है फिर भी यह आराधनाविधि, प्रव्रज्याविधि उपस्थापनाविधि, केशलोचविधि, जैन परंपरा के आत्यन्तिक अहिंसा सिद्धान्त से मेल नहीं खाती है। एक पंचप्रतिक्रमणविधि, आचार्य उपाध्याय एवं महत्तरा पदप्रदानविधि, पोषधविधि, ओर तो जैन पूजा-विधान पाठ में ऐसे हैं, जिनमें मार्ग में होने वाली ध्वजरोपणविधि, कलशरोपणविधि आदि के साथ आत्मरक्षा कवच एवं एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा का प्रायश्चित हो, यथा
सकलीकरण जैसी तान्त्रिक क्रियाओं के निर्देश मिलते हैं। इस कृति के ईर्यापथे प्रचलताद्य मया प्रमादात्
पश्चात् तिलकाचार्य की 'समाचारी' नामक कृति भी लगभग इन्हीं विषयों एकेन्द्रियप्रमुखजीवनिकाय बाधा।
का विवेचन करती है। जैन कर्मकाण्डों का विवेचन करने वाले अन्य निदर्तिता यदि भवेव युगान्तरेक्षा,
ग्रन्थों में सोमसुन्दरसूरि का 'समाचारी शतक', जिनप्रभसूरि (वि०सं० मिथ्या तदस्तु दुरितं गुरुभक्तितो मे।।
१३६३) की 'विधिमार्गप्रपा, वर्धमानसूरि का 'आचारदिनकर', हर्षभूषणगणि स्मरणीय है कि श्वे० परम्परा में चैत्यवंदन में भी 'इरियाविहि (वि०सं० १४८०) का 'श्राद्धविधिविनिश्चय' तथा समयसुन्दर का 'समाचारी विराहनाये' नामक पाठ मिलता है- जिसका तात्पर्य भी चैत्यवंदन के शतक' भी महत्त्वपूर्ण है। इनके अतिरिक्त प्रतिष्ठाकल्प के नाम से अनेक लिए जाने में हुई एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा का भी प्रायश्चित्त किया जाता लेखों की कृतियाँ हैं, जिनमें जैन परम्परा के अनुष्ठानों की चर्चा है। है। तो दूसरी ओर उन पूजा विधानों में, पृथ्वी, वायु, अप अग्नि और दिगम्बर परम्परा में धार्मिक क्रियाकाण्डों को लेकर वसुनन्दि का वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा का विधान है, यह एक 'प्रतिष्ठासारसंग्रह' (वि०सं० ११५०), आशाधर का 'जिनयज्ञकल्प' आन्तरिक असंगति तो है ही। यद्यपि यह भी सत्य है कि चौथी-पाँचवीं (सं० १२८५) एवं महाभिषेककल्प, सुमतिसागर का
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जैन धर्म में पूजा-विधान और धार्मिक अनुष्ठान
४९३ 'दसलाक्षणिकव्रतोद्यापन', सिंहनन्दी का 'व्रततिथिनिर्णय, जयसागर का रखने के लिए जैन धर्म के साथ कुछ ऐसे अनुष्ठानों को भी जोड़ें जो 'रविव्रतोद्यापन', ब्रह्मजिनदास का 'जम्बूद्वीपपूजन', 'अनन्तव्रतपूजन', अपने उपासकों के भौतिक कल्याण में सहायक हों। निवृत्तिप्रधान अध्यात्मवादी 'मेघामालोद्यापनपूजन' (१५वीं शती), विश्वसेन का षण्नवतिक्षेत्रपाल एवं कर्मसिद्धान्त में अटल विश्वास रखने वाले जैनधर्म के लिए यह पूजन (१६वीं शती), बुधवीरु 'धर्मचक्रपूजन' एवं 'वृहद्धर्मचक्रपूजन' न्याय संगत तो नहीं था, फिर भी ऐतिहासिक सत्य है कि उसमें यह (१६वीं शती), सकलकीर्ति के 'पंचपरमेष्ठिपूजन', 'षोडशकारणपूजन' प्रवृत्ति विकसित हुई है। एवं गणधरवलयपूजन' (१६वीं शती) श्रीभूषण का 'षोडशसागावतोद्यापन', यह हम पूर्व में कह चुके हैं कि जैन धर्म का तीर्थंकर व्यक्ति नागनन्दि का 'प्रतिष्ठाकल्प' आदि प्रमुख कहे जा सकते हैं। के भौतिक कल्याण में साधक या बाधक नहीं हो सकता है, अत: जैन
अनुष्ठानों में जिनपूजा के साथ यक्ष-यक्षियों के रूप में शासनदेवता तथा जैन पूजा-अनुष्ठानों पर तंत्र का प्रभाव
देवी की कल्पना विकसित हुई और यह माना जाने लगा कि अपने जैन अनुष्ठानों का उद्देश्य तो लौकिक उपलब्धियों एवं विघ्न- उपास्य तीर्थंकर की अथवा अपनी उपासना से शासनदेवता (यक्ष-यक्षी) बाधाओं का उपशमन न होकर व्यक्ति का अपना आध्यात्मिक विकास ही प्रसन्न होकर उपासक का सभी प्रकार से कल्याण करते हैं। है। जैन साधक स्पष्ट रूप से इस बात को दृष्टि से रखता है कि प्रभु की शासनरक्षक देवी-देवता के रूप में सरस्वती, अम्बिका, पद्मावती, पूजा और स्तुति केवल भक्त के स्वरूप या जिनगुणों की उपलब्धि के चक्रेश्वरी, काली आदि अनेक देवियों तथा मणिभद्र, घण्टाकर्ण महावीर, लिए है। आचार्य समन्तभद्र स्पष्ट रूप से कहते हैं कि हे नाथ! चूंकि पार्श्वयक्ष, आदि यक्षों, नवग्रहों, अष्ट दिक्पालों एवं अनेक क्षेत्रपालों आप वीतराग हैं, अत: आप अपनी पूजा या स्तुति से प्रसन्न होने वाले (भैरवों) के पूजा-विधानों को जैन-परम्परा के स्थान मिला। इन सबकी नहीं हैं और आप विवान्तवैर हैं इसलिए निन्दा करने पर भी आप पूजा के लिए जैनों ने विभिन्न अनुष्ठानों को किंचित् परिवर्तन के साथ अप्रसन्न होने वाले नहीं है। आपकी स्तुति का मेरा उद्देश्य तो केवल हिन्दू तांत्रिक परम्परा से ग्रहण, कर लिया। भैरवपद्मावतीकल्प आदि अपने चित्तमल को दूर करना है
ग्रन्थों से इसकी पुष्टि होती है। जैन पूजा और प्रतिष्ठा की विधि में न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे, न निन्दया नाथ! विवान्तवैर। तान्त्रिक परम्परा के अनेक ऐसे तत्त्व भी जुड़ गये जो जैन परम्परा के
तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्नः, पुनातु चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः।। मूलभूत मंतव्यों से भिन्न हैं। हम यह देखते हैं कि तन्त्र के प्रभाव से जैन इसी प्रकार एक गुजराती जैन कवि कहता है
परम्परा में चक्रेश्वरी, पद्मावती, अम्बिका, घण्टाकर्ण महावीर, नाकोड़ा अजकुलगतकेशरि लहेरे निजपद सिंह निहाल।
भैरव, भूमियाजी, दिक्पाल, क्षेत्रपाल, आदि की उपासना प्रमुख और तिम प्रभुभक्ति भवि लहेरे जिन आतम संभार।।
तीर्थंकरों की उपासना गौण होती गई। हमें अनेक ऐसे पुरातत्त्वीय साक्ष्य जैन परम्परा का उद्घोष है- 'वन्दे तद्गुणलब्धये' अर्थात् मिलते हैं जिनके अनुसार जिन-मन्दिरों में इन देवियों की स्थापना होने वन्दन करने का उद्देश्य प्रभु के गुणों की उपलब्धि करना है। जिनदेव की लगी थी। जैन अनुष्ठानों का एक प्रमुख ग्रन्थ 'भैरवपद्मावतीकल्प' है, जो एवं हमारी आत्मा तत्त्वतः समान है, अतः वीतराग के गुणों की उपलब्धि मुख्यतया वैयक्तिक जीवन की विघ्न-बाधाओं के उपशमन और भौतिक का अर्थ है स्वरूप की उपलब्धि। इस प्रकार जैन अनुष्ठान मूलतः उपलब्धियों के लिए विविध अनुष्ठानों का प्रतिपादन करता है। इस ग्रन्थ आत्मविशुद्धि और स्वस्वरूप की उपलब्धि के लिए है। जैन अनुष्ठानों में में वर्णित अनुष्ठानों पर जैनेत्तर तन्त्र का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है जिन गाथाओं या मन्त्रों का पाठ किया जाता है, उनमें भी अधिकांशतः जिसकी विस्तृत चर्चा आगे की गई है। जो पूजनीय के स्वरूप का ही बोध कराते हैं अथवा आत्मा के लिए
ईस्वी छठी शती से लेकर आज तक जैन परम्परा के अनेक पतनकारी प्रवृत्तियों का अनुस्मरण कर उनसे मुक्त होने की प्रेरणा देते हैं, आचार्य भी शासनदेवियों, क्षेत्रपालों और यक्षों की सिद्धि के लिए जिनपूजा के विविध प्रकारों में जिन पाठों का पठन किया जाता है या जो प्रयत्नशील देखे जाते हैं और अपने अनुयायियों को भी ऐसे अनुष्ठानों स्तोत्र आदि प्रस्तुत किये जाते हैं, उनका मुख्य उद्देश्य आत्मविशुद्धि ही के लिए प्रेरित करते रहे हैं। जैन धर्म में पूजा और उपासना का यह दूसरा है। साधक आत्मा, आत्म-विशुद्धि में बाधक शक्तियों के निवर्तन के लिए पक्ष जो हमारे सामने आया, वह मूलत: तान्त्रिक परम्परा का प्रभाव ही ही धर्म-साधना करता है। वह धर्म को इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट के है। जिनपूजा एवं अनुष्ठान विधियों में अनेक ऐसे मन्त्र मिलते हैं, जिन्हें शमन की साधना मानता है।
ब्राह्मण परम्परा के तत्सम्बन्धी मन्त्रों का मात्र जैनीकरण कहा जा सकता किन्तु जैसाकि हम पूर्व में बता चुके हैं मनुष्य की वासनात्मक है। उदाहरण के रूप में जिस प्रकार ब्राह्मण परम्परा में इष्ट देवता की पूजा स्वाभाविक प्रवृत्ति का यह परिणाम हुआ कि जैन परम्परा में भी अनुष्ठानों के समय उसका आह्वान, स्थापन, विसर्जन आदि किया जाता है उसी का आध्यात्मिक स्वरूप पूर्णतया स्थिर न रह सका, उसमें विकृति आयी। प्रकार जैन परम्परा में भी पूजा के समय जिन के आह्वान और विसर्जन जैन धर्म का अनुयायी आखिर वही मनुष्य है, जो भौतिक जीवन में के मन्त्र बोले जाते हैं- यथासुख-समृद्धि की कामना से मुक्त नहीं है। अत: जैन आचार्यों के लिए यह ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन अत्र अवतर अवतर संवौषट्-आह्वानम आवश्यक हो गया कि वे अपने उपासकों की जैन धर्म में श्रद्धा बनाये
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः- स्थापनम्
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् अत्र मम सन्निहतो भव भव वषट्सन्निधायनम् रह पाना कठिन है और इसलिए यह स्वाभाविक ही था कि जैन परम्परा ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् स्वस्थानं गच्छ ज: ज: ज: विसर्जनमा की पूजा अनुष्ठान विधियों में हिन्दू तान्त्रिक परम्परा का प्रभाव आया।
ये मन्त्र जैन दर्शन की मूलभूत मान्यताओं के प्रतिकूल हैं, क्योंकि जहाँ ब्राह्मण परम्परा का यह विश्वास है कि आह्वान करने पर जैन परम्परा के विविध पूजा-विधान देवता आते हैं और विसर्जन करने पर चले जाते हैं। वहाँ जैन परम्परा में
तन्त्र युग में जैन परम्परा के विविध अनुष्ठानों में गृहस्थ के सिद्धावस्था को प्राप्त तीर्थंकर या सिद्ध न तो आह्वान करने पर उपस्थित
नित्यकर्म के रूप में सामायिक, प्रतिक्रमण आदि षडावश्यकों के स्थान हो सकते हैं और न विसर्जन करने पर जाते ही हैं। पं० फलचन्दजी ने पर जिनपूजा को प्रथम स्थान दिया गया। जैन परम्परा में स्थानकवासी. 'ज्ञानपीठ पूजाञ्जलि' नामक पुस्तक की भूमिका में विस्तार से इसकी। श्वेताम्बर-तेरापंथ तथा दिगम्बर तारणपंथ को छोड़कर शेष परम्पराएँ समीक्षा की है तथा आह्वान एवं विसर्जन सम्बन्धी जैन पूजा-मन्त्रों को
सम्बन्धी जैन पजा-मन्त्रों को जिनप्रतिमा के पूजन को श्रावक का एक आवश्यक कर्तव्य मानती हैं। ब्राह्मण मन्त्रों का अनुकरण माना है। तुलना कीजिए
श्वेताम्बर परम्परा में पूजा सम्बन्धी जो विविध अनुष्ठान प्रचलित हैं उनमें आवाहनं नैव जानामि नैव जानामि पूजनम् ।
प्रमुख हैं- अष्टप्रकारीपूजा, स्नात्रपूजा या जन्मकल्याणकपूजा, विसर्जनं नैव जानामि क्षमस्व परमेश्वर ।।१।। पंचकल्याणकपूजा, लघुशान्तिस्नात्रपूजा, बृहद्शान्तिस्नात्रपूजा, नमिऊणपूजा, मन्त्रहीनं क्रियाहीनं द्रव्यहीनं तथैव च।
अर्हत्पूजा, सिद्धचक्रपूजा, नवपदपूजा, सतरहभेदीपूजा, अष्टकर्म की तत्सर्वं क्षम्यतां देव रक्ष रक्ष जिनेश्वर ।।२।। पूजा, अन्तरायकर्म की पूजा, भक्तामरपूजा आदि। दिगम्बर परम्परा में
-विसर्जनमंत्र। प्रचलित पूजा अनुष्ठानों में अभिषेकपूजा, नित्यपूजा, देवशास्त्रगुरुपूजा, इनके स्थान पर हिन्दू धर्म में ये श्लोक उपलब्ध होते हैं- जिनचेत्यपूजा, सिद्धपूजा आदि प्रचलित हैं। इन सामान्य पूजाओं के आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम् ।
अतिरिक्त पर्वदिनपूजा आदि विशिष्ट पूजाओं का भी उल्लेख हुआ है। पूजनं नैव जानामि क्षमस्व परमेश्वरम् ।।१।।
पर्वपूजाओं में षोडशकारणपूजा, पंचमेरुपूजा, दशलक्षणपूजा,रत्नत्रयपूजा मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं जनार्दन ।
आदि का उल्लेख किया जा सकता है। यत्पूजितं मया देव परिपूर्णं तदस्तु मे ॥२॥
दिगम्बर परम्परा की पूजा-पद्धति में बीसपंथ और तेरहपंथ में इसी प्रकार अष्टद्रव्यपूजा एवं सतरह भेदी पूजा में सचित्त कुछ मतभेद है। जहाँ बीसपंथ पुष्प आदि सचित्त द्रव्यों से जिनपूजा को द्रव्यों का उपयोग, प्रभु को वस्त्राभूषण, गंध, माल्य, आदि का समर्पणः स्वीकार करता है वहाँ तेरहपंथ सम्प्रदाय में उसका निषेध किया गया है। यज्ञ का विधान, विनायकयन्त्र स्थापना, यज्ञोपवीतधारण आदि भी जैन पुष्प के स्थान पर वे लोग रंगीन अक्षतों (तन्दुलों) का उपयोग करते हैं। परम्परा के अनुकूल नहीं है। इधर जब तान्त्रिक साधना का प्रभाव बढ़ने इसा प्रकार जहा बासपथ में बठकर वही तरहपथ में खड़ रहकर पूजा लगा, तो उसमें भी इन पूजा-विधियों का प्रवेश हआ। दसवीं शती के करने की परम्परा है। अनन्तर इन विधि-विधानों को इतना महत्त्व प्राप्त हुआ, फलत: पूर्व
यहाँ विशेषरूप से उल्लेखनीय यह है कि श्वेताम्बर और प्रचलित आध्यात्मिक उपासना गौण हो गयी। प्रतिमा के समक्ष रहने पर
दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं के प्राचीन ग्रंथों में अष्टद्रव्यों से पूजा के ही आह्वान, स्थापन, सन्निधीकरण, पूजन और विसर्जन क्रमश: पंचकल्याणकों उल्लेख मिलते हैं। यापनीय ग्रंथ वारांगचरित (त्रयोविंशसर्ग) में जिनपूजा की स्मति के लिए व्यवहत होने लगे। पजा को वैयावत्य का अंग माना सम्बन्धी जो उल्लेख हैं वे श्वेताम्बर परम्परा के राजप्रश्नीयसत्र के पजा जाने लगा तथा एक प्रकार से इसे 'आहारदान' के तुल्य स्थान प्राप्त सम्बन्धी उल्लेखों से बहुत कुछ मिलते है। हुआ। पूजा के समय सामायिक या ध्यान की मूलभावना में परिवर्तन हआ। द्रव्यपूजा को अतिथि संविभाग व्रत का अंग मान लिया गया। उसे जैन पूजा-विधान की आध्यात्मिक प्रकृति गृहस्थ का एक अनिवार्य कर्तव्य बताया गया। यह भी हिन्दु परम्परा की . यह सत्य है कि जैन पूजा-विधान और धार्मिक अनुष्ठानों पर अनुकृति ही थी। जहाँ यह माना जाता हो कि तीर्थंकरों ने दीक्षा के समय
भक्तिमार्ग एवं तन्त्र साधना का व्यापक प्रभाव है और उनमें अनेक स्तरों सचित्तद्रव्यों, स्नान, वस्त्र, आभूषण, गंध, माल्य आदि का त्याग कर
पर समरूपताएँ भी हैं। किन्तु यह भी सत्य है कि इन पूजा विधानों में भी दिया था, मात्र यही नहीं जिस जैन परम्परा में एक वर्ग ऐसा भी हो जो।
जैनों की आध्यात्मिक जीवन शैली स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है, तीर्थंकर के कवलाहार का भी निषेध करता हो, वही परम्परा, तीर्थंकर की
निषेध करता हो नदी पर तकरी क्योंकि उनका प्रयोजन भिन्न है। यह उनमें बोले जाने वाले मंत्रों से स्पष्ट पूजा में वस्त्र, आभूषण, गंध, माल्य, नवैद्य आदि अर्पित करे, यह क्या हो जाता हैसिद्धान्त की विडम्बना नहीं ही जायेगी? मंदिर एवं जिनबिम्ब प्रतिष्ठा
"ऊँ ह्रीं परम परमात्मने अनन्तानन्तज्ञानशक्तये जन्मजरामृत्युआदि से सम्बन्धित सम्पूर्ण अनुष्ठान जैन परम्परा में ब्राह्मण परम्परा की निवारणाय श्रीमजिनेन्द्राय जलं यजामहे स्वाहा।" देन है और उसकी मूलभूत प्रकृति के प्रतिकूल कहे जा सकते हैं। वस्तुत:
इसीप्रकारचन्दन आदि के समर्पण के समय जल के स्थान पर किसी भी परम्परा के लिए अपनी सहवर्ती परम्परा से पूर्णतया अप्रभावित चन्दन आदि शब्द बोले जाते हैं, शेष मंत्र वही रहता है, किन्त पजा के
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जैन धर्म में पूजा-विधान और धार्मिक अनुष्ठान
प्रयोजनभेद से इसका स्वरूप बदलता भी है। जैसे:
ॐ ह्रीं अहं परमात्मने अन्तरायकर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय जलं यजामहे स्वाहा ।
ॐ ह्रीं अहं परमात्मने अनन्तान्तज्ञानशक्तये श्री समकित व्रतदृढ करणाय / प्राणातिपातविरमणव्रतग्रहणाय जलं यजामहे स्वाहा।
इसी प्रकार अष्टद्रव्यों के समर्पण में भी प्रयोजन की भिन्नता परिलक्षित होती है:
ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु विनाशाय जलं निर्वापमिति स्वाहा। ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्राय भवतापविनाशाय चंदनं निर्वापमिति स्वाहा। ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वापमिति स्वाहा । ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वापमिति स्वाहा । ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशाय दीपं निर्वापमिति स्वाहा। ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्राय अनुकर्मदहनाय धूपं निर्वापमिति स्वाहा। ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वापमिति स्वाहा।
इन पूजा मन्त्रों से यह सिद्ध होता है कि जैन परम्परा से इन सभी पूजा-विधानों का अन्तिम प्रयोजन तो आध्यात्मिक विशुद्धि ही माना गया है। यह माना गया है कि जलपूजा आत्मविशुद्धि के लिए की जाती है। चन्दनपूजा का प्रयोजन कषायरूपी अग्नि को शान्त करना अथवा समभाव में अवस्थित होना है। पुष्पपूजा का प्रयोजन अन्त:करण सद्भावों का जागरण है । धूपपूजा कर्मरूपी इन्धन को जलाने के लिये हैं, तो दीपपूजा का प्रयोजन ज्ञान के प्रकाश को प्रकट करना है। अक्षतपूजा का तात्पर्य अक्षतों के समान कर्म के आवरण से रहित अर्थात् निरावरण होकर अक्षय पद प्राप्त करना है। नैवेद्यपूजा का तात्पर्य चित्त में आकांक्षाओं और इच्छाओं की समाप्ति है। इसी प्रकार फलपूजा मोक्षरूपी फल की प्राप्ति के लिये की जाती है। इस प्रकार जैन पूजा की विधि में और हिन्दूभक्तिमार्गीय और तांत्रिकपूजा विधियों में बहुत कुछ समरूपता होते हुए भी उनके प्रयोजन भिन्न रूप में माने गये हैं । जहाँ सामान्यतया हिन्दू एवं तांत्रिकपूजा विधियों का प्रयोजन इष्टदेवता को प्रसन्न कर उसकी कृपा से अपने लौकिक संकटों का निराकरण करना रहा है। वहाँ जैन पूजा-विधानों का प्रयोजन जन्म-मरण रूप संसार से विमुक्ति ही रहा। दूसरे, इनमें पूज्य से कृपा की कोई आकांक्षा भी नहीं होती है मात्र अपनी आत्मविशुद्धि की आकांक्षा की अभिव्यक्ति होती है, क्योंकि दैवीयकृपा (grace of God) का सिद्धान्त जैनों के कर्म सिद्धान्त के विरोध में जाता है।
जैन पूजा-विधान और लौकिक एवं नैतिक मंगल की कामना यहाँ भी ज्ञातव्य है कि तीर्थकरों की पूजा-उपासना में तो यह आत्मविशुद्धिप्रधान जीवनदृष्टि कायम रही, किन्तु जिनशासन के रक्षक देवों की पूजा- उपसना में लौकिकमंगल और भौतिक आकांक्षाओं की पूर्ति की कामना किसी न किसी रूप में जैनों में भी आ गई। इस कथन की पुष्टि भैरवपद्यावती कल्प में पद्मावती के निम्न मन्त्र से होती है- १२
विविधदुःखविनाशी दुष्टदारिद्रयपाशी कलिमलभक्षाली भव्यजीवकृपाली । असुरमदनिवारी देवनागेन्द्रनारी जिनमुनिपदसेव्यं ब्रह्मपुण्याब्धिपूज्यम् ॥ ११ ॥
ॐ ॐ क्रीं ह्रीं मन्त्ररूपायै विश्वविघ्नहरणायै सकलजन-हितकारिकायै श्री पद्मावत्यै जयमालार्थं निर्वापामीति स्वाहा । लक्ष्मीसौभाग्यकरा जगत्सुखकरा बन्ध्यापि पुत्रार्पिता नानारोगविनाशिनी अघहरा (त्रि) कृपाजने रक्षिका। रक्कानां धनदायिका सुफलदा वाञ्छार्थिचिन्तामणि: त्रैलोक्याधिपतिर्भवार्णवत्राता पद्मावती पातु वः ॥ १२ ॥
इत्याशीर्वादः
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स्वास्तिकल्याणभद्रस्तु क्षेमकल्याणमस्तु वः । यावच्चन्द्रदिवानाथौ तावत् पद्मावतीपूजा ॥ १३ ॥ ये जनाः पूजन्ति पूजां पद्मावती जिनान्विता । ते जनाः सुखमायान्ति यावन्मेरुर्जिनालयः || १४ ||
प्रस्तुत स्तोत्र में पद्मावती पूजन का प्रयोजन वैयक्तिक एवं लौकिक एषणाओं की पूर्ति तो है ही, इससे भी एक कदम आगे बढ़कर इसमें तन्त्र के मारण, मोहन, वशीकरण आदि षट्कर्मों की पूर्ति की आकांक्षा भी देवी से की गई है। प्रस्तुत पद्मावतीस्तोत्र का निम्न अंश इसका स्पष्ट प्रमाण है
ॐ नमो भगवति! त्रिभुवनवशंकारी सर्वाभरणभूषिते पद्मनयने! पद्मिनी पद्मप्रमे पद्मकोशिनिः पद्मवासिनि पद्महस्ते! ह्रीं ह्रीं कुरु कुरु मम हृदयकार्यं कुरु कुरु, मम सर्वंशान्तिं कुरु कुरु मम सर्वराज्यवश्यं कुरु कुरु, सर्वलोकवश्यं कुरु कुरु, मम सर्व स्त्रीवश्यं कुरु कुरु, मम सर्वभूतपिशाचप्रेतरोषं हर हर, सर्वरोगान् छिन्द छिन्द, सर्वविघ्नान् भिन्द भिन्द, सर्वविषं छिन्द छिन्द, सर्वकुरुमृगं छिन्द छिन्द, सर्वशाकिनी छिन्द छिन्द, श्रीपार्श्वीजिनपदाम्भोजभृङ्गि नमोदत्ताय देवी नमः । ॐ ह्रीं ह्रीं हूं ह्रीं हः स्वाहा । सर्वजनराज्यस्त्रीपुरुषवश्यं सर्व २ ॐ औँ काँ ऐं क्लीं ह्रीं देवि! पद्मावति । त्रिपुरकामसाधिनी दुर्जनमतिविनाशिनी त्रैलोक्यक्षेधिनी श्री पार्श्वनाथोपसर्गहारिणी क्लीं ब्लूं मम दुष्टान् हन हन, मम सर्वकार्याणि साधय साधय हुं फट् स्वाहा।
ओं क्रीं ह्रीं क्लीं हसों पद्मे देवि! मम सर्वजगद्वश्यं कुरु कुरु, सर्वविघ्नान् नाशय नाशय, पुरक्षोभं कुरु कुरु, ह्रीं संवौषट् स्वाहा।
ॐ आं क्रों हीं द्रीं ह्रीं क्लीं ब्लूं सः ह पद्मावती सर्वपुरजनान् क्षोभय क्षोभय, मम पादयोः पातय पातय, आकर्षणी ह्रीं नमः ।
पाचय है
ॐ ह्रीं क्रीं अर्हं मम पापं फट् दह दह हन हन पच पच पाचय मां है क्ष्वीं हंस भं वंझ यहः क्षां क्षीं क्षं क्ष क्ष क्ष क्ष क्ष हाँ ह्रीं ह्रीं ह्रौं ह: हि: हिं द्रां प्रिं द्रावय द्रावय नमोऽर्हते भगवते श्रीमते ठः ठः मम श्रीरस्तु, पुष्टिरस्तु, कल्याणमस्तु स्वाहा।।
ज्वालामालिनीस्तोत्र
इससे यह फलित होता है कि तान्त्रिक साधना के षट्कर्मों की
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
सिद्धि के लिए भी जैन परम्परा में मंत्र, जप, पूजा आदि प्रारम्भ हो गये खी खू खा ख: ग्रीवां भञ्जय भञ्जय, छम्ल्व्यूँ छाँ छीं छं छौँ छु: थे। उपरोक्त पद्मावतीस्तोत्र के अतिरिक्त भैरवपद्यावतीकल्प में परिशिष्ट के अन्तराणि छेदय छेदय, ठम्ल्व्यूँ ठां | ठौँ ठ: महाविद्यापाषाणास्त्रैः हन रूप में प्रस्तुत निम्न ज्वालामालिनी मन्त्र स्तोत्र से भी इस कथन की पुष्टि हन, ब्ल्व्यूँ ब्राँ ब्री बृं ब्रौं ब्रः समुद्रे! जम्भय जम्भय, झाँ झ: घाँ डौँ घ्रः होती है। यह स्तोत्र निम्न है-१३
सर्वडाकिनी: मर्दय मर्दय, सर्वयोगिनी: तर्जय तर्जय, सर्वशत्रून् ग्रस प्रस, ॐ नमो भगवते श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय शशाङ्कशङखगोक्षी- खं खं खं खं खं खं खादय खादय, सर्वदैत्यान् विध्वंसय विध्वंसय रहारधवलगात्राय धातिकर्मनिर्मलोच्छेदनकराय जातिजरामरणविनाशनाय सर्वमृत्यून् नाशय नाशय, सर्वोपद्रव महाभय स्तम्भय स्तम्भय, दह २ त्रैलोक्यवशङ्कराय सर्वासत्त्वहितङ्कराय सुरासुरेन्द्रमुकुट- कोटिघृष्टापादपीठाय पंच २ मथ २ ययः २ धम २ धरू २ खरू २ खगरावणसुविधा धातय संसारकान्तारोन्मूलनाय अचिन्त्यबलपराक्रमाय अप्रतिहतचक्राय त्रैलोक्यनाथाय २ पातय २ सच्चन्द्रहासशस्त्रेण छेदय २ भेदय २ झरू २ छरू २ हरू देवाधिदेवाय धर्मचक्राधीश्वराय सर्वविद्यापरमेश्वराय कुविद्यानिधनाय, २ फट् २ धे हाँ हाँ आँ क्रौं क्ष्वी ह्रीं फैली ब्लू द्रां द्रीं क्रौं क्षों क्षों क्षी
तत्पादपङ्कजाश्रमनिषेविणि! देवि! शासनदेवते! त्रिभुवनसङ्खो- ज्वालामालिनी आज्ञापयति स्वाहा ।।इति सर्वरोगहरस्तोत्रम।। मिणि! त्रैलोक्याशिवापहारकारिणि! स्थावरजङ्गमविषमविषसंहारकारिणि!
इससे स्पष्ट है कि जैन परम्परा ने किन्हीं स्थितियों में हिन्दू सर्वाभिचारकर्माभ्यवहारिणि! परविद्याच्छेदिनि! परमन्त्रप्रणाशिनि! तान्त्रिक परम्परा का अन्धानुकरण भी किया है और अपने पूजा-विधान अष्टमहानागकुलोच्चाटनि! कालदुष्टमृतकोत्थापिनि! सर्वविघ्नविनाशिनी! में ऐसे तत्त्वों को स्थान दिया है, जो उसकी आध्यात्मिक, निवृत्तिप्रधान सर्वरोगप्रमोचनि! ब्रह्मविष्णुरुद्रेन्द्रचन्द्रादित्यग्रहनक्षत्रोत्पातमरणभय- और अहिंसक दृष्टि के प्रतिकूल हैं, फिर भी इतना अवश्य है कि इस पीडासम्मर्दिनि! त्रैलोक्यमहिते! भव्यलोकहितङ्करि। विश्वलोकवशङ्करि! अत्र प्रकार पूजा-विधान तीर्थंकरों से सम्बन्धित न होकर प्राय: अन्य देवीमहाभैरवरुपधारिणी! महाभीमे! भीमरूपधारिणी! महारौद्रि! रौद्ररूपधारिणी! देवताओं से ही सम्बन्धित है। प्रसिद्धसिद्धविद्याधरयक्षराक्षसगरुडगन्धर्वकिन्नरकिं-पुरुषदैत्योरगरुद्रेन्द्रपूजिते! प्रस्तुत स्तोत्र की भी यही विशेषता है कि इसके प्रारम्भ में ज्वालामालाकरालितदिगन्तराले! महामहिषवाहने! खेटककृपाणत्रिशूलहस्ते! जिनेन्द्र की स्तुति करते हुए उनमें आध्यात्मिक विकास की कामना की शक्तिचक्रपाशशरासनविशिखपविराजमाने! षोडशार्द्धभुजे! एहि एहि हल्ल्यूँ गई है। लौकिक आकांक्षाओं की पूर्ति की कामना अथवा मारण, मोहन, ज्वालामालिनि! ह्रीं क्लीं ब्लूं फट् द्राँ द्रीं ह्रीं ह्रीं हूँ हैं ह्रौं ह्र: ह्रीं देवान् वशीकरण आदि की सिद्धि की कामना तो मात्र उनकी शासन देवी आकर्षय, आकर्षय, सर्वदुष्टग्रहान् आकर्षय आकर्षय, नागग्रहान् आकर्षय ज्वालामालिनी से की गई है। इस प्रकार हम देखते हैं कि परवर्ती आकर्षय, यक्षग्रहान् आकर्षय आकर्षय, राक्षसग्रहान् आकर्षय आकर्षय, जैनाचार्यों ने भी तीर्थंकर-पूजा का प्रयोग तो आत्मविशुद्धि ही माना है, गान्धर्वग्रान् आकर्षय आकर्षय, गान्धर्यग्रहान् आकर्षय आकर्षय, ब्रह्मग्रहान् किन्तु लौकिक एषणाओं की पूर्ति के लिए यक्ष-यक्षी, नवग्रह, दिक्पाल आकर्षय आकर्षय, भूतग्रहान् आकर्षय आकर्षय, सर्वदुष्टान् आकर्षय एवं क्षेत्रपाल (भैरव) की पूजा सम्बन्धी विधान भी निर्मित किये हैं। यद्यपि आकर्षय, चोर चिन्ताग्रहान् आकर्षय आकर्षय, कटकट कम्पावय कम्पावय, ये सभी पूजा-विधान हिन्दू परम्परा से प्रभावित हैं और उनके समरूप भी शीर्ष चालय चालय, बाहुं चालय चालय, गात्रं चालय चालय, पार्ट्स है। चालय चालय, सर्वाङ्ग चालय चालय, लोलय लोलय, धूनय धूनय, पूजा-विधानों के अतिरिक्त अन्य जैन अनुष्ठानों में श्वेताम्बर कम्पय कम्पय, शीध्रमवतारं गृह गृह, ग्राहय ग्राहय, अचेलय अचेलय, परम्परा में पर्युषणपर्व, नवपदओली, बीस स्थानक की पूजा आदि आवेशय आवेशय इम्ल्यूँ ज्वालामालिनि! ह्रीं क्लीं ब्लूँ द्राँ द्रीं ज्वल सामूहिक रूप से मनाये जाने वाले जैन अनुष्ठान हैं। उपधान नामक तप ज्वल र र र र र र रां प्रज्वल, प्रज्वल हूँ प्रज्वल प्रज्वल, अनुष्ठान भी श्वेताम्बर परम्परा में बहुप्रचलित हैं। आगमों के अध्ययन एवं धगधगधूमान्धकारिणी! ज्वल ज्वल, ज्वलितशिखे! देवग्रहान् दह दह, आचार्य आदि पदों पर प्रतिष्ठित होने के लिए भी श्वेताम्बर मूर्तिपूजक गन्धर्वग्रहान् दह दह, यक्षग्रहान् दह दह, भूतग्रहान् दह दह, ब्रह्मराक्षसग्रहान् जैन संघ में मुनियों को कुछ अनुष्ठान करने होते हैं, जिनको सामान्यतया दह दह, व्यन्तरग्राहन् दह दह, नागग्रहान् दह दह, सर्वदुष्टग्रहान् दह दह, 'योगोद्वहन एवं सूरिमंत्र की साधना कहते हैं। विधिमार्गप्रपा में दशवैकालिकसूत्र, शतकोटिदैवतान् दह दह, सहस्रकोटिपिशाचराजान् दह दह, घे घे स्फोटय उत्तराध्ययनसूत्र, आचारंगसूत्र, सूत्रकृतांगसूत्र, स्थानांगसूत्र, समवायांगसूत्र, स्फोटय, मारय मारय, दहनाक्षि! प्रलय प्रलय, धगधगितमुखे! ज्वालामालिनी! निशीथसूत्र, भगवतीसूत्र आदि आगमों के अध्ययन सम्बन्धी अनुष्ठानों हाँ ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः सर्वग्रहहृदयं दह दह, पच पच, छिन्द छिन्द भिन्धि एवं कर्मकाण्डों का विस्तृत विवरण उपलब्ध है। भिन्धि हः हः हाः हाः हे: हे: हुं फट् फट् घे घे म्ल्यूँ शाँ नी क्ष क्षौं क्ष: दिगम्बर परम्परा में प्रमुख अनुष्ठान या व्रत निम्न हैंस्तम्भय स्तम्भय, हा पूर्व बन्धय बन्धय, दक्षिणं बन्धय बन्धय, पश्चिमं दशलक्षणव्रत, अष्टाह्निकाव्रत, द्वारावलोकनव्रत, जिनमुखावलोकनव्रत, बन्धय बन्धय, उत्तरं बन्धय बन्धय, भव्यूँ श्रीँ थ्री भू भ्रौं भ्रः ताडय जिनपूजाव्रत, गुरुभक्ति एवं शास्त्रभक्तिव्रत, तपांजलिव्रत, मुक्तावलीव्रत, ताडय, म्यूँ माँ नी D नौं म्र: नेत्रे यः स्फोटय स्फोटय, दर्शय दर्शय, कनकावलिव्रत, एकावलिव्रत, द्विकावलिव्रत, रत्नावलीव्रत, मुकुटसप्तमीव्रत, हy प्राँ प्रीं पूं प्रौं प्रः प्रेषय प्रेषय, एल्यूँ माँ ध्रीं घाँ घ्र: जठरं भेदय सिंहनिष्क्रीडितव्रत, निर्दोषसप्तमीव्रत, अनन्तव्रत, षोडशकारणव्रत, भेदय, म्ल्यूँ झाँ झू झी झों झ: मुष्टिबन्धेन बन्धय बन्धय, खल्व्यू खाँ ज्ञानपच्चीसीव्रत, चन्दनषष्ठीव्रत, रोहिणीव्रत, अक्षयनिधिव्रत, पंचपरमेष्ठिव्रत,
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जैन धर्म में पूजा-विधान और धार्मिक अनुष्ठान सर्वार्थसिद्धिव्रत, धर्मचक्रव्रत, नवनिधिव्रत, कर्मचूखत, सुखसम्पत्तिव्रत, ४. मूलाचार, वट्टकेराचार्य, प्रा०- भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली, इष्टासिद्धिकारकनिःशल्य अष्टमीव्रत आदि इनके अतिरिक्त दिगम्बर परम्परा १९८४-१९९२. में पंचकल्याण बिम्बप्रतिष्ठा, वेदीप्रतिष्ठा एवं सिद्धचक्र-विधान, इन्द्रध्वज- ५. आवश्यकनियुक्ति, भद्रबाहु, प्रका०, आगमोदय समिति, वी०नि०सं० विधान, समवसरण-विधान, ढाई-द्वीप-विधान, त्रिलोक-विधान, वृहद् २४५४, १२२०-२६, १५६-६१. चारित्रशुद्धि-विधान, महामस्तकाभिषेक आदि ऐसे प्रमुख अनुष्ठान हैं जो ६. रयणसार, संपा०- डा० देवेन्द्र कुमार शास्त्री, प्रका०- श्री वीरनिर्वाण कि वृहद् स्तर पर मनाये जाते हैं। इनके अतिरिक्त पद्मावती आदि देवियों ग्रंथ प्रकाशन समिति, इन्दौर, वी०नि०सं० २५९०. एवं विभिन्न यक्षों, क्षेत्रपालों-भैरवों आदि के भी पूजा-विधान जैन परम्परा ७. भारतीय संस्कृति के विकास में जैन-वाङ्गमय का अवदान, डॉ. में प्रचलित हैं। जिन पर तन्त्र परम्परा का स्पष्ट प्रभाव है।
नेमिचन्द शास्त्री, प्रका०- अ०भा० जैन विद्वत् परिषद्, सागर मन्दिरनिर्माण तथा जिनबिम्बप्रतिष्ठा के सम्बन्ध में जो भी १९८२, पृष्ठ-३८७। अनेक जटिल विधि-विधानों की व्यवस्था जैन संघ में आई है और इस ८. वरांगचरित, संपा०, ए०एन० उपाध्ये, माणिकचंद दिग० सम्बन्ध में प्रतिष्ठाविधि, प्रतिष्ठातिलक या प्रतिष्ठाकल्प आदि अनेक जैन ग्रंथमाला समिति, मुम्बई वि०सं०१९८४, २३/६१ग्रंथों की रचना हुई है वे सभी हिन्दू तान्त्रिक परम्परा से प्रभावित हैं। ८३ वस्तुत: सम्पूर्ण जैन परम्परा में मृत और जीवित अनेक अनुष्ठानों पर ९. पद्मपुराण, संपा०- पन्नालाल जैन, प्रका० भारतीय ज्ञानपीठ काशी, किसी न किसी रूप में तन्त्र का प्रभाव है जिनका समग्र तुलनात्मक एवं १९४४, १०/८९ समीक्षात्मक विवरण तो किसी विशालकाय ग्रंथ में ही दिया जा सकता १०. वशंगचरित, संपा०- एम०एन० उपाध्ये, प्रका०- माणिकचंद है। अत: इस विवेचन को यही विराम देते हैं।
दिगम्बर जैन ग्रंथमाला समिति, मुंबई, वि०सं० १९८४,२३/ संन्दर्भ
६१-८३ १. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा०- साध्वी चन्दना, प्रका०- वीरायतन प्रकाशन, ११. राजप्रश्नीयसूत्र, संपा०- मधुकरमुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन आगरा, १९७२, १२/४०-४४.
समिति, ब्यावर, १९८२, २०० २. वही, १२/४६
१२. भैरवपद्मावतीकल्प, संपा० प्रो० के०बी० अभ्यंकर ३. गीता, संपा०- डब्ल्यू, डी०पी०, आक्सफोर्ड, १९५३, ४/ १३. वही, परिशिष्ट-२५, पृष्ठ १०२-१०३.
२६-३३
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जैन साधना में प्रणव का स्थान
भारतीय संस्कृति मूलतः दो धाराओं में प्रवाहमान रही है। जिन्हें के अङ्ग बन गए। जैसे ही जनसाधारण की तान्त्रिक साधनाओं में आस्था हम क्रमश: वैदिक और श्रमण धाराओं के नाम से जानते हैं। इन बढ़ी, वैसे ही जैन परम्परा में भी हिन्दू तंत्र-साधना-विधि के न केवल दोनों संस्कृतियों की अपनी-अपनी विशिष्टताएँ हैं। किन्तु यहाँ हम कर्मकाण्ड सम्मिलित किये गए, अपितु उनके पूजा, मन्त्र आदि भी उनकी इन विशिष्टताओं की चर्चा में न जाकर मात्र यह देखने का यथावत् अथवा किंचित् परिवर्तन के साथ स्वीकार कर लिए गए। बस प्रयत्न करेंगे कि सामान्य रूप से श्रमण संस्कृति में और विशेष रूप इसी स्वीकृति के साथ ॐ शब्द भी जैन परम्परा में प्रविष्ट हो गया। से जैन संस्कृति में प्रणव अर्थात् 'ॐ' का क्या स्थान रहा है। वैदिक न केवल ॐ शब्द अपितु उसके साथ-साथ हाँ, ह्रीं, हूँ, हैं, हूँ: आदि परम्परा में प्रत्येक साधना और धार्मिक क्रियाओं का सम्पादन ॐ बीज मन्त्र भी जैन साधना और पूजा के अङ्ग बन गए। इसके पश्चात् से ही होता है। वैदिक परम्परा के प्राचीनतम ग्रन्थ वेदों में 'ॐ' शब्द ॐ शब्द को क्रमश: उच्च-उच्च स्थान प्राप्त होने लगा और एक समय का महत्त्वपूर्ण स्थान है। ऋग्वेद के अनेक मन्त्रों का प्रारम्भ भी ॐ ऐसा आया जब इसे पञ्च-परमेष्ठी, जो जैन साधना और उपासना के से हुआ है। किन्तु जहाँ तक श्रमण परम्परा का प्रश्न है, उसकी दोनों आदर्श हैं, के समकक्ष मान लिया गया। पञ्च-परमेष्ठी के जप आदि शाखाओं जैन और बौद्ध के प्राचीनतम ग्रन्थों में हमें ॐ शब्द का के लिए जो संक्षिप्त मन्त्र बना वह 'असियाउसाय नमः' था। इस मन्त्र उल्लेख उनकी अपनी परम्परा के शब्द के रूप में नहीं मिला है। उनकी को भी आगे संक्षिप्त करते हुए यह कहा गया कि ॐ शब्द मूलत: परम्परा का शब्द है- अर्हम्। उनके किसी भी धार्मिक कार्य का प्रारम्भ पञ्च-परमेष्ठियों के प्रथमाक्षरों से ही निर्मित हुआ है। इस सम्बन्ध में अर्हन्तों के नमस्कार से ही होता है। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि द्रव्यसंग्रह की टीका में एक प्राचीन प्राकृत उद्धृत की गई है। वह जिस प्रकार वैदिक परम्परा में ॐ की प्रधानता रही है, वैसे ही जैन गाथा इस प्रकार है
और बौद्ध परम्पराओं में 'अर्हन् या अहम् शब्द की प्रधानता रही है। अरिहंता असरीरा आयरिया तह उवज्झया मुणिणा । जैन परम्परा में ॐ के पर्यायवाची 'ओंकार' शब्द का उल्लेख पढ़मक्खरणिप्पणो ओकारो पञ्च परमेट्ठी ।। उत्तराध्ययनसूत्र में मिलता है
अर्थात् अरिहंत का अ, अशरीरी सिद्ध का अ, आचार्य का आ, न वि मुण्डिएण समणो, ण ओङ्कारेण बम्भणो ।
उपाध्याय का उ, और मुनि का म मिलकर ही ॐ शब्द का निर्माण न मुणि रण्णवासेणं, कुसचीरेण न तावसो ।। होता है। अत: ॐ शब्द का जप करने से पञ्च-परमेष्ठियों का जप
उपरोक्त गाथा में मात्र यह कहा गया है कि ओङ्कार शब्द का सम्पन्न होता है। यहाँ ॐ शब्द को पञ्च परमेष्ठियों का वाचक बताने जाप करने से कोई ब्राह्मण नहीं हो जाता है। उत्तराध्ययनसूत्र के इस के लिए जो उपक्रम किया गया है उससे यही सिद्ध होता है कि परवर्ती कथन का फलित भी यही है कि ॐ या ओंकार शब्द मूलत: ब्राह्मण काल में जैन साधना को वैदिक साधना-पद्धति के साथ जोड़ने के लिए परम्परा का शब्द है। श्रमण धारा का मूल शब्द तो अहम् ही है। ही ॐ शब्द की इस प्रकार की व्याख्या की गई है। इससे यह फलित
किन्तु यहाँ यह बताना अप्रासंगिक नहीं होगा कि भारतीय संस्कृति होता है कि चाहे मूलतः ॐ शब्द वैदिकधारा का शब्द रहा हो, किन्तु की ये दो धाराएँ एक दूसरे से अप्रभावित नहीं रही हैं। जहाँ एक जैनों ने न केवल उसे स्वीकार किया, अपितु उसे पञ्च-परमेष्ठी का ओर श्रमणधारा के अध्यात्मप्रधान निवृत्तिमार्गीय चिन्तन से वैदिक धारा प्रतीक मानकर उसके महत्त्व में वृद्धि की। प्रभावित हुई है वहीं दूसरी ओर वैदिकधारा और उससे विकसित ब्राह्मण ॐ को पञ्च-परमेष्ठी का प्रतीक उसी आधार पर बताया जाता परम्परा के अनेक कर्मकाण्ड सामान्य रूप से श्रमणधारा और विशेष है, जिस आधार पर ब्राह्मण परम्परा में उसे ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर रूप से जैनधारा में समाविष्ट हुए हैं। यदि कहें तो यह सत्य है कि ऐसे ईश्वर के त्रयात्मक स्वरूप का वाचक कहा गया है। इस सम्बन्ध औपनिषदिक काल से ही वैदिकधारा पर श्रमणधारा प्रभावी होने लगी में निम्न श्लोक द्रष्टव्य हैं - थी। स्वयं औपनिषदिक चिन्तन श्रमणधारा से प्रभावित चिन्तन है। अश्च उश्च मश्च तेषां समाहारः। किन्तु दूसरी ओर यह भी सत्य है कि लगभग ईसा की ४थी-५वीं विष्णु महेश्वर ब्रह्मरूप त्रयात्मके ईश्वरे। शताब्दी से ही ब्राह्मण परम्परा और उससे विकसित हिन्दू धर्म के ब्रह्मोकारोऽत्र विज्ञेयः अकारो विष्णुरुच्यते। कर्मकाण्ड ने जैनधारा को प्रभावित किया था। बृहद् हिन्दू-धारा के महेश्वरो मकारस्तु त्रयमेकत्र तत्त्वतः। अनेक तत्त्व जैन परम्परा में प्रविष्ट हुए हैं। न केवल अनेक हिन्दू प्रस्तुत श्लोक में ॐ शब्द में निहित 'ओ' को ब्रह्मा का. 'अ' देवी-देवता, तीर्थङ्करों के यक्ष-यक्षी के रूप में गृहीत हुए, अपितु उनके को विष्णु का और 'म्' को महेश्वर का वाचक मानकर उसे इन तीनों ग्रहण के साथ-साथ हिन्दू परम्परा की पूजा-पद्धति और कर्मकाण्ड देवताओं की एकात्मकता का प्रतीक सिद्ध किया गया है। वस्तुत: यही तथा उनसे सम्बन्धित अनेक मन्त्र भी जैन पूजा-पद्धति और साधना स्थिति जैनाचार्यों की भी रही है। उन्होंने भी अपने आराध्य पञ्च-परमेष्ठियों
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जैन साधना में प्रणव का स्थान
के आद्य अक्षरों को लेकर व्याकरण के नियमों के अनुसार उनसे ओम् शब्द को निष्पन्न बताया है। 'ओम्' शब्द पञ्च परमेष्ठियों के प्रथम अक्षरों से कैसे निष्पन्न होता है? इस सम्बन्ध में वे बताते हैं कि पञ्च परमेष्ठियों के प्रथम अक्षर अ, अ, आ, उ और म् है। इनमें पहले 'समानः सवर्णे दीर्घौ भवति' इस सूत्र से 'अ अ' मिलकर दीर्घ आ बनाकर परच लोपम्' इससे अक्षर आ का लोप करके अ, अ आ इन तीनों के स्थान में एक आ सिद्ध किया। फिर 'उवर्णे ओ' इस सूत्र से आ उ के स्थान में ओ बनाया। फिर मुनि के म् से सन्धि करने से 'ओम्', यह शब्द सिद्ध होता है।
जैन परम्परा में हिन्दू परम्परा के अनुरूप ही ॐ शब्द को सर्वविद्याओं का आद्यबीज, सकल आगमों का उपनिषद्भूत तत्त्व अर्थात् सारतत्त्व, सभी विघ्नों का विनाशक, सभी संकल्पों की पूर्ति में कल्पद्रुम के समान परम मङ्गलकारी कहा गया है। जैनों की दिगम्बर परम्परा में ॐ को जिनवाणी का प्रतीक माना गया है। पुनः उसे जिनवाणी का पर्याय भी बताया, क्योंकि उनके अनुसार अर्हन्त् भगवान् की वाणी प्रयत्नजन्य न होने के कारण मात्र अन्क्षर ध्वनि रूप होती है। ओंकार शब्द मात्र ध्वनि रूप है और इसीलिए उसमें सर्वभाषारूप में परिणमन करने का सामर्थ्य है। दिगम्बर जैनों का यह विश्वास है कि भगवान् की वाणी दिव्य ध्वनि रूप होती है। जिसे प्रत्येक प्राणी अपनी-अपनी भाषा में समझ जाता है। जिस प्रकार ब्राह्मण परम्परा में ॐ शब्द को तीनों लोक का वाची माना जाता है, उसी प्रकार जैन परम्परा में भी ॐ शब्द को त्रिलोक का वाची माना गया है। इसमें 'अ' अक्षर अधोलोक का, 'उ' उर्ध्वलोक का और 'म' मध्यलोक का वाची है। इस प्रकार ॐ को लोक का पर्यायवाची भी मान लिया गया। ज्ञातव्य है कि ॐ शब्द की जो-जो व्याख्याएँ जैन परम्परा में की गई, उनकी समानान्तर व्याख्याएं वैदिक परम्परा में भी मिल रही हैं। अतः निःसंकोच रूप से यह स्वीकार करना होगा कि ओम् शब्द की ये सभी व्याख्याएँ ब्राह्मण परम्परा से प्रभावित हैं और ब्राह्मण परम्परा के कर्मकाण्ड को स्वीकार करने के साथ ही जैन परम्परा में गृहीत हो गयी हैं। प्राचीनकाल में जैन परम्परा में साधना का मूल मन्त्र 'अर्हम्' ही होता था, किन्तु जब से जैन परम्परा में हिन्दु परम्परा के कर्मकाण्ड प्रविष्ट हुए 'ॐ' शब्द जैन साधना का अभिन्न अङ्ग बन गया। लगभग छठी-सातवीं शती के पश्चात् जैन परम्परा में ध्यान, जप और मन्त्र साधना में 'ॐ' शब्द को स्थान प्राप्त हो गया। जैनों में जप और ध्यान साधना में 'ॐ' और 'अर्हम्' का सम्मिलित रूप ॐ अर्हम् प्रयुक्त होने लगा । इस सम्बन्ध में निम्न मन्त्र द्रष्टव्य है
ॐ ह्रीं अर्हं असिआउसाय नमः ॐ ह्रीं श्रीं अर्हं पार्श्वनाथाय नमः
यह सत्य है कि ओम् और अर्हम् दोनों ही शब्द मूलतः नाद रूप हैं और उनकी विशिष्ट ध्वनि से जो कम्पन उत्पन्न होते हैं वे व्यक्ति और उसके परिवेश को प्रभावित करते हैं। अतः इसमें कोई सन्देह का प्रश्न नहीं है कि इसकी जप साधना से व्यक्ति के व्यक्तित्व और उसके परिवेश में विशिष्ट परिवर्तन न हो। ये परिवर्तन कैसे और किस
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रूप में घटित होते हैं उसकी चर्चा में न जाकर मैं केवल यह बताना चाहता हूँ कि साधना के क्षेत्र में जो ध्वनिरूप इन शब्दों का प्रयोग हुआ, वह एक विशिष्ट स्थान रखता है। जैन परम्परा में ॐ के महत्त्व और उसके साधनागत प्रयोग में जो अभिवृद्धि हुई, उसका मूल कारण तन्त्र परम्परा का जैन साधना पर प्रभाव ही है। वस्तुतः जैसे-जैसे जैन परम्परा तन्त्र को आत्मसात करती गई, उसके साधना विधान में इन बीज मन्त्रों का महत्त्व बढ़ता गया । यह माना जाने लगा कि नमस्कार महामन्त्र के प्रत्येक पद के प्रारम्भ में प्रणव का उच्चारण करना चाहिए। मल्लिषेणसूरि भैरवपद्मावतीकल्प में लिखते है। पञ्चनमस्कारपदैः प्रत्येकं प्रणवपूर्वहोमान्त्यैः । पूर्वोक्तपश्चशून्यैः परमेष्ठिपदाग्रविन्यस्तैः ॥
इसी बात को ह्वेताम्बर चक्रचूड़ामणि श्री यशोभद्रोपध्याय के शिष्य श्रीचन्द्रसूरि विरचित अद्भुतपद्मावतीकल्प में भी कहा गया है४होमान्ताः प्रणवनमोमुख्याः पञ्चपरमेष्ठिमध्यगताः । ह्रीं ह्रीं हूँ हो हः शरबीजा: श्रान्त्यादिदेशपदाः ॥
यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि जैन परम्परा में 'प्रणव' का प्रयोग आध्यात्मिक साधना की अपेक्षा तान्त्रिक साधना में ही अधिक देखा जाता है। भैरवपद्मावतीकल्प के वशीकरणयन्त्राधिकार के निम्न दो श्लोक इसका स्पष्ट प्रमाण है।
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भ्रमयुगलं केशि भ्रम माते भ्रम विभ्रमं च मुह्यपदम् । मोहय पूर्णैः स्वाहा मन्त्रोऽयं प्रणवपूर्वगतः ।।
अथवा
प्रणवं विच्चे मोहे स्वाहान्तं सप्तलक्षणजाप्येन । एकाकिनी निशायां सिद्धयाति सा याक्षिणी रण्डा । । इसी प्रकार भैरवपद्मावतीकल्प के निम्न श्लोक भी द्रष्टव्य हैप्रणवाद्रिपञ्चशून्यैरभिमन्त्रण कुमारिकाकुचस्थाने। अशितुं तयोश्च दधाद् घृतेण सम्मिश्रितान् पूपान् ।। प्रणवः पिङ्गलयुगलं पण्णत्तिद्वितयं महाविधेयम् । टान्तदयं च होमो दर्पणमन्त्रो जिनोद्दिष्टः । ।
ये उल्लेख इस तथ्य के प्रमाण हैं कि वैदिक परम्परा के कर्मकाण्ड और तन्त्र साधना को जब जैन आचायों ने किंचित् परिष्कार एवं परिवर्तन के साथ अपनी परम्परा में गृहीत किया तो अनेक वैदिक देवी-देवताओं के साथ-साथ 'प्रणव' का ग्रहण भी मन्त्र के रूप में, जैन परम्परा में हुआ मात्र यही नहीं, इन मन्त्रों को 'जिनोद्दिष्टः' अर्थात् जिनप्रणीत भी कहा गया। इन्हें जिनप्रणीत कहने का तात्पर्य यही था कि इन पर सामान्य जैन की पूर्ण आस्था बनी रहे, क्योंकि मन्त्रों की अपेक्षा उनके प्रति साधक की आस्था ही वस्तुतः फलवती होती है।
जैन परम्परा में तांत्रिक साधना के साथ-साथ आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में और विशेष रूप से ध्यान साधना के क्षेत्र में भी ॐ (प्रणव) को स्थान प्राप्त हुआ है।
जहाँ तक मेरी जानकारी है सर्वप्रथम आचार्य शुभचन्द्र (१०वीं शती) ने ज्ञाणार्णव में पदस्थ ध्यान की चर्चा करते हुए ॐ को जैन परम्परा के ध्यान के क्षेत्र में भी स्थान दिया । आचार्य शुभचन्द्र
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ लिखते हैं -
के नाश में श्वेत वर्ण का अनुभव करते हए ध्यान करे। स्मर दुःखानलज्वाला-प्रशान्तेर्नवनीरदम्।
इस तथ्य को आचार्य हेमचन्द्र (१२वीं शती) ने भी अपने प्रणवं वाङ्मयज्ञानप्रदीपं पुण्यशासनम्।।
योगशास्त्र के अष्टम प्रकाश (२९-३१) में प्रस्तुत किया है। वे यस्माच्छब्दात्मकं ज्योतिः प्रसृतमतिनिर्मलम्।
लिखते हैंवाच्यवाचकसम्बन्धस्तेनैव परमेष्ठिनः।।
तथा हतपद्मध्यस्थं शब्दब्रह्मैककारणम्। हृत्कञ्जकर्णिकासीनं स्वरव्यञ्जनवेष्ठितम्।
स्वर-व्यञ्जन-संवीतं वाचकं परमेष्ठिनः।। स्फीतमत्यन्तदुर्द्धर्षं देवदैत्येन्द्रपूजितम्।।
मूर्ध-संस्थित-शीतांशु-कलामृतरस-प्लुतम् । प्रक्षरन्मूर्ध्निसंक्रान्तचन्द्रलेखामृतप्लुतम् ।
कुम्भकेन महामन्त्रं प्रणवं परिचिन्तयेत्।। महाप्रभावसंपन्न कर्मकक्षहुताशनम्।।
पीतं स्तम्भेऽरुणं वश्ये क्षोभणे विद्रुमप्रभम्। महातत्त्वं महाबीजं महामन्त्रं महत्पदम्।
कृष्णं विद्वेषणे ध्यायेत् कर्मघाते शशिप्रभम्।। शरच्चन्द्रनिभं ध्यानी कुम्भकेन विचिन्तयेत्।
हृदय कमल में स्थिर शब्द-ब्रह्म, वचन-विलास की उत्पत्ति के सान्द्रसिंदूरवर्णाभं यदि वा विद्रुमप्रभवम्।
अद्वितीय कारण, स्वर तथा व्यञ्जन से युक्त, पञ्च-परमेष्ठी के वाचक, चिन्त्यमानं जगत्सर्वं क्षोभयर्तमसंगत्।।
मूर्धा में स्थित चन्द्रकला से झरने वाले अमृत के रस से सराबोर, महामन्त्र जाम्बूनदनिभं स्तम्भे विद्वेषे कज्जलत्विषम्।
प्रणव ॐ का कुम्भक करके, ध्यान करना चाहिए। ध्येयं वश्यादिके रक्तं चन्द्राभं कर्मशातने।
स्तम्भन के कार्य में पीतवर्ण के, वशीकरण में लाल वर्ण के, हे मुनि, तु प्रणव का स्मरण कर, क्योंकि यह प्रणव नामक अक्षर क्षोभण कार्य में मूंगे के वर्णवाले, विद्वेषण कार्य में काले वर्ण के और दुःख रूपी अग्नि की ज्वाला को शान्त करने में मेघ के समान है कर्मों का नाश करने के लिए चन्द्रमा के समान उज्जवल श्वेत वर्ण तथा समस्त वाङ्मय को प्रकाशित करने के लिए ज्ञानरूप दीपक है। के ओंकार का ध्यान करना चाहिए। इसी प्रणव से शब्दरूप ज्योति उत्पन्न हुई है। यह प्रणव ही पञ्च-परमेष्ठी उक्त दोनों आचार्यों के इस विधान से यह भी सूचित होता है से वाच्य-वाचक रूप में सम्बन्धित है, परमेष्ठी इस प्रणव के वाच्य कि 'ओंकार' का ध्यान कर्मक्षय या आध्यात्मिक साधना के साथ-साथ हैं और यह प्रणव परमेष्ठी का वाचक है। अत: ध्यान करने वाला लौकिक उपलब्धियों के लिए भी आश्चर्यजनक रूप से उपयोगी होता संयमी साधक हृदयकमल की कर्णिका में स्थित, स्वर-व्यञ्जन आदि है। फिर भी सत्य तो यह है कि जैन परम्परा में 'प्रणव' की साधना अक्षरों से आवेष्ठित, उज्ज्वल एवं अत्यन्त दुर्घर्ष, सुरासुरों के इन्द्रों को जो स्थान प्राप्त हुआ है वह वैदिक परम्परा के प्रभाव से ही हुआ से पूजित चन्द्रमा की रेखा से आधृत, महाप्रभा सम्पन्न, महातत्त्व, है, पहले इसे जैन कर्मकाण्ड और जैन तन्त्र में स्थान मिला और फिर महाबीज, महापद, महामन्त्र, शरच्चंद्रमा के समान इस ॐ शब्द का इसे पञ्चपरमेष्ठी का वाचक मानकर ध्यान और आध्यात्मिक साधना कुम्भक प्राणायाम के साथ चिन्तन करे। यह प्रणव अक्षर सिंदूर अथवा का विषय बनाया गया है। बाद में यह कल्पना भी आयी कि तीर्थङ्कर मूंगे के समान रक्तवर्णवाला शोभित होता है। इस प्रणव को स्तम्भन की दिव्यध्वनि प्रणव रूप में होती है, जिसे प्रत्येक प्राणी अपनी-अपनी के प्रयोग में स्वर्ण के समान पीले रंग का, द्वेष के प्रयोग में कज्जल भाषा में समझ लेता है। इस प्रकार 'प्रणव' समस्त ज्ञान-विज्ञान का के समान काले रंग का, वश्यादि के प्रयोग में रक्तवर्ण का, और कर्मों आधार भी बन गया।
१. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा० साध्वी चन्दना, प्रका० सन्मति ज्ञानपीठ,
आगरा, १९७२, २५/३१। द्रव्य-संग्रह, संपा० दरबारी लाल कोठिया, प्रका० गणेशवर्णी जैन
ग्रन्थमाला, वाराणसी, १९६६। ३. भैरवपद्मावती कल्प, संपा०के०वी०अभ्यंकर, प्रका०साराभाई मणिलाल
नवाब, अहमदाबाद, १९३७, ७/२/३। ४. वही, परिशिष्ट १, गाथा-१४।
५. वही, ७/२२॥ ६. वही, ७/२२-२५। ७. वही, ८/११-१३। ८. ज्ञानार्णव, अनु० पं० बालचन्द्र शास्त्री, प्रका०जैन संस्कृति संरक्षक
संघ, सोलापुर, १९७७, ३८/३१-३७। ९. योगशास्त्र, संपा० मुनि समदर्शी, सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा,
१९६३, ८/२९-३१।
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साधना और समाज सेवा : जैन धर्म के परिप्रेक्ष्य में
वैयक्ति कता और सामाजिकता दोनों ही मानवीय जीवन के रहे हैं। प्रश्नव्याकरणसूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि तीर्थकरों अनिवार्य अंग हैं। पाश्चात्य विचारक ब्रेडले का कथन है कि 'मनुष्य का यह सुकथित प्रवचन संसार के सभी प्राणियों की करुणा के लिए मनुष्य नहीं है यदि वह सामाजिक नहीं है।' मनुष्य समाज में ही उत्पन्न ही है। जैन धर्म में जो सामाजिक जीवन या संघ जीवन के सन्दर्भ होता है, समाज में ही जीता है और समाज में ही अपना विकास उपस्थित हैं, वे बाहर से देखने पर निषेधात्मक लगते हैं, इसी आधार करता है। वह कभी भी सामाजिक जीवन से अलग नहीं हो सकता पर कभी-कभी यह मान लिया जाता है कि जैन धर्म एक समाजहै। तत्त्वार्थसूत्र में जीवन की विशिष्टता को स्पष्ट करते हुए कहा गया निरपेक्ष धर्म है। जैनों ने अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह है कि पारस्परिक सहयोग ही जीवन का मूलभूत लक्षण है। व्यक्ति की व्याख्या मुख्य रूप से निषेधात्मक दृष्टि के आधार पर की है, में राग और द्वेष के तत्त्व अनिवार्य रूप से उपस्थित हैं किन्तु जब किन्तु उनको निषेधात्मक और समाज-निरपेक्ष समझ लेना भ्रान्ति पूर्ण द्वेष का क्षेत्र संकुचित होकर राग का क्षेत्र विस्तृत होता है तब व्यक्ति ही है। प्रश्नव्याकरणसूत्र में ही स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि में सामाजिक चेतना का विकास होता है और यह सामाजिक चेतना ये पाँच महाव्रत सर्वथा लोकहित के लिए ही हैं। जैन धर्म में जो व्रतवीतरागता की उपलब्धि के साथ पूर्णता को प्राप्त करती है, क्योंकि व्यवस्था है वह सामाजिक सम्बन्धों की शुद्धि का प्रयास है। हिंसा, वीतरागता की भूमिका पर स्थित होकर ही निष्काम भावना से और असत्य वचन, चौर्यकर्म, व्यभिचार और संग्रह (परिग्रह) हमारे सामाजिक कर्तव्य-बुद्धि से लोक-मंगल किया जा सकता है। अत: जैन धर्म का, जीवन को दूषित बनाने वाले तत्व हैं। हिंसा सामाजिक अनस्तित्व वीतरागता और मोक्ष का आदर्श सामाजिकता का विरोधी नहीं है। की द्योतक है, तो असत्य पारस्परिक विश्वास को भंग करता है। चोरी
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसके व्यक्तित्व का निर्माण का तात्पर्य तो दूसरों के हितों और आवश्यकताओं का अपहरण और सामाजिक जीवन पर आधारित है। व्यक्ति जो कुछ बनता है वह अपने शोषण ही है। व्यभिचार जहाँ एक ओर पारिवारिक जीवन को भंग सामाजिक परिवेश के द्वारा ही बनता है। समाज ही उसके व्यक्तित्व करता है, वहीं दूसरी ओर वह दूसरे को अपनी वासनापूर्ति का साधन
और जीवन-शैली का निर्माता है। यद्यपि जैन धर्म सामान्यतया व्यक्तिनिष्ठ मानता है और इस प्रकार से वह भी एक प्रकार का शोषण ही है। तथा निवृत्तिप्रधान है और उसका लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार है, किन्तु इसी प्रकार परिग्रह भी दूसरों को उनके जीवन की आवश्यकताओं इस आधार पर यह मान लेना कि जैनधर्म असामाजिक है या उसमें और उपयोगों से वंचित करता है, समाज में वर्ग बनाता है और सामाजिक सामाजिक सन्दर्भ का अभाव है, नितांत भ्रमपूर्ण होगा। जैन साधना शान्ति को भंग करता है। संग्रह के आधार पर जहाँ एक वर्ग सुख, यद्यपि व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास की बात करती है किन्तु उसका सुविधा और ऐश्वर्य की गोद में पलता है वही दूसरा जीवन की मूलभूत तात्पर्य यह भी नहीं है कि वह सामाजिक कल्याण की उपेक्षा करती है। आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी तरसता है। फलत: सामाजिक
यदि हम मनुष्य को सामाजिक प्राणी मानते हैं और धर्म को जीवन में वर्ग-विद्वेष और आक्रोश उत्पन्न होते हैं और इस प्रकार 'धों धारयते प्रजा' के अर्थ में लेते हैं तो उस स्थिति में धर्म का ___सामाजिक शान्ति और सामाजिक समत्व भंग हो जाते हैं। सूत्रकृतांग अर्थ होगा-जो हमारी समाज-व्यवस्था को बनाये रखता है, वही धर्म में कहा गया है कि यह संग्रह की वृत्ति ही हिंसा, असत्य, चौर्य कर्म है। वे सब बातें जो सामाजिक जीवन में बाधा उपस्थित करती हैं और तथा व्यभिचार को जन्म देती है और इस प्रकार से वह सम्पूर्ण सामाजिक हमारे स्वार्थों को पोषण देकर हमारी सामाजिकता को खण्डित करती जीवन की विषाक्त बनाती है। यदि हम इस सन्दर्भ में सोचे तो यह स्पष्ट हैं, सामाजिक जीवन में अव्यवस्था और अशांति की कारणभूत होती लगेगा कि जैन धर्म में अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह हैं, अधर्म है। इसलिए घृणा, विद्वेष, हिंसा, शोषण, स्वार्थपरता आदि की जो अवधारणायें हैं, वे मूलत: सामाजिक जीवन के लिए ही है। को अधर्म और परोपकार, करुणा, दया, सेवा आदि की धर्म कहा जैन साधना-पद्धति को मैत्री, प्रमोद, करुणा और मध्यस्थ की गया है। क्योंकि जो मूल्य हमारी सामाजिकता की स्वाभाविक-वृत्ति भावनाओं के आधार पर भी उसके सामाजिक सन्दर्भ को स्पष्ट किया का रक्षण करते हैं वे धर्म हैं और जो उसे खण्डित करते हैं वे अधर्म जा सकता है। आचार्य अमितगति कहते हैंहैं। धर्म की यह व्याख्या दूसरों से हमारे सम्बन्धों के सन्दर्भ में है
सत्वेषु मैत्री, गुणीषु प्रमोदं, और इसलिए इसे हम सामाजिक-धर्म भी कह सकते हैं।
क्लिष्टेषु जीवेषु कृपा-परत्वं जैनधर्म सदैव यह मानता रहा है कि साधना से प्राप्त सिद्धि
माध्यस्थाभावं विपरीत वृत्तौ का उपयोग सामाजिक कल्याण की दिशा में होना चाहिए। स्वयं भगवान्
सदा ममात्मा विद्धातु देव। महावीर का जीवन इस बात का साक्षी है कि वे वीतरागता और कैवल्य "हे प्रभु ! हमारे जीवन में प्राणियों के प्रति मित्रता, गुणीजनों की प्राप्ति के पश्चात् जीवन पर्यन्त लोकमंगल के लिए कार्य करते के प्रति प्रमोद, दुखियों के प्रति करुणा तथा दुष्ट जनों के प्रति माध्यस्थ
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
भाव विद्यमान रहे।" इस प्रकार इन चारों भावनाओं के माध्यम से जैसा कि हम पूर्व में ही संकेत कर चुके हैं कि जैनाचार्य उमास्वाति समाज के विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों से हमारे सम्बन्ध किस प्रकार ने भी न केवल मनुष्य का अपतुि समस्त जीवन का लक्षण 'पारस्परिक के हों इसे स्पष्ट किया गया है। समाज में दूसरे लोगों के साथ हम हित साधन' को माना है। दूसरे प्राणियों का हित साधन व्यक्ति का किस प्रकार जीवन जीयें, यह हमारी सामाजिकता के लिये अति धर्म है। धार्मिक होने का एक अर्थ यह है कि हम एक दूसरे के कितने आवश्यक है। वस्तुत: इसमें संघीय जीवन पर बल दिया गया है व सहयोगी बने हैं, दूसरे के दु:ख और पीड़ा को अपनी पीड़ा समझें संघीय या सामूहिक साधना को श्रेष्ठ माना गया है। जो व्यक्ति संघ और उसके निराकरण का प्रयत्न करें, यही धर्म है। धर्म की लोक में विघटन करता है उसे हत्यारे और व्यभिचारी से भी अधिक पापी कल्याणकारी चेतना का प्रस्फुटन लोक पीड़ा निवारण के लिए ही हुआ माना गया है और उसके लिये छेदसूत्रों में कठोरतम दण्ड की व्यवस्था है और यही धर्म का सारतत्व है। कहा भी हैकी गई है। स्थानांगसूत्र में कुलधर्म, ग्रामधर्म, नगरधर्म, राष्ट्रीयधर्म, यही है इबादत, यही है दीनों इमां गणधर्म आदि का निर्देश किया गया है, जो उसकी सामाजिक दृष्टि कि काम आये दुनिया में, इंसां के इंसां। को स्पष्ट करते हैं। जैन धर्म ने सदैव ही व्यक्ति को सामाजिक जीवन दूसरों की पीड़ा को समझकर उसके निवारण का प्रयत्न करना, से जोड़ने का ही प्रयास किया है। जैन धर्म का हृदय रिक्त नहीं है। यही धर्म की मूल आत्मा हो सकती है। सन्त तुलसीदास ने भी कहा हैतीर्थंकर की वाणी का प्रस्फुटन ही लोक की करुणा के लिए हुआ
परहित सरिस धरम नहिं भाई, है। आर्चाय मन्तभद्र लिखते हैं-"सर्वापदामन्तकरं, निरन्तं सर्वोदयं
परपीड़ा सम नहीं अधमाई। तीर्थमिदम् तवैव' हे प्रभु! आपका तीर्थ (अनुशासन) सभी दुःखों का अहिंसा, जिसे जैन परम्परा में धर्म सर्वस्व कहा गया है कि चेतना अन्त करने वाला और सभी का कल्याण या सर्वोदय करने वाला है। का विकास तभी सम्भव है जब मनुष्य में 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की उसमें प्रेम और करुणा की अटूट धारा बह रही है। स्थानांग में प्रस्तुत भावना का विकास होगा। जब हम दूसरों के दर्द और पीड़ा को अपना कुलधर्म, ग्रामधर्म, नगरधर्म एवं राष्ट्रधर्म भी जैन धर्म की समाज-सापेक्षता दर्द समझेंगे तभी हम लोकमंगल की दिशा में अथवा पर पीड़ा के को स्पष्ट कर देते हैं। पारिवारिक और सामाजिक जीवन में हमारे निवारण की दिशा में आगे बढ़ सकेंगे। पर पीड़ा की तरह आत्मानुभूति पारस्परिक सम्बन्धों को सुमधुर एवं समायोजनपूर्ण बनाने तथा सामाजिक भी वस्तुनिष्ठ न होकर आत्मनिष्ठ होना चाहिये। हम दूसरों की पीड़ा टकराव के कारणों का विश्लेषण कर उन्हें दूर करने के लिए जैन के मूक दर्शक न रहें। ऐसा धर्म और ऐसी अहिंसा जो दूसरों की धर्म का योगदान महत्त्वपूर्ण है।
पीड़ा की मूक दर्शक बनी रहती है वस्तुतः न धर्म है और न अहिंसा। वस्तुत: जैन धर्म ने आचार-शुद्धि पर बल देकर व्यक्ति सुधार अहिंसा केवल दूसरों को पीड़ा न देने तक सीमित नहीं है, उसमें के माध्यम से समाज सुधार का मार्ग प्रशस्त किया। उसने व्यक्ति को लोकमंगल और कल्याण का अजस्र स्रोत भी प्रवाहित है। जब लोकपीड़ा समाज की इकाई माना और इसलिए प्रथमत: व्यक्ति चरित्र के निर्माण अपनी पीड़ा बन जाती है तभी धार्मिकता का स्रोत अन्दर से बाहर पर बल दिया। वस्तुत: महावीर से युगों पूर्व समाज रचना का कार्य प्रवाहित होता है। तीर्थंकरों, अर्हतों और बुद्धों ने जब लोकपीड़ा की ऋषभ के द्वारा पूरा हो चुका था, अत: महावीर ने मुख्य रूप से सामाजिक अनुभूति आत्मनिष्ठ रूप में की तो वे लोककल्याण के लिए सक्रिय जीवन की बुराइयों को समाप्त करने का प्रयास किया और सामाजिक बन गये। जब दूसरों की पीड़ा और वेदना हमें अपनी लगती है, तब सम्बन्धों की शुद्धि पर बल दिया।
लोक कल्याण भी दूसरों के लिए न होकर अपने ही लिए हो जाता सामाजिकता मनुष्य का एक विशिष्ट गुण है। वैसे तो सामूहिक है। उर्दूशायर अमीर ने कहा हैजीवन पशुओं में भी पाया जाता है किन्तु मनुष्य की सामूहिक खंजर चले किसी पे, तड़पते हैं हम अमीर, जीवन-शैली उनसे कुछ विशिष्ट है। पशुओं में पारस्परिक सम्बन्ध तो सारे जहां का दर्द, हमारे जिगर में है। होते हैं किन्तु उन सम्बन्धों की चेतना नहीं होती है। मनुष्य जीवन जब सारे जहाँ का दर्द किसी हृदय में समा जाता है तो वह की विशेषता यह है कि उसे इन पारस्परिक सम्बन्धों की चेतना होती लोककल्याण के मंगलमय मार्ग पर चल पड़ता है और तीर्थंकर बन है और उसी चेतना के कारण उसमें एक दूसरे के प्रति दायित्व-बोध जाता है। उसका यह चलना मात्र बाहरी नहीं होता है। उसके सारे
और कर्त्तव्य-बोध होता है। पशुओं में भी पारस्परिक हित साधन की व्यवहार में अन्तश्चेतना काम करती है और यही अन्तश्चेतना धार्मिकता प्रवृत्ति होती है किन्तु वह एक अन्धमूल प्रवृत्ति है। पशु विवश होता का मूल उत्स है। इसे ही दायित्वबोध की सामाजिक चेतना कहा जाता है, उस अन्ध प्रवृत्ति के अनुसार ही आचरण करने में। उसके सामने है। जब यह जाग्रत होती है तो मनुष्य में धार्मिकता प्रकट होती है। यह विकल्प नहीं होता है कि वह कैसा आचरण करे या नहीं करे। आपको यह ज्ञात होना चाहिए कि तीर्थकर नामकर्म का उपार्जन वही किन्तु इस सम्बन्ध में मानवीय चेतना स्वतन्त्र होती है उसमें अपने साधक करता है जो धर्म संघ की सेवा में अपने को समर्पित कर देता दायित्व बोध की चेतना होती है। किसी उर्दशायर ने कहा भी है- है। तीर्थकर नामकर्म उपार्जित करने के लिए जिन बीस बोलों की साधना वह आदमी ही क्या है, जो दर्द आशना न हो।
करनी होती है, उनके विश्लेषण से यह लक्ष्य स्पष्ट हो जाता है। पत्थर से कम है, दिल शरर गर निहा नहीं।।
दूसरों के प्रति आत्मीयता के भाव का जागृत होना ही धार्मिक
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साधना और समाज सेवा : जैन धर्म के परिप्रेक्ष्य में
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बनने का सबसे पहला उपक्रम है। यदि हमारे जीवन में दूसरों की उसकी अहिंसा मात्र 'मत मारो' का निषेधक उद्घोष बन कर रह गई। पीड़ा, दूसरों का दर्द अपना नहीं बना है तो हमें यह निश्चित ही किन्तु यह एक भ्रांति ही है। बिना 'सेवा' के अहिंसा अधूरी है और समझ लेना चाहिये कि हममेधर्म का अवतरण नहीं हुआ है। दूसरों संन्यास निष्क्रिय है। जब संन्यास और अहिंसा में सेवा का तत्त्व जुड़ेगा की पीड़ा आत्मनिष्ठ अनुभूति से जागृत दायित्वबोध की अन्तश्चेतना तभी वे पूर्ण बनेंगे। के बिना सारे धार्मिक क्रियाकाण्ड पाखण्ड या ढोंग है। उनका धार्मिकता से दूर का रिश्ता नहीं है। जैन धर्म में सम्यक्-दर्शन (जो कि धार्मिकता संन्यास और समाज की आधार-भूमि है) के जो पाँच अंग माने गये हैं, उनमें समभाव सामान्यतया भारतीय दर्शन में संन्यास के प्रत्यय को समाजऔर अनुकम्पा सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। सामाजिक दृष्टि से समभाव निरपेक्ष माना जाता है किन्तु क्या संन्यास की धारणा समाज-निरपेक्ष का अर्थ है, दूसरों को अपने समान समझना, क्योंकि अहिंसा एवं है? निश्चय ही संन्यासी पारिवारिक जीवन का त्याग करता है किन्तु लोककल्याण की अन्तश्चेतना का उद्भव इसी आधार पर होता है। इससे क्या वह असामाजिक हो जाता है? संन्यास के संकल्प में वह आचारांगसूत्र में कहा गया है कि जिस प्रकार मैं जीना चाहता हूँ, मरना कहता है कि “वित्तैषणा पुत्रैषणा लोकैषणा मया परित्यक्ता" अर्थात् नहीं चाहता हूँ, उसी प्रकार संसार के सभी प्राणी जीवन के इच्छुक मैं अर्थ कामना, सन्तान कामना और यश कामना का परित्याग करता हैं और मृत्यु से भयभीत हैं। जिस प्रकार मैं सुख की प्राप्ति का इच्छुक हूँ। जैन परम्परा के अनुसार वह सावद्ययोग या पापकर्मों का त्याग हूँ और दुःख से बचना चाहता हूँ, उसी प्रकार संसार के सभी प्राणी करता है। किन्तु क्या धन-सम्पदा, सन्तान तथा यश-कीर्ति की कामना सुख के इच्छुक हैं, और दुःख से दूर रहना चाहते हैं। यही वह दृष्टि का या पाप-कर्म का परित्याग समाज का परित्याग है? वस्तुत: समस्त है जिस पर अहिंसा का, धर्म का और नैतिकता का विकास एषणाओं का त्याग या पाप कर्मों का त्याग स्वार्थ का त्याग है, वासनामय होता है।
जीवन का त्याग है। संन्यास का यह संकल्प उसे समाज विमुख नहीं जब तक दूसरों के प्रति हमारे मन में समभाव अर्थात् समानता बनाता है, अपति समाज कल्याण की उच्चतर भूमिका पर अधिष्ठित का भाव जागृत नहीं होता, अनुकम्पा नहीं आती अर्थात् उनकी पीड़ा करता है क्योकि सच्चा लोकहित निस्वार्थता एवं विराग की भूमि पर हमारी पीड़ा नहीं बनती तब तक सम्यक्-दर्शन का उदय भी नहीं होता, स्थित होकर ही किया जा सकता है। जीवन में धर्म का अवतरण नहीं होता। असर लखनवी का यह निम्न भारतीय चिन्तन संन्यास को समाज-निरपेक्ष नहीं मानता। भगवान् शेर इस सम्बन्ध में कितना मौजू है
बुद्ध का यह आदेश "चरत्य भिक्खवे चारिकं बहुजनहिताय बहुजनइमां गलत उशूल गलत, इदुआ गलत।
सुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय देवमनुस्सान" (विनयपिटक, इंसा की दिलदिही, अगर इंसा न कर सके।।
महावग्ग)। इस बात का प्रमाण है कि संन्यास लोकमंगल के लिए जब दूसरों की पीड़ा अपनी बन जाती है तो सेवा की भावना होता है। सच्चा संन्यासी वह है जो समाज से अल्पतम लेकर उसे का उदय होता है। यह सेवा न तो प्रदर्शन के लिए होती है और अधिकतम देता है। वस्तुत: वह कुटुम्ब,परिवार आदि का त्याग इसलिए न स्वार्थबुद्धि से होती है, यह हमारे स्वभाव का ही सहज प्रकटन करता है कि समष्टि का होकर रहे, क्योंकि जो किसी का है, वह होती है। तब हम जिस भाव से अपने शरीर की पीड़ाओं का निवारण सबका नहीं हो सकता, जो सबका है वह किसी का नहीं है। संन्यासी करते हैं उसी भाव से दूसरों की पीड़ाओं का निवारण करते हैं, क्योंकि नि:स्वार्थ और निष्काम रूप से लोकमंगल का साधक होता है। संन्यास जो आत्मबुद्धि अपने शरीर के प्रति होती है वही आत्मबुद्धि समाज शब्द सम्पूर्वक न्यास शब्द से बना है। न्यास शब्द का अर्थ देखरेख के सदस्यों के प्रति भी हो जाती है, क्योंकि सम्यक्-दर्शन के पश्चात् करना भी है। संन्यासी वह व्यक्ति है जो सम्यक् रूप से एक न्यासी आत्मवत् दृष्टि का उदय हो जाता है। जहाँ आत्मवत् दृष्टि का उदय (ट्रस्टी) की भूमिका अदा करता है और न्यासी वह है जो ममत्वभाव होता है वहाँ हिंसक बुद्धि समाप्त हो जाती है और सेवा स्वाभाविक और स्वामित्व का त्याग करके किसी ट्रस्ट (सम्पदा) का रक्षण एवं रूप से साधना का अंग बन जाती है। जैन धर्म में ऐसी सेवा को विकास करता है। संन्यासी सच्चे अर्थों में एक ट्रस्टी है। जो ट्रस्ट निर्जरा या तप का रूप माना गया है। इसे 'वैयावच्च' के रूप में माना की सम्पदा ट्रस्टी का उपयोग अपने हित में करता है, अपने को उसका जाता है। मुनि नन्दिसेन की सेवा का उदाहरण तो जैन परम्परा में स्वामी समझता है, वह सम्यक् ट्रस्टी नहीं हो सकता है। वह यदि सर्वविश्रुत है। आवश्यकचूर्णि में सेवा के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए ट्रस्ट के रक्षण एवं विकास का प्रयत्न न करे तो भी सच्चे अर्थ में कहा है कि एक व्यक्ति भगवान् का नाम स्मरण करता है, भक्ति करता ट्रस्टी नहीं है। इसी प्रकार यदि संन्यासी लोकेषणा से युक्त है, ममत्वबुद्धि है, किन्तु दूसरा वृद्ध और रोगी की सेवा करता है, उन दोनों में सेवा या स्वार्थबुद्धि से काम करता है तो वह संन्यासी नहीं है और यदि करने वाले को ही श्रेष्ठ माना गया है, क्योंकि वह सही अर्थों में भगवान् । लोक की उपेक्षा करता है, लोकमंगल के लिए प्रयास नहीं करता है की आज्ञा का पालन करता है, दूसरे शब्दों में धर्ममय जीवन जीता है। तो भी वह संन्यासी नहीं है। उसके जीवन का मिशन तो "सर्वभूतहिते
जैन समाज का यह दुर्भाग्य है कि निवृत्तिमार्ग या संन्यास पर रतः” का है। अधिक बल देते हुए भी उसमें सेवा की भावना गौण होती चली गई संन्यास में राग से ऊपर उठना आवश्यक है। किन्तु इसका तात्पर्य
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
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समाज की उपेक्षा नहीं है। संन्यास की भूमिका में स्वत्व एवं ममत्व को स्पष्ट करता है। इसमें भी दान के स्थान पर 'संविभाग' शब्द का के लिए निश्चय ही कोई स्थान नहीं है। फिर भी वह पलायन नहीं, प्रयोग अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, वह यह बताता है कि दूसरे के लिए समर्पण है। ममत्व का परित्याग कर्तव्य की उपेक्षा नहीं है, अपित् हम जो कुछ करते हैं, वह हमारा उसके प्रति एहसान नहीं है, अपितु कर्तव्य का सही बोध है। संन्यासी उस भूमिका पर खड़ा होता है, उसका ही अधिकार है, जो हम उसे देते हैं। समाज से जो हमें मिला जहाँ व्यक्ति अपने में समष्टि को और समष्टि में अपने को देखता है। है, वही हम सेवा के माध्यम से उसे लौटाते हैं। व्यक्ति को शरीर, उसकी चेतना अपने और पराये के भेद से ऊपर उठ जाती है। यह सम्पति, ज्ञान और संस्कार जो भी मिले हैं, वे सब समाज और अपने और पराये के विचार से ऊपर हो जाना समाज विमुखता नहीं सामाजिक-व्यवस्था के परिणामस्वरूप मिले हैं। अत: समाज की सेवा है, अपितु यह तो उसके हृदय की व्यापकता है, महानता है। इसलिए उसका कर्तव्य है। धर्म साधना का अर्थ है निष्काम भाव से कर्तव्यों भारतीय चिन्तकों ने कहा है
का निर्वाह करना। इस प्रकार साधना और सेवा न तो विरोधी हैं और अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम्।
न भिन्न ही। वस्तुत: सेवा ही साधना है। उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।। संन्यास की भूमिका न तो आसक्ति की भूमिका है और न उपेक्षा अहिंसा का हृदय रिक्त नहीं है की। उसकी वास्तविक स्थिति 'धाय' (नर्स) के समान ममत्वरहित कर्त्तव्य कुछ लोग अहिंसा को मात्र निषेधात्मक आदेश मान लेते हैं। भाव की होती है। जैन धर्म में कहा भी गया है
उनके लिए अहिंसा का अर्थ होता है 'किसी को नहीं मारना' किन्तु सम दृष्टि जीवड़ा करे कुटुम्ब प्रतिपाल।
अहिंसा चाहे शाब्दिक रूप में निषेधात्मक हो, उसकी आत्मा निषेधमूलक अन्तर सूं न्यारा रहे जूं धाय खिलावे बाल। नहीं है, उसका हृदय रिक्त नहीं है। उसमें करुणा और मैत्री की सहस्रधारा वस्तुतः निर्ममत्व एवं निःस्वार्थ भाव से तथा वैयक्तिकता और प्रवाहित हो रही है। वह व्यक्ति जो दूसरों की पीड़ा का मूक दर्शक स्वार्थ से ऊपर उठकर कर्त्तव्य का पालन ही संन्यास की सच्ची भूमिका बना रहता है वह सच्चे अर्थ में अहिंसक है ही नहीं। जब हृदय में है। संन्यासी वह व्यक्ति है जो लोकमंगल के लिए अपने व्यक्तित्व मैत्री और करुणा के भाव उमड़ रहे हों, जब संसार के सभी प्राणियों एवं शरीर को समर्पित कर देता है। वह जो कुछ भी त्याग करता के प्रति आत्मवत् भाव उत्पन्न हो गया है, तब यह सम्भव नहीं है है वह समाज के लिए एक आदर्श बनता है। समाज में नैतिक चेतना कि व्यक्ति दूसरों की पीड़ाओं का मूक दर्शक रहे, क्योंकि उसके लिए को जागृत करना तथा सामाजिक जीवन में आनेवाली दुष्प्रवृतियों से कोई पराया रह ही नहीं जाता है। यह एक आनुभविक सत्य है कि व्यक्ति को बचाकर लोकमंगल के लिए उसे दिशा-निर्देश देना-संन्यासी व्यक्ति जिसे अपना मान लेता है, उसके दुःख और कष्टों का मूक का सर्वोपरि कर्त्तव्य माना जाता है। अत: हम कह सकते हैं कि भारतीय दर्शक नहीं रह सकता है। अत: अहिंसा और सेवा एक दूसरे से अभिन्न दर्शन में संन्यास की जो भूमिका प्रस्तुत की गई है वह सामाजिकता हैं। अहिंसक होने का अर्थ है-सेवा के क्षेत्र में सक्रिय होना। जब की विरोधी नहीं है। संन्यासी क्षुद्र स्वार्थ से ऊपर उठकर खड़ा हमारी धर्म साधना में सेवा का तत्त्व जुड़ेगा तब ही हमारी साधना हआ व्यक्ति होता है, जो आदर्श समाज-रचना के लिये प्रयत्नशील में पूर्णता आयेगी। हमें अपनी अहिंसा को हृदय शून्य नहीं बनने देना रहता है।
है अपितु उसे मैत्री और करुणा से युक्त बनाना है। जब अहिंसा में अत: संन्यासी को न तो निष्क्रिय होना चाहिए और न ही समाज मैत्री और करुणा के भाव जुड़ेंगे तो सेवा का प्रकटन सहज होगा और विमुख। वस्तुत: निष्काम-भाव से संघ की या समाज की सेवा को धर्म साधना का क्षेत्र सेवा का क्षेत्र बन जायेगा। ही उसे अपनी साधना का अंग बनाना चाहिए।
जैन धर्म के उपासक सदैव ही प्राणी सेवा के प्रति समर्पित रहे हैं।
आज भी देश भर में उनके द्वारा संचालित पशु सेवा सदन (पांजरापोल), गृहस्थ-धर्म और सेवा
चिकित्सालय, शिक्षा संस्थाएँ और अतिथि शालाएं उनकी सेवा-भावना न केवल संन्यासी अपितु गृहस्थ की साधना में भी सेवा को का सबसे बड़ा प्रमाण है। श्रमण वर्ग भी इनका प्रेरक तो रहा है किन्तु अनिवार्य रूप से जुड़ना चाहिए। दान और सेवा गृहस्थ के आवश्यक यदि वह भी सक्रिय रूप से इन कार्यों से जुड़ सके तो भविष्य में कर्तव्य है। उसका अतिथिसंविभागवत सेवा सम्बन्धी उसके दायित्व जैन समाज मानव सेवा के क्षेत्र में एक मानदण्ड स्थापित कर सकेगा।
१.
२.
तत्त्वार्थसूत्र, विवे०पं० सुखलाल संघवी, प्रका० पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९७६; ५/२। सव्व च-जगजीव-रक्खण दयट्ठाए पावयणं सुकहियं-प्रश्नव्याकरणसूत्र, संपा० मुनि हस्तिमलजी, प्रका० हस्तीमल सुराणा, पाली, १९५०, २/१/२१।
३. सामायिक पाठ, संपा० प्रेमराज बोगावत, प्रका० सम्यग्ज्ञान प्रचारक
मण्डल, जयपुर १९७५; १। ४. स्थानांगसूत्र, संपा० मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति,
ब्यावर, (१९८१) १०/७६०।
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साधना और सेवा का सह-सम्बन्ध
सामान्यतया साधना व्यक्तिगत और सेवा समाजगत है। दूसरे शब्दों में साधना का सम्बन्ध व्यक्ति स्वयं से होता है, अतः वह वैयक्तिक होती है; जबकि सेवा का सम्बन्ध दूसरे व्यक्तियों से होता है, अतः उसे समाजगत कहा जाता है। इसी आधार पर कुछ विद्वानों की यह धारणा है कि साधना और सेवा एक-दूसरे से निरपेक्ष हैं। इनके बीच किसी प्रकार का सह-सम्बन्ध नहीं है। किन्तु मेरी दृष्टि में साधना और सेवा को एक-दूसरे से निरपेक्ष मानना उचित नहीं है, वे एक-दूसरे की पूरक हैं, क्योंकि व्यक्ति अपने आप में केवल व्यक्ति ही नहीं है, वह समाज भी है व्यक्ति के अभाव में समाज की परिकल्पना जिस प्रकार आधारहीन है, उसी प्रकार समाज के अभाव में व्यक्ति विशेष रूप में मानव का भी कोई अस्तित्त्व नहीं है, क्योंकि न केवल मनुष्यों में अपितु किसी सीमा तक पशुओं में भी एक सामाजिक व्यवस्था देखी जाती है। वैज्ञानिक अध्ययनों से यह सिद्ध हो चुका है कि चीटीं और मधुमक्खी जैसे क्षुद्र प्राणियों में भी एक सामाजिक व्यवस्था होती है। अतः यह सिद्ध है कि व्यक्ति और समाज एक-दूसरे से निरपेक्ष नहीं हैं। यदि व्यक्ति और समाज परस्पर सापेक्ष है और उनके बीच कोई सह-सम्बन्ध है तो फिर हमें यह भी मानना होगा कि साधना और सेवा भी परस्पर सापेक्ष हैं और उनके बीच भी एक सह-सम्बन्ध है।
जैन दर्शन में व्यक्ति की सामाजिक प्रकृति का चित्रण करते हुए स्पष्ट रूप से यह माना गया है कि पारस्परिक सहयोग प्राणीय प्रकृति है। इस सन्दर्भ में जैन दार्शनिक उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में एक सूत्र दिया है— परस्परोपग्रहोजीवानाम् (५/२०) अर्थात् एक-दूसरे का हितसाधन करना प्राणियों की प्रकृति है। प्राणी जगत् में यह एक स्वाभाविक नियम है कि वे एक-दूसरे के सहयोग या सह-सम्बन्ध के बिना जीवित नहीं रह सकते। दूसरे शब्दों में कहें तो जीवन का कार्य है— दूसरे के जीवित जीने में एक-दूसरे का सहयोगी बनना । जीवन एक-दूसरे के सहयोग से ही चलता है, अत: एक-दूसरे का सहयोग करना प्राणियों का स्वाभाविक धर्म है।
कुछ विचारकों का यह सोचना है कि व्यक्ति स्वभावतः स्वार्थी है, वह केवल अपना हित चाहता है, किन्तु यह एक भ्रान्त अवधारणा है— यदि व्यक्ति और समाज एक-दूसरे से निरपेक्ष नहीं हैं, तो हमें यह मानना होगा कि व्यक्ति के हित में ही समाज का हित और समाज के हित में ही व्यक्ति का हित समाया हुआ है। दूसरे शब्दों में सामाजिक कल्याण और वैयक्तिक-कल्याण एक-दूसरे से पृथक् नहीं है।
यदि व्यक्ति समाज का मूलभूत घटक है तो हमें यह मानना होगा कि समाज के कल्याण में व्यक्ति का कल्याण भी निहित है। व्यक्तियों के अभाव में समाज का अस्तित्व नहीं है। समाज के नाम पर जो कुछ किया जाता है या होता है उसका सीधा लाभ तो व्यक्ति को ही
होता है। जैन दर्शन की मूलभूत अवधारणा सापेक्षवाद है। उसका यह स्पष्ट चिंतन है कि व्यक्ति के बिना समाज और समाज के बिना व्यक्ति सम्भव ही नहीं है। व्यक्ति समाज की कृति है उसका निर्माण समाज की कार्यशाला में ही होता है हमारा वैयक्तिक विकास, भाषा, सभ्यता एवं संस्कार समाज का परिणाम है। पुनः समाज भी व्यक्तियों से ही निर्मित होता है। अतः व्यक्ति और समाज में हम अंग अंगी सम्बन्ध देखते हैं, किन्तु यह सम्बन्ध ऐसा है जिसमें एक के अभाव में दूसरे की सत्ता ही नहीं रहती है। इस समस्त चर्चा से यही सिद्ध होता है कि व्यक्ति और समाज एक-दूसरे में अनुस्यूत हैं। एक के बिना दूसरे की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। यदि यह सत्य है तो हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि सेवा और साधना में परस्पर सह-सम्बन्ध है। आगे इस प्रश्न पर और अधिक गम्भीरता से चर्चा करेंगे।
साधना और सेवा के इस सह-सम्बन्ध की चर्चा में सर्वप्रथम हमें यह निश्चित करना होगा कि साधना का प्रयोजन या उद्देश्य क्या है? यह तो स्पष्ट है कि साधना वह प्रक्रिया है जो साधक को साध्य से जोड़ती है। वह साध्य और साधक के बीच एक योजक कड़ी है। साधना, साधन के क्रियान्वयन की एक प्रक्रिया है। अतः बिना साध्य के उसका कोई अर्थ नहीं रह जाता है। साध में साध्य ही प्रमुख तत्त्व है। अत: सबसे पहले हमें यह निर्धारित करना होगा कि साधना का वह साध्य क्या है? जिसके लिए साधना की जाती है । दार्शनिक दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति स्वरूपतः असीम या पूर्ण है, किन्तु उसकी यह तार्किक पूर्णता किन्हीं सीमाओं में सिमट गई है। असीम होकर के भी उसने अपने को ससीम बना लिया है, जिस प्रकार मकड़ी स्वयं ही अपना जाल बुनकर उसी घेरे में सीमित हो जाती है या बन्ध है, उसी प्रकार वैयक्तिक चेतना (आत्मा) भी आकांक्षाओं या ममत्व के घेरे में अपने को सीमित कर बंधन में आ जाती है। वस्तुतः सभी धर्मों और साधना पद्धतियों का मूलभूत लक्ष्य है— व्यक्ति को ममत्व के इस संकुचित घेरे से निकालकर पुनः उसे अपनी अनन्तता या पूर्णता प्रदान करना है। दूसरे शब्दों में कहें तो सम्पूर्ण धर्मों और साधना पद्धतियों का उद्देश्य आकांक्षा एवं ममत्व के घेरे को तोड़कर अपने को पूर्णता की दिशा में आगे ले जाना है। जिस व्यक्ति के ममत्व का घेरा जितना संकुचित या सीमित होता है वह उतना ही क्षुद्र होता है। इस ममत्व के घेरे को तोड़ने का सहजतम उपाय है— इसे अधिक से अधिक व्यापक बनाया जाए। जो व्यक्ति केवल अपने दैहिक हि-साधन का प्रयत्न या पुरुषार्थ करता है, उसे निकृष्ट कोटि का व्यक्ति कहते हैं। ऐसे व्यक्ति स्वार्थी होते हैं। किन्तु जो व्यक्ति अपनी दैहिक वासनाओं से ऊपर उठकर परिवार या समाज के कल्याण की दिशा में प्रयत्न या पुरुषार्थ करता है उसे उतना ही महान् कहा जाता है। वैयक्तिक हितों से पारिवारिक हित, पारिवारिक हितों से सामाजिक हित, सामाजिक
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ हितों से राष्ट्रीय हित, राष्ट्रीय हितों से मानवीय हित और मानवीय है, वही श्रेष्ठ है, क्योंकि वही मेरी आज्ञा का पालन करता है। इसका हितों से प्राणी-जगत् के हित श्रेष्ठ माने जाते हैं। जो व्यक्ति इनमें उच्च, तात्पर्य यह है कि वैयक्तिक जप, तप, पूजा और उपासना की अपेक्षा उच्चतर और उच्चतम की दिशा में जितना आगे बढ़ता है उसे उतना जैन धर्म में भी संघ-सेवा को अधिक महत्त्व दिया गया है। ही महान् कहा जाता है।
उसमें संघ या समाज का स्थान प्रभु से भी अपर है, क्योंकि किसी व्यक्ति की महानता की कसौटी यही है कि वह कितने तीर्थकर भी प्रवचन के पूर्व 'नमो तित्थस्स' कह कर संघ को वंदन व्यापक हितों के लिए कार्य करता है। वही साधक श्रेष्ठतम समझा करता है। संघ के हितों की उपेक्षा करना सबसे बड़ा अपराध माना जाता है जो अपने जीवन को सम्पूर्ण प्राणी-जगत् के हित के लिए गया था। जब आचार्य भद्रबाहु ने अपनी ध्यान-साधना में विध्न आयेगा, समर्पित कर देता है। इस प्रकार साधना का अर्थ हुआ लोकमंगल यह समझ कर अध्ययन करवाने से इन्कार किया तो संघ ने उनसे या विश्वमंगल के लिए अपने आप को समर्पित कर देना। साधना वैयक्तिक यह प्रश्न किया था कि संघहित और आपकी वैयक्तिक साधना में कौन हितों से उपर उठकर प्राणी-जगत् के हित के लिए प्रयत्न या पुरुषार्थ श्रेष्ठ है? अन्ततोगत्वा उन्हें संघहित को प्राथमिकता देनी पड़ी। यही करना है, तो वह सेवा से पृथक् नहीं है।
बात प्रकारान्तर से हिन्दू धर्म में भी कही गई है। उसमें कहा गया कोई भी धर्म या साधना-पद्धति ऐसी नहीं है जो व्यक्ति को अपने है कि वे व्यक्ति जो दूसरों की सेवा छोड़कर केवल प्रभु का नाम स्मरण वैयक्तिक हितों या वैयक्तिक कल्याण तक सीमित रहने को कहती है। करते रहते हैं, वे भगवान् के सच्चे उपासक नहीं हैं। धर्म का अर्थ भी लोकमंगल की साधना ही है। गोस्वामी तुलसीदास इस प्रकार समस्त चर्चा से यह फलित होता है कि सेवा ही ने धर्म की परिभाषा करते हुए स्पष्ट रूप से कहा है
सच्चा धर्म है और यही सच्ची साधना है। यही कारण है कि जैन परहित सरिस धरम नहि भाई।
धर्म में तप के जो विभिन्न प्रकार बताए गए हैं उनमें वैयावृत्य सेवा पर पीड़ा समनहिंअधमाई।।
को एक महत्त्वपूर्ण आभ्यन्तर तप माना गया है। तप में सेवा का अन्तर्भाव तुलसीदास जी द्वारा प्रतिपादित इसी तथ्य को प्राचीन आचार्यों यही सूचित करता है कि सेवा और साधना अभिन्न है। मात्र यही नहीं ने “परोपकाराय पुण्याय, पापाय पर पीडनम्' अर्थात् परोपकार करना जैन परम्परा में तीर्थकर पद, जो साधना का सर्वोच्च साध्य है, की पुण्य या धर्म है और दूसरों को पीड़ा देना पाप है कहकर परिभाषित प्राप्ति के लिए जिन १६ या २० उपायों की चर्चा की गयी है उसमें किया था। पुण्य-पाप या धर्म-अधर्म के बीच यदि कोई सर्वमान्य सेवा को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है। विभाजक रेखा है तो वह व्यक्ति की लोकमंगल की या परहित की गीता में भी लोकमंगल को भूतयज्ञ प्राणियों की सेवा का नाम भावना ही है जो दूसरों के हितों के लिए या समाज-कल्याण के लिए देकर यज्ञों में सर्वश्रेष्ठ बताया गया है। इस प्रकार जो यज्ञ पहले वैयक्तिक अपने हितों का समर्पण करना जानता है, वही नैतिक है, वही धार्मिक हितों की पूर्ति के लिए किए जाते थे, उन्हें गीता ने मानव सेवा से है और वही पुण्यात्मा है। लोकमंगल की साधना को जीवन का एक जोड़कर एक महत्त्वपूर्ण क्रान्ति की थी। उच्च आदर्श माना गया था, यही कारण था कि भगवान् बुद्ध ने अपने धर्म का अर्थ दायित्व या कर्तव्य का परिपालन भी है। कर्तव्यों शिष्यों को यह उपदेश दिया- “चरत्थ भिक्खवे चारिक्कं बहुजनहिताय या दायित्वों को दो भागों में विभाजित किया जाता है— एक वे जो बहुजनसुखाय' अर्थात् हे भिक्षुओं! बहुजनों के हित के लिए और स्वयं के प्रति होते हैं और दूसरे वे जो दूसरे के प्रति होते हैं। यह बहुजनों के सुख के लिए प्रयत्न करो। न केवल जैन धर्म, बौद्ध धर्म ठीक है कि व्यक्ति को अपने जीवन रक्षण और अस्तित्व के लिए या हिन्दू धर्म की अपितु इस्लाम और ईसाई धर्म की भी मूलभूत शिक्षा भी कुछ करना होता है किन्तु इसके साथ-साथ ही परिवार, समाज, लोकमंगल या सामाजिक हित-साधन ही रही है। इससे यही सिद्ध राष्ट्र या मानवता के प्रति भी उसके कुछ कर्तव्य होते हैं। व्यक्ति के होता है कि सेवा और साधना दो पृथक्-पृथक् तथ्य नहीं हैं। सेवा स्वयं के प्रति जो दायित्व हैं वे ही दूसरे की दृष्टि से उसके अधिकार में साधना और साधना में सेवा समाहित है। यही कारण था कि वर्तमान कहे जाते हैं और दूसरों के प्रति उसके जो दायित्व हैं वे उसके कर्तव्य युग में महात्मा गांधी ने भी दरिद्रनारायण की सेवा को ही सबसे बड़ा कहे जाते हैं। वैसे तो अधिकार और कर्तव्य परस्पर सापेक्ष ही है। धर्म या कर्तव्य कहा।
जो मेरा अधिकार है वह दूसरों के लिए मेरे प्रति कर्तव्य हैं और जो जो लोग साधना को जप, तप, पूजा, उपासना या नाम स्मरण दूसरों के अधिकार हैं वे ही मेरे लिए उनके प्रति कर्तव्य हैं। दूसरों तक सीमित मान लेते हैं, वे वस्तुत: एक भ्रान्ति में ही हैं। यह प्रश्न के प्रति अपने कर्तव्यों का परिपालन ही सेवा है। जब यह सेवा बिना प्रत्येक धर्म साधना-पद्धति में उठा है कि वैयक्तिक साधना अर्थात् जप, प्रतिफल की आकांक्षा के की जाती है तो सही साधना बन जाती है। तप, ध्यान तथा प्रभु की पूजा-उपासना और सेवा में कौन श्रेष्ठ है? इस प्रकार सेवा और साधना अलग-अलग तथ्य नहीं रह जाते हैं। जैन परम्परा में भगवान् महावीर से यह पूछा गया कि एक व्यक्ति आपकी सेवा साधना हैं और साधना धर्म हैं। अत: सेवा, साधना और धर्म पूजा-उपासना या नाम स्मरण में लगा हुआ है और दूसरा व्यक्ति ग्लान एक दूसरे के पर्यायवाची हैं। एवं रोगी की सेवा में लगा हुआ हैं, इनमें कौन श्रेष्ठ है? प्रत्युत्तर सामान्यतया साधना का लक्ष्य मुक्ति माना जाता है और मुक्ति में भगवान महावीर ने कहा था कि जो रोगी या ग्लान की सेवा करता वैयक्तिक होती है। अत: कुछ विचारक सेवा और साधना में किसी
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साधना और सेवा का सह-सम्बन्ध
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प्रकार के सह-सम्बन्ध को स्वीकार नहीं करते हैं, उनके अनुसार वैयक्तिक समाप्त होकर उन्हें निर्वाण की प्राप्ति न हो। जैन परम्परा में भी तीर्थंकर मुक्ति के लिए किया गया प्रयत्न ही साधना है और ऐसी साधना का को लोककल्याण का आदर्श माना गया है। उसमें कहा गया है कि सेवा से कोई सम्बन्ध नहीं है, किन्तु भारतीय चिन्तकों ने इस प्रकार समस्त लोक की पीड़ा को जानकर तीर्थंकर धर्मचक्र का प्रवर्तन करते की वैयक्तिक मुक्ति को उचित नहीं माना है।
है। यह स्पष्ट है कि कैवल्य की प्राप्ति के पश्चात् तीर्थकर के लिए जब तक वैयक्तिकता या 'मैं' है, अहंकार है और जब तक अहंकार कुछ भी करना शेष नहीं रहता है, वे कृत-कल्प होते हैं फिर भी लोकमंगल है, मुक्ति सम्भव नहीं है। जब तक 'मैं' या 'मेरा' है, राग है और के लिए ही वे धर्मचक्र का प्रवर्तन कर अपना शेष जीवन लोकहित राग मुक्ति का बाधक है। वस्तुत: भारतीय दर्शनों में साधना का परिपाक में समर्पित कर देते हैं। यह भारतीय दर्शन और साहित्य का सर्वश्रेष्ठ सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि के विकास में माना गया है। उद्गार है। इसी प्रकार बोधिसत्व भी सदैव ही दीन और दुःखीजनों गीता में कहा गया है कि जो सभी प्राणियों को आत्मा के रूप में को दुःख से मुक्त कराने के लिए प्रयत्नशील बने रहने की अभिलाषा देखता है वही सच्चे अर्थ में द्रष्टा है और वही साधक है। जब व्यक्ति करता है और सबको मुक्त कराने के पश्चात् ही मुक्त होना चाहता है। के जीवन में इस आत्मवत दृष्टि का विकास होता है तो दूसरों की भवेयमुपजीव्योऽहं, यावतसर्वे न निर्वृता। पीड़ा भी उसे अपनी पीड़ा लगने लगती है। इस प्रकार दुःख कातरता वस्तुत: मोक्ष अकेला पाने की वस्तु ही नही है। इस सम्बन्ध को साधना की उच्चतम स्थिति माना गया है। रामकृष्ण परमहंस जैसे में विनोबा भावे के उद्गार विचारणीय हैंउच्चकोटि के साधकों के लिए यह कहा जाता है कि उन्हें दूसरे की जो समझता है कि मोक्ष अकेला हथियाने वस्तु है, पीड़ा अपनी पीड़ा लगती थी। जो साधक साधना की इस उच्चतम वह उसके हाथ से निकल आता है 'मैं' के आते, स्थिति में पहुँच जाता है और दूसरों की पीड़ा को भी अपनी पीड़ा ही मोक्ष भाग जाता है, मेरा मोक्ष यह वाक्य, समझने लगता है, उसके लिए वैयक्तिक मुक्ति का कोई अर्थ नहीं रह ही गलत है। 'मेरा' मिटने पर ही मोक्ष मिलता है, जाता है। श्रीमद्भागवत् के सप्तम स्कन्ध में प्रहलाद ने स्पष्ट रूप से
अध्यात्म और विज्ञान, पृ० ७१ कहा है कि :
इसी प्रकार वास्तविक मुक्ति अहंकार से मुक्ति है। 'मैं' अथवा प्रायेण देवमुनयः स्वविमुक्तिकामाः।
अहं भाव से मुक्त होने के लिए हमें अपने आपको समष्टि में, समाज मौन चरनिंतविजने न तु परार्थ निष्ठाः।
में लीन कर देना होता है। आचार्य शान्तिदेव लिखते हैंनेतान् विहाय कृपणां विमुमुक्षुरेकः।।
सर्वत्यागश्च निर्वाणं निर्वाणार्थ च मे मनः। प्रायः कुछ मुनिगण अपनी मुक्ति के लिए वन में अपनी चर्या त्यक्तवयं चेन्मया सर्व वर सत्वेषु दीसतां।।' करते हैं और मौन धारण करते हैं, लेकिन उनमें परार्थनिष्ठा नहीं है। इस प्रकार यह धारणा कि मोक्ष का प्रत्यय सामाजिकता का विरोधी मैं तो दु:खीजनों को छोड़कर अकेला मुक्त होना भी नहीं है, गलत है। मोक्ष वस्तुत: दुःखों से मुक्ति है और मनुष्य जीवन के चाहता हूँ।
अधिकांश दुःख मानवीय संवेगों के कारण ही हैं। अत: मुक्ति, ईर्ष्या, जो व्यक्ति दूसरे प्राणियों को पीड़ा से कराहता देखकर केवल द्वेष, क्रोध, घृणा आदि के संवेगों से मुक्ति पाने में है और इस रूप अपनी मुक्ति की कामना करता है वह निकृष्ट कोटि का है। अरे! और में वह वैयक्तिक और सामाजिक दोनों ही दृष्टि से उपादेय भी है। दुःख, तो क्या स्वयं परमात्मा भी दूसरों की पीड़ाओं को दूर करने के लिए अहंकार एवं मानसिक क्लेशों से मुक्ति रूप में मोक्ष की उपादेयता ही संसार में जन्म धारण करते हैं। हिन्दू परम्परा में जो अवतार की और सार्थकता को अस्वीकार भी नहीं किया जा सकता है। अवधारणा है, उसमें अवतार का उद्देश्य यही माना गया है कि वे कुछ लोग अहिंसा की अवधारणा को स्वीकार करके भी उसकी सत्पुरुषों के परित्राण के लिए ही जन्म धारण करते हैं। जब परमात्मा मात्र नकारात्मक अवधारणा प्रस्तुत करते हैं। वे कहते हैं कि अहिंसा भी दूसरों को दुःख और पीड़ाओं में तड़पता देखकर उसकी पीड़ा का अर्थ दूसरों को पीड़ा नहीं देने तक ही सीमित है, जो दूसरों के को दूर करने के लिए अवतरित होते हैं, तो फिर केवल अपनी मुक्ति दुःख और पीड़ाओं को दूर करने का दायित्व-बोध कराने का भान की कामना करने वाला साधक उच्चकोटि का साधक कैसे हो सकता कराता है। वस्तुतः व्यक्ति में जब तक दूसरों के दुःख और पीड़ा को है? बौद्ध परम्परा में आचार्य शान्तिरक्षित ने बोधिचर्यावतार में कहा अपने दुःख और पीड़ा मानकर उसके निराकरण का प्रयत्न नहीं होता है कि दूसरों को दुःख और पीड़ाओं में तड़पते देखकर केवल अपने है तब तक करुणा का परम विकास सम्भव नहीं है। व्यक्ति दूसरे को निर्वाह की कामना करना कहाँ तक उचित है। अरे! दूसरों के दुःखों दुःख और पीड़ा में तड़पता देखकर उसके निराकरण का कोई प्रयत्न को दूर करने में जो सुख मिलता है वह क्या कम है जो केवल स्वयं नहीं करता है तो यह कहना कठिन है कि उसके हृदय में करुणा का की विमुक्ति की कामना की जाए।
विकास हुआ है। और जब तक करुणा का विकास नहीं होता तब बौद्ध परम्परा के महायान् सम्प्रदाय में बोधिसत्व का आदर्श सभी तक अहिंसा का परिपालन सम्भव नहीं है। के दुःखों की विमुक्ति होता है। वह अपने वैयक्तिक निर्वाण को भी परम कारुणिक व्यक्ति ही अहिंसक हो सकता है। जिनका हृदय अस्वीकार कर देता है, जब तक संसार के सभी प्राणियों के दुःख दूसरों को दुःख और पीड़ा में तड़पता देखकर भी निष्क्रिय बना रहे
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ उसे हम किस अर्थ में अहिंसक कहेंगे।
मंगल कामना हैसमाज को एक आगिक संरचना माना गया है। शरीर में हम सर्वेऽत्र सुखिनः सन्तु । सर्वे सन्तु निरामयाः। स्वाभाविक रूप से यह प्रक्रिया देखते हैं कि किसी अंग की पीड़ा सर्वे भद्राणि पश्यतु। मा कश्चिद् दुःखमाप्नुयात्।। को देखकर दूसरा अंग उसकी सहायता के लिए तत्काल आगे आता लोकमंगल की उसकी सर्वोच्च भावना का प्रतिबिम्ब हमें आचार्य है। जब शरीर का कोई भी अंग दूसरे अंग की पीड़ा में निष्क्रिय नहीं शान्तिदेव के शिक्षा समुच्चय नामक ग्रन्थ में मिलता है। अतः मैं रहता तो फिर हम यह कैसे कह सकते हैं कि समाज रूपी शरीर में उसकी हिन्दी में अनुदित निम्न पंक्तियों से अपने इस लेख का समापन व्यक्ति रूपी अंग दूसरे अंग की पीड़ा में निष्क्रिय बना रहे। अतः हमें करना चाहूँगा। यह मानकर चलना होगा कि अहिंसा मात्र नकारात्मक नहीं है, उसमें इस दु:खमय नरलोक में, करुणा और सेवा का सकारात्मक पहलू भी है। यदि हम अहिंसा को जितने दलित, बन्धग्रसित पीड़ित विपत्ति विलीन हैं; साधना का आवश्यक अंग मानते हैं तो हमें सेवा को भी साधना के जितने बहुधन्धी विवेक विहीन है। एक अंग के रूप में स्वीकार करना पड़ेगा और इससे यही सिद्ध जो कठिन भय से और दारुण शोक से अतिदी है, होता है कि सेवा और साधना में एक सम्बन्ध है। सेवा के अभाव वे मुक्त हो निजबन्ध से, स्वच्छन्द हो सब द्वन्द्व से, में साधना सम्भव नहीं है। पुन: जहाँ सेवा है वहाँ साधना है वस्तुतः छुटे दलन के फनद से, वे व्यक्ति ही महान् साधक हैं जो लोकमंगल के लिए अपने को हो ऐसा जग में, दुःख से विचले न कोई, समर्पित कर देते हैं। उनका निष्काम समपर्ण-भाव साधना का सर्वोकृष्ट वेदनार्थ हिले न कोई, पाप कर्म करे न कोई, रूप है।
असन्मार्ग धरे न कोई, अन्त में हम कह सकते हैं कि भारतीय जीवन दर्शन की दृष्टि हो सभी सुखशील, पुण्याचार धर्मव्रती, पूर्णतया लोकमंगल के लिए प्रयत्नशील बने रहने की है। उसकी एकमात्र सबका ही परम कल्याण। सन्दर्भ:
अध्यात्म और विज्ञान, विनोबा भावे, पृ०७१। १. बोधिचर्यावतार, संपा०- श्री परशुराम शर्मा, प्रका० मिथिला ३. बोधिचार्यावतार, संपा०- श्री परशुराम शर्मा, प्रका०- मिथिला विद्यापीठ, दरभंगा, १९६०, ३/२१।
विद्यापीठ, दरभंगा, १९६०, ३/११।
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पर्युषण पर्व : एक विवेचन
भारत पर्वो (त्योहारों) का देश है। वैसे तो प्रत्येक मास में कोई के विशेष नियम। आयारदशा (दशाश्रुतस्कन्ध) के पज्जोसवणाकप्प न कोई पर्व आता ही है, किन्तु वर्षा ऋतु में पर्वो की बहुलता है नामक अष्टम अध्याय में साधु-साध्वियों के वर्षावास सम्बन्धी विशेष जैसे- गुरुपूर्णिमा, रक्षाबन्धन, जन्माष्टमी, ऋषि पञ्चमी, गणेश चतुर्थी, आचार-नियमों का उल्लेख है। अत: इस सन्दर्भ में पज्जोसवण का अनन्त चतुर्दशी, श्राद्ध, नवरात्र, दशहरा, दीपावली आदि-आदि। वर्षा अर्थ वर्षावास होता है। ऋतु का जैन परम्परा का प्रसिद्ध पर्व पर्युषण है। जैन परम्परा में पर्वो (२) निशीथ में इस शब्द का प्रयोग एक दिन विशेष के को दो भागों में विभाजित किया गया है- एक लौकिक पर्व और अर्थ में हुआ है। उसमें उल्लेख है कि जो भिक्षु 'पज्जोसवणा' में दूसरा आध्यात्मिक पर्व। पर्युषण की गणना आध्यात्मिक पर्व के रूप किंचित्मात्र भी आहार करता है उसे चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। में की गई है। इसे पर्वाधिराज कहा गया है। आगमिक साहित्य में इस सन्दर्भ में 'पज्जोसवण' शब्द समग्र वर्षावास का सूचक नहीं हो उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर पर्युषण पर्व का इतिहास दो सहस्र सकता है, क्योंकि यह असम्भव है कि सभी साधु-साध्वियों को चार वर्ष से भी अधिक प्राचीन प्रतीत होता है। यद्यपि प्राचीन आगम साहित्य मास निराहार रहने का आदेश दिया गया हो। अत: इस सम्बन्ध में में इसकी निश्चित तिथि एवं पर्व के दिनों की संख्या का उल्लेख नहीं पज्जोसवण शब्द किसी दिन विशेष का सूचक हो सकता है, समग्र मिलता है। मात्र इतना ही उल्लेख मिलता है कि भाद्र शुक्ला पञ्चमी वर्षाकाल का नहीं। का अतिक्रमण नहीं करना चाहिये। वर्तमान में श्वेताम्बर परम्परा का पुनः यह भी कहा गया है कि जो भिक्षु अपर्युषणकाल में मूर्तिपूजक सम्प्रदाय इसे भाद्र कृष्ण द्वादशी से भाद्र शुक्ल चतुर्थी तक पर्युषण करता है और पर्युषण काल में पर्युषण नहीं करता है, वह तथा स्थानकवासी और तेरापंथी सम्प्रदाय इसे भाद्र कृष्ण त्रयोदशी दोषी है।६ यद्यपि यहाँ ‘पज्जोसवण' के एक दिन विशेष और से भाद्र-शुक्ल पञ्चमी तक मानता है। दिगम्बर परम्परा में यह पर्व वर्षावास दोनों ही अर्थ ग्रहण किये जा सकते हैं। फिर भी इस प्रसङ्ग भाद्र शुक्ल पञ्चमी से भाद्र शुक्ल चतुर्दशी तक मनाया जाता है। उसमें में उसका अर्थ एक दिन विशेष करना ही अधिक उचित प्रतीत इसे दशलक्षण पर्व के नाम से भी जाना जाता है। इस प्रकार श्वेताम्बर होता है। परम्परा में यह अष्ट दिवसीय और दिगम्बर परम्परा में दश दिवसीय (३) निशीथ में पज्जोसवण का एक अर्थ वर्षावास के लिए स्थित पर्व है। इसके जितने प्राचीन एवं विस्तृत ऐतिहासिक उल्लेख श्वेताम्बर होना भी है। उसमें यह कहा है कि जो भिक्षु वर्षावास के लिए स्थित परम्परा में प्राप्त हैं, उतने दिगम्बर परम्परा में नहीं हैं। यद्यपि दस (वासावासं पज्जासवियसि) होकर फिर ग्रामानुग्राम विचरण करता है, कल्पों (मुनि के विशिष्ट आचारों) का उल्लेख श्वेताम्बर एवं दिगम्बर वह दोष का सेवन करता है। अत: इस सन्दर्भ में पर्युषण का अर्थ दोनों परम्पराओं में पाया जाता है। इन कल्पों में एक 'पज्जोसवणकप्प' वर्षावास बिताने हेतु किसी स्थान पर स्थित रहने का संकल्प कर लेना (पर्युषण कल्प) भी है। श्वेताम्बर परम्परा के बृहद्-कल्प भाष्य' में, है अर्थात् अब मैं चार मास तक इसी स्थान पर रहूँगा ऐसा निश्चय दिगम्बर परम्परा के मूलाचार में और यापनीय परम्परा के ग्रन्थ भगवती कर लेना है। ऐसा लगता है कि पर्युषण वर्षावास के लिए एक स्थान आराधना में इन दस कल्पों का उल्लेख है। किन्तु इन ग्रन्थों की पर स्थिति हो जाने का एक दिन विशेष था- जिस दिन श्रमण संघ अपेक्षा भी अधिक प्राचीन श्वेताम्बर छेदसूत्र-आयारदशा (दशाश्रुतस्कन्ध) को उपवासपूर्वक केश-लोच, वार्षिक प्रतिक्रमण (सांवत्सरिक प्रतिक्रमण) तथा निशीथ में ‘पज्जोसवण' का उल्लेख है। आयारदशा के आठवें और पज्जोसवणाकप्प का पाठ करना होता था। कल्प का नाम ही पर्युषण कल्प है, जिसके आधार पर ही आगे चलकर कल्पसूत्र की रचना हुई है और जिसका आज तक पर्युषण के दिनों पर्युषण के पर्यायवाची अन्य नाम में वाचन होता है।
___ 'पर्युषण' के अनेक पर्यायवाची नामों का उल्लेख निशीथभाष्य
(३१३९) तथा कल्पसूत्र की विभिन्न टीकाओं में उपलब्ध होता है। पर्युषण (पज्जोसवण) शब्द का अर्थ
इसके कुछ प्रसिद्ध पर्यायवाची शब्द निम्न हैं- पज्जोसमणा ___ आयारदशा एवं निशीथ आदि आगम ग्रन्थों में पर्युषण शब्द (पर्युपशमना), परिवसणा (परिवसना), पज्जूसणो (पर्युषण), वासावास के मूल प्राकृत रूप पज्जोसवण शब्द का प्रयोग भी अनेक अर्थों में (वर्षावास) पागइया (प्राकृतिक), पढमसमोसरण (प्रथम समवसरण), हुआ है। निम्न पंक्तियों में हम उसके इन विभिन्न अर्थों पर विचार परियायठवणा (पर्यायस्थापना), ठवणा (स्थापना), जट्ठोवग्ग (ज्येष्ठावग्रह)। करेंगे।
इसके अतिरिक्त वर्तमान में अष्टाह्निक पर्व या अठाई महोत्सव नाम (१) श्रमण के दस कल्पों में एक कल्प ‘पज्जोसवणकल्प' है। भी प्रचलित है। इन पर्यायवाची नामों से हमें पर्युषण के वास्तविक पज्जोसवणकप्प का अर्थ है- वर्षावास में पालन करने योग्य आचार स्वरूप का भी बोध हो जाता है।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ पज्जोसमणा (पर्युपशमना)
पढमसमोसरण (प्रथम समवसरण) पज्जोसमणा शब्द की व्युत्पत्ति परि+उपशमन से भी की जाती प्राचीन परम्परा के अनुसार आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा को संवत्सर है। परि अर्थात् पूरी तरह से, उपशमन अर्थात् उपशान्त करना। पर्युषण पूर्ण होने के बाद श्रावण कृष्ण प्रतिपदा से नववर्ष का प्रारम्भ होता पर्व में कषायों की अथवा राग-द्वेष की वृत्तियों को सम्पूर्ण रूप से है। वर्ष का प्रथम दिन होने से इसे पढमसमोसरण (प्रथम समवसरण) क्षय करने हेतु साधना की जाती है, इसलिए उसे पज्जोसमणा कहा गया है। दिगम्बर जैन परम्परा के अनुसार भगवान् महावीर के (पर्युपशमना) कहा जाता है।
प्रथम समवसरण की रचना और उसकी वाक्धारा का प्रस्फुटन श्रावण
कृष्णा प्रतिपदा को हुआ था। इसी दिन उन्होंने प्रथम उपदेश दिया पज्जोसवणा/परिवसणा (परिवसना)
था, इसलिए इसे प्रथम समवसरण कहा जाता है। वर्तमानकाल में भी कुछ आचार्य पज्जोसवण की व्युत्पत्ति परि+उषण से भी करते चातुर्मास में स्थिर होने के पश्चात् चातुर्मासिक प्रवचनों का प्रारम्भ श्रावण हैं। उषण धातु वस् अर्थ में भी प्रयुक्त होती है- उषणं वसनं। इस कृष्णा प्रतिपदा से ही माना जाता है। अतः इसे पढमसमोसरण कहा प्रकार पज्जोसवण का अर्थ होगा- परिवसना अर्थात् विशेष रूप से गया है। निशीथ में पर्युषण के लिए 'पढमसमोसरण' शब्द का प्रयोग निवास करना। पर्युषण में एक स्थान पर चार मास के लिए मुनिगण हुआ है। उसमें कहा गया है कि जो साधु प्रथम समवसरण अर्थात् स्थित रहते हैं, इसलिए इसे परिवसना कहा जाता है। परिवसना का श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के पश्चात् वस्त्र, पात्र आदि की याचना करता आध्यात्मिक अर्थ पूरी तरह आत्मा के निकट रहना भी है। 'परि' अर्थात् है वह दोष का सेवन करता है। सर्व प्रकार से और 'वसना' अर्थात् रहना- इस प्रकार पूरी तरह से आत्मा में निवास करना या रहना परिवसना है, जो कि पर्युषण के परियायठवणा/परियायवस्थणा (पर्याय स्थापना) आध्यात्मिक स्वरूप को स्पष्ट करता है। इस पर्व की साधना में साधक पर्युषण पर्व में साधु-साध्वियों को उनके विगत वर्ष की संयम बहिर्मुखता का परित्याग कर तथा विषय-वासनाओं से मुँह मोड़कर साधना में हुई स्खलनाओं का प्रायश्चित देकर उनकी दीक्षा पर्याय का आत्मसाधना में लीन रहता है।
पुनर्निर्धारण किया जाता है। जैन परम्परा में प्रायश्चित के विविध रूपों
में एक रूप छेद भी है। छेद का अर्थ होता है- दीक्षा पर्याय में पज्जूसण (पर्युषण)
कमी करना। अपराध एवं स्खलनाओं की गुरुता के आधार पर विविध 'परि' उपसर्ग और 'उष्' धातु के योग से भी पर्युषण शब्द की काल की दीक्षा छेद किया जाता है और साधक की श्रमण संघ में व्युत्पत्ति मानी जाती है। उष् धातु दहन अर्थ की भी सूचक है। इस ज्येष्ठता और कनिष्ठता का पुनर्निर्धारण होता है, अत: पर्युषण का व्याख्या की दृष्टि से इसका अर्थ होता है सम्पूर्ण रूप से दग्ध करना एक पर्यायवाची नाम परियायठवणा (पर्याय स्थापना) भी कहा गया अथवा जलना। इस पर्व में साधना एवं तपश्चर्या के द्वारा कर्म रूपी है। साधुओं की दीक्षा पर्याय की गणना भी पर्युषणों के आधार पर मल को अथवा कषाय रूपी मल को दग्ध किया जाता है, इसलिए की जाती है। दीक्षा के बाद जिस साधु को जितने पर्युषण हुए हैं, पज्जसण (पर्युषण) आत्मा के कर्म एवं कषाय रूपी मलों को जला उसको उतने वर्ष का दीक्षित माना जाता है। यद्यपि पर्यायठवणा के कर उसके शुद्ध स्वरूप को प्रकट करने का पर्व है।
इस अर्थ की अपेक्षा उपर्युक्त अर्थ ही अधिक उचित है।
वासावास (वर्षावास)
'पर्युषणाकल्प' में पर्युषण शब्द का प्रयोग वर्षावास के अर्थ में भी हुआ है। वर्षाकाल में साधु-साध्वी एक स्थान पर स्थित रहकर पर्युषण कल्प का पालन करते हुए 'आत्मसाधना' करते हैं, इसलिए इसे वासावास (वर्षावास) भी कहा जाता है।
ठवणा (स्थापना)
चूँकि पर्युषण (चातुर्मास काल) की अवधि में साधक एक स्थान पर स्थित रहता है इसलिए इसे ठवणा (स्थापना) भी कहा जाता है। दूसरे पर्युषण (संवत्सरी) के दिन चातुर्मास की स्थापना होती है, इसलिए भी इसे ठवणा (स्थापना) कहा गया है।
पागइया (प्राकृतिक)
पागइया का संस्कृत रूप प्राकृतिक होता है। प्राकृतिक शब्द स्वाभाविकता का सूचक है। विभाव अवस्था को छोड़कर स्वभाव अवस्था में परिरमण करना ही पर्युषण की साधना का मूल हार्द है। वह विकृति से प्रकृति में आना है, विभाव से स्वभाव में आना है, इसलिए उसे पागइया (प्राकृतिक) कहा गया है। काम, क्रोध आदि विकृतियों (विकारों) का परित्याग कर क्षमा, शान्ति, सरलता आदि स्वाभाविक गुणों में रमण करना ही पर्युषण है।
जेट्ठोवग्ग (ज्येष्ठावग्रह)
अन्य ऋतुओं में साधु-साध्वी एक या दो मास से अधिक एक स्थान पर स्थित नहीं रहते हैं, किन्तु पर्युषण (वर्षाकाल) में चार मास तक एक ही स्थान पर स्थित रहते हैं, इसलिए इसे जेट्ठोवग्ग (ज्येष्ठावग्रह) भी कहा गया है।
अष्टाह्निक पर्व
पर्युषण को अष्टाह्निक पर्व या अष्टाह्निक महोत्सव के नाम से
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पर्युषण पर्व : एक विवेचन
५११ भी जाना जाता है। वर्तमान में यह पर्व आठ दिनों तक मनाया जाता इसका समय वर्षान्त ही होना चाहिये। प्राचीन परम्परा के अनुसार आषाढ़ है इसलिए इसे अष्टाह्निक अर्थात् आठ दिनों का पर्व भी कहते हैं। पूर्णिमा को वर्ष का अन्तिम दिन माना जाता था। श्रावण बदी प्रतिपदा
से नव वर्ष का आरम्भ होता था। भाद्र शुक्ल चतुर्थी या पञ्चमी को दशलक्षण पर्व
किसी भी परम्परा (शास्त्र) के अनुसार वर्ष का अन्त नहीं होता। अत: दिगम्बर परम्परा में इसका प्रसिद्ध नाम दशलक्षण पर्व है। दिगम्बर भाद्र शुक्ल पञ्चमी को सांवत्सरिक प्रतिक्रमण की वर्तमान परम्परा परम्परा में भाद्र शुक्ल पञ्चमी से भाद्र शुक्ल चतुर्दशी तक दश दिनों समुचित प्रतीत नहीं होती। प्राचीन आगमों में जो देवसिक, रात्रिक, में, धर्म के दस लक्षणों की क्रमश: विशेष साधना की जाती है, अतः । पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण का उल्लेख है, उसको इसे दशलक्षण पर्व कहते हैं।
देखने से ऐसा लगता है कि उस अवधि के पूर्ण होने पर ही तत्
सम्बन्धी प्रतिक्रमण (आलोचना) किया जाता था। जिस प्रकार आज पर्युषण (संवत्सरी) पर्व कब और क्यों?
भी दिन की समाप्ति पर देवसिक, पक्ष की समाप्ति पर पाक्षिक, चातुर्मास प्राचीन ग्रन्थों विशेष रूप से कल्पसूत्र एवं निशीथ के देखने से की समाप्ति पर चातुर्मासिक प्रतिक्रमण किया जाता है, उसी प्रकार यह स्पष्ट होता है कि पर्युषण मूलत: वर्षावास की स्थापना का पर्व वर्ष की समाप्ति पर सांवत्सरिक प्रतिक्रमण किया जाना चाहिये। प्रश्न था। यह वर्षावास की स्थापना के दिन मनाया जाता था। उपवास, होता है कि सांवत्सरिक प्रतिक्रमण की यह तिथि भिन्न कैसे हो गई? केशलोच, सांवत्सरिक प्रतिक्रमण एवं प्रायश्चित्त, क्षमायाचना (कषाय- निशीथचूर्णि में जिनदासगणि ने स्पष्ट लिखा है कि पर्युषण पर्व पर उपशमन) और पज्जोसवणाकप्प (पर्युषण कल्प कल्पसूत्र) का पारायण वार्षिक आलोचना करनी चाहिये। (पज्जोसवनासु वरिसिया आलोयणा उस दिन के आवश्यक कर्तव्य थे। इस प्रकार पर्युषण एक दिवसीय दायिवा)। चूँकि वर्ष की समाप्ति आषाढ़ पूर्णिमा को ही होती है, इसलिए पर्व था। यद्यपि निशीथचूर्णि के अनुसार पर्युषण के अवसर पर तेला आषाढ़ पूर्णिमा को पर्युषण अर्थात् सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करना चाहिए। (अष्टम भक्त तीन दिन का उपवास) करना आवश्यक था। उसमें स्पष्ट निशीथभाष्य में स्पष्ट उल्लेख है- आषाढ़ पूर्णिमा को ही पर्युषण उल्लेख है कि 'पज्जोसवणाए अट्ठम न करेइ तो चउगुरु' अर्थात् जो करना उत्सर्ग सिद्धान्त है। साधु पर्युषण के अवसर पर तेला नहीं करता है तो उसे गुरु चातुर्मासिक सम्भवत: इस पक्ष के विरोध में समवायाङ्ग और आयारदशा प्रायश्चित्त आता है। इसका अर्थ है कि पर्युषण की आराधना का (दशाश्रुतस्कन्ध) के उस पाठ को प्रस्तुत किया जा सकता है जिसके प्रारम्भ उस दिन के पूर्व भी हो जाता था। जीवाभिगमसूत्र के अनुसार अनुसार आषाढ़ पूर्णिमा के एक मास और बीस रात्रि के व्यतीत हो पर्युषण एक अठाई महोत्सव (अष्ट दिवसीय पर्व) के रूप में मनाया जाने पर पर्युषण करना चाहिए। चूँकि कल्पसूत्र के मूल पाठ में यह जाता था। उसमें उल्लेख है कि चातुर्मासिक पूर्णिमाओं एवं पर्युषण भी लिखा हुआ है कि श्रमण भगवान् महावीर ने आषाढ़ पूर्णिमा से के अवसर पर देवतागण नन्दीश्वर द्वीप में जाकर अष्टाह्निक महोत्सव एक मास और बीस रात्रि के व्यतीत हो जाने पर वर्षावास (पर्युषण) मनाया करते हैं।११ दिगम्बर परम्परा में आज भी आषाढ़, कार्तिक और किया था उसी प्रकार गणधरों ने किया, स्थविरों ने किया और उसी फाल्गुन की पूर्णिमाओं (चातुर्मासिक पूर्णिमाओं) के पूर्व अष्टाह्निक पर्व प्रकार वर्तमान श्रमण निर्ग्रन्थ भी करते हैं। निश्चित रूप से यह कथन मनाने की प्रथा है। लगभग आठवीं शताब्दी से दिगम्बर साहित्य में भाद्र शुक्ल पञ्चमी को पर्युषण करने के पक्ष में सबसे बड़ा प्रमाण इसके उल्लेख मिलते हैं। प्राचीनकाल में पर्युषण आषाढ़ पूर्णिमा को है। लेकिन हमें यह विचार करना होगा कि क्या यह अपवाद मार्ग मनाया जाता था और उसके साथ ही अष्टाह्निक महोत्सव भी होता था या उत्सर्ग मार्ग था? यदि हम कल्पसूत्र के उसी पाठ को देखें था। हो सकता है कि बाद में जब पर्युषण भाद्र शुक्ल चतुर्थी/पञ्चमी तो, उसमें यह स्पष्ट लिखा हुआ है कि इसके पूर्व तो पर्युषण एवम् को मनाया जाने लगा तो उसके साथ भी अष्ट-दिवस जुड़े रहे और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करना कल्पता है, किन्तु वर्षा ऋतु के एक मास इसप्रकार वह अष्ट दिवसीय पर्व बन गया।
और बीस रात्रि का अतिक्रमण करना नहीं कल्पता है- 'अंतरा वि वर्तमान में पर्युषण पर्व का सबसे महत्त्वपूर्ण दिन संवत्सरी पर्व य कप्पइ (पज्जोसवित्तए) नो से कप्पइ तं रयणि उवाइणा वित्तए।' माना जाता है। समवायाङ्गसूत्र के अनुसार आषाढ़ पूर्णिमा से एक मास निशीथचूर्णि में और कल्पसूत्र की टीकाओं में भाद्र शुक्ल चतुर्थी को
और बीस रात्रि पश्चात् भाद्रपद अर्थात् शुक्ल पञ्चमी को पर्युषण- पर्युषण या संवत्सरी करने का कालक आचार्य की कथा के साथ जो सांवत्सरिक प्रतिक्रमण कर लेना चाहिये। निशीथ के अनुसार पचासवीं उल्लेख है वह भी इस बात की पुष्टि करता है कि भाद्र शुक्ल पञ्चमी रात्रि का उल्लङ्घन नहीं करना चाहिये। उपवासपूर्वक सांवत्सरिक के पूर्व तो पर्युषण किया जा सकता है किन्तु उस तिथि का अतिक्रमण प्रतिक्रमण करना, श्रमण का आवश्यक कर्तव्य तो था ही, लेकिन नहीं किया जा सकता है। निशीथचूर्णि में स्पष्ट लिखा है कि- 'आसाढ़ निशीथचूर्णि में उदयन और चण्डप्रद्योत के आख्यान से ऐसा लगता पूणिमाए पज्जोसेवन्ति एस उसग्गो सेस कालं पज्जोसेवन्ताणं अवहै कि वह गृहस्थ के लिए भी अपरिहार्य था। लेकिन मूल प्रश्न यह वातो। अवताते वि सवीससतिरातमासातो परेण अतिकम्मेउण वट्टति है कि यह सांवत्सरिक पर्व कब किया जाय? सांवत्सरिक पर्व के दिन सवीसतिराते मासे पुण्णे जति वासखेत्तं लब्भति तो रूक्ख हेठ्ठावि समग्र वर्ष के अपराधों और भूलों का प्रतिक्रमण करना होता है, अतः पज्जोसवेयव्वं तं पुण्णिमाए पञ्चमीए, दसमीए, एवमाहि पव्वेसु
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ पज्जुसवेयव्वं नो अपवेसु१२ अर्थात् आषाढ़ पूर्णिमा को पर्युषण करना अवधारणा से दक्षिण भारत में विकसित दिगम्बर परम्परा अपरिचित यह उत्सर्ग मार्ग है और अन्य समय में पर्युषण करना अपवाद मार्ग होती गई। मूलाचार में मुनिलिङ्ग प्रसङ्ग में दस कल्प सम्बन्धी जिस है। अपवाद मार्ग में भी एक मास और २० दिन अर्थात् भाद्र शुक्ल गाथा का उल्लेख हुआ है, उसे देखने से ज्ञात होता है कि अचेलता पञ्चमी का अतिक्रमण नहीं करना चाहिये। यदि भाद्र शुक्ल पञ्चमी की पुष्टि के लिए ही उस गाथा को बृहद्-कल्प-भाष्य से या अन्यत्र - तक भी निवास के योग्य स्थान उपलब्ध न हो तो वृक्ष के नीचे पर्युषण कहीं से ग्रहण किया गया है। इसकी परवर्ती गाथाओं में मयूरपिच्छि कर लेना चाहिये। अपवाद मार्ग में भी पञ्चमी, दशमी, अमावस्या एवं आदि का विवेचन है। यदि यह गाथा मूलाचार का अङ्ग होती तो उसमें पूर्णिमा इन पर्व तिथियों में ही पर्युषण करना चाहिए, अन्य तिथियों इसके बाद क्रमश: दस कल्पों का विवेचन होना चाहिए था। जबकि में नहीं। इस बात को लेकर निशीथभाष्य एवं चूर्णि में यह प्रश्न उठाया इसकी पूर्ववर्ती गाथा अचेलता का वर्णन करती है और परवर्ती गाथाएँ गया है कि भाद्र शुक्ल चतुर्थी को अपर्व तिथि में पर्युषण क्यों किया मयूरपिच्छिका का। आश्चर्य यह भी है कि मूलाचार के टीकाकार आचार्य जाता है? इस सन्दर्भ में उसमें कालक आचार्य की कथा दी गयी है। वसुनन्दी शय्यातर एवं पज्जोसवण नामक कल्पों के मूलभूत अर्थों से कथा इस प्रकार है- कालक आचार्य विचरण करते हुए वर्षावास भी परिचित नहीं हैं। उन्होंने पज्जोसवण कल्प का अर्थ तीर्थङ्करों के हेतु उज्जयिनी पहुँचे। किन्तु किन्हीं कारणों से राजा रुष्ट हो गया, पञ्च-कल्याणक स्थानों की पर्युपासना किया है (पज्जो-पर्या पर्युपासनं अत: कालक आचार्य ने वहाँ से विहार करके प्रतिष्ठानपुर की ओर । निषद्यकायाः पञ्च-कल्याण स्थानानां च सेवनं पर्येत्युच्यते श्रमणस्य प्रस्थान किया और वहाँ श्रमण संघ को आदेश भिजवाया कि जब श्रामणस्य वा कल्पो विकल्प: श्रमण कल्पः- मूलाचार, भाग २, तक हम नहीं पहुँचते हैं तब तक आप लोग पर्युषण न करें। वहाँ पृ.१०५) पज्जोसवणा में आये हुए 'सवणा' का पाठान्तर 'समणा' का सातवाहन राजा श्रावक था, उसने कालक आचार्य को सम्मान के । कर 'श्रमण' अर्थ किया है जो कि यथार्थ नहीं है ऐसा लगता है कि साथ नगर में प्रवेश कराया। प्रतिष्ठानपुर पहुँचकर आचार्य ने घोषणा दिगम्बर आचार्य पज्जोसवणाकप्प के मूल अर्थ से परिचित नहीं थे। की कि भाद्र शुक्ल पञ्चमी को पर्युषण करेंगे। यह सुनकर राजा ने यापनीय शिवार्य की भगवती आराधना में भी इन्हीं दस कल्पों का निवेदन किया कि उस दिन नगर में इन्द्रमहोत्सव होगा। अत: आप विवेचन करने वाली गाथा है। किन्तु यहाँ पर यह गाथा ग्रन्थ का मूल भाद्र शुक्ल षष्ठि को पर्युषण कर लें। किन्तु आचार्य ने कहा कि शास्त्र अङ्ग है, क्योंकि आगे और पीछे की गाथाओं में भी कल्प का विवेचन के अनुसार पञ्चमी का अतिक्रमण करना कल्प्य नहीं है। इस पर राजा है। इसके टीकाकार अपराजित सूरि ने इस गाथा की बहुत ही विस्तृत ने कहा कि फिर आप भाद्र शुक्ल चतुर्थी को ही पर्युषण करें। आचार्य टीका लिखी है और प्रत्येक कल्प का वास्तविक अर्थ स्पष्ट किया ने इस बात की स्वीकृति दे दी और श्रमण संघ ने भाद्र शुक्ल चतुर्थी है। यही नहीं, उन्होंने इस सम्बन्ध में आगमों (श्वेताम्बर आगमों) के को पर्युषण किया।१३
सन्दर्भ भी प्रस्तुत किये हैं। यह स्वाभाविक भी था, क्योकि यापनीय यहाँ ऐसा लगता है कि आचार्य लगभग भाद्र कृष्ण पक्ष के अन्तिम आचार्य आगमिक साहित्य को मान्य करते थे। अपराजित सूरि ने दिनों में ही प्रतिष्ठान पर पहुँचे थे और भाद्र कृष्ण अमावस्या को पर्युषण पज्जोसवणाकप्प का अर्थ वर्षावास के लिए एक स्थान पर स्थित रहना करना सम्भव नहीं था। यद्यपि वे अमावस्या के पूर्व अवश्य ही प्रतिष्ठानपुर ही किया जो श्वेताम्बर परम्परा से मूल अर्थ के अधिक निकट है। पहुँच चुके थे, क्योंकि निशीथचूर्णि में यह भी लिखा है कि राजा उन्होंने चातुर्मास का उत्सर्गकाल एक सौ बीस दिन बतलाया है, साथ ने श्रावकों को आदेश दिया कि तुम लोग भाद्र कृष्ण अमावस्या को ही यह भी बताया है कि यदि साधु आषाढ़ शुक्ल दशमी को चातुर्मास पाक्षिक उपवास करना और भाद्र शुक्ल प्रतिपदा को विविध पकवानों स्थल पर पहुँच गया है तो वह कार्तिक पूर्णिमा के पश्चात् तीस दिन के साथ पारणे के लिए मुनिसंघ को आहार प्रदान करना। चूँकि और ठहर सकता है। अपराजित सूरि के अनुसार अपवाद काल सौ शास्त्र-आज्ञा के अनुसार सांवत्सरिक प्रतिक्रमण के पूर्व तेला करना दिनों का होता है। यहाँ श्वेताम्बर परम्परा से उनका भेद स्पष्ट होता होता था, अत: भाद्र शुक्ल द्वितीया से चतुर्थी तक श्रमण संघ ने तेला है, क्योंकि श्वेताम्बर परम्परा में अपवाद काल भाद्र शुक्ल पंचमी से किया। भाद्र शुक्ल पञ्चमी को पारणा किया। जनता ने आहार-दान कार्तिक पूर्णिमा तक सत्तर दिन का ही है। इस प्रकार वे यह मानते कर श्रमण संघ की उपासना की। इसी कारण महाराष्ट्र देश में भाद्र हैं कि उत्सर्ग रूप में तो आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को और अपवाद रूप शुक्ल पञ्चमी श्रमण पूजा नाम से भी प्रचलित है।१४ यह भी सम्भव में उसके बीस दिन पश्चात् तक भी पर्युषण अर्थात् वर्षावास की स्थापना है कि इसी आधार पर हिन्दू परम्परा में ऋषि पञ्चमी का विकास हुआ है। कर लेनी चाहिये। इस प्रकार दिगम्बर परम्परा के आगमिक आधारों
पर आषाढ़ पूर्णिमा ही पर्युषण की उत्सर्ग तिथि ठहरती है। आज भी पर्युषण/दशलक्षण और दिगम्बर परम्परा
दिगम्बर परम्परा में वर्षायोग की स्थापना के साथ अष्टाह्निक पर्व मनाने जैसा कि हमने पूर्व में निर्देश किया कि दिगम्बर ग्रन्थ मूलाचार की जो प्रथा है वही पर्युषण के मूल हार्द के साथ उपयुक्त लगती है। के समयसाराधिकार की ११८वीं गाथा में और यापनीय संघ के ग्रन्थ जहाँ तक दशलक्षण पर्व के इतिहास का प्रश्न है वह अधिक भगवती आराधना की ४२३वी गाथा में दस कल्पों के प्रसङ्ग में पर्युषण पुराना नहीं है। मुझे अब तक किसी प्राचीन ग्रन्थ में इसका उल्लेख कल्प का उल्लेख हुआ है। किन्तु ऐसा लगता है कि पर्युषण की मूलभूत देखने को नहीं मिला है। यद्यपि १७वीं शताब्दी की एक कृति व्रत
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पर्युषण पर्व : एक विवेचन
५१३ तिथिनिर्णय में यह उल्लेख अवश्य है कि दशलाक्षणिक व्रत में भाद्रपद कुछ व्यक्ति यह तर्क उठाते हैं कि सांवत्सरिक प्रतिक्रमण आषाढ़ी पूर्णिमा की शुक्ल पञ्चमी को प्रोषध करना चाहिए। इससे पर्व का भी मुख्य को ही करना चाहिए। यही वर्ष का अन्तिम दिन है। भाद्रपद शुक्ल दिन यही प्रतीत होता है। 'क्षमाधर्म' आराधना का दिन होने से भी पञ्चमी को जैन ज्योतिष की दृष्टि से तथा अन्य किसी भी दृष्टि से यह श्वेताम्बर परम्परा की संवत्सरी-पर्व की मूल भावना के अधिक निकट वर्ष का न अन्तिम दिन है और न प्रारम्भिक दिन। बैठता है। आशा है दिगम्बर परम्परा के विद्वान् इस पर अधिक प्रकाश इसका समाधान यह है कि यद्यपि आषाढ़ पूर्णिमा संवत्सर का डालेंगे।
अन्तिम दिन माना गया है, किन्तु शास्त्र में जो पर्युषण का विधान इस प्रकार दिगम्बर परम्परा में भी पर्युषण का उत्सर्गकाल आषाढ़ है वह आषाढ़ पूर्णिमा से पचास दिन के भीतर किसी पर्व तिथि अर्थात् पूर्णिमा और अपवादकाल भाद्र शुक्ल पञ्चमी माना जा सकता है। पञ्चमी, दशमी, पूर्णिमा, अमावस्या आदि में मनाने का है। निर्दोष
स्थान आदि की प्राप्ति न हो तो भी आषाढ़ पूर्णिमा से एक मास समन्वय कैसे करें?
और बीस दिन बीत जाने पर तो अवश्य ही मनाना होता है। इस उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि आषाढ़ पूर्णिमा पर्युषण (संवत्सरी) दृष्टि से देखें तो आषाढ़ पूर्णिमा से पचासवाँ दिन एक निश्चित दिन पर्व की अपर सीमा है और भाद्र शुक्ल पञ्चमी अपर सीमा है। इस है, इस दिन पर्युषण निश्चित रूप से करना ही होता है। इस दिन प्रकार पर्युषण इन दोनों तिथियों के मध्य कभी भी पर्व तिथि में किया का उल्लङ्घन करने पर प्रायश्चित्त आता है, अर्थात् अन्य सभी विकल्प जा सकता है। श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों परम्पराओं के अनुसार आषाढ़ __ के दिनों को पार कर लेने के बाद पचासवाँ दिन निर्विकल्पक दिन पूर्णिमा को केशलोच, उपवास एवं सांवत्सरिक प्रतिक्रमण कर वर्षावास है, अत: इस दिन का सबसे अधिक महत्त्व है। यह सीमा का वह की स्थापना कर लेनी चाहिये, यह उत्सर्ग मार्ग है। यह भी स्पष्ट है अन्तिम पत्थर है जिसका उल्लङ्घन नहीं किया जा सकता। आचार्यों कि बिना किसी विशेष कारण के अपवाद मार्ग का सेवन करना भी ने इसी दिन को सांवत्सरिक प्रतिक्रमण का दिन स्वीकार कर दूरदर्शिता उचित नहीं है। प्राचीन युग में जब उपाश्रय नहीं थे तथा साधु साध्वियों का परिचय दिया है, साथ ही समस्त श्रमण संघ को एकसूत्र में बाँधे के निमित्त बने उपाश्रयों में नहीं ठहरते थे, तब योग्य स्थान की प्राप्ति रखने का भी एक सुन्दर मार्ग दिखाया है। बीच के दिन तो अपनी-अपनी के अभाव में पर्युषण (वर्षावास की स्थापना) कर लेना सम्भव नहीं सुविधा के दिन हो सकते हैं, जिस दिन जहाँ पर जिसको स्थान आदि था। पुनः साधु-साध्वियों की संख्या अधिक होने से आवास प्राप्ति की सुविधा मिले वह उसी पर्व तिथि (पञ्चमी-दशमी-पूर्णिमा आदि) सम्बन्धी कठिनाई बराबर बनी रहती थी। अत: अपवाद के सेवन की को पर्युषण कर ले तो इससे सङ्घ में बहुरूपता आ जाती है, विभिन्नता सम्भावना अधिक बनी रहती थी। स्वयं भगवान् महावीर को भी स्थान आती है, फिर मुण्डे-मुण्डे मतिर्भिन्ना वाली स्थिति आ सकती है, इसलिए सम्बन्धी समस्या के कारण वर्षाकाल में विहार करना पड़ा था। भाद्रपद शुक्ल पञ्चमी अर्थात् आषाढ़ पूर्णिमा से पचासवें दिन पर्युषण निशीथचूर्णि की रचना तक अर्थात् सातवीं-आठवीं शताब्दी तक करने अर्थात् सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करने का निश्चित विधान है, जो साधु-साध्वी स्थान की उपलब्धि होने पर अपनी एवं स्थानीय संघ की सङ्घ की एकता और श्रमण सङ्घ की अनुशासनबद्धता के लिए भी सुविधा के अनुरूप आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा से भाद्र शुक्ल पञ्चमी तक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है"।१६ कभी भी पर्युषण कर लेते थे। यद्यपि उस युग तक चैत्यवासी साधुओं यदि सम्पूर्ण जैन समाज की एकता की दृष्टि से विचार करें तो ने महोत्सव के रूप में पर्व मनाना तथा गृहस्थों के समक्ष कल्पसूत्र आज साधु-साध्वी वर्ग को स्थान उपलब्ध होने में सामान्यतया कोई का वाचन करना एवं सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करना आदि आरम्भ कर कठिनाई नहीं होती है। आज सभी परम्परा के साधु-साध्वी आषाढ़ दिया था, किन्तु तब भी कुछ कठोर आचारवान साधु थे, जो इसे पूर्णिमा को वर्षावास की स्थापना कर लेते हैं और जब अपवाद का आगमानुकूल नहीं मानते थे। उन्हीं को लक्ष्य में रखकर चूर्णिकार ने कोई कारण नहीं है तो फिर अपवाद का सेवन क्यों किया जाये? कहा था- यद्यपि साधु को गृहस्थों के सम्मुख पर्युषण कल्प का वाचन दूसरे भाद्रपद शुक्ल पक्ष में पर्युषण / संवत्सरी करने से जो अपकाय नहीं करना चाहिए, किन्तु यदि पासत्था (चैत्यवासी-शिथिलाचारी और त्रस की विराधना से बचने के लिए संवत्सरी के पूर्व केशलोच साधु) पढ़ता है तो सुनने में कोई दोष नहीं है। लगता है कि आठवीं का विधान था उसका कोई मूल उद्देश्य हल नहीं होता है। वर्षा में शताब्दी के पश्चात् कभी संघ की एकरूपता को लक्ष्य में रखकर किसी बालों के भीगने से अपकाय की विराधना और त्रस जीवों के उत्पत्ति प्रभावशाली आचार्य ने अपवादकाल की अन्तिम तिथि भाद्र शुक्ल की सम्भावना रहती है। अत: उत्सर्ग मार्ग के रूप आषाढ़ पूर्णिमा चतुर्थी/पञ्चमी को पर्युषण (संवत्सरी) मनाने का आदेश दिया हो। को संवत्सरी/पर्युषण करना ही उपयुक्त है, इसमें आगम से कोई विरोध युवाचार्य मिश्रीमलजी म० ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया है। वे भी नहीं है और समग्र जैन समाज की एकता भी बन सकती है। साथ लिखते हैं कि “सामान्यत: संवत्सर का अर्थ है- वर्ष। वर्ष के अन्तिम ही दो श्रावण या दो भाद्रपद का विवाद भी स्वाभाविक रूप से हल दिन किया जाने वाला कृत्य सांवत्सरिक कहलाता है। वैसे जैन परम्परा हो जाता है। के अनुसार आषाढ़ पूर्णिमा को संवत्सर समाप्त होता है, और श्रावण यदि अपवाद मार्ग को ही स्वीकार करना है तो फिर अपवाद मार्ग प्रतिपदा (श्रावण बदी १) को नया संवत्सर प्रारम्भ होता है। इसलिए के अन्तिम दिन भाद्र शुक्ल पञ्चमी को स्वीकार किया जा सकता है। इस
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ दिन को स्थानकवासी और तेरापंथी समाज तो मानता ही है, मूर्तिपूजक शिथिलाचार प्रविष्ट हो गया हो, अत: जनसाधारण के समक्ष मुनि आचार समाज को भी इसमें आगमिक दृष्टि से कोई बाधा नहीं आती है, क्योकि का विवेचन करना उचित नहीं समझा जाता हो। इस निषेध का एक कालकाचार्य की भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी की व्यवस्था अपवादिक व्यवस्था तात्पर्य यह भी हो सकता है कि पर्युषण-कल्प की आवृत्ति के साथ थी और एक नगर विशेष की परिस्थिति विशेष पर आधारित थी। सांवत्सरिक प्रतिक्रमण के अवसर पर साधुओं को उनके विगत वर्ष आज चूँकि उसका कोई कारण नहीं, पुनः स्वयं निशीथचूर्णि के अनुसार के अतिचारों या दोषों का प्रायश्चित भी दिया जाता रहा हो। अन्य तैर्थिकों चतुर्थी अपर्व तिथि है; अत: आषाढ़ पूर्णिमा और भाद्र शुक्ल पञ्चमी या गृहस्थों के उपस्थित रहने पर प्रथम तो साधु अपने अपराधों या में से किसी एक दिन को पर्व का मूल दिन चुन लिया जाये। शेष दोषों को स्वीकार ही नहीं करेंगे, साथ ही सबके समक्ष दण्ड दिये जाने दिन उसके आगे हो या पीछे, यह अधिक महत्त्व नहीं रखता है- पर उनकी बदनामी होगी। अत: सांवत्सरिक प्रतिक्रमण और पर्युषण-कल्प सुविधा की दृष्टि से उन पर एक आम सहमति बनाई जा सकती है। का जनता के समक्ष वाचन पहले निषिद्ध था। किन्तु कालान्तर में उस
समाचारी (आचार सम्बन्धी भाग) को गौण करके तथा उसमें कथा पर्युषण में पठनीय आगम ग्रन्थ
भाग, इतिहास को जोड़कर गृहस्थों के समक्ष उसके पठन की परम्परा ___ वर्तमान में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में पर्युषण में कल्पसूत्र प्रचलित हो गई, जो कि आज १५०० वर्षों से निरन्तर प्रचलित है। वाचन की परम्परा है। पहले पर्युषण (संवत्सरी) के दिन साधुगण रात्रि श्वेताम्बर समाज की स्थानकवासी और तेरापंथी परम्पराओं में के प्रथम प्रहर में दशाश्रुतस्कन्ध (आयारदशा) के आठवें अध्ययन पर्युषण कल्पसूत्र के स्थान पर अन्तकृत्दशाङ्गसूत्र के वाचन की प्रथा है। इसका कल्प का पारायण करते थे, जिसे पाश्चात्य विद्वानों ने वर्तमान कल्पसूत्र प्रारम्भ स्थानकवासी परम्परा के उद्भव के साथ ही हुआ है। अत: का प्राचीनतम अंश बताया है। कालान्तर में इस अध्याय को उससे यह प्रथा ४०० वर्ष से अधिक पुरानी नहीं है। यद्यपि मूल कल्पसूत्र अलग कर तथा उसके साथ महावीर, पार्श्वनाथ, अरिष्टनेमि और ऋषभ में ऐसा कुछ नहीं है जो स्थानकवासी परम्परा के प्रतिकूल हो, फिर के जीवनवृत्तों एवं अन्य तीर्थङ्करों के सामान्य उल्लेखों तथा स्थविरावली भी इस नवीन प्रथा का प्रारम्भ क्यों हुआ यह विचारणीय है। प्रथम (महावीर से परवर्ती आचार्य परम्परा) को जोड़कर कल्पसूत्र नामक स्वतन्त्र कारण तो यह हो सकता है कि श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा से अपनी ग्रन्थ की रचना की गई, जो कि लगभग पन्द्रह सौ वर्षों से पर्युषण भिन्नता रखने के लिए इसका वाचन प्रारम्भ किया गया हो। दूसरे इसे पर्व में पढ़ा जाता है। पर्युषण के अवसर पर जनसाधारण के समक्ष इसलिए चुना गया हो कि पर्युषण के आठ दिन माने गये थे और कल्पसूत्र पढ़ने की परम्परा का प्रारम्भ वीर निर्वाण के ९८० या ९९३ यह अष्टम अङ्ग था तथा इसमें आठ ही वर्ग थे। तीसरे यह कि कल्पसूत्र वर्ष के बाद आनन्दपुर नगर में ध्रुवसेन राजा के समय हुआ था। की अपेक्षा भी इसमें तप-त्याग की विस्तृत चर्चा थी, जो आडम्बर जनसाधारण के समक्ष पढ़ने के उद्देश्य से ही इसमें तीर्थङ्करों के जीवन रहित तप-त्यागमय आचार प्रधान स्थानकवासी परम्परा के लिए अधिक चरित्रों का समावेश किया गया था क्योकि उस समय तक हिन्दुओं अनुकूल थी। चौथे कल्पसूत्र का जिन टीकाओं के साथ वाचन हो और बौद्धों में भी अपने उपास्य देवों के जीवन चरित्रों को जनसाधारण रहा था, उनमें मूर्तिपूजा आदि सम्बन्धी ऐसे प्रसङ्ग थे जिनका वाचन के समक्ष पढ़ने की प्रथा प्रारम्भ हो चुकी थी और जैन आचार्यों के करना उनके लिए सम्भव नहीं था। अत: उन्हें एक नये आगम का लिए भी यह आवश्यक हो गया था कि वे भी अपने उपास्य तीर्थङ्करों चुनाव ही अधिक उपयुक्त लगा हो। अन्तकृतदशाङ्गसूत्र में प्रथम पाँच का जीवनवृत्त अपने अनुयायियों को बतायें। ध्रुवसेन के पुत्रशोक को वर्गों में भगवान् अरिष्टनेमि के काल के ४१ त्यागी पुरुषों एवं १० दूर करने का कथानक इस परम्परा के प्रारम्भ होने का एक निमित्त महिलाओं का जीवनवृत्त है। शेष तीन वर्गों में महावीरकालीन १६ माना जा सकता है, किन्तु उसका मूल कारण तो उपर्युक्त तत्कालीन त्यागी पुरुषों एवं २३ महिलाओं का जीवनवृत्त है, जिन्होंने साधना परिस्थिति ही थी। यद्यपि इसके पूर्व भी 'पर्युषण-कल्प' की आवृत्ति के उत्तुङ्ग शिखरों पर चढ़कर तथा देहभाव से ऊपर उठकर कठोर पर्युषण (संवत्सरी) के दिन मुनि वर्ग सामूहिक रूप से करता था, तथापि तपश्चर्याएँ की और अपने अन्तिम समय में कैवल्य को प्राप्त कर मोक्षरूपी निशीथ के अनुसार उसका गृहस्थों के सामने वाचन निषिद्ध था। निशीथ लक्ष्मी का वरण किया। सूत्र में मुनियों को गृहस्थों एवं अन्य तैर्थिकों के साथ पर्युषण करने दिगम्बर परम्परा में इन दशलक्षणपर्व के दिनों में तत्त्वार्थसूत्र के का चातुर्मासिक प्रायश्चित (अर्थात् १२० दिन के उपवास का दण्ड) दस अध्यायों के वाचन की परम्परा रही है, जो दिन की संख्या के बताया गया है-जे भिक्खू अण्णउत्थिएणवा गारथिएणवा पज्जोसवेइ साथ सङ्गतिपूर्ण है। तत्त्वार्थसूत्र जैन तत्त्वज्ञान का साररूप ग्रन्थ होने पज्जोसवंतं वा साइज्जइ- निशीथ (१०/४७)। सम्भवत: यह निषेध से पर्व के दिन में इसका वाचन उपयुक्त ही है। इसी प्रकार दस धर्मो इसलिए किया गया था कि पर्युषण-कल्प का वाचन गृहस्थों एवं अन्य पर प्रवचन भी नैतिक चेतना के जागरण की दृष्टि से उचित है। तैर्थिकों के समक्ष करने पर उन्हें मुनि के वर्षावास सम्बन्धी आचार यद्यपि विभिन्न परम्पराओं में पर्युषण में पठनीय ग्रन्थों में से किसी नियमों की जानकारी हो जायेगी और किसी को उसके विपरीत आचरण का भी महत्त्व कम नहीं है, किन्तु जैन सङ्घ की एकात्मकता की दृष्टि करते देखकर वे उसकी आलोचना करेंगे, इससे सङ्घ की बदनामी होगी। से किसी समणसुत्तं जैसे सर्वमान्य ग्रन्थ के वाचन की परम्परा भी प्रारम्भ यह भी सम्भव है निशीथ की रचना के समय तक मुनि जीवन में की जा सकती है।
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पर्युषण पर्व : एक विवेचन
५१५ पर्युषण (संवत्सरी) के आवश्यक कर्तव्य
श्रमण, श्रमणी, श्रावक एवं श्राविका सभी के लिए यह आवश्यक है। १. तप/संयम
निशीथ के अनुसार पर्युषण के दिन कणमात्र भी आहार करना ३. कषायों का उपशमन/क्षमायाचना वर्जित था।१७ निशीथभाष्य में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि जो जैन साधना निर्ग्रन्थ भाव की साधना है, जीवन से काम-क्रोध साध पक्खी को उपवास, चौमासी को बेला और पज्जोसवण (संवत्सरी) की गाँठों का विसर्जन है, राग-द्वेष से ऊपर उठना है। चाहे श्रावकत्व को तेला नहीं करता है, उसे क्रमश: मासगुरु, चतुर्लघु और चतुर्गुरु हो या श्रमणत्व इसी बात पर निर्भर करता है कि व्यक्ति की क्रोध, का प्रायश्चित्त आता है। यद्यपि चूर्णि में यह मान लिया गया है कि अहङ्कार, कपट और लोभ की वृत्तियाँ शिथिल हों। मन तृष्णा एवं किसी परिस्थति विशेष के कारण पर्युषण में आहार करता हुआ भी आसक्ति के तनावों से मुक्त हो। पर्युषण इन्हीं की साधना का पर्व शुद्ध है।८ साधु-साध्वी वर्ग के साथ ही श्रावक वर्ग में पर्युषण (संवत्सरी) है। कल्पसूत्र में कहा गया है- यदि क्लेश उत्पन्न हुआ हो तो साधु में उपवास करने की परम्परा थी। निशीथचूर्णि में चण्डप्रद्योत और क्षमायाचना कर ले। क्षमायाचना करना, क्षमा प्रदान करना, उपशम उदयन की कथा से यह बात सिद्ध होती है (निशीथचूर्णि, भाग-३, धारण करना और करवाना साधु का आवश्यक कर्तव्य है, क्योंकि पृ० १४७)। इस प्रकार पर्युषण पर्व में तप साधना एक आवश्यक जो उपशम (शान्ति) धारण करता है, वह (भगवान् की आज्ञा का) कर्तव्य है। तप का मूल उद्देश्य अपनी इन्द्रियों पर संयम रखना है आराधक होता है, जो ऐसा नहीं करता है, वह विराधक होता है, और पर्युषण संयम-साधना का पर्व है।
क्योंकि उपशमन ही श्रमण जीवन का सार है (उवसम सारं खु
सामण्णं)। १९ निशीथचूर्णि में कहा गया है कि यदि अन्य समय में २. सावंत्सरिक प्रतिक्रमण/वार्षिक प्रायश्चित
हुए क्लेश कटुता की उस समय क्षमायाचना न की गई हो तो पर्यषण पर्युषण का दूसरा महत्त्वपूर्ण कर्तव्य सांवत्सरिक प्रतिक्रमण। में अवश्य कर लेंवे।२० वार्षिक प्रायश्चित्त है। विगत वर्ष में हुए व्रतभंग, दोषसेवन, अनाचार इस प्रकार पर्युषण तप, संयम की साधना के साथ कषायों के या दुराचारों का अन्तर्निरीक्षण कर, उनकी आलोचना कर, उनके लिए उपशमन का पर्व है। क्षमायाचना एक ऐसा उपाय है, जो कटुता के प्रायश्चित्त ग्रहण करना यह पर्युषण का दूसरा आवश्यक कर्तव्य है। मल को धोकर हृदय को निर्मल बना देता है। आचेलकुद्देसिय सिज्जायर रायपिंड कितिकम्मे ।
..१०. निशीथचूर्णि, जिणदासगणि, प्रका०- सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, वत जेट्ठ पडिक्कमणे मासं पज्जोसवण कप्पे ।।
१९५७, ३२१७। - बृहत्कल्पभाष्य, संपा०- पुण्यविजयजी, प्रका०-आत्मानंद जैन ११. जीवाभिगम-नन्दीश्वर द्वीप वर्णन। सभा, भावनगर, वि०सं० १९९८,६३६४।।
१२. निशीथचूर्णि, संपा०- जिणदासगणि, प्रका०- सन्मति ज्ञानपीठ, मूलाचार, वट्टकेराचार्य, प्रका०- जैनमन्दिर शक्कर बाजार, इन्दौर आगरा, १९५७, ३१५३। की पत्रकार प्रति, समयसाराधिकार, १८।
१३. वही, ३१५३ (कथा विस्तारपूर्वक वर्णित है) भगवती आराधना, शिवकोट्याचार्य, प्रका०- सखाराम नेमिचन्द्र १४. वही। दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, शोलापुर, १९३५, ४२३।
१५. दशलाक्षणिक व्रते भाद्रपद मासे शुक्ले श्री पंचमीदिने प्रोषधः कार्यः। दशाश्रुतस्कन्ध (आयारदशा), संपा० - मुनि कन्हैयालाल, प्रका-अ. भा - व्रततिथिनिर्णय, आचार्य सिंहनन्दी, प्रका० भारतीय, ज्ञानपीठ, श्वे. स्था. जैनशास्त्रोद्धार समिति, राजकोट, १९६०, अध्याय ८। काशी, १९५०, पृ० २४। जे भिक्खु पज्जोसवणाए इत्तिरियं पि आहारं आहारेति अहारेते वा १६. पर्युषण पर्व प्रवचन, संपा०- श्रीचन्द सुराना, प्रका०- मुनि श्री सात्तिज्जति। -निशीथसूत्रम, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री हजारीमल स्मृति प्रकाशन, ब्यावर, १९७६, पृ०३७-३८।। आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, १९७८, १०/४५।
१७. जे भिक्खू पज्जोसवणाए इत्तिरियं पि आहारं आहारेति आहारेन्तं वा ६. जे भिक्खू अपज्जोसवणाए पज्जोसवइ पज्जोसवंतं वा साइज्जइ।
सातिज्जति। -निशीथसूत्रम, संपा० - मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन -निशीथसूत्रम्, संपा० मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति, स्थावर, १९७८, १०/४३।
समिति, ब्यावर, १९७८, १०/४५। जे भिक्खू वासावासं पज्जोसवियसि गामाणुगाम दुइज्जइ दुइज्जंत वा १८. पंज्जोसवणाए जइ अट्ठमं न करेइ तो चउगुरुं, कारणे हिं साइज्जइ-निशीथसूत्रम, संपा० - मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम पज्जोसवणाए आहारेंतो सुद्धो। प्रकाशन समिति, स्थावर, १९७८, १०/४१।
-निशीथचूर्णि, संपा०- जिनदासगणि, प्रका०- सन्मति ज्ञानपीठ, परि-सामस्त्येन उषणं-वसनं पर्युषणा- कल्पसूत्र, सुबोधिनी-टीका, आगरा, १९७५, ३२१७। विनयविजयोपाध्याय, प्रका० हीरालाल हंसराज, जामनगर, १९३९, १९. कल्पसूत्र, २८६। पृ० १७२।
२०. कसाय कडताए न खामितं तो-पज्जोसवणा सुअवस्सं विओसवेयव्वं। ९. निशीथसूत्रम्, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन -- निशीथचूर्णि, जिनदासगणी, प्रका०- सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, समिति, ब्यावर, १९७८, १०/४६।
१९५७, ३१७९।
८.
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दशलक्षण पर्व / दशलक्षण धर्म
जिस पर्व को श्वेताम्बर परम्परा में पर्युषण कहते हैं, उसे दिगम्बर परम्परा में दशलक्षण पर्व के नाम से जाना जाता है। दिगम्बर परम्परा में इस दशलक्षण पर्व का प्रारम्भ कब से हुआ, यह अभी शोध का विषय है, क्योंकि दिगम्बर परम्परा के प्राचीन ग्रन्थों में इस पर्व का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं हुआ है। जैसा कि हमने पर्युषण सम्बन्धी लेख (श्रमण, अगस्त १९८२) में सङ्केत किया था कि दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में इस पर्व का उल्लेख लगभग सतरहवीं शताब्दी के बाद से प्रारम्भ होता है। सतरहवीं शताब्दी के एक ग्रन्थ 'व्रत तिथि निर्णय' में इस पर्व का उल्लेख मिलता है। दिगम्बर परम्परा में यह पर्व दस दिनों में क्षमा आदि दस धर्मों की साधना के द्वारा मनाया जाता है। क्षमा आदि जिन दस धर्मों या सद्गुणों का पालन इस पर्व में किया जाता है, उनके उल्लेख काफी प्राचीन हैं जैन परम्परा और वैदिक परम्परा दोनों में ही इन दस धर्मों का उल्लेख मिलता है दशलक्षण पर्व के दस दिन में प्रत्येक दिन क्रमशः एक-एक धर्म की विशेष रूप से साधना की जाती है। इस प्रकार दशलक्षण पर्व सद्गुणों / धर्म की साधना का पर्व है।
दशविध धर्म (सद्गुण)
जैन आचार्यों ने दस प्रकार के धर्मों (सद्गुणों) का वर्णन किया है, जो कि गृहस्थ और भ्रमण दोनों के लिए समान रूप से आचरणीय हैं। आचारांगसूत्र, मूलाचार, बारस्सअणुवेक्खा, स्थानांगसूत्र, समवायांगसूत्र और तत्त्वार्थसूत्र के साथ-साथ परवर्ती अनेक ग्रन्थों में भी इन धर्मों का वर्णन विस्तार से उपलब्ध होता है।
यहाँ 'धर्म' शब्द का अर्थ सद्गुण या नैतिक गुण ही अभिप्रेत है। सर्वप्रथम हमें आचरांगसूत्र में आठ सामान्य धर्मों का उल्लेख उपलब्ध होता है। उसमें कहा गया हैं कि जो धर्म में उत्थित अर्थात् तत्पर हैं उनको और जो धर्म में उत्थित नहीं हैं उनको भी निम्न बातों का उपदेश देना चाहिए - शांति, विरति (विरक्ति), उपशम, निवृत्ति, शौच (पवित्रता), आर्जव, मार्दव और लाघव । ' इस प्रकार उसमें इनकी साधना गृहस्थ और श्रमण दोनों के लिए अपेक्षित हैं। स्थानांगसूत्र और समवायांगसूत्र' में दस श्रमण-धर्मों के रूप में इन्हीं सद्गुणों का उल्लेख हुआ है। यद्यपि स्थानांगसूत्र और समवायांगसूत्र की सूची आचारांगसूत्र से थोड़ी भिन्न है उसमें दस धर्म हैं—क्षांति (क्षमा), मुक्ति, आर्जव, मार्दव, लाघव, सत्य, संयम, तप, त्याग और ब्रह्मचर्यवास। इस सूची में शौच का अभाव है शान्ति, विरति उपशम और निवृत्ति के स्थान पर नामान्तर से शांति, मुक्ति, संयम और त्याग का उल्लेख हुआ है। जबकि सत्य, त्याग और ब्रह्मचर्यवास इस सूची में नये हैं । बारसअणुवेक्खा एवं तत्त्वार्थसूत्र में भी श्रमणाचार के प्रसंग में ही दस धर्मों का उल्लेख हुआ है। तत्त्वार्थसूत्र की सूची में लाघव के स्थान पर आकिंचन्य का उल्लेख हुआ है; यद्यपि दोनों का अर्थ समान ही
है। दूसरे तत्त्वार्थसूत्र में मुक्ति के स्थान पर शौच का उल्लेख हुआ है। इन दोनों में अर्थ भेद भी है चाहे इन धर्मों (सद्गुणों) का उल्लेख श्रमणाचार के प्रसंग में ही अधिक हुआ है, किन्तु आचारांगसूत्र (१/ ६/५) और पद्मनन्दीकृत पंचविंशतिका (६/५९) के अनुसार इनका पालन गृहस्थ और श्रमण दोनों के लिए अपेक्षित है। इनके क्रम और नामों को लेकर जैन आचार ग्रन्थों में थोड़ा-बहुत मतभेद पाया जाता है। फिर भी इनकी मूलभावना में कोई विशेष अन्तर नहीं है। प्रस्तुत विवेचन तत्त्वार्थसूत्र के आधार पर कर रहे हैं तत्त्वार्थसूत्र में निम्न दस धर्मों का उल्लेख हैं' (१) क्षमा, (२) मार्दव, (३) आर्जव, (४) शौच, (५) सत्य, (६) संयम, (७) तप, (८) त्याग, (९) अकिंचनता और (१०) ब्रह्मचर्य।
१. क्षमा
५
क्षमा प्रथम धर्म है दशवेकालिकसूत्र के अनुसार क्रोध प्रीति का विनाशक है। " क्रोध कषाय के उपशमन के लिए क्षमा-धर्म का विधान है क्षमा के द्वारा ही क्रोध पर विजय प्राप्त की जा सकती है। जैन परम्परा में अपराधी को क्षमा करना और स्वयं के अपराधों के लिए, जिसके प्रति अपराध किया गया है, उससे क्षमा-याचना करना साधक का परम कर्तव्य है। जैन साधक का प्रतिदिन यह उदघोष होता है कि मैं सभी प्राणियों को क्षमा करता हूँ और सभी प्राणी मेरे अपराधों के लिए मुझे क्षमा करें। सभी प्राणियों से मेरी मित्रता है, किसी से मेरा वैर नहीं है। महावीर का भ्रमण साधकों के लिए यह आदेश था कि साधुओं! यदि तुम्हारे द्वारा किसी का अपराध हो गया है, तो सबसे पहले क्षमा माँगो । जब तक क्षमा-याचना न कर लो भोजन मत करो, स्वाध्याय मत करो, शौचादि कर्म भी मत करो, यहाँ तक कि अपने मुँह का थूक भी गले से नीचे मत उतारो। अपने प्रधान शिष्य गौतम की लाये हुए आहार को रखवा कर पहले आनन्द श्रावक
क्षमा-याचना के लिए भेजना इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि महावीर की दृष्टि में क्षमा-धर्म का कितना अधिक महत्त्व था । " जैन परम्परा के अनुसार प्रत्येक साधक को प्रातः काल एवं सायंकाल, पक्षान्त में, चातुर्मास के अन्त में और संवत्सरी पर्व पर सभी प्राणियों से क्षमायाचना करनी होती है। जैन समाज का वार्षिक पर्व 'क्षमावाणी' के नाम से भी प्रसिद्ध है। जैन आचार-दर्शन की मान्यता है कि यदि श्रमण साधक पक्षान्त तक अपने क्रोध को शान्त कर क्षमा-याचना नहीं कर लेता है तो उसका श्रमणत्व समाप्त हो जाता है। इसी प्रकार गृहस्थ उपासक यदि चार महीने से अधिक अपने हृदय में क्रोध के भाव बनाये रखता है और जिसके प्रति अपराध किया है, उससे क्षमायाचना नहीं करता तो वह गृहस्थ धर्म का अधिकारी नहीं रह पाता है। इतना ही नहीं, जो व्यक्ति एक वर्ष से अधिक तक अपने क्रोध की तीव्रता को बनाये रखता है और क्षमा-याचना नहीं करता वह सम्यक्
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दशलक्षण पर्व / दशलक्षण धर्म
श्रद्धा का अधिकारी भी नहीं होता है और इस प्रकार जैनत्व से भी च्युत हो जाता है।
बौद्ध परम्परा में क्षमा- बौद्ध परम्परा में भी क्षमा का महत्त्व निर्विवाद रूप से मान्य है। कहा गया है कि आर्य विनय के अनुसार इससे उन्नति होती है जो अपने अपराध को स्वीकार करता है और भविष्य में संयत रहता है।" संयुत्तनिकाय में कहा गया है कि क्षमा से बढ़कर अन्य कुछ नहीं है। क्षमा ही परम तप है । ११ आचार्य शान्तिरक्षित ने क्षान्ति पारमिता (क्षमा-धर्म) का सविस्तार सजीव विवेचन किया है, वे लिखते हैं-द्वेष के समान पाप नहीं है और क्षमा के समान तप नहीं है, इसलिए विविध प्रकार के यत्नों से क्षमाभावना करनी चाहिए।" २
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वैदिक परम्परा में क्षमा- वैदिक परम्परा में भी क्षमा का महत्त्व माना गया है। मनु ने दस धर्मों में क्षमा को धर्म माना है। गीता में क्षमा को दैवी सम्पदा एवं भगवान् की ही एक वृत्ति कहा गया है"। महाभारत के उद्योग पर्व में क्षमा के सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन है। उसमें कहा गया है कि क्षमा असमर्थ मनुष्यों का गुण है, तथा समर्थ मनुष्यों का भूषण है। हे राजन् ! ये दो प्रकार के पुरुष स्वर्ग के भी ऊपर स्थान पाते हैं- (१) शक्तिशाली होने पर भी क्षमा करने वाला और (२) निर्धन होने पर भी दान देने वाला। क्षमा, द्वेष को दूर करती है, इसलिए वह एक महत्वपूर्ण सद्गुण है।
२. मार्दव
मार्दव का अर्थ विनीतता या कोमलता है। मान कषाय या अहंकार को उपशान्त करने के लिए मार्दव (विनय) धर्म के पालन का निर्देश है। विनय अहंकार का प्रतियोगी है व उससे अहंकार पर विजय प्राप्त की जाती है।" उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है कि धर्म का मूल विनय है।" उत्तराध्ययनसूत्र एवं दशवैकालिकसूत्र में विनय का विस्तृत विवेचन है। जैन परम्परा में अविनय का कारण अभिमान कहा गया है। अभिमान आठ प्रकार के हैं- (१) जातिमद -- जाति का अहंकार करना, जैसे मैं ब्राह्मण हूँ, मैं क्षत्रिय हैं जाति के अहंकार के कारण उच्च जाति में निम्न जाति के लोगों के प्रति घृणा की वृत्ति उत्पन्न होती है और परिणामस्वरूप सामाजिक जीवन में एक प्रकार की दुर्भावना और विषमता उत्पन्न होती है। (२) कुलमद - परिवार की कुलीनता का अहंकार करना । कुलमद व्यक्ति को दो तरह से नीचे गिराता है। एक तो यह कि जब व्यक्ति में कुल का अभिमान जागृत होता है तो वह दूसरों को अपने से निम्न समझने लगता है और इस प्रकार सामाजिक जीवन में असमानता की वृत्ति को जन्म देता है। दूसरे कुल के अहंकार के कारण वह कठिन परिस्थितियों में भी श्रम करने से जी चुराता है, जैसे कि मैं राजकुल का है; अतः अमुक निम्र श्रेणी का व्यवसाय या कार्य कैसे करूँ ? इस प्रकार झूठी प्रतिष्ठा के व्यामोह में अपने कर्तव्य से विमुख होता है व समाज पर भार बनकर रहता है। (३) बलमद - शारीरिक शक्ति का अहंकार करना शक्ति का अहं व्यक्ति में भावावेश उत्पन्न करता है, और परिणामस्वरूप व्यक्ति का अभाव हो जाता है। राष्ट्रों
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में जब यह शक्तिमद तीव्र होता है तो वे दूसरे राष्ट्रों पर आक्रमण के लिए बड़े ही आतुर हो जाते हैं और छोटी सी बात के लिए भी आक्रमण कर देते हैं। (४) तपमद - तपस्या का अहंकार करना । व्यक्ति में जब तप का अहंकार जागृत होता है तो वह साधना से गिर जाता है। जैन कथा - साहित्य में कुरुगुडुक केवली की कथा इस बात को बड़े ही सुन्दर रूप में चित्रित करती है कि तप का अहंकार करने वाले साधना के क्षेत्र में कितने पीछे रह जाते हैं। (५) रूपमद शारीरिक सौन्दर्य का अहंकार करना। रूपमद व्यक्ति में अहंकार की वृत्ति जागृत कर दूसरे को अपने से निम्न समझने की भावना उत्पन्न करता है और इस प्रकार एक प्रकार की असमानता का बीज बोता है । पाश्चात्य राष्ट्रों में श्वेत और काली जातियों के बीच चलने वाले संघर्ष के मूल में रूप और जाति की अभिमान ही प्रमुख है। (६) ज्ञानमद-बुद्धि अथवा विद्या का अहंकार करना ज्ञान का अहंकार जब व्यक्ति में आता है तो वह दूसरे लोगों को अपने से छोटा मानने लगता है। इस प्रकार एक ओर वह दूसरों के अनुभवों से लाभ उठाने से वंचित रहता है तो दूसरी ओर बुद्धि का अभिमान स्वयं उसके ज्ञान उपलब्धि के प्रयत्नों में बाधक बनता है। इस प्रकार उसके ज्ञान का विकास कुण्ठित हो जाता है। (७) ऐश्वर्यमद - धन-सम्पदा और प्रतिष्ठा का अहंकार करना। यह भी समाज में वर्ग-विद्वेष का कारण और व्यक्ति के अन्दर एक प्रकार की असमानता की वृत्ति को जन्म देता है। (८) सत्तामद-पद, अधिकार आदि का घमण्ड करना, जैसे— गृहस्थ वर्ग में राजा, सेनापति, मंत्री आदि के पद, श्रमण संस्था में आचार्य, उपाध्याय, गणि आदि के पद जैन परम्परा के अनुसार जब तक अहंभाव का विगलन होकर विनम्रता नहीं आती तब तक व्यक्ति नैतिक विकास की दशा में आगे नहीं बढ़ सकता उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है कि विनय के स्वरूप को जानकर नम्र बनाने वाले बुद्धिमान की लोक में प्रशंसा होती है, जिस प्रकार प्राणियों के लिए पृथ्वी आधारभूत है, उसी प्रकार वह भी सद्गुणों का आधार होता है । १७
बौद्ध परम्परा में अहंकार की निन्दा-बौद्ध परम्परा में अहंकार को साधना की दृष्टि से अनुचित माना गया है। अंगुत्तरनिकाय में तीन मदों का विवेचन उपलब्ध है। भिक्षुओं ! यौवनमद में, आरोग्यमद में, जीवनमद में मत अज्ञानी सामान्यजन शरीर से दुष्कर्म करता है, वाणी से दुष्कर्म करता है तथा मन से दुष्कर्म करता है। वह शरीर, वाणी तथा मन से दुष्कर्म करके शरीर के छूटने पर, मरने के अनन्तर अपाय, दुर्गति, पतन, एवं नरक को प्राप्त होता है। भिक्षुओं! आरोग्य-मद
भिक्षु शिक्षा का त्याग कर पतनोन्मुख होता है। भिक्षुओं! जीवनमद से मत्त भिक्षु शिक्षा का त्यागकर पतनोन्मुख होता है । " सुत्तनिपात में कहा है कि जो मनुष्य जाति, धन और गोत्र का गर्व करता है, वह उसकी अवनति का कारण है। १९ इस प्रकार बौद्ध धर्म में १. यौवन, २. आरोग्य. ३. जीवन, ४ जाति ५ धन और ६ गोत्र इन छह मदों से बचने का निर्देश है।
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गीता में अहंकारवृत्ति की निन्दा - गीता के अनुसार अहंकार को पतन का कारण माना गया है। जो यह अहंकार करता है कि मैं
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ अधिपति हूँ, मैं ऐश्वर्य का भोग करने वाला हूँ, मैं सिद्ध, बलवान् भावों को अज्ञान कहा है। और सुखी हूँ, मैं बड़ा धनवान् और कुशलवान् हूँ, मेरे समान दूसरा कौन है-वह अज्ञान से विमोहित है।२० जो धन और सम्मान के मद ४. शौच (पवित्रता) से युक्त है वह भगवान् की पूजा का ढोंग करता है।२१ महाभारत में शौच पवित्रता का सूचक है। सामान्यता शौच का अर्थ दैहिक कहा है कि जब व्यक्ति पर रूप और धन का मद सवार हो जाता पवित्रता से लगाया जाता है। किन्तु जैन परम्परा में शौच शब्द का है तो वह ऐसा मानने लगता है कि मैं बड़ा कुलीन हूँ, सिद्ध हूँ, प्रयोग मानसिक पवित्रता के अर्थ में ही हुआ है। समवायांगसूत्र और साधारण मनुष्य नहीं हूँ। रूप, धन और कुल इन तीनों के अभिमान स्थानांगसूत्र की सूची में शौच स्थान पर 'लाघव' उल्लेख मिलता है। के कारण चित्त में प्रमाद भर जाता है, वह भोगों में आसक्त होकर वस्तुत: साधन के लिए मानसिक कालुष्य या वासनारूपी मल की शुद्धि बाप-दादों द्वारा संचित सम्पत्ति खो बैठता है। २२
आवश्यक है। विषय-वासनाओं या कषायों की गन्दगी हमारे चित्त को इस प्रकार जैन, बौद्ध और हिन्दू आचार दर्शन अभिमान का कलुषित करती है। अत: उसकी शुद्धि ही शौच धर्म है। पं० सुखलालजी त्याग करना और विनम्रता को अंगीकार करना आवश्यक मानते हैं। ने शौच का अर्थ निर्लोभता किया है३२, किन्तु यह उचित नहीं लगता जिस प्रकार नदी के मध्य रही हुई घास भयंकर प्रवाह में अपना अस्तित्व है, क्योंकि फिर इसका आकिञ्चन्य से भेद करना कठिन होगा। जैन बनाये रखती है, जबकि बड़े-बड़े वृक्ष संघर्ष में धराशायी हो जाते हैं, परम्परा के अनुसार शौच का अर्थ मानसिक शुद्धि करना ही अधिक उसी प्रकार जीवन-संघर्ष में विनीत व्यक्ति ही निरापद रूप से पार होते हैं। युक्तिसंगत है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि अकलुष मनोभावों
से युक्त धर्मरूपी सरोवर में स्नान कर मन विमल एवं विशुद्ध बन ३. आर्जव
जाता है। निष्कपटता या सरलता आर्जव गुण है। इसके द्वारा माया (कपट- गीता का दृष्टिकोण-गीता में शौच की गणना दैवी-सम्पदा, वृत्ति) कषाय पर विजय प्राप्त की जाती है। कुटिलवृत्ति (कपट) सद्भाव ब्रह्मचर्य एवं तप में की गई है। आचार्य शंकर ने अपने गीताभाष्य की विनाशक है, वह सामाजिक और वैयक्तिक दोनों जीवनों के लिए में शौच का अर्थ प्रतिपक्ष भावना के द्वारा अन्त:करण के रागादि मलों हानिकर है । व्यक्ति की दृष्टि से कपटवृत्ति एक प्रकार की आत्म- को दूर करना, भी किया है, जो कि जैन परम्परा के शौच के अर्थ प्रवंचना है, स्वयं अपने आप को धोखा देने की प्रवृत्ति है। जबकि के निकट है।३५ सामाजिक दृष्टि से कपटवृत्ति व्यवहार में शंका को जन्म देती है और पारस्परिक सद्भाव का नाश करती है। २३ यही शंका और कुशंका, ५. सत्य भय और असद्भाव, सामाजिक जीवन में विवाद और संघर्ष के प्रमुख सत्य धर्म से तात्पर्य है- सत्यता को अपनाना। असत्य भाषण कारण बनते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार आर्जव गुण के द्वारा ही से किस प्रकार विरत होना, सत्य किस प्रकार बोलना, यह विवेचन व्यक्ति विश्वासपात्र बनता है। जिसमें आर्जव गुण का अभाव है वह व्रत-प्रकरण में किया गया है। धर्म के प्रसंग में 'सत्य' का कथन यह सामाजिक जीवन में विश्वासपात्र नहीं बन पाता। किसी भी प्रकार का व्यक्त करता है कि साधक को अपने व्रतों एवं मर्यादाओं की प्रतिज्ञा दंभ (ढोंग) चाहे वह साधन से सम्बन्धित हो या जीव के अन्य व्यवहार के प्रति निष्ठावान् रहकर उनका उसी रूप में पालन करना सत्य धर्म से, अनुचित है। दशवकालिकसूत्र के अनुसार जो तपस्वी न होकर है। इस प्रकार यहाँ यह कर्तव्यनिष्ठा को व्यक्त करता है, जैसे हरिश्चन्द्र तपस्वी होने का ढोंग करता है वह तप-चोर है, जो पंडित न होने के प्रसंग में कर्तव्यनिष्ठा को ही सत्य धर्म के रूप में माना गया है। पर भी वाक्पटुता के द्वारा पाण्डित्य का प्रदर्शन करता है वह वचन- साधक का अपने प्रति सत्य (ईमानदार) होना ही सत्य धर्म का पालन चोर है, जो व्यक्ति इस प्रकार के ढोंग करता है, वह निम्न योनियों है। आचरण के सभी क्षेत्रों में पवित्रता ही सत्य धर्म है। कहा भी गया को प्राप्त करता है और संसार में भटकता रहता है, उसे यथार्थ ज्ञान है कि मन, वचन और काय की एकरूपता सत्य है अर्थात् जैसा विचार की उपलब्धि नहीं होती।२५ इसलिए कहा गया है कि बुद्धिमान् व्यक्ति वैसी ही वाणी और आचरण रखें, यही सत्यता है। वास्तव में यही कपट के इन दोषों को जानकर निष्कपट आचरण करे।२६ नैतिक जीवन की पहचान भी है।
बौद्ध दृष्टिकोण-बुद्ध ने ऋजुता को कुशल धर्म कहा है। उनकी महावीर कहते हैं कि जो निष्ठापूर्वक सत्य की आज्ञा का पालन दृष्टि में माया या शठता (ठगी), दुर्गति, नरक का कारण है, जबकि करता है, वह बन्धन से मुक्त हो जाता है। सत्य के सन्दर्भ में महावीर ऋजुता (सरलता) सुख, सुगति, स्वर्ग और शैक्ष भिक्षु के लाभ का का दृष्टिकोण यही है कि व्यक्ति के जीवन में (अन्तः और बाह्य) एकरूपता कारण है।२७
होनी चाहिए।३६ अन्तरात्मा के प्रति निष्ठावान होना ही महाभारत और गीता का दृष्टिकोण-महाभारत के अनुसार सत्य धर्म है। सरलता एक आवश्यक सद्गुण है। २८ गीता में आर्जव को दैवी-सम्पदा,२९ तप और ब्राह्मण का स्वाभाविक गुण कहा गया है। आर्जव और अदम्भ ६. संयम सद्गुणों की गीताकार ने ज्ञान में गणना की है और इनके विरोधी जैन दर्शन के अनुसार पूर्व संचित-कर्मों के क्षय के लिए तप
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दशलक्षण पर्व | दशलक्षण धर्म आवश्यक है और संयम से भावी कर्मों के आस्रव का निरोध होता साधना तो सप्रयासता में है। जब प्रयासपूर्वक कर्म-पुद्गलों को आत्मा है। संयम मनोवृत्तियों, कामनाओं और इन्द्रिय-व्यवहार का नियमन से अलग किया जाता है तो उसे अविपाक निर्जरा कहते हैं और जिस करता है। संयम का अर्थ दमन नहीं, वरन् उनको सम्यक् दिशा में प्रक्रिया द्वारा यह अविपाक निर्जरा की जाती है, वही तप है। योजित करना है। संयम एक ओर अकुशल, अशुभ एवं पाप जनक तप का वर्गीकरण-जैन साधना में तप के बाह्य और आभ्यन्तर व्यवहारों से निवृत्ति है तो दूसरी ओर शुभ में प्रवृत्ति है। दशवैकालिकसूत्र ऐसे दो भेद किये गये हैं। पुन: प्रत्येक के छ:-छ: भेद किये गये हैं। में कहा है कि अहिंसा, संयम और तपयुक्त धर्म ही सर्वोच्च शुभ (मंगल) हम संक्षेप में नीचे इस वर्गीकरण को प्रस्तुत कर रहे हैं। है।३७ जैन आचार्यों ने संयम के अनेक भेद बताये हैं। विस्तार भय से उनका विवेचन सम्भव नहीं है। पाँच आस्रव-स्थान, चार कषाय, (अ) शारीरिक या बाह्य तप के भेद पाँच इन्द्रियाँ एवं मन-वाणी और शरीर का संयम प्रमुख है।२८ १. अनशन-आहार-त्याग को अनशन कहा जाता है। यह भी
संयम और बौद्ध दृष्टिकोण-बुद्ध का कथन है कि प्राज्ञ एवं दो प्रकार का होता है—एक निश्चित समयावधि के लिए किया हुआ बुद्धिमान् भिक्षु के लिए सर्वप्रथम आवश्यक है-इन्द्रियों पर विजय, आहार-त्याग, जो एक दिन से लगातार छ: मास तक या उससे भी सन्तुष्टता तथा भिक्षु-अनुशासन में संयम से रहना।३९ शरीर, वाणी अधिक का हो सकता है। दूसरा जीवन-पर्यन्त के लिए किया हुआ
और मन का संयम करना उत्तम है। जो सर्वत्र संयम करता है, वह आहार-त्याग। जीवन-पर्यन्त के लिए किये गये आहार-त्याग की सब दुःखों से छूट जाता है।४०
अनिवार्य शर्त है कि उस अवधि में मृत्यु की आकांक्षा न करे। गीता में संयम-गीता में कहा कि श्रद्धावान्, तत्पर और संयतेन्द्रिय २. अवमौदर्य-अवमौदर्य तप वह है, जिसमें आहार के लिए ही ज्ञान प्राप्त करता है। जो संयमी है, उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित है।४२ . कुछ शर्ते निश्चित की जाती हैं। इसके पाँच प्रकार हैं-(१) जो आहार योगीजन संयम-रूपी अग्नि में इन्द्रियों का हवन करते हैं। ४३ की मात्रा है उससे कुछ कम खाना, द्रव्य अवमौदर्य तप कहा जाता
है। (२) भिक्षा के लिए कोई क्षेत्र निश्चित कर वहीं से मिली हुई भिक्षा ७. तप
लेना, क्षेत्र अवमौदर्य तप कहा जाता है। (३) किसी निश्चित समय तप जैन साधना का प्राण है। जैन साधना में जो कुछ भी शाश्वत, पर आहार लेना, काल अवमौदर्य तप कहा जाता है। (४) भिक्षा प्राप्ति उदात्त और महत्त्वपूर्ण तत्त्व है, वे सब तपोमय हैं। तीर्थंकर महावीर के लिए या आहार के लिए किसी स्थिति का अभिग्रह निश्चय कर का तपोमय जीवन जैन परम्परा में तप का क्या महत्त्व है, इसको स्पष्ट लेना, भाव अवमौदर्य है। संक्षेप में अवमौदर्य तप वह है-जिसमें करता है। महावीर के साधक जीवन के साढ़े बारह वर्षों में लगभग किसी विशेष स्थान पर, विशेष प्रकार से उपलब्ध आहार को अपनी ग्यारह वर्ष निराहार व उपवासों में बीते हैं। महावीर का पूरा साधना- आहार की मात्रा से कम मात्रा में ग्रहण किया जाता है। काल स्वाध्याय, आत्म-चिन्तन, ध्यान और कायोत्सर्ग की साधना से ३. रसपरित्याग- भोजन में दूध, दही, घृत,मिष्ठान्न आदि का युक्त है। जैन परम्परा में आज भी ऐसे अनेक साधक हैं जिनके भोजन- या उनमें से किसी एक का ग्रहण नहीं करना, रस-परित्याग तप कहलाता दिनों का योग वर्ष में दो-तीन माह से अधिक नहीं होगा; शेष सारा है। रस-परित्याग एक प्रकार से स्वादजय है। समय वे उपवास व तपस्या में ही व्यतीत करते हैं। दशवैकालिकसूत्र ४. कायक्लेश-वीरासन,गोदुहासन आदि विभिन्न आसनों को में अहिंसा, संयम और तप धर्म को सर्वोत्कृष्ट मंगल कहा गया है। __करना, सर्दी या गर्मी को सहन करने का अभ्यास करना, कायक्लेश
जैन साधना का लक्ष्य शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि है, आत्म- तप है। शुद्धिकरण है। लेकिन यह शुद्धिकरण क्या है? जैन दर्शन यह मानता ५.भिक्षाचर्या-भिक्षा के विभिन्न नियमों का पालन करते है कि प्राणी कायिक, वाचिक एवं मानसिक क्रियाओं के माध्यम से हुए भिक्षा में उपलब्ध खाद्यपदार्थ पर जीवन-यापन करना, भिक्षाचर्या कर्म-वर्गणाओं के पुद्गलों को अपनी ओर आकर्षित करता है और तप है। ये आकर्षित कर्म-वर्गणाओं के पुद्गल राग-द्वेष या कषायवृत्ति के कारण ६. विविक्तशय्यासन-अरण्य आदि एकान्त स्थानों में निवास आत्मा से एकीभूत हो, उसकी शुद्धसत्ता, शक्ति एवं ज्ञानज्योति को करना, विविक्त शयनासन तप है। आवृत्त कर देते हैं। यह जड़ एवं चेतन तत्त्व का संयोग ही विकृति उपरोक्त छः प्रकार शारीरिक तप-साधना के हैं। मानसिक या है, विभाव है, बन्धन है।
आभ्यन्तरिक दृष्टि से भी तप-साधना के निम्न छ: भेद किये गये हैंअत: शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि के लिए आत्मा के शुद्धस्वरूप को आवृत्त करने वाले कर्म-वर्गणाओं के पुद्गलों का पृथकीकरण (ब) मानसिक एवं आभ्यान्तर तप आवश्यक है। पृथकीकरण की यह क्रिया निर्जरा कही जाती है, जो १. प्रायश्चित-अशुभ आचरण के प्रति ग्लानि होना, उसका दो रूपों में सम्पन्न होती है। जब कर्म-वर्गणा के पुद्गल अपनी निश्चित पश्चात्ताप करना, आलोचना करना, अपने अपराध को योग्य वरिष्ठ समयावधि के पश्चात् अपना फल देकर स्वत: अलग हो जाते हैं, तो साधु या गुरु के समक्ष प्रकट करके उसके लिए योग्य दण्ड की याचना यह सविपाक निर्जरा कहलाती है। लेकिन यह साधना मार्ग नहीं है। कर उनके द्वारा दिये हुए दण्ड को स्वीकार करना, प्रायश्चित-तप है।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ २. विनय-वरिष्ठ साधकों एवं गुरुजनों का सम्मान करना, उन्हें बाह्यस्वरूप प्रकट किया जाता है। संग्रहवृत्ति से बचना ही अकिंचनता प्रणाम, योग्य आसन प्रदान करना तथा उनकी आज्ञाओं का पालन का प्रमुख उद्देश्य है। दिगम्बर या जिनकल्पी मुनि की दृष्टि यही बताती करते हुए अनुशासित जीवन व्यतीत करना, विनय तप है। है कि समग्र बाह्य परिग्रह का त्याग ही अकिंचनता की पूर्णता है।
३. वैयावृत्य (सेवा)- गुरुजन, वरिष्ठ, वृद्ध, रोगी एवं संत कबीरदास ने भी कहा हैसंघ (समाज) आदि की सेवा करना, वैयावृत्य तप है। वैयावृत्य एक उदर समाता अन्न लहे, तनहि समाता चीर। प्रकार की सेवावृत्ति है।
अधिकाहि संग्रह ना करे, ताको नाम फकीर।। ४. स्वाध्याय-१. सद्ग्रन्थों का अध्ययन करना, २. उत्पन्न अकिंचनता और बुद्ध-बौद्ध ग्रन्थ चूलनिदेशपालि में कहा गया शङ्काओं के निरसन एवं नवीन ज्ञान की प्राप्ति के निमित्त विद्वत्जनों है कि अकिंचनता और आसक्तिरहित होने से बढ़कर कोई शरणदाता से प्रश्नोत्तर करना, तत्त्वचर्चा करना ३. ज्ञान की स्मृति को बनाये दीप नहीं है।४ बुद्ध ने स्वयं अपने जीवन में अकिंचनता को स्वीकार रखने के लिए उसका परावर्तन स्वाध्याय करना (दोहराना), ४. उस किया था। उदायी भगवान् की प्रशंसा करते हुए कहता है कि भगवान् पर चिन्तन और मनन करना एवं, ५. धर्मोपदेश देना।
अल्पाहार करने वाले हैं और अल्पाहार के गण बताते हैं। वे कैसे ५. ध्यान-मन से अशुभ विचारों को हटाकर उसे शुभ विचारों भी चीवरों से सन्तुष्ट रहते हैं और वैसे सन्तोष के गुण बताते हैं। में केन्द्रित करना तथा एकाग्र करना, ध्यान-तप है।
जो भिक्षा मिलती है, उससे सन्तुष्ट रहते हैं और वैसे सन्तोष के गुण ६. कायोत्सर्ग-शरीर से ममत्व हटाकर देहातीत आत्म-तत्त्व बताते हैं। निवास के लिए मिले हुए स्थान में सन्तुष्ट रहते हैं और की अनुभूति करना, कायोत्सर्ग-तप है। कायोत्सर्ग में शरीर के जिन वैसे सन्तोष के गुण बताते हैं। एकान्त में रहते हैं और एकान्त के व्यापारों का निरोध सम्भव है, उनका एक सीमित समय के लिए निरोध गुण बताते हैं। इन पाँच कारणों से भगवान् के श्रावक भगवान् का भी किया जाता है।
मान रखते हैं और उनके आश्रय में रहते हैं।४५ इस प्रकार अनशन और अवमौदर्य से प्रारम्भ होकर कायोत्सर्ग महाभारत में अकिंचनता-महाभारत में कहा गया है कि यदि तक की यह सारी साधना-प्रक्रिया तप कहलाती है।
तुम सब कुछ त्यागकर किसी वस्तु का संग्रह नहीं रखोगे तो सर्वत्र
विचरते हुए सुख का ही अनुभव करोगे, क्योंकि जो अकिंचन होता ८. त्याग
है-जिसके पास कुछ नहीं रहता है, वह सुख से सोता और जागता अप्राप्त भोगों की इच्छा नहीं करना और प्राप्त भोगों से विमुख __ है। संसार में अकिंचनता ही सुख है। वही हितकारक, कल्याणकारी होना, त्याग है। नैतिक जीवन में त्याग आवश्यक है। बिना त्याग और निरापद है। आकिंचन्य व्यक्ति को किसी भी प्रकार के शत्रु का के नैतिकता नहीं टिकती। अतएव साधु के लिए त्याग-धर्म का विधान खटका नहीं है। अकिंचनता को लाघव भी कहा जा सकता है। लाघव किया गया है। त्याग से इन्द्रिय और मन के निरोध का अभ्यास किया का अर्थ है- हलकापन। लोभ या आसक्ति आत्मा पर एक प्रकार जाता है। संयम के लिए त्याग आवश्यक है। सामान्य रूप से त्याग का भार है। कामना या आसक्ति मन में तनाव उत्पन्न करती है। यह का अर्थ छोड़ना होता है। अतएव साधुता तभी सम्भव है जब सुख- तनाव मन को बोझिल बनाता है। भूत और भविष्य की चिन्ताओं का साधना एवं गृह-परिवार का त्याग किया जाये। साधु जीवन में भी भार मनुष्य व्यर्थ ही ढोया करता है। व्यक्ति जितने-जितने अंश में जो कुछ उपलब्ध है या नियमानुसार ग्राह्य है, उनमें से कुछ को नित्य इनसे ऊपर उठकर अनासक्त बनता है, उतनी ही मात्रा में मानसिक छोड़ते रहना या त्याग करते रहना जरूरी है। गृहस्थ जीवन के लिए तनाव से बचकर प्रमोद का अनुभव करता है। निलोभ आत्मा को कर्मभी त्याग आवश्यक है। गृहस्थ को न केवल अपनी वासनाओं और आवरण से हल्का बनाता है। मन और चेतना के तनाव को समाप्त भोगों की इच्छा का त्याग करना होता है, वरन् अपनी सम्पत्ति एवं करता है। इसीलिए उसको लाघव कहा जाता है। परिग्रह से भी दान के रूप में त्याग करते रहना आवश्यक है। इसलिए भौतिक वस्तुओं की कामना ही नहीं, वरन् यश, कीर्ति, पूजा, त्याग गृहस्थ और श्रमण दोनों के लिए ही आवश्यक है। वस्तुतः सम्मान आदि की लालसा भी मनुष्य को अध:पतन की ओर ले जाती लोकमंगल के लिए त्याग-धर्म का पालन आवश्यक है। न केवल जैन है। दशवैकालिकसूत्र के अनुसार जो पूजा, प्रतिष्ठा, मान और सम्मान परम्परा में, वरन् बौद्ध और वैदिक-परम्पराओं में भी त्याग-भावना पर की कामना करते हैं, वे अनेक छद्म-पापों का सृजन करते हैं।६ कामना बल दिया गया है। बोधिचर्यावतार में आचार्य शान्तिरक्षित ने इस सम्बन्ध चाहे भौतिक वस्तुओं की हो या मान-सम्मान आदि अभौतिक तत्त्वों में काफी विस्तार से विवेचन किया है।
की, वह एक बोझ है जिससे मुक्त होना आवश्यक है। सूत्रों में लाघव
के साथ ही साथ मुक्ति (मुत्ती) शब्द का प्रयोग भी हुआ है। सद्गुण ९. अकिंचनता
के रूप में मुक्ति का अर्थ दुश्चिन्ताओं, कामनाओं और वासनाओं से मूलाचार के अनुसार अकिंचनता का अर्थ परिग्रह का त्याग है। मुक्त मनःस्थिति ही है। उपलक्षण से मुत्ती का अर्थ सन्तोष भी होता लोभ या आसक्तित्याग के भावनात्मक तथ्य को क्रियात्मक जीवन में है। सन्तोष की वृत्ति आवश्यक सद्गुण है। उसके अभाव में जीवन उतारना आवश्यक है। अकिंचनता के द्वारा इसी अनासक्त जीवन का की शान्ति चौपट हो जाती है। बौद्ध धर्म और गीता की दृष्टि में निर्लोभता
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दशलक्षण पर्व । दशलक्षण धर्म
५२१ मनुष्य का आवश्यक सद्गुण है। बुद्ध का कथन है कि 'सन्तोष ही अद्रोह, आर्जव एवं भृत्य-मरण इन नौ सद्गुणों का विवेचन है। परम धन है।' गीता में कृष्ण कहते हैं- 'सन्तुष्ट व्यक्ति मेरा प्रिय है।'४८ वामनपुराण में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, दान, क्षान्ति, दम, शम,
अकार्पण्य, शौच और तप इन दस सद्गुणों का विवेचन है। विष्णु १०. ब्रह्मचर्य
धर्मसूत्र में २४ गुणों का वर्णन है, जिनमें अधिकांश यही हैं। महाभारत ब्रह्मचर्य के सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन महाव्रतों एवं अणुव्रतों के आदिपर्व में धर्म की निम्न दस पत्नियों का उल्लेख है-कीर्ति, के सन्दर्भ में किया गया है। श्रमण के लिए समस्त प्रकार के मैथुन लक्ष्मी, धृति, मेधा, पुष्टि, श्रद्धा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा और मति।५४ का त्याग आवश्यक माना गया है। गृहस्थ-उपासक के लिए स्वपत्नी- इसी प्रकार श्रीमद्भागवत में भी धर्म की श्रद्धा, मैत्री, दया, शान्ति, सन्तोष में ही ब्रह्मचर्य की मर्यादा स्थापित की गयी है। विषयासक्ति तुष्टि, पुष्टि, क्रिया, उन्नति, बुद्धि, मेधा, तितिक्षा, हवि और मूर्ति इन चित्त को कलुषित करती है, मानसिक शान्ति भंग करती है, एक प्रकार तेरह पत्नियों का उल्लेख है।५५ वस्तुत: इन्हें गुण, धर्म की पत्नियाँ के मानसिक तनाव को उत्पन्न करती है और शारीरिक दृष्टि से रोग कहने का अर्थ इतना ही है कि इनके बिना धर्म अपूर्ण रहता है। इसी का कारण बनती है। इसलिए यह माना गया कि अपनी-अपनी मर्यादा प्रकार श्रीमद्भागवत में धर्म के पुत्रों का भी उल्लेख है। धर्म के पुत्र के अनुकूल गृहस्थ और श्रमण को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। हैं-शुभ, प्रसाद, अभय, सुख, मुह, स्मय, योग, दर्प, अर्थ, स्मरण,
बौद्ध परम्परा में ब्रह्मचर्य-बौद्ध परम्परा में भी ब्रह्मचर्य धर्म क्षेम और प्रश्रय।५६ वस्तुत: सद्गुणों का एक परिवार है और जहाँ का महत्त्व स्पष्ट रूप से स्वीकार किया गया है। उसमें भी श्रमण साधक एक सद्गुण भी पूर्णता के साथ प्रकट होता है वहाँ उससे सम्बन्धित के लिए पूर्ण ब्रह्मचर्य और गृहस्थ साधक के लिए स्वपत्नी-सन्तोष दूसरे सद्गुण भी प्रकट हो जाते हैं।. की मर्यादाएँ स्थापित की गयी हैं। ४९ ।।
गीता में ब्रह्मचर्य-गीता में ब्रह्मचर्य को शारीरिक तप कहा गया बौद्ध धर्म और दस सद्गुण है।५० परमतत्त्व की उपलब्धि के लिए ब्रह्मचर्य को आवश्यक माना जैसा कि हमने देखा जैन धर्म सम्मत क्षमा आदि दस धर्मों (सद्गुण) गया और यह बताया गया है कि जो ब्रह्मचर्य व्रत में स्थित होकर की अलग-अलग चर्चा उपलब्ध हो जाती है, किन्तु उसमें जिन दस मेरी उपासना करता है वह शीघ्र ही निर्वाण प्राप्त कर लेता है।५१ धर्मों का उल्लेख हुआ है, इनसे भिन्न हैं। अंगुत्तरनिकाय में सम्यक्
दृष्टि, सम्यक्-संकल्प, सम्यक्-वाक्, सम्यक्-कर्मान्त, सम्यक्-आजीव, वैदिक परम्परा में दस धर्म (सद्गुण)
सम्यक्-व्यायाम, सम्यक्-स्मृति, सम्यक्-समाधि, सम्यक्-ध्यान और वैदिक परम्परा में भी थोड़े-बहुत अन्तर से इन सद्गुणों का विवेचन सम्यक्-विमुक्त ये दश धर्म बताये गये हैं।५७ वस्तुत: इसमें अष्टांग पाया जाता है। हिन्दू धर्म में हमें दो प्रकार के धर्मो का विवेचन उपलब्ध आर्य मार्ग में सम्यक्-ध्यान और सम्यक्-विमुक्ति ये दो चरण जोड़कर होता है-(१) सामान्य धर्म और (२) विशेष धर्म। सामान्य धर्म वे दस की संख्या पूरी की गई है। यद्यपि अशोक के शिलालेखों में हैं जिनका पालन सभी वर्ण एवं आश्रमों के लोगों को करना चाहिए, जिन नौ धर्मों या सद्गुणों की चर्चा की गई है, वे जैन परम्परा और जबकि विशेष धर्म वे हैं जिनका पालन वर्ण विशेष या आश्रम विशेष हिन्दू परम्परा के काफी निकट आते हैं। वे गुण निम्न हैं—दया, उदारता, के लोगों को करना होता है। सामान्य धर्म की चर्चा अति प्राचीन काल सत्य, शुद्धि (शौच), भद्रता, शान्ति, प्रसन्नता, साधुता और से होती आयी है। मनु ने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, शौच और इन्द्रिय- आत्मसंयम।८ निग्रह इन पाँच को सभी वर्णाश्रम वालों का धर्म बताया है।५२ प्रसंगान्तर इस प्रकार स्पष्ट होता है कि जैन, बौद्ध और हिन्दू तीनों धर्मों से उन्होंने इन दस सामान्य धर्मों की भी चर्चा की है-धृति, क्षमा, में वर्णित इन दशविध धर्मों में क्रम और नामों के किञ्चित् पारस्परिक दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य और अक्रोध।५३ मतभेद के अतिरिक्त मूलभूत सैद्धान्तिक-दृष्टि से कोई विशेष अन्तर इस सूची में क्षमा, शौच, और सत्य ही ऐसे हैं जो जैन परम्परा के नहीं स्पष्ट होता है। इन सद्गुणों के पालन में प्रमुखता किसे दी जाये, इस नामों से पूरी तरह मेल खाते हैं, शेष नाम भिन्न हैं। महाभारत के सम्बन्ध में तीनों धर्मों के विचारकों में मतभेद हो सकता है, जो वस्तुतः शान्तिपर्व में अक्रोध, सत्यवचन, संविभाग, क्षमा, प्रजनन, शौच, देश, काल और परिस्थिति के अधीन होने के कारण स्वाभाविक भी है।
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संदर्भ : १. आचाराङ्ग, संपा- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन समिति,
ब्यावर, १९८०, १/६/५। २. स्थानाङ्ग, संपा०- मधुकर मुनि प्रका०- श्री आगम प्रकाशन समिति,
ब्यावर, १९८१, १०/१४।। समवायाङ्ग, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन
समिति, ब्यावर, १९८२, १०/१। ४. तत्त्वार्थसूत्र, संपा०- जुगल किशोर मुख्तार, वीर सेवा मन्दिर,
सहारनपुर, १९४४, ९/६। ५. दशवैकालिकसूत्र, संपा० - मधुकर मुनि प्रका०- श्री आगम प्रकाशन
समिति, ब्यावर, १९८५, ८/३८। ६. वही, ८/३९।।
आवश्यकसूत्र-क्षमापणा पाठ, संपा० - मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, १९८५ । उपासकदशाङ्गसूत्र, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर १९८०,१/८४।
८.
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ ९. अङ्गत्तरनिकाय,अनु० - भदन्त आनन्द कौसल्यायन, प्रका० - महाबोधि ३४. गीता, गीता प्रेस, गोरखपुर वि० सं० २०१८, १६/३, १७/१४, सभा, कलकत्ता, १/१२/२।।
१८/४२। । संयुक्तनिकाय, संपा०- जगदीश कश्यप एवं धर्मरक्षित, प्रका०- ३५. गीता शाङ्करभाष्य, गीता प्रेस, गोरखपुर, १३/७।
महाबोधि सभा, सारनाथ, वाराणसी, १९५४, १०/१२। ३६. आचाराङ्गसूत्र, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन ११. धम्मपद, अनु०- पं० राहुल सांकृत्यायन, प्रका०- बुद्धविहार, समिति, ब्यावर, १९८०, १/३/३/११९। लखनउ, १८४।
३७. दशवैकालिकसूत्र, संपा०- मधुकर मुनि, प्रकाशन समिति ब्यावर, १२. बोधिचर्यावतार, संपा०- श्री परशुराम शर्मा, प्रका० - मिथिला १९८५, १/१।। विद्यापीठ, दरभंगा, १९६०, ६/२।
३८. अभिधानराजेन्द्रकोष, खण्ड ७, श्री विजय राजेन्द्र सूरि, रतलाम, १३. गीता प्रेस, गोरखपुर, वि० सं० २०१८, १०/४, १६/३।
पृ० ८७। १४. महाभारत, उद्योगपर्व, गीता प्रेस, गोरखपुर, ३३/४९, ५८। ३९. धम्मपद, अनु०- पं- राहुल सांकृत्यायन, प्रका०- बुद्धविहार, १५. दशवैकालिकसूत्र, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन लखनउ, ३७५। समिति, ब्यावर, १९८५, ८/३९। ।
४०. वही, ३६१। १६. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा०- रतनलाल दोशी, श्रमणोपासक जैन ४१. गीता, प्रका०- गीता प्रेस, गोरखपुर, वि०सं०, २०१८, २/६१। पुस्तकालय, सैलाना, वीर सं० २४७८, १/४५।
४२. वही, ४२६। १७. वही, १/४५।
४३. वही, ४/२९। १८. अङ्गुत्तरनिकाय, अनु०- भदन्त आनन्द कौसल्यायन, प्रका०- ४४. चुल्लनिद्देशपालि, संपा०- भिक्षु जगदीश, पालि पब्लिकेशनबोर्ड, महाबोधि सभा, कलकत्ता, ३/३९।
बिहार गवर्नमेन्ट, १९५९, २/१०/६३। ९. सुत्तनिपात,अनु०- भिक्षु धर्मरत्न, महाबोधि सभा, बनारस, १९५०, ४५. मज्झिमनिकाय, संपा०- एन० के० भागवत, प्रका०- बम्बई १/६/१४।
विश्वविद्यालय, १९६७, ७७ देखिए - भगवान् बुद्ध, पृ० २७८ । २०. गीता, गीता प्रेस, गोरखपुर, वि० सं० २०१८, १६/१४-१५। ४६. दशवैकालिकसूत्र, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका० - श्री आगम प्रकाशन २१. वही, १६/१७१
समिति, ब्यावर, १९८५, ५/२/३७। २२. महाभारत, शांतिपर्व, संपा०- श्री रामनारायण दत्त पाण्डेय, प्रका०- ४७. धम्मपद, अनु०-पं० राहुल सांकृत्यायन, प्रका०- बुद्धविहार,लखनऊ, गीता प्रेस, गोरखपुर, १९६०, १७६/१७/१८।
२०४। २३. दशवैकालिकसूत्र, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन ४८. गीता, प्रका०- गीता प्रेस, गोरखपुर, वि० सं०, २०१८, १२/१४,
समिति, ब्यावर, १९८५, ८/३८। २४. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा०- रतनलाल दोशी, श्रमणोपासक जैन ४९. सुत्तनिपात, अनु०- भिक्षुधर्मरत्न, प्रका० - महाबोधि सभा, सारनाथ, पुस्तकालय, सैलाना, वीर सं० २४७८, २९/४८।
बनारस, १९५०, २६/२१। २५. दशवैकालिकसूत्र, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन ५०. गीता, प्रका०- गीता प्रेस,गोरखपुर, वि० सं० २०१८, १७/१४। समिति, ब्यावर, १९८५, ५/२/४६।।
५१. वही, ६/१४। २६. वही, ५/२/४९। ।
५२. मनुस्मृति, प्रका० - पुस्तक मन्दिर, मथुरा, वि० सं० २०१५, १०/ २७. अङ्गत्तरनिकाय, अनु०- भदन्त आनन्द कौसल्यायन, प्रका०- ६३। महाबोधि सभा, कलकत्ता, २/१५-१६।
५३. वही, ६/९२। महाभारत, शांतिपर्व, संपा०- श्री राम नारायण दत्त पाण्डेय, प्रका०- ५४. महाभारत, आदिपर्व, प्रका०- गीता प्रेस, गोरखपुर, वि० सं० गीता प्रेस, गोरखपुर, १९६०, १७५/३७।
२०४५, ६६/१५। २९. गीता, गीता प्रेस गोरखपुर, वि० सं० २०१८, १६/१। ५५. श्रीमद्भागवत, गीता प्रेस, गोरखपुर, वि० सं० २०४५, ४/४९। ३०. वही, १७/१४।।
५६. वही, ४/१/५०-५३। ३१. वही, १३/७-११। ।
५७. अङ्गत्तर निकाय, अनु०. भदन्त आनन्द कौसल्यायन, प्रका०. ३२. तत्त्वार्थसूत्र (सुखलालजी की विवेचनासहित), प्रका०- पार्श्वनाथ महाबोधि सभा, कलकत्ता, १०। विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, पृ० २१०।
५८. अशोक के अभिलेख, डा० राजबली पाण्डेय, प्रका० - वाराणसी ज्ञान ३३. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा०- रतनलाल दोशी, श्रमणोपासक जैन मंडल लिमिटेड, सं० २०२२, स्तम्भ, २ एवं ७।
पुस्तकालय, सैलाना, वीर सं० २४७८, १२/४६।
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षष्ठखण्ड
समाज और संस्कृति
लेखक डॉ० सागरमल जैन
सम्पादक
डॉ० अरुण प्रताप सिंह डॉ० असीम कुमार मिश्र
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भारतीय संस्कृति का समन्वित स्वरूप
भारतीय संस्कृति एक संश्लिष्ट संस्कृति है। उसे हम विभिन्न आदि जो जैन परम्परा में तीर्थंकर के रूप में मान्य हैं, के प्रति समादर चहारदीवारियों में अवरुद्ध कर कभी भी सम्यक् प्रकार से नहीं समझ भाव भी व्यक्त किया गया है। इससे यह प्रतीत होता है कि ऐतिहासिक सकते हैं, उसको खण्ड-खण्ड करके देखने में उसकी आत्मा ही मर युग के प्रारम्भ से ही भारत में ये दोनों संस्कृतियाँ साथ-साथ प्रवाहित जाती है । जैसे शरीर को खण्ड-खण्ड कर देखने से शरीर की क्रिया- होती रही हैं। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के उत्खनन से जिस प्राचीन शक्ति को नहीं समझा जा सकता है, वैसे ही भारतीय संस्कृति को भारतीय संस्कृति की जानकारी हमें उपलब्ध होती है; उससे सिद्ध होता खण्ड-खण्ड करके उसकी मूल आत्मा को नहीं समझा जा सकता है। है कि वैदिक संस्कृति के पूर्व भी भारत में एक उच्च संस्कृति अस्तित्व भारतीय संस्कृति को हम तभी सम्पूर्ण रूप से समझ सकते हैं, जब रखती थी जिसमें ध्यान, साधना आदि पर बल दिया जाता था । उस उसके विभिन्न घटकों अर्थात् जैन, बौद्ध और हिन्दू धर्म-दर्शन का उत्खनन में ध्यानस्थ योगियों की सीलें आदि मिलना तथा यज्ञशाला समन्वित एवं सम्यक् अध्ययन न कर लिया जाय । बिना उसके आदि का न मिलना यही सिद्ध करता है कि वह संस्कृति तप, योग एवं संयोजित घटकों के ज्ञान के उसका सम्पूर्णता में ज्ञान सम्भव ही नहीं ध्यान प्रधान व्रात्य संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती थी । किन्तु इतना है । एक इंजन की प्रक्रिया को भी सम्यक् प्रकार से समझने के लिए निश्चित है कि आर्यों के आगमन के साथ प्रारम्भ हुए वैदिक युग से दोनों न केवल उसके विभिन्न घटकों अर्थात् कल-पुों का ज्ञान आवश्यक ही धाराएँ साथ-साथ प्रवाहित हो रही हैं और उन्होंने एक दूसरे को होता है, अपितु उनके परस्पर संयोजित रूप को भी देखना होता है। पर्याप्त रूप से प्रभावित भी किया है । ऋग्वेद में व्रात्यों के प्रति जो अत: हमें स्पष्ट रूप से इस तथ्य को समझ लेना चाहिए कि भारतीय तिरस्कार भाव था, वह अथर्ववेद में समादर भाव में बदल जाता है जो संस्कृति के अध्ययन एवं शोध के क्षेत्र में अन्य सहवती परम्पराओं और दोनों धाराओं के समन्वय का प्रतीक है । तप, त्याग, संन्यास, ध्यान, उनके पारस्परिक सम्बन्धों के अध्ययन के बिना कोई भी शोध परिपूर्ण समाधि, मुक्ति और अहिंसा की अवधारणायें जो प्रारम्भिक वैदिक नहीं हो सकता है । धर्म और संस्कृति शून्य में विकसित नहीं होते, वे ऋचाओं और कर्मकाण्डीय ब्राह्मण ग्रन्थों में अनुपलब्ध थीं, वे आरण्यक अपने देशकाल और सहवर्ती परम्पराओं से प्रभावित होकर ही अपना आदि परवर्ती वैदिक साहित्य में और विशेष रूप से उपनिषदों में स्वरूप ग्रहण करते हैं । यदि हमें जैन, बौद्ध, वैदिक या अन्य किसी अस्तित्व में आ गयी हैं । इससे लगता है कि ये अवधारणाएँ भी भारतीय सांस्कृतिक धारा का अध्ययन करना है, उसे सम्यक् प्रकार संन्यासमार्गीय श्रमणधारा के प्रभाव से ही वैदिक धारा में प्रविष्ट हुयी हैं। से समझना है, तो उसके देश, काल एवं परिवेशगत पक्षों को भी उपनिषदों, महाभारत और गीता में एक ओर वैदिक कर्मकाण्ड की प्रामाणिकता पूर्वक तटस्थ बुद्धि से समझना होगा । चाहे जैन विद्या के समालोचना और उन्हें आध्यात्मिकता से समन्वित कर नये रूप में शोध एवं अध्ययन का प्रश्न हो या अन्य किसी भारतीय विद्या का, हमें परिभाषित करने का प्रयत्न तथा दूसरी ओर तप, संन्यास और मुक्ति उसकी दूसरी सहवर्ती परम्पराओं को अवश्य ही जानना होगा और यह आदि की स्पष्ट रूप से स्वीकृति, यही सिद्ध करती है कि ये ग्रन्थ श्रमण देखना होगा कि वह उन दूसरी सहवर्ती परम्पराओं से किस प्रकार और वैदिक धारा के बीच हुए समन्वय या संगम के ही परिचायक हैं। प्रभावित हुई है और उसने उन्हें किस प्रकार प्रभावित किया है। हमें यह स्मरण रखना होगा कि उपनिषद् और महाभारत जिसका एक पारस्परिक प्रभावकता के अध्ययन के बिना कोई भी अध्ययन पूर्ण नहीं अंग गीता है, शुद्ध रूप से वैदिक कर्मकाण्डात्मक धर्म के प्रतिनिधि नहीं होता है।
हैं। वे निवृत्ति प्रधान श्रमणधारा और प्रवृत्तिमार्गी वैदिक धारा के समन्वय यह सत्य है कि भारतीय संस्कृति के इतिहास के आदिकाल का परिणाम हैं । उपनिषदों में और महाभारत, गीता आदि में जहाँ एक से ही हम उसमें श्रमण और वैदिक संस्कृति का अस्तित्व साथ-साथ ओर श्रमणधारा के आध्यात्मिक और निवृत्ति प्रधान तत्त्वों को स्थान दिया पाते हैं; किन्तु हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि भारतीय संस्कृति में गया, वहीं दूसरी ओर यज्ञ आदि वैदिक कर्मकाण्डों की श्रमण परम्परा इन दोनों स्वतन्त्र धाराओं का संगम हो गया है और अब इन्हें एक दूसरे के समान आध्यात्मिक दृष्टि से नवीन परिभाषाएँ भी प्रस्तुत की गईं, से पूर्णतया अलग नहीं किया जा सकता । भारतीय इतिहास के उनमें यज्ञ का अर्थ पशुबलि न होकर स्वहितों की बलि या समाजसेवा प्रारम्भिक काल से ही ये दोनों धारायें परस्पर एक दूसरे से प्रभावित होती हो गया। हमें यह स्मरण रखना होगा कि हमारा हिन्दू धर्म वैदिक और रहीं। अपनी-अपनी विशेषताओं के आधार पर विचार के क्षेत्र में हम चाहे श्रमण धाराओं के समन्वय का परिणाम है। वैदिक कर्मकाण्ड के विरोध उन्हें अलग-अलग देख लें, किन्तु व्यावहारिक स्तर पर उन्हें एक दूसरे में जो आवाज औपनिषदिक युग के ऋषि-मुनियों ने उठाई थी, जैन, बौद्ध से पृथक नहीं कर सकते । भारतीय वाङ्मय में ऋग्वेद प्राचीनतम माना और अन्य श्रमण परम्पराओं ने मात्र उसे मुखर ही किया है । हमें यह जाता है। उसमें जहाँ एक ओर वैदिक समाज एवं वैदिक क्रिया-काण्डों नहीं भूलना चाहिए कि वैदिक कर्मकाण्ड के प्रति यदि किसी ने पहली का उल्लेख है, वहीं दूसरी ओर उसमें न केवल व्रात्यों, श्रमणों एवं आवाज उठाई तो वे औपनिषदिक ऋषि ही थे। उन्होंने ही सबसे पहले अर्हतों की उपस्थिति के उल्लेख उपलब्ध हैं, अपितु ऋषभ, अरिष्टनेमि कहा था कि ये यज्ञरूपी नौकायें अदृढ़ हैं, ये आत्मा के विकास में सक्षम
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
नहीं हैं। यज्ञ आदि कर्मकाण्डों की नयी आध्यात्मिक व्याख्यायें देने और है कि जैन और बौद्ध धर्म न केवल स्वतन्त्र धर्म हैं, अपित् वे वैदिक उन्हें श्रमणधारा की आध्यात्मिक दृष्टि के अनुरूप बनाने का कार्य हिन्दू परम्परा के विरोधी भी हैं । सामान्यतया जैन और बौद्ध धर्म को औपनिषदिक ऋषियों और गीता के प्रवक्ता का है । जैन और बौद्ध वैदिक धर्म के प्रति एक विद्रोह के रूप में चित्रित किया जाता रहा है। परम्परायें तो औपनिषदिक ऋषियों के द्वारा प्रशस्त किये गये पथ पर यह सत्य है कि वैदिक और श्रमण परम्परओं में कुछ मूल-भूत प्रश्नों गतिशील हुयी हैं । वे वैदिक कर्मकाण्ड,जन्मना जातिवाद और मिथ्या को लेकर मतभेद है, यह भी सत्य है कि जैन और बौद्ध परम्परा ने विश्वासों के विरोध में उठे हुए औपनिषदिक ऋषियों के स्वर का ही वैदिक परम्परा की उन विकृतियों को जो कर्मकाण्ड, पुरोहितवाद, मुखरित रूप हैं । जैन और बौद्ध परम्पराओं में औपनिषदिक ऋषियों की जातिवाद और ब्राह्मण वर्ग के द्वारा निम्न वर्गों के धार्मिक शोषण के रूप अर्हत् ऋषि के रूप में स्वीकृति इसका स्पष्ट प्रमाण है।
में उभर रही थीं, खुलकर विरोध किया था, किन्तु हमें उसे विद्रोह के यह सत्य है कि श्रमणों ने यज्ञों में पशुबलि, जन्मना वर्णव्यवस्था रूप में नहीं, अपितु भारतीय संस्कृति के परिष्कार के रूप में समझना और वेदों की प्रामाण्यता से इन्कार किया और इस प्रकार से वे भारतीय होगा । जैन और बौद्ध धर्मों ने भारतीय संस्कृति में आ रही विकृतियों संस्कृति के समुद्धारक के रूप में ही सामने आये; किन्तु हमें यह नहीं का परिशोधन कर उसे स्वस्थ बनाने हेतु एक चिकित्सक का कार्य किया भूलना चाहिए कि भारतीय संस्कृति की इस विकृति का परिमार्जन करने और चिकित्सक कभी शत्रु नहीं, मित्र ही होता है । दुर्भाग्य से पाश्चात्य की प्रक्रिया में वे स्वयं ही कहीं न कहीं उन विकृतियों से प्रभावित हो चिंतकों के प्रभाव से भारतीय चिन्तक और किसी सीमा तक कुछ जैन गये । वैदिक कर्मकाण्ड अब तन्त्रसाधना के नये रूप में बौद्ध, जैन और एवं बौद्ध चिन्तक भी यह मानने लगे हैं कि जैन धर्म और वैदिक (हिन्द) श्रमण परम्पराओं में प्रविष्ट हो गया और उनकी साधना पद्धति का एक धर्म परस्पर विरोधी हैं किन्तु यह एक भ्रांत अवधारणा है । चाहे अपने अंग बन गया । आध्यात्मिक विशुद्धि के लिए किया जाने वाला ध्यान मूल रूप में वैदिक एवं श्रमण संस्कृति-प्रवर्तक और निवर्तक धर्म अब भौतिक सिद्धियों के निमित्त किया जाने लगा । जहाँ एक ओर परम्पराओं के रूप में भिन्न-भिन्न रही हों किन्तु आज न तो हिन्दु परम्परा भारतीय श्रमण परम्परा ने वैदिक परम्परा को आध्यात्मिक जीवन-दृष्टि ही उस अर्थ में पूर्णत: वैदिक है और न ही जैन व बौद्ध परम्परा पूर्णत: के साथ-साथ तप, त्याग, संन्यास और मोक्ष की अवधारणायें प्रदान की श्रमण । आज चाहे हिन्दू धर्म हो अथवा जैन और बौद्ध धर्म हों, ये सभी वहीं दूसरी ओर वैदिक परम्परा के प्रभाव से तान्त्रिक साधनायें जैन और अपने वर्तमान स्वरूप में वैदिक और श्रमण संस्कृति के समन्वित रूप बौद्ध परम्पराओं में भी प्रविष्ट हो गयीं । अनेक हिन्दू देव-देवियां हैं। यह अलग बात है कि उनमें प्रवृत्ति और निवृत्ति में से कोई एक प्रकारान्तर से जैनधर्म एवं बौद्धधर्म में स्वीकार कर ली गईं। जैनधर्म में पक्ष अभी भी प्रमुख हो, उदारहण के रूप में हम कह सकते हैं कि जहां यक्ष-यक्षियों एवं शासनदेवता की अवधारणाएँ हिन्दू देवताओं का जैन धर्म आज भी निवृत्ति प्रधान है वहां हिन्दू धर्म प्रवृत्ति प्रधान, फिर जैनीकरण मात्र हैं । अनेक हिन्दू देवियां जैसे- काली, महाकाली, भी यह मानना उचित नहीं है कि जैन धर्म में प्रवृत्ति एवं हिन्दू धर्म में ज्वालामालिनी, अम्बिका, चक्रेश्वरी, पद्मावती, सिद्धायिका तीर्थंकरों की निवृत्ति के तत्त्व नहीं हैं । वस्तुतः सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति प्रवृत्ति और शासन रक्षक देवियों के रूप में जैनधर्म में स्वीकार कर ली गयीं । श्रुत- निवृत्ति के समन्वय में ही निर्मित हुई है । इस समन्वय का प्रथम प्रयत्न देवता के रूप में सरस्वती और सम्पत्ति प्रदाता के रूप में लक्ष्मी की हमें ईशावास्योपनिषद् में स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है । आज जहाँ उपासना जैन जीवन पद्धति का अंग बन गई । हिन्दू परम्परा का गणेश उपनिषदों को प्राचीन श्रमण परम्परा के परिप्रेक्ष्य में समझने की आवश्यकता पार्श्व-यक्ष के रूप में लोकमंगल का देवता बन गया । वैदिक परम्परा है, वहीं जैन-बौद्ध परम्परा को भी औपनिषदिक परम्परा के परिप्रेक्ष्य में के प्रभाव से जैन मन्दिरों में भी अब यज्ञ होने लगे और पूजा में हिन्दू समझने की आवश्यकता है। जिस प्रकार वासना और विवेक, श्रेय और देवताओं की तरह तीर्थंकरों का भी आवाहन एवं विसर्जन किया जाने प्रेय परस्पर भिन्न-भिन्न होकर भी मानव व्यक्तित्व के ही अंग हैं, उसी लगा । हिन्दुओं की पूजाविधि को भी मन्त्रों में कुछ शाब्दिक परिवर्तनों प्रकार निवृत्ति प्रधान श्रमणधारा और प्रवृत्ति प्रधान वैदिक धारा दोनों के साथ जैनों ने स्वीकार कर लिया। इस प्रकार जैन और बौद्ध परम्पराओं भारतीय संस्कृति के ही अंग हैं । वस्तुतः कोई भी संस्कृति एकान्त में तप, ध्यान और समाधि की साधना गौण होकर कर्मकाण्ड प्रमुख हो निवृत्ति या एकान्त प्रवृत्ति के आधार पर प्रतिष्ठित नहीं हो सकती है। गया । इस पारस्परिक प्रभाव का एक परिणाम यह भी हुआ कि जहां जैन और बौद्ध परम्परायें भारतीय संस्कृति का वैसे ही अभिन्न अंग हैं, हिन्दू परम्पराओं में ऋषभ और बुद्ध को ईश्वर के अवतार के रूप में जैसे हिन्दू परम्परा । यदि औपनिषदिक धारा को वैदिक धारा से भिन्न होते स्वीकार कर लिया गया, वहीं जैन परम्परा में राम और कृष्ण को हुए भी वैदिक या हिन्दू परम्परा का अभिन्न अंग माना जाता है, तो फिर शलाका पुरुष के रूप में मान्यता मिली । इस प्रकार दोनों धारायें एक जैन और बौद्ध परम्पराओं को उसका अभिन्न अंग क्यों नहीं माना जा दूसरे से समन्वित हुयीं।।
सकता। यदि सांख्य और मीमांसक अनीश्वरवादी होते हुए भी आस्तिक दुर्भाग्य से इस देश में विदेशी तत्त्वों के द्वारा न केवल हिन्दू हिन्दू-धर्म दर्शन के अंग माने जाते हैं, तो फिर जैन व बौद्ध धर्म को और मुसलमानों के बीच अपितु जैन, बौद्ध, हिन्दू और सिक्खों - जो कि अनीश्वरवादी कहकर उससे कैसे भिन्न किया जा सकता है ? हिन्दू धर्म बृहद् हिन्दू परम्परा के ही अंग हैं, के बीच भी खाईयां खोदने का कार्य और दर्शन एक व्यापक परम्परा है या कहें कि वह विभिन्न विचार किया जाता रहा है और सामान्य रूप से यह प्रसारित किया जाता रहा परम्पराओं का समूह है; उसमें ईश्वरवाद, अनीश्वरवाद, द्वैतवाद-अद्वैतवाद,
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भारतीय संस्कृति का समन्वित स्वरूप
५२५ प्रवृत्ति-निवृत्ति, ज्ञान-कर्म सभी कुछ तो समाहित है। उसमें प्रकृति पूजा मोक्ष को प्राप्त कर लिया था। सूत्रकृतांगकार की दृष्टि में ये ऋषिगण जैसे धर्म के प्रारम्भिक लक्षणों से लेकर अद्वैत की उच्च गहराइयाँ तक भिन्न आचारमार्ग का पालन करते हुए भी उसकी अपनी ही परम्परा के सभी कुछ सन्निविष्ट है।
ऋषि थे । सूत्रकृतांग में इन ऋषियों को सिद्धि प्राप्त कहना तथा अत: जैन और बौद्ध धर्म को हिन्दु परम्परा से भिन्न नहीं माना उत्तराध्ययन में अन्य लिंग सिद्धों का अस्तित्व मानना यही सूचित करता जा सकता । जैन व बौद्ध भी उसी अध्यात्म-पथ के अनुयायी है जिसका है कि प्राचीन काल में जैन परम्परा अत्यन्त उदार थी और वह मानती प्रवर्तन औपनिषदिक ऋषियों ने किया था। उनकी विशेषता यह है कि थी कि मुक्ति का अधिकार केवल उसके आचार नियमों का पालन करने उन्होंने भारतीय समाज के दलित वर्ग के उत्थान तथा जन्मजातिवाद, वाले को ही नहीं है, अपितु भिन्न आचार मार्ग का पालन करने वाला कर्मकाण्ड व पुरोहितवाद से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने उस भी मुक्ति का अधिकारी हो सकता है। धर्म का प्रतिपादन किया जो जनसामान्य का धर्म था और जिसे इसी संदर्भ में यहाँ ऋषिभाषित (इसिभासियाई) का उल्लेख कर्मकाण्डों की अपेक्षा नैतिक सद्गुणों पर अधिष्ठित किया गया था। करना भी आवश्यक है जो जैन आगम साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ चाहे उन्होंने भारतीय समाज को पुरोहित वर्ग के धार्मिक शोषण से मुक्त (ई. पू. चौथी शती ) है । जैन परम्परा में इस ग्रन्थ का निर्माण उस समय किया हो, फिर भी वे विदेशी नहीं हैं, इस माटी की संतान हैं, वे शत- हुआ होगा जब जैन धर्म एक सम्प्रदाय के रूप में विकसित नहीं हुआ प्रतिशत भारतीय हैं । उनकी भूमिका एक शल्य-चिकित्सक की भूमिका था । इस ग्रन्थ में नारद, असितदेवल, अंगीरस, पाराशर, अरुण, है जो मित्र की भूमिका है, शत्र की नहीं । जैन और बौद्ध धर्म नारायण, याज्ञवल्क्य, उद्दालक, विदुर, सारिपुत्त, महाकश्यप,
औपनिषदिक धारा का ही एक विकास हैं और आज उन्हें उसी परिप्रेक्ष्य मंखलिगोसाल, संजय (वेलठ्ठिपुत्त) आदि पैंतालिस ऋषियों का में समझने की आवश्यकता है।
उल्लेख है और इन सभी को अर्हत्ऋषि, बुद्ध-ऋषि एवं ब्राह्मणऋषि भारतीय धर्मों विशेषरूप से औपनिषदिक, बौद्ध और जैन धर्मों कहा गया है । ऋषिभाषित में इनके आध्यात्मिक और नैतिक उपदेशों की जिस पारस्परिक प्रभावशीलता के अध्ययन की आज विशेष आवश्यकता का संकलन है। जैन परम्परा में इस ग्रन्थ की रचना इस तथ्य का स्पष्ट है, उसे समझने में प्राचीन स्तर के जैन आगम यथा-आचारांग, संकेत है कि औपनिषदिक ऋषियों की परम्परा और जैन परम्परा का सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित और उत्तराध्ययन आदि हमारे दिशा-निर्देशक उद्गम स्रोत एक ही है। यह ग्रन्थ न केवल जैन धर्म की धार्मिक उदारता सिद्ध हो सकते हैं । मुझे विश्वास है कि इन ग्रन्थों के अध्ययन से भारतीय का सूचक है, अपितु यह भी बताता है कि सभी भारतीय आध्यात्मिक विद्या के अध्येताओं को एक नई दिशा मिलेगी और यह मिथ्या विश्वास परम्पराओं का मूल स्रोत एक ही है । औपनिषदिक, बौद्ध, जैन, दूर हो जायेगा कि जैन धर्म, बौद्ध धर्म और हिन्दू धर्म परस्पर विरोधी आजीवक, सांख्य, योग आदि सभी उसी मूल स्रोत से निकली हुई धारायें धर्म हैं । आचारांग में हमें ऐसे अनेक सूत्र उपलब्ध होते हैं जो अपने हैं। जिस प्रकार जैन धर्म में ऋषिभाषित में विभिन्न परम्पराओं के उपदेश भाव, शब्दयोजना और भाषाशैली की दृष्टि से औपनिषदिक सूत्रों के संकलित हैं उसी प्रकार बौद्ध परम्परा की थेरगाथा में भी विभिन्न निकट हैं । आचारांग में आत्मा के स्वरूप के सन्दर्भ में जो विवरण परम्पराओं के जिन-स्थविरों के उपदेश संकलित हैं, उनमें भी अनेक प्रस्तुत किया गया है वह माण्डूक्योपनिषद् से यथावत् मिलता है। औपनिषदिक एवं अन्य श्रमण परम्परा के आचार्यों के उल्लेख हैं जिनमें आचारांग में श्रमण और ब्राह्मण का उल्लेख परस्पर प्रतिस्पर्धियों के रूप एक वर्धमान (महावीर) भी है । यह सब इस तथ्य का सूचक है कि में नहीं, अपितु सहगामियों के रूप में ही मिलता है। चाहे आचारांग, भारतीय परम्परा प्राचीनकाल से ही उदार और सहिष्णु रही है और उसकी उत्तराध्ययन आदि जैनागम हिंसक यज्ञीय कर्मकाण्ड का निषेध करते प्रत्येक धारा में यही उदारता और सहिष्णुता प्रवाहित होती रही है। आज हैं किन्तु वे ब्राह्मणों को भी उसी नैतिक एवं आध्यात्मिक पथ का जब हम साम्प्रदायिक अभिनिवेशों से जकड़ कर परस्पर संघर्षों में उलझ अनुगामी मानते हैं जिस पथ पर श्रमण चल रहे थे। उनकी दृष्टि में गये हैं इन ग्रन्थों का अध्ययन हमें एक नई दृष्टि प्रदान कर सकता ब्राह्मण वह है जो सदाचार का जीवन्त प्रतीक है । उसमें अनेक स्थलों है। यदि भारतीय सांस्कृतिक चिंतन की इन धाराओं को एक दूसरे से पर श्रमणों और ब्राह्मणों (समणा-माहणा) का साथ-साथ उल्लेख हुआ अलग कर देखने का प्रयत्न किया जायेगा तो हम उन्हें सम्यक् रूप से
समझने में सफल नहीं हो सकेंगे । उत्तराध्ययन, सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित इसी प्रकार सूत्रकृतांग में यद्यपि तत्कालीन दाशनिक मान्यताओं और आचारांग को समझने के लिए औपनिषदिक साहित्य का अध्ययन की समीक्षा है किन्तु उसके साथ ही उसमें औपनिषदिक युग के अनेक आवश्यक है । इसी प्रकार उपनिषदों और बौद्ध साहित्य को भी जैन ऋषियों यथा-विदेहनमि, बाहुक, असितदेवल, द्वैपायन, पाराशर आदि परम्परा के अध्ययन के अभाव में सम्यक् प्रकार से नहीं समझा जा का समादर पूर्वक उल्लेख हुआ है । सूत्रकृतांग स्पष्ट रूप से यह स्वीकार सकता है। आज साम्प्रदायिक अभिनिवेशों से ऊपर उठकर तटस्थ एवं करता है कि यद्यपि इन ऋषियों के आचार-नियम उसकी आचार परम्परा तुलनात्मक रूप से सत्य का अन्वेषण ही एक ऐसा विकल्प है जो से भिन्न थे, फिर भी वह उन्हें अपनी अर्हत् परम्परा का ही पूज्य पुरुष साम्प्रदायिक अभिनिवेश से ग्रस्त मानव को मुक्ति दिला सकता है। मानता है । वह उन्हें महापुरुष और तपोधना के रूप में उल्लेखित करता है और यह मानता है कि उन्होंने सिद्धि अर्थात् जीवन के चरम साध्य
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भारतीय दर्शन में सामाजिक चेतना
भारतीय दार्शनिक चिन्तन में उपस्थित सामाजिक सन्दर्भो को जीवन व्यवहार में सहयोग, तुम्हारी वाणी में समस्वरता और तुम्हारे समझने के लिए सर्वप्रथम हमें यह जान लेना चाहिए कि केवल कुछ विचारों में समानता हो । आगे पुन: वह कहता है - दार्शनिक प्रस्थान ही सम्पूर्ण भारतीय प्रज्ञा एवं भारतीय चिन्तन का समानो मन्त्रः समितिः समानी, समानं मनः सहचित्तमेषाम्। प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं, इन दार्शनिक प्रस्थानों से हटकर भी भारत में समानी व आकूतिः समाना हृदयानी वः ।। दार्शनिक चिन्तन हुआ है और उसमें अनेकानेक सन्दर्भ उपस्थित हैं। समानमस्तु वो मनो यथावः सुसहासति ।। दूसरे यह कि भारतीय दर्शन मात्र बौद्धिक एवं सैद्धान्तिक ही नहीं है, वह
(ऋग्वेद १०/१९१/३-४) अनुमूल्यात्मक एवं व्यावहारिक भी है; कोई भी भारतीय दर्शन ऐसा नहीं आप सबके निर्णय समान हों, आप सबकी सभा भी सबके है जो मात्र तत्त्वमीमांसीय (Metaphysical) एवं ज्ञान-मीमांसीय लिए समान हो, अर्थात् सबके प्रति समान व्यवहार करें। आपका मन (Epistomological) चिन्तन से ही सन्तोष धारण कर लेता हो । उसमें भी समान हो और आपकी चित्त-वृति भी समान हो, आपके संकल्प एक ज्ञान ज्ञान के लिए नहीं, अपितु जीवन के सफल संचालन के लिए हों, आपके हृदय एक हों, आपका मन भी एक-रूप हो ताकि आप है । उसका मूल दुःख की समस्या में है । दुःख और दुःख-मुक्ति यही मिलजुल कर अच्छी तरह से कार्य कर सकें । सम्भवतः सामाजिकजीवन भारतीय दर्शन का 'अथ' और 'इति' है । यद्यपि तत्त्व-मीमांसा प्रत्येक एवं समाज निष्ठा के परिप्रेक्ष्य में वैदिक युग के भारतीय चिन्तक के ये भारतीय दार्शनिक प्रस्थान के महत्त्वपूर्ण अंग रहे हैं किन्तु वे सम्यक् महत्त्वपूर्ण उद्गार हैं । वैदिक ऋषियों का 'कृण्वंतो विश्वमार्यम्' के रूप जीवनदृष्टि के निर्माण और सामाजिक व्यवहार की शुद्धि के लिए हैं। में एक सुसभ्य एवं सुसंस्कृत मानव-समाज की रचना का मिशन तभी भारतीय चिन्तन में दर्शन की धर्म और नीति से अवियोज्यता उसके सफल हो सकता था जबकि वे जन-जन में समाज-निष्ठा के बीज का सामाजिक सन्दर्भ को और स्पष्ट कर देती है । यहाँ दर्शन जानने की वपन करते । सहयोगपूर्ण जीवन-शैली उनका मूल मंतव्य था । प्रत्येक नहीं,अपितु जीने की वस्तु रहा है; वह ज्ञान (बौद्धिक ज्ञान) नहीं, अनुभूति अवसर पर शांति-पाठ के माध्यम से वे जन-जन में सामाजिक चेतना है और इसीलिए वह फिलासफी नहीं, दर्शन है, जीवन जीने का एक के विकास का प्रयास करते थे । वे अपने शांति-पाठ में कहते थे - सम्यक् दृष्टिकोण है।
ॐ सहनाववतु सहनोभुनक्तु सहवीर्यं करवावहे, यद्यपि हमारा दुर्भाग्य तो यह रहा कि मध्य-युग में दर्शन तेजस्विनावधीतमस्तुमा विद्विषावहे । साधकों और ऋषि-मुनियों के हाथों से निकलकर तथाकथित बुद्धिजीवियों
(तैत्तिरीय आरण्यक, ८/२) के हाथों में चला गया । फलत: उसमें तार्किक पक्ष प्रधान तथा हम सब साथ-साथ रक्षित हों, साथ-साथ पोषित हों, साथअनुभूतिपूरक साधना पक्ष एवं आचार-पक्ष गौण हो गया और हमारी साथ सामर्थ्य को प्राप्त हों, हमारा अध्ययन तेजस्वी हों, हम आपस में . जीवन-शैली से उसका रिश्ता धीरे-धीरे टूटता गया ।
विद्वेष न करें । वैदिक समाज दर्शन का आदर्श था - 'शत-हस्त: सामाजिक चेतना के विकास की दृष्टि से भारतीय चिन्तन को समाहर, सहस्त्रहस्त:सीकर' सैकड़ों हाथों से इकट्ठा करो और हजार हाथों हम तीन भागों में बाँट सकते हैं -
से बाँटो । किन्तु यह बाँटने की बात दया या कृपा नहीं है अपितु १- वैदिक युग,
सामाजिक दायित्व का बोध है । क्योंकि भारतीय चिन्तन में दान के लिए २- औपनिषदिक युग एवं
संविभाग शब्द का प्रयोग होता रहा है, इसमें सम वितरण या सामाजिक ३- जैन-बौद्ध युग
दायित्व का बोध ही प्रमुख है, कृपा, दया, करुणा ये सब गौण हैं । वैदिक युग में जनमानस में सामाजिक चेतना को जाग्रत करने आचार्य शंकर ने दान की व्याख्या की है 'दानं संविभागम्' । जैन दर्शन का प्रयत्न किया गया, जबकि औपनिषदिक युग में सामाजिक चेतना के में तो अतिथि-संविभाग के रूप में एक स्वतन्त्र व्रत की व्यवस्था की गई लिए दार्शनिक आधार का प्रस्तुतिकरण किया गया और जैन-बौद्ध युग है । वैदिक ऋषियों का निष्कर्ष था कि जो अकेला खाता है वह पापी में सामाजिक सम्बन्धों के शुद्धिकरण पर बल दिया गया।
है (केवलाघो भवति केवलादी) । जैन दर्शनिक भी कहते थे 'असंविभागी भारतीय चिन्तन की प्रवर्तक वैदिक धारा में सामाजिकता का न हु तस्स मोक्खो' जो सम-विभागी नहीं है उसकी मुक्ति नहीं होगी। तत्त्व उसके प्रारम्भिक काल से ही उपस्थित है । वेदों में सामाजिक जीवन इस प्रकार हम वैदिक युग में सहयोग एवं सहजीवन का संकल्प की संकल्पना के व्यापक सन्दर्भ हैं । वैदिक ऋषि सफल एवं सहयोगपूर्ण उपस्थित पाते हैं । किन्तु उसके लिए दार्शनिक आधार का प्रस्तुतिकरण सामाजिक जीवन के लिए अभ्यर्थना करते हुए कहता है कि 'संगच्छध्वं औपनिषदिक चिन्तन में ही हुआ है । औपनिषदिक ऋषि ‘एकस्तथा संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम् (ऋग्वेद १०/१९१/२) तुम मिलकर सर्वभूतान्तरात्मा' 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म' तथा 'ईशावास्यमिदं सर्वम्' के चलो, मिलकर बोलो, तुम्हारे मन साथ-साथ विचार करें अर्थात् तुम्हारे रूप में एकत्व की अनुभूति करने लगा । औपनिषदिक चिन्तन में
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भारतीय दर्शन में सामाजिक चेतना
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वैयक्तिकता से ऊपर उठकर सामाजिक एकता के लिए अभेद-निष्ठा का जिस प्रकार हाथ आदि शरीर के अवयव होने के कारण प्रिय सर्वोत्कृष्ट तात्त्विक आधार प्रस्तुत किया गया। इस प्रकार जहाँ वेदों की होते हैं वैसे ही सब प्राणी जगत् के अवयव होने के कारण क्यों प्रिय समाज-निष्ठा बर्हिमुखी थी, वहीं उपनिषदों में आकर अतमुखी हो नहीं होंगे । गीता भी इस एकात्मता की अनुभूति पर बल देती है । गयी। भारतीय दर्शन में यह अभेद-निष्ठा ही सामाजिक एकत्व की गीताकार कहता है कि - चेतना एवं सामाजिक समता का आधार बनी है। ईशावास्योपनिषद का
'आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन । ऋषि कहता था -
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमोमतः ।।' यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति ।
(गीता, ६/३२) सर्व-भूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ।।
अर्थात् जो सुख-दुःख की अनुभूति में सभी को अपने समान जो सभी प्राणियों को अपने में और अपने को सभी प्राणियों समझता है वही सच्चा योगी है । मात्र इतना ही नहीं, वह तो इससे आगे में देखता है वह अपनी इस एकात्मा की अनुभूति के कारण किसी से यह भी कहता है कि सच्चा दर्शन या ज्ञान वही है जो हमें एकात्मा की घृणा नहीं करता है । सामाजिक जीवन के विकास का आधार एकात्मा अनुभूति कराता है ‘अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्विकम्' । की अनुभूति है और जब एकात्मा की दृष्टि का विकास हो जाता है तो वैयक्तिक विभिन्नताओं में भी एकात्मा की अनुभूति ही ज्ञान की सात्विकता घृणा और विद्वेष के तत्त्व स्वत: समाप्त हो जाते हैं । इस प्रकार जहाँ और हमारी समाज-निष्ठा का एक मात्र आधार है । सामाजिक दृष्टि से एक ओर औपनिषदिक ऋषियों ने एकात्मा की चेतना को जाग्रत कर गीता 'सर्वभूत-हिते रताः' का सामाजिक आदर्श भी प्रस्तुत करती सामाजिक जीवन के विनाशक घृणा एवं विद्वेष के तत्त्वों को समाप्त है। अनासक्त भाव से युक्त होकर लोक-कल्याण के लिए कार्य करते करने का प्रयास किया, वहीं दूसरी ओर उन्होंने सम्पत्ति के वैयक्तिक रहना ही गीता के समाज दर्शन का मूल मन्तव्य है । श्रीकृष्ण स्पष्ट रूप अधिकार का निरसन कर ईश्वरीय सम्पदा अर्थात् सामूहिक सम्पदा का से कहते हैं - विचार भी प्रस्तुत किया। ईशावास्योपनिषद् के प्रारम्भ में ही ऋषि कहता है : 'ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः' (गीता, १२/४) ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्चि जगत्यां जगत् ।
मात्र इतना ही नहीं, गीता में सामाजिक दायित्वों के निर्वहन तेन त्यक्तेन भुंजीथाः मा गृद्ध कस्यस्विद्धनम् ।। -ईशा०, १/१ पर भी परा-पूरा बल दिया गया है । जो अपने सामाजिक दायित्वों को
अर्थात् इस जग में जो कुछ भी है वह सभी ईश्वरीय है ऐसा पर्ण किये बिना भोग करता है वह गीताकार की दृष्टि में चोर है (स्तेन कुछ भी नहीं है, जिसे वैयक्तिक कहा जा सके । इस प्रकार श्लोक के
एव सः, ३/१२) । साथ ही जो मात्र अपने लिए पकाता है वह पाप पूर्वार्द्ध में वैयक्तिक अधिकार का निरसन करके समष्टि को प्रधानता दी
का ही अर्जन करता है। (भंजते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् गई है। श्लोक के उत्तरार्द्ध में व्यक्ति के उपभोग एवं संग्रह के अधिकार
३/१३)। गीता हमें समाज में रहकर ही जीवन जीने की शिक्षा देती है को मर्यादित करते हुए कहा गया कि प्रकृति की जो भी उपलब्धियाँ हैं उनमें दूसरों (अर्थात् समाज के दूसरे सदस्यों) का भी भाग है । अत:
इसलिए उसने संन्यास की नवीन परिभाषा भी प्रस्तुत की है। वह कहती उनके भाग को छोड़कर ही उनका उपयोग करो, संग्रह या लालच मत करो क्योंकि सम्पत्ति किसी एक की नहीं है । सम्भवतः सामाजिकता की
'काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः' चेतना के विकास के लिए इससे अधिक महत्त्वपूर्ण दूसरा कथन नहीं
(गीता, १८/२) हो सकता था । यही कारण था कि गांधी जी ने इस श्लोक के सन्दर्भ में
काम्य अर्थात स्वार्थ युक्त कर्मों का त्याग ही संन्यास है, कहा था कि यदि भारतीय संस्कृति का सभी कुछ नष्ट हो जाये किन्तु यह केवल निरग्नि और निष्क्रिय हो जाना संन्यास नहीं है। सच्चे संन्यासी श्लोक बना रहे तो यह अकेला ही उसकी अभिव्यक्ति में समर्थ है। तेन का लक्षण है समाज में रहकर लोक-कल्याण के लिए अनासक्त भाव त्यक्तेन भुंजीथा: में समग्र सामाजिक चेतना केन्द्रित दिखाई देती है। से कर्म करता रहे ।
यदि हम उपनिषदों के पश्चात् महाभारत और उसके ही एक अनाश्रितः कर्मफलं कार्य कर्म करोति यः । अंश गीता की ओर आते हैं तो यहाँ भी हमें सामाजिक चेतना का स्पष्ट स संन्यासी च योगी च न निरग्नि न चाक्रियः ।। दर्शन होता है। महाभारत तो इतना व्यापक ग्रन्थ है कि उसमें उपस्थित
(गीता ६/१) समाज-दर्शन पर एक स्वतन्त्र महानिबन्ध लिखा जा सकता है ।
गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि लोक-शिक्षा को चाहते हुए सर्वप्रथम महाभारत में और उसके पश्चात् आचार्य शान्तिदेव के बोधिचर्यावतार
यावतार कर्म करता रहे (कुर्यात् विद्वान् तथासक्तः चिकीर्षु:लोकसंग्रहम् ३/२५)। में हमें समाज की आंगिक संकल्पना का वह सिद्धान्त परिलक्षित होता ।
गीता में गुणाश्रित कर्म के आधार पर वर्ण-व्यवस्था का जो आदर्श है, जिस पर पाश्चात्य चिन्तन में सर्वाधिक बल दिया गया है। आचार्य शान्तिदेव लिखते हैं -
प्रस्तुत किया था वह भी सामाजिक दृष्टि से कर्तव्यों एवं दायित्वों के 'कायस्यावयवत्वेन यथाभीष्टा करादयः ।
विभाजन का एक महत्त्वपूर्ण कार्य था, यद्यपि भारतीय समाज का यह
दुर्भाग्य था कि गुण अर्थात् वैयक्तिक योग्यता के आधार पर कर्म एवं जगतो ऽवयवत्वेन तथा कस्मान्न देहिनः ।।' (बोधिचर्यावतार, ८/११४)
वर्ण का यह विभाजन किन्हीं स्वार्थों के कारण जन्मना बना दिया गया।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
गीता वर्ण-व्यवस्था को तो स्वीकार करती है किन्तु जन्म के आधार पर सामाजिक एवं धार्मिक कर्तव्यों से बद्ध होने की बात नहीं कहता है । नहीं, गुण एवं कर्म के आधार पर (चातुर्वयं मयासष्टं गुण-कर्मविभागशः उसके अनुसार व्यक्ति के लिये मुख्य कर्तव्य एक ही है, वह यह कि - गीता, ४/१३) । गीता में श्रीकृष्ण स्पष्ट रूप से कहते हैं कि - जिस तरह भी हो आत्म-साक्षात्कार का और उसमें रुकावट डालने वाली
ब्राह्मण क्षत्रिय विशां शूद्राणां च परंतप । इच्छा के नाश का प्रयत्न करे (दर्शन और चिन्तन)।" किन्तु इस आधार कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभाव प्रभवैर्गुणैः ।।
पर यह मान लेना कि भारतीय चिन्तन की निवर्तक धारा के समर्थक
(गीता, १८/४१) अर्थात् जैन, बौद्ध, सांख्य, योग, शांकर वेदान्त आदि दर्शन असामाजिक हे अर्जुन ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के कर्मों का हैं या इन दर्शनों में सामाजिक सन्दर्भ का अभाव है, नितान्त भ्रम विभाजन उनके स्वभाव से उत्पन्न गुणों के आधार पर किया गया है। होगा । इनमें भी सामाजिक भावना से पराङ्गमुखता नहीं दिखाई देती सामाजिक जीवन में विषमता एवं संघर्ष का एक महत्त्वपूर्ण कारण है। ये दर्शन इतना तो अवश्य मानते हैं कि चाहे वैयक्तिक साधना की सम्पत्ति का अधिकार है । श्रीमद्भागवत भी ईशावास्योपनिषद् के समान दृष्टि से एकांकी जीवन लाभप्रद हो सकता है किन्तु उस साधना से प्राप्त ही सम्पत्ति पर व्यक्ति के अधिकार को अस्वीकार करती है। उसमें कहा सिद्धि का उपयोग सामाजिक कल्याण की दिशा में ही होना चाहिए। गया है -
महावीर, बुद्ध और शंकराचार्य का जीवन स्वयं इस बात का साक्षी है यावत् भ्रियेत जठरं, तावत् स्वत्वं देहिनाम् । कि वे ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् जीवन-पर्यन्त लोक-मंगल के लिए कार्य अधिको योऽभिमन्येत स स्तेनो दण्डमर्हति ।। करते रहे । यद्यपि इन निवृत्तिप्रधान दर्शनों में जो सामाजिक सन्दर्भ
-श्रीमद्भागवत, ७/१४/८ उपस्थित हैं, वे थोड़े भिन्न प्रकार के अवश्य हैं। इनमें मूलत: सामाजिक अर्थात् अपनी दैहिक आवश्यकता से अधिक सम्पदा पर सम्बन्धों की शुद्धि का प्रयास परिलक्षित होता है । सामाजिक सन्दर्भ की अपना स्वत्व मानना सामाजिक दृष्टि से चोरी है, अनधिकृत चेष्टा है। दृष्टि से इनमें समाज-रचना एवं सामाजिक दायित्वों का निवर्हण की आजका समाजवाद एवं साम्यवाद भी इसी आदर्श पर खड़ा है, 'योग्यता अपेक्षा समाज-जीवन को दूषित बनाने वाले तत्त्वों के निरसन पर बल के अनुसार कार्य और आवश्यकता के अनुसार वेतन' की उसकी धारणा दिया गया है । जैन दर्शन के पंच महाव्रत, बौद्ध दर्शन के पंचशील और यहाँ पूरी तरह उपस्थित है । भारतीय चिन्तन में पुण्य और पाप का जो योग दर्शन के पंचयमों का सम्बन्ध अनिवार्यतया हमारे सामाजिक जीवन वर्गीकरण है, उसमें भी सामाजिक दृष्टि ही प्रमुख है । पाप के रूप में से ही है । प्रश्नव्याकरण सूत्र नामक जैन आगम में कहा गया है कि जिन दुर्गणों का और पुण्य के रूप में जिन सद्गुणों का उल्लेख है उनका 'तीर्थंकर का यह सुकथित प्रवचन सभी प्राणियों के रक्षण एवं करुणा सम्बन्ध वैयक्तिक जीवन की अपेक्षा सामाजिक जीवन से अधिक है। के लिए हैं । पाँचों महाव्रत सर्वप्रकार से लोकहित के लिए ही हैं - (प्रश्न पुण्य और पाप की एक मात्र कसौटी है, किसी कर्म का लोक-मंगल व्याकरण, १/१/२१-२२) । हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार, संग्रह में उपयोगी या अनुपयोगी होना । कहा भी गया है -
(परिग्रह) ये सब वैयक्तिक नहीं, सामाजिक जीवन की दुष्प्रवृत्तियाँ हैं । परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्'
ये सब दूसरों के प्रति हमारे व्यवहार से सम्बन्धित हैं । हिंसा का अर्थ ___ जो लोक के लिए हितकर तथा कल्याण कर है, पुण्य है और है किसी अन्य की हिंसा, असत्य का मतलब है किसी अन्य को गलत इसके विपरीत जो भी दूसरों के लिए पीड़ा-जनक है, अमंगलकर है वह जानकारी देना, चोरी का अर्थ है किसी दूसरे की सम्पत्ति का अपहरण पाप है । इस प्रकार भारतीय चिन्तन में पुण्य-पाप की व्याख्यायें भी करना, इसी प्रकार संग्रह या परिग्रह का अर्थ है समाज में आर्थिक सामाजिक दृष्टि पर ही आधारित हैं।
विषमता पैदा करना । क्या समाज जीवन के अभाव में इनका कोई अर्थ (३)
या सन्दर्भ रह जाता है । अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह यदि हम निवर्तक धारा के समर्थक जैन, बौद्ध, सांख्य, योग की जो मर्यादायें इन दर्शनों ने दीं, वे हमारे सामाजिक सम्बन्धों की शुद्धि एवं शांकर वेदान्त की ओर दृष्टिपात करते हैं तो प्रथम दृष्टि में ऐसा के लिए ही हैं। लगता है कि इनमें समाज की दृष्टि की उपेक्षा की गई है । सामान्यतया इसी प्रकार इन दर्शनों की साधना पद्धति में समान रूप से यह माना जाता है कि निवृत्ति-प्रधान दर्शन व्यक्ति-परक और प्रवृत्ति- प्रस्तुत मैत्री, प्रमोद, करुणा और मध्यस्थ की भावनाओं के आधार पर प्रधान दर्शन समाज-परक होते हैं । पं० सुखलालजी के शब्दों में भी सामाजिक सन्दर्भ को स्पष्ट किया जा सकता है । आचार्य अमितगति "प्रवर्तक धर्म का संक्षेप सार यह है कि जो और जैसी समाज व्यवस्था इन भावनाओं की अभिव्यक्ति निम्न शब्दों में करते हैं - है, उसे इस तरह नियम-बद्ध करना कि जिससे समाज का प्रत्येक सभ्य सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपा-परत्वम् । अपनी-अपनी स्थिति और कक्षा के अनुरूप सुख लाभ करे । प्रवर्तक धर्म माध्यस्थ-भावं विपरीतवृत्तौ सदामआत्मा विदधातु देव ।। समाज-गामी था, इसका मतलब यह था कि प्रत्येक व्यक्ति समाज में
-सामायिक पाठ रहकर (उन) सामाजिक कर्तव्यों का पालन करे जो ऐहिक जीवन से
हे प्रभु ! हमारे मनों में प्राणियों के प्रति मित्रता, गुणीजनों के सम्बन्ध रखते हैं । (जबकि) निवर्तक धर्म व्यक्तिगामी है, (वह) समस्त प्रति प्रमोद, दुःखियों के प्रति करुणा तथा दुष्ट जनों के प्रति मध्यस्थ भाव
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भारतीय दर्शन में सामाजिक चेतना
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विद्यमान रहें । इस प्रकार इन भावनाओं के माध्यम से समाज के विभिन्न सामाजिक सम्बन्धों के मूल में व्यक्ति की राग-भावना ही काम करती
क्तियों से हमारे सम्बन्ध किस प्रकार के हों, यही स्पष्ट किया है। सामान्यतया राग द्वेष का सहगामी होता है और जब सम्बन्ध रागगया है । समाज मे दूसरे लोगों के साथ हम किस प्रकार जीवन जियें द्वेष के आधार पर खड़े होते हैं तो इन सम्बन्धों से टकराहट एवं विषमता यह हमारी सामाजिकता के लिए अति आवश्यक है और इन दर्शनों में स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होती है । बोधिचर्यावतार में आचार्य शान्तिदेव इस प्रकार से व्यक्ति को समाज-जीवन से जोड़ने का ही प्रयास किया लिखते हैं - गया है । इन दर्शनों का हृदय रिक्त नहीं है। इनमें प्रेम और करुणा की उपद्रवा ये च भवन्ति लोके यावन्ति दुःखानि भयानि चैव । अटूट धारा बह रही है । तीर्थंकर की वाणी का प्रस्फुटन ही लोक की सर्वाणि तान्यात्म परिग्रहेण तत् किं ममानेन परिग्रह ।। करुणा के लिए होता है (समेच्च लोये खेयन्ने पण्बेइये) । इसीलिए तो आत्मान् परित्यज्य दुःख त्यैक्तुं न शक्यते । आचार्य समन्तभद्र लिखते हैं 'सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदय तीर्थमिदं यथाग्नि परित्यज्य दाहं त्यैक्तुं न शक्यते ।। तवैव' 'हे प्रभु ! आपका अनुशासन सभी दु:खों का अन्त करने वाला
-बोधिचर्यावतार, ८/१३४-१३५ और सभी का कल्याण, सर्वोदय करने वाला है । ' जैन आगमों में संसार के सभी दुःख और भय एवं तद्जन्य उपद्रव ममत्व के प्रस्तुत कुल धर्म, ग्राम-धर्म, नगर-धर्म, राष्ट्र-धर्म एवं गण-धर्म भी कारण होते हैं । जब तक ममत्व बुद्धि का परित्याग नहीं किया जाता उसकी समाज-सापेक्षता को स्पष्ट कर देते हैं । त्रिपिटिक में भी अनेक तब तक इन दुःखों की समाप्ति सम्भव नहीं है । जैसे अग्नि का परित्याग सन्दर्भो में व्यक्ति के विविध सामाजिक सम्बन्धों के आदर्शों का चित्रण किये बिना तज्जन्य दाह से बचना असम्भव है । राग हमें सामाजिक किया गया है । इन सब पर इस लघु निबन्ध में प्रकाश डाल पाना जीवन से जोड़ता नहीं है, अपितु तोड़ता ही है । राग के कारण मेरा या सम्भव नहीं है । पारिवारिक और सामाजिक जीवन में हमारे पारस्परिक ममत्व भाव उत्पन्न होता है । मेरे सम्बन्धी, मेरी जाति, मेरा धर्म, मेरा . सम्बन्धों को सुमधुर एवं समायोजनपूर्ण बनाने तथा सामाजिक टकराव राष्ट्र ये विचार विकसित होते हैं और उसके परिणामस्वरूप भाईके कारणों का विश्लेषण कर उन्हें दूर करने के लिए इन दर्शनों का भतीजावाद, जातिवाद, साम्प्रदायिकता और संकुचित राष्ट्रवाद का जन्म महत्त्वपूर्ण योगदान है।
होता है । आज मानव जाति के सुमधुर सामाजिक सम्बन्धों में ये ही
होता है। वस्तुत: इन दर्शनों ने आचार शुद्धि पर बल देकर व्यक्ति सुधार सबसे अधिक बाधक तत्त्व हैं । ये मनुष्य को पारिवारिक, जातीय, के माध्यम से समाज-सुधार का मार्ग प्रशस्त किया । इन्होंने व्यक्ति को साम्प्रदायिक और राष्ट्रीय क्षुद्र स्वार्थों से ऊपर नहीं उठने देते हैं । वे ही समाज का केन्द्र माना और इसलिए उसके चरित्र के निर्माण पर बल आज की विषमता के मूल कारण हैं । भारतीय दर्शन ने राग या आसक्ति दिया । वस्तुतः इन दर्शनों के युग तक समाज-रचना का कार्य पूरा हो के प्रहाण पर बल देकर सामाजिकता की एक यथार्थ दृष्टि ही प्रदान की चुका था अतः इन्होंने मुख्य रूप से सामाजिक बुराइयों को समाप्त करने है। प्रथम तो यह कि राग किसी पर होता है और जो किसी पर होता का प्रयास किया और सामाजिक सम्बन्धों की शुद्धि पर बल दिया। है वह सब नहीं हो सकता है । अत: राग से ऊपर उठे बिना या आसक्ति (४)
छोड़ बिना सामाजिकता की सच्ची भूमिका प्राप्त नहीं की जा सकती। सम्भवतः भारतीय दर्शन को जिन आधारों पर सामाजिक सामाजिक जीवन की विषमताओं का मूल 'स्व' की संकुचित सीमा ही जीवन से कटा हुआ माना जाता है उनमें प्रमुख हैं राग या आसक्ति का है। व्यक्ति जिसे अपना मानता है उसके हित की कामना करता है और प्रहाण, संन्यास या निवृत्ति मार्ग की प्रधानता तथा मोक्ष का प्रत्यय । ये जिसे पराया मानता है उसके हित की उपेक्षा करता है । सामाजिक जीवन ही ऐसे तत्त्व हैं जो व्यक्ति को सामाजिक जीवन से अलग करते हैं। में शोषण, क्रूर व्यवहार, घृणा आदि सभी उन्हीं के प्रति किये जाते हैं, अत: भारतीय सन्दर्भ में इन प्रत्ययों की सामाजिक दृष्टि से समीक्षा जिन्हें हम अपना नहीं मानते हैं । यद्यपि यह बड़ा कठिन कार्य है कि हम आवश्यक है।
अपनी रागात्मकता या ममत्ववृत्ति का पूर्णतया विसर्जन कर सकें किन्तु सर्वप्रथम भारतीय दर्शन आसक्ति, राग या तृष्णा की समाप्ति यह भी उतना ही सत्य है कि उसका एक सीमा तक विसर्जन किये बिना पर बल देता है, किन्तु प्रश्न यह है कि क्या आसक्ति या राग से ऊपर अपेक्षित सामाजिक जीवन का विकास नहीं हो सकता । व्यक्ति का उठने की बात सामाजिक जीवन से अलग करती है। सामाजिक जीवन ममत्व चाहे वह व्यक्तिगत जीवन, पारिवारिक जीवन या राष्ट्र की सीमा का आधार पारस्परिक सम्बन्ध है और सामान्यतया यह माना जाता है तक विस्तृत हो, हमें स्वार्थ-भावना से ऊपर नहीं उठने देता । स्वहित कि राग से मुक्ति या आसक्ति की समाप्ति तभी सम्भव है जबकि व्यक्ति की वृत्ति चाहे वह परिवार के प्रति हो या राष्ट्र के प्रति, समान रूप से अपने को सामाजिक जीवन से या पारिवारिक जीवन से अलग कर सामाजिकता की विरोधी ही सिद्ध होती है । उसके होते हुए सच्चा ले । किन्तु यह एक भ्रान्त धारणा ही है । न तो सम्बन्ध तोड़ देने मात्र सामाजिक जीवन फलित नहीं हो सकता । जिस प्रकार परिवार के प्रति से राग समाप्त हो जाता है, न राग के अभाव मात्र से सम्बन्ध टूट जाते ममत्व का सघन रूप हममें राष्ट्रीय चेतना का विकास नहीं कर सकता हैं, वास्तविकता तो यह है कि राग या आसक्ति की उपस्थिति में हमारे उसी प्रकार राष्ट्रीयता के प्रति भी ममत्व सच्ची मानवीय एकता में यथार्थ सामाजिक सम्बन्ध ही नहीं बन पाते । सामाजिक जीवन और सहायक सिद्ध नहीं हो सकता । जिन राष्ट्रों में व्यावहारिक सच्चाई एवं
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
प्रामाणिकता है, वे भी अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में सत्यनिष्ठ और प्रामाणिक नहीं क्या वह असामाजिक हो जाता है ? संन्यास के संकल्प में वह कहता हैं । इस प्रकार हम देखते हैं कि व्यक्ति का जीवन जब तक राग या है कि 'वित्तेषणा पुढेषणा लोकेषणा मया परित्यक्ता अर्थात् मैं आसक्ति से ऊपर नहीं उठता तब तक सामाजिकता का सद्भाव सम्भव धर्म-कामना, सन्तान-कामना और यश-कामना का परित्याग करता हूँ नहीं हो सकता। समाज त्याग एवं समर्पण के आधार पर खड़ा होता है किन्तु क्या धन-सम्पदा, सन्तान तथा यशकीर्ति की कामना का परित्याग अत: वीतराग या अनासक्त दृष्टि ही सामाजिक जीवन के लिए वास्तविक समाज का परित्याग है ? वस्तुत: समस्त एषणाओं का त्याग स्वार्थ का आधार प्रस्तुत कर सकती है और सम्पूर्ण मानव-जाति में सुमधुर त्याग है, वासनामय जीवन का त्याग है, संन्यास का यह संकल्प उसे सामाजिक सम्बन्धों का निर्माण कर सकती है । भारतीय दर्शन में राग समाज-विमुख नहीं बनाता है, अपितु समाज-कल्याण की उच्चतर के साथ-साथ अहं के प्रत्यय के विगलन पर भी समान रूप से बल दिया भूमिका पर अधिष्ठित करता है क्योंकि सच्चा लोकहित नि:स्वार्थता एवं गया है । अहं भाव भी हमारे सामाजिक सम्बन्धों में बाधा ही उत्पन्न करता विराग की भूमि पर स्थित होकर ही किया जा सकता है। है। शासन की इच्छा या आधिपत्य की भावना इसके प्रमुख तत्त्व है और भारतीय चिन्तन संन्यास को समाज-निरपेक्ष नहीं मानता । इनके कारण सामाजिक जीवन में विषमता एवं टकराहट उत्पन्न होती भगवान बुद्ध का यह आदेश 'चरत्थ भिक्खवे चारिकं बहुजन-हिताय है। भारतीय दर्शन अहं के प्रत्यय के विगलन के द्वारा सामाजिक जीवन बहुजन-सुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय देव मनुस्सानं' (विनय में परतन्त्रता को समाप्त करता है । यदि हम सामाजिक सम्बन्धों में पिटक-महावग्ग)। इस बात का प्रमाण है कि संन्यास लोक-मंगल के उत्पन्न होने वाली विषमता एवं टकराहट के कारणों का विश्लेषण करें लिए होता है । सच्चा संन्यासी वह व्यक्ति है जो समाज से अल्पतम तो उसके मूल में हमारी आसक्ति, रागात्मकता या अहं ही प्रमुख है। लेकर उसे अधिकतम देता है । वस्तुत: कुटुम्ब, परिवार आदि का त्याग आसक्ति, ममत्व भाव या राग के कारण ही मनुष्य में संग्रह, आवेश और इसलिए करता है कि वह समष्टि का होकर रहे क्योंकि जो किसी का कपटाधार के तत्त्व जन्म लेते हैं। संग्रह की मनोवृत्ति के कारण शोषण, है वह सबका नहीं हो सकता, जो सबका है वह किसी एक का नहीं अप्रामाणिकता, स्वार्थपूर्ण व्यवहार एवं विश्वासघात के तत्त्व विकसित है। संन्यासी नि:स्वार्थ और निष्काम रूप से लोक-मंगल-साधक होता होते हैं । इसी प्रकार आवेश की मनोवृत्ति के कारण क्रूर व्यवहार, संघर्ष, है। संन्यास शब्द सम्पूर्वक न्यास है, न्यास शब्द का एक अर्थ देखरेख युद्ध एवं हत्याएँ होती हैं । और कपट की मनोवृत्ति अविश्वास एवं करना भी है । संन्यासी वह व्यक्ति है जो सम्यक् रूप से एक न्यासी अमैत्रीपूर्ण व्यवहार को जन्म देती है। अत: यह कहना उचित ही होगा (ट्रस्टी) की भूमिका अदा करता है और न्यासी वह है जो ममत्व भाव कि भारतीय दर्शन ने राग या आसक्ति के प्रहाण पर बल देकर सामाजिक और स्वामित्व का त्याग करके किसी ट्रस्ट (सम्पदा) का रक्षण एवं विषमताओं को समाप्त करने एवं सामाजिक समत्व की स्थापना करने विकास करता है । संन्यासी सच्चे अर्थ में एक ट्रस्टी है। ट्रस्टी यदि में महत्त्वपूर्ण सहयोग दिया है । समाज त्याग एवं समर्पण पर खड़ा होता ट्रस्ट का उपयोग अपने हित में करता है, अपने को उसका स्वामी है, जीता है और विकसित होता है, यह भारतीय चिन्तन का महत्त्वपूर्ण समझता है तो वह सम्यक् ट्रस्टी नहीं हो सकता है। इसी प्रकार यदि निष्कर्ष है । वस्तुत: आसक्ति या राग तत्त्व की उपस्थिति में सच्चा वह ट्रस्ट के रक्षण एवं विकास का प्रयत्न न करे तो भी सच्चे अर्थ में लोकहित भी फलित नहीं होता है । आसक्ति या कर्म-फल की आकांक्षा ट्रस्टी नहीं है । इसी प्रकार यदि संन्यासी लोकेषणा से युक्त है, ममत्वके साथ किया गया कोई भी लोक-हित का कार्य स्वार्थपरता से शून्य बुद्धि या स्वार्थ बुद्धि से काम करता है तो संन्यासी नहीं है और यदि लोक नहीं होता है । जिस प्रकार शासन की ओर से नियुक्त समाज कल्याण की उपेक्षा करता है, लोक मंगल के लिए प्रयास नहीं करता है तो वह अधिकारी लोकहित को करते हुए भी सच्चे अर्थों में लोकहित का कर्ता भी संन्यासी नहीं है । उसके जीवन का मिशन तो 'सर्वभूत-हिते रतः' नहीं है, क्योंकि वह जो कुछ भी करता है वह केवल अपने वेतन के का है। लिए करता है, इसी प्रकार आसक्ति या राग-भावना से युक्त व्यक्ति चाहे संन्यास का राग से ऊपर उठना आवश्यक है। किन्तु इसका बाहर से लोकहित का कर्ता दिखाई दे किन्तु वह सच्चे अर्थ में लोकहित तात्पर्य समाज की उपेक्षा नहीं है । संन्यास की भूमिका में स्वत्व एवं का कर्ता नहीं है। अत: भारतीय दर्शन ने आसक्ति से या राग से ऊपर ममत्व के लिए निश्चय ही कोई स्थान नहीं है। फिर भी वह पलायन नहीं, उठकर लोकहित करने के लिए एक यथार्थ भूमिका प्रदान की। सराग अपितु समर्पण है । ममत्व का परित्याग कर्त्तव्य की उपेक्षा नहीं है, लोकहित या फलासक्ति से युक्त लोकहित छद्म स्वार्थ ही है । अतः अपितु कर्त्तव्य का सही बोध है । संन्यासी उस भूमिका पर खड़ा होता भारतीय दर्शनों में अनासक्ति एवं वीतरागता के प्रत्यय पर जो कुछ बल है जहाँ व्यक्ति अपने में समष्टि को और समष्टि में अपने को देखता है। दिया है वह सामाजिकता का विरोधी नहीं है।
उसकी चेतना अपने और पराये के भेद से ऊपर उठ जाती है । अपने
और पराये के विचार से ऊपर हो जाना विमुखता नहीं है, अपितु यह सामान्यतया भारतीय दर्शन के संन्यास के प्रत्यय को समाज तो उसके हृदय की व्यापकता है, महानता है । इसलिए भारतीय निरपेक्ष माना जाता है किन्तु क्या संन्यास की धारणा समाज-निरपेक्ष हैं ? चिन्तकों ने कहा है - निश्चय ही संन्यासी पारिवारिक जीवन का त्याग करता है किन्तु इससे
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भारतीय दर्शन में सामाजिक चेतना शंकर कहते हैं.
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अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् । उदारचरितानां तु बसुधैव कुटुम्बकम् ।। संन्यास की भूमिका न तो आसक्ति की भूमिका है और न उपेक्षा की। उसकी वास्तविक स्थिति 'धाय' (नर्स) के समान ममत्व रहित कर्त्तव्य भाव की होती है। कहा भी गया है -
सम दृष्टि जीवड़ा करे कुटुम्ब प्रतिपाल । अन्तर सूं न्यारा रहे जूं घाय खिलावे बाल ।। वस्तुतः निर्ममत्व एवं निःस्वार्थ भाव से तथा वैयक्तिकता और स्वार्थ से ऊपर उठकर कर्तव्य का पालन ही संन्यास की सच्ची भूमिका है। संन्यासी वह व्यक्ति है जो लोक मंगल के लिए अपने व्यक्तित्व एवं अपने शरीर को समर्पित कर देता है। वह जो कुछ भी त्याग करता है वह समाज के लिए एक आदर्श बनता है। समाज में नैतिक चेतना को जाग्रत करना तथा सामाजिक जीवन में आने वाली दुःप्रवृत्तियों से व्यक्ति को बचाकर लोक मंगल के लिए उसे दिशा-निर्देश देना संन्यासी का सर्वोपरि कर्त्तव्य माना गया है। अतः हम कह सकते हैं कि भारतीय दर्शन में संन्यास की जो भूमिका प्रस्तुत की गई है वह सामाजिकता की विरोधी नहीं है । संन्यासी क्षुद्र स्वार्थ से ऊपर उठकर खड़ा हुआ व्यक्ति होता है। जो आदर्श समाज रचना के लिए प्रयत्नशील रहता है। अब हम मोक्ष के प्रत्यय की सामाजिक उपादेयता पर चर्चा करना चाहेंगे। (६)
भारतीय दर्शन मानव जीवन के लिए अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों को स्वीकार करता है। यदि हम सामाजिक जीवन के सन्दर्भ में इन पर विचार करते हैं तो इनमें से अर्थ, काम और धर्म का सामाजिक जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान है। सामाजिक जीवन में ही इन तीनों पुरुषार्थों की उपलब्धि सम्भव है । अर्थोपार्जन और काम का सेवन तो सामाजिक जीवन से जुड़ा हुआ ही होता है । किन्तु भारतीय चिन्तन में धर्म भी सामाजिक व्यवस्था और शान्ति के लिए ही है क्योंकि धर्म को 'धर्मोधारयते प्रजाः ' के रूप में परिभाषित कर उसका सम्बन्ध भी हमारे सामाजिक जीवन से जोड़ा गया है। वह लोक मर्यादा और लोक व्यवस्था का ही सूचक है। अतः पुरुषार्थ-चतुष्टय में केवल मोक्ष ही एक ऐसा पुरुषार्थ है जिसकी सामाजिक सार्थकता विचारणीय है। प्रश्न यह है कि क्या मोक्ष की धारणा सामाजिक दृष्टि से उपादेय हो. सकती है ? जहाँ तक मोक्ष की मरणोत्तर अवस्था या तत्त्वमीमांसीय धारणा का प्रश्न है उस सम्बन्ध में न तो भारतीय दर्शनों में ही एक रूपता है और न ही उसकी कोई सामाजिक सार्थकता ही खोजी जा सकती है। किन्तु इसी आधार पर मोक्ष को अनुपादेय मान लेना उचित नहीं है। लगभग सभी भारतीय दार्शनिक इस सम्बन्ध में एकमत हैं कि मोक्ष का सम्बन्ध मुख्यतः मनुष्य की मनोवृत्ति से है बन्धन और मुक्ति दोनों ही मनुष्य के मनोवेगों से सम्बन्धित हैं । राग, द्वेष, आसक्ति, तृष्णा, ममत्व, अहं आदि की मनोवृत्तियाँ ही बन्धन हैं और इनसे मुक्त होना ही मुक्ति मुक्ति की व्याख्या करते हुए जैन दार्शनिकों ने कहा था कि मोह और क्षोभ से रहित आत्मा की अवस्था ही मुक्ति है । आचार्य
'वासनाप्रक्षयो मोक्षः '
(विवेक चूड़ामणि, ३१८)
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वस्तुतः मोह और क्षोभ हमारे जीवन से जुड़े हुए हैं और इसलिए मुक्ति का सम्बन्ध भी हमारे जीवन से ही है मेरी दृष्टि में मोक्ष मानसिक तनावों से मुक्ति है । यदि हम मोक्ष के प्रत्यय की सामाजिक सार्थकता के सम्बन्ध में विचार करना चाहते हैं तो हमें इन्हीं मनोवृत्तियों एवं मानसिक विक्षोभों के सन्दर्भ में उस पर विचार करना होगा । सम्भवतः इस सम्बन्ध में कोई भी दो मत नहीं रखेगा कि राग, द्वेष, तृष्णा, आसक्ति, ममत्व, ईर्ष्या, वैमनस्य आदि की मनोवृत्तियाँ हमारे सामाजिक जीवन के लिए अधिक बाधक है। यदि इन मनोवृत्तियों से मुक्त होना ही मुक्ति का हार्द है तो मुक्ति का सम्बन्ध हमारे सामाजिक जीवन के साथ जुड़ा हुआ है। मोक्ष मात्र एक मरणोत्तर अवस्था नहीं है अपितु वह हमारे जीवन से सम्बन्धित है । मोक्ष को पुरुषार्थ माना गया है। इसका तात्पर्य यह है कि वह इसी जीवन में प्राप्तव्य है, जो लोग मोक्ष को एक मरणोत्तर अवस्था मानते हैं, वे मोक्ष के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ हैं। आचार्य शंकर लिखते हैं
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देहस्य मोक्षो नो मोक्षो न दण्डस्य कमण्डलौः । अविद्या हृदय ग्रन्थि मोक्षो मोक्षो यतस्ततः ।। - विवेक चूड़ामणि, ५५९ मरणोत्तर मोक्ष या विदेह मुक्ति साध्य नहीं है। उसके लिए कोई साधना अपेक्षित नहीं है। जिस प्रकार मृत्यु जन्म लेने का अनिवार्य परिणाम है उसी प्रकार विदेह मुक्ति तो जीवन-मुक्ति का अनिवार्य परिणाम है। अतः जो प्राप्तव्य है, जो पुरुषार्थ है और जो साध्य है वह तो जीवन मुक्ति ही है। जीवन मुक्ति के प्रत्यय की सामाजिक सार्थकता से हम इन्कार भी नहीं कर सकते क्योंकि जीवन-मुक्ति एक ऐसा व्यक्तित्व है जो सदैव लोक-कल्याण के लिए प्रस्तुत रहता है। जैन दर्शन में तीर्थंकर बौद्ध दर्शन में अर्हत् एवं बोधिसत्व और वैदिक दर्शन में स्थितप्रज्ञ की जो धारणाएँ प्रस्तुत की गई हैं और उनके व्यक्तित्व को जिस रूप में चित्रित किया गया है उससे हम निश्चय ही इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि मोक्ष के प्रत्यय की सामाजिक उपादेयता भी है । वह लोक-मंगल और मानव कल्याण का एक महान् आदर्श माना जा सकता है क्योंकि जन-जन का दुःखों से मुक्त होना ही मुक्ति है, मात्र इतना ही नहीं, भारतीय चिन्तन में वैयक्तिक मुक्ति की अपेक्षा भी लोक कल्याण के लिए प्रयत्नशील बने रहने को अधिक महत्त्व दिया गया है। बौद्ध दर्शन में बोधिसत्व का और गीता में स्थितप्रज्ञ का जो आदर्श प्रस्तुत किया गया है, वह हमें स्पष्ट रूप से बताता है कि केवल वैयक्तिक मुक्ति को प्राप्त कर लेना ही अन्तिम लक्ष्य नहीं है। बोधिसत्व तो लोक मंगल के लिये अपने बन्धन और दुःख की कोई परवाह नहीं करता है। वह कहता है।
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बहूनामेक - दुःखेन यदि दुखं विगच्छति । उत्पाद्यमेव तद् दुःखं सदयेन परात्मनोः ।।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
मुच्यमानेषु सत्वेषु ये ते प्रामोद्यसागराः ।
है जो अपने व्यक्तित्व को समष्टि में, समाज में विलीन कर दे । आचार्य तैरेव ननु पर्याप्तं मोक्षेणारसिकेन किम् ।। शान्तिदेव लिखते हैं -
-बोधिचर्यावतार, ८/१०५,१०८ सर्वत्यागश्च निर्वाणं निर्वाणार्थि च मे मनः । यदि एक के कष्ट उठाने से बहुतों का दुःख दूर होता हो, तो त्यक्तव्यं चेन्मया सर्वं वरं सत्वेषु दीयतां ।। करुणापूर्वक उनके दुःख दूर करना ही अच्छा है । प्राणियों को दुःखों से
-बोधिचर्यावतार, ३/११ मुक्त होता हुआ देखकर जो आनन्द प्राप्त होता है वही क्या कम है, फिर इस प्रकार यह धारणा कि मोक्ष का प्रत्यय सामाजिकता का अपने मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा की क्या आवश्यकता है ? वैयक्तिक विरोधी है, गलत है । मोक्ष वस्तुत: दुःखों से मुक्ति है और मनुष्य जीवन मुक्ति की धारणा की आलोचना करते हुए और जन-जन की मुक्ति के के अधिकांश दुःख, मानवीय संवर्गों के कारण ही हैं । अतः मुक्ति, लिए अपने संकल्प को स्पष्ट करते हुए भागवत के सप्तम स्कन्ध में ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, घृणा आदि के संवर्गों से मुक्ति पाने में है और इस प्रहलाद ने स्पष्ट रूप से कहा था कि -
रूप में वह वैयक्तिक और सामाजिक दोनों ही दृष्टि से उपादेय भी है। प्रायेण देवमुनयः स्वविमुक्तिकामाः ।
दुःख, अहंकार एवं मानसिक क्लेशों से मुक्ति रूप में मोक्ष की उपादेयता मौनं चरन्ति विजने न परार्थनिष्ठाः ।।
और सार्थकता को अस्वीकार भी नहीं किया जा सकता है। नेतान् विहाय कृपणाम् विमुमुक्षुरेकः ।।।
अन्त में हम कह सकते हैं कि भारतीय जीवन-दर्शन की दृष्टि हे प्रभु ! अपनी मुक्ति की कामना करने वाले देव और मुनि पूर्णतया सामाजिक और लोक मंगल के लिए प्रयत्नशील बने रहने की तो अब तक काफी हो चुके हैं जो जंगल में जाकर मौन साधना किया है। उसकी एकमात्र मंगल कामना है - करते थे किन्तु उनमें परार्थ-निष्ठा नहीं थी । मैं तो अकेला इन सब सर्वेऽत्रसुखिनः संतु । सर्वे संतु निरामयाः ।। दुःखीजनों को छोड़कर मुक्त होना भी नहीं चाहता । यह भारतीय दर्शन सर्वे भद्राणि पश्यतु । मा कश्चित् दुःखमाप्तुयात् ।।
और साहित्य का सर्वश्रेष्ठ उद्गार है । इसी प्रकार बोधिसत्व भी सदैव लोक मंगल की उसकी सर्वोच्च भावना का प्रतिबिम्ब हमें ही दीन और दुःखी जनों को दुःख से मुक्त कराने के लिए प्रयत्नशील आचार्य शान्तिदेव के शिक्षा समुच्चय नामक ग्रन्थ में मिलता है । अत: बने रहने की अभिलाषा करता है और सबको मुक्त कराने के पश्चात् ही मैं उसकी हिन्दी में अनूदित निम्न पंक्तियों से अपने इस लेख का समापन मुक्त होना चाहता है।
करना चाहूँगा - मवेयमुपजीव्योऽहं यावत्सर्वे न निर्वृताः ।
इस दुःखमय नरलोक में, (बोधिचर्यावतार, ३/२१) जितने दलित, बन्धग्रसित पीड़ित विपत्ति विलीन हैं; वस्तुत: मोक्ष अकेला पाने की वस्तु ही नहीं है । इस सम्बन्ध जितने बहुधन्धी विवेक विहीन हैं । में विनोबा भाबे के उद्गार विचारणीय हैं
जो कठिन भय से और दारूण शोक से अतिदीन हैं, जो समझता है कि मोक्ष अकेले हथियाने की वस्तु है, वे मुक्त हों निजबन्ध से, स्वच्छन्द हो सब द्वन्द्व से, वह उसके हाथ से निकल जाता है । मैं के आते
छूटे दलन के फन्द से , ही मोक्ष भाग जाता है, मेरा मोक्ष यह वाक्य
हो ऐसा जग में, दुःख से विचले न कोई, ही गलत है । 'मेरा' मिटने पर ही मोक्ष मिलता है । वेदनार्थ हिले न कोई, पाप कर्म करे न कोई,
(आत्म ज्ञान और विज्ञान, पृ० ७१) असन्मार्ग धरे न कोई, इसी प्रकार वास्तविक मुक्ति अहंकार से मुक्ति ही है । 'मैं' हो सभी सुखशील, पुण्याचार धर्मव्रती, अथवा 'अहं' भाव से मुक्त होने के लिए हमें अपने आपको समष्टि, में सबका ही परम कल्याण, समाज में लीन कर देना होता है । मुक्ति वही व्यक्ति प्राप्त कर सकता सबका ही परम कल्याण ।
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जैन धर्म में सामाजिक चिन्तन
जैनधर्म निवृत्तिमार्गी श्रमण-परम्परा का धर्म है । सामान्यतया की गई है । उसमें अपनी दैहिक आवश्यकता से अधिक सम्पत्ति पर इसे सामाजिक न मानकर व्यक्तिवादी धर्म माना जाता है, किन्तु जैनधर्म अपना अधिकार मानने वाले को स्पष्टत: चोर कहा गया । इस प्रकार को एकान्त रूप से व्यक्तिवादी धर्म नहीं कहा जा सकता। यह सत्य है हम देखते हैं कि वैदिक और औपनिषदिक युग में सामाजिकता के लिये कि उसका विकास निवृत्तिमार्गी संन्यास प्रधान श्रमण-परम्परा में ही हुआ न केवल प्रेरणा दी गई अपितु एक दार्शनिक आधार भी प्रस्तुत किया है किन्तु मात्र इस आधार पर उसे असामाजिक या व्यक्तिवादी धर्म गया है। मानना, एक भ्रांति ही होगी । जीवन में दुःख की यथार्थता और दुःखविमुक्ति का जीवनादर्श, यह जैन परम्परा का अथ और इति है। जैनधर्म में सामाजिक चेतना किन्तु दुःख और दुःखविमुक्ति के ये सम्प्रत्यय मात्र वैयक्तिक नहीं है, जहाँ तक जैन और बौद्ध परम्पराओं का प्रश्न है उनमें उनका एक सामाजिक पक्ष भी है । दुःखविमुक्ति का उनका आदर्श मात्र सामाजिक चेतना का आधार एकत्व की अनुभूति न होकर समत्व की वैयक्तिक दुःखों की विमुक्ति नहीं है अपितु सम्पूर्ण प्राणिजगत् के दुःखों अनुभूति रही है । यद्यपि आचारांग में कहा गया है कि जिसे तू दुःख या की विमुक्ति है और यही उन्हें समाज से जोड़ देता है । श्रमणधारा में पीड़ा देना चाहता है, वह तू ही है । इसमें यह फलित होता है कि धर्म और नीति को अवियोज्य माना गया है और धर्म एवं नीति की यह आचारांगसूत्र भी एकत्व की अनुभूति पर सामाजिक या अहिंसक चेतना अवियोज्यता भी उसमें सामाजिक सन्दर्भ को स्पष्ट कर देती है। को विकसित करता है, फिर भी जैन और बौद्ध परम्परा में सामाजिक
चेतना एवं अहिंसा की अवधारणा के विकास का आधार सभी प्राणियों भारतीय चिन्तन में सामाजिक चेतना
के प्रति समभाव या समता की भावना रही । उनमें दूसरों की जिजीविषा सामाजिक चेतना के विकास की दृष्टि से भारतीय चिन्तन को और सुख-दुःखानुभूति 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' के आधार पर समझने का तीन युगों में बाँटा जा सकता है । (१) वैदिक युग, (२) औपनिषदिक प्रयत्न किया गया और सामाजिक सम्बन्धों की शुद्धि पर विशेष बल युग, (३) जैन और बौद्ध युग । सर्वप्रथम जहाँ वैदिक युग में 'संगच्छध्वं दिया गया। यद्यपि जैन और बौद्धधर्म निवृत्तिप्रधान रहे किन्तु इसका यह संवदध्वं संवोमनांसि जानताम्' अर्थात् तुम मिलकर चलो, तुम मिलकर अर्थ नहीं है कि वे समाज से विमुख थे । वस्तुत: भारत में यदि धर्म बोलो, तुम्हारे मन साथ-साथ विचार करें- इस रूप में सामाजिक चेतना के क्षेत्र में संघीय साधना-पद्धति का विकास किसी परम्परा ने किया तो को विकसित करने का प्रयत्न किया गया, तो वहीं औपनिषदिक युग वह श्रमण-परम्परा ही थी। जैनधर्म के अनुसार तो तीर्थंकर अपने प्रथम में उस सामाजिक एकत्व की चेतना के लिये दार्शनिक आधार प्रस्तुत प्रवचन में ही चतुर्विध संघ की स्थापना करता है । उसके धर्मचक्र का किए गये। ईशावास्योपनिषद् में ऋषि कहता है कि जो सभी प्राणियों प्रवर्तन संघ-प्रवर्तन से ही प्रारम्भ होता है । यदि महावीर में लोकमंगल को अपने में और अपने को सभी प्राणियों में देखता है वह अपनी इस या लोककल्याण की भावना नहीं होती तो वे अपनी वैयक्तिक साधना एकत्व की अनुभूति के कारण किसी से घृणा नहीं करता । औपनिषदिक की पूर्णता के पश्चात् धर्मचक्र का प्रवर्तन ही क्यों करते? प्रश्नव्याकरणसूत्र चिन्तन में सामाजिकता का आधार यही एकत्व की अनुभूति रही है। में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि तीर्थङ्कर का यह सुकथित प्रवचन सभी जब एकत्व की दृष्टि विकसित होती है तो घृणा और विद्वेष के तत्त्व प्राणियों की रक्षा और करुणा के लिए है । पाँचों महाव्रत सब प्रकार स्वतः समाप्त हो जाते हैं क्योंकि 'पर' रहता ही नहीं, अत: किससे घृणा से लोकहित के लिए हैं । हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार और संग्रह या विद्वेष किया जाये । घृणा, विद्वेष आदि परायेपन के भाव में ही सम्भव (परिग्रह) ये सब वैयक्तिक नहीं, सामाजिक जीवन की ही दुष्प्रवृत्तियाँ हैं होते हैं, जब सभी स्व या आत्मीय हों तो घृणा या विद्वेष का अवसर । जैन साधना-परम्परा में पंचव्रतों या पंचशीलों के रूप में जिस धर्मही कहाँ रह जाता है। इस प्रकार औपनिषदिक युग में सामाजिक चेतना मार्ग का उपदेश दिया गया, वह मात्र वैयक्तिक साधना के लिए नहीं को एक सुदृढ़ दार्शनिक आधार प्रदान किया गया है। साथ ही सम्पत्ति अपितु सामाजिक जीवन के लिए था । क्योंकि हिंसा का अर्थ है किसी पर वैयक्तिक अधिकार का निरसन कर सामूहिक-सम्पदा का विचार अन्य की हिंसा, असत्य का मतलब है किसी अन्य को गलत जानकारी प्रस्तुत किया गया है। ईशावास्योपनिषद् में सम्पूर्ण सम्पत्ति को ईश्वरीय देना, चोरी का अर्थ है किसी दूसरे की शक्ति का अपहरण करना, सम्पदा मानकर उस पर से वैयक्तिक अधिकार को समाप्त कर दिया गया व्यभिचार का मतलब है सामाजिक मान्यताओं के विरुद्ध यौन सम्बन्ध और व्यक्ति को यह कहा गया कि वह जागतिक सम्पदा पर दूसरों के स्थापित करना । इसी प्रकार संग्रह या परिग्रह का अर्थ है समाज में अधिकारों को मान्य करके ही उस सम्पत्ति का उपभोग करे। इस प्रकार आर्थिक विषमता पैदा करना । क्या सामाजिक जीवन के अभाव में इनका 'तेन त्यक्तेन भुजीथा' के रूप में उपभोग के सामाजिक अधिकार की कोई अर्थ रह जाता है ? अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह चेतना को विकसित किया गया। इसी तथ्य की पुष्टि श्रीमद्भागवत में भी के जो जीवनमूल्य जैन-दर्शन ने प्रस्तुत किये वे पूर्णत: सामाजिक मूल्य
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हैं और उनका उद्देश्य सामाजिक सम्बन्धों की शुद्धि है । लोक-मंगल और से मिले हैं । यदि मनुष्य से उसके सामाजिक अवदानों को पृथक् कर लोक-कल्याण यह श्रमण-परम्परा का और विशेष रूप से जैन-परम्परा दिया जाय तो उसका कुछ अस्तित्व ही नहीं रहेगा । दूसरी ओर, यह का मूलभूत लक्ष्य रहा है। आचार्य समन्तभद्र ने महावीर के धर्मसंघ को भी सही है कि बिना मनुष्य के मनुष्यत्व का कोई अर्थ नहीं है। मनुष्य सर्वोच्च तीर्थ कहा है, वे लिखते हैं कि “सर्वापदा:दामन्तकरं निरन्तं से पृथक् मनुष्यत्व नहीं होता, ठीक यही बात समाज के सन्दर्भ में भी सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव'', अर्थात् हे प्रभो ! आपका यह धर्मतीर्थ सभी है। समाज का अस्तित्व व्यक्तियों पर निर्भर है। व्यक्तियों के अभाव में प्राणियों के दु:खों का अन्त करने वाला और सभी का कल्याण करने समाज सम्भव ही नहीं है। दूसरी ओर वाला है । इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन-परम्परा ने निवृत्तिमार्ग को कुछ है वह समाज के कारण है । इस प्रकार जैनदर्शन में न तो निरपेक्ष प्रधानता देकर भी उसे संघीय साधना के रूप में लोक-कल्याण का रूप से व्यक्ति को महत्त्व दिया गया है और न ही समाज को । जैनधर्म आदर्श देकर सामाजिक बनाया है। जैन आगमों में कुलधर्म, ग्रामधर्म, की अनेकान्तिक दृष्टि का निष्कर्ष यह है कि व्यक्ति समाज-सापेक्ष है और नगरधर्म, राष्ट्रधर्म और गणधर्म के जो उल्लेख हैं, वे सामाजिक सापेक्षता समाज व्यक्ति-सापेक्ष । जो लोग व्यक्ति निरपेक्ष समाज अथवा समाज को स्पष्ट कर देते हैं । पारिवारिक और सामाजिक जीवन में हमारे निरपेक्ष व्यक्ति की बात करते हैं वे दोनों ही यथार्थ से अपना मुख मोड़ पारस्परिक सम्बन्ध किस प्रकार सुमधुर और समायोजनपूर्ण बन सकें और लेते हैं । सामान्य रूप से तो सभी भारतीय दर्शन और विशेष रूप से सामाजिक टकराव के कारणों का विश्लेषण कर उन्हें किस प्रकार से जैन दर्शन यह मानता है कि व्यक्ति और समाज में से किसी एक को दूर किया जा सके, यही जैनदर्शन की सामाजिक दृष्टि का मूलभूत आधार ही सब कुछ मान लेना एक भ्रान्त धारणा है । यह ठीक है कि सामाजिक है । जैनदर्शन ने आचारशुद्धि पर बल देकर व्यक्ति-सुधार के माध्यम से कल्याण के लिये व्यक्ति के हितों का बलिदान किया जा सकता है । समाज-सुधार का मार्ग प्रशस्त किया है ।
किन्तु दूसरी ओर यह भी सही है कि सामूहिक हित भी वैयक्तिक हित
से भिन्न नहीं हैं। सबके हित में व्यक्ति का हित तो निहित ही है। व्यक्ति व्यक्ति और समाज : जैन दृष्टिकोण
में समाज और समाज में व्यक्ति अनुस्यूत है। जैन परम्परा में संघ हित सामाजिक दर्शन के विभिन्न सिद्धान्तों के सन्दर्भ में जैनों का को सर्वोपरिता दी गई है। इस सम्बन्ध में एक ऐतिहासिक कथा है कि दृष्टिकोण समन्वयवादी और उदार रहा है । आगे हम क्रमश: उन भद्रबाहु ने अपनी वैयक्तिक ध्यान-साधना के लिये संघ के कुछ साधुओं सिद्धान्तों के परिप्रेक्ष्य में जैन दृष्टिकोण पर विचार करेंगे।
को पूर्व-साहित्य का अध्ययन करवाने की माँग को ठुकरा दिया। इस समाजदर्शन की दृष्टि से व्यक्ति और समाज में किसे प्रमुख पर संघ ने उनसे पूछा कि वैयक्तिक साधना और संघहित में क्या प्रधान माना जाय, यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है । व्यक्तिवादी दार्शनिक यह है ? यदि आप संघहित की उपेक्षा करते हैं तो आपको संघ में रहने का मानते हैं कि व्यक्ति ही प्रमुख है, समाज व्यक्ति के लिये बनाया गया अधिकार भी नहीं है। आपको बहिष्कृत किया जाता है। अन्त में भद्रबाह है। व्यक्ति साध्य है, समाज साधन है, अत: समाज को वैयक्तिक हितों को संघहित को प्राथमिकता देनी पड़ी२१ । यद्यपि समाज के हित के नाम पर आघात करने या उन्हें सीमित करने का कोई अधिकार नहीं है। दूसरी पर आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों को समाप्त नहीं किया जा सकता। ओर, समाजवादी दार्शनिक समाज को ही सर्वस्व मानते हैं । उनके जैन-परम्परा में कहा गया है कि आत्महित करना चाहिये और यदि शक्य अनुसार सामाजिक कल्याण ही प्रमुख है, समाज से पृथक् व्यक्ति की हो तो लोकहित भी करना चाहिये और जहाँ आत्महित और लोकहित सत्ता कुछ है ही नहीं। वह जो कुछ भी है समाज द्वारा निर्मित है । अत: में नैतिक विरोध का प्रश्न हो वहाँ आत्महित को ही चुनना पड़ेगा। सामाजिक कल्याण के लिये वैयक्तिक हितों का बलिदान किया जा यद्यपि हमें स्मरण रखना चाहिये कि यहाँ आत्महित का तात्पर्य वैयक्तिक सकता है । इन दोनों प्रकार के ऐकान्तिक दृष्टिकोणों को जैनदर्शन स्वार्थों की पूर्ति नहीं अपितु आध्यात्मिक मूल्यों का संरक्षण है । वस्तुत: अस्वीकार करता है । वह यह मानता है कि व्यक्ति और समाज एक- वैयक्तिकता और सामाजिकता दोनों ही मानवीय अस्तित्व के अनिवार्य दूसरे से निरपेक्ष होकर अपना अस्तित्व ही खो देते हैं। उसके अनुसार अंग है। पाश्चात्य विचारक ब्रेडले ने कहा था - मनुष्य मनुष्य नहीं है दार्शनिक दृष्टि से व्यक्तिरहित सामान्य (समाज) और सामान्यरहित व्यक्ति यदि वह सामाजिक नहीं और यदि वह मात्र सामाजिक है तो पशु से दोनों ही अयथार्थ हैं । वे सामान्य (universal) और विशेष अधिक नहीं है । मनुष्य की मनुष्यता वैयक्तिकता और सामाजिकता दोनों (individual) न्याय-वैशेषिकों के समान स्वतन्त्र तत्त्व नहीं मानते हैं। का अतिक्रमण करने में है१३ । किन्तु हमें यह स्मरण रखना होगा कि मनुष्यत्व नामक सामान्य गुण से रहित कोई मनुष्य नहीं हो सकता और जैनदर्शन अपनी अनेकान्तिक दृष्टि के कारण मनुष्य को एक ही साथ बिना मनुष्य (व्यक्ति) के मनुष्यत्व की कोई सत्ता नहीं होती । विशेष रूप वैयक्तिक और सामाजिक दोनों ही मानता है । से जब हम मनुष्य के सन्दर्भ में विचार करते हैं तो पाते हैं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। अत: सामाजिकता के बिना मनुष्य का कोई राग जोड़ता भी है और तोड़ता भी है अस्तित्व नहीं है । मनुष्य को अपने जैविक अस्तित्व से लेकर भाषा, यह ठीक है कि जब मनुष्य में राग का तत्त्व विकसित होता सभ्यता, संस्कृति और जीवन-मूल्य आदि जो कुछ मिले हैं, वे समाज है तो वह दूसरों से जुड़ता है। लेकिन स्मरण रखना चाहिये कि दूसरों
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से जुड़ने का अर्थ है कहीं से कटना । क्योंकि जो किसी से जुड़ता है सार्थकता स्वहितों/स्वार्थों का बलिदान करके दूसरों का मंगल करने में तो कहीं से कटता अवश्य है। राग का तत्त्व व्यक्ति के स्व की सीमा ही है। पारस्परिक हित-साधन ही जीव का स्वभाव है और इसी से का विस्तार तो अवश्य करता है किन्तु उसे दूसरों से अलग भी कर देता उसकी कर्त्तव्यता है । इसी के आधार पर हमारा मानव-समाज खड़ा हुआ है। जब हम वैयक्तिक स्वार्थों से युक्त होते हैं तो हमारा स्व संकुचित है। रागात्मकता हमें किसी से जोड़ती है तो कहीं से तोड़ती भी है, होता है और जब हम सामाजिकता से जुड़ते हैं तो हमारे स्व का क्षेत्र क्योंकि राग सदैव द्वेष के साथ-साथ जीता है । राग और द्वेष ऐसे जुड़वाँ विकसित होता है। किन्तु जब तक हम अपने और पराये के भाव का शिशु हैं जो एक-दूसरे के साथ जीते और मरते हैं । राग के अभाव में अतिक्रमण नहीं कर पाते हैं तब तक हमारा 'स्व' या 'आत्मा' पूर्ण नहीं द्वेष और द्वेष के अभाव में राग नहीं जी पाता है । अत: राग के आधार बन पाता है । जैनों के अनुसार हमारे जीवन में जो भी टूटन है, जो भी पर जो समाज खड़ा होगा उसमें अनिवार्य रूप से वर्गभेद और वर्णभेद सीमाएँ हैं और जो भी मेरे-पराये के भाव हैं, ये सभी राग और द्वेष के होगा ही, किन्तु कर्तव्यबोध के आधार पर जो समाज खड़ा होगा वह तत्त्वों के कारण हैं । जब तक हम मेरा देश, मेरी जाति, मेरा धर्म आदि वर्णभेद और वर्गभेद से ऊपर होगा। इन 'मैं' और 'मेरे' के घेरों से ऊपर नहीं उठते, दूसरे शब्दों में मेरे-तेरे वस्तुत: मानवीय विवेक के आधार पर ही कर्तव्यबोध की जो के घेरों का अतिक्रमण जब तक नहीं कर जाते तब तक सही अर्थों में चेतना जागृत होती है, वही हमारी सामाजिकता का आधार है। राग की सामाजिक भी नहीं बन पाते हैं ।१४ मेरे और पराये की मन:स्थिति में हम भाषा अधिकार की भाषा है, जबकि विवेक की भाषा दायित्वबोध या अपने आपको किन्हीं शृंखलाओं में जकड़ा हुआ ही पाते हैं । जैनधर्म की कर्तव्य की भाषा है । जिस समाज में केवल अधिकारों की बात होती साधना वीतरागता की साधना है, वह अनिवार्य रूप से स्व की संकुचित है वहाँ केवल विकृत सामाजिकता ही फलित होती है । स्वस्थ सीमा को तोड़ना है और अपने और पराये की इस संकुचित सीमा का सामाजिकता का आधार अधिकार नहीं, कर्तव्यबोध है । जैनधर्म जिस अतिक्रमण करना असामाजिक होना नहीं है । जैनधर्म मुख्यतया इस बात सामाजिक चेतना की बात करता है वह मानवीय विवेक का अनिवार्य पर बल देता है कि हम एक स्वस्थ सामाजिकता का विकास करें और परिणाम है । विवेक से कर्त्तव्यता और सम-बुद्धि/समता जागृत होती है यह स्वस्थ सामाजिकता राग के आधार पर नहीं वरन् राग का अतिक्रमण - जब विवेक हमारी सामाजिक चेतना का आधार बनता है, तब मेरे और करके ही की जा सकती है।
तेरे की चेतना ही समाप्त हो जाती है। सम-बुद्धि से सभी आत्मवत् हैं,
ऐसी दृष्टि विकसित होती है । यही आत्मवत् दृष्टि हमारी सामाजिकता सामाजिकता का आधार : रागात्मकता या विवेक ? का आधार है । जब तक आत्मतुल्यता का बोध नहीं आता है, तब तक
सम्भवत: यह प्रश्न उपस्थित किया जा सकता है कि जैनदर्शन न तो हिंसा, घृणा आदि की असामाजिक वृत्तियों से ऊपर उठा जा राग को समाप्त करने की बात करता है किन्तु राग के अभाव में सकता है और न हम सही अर्थ में सामाजिक ही बन पाते हैं । जैनदर्शन सामाजिक जीवन से जोड़ने वाला तत्त्व क्या होगा? यदि अपनेपन और में सामाजिकता का आधार यही आत्मतुल्यता का बोध है । मेरेपन का भाव न हो तो सारे सामाजिक बन्धन चरमरा कर टूट जायेंगे। यह रागात्मकता ही है जो हमें एक-दूसरे से जोड़ती है और समाज का सामाजिक जीवन का बाधक तत्त्व : अहंकार निर्माण करती है। किन्तु क्या वस्तुत: रागात्मकता हमारे सामाजिक
सामाजिक सम्बन्धों में व्यक्ति का अहंकार भी महत्त्वपूर्ण कार्य सम्बन्धों का यथार्थ कारण हो सकती है, जैसा कि पूर्व में कहा गया है- करता है । अहंकार के कारण शासन की इच्छा अथवा आधिपत्य की राग यदि हमें कहीं जोड़ता है तो वह हमें कहीं से तोड़ता भी है, मेरी भावना जागृत होती है और सामाजिक जीवन में विषमता पैदा होती है । विनम्र मान्यता है कि यदि हम राग के आधार पर समाज को खड़ा करेंगे शासक-शासित का भेद अहंकार के कारण ही खड़ा होता है । वर्तमान तो वह एक स्वार्थी व्यक्तियों का समाज ही होगा। वस्तुतः समाज की युग में बड़े राष्ट्रों में जो अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने की प्रवृत्ति है, उसके संरचना राग के आधार पर नहीं विवेक के आधार पर ही सम्भव है। मूल में भी अपने राष्ट्रीय अहं की पुष्टि ही है । जब व्यक्ति में आधिपत्य यदि मैं दूसरों का मंगल या हितसाधन इसलिये करता हूँ कि वे मेरे अपने की प्रवृत्ति दृढ़ होती है तो वह दूसरों के अधिकारों का हनन करता है, हैं, और ऐसा करने से मेरे अपनेपन का घेरा कितना ही बड़ा क्यों न हो, परिणामत: दूसरों की स्वतन्त्रता खण्डित होती है । न केवल शासित मुझे एक स्वार्थी व्यक्ति से अधिक कुछ भी नहीं रहने देगा । हमें दूसरों और शासक का भेद अपितु जातिभेद और वर्गभेद के पीछे भी यही का हित-साधन केवल इसलिये नहीं करना है कि वे हमारे अपने हैं अहंकार का तत्त्व काम करता है । जब हम अपने कुल या जाति के अपितु इसलिये करना है कि दूसरों का हित-साधन करना मेरा स्वभाव अहंकार से युक्त होते हैं तो दूसरों को हीन समझने की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है, स्वधर्म है, कर्तव्य है । जैन दार्शनिकों के अनुसार समाज जिस है जिसका परिणाम जाति-संघर्ष या वर्ग-संघर्ष होता है । आधार पर खड़ा होता है वह राग नहीं, विवेक का तत्त्व है, कर्त्तव्यता का बोध है । तत्त्वार्थसूत्र में यह माना गया है कि जीवद्रव्य का स्वभाव जातिवाद का विरोध और सामाजिक समता परस्पर एक-दूसरे का उपकारक होना है१५ । व्यक्ति के जीवन की
जैनधर्म अहंकार के उपशमन के साथ-साथ जातिवाद और
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वर्णवाद का स्पष्टरूप से विरोध करता है । वह कहता है कि किसी सर्वप्रथम विवाह-पद्धति का प्रारम्भ किया थारे । पुनः भरत और जाति में जन्म लेने मात्र से नहीं, अपितु व्यक्ति का सदाचार और उसकी बाहुबली की बहनों-ब्राह्मी और सुन्दरी द्वारा भी आजीवन ब्रह्मचारी रहने नैतिकता ही उसको श्रेष्ठ बनाती है इस प्रकार जैनधर्म जातिगत श्रेष्ठता और अपने भाइयों से विवाह न करने का निर्णय लिये जाने पर समाज के सम्प्रत्यय का विरोध करता है । वह स्पष्ट रूप से कहता है कि कोई में विवाह-व्यवस्था को प्रधानता मिली, किन्तु विवाह को धार्मिक जीवन व्यक्ति इस आधार पर ब्राह्मण नहीं होता कि वह किसी ब्राह्मणी के गर्भ का अंग न मानने के कारण जैनों ने प्राचीन काल में किसी विवाह-पद्धति से उत्पन्न हुआ है, अपितु वह ब्राह्मण इस आधार पर होता है कि उसका का विकास नहीं किया । इस सम्बन्ध में जो भी सूचनाएँ उपलब्ध होती आचार और व्यवहार श्रेष्ठ है१६ । जैनदर्शन जातिगत श्रेष्ठता के स्थान हैं उस आधार पर यही कहा जा सकता है कि विवाह के सम्बन्ध में पर आचारगत श्रेष्ठता को ही महत्त्व देता है । आचारांग में स्पष्ट कहा जैनसमाज बृहद् हिन्दू-समाज के ही विधि-विधानों का अनुगमन करता गया है कि न तो कोई हीन है और न कोई श्रेष्ठ । आज हम देखते रहा और आज भी करता है। हैं कि जातिगत आधारों पर अनेक सामाजिक संगठन बनते हैं लेकिन प्राचीन जैन ग्रन्थों में विवाह कैसे किया जाय, इसका उल्लेख ऐसे सामाजिक संगठनों को जैनधर्म कोई मान्यता नहीं देता है । आज तो नहीं मिलता है, किन्तु विवाह संस्था को यौन सम्बन्धों के संयमन भी जैनसंघ में अनेक जातियों के लोग समान रूप से अपनी साधना करते का एक साधन मानकर उसमें गृहस्थ उपासकों के लिए स्वपत्नीहैं। मथुरा आदि के प्राचीन अभिलेखों से यह ज्ञात होता है कि अनेक सन्तोषव्रत का विधान अवश्य मिलता है । आदिपुराण में विवाह एवं जिन-मन्दिर और मूर्तियाँ गंधी, तेली, स्वर्णकार, लोहाकार, मल्लाह, पति-पत्नी के पारस्परिक एवं सामाजिक दायित्वों की चर्चा है, उसमें नर्तक और गणिकाओं द्वारा निर्मित हैं । वे सभी जातियाँ और वर्ग जो विवाह के दो उद्देश्य बताए गए हैं - (१) कामवासना की तृप्ति हिन्दू-धर्म में वर्णव्यवस्था की कठोर रूढ़िवादिता के कारण निम्न मानी (२) सन्तानोत्पत्ति । जैनाचार्यों ने विवाह संस्था को यौन सम्बन्धों के गई थीं, जैनधर्म में समादृत थे।८ । हरिकेशीबल (चाण्डाल), मातंग, नियन्त्रण एवं वैधीकरण के लिए आवश्यक माना था । गृहस्थ का अर्जुन (मालाकार) आदि अनेक निम्न जातियों में उत्पन्न हुए महान स्वपत्नीसन्तोषव्रत न केवल व्यक्ति की कामवासना को नियन्त्रित करता साधकों की जीवन गाथाओं के उल्लेख जैनागमों में मिलते हैं जो इस है, अपितु सामाजिक जीवन में यौन-व्यवहार को परिष्कृत भी बनाता है। तथ्य के सूचक हैं कि जैनधर्म में जातिवाद या ऊँच-नीच के भेद-भाव अविवाहित स्त्री से यौन सम्बन्ध स्थापित करने, वेश्यागमन करने आदि मान्य नहीं थे१९ । इस प्रकार जैनधर्म समाज में वर्गभेद और वर्णभेद का के निषेध इसी बात के सूचक हैं । जैनधर्म सामाजिक जीवन में यौन विरोधी था। उसका उद्घोष था कि सम्पूर्ण मानव-जाति एक है। सम्बन्धों की शुद्धि को आवश्यक मानता है । विवाह के उद्देश्य पर
प्रकाश डालते हुए आदिपुराण में बताया गया है कि जिस प्रकार ज्वर सामाजिक जीवन की पवित्रता का आधार : विवाह संस्था से पीड़ित व्यक्ति उसके उपशमनार्थ कटु-औषधि का सेवन करता है,
सामाजिक जीवन का प्रारम्भ परिवार से ही होता है और उसी प्रकार काम-ज्वर से सन्तप्त हुआ प्राणी उसके उपशमनार्थ स्त्रीरूपी परिवार का निर्माण विवाह के बन्धन से होता है । अत: विवाह-संस्था औषधि का सेवन करता है२२ । इससे इतना प्रतिफलित होता है कि सामाजिक दर्शन की एक प्रमुख समस्या है । विवाह-संस्था के उद्भव जैनधर्म अवैध या स्वच्छन्द यौन सम्बन्धों का समर्थक नहीं रहा है । उसमें के पूर्व यदि कोई समाज रहा होगा तो वह भयभीत प्राणियों का एक विवाह-सम्बन्धों की यदि कोई महत्त्वपूर्ण भूमिका है तो वह समूह रहा होगा जो पारस्परिक सुरक्षा हेतु एक-दूसरे से मिलकर रहते यौन सम्बन्धों के नियन्त्रण की दृष्टि से ही है और यह उसकी निवृत्तिमार्गी होंगे । विवाह का आधार केवल काम-वासना की सन्तुष्टि ही नहीं है, धारा के अनुकूल भी है। उसकी मान्यता के अनुसार यदि कोई आजीवन अपितु पारस्परिक आकर्षण और प्रेम भी है । यह स्पष्ट है कि निवृत्तिप्रधान ब्रह्मचारी बनकर संयम-साधना में अपने को असमर्थ पाता है तो उसे संन्यासमार्गी जैन परम्परा में इस विवाह संस्था के सम्बन्ध में कोई विशेष विवाह सम्बन्ध के द्वारा अपनी यौनवासना को नियन्त्रित कर लेना विवरण नहीं मिलते हैं । जैनधर्म अपनी वैराग्यवादी परम्परा के कारण चाहिये । इसीलिये श्रावक के पाँच अणुव्रतों में स्वपत्नीसन्तोषव्रत नामक प्रथमत: तो यही मानता रहा कि उसका प्रथम कर्तव्य व्यक्ति को संन्यास व्रत रखा गया है । पुनः श्रावक जीवन के मूलभूत गुणों की दृष्टि से की दिशा में प्रेरित करना है, इसलिये प्राचीन जैन आगमों में जैनधर्मानुकूल वेश्यागमन और परस्त्री-गमन को निषिद्ध ठहराया गया। इस प्रकार चाहे विवाह-पद्धति के कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होते। प्राचीनकाल में बृहद् विधिमुख से न हो किन्तु निषेधमुख से जैनधर्म विवाह-संस्था की भारतीय समाज या हिन्दू समाज से पृथक् जैनों की अपनी कोई विवाह- उपयोगिता और महत्ता को स्वीकार करता हुआ प्रतीत होता है। पद्धति रही होगी यह कहना भी कठिन है । यद्यपि यह सत्य है कि जैन चाहे धार्मिक विधि-विधान के रूप में जैनों में विवाह सम्बन्धी धर्मानुयायियों में प्राचीनकाल से ही विवाह होते रहे हैं । जैन पुराण उल्लेख न मिलता हो, किन्तु जैन कथा-साहित्य में जो विवरण उपलब्ध साहित्य में यह उल्लेख मिलता है कि ऋषभदेव से पूर्व यौगलिक काल होते हैं, उनके आधार पर इतना तो कहा जा सकता है कि जैन-परम्परा में भाई-बहन ही युवावस्था में पति-पत्नी के रूप में व्यवहार करने लगते में समान वय और समान कुल के मध्य विवाह सम्बन्ध स्थापित करने थे और एक युगल में पुरुष की अकाल मृत्यु हो जाने पर ऋषभ ने के उल्लेख मिलते हैं२३ । आगमों में यह भी उल्लेख मिलता है कि
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बालभाव से मुक्त होने पर ही विवाह किये जाते थे। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनधर्म में बाल विवाह की अनुमति नहीं थी मात्र यही कुछ कथानकों में बाल-विवाह के अथवा अवयस्क कन्याओं के विवाह के दूषित परिणामों के उल्लेख भी मिल जाते हैं। विवाह सम्बन्ध को हिन्दूधर्म की तरह ही जैनधर्म में भी एक आजीवन सम्बन्ध ही माना गया था । अतः विवाह-विच्छेद को जैनधर्म में भी कोई स्थान नहीं मिला। वैवाहिक जीवन दूभर होने पर उस स्त्री का भिक्षुणी बन जाना ही एकमात्र विकल्प था। जैन आचार्यों ने अल्पकालीन विवाह सम्बन्ध और अल्पवयस्क विवाह को घृणित माना है और इसे श्रावक जीवन का एक दोष निरूपित किया है। जहाँ तक बहुपति प्रथा का प्रश्न है, हमें द्रौपदी के एक आपवादिक कथानक के अतिरिक्त इसका कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता है किन्तु बहुपत्नी प्रथा जो प्राचीनकाल में एक सामान्य परम्परा बन गई थी, उसका उल्लेख जैन ग्रन्थों में भी मिलता है। इस बहुपत्नी प्रथा को जैन परम्परा का धार्मिक अनुमोदन हो ऐसा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि सम्पूर्ण जैन वाङ्मय में ऐसा कोई विधायक निर्देश प्राप्त नहीं होता जिससे बहुपत्नी प्रथा का समर्थन किया गया हो। जैन साहित्य मात्र इतना ही बतलाता है कि बहुपत्नी प्रथा उस समय सामान्यरूप से प्रचलित थी और जैन परिवारों में भी अनेक पत्नियाँ रखने का प्रचलन था, किन्तु जैन साहित्य में हमें कोई ऐसा उल्लेख नहीं मिलता कि किसी श्रावक ने जैनधर्म के पंच अणुव्रतों को ग्रहण करने के पश्चात् अपना दूसरा विवाह किया हो । गृहस्थ उपासक के स्वपत्नीसन्तोषव्रत के जिन अतिचारों का उल्लेख मिलता है उनमें एक परविवाहकरण भी है२५ । यद्यपि इसका अर्थ जैन आचार्यों ने अनेक दृष्टि से किया है किन्तु इसका सामान्य अर्थ दूसरा विवाह करना ही है। इससे ऐसा लगता है कि जैन आचार्यों का अनुमोदन तो एकपत्नीव्रत की ओर ही था। आगे चलकर इसका अर्थ यह भी किया जाने लगा कि स्व सन्तान के अतिरिक्त अन्य की सन्तानों का विवाह करवाना किन्तु मेरी दृष्टि में यह एक परवर्ती अर्थ है ।
नहीं,
जैन धर्म में सामाजिक चिन्तन
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इसी प्रकार वेश्यागमन को भी निषिद्ध माना गया। अपरिगृहीता अर्थात् अविवाहिता स्त्री से यौन-सम्बन्ध बनाना भी श्रावकत्रत का एक अतिचार (दोष) माना गया" जैनाचार्यों में सोमदेव ही एकमात्र अपवाद हैं जो गृहस्थ के वेश्यागमन को अनैतिक घोषित नहीं करते। शेष सभी जैनाचार्यों ने वेश्यागमन का एक स्वर से निषेध किया है।
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जहाँ तक प्रेम-विवाह और माता-पिता द्वारा आयोजित विवाह सम्बन्धों का प्रश्न है, जैनागमों में ऐसा कोई स्पष्ट निर्देश उपलब्ध नहीं है कि वह किस प्रकार के विवाह सम्बन्धों को करने योग्य मानते हैं। किन्तु ज्ञाताधर्मकथा के द्रौपदी एवं मल्लि अध्ययन में पिता पुत्री से स्पष्ट रूप से यह कहता है कि मेरे द्वारा किया गया चुनाव तेरे कष्ट का कारण हो सकता है, इसलिये तुम स्वयं ही अपने पति का चुनाव करो २७ । इसका स्पष्ट अर्थ यही है कि जैन परम्परा में माता-पिता द्वारा आयोजित विवाहों और युवक-युवतियों द्वारा अपनी इच्छा से चुने गये विवाह सम्बन्धों को मान्यता प्राप्त थी ।
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जैन परिवार के युवक-युवतियों का जैन परिवार में ही विवाह हो, यह आवश्यक नहीं था। अनेक जैन कथाओं में अन्य धर्मावलम्बी कन्याओं से विवाह करने के उल्लेख मिलते हैं और यह व्यवस्था आज भी प्रचलित है। आज भी जैन परिवार अपनी समान जाति के हिन्दू परिवार की कन्या के साथ विवाह सम्बन्ध करते हैं। इसी प्रकार अपनी कन्या को हिन्दू परिवारों में प्रदान भी करते हैं। सामान्यतया विवाहित होने पर पत्नी पति के धर्म का अनुगमन करती है किन्तु प्राचीन काल से आज तक ऐसे भी सैकड़ों उदाहरण जैन साहित्य में और सामाजिक जीवन में मिलते हैं जहाँ पति पत्नी के धर्म का अनुगमन करने लगता है या फिर दोनों अपने-अपने धर्म का परिपालन करते हैं और सन्तान को उनमें से किसी के भी धर्म को चुनने की स्वतन्त्रता होती है। फिर भी इस विसंवाद से बचने के लिये सामान्य व्यवहार में इस बात को प्राथमिकता दी जाती है कि जैन परिवार के युवक-युवतियाँ जैन परिवार में ही विवाह करें।
पारिवारिक दायित्व और जैन दृष्टिकोण
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गृहस्थ का सामाजिक दायित्व अपने वृद्ध माता-पिता, पत्नी, पुत्र-पुत्री आदि परिजनों की सेवा एवं परिचर्या करना है। श्वेताम्बर साहित्य में उल्लेख है कि महावीर ने माता का अपने प्रति अत्यधिक स्नेह देखकर यह निर्णय ले लिया था कि जब तक उनके माता-पिता जीवित रहेंगे, वे संन्यास नहीं लेंगे। यह माता-पिता के प्रति उनकी भक्ति भावना का ही सूचक है। यद्यपि इस सम्बन्ध में दिगम्बर परम्परा का दृष्टिकोण भिन्न है । जैनधर्म में संन्यास लेने के पहले पारिवारिक उत्तरदायित्वों से मुक्ति पाना आवश्यक माना गया है। मुझे जैन आगमों में एक भी उल्लेख ऐसा देखने को नहीं मिला जहाँ बिना परिजनों की अनुमति से किसी व्यक्ति ने संन्यास ग्रहण किया हो। जैनधर्म में आज भी यह परम्परा अक्षुण्ण रूप से कायम है। कोई भी व्यक्ति बिना परिजनों एवं समाज (संघ) की अनुमति के संन्यास ग्रहण नहीं कर सकता। माता, पिता, पुत्र, पुत्री पति या पत्नी की अनुमति प्राप्त करना आवश्यक होता है । इसके पीछे मूल भावना यही है कि व्यक्ति सामाजिक उत्तरदायित्वों से निवृत्ति पाकर ही संन्यास ग्रहण करें। इस बात की पुष्टि अन्तकृद्दशा के निम्न उदाहरण से होती है जब श्रीकृष्ण को यह ज्ञात हो गया कि द्वारिका का शीघ्र ही विनाश होने वाला है, तो उन्होंने स्पष्ट घोषणा करवा दी कि यदि कोई व्यक्ति संन्यास लेना चाहता हो किन्तु इस कारण से नहीं ले पा रहा हो कि उसके माता-पिता, पुत्र-पुत्री एवं पत्नी का पालन-पोषण कौन करेगा, तो उनके पालनपोषण का उत्तरदायित्व मैं वहन कर लूँगा ।२८ यद्यपि बुद्ध ने प्रारम्भ में संन्यास के लिये परिजनों की अनुमति को आवश्यक नहीं माना था । अतः अनेक युवकों ने परिजनों की अनुमति के बिना ही संघ में प्रवेश ले लिया था किन्तु आगे चलकर उन्होंने भी यह नियम बना दिया था कि बिना परिजनों की अनुमति के उपसम्पदा प्रदान नहीं की जाये । मात्र यही नहीं उन्होंने यह भी घोषित कर दिया कि ऋणी, राजकीय सेवक
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
या सैनिक को भी जो सामाजिक उत्तरदायित्वों से भाग कर भिक्षु बनना का शोषण न हो । नगरजनों का उत्तरदायित्व ग्रामीणजनों की अपेक्षा चाहते हैं, बिना पूर्व अनुमति के उपसम्पदा प्रदान नहीं की जावे। अधिक है। उन्हें न केवल अपने नगर के विकास एवं व्यवस्था का ध्यान हिन्दूधर्म भी पितृ-ऋण अर्थात् सामाजिक दायित्व को चुकाये बिना रखना चाहिये वरन् उन समग्र ग्रामवासियों के हित की भी चिन्ता करनी संन्यास की अनुमति नहीं देता है । चाहे संन्यास लेने का प्रश्न हो या चाहिये, जिनके आधार पर नगर की व्यावसायिक तथा आर्थिक स्थितियाँ गृहस्थ जीवन में ही आत्मसाधना की बात हो, सामाजिक उत्तरदायित्वों निर्भर हैं। नगर में एक योग्य नागरिक के रूप में जीना, नागरिक कर्तव्यों को पूर्ण करना आवश्यक माना गया है।
एवं नियमों का पूरी तरह पालन करना ही मनुष्य का नगरधर्म है ।
जैन-सूत्रों में नगर की व्यवस्था आदि के लिये नगरस्थविर की सामाजिक धर्म
योजना का उल्लेख है । आधुनिक युग में जो स्थान एवं कार्य नगरपालिका जैन आचार दर्शन में न केवल आध्यात्मिक दृष्टि से धर्म की अथवा नगरनिगम के अध्यक्ष के हैं, जैन परम्परा में वही स्थान एवं कार्य विवेचना की गयी है, वरन् धर्म के सामाजिक पहलू पर भी पर्याप्त नगरस्थविर के हैं। प्रकाश डाला गया है । जैन विचारकों ने संघ या सामाजिक जीवन की प्रमुखता सदैव स्वीकार की है । स्थानांगसूत्र में सामाजिक जीवन के ३. राष्ट्रधर्म - जैन विचारणा के अनुसार प्रत्येक ग्राम एवं सन्दर्भ में दस धर्मों का विवेचन उपलबध है - (१) ग्रामधर्म, (२) नगर किसी राष्ट्र का अंग होता है और प्रत्येक राष्ट्र की अपनी एक विशिष्ट नगरधर्म, (३) राष्ट्रधर्म, (४) पाखण्डधर्म, (५) कुलधर्म, (६) गणधर्म, सांस्कृतिक चेतना होती है जो ग्रामीणों एवं नागरिकों को एक राष्ट्र के (७) संघधर्म, (८) सिद्धान्तधर्म (श्रुतधर्म), (९) चारित्रधर्म और सदस्यों के रूप में आपस में बाँधकर रखती है। राष्ट्रधर्म का तात्पर्य है (१०) अस्तिकायधर्म २९। इनमें से प्रथम सात तो पूरी तरह से सामाजिक राष्ट्र की सांस्कृतिक चेतना अथवा जीवन की विशिष्ट प्रणाली को सजीव जीवन से सम्बन्धित हैं।
बनाये रखना । राष्ट्रीय विधि-विधान, नियमों एवं मर्यादाओं का पालन
करना ही राष्ट्रधर्म है । आधुनिक सन्दर्भ में राष्ट्रधर्म का तात्पर्य है राष्ट्रीय १. ग्रामधर्म - ग्राम के विकास, व्यवस्था तथा शान्ति के एकता एवं निष्ठा को बनाये रखना तथा राष्ट्र के नागरिकों के हितों का लिये जिन नियमों को ग्रामवासियों ने मिलकर बनाया है, उनका पालन परस्पर घात न करते हुए, राष्ट्र के विकास में प्रयत्नशील रहना,राष्ट्रीय करना ग्रामधर्म है। ग्रामधर्म का अर्थ है जिस ग्राम में हम निवास करते शासन के नियमों के विरुद्ध कार्य न करना, राष्ट्रीय विधि-विधानों का हैं, उस ग्राम की व्यवस्थाओं, मर्यादाओं एवं नियमों के अनुरूप कार्य आदर करते हुए उनका समुचित रूप से पालन करना । उपासककरना । ग्राम का अर्थ व्यक्तियों के कुलों का समूह है । अत: सामूहिक दशांगसूत्र में राज्य के नियमों के विपरीत आचरण करना दोषपूर्ण माना रूप में एक-दूसरे के सहयोग के आधार पर ग्राम का विकास करना, ग्राम गया है । जैनागमों में राष्ट्रस्थविर का विवेचन भी उपलब्ध है । प्रजातन्त्र के अन्दर पूरी तरह व्यवस्था और शान्ति बनाये रखना और आपस में में जो स्थान राष्ट्रपति का है वही प्राचीन भारतीय परम्परा में राष्ट्रस्थविर वैमनस्य और क्लेश उत्पन्न न हो, उसके लिये प्रयत्नशील रहना ही का रहा होगा, यह माना जा सकता है। ग्रामधर्म के प्रमुख तत्त्व है । ग्राम में शान्ति एवं व्यवस्था नहीं है, तो वहाँ के लोगों के जीवन में भी शान्ति नहीं रहती । जिस परिवेश में हम ४. पाखण्डधर्म - जैन आचार्यों ने पाखण्ड की अपनी जीते हैं, उसमें शान्ति और व्यवस्था के लिये आवश्यक रूप से प्रयत्न व्याख्या की है । जिसके द्वारा पाप का खण्डन होता हो वह पाखण्ड करना हमारा कर्तव्य है । प्रत्येक ग्रामवासी सदैव इस बात के लिये है । दशवैकालिकनियुक्ति के अनुसार पाखण्ड एक व्रत का नाम है। जागृत रहें कि उसके किसी आचरण से ग्राम के हितों को चोट न पहुँचे। जिसका व्रत निर्मल हो, वह पाखण्डी । सामान्य नैतिक नियमों का ग्रामस्थविर ग्राम का मुखिया या नेता होता है । ग्रामस्थविर का प्रयत्न पालन करना ही पाखण्डधर्म है । सम्प्रति पाखण्ड का अर्थ ढोंग हो गया रहता है कि ग्राम की व्यवस्था, शान्ति एवं विकास के लिये ग्रामजनों है, वह अर्थ यहाँ अभिप्रेत नहीं है । पाखण्डधर्म का तात्पर्य अनुशासित, में पारस्परिक स्नेह और सहयोग बना रहे ।
नियमित एवं संयमित जीवन है । पाखण्डधर्म के लिये व्यवस्थापक के
रूप में प्रशास्ता-स्थविर का निर्देश है। प्रशास्ता-स्थविर शब्द की दृष्टि २. नगरधर्म - ग्रामों के मध्य में स्थित एक केन्द्रीय ग्राम से विचार करने पर यह स्पष्ट लगता है कि वह जनता को धर्मोपदेश के का जो उनका व्यावसायिक केन्द्र होता है, नगर कहा जाता है। माध्यम से नियन्त्रित करने वाल अधिकारी है। प्रशास्ता-स्थविर का कार्य सामान्यतः ग्रामधर्म और नगरधर्म में विशेष अन्तर नहीं है । नगरधर्म के लोगों को धार्मिक निष्ठा, संयम एवं व्रत-पालन के लिये प्रेरित करते अन्तर्गत नगर की व्यवस्था एवं शान्ति, नागरिक-नियमों का पालन एवं रहना है। हमारे विचार में प्रशास्ता-स्थविर राजकीय धर्माधिकारी के नागरिकों के पारस्परिक हितों का संरक्षण-संवर्धन आता है । लेकिन समान होता होगा जिसका कार्य जनता को सामान्य नैतिक जीवन की नागरिकों का उत्तरदायित्व केवल नगर के हितों तक ही सीमित नहीं है। शिक्षा देना होता होगा। युगीन सन्दर्भ में नगरधर्म यह भी है कि नागरिकों के द्वारा ग्रामवासियों
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जैन धर्म में सामाजिक चिन्तन
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५. कुलधर्म - परिवार अथवा वंश-परम्परा के आचार- ८. श्रुतधर्म - सामाजिक दृष्टि से श्रुतधर्म का तात्पर्य है नियमों एवं मर्यादाओं का पालन करना कुलधर्म है । परिवार का शिक्षण-व्यवस्था सम्बन्धी नियमों का पालन करना । शिष्य का गुरु के अनुभवी, वृद्ध एवं योग्य व्यक्ति कुलस्थविर होता है। परिवार के सदस्य प्रति, गुरु का शिष्य के प्रति कैसा व्यवहार हो, यह श्रुतधर्म का ही कुलस्थविर की आज्ञाओं का पालन करते हैं और कुलस्थविर का कर्तव्य विषय है । सामाजिक सन्दर्भ में श्रुतधर्म से तात्पर्य शिक्षण की सामाजिक है परिवार का संवर्धन एवं विकास करना तथा उसे गलत प्रवृत्तियों से या संघीय व्यवस्था है । गुरु और शिष्य के कर्तव्यों तथा पारस्परिक बचाना । जैन परम्परा में गृहस्थ एवं मुनि दोनों के लिये कुलधर्म का सम्बन्धों का बोध और उनका पालन श्रुतधर्म या ज्ञानार्जन का अनिवार्य पालन आवश्यक है, यद्यपि मुनि का कुल उसके पिता के आधार पर अंग है। योग्य शिष्य को ज्ञान देना गुरु का कर्तव्य है जबकि शिष्य का नहीं वरन् गुरु के आधार पर बनता है।
कर्तव्य गुरु की आज्ञाओं का श्रद्धापूर्वक पालन करना है।
६. गणधर्म - गण का अर्थ समान आचार एवं विचार के
९. चारित्रधर्म - चारित्रधर्म का तात्पर्य है श्रमण एवं गृहस्थ व्यक्तियों का समूह है । महावीर के समय में हमें गणराज्यों का उल्लेख धर्म के आचारनियमों का परिपालन करना । यद्यपि चारित्रधर्म का बहुत मिलता है । गणराज्य एक प्रकार के प्रजासत्तात्मक राज्य होते हैं। कुछ सम्बन्ध वैयक्तिक साधना से है, तथापि उनका सामाजिक पहलू भी गणधर्म का तात्पर्य है गण के नियमों और मर्यादाओं का पालन करना। है। जैन आचार के नियमों एवं उपनियमों के पीछे सामाजिक दृष्टि भी गण दो माने गये हैं - १. लौकिक (सामाजिक) और २. लोकोत्तर है। अहिंसा सम्बन्धी सभी नियम और उपनियम सामाजिक शान्ति के (धार्मिक) । जैन परम्परा में वर्तमान युग में भी साधुओं के गण होते संस्थापन के लिये हैं। अनाग्रह सामाजिक जीवन से वैचारिक विद्वेष एवं हैं जिन्हें 'गच्छ' कहा जाता है । प्रत्येक गण (गच्छ) के आचार-नियमों वैचारिक संघर्ष को समाप्त करता है। अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह में थोड़ा-बहुत अन्तर भी रहता है । गण के नियमों के अनुसार आचरण पर आधारित जैन आचार के नियम-उपनियम प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में करना गणधर्म है । परस्पर सहयोग तथा मैत्री रखना गण के प्रत्येक सामाजिक दृष्टि से युक्त हैं, यह माना जा सकता है। सदस्य का कर्तव्य है। गण का एक गणस्थविर होता है । गण की देशकालगत परिस्थितियों के आधार पर व्यवस्थाएँ देना, नियमों को १०-अस्तिकायधर्म - अस्तिकायधर्म का बहुत कुछ सम्बन्ध बनाना और पालन करवाना गणस्थविर का कार्य है । जैन विचारणा के तत्त्वमीमांसा से है, अत: उसका विवेचन यहाँ अप्रासंगिक है । अनुसार बार-बार गण को बदलने वाला साधक हीन दृष्टि से देखा गया इस प्रकार जैन आचार्यों ने न केवल वैयक्तिक एवं आध्यात्मिक है। बुद्ध ने भी गण की उन्नति के लिए नियमों का प्रतिपादन किया है। पक्षों के सम्बन्ध में विचार किया वरन् सामाजिक जीवन पर भी विचार
किया है । जैन सूत्रों में उपलब्ध नगरधर्म, ग्रामधर्म, राष्ट्रधर्म आदि का ७. संघधर्म - विभिन्न गणों से मिलकर संघ बनता है । जैन यह वर्णन इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि जैन आचारदर्शन सामाजिक आचार्यों ने संघधर्म की व्याख्या संघ या सभा के नियमों के परिपालन पक्ष का यथोचित मूल्यांकन करते हुए उसके विकास का भी प्रयास के रूप में की है। संघ एक प्रकार की राष्ट्रीय संस्था है जिसमें विभिन्न करता है। कुल या गण मिलकर सामूहिक विकास एवं व्यवस्था का निश्चय करते वस्तुत: जैनधर्म वैयक्तिक नैतिकता पर बल देकर सामाजिक हैं। संघ के नियमों का पालन करना संघ के प्रत्येक सदस्य का कर्तव्य सम्बन्धों को शुद्ध और मधुर बनाता है।
सन्दर्भ
जैन-परम्परा में संघ के दो रूप हैं - १. लौकिक संघ और २.लोकोत्तर संघ । लौकिक संघ का कार्य जीवन के भौतिक पक्ष की व्यवस्थाओं को देखना है जबकि लोकोत्तर संघ का कार्य आध्यात्मिक विकास करना है । लौकिक संघ हो या लोकोत्तर संघ हो, संघ के प्रत्येक सदस्य का यह अनिवार्य कर्त्तव्य माना गया है कि वह संघ के नियमों का पूरी तरह पालन करे । संघ में किसी भी प्रकार के मनमुटाव अथवा संघर्ष के लिये कोई भी कार्य नहीं करे । एकता को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये सदैव ही प्रयत्नशील रहे । जैन परम्परा के अनुसार साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका इन चारों से मिलकर संघ का निर्माण होता है । नन्दीसूत्र में संघ के महत्त्व का विस्तारपूर्वक सुन्दर विवेचन हुआ है जिससे स्पष्ट है कि जैन-परम्परा में नैतिक साधना में संघीय जीवन का कितना अधिक महत्त्व है ।३२
१. ऋग्वेद, १०/१९/१२. २. ईशावास्योपनिषद्, ६. ३. वही, १. ४. श्रीमद्भागवत, ७/१४/८. ५. आचारांग, १/५/५. ६. प्रश्नव्याकरणसूत्र, २/१/२. ७. वही, २/१/३. ८. समन्तभद्र, युक्तयानुशासन, ६१. ९. स्थानांग, १०/७६०. १०. देखें - सागरमल जैन, व्यक्ति और समाज, श्रमण, वर्ष
३४, (१९८३) अंक २.
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११. देखें - प्रबन्धकोश, भद्रबाहु कथानक. १२. उद्धृत - (क) रतनलाल दोशी, आत्मसाधना संग्रह,
पृ० ४४१.
(ख) भगवतीआराधना, भाग १, पृ० १९७. 83. Bradle, Ethical, Studies. १४. मुनि नथमल, नैतिकता का गुरुत्वाकर्षण, पृ० ३-४. १५. उमास्वाति, तत्त्वार्थसूत्र, ५/२१. १६. उत्तराध्ययनसूत्र, २५/१९. १७. आचारांग, १/२/३/७५. १८. सागरमल जैन, सागर जैन-विद्या भारती, भाग १,
पृ० १५३. १९. जटासिंहनन्दि, वरांगचरित, सर्ग २५, श्लोक
३३-४३. २०. आचारांगनियुक्ति, १९.
२१. आवश्यकचूर्णि, भाग १, पृ० १५२. २२. जिनसेन, आदिपुराण, ११/१६६-१६७. २३. अन्तकृतदशांग, ३/१/३. २४. उपासकदशांग, १/४८. २५. वही, १/४८. २६. वही, १/४८. २७. ज्ञाताधर्मकथा, ८ (मल्लिअध्ययन), १६ (द्रौपदी अध्ययन). २८. अन्तकृद्दशांग, ५/१/२१. २९. स्थानांग, १०/७६० । विशेष विवेचन के लिये देखें
धर्मव्याख्या, जवाहर लालजी म. और धर्म-दर्शन,
शुक्लचन्द्रजी म. ३०. धर्मदर्शन, पृ० ८६. ३१. दशवैकालिकनियुक्ति, १५८. ३२. नन्दीसूत्र - पीठिका, ४-१७.
जैन धर्म और सामाजिक समता (वर्ण एवं जाति व्यवस्था के विशेष सन्दर्भ में)
मानव समाज में स्त्री-पुरुष, सुन्दर-असुन्दर, बुद्धिमान्-मूर्ख, साधना के क्षेत्र हों, हम मानव समाज के किसी एक वर्ग विशेष को आर्य-अनार्य, कुलीन-अकुलीन, स्पर्श्य-अस्पर्शा, धनी-निर्धन आदि के जन्मना आधार पर उसका ठेकेदार नहीं मान सकते हैं । यह सत्य है कि भेद प्राचीनकाल से ही पाये जाते हैं । इनमें कुछ भेद तो नैसर्गिक हैं और नैसर्गिक योग्यताओं एवं कार्यों के आधार पर मानव समाज में सदैव कुछ मानव सृजित । ये मानव सृजित भेद ही सामाजिक विषमता के ही वर्गभेद या वर्णभेद बने रहेगें, फिर भी उनका आधार वर्ग या जाति कारण हैं । यह सत्य है कि सभी मनुष्य, सभी बातों में एक दूसरे से विशेष में जन्म न होकर व्यक्ति की अपनी स्वाभाविक योग्यता के समान नहीं होते, उनमें रूप-सौन्दर्य, धन-सम्पदा, बौद्धिक-विकास, आधार पर अपनाये गये व्यवसाय या कार्य होंगे । व्यवसाय या कर्म कार्य-क्षमता, व्यावसायिक-योग्यता आदि की दृष्टि से विषमता या के सभी क्षेत्र सभी व्यक्तियों के लिए समान रूप से खुले होने चाहिए तरतमता होती है । किन्तु इन विषमताओं या तरतमताओं के आधार पर और किसी भी वर्ग विशेष में जन्मे व्यक्ति को भी किसी भी क्षेत्र विशेष अथवा मानव समाज के किसी व्यक्ति विशेष को वर्ग-विशेष में जन्म लेने में प्रवेश पाने के अधिकार से वंचित नहीं किया जाना चाहिये - यही के आधार पर निम्न, पतित, दलित या अस्पर्श्य मान लेना उचित नहीं सामाजिक समता का आधार है । यह सत्य है कि मानव समाज में है। यह सत्य है कि मनुष्यों में विविध दृष्टियों से विभिन्नता या तरतमता सदैव ही कुछ शासक या अधिकारी और कुछ शासित या कर्मचारी पायी जाती है और वह सदैव बनी भी रहेगी, किन्तु इसे मानव समाज में होगें, किन्तु यह अधिकार भी मान्य नहीं हो सकता कि अधिकारी का वर्ग-भेद या वर्ण-भेद का आधार नहीं माना जा सकता, क्योंकि एक ही अयोग्य पुत्र शासक और कर्मचारी या शासित का योग्य पुत्र शासित पिता के दो पुत्रों में ऐसी भिन्नता या तरतमता देखने में आती हैं। हम ही बना रहे । सामाजिक समता का तात्पर्य यह नहीं है कि मानव समाज यह भी देखते हैं कि जो व्यक्ति गरीब होता है, वही कालक्रम में धनवान् में कोई भिन्नता या तरतमता ही नहीं हो । उसका तात्पर्य है मानव या सम्पत्तिशाली हो जाता है । एक मूर्ख पिता का पुत्र भी बुद्धिमान् अथवा समाज के सभी सदस्यों को विकास के समान अवसर उपलब्ध हों तथा प्राज्ञ हो सकता है। एक पिता के दो पुत्रों में एक बुद्धिमान् तो दूसरा मूर्ख प्रत्येक व्यक्ति अपनी क्षमता और योग्यता के आधार पर अपना कार्य अथवा एक सुन्दर तो दूसरा कुरूप हो सकता है । अत: इस प्रकार की क्षेत्र निर्धारित कर सके । इस सामाजिक समता के सन्दर्भ में जहाँ तक तरतमताओं के आधार पर मनुष्यों को सदैव के लिए मात्र जन्मना आधार जैन आचार्यों के चिन्तन का प्रश्न है, उन्होंने मानव में स्वाभाविक पर विभिन्न वर्गों में बाँट कर नहीं रखा जा सकता है। चाहे वह धनोपार्जन योग्यता जन्य अथवा पूर्व कर्म-संस्कार जन्य तरतमता को स्वीकारते हेतु चयनित विभिन्न व्यावसायिक क्षेत्र हों, चाहे कला, विद्या अथवा हुए भी यह माना है कि चाहे विद्या का क्षेत्र हो, चाहे व्यवसाय या
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जैन धर्म और सामाजिक समता
५४१ साधना का उसमें प्रवेश का द्वार सभी के लिए बिना भेद-भाव के खुला है। जिस प्रकार नट रंगशाला में कार्य स्थिति के अनुरूप विचित्र वेशभूषा रहना चाहिए । जैन धर्म स्पष्ट रूप से इस बात को मानता है कि किसी को धारण करता है उसी प्रकार यह जीव भी संसार रूपी रंगमंच पर कर्मों जाति या वर्ण-विशेष में जन्म लेने से कोई व्यक्ति श्रेष्ठ या हीन नहीं के अनुसार भिन्न-भिन्न रूपों को प्राप्त होता है । तत्त्वत: आत्मा न ब्राह्मण होता। उसे जो हीन या श्रेष्ठ बनाता है, वह है उसका अपना पुरुषार्थ, है, न क्षत्रिय, न वैश्य और न शूद्र ही। वह तो अपने ही पूर्व कर्मों के उसकी अपनी साधना, सदाचार और कर्म । हम जैनों के इसी दृष्टिकोण वश में होकर संसार में विभिन्न रूपों में जन्म ग्रहण करता है । यदि शरीर को अग्रिम पृष्ठों में सप्रमाण प्रस्तुत करने का प्रयत्न करेगें। के आधार पर ही किसी को ब्राह्मण, क्षत्रिय कहा जाय, तो यह भी उचित जन्मना वर्ण-व्यवस्था : एक असमीचीन अवधारणा नहीं है । विज्ञ-जन देह को नहीं ज्ञान (योग्यता) को ही ब्रह्म कहते
जैन आचार्य श्रुति के इस कथन को स्वीकार नहीं करते हैं कि हैं। अत: निकृष्ट कहा जाने वाला शूद्र भी ज्ञान या प्रज्ञा-क्षमता के आधार ब्राह्मणों की उत्पत्ति ब्रह्मा के मुख से, क्षत्रिय की बाहु से, वैश्यों की जंघा पर वेदाध्ययन करने का पात्र हो सकता है । विद्या, आचरण एवं सद्गुण से और शूद्र की पैरों से हुई है । चूँकि मुख श्रेष्ठ अंग है, अत: इन सबमें से रहित व्यक्ति जाति विशेष में जन्म लेने मात्र से ब्राह्मण नहीं हो जाता, ब्राह्मण ही श्रेष्ठ है। । ब्रह्मा के शरीर के विभिन्न अंगों से जन्म के आधार अपितु अपने ज्ञान, सद्गुण आदि से युक्त होकर ही ब्राह्मण होता है। पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र ऐसी वर्ण-व्यवस्था जैन चिन्तकों को व्यास, वशिष्ठ, कमठ, कंठ, द्रोण, पराशर आदि अपने जन्म के आधार स्वीकार नहीं है। उनका कहना है कि सभी मनुष्य स्त्री-योनि से ही उत्पन्न पर नहीं, अपितु अपने सदाचरण एवं तपस्या से ही ब्राह्मणत्व को प्राप्त होते हैं । अत: सभी समान हैं । पुनः इन अंगों में से किसी को श्रेष्ठ हुए थे । अत: ब्राह्मणत्व आदि सदाचार और कर्तव्यशीलता पर एवं उत्तम और किसी को निकृष्ट या हीन मानकर वर्ण-व्यवस्था में आधारित है - जन्म पर नहीं । श्रेष्ठता एवं हीनता का विधान नहीं किया जा सकता है, क्योंकि शरीर के सभी अंग समान महत्त्व के हैं। इसी प्रकार शारीरिक वर्णों की भिन्नता सच्चा ब्राह्मण कौन ? के आधार पर किया गया ब्राह्मण आदि जातियों का वर्गीकरण भी जैनों जैन परम्परा ने सदाचरण को ही मानवीय जीवन में उच्चता को मान्य नहीं है।
और निम्नता का प्रतिमान माना है । उत्तराध्ययन सूत्र के पच्चीसवें आचार्य जटासिंह नन्दि ने अपने वरांगचरित में इस बात का अध्ययन एवं धम्मपद के ब्राह्मण वर्ग नामक अध्याय में सच्चा ब्राह्मण विस्तार से विवेचन किया है कि शारीरिक विभिन्नताओं या वर्गों के कौन है, इसका विस्तार से विवेचन उपलब्ध है । विस्तार भय से उसकी आधार पर किया जाने वाला जाति सम्बन्धी वर्गीकरण मात्र पशु-पक्षी समग्र चर्चा में न जाकर केवल कुछ गाथाओं को प्रस्तुत कर ही विराम आदि के विषय में ही सत्य हो सकता है, मनुष्यों के सन्दर्भ में नहीं। लेगें। उसमें कहा गया है कि 'जिसे लोक में कुशल पुरुषों ने ब्राह्मण वनस्पति एवं पशु-पक्षी आदि में जाति का विचार सम्भव है, किन्तु कहा है, जो अग्नि के समान सदा पूजनीय है और जो प्रियजनों के आने मनुष्य के विषय में यह विचार संभव नहीं है, क्योंकि सभी मनुष्य समान पर आसक्त नहीं होता और न उनके जाने पर शोक करता है, जो सदा हैं। मनुष्यों की एक ही जाति है । न तो सभी ब्राह्मण शुभ्र वर्ण के होते आर्य-वचन में रमण करता है, उसे ब्राह्मण कहते हैं।' हैं, न सभी क्षत्रिय रक्त वर्ण के, न सभी वैश्य पीत वर्ण के और न सभी
'कसौटी पर कसे हुए और अग्नि के द्वारा दग्धमल हुए, शुद्ध शुद्र कृष्ण वर्ण के होते हैं। अत: जन्म के आधार पर जाति व वर्ण का किये गए जात रूप सोने की तरह जो विशुद्ध है, जो राग, द्वेष और भय निश्चय सम्भव नहीं है।
__ से मुक्त है तथा जो तपस्वी है, कृश है, दान्त है, जिसका मांस और समाज में ऊँच-नीच का आधार किसी वर्ण विशेष या जाति रक्त अपचित (कम) हो गया है, जो सुव्रत है, शांत है, उसे ही ब्राह्मण विशेष में जन्म लेना नहीं माना जा सकता । न केवल जैन परम्परा, कहा जाता है।' अपितु हिन्दू परम्परा में भी अनेक उदाहरण है जहाँ निम्न वर्षों से उत्पन्न 'जो त्रस और स्थावर जीवों को सम्यक प्रकार से जानकर व्यक्ति भी अपनी प्रतिभा और आचार के आधार पर श्रेष्ठ कहलाये। उनकी मन, वचन और काया से हिंसा नहीं करता है, जो क्रोध, हास्य, ब्राह्मणों की श्रेष्ठता पर प्रश्न चिह्न लगाते हुए वंरागचरितमें जटासिंह लोभ अथवा भय से झूठ नहीं बोलता, जो सचित्त या अचित्त, थोड़ा या नन्दि कहते हैं कि 'जो ब्राह्मण स्वयं राजा की कृपा के आकांक्षी हैं और अधिक अदत्त नहीं लेता है, जो देव, मनुष्य और तिर्यंच सम्बन्धी मैथुन उनके द्वारा अनुशासित होकर उनके अनुग्रह की अपेक्षा रखते हैं, ऐसे का मन, वचन और शरीर से सेवन नहीं करता है, जिस प्रकार जल में दीन ब्राह्मण नृपों (क्षत्रियों) से कैसे श्रेष्ठ कहे जा सकते हैं । द्विज ब्रह्मा उत्पन्न हुआ कमल जल से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार जो कामभोगों के मुख से निर्गत हुए अत: श्रेष्ठ हैं -- यह वचन केवल अपने स्वार्थों से अलिप्त रहता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।' की पूर्ति के लिए कहा गया है। ब्राह्मण प्रतिदिन राजाओं की स्तुति करते इसी प्रकार जो रसादि में लोलुप नहीं है, जो निर्दोष भिक्षा से हैं और उनके लिए स्वस्ति पाठ एवं शान्ति पाठ करते हैं, लेकिन वह जीवन का निर्वाह करता है, जो गृह त्यागी है, जो अंकिचन है, सब भी धन की आशा से ही किया जाता है अत: ऐसे ब्राह्मण आप्तकाम पूर्वज्ञातिजनों एवं बन्धु-बान्धवों में आसक्त नहीं रहता है, उसे ही ब्राह्मण नहीं माने जा सकते हैं । फलत: इनका अपनी श्रेष्ठता का दावा मिथ्या कहते है ।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
धम्मपद में भी कहा गया है कि 'जैसे कमल पत्र पर पानी से ब्राह्मण हुए हैं। इसलिए ब्राह्मण होने में जाति विशेष में जन्म कारण होता है, जैसे आरे की नोंक पर सरसों का दाना होता है, वैसे ही जो नहीं हैं, अपितु तप या सदाचार ही कारण है। कामों में लिप्त नहीं होता, जिसने अपने दुःखों के क्षय को यहीं पर देख लिया है, जिसने जन्म-मरण के भार को उतार दिया है, जो सर्वथा कर्मणा वर्ण-व्यवस्था जैनों को भी स्वीकार्य अनासक्त है, जो मेधावी है, स्थितप्रज्ञ है, जो सन्मार्ग तथा कुमार्ग को
जैन परम्परा में वर्ण का आधार जन्म नहीं अपितु कर्म माना जानने में कुशल है और जो निर्वाण की उत्तम स्थिति को पहुँच चुका है- गया है । जैन विचारणा जन्मना जातिवाद की विरोधी है किन्तु कर्मणा उसे ही मैं ब्राह्मण कहता हूँ । इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन एवं बौद्ध वर्णव्यवस्था से उसका कोई सैद्धान्तिक विरोध नहीं है। उत्तराध्ययनसूत्र दोनों परम्पराओं ने ही सदाचार के आधार पर ब्राह्मणत्व की श्रेष्ठता को में कहा गया है कि -- 'मनुष्य कर्म से ब्राह्मण, कर्म से क्षत्रिय एवं कर्म स्वीकार करते हुए, ब्राह्मण की एक नई परिभाषा प्रस्तुत की जो सदाचार से वैश्य एवं शूद्र होता है ।' महापुराण में कहा गया कि जातिनाम कर्म
और सामाजिक समता की प्रतिष्ठापक थी । न केवल जैन परम्परा एवं के उदय से तो मनुष्य जाति एक ही है । फिर भी आजीविका भेद से बौद्ध-परम्परा में वरन् महाभारत में भी ब्राह्मणत्व की यही परिभाषा है। वह चार प्रकार की कही गई है । व्रतों के संस्कार से ब्राह्मण, शस्त्रों को जैन परम्परा के उत्तराध्ययन सूत्र, बौद्ध-परम्परा के धम्मपद और महाभारत धारण करने से क्षत्रिय, न्यायपूर्वक अर्थ का उपार्जन करने से वैश्य और के शान्तिपर्व में सच्चे ब्राह्मण के स्वरूप का जो विवरण मिलता है, वह निम्न श्रेणी की आजीविका का आश्रय लेने से शूद्र कहे जाते हैं । धनन केवल वैचारिक साम्यता रखता है, वरन् उसमें शाब्दिक साम्यता भी धान्य आदि सम्पत्ति एवं मकान मिल जाने पर गुरु की आज्ञा से, अलग अधिक है जो कि तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। से आजीविका अर्जन करने से वर्ण की प्राप्ति या वर्ण लाभ होता है
सच्चा ब्राह्मण कौन है? इस विषय में 'कुमारपाल प्रबोध (४०/१८९,१९०)। इसका तात्पर्य यही है कि वर्ण या जाति प्रबन्ध' में मनुस्मृति एवं महाभारत से कुछ श्लोक उद्धृत करके यह सम्बन्धी भेद जन्म पर नहीं, आजीविका या वृत्ति पर आधारित है । बताया गया है कि --'शील सम्पन्न शूद्र भी ब्राह्मणत्व को प्राप्त हो जाता भारतीय वर्ण व्यवस्था के पीछे एक मनोवैज्ञानिक आधार रहा है कि है और सदाचार रहित ब्राह्मण भी शूद्र के समान हो जाता है । अतः सभी वैयक्तिक योग्यता अर्थात् स्वभाव के आधार पर ही व्यक्ति के सामाजिक जातियों में चाण्डाल और सभी जातियों में ब्राह्मण होते हैं । हे अर्जुन ! दायित्वों (कर्मों) का निर्धारण करती है जिससे इंकार नहीं किया जा जो ब्राह्मण कृषि, वाणिज्य, गोरक्षा एवं राज्य की सेवा करते हैं वे सकता है । वस्तुत: ब्राह्मण नहीं हैं । जो भी द्विज हिंसक, असत्यवादी, चौर्यकर्म में अपनी स्वाभाविक योग्यता के आधार पर सामाजिक दायित्वों लिप्त, परदार सेवी हैं वे सभी पतित (शूद्र) हैं। इसके विपरीत ब्रह्मचर्य का निर्वाह करने का सर्मथन डॉ.राधाकृष्णन् और पाश्चात्य विचारक श्री
और तप से युक्त लौह व स्वर्ण में समान भाव रखने वाले, प्राणियों के गैरल्ड हर्ड ने भी किया है । मानवीय स्वभाव में ज्ञानात्मकता या प्रति दयावान् सभी जाति के व्यक्ति ब्राह्मण ही हैं।
जिज्ञासा-वृत्ति, साहस या नेतृत्व-वृत्ति, संग्रहात्मकता और शासित होने सच्चे ब्राह्मण के लक्षण बताते हुए कहा गया है --'जो व्यक्ति की प्रवृत्ति या सेवा भावना पायी जाती है। सामान्यत: मनुष्यों में इन क्षमाशील आदि गुणों से युक्त हो, जिसने सभी दण्डों (परपीडन) का वृत्तियों का समान रूप से विकास नहीं होता है । प्रत्येक मनुष्य में इनमें परित्याग कर दिया है, जो निरामिष-भोजी है और किसी भी प्राणि की से किसी एक का प्राधान्य होता है । दूसरी ओर सामाजिक दृष्टि से हिंसा नहीं करता --यह किसी व्यक्ति के ब्राह्मण होने का प्रथम लक्षण समाज-व्यवस्था में चार-प्रमुख कार्य हैं -- १. शिक्षण २. रक्षण ३. है। इसी प्रकार जो कभी असत्य नहीं बोलता, मिथ्यावचनों से दूर रहता उपार्जन और ४.सेवा । अत: यह आवश्यक माना गया है कि व्यक्ति, है --यह ब्राह्मण का द्वितीय लक्षण है । पुन: जिसने परद्रव्य का त्याग अपने स्वभाव में जिस वृत्ति का प्राधान्य हो, उसके अनुसार सामाजिक कर दिया है तथा जो अदत्त को ग्रहण नहीं करता, यह उसके ब्राह्मण व्यवस्था में अपना कार्य चुने । जिसमें बुद्धि नैर्मल्य और जिज्ञासावृत्ति हो, होने का तृतीय लक्षण है । जो देव, असुर, मनुष्य तथा पशुओं के प्रति वह शिक्षण का कार्य करे; जिसमें साहस और नेतृत्व वृत्ति हो वह रक्षण मैथुन का सेवन नहीं करता -- वह उसके ब्राह्मण होने का चतुर्थ लक्षण का कार्य करे; जिसमें विनियोग तथा संग्रह-वृत्ति हो वह उपार्जन का कार्य है। जिसने कुटुम्ब का वास अर्थात् गृहस्थाश्रम का त्याग कर दिया हो, करे और जिसमें दैन्यवृत्ति या सेवावृत्ति हो वह सेवा कार्य करे। इस जो परिग्रह और आसक्ति से रहित है, यह ब्राह्मण होने का पंचम लक्षण प्रकार जिज्ञासा, नेतृत्व, विनियोग और दैन्य की स्वाभाविक वृत्तियों के है । जो इन पाँच लक्षणों से युक्त है वही ब्राह्मण है, द्विज है और महान् आधार पर शिक्षण, रक्षण, उपार्जन और सेवा के सामाजिक कार्यों का है, शेष तो शूद्रवत् हैं । केवट की पुत्री के गर्भ से उत्पन्न व्यास नामक विभाजन किया गया और इसी आधार पर क्रमश: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य महामुनि हुए हैं । इसी प्रकार हरिणी के गर्भ से उत्पन्न शृंग ऋषि, शुनकी और शूद्र ये वर्ण बने । अत: वर्ण व्यवस्था जन्म पर नहीं, अपितु स्वभाव के गर्भ से शुक, माण्डूकी के गर्भ से मांडव्य तथा उर्वशी के गर्भ से (गुण) एवं तदनुसार कर्म पर आधारित है । उत्पन्न वशिष्ठ महामुनि हुए । न तो इन सभी ऋषियों की माता ब्राह्मणी वास्तव में हिन्दू आचार-दर्शन में भी वर्ण-व्यवस्था जन्म पर हैं न ये संस्कार से ब्राह्मण हुए थे, अपितु ये सभी तप साधना या सदाचार नहीं वरन् कर्म पर ही आधारित है । गीता में श्री कृष्ण स्पष्ट कहते हैं
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जैन धर्म और सामाजिक समता
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कि 'चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था का निर्माण गुण और कर्म के आधार पर ही
इसी प्रकार आचार्य रविषेण भी पद्मचरित में लिखते हैं कि - किया गया है।९।' डॉ.राधाकृष्णन इसकी व्याख्या में लिखते हैं, यहाँ कोई भी जाति गर्हित नहीं है वस्तुत: गुण ही कल्याण कारक होते जोर गुण और कर्म पर दिया गया है, जाति (जन्म) पर नहीं । हम किस हैं । जाति से कोई व्यक्ति चाहे चाण्डाल कुल में ही उत्पन्न क्यों न हो, वर्ण के हैं, यह बात लिंग या जन्म पर निर्भर नहीं है अपितु स्वभाव और व्रत में स्थित होने पर ऐसे चाण्डाल को भी तीर्थंकरों ने ब्राह्मण ही कहा व्यवसाय द्वारा निर्धारित होती है१२ ।' युधिष्ठिर कहते हैं 'तत्त्वज्ञानियों की है१७ । अत: ब्राह्मण जन्म पर नहीं, कर्म/सदाचार पर आधारित है। दृष्टि में केवल आचरण (सदाचार) ही जाति का निर्धारक तत्त्व है। जैन मुनि चौथमल जी निर्ग्रन्थप्रवचनभाष्य में लिखते हैं कि ब्राह्मण न जन्म से होता है, न संस्कार से, न कुल से और न वेद के एक व्यक्ति दुःशील, अज्ञानी व प्रकृति से तमोगुणी होने पर भी अमुक अध्ययन से, ब्राह्मण केवल व्रत (आचरण) से होता है१३ ।' वर्ण में जन्म के कारण समाज में ऊँचा व आदरणीय समझा जाय व
प्राचीनकाल में वर्ण-व्यवस्था कठोर नहीं थी, अपितु लचीली दूसरा व्यक्ति सुशील, ज्ञानी व सतोगुणी होने पर भी केवल जन्म के थी। वर्ण परिवर्तन का अधिकार व्यक्ति के अपने हाथ में था क्योंकि कारण नीच व तिरस्कृत समझा जाय, यह व्यवस्था समाज घातक है आचरण या कर्म के चयन द्वारा परिवर्तित हो जाता था । उपनिषदों में और मनुष्य की गरिमा व विवेकशीलता पर प्रश्न चिह्न लगाती है। इतना वर्णित सत्यकाम जाबाल की कथा इसका उदाहरण है । सत्यकाम ही नहीं ऐसा मानने से न केवल समाज के बहुसंख्यक भाग का अपमान जाबाल की सत्यवादिता के आधार पर ही उसे ब्राह्मण मान लिया गया होता है, प्रत्युत सदाचार व सद्गुण का भी अपमान होता है। इस था । मनुस्मृति में भी वर्ण परिवर्तन का विधान है, उसमें लिखा है कि व्यवस्था को अंगीकार करने से दुराचारी, सदाचारी से ऊपर उठ जाता सदाचार के कारण शूद्र ब्राह्मण हो जाता है और दुराचार के कारण है । अज्ञान-ज्ञान पर विजयी होता है तथा तमोगुण सतोगुण के सामने ब्राह्मण शूद्र हो जाता है । यही बात क्षत्रिय और वैश्य के सम्बन्ध में भी आदरास्पद बन जाता है । यह ऐसी स्थिति है जो गुण ग्राहक विवेकीजनों है ।१५ आध्यात्मिक दृष्टि से कोई एक वर्ण दूसरे वर्ण से श्रेष्ठ नहीं है, को सह्य नहीं हो सकती है१८ । वास्तविकता तो यह है कि किसी जाति क्योंकि आध्यात्मिक विकास वर्ण पर निर्भर नहीं होता है । व्यक्ति विशेष में जन्म ग्रहण करने का महत्त्व नहीं है, महत्त्व है व्यक्ति के नैतिक स्वभावानुकूल किसी भी वर्ण के नियत कर्मों का सम्पादन करते हुए सदाचरण और वासनाओं पर संयम का । जैन विचारणा यह तो स्वीकार आध्यात्मिक पूर्णता या सिद्धि को प्राप्त कर सकता है ।
करती है कि लोक व्यवहार या आजीविका हेतु प्रत्येक व्यक्ति को रुचि
व योग्यता के आधार पर किसी न किसी कार्य का चयन तो करना कोई भी कर्त्तव्य कर्म-हीन नहीं है
होगा । यह भी ठीक है कि विभिन्न प्रकार के व्यवसायों या कार्यों के समाज व्यवस्था में अपने कर्तव्य के निर्वाह हेतु और आजीविका आधार पर सामाजिक वर्गीकरण भी होगा । इस व्यावसायिक या के उपार्जन हेतु व्यक्ति को कौन सा व्यवसाय या कर्म चुनना चाहिए यह सामाजिक व्यवस्था के क्षेत्र में होने वाले वर्गीकरण में न किसी को श्रेष्ठ, बात उसकी योग्यता अथवा स्वभाव पर ही निर्भर करती है। यदि व्यक्ति न किसी को हीन कहा जा सकता है । जैनाचार्यों के अनुसार मनुष्य अपने गुणों या योग्यताओं के प्रतिकूल व्यवसाय या सामाजिक कर्त्तव्य प्राणीवर्ग की सेवा का कोई भी हीन कार्य नहीं हैं । यहाँ तक की मलको चुनता है, तो उसके इस चयन से जहाँ उसके जीवन की सफलता मूत्र की सफाई करने वाला कहीं अधिक श्रेष्ठ है । जैन परम्परा में धूमिल होती है वहीं समाज-व्यवस्था भी अस्त-व्यस्त होती है। नन्दिषेणमुनि के सेवाभाव की गौरव गाथा लोक-विश्रुत है । जैन परम्परा आध्यात्मिक श्रेष्ठता इस बात पर निर्भर नहीं है कि व्यक्ति क्या कर रहा में किसी व्यवसाय या कर्म को तभी हीन माना गया है, जब वह है या किन सामाजिक कर्तव्यों का पालन कर रहा है, वरन् इस बात पर व्यवसाय या कर्म हिंसक या क्रूरतापूर्ण कार्यों से युक्त हो । जैनाचार्यों निर्भर है कि वह उनका पालन किस निष्ठा और योग्यता के साथ कर ने जिन जातियों या व्यवसायों को हीन कहा है वे हैं -- शिकारी बधिक, रहा है। यदि एक शूद्र अपने कर्तव्यों का पालन पूर्ण निष्ठा और कुशलता चिड़ीमार, मच्छीमार आदि । किसी व्यक्ति की श्रेष्ठता का आधार से करता है तो वह अनैष्ठिक और अकुशल ब्राह्मण की अपेक्षा आजीविका हेतु चुना गया व्यवसाय न होकर उसका आध्यात्मिक आध्यात्मिक दृष्टि से श्रेष्ठ है । गीता भी स्पष्टतया यह स्वीकार करती विकास या सद्गुणों का विकास है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है कि है कि व्यक्ति सामाजिक दृष्टि से स्वस्थान के निम्नस्तरीय कर्मों का साक्षात् तप (साधना) का ही महत्त्व दिखायी देता है जाति का कुछ भी सम्पादन करते हुए भी आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से उँचाइयों पर नहीं । चाण्डाल-पुत्र हरकेशी मुनि को देखो जिनकी प्रभावशाली ऋद्धि पहुँच सकता है । विशिष्ट सामाजिक कर्तव्यों के परिपालन से व्यक्ति है। मानवीय समता जैनधर्म का मुख्य आधार है । उसमें हरकेशीबल श्रेष्ठ या हीन नहीं बन जाता है, उसकी श्रेष्ठता और हीनता का सम्बन्ध जैसे चाण्डाल, अर्जुनमाली जैसे मालाकार, पूनिया जैसे धूनिया और तो उसके सदाचरण एवं आध्यात्मिक विकास से है । दिगम्बर जैन शकडाल पुत्र जैसे कुम्भकार का भी वही स्थान है, जो स्थान उसमें आचार्य समन्तभद्र रत्नकरण्ड श्रावकाचार में लिखते हैं-- सम्यक्-दर्शन इन्द्रभूति जैसे वेदपाठी ब्राह्मण पुत्र, दशार्णभद्र एवं श्रेणिक जैसे क्षत्रिय से युक्त चाण्डाल शरीर में उत्पन्न व्यक्ति भी तीर्थंकरों के द्वारा ब्राह्मण ही नरेश, धन्ना व शालिभद्र जैसे समृद्ध श्रेष्ठी रत्नों का है। कहा गया है।
आत्मदर्शी साधक जैसे पुण्यवान् व्यक्ति को धर्म उपदेश
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ करता है, वैसे ही तुच्छ (विपन्न, दरिद्र) को भी धर्म उपदेश करता आयी। है२० । सन्मार्ग की साधना में सभी मानवों को समान अधिकार प्राप्त उपर्युक्त विवरण में हम यह देखते हैं कि जैन धर्म के आचार्यों है। धनी-निर्धन, राजा-प्रजा और ब्राह्मण-शूद्र का भेद जैन धर्म को मान्य ने भी काल-क्रम में जाति और वर्ण की उत्पत्ति के सन्दर्भ में हिन्दू परम्परा नहीं है।
की व्यवस्थाओं को अपने ढंग से संशोधित कर स्वीकार कर लिया।
लगभग सातवीं सदी में दक्षिण भारत में हुए आचार्य जिनसेन ने जैनधर्म में वर्ण एवं जाति व्यवस्था का ऐतिहासिक विकासक्रम लोकापवाद के भय से तथा जैन धर्म का अस्तित्व और सामाजिक
मूलत: जैनधर्म वर्णव्यवस्था एवं जातिव्यवस्था के विरुद्ध सम्मान बनाये रखने के लिए हिन्दू वर्ण एवं जातिव्यवस्था को इस प्रकार खड़ा हुआ था किन्तु कालक्रम में बृहत् हिन्दू-समाज के प्रभाव से उसमें आत्मसात् कर लिया कि इस सम्बन्ध में जैनों का जो वैशिष्ट्य था, वह भी वर्ण एवं जाति सम्बन्धी अवधारणाएं प्रविष्ट हो गईं। जैन परम्परा प्राय: समाप्त हो गया । जिनसेन ने सर्वप्रथम यह बताया कि आदि ब्रह्मा में जाति और वर्ण व्यवस्था के उद्भव एवं ऐतिहासिक विकास का ऋषभदेव ने षट्कर्मों का उपदेश देने के पश्चात् तीन वर्णों (क्षत्रिय, वैश्य विवरण सर्वप्रथम आचारांगनियुक्ति (लगभग ईस्वी सन् तीसरी शती) में और शूद्र) की सृष्टि की । इसी ग्रन्थ में आगे यह भी कहा गया है कि प्राप्त होता है । उसके अनुसार प्रारम्भ में मनुष्य जाति एक ही थी । ऋषभ जो क्षत्रिय और वैश्य वर्ण की सेवा करते हैं वे शूद्र हैं । इनके दो भेद के द्वारा राज्य-व्यवस्था का प्रारम्भ होने पर उसके दो विभाग हो गये - हैं -- कारू और अकारु । पुनः कारु के भी दो भेद हैं -- स्पृश्य और १.शासक (स्वामी) और २.शासित (सेवक)। उसके पश्चात् शिल्प और अस्पृश्य है । धोबी, नापित आदि स्पृश्य शूद्र हैं और चाण्डाल आदि जो वाणिज्य के विकास के साथ उसके तीन विभाग हुए --१. क्षत्रिय नगर के बाहर रहते है वे अस्पृश्य शूद्र हैं (आदिपुराण १६/१८४(शासक), २. वैश्य (कृषक एवं व्यवसायी) और ३. शूद्र (सेवक)। १८६) । शूद्रों के कारु और अकारु तथा स्पृश्य एवं अस्पृश्य- ये भेद उसके पश्चात् श्रावक धर्म की स्थापना होने पर अहिंसक, सदाचारी और सर्वप्रथम पुराणकार जिनसेन ने किये हैं२२ | उनके पूर्ववर्ती अन्य किसी धर्मनिष्ठ व्यक्तियों को ब्राह्मण (माहण) कहा गया । इसप्रकार क्रमशः जैन आचार्य ने इस प्रकार के भेदों को मान्य नहीं किया है । किन्तु हिन्दू चार वर्ण अस्तित्व में आये । इन चार वर्गों के स्त्री-पुरुषों के समवर्णीय समाज व्यवस्था से प्रभावित बाद के जैन आचार्यों ने इसे प्राय: मान्य तथा अन्तर्वर्णीय अनुलोम एवं प्रतिलोम संयोगों से सोलहवर्ण बने, किया। षट्प्राभृत के टीकाकार श्रुतसागर ने भी इस स्पृश्य-अस्पृश्य की जिनमें सातवर्ण और नौ अन्तरवर्ण कहलाए । सात वर्ण में समवर्णीय चर्चा की हैं ।२२ यद्यपि पुराणकार ने शूद्रों को एकशाटकव्रत अर्थात् स्त्री-पुरुष के संयोग से चार मूल वर्ण तथा ब्राह्मण पुरुष एवं क्षत्रिय स्त्री क्षुल्लकदीक्षा का अधिकार मान्य किया था, किन्तु बाद के दिगम्बर जैन के संयोग से उत्पन्न, क्षत्रिय पुरुष और वैश्य स्त्री के संयोग से उत्पन्न आचार्यों ने उसमें भी कमी कर दी । श्वेताम्बर परम्परा में स्थानांगसूत्र (३/ और वैश्य पुरुष और शूद्र स्त्री के संयोग से उत्पन्न ऐसे अनुलोम संयोग २०२) के मूलपाठ में तो केवल रोगी, भयार्त्त और नपुंसक की मुनि से उत्पन्न तीनवर्ण । आचारांगचूर्णि (ईसा की ७वीं शती) में इसे स्पष्ट दीक्षा का निषेध था, किन्तु परवर्ती टीकाकारों ने चाण्डालादि जाति करते हुए बताया गया है कि 'ब्राह्मण पुरुष एवं क्षत्राणी के संयोग से जुंगित और व्याधादि कर्मजुंगित लोगों को दीक्षा देने का निषेध कर जो सन्तान होती है वह उत्तम क्षत्रिय, शुद्ध क्षत्रिय या संकर क्षत्रिय कही दिया | फिर भी यह सब जैन धर्म की मूल परम्परा के तो विरुद्ध ही जाती है, यह पाँचवा वर्ण है । इसी प्रकार क्षत्रिय पुरुष और वैश्य स्त्री था। से उत्पन्न सन्तान उत्तम वैश्य, शुद्ध वैश्य या संकर वैश्य कही जाती है, यह छठा वर्ण है तथा वैश्य पुरुष एवं शूद्र-स्त्री के संयोग से उत्पन्न जातीय अहंकार मिथ्या है सन्तान शुद्ध शूद्र या संकरशूद्र कही जाती है, यह सातवाँ वर्ण है । पुनः
जैनधर्म में जातीय मद और कुल मद को निन्दित माना गया अनुलोम और प्रतिलोम सम्बन्धों के आधार पर निम्न नौ अन्तर-वर्ण है। भगवान महावीर के पूर्व-जीवनों की कथा में यह चर्चा आती है कि बने । ब्राह्मण पुरुष और वैश्य स्त्री से 'अम्बष्ठ' नामक आठवाँ वर्ण मारीचि के भव में उन्होंने अपने कुल का अहंकार किया था, फलत: उन्हें उत्पन्न हुआ । क्षत्रिय पुरुष और शूद्र स्त्री से 'उग्र' नामक नवाँ वर्ण निम्न भिक्षुक कुल अर्थात् ब्राह्मणी माता के गर्भ में आना पड़ा है। हुआ । ब्राह्मण पुरुष और शूद्रा स्त्री से 'निषाद' नामक दसवाँ वर्ण उत्पन्न आचारांग में वे स्वयं कहते हैं कि यह आत्मा अनेक बार उच्चगोत्र को हुआ । शूद्र पुरुष और वैश्य स्त्री से 'अयोग' नामक ग्यारहवाँ वर्ण उत्पन्न और अनेक बार नीच गोत्र को प्राप्त हो चुका है। इसलिए वस्तुत: न हुआ । क्षत्रिय और ब्राह्मणी से 'सूत' नामक तेरहवाँ वर्ण हुआ । शूद्र तो कोई हीन/नीच है, और न कोई अतिरिक्त/विशेष/उच्च है । साधक पुरुष और क्षत्रिय स्त्री से 'क्षत्रा' (खत्ता) नामक चौदहवाँ वर्ण उत्पन्न इस तथ्य को जानकर उच्चगोत्र की स्पृहा न करे । उक्त तथ्य को जान हुआ । वैश्य पुरुष और ब्राह्मण स्त्री के संयोग से 'वैदेह' नामक पन्द्रहवाँ लेने पर भला कौन गोत्रवादी होगा ? कौन उच्चगोत्र का अहंकार वर्ण उत्पन्न हुआ और शूद्र पुरुष तथा ब्राह्मण स्त्री के संयोग से करेगा? और कौन किस गोत्र/जाति विशेष में आसक्त चित्त होगा२५ ? 'चाण्डाल' नामक सोलहवाँ वर्ण हुआ। इसके पश्चात् इन सोलह वर्णों इसलिये विवेकशील मनुष्य उच्चगोत्र प्राप्त होने पर हर्षित न में परस्पर अनुलोम एवं प्रतिलोग संयोग से अनेक जातियाँ अस्तित्व में हों ओर न नीचगोत्र प्राप्त होने पर कुपित/दुःखी हों । यद्यपि जैनधर्म में
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जैन धर्म और सामाजिक समता
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उच्चगोत्र एवं निम्नगोत्र की चर्चा उपलब्ध है किन्तु गोत्र का सम्बन्ध पर सुन्दर महल व झोपड़ी पर समान रूप से बरसता है । जिस प्रकार परिवेश के अच्छे या बुरे होने से है । गोत्र का सम्बन्ध जाति अथवा बादल बिना भेद-भाव के सर्वत्र जल की वृष्टि करते हैं उसी प्रकार मुनि स्पृश्यता-अस्पृश्यता के साथ जोड़ना भ्रान्ति है । जैन कर्म सिद्धान्त के को भी ऊँच-नीच, धनी-निर्धन का विचार किये वगैर सर्वत्र सन्मार्ग का अनुसार देवगति में उच्च गोत्र का उदय होता है और तिर्यंच मात्र में नीच उपदेश करना चाहिए२८ । यह बात भिन्न है कि उसमें से कौन कितना गोत्र का उदय होता है किन्तु देवयोनि में भी किल्विषिक देव नीच एवं ग्रहण करता है । जैन धर्म में जन्म के आधार पर किसी को निम्न या अस्पृश्यवत् होते हैं । इसके विपरीत अनेक निम्न गोत्र में उत्पन्न पशु उच्च नहीं कहा जा सकता हाँ वह इतना अवश्य मानता है कि अनैतिक जैसे-- गाय, घोड़ा, हाथी बहुत ही सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं। आचरण करना अथवा क्रूर कर्म द्वारा अपनी आजीविका अर्जन करना वे अस्पृश्य नहीं माने जाते । अत: उच्चगोत्र में उत्पन्न व्यक्ति भी हीन योग्य नहीं है, ऐसे व्यक्ति अवश्य हीन कर्मा कहे गये हैं किन्तु वे अपने और नीचगोत्र में उत्पन्न व्यक्ति भी उच्च हो सकता है । अत: गोत्रवाद क्रूर एवं अनैतिक कर्मों का परित्याग करके श्रेष्ठ बन सकते हैं। की धारणा को प्रचलित जातिवाद तथा स्पृश्यास्पृश्य की धारणा के साथ ज्ञातव्य है कि आज भी जैन धर्म में और जैन श्रमणों में विभिन्न नहीं जोड़ना चाहिए । भगवान् महावीर ने प्रस्तुत सूत्र में जाति-मद, गोत्र- जातियों के व्यक्ति प्रवेश पाते हैं । मात्र यही नहीं श्रमण जीवन को मद आदि को निरस्त करते हुए यह स्पष्ट कह दिया है कि 'जब आत्मा अंगीकार करने के साथ ही निम्न व्यक्ति भी सभी का उसी प्रकार अनेक बार उच्च-नीच गोत्र का स्पर्श कर चुका है, कर रहा है तब फिर आदरणीय बन जाता है, जिस प्रकार उच्चकुल या जाति का व्यक्ति । कौन ऊँचा है? कौन नीचा ? ऊँच-नीच की भावना मात्र एक अहंकार जैनसंघ में उनका स्थान समान होता है । यद्यपि मध्यकाल में हिन्दू है और अहंकार 'मद' है । मद नीचगोत्र के बन्धन का मुख्य कारण परम्परा के प्रभाव से विशेष रूप से दक्षिण भारत में जातिवाद का प्रभाव है। अत: इस गोत्रवाद व मानवाद की भावना से मुक्त होकर जो उनमें जैन समाज पर भी आया और मध्यकाल में मातंग आदि जाति-जुंगित तटस्थ रहता है, वही समत्वशील है, वही पण्डित है।
(निम्नजाति) एवं मछुआरे, नट आदि कर्म जुंगित व्यक्तियों का श्रमण मथुरा से प्राप्त अभिलेखों का जब हम अध्ययन करते हैं तो संस्था में प्रवेश अयोग्य माना गया। जैन आचार्यों ने इसका कोई हमें ज्ञात होता है कि न केवल प्राचीन आगमों से अपितु इन अभिलेखों आगमिक प्रमाण न देकर मात्र लोकापवाद का प्रमाण दिया, जो स्पष्ट से भी यही फलित होता है कि जैन धर्म ने सदैव ही सामाजिक समता रूप से इस तथ्य का सूचक है कि जैन परम्परा को जातिवाद बृहद् हिन्दू पर बल दिया है और जैनधर्म में प्रवेश का द्वार सभी जातियों के व्यक्तियों प्रभाव के कारण लोकापवाद के भय से स्वीकारना पड़ा। के लिये समान रूप से खुला रहा है। मथुरा के जैन अभिलेख इस तथ्य इसी के परिणामस्वरूप दक्षिण भारत में विकसित जैन धर्म के स्पष्ट प्रमाण हैं कि जैन मन्दिरों के निर्माण और जिन प्रतिमाओं की की दिगम्बर परम्परा में जो शूद्र की दीक्षा एवं मुक्ति के निषेध की प्रतिष्ठा में धनी-निर्धन, ब्राह्मण-शूद्र सभी वर्गों, जातियों एवं वर्गों के अवधारणा आई, वह सब ब्राह्मण परम्परा के प्रभाव के कारण ही था। लोग समान रूप से भाग लेते थे। मथुरा के अभिलेखों में हम यह पाते यद्यपि हमें यह भी स्मरण रखना चाहिये कि दक्षिण में जो निम्न जाति हैं कि लोहार, सुनार, गन्धी, केवट, लौहवणिक, नर्तक और यहाँ तक के लोग जैनधर्म का पालन करते थे, वे इस सबके बावजूद जैनधर्म से कि गणिकायें भी जिन मन्दिरों का निर्माण व जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा जुड़े रहे और वे आज भी पंचम वर्ण के नाम से जाने जाते हैं । यद्यपि करवाती थीं२६ । ज्ञातव्य है कि मथुरा के इन अभिलेखों में लगभग ६०% बृहद हिन्दू समाज के प्रभाव के कारण जैनों ने अपने प्राचीन मानवीय दानदाता उन जातियों से हैं, जिन्हें सामान्यतया निम्न माना जाता है। समता के सिद्धान्त का जो उल्लंघन किया, उसका परिणाम भी उन्हें स्थूलिभद्र की प्रेयसी कोशा वेश्या द्वारा जैनधर्म अंगीकार करने की कथा भुगतना पड़ा और जैनों की जनसंख्या सीमित हो गयी। तो लोक-विश्रुत है ही२७ । मथुरा के अभिलेखों में भी गणिका नादा द्वारा विगत वर्षों में सद्भाग्य से जैनों में विशेष रूप से श्वेताम्बर देव कुलिका की स्थापना भी इसी तथ्य को सूचित करती है कि एक परम्परा में यह समतावादी दृष्टि पुनः विकसित हुई है। कुछ जैन आचार्यों गणिका भी श्राविका के व्रतों को अंगीकार करके उतनी ही आदरणीय के इस दिशा में प्रयत्न के फलस्वरूप कुछ ऐसी जातियाँ जो निम्न एवं बन जाती थी, जितनी कोई राज-महिषी । आवश्यकचूर्णि और तित्थोगाली क्रूरकर्मा समझी जाती थीं, न केवल जैन धर्म में दीक्षित हुईं अपितु प्रर्कीणक में वर्णित कोशा वेश्या का कथानक और मथुरा में नादा नामक उन्होंने अपने हिंसक व्यवसाय को त्याग कर सदाचारी जवीन को गणिका द्वारा स्थापित देव कुलिका, आयगपट्ट आदि इस तथ्य के स्पष्ट अपनाया है। विशेष रूप से खटिक और बलाई जातियाँ जैन धर्म से प्रमाण हैं । जैन धर्म यह भी मानता है कि कोई दुष्कर्मा व दुराचारी व्यक्ति जुड़ी हैं । खटिकों (हिन्दू-कसाइयों ) के लगभग पाँच हजार परिवार भी अपने दुष्कर्म का परित्याग करके सदाचार पूर्ण नैतिक-जीवन व समीर मुनिजी की विशेष प्रेरणा से अपने हिंसक व्यवसाय और मदिरा व्यवसाय को अपना कर समाज में प्रतिष्ठित बन सकता है । जैन साधना का सेवन आदि व्यसनों का परित्याग करके जैन धर्म से जुड़े और ये का राजमार्ग तो उसका है जो उस पर चलता है, वर्ण, जाति या वर्ग परिवार आज न केवल समृद्ध व सम्पन्न है, अपितु जैन समाज में भी विशेष का उस पर एकाधिकार नहीं है । जैन धर्म साधना का उपदेश तो बराबरी का स्थान पा चुके हैं । इसी प्रकार बलाईयों (हरिजनों) का भी वर्षा ऋतु के जल के समान है, जो ऊँचे पर्वतों, नीचे खेत-खलिहानों एक बड़ा तबका मालवा में आचार्य नानालाल जी की प्रेरणा से मदिरा
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सेवन, मांसाहार आदि त्यागकर जैनधर्म से जुड़ा और एक सदाचार पूर्ण जीवन व्यतीत करने को प्रेरित हुआ है, ये इस दिशा में अच्छी उपलब्धि है कुछ अन्य श्वेताम्बर एवं दिगम्बर जैन आचार्यों एवं मुनियों ने भी बिहार प्रान्त में सराक जाति एवं परमार क्षत्रियों को जैन धर्म से पुनः जोड़ने के सफल प्रयत्न किये हैं। आज भी अनेक जैनमुनि सामान्यतया निम्न कही जाने वाली जातियों से दीक्षित हैं और जैन संघ में समान रूप से आदरणीय हैं। इससे यह प्रमाणित होता है कि जैनधर्म सदैव ही सामाजिक समता का समर्थक रहा है।
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
१. सम्पूर्ण मानव जाति एक ही है क्योंकि उसमें जाति भेद करने वाला ऐसा कोई भी स्वाभावकि लक्षण नहीं पाया जाता है जैसा कि एक जाति के पशु से दूसरे जाति के पशु में अन्तर होता है।
२. प्रारम्भ में मनुष्य जाति एक ही थी। वर्ण एवं जातिव्यवस्था स्वाभाविक योग्यता के आधार पर सामाजिक कर्त्तव्यों के कारण और आजीविका हेतु व्यवसाय को अपनाने के कारण उत्पन्न हुई। जैसे-जैसे आजीविका अर्जन के विविध स्रोत विकसित होते गये वैसे-वैसे मानव समाज में विविध जातियां अस्तित्व में आती गई, किन्तु ये जातियाँ मौलिक नहीं है मात्र मानव सृजित हैं।
३. जाति और वर्ण का निर्धारण जन्म के आधार पर न होकर व्यक्ति के शुभाशुभ आचरण एवं उसके द्वारा अपनाये गये व्यवसाय द्वारा होता है अत: वर्ण और जाति व्यवस्था जन्मना नहीं, अपितु कर्मणा है । ४ यदि जाति और वर्णव्यवस्था व्यवसाय अथवा सामाजिक दायित्व पर स्थित है तो ऐसी स्थिति में सामाजिक कर्तव्य और व्यवसाय के परिवर्तन के आधार पर जाति एवं वर्ण में परिवर्तन सम्भव है।
९. जैनधर्म यह स्वीकार करता है कि मनुष्यों में कुछ स्वभावगत जैनधर्म में वर्णव्यवस्था के सन्दर्भ में जो चिन्तन हुआ उसके भिन्नताएं सम्भव हैं, जिनके आधार पर उनके सामाजिक दायित्व एवं निष्कर्ष निम्न है - जीविकार्जन के साधन भिन्न होते है फिर भी वह इस बात का समर्थक है कि सभी मनुष्यों को अपने सामाजिक दायित्वों एवं आजीविका अर्जन के साधनों को चयन करने की पूर्ण स्वतन्त्रता और सामाजिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक क्षेत्र में विकास के समान अवसर उपलब्ध होने चाहिये क्योंकि ये ही सामाजिक समता के मूल आधार हैं।
५. कोई भी व्यक्ति किसी जाति या परिवार में उत्पन्न होने के कारण होन या श्रेष्ठ नहीं होता, अपितु वह अपने सत्कर्मों के आधार पर श्रेष्ठ होता है ।
६. जाति एवं कुल की श्रेष्ठता का अहंकार मिथ्या है। उसके कारण सामाजिक समता एवं शान्ति भंग होती है।
७. जैनधर्म के द्वार सभी वर्ण और जातियों के लिए समान रूप से खुले रहे हैं। प्राचीन स्तर के जैन ग्रन्थों से यह संकेत मिलता है कि उसमें चारों ही वर्णों और सभी जातियों के व्यक्ति जिन-पूजा करने,
श्रावक धर्म एवं मुनिधर्म का पालन करने और साधन के सर्वोच्च लक्ष्य निर्वाण को प्राप्त करने के अधिकारी माने गये थे। सातवीं-आठवीं सदी में जिनसेन ने सर्वप्रथम शूद्र को मुनि दीक्षा और मोक्ष प्राप्ति के अयोग्य माना । श्वेताम्बर आगमों में कहीं शूद्र की दीक्षा का निषेध नहीं है, स्थानांग में मात्र रोगी, भयार्त और नपुंसक की दीक्षा का निषेध है किन्तु आगे चलकर उनमें भी जाति- जुंगित जैसे - चाण्डाल आदि और कर्म जुंगित जैसे - कसाई आदि की दीक्षा का निषेध कर दिया गया । किन्तु यह बृहत्तर हिन्दू परम्परा का प्रभाव ही या जो कि जैनधर्म के मूल सिद्धान्त के विरुद्ध था, जैनों ने इसे केवल अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा को
बनाये रखने हेतु मान्य किया, क्योंकि आगमों में हरकेशीबल, मैतार्य, मातंगमुनि आदि अनेक चाण्डालों के मुनि होने और मोक्ष प्राप्त करने के उल्लेख हैं ।
८. प्राचीन जैनागमों में मुनि के लिए उत्तम, मध्यम और निम्न तीनों ही कुलों से भिक्षा ग्रहण करने का निर्देश मिलता है। इससे यही फलित होता है कि जैनधर्म में वर्ण या जाति का कोई भी महत्त्व नहीं था ।
सन्दर्भ
१. ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्वाहू राजन्यः कृतः । ऊरु तदस्य यद्वैश्यः पदभ्यां शूद्रो अजायत् ॥
- ऋग्वेद, १०/९०/१२. सं. दामोदर सातवलेकर, बालसाड, १९८८
२. अभिधानराजेन्द्रकोश, खण्ड ४, पृ. १४४१
३. चत्वार एकस्य पितुः सुताश्चेत्तेषां सुतानां खलु जातिरेका । एवं प्रजानां च पितैक एवं पित्रैकभावाद्य न जातिभेदः ॥ फलान्यथोदुम्बर वृक्षजातेर्यथाग्रमध्यान्त भवानि यानि । रूपाक्षतिस्पर्शसमानि तानि तथैकतो जातिरपि प्रचिन्त्या ॥ न ब्राह्मणाचन्द्रमरीचिशुभ्रा न क्षत्रियाः किंशुकपुष्पगौराः । न चेह वैश्वा हरितालतुल्याः शूद्रा न चाहतार समानवर्णाः ॥ - वरांगचरित, सर्ग २५ श्लोक ३, ४, ७ जटासिंहनन्दि संपा. ए. एन. उपाध्ये, बम्बई १९३८
४. ये निग्रहानुग्रहयोरशक्ता द्विजा वराकाः परपोष्यजीवाः । मायाविनो दीनतमा नृपेभ्यः कथं भवन्त्युत्तमजातयस्ते ॥ तेषां द्विजानां मुख निर्गतानि वचांस्यमोघान्यघनाशकानि । इहापि कामान्स्वमनः प्रक्लृप्तान लभन्त इत्येव मृषावचस्तत् ॥ यथानटोरागमुपेत्य चित्रं नृत्तानुरूपानुपयाति वेषान् ॥ जीवस्तथा संसृतिरङ्गमध्ये कर्मानुरूपानुपयाति भावान् ॥ न ब्रह्मजातिस्त्विह काचिदस्ति न क्षत्रियो नापि च वैश्यशूद्रे । ततस्तु कर्मानुवशा हितात्मा संसार चक्रे परिवंभ्रमीति ।। आपातकत्वाच्च शरीरदाहे देहं न हि ब्रह्म वदन्ति तज्ज्ञाः । ज्ञानं च न ब्रह्म यतो निकृष्ट शूद्रोऽपि वेदाध्ययनं करोति ।। विद्याक्रिया चारू गुणैः प्रहीणो न जातिमात्रेण भवेत्स विप्रः । ज्ञानेन शीलेन गुणेन युक्त तं ब्राह्मणं ब्रह्मविदो वदन्ति ॥ यही सर्ग २५ श्लोक ३३, ३४, ४०-४३
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जैन धर्म और सामाजिक समता
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. ५. जे लोए बम्भणो वुत्तो, अग्गी वा महिओ जहा ।
न हन्ति सर्वभूतानि प्रथमं ब्रह्मलक्षणम् ।। सया कुसलसंदिटुं, तं वयं बूम माहणं ।
सदा सर्वानृतं त्यक्तवा मिथ्यावादाद् विरच्यते । जो न सज्जइ आगन्तुं, पव्वयन्तो न सोयई ।
नानृतं च वदेद् वाक्यं द्वितीयं ब्रह्मलक्षणम् ।। रमइ अज्जवयणंमि, तं वयं बूम माहणं ।।
सदा सर्व परद्रव्यं बहिर्वा यदि वा गृहे । जायरूवं जहामढे, निद्धन्तमलपावगं ।
अदत्तं नैव गृहाति तृतीयं ब्रह्मलक्षणम् ।। रागद्दोसभयाईयं, तं वयं बूम माहणं ।।
देवासुरमनुष्येषु तिर्यग्योनिगतेषु च। तवस्स्यिं किसं दन्तं अवचियमंससोणियं ।
न सेवते मैथुनं यश्चचतुर्थं ब्रह्मलक्षणम् । सुव्वयं पत्तनिव्वाणं, तं वयं बूम माहणं ।।
त्यक्तवा कुटुम्बवासं तु निर्ममो निः परिग्रहः । तसपाणे वियाणेत्ता, संगहेण य थावरे ।
युक्तश्चरति निः सङ्ग: पंचमं ब्रह्मलक्षणम् ।। जो न हिंसइ तिविहेणं, तं वयं बूम माहणं ॥
पंचलक्षणसंपूर्ण ईशो यो भवेद् द्विजः । कोहा वा जइ वा हासा, लोहा वा जइ वा भया ।
महान्तं ब्राह्मणं मन्ये शेषाः शूद्रा युधिष्ठिर ! ।। मुसं न वयई जो उ,तं वयं बूम माहणं ।।
कैवर्तीगर्भसम्भूतो व्यासो नाम महामुनिः । चित्तमन्तमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं ।
तपसा ब्राह्मणो जातस्तस्माज्जातिरकारणम् ।। न गेण्हाइ अदत्तं जे,तं वयं बूम माहणं ।।
हरिणीगर्भसम्भूतो ऋषिशृंङ्गो महामुनिः । तप ।। दिव्वमाणुसतेरिच्छं, जो न सेवइ मेहुणं ।
शुनकीगर्भसम्भूतः शुको नाम मुनिस्तथा । तप ।। मणसा कायवक्केणं, तं वयं बूम माहणं ।।
मण्डूकीगर्भसम्भूतो माण्डव्यश्च महामुनिः । तप । जहा पोमं जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा ।
उर्वशीगर्भसम्भूतो वशिष्ठस्तु महामुनिः । तप ।। एवं अलितं कामेहिं तं वयं बूम माहणं ।।
न तेषां ब्राह्मणी माता संस्कारश्च न विद्यते । तप ।। अलोलुयं मुहाजीवी, अणगारं अकिंचणं ।
यद्वत्काष्ठमयो हस्ती यद्वच्चर्ममयो मृगः । असंसत्तं गिहत्थेसु तं वयं बूम माहणं ॥
ब्राह्मणस्तु कियाहीनत्रस्ते नामधारकाः ।। जहित्ता पुव्वसंजोगं, नाइसंगे य बन्धवे ।
- कुमारपालचरित्रसंग्रह के अर्न्तगत कुमारपाल प्रबोध, पृ. जो न सज्जइ भोगेसुं, तं वयं बूम माहणं ।।
६०६, श्लोक ११९-१३६, संपादक - जिनविजयमुनि, प्रकाशक - -उत्तराध्ययनसूत्र, संपादक- साध्वी चंदना, २५/१९-२९ सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ, भारतीय विद्याभवन, बम्बई, विक्रम संवत् ६. वारिपोक्खरपत्ते व आरग्गेरिव सासपो ।
२०१३। यो न लिप्पति कामेसु तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।।
८. कम्मुणा बम्भणो होइ कम्मुणा होइ खत्तिओ । यो दुक्खस्स पजानाति इधेव खयमत्तनो ।
वइस्से कम्मणाहोइ सुद्दो हवइ कम्मणा ।। पन्नभारं विसञत्तं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।।
-उत्तराध्ययन सूत्र, २५/३३ गम्भीर पञ्बं मेधाविं मग्गामग्गस्स कोविदं ।
९. मनुष्यजातिरेकैव जातिनामोदयोद्भवा। उत्तमत्थं अनुप्पत्तं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।।
वृत्तिभेदाहिताद्भेदाच्चातुर्विध्यमिहाश्नुते ॥३८-४५ -धम्मपद, ब्राह्मणवर्ग, ४०१-४०३, संपादक-भिक्षुधर्मरक्षित, ब्राह्मणा व्रतसंस्कारात् क्षत्रियाः शस्त्रधारणात् ।। १९८३
वणिजोऽर्थार्जनात्रयाय्यात शूद्रा न्यग्वृत्तिसंश्रयात्।।३८-४६ ।। ७. शूद्रोऽपि शीलसंपन्नो गुणवान् ब्राह्मणो भवेत् ।
गुरोरनुज्ञया लब्धधनधान्यादिसम्पदः । ब्राह्मणोऽपि क्रियाहीन: शूद्रापत्यसमो भवेत् ।।
पृथक्कृतालयस्यास्यै वृत्तिर्वर्णाप्तिरिस्यते ॥३८-१३७ ।। अत:- सर्वजातिषु चाण्डाला: सर्वजातिषु ब्राह्मणाः ।
सृष्टयन्तरमतो दूरं अपास्य नयतत्त्ववित् । ब्राह्मणेष्वपि चाण्डाला: चाण्डालेष्वपि ब्राह्मणाः ।।
अनादिक्षत्रियैः सृष्टां धर्मसृष्टि प्रभावयेत् ।।४०-१८९।। कृषि-वाणिज्य-गोरक्षां राजसेवामकिंचनाः ।
तीर्थकृद्भिरयं सृष्टा धर्मसृष्टिः सनातनी। ये च विप्राः प्रकुर्वन्ति न ते कौन्तेय ! ब्राह्मणा: ।।३।।
तां संश्रितान्नृपानेव सृष्टिहेतून् प्रकाशयेत् ।।४०-१९०॥ हिंसकोऽनृतवादी च चौर्ययाभिरतश्च यः ।
-महापुराण, जिनसेन, ३८/४५-४६, १३७, १८९,१९० परदारोपसेवी च सर्वे ते पतिता द्विजाः ।।
१०.भगवद्गीता, डॉ.राधाकृष्णन, पृ. ३५३ ब्रह्मचर्यतपोयुक्ताः समानलोष्टकांचनाः ।
११.चातुर्वयं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः । सर्वभूतदयावन्तो ब्राह्मणाः सर्वजातिषु ।।
-गीता, ४/१३ क्षान्त्यादिकगुणैर्युक्तो व्यस्तदण्डो निरामिषः ।
१२. भगवद्गीता- राधाकृष्णन, पृ.१६३
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ १३.राजन् कुलेन वृत्तेन स्वाध्यायेन श्रुतेन वा ।
पुव्वभवजम्मणअहिसेयचक्कवट्टिरायाभिसेगाति, तत्थ जे रायअस्सिता ते ब्राह्मण्यं केन भवति प्रब्रह्येतत् सुनिश्चितम् ॥३/३/१०७॥ य खत्तिया जाया अणस्सिता गिहवइणो जाया, जया अग्गी उप्पण्णो ततो श्रुणु यक्ष कुलं तात न स्वाध्यायो न च श्रुतम् ।
य भगवऽस्सिता सिप्पिया वाणिगया जाया, तेहिं तेहिं सिप्पवाणिज्जेहिं कारणं हि द्विजत्वे च वृत्तमेव न संशयः ।।
वित्तिं विसंतीती वइस्सा उप्पन्ना, भगवए पव्वइए भरहे अभिसित्ते सावगधम्मे -महाभारत, वनपर्व, ३१३/१०७,१०८ गीता प्रेस, गोरखपुर उप्पण्णे बंभणा जाया, अणस्सिता बंभणा जाया माहणत्ति, उज्जुगसभावा १४.देखें -- छान्दोग्योपनिषद् (गीता प्रेस, गोरखपुर) ४/४ धम्मपियां जं च किंचि हणंतं पिच्छंति तं निवारंति मा हण भो मा हण, १५.शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्ममणश्चैति शूद्रताम् ।
एवं ते जणेणं सुकम्मनिवत्तितसन्ना बंभणा (माहणा) जाया, जे पुण क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैश्चात्तथैव च ।।
अणस्सिया असिप्पिणो ते वयख (क) लासुइबहिकआ तेसु तेसु पओयणेसु - मनुस्मृति १०/६५, सं. सत्यभूषण योगी, १९६६ सोयमाणा हिंसाचोरियादिसु सज्जमाणा सोगद्रोहणसीला सुद्दा संवुत्ता, १६. सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गदेहजम् ।
एवं तावं चत्तारिवि वण्णा ठाविता, सेसाओ संजोएणं तत्थ संजोए देवा देवं विदुर्भस्मगूढ़ाङ्गारान्तरौजसम् ।।
सोलसयं गाहा (२०-८) एतेसिं चेव च उण्हं वण्णाणं पुव्वाणुपुवीए -रत्नकरण्डकश्रावकाचार, २८ अणंतरसंजोएणं अण्णे तिण्णि वण्णा भवंति, तत्थ 'पयती चउक्कयाणंतरे' १७. न जातिर्गर्हिता काचित् गुणा: कल्याणकारणम् । गाहा (२१-८) पगती णाम बंभखत्तियवइससुद्दा चउरो वण्णा । इदाणिं व्रतस्थमपि चाण्डालं तं देवा ब्राह्मणं विदुः ।।
अंतरेण-बंभणेणं खत्तियाणीए जाओ सो उत्तमखत्तिओ वा सुद्धखत्तिओ -पद्मचरित, पर्व , ११/२०३ वा अहवा संकरखत्तिओ पंचमो वण्णो, जो पुण खत्तिएणं वइस्सीए १८.निर्गन्थप्रवचनभाष्य -- मुनि श्री चौथमल जी, पृ. २८९ जाओ एसो उत्तमवइस्सो वा सुद्धवइस्सो वा संकरवइस्सो वा छट्ठो १९.सक्खं खु दीसइ तवो विसेसो, न दीसई जाइ विसेस कोइ। वण्णो, जो वइस्सेण सुद्दीए जातो सो उत्तमसुद्दो वा (सुद्धसुद्दो) वा
सोवागपुत्ते हरिएस साहू, जस्से इड्डि महाणुभागा ।। संकरसुद्दो वा सत्तमो वण्णो । इदाणिं वण्णेणं वण्णेहिं वा अंतरितो उत्तराध्ययनसूत्र, १२/३७
अणुलोमओ पडिलोमतो य अंतरा सत्त वण्णंतरया भवंति, जे अंतरिया २०. जहा पुण्णस्स कत्थति तहा तुच्छस्स कत्थति ।
ते एगंतरिया दुअरिया भवंति । चत्तारि गाहाओ पढियव्वाओ जहा तुच्छस्स कत्थति तहा पुण्णस्स कत्थति । (२२,२३,२४,२५-८) तत्थ ताव बंभणेणं वइस्सीए जाओ अंबट्ठोत्ति
-आचारांग-- सं. मधुकर मुंनि, १/२/६/१०२ वुच्चइ एसो अट्ठमो वण्णो, खत्तिएणं सुंदीए जातो उग्गोत्ति वुच्चइ एसो २१ अ. एक्का मणुस्सजाई रज्जुप्पत्तीइ दो कया उसमे । नवमो वण्णो, बंभणेण सुद्दीए निसातोत्ति वुच्चइ, कित्तिपारासवोत्ति, तिण्णेव सिप्पवणिए सावगधम्मम्मि चत्तारि ।।
तिण्णि गया, दसमो वण्णो। इदाणिं पडिलोमा भण्णंति-सुद्देण वइस्सीए संजोगे सोलसगं सत्त य वण्णा उ नव य अंतरिणो जाओ अउगवुत्ति भण्णइ, एक्कारसमो वण्णो, वइस्सेणं खत्तियाणीए एए दोवि विगप्पा ठवणा बंभस्स णायव्वा ।।
जाओ मागहोत्ति भण्णइ, दुवालसमो, खत्तिएणं बंभणीए जाओ सओत्ति पगई चउक्कगाणंतरे य ते हंति सत्त वण्णा उ ।
भण्णति, तेरसो वण्णो सुद्देण खत्तियाणीए जाओ खत्तिओत्ति भण्णइ आणंतरेसु चरमो एण्णे खलु होइ णायव्वो ।।
चोद्दसमो, वइस्सेण बंभणीए जाओ वैदेहोत्ति भण्णति, पन्नरसमो वण्णो, अंबट्ठग्गनिसाया य अजोगवं मागहा य सूया य ।
सुद्देण बंभणीए जाओ चंडालेत्ति पवुच्चइ, सोलसमो वण्णो, एतवूतिरित्ताजेते खत्ता (य) विदेहाविय चंडाला नवमगा हुति ।।
बिजाते ते वुच्चंति - उग्गेण खत्तियाणिए सोवागेत्ति वुच्चइ, वैदेहेणं एगंतरिए इणमो अंबट्ठो चेव होइ उग्गो य ।
खत्तीए जाओ वेणवुत्ति वुच्चइ, निसाएणं अंबट्टीए जाओ बोक्कसोत्ति बिइयंतयरिअ निसाओ परासरं तं च पुण वेगे ।।
वुच्चइ, निसाएण सुद्दीए जातो सोवि बोक्कसो, सुद्देण निसादीए कुक्कुडओ, पडिलोमे सुद्दाई अजोगवं मागहो य सूओ अ ।
एवं सच्छंदमतिविगप्पितं । एगंतरिए खत्ता वेदेहा चेव नायव्वा ।।
२२.क्षत्रियाः शस्त्रजीवित्वं अनुभूय तदाभवन् । बितियंतरे नियमा चण्डालो सोऽवि होइ णायव्वो ।
वैश्याश्च कृषिवाणिज्यपशुपाल्योपजीविताः ॥ अणुलोमे पडिलोमे एवं एए भवे भेया ।
तेषां शुश्रूषणाच्छूद्रास्ते द्विधा कार्वकारवः । उग्गेणं खत्ताए सोवागो वेणवो विदेहेणं ।
कारवो रजकाद्या: स्युस्ततोऽन्ये स्थुरकारवः ।। अंबट्ठीए सुद्दीय बुक्कसो जो निसाएणं ।।
कारवोऽपि मता द्वेधा स्पृश्यास्पृश्यविकल्पतः । सूएण निसाईए कुक्करओ सोवि होइ णायव्वो।
तत्रास्पृश्याः प्रजावास्या: स्पृश्याः स्यु कर्त्तकादयः ।। एसो बीओ भेओ चउब्विहो होइ णायब्वो ॥
-आदिपुराण, १६/१८४-१८६ -आचारांगनियुक्ति, १९-२७ २३. ततो णो कप्पंति पव्वावेत्तए, तं-पंडए वीत्ते (चाहिये) २१ब. 'एगा मणुस्सजाई गाहा (१९-८) एत्थ उसभसामिस्स
कीवे?
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२४. यदाह--'३ बाले बुड्ठे नपुंसे य, जड्डे कीवे य वाहिए। तेणे रायावगारीय, उम्मत्ते य अंदसणे ॥१।। दासे दुढे (य) अणत्त जुंगिए इय ।।
ओबद्धए य भयए, सेहनिप्फेडिया इय ॥२॥ स्थानांगसूत्रम्, अभयदेवसूरिवृत्ति, (प्रकाशक-- सेठ माणेकलाल, चुन्नीलाल, अहमदाबाद, विक्रम संवत् १९९४) सूत्र ३/ २०२, वृत्ति पृ. १५४ २५.से असइं उच्चागोए असंइ णीयागोए। णो हीणे णो अइरिते णो पीहए ।। इतिसंखाय के गोतावादी, के माणावादी, कंसि वा एगे गिज्झे?
तम्हापंडिते णो हरिसे णो कुज्झे
-आचारांग,(सं.मधुकरमुनि), १/२/३/७५ २६.जैन शिलालेख संग्रह, भाग २, संग्रहकर्ता-विजयमूर्ति, लेख क्रमांक ८,३१,४१,५४,६२,६७,६९,
२७अ. आवश्यकचूर्णि, जिनदासगणि, ऋषभदेव केसरीमल संस्था, रतलाम, भाग १,पृ. ५५४
ब. भक्तपरिज्ञा, १२८ स.तित्थोगालिअ, ७७७ २८.आचारांग, सं. मधुकरमुनि, १/२/६/१०२
जैन धर्म में नारी की भूमिका
भारतीय सांस्कृतिक परम्पराओं में श्रमण परम्परा विवेक कालावधि ईसा की ५वीं शती से बारहवीं शती तक है। उसमें भी अपने प्रधान एवं क्रान्तिधर्मी रही है । उसने सदैव ही विषमतावादी और युग के सन्दर्भो के साथ आगम युग के सन्दर्भ भी मिल गये हैं । इसके वर्गवादी अवधारणाओं के स्थान पर समतावादी जीवन मूल्यों को अतिरिक्त इन आगमिक व्याख्याओं में कुछ ऐसे उल्लेख भी मिलते हैं, स्थापित करने का प्रयास किया है । जैन धर्म भी श्रमण परम्परा का ही जिनका मूल स्रोत, न तो आगमों में और न व्याख्याकारों के समकालीन एक अंग है अत: उसमें भी नर एवं नारी की समता पर बल दिया गया समाज में खोजा जा सकता है, यद्यपि वे आगमिक व्याख्याकारों की और स्त्री के दासी या भोग्या स्वरूप को नकार कर उसे पुरुष के समकक्ष मनःप्रसूत कल्पना भी नहीं कहे जा सकते हैं । उदाहरण के रूप में ही माना गया है । फिर भी यह सत्य है कि जैन धर्म और संस्कृति का मरुदेवी, ब्राह्मी, सुन्दरी तथा पार्श्वनाथ की परम्परा की अनेक साध्वियों विकास भी भारतीय संस्कृति के पुरुष प्रधान परिवेश में ही हुआ है, से सम्बन्धित विस्तृत विवरण, जो आगमिक व्याख्या ग्रन्थों में उपलब्ध फलतः क्रान्तिधर्मी होते हुए भी वह अपनी सहगामी ब्राह्मण परम्परा के हैं, वे या तो आगमों में अनुपलब्ध हैं या मात्र संकेत रूप में उपलब्ध व्यापक प्रभाव से अप्रभावित नहीं रह सकी और उसमें भी विभिन्न कालों हैं, किन्तु हम यह नहीं मान सकते हैं कि ये आगमिक व्याख्याकारों की में नारी की स्थिति में परिवर्तन होते रहे।
मनःप्रसूत कल्पना है। वस्तुत: वे विलुप्त पूर्व साहित्य के ग्रन्थों से या यहाँ हम आगमों और व्याख्या साहित्य के आधार पर जैनाचार्यों अनुश्रुति से इन व्याख्याकारों को प्राप्त हुए हैं । अतः आगमों और की दृष्टि में नारी की क्या स्थिति रही है इसका मूल्यांकन करेंगे, किन्तु आगमिक व्याख्याओं के आधार पर नारी का चित्रण करते हुए हम यह इसके पूर्व हमें इस साहित्य में उपलब्ध सन्दर्भो की प्रकृति को समझ नहीं कह सकते कि वे केवल आगमिक व्याख्याओं के युग के सन्दर्भ लेना आवश्यक है । जैन आगम साहित्य एक काल की रचना नहीं है। हैं, अपितु उनमें एक ही साथ विभिन्न कालों के सन्दर्भ उपलब्ध हैं । वह ईसा पूर्व पाँचवीं शती से लेकर ईसा की पाँचवी शती तक अर्थात् अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से उन्हें निम्न काल खण्डों में विभाजित एक हजार वर्ष की सुदीर्घ कालावधि में निर्मित, परिष्कारित और किया जा सकता है - परिवर्तित होता रहा है अत: उसके समग्र सन्दर्भ एक ही काल के नहीं १. पूर्व युग - ईसा पूर्व छठी शताब्दी तक । हैं । पुनः उनमें भी जो कथा भाग है, वह मूलत: अनुश्रुतिपरक और २. आगम युग - ईसा पूर्व छठी शताब्दी से लेकर ई० सन् की प्रागैतिहासिक काल से सम्बन्ध रखता है । अत: उनमें अपने काल से पाँचवीं शताब्दी तक । भी पूर्व के अनेक तथ्य उपस्थित हैं जो अनुश्रुति से प्राप्त हुए हैं। उनमें ३. प्राकृत आगमिक व्याख्या युग - ईसा की पाँचवी शताब्दी से कुछ ऐसे भी तथ्य हैं जिनकी ऐतिहासिकता विवादास्पद हो सकती है आठवीं शताब्दी तक ।
और उन्हें मात्र पौराणिक कहा जा सकता है । जहाँ तक आगमिक ४. संस्कृत आगमिक व्याख्या एवं पौराणिक कथा साहित्य व्याख्या साहित्य का सम्बन्ध है, वह मुख्यतः आगम ग्रन्थों पर प्राकृत युग - आठवीं से बारहवीं शताब्दी तक । एवं संस्कृत में लिखी गयी टीकाओं पर आधारित है अत: इसकी इसी सन्दर्भ में एक कठिनाई यह भी है कि इन परवर्ती आगमों
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
के रूप में मान्य ग्रन्थों तथा प्राकृत एवं संस्कृत आगमिक व्याख्याओं का आदि से युक्त शारीरिक संरचना स्त्रीलिंग है, यही द्रव्य-स्त्री है, जबकि काल लगभग एक सहस्राब्दी अर्थात् ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी से पुरुष के साथ सहवास की कामना को अर्थात् स्त्रीयोचित काम-वासना लेकर ईसा की बारहवीं शताब्दी तक व्याप्त है। पुनः कालविशेष में भी को वेद कहा गया है । वही वासना की वृत्ति भाव-स्त्री है । जैन जैन विचारकों का नारी के सन्दर्भ में समान दृष्टिकोण नहीं है । प्रथम तो आगमिक व्याख्या साहित्य में स्त्री की काम-वासना के स्वरूप को उत्तर और दक्षिण भारत की सामाजिक परिस्थिति की भिन्नता के कारण चित्रित करते हुए उसे उपलअग्निवत् बताया गया है। जिस प्रकार
और दूसरे श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं के भेद के कारण इस युग उपल-अग्नि के प्रज्वलित होने में समय लगता है किन्तु प्रज्वलित होने के जैन आचार्यों का दृष्टिकोण नारी के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न रहा है। पर चालना करने पर बढ़ती जाती है, अधिक काल तक स्थायी रहती जहाँ उत्तर भारत के यापनीय एवं श्वेताम्बर जैन आचार्य नारी के सम्बन्ध है उसी प्रकार स्त्री की काम-वासना जागृत होने में समय लगता है, में अपेक्षाकृत उदार दृष्टिकोण रखते हैं, वहीं दक्षिण भारत के दिगम्बर किन्तु जागृत होने पर चालना करने से बढ़ती जाती है और अधिक स्थायी जैन आचार्यों का दृष्टिकोण अपेक्षाकृत अनुदार प्रतीत होता है । इसके होती है। जैनाचार्यों का यह कथन एक मनोवैज्ञानिक सत्य लिए हुए लिए अचेलता का आग्रह और देशकालगत परिस्थितियाँ दोनों ही है। यद्यपि लिंग और वेद अर्थात् शारीरिक संरचना और तत्सम्बन्धी उत्तरदायी रही हैं, अत: आगमिक व्याख्या साहित्य के आधार पर नारी कामवासना सहगामी माने गये हैं, फिर भी सामान्यतया जहाँ लिंग शरीर की स्थिति का चित्रण करते समय हमें बहुत ही सावधानीपूर्वक तथ्यों पर्यन्त रहता है, वहाँ वेद (कामवासना) आध्यात्मिक विकास की एक का विश्लेषण करना होगा । पुन: आगमिक व्याख्या साहित्य और जैन विशेष अवस्था में समाप्त हो जाता है। जैन कर्मसिद्धान्त में लिंग का पौराणिक कथा साहित्य दोनों में ही नारी सम्बन्ध में जो सन्दर्भ उपलब्ध कारण नामकर्म (शारीरिक संरचना के कारक तत्त्व) और वेद का कारण हैं, वे सब जैन आचार्यों द्वारा अनुशंसित थे, यह मान लेना भी भ्रान्त मोहनीयकर्म (मनोवृत्तियाँ) माना गया है। इस प्रकार लिंग, शारीरिक धारणा होगी । जैन आचार्यों ने अनेक ऐसे तथ्यों को भी प्रस्तुत किया संरचना का और वेद मनोवैज्ञानिक स्वभाव और वासना का सूचक है है जो यद्यपि उस युग में प्रचलित रहे हैं, किन्तु वे जैन धर्म की धार्मिक तथा शारीरिक परिवर्तन से लिंग में और मनोभावों के परिवर्तन से वेद मान्यताओं के विरोधी हैं । उदाहरण के रूप में बहु-विवाह प्रथा, में परिवर्तन सम्भव है । निशीथचूर्णि (गाथा ३५९) के अनुसार लिंग वेश्यावृत्ति, सतीप्रथा, स्त्री के द्वारा मांस भक्षण एवं मद्यपान आदि के परिवर्तन से वेद (वासना) में भी परिवर्तन हो जाता है इस सम्बन्ध में उल्लेख हमें आगमों एवं आगमिक व्याख्या साहित्य में उपलब्ध होते हैं, सम्पूर्ण कथा द्रष्टव्य है । जिसमें शारीरिक संरचना और स्वभाव की दृष्टि किन्तु वे जैनधर्मसम्मत थे, यह नहीं कहा जा सकता । वस्तुत: इस से स्त्रीत्व हो, उसे ही स्त्री कहा जाता है । सूत्रकृतांग नियुक्ति में स्त्रीत्व साहित्य में लौकिक एवं धार्मिक दोनों ही प्रकार के सन्दर्भ हैं जिन्हें के नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, प्रजनन, कर्म, भोग, गुण और भाव अलग-अलग रूपों में समझना आवश्यक है।
ये दस निक्षेप या आधार माने गये हैं, अर्थात् किसी वस्तु के स्त्री कहे अत: नारी के सम्बन्ध में जो विवरण हमें आगमों और जाने के लिए उसे निम्न या एकाधिक लक्षणों से युक्त होना आगमिक व्याख्या साहित्य में उपलब्ध होते हैं, उन्हें विभिन्न काल खण्डों आवश्यक है, में विभाजित करके और उनके परम्परासम्मत और लौकिक स्वरूप का विश्लेषण करके ही विचार करना होगा । तथापि उनके गम्भीर विश्लेषण यथा - से हमें जैनधर्म में और भारतीय समाज में विभिन्न कालों में नारी की क्या (१) स्त्रीवाचक नाम से युक्त होना जैसे - रमा, श्यामा आदि। स्थिति थी, इसका एक ऐतिहासिक परिचय प्राप्त हो जाता है। (२) स्त्री रूप में स्थापित होना जैसे - शीतला आदि की स्त्री आकृति
से युक्त या रहित प्रतिमा । नारी लक्षण
(३) द्रव्य - अर्थात् शारीरिक संरचना का स्त्री रूप होना । नारी की सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक स्थिति की चर्चा के (४) क्षेत्र - देश-विदेश की परम्परानुसार स्त्री की वेशभूषा से युक्त होने पूर्व हमें यह भी विचार कर लेना है कि आगमिक व्याख्याकारों की दृष्टि पर उस देश में उसे स्त्रीरूप में समझा जाता है। में नारी शब्द का तात्पर्य क्या रहा है । सर्वप्रथम सूत्रकृतांग नियुक्ति और (५) काल- जिसने भूत, भविष्य या वर्तमान में से किसी भी काल चूर्णि में नारी शब्द के तात्पर्य को स्पष्ट किया गया है । स्त्री को द्रव्य में स्त्री-पर्याय धारण की हो, उसे उस काल की अपेक्षा से स्त्री स्त्री और भावस्त्री ऐसे दो विभागों में वर्गीकृत किया गया है ।। कहा जा सकता है। द्रव्य-स्त्री से जैनाचार्यों का तात्पर्य स्त्री की शारीरिक संरचना (शारीरिक (६) प्रजनन क्षमता से युक्त होना । चिह्न) से है, जबकि भाव-स्त्री का तात्पर्य नारी स्वभाव (भेद) से है। (७) स्त्रियोचित कार्य करना । आगम और आगमिक व्याख्याओं दोनों में ही स्त्री-पुरुष के वर्गीकरण का (८) स्त्री रूप में भोगी जाने में समर्थ होना । आधार लिंग और वेद माने जाते रहे हैं। जैन परम्परा में स्त्री की शारीरिक (९) स्त्रियोचित गुण होना और संरचना को लिंग कहा गया है । रोमरहित मुख, स्तन, योनि, गर्भाशय (१०) स्त्री सम्बन्धी वासना का होना ।६
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जैन धर्म में नारी की भूमिका
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जैनाचार्यों की दृष्टि में नारी-चरित्र का विकृत पक्ष
युक्त महाजंगल की भाँति दुर्गम्य, कुल, स्वजन और मित्रों से विग्रह जैनाचार्यों ने नारी-चरित्र का गम्भीर विश्लेषण किया है। कराने वाली, परदोष प्रकाशिका, कृतघ्ना, वीर्यनाशिका, शूकरवत् जिस नारी-स्वभाव का चित्रण करते हुए सर्वप्रथम जैनागमग्रन्थ तन्दुलवैचारिक प्रकार शूकर खाद्य-पदार्थ को एकान्त में ले जाकर खाता है उसी प्रकार प्रर्कीणक में नारी की स्वभावगत निम्न ९४ विशेषताएं वर्णित हैं -७ भोग हेतु पुरुष को एकान्त में ले जाने वाली, अस्थिर स्वभाव वाली,
नारी स्वभाव से विषम, मधुर वचन की वल्लरी, कपट-प्रेम जिस प्रकार अग्निपात्र का मुख आरम्भ में रक्त हो जाता है किन्तु रूपी पर्वत, सहस्रों अपराधों का घर, शोक उद्गमस्थली, पुरुष के बल अन्ततोगत्वा काला हो जाता है उसी प्रकार नारी आरम्भ में राग उत्पन्न के विनाश का कारण, पुरुषों की वधस्थली अर्थात् उनकी हत्या का करती है परन्तु अन्तत: उससे विरक्ति ही उत्पन्न होती है, पुरुषों के मैत्री कारण, लज्जा-नाशिका, अशिष्टता का पुन्ज, कपट का घर, शत्रुता की विनाशादि की जड़, बिना रस्सी की पाग, काष्ठरहित वन की भाँति पाप खान, शोक की ढेर, मर्यादा की नाशिका, कामराग की आश्रय स्थली, करके पाश्चात्तप में जलती नहीं है, कुत्सित कार्य में सदैव तत्पर, दुराचरणों का आवास, सम्मोह की जननी, ज्ञान का स्खलन करने वाली, अधार्मिक कृत्यों की वैतरणी, असाध्य व्याधि, वियोग पर तीव्र दुःखी शील को विचलित करने वाली, धर्मयाग में बाधा रूप, मोक्षपथ साधकों न होने वाली, रोगरहित उपसर्ग या पीड़ा, रतिमान के लिए मनोभ्रम की शत्रु, ब्रह्मचर्यादि आचार मार्ग का अनुसरण करने वालों के लिए कारण, शरीर-व्यापी दाह का कारण, बिना बादल बिजली के समान, दूषण रूप, कामी की वाटिका, मोक्षपथ की अर्गला, दरिद्रता का घर, बिना जल के प्रवाहमान और समुद्रवेग की भाँति नियन्त्रण से परे कही विषधर सर्प की भाँति कुपित होने वाली, मदमत्त हाथी की भाँति गई है । तन्दुलवैचारिक की वृत्ति में इनमें से अधिकांश गुणों के सम्बन्ध कामविह्वला, व्याघ्री की भाँति दुष्ट हृदय वाली, ढंके हुए कूप की भाँति में एक-एक कथा भी दी गई है। अप्रकाशित हृदय वाली, मायावी की भाँति मधुर वचन बोलकर स्वपाश उत्तराध्ययनचूर्णि में भी स्त्री को समुद्र की तरंग के समान में आबद्ध करने वाली, आचार्य की वाणी के समान अनेक पुरुषों द्वारा चपल स्वभाव वाली, सन्ध्याकालीन आभा के समान क्षणिक प्रेम वाली एक साथ ग्राह्य, शुष्क कण्डे की अग्नि की भाँति पुरुषों के अन्त: करण और अपना स्वार्थ सिद्ध हो जाने पर पुरुष का परित्याग कर देने वाली में ज्वाला प्रज्वलित करने वाली, विषम पर्वतमार्ग की भाँति असमतल कहा गया है । आवश्यक भाष्य और निशीथचूर्णि में भी नारी के चपल अन्त:-करण वाली, अन्तर्दूषित घाव की भाँति दुर्गन्धित हृदय वाली, स्वभाव और शिथिल चरित्र का उल्लेख हुआ है। निशीथचूर्णि में यह कृष्ण सर्प की तरह अविश्वसनीय, संसार (भैरव) के समान मायावी, भी कहा गया है कि स्त्रियाँ थोड़े से उपहारों से ही वशीभूत की जा सन्ध्या की लालिमा की भाँति क्षणिक प्रेम वाली, समुद्र की लहरों की सकती हैं और पुरुषों को विचलित करने में सक्षम होती हैं ।११ भाँति चंचल स्वभाव वाली, मछलियों की भाँति दुष्परिवर्तनीय स्वभाव आचारांगचूर्णि एवं वृत्ति में उसे शीतपरिषह कहा गया है अर्थात् अनुकूल वाली, बन्दरों के समान चपल स्वभाव वाली, मृत्यु की भाँति निर्विरोष, लगते हुए भी त्रासदायी होती है ।१२।। काल के समान दयाहीन, वरुण के समान पाशुयक्त अर्थात् पुरुषों को
सूत्रकृतांग में कहा गया है कि स्त्रियाँ पापकर्म नहीं करने का कामपाश में बाँधने वाली, जल के समान अधोगामिनी, कृपण के समान वचन देकर भी पुनः अपकार्य में लग जाती हैं ।१३ इसकी टीका में रिक्त हस्त वाली, नरक के समान दारुणत्रासदायिका, गर्दभ के सदृश टीकाकार ने कामशास्त्र का उदाहरण देकर कहा है कि जैसे दर्पण पर दुष्टाचार वाली, कुलक्षणयुक्त घोड़े के समान लज्जारहित व्यवहार पड़ी हुई छाया दुर्गाह्य होती है वैसे ही स्त्रियों के हृदय दुर्गाह्य होते हैं। वाली, बाल स्वभाव के समान चंचल अनुराग वाली, अन्धकारवत् पर्वत के दुर्गम मार्ग के समान ही उनके हदय का भाव सहसा ज्ञात नहीं दुष्पविश्य, विष-बेल की भाँति संसर्ग वर्जित, भयंकर मकर आदि से होता। सूत्रकृतांग वृत्ति में नारी चरित्र के विषय में कहा गया है कि अच्छी युक्त वापी के समान दुष्प्रवेश, साधुजनों की प्रशंसा के अयोग्य, विष- तरह जीती हुई, प्रसन्न की हुई और अच्छी तरह परिचित अटवी और स्त्री वृक्ष के फल की तरह प्रारम्भ में मधुर किन्तु दारुण अन्तवाली, खाली का विश्वास नहीं करना चाहिए । क्या इस समस्त जीवलोक में कोई मुट्ठी से जिस प्रकार बालकों को लुभाया जाता है उसी प्रकार पुरुषों को अंगुलि उठाकर कह सकता है, जिसने स्त्री की कामना करके दुःख न लुभाने वाली, जिस प्रकार एक पक्षी के द्वारा मांस खण्ड ग्रहण करने पाया हो ? उसके स्वभाव के सम्बन्ध में यही कहा गया है कि स्त्रियाँ पर अन्य पक्षी उसे विविध कष्ट देते हैं उसी प्रकार के दारुण कष्ट स्त्री मन से कुछ सोचती हैं, वचन से कुछ और कहती हैं तथा कर्म से कुछ को ग्रहण करने पर पुरुषों को होते हैं, प्रदीप्त तृणराशि की भाँति ज्वलन और करती हैं ।१५ स्वभाव को न छोड़ने वाली, घोर पाप के समान दुर्लंघ्य, कूट कार्षापण की भाँति अकालचारिणी, तीव्र क्रोध की भाँति दुर्रक्ष्य, दारुण दुखदायिका, स्त्रियों का पुरुषों के प्रति व्यवहार घृणा की पात्र, दुष्टोपचारा, चपला, अविश्वसनीया, एक पुरुष से बंधकर स्त्रियाँ पुरुषों को अपने जाल में फँसाकर फिर किस प्रकार न रहने वाली, यौवनावस्था में कष्ट से रक्षणीय, बाल्यावस्था में दुःख उसकी दुर्गति करती हैं उसका सुन्दर एवं सजीव चित्रण सूत्रकृतांग और से पाल्य, उद्वेगशीला, कर्कशा, दारुण वैर का कारण, रूप स्वभाव उसकी वृत्ति में उपलब्ध होता है । उस चित्रण का संक्षिप्त रूप निम्न गर्विता, भुजंग के समान कुटिल गति वाली, दुष्ट घोड़े के पद चिह्न से है१६.
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ जब वे पुरुष पर अपना अधिकार जमा लेती हैं तो फिर उसके से यह कहा गया है -स्त्रियों में जो दोष होते हैं वे दोष नीच पुरुषों में साथ आदेश की भाषा में बात करती हैं। वे पुरुष से बाजार जाकर अच्छे- भी होते हैं अथवा मनुष्यों में जो बल और शक्ति से युक्त होते हैं उनमें अच्छे फल, छुरी, भोजन बनाने हेतु ईंधन तथा प्रकाश करने हेतु तेल स्त्रियों से अधिक दोष होते हैं । जैसे अपने शील की रक्षा करने वाले लाने को कहती हैं । फिर पास बुलाकर महावर आदि से पैर रंगने और पुरुषों के लिए स्त्रियाँ निन्दनीय हैं, वैसे ही अपने शील की रक्षा करने शरीर में दर्द होने पर उसे मलने को कहती हैं । फिर आदेश देती हैं कि वाली स्त्रियों के लिए पुरुष निन्दनीय हैं । सब जीव मोह के उदय से मेरे कपड़े जीर्ण हो गये हैं, नये कपड़े लाओ तथा भोजन-पेय पदार्थादि कुशील से मलिन होते हैं और वह मोह का उदय स्त्री-पुरुषों में समान लाओ । वह अनुरक्त पुरुष की दुर्बलता जानकर अपने लिए आभूषण, रूप से होता है । अत: ऊपर जो स्त्रियों के दोषों का वर्णन किया गया विशेष प्रकार के पुष्प, बाँसुरी तथा चिरयुवा बने रहने के लिए पौष्टिक है वह सामान्य स्त्री की दृष्टि से है । शीलवती स्त्रियों में ऊपर कहे हए
औषधि की गोली माँगती हैं । तो कभी अगरु, तगर आदि सुगन्धित दोष कैसे हो सकते हैं ? १८ द्रव्य, अपनी प्रसाधन सामग्री रखने हेतु पेटी, ओष्ठ रंगने हेतु चूर्ण, छाता, जूता आदि माँगती हैं । वह अपने वस्त्रों को रंगवाने का आदेश जैनाचार्यों की दृष्टि में नारी-चरित्र का उज्ज्वल पक्ष देती हैं तथा नाक के केशों को उखाड़ने के लिए चिमटी, केशों के लिए स्त्रियों की प्रशंसा करते हुए कहा गया है - जो गुणसहित कंघी, मुख शुद्धि हेतु दातौन आदि लाने को कहती हैं । पुनः वह अपने स्त्रियाँ हैं, जिनका यश लोक में फैला हुआ है तथा जो मनुष्य लोक में प्रियतम से पान, सुपारी, सुई, धागा, मूत्रविसर्जन पात्र, सूप, ऊखल देवता समान हैं और देवों से पूजनीय हैं, उनकी जितनी प्रशंसा की जाये आदि तथा देव-पूजा हेतु ताम्रपात्र और मद्यपान हेतु मद्य-पात्र माँगती कम है । तीर्थंकर, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव, और श्रेष्ठ गणधरों को हैं। कभी वह अपने बच्चों के खेलने हेतु मिट्टी की गुड़िया, बाजा, जन्म देने वाली महिलाएँ श्रेष्ठ देवों और उत्तम पुरुषों के द्वारा पूजनीय झुनझुना, गेंद आदि मंगवाती हैं और गर्भवती होने पर दोहद-पूर्ति के होती हैं । कितनी ही महिलाएँ एक-पतिव्रत और कौमार्य ब्रह्मचर्य व्रत लिए विभिन्न वस्तुएँ लाने का आदेश देती हैं। कभी वह उसे वस्त्र धोने धारण करती हैं कितनी ही जीवनपर्यंत वैधव्य का तीव्र दुःख भोगती का आदेश देती हैं, कभी रोते हुए बालक को चुप कराने के लिए कहती हैं। ऐसी भी कितनी शीलवती स्त्रियाँ सुनी जाती हैं जिन्हें देवों के द्वारा
सम्मान आदि प्राप्त हुआ तथा जो शील के प्रभाव से शाप देने और इस प्रकार कामिनियाँ दास की तरह वशवर्ती पुरुषों पर अपनी अनुग्रह करने में समर्थ थीं। कितनी ही शीलवती स्त्रियाँ महानदी के जल आज्ञा चलाती हैं । वह उनसे गधे के समान काम करवाती हैं और काम प्रवाह में भी नहीं डूब सकी और प्रज्वलित घोर आग में भी नहीं जल न करने पर झिड़कती हैं, आँखें दिखाती हैं तो कभी झूठी प्रशंसा कर सकी तथा सर्प, व्याघ्र आदि भी उनका कुछ नहीं कर सके। कितनी ही उससे अपना काम निकालती हैं।
स्त्रियाँ सर्वगुणों से सम्पन्न साधुओं और पुरुषों से श्रेष्ठ चरमशरीरी पुरुषों यद्यपि नारी-स्वभाव का यह चित्रण वस्तुत: उसके घृणित पक्ष को जन्म देने वाली माताएँ हुई हैं ।१९ अन्तकृद्दशा और उसकी वृत्ति का ही चित्रण करता है किन्तु इसकी आनुभविक सत्यता से इन्कार भी में कृष्ण द्वारा प्रतिदिन अपनी माताओं के पाद-वन्दन हेतु जाने का नहीं किया जा सकता । परन्तु इस आधार पर यह मान लेना कि नारी उल्लेख है ।२० आवश्यकचूर्णि और कल्पसूत्र टीका में उल्लेख है कि के प्रति जैनाचार्यों का दृष्टिकोण अनुदार ही था, उचित नहीं होगा। जैन महावीर ने अपनी माता को दुःख न हो, इस हेतु उनके जीवित रहते धर्म मूलत: एक निवृत्तिपरक धर्म रहा है, निवृत्तिपरक होने के कारण संसार त्याग नहीं करने का निर्णय अपने गर्भकाल में ले लिया था ।२१ उसमें संन्यास और वैराग्य पर विशेष बल दिया गया है। संन्यास और इस प्रकार नारी वासुदेव और तीर्थंकर द्वारा भी पूज्य मानी गयी है। वैराग्य के लिए यह आवश्यक था कि पुरुष के सामने नारी का ऐसा चित्र महानिशीथ में कहा गया है कि जो स्त्री भय, लोकलज्जा, कुलांकुश एवं प्रस्तुत किया जाय जिसके फलस्वरूप उसमें विरक्ति का भाव प्रस्फुटित धर्मश्रद्धा के कारण कामाग्नि के वशीभूत नहीं होती है, वह धन्य है, हो । यही कारण था कि जैनाचार्यों ने आगमों और आगमिक व्याख्याओं पुण्यवती है, वंदनीय है, दर्शनीय है, वह लक्षणों से युक्त है, वह
और इतर साहित्य में कठोर शब्दों में नारी-चरित्र की निन्दा की, किन्तु सर्वकल्याणकारक है, वह सर्वोत्तम मंगल है, (अधिक क्या) वह (तो इसका यह अर्थ नहीं रहा कि जैनाचार्यों के सामने नारी-चरित्र का साक्षात् ) श्रुत देवता है, सरस्वती है, अच्युता है........ परम पवित्र उज्ज्वलतम पक्ष नहीं रहा है । सूत्रकृतांग नियुक्ति में स्पष्ट रूप से यह सिद्धि, शाश्वत शिवगति है । (महानिशीथ,२/सूत्र २३, पृ० ३६) कहा गया है जो शील-प्रध्वंसक चरित्रगत दोष नारी में पाये जाते हैं वे जैनधर्म में तीर्थंकर का पद सर्वोच्च माना जाता हैं और पुरुषों में भी पाये जाते हैं इसलिए वैराग्य मार्ग में प्रवर्तित स्त्रियों को भी श्वेताम्बर परम्परा ने मल्ली कुमारी को तीर्थंकर माना है ।२२ इसिमण्डलत्यू पुरुषों से उसी प्रकार बचना चाहिए जिस प्रकार स्त्रियों से पुरुषों को बचने (ऋषिमण्डल स्तवन) में ब्राह्मी, सुन्दरी, चन्दना आदि को वन्दनीय माना का उपदेश दिया गया है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनाचार्यों गया है ।२३ तीर्थंकरों की अधिष्ठायक देवियों के रूप में चक्रेश्वरी, ने नारी-चरित्र का जो विवरण प्रस्तुत किया है, वह मात्र पुरुषों में वैराग्य अम्बिका, पद्मावती, सिद्धायिका आदि देवियों को पूजनीय माना गया भावना जागृत करने के लिए ही है । भगवती आराधना में भी स्पष्ट रूप है और उनकी स्तुति में परवर्ती काल में अनेक स्तोत्र रचे गये हैं ।
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जैन धर्म में नारी की भूमिका
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यद्यपि यह स्पष्ट है कि जैनधर्म में देवी-पूजा की पद्धति लगभग गुप्त पूर्णता और मुक्ति की सम्भावना को स्वीकार किया गया है ।३५ हमें काल में हिन्दू परम्परा के प्रभाव से आई है। उत्तराध्ययन एवं दशवैकालिक आगमों और आगमिक व्याख्याओं तथा नियुक्ति, भाष्य और चूर्णि की चूर्णि में राजीमति द्वारा मुनि रथनेमि को२५ तथा आवश्यक चूर्णि में साहित्य में कहीं भी ऐसा संकेत नहीं मिलता है जिसमें स्त्री मुक्ति का ब्राह्मी और सुन्दरी द्वारा मुनि बाहुबली को प्रतिबोधित करने के उल्लेख निषेध किया गया हो अथवा किसी ऐसे जैन सम्प्रदाय की सूचना दी गयी हैं२६ । न केवल भिक्षुणियाँ अपितु गृहस्थ उपासिकाएँ भी पुरुष को हो जो स्त्रीमुक्ति को अस्वीकार करता है । सर्वप्रथम दक्षिण भारत में सन्मार्ग पर लाने हेतु प्रतिबोधित करती थीं । उत्तराध्ययन में रानी कुन्दकुन्द आदि कुछ दिगम्बर आचार्य लगभग पाँचवी-छठी शताब्दी में कमलावती राजा इषुकार को सन्मार्ग दिखाती हैं,२७ इसी प्रकार उपासिका स्त्री-मुक्ति आदि का निषेध करते हैं । कुन्दकुन्द सुत्तपाहुड में कहते हैं जयन्ती भरी सभा में महावीर से प्रश्न करती है तो कोशावेश्या अपने कि स्त्री अचेल (नग्न) होकर धर्मसाधना नहीं कर सकती और सचेल आवास में स्थित मुनि को सन्मार्ग दिखाती है,२९ ये तथ्य इस बात के चाहे तीर्थंकर भी हो मुक्त नहीं हो सकता । इसका तात्पर्य यह भी है प्रमाण हैं कि जैनधर्म में नारी की अवमानना नहीं की गई । चतुर्विध कि कुन्दकुन्द स्त्री-तीर्थंकर की यापनीय (मूलतः उत्तर भारतीय दिगम्बर धर्मसंघ में भिक्षुणीसंघ और श्राविकासंघ को स्थान देकर निर्ग्रन्थ परम्परा संघ) एवं श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित अवधारणा से परिचित थे। यह ने स्त्री और पुरुष की समकक्षता को ही प्रमाणित किया है। पार्श्व और स्पष्ट है कि पहले स्त्री तीर्थंकर की अवधारणा बनी, फिर उसके विरोध महावीर के द्वारा बिना किसी हिचकिचाहट के भिक्षुणी संघ की स्थापना में स्त्रीमुक्ति का निषेध किया गया । सम्भवत: सबसे पहले जैनपरम्परा की गई, जबकि बुद्ध को इस सम्बन्ध में संकोच रहा- यह भी इसी तथ्य में स्त्रीमुक्ति-निषेध की अवधारणा का विकास दक्षिण भारत में दिगम्बर का द्योतक है कि जैनसंघ का दृष्टिकोण नारी के प्रति अपेक्षाकृत उदार सम्प्रदाय द्वारा हुआ । क्योंकि सातवीं-आठवीं शताब्दी तक उत्तर भारत
के श्वेताम्बर आचार्य जहाँ सचेलता को लेकर विस्तार से चर्चा करते हैं जैनसंघ में नारी का कितना महत्त्वपूर्ण स्थान था इसका सबसे वहाँ स्त्रीमुक्ति के पक्ष-विपक्ष में कोई भी चर्चा नहीं करते हैं । इसका बड़ा प्रमाण तो यही है कि उसमें प्रागैतिहासिक काल से वर्तमान काल तात्पर्य है कि उत्तर भारत के जैन सम्प्रदायों में लगभग सातवीं-आठवीं तक सदैव ही भिक्षुओं की अपेक्षा भिक्षुणियों की और गृहस्थ उपासकों शताब्दी तक स्त्रीमुक्ति सम्बन्धी विवाद उत्पन्न ही नहीं हुआ था । इस की अपेक्षा उपासिकाओं की संख्या अधिक रही है । समवायांग, सन्दर्भ में विस्तृत चर्चा पं० बेचरदास स्मृति ग्रन्थ में पं० दलसुखभाई, जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति, कल्पसूत्र एवं आवश्यकनियुक्ति आदि में प्रत्येक प्रो० ढाकी और मैंने अपने लेख में की है। यहाँ केवल हमारा प्रतिपाद्य तीर्थंकर की भिक्षुणियों एवं गृहस्थ उपासिकाओं की संख्या उपलब्ध होती इतना ही है कि स्त्रीमुक्ति का निषेध दक्षिण भारत में पहले और उत्तर है। इन संख्यासूचक आंकड़ों में ऐतिहासिक सत्यता कितनी है, यह भारत में बाद में प्रारम्भ हुआ है क्योंकि श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदाय एक अलग प्रश्न है, किन्तु इससे तो फलित होता है कि जैनाचार्यों की के ग्रन्थों में लगभग आठवी-नौवीं शताब्दी से स्त्री-मुक्ति के प्रश्न को दृष्टि में नारी जैनधर्म संघ का महत्त्वपूर्ण घटक थी। भिक्षुणियों की संख्या विवाद के विषय के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इससे यह स्पष्ट हो सम्बन्धी ऐतिहासिक सत्यता को भी पूरी तरह नकारा नहीं जा सकता। जाता है कि जैनपरम्परा में भी धर्मसाधना के क्षेत्र में स्त्री की समकक्षता आज भी जैनसंघ में लगभग नौ हजार दो सौ भिक्षु-भिक्षुणियों में दो हजार किस प्रकार कम होती गयी। सर्वप्रथम तो स्त्री की मुक्ति की सम्भावना तीन सौ भिक्षु और छह हजार नौ सौ भिक्षुणियाँ हैं ।३१ भिक्षुणियों का यह को अस्वीकार किया गया है, फिर नग्नता को ही साधना का सर्वस्व अनुपात उस अनुपात से अधिक ही है जो पार्श्व और महावीर के युग में मानकर उसे पाँच महाव्रतों के पालन करने के अयोग्य मान लिया गया माना गया है।
और उसमें यथाख्यातचारित्र (सच्चरित्रता की उच्चतम अवस्था) को धर्मसाधना के क्षेत्र में स्त्री और पुरुष को समकक्षता के प्रश्न असम्भव बता दिया गया। सुत्तपाहुड में तो स्पष्ट रूप से स्त्री के लिए पर ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करें तो अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्य हमारे प्रव्रज्या का निषेध कर दिया गया । दिगम्बर परम्परा में स्त्री को जिन समक्ष उपस्थित होते हैं । सर्वप्रथम उत्तराध्ययन, ज्ञाताधर्मकथा, अन्तकृद्दशा कारणों से प्रव्रज्या और मोक्ष के अयोग्य बताया गया है, वे निम्न हैं - आदि आगमों में स्पष्ट रूप से स्त्री और पुरुष दोनों को ही साधना के १. स्त्री की शरीर-रचना ही ऐसी है कि उससे रक्तस्राव होता सर्वोच्च लक्ष्य मुक्ति प्राप्ति के लिए सक्षम माना गया है। उत्तराध्ययन है, उस पर बलात्कार सम्भव है अत: वह अचेल या नग्न नहीं रह में स्त्रीलिंग सिद्ध का उल्लेख हैं ।३२ ज्ञाता,३३ अन्तवृद्दशा एवं सकती । चूँकि स्त्री अचेल या नग्न नहीं हो सकती, दूसरे शब्दों में वह आवश्यक चूर्णि में भी अनेक स्त्रियों के मुक्त होने का उल्लेख है । इस पूर्ण परिग्रह का त्याग किये बिना उसके द्वारा महाव्रतों का ग्रहण एवं प्रकार श्वेताम्बर परम्परा में आगमिक काल से लेकर वर्तमान तक स्त्री मुक्ति प्राप्ति सम्भव नहीं हो सकती।। मुक्ति की अवधारणा को स्वीकार कर साधना के क्षेत्र में दोनों को समान २. स्त्री करुणा प्रधान है, उसमें तीव्रतम क्रूर अध्यवसायों का स्थान दिया गया है। मात्र इतना ही नहीं यापनीय परम्परा के ग्रन्थ अभाव होता है अत: निम्नतम गति सातवें नरक में जाने के अयोग्य षट्खण्डागम और मूलाचार में भी जो कि दिगम्बरों में भी आगम रूप होती है । जैनाचार्यों की इस उदार और मनोवैज्ञानिक मान्यता के आधार में मान्यता प्राप्त हैं, स्त्री-पुरुष दोनों में क्रमश: आध्यात्मिक विकास की पर दिगम्बर परम्परा ने यह मान लिया कि तीव्र पुरुषार्थ के अभाव में जो
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
निम्नतम गति में नहीं जा सकती, अत: वह उच्चतम गति में भी नहीं आगमिक व्याख्याओं के काल में जैन परम्परा में भी पुरुष की महत्ता बढ़ी जा सकती । अत: स्त्री की मुक्ति सम्भव नहीं ।
और ज्येष्ठकल्प के रूप में व्याख्यायित किया गया । अंग आगमों में ३. यह भी कहा गया है कि चंचल स्वभाव के कारण स्त्रियों मुझे एक भी ऐसा उदाहरण नहीं मिला जिसमें साध्वी अपनी प्रवर्तिनी, में ध्यान की स्थिरता नहीं होती है, अत: वे आध्यात्मिक विकास की आचार्य और तीर्थंकर के अतिरिक्त दीक्षा में कनिष्ठ भिक्षु को वन्दन या पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकती।
नमस्कार करती हो, किन्तु परवर्ती आगम एवं आगमिक व्याख्या४. एक अन्य तर्क यह भी दिया गया है कि स्त्री में वाद साहित्य में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सौ वर्ष की दीक्षित साध्वी के सामर्थ्य एवं तीव्र बुद्धि के अभाव के कारण ये दृष्टिवाद के अध्ययन में लिए भी सद्य: दीक्षित मुनि वन्दनीय है । (बृहत्कल्पभाष्य, भाग ६, गाथा अयोग्य होती हैं अत: वे मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकतीं।
६३९९; कल्पसूत्र कल्पलता टीका) । सम्भवत: जैन परम्परा में पुरुष यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा ने भी उन्हें बौद्धिक क्षमता के कारण की ज्येष्ठता का प्रतिपादन बौद्धों के अष्टगुरु धर्मों के कारण ही हुआ हो। दृष्टिवाद, अरुणोपपात, निशीथ आदि के अध्ययन के अयोग्य अवश्य
जैनधर्म संघ में नारी की महत्ता को यथासम्भव सुरक्षित रखने माना फिर भी उनमें 'मोक्षप्राप्ति' की क्षमता को स्वीकर किया गया। का प्रयत्न किया गया है। मथुरा में उपलब्ध अभिलेखों से यह स्पष्ट होता चाहे शारीरिक संरचना के कारण इसके लिए संयम-साधना के उपकरण है कि धर्मकार्यों में पुरुषों के समान नारियाँ भी समान रूप से भाग लेती के रूप में वस्त्र आवश्यक हों किन्तु आसक्ति के अभाव के कारण वह थीं। वे न केवल पुरुषों के समान पूजा, उपासना कर सकती थीं, अपितु परिग्रह नहीं है, अत: इसमें प्रव्रजित होने एवं मुक्त होने की सामर्थ्य है ।३९ वे स्वेछानुसार दान भी करती थीं और मन्दिर आदि बनवाने में समान रूप
यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि मुनि के अचेलकत्व से भागीदार होती थीं। जैन परम्परा में मर्तियों पर जो प्राचीन अभिलेख (दिगम्बर तत्त्व) की पोषक यापनीय परम्परा ने स्त्री-मुक्ति और पंच उपलब्ध होते हैं उनमें सामान्य रूप से पुरुषों के साथ-साथ स्त्रियों के नाम महाव्रत आरोपण रूप छेदोपस्थापनीय चारित्र (स्त्री-दीक्षा) को स्वीकार भी उपलब्ध होते हैं जो इस तथ्य के स्पष्ट प्रमाण हैं । यद्यपि दिगम्बर किया है। उससे विकसित द्राविड़, काष्ठा और माथुर संघों में भी स्त्री- और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में कुछ लोग यह मानते हैं कि स्त्री को दीक्षा (महाव्रतारोपण) को स्वीकार किया गया है । यद्यपि इस कारण वे जिन-प्रतिमा के स्पर्श, पूजन एवं अभिषेक का अधिकार नहीं है, किन्तु मूल संघीय दिगम्बर परम्परा की आलोचना के पात्र भी बने और उन्हें यह एक परवर्ती अवधारणा है, मथुरा के जैन शिल्प में साधु के समान जैनाभास तक कहा गया । इससे स्पष्ट है कि न केवल श्वेताम्बरों ने ही साध्वी का अंकन और स्त्री-पुरुष दोनों के पूजा सम्बन्धी सामग्री सहित अपितु दिगम्बर परम्परा के अनेक संघों ने भी स्त्री-मुक्ति और स्त्री-दीक्षा अंकन यही सूचित करते हैं कि प्राचीन काल में जैन परम्परा में दोनों का को स्वीकार करके नारी के प्रति उदार दृष्टिकोण अपनाया था ।४० समान स्थान रहा है।
यह निश्चित ही सत्य है कि आगमिक काल के जैनाचार्यों ने आगमिक व्याख्याकाल में हम देखते हैं कि यद्यपि संघ के न केवल स्त्री-मुक्ति और स्त्री-दीक्षा को स्वीकार किया, अपितु मल्लि को प्रमुख के रूप में आचार्य का पद पुरुषों के अधिकार में था, किसी स्त्री स्त्री तीर्थंकर के रूप में स्वीकार करके यह भी उद्घोषित किया कि के आचार्य होने का कोई उल्लेख नहीं है, किन्तु गणिनी, प्रवर्तिनी, आध्यात्मिक विकास के सर्वोच्च पद की अधिकारी नारी भी हो सकती गणावच्छेदिनी, अभिषेका आदि पद स्त्रियों को प्रदान किये जाते थे और है । स्त्री तीर्थंकर की अवधारणा जैनधर्म की अपनी एक विशिष्ट वे अपने भिक्षुणी संघ की स्वतन्त्र रूप से आन्तरिक व्यवस्था देखती थीं। अवधारणा है जो नारी गरिमा को महिमामण्डित करती है। यद्यपि तरुणी भिक्षुणियों की सुरक्षा का दायित्व भिक्षु संघ को सौंपा गया
ज्ञातव्य है कि बौद्धपरम्परा जो कि जैनों के समान ही श्रमण था, किन्तु सामान्यतया भिक्षुणियाँ अपनी सुरक्षा की व्यवस्था स्वयं धारा का एक अंग थी, स्त्री के प्रति इतनी उदार नहीं बन सकी, जितनी रखती थी, क्योंकि रात्रि एवं पदयात्रा में भिक्षु और भिक्षुणियों का एक जैन परम्परा । क्योंकि बुद्ध स्त्री को निर्वाण पद की अधिकारिणी मानकर ही साथ रहना सामान्यतया वर्जित था। इस सुरक्षा के लिए भिक्षुणी संघ भी यह मानते थे कि स्त्री बुद्धत्व को प्राप्त नहीं कर सकती है । नारी में प्रतिहारी आदि के पद भी निर्मित किये गये थे । इस प्रकार हम देखते को संघ में प्रवेश देने में उनकी हिचक और उसके प्रवेश के लिए अष्टगुरु हैं कि साधना के क्षेत्र में स्त्री की गरिमा को यथासम्भव सुरक्षित रखा गया धर्मों का प्रतिपादन जैनों की अपेक्षा नारी के प्रति उनके अनुदार दृष्टिकोण फिर भी तथ्यों के अवलोकन से यह निश्चित होता है कि आगमिक का ही परिचायक है। यद्यपि हिन्दू धर्म में शक्ति उपासना के रूप में स्त्री व्याख्याओं के युग में और उसके पश्चात् जैन परम्परा में भी स्त्री की को महत्त्व दिया गया है, किन्तु जैनधर्म में तीर्थंकर की जो अवधारणा अपेक्षा पुरुष को महत्ता दी जाने लगी थी। है, उसकी अपनी एक विशेषता है । वह यह सूचित करती है कि विश्व का सर्वोच्च गरिमामय पद पुरुष और स्त्री दोनों ही समान रूप से प्राप्त नारी की स्वतन्त्रता कर सकते हैं । यद्यपि परवर्ती आगमों एवं आगमिक व्याख्या साहित्य नारी की स्वतन्त्रता को लेकर प्रारम्भ में जैनधर्म का दृष्टिकोण में इसे एक आश्चर्यजनक घटना कहकर पुरुष के प्राधान्य को स्थापित उदार था । यौगलिक काल में स्त्री-पुरुष सहभागी होकर जीवन जीते थे। करने का प्रयत्न अवश्य किया गया । (स्थानांग, १०/१६०) किन्तु आगम-ग्रन्थ ज्ञाताधर्मकथा में राज द्रुपद द्रौपदी से कहते हैं कि मेरे द्वारा
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जैन धर्म में नारी की भूमिका
५५५ विवाह किये जाने पर तुझे सुख-दु:ख हो सकता है अत: अच्छा हो कि स्थान महत्त्वपूर्ण हो गया और यह उद्घोष किया गया कि पुत्र के बिना तू अपना वर स्वयं ही चुन । यहाँ ग्रन्थकार के ये विचार वैवाहिक जीवन पूर्वजों की सुगति/मुक्ति सम्भव नहीं ।५ फलतः आगे चलकर हिन्दू के लिये नारी-स्वातन्त्र्य के समर्थक हैं । इसी प्रकार हम देखते हैं कि परम्परा में कन्या की उत्पत्ति को अत्यन्त हीनदृष्टि से देखा जाने उपासकदशांग में महाशतक अपनी पत्नी रेवती के धार्मिक विश्वास, लगा। इस प्रकार वैदिक हिन्दू परम्परा में पुत्र-पुत्री की समकक्षता को खान-पान और आचार-व्यवहार पर कोई जबरदस्ती नहीं करता है । जहाँ अस्वीकार कर पुत्र को अधिक महनीयता प्रदान की गई किन्तु इसके आनन्द आदि श्रावकों की पत्नियाँ अपने पति का अनुगमन करती हुई विपरीत जैन आगमों में हम देखते हैं कि उपासक और उपासिकाएँ पुत्रमहावीर से उपासक व्रतों को ग्रहण करती हैं और धर्मसाधना के क्षेत्र में पुत्री हेतु समान रूप से कामना करते हैं ।४६ चाहे अर्थोपार्जन और भी पति की सहभागी बनती हैं, वहीं रेवती अपने पति का अनुगमन नहीं पारिवारिक व्यवस्था की दृष्टि से जैनधर्मानुयायियों में भी पुत्र की प्रधानता करती है, मात्र यही नहीं, वह तो अपने मायके से मँगाकर मद्य-मांस का रही हो किन्तु जहाँ तक धार्मिक जीवन और साधना का प्रश्न था, जैन सेवन करती है और महाशतक के पूर्ण साधनात्मक जीवन में विध्न- धर्म में पुत्र की महत्ता का कोई स्थान नहीं था । जैन कर्म सिद्धान्त ने बाधाएँ भी उपस्थित करती है ।" इससे ऐसा लगता है कि आगम युग स्पष्ट रूप से यह उद्घोषित किया कि व्यक्ति अपने कर्मों के अनुसार ही तक नारी को अधिक स्वातन्त्र्य था किन्तु आगमिक व्याख्या साहित्य में सुगति या दुर्गति में जाकर सुख-दुःख का भोग करता है । सन्तान के हम पाते हैं कि पति या पत्नी अपने धार्मिक विश्वासों को एक दूसरे पर द्वारा सम्पन्न किये गये कर्मकाण्ड पूर्वजों को किसी भी प्रकार प्रभावित लादने का प्रयास करते हैं। चूर्णि साहित्य में ऐसी अनेक कथाएँ हैं नहीं करते ७ इस प्रकार उसमें धार्मिक आधार पर पुत्र की महत्ता को जिनमें पुरुष स्त्री को अपने धार्मिक विश्वासों की स्वतन्त्रता नहीं देता अस्वीकार कर दिया गया । फलत: आगमिक युग में पुत्र-पुत्री के प्रति
समानता की भावना प्रदर्शित की गई किन्तु अर्थोपार्जन और पारिवारिक इसी प्रकार धर्मसंघ में भी आगम युग में भिक्षुणी संघ की व्यवस्था में पुरुष की प्रधानता के कारण पुत्रोत्पत्ति को ही अधिक सुखद व्यवस्था को भिक्षुसंघ से अधिक नियन्त्रित नहीं पाते हैं । भिक्षुणी संघ माना जाने लगा। यद्यपि ज्ञाताधर्मकथा में मल्लि आदि के जन्मोत्सव के अपने आन्तरिक मामलों में पूर्णतया आत्मनिर्भर था, गणधर अथवा उल्लेख उपलब्ध हैं, किन्तु इन उल्लेखों के आधार पर यह मान लेना आचार्य का उस पर बहुत अधिक अंकुश नहीं था, किन्तु छेदसूत्र एवं कि जैन संघ में पुत्र और पुत्री की स्थति सदैव ही समकक्षता की रही, आगमिक व्याख्या साहित्य के काल में यह नियन्त्रण क्रमश: बढ़ता उचित नहीं हेगा। आगमिक व्याख्या साहित्य एवं पौराणिक साहित्य में जाता है । इन ग्रंथों में चातुर्मास, प्रायश्चित्त, शिक्षा, सुरक्षा आदि सभी उपर्युक्त आगमिक अपवादों को छोड़ कर जैनसंघ में भी पुत्री की अपेक्षा क्षेत्रों में भिक्षुक वर्ग का प्रभुत्व बढ़ता हुआ प्रतीत होता है। फिर भी बौद्ध पुत्र को जो अधिक सम्मान मिला उसका आधार धार्मिक मान्यतायें न भिक्षुणी संघ की अपेक्षा जैन भिक्षुणी संघ में स्वायत्तता अधिक थी। होकर सामाजिक परिस्थितियाँ थीं । यद्यपि भिक्षुणी संघ की व्यवस्था के किन्हीं विशेष परिस्थितियों को छोड़कर वे दीक्षा, प्रयश्चित्त, शिक्षा और कारण पुत्री पिता के लिये उतनी अधिक भारस्वरूप कभी नहीं मानी गयी सुरक्षा की अपनी व्यवस्था करती थीं और भिक्षु संघ से स्वतन्त्र विचरण जितनी उसे हिन्दू परम्परा में माना गया था । करते हुए धर्मोपदेश देती थीं जबकि बौद्धधर्मसंघ में भिक्षुणी को उपोसथ, इस प्रकार जैन आगमों और आगमिक व्याख्या साहित्य से जो वर्षावास आदि भिक्षुसंघ के अधीन करने होते थे।
सूचनाएँ उपलब्ध हैं उनके आधार पर कहा जा सकता है कि यौगलिक यद्यपि जहाँ तक व्यावहारिक जीवन का प्रश्न था जैनाचार्य काल अर्थात् पूर्व युग में और आगम युग में पुत्र और पुत्री दोनों की ही हिन्दु परम्परा के चिन्तन से प्रभावित हो रहे थे । मनुस्मृति के समान उत्पत्ति सुखद थी किन्तु आगमिक व्याख्याओं के युग में बाह्य सामाजिक व्यवहार भाष्य में भी कहा गया है
एवं आर्थिक प्रभावों के कारण स्थिति में परिवर्तन आया और पुत्री की जाया पितव्वसा नारी दत्ता नारी पतिव्वसा ।
अपेक्षा पुत्र को अधिक महत्त्व दिया जाने लगा। विहवा पुत्तवसा नारी नत्यि नारी सयंवसा ।।३/२३३
अर्थात् जन्म के पश्चात् स्त्री पिता के अधीन, विवाहित होने पर विवाह संस्था और नर-नारी की समकक्षता का प्रश्न पति के अधीन और विधवा होने पर पुत्र के अधीन होती है अत: वह विवाह-व्यवस्था प्राचीन काल से लेकर आज तक मानवीय कभी स्वाधीन नहीं है । इस प्रकार आगमिक व्याख्या साहित्य में स्त्री की समाज व्यवस्था का एक महत्त्वपूर्ण अंग रही है । यह सत्य है कि स्वाधीनता सीमित की गयी है ।
जैनधर्म के अनुयायियों में भी प्राचीनकाल से विवाह व्यवस्था प्रचलित
रही है किन्तु हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि निवृत्तिप्रधान होने के पुत्र-पुत्री की समानता का प्रश्न
कारण जैनधर्म में विवाह-व्यवस्था को कोई विशेष महत्त्व नहीं दिया चाहे प्रारम्भिक वैदिक धर्म में पुत्र और पुत्री की समकक्षता गया । धार्मिक दृष्टि से वह स्वपत्नी या स्वपति सन्तोषव्रत की व्यवस्था स्वीकार की गई हो किन्तु परवर्ती हिन्दू धर्म में अर्थोपार्जन और धार्मिक करता है जिसका तात्पर्य है व्यक्ति को अपनी काम-वासना को स्वपति कर्मकाण्ड दोनों ही क्षेत्रों में पुरुष की प्रधानता के परिणामस्वरूप पुत्र का या स्वपत्नी तक ही सीमित रखना चाहिए । तात्पर्य यह है कि यदि
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
ब्रह्मचर्य का पालन सम्भव न हो तो विवाह कर लेना चाहिए । विवाह ब्रह्मचर्य पालन करने में असफल हो तो उसे विवाह बन्धन मान लेना विधि के सम्बन्ध में जैनाचार्यों की स्पष्ट धारणा क्या थी, इसकी सूचना चाहिए । जहाँ तक स्वयंवर विधि का प्रश्न है निश्चित ही नारी-स्वातन्त्र्य हमें आगमों और आगमिक व्याख्याओं में नहीं प्राप्त होती है । जैन की दृष्टि से यह विधि महत्त्वपूर्ण थी। किन्तु जनसामान्य में जिस विधि विवाह-विधि का प्रचलन पर्याप्त रूप से परवर्ती है और दक्षिण के का प्रचलन था वह माता-पिता के द्वारा आयोजित विधि ही थी। यद्यपि दिगम्बर आचार्यों की ही देन है जो हिन्दू-विवाह-विधि का जैनीकरण मात्र इस विधि में स्त्री और पुरुष दोनों की स्वतंत्रता खण्डित होती थी। है। उत्तर भारत के श्वेताम्बर जैनों में तो विवाह-विधि को हिन्दू धर्म के जैनकथा साहित्य में ऐसे अनेक उल्लेख उपलब्ध हैं जहाँ बलपूर्वक अनुसार ही सम्पादित किया जाता है। आज भी श्वेताम्बर जैनों में अपनी अपहरण करके विवाह सम्पन्न हुआ। इस विधि में नारी की स्वतंत्रता कोई विवाह-पद्धति नहीं है । जैन आगमों और आगमिक व्याख्याओं से पूर्णतया खण्डित हो जाती थी, क्योंकि अपहरण करके विवाह करने का जो सूचना हमें मिलती है उसके अनुसार यौगलिक काल में युगल रूप अर्थ मात्र यह मानना नहीं है कि स्त्री को चयन की स्वतंत्रता ही नहीं है, से उत्पन्न होने वाले भाई बहन युवावस्था में पति-पत्नी का रूप ले लेते अपितु यह तो उसे लूट की सम्पत्ति मानने जैसा है। थे । जैन पुराणों के अनुसार सर्वप्रथम ऋषभदेव से ही विवाह प्रथा का जहाँ तक आगमिक व्याख्याओं का प्रश्न है उनमें अधिकांश आरम्भ हुआ। उन्होंने भाई-बहनों के बीच स्थापित होने वाले यौन विवाह माता-पिता के द्वारा आयोजित विवाह ही हैं, केवल कुछ प्रसंगों सम्बन्ध (विवाह-प्रणाली) को अस्वीकार कर दिया। उनकी दोनों पुत्रियों में ही स्वयंवर एवं गन्धर्व विवाह के उल्लेख मिलते हैं जो आगम युग ब्राह्मी और सुन्दरी ने आजीवन ब्रह्मचारिणी रहने का निर्णय किया । एवं पूर्व काल के हैं । माता-पिता के द्वारा आयोजित इस विवाह-विधि फलतः भरत और बाहुबलि का विवाह अन्य वंशों की कन्याओं से किया में स्त्री-पुरुषों की समकक्षता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है । यद्यपि यह गया । जैन साहित्य के अध्ययन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि सत्य है कि जैनाचार्यों ने विवाह-विधि के सम्बन्ध में गम्भीरता से चिन्तन आगमिक काल तक स्त्री विवाह सम्बन्धी निर्णयों को लेने में स्वतन्त्र थी नहीं किया किन्तु यह सत्य है कि उन्होंने स्त्री को गरिमाहीन बनाने का और अधिकांश विवाह उसकी सम्मति से ही किये जाते थे जैसा कि प्रयास भी नहीं किया । जहाँ हिन्दू-परम्परा में विवाह स्त्री के लिए बाध्यता ज्ञाताधर्मकथा में मल्लि५० और द्रौपदी के कथानकों से ज्ञात होता है। थी, वहीं जैन-परम्परा में ऐसा नहीं किया गया। प्राचीनकाल से लेकर ज्ञाताधर्मकथा में पिता स्पष्ट रूप से पुत्री से कहता है कि यदि मैं तेरे लिए अद्यावधि विवाह करने न करने के प्रश्न को स्त्री-विवेक पर छोड़ दिया पति चुनता हूँ तो वह तेरे लिए सुख-दुःख का कारण हो सकता है, गया। जो स्त्रियाँ यह समझती थीं कि वे अविवाहित रहकर अपनी साधना इसलिए अच्छा यही होगा तू अपने पति का चयन स्वयं ही कर । मल्लि कर सकेंगी उन्हें बिना विवाह किये ही दीक्षित होने का अधिकार था। और द्रौपदी के लिये स्वयम्वरों का आयोजन किया गया था। विवाह-संस्था जैनों के लिए ब्रह्मचर्य की साधना में सहायक होने के रूप
. आगम ग्रन्थों से जो सूचना मिलती है उसके आधार पर हम में ही स्वीकार की गई । जैनों के लिए विवाह का अर्थ था अपनी वासना इतना ही कह सकते हैं कि प्रागैतिहासिक युग और आगम युग में को संयमित करना । केवल उन्हीं लोगों के लिए विवाह-संस्था में प्रवेश सामान्यतया स्त्री को अपने पति का चयन करने में स्वतन्त्रता थी । यह आवश्यक माना गया था जो पूर्णरूप से ब्रह्मचर्य का पालन करने में भी उसकी इच्छा पर निर्भर था कि वह विवाह करे या न करे । पूर्वयुग असमर्थ पाते हों अथवा विवाह के पूर्व पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन का व्रत नहीं में ब्राह्मी, सुन्दरी, मल्लि, आगमिक युग में चन्दनबाला, जयन्ती आदि ले चुके हैं । अत: हम कह सकते हैं कि जैनों ने ब्रह्मचर्य की आंशिक ऐसी अनेक स्त्रियों के उल्लेख प्राप्त होते हैं जिन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्यपालन साधना के अंग के रूप में विवाह-संस्था को स्वीकार करके भी नारी की स्वीकार किया और विवाह अस्वीकार कर दिया। आगमिक व्याख्याओं स्वतन्त्र निर्णय शक्ति को मान्य करके उसकी गरिमा को खण्डित नहीं में हमें विवाह के अनेक रूप उपलब्ध होते हैं। डॉ० जगदीश चन्द्र जैन होने दिया । ने जैन आगमों और आगमिक व्याख्याओं में उपलब्ध विवाह के विविध रूपों का विवरण प्रस्तुत किया है यथा - स्वयंवर, माता-पिता द्वारा बहुपति और बहुपत्नी प्रथा आयोजित विवाह, गन्धर्व विवाह (प्रेमविवाह), कन्या को बलपूर्वक विवाह संस्था के सन्दर्भ में एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न बहुविवाह का ग्रहण करके विवाह करना, पारस्परिक आकर्षण या प्रेम के आधार पर भी है । इसके दो रूप हैं बहुपत्नी प्रथा और बहुपति प्रथा । यह स्पष्ट विवाह, वर या कन्या की योग्यता देखकर विवाह, कन्यापक्ष को शुल्क है कि द्रौपदी के एक अपवाद को छोड़कर हिन्दू और जैन दोनों ही देकर विवाह और भविष्यवाणी के आधार पर विवाह ।५१ किन्तु हमें परम्पराओं में नारी के सम्बन्ध में एक-पति प्रथा की अवधारणा को ही आगम एवं आगमिक व्याख्याओं में कहीं भी ऐसा उल्लेख नहीं मिल स्वीकार किया गया और बहुपति प्रथा को धार्मिक दृष्टि से अनुचित माना सका जहाँ जैनाचार्यों के गुण-दोषों के आधार पर इनमें से किसी का गया। जैनाचार्यों ने द्रौपदी के बहुपति होने की अवधारणा को इस आधार समर्थन या निषेध किया हो या यह कहा हो कि यह विवाह-पद्धति उचित पर औचित्यपूर्ण बताने का प्रयास किया है कि सुकमालिका आर्या के भव है या, अनुचित है । यद्यपि विवाह के सम्बन्ध में जैनों का अपना कोई में उसने अपने तप के प्रताप से पाँच पति प्राप्त करने का निदान (निश्चय स्वतन्त्र दृष्टिकोण नहीं था पर इतना अवश्य माना जाता था कि यदि कोई कर) लिया था ।५२ अत: इसे पूर्वकर्म का फल मानकर सन्तोष किया
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गया । किन्तु दूसरी ओर पुरुष के सम्बन्ध में बहुपत्नी प्रथा की स्पष्ट अवधारणा आगमों और आगमिक व्याख्या साहित्य में मिलती है। इनमें ऐसे अनेक सन्दर्भ हैं जहाँ पुरुषों को बहुविवाह करते दिखाया गया है। दुःख तो यह है कि उनकी इस प्रवृत्ति की समालोचना भी नहीं की गई है। अतः उस युग में जैनाचार्य इस सम्बन्ध में तटस्थ भाव रखते थे, यही कहा जा सकता है। क्योंकि किसी जैनाचार्य ने बहुविवाह को अच्छा कहा हो, ऐसा भी कोई सन्दर्भ नहीं मिलता है। उपासकदशा में श्रावक के स्वपत्नीसन्तोषव्रत के अतिचारों का उल्लेख मिलता है, उसमें ‘परविवाहकरण' को अतिचार या दोष माना गया है । ५३ 'परविवाहकरण' की व्याख्या में उसका एक अर्थ दूसरा विवाह करना बताया गया है अतः हम इतना अवश्य कह सकते हैं कि जैनों का आदर्श एकपत्नीव्रत हो रहा है ।
जैन धर्म में नारी की भूमिका
I
बहुपत्नी प्रथा के आविर्भाव पर विचार करें तो हम पाते हैं कि यौगलिक काल तक बहुपत्नी प्रथा प्रचलित नहीं थी। आवश्यकचूर्णि के अनुसार सर्वप्रथम ऋषभदेव ने दो विवाह किये थे। किन्तु उनके लिए दूसरा विवाह इसलिए आवश्यक हो गया था कि एक युगल में पुरुष की अकाल मृत्यु हो जाने के कारण उस स्त्री को सुरक्षा प्रदान करने की दृष्टि से यह आवश्यक था । किन्तु जब आगे चलकर स्त्री को एक सम्पत्ति के रूप में देखा जाने लगा तो स्वाभाविक रूप से स्त्री के प्रति अनुग्रह को भावना के आधार पर नहीं, अपितु अपनी कामवासनापूर्ति और सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए बहुविवाह की प्रथा आरम्भ हो गयी । यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि यद्यपि समाज में बहुविवाह की प्रथा प्रचलित थी किन्तु इसे जैनधर्म सम्मत एक आचार मानना अनुचित होगा। क्योंकि जब जैनों में विवाह को ही एक अनिवार्य धार्मिक कर्तव्य के रूप में स्वीकार नहीं किया गया तो बहुविवाह को धार्मिक कर्तव्य के रूप में स्वीकार करने का प्रश्न ही नहीं उठता जैन आगम और आगमिक व्याख्या साहित्य में यद्यपि पुरुष के द्वारा बहुविवाह के अनेक सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं किन्तु हमें एक भी ऐसा सन्दर्भ नहीं मिलता जहाँ कोई व्यक्ति गृहस्थोपासक के व्रतों को स्वीकार करने के पश्चात् बहुविवाह करता है। यद्यपि ऐसे सन्दर्भ तो हैं कि मुनिव्रत या श्रावकत्रत स्वीकार करने के पूर्व अनेक गृहस्थोपासकों की एक से अधिक पत्नियाँ थी। किन्तु व्रत स्वीकार करने के पश्चात् किसी ने अपनी पत्नियों की संख्या में वृद्धि की हो, ऐसा एक भी सन्दर्भ मुझे नहीं मिला । आदर्श स्थिति तो एकपत्नी प्रथा को ही माना जाता था । उपासकदशा में १० प्रमुख उपासकों में केवल एक की ही एक से अधिक पत्नियाँ थीं। शेष सभी को एक-एक पत्नी थी साथ ही उसमें श्रावकों के व्रतों के जो अतिचार बताये गये हैं उनमें स्वपत्नीसन्तोष व्रत का एक अतिचार ' पर विवाहकरण है।" यद्यपि कुछ जैनाचार्यों ने 'परविवाहकरण' का अर्थ स्व-सन्तान के अतिरिक्त अन्यों की सन्तानों का विवाह सम्बन्ध करवाना माना है किन्तु उपासक दशांग की टीका में आचार्य अभयदेव ने इसका अर्थ एक से अधिक विवाह करना माना है । अतः हम यह कह सकते हैं कि धार्मिक आधार पर जैनधर्म बहुपत्नी प्रथा का समर्थक नहीं है। बहुपत्नी
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प्रथा का उद्देश्य तो वासना में आकण्ठ डूबना है जो निवृत्तिप्रधान जैनधर्म की मूल भावना के अनुकूल नहीं है। जैन ग्रन्थों में जो बहुपत्नी प्रथा की उपस्थिति के संकेत मिलते हैं वे उस युग की सामाजिक स्थिति के सूचक हैं आगम साहित्य में पार्श्व, महावीर एवं महावीर के नौ प्रमुख उपासकों की एक-एक पत्नी मानी गई है।
विधवा विवाह एवं नियोग
I
यद्यपि आगमिक व्याख्या साहित्य में नियोग और विधवाविवाह के कुछ सन्दर्भ उपलब्ध हो जाते हैं किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि यह भी जैनाचार्यों द्वारा समर्थित नहीं है। निशीथचूर्णि में एक राजा को अपनी पत्नी से नियोग के द्वारा सन्तान उत्पन्न करवाने के सन्दर्भ में यह कहा गया है कि जिस प्रकार खेत में बीज किसी ने भी डाला हो फसल का अधिकारी भूस्वामी ही होता है उसी प्रकार स्वस्त्री से उत्पन्न सन्तान का अधिकारी उसका पति ही होता है। यह सत्य है कि एक युग में भारत में नियोग की परम्परा प्रचलित रही किन्तु निवृत्तिप्रधान जैनधर्म ने न तो नियोग का समर्थन किया, न ही विधवा विवाह का । क्योंकि उसकी मूलभूत प्रेरणा वही रही कि जब भी किसी स्त्री या पुरुष को कामवासना से मुक्त होने का अवसर प्राप्त हो वह उससे मुक्त हो जाय। जैन आगम एवं आगमिक व्याख्याओं में हजारों सन्दर्भ प्राप्त होते हैं जहाँ पति की मृत्यु के पश्चात् विधवायें भिक्षुणी बनकर संघ की शरण में चली जाती थी । जैन संघ में भिक्षुणियों की संख्या के अधिक होने का एक कारण यह भी था कि भिक्षुणी संघ विधवाओं के सम्मानपूर्ण एवं सुरक्षित जीवन जीने का आश्रयस्थल था। यद्यपि कुछ लोगों के द्वारा यह कहा जाता है कि ऋषभदेव ने मृत युगल पत्नी से विवाह करके विधवा विवाह की परम्परा को स्थापित किया था किन्तु आवश्यक चूर्णि से स्पष्ट होता है कि वह स्त्री मृत युगल की बहन थी, पत्नी नहीं। क्योंकि उस युगल में पुरुष की मृत्यु बालदशा में हो चुकी थी। अतः इस आधार पर विधवा विवाह का समर्थन नहीं होता है। जैनधर्म जैसे निवृत्तिप्रधान धर्म में विधवा-विवाह को मान्यता प्राप्त नहीं थी । यद्यपि भारतीय समाज में ये प्रथाएँ प्रचलित थीं, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता है ।
विधुर - विवाह
जब समाज में बहु-विवाह को समर्थन हो तो विधुर-विवाह को मान्य करने में कोई आपत्ति नहीं होगी। किन्तु इसे जैनधर्म में धार्मिक दृष्टि से समर्थन प्राप्त था, यह नहीं कहा जा सकता । पत्नी की मृत्यु के पश्चात् आदर्श स्थिति तो यही मानी गई थी कि व्यक्ति वैराग्य ले ले मात्र यही नहीं अनेक स्थितियों में पति पत्नी के भिक्षुणी बनने पर स्वयं भी भिक्षु बन जाता है। यद्यपि सामाजिक जीवन में विधुर - विवाह के अनेक प्रसंग उपलब्ध होते हैं जिनके संकेत आगमिक व्याख्या साहित्य में मिलते हैं।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
विवाहेतर यौन सम्बन्ध
में गर्भ रह जाने पर संघ उस भिक्षुणी के प्रति सद्भावनापूर्वक व्यवहार जैनधर्म में पति-पत्नी के अतिरिक्त अन्यत्र यौन सम्बन्ध स्थापित करता था तथा उसके गर्भ की सुरक्षा के प्रयत्न भी किये जाते थे। प्रसूत करना धार्मिक दृष्टि से सदैव ही अनुचित माना गया । वेश्यागमन और बालक को जब वह उस स्थिति में हो जाता था कि वह माता के बिना परस्त्रीगमन दोनों को अनैतिक कर्म बताया गया। फिर भी न केवल रह सके तो उसे उपासक को सौंपकर अथवा भिक्षु संघ को सौंपकर ऐसी गृहस्थ स्त्री-पुरुषों में अपितु भिक्षु-भिक्षुणियों में भी अनैतिक यौन सम्बन्ध भिक्षुणी पुनः भिक्षुणी संघ में प्रवेश पा लेती थी ।६० ये तथ्य इस बात स्थापित हो जाते थे, आगमिक व्याख्या साहित्य में ऐसे सैकड़ों प्रसंग के सूचक हैं कि सदाचारी नारियों के संरक्षण में जैनसंघ सदैव सजग उल्लिखित हैं । जैन आगमों और उनकी टीकाओं आदि में ऐसी अनेक था । स्त्रियों का उल्लेख मिलता है जो अपने साधना-मार्ग से पतित होकर स्वेच्छाचारी बन गयी थीं। ज्ञाताधर्मकथा, उसकी टीका, आवश्यकचूर्णि नारी-रक्षा आदि में पार्थापत्य परम्परा की अनेक शिथिलाचारी साध्वियों के उल्लेख बलात्कार किये जाने पर किसी को भिक्षुणी की आलोचना का मिलते हैं ।५६ ज्ञाताधर्मकथा में दौपदी का पूर्व जीवन भी इसी रूप में अधिकार नहीं था । इसके विपरीत जो व्यक्ति ऐसी भिक्षुणी की आलोचना वर्णित है। साधना काल में वह वेश्या को पाँच पुरुषों से सेवित देखकर करता उसे ही दण्ड का पात्र माना जाता था। नारी की मर्यादा की रक्षा स्वयं पाँच पतियों की पत्नी बनने का निदान कर लेती है।५७ निशीथचूर्णि के लिए जैनसंघ सदैव ही तत्पर रहता था । निशीथचूर्णी में उल्लिखित में पुत्रियों और पुत्रवधु के जार अथवा धूर्त व्यक्तियों के साथ भागने के कालकाचार्य की कथा में इस बात का प्रमाण है कि अहिंसा का प्राणपण उल्लेख हैं । आगमिक व्याख्याओं में मुख्यत: निशीथचूर्णि, बृहत्कल्पभाष्य से पालन करने वाला भिक्षुसंघ भी नारी की गरिमा को खण्डित होने की व्यवहारभाष्य आदि में ऐसे भी उल्लेख मिलते हैं जहाँ स्त्रियाँ अवैध स्थिति में दुराचारियों को दण्ड देने के लिए शस्त्र पकड़कर सामने आ सन्तानों को भिक्षुओं के निवास स्थानों पर छोड़ जाती थीं ५। आगम और जाता था । निशीथचूर्णि में कालकाचार्य की कथा इस बात का स्पष्ट आगमिक व्याख्यायें इस बात की साक्षी हैं कि स्त्रियाँ सम्भोग के लिए प्रमाण है कि आचार्य ने भिक्षुणी६१ (बहन सरस्वती) की शील-सुरक्षा के भिक्षुओं को उत्तेजित करती थीं५९ उन्हें इस हेतु विवश करती थीं और लिये गर्दभिल्ल के विरुद्ध शकों की सहायता लेकर पूरा संघर्ष किया था। , उनके द्वारा इन्कार किये जाने पर उन्हें बदनाम किये जाने का भय दिखाती निशीथ, बृहत्कल्पभाष्य आदि में स्पष्ट रूप से ऐसे उल्लेख हैं कि यदि थीं । आगमिक व्याख्याओं में इन परिस्थितियों में भिक्षु को क्या करना संघस्थ भिक्षुणियों की शील-सुरक्षा के लिये दुराचारी व्यक्ति की हत्या चाहिए, इस सम्बन्ध में अनेक आपवादिक नियमों का उल्लेख मिलता करने का कार्य भी अपरिहार्य हो जाये तो ऐसी हत्या को भी उचित माना है । यद्यपि शीलभंग सम्बन्धी अपराधों के विविध रूपों एवं सम्भावनाओं गया। नारी के शील की सुरक्षा करने वाले ऐसे भिक्षु को संघ में के उल्लेख जैन परम्परा में विस्तार से मिलते हैं किन्तु इस चर्चा का सम्मानित भी किया जाता था। बृहत्कल्पभाष्य में कहा गया है कि जल, उद्देश्य साधक को वासना सम्बन्धी अपराधों से विमुख बनाना ही रहा अग्नि, चोर और दुष्काल की स्थिति में सर्वप्रथम स्त्री की रक्षा करनी है। यह जीवन का यथार्थ तो था किन्तु जैनाचार्य उसे जीवन का चाहिए। इसी प्रकार डूबते हुए श्रमण और भिक्षुणी में पहले भिक्षुणी को विकतपक्ष मानते थे और उस आदर्श समाज की कल्पना करते हैं जहाँ और क्षुल्लक और क्षुल्लिका में से क्षुल्लिका की रक्षा करनी चाहिए । इसका पूर्ण अभाव हो।
इस प्रकार नारी की रक्षा को प्राथमिकता दी गई । . आगमिक व्याख्याओं में उन घटनाओं का भी उल्लेख है जिनके कारण स्त्रियों को पुरुषों की वासना का शिकार होना पड़ा था। सती प्रथा और जैनधर्म पुरुषों की वासना का शिकार होने से बचने के लिए भिक्षुणियों को अपनी उत्तरमध्य युग में नारी उत्पीड़न का सबसे बीभत्स रूप सती शील-सुरक्षा में कौन-कौन-सी सतर्कता बरतनी होती थी यह भी उल्लेख प्रथा बन गया था, यदि हम सती प्रथा के सन्दर्भ में जैन आगम और निशीथ और बृहत्कल्प दोनों में ही विस्तार से मिलता है। रूपवती व्याख्या साहित्य को देखें तो स्पष्ट रूप से हमें एक भी ऐसी घटना का भिक्षुणियों को मनचले युवकों और राजपुरुषों की कुदृष्टि से बचने के उल्लेख नहीं मिलता जहाँ पत्नी पति के शव के साथ जली हो या जला लिए इस प्रकार का वेश धारण करना पड़ता था ताकि वे कुरुप प्रतीत दी गयी हो । यद्यपि निशीथचूर्णि में एक ऐसा उल्लेख मिलता है जिसके हो । भिक्षुणियों को सोते समय क्या व्यवस्था करनी चाहिए इसका भी अनुसार सौपारक के पाँच सौ व्यापारियों को कर न देने के कारण राजा बृहत्कल्पभाष्य में विस्तार से वर्णन है । भिक्षुणी संघ में प्रवेश करने ने उन्हें जला देने का आदेश दे दिया था और उक्त उल्लेख के अनुसार वालों की पूरी जाँच की जाती थी। प्रतिहारी भिक्षुणी उपाश्रय के बाहर उन व्यापारियों की पत्नियाँ भी उनकी चिताओं में जल गयी थीं ।६२ दण्ड लेकर बैठती थी । शील सुरक्षा के जो विस्तृत विवरण हमें लेकिन जैनाचार्य इसका समर्थन नहीं करते हैं । पुन: इस आपवादिक आगमिक व्याख्याओं में मिलते हैं उससे स्पष्ट हो जाता है कि पुरुष वर्ग उल्लेख के अतिरिक्त हमें जैन साहित्य में इस प्रकार के उल्लेख स्त्रियों एवं भिक्षुणियों को अपनी वासना का शिकार बनाने में कोई कमी उपलब्ध नहीं होते हैं, महानिशीथ में इससे भिन्न यह उल्लेख भी मिलता नहीं रखता था । पुरुष द्वारा बलात्कार किये जाने पर और ऐसी स्थिति है कि किसी राजा की विधवा कन्या सती होना चाहती थी किन्तु उसके
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जैन धर्म में नारी की भूमिका
५५९ पितृकुल में यह रिवाज नहीं था अत: उसने अपना विचार त्याग दिया ।६३ अत्याचार किये गये, जैन भिक्षुणी संघ उसके लिए रक्षाकवच बना इससे लगता है कि जैनाचार्यों ने पति की मृत्योपरान्त स्वेच्छा से भी क्योंकि भिक्षुणी संघ में प्रवेश करने के बाद न केवल वह पारिवारिक अपने- देह-त्याग को अनुचित ही माना है और इस प्रकार के मरण को उत्पीड़न से बच सकती थी अपितु एक सम्मानपूर्ण जीवन भी जी सकती बाल-मरण या मूर्खता ही कहा है । सती प्रथा का धार्मिक समर्थन जैन थी। आज भी विधवाओं, परित्यक्ताओं, पिता के पास दहेज के अभाव, आगम साहित्य और उसकी व्याख्याओं में हमें कहीं नहीं मिलता है। कुरूपता अथवा अन्य किन्हीं कारणों से अविवाहित रहने के लिये विवश
यद्यपि आगमिक व्याख्याओं में दधिवाहन की पत्नी एवं कुमारियों आदि के लिये जैन भिक्षुणी संघ आश्रयस्थल है । जैन भिक्षुणी चन्दना की माता धारिणी आदि के कुछ ऐसे उल्लेख अवश्य हैं जिनमें संघ ने नारी गरिमा और उसके सतीत्व दोनों की रक्षा की। यही कारण ब्रह्मचर्य की रक्षा के निमित्त देह-त्याग किया गया है किन्तु यह था सती-प्रथा जैसी कुत्सित प्रथा जैन धर्म में कभी भी नहीं रही। अवधारणा सती प्रथा की अवधारणा से भिन्न है । जैन धर्म और दर्शन
महानिशीथ में एक स्त्री को सती होने का मानस बनाने पर भी यह नहीं मानता है कि मृत्यु के बाद पति का अनुगमन करने से अर्थात् अपनी कुल-परम्परा में सती प्रथा का प्रचलन नहीं होने के कारण अपने जीवित चिता में जल मरने से पुन: स्वर्गलोक में उसी पति की प्राप्ति निर्णय को बदलता हुआ देखते हैं । यह इस बात का प्रमाण है कि होती है । इसके विपरीत जैनधर्म अपने कर्म सिद्धान्त के प्रति आस्था जैनाचार्यों की दृष्टि सतीप्रथा विरोधी थी । जैन आचार्य और साध्वियाँ के कारण यह मानता है कि पति-पत्नी अपने-अपने कर्मों और मनोभावों विधवाओं को सती बनने से रोककर उन्हें संघ में दीक्षित होने की प्रेरणा के अनुसार ही विभिन्न योनियों में जन्म लेते हैं । यद्यपि परवर्ती जैन कथा देते थे। जैन परम्परा में ब्राह्मी, सुन्दरी और चन्दना आदि को सती कहा साहित्य में हमें ऐसे उल्लेख मिलते हैं जहाँ एक भव के पति-पत्नी गया है और तीर्थंकरों के नाम-स्मरण के साथ-साथ आज भी १६ आगामी अनेक भवों के जीवनसाथी बने, किन्तु इसके विरुद्ध भी सतियों का नाम स्मरण किया जाता है, किन्तु इन्हें सती इसलिये कहा उदाहरणों की जैन कथा साहित्य में कमी नहीं है।
गया कि ये अपने शील की रक्षा हेतु या तो अविवाहित रहीं या पति अत: यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि धार्मिक आधार की मृत्यु के पश्चात् इन्होंने अपने चरित्र एवं शील को सुरक्षित रखा। पर जैन धर्म सतीप्रथा का समर्थन नहीं करता । जैन धर्म के सती प्रथा आज जैन साध्वियों के लिये एक बहुप्रचलित नाम महासती है उसका के समर्थक न होने के कुछ सामाजिक कारण भी रहे हैं । व्याख्या आधार शील का पालन ही है । जैन परम्परा में आगमिक व्याख्याओं और साहित्य में ऐसी अनेक कथाएँ वर्णित हैं जिनके अनुसार पति की मृत्यु पौराणिक रचनाओं के पश्चात् जो प्रबन्ध साहित्य लिखा गया, उसमें के पश्चात् पत्नी न केवल पारिवारिक दायित्व का निर्वाह करती थी, सर्वप्रथम सती प्रथा का ही जैनीकरण किया हुआ एक रूप हमें देखने अपितु पति के व्यवसाय का संचालन भी करती थी। शालिभद्र की माता को मिलता है । तेजपाल-वस्तुपाल प्रबन्ध में बताया गया है कि तेजपाल भद्रा को राजगृह की एक महत्त्वपूर्ण श्रेष्ठी और व्यापारी निरूपित किया और वस्तुपाल की मृत्यु के पश्चात् उनकी पत्नियों ने अनशन करके अपने गया है जिसके वैभव को देखने के लिये श्रेणिक भी उसके घर आया प्राण त्याग दिये ।६५ यहाँ पति की मृत्यु के पश्चात् शरीर त्यागने का था। आगमों और आगमिक व्याख्याओं में ऐसे अनेक उल्लेख हैं जहाँ उपक्रम तो है किन्तु उसका स्वरूप सौम्य और वैराग्य प्रधान बना दिया कि स्त्री पति की मृत्यु के पश्चात् विरक्त होकर भिक्षुणी बन जाती थी। गया है । वस्तु: यह उस युग में प्रचलित सती प्रथा की जैनधर्म में क्या यह सत्य है कि जैन भिक्षुणी संघ विधवाओं, कुमारियों और परित्यक्ताओं प्रतिक्रिया हुई थी, उसका सूचक है । का आश्रय-स्थल था । यद्यपि जैन आगम साहित्य एवं व्याख्या साहित्य दोनों में हमें ऐसे उल्लेख मिलते हैं जहाँ पति और पुत्रों के जीवित रहते गणिकाओं की स्थिति हुए भी पत्नी या माता भिक्षुणी बन जाती थी। ज्ञाताधर्मकथा में द्रौपदी गणिकायें और वेश्यायें भारतीय समाज का आवश्यक घटक पति और पुत्रों की सम्मति से दीक्षित हुई थी किन्तु इनके अलावा ऐसे रही हैं। उन्हें अपरिगृहीता-स्त्री माना जाये या परिगृहीता इसे लेकर जैन उदाहरणों की भी विपुलता देखी जाती है जहाँ पत्नियाँ पति के साथ आचार्यों में विवाद रहा है । क्योंकि आगमिक काल में उपासक के लिये अथवा पति एवं पुत्रों की मृत्यु के उपरान्त विरक्त होकर संन्यास ग्रहण हम अपरिगृहीता-स्त्री से सम्भोग करने का निषेध देखते हैं। भगवान् कर लेती थीं । कुछ ऐसे उल्लेख भी मिले हैं जहाँ स्त्री आजीवन ब्रह्मचर्य महावीर के पूर्व पार्थापत्य परम्परा के शिथिलाचारी श्रमण यहाँ तक को धारण करके या तो पितृगृह में ही रह जाती थी अथवा दीक्षित हो कहने लगे थे कि बिना विवाह किये अर्थात् परिगृहीत किये बिना यदि जाती थी। जैन परम्परा में भिक्षुणी संस्था एक ऐसा आधार रही है जिसने कोई स्त्री कामवासना की आकांक्षा करती है तो उसके साथ सम्भोग करने हमेशा नारी को संकट से उबारकर न केवल आश्रय दिया है, अपितु उसे में कोई पाप नहीं है ।६६ ज्ञातव्य है कि पार्श्व की परम्परा में ब्रह्मचर्य व्रत सम्मान और प्रतिष्ठा का जीवन जीना सिखाया है।
अपरिग्रह के अधीन माना गया था क्योंकि उस युग में नारी को भी सम्पत्ति जैन भिक्षुणी संघ उन सभी स्त्रियों के लिये जो विधवा, माना जाता था, चूँकि ऐसी स्थिति में अपरिग्रह के व्रत का भंग नहीं था परित्यक्ता अथवा आश्रयहीन होती थीं, शरणदाता होता था । अत: जैन इसलिये शिथिलाचारी श्रमण उसका विरोध कर रहे थे। यही कारण था. धर्म में सती प्रथा को कोई प्रश्रय नहीं मिला । जब भी नारी पर कोई कि भगवान महावीर ने ब्रह्मचर्य को जोड़ा था।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६
चूंकि वेश्या या गणिका परस्त्री नहीं थी, अतः परस्त्री निषेध के साथ स्वपत्नी सन्तोषव्रत को भी जोड़ा गया और उसके अतिचारों में अपरिगृहीतागमन को भी सम्मिलित किया गया और कहा गया कि गृहस्थ उपासक को अपरिगृहीत (अविवाहित) स्त्री से सम्भोग नहीं करना चाहिए। पुनः जब यह माना गया है कि परिग्रहण के बिना सम्भोग सम्भव नहीं, साथ ही द्रव्य देकर कुछ समय के लिये गृहीत वेश्या भी नारी शिक्षा परिगृहीत की कोटि में आ जाती है, तो परिणामस्वरूप धनादि देकर अल्पकाल के लिए गृहीत स्त्री (इत्वरिका) के साथ भी सम्भोग का निषेध किया गया और गृहस्थ उपासक के लिए आजीवन हेतु गृहीत अर्थात् विवाहित स्त्री के अतिरिक्त सभी प्रकार के यौन सम्बन्ध निषिद्ध माने गये। जैनाचार्यों में सोमदेव (१०वीं शती) एक ऐसे आचार्य थे जिन्होंने श्रावक के स्वपत्नीसंतोष व्रत में, वेश्या को उपपत्नी मानकर उसका भोग राजा और श्रेष्ठी वर्ग के लिए विहित मान लिया था किन्तु यह एक अपवाद ही था ।
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नारी शिक्षा के सम्बन्ध में जैन आगमों और आगमिक व्याख्याओं से हमें जो सूचना मिलती है, उसके आधार पर यह कहा जा सकता है। कि प्राचीन काल में नारी को समुचित शिक्षा प्रदान की जाती थी। अपेक्षाकृत परवर्ती आगम जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, आवश्यकचूर्णि एवं दिगम्बर परम्परा के आदिपुराण आदि में उल्लेख है कि ऋषभदेव ने अपनी पुत्रियों ब्राह्मी और सुन्दरी को गणित और लिपि विज्ञान की शिक्षा दी थी। मात्र यही नहीं, ज्ञाताधर्मकथा और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में स्त्री को चौंसठ कलाओं का उल्लेख मिलता है। यद्यपि यहाँ इनके नाम नहीं दिये गये हैं तथापि यह अवश्य सूचित किया गया है कि कन्याओं को इनकी शिक्षा दी जाती सर्वप्रथम जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति की टीका में इनका विवरण उपलब्ध होता आश्चर्यजनक यह है कि जहाँ ज्ञाताधर्मकथा में पुरुष की ७२
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है।
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यद्यपि आगमों एवं आगमिक व्याख्याओं से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अन्य सभी लोगों के साथ जैनधर्म के प्रति श्रद्धावान् सामान्यजन भी किसी न किसी रूप में गणिकाओं से सम्बद्ध रहा है । आगमों में उल्लेख है कि कृष्ण वासुदेव की द्वारिका कलाओं का वर्णन है, वहीं नारी की चौसठ कला का निर्देशमात्र है। । नगरी में अनंगसेना प्रमुख अनेक गणिकाएँ भी थीं ।" स्वयं ऋषभदेव के नीलांजना का नृत्य देखते समय उसकी मृत्यु से प्रतिबोधित होने की कथा दिगम्बर परम्परा में सुविश्रुत है । १९ कुछ विद्वान् मथुरा में इसके अंकन को भी स्वीकार करते हैं। ज्ञाताधर्मकथा आदि में देवदत्ता आदि गणिकाओं की समाज में सम्मानपूर्ण स्थिति की सूचना मिलती है। समाज के सम्पन्न परिवारों के लोगों के वेश्याओं से सम्बन्ध थे, इसकी सूचना आगम, आगमिक व्याख्या साहित्य और जैन पौराणिक साहित्य में विपुल मात्रा में उपलब्ध है। कान्हड कठिआरा और स्थूलभद्र के आख्यान सुविश्रुत है किन्तु इन सब उल्लेखों से वह मान लेना कि वेश्यावृत्ति जैनधर्मसम्मत थी या जैनाचार्य इसके प्रति उदासीन भाव रखते थे सबसे बड़ी आन्ति होगी। हम यह पूर्व में संकेत कर ही चुके हैं कि जैनाचार्य इस सम्बन्ध में सजग थे और किसी भी स्थिति में इसे औचित्यपूर्ण नहीं मानते थे सातवीं-आठवीं शती में तो जैनधर्म का अनुयायी बनने की प्रथम शर्त यही थी कि व्यक्ति सप्त दुर्व्यसन का त्याग करे। इसमें परस्त्रीगमन और वेश्यागमन दोनों निषिद्ध माने गये थे ।१ उपासकदशा में "असतीजन पोषण" श्रावक के लिए निषिद्ध कर्म था । ७२
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आगमिक व्याख्याओं में प्राप्त उल्लेखों से ज्ञात होता है कि अनेक वेश्याओं और गणिकाओं की अपनी नैतिक मर्यादाएँ थीं, वे उनका कभी उल्लंघन नहीं करती थीं। कान्हडकठिआरा और स्थूलभद्र के आख्यान इसके प्रमाण हैं।" ऐसी वेश्याओं और गणिकाओं के प्रति जैनाचार्य अनुदार नहीं थे, उनके लिए धर्मसंघ में प्रवेश के द्वार खुले थे, वे श्राविकाएं बन जाती थीं। कोशा ऐसी वेश्या थी जिसकी शाला में जैन मुनियों को निःसंकोच भाव से चातुर्मास व्यतीत करने की अनुज्ञा
आचार्य दे देते थे। मथुरा के अभिलेख इस बात के साक्षी है कि गणिकाएँ जिनमन्दिर और आयागपट्ट (पूजापट्ट) बनवाती थीं ।" यह जैनाचार्यों का उदार दृष्टिकोण था जो इस पतित वर्ग का उद्धार कर उसे प्रतिष्ठा प्रदान करता था।
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फिर भी इतना निश्चित है कि भारतीय समाज में यह अवधारणा बन चुकी थी। शाताधर्मकथा में देवदत्ता गणिका को चौसठ कलाओं में पण्डित, चौंसठ गणिका गुण (काल-कला) से उपपेत, उन्तीस प्रकार से रमण करने में प्रवीण, इक्कीस रतिगुणों में प्रधान, बत्तीस पुरुषोपचार में कुशल, नवांगसूत्र प्रतिबोधित और अठारह देशी भाषाओं में विशारद कहा है। इन सूचियों को देखकर स्पष्ट रूप से ऐसा लगता है कि स्त्रियों को उनकी प्रकृति और दायित्व के अनुसार भाषा, गणित, लेखनकला आदि के साथ-साथ स्त्रियोचित नृत्य, संगीत और ललितकलाओं तथा पाक-शास्त्र आदि में शिक्षित किया जाता था ।
यद्यपि आगम और आगमिक व्याख्याएँ इस सम्बन्ध में स्पष्ट नहीं है कि ये शिक्षा उन्हें घर पर ही दी जाती थी अथवा वे गुरुकुल में जाकर इनका अध्ययन करती थीं। स्त्री - गुरुकुल के सन्दर्भ के अभाव से ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी शिक्षा को व्यवस्था घर पर ही की जाती थी। सम्भवतः परिवार की प्रौढ़ महिलाएँ ही उनकी शिक्षा की व्यवस्था करती थीं किन्तु सम्पन्न परिवारों में इस हेतु विभिन्न देशों की दासियों एवं गणिकाओं की भी नियुक्ति की जाती थी जो इन्हें इन कलाओं में पारंगत बनाती थीं। आगमिक व्याख्याओं में हमें कोई भी ऐसा सन्दर्भ उपलब्ध नहीं हुआ जो सहशिक्षा का निर्देश करता हो । नारी के गृहस्थ जीवन सम्बन्धी इन शिक्षाओं के प्राप्त करने के अधिकार में प्रागैतिहासिक काल से लेकर आगमिक व्याख्याओं के काल तक कोई विशेष परिवर्तन हुआ हो, ऐसा भी हमें ज्ञात नहीं होता; मात्र विषयवस्तु में क्रमिक विकास हुआ होगा। यद्यपि लौकिक शिक्षा में स्त्री और पुरुष को प्रकृति एवं कार्य के आधार पर अन्तर किया गया था, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि स्त्री और पुरुष में कोई भेद-भाव किया जाता था। नारी को उसके लिए
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जैन धर्म में नारी की भूमिका
आवश्यक सभी पक्षों की सम्पूर्ण शिक्षा दी जाती थी। यद्यपि यह सत्य था। किन्तु निषेध का यह क्रम आगे बढ़ता ही गया । बारहवीं-तेरहवीं है कि उस युग में स्त्री और पुरुष दोनों के लिए कर्म प्रधान शिक्षा का शती के पश्चात् एक युग ऐसा भी आया जब उसमें आगमों के अध्ययन ही विशेष प्रचलन था।
का मात्र अधिकार ही नहीं छीना गया, अपितु उपदेश देने का अधिकार जहाँ तक धार्मिक-आध्यात्मिक शिक्षा का प्रश्न है वह उन्हें भी समाप्त कर दिया गया । आज भी श्वेताम्बर मूर्ति-पूजक परम्परा के भिक्षुणियों के द्वारा प्रदान की जाती थी। सूत्रकृतांग से ज्ञात होता है कि तपागच्छ में भिक्षुणियों को इस अधिकार से वंचित ही रखा गया है । जैन-परम्परा में भिक्षु को स्त्रियों को शिक्षा देने का अधिकार नहीं था ।७७ यद्यपि पुनर्जागृति के प्रभाव से आज अधिकांश जैन सम्प्रदायों में वह केवल स्त्रियों और पुरुषों की संयुक्त सभा में उपदेश दे सकता था। साध्वियाँ आगमों के अध्ययन और प्रवचन का कार्य कर रही हैं । सामान्यतया भिक्षुणियों और गृहस्थ उपासिकाओं दोनों को ही स्थविरा निष्कर्ष के रूप में हम यह कह सकते हैं कि प्राचीन काल भिक्षुणियों के द्वारा ही शिक्षा दी जाती थी । यद्यपि आगमों एवं आगमिक और आगम युग की अपेक्षा आगमिक व्याख्या युग में किसी सीमा तक व्याख्याओं में हमें कछ सचनायें उपलब्ध होती हैं जिनके आधार पर यह नारी के शिक्षा के अधिकार को सीमित किया गया था। तुलनात्मक दृष्टि कहा जा सकता है कि आचार्य और उपाध्याय भी कभी-कभी उन्हें शिक्षा से यहाँ यह भी द्रष्टव्य है कि नारी-शिक्षा के प्रश्न पर वैदिक और जैन पानातील परम्परा में किस प्रकार समानान्तर परिवर्तन होता गया । आगमिक निर्ग्रन्थ, तीस वर्ष की पर्याय वाली भिक्षणी का उपाध्याय तथा पाँच वर्ष
व्याख्या साहित्य के युग में न केवल शिक्षा के क्षेत्र में अपितु धर्मसंघ की पर्याय वाला निम्रन्थ साठ वर्ष की पर्याय वाली श्रमणी का आचार्य
__ में और सामाजिक जीवन में भी स्त्री की गरिमा और अधिकार सीमित होते
गये। इसका मुख्य कारण तो अपनी सहगामी हिन्दू परम्परा का प्रभाव हो सकता था । जहाँ तक स्त्रियों के द्वारा धर्मग्रन्थों के अध्ययन का
ही था किन्तु इसके साथ ही अचेलता के अति आग्रह ने भी एक प्रश्न है अति प्राचीनकाल में इस प्रकार का कोई बन्धन रहा हो, हमें ज्ञात
महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की । यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा अपेक्षाकृत उदार नहीं होता। अन्तकृद्दशा आदि आगम ग्रन्थों में ऐसे अनेक उल्लेख रही
नक उल्लख रही किन्तु समय के प्रभाव से वह भी नहीं बच सकी और उसमें भी मिलते हैं जहाँ भिक्षुणियों के द्वारा सामायिक आदि ११ अंगों का शिक्षा, समाज और धर्मसाधना के क्षेत्र में आगम यग की अपेक्षा अध्ययन किया जाता था । यद्यपि आगमों में न कहीं ऐसा कोई स्पष्ट आगमिक व्याख्या यग में नारी के अधिकार सीमित किये गये । उल्लेख है कि स्त्री दृष्टिवाद का अध्ययन नहीं कर सकती थी और न इस प्रकार काल-क्रम में जैन धर्म में भी भारतीय हिन्दू समाज ही ऐसा कोई विधायक सन्दर्भ उपलब्ध होता है, जिसके आधार पर यह के प्रभाव के कारण नारी को उसके अधिकारों से वंचित किया गया था, कहा जा सके कि स्त्री दृष्टिवाद का अध्ययन करती थी। किन्तु आगमिक फिर भी भिक्षुणी के रूप में उसकी गरिमा को किसी सीमा तक सुरक्षित व्याख्याओं में स्पष्ट रूप से दृष्टिवाद का अध्ययन स्त्रियों के लिए निषिद्ध रखा गया था । मान लिया गया । भिक्षुणियों के लिए दृष्टिवाद का निषेध करते हुए कहा गया कि स्वभाव की चंचलता एवं बुद्धि-प्रकर्ष में कमी के कारण उसके भिक्षुणी-संघ और नारी की गरिमा १ लिए दृष्टिवाद का अध्ययन निषिद्ध बताया गया है। जब एक ओर यह
जैन भिक्षुणी-संघ में नारी की गरिमा को किस प्रकार सुरक्षित मान लिया गया कि स्त्री को सर्वोच्च केवलज्ञान की प्राप्ति हो सकती रखा गया इस सम्बन्ध में यहाँ किंचित् चर्चा कर लेना उपयोगी होगा । है, तो यह कहना गलत होगा कि उनमें बुद्धि-प्रकर्ष की कमी है। मुझे जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं जैनधर्म के भिक्षुणी-संघ के द्वार ऐसा लगता है कि जब हिन्दू परम्परा में उसी नारी को जो वैदिक ऋचाओं बिना किसी भेदभाव के सभी जाति, वर्ण एवं वर्ग की स्त्रियों के लिए की निर्मात्री थी, वेदों के अध्ययन से वंचित कर दिया गया तो उसी के खुले हुए थे । जैन भिक्षुणी-संघ में प्रवेश के लिए सामान्य रूप से वे प्रभाव में आकर उस नारी को जो तीर्थंकर के रूप में अंग और मूल ही स्त्रियाँ अयोग्य मानी जाती थीं, जो बालिका अथवा अतिवृद्ध हों साहित्य का मूलस्रोत थी, दृष्टिवाद के अध्ययन से वंचित कर दिया अथवा मूर्ख या पागल हों या किसी संक्रामक और असाध्य रोग से गया । इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि दृष्टिवाद का मुख्य पीड़ित हों अथवा जो इन्द्रियों या अंग से हीन हों, जैसे अंधी, पंगु, लूली विषय मूलत: दार्शनिक और तार्किक था और ऐसे जटिल विषय के आदि । किन्तु स्त्रियों के लिए भिक्षुणी-संघ में प्रवेश उस अवस्था में भी अध्ययन को उनके लिए उपयुक्त न समझकर उनका अध्ययन निषिद्ध वर्जित था - जब वे गर्भिणी हों अथवा उनकी गोद में अति अल्पवय कर दिया गया हो । बृहत्कल्पभाष्य और व्यवहारभाष्य की पीठिका में का दूध पीता हुआ शिशु हो । इसके अतिरिक्त संरक्षक अर्थात् माताउनके लिए महापरिज्ञा, अरुणोपपात और दृष्टिवाद के अध्ययन का निषेध पिता, पति, पुत्र की अनुज्ञा न मिलने पर भी उन्हें संघ में प्रवेश नहीं दिया किया गया है । किन्तु आगे चलकर निशीथ आदि अपराध और प्रायश्चित्त जाता था । किन्तु सुरक्षा प्रदान करने के लिए विशेष परिस्थितियों में ऐसी सम्बन्धी ग्रन्थों के अध्ययन से भी उसे वंचित कर दिया गया । यद्यपि स्त्रियों को भी संघ में प्रवेश की अनुमति दे दी जाती थी। निरवायलिकासूत्र निशीथ आदि के अध्ययन के निषेध करने का मूल कारण यह था कि के अनुसार सुभद्रा ने अपने पति की आज्ञा के विरुद्ध ही भिक्षुणी संघ अपराधों की जानकारी से या तो वह अपराधों की ओर प्रवृत्त हो सकती में प्रवेश कर लिया था । यद्यपि स्थानांग के अनुसार गर्भिणी स्त्री का थी या दण्ड देने का अधिकार पुरुष अपने पास सुरक्षित रखना चाहता भिक्षुणी संघ में प्रवेश वर्जित था, किन्तु उत्तराध्ययननियुक्ति,
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जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६
आवश्यकनियुक्ति, आवश्यकचूर्णि में ऐसे संकेत भी मिलते हैं जिनके अनुसार कुछ स्त्रियों ने गर्भवती होने पर भी भिक्षुणी संघ में दीक्षा ग्रहण कर ली थी। मदनरेखा अपने पति की हत्या कर दिये जाने पर जंगल में भाग गयी और वहीं उसने भिक्षुणी संघ में प्रवेश ले लिया। इसी प्रकार पद्मावती और यशभद्रा ने गर्भवती होते हुए भी भिक्षुणी संघ में प्रवेश ले लिया था और बाद में उन्हें पुत्र प्रसव हुए। वस्तुतः इन अपवाद नियमों के पीछे जैन आचार्यों की मूलदृष्टि यह थी कि नारी और गर्भस्थ शिशु का जीवन सुरक्षित रहे, क्योंकि ऐसी स्थितियों में यदि उन्हें संघ में प्रवेश नहीं दिया जाता है, तो हो सकता था कि उनका शील और जीवन खतरे में पड़ जाय और किसी स्त्री के शील और जीवन को सुरक्षित रखना संघ का सर्वोपरि कर्त्तव्य था । अतः हम कह सकते हैं कि नारी के शील एवं जीवन की सुरक्षा और उसके आत्मनिर्णय के अधिकार को मान्य रखने हेतु पति की अनुमति के बिना और गर्भवती होने की स्थिति में भी उन्हें जो भिक्षुणी संघ में प्रवेश दे दिया जाता था यह नारी के प्रति जैन संघ की उदार एवं गरिमापूर्ण दृष्टि ही थी।
निवास वर्जित माना गया, जहाँ समीप में ही भिक्षु अथवा गृहस्थ निवास कर रहे हों। भिक्षुओं से बातचीत करना और उनके द्वारा लाकर दिये जाने वाले वस्त्र, पात्र एवं भिक्षादि को ग्रहण करना भी उनके लिए निषिद्ध ठहराया गया। आपस में एक दूसरे का स्पर्श तो वर्जित था ही, उन्हें आपस में अकेले में बातचीत करने का भी निषेध किया गया था। यदि भिक्षुओं से वार्तालाप आवश्यक भी हो तो भी अग्र- भिक्षुणी को आगे करके संक्षिप्त वार्तालाप की अनुमति प्रदान की गयी थी । वस्तुतः ये सभी नियम इसलिए बनाये गये थे कि कामवासना जागृत होने एवं चारित्रिक स्खलन के अवसर उप्लब्ध न हों अथवा भिक्षुओं एवं गृहस्थों आकर्षण एवं वासना की शिकार बनकर भिक्षुणी के शील की सुरक्षा खतरे में न पड़े।
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किन्तु दूसरी ओर उनकी सुरक्षा के लिए आपवादिक स्थितियों में उनका भिक्षुओं के सान्निध्य में रहना एवं यात्रा करना विहित भी मान लिया गया था। यहाँ तक कहा गया कि आचार्य, युवा भिक्षु और वृद्धा भिक्षुणियाँ तरुण भिक्षुणियों को अपने संरक्षण में लेकर यात्रा करें। ऐसी यात्राओं में पूरी व्यूह रचना करके यात्रा की जाती थी - सबसे आगे आचार्य एवं वृद्ध भिक्षुगण, उनके पश्चात् युवा भिक्षु, फिर वृद्ध भिक्षुणियां, उनके पश्चात् युवा भिक्षुणियाँ उनके पश्चात् वृद्ध भिक्षुणियां और अन्त में युवा भिक्षु होते थे। निशीथचूर्णि आदि में ऐसे भी उल्लेख है कि भिक्षुणियों की शील सुरक्षा के लिए आवश्यक होने पर भिक्षु उन मनुष्यों की भी हिंसा कर सकता था जो उसके शील को भंग करने का प्रयास करते थे। यहाँ तक कि ऐसे अपराध प्रायश्चित योग्य भी नहीं माने गये थे । भिक्षुणियों को कुछ अन्य परिस्थितियों में भी इसी दृष्टि से भिक्षुओं के सान्निध्य में निवास करने की भी अनुमति दे दी गयी थी, जैसे भिक्षु भिक्षुणी यात्रा करते हुए किसी निर्जन गहन वन में पहुँच गये हों अथवा भिक्षुणियों को नगर में अथवा देवालय में ठहरने के लिए अन्यत्र कोई स्थान उपलब्ध न हो रहा हो अथवा उन पर बलात्कार एवं उनके वस्त्रपात्रादि के अपहरण की सम्भावना प्रतीत होती हो। इसी प्रकार विक्षिप्त चित्त अथवा अतिरोगी भिक्षु की परिचर्या के लिए यदि कोई भिक्षु उपलब्ध न हो तो भिक्षुणी उसकी परिचर्या कर सकती थी। भिक्षुओं के लिए भी सामान्यतया भिक्षुणी का स्पर्श वर्जित था किन्तु भिक्षुणी के कीचड़ में फँस जाने पर नाव में चड़ने या उतरने में कठिनाई अनुभव करने पर अथवा जब उसकी हिंसा अथवा शीलभंग के प्रयत्न किये जा रहे हों तो ऐसी स्थिति में भिक्षु भिक्षुणी का स्पर्श कर उसे सुरक्षा प्रदान कर सकता था । जैन परम्परा में आचार्य कालक की कथा इस बात का स्पष्ट प्रमाण है। भिक्षुणी के शील की सुरक्षा को जैन भिक्षु संघ का अनिवार्य एवं प्राथमिक कर्तव्य माना गया था ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन परम्परा में नारी के शील
सामान्यतया साधना की दृष्टि से भिक्षु भिक्षुणियों के आहार भिक्षाचर्या, उपासना आदि से सम्बन्धित नियम समान ही थे, किन्तु खियों की प्रकृति और सामाजिक स्थिति को देखकर भिक्षुणियों के लिए वस्त्र के सम्बन्ध में कुछ विशेष नियम बनाये गये। उदाहरण के लिए जहाँ भिक्षु सम्पूर्ण वस्त्रों का त्याग कर रह सकता था वहाँ भिक्षुणी के लिए नग्न होना वर्जित मान लिया गया था। मात्र यही नहीं उसकी आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए उसकी वस्त्र संख्या में भी वृद्धि की गयी थी जहाँ भिक्षु के लिए अधिकतम तीन वस्त्रों का विधान था वहाँ भिक्षुणी के लिए चार वर्षों को रखने का विधान था। आगे चलकर आगमिक व्याख्या साहित्य में न केवल उसके तन ढँकने की व्यवस्था की गयी, बल्कि शील सुरक्षा के लिए उसे ऐसे वस्त्रों को पहनने का निर्देश दिया गया, जिससे उनका शील भंग करने वाले व्यक्ति को सहज ही अवसर उपलब्ध न हो। इसी प्रकार शील सुरक्षा की दृष्टि से भिक्षुणी को अकेले भिक्षार्थ जाना वर्जित कर दिया गया था। भिक्षुणी तीन या उससे अधिक संख्या में भिक्षा के लिए जा सकती थी साथ में यह भी निर्देश था कि युवा भिक्षुणी वृद्ध भिक्षुणी को साथ लेकर जाए जहाँ भिक्षु ६ किलोमीटर तक भिक्षा के लिए जा सकता था, वहीं भिक्षुणी के लिए सामान्य परिस्थितियों में भिक्षा के लिए अति दूर जाना निषिद्ध था। इसी प्रकार भिक्षुणियों के लिए सामान्यतया द्वार रहित उपाश्रयों में ठहरना भी वर्जित था। इन सबके पीछे मुख्य उद्देश्य नारी के शील की सुरक्षा थी। क्योंकि शील ही नारी के सम्मान का आधार था । अतः उसकी शीलसुरक्षा हेतु विविध नियमों और अपवादों का सृजन किया गया है। नारी की शील-सुरक्षा के लिए जैन आचायों ने एक ओर ऐसे नियमों का सृजन किया जिनके द्वारा भिक्षुणियों का पुरुषों और भिक्षुओं सुरक्षा के लिए पर्याप्त सतर्कता रखी गई थी। से सम्पर्क सीमित किया जा सके, ताकि चारित्रिक स्खलन की सम्भावनाएं अल्पतम हों । फलस्वरूप न केवल भिक्षुणियों का भिक्षुओं के साथ ठहरना और विहार करना निषिद्ध माना गया, अपितु ऐसे स्थलों पर भी
मात्र यही नहीं, जैनाचार्यों ने अपनी दण्ड व्यवस्था और संघव्यवस्था में भी नारी की प्रकृति को सम्यक् रूप से समझने का प्रयत्न किया है। पुरुषों के बलात्कार और अत्याचारों से पीड़ित नारी को उन्होंने
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दुत्कारा नहीं, अपितु उसके समुद्धार का प्रयत्न किया। जैन दण्डव्यवस्था मणिप्रभा श्री जी और साध्वी श्री मृगावतीजी भी ऐसे नाम हैं कि जिनके में उन भिक्षुणियों के लिये किसी प्रकार के दण्ड की व्यवस्था नहीं की व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों ही उनकी यशोगाथा को उजागर करते गई थी जो बलात्कार की शिकार होकर गर्भवती हो जाती थीं अपितु हैं। इसी प्रकार दिगम्बर परम्परा में आर्यिका ज्ञानमती जी का भी पर्याप्त उनके और उनके गर्भस्थ बालक के संरक्षण का दायित्व संघ का माना प्रभाव है। उनके द्वारा प्रकाशित ग्रन्थों की सूची से उनकी विद्वत्ता का गया था । प्रसवोपरान्त बालक बालिका के बड़ा हो जाने पर वे पुनः आभास हो जाता है। भिक्षुणी हो सकती थी। इसी प्रकार वे भिक्षुणियाँ भी जो कभी वासना अत: हम यह कह सकते हैं कि जैनधर्म में उसके अतीत से के आवेग में बहकर चारित्रिक स्खलन की शिकार हो जाती थीं, लेकर वर्तमान तक नारी की और विशेष रूप से भिक्षुणियों की एक तिरस्कृत नहीं कर दी जातीं, अपितु उन्हें अपने को सुधारने का अवसर महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है । जहाँ एक ओर जैनधर्म ने नारी को सम्मानित प्रदान किया जाता था। इस तथ्य के समर्थन में यह कहा गया था कि और गौरवान्वित करते हुए, उसके शील संरक्षण का प्रयास किया और क्या बाढ़ से ग्रस्त नदी पुन: अपने मूल मार्ग पर नहीं आ जाती है ? उसके आध्यात्मिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया; वहीं दूसरी ओर जैन प्रायश्चित्त व्यवस्था में भी स्त्रियों या भिक्षुणियों के लिए परिहार और ब्राह्मी, सुन्दरी और चन्दना से लेकर आज तक की अनेकानेक सतीपाराञ्चिक (निष्कासन) जैसे कठोर दण्ड वर्जित मान लिये गये थे, साध्वियों ने अपने चरित्रबल तथा संयम साधना से जैनधर्म की ध्वजा को क्योंकि इन दण्डों के परिणाम स्वरूप वे निराश्रित होकर वेश्यावृत्ति जैसे फहराया है। अनैतिक कर्मों के लिये बाध्य हो सकती थीं । इस प्रकार जैनाचार्य नारी के प्रति सदैव सजग और उदार रहे हैं।
विभिन्न धर्मों में नारी की स्थिति की तुलना हम यह पूर्व में ही सूचित कर चुके हैं कि जैनधर्म का भिक्षुणी-संघ उन अनाथ, परित्यक्ता एवं विधवा नारियों के लिए सम्मानपूर्वक (१) हिन्दू धर्म और जैनधर्म - हिन्दू धर्म में वैदिक युग में जीने के लिए एक मार्ग प्रशस्त करता था और यही कारण है कि प्राचीन नारी की भूमिका धार्मिक और सामाजिक दोनों ही क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण मानी काल से लेकर आजतक जैनधर्म अभागी नारियों के लिए आश्रय-स्थल जाती थी और उसे पुरुष के समकक्ष ही समझा जाता था। स्त्रियों के द्वारा या शरणस्थल बना रहा है । सुश्री हीराबहन बोरदिया ने अपने शोध कार्य रचित अनेक वेद-ऋचाएं और यज्ञ आदि धार्मिक कर्मकाण्डों में पत्नी के दौरान अनेक साध्वियों का साक्षात्कार लिया और उसमें वे इसी की अनिवार्यता, निश्चय ही इस तथ्य की पोषक हैं । मनु का यह उद्घोष निष्कर्ष पर पहुंची थीं कि वर्तमान में भी अनेक अनाथ, विधवा, कि नार्यस्तु यत्र पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता- अर्थात् जहाँ नारीयों की पूजा परित्यक्ता स्त्रियाँ अथवा वे कन्यायें जो दहेज अथवा कुरूपता के कारण होती है वहाँ देवता रमण करते हैं, इसी तथ्य को सूचित करता है कि विवाह न कर सकीं, वे सभी जैन भिक्षुणी-संघ में सम्मिलित होकर एक हिन्दूधर्म में प्राचीनकाल से नारी का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है, इन सबके सम्मानपूर्ण स्वावलम्बन का जीवन जी रही हैं । जैन भिक्षुणियों में से अतिरिक्त भी देवी-उपासना के रूप में सरस्वती, लक्ष्मी, महाकाली आदि अनेक तो आज भी समाज में इतनी सुस्थापित हैं कि उनकी तुलना में देवियों की उपासना भी इस तथ्य की सूचक है कि नारी न केवल मुनि वर्ग का प्रभाव भी कुछ नहीं लगता है।
उपासक है अपितु उपास्य भी है। यद्यपि वैदिक युग से लेकर तंत्र युग इस आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि जैनधर्म के प्रारम्भ तक नारी की महत्ता के अनेक प्रमाण हमें हिन्दूधर्म में मिलते के विकास और प्रसार में नारी की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है । आज भी हैं किन्तु इसके साथ ही साथ यह भी है कि स्मृति युग से ही उसमें जैन समाज में भिक्षुओं की अपेक्षा भिक्षुणियों की संख्या तीन गुनी से भी क्रमश: नारी के महत्त्व का अवमूल्यन होता गया। स्मृतियों में नारी को अधिक है जो समाज पर उनके व्यापक प्रभाव को धोतित करती है। पुरुष के अधीन बनाने का उपक्रम प्रारम्भ हो गया था और उनमें यहाँ तक वर्तमान युग में भी अनेक ऐसी जैन साध्वियां हुई हैं और हैं जिनका कहा गया कि नारी को बाल्यकाल में पिता के अधीन, युवावस्था में पति समाज पर अत्यधिक प्रभाव रहा है । जैसे स्थानकवासी परम्परा में के अधीन और वृद्धावस्था में पुत्र के अधीन रह कर ही अपना जीवन पंजाबसिंहनी साध्वी पार्वतीजी जो अपनी विद्वत्ता और प्रभावशीलता के जीना होता है । इस प्रकार वह सदैव ही पुरुष के अधीन ही है, कभी लिये सुविश्रुत थीं। जैनधर्म के कट्टर विरोधी भी उनके तर्कों और बुलंदगी भी स्वतन्त्र नहीं है । स्मृति काल में उसे सम्पत्ति के अधिकार से भी के सामने सहम जाते थे। इसी प्रकार साध्वी यशकुँवरजी जिन्होंने मूक वंचित किया गया और सामाजिक जीवन में मात्र उसके दासी या भोग्या पशुओं की बलि को बन्द कराने में अनेक संघर्ष किये और अपने शौर्य स्वरूप पर ही बल दिया गया। पति की सेवा को ही उसका एकमात्र एवं प्रवचनपटुता से अनेक स्थलों पर पशुबलि को समाप्त करवा कर्त्तव्य माना गया । दिया । उसी क्रम में स्थानकवासी परम्परा में मालव सिंहनी साध्वी श्री यह विडम्बना ही थी कि अध्ययन के क्षेत्र में भी वेद-ऋचाओं रत्नकुँवरजी और महाराष्ट्र गौरव साध्वी श्री उज्ज्वलकुँवरजी के भी नाम की निर्मात्री नारी को, उन्हीं ऋचाओं के अध्ययन से वंचित कर दिया लिये जा सकते हैं जिनका समाज पर प्रभाव किसी आचार्य से कम नहीं गया। उसके कार्यक्षेत्र को सन्तान-उत्पादन, सन्तान-पालन, गृहकार्य था। मूर्तिपूजक परम्परा में वर्तमान युग में साध्वी श्री विचक्षण श्री जी, सम्पादन तथा पति की सेवा तक सीमित करके उसे घर की चारदिवारी
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
में कैद कर दिया गया । हिन्दू धर्म में नारी की यह दुर्दशा मुस्लिम उत्पीड़न का शिकार नहीं बनीं । जैनधर्म का भिक्षुणी- संघ ऐसी नारियों आक्रान्ताओं के आगमन के साथ क्रमश: बढ़ती ही गयी । रामचरितमानस के लिए एक शरण-स्थल रहा और उसने उन्हें सम्मानपूर्ण और स्वावलम्बी के रचयिता युग-कवि तुलसीदास को भी कहना पड़ा कि 'ढोल गँवार जीवन जीना सीखाया । यही कारण था कि उसमें सतीप्रथा जैसी वीभत्स शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी' । हिन्दू धर्म का मध्ययुग का प्रथाएँ भी अपनी जड़ें नहीं जमा सकीं। जैनधर्म में वे स्त्रियाँ जो सामाजिक इतिहास इस बात का साक्षी है कि बहुपत्नीप्रथा और सतीप्रथा जैसी क्रूर क्षेत्र में पुरुष के अधीन होकर जीवन जीती थीं भिक्षुणी बनकर पुरुषों के
और नृशंस प्रथाओं ने जन्म लेकर उसमें नारी के महत्त्व और मूल्य को लिए वन्दनीय और मार्गदर्शक बन जाती थीं । इस प्रकार तुलनात्मक प्राय: समाप्त ही कर दिया था। वर्तमान समाज व्यवस्था में भी हिन्दू दृष्टि से निश्चय ही हम यह कह सकते हैं कि हिन्दूधर्म की तुलना में धर्म में नारी को पुरुष के समकक्ष गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है यह कहना जैनधर्म में नारी की स्थिति बहुत कुछ सम्मानपूर्ण रही है। कठिन है, यद्यपि नारी चेतना का पुन: जागरण हुआ है किन्तु यह भी भय है कि पश्चिम के अन्धानुकरण में वह कहीं गलत दिशा में मोड़ न (२) बौद्धधर्म और जैनधर्म ले ले।
बौद्धधर्म और जैनधर्म दोनों ही श्रमण परम्परा के धर्म रहे हैं हिन्दूधर्म में यद्यपि संन्यास की अवधारणा को स्थान मिला और दोनों में भिक्षुणी संस्था की उपस्थिति रही है, फिर भी नारी के प्रति हुआ है और प्राचीनकाल से ही हिन्दू संन्यासिनियों के भी उल्लेख मिलने जैनधर्म की अपेक्षा बौद्धधर्म का दृष्टिकोण अधिक अनुदार रहा है। प्रथम लगते हैं, फिर भी संन्यासिनियों के आचार-व्यवहार के सम्बन्ध में तो भगवान् बुद्ध भिक्षुणी-संघ की स्थापना के लिए सहमत ही नहीं हुए हिन्दूधर्मग्रन्थ प्राय: मौन ही हैं। हिन्दूधर्म में प्राचीनकाल से लेकर आज थे किन्तु जब अपनी क्षीरदायिका मौसी गौतमी और अन्तेवासी आनन्द तक यत्र-तत्र किन्हीं संन्यासिनियों की उपस्थिति के उल्लेख को छोड़कर ने किसी प्रकार अपने प्रभाव का उपयोग करके बुद्ध को सहमत करने संन्यासिनियों का एक सुव्यवस्थित वर्ग बना हो ऐसा नहीं देखा जाता का प्रयत्न किया तो बुद्ध ने भिक्षुणी-संघ की स्थापना की स्वीकृति कुछ है। यही कारण है कि हिन्दू धर्म में विधवाओं, परित्यक्ताओं और शर्तों के साथ प्रदान की। जबकि जैनधर्म में महावीर के पूर्व में भी पार्श्व अविवाहित स्त्रियों के लिए सम्मान पूर्ण जीवन जीने के लिये कोई का भिक्षुणी-संघ सुव्यवस्थित ढंग से कार्यरत था और महावीर को भी आश्रयस्थल नहीं बन सका और वे सदैव ही पुरुष के अत्याचारों और इस सम्बन्ध में किसी प्रकार का संकोच नहीं हुआ था। इस प्रकार जैनधर्म प्रताड़नाओं का शिकार बनीं । चाहे सिद्धान्तरूप में स्त्रियों के संदर्भ में का भिक्षुणी-संघ बौद्धधर्म के भिक्षुणी-संघ से पूर्ववर्ती था । पुनः बुद्ध ने हिन्दू धर्म में कुछ आदर्शवादी उद्घोष हमें मिल जाएँ किन्तु व्यावहारिक भिक्षुणी-संघ की स्थापना के समय ही जिन अष्ट-गुरुधर्मों (अष्ट पुरुष की जीवन में हिन्दू धर्म में स्त्रियाँ उपेक्षा का ही विषय बनी रहीं। श्रेष्ठता सम्बन्धी नियमों) के पालन के लिए स्त्रियों को बाध्य किया, वे
तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर हम पाते हैं कि हिन्दू धर्म स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं कि बुद्ध की दृष्टि नारियों के प्रति अपेक्षाकृत की अपेक्षा जैन धर्म में नारी की स्थिति और भूमिका दोनों ही अधिक अनुदार थी। इन अष्ट गुरुधर्मों के अनुसार भिक्षुणी संघ प्रत्येक क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण रहीं। यों तो जैनधर्म हिन्दूधर्म के सहवर्ती धर्म के रूप में ही भिक्षु-संघ के अधीन था । चिर प्रव्रजिता और वयोवृद्ध भिक्षुणी के लिए विकसित हुआ है और इसीलिए प्रत्येक काल में वह हिन्दूधर्म से सद्यः प्रव्रजित भिक्षु न केवल वन्दनीय था अपितु वह उनका अनुशास्ता प्रभावित रहा है । हिन्दूधर्म के नारी सम्बन्धी दृष्टिकोण और उसके भी हो सकता था । भिक्षुणी को उपदेश देने का अधिकार भी नहीं था । दुष्परिणामों का शिकार वह भी बना है । जिस प्रकार हिन्दूधर्म में वेद- यद्यपि यहाँ यह कहा जा सकता है कि बौद्धधर्म के समान ही जैनधर्म ऋचाओं की रचयिता स्त्री को उनके अध्ययन से वंचित कर दिया गया, में भी तो चिरकाल की दीक्षित एवं वयोवृद्ध भिक्षुणी के लिए सद्यः उसी प्रकार जैन धर्म में भी स्त्री के लिए न केवल दृष्टिवाद के अध्ययन दीक्षित भिक्षु वन्दनीय होता है, किन्तु मेरी दृष्टि में जैनधर्म में यह नियम को अपितु आगमों के अध्ययन को भी वर्जित मान लिया गया, यद्यपि बौद्धधर्म के प्रभाव अथवा इस देश की पुरुष प्रधान संस्कृति के कारण प्राचीन आगम साहित्य में स्त्रियों के अंग-आगम के अध्ययन के उल्लेख कालांतर में ही आया होगा। प्राचीनतम आगम आचारांग भिक्षु-भिक्षुणी एवं निर्देश उपलब्ध हैं । यह सत्य है कि इस सम्बन्ध में जैनधर्म ने के नियमों एवं उनके पारस्परिक सम्बन्धों के निर्देश तो करता है, किन्तु हिन्दूधर्म का अनुसरण ही किया । बृहत्तर हिन्दू समाज का एक अंग बने कहीं यह उल्लेख नहीं करता है कि चिरप्रव्रजित भिक्षुणी सद्यः दीक्षित रहने के कारण जैनों के सामाजिक जीवन में स्त्रियों की स्थिति हिन्दूधर्म भिक्षु को वंदन करे । परवर्ती आगम में भी मात्र ज्येष्ठ-कल्प का उल्लेख के समान ही रही है, फिर भी जैनधर्म की सामाजिक व्यवस्था में हिन्दूधर्म है। की भाँति बहुपत्नीप्रथा इतनी अधिक हावी नहीं हुई कि पुरुष की दृष्टि में ज्येष्ठ-कल्प का तात्पर्य है कि कनिष्ठ अपने से प्रव्रज्या में स्त्री मात्र भोग्या बनकर रह गयी हो। इसके पीछे जैनधर्म का सन्यासमार्गीय ज्येष्ठ को वंदन करे । यह टीकाकारों की अपनी कल्पना है कि उन्होंने दृष्टिकोण ही प्रमुख रहा है। दूसरे जैनधर्म में प्रारम्भ से लेकर आज तक ज्येष्ठ कल्प को पुरुषज्येष्ठ के रूप में व्याख्यायित किया । मूल-आगमों भिक्षुणीसंघ की जो एक सुदृढ़ व्यवस्था रही है, उसके कारण उसमें नारी में ऐसी कोई भी व्यवस्था उपलब्ध नहीं है, जिसके आधार पर जैनधर्म विशेषरूप से विधवा, परित्यक्ता और कमारियाँ पुरुष के अत्याचार और में स्त्री को पुरुष की अपेक्षा निम्न माना गया हो । आगमों में स्त्री को न
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५६५ केवल मोक्ष का अधिकारी बताया गया, अपितु उसे तीर्थंकर जैसे यह भी सत्य है कि पाश्चात्य देशों में नारी भारतीय नारी की अपेक्षा सर्वोच्च पद की भी अधिकारी घोषित किया गया है । ज्ञाताधर्मकथा में अधिक स्वतन्त्र है और अनेक क्षेत्रों में वह पुरुषों के समकक्ष खड़ी हुई मल्लि का स्त्री तीर्थंकर के रूप में उल्लेख है । अतः हम स्पष्ट रूप से है। किन्तु इन सबका एक दुष्परिणाम यह हुआ है कि वहाँ का यह कह सकते हैं कि बौद्धधर्म की अपेक्षा जैनधर्म का दृष्टिकोण नारी पारिवारिक व सामाजिक जीवन टूटता हुआ दिखाई देता है । बढ़ते हुए के प्रति अधिक उदार था। बौद्धधर्म में नारी कभी भी बुद्ध नहीं बन सकती तलाक और स्वच्छन्द यौनाचार ऐसे तत्त्व हैं जो ईसाई नारी की गरिमा है. किन्त जैनधर्म में चाहे अपवाद रूप में ही क्यों न हो, स्त्री तीर्थंकर को खण्डित करते हैं। जहाँ हिन्दधर्म और जैनधर्म में विवाह सम्बन्ध हो सकती है । यद्यपि परवर्ती काल में जैनधर्म की दिगम्बर शाखा में, को आज भी न केवल एक पवित्र सम्बन्ध माना गया है, अपितु एक जो नारी को तीर्थकरत्व एवं निर्वाण के अधिकार से वंचित किया गया आजीवन सम्बन्ध के रूप में देखा जाता है. वहाँ ईसाई समाज में आज था, वह उसके अचेलता पर अधिक बल देने के कारण हुआ था। चूंकि विवाह यौन-वासनाओं की पर्ति का माध्यम मात्र ही रह गया है । उसके सामाजिक स्थिति के कारण नारी नग्न नहीं रह सकती थी अत: दिगम्बर
पीछे रही हुई पवित्रता एवं आजीवन बन्धन की दृष्टि समाप्त हो रही है। परम्परा ने उसे निर्वाण और तीर्थंकरत्व के अयोग्य ही ठहरा दिया ।
यदि ईसाई धर्म अपने समाज को इस दोष से मुक्त कर सके तो सम्भवतः किन्तु यह एक परवर्ती ही घटना है । ईसा की सातवीं शती के पूर्व जैन
वह नारी की गरिमा प्रदान करने की दृष्टि से विश्व धर्मों में अधिक सार्थक साहित्य में ऐसे उल्लेख नहीं मिलते हैं।
सिद्ध हो सकता है। यद्यपि बौद्धधर्म में भिक्षुणीसंघ अस्तित्व में आया और संघमित्रा जैसी भिक्षुणिओं ने बौद्धधर्म के प्रसार में महत्त्वपूर्ण अवदान भी दिया किन्तु बौद्धधर्म का यह भिक्षुणी-संघ चिरकाल तक अस्तित्व में नहीं रह
४. इस्लामधर्म और जैनधर्म सका चाहे उसके कारण कुछ भी रहें हों । आज बौद्धधर्म विश्व के एक
जहाँ तक इस्लामधर्म और जैनधर्म का सम्बन्ध है सर्वप्रथम प्रमुख धर्म के रूप में अपना अस्तित्व रखता है, किन्तु कुछ श्रामणेरियों
हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि दोनों की प्रकृति भिन्न है । इस्लामधर्म को छोड़कर बौद्धधर्म में कहीं भी भिक्षुणी-संघ की उपस्थिति नहीं देखी
में संन्यास की अवधारणा प्राय: अनुपस्थित है और इसलिए उसमें नारी जाती है । यह एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना रही है । चाहे इसके मूल में भी
__ को पुरुष के समकक्ष स्थान मिल पाना सम्भव ही नहीं है । उसमें अक्सर बौद्धाचार्यों के मन में बुद्ध का यह भय ही काम कर रहा हो कि भिक्षुणियों
नारी को एक भोग्या के रूप में ही देखा गया है । बहुपत्नी प्रथा का खुला की उपस्थिति से संघ चिरकाल तक जीवित नहीं रहेगा। जबकि जैनधर्म समर्थन भी इस्लाम में नारी की स्थिति को हीन बनाता है। वहाँ न केवल में आज भी ससंगठित भिक्षणी-संघ उपस्थित है और भिक्षओं की अपेक्षा पुरुष को बहुविवाह का अधिकार है अपितु उसे यह भी अधिकार है कि भिक्षणियों की संख्या तीन गनी से अधिक है। यह बौद्धधर्म की अपेक्षा वह चाहे जब मात्र तीन बार तलाक कहकर विवाह-बन्धन को तोड़ जैनधर्म के नारी के प्रति उदार दृष्टिकोण का परिचायक है।
सकता है । फलत: उसमें नारी को अत्याचार व उत्पीड़न की शिकार
बनाने की सम्भावनाएँ अधिक रही हैं। यह केवल हिन्दूधर्म व जैनधर्म ईसाईधर्म और जैनधर्म
की ही विशेषता है कि उसमें विवाह के बन्धन को आजीवन एक पवित्र नारी के सम्बन्ध में ईसाईधर्म और जैनधर्म का दृष्टिकोण बहत बन्धन के रूप में स्वीकार किया जाता है और यह माना जाता है कि यह कुछ समान है। तीर्थंकरों की माताओं के समान ईसाईधर्म में यीश की बन्धन तोड़ा नहीं जा सकता है । यद्यपि इस्लाम में नारी के सम्पत्ति के माता मरियम को भी पूजनीय माना गया है। साथ ही ईसाईधर्म में जैनधर्म अधिकार को मान्य किया गया है, किन्तु व्यवहार में कभी भी नारी परुष की भांति ही भिक्षुणी-संस्था की उपस्थिति रही है। आज भी ईसाईधर्म की कैद एवं उत्पीड़न से मुक्त नहीं रह सकी । उसमें स्त्री पुरुष की में न केवल भिक्षणी संस्था सव्यवस्थित रूप में अस्तित्व रखती है वासनापूर्ति का साधन मात्र ही बनी रही । भारत में पर्दाप्रथा, सतीप्रथा अपित ईसाई भिक्षणियां (Nuns) अपने ज्ञानदान और सेवाकार्य से जैसे कुप्रथाओं के पनपने के लिए इस्लामधर्म ही अधिक जिम्मेदार रहा समाज में अधिक आदरणीय और महत्त्वपूर्ण बनी हुई हैं । ईसाई धर्म संघ है। द्वारा स्थापित शिक्षा संस्थाओं, चिकित्सालयों और सेवाश्रमों में इन
इस तुलानात्मक विवरण के आधार पर अन्त में हम यह कह भिक्षणियों की त्याग और सेवा-भावना अनेक व्यक्तियों के मन को मोह सकते हैं कि विभिन्न धर्मों की अपेक्षा जैनधर्म का दृष्टिकोण नारी के प्रति लेती है। यदि जैन समाज उनसे कछ शिक्षा ले तो उसका भिक्षणी-संघ अपेक्षाकृत अधिक व्यावहारिक एवं उदार है । यद्यपि इस सत्य को समाज के लिए अधिक लोकोपयोगी बन सकता है और नारी में निहित स्वीकर करने में हमें कोई आपत्ति नहीं है कि समसामयिक परिस्थितियों समर्पण और सेवा की भावना का सम्यक उपयोग किया जा सकता
और सहवर्ती परम्पराओं के प्रभाव से जैनधर्म में भी नारी के मूल्य व
महत्त्व का क्रमिक अवमूल्यन हुआ है । किन्तु उसमें उपस्थित जहाँ तक सामाजिक जीवन का प्रश्न है, निश्चय ही पाश्चात्य भिक्षुणी -संघ ने न केवल नारी को गरिमा प्रदान की, अपित् उसे ईसाई समाज में नारी की पुरुष से समकक्षता की बात कही जाती है। सामाजिक उत्पीड़न और पुरुष के अत्याचारों से बचाया भी है । यही
जैनधर्म की विशेषता है।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
सन्दर्भ
१८. भगवती आराधना, गाथा, ९८७-८८ व ९९५-९६ १. दव्वाभिलावचिन्धे वेए भावे य इत्थिणिक्खेवो ।
१९. वही, गाथा, ९८९-९४ अहिलावे जह सिद्धि भावे वेयम्मि उवउत्तो ॥
२०. तए णं से कण्हे वासुदेव बहाए जाव विभूसिए देवईए देवीए
-सूत्रकृतांग नियुक्ति, ५४. पायवंदाये हब्बमागच्छइ । - अन्तकृद्दशा सूत्र, १८ २. अभिधान राजेन्द्रकोष, भाग२, पृ०६२३.
२१. नो खलु मे कप्पइ अम्मापितीहि जीवंतेही मुण्डे भवित्ता ३. यद्वशात् स्त्रियाः पुरुषं प्रत्यभिलाषो भवति, यथा पित्तवणा अगारवासाओ अणगारियं पव्वइए-कल्पसूत्र, ९१ मधुरद्रव्यं प्रति स फुफुमादाहसमः यथा यथा चाल्यते तथा तथा ज्वलति (एवं) गब्भत्थो चेव अभिग्गहे गेण्हति णाहं समणे होक्खामि जाव बृंहति च । एवमबलाऽपि यथा यथा संपृश्यते पुरुषेण तथा तथा अस्या एताणि एत्थ जीवंतित्ति । अधिकतरोऽभिलाषो जायते, भुज्यमानायां तु छन्नकरीषदाहतुल्योऽभिलाषोः -आवश्यकचूर्णि, प्रथम भाग, पृ० २४२, प्र० ऋषभदेव जी केशरीमल, मन्द इत्यर्थः इति स्त्रीवेदोदयः । - वही, भाग६, पृष्ठ, १४३० श्वेताम्बर सं० रतलाम १९२८. ४. संमत्तंतिमसंधयण तियगच्छेओ बि सत्तरि अपुवे ।
२२. तए णं मल्ली अरहा........केवलनाणदंसणे समुप्पन्ने । हासाइछक्कअंतो छसट्ठि अनियट्टिवेयतिगं ।।
- ज्ञाताधर्मकथा, ८/१८६ ५. देखें - कर्मप्रकृतियों का विवरण। - कर्मग्रन्थ, भाग २, गाथा, १८ २३. अज्जा वि बंभि-सुन्दरि-राइभई चन्दणा पमुक्खाओ। ६. णाम ठवणादविए खेत्ते काले य पज्जणणकम्मे ।
कालतए वि जाओ ताओ य नमामि भावेणं ।। भोगे गुणे य भावे दस ए ए इत्थीणिक्खेवो ।।
-ऋषिमण्डलस्तव, २०८ -सूत्रकृतांग नियुक्ति, गाथा, ५४. २४. देवीओ चक्केसरी अजिया दुरियारी कालि महाकाली। ७. तन्दुलवैचारिक, सावचूरि सूत्र, १९ (देवचंद लालभाई पुस्तकोद्धार अच्चुय संता जाला सुतारया असोय सिरिवच्छा ।। ग्रन्थमाला)
पवर वजियं कुसा पण्णत्ती निव्वाणि अच्च्या धरणी । ८. वही।
वइरोट्टऽच्छुत गंधारि अंब उपमावई सिद्धा ।। ९. समुद्रवीचीचपलस्वभावाः संध्याभ्रमरेखा व मुहूर्तरागाः ।
-प्रवचनसारोद्धार, भाग१, पृ० ३७५-७६, देवचन्द लालभाई स्त्रियः कृतार्थाः पुरुषं निरर्थकं निपीडितालक्तकवद् त्यजन्ति । जैन पुस्तकोद्धार संस्था, सन् १९२२
उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ० ६५, ऋषभदेवजी केशरीमल संस्था रत्नपुर २५. तीसे सो वयणं सोच्चा संजयाए सुभासियं । (रतलाम) १९३३ ई०.
अंकुसेण जहा नागो धम्मे संपडिवाइयो ।। १०. पगइत्ति सभाओ । स्वभावेन च इत्थी अल्पसत्वा भवति ।
- उत्तराध्ययन सूत्र, २२/४८ - निशीथचूर्णि, भाग ३, पृ० ५८४, आगरा, १९५७-५८ (तथा) दशवैकालिकचूर्णि, पृ० ८७-८८, मणिविजय सीरीज भावनगर । ११. सा य अप्पसत्तत्ताणओ जेण वातेण वत्थमादिणा। २६. भगवं वंभी-सुन्दरीओ पत्थवेति ....इमं व भणितो। अप्पेणावि लोभिज्जति, दाणलोभिया य अकजं पिकरोति ।।
ण किर हत्थिं विलग्गस्स केवलनाणं उप्पज्जई ।। -वही, भाग ३, पृ० ५८४ ।
___ -आवश्यकचूर्णि, भाग १ पृ० २११ १२. आचारांगचूर्णि, पृ०३१५ ।
२७. वंतासी पुरिसो रायं, न सो होई पसंसिओ। १३. एवं पि ता वदित्तावि अदुवा कम्मुणा अवकरेति ।
माहणेणं परिचत्तं धणं आदारमिच्छसि । - सूत्रकृतांग, १/४/२३ - उत्तराध्ययन सूत्र, १४/३८ एवं उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ० २३० १४. दुग्रहियं हृदयं यथैव वदनं यद्दपणान्तर्गतम्
(ऋषभदेव केशरीमल संस्था रतलाम, सन् १९३३) ____ भाव: पर्वतमार्गदुर्गविषमः स्त्रीणां न विज्ञायते ।
२८. भगवती, १२/२ । -सूत्रकृतांग, १/४/२३, प्र० सेठ छगनलाल, मूंथा बंगलोर १९३० २९. जइ वि परिचित्तसंगो तहा वि परिवडइ । १५. सुट्ठवि जियासु सुट्ठवि पियासु सुट्ठवि लद्वपरासु ।
महिलासंसग्गीए कोसाभवणसिय व्व रिसी ।। अडई महिलियासु य वीसंभो नेव कायव्यो ।
-भक्तपरिज्ञा,गा० १२८ उब्भेउ अंगुली सो पुरिसो सयलंमि जीवलोयम्मि । (तथा ) कामं तएण नारी जेण न पत्ताइं दुक्खाई ॥ तुम एत सोयसि अप्पाणं णवि, तुम एरिसओ चेव होहिसि,
-वही, विवरण १/४/२३ उवसामेति लद्धबुद्धी, इच्छामी वेदावच्चंति गतो, पुणोवि आलोवेत्ता १६. वही, १/४/२
विरहति ॥ १७. एए चेव य दोसा पुरिससमाये वि इत्थियाणं पि ।
__ आवश्यकचूर्णि २, पृ० १८७ -सूत्रकृतांगनियुक्ति, गाथा, ६१ ण दुक्कर तोडिय अंबपिंडी, ण दुक्करंणच्चितु सिक्खियाए ।
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जैन धर्म में नारी की भूमिका
५६७ तं दुक्करं तं च महाणुभागं, ज सो मुणी पमयवणं निविट्ठो ॥ ४१. जैन शिलालेख संग्रह, भाग २
-वही, १, पृ० ५५५ ४२. (क) बृहत्कल्पभाष्य, भाग३, २४११, २४०७, (ख) ३०. कल्पसूत्र, क्रमश: १९७, १६७,१५७ व १३४, प्राकृत बृहत्कल्पभाष्य, भाग४, ४३३९ । भारती, जयपुर १९७७
(ग) व्यवहारसूत्र, ५/१-१६ । ३१. चातुर्मास सूची, पृ० ७७ प्र. अ. भा. समग्र जैन चातुर्मास
४३. जस्स णं अहं पुत्ता ! रायस्स वा जुवरायस्स वा भारियत्ताए
सयमेव दलइस्सामि, तत्थ णं तुमं सुहिया वा दुक्खिया वा भविज्जासि । सूची प्रकाशन परिषद्, बम्बई, १९८७ ।
-ज्ञाताधर्मकथा, १६/८५ ३२. इत्थी पुरिससिद्धा य , तहेव य नपुंसगा ।
४४. तए णं सा रेवई गाहावइणी तेहिं गोणमंसेहिं सोल्लेहिं य सुरं सलिंगे अन्नलिंगे य, गिहिलिंगे तहेव य ।।
च आसाए माणी विहरइ । -उत्तराध्ययन सूत्र, ३६/५०
-उवासगदसाओ, पृ०२४४ ३३. ज्ञाताधर्मकथा - मल्लि और द्रौपदी अध्ययन ।
तए णं तस्स महासयगस्स समणोवासगस्स बहूहिं सील जाव ३४. (अ) तथेव हत्थिखंधवरगताए केवलनाणं, सिद्धाए इमामे भावेमाणस्स चोइस संवंच्छरा वइक्कंता । एवं तहेव जेद्रं पत्तं ठवेड जाव ओसप्पिणीए पढ़मसिद्धो मरुदेवा । एवं आराहणं प्रतियोगसंगहो कायव्यो। पोसहसालाए धम्मपण्णत्तिं उवसंपज्जिता णं विहरइ । -आ० चूर्णि, भाग २, पृ० २१२
___ - उवासगदसाओ, २४५ द्रष्टव्य, वही, भाग १, पृ० १८१ व ४८८ ।
४५. अपुत्रस्य गतिर्नास्ति । (ब) अन्तकृद्दशा के वर्ग ५ में १०, वर्ग ७ में १३, वर्ग ८ में ४६. जइ णं अहं दारगं वा पयायामि तो णं अहं जायं य जाव १० । इस प्रकार कुल ३३ मुक्त नारियों का उल्लेख प्राप्त होता है। अणुबुड्डेमित्ति । ३५. (अ) मणुस्सिणीसु मिच्छाइट्ठि सासणसम्माइट्टि-ट्ठाणे सिया
- ज्ञाताधर्मकथा, १/२/१६. पज्जत्तियाओ सिया अपज्जत्तियाओसंजदासंजदसंजदट्ठाणे णियमा
४७. न तस्स दुक्खं विभयंति नाइओ, न मित्तवग्गा न सया न पज्जत्तियाओ॥ - षट्खण्डागम, १,१, ९२-९३
बंधवा। (ब) एवं विधाणचरियं चरितं जे साधवो य अज्जावो ।
एक्को संय पच्चणु होइ दुक्खं, कत्तारमेवं अणुजाइ कम्मं ।।
-उत्तराध्ययन १३/२३ ते जंगपुज्ज कित्तिं सुहं च लभ्रूण सिझंति ।।
४८. ज्ञाताधर्मकथा, अध्ययन ८, सूत्र ३०,३१ । -मूलाचार ४/१९६
४९. आवश्यकचूर्णि, भाग १, पृष्ठ १५२ । ३६. लिंग इत्थीणं हवदि भंजई पिंडं सएयकालम्मि ।
५०. वही, भाग१, पृष्ठ १४२-१४३ । अज्जिय वि एकवत्था वत्थावरणेण भुंजेइ ॥
५१. जैनागम साहित्य में भारतीय समाज, - डॉ जगदीशचन्द्र जैन णवि सिज्झइ वत्थधरो जिणसासणे जइवि होइ तित्थयरो। पृ० २५३-२६६ । णग्गो विमोक्खमग्गो सेसा उमग्गया सव्वे ॥ ५२. ज्ञाताधर्मकथा, अध्याय १६, सूत्र ७२-७४ ।
- सूत्रप्राभृत, २२,२३ ५३. उवासगदसा १, ४८ । (तथा) सुणहाण गद्दहाण य गोपसुमहिलाणं दीसदे मोक्खो। ५४. वही, अभयदेवकृतवृत्ति, पृ० ४३ । जे सोधंति चउत्थं पिच्छिज्जंता जणेहि सव्वेहिं ॥ ५५. निशीथचूर्णि, भाग २, ३८१ ।
__-शीलप्राभृत, २९ ५६. ज्ञाताधर्मकथा, द्वितीयश्रुतस्कन्ध, प्रथम वर्ग, अध्याय २-५ ३७. Aspects of Jainology, Vo..2; Pt. Bechardas Doshi द्वितीय वर्ग, अध्याय५; तृतीय वर्ग, अध्याय १-५४ । Commeinoration Vol. page 50-110
५७. वही, प्रथमश्रुतस्कन्ध, अध्याय १६, सूत्र ७२-७४ । ३८. इस सम्बन्ध में श्वेताम्बर दृष्टिकोण के लिए देखिए- अभिधान ५८. निशीथचूर्णि, भाग ३, पृ० २६७ । राजेन्द्रकोष, भाग २, पृ० ६१८-६२१ (तथा) इत्थीसु ण पावया ५९. वही, भाग २, पृ० १७३ । भणिया -सूत्रप्राभृत, पृ० २४-२६
६०. वही, भाग १, पृ० १२९ । एवं
६१. वही, भाग ३, पृ० २३४ । णवि सिज्झइ वत्थधरो जिणसासणे होइ तित्थयरो ।। वही, २३ ६२. (अ) वही, भाग २, पृ० ५९-६० । ३९. इस सम्बन्ध में दिगम्बर पक्ष के विस्तृत विवेचन के लिए देखें
(ब) तेंसिं पंच महिलसताई, ताणि वि अग्गिं पावट्ठाणि । -जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष, भाग ३, पृ० ५९६-५९८। एवं श्वेताम्बर पक्ष
- वही, भाग ४, पृ०१४ । के लिये देखें
६३. महानिशीथ, पृ० २९ । देखें, जैनागम साहित्य में भारतीय अभिद्धान राजेन्द्रकोष, भाग २, पृ० ६१८-६२१ ।
समाज, पृ० २७१ । । ४०. इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा के लिए देखें -यापनीय सम्प्रदाय,
६४. आवश्यकचूर्णि, भाग १, पृ० ३१८ । प्रो० सागरमल जैन ।
६५. मन्त्रिण्यौ ललितादेवी सौख्वौ अनशन ममतुः ।
-प्रबन्धकोश, पृष्ठ १२९.
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६६. एवमेगे उ पासत्था, पन्नवंति अणारिया ।
७३. साविका जाया अबंभस्स पच्चक्खइ णण्णत्थ रायाभियोगेणं। इत्थीवसंगया बाला, जिणसासणपरम्मुहा ।।
___- आवश्यकचूर्णि, भाग१, पृ० ५५४-५५ । जहा गंडं पिलागं वा, पिरपीलेज्ज मुहत्तंगं ।
७४. जैनशिलालेख संग्रह, भाग २, अभिलेख क्रमांक ८ । एवं विनवणित्थीसु, दोसो तत्थ कओ सिया ।
७५. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-शान्तिसूरीय वृत्ति, अधिकार२,३० । -सूत्रकृतांग, १/३/४/९-१० ७६. ज्ञाताधर्मकथा, ४/६ । ६७. उपासकदशा, १,४८ ।
७७. तम्हा उ वज्जए इत्थी ......आघाते ण सेवि णिग्गंथे । ६८. अणंगसेणा पामोक्खाणं अणेगाणं गणियासाहस्सीणं .....।
-सूत्रकृतांग १,४,१,११ - आवश्यकचूर्णि, भाग १, पृ० ३५६ । ७८. कप्पइ निग्गंथीणं विइकिट्ठए काले सज्झायं करेत्तए निग्गंथ ६९. आदिपुराण, पृ० १२५, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, १९१९ । निस्साए । (तथा) पंचवासपरियाए समणे निग्गंथे, सट्ठिवास परियाए
७०. अट्ठा जाव .........सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगतं आणा ईसर समणीए निग्गंथीए कप्पइ आयरिय उवज्झायत्ताए उद्दिसित्ताए। सेणावच्चं कारेमाणी .........।
- व्यवहारसूत्र, ७, १५, व २० । ७१. देखें, जैन, बौद्ध और गीता का आचार दर्शन, भाग२, डा० ७९. इस समस्त चर्चा के लिए देखें - मेरे निर्देशन में रचित और सागरमल जैन, पृ० २६८ ।।
मेरे द्वारा सम्पादित ग्रन्थ- जैन और बौद्ध भिक्षुणी संघ- डॉ अरुण प्रताप ७२. .......असईजणपोसणया । उपासकदशा, १/५१
सिंह।
सती प्रथा और जैनधर्म
'सती' शब्द का अर्थ
जिसने पति की मृत्यु पर उसके साथ चिता में जलकर उसका अनुगमन
किया हो, अपितु ये उन वीरांगनाओं के चरित्र हैं जिन्होंने अपने शील रक्षा 'सती' की अवधारणा जैनधर्म और हिन्दूधर्म दोनों में ही पाई हेतु कठोर संघर्ष किया और या तो साध्वी जीवन स्वीकार कर भिक्षुणी जाती है । दोनों में सती शब्द का प्रयोग चरित्रवान स्त्री के लिए होता संघ में प्रविष्ट हो गईं या फिर शीलरक्षा हेतु मृत्युवरण कर लिया । है। श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन परम्परा में तो आज भी साध्वी/श्रमणी आगमिक व्याख्या साहित्य में दधिवाहन की पत्नी एवं चन्दना की माता को सती या महासती कहा जाता है । यद्यपि प्रारम्भ में हिन्दू परम्परा में धारिणी आदि कुछ ऐसी स्त्रियों के उल्लेख हैं जिन्होंने अपने सतीत्व 'सती' का तात्पर्य एक चरित्रवान या शीलवान स्त्री ही था किन्तु आगे अर्थात् शील की रक्षा के लिए देहोत्सर्ग कर दिया । अत: जैनधर्म में चलकर हिन्दू परम्परा में जबसे सती प्रथा का विकास हुआ, तब से यह सती स्त्री वह नहीं जो पति की मृत्यु पर उसकी चिता में जलकर उसका 'सती' शब्द एक विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। सामान्यतया अनुगमन करती है अपितु वह है जो कठिन परिस्थितियों में अपनी हिन्दूधर्म में 'सती' शब्द का प्रयोग उस स्त्री के लिए होता है जो अपने शीलरक्षा का प्रयत्न करती है और अपने शील को खण्डित नहीं होने पति की चिता में स्वयं को जला देती है। अत: हमें यह स्पष्ट रूप से देती है, चाहे इस हेतु उसे देहोत्सर्ग ही क्यों न करना पड़े। समझ लेना होगा कि जैनधर्म की 'सती' की अवधारणा हिन्दू परम्परा की सतीप्रथा से पूर्णत: भिन्न है । यद्यपि जैनधर्म में 'सती' एवं 'सतीत्व' को सती प्रथा के औचित्य और अनौचित्य का प्रश्न पूर्ण सम्मान प्राप्त है किन्तु उसमें सतीप्रथा का समर्थन नहीं है।
सतीप्रथा के औचित्य और अनौचित्य का प्रश्न एक बहुचर्चित जैनधर्म में प्रसिद्ध सोलह सतियों के कथानक उपलब्ध हैं और और ज्वलन्त प्रश्न के रूप में आज भी उपस्थित है । निश्चित ही यह प्रथा जैनधर्मानुयायी तीर्थंकरों के नाम स्मरण के साथ इनका भी प्रात:काल पुरुष-प्रधान संस्कृति का एक अभिशप्त-परिणाम है । यद्यपि इतिहास के नाम स्मरण करते हैं -
कुछ विद्वान इस प्रथा के प्रचलन का कारण मुस्लिमों के आक्रमणों के ब्राह्मी चन्दनबालिका, भगवती राजीमती द्रौपदी । फलस्वरूप नारी में उत्पन्न असुरक्षा की भावना एवं उसके शील-भंग हेतु कौशल्या च मृगावती च सुलसा सीता सुभद्रा शिवा ।। बलात्कार की प्रवृत्ति को मानते हैं, किन्तु मेरी दृष्टि में इस प्रथा के बीज कुन्ती शीलवती नलस्यदयिता चूला प्रभावत्यपि । और प्रकारान्तर से उसकी उपस्थिति के प्रमाण हमें अति प्राचीनकाल से पद्मावत्यपि सुन्दरी प्रतिदिनं कुर्वन्तु नो मंगलम् ।। ही मिलते हैं । सती प्रथा के मुख्यत: दो रूप माने जा सकते हैं, प्रथम
इन सतियों के उल्लेख एवं जीवनवृत्त जैनागमों एवं आगमिक रूप जो इस प्रथा का वीभत्स रूप है ; इसमें नारी को उसकी इच्छा के व्याख्या साहित्य तथा प्राचीन जैनकाव्यों एवं पुराणों में मिलते हैं। किन्तु विपरीत पति के शव के साथ मृत्युवरण को विवश किया जाता है। उनके जीवनवृत्तों से ज्ञात होता है कि उनमें से एक भी ऐसी नहीं है दूसरा रूप वह है जिसमें पति की मृत्यु पर भावुकतावश स्त्री स्वेच्छा से
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सती प्रथा और जैनधर्म
पति के प्रति अपने अनन्य प्रेम के कारण मृत्यु का वरण करती है । कभी-कभी वह इसलिए भी पति की चिता पर अपना देहोत्सर्ग कर देती है कि भावी जन्म में उसे पुनः उसी पति की प्राप्ति होगी। जैनाचार्यों ने सती प्रथा के इन रूपों को उचित नहीं माना है। किन्तु इन रूपों से भिन्न एक ऐसा भी रूप है जिसे जैनाचार्यों ने उचित माना है जिसमें स्त्री मात्र अपने शील की रक्षा के लिए पति के जीवित रहते हुए या पति की मृत्यु के उपरान्त मृत्यु का वरण कर देहोत्सर्ग कर देती है ।
जहाँ तक स्वेच्छा से, असुरक्षा का अनुभव करके या पति के प्रति अनन्य प्रेमवश पति की मृत्यु पर उसका सहगमन का प्रश्न है - जैन साहित्य में सर्वप्रथम निशीयचूर्णि (७वीं शताब्दी) में हमें एक उल्लेख मिलता है जिसके अनुसार सोपारक के एक राजा ने करापवंचन के अपराध में नगर के पाँच सौ व्यापारियों को जीवित जला देने का आदेश दिया, उनकी पत्नियाँ भी अपने पतियों का अनुसरण करते हुए जलकर मर गई। यद्यपि जिनदास गणि महत्तर इस घटना का विवरण प्रस्तुत करते हैं किन्तु वे किसी भी रूप में इसका अनुमोदन नहीं करते हैं। यद्यपि इस कथानक से इतना अवश्य फलित होता है कि यह सतीप्रथा भारत में मुस्लिम शासकों के आक्रमण के पूर्व भी अस्तित्व में थी, वैसे हमें ७वीं शती के पूर्व निर्मित हिन्दू पौराणिक साहित्य में ऐसे उल्लेख मिलते हैं जहाँ पत्नी पति की मृत्यु पर उसकी चिता में जलकर सहगमन करती है। अतः जैन स्रोतों से भी इतना तो निश्चित हो जाता है कि यह प्रथा मुस्लिम शासकों के पूर्व भी अपना अस्तित्व रखती थी। इतना अवश्य हुआ कि मुस्लिम शासकों के आक्रमण और नारी जाति के प्रति उनके और उनके सैनिकों के दुर्व्यवहार से नारी में असुरक्षा की भावना बढ़ती गयी एवं अपनी शील-रक्षा का प्रश्न उसके सामने गम्भीर बनता गया । फलतः भारतीय मानस सतीप्रथा का समर्थन करने लगा और नारी ने पति की मृत्यु के पश्चात् दूसरों की
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भोगलिप्सा का शिकार होकर नारकीय जीवन जीने की अपेक्षा मृत्युवरण को श्रेष्ठ मान लिया ।
थी ।
उपर्युक्त स्थितियों में जहाँ तक पति के स्वर्गवास के पश्चात् उसकी पत्नी को उसकी इच्छा के बिना मात्र इस विचार से कि परलोक में वह उसे उपलब्ध होगी उसके साथ दफना देने या जला देने की प्रथा का प्रश्न है, यह अति प्राचीन काल से प्रचलित रही है। मिस्र में भी इस प्रथा के प्रमाण उपलब्ध हुए हैं, यह पुरुष-प्रधान संस्कृति सर्वाधिक घृणित रूप था जिसमें स्त्री मात्र पुरुष के उपभोग की वस्तु उसके उपभोग की अन्य वस्तुओं के समान उसे भी उसके साथ दफनाना आवश्यक माना जाता था जहां तक जैनधर्म और उसके साहित्य का प्रश्न है, हमें ऐसा एक भी उदाहरण उपलब्ध नहीं है जहाँ इस प्रथा का उल्लेख और उसे अनुमोदन प्राप्त हो। यद्यपि जैनकथा साहित्य में ऐसे उल्लेख अवश्य मिलते हैं जिसमें एक भव के पति-पत्नी अनेक भावों तक पति-पत्नी के रूप में एक दूसरों को उपलब्ध होते रहे हैं, किन्तु किसी भी घटना में ऐसा उल्लेख मुझे देखने को नहीं मिला, जहाँ मात्र इसी प्रयोजन से स्त्री के द्वारा मृत्युवरण किया गया हो और जिसका जैनाचार्यों ने अनुमोदन किया हो। अतः सतीप्रथा का यह रूप जैनधर्म में कभी मान्य नहीं रहा।
फिर भी जैनाचार्यों ने कभी भी इस प्रथा का समर्थन नहीं किया उनके अनुसार यदि स्त्री को पति की मृत्यु के पश्चापत् मरने को विवश किया जाता है तो यह कृत्य पंचेन्द्रिय मनुष्य की हत्या का बर्बर कृत्य ही माना जायेगा अतः वह कृत्य धार्मिक या धर्मसम्मत कृत्य नहीं है। अपितु महापातक ही है और मारने वाला उस पाप का दोषी है । यदि दूसरी और स्त्री स्वेच्छा से असुरक्षा की भावनावश या अनन्य प्रेमवश मृत्यु का वरण करती है तो उसका यह कृत्य रागयुक्त होने के कारण आत्महत्या की कोटि में जाता है, यह आत्म-हिंसा है अतः यह भी पापकर्म है पुनः जैनधर्म की मान्यता है कि परलोक में व्यक्ति को । कौन सी योनि मिलेगी यह तो उसके कर्मों (सदाचरण या दुराचरण) पर निर्भर करता है, पति की मृत्यु पर उसका सहगमन करने पर अनिवार्य रूप से पतिलोक को प्राप्त होगी. यह आवश्यक नहीं है। अत: इस भावना से सती होकर वह सत्री पतिलोक को प्राप्त होगी, स्त्री का पति की चिता पर जलाया जाना या जलना जैनधर्म की दृष्टि से न तो धार्मिक है और न नैतिक ही इसके विपरीत डा० जगदीश चन्द्र जैन की सूचनानुसार महानिशीथ (वर्तमान स्वरूप ईसवी सन् ८ वीं शती के पूर्व ) में एक उल्लेख आता है कि राजा की एक विधवा कन्या सती होना चाहती थी, किन्तु उसके पितृकुल में इस प्रकार की परम्परा नहीं थी अतः उसने अपना विचार त्याग दिया। इस घटना के उल्लेख से यह स्पष्ट हो जाता है, उस युग में सम्पूर्ण समाज में सती होने की परम्परा नहीं थी अपितु राजकुलों में भी केवल कुछ ही राजकुलों में ऐसी परम्परा थी।
श्री अगरचन्द जी नाहटा ने भी पट्टावलियों के आधार पर यह उल्लेख किया है कि श्री जिनदत्त सूरि (ई० सन् ११ शती) ने जब वे झुंझुणु (राज०) में थे श्रीमाल जाति की एक बालविधवा को उपदेश देकर सती होने से रोका और उसे जैनसाध्वी की दीक्षा प्रदान की। इसी प्रकार १७वीं शती के सन्त आनन्दघन ने भी सती प्रथा की आलोचना करते हुए ऋषभदेव स्तवन में लिखा है कि परलोक में पति मिलेगा इस आकांक्षा से स्त्री अग्नि में जल जाती है, किन्तु यह मिलाप सम्भव नहीं होता है। अतः पति की मृत्यु पर पत्नी द्वारा देहोत्सर्ग कर देना जैनधर्म में कभी भी अनुमोदित नहीं था ।
किन्तु दोनों रूपों से भिन्न अपने शील की रक्षा के लिये देहोत्सर्ग कर देना सतीत्व का एक ऐसा भी रूप है जिसे जैनाचार्यों ने मान्यता दी है। उनके अनुसार चाहे पति जीवित हो या उसका स्वर्गवास हो चुका हो यदि स्त्री इस स्थिति में आ गई है कि शीलरक्षा हेतु मृत्युवरण के अतिरिक्त उसके सामने अन्य कोई विकल्प ही नहीं रह गया है, तो ऐसी स्थिति में अपने शील की रक्षा के निमित्त अपने प्राणों का उत्सर्ग कर देना ही श्रेयस्कर है। जैनाचार्य मात्र ऐसी स्थिति में ही स्त्री के मृत्युवरण को नैतिक एवं धार्मिक मानते हैं। जैनाचार्यों की दृष्टि में पतिव्रता होना स्त्री के लिये अति आवश्यक है किन्तु पतिव्रता होने का
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
यह अर्थ नहीं है कि वह पति की मृत्यु होने पर स्वयं भी मृत्यु का वरण असम्मानित होती थीं और न असुरक्षित ही। यही कारण थे कि जैनधर्म करे, उनकी दृष्टि में पतिव्रता होने का अर्थ है शीलवान या चारित्रवान में सती प्रथा को विकसित होने के अवसर ही नहीं मिले । होना और पति की मुत्यु होने पर पूर्णरूप से ब्रह्मचर्य का पालन करना। यद्यपि प्रो० काणे१६ ने अपने धर्मशास्त्र के इतिहास में सती पति की मृत्यु पर स्त्री का प्रथम कर्तव्य होता था कि वह संयम पूर्ण प्रथा के कारणों का विश्लेषण करते हुए यह बताया है कि बंगाल में जीवन जीते हुए अपनी सन्तान का पालन-पेषण करे- जैसा कि राजगृही मेघातिथि स्त्री को पति की सम्पत्ति का अधिकार मिलने के कारण ही की भद्रा सार्थवाही ने किया था अथवा सन्तान के योग्य हो जाने पर सतीप्रथा का विकास हुआ, किन्तु यदि यह सत्य माना जाये तो फिर चारित्र (दीक्षा) ग्रहण कर साध्वी का जीवन व्यतीत करें।२ । प्राचीन जैनधर्म में भी सतीप्रथा का विकास होना था किन्तु जैनधर्म में ऐसा नहीं जैनाचार्यों ने सदैव ही पति की चिता पर जलने के स्थान पर श्रमणी बनने हुआ । स्त्री को सम्पत्ति का अधिकार मिलने की स्थिति में हिन्दू धर्म में पर बल दिया । प्राचीन जैन कथा साहित्य में हमें अनेक ऐसे कथानक स्त्री स्वयं सती होना नहीं चाहती थी अपितु सम्पत्ति लोभ के कारण मिलते हैं जहाँ स्त्रियाँ श्रमण जीवन अंगीकार कर लेती हैं । जहाँ परिवार के लोगों द्वारा उसे सती होने को विवश किया जाता है किन्तु महाभारत एवं अन्य हिन्दू पुराणों में कृष्ण की पत्नियों के सती होने के अहिंसा प्रेमी जैनधर्मानुयायियों की दृष्टि में सम्पत्ति पाने के लिये स्त्री को उल्लेख है१३ वहाँ जैन साहित्य में उनके साध्वी होने के उल्लेख हैं। आत्मबलिदान हेतु विवश करना उचित नहीं था, यह तो स्पष्ट रूप से हिन्दू परम्परा में सत्यभामा को छोड़कर कृष्ण की शेष पत्नियाँ सती हो नारी हत्या थी । अतः सम्पत्ति में विधवा के अधिकार को मान्य करने जाती हैं सत्यभामा वन में तपस्या के लिए चली जाती है, जबकि जैन पर भी अहिंसा प्रेमी जैनसमाज सतीप्रथा जैसे अमानवीय कार्य का परम्परा में कृष्ण को सभी पटरानियाँ श्रमणी बन जाती हैं। हिन्दू कथाओं समर्थन नहीं कर सका । दूसरे, यह कि यदि वह स्त्री स्वेच्छा से दीक्षित में सीता पृथ्वी में समा जाती है, जैन कथा में लव-कुश के युवा हो जाने हो जाती थी तो भी उन्हें सम्पत्ति का स्वामित्व तो प्राप्त हो ही जाता था। पर वह श्रमणी बन जाती है।५ । ये कथाएँ चाहे ऐतिहासिक दृष्टि से अतः जैनधर्म में सामान्यतया सतीप्रथा का विकास नहीं हुआ अपितु विवादास्पद हों किन्तु इनसे जैनाचार्यों के दृष्टिकोण का पता तो चल ही उसमें स्त्री को श्रमणी या साध्वी बनने को ही प्रोत्साहित किया गया । जाता है कि वे सती प्रथा के समर्थक नहीं थे।
जैनधर्म में पति की मृत्यु के पश्चात् विधवा के लिए भिक्षुणी संघ का
सम्मानजनक द्वार सदैव खुला हुआ था। जहां वह सुरक्षा और सममान जैनधर्म में सती प्रथा के विकसित नहीं होने के कारण के साथ-साथ आध्यात्मिक विकास भी कर सकती थी। अत: जैनाचार्यों
जैनधर्म में सतीप्रथा के विकसित नहीं होने का सबसे प्रमुख ने विधवा, परित्यक्ता एवं विपदाग्रस्त नारी को भिक्षुणी संघ में प्रवेश कारण जैनधर्म में भिक्षुणी संघ का अस्तित्व ही है । वस्तुत: पति की हेतु प्रेरित किया, न कि सती होने के लिए। यही कारण था कि जैनधर्म मृत्यु के पश्चात् किसी स्त्री के सती होने का प्रमुख मनोवैज्ञानिक कारण में प्राचीन काल से लेकर आज तक श्रमणियों या भिक्षुणियों की संख्या असुरक्षा एवं असम्मान की भावना है । जैनधर्म में पति की मृत्यु के भिक्षुओं की अपेक्षा बहुत अधिक रही है। यह अनुपात १:३ का रहता पश्चात् स्त्री को अधिकार है कि वह सन्तान की समुचित व्यवस्था करके आया है। भिक्षुणी बनकर संघ में प्रवेश ले ले और इस प्रकार अपनी असुरक्षा की पुन: जैनधर्म में संलेखना (समाधिमरण) की परम्परा भी भावना को समाप्त कर दे। इसके साथ ही सामन्यतया एक विधवा हिन्दू प्रचलित थी । अत: विधवा स्त्रियाँ गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी तपसमाज से तिरस्कृत समझी जाती थी, अत: उस तिरस्कारपूर्ण जीवन त्यागपूर्वक जीवन बिताते हुए अन्त में संलेखना ग्रहण कर लेती थी। जीने की आशंका से वह पति के साथ मृत्यु का वरण करना ही उचित वस्तुपाल प्रबन्ध में वस्तुपाल की पत्नी ललितादेवी और तेजपाल की मानती है । जैनधर्म में कोई भी स्त्री जब भिक्षुणी बन जाती है तो वह पत्नी अनुपमा देवी द्वारा अपने पतियों के स्वर्गवास के पश्चात् गृहस्थ समाज में आदरणीय बन जाती है । इस प्रकार जैनधर्म भिक्षुणी संघ की जीवन में बहुत काल तक धर्माराधन करते हुए अन्त में अनशन द्वारा व्यवस्था करके स्त्री को पति की मृत्यु के पश्चात् भी सम्मानपूर्वक जीवन देहत्याग के उल्लेख हैं । किन्तु यह देहोत्सर्ग भी पति की मृत्यु के जीने का मार्ग प्रशस्त कर देता है।
तत्काल पश्चात् न होकर वृद्धावस्था में यथासमय ही हुआ है । अत: हम स्त्री द्वारा पति की मृत्यु के पश्चात् सम्पत्ति में अधिकार न होने कह सकते है कि जैनधर्म में सती प्रथा का कोई स्थान नहीं रहा है। से आर्थिक संकट भी हिन्दू नारी की एक प्रमुख समस्या है जिससे बचने के लिए स्त्री सती होना पसन्द करती है । श्रमणी जीवन में जैन नारी परवर्तीकाल में जैनधर्म में सतीप्रथा का प्रवेश सम्मानजनक रूप से भिक्षा प्राप्त करके आर्थिक संकट से भी बच जाती यद्यपि धार्मिक दृष्टि से जैनधर्म में सतीप्रथा को समर्थन और थी, साथ ही जैनधर्म हिन्दूधर्म के विरुद्ध सम्पत्ति पर स्त्री के अधिकार को उसके उल्लेख प्राचीन जैन धार्मिक ग्रन्थों में नही मिलते हैं । किन्तु मान्य करता है । जैनग्रन्थों में भद्रा आदि सार्थवाहियों का उल्लेख मिलता सामाजिक दृष्टि से जैन समाज भी उसी बृहद् हिन्दू समाज से जुड़ा हुआ है जो पति के स्वर्गवास के पश्चात् अपने व्यवसाय का संचालन स्वयं था जिसमें सती प्रथा का प्रचलन था । फलत: परवर्ती राजपूत काल के करती थीं । अत: यह स्वाभाविक था कि जैनस्त्रियाँ वैधव्य के कारण न कुछ जैन अभिलेख ऐसे हैं जिनमें जैन समाज की स्त्रियों के सती होने
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सन्दर्भ
सती प्रथा और जैनधर्म
५७१ के उल्लेख हैं । ये सहवर्ती हिन्दू समाज का प्रभाव ही था जो कि
अत: निष्कर्ष रूप में हम यही कह सकते हैं कि जैनधर्म में विशेषत: राजस्थान के उन जैनपरिवारों में था जो कि निकट रूप से राज- धार्मिक दृष्टि से सती प्रथा को कोई प्रश्रय नहीं मिला क्योंकि वे सभी परिवार से जुड़े हुए थे।
कारण जो सती प्रथा के प्रचलन में सहायक थे। जैन-जीवन दृष्टि और श्री अगरचन्दजी नाहटा ने अपने ग्रन्थ बीकानेर जैन लेख संग्रह संघ-व्यवस्था के आधार पर और जैनधर्म में भिक्षुणी संघ की व्यवस्था में जैनसती स्मारकों का उल्लेख किया है१८ । वे लिखते हैं कि जैनधर्म से निरस्त हो जाते थे। की दृष्टि से तो सती-दाह मोहजनित एवं अज्ञानजनित आत्मघात ही है, किन्तु स्वयं क्षत्रिय होने से वीरोचित जाति-संस्कारवश, वीर राजपूत जाति के घनिष्ठ सम्बन्ध में रहने के कारण यह प्रथा ओसवाल जाति (जैनों की एक जाति) में भी प्रचलित थी । नाहटाजी ने केवल बीकानेर
१. देखें - संस्कृत-हिन्दी कोश (आप्टे), पृ० १०६२ । के अपने अन्वेषण में ही २८ ओसवाल सती स्मारकों का उल्लेख किया
२. देखें- हिन्दू धर्म कोश (राजबली पाण्डेय), पृ०६४९ । है। इन लेखों में सबसे प्रथम लेख वि० सं० १५५७ का और सबसे ३. जैन सिद्धान्त बोलसंग्रह, भाग ५, पृ. १८५ । अन्तिम लेख वि० सं० १८६६ का है । वे लिखते हैं कि बीकानेर राज्य ४. ब्राह्मी आदि इन सोलह सतियों के जीवनवृत्त किन आगमों एवं की स्थापना से प्रारम्भ होकर जहाँ तक सती प्रथा थी वह अविच्छिन्न रूप ___ आगमिक व्याख्याओं में है, इसलिए देखें - से जैनों में भी जारी थी। यद्यपि इन सती स्मारकों से यह निष्कर्ष निकाल (क) जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, भाग ५, पृ० ३७५ लेना कि सामान्य जैन समाज में यह सती प्रथा प्रचलित थी, उचित नहीं (a) Prakrit Proper Names, part I and II होगा। मेरी दृष्टि में यह सती प्रथा केवल उन्हीं जैनपरिवारों में प्रचलित सम्बन्धित नाम के प्राकृतरूपों के आधार पर देखिये । रही होगी जो राज-परिवार से निकट रूप से जुड़े हुए थे। बीकानेर के ५. आवश्यकचूर्णि, भाग १, पृ. ३२० । उपर्युक्त उल्लेखों के अतिरिक्त भी राजस्थान में अन्यत्र ओसवाल जैनसतियों ६. देखें - (अ) हिन्दूधर्म कोश, पृ०६४९।। के स्मारक थे। श्री पूर्णचन्द्र नाहर ने भामा शाह के अनुज ताराचन्द जी
(ब) धर्मशास्त्र का इतिहास, (काणे) भाग २, पृ. ३४८ कपाड़िया के स्वर्गवास पर उनकी ४ पत्नियों के सती होने का सादड़ी ७. तेसिं पंच महिलासंताई ताणि वि अग्गिं पावट्ठाणि । के अभिलेख का उल्लेख किया है१९ । स्वयं लेखक को भी अपने गोत्र
-निशीथचूर्णि, भाग ४, पृ० १४ के सती-स्मारक की जानकारी है। अपने गोत्र एवं वंशज लोगों के द्वारा
__ - बृहद्कल्पभाष्य वृत्ति, भाग ३, पृ० २०८ इन सती स्मारकों की पूजा स्वयं लेखक ने भी होते देखी है । अत: यह ८. देखें - (अ) विष्णुधर्म सूत्र, २५/१४ । उद्धृत हिन्दूधर्मकोश स्वीकार तो करना होगा कि जैन परम्परा में भी मध्यकाल में सती प्रथा पृ० ६४९ ।। का चाहे सीमित रूप में ही क्यों न हो किन्तु प्रचलन अवश्य था। यद्यपि
(ब) उत्तररामायण, १७/१५, , , , , इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाल लेना चाहिए कि यह प्रथा जैनधर्म एवं (स) महाभारत, आदि पर्व ९५/६५ ,, ,, ,, ,, जैनाचार्यों के द्वारा अनुशंसित थी, क्योंकि हमें अभी तक ऐसा कोई भी
(द) महाभारत, मौसलपर्व ७/१८, ७/२३-८४ ,, ,,,,, सूत्र या संकेत उपलब्ध नहीं है जिसमें किसी जैन ग्रन्थ में किसी जैनाचार्य ९. देखें - हिन्दू धर्म कोश, पृ० ६५० ने इस प्रथा का समर्थन किया हो । जैन ग्रन्थ और जैनाचार्य तो सदैव १०. महानिशीथ, पृ०२९ देखें - जैन आगम साहित्य में भारतीय ही विधवाओं के लिए भिक्षुणी संघ में प्रवेश की अनुशंसा करते रहे हैं। समाज, पृ. २७१ । अत:परवर्ती काल के जो सती स्मारक सम्बन्धी जैन अभिलेख मिलते ११. बीकानेर जैन लेख संग्रह-भूमिका, पृ० ९५ की पाद टिप्पणी । हैं वे केवल इस तथ्य के सूचक हैं कि सहवर्ती हिन्दु परम्परा के प्रभाव १२. केई कंतकारण काष्ट भक्षण करै रे, मिलस कंत नै धाय । के कारण विशेष रूप से राजस्थान की क्षत्रिय परम्परा के ओसवाल जैन
ए मेलो नवि कइयइ सम्भवै रे, मेलो ठाम न ठाय । समाज में यह प्रथा प्रवेश कर गई थी । और जिस प्रकार कुलदेवी,
-आनन्दघन चौबीसी-श्री ऋषभदेव स्तवन कुलभैरव आदि की पूजा लौकिक दृष्टि से जैनधर्मानुयायियों द्वारा की १३. आवश्यकचूर्णि, भाग १, पृ० ३७२ । जाती थी उसी प्रकार सती स्मारक भी पूजे जाते थे । राजस्थान में बीकानेर १४. (अ) महाभारत, मौसलपर्व ७/७३-७४, विष्णुपुराण, से लगभग ४० किलोमीटर दूर मोरखना सुराणी माता का मन्दिर है।
५/३८/२ इस मन्दिर की प्रतिष्ठा धर्मघोषगच्छीय पद्माणंदसूरि के पट्टधर (ब) धर्मशास्त्र का इतिहास, काणे, भाग १, ३४८ नंदिवर्धनसूरि द्वारा हुई थी। ओसवाल जाति के सुराणा और दुग्गड़ गोत्रों १५. अन्तकृतदशा के पंचम वर्ग में कृष्ण की ८ रानियों के तीर्थंकर में इसकी विशेष मान्यता है । सुराणी माता सुराणा परिवार की कन्या
अरिष्टनेमि के समीप दीक्षित होने का उल्लेख है। थी जो दूगड़ परिवार में ब्याही गई थी। यह सती मन्दिर ही है । फिर १६. पउमचरियं, १०३/१६५-१६९ भी इस प्रकार की पूजा एवं प्रतिष्ठा को जैनाचार्यों ने लोकपरम्परा ही
१७. धर्मशास्त्र का इतिहास, काणे, भाग १, पृ० ३५२ माना था, आध्यात्मिक धर्मसाधना नहीं । बीकानेर के सती स्मारक में दो १८. कल्पसूत्र, १३४ स्मारक माता सतियों के हैं, इन्होंने पत्रप्रेम में देहोत्सर्ग किया था जो एक
१९. बीकानेर जैन लेख संग्रह - भूमिका, पृ० ९४-९९ विशिष्ट बात है।
प्रवेश की अनाचार्य तो सब
के जो सती
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जैन एवं बौद्ध धर्म में स्वहित और लोकहित का प्रश्न
स्वार्थ और परार्थ की समस्या बहुत पुरानी है। नैतिक चिन्तन के प्रारम्भ से ही स्वहित और लोकहित का प्रश्न महत्त्वपूर्ण रहा है। एक ओर चाणक्य कहते हैं - 'स्त्री, धन आदि से बढ़कर अपनी रक्षा का प्रयत्न करना चाहिए।' विदुर ने भी कहा है जो स्वार्थ को छोड़कर परार्थ करता है, जो मित्रों अर्थात् दूसरे लोगों के लिए व्यर्थ ही श्रम करता है वह मूर्ख ही है।' किन्तु दूसरी ओर यह भी कहा जाता है, स्वहित के लिए तो सभी जीते हैं जो लोक हित के लिए, परार्थ के लिए जीता है, वस्तुतः उसका जीवन ही सफल है। जिस जीवन में परोपकार वृत्ति नहीं हो उससे तो मरण ही अच्छा है।
स्वार्थवाद और परार्थवाद के अर्थ पर भी विचार कर लेना होगा ।
स्वार्थवाद 'आत्मरक्षण' है और परार्थवाद 'आत्मत्याग' है। मैकेन्जी लिखते हैं- 'जब हम केवल अपने ही व्यक्तिगत साध्य की सिद्धि चाहते हैं तब इसे स्वार्थवाद कहा जाता है; परार्थवाद है दूसरे के साध्य की सिद्धि का प्रयास करना' ।' दूसरे शब्दों में स्वार्थवाद को स्वहितवादी दृष्टिकोण और परार्थवाद को लोकहितवादी दृष्टिकोण भी कह सकते हैं ।
जैन दर्शन में स्वार्थ और परार्थ की समस्या
यदि स्वार्थ और परार्थ की उपरोक्त परिभाषा स्वीकार की जाए तो जैन दर्शन को न स्वार्थवादी कहा जा सकता है, न परार्थवादी ही । जैन दर्शन आत्मा के स्वगुणों के रक्षण एवं स्वाध्याय की बात कहता हैं, इस अर्थ में वह स्वार्थवादी है, लेकिन इसके साथ ही वह कषायात्मा के विसर्जन, वासनात्मक आत्मा के त्याग को भी आवश्यक मानता है और इस अर्थ में वह परार्थवादी भी कहा जा सकता है। यदि हम मैकेन्जी की परिभाषा को स्वीकार करें और यह मानें कि व्यक्तिगत साध्य की सिद्धि स्वार्थवाद और दूसरे के साध्य की सिद्धि का प्रयास परार्थवाद है, तो भी जैन दर्शन स्वार्थवादी और परार्थवादी दोनों ही सिद्ध होता है । वह व्यक्तिगत आत्मा से मोक्ष या सिद्धि का समर्थन करने के कारण स्वार्थवादी तो होगा ही लेकिन दूसरे की मुक्ति के हेतु प्रयासशील होने के कारण परार्थवादी भी कहा जा सकेगा। यद्यपि आत्म कल्याण, वैयक्तिक बंधन एवं दुःख से निवृत्ति के दृष्टिकोण से तो जैन साधना का प्राण आत्महित ही है तथापि जिस लोक करुणा एवं लोकहित की अनुपम भावना से अर्हत् प्रवचन का प्रस्फुटन होता है उसे भी नहीं झुठलाया जा सकता ।
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पाश्चात्य विचारक हरबर्ट स्पेन्सर ने तो स्वार्थ और परार्थ के इस प्रश्न को नैतिकता की वास्तविक समस्या कहा है। यहाँ तक कि पाश्चात्य आचारशास्त्रीय विचारणा में तो स्वार्थ की समस्या को लेकर दो दल बन गये । स्वार्थवादी विचारक जिनमें हाब्स, नीत्शे प्रभृति प्रमुख हैं, यह मानते हैं कि मनुष्य प्रकृत्या केवल स्वार्थ या अपने लाभ से प्रेरित होकर कार्य करता है। वे मानते हैं कि नैतिकता का वही सिद्धान्त समुचित है जो मानव प्रकृति की इस धारणा के अनुकूल हो । उनकी दृष्टि में अपने हित के कार्य करने में ही मनुष्य का श्रेय है। दूसरी ओर बेन्थम, मिल प्रभृति विचारक मानव की स्वसुखवादी मनोवैज्ञानिक प्रकृति को स्वीकार करते हुए भी बौद्धिक आधार पर यह सिद्ध करते हैं कि परहित की भावना ही नैतिक दृष्टि से उचित है। नैतिक जीवन का साध्य परार्थ है प्रो० मिल केवल परार्थ को स्वार्थ के बौद्धिक आधार पर सिद्ध कर ही सन्तुष्ट नहीं हो जाते वरन् आंतरिक अंकुश (Internal Sanition) के द्वारा उसे स्वाभाविक भी सिद्ध करते हैं, उनके अनुसार यह आंतरिक अंकुश सजातीयता की भावना है जो कि मानव में यद्यपि जन्मजात नहीं है, फिर भी अस्वाभाविक या अनैसर्गिक भी नहीं हैं। दूसरे अन्य विचारक भी जिनमें बटलर, कोंत, शॉपनहॉवर एवं टालस्टाय आदि प्रमुख हैं, मानव की मनोवैज्ञानिक प्रकृति में सहानुभूति, प्रेम आदि जैन साधना में लोकहित के तत्त्वों की उपस्थिति दिखाकर परार्थवादी या लोक मंगलकारी आचारदर्शन का सर्मथन करते हैं। हरबर्ट स्पेन्सर से लेकर ब्रेडले, ग्रीन, अरबन आदि समकालीन विचारकों तक की एक लम्बी परम्परा ने मानव जीवन के विभिन्न पक्षों को उभारते हुए स्वार्थवाद और परार्थवाद में सामान्य शुभ (Common Good) के रूप में समन्वय साधने का प्रयास किया है। मानव प्रकृति में विविधताएँ हैं, उसमें स्वार्थ और परार्थ के तत्त्व आवश्यक रूप से उपस्थित हैं । आचारदर्शन का कार्य यह नहीं है कि वह स्वार्थवाद या परार्थवाद में से किसी एक सिद्धान्त का समर्थन या विरोध करे। उसका कार्य तो यह है कि 'स्व' और 'पर' के मध्य संघर्षों की सम्भावना का निराकरण किया जा सके। भारतीय आचारदर्शन कहाँ तक और किस रूप में स्व और पर के मध्य संघर्ष की सम्भावना को समाप्त करते हैं, इस बात की विवेचना के पूर्व हमें
आचार्य समन्तभद्र जिनस्तुति करते हुए कहते हैं - हे भगवान् ! आपकी यह संघ (समाज) व्यवस्था सभी प्राणियों के दुःखों का अन्त करने वाली और सबका कल्याण (सर्वोदय) करने वाली है। इससे बढ़कर लोक आदर्श और लोक मंगल की कामना क्या हो सकती है ? प्रश्नव्याकरण सूत्र नामक आगम ग्रन्थ में कहा गया है- भगवान् का यह सुकधित प्रवचन संसार के सभी प्राणियों के रक्षण एवं करुणा के लिए हैं। जैन साधना लोक मंगल की धारणा को लेकर ही आगे बढ़ती है। आगे उसी सूत्र में बताया गया है कि जैन साधना की पांचों महाव्रत सब प्रकार से लोकहित के लिए ही हैं । अहिंसा की विवेचना करते हुए प्रश्नव्याकरण सूत्र में कहा गया है कि साधना के प्रथम स्थान पर स्थित यह अहिंसा सभी प्राणियों का कल्याण करने वाली है । यह भगवती अहिंसा प्राणियों में भयभीतों के लिए
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जैन एवं बौद्ध धर्म में स्वहित और लोकहित का प्रश्न
५७३ शरण के समान है, पक्षियों के लिए आकाश-गमन के समान निर्बाध रूप सामान्यतया विश्व-कल्याण और वैयक्तिक कल्याण की भावनाओं से हितकारिणी है प्यासों को पानी के समान, भूखों को भोजन के समान, के आधार पर साधकों की ये विभिन्न कक्षाएँ निर्धारित की गई हैं। समुद्र में जहाज के समान, रोगियों के लिए औषधि के समान और अटवी इसमें तीर्थंकर को सर्वोच्च स्थान इसलिए दिया जाता है कि वह लोकमें सहायक के समान है११ । तीर्थंकर नमस्कार सूत्र (नमोत्थुणं) में तीर्थंकर कल्याण के आदर्श को अपनाता है। जिस प्रकार बौद्ध धर्म में बोधिसत्व के लिए लोकनाथ, लोकहितकर, लोकप्रदीप, अभय के दाता आदि जिन और अर्हत् के आदर्शों में भिन्नता है उसी प्रकार जैन धर्म में तीर्थंकर विशेषणों का उपयोग हुआ है वे भी जैन दृष्टि की लोक मंगलकारी और सामान्य केवली के आदर्शों में तारतम्यात्मक भिन्नता है । भावना को स्पष्ट करते हैं। तीर्थंकरों का प्रवचन एवं धर्म प्रवर्तन प्राणियों इन सबके अतिरिक्त जैन धर्म में संघ (समाज) को सर्वोपरि के अनुग्रह के लिए होता है, न कि पूजा या सत्कार के लिए१२ । यदि माना गया है । संघहित समस्त वैयक्तिक साधनाओं से भी ऊपर है; ऐसा माना जाए कि जैन साधना केवल आत्महित, आत्मकल्याण की परिस्थिति विशेष में संघ के कल्याण के लिए वैयक्तिक साधना का बात कहती है तो फिर तीर्थंकर के द्वारा तीर्थप्रवर्तन या संघ संचालन का परित्याग भी आवश्यक माना गया है। जैन साहित्य में आचार्य कालक कोई अर्थ ही नहीं रह जाता, क्योंकि कैवल्य की उपलब्धि के बाद उन्हें की कथा इसका सबल उदाहरण है। अपने कल्याण के लिए कुछ करना शेष ही नहीं रहता । अत: मानना स्थानांग सूत्र में जिन दस धर्मों (कर्तव्यों)१७ का निर्देश किया पड़ेगा कि जैन साधना का आदर्श मात्र आत्म-कल्याण ही नहीं वरन् गया है उसमें संघधर्म, गणधर्म, राष्ट्रधर्म, नगरधर्म, ग्रामधर्म और लोक-कल्याण भी है।
कुलधर्म की उपस्थिति इस बात का सबल प्रमाण है कि जैन दृष्टि न जैन दार्शनिकों ने आत्महित की अपेक्षा लोकहित को सदैव ही केवल आत्महित या वैयक्तिक विकास तक सीमित है, वरन् उसमें महत्त्व दिया है । जैन विचारणा के अनुसार साधना की सर्वोच्च ऊँचाई लोकहित या लोक-कल्याण का अजस्त्र प्रवाह भी प्रवाहित हो रहा है। पर स्थित सभी जीवन्मुक्त आध्यात्मिक पूर्णता की दृष्टि से यद्यपि समान यद्यपि जैनदर्शन लोकहित, लोकमंगल की बात कहता है, ही होते हैं फिर भी जैन विचारकों ने उनकी आत्महितकारिणी और लेकिन उसकी एक शर्त है, वह यह कि परार्थ के लिए स्वार्थ का लोकहितकारिणी दृष्टि के तारतम्य को लक्ष्य में रखकर उनमें विसर्जन किया जा सकता है, लेकिन आत्मार्थ का नहीं । उसके अनुसार उच्चावच्च क्रम को स्वीकार किया है । एक सामान्य केवली (जीवन्मुक्त) वैयक्तिक भौतिक उपलब्धियों को लोक-कल्याण के लिए समर्पित
और तीर्थकर में आध्यात्मिक पूर्णताएँ समान ही होती हैं, फिर भी किया जा सकता है और किया भी जाना चाहिए, क्योंकि वे हमें जगत् तीर्थंकर की लोकहित की दृष्टि के कारण ही तीर्थंकर को सामान्य केवली से ही मिली हैं, वे वस्तुत: संसार की हैं, हमारी नहीं । सांसारिक की अपेक्षा उच्च स्थान दिया गया है।
उपलब्धियाँ संसार के लिए हैं, अत: उनका लोकहित के लिए विसर्जन जैन धर्म के अनुसार जीवन्मुक्त अवस्था को प्राप्त कर लेने किया जाना चाहिए । लेकिन आध्यात्मिक विकास या वैयक्तिक वाले व्यक्तियों के भी लोकहित के आधार पर तीन वर्ग होते हैं - नैतिकता को लोकहित के नाम पर कुण्ठित किया जाना, उसे स्वीकार १. तीर्थंकर २. गणधर ३. मुण्डकेवली ।
नहीं है । ऐसा लोकहित जो व्यक्ति के चरित्र के पतन अथवा आध्यात्मिक
कुण्ठन से फलित होता हो उसे स्वीकार नहीं है । लोकहित और १. तीर्थंकर - तीर्थंकर वह है जो सर्वहित के संकल्प को आत्महित के सन्दर्भ में उसका स्वर्णसूत्र है आत्महित करो और यथाशक्य लेकर साधना मार्ग में आता है और अपनी आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त लोकहित भी करो लेकिन जहाँ आत्महित और लोकहित में द्वन्द्व हो और कर लेने के पश्चात् भी लोकहित में लगा रहता है। सर्वहित, सर्वोदय आत्महित के कुण्ठन पर ही लोकहित फलित होता हो तो वहाँ आत्मऔर लोक-कल्याण ही उसके जीवन का ध्येय होता है। कल्याण ही श्रेष्ठ है।
२. गणधर - सहवर्गीय हित के संकल्प को लेकर साधना आत्महित स्वार्थ नहीं है - आत्महित स्वार्थवाद नहीं है । क्षेत्र में प्रविष्ट होने वाला और अपनी आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त कर आत्मकाम वस्तुत: निष्काम होता है क्योंकि उसकी कोई कामना नहीं लेने पर भी सहवर्गीयों के हित एवं कल्याण के लिए प्रयत्नशील रहने होती है, उसका कोई स्वार्थ नहीं होता । स्वार्थी तो वह है, जो यह वाला साधक गणधर कहलाता है । वर्गहित या गण कल्याण गणधर चाहता है कि सभी लोग उसके हित के लिए कार्य करें । आत्मार्थी स्वार्थी के जीवन का ध्येय होता है।
नहीं है, उसकी दृष्टि तो यह होती है कि सभी अपने हित के लिए कार्य
करें । स्वार्थ और आत्मकल्याण में मौलिक अन्तर यह है कि स्वार्थ की ३. सामान्य केवली या मुण्डकेवली • आत्म कल्याण साधना में राग-द्वेष की वृत्तियाँ काम करती हैं जबकि आत्महित या को ही जिसने अपनी साधना का ध्येय बनाया होता है और जो इसी आत्म-कल्याण के लिए राग-द्वेष से युक्त होकर आत्मकल्याण की आधार पर साधना मार्ग में प्रवृत्त होता हुआ आध्यात्मिक पूर्णता की सम्भावना ही नहीं रहती । यथार्थ आत्महित में राग-द्वेष का अभाव उपलब्धि करता है, वह मुण्डकेवली कहलाता है।५ ।
होता है । स्वार्थ और परार्थ में संघर्ष की सम्भावना भी तभी तक है जबकि
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उनमें कहीं राग-द्वेष की वृत्ति निहित हो रागादि भाव या स्वहित की वृत्ति से किया जाने वाला परार्थ भी सच्चा लोकहित नहीं है, वह तो स्वार्थ ही है, जिस प्रकार के शासन के द्वारा नियुक्त एवं प्रेरित समाजकल्याण अधिकारी वस्तुतः लोकहित का कर्ता नहीं है, वह तो वेतन के लिए लोकहित करता है। उसी प्रकार राग से प्रेरित होकर लोकहित के प्रयत्न राग की अभिव्यक्ति, प्रतिष्ठा की रक्षा, यश अर्जन की भावना या भावी लाभ की प्राप्ति हेतु ही होते हैं। ऐसा परार्थ वस्तुतः स्वार्थ ही है। सच्चा आत्महित और सच्चा लोकहित, राग-द्वेष से शून्य अनासक्ति की भूमि पर प्रस्फुटित होता है लेकिन उस अवस्था में आकर न तो 'स्व' रहता है न 'पर' क्योंकि जहाँ राग है वहीं 'स्व' है और जहाँ 'स्व' है वहीं 'पर' है। राग की शून्यता होने पर स्व और पर का विभेद ही समाप्त हो जाता है, ऐसी राग शून्यता की भूमि पर स्थित होकर किया जाने वाला आत्महित भी लोकहित होता है और लोकहित आत्महित होता है। दोनों में कोई संघर्ष नहीं, कोई द्वैत नहीं है। उस दशा में न तो कोई अपना है, न कोई पराया। स्वार्थ और परार्थ जैसी समस्या यहाँ रहती ही नहीं।
जैन धर्म के अनुसार स्वार्थ और परार्थ के मध्य सभी अवस्थाओं में संघर्ष रहे यह आवश्यक नहीं है। व्यक्ति जैसे-जैसे भौतिक जीवन से आध्यात्मिक जीवन की ओर ऊपर उठता जाता है, वैसे-वैसे स्वार्थपरार्थ का संघर्ष भी समाप्त होता जाता है। जैन विचारकों ने परार्थ या लोकहित के तीन स्तर माने है १. द्रव्य लोकहित २. भाव लोकहित और ३. पारमार्थिक लोकहित ।
१. द्रव्य लोकहित" यह लोकहित का भौतिक स्तर है । भौतिक उपादानों जैसे भोजन, वस्त्र, आवास आदि तथा शारीरिक सेवा के द्वारा लोकहित करना लोकहित का भौतिक स्तर है, यहाँ पर साधन भौतिक होते हैं। द्रव्य लोकहित एकान्त रूप से आचरणीय नहीं कहा जा सकता। यह अपवादात्मक एवं सापेक्ष नैतिकता का क्षेत्र है। भौतिक स्तर पर स्वहित की पूर्णतया उपेक्षा भी नहीं की जा सकती। यहाँ तो स्वहित और परहित में उचित समन्वय बनाना ही अपेक्षित है। पाश्चात्य नैतिक विचारणा के परिष्कारित स्वार्थवाद, बौद्धिक परार्थवाद और सामान्य शुभ के सिद्धान्तों का विचार क्षेत्र लोकहित का यह भौतिक स्वरूप ही है ।
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२. भाव लोकहित लोकहित का यह स्तर भौतिक स्तर से ऊपर स्थित है । यहाँ पर लोकहित के साधन ज्ञानात्मक या चैत्तासिक होते हैं। इस स्तर पर परार्थ और स्वार्थ में संघर्ष की सम्भावना अल्पतम होती है ।
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३. पारमार्थिक लोकहित " यह लोकहित का सर्वोच्च स्तर है, यहाँ आत्महित और परहित में कोई संघर्ष नहीं रहता; कोई द्वैत नहीं रहता। यहाँ पर लोकहित का रूप होता है यथार्थ जीवन दृष्टि के
सम्बन्ध में मार्ग दर्शन करना ।
सन्दर्भ
१. आत्मानं सततं रक्षेत् दारैरपि धनैरपि चाणक्य नीति २. स्वमर्थ यः परित्यज्य परार्थमनुतिष्ठति
मिथ्या चरित मिशयक्ष मूद्र स उच्यते ॥ विदुरनीति ३. आत्मार्थे जीवलोकेऽस्मिन् को न जीवति मानवः । परं परोपकारार्थं यो जीवति स जीवति ॥ -सुभाषित भाण्डागारम् ४. जीवितान्मरणं श्रेष्ठं परोपकृतिवर्जितात् । ५. नीति प्रवेशिका मैकेन्जी-हिन्दी अनुवाद पृष्ठ २३४ । ६. सम्मेच्च लोए खेयन्नेहि पवइए - आचारांग ७. सर्वापदान्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव । ८. सव्व जगजीव रक्खण दयट्ठाए पावयणं भगवं सुकहियं । प्रश्नव्याकरण सूत्र, २१/२२
९. महव्वयाई लोकहिय सब्वयाई ।
- वही, १/१/२१
१०. तत्थपठमं अहिंसा, तस यावर सव्वभूयखेमकरी । वही, १/१/३
११. वही, १/२/२२ । १२. प्राणिनामनुग्रहार्थम्, न पूजासत्कारार्थम् । • सूत्रकृतांग (टी), १/६/४ मोहान्धकार गहने संसार दुःखिता बत । सत्वा परिभ्रमन्त्युच्कै सत्यस्मिन् धर्मतेजसि ॥ अहोतानतः कृच्छाद यथायोग कथंचन । अनेनोत्तारयामीर्ति वरबोधि समन्वितः ॥ करुणादि गुणोपेतः परार्थ व्यसनी सदा । तथैव चेष्टते श्रीमान् वर्धमान महोदयः ॥ तत्कल्याण योगेने कुर्वन्सत्त्वार्थ मेवसः । तीर्थकृत्वमवाप्नोति परं सवार्थ साधनम् ।। योगबिन्दु, २८५-२८८ चिन्तयत्येवमेवैतत् स्वजनागतं तु यः । तथानुष्ठानतः सोऽपि धीमान् गणधरोभवेत् ॥
१२.
१४.
१५.
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- योगबिन्दु, २८९ । संविग्नो भव निर्वेदादात्मनिः सरणं तु यः । आत्मार्थं सम्प्रवृत्तो सौ सदा स्यान् मुण्डकेवली ॥ योगबिन्दु, २९० ।
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१६. निशीथचूर्णि गा० २८६० ।
१७. स्थानांग०, १०/७६०
१८. आदहिदं कादव्वं अदि सक्कई परहिंदं च कादव्वं ।
आदहिद
परहियादो आदहिदं सुट्ठ कादव्वं ॥
- उद्धृत्, आत्मसाधना संग्रह, पृ० ४४१।
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१९. भोजनशयनाऽच्छादन प्रदानाऽदिलक्षणः । सचाल्पतया २१. परमार्थत: पारमेश्वर प्रवचनोपदेश एव तस्येव भवशतोपचित नात्यन्तिकश्चैहिकार्य स्याऽपि साधनेनैकान्तेन साधीयानिति । दुःखक्षयक्षमत्वात् - आह च नोपकारो जगत्यस्मिस्तादृशो विद्यते क्वचित् ।
- अभिधान राजेन्द्र, खण्ड ५, पु० ६९७ यादृशी दु:खविच्छेदाद् देहिनां धर्मदेशना। ' २०. भावोपकारस्त्वध्यापनश्रावणादिस्वरूपों गरीय नित्यात्यन्तिक
-अभिधान राजेन्द्र, खण्ड ५, पृ० ६९७ । उभयलोक सुखावहश्चेत्यतो भावोपकार एव यतितव्यम् ।
- अभिधानराजेन्द्र, खण्ड ५, पृ०६९७
पर्यावरण के प्रदूषण की समस्या और जैनधर्म
तीव्रता से बढ़ती हुई जनसंख्या और उपभोक्तावादी संस्कृति के स्वयं भी जीवन हैं क्योंकि इनके अभाव में जीवन की कल्पना भी सम्भव कारण प्रदूषित होते पर्यावरण की रक्षा का प्रश्न आज मानव समाज की नहीं है । क्या हम जल, वायु, पृथ्वीतत्त्व एवं ऊर्जा (अग्नितत्त्व) के एक ज्वलन्त समस्या है क्योंकि प्रदूषित होते हुए पर्यावरण के कारण अभाव में जीवन की कोई कल्पना भी कर सकते हैं ? ये तो स्वयं जीवन न केवल मानवजाति अपितु पृथ्वी पर स्वयं जीवन के अस्तित्व को भी के अधिष्ठान हैं । अत: इनका दुरूपयोग या विनाश स्वयं जीवन का ही खतरा उत्पन्न हो गया है । उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण जीवन के विनाश है । इसीलिये जैनधर्म में उसे हिंसा या पाप कहा गया है। हिन्दू लिये आवश्यक स्रोतों का इतनी तीव्रता से और इतनी अधिक मात्रा में धर्म में पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु को जो देव रूप माना गया है, दोहन हो रहा है कि प्राकृतिक तेल एवं गैस की बात तो दूर रही, अगली उसका आधार भी इनका जीवन के अधिष्ठान रूप होना ही है । जैन शताब्दी में पेयजल और सिंचाई हेतु पानी मिलना भी दुष्कर होगा। यही परम्परा में भगवान महावीर से पूर्व भगवान पार्श्व के काल में भी पृथ्वी, नहीं, शहरों में शुद्ध प्राणवायु के थैले लगाकर चलना होगा । अत: जल, वायु, अग्नि और वनस्पति में जीवन होने की यह अवधारणा मानवजाति के भावी अस्तित्व के लिये यह आवश्यक हो गया है कि उपस्थित थी । पृथ्वीकायिक, जलकायिक, वायुकायिक, अग्निकायिक, पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त करने के प्रयत्न अविलम्ब प्रारम्भ हो । यह वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक -- ऐसे षट्जीवनिकायों की चर्चा शुभ-लक्षण है कि पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त करने की चेतना आज प्राचीन जैन आगमों का प्रमुख विषय रहा है । आचारांगसूत्र (ई०पू० समाज के सभी वर्गों में जागी है और इसी क्रम में यह विचार भी उभर पाँचवी शती) का तो प्रारम्भ ही इन षट्जीवनिकायों के निरूपण से तथा कर सामने आया है कि विभिन्न धार्मिक परम्पराओं में पर्यावरण को उनकी हिंसा के कारणों एवं उनकी हिंसा से बचने के निर्देशों की चर्चा प्रदूषण से मुक्त रखने के ऐसे कौन से निर्देश हैं जिनको उजागर करके से ही होता है । इन षट्जीवनिकायों की हिंसा नहीं करने के सन्दर्भ में पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखने के सन्दर्भ में मानव समाज के विभिन्न जैन आचार्यों के जो निर्देश हैं, वे पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखने वर्गों की चेतना को जागृत किया जा सके । इस सन्दर्भ में यहाँ मैं जैनधर्म की दृष्टि से आज सर्वाधिक मूल्यवान बन गये हैं। आगे हम उन्हीं की की दृष्टि से ही आप लोगों के समक्ष अपने विचार रखूगा। चर्चा करेंगे।
यह एक निर्विवाद तथ्य है कि जैनधर्म में भोगवृत्ति के प्रति यह एक अनुभूत प्राकृतिक तथ्य है, एक जीवन की अभिव्यक्ति संयम, अहिंसा और असंग्रह (अपरिग्रह) पर सर्वाधिक बल दिया गया और अवस्थिति दूसरे शब्दों में उसका जन्म, विकास और अस्तित्व दूसरे है। उसके इन्ही मूलभूत सिद्धान्तों के आधार पर जैनधर्म में ऐसे अनेक जीवनों के आश्रित है -- इससे हम इंकार भी नहीं कर सकते हैं । किन्तु आचार नियमों का निर्देश हुआ है जिनका परिपालन आज पर्यावरण को इस सत्य को समझने की जीवन-दृष्टियाँ भिन्न-भिन्न रही हैं । एक प्रदूषण से मुक्त रखने के लिये आवश्यक है । जैनधर्म के प्रवर्तक दृष्टिकोण यह रहा है कि यदि एक जीवन दूसरे जीवन पर आश्रित है तो आचार्यों ने आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व यह उद्घोषणा की थी कि न हमें यह अधिकार है कि हम जीवन के दूसरे रूपों का विनाश करके भी केवल प्राणीय जगत् एवं वनस्पति जगत् में जीवन की उपस्थिति है, अपने अस्तित्व को बनाये रखें । पूर्व में 'जीवोजीवस्य भोजनम्' और अपितु उन्होंने यह भी कहा था कि पृथ्वी, पानी, वायु और अग्नि में भी पश्चिम में 'अस्तित्व के लिए संघर्ष' (Struggle for existence) के जीवन हैं । एक ओर तो वे यह मानते थे कि पृथ्वी, पानी एवं वनस्पति सिद्धान्त इसी दृष्टिकोण के कारण अस्तित्व में आये । इनकी जीवन-दृष्टि के आश्रित होकर अनेकानेक प्राणी अपना जीवन जीते हैं, अत: इनके हिंसक रही । इन्होंने विनाश से विकास का मार्ग चुना । आज पूर्व से दुरूपयोग, विनाश या हिंसा से उनका भी विनाश होता है। दूसरे ये पश्चिम तक इसी जीवन-दृष्टि का बोल-बाला है । जीवन के दूसरे रूपों
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ का विनाश करके मानव के अस्तित्व को बचाने के प्रयत्न होते रहे हैं। के उत्सर्ग के परिणामस्वरूप जो विजातीय तत्त्व जल में मिलते हैं, किन्तु अब विज्ञान यह बताता है कि जीवन के दूसरे रूपों का अनवरत उनसे बहुतायत से जलीय जीवों की हिंसा होती है और जल प्रदूषित विनाश करके हम मानव का अस्तित्व भी नहीं बचा सकते हैं । इस होता है । जैन परम्परा में आज भी यह लोकक्ति है कि पानी का उपयोग सम्बन्ध में दूसरी जीवन-दृष्टि यह रही कि एक जीवन, जीवन के दूसरे घी से भी अधिक सावधानी से करना चाहिये । मुझे स्वयं वे दिन याद रूपों के सहयोग पर आधारित है -- जैनाचार्यों ने इसी जीवन-दृष्टि का हैं, जब घी के गिरने पर उतनी प्रताड़ना नहीं मिलती थी, जितनी एक उद्घोष किया था । आज से लगभग अठारह सौ वर्ष पूर्व आचार्य गिलास पानी के गिर जाने पर । आज से २०-२५ वर्ष पूर्व तक जैन उमास्वाति ने एक सूत्र प्रस्तुत किया -- 'परस्परोपग्रहो जीवानाम् मुनि यह नियम या प्रतिज्ञा दिलाते थे कि नदी, कुएँ आदि में प्रवेश करके अर्थात् जीवन एक दूसरे के सहयोग पर आधरित है । विकास का मार्ग स्नान नहीं करना, स्नान में एक घड़े से अधिक जल का व्यय नहीं करना हिंसा या विनाश नहीं परस्पर सहकार है । एक-दूसरे के पारस्परिक आदि । उनके ये उपदेश हमारी आज की उपभोक्ता संस्कृति को सहकार या सहयोग पर जीवन-यात्रा चलती है । जीवन के दूसरे रूपों हास्यास्पद लगते हों किन्तु भविष्य में जो पीने योग्य पानी का संकट के सहकारी बनकर ही हम अपना जीवन जी सकते हैं । प्राणी-जगत् आने वाला है उसे देखते हुए, ये नियम कितने उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण पारस्परिक सहयोग पर आश्रित है। हमें अपना जीवन जीने के लिये दूसरे हैं, इसे कोई भी व्यक्ति सरलता से समझ सकता है । जैन परम्परा में प्राणियों के सहयोग की और दूसरे प्राणियों को अपना जीवन जीने के मुनियों के लिये तो सचित्तजल (जीवन युक्त जल) के प्रयोग का ही लिये हमारे सहयोग की आवश्यकता है । हमें जीवन जीने (भोजन, निषेध है । जैन मुनि केवल उबला हुआ गर्म पानी या अन्य किन्हीं साधनों प्राणवायु आदि) के लिये वनस्पति जगत् की आवश्यकता है तो से जीवाणु रहित हुआ जल ही ग्रहण कर सकता है । सामान्य उपयोग वनस्पति को अपना जीवन जीने के लिये जल, वायु, खाद आदि की के लिये वह ऐसा जल भी ले सकता है जिसका उपयोग गृहस्थ कर आवश्यकता है । वनस्पति से प्राप्त आक्सीजन, फल, अन्न आदि से चुका हो और उसे बेकार मानकर फेंक रहा हो । गृहस्थ उपासक के लिये हमारा जीवन चलता है तो हमारे द्वारा प्राप्त कार्बनडाईआक्साईड एवं भी जल के उपयोग से पूर्व उसका छानना और सीमित मात्रा में ही उसका मल-मूत्र आदि से उनका जीवन चलता है । अत: जीवन जीने के लिये उपयोग करना आवश्यक माना गया है। बिना छना पानी पीना जैनों के जीवन के दूसरे रूपों का सहयोग तो हम ले सकते हैं किन्तु उनके लिए पापाचरण माना गया है । जल को छानना अपने को प्रदूषित जल विनाश का हमें अधिकार नहीं है, क्योंकि उनके विनाश में हमारा भी ग्रहण से बचाना है और इस प्रकार वह स्वास्थ्य के संरक्षण का भी विनाश निहित है। दूसरे की हिंसा वस्तुत: हमारी ही हिंसा है, इसलिये अनुपम साधन है । जल के अपव्यय का मुख्य कारण आज हमारी आचारांग में कहा गया था - जिसे तू मारना चाहता है, वह तो तू ही उपभोक्ता संस्कृति है । जल का मूल्य हमें इस लिये पता नहीं लगता है -- क्योंकि यह तो तेरे अस्तित्व का आधार है" । सहयोग लेना और है, कि प्रथम तो वह प्रकृति का नि:शुल्क उपहार है, दूसरे आज नल दूसरों को सहयोग करना यही प्राणी जगत् की आदर्श स्थिति है । जीवन में टोटी खोलकर हम उसे बिना परश्रिम के पा लेते हैं । यदि कुओं से कभी भी दूसरों के सहयोग के बिना नहीं चलता है । जिसे हम दूसरों स्वयं जल निकाल कर और उसे दूरी से घर पर लाकर इसका उपयोग के सन्दर्भ में अपना अधिकार मानते हैं, वहीं दूसरों के प्रति हमारा कर्तव्य करना हो तो जल का मूल्य क्या है, इसका हमें पता लगे । चाहे इस भी है । इसे हमें नहीं भूलना है। सर्वत्र जीवन की उपस्थिति की कल्पना, युग में जीवनोपयोगी सब वस्तुओं के मूल्य बढ़े हों किन्तु जल तो सस्ता उसके प्रति अहिंसक दृष्टि का परिणाम यह हुआ कि जैन आचार्यों ने ही हुआ है । जल का अपव्यय न हो इसलिये प्रथम आवश्यकता यह जीवन के विविध रूपों की हिंसा और उनके दुरूपयोग को रोकने हेतु है कि हम उपभोक्ता संस्कृति से विमुख हो । जहाँ पूर्व काल में जंगल आचार के अनेक विधि-निषेधों का प्रतिपादन किया । आगे हम जल में जाकर मल विसर्जन, दातौन, स्नान आदि किया जाता था, वहाँ जल प्रदूषण, वायुप्रदूषण, खाद्य-सामग्री के प्रदूषण से बचने के लिये जैनाचार्यों का कितना कम उपयोग होता था यह किसी से छिपा नहीं है । पन: वह ने किन आचार नियमों का प्रतिपादन किया है, इसकी चर्चा करेंगे। मल एवं जल भी जंगल के छोटे पौधों के लिये खाद व पानी के रूप
में उपयोगी होता था । आज की पाँच सितारा होटलों की संस्कृति में जल प्रदूषण और जल-संरक्षण
प्रत्येक व्यक्ति पहले से पचास गुना अधिक जल का उपयोग करता है। जल को प्रदूषण से मुक्त रखने के लिये एवं उसके सीमित जो लोग जंगल में मल-मूत्र विसर्जन एवं नदी किनारे स्नान करते थे उपयोग के लिये जैन ग्रन्थों में अनेक निर्देश उपलब्ध हैं । यद्यपि प्राचीन उनका जल का वास्तविक व्यय दो लिटर से अधिक नहीं था और काल में ऐसे बड़े उद्योग नहीं थे, जिनसे बड़ी मात्रा में जल प्रदूषण हो, उपयोग किया गया जल भी या तो पौधों के उपयोग में आता था या फिर फिर भी जल में अल्प मात्रा में भी प्रदूषण न हो इसका ध्यान जैन परम्परा मिट्टी और रेत से छनकर नदी में मिलता था किन्तु आज पाँच सितारा में रखा गया है । जैन परम्परा में प्राचीन काल से अवधारणा रही है कि होटल में एक व्यक्ति कम से कम पाँच सौ लिटर जल का अपव्यय कर नदी, तालाब, कुएँ आदि में प्रवेश करके स्नान, दातौन तथा मलमूत्र देता है । यह अपव्यय हमें कहाँ ले जायेगा, यह विचारणीय है। आदि का विसर्जन नहीं करना चाहिये, क्योंकि जल में शारीरिक-मलों
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पर्यावरण के प्रदूषण की समस्या और जैनधर्म
५७७ वायुप्रदूषण का प्रश्न
अनुकूल-प्रतिकूल, सुख-दुःखादि विविध संवेदनाओं की अनुभूति करते वायुप्रदूषण के प्रश्न पर भी जैन आचार्यों का दृष्टिकोण स्पष्ट हैं, उसी प्रकार से वनस्पति जगत् आदि को भी अनुभूति होती है। किन्तु था । यद्यपि प्राचीन काल में वे अनेक साधन जो आज वायुप्रदूषण के जिस प्रकार एक अंधा, पंगु, मूक एवं बधिर व्यक्ति पीड़ा का अनुभव कारण बने हैं, नहीं थे मात्र अधिक मात्रा में धूम्र उत्पन्न करने वाले करते हुए भी उसे अभिव्यक्त नहीं कर पाता है, उसी प्रकार वनस्पति व्यवसाय ही थे। धूम्र की अधिक मात्रा न केवल फलदार पेड़-पाधों के आदि अन्य जीव-निकाय भी पीड़ा का अनुभव तो करते हैं किन्तु उसे लिये अपितु अन्य प्राणियों और मनुष्यों के लिए किस प्रकार हानिकारक व्यक्त करने में समर्थ नहीं होते । अत: व्यक्ति का प्रथम कर्तव्य यही है है, यह बात वैज्ञानिक गवेषणाओं और अनुभवों से सिद्ध हो गयी है। कि वह उनकी हिंसा एवं उनके अनावश्यक दुरूपयोग से बचे । जिस जैन आचार्यों ने उपासकदशासूत्र में जैन गृहस्थों के लिये स्पष्टत: उन प्रकार हमें अपना जीवन-जीने का अधिकार है उसी प्रकार उन्हें भी अपना व्यवसायों का निषेष किया है जिनमें अधिक मात्रा में धूम्र उत्पन्न होकर जीवन जीने का अधिकार है । अत: जीवन जहाँ कहीं भी और जिस किसी वातावरण को प्रदूषित करता हो । वायुप्रदूषण का एक कारण फलों भी रूप में हो उनका सम्मान करना हमारा कर्तव्य है । प्रकृति की दृष्टि आदि को सड़ाकर उनसे शराब आदि मादक पदार्थ बनाने का व्यवसाय में एक पौधे का जीवन भी उतना ही मूल्यवान है जितना एक मनुष्य का । भी है जिसका जैन गृहस्थ के लिए निषेध है। वायुप्रदूषण को रोकने और पेड़-पौधे पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त करने में जितने सहायक हैं, प्रदूषित वायु, सूक्ष्म कीटाणुओं एवं रजकण से बचने के लिये जैनों में उतना मनुष्य नहीं है, वह तो पर्यावरण को प्रदूषित ही करता है । वृक्षों मुख वस्त्रिका बाँधने या रखने की जो परम्परा है, वह इस तथ्य का प्रमाण एवं वनों के संरक्षण तथा वनस्पति के दुरूपयोग से बचने के सम्बन्ध है कि जैन आचार्य इस सम्बन्ध में कितने सजग थे कि प्रदूषित वायु और में भी प्राचनी जैन साहित्य में अनेक निर्देश हैं । जैन परम्परा में मुनि के कीटाणु शरीर में मुख एवं नासिका के माध्यम से प्रवेश न करें और लिए तो हरित-वनस्पति को तोड़ने व काटने की बात तो दूर उसे स्पर्श हमारा दूषित श्वास वायुप्रदूषण न करें ।
करने का भी निषेध था। गृहस्थ उपासक के लिये भी हरित वनस्पति पर्यावरण के प्रदूषण में आज धूम्र छोड़ने वाले वाहनों का के उपयोग को यथाशक्ति सीमित करने का निर्देश है । आज भी पर्वप्रयोग भी एक प्रमुख कारण है । यद्यपि वैज्ञानिक प्रगति के इस युग में तिथियों में हरित-वनस्पति नहीं खाने के नियम का पालन अनेक जैन यह बात हास्यास्पद लगेगी कि हम पुन: बैलगाड़ी की दिशा में लौट गृहस्थ करते हैं । कंद और मूल का भक्षण जैन-गृहस्थ के लिए निषिद्ध जायें, किन्तु यदि वातावरण को प्रदूषण से मुक्त रखना है तो हमें हमारे ही है । इसके पीछे यह तथ्य रहा कि यदि मनुष्य जड़ों का ही भक्षण नगरों और सड़कों को इस धूम्र प्रदूषण से मुक्त रखने का प्रयास करना करेगा तो पौधों का अस्तित्व ही खतरे में हो जायेगा और उनका जीवन होगा। जैन मुनि के लिये आज भी जो पदयात्रा करने और कोई भी वाहन समाप्त हो जायेगा। इसी प्रकार से उस पेड़ को जिसका तना मनुष्य की प्रयोग नहीं करने का नियम है वह चाहे हास्यास्पद लगे, किन्तु पर्यावरण बाँहों में न आ सकता हो, काटना मनुष्य की हत्या के बराबर दोष माना को प्रदूषण से बचाने और मानव स्वास्थ्य की दृष्टि से वह कितना गया है । गृहस्थ उपासक के लिए जिन पन्द्रह निषिद्ध व्यवसायों का उपयोगी है, इसे झुठलाया नहीं जा सकता । आज की हमारी उपभोक्ता उल्लेख है उसमें वनों को काटना भी निषिद्ध है । आचारांग में वनस्पति संस्कृति में हम एक ओर एक फलांग भी जाना हो तो वाहन की अपेक्षा के शरीर की मानव शरीर से तुलना करके यही बतलाया गया है कि रखते हैं तो दूसरी ओर डाक्टरों के निर्देश पर प्रतिदिन पाँच-सात कि.मी. वनस्पति की हिंसा भी प्राणी हिंसा के समान है। इसी प्रकार वनों में आग टहलते हैं । यह कैसी आत्मप्रवंचना है, एक ओर समय की बचत के लगाना, वनों को काटना आदि को गृहस्थ के लिए सबसे बड़ा पाप नाम पर वाहनों का प्रयोग करना तो दूसरी ओर प्रात:कालीन एवं (महारम्भ) माना गया है क्योंकि उसमें न केवल वनस्पति की हिंसा होती सायंकालीन भ्रमणों में अपने समय का अपव्यय करना । यदि मनुष्य है, अपितु अन्य वन्य जीवों की भी हिंसा होती है और पर्यावरण प्रदूषित मध्यम आकार के शहरों तक अपने दैनान्दिन कार्यों में वाहन का प्रयोग होता है । क्योंकि वन वर्षा और पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखने के न करे तो उससे दोहरा लाभ हो । एक ओर ईंधन एवं तत्सम्बन्धी खर्च अनुपम साधन हैं। बचें, तो दूसरी ओर पर्यावरण प्रदूषण से बचें । साथ ही उसका स्वास्थ्य भी अनुकूल रहेगा । प्रकृति की ओर लौटने की बात आज चाहे कीटनाशकों का प्रयोग परम्परावादी लगती हो किन्तु एक दिन ऐसा आयेगा जब यह मानव आज खेती में जो रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशक दवाओं अस्तित्व की एक अनिवार्यता होगी । आज भी यू.एस.ए. जैसे विकसित का उपयोग बढ़ता जा रहा है वह भी हमारे भोजन में होने वाले प्रदूषण देशों में यह प्रवृत्ति प्रारम्भ हो गयी है।
का कारण है । जैन परम्परा में गृहस्थ-उपासक के लिए खेती की
अनुमति तो है, किन्तु किसी भी स्थिति में कीटनाशक दवाओं का वनस्पति जगत् और पर्यावरण
उपयोग करने की अनुमति नहीं है क्योंकि उससे छोटे-छोटे जीवों की आचारांगसूत्र में वानस्पतिक जीवन की प्राणीय जीवन से उद्देश्य पूर्ण हिंसा होती है जो उसके लिए निषिद्ध है । इसी प्रकार गृहस्थ तुलना करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार हम जीवन युक्त हैं और के लिए निषिद्ध पन्द्रह व्यवसायों में विशैले पदार्थ का व्यवसाय भी
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ वर्जित है। अत: वह न तो कीटनाशक दवाओं का प्रयोग कर सकता प्रयोग न केवल मानवजाति के लिए अपितु समस्त प्राणि-जाति के है और न ही उनका क्रय-विक्रय कर सकता है। महाराष्ट्र के एक जैन अस्तित्व के लिए खतरा है । आज शस्त्रों की इस अंधी दौड़ में हम न किसान ने प्राकृतिक पत्तों, गोबर आदि की खाद से तथा कीटनाशकों के केवल मानवता की, अपितु इस पृथ्वी पर प्राणी-जगत् की अन्त्येष्ठि हेतु उपयोग के बिना ही अपने खेतों में रिकार्ड उत्पादन करके सिद्ध कर दिया चिता तैयार कर रहे है । भगवान महावीर ने इस सत्य को पहले ही है कि रासायनिक उर्वरकों के उपयोग न तो आवश्यक हैं और न ही समझ लिया था कि यह दौड़ मानवता की सर्व विनाशक होगी । वांछनीय, क्योंकि इससे न केवल पर्यावरण का संतुलन भंग होता है आचारांग में उन्होंने कहा-- 'अस्थि सत्यं परेणपरं-नस्थि असत्यं
और वह प्रदूषित होता है, अपितु हमारे खाद्यान्न भी विषयुक्त बनते हैं जो परेणपरं'१० अर्थात् शस्त्रों में एक से बढ़कर एक हो सकते हैं, किन्तु हमारे स्वास्थ्य के लिये हानिकारक होते हैं।
अशस्त्र (अहिंसा) से बढ़कर कुछ नहीं है । निःशस्त्रीकरण का यह आदेश
आज कितना सार्थक है यह बतलाना आवश्यक नहीं है । यदि हमें रात्रिभोजन निषेध और प्रदूषणमुक्तता
मानवता के अस्तित्व की चिन्ता है तो पर्यावरण के सन्तुलन का ध्यान - इसी प्रकार जैन परम्परा में जो रात्रिभोजन निषेध की मान्यता रखना होगा एवं आणविक तथा रासायनिक शस्त्रों के प्रयोग पर प्रतिबन्ध है, वह भी प्रदूषण मुक्तता की दृष्टि से एक वैज्ञानिक मान्यता है जिससे लगाना होगा। प्रदूषित आहार शरीर में नहीं पहुंचता और स्वास्थ्य की रक्षा होती है । इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनधर्म में पर्यावरण के संरक्षण सूर्य के प्रकाश में जो भोजन पकाया और खाया जाता है वह जितना के लिए पर्याप्त रूप से निर्देश उपलब्ध हैं । उसकी दृष्टि में प्राकृतिक प्रदूषण मुक्त एवं स्वास्थ्य-वर्द्धक होता है, उतना रात्रि के अंधकार या साधनों का असीम दोहन जिनमें बड़ी मात्रा में भू-खनन, जल-अवशोषण, कृत्रिम प्रकाश में पकाया गया भोजन नहीं होता है । यह तथ्य वायुप्रदूषण, वनों के काटने आदि के कार्य होते हैं, वे महारम्भ की कोटि मनोकल्पना नहीं है, बल्कि एक वैज्ञानिक सत्य है । जैनों ने रात्रिभोजन- में आते हैं जिसको जैनधर्म में नरक-गति का कारण बताया गया है। निषेध के माध्यम से पर्यावरण और मानवीय स्वास्थ्य दोनों के संरक्षण जैनधर्म का संदेश है प्रकृति एवं प्राणियों का विनाश करके नहीं, अपित का प्रयत्न किया है। दिन में भोजन पकाना और खाना उसे प्रदूषण से उनका सहयोगी बनकर जीवन-जीना ही मनुष्य का कर्तव्य है । प्रकृति मुक्त रखना है क्योंकि रात्रि में एवं कृत्रिम प्रकाश में भोजन में विषाक्त विजय के नाम पर हमने जो प्रकृति के साथ अन्याय किया है, उसका सूक्ष्म प्राणियों के गिरने की सम्भावना प्रबल होती है , पुन: देर रात में दण्ड हमारी सन्तानों को न भुगतना पड़े इसलिए आवश्यक है कि हम किये गये भोजन का परिपाक भी सम्यक रूपेण नहीं होता है। न केवल वन्य प्राणियों, पेड़-पौधों, अपितु जल, प्राणवायु, जीवन-ऊर्जा
(अग्नि) और जीवन-अधिष्ठान (पृथ्वी) के साथ भी सहयोगी बनकर शिकार और मांसाहार
जीवन जीना सीखें, उनके संहारक बनकर नहीं, क्योंकि उनका संहार आज जो पर्यावरण का संकट बढ़ता जा रहा है उसमें वन्य प्रकारान्तर से अपना ही संहार है। जीवों और जलीय-जीवों का शिकार भी एक कारण है । आज जलीय जैन आचार्यों की पर्यावरण के प्रति विशेष रूप से वनस्पति जीवों की हिंसा के कारण जल में प्रदूषण बढ़ता है । यह तथ्य सुस्पष्ट जगत के प्रति कितनी सजगता रही है, इसका पता इस तथ्य से चलता है कि मछलियाँ आदि जलीय-जीवों का शिकार जल-प्रदूषण का कारण है कि उन्होंने अपने प्रत्येक तीर्थंकर के साथ एक चैत्य-वृक्ष को जोड़ बनता जा रहा है। इसी प्रकार कीट-पंतग एवं वन्य-जीव भी पर्यावरण दिया और इस प्रकार वे चैत्य-वृक्ष भी जैनों के लिए प्रतीक रूप पूज्य के सन्तुलन का बहुत बड़ा आधार हैं । आज एक ओर वनों के कट जाने बन गये। समवायांगसूत्र के अनुसार तीर्थंकरों के चैत्यवृक्षों की सूची से उनके संरक्षण के क्षेत्र समाप्त होते जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर फर, इस प्रकार है१५.. चमड़े, मांस आदि के लिए वन्य-जीवों का शिकार बढ़ता जा रहा १. ऋषभ -- न्यग्रोध (वट) १४. अनन्त -- अश्वत्थ (पीपल) है । जैन परम्परा में कोई व्यक्ति तभी प्रवेश पा सकता है जबकि वह २. अजित -- सप्तपर्ण १५. धर्म -- दधिपर्ण शिकार व माँसाहार नहीं करने का व्रत लेता है। शिकार व माँसाहार नहीं ३. संभव -- शाल
१६. शान्ति -- नन्दीवृक्ष करना जैन गृहस्थ धर्म में प्रवेश की प्रथम शर्त है । मत्स्य, माँस, अण्डे ४. अभिनन्दन -- प्रियाल १७. कुन्थु -- तिलक एवं शहद का निषेध कर जैन आचार्यों ने जीवों के संरक्षण के लिए भी ५. सुमति -- प्रियंगु १८. अर -- आम्रवृक्ष प्राचीन काल से ही महत्त्वपूर्ण प्रयत्न किये हैं।
६. पद्मप्रभ -- छत्राह १९. मल्ली -- अशोक
७. सुपार्श्व -- शिरीष २०. मुनिसुव्रत -- चम्पक रासायनिक शस्त्रों का प्रयोग
८. चन्द्रप्रभ -- नागवृक्ष २१ नमि -- बकुल आज विश्व में आणविक एवं रासायनिक शस्त्रों में वृद्धि हो रही ९. पुष्पदन्त -- साली २२. नेमि -- वेत्रसवृक्ष है और उनके परीक्षणों तथा युद्ध में उनके प्रयोगों के माध्यम से भी १०. शीतल -- पिलंखुवृक्ष २३. पार्श्व -- धातकीवृक्ष पर्यावरण में असंतुलन उत्पन्न होता है तथा वह प्रदूषित होता है । इनका ११. श्रेयान्स -- तिन्दुक २४. महावीर (वर्धमान)
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पर्यावरण के प्रदूषण की समस्या और जैनधर्म
५७९ १२. वासुपूज्य -- पाटल
शालवृक्ष
णेवण्णेहिं छज्जीव-णिकाय-सत्थं समारंभावेज्जा, णेवण्णे १३. विमल-- जम्बु
छज्जीव-णिकाय-सत्थं समारंभते समणुजाणेज्जा।। इस प्रकार हम यह भी देखते हैं कि जैन परम्परा के अनुसार
-आयारो, आचार्य तुलसी, १/१७६ प्रत्येक तीर्थंकर ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् अशोक वृक्ष की छाया में बैठकर २. से बेमि -- संति पाणा उदय-निस्सिया जीवा अणेगा। ही अपना उपदेश देते हैं इससे भी उनकी प्रकृति और पर्यावरण के प्रति
-आयारो, आचार्य तुलसी, १/५४ सजगता प्रगट होती है। प्राचीनकाल में जैन मुनियों को वनों में ही रहने ३. देखिये -- आयारो, द्वितीय उद्देशक से सप्तम उद्देशक तक का निर्देश था, फलत: वे प्रकृति के अति निकट होते थे। कालान्तर ४. परस्परोपग्रहो जीवानाम्, तत्त्वार्थसूत्र, उमास्वाति, ५/२१ में जब कुछ जैन मुनि चैत्यों या बस्तियों में रहने लगे तो उनके दो विभाग हो गये --
५. तुमंसि नाम सच्चेम जं 'हंतत्वं' ति मनसि,
तुमंसि नाम सच्चेम जं 'अज्जावेयतव्वं' ति मन्नसि, १. चैत्यवासी २. वनवासी
तुमंसि नाम सच्चेम जं 'परितावेयव्वं' ति मनसि, किन्तु इसमें भी चैत्यवासी की अपेक्षा वनवासी मुनि ही
तुमंसि नाम सच्चेम जं 'परिघेतव्वं' ति मनसि, अधिक आदरणीय बने । जैन परम्परा में वनवास को सदैव ही आदर की
तुमंसि नाम सच्चेम जं 'उद्दवेयव्वं' ति मन्त्रसि। दृष्टि से देखा गया।
-आयारो, ५/१० इसी प्रकार हम यह भी देखते हैं कि जैन तीर्थंकर प्रतिमाओं ६. वणस्सइजीवाणं माणुस्सेण तुलणा पदं से बेमि -- को एक-दूसरे से पृथक करने के लिए जिन प्रतीक चिह्नों (लांछनों) का
इंमपि जाइधम्मयं, एयंपि जाइधम्मयं । प्रयोग किया गया है उनमें भी वन्य जीवों या जल-जीवों को ही
इंमपि बुठ्ठिधम्मयं, एयंपि बुठ्ठिधम्मयं । प्राथमिकता मिली है। यथा --
इंमपि चित्तमंतयं, एयंपि चित्तमंतयं । तीर्थंकर .. लांछन विमल -- वराह
इंमपि छिन्नं मिलाति, एयंपि छिन्नं मिलाति । ऋषभ -- बैल अनन्त -- श्येनपक्षी
इंमपि आहारगं एयंपि आहारगं । अजित -- गज अनन्त -- रीछ
इंमपि अणिच्चयं, एयंपि अणिच्चयं । सम्भव -- अश्व शान्तिनाथ -- मृग
इंमपि असासयं, एयपि असासयं । अभिनन्दन -- कपि कुंथु -- छाग
इंमपि चयावचइयं, एयंपि चयावचइयं । सुमतिनाथ -- क्रौंच सुव्रत -- कूर्म
इंमपि विपरिणामधम्मयं, एयंपि विपरिणामधम्मयं । पुष्पदंत -- मकर पार्श्वनाथ -- सर्प
-आयारो, सं. आचार्य तुलसी, १/३२ वासुपूज्य -- महिष महावीर -- सिंह
७. तं जहा -- इंगालकम्मे, वणकम्मे, साडीकम्मे, भाडीकम्मे, इन सभी तथ्यों से यह फलित होता है कि जैन आचार्य प्रकृति फोडीकम्मे, दंतवाणिज्जे, लक्खावाणिज्जे, रसवाणिज्जे, विसवाणिज्जे, और पर्यावरण के प्रति सजग रहे हैं तथा उनके द्वारा प्रतिपादित आचार केसवाणिज्जे, जंतपीलंणकम्मे, निल्लेछणकम्मे, दवग्गिदावणया, सम्बन्धी विधिनिषेध पर्यावरण को प्रदूषण मुक्त रखने में पर्याप्त रूप से सरदहतलायसोसणया, असईजणपोसणया । सहायक हैं।
-उपासकदशासूत्र, सं. मधुकर मुनि, १/५ ८. वही, १/५
९. से वारिया इत्थि सरायभत्तं । १. तं परिण्णाय मेहावी णेव संय छज्जीव-णिकाय-सत्थं
-सूत्रकृतांगसूत्र, मधुकरमुनि, १/६/३७९ समारंभेज्जा,
१०. समवायांगसूत्र, मधुकरमुनि, परिशिष्ट ६४६
सन्दर्भ
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जैन एकता का प्रश्न
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विश्व के प्रमुख धर्मों में जैनधर्म एक अल्पसंख्यक धर्म है लगभग ३ अरब की जनसंख्या वाले इस भूमण्डल पर जैनों की जनसंख्या ५० लाख से अधिक नहीं है अर्थात विश्व के ६०० व्यक्तियों में केवल १ व्यक्ति जैन हैं दुर्भाग्य यह है कि एक अल्पसंख्यक धर्म होते हुए भी वह आज अनेक सम्प्रदायों और उपसम्प्रदायों में बँटा हुआ है । दिगम्बर और श्वेताम्बर ये दो मूल शाखाएँ तो हैं ही, किन्तु वे शाखाएँ भी अवान्तर सम्प्रदायों में और सम्प्रदाय गच्छों में विभाजित हैं । दिगम्बर परम्परा के बीसपंथ, तेरापंथ और तारणंपथ ये तीन उपविभाग हैं । वर्तमान में कानजी स्वामी के अनुयायियों का नया सम्प्रदाय भी बन गया है। श्वेताम्बर परम्परा में मूर्तिपूजक, स्थानकवासी, तेरापंथी ये तीन सम्प्रदाय हैं। इनमें मूर्तिपूजक और स्थानकवासी अनेक गच्छों में विभाजित हैं । तेरापंथी सम्प्रदाय में भी अब नवतेरापंथ का उदय हुआ है। इनके अतिरिक्त भी जैनधर्म की श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं की मध्यवर्ती योजक कड़ी के रूप 'वापनीय' नामक एक स्वतन्त्र सम्प्रदाय ईसा की दूसरी शताब्दी से लेकर १५ वीं शताब्दी तक अस्तित्व में रहा। किन्तु आज यह विलुप्त हो गया है। वर्तमान में श्रीमद्राजचन्द्र के कविपंथ का भी एक स्वतन्त्र सम्प्रदाय के रूप में अस्तित्व है, यद्यपि इसके अनुयायी बहुत ही कम हैं। जैनधर्म के ये सभी सम्प्रदाय आज परस्पर बिखरे हुए हैं और कोई भी ऐसा सूत्र तैयार नहीं हो पाया है जो इन बिखरी हुई कड़ियों को एक दूसरे से जोड़ सके भारत जैन महामण्डल नामक संस्था के माध्यम से इन्हें जोड़ने का प्रयास किया गया किन्तु उसमें उल्लेखनीय सफलता प्राप्त नहीं हुई ।
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जैन समाज न केवल धार्मिक दृष्टि से विभिन्न सम्प्रदायों में बँटा हुआ है अपितु सामाजिक दृष्टि से अनेक जातियों और उपजातियों में विभाजित है। इसमें अग्रवाल, खण्डेवाल, बघेरवाल, मोड़ आदि कुछ जातियों की स्थिति तो ऐसी है जिनके कुछ परिवार जैनधर्म के अनुयायी हैं तो कुछ वैष्णव एक ही जाति में विभिन्न जैन उपसम्प्रदायों के अनुयायी भी पाये जाते हैं जैसे ओसवालों में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक स्थानकवासी और तेरापंथी इन तीनों सम्प्रदायों के अनुयायी तो प्रचुरता से पाये ही जाते हैं किन्तु क्वचित् दिगम्बर जैन और वैष्णव धर्म के अनुयायी भी मिलते हैं ।
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जातिवाद का विष
डा० विलास आदिनाथ संगवे ने अपनी पुस्तक 'जैन कम्युनिटी' में उत्तर भारत की ८४ तथा दक्षिण भारत की ९१ जैन जातियों का उल्लेख किया है। पुराने समय में तो इन जातियों में पारस्परिक भोजनव्यवहार सम्बन्धी कठोर प्रतिबन्ध थे। विवाह सम्बन्ध तो पूर्णतया वर्जित थे आज खान-पान (रोटी व्यवहार) सम्बन्धी प्रतिबन्ध तो शिथिल । हो गये हैं किन्तु विवाह (बेटी व्यवहार) सम्बन्धी प्रतिबन्ध अभी भी
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यथावत् हैं। आश्चर्य तो यह है कि आज भी एक जाति का जैन परिवार अपनी जाति के वैष्णव परिवार में तो विवाह सम्बन्ध कर लेगा किन्तु इतर जाति के जैन परिवार में विवाह सम्बन्ध करना उचित नहीं समझेगा। विगत दो दशकों में हिन्दू खटिक एवं गुजराती बलाईयों के द्वारा जैनधर्म अपनाने के फलस्वरुप वीरवाल और धर्मपाल नामक जो दो नवीन जैन जातियां अस्तित्व में आई हैं किन्तु उनके साथ भी पारस्परिक सामाजिक एकात्मकता का अभाव ही है। जैन जातियों में पास्परिक अलगाव की यह स्थिति उनकी भावनात्मक एकता में बाधक है । हमारा बिखराव दोहरा है- जातिगत और दूसरा सम्प्रदायगत | जब तक इन जातियों में परस्पर विवाह सम्बन्ध और समानस्तर की सामाजिक एकात्मकता स्थापित नहीं होगी तब तक भावनात्मक एकता को स्थायी आधार नहीं मिलेगा। अनेक जातियों में जो दसा और बीसा का भेद है और उस आधार पर या सामान्यरूप में भी जातियों को एक दूसरे से ऊँचा-नीचा समझने की जो प्रवृत्ति है, उसे भी समाप्त करना होगा। वर्तमान परिस्थितियों में चाहे इन जातिगत विभिन्नताओं को मिटा पाना सम्भव नहीं हो, किन्तु उन्हें समान स्तर की सामाजिकता तो प्रदान की जा सकती है। यदि समान स्तर की सामाजिकता और पारस्परिक विवाह सम्बन्ध स्थापित हो जायें तो जातिवाद की ये दीवारें अगली दोचार पीढ़ियों तक स्वतः ही उह जायेंगी जैनधर्म मूलतः जातिवाद का समर्थक नहीं रहा है, यह सब उस पर ब्राह्मण संस्कृति का प्रभाव है। यदि हम अन्तरात्मा से जैनत्व के हामी हैं तो हमें ऊँच नीच और जातिवाद की इन विभाजक दीवारों को समाप्त करना होगा, तभी भावनात्मक सामाजिक एकता का विकास हो सकेगा ।
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साम्प्रदायिकता का विष
आज जैन समाज का श्रम, शक्ति और धन किन्हीं रचनात्मक कार्यों में लगने के बजाय पारस्परिक संघर्षो तीर्थों और मन्दिरों के विवादों, ईर्ष्यायुक्त प्रदर्शनी और आडम्बरों तथा थोथी प्रतिष्ठा की प्रतिस्पर्धा में किये जाने वाले आयोजनों में व्यय हो रहा है। इस नग्न सत्य को कौन नहीं जानता है कि हमने एक-एक तीर्थ और मंदिर के झगड़ों में इतना पैसा बहाया है और बहा रहे हैं कि उस धन से उसी स्थान पर दस-दस भव्य और विशाल मन्दिर खड़े किये जा सकते थे। अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ, मक्सी केसरियाजी जैसे अनेक तीर्थ स्थलों पर आज भी क्या हो रहा है? जिस जिन प्रतिमा को हम पूज्य मान रहे हैं, उसके साथ क्या-क्या कुकर्म हम नहीं कर रहे हैं ? उस पर उबलता पानी डाला जाता है, नित्यप्रति गरम शलाखों से उसकी आँखे निकाली और लगायी जाती हैं। अनेक बार लंगोट आदि के चिह्न बनाये और मिटाये गये हैं। क्या यह सब हमारी अन्तरात्मा को कचोटता नहीं है ? पारस्परिक संघर्षो में वहाँ जो घटनाएं घटित हुई हैं, वे क्या
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जैन एकता का प्रश्न
५८१ एक अहिंसक समाज के लिए शर्मनाक नहीं हैं ? क्या यह उचित है अस्तित्व का प्रश्न जुड़ा हुआ है । प्रजातन्त्रीय शासन व्यवस्था में किसी कि चींटी की रक्षा करनेवाला समाज मनुष्यों के खून से होली खेले? वर्ग की आवाज इसी आधार पर सुनी और मानी जाती है कि उसकी पत्र-पत्रिकाओं में एक दूसरे के विरुद्ध जो विष-वमन किया जाता है, संगठित मत-शक्ति एवं सामाजिक प्रभावशीलता कितनी है । किन्तु एक लोगों की भावनाओं को एक दूसरे के विपरीत उभाड़ा जाता है, वह क्या विकेन्द्रित और अननुशासित धर्म एवं समाज की न तो अपनी मत-शक्ति समाज के प्रबुद्ध विचारकों के हृदय को विक्षोभित नहीं करता है ? आज होती है और न उसकी आवाज का कोई प्रभाव ही होता है। यह एक आडम्बरपूर्ण गजरथों, पञ्चकल्याणकों और प्रतिष्ठा समारोहों-मुनियों के अलग बात है कि जैन समाज के कुछ प्रभावशाली व्यक्तित्व प्राचीनकाल चातुर्मासों में चलनेवाले चौकों और दूसरे आडम्बरपूर्ण प्रतिस्पर्धा से आज तक भारतीय शासन एवं समाज में अपना प्रभाव एवं स्थान आयोजनों में जो प्रतिवर्ष करोड़ों रुपयों का अपव्यय हो रहा है, वह क्या रखते आये हैं किन्तु इसे जैन समाज की प्रभावशक्ति मानना गलत धन के सदुपयोग करनेवाले मितव्ययी जैन समाज के लिए हृदय- होगा। यह जो भी प्रभाव रहा है उनकी निजी प्रतिभाओं का है, इसका विदारक नहीं है ? भव्य और गरिमापूर्ण आयोजन बुरे नहीं हैं किन्तु श्रेय सीधे रुप में जैन समाज को नहीं है । चाहे उनके नाम का लाभ जैन वे जब साम्प्रदायिक दूरभिनिवेश और ईर्ष्या के साथ जुड़ जाते हैं तो समाज की प्रभावशीलता को बताने के लिए उठाया जाता रहा है । अपनी सार्थकता खो देते हैं । पारस्परिक प्रतिस्पर्धा में हमने एक-एक मानवतावादी वैज्ञानिक धर्म, अर्थ-सम्पन्न समाज तथा विपुल साहित्यिक गाँव में और एक-एक गली में दस-दस मन्दिर तो खड़े कर लिये किन्तु एवं पुरातत्त्वीय सम्पदा का धनी यह समाज आज उपक्षित क्यों है ? यह उनमें आबू, राणकपुर, जैसलमेर, खुजराहो या गोमटेश्वर जैसी भव्यता एक नितान्त सत्य है कि भारतीय इतिहास में जैन समाज स्वयं एक एवं कला से युक्त कितने हैं ? एक-एक गाँव या नगर में चार-चार शक्ति के रूप में उभरकर सामने नहीं आया । यदि हमें एक शक्ति के धार्मिक पाठशालाएँ चल रही हैं, विद्यालय चल रहे हैं किन्तु सर्व सुविधा कप में उभर कर आना है तो संगठित होना होगा । अन्यथा धीरे-धीरे सम्पन्न सुव्यवस्थित विशाल पुस्तकालय एवं शास्त्र-भण्डार से युक्त जैन हमारा अस्तित्व नाम-शेष हो जायेगा । आज ‘संघे शक्तिः कलियुगे' विद्या के अध्ययन और अध्यापन-केन्द्र तथा शोध-संस्थान कितने हैं ? लोकोक्ति को ध्यान में रखना होगा। अनेक अध्ययन-अध्यापन केन्द्र साम्प्रदायिक प्रतिस्पर्धा में एक ही स्थान पर खड़े तो किये गये किन्तु समग्र समाज के सहयोग के अभाव में कोई हमारे विखराव के कारण भी सम्यक् प्रगति नहीं कर सका ।
यह सही है कि जैन समाज की इस विच्छिन्न दशा पर प्रबुद्ध
विचारकों ने सदैव ही चार-चार आँसू बहाये हैं और उसकी वेदना का एकता की आवश्यकता क्यों
हृदय की गहराईयों तक अनुभव किया है । इसी दशा को देखकर जैन समाज की एकता की आवश्यकता दो कारणों से है। अध्यात्मयोगी संत आनन्दघनजी को कहना पड़ा था - प्रथम तो यह कि पारस्परिक ईर्ष्या-द्वेष एवं प्रतिस्पर्धा में समाज के श्रम, गच्छना बहुभेद नयन निहालतां शक्ति और धन का जो अपव्यय हो रहा है, उसे रोका जा सके । जैसा तत्व नी बात करता नी लाजे । हमने सूचित किया आज समाज का करोड़ों रुपया प्रतिस्पर्धी थोथे यद्यपि प्रबुद्ध वर्ग के द्वारा समय-समय पर एकता के प्रयत्न प्रदर्शनों और पारस्परिक विवादों में खर्च हो रहा है, इनमें न केवल हमारे भी हुए हैं, चाहे उनमें अधिकांश उपसम्प्रदायों की एकता तक ही सीमित धन का अपव्यय हो रहा है, अपितु समाज की कार्य-शक्ति भी इसी दिशा रहे हों। भारत जैन महामण्डल, वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ, में लग जाती है। परिणामतः हम योजनापूर्वक समाज-सेवा और धर्म- श्वेताम्बर जैन कान्फरेन्स, दिगम्बर जैन महासभा, स्थानकवासी जैन प्रसार के कार्यों को हाथ में नहीं ले पाते हैं । यद्यपि अनियोजित सेवा कान्फरेन्स इसके अवशेष हैं । इनके लिए अवशेष शब्द का प्रयोग में कार्य आज भी हो रहे है किन्तु उनका वास्तविक लाभ समाज और जानबूझकर इसलिए कर रहा हूँ कि आज न तो कोई अन्तर की गहराइयों धर्म को नहीं मिल पाता है । जैन समाज के सैकड़ों कालेज और हजारों से इनके प्रति श्रद्धानिष्ठ है और न इनकी आवाज में कोई बल है - ये स्कूल चल रहे हैं- किन्तु उनमें हम कितने जैन अध्यापक खपा पाये हैं केवल शोभा मूर्तियाँ हैं -जिनके लेबल का प्रयोग हम साम्प्रदायिक और उनमें से कितने में जैन दर्शन, साहित्य और प्राकृत भाषा के स्वार्थों की पूर्ति के लिए या एकता का ढिंढोरा पीटने के लिए करते रहते अध्ययन की व्यवस्था है । देश में जैन समाज के सैकड़ों हास्पीटल हैं, हैं । अन्तर में हम सब पहले श्वेताम्बर, स्थानकवासी, मूर्तिपूजक, किन्तु उनमें हमारा सीधा इन्वाल्वमेण्ट न होने से हम जन-जन से अपने दिगम्बर, बीस-पन्थी, तेरापन्थी, कानजीपंथी हैं, बाद में जैन । वस्तुत: को नहीं जोड़ पाये हैं, जैसा कि ईसाई मिशनरियों के अस्पतालों में होता जब तक यह दृष्टि नहीं बदलती है, इस समीकरण को उलटा नहीं जाता, है। सामाजिक बिखराव के कारण हम सर्व सुविधा सम्पन्न बड़े अस्पताल तब तक जैन समाज की भावात्मक एकता का कोई आधार नहीं बन या जैन विश्वविद्यालय आदि के व्यापक कार्य हाथ में नहीं ले पाते हैं। सकता । आज स्थानकवासी जैन श्रमण संघ को जिसके निर्माण के पीछे
दूसरे जैनधर्म की धार्मिक एवं सामाजिक एकता का प्रश्न समाज के प्रबुद्धवर्ग की वर्षों का श्रम एवं साधना थी और समाज का आज इसीलिए महत्त्वपूर्ण बन गया है कि अब इस प्रश्न के साथ हमारे लाखों रुपया व्यय हुआ था, किसने नामशेष बनाया है ? इसके लिए
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ बाहर के लोगों की अपेक्षा भी अन्दर के लोग अधिक जवाबदार हैं। प्रतिष्ठित होगी तभी समाज में एकता की भावना सबल होगी । श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समाज के मुनिवर्ग के अहमदाबाद सम्मेलन का कोई व्यक्तिपूजा, पूजक और पूज्य दोनों के अहंकार का सिंचन करती है और प्रभावकारी परिणाम क्यों नहीं निकला ?
उनकी चारित्रिक स्खलनाओं का कारण बनती है । लेखक ने जीवित आज तेरापन्थ जिसकी एकता पर हमे नाज़ था, विखराव की आचार्यों और मुनियों के ऐसे स्तोत्र देखे, जिनमें उनके गुणों एवं स्थिति में क्यों है ? दिगम्बर मुनिसंघ यद्यपि अभी अल्पसंख्या में हैं अतिशयों का ऐसा चित्रण है जो उन्हें वीतराग-प्रभु के समकक्ष ही किन्तु उसमें भी विखराव के लक्षण उभर कर सामने आने लगे हैं। प्रस्तुत करता है । समाज में अभिनन्दन-समारोहों और अभिनन्दन-ग्रन्थों अलग-अलग तम्बू लगने लगे हैं । कानजीपन्थ और मूल आम्नाय का की आयी हुई बाढ़ भी अहंकार-पुष्टि का ही माध्यम है । अहंकार ऐसा विवाद तो खुलकर सामने आ ही गया था, चाहे कानजी स्वामी के मीठा जहर है-जिससे मुक्ति पाना बड़ा कठिन है । जब भी किसी व्यक्ति स्वर्गवास के पश्चात् उसमें कुछ कमी आई हो ? बात कठोर अवश्य के ऐसे पुष्ट अहंकार पर चोट पड़ती है या ईर्ष्यावश किसी व्यक्ति की है, किन्तु सही स्थिति यह है कि आज समाज का अधिकांश मुनिवर्ग, महत्वाकांक्षा जाग जाती है तो वह अपना अखाड़ा अलग बना लेता है। कुछ नेतृत्व के भूखे श्रावक और पण्डित अपनी दुकान जमाने के अनेक सम्प्रदायों के उद्भव के पीछे यही एक महत्त्वपूर्ण कारण रहा है। चक्कर में हैं ? अपनी पूजा एवं प्रतिष्ठा बटोरने के प्रयास में है । वे विभिन्न सम्प्रदायों के उद्भव की जो कहानियाँ जैन-ग्रन्थों में दी गई हैं, सभी महावीर के नाम का उपयोग तो केवल इसलिए करते हैं कि अपनी वे इसी बात की पुष्टि करती हैं। किसी के अहंकार का अमर्यादित पोषण दुकान चल निकले । जब हम सब अपनी दुकान जमाने को आतुर होंगे। दूसरे की महत्वाकांक्षा को बढ़ता और समाज में ईर्ष्या या विद्वेष के तो महावीर की दुकान कौन चलायेगा? जब मुनीम अपनी दुकान जमाने विष-वृक्ष को पनपाता है। के फेर में पड़ जाता है तो सेठ की दुकान की क्या स्थिति होगी - हमारी धार्मिक एवं सामाजिक एकता का विकास तभी सम्भव यह सुविदित ही है । जैन एकता की पीठ में जब भी कोई छुरा भोंका है जब सामाजिक जीवन व्यक्तियों के अहंकार के पोषण की ये गया है तो ऐसे ही लोगों के द्वारा भोंका गया है।
अमर्यादित प्रवृत्तियाँ प्रतिबन्धित हों और दूसरों को हीन या अपमानित
अनुभव करने के अवसर उपस्थित नहीं हों । विखराव का मूल कारण-प्रतिष्ठा की भूख
समाज में जब भी कोई मुनि या पण्डित थोड़ा बहुत प्रवचन- धार्मिक सम्प्रदायों के पारस्परिक संघर्षों का उद्भव क्यों और पटु बना कि वह अपना एक अलग तम्बू गाड़ने का प्रयास करने लगता कैसे ? है । अपने उपासक, अपनी संस्था और अपना पत्र इस प्रकार एक नया विभिन्न युगों में जैनाचार्य अपने युग की तात्कालिक परिस्थितियों वर्ग खड़ा हो जाता है और विखराव की स्थिति आ जाती है । विखराव से प्रभावित होकर साधना के बाह्य नियमों में परिवर्तन करते रहे हैं। इसलिए होता है कि समाज की आस्था का मूल- केन्द्र महावीर या देशकालगत परिस्थितियों के प्रभाव के कारण और साधक की साधना उनका धर्म न होकर वह मुनि, आचार्य या विद्वान् होता है । लेखक ने क्षमता की विभिन्नता के कारण धर्म-साधना के बाह्य रूपों में ऐसे स्वयं देखा है कि आज स्थानकवासी समाज में अधिकांश मुनि और परिवर्तनों का हो जाना स्वाभाविक ही था और न केवल जैन अपितु सभी साध्वियाँ प्रवचन के पूर्व में, अन्त में और प्रार्थनाओं में अपने-अपने धर्मों के इतिहास में ऐसा अनेक बार हुआ है, साधना सम्बन्धी ये सब वर्तमान आचार्यों का ही स्तवन गान करते हैं । अब तो भक्तामर शैली विविधताएँ धार्मिक संघर्षों का कारण नहीं बनती । साम्प्रदायिक में संस्कृत भाषा में निबद्ध जीवित आचार्यों के स्तोत्र बन चुके हैं। शायद मतान्धता और संघर्षों का कारण साधना सम्बन्धी विविधता में नहीं आज हम उस महावीर को भुला चुके हैं जिसे हमारी सभी की आस्था अपितु मनुष्य की ममता, आसक्ति, अहंकार और स्वार्थपरता में ही रहा का केन्द्र होना चाहिये और जिसके आधार पर ही हम सब एकता के है। सूत्र में बंध सकते हैं । जो जैन धर्म गुणपूजक था, जिसके महान् आचार्यों वस्तुत: मनुष्य जब अपने धर्माचार्य के प्रति रागात्मकता के ने अपने नमस्कार-मंत्र में किसी भी व्यक्ति का, यहाँ तक कि महावीर कारण अथवा अपने मन में व्याप्त आग्रह और अहंकार के कारण अपने का भी नाम न रखा था, उसमें बढ़ती हुई यह व्यक्ति-उपासना ही हमारे धर्म, सम्प्रदाय या साधना पद्धति को ही एकमात्र और अन्तिम सत्य तथा विखराव का कारण है। यदि हम सच्चे हृदय से जैन-एकता को चाहते अपने धर्मगुरु को ही सत्य का एक मात्र प्रवर्तक मान लेता है, तो हैं- समाज से ये व्यक्ति-परक स्तुतियाँ तत्काल बन्द कर देना चाहिए। परिणामस्वरुप साम्प्रदायिक वैमनस्य का सूत्रपात हो जाता है । वस्तुत: सार्वजनिक प्रार्थनासभाओं, प्रवचनों आदि में केवल तीर्थंकरों का ही धार्मिक वैमनस्यों और धार्मिक संघों के मूलभूल कारण मनुष्य का स्तवन हो, किसी आचार्य या मुनि विशेष का नहीं । आचार्यों और अपने धर्माचार्य और सम्प्रदाय के प्रति आत्यान्तिक रागात्मक तथा मुनियों के प्रति विनयभाव तो रहे, किन्तु श्रद्धा का केन्द्र वीतरागता और तज्जन्य अपने मत की ऐकान्तिक सत्यता का आग्रह ही है । यद्यपि समतामय धर्म ही हो कोई व्यक्ति नहीं । संक्षेप में हम व्यक्तिपूजक नहीं, विखराव के अन्य कारण भी होते हैं । गुणपूजक बनें । समाज में जब व्यक्तिपूजा के स्थान पर गुणपूजा वस्तुत: धार्मिक विविधताओं और धर्म सम्प्रदायों के उद्भव
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जैन एकता का प्रश्न के अनेक कारण होते हैं जिनमें से कुछ उचित कारण और कुछ अनुचित कारण होते हैं ।
उचित कारण निम्न हैं - १.सत्य सम्बन्धी दृष्टिकोण - विशेष या विचार भेद, २. देशकालगत भिन्नता के आधार पर आचार सम्बन्धी नियमों की भिन्नता, ३. पूर्वप्रचलित धर्म या सम्प्रदाय में युग की आवश्यकता के अनुरूप परिवर्तन या संशोधन । जबकि अनुचित कारण ये हैं - १. वैचारिक दुराग्रह, २. पूर्व सम्प्रदाय या धर्म में किसी व्यक्ति का अपमानित होना, ३. किसी व्यक्ति को प्रसिद्धि पाने की महत्वाकांक्षा, ४. पूर्व सम्प्रदाय के लोगों से अनबन हो जाना ।
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यदि हम उपर्युक्त कारणों का विश्लेषण करें, तो हमारे सामने दो बातें स्पष्टतः आ जाती है। प्रथम यह कि देशकालगत तथ्यों की विभिन्नता, वैचारिक विभिन्नता अथवा प्रचलित परम्पराओं में आयी हुई विकृतियों के संशोधन के निमित्त विविध धार्मिक सम्प्रदायों का उद्भव होता है, किन्तु ये कारण ऐसे नहीं हैं जो साम्प्रदायिक वैमनस्य के आधार कहे जा सकें। वस्तुतः जब भी इनके साथ मनुष्य के स्वार्थ दुराग्रह अहंकार, महत्वाकांक्षा और पारस्परिक ईर्ष्या के तत्त्व प्रमुख बनते हैं, तभी धार्मिक उन्मादों का अथवा साम्प्रदायिक कटुता का जन्म होता है और शान्ति प्रदाता धर्म ही अशान्ति का कारण बन जाता है। आज के वैज्ञानिक युग में जब व्यक्ति धर्म के नाम पर यह सब देखता है तो उसके मन में धार्मिक अनास्था बढ़ती है और वह धर्म का विरोधी बन जाता है। यद्यपि धर्म के विविध सम्प्रदायों में बाह्य नियमों की भिन्नता हो सकती है, तथापि यदि हमारी दृष्टि व्यापक और अनाग्रही हो तो इसमें भी एकता और समन्वय के सूत्र खोजे जा सकते हैं।
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साम्प्रदायिक वैमनस्य का अन्त कैसे हो ?.
धर्म के क्षेत्र में असहिष्णुता का जन्म तब होता है जब हम यह मान लेते हैं कि हम जिस आचार्य को अपनी आस्था या श्रद्धा का केन्द्र मान रहे हैं, उसका पक्ष ही एकमात्र सत्य है और उसके अतिरिक्त अन्य सभी मिथ्यात्वी और शिथिलाचारी है 'हम सच्चे और दूसरे झूठे की भ्रान्त धारणा धार्मिक असहिष्णुता को जन्म देती है। यह मान लेना कि सत्य का सूर्य केवल हमारे घर को ही आलोकित करता है, एक मिथ्या धारणा ही है। जबकि जैनधर्म का अनेकान्तवाद यह मानता है कि सत्य का बोध और प्रकाशन दूसरों के द्वारा भी सम्भव है, सत्य हमारे विपक्ष में हो सकता है । हम ही सदाचारी और शुद्धाचारी हैं दूसरे सब शिथिलाचारी और असंयती हैं - यह कहना क्या उन लोगों को शोभा देता है जिनके शास्त्र 'अन्यलिंगसिद्धा' का उद्घोष करते हैं। आज दुर्भाग्य तो यह है कि जो दर्शन अनेकांत के सिद्धान्त के द्वारा विश्व के विभिन्न धर्म और दर्शनों में समन्वय की बात कहता है ओर जो 'षट्दरसण जिन अंग भणीजे' की व्यापक दृष्टि प्रस्तुत करता है, वह स्वयं अपने ही सम्प्रदायों के बीच समन्वय सूत्र नहीं खोज पा रहा है।
एक ओर अनेकांतवाद का उद्घोष और दूसरी ओर सम्प्रदायों का व्यामोह - दोनों एक साथ सत्य नहीं हो सकते । वस्तुतः कोई व्यक्ति
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जैन हो और उसमें साम्प्रदायिक दुराग्रह भी हो, यह नहीं हो सकता। यदि हम साम्प्रदायों में आस्था रखते हैं, तो इतना सुनिश्चित है कि हम जैन नहीं हैं। जैनधर्म की परिभाषा है
स्याद्वादो वर्ततेऽस्मिन, पक्षपातो न विद्यते । नास्त्यन्य पीडनं किञ्चित् जैनधर्मः स उच्यते ।।
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जो स्याद्वाद में आस्था रखता है तथा पक्षपात से दूर है और जो किसी को पीड़ा नहीं देता, वही जैनधर्म का सच्चा अनुयायी है । अहिंसा और अनेकान्त के सच्चे अनुयायियों में साम्प्रदायिक वैमनस्य पनपे यह सम्भव नहीं है। यहाँ हमारे जीवन के विरोधाभास स्पष्ट हैं। हम अहिंसा की दुहाई देते हैं ओर अपने ही सहधर्मी भाईयों को पीटने या पिटवाने का उपक्रम करते हैं हमारी साम्प्रदायिक वैमनस्यता ने अहिंसा की पवित्र चादर पर खून की छीटें डाली हैं अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ और केसरियाजी की घटनाएँ आज भी इसकी साक्षी हैं। हम अनेकांत का नाम लेते हैं और साम्प्रदायिक क्षुद्रताओं से बुरी तरह जकड़े हुए अपने सम्प्रदाय के अलावा हमें सभी मिथ्यात्वी नजर आते हैं। अपरिग्रह की दुहाई देते हैं किन्तु देवद्रव्य के नाम पर धन का संग्रह करते हैं, मन्दिरों की सम्पत्तियों के लिए न्यायालयों में वाद प्रस्तुत करते हैं। आश्चर्य तो यह है कि वादी के नाम में परम अपरिग्रही भगवान् का नाम भी जुड़ता है। जिस प्रभु ने अपनी समस्त धन सम्पत्ति का दान करके जीवनपर्यन्त अपरिग्रह की साधना की, उसके अनुयायी होने का दम्भ भरनेवाले हम क्या उसी प्रभु की एक प्रतिमा या मन्दिर भी अपने दूसरे भाई को प्रदान नहीं कर सकते ? वस्तुतः हमारे जीवन व्यवहार का जैनत्व से दूर का भी रिश्ता नहीं दिखाई देता है।
हमारे अनेकान्त, अहिंसा और अपरिग्रह के सिद्धान्त मात्र दिखावा है-छलना हैं - वे हमारे जीवन के साथ जुड़ नहीं पाये हैं तभी तो आध्यात्मिक सन्त आनन्दघन जी को वेदना के दो आँसू बहाते हुए कहना पड़ा था
गच्छना भेद बहू नयने निहालतां तत्त्वनी बात करतां न लाजे । उदरभरणादि निज काज करतां धकां मोह नडिया कलिकाल राजे ।
गच्छों और सम्प्रदायों के विविध भेदों को अपने समक्ष देखते हुए भी हमें अनेकांत के सिद्धान्त की दुहाई देने में शर्म क्यों नहीं आती ? वस्तुत: इस कलिकाल में व्यामोहों (दुराग्रहों) से ग्रस्त होकर सभी केवल अपना पेट भरने के लिए अर्थात् वैयक्तिक पूजा और प्रतिष्ठा पाने के लिए प्रयत्नशील हैं। भावार्थ यही है कि सम्प्रदायों और गच्छों के नाम पर हम अपनी-अपनी दुकानें चला रहे हैं। जिनप्रणीत धर्म और सिद्धान्तों का उपदेश तो केवल दूसरों के लिए है तुम हिंसा मत करो, तुम दुराग्रही मत बनो, तुम परिग्रह का संचय मत करो आदि । किन्तु हमारे अपने में कहाँ हिंसा, आग्रह और आसक्ति (स्वार्थ वृत्ति) के तत्त्व छिपे हुए है, इसे नहीं देखते हैं। वस्तुतः साम्प्रदायिक वैमनस्य इसीलिए है कि अहिंसा, अनाग्रह और जनासक्ति के धार्मिक आदर्श हमारे जीवन
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
का अंग नहीं बन पाये हैं यदि धर्म का अमृत जीवन में प्रविष्ट हो जाये करना पड़ता होगा, जिसको बाद में वे त्याग देते होंगे। स्वयं महावीर तो साम्प्रदायिकता के विष का प्रवेश ही नहीं हो सकता । हम एकता द्वारा प्रारम्भ में एकवस्त्र ग्रहण करना भी यही सूचित करता है । यद्यपि की दिशा में तभी गतिशील हो सकेंगे जब जीवन में अहिंसा, अनाग्रह, परम्परागत मान्यताएँ कुछ भिन्न हैं। भगवती आराधना जैसे दिगम्बरों के निःस्वार्थता और अपरिग्रह के तत्त्व विकसित होंगे। इनके विकास के द्वारा मान्य ग्रन्थों में भी अपवादरूप से मुनि के वस्त्र ग्रहण करने का साथ ही साम्प्रदायिक दौर्मनस्य अपने आप समाप्त हो जायेगा । यदि विधान है । ऐतिहासिक दृष्टि से यह बात भी महत्त्वपूर्ण है कि अचेलता प्रकाश आयेगा तो अंधकार अपने आप समाप्त हो जायेगा। प्रयत्न और पूर्ण अपरिग्रह का समर्थक दिगम्बर मुनि वर्ग भी परिस्थितिवश अन्धकार को मिटाने का नहीं, प्रकाश को प्रकट करने का करना है। परिग्रह के पंक में फँस गया । चौथी शताब्दी के पश्चात् से अधिकांश हमें प्रयत्न सम्प्रदायों को मिटाने का नहीं, जीवन में धर्म और विवेक को दिगम्बर मुनि न केवल जिनालयों में निवास करने लगे अपितु अपने नाम विकसित करने के लिए करना है ।
से जमीन आदि का दान प्राप्त करने लगे - और वस्त्र धारण कर राज
सभाओं में जाने लगे। इन्हीं से दिगम्बर सम्प्रदाये में भट्टारकों की परम्परा जैनधर्म के साम्प्रदायिक मतभेद : उनके निराकरण के उपाय का विकास हुआ है । मध्ययुग में इन भट्टारकों का ही सर्वत्र प्रभाव था
और अचेलक दिगम्बर मुनि प्रायः विलुप्त ही हो गये थे । उनकी (अ) सचेलता और अचेलता का प्रश्न
उपस्थिति के कोई ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं होते हैं । दिगम्बरत्व सर्वप्रथम हम श्वेताम्बर, दिगम्बर सम्प्रदायों के मतभेद को ही का समर्थन तो बराबर बना रहा किन्तु व्यवहार में उसका प्रचलन नहीं लें और देखें कि उसमें कितनी सार्थकता है । श्वेताम्बर और दिगम्बर रह सका । वस्तुत: जिन-मुद्रा को धारण करना सहज नहीं है । आज सम्प्रदायों में विवाद का मूल मुद्दा मुनि के नग्नत्व का है । क्योंकि से.४०-५० वर्ष पूर्व तक सम्पूर्ण भारत में दिगम्बर मुनियों की संख्या तीर्थप्रवर्तक प्रभु महावीर निर्वस्त्र (अचेल) रहे, यह बात दोनों को मान्य दस भी नहीं थी । वस्तुत: साधना एवं तप-त्याग के ऐसे उच्चतम है । आर्यिका (साध्वी), श्रावक और श्राविका की सवस्त्रता (सचेलता) आदर्श कभी लोक-व्यवहार्य नहीं रहे हैं। चाहे मनुष्य अपनी सुविधाभोगी भी दोनों को स्वीकार्य है । सवस्त्रता की समर्थक श्वेताम्बर परम्परा के वृत्ति के कारण हो अथवा उनकी अव्यवहार्यता के कारण हो, उनसे नीचे प्राचीन आगमों में भी मुनि की अचेलता का न केवल समर्थन है अपितु अवश्य उतरा है । श्वेताम्बर मुनिवर्ग तो आगमोक्त मुनि आधार के शिखर अचेलकत्व की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा भी की गई है । जिन और से धीरे-धीरे काफी नीचे उतर आया है किन्तु दिगम्बर मुनि भी अनेक जिनकल्पी अर्थात् जिन के समान आचरण करनेवाले मुनि नग्न रहते थे, बातों में उस ऊँचाई पर स्थित नहीं रह सके, उन्हें भी नीचे उतरना पड़ा यह बात श्वे० परम्परा को भी मान्य है । वस्तुत: जब साम्प्रदायिक है। दुरभिनिवेश बढ़ा तो एक ओर श्वेताम्बरों ने जिनकल्प (अचेलकत्व) के वस्तुत: यह सब हमें यह बताता है कि मनिधर्म की साधना विच्छेद की घोषणा कर दी तो दूसरी ओर दिगम्बरों ने मूलभूत आगम- के क्षेत्र में कुछ स्तर और उनके आरोहण का क्रम स्वीकार करना साहित्य को ही अमान्य कर दिया। इस विवाद का परिणाम यहाँ तक आवश्यक है । मुनि की निर्वस्त्रता की पोषक दिगम्बर परम्परा भी ऐलक हुआ कि श्वे० साहित्य में यह कह दिया गया कि जिनकल्पी मुक्त नहीं क्षुल्लक के रूप में ऐसे वर्गों को स्वीकार करती है जो केवल सवस्त्रता होता है । वह केवल स्वर्गगामी होता है, जबकि दिगम्बर आचार्यों ने यह के अतिरिक्त अन्य आचार-नियमों का पालन करने में दिगम्बर मुनि के कह दिया कि यदि तीर्थंकर भी सवस्त्र होगा तो मुक्त नहीं होगा। समान ही होते हैं और दिगम्बर समाज में उनकी मुनिवत् प्रतिष्ठा भी होती निष्पक्षप से श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आगम-साहित्य का अध्ययन है। विवाद का प्रश्न मात्र इतना है कि उन्हें उच्च श्रेणी का गृहस्थ माना करने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वस्त्र-पात्र आदि उपाधियों का जाये या प्राथमिक श्रेणी का मुनि । निर्वस्त्रता के आत्यान्तिक आग्रह के विकास क्रमशः ही हुआ है । आचारांग मुनि के लिए मूलत: अचेलता कारण दिगम्बर परम्परा उन्हें मुनि मानने को तैयार नहीं होती - किन्तु का ही समर्थन करता है । अपवाद रूप में वह लज्जा-निवारणार्थ गुह्मांग यदि तटस्थ भाव से देखें तो उनके लिए 'क्षुल्लक' शब्द का प्रयोग स्वयं ढकने के लिए एक कटि वस्त्र और शीत सहन नहीं कर सकने पर इस बात को सूचित करता है कि वे मुनियों के वर्ग के सदस्य हैं। शीतकाल में एक या दो अतिरिक्त वस्त्र ग्रहण करने की अनुमति देता क्षुल्लक शब्द का अर्थ 'छोटा' है चूंकि वे मुनि जीवन की साधना के है - उन्हें भी ग्रीष्मकाल में त्याग देने की बात कहता है । इस प्रकार प्राथमिक स्तर पर हैं, अत: उन्हें क्षुल्लक कहा जाता है । क्षुल्लक शब्द उसमें मुनि के लिए अधिकतम तीन और साध्वी के लिए अधिकतम चार छोटा मुनि का सूचक है, छोटे गृहस्थ का नहीं । श्वे० मान्य आगम वस्त्रों को ग्रहण करने का ही विधान है । आचारांग और समवायांग में उत्तराध्ययन में एक क्षुल्लकाध्ययन नाम से जो अध्याय है, वह मुनि मुनि को वस्त्र धारण करने की अनुमति तीन कारणों से दी गई है- आचार को ही अभिव्यक्त करता है । इसलिए क्षुल्लक मुनि ही होता है, १.इन्द्रिय विकार, २.लज्जाशीलता और ३.परीषह (शीत) सहन करने गृहस्थ नहीं । श्वेताम्बर आचार्यों ने क्षुल्लक का अर्थ बालवय का मुनि में असमर्थता । वस्तुत: महावीर के संघ में दीक्षित हुए युवा मुनियों को किया है, यह उचित नहीं लगता है । उसका अर्थ साधना के प्राथमिक इन्द्रियविकार और लोक-लज्जा के निमित्त प्रारम्भ में अधोवस्त्र धारण स्तर पर स्थित मुनि करना अधिक युक्ति-संगत है । ऐसा लगता है कि
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जैन एकता का प्रश्न
५८५ महावीर के संघ में निर्वस्त्र और सवस्त्र दोनों ही प्रकार के मुनि थे। समर्थक पद्य मिले हैं । यद्यपि इस समस्या का हल इन ग्रन्थों के आधारों श्वेताम्बर आगम तो जिनकल्प और स्थविर कल्प के नाम से दो विभाग पर नहीं खोजा जा सकता क्योंकि उत्तराध्ययन के एक अपवाद को स्वीकार करते ही है । दिगम्बर परम्परा को भी यह मानने में कोई आपत्ति छोड़कर श्वेताम्बर और दिगम्बर साहित्य के प्राचीनतम अंश प्राय: इस नहीं होगी कि महावीर के संघ में दिगम्बर मुनियों के अतिरिक्त ऐलक सम्बन्ध में स्पष्टरूप से कुछ भी प्रकाश नहीं डालते हैं जबकि सम्प्रदाय
और क्षुल्लक भी थे । मात्र वस्त्रधारी होने से ऐलक और क्षुल्लक गृहस्थ भेद के बाद रचित परवर्ती साहित्य में दोनों अपने पक्ष की पुष्टि करते नहीं कहे जा सकते । गृहस्थ तो घर में निवास करता है । जिसने घर, हैं। ज्ञाताधर्मकथा जिसमें मल्ली का स्त्री तीर्थंकर के रूप में चित्रण है परिवार आदि का परित्याग कर दिया है वह तो अनगार है, प्रव्रजित है, तथा अन्तकृतदशा जिसमें अनेक स्त्रियों की मुक्ति के उल्लेख हैं, विद्वानों मुनि है । अत: ऐलक,क्षुल्लक ये मुनियों के वर्ग हैं, गृहस्थों के नहीं। की दृष्टि में संघ-भेद के बाद की रचनाएँ हैं । निष्पक्ष रूप से यदि विचार ऐसा लगता है कि महावीर ने सामायिक चारित्र और छेदोपस्थापनीयचारित्र किया जाये तो बात स्पष्ट है कि बंधन और मुक्ति का प्रश्न आत्मा से का जो भेद किया था, उसका सम्बन्ध मुनियों के दो वर्गो से होगा। सम्बन्धित है, न कि शरीर से । बन्धन और मुक्ति दोनों आत्मा की होती जैनेतर साहित्य भी इस बात की पुष्टि करता है कि महावीर के समय में है, शरीर की नहीं । पुनः श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराएँ इस विषय में ही निर्ग्रन्थों में सवस्त्र और निर्वस्त्र दोनों वर्ग था । बौद्ध पिटक साहित्य भी एकमत हैं कि आत्मा स्वरूपत: न स्त्री है और न पुरूष । साथ ही में 'निग्गंथा- एक साटका' के रूप में एक वस्त्र धारण करने वाले आत्मा का बन्धन और मुक्ति राग-द्वेष या कषाय की उपस्थिति और निर्ग्रन्थों का उल्लेख है। आचारांग और उत्तराध्ययन में मुनि के वस्त्रों के अनुपस्थिति पर निर्भर है- उसका स्त्रीपर्याय और पुरुषपर्याय से कोई सीधा प्रसंग में 'सान्तरोत्तर' शब्द का प्रयोग हुआ है जो इस बात का प्रमाण सम्बन्ध नहीं है । वस्तुत: जो भी राग-द्वेष की ग्रन्थियों से मुक्त होंगे, जो है कि कुछ निर्ग्रन्थ मुनि - एक अधोवस्त्र (कटिवस्त्र) या अन्तरवासक वीतराग और क्षीण कषाय होंगे और जो निर्वेद अर्थात् स्त्रीत्व-पुरुषत्व के साथ उत्तरीय रखते थे। श्वे० परम्परा द्वारा 'सान्तरोत्तर' का अर्थ रंगीन की वासना से रहित होंगे, वही मुक्त होंगे। मुक्ति का निकटतम कारण या बहुमूल्य वस्त्र करना उचित नहीं । ऐसा लगता है कि जहाँ महावीर राग-द्वेष रूपी कर्म-बीज का नष्ट होना और वीतरागता का प्रकट होना के मुनि या तो नग्न रहते थे या कटिवस्त्र धारण करते थे, वहाँ पार्श्वनाथ है। अत: यही मानना उपयुक्त होगा कि जो भी वीतराग हो सकेगा वही की परम्परा के साधू कटिवस्त्र के साथ उत्तरीय भी धारण करते थे। मुक्त होगा- यहाँ स्त्री का, सवस्त्र मुनि या गृहस्थ का या अन्य परम्पराओं आचारांग की वस्त्र सम्बन्धी यह व्यवस्था ऐलक और क्षुल्लक की वस्त्र- के वेश धारण करने वाला का राग समाप्त होगा या नहीं, इस विवाद मर्यादाओं के रूप में दिगम्बर समाज में आज भी मान्य है। में पड़ना न तो उचित है और न आवश्यक है - जो भी वीतराग एवं
इन सब चर्चाओं के आधार पर हम मुनि के वस्त्र सम्बन्धी इस निर्कषाय हो सकेगा वह मुक्त हो सकेगा - यदि स्त्री पर्यायधारी आत्मा विवाद को इस प्रकार हल कर सकते हैं कि प्राचीन परम्परा के अनुरूप के कषाय क्षीण हो जायेंगे तो वह मुक्त हो जायेगी, यदि नहीं हो सकेंगे मुनियों के दो वर्ग हों-एक निर्वस्त्र और दूसरा सवस्त्र । दिगम्बर परम्परा तो नहीं हो सकेगी। इससे बढ़कर यह कहना कि उसके कषाय समाप्त यह आग्रह छोड़े कि वस्त्रधारी मुनि नहीं है और श्वेताम्बर परम्परा निर्वस्त्र ही नहीं होंगे, हमें कोई चेष्टा नहीं करना चाहिए । पुनः श्वेताम्बर और मुनियों की आचारगत श्रेष्ठता को स्वीकार करे । जहाँ तक मुनि आचार दिगम्बर दोनों परम्पराएँ आज यह मानती हैं कि अभी ८२ हजार वर्ष तक के दूसरे नियमों के प्रश्न हैं - यह सत्य है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर तो इस भरतक्षेत्र से कोई मुक्त होनेवाला नहीं है । साथ ही दोनों के दोनों की परम्पराओं में मूलभूत आगमिक मान्यताओं से काफी स्खलन अनुसार उन्नीस हजार वर्ष बाद जिनशासन का विच्छेद हो जाना है - हुआ है । आज कोई भी पूरी तरह से आगम के नियमों का पालन नहीं अर्थात् दोनों सम्प्रदायों को भी समाप्त हो जाना है । इसका अर्थ यह हुआ कर कर रहा है । अत: निष्पक्ष विद्वान् आगम ग्रन्थ और युगीन कि दोनों सम्प्रदायों के जीवनकाल में यह विवादास्पद घटना घटित ही परिस्थितियों को दृष्टिगत रखकर वस्त्र-पात्र सम्बन्धी एक आचार-संहिता नहीं होना है तो फिर उस सम्बन्ध में व्यर्थ विवाद क्यों किया जाये । क्या प्रस्तुत करे जिसे मान्य कर लिया जाये ।
इतना मान लेना पर्याप्त नहीं है- जो भी राग-द्वेष की वृत्तियों से ऊपर
उठ सकेगा क्रोध, मान, माया और लोभ रूपी कषायों को जीत सकेगा, स्त्रीमुक्ति का प्रश्न और समाधान
वही मुक्ति का अधिकारी होगा। कहा भी है-कषायमुक्ति मुक्तिकिलरेव । श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं का दूसरे विवाद का मुद्दा स्त्रीमुक्ति का है। जहाँ तक इस सम्बन्ध में आगमिक मान्यता का प्रश्न केवली कवलाहार का प्रश्न और समाधान है श्वेताम्बर आगम साहित्य और यापनीय संघ का साहित्य जो मुनि के श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्पराओं में विवाद का तीसरा मुद्दा दिगम्बरत्व का समर्थक है, इस बात को स्वीकार करता है कि स्त्री और केवली के आहार-विहार से सम्बन्धित है। इस सम्बन्ध में वैज्ञानिक और सवस्त्र की मुक्ति सम्भव है । यद्यपि कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थों और तत्त्वार्थ व्यावहारिक दृष्टि से श्वे० परम्परा का मत अधिक युक्तिसंगत लगता है, की दिगम्बर आचायों की टीकाओं में स्त्रीमुक्ति का निषेध है किन्तु कुछ यद्यपि केवली या सर्वज्ञ को अलौकिक व्यक्तित्व से युक्त मान लेने पर विद्वानों के अनुसार दिगम्बर ग्रन्थ मूलाचार और धवला टीका में इसके यह बात भी तर्कगम्य लगती है कि उसमें आहार आदि की प्रवृत्ति नहीं
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
होनी चाहिए क्योंकि आहार, वचन आदि की प्रवृत्तियाँ इच्छापूर्वक होंगी। पूर्व दूसरी, तीसरी शताब्दी तक रचित जैन ग्रन्थ जिन-प्रतिमा और किन्तु जो वीतराग हैं, अनासक्त हैं, उनकी कोई इच्छा नहीं हो सकती। उसके पूजन के सम्बन्ध में मौन ही हैं । दिगम्बर परम्परा के कुन्दकुन्द वह तो शरीर से भी निरपेक्ष है, अत: उसमें शरीर-रक्षण का भी कोई आदि के आगमरूप मान्य ग्रन्थों में जिन-प्रतिमा सम्बन्धी क्वचित् प्रयत्न होगा ऐसा मानना भी उचित नहीं है । आश्चर्यजनक यह है कि निर्देश हैं, किन्तु ये सभी ईसा के बाद की रचनाएँ हैं । श्वेताम्बर आगम-साहित्य में भी केवल भगवती के प्रसंग जो प्रक्षिप्त ही जैनधर्म में मूर्तिपूजा की प्राचीनता को सिद्ध करने के लिए यह लगता है, को छोड़ कर कहीं ऐसा स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है जिसमें कहा जाता है कि महावीर के जीवनकाल में ही उनकी चन्दन की एक कैवल्य की प्राप्ति के पश्चात् महावीर कहीं आहार लेने गये हों या उनके प्रतिमा का निर्माण हुआ था, जिसमें उन्हें राजकुमार के रूप में तपस्या लिये आहार लाया गया हो या उन्होंने आहार ग्रहण किया हो-यह बात करते हुए अंकित किया गया था । चूँकि यह प्रतिमा उनके जीवनकाल श्वेताम्बर परम्परा के लिए भी विचारणीय अवश्य है । आखिर ऐसे में ही निर्मित हुई थी, इसलिए इसे जीवन्तस्वामी की प्रतिमा कहा गया उल्लेख क्यों नहीं मिलते।
है। जीवन्तस्वामी की प्रतिमा का उल्लेख संघदासगणिकृत वसुदेवहिण्डी, यद्यपि भावनात्मक एकता के दृष्टि से इस विवाद को हल जिनदासकृत आवश्यकचूर्णि और हरिभद्रसूरि की आवश्यकवृत्ति में है, करना हो तो इतना मान लेना पर्याप्त होगा कि केवली स्वत: आहार पर ये सभी परवर्ती काल अर्थात् ईसा की छठी, सातवीं और आठवीं आदि की प्राप्ति की इच्छा या प्रयत्न नहीं करता है । वर्तमान संदर्भो में शताब्दी की रचनाएँ हैं । उनके कथन की प्रामाणिकता को केवल श्रद्धा इस बात को अधिक महत्त्व देना इसलिए भी उचित नहीं है कि दोनों के के आधार पर ही स्वीकार किया जा सकता है । जीवन्तस्वामी की प्राप्त अनुसार अगले ८२००० वर्ष तक भरतक्षेत्र में कोई केवली नहीं होगा। सभी प्रतिमाएँ पुरातात्त्विक दृष्टि से पाँचवीं, छठी शताब्दी की हैं।
जीवन्तस्वामी की प्रतिमा के सम्बन्ध में डा० मारुतिनन्दनप्रसाद तिवारी मूर्तिपूजाा का प्रश्न
का यह निष्कर्ष द्रष्टव्य है ‘पाँचवीं, छठी शताब्दी ईस्वी के पहले जैन धर्म के सम्प्रदायों में एक मुख्य विवादास्पद प्रश्न जीवन्तस्वामी के सम्बन्ध में हमें किसी प्रकार की ऐतिहासिक सूचना मूर्तिपूजा के सम्बन्ध में है । दिगम्बर सम्प्रदाय के तारणपन्थी और प्राप्त नहीं होती है।' इस प्रकार कोई भी ऐसा साहित्यिक और श्वेताम्बर सम्प्रदाय के स्थानकवासी एवं तेरापन्थी मूर्तिपूजा का विरोध पुरातात्त्विक साक्ष्य प्राप्त नहीं होता है जिसके आधार पर महावीर के पूर्व करते हैं । मूर्तिपूजा को लेकर अधिक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि जैनधर्म अथवा उनके जीवनकाल में जिन-प्रतिमा की उपस्थिति को सिद्ध किया में मूर्तिपूजा का प्रचलन कब से हुआ। यह बात स्पष्ट है कि ऐतिहासिक जा सके। दृष्टि से प्राचीनतम आगम आचरांग, सूत्रकृतांग, दशवैकालिक, यद्यपि पुरातात्त्विक साक्ष्यों के आधार पर निश्चित रूप से यह उत्तराध्ययन आदि में मूर्ति या मूर्तिपूजा के सन्दर्भ में कोई स्पष्ट उल्लेख कहा जा सकता है कि जिन-प्रतिमा का निर्माण महावीर के निर्वाण के नहीं पाये जाते हैं । अन्तकृत आदि कुछ परवर्ती आगमों में यक्ष आदि लगभग डेढ़ सौ-दो सौ वर्ष पश्चात् अर्थात् ईसा पूर्व की तीसरी, चौथी की प्रतिमाओं और उनके पूजन का उल्लेख तो है किन्तु जिन-प्रतिमा के शताब्दी में हो गया था। सबसे प्राचीन उपलब्ध जिन-प्रतिमा लोहनीपुर पूजन का कोई उल्लेख नहीं है । देवलोकों में शाश्वत जिन-प्रतिमा की है जो पटना संग्रहालय में सुरक्षित है। यह प्रतिमा लगभग ईसा पूर्व सम्बन्धी उल्लेख तथा सूर्याभदेव और द्रौपदि के द्वारा जिन-प्रतिमा के तीसरी शताब्दी की है । यद्यपि मूर्ति का शिरोभाग अनुपलब्ध है किन्तु पूजन सम्बन्धी उल्लेख भगवती एवं ज्ञाताधर्मकथा में प्राप्त होते हैं, मूर्ति की दिगम्बरता और कायोत्सर्ग मुद्र उसे जिन-प्रतिमा सिद्ध करती किन्तु विशाल आगम-साहित्य की दृष्टि से ये सब उल्लेख भी अत्यल्प है। मौर्ययुगीन चमकदार आलेप के अतिरिक्त उसी स्थल के उत्खनन ही कहे जा सकते हैं। दूसरे विद्वानों द्वारा इन आगम ग्रन्थों का रचनाकाल से प्राप्त मौर्ययुगीन ईटें एवं एक रजत आहत मुद्रा भी मूर्ति के आचारांग आदि की अपेक्षा काफी परवर्ती माना जाता है । जिन-प्रतिमा मौर्यकालीन होने के समर्थक साक्ष्य हैं । इसी काल की कुछ अन्य जिनके पूजन के सम्बन्ध में विस्तृत निर्देश हमें उत्तरकालीन रचनाओं, प्रतिमा एवं तत्सम्बन्धी हाथी-गुंफा के शिलालेख भी उपलब्ध हैं । ईसा आगमिक नियुक्तियों, चूर्णियों, भाष्यों, वृत्तियों और टीकाओं में ही पूर्व दूसरी और प्रथम शताब्दी की तो अनेक जिन-प्रतिमाएँ और उपलब्ध होते हैं । महावीर के पूर्व जिन-प्रतिमाओं के अस्तित्व का कोई आयागपट मथुरा से प्राप्त हुए हैं जिनसे यह स्पष्ट रूप से सिद्ध होता साहित्यिक एवं पुरातात्विक साक्ष्य भी उपलब्ध नहीं है । यद्यपि हड़प्पा है कि जैनधर्म में मूर्तिपूजा का प्रचलन ईसा से लगभग तीन सौ वर्ष पूर्व से प्राप्त एक नग्नपुरुष की मृत्तिकामूर्ति को जिन-प्रतिमा कहा जाता है प्रारम्भ हो गया था। चाहे यह बात विवादास्पद हो सकती है कि महावीर किन्तु वह जिन-प्रतिमा है, यह बात विवादस्पद ही है। महावीर की ने जिन-प्रतिमा के पूजन का उपदेश दिया था या नहीं ? किन्तु यह जीवनचर्या के सम्बन्ध में आचारांग, कल्पसूत्र आदि में जो प्राचीनतम निर्विवाद सत्य है कि जैनधर्म में जिन-प्रतिमा के निर्माण और पूजन की उल्लेख उपलब्ध हैं उसमें उनके किसी जिन-मन्दिर में जाने या जिनमूर्ति परम्परा लगभग बाईस सौ, तेईस सौ वर्षों से निरन्तर चली आ रही है। के पूजन करने का उल्लेख नहीं है, यद्यपि यक्षायतनों और यक्ष-चैत्यों पुनः जिन-प्रतिमाएँ और जिन-मन्दिर जैनधर्म और जैन संस्कृति और में उनके जाने और विश्राम करने के उल्लेख प्रचुरता से मिलते हैं । ईसा इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण धरोहर हैं जिसे अस्वीकार करने का अर्थ
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जैन एकता का प्रश्न
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अपने इतिहास और संस्कृति को ही अस्वीकार करना होगा। पत्थर का चुम्बन, हजरत मुहम्मद के पवित्र बाल के प्रति मुस्लिम
यह भी एक ऐतिहासिक तथ्य है कि जैनधर्म की श्वेताम्बर और सम्प्रदाय की आस्था, कब्र-पूजा और मुहर्रम ये सब प्रतीकपूजा के ही तो दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में मूर्तिपूजा का विरोध सोलहवीं शताब्दी से रूप हैं। अधिक क्या मूर्तिपूजा के विरोधी जैनधर्म के स्थानकवासी, प्रारम्भ हुआ। मूर्तिपूजा-विरोधी यह आन्दोलन इस्लामधर्म से प्रभावित तेरापंथी और तारणपंथी सम्प्रदायों के अनुयायियों के घरों में भी अपने है । इस बात की पुष्टि इस बात से भी होती है कि जैनधर्म में मूर्तिपूजा पूज्य माता-पिताओं, धर्म-गुरूओं और साधु-साध्वियों के चित्रों को का विरोध करने वाले लोंकाशाह और तारण स्वामी दोनों ही मुस्लिम सुविधा से देखा जा सकता है । स्थानकवासी और तेरापंथी परम्परा के शासकों के राज्याधिकारी थे। किन्तु यह मानना भी कि केवल मुसलमानों अधिकांश घर अब अपने आचार्यों के चित्रों से मंडित हैं और उन चित्रों के प्रभाव के कारण जैनधर्म में मूर्तिपूजा के विरोध प्रारम्भ हुआ पूरी तरह के प्रति उनके मन में श्रद्धा और आदर का भाव है । लेखक ने स्वयं सत्य नहीं होगा । जैनधर्म में मूर्तिपूजा के विरोध के कुछ आन्तरिक अनेक स्थानों पर स्थानकवासी और तेरापंथी आचार्यों के चित्रों के समीप कारण भी थे। मूर्तिपूजा के नाम बढ़ता हुआ आडम्बर, हिंसा का समर्थन उनके अनुयायियों को धूप-दीपदान करते देखा है । अनेक स्थानकवासी, और जटिल कर्मकाण्ड भी इस विरोध में सहायक बने हैं। तेरापंथी और तारणपंथी तीर्थयात्रा करते हुए आसानी से देखे जा सकते
मूर्तिपूजा सम्बन्धी जो विवाद आज जैन सम्प्रदायों में है, हैं। यद्यपि निर्गुणोपासना या भावाराधना एक उच्च स्थिति है किन्तु मूर्ति उसका निर्णय यदि शास्त्र की अपेक्षा सामान्य बुद्धि के आधार पर करें का पूर्ण विरोध समुचित नहीं है । मूर्तियों और चित्रों के प्रति मनुष्य का तो किसी एक समन्वयात्मक निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है । उस आकर्षण और श्रद्धाभाव स्वाभाविक है। सम्बन्ध में उसकी उपयोगिता को ही आधार बनाकर चलना होगा। यह सही है कि मनुष्यों की भावनाओं के पवित्रीकरण एवं निष्पक्ष शोधों से यह बात स्पष्टरूप से प्रमाणित हो चुकी है कि जैनधर्म वीतराग के गुणों का स्मरण दिलाने में मूर्ति निमित्त कारण अवश्य है। में मूर्ति और मूर्ति-पूजा का विकास क्रमिकरूप से हुआ है । पुरातात्त्विक वह ध्यान का आलम्बन है तथा हमारे हृदयों को पवित्र भावनाओं और और साहित्यिक साक्ष्य इसके प्रमाण हैं । दूसरे यह भी सत्य है कि श्रद्धा से आपूरित करती है । अत: मूर्ति का ऐकान्तिक विरोध भी उचित मर्तिपूजा को लेकर परवर्तीयुग में जितने आडम्बर और कर्मकाण्ड खड़े नहीं है । यद्यपि मूर्ति को मूर्तिरूप में ही स्वीकार करना चाहिए। वह किये गये हैं, उन्होंने जैनधर्म की मूलात्मा पर कुठाराघात किया है। वीतराग-प्रभु या भगवान् नहीं । मूर्ति भगवान् है-यह मानने के कारण उन्होंने एक सहज एवं सरल साधना पद्धति को जटिल बनाया है। अनेक अन्धविश्वासों को बढ़ावा मिलता है। मूर्तियों के सम्बन्ध में अनेक मूर्तिपूजा के साथ जुड़नेवाले इस कर्मकाण्ड पर ब्राह्मण संस्कृति और चमत्कारिक घटनाएँ प्रचलित हैं, वे चाहे एक बार हमारी श्रद्धा को भक्तिमार्ग का प्रभाव है । चक्रेश्वरी, मणिभद्र एवं यक्ष-यक्षी, भैरव आदि आन्दोलित करती हों किन्तु जैनधर्म की साधना और उपासना से उसका की पूजा एवं यज्ञ जैन-सिद्धान्तों की मूलात्मा के साथ मेल नहीं खाते कोई सम्बन्ध नहीं है कि जिसकी वे प्रतिमाएँ हैं, वह तो वीतराग है - हैं । यद्यपि जैनों की आस्था को दूसरी ओर केन्द्रित होता देखकर उसका इस चमत्कार प्रदर्शन आदि से कोई सम्बन्ध नहीं है। यदि यह जैनाचायों को यह सब करना पड़ा था।
कहा जाए कि जिन शासन के रक्षक देव ऐसा करते हैं तो वे उन यह निर्विवाद तथ्य है कि मानव जाति के इतिहास में प्रारम्भ अतिशय क्षेत्रों की प्रतिमाओं जिन्हें लेकर दोनों पक्ष न केवल झगड़ते हैं, से ही मूर्तियों और प्रतिकृतियों का महत्व रहा है। आदि-युग के शैलचित्र अपितु उस प्रतिमा के साथ भी अशोभनीय कृत्य करते हैं सम्बन्ध में
और गुहाचित्र इस बात के प्रमाण हैं कि मानवीय सभ्यता के प्रारम्भ से कोई ऐसा चमत्कार क्यों नहीं दिखाते, जिससे विवाद शांत हो जाये ओर ही प्रतिकृतियों के निर्माण ने मनुष्य को आकर्षित किया है। प्रतीक पूजा सही स्थिति प्रकट हो जाये । क्या जिन और जिनशासन की इस फजीहत का इतिहास बहुत पुराना है । वस्तुत: मानवीय सभ्यता प्रतीकात्मक को देखकर उन्हें तरस नहीं आता ? अत: मूर्ति को चमत्कार से नहीं, कला के सहारे ही विकसित हुई है। हमारी भाषा और हमारे शब्द-संकेत साधना से जोड़ें। जिनके आधार पर हमारे धर्मशास्त्र रचे गये हैं, मानवीय भावनाओं और जहाँ तक श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं की मूर्तियों की विचारों की अभिव्यक्ति की प्रतीकात्मक शैली हैं। चाहे हम वृक्षों की भिन्नता के समाधान का प्रश्न है, यह सत्य है कि प्रारम्भ में श्वेताम्बर जैन पूजा करें, स्तूपों की पूजा करें, चाहे शास्त्रों की पूजा करें या मूर्तियों की भी नग्न मूर्तियों की ही पूजा करते हैं । मथुरा की दिगम्बर मूर्तियाँपूजा करें, सभी प्रतीक पूजा के रूप हैं । वास्तविकता यह है कि मानव श्वेताम्बर आचार्यों के द्वारा ही प्रतिष्ठित थीं। उनके गच्छ और शाखाओं अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए प्रतीकों, चित्रों और प्रतिकृतियों के नाम नन्दी और कल्पसूत्र की पट्टावलियों के अनुरूप ही हैं । वहाँ जो (मूर्तियों) का उपयोग करता रहा है । मात्र यही नहीं, वह अपने पूज्यजनों कण्ह नामक जैन मुनि की मूर्ति मिली है, कटिवस्त्र के चिह्न से युक्त नहीं के प्रतीक चिह्नों और उनकी प्रतिकृतियों के प्रति प्राचीनकाल से ही श्रद्धा है, अत: श्वेताम्बर और दिगम्बर मूर्तियों की यह भिन्नता संघभेद के बहुत
और सम्मान का भाव रखता आया है। आदिम जातियों में तथा हिन्दू बाद की घटना है । आभूषण, अलंकरण और स्फटिक नेत्र आदि का धर्म में प्रतीकपूजा प्रचलित है ही, किन्तु मूर्तिपूजा के कट्टर विरोधी प्रयोग और भी बाद में हुआ है । निष्पक्ष दृष्टि से विचार करने पर यह इस्लाम धर्म में भी किसी रूप में प्रतीकपूजा प्रचलित है । काबे के पवित्र लगता है कि वीतराग प्रतिमा पर यह अंग प्रशोभन उचित नहीं है । मूर्ति
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और मन्दिर के साथ जो परिग्रह जुड़ता जा रहा है वह युक्तिसंगत नहीं है। श्वेताम्बर मुनि श्री न्यायविजय जी ने भी इसका विरोध किया था । यही सब विवादों का मुख्य कारण बन रहा है।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
एकता की दृष्टि से यही अच्छा विकल्प होगा कि पद्मासन की ध्यान मुद्रायुक्त प्रतिमाओं को ही अपनाया जाए और उस पर कन्दोरा, लंगोट, स्फटिक नेत्र आदि का उपयोग न हो। यद्यपि इसे तभी अपनाना होगा जबकि दोनों सम्प्रदाय अपना विलीनीकरण कर लें अन्यथा ऐसी मूर्तियों को लेकर जैसे विवाद आज है, वैसे विवाद बाद में भी उठ खड़े होगें ।
जहाँ तक मूर्तिपूजा सम्बन्धी विधि-विधान का प्रश्न है, उसमें भी आडम्बर बाद में ही बढ़ा है, अतः अच्छा यही होगा कि दिगम्बर परम्परा के तेरापंथ में जो अचित द्रव्यों से पूजा का विधान है उसे स्वीकार कर लिया जाये । मूर्ति की द्रव्य पूजा में हिंसा अल्पतम हो, यह बात ध्यान में रखना आवश्यक है। जिन मन्दिरों में यज्ञों को तो तत्काल बन्द कर देना चाहिए, यह पूर्णत: ब्राह्मण संस्कृति का प्रभाव है। मात्र यही नहीं, द्रव्यपूजा की अपेक्षा भावपूजा पर और प्रभु भक्ति के माध्यम से प्रभु के गुणों को जीवन में उतारने का लक्ष्य अधिक रहे। जिन-प्रतिमा हमारी भावनाओं की विशुद्धि का साधन है और एक साधन के रूप में उसका स्थान है। यहाँ यह भी ध्यान रखना होगा कि मूर्ति और उसकी द्रव्यपूजा की आवश्यकता, साधना और ज्ञान प्राथमिक स्तर पर उसी प्रकार है, जिस प्रकार वर्णमाला का अर्थबोध कराने के लिए प्राथमिक स्तर पर चित्रों की सहायता अपेक्षित है ।
मुखवस्त्रिका के प्रश्न का समन्वय
में
श्वेताम्बर सम्प्रदायों में एक विवाद मुखवस्त्रिका को लेकर भी है । स्थानकवासी और श्वेताम्बर तेरापंथी डोरा डालकर उसे सदैव ही मुखपर बाँधे रहते हैं । मुखवस्त्रिका का विकास महावीर के परवर्ती काल हुआ है। ऐसा कोई भी ठोस प्रमाण नहीं है, जिससे सिद्ध हो कि महावीर ने मुखवस्त्रिका रखी थी। आचारांग के प्राचीनतम अंश प्रथम श्रुतस्कन्ध में मुखवस्त्रिका का उल्लेख नहीं है । यद्यपि लगभग दो हजार वर्ष पूर्व से इसका प्रयोग श्वेताम्बर परम्परा में होता रहा है, ऐसा श्वेताम्बर आगम साहित्य से सिद्ध होता है। तथापि डोरा डालकर बाँधने के सम्बन्ध में ठोस ऐतिहासिक प्रमाण १७-१८ वीं के पूर्व के नहीं मिले हैं। मुखवत्रिका के उपयोग का मुख्य उद्देश्य तो वायुकायिक जीवों की रक्षा है । डोरा डालकर उसका प्रयोग करना मात्र एक सुविधा की बात है। एकता की दृष्टि से इस समस्या का हल यही हो सकता है - प्रवचन आदि के प्रसंगों पर उसे बांधा जाये, अन्य अवसरों पर बातचीत करते समय उसका सावधानीपूर्वक उपयोग किया जाये ।
दया दान के विवाद का प्रश्न
श्वेताम्बर तेरापंथ का जैन समाज के अन्य सम्प्रदायों से मुख्य विवाद दया दान के प्रश्न को लेकर है। यद्यपि आज यह कहा जाता
है कि आचार्य भिक्षु ने स्थानकवासी समाज के साधुओं में आई आचारगत विकृतियों को दूर करने के लिए क्रान्ति की थी, चाहे इस बात में आंशिक सत्यता भी हो किन्तु मूल बात तो विचारगत भिन्नता की थी। मूल प्रश्न यही था कि लोक-मंगल के उन कार्यों को जिनमें अल्पतम हिंसा की भी सम्भावना हो, धर्म के अन्तर्गत माना जाये अथवा नहीं ? आचार्य भिक्षु ने ऐसे कार्यों को स्पष्टरूप से धर्म साधना के अन्तर्गत नहीं माना था। चाहे उनकी इस मान्यता के पीछे निरपेक्ष अहिंसा के सिद्धान्त का और तत्सम्बन्धी सूत्रकृतांग आदि के कुछ आगमिक प्रमाणों का बल भी हो, किन्तु यह अवधारणा मनुष्य की जन कल्याणकारी प्रवृत्तियों के विरोध में जाती है और लोक व्यवहार में जैनधर्म को आलोचना का विषय बनाती है। यही कारण है कि तेरापंथ परम्परा के व्यवहार कुशल आचार्य तुलसी ने इस वास्तविकता को समझा और लोक व्यवहार के नाम पर ही सही, लोक कल्याणकारी प्रवृत्तियों को अपने धर्म - लोक में प्रोत्साहित किया है। इस सम्बन्ध में कट्टर तेरापंथियों ने उनकी आलोचना भी की है । किन्तु उन्होंने साहसपूर्वक यह परिवर्तन किया है। राणावास की शिक्षा संस्थाएँ और लाइन का आयुर्वेदिक चिकित्सा केन्द्र इस बात का स्पष्ट प्रमाण है। आज कोई भी तेरापंथी मुनि अन्य सम्प्रदाय के मुनियों को आहार देने में या असंयती जनों की सेवा करना पाप है • ऐसा स्पष्ट उद्घोष नहीं करता है। यह एक शुभ लक्षण है इसके कारण तेरापंथ और दूसरे जैन सम्प्रदायों के बीच की दूरी कम हुई है और वह जन साधारण में आलोचना का विषय बनने से बचा है। व्यवहार के क्षेत्र में सेवा और दान का महत्त्व है, इतना तो हमें मानकर चलना होगा ।
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हमारी एकता का स्वरूप क्या हो ?
एकता की बात करना सहज है किन्तु वह एकता किस प्रकार सम्भव होगी, यह बता पाना कठिन है। एकता का एक रूप तो वह हो सकता है जिसमें सभी अपने नाम रूप खोकर एक हो जायें अर्थात् सभी सम्प्रदाय विलीन होकर जैनधर्म और समाज का एक ही रूप अस्तित्व में रहें । एकता का यह स्वरूप आदर्श तो हो सकता है इसकी व्यवहार्यता सन्देहास्पद है । आज सम्प्रदायों की जड़ें इतनी गहरी जम चुकी हैं कि उन्हें पूरी तरह उखाड़ पाना सम्भव नहीं है। सम्प्रदायों
के
हैं।
अस्तित्व के साथ ही लोगों के हित और सम्मान के प्रश्न जुड़े हुए बाहर से चाहे हम सब एकता की बातें करें किन्तु भीतर से कोई भी अपने अस्तित्व और अहं को विलीन करने को तैयार नहीं हैं। जब भी हमें अपने हितों या अस्तित्व के प्रति खतरा नजर आता है, हम 'धर्म खतरे में है' का नारा लगाना प्रारम्भ कर देते हैं। जब आज हम एक मूर्ति या मन्दिर पर से भी अपना अधिकार छोड़ना नहीं चाहते हैं, तो क्या यह सम्भव है कि हम अपनी सम्पूर्ण सामाजिक एवं धार्मिक सम्पत्ति को समर्पित करने को सहज ही तैयार हो जाएँगे । जब स्थानकवासी मुनि वर्ग की अपनी बनाई हुई एकता को कायम नहीं रख सका, तो यह कैसे कहा जा सकता है कि सभी सम्प्रदायों के मुनि और श्रावक अपनी-अपनी
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जैन एकता का प्रश्न
५८९ धारणाओं को त्याग कर एक सूत्र में बँध जाएँगें ।
का एक न्यायाधिकरण (पंचायत) बना दिया जाए और सभी विवाद उसे ___ जैन समाज में और विशेषरूप से स्थानकवासी समाज में अभी सुपुर्द कर दिये जायें । वह विवादों के तथ्यों की समीक्षा करके अन्त में भी कुछ ऐसे आचार्य एवं प्रमुख मुनिगण हैं जो दूसरे सम्प्रदाय के जो निर्णय दे, उसे मान्य कर लिया जाए । मूर्ति और मन्दिर सम्बन्धी आचार्यों एवं मुनियों के साथ बैठने, प्रवचन देने, उनसे विचार-चर्चा निर्णयों में जैसा कि पूर्व में तीर्थंकर के सम्पादक डॉ० नेमीचंदजी ने करने में अपने सम्यक्त्व की हानि समझते हैं । हमारा अहं एक पाट सूचित किया था - पुरातत्त्वविदों की सहायता ली जा सकती है। स्पष्ट से भी सन्तुष्ट नहीं होता-पाट पर पाट लगाया जाता हैं जबकि कहीं एवं तथ्यात्मक साक्ष्यों के आधार पर जिन विवादों का निराकरण सम्भव आर्यिकाओं को और कहीं तो सामान्य मुनियों को भी उनके सम्मुख भूमि न हो, उनके सम्बन्ध में विभाजन की नीति अपना ली जाए । इस सम्बन्ध पर बैठना होता हैं । अनेक में यह ललक होती है कि दूसरे समाज के में यदि दोनों सम्प्रदाय के लोग उदारदृष्टि का परिचय दें, तो यह प्रतिष्ठित आचार्य, विद्वान् और राजनेता उनके समीप तो आयें किन्तु उन्हें असम्भव नहीं है । बराबरी का आसन देने में हम संकोच का अनुभव करते हैं । अनेक बार (२) परस्पर एक दूसरे की आलोचना, पर्चेबाजी या एक दूसरे ऐसी घटनाएँ आलोचना का विषय बनी हैं और उन्होंने पारस्परिक के विरुद्ध समाचार पत्रों में लेखन बन्द कर दिया जाए। वैमनस्य की खाई को अधिक चौड़ा किया है। अपने को सम्यक्तवी (३) विभिन्न सम्प्रदायों के आचार्यों के पारस्परिक मिलन एवं अपने को संयती (साधु) और दूसरे को असंयती (साधु), अपने को सामूहिक प्रवचनों के लिए प्रयास किये जाएँ । वे मिलन के समय एक शुद्धाचारी और दूसरों को शिथिलाचारी मानना या कहना भी भावात्मकता. दूसरे को समान भाव से आदर प्रदान करें। प्रवचन मंच पर सभी को की सबसे बड़ी बाधा है, अत: इस दृष्टि को सबसे पहले छोड़ना होगा। बराबरी का स्थान दिया जाए। मुनि आचार में तरतमता महावीर से लेकर आज तक रही है और भविष्य (४) महावीर जयन्ती, क्षमापना आदि पर्यों को सामूहिक रूप में भी रहेंगी। किन्तु व्यावहारिक जीवन में यदि इस आधार पर भेदभाव से मनाया जाये । पर्व-तिथियों, संवत्सरी आदि की एकरूपता का प्रयत्न किया जाएगा, तो सामाजिक एकता खण्डित होगी । क्या एक ही किया जाये। सम्प्रदाय के सभी साधु ज्ञान, तपस्या, साधना आदि की दृष्टि से समान (५) सर्व सम्प्रदायों की भारत जैन महामण्डल या जैन महा होते हैं? यदि उनमें तरतमता होते हुए भी उनके प्रति समान व्यवहार सभा जैसी कोई संस्था हो जो पारस्परिक विवादों को सुलझाने के साथ होता है, तो फिर अन्य सम्प्रदायों के प्रति समादर एवं समानता का ही जैन समाज के सामान्य हितों की रक्षा का प्रयत्न करें तथा भावी व्यवहार क्यों नहीं किया जा सकता । यद्यपि यह प्रसन्नता का विषय है एकता के लिए आधारभूमि प्रस्तुत करें। कि आज अधिकांश मुनियों में पारस्परिक मिलन और समादर की भावना दूसरे चरण में हमें विभिन्न उपसम्प्रदायों एवं गच्छों के विलीनीकरण बढ़ी है और इसके सुफल भी सामने आये हैं, पुरानी कटुता और का प्रयास करना होगा -- अर्थात् स्थानकवासी, श्वेताम्बर मूर्तिपूजक एवं आलोचना-प्रत्यालोचना में कमी हुई है, फिर भी अभी ऐसे प्रयत्नों की तेरापन्थी अपने आवान्तर मतभेदों को त्यागकर अपना संगठन तैयार आवश्यकता है जिससे विविध सम्प्रदाय के आचार्य एक दूसरे के निकट करें। इसी चरण में दिगम्बर सम्प्रदाय भी अपने आवान्तर भेदों को आ सकें ताकि भावात्मक एकता की दिशा में हम आगे बढ़ सकें । हमारी समाप्त कर एकरूप हो जायें । यह कार्य दुःसाध्य तो नहीं है, किन्तु एकरूपता के आदर्श स्वरूप का प्रस्तुतीकरण तो हमने विवादस्पद श्रमसाध्य अवश्य है। प्रबुद्ध मुनियों की देखरेख में निष्पक्ष विद्वानों की प्रश्नों की चर्चा करते हुए किया है, किन्तु उनकी व्यवहार्यता आज ऐसी समिति बना दी जाये जो प्रत्येक सम्प्रदाय के लिए आगम और कितनी होगी? यह बता पाना कठिन है। अत: एकता के आदर्श की वर्तमान परिस्थिति दोनों को ध्यान में रखकर एक आचार संहिता प्रस्तुत
ओर बढ़ने के लिए हमें कुछ चरण निश्चित कर लेने होंगें । प्रथम चरण करें । जब धीरे-धीरे इन आवान्तर सम्प्रदायों के संगठन सुदृढ़ हो जायें में हमें वे कार्य करने होगें, जिनसे पारस्परिक कटुता कम को। इस तो अन्त में तीसरे चरण में सर्व सम्प्रदायों के विलीनीकरण के लिए सम्बन्ध में निम्न उपाय करने होंगे
जैनधर्म का सर्वमान्य स्वरूप प्रस्तुत किया जाये और चारों सम्प्रदाय (१) मूर्तियों, मन्दिरों और तीर्थों अथवा अन्य सम्पत्ति अपने नाम रूपों को विलीन कर उस एक ही महासंघ के अंग बन सम्बन्धी विवाद यथाशीघ्र निपटा लिये जाएँ। इसके लिए निष्पक्ष लोगों जायें।
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NGS
सप्तमखण्ड
परम्परा और इतिहास
लेखक
डॉ० सागरमल जैन
सम्पादक
डॉ० अरुण प्रताप सिंह डॉ० शिव प्रसाद
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श्रमण एवं वैदिक धारा का विकास एवं पारस्परिक प्रभाव
भारतीय संस्कृति एक समन्वित संस्कृति है। इसकी संरचना में चैतसिक स्तर पर स्वतन्त्र है, मुक्त है। मनोविज्ञान की भाषा में जहाँ एक वैदिकधारा और श्रमणधारा का महत्त्वपूर्ण अवदान है। वैदिकधारा मूलतः ओर वह वासनात्मक अहं (ID) से अनुशासित है, तो दूसरी ओर प्रवृत्तिप्रधान और श्रमणधारा निवृत्तिप्रधान रही है। वैदिकधारा का आदर्शात्मा (Super Ego) से प्रभावित भी है। वासनात्मक अहं उसकी प्रतिनिधित्व वर्तमान में हिन्दूधर्म करता है जबकि श्रमणधारा का शारीरिक माँगों की अभिव्यक्ति का प्रयास है तो आदर्शात्मा उसका प्रतिनिधित्व जैन और बौद्ध धर्म करते हैं। किन्तु यह समझना भ्रान्तिपूर्ण आध्यात्मिक स्वभाव है, उसक निज स्वरूप है जो निर्द्वन्द्व एवं निराकुल होगा कि वर्तमान हिन्दूधर्म अपने शुद्ध रूप में मात्र वैदिक परम्परा का चैतसिक समत्व की अपेक्षा करता है। उसके लिये इन दोनों में से किसी अनुयायी है। आज उसने श्रमणधारा के अनेक तत्त्वों को अपने में समाविष्ट की भी पूर्ण अपेक्षा सम्भव है। उसके जीवन की सफलता इनके बीच के कर लिया है। अत: वर्तमान हिन्दूधर्म वैदिकधारा और श्रमणधारा का एक सन्तुलन बनाने में निहित है। उसके वर्तमान अस्तित्व के ये दो छोर हैं। समन्वित रूप है और उसमें इन दोनों परम्पराओं के तत्त्व सन्निहित हैं। उसकी जीवन-धारा इन दोनों का स्पर्श करते हुए इनके बीच बहती है। इसी प्रकार यह कहना भी उचित नहीं होगा कि जैन धर्म और बौद्धधर्म मूलतः श्रमण-परम्परा के धर्म होते हुए भी वैदिकधारा या हिन्दूधर्म से प्रवर्तक एवं निवर्तक धर्मों का मनोवैज्ञानिक कारण पूर्णत: अप्रभावित रहे हैं। इन दोनों धर्मों ने भी वैदिक धारा के विकसित मानव-जीवन में शारीरिक विकास वासना को और चैतसिक धर्म से कालक्रम में बहुत कुछ ग्रहण किया है।
विकास विवेक को जन्म देता है। प्रदीप्त-वासना अपनी सन्तुष्टि के लिये यह सत्य है कि हिन्दूधर्म प्रवृत्तिप्रधान रहा है। उसमें भी यज्ञ-याग 'भोग' की अपेक्षा रखती है तो विशुद्ध-विवेक अपने अस्तित्व के लिये और कर्मकाण्ड की प्रधानता है, फिर भी उसमें संन्यास, मोक्ष और वैराग्य 'संयम' या विराग की अपेक्षा करता है। क्योंकि सराग-विवेक सही निर्णय का अभाव नहीं है। अध्यात्म, संन्यास और वैराग्य के तत्त्वों को उसने श्रमण- देने में अक्षम होता है वासना भोगों पर जीती है और विवेक विराग पर। परम्परा से न केवल ग्रहण किया है अपितु उन्हें आत्मसात भी कर लिया यहीं दो अलग-अलग जीवनदृष्टियों का निर्माण होता है। एक का आधार है। यद्यपि वेदकाल के प्रारम्भ में ये तत्त्व उसमें पूर्णत: अनुपस्थित थे, किन्तु वासना और भोग होते हैं तो दूसरी का आधार विवेक और विराग। श्रमण
औपनिषदिक काल में उसमें श्रमण-परपरा के इन अनेक तत्त्वों को मान्यता परम्परा में इनमें से पहली को मिथ्या-दृष्टि और दूसरी को सम्यक्-दृष्टि प्राप्त हो चुकी थी। ईशावास्योपनिषद् सर्वप्रथम वैदिकधारा और श्रमणधारा के नाम से अभिहित किया गया है। उपनिषद् में इन्हें क्रमश: प्रेय और के समन्वय का प्रयास है। आज हिन्दूधर्म में संन्यास, वैराग्य, तप-त्याग, श्रेय कहा गया है। कठोपनिषद् में ऋषि कहता है कि प्रेय और श्रेय दोनों ध्यान और मोक्ष की जो अवधारणाएँ विकसित हुई हैं, वे सभी इस तथ्य ही मनुष्य के सामने उपस्थित होते हैं। उसमें से मन्द-बुद्धि शारीरिक योगका प्रमाण हैं कि वर्तमान हिन्दूधर्म ने भारत की श्रमणधारा से बहुत कुछ क्षेम अर्थात् प्रेय को और विवेकी पुरुष श्रेय को चुनता है। वासना की ग्रहण किया है। उपनिषद् वैदिक और श्रमणधारा के समन्वयस्थल हैं-उनमें तुष्टि के लिये भोग और भोगों के साधनों की उपलब्धि के लिये कर्म वैदिक हिन्दू धर्म एक नया स्वरूप लेता प्रतीत होता है।
अपेक्षित है। इसी भोगप्रधान जीवन-दृष्टि से कर्म-निष्ठा का विकास हुआ इसी प्रकार श्रमणधारा ने भी चाहे-अनचाहे वैदिकधारा से बहुत है। दूसरी ओर विवेक के लिये विराग (संयम) और विराग के लिये कुछ ग्रहण किया है। श्रमणधारा में कर्मकाण्ड और पूजा-पद्धति तो वैदिकधारा आध्यात्मिक मूल्य-बोध (शरीर के ऊपर आत्मा की प्रधानता का बोध) से आयी ही है, अपितु अनेक हिन्दू देवी-देवता भी श्रमण-परम्परा में मान्य अपेक्षित है। इसी आध्यात्मिक जीवन-दृष्टि से तप मार्ग का विकास हुआ। कर लिये गए हैं। भारतीय संस्कृति की ये विभिन्न धाराएँ किस रूप में एक- इनमें पहली धारा से प्रवर्तक धर्म का और दूसरी से निवर्तक दूसरे से समन्वित हुई हैं, इसकी चर्चा करने के पूर्व हमें यह देखना होगा धर्म का उद्भव हुआ। प्रवर्तक धर्म का लक्ष्य भोग ही रहा, अत: उसने कि इन दोनों धाराओं का स्वतन्त्र विकास किन मनोवैज्ञानिक और पारिस्थितिक अपनी साधना का लक्ष्य-सुविधाओं की उपलब्धि को ही बनाया। जहाँ कारणों से हुआ है, तथा क्यों और कैसे इनका परस्पर समन्वय हुआ? ऐहिक जीवन में उसने धन-धान्य, पुत्र, सम्पत्ति आदि की कामना की, प्रवर्तक एवं निवर्तक धर्मों का उद्भव
वहीं पारलौकिक जीवन में स्वर्ग (भौतिक सुख-सुविधाओं की उच्चतम मानव-अस्तित्व द्वि-आयामी एवं विरोधाभास पूर्ण है। यह अवस्था) की प्राप्ति को ही मानव-जीवन का चरम लक्ष्य घोषित किया। स्वभावत: परस्पर विरोधी दो भिन्न केन्द्रों पर स्थित है। वह न केवल शरीर पुनः आनुभविक जीवन में जब मनुष्य ने यह देखा कि अलौकिक एवं है और न केवल चेतना, अपितु दोनों की एक विलक्षण एकता है। यही प्राकृतिक शक्तियाँ उसके सुख-सुविधाओं की उपलब्धि के प्रयासों को कारण है कि उसे दो भिन्न स्तरों पर जीवन जीना होता है। शारीरिक स्तर सफल या विफल बना सकती हैं एवं उसकी सुख-सुविधाएँ उसके अपने पर वह वासनाओं से चालित है और वहाँ उन पर यान्त्रिक नियमों का पुरुषार्थ पर नहीं, अपितु इन शक्तियों की कृपा पर निर्भर हैं, तो वह इन्हें आधिपत्य है किन्तु चैतसिक स्तर पर वह विवेक से शासित है, यहाँ उसमें प्रसन्न करने के लिये एक ओर इनकी स्तुति और प्रार्थना करने लगा तो संकल्प-स्वातन्त्र्य है। शारीरिक स्तर पर वह बद्ध है, परतन्त्र है किन्तु दूसरी ओर उन्हें बलि और यज्ञों के माध्यम से सन्तुष्ट करने लगा। इस
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पतकधम
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ प्रकार प्रवर्तक धर्म में दो शाखाओं का विकास हुआ-१. श्रद्धाप्रधान भक्ति- प्रवर्तक धर्म में प्रारम्भ में जैविक मूल्यों की प्रधानता रही, वेदों मार्ग और २. यज्ञ-याग प्रधान कर्म-मार्ग।
में जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति से सम्बन्धित प्रार्थनाओं के स्वर दूसरी ओर निष्पाप और स्वतन्त्र जीवन जीने की उमंग में अधिक मुखर हुए हैं। उदाहरणार्थ-हम सौ वर्ष जीवें, हमारी सन्तान बलिष्ट निवर्तक धर्म ने निर्वाण या मोक्ष अर्थात् वासनाओं एवं लौकिक एषणाओं होवें, हमारी गायें अधिक दूध देवें, वनस्पति प्रचुर मात्रा में हों आदि। से पूर्ण मुक्ति को मानव-जीवन का लक्ष्य माना और इस हेतु ज्ञान और इसके विपरीत निवर्तक धर्म ने जैविक मूल्यों के प्रति एक निषेधात्मक विराग को प्रधानता दी, किन्तु ज्ञान और विराग का यह जीवन सामाजिक रुख अपनाया, उन्होंने सांसारिक जीवन की दुःखयमता का राग अलापा। एवं पारिवारिक व्यस्तताओं के मध्य सम्भव नहीं था। अत: निवर्तक धर्म उनकी दृष्टि में शरीर आत्मा का बन्धन है और संसार दुःखों का सागर। मानव को जीवन के कर्म-क्षेत्र से कहीं दूर निर्जन वनखण्डों और गिरि- उन्होंने संसार और शरीर दोनों से ही मुक्ति को जीवन-लक्ष्य माना। उनकी कन्दराओं में ले गया। उसमें जहाँ एक ओर दैहिक मूल्यों एवं वासनाओं दृष्टि में दैहिक आवश्यकताओं का निषेध, अनासक्ति, विराग और आत्मके निषेध पर बल दिया गया जिससे वैसग्यमूलक तप-मार्ग का विकास सन्तोष ही सर्वोच्च जीवन-मूल्य हैं। हुआ, वहीं दूसरी ओर उस ऐकान्तिक जीवन में चिन्तन और विमर्श के एक ओर जैविक मूल्यों की प्रधानता का परिणाम यह हुआ कि द्वार खुले, जिज्ञासा का विकास हुआ, जिससे चिन्तनप्रधान ज्ञान-मार्ग प्रवर्तक धर्म में जीवन के प्रति एक विधायक दृष्टि का निर्माण हुआ तथा का उद्भव हुआ। इस प्रकार निवर्तक धर्म भी दो शाखाओं में विभक्त हो जीवन को सर्वतोभावेन वांछनीय और रक्षणीय माना गया, तो दूसरी ओर गया-१. ज्ञान-मार्ग और २. तप-मार्ग।
जैविक मूल्यों के निषेध से जीवन के प्रति एक ऐसी निषेधात्मक दृष्टि मानव प्रकृति के दैहिक और चैतसिक पक्षों के आधार पर का विकास हुआ जिसमें शारीरिक माँगों का ठुकराना ही जीवन-लक्ष्य मान प्रवर्तक और निवर्तक धर्मों के विकास की इस प्रक्रिया को निम्न सारिणी लिया गया और देह-दण्डन ही तप-त्याग और आध्यात्मिकता के प्रतीक के माध्यम से अधिक स्पष्ट किया जा सकता है
बन गए। प्रवर्तक धर्म जैविक मूल्यों पर बल देते हैं अत: स्वाभाविक रूप
से वे समाजगामी बने, क्योंकि दैहिक आवश्यकता की जिज्ञासा जिसका निवर्तक एवं प्रवर्तक धर्मों के दार्शनिक एवं सांस्कृतिक प्रदेय एक अंग काम भी है, की पूर्ण सन्तुष्टि तो समाज-जीवन में ही सम्भव
प्रवर्तक और निवर्तक धर्मों का यह विकास भिन्न-भिन्न थी, किन्तु विराग और त्याग पर अधिक बल देने के कारण निवर्तक धर्म मनोवैज्ञानिक आधारों पर हुआ था, अत: यह स्वाभाविक था कि उनके समाज-विमुख और वैयक्तिक बन गए। यद्यपि दैहिक मूल्यों की उपलब्धि दार्शनिक एवं सांस्कृतिक प्रदेय भिन्न-भिन्न हों। प्रवर्तक एवं निवर्तक धर्मों हेतु कर्म आवश्यक थे किन्तु जब मनुष्य ने यह देखा कि दैहिक के इन प्रदेयों और उनके आधार पर उनमें रही हुई पारस्परिक भिन्नता आवश्यताओं की सन्तुष्टि के लिये उसके वैयक्तिक प्रयासों के बावजूद को अगली सारणी से स्पष्टतया समझा जा सकता है
उनकी पूर्ति या अपूर्ति किन्ही अन्य शक्तियों पर निर्भर है, तो वह देववादी मनुष्य
और ईश्वरवादी बन गया। विश्व-व्यवस्था और प्राकृतिक शक्तियों के
नियन्त्रक तत्त्व के रूप में उसने विभिन्न देवों और फिर ईश्वर की कल्पना चेतना
की और उनकी कृपा की आकांक्षा करने लगा। इसके विपरीत निवर्तक
धर्म व्यवहार में नैष्कर्म्यता के समर्थक होते हुए भी कर्म-सिद्धान्त के प्रति वासना
आस्था के कारण यह मानने लगे कि व्यक्ति का बन्धन और मुक्ति स्वयं विराग (त्याग) उसके कारण है, अत: निवर्तक धर्म पुरुषार्थवाद और वैयक्तिक प्रयासों
पर आस्था रखने लगे। अनीश्वरवाद, पुरुषार्थवाद और कर्मसिद्धान्त उसके अभ्युदय (प्रेय)
निःश्रेयस्
प्रमुख तत्त्व बन गए। साधना के क्षेत्र में जहाँ धर्म में अलौकिक दैवीय स्वर्ग
मोक्ष (निर्वाण) शक्तियों की प्रसन्नता के निमित्त कर्मकाण्ड और बाह्य-विधानों (यज्ञ-याग)
का विकास हुआ, वहीं निवर्तक धर्मों ने चित्त-शुद्धि और सदाचार पर सन्यास
अधिक बल दिया तथा किन्हीं दैवीय शक्तियों के निमित्त कर्म-काण्ड के प्रवृत्ति
निवृत्ति
सम्पादन को अनावश्यक माना।
सांस्कृतिक प्रदेयों की दृष्टि से प्रवर्तक धर्म वर्ण-व्यवस्था, प्रर्वतक धर्म
निवर्तक धर्म
ब्राह्मण संस्था (पुरोहित वर्ग) के प्रमुख समर्थक रहे। ब्राह्मण वर्ग मनुष्य अलौकिक शक्तियों की उपासना
आत्मोपलब्धि
और ईश्वर के बीच एक मध्यस्थ का कार्य करने लगा तथा उसने अपनी आजीविका को सुरक्षित बनाए रखने के लिये एक ओर समाज-जीवन
में अपने वर्चस्व को स्थापित रखना चाहा, तो दूसरी ओर धर्म को समर्पणमूलक यज्ञमुलक चिन्तन प्रधान देहदण्डन मलक
कर्मकाण्ड और जटिल विधि-विधानों की औपचारिकता में उलझा दिया। भक्ति-मार्ग कर्म-मार्ग ज्ञान-मार्ग तप-मार्ग
विवेक
भोग
कर्म
चिन्तन प्रभात
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प्रर्वतक धर्म
दर्शनिक प्रदेय
१. जैविक मूल्यों की प्रधानता
२. विधायक जीवन दृष्टि
३. समष्टिवादी
४.
व्यवहार में कर्म पर बल फिर भी भाग्यवाद एवं नियतिवाद का समर्थन
ईश्वरवादी
५.
६. ईश्वरीय कृपा पर विश्वास
७.
श्रमण एवं वैदिक धारा का विकास एवं पारस्परिक प्रभाव
साधना के बाह्य साधनों पर बल
जीवन का लक्ष्य स्वर्ग / ईश्वर के सान्निध्य की प्राप्ति
सांस्कृतिक प्रदे
९. वर्ण व्यवस्था और जातिवाद का जन्मना आधार पर समर्थन
१०. गृहस्थ जीवन की प्रधानता
११. सामाजिक जीवन शैली ।
१२. राजतन्त्र का समर्थन
१३. शक्तिशाली की पूजा
१४. विधि विधानों एवं कर्म काण्डों की प्रधानता १५. ब्राह्मण-संस्था (पुरोहित वर्ग) का विकास १६. उपासनामूलक
परिणामस्वरूप ऊंच-नीच का भेद-भाव, जातिवाद और कर्मकाण्ड का विकास हुआ। किन्तु उसके विपरीत निवर्तक धर्म ने संयम, ध्यान और तप की एक सरल साधना-पद्धति का विकास किया और वर्ण-व्यवस्था, जातिवाद और ब्राह्मण संस्था के वर्चस्व का विरोध किया। उनमें ब्राह्मण संस्था के स्थान पर श्रमण संघों का विकास हुआ जिसमें सभी जाति और वर्ग के लोगों को समान स्थान मिला। राज्य संस्था की दृष्टि से जहाँ प्रवर्तक धर्म राजतंत्र और अन्याय के प्रतिकार के हेतु संघर्ष की नीति के समर्थक रहे, वहाँ निवर्तक धर्म जनतन्त्र और आत्मोत्सर्ग के समर्थक रहे ।
संस्कृतियों के समन्वय की यात्रा
यद्यपि उपरोक्त आधार पर हम प्रवर्तक धर्म अर्थात् वैदिक परम्परा और निवर्तक धर्म अर्थात् श्रमण परम्परा की मूलभूत विशेषताओं और उनके सांस्कृतिक एवं दार्शनिक प्रदेयों को समझ सकते हैं किन्तु यह मानना भ्रान्तिपूर्ण ही होगा कि आज वैदिकधारा और श्रमणधारा ने अपने इस मूल स्वरूप को बनाए रखा है। एक ही देश और परिवेश में रहकर दोनों ही धाराओं के लिये यह असम्भव था कि वे एक-दसूरे के
१.
२.
३.
४.
९.
निर्वतक धर्म
५.
अनीश्वरवादी
६. वैयक्तिक प्रयासों पर विश्वास, कर्म सिद्धान्त का समर्थन
७.
८.
आध्यात्मिक मूल्यों की प्रधानता ।
निषेधक जीवन-दृष्टि ।
व्यष्टिवादी।
व्यवहार में नैष्कर्म्यता का समर्थन फिर भी दृष्टि पुरुषर्थपरक ।
आन्तरिक विशुद्धता पर बल ।
जीवन का मोक्ष एवं निर्वाण की प्राप्ति ।
जातिवाद का विरोध, वर्ण-व्यवस्था का केवल कर्मणा आधार पर समर्थन।
१०. संन्यास जीवन की प्रधानता ।
११. एकाकी जीवन शैली |
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१२. जनतन्त्र का समर्थन ।
१३. सदाचारी की पूजा
१४. ध्यान और तप की प्रधानता । १५. श्रमण संस्था का विकास। १६. समाधिमूलक ।
प्रभाव से अछूती रहें। अतः जहाँ वैदिकधारा में श्रमणधारा (निवर्तक धर्मपरम्परा) के तत्त्वों का प्रवेश हुआ है, वहाँ श्रमणधारा में प्रवर्तक धर्मपरम्परा के तत्त्वों का प्रवेश हुआ है। अतः आज के युग में कोई धर्मपरम्परा न तो ऐकान्तिक निवृत्तिमार्ग की पोषक है और न ऐकान्तिक प्रवृत्तिमार्ग की
वस्तुतः निवृत्ति और प्रवृत्ति के सम्बन्ध में ऐकान्तिक दृष्टिकोण न तो व्यावहारिक है और न मनोवैज्ञानिक मनुष्य जब तक मनुष्य है, मानवीय आत्मा जब तक शरीर के साथ याजित होकर सामाजिक जीवन जीती है, तब तक ऐकान्तिक प्रवृत्ति और ऐकान्तिक निवृत्ति की बात करना एक मृग मरीचिका में जीना होगा। वस्तुतः आवश्यकता इस बात की रही है कि हम वास्तविकता को समझें और प्रवृत्ति तथा निवृत्ति के तत्त्वों में समुचित समन्वय से एक ऐसी जीवन शैली खोजें जो व्यक्ति और समाज दोनों के लिये कल्याणकारी हो और मानव को तृष्णाजनित मानसिक एवं सामाजिक सन्यास से मुक्ति दिला सके। इस प्रकार इन दो भिन्न संस्कृतियों में पारस्परिक समन्वय आवश्यक था।
भारत में प्राचीन काल से ही ऐसे प्रयत्न होते रहे हैं। प्रवर्तक
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ धारा के प्रतिनिधि हिन्दूधर्म में समन्वय के सबसे अच्छे उदाहरण ही ये दोनों धाराएँ परस्पर एक दूसरे से प्रभावित होती रही हैं। अपनीईशावास्योपनिषद् और भगवद्गीता हैं। भगवद्गीता में प्रवृत्ति और निवृत्ति अपनी विशेषताओं के आधार पर विचार के क्षेत्र में हम चाहे उन्हें अलगमार्ग के समन्वय का स्तुत्य प्रयास हुआ है। इसी प्रकार श्रमण-धारा में अलग देख लें किन्तु व्यावहारिक स्तर पर उन्हें एक दूसरे से पृथक् नहीं भी परवर्ती काल में प्रवर्तक धर्म के तत्त्वों का प्रवेश हुआ है। श्रमण-परम्परा कर सकते। भारतीय वाङ्मय में ऋग्वेद प्राचीनतम माना जाता है। उसमें की एक अन्य धारा के रूप में विकसित बौद्ध धर्म में तो प्रवर्तक धारा जहाँ एक ओर वैदिक समाज एवं वैदिक क्रिया-काण्डों का उल्लेख है, के तत्त्वों का इतना अधिक प्रवेश हुआ कि महायान से तन्त्रयान की यात्रा वहीं दूसरी ओर उसमें न केवल व्रात्यों, श्रमणों एवं अर्हतों की उपस्थिति तक वह अपने मूल स्वरूप से काफी दूर हो गया। भारतीय धर्मों के के उल्लेख उपलब्ध हैं, अपितु ऋषभ, अरिष्टनेमि आदि जो जैन परम्परा ऐतिहासिक विकास-क्रम में हम कालक्रम में हुए इस आदान-प्रदान की में तीर्थङ्कर के रूप में मान्य हैं, के प्रति समादर भाव भी व्यक्त किया गया उपेक्षा नहीं कर सकते हैं। इसी आदान-प्रदान के कारण ये परम्पराएँ एक- है। इससे यह प्रतीत होता है कि ऐतिहासिक युग के प्रारम्भ से ही भारत दूसरे के काफी निकट आ गई हैं।
में ये दोनों संस्कृतियाँ साथ-साथ प्रवाहित होती रही हैं। हिन्दूधर्म की शैव इससे यह भी सिद्ध होता है कि भारतीय संस्कृति एक संश्लिष्ट धारा और सांख्ययोग आदि की परम्पराएँ मूलत: निवर्तक या श्रमण रही संस्कृति है। उसे हम विभिन्न चहारदीवारियों में अवरूद्ध कर कभी भी हैं जो कालक्रम में बृहद् हिन्दूधर्म में आत्मसात् कर ली गई हैं। सम्यक् प्रकार से नहीं समझ सकते हैं, उसको खण्ड-खण्ड में विभाजित मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के उत्खनन से जिस प्राचीन भारतीय करके देखने में उसकी आत्मा ही मर जाती है। जैसे शरीर को खण्ड- संस्कृति की जानकारी हमें उपलब्ध होती है, उससे सिद्ध होता है कि खण्ड कर देखने से शरीर की क्रिया-शक्ति को नहीं समझा जा सकता वैदिक संस्कृति के पूर्व भी भारत में एक उच्च संस्कृति अस्तित्व रखती है, वैसे ही भारतीय संस्कृति को खण्ड-खण्ड करके उसकी मूल आत्मा थी जिसमें ध्यान आदि पर बल दिया जाता था। उस उत्खनन में ध्यानस्थ को नहीं समझ जा सकता है। भारतीय संस्कृति को हम तभी सम्पूर्ण रूप योगियों की सीलें आदि मिलना तथा यज्ञशाला आदि का न मिलना यही से समझ सकते हैं, जब उसके विभिन्न घटकों अर्थात् जैन, बौद्ध और सिद्ध करता है कि वह संस्कृति तप, योग एवं ध्यान-प्रधान व्रात्य या हिन्दू धर्म-दर्शन का समन्वित एवं सम्यक् अध्ययन न कर लिया जाय। श्रमण-संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती थी। यह निश्चित है कि आर्यों के बिना उसके संयोजित घटकों के ज्ञान से उसका सम्पूर्णता में ज्ञान सम्भव आगमन के साथ प्रारम्भ हुए वैदिक युग से ये दोनों ही धाराएँ साथ-साथ ही नहीं है। एक इंजन की प्रक्रिया को भी सम्यक् प्रकार से समझने के प्रभावित हो रही हैं और उन्होंने एक-दूसरे को पर्याप्त रूप से प्रभावित लिये न केवल उसके विभिन्न घटकों को अर्थात् कल-पुों का ज्ञान भी किया है। ऋग्वेद में व्रात्यों के प्रति जो तिरस्कार भाव था, वह अथर्ववेद आवश्यक होता है, अपितु उनके परस्पर संयोजित रूप को भी देखना में समादार भाव में बदल जाता है जो दोनों धाराओं के समन्वय का प्रतीक होता है। अत: हमें स्पष्ट रूप से इस तथ्य को समझ लेना चाहिये कि है। तप, त्याग, संन्यास, ध्यान, समाधि, मुक्ति और अहिंसा की भारतीय संस्कृति के अध्ययन एवं शोध के क्षेत्र में अन्य सहवर्ती अवधारणाएँ जो प्रारम्भिक वैदिक ऋचाओं और कर्मकाण्डीय ब्राह्मण परम्पराओं और उनके पारस्परिक सम्बन्धों के अध्ययन के बिना कोई भी ग्रन्थों में अनुपलब्धं थीं, वे आरण्यक आदि परवर्ती वैदिक साहित्य में शोध परिपूर्ण नहीं हो सकती है। धर्म और संस्कृति शून्य में विकसित और विशेष रूप से उपनिषदों में अस्तित्व में आ गयी हैं। इससे लगता नहीं होते, वे अपने देश, काल और सहवर्ती परम्परओं से प्रभावित होकर है कि ये अवधारणाएँ संन्यासमार्गीय श्रमणधारा के प्रभाव से ही वैदिक ही अपना स्वरूप ग्रहण करते हैं। यदि हमें जैन, बौद्ध, वैदिक या अन्य धारा में प्रविष्ट हुई हैं। उपनिषदों, महाभारत और गीता में एक ओर वैदिक किसी भी भारतीय सांस्कृतिक धारा का अध्ययन करना है, उसे सम्यक् कर्मकाण्ड की समालोचना और उन्हें आध्यात्मिकता से समन्वित कर नए प्रकार से समझना है, तो उसके देश, काल एवं परिवेशगत पक्षों को भी रूप में परिभाषित करने का प्रयत्न तथा दूसरी ओर तप, संन्यास और प्रामाणिकतापूर्वक तटस्थ बुद्धि से समझना होगा। चाहे जैन विद्या के शोध मुक्ति आदि की स्पष्ट रूप से स्वीकृति, यही सिद्ध करती है कि ये ग्रन्थ एवं अध्ययन का प्रश्न हो या अन्य किसी भारतीय विद्या का, हमें उसकी वैदिक एवं श्रमणधारा के बीच हुए समन्वय या संगम के ही परिचायक दूसरी परम्परओं को अवश्य ही जानना होगा और यह देखना होगा कि हैं। हमें यह स्मरण रखना होगा कि उपनिषद् और महाभारत जिसका एक वह उन दूसरी सहवर्ती परम्पराओं से किस प्रकार प्रभावित हुई है और अंग गीता है, शुद्ध रूप से वैदिक कर्मकाण्डात्मक धर्म के प्रतिनिधि नहीं उसने उन्हें किस प्रकार प्रभावित किया है। पारस्परिक प्रभाव के अध्ययन है। वे निवृत्तिप्रधान श्रमणधारा और प्रवृत्तिमार्गी वैदिकधारा के समन्वय के बिना कोई भी अध्ययन पूर्ण नहीं होता है।
का परिणाम हैं। उपनिषदों में, महाभारत और गीता में जहाँ एक ओर यह सत्य है कि भारतीय संस्कृति के इतिहास के आदिकाल श्रमणधारा के आध्यात्मिक और निवृत्ति-प्रधान तत्त्वों को स्थान दिया गया से ही हम उसमे श्रमण और वैदिक संस्कृति का अस्तित्व साथ-साथ पाते है, वहीं दूसरी ओर यज्ञ आदि वैदिक कर्मकाण्डों की श्रमणपरम्परा के हैं किन्तु हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि भारतीय संस्कृति में इन दोनों समान आध्यात्मिक दृष्टि से नवीन परिभाषाएँ भी प्रस्तुत की गई हैं, उसमें स्वतन्त्र धाराओं का संगम हो गया है और अब उन्हें एक-दूसरे से पूर्णतया यज्ञ का अर्थ पशुबलि न होकर स्वहितों की बलि या समाजसेवा हो गया। अलग नहीं किया जा सकता। भारतीय इतिहास के प्रारम्भिक काल से हमें यह स्मरण रखना होगा कि हमारा आज का हिन्दूधर्म वैदिक और
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श्रमण एवं वैदिक धारा का विकास एवं पारस्परिक प्रभाव
५९५ श्रमणधाराओं के समन्वय का परिणाम है। वैदिक कर्मकाण्ड के विरोध अवतार के रूप में स्वीकार कर लिया गया, वहीं जैन परम्परा में राम और में जो आवाज औपनिषदिक युग के ऋषि-मुनियों ने उठाई थी, जैन और कृष्ण को शलाका पुरुष के रूप में मान्यता मिली। इस प्रकार दानों धाराएँ अन्य श्रमण परम्पराओं ने मात्र उसे मुखर ही किया है। हमें यह नहीं भूलना एक दूसरे से समन्वित हुईं। चाहिये कि वैदिक कर्मकाण्ड के प्रति यदि किसी ने पहली आवाज उठाई
आज हमें उनकी इस पारस्परिक प्रभावशीलता को तटस्थ दृष्टि तो वे औपनिषदिक ऋषि ही थे। उन्होंने ही सबसे पहले कहा था कि ये से स्पष्ट करने का प्रयास करना चाहिये, ताकि धर्मों के बीच जो दूरियाँ यज्ञरूपी नौकाएँ अदृढ़ हैं, ये आत्मा के विकास में सक्षम नहीं हैं। यज्ञ पैदा कर दी गयी हैं, उन्हें समाप्त किया जा सके और उनकी निकटता आदि वैदिक कर्मकाण्डों की नवीन आध्यात्मिक दृष्टि से व्याख्या करने को भी सम्यक् रूप से समझा जा सके। का कार्य औपनिषदिक ऋषियों और गीता के प्रवक्ता का है। महावीर एवं दुर्भाग्य से इस देश में विदेशी तत्त्वों के द्वारा न केवल हिन्दू बुद्धकालीन जैन और बौद्ध परम्पराएँ तो औपनिषदिक ऋषियों के द्वारा और मुसलमानों के बीच अपितु जैन, बौद्ध, हिन्दू और सिक्खों जो कि प्रशस्त किये गए पथ पर गतिशील हुई हैं। वे वैदिक कर्मकाण्ड, जन्मना बृहद् भारतीय परम्परा के ही अंग हैं, के बीच भी खाइयाँ खोदने का कार्य जातिवाद और मिथ्या विश्वासों के विरोध में उठे हुए औपनिषदिक ऋषियों किया जाता रहा है और सामान्य रूप से यह प्रसारित किया जाता रहा के स्वर का ही मुखरित रूप हैं। जैन और बौद्ध परम्पराओं में औपनिषदिक हैं कि जैन और बौद्ध धर्म न केवल स्वतन्त्र धर्म हैं, अपितु वे वैदिक ऋषियों की अर्हत् ऋषियों के रूप में स्वीकृति इसका स्पष्ट प्रमाण है। हिन्दू-परम्परा के विरोधी भी हैं। सामान्यतया जैन और बौद्ध धर्म को वैदिक
यह सत्य है कि श्रमणों ने यज्ञों में पशुबलि, जन्मना वर्ण- धर्म के प्रति एक विद्रोह के रूप में चित्रित किया जाता है। यह सत्य है व्यवस्था और वेदों के प्रामाण्य से इन्कार किया और इस प्रकार वे भारतीय कि वैदिक और श्रमण-परम्पराओं में कुछ मूल-भूत प्रश्नों को लेकर स्पष्ट संस्कृति के समुद्धारक के रूप में ही सामने आये किन्तु हमें यह भी नहीं मतभेद हैं। यह भी सत्य है कि जैन-बौद्ध परम्परा ने वैदिक परम्परा की भूलना चाहिये कि भारतीय संस्कृति में आई इन विकृतियों के परिमार्जन उन विकृतियों का जो कर्मकाण्ड, पुरोहितवाद, जातिवाद और ब्राह्मण करने की प्रक्रिया में वे स्वयं ही कहीं न कहीं उन विकृतियों से प्रभावित वर्ग के द्वारा निम्न वर्गों के धार्मिक शोषण के रूप में उभर रही थी, खुलकर हो गए हैं। वैदिक कर्मकाण्ड अब पूजा-विधानों एवं तन्त्र-साधना के नये विरोध किया, किन्तु हमें उसे विद्रोह के रूप में नहीं अपितु भारतीय रूप में बौद्ध, जैन और अन्य श्रमण-परम्पराओं में प्रविष्ट हो गया है और संस्कृति के परिष्कार के रूप में ही समझना होगा। जैन ओर बौद्ध धर्मों उनकी साधना-पद्धति का एक अंग बन गया है। आध्यात्मिक विशुद्धि ने भारतीय संस्कृति में आ रही विकृतियों का परिशोधन कर उसे स्वस्थ के लिये किया जाने वाला ध्यान अब भौतिक सिद्धियों के निमित्त किया बनाने हेतु एक चिकित्सक का कार्य किया है। किन्तु स्मरण रखना होगा जान लगा है। जहाँ एक ओर भारतीय श्रमण-परम्परा ने वैदिक परम्परा कि चिकित्सक कभी भी शत्रु नहीं होता, मित्र ही होता है। दुर्भाग्य से को आध्यात्मिक जीवन-दृष्टि के साथ-साथ तप, त्याग, संन्यास और मोक्ष पाश्चात्य चिन्तकों के प्रभाव से भारतीय चिन्तक और किसी सीमा तक की अवधारणाएँ प्रदान की, वहीं दूसरी ओर इसकी तीसरी-चौथी-शती कुछ जैन और बौद्ध चिन्तक भी यह मानने लगे हैं कि जैनधर्म और वैदिक से वैदिक परम्परा के प्रभाव से पूजा-विधान और तान्त्रिक साधनाएँ जैन (हिन्दू) धर्म परस्पर विरोधी धर्म हैं किन्तु यह एक भ्रान्त अवधारणा है।
और बौद्ध परम्पराओं में प्रविष्ट हो गईं। अनेक हिन्दू देव-देवियाँ प्रकारान्तर चाहे अपने मूल रूप में वैदिक एवं श्रमण संस्कृति प्रवर्तक और निवर्तक में जैनधर्म एवं बौद्धधर्म में स्वीकार कर ली गईं। जैनधर्म में यक्ष-यक्षिणियों धर्म-परम्पराओं के रूप में भिन्न-भिन्न रही हों किन्तु आज न तो हिन्दूएवं शासन-देवता की अवधारणाएँ हिन्दू देवताओं का जैनीकरण मात्र परम्परा ही उस अर्थ में पूर्णत: वैदिक है और न ही जैन-बौद्ध परम्परा हैं। अनेक हिन्दू देवियाँ जैसे- काली, महाकाली, ज्वालामालिनी, पूर्णत: श्रमण। आज चाहे हिन्दू धर्म हो अथवा जैन और बौद्ध धर्म हों, अम्बिका, चक्रेश्वरी, पद्मावती, सिद्धायिका तीर्थंकरों की शासन-रक्षक ये सभी अपने वर्तमान स्वरूप में वैदिक और श्रमण संस्कृति के समन्वित देवियों के रूप में जैनधर्म का अंग बन गई। इसी प्रकार श्रुत-देवता के रूप हैं। यह बात अलग है कि उनमें प्रवृत्ति और निवृत्ति में से कोई एक रूप में सरस्वती और दम्पत्ति प्रदाता के रूप में लक्ष्मी की उपासना भी पक्ष अभी भी प्रमुख है। उदाहरण के रूप में हम कह सकते हैं कि जहाँ जैनधर्म में होने लगी और हिन्दू-परम्परा का गणेश पार्श्व-यक्ष के रूप में जैन धर्म आज भी निवृत्तिप्रधान है वहाँ हिन्दू धर्म प्रवृत्ति-प्रधान। फिर भी लोक-मंगल का देवता बन गया। वैदिक परम्परा के प्रभाव से जैन मन्दिरों यह मानना उचित होगा कि ये दोनों धर्म प्रवृत्ति और निवृत्ति के समन्वय में भी अब यज्ञ होने लगे और पूजा-विधान में हिन्दू देवताओं की तरह से ही निर्मित हुए हैं। तीर्थङ्करों का भी आवाहान एवं विसर्जन किया जाने लगा। हिन्दुओं की हम पूर्व में यह स्पष्ट कर चुके हैं कि इस समन्वय का प्रथम पूजा-विधि को भी मन्त्रों में कुछ शब्दिक परिवर्तनों के साथ जैनों ने स्वीकार प्रयत्न हमें ईशावास्योपनिषद् में स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। अतः कर लिया। इस सबकी विस्तृत चर्चा आगे की गई है। इस प्रकार जैन आज जहाँ उपनिषदों को प्राचीन श्रमण-परम्परा के परिप्रेक्ष्य में समझने
और बौद्ध परम्पराओं में तप, ध्यान और समाधि की साधना गौण होकर की आवश्कता है, वहीं जैन और बौद्ध परम्परा को भी औपनिषदिक पूजा-विधि-विधान प्रमुख हो गया। इस पारस्परिक प्रभाव का एक परिणाम परम्परा के परिप्रेक्ष्य में समझने की आवश्कता है। जिस प्रकार वासना यह भी हुआ कि जहाँ हिन्दू परम्पराओं में ऋषभ और बुद्ध को ईश्वर के और विवेक, प्रेय और श्रेय, परस्पर भिन्न-भिन्न होकर भी मानव व्यक्तित्व
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केही अंग हैं उसी प्रकार निवृत्ति-प्रधान श्रमणधारा और प्रवृत्ति प्रधान वैदिकधारा दोनों भारतीय संस्कृति के ही अंग है। वस्तुतः कोई भी संस्कृति ऐकान्तिक निवृत्ति या ऐकान्तिक प्रवृत्ति के आधार पर प्रतिष्ठित नहीं हो सकती है। जैन और बौद्ध परम्पराएं भारतीय संस्कृति का वैसे ही अभिन्न अंग हैं, जैसे हिन्दू परम्परा। यदि औपनिषदिक धारा को वैदिक धारा से । भिन्न होते हुए भी वैदिक या हिन्दू परम्परा का अभिन्न अंग माना जाता है तो फिर जैन और बौद्ध परम्पराओं को उसका अभिन्न अंग क्यों नहीं माना जा सकता। यदि सांख्य और मीमांसक अनीश्वरवादी होते हुए भी अभी तक हिन्दू धर्म दर्शन के अंग माने जाते हैं, तो फिर जैन व बौद्ध धर्म को अनीश्वरवादी कहकर उससे कैसे भिन्न किया जा सकता है? वस्तुतः हिन्दू परम्परा कोई एक धर्म और दर्शन न होकर व्यापक परम्परा का नाम है या कहें कि वह अभित्र वैचारिक एवं साधनात्मक परम्पराओं का समूह है। उसमें ईश्वरवाद - अनीश्वरवाद, द्वैतवाद अद्वैतवाद, प्रवृत्ति निवृत्ति, ज्ञान-कर्म सभी कुछ तो समाहित है। उसमें प्रकृति-पूजा जैसे धर्म के प्रारम्भिक लक्षणों से लेकर अद्वैत की उच्च गहराइयाँ तक सभी कुछ तो उसमें सन्निविष्ट हैं। अतः हिन्दू उसी अर्थ में कोई एक धर्म नहीं है जैसे यहूदी, ईसाई या मुसलमान। हिन्दू एक संश्लिष्ट परम्परा है, एक सांस्कृतिक धारा है जिसमें अनेक धाराएँ समाहित हैं।
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
अतः जैन और बौद्ध धर्म को हिन्दू परम्परा से नितान्त भिन्न नहीं माना जा सकता। जैन और बौद्ध भी उसी अध्यात्म-पक्ष के अनुयायी हैं जिसके औपनिषदिक ऋषि उनकी विशेषता यह है कि उन्होंने भारतीय समाज के दलित वर्ग के उत्थान तथा जन्मना जातिवाद, कर्मकाण्ड व पुरोहितवाद से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने उस धर्म का प्रतिपादन किया जो जनसामान्य का धर्म था और जिसे कर्मकाण्डों की अपेक्षा नैतिक सद्गुणों पर अधिष्ठित किया गया था। उन्होंने भारतीय समाज को पुरोहित वर्ग के धार्मिक शोषण से मुक्त किया। वे विदेशी नहीं हैं, इसी माटी की सन्तान हैं, वे शत-प्रतिशत भारतीय हैं। जैन, बौद्ध और औपनिषदिक धारा किसी एक ही मूल स्रोत के विकास हैं और आज उन्हें उसी परिप्रेक्ष्य में समझने की आवश्यकता है।
भारतीय धर्मों, विशेषरूप से औपनिषकि, बौद्ध और जैन धर्मों की जिस पारस्परिक प्रभावशीलता के अध्ययन की आज विशेष आवश्यकता है, उसे समझने में प्राचीन स्तर के जैन आगम यथा आचारांग, सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित और उत्तराध्ययन आदि हमारे दिशा निर्देशक सिद्ध हो सकते हैं। मुझे विश्वास है कि इन ग्रन्थों के अध्ययन से भारतीय विद्या के अध्येताओं को एक नई दिशा मिलेगी और यह मिथ्या विश्वास दूर हो जाएगा कि जैनधर्म, बौद्धधर्म और हिन्दूधर्म परस्पर विरोधी धर्म हैं। आचारांग में हमें ऐसे अनेक सूत्र उपलब्ध होते हैं जो अपने भाव, शब्द-योजना और भाषा शैली की दृष्टि से औपनिषदिक सूत्रों के निकट हैं। आचारांग में आत्म के स्वरूप के सन्दर्भ में जो विवरण प्रस्तुत किया गया है वह माण्डूक्योपनिषद् से यथावत् मिलता है। आचारांग में श्रमण और ब्राह्मण का उल्लेख परस्पर प्रतिस्पर्द्धियों के रूप में नहीं, अपितु सहगामियों के रूप में मिलता है। चाहे आचारांग उत्तराध्ययन
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आदि जैनागम हिंसक यज्ञीय कर्मकाण्ड का निषेध करते हैं, किन्त वे ब्राह्मणों को भी उसी नैतिक एवं आध्यात्मिक पथ का अनुगामी मानते हैं जिस पथ पर श्रमण चल रहे थे। उनकी दृष्टि में ब्राह्मण वह है जो सदाचार का जीवन्त प्रतीक है। उसमें अनेक स्थलों पर श्रमणों और ब्राह्मणों (समणा माहणा) का साथ-साथ उल्लेख हुआ
इसी प्रकार सूत्रकृतांग में यद्यपि तत्कालीन दार्शनिक मान्यताओं की समीक्षा है किन्तु उनके साथ ही उसमें औपनिषदिक युग के अनेक ऋषियों यथा विदेहनामि बाहुक, असितदेवल, द्वैपायन, पाराशर आदि का समादरपूर्वक उल्लेख हुआ है। सूत्रकृतांग स्पष्ट रूप से स्वीकार करता है कि इन ऋषियों के आचार-नियम उसकी आचार-परम्परा से भिन्न थे, फिर भी वह उन्हें अपनी अर्हत् परम्परा का ही पूज्य पुरुष मानता है। वह उनका महापुरुष और तपोधन के रूप में उल्लेख करता है और यह मानता है कि उन्होंने सिद्धि अर्थात् जीवन के चरम साध्य मोक्ष को प्राप्त कर लिया था। सूत्रकृतांग की दृष्टि में ये ऋषिगण भिन्न आचार-मार्ग का पालन करते हुए भी उसकी अपनी ही परम्परा के ऋषि थे। सूत्रकृतांग में इन ऋषियों को महापुरुष, तपोधन एवं सिद्धि प्राप्त कहना तथा उत्तराध्ययन में अन्य लिंग सिद्धों का अस्तित्व मानना यही सूचित करता है कि प्राचीन काल में जैन परम्परा अत्यन्त उदार थी और वह मानती थी कि मुक्ति का अधिकार केवल उसके आचार-नियमों का पालन करने वाले को ही नहीं है, अपितु भिन्न आचार मार्ग का पालन करने वाला भी मुक्ति का अधिकारी हो सकता है।
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इसी सन्दर्भ में यहाँ ऋषिभाषित (इसिभासियाई) का उल्लेख करना भी आवश्यक है जो जैन आगम साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ ई०पू० चौथी शती) है। जैन परम्परा में इस ग्रन्थ का निर्माण उस समय हुआ होगा जब जैन धर्म एक सम्प्रदाय के रूप में विकसित नहीं हुआ था। इस ग्रन्थ में नारद, असितदेवल, अंगिरस, पाराशर, अरुण, नारायण, याज्ञवल्का, उद्दालक, विदुर, सारिपुत्त, महाकश्यप, मंखलिगोशाल, संजय (वेलिडिपुत्त) आदि पैंतालिस ऋषियों का उल्लेख है और इन सभी को अर्हत् ऋषि या ब्राह्मण ऋषि कहा गया है। ऋषिभाषित में इनके आध्यात्मिक और नैतिक उपदेशों का संकलन है। जैन परम्परा में इस ग्रन्थ की रचना इस तथ्य का स्पष्ट संकेत है कि औपनिषदिक ऋषियों की परम्परा और जैन परम्परा का उद्गम स्त्रोत एक ही है। यह ग्रन्थ न केवल जैन धर्म की धार्मिक उदारता का सूचक है, अपितु यह भी बताता है कि सभी भारतीय आध्यात्मिक परम्पराओं का मूल स्त्रोत एक ही है। औपनिषदिक, बौद्ध, जैन, आजीवक, सांख्य, योग आदि सभी उसी मूल स्त्रोत से निकली हुई धाराएँ हैं। जिस प्रकार जैन धर्म के ऋषिभाषित में विभिन्न परम्पराओं के उपदेश संकलित हैं, उसी प्रकार बौद्ध परम्परा की थेरगाथा में भी विभिन्न परम्पराओं के जिन स्थविरों के उपदेश संकलित हैं। उसमें भी अनेक औपनिषदिक एवं अन्य श्रमण परम्परा के आचार्यों के उल्लेख हैं जिनमें एक वर्धमान महावीर) भी हैं। यह सब इस तथ्य का सूचक है कि भारतीय चिन्तन धारा प्राचीनकाल से ही उदार और सहिष्णु रही है और उसकी प्रत्येक धारा में यही उदारता और सहिष्णुता
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श्रमण एवं वैदिक धारा का विकास एवं पारस्परिक प्रभाव
५९७ प्रवाहित होती रही है। आज जब हम साम्प्रदायिक अभिनिवेशों में जकड़कर समन्वय स्थापित करना था। यद्यपि गीता में ज्ञानयोग, कर्मयोग और परस्पर संघर्षों में उलझ गये हैं, इन धाराओं का तुलनात्मक अध्ययन हमें भक्तियोग की चर्चा हुई है किन्तु वहाँ इनमें से प्रत्येक को मोक्ष-मार्ग मान एक नयी दृष्टि प्रदान कर सकता है। यदि भारतीय सांस्कृतिक चिन्तन लिया गया है। की इन धाराओं को एक दूसरे से अलग कर देखने का प्रयत्न किया जायगा जैनधर्म ने न केवल वैदिक ऋषियों द्वारा प्रतिपादित यज्ञ-याग तो हम उन्हें सम्यक् रूप से समझने में सफल हो सकेंगे। उत्तराध्ययन, की परम्परा का विरोध किया, वरन् श्रमण-परम्परा के देह-दण्डन की सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित और आचारांग को समझने के लिए तपस्यात्मक प्रणाली का भी विरोध किया। सम्भवत: महावीर के पूर्व पार्श्व
औपनिषदिक साहित्य का अध्ययन आवश्यक है। उसी प्रकार के काल तक धर्म का सम्बन्ध बाह्य तथ्यों से ही जोड़ा गया था। यही उपनिषदों और बौद्ध साहित्य को भी जैन परम्परा के अध्ययन के अभाव कारण था कि जहाँ ब्राह्मण-वर्ग यज्ञ-याग के क्रियाकाण्डों में ही धर्म की में सम्यक् प्रकार से नहीं समझा जा सकता है। आज साम्प्रदायिक इतिश्री मान लेता था। सम्भवतः जैन परम्परा के महावीर के पूर्ववर्ती अभिनिवेशों से ऊपर उठकर तटस्थ एवं तुलनात्मक रूप से सत्य का तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ ने आध्यात्मिक साधना के बाह्य पहलू के स्थान पर उसके अन्वेषण ही एक ऐसा विकल्प है जो साम्प्रदायिक अभिनिवेश से ग्रस्त आन्तरिक पहलू पर बल दिया था और परिणामस्वरूप श्रमण-परम्पराओं मानव को मुक्ति दिला सकता है और भारतीय धर्मों की पारस्परिक में भी बौद्ध आदि कुछ धर्म-परम्पराओं ने इस आन्तरिक पहलू पर अधिक प्रभावशीलता को स्पष्ट कर सकता है।
बल देना प्रारम्भ कर दिया था। लेकिन महावीर के युग तक धर्म एवं साधना
का यह बाह्यमुखी दृष्टिकोण पूरी तरह समाप्त नहीं हो पाया था, वरन् जैन धर्म का हिन्दू धर्म को अवदान
ब्राह्मण परम्परा में तो यज्ञ, श्रद्धादि के रूप में वह अधिक प्रसार पा गया औपनिषदिक काल .या महावीर-युग की सबसे प्रमुख समस्या था। दूसरी ओर जिन विचारकों ने साधना के आन्तरिक पक्ष पर बल देना यह थी कि उस युग में अनेक परम्पराएँ अपने एकांगी दृष्टिकोण को ही प्रारम्भ किया था, उन्होंने उसके बाह्य पक्ष की पूरी तरह अवहेलना करना पूर्ण सत्य समझकर परस्पर एक-दूसरे के विरोध में खड़ी थीं। उस युग प्रारम्भ कर दिया था, परिणामस्वरूप वे भी एक अति की ओर जाकर में चार प्रमुख वर्ग थे- १. क्रियावादी, २. अक्रियावादी, ३. विनयवादी एकांगी बन गए। अत: मवीर ने दोनों ही पक्षों में समन्वय स्थापित करने
और ४. अज्ञानवादी। महावीर ने सर्वप्रथम उनमें समन्वय करने का प्रयास का प्रयत्न किया और यह बताया कि धर्म-साधना का सम्बन्ध सम्पूर्ण किया। प्रथम, क्रियावादी दृष्टिकोण आचार के बाह्य पक्षों पर अधिक बल जीवन से है। उसमें आचरण के बाह्य पक्ष के रूप में क्रिया का जो स्थान देता था। वह कर्मकाण्डपरक था। बौद्ध परम्परा में इस धारणा को शीलव्रत है, उससे भी अधिक स्थान आचरण के आन्तरिक प्रेरक का है। इस प्रकार परामर्श कहा गया है। दूसरा दृष्टिकोण अक्रियावाद का था। अक्रियावाद उन्होंने धार्मिक जीवन में आचरण के प्रेरक और आचरण के परिणाम दोनों के तात्त्विक आधार या तो विभिन्न नियतिवादी दृष्टिकोण थे या आत्मा पर ही बल दिया। उन्होंने ज्ञान और क्रिया के बीच समन्वय स्थापित किया। को कूटस्थ एवं अकर्ता मानने की तात्त्विक अवधारणा के पोषक थे। ये नरसिंहपुराण (६१/९/११) में भी आवश्यक नियुक्ति (पृष्ठ, ९५-९७) परम्पराएँ ज्ञानमार्ग की प्रतिपादक थीं। जहाँ क्रियावाद के अनुसार कर्म के समान ही ज्ञान और क्रिया के समन्वय को अनेक रूपकों से वर्णित या आचरण ही साधना का सर्वस्व था, वहाँ अक्रियावाद के अनुसार ज्ञान किया है। इससे यह सिद्ध होता है कि जैन-परम्परा के इस चिन्तन में ही साधना का सर्वस्व था। क्रियावाद कर्ममार्ग का प्रतिपादक था और हिन्दू-परम्परा को प्रभावित किया है। अक्रियावाद ज्ञानमार्ग का प्रतिपादक। कर्ममार्ग और ज्ञानमार्ग के अतिरिक्त तीसरी परम्परा अज्ञानवादियों की थी जो अतीन्द्रिय एवं पारलौकिक मानव मात्र की समानता का उद्घोष मान्यताओं को 'अज्ञेय' स्वीकार करती थी। इसका दर्शन रहस्यवाद और उस युग की सामाजिक समस्याओं में वर्ण-व्यवस्था एक सन्देहवाद इन दो रूपों में विभाजित था। इन तीनों परम्पराओं के अतिरिक्त महत्त्वपूर्ण समस्या थी। वर्ण. का आधार कर्म और स्वभाव को छोड़ चौथी परम्परा विनयवाद की थी जिसे भक्तिमार्ग का प्रारम्भिक रूप माना जन्म मान लिया गया था। परिणामस्वरूप वर्ण-व्यवस्था विकृत हो गयी जाता है। विनयवाद भक्तिमार्ग का ही अपरनाम था। इस प्रकार उस युग थी और ऊँच-नीच का भेद हो गया था जिसके कारण सामाजिक में ज्ञानमार्ग, कर्ममार्ग, भक्तिमार्ग और अज्ञेयवाद (सन्देहवाद) की स्वास्थ्य विषमता के ज्वर से आक्रान्त था। जैन विचारधारा ने जन्मना परम्पराएँ अलग-अलग रूप में प्रतिष्ठित थीं। महावीर ने अपने जातिवाद का विरोध किया और समस्त मानवों की समानता का उद्घोष अनेकान्तवादी दृष्टिकोण के द्वारा इनमें समन्वय खोजने का प्रयास किया। एक ओर उसने हरिकेशी बल जैसे निम्न कुलोत्पन्न को, तो किया। सर्वप्रथम उन्होंने सम्यक्-ज्ञान, सम्यक्-दर्शन और सम्यक् चारित्र दूसरी ओर गौतम जैसे ब्राह्मण कुलोत्पन्न साधकों को अपने साधनाके रूप में त्रिविध मोक्षमार्ग का एक ऐसा सिद्धान्त प्रतिपादित किया जिसमें मार्ग में समान रूप से दीक्षित किया। केवल जातिगत विभेद ही नहीं ज्ञानवादी, कर्मवादी और भक्तिमार्गी परम्पराओं का समुचित समन्वय था। वरन् आर्थिक विभेद भी समानता की दृष्टि से जैन विचारधारा के सामने इस प्रकार महावीर एवं जैन-दर्शन का प्रथम प्रयास ज्ञानमार्गीय, कोई मूल्य नहीं रखता। जहाँ एक ओर मगध-सम्राट तो दूसरी ओर कर्ममार्गीय, विभिन्न भक्तिमार्गी, तापस आदि एकांगी दृष्टिकोणों के मध्य पुणिया जैसे निर्धन श्रावक भी उसकी दृष्टि में समान थे। इस प्रकार
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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
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उसने जातिगत या आर्थिक आधार पर ऊंच-नीच का भेद अस्वीकार कर मानव मात्र की समानता पर बल दिया। इसका प्रभाव हिन्दूधर्म पर भी पड़ा और उसमें भी गुप्तकाल के पश्चात् भक्तियुग में वर्ण व्यवस्था और ब्राह्मण वर्ग की श्रेष्ठता का विरोध हुआ। वैसे तो महाभारत के रचनाकाल (लगभग चौथी शती) से ही यह प्रभाव परिलक्षित होता है।
ईश्वर से मुक्ति और मानव की स्वतन्त्रता का उद्घोष
उस युग की दूसरी समस्या यह थी कि मानवीय स्वतन्त्रता का मूल्य लोगों की दृष्टि में कम आँका जाने लगा था। एक ओर ईश्वरवादी धारणाएँ तो दूसरी ओर कालवादी एवं नियतिवादी धारणाएं मानवीय स्वतन्त्रता को अस्वीकार करने लगी थीं। जैन दर्शन ने इस कठिनाई को समझा और मानवीय स्वतन्त्रता की पुनः प्राण-प्रतिष्ठा की उसने यह उद्घोष किया कि न तो ईश्वर और न अन्य शक्तियाँ मानव की निर्धारक हैं, वरन् मनुष्य स्वयं ही अपना निर्माता है। इस प्रकार उसने मनुष्य को ईश्वरवाद की उस धारणा से मुक्ति दिलाई जो मानवीय स्वतन्त्रता का अपहरण कर रही थी और यह प्रतिपादित किया कि मानवीय स्वतन्त्रता में निष्ठा ही धर्म-दर्शन का सच्चा आधार बन सकती है। जैनों की इस अवधारणा का प्रभाव हिन्दूधर्म पर उतना अधिक नहीं पड़ा, जितना यज्ञ का नया अर्थ अपेक्षित था। फिर भी ईश्वरवाद की स्वीकृति के साथ-साथ मानव की श्रेष्ठता के स्वर तो मुखरित हुए ही थे।
रूढ़िवाद से मुक्ति
जैन धर्म ने रूढ़िवाद से भी मानव जाति को मुक्त किया। उसने उस युग की अनेक रूढ़ियों जैसे- पशु-यज्ञ, श्राद्ध, पुरोहितवाद आदि से मानव समाज को मुक्त करने का प्रयास किया था और इसलिये इन सबका खुला विरोध भी किया। ब्राह्मण वर्ग ने अपने को ईश्वर का प्रतिनिधि बताकर सामाजिक शोषण का जो सिलसिला प्रारम्भ किया था, उसे समाप्त करने के लिये जैन एवं बौद्ध परम्पराओं ने प्रयास किया। जैन और बौद्ध आचायों ने सबसे महत्त्वपूर्ण काम यह किया कि उन्होंने यज्ञादि प्रत्ययों को नई परिभाषाएँ प्रदान कीं। यहाँ जैनधर्म के द्वारा प्रस्तुत ब्राह्मण, यज्ञ आदि की कुछ नई परिभाषाएँ दी जा रही हैं।
ब्राह्मण का नया अर्थ
जैन- परम्परा ने सदाचरण को ही मानवीय जीवन में उच्चता और निम्नता का प्रतिमान माना और उसे ही ब्राह्मणत्व का आधार बताया। उत्तराध्ययन सूत्र के पच्चीसवें अध्याय एवं धम्मपद के ब्राह्मण वर्ग नामक अध्याय में सच्चा ब्राह्मण कौन है, इसका सविस्तार विवेचन उपलब्ध है। विस्तार भय से उसकी समग्र चर्चा में न जाकर केवल एक दो पद्यों को प्रस्तुत कर ही विराम लेंगे। उत्तराध्ययनसूत्र में बताया गया है कि 'जो जल में उत्पन्न हुए कमल के समान भोगों में उत्पन्न होते हुए भी भोगों में लिप्त नहीं रहता, वही सच्चा ब्राह्मण है'।' जो राग, द्वेष और भय से मुक्त होकर
अन्तर में विशुद्ध है, वही सच्चा ब्राह्मण है। धम्मपद में भी कहा गया है कि जैसे कमलपत्र पानी से अलिप्त होता है, जैसे आरे की नोक पर सरसों का दाना होता है, वैसे ही जो कामों में लिप्त नहीं होता, जिसने अपने दुःखों के क्षय को यहीं पर देख लिया है, जिसने जन्म-मरण के भार को उतार दिया है, जो सर्वथा अनासक्त हैं, जो मेधावी है, स्थितप्रज्ञ हैं, जो सन्मार्ग तथा कुमार्ग को जानने में कुशल हैं और जो निर्वाण की उत्तम स्थिति को पहुँच चुके हैं उन्हें ही मैं ब्राह्मण कहता हूँ। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन एवं बौद्ध दोनों परम्पराओं ने ही ब्राह्मणत्व की श्रेष्ठता को स्वीकार करते हुए भी ब्राह्मण की एक नई परिभाषा प्रस्तुत की जो श्रमण परम्परा के अनुकूल थी। फलतः न केवल जैन परम्परा एवं बौद्ध परम्परा में वरन् हिन्दू परम्परा के महान् ग्रन्थ महाभारत में भी ब्राह्मणत्व की यही परिभाषा दी गई है। जैन परम्परा के उत्तराध्ययनसूत्र, बौद्ध परम्परा के धम्मपद और महाभारत के शान्तिपर्व में सच्चे ब्राह्मण के स्वरूप का जो विवरण मिलता है, वह न केवल वैचारिक साम्यता रखता है, वरन् उसमें शाब्दिक साम्यता भी बहुत अधिक है जो कि तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है और इन परम्पराओं के पारस्परिक प्रभाव को स्पष्ट करता है।
जिस प्रकार ब्राह्मण की नई परिभाषा प्रस्तुत की गई उसी प्रकार यज्ञ को भी एक नए अर्थ में परिभाषित किया गया। महावीर ने न केवल हिंसक यज्ञों के विरोध में अपना मन्तव्य प्रस्ततु किया, वरन् उन्होंने यज्ञ की आध्यात्मिक एवं तपस्यापरक नई परिभाषा भी प्रस्तुत की। उत्तराध्ययन में यज्ञ के आध्यात्मिक स्वरूप का सविस्तार विवेचन है। बताया गया है कि "तप अग्नि है, जीवात्मा अग्निकुण्ड है, मन, वचन और काया की प्रवृत्तियाँ ही कलछी (चम्मच) हैं और कर्मों (पापों) का नष्ट करना ही आहुति है, यही यज्ञ संयम से युक्त होने से शान्तिदायक और सुखकारक है। ऋषियों ने ऐसे ही यज्ञ की प्रशंसा की है।"३ फलतः न केवल जैनपरम्परा में वरन् बौद्ध और वैदिक परम्पराओं में भी यज्ञ याग के बाह्य पक्ष का खण्डन और उसके आध्यात्मिक स्वरूप का चित्रण उपलब्ध होता है। बुद्ध ने भी आध्यात्मिक यज्ञ के स्वरूप का चित्रण लगभग उसी रूप में किया है जिस रूप में उसका विवचेन उत्तराध्ययन सूत्र में किया गया है । अंगुत्तरनिकाय में यज्ञ के आध्यात्मिक स्वरूप का वर्णन करते हुए बुद्ध कहते हैं कि हे ब्राह्मण, ये तीन अग्रियाँ त्याग करने और परिवर्तन करने के योग्य हैं, उनका सेवन नहीं करना चाहिये हे ब्राह्मण, इन तीन अग्नियों का सत्कार करें, इन्हें सम्मान प्रदान करें, इनकी पूजा और परिचर्या भलीभांति सुख से करें ये अग्नियाँ कौन सी हैं, आह्रानीयानि (आहनेहय्यरिंग), गार्हपत्यानि (गहपतग्गि) और दक्षिणाग्रि (दक्खिणाय्यग्गि)। माँ-बाप को आह्रानीयानि समझना चाहिये और सत्कार से उनकी पूजा करनी चाहिये । पत्नी और बच्चे, दास तथा कर्मकार को गार्हपत्याग्नि समझना चाहिये और आदर्शपूर्वक उनकी पूजा करनी चाहिये। श्रमणब्राह्मणों को दक्षिणाग्नि समझना चाहिये और सत्कारपूर्वक उनकी पूजा
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श्रमण एवं वैदिक धारा का विकास एवं पारस्परिक प्रभाव
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करनी चाहिये। हे ब्राह्मण, यह लकड़ियों की अग्नि तो कभी जलानी पड़ती क्षण भर भी सेवा करे तो यह सेवा कहीं उत्तम है, न कि सौ वर्षों तक है, कभी उपेक्षा करनी पड़ती है और कभी उसे बुझानी पड़ती है, किन्तु किया हुआ यज्ञ। इस प्रकार जैनधर्म ने तत्कालीन कर्मकाण्डी मान्यताओं ये अग्नियाँ तो सदैव और सर्वत्र पूजनीय हैं। इसी प्रकार बुद्ध ने भी हिंसक को एक नई दृष्टि प्रदान की और उन्हें आध्यात्मिक स्वरूप दिया, साथ यज्ञों के स्थान पर यज्ञ के आध्यात्मिक एवं सामाजिक स्वरूप को प्रकट ही धर्म-साधना का जो बहिर्मुखी दृष्टिकोण था उसे आध्यात्मिक संस्पर्श किया। इतना ही नहीं, उन्होंने सच्चे यज्ञ का अर्थ सामाजिक जीवन में द्वारा अन्तर्मुखी बनाया। इससे उस युग के वैदिक चिन्तन में एक सहयोग करना बताया।५ श्रमण-धारा के इस दृष्टिकोण के समान ही क्रान्तिकारी परिवर्तन उपस्थित हुआ। इस प्रकार वैदिक संस्कृति को उपनिषदों एवं गीता में भी यज्ञ-याग की निन्दा की गयी है और यज्ञ की रूपान्तरित करने का श्रेय सामान्य रूप से श्रमण-परम्परा के और विशेष सामाजिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से विवेचना की गई है। सामाजिक सन्दर्भ रूप से जैन-परम्परा को है। में यज्ञ का अर्थ समाज-सेवा माना गया है। निष्कामभाव से समाज की कर्मकाण्ड और आध्यात्मिक साधनाएँ प्रत्येक धर्म के अनिवार्य सेवा करना गीता में यज्ञ का सामाजिक पहलू था। दूसरी ओर गीता में अंग हैं। कर्मकाण्ड उसका शरीर है और आध्यात्मिकता उसका प्राण। यज्ञ के आध्यात्मिक स्वरूप का विवेचन भी किया गया है। गीताकार कहता भारतीय धर्मों में प्राचीन काल से ही हमें ये दोनों प्रकार की प्रवृत्तियाँ स्पष्ट है कि योगीजन संयमरूप अग्निरूप अग्नि में श्रोत्रादि इन्द्रियों का हवन रूप से दृष्टिगोचर होती हैं। जहाँ प्रारम्भिक वैदिक-परम्परा धर्म-कर्मकरते हैं या इन्द्रियों के विषयों का इन्द्रियों में हवन करते हैं। दूसरे कुछ काण्डात्मक अधिक रही हैं, वहाँ प्राचीन श्रमण-परम्पराएँ साधनात्मक साधक इन्द्रियों के सम्पूर्ण कर्मों को और शरीर के भीतर रहने वाला वायु अधिक रही हैं। फिर भी इन दोनों प्रवृत्तियों को एक दूसरे से पूर्णतया जो प्राण कहलाता है, उसके 'संकुचित होने', 'फलने' आदि कर्मों को पृथक् रख पाना कठिन है। श्रमण-परम्परा में आध्यात्मिक और धार्मिक ज्ञान से प्रकाशित हुई आत्म-संयमरूप योगाग्नि में हवन करते हैं। घृतादि साधना के जो विधि-विधान बने थे, वे भी धीरे-धीरे कर्मकाण्ड के रूप चिकनी वस्तु प्रज्ज्वलित हुई अग्नि की भाँति विवेक-विज्ञान से उज्ज्वलता में ही विकसित होते गये। अनेक आन्तरिक एवं बाह्य साक्ष्यों से यह को प्राप्त हुई (धारणा-ध्यान समाधि रूप) उस आत्म-संयम-योगाग्नि में सुनिश्चित हो जाता है कि इनमें अधिकांश कर्मकाण्ड वैदिक या ब्राह्मण (प्राण और इन्द्रियों के कर्मों को) विलीन कर देते हैं। इस प्रकार जैनधर्म परम्परा अथवा दूसरी अन्य परम्पराओं के प्रभाव से आये हैं। में यज्ञ के जिस आध्यात्मिक स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है, उसका जैन-परम्परा मूलतः श्रमण-परम्परा का ही एक अंग है और अनुमोदन बौद्ध परम्परा और वैदिक परम्परा में हुआ है। यही श्रमण- इसलिये यह अपने प्रारम्भिक रूप में कर्मकाण्ड की विरोधी एवं परम्परा का हिन्दू-परम्परा को मुख्य अवदान था।
आध्यात्मिक साधना प्रधान रही है। मात्र यही नहीं उत्तराध्ययन जैसे प्राचीन
जैन-ग्रन्थों में स्नान, हवन, यज्ञ आदि कर्मकाण्डों का विरोध भी परिलक्षित स्नान आदि के प्रति नया दृष्टिकोण
होता है। जैसा हम पूर्व में बता चुके हैं कि उत्तराध्ययनसूत्र की यह विशेषता जैन विचारकों ने अन्य नैतिकता सम्बन्धी विचारों को भी नई है कि उसने धर्म के नाम पर किये जाने वाले इन कर्मकाण्डों एवं अनुष्ठानों दृष्टि प्रदान की। बाह्य शौच या स्नान जो कि उस समय धर्म और नैतिक को एक आध्यात्मिक रूप प्रदान किया था। तत्कालीन ब्राह्मण वर्ग ने यज्ञ, जीवन का एक मुख्य रूप मान लिया गया था, को भी एक नया श्राद्ध और तर्पण के नाम पर कर्मकाण्डों एवं अनुष्ठानों के माध्यम से आध्यात्मिक स्वरूप प्रदान किया गया। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है सामाजिक शोषण की जो प्रक्रिया प्रारम्भ की थी, जैन और बौद्ध परम्पराओं कि धर्म जलाशय है और ब्रह्मचर्य घाट (तीर्थ) है, उसमें स्नान करने से ने उसका खुला विरोध किया था। आत्मा शान्त, निर्मल और शुद्ध हो जाती है। इसी प्रकार बौद्ध-दर्शन में वस्तुतः वैदिक कर्मकाण्ड की विरोधी जनजातियों एवं भी सच्चे स्नान का अर्थ मन, वाणी और काया से सद्गुणों का सम्पादन भक्तिमार्गी परम्परा में धार्मिक अनुष्ठान के रूप में पूजा-विधि का विकास माना गया है। न केवल जैन और बौद्ध परम्परा में वरन् वैदिक परम्परा हुआ, तो श्रमण-परम्परा में तपस्या और ध्यान का। जैन समाज में यक्षपूजा में भी यह विचार प्रबल हो गया कि यथार्थ शुद्धि आत्मा के सद्गुणों के के प्राचीनतम उल्लेख जैनागमों में उपलब्ध हैं। जनसाधारण में प्रचलित विकास में निहित है। इस प्रकार श्रमणों के इस चिन्तन का प्रभाव वैदिक भक्तिमार्गी धारा का प्रभाव जैन और बौद्ध धर्मों पर भी पड़ा और उनमें या हिन्दू परम्परा पर भी हुआ।
तप, संयम एवं ध्यान के साथ-साथ जिन एवं बुद्ध की पूजा की भावना इसी प्रकार ब्राह्मणों को दी जाने वाली दक्षिणा के प्रति एक विकसित हुई। परिणामत: प्रथम स्तूप, चैत्य आदि के रूप में प्रतीक पूजा नई दृष्टि प्रदान की गई और यह बताया गया कि दान की अपेक्षा, संयम प्रारम्भ हुई, फिर सिद्धायतन (जिन-मन्दिर) आदि बने और बुद्ध एवं जिनही श्रेष्ठ है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि प्रति मास सहस्रों गायों प्रतिमा की पूजा होने लगी, परिणामस्वरूप जिन-पूजा, दान आदि को का दान करने की अपेक्षा भी जो बाह्य रूप से दान नहीं करता वरन् संयम गृहस्थ का मुख्य कर्त्तव्य माना गया। दिगम्बर परम्परा में तो गृहस्थ के का पालन करता है, उस व्यक्ति का संयम ही अधिक श्रेष्ठ है। धम्मपद लिये प्राचीन षडावश्यकों के स्थान पर षट् दैनिक कृत्यों-जिनपूजा, में भी कहा गया है कि एक तरफ मनुष्य यदि वर्षों तक हजारों की दक्षिणाा गुरुसेवा, स्वाध्याय, तप, संयम एवं दान की कल्पना की गयी। हमें देकर प्रति मास यज्ञ करता जाय और दूसरी तरफ यदि वह पुण्यात्मा की आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, भगवती आदि प्राचीन आगमों में
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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
जिनपूजा की विधि का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। इनकी अपेक्षा परवर्ती हो सकता है। वह प्रायश्चित्त पाठ निम्नलिखित हैआगमों स्थानांग आदि में जिनप्रतिमा एवं जिनमन्दिर (सिद्धायतन) के उल्लेख है, किन्तु उनमें पूजा सम्बन्धी किसी अनुष्ठान की चर्चा नहीं है। जबकि राजप्रश्नीय में सूर्याभदेव और ज्ञाताधर्मकथा में द्रौपदी के द्वारा जिनप्रतिमाओं के पूजन के उल्लेख हैं। यह सब बृहद् हिन्दू परम्परा का जैनधर्म पर प्रभाव है।
हरिवंशपुराण में जिनसेन ने जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य का उल्लेख किया है। इस उल्लेख में भी अष्टद्रव्यों का क्रम यथावत् नहीं और न जल का पृथक् निर्देश ही है। स्मरण रहे कि प्रतिमा-प्रक्षालन की प्रक्रिया का अग्रिम विकास अभिषेक है जो अपेक्षाकृत और भी परवर्ती है।
पद्मपुराण, पद्मनन्दिकृत पंचविंशति, आदिपुराण, हरिवंशपुराण, वसुनन्दि श्रावकाचार आदि ग्रन्थों से अष्टद्रव्यों का फलादेश भी ज्ञात होता है। यह माना गया है कि अष्टद्रव्यों द्वारा पूजन करने से ऐहिक और पारलौकिक अभ्युदयों की प्राप्ति होती है। भावसंग्रह में भी अष्टद्रव्यों का पृथक्-पृथक् फलादेश बताया गया है।
डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री द्वारा प्रस्तुत यह विवरण हिन्दू परम्परा के प्रभाव से दिगम्बर परम्परा में पूजा-द्रव्यों के क्रमिक विकास को स्पष्ट कर देता है। श्वेताम्बर परम्परा में हिन्दुओं की पंचोपचारी पूजा से अष्टप्रकारी पूजा और उसी से सत्रह भेदी पूजा विकसित हुई। यह सर्वोपचारी या सत्रह भेदी वैष्णवो की षोडशोपचारी पूजा का ही रूप है और बहुत कुछ रूप में इसका उल्लेख राजप्रश्नीय में उपलब्ध है।
इस समग्र चर्चा में हमें ऐसा लगता है कि जैन परम्परा में सर्वप्रथम धार्मिक अनुष्ठान के रूप में षडावश्यकों का विकास हुआ। उन्हीं षडावश्यकों में स्तवन या गुण स्तुति का स्थान या उसी से आगे चलकर भावपूजा प्रचलित हुई और फिर द्रव्यपूजा की कल्पना सामने आई किन्तु द्रव्यपूजा का विधान केवल श्रावकों के लिये हुआ। तत्पश्चात् श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में जिनपूजा सम्बन्धी जटिल विधि-विधानों का जो विस्तार हुआ, वह सब ब्राह्मण परम्परा का प्रभाव था। आगे चलकर जिनमन्दिर के निर्माण एवं जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा के सम्बन्ध में हिन्दुओं का अनुसरण करके अनेक प्रकार के विधि-विधान बने पं० फूलचंदजी सिद्धान्तशास्त्री ने "ज्ञानपीठ पूजांजलि" की भूमिका में और डॉ० नेमिचंदजी शास्त्री ने अपने एक लेख 'पुष्पकर्म देवपूजा विकास एवं विधि' जो उनकी पुस्तक "भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मय का अवदान” ( प्रथम खण्ड), पृ० ३७९ पर प्रकाशित है, में इस बात को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि जैन परम्परा में पूजा- द्रव्यों का क्रमशः विकास हुआ है। यद्यपि पुष्पपूजा प्राचीनकाल से ही प्रचलित है फिर भी यह जैन परम्परा के आत्यन्तिक अहिंसा सिद्धान्त से मेल नहीं खाती है। एक ओर तो पूजा-विधान का पाठ जिसमें होने वाली एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा का प्रायश्चित्त हो और दूसरी ओर पुष्प, जो स्वयं एकेन्द्रिय जीव है, उन्हें जिन प्रतिमा को समर्पित करना कहाँ तक संगतिपूर्ण
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ईयापथे प्रचलताद्य मया प्रमादात्, एकेन्द्रियप्रमुखजीवनिकायबाधा । निद्वर्तिता यदि भवेव युगान्तरेक्षा, मिथ्या तदस्तु दुरितं गुरुभक्तितो मे । । स्मरणीय है कि श्वेताम्बर परम्परा में चैत्यवन्दन में भी 'इरियाविहि विराहनाये' नामक पाठ किया जाता है जिसका तात्पर्य है 'मैं चैत्यवन्दन के लिये जाने में हुई एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा का प्रायश्चित करता हूँ दूसरी ओर पूजाविधानों में एवं होमों में पृथ्वी, वायु, अप, अग्रि और वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा का विधान, एक आन्तरिक अंसगति तो है ही सम्भवतः हिन्दू धर्म के प्रभाव से ईसा की छठी-सातवीं शताब्दी तक जैनधर्म में पूजा-प्रतिष्ठा सम्बन्धी अनेक कर्मकाण्डों का प्रवेश हो गया था। यही कारण है कि आठवीं शती में हरिभद्र को इनमें से अनेक का मुनियों के लिये निषेध करना पड़ा। हरिभद्र ने सम्बोधप्रकरण में चैत्यों में निवास, जिनप्रतिमा की द्रव्यपूजा, जिनप्रतिमा के समक्ष नृत्य, गान, नाटक आदि का जैनमुनि के लिये निषेध किया है । १०
सामान्यत: जैन परम्परा में तपप्रधान अनुष्ठानों का सम्बन्ध कर्ममल को दूरकर मनुष्य के आध्यात्मिक गुणों का विकास और पाशविक आवेगों का नियन्त्रण रहा है जिनभक्ति और जिनपूजा सम्बन्धी अनुष्ठानों का उद्देश्य भी लौकिक उपलब्धियों एवं विघ्न-बाधाओं का अपशमन न होकर व्यक्ति का अपना आध्यात्मिक विकास ही है। जैन साधक स्पष्ट रूप से इस बात को दृष्टि में रखता है कि प्रभु की पूजा और स्तुति केवल भक्त के स्व-स्वरूप या जिनगुणों की उपलब्धि के लिये है।
जैन परम्परा का उद्घोष है 'वन्दे तद्गुण लब्धचे' अर्थात् जिनदेव की एवं हमारी आत्मा तत्त्वतः समान है, अतः वीतराग के गुणों की उपलब्धि का अर्थ है स्वरूप की उपलब्धि । इस प्रकार जैन अनुष्ठान मूलतः आत्मविशुद्धि और स्वरूप की उपलब्धि के लिये है। जैन अनुष्ठानों में जिन गाथाओं या मन्त्रों का पाठ किया जाता है, उनमें भी अधिकांशतः तो पूजनीय के स्वरूप का ही बोध कराते हैं अथवा आत्मा के लिये पतनकारी प्रवृत्तियों का अनुस्मरण कराकर उनसे मुक्त होने की प्रेरणा देते हैं।
यद्यपि जैन अनुष्ठानों की मूल प्रकृति अध्यात्मपरक है किन्तु मनुष्य की यह एक स्वाभाविक कमजोरी है कि वह धर्म के माध्यम से भौतिक सुख-सुविधाओं की उपलब्धि चाहता है, साथ ही उनकी उपलब्धि में बाधक शक्तियों के निवर्तन के लिये भी धर्म से ही अपेक्षा रखता है। वह धर्म को इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट के शमन का साधन मानता है। मनुष्य की इस स्वाभाविक प्रवृत्ति का यह परिणाम हुआ कि हिन्दू धर्म के प्रभाव से जैन परम्परा में भी अनुष्ठानों का आध्यात्मिक स्वरूप पूर्णतया स्थिर न रह सका, उसमें विकृति आयी सत्य तो यह है कि जैनधर्म का अनुयायी आखिर वही मनुष्य है जो भौतिक जीवन में सुख-समृद्धि की कामना से मुक्त नहीं है। अतः जैन आचार्यों के लिये यह आवश्यक हो
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श्रमण एवं वैदिक धारा का विकास एवं पारस्परिक प्रभाव
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गया कि वे अपने उपासकों की जैनधर्म में श्रद्धा बनाये रखने के लिये मन्त्रहीनं क्रियाहीनं द्रव्यहीनं तथैव च। जैनधर्म के साथ कुछ ऐसे अनुष्ठानों को भी जोड़ें जो अपने उपासकों तत्सर्व क्षम्यतां देव रक्ष रक्ष जिनेश्वर।।२।। के भौतिक कल्याण में सहायक हो। निवृत्तिप्रधान, अध्यात्मवादी एवं
. -विसर्जनपाठ कर्मसिद्धान्त में अटल विश्वास रखने वाले जैनधर्म के लिये यह न्यायसंगत इसके स्थान में ब्राह्मणधर्म में ये श्लोक उपलब्ध होते हैंतो नहीं था फिर भी यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि उसमें यह प्रवृत्ति आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम्। विकसित हुई है।
पूजनं नैव जानामि क्षमस्व परमेश्वर।।१।। जैनधर्म का तीर्थङ्कर व्यक्ति के भौतिक कल्याण में साधक या मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं जनार्दन। बाधक नहीं हो सकता है, अत: जैन अनुष्ठानों में जिनपूजा के यक्ष-यक्षियों यत्पूजितं मया देव परिपूर्ण तदस्तु मे।।२।। के रूप में शासनदेवता तथा देवी की कल्पना विकसित हुई और यह माना। - इसी प्रकार पंचोपचारपूजा, अष्टद्रव्यपूजा, यज्ञ का विधान, जाने लगा कि तीर्थङ्कर की अथवा अपनी उपासना से शासनदेवता (यक्ष- विनायक-यन्त्र-स्थापना, यज्ञोपवीतधारण आदि भी जैन-परम्परा के यक्षी) प्रसन्न होकर उपासक का कल्याण करते हैं। शासनरक्षक देवी- अनुकूल नहीं हैं। किन्तु जब पौराणिक धर्म का प्रभाव बढ़ने लगा, तो देवताओं के रूप में सरस्वती, लक्ष्मी, अग्निका, पद्मावती, चक्रेश्वरी, पंचोरपचारपूजा आदि विधियों का प्रवेश हुआ। दसवीं शती के अनन्तर काली आदि अनेक देवियों तथा मणिभद्र, घण्टाकर्ण महावीर, पार्श्वयक्ष इन विधियों को इतना महत्त्व प्राप्त हुआ जिससे पूर्व प्रचलित विधि गौण आदि यक्षों, दिक्पालों एवं अनेक क्षेत्रपालों (भैरवों) को जैन-परम्परा में हो गयी। प्रतिमा के समक्ष रहने पर भी आह्वान, सत्रिधिकरण, पूजन और स्थान मिला। इन सबकी पूजा के लिये जैनों ने विभिन्न अनुष्ठानों को विसर्जन क्रमश: पंचकल्याणकों की स्मृति के लिये व्यवहृत होने लगे। किंचित् परिवर्तन के साथ वैदिक परम्परा से ग्रहण कर लिया। भैरव पूजा को वैयावृत्य का अंग माना जाने लगा तथा एक प्रकार से इसे पद्मावतीकल्प आदि ग्रन्थों से इसकी पुष्टि होती है। जैन-पूजा और प्रतिष्ठा ‘आहारदान' के तुल्य महत्त्व प्राप्त हुआ। इस प्रकार पूजा के समय की विधि में वैदिक परम्परा के अनेक ऐसे तत्त्व भी जुड़ गये जो जैन- सामायिक या ध्यान की मूल भावना में परिवर्तन हुआ और पूजा को परम्परा के मूलभूत मन्तव्यों से भिन्न हैं। हम यह देखते हैं कि जैन-परम्परा अतिथिसंविभाग व्रत का अंग मान लिया गया। यह सभी ब्राह्मण परम्परा में चक्रेश्वरी, पद्मावती, अम्बिका, घण्टाकर्ण महावीर, नाकोड़ा भैरव, की अनुकृति ही है, यद्यपि इस सम्बन्ध में बोले जाने वाले मन्त्रों को निश्चिय भेमियाजी, दिक्पाल, क्षेत्रपाल आदि की उपासना प्रमुख होती जा रही ही जैन रूप दे दिया गया है। जिस परम्परा में एक वर्ग ऐसा हो जो तीर्थङ्कर है। जैनधर्म में पूजा और उपासना का यह दूसरा पक्ष जो हमारे सामने के कवलाहार का भी निषेध करता हो वही तीर्थङ्कर की सेवा में नैवेद्य आया, वह मूलत: वैदिक या ब्राह्मण-परम्परा का प्रभाव ही है। जिनपूजा अर्पित करे, यह क्या सिद्धान्त की विडम्बना नहीं कही जायेगी? जैनएवं अनुष्ठान विधियों में अनेक ऐसे मन्त्र मिलते हैं जिन्हें ब्राह्मण-परम्परा परम्परा ने पूजा-विधान के अतिरिक्त संस्कार-विधि में भी हिन्दू-परम्परा के तत्सम्बन्धी मन्त्रों का मात्र जैनीकरण कहा जा सकता है। उदाहरण के का अनुसरण किया है। सर्वप्रथम आचार्य जिनसेन ने आदिपुराण में हिन्दू रूप में जिस प्रकार ब्राह्मण-परम्परा में इष्ट देवता की पूजा के समय उसका संस्कारों को जैन दृष्टि से संशोधित करके जैनों के लिये भी एक पूरी आह्वान और विसर्जन किया जाता है, उसी प्रकार जैन-परम्परा में भी पूजा संस्कार-विधि तैयार की है। सामान्यतया हिन्दुओं में जो सोलह संस्कारों के समय जिन के आह्वान और विसर्जन के मन्त्र बोले जाते हैं। यथा- की परम्परा है, उसमें निवृत्तिमूलक परम्परा की दृष्टि से दीक्षा ॐ ह्रीं णमों सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् अत्र अवतर अवतर संवोषट्। (संन्यासग्रहण) आदि कुछ संस्कारों की वृद्धि करके यह संस्कार-विधि ऊँ ह्रीं णमों सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। तैयार की गयी है। इसमें गर्भान्वय क्रिया, दीक्षान्वय क्रिया और क्रियान्वय ॐ ह्रीं णमों सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् अत्र मम सन्निहतो भवभव वषट्। क्रिया ऐसे तीन विभाग किये गए हैं। इनमें गर्भ से लेकर निर्वाण पर्यन्त ऊँ ह्रीं णमों सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् स्वस्थानं गच्छ गच्छ जः जः जः। क्रियाएँ बताई गई हैं। यह स्पष्ट है कि दिगम्बर परम्परा में जो संस्कार
ये मन्त्रं जैनदर्शन की मूलभूत मान्यताओं के प्रतिकूल हैं। विधि प्रचलित हुई वह बृहद् हिन्दू-परम्परा से प्रभावित है। श्वेताम्बर परम्परा क्योंकि जहाँ ब्राह्मण-परम्परा का यह विश्वास है कि आह्वान करने पर देवता में किसी संस्कार-विधि का उल्लेख नहीं मिलता है किन्तु व्यवहार में वे आते हैं और विसर्जन करने पर चले जाते हैं। वहाँ जैन-परम्परा में भी हिन्दू-परम्परा में प्रचलित संस्कारों को यथावत् रूप में अपनाते हैं। सिद्धावस्था को प्राप्त तीर्थङ्कर न तो आह्वान करने पर उपस्थित हो सकते उनमें आज भी विवाहादि संस्कार हिन्दू परम्परानुसार ही ब्राह्मण पण्डित हैं और न विसर्जन करने पर जा ही सकते हैं। पं० फूलचन्दजी ने “ज्ञानपीठ के द्वारा सम्पन्न कराए जाते हैं। अत: स्पष्ट है कि विवाहादि संस्कारों के पूजांजलि" की भूमिका में विस्तार से इसकी चर्चा की है तथा आह्वान सम्बन्ध में भी जैन परम्परा पर हिन्दू परम्परा का स्पष्ट प्रभाव है। एवं विसर्जन सम्बन्धी जैन मन्त्रों की ब्राह्मण मन्त्रों में समानता भी दिखाई वस्तुत: मन्दिर एवं जिनबिम्ब-प्रतिष्ठा आदि से सम्बन्धित है। तुलना कीजिये
अधिकांश अनुष्ठान ब्राह्मण परम्परा की देन हैं और उसकी मूलभूत आवाहनं नैव जानामि नैव जानामि पूजनम्।
प्रकृति कहे जा सकते हैं। किसी भी परम्परा के लिये अपनी सहवर्ती विसर्जनं न जानामि क्षमस्व परमेश्वर।।१।।
परम्परा से पूर्णतया अप्रभावित रह पाना कठिन है और इसलिये यह
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
स्वाभाविक ही था कि जैन-परम्परा की अनुष्ठान विधियों में ब्राह्मण लगभग सातवीं सदी में दक्षिण भारत में हुए आचार्य जिनसेन ने परम्परा का प्रभाव आया।
लोकापवाद के भय से तथा जैन धर्म का अस्तित्व और सामाजिक सम्मान
बनाये रखने के लिये हिन्दू वर्ण एवं जाति-व्यवस्था को इस प्रकार हिन्दु वर्ण एवं जाति व्यवस्था का जैनधर्म पर प्रभाव
आत्मसात कर लिया कि इस सम्बन्ध में जैनों का जो वैशिष्ट्य था, वह मूलतः श्रमण-परम्परा और जैनधर्म वर्ण-व्यवस्था के विरुद्ध प्राय: समाप्त हो गया। जिनसेन ने सर्वप्रथम यह बताया कि आदि ब्रह्मा खड़े हुए थे किन्तु कालक्रम में बृहत् हिन्दू-समाज के प्रभाव से उसमें ऋषभदेव ने षट्कर्मों का उपदेश देने के पश्चात् तीन वर्णों (क्षत्रिय, वैश्य, भी वर्ण एवं जाति सम्बन्धी अवधारणाएँ प्रविष्ट हो गईं। जैन परम्परा में और शूद्र) की सृष्टि की। इसी ग्रन्थ में आगे यह भी कहा गया है कि जाति और वर्ण-व्यवस्था के उद्भव एवं ऐतिहासिक विकास का विवरण जो क्षत्रिय और वैश्य वर्ण की सेवा करते हैं वे शूद्र हैं। इनके दो भेद सर्वप्रथम आचारांगनियुक्ति (लगभग ईस्वी सन् तीसरी शती) में प्राप्त होता हैं-कारू और अकारू। पुनः कारू के भी दो भेद हैं-स्पृश्य और अस्पृश्य। है। उसके अनुसार प्रारम्भ में मनुष्य जाति एक ही थी। ऋषभ के द्वारा राज्य- धोबी, नापित आदि स्पृश्य शूद्र हैं और चाण्डाल आदि जो नगर के बाहर व्यवस्था का प्रारम्भ होने पर उसके दो विभाग हो गये-१. शासक (स्वामी) रहते हैं वे अस्पृश्य शूद्र हैं (आदिपुराण, १६/१८४-१८६)। शूद्रों के एवं २. शासित (सेवक)। उसके पश्चात् शिल्प और वाणिज्य के विकास कारू और अकारू तथा स्पृश्य और अस्पृश्य ये भेद सर्वप्रथम केवल के साथ उसके तीन विभाग हुए-१. क्षत्रिय (शासक), २. वैश्य (कृषक पुराणकाल में जिनसेन ने किये हैं। उनके पूर्ववर्ती अन्य किसी जैन आचार्य और व्यवसायी) और ३. शूद्र (सेवक)। उसके पश्चात् श्रावक-धर्म की ने इस प्रकार के भेदों को मान्य नहीं किया है। किन्तु हिन्दू समाज-व्यवस्था स्थापना होने पर अहिंसक, सदाचारी और धर्मनिष्ठ व्यक्तियों को ब्राह्मण से प्रभावित होने के बाद के जैन आचार्यों ने इसे प्राय: मान्य किया। (माहण) कहा गया। इस प्रकार क्रमश: चार वर्ण अस्तित्व में आए। इन षट्प्राभृत के टीकाकार श्रुतसागर ने भी इस स्पृश्य-अस्पृश्य की चर्चा चार वर्गों के स्त्री-पुरुषों के समवर्णीय अनुलोम एवं प्रतिलोम संयोगों से की है। यद्यपि पुराणकार ने शूद्रों को एकशाटकव्रत अर्थात क्षुल्लकदीक्षा सोलह वर्ण बने जिनमें सात वर्ण और नौ अन्तर वर्ण कहलाए। सात वर्ण का अधिकार मान्य किया था किन्तु बाद के दिगम्बर जैन आचार्यों ने उसमें में समवर्णीय स्त्री-पुरुष के संयोग से चार मूल वर्ण तथा ब्राह्मण पुरुष भी कमी कर दी और शूद्र की मुनि-दीक्षा एवं जिनमन्दिर में प्रवेश का एवं क्षत्रिय स्त्री के संयोग से उत्पन्न, क्षत्रिय पुरुष एवं वैश्य स्त्री के संयोग भी निषेध कर दिया। श्वेताम्बर परम्परा में स्थानांगसूत्र (३/२०२) के से उत्पन्न और वैश्य पुरुष एवं शूद्र स्त्री के संयोग से उत्पन्न, ऐसे अनुलोम मूलपाठ में तो केवल रोगी, भयार्त और नपुंसक की मुनि-दीक्षा का निषेध संयोग से उत्पन्न तीन वर्ण। आचारांगचूर्णि (ईसा की ७वीं शती) में इसे था किन्तु परवर्ती टीकाकारों ने चाण्डालादि जाति-जुंगित और व्याधादि स्पष्ट करते हुए बताया गया है कि 'ब्राह्मण पुरुष एवं क्षत्राणी के संयोग कर्मसुंगति लोगों को दीक्षा देने को निषेध कर दिया। यद्यपि यह सब जैनसे जो सन्तान उत्पन्न होती है वह उत्तम क्षत्रिय, शुद्ध क्षत्रिय या संकर धर्म की मूल परम्परा के तो विरूद्ध ही था फिर भी हिन्दू-परम्परा के प्रभाव क्षत्रिय कही जाती है, यह पाँचवाँ वर्ण है। इसी प्रकार क्षत्रिय पुरुष और से इसे मान्य कर लिया गया। स्थिति यहाँ तक पहुँची कि एक ही जैनधर्म वैश्य स्त्री से उत्पन्न सन्तान उत्तम वैश्य, शुद्ध वैश्य या संकर वैश्य कही के अनुयायी जातीय भेद के आधार पर दूसरी जाति का छुआ हुआ खाने जाती है, यह छठाँ वर्ण है तथा वैश्य पुरुष एवं शूद्र-स्त्री के संयोग से में, उन्हें साथ बिठाकर भोजन करने में आपत्ति करने लगे। शूद्र का जलउत्पन्न सन्तान शुद्ध शूद्र या संकर शूद्र कही जाती है, यह सातवाँ वर्ण त्याग एक आवश्यक कर्तव्य हो गया और शूद्रों का जिन-मन्दिर में प्रवेश है। पुन: अनुलोम और प्रतिलोम सम्बन्धों के आधार पर निम्नलिखित नौ निषिद्ध कर दिया गया। अन्तर-वर्ण बनोब्राह्मण पुरुष और वैश्य स्त्री से 'अम्बष्ठ' नामक आठवाँ इस प्रकार जहाँ प्राचीन स्तर में जैन चारों ही वर्गों और सभी वर्ण उत्पन्न हुआ, क्षत्रिय पुरुष और शूद्र स्त्री से 'उग्र' नामक नवाँ वर्ण जातियों के व्यक्ति जिन-पूजा करने, श्रावक धर्म एवं मुनिधर्म का पालन हुआ, ब्राह्मण पुरुष और शूद्र स्त्री से 'निषाद' नामक दसवाँ वर्ण उत्पन्न करने और साधना के सर्वोच्च लक्ष्य निर्वाण को प्राप्त करने के अधिकारी हुआ, शूद्र पुरुष और वैश्य स्त्री से 'अयोग' नामक ग्यारहवाँ वर्ण उत्पन्न माने गये थे, वहीं सातवीं-आठवीं सदी में जिनसेन ने सर्वप्रथम शूद्र को हुआ, क्षत्रिय और ब्राह्मणी से 'सूत' नामक तेरहवाँ वर्ण हुआ, शूद्र पुरुष मुनि-दीक्षा और मोक्ष-प्राप्ति हेतु अयोग्य माना। श्वेताम्बर आगमों में कहीं
और क्षत्रिय स्त्री से 'क्षत्रा' (खन्ना) नामक चौदहवाँ वर्ण उत्पन्न हुआ, वैश्य शूद्र की दीक्षा का निषेध नहीं है, स्थानांग में मात्र रोगी, भयार्त और नपुंसक पुरुष और ब्राह्मण स्त्री के संयोग से 'वेदेह' नामक पन्द्रहवाँ वर्ण उत्पन्न की दीक्षा का निषेध है किन्तु आगे चलकर उनमें भी जाति-जुंगति जैसेहुआ और शूद्र पुरुष तथा ब्राह्मण स्त्री के संयोग से 'चाण्डाल' नामक चाण्डाल आदि और कर्म-जुंगित जैसे-कसाई आदि की दीक्षा का निषेध सोलहवाँ वर्ण हुआ। इसके पश्चात् इन सोलह वर्गों में परस्पर अनुलोम कर दिया गया। किन्तु यह बृहत्तर हिन्दू-परम्परा का प्रभाव ही था जो कि एवं प्रतिलोम संयोग से अनेक जातियाँ अस्तित्व में आयीं" जैनधर्म के मूल सिद्धान्त के विरुद्ध था। जैनों ने इसे केवल अपनी
उपरोक्त विवरण में हम यह देखते हैं कि जैन धर्म के आचार्यों सामाजिक प्रतिष्ठा को बनाए रखने हेतु मान्य किया क्योंकि आगमों में ने भी काल-क्रम में जाति और वर्ण की उत्पत्ति के सन्दर्भ में हिन्दू-परम्परा हरिकेशीबल, मेतार्य, मातंगमुनि आदि अनेक चाण्कलों के मुनि होने और की व्यवस्थाओं को अपने ढंग से संशोधित कर स्वीकार कर लिया। मोक्ष प्राप्त करने के उल्लेख हैं।
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सन्दर्भ
१.
२.
३.
४.
उत्तराध्ययन, २५ / २७, २१.
धम्मपद, ४०१-४०३.
श्रमण एवं वैदिक धारा का विकास एवं पारस्परिक प्रभाव
उत्तराध्ययन, १२ / ४४.
८.
अंगुत्तरनिकाय, सुत्तनिपात उधृत भगवान् बुद्ध ( धर्मानन्द ९. कौसाम्बी), पृ० २६.
यद्यपि जनसंख्या की दृष्टि से आज विश्व में प्रति एक हजार व्यक्तियों में मात्र छह व्यक्ति जैन हैं, फिर भी विश्व के धर्मों के इतिहास में जैन धर्म का अपना एक विशिष्ट स्थान है क्योंकि वैचारिक उदारता, दार्शनिक गंभीरता, विपुल साहित्य और उत्कृष्ट शिल्प की दृष्टि से विश्व के धर्मों में इसका अवदान महत्त्वपूर्ण है। प्रस्तुत निबन्ध में हम इस धर्म परम्परा को इतिहास के आइने में देखने का प्रयास करेंगे।
श्रमण परम्परा
विश्व के धर्मों की मुख्यतः सेमेटिक धर्म और आर्य धर्म, ऐसी दो शाखाएँ हैं। सेमेटिक धर्मों में यहूदी, ईसाई और मुसलमान आते हैं जबकि आर्य धर्मों में पारसी, हिन्दू (वैदिक), बौद्ध और जैन धर्म की गणना की जाती है। इनके अतिरिक्त सुदूर पूर्व के देश जापान और चीन में विकसित कुछ धर्म कन्फूशियस एवं शिन्तो के नाम से जाने जाते हैं आर्य धर्मों में जहाँ हिन्दू धर्म के वैदिक स्वरूप को प्रवृत्तिमार्गी माना जाता है वहाँ जैनधर्म और बौद्धधर्म को संन्यासमार्गी या निवृत्तिपरक कहा जाता है। जैन और बौद्ध दोनों ही धर्म श्रमण परम्परा के धर्म हैं। श्रमण परम्परा की विशेषता यह है कि वह सांसारिक एवं ऐहिक जीवन की दुःखमयता को उजागर कर संन्यास एवं वैराग्य के माध्यम से निर्वाण की प्राप्ति को जीवन का चरम लक्ष्य निर्धारित करती है। इस निवृत्तिमार्गी श्रमण परम्परा ने अपनी तप एवं योग की आध्यात्मिक साधना एवं शीलों या व्रतों के रूप में नैतिक मूल्यों की संस्थापना की दृष्टि से भारतीय धर्मों के इतिहास में अपना विशिष्ट अवदान प्रदान किया है। इस श्रमण परम्परा में न केवल जैन और बौद्ध धारायें ही सम्मिलित हैं, अपितु औपनिषदिक और सांख्य योग की धारायें भी सम्मिलित हैं जो आज बृहद् हिन्दू धर्म का ही एक अंग बन चुकी हैं। इनके अतिरिक्त आजीवक आदि अन्य कुछ धाराएं भी थीं जो आज विलुप्त हो चुकी हैं।
५.
६.
७.
पारस्परिक सौहार्द की प्राचीन स्थिति
प्राकृत साहित्य में ऋषिभाषित (इसिभासियाई) और पालि साहित्य में थेरगाथा ऐसे ग्रन्थ हैं जो इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि अति
भगवान बुद्ध (धर्मानन्द कौसाम्बी), पृ०, २३६-२३९. गीता, ४ / ३३, २६-२८.
जैन धर्म की परम्परा, इतिहास के झरोखे से
उत्तराध्ययन, १२ / ४६.
उत्तराध्ययन, ९ / ४० देखिये- गीता ( शा० ) ४ / २६-२७. धम्मपद, १०६.
१०. सम्बोध प्रकरण, गुर्वाधिकार
६०३
प्राचीन काल में आचार और विचारगत विभिन्नताओं के होते हुए भी इन ऋषियों में पारस्परिक सौहार्द था ।
ऋषिभाषित जो कि प्राकृत जैन आगमों और बौद्ध पालिपिटकों में अपेक्षाकृत रूप से प्राचीन है और जो किसी समय जैन परम्परा का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता था, अध्यात्मप्रधान श्रमणधारा के इस पारस्परिक सौहार्द और एकरूपता को सूचित करता है। यह ग्रन्थ आचारांग
प्रथम श्रुतस्कन्ध के पश्चात् तथा शेष सभी प्राकृत और पालि साहित्य के पूर्व ई० पू० लगभग चतुर्थ शताब्दी में निर्मित हुआ है। इस ग्रन्थ में निर्मन्थ, बौद्ध, औपनिषदिक एवं आजीवक आदि अन्य श्रमण परम्पराओं के ४५ ऋषियों के उपदेश संकलित हैं। इसी प्रकार बौद्ध परम्परा के ग्रन्थ थेरगाथा में भी श्रमण धारा के विभिन्न ऋषियों के उपदेश एवं आध्यात्मिक अनुभूतियाँ संकलित हैं। ऐतिहासिक एवं अनाग्रही दृष्टि से अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि न तो ऋषिभासित (इसिभासियाई) के सभी ऋषि जैन परम्परा के हैं और न थेरगाथा के सभी थेर (स्थावर) बौद्ध परम्परा के हैं। जहाँ ऋषिभाषित में सारिपुत्र, वात्सीपुत्र ( वज्जीपुत्त) और महाकाश्यप बौद्ध परम्परा के हैं, वहीं उद्दालक, याज्ञवल्क्य, अरुण, असितदेवल, नारद, द्वैपायन, अंगिरस, भारद्वाज आदि औपनिषदिक धारा से सम्बन्धित है, तो संजय (संजय वेलट्ठिपुत्त), मंखली गोशालक, रामपुत्त आदि अन्य स्वतन्त्र श्रमण परम्पराओं से सम्बन्धित हैं। इसी प्रकार बेरगाथा में वर्द्धमान आदि जैन धारा की, तो नारद आदि औपनिषदिक धारा के ऋषियों की स्वानुभूति संकलित है। सामान्यतया यह माना जाता है कि श्रमणधारा का जन्म वैदिक धारा की प्रतिक्रिया के रूप में 'हुआ किन्तु इसमें मात्र आंशिक सत्यता है। यह सही है कि वैदिक धारा प्रवृत्तिमार्गी थी और श्रमण धारा निवृत्तिमार्गी और इनके बीच वासना और विवेक अथवा भोग और त्याग के जीवन मूल्यों का संघर्ष था। किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से तो भ्रमण धारा का उद्भव मानव व्यक्तित्व के परिशोधन एवं नैतिक तथा अध्यात्मिक मूल्यों के प्रतिस्थापन का ही प्रयत्न था जिसमें श्रमण-ब्राह्मण सभी सहभागी बने थे। ऋषिभाषित में इन ऋषियों को अर्हत् कहना और सूत्रकृतांग में इन्हें अपनी परम्परा से सम्मत मानना, प्राचीन काल में इन ऋषियों की परम्परा के बीच पारस्परिक सौहार्द का
.
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
ही सूचक है।
हमारे पास ऐसा कोई भी साक्ष्य उपलब्ध नहीं है जिसके आधार पर यह
कहा जा सके कि पार्श्व की परम्परा पूर्णत: महावीर की परम्परा में विलीन निर्ग्रन्थ परम्परा
हो गयी थी। फिर भी इतना निचित है कि पार्थापत्यों का एक बड़ा भाग लगभग ई०पू० सातवीं-छठी शताब्दी का युग एक ऐसा युग महावीर की परम्परा में सम्मिलित हो गया था और महावीर की परम्परा था जब जन समाज इन सभी श्रमणों, तपस्वियों, योग-साधकों एवं ने पार्श्व को अपनी ही परम्परा के पूर्व पुरुष के रूप में मान्य कर लिया चिन्तकों के उपदेशों को आदरपूर्वक सुनता था और अपने जीवन को था। पार्श्व के लिए 'पुरुषादानीय' शब्द का प्रयोग इसका प्रमाण है। आध्यात्मिक एवं नैतिक साधना से जोड़ता था। फिर भी वह किसी वर्ग- कालान्तर में ऋषभ,नमि और अरिष्टनेमि जैसे प्रागैतिहासिक काल के विशेष या व्यक्ति-विशेष से बंधा हुआ नहीं था। दूसरे शब्दों में उस युग महान् व्यक्तियों को स्वीकार करके निर्ग्रन्थ परम्परा ने अपने अस्तित्व को में, धर्म परम्पराओं या धार्मिक सम्प्रदायों का उद्भव नहीं हुआ था। क्रमश: अति प्राचीनकाल से जोड़ने का प्रयत्न किया। इन श्रमणों, साधकों एवं चिन्तकों के आसपास शिष्यों, उपासकों एवं श्रद्धालुओं का एक वर्तुल खड़ा हुआ। शिष्यों एवं प्रशिष्यों की परम्परा ऋषभ आदि तीर्थकरों की ऐतिहासिकता का प्रश्न चली और उनकी अलग-अलग पहचान बनने लगी। इसी क्रम में निर्ग्रन्थ वेदों एवं वैदिक परम्परा के प्राचीन ग्रन्थों से इतना तो निर्विवाद परम्परा का उद्भव हुआ। जहाँ पार्श्व की परम्परा के श्रमण अपने को रूप से सिद्ध होता है कि वातरशना मुनियों एवं व्रात्यों के रूप में श्रमण पार्थापत्य-निर्ग्रन्थ कहने लगे, वहीं वर्द्धमान महावीर के श्रमण अपने को धारा उस युग में भी जीवित थी जिसके पूर्व पुरुष ऋषभ थे। फिर भी आज ज्ञात्रपुत्रीय निर्ग्रन्थ कहने लगे। सिद्धार्थ गौतम बुद्ध का भिक्षु संघ शाक्य ऐतिहासिक आधार पर यह बता पाना कठिन है कि ऋषभ की दार्शनिक पुत्रीय श्रमण के नाम से पहचाना जाने लगा।
एवं आचार सम्बन्धी विस्तृत मान्यताएं क्या थीं और वे वर्तमान जैन पार्श्व और महावीर की एकीकृत परम्परा निर्ग्रन्थ के नाम से जानी परम्परा के कितनी निकट थीं, तो भी इतना निश्चित है कि ऋषभ संन्यास जाने लगी। जैन धर्म का प्राचीन नाम हमें निर्ग्रन्थ धर्म के रूप में ही मिलता मार्ग के प्रवर्तक के रूप में ध्यान और तप पर अधिक बल देते थे। ऋषभ, है। जैन शब्द तो महावीर के निर्वाण के लगभग एक हजार वर्ष बाद नमि, अजित, अर, अरिष्टनेमि, पार्श्व और महावीर को छोड़कर अन्य अस्तित्व में आया है। अशोक (ई०पू० तृतीय शताब्दी), खारबेल तीर्थंकरों की ऐतिहासिकता के सम्बन्ध में ऐतिहासिक साक्ष्य पूर्णत: मौन (ई०पू० द्वितीय शताब्दी) आदि के शिलालेखों में जैन धर्म का उल्लेख हैं और उनके प्रति हमारी आस्था का आधार परवर्ती काल के आगम और निर्ग्रन्थ संघ के रूप में ही हुआ है।
अन्य कथा ग्रन्थ ही हैं।
में भी जीविशना मुनियों पास इतना तो
पार्श्व एवं महावीर की परम्परा
महावीर और अजीवक परम्परा ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन, सूत्रकृतांग आदि से ज्ञात होता है जैन धर्म के इस पूर्व-इतिहास की इस संक्षिप्त रूप रेखा देने कि पहले निर्ग्रन्थ धर्म में नमि, बाहुक, कपिल, नारायण (तारायण), के पश्चात् जब हम पुन: महावीर के काल की ओर आते हैं तो कल्पअंगिरस, भारद्वाज, नारद आदि ऋषियों को भी जो कि वस्तुत: उसकी सूत्र एवं भगवती में कुछ ऐसे सूचना सूत्र मिलते हैं, जिनके आधार पर परम्परा के नहीं थे, अत्यन्त सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त था। पार्श्व और महावीर ज्ञातपुत्र श्रमण महावीर के पार्थापत्यों के अतिरिक्त आजीवकों के साथ के समान इन्हें भी अर्हत् कहा गया था किन्तु जब निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय पार्श्व भी निकट सम्बन्धों की पुष्टि होती है। और महावीर के प्रति केन्द्रित होने लगा तो इन्हें प्रत्येक-बुद्ध के रूप में जैनागमों और आगमिक व्याख्याओं में यह माना गया है कि सम्मानजनक स्थान तो दिया गया किन्तु अपरोक्ष रूप से अपनी परम्परा महावीर दीक्षित होने के दूसरे वर्ष में ही मंखली पुत्र गोशालक उनके निकट से पृथक् मान लिया गया। इस प्रकार हम देखते हैं कि ई०पू० पांचवीं सम्पर्क में आया था, कुछ वर्ष दोनों साथ भी रहे किन्तु नियतिवाद और या चौथी शती में निर्ग्रन्थ संघ पार्श्व और महावीर तक सीमित हो गया। पुरुषार्थवाद सम्बन्धी मतभेदों के कारण दोनों अलग-अलग हो गये। हरमन यहाँ यह भी स्मरण रखना होगा कि प्रारम्भ में महावीर और पार्श्व की जेकोबी ने तो यह कल्पना भी की है कि महावीर की निम्रन्थ परम्परा में परम्पराएँ भी पृथक्-पृथक् ही थीं। यद्यपि उत्तराध्ययन एवं भगवतीसूत्र की नग्नता आदि जो आचार्य मार्ग की कठोरता है, वह गोशालक की सूचनानुसार महावीर के जीवन काल में पार्श्व की परम्परा के कुछ श्रमण आजीवक परम्परा का प्रभाव है। यह सत्य है कि गोशालक के पूर्व भी उनके व्यक्तित्व से प्रभावित हो उनके संघ में सम्मिलित हुए थे किन्तु आजीवकों की एक परम्परा थी जिसमें अर्जुन आदि आचार्य थे। फिर भी महावीर के जीवन काल में महावीर और पार्श्व की परम्पराएँ पूर्णत: ऐतिहासिक साक्ष्य के अभाव में यह कहना कठिन है कि कठोर साधना एकीकृत नहीं हो सकी। उत्तराध्ययन में प्राप्त उल्लेख से ऐसा लगता है की यह परम्परा महावीर से आजीवक परम्परा में गई या आजीवक कि महावीर के निर्वाण के पश्चात् ही श्रावस्ती में महावीर के प्रधान शिष्य गोशालक के द्वारा महावीर की परम्परा में आई। क्योंकि इस तथ्य का गौतम और पार्थापत्य परम्परा के तत्कालीन आचार्य केशी ने परस्पर कोई प्रमाण नहीं है कि महावीर से अलग होने के पश्चात् गोशालक मिलकर दोनों संघों के एकीकरण की भूमिका तैयार की थी। यद्यपि आज आजीवक परम्परा से जुड़ा था या वह प्रारम्भ में ही आजीवक परम्परा
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श्रमण एवं वैदिक धारा का विकास एवं पारस्परिक प्रभाव
में दीक्षित होकर महावीर के पास आया था। फिर भी इतना निश्चित है कि ईसा की प्रथम द्वितीय शताब्दी के बाद तक भी इस आजीवक परम्परा का अस्तित्व रहा है। यह निर्ग्रन्थों एवं बौद्धों की एक प्रतिस्पर्धी श्रमण परम्परा थी जिसके श्रमण भी जैनों की दिगम्बर शाखा के समान नग्न रहते थे। जैन और आजीवक दोनों परम्पराएं प्रतिस्पर्धी होकर भी एक दूसरे को अन्य परम्पराओं की अपेक्षा अधिक सम्मान देती थीं, इस तथ्य की पुष्टि हमें बौद्ध पिटक साहित्य में उपलब्ध व्यक्तियों के षविध वर्गीकरण से होती है। निर्ग्रन्थों को अन्य परम्परा के श्रमणों से ऊपर और आजीवक परम्परा से नीचे स्थान दिया गया है। इस प्रकार आजीवकों के निर्धन्य संघ से जुड़ने एवं अलग होने की यह घटना निर्बन्ध परम्परा की एक महत्त्वपूर्ण घटना है। साथ ही निर्मन्थों के प्रति अपेक्षाकृत उदार भाव दोनों संघों की आंशिक निकटता का भी सूचक है।
वस्त्रधारी श्रावक कहा गया, वे वस्तुतः सवस्त्र श्रमण ही होंगे। क्योंकि बौद्ध परम्परा में श्रमण (भिक्षु) को भी श्रावक कहा गया है, फिर भी इस
संबंध में गम्भीर चिन्तन की आवश्कता है।
निर्ग्रन्ध परम्परा में महावीर के जीवनकाल में हुए संघ भेद
महावीर के जीवनकाल में निर्ग्रन्थ संघ की अन्य महत्त्वपूर्ण घटना महावीर के जामातृ कहे जाने वाले जामालि से उनका वैचारिक मतभेद होना और जामालि का अपने पाँच सौ शिष्यों सहित उनके संघ से अलग होना है भगवती, आवश्यक निर्युक्ति और परवर्ती ग्रन्थों में इस सम्बन्ध में विस्तृत विवरण उपलब्ध है। निर्धन्य संघ भेद की इस घटना के अतिरिक्त हमें बौद्ध पिटक साहित्य में एक अन्य घटना का उल्लेख भी मिलता है जिसके अनुसार महावीर के निर्वाण होते ही उनके भिक्षुओं एवं श्वेत वस्त्रधारी श्रावकों में तीव्र विवाद उत्पन्न हो गया। निर्ग्रन्थ संघ के इस विवाद की सूचना बुद्ध तक भी पहुंचती है। किन्तु पिटक साहित्य में इस विवाद के कारण क्या थे, इसकी कोई चर्चा नहीं है। एक सम्भावना यह हो सकती है कि यह विवाद महावीर के उत्तराधिकारी के प्रश्न को लेकर हुआ होगा । श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं में महावीर के प्रथम उत्तराधिकारी को लेकर मतभेद है। दिगम्बर परम्परा महावीर के पश्चात् गौतम को पट्टधर मानती है, जबकि श्वेताम्बर परम्परा सुधर्मा को श्वेताम्बर परम्परा में महावीर के निर्वाण के समय गौतम को निकट के दूसरे ग्राम में किसी देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोध देने हेतु भेजने की जो घटना वर्णित है, वह भी इस प्रसंग में विचारणीय हो सकती है। किन्तु दूसरी सम्भावना यह भी हो सकती है कि बौद्धों ने जैनों के वेताम्बर एवं दिगम्बर सम्बन्धी परवर्ती विवाद को पिटकों के सम्पादन के समय महावीर के निर्वाण की घटना के साथ जोड़ दिया हो मेरी दृष्टि में यदि ऐसा कोई विवाद घटित हुआ होगा तो वह महावीर के नग्न रखने वाले श्रमणों के बीच हुआ होगा, क्योंकि पार्श्वापत्यों के महावीर के निर्धन्य संघ में प्रवेश के साथ ही उनके संघ में नग्न और सबस्त्र ऐसे दो वर्ग अवश्य ही बन गये होंगे और महावीर भ्रमणों के इन दो वर्गों को सामायिक चारित्र और छेदोपस्थापनीय चारित्र धारी के रूप में विभाजित किया होगा। विवाद का कारण ये दोनों वर्ग ही रहे होंगे। मेरी दृष्टि में बौद्ध परम्परा में जिन्हें श्वेत उत्तर और दक्षिण के निर्धन्य श्रमणों में आधार भेद
निर्ग्रन्थ संघ की धर्म प्रसार यात्रा
भगवान महावीर के काल में उनके निर्ग्रन्थ संघ का प्रभाव क्षेत्र बिहार एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा उनके आसपास का प्रदेश ही था। किन्तु महावीर के निर्वाण के पश्चात् इन सीमाओं में विस्तार होता गया। फिर भी आगमों और नियुक्तियों की रचना तथा तीर्थकरों की अवधारणा के विकास काल तक उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब एवं पश्चिमी राजस्थान के कुछ भाग तक ही निर्ग्रन्थों के विहार की अनुमति थी । तीर्थंकरों के कल्याण क्षेत्र भी यहीं तक सीमित थे। मात्र अरिष्टनेमि ही ऐसे तीर्थंकर हैं जिनका संबंध शूरसेन (मथुरा के आसपास के प्रदेश) के अतिरिक्त सौराष्ट्र से भी दिखाया गया है और उनका निर्वाण स्थल गिरनार पर्वत माना गया है किन्तु आगमों में द्वारिका और गिरनार की जो निकटता वर्णित है वह यथार्थ स्थिति से भिन्न है। सम्भवतः अरिष्टनेमि और कृष्ण के निकट सम्बन्ध होने के कारण ही कृष्ण के साथ-साथ अरिष्टनेमि का सम्बन्ध भी द्वारिका से जोड़ा गया होगा। अभी तक इस सम्बन्ध में ऐतिहासिक साक्ष्यों का अभाव है। विद्वानों से अपेक्षा है कि इस दिशा में खोज करें।
जो कुछ ऐतिहासिक साक्ष्य मिले है उससे ऐसा लगता है कि निर्ग्रन्य संघ अपने जन्म स्थल बिहार से दो दिशाओं में अपने प्रचार अभियान के लिए आगे बढ़ा। एक वर्ग दक्षिण बिहार एवं बंगाल से उड़ीसा के रास्ते तमिलनाडु गया और वहीं से उसने श्रीलंका और स्वर्णदेश (जावा सुमात्रा आदि) की यात्राएं कीं। लगभग ई०पू० दूसरी शती में बौद्धों के बढ़ते प्रभाव के कारण निर्मन्थों को श्रीलंका से निकाल दिया गया। फलतः वे पुनः तमिलनाडु में आ गये। तमिलनाडु में लगभग ई०पू० प्रथम द्वितीय शती से ब्राह्मी लिपि में अनेक जैन अभिलेख मिलते हैं जो इस तथ्य के साक्षी हैं कि निर्ग्रन्थ संघ महावीर के निर्वाण के लगभग दो, तीन सौ वर्ष पश्चात् ही तमिल प्रदेश में पहुँच चुका था। मान्यता तो यह भी है कि आचार्य भद्रबाहु, चन्द्रगुप्त मौर्य को दीक्षित करने दक्षिण गये थे। यद्यपि इसकी ऐतिहासिक प्रामाणिकता निर्विवाद रूप से सिद्ध नहीं हो सकती है क्योंकि जो अभिलेख घटना का उल्लेख करता है वह लगभग छठी सातवीं शती का है। आज भी तमिल जैनों की विपुल संख्या है और वे भारत में जैन धर्म के अनुयायियों की प्राचीनतम परम्परा के प्रतिनिधि हैं। यद्यपि बिहार, बंगाल और उड़ीसा की प्राचीन जैन परम्परा कालक्रम में विलुप्त हो गयी है किन्तु सराक जाति के रूप में उस परम्परा के अवशेष आज भी शेष हैं 'सराक' शब्द श्रावक का ही अपभ्रंश रूप है और आज भी इस जाति में रात्रि भोजन निषेध जैसे कुछ संस्कार शेष हैं।
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दक्षिण में गया निर्ग्रन्थ संघ अपने साथ विपुल प्राकृत जैन साहित्य तो नहीं ले जा सका क्योंकि उस काल तक जैनागम साहित्य
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
की पूर्ण रचना ही नहीं हो पाई थी। वह अपने साथ श्रुत परम्परा से कुछ इसके अतिरिक्त मथुरा के अंकन में मुनियों एवं साध्वियों के हाथ में मुख दार्शनकि विचारों एवं महावीर के कठोर आचार मार्ग को ही लेकर चला वस्त्रिका (मुंह-पत्ति) और प्रतिलेखन (रजोहरण) के अंकन उपलब्ध होते था जिसे उसने बहुत काल तक सुरक्षित रखा। आज की दिगम्बर परम्परा हैं। प्रतिलेखन के अंकन दिगम्बर परम्परा में प्रचलित मयूर पिच्छि और का पूर्वज यही दक्षिणी अचेल निर्ग्रन्थ संघ है। इस सम्बन्ध अन्य कुछ श्वे० परम्परा में प्रचलित रजोहरण दोनों ही आकारों में मिलते हैं। यद्यपि मुद्दे भी ऐतिहासिक दृष्टि से विचारणीय हैं। महावीर के अपने युग में भी स्पष्ट साहित्यिक और पुरातात्त्विक साक्ष्य के अभाव में यह कहना कठिन उनका प्रभाव क्षेत्र मुख्यतया दक्षिण बिहार ही था जिसका केन्द्र राजगृह है कि वे प्रतिलेखन मयूर-पिच्छ के बने होते थे या अन्य किसी वस्तु था, जबकि बौद्धों एवं पापित्यों का प्रभाव क्षेत्र उत्तरी बिहार एवं पूर्वोत्तर के। दिगम्बर परम्परा में मान्य यापनीय ग्रन्थ मूलाचार और भगवती उत्तर प्रदेश था जिसका केन्द्र श्रावस्ती था। महावीर के अचेल निर्ग्रन्थ संघ आराधना में प्रतिलेखन (पडिलेहण) और उसके गुणों का तो वर्णन और पापित्य सन्तरोत्तर (सचेल) निर्ग्रन्थ संघ के सम्मिलन की भूमिका है किन्तु यह स्पष्ट उल्लेख नहीं है कि वे किस वस्तु के बने होते थे। भी श्रावस्ती में गौतम और केशी के नेतृत्व में तैयार हुई थी। महावीर इस प्रकार ईसा की प्रथम शती के पूर्व उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ के सर्वाधिक चातुर्मास राजगृह नालन्दा में होना और बुद्ध के श्रावस्ती में वस्त्र, पात्र, झोली, मुखवस्त्रिका और प्रतिलेखन (रजोहरण) का में होना भी इसी तथ्य का प्रमाण है। दक्षिण का जलवायु उत्तर की अपेक्षा प्रचलन था। सामान्यतया मुनि नग्न ही रहते थे और साध्वियाँ साड़ी गर्म था,अत: अचेलता के परिपालन में दक्षिण में गये निर्ग्रन्थ संघ को पहनती थीं। मुनि वस्त्र का उपयोग उचित अवसर पर शीत एवं लज्जा. कोई कठिनाई नहीं हुई जबकि उत्तर के निर्ग्रन्थ संघ में कुछ पापित्यों निवारण हेतु करते थे। मुनियों के द्वारा सदैव वस्त्र धारण किये रहने के प्रभाव से और कुछ अति शीतल जलवायु के कारण यह अचेलता की परम्परा नहीं थी। इसी प्रकार अंकनों में मुखवस्त्रिका भी हाथ में अक्षुण्ण नहीं रह सकी और एक वस्त्र रखा जाने लगा। स्वभावतः भी दक्षिण ही प्रदर्शित है, न कि वर्तमान स्थानकवासी और तेरापंथी परम्पराओं की अपेक्षा उत्तर के निवासी अधिक सुविधावादी होते हैं। बौद्ध धर्म में के अनुरूप मुख पर बंधी हुई दिखाई गई है। प्राचीन स्तर के श्वेताम्बर भी बुद्ध के निर्वाण के पश्चात् सुविधाओं की मांग वात्सीपुत्रीय भिक्षुओं आगम ग्रन्थ भी इन्हीं तथ्यों की पुष्टि करते हैं। श्वेताम्बर परम्परा में मुनि ने ही की थी जो उत्तरी तराई क्षेत्र के थे। बौद्ध पिटक साहित्य में निर्ग्रन्थों के जिन १४ उपकरणों का उल्लेख मिला है, वे सम्भवतः ईसा की को एक शाटक और आजीवकों को नग्न कहा गया है यह भी यही दूसरी-तीसरी शती तक निश्चित हो गये थे। सूचित करता है कि लज्जा और शीत निवारण हेतु उत्तर भारत का निर्ग्रन्थ संघ कम से कम एक वस्त्र तो रखने लग गया था। मथुरा में ईस्वी सन् महावीर के पश्चात् निर्ग्रन्थ संघ में हुए संघभेद प्रथम शताब्दी के आसपास की जैन श्रमणों की जो मूर्तियां उपलब्ध हुई महावीर के निर्वाण और मथुरा के अंकन के बीच लगभग हैं उनमें सभी में श्रमणों को एक वस्त्र से युक्त दिखाया गया है। वेसामान्यतया पाँच सौ वर्षों के इतिहास से हमें जो महत्त्वपूर्ण सूचनाएं मिलती हैं नग्न रहते थे किन्तु भिक्षा या जन समाज में जाते समय वह वस्त्र खण्ड वे निह्नवों के दार्शनिक एवं वैचारिक मतभेदों एवं संघ के विभिन्न, हाथ पर डालकर अपनी नग्नता छिपा लेते थे और अति शीत आदि की गणों, शाखाओं, कुलों एवं सम्भोगों में विभक्त होने से सम्बन्धित हैं। स्थिति में उसे ओढ़ लेते थे।
आवश्यकनियुक्ति सात निह्नवों का उल्लेख करती है, इनमें से जामालि यह सुनिश्चित है कि महावीर बिना किसी पात्र के दीक्षित हुए और तिष्यगुप्त तो महावीर के समय में हुए थे, शेष पाँच आषाढ़भूति, थे। आचारांग से उपलब्ध सूचना के अनुसार पहले तो वे गृही पात्र का अश्वामित्र, गंग, रोहगुप्त और गोष्टमहिल महावीर निर्वाण के पश्चात् उपयोग कर लते थे किन्तु बाद में उन्होंने इसका त्याग कर दिया और २१४ वर्ष से ५८४ वर्ष के बीच हुए। ये निह्नव किन्हीं दार्शनिक प्रश्नों पाणिपात्र हो गये अर्थात् हाथ में ही भिक्षा ग्रहण करने लगे। सचित्त जल पर निर्ग्रन्थ संघ की परम्परागत मान्यताओं से मतभेद रखते थे। किन्तु का प्रयोग निषिद्ध होने से सम्भवतः सर्वप्रथम निर्ग्रन्थ संघ में शौच के इनके द्वारा निर्ग्रन्थ संघ में किसी नवीन सम्प्रदाय की उत्पत्ति हुई हो, लिए जलपात्र का ग्रहण किया गया होगा किन्तु भिक्षुकों की बढ़ती हुई ऐसी कोई भी सूचना उपलब्ध नहीं होती। इस काल में निर्ग्रन्थ संघ संख्या और एक ही घर से प्रत्येक भिक्षु को पेट भर भोजन न मिल पाने में गण और शाखा भेद भी हुए किन्तु वे किन दार्शनिक एवं आचार के कारण आगे चलकर भिक्षा हेतु भी पात्र का उपयोग प्रारम्भ हो गया सम्बन्धी मतभेद को लेकर हुए थे, यह ज्ञात नहीं होता है। मेरी दृष्टि होगा। इसके अतिरिक्त बीमार और अतिवृद्ध भिक्षुओं की परिचर्या के लिए में व्यवस्थागत सुविधाओं एवं शिष्य-प्रशिष्यों की परम्पराओं को लेकर भी पात्र में आहार लाने और ग्रहण करने की परम्परा प्रचलित हो गई ही ये गण या शाखा भेद हुए होंगे। यद्यपि कल्पसूत्र स्थविरावलि में होगी। मथुरा में ईसा की प्रथम-द्वितीय शती की एक जैन श्रमण की प्रतिमा षडुलक रोहगुप्त से त्रैराशिक शाखा निकलने का उल्लेख हुआ है। मिली है जो अपने हाथ में एक पात्र युक्त झोली और दूसरे में प्रतिलेखन रोहगुप्त त्रैराशिक मत के प्रवक्ता एक निह्नव माने गये हैं। अतः यह (रजोहरण) लिए हुए है। इस झोली का स्वरूप आज श्वे० परम्परा में, स्पष्ट है कि इन गणों एवं शाखाओं में कुछ मान्यता भेद भी रहे होंगे विशेष रूप से स्थानकवासी और तेरापंथी परम्परा में प्रचलित झोली के किन्तु आज हमारे पास यह जानने का कोई साधन नहीं है। समान है। यद्यपि मथुरा के अंकनों में हाथ में खुला पात्र भी प्रदर्शित है। कल्पसूत्र की स्थविरावलि तुंगीयायन गोत्री आर्य यशोभद्र के
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श्रमण एवं वैदिक धारा का विकास एवं पारस्परिक प्रभाव
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दो शिष्यों माढरगोत्री सम्भूतिविजय और प्राचीनगोत्री भद्रबाह का उल्लेख मुखवस्त्रिका और प्रतिलेखन भी मुनि के उपकरणों में समाहित हैं। मुनियों करती है। कल्पसूत्र में गणों और शाखाओं की उत्पत्ति बताई गई है, वे के नाम, गण, शाखा, कुल आदि श्वेताम्बर परम्परा के कल्पसूत्र की एक ओर आर्य भद्रबाहु के शिष्य काश्यप गोत्री गोदास से एवं दूसरी ओर स्थविरावलि से मिलते हैं। इस प्रकार ये श्वेताम्बर परम्परा की पूर्व स्थिति स्थूलिभद्र के शिष्य-प्रशिष्यों से प्रारम्भ होती है। गोदास से गोदासगण के सूचक हैं। जैन धर्म में तीर्थंकर प्रतिमाओं के अतिरिक्त स्तूप के निर्माण की उत्पत्ति हुई और उसकी चार शाखाएं ताम्रलिप्तिका, कोटिवर्षीया, की परम्परा भी थी, यह भी मथुरा के शिल्प से सिद्ध हो जाता है। पौण्ड्रवर्द्धनिका और दासीकाटिका निकली हैं। इसके पश्चात् भद्रबाहु की परम्परा कैसे आगे बढ़ी, इस सम्बन्ध में कल्पसूत्र की स्थविरावलि में कोई यापनीय या बोटिक संघ का उद्भव निर्देश नहीं है। इन शाखाओं के नामों से भी ऐसा लगता है कि भद्रबाहु ईसा की द्वितीय शती में महावीर के निर्वाण के छ: सौ नौ वर्ष की शिष्य परम्परा बंगाल और उड़ीसा से दक्षिण की ओर चली गई होगी। पश्चात् उत्तर भारत निर्ग्रन्थ संघ में विभाजन की एक अन्य घटना घटित दक्षिण में गोदास गण का एक अभिलेख भी मिला है। अत: यह मान्यता हुई, फलत: उत्तर भारत का निर्ग्रन्थ संघ सचेल एवं अचेल ऐसे दो भागों समुचित ही है कि भद्रबाहु की परम्परा से ही आगे चलकर दक्षिण की में बंट गया। पापित्यों के प्रभाव से आपवादिक रूप में एवं शीतादि अचेलक निर्ग्रन्थ परम्परा का विकास हुआ।
के निवारणार्थ गृहीत हुए वस्त्र, पात्र आदि जब मुनि की अपरिहार्य उपधि ___ श्वेताम्बर परम्परा पाटलिपुत्र की वाचना के समय भद्रबाहु के बनने लगे, तो परिग्रह की इस बढ़ती हुई प्रवृत्ति को रोकने के प्रश्न पर नेपाल में होने का उल्लेख करती है जबकि दिगम्बर परम्परा चन्द्रगुप्त आर्य कृष्ण और आर्य शिवभूति में मतभेद हो गया। आर्य कृष्ण जिनकल्प मौर्य को दीक्षित करके उनके दक्षिण जाने का उल्लेख करती है। सम्भव का उच्छेद बताकर गृहीत वस्त्र-पात्र को मुनिचर्या का अपरिहार्य अंग मानने है कि वे अपने जीवन के अन्तिम चरण में उत्तर से दक्षिण चले गये हों। लगे, जबकि आर्य शिवभूति ने इनके त्याग और जिनकल्प के आचरण उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ की परम्परा सम्भूतिविजय के प्रशिष्य एवं पर बल दिया। उनका कहना था कि समर्थ के जिनकल्प का निषेध नहीं स्थूलिभद्र के शिष्यों से आगे बढ़ी। कल्पसूत्र में वर्णित गोदास गण और मानना चाहिए। वस्त्र, पात्र का ग्रहण अपवाद मार्ग है, उत्सर्ग मार्ग तो उसकी उपर्युक्त चार शाखाओं को छोड़कर शेष सभी गणों, कुलों और अचेलता ही है। आर्य शिवभूति की उत्तर भारत की इस अचेल परम्परा शाखाओं का सम्बन्ध स्थूलिभद्र की शिष्य-प्रशिष्य परम्परा से ही है। इसी को श्वेताम्बरों ने बोटिक (भ्रष्ट) कहा। किंतु आगे चलकर यह परम्परा प्रकार दक्षिण का अचेल निर्ग्रन्थ संघ भद्रबाहु की परम्परा से और उत्तर यापनीय के नाम से ही अधिक प्रसिद्ध हुई। गोपाञ्चल में विकसित होने का सचेल निर्ग्रन्थ संघ स्थूलिभद्र की परम्परा से विकसित हुआ। इस संघ के कारण यह गोप्य संघ नाम से भी जानी जाती थी। षट्दर्शनसमुच्चय में उत्तर बलिस्सहगण, उद्धेहगण, कोटिकगण, चारणगण, मानवगण, की टीका में गुणरत्न ने गोप्य संघ या यापनीय संघ को पर्यायवाची बताया वेसवाडिवगण, उड्डवाडियगण आदि प्रमुख गण थे। इन गणों की अनेक है। यापनीय संघ की विशेषता यह थी कि एक ओर यह श्वेताम्बर परम्परा शाखाएं एवं कुल थे। कल्पूसत्र की स्थविरावलि इन सबका उल्लेख तो के समान आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि करती है किन्तु इसके अंतिम भाग में मात्र कोटिकगण की वज्री शाखा अर्द्धमागधी आगम साहित्य को मान्य करता था जो कि उसे उत्तराधिकार की आचार्य परम्परा दी गई है जो देवर्द्धिक्षमाश्रमण (वीर निर्माण में ही प्राप्त हुआ था, साथ ही वह सचेल, स्त्री और अन्यतैर्थिकों की मुक्ति सं०९८०) तक जाती है। स्थूलभद्र के शिष्य-प्रशिष्यों की परम्परा में उद्भूत को स्वीकार करता था। आगम साहित्य के वस्त्र-पात्र सम्बन्धी उल्लेखों जिन विभिन्न गणों, शाखाओं एवं कुलों की सूचना हमें कल्पसूत्र की को वह साध्वियों एवं आपवादिक स्थिति में मुनियों से सम्बन्धित मानता स्थविरावलि से मिलती है उसकी पुष्टि मथुरा के अभिलेखों से हो जाती था किन्तु दूसरी ओर वह दिगम्बर परम्परा के समान वस्त्र और पात्र का है जो कल्पसूत्र की स्थविरावलि की प्रामाणिकता को सिद्ध करते हैं। निषेध कर मुनि की नग्नता पर बल देता था। यापनीय मुनि नग्न रहते दिगम्बर परम्परा में महावीर के निर्वाण से लगभग एक हजार वर्ष पश्चात् थे और पानीतलभोजी (हाथ में भोजन करने वाले) होते थे। इसके आचार्यों तक की जो पट्टावली उपलब्ध है, एक तो वह पर्याप्त परवर्ती है दूसरे ने उत्तराधिकार में प्राप्त आगमों से गाथायें लेकर शौरसेनी प्राकृत में अनेक भद्रबाहु के नाम के अतिरिक्त उसकी पुष्टि का प्राचीन साहित्यिक और ग्रन्थ बनाये। इनमें कषायप्राभृत, षट्खण्डागम, भगवती-आराधना, अभिलेखीय कोई साक्ष्य नहीं है। भद्रबाहु के सम्बन्ध में भी जो साक्ष्य मूलाचार आदि प्रसिद्ध हैं। हैं, वह पर्याप्त परवर्ती हैं। अत: ऐतिहासिक दृष्टि से उसकी प्रामाणिकता दक्षिण भारत में अचेल निर्ग्रन्थ परम्परा का इतिहास ईस्वी सन् पर प्रश्न चिह्न लगाये जा सकते हैं। महावीर के निर्वाण से ईसा की प्रथम की तीसरी चौथी-शती तक अंधकार में ही है। इस सम्बन्ध में हमें न तो एवं द्वितीय शताब्दी तक के जो महत्त्वपूर्ण परिवर्तन उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ विशेष साहित्यिक साक्ष्य ही मिलते हैं और न अभिलेखीय ही। यद्यपि संघ में हुए, उन्हें समझने के लिए अर्द्धमागधी आगमों के अतिरिक्त मथुरा इस काल के कुछ पूर्व के ब्राह्मी लिपि के अनेक गुफा अभिलेख तमिलनाडु का शिल्प एवं अभिलेख हमारी बहुत अधिक मदद करते हैं। मथुरा शिल्प में पाये जाते हैं किन्तु वे श्रमणों या निर्माता के नाम के अतिरिक्त कोई की विशेषता यह है कि तीर्थंकर प्रतिमाएँ नग्न हैं, मुनि नग्न होकर भी जानकारी नहीं देते। तमिलनाडु में अभिलेख युक्त जो गुफायें हैं, वे वस्त्र खण्ड से अपनी नग्नता छिपाये हुए हैं। वस्त्र के अतिरिक्त पात्र, झोली, सम्भवत: निर्ग्रन्थ के समाधि मरण ग्रहण करने के स्थल रहे होंगे। संगम
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युग के तमिल साहित्य से इतना अवश्य ज्ञात होता है कि जैन श्रमणों ने भी तमिल भाषा के विकास और समृद्धि में अपना योगदान दिया था। तिरुकुरल के जैनाचार्यकृत होने की भी एक मान्यता है ईसा की चौथी शताब्दी में तमिल देश का यह निर्मन्थ संघ कर्णाटक के रास्ते उत्तर की ओर बड़ा, उधर उत्तर का निर्ग्रन्थ संघ सचेल (श्वेताम्बर) और अचेलक (यापनीय) इन दो भागों में विभक्त होकर दक्षिण में गया। सचेल श्वेताम्बर परम्परा राजस्थान, गुजरात एवं पश्चिमी महाराष्ट्र होती हुई उत्तर कर्नाटक पहुँची तो अचेल यापनीय परम्परा बुन्देलखण्ड एवं विदिशा होकर विंध्य और सतपुड़ा को पार करती हुई पूर्वी महाराष्ट्र से होकर उत्तरी कर्नाटक पहुँची । ईसा की पाँचवी शती में उत्तरी कनार्टक मे मृगेशवर्मा के जो अभिलेख मिले हैं उनसे उस काल में जैनों के पाँच संघों के अस्तित्व की सूचना मिलती है (१) निर्ग्रन्ध संघ, (२) मूल संघ, (३) यापनीय संघ, (४) कूचकं संघ और (५) श्वेतपट महाश्रमण संघ इसी काल में पूर्वोत्तर भारत में वटगोहली से प्राप्त ताम्रपत्र में पंचस्तूपान्वय के अस्तित्व की भी सूचना मिलती है। इस युग का श्वेतपट महाश्रमण संघ अनेक कुलों एवं शाखाओं में विभक्त था जिसका सम्पूर्ण विवरण कल्पसूत्र एवं मथुरा के अभिलेखों से प्राप्त होता है।
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
निर्ग्रन्ध परम्परा का साहित्य
महावीर के निर्वाण के पश्चात् से लेकर ईसा की पाँचवी शती तक एक हजार वर्ष की इस सुदीर्घ अवधि में अर्द्धमागधी आगम साहित्य का निर्माण एवं संकलन होता रहा है। अतः आज हमें जो आगम उपलब्ध हैं, वे न तो एक व्यक्ति की रचना हैं और न एक काल की। मात्र इतना ही नहीं, एक ही आगम में विविध कालों की सामग्री संकलित है। इस अवधि में सर्वप्रथम ई० पू० तीसरी शती में पाटलिपुत्र में प्रथम वाचना हुई, सम्भवतः इस वाचना में अंगसूत्रों एवं पाश्चपत्य परम्परा के पूर्व साहित्य के ग्रन्थों का संकलन हुआ। पूर्व साहित्य के संकलन का प्रश्न इसलिये महत्त्वपूर्ण बन गया था कि पार्श्वापत्य परम्परा लुप्त होने लगी थी। इसके पश्चात् आर्य स्कन्दिल की अध्यक्षता में मथुरा में और आर्य नागार्जुन की अध्यक्षता में वल्लभी में समानान्तर वाचनाएँ हुईं, जिनमें अंग, उपांग आदि आगम संकलित हुए। इसके पश्चात् वीर निर्वाण ९८० अर्थात् ई० सन् की पाँचवी शती में बल्लभी में देवर्द्धिक्षमाश्रमण के नेतृत्व में अन्तिम वाचना हुई। वर्तमान आगम इसी वाचना का परिणाम है। फिर भी देवर्द्धि इन आगमों के सम्पादक ही हैं, रचनाकार नहीं। उन्होंने मात्र ग्रन्थों को सुव्यवस्थित किया। इन ग्रन्थों की सामग्री तो उनके पहले की है। अर्धमागधी आगमों में जहाँ आचारांग एवं सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कंध, ऋषिभाषित उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि प्राचीन स्तर
अर्थात् ई०पू० के ग्रन्थ हैं, वहीं समवायांग, वर्तमान प्रश्नव्याकरण आदि पर्याप्त परवर्ती अर्थात् लगभग ई०स० की पांचवीं शती के हैं। स्थानांग, अंतकृतदशा, ज्ञाता और भगवती का कुछ अंश प्राचीन (अर्थात् ई०पू० का) है, तो कुछ पर्याप्त परवर्ती है। उपांग साहित्य में अपेक्षाकृत रूप में सूर्य प्रज्ञप्ति, राजप्रश्नीय, प्रज्ञापना प्राचीन हैं। उपांगों की अपेक्षा
भी छेद सूत्रों की प्राचीनता निर्विवाद है। इसी प्रकार प्रकीर्णक साहित्य में अनेक ग्रन्थ ऐसे हैं, जो कुछ अंगों और उपांगों की अपेक्षा भी प्राचीन है। फिर भी सम्पूर्ण अर्धमागधी आगम साहित्य को अन्तिम रूप लगभग ई० सन् की छठी शती के पूर्वार्ध में मिला यद्यपि इसके बाद भी इसमें कुछ प्रक्षेप और परिवर्तन हुए हैं। ईसा की छठी शताब्दी के पश्चात् से दसवीं ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य तक मुख्य आगमिक व्याख्या साहित्य के रूप में नियुक्ति, भाष्य, चूर्णी और टीकाएँ लिखी गईं। यद्यपि कुछ नियुक्तियाँ प्राचीन भी हैं। इस काल में इन आगमिक व्याख्याओं के अतिरिक्त स्वतंत्र ग्रन्थ भी लिखे गये। इस काल के प्रसिद्ध आचार्यों में सिद्धसेन, जिनभद्रगणि, शिवार्य, बट्टकेर, कुन्दकुन्द, अकलंक, समन्तभद्र, विद्यानन्द, जिनसेन, स्वयम्भू, हरिभद्र, सिद्धर्षि, शीलांक, अभयदेव आदि प्रमुख हैं। दिगम्बरों में तत्त्वार्थ की विविध टीकाओं और पुराणों का रचना काल भी यही युग है।
चैत्यवास और भट्टारक परम्परा का उदय
दिगम्बर परम्परा में भट्टारक सम्प्रदाय और श्वेताम्बर परम्परा में चैत्यवास का विकास भी इसी युग अर्थात् ईसा की पांचवीं शती से होता है, यद्यपि जिन मन्दिर और जिन प्रतिमा के निर्माण के पुरातात्त्विक प्रमाण मौर्यकाल से तो स्पष्ट रूप से मिलने लगते हैं। शक और कुषाण युग में इसमें पर्याप्त विकास हुआ, फिर भी ईसा की ५वीं शती से १२वीं शती के बीच जैन शिल्प अपने सर्वोत्तम रूप को प्राप्त होता है यह वस्तुतः चैत्यवास की देन है। दोनों परम्पराओं में इस युग में मुनि बनवास को छोड़कर चैत्यों, जिन मन्दिरों में रहने लगे थे। केवल इतना ही नहीं, वे इन चैत्यों की व्यवस्था भी करने लगे थे। अभिलेख से तो वहां तक सूचना मिलती है कि न केवल चैत्यों की व्यवस्था के लिए, अपितु मुनियों के आहार और तेलमर्दन आदि के लिये भी संभ्रान्त वर्ग से दान प्राप्त किये जाते थे। इस प्रकार इस काल में जैन साधु मठाधीश बन गया था। फिर भी इस सुविधाभोगी वर्ग के द्वारा जैन दर्शन, साहित्य एवं शिल्प का जो विकास इस युग में हुआ उसकी सर्वोत्कृष्टता से इन्कार नहीं किया जा सकता। यद्यपि इस चैत्यवास में सुविधावाद के नाम पर जो शिथिलाचार विकसित हो रहा था उसका विरोध श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में हुआ श्वेताम्बर परम्परा में सर्वप्रथम आचार्य हरिभद्र ने इसके विरोध में लेखनी चलाई 'सम्बोध प्रकारण' में उन्होंने इन चैत्यवासियों के आगम विरुद्ध आचार की खुलकर अलोचना की, यहाँ तक कि उन्हें नर-पिशाच तक कह दिया। चैत्यवास की इसी प्रकार की आलोचना आगे चलकर जिनेश्वरसूरि जिनचन्द्रसूरि आदि खरतरगच्छ के अन्य आचार्यों ने भी की। ईस्वी सन् की दशवीं शताब्दी में खरतरगच्छ का आविर्भाव भी चैत्यवास के विरोध में हुआ था जिसका प्रारम्भिक नाम सुविहित मार्ग या संविग्न पक्ष था। दिगम्बर परम्परा में इस युग में द्रविड़ संघ, माथुर संघ, काष्टा संघ आदि का उद्भव भी इसी काल में हुआ, जिन्हें दर्शन-सार नामक ग्रन्थ में जैनाभास कहा गया।
इस संबंध में पं० नाथूरामजी 'प्रेमी' ने अपने 'ग्रंथ' जैन साहित्य
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श्रमण एवं वैदिक धारा का विकास एवं पारस्परिक प्रभाव
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और इतिहास' में चैत्यवास और बनवास के शीर्षक के अन्तर्गत विस्तृत प्रशाखाएं भी बनीं, फिर भी लगभग १५वीं शती तक जैन संघ इसी स्थिति चर्चा की है। फिर भी उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर यह कहना कठिन का शिकार रहा। है कि इन विरोधों के बावजूद जैन संघ इस बढ़ते हुए शिथिलाचार से मुक्ति पा सका।
मध्ययुग में कला एवं साहित्य के क्षेत्र मे जैनों का महत्त्वपूर्ण अवदान
यद्यपि मध्यकाल जैनाचार की दृष्टि से शिथिलाचार एवं तन्त्र और भक्ति मार्ग का जैन धर्म पर प्रभाव
सुविधावाद का युग था फिर भी कला और साहित्य के क्षेत्र में जैनों वस्तुत: गुप्तकाल से लेकर दसवीं और ग्यारहवीं शताब्दी तक ने महनीय अवदान प्रदान किया। खजुराहो, श्रवणबेलगोल, आबू का युग पूरे भारतीय समाज के लिए चरित्रबल के ह्रास और ललित (देलवाड़ा), तारंगा, रणकपुर, देवगढ़ आदि का भव्य शिल्प और कलाओं के विकास का युग है। यही काल है जब खजुराहो और कोणार्क स्थापत्य कला जो ९वीं शती से १४वीं शती के बीच में निर्मित हुई, के मंदिरों में कामुक अंकन किये गये। जिन मंदिर भी इस प्रभाव से अछूते आज भी जैन समाज का मस्तक गौरव से ऊँचा कर देती है। अनेक नहीं रह सके। यही वह युग है जब कृष्ण के साथ राधा और गोपियों की प्रौढ़ दार्शनिक एवं साहित्यिक ग्रन्थों की रचनाएं भी इन्हीं शताब्दियों कथा को गढ़कर धर्म के नाम पर कामुकता का प्रदर्शन किया गया। इसी में हुई। श्वेताम्बर परम्परा में हरिभद्र, अभयदेव, वादिदेवसूरी, हेमचन्द्र, काल में तन्त्र और वाम मार्ग का प्रचार हुआ, जिसकी अग्नि में बौद्ध भिक्षु मणिभद्र, मल्लिसेन, जिनप्रभ आदि आचार्य एवं दिगम्बर परम्परा में संघ तो पूरी तरह जल मरा किन्तु जैन भिक्षु संघ भी उसकी लपटों की विद्यानन्दी, शाकटायन, प्रभाचन्द्र जैसे समर्थ विचारक भी इसी काल झुलस से बच न सका। अध्यात्मवादी जैन धर्म पर भी तन्त्र का प्रभाव के हैं। मंत्र-तंत्र के साथ चिकित्सा के क्षेत्र में भी जैन आचार्य आगे आया। हिन्दू परम्परा के अनेक देवी-देवताओं को प्रकारांतर से यक्ष, यक्षी आये। इस युग के भट्टारकों और जैन यतियों में साहित्य एवं कलात्मक अथवा शासन देवियों के रूप में जैन देवमंडल का सदस्य स्वीकार कर मंदिरों का निर्माण तो किया ही साथ ही चिकित्सा के माध्यम से लिया गया। उनकी कृपा या उनसे लौकिक सुख-समृद्धि प्राप्त करने के जनसेवा के क्षेत्र में भी वे पीछे नहीं रहे। लिये अनेक तान्त्रिक विधि-विधान बने। जैन तीर्थंकर तो वीतराग था अत: वह न तो भक्तों का कल्याण कर सकता था न दुष्टों का विनाश, फलत: सुधारवादी आंदोलन एवं अमूर्तिक सम्प्रदायों का आविर्भाव जैनों ने यक्ष-यक्षियों या शासन-देवता को भक्तों के कल्याण की जवाबदारी जैन परम्परा में एक परिवर्तन की लहर पुनः सोलहवीं शताब्दी देकर अपने को युग-विद्या के साथ समायोजित कर लिया। इसी प्रकार में आयी। जब अध्यात्म प्रधान जैनधर्म का शुद्ध कर्म-काण्ड के घोर भक्ति मार्ग का प्रभाव भी इस युग में जैन संघ पर पड़ा। तन्त्र मार्ग के आडम्बर के आवरण में धूमिल हो रहा था और मुस्लिम शासकों के संयुक्त प्रभाव से जिन मंदिरों में पूजा-यज्ञ आदि के रूप में विविध प्रकार मूर्तिभंजक स्वरूप से मूर्ति पूजा के प्रति आस्थाएं विचलित हो रही थीं, के कर्मकाण्ड अस्तित्व में आये। वीतराग जिन प्रतिमा की हिन्दू परम्परा तभी मुसलमानों की आडम्बर रहित सहज धर्म साधना ने हिन्दुओं की की षोडशोपचार पूजा की तरह सत्रहभेदी पूजा की जाने लगी। न केवल भांति जैनों को भी प्रभावित किया। हिन्दू धर्म में अनेक निर्गुण भक्तिमार्गी वीतराग जिनप्रतिमा को वस्त्राभूषणादि से सुसज्जित किया गया, अपितु सन्तों के आविर्भाव के समान ही जैन धर्म में भी ऐसे सन्तों का आविर्भाव उसे फल-नेवैद्य आदि भी अर्पित किये जाने लगे। यह विडम्बना ही थी हुआ जिन्होंने धर्म के नाम पर कर्मकाण्ड और आडम्बर युक्त पूजा-पद्धति कि हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा पद्धति के विवेकशून्य अनुकरण के द्वारा का विरोध किया। फलतः जैनधर्म की श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों ही तीर्थंकर या सिद्ध परमात्मा का भी आह्वान और विसर्जन किया जाने शाखाओं में सुधारवादी आन्दोलन का प्रादुर्भाव हुआ। इनमें श्वेताम्बर लगा। यद्यपि यह प्रभाव श्वेताम्बर परम्परा में अधिक आया था किन्तु परम्परा में लोकाशाह और दिगम्बर परम्परा में सन्त तरणतारण तथा दिगम्बर परम्परा भी इस से बच न सकी।
बनारसीदास प्रमुख थे। यद्यपि बनारसीदास जन्मना श्वेताम्बर परम्परा के विविध प्रकार के कर्मकाण्ड और मंत्र-तंत्र का प्रवेश उनमें भी थे किन्तु उनका सुधारवादी आंदोलन दिगम्बर परम्परा से सम्बन्धित था। हो गया था। श्रमण परम्परा की वर्ण-मुक्त सर्वोदयी धर्म व्यवस्था का लोकाशाह ने श्वेताम्बर परम्परा में मूर्तिपूजा तथा धार्मिक कर्मकाण्ड और परित्याग करके उसमें शूद्र की मुक्ति के निषेध और शूद्र जल त्याग पर आडम्बरों का विरोध किया। इनकी परम्परा आगे चलकर लोंकागच्छ के बल दिया गया।
नाम से प्रसिद्ध हुई। इसी से आगे चलकर सत्रहवीं शताब्दी में श्वेताम्बर यद्यपि बारहवीं एवं तेरहवीं शती में हेमचन्द्र आदि अनेक समर्थ में स्थानकवासी परम्परा विकसित हुई । जिसका पुनः एक विभाजन १८वीं जैन दार्शनिक और साहित्यकार हुए, फिर भी जैन परम्परा में सहगामी शती में शुद्ध निवृत्तिमार्गी जीवन दृष्टि एवं अहिंसा की निषेधात्मक व्याख्या अन्य धर्म परम्पराओं से जो प्रभाव आ गये थे, उनसे उसे मुक्त करने का के आधार पर श्वेताम्बर तेरापंथ के रूप में हुआ। कोई सशक्त और सार्थक प्रयास हुआ हो, ऐसा ज्ञात नहीं होता। यद्यपि दिगम्बर परम्पराओं में बनारसीदास ने भट्टारक परम्परा के सुधार के कुछ प्रयत्नों एवं मतभेदों के आधार पर श्वेताम्बर परम्परा विरुद्ध अपनी आवाज बुलन्द की और सचित्त द्रव्यों से जिन-प्रतिमा के तपागच्छ, अंचलगच्छ आदि अस्तित्व में आये और उनकी शाखा- पूजन का निषेध किया किन्तु तारणस्वामी तो बनारसीदास से भी एक
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
कदम आगे थे। उन्होंने दिगम्बर परम्परा में मूर्ति-पूजा का ही निषेध कर को स्मरण रखना है कि जैन श्रमणों की सुविधावादी प्रवृत्ति जैनधर्म के दिया। मात्र यही नहीं, इन्होंने धर्म के आध्यात्मिक स्वरूप की पुनः प्रतिष्ठा लिए भी उतनी खतरनाक सिद्ध होगी, जैसी कभी बौद्ध धर्म के लिए हुई की। बनारसीदास की परम्परा जहाँ दिगम्बर तेरापंथ के नाम से विकसित थी कि वह अपनी मातृभूमि में ही अपना अस्तित्व खो बैठा था। विदेश हुई तो तारण स्वामी का वह आन्दोलन तारणपंथ या समैया के नाम से यात्रा कोई बड़ा अपराध नहीं है। अपराध है जैन श्रमणों की बढ़ती हुई पहचाना जाने लगा। तारणपंथ के चैत्यालयों में मूर्ति के स्थान पर शास्त्र सुविधावादी प्रवृत्ति एवं बिना सामुदायिक निर्णय के पूर्व प्रचलित आचार की प्रतिष्ठा की गई। इस प्रकार सोलहवीं एवं सत्रहवीं शताब्दी में जैन व्यवस्था का उल्लंघन। आज का जैन श्रमण इतना सुविधावादी और परम्परा में इस्लाम धर्म के प्रभाव के फलस्वरूप एक नया परिवर्तन आया भोगवादी होता जा रहा है कि एक सामान्य जैन गृहस्थ की अपेक्षा भी
और अमूर्तिपूजक सम्प्रदायों का जन्म हुआ। फिर भी पुरानी परम्पराएं उसका खान-पान और सम्पूर्ण जीवन शैली अधिक सुविधासम्पन्न हो गयी यथावत चलती रहीं। पुनः बीसवीं शती में गांधी जी के गुरुतुल्य है। एक श्रमण के लिए वर्ष में होने वाला खर्च सामान्य गृहस्थ से कई श्रीमद्राजचन्द्र के कारण अध्यात्म प्रेमियों का एक नया संघ बना। यद्यपि गुना अधिक होता है। सदस्य संख्या की दृष्टि से चाहे यह संघ प्रभावशाली न हो किन्तु उनकी आज के जैन श्रमण की जीवन शैली इतनी सुविधाभोगी हो अध्यात्मनिष्ठा आज इसकी एक अलग पहचान बनाती है। इसी प्रकार गई है कि वह जन-सामान्य की उपेक्षा सम्पन्न श्रेष्ठिवर्ग के आसपास श्वेताम्बर स्थानकवासी परम्परा में दीक्षित कानजी स्वामी ने महान् केन्द्रित हो रहा है और उसकी जीवन शैली उसे और अधिक सुविधाअध्यात्मवादी दिगम्बर संत कुन्दकुन्द के 'समयसार' जैसे अध्यात्म और भोगी बना रही है- यदि वाहन प्रयोग सामान्य हो गया तो जैन श्रमण जन'निश्चयनय प्रधान ग्रन्थ के अध्ययन से दिगम्बर पराम्परा में इस शताब्दी साधारण और ग्रामीण जैन परिवार से बिल्कुल कट जायेगा। वाहन सुविधा में एक नये आंदोलन को जन्म दिया।
और विदेश यात्रा को युग की आवश्यकता मानकर भी उस सम्बन्ध में
कुछ मर्यादाएँ निश्चित करनी होंगी। विदेशयात्रा और वाहन-प्रयोग की नवीन परम्परा
१. चरित्रवान् और विद्वान् श्रमण या श्रमणी ही आचार्य और संघ की आज पुन: जैनधर्म के आचार-विचार को लेकर परिवर्तन की अनुमति से विदेश भेजे जायें। यह निर्णय पूर्णत: आचार्य और संघ बात कही जाती हैं। परम्परागत आचार व्यवस्था को नकार कर श्वेताम्बर की सर्वोच्च समिति के अधीन हो कि किस श्रमण या श्रमणी को जैनमुनियों एवं दिगम्बर भट्टारकों का एक वर्ग वाहन प्रयोग और विदेश विदेश भेजा जाये। यात्रा को आज आवश्यक मानने लगा है। यह सत्य है कि युगीन २. जिस श्रमण या श्रमणी को विदेश यात्रा के लिए भेजा जाये उसे उस परस्थितियों के बदलने पर किसी भी जीवित धर्म के लिए यह आवश्यक देश की भाषा और जैनशास्त्र तथा दर्शन का समुचित ज्ञान हो और होता है कि वह युगानुरूप अपनी जीवन-शैली में परिवर्तन करे। आज उनके ज्ञान का प्रमाणीकरण और उनकी जैनधर्म के प्रति निष्ठा का विज्ञान और तकनीकी का युग है। प्रगति के कारण आज देशों के बीच सम्यक् मूल्यांकन हो। दूरियाँ सिमट गयीं। आज जैन परिवार भी विश्व के प्रत्येक कोने में पहुँच ३. विदेश यात्रा धर्म संस्कार जागृत करने के लिए हो न कि घूमने-फिरने चुके हैं। अत: उनके संस्कारों को जीवित रखने और विश्व में जैनधर्म की के लिए। अतः प्रथमतः उन्हीं क्षेत्रों में यात्रा की अनुमति हो जहाँ अस्मिता को स्थापित करने के लिए यह आवश्यक है कि जैन श्रमण वर्ग जैन परिवारों का निवास हो और उस क्षेत्र में वे अपने परम्परागत विश्व के देशों की यात्रा कर जैनधर्म का प्रसार करे, किन्तु इस हेतु आचार- नियमों का वाहन प्रयोग आदि के अपवाद को छोड़कर उसी प्रकार नियमों में कुछ परिवर्तन तो लाना ही होगा। धर्म प्रसार के लिए जैन श्रमण पालन कर सकें। देश-विदेश की यात्राएँ प्राचीनकाल से ही करते रहे। महावीर के युग में ४. अपरिपक्व वय और अपरिपक्व विचारों के श्रमण-श्रमणियों को जैन मुनियों ने यात्रा में बाधक नदियों को नावों से पार करके अपनी यात्राएँ किसी भी परिस्थिति में विदेश यात्रा की अनुमति न दी जाये। की थीं। मात्र नदियों को पार करके ही नहीं, महासागर को जहाजों से ५. जिस प्रकार प्राचीनकाल में बड़ी नदियों को नौका से पार करने की पार करके भी जैन मुनियों ने लंका और सुवर्णद्वीप तक की यात्राएँ की वर्ष में संख्या निर्धारित होती थी, उसी प्रकार वर्ष में एक या दो थीं, ऐसे ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध हैं। अत: आज यदि विदेशों में जैनधर्म से अधिक यात्राओं की अनमुति न हो। जिस क्षेत्र में वे जायें, वहाँ के प्रसार के लिए कोई जैन मुनि वायुयान से यात्रा कर लेता है तो वह रुककर संस्कार जागरण का कार्य करें, न कि भ्रमण-सुख के लिए कोई बहुत बड़ा अपराध करता है, यह नहीं कहा जा सकता। किन्तु जहां यात्राएँ करते रहें। पाद विहार की सुविधाएँ उपलब्ध हैं, वहाँ भी वाहन प्रयोग तो उचित ६. वाहन यात्रा को अपवाद् मार्ग ही माना जाये और उसके लिए समुचित नहीं माना जा सकता। पुनः हमें यह भी विचार करना होगा कि वह विदेश प्रायश्चित्त की व्यवस्था हो। यात्रा जैनधर्म की गरिमा को स्थापित करती है या उसे खण्डित करती ७. देश में भी आपवादिक परस्थितियों में अथवा किसी सुदूर प्रदेश की है। विदेशों में जैन मुनि जैनधर्म का गौरव तभी स्थापित कर सकता है यात्रा ज्ञान-साधना अथवा धर्म के प्रसार के लिए आवश्यक होने पर । जब उसकी अपनी जीवनचर्या कठोर एवं संयमपरक हो। हमें इस तथ्य ही वाहन द्वारा यात्रा की अनुमति दी जाये। बिना अनमुति के वाहन
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प्रयोग सर्वथा निषिद्ध ही माना जाये।
के प्रभाव से समय-समय पर अनेक परिवर्तन होते रहे हैं और इन्हीं __इस प्रकार विशिष्ट नियंत्रणों के साथ ही वाहन प्रयोग और परिवर्तनों के फलस्वरूप ही जैनधर्म के विभिन्न सम्प्रदाय अस्तित्व में आये विदेश यात्रा की अनुमति अपवाद् मार्ग के रूप में मानी जा सकती हैं। यदि हम उनके इस ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को तटस्थ दृष्टि से समझने है। उसे सामान्य नियम कभी भी नहीं बनाया जा सकता क्योंकि का प्रयत्न करेगें तो विभिन्न सम्प्रदायों के प्रति गलतफहमियाँ दूर होंगी भूतकाल में भी वह एक अपवाद मार्ग ही था। इस प्रकार आचार मार्ग और जैन धर्म के मूलधारा में रहे हुए एकत्व का दर्शन कर सकेगें। में युगानुरूप परिवर्तन तो किये जो सकते हैं परन्तु उनकी अपनी साम्प्रदायिक सद्भाव और एक दूसरे को सही परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए उपयोगिता होनी चाहिए और उनसे जैन धर्म के शाश्वत मूल्यों पर कोई इस ऐतिहासिक दृष्टिकोण की आज महती आवश्यकता है। आज हम इसे आंच नहीं आनी चाहिए।
अपनाकर अनेक पारस्परिक विवादों का सहज समाधान पा सकेगें। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन परम्परा में देश और काल
जैन इतिहास : अध्ययन विधि एवं मूलस्रोत
समग्र एवं संश्लेषणात्मक अध्ययन की आवश्यकता
प्रभाव को सम्यक् प्रकार से समझना होगा। भारत के सांस्कृतिक इतिहास भारतीय संस्कृति के सम्यक् ऐतिहासिक अध्ययन के लिए यह को समझने और उसके प्रामाणिक लेखन के लिए एक समग्र किन्तु आवश्यक है कि उसकी प्रकृति को पूरी तरह से समझ लिया जाये। सबसे देशकाल सापेक्ष दृष्टिकोण को अपनाना आवश्यक है। महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि भारतीय संस्कृति एक संश्लिष्ट संस्कृति है। ऐतिहासिक अध्ययन के लिए जहाँ एक ओर विश्लेषणात्मक वस्तुत: कोई भी विकसित संस्कृति संश्लिष्ट संस्कृति ही होती है क्योंकि दृष्टिकोण आवश्यक है, वहीं दूसरी ओर एक समग्र दृष्टिकोण उसके विकास में अनेक संस्कृतियों का अवदान होता है। भारतीय संस्कृति (Holistice-Approach) भी आवश्यक है। भारतीय ऐतिहासिक को हिन्दू, बौद्ध, जैन आदि चारदीवारी में अवरुद्ध करके कभी भी सम्यक् अध्ययन का यह दुर्भाग्य रहा है कि उसे विभिन्न धर्मों और परम्पराओं रूप से नही समझा जा सकता है। जिस प्रकार शरीर को खण्ड-खण्ड का एक घेरे में आबद्ध करके अथवा उसके विभिन्न पक्षों को खण्ड-खण्ड कर देखने से शरीर की क्रिया- शक्ति को नहीं समझा जा सकता है, ठीक करके देखने का प्रयत्न हुआ है। अपनी आलोचक और विश्लेषणात्मक उसी प्रकार भारतीय संस्कृति को खण्डों में विभाजित करके देखने से दृष्टि के कारण हमने एक दूसरे की कमियों को ही अधिक देखा है। मात्र उसकी आत्मा ही मर जाती है। अध्ययन की दो दृष्टियाँ होती हैं- यही नहीं, एक परम्परा में दूसरी परम्परा के इतिहास को और उसके जीवन विश्लेषणात्मक और संश्लेषणात्मक। विश्लेषणात्मक पद्धति तथ्यों को मूल्यों को भ्रान्त रूप से प्रस्तुत किया गया है। खण्डों में विभाजित करके देखती है, तो संश्लेषणात्मक विधि उसे समग्र भारतीय सांस्कृतिक इतिहास के लेखन में पहली भूल तब हुई रुप से देखती है। भारतीय संस्कृति के इतिहास को समझने के लिए यह जब दूसरी परम्पराओं को अपनी परम्परा से निम्न दिखाने के लिए उन्हें आवश्यक है कि इसके विभिन्न घटकों अर्थात् हिन्दू, बौद्ध और जैन गलत ढंग से प्रस्तुत किया गया। प्रत्येक परम्परा की अगली पीढ़ियाँ दूसरी परम्पराओं का समन्वित या समग्र रूप में अध्ययन किया जाये। जिस प्रकार परम्परा के उस गलत प्रस्तुतीकरण को ही आगे बढ़ाती रहीं। दूसरे शब्दों एक इंजन की प्रक्रिया को समझने के लिए न केवल उसके विभिन्न घटकों में कहें तो भारतीय संस्कृति और विशेष रूप से भारतीय दर्शन में प्रत्येक अर्थात् कल-पुओं का ज्ञान आवश्यक है, अपितु उनके परस्पर संयोजित पक्ष ने दूसरे पक्ष का विकृत चित्रण ही प्रस्तुत किया। मध्यकालीन दार्शनिक स्वरूप को तथा एक अंग की क्रिया के दूसरे अंग पर होने वाले प्रभाव ग्रंथों में इस प्रकार का चित्रण हमें प्रचुरता से उपलब्ध होता है। को भी समझना होता है। सत्य तो यह है कि भारतीय इतिहास के शोध सौभाग्य या दुर्भाग्य से जब पाश्चात्य इतिहासकार इस देश में के सन्दर्भ में अन्य सहवर्ती परम्पराओं के अध्ययन के बिना भारतीय आये और यहाँ के इतिहास का अध्ययन किया तो उन्होंने भी अपनी संस्कृति का समग्र इतिहास प्रस्तुत ही नहीं किया जा सकता। संस्कृति से भारतीय संस्कृति को निम्न सिद्ध करने के लिए विकृत पक्ष
कोई भी धर्म और संस्कृति शून्य में विकसित नही होती हैं, को उभार कर इसकी गरिमा को धूमिल ही किया। फिर भी पाश्चात्य लेखकों वे अपने देश-काल तथा अपनी सहवर्ती अन्य परम्पराओं से प्रभावित में कुछ ऐसे अवश्य हुए हैं जिन्होंने इसको समग्र रूप में प्रस्तुत करने होकर ही अपना स्वरूप ग्रहण करती है। यदि हमें जैन, बौद्ध या हिन्दू का प्रयत्न किया और एक के ऊपर दूसरी परम्परा के प्रभाव को देखने किसी भी भारतीय सांस्कृतिक धारा के इतिहास का अध्ययन करना है का भी प्रयत्न किया। किन्तु उन्होंने अपने राजनैतिक स्वार्थों के लिए तो उनके देशकाल और परिवेश को तथा उनकी सहवर्ती परम्पराओं के भारतीय संस्कृति की एक धारा को दूसरी धारा के विरोध में खड़ा कर
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दिया और इस प्रकार भारतीय संस्कृति की एकात्मता को खण्डित किया यदि हमें भारतीय संस्कृति का प्रामाणिक इतिहास प्रस्तुत करना है तो यह आवश्यक है कि हमारे सांस्कृतिक इतिहास का एक समन्वित और समग्र दृष्टिकोण के आधार पर पुनर्मूल्यांकन हो।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
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आत्मनिष्ठ और वस्तुनिष्ठ अध्ययन जैन दृष्टिकोण किसी भी व्याख्या या अध्ययन के दो पक्ष होते हैं१. आत्मनिष्ठ और २. वस्तुनिष्ठ आत्मनिष्ठ व्याख्या में व्याख्याता का अपना दृष्टिकोण प्रधान होता है और वह अपने दृष्टिकोण के अनुरूप तथ्यों को व्याख्यायित करता है जबकि वस्तुनिष्ठ व्याख्या में तथ्य / घटनाक्रम प्रधान होता है और व्यक्ति निरपेक्ष होकर उसे व्याख्यायित करता है, फिर भी इतना निश्चित है कि व्याख्या व्याख्याता से पूर्णतः निरपेक्ष नहीं हो सकती है। व्याख्या में तथ्य / घटनाक्रम और व्याख्याता व्यक्ति दोनों ही आवश्यक हैं। अतः कोई भी व्याख्या एकान्त रूप से आत्मनिष्ठ या वस्तुनिष्ठ नहीं हो सकती है। उसके आत्मनिष्ठ और वस्तुनिष्ठ दोनों ही पक्ष होते हैं।
ऐतिहासिक अध्ययन के लिए यह आवश्यक है कि उसका अध्ययन और ऐतिहासिक तथ्यों का मूल्यांकन वस्तुनिष्ठ आधार पर हो। दूसरे शब्दों में प्रामाणिक इतिहास लेखन, अध्ययन और मूल्यांकन के लिए वस्तुनिष्ठ या तथ्यपरक अनाग्रही दृष्टि आवश्यक है, इसमें किसी प्रकार का वैमत्य नहीं है। इतिहास लेखन, अध्ययन एवं मूल्यांकन सभी व्यक्ति से संबंधित है और व्यक्ति चाहे कितना ही तटस्थ और अनाग्रही क्यों न हो, फिर भी उसमें कहीं न कहीं आत्मनिष्ठ पक्ष का प्रभाव तो रहता ही है। ऐसे व्यक्ति तो विरल ही होते हैं जो निरपेक्ष और तटस्थ हों। दूसरे, इतिहास लेखन घटनाओं की व्याख्या है और इस व्याख्या में आत्मनिष्ठ पक्ष का पूर्ण उपेक्षा भी संभव नहीं है। जैन दार्शनिकों ने अपने अनेकान्त सिद्धान्त के द्वारा यह स्थापित किया था कि प्रत्येक वस्तु, तथ्य और घटना अपने आप में जटिल और बहुआयामी होती है, उसकी व्याख्या अनेक दृष्टिकोणों के आधार पर संभव है। उदाहरण के रूप में ताजमहल का निर्माण एक ऐतिहासिक घटना है किन्तु ताजमहल निर्माता के चरित्र की व्याख्या विभिन्न रुचियों के व्यक्तियों के द्वारा विभिन्न प्रकार से की जा सकती है। किसी के लिए वह कला का उत्कृष्ट प्रेमी हो सकता है तो किसी के लिए वह प्रेयसी के प्रेम में अनन्य आसक्त कोई उसे अत्यन्त विलासी तो कोई उसे जनशोषक भी कह सकता है। इस प्रकार एक तथ्य की व्याख्या भिन्न-भिन्न प्रकार से हो सकती है।
तथ्यों की जटिलता एक सत्य
तथ्य की जटिलता और व्याख्या सम्बन्धी विभिन्न दृष्टिकोण की संभावना ये दो ऐसे तथ्य हैं जिन पर ऐतिहासिक मूल्यांकन निर्भर करता है। जिसे आज 'हिस्ट्रीओग्राफी' कहा जाता है वह अन्य कुछ नहीं अपितु ऐतिहासिक तथ्यों की व्याख्या के विभिन्न सिद्धातों के मूल्यांकन का शास्त्र
हैं। यह मूल्यांकन विभिन्न दृष्टिकोणों पर आधारित होता है। अतः हम यह कह सकते हैं कि जैनों का अनेकान्त सिद्धान्त ऐतिहासिक मूल्यांकन के क्षेत्र में भी पूर्णतः लागू होता है। हमें उन दृष्टिकोणों या सिद्धान्तों की सापेक्षता को समझना है जिसके आधार पर ऐतिहासिक मूल्यांकन होते हैं। जब तक ऐतिहासिक मूल्यांकन का हार्द नहीं समझ पायेंगे तब तक ऐतिहासिक मूल्यांकन एवं ऐतिहासिक घटनाओं की व्याख्या मात्र किसी एक दृष्टिकोण पर या किसी एक सिद्धान्त पर संभव नही है । इतिहास न तो पूर्ण वस्तुनिष्ठ (Objective) हो सकता है न पूर्ण आत्मनिष्ठ Subjective) ही । जब भी हमें किसी इतिहास लेखक की किसी घटनाक्रम की व्याख्या का अध्ययन करना होता है तो हमें यह देखना होगा कि उस व्यक्ति का दृष्टिकोण क्या है वह किन परिवेश और परिस्थितियों में उस व्याख्या को प्रस्तुत कर रहा है ।
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सहवर्ती परम्परा के प्रभाव और तुलनात्मक अध्ययन की आवश्यकता
यदि हम जैन परम्परा के इतिहास को देखें तो हमें स्पष्ट रुप से यह दिखाई देता है कि किस प्रकार अन्य सहवर्ती धाराओं के प्रभाव से उसके ऐतिहासिक चरित्रों में पौराणिकता या अलौकिकता का प्रवेश होता गया और आचार और विचार के क्षेत्र में परिवर्तन आता गया। इसका सबसे अच्छा उदाहरण स्वयं भगवान महावीर का जीवन चरित्र ही है। महावीर के जीवनवृत्त संबंधी सबसे प्राचीन उल्लेख आचारांग के प्रथम एवं द्वितीय श्रुत स्कंध में तथा उसके बाद कल्पसूत्र में उपलब्ध होता है। तत्पश्चात् निर्युक्ति, भाष्य और चूर्णी साहित्य में उनके जीवन का चित्रण मिलता है इनके बाद जैन पुराणों और चरित्रकाव्यों में उनके जीवनवृत्त का चित्रण किया गया है। यदि हम उन सभी विवरणों को सामने रखकर तुलनात्मक दृष्टि से उनका अध्ययन करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि महावीर के जीवन में किस प्रकार क्रमशः अलौकिकताओं का प्रवेश होता गया। आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध के नवें अध्ययन में महावीर एक कठोर साधक हैं जो कठोर जीवन चर्चा और साधना के द्वारा अपनी जीवन यात्रा को आगे बढ़ाते हैं, किन्तु आचारांग के द्वितीय श्रुत स्कंध से प्रारम्भ होकर कल्पसूत्र और परवर्ती महावीर चरितों में अलौकिकताओं का प्रवेश हो गया। अतः सामान्य रूप से प्राचीन भारतीय इतिहास और विशेष से जैन इतिहास जो हमें पौराणिक ग्रंथों में उपलब्ध होता है, उसके ऐतिहासिक तथ्यों की खोज अत्यन्त सावधानीपूर्वक करना होगा। यह कहना उचित नहीं है कि समस्त पौराणिक आख्यान ऐतिहासिक न होकर मात्र काल्पनिक हैं दूसरी ओर यह भी सत्य है कि पुराणों और चरितकाव्यों में काल्पनिक अंश इतना अधिक है कि उसमें से ऐतिहासिक तथ्यों को निकाल पाना एक दुरूह कार्य हैं। जो स्थिति हिन्दू पुराणों की है वही स्थिति जैन पुराणों और चरित ग्रंथों की भी है। यह भी सत्य है कि जैन इतिहास के लेखन के लिए हमारे पास जो आधारभूत सामग्री है वह इन्हीं ग्रंथों में निहित है, किन्तु इस सामग्री का उपयोग अत्यन्त सावधानीपूर्वक करना होगा।
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जैन इतिहास अध्ययन विधि एवं मूलस्रोत
जैन इतिहास के अध्ययन के स्रोत
(अ) जैन आगम, आगमिक व्याख्याओं एवं पुराणों के कथानक पुराणों के अतिरिक्त आगमिक व्याख्याओं विशेषतः नियुक्ति, भाष्यों और चूर्णियों में भी अनेक ऐतिहासिक कथानक संकलित हैं किन्तु उनमें भी वही कठिनाई है जो जैन पुराणों में है। ऐतिहासिक कथानक और काल्पनिक कथानक दोनों एक दूसरे से इतने मिश्रित हो गये हैं, उन्हें अलग-अलग करने में अनेक कठिनाईयाँ है सत्य तो यह है कि एक ही कथानक में ऐतिहासिक और काल्पनिक दोनों ही तत्त्व समाहित हैं और उन्हें एक दूसरे से पृथक् करना एक जटिल समस्या है। फिर भी उनमें जो ऐतिहासिक सामग्री है उसका प्राचीन भारतीय इतिहास की रचना में उपयोग महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक है। आगमिक व्याख्याओं में अधिकांश कथानक व्रत पालन अथवा उसके भंग के कारण हुए (ई) प्रबन्ध ग्रन्थ दुष्परिणामों को अथवा किसी नियम के संबंध में उत्पन्न हुई आपवादिक स्थिति को स्पष्ट करने के लिए ही दिये गए हैं। ऐसे कथानकों में चाणक्य कथानक, भद्रबाहु कथा, कालक कथा, भद्रबाहु द्वितीय और वाराहमिहिर आदि के कथानक ऐसे हैं जिनका ऐतिहासिक महत्त्व है। मरण विभक्ति तथा भगवती आराधना की मूल कथाओं और उन कथाओं को लेकर बने बृहद आराधना कथाकोश आदि का भारतीय इतिहास की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व है।
(ब) ऐतिहासिक चरित काव्य एवं स्थविरावलियाँ
इसी प्रकार परवर्ती काल में अनेक ऐतिहासिक चरित काव्य भी लिखे गये हैं, जैसे- त्रिशष्टिशलाका पुरुष चरित, कुमारपाल चरित, कुमारपालभूपाल चरित आदि जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। ऐसे ही जैन आगमों विशेष रूप से कल्पसूत्र और नन्दीसूत्र के प्रारम्भ में जो स्थविरावलियाँ दी गयी हैं वह भी ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व की है। उनमें दिये गये अनेक आचायों के नाम तथा उनके गण, कुल, शाखा आदि के उल्लेख मथुरा के अभिलेखों में मिलने से उनका ऐतिहासिक महत्त्व स्पष्ट है। (स) प्रन्ध प्रशस्तियाँ
ऐतिहासिक अध्ययन की दृष्टि से ग्रंथ प्रशस्तियों का भी अत्यन्त महत्त्व होता है। उनमें लेखक न केवल अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख करता है, अपितु अनेक सूचनाएँ भी देता है, जैसे यह ग्रंथ किसके काल में, किसकी प्रेरणा से और कहाँ लिखा गया। यह ठीक है कि ग्रंथ प्रशस्तियों में विस्तृत जीवन परिचय नहीं मिलता किन्तु उनमें संकेत रूप में जो सूचना मिलती है, वह इतिहास लेखन में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती है।
(द) पट्टावलियाँ
जैन परम्परा में अनेक पट्टावलियाँ (गुरु-शिष्य परम्परा) भी लिखी गयी है। उनमें आचायों के संबंध में उल्लेखित कुछ चमत्कारों को छोड़ दें तो शेष सूचनाएँ जैन संघ के इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण
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और उपयोगी कही जा सकती हैं। इन स्थविरावलियों और पट्टावलियों में न केवल आचार्य परम्परा का निर्देश होता है, अपितु उसमें कुछ काल्पनिक बातों को छोड़कर अनेक आचायों के व्यक्तित्व व कृतित्व के संबंध में महत्त्वपूर्ण सूचनाएं मिलती हैं। हिमवंत स्थविरावली और नन्दीसंघ पट्टावली जिनकी प्रामाणिकता के संबंध में कुछ प्रश्नचिह्न हैं फिर भी वे जैनधर्म के इतिहास को एक नवीन दिशा देने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में आज भी शताधिक ऐसी पट्टावलियाँ उपलब्ध होती हैं, जिनके इतिहास लेखन महत्त्व को हम नहीं नकार सकते। उनका ऐतिहासिक दृष्टि से मूल्यांकन आवश्यक है।
पट्टावलियों के अतिरिक्त अनेक प्रबंध भी (१२वीं से १५वीं शती तक) लिखे गये जिनमें कुछ विशिष्ट जैनाचार्यों के कथानक संकलित हैं। इनमें हेमचन्द्र कृत परिशिष्टपर्व, प्रभाचन्द्र कृत प्रभावकचरित, मेरुतुंग कृत प्रबंधचिन्तामणि, राजशेखर कृत प्रबंधकोश आदि प्रमुख हैं। इन प्रबंधों के कथानकों में भी अनेक स्थलों पर आचार्यों के चरित में अलौकिकता का मिश्रण है। आज उनकी सत्यता का हमारे पास कोई आधार नहीं है फिर भी इन प्रबन्धों में अनेक ऐतिहासिक तथ्य निहित है।
(एफ) चैत्यपरिपाटियाँ
स्थविरावलियों, पट्टावलियों, प्रबंधों के अतिरिक्त जैन इतिहास की महत्त्वपूर्ण विद्या चैत्य परिपाटियों या यात्रा विवरण है जिनमें विभिन्न तीर्थों के निर्देश तो हैं ही, उनके संबंध में अनेक ऐतिहासिक सत्य भी वर्णित हैं। मरुगुर्जर में हमें सैकड़ों चैत्य परिपाटियाँ (१६वीं से १९वीं शती तक) उपलब्ध होती हैं जिनमें आचार्यों ने अपने यात्रा विवरणों को संकलित किया है। इसी से मिलती-जुलती एक विद्या तीर्थमालाएँ हैं। यह भी चैत्य परिपाटी और यात्रा विवरणों का ही एक रूप है। इसमें लेखक विभिन्न तीर्थों का विवरण देते हुए तीर्थ के अधिनायक की स्तुति करता है। यद्यपि परवर्ती काल की तीर्थमालाओं में मुख्य रूप से तीर्थनायक की प्रतिमा के सौन्दर्य वर्णन को प्रमुखता मिली है किन्तु प्राचीन तीर्थमालाएँ मुख्य रूप से नगर, राजा और वहाँ के सांस्कृतिक परिवेश का भी विवरण देते हैं और इस दृष्टि से वे महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक सामग्री प्रस्तुत करती हैं। अधिकांश तीर्थमालाएँ १५वीं से १८ - १९वीं शताब्दी के मध्य की हैं और इनकी भाषा मुख्यतः मरु-गुर्जर हैं किन्तु कुछ तीर्थमालाएँ प्राचीन भी हैं। इसी क्रम में जैनाचार्यों ने अनेक नगर वर्णन भी लिखे हैं, जैसेनगरकोट कांगडा वर्णन नगर वर्णनों संबंधी इन रचनाओं में न केवल नगर का नाम है अपितु उनकी विशेषताएँ तथा उन नगरों से संबंधित उस काल के अनेक ऐतिहासिक वर्णन भी निहित हैं। चैत्य परिपाटियों और तीर्थमालाओं की एक विशेषता यह होती है कि वे उस नगर या तीर्थ के संबंध में पूरा विवरण देती हैं।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
(जी) विज्ञप्ति पत्र
प्राकृत भाषा के अभिलेखों में अजमेर से ३२ मील दूर बारली एक अन्य विधा जिसमें इतिहास संबंधी सामग्री व नगर- (बड़ली) नामक स्थान से प्राप्त एक जैन लेख जो एक पाषाण स्तम्भ पर वर्णन दोनों ही होते हैं वे विज्ञप्ति पत्र कहे जाते हैं। विज्ञप्ति पत्र वस्तुतः ४ पक्तियों में खुदा हैं, सबसे प्राचीन बताया गया है। इस लेख की लिपि एक प्रकार के विनति पत्र हैं जिसमें किसी आचार्य विशेष से उनके को स्व गौरी शंकर हीराचन्द ओझा ने अशोक से पूर्व का माना है। ई०पू० नगर में चार्तुमास करने का अनुरोध किया जाता है। ये पत्र इतिहास ३-२ शती से जैन अभिलेख बहुतायत से मिलते हैं। मात्र मथुरा से ही के साथ ही साथ कला के भी अनुपम भंडार होते हैं। इसमें जहाँ एक लगभग ई०पू० २शती से लेकर १२वीं शती तक के २०० से भी अधिक ओर आचार्य की प्रशंसा और महत्त्व का वर्णन होता है, वहीं दूसरी अभिलेख मिले हैं। मथुरा से प्राप्त ये अभिलेख प्राकत, संस्कृत मिश्रित ओर उस नगर की विशेषताओं के साथ-साथ नगर निवासियों के चरित्र प्राकृत में तथा संस्कृत में हैं। इन अभिलेखों का विशेष महत्त्व इसलिए का भी उल्लेख होता है। लगभग १५वीं शती से प्रारम्भ होकर १६- भी है क्योंकि इनकी पुष्टि कल्पसूत्र और नन्दीसूत्र की स्थविरावलियों से १७वीं शती तक अनेक विज्ञप्ति पत्र आज भी उपलब्ध हैं। ये विज्ञाप्ति भी होता है। इससे पूर्व कलिंग नरेश खारवेल का उड़ीसा के हाथी गुंफा पत्र जन्मपत्री के समान लम्बे आकार के होते हैं जिसमें नगर के से प्राप्त शिलालेख एक ऐसा अभिलेख है जो खारवेल के राजनीतिक महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों के सुन्दर चित्र भी होते हैं, जिससे इनका कलात्मक क्रिया-कलापों पर प्रकाश डालने वाला एक मात्र स्त्रोत है। यह अभिलेख महत्त्व भी बढ़ जाता है।
न केवल ई०पू० प्रथम-द्वितीय शती के जैन संघ के इतिहास को प्रस्तुत इस प्रकार से हम यह कह सकते हैं कि आगम, आगमिक करता है, अपितु खारवेल के राज्यकाल व उसके प्रत्येक वर्ष के कार्यों व्याख्यायें, स्वतंत्र ग्रंथों की प्रशस्तियाँ, धार्मिक कथानक, चरित ग्रंथ, का भी विवरण देता है। अत: यह सामान्य रूप से भारतीय इतिहास और प्रबंध साहित्य, पट्टावलियाँ, स्थविरावलियाँ, चैत्य परिपाटियाँ, विशेष रूप से जैन इतिहास की महत्त्वपूर्ण थाती है। तीर्थमालाएँ, नगर वर्णन और विज्ञप्ति पत्र आदि सब मिलकर सामान्य परवर्ती अभिलेख विशेषत: ५-६वीं शती के दक्षिण से प्राप्त रूप से भारतीय इतिहास विशेषत: जैन इतिहास के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण अभिलेखों में चालुक्य-पुलकेशी द्वितीय का रविकीर्ति रचित शिलालेख योगदान प्रदान करते हैं।
(६३४ ई०), हथुडी के धवल राष्ट्रकूट का बीजापुर लेख (९९७ ई०)
आदि प्रमुख हैं। दक्षिण से प्राप्त अभिलेखों की विशेषता यह है कि उनमें (एच) अभिलेख
आचार्यों की गुरु परम्परा, कुल, गच्छ आदि का विवरण तो मिलता ही इन साहित्यिक स्त्रोतों के अतिरिक्त अभिलेखीय स्त्रोत भी जैन है साथ ही अभिलेख लिखवाने वाले व्यक्तियों व राजाओं के संबंध में इतिहास के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। इनमें परिवर्तन-संशोधन की गुंजाईश कम भी सूचना मिलती है। होने तथा प्राय: समकालीन घटनाओं का उल्लेख होने से उनकी अन्य प्रमुख अभिलेख कक्क का घटियाल प्रस्तर लेख प्रामाणिकता में भी सन्देह का अवसर कम होता है। जैन अभिलेख विभिन्न (वि०सं० ९१८), कुमारपाल की बडनगर प्रशस्ति (वि०सं० उपादानों पर उत्कीर्ण मिलते हैं जैसे-शिला, स्तम्भ, गुफा, धातु प्रतिमा, १२०८), विक्रमसिंह कछवाहा का दूबकुण्ड लेख (१०८८ ई०), स्मारक, शय्यापट्ट, ताम्रपट्ट आदि पर। ये अभिलेख मुख्यतया दो प्रकार जयमंगलसूरि रचित चाचिंग-चाहमान का सुन्धा पर्वत अभिलेख आदि के हैं- १. राजनीतिक और २. धार्मिक। राजनीतिक या शासन पत्रों के हैं जिनसे धार्मिक इतिहास के साथ ही साथ राजनीतिक व सांस्कृतिक रूप में जो अभिलेख हैं वे प्रायः प्रशस्तियों के रूप में हैं जिसमें राजाओं इतिहास भी ज्ञात होता है। की विरूदावलियाँ, सामरिक विजय, वंश परिचय आदि होता है। धार्मिक इस प्रकार जैन साहित्यिक व अभिलेखीय दोनों ही स्त्रोतों से अभिलखों में अनेक जैन जातियों के सामाजिक इतिहास, जैनाचार्यों के महत्त्वपूर्ण सामग्री प्राप्त होती है। हमें यह समझ लेना चाहिये कि जैन संघ, गण, गच्छ आदि से संबंधित उल्लेख होते हैं।
विद्वानों, रचनाकारों ने जैन इतिहास के लिए हमें महत्त्वपूर्ण अवदान किया जैन अभिलेखों की भाषा प्राकृत, संस्कृत, कन्नड़ मिश्रित है, जिसका सम्यक मूल्यांकन और उपयोग अपेक्षित है। हम इतिहासविदों संस्कृत, कन्नड़, तमिल, गुजराती और पुरानी हिन्दी हैं। दक्षिण के कुछ से अनुरोध करते हैं कि वे अपने अध्ययन व भारतीय इतिहास की नवीन लेख तमिल में तथा अधिकांश कन्नड़ मिश्रित संस्कृत में हैं जिनमें ऐहोल व्याख्या के लिए इन स्रोतों का भरपूर उपयोग करें ताकि कुछ नवीन तथ्य प्रशस्ति, राष्ट्रकूट गोविन्द का मन्ने से प्राप्त लेख, अमोघवर्ष का कोन्नर सामने आ सकें। शिलालेख आदि मुख्य हैं।
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जैन धर्म का एक विलुप्त सम्प्रदाय यापनीय
सामान्यतया आज विद्वत्वर्ग और जन-साधारण जैन धर्म के शब्द के अनेक रूप उपलब्ध होते हैं यथा-यापनीय, जापनीय, यपनी, दो प्रमुख सम्प्रदायों-श्वेताम्बर और दिगम्बर से ही परिचित हैं किन्तु आपनीय, यापुलिय, आपुलिय, जापुलिय, जावुलीय, जाविलिय, जावलिय, उसका 'यापनीय' नामक एक अन्य महत्त्वपूर्ण सम्प्रदाय भी था, जो ई० जावलिगेय, आदि आदि । सर्वप्रथम 'यापनीय' शब्द का प्रयोग हमें सन् की दूसरी शती से पन्द्रहवीं शताब्दी तक (लगभग १४०० वर्ष) जैन आगम साहित्य और पाली त्रिपिटक साहित्य में प्राप्त होता है । जीवित रहा और जिसने न केवल अनेक जिन-मन्दिर बनवाये एवं प्राकृत और पाली साहित्य में ‘यापनीय' शब्द का प्रयोग कुशल-क्षेम मूर्तियाँ स्थापित की, अपितु जैन-साहित्य क्षेत्र में और विशेषकर शौरसेनी पूछने के प्रसंग में ही हुआ है । दूसरों से कुशल-क्षेम पूछते समय यह जैन-साहित्य के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण अवदान प्रदान किया । यह पूछा जाता था कि आपका 'यापनीय' कैसा है (किं यापनीयं ?)। सम्प्रदाय आज से ५० वर्ष पूर्व तक जैन समाज के लिए पूर्णत: अज्ञात 'भगवती' नामक जैन आगम में यापनीय का प्राकृत रूप 'जावनिच्च' बना हुआ था। संयोग से विगत ५० वर्षों की शोधात्मक प्रवृत्तियों के प्राप्त होता है । भगवती में सोमिल नामक ब्राह्मण भगवान महावीर से कारण इस सम्प्रदाय के कुछ अभिलेख एवं ग्रन्थ प्रकाश में आये हैं। प्रश्न करता है- हे भन्ते ! आपकी यात्रा कैसी हुई ? आपका यापनीय फिर भी अभी तक इस सम्प्रदाय पर चार-पाँच लेखों के अतिरिक्त कोई कैसा है ? आपका स्वास्थ्य (अव्वावह) कैसा है ? आपका विहार कैसा भी विशेष सामग्री प्रकाशित नहीं हुई है। सर्वप्रथम प्रो० ए. एन उपाध्ये है ?३ भगवती और ज्ञाताधर्मकथा में इस प्रसंग में दो प्रकार से एवं पं० नाथूराम जी प्रेमी ने ही इस सम्बन्ध में कुछ लेख प्रकाशित यापनीयों की चर्चा हुई है - इन्द्रिय यापनीय और नो-इन्द्रिय यापनीय। किये थे । किन्तु उनके पश्चात् इस दिशा में पुन: उदासीनता आ गई इन्द्रिय यापनीय की व्याख्या करते हुए भगवान् महावीर ने कहा था कि है । प्रस्तुत लेख उसी उदासीनता को तोड़ने का एक प्रयास मात्र है। मेरी श्रोत्र आदि पाँचों इन्द्रियाँ व्याधिरहित एवं मेरे नियन्त्रण में हैं । इसी आशा है जैन-विद्या के विद्वान् इस दिशा में सक्रिय होंगे। प्रकार नो-इन्द्रिय यापनीय को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा था कि मेरे
आज विशृङ्खलित होते हुए जैन समाज के लिए इस सम्प्रदाय क्रोध, मान, माया, लोभ विच्छिन्न या निर्मूल हो गये हैं, अब वे का ज्ञान और भी आवश्यक है क्योंकि इस सम्प्रदाय की मान्यताएँ आज अभिव्यक्त या प्रकट नहीं होते हैं ? भी जैनधर्म की दिगम्बर और श्वेताम्बर शाखाओं के बीच योजक कड़ी उपर्युक्त चर्चा से स्पष्ट रूप से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता बन सकती हैं । दुर्भाग्य से आज भी अनेक जैन विद्वान् और मुनिजन है कि भगवतीसूत्र में इन्द्रिय और मन की नियन्त्रित एवं शान्त स्थिति यह नहीं जानते हैं कि एक ऐसा सम्प्रदाय जो श्वेताम्बर और दिगम्बर के के अर्थ में ही यापनीय शब्द का प्रयोग हुआ है । इन्द्रियों की वृत्तियों मध्य एक योजक कड़ी के रूप में विद्यमान था एवं लगभग १४०० और मन की वासनाओं का शान्त एवं नियन्त्रित होना ही यापनीय की वर्षों तक अपने को जीवित बनाये रखकर आज से ६०० वर्ष पूर्व काल कुशलता का सूचक है । वस्तुत: यह मनुष्य के मानसिक कुशल-क्षेम के गर्भ में ऐसा विलीन हो गया कि आज लोग उसका नाम तक नहीं का सूचक है । 'किं जवणिच्च' का अर्थ है आपकी मनोदशा कैसी है ? जानते हैं। आज जैन धर्म में 'यापनीय' परम्परा का कोई भी अनुयायी अत: यापनीय शब्द मनोदशा (Mood) या मानसिक स्थिति (Mental नहीं है । यह परम्परा आज मात्र इतिहास की वस्तु बनकर रह गयी है state) का सूचक है । इस शब्द का प्रयोग मन की प्रसन्नता को जानने किन्तु इनके द्वारा स्थापित मन्दिर एवं मूर्तियाँ तथा सृजित साहित्य के लिए प्रश्न के रूप में किया जाता था। सहज ही आज हमें उसका स्मरण करा देते हैं। आज जब जैन धर्म में बौद्ध पाली साहित्य में भी इस शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में भी साम्प्रदायिक अभिनिवेश दृढमूल होता जा रहा है, यापनीय संघ के हुआ है । भगवान बुद्ध का अपने ग्राम में आगमन होने पर भृगु, इतिहास और उनकी मान्यताओं का बोध न केवल जैन संघ में समन्वय भगवान से पूछते हैं कि हे भिक्षु ! आपका क्षमा-भाव कैसा है ? का सूत्रपात कर सकता है, वरन् टूटते हुए जैन संघ को पुन: एकता की आपका यापनीय कैसा है ? आपको आहार आदि के लाभ में कोई कड़ी में जोड़ सकता है । वस्तुत: 'यापनीय' परम्परा वह सेतु है जो कठिनाई तो नहीं है? प्रत्युत्तर में भगवान बुद्ध ने कहा, मेरा क्षमा-भाव श्वेताम्बर और दिगम्बर के बीच की खाईं को पाटने में आज भी (क्षमनीय) अच्छा है, मेरा यापनीय सुन्दर है । मुझे आहार-लाभ में कोई महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है । अग्रिम पंक्तियों में हम ऐसे कठिनाई नहीं है । इस प्रकार यहाँ भी यापनीय शब्द जीवन-यात्रा के महत्त्वपूर्ण और समन्वयवादी सम्प्रदाय के सन्दर्भ में गवेषणात्मक दृष्टि कुशल-क्षेम के सन्दर्भ में ही प्रयुक्त हुआ है। 'किच्च यापनीय' का अर्थ से कुछ विचार करने का प्रयत्न करेंगे।
है आपकी जीवन-यात्रा कैसी चल रही है ?
इस प्रकार हम देखते है कि जहाँ पाली साहित्य में 'यापनीय' यापनीय शब्द का अर्थ
शब्द जीवन-यात्रा के सामान्य अर्थ का सूचक है। वहाँ जैन साहित्य में भाषा एवं उच्चारण भेद के आधार पर आज हमें 'यापनीय' वह इन्द्रियों एवं मन की वृत्तियों या मनोदशा का सूचक है, भगवती
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ और ज्ञाताधर्मकथा में 'इन्द्रिय-यापनीय' और 'नो-इन्द्रिय-यापनीय' को प्रो० एम० ए० ढाकी यापनीय शब्द को मूल में यावनिक स्पष्ट करते हुए यही बताया गया है कि जिसकी इन्द्रियाँ स्वस्थ और मानते हैं । उनके अनुसार सम्भावना यह है कि मथुरा में शक और नियन्त्रण में हैं तथा जिसका मन वासनाओं के आवेग से रहित एवं कुषाणों के काल में कुछ यवन जैन मुनि बने हों और उनकी परम्परा शान्त हो चुका है, ऐसे नियन्त्रित इन्द्रिय और मनवाले व्यक्ति का यावनिक (यवन-इक) कही जाती हो । उनके मतानुसार 'यावनिक' यापनीय कुशल है । यद्यपि यहाँ 'यापनीय' शब्द इन्द्रिय और मन की शब्द आगे चल कर यापनीय बन गया है । यह सत्य है कि यापनीय वृत्तियों का सूचक है किन्तु अपने मूल अर्थ में तो यापनीय शब्द व्यक्ति परम्परा का विकास मथुरा में उसी काल में हुआ है, जब शक, हूण की 'जीवन-यात्रा' का सूचक है । व्यक्ति की जीवनयात्रा के कुशलक्षेम आदि के रूप में यवन भारत में प्रविष्ट हो चुके थे और मथुरा उनका को जानने के लिए ही उस युग में यह प्रश्न किया जाता था कि आपका केन्द्र बन गया था। फिर भी व्याकरण-शास्त्र की दृष्टि से यावनिक का यापनीय कैसा है ? बौद्ध परम्परा में इसी अर्थ में यापनीय शब्द का यापनीय रूप बनना यह सन्तोषजनक व्याख्या नहीं है। प्रयोग होता था किन्तु जैन परम्परा ने उसे एक आध्यात्मिक अर्थ प्रदान संस्कृत और हिन्दी शब्द कोशों में 'यापन' शब्द का एक किया था । ज्ञाताधर्मकथा एवं भगवती में महावीर 'यात्रा' को ज्ञान, अर्थ परित्याग करना या निष्कासित करना भी बताया गया है। प्रो० दर्शन और चारित्र की साधना से जोड़ा तो 'यापनीय' को इन्द्रिय और आप्टे ने 'याप्य' शब्द का अर्थ निकाले जाने योग्य, तिरस्करणीय या मन की वृत्तियों से । इस प्रकार निर्ग्रन्थ परम्परा में यापनीय शब्द का नीच भी बताया है. इस आधार पर यापनीय शब्द का अर्थ नीच, एक नया अर्थ लिया गया। प्रो० ए. एन. उपाध्ये यहाँ अपना मत व्यक्त तिरस्कृत या निष्कासित भी होता है । अत: संभावना यह भी हो सकती करते हुए लिखते हैं कि-"नायाधम्मकहाओ (ज्ञाताधर्मकथा) में 'इन्दिय है कि इस वर्ग को तिरस्कृत, निष्कासित या परित्यक्त मानकर ‘यापनीय' जवणिज्जे' शब्द का प्रयोग किया गया है । इसका अर्थ यापनीय न कहा गया हो। होकर यमनीय होता है, जो यम् (नियन्त्रण) धातु से बनता है । इसकी वस्तुत: प्राचीन जैन आगमों एवं पाली त्रिपिटक में यापनीय तुलना 'थवणिज्ज' शब्द से की जा सकती है जो स्थापनीय शब्द के शब्द जीवन-यात्रा के अर्थ में ही प्रयुक्त होता था । 'आपका यापनीय लिए प्रयुक्त होता है । इस तरह 'जवणिज्ज' का सही संस्कृत रूप कैसा है' इसका अर्थ होता था कि आपकी जीवन-यात्रा किस प्रकार चल यापनीय नहीं हो सकता। अत: जवणिज्ज' साधु वे हैं जो यम-याम का रही है । इस आधार पर मेरा यह मानना है कि जिनकी जीवन-यात्रा जीवन बिताते थे । इस सन्दर्भ में पार्श्व प्रभु के चउज्जाम-चातुर्याम धर्म सुविधापूर्वक चलती हो वे यापनीय हैं । सम्भवत: जिस प्रकार उत्तर से यम-याम की तुलना की जा सकती है।"६
भारत में श्वेताम्बरों ने इस परम्परा को अपने साम्प्रदायिक दुरभिनिवेश में किन्तु प्रो० ए. एन. उपाध्ये का 'जवनिच्च' का यमनीय अर्थ 'बोटिक' अर्थात् भ्रष्ट या पतित कहा; उसी प्रकार दक्षिण में दिगम्बर करना उचित नहीं है । यदि उन्होंने विनयपिटक का उपर्युक्त प्रसंग देखा परम्परा ने भी उन्हें सुविधावादी जीवन के आधार पर अथवा उन्हें होता जिसमें 'यापनीय' शब्द का जीवनयात्रा के कुशल-क्षेम जानने के तिरस्कृत मानकर यापनीय कहा हो। सन्दर्भ में स्पष्ट प्रयोग है, तो सम्भवत: वे इस प्रकार का अर्थ नहीं इस प्रकार हमने यहाँ यापनीय शब्द की सम्भावित विभिन्न करते । यदि उस युग में इस शब्द का 'यमनीय' के रूप में प्रयोग होता व्याख्याओं को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। किन्तु आज यह बता तो फिर पाली साहित्य में यापनीय शब्द का स्पष्ट प्रयोग न मिलकर पाना तो कठिन है कि इन विविध विकल्पों में से किस आधार पर इस 'यमनीय' शब्द का ही प्रयोग मिलता । अत: स्पष्ट है कि मूल शब्द वर्ग को यापनीय कहा गया था । 'यापनीय' ही है, यमनीय नहीं है । यद्यपि आगमों में आध्यात्मिक दृष्टि से यापनीय शब्द की व्याख्या करते हुए उसे अवश्य ही मन और बोटिक शब्द की व्याख्या इन्द्रिय की नियंत्रित या संयमित दशा का सूचक माना गया है।
यापनीयों के लिए श्वेताम्बर परम्परामें लगभग ८वीं शताब्दी यापनीय शब्द की उपर्युक्त व्याख्याओं के अतिरिक्त विद्वानों तक 'बोडिय' (बोटिक) शब्द का प्रयोग होता रहा है । मेरी जानकारी ने उसकी अन्य व्याख्यायें भी देने का प्रयत्न किया है । प्रो० तैलंग के के अनुसार श्वेताम्बर परम्परा में सबसे पहले हरिभद्र के ग्रन्थों में अनुसार यापनीय शब्द का अर्थ बिना ठहरे सदैव विहार करने वाला यापनीय शब्द का प्रयोग हुआ है ।१२ फिर भी यापनीय और बोटिक एक है। सम्भव है कि जब उत्तर और दक्षिण भारत में चैत्यवास अर्थात् ही हैं - ऐसा स्पष्ट उल्लेख कहीं नहीं मिलता है। हरिभद्र भिन्न-भिन्न मन्दिरों में अपना मठ बनाकर रहने की प्रवृत्ति पनप रही थी तब उन प्रसंगों में इन दोनों शब्दों की व्याख्या तो करते हैं किन्तु ये दोनों शब्द मुनियों को जो चैत्यवास का विरोध कर सदैव विहार करते थे - पर्यायवाची हैं, ऐसा स्पष्ट उल्लेख नहीं करते हैं। यापनीय कहा गया हो । किन्तु इस व्याख्या में कठिनाई यह है कि 'बोडिय' शब्द का संस्कृत रूपान्तरण बोटिक किया गया है। चैत्यवास का विकास परवर्ती है, वह ईसा की चौथी या पाँचवीं शती में उत्तराध्ययनसूत्र की शान्त्याचार्य की टीका में बोटिक शब्द की व्याख्या प्रारम्भ हुआ जब कि यापनीय संघ ईसा की दूसरी के अन्त या तीसरी करते हुए कहा गया है - "बोटिकाश्चासौ चारित्रविकलतया मुण्डमात्रत्वेन१३ शती के प्रारम्भ में अस्तित्व में आ चुका था।
अर्थात् चारित्रिक विकलता के कारण मात्र मुण्डित बोटिक कहे जाते
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जैन धर्म का एक विलुप्त सम्प्रदाय यापनीय
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है किन्तु इस व्याख्या से बोटिक शब्द पर कोई विशेष प्रकाश नहीं पड़ता। मात्र बोटिकों के चरित्र के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त होती है। मेरी दृष्टि में प्राकृत के 'बोडिय' के स्थान पर 'वाडिय' शब्द होना चाहिए था जिसका संस्कृत रूप वाटिक होगा। 'वाटिक' शब्द का अर्थ वाटिका या उद्यान में रहने वाला है । विशेषावश्यकभाष्य में शिवभूति की कथा से स्पष्ट है कि बोटिक मुनि नग्न रहते थे, भिक्षादि प्रसंग को छोड़कर सामान्यतया ग्राम या नगर में प्रवेश नहीं करते थे और वे नगर के बाहर उद्यानों या वाटिकाओं में ही निवास करते थे१४ । अतः सम्भावना यह है कि वाटिका में निवास के कारण वे वाडिय या बाडिय कहे जाते होगें जो आगे चलकर 'बोडिय' हो गया। हमें कल्पसूत्र में वेसवाडिय (वैश्यवाटिक) उडुवाडिय (ऋतुवाटिक) आदि गणों के उल्लेख मिलते हैं। जिस प्रकार श्वेतपट प्राकृत में सेतपट> से अपड> से अअ सेवड़ा हो गया, उसी प्रकार सम्भवतः वाटिका वाडिया बाडिय बोडिय हो गया हो। आज भी मालव प्रदेश में उद्यान को बाडी कहा जाता है। इसी प्रसंग में मुझे मालवी बोली में प्रयुक्त 'बोडा' शब्द का भी स्मरण हो जाता है। गुजराती एवं मालवी में केशरहित मस्तक वाले व्यक्ति को 'बोडा' कहा जाता है। सम्भावना यह भी हो सकती है कि लुंचित केश होने से उन्हें 'बोडिय' कहा गया हो। शब्दों के रूप परिवर्तन की ये व्याख्याएं मैनें अपनी बुद्धयनुसार करने की चेष्टा की है। भाषाशास्त्र के विद्वानों से अपेक्षा है कि इस सम्बन्ध में विशेष प्रकाश डालें ।
प्रो० एम० ए० ढाकी बोटिक की मेरी इस व्याख्या से सहमत नहीं है । उनका कहना है कि 'बोटवु' शब्द आज भी गुजराती में भ्रष्ट या अपवित्र के अर्थ में प्रयुक्त होता है"। सम्भवतः यह देशीय शब्द हो और उस युग में भी इसी अर्थ में प्रयुक्त होता हो । अतः श्वेताम्बरों ने उन्हें साम्प्रदायिक अभिनिवेशवश 'बोडिय' कहा होगा। क्योंकि श्वेताम्बर परम्परा उनके लिए मिथ्यादृष्टि, प्रभूततर विसंवादी, सर्वविसंवादी और सर्वापलापी जैसे अनादरसूचक शब्दों का प्रयोग कर रही थी। भोजपुरी और अवधी में बोरना या बूड़ना शब्द डूबने के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं । व्यञ्जना से इसका अर्थ भी पतित या गिरा हुआ हो सकता है ।
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'बोडिय' शब्द की इन विभिन्न व्याख्याओं में मुझे प्रो० ढाकी की व्याख्या अधिक युक्तिसंगत लगती है क्योंकि इस व्याख्या से यापनीय और बोटिक शब्द पर्यायवाची भी बन जाते है यदि यापनीय का अर्थ तिरस्कृत या निष्कासित और बोटिक का अर्थ भ्रष्ट या पतित है, तो दोनों पर्यायवाची ही सिद्ध होते हैं। किन्तु हमें यह स्मरण रखना होगा कि ये दोनों नाम उन्हें साम्प्रदायिक दुरभिनिवेश के वश दिये गये हैं। जहाँ श्वेताम्बरों ने उन्हें बोडिय (बोटिक = भ्रष्ट) कहा, वहीं दिगम्बरों ने उन्हें यापनीय तिरस्कृत या निष्कासित कहा इनके लिए बोटिक शब्द का प्रयोग केवल श्तेताम्बर परम्परा के आगमिक व्याख्या अन्यों तक ही सीमित रहा है, इन ग्रन्थों के अतिरिक्त इस शब्द का प्रयोग अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं होता है
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आगे चलकर इस वर्ग ने स्वयं अपने लिए 'यापनीय' शब्द को स्वीकार कर लिया होगा क्योंकि यापनीय शब्द की व्याख्या प्रशस्त अर्थ में भी सम्भव है। अभिलेखों में भी ये अपने को 'यापनीय' के रूप में ही अंकित करवाते थे।
यापनीय संघ को उत्पत्ति
यापनीय सम्प्रदाय कब उत्पन्न हुआ ? यह प्रश्न विचारणीय है । भगवान महावीर का धर्म संघ कब और किस प्रकार विभाजित होता गया इसके प्राचीनतम उल्लेख हमें कल्पसूत्र" और नन्दीसूत्र" की स्थविरावलियों में मिलता है। ये स्थविरावलियाँ स्पष्ट रूप से हमें यह बताती हैं कि यद्यपि महावीर का धर्मसंघ विभिन्न गणों में विभाजित हुआ और ये गण शाखाओं में, शाखायें कुल में और कुल सम्भोगों में विभाजित हुए फिर भी नन्दीसूत्र और कल्पसूत्र की स्थाविरावलियों में ऐसा कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं है जिससे महावीर के धर्मसंघ के यापनीय, श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं में विभाजित होने की कोई सूचना मिलती हो। इन दोनों स्थविरावलियों में भी कल्पसूत्र की स्थविरावली अपेक्षाकृत प्राचीन है, इसमें दो बार परिवर्धन हुआ है। अन्तिम परिर्वधन वीर निर्वाण सम्वत् ९८० अर्थात् ईसा की पाँचवीं शताब्दी का है। नन्दीसूत्र की स्थविरावली भी इसी काल की है किन्तु दोनों स्थविरावलियाँ स्थूलभद्र के शिष्यों से अलग हो जाती हैं। इनमें कल्पसूत्र की स्थविरावली का सम्बन्ध वाचक वंश से जोड़ा जाता है। सम्भवतः गणधरवंश संघ व्यवस्थापक आचार्यों की परम्परा (Administrative lineage) का सूचक है जबकि वाचक वंश उपाध्यायों या विद्यागुरुओं की परम्परा का सूचक है। वाचक वंश विद्यावंश है। यह विद्वान् जैनाचार्यों के नामों का कालक्रम से संकलन है।
कल्पसूत्र और नन्दीसूत्र की स्थविरावलियाँ अन्तिम रूप से देवर्धिगणि क्षमाश्रमण तक की परम्परा का वीरनिर्वाण से एक हजार वर्ष तक अर्थात् ई. पू. पाँचवीं शती से ईसा की पाँचवीं शती तक का उल्लेख करती हैं, फिर भी इसमें सम्प्रदाय भेद की कहीं चर्चा नहीं हैं, मात्र गणभेद आदि की चर्चा है।
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श्वेताम्बर परम्परा के उपलब्ध आगमिक साहित्य स्थानाङ्ग और आवश्यकनियुक्ति में हमें सात निड़यों का उल्लेख मिलता है" (निह्नव वे हैं जो सैद्धान्तिक या दार्शनिक मान्यताओं के सन्दर्भ में मतभेद रखते हैं, किन्तु आचार और वंश वही रखते हैं ।) इन सात निह्नवों में कहीं भी बोटिक (बोडिय) जिन्हें सामान्यतया दिगम्बर मान लिया जाता है, किन्तु वस्तुतः जो यापनीय हैं, का उल्लेख नहीं है । बोटिक सम्प्रदाय का सर्वप्रथम उल्लेख आवश्यक मूलभाष्य की गाथा १४५ से १४८ तक में मिलता है। ये गाथायें हरिभद्र की आवश्यकनियुक्ति की टीका में नियुक्ति गाथा ७८३ के पश्चात् संकलित हैं । इस प्रकार श्वेताम्बर आगमिक साहित्य आवश्यक मूलभाष्य की रचना के पूर्व तक बोटिक, यापनीय एवं दिगम्बर परम्पराओं के सम्बन्ध में हमें कोई सूचना नहीं
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देता है । आश्चर्य यह है कि स्त्रीमुक्ति एवं केवलीकवलाहार का निषेध करने वाली दिगम्बर परम्परा का उल्लेख तो विक्रम की आठवीं शती के पूर्व किसी भी श्वेताम्बर ग्रन्थ में नहीं मिलता है। साहित्यिक दृष्टि से यापनीय सम्प्रदाय के सम्बन्ध में जो उल्लेख उपलब्ध है वे लगभग ईसा की ५वीं शताब्दी या उसके पश्चात् के हैं। यद्यपि ऐसा लगता है कि इसके पूर्व भी यह सम्प्रदाय अस्तित्व में तो अवश्य ही आ गया था।
जहाँ तक अभिलेखीय साक्ष्यों का प्रश्न है, मथुरा के ईसा की प्रथम और द्वितीय शताब्दी के जो जैन अभिलेख उपलब्ध हैं, इनमें गणों, शाखाओं, कुलों एवं सम्भोगों के उल्लेख मिलते हैं। ये समस्त गण, कुल, शाखायें और सम्भोग कल्पसूत्र की स्थविरावली के अनुसार ही हैं। दिगम्बर साहित्य में हमें इन गणों शाखाओं एवं कुलों का किञ्चित भी संकेत उपलब्ध नहीं होता है। यद्यपि मथुरा से उपलब्ध उन सभी मूर्तियों और आयागपट्टों (जिनपर ये अभिलेख अंकित हैं) में तीर्थङ्कर को नग्न रूप में अंकित किया गया है किन्तु वहीं उसी काल में कल्पसूत्र एवं आचाराङ्ग (द्वितीय श्रुतस्कंध) में उल्लिखित महावीर के गर्भपरिवर्तन की घटना का अंकन भी उपलब्ध होता है१४। साथ ही उन अभिलेखों में कल्पसूत्र के अनुरूप गण, कुल, शाखा और संभोगों के उल्लेख यह सूचित करते हैं कि ये सभी अभिलेख और मूर्तियाँ दिगम्बर परम्परा से सम्बद्ध नहीं हैं। पुनः मथुरा के प्राचीन शिल्प में मुनि के हाथ की कलाई पर लटकते हुए वख खण्ड का अंकन भी जिससे वे अपनी नग्नता को छिपाये हुए हैं, इस शिल्प को दिगम्बर परम्परा से पृथक करता है" । पुनः मथुरा का जैन शिल्प यापनीय भी नहीं कहा जा सकता है क्योंकि यापनीय परम्परा की उत्पत्ति इससे परवर्ती है इसमें आर्ग कृष्ण (अज्ज कन्ह) का जिनके शिष्य शिवभूति से आवश्यक मूलभाष्य में बोटिक या यापनीय परम्परा का विकास माना गया है, नामोल्लेख पूर्वक अंकन उपलब्ध है। पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने इसे अर्धस्फालक सम्प्रदाय का माना है, किन्तु इस सम्प्रदाय के अस्तित्व का दशवीं शती के पूर्व का कोई भी साहित्यिक या अभिलेखीय साक्ष्य नहीं है । पं० नाथूरामजी प्रेमी के अनुसार ऐसा कोई सम्प्रदाय नहीं था। यह मात्र संघभेद के पूर्व की स्थित है। सत्य तो यह है कि यापनीयों या बोटिकों ने आर्य कृष्ण के उसी वस्त्रखण्ड का विरोध करके अचेलक परम्परा के पुनः स्थापन का प्रयत्न किया था। देश काल के प्रवाह में जैन संघ में जो परिवर्तन आ रहे थे उसी का विरोध यापनीयों या बोटिकों की उत्पत्ति का कारण बना।
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
इस प्रकार अभिलेखीय और साहित्यिक दोनों ही प्रमाणों से यह निष्कर्ष निकलता है कि ईसा की लगभग दूसरी शताब्दी तक चाहे महावीर के धर्मसंघ में विभिन्न गण, शाखा, कुल और सम्भोग अस्तित्व में आ गये थे, फिर भी श्वेताम्बर दिगम्बर या यापनीय जैसे वर्गों का स्पष्ट विभाजन नहीं हो पाया था अतः यह स्पष्ट है कि जैन धर्म में श्वेताम्बर दिगम्बर एवं यापनीय सम्प्रदाय ईसा की तीसरी शती या उसके पश्चात् ही अस्तित्व में आये हैं। यद्यपि इस संघ भेद के मूल कारण इसके पूर्व भी भीतर-भीतर अपनी जड़ें जमा चुके थे।
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श्वेताम्बर परम्परा में मतभेद और संघभेद सम्बन्धी जो सूचनायें उपलब्ध हैं, उनमें प्रथमतः स्थानान एवं आवश्यकनियुक्ति में सात निहवों की चर्चा है। ये सात निहव जामालि, तिष्यगुप्त, आषाढ़, अश्वमित्र, गंग, रोहगुप्त और गोष्टमहिल हैं। इनमें प्रथम दो महावीर के जीवन काल में और शेष पाँच उनके निर्वाण के पश्चात् २१४ से ५८४ वर्ष के बीच में हुए हैं २८ । किन्तु इनमें बोटिक या बोडिय का कहीं भी उल्लेख नहीं है। हम ऊपर देख चुके हैं कि बोडिय (बोटिक) का सर्वप्रथम उल्लेख आवश्यकमूलभाष्य में है। इसके अनुसार वीर निवार्ण के ६०९ वर्ष के पश्चात् रथवीरपुर नगर के दीपक उद्यान में अज्ज कण्ह के शिष्य शिवभूति द्वारा बोटिक परम्परा की उत्पत्ति हुई । आवश्यकमूलभाष्य आवश्यकनियुक्ति एवं विशेषावश्यकभाष्य के मध्यकाल की रचना है उपलब्ध आवश्यकनियुक्ति वीर निर्वाण के पश्चात् ५८४ वर्ष तक की अर्थात् ईसा की प्रथम शती की घटनाओं का उल्लेख करती है, अतः उसके पश्चात् ही उसका रचना काल माना जा सकता है। विशेषावश्यकभाष्य का रचनाकाल सामान्यतया ईसा की छठीं शताब्दी का अन्तिम चरण (शक ५३१ के पूर्व ) माना जाता है" । अतः इस अवधि के बीच ही बोटिक मत या यापनीय परम्परा का प्रादुर्भाव हुआ होगा । आवश्यकमूलभाष्य में जो वीर निर्वाण के ६०९ वर्ष बाद अर्थात् ईसा की द्वितीय शती में इस सम्प्रदाय की उत्पत्ति का उल्लेख है, वह किसी सीमा तक सत्य प्रतीत होता है।
दिगम्बर परम्परा में जैन संघ के विभाजन की सूचना देने वाला कोई प्राचीन ग्रंथ नहीं है, मात्र ई० सन् ९४२ (वि० सं० १९९) में देवसेन द्वारा रचित 'दर्शनसार' है। इस ग्रन्थ के अनुसार विक्रम की मृत्यु के १३६ वर्ष पश्चात् सौराष्ट्र देश के बलभी नगरी में श्वेताम्बर संघ की उत्पत्ति हुई। इसमें यह भी कहा गया है कि श्रीकलश नामक श्वेताम्बर मुनि से विक्रम संवत् २०५ में यापनीय संघ उत्पन्न हुआ। चूँकि 'दर्शनसार' आवश्यकमूलभाष्य की अपेक्षा पर्याप्त परवर्ती है अतः उसके विवरणों की प्रामाणिकता को स्वीकार करने में विशेष सतर्कता की आवश्यकता है, फिर भी इतना निश्चित है कि जब आवश्यकमूलभाष्य और दर्शनसार दोनों ही वि० सं० १३६ अथवा १३९ या वीर निर्वाण संवत् ६०६ या ६०९ में संघ भेद की घटना का उल्लेख करते हैं तो एक दूसरे से पुष्टि होने के कारण इस तथ्य को अप्रामाणिक नहीं माना जा सकता कि विक्रम सम्वत् की प्रथम शती के अन्त या द्वितीय शताब्दी के प्रारम्भ में जैनों में स्पष्ट रूप से संघभेद हो गया। 'दर्शनसार' में इस संघ भेद की घटना के ७० वर्ष पश्चात् यापनीय संघ की उत्पत्ति का उल्लेख है । आवश्यकमूलभाष्य में भी कहा गया है कि शिवभूति के शिष्य कौडिन्य और कोट्टवीर से यह परम्परा आगे चली। अतः यह मानने में विशेष बाधा नहीं आती कि यही बोटिक सम्प्रदाय जिसका उल्लेख आवश्यकमूलभाष्य में मिलता है, ईसा की दूसरी शताब्दी के अन्त में एक स्वतन्त्र सम्प्रदाय के रूप में विकसित हुआ होगा। यद्यपि यह प्रश्न अनिर्णीत ही है कि उसने पूर्ण स्वतंत्र होकर 'यापनीय' नाम कब धारण किया, क्योंकि 'यापनीय'
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जैन धर्म का एक विलुप्त सम्प्रदाय यापनीय
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शब्द का सबसे प्राचीन प्रयोग दक्षिण भारत में मृगेशवर्मन् के ईसा की जिनकल्प का विच्छेद हो गया । शिवभूति ने कहा-मैं जिनकल्प का पाँचवी शताब्दी के एक अभिलेख में मिलता है३६ । किन्तु उत्तर भारत आचरण करूँगा, उपधि के परिग्रह से क्या लाभ? क्योंकि परिग्रह के में इससे पूर्व यह सम्प्रदाय अपनी जड़ें जमा चुका होगा। संभावना यह सद्भाव में कषाय, मूर्छा आदि अनेक दोष हैं । आगम में भी अपरिग्रह है कि इसके पूर्व श्वेताम्बर इसे बोटिक कहने लगे होंगे किन्तु यह अपने का उल्लेख है, जिनेन्द्र भी अचेल थे अत: अचेलता सुन्दर है। इस पर आपको पंचस्तूपान्वय प्रकट करता रहा होगा क्योंकि अचेलक परम्परा आचार्य ने उत्तर दिया कि शरीर के सद्भाव में भी कभी-कभी कषाय, में जिसका एक अंग यापनीय भी है, परम्परा के विभेद सूचक शब्दों में मूर्छा आदि होते हैं तब तो देह का भी परित्याग कर देना चाहिए, सबसे प्राचीन यही है । संभावना यही है कि इसी पंचस्तूपान्वय नाम को आगम में अपरिग्रह का जो उपदेश दिया गया है उसका तात्पर्य यह है लेकर यापनीयों ने दक्षिण भारत में प्रवेश किया होगा और वहाँ इन्हें कि धार्मिक उपकरणों में मूर्छा नहीं रखना चाहिए । जिन भी एकान्त श्वेताम्बरों द्वारा निष्कासित मानकर दिगम्बर परम्परा द्वारा यापनीय नाम रूप से अचेलक नहीं हैं, क्योंकि सभी जिन एक वस्त्र लेकर दीक्षित दिया गया होगा।
होते हैं । गुरु के इस प्रकार प्रतिपादित करने पर भी शिवभूति कर्मोदय
के कारण वस्त्रों का त्याग करके संघ से पृथक हो गया। उसे वन्दन यापनीय सम्प्रदाय का जीवन-काल
करने हेतु आई उसकी बहन उत्तरा भी उसका अनुसरण कर अचेल हो साहित्यिक एवं अभिलेखीय साक्ष्यों से हम स्पष्ट रूप से इस गई । किन्तु भिक्षार्थ नगर में आने पर गणिका ने उसे देखा और कहा निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि यापनीय सम्प्रदाय विक्रम संवत् की द्वितीय कि इस प्रकार लोग हमसे विरक्त हो जायेगें या हमारे प्रति आकर्षित शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अस्तित्व में आया क्योंकि आवश्यकमूलभाष्य नहीं होंगे। उसने उत्तरा के उर में वस्त्र बांध दिया। यद्यपि उसने वस्त्र की यापनीयों की उत्पत्ति वीर निर्वाण संवत् ६०९ बताता है और तब से अपेक्षा नहीं की, कितु शिवभूति ने कहा कि इसे देवता का दिया हुआ लेकर विक्रम संवत् की १५वीं शताब्दी तक इसका अस्तित्व रहा । इस मानकर ग्रहण करो । शिवभूति के दो शिष्य हुए कौडिन्य और कोट्यवीर । तथ्य की कागबाड़े से प्राप्त शक संवत् ३१६ अर्थात् विक्रम संवत् इन शिष्यों से उसकी पृथक् परम्परा आगे बढ़ी२६ । ४५१ के इस सम्प्रदाय के अन्तिम अभिलेख से पुष्टि होती है । इस अर्धमागधी आगम साहित्य एवं मथुरा के अंकन से ज्ञात अभिलेख में यापनीय संघ के आचार्यों- धर्मकीर्ति और नागकीर्ति का होता है कि आर्यकृष्ण के समय में मुनि नग्नता को छिपाने के लिए वस्त्र उल्लेख है । अत: ऐतिहासिक दृष्टि से यह सम्प्रदाय लगभग १३०० खण्ड का उपयोग करते थे३८ । सम्भवत: शिवभूति का इसी प्रश्न पर वर्षों तक जीवित रहा।
आर्य कृष्ण से विवाद हुआ होगा। इस कथा में भी मतभेद का मुख्य
कारण वस्त्र एवं उपधि का ग्रहण ही माना गया है । कथानक के अन्य यापनीय संघ की उत्पत्ति-कथा
तथ्यों में कितनी प्रामाणिकता है यह विचारणीय है। यह सम्भव है कि यापनीयों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में श्वेताम्बर और दिगम्बर शिवभूति द्वारा अचेलकता को ग्रहण करने पर उनकी बहन एवं सम्बन्धित दोनों ही सम्प्रदायों में कथायें उपलब्ध होती हैं । श्वेताम्बर परम्परानुसार साध्वियों ने भी अचेलकत्व का आग्रह किया होगा किन्तु शिवभूति ने रथवीरपुर नगर के दीपक नामक उद्यान में आर्यकृष्ण नामक आचार्य का साध्वियों की अचेलकता को उचित न समझकर कहा हो कि जिस आगमन हुआ । उस नगर में सहस्रमल्ल शिवभूति निवास करता था। प्रकार तीर्थंङ्गर देवदूष्य नामक वस्त्र ग्रहण करते हैं उसी प्रकार साध्वियों प्रतिदिन अर्द्धरात्रि के पश्चात् घर आने के कारण उसका अपनी माता को भी देवता का दिया हुआ मानकर एक वस्त्र ग्रहण करना चाहिए ।
और पत्नी से कलह होता था। एक बार रात्रि में विलम्ब से आकर द्वार इस प्रकार श्वेताम्बर परम्परा में बोटिकों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में जो खुलवाने पर उसकी माता ने द्वार न खोलते हुए कहा इस समय जहां कथा मिलती है वह साम्प्रदायिक अभिनिवेश से पूर्णतया मुक्त तो नहीं द्वार खुला हो वहीं चले जाओ। निराश होकर नगर में घूमते समय उसे है- फिर भी इतनी सत्यता अवश्य है कि बोटिक अचेलकता के प्रश्न मुनियों का निवास-द्वार दिखाई पड़ा। उसने अन्दर जाकर मुनियों का को लेकर तत्कालीन परम्परा से अलग हुए थे तथा उन्होंने साध्वियों के वन्दन किया और प्रव्रजित होने की आकांक्षा व्यक्त की। पहले आचार्य लिए एक वस्त्र रखना मान्य किया था । कथानक का शेष भाग सहमत नहीं हुए परन्तु स्वयं उसके केश-लुञ्चन कर लेने पर आचार्य ने साम्प्रदायिक अभिनिवेश की रचना है । ऐतिहासिक दृष्टि से इसकी उसे मुनिलिङ्ग प्रदान किया । एक बार रथवीरपुर आगमन पर राजा ने सत्यता इस अर्थ में है कि आर्यकृष्ण और शिवभूति काल्पनिक व्यक्ति उसे बहुमूल्य रत्नकम्बल भेंट किया । आचार्य ने इसके ग्रहण करने पर न होकर ऐतिहासिक व्यक्ति हैं क्योंकि उनका उल्लेख कल्पसूत्र की आपत्ति की, उन्होंने शिवभूति को बिना बताये ही रत्नकम्बल का आसन स्थविरावली में मिलता है। अज्जकण्ह (आर्यकृष्ण) का उल्लेख मथुरा निर्मित कर लिया। इस कारण आचार्य और शिवभूति में मतभेद उत्पन्न के अभिलेख में भी है।९। हो गया। एक बार आचार्य द्वारा जिनकल्प का वर्णन करते समय उसने दिगम्बर परम्परा में यापनीय संघ की उत्पत्ति के सम्बन्ध में दो वर्तमान में जिनकल्प का आचरण न करने और अधिक उपधि (परिग्रह) कथानक उपलब्ध होते हैं । देवसेन (लगभग ई० सन् की दसवीं रखने का कारण पूछा ? आचार्य ने उत्तर दिया- जम्बू स्वामी के पश्चात् शताब्दी) के दर्शनसार नामक ग्रन्थ के २९वीं गाथा के अनुसार श्री
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ कलश नामक श्वेताम्बर साधु ने विक्रम की मृत्यु के २०५ वर्ष पश्चात् दूसरी शताब्दी में जैनमुनि वस्त्रखण्ड, पिच्छि या रजोहरण एवं पात्र कल्याण नगर में यापनीय संघ प्रारम्भ किया । ग्रन्थ में इस सम्बन्ध में धारण करने लगे थे । हो सकता है छेदसूत्रों में वर्णित १४ उपकरण विस्तृत विवरण का अभाव है।
__ पूर्ण रूप से प्रचलित न भी हो पाये हों किन्तु इतना अवश्य है कि वस्त्र यापनीय संघ की उत्पत्ति के सम्बन्ध में दूसरा कथानक खण्ड रखकर नग्नता छिपाने का प्रयत्न और भिक्षा पात्रों का प्रयोग होने रत्ननन्दी के भद्रबाहुचरित्र (ईसा की लगभग १५वीं शताब्दी में उपलब्ध लगा था। यह वस्त्रखण्ड सम्भवत: मुख वस्त्रिका के रूप में ग्रहण किया होता है.
जाता था, उसे हाथ की कलाई पर डालकर नग्नता को छिपा लिया करहाटक के राजा भूपाल की पत्नी नृकुलादेवी ने राजा से जाता था, विशेष रूप से जब भिक्षादि हेतु नगर में जाना होता था। आग्रह किया कि वे उसके पैतृक नगर जाकर वहाँ आये हुए आचार्यों शिवभूति का आर्यकृष्ण से इसी प्रश्न को लेकर विवाद हुआ होगा। को आने हेतु अनुनय करें । राजा ने नृकुलादेवी के निर्देशानुसार अपने जहाँ आवश्यकमूलभाष्य में आर्यकृष्ण और शिवभूति के मध्य गुरुमन्त्री बुद्धिसागर को भेजकर उन मुनियों से करहाटक पधारने की प्रार्थना शिष्य का सम्बन्ध बताया गया है, वहाँ कल्पसूत्र स्थविरावली में की। राजा के आमन्त्रण को स्वीकार कर वे मुनिगण करहाटक पधारे। शिवभूति को अज्ज दुज्जेन्त कण्ह के पहले दिखाया गया है। फिर भी उनके स्वागत हेतु जाने पर राजा ने देखा कि वे साधु सवस्त्र हैं और दोनों की समकालिकता में कहीं बाधा नहीं आती है । वस्तुत: विवाद उनके पास भिक्षा-पात्र और लाठी भी है । यह देखकर राजा ने उन्हें दोनों के बीच हुआ था इसमें कोई सन्देह नहीं है । श्वेताम्बर परम्परा में वापस लौटा दिया । नृकुला देवी को जब यह ज्ञात हुआ तो उसने उन भी रत्नकम्बल प्रसङ्ग को लेकर जो कथानक खड़ा किया गया है वह मुनियों से दिगम्बर मुद्रा में पिच्छि-कमण्डलु लेकर पधारने का आग्रह मुझे प्रामाणिक नहीं लगता । वस्तुत: महावीर के पश्चात् उनके संघ में किया और उन्होंने तदनुरूप दिगम्बर मुद्रा धारण कर नगर प्रवेश किया। वस्त्र-पात्र ग्रहण करने का क्रमशः विकास हुआ है । क्षुल्लकों और इस प्रकार वे साधु वेष से तो दिगम्बर थे किन्तु उनके क्रिया-कलाप सदोजलिङ्ग वाले व्यक्तियों अथवा राज परिवार से आये व्यक्तियों के श्वेताम्बरों जैसे थे। यापनीय संघ की उत्पत्ति के सम्बन्ध में रत्ननन्दी का लिए अपवादरूप में वस्त्र रखने की अनुमति पहले से ही थी किन्तु जिन यह कथन पूर्णतः प्रामाणिक नहीं है । यापनीयों की उत्पत्ति श्वेताम्बर कल्प का विच्छेद मानकर जब यह सामान्य नियम बनने लगा तो परम्परा से न होकर उस मूल धारा से हुई है जो श्वेताम्बर परम्परा की शिवभूति ने इसका विरोध कर अचेलता को ही उत्सर्ग मार्ग स्थापित पूर्वज थी, जिससे काल-क्रम में वर्तमान श्वेताम्बर धारा का विकास हुआ करने का प्रयत्न किया । उनके पूर्व भी आर्यरक्षित को अपने पिता जो है । वस्तुत: महावीर के धर्मसंघ में जब वस्त्र-पात्र आदि में वृद्धि होने उनके ही संघ में दीक्षित हो गये थे, नग्नता धारण करवाने हेतु विशेष लगी थी और अचेलकत्व-प्रतिष्ठा क्षीण होने लगी, उससे अचेलता के प्रयत्न करना पड़ा था क्योंकि वे अपने परिजनों के समक्ष नग्न नहीं पक्षधर यापनीय और सचेलता के पक्षधर श्वेताम्बर ऐसी दो धारायें रहना चाहते थे । यद्यपि इन्हीं आर्यरक्षित ने भिक्षा पात्र के अतिरिक्त निकलीं। पुनः यापनीय सम्प्रदाय का जन्म दक्षिण में न होकर उत्तर वर्षाकाल में मल-मूत्र आदि के लिए एक अतिरिक्त पात्र रखे जाने की भारत में हुआ । यापनीयों ने जब दक्षिण भारत में प्रवेश किया होगा तब अनुमति भी दी थी । महावीर के काल से ही निर्ग्रन्थ संघ में नग्नता का वे श्वेताम्बर साधु का वेश लेकर गये थे । यह एक भ्रान्त धारणा ही है। एकान्त आग्रह तो नहीं था किन्तु उसे अपवाद के रूप में तो स्वीकृत उनके कथन में मात्र इतनी ही सत्यता हो सकती है कि यापनीयों के किया ही गया था। किन्तु जब जिनकल्प को विच्छिन्न मानकर अचेलता आचार-विचार में कुछ बातें श्वेताम्बर परम्परा के समान और कुछ बातें के अपवाद को ही उत्सर्ग मानकर नग्नता को छिपाने के लिए वस्त्रदक्षिण में उपस्थित दिगम्बर परम्परा के समान थीं।
खण्ड रखना अनिवार्य किया होगा तो शिवभूति को अचेलता को ही इन्द्रनन्दी के 'नीतिसार' में यद्यपि यापनीयों की उत्पत्ति-कथा उत्सर्ग मार्ग के रूप में स्वीकार करने के लिए संघर्ष करना पड़ा। नहीं दी गई है किन्तु पाँच प्रकार के जैनाभासों की चर्चा करते हुए उसमें उन्होंने जिनकल्प को विच्छिन्न न मानकर समर्थ के लिए अचेलता और उन्होंने यापनीयों का भी उल्लेख किया है - गोपुच्छिक श्वेतवासा, पाणीतल भोजी होना आवश्यक माना । आपवादिक स्थिति में वस्त्र-पात्र द्रविड़, यापनीय और नि:पिच्छक २ ।
से उनका विरोध नहीं था । भगवतीआराधना में हमें उनके इसी दृष्टिकोण इन्द्रनन्दी के उपर्युक्त कथन से मात्र इतना ही फलित होता है का समर्थन मिलता है । यद्यपि यह कहना अत्यन्त कठिन है कि उनके कि यापनीय परम्परा इन्द्रनन्दी की मूलसंघीय दिगम्बर परम्परा से भिन्न द्वारा अचेलकत्व के पुनर्स्थापन के इस प्रयास से स्पष्ट रूप से संघ भेद थी, वे उन्हें जैनाभास मानते थे अर्थात् उनकी दृष्टि में यापनीय जैनधर्म हो गया था क्योंकि कल्पसूत्र की पट्टावली में जो अन्तिम परिवर्धन के सच्चे प्रतिनिधि नहीं हैं । वस्तुत: यापनीय संघ की उत्पत्ति और देवर्द्धिगणि के समय पाँचवीं शताब्दी में हुआ उसकी पहली गाथा में स्वरूप सम्बन्धी जो कथानक मिलते हैं वे सभी विरोधियों द्वारा प्रस्तुत गौतम गोत्रीय फल्गुमित्र, वशिष्ठ गोत्रीय धनगिरि, कोत्स गोत्रीय शिवभूति हैं और संघ की यथार्थ स्थिति से अवगत नहीं कराते हैं । यापनीय संघ और कौशिक गोत्रीय दोष्यन्त या दुर्जयन्त कृष्ण का नामोल्लेख है । की उत्पत्ति के सम्बन्ध में मेरा चिन्तन इस प्रकार है -मथुरा के अङ्कनों यहाँ विचारणीय प्रश्न यह है कि इसमें शिवभूति के पश्चात् आर्यकृष्ण से यह स्पष्ट हो जाता है कि आर्यकृष्ण के समय अर्थात् विक्रम की का उल्लेख है जबकि आवश्यकमूलभाष्य में शिवभूति को आर्यकृष्ण
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जैन धर्म का एक विलुप्त सम्प्रदाय यापनीय
६२१ का शिष्य बताया गया है । सम्भावना यह हो सकती है कि शिवभूति परम्परा से मतभेद के जो उल्लेख मिलते हैं उनसे यही फलित होता है
और आर्यकृष्ण गुरु-शिष्य न होकर गुरु बन्धु हो । किन्तु इससे कि उनका मुख्य विवाद मुनि के ही सचेल और अचेल होने के सम्बन्ध शिवभूति और आर्यकृष्ण के समकालिक होने में कोई बाधा नहीं आती में था । स्त्री-मुक्ति और कवलाहार के सम्बन्ध में इनका कोई मतभेद है। यह भी सत्य ही है कि उपधि के प्रश्न को लेकर शिवभूति और नहीं था । विशेषावश्यकभाष्य में इन्हें आचाराङ्ग आदि आगमों को आर्यकृष्ण के बीच यह विवाद हुआ होगा और शिवभूति के शिष्यों स्वीकार करने वाला माना गया है।४३ ये दिगम्बर परंपरा के समान न कौडिन्य और कोट्यवीर से अचेलता की समर्थक यह धारा पृथक् रूप तो स्त्री-मुक्ति और केवली-मुक्ति का निषेध करते थे और न जैनागमों का से प्रवाहित होने लगी।
पूर्णतः विच्छेद ही स्वीकार करते थे । मात्र यह कहते थे कि आगमों में
जो वस्त्र-पात्र के उल्लेख हैं वे आपवादिक स्थिति के हैं । इस प्रकार ये यापनीयों का उत्पत्ति-स्थल
स्त्री-मुक्ति और केवली-कवलाहार की विरोधी और आगमों को विच्छिन्न यापनीयों अथवा बोटिकों के उत्पत्ति-स्थल को लेकर श्वेताम्बर मानने वाले दिगम्बर सम्प्रदाय से भिन्न हैं । इस सम्बन्ध में पं० और दिगम्बर परम्पराएँ भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण रखती हैं । श्वेताम्बरों के दलसुखभाई मालवणिया, प्रो० ढाकी और मेरा लेख द्रष्टव्य है । अनुसार उनकी उत्पत्ति रथवीरपुर नामक नगर में हुई, यह नगर मथुरा के यदि हम बोटिकों की इस मान्यता की तुलना यापनीय परम्परा समीप उत्तर भारत में स्थित था२८ । जबकि दिगम्बरों के अनुसार इनका से करते हैं तो दोनों में कोई अन्तर दृष्टिगोचर नहीं होता । यापनीयों का उत्पत्ति स्थल दक्षिण भारत में उत्तर पश्चिमी कर्णाटक में स्थित करहाटक जो भी साहित्य उपलब्ध है, उससे भी स्पष्ट रूप से यही निष्कर्ष था२९ । इस प्रकार श्वेताम्बरों के अनुसार वे उत्तर में और दिगम्बरों के निकलता है कि यापनीय यद्यपि मुनि की अचेलता पर बल देते थे अनुसार दक्षिण में उत्पन्न हुए । प्रश्न यह है कि उनमें से कौन सत्य है। किन्तु दूसरी ओर वे स्त्री-मुक्ति, अन्य तैर्थिकों (दूसरी धर्म-परम्परा) की श्वे० परम्परा के पक्ष में तथ्य यह है कि उसमें इस विभाजन को मुक्ति, केवलीकवलाहार और आचाराङ्ग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, आर्यकृष्ण और शिवभूति से सम्बन्धित किया है - इन दोनों के उल्लेख कल्प, व्यवहार, मरणविभक्ति, प्रत्याख्यान आदि अर्धमागधी आगमों कल्पसूत्र स्थविरावली में उपलब्ध है । पुन: आर्यकृष्ण की अभिलेख को स्वीकार करते थे। वे दिगम्बर परम्परा के समान अंग आदि आगमों सहित मूर्ति भी मथुरा से उपलब्ध है जो वस्त्रखण्ड कलाई पर डालकर के सर्वथा विच्छेद की बात नहीं मानते हैं, इस परम्परा में आगे चलकर अपनी नग्नता छिपाये हुए हैं । अस्तु, आवश्यकमूलभाष्य का उत्तर जिन स्वतन्त्र ग्रन्थों और उनकी टीकाओं का निर्माण हुआ उनमें अर्धमागधी भारत में उनकी उत्पत्ति का संकेत प्रामाणिक है। जहाँ तक रत्ननन्दी के आगम साहित्य की सैकड़ों गाथायें और उद्धरण प्राप्त होते हैं । अत: दक्षिण भारत में इनकी उत्पत्ति के उल्लेख का प्रश्न है, वह इसलिए उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर पूर्णरूपेण सुनिश्चित है कि यापनीय और अधिक प्रामाणिक नहीं है क्योंकि प्रथम तो वह उनकी उत्पत्ति १२०० बोटिक दोनों सम्प्रदाय एक ही हैं । सम्भवत: उन्हें 'बोटिक' श्वेताम्बरों वर्षों बाद जब यह सम्प्रदाय मरणासन्न स्थिति में था तब लिखा गया - ने और 'यापनीय' नाम दिगम्बरों ने प्रदान किया था । क्योंकि श्वेताम्बर जबकि आवश्यकमूलभाष्य उनकी उत्पत्ति के लगभग २०० वर्ष पश्चात् ग्रन्थों के अतिरिक्त उनके लिये कहीं भी बोटिक नाम का उल्लेख नहीं निर्मित हो चुका था । दूसरे उस कथानक की पुष्टि के अन्य कोई है। उस समय वे अपने आपको क्या कहते थे? यह शोध का विषय साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्य नहीं है । दक्षिण भारत में उनकी है । यद्यपि अभिलेखीय साक्ष्यों से यह निश्चित होता है कि पांचवीं उत्पत्ति बताने का मूल कारण यह है कि यापनीयों का दिगम्बर परम्परा शताब्दी से वे अपने लिये 'यापनीय' शब्द का प्रयोग करने लगे थे। से साक्षात्कार दक्षिण भारत में ही हुआ था ।
अभिलेखों में सर्वप्रथम 'यापनीय' शब्द का सम्प्रदाय के अर्थ में प्रयोग
मृगेशवर्मन के हल्सी के अभिलेख में हुआ है जो पांचवीं शती का है। क्या यापनीय और बोटिक एक हैं ?
अत: इसके पश्चात् इनके लिए यापनीय शब्द प्रयोग होने लगा होगा जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं प्राचीन श्वेताम्बर और आवश्यक मूलभाष्य में प्रयुक्त बोटिक केवल श्वेताम्बर आगमिक साहित्य में यापनीय संघ का उल्लेख हरिभद्र के पूर्व उपलब्ध नहीं होता व्याख्या साहित्य तक ही सीमित रह गया । है, उसके पूर्व हमें जो उल्लेख मिलता है, वह बोटिकों का ही है, अत: यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि बोटिक कौन थे ? क्या यापनीय संघ के अभिलेखीय साक्ष्य इनका यापनीयों से कोई सम्बन्ध था ? इनकी परम्परा क्या थी ? यापनीय संघ और उसके आचार्यों, भट्टारकों एवं उपासकों के बोटिकों की उत्पत्ति-कथा से ही यह स्पष्ट है कि इन्होंने जिनकल्प का सम्बन्ध में हमें जो सूचनायें उपलब्ध होती हैं, उनके दो आधार हैं- एक विच्छेद स्वीकार नहीं किया था और वस्त्र को परिग्रह मानकर मुनि के साहित्यिक उल्लेख और दूसरे अभिलेखीय साक्ष्य । इन साहित्यिक लिए अचेलकता का ही प्रतिपादन किया । शिवभूति द्वारा अपनी बहन उल्लेखों और अभिलेखीय साक्ष्यों में भी अभिलेखीय साक्ष्य अधिक उत्तरा को वस्त्र रखने की अनुमति देना यह भी सूचित करता है कि इस प्रामाणिक कहे जा सकते हैं क्योंकि प्रथम तो वे समकालिक होते हैं, सम्प्रदाय में साध्वियाँ सवस्त्र रहती थीं । इस सम्प्रदाय के तत्कालीन दूसरे इनमें किसी प्रकार के परिवर्तन की सम्भावना अत्यल्प होती है।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
यापनीय सम्प्रदाय के सम्बन्ध में हमें अनेक अभिलेखीय साक्ष्य उपलब्ध भरण-पोषण का भी उल्लेख है। इससे भी यही लगता है कि इस काल होते हैं । इन अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर प्रो० आदि नाथ तक यापनीय मुनि पूर्णतया मठाधीश हो चुके थे और मठों में ही उनके नेमिनाथ उपाध्ये ने 'अनेकान्त वर्ष २८, किरण-१ में यापनीय संघ के आहार की व्यवस्था होती थी। इसके पश्चात यापनीय संघ से सम्बन्धित सम्बन्ध में पर्याप्त प्रकाश डाला है । प्रस्तुत विवेचन का आधार उनका एक अन्य दानपत्र पूर्वी चालूक्यवंशीय 'अम्मराज द्वितीय' का है । वही लेख है किन्तु हमने इन अभिलेखों के मुद्रित रूपों को देखकर इसने कटकाभरण जिनालय के लिए मलियपुण्डी नामक ग्राम दान में अपेक्षित सामग्री को जोड़ा भी है।
दिया था। इस मन्दिर के अधिकारी यापनीय संघ 'कोटिमडुवगण' यापनीय संघ के सम्बन्ध में सर्वप्रथम अभिलेख हमें नन्दिगच्छ के गणधर सदृश मुनिवर जिननन्दी के प्रशिष्य मुनिपुंगव 'कदम्बवंशीय' मृगेशवर्मन् ई० सन् (४७५-४९०) का प्राप्त होता है। दिवाकर के शिष्य जिनसदृश गुणसमुद्र महात्मा श्री मन्दिर देव थे । इस अभिलेख में यापनीय, निम्रन्थ एवं कुर्चकों को भूमिदान का इससे पूर्व के अभिलेख में जहाँ यापनीय नन्दीसंघ ऐसा उल्लेख है, उल्लेख मिलता है। इसी काल के एक अन्य अभिलेख (ई० सन् वहाँ इसमें यापनीय संघ नन्दीगच्छ ऐसा उल्लेख है।। ४९७ से ५३७ के मध्य) दामकीर्ति, जयकीर्ति प्रतीहार, निमित्तज्ञान यापनीय संघ से ही सम्बन्धित ई० सन् ९८० का चालुक्यवंश पारगामी आचार्य बन्धुसेन और तपोधन शास्त्रागम खिन्न कुमारदत्त का भी एक अभिलेख मिलता है५२ । इस अभिलेख में शान्तिवर्मा द्वारा नामक चार यापनीय आचार्यों एवं मुनियों के उल्लेख है । इसमें निर्मित जैन मन्दिर के लिए भूमिदान का उल्लेख है, इसमें यापनीय संघ यापनीयों को तपस्वी (यापनीयास्तपस्विनः) तथा सद्धर्ममार्ग में स्थित के काण्डूरगण के कुछ साधुओं के नाम दिये गये हैं यथा - बाहुबलिदेवचन्द्र, (सद्धर्ममार्गस्थित) कहा गया है । आचार्यों के लिए 'सूरि' शब्द का रविचन्द्रस्वामी, अर्हनन्दी, शुभचन्द्र, सिद्धान्तदेव, मौनिदेव और प्रभाचन्द्रदेव प्रयोग हुआ है। इन दोनों अभिलेखों से यह भी सूचना मिलती है कि आदि । इसमें प्रभाचन्द्र को शब्द विद्यागमकमल, षट्तर्काकलङ्क कहा राजा ने मन्दिर की पूजा, सुरक्षा और दैनिक देखभाल के साथ-साथ गया है। ये प्रभाचन्द्र - 'प्रमेय कमलमार्तण्ड' और 'न्यायकुमदचन्द्र' के अष्टाह्निका महोत्सव एवं यापनीय साधुओं के भरण-पोषण के लिए दान कर्ता प्रभाचन्द्र से भिन्न यापनीय आचार्य शाकटायन के 'शब्दानुशासन' दिया था, इससे यह फलित होता है कि इस काल तक यापनीय संघ पर 'न्यास' के कर्ता हैं। के मुनियों के आहार के लिए कोई स्वतन्त्र व्यवस्था होने लगी थी और प्रो० पी० बी० देसाई ने अपने ग्रन्थ में सौदत्ति (बेलगाँव) के भिक्षावृत्ति गौण हो रही थी अन्यथा उनके भरण-पोषण हेतु दान दिये एक अभिलेख की चर्चा की है जिसमें यापनीय संघ के काण्डूरगण के जाने के उल्लेख नहीं होते । इसके पश्चात् देवगिरि से कदम्बवंश की शुभचन्द्र प्रथम, चन्द्रकीर्ति, शुभचन्द्र द्वितीय, नेमिचन्द्र प्रथम, कुमार दूसरी शाखा के कृष्णवर्मा के (ई० सन् ४७५-४८५) काल का कीर्ति, प्रभाचन्द्र और नेमिचन्द्र द्वितीय के उल्लेख हैं५३ । इसी प्रकार अभिलेख मिलता है, जिसमें उसके पुत्र युवराज देववर्मा द्वारा त्रिपर्वत यापनीय संघ से सम्बन्धित ई० सन् १०१३ का एक अन्य अभिलेख के ऊपर के कुछ क्षेत्र अर्हन्त भगवान के चैत्यालय की मरम्मत, पूजा 'बेलगाँव' की टोड्डावसदी की नेमिनाथ की प्रतिमा की पादपीठ पर और महिमा के लिए यापनीय संघ को दिये जाने का उल्लेख है। इस मिला है, जिसे यापनीय संघ के पारिसय्य ने ई० सन् १०१३ में अभिलेख के पश्चात् ३०० वर्षों तक हमें यापनीय संघ से सम्बन्धित निर्मित करवाया था। इसी प्रकार सन् १०२० ई० के 'रढ्वग' लेख कोई भी अभिलेख उपलब्ध नहीं होता जो अपने आप में एक विचारणीय में प्रख्यात यापनीय संघ के 'पुत्रागवृक्षमूलगण के प्रसिद्ध उपदेशक तथ्य है । इसके पश्चात् ई० सन् ८१२ का राष्ट्रकूट राजा प्रभूतवर्ष का आचार्य कुमारकीर्ति पण्डितदेव को 'हुविनवागे' की भूमि के दान का एक अभिलेख प्राप्त होता है । इस अभिलेख में यापनीय आचार्य उल्लेख है।५ ई० सन् १०२८-२९ के हासुर के अभिलेख में कुविलाचार्य के प्रशिष्य एवं विजयकीर्ति के शिष्य अर्ककीर्ति का यापनीय संघ के गुरु जयकीर्ति को सुपारी के बाग और कुछ घर मन्दिर उल्लेख मिलता है । इस अभिलेख में यापनीय नन्दीसंघ और पुन्नागवृक्ष को दान में देने के उल्लेख हैं ।५६ 'हुली' के दो अभिलेख जो लगभग मूलगण एवं श्री कित्याचार्यान्दय का भी उल्लेख हुआ है । इस ई० सन् १०४४ के हैं उनमें यापनीय संघ के पुत्रागवृक्ष मूलगण के अभिलेख में यह भी उल्लेख है कि आचार्य अर्ककीर्ति ने शनि के बालचन्द्रदेव भट्टारक५७ का तथा दूसरे में रामचन्द्रदेव का उल्लेख है । दुष्प्रभाव से ग्रसित पुलिगिल देश के शासक विमलादित्य का उपचार इसी प्रकार ई० सन् १०४५ के मुगद (मैसूर) लेख में भी यापनीय संघ किया था। इस अभिलेख से अन्य फलित यह निकलता है कि ईसा की के कुमुदिगण के कुछ आचार्यों के उल्लेख मिलते हैं - श्री कीर्ति नवीं शताब्दी के प्रारम्भ में यापनीय आचार्य न केवल मठाधीश बन गये गोरवडि, प्रभाशशांक, नयवृत्तिनाथ, एकवीर, महावीर, नरेन्द्रकीर्ति थे अपितु वे वैद्यक और यन्त्र-मन्त्र आदि का कार्य भी करने लगे थे। नागविक्कि, वृत्तीन्द्र, निरवद्यकीर्ति, भट्टारक, माधवेन्दु, बालचन्द्र, लगभग ९वीं शताब्दी के एक अन्य अभिलेख में जो कि चिंगलपेठ, रामचन्द्र, मुनिचन्द्र, रविकीर्ति, कुमारकीर्ति, दामनंदि, विद्यगोवर्धन, तमिलनाडू से प्राप्त हुआ है, यापनीय संघ और कुमिलिगण के महावीराचार्य दामनन्दि वड्डाचार्य आदि । यद्यपि प्रोफेसर उपाध्ये ने इन नामों में से के शिष्य अमरमुदलगुरू का उल्लेख है जिन्होंने देशवल्लभ नामका एक कुछ के सम्बन्ध में कृत्रिमता की सम्भावना व्यक्ति की है किन्तु उनका जिनमन्दिर बनवाया था । इस दानपत्र में यापनीय संघ के साधुओं के आधार क्या है, यह उन्होंने अपने लेख में स्पष्ट नहीं किया है।
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जैन धर्म का एक विलुप्त सम्प्रदाय यापनीय
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इसी प्रकार मोरब जिला धारवाड के एक लेख में यापनीय संघ के जय कीर्तिदेव के शिष्य नागचन्द्र के समाधिमरण का उल्लेख है। इसमें नागचन्द्र के शिष्य कनकशक्ति को मन्त्रचूडामणि बताया गया है । ६° सन् १०९६ में त्रिभुवनमल्ल के शासनकाल में यापनीय संघ के पुन्नागवृक्ष मूलगण के मुनिचन्द्र त्रैविद्य भट्टारक के शिष्य चारुकीर्ति पंडित को सोविसेट्टि द्वारा एक उपवन दान दिये जाने का उल्लेख है । ११ इस दानपत्र में यह भी उल्लेख है कि इसे मुनिचन्द्र सिद्धान्तदेव के शिष्य दायियय्य ने लिपिबद्ध किया था। धर्मपुरी जिला बीड़, महाराष्ट्र के एक लेख में यापनीय संघ और वन्दियूर गण के महावीर पंडित को कुछ नगरों से विविधकरों द्वारा प्राप्त आय का कुछ भाग भगवान् की पूजा और साधुओं के भरण-पोषण हेतु दान दिये जाने का उल्लेख है।" इसी प्रकार ११ वीं शताब्दी के एक अन्य अभिलेख में यापनीय संघ की माइलायान्वय एवं कोरेयगण के देवकीर्ति को गन्धवंशी शिवकुमार द्वारा जैन मन्दिर निर्मित करवाने और उसकी व्यवस्था हेतु कुमुदवाड नामक ग्राम दान में देने का उल्लेख है । इस अभिलेख में देवकीर्ति के पूर्वज गुरुओं में शुभकीर्ति, जिनचन्द्र, नागचन्द्र, गुणकीर्ति आदि आचार्यों का भी उल्लेख है । इसी प्रकार बल्लाल देव, गणधरादित्य के समय में ईसवी सन् १९०८ में मूलसंघ पुन्नागवृक्ष मूलगण की आर्यिका रात्रिमती कन्ति की शिष्या बम्मगवुड़ द्वारा मन्दिर बनवाने का उल्लेख है। यहाँ मूलसंघ का उल्लेख कुछ प्रान्ति उत्पन्न करता है, यद्यपि पुत्रागवृक्षमूल गण के उल्लेख से यह स्पष्ट हो जाता है कि वह आर्यिका यापनीय संघ से ही सम्बन्धित थी क्योंकि पुन्नागवृक्षमूलगण यापनीय संघ का ही एक गण था ।
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बइलमोंगल जिला बेलगाँव से चालुक्यवंशी त्रिभुवन मल्लदेव के काल का अभिलेख६५ प्राप्त है इसमें यापनीय संघ मइलायान्वय कारेय गण के मूल भट्टारक और जिनदेव सूरि का विशेष रूप से उल्लेख है । इसी प्रकार विक्रमादित्य षष्ठ के शासन काल का हूलि जिला बेलगाँव का एक अभिलेख है जिसमें यापनीय संघ के कण्डुरगण के बहुबली शुभचन्द्र, मौनिदेव, माघनंदि आदि आचार्यों का उल्लेख है। एकसम्बि जिला बेलगाँव से प्राप्त एक अभिलेख में विजयादित्य के सेनापति कालण द्वारा निर्मित नेमिनाथ बसति के लिए यापनीय संघ पुन्नागवृक्षमूलगण के महामण्डलाचार्य विजयकीर्ति को भूमिदान दिये जाने का उल्लेख है। इस अभिलेख में इन विजयकीर्ति की गुरुपरम्परा के रूप में मुनिचन्द्र विजयकीर्ति प्रथम कुमारकीर्ति और त्रैविद्य विजयकीर्ति का भी उल्लेख हुआ है।
अर्सिकेरे, मैसूर के एक अभिलेख" में यापनीय संघ के मडुवगण की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है। इस मन्दिर की मूर्ति प्रतिष्ठा पुन्नागवृक्ष - मूलगण और संघ ( यापनीय के शिष्य भाणकसेली) द्वारा कराई गई थी। प्रतिष्ठाचार्य यापनीय संघ के मडुवगण के कुमारकीर्ति सिद्धान्त थे । इस अभिलेख में यापनीय शब्द को मिटाकर काष्ठामुख शब्द को जोड़ने की घटना की सूचना भी सम्पादक से मिलती है। इनके अतिरिक्त १२वीं शताब्दी में लोकापुर जिला बेलगाँव के एक
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अभिलेख में उभय सिद्धान्त चक्रवर्ती यापनीय संघ के कण्डूंरगण के गुरु सकलेन्दु सैद्धान्तिक का उल्लेख है। इसी क्षेत्र के मनोलि जिला बेलगाँव के एक अभिलेख में यापनीय संघ के गुरु मुनिचन्द्रदेव के शिष्य पाल्य कीर्ति के समाधिमरण का उल्लेख है७० - ये पाल्यकीर्ति सम्भवतः सुप्रसिद्ध वैयाकरण पाल्यकीर्ति शाकाटायन ही हैं, जिनके द्वारा लिखित शब्दानुमान एवं उसकी अमोघवृत्ति प्रसिद्ध है । इनके द्वारा लिखित स्त्री निर्वाण और केवली मुक्ति प्रकरण भी शाकटायन-व्याकरण के साथ भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित हुए हैं। इससे स्पष्ट है कि ये यापनीय परम्परा के आचार्य थे । इसी प्रकार १३वीं शदी के हुकेरि जिला बेलगांव के एक अभिलेख में त्रैकीर्ति का नामोल्लेख मिलता है। यापनीय संघ का अन्तिम अभिलेख ईसवी सन् १३९४ का कगवाड जिला बेलगाँव में उपलब्ध हुआ है। यह अभिलेख तलघर में स्थित भगवान् नेमिनाथ की पीठिका पर अंकित है। इस पर वापनीय संघ और पुन्नागवृक्षमूलगण के नेमिचन्द्र, धर्मकीर्ति और नागचन्द्र का उल्लेख हुआ I
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यापनीय संघ के अवान्तर गण और अन्वय
अभिलेखीय एवं साहित्यिक आधारों से हमें यापनीय संघ के अवान्तर गणों और अन्वयों की सूचना मिलती है । इन्द्रनंदि के नीतिसार के आधार पर प्रो० उपाध्ये लिखते हैं कि यापनीयों में सिंह, नन्दि सेन और देवसंघ आदि नाम से सबसे पहले संघ व्यवस्था थी, बाद में गण, गच्छ आदि की व्यवस्था बनीं |७३ किन्तु अभिलेखीय सूचनाओं से यह ज्ञात होता है कि गण ही आगे चलकर संघ में परिवर्तित हो गए । कदम्ब नरेश रविवर्मा के हल्सी अभिलेख में यापनीय संघेभ्यः ऐसा बहुवचनात्मक प्रयोग है । ७४ इससे यह सिद्ध होता है कि यापनीय संघ के अन्तर्गत भी कुछ संघ या गण थे। यापनीय संघ के एक अभिलेख में 'यापनीय नन्दीसंघ" ऐसा उल्लेख मिलता है । ७५ ऐसा प्रतीत होता है कि नंदि संघ यापनीय परम्परा का ही एक संघ था। कुछ अभिलेखों में यापनीयों के नंदिगच्छ का भी उल्लेख उपलब्ध होता है। दिगम्बर परम्परा के अभिलेखों में गच्छ शब्द का प्रयोग नहीं मिलता, सामान्यतया उनमें संघ, गण और अन्वय के प्रयोग पाये जाते हैं। जबकि श्वेताम्बर परम्परा के अभिलेखों में गण, गच्छ, शाखा, कुल और संभोग के प्रयोग हुए हैं। यापनीय संघ के अभिलेखों में भी केवल उपर्युक्त अभिलेख में गच्छ शब्द का प्रयोग मिला है।
यापनीयसंघ के जिन गणों, अन्वयों का उल्लेख मिला हैउनमें पुन्नागवृक्षमूलगण, कुमिलि अथवा कुमुदिगण मडुवगण, कण्डूरगण, या काणूरगण, बन्दियूर गण, कोरेय गण का उल्लेख प्रमुख रूप से हुआ है । ७७ सामान्यतया यापनीय संघ से सम्बन्धित अभिलेखों में अन्वयों का उल्लेख नहीं हुआ है, किन्तु ११वीं शताब्दी के कुछ अभिलेखों में कोरेयगण के साथ मइलायान्वय अथवा मैलान्वय के उल्लेख मिलते हैं।
इन गणों और अन्वयों का अवान्तर भेद किन-किन सैद्धान्तिक
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ मतभेदों पर आधारित थे, इसकी हमें कोई प्रामाणिक जानकारी प्राप्त और प्रकाश, अनेकान्त, वर्ष २८, किरण १, पृ० २४४नहीं होती है । इन गणों और अन्वयों की चर्चा के प्रसंग में एक २५३. महत्त्वपूर्ण चर्चा यह है कि कुछ अभिलेखों में यापनीय नन्दिसंघ ऐसा २. ए. एन. उपाध्ये : जैन सम्प्रदाय के यापनीय संघ पर कुछ और उल्लेख मिला है तो क्या इस आधार पर यह माना जाय कि नंदिसंघ प्रकाश, अनेकान्त वर्ष २८, किरण १, पृ० २४६. यापनीय परम्परा से सम्बन्धित था । पुन: नंदिसंघ के कुछ अभिलेखों में ३. जत्ता ते भंते ? जवणिज्जं (ते भंते ?) अव्वाबाहं (ते भत्ते ?)द्रविड़गण और 'अरुणान्वय' के भी उल्लेख मिलते हैं तो क्या हम यह फासुयविहारं (ते भंते ?)? माने कि द्रविड़ गण और अरुणान्वय का सम्बन्ध भी यापनीय संघ से सोमिला ! जत्ता वि मे, जवणिज पि मे, अव्वा वाहं पि मे, था ? यद्यपि इतना तो निश्चित है कि 'दर्शनसार' में जिन जैनाभासों की फास्यविहारं पि मे भगवई (लाडनूं), १०/२०६-२०७ चर्चा की गई है, उनमें यापनीय और द्रविड़ दोनों को ही सम्मिलित ४. किं ते भंते ! जवणिज्जं ? किया गया है - इसमें यह भी कहा गया है कि द्रविड़ संघ में स्त्रियों सोमिला ! जवणिज्जे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा इंदियजवणिज्जे य, को दीक्षा दी जाती थी इससे यह सम्भावना तो व्यक्ति की ही जा सकती नोइंदियजवणिज्जे य॥ है कि द्रविड़ संघ और यापनीय संघ दोनों स्त्री की प्रव्रज्या के समर्थक से किं तं इंदियजवणिज्जे ? थे और वे मूलसंघीय दिगम्बर परम्परा जो स्त्री की दीक्षा का निषेध इंदियजवणिज्जे-जं मे सोइंदिय-चक्खिदिय-घाणिंदियकरती थी, से भिन्न थे । इसी कारण उनको जैनाभास कहा गया । जिभिदियफासिंदियाई निरुवहयाई वसे वटुंति, सेत्तं सम्भावना यही है कि दोनों में पर्याप्त रूप से निकटता थी। प्रो० ढाकी __ इंदियजवणिज्जे ।। से किं तं नोइदियजवणिज्जे ? की तो मान्यता है कि द्रविड़ संघ का विकास यापनीय नन्दी संघ से ही नो इंदियजवणिज्जे जं मे कोह-माण-माया-लोभा वोच्छिण्णा नो हुआ होगा ।७९
उदीरेंति, सेत्तं नोइंदियजवणिज्जे, सेत्तं जवणिज्जे । श्वेताम्बर स्रोतों से यह जानकारी भी मिलती है कि यापनीय
- भगवई (लाडनूं), १०/२०८-२१० परम्परा गोप्य संघ के नाम से भी जानी जाती थी। हरिभद्र के षड्दर्शन- ५. आयस्मंतं भगु भगवा एतदवोच - "कच्चि, भिक्खु, खमनीयं, समुच्चय की टीका में गुणरत्न लिखते हैं कि नाग्न्य लिंग और पाणिपात्रीय कच्चि यापनीयं, कच्चि पिण्डकेन न किलमसी'' ति? खमनीयं, दिगम्बर चार प्रकार के हैं -
भगवा, यापनीयं, भगवा, न चाहं, भन्ते पिण्डकेन किलमामी" (१) काष्ठा संघ (२) मूलसंघ, (३) माथुर संघ और (४) ति। गोप्य संघ ।
___ - महावग्गो, १०-४-१६ १. काष्ठा संघ में चमरी गाय के बालों की पिच्छी रखी जाती ६. अनेकान्त, वर्ष २८, किरण १, पृ० २४६. है। इसे भी दर्शनसार में जैनाभास कहा गया है। मूलसंघ और गोप्य ७. पूर्वोक्त, अनेकान्त, वर्ष २८, किरण १, पृ० २४६ संघ में मयूर-पिच्छी ग्रहण की जाती है । माथुर संत्र निष्पिच्छिक है। ८. प्रो० एम. ए. ढाकी से व्यक्तिगत चर्चा के आधार पर । इनमें प्रथम तीन अर्थात् काष्ठा, मूल और माथुर संघ के साधु बन्दर ९. अ-कालिका प्रसाद : बृहत् हिन्दी कोश (ज्ञानमंडल, वाराणसी) करनेवाले को 'धर्म वृद्धि' कहते हैं तथा स्त्री एवं सवस्त्र की मुक्ति को वि. सं. २००९, पृ. १०६८ स्वीकार नहीं करते । गोप्य संघ के मुनि वन्दन करने वाले को 'धर्म (ब) वामन शिवराम आप्टे : संस्कृत-हिन्दी कोश (दिल्ली - १९८४) लाभ' कहते हैं तथा स्त्री मुक्ति और केवली मुक्ति को स्वीकार करते हैं। पृ. ८३४ यह गोप्य संघ यापनीय संघ भी कहा जाता है ।८०
१०. वामन शिवराम आप्टे-वही, पृ० ८३४ सन्दर्भ
११. आवश्यकनियुक्ति (हरभिद्रीयवृत्ति) में उपलब्ध मूलभाष्य गाथा, १. a- Indian Antiquary, Vol. VII, p. 34
पृ०२१५-१६ b- H. Luders : E. IV,p338
१२. 'स्त्रीग्रहणं तासामपि तद्भव इव संसारक्षयो भवति इति ज्ञापनार्थ c- नाथूराम प्रेमी: जैन हितैषी, XIII प० २५०-७५
वचः यथोक्तम् यापनीयतंत्रे" - श्री ललितविस्तरा, पृ० ५७d- A. N. Upadhye : Journal of the University . ५८, प्रका० ऋषभदेव केशरीमल संस्थान, रतलाम । of Bombay, 1956, I, VI pp 22ff;
१३. उत्तराध्ययन, शान्त्याचार्य की टीका, पृ०, १८१. e. नाथूराम प्रेमी : जैन साहित्य और इतिहास - द्वितीय संस्करण, १४. आवश्यक टीका (हरिभद्र कृत), पृ. ३२३ बम्बई १९५६, पृ० ५६, १५५, ५२१
१५. अ - थेरेहितो भद्दजसेहिंतो भारद्दायसगुत्तेहिंतो एत्थ णं उडुवाडियगण f. P.B. Desai : Jainism in South India, pp. 163- नाम गणे निग्गए । कल्पसूत्र (प्राकृतभारती, जयपुर संस्करण) 66 आदि।
सूत्र, २१३ । g. ए. एन. उपाध्ये : जैन सम्प्रदाय के यापनीय संघ पर कुछ (ब) थेरेहितो णं कामिड्ढिहिंतो कुंडलिसगोत्तेहिंतो एत्थ णं वेसवाडियगणे
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जैन धर्म का एक विलुप्त सम्प्रदाय यापनीय नाम गणे निग्गये । कल्पसूत्र, सूत्र-२१४
२८. स्थानाङ्ग, ७/१४०-१४२ व संग्रहणी गाथा १६. देखिये बोईं- हिन्दी-गुजराती कोश (अहमदाबाद-१९६१) पृ. २९. आवश्यक मूलभाष्य, १४५-१४८ ३४८
- उद्धृत आवश्यक नियुक्ति हरिभद्रीय वृत्ति, पृ. २१५-२१६ १७. (अ) प्रो. एम. ए. ढाकी से व्यक्तिगत प्राप्त सूचना पर आधारित ३०. आवश्यक नियुक्ति ७९-७८३
(ब) देखिये बोट- हिन्दी-गुजराती कोश, पृ. ३४८ ३१. जैन साहित्य का इतिहास, पूर्वपीठिका पृ. ३७३ १८. कल्पसूत्र स्थविरावली, २०७-२२४
३२. वही, पृ. ३७२ १९. नन्दीसूत्र (मधुकर मुनि), गाथा, २५-५०
३३. जैनसाहित्य का इतिहास, पूर्वपीठिका, पृ. ३७२ २०. पट्टावलीपरागसंग्रह कल्याण विजयगणि के प्रारम्भिक अध्याय ३४. वही, पृ. २७२-२७३ २१. (अ) समणस्स णं भगवओ महावीरस्स तित्थसि सत्त पवयणणिण्हगा ३५. आवश्यक मूलभाष्य गाथा, १४५-१४८, उद्धृत आवश्यक नियुक्ति
पण्णत्ता, तं जहा-बहुरता, जीवपएसिया, अवत्तिया, सामुच्छेइया, हरिभद्रीय वृत्ति दोकिरिया, तेरासिया अवद्धिया ।।
३६. जैन शिलालेख संगह, भाग २, अभिलेख सं १०२-१०३ एएसि णं सत्तण्हं पवयणणिण्हगाणं सत्तं मम्मायरिया हुत्था, तं ३७. आवश्यकनियुक्ति हरिभद्रीयवृत्ति, पृष्ठ २१६-२१८ जहा- जमाली, तीसगुत्ते, आसाढे, आसमित्ते, गंगे, छलुए, ३८. Jain Stupas and other Antiquities of Mathuraगोट्ठामाहिले । एतेसि णं सत्तण्ह पवयणणिण्हगाणं सत्त उप्पत्तिणगरा V.A. Smith, Plate No. 10,15,17, pp 24.25 हुत्था, तं जहा -
३९. (अ) कल्पसूत्र । स्थानाङ्ग, सत्तम, ठाणं १४०-१४२, पृष्ठ संख्या, ७५३-७५४; (आ) Jain Stupas and other Antiquities of (ब) बहुरय जमालिपंभवा जीवपएसस य तीसगुत्ताओ।
Mathura- V.A. Smith, Plate No. 10,15,17, pp अव्वत्ताऽऽसाढाओ सामुच्छेयाऽऽसमित्ताओ ॥७७९।। 24.25 गंगाओ दोकरिया छलुगा तेरासियाण उप्पत्ती। ४०. Annals of the B. O. R. I. XV-III. IV, pp. 198 ff, थेरा य गोट्ठमात्यि पुट्ठमबद्धं परूविंति ॥७८०॥
Poona, 1934; सावत्थी उसनपुर सेयविया मिहिल उल्लुगतीरं ।
देखें अनेकान्त, वर्ष २८, किरण१, पृ० १३४ पुरिमंतरंजि दसपुर रतवीरपुरं च नगराइ ।।७८१॥ ४१. भद्रबाहुचरित -कोल्हापुर १९२१, IV पृ० १३५-१५४ देखें चोद्दस सोथस वासा चोद्दसवीसुत्तरां य दोण्णि सया ।
अनेकान्त, वर्ष २८, किरण १ । अट्ठावीसा य दुवे पंचेव सया उ चोयाला ॥७८२।। ४२. गोपच्छिकाः श्वेतावासाः द्राविडो यापनीयकाः । पंथ सया तुलसीया छच्चेव सया ण्वोत्तरा होति ।
नि: पिच्छिकश्चेति पंचैते जैनाभासाः प्रकीर्तिताः ।। णाणुप्पत्तीय दुवे उप्पण्णा णित्वुए सेसा ॥७८३।।
देखें-अनेकान्त, वर्ष २८ किरण. १, पृ० २४६ २२. छब्बाससयाई नवुत्तराई तइया सिद्धिगयस्स वीरस्स । ४३. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा ३०५४
तो बोडियाण दिट्ठी रहवीरपुरे समुप्पण्णा ।। ४४. पं० बेचरदास दोशी स्मृति ग्रन्थ, सम्पादक : प्रो० एम. ए. ढाका रहवीरपुरं नयरं दीवगमुज्जाण अज्जकण्हे य ।
एवं प्रो० सागरमलजैन । पा. वि. शो० सं० से प्रकाशित, पृ० सिवभुइस्सूवहिंमि य पृच्छा थेराण कहणा य ।।
६८-७३ ऊहाए पण्णत्तं बोडियसिवभूइत्तराहि इमं ।
४५. जैन शिलालेख संग्रह; भाग-२, लेख क्रमांक ९९. मिच्छादसणमिणमो रहवीरपुरे समुप्पण्णं ।। ४६. वही, भाग २, लेख क्रमांक ९९ बोडियसिवभूईओ बोडियलिंगस्स होई उप्पत्ती । ४७. वही, भाग२, लेख क्रमांक ९९,१०० कोडिण्ण-कोट्टवीरा परंपराफासमुप्पण्णा ।। ४८. वही, भाग २, लेख क्रमांक १०५ -आवश्यक मूलभाष्य, १४५-१४८, उद्धृत-आवश्यक नियुक्ति ४९. वही भाग२, लेख क्रमांक १२४ हरिभद्रीयवृत्ति, पृ० २१५
५०. वही, भाग ४, लेख क्रमांक ७० २३. पट्टावली परागसंग्रह, कल्याणविजय जी
५१. वही, भाग२, लेख क्रमांक १४३ २४. Jaina Stupas and Other Antiquities of India- ५२. वही, भाग२, लेख क्रमांक १६०
V.A. Smith, Plate No. 10,15,17pp. 24,25 ५३. Jainism in South India and Some Jaina Epi२५. Ibid, pp.24-25.
graphs- Desai P.B. p. 165. २६. जैन साहित्य का इतिहास, पूर्वपीठिका, पृ० ३८५ ५४. देखें -अनेकान्त, वर्ष २८, किरण१, पृ० २४७ २७. (अ) वही, पृ० ३८१ (ब) जैनहितैषी, भाग १३, अंक ९-१०.५५. (अ) Journal of the Bombay Historical Society,
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
III, pp.102-200.
159,ff. (ब) अनेकान्त, वर्ष २८ किरण १, पृ० २४८ ६९. जैनशिलालेख संग्रह, भाग ५, लेखक्रमांक ११७. ५६. (अ) वही, पृ० २४८ .
७०. Jainism in South India, P.B. Desai, p. 404 (ब) South Indian Inscriptions XII No. 65, Ma- ७१. जैनशिलालेख संग्रह, सं० भाग २, क्रमांक ३८४. dras 1940.
७२. जिनविजय (कन्नड़) बेलगाँव जुलाई १९३१ ५७. जैन शिलालेख संग्रह, भाग ४, लेख क्रमांक १३० ७३. अनेकान्त, वर्ष २८, किरण १, पृ० २५०. ५८ वही,
७४. Epigraphia Indian X. No. 6, see Ibid., p. 247. ५९ (अ) अनेकान्त, वर्ष २८, किरण १, पृ० २४८
७५. अनेकान्त, वर्ष २८, किरण १, पृ० २४४-४५. (ब) South Indian Inscriptions, XII No. 65,Ma- ७६. वही, वर्ष २८, किरण १, पृ० २५०. dras 1940.
७७. जैन शिलालेख संग्रह, भाग लेख क्रमांक । - (स) जैन शिलालेख संग्रह, भाग ४, लेखक्रमांक १३१ ७८. Annals of the B.O.R.I. XV, pp. 198, Poona ६०. वही, भाग ४, लेखक्रमांक १४३
1934, ६१. वही, १६८
७९. व्यक्तिगत चर्चा के आधार पर । ६२. वही, भाग ५, लेखक्रमांक ६९-७०
८०. दिगम्बराः पुनर्नाग्न्यलिङ्गाः पाणिपात्राश्च । ते चतर्धा ६३. I.A.XVIII. p. 309, Also see Jainism in South काष्ठासङ्घमूलसङ्घ- माथुरसङ्घ-गोप्यसङ्घ-भेदात् । काष्ठासंघे India P.B. Desai, p. 115
चमरीबालै: पिच्छिका, मूलसचे मायूरपिच्छै: पिच्छिका, माथुरसङ्घ ६४. जैन शिलालेख संग्रह, भाग २, लेखक्रमांक २५०
मूलतोऽपि पिच्छिका नादृता, गोप्या मायूरपिच्छिका । आद्यास्त्रयोऽपि ६५. Annual Report of South Indian Insciptions. सङ्घावन्धमाना धर्म वृद्धि भणन्ति, स्त्रीणां मुक्तिं केवलिनां भुक्ति 1951-52, No. 33,p- 12 See also.
सव्रत-स्यापि सचीवरस्य मुक्तिं च न मन्वते, गोप्यस्तु वन्द्यमाना अनेकान्त, वर्ष २८, किरण १, पृ० २४८
धर्मलाभं भणन्ति, स्त्रीणां मुक्ति केवलिनां भक्ति च मन्यन्ते । ६६. जैन शिलालेख सग्रह, भाग ४, लेखक्रमांक २०७
गोप्या यापनीया इत्यप्युच्यन्ते। ६७. वही, भाग ४, लेखक्रमांक २५९.
-षडेदर्शनसमुच्चय-हरिभद्रसूरि, कारिका ४४: २ गुणरत्न टीका ६८. Journal of the Karnatak University, X, 1965,
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उच्चैर्नागर शाखा के उत्पत्ति स्थल एवं उमास्वाति के जन्म स्थान की पहचान
तत्त्वार्थसूत्र के प्रणेता उमास्वाति ने तत्त्वार्थ भाष्य की अन्तिम उनके द्वारा बुलन्दशहर का ऊँचा नगर के रूप में उल्लेख होने से मुनि प्रशस्ति में अपने को उच्चै गर शाखा का कहा है तथा अपना जन्म- कल्याणविजयजी और कापड़ियाजी ने तथा बाद में पं० सुखलालजी ने स्थान न्यग्रोधिका बताया है। प्रस्तुत आलेख का मुख्य उद्देश्य उच्चै गर उच्चै गर शाखा को बुलन्दशहर से जोड़ने का प्रयास किया। यद्यपि प्रो० शाखा के उत्पत्ति स्थल एवं उमास्वाति के जन्म स्थल का अभिज्ञान कापड़िया ने अपना कोई स्पष्ट अभिमत नहीं दिया है। वे लिखते हैं कि (पहचान) कराना है। उच्चै गर शाखा का उल्लेख न केवल तत्त्वार्थ- "इस शाखा का नामकरण किसी नगर के आधार पर ही हुआ होगा किन्तु भाष्य में उपलब्ध होता है, अपितु श्वेताम्बर परम्परा में मान्य कल्पसूत्र इसकी पहचान अपेक्षाकृत कठिन है क्योंकि बहुत सारे ऐसे ग्राम और की स्थविरावली तथा मथुरा के बीस अभिलेखों में उपलब्ध होता है। शहर हैं जिनके अन्त में 'नगर' नाम पाया जाता है। वे आगे भी लिखते कल्पसूत्र स्थविरावली के अनुसार उच्चैनांगर शाखा कोटिकगण की एक हैं कि कनिंघम का विश्वास है कि यह ऊँचानगर से सम्बन्धित होगी।"७ शाखा थी, मथुरा के अभिलेखों में कोटिकगण का तथा नौ अभिलेखों चूँकि कनिंघम ने आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ इण्डिया के १४वें खण्ड में उच्चै गर शाखा का उल्लेख मिलता है। कोटिकगण कोटिवर्ष के में बुलन्दशहर का समीकरण ऊँचा नगर से किया था। इसी आधार पर निवासी आर्य सुस्थित से निकला था। कोटिवर्ष की पहचान पुरातत्त्वविदों मुनि कल्याणविजयजी ने यह लिख दिया कि “ऊँचा नगरी शाखा प्राचीन ने उत्तर बंगाल के दिनाजपुर से की है। इसी कोटिकगण से आर्य शान्ति ऊँचा नगरी से प्रसिद्ध हुई थी। ऊँचा नगरी को आजकल बुलन्दशहर कहते श्रेणिक से उच्चै गर शाखा के निकलने का उल्लेख है। कल्पसूत्र के गण, हैं।"८ इस सम्बन्ध में पं०सुखलालजी का कथन है किकुल और शाखाओं के अध्ययन करने पर एक बात स्पष्ट हो जाती है "उच्चै गर' शाखा का प्राकृत नाम 'उच्चानागर' मिलता हैं। कि गणों का और शाखाओं का सम्बन्ध व्यक्तियों की अपेक्षा मुख्यतया यह शाखा किसी ग्राम या शहर के नाम पर प्रसिद्ध हुई होगी, यह तो स्थानों या नगरों से अधिक रहा है। जैसे- वारण गण वारणावर्त से स्पष्ट दिखता है। परन्तु यह ग्राम कौन सा था, यह निश्चित करना कठिन सम्बन्धित था, कोटिकगण कोटिवर्ष से सम्बन्धित था। यद्यपि कुछ गण है। भारत के अनेक भागों में 'नगर' नाम के या अन्त में 'नगर' शब्द वाले व्यक्तियों से भी सम्बन्धित थे। शाखाओं में कौशम्बिया, कोडम्बानी, अनेक शहर तथा ग्राम हैं। 'बड़नगर' गुजरात का पुराना तथा प्रसिद्ध नगर चन्द्रनागरी, माध्यमिका, सौराष्ट्रिका, उच्चै गर आदि शाखाएं मुख्यतया है। बड़ का अर्थ मोटा (विशाल) और मोटा का अर्थ कदाचित् ऊँचा भी नगरों से सम्बन्धित रही हैं। कुलों का सम्बन्ध मुख्य रूप से व्यक्तियों से होता है। लेकिन गुजरात में बड़नगर नाम भी पूर्वदेश के उस अथवा उस
जैसे नाम के शहर से लिया गया होगा, ऐसी भी विद्वानों की कल्पना
है। इससे उच्चनागर शाखा का बड़नगर के साथ ही सम्बन्ध है, यह जोर उच्चै गर शाखा का उत्पत्ति स्थल ऊँचेहरा (म०प्र)
देकर नहीं कहा जा सकता। इसके अतिरिक्त जब उच्चनागर शाखा उत्पन्न प्रस्तुत आलेख में मात्र हम उच्चै गर शाखा के सन्दर्भ में ही हुई, उस काल में बड़नगर था या नहीं और था तो उसे उसके साथ जैनों चर्चा करेंगे। विचारणीय प्रश्न यह है कि वह उचैर्नागर कहाँ स्थित था का कितना सम्बन्ध था, यह भी विचारणीय है। उच्चनागर शाखा के उद्भव जिससे यह शाखा निकली थी। मुनि श्री कल्याणविजयजी और हीरालाल के समय जैनाचार्यों का मुख्य विहार गंगा-यमुना की तरफ होने के प्रमाण कापड़िया ने कनिंघम को आधार बताते हुए इस उच्चै गर शाखा का मिलते हैं। अत: बड़नगर के साथ उच्चनागर शाखा के सम्बन्ध की कल्पना सम्बन्ध वर्तमान बुलन्दशहर से जोड़ने का प्रयत्न किया है। पं० सबल नहीं रहती। इस विषय में कनिंघम का कहना है कि यह भौगोलिक सुखलालजी ने भी तत्त्वार्थ की भूमिका में इसी का अनुसरण किया है। नाम उत्तर-पश्चिम प्रान्त के आधुनिक बुलन्दशहर के अन्तर्गत 'उच्चनगर' कनिंघम लिखते हैं कि “बरण या बारण यह नाम हिन्दू इतिहास में अज्ञात नाम के किले के साथ मेल खाता है।"९ है। 'बरण' के चार सिक्के बुलन्दशहर से प्राप्त हुए हैं। मुसलमान लेखकों किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि ऊँचानगर शाखा का ने इसे बरण कहा है। मैं समझता हूँ कि यह वही जगह होगी और इसका सम्बन्ध बुलन्दशहर से तभी जोड़ा जा सकता है जब उसका अस्तित्व नामकरण राजा अहिबरण के नाम के आधार पर हुआ होगा जो कि तोमर ई०पू० के प्रथम शताब्दी के लगभग रहा हो। मात्र यही नहीं उस काल वंश से सम्बन्धित था और जिसने यह किला बनावाया था किन्तु उसकी में वह ऊँचानगर कहलाता भी हो। इस शताब्दी के प्राचीन 'बरण' नाम तिथि ज्ञात नहीं है। यह किला बहुत पुराना है और एक ऊँचे टीले पर का उल्लेख तो मिलता है, किन्तु यह भी ९वीं-१०वीं शताब्दी से पूर्व बना हुआ है जिसके आधार पर हिन्दुओं द्वारा यह ऊँचा गाँव या ऊँचा का ज्ञात नहीं होता है। बारण (बरण) नाम से कब इसका नाम बुलन्दशहर नगर कहा गया है और मुसलमानों ने उसे बुलन्दशहर कहा है।"६ यद्यपि हुआ, इसके सम्बन्ध में उन्होंने अपनी असमर्थता व्यक्त की है। यह हिन्दुओं कनिंघम ने कहीं भी इसका सम्बन्ध उच्चै गर शाखा से नहीं बताया किन्तु के द्वारा ऊँचागाँव या ऊँचानगर कहा जाता था-मुझे तो यह भी उनकी
रहा है।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
कल्पना ही प्रतीत होती है। इस सम्बन्ध में वे कोई भी प्रमाण प्रस्तुत नहीं यह स्तूप ई०पू० दूसरी री या प्रथम शती का है। इतिहासकारों ने इसे शुंग कर सके हैं। बरण नाम का उल्लेख भी मुस्लिम इतिहासकारों ने दसवीं काल का माना है। भरहुत के स्तूप के पूर्वी तोरण पर 'वाच्छिपुत धनभूति सदी के बाद ही किया है। इतिहासकारों ने इस ऊँचागांव किले का का' उल्लेख है।१६ पुन: अभिलेखों में 'सुगनंरजे' ऐसा उल्लेख होने से सम्बन्ध तोमर वंश के राजा अहिवरण से जोड़ा है अत: इसकी अवस्थिति शुंग काल में इसका होना सुनिश्चित है।१७ अत: उच्चैर्नागर शाखा का ईसा के पांचवी-छठी शती से पूर्व तो सिद्ध ही नहीं होती है। यहाँ से स्थापना काल (लगभग ई०पू० प्राथम शती) और इस नगर का सत्ता काल मिले सिक्कों पर 'गोवितसबाराणये' ऐसा उल्लेख है।११ स्वयं कनिंघम ने समान ही है। अत: इसे उच्चैर्नागर शाखा का उत्पत्ति स्थल मानने में काल भी यह सम्भावना व्यक्त की है कि इन सिक्कों का सम्बन्ध वारणाव या की दृष्टि से कोई बाधा नहीं है। अत: ऊँचेहरा (उच्चकल्पनगर) एक प्राचीन बारणावत से रहा होगा।१२ वारणावर्त का उल्लेख महाभारत में भी है जहाँ नगर था इसमें अब कोई सन्देह नहीं रह जाता है। यह नगर वैशाली या पाण्डवों ने हस्तिनापुर से निकलकर विश्राम किया था तथा जहाँ उन्हें जिन्दा पाटलिपुत्र से वाराणसी होकर भरूकच्छ को जाने वाले अथवा श्रावस्ती जलाने के लिए कौरवों द्वारा लाक्षागृह का निर्माण करवाया गया था।१३ से कौशाम्बी होकर विदिशा, उज्जैनी और भरूकच्छ जाने वाले मार्ग पर बारणावा (बारणावत) मेरठ से१६ मील और बुलन्दशहर (प्राचीन नाम स्थित था। इसी प्रकार वैशाली-पाटलिपुत्र से पद्मावती (पवाया), गोपाद्री बरन) से ५० मील की दूरी पर हिंडोना और कृष्णा नदी के संगम पर (ग्वालियर) होता हुआ मथुरा जाने वाले मार्ग पर भी इसकी अवस्थिति स्थित है। मेरी दृष्टि में बारणावत वहीं है जहाँ से जैनों का ‘बारणगण थी। उस समय गंगा और यमुना के दक्षिण से होकर जाने वाला मार्ग ही निकला था। बारणगण का उल्लेख भी कल्पसूत्र स्थविरावली एवं मथुरा अधिक प्रचलित था क्योंकि इसमें बड़ी नदियाँ नहीं आती थीं, मार्ग पहाड़ी के अभिलेखों में उपलब्ध होता है।१४ अत: बुलन्दशहर (बरन) या होने से कीचड़ आदि भी अधिक नहीं होता था। जैन साधु प्राय: यही बारणावत (बारणावर्त) का सम्बन्ध बारणगण से हो सकता है, न कि मार्ग अपनाते थे। उच्चै गरी शाखा से जो कि कोटिकगण की शाखा थी। अत: हमें इस प्राचीन यात्रा मार्गों के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि भ्रान्ति का निराकरण कर लेना चाहिए। उच्चै गर शाखा का सम्बन्ध किसी ऊँचानगर की अवस्थिति एक प्रमुख केन्द्र के रूप में थी। यहाँ से कौशाम्बी, भी स्थिति में बुलन्दशहर से नहीं हो सकता है।
प्रयाग, वाराणसी, पाटलिपुत्र, विदिशा, मथुरा आदि सभी ओर मार्ग जाते यह सत्य है कि उच्चै गर शाखा का सम्बन्ध किसी ऊँचानगर थे। पाटलिपुत्र से गंगा-यमुना आदि बड़ी नदियों को बिना पार किये जो से ही हो सकता है। इस सन्दर्भ में हमने इससे मिलते-जुलते नामों की प्राचीन स्थल मार्ग था उसके केन्द्र नगर के रूप में उच्चकल्पनगर खोज प्रारम्भ की। हमें ऊँचाहार, ऊँचडीह, ऊँचीबस्ती, ऊचौलिया, (ऊँचानगर) की स्थिति सिद्ध होती है। यह एक ऐसा मार्ग था जिसमें कहीं ऊँचाना, ऊँचेहरा आदि कुछ नाम प्राप्त हुए।१५ हमें इस नामों में ऊँचाहारा भी कोई बड़ी नदी नहीं आती थी अत: सार्थ निरापद समझकर इसे ही (उ०प्र०) और ऊँचेहरा (म०प्र०) ये दो नाम अधिक निकट प्रतीत हुए। अपनाते थे। प्राचीन काल से आज तक यह नगर धातुओं के मिश्रण के ऊँचाहार की सम्भावना भी इसलिए हमें उचित नहीं लगी कि उसकी बर्तन हेतु प्रसिद्ध रहा है। आज भी वहाँ काँसे के बर्तन सर्वाधिक मात्रा प्राचीनता के सन्दर्भ में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है। अत: हमने में बनते हैं। ऊँचेहरा का उच्चैर शब्द से जो ध्वनि साम्य है वह भी हमें ऊँचेहरा को ही अपनी गवेषणा का विषय बनाना उचित समझा। ऊँचेहरा इसी निष्कर्ष के लिए बाध्य करता है कि उच्चै गर शाखा की उत्पत्ति मध्य प्रदेश के सतना जिले में सतना स्टेशन से ११ कि०मी० दक्षिण उसी क्षेत्र से हुई थी। की ओर स्थित है। ऊँचेहरा से ७ कि०मी० उत्तर पूर्व की ओर भरहुत का प्रसिद्ध स्तूप स्थित है, इससे इस स्थान की प्राचीनता का भी पता उमास्वाति का जन्म स्थान नागोद (म०प्र०) लग जाता है। वर्तमान ऊँचेहरा से लगभग दो कि०मी० की दूरी पर पहाड़ उमास्वाति ने अपना जन्म स्थान न्यग्रोधिका बताया है। इस के पठार पर यह प्राचीन नगर स्थित था, इसी से इसका ऊँचानगर सम्बन्ध में भी विद्वानों ने अनेक प्रकार के अनुमान किये हैं। चूँकि नामकरण भी सिद्ध होता है। यहाँ के नगर निवासियों ने मुझे भी बताया उमास्वाति ने तत्त्वार्थभाष्य की रचना कुसुमपुर (पटना) में की थी।१८ अत: कि पहले यह उच्चकल्पनगरी कहा जाता था और यहाँ से बहुत सी अधिकांश लोगों ने उमास्वाति के जन्मस्थल की पहचान उसी क्षेत्र में करने पुरातात्त्विक सामग्री भी मिलती थी। यहाँ से गुप्तकाल अर्थात् ईसा की का प्रयास किया है। न्यग्रोध को वट भी कहा जाता है। इस आधार पर पांचवीं शती के कई महाराजाओं के कई दानपत्र प्राप्त हुए। इन ताम्र पहाड़पुर के निकट बटगोहली जहाँ से पंचस्तूपान्वय का एक ताम्र लेख दानपत्रों में उच्चकल्प (उच्छकल्प) का स्पष्ट उल्लेख है, ये दानपत्र गुप्त मिला है, से भी इसका समीकरण करने का प्रयास किया है। मेरी दृष्टि सं०१५६ से गुप्त सं०२०९ के बीच के हैं। (विस्तृत विवरण के लिए में यह धारणाएं समुचित नहीं है। उच्चैर्नागर शाखा जो ऊँचेहरा से देखें ऐतिहासिक स्थानावली-विजेन्द्र कुमार माथुर, पृ० २६०-२६१) सम्बन्धित थी, उसमें उमास्वाति के दीक्षित होने का अर्थ यही है कि वे इससे इस नगर की गुप्तकाल में तो अवस्थिति स्पष्ट हो जाती है। पुनः उसके उत्पत्ति स्थल के निकट ही कहीं जन्मे होंगे। उच्चैनगर या ऊँचेहरा जिस प्रकार विदिशा के समीप साँची का स्तूप निर्मित हुआ था उसी प्रकार से मथुरा जहाँ उच्चनागरी शाखा के अधिकतम उल्लेख प्राप्त हुए हैं, तथा इस उच्चैनगर (ऊँचेहरा) के समीप भरहुत का स्तूप निर्मित हुआ था और पटना जहाँ उन्होंने तत्त्वार्थभाष्य की रचना की, वहां से दोनों लगभग ४५०
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उच्चै गर शाखा के उत्पत्ति स्थल एवं उमास्वाति के जन्म स्थान की पहचान
६२९ कि०मी० की समान दूरी पर अवस्थित हैं और किसी जैन साधु के द्वारा का जन्मस्थल नागोद (न्यग्रोध) है और उसकी ऊचैर्नागर शाखा का उत्पत्ति वहाँ से एक माह की पदयात्रा कर दोनों स्थलों पर आसानी से पहुँचा जा स्थल ऊँचेहरा ही है। सकता है। स्वयं उमास्वाति ने ही लिखा है कि वे विहार (पदयात्रा) करते संदर्भहुए कुसुमपुर (पटना) पहुँचे थे-विहरतापुरवे कुसुमनाम्नि १९ इससे यही १. तत्त्वार्थभाष्य, अन्तिम प्रशस्ति, श्लोक ३,५ लगता था कि न्यग्रोध (नागोद) कुसुमपुर (पटना) के समीप नहीं था। डॉ० २. कल्पसूत्र स्थविरावली, २१८ हीरालाल जैन ने संघ विभाजन स्थल-रहवीरपुर की कल्पना दक्षिण में ३. जैन शिलालेख संग्रह, भाग २, लेख क्रमांक, १९, २०, २२, महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के राहुरी ग्राम से की और उसी के समीप २३, ३१, ३५, ३६, ५०, ६४, ७१ स्थित 'निधोज' से की किन्तु यह ठीक नहीं है।२० प्रथम तो व्याकरण ४. कल्पसूत्र स्थविरावली, २१६ की दृष्टि से न्यग्रोध का प्राकृत रूप नागोद होता है, निधोज नहीं। दूसरे ५. ऐतिहासिक स्थानावली (ले० विजयेन्द्र कुमार माथुर), पृ० २३१ उमास्वाति जिस उच्चै गर शाखा के थे वह शाखा उत्तर भारत की थी, ६. Archaeological Survey of India, Vol. 14, p. 147 अत: उनका सम्बन्ध उत्तर भारत से ही है। अत: उनका जन्म स्थल भी ७. तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् (द्वितीयोविभाग), इण्ट्रोडक्सन, हीरालाल उत्तर भारत में ही होगा। उच्चनागरी शाखा के उत्पत्ति स्थल ऊँचेहरा से कापड़िया, पृ०६ लगभग ३० कि०मी० पश्चिम की ओर 'निगोद' नामक कस्बा आज भी ८. पट्टावली पराग संग्रह (मुनि कल्याण विजय), पृ० ३७ है। आजादी के पूर्व यह एक स्वतन्त्र राज्य था और ऊँचेहरा इसी राज्य ९. तत्त्वार्थसूत्र, (विवेचक पं० सुखलाल संघवी), प्रकाशक पार्श्वनाथ के अधीन आता था। नागोद के आसपास भी जो प्राचीन सामग्री मिली विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, पृ० ४ . है उससे यही सिद्ध होता है कि यह भी एक प्राचीन नगर था। प्रो० के०डी० १०. ऐतिहासिक स्थानावली, पृ०६०८, ६४० बाजपेयी ने नागोद से २४ कि०मी० दूर नचना कुठार के पुरातात्त्विक ११. Archaeological Survey of India, Vol. 14, p. 147 महत्त्व पर विस्तार से प्रकाश डाला है।२१ नागोद की अवस्थिति पन्ना १२. वही (म०प्र०), नचना कुठार और ऊँचेहरा के मध्य है। इन क्षेत्रों में गुप्तकाल १३. ऐतिहासिक स्थानावली, पृ० ८४३-४४ के पूर्व शुंगकाल से पूर्व ९वीं-१०वीं शती तक की पुरातात्त्विक सामग्री १४. कल्पसूत्र स्थविरावली, २१२ मिलती है। अत: इसकी प्राचीनता में सन्देह नहीं किया जा सकता है। १५. ऊँच्छ नामक अन्य नगरों के लिए देखिए-The Ancient नागोद न्यग्रोध का ही प्राकृत रूप है। अत: सम्भावना यही है कि उमास्वाति Geography of India, p. 204-205 का जन्मस्थल यही नागोद था और जिस उच्चनागरी शाखा में वे दीक्षित १६. भरहुत (डॉ० रमानाथ मिश्र), भूमिका, पृ० १८ हुए हो, वह भी उसी के समीप स्थित ऊँचेहरा (उच्चकल्प नगर) से उत्पन्न १७. वही, पृ० १८-१९ हुई थी। तत्त्वार्थभाष्य की प्रशस्ति में उमास्वाति की माता को वात्सी कहा १८. तत्त्वार्थसूत्र, पृ० ५ गया है। हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि वर्तमान नागोद और ऊँचेहरा १९. तत्त्वार्थाधिगमसूत्र, स्वोपज्ञ भाष्य, अन्तिम प्रशस्ति, श्लोक ३ दोनों ही प्राचीन वत्स देश के अधीन ही थे। भरहत और इस क्षेत्र के २०. दिगम्बर जैन सिद्धान्त दर्शन, प्रका० दिगम्बर जैन पंचायत, बम्बई, आसपास जो कला का विकास देखा जाता है वह कौशम्बी अर्थात् दिसम्बर १९४४ में मुद्रित 'जैन इतिहास का एक विलुप्त अध्याय' वत्सदेश के राजाओं के द्वारा किया गया था। ऊँचेहरा वत्सदेश के दक्षिण नामक प्रो० हीरालाल जैन का लेख, पृ० ७ का एक प्रसिद्ध नगर था। भरहुत के स्तूप के निर्माण में भी वात्सी गोत्र २१. संस्कृति सन्धान (सम्पा० डॉ० झिनकू यादव) वाल्यूम ३, १९९० के लोगों का महत्त्वपूर्ण योगदान था, ऐसा वहाँ से प्राप्त अभिलेखों से . में मुद्रित 'बुन्देलखण्ड की सांस्कृतिक धरोहर: नचना' नामक प्रो० प्रमाणित होता है। भरहुत के स्तूप के पूर्वी तोरण द्वार बाच्छीपुत्त धनभूति कृष्णदत्त बाजपेयी का लेख पृ० ३१ का उल्लेख है। २२ अतः हम इसी निष्कर्ष पर पहँचते हैं कि उमास्वाति २२. भरहुत, भूमिका, पृ० १८.
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श्वेताम्बर मूलसंघ एवं माथुर संघ : एक विमर्श
वाचना
सामान्यतया जैन विद्या के विद्वानों एवं शोधकर्ताओं की यह स्पष्ट अवधारणा है कि मूलसंघ और माथुरसंघ का सम्बन्ध जैनधर्म की दिगम्बर परम्परा से ही है, क्योंकि जैन अभिलेखों एवं साहित्यिक स्त्रोतों में मूलसंघ एवं माथुरसंघ के उल्लेख सामान्यतया दिगम्बर परम्परा के साथ ही पाये जाते हैं। संयोग से लेखक को जैनविद्या संस्थान की बैठक में लखनऊ जाने का प्रसंग आया और वहाँ उसे डॉ. शैलेन्द्र कुमार रस्तोगी आदि के सहयोग से मथुरा की जैन मूर्तियों के संग्रह को देखने का अवसर मिला। वहाँ जब उसने मथुरा से प्राप्त ईसा की दसवीं - ग्यारहवीं शताब्दी की पद्मासन मुद्रा में लगभग ५ फीट ऊंची विशालकाय लेखयुक्त तीन जिन प्रतिमायें देखी, तो उसे एक सुखद आश्चर्य हुआ। इन तीन प्रतिमाओं पर श्वेताम्बर मूलसंघ और श्वेताम्बर माथुरसंघ के उल्लेख पाये जाते हैं। जो कि अत्यन्त विरल है। इसके पूर्व तक लेखक की भी यह स्पष्ट अवधारणा थी कि श्वे. परम्परा में किसी भी काल में मूलसंघ और माथुरसंघ का अस्तित्व नहीं रहा है। अतः उसने ध्यानपूर्वक इन लेखों का अध्ययन करना प्रारंभ किया। सर्वप्रथम लखनऊ म्यूजियम के उस रिकार्ड को देखा गया जिसमें इन मूर्तियों का विवरण था। यह रिकार्ड जीर्ण-शीर्ण एवं टंकित रूप में उपलब्ध है। रिकार्ड को देखने पर ज्ञात हुआ कि उसमें जे. १४३ क्रम की पार्श्वनाथ की प्रतिमा के विवरण के साथ-साथ अभिलेख की वाचना भी रोमन अक्षरों में दी गई है। इसका देवनागरी रूपान्तरण इस प्रकार है
संवत् १०३६ कार्तिकशुक्लाएकादश्यां श्रीश्वेताम्बरमूलसंघेन पश्चिम चतु (श्वी), कथं श्रीदेवनिर्मिता प्रतिमा प्रतिस्थापिता ।
श्वेताम्बर...... माथुर...
देवनिम्मिता
प्रतिस्थापिता । तीसरी जे. १४५ क्रम की मूर्ति पर जो अभिलेख अंकित है उसकी वाचना निम्नानुसार है
संवत् ११३४ श्रीश्वेताम्बर श्रीमाथुरसंघ
श्रीदेवतेति
जब मैंने जे. १४३ क्रमांक की मूर्ति के लेख को स्वयं देखा तो यह पाया कि उसमे उत्कीर्ण श्वेताम्बर शब्द बहुत ही स्पष्ट है और अन्य दो प्रतिमाओं में भी श्वेताम्बर शब्द की उपस्थिति होने से उसके वाचन में कोई भ्रान्ति की संभावना नहीं है। 'मूल' शब्द के पश्चात् का संघेन शब्द भी स्पष्ट रूप से पढ़ने में आता है किन्तु मध्य का वह शब्द जिसे फ्यूरर
दूसरी जे. १४४ क्रम की प्रतिमा के नीचे जो अभिलेख है उसका ने 'मूल' और प्रो. बाजपेयी ने 'माथुर' पड़ा है, स्पष्ट नहीं है। जो अभिलेख वाचन इस प्रकार दिया गया हैकी प्रतिलिपि मुझे प्राप्त है और जो स्मिथ के ग्रन्थ में प्रकाशित है उसमें प्रथम 'म' तो स्पष्ट है किन्तु दूसरा अक्षर स्पष्ट नहीं है, उसे 'ल' 'लु' और 'यु' इन तीनों रूपों में पड़ा जा सकता है। उसे 'मूल' मानने में कठिनाई यह है कि 'म' के साथ 'ऊ की मात्रा' स्पष्ट नहीं है। यदि हम उसे 'माथुर' पढ़ते हैं तो 'म' में आ की मात्रा और र का अभाव पाते हैं। सामान्यतया अभिलेखों में कभी-कभी मात्राओं को उत्कीर्ण करने में असावधानियां हो जाती हैं। यही कारण रहा है कि मात्रा की सम्भावना मानकर जहां फ्यूरर के वाचन के आधार पर लखनऊ म्यूज़ियम के उपलब्ध रिकार्ड में 'मूल' माना गया है। वहीं प्रो. बाजपेयी ने 'ऊ की मात्रा के अभाव के कारण इसे 'मूल' पढ़ने में कठिनाई का अनुभव किया और अन्य प्रतिमाओं में 'माथुर' शब्द की उपस्थिति के आधार पर अपनी वाचना में 'माथुर' शब्द को कोष्ठकार्न्तगत रखकर माथुर पाठ की संभावना को सूचित किया। यह सत्य है कि इस प्रतिमा के लगभग १०० वर्ष पश्चात् की दो प्रतिमाओं
विनिर्मिताप्रतिमाकृत
इस प्रकार हम देखते हैं कि इन तीनों अभिलेखों में से एक अभिलेख में श्वेताम्बर मूलसंघ और दो अभिलेखों में श्वेताम्बर माथुरसंघ का उल्लेख है। वी.ए. स्मिथ ने अपनी कृति 'दि जैन स्तूप एण्ड अदर एण्टीक्यूटीज आफ मथुरा में इनमें से दो लेखयुक्त मूर्तियों को प्रकाशित किया है। साथ ही यह भी उल्लेख किया है कि फ्यूरर के अनुसार ये दोनों मूर्तियाँ मथुरा के श्वेताम्बर संघ को समर्पित थीं।
स्व. प्रो. के. डी. बाजपेयी ने भी 'जैन श्रमण परम्परा' नामक में माथुर शब्द का स्पष्ट उल्लेख होने से उनका झुकाव माथुर शब्द की
अपने लेख में जो कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर से प्रकाशित 'अर्हत् वचन' पत्रिका के जनवरी १९९२ के अंक में प्रकाशित हुआ है, इनमें से दो अभिलखों का उल्लेख किया है। इनके अनुसार जे० १४३ क्रम की प्रतिमा के अभिलेख की वाचना इस प्रकार है
" संवत् १०३८ कार्तिक शुक्ल एकादश्यां श्री श्वेताम्बर (माथुर ) संघेन पश्चिम... कार्या श्री देवनिम्मित प्रतिमा प्रतिष्ठापिता । "
इसी प्रकार जे. १४५ क्रम की प्रतिमा के अभिलेख की उनकी निम्नानुसार है
"संवत् ११३४ श्री चेताम्बर श्री माथुर संघश्री देवनिर्मित प्रतिमा कारितेति । "
प्रो. बाजपेयी की जे. १४३ क्रम की प्रतिमा की वाचना फ्यूरर की वाचना से क्वचित् भिन्न है प्रथम तो उन्होंने संवत् को १०३६ के स्थान पर १०३८ पढ़ा है, दूसरे मूलसंघेन को (माथुर ) संघेन के रूप में पढ़ा है। यद्यपि उपर्युक्त दोनों वाचनाओं 'श्वेताम्बर' एवं 'माथुरसंघ' के सम्बन्ध में वाचना की दृष्टि से किसी प्रकार का कोई मतभेद नहीं है। मूलसंघेन पाठ के सम्बन्ध में थोड़े गम्भीर अध्ययन की अपेक्षा है। सर्वप्रथम हम इसी सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा करेंगे।
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श्वेताम्बर मूलसंघ एवं माथुर संघ : एक विमर्श
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ओर हुआ है किन्तु मुझे जितनी आपत्ति 'मूल पाठ' को मानने में हैं उससे देवनिर्मित मानने की परम्परा थी। सातवीं शताब्दी से लेकर तेरहवीं अधिक आपत्ति उनके 'माथुर' पाठ को मानने में है क्योंकि 'मूल पाठ' शताब्दी तक के अनेक श्वेताम्बर ग्रन्थों में इस स्तूप को देवनिर्मित कहा मानने में तो केवल 'ऊ' की मात्रा का अभाव प्रतीत होता है जबकि माथुर गया है। प्रो. के.डी. बाजपेयी ने जो यह कल्पना की है कि इन मूर्तियों पाठ मानने में 'आ' की मात्रा के अभाव के साथ-साथ 'र' का भी अभाव को श्री देवनिर्मित कहने का अभिप्राय श्री देव (जिन) के सम्मान में इन खटकता है। इस सम्बन्ध में अधिक निश्चितता के लिए मैं डॉ. शैलेन्द्र मूर्तियों का निर्मित होना है-वह भ्रांत है। उन्हें देवनिर्मित स्तूप स्थल पर कुमार रस्तोगी से सम्पर्क कर रहा हूँ और उनके उत्तर की प्रतीक्षा है। साथ प्रतिष्ठित करने के कारण देवनिर्मित कहा गया है। ही स्वयं भी लखनऊ जाकर उस प्रतिमा लेख का अधिक गम्भीरता से श्वे. साहित्यिक स्रोतों से यह भी सिद्ध होता है कि जिनभद्र, अध्ययन करने का प्रयास करूंगा और यदि कोई स्पष्ट समाधान मिल हरिभद्र, बप्पभट्टि, वीरसूरि आदि श्वेताम्बर मुनि मथुरा आये थे। हरिभद्र सका तो पाठकों को सूचित करूँगा।
ने यहाँ महानिशीथ आदि ग्रन्थों के पुनर्लेखन का कार्य तथा यहाँ के स्तूप मुझे दु:ख के साथ सूचित करना पड़ रहा है कि आदरणीय और मन्दिरों के जीर्णोद्वार के कार्य करवाये थे। ९वीं शती में बप्पभट्टिसरि प्रो. के.डी. बाजपेयी का स्वर्गवास हो गया है। फिर भी पाठकों को स्वयं के द्वारा मथुरा के स्तूप एवं मन्दिरों के पुनर्निर्माण के उल्लेख सुस्पष्ट हैं। जानकारी प्राप्त करने के लिए यह सूचित कर देना आवश्यक समझता इस आधार पर मथुरा में श्वे. संघ एवं श्वे. मन्दिर की उपस्थिति निर्विवाद हूँ कि यह जे. १४३ क्रम की प्रतिमा लखनऊ म्यूजियम के प्रवेश द्वार रूप से सिद्ध हो जाती है। से संलग्न प्रकोष्ठ के मध्य में प्रदर्शित है। इसकी ऊंचाई लगभग ५ फीट अब मूल प्रश्न यह है कि क्या श्वेताम्बरों में कोई मूलसंघ और है। जे. १४३ क्रम की प्रतिमा के अभिलेख के 'मूल' और 'माथुर' शब्द माथुर संघ था और यदि था तो वह कब, क्यों और किस परिस्थिति में के वाचन के इस विवाद को छोड़कर तीनों प्रतिमाओं के अभिलेखों के अस्तित्व में आया? वाचन में किसी भ्रांति की संभावना नहीं है। उन सभी प्रतिमाओं में श्वेताम्बर शब्द स्पष्ट है। माथुर शब्द भी अन्य प्रतिमाओं पर स्पष्ट ही है, फिर भी मूलसंघ और श्वेताम्बर परम्परा यहाँ इस सम्बन्ध में उठने वाली अन्य शंकाओं पर विचारकर लेना मथुरा के प्रतिमा क्रमांक जे. १४३ के अभिलेख के फ्यूरर के अनुपयुक्त नहीं होगा। यह शंका हो सकती है कि इनमें कहीं श्वेताम्बर वाचन के अतिरिक्त अभी तक कोई भी ऐसा अभिलेखीय एवं साहित्यिक शब्द को बाद में तो उत्कीर्ण नहीं किया गया है? किन्तु यह संभावना प्रमाण उपलब्ध नहीं है जिसके आधार पर यह सिद्ध किया जा सके कि निम्न आधारों पर निरस्त हो जाती है:
श्वेताम्बर परम्परा में कभी मूल संघ का अस्तित्व रहा है। जैसा कि हम १. ये तीनों ही प्रतिमाएं मथुरा के उत्खनन के पश्चात् से पूर्व में सूचित कर चुके हैं कि इस अभिलेख वाचन के सम्बन्ध में भी शासनाधीन रही हैं। अत: उनके लेखों में परवर्ती काल में किसी परम्परा दो मत हैं-फ्यूरर आदि कुछ विद्वानों ने उसे 'श्री श्वेताम्बर मूलसंघेन' पढ़ा द्वारा परिवर्तन की संभावना स्वत: ही निरस्त हो जाती है। पुनः है, जबकि प्रो. के.डी. बाजपेयी ने इसके 'श्री श्वेताम्बर (माथुर) संघेन' 'श्वेताम्बर' मूल संघ और माथुर संघ तीनों ही शब्द अभिलेखों के मध्य होने की सम्भावना व्यक्त की है। में होने से उनके परवर्तीकाल में उत्कीर्ण किये जाने की आशंका भी सामान्यतया मूलसंघ के उल्लेख दिगम्बर परम्परा के साथ समाप्त हो जाती है।
ही पाये जाते हैं। आज यह माना जाता है कि मूलसंघ का सम्बन्ध २. प्रतिमाओं की रचनाशैली और अभिलेखों की लिपि एक दिगम्बर परम्परा के कुन्दकुन्दान्वय से रहा है। किन्तु यदि अभिलेखीय ही काल की है। यदि लेख परवर्ती होते तो उनकी लिपि में स्वाभाविक और साहित्यिक साक्ष्यों पर विचार करते हैं तो यह पाते हैं कि मूलसंघ रूप से अन्तर आ जाता।
का कुन्दाकुन्दान्वय के साथ सर्वप्रथम उल्लेख दोड्ड कणगालु के ईस्वी ३. इन प्रतिमाओं के श्वेताम्बर होने की पुष्टि इस आधार पर सन् १०४४ के लेख में मिलता है। यद्यपि इसके पूर्व भी मूलसंघ भी हो जाती है कि प्रतिमा क्रम जे. १४३ के नीचे पादपीठ पर दो मुनियों तथा कुन्दकुन्दान्वय के स्वतंत्र उल्लेख तो मिलते है, किन्तु मूलसंघ का अंकन है। उनके पास मोरपिच्छी के स्थान पर श्वे. परम्परा में प्रचलित के साथ कुन्दकुन्दान्वय का कोई उल्लेख नहीं है। इससे यही फलित ऊन से निर्मित रजोहरण प्रदर्शित है।
होता है कि लगभग ईसा की ग्यारहवीं शताब्दी में कुन्दकुन्दान्वय ने ४. उत्खनन से यह भी सिद्ध हो चुका है कि मथुरा के स्तूप मूलसंघ के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ा है और अपने को मूलसंघीय के पास ही श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं के अलग मन्दिर थे। कहना प्रारम्भ किया है। जहाँ दिगम्बर परम्परा का मन्दिर पश्चिम की ओर था, वहीं श्वेताम्बर मन्दिर द्राविडान्वय (द्रविड संघ) जिसे इन्द्रनन्दी ने जैनाभास कहा स्तूंप के निकट ही था।
था, भी अङ्गडि के सन् १०४० के अभिलेख में अपने को मलसंघ ५. इन तीनों प्रतिमाओं के श्वे. होने का आधार यह है कि तीनों से जोड़ती है।५ ही प्रतिमाओं में श्री देवनिर्मित शब्द का प्रयोग हुआ है। श्वेताम्बर यही स्थिति यापनीय सम्प्रदाय के गणों की भी है। वे भी साहित्यिक स्त्रोतों से यह स्पष्ट हो जाता है कि उसमें मथुरा के स्तूप को ग्यारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से अपने नाम के साथ मूलसंघ शब्द का
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
प्रयोग करने लगे। यापनीय पुन्नागवृक्ष मूलगण के सन् ११०८ के ऐसा लगता है कि दक्षिण में इनमें से निर्ग्रन्थ संघ प्राचीन है और यापनीय, अभिलेख में '... श्रीमूलसंघद पो (पु) नाग वृक्षमूल गणद..' ऐसा कुर्चक, श्वेतपट आदि संघ परवर्ती हैं, फिर भी मेरी दृष्टि में निम्रन्थ संघ उल्लेख है। इसी प्रकार यापनीय संघ के काणूर गण के ई. सन् को मूलसंघ नहीं कहा जा सकता है। दक्षिण भारत का यह निर्ग्रन्थ १०७४ के बन्दलिके के तथा ई. सन् १०७५ के कुप्पटू के अभिलेख महाश्रमण संघ भद्रबाहु (प्रथम) की परम्परा के उन अचेल श्रमणों का संघ में 'श्री मूलसंघान्वय क्राणूरग्गण' ऐसा उल्लेख है। इस सब से भी था जो ईसा पूर्व तीसरी शती में बिहार से उड़ीसा के रास्ते लंका और यही फलित होता है कि इस काल में यापनीय भी अपने को मूलसंघीय तमिल प्रदेश में पहुंचे थे। उस समय उत्तर भारत में जैन संघ इसी नाम कहने लगे थे।
से जाना जाता था और उसमें गण, शाखा का विभाजन नहीं हुआ था, यापनीय गणों के साथ मूलसंघ के इन उल्लेखों को देखकर अत: ये श्रमण भी अपने को इसी 'निर्ग्रन्थ' नाम से अभिहित करते रहे। डॉ. गुलाबचन्द्र चौधरी आदि दिगम्बर विद्वान यह कल्पना कर बैठे कि पुन: उन्हें अपने को मूलसंघी कहने की कोई आवश्यकता भी नहीं थी ये गण यापनीय संघ से अलग होकर मूलसंघ द्वारा आत्मसात कर लिये क्योंकि वहां तब उनका कोई प्रतिद्वन्द्वी भी नहीं था। यह निर्ग्रन्थसंघ गये थे। किन्तु उनकी यह अवधारणा समुचित नहीं है क्योंकि इन यापनीय, कूर्चक और श्वेतपट्ट संघ से पृथक था, यह तथ्य भी हल्सी और अभिलेखों के समकालीन और परवर्ती अनेक ऐसे अभिलेख हैं जिनमें देवगिरि के अभिलेखों से सिद्ध है क्योंकि इनमें उसे इनसे पृथक दिखलाया इन गणों का यापनीय संघ के गण के रूप में स्पष्ट उल्लेख है। सत्य तो गया है और तब तक इसका निर्ग्रन्थ संघ नाम सुप्रचलित था। पुन: जब यह है कि जब कुन्दकुन्दान्वय ने मूलसंघ के साथ अपना सम्बन्ध जोड़कर लगभग १०० वर्ष के पश्चात् के अभिलेखों में भी यह निर्ग्रन्थसंघ के नाम अन्य संघों को जैनाभास और मिथ्यात्वी घोषित किया, (इन्द्रनन्दिकृत से ही सुप्रसिद्ध है तो पूर्व में यह अपने को 'मूलसंघ' कहता होगा। यह श्रुतावतार से इस तथ्य की पुष्टि होती है) तो प्रतिक्रिया स्वरूप दूसरों कल्पना निराधार है। ने भी अपने को मूलसंघी कहना प्रारम्भ कर दिया। ग्यारहवीं शती के अपने को मूलसंघ कहने की आवश्यकता उसी परम्परा को हो उत्तरार्ध में अचेल परम्परा के यापनीय, द्राविड आदि अनेक संघ अपने सकती है जिसमें कोई विभाजन हुआ हो, जो दूसरे को निर्मूल या निराधार साथ मूलसंघ का उल्लेख करने लगे थे जबकि इन्द्रनन्दि ने इन सभी को बताना चाहती हो; यह बात पं० नाथुराम जी प्रेमी ने भी स्वीकार की है। जैनाभास कहा था।
यह विभाजन की घटना उत्तर भारत में तब घटित हुई जब लगभग ईसा इसका तात्पर्य यही है कि ग्यारहवीं शताब्दी में अपने को की दूसरी शताब्दी के उत्तरार्ध में उत्तर भारत का निर्ग्रन्थ संघ अचेल और मूलसंघी कहने की एक होड लगी हुई थी। यदि इन तथ्यों के प्रकाश में सचेल धारा में विभक्त हुआ। साथ ही उसकी अचेल धारा को अपने लिये हम मथुरा के उक्त श्वेताम्बर मूलसंघ का उल्लेख करने वाले अभिलेख एक नये नाम की आवश्यकता प्रतीत हुई। उस समय तक उत्तर भारत पर विचार करें तो यह पाते है कि उक्त अभिलेख भी अचेल परम्परा के का निम्रन्थ संघ अनेक गुणों, शाखाओं और कुलों में विभक्त था- यह विविध सम्प्रदायों के साथ मूलसंघ का उल्लेख होने के लगभग ६० वर्ष तथ्य मथुरा के अनेक अभिलेखों से और कल्पसूत्र की स्थविरावली से पूर्व का है अर्थात् उसी काल का है। अतः सम्भव है कि उस युग के विविध सिद्ध है। अत: सम्भावना यही है कि उत्तर भारत की इस अचेल धारा अचेल परम्पराओं के समान ही सचेलपरम्परा भी अपने को मूलसंघ से ने अपनी पहचान के लिये 'मूलगण' नाम चुना हो क्योंकि इस धारा को जोड़ती हो।
बोटिक और यापनीय-ये दोनों ही नाम दूसरों के द्वारा ही दिये गये हैं, मूलसंघ प्रारम्भ में किस प्ररम्परा से सम्बद्ध था और कब दूसरी जहाँ श्वेताम्बरों अर्थात् उत्तर भारत की सचेल धारा ने उन्हें बोटिक कहा, परम्पराओं ने उससे अपना सम्बन्ध जोड़ना प्रारम्भ किया-इसे समझने के वहीं दिगम्बरों अर्थात् दक्षिण भारत की निर्ग्रन्थ अचेल धारा ने उन्हें लिये हमें सर्वप्रथम मूलसंघ के इतिहास को जानना होगा। सर्वप्रथम हमें यापनीय कहा। डॉ गुलाब चन्द चौधरी ने जो यह कल्पना की कि दक्षिण दक्षिण भारत में नोणमंगल की ताम्रपट्टिाकाओं पर 'मूलसंघानुष्ठिताय' एवं में निर्ग्रन्थ संघ की स्थापना भद्रबाहु द्वितीय की, मुझे निराधार प्रतीत होती 'मूलसंघेनानुष्ठिताय' ऐसे उल्लेख मिलते हैं। ये दोनों ताम्रपट्टिकायें है१०। दक्षिण भारत का निर्ग्रन्थ संघ तो भद्रबाहु प्रथम की परम्परा का क्रमश: लगभग ईस्वी सन् ३७० और ई. सन् ४२५ की मानी जाती प्रतिनिधि है- चाहे भद्रबाहु प्रथम दक्षिण गये हों या नहीं गये हों किन्तु हैं। किन्तु इनमें निर्ग्रन्थ, कूर्चक, यापनीय या श्वेतपट आदि के नामों का उनकी परम्परा ईसा पू० तीसरी शती में दक्षिण भारत में पहुंच चुकी थी, उल्लेख नहीं होने से प्रथम दृष्टि में यह कह पाना कठिन है कि इस मूलसंघ इसके अनेक प्रमाण भी हैं। भद्रबाहु प्रथम के पश्चात् लगभग द्वितीय शती का सम्बन्ध उनमें से किस धारा से था। दक्षिण भारत के देवगिरि और में एक आर्य भद्र हुए हैं जो नियुक्तियों के कर्ता थे और सम्भवतः ये उत्तर हल्सी के अभिलेखों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि ईसा की पांचवी भारत के अचेल पक्ष के समर्थक रहे थे, उनके नाम से भद्रान्वय प्रचलित शती के उत्तरार्ध में दक्षिण भारत में निर्ग्रन्थ, यापनीय, कूर्चक और श्वेतपट हुई जिसका उल्लेख उदयगिरि (विदिशा) में मिलता है११। मेरी दृष्टि में महाश्रमण संघ का अस्तित्व था। किन्तु मूलसंघ का उल्लेख तो हमें ईसा मूलगण भद्रान्वय, आर्यकुल आदि का सम्बन्ध इसी उत्तर भारत की अचेल की चतुर्थशती के उत्तरार्ध में मिल जाता है अत: अभिलेखीय आधार पर धारा से है जो आगे चलकर यापनीय नाम से प्रसिद्ध हुई। दक्षिण में पहुंचने मूलसंघ का अस्तित्व यापनीय, कूर्चक आदि नामों के पूर्व का है। मुझे पर यह धारा अपने को मूलगण या मूलसंघ कहने लगी। यह आगे चलकर
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श्वेताम्बर मूलसंघ एवं माथुर संघ एक विमर्श
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श्री वृक्षमूल गण, पुत्रागवृक्षमूलगण, कनकोपलसम्भूतवृक्षमूलगण आदि से प्राप्त पूर्व में उल्लेखित तीन अभिलेखों को छोड़कर अन्यत्र कहीं भी श्वे० माथुर संघ का उल्लेख नहीं मिलता है, लेकिन उपरोक्त तीनों अभिलेखों के आधार पर हम यह मानने के लिए विवश हैं कि ग्यारहवींबारहवीं शताब्दी में श्वे० माथुरसंघ का अस्तित्व था । यद्यपि यह बात भ है कि यह माथुरसंघ श्वेताम्बर मुनियों का कोई संगठन न होकर मथुरा के श्वेताम्बर श्रावकों का एक संगठन था और यही कारण है कि श्वे० माथुर संघ के अभिलेख मथुरा से अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं हुए। यदि श्वेताम्बर माथुर संघ मुनियों का कोई संगठन होता तो इसका उल्लेख मथुरा से अन्यत्र अभिलेखों और साहित्यिक स्रोतों से मिलना चाहिए था । पुनः इन तीनों अभिलेखों में मुनि और आचार्य के नामों के उल्लेख का अभाव यही सूचित करता है कि यह श्रावकों का संघ था।
अनेक गणों में विभक्त हुई, फिर भी सबने अपने साथ मूलगण शब्द कायम रखा। जब इन विभिन्न मूल गणों को कोई एक संयुक्त नाम देने का प्रश्न आया तो उन्हें मूलसंघ कहा गया। कई गणों द्वारा परवर्तीकाल में संघ नाम धारण करने के अनेक प्रमाण अभिलेखों में उपलब्ध हैं। पुनः यापनीय ग्रन्थों के साथ लगा हुआ 'मूल' विशेषण-जैसे मूलाचार, मूलाराधना आदि भी इसी तथ्य का सूचक है कि 'मूलसंघ' शब्द का सम्बन्ध यापनीयों से रहा है। अतः नोणमंगल की ताम्रपट्टिकाओं में उल्लेखित मूलसंघ यापनीय परम्परा का ही पूर्व रूप है। उत्तर भारत के निर्मन्य संघ की यह धारा जब पहले दक्षिण भारत में पहुंची तो मूलसंघ के नाम से अभिहित हुई और उसके लगभग १०० वर्ष पक्षात् इसे यापनीय नाम मिला। हम यह भी देखते हैं कि उसे यापनीय नाम मिलते ही अभिलेखों से मूलसंघ नाम लुप्त हो जाता है और लगभग चार सौ पचास वर्षों तक हमें मूलसंघ का कहीं कोई भी उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। नोणमंगल की ई० सन् ४२५ की ताम्र पट्टिकाओं के पश्चात् कोन्नूर के ई० सन् ८६० के अभिलेख में पुनः मूलसंघ का उल्लेख देशीयगण के साथ मिलता है। ज्ञातव्य है कि इस अभिलेख में मूलसंघ के साथ देशीयगण और पुस्तकंगच्छ का उल्लेख है किन्तु कुन्दकुन्दान्वय का उल्लेख नहीं है। ज्ञातव्य है कि पहले यह लेख ताम्रपट्टिका पर था बाद में १२वीं शती में इसमें कुछ अंश जोड़कर पत्थर पर अंकित करवाया गया इस जुड़े हुए अंश में ही कुन्दकुन्दान्वय का उल्लेख है। इसके दो सौ वर्ष पश्चात् से यापनीयगण और द्राविड़ आदि अन्य गण सभी अपने को मूलसंघीय कहते प्रतीत होते हैं।
इतना निश्चित है कि मूलसंघ के साथ कुन्दकुन्दान्वय सम्बन्ध भी परवर्ती काल में जुड़ा है यद्यपि कुन्दकुन्दान्वय का सर्वप्रथम अभिलेखीय उल्लेख ई० सन् ७९७ और ८०२ में मिलता है१२, किन्तु इन दोनों लेखों में पुस्तकगच्छ और मूलसंघ का उल्लेख नहीं है। आश्चर्य है कि साहित्यिक स्त्रोतों में तो दशवीं शती के पूर्व मूलसंघ और कुन्दकुन्दान्वय का कहीं कोई उल्लेख नहीं है। वस्तुतः कुन्दकुन्द शुद्ध आचार के प्रतिपादक एवं प्रभावशाली आचार्य थे और मूलसंघ महावीर की प्राचीन मूलधारा का सूचक था, अतः परवर्तीकाल में सभी अचेल परम्पराओं ने उससे अपना सम्बन्ध जोड़ना उचित समझा। मात्र उत्तर भारत का काष्ठासंघ और उसका माथुरगच्छ ऐसा था जिसने अपने को मूलसंघ एवं कुन्दकुन्दान्वय से जोड़ने का कभी प्रयास नहीं किया। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि काष्ठासंघ मुख्यतः उत्तर भारत से सम्बद्ध था और इस क्षेत्र में १२-१३वीं शती तक कुन्दकुन्दान्वय का प्रभाव अधिक नहीं था। वस्तुतः मूलसंघ मात्र एक नाम था जिसका उपयोग ९ १०वीं शती से दक्षिण भारत की अचेल परम्परा की सभी शाखायें करने लगी थीं। शायद उत्तर भारत की सचेल परम्परा भी अपनी मौलिकता सूचित करने हेतु इस विरुद् का प्रयोग करने लगी हो ।
जहाँ तक दिगम्बर परम्परा का प्रश्न है उसमें माथुरसंघ नामक एक मुनि संघ था और उसकी उत्पत्ति विक्रम संवत् ९५३ में आचार्य रामसेन से मानी जाती है। माथुरसंघ का साहित्यिक उल्लेख इन्द्रनंदी के श्रुतावतार और देवसेन के दर्शनसार में मिलता है। इन्द्रनन्दी ने इस संघ की गणना जैनाभासों में की है और निष्चिच्छिक के रूप में इसका उल्लेख किया है। देवसेन ने भी दर्शनसार में इसे निष्चिच्छिक बताया है। यद्यपि इसकी उत्पत्ति विक्रम सं०९५३ में बताई गई है किन्तु उसका सर्वप्रथम साहित्यिक उल्लेख अमितगति के सुभाषितरत्नसंदोह में मिलता है जो कि मुंज के शासन काल में (विक्रम १०५०) में लिखा गया। सुभाषितरत्नसंदोह के अतिरिक्त वर्धमाननीति, धर्मपरीक्षा, पंचसंग्रह, तत्त्वभावना, उपासकाचार आदि भी इनकी कृतियां है। अभिलेखीय स्त्रोतों की दृष्टि से इस संघ का सर्वप्रथम उल्लेख विक्रम सं. १९६६ में अयुर्ना के अभिलेख में मिलता है। दूसरा अभिलेखीय उल्लेख १२२६ के बिजोलिया के मन्दिर का है, इसके बाद के अनेक अभिलेख इस संघ के मिलते हैं। ज्ञातव्य है कि अपनी उत्पत्ति के कुछ ही वर्ष बाद यह संघ काष्ठासंघ का एक अंग बन गया और परवर्ती उल्लेख काष्ठासंघ की एक शाखा माथुरगच्छ के रूप में मिलते हैं।
यदि हम काल की दृष्टि से विचार करें तो यह पाते हैं कि श्वे. माथुरसंघ और दिगम्बर माथुरसंघ की उत्पत्ति लगभग समकालीन है। क्योंकि वे० माथुरसंघ के उल्लेख भी ११-१२वीं शताब्दी में ही मिलते हैं। यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा में खरतर, तपा, अचल आदि महत्त्वपूर्ण गच्छों का उद्भव काल भी यही है, फिर भी इन गच्छों में माथुर संघ का स्पष्ट अभाव होने से हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि माथुर संघ वे० जैन मुनियों का सगठन न होकर मथुरा निवासी श्वे० श्रावकों का एक संगठन था। आश्चर्य यह भी है कि इन अभिलेखों में श्वे० माथुरसंघ का उल्लेख होते हुए भी कहीं किसी मुनि या आर्या का नामोल्लेख नहीं है। इस आधार पर हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि श्वे० माथुरसंघ मथुरा के श्रावकों काही एक संगठन था । श्वेताम्बरों में आज भी नगर के नाम के साथ संघ शब्द जोड़कर उस नगर के श्रावकों को उसमें समाहित किया जाता है। अतः निष्कर्ष यही है कि वे० माथुरसंघ मथुरा के आवकों का संघ था
माथुर संघ
माथुरसंघ भी मुख्यतः दिगम्बर परम्परा का ही संघ है मथुरा और उसका मुनि परम्परा अथवा उनके गच्छों से कोई सम्बन्ध नहीं था।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
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२०७।
इस लेख के अंत में मैं विद्वानों से अपेक्षा करूँगा कि श्वेताम्बर ४. जैन शिलालेख संग्रह, भाग-२, मणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला माथुर संघ के सम्बन्ध में यदि उन्हें कोई जानकारी हो तो मुझे अवगत समिति, सं० ४५, हीराबाग, बम्बई ४, प्र०सं० १९५२ करायें ताकि हम इस लेख को और अधिक प्रमाण पुरस्सर बना सकें। लेखक्रमांक
१८०। संदर्भ
५. जैन शिलालेख संग्रह, भाग २, लेखक्रमांक १७८। १. (अ) सं० प्रो० ढाकी, प्रो० सागरमल जैन, ऐस्पेक्ट्स आव ६. वही, " " २५०।
जैनालाजी, खण्ड-२, (पं० बेचरदास स्मृति ग्रन्थ) हिन्दी विभाग, ७. वही, जैनसाहित्य में स्तूप- प्रो० सागरमल, पृ० १३७-८। ८. वही, भाग ३, भूमिका, पृ० २६ व ३२।
(ब) विविधतीर्थकल्प- जिनप्रभसूरि, मथुरापुरी कल्प। ९. जैन शिलालेख सं, भाग २, लेखक्रमांक ९० व ९४। २. अर्हत् वचन, वर्ष ४, अंक १, जनवरी ९२, पृ० १० १०. जैन शिलालेख संग्रह, भाग ३, भूमिका, पृ० २३। ३. (अ) विविधतीर्थकल्प- जिनप्रभसूरि, मथुरापुरी कल्प। ११. वही, भाग २, लेखक्रमांक ७९१।
(ब) प्रभावकचरित, प्रभाचन्द्र, सिंघी जैन ग्रन्थमाला, पृ० सं० १२. वही, लेखक्रमांक १२२ एवं १२३ (मन्ने का ताम्रपत्र)। १३, कलकत्ता, प्र०सं० १९४०, पृ० ८८-१११।
ऋग्वेद में अर्हत् और ऋषभवाची ऋचायें : एक अध्ययन
भारतीय संस्कृति श्रमण और ब्राह्मण संस्कृतियों का है। साथ ही मोहनजोदड़ो के उत्खनन् से वृषभ युक्त ध्यान मुद्रा में योगियों समन्वित रूप है। जहाँ श्रमण संस्कृति तप-त्याग एवं ध्यान साधना की सीलें इस तथ्य का स्पष्ट प्रमाण है कि ऋग्वेद के रचनाकाल के पूर्व प्रधान रही है, वहाँ ब्राह्मण संस्कृति यज्ञ-याग मूलक एवं कर्मकाण्डात्मक भी भारत में श्रमण धारा का न केवल अस्तित्व था, अपितु वही एक मात्र रही है। हम श्रमण संस्कृति को आध्यात्मिक एवं निवृत्तिपरक अर्थात् प्रमुख धारा थी। क्योंकि मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के उत्खनन में कहीं संन्यासमूलक भी कह सकते हैं, जबकि ब्राह्मण संस्कृति को सामाजिक भी यज्ञवेदी उपलब्ध नहीं हुई है, इससे यही सिद्ध होता है कि भारत एवं प्रवृत्तिमूलक कहा जा सकता है। इन दोनों संस्कृतियों के मूल में तप एवं ध्यान प्रधान आहेत परम्परा का अस्तित्व अति प्राचीन काल आधार तो मानव-प्रकृति में निहित वासना और विवेक अथवा भोग से ही रहा है। और योग (संयम) के तत्त्व ही हैं जिनकी स्वतन्त्र चर्चा हमने अपने यदि हम जैन धर्म के प्राचीन नामों के सन्दर्भ में विचार करें ग्रन्थ 'जैन, बौद्ध एवं गीता का साधना मार्ग' की भूमिका में की है। तो यह सुस्पष्ट है कि प्राचीन काल में यह आर्हत धर्म के नाम से ही प्रसिद्ध यहाँ पर इन दोनों संस्कृतियों के विकास के मूल उपादानों एवं उनके रहा है। वास्तविकता तो यह है कि जैन धर्म का पूर्व रूप आर्हत धर्म था। क्रम तथा वैशिष्टय की चर्चा में न जाकर उनके ऐतिहासिक अस्तित्व ज्ञातव्य है कि जैन-शब्द महावीर के निर्वाण के लगभग १००० वर्ष पश्चात् को ही अपनी विवेचना का मूल आधार बनायेंगे।
ही कभी अस्तित्व में आया है। सातवीं शती से पूर्व हमें कहीं भी जैन भारतीय संस्कृति के इतिहास को जानने के लिये प्राचीनतम शब्द का उल्लेख नहीं मिलता है, यद्यपि इसकी अपेक्षा 'जिन' व 'जिनसाहित्यिक स्त्रोत के रूप में वेद और प्राचीनतम पुरातात्विक स्त्रोत के रूप धम्म' के उल्लेख प्राचीन हैं। किन्तु अर्हत्, श्रमण, जिन आदि शब्द बौद्धों में मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा के अवशेष ही हमारे आधार हैं। संयोग से एवं अन्य श्रमण धाराओं में भी सामान्यरूप से प्रचलित रहे हैं। अत: जैन इन दोनों ही आधारों या साक्ष्यों से भारतीय श्रमण धारा के अति प्राचीन परम्परा की उनसे पृथकता की दृष्टि से पार्श्व के काल में यह धर्म निर्ग्रन्थधर्म काल में भी उपस्थित होने के संकेत मिलते हैं। ऋग्वेद भारतीय साहित्य के नाम से जाना जाता था। जैन आगमों से यह ज्ञात होता है कि ई.पू. का प्राचीनतम ग्रन्थ है। यद्यपि इसकी अति प्राचीनता के अनेक दावे किये पाचवीं शती में श्रमण धारा मुख्य रूप से ५ भागों में विभक्त थीं-१. जाते हैं और मीमांसक दर्शनधारा के विद्वान तो इसे अनादि और निर्ग्रन्थ, २. शाक्य, ३. तापस ४. गैरूक और ५. आजीवकर। वस्तुत: अपौरुषेय भी मानते हैं, फिर भी इतना निश्चित है कि ईस्वी पूर्व १५०० जब श्रमण धारा विभिन्न वर्गों में विभाजित होने लगी तो जैन धारा के वर्ष पहले यह अपने वर्तमान स्वरूप में अस्तित्व में आ चुका था। इस लिए पहले 'निर्ग्रन्थ' और बाद में 'ज्ञातपुत्रीय श्रमण' शब्द का प्रयोग होने प्राचीनतम ग्रन्थ में हमें श्रमण संस्कृति के अस्तित्व के संकेत उपलब्ध लगा। न केवल पाली त्रिपिटक एवं जैन आगमों में अपितु अशोक (ई.पू.होते हैं। वैदिक साहित्य में भारतीय संस्कृति की इन श्रमण और ब्राह्मण ३ शती) के शिलालेखों में भी जैनधर्म का उल्लेख निर्ग्रन्थ धर्म के रूप धाराओं का निर्देश क्रमश: आर्हत और बार्हत धाराओं के रूप में मिलता में ही मिलता है।
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ऋग्वेद में अर्हत् और ऋषभवाची ऋचायें : एक विमर्श
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वस्तुतः पार्श्वनाथ एवं महावीर के युग में प्रचलित धर्म से पूर्व हुआ है। सामान्यतया वैदिक विद्वानों ने इन ऋचाओं में प्रयुक्त अर्हन् सम्पूर्ण श्रमण धारा आर्हत परम्परा के रूप में ही उल्लेखित होती थी और शब्द को पूजनीय के अर्थ में अग्नि, रूद्र आदि वैदिक देवताओं के इसमें न केवल जैन, बौद्ध, आजीवक आदि परम्पराएं सम्मिलित थीं, विशेषण के रूप में ही व्याख्यायित किया है। यह सत्य है कि एक विशेषण अपितु औपनिषदिक-ऋषि परम्परा और सांख्य-योग की दर्शनधारा एवं के रूप में अर्हन् या अर्हत् शब्द का अर्थ पूजनीय होता है, किन्तु ऋग्वेद साधना-परम्परा भी इसी में समाहित थी। यह अलग बात है कि में अर्हन् के अतिरिक्त अर्हन्त शब्द का स्पष्ट स्वतन्त्र प्रयोग यह बताता औपनिषदिक धारा एवं सांख्य-योग परम्परा के बृहद् हिन्दूधर्म में समाहित है कि वस्तुत: वह एक संज्ञा पद भी है और अर्हन्त देव का वाची है। कर लिये जाने एवं बौद्ध तथा आजीवक परम्पराओं के क्रमश: इस देश इस सन्दर्भ में निम्न ऋचाएँ विशेष रूप से द्रष्टव्य हैंसे निष्कासित अथवा मृतपाय: हो जाने पर जैन परम्परा को पुन: पूर्व मध्युग अर्हविषिभर्षि सायकानि धन्वाहन्निष्कं यजतं विश्वरूपम में आर्हत धर्म नाम प्राप्त हो गया। किन्तु यहाँ हम जिस आहेत परम्परा अर्हन्निदं दयसे विश्वमम्बं न वा ओजीयो रुद्र-त्वदस्ति।। की चर्चा कर रहे हैं, वह एक प्राचीन एवं व्यापक परम्परा है। ऋषिभाषित
(२.३३.१०) नामक जैन ग्रन्थ में नारद, असितदेवल, याज्ञवल्क्य, अरुण, उद्दालक, प्रस्तुत ऋचा को रूद्र सूक्त के अन्तर्गत होने के कारण वैदिक अंगिरस, पाराशर आदि अनेक औपनिषदिक ऋषियों का अर्हत् ऋषि के व्याख्याकारों ने यहाँ अर्हन् शब्द को रूद्र का एक विशेषण मानकर इसका रूप में उल्लेख हुआ है। साथ ही सारिपुत्र, महाकाश्यप आदि बौद्ध श्रमणों अर्थ इस प्रकार किया हैएवं मंखलीगोशाल, संजय आदि अन्य श्रमण परम्परा के आचार्यों का हे रूद्र! योग्य तू बाणों और धनुष को धारण करता है। योग्य भी अर्हत् ऋषि के रूप में उल्लेख हुआ है। बौद्ध परम्परा में बुद्ध के तू, पूजा के योग्य और अनेक रूपों वाले सोने को धारण करता है। योग्य साथ-साथ अर्हत् अवस्था को प्राप्त अन्य श्रमणों को अर्हत् कहा जाता तू इस सारे विस्तृत जगत् की रक्षा करता है। हे रूद्र, तुझसे अधिक तेजस्वी था। बद्ध के लिये अर्हत् विशेषण सुप्रचलित था, यथा-नमोतस्स भगवतो और कोई नहीं है। अरहतो सम्मासंबुद्धस्स। इस प्रकार प्राचीन काल में श्रमण धारा अपने जैन दृष्टि में इस ऋचा को निम्न प्रकार से भी व्याख्यायित किया समग्र रूप में आर्हत परम्परा के नाम से ही जानी जाती थी। वैदिक साहित्य जा सकता हैमें और विशेष रूप से ऋग्वेद में आहत व बार्हत धाराओं का उल्लेख हे अर्हन्! तू (संयम रूपी) शस्त्रों (धनुष-बाण) को धारण करता भी इसी तथ्य की पुष्टि करता है। आर्हत धर्म वस्तुत: वहाँ निवृत्तिप्रधान है? और सांसारिक जीवों में प्राण रूप स्वर्ण का त्याग कर देता है? निश्चय सम्पूर्ण श्रमणधारा का ही वाचक हैं। आहत शब्द से ही यह भी स्पष्ट ही तुझसे अधिक बलवान और कठोर और कोई नहीं है। हे अर्हन्! तू हो जाता है कि आर्हत- अर्हतों के उपासक थे और अर्हत् अवस्था विश्व की अर्थात् संसार के प्राणियों की मातृवत् दया करता है। को प्राप्त करना ही अपनी साधना का लक्ष्य मानते थे। बौद्ध ग्रन्थों में प्रस्तुत प्रसंग में अर्हन् की ब्याज रूप से स्तुति की गयी है। बुद्ध के पूर्व वज्जियों के अपने अर्हतों एवं चैत्यों की उपस्थिति के यहाँ शस्त्र धारण करने का तात्पर्य कर्म शत्रुओं या विषय वासनाओं को निर्देश हैं। आर्हतों से भिन्न वैदिक परम्परा ऋग्वैदिक काल में बार्हत पराजित करने के लिए संयम रूपी शस्त्रों को धारण करने से है। जैन परम्परा नाम से जानी जाती थी।
में 'अरिहंत' शब्द की व्याख्या शत्रु का नाश करने वाला, इस रूप में ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ८५ वें सूक्त की चतुर्थ ऋचा में की गई है। आचारांग में साधक को अपनी वासनाओं से युद्ध करने का स्पष्ट रूप से बार्हत शब्द का उल्लेख हुआ है। वह ऋचा इस प्रकार है- निर्देश दिया गया है। इसी प्रकार ब्याज रूप से यह कहा गया है कि आच्छद्विधानैर्गुपितो बाहतैः सोम रक्षितः।
जहाँ सारा संसार स्वर्ण के पीछे भागता है, वहीं, तू इसका त्याग करता प्राव्णामिच्छृण्वन् तिष्ठासि न ते अश्रान्ति पार्थिवः।।
है। यहाँ यजतं शब्द त्याग का वाची माना जा सकता है। अत: तुझसे (ऋग्वेद १०.१८५.१४) अधिक कठोर व समर्थ कौन हो सकता है? प्रस्तुत प्रसंग में 'अर्हन् दयसे अर्थात् हे सोम! तू गुप्त विधि विधानों से रक्षित बार्हत गणों विश्वमम्ब' शब्द अधिक महत्त्वपूर्ण है। इसमें अर्हन् को विश्व के सभी से संरक्षित है। तू (सोमलता के) पीसने वाले पत्थरों का शब्द सुनता ही प्राणियों की दया करने वाला तथा मातृवत् कहा गया है, जो जैन परम्परा रहता है। तुझे पृथ्वी का कोई भी सामान्य जन नहीं खा सकता। का मूल आधार है। इसी प्रकार पंचम मण्डल के बावनवें सूक्त की पाँचवीं
बृहिती वेद को कहते हैं और इस बृहती के उपासक बार्हत ऋचा भी महत्त्वपूर्ण हैकहे जाते थे। इस प्रकार वेदों में वर्णित सोमपान एवं यज्ञ-याग में निष्ठा अर्हन्तो ये सुदानवो नरो असामिशवसः। रखने वाले और उसे ही अपनी धर्म साधना का सर्वस्व मानने वाले लोग प्र यज्ञं यज्ञियेभ्यो दिवो अर्चा मरुद्धयः।। ही बार्हत थे। इनके विपरीत ध्यान और तप साधना को प्रमुख मानने वाले
(ऋग्वेद ५.५२.५) व्यक्ति आर्हत नाम से जाने जाते थे। वैदिक साहित्य में हमें स्पष्ट रूप सायण की व्याख्या के अनसार इस ऋचा का अर्थ इस से अर्हत् को मानने वाले इन आर्हतों के उल्लेख उपलब्ध हैं। ऋग्वेद में प्रकार हैअर्हन् और अर्हन्त शब्दों का प्रयोग नौ ऋचाओं में दस से अधिक बार जो पूज्य, दानशूर, सम्पूर्ण बल से युक्त तथा तेजस्वी द्यौतमान
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ नेता है, उन पूज्य वीर-मरूतों के लिए यज्ञ करो और उनकी पूजा करो। तीर्थंकर ऋषभदेव का वाची मानते हैं। जैन विद्वानों ने ऋषभदेव की चर्चा
हम प्रस्तुत ऋचा की भी जैन दृष्टि से निम्न व्याख्या कर के सन्दर्भ में ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद आदि की अनेक ऋचाएँ प्रस्तुत सकते हैं
भी की हैं और उनका जैन संस्कृति अनुसारी अर्थ करने का भी प्रयत्न जो दानवीर, तेजस्वी, सम्पूर्ण वीर्य से युक्त, नर श्रेष्ठ किया है। प्रस्तुत निबन्ध में मैंने भी एक ऐसा ही प्रयत्न किया है। किन्तु अर्हन्त हैं, वे याज्ञिकों के लिए यजन के और मरुतों के लिए अर्चना ऐसा दावा मैं नही करता हूँ कि यही एक मात्र विकल्प है। मेरा कथ्य मात्र के विषय हैं।
यह है कि उन ऋचाओं के अनेक सम्भावित अर्थों में यह भी एक अर्थ इसी प्रकार से अर्हन् शब्द वाची अन्य ऋचाओं की भी जैन हो सकता है, इससे अधिक सुनिश्चित रूप में कुछ नहीं कहा जा सकता दृष्टि से व्याख्या की जा सकती है। वैदिक ऋचाओं की व्याख्याओं के है। ऋग्वेद में प्रयुक्त शब्द के अर्थ के सन्दर्भ में हमें पर्याप्त सतर्कता एवं साथ कठिनाई यह है कि उनकी शब्दानुसारी सरल व्याख्या सम्भव नहीं सावधानी बरतनी होगी, क्योंकि जहाँ तक वैदिक ऋचाओं का प्रश्न है होती है, लक्षणा प्रधान व्याख्या ही करनी होती है। अत: उन्हें अनेक उनका अर्थ करना एक कठिन कार्य है। अधिक क्या कहें, सायण जैसे द्रष्टियों से व्याख्यायित किया जा सकता है।
भाष्यकारों ने भी ऋग्वेद के १० वें मण्डल के १०६ वें सूक्त के ग्यारह ऋग्वेद में न केवल सामान्य रूप से श्रमण परम्परा और विशेष मन्त्रों की व्याख्या करने में असमर्थता प्रकट की है। मात्र इतना ही नहीं, रूप से जैन परम्परा से सम्बन्धित अर्हन, अर्हन्त, व्रात्य, वातरशनामुनि, कुछ अन्य मन्त्रों के सम्बन्ध में स्पष्ट लिखा है कि इन मन्त्रों से कुछ भी श्रमण आदि शब्दों का उल्लेख मिलता है, अपितु उसमें आर्हत परम्परा अर्थ बोध नहीं होता है। कठिनाई यह है कि सायण एवं महिधर के भाष्यों के उपास्य वृषभ का भी शताधिक बार उल्लेख हुआ है। मुझे ऋग्वेद में और ऋग्वेद के रचना काल में पर्याप्त अन्तर है। जो ग्रन्थ ईसा से १५०० वृषभ वाची ११२ ऋचाएँ उपलब्ध हुई हैं। सम्भवत: कुछ और ऋचाएँ वर्ष पूर्व कभी बना हो, उसका ईसा की १५ वीं शती में अर्थ करना कठिन भी मिल सकती हैं। यद्यपि यह कहना कठिन है कि इन समस्त ऋचाओं कार्य है क्योंकि इसमें न केवल भाषा की कठिनाई होती है, अपितु शब्दों में प्रयुक्त 'बृषभ' शब्द ऋषभदेव का ही वाची है। फिर भी कुछ ऋचाएँ के रूढ़ अर्थ भी पर्याप्त रूप से बदल चुके होते हैं। वस्तुत: वैदिक ऋचाओं तो अवश्य ही ऋषभदेव से सम्बन्धित मानी सकती हैं। डॉ. राधाकृष्णन, को उनके भौगोलिक व सामाजिक परिप्रेक्ष्य में समझे बिना उनका जो प्रो. जीमर, प्रो. वीरपाक्ष वाडियर आदि कुछ जैनेतर विद्वान भी इस मत अर्थ किया जाता है, वह ऋचाओं में प्रकट मूल भावों के कितना निकट के प्रतिपादक हैं कि ऋग्वेद में जैनों के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव से होगा, यह कहना कठिन है। स्कन्दस्वामी, सायण एवं महिधर के बाद सम्बन्धित निर्देश उपलब्ध होते हैं१°। आर्हत धारा के आदि पुरुष के रूप स्वामी दयानन्द सरस्वती ने वैदिक मन्त्रों की अपनी दृष्टि से व्याख्या में ऋषभ का नाम सामान्य रूप से स्वीकृत रहा है, क्योंकि हिन्दू पुराणों करने का प्रयत्न किया है। यदि हम सायण और दयानन्द की व्याख्याओं एवं बौद्ध ग्रन्थों से भी इसकी पुष्टि होती है। जैनों ने उन्हें अपना आदि को देखें, तो यह स्पष्ट होता है कि सायण एवं दयानन्द की व्याख्याओं तीर्थकर माना है। इतना सुनिश्चित है कि ऋषभदेव भारतीय संस्कृति की में बहुत अन्तर है। ऋग्वेद में जिन-जिन ऋचाओं में वृषभ शब्द आया निवृत्तिप्रधान धारा के प्रथम पुरुष हैं। हिन्दू परम्परा में जो अवतारों की है, वे सभी ऋचाएँ ऐसी हैं कि उन्हें अनेक दृष्टियों से व्याख्यायित चर्चा है, उसमें ऋषभ का क्रम ८वाँ है, किन्तु यदि मानवीय रूप में अवतार किया जा सकता है। की दृष्टि से विचार करें तो लगता है कि वे ही प्रथम मानवावतार थे। यद्यपि मूल समस्या तो यह है कि वैदिक ऋचाओं का शब्दिक अर्थ ऋषभ की अवतार रूप में स्वीकृति हमें सर्वप्रथम पुराण साहित्य में ग्रहण करें या लाक्षणिक अर्थ। जहाँ तक वृषभ सम्बन्धी ऋचाओं के अर्थ विशेषत: भागवत पुराण में मिलती है जो कि परवर्ती ग्रन्थ है। किन्तु इतना का प्रश्न है, मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि उनका शब्दानुसारी अर्थ निश्चित है कि श्रीमद्भागवत में श्रषभ का जिस रूप में प्रस्तुतिकरण है, करने पर न तो जैन मन्तव्य की पुष्टि होती है और न आर्यसमाज के मन्तव्यों वह उन्हें निवृत्तिप्रधान श्रमण संस्कृति का आदि पुरुष सिद्ध करता है११॥ की पुष्टि होगी, न ही उनसे किसी विशिष्ट दार्शनिक चिन्तन का अवबोध श्रीमद्भागवत पुराण के अतिरिक्त लिंगपुराण, शिवपुरण, आग्नेयपुराण, होता है। यद्यपि वैदिक मन्त्रों के अर्थ के लिए सर्वप्रथम यास्क ने एक ब्रह्मांडपुराण, विष्णुपुराण, कूर्मपुराण, वराहपुराण और स्कन्ध पुराण में प्रयत्न किया था किन्तु उसके निरुक्त में ही यह भी स्पष्ट रूप से उल्लिखित भी ऋषभ का उल्लेख एक धर्म प्रवर्तक के रूप में हुआ है,१२ यद्यपि है कि उस समय भी कोत्स आदि आचार्य ऐसे थे, जो मानते थे कि वेदों प्रस्तुत निबन्ध में हम ऋग्वेद में उपलब्ध वृषभ वाची ऋचाओं की ही चर्चा के मन्त्र निरर्थक हैं१८। यद्यपि हम इस मत से सहमत नहीं हो सकते। तक अपने को सीमित करेंगे।
वस्तुत: वैदिक मन्त्र एक सहज स्वाभाविक मानवीय भावनाओं की ऋग्वेद में 'वृषभ' शब्द का प्रयोग किन-किन सन्दर्भो में हुआ अभिव्यक्ति हैं किन्तु ऐसा मानने पर वेदों के प्रति जिस आदर भाव या है, यह अभी भी एक गहन शोध का विषय है। जहाँ एक ओर अधिकांश उनकी महत्ता की बात है वह क्षीण हो जाती है। यही कारण है कि स्वामी वैदिक विद्वान व भाष्यकार ऋग्वेद में प्रयुक्त वृषभ (ऋषभ) शब्द का अर्थ दयानन्द आदि ने वेदों में रहस्यात्मकता व लाक्षणिकता को प्रमुख माना बैल१३, बलवान१४, उत्तम् श्रेष्ठ १५ वर्षा करने वाला१६, कामनाओं की और उसी आधार पर मन्त्रों की व्याख्यायें की। अत: सबसे प्रथम यह पूर्ति करने वाला१७ आदि करते हैं, वहीं जैन विद्वान उसे अपने प्रथम विचारणीय है कि क्या वेद मन्त्रों की व्याख्या उन्हें रहस्यात्मक व लाक्षणिक
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ऋग्वेद में अर्हत और ऋषभवाची ऋचायें : एक विमर्श
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मानकर की जाय अथवा नहीं। क्योंकि यदि हम ऋग्वेद में प्रयुक्त वृषभ जा सकते हैं। दयानन्द ने उसकी लाक्षणिकता को स्पष्ट करते हुए-ईश्वर शब्द को ऋषभदेव के अर्थ मे ग्रहण करना चाहते हैं, तो हमारे मत की का प्रकाश फैला है ऐसा भावार्थ किया है। लेकिन यहाँ हमें यह भी ध्यान पुष्टि रहस्यात्मक एवं लाक्षणिक व्याख्यायों द्वारा ही सम्भव है। शब्दानुसारी रखना होगा कि भारतीय चिन्तन में ईश्वर की अवधारणा एक परवर्ती सामान्य अर्थ की दृष्टि से ऐसी पुष्टि सम्भव नहीं है।
विकास है। ऋत की अवधारणा प्राचीन है और उसका अर्थ सत्य या सबसे पहले हम इसी प्रश्न पर विचार करें कि क्या वैदिक व्यवस्था है। ऋचाओं का लाक्षणिक व रहस्यात्मक अर्थ किया जाना चाहिए। यह भी प्रस्तुत प्रसंग में इस ऋचा को वृषभ से सम्बन्धित मानते हैं स्पष्ट है कि अनेक वैदिक ऋचाएँ व मन्त्र अपने शब्दानुसारी अर्थ में बहुत तो इसका अर्थ इस प्रकार होगा-जिस प्रकार तरुण गाय से उत्पन्न वृषभ ही साधारण से लगते हैं जबकि उनका लाक्षणिक अर्थ अत्यन्त ही गम्भीर गौ समूह के बीच अपनी ध्वनि से सुशोभित होता है, उसी प्रकार ऋषभ होता है। वैदिक ऋचाएँ लाक्षणिक व रहस्यात्मक अर्थ की वाचक हैं यह के केवल ज्ञान से उत्पन्न सम्यक् वाणी से सत्य की सभा सुशोभित होती समझने के लिए पहले हमें औपनिषदिक साहित्य पर भी इस दृष्टि से है। वह (ऋषभदेव) समवसरण में ऊपर आसीन होकर जिस वाणी का विचार करना होगा क्योंकि अनेक उपनिषद् वेदों में समाहित हैं। उद्घोष करते हैं, वह अपने तीव्र रव शब्द ध्वनि के द्वारा इस समस्त लोक श्वेताश्वतरोपनिषद् में निम्न श्लोक पाया जाता है
को व्याप्त करती है। इस प्रकार उपर्युक्त ऋचा का जैन दृष्टि से जो लाक्षणिक अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वी प्रजाः सृज्यमानां सरूपाः। अर्थ किया जाता है, वह अधिक समीचीन प्रतीत होता है। इसी प्रसंग अजोह्येको जुषमाणोऽनुशेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः।। में ऋग्वेद के चतुर्थ मण्डल के ५८ वें सूक्त की तीसरी ऋचा, जो वृषभ
यदि हम श्वेताश्वतरोपनिषद् के इस श्लोक का शब्दानुसारी यह से सम्बन्धित है, के अर्थ पर भी विचार करें। यह ऋचा इस प्रकार हैअर्थ करते हैं कि एक काले, लाल व सफेद रंग की बकरी है, जो अपने चत्वारि शृङगा त्रयो अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्तहस्तासो अस्य। समान ही संतान को जन्म देती है। एक बकरा उसका भोग कर रहा है, त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो मां आ विवेश।। जबकि दूसरे ने उसका भोग करके परित्याग कर दिया है। इस अर्थ की
(४.५८.३) दृष्टि से यह श्लोक एक सामान्य पशु की प्राकृतिक स्थिति का चित्रण इस ऋचा का शब्दानुसारी सामान्य अर्थ इस प्रकार हैमात्र है, लेकिन हम इसके पूर्वापर सम्बन्ध को देखें तो स्पष्ट हो जाता इस वृषभ अथवा देव के चार सींग, तीन पैर, दो सिर और है कि औपनिषदिक ऋषि का यह कथन केवल एक पशु का चित्रण नहीं इसके सात हाथ हैं। यह वृषभ या बलवान देव तीन स्थानों पर बंधा हुआ है, अपित एक रूपक है, जिसके लाक्षणिक अर्थ के आधार पर वह प्रकृति शब्द करता है, यह महान देव मनुष्यों में प्रविष्ट हैं २१। इस शब्दानुसारी की त्रिगुणात्मकता के साथ उसके द्वारा सृष्ट पदार्थों के त्रिगुणात्मक स्वरूप अर्थ के आधार पर- न तो इसमें वृषभ (बैल) का यथार्थ प्राकृतिक स्वरूप को स्पष्ट करना चाहता है। यह तथ्य इस बात का प्रमाण है कि वेदों की का चित्रण है- यह कहा जा सकता है और न किसी अन्य अर्थ का स्पष्ट ऋचाएँ एवं औपनिषदिक श्लोक मात्र सामान्य अर्थ के सूचक नहीं हैं। बोध होता है। अत: स्वाभाविक रूप से इसके लाक्षणिक अर्थ की ओर उनमें अनेक स्थानों पर रूपकों के माध्यम से दार्शनिक रहस्यों के उद्घाटन जाना होता है। का प्रयत्न किया गया है। इस सन्दर्भ में हम ऋग्वेद की ही दसवें मण्डल दयानन्द सरस्वती इसका लाक्षणिक अर्थ इस प्रकार करते हैंकी एक ऋचा लेते हैं
हे मनुष्यों! जो बड़ा सेवा और आदर करने योग्य स्वप्रकाश ऋतस्य हि सदसो धीतिरद्यौत्सं गार्टेयो वृषभो गोभिरानट स्वरूप और सब को सुख देने वाला मरणधर्म वाले मनुष्य आदि को सब उदतिष्ठत्तविषेणा रवेण महान्ति चित्सं विव्याचा रजांसि।। प्रकार से व्याप्त होता है और जो सुखों को वर्षाने वाला तीन श्रद्धा, पुरुषार्थ
(१०.१११.२) और योगाभ्यास से बंधा हुआ विस्तृत उपदेश देता है। इस धर्म से युक्त इस ऋचा के शाब्दिक अर्थ के अनुसार इसके द्वितीय चरण नित्य और नैमित्तिक परमात्मा के बोध के दो उन्नति और मोक्ष रूप शिर का अर्थ होगा तरुण गाय से उत्पन्न वृषभ रंभाता हुआ गौओं के साथ स्थानापन्न तीन अर्थात् कर्म, उपासना और ज्ञान रूप चलने योग्य पैर और मिलता है, किन्तु मात्र इतना अर्थ करने पर ऋचा का भाव स्पष्ट नही चार वेद श्रृगों के सदृश आप लोगों को जानने योग्य हैं और इस धर्म होता है। इसके पूर्व ऋतस्य ही सदसो धीतिरद्यौत्सं इस पूर्वचरण को भी व्यवहार के पाँच ज्ञानेन्द्रिय वा पाँच कर्मेन्द्रिय अन्त:करण और आत्मा लेना होता है। इस चरण का अर्थ भी सायण और दयानन्द ने अलग- ये सात हाथों के सदृश वर्तमान हैं, और उक्त तीन प्रकार से बधाँ हुआ अलग ढंग से किया है, किन्तु वे अर्थ भी लाक्षणिक ही हैं। जहाँ दयानन्द व्यवहार भी जानने योग्य है २२। किन्तु यदि इस उपर्युक्त ऋचा का अर्थ 'ऋतस्य ही सदसोधीतिरद्यौत' का अर्थ ऋत की सभा की धारणा शक्ति जैन दृष्टि से करें तो तीन योगों अर्थात् मन, वचन व काय से बद्ध या प्रकाशित हो रही है- ऐसा अर्थ करते है१९, वहीं सायण भाष्य पर युक्त ऋषभ देव ने यह उद्घोषणा की कि महादेव अर्थात् परमात्मा मृत्यों आधारित होकर सातवेलकर इसका अर्थ जल स्थान का अर्थात् अन्तरिक्ष में ही निवास करता है, उसके अनन्त चतुष्टय रूप अर्थात् अनन्त ज्ञान, का धारक यह इन्द्र प्रकाशता है, ऐसा अर्थ करते हैं२०, किन्तु ये दोनों अनन्त दर्शन, अनन्त सुख व अनन्त वीर्य ऐसे चार श्रङ्ग हैं और सम्यक ही अर्थ न तो पूर्णत: शब्दानुसारी हैं और न पूर्णत: लाक्षणिक ही कहे दर्शन, ज्ञान व चारित्र रूप तीन पाद हैं। उस परमात्मा के ज्ञान उपयोग
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व दर्शन उपयोग ऐसे दो शीर्ष हैं तथा पाँच इन्द्रियां, मन व बुद्धि ऐसे सात हाथ हैं। शृङ्ग आत्मा के सर्वोत्तम दशा के सूचक है जो साधना की पूर्णता पर अनन्त चतुष्टय के रूप में प्रकट होते हैं और पाद उस साधना मार्ग के सूचक हैं जिसके माध्यम से उस सर्वोत्तम आत्म अवस्था को प्राप्त किया जा सकता है। सप्त हस्त ज्ञान प्राप्त के सात साधनों को सूचित करते हैं। ऋषभ को त्रिधाबद्ध कहने का तात्पर्य यह है कि वह मन-वचन एवं काय योगों की उपस्थिति के कारण ही संसार में है। बद्ध का अर्थ संयत या नियन्त्रित करने पर मन, वचन, व काय से संगत ऐसा अर्थ भी किया जा सकता है।
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
इस प्रकार से हम देखते हैं कि यहां जैन दृष्टि से किया लाक्षणिक अर्थ उतना ही समीचीन है, जितना स्वामी दयानन्द का लाक्षणिक अर्थ इतना अवश्य सत्य है कि इस ऋचा का कोई भी शब्दानुसारी अर्थ इसके अर्थ को अभिव्यक्त नहीं कर सकता है। अतः हमें मानना होगा कि वैदिक ऋचाओं के अर्थ को समझने के लिए इनकी लाक्षणिकता को स्वीकार किये बिना अन्य कोई विकल्प नहीं है।
सायण आदि वेदों के भाष्यकारों ने सामान्य रूप में 'वृषभ' शब्द की व्याख्या एक विशेषण के रूप में की है और उसके प्रसंगानुसार बलवान, श्रेष्ठ, वर्षा करने वाला, कामनाओं की पूर्ति करने वाला ऐसा अर्थ किया है। वे वृषभ को इन्द्र, अग्नि, रूद्र आदि वैदिक देवताओं का एक विशेषण मानते हैं एवं इसी रूप में उसे व्याख्यायित भी करते हैं चाहे वृषभ का अर्थ बलवान या श्रेष्ठ करें अथवा उसे वर्षा करने वाला या कामनाओं की पूर्ति करने वाला कहें, वह एक विशेषण के रूप में ही गृहीत होता है। यह सत्य है कि अनेक प्रसंगों में वृषभ शब्द की व्याख्या एक विशेषण के रूप में की जा सकती है। स्वयं जैन एवं बौद्ध परम्पराओं में भी वृषभ शब्द का प्रयोग एक विशेषण के रूप में हुआ है। बौद्ध ग्रन्थ धम्मपद के अन्त में एक गाथा में वृषभ शब्द का प्रयोग विशेषण के रूप हुआ है वह गाथा निम्नानुसार हैउसभं पवरं वीरं महेसिं विजिताविनं।
में
अजं नहातकं बुद्धं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।।
(धम्मपद, २६.१.४०) अतः इस सम्बन्ध में कोई आपत्ति नहीं की जा सकती है कि वृषभ शब्द का प्रयोग विशेषण के रूप में नहीं हो सकता, किन्तु यह भी नहीं कहा जा सकता कि वृषभ शब्द सर्वत्र विशेषण के रूप में ही प्रयुक्त होता है। 'वृषभ' शब्द का प्रयोग साहित्य के क्षेत्र में विशेषण पद व संज्ञा पद दोनों रूपों में ही पाया जाता है।
ऋग्वेद में ही अनेक ऐसे स्थल हैं जहाँ वैदिक विद्वानों ने 'वृषभ' शब्द का प्रयोग विशेषण के रूप में माना है। जैसे
१. त्वं अग्ने वृषभ : (१/३१/५)
२. वृषभ: इन्द्रो (१/३३ / १०)
३. त्वं अग्ने इन्द्रो वृषभ: (२/१/३)
हैं, किन्तु प्रश्न यह है कि क्या 'वृषभ' शब्द को सदैव ही एक विशेषण माना जाय ।
यह ठीक है कि इन्द्र वर्षा का देवता है उसे श्रेष्ठ या बलवान माना गया है। अतः उसका विशेषण वृषभ हो सकता है किन्तु इसके विपरीत इन्द्र शब्द को भी वृषभ का विशेषण माना जा सकता है। जैन परम्परा में ऋषभ आदि तीर्थंकरों के लिए जिनेन्द्र विशेषण प्रसिद्ध ही है । अथर्ववेद (९.९.७) में इन्द्रस्य रूपं ऋषभो कहकर दोनों को पर्यायवाची बना दिया गया है। इन्द्र का अर्थ ऐश्वर्य का धारक ऐसा भी होता है। इस रूप में वह वृषभ का विशेषण भी बन सकता है। जिस प्रकार वृषभ को इन्द्र, अग्नि, रुद्र, बृहस्पति आदि का विशेषण माना गया है उसी प्रकार व्याख्या को परिवर्तित करके इन्द्र, रुद्र, अग्नि और बृहस्पति को वृषभ का विशेषण भी माना जा सकता है।
यहाँ वृषभ आप इन्द्र या जिनेन्द्र हैं-ऐसी व्याख्या भी बहुत असंगत नहीं कही जा सकती है कुछ जैन विद्वानों की ऐसी मान्यता भी है कि वेदों में 'जात - वेदस' शब्द जो अग्नि के लिए प्रयुक्त हुआ है वह जन्म से त्रिज्ञान सम्पन्न ज्योति स्वरूप भगवान ऋषभदेव के लिए ही है। वे यह मानते हैं कि "रत्नधरक्त”, “विश्ववेदस”, “जातवेदस” आदि शब्द जो वेदों में अग्नि के विशेषण हैं वे रत्नत्रय से युक्त विश्व तत्त्वों के ज्ञाता सर्वज्ञ ऋषभ के लिए भी प्रयुक्त हो सकते हैं । इतना निश्चित है कि ये शब्द सामान्य प्राकृतिक अग्नि के विशेषण तो नहीं माने जा सकते हैं। चाहे उन्हें अग्निदेव का वाची माना जाय या ऋषभदेव का, वे किसी दैवीय शक्ति के ही विशेषण हो सकते हैं। जैन विद्वानों का यह भी कहना है कि अग्नि देव के रूप में ऋषभ की स्तुति का एक मात्र हेतु यही दृष्टिगत होता है ऋषभदेव स्थूल व सूक्ष्म शरीर से परिनिवृत्त होकर सिद्ध, बुद्ध व मुक्त हुए उस समय उनके परम प्रशान्त को आत्मसात करने वाली अग्नि ही तत्कालीन जनमानस के लिए स्मृति का विषय रह गयी और जनता अग्नि दर्शन से ही अपने आराध्य देव का स्मरण करने लगी। (देवेन्द्रमुनी शास्त्री: ऋषभदेव एक परिशीलन, पृ.४३)
जैन विद्वानों के इस चिन्तन में कितनी सार्थकता है यह एक स्वतन्त्र चर्चा का विषय है, यहाँ में उसमें उतरना नहीं चाहता हूँ, किन्तु यह बताना चाहता हूँ कि विशेषण एवं विशेष्य के रूप में प्रयुक्त दोनों शब्दों में यदि संज्ञा रूप में प्रयुक्त होने की सामर्थ्य है तो उनमें किसे विशेषण और किसे विशेष्य माना जाय यह व्याख्याकार की अपनी-अपनी दृष्टि पर ही आधारित होगा। साथ ही दोनों को पर्यायवाची भी माना जा सकता है।
ऋग्वेद में रुद्र की स्तुति के सन्दर्भ में भी वृषभ शब्द का प्रयोग हुआ है। स्वयं ऋग्वेद में ही एक ओर रुद्र को उग्र एवं शस्त्रों को धारण करने वाला कहा गया, वहीं दूसरी ओर उसे विश्व प्राणियों के प्रति दयावान और मातृवत् भी कहा गया है (२/३३/१)। इस ऋचा की चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं। एक ही व्यक्ति कठोर व कोमल दोनों हो सकता है। ऋषभ
के सन्दर्भ में यह कहा जाता है कि ये तप की कठोर साधना करते थे।
४. वृषभं.... इन्द्रं (३/४७/५)
इस प्रकार के और भी अनेक सन्दर्भ उपस्थित किए जा सकते अतः वह रुद्र भी थे। वैदिक साहित्य में रुद्र, सर्व, पाशुपति, ईश, महेश्वर,
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ऋग्वेद में अर्हत् और ऋषभवाची ऋचायें : एक विमर्श
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शिव, शंकर आदि पर्यायवाची रूप में प्रयुक्त हुए हैं। जैन दृष्टि से इन्हें सातवीं ऋचा (७.५५.७) में यह कहा गया है कि सहस्त्र श्रृङ्ग वाला वृषभ वृषभ का विशेषण भी माना गया है। अत: किसे किसका विशेषण माना समुद्र से ऊपर आया। यद्यपि वैदिक विद्वान् इस ऋचा की व्याख्या में वृषभ जाय, यह निर्धारण सहज नहीं है। ऋग्वेद में जो रुद्र की स्तुति है उसमें का अर्थ सूर्य करते हैं, वे वृषभ का सूर्य अर्थ इस आधार पर लगाते हैं ५ बार वृषभ शब्द का और ३ बार अर्हन् शब्द का उल्लेख हुआ है। मात्र कि वृषभ शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है जो वर्षा का कारण होता है, इतना ही नहीं, रुद्र को अर्हन् शब्द से भी सम्बोधित किया गया है। इतना वह वृषभ है। क्योंकि सूर्य वृष्टि का कारण है, अत: वृषभ का एक अर्थ तो निश्चित है कि अर्हन् विशेषण ऋषभदेव के लिए ही अधिक समीचीन सूर्य भी हो सकता है। सहस्र श्रृङ्ग का अर्थ भी वे सूर्य की हजारों किरणों है क्योंकि यह मान्य तथ्य है कि उनके द्वारा प्रवर्तित धर्म आर्हत धर्म है। से करते हैं, किन्तु जैन दृष्टि से इसका अर्थ यह भी किया जा सकता अत: ऋग्वेद में रुद्र की जो स्तुति प्राप्त होती है उसमें यदि रुद्र को वृषभ है कि ज्ञान रूपी सहस्त्रों किरणों से मण्डित ऋषभदेव समुद्रतट पर आये। माना जाय तो वह वृषभ की स्तुति के रूप में भी व्याख्यायित हो सकती इसी ऋचा की अगली पंक्ति का शब्दार्थ इस प्रकार है- उस की सहायता है। यद्यपि मैं इसे एक सम्भावित व्याख्या से अधिक नहीं मानता हूँ। इस से हम मनुष्यों को सुला देते हैं, किन्तु सूर्य की सहायता से मनुष्यों को सम्बन्ध में पूर्ण सुनिश्चितता का दावा करना मिथ्या होगा।
कैसे सुलाया जा सकता है यह बात सामान्य बुद्धि की समझ में नहीं आती। ऋग्वेद में वृषभ शब्द का बृहस्पति के विशेषण के रूप में भी फिर भी सहस्त्र श्रृङ्ग की व्याख्या तो लाक्षणिक दृष्टि से ही करना होगा। माना गया है। यहाँ भी यही समस्या है। हम बृहस्पति को भी वृषभ का वृषभ शब्द बैल का वाची भी है और ऋग्वेद में बैल के क्रियाकलापों विशेषण बना सकते हैं क्योंकि ऋषभ को परमज्ञानी माना गया है। इस की अग्नि, इन्द्र आदि से तुलना भी की गई है जैसे ८वें मण्डल में शिशानो प्रकार हम देखते हैं कि वृषभ शब्द इन्द्र, अग्नि, रुद्र अथवा बृहस्पति वृषभो यथाग्निः श्रृङ्ग दविध्वत, (८.६८.१३) में हम देखते हैं कि अग्नि का विशेषण माना जाय या इन शब्दों को वृषभ का विशेषण माना जाय, की तुलना वृषभ से की गयी है और कहा गया है कि जैसे वृषभ अपने इस समस्या का सम्यक् समाधान इतना ही हो सकता है कि इन व्याख्याओं सीगों से प्रहार करते समय अपने सिर को हिलाता है उसी प्रकार अग्नि में दृष्टिभेद ही प्रमुख है। दोनों व्याख्याओं में किसी को भी हम पूर्णतः भी अपनी ज्वालाओं को हिलाता है। असंगत नहीं कह सकते। किन्तु यदि जैन दृष्टि से विचार करें तो हमें मानना इसी प्रकार की अन्य ऋचायें भी हैं- वृषभो न तिग्मश्रृंगोऽन्त!थेषु होगा कि रुद्र, इन्द्र, अग्नि आदि ऋषभ के विशेषण हैं।
रोरुवत- (१०.८६.१५) तीक्ष्ण सींग वाले वृषभ के समान जो अपने ऋग्वेद में हमें एक सबसे महत्त्वपूर्ण सूचना यह मिलती है कि समूह में शब्द करता है। इसका जैन दृष्टि से लाक्षणिक अर्थ यह भी हो अनेक सन्दर्भो में वृषभ का एक विशेषण मरुत्वान् आया है (वृषभों सकता है कि तीक्ष्ण प्रज्ञा वाले ऋषभ देव अपने समूह अर्थात् चतुर्विध मरुत्वान् (२.३३.६))। जैन परम्परा में ऋषभ को मरुदेवी का पुत्र माना संघ या परिषद में उपदेश देते हैं और हे इन्द्र! तुम भी उन पर मंथन गया है, अत: उनके साथ यह विशेषण समुचित प्रतीत होता है। या चिन्तन करो। ज्ञातव्य है इस ऋचा में 'न' शब्द समानता या तुलना
ऋग्वेद में वृषभ सम्बन्धी ऋचाओं की व्याख्या के सम्बन्ध में का वाची है। इसी प्रकार 'आशुः शिसानो वृषभो न' (१०.१०३.१) में यह भी स्पष्ट है कि अनेक प्रसंगों में उनकी लाक्षणिक व्याख्या के अतिरिक्त भी तुलना है। अन्य कोई विकल्प नहीं रहता है।
इस प्रकार ऋग्वेद में वृषभ शब्द तुलना की दृष्टि से बैल के ऋग्वेद के चतुर्थ मण्डल के अट्ठावनवें सूक्त की तीसरी ऋचा अर्थ में भी अनेक स्थलों में प्रयुक्त हुआ है। में वृषभ को चार सीगों, तीन पादा या पावों, दो शीर्ष, सात हस्त एवं उपर्युक्त समस्त चर्चाओं के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर तीन प्रकार से बद्ध कहा गया है। यह ऋचा स्पष्ट रूप से ऋषभ को समर्पित पहुचते हैं कि ऋग्वेद में जिन-जिन स्थानों पर वृषभ शब्द का प्रयोग हुआ है। इसमें ऋषभ को मृत्यों में उपस्थित या प्रविष्ठ महादेव कहा गया है। है उन सभी स्थलों की व्याख्या वृषभ को 'ऋषभ' मानकर नहीं की जा इस ऋचा की कठिनाई यह है कि इसे किसी भी स्थिति में अपने सकती है। मात्र कुछ स्थल हैं जहाँ पर ऋग्वेद में प्रयुक्त वृषभ की व्याख्या शब्दानुसारी सहज अर्थ द्वारा व्याख्यायित नहीं किया जा सकता क्योंकि ऋषभ के सन्दर्भ में की जा सकती है। इनमें भी सम्पूर्ण ऋचा को न तो वृषभ के चार सींग होते हैं, न तीन पाद, न दो शिर होते हैं, न व्याख्यायित करने के लिये लाक्षणिक अर्थ का ही ग्रहण करना होगा। ही सात हाथ होते हैं, चाहे हम किसी भी परम्परा की दृष्टि से इस ऋचा अधिक से अधिक हम यह कह सकते हैं कि ऋग्वैदिक काल में वृषभ की व्याख्या करें, लाक्षणिक रूप. में ही करना होगा। ऐसी स्थिति में इस एक उपास्य या स्तुत्य ऋषि के रूप में गृहीत थे। ऋचा को जहाँ दयानन्द सरस्वती आदि वैदिक परम्परा के विद्धानों ने हिन्दू पुन: ऋग्वेद में वृषभ का रुद्र, इन्द्र, अग्नि आदि के साथ जो परम्परानुसार व्याख्यायित करने का प्रयत्न किया, वही जैन विद्वानों ने समीकरण किया गया है वह इतना अवश्य बताता है कि यह समीकरण इसे जैन दृष्टि से व्याख्यायित किया। जब सहज शब्दानुसारी अर्थ संभव परवर्ती काल में प्रचलित रहा। ६ठी शती से लेकर १०वीं शती के जैन नहीं है तब लाक्षणिक अर्थ के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प भी शेष नहीं साहित्य में जहाँ ऋषभ की स्तुति या उसके पर्यायवाची नामों का उल्लेख
है उनमें ऋषभ की स्तुति इसी रूप में की गयी। ऋषभ के शिव, परमेश्वर, इसी प्रकार ऋग्वेद के ७वें मण्डल के पच्चावनवें सूक्त की शंकर, विधाता आदि नामों की चर्चा हमें जैन परम्परा के प्रसिद्ध भक्तामर
रहता।
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स्तोत्र में भी मिलती है।
ऋग्वेद में उपलब्ध कुछ ऋचाओं की जैन दृष्टि से ऋषभदेव के प्रसंग में व्याख्या करने का हमने प्रयत्न किया है। विद्वानों से यह अपेक्षा है कि वे इन ऋचाओं के अर्थ को देखें और निश्चित करें कि इस प्रयास की कितनी सार्थकता है। यद्यपि मैं स्वयं इस तथ्य से सहमत हूँ कि इन ऋचाओं का यही एक मात्र अर्थ है ऐसा दावा नहीं किया जा सकता। अग्रिम पंक्तियों में कुछ ऋचाओं का जैन दृष्टिपरक अर्थ प्रस्तुत है। मेरी व्यस्तताओं के कारण वृषभवाची सभी ११२ ऋचाओं का अर्थ तो नहीं कर पाया हूँ, मात्र दृष्टि-बोध के लिये कुछ ऋचाओं की व्याख्या प्रस्तुत है। इस व्याख्या के सम्बन्ध में भी मात्र इतना ही कहा जा सकता है कि इन ऋचाओं के जो विभिन्न लाक्षणिक अर्थ सम्भव हैं उनमें एक अर्थ यह भी हो सकता है। इससे अधिक मेरा कोई दावा नहीं है।
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
ऋषभ वाची ऋग्वैदिक ऋचाओं की जैन दृष्टि से व्याख्या असृग्रमिन्द्र ते गिरः प्रति त्वामुदहासत । अजोषा वृषभं पतिम |
(१.९.४)
हे इन्द्र ! (अजोषा ) जिन्होंने स्त्री का त्याग कर दिया है, उन ऋषभ (पतिम्) स्वामी के प्रति आपकी जो अनेक प्रकार की वाणी (स्तुति) है, वह आपकी (भावनाओं) को उत्तमता पूर्वक अभिव्यक्त करती है। ( ज्ञातव्य है कि जैन परम्परा में इन्द्र ही सर्वप्रथम जिन की स्तुति करता है शक्रस्तव (नमोत्गुणं) का पाठ जैनों में सर्व प्रसिद्ध है) त्वमग्ने वृषभः पुष्टिवर्धन उद्यतचे भवसि श्रवाय्यः । य आहुतिं परि वेदा वषट्कृतिमेकायुग्ने विश अविवाससि ।।
( १.३१.५)
हे ज्योतिस्वरूप वृषभ ! आप पुष्टि करने वाले हैं जो लोग होम करने के लिए तत्पर हैं उनके लिए स्वयं आकर आप सुनने योग्य हैं अर्थात् उन्हें आहूत होकर आपके विचारों को जानना चाहिए आप का उपदेश जानने योग्य है क्योंकि उसके आधार पर उत्तम क्रियायें की जा सकती हैं। आप एका अर्थात् चरम शरीरी हैं और तीर्थंकरों में प्रथम या अग्र हैं और प्रजा आप में ही निवास करती है अर्थात् आप की ही आज्ञा का अनुसरण करती है।
(ज्ञातव्य है - वैदिक दृष्टि से अग्नि के लिये एकायु एवं अग्र विशेषण का प्रयोग उतना समीचीन नहीं है जितना भ तीर्थंकर के साथ है। उन्हें का कहने का तात्पर्य यह है कि जिनका यही अन्तिम जीवन है। दूसरे प्रथम तीर्थकर होने से उनके साथ अग्र विशेषण भी उपयुक्त है
न ये दिवः पृथिव्या अन्तमापुर्न मायाभिर्धनदां पर्यभूवन । युजं वज्रं वृषभश्चक्र इन्द्रो निज्योतिषा तमसो गा अदुक्षत।। ( १.३३.१०)
हे स्वामी (भदेव ! न तो स्वर्ग के और न पृथ्वी के वासी माया और धनादि (परिग्रह) से परिभूत होने के कारण आपकी मर्यादा
(आपकी योग्यता) को प्राप्त नहीं होते हैं। हे वृषभ ! आप समाधियुक्त (युज), अतिकठोर साधक, व्रजमय शरीर के धारक और इन्द्रों के भी चक्रवर्ती हैं- ज्ञान के द्वारा अन्धकार (अज्ञान) का नाश करके गा अर्थात् प्रजा को सुखों से पूर्ण कीजिये।
आ चर्षाणिप्रा वृषभो जनानां राजा कृष्टीनां पुरुहूत इन्द्रः । स्तुतः श्रवस्यन्नवसोप महिग्युक्ता हरी वृषणा याह्यर्वाङ ।।
(१.१७७.१) बहुतों में प्रसिद्ध तथा बहुतों के द्वारा संस्तुत, सबके उस विचक्षण बुद्धि महान ऋषभदेव की इस प्रकार स्तुति की जाती है। वह स्तुत्य होकर हमें वीरता, गोधन एवं विद्या प्रदान करें। हम उस तेजस्वी (ज्ञान) दाता को जाने या प्राप्त करें।
त्वमग्ने इन्द्रो वृषभः सतामसि त्वं विष्णुरुरुगायो नमस्यः । त्वं ब्रह्मा रयिविद्ब्रह्मणस्यते त्वं विधर्तः सचसे पुरन्य्या ।।
(२.१.३)
हे ज्योति स्वरूप जिनेन्द्र ऋषभ ! आप सत्पुरुषों के बीच प्रणाम करने योग्य हैं। आप ही विष्णु हैं और आप ही ब्रह्मा हैं तथा आप ही विभिन्न प्रकार की बुद्धियों से युक्त मेधावी है। जिस सप्त किरणों वाले वृषभ ने सात सिन्धुओं को बहाया और निर्मल आत्मा पर चढ़े हुए कर्ममल को नष्ट कर दिया। वे बज्रबाहु इन्द्र अर्थात् जिनेन्द्र आप ही हैं।
अनानुदो वृषभो दोधतो वधो गम्भीर ऋष्वो असमष्टकाव्यः । रचोदः श्रनथनो वीलितस्पृथुरिन्द्रः सुयज्ञः उषसः स्वर्जनत ।
(२.२१.४)
दान देने में जिनके आगे कोई नहीं निकल सका ऐसे संसार अर्थात् जन्म-मरणको क्षीण करने वाले, कर्म शत्रुओं को मारने वाले असाधारण, कुशल, दृढ़ अगों वाले, उत्तम कर्म करने वाले ऋषभ ने सुयज्ञ रूपी अहिंसा धर्म का प्रकाशन किया।
अनानुदो वृषभो जग्मिराहवं निष्टप्ता शत्रुं पृतनासु सासहिः । असि सत्य ऋणया ब्रह्मणस्पत उग्रस्य चिद्दमिता वीलुहर्षिणः । 1 (२.२३.११)
1
हे ज्ञान के स्वामी वृषभ! तुम्हारे जैसा दूसरा दाता नहीं है। तुम आत्म शत्रुओं को तपाने वाले, उनका पराभव करने वाले कर्म रूपी ऋण को दूर करने वाले, उत्तम हर्ष देने वाले कठोर साधक व सत्य के प्रकाशक हो।
उन्मा ममन्द वृषभो मरुत्वान्त्वक्षीयसा वयसा नाधमानम । घृणीव च्छायामरण अशीयाऽऽविवासेयं रुद्रस्य सुग्नम |
(२.३३.६) मरुत्वान् अर्थात् मरुदेवी के पुत्र ऋषभ हम (भिक्षुओं) को तेजस्वी अन्न से तृप्त करे। जिस प्रकार धूप से पीडित व्यक्ति छाया का आश्रय लेता है उसी प्रकार मैं भी पाप रहित होकर कठोर साधक वृषभ के सुख को प्राप्त कर व उनकी सेवा करू अर्थात् निर्वाण लाभ प्राप्त करूँ ।
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ऋग्वेद में अर्हत् और ऋषभवाची ऋचायें: एक विमर्श
प्रदीधितिर्विश्ववारा जिगाति होतारमिलः प्रथमं यजध्यै | अच्छा नमोभिर्वृषभं वन्दध्यै स देवान्यदिषितो यजीयान् ।।
(३.४.३)
समग्र संसार के द्वारा वरेण्य तथा प्रकाश को करने वाली बुद्धि सबसे प्रथम पूजा करने के लिए ज्योति स्वरूप ऋषभ के पास जाती है। उस ऋषभ की वन्दना करने के लिए हम नमस्कार करते हुए उसके पास जायें। हमारे द्वारा प्रेरित होकर वह भी पूजनीय देवों की पूजा करें। अषाहो अग्ने वृषभो हिंदीहि पुरो विश्वाः सौभगा सजिगीवान् । यज्ञस्य नेता प्रथमस्य पायोजातवेदो बृहतः सुप्रणीते ।।
(३.१५.४) हे अपराजित और तेजस्वी म! आप सभी ऐश्वर्यशाली नगरों में धर्म युक्त कर्मों का प्रकाश कीजिए। हे सर्वज्ञ! आप अहिंसा धर्म के उत्तम रीति से निर्णायक हुए, आप ही त्याग मार्ग के प्रथम नेता हैं। (ज्ञातव्य है कि यहां यज्ञ शब्द को त्याग मार्ग के अर्थ में ग्रहीत किया गया है।)
मरुत्वन्तं वृषभं वावृधानमकवारिं दिव्यं शासमिन्द्रम | विश्र्वासाहमवसे नूतनायोग्रं सहोदामिह त्वं हुवेम । ।
(३.४७.५) मरुत्वान्, विकासमान, अवर्णनीय दिव्य शासक, सभी (कर्म) 'शत्रुओं को हराने वाले वीर ऋषभ को हम आत्म-रक्षण के लिए यहाँ आमंत्रित करते हैं।
सद्यो ह जातो वृषभः कनीनः प्रभर्तुभावदन्यसः सुतस्य । साधोः पिब प्रतिकामं यथा ते रसाशिरः प्रथमं सोम्यस्य । ।
(३.४८.९) ने
उत्पन्न होते ही महाबलवान, सुन्दर व तरुण उन वृषभ अत्रदान करने वालों का तत्काल रक्षण किया। हे जिनेन्द्र ऋषभ समता रस के अन्दर मिलाये मिश्रण का आप सर्वप्रथम पान करें। पतिर्भव वृत्रहन्त्सूनृतानां गिरां विश्वायुर्वृषभो वयोधाः । आ नो गहि सख्येभिः शिवेभिर्महान्महीभिरूतिभिः सरण्यन।।
(३.३९.१८)
महाँ उग्रो वावृधे वीर्याय समाचक्रे काव्येन । वृषभः इन्द्रो भगो वाजदा अस्य गावः प्रजायन्ते दक्षिणा अस्यपूर्वीः ।
(३.३६.५) प्रजा और दान पूर्वकाल से ही प्रसिद्ध है। (ज्ञातव्य है कि ऋषभ प्रथम शासक थे और उन्होंने अपनी प्रजा
को सम्यक् जीवन शैली सिखायी थी तथा दीक्षा के पूर्व विपुल दान दिया था। इसी दृष्टि से यहाँ कहा गया है कि उनकी प्रजा (गाव) एवं दान पूर्व से ही प्रसिद्ध है।
असूत पूर्वो वृषभो ज्यायानिमा अस्य शुरुषः सन्ति पूर्वीः । दिवो नपाता विदथस्य धीभिः क्षत्रं राजाना प्रदिवो दधाथे ।।
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से युक्त हुए। जिस प्रकार वर्षा करने वाला मेघ (वृषभ) पृथ्वी की प्यास बुझाता है उसी प्रकार वे पूर्वों के ज्ञान के द्वारा जनता की प्यास को बुझा हैं। हे वृषभ ! आप राजा और क्षत्रिय हैं तथा आत्मा का पतन नहीं होने
देते हैं।
यदन्यासु वृषभो रोरवीति सो अन्यस्मिन्यूथ नि दधाति रेतः । स हि क्षपावान्त्स भगः स राजा महदेवानामसुरत्वमेकम ।
(३.५५.१७)
जिस प्रकार वृषभ अन्य यूथों में जाकर डकारता है और अन्य यूथों में जाकर अपने वीर्य को स्थापित करता है । उसी प्रकार ऋषभदेव भी अन्य दार्शनिक समूह में जाकर अपनी वाणी का प्रकाश करते हैं और अपने सिद्धान्त का स्थापन करते हैं। वे ऋषभ कर्मों का क्षपन करने वाले अथवा संयमी अथवा जिनका प्रमाद नष्ट हो ऐसे अप्रमत्त भगवान, राजा, देवों और असुरों में महान् हैं।
चत्वारि शृंङ्ग त्रयो अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य । त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो मर्त्यां आ विवेश ।।
(४.५८.३)
वे ऋषभ देव अनन्त चतुष्टय रूपी चार श्रृङ्गो से तथा सम्यक् ज्ञान, दर्शन एवं चारित्ररूपी तीन पादों से युक्त हैं। ज्ञानोपयोग व दर्शनोपयोग ऐसे दो सिरों, पाँच इन्द्रियों, मन एवं बुद्धि ऐसे साथ से युक्त हैं। वे तीन योगों से बद्ध होकर मृत्यों में निवास करते हैं। वे महादेव ऋषभ अपनी वाणी का प्रकाशन करते हैं।
सन्दर्भ
१.
२.
३.
५.
(३.३८.५)
उन श्रेष्ठ ऋषभदेव ने पूर्वो को उत्पन्न किया अथवा वे पूर्व ज्ञान ६.
डॉ. सागरमल जैन, जैन, बौद्ध और गीता का साधन मार्ग, राजस्थान प्राकृत भारती, जयपुर १९८२, पृ. भूमिका पृ. ६-१०
निग्गंध सक्क तावस गेरुय आजीव पंचहा समणा-पिण्डनिर्युक्ति, ४४५, निर्युक्तिसंग्रह सं. विजय जिनेद्र सूरीश्वर, श्री हर्ष पुष्पामृत जैन ग्रन्थ माला, लाखाबाबल; जामनगर ।
(अ) निग्गंथ धम्मम्मि इमा समाही, सुबगडो, जैन विश्वभारती, लाडँनू, २।६।४२
-
(ब) निगण्ठो नाटपुतो — दीघनिकाय, महापरिनिव्वाण सुत्तसुभधपरिव्वाजकवत्थुन, ३।२३।८६
(स) निर्गठेसु पि मे कटे इमे विवापटा होहति जैन शिलालेखसंग्रह भाग - २, लेख क्रमांक - १ इसिभासियाई सुताई प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, १९८८ देखें- भूमिका, सागरमल जैन, पृ.१९-२० (सामान्यतया सम्पूर्ण भूमिका ही द्रष्टव्य है).
"
ज्ञातव्य है कि ऋग्वेद १०।८५०४ में बार्हत शब्द तो मिलता है किन्तु आर्हत शब्द नहीं मिलता है, यद्यपि अर्हन् एवं 'अर्हन्तो' शब्द मिलते हैं, किन्तु ब्राह्मणों, आरण्यकों आदि में आर्हत और बार्हत दोनों शब्द मिलते हैं।
देखें— सुतं मेतं भन्ते-वज्जी यानि तानि वज्जीनं वज्जिचेतियानि
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
सूत्र २.
अब्भन्तरानि चेव बाहिरानि तानि सक्कारोन्ति गरुं करोन्तिमानेन्ति त्वं वृषभः पुष्टिवर्धन- वृषभ = वलिष्ट १.३१.५. पूजेन्ति।
१५. देखें- ऋषभ एवं बृषभ शब्द- संस्कृत हिन्दी कोश, वामन ..वज्जीनं अरहन्तेसु धम्मिका रक्खाआवरणगुत्ति, सुसंविहिता शिवराम आप्टे, मोतीलाल बनारसी दास, दिल्ली १९८४, पृष्ठ किन्ति अनागता च अरहन्तो विजितं आगच्छेय्यं आगता च २२४ एवं ९७३ अरहन्तो विजिते फासु विहरेय्यु।-दीघनिकाय महापरिनिव्वाणसुत्तं, १६. वृषभः = वर्षा करने वाला ५.५८.३ ३।१।४ (नालन्दा देवनागरी पालि सिरीज)
ज्ञातव्य है कि स्वामी दयानन्द ने इन्द्र के साथ प्रयुक्त वृषभ शब्द देखें- संस्कृत-हिन्दी कोश - बृहत् (वि.) स्त्री. ती, बृहती नपुं. को इन्द्र का विशेषण मानकर उसका अर्थ वर्षा करने वाला किया १ वेद २ सामवेद का मंत्र, ३ ब्रह्म (सं. वामन शिवराम आप्टे, है। देखें- ५.४३.१३, ५.५८.६ब मोतीलाल बनारसीदास, देहली-७ द्वि. सं. १९८४, पृ. ७२०) १७. वृषभ: बृहस्पति-कामनाओं के वर्षक बृहस्पति- १०.९२.९०. देखें- देवो देयान, यजत्विग्नरर्हन्। ऋग्वेद, १.९४.१, वृषभ: प्रजां वर्षतीति वाति बृहतिरेत इति वा तद वषकर्मा वर्षणाद २.३.१, ३, २.३३.१०, ५.७ ५.५२.५, ५.८७.५, वृषभः। ७.१८.२२, १०.९९.७.
-निरुक्तम् (यास्कमहर्षि प्रकाशितं) ९.२२.१. वैदिक पदानुक्रम-कोष, प्रथमखण्ड: विश्वेश्वरानन्द वैदिक १८. अनर्थका हि मन्त्राः - निरुक्त, अध्याय १, खण्ड १५, पाद ५, शोधसंस्थान, होशियार पुर, १९७६, पृ. ५१८. जुद्धारिहं खलु दुल्लभ। - आचारांग, १.१.५.३
-खेमराज श्रीकृष्णदास, मुम्बय्यां संवत् १९८२. इमेण चेव जुज्झाहि, कि ते जुज्झेण बज्झओ- आचारांग, १९. ऋग्वेद भाषाभाष्य - दयानन्द सरस्वती - दयानन्द संस्थान, नई १.१.५.३
दिल्ली-५ १०. (A) Radha Krishnan-Indian philosophy (Ist edi- देखें- ऋग्वेद, १०.१११.२ का भाष्य। tion) Vol.1, p. 287.
२०. ऋग्वेद का सुबोध भाष्य, पद्मभूषण डॉ. श्री पाद दामोदर (B) Indian Antiquary, Vol. IX, Page 163.
सतवलेकर, स्वाध्याय मण्डल पारडी - जिला बलसाढ, १९८५ ११. बर्हिषि तस्मिन्नेव विष्णुदत्त भगवान् परमर्षिभिः नाभेः प्रिय देखें-ऋग्वेद, १०.१११.२ का भाष्य।
चिकीर्षया तदवरोधाय ने मरुदेव्यां धर्मान् दर्शयितु कामो २१. वही, देखें-ऋग्वेद, ४.५८.३. वातरशनानां श्रमणानामृषीणामूर्ध्वमन्धिनां शुक्लया तन्वावतार।- २२.. ऋग्वेद भाषा भाष्य, दयानन्द सरस्वती, दयानन्द संस्थान, नई श्रीमद्भागवत, ५.३.२०
दिल्ली-५ देखें- (अ) लिंगपुराण, ४८.१९-२३.
देखें - ऋग्वेद, ४.५८.३ (ब) शिवपुराण, ५२.८५.
भक्तामरस्तोत्र (मानतुंग), २३, २४, २५ (स) आग्नेयपुराण, १०.११-१२.
त्वामामनन्ति मुनयः परमं पुमांस - (द) ब्रह्माण्डपुराण, १४.५३.
मादित्यवर्णममलं तमसः परस्तात् (इ) विष्णुपुराण-द्वितीयांश अ. १.२६-२७.
त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयन्ति मृत्यु (एफ) कूर्मपुराण, ४१.३७-३८.
नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र ! पन्थाः।।२३।। (जी) वराहपुराण, अ. ७४.
त्वामव्ययं विभुमचिन्त्यमसंख्यमाद्यं (एच) स्कन्धपुराण, अध्याय ३७.
ब्रह्माणमीश्वरमनन्तमनङ्गकेतुम (आई) मार्कण्डेयपुराण, अध्याय ५०।३९-४१.
योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकं देखें-अहिंसावाणी - तीर्थंकर भ. ऋषभदेव, विशेषांक वर्ष ७ ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः।।२४।। अंक १-२.
बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चितबुद्धिबोधात् मरुपुत्र ऋषभ - श्री राजाराम जैन, पृ.८७-९२.
त्वं शङ्करोऽसि भुवनत्रयशङ्करत्वात् १३. वृषभ यथा शृंगे शिशान:दविध्वत्- वृषभ = बैल ८.६०.१३, धातासि धीर शिवमार्गविधेर्विधानाद् ६.१६.४७, ७.१९.१.
व्यक्तं त्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमाऽसि।।२५॥ १४. वृषभः = इन्द्रः वजं युजं- वृषभ = बलवान १.३३.१०.
नैनतर गन्धों में ऋषभ हेतु देखे जैन रूपन(Psher).50-62
१२.
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जैन परम्परा में बाहुबलि
प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव के पुत्र भरत और बाहुबलि के उदात्त कि भाई अपनी राज्यलक्ष्मी को वापस सम्भालो और दीक्षा मत लो। जीवन वृत्त जैनधर्म की दोनों ही परम्पराओं में समादृत रहे हैं। फिर भी किन्तु बाहुबलि उसके आग्रह को अस्वीकार कर देते हैं और वह अपेक्षाकृतरूप से दिगम्बर परम्परा में बाहुबलि के प्रति विशेष आदरभाव खिन्नमना अयोध्या को लौट जाता है। उसका आदर्श अनासक्त कर्मयोग देखा जाता है । सहस्राब्दी पूर्व दक्षिण में श्रवणबेलगोल में स्थापित का आदर्श है । बाहर तो वह कैवल्य लाभ के कुछ समय पूर्व तक गोम्मटेश्वर बाहुबलि की अद्वितीय विशाल प्रतिमा इस बात का स्पष्ट अपने सांसारिक दायित्वों के निर्वाह में लगा हुआ है किन्तु उसकी प्रमाण है कि दिगम्बर परम्परा में बाहुबलि को कितना गौरवपूर्ण स्थान साधना अन्दर ही अन्दर चलती रहती है । कल्पसूत्र की कुछ टीकाओं प्राप्त रहा है। आज भी न केवल अनेक दिगम्बर जैन तीर्थों एवं मन्दिरों में तो भरत की इस अनासक्त जीवन दृष्टि को एक कथा के द्वारा स्पष्ट में बाहुबलि की प्रतिमाएँ उपलब्ध होती हैं, अपितु वे तीर्थंकरों की भी किया गया है। प्रतिमाओं के समान ही पूजित भी हैं, यह सब उनके प्रति उस परम्परा भगवान् ऋषभदेव के समवशरण में एक स्वर्णकार भरत के में, जो बहुमान और श्रद्धा है, उसी का प्रतीक है । जबकि श्वेताम्बर भावी जन्म के सम्बन्ध में जिज्ञासा प्रकट करता है । ऋषभदेव भरत की परम्परा के तीर्थों एवं मन्दिरों में बाहुबलि की प्रतिमाओं का प्राय: अभाव इसी जीवन में मुक्ति की घोषणा करते हैं । किन्तु स्वर्णकार का मन ही देखा जाता है । यद्यपि आबू के विमलवसहि मन्दिर में, शत्रुजय आश्वस्त नहीं होता है, वह ऋषभदेव के निर्णय को पक्षपातपूर्ण मानता (पालीताना) के आदिनाथ मन्दिर में और कुम्भारिया के शांतिनाथ है । भरत उसे अपनी निष्काम जीवन दृष्टि को समझाने के लिए एक मन्दिर में बाहुबलि की अधोवस्त्र युक्त ११-१२वीं शताब्दी की कुछ घटनाचक्र खड़ा करते हैं । स्वर्णकार को ऋषभदेव और चक्रवर्ती भरत प्रतिमाएँ हैं । इसी प्रकार जैसलमेर के ऋषभदेव जी के मन्दिर में भी की निन्दा के अभियोग में मृत्युदंड दिया जाता है । उस दंड से बचने भरत और बाहुबलि की कायोत्सर्ग मुद्रा में सम्वत् १४३६ की मूर्तियाँ का एक ही उपाय है, वह यह कि स्वर्णकार तेल से पूर्ण भरे हुए कटोरे हैं (देखिये जैन लेख संग्रह,भाग ३, पृष्ठ ९४) फिर भी वे जिन प्रतिमा को लेकर अयोध्या का परिभ्रमण करे; शर्त यह है कि रास्ते में तेल की के समान पूजित नहीं हैं । इस प्रकार श्वेताम्बर परम्परा तप-त्याग और एक भी बूंद न गिरे, यदि एक भी बूंद गिरी तो साथ चलने वाले सैनिक साधना के अनुपम आदर्श बाहुबलि के प्रति आदरभाव रखते हुए भी वहीं उसका सिर धड़ से अलग कर देगें । किन्तु यदि वह एक भी बूंद उन्हें वह गौरव नहीं दे सकी, जैसाकि उन्हें दिगम्बर परम्परा में प्राप्त है। बिना गिराये राजभवन में लौट आएगा, तो उसका मृत्युदण्ड निरस्त कर इससे विपरीत श्वेताम्बर परम्परा का झुकाव निष्काम कर्मयोगी भरत के दिया जाएगा। प्रति अधिक देखा जाता है । श्वेताम्बर आचार्यों ने भरत के जीवन चरित्र भरत उस दिन अयोध्या को विशेष रूप से सजाते हैं । अनेक को काफी उभारा है। आखिर ऐसा क्यों हुआ? हमारी दृष्टि में इसका चौराहों पर नाटक आदि का आयोजन करवाते हैं । जब वह लौटकर एक मनोवैज्ञानिक कारण है।
पहुँचता है तो भरत उससे पूछते हैं- भाई, आज नगर में कहाँ क्या
देखा? प्रत्युत्तर में स्वर्णकार कहता है - यद्यपि मैं नगर परिभ्रमण कर भरत और बाहुबलि, दो भिन्न जीवन दृष्टियाँ
रहा था, किन्तु मुझे तो मौत ही दिखाई दे रही थी अत: सब कुछ दृष्टि वस्तुत: भरत और बाहुबलि के जीवन-वृत्त दो भिन्न जीवन के समक्ष रहते हुए भी अनदेखा ही रहा । उसके इस प्रत्युत्तर के आधार दृष्टियों पर स्थित हैं । भरत का आदर्श निष्काम कर्मयोग का आदर्श है, पर भरत उसके सामने अपनी जीवन-दृष्टि को स्पष्ट करते हैं। वे कहते उसका जीवन एक अनासक्त कर्मयोगी का जीवन है, जो जल में रहे हुए हैं कि जिस प्रकार तू एक जीवन की मृत्यु के भय से नगर परिभ्रमण कमल के समान अलिप्त भाव से संसार में रहकर अपने सांसारिक करते हए उसके आकर्षणों के प्रति पूर्ण उदासीन रहा, वैसे ही मैं भी दायित्वों का निर्वाह करता है । बाह्य दृष्टिकोण से देखने पर तो वह अनंत जीवनों की मृत्यु का द्रष्टा होकर, संसार के व्यवहार करते हुए भी आकण्ठ भोगों में डूबा हुआ है, अपने चक्रवर्तित्व के पद की रक्षा के उसके प्रति उदासीन हूँ। भरत बाहर से संसार में होते हुए भी अन्तर्मन लिए वह भाई से भी युद्ध ठान बैठता है, यही नहीं उस पर चक्र भी से उससे वैसे ही अलिप्त हैं, जैसे कमल का पत्र जल में रहते हुए भी चला देता है । किन्तु भीतर से वह उतना ही अनासक्त और विनम्र भी उससे अलिप्त रहता है । यही कारण है कि वे आरिसा भवन में ही है। यही कारण है कि बाहबलि आदि सभी भाइयों के दीक्षित होने पर कैवल्य प्राप्त कर लेते हैं । कैवल्य की उपलब्धि के लिये वे न तो कोई उसका मन पश्चात्ताप और अन्तर्वेदना से भर जाता है । उसे अपने कृत्य कठोर साधना करते हैं और न गृहस्थ जीवन का त्याग करते हैं । जो पर आत्मग्लानि होती है और छोटे भाइयों के चरणों में उसका मस्तक भंगार के लिए आरिसा भवन में पहँचता है, वही कैवल्य की ज्योति से विनम्र भाव से श्रद्धापूर्वक झुक जाता है । विमलसूरि के पउमचरिउ के जगमगाता हुआ श्रमण के रूप में वहाँ से बाहर निकलता है। भरत का अनुसार तो दीक्षा लेने को उद्यत बाहुबलि से वह यहाँ तक कह देता है श्रामण्य कैवल्य का परिणाम है, कैवल्य की साधना नहीं । उनका
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जीवन प्रवृत्ति में भी निवृत्ति का जीवन है उनके लिए बाह्य पदार्थ नहीं, मूर्च्छा ही वास्तविक परिग्रह है। चूंकि यह बात श्वेताम्बर परम्परा के अनुकूल थी अतः उसे भरत का जीवनादर्श अधिक अनुकूल लगा यही कारण था कि श्वेताम्बर आचार्यों ने भरत के जीवन चरित्र पर अपनी कलम को अधिक चलाया है ।
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
इसके विपरीत बाहुबलि की जीवन-दृष्टि भिन्न है, वे पूरे मन से राजा हैं । राजा का गौरव उनके मन में है, यही कारण है कि वे बड़े भाई की अधीनता के प्रस्ताव को ठुकराकर युद्ध के लिये तैयार हो जाते हैं और बड़े भाई का राजलिप्सा के मद में युद्ध की नैतिकता को भंग कर छोटे भाई के वध के लिए उद्यत हो जाना ही उनके विराग का कारण बन जाता है । वे श्रमण बन जाते हैं, फिर भी उनके मन से 'राजा का गौरव' समाप्त नहीं होता है। भरत की भूमि पर खड़े रहने या छोटे भाइयों के नमन करने के प्रश्न उनके मन को कचोटते रहते हैं । यद्यपि बाहुबलि ने युद्ध भी जीता है और अपना गौरव भी अक्षुण्ण रखा, फिर भी भीतर के युद्ध में उन्हें सहज विजय नहीं मिलती है। उनका जीवन कठोर निवृत्ति प्रधान साधना का जीवन है ध्यान और कायोत्सर्ग की साधना का ऐसा कोई दूसरा उदाहरण देख पाना कठिन है । जिसके शरीर को लताओं ने आच्छादित कर लिया हो, चींटियों ने जिस पर अपने वल्मीक बना लिये हों, फिर भी जो ध्यान में अचल और अकम्प है, कितनी कठोर साधना है । बाहुबलि का जीवन निवृत्तिपरक कठोरतम साधना का उच्चतम आदर्श है। यही कारण था कि कठोर साधना के आदर्श के प्रति श्रद्धान्वित दिगम्बर परम्परा में बाहुबलि के प्रति अपेक्षाकृत अधिक बहुमान देखा जाता है किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि श्वेताम्बर परम्परा में बाहुबलि के प्रति या दिगम्बर परम्परा में भरत के प्रति आदर भाव नहीं रहा है। यह तो मात्र अपेक्षाकृत विशेष रुझान की बात है। वैसे तो दोनों परम्पराओं में दोनों के ही प्रति समादर भाव है। फिर भी हमें इतना तो स्वीकार करना ही होगा कि दोनों की साधना पद्धति भिन्न-भिन्न है । यदि शास्त्रीय भाषा में कहना हो तो जहाँ भरत निश्चय प्रधान साधना के प्रतीक है वहीं बाहुबलि व्यवहार प्रधान साधना के प्रतीक हैं। भरत की साधना की यात्रा निश्चय से व्यवहार की ओर है, तो बाहुबलि की साधना की यात्रा व्यवहार से निश्चय की ओर है।
जैन साहित्य में बाहुबलि की कथा का विकास
श्वेताम्बर परम्पर के आगमग्रंथों में स्थानांगसूत्र में बाहुबलि के शरीर की ऊँचाई के सम्बन्ध में तथा समवायांग में बाहुबलि की आयुष्य के सम्बन्ध में उल्लेख अवश्य उपलब्ध हैं, किन्तु वे उनके जीवनवृत्त के सम्बन्ध में कोई विस्तृत जानकारी प्रदान नहीं करते हैं। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में भरत की षट्खण्ड विजय यात्रा का विस्तार से वर्णन है तथा कल्पूसत्र में ऋषभदेव का जीवन चरित्र दिया गया है, किन्तु उनमें बाहुबलि के जीवनवृत्त के सम्बन्ध में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है। इस प्रकार श्वेताम्बर परम्परा का सम्पूर्ण आगम साहित्य बाहुबलि के जीवनवृत्त के सम्बन्ध में मौन है।
यद्यपि श्वेताम्बर आगम साहित्य की टीकाओं में आवश्यक निर्युक्ति, आवश्यकभाष्य, विशेषावश्यक भाष्य, आवश्यक चूर्णि निशीथ चूर्णि कल्पसूत्रवृत्ति, आचारांग टीका और स्थानांग टीका में बहुबलि का जीवनवृत्त उल्लिखित है । कथा - साहित्य में विमलसूरि के पउमचरिउ में, संघदासमणि कृत वसुदेवहिण्डि में शीलांक के चउपन्न महापुरिवरिय में एवं हेमचन्द्र के त्रिषष्टिशलाका पुरुष- चरित्र में भी बाहुबलि का जीवनवृत्त सविस्तार से उल्लिखित है। इसके अतिरिक्त भरत चक्रवर्ती पर लिखे गये भरतेश्वर बाहुबलि वृत्ति में तथा शत्रुंजयमाहात्म्य आदि ग्रन्थों में बाहुबलि के सम्बन्ध में उल्लेख प्राप्त है। जिनरत्न कोश के अनुसार बाहुबलि पर दो स्वतन्त्र ग्रंथ 'बाहुबलि चरित्र' के नाम से भी प्राप्त हैं, जिनमें एक के लेखक भट्टारक चारुकीर्ति हैं जो कि दिगम्बर परंपरा के हैं। दूसरे के लेखक अज्ञात हैं, जो कि संभवत: श्वेताम्बर परम्परा के हो सकते हैं । श्वेताम्बर परम्परा में पुण्यकुशलगणि की भरत बाहुबलि महाकाव्य नामक एक अत्यन्त सुन्दर तथा महत्त्वपूर्ण कृति है, यह संस्कृत भाषा में है। इसके अतिरिक्त शालिभद्रसूरि का भरतबाहुबलि रास (१३वीं शताब्दी) एवं अमीऋषिजी का भारत बाहुबलि चौखलिया, समकालीन आचार्य तुलसी का भरतमुक्ति काव्य क्रमशः प्राचीन गुजराती, राजस्थानी एवं हिन्दी में श्वेताम्बर आचार्यों की प्रमुख रचनाएँ हैं, जिनमें बाहुबलि का जीवनवृत्त उल्लिखित है ।
दिगम्बर परम्परा के आगम-स्थानीय साहित्य में कुन्दकुन्द के भाव पाहुड़ में बाहुबलि को मान कषाय था, मात्र इतना उल्लेख है । इसके अतिरिक्त दिगम्बर परम्परा के आगमिक साहित्य में बाहुबलि के जीवनवृत्त का उल्लेख हमें प्राप्त नहीं हुआ है, यद्यपि दिगम्बर परम्परा का पौराणिक साहित्य विस्तार से बाहुबलि की यशोगाथा गाता है। हरिषेण के पद्मपुराण, स्वयम्भू के पउमचरिउ, जिनसेन के आदिपुराण, रविषेण के पद्मपुराण, पुत्राटसंघीय जिनसेन के हरिवंश पुराण आदि में बाहुबलि का जीवनवृत्त वर्णित है।
बाहुबलि की कथा, समानता और अन्तर
बाहुबलि के जीवनवृत्त में जिन उल्लेखनीय प्रसंगों का चित्रण श्वेताम्बर आचार्यों ने किया है, वे दो हैं - एक भरत और बाहुबलि के युद्ध का प्रसंग और दूसरा बाहुबलि की साधना और कैवल्य लाभ का प्रसंग भरत ने दूत के द्वारा अपने भाइयों को अपनी अधीनता को स्वीकार करने का सन्देश भेजा। शेष भाई भरत के इस अन्याय के सम्बन्ध में योग्य निर्णय प्राप्त करने पिता ऋषभदेव के पास पहुँचते हैं और अन्त में उनके उपदेश को सुनकर प्रबुद्ध हो, दीक्षित हो जाते हैं। किन्तु बाहुबलि स्पष्टरूप से भरत को चुनौती देकर युद्ध के लिए तत्पर हो जाते हैं। बाहुबलि ने भरत के सुवेग नामक दूत को जो तर्क, प्रत्युत्तर दिये हैं, वे बहुत ही सचोट, युक्तिसंगत एवं महत्वपूर्ण हैं। इस सम्बन्ध में आवश्यकचूर्णि चउपन्न महापुरिसन्यरियं तथा शिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र के प्रसंग निश्चय ही पठनीय हैं। वह कह उठता है, क्या भाई भरत की भूख अभी शांत नहीं हुई है? अपने लघुभ्राताओं
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के राज्य को छीनकर भी उसे सन्तोष नहीं हुआ है ? भाई भरत को कह यह प्रस्ताव प्रस्तुत करते हैं । दिगम्बर परम्परा में जिनसेन के आदिपुराण देना कि मैं उसी पिता की सन्तान हूँ, जिसका वह है । व्यंग्म और में तथा स्वयम्भू के पउमचरिउ में अहिंसक युद्ध का प्रस्ताव मन्त्रीगण तार्किकता दानों ही दृष्टियों से इन प्रसंगों में श्वेताम्बर आचार्यों का रचना रखते हैं, किन्तु रविषेण के पद्मपुराण में स्वयं बाहुबलि ही यह प्रस्ताव कौशल अद्वितीय है । सुवेग को राज्य सभा से बाहर निकलते हुए प्रस्तुत करते हैं। देखकर नागरिक किस तरह काना-फसी करते हैं इसका चित्रण निश्चय भरत का दृष्टियुद्ध, जलयुद्ध आदि में पराजित होना, अपनी ही रोमांचक है।
.. पराजय से लज्जित एवं दु:खी होकर आवेश में बाहुबलि पर चक्र चला श्वेताम्बर आचार्यों में संघदासगणि ने वसुदेवहिण्डि में, जिनदासगणि देना, चक्र का वापस हो जाना, भरत के इस अकृत्य को देखकर ने आवश्यकचूर्णि में, आचार्य शीलांक ने चउपन्नमहापुरिस चरियं में बाहुबलि को वैराग्य हो जाना और युद्धभूमि में स्वयं ही दीक्षा लेकर
और हेमचंद्र ने त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में सेना के परस्पर युद्ध का वन-प्रांतर में ध्यानस्थ हो जाना, ऐसी सामान्य घटनाएं हैं, जिनका उल्लेख नहीं किया है । यद्यपि विमलसूरि के पउमचरिय में, शालिभद्रसूरि वर्णन श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा के आचार्यों ने समान रूप से किया के भरतेश्वर बाहुबलि रास में एवं पुण्यकुशलगणि के भरत बाहुबलि है। काव्य में सेना के परस्पर युद्ध का उल्लेख है । दिगम्बर परम्परा में बाहुबलि के जीवनवृत्त के सम्बन्ध में जिस प्रश्न पर श्वेताम्बर आदिपुराण के कर्ता-जिनसेन ने भी सेनाओं के युद्ध का उल्लेख नहीं एवं दिगंबर परम्परा में मतभेद पाया जाता है, वह है बाहुबलि के किया, किन्तु पुन्नाटसंघीय जिनसेन के हरिवंश पुराण में रविषेण के साधनाकाल में मान की उपस्थिति और ब्राह्मी और सुन्दरी के उद्बोधन पद्मपुराण में सेनाओं के मध्य युद्ध का उल्लेख है। इस प्रकार दोनों ही से उसकी निवृत्ति । श्वेताम्बर परम्परा में विमलसूरि के पउमचरिउ के परम्पराओं में दोनों ही प्रकार के उल्लेख प्राप्त हैं, यद्यपि प्राचीन एवं अतिरिक्त वसुदेवहिण्डि, आवश्यक नियुक्ति, आवश्यक भाष्य, मध्य काल के श्वेताम्बर आचार्यों की रचनाओं में विमलसूरि के अपवाद विशेषावश्यक भाष्य, कल्पसूत्र टीका, चउपन्नमहापुरिसचरियं, छोड़कर ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी तक सेनाओं के परस्पर युद्ध का त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, भरतेश्वर बाहुबलि रास, भरतेश्वर बाहुबलिवृत्ति, उल्लेख नहीं है । इसके विपरीत दिगम्बर परम्परा में आदिपुराण के कर्ता भरत बाहुबलि महाकाव्य एवं परवर्ती सभी राजस्थानी एवं हिन्दी में जिनसेन को छोड़कर ११-१२वीं शताब्दी तक के शेष सभी आचार्यों रचित भरत-बाहुबलि के जीवन चरित्रों में यह बात समान रूप से ने सेनाओं के परस्पर युद्ध का उल्लेख किया है । इस प्रकार जहाँ स्वीकार की गई है कि बाहुबलि दीक्षा लेकर ध्यानस्थ हो गये और यह मध्यकाल के श्वेताम्बर लेखक भरत और बाहुबलि के मध्य अहिंसक निश्चय कर लिया कि कैवल्य प्राप्त किये बिना भगवान् ऋषभदेव के युद्ध का उल्लेख करते हैं, वहाँ मध्यकाल के दिगंबर लेखक दोनों की समवशरण में नहीं जाऊँगा । असर्वज्ञ दशा में भगवान् ऋषभदेव के सेनाओं के युद्ध का भी उल्लेख करते हैं । हिंसक युद्ध से विरत होने समवशरण में जाने में बाहुबलि की कठिनाई यह थी कि उन्हें अपने से के लिए विभिन्न रचनाकारों ने विविध विकल्प दिये हैं - कहीं बाहुबलि पूर्व दीक्षित छोटे भाइयों को भी प्रणाम करना होगा। और ऐसा करना स्वयं अहिंसक युद्ध का प्रस्ताव करते हैं तो कहीं मन्त्रीगण और कहीं उन्हें अपनी प्रतिष्ठा के अनुकूल नहीं लग रहा था । इस समस्या के देवगण एवं इन्द्र अहिंसक युद्ध के रूप में दृष्टि युद्ध, बाहुयुद्ध आदि का समाधान का रास्ता यही था कि सर्वज्ञता या वीतराग दशा को प्राप्त प्रस्ताव करते हैं । अत: इस सम्बन्ध में किसी एक परम्परा की कोई करके ही ऋषभदेव के समवशरण में पहुँचा जाए, ताकि छोटे भाइयों विशिष्ट अवधारणा हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता । आवश्यकचूर्णि को वन्दन करने का प्रश्न ही उपस्थित न हो। सभी श्वेताम्बर आचार्यों तथा चउपन्न महापुरिस चरियं में बाहुबलि स्वयं अहिंसक युद्ध का ने साधनाकाल में न केवल बाहुबलि में मान की उपस्थित को स्वीकार प्रस्ताव प्रस्तुत करते हुए कहते हैं - 'किं अणवराहिणा लोगेण मारिएण? किया, अपितु सभी ने इस घटना का भी उल्लेख किया है कि भगवान् तुम अहं दुयगा जुज्झामो।' निरपराध लोगों को मारने का क्या औचित्य ऋषभदेव की प्रेरणा से ब्राह्मी और सुन्दरी बाहुबलि को उद्बोधित करने है ? तुम और मैं दोनों ही परस्पर युद्ध करें । विमलसूरि के पउमचरिउ हेतु जाती हैं और जाकर कहती हैं- हे भाई, हाथी पर से नीचे उतरो, में भी युद्ध में हिंसा के दृश्य को देखकर बाहुबलि कह उठता है- हाथी पर चढ़े हुए केवल ज्ञान प्राप्त नहीं होता है । एक राजस्थानी कवि 'चक्कहरो किं वहेण लोयस्स? दोण्हपि होउ जुझं ।' हे चक्रवर्ती ! ने इसे निम्न शब्दों में बाँधा है - लोगों का वध करने से क्या लाभ ? क्यों न हम दोनों ही लड़ लें?
वीरा म्हारा गज थकी उतरो, इस प्रकार बाहुबलि के द्वारा स्वयं अहिंसक युद्ध का प्रस्ताव प्रस्तुत
गज चढ्या केवल नहीं होसी रे । करवा कर उसकी गरिमा को ऊँचा उठाया गया । यद्यपि हेमचन्द्र के उनके इस उद्बोधन को सुनकर बाहुबलि का विवेक जागृत त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में देवता दोनों सेनाओं के संग्राम से जनहानि होता है, वे विचार करते हैं, निश्चय ही मैं अहंकार रूपी हाथी पर सवार की कल्पना कर दोनों के पारस्परिक अहिंसक युद्ध का प्रस्ताव लेकर हूँ । पहले जन्म लेने मात्र से कोई बड़ा नहीं हो जाता है, मेरे दोनों के पास जाते हैं और दोनों ही उसे स्वीकार कर लेते हैं । इसी लघुभ्राताओं ने अध्यात्म की साधना में मुझसे पहले कदम रखा है, प्रकार भरतेश्वर बाहुबलि रास और भरतेश्वर बाहुबलिवृत्ति में देवगण ही निश्चय ही उनका विवेक मुझसे पहले प्रबुद्ध हुआ है, अत: वे वन्दनीय
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
हैं, मुझे जाकर उन्हें प्रणाम करना चाहिए । यह विचार करते हुए, जैसे में की गयी है । दिगम्बर परम्परा के अनुसार जहाँ शल्य निवृत्ति भरत ही बाहुबलि लघुभ्राताओं के वंदन हेतु जाने के लिये अपने चरण उठाते के द्वारा की गई क्षमा याचना या पूजा से होती है । वहाँ श्वेताम्बर परम्परा हैं, कैवल्य प्रकट हो जाता है।
में शल्य की निवृत्ति अपनी संसार पक्ष की बहनों तथा भगवान् ऋषभदेव सभी श्वेताम्बर आचार्यों ने बाहुबलि के जीवनवृत्त में इस घटना की प्रधान आर्यिका ब्राह्मी और सुन्दरी के उद्बोधन से होती है। किसी का उल्लेख अवश्य किया है। इस सम्बन्ध से उनमें कोई मतभेद नहीं आर्यिका द्वारा श्रमण साधक के उद्बोधन की दो प्रमुख घटनाएँ श्वेताम्बर देखा जाता है जबकि दिगम्बर आचार्यों में इस घटना के सम्बन्ध में भी साहित्य में हमें उपलब्ध होती हैं । एक ब्राह्मी और सुन्दरी के द्वारा मतभेद देखा जाता है । प्रथम तो इस प्रश्न पर ही कि बाहुबलि को बाहुबलि का उद्बोधन और दूसरा राजीमती के द्वारा रथनेमि का उद्बोधन । साधनाकाल में शल्य था, वे एकमत नहीं हैं । जिनसेन ने आदिपुराण जबकि दिगम्बर परम्परा में आर्यिकाओं के द्वारा श्रमणों के उद्बोधन के में और रविषेण ने पद्मपुराण में शल्य का उल्लेख नहीं किया है; जबकि प्रसङ्गों का अभाव सा ही है । यद्यपि श्री लक्ष्मीचन्द जैन ने 'अन्तर्द्वन्द्वों कुन्दकुन्द ने भाव पाहुड में एवं स्वयम्भू ने पउमचरिउ में शल्य का के पार' नामक पुस्तक में यह उल्लेख किया है कि भरत भगवान् उल्लेख किया है । बाहुबलि में कषाय था, इस तथ्य का दिगम्बर ऋषभदेव से बाहुबलि में शल्य की उपस्थिति को जानकर स्वयं अयोध्या परम्परा में प्राचीनतम उल्लेख आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थ 'भाव पाहुड' आते हैं और वहाँ से ब्राह्मी एवं सुन्दरी को लेकर बाहुबलि के समीप की गाथा ४४ में मिलता है। किन्तु यह 'मान' कषाय किस बात का जाते हैं, बाहुबलि की पूजा करते हैं और दोनों बहनें बाहुबलि को था, इसका स्पष्टीकरण उसमें नहीं है । दूसरे जिन दिगम्बर आचार्यों ने उद्बोधित करती हैं कि 'भाई हाथी से नीचे उतरो', किन्तु श्री लक्ष्मीचन्द शल्य की उपस्थिति का उल्लेख किया है, वे भी इस घटना को श्वेताम्बर जी के इस कथन का आधार दिगम्बर परम्परा का कौन सा ग्रन्थ है, मुझे आचार्यों से नितांत भिन्न रूप में प्रस्तुत करते हैं - भरत भगवान् ज्ञात नहीं। पुनः उन्होंने भी ब्राह्मी और सुन्दरी को श्राविका के रूप में ऋषभदेव से पूछते है कि बाहुबलि को कैवल्य प्राप्ति क्यों नहीं हुई? प्रस्तुत किया है, जबकि श्वेताम्बर परम्परा में ये साध्वी के रूप में भगवान् उत्तर देते हैं कि उसके मन में यह कषाय है कि भरत की धरती बाहुबलि को उद्बोधित करती हैं। पर हूँ। भरत स्वयं बाहुबलि के पास जाकर कहते हैं कि धरती तुम्हारी इस तुलनात्मक अध्ययन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि है मैं तो तुम्हारा किंकर हूँ (पउमचरिउ-स्वयम्भू ४/१४)। भरत के इन बाहुबलि के इस कथानक को दोनों ही परम्पराओं ने अपनी-अपनी वचनों को सुनकर बाहुबलि को केवल ज्ञान हो जाता है । कुछ दिगम्बर धारणाओं के अनुरूप मोड़ने का प्रयास किया है। फिर भी बाहुबलि की आचार्यों ने यह भी उल्लेख किया है कि भरत ने जाकर जैसे ही रोमांचकारी कठोर साधना का, जो चित्रण दोनों परम्परा के आचार्यों ने बाहुबलि की पूजा की, उनका शल्य दूर हो गया और उन्हें केवल ज्ञान किया है, वह निश्चय ही हमें महापुरुष के प्रति श्रद्धावनत बना देता है। प्राप्त हो गया । श्वेताम्बर आचार्यों ने तो स्पष्टरूप से बाहुबलि में मान जो अन्तर और बाह्य दोनों युद्धों में अपराजेय रहा हो । ऐसा व्यक्तित्व या अहंकार की उपस्थिति बतायी है किन्तु दिगम्बर आचार्यों ने भरत की निश्चय ही महान् है । बाहुबलि सर्वतोभावेन अपराजेय सिद्ध हुए हैं। धरती पर होने के जिस शल्य का उल्लेख किया है उसे या तो हीन भाव एक ओर चक्रवर्ती सम्राट् को पराजित कर वे अपराजेय बने हैं, तो (शल्यग्लानि) मानना होगा या भरत के प्रति आक्रोश मानना होगा । इस दूसरी ओर स्वयं प्रबुद्ध हो एकाकी साधना के द्वारा कर्म शत्रुओं को प्रकार दोनों ने शल्य की व्याख्या भिन्न-भिन्न रूपों में की है। पराजित कर उन्होंने अपनी अपराजेयता को सिद्ध किया है ।
शल्य की निवृत्ति की व्याख्या भी दोनों परम्पराओं में भिन्न रूप
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श्वेताम्बर परम्परा में रामकथा
श्वेताम्बर आगम साहित्य में जहाँ कृष्ण के जीवनवृत्त का पर्याप्त का निराकरण बताया गया है । यह बात सुस्पष्ट है कि यह रामकथा का रूप से उल्लेख हआ है, वहाँ राम के सम्बन्ध में मात्र उनके एवं उनके उपदेशात्मक जैन संस्करण है और इसलिये इसमें यथासम्भव हिंसा, माता-पिता के नामोल्लेख से अधिक कुछ नहीं मिलता है । समवायांग घृणा, व्यभिचार आदि दुष्प्रवृत्तियों को न उभार कर सद्प्रवृत्तियों को ही के ५४ वें समवाय में तो २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलदेव और उभारा गया है । इसमें वर्ण व्यवस्था पर भी बल नहीं दिया है। यहाँ ९ वासुदेव, ये ५४ उत्तमपुरुष होते हैं, इतना मात्र उल्लेख है, वहाँ शम्बूक-वध का कारण शूद्र का तपस्या करना नहीं है । चन्द्रहास खड्ग इनके नामों का भी उल्लेख नहीं है । यद्यपि समवायांग के ही १५८ वें की सिद्धि के लिये बांसों के झुरमुट में साधनारत शम्बूक लक्ष्मण के सूत्र में बलदेवों और वासुदेवों के वर्तमान भव के नाम, पूर्व भव के द्वारा अनजान में ही मारा जाता है । लक्ष्मण उस पूजित खड्ग को उठाते नाम, वासुदेवों के निदान-कारण और निदान नगरों के नाम और उनके हैं और परीक्षा हेतु बाँसों के झुरमुट पर चला देते हैं, जिससे शम्बूक माता-पिताओं के नाम आदि का उल्लेख है । यहाँ आठवें बलदेव का मारा जाता है । इस प्रकार जहाँ वाल्मीकि रामायण में शम्बूक वध की नाम पद्म (पउम), आठवें वासुदेव का नाम नारायण और इनके पिता का कथा वर्ण-विद्वेष का खुला उदाहरण है, वहाँ पउमचरिय का शम्बूक वध नाम दशरथ (दसरह) बताया गया है; इसी आधार पर हम इनका अनजान में हुई एक घटना है । पुन: कवि ने राम के चरित्र को उदात्त सम्बन्ध राम-लक्ष्मण से जोड़ सकते हैं । इसमें लक्ष्मण की माता को बनाये रखने हेतु शम्बूक और रावण का वध राम के द्वारा न करवाकर केकई और राम की माता को अपराजिता कहा गया है।
लक्ष्मण के द्वारा करवाया है। बालि के प्रकरण को भी दूसरे ही रूप में श्वेताम्बर परम्परा में रामकथा का प्रथम स्वतन्त्र ग्रंथ, विमलसूरि प्रस्तुत किया गया है। बालि सुग्रीव को राज्य देकर संन्यास ले लेते हैं। का पउमचरिय है । ग्रन्थकार ने वीर-निर्वाण सम्वत् ५३० (ई० सन् ४ दूसरा कोई विद्याधर सुग्रीव का रूप बनाकर उसके राज्य एवं अन्त:पुर या ६४) में इसकी रचना करने का उल्लेख किया है । इस प्रकार लेखक पर कब्जा कर लेता है । सुग्रीव राम की सहायता की अपेक्षा करता है के स्वयं के निर्देश के अनुसार यह प्रथम शताब्दी का ग्रन्थ है । यद्यपि और राम उसकी सहायता कर उस नकली सुग्रीव का वध करते हैं। जैकोबी, प्रो० ध्रुव, पं० परमानन्द शास्त्री आदि कुछ विद्वान् इसे परवर्ती यहाँ भी सुग्रीव के कथानक में से भ्रातृ-द्रोह एवं भ्रातृ-पत्नी से विवाह मानते हैं, फिर भी इसे ईसा की तीसरी शताब्दी के बाद का नहीं माना की घटना को हटाकर उसके चरित्र को उदात्त बनाया गया है । इसी जा सकता है । वाल्मीकि रामायण के बाद रामकथा के स्वतन्त्र ग्रन्थ के प्रकार कैकेयी भरत हेतु राज्य की मांग राम के प्रति विद्वेष के कारण रूप में इसका स्थान प्रथम है । वस्तुत: यह राम-कथा का जैन संस्करण नहीं, अपितु भरत को वैराग्य लेने से रोकने के लिये करती है। राम भी है । ग्रन्थ की अन्त:साक्षियों से सिद्ध होता है कि यह श्वेताम्बर परम्परा पिता की आज्ञा से नहीं अपितु स्वेच्छा से ही वन को चल देते हैं ताकि की रचना है, इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है कि इसमें जैन-मुनि वे भरत को राज्य पाने में बाधक नहीं रहे । इस प्रकार कैकेयी के के लिये 'सियम्बर' शब्द का प्रयोग हुआ है । सम्भवत: श्वेताम्बर शब्द व्यक्तित्व को भी ऊँचा उठाया गया है । न केवल यही अपितु सीताहरण के प्रयोग का यह प्राचीनतम उल्लेख है। ग्रंथ की भाषा महाराष्ट्री प्राकृत के प्रकरण में भी मृगचर्म हेतु स्वर्ण मृग मारने के सीता के आग्रह की है, जो श्वेताम्बर परम्परा में आगमेतर ग्रन्थों की भाषा रही है । दिगम्बर घटना को स्थान न देकर राम एवं सीता के चरित्र को निर्दोष और परम्परा के ग्रन्थों का प्रणयन शौरसेनी प्राकृत में हुआ है । सबसे अहिंसामय बनाया गया है । रावण के चरित्र को उदात्त बनाने हेतु यह उल्लेखनीय बात यह है कि ग्रन्थकार के समक्ष वाल्मीकि रामायण के बताया गया है कि उसने किसी मुनि के समक्ष यह प्रतिज्ञा ले रखी थी साथ समवायांग का वह मूलपाठ भी रहा होगा जिसमें लक्ष्मण (नारायण) कि मैं किसी परस्त्री का उसकी स्वीकृति के बिना शील भंग नहीं करूंगा। की माता को केकई बताया गया था। लेखक के सामने मूल प्रश्न यह इसलिये वह सीता को समझा कर सहमत करने का प्रयत्न करता है, था कि आगम की प्रामाणिकता को सुरक्षित रखते हुए, वाल्मीकि के बलप्रयोग नहीं करता है । मांस-भक्षण के दोष दिखाकर सामिष भोजन साथ किस प्रकार समन्वय किया जाये । यहाँ उसने एक अनोखी सूझ से जन-मानस को विरत करना भी जैनधर्म की मान्यताओं के प्रसार का से काम लिया, वह लिखता है कि लक्ष्मण की माता का पितृगृह का ही एक प्रयत्न है । ग्रन्थ में वानरों एवं राक्षसों को विद्याधरवंश के मानव नाम तो कैकेयी था, किन्तु विवाह के पश्चात दशरथ ने उसका नाम बताया गया है, किन्तु यह भी सिद्ध किया गया है कि वे कला-कौशल परिवर्तन कर उसे 'सुमित्रा' नाम दिया । पउमचरिय में भरत की माता को और तकनीक में साधारण मनुष्यों से बहुत बढ़े-चढ़े थे । वे पाद'केगई' कहा गया है । वाल्मीकि रामायण से भिन्न इस ग्रंथ की रचना विहारी न होकर विमानों में विचरण करते थे । इस प्रकार इस ग्रंथ में का मुख्य उद्देश्य काव्यानन्द की अनुभूति न होकर, कथा के माध्यम से विमलसूरि ने अपने युग में प्रचलित रामकथा को अधिक युक्ति संगत धर्मोपदेश देना है । ग्रन्थ के प्रारम्भ में श्रेणिकचिंता नामक दूसरे उद्देशक और धार्मिक बनाने का प्रयास किया है। में इसका उद्देश्य रामकथा में आई असंगतियों तथा कपोल-कल्पनाओं विमलसूरि के पउमचरिय के बाद रामकथा का एक विवरण हमें
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
संघदास गणी (छठी शताब्दी) की वसुदेवहिंडी में मिलता है। वसुदेवहिंडी से भी प्रकाशन हो चुका है । हेमचन्द्र सामान्यतया तो विमलसूरि की की रामकथा कुछ प्रसंगों के संदर्भ में पउमचरिय की रामकथा से भिन्न रामकथा का ही अनुसरण करते हैं, किन्तु उन्होंने सीता के वनवास का है और वाल्मीकि रामायण के निकट है । इसकी विशेषता यह है कि कारण, सीता के द्वारा रावण का चित्र बनाना बताया है। यद्यपि उन्होंने इसमें सीता को रावण और मन्दोदरी की पुत्री बताया गया है, जिसे एक इस प्रसंग के शेष सारे कथानक में पउमचरिय का ही अनुसरण किया पेटी में बन्द कर जनक के उद्यान में गड़वा दिया गया था, जहाँ से हल है, फिर भी सौतियाडाह के कारण राम की अन्य पत्नियों ने सीता से चलाते समय जनक को उसकी प्राप्ति हुई थी। इस प्रकार यहाँ सीता की रावण का चित्र बनवाकर, उसके सम्बन्ध में लोकापवाद प्रसारित किया, कथा को तर्कसंगत बनाते हुए भी उसका साम्य भूमि से उत्पन्न होने की ऐसा मनोवैज्ञानिक आधार भी प्रस्तुत कर दिया है । इस प्रसंग में भद्रेश्वर धारणा के साथ जोड़ा गया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि संघदासगणी सूरि की कहावली का अनुसरण करते हैं । चौदहवीं शताब्दी में धनेश्वर ने रामकथा को कुछ भिन्न रूप में प्रस्तुत किया है। अधिकांश श्वेताम्बर ने शत्रुजय माहात्म्य में भी रामकथा का विवरण दिया है । सोलहवीं लेखकों ने विमलसूरि का ही अनुसरण किया है। मात्र यही नहीं दिगम्बर शताब्दी में देवविजय गणी ने रामचरित्र पर संस्कृत में एक स्वतन्त्र ग्रंथ परम्परा में पद्मपुराण के रचयिता रविसेन (७वीं शताब्दी) और अपभ्रंश लिखा है । इसी प्रकार मेघ विजय (१७वीं शताब्दी) ने लघुत्रिषष्टि में भी पउमचरिउ के रचयिता यापनीयस्वयम्भू ने भी विमलसूरि का ही पूरी रामकथा का संक्षिप्त विवरण दिया है । इन ग्रंथों के अतिरिक्त जिनरत्न तरह अनुकरण किया है । पद्मपुराण तो पउमचरिय का ही विकसित सिद्धांत कोष में और भी कुछ श्वेताम्बर आचार्यों के द्वारा रचित रामकथा संस्कृत रूपान्तरण मात्र है । यद्यपि उन्होंने उसे दिगम्बर परम्परा के सम्बन्धी ग्रंथों का उल्लेख उपलब्ध है । इन प्राकृत और संस्कृत की अनुरूप ढालने का प्रयास किया है ।
रामकथाओं के अतिरिक्त अपभ्रंश, राजस्थानी और हिन्दी में भी श्वेताम्बर आठवीं शताब्दी में हरभिद्र ने अपने धूर्ताख्यान में और नवीं आचार्यों ने रामकथा सम्बन्धी साहित्य लिखा है । इस सम्बन्ध में अभी शताब्दी में शीलाङ्काचार्य ने अपने ग्रंथ 'चउपन्नमहापुरिसचरिय' में अति भी व्यापक सर्वेक्षण और शोध की आवश्यकता है। संक्षेप में रामकथा को प्रस्तुत किया है । भद्रेश्वर (११वीं शताब्दी) की सोलहवीं शताब्दी में उपकेशगच्छ के वाचक विनय समुद्र ने कहावली में भी रामकथा का संक्षिप्त विवरण उपलब्ध हैं। तीनों ही राजस्थानी में पद्मचरित लिखा था । सम्प्रति स्थानकवासी जैन मुनि ग्रन्थकार कथा विवेचन में विमलसूरि की परम्परा का पालन करते हैं। शुक्लचंदजी ने भी 'शुक्ल जैन रामायण' के नाम से हिन्दी पद्य में यद्यपि भद्रेश्वरसूरि ने सीता के द्वारा सपत्नियों के आग्रह पर रावण के पैर रामकथा लिखी है । संस्कृत, अपभ्रंश, राजस्थानी और हिन्दी हनुमान का चित्र बनाने का उल्लेख किया । ये तीनों ही रचनाएँ प्राकृत भाषा में चरित्र, अंजना सुन्दरी चरित्र और सीता चरित्र के रूप में अनेकों खण्ड हैं। १२वीं शताब्दी में हेमचन्द्र ने अपने ग्रन्थ योगशास्त्र की स्वोपज्ञवृत्ति काव्य भी उपलब्ध हैं । सम्प्रति आचार्य तुलसी के द्वारा रचित अग्निपरीक्षा में तथा त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में संस्कृत भाषा में रामकथा को प्रस्तुत तो बहुचर्चित है ही। इस प्रकार रामकथा के विकास में श्वेताम्बर जैन किया है । त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में वर्णित रामकथा का स्वतन्त्र रूप आचार्यों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।
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भगवान महावीर की निर्वाण तिथि पर पुनर्विचार
सामान्यतया जैन लेखकों ने अपनी काल गणना को शक संवत् ४. वीर जिन के मुक्ति प्राप्त करने के ६०५ वर्ष एवं ५ माह से समीकृत करके यह माना है कि महावीर के निर्वाण के ६०५ वर्ष और पश्चात् शक नृप हुआ। पाँच माह पश्चात् शक राजा हुआ। इसी मान्यता के आधार पर वर्तमान इसके अतिरिक्त षट्खण्डागम की “धवला" टीका में भी में भी महावीर का निर्वाण ई.पू. ५२७ माना जाता है। आधुनिक जैन महावीर के निर्वाण के कितने वर्षों के पश्चात् शक (शालिवाहन शक) लेखकों में दिगम्बर परम्परा के पं. जुगलकिशोरजी मुख्तार एवं श्वेताम्बर नृप हुआ, इस सम्बन्ध में तीन मतों का उल्लेख हुआ है११. परम्परा के मुनि श्री कल्याण विजयजी आदि ने भी वीरनिर्वाण ई.पू. १. वीरनिर्वाण के ६०५ वर्ष और पाँच माह पश्चात् ५२७ वर्ष में माना है। लगभग ७वीं शती से कुछ अपवादों के साथ इस २. वीरनिर्वाण के १४७९३ वर्ष पश्चात् तिथि को मान्यता प्राप्त है। श्वेताम्बर परम्परा में सर्वप्रथम “तित्थोगाली'४ ३. वीरनिर्वाण के ७९९५ वर्ष और पाँच माह पश्चात् नामक प्रकीर्णक में और दिगम्बर परम्परा में सर्वप्रथम "तिलोयपण्णत्ति"५ श्वेताम्बर परम्परा में आगमों की देवर्द्धि की अन्तिमवाचना में स्पष्ट रूप से यह उल्लेख मिलता है कि महावीर के निर्वाण के ६०५ भगवान महावीर के निर्वाण के कितने समय पश्चात् हुई, इस सम्बन्ध में वर्ष एवं ५ माह के पश्चात् शक नृप हुआ। ये दोनों ग्रन्थ ईसा की ६- स्पष्टतया दो मतों का उल्लेख मिलता है-प्रथम मत उसे वीरनिर्वाण के ७वीं शती में निर्मित हुए हैं। इसके पूर्व किसी भी ग्रन्थ में महावीर के ९८० वर्ष पश्चात् मानता है, जबकि दूसरा मत उसे ९९३ वर्ष पश्चात् निर्वाणकाल को शक संवत् से समीकृत करके उनके अन्तर को स्पष्ट मानता है।१२ किया गया हो- यह मेरी जानकारी में नहीं है। किन्तु इतना निश्चित है कि श्वेताम्बर परम्परा में चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्यारोहणकाल को लगभग ६-७वीं शती से ही महावीरनिर्वाण शक पूर्व ६०५ में हुआ था, लेकर भी दो मान्यतायें पायी जाती हैं। प्रथम परम्परागत मान्यता के यह एक सामान्य अवधारणा रही है। इसके पूर्व कल्पूसत्र की स्थविरावली अनुसार वे वीरनिर्वाण संवत् २१५ में राज्यासीन हुए १३ जबकि दूसरी और नन्दीसूत्र की वाचक वंशावली में महावीर की पट्टपरम्परा का उल्लेख हेमचन्द्र की मान्यता के अनुसार वे वीरनिर्वाण के १५५ वर्ष पश्चात् तो है किन्तु इनमें आचार्यों के कालक्रम की कोई चर्चा नहीं है। अत: इनके राज्यासीन हुए।१४ हेमचन्द्र द्वारा प्रस्तुत यह दूसरी मान्यता महावीर के आधार पर महावीर की निर्वाण तिथि को निश्चित करना एक कठिन समस्या ई.पू. ५२७ में निर्वाण प्राप्त करने की अवधारणा में बाधक है।१५ इस है। कल्पसूत्र में यह तो उल्लेख मिलता है कि अब वीरनिर्वाण के ९८० विवेचन से इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि महावीर का निवार्ण तिथि के वर्ष वाचनान्तर से ९९३ वर्ष व्यतीत हो चुके है।६ इससे इतना ही फलित सम्बन्ध में प्राचीनकाल में भी विवाद था। होता है कि वीरनिर्वाण के ९८० या ९९३ वर्ष पश्चात् देवर्द्धिक्षमाश्रमण चूँकि महावीर की निर्वाण तिथि के सम्बन्ध में प्राचीन आन्तरिक ने प्रस्तुत ग्रन्थ की यह अन्तिम वाचना प्रस्तुत की। इसी प्रकार स्थानांग, साक्ष्य सबल नहीं थे, अत: पाश्चात्य विद्वानों ने बाह्य साक्ष्यों के आधार भगवतीसूत्र और आवश्यकनियुक्ति में निह्नवों के उल्लेखों के साथ वे पर महावीर की निर्वाण तिथि को निश्चित करने का प्रयत्न किया, महावीर के जीवनकाल और निर्वाण से कितने समय पश्चात् हुए हैं- यह परिणामस्वरूप महावीर की निर्वाण तिथि के सम्बन्ध में अनेक नये मत निर्देश प्राप्त होता है। यही कुछ ऐसे सूत्र हैं जिनकी बाह्य सुनिश्चित समय भी प्रकाश में आये। महावीर की निर्वाण तिथि के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों वाले साक्ष्यों से तुलना करके ही हम महावीर की निर्वाण तिथि पर विचार के मत इस प्रकार हैंकर सकते हैं।
१. हरमन जकोबी१६ ई.पू. ४७७- इन्होंने हेमचन्द्र के परिशिष्टपर्व महावीर की निर्वाण तिथि के प्रश्न को लेकर प्रारम्भ से मत- के उस उल्लेख को प्रामाणिक माना है कि चन्द्रगुप्त मौर्य वीरनिर्वाण के वैभिन्य रहे हैं। दिगम्बर परम्परा के द्वारा मान्य तिलोयपण्णत्ति में यद्यपि १५५ वर्ष पश्चात् राज्यासीन हुआ और इसी आधार पर महावीर की निर्वाण यह स्पष्ट उल्लेख है कि वीरनिर्वाण के ६०५ वर्ष एवं ५ मास पश्चात् तिथि निश्चित की। शक नृप हुआ, किन्तु उसमें इस सम्बन्ध में निम्न चार मतान्तरों का भी २. जे. शारपेन्टियर१७ ई.पू. ४६७- इन्होंने भी हेमचन्द्र को आधार उल्लेख मिलता है।१०
बनाया है और चन्द्रगुप्त मौर्य के १५५ वर्ष पूर्व महावीर का निर्वाण माना। १. वीर जिनेन्द्र के मुक्ति प्राप्त होने के ४६१ वर्ष पश्चात् शक ३.पं. ए. शान्तिराज शास्त्री१८ ई.पू. ६६३- इन्होंने शक संवत् को विक्रम नृप हुआ।
संवत् माना है और विक्रम सं. के ६०५ वर्ष पूर्व महावीर का निर्वाण माना। २. वीर भगवान् के मुक्ति प्राप्त होने के ९७८५ वर्ष पश्चात् ४.प्रो. काशीप्रसाद जायसवाल१९- इन्होंने अपने लेख आइडेन्टीफिकेशन शक नृप हुआ।
आफ कल्की में मात्र दो परम्पराओं का उल्लेख किया है। महावीर की ३. वीर भगवान् के मुक्ति प्राप्त होने के १४७९३ वर्ष पश्चात् निर्वाण तिथि का निर्धारण नहीं किया है। शक नृप हुआ।
५. एस. व्ही. वैक्टेश्वर२० ई.पू. ४३७- इनकी मान्यता अनन्द
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
विक्रम संवत् पर आधारित है। यह विक्रम संवत् के ९० वर्ष बाद वर्ष पश्चात् हुआ था। ज्ञातव्य है कि “दीघनिकाय" के इस प्रसंग में जहाँ प्रचलित हुआ था।
निर्ग्रन्थ ज्ञातृपूत्र आदि छहों तीर्थंकरों को अर्धवयगत कहा गया, वहाँ गौतम ६. पं. जुगलकिशोरजी मुख्तार२१ ई.पू. ५२८- इन्होंने अनेक तर्को बुद्ध की वय के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा गया है।२९ के आधार पर परम्परागत मान्यता को पुष्ट किया।
किन्तु उपरोक्त तथ्य के विपरीत “दीघनिकाय" में यह भी सूचना ७. मुनि श्री कल्याणविजय२२ ई.पू. ५२८- इन्होंने भी परम्परागत मिलती है कि महावीर बुद्ध के जीवनकाल में ही निर्वाण को प्राप्त हो मान्यता की पुष्टि करते हुए उसकी असंगति के निराकरण का प्रयास गये थे। “दीघनिकाय" के वे उल्लेख निम्नानुसार हैंकिया है।
ऐसा मैंने सुना-एक समय भगवान् शाक्य (देश) में वेधन्जा ८. प्रो. पी.एच.एल इगरमोण्ट २३ ई.पू. २५२- इनके तर्क का आधार नामक शाक्यों के आम्रवन प्रासाद में विहार कर रहे थे। जैन परम्परा में तिष्यगुप्त की संघभेद की घटना का जो महावीर के उस समय निगण्ठ नातपुत्त (=तीर्थंकर महावीर) की पावा में जीवनकाल में उनके कैवल्य के १६वें वर्ष में घटित हुई, बौद्ध संघ में हाल ही में मृत्यु हुई थी। उनके मरने पर निगण्ठों में फूट हो गई थी, तिष्यरक्षिता द्वारा बोधि वृक्ष को सुखाने तथा संघभेद की घटना से जो दो पक्ष हो गये थे, लड़ाई चल रही थी, कलह हो रहा था। वे लोग एकअशोक के राज्यकाल में हुई थी समीकृत कर लेना है।
दसूरे को वचन-रूपी वाणों से बेधते हुए विवाद करते थे-“तुम इस ९. वी.ए. स्मिथ २४ ई.पू.५२७- इन्होंने सामान्यतया प्रचलित धर्मविनय (धर्म) को नहीं जानते, मैं इस धर्मविनय को जानता हूँ। तुम अवधारण को मान्य कर लिया है।
भला इस धर्मविनय को क्या जानोगे? तुम मिथ्या प्रतिपन्न हो (तुम्हारा १०. प्रो. के. आर. नारमन२५ लगभग ई.पू. ४००- भगवान समझना गलत है), मैं सम्यक् -प्रतिपन्न हूँ। मेरा कहना सार्थक है और महावीर की निर्वाण तिथि का निर्धारण करने हेतु जैन साहित्यिक स्त्रोतों तुम्हारा कहना निरर्थक। जो (बात) पहले कहनी चाहिये थी वह तुमने पीछे के साथ-साथ हमें अनुश्रुतियों और अभिलेखीय साक्ष्यों पर भी विचार कही और जो पीछे कहनी चाहिये थी, वह तुमने पहले की। तुम्हारा वाद करना होगा। पूर्वोक्त मान्यताओं में कौन सी मान्यता प्रामाणिक है, इसका बिना विचार का उल्टा है। तुमने वाद रोपा, तुम निग्रह-स्थान में आ गये। निश्चय करने के लिये हम तुलनात्मक पद्धति का अनुसरण करेंगे और इस आक्षेप से बचने के लिये यत्न करो, यदि शक्ति है तो इसे सुलझाओ। यथासम्भव अभिलेखीय साक्ष्यों को प्राथमिकता देंगे।
मानो निगण्ठों में युद्ध (बध) हो रहा था। भगवान महावीर के समकालिक व्यक्तियों में भगवान बुद्ध, निगण्ठ नातपुत्त के जो श्वेत-वस्त्रधारी गृहस्थ शिष्य थे, वे भी बिम्बसार, श्रेणिक और अजातशत्रु कुणिक के नाम सुपरिचित हैं। जैन निगण्ठ के वैसे दुराख्यात (ठीक से न कहे गये), दुष्प्रवेदित (ठीक से स्रोतों की अपेक्षा इनके सम्बन्ध में बौद्ध स्रोत हमें अधिक जानकारी प्रदा न साक्षात्कार किये गये), अ-नैर्याणिक (पार न लगाने वाले), अन्करते हैं। जैन स्रोतों के अध्ययन से भी इनकी समकालिकता पर कोई उपशम-संवर्तनिक (न-शान्तिगामी), अ-सम्यक् -संबुद्ध-प्रवेदित (किसी सन्देह नहीं किया जा सकता है। जैन आगम साहित्य बुद्ध के जीवन वृत्तान्त बुद्ध द्वारा न साक्षात् किया गया), प्रतिष्ठा (नीव)-रहित भिन्न-स्तूप, के सम्बन्ध में प्राय: मौन हैं, किन्तु बौद्ध त्रिपिटक साहित्य में महावीर आश्रयरहित धर्म में अन्यमनस्क हो खिन और विरक्त हो रहे थे।३०
और बुद्ध की समकालिक उपस्थिति के अनेक सन्दर्भ हैं। किन्तु यहाँ हम इस प्रकार हम देखते हैं कि जहाँ एक ओर त्रिपिटक साहित्य उनमें से केवल दो प्रसंगों की चर्चा करेंगे। प्रथम प्रसंग में दीघनिकाय का में महावीर को अधेड़वय का कहा गया है, वहीं दूसरी ओर बुद्ध के वह उल्लेख आता है जिसमें अजातशत्रु अपने समय के विभिन्न धर्माचार्यों जीवनकाल में उनके स्वर्गवास की सूचना भी है। इतना निश्चित है कि से मिलता है। इस प्रसंग में अजातशत्रु का महामात्य निर्ग्रन्थ ज्ञातृपुत्र के दोनों बातें एक साथ सत्य सिद्ध नहीं हो सकती। मुनि कल्याणविजय जी सम्बन्ध में कहता है-“हे देव! ये निर्ग्रन्थ ज्ञातृपुत्र संघ और गण के स्वामी आदि ने बुद्ध के जीवनकाल में महावीर के निर्वाण सम्बन्धी अवधारणा हैं, गण के आचार्य हैं, ज्ञान, यशस्वी तीर्थंकर हैं, बहुत से लोगों के को भ्रान्त बताया है, उन्होंने महावीर के कालकवलित होने की घटना को श्रद्धास्पद और सज्जन मान्य हैं। ये चिरप्रव्रजित एव अर्धगतवय (अधेड़) उनकी वास्तविक मृत्यु न मानकर, उनकी मृत्यु का प्रवाद माना है। जैन हैं।२६ तात्पर्य यह है कि अजातशत्रु के राज्यासीन होने के समय महावीर आगमों में भी यह स्पष्ट उल्लेख है कि उनके निर्वाण के लगभग १६ लगभग ५० वर्ष के रहे होंगे क्योंकि उनका निर्वाण अजातशत्रु कुणिक के वर्ष पूर्व उनकी मृत्यु का प्रवाद फैल गया था जिसे सुनकर अनेक जैन राज्य के २२वें वर्ष में माना जाता है। उनकी सर्व आयु ७२ वर्ष में से २२ श्रमण भी अश्रुपात करने लगे थे। चूँकि इस प्रवाद के साथ महावीर के वर्ष कम करने पर उस समय वे ५० वर्ष के थे-यह सिद्ध हो जाता है।२७ पूर्व शिष्य मंखलीगोशाल और महावीर एवं उनके अन्य श्रमण शिष्यों जहाँ तक बुद्ध का प्रश्न है वे अजातशत्रु के राज्यासीन होने के ८वें वर्ष में के बीच हुए कटु-विवाद की घटना जुड़ी हुई थी। अत: दीघनिकाय का निर्वाण को प्राप्त हुए, ऐसी बौद्ध लेखकों की मान्यता है।२८ इस आधार प्रस्तुत प्रसंग इन दोनों घटनाओं का एक मिश्रित रूप है। अत: बुद्ध के पर दो तथ्य फलित होते हैं- प्रथम महावीर जब ५० वर्ष के थे, तब बुद्ध जीवनकाल में महावीर की मृत्यु के दीघनिकाय के उल्लेख को उनकी (८०-८) ७२ वर्ष के थे अर्थात् बुद्ध, महावीर से उम्र में २२ वर्ष बड़े थे। वास्तविक मृत्यु का उल्लेख न मानकर गोशालक के द्वारा विवाद के पश्चात् दूसरे यह कि महावीर का निर्वाण, बुद्ध के निर्वाण के (२२-८=१४) १४ फेंकी गई तेजोलेश्या से उत्पन्न दाह ज्वार जन्य तीव्र बीमारी के फलस्वरूप
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भगवान महावीर की निर्वाण तिथि पर पुनर्विचार
फैले उनकी मृत्यु के प्रवाद का उल्लेख मानना होगा।
चूँकि बुद्ध का निर्वाण अजातशत्रुकुणिक के राज्याभिषेक के आठवें वर्ष ३१ में हुआ, अतः महावीर का निर्वाण २२वें वर्ष में ३२ हुआ होगा। अतः इतना निश्चित है कि महावीर का निर्वाण बुद्ध के निर्वाण के १४ वर्ष बाद हुआ। इसलिये बुद्ध की निर्वाण की तिथि का निर्धारण महावीर की निर्वाण तिथि को प्रभावित अवश्य करेगा।
सर्वप्रथम हम महावीर की निर्वाण तिथि का जैनस्त्रोतों एवं अभिलेखों के आधार पर निर्धारण करेंगे और फिर यह देखेंगे कि इस आधार पर बुद्ध की निर्वाण तिथि क्या होगी ?
महावीर की निर्वाण तिथि का निर्धारण करते समय हमें यह देखना होगा कि आचार्य भद्रबाहु और स्थूलभद्र की महापद्मनन्द एवं चन्द्रगुप्त मौर्य से, आचार्य सुहस्ति की सम्प्रति से, आर्य मंक्षु (मंगू), आर्य नन्दिल, आर्च नागहस्ति, आर्यवृद्ध एवं आर्य कृष्ण की अभिलेखों में उल्लेखित उनके काल से तथा आर्य देवर्द्धिक्षमाश्रमण की वल्लभी के राजा ध्रुवसेन से समकालीनता किसी प्रकार बाधित नहीं हो। इतिहासविद् सामान्यतया इस सम्बन्ध में एक मत हैं कि चन्द्रगुप्त का राज्यसत्ताकाल ई.पू. २९७ तक रहा है। ३३ अतः वही सत्ताकाल भद्रबाहु और स्थूलीभद्र का भी होना चाहिये। यह एक निर्विवाद तथ्य है कि चन्द्रगुप्त ने नन्दों से सत्ता हस्तगत की थी और अन्तिम नन्द के मन्त्री शकडाल का पुत्र स्थूलीभद्र था। अतः स्थूलीभद्र को चन्द्रगुप्त मौर्य का कनिष्ठ समसामयिक और भद्रबाहु को चन्द्रगुप्त मौर्य का वरिष्ठ समसामयिक होना चाहिये चाहे यह कथन पूर्णतः विश्वसनीय माना जाये या नहीं माना जाये कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने जैन दीक्षा ग्रहण की थी फिर भी जैन अनुश्रुतियों के आधार पर इतना तो मानना ही होगा कि भद्रबाहु और स्थूलीभद्र चन्द्रगुप्त मौर्य के समसामयिक थे। स्थूलीभद्र के वैराग्य का मुख्य कारण उसके पिता के प्रति नन्दवंश के अन्तिम शासक महापद्यनन्द का दुर्व्यवहार और उनकी घृणित हत्या मानी जा सकती है । ३४ पुनः स्थूलीभद्र भद्रबाहु से नहीं, अपितु सम्भूतिविजय से दीक्षित हुए थे। पाटलिपुत्र की प्रथम वाचना के समय वाचना प्रमुख भद्रबाहु और स्थूलीभद्र न होकर सम्भूतिविजय रहे हैं- क्योंकि उस वाचना में ही स्थूलीभद्र को भद्रबाहु से पूर्व ग्रन्थों का अध्ययन कराने का निश्चय किया गया था अत: प्रथम वाचना नन्द शासन केही अन्तिम चरण में कभी हुई है। इस प्रथम वाचना का काल वीरनिर्वाण संवत् माना जाता है। यदि हम एक बार दोनों परम्परागत मान्यताओं को सत्य मानकर यह मानें कि आचार्य भद्रबाहु वीरनिर्वाण सं. १५६ से १७० तक आचार्य रहे ३५ और चन्द्रगुप्त मौर्य वीरनिर्वाण सं. २१५ में राज्यासीन हुआ तो दोनों की सम-सामयिकता सिद्ध नहीं होती है। इस मान्यता का फलित यह है कि चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्यासीन होने के ४५ वर्ष पूर्व ही भद्रबाहु स्वर्गवासी हो चुके थे। इस आधार पर स्थूलीभद्र चन्द्रगुप्त मौर्य के लघु सम-सामयिक भी नहीं रह जाते हैं। अतः हमें यह मानना होगा कि चन्द्रगुप्त मौर्य वीरनिर्वाण के १५५ वर्ष पश्चात् ही राज्यासीन हुआ । हिमवन्त स्थाविरावली ३५ एवं आचार्य हेमचन्द्र के परिशिष्टपर्व ७ में भी यही तिथि मानी गई है। इस आधार पर भद्रबाहु और स्थूलिभद्र की
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चन्द्रगुप्त मौर्य से सम-सामयिकता भी सिद्ध हो जाती है। लगभग सभी पट्टावलियाँ भद्रबाहु के आचार्यत्वकाल का समय वीरनिर्वाण १५६१७० मानती हैं। ३८ दिगम्बर परम्परा में भी तीन केवली और पाँच । श्रुतकेवलि का कुल समय १६२ वर्ष माना गया है । भद्रबाहु अन्तिम श्रुतकेवलि ये अतः दिगम्बर परम्परानुसार भी उनका स्वर्गवास वीरनिर्वाण सं. १६२ मानना होगा। १९ इस प्रकार दोनों परम्पराओं के अनुसार भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त मौर्य की सम-सामयिकता सिद्ध हो जाती है। मुनि श्री कल्याणविजयजी ने चन्द्रगुप्त मौर्य और भद्रबाहु की सम-सामयिकता सिद्ध करने हेतु सम्भूतिविजय का आचार्यत्वकाल ८ वर्ष के स्थान पर ६० वर्ष मान लिया। इस प्रकार उन्होंने एक ओर महावीर का निर्वाण समय ई.पू. ५२७ मानकर भी भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त मौर्य की समसामयिकता स्थापित करने का प्रयास किया । ४०. 'किन्तु इस सन्दर्भ में आठ का साठ मान लेना उनकी अपनी कल्पना है, इसका प्रामाणिक आधार उपलब्ध नहीं है। ४१ सभी श्वेताम्बर पट्टावलियाँ वीरनिर्वाण सं. १७० में ही भद्रबाहु का स्वर्गवास मानती हैं। पुनः तित्योगाली में भी वहीं निर्दिष्ट है कि वीरनिर्वाण संवत् १७० में चौदह पूर्वो के ज्ञान का विच्छेद (क्षय) प्रारम्भ हुआ। भद्रबाहु ही अन्तिम १४ पूर्वधर थे- उनके बाद कोई भी १४ पूर्वधर नहीं हुआ। अतः भद्रबाहु का स्वर्गवास श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार वीरनिर्वाण सं. १७० में और दिगम्बर परम्परा के अनुसार वीरनिर्वाण सं. १६२ ही सिद्ध होता है और इस आधार पर भद्रबाहु एवं स्थूलीभद्र की अन्तिम नन्द एवं चन्द्रगुप्त मौर्य से सम-सामयिकता तभी सिद्ध हो सकती है जब महावीर का निर्वाण विक्रम पूर्व ४१० तथा ई.पू. ४६७ माना जाये । अन्य अभी विकल्पों में भद्रबाहु एवं स्थूलीभद्र की अन्तिम नन्दराजा और चन्द्रगुप्त मौर्य से समकालिकता घटित नहीं हो सकती है। "तित्योगाली पइत्रयं" में भी स्थूलीभद्र और नन्दराजा की समकालिकता वर्णित है। ४२ अतः इन आधारों पर महावीर का निर्वाण ई. पू. ४६७ ही अधिक युक्ति संगत लगता है।
पुनः आर्य सुहस्ति और सम्प्रति राजा की समकालीनता भी जैन परम्परा में सर्वमान्य है । इतिहासकारों ने सम्प्रति का समय ई.पू. २३१२२१ माना है। ४३ जैन पट्टावलियों के अनुसार आर्य सुहस्ति का युग प्रधान आचार्यकाल वीरनिर्वाण सं. २४५ - २९१ तक रहा है। यदि हम वीरनिर्वाण ई.पू. ५२७ को आधार बनाकर गणना करें तो यह मानना होगा कि आर्य सुहस्ति ई.पू. २८२ में युग प्रधान आचार्य बने और ई.पू. २३६ में स्वर्गवासी हो गये। इस प्रकार वीरनिर्वाण ई.पू. ५२७ में मानने पर आर्य सुहस्ति और सम्प्रति राजा में किसी भी रूप में समकालीनता नहीं बनती है किन्तु यदि हम वीरनिर्वाण ई.पू. ४६७ मानते हैं तो आर्य सुहस्ति का काल ४६७ - २४५ ई.पू. २२२ से प्रारम्भ होता है। इससे समकालिकता तो बन जाती है- यद्यपि आचार्य के आचार्यत्वकाल में सम्प्रति का राज्यकाल लगभग १ वर्ष ही रहता है। किन्तु आर्य सुहस्ति का सम्पर्क सम्प्रति से उसके यौवराज्य काल में, जब वह अवन्ति का शासक था, तब हुआ था और सम्भव है कि तब आर्य सुहस्ति संघ के युग प्रधान आचार्य न होकर भी प्रभावशाली मुनि रहे हों। ज्ञातव्य है कि
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आर्य सुहस्ति स्थूलीभद्र से दीक्षित हुए थे। पट्टावलियों के अनुसार स्थूलभद्र की दीक्षा वीरनिर्वाण सं. १४६ में हुई थी और स्वर्गवास वीरनिर्वाण २१५ में हुआ था। इससे यह फलित होता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्याभिषेक के ९ वर्ष पूर्व अन्तिम नन्द राजा (नव नन्द) के राज्यकाल में वे दीक्षित हो चुके थे। यदि पट्टावली के अनुसार आर्य सुहस्ति की सर्व आयु १०० वर्ष और दीक्षा आयु ३० वर्ष मानें तो वे वीरनिर्वाण सं. २२१ अर्थात् ई.पू. २४६ (वीरनिर्वाण ई.पू. ४६७ मानने पर) में दीक्षित हुए हैं। इससे आर्य सुहस्ति की सम्मति से समकालिकता तो सिद्ध हो जाती है किन्तु उन्हें स्थूलीभद्र का हस्त दीक्षित मानने में ६ वर्ष का अन्तर आता है क्योंकि उनके दीक्षित होने के ६ वर्ष पूर्व ही वीरनिर्वाण से २१५ में स्थूलीभद्र का स्वर्गवास हो चुका था। सम्भावना यह भी हो सकती है कि सुहस्ति ३० वर्ष की आयु के स्थान पर २३ - २४ वर्ष में ही दीक्षित हो गये हों। फिर भी यह सुनिश्चित है कि पट्टावलियों के उल्लेखों के आधार पर आर्य सुहस्ति और सम्प्रति की समकालीनता वीरनिर्वाण ई.पू. ४६७ पर ही सम्भव है उसके पूर्व ई. पूर्व ५२७ में अथवा उसके पश्चात् की किसी भी तिथि को महावीर का निर्वाण मानने पर यह समकालीनता सम्भव नहीं है।
जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६
इस प्रकार भद्रबाहु और स्थूलिभद्र की महापद्मनन्द और चन्द्रगुप्त मौर्य से तथा आर्य सुहस्ती को सम्प्रति से समकालीनता वीरनिर्वाण ई.पू. ४६७ मानने पर सिद्ध की जा सकती है। अन्य सभी विकल्पों में इनकी समकालिकता सिद्ध नहीं होती है। अतः मेरी दृष्टि में महावीर का निर्वाण ई.पू. ४६७ मानना अधिक युक्तसंगत होगा।
अब हम कुछ अभिलेखों के आधार पर भी महावीर के निर्वाण
समय पर विचार करेंगे
मथुरा के अभिलेखो ४४ में उल्लेखित पाँच नामों में से नन्दिसूत्र स्थविरावली ४५ के आर्य मंगु, आर्य नन्दिल और आर्य हस्ति (हस्त हस्ति)- ये तीन नाम तथा कल्पसूत्र स्थविरावली ४६ के आर्य कृष्ण और आर्य वृद्ध ये दो नाम मिलते हैं। पट्टावलियों के अनुसार आर्य मंगु का युग-प्रधान आचार्यकाल वीरनिर्वाण संवत् ४५१ से ४७० तक माना गया है। ४७ वीरनिर्वाण ई.पू. ४६७ मानने पर इनका काल ई.पू. १६ से ई० सन् ३ तक और वीरनिर्वाण ई.पू. ५२७ मानने पर इनका काल ई.पू. ७६ से ई.पू. ५७ आता है। जबकि अभिलेखीय आधार पर इनका काल शक सं. ५२ (हुविष्क वर्ष ५२) अर्थात् ई. सन् १३० आता है४८ अर्थात् इनके पट्टावली और अभिलेख के काल में वीरनिर्वाण ई.पू. ५२७ मानने पर लगभग २०० वर्षों का अन्तर आता है और वीरनिर्वाण ई. प ४६७ मानने पर भी लगभग १२७ वर्ष का अन्तर तो बना ही रहता है। अनेक पट्टावलियों में आर्य मंगु का उल्लेख भी नहीं है। अतः उनके काल के सम्बन्ध में पट्टावलीगत अवधारणा प्रामाणिक नहीं है। पुनः आर्य मंगु का नाम मात्र नन्दीसूत्र स्थविरावली में है और यह स्थविरावली भी गुरु-शिष्य परम्परा की सूचक नहीं है। अतः बीच में कुछ नाम छूटने की सम्भावना है जिसकी पुष्टि स्वयं मुनि कल्याणविजयजी ने भी की है। ४९ इस प्रकार आर्य मंगु के अभिलेखीय साक्ष्य के आधार पर महावीर के निर्वाण काल का निर्धारण सम्भव
नहीं है। क्योंकि इस आधार पर ई.पू. ५२७ की परम्परागत मान्यता ई.पू. ४६७ की विद्वन्मान्य मान्यता दोनों ही सत्य सिद्ध नहीं होती है। अभिलेख एवं पट्टावली का समीकरण करने पर इससे वीरनिर्वाण ई.पू. ३६० के लगभग फलित होता है। इस अनिश्चितता का कारण आर्य मंग के काल को लेकर विविध भ्रान्तियों की उपस्थिति है।
(
जहाँ तक आर्य नन्दिल का प्रश्न है, हमें उनके नाम का उल्लेख भी नन्दिसूत्र में मिलता है। नन्दिसूत्र में उनका उल्लेख आर्य मंगु के पश्चात् और आर्य नागहस्ति के पूर्व मिलता है। ५° मथुरा के अभिलेखों में नन्दिक नन्दिल) का एक अभिलेख शक संवत् ३२ का है। दूसरे शक सं. ९३ के लेख में नाम स्पष्ट नहीं है, मात्र “न्दि" मिला है । ५१ आर्य नन्दिल का उल्लेख प्रबन्धकोश एवं कुछ प्राचीन पट्टावलियों में भी है किन्तु कहीं पर भी उनके समय का उल्लेख नहीं होने से इस अभिलेखीय साक्ष्य के आधार पर महावीर के निर्वाणकाल का निर्धारण सम्भव नहीं है।
अब हम नागहस्ति की ओर आते हैं- सामान्यतया सभी पट्टावलियों में आर्य वज्र का स्वर्गवास वीरनिर्वाण सं. ५८४ में माना गया है आर्य वज्र के पश्चात् १३ वर्ष आर्य रक्षित, २० वर्षं पुष्यमित्र और ३ वर्ष वज्रसेन युगप्रधान रहे अर्थात् वोरनिर्वाण सं. ६२० में वज्रसेन का स्वर्गवास हुआ। मेरुतुंग की विचारश्रेणी में इसके बाद आर्य निर्वाण ६२१ से ६९० तक युगप्रधान रहे। ५२ यदि मथुरा अभिलेख के हस्तहस्ति ही नागहस्ति हों तो माघहस्ति के गुरु के रूप में उनका उल्लेख शक सं. ५४ के अभिलेख में मिलता है अर्थात् वे ई.सन् १३२ के पूर्व हुए हैं। यदि हम वीरनिर्वाण ई.पू. ४६७ मानते हैं तो उनका युग प्रधान काल ई. सन् १५४-२२३ आता है। अभिलेख उनके शिष्य को ई. सन् १३२ में होने की सूचना देता है यद्यपि यह मानकर सन्तोष किया जा सकता है कि युग प्रधान होने के २२ वर्ष पूर्व उन्होंने किसी को दीक्षित किया होगा। यद्यपि इनकी सर्वायु १०० वर्ष मानने पर तब उनकी आयु मात्र ११ वर्ष होगी और ऐसी स्थिति में उनके उपदेश से किसी का दीक्षित होना और उस दीक्षित शिष्य के द्वारा मूर्ति प्रतिष्ठा होना असम्भव सा लगता है। किन्तु यदि हम परम्परागत मान्यता के आधार पर वीरनिर्वाण को शक संवत् ६०५ पूर्व या ई. पू. ५२७ मानते हैं तो पट्टावलीगत उल्लेखों और अभिलेखीय साक्ष्यों में संगति बैठ जाती है। इस आधार पर उनका युग प्रधान काल शक सं. १६ से शक सं. ८५ के बीच आता है और ऐसी स्थिति में शक सं. ५४ में उनके किसी शिष्य के उपदेश से मूर्ति प्रतिष्ठा होना सम्भव है। यद्यपि ६९ वर्ष तक उनका युग प्रधानकाल मानना सामान्य बुद्धि से युक्ति संगत नहीं लगता है। अतः नागहस्ति सम्बन्धी यह अभिलेखीय साक्ष्य पट्टावली की सूचना को सत्य मानने पर महावीर का निर्वाण ई.पू. ५२७ मानने के पक्ष में जाता है ।
पुन: मथुरा के एक अभिलेखयुक्त अंकन में आर्यकृष्ण का नाम सहित अंकन पाया जाता है। यह अभिलेख शक संवत् ९५ का है। १३ यदि हम आर्यकृष्ण का समीकरण कल्पसूत्र स्थाविरावली में शिवभूति के बाद उल्लिखित आर्यकृष्ण से करते हैं५४ तो पट्टावलियों एवं विशेषावश्यक भाष्य के आधार पर इनका सत समय वीरनिर्वाण सं. ६०९
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भगवान महावीर की निर्वाण तिथि पर पुनर्विचार
६५३ के आस-पास निश्चित होता है५५ क्योंकि इन्हीं आर्यकृष्ण और शिवभूति निर्वाण काल को ई.पू. ४६७ मानने की ही पुष्टि करते हैं। ऐसी स्थिति के वस्त्र सम्बन्धी विवाद के परिणामस्वरूप बोटिक निह्नव की उत्पत्ति हुई में बुद्ध निर्वाण ई.पू. ४८२. जिसे अधिकांश पाश्चात्य विद्वानों ने मान्य थी और इस विवाद का काल वीरनिर्वाण संवत् ६०९ सुनिश्चित है। किया है, मानना होगा और तभी यह सिद्ध होगा कि बुद्ध के निर्वाण के वीरनिर्वाण ई.पू.४६७ मानने पर उस अभिलेख काल का ६०९- लगभग १५ वर्ष पश्चात् महावीर का निर्वाण हुआ। ४६७=१४२ ई. आता है। यह अभिलेखयुक्त अंकन ९५+ ७८=१७३ई. का है। चूंकि अंकन में आर्यकृष्ण को एक आराध्य के रूप में अंकित सन्दर्भ करवाया गया है। यह स्वाभाविक है कि उनकी ही शिष्य परम्परा के किसी १. (अ) णिव्वाणे वीर जिणे छव्वाससदेसु पंचवरिसेसु। पणमासेसु आर्य अर्ह द्वारा ई.सन् १७३ में यह अंकन उनके स्वर्गवास के २०- गदेसु संजादो सगणिओ अहवा।।-तिलोयपण्णत्ति, ४/१४९९. २५ वर्ष बाद ही हुआ होगा। इस प्रकार यह अभिलेखीय साक्ष्य वीरनिर्वाण (ब) पंच य मासा पंच य वासा छच्चेव होंति वाससया। संवत् ई.पू. ४६७ मानने पर ही अन्य साहित्यिक उल्लेखों से संगति रख परिणिव्वुअस्सअरिहतो सो उण्णण्णो सगो राया।।-तित्थोगाली सकता है, अन्य किसी विकल्प से इसकी संगति बैठाना सम्भव नहीं है। पइन्नय, ६२३
मथुरा अभिलेखों में एक नाम आर्यवृद्धहस्ति का भी मिलता २. पं. जुगलकिशोरजी मुख्तार, जैन साहित्य और इतिहास पर विशद है। इनके दो अभिलेख मिलते हैं। एक अभिलेख शक सं.६० (हुविष्क प्रकाश, श्री वीरशासन संघ, कलकत्ता, १९५६, पृ. २६-४४, वर्ष ६०) और दूसरा शक सं. ७९ का है।५६ ईस्वी सन् की दृष्टि से ४५-४६ ये दोनों अभिलेख ई.सन् १३८ और ई.सन् १५७ के हैं। यदि ये वृद्धहस्ति ३. मुनि कल्याणविजय, वीरनिर्वाण संवत् और जैन कालगणना, ही कल्पसूत्र स्थविरावली के आर्यवृद्ध और पट्टावलियों के वृद्धदेव हों प्रकाशक क.वि. शास्त्र समिति, जालौ (मारवाड़), पृ. १५९ तो पट्टावलियों के अनुसार उन्होंने वीरनिर्वाण ६९५ में कोरंटक में प्रतिष्ठा ४. तित्थोगाली पइन्नयं (गाथा ६२३), पइण्णयसुत्ताई, सं. मुनि करवाई थी।५७ यदि हम वीरनिर्वाण ई.पू ४६७ मानते हैं तो यह काल पुष्यविजय, प्रकाशक श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, ६९५-४६७-२१८ ई. आता है। अत: वीरनिर्वाण ई.पू. ५२७ मानता ४०००३६ पर इस अभिलेखीय साक्ष्य और पट्टावलीगत मान्यता का समीकरण ठीक ५. तिलोयपण्णत्ति, ४/१४९९ सं. प्रो. हीरालाल जैन, जैन बैठ जाता है। पट्टावली में वृद्ध का क्रम २५वाँ है। प्रत्येक आचार्य का संस्कृतिरक्षक संघ शोलापुर, औसत सत्ता काल २५ वर्ष मानने पर इनका समय वीरनिर्वाण ई.पू. मानने ६. कल्पसूत्र, १४७, पृ. १४५, अनुवादक माणिकमुनि, प्रकाशकपर भी अभिलेख से वीरनिर्वाण ६२५ आयेगा और तब ६२५- सोभागमल हरकावत, अजमेर ४६७=१५८ संगति बैठ जायेगी।
७. ठाणं (स्थानांग), अगुंसुत्तााणि भाग १, आचार्य तुलसी, अन्तिम साक्ष्य जिस पर माहवीर की निर्वाण तिथि का निर्धारण जैनविश्वभारती, लाडनूं ७/१४१ किया जा सकता है, वह है महाराज ध्रुवसेन के अभिलेख और उनका ८... भगवई, ९/२२२-२२९ (अंगसुत्ताणि भाग २-आचार्य तुलसी, काल। परम्परागत मान्यता यह है कि वल्लभी की वाचना के पश्चात् जैनविश्वभारती लाडनूं) सर्वप्रथम कल्पसूत्रकी सभा के समक्ष वाचना आनन्दपुर (बडनगर) में ९. आवश्यकनियुक्ति, ७७८-७८३ (नियुक्तिसंग्रह-सं. विजयजिनसेन महाराज ध्रुवसेन के पुत्र-मरण के दुःख को कम करने के लिये की गयी। सूरीश्वर, हर्षपुष्पामृत, जैनग्रन्थमाला, लाखा बाखल, सौराष्ट्र, यह काल वीरनिर्वाण सं. ९८० या ९९३ माना जाता है।५८ ध्रुवसेन के १९८९) अनेक अभिलेख उपलब्ध हैं। ध्रुवसेन प्रथम का काल ई.सं. ५२५ से १०. तिलोयपण्णति, ४/१४९६-१४९९ ५५० तक माना जाता है।५९ यदि यह घटना उनके राज्यारोहण के द्वितीय ११. धवला टीका समन्वित षट्खण्डागम, खण्ड-४ भाग-१, पुस्तक वर्ष ई. सन् ५२६ की हो तो महावीर का निर्वाण ९९३-५२६=४६९ ९ पृ० १३२-१३३ ई.पू. सिद्ध होता है।
१२. कल्पसूत्र (मणिकमुनि, अजमेर), सूत्र १४७, पृ० १४५ इस प्रकार इन पाँच अभिलेखीय साक्ष्यों में तीन तो ऐसे अवश्य १३. तित्थोगालीपइन्नयं (पइण्णयसुत्ताई), ६२१ ।। हैं जिनसे महावीर का निर्वाण ई.प. ४६७ सिद्ध होता है। जबकि दो ऐसे १४. एवं च श्री महावीर मुक्तैर्वर्षशते, पंच पंचाशदधिके चन्द्रगुप्तोऽभवन्त्रपः।। हैं जिनसे वीरनिर्वाण ई.पू. ५२७ भी सिद्ध हो सकता है। एक अभिलेख
परिशिष्टपर्व, हेमचन्द्र, सर्ग, ८/३३९ (जैनधर्म प्रसारक संस्था का इनसे कोई संगति नहीं है। ये असंगतियाँ इसलिए भी है कि पट्टावलियों
भावनगर) में आचार्यों का जो काल दिया गया है उसकी प्रामाणिकता सन्दिग्ध है १५.
ज्ञातव्य है चन्दुगुप्त मौर्य को वीरनिर्वाण सं० २१५ में राज्यासीन और आज हमारे पास ऐसा कोई आधार नहीं है जिसके आधार पर इस
मानकर ही वीरनिर्वाण ई०पू० ५२७ में माना जा सकता है, किन्तु असंगति को समाप्त किया जा सके। फिर भी इस विवेचना में हम यह
उसे वीरनिर्वाण १५५ में राज्यासीन मानने पर वीरनिर्वाण ई०पू० पाते हैं कि अधिकांश साहित्यिक एवं अभिलेखीय साक्ष्य महावीर के
४६७ मानना होगा। १६. Jacobi, V. Harman--Buddhas und Mahaviras Nirvana
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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
und die politische Entwicklung Magadhas Zu Jerier Zeit ३९. धवला टीका समन्वित षट्खण्डागम, खण्ड-४, पुस्तक- ९
557.
१७. Charpentier Jarl Uttaradhyayanasutra, Introduction p.13.16.
१८. अनेकान्त, वर्ष ४ किरण १०, शास्त्री ए शान्तिराज-- भगवान महावीर के निर्वाण सम्वत् की समालोचना
१९. Indian Antiquary, Vol. XLVI, 1917, July 1917, Page 151 152, Swati Publications, Delhi, 1985.
२०. The Journal of the royal Asiatic Society, 1917, Vankteshvara, S.V.-- The Date of Vardhamana, p. 122 - 130.
२१. मुख्तार जुगलकिशोर "जैनसाहित्य और इतिहास पर विशद ४२ - प्रकाश", श्री वीरशासन पृ० २६-५६
४३.
--
४४
२२. मुनि कल्याणविजय वीरनिर्वाण संवत् और जैन कालगणना प्रकाशक क०वि० शास्त्र समिति जालौर, वि०स० १९८७ २३. Eggermont, P. H.L. -- "The Year of Mahavira's Decease". २४. Smith, V.A. - The Jaina Stupa nad other Antiquities of Mathura, Indological Book House, Delhi, 1969, p. 14. 34. Norman, K.R.--Observations on the Dates of the Jina and the Buddh.
२६. दीघनिकाय, सामफलमुतं २/१/७
२७. मुनि कल्याणविजय, वीरनिर्वाण संवत् और जैनकालगणना, पृ०४-५
२८. मुनि कल्याणविजय, वीरनिर्वाण और जैनकालगणना, पृ० १
२९. दीघनिकाय, सामञ्ञफलसुत्तं, २/२/८
३०. दीघनिकाय, पासादिकसुतं ६/१/१
--
३५. विविधगच्छीय पट्टावलीसंग्रह (प्रथम भाग ) जिनविजय जी ३६. वीरनिर्वाण सम्वत् और जैन काल गणना मुनि कल्याणविजय,
पृ०१७८
३७. परिशिष्ट पर्व हेमचन्द्र, ८/३३९
,
३८. (अ) पट्टावलीपरागसंग्रह मुनि कल्याणविजयजी
पृ०१३२,१३३
४०. (अ) मुनि कल्याणविजय पट्टावलीपरागसंग्रह, पृ० ५२ मुनिजी द्वारा किये गये अन्य परिवर्तनों के लिये देखें पृ० ४९
(ब) विविधगच्छीय पट्टावली संग्रह प्रथमभाग सम्पादक-जिनविजय, सिंघी जैन शास्त्र शिक्षा पीड़, भारतीय विद्याभवन, बम्बई, प्रथम भाग पृष्ठ १७
४१.
४५.
४६.
४७.
३९. वही,
५१. जैन शिलालेखसंग्रह, भाग २, लेखक्रमांक ४१, ६७
३२. मुनि कल्याणविजय, वीरनिर्वाण संवत् और जैनकालगणना पृ०५ ५२. मुनि कल्याणविजय, वीरनिर्वाण संवत् और जैनकालगणना, ३३. (अ) Majumbar, R. C. Ancient India, p. 108
जालौर, पृ० १०६ टिप्पणी
(ब) डॉ० रमाशंकर त्रिपाठी प्राचीन भारत का इतिहास पृ० १३९ ३४. तित्योगाली पइन्नयं, ७८ (पइण्णय सुत्ताई, महावीर विद्यालय,
५३.
V.A Smith. The Jian Stupa and other Antiquities of Matura, p. 24
बम्बई)
५४.
कल्पसूत्र स्थविरावली (अन्तिम गाथा भाग) गाया १ ५५. विशेषावश्यकभाष्य
५६. जैनशिलालेखसंग्रह, भाग २, लेख क्रमांक ५६, ५९
५७. मुनि जिनविजय, विविधगच्छीय पट्टावली संग्रह, प्रथम भाग,
४८.
४९.
५०
(ब) मुनि कल्याणविजय, वीरनिर्वाण, संवत् और जैन कालगणना, पृ० १३७
ज्ञातव्य है कि मुनिजी द्वारा एक ओर सम्भूति विजय के काल को आठ वर्ष से साठ वर्ष करना और दूसरी ओर मौर्यों के इतिहास सम्मत १०८ वर्ष के काल को एक सौ साठ वर्ष करना केवल अपनी मान्यता की पुष्टि का प्रयास है।
तित्वोगालीपइत्रयं पइण्ण सुत्ताई। ७९३, ७९४
डॉ० रामशंकर त्रिपाठी प्राचीन भारत का इतिहास, पृ० १३९। (अ) जैनशिलालेख संग्रह, भाग २ क्रमांक ४१.
५४,५५,५६,५९,६३२
(ब) आर्यकृष्ण (कण्ह) के लिये देखें- V. A. Smith-Thejain Stupa and other Antiquities of Mathura, P.24
नन्दीसूत्र रथविरावली, २७, २८, २९
कल्पसूत्र स्थविरावली (अन्तिम गाथ भाग) गाथा १ एवं ४ मुनि कल्याणविजय, वीरनिर्वाण संवत् और जैन काल गणना, जालौर, पृ० १२२, आधार- युगप्रधान पट्टावलियाँ। जैन शिलालेख संग्रह, भाग २, लेख क्रमांक ५४
मुनि कल्याणविजय, वीरनिर्वाण संवत् और जैन कालगणना, जालौर, पृ० १२१ एवं १३१
५०. नन्दीसूत्र स्थाविरावली, २७, २८ एवं २९
पृ०१७
५८. कल्पसूत्र (सं माणिकमुनि, अजमेर) १४७
५९. गुजरात नो राजकीय अने सांस्कृतिक इतिहास ग्रन्थ ३, बी० जे० इन्स्टीट्यूट, अहमदाबाद-९, पृ० ४०
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तार्किक शिरोमणि आचार्य सिद्धसेन "दिवाकर'
सिद्धसेन दिवाकर जैन दर्शन के शीर्षस्थ विद्वान् रहे हैं। जैन निष्कर्ष में सिद्धसेन को ५वीं शताब्दी का आचार्य माना है, वहाँ मैं इस दर्शन के क्षेत्र में अनेकान्तवाद की तार्किक स्थापना करने वाले वे प्रथम काल सीमा को लगभग १०० वर्ष पहले विक्रम की चतुर्थ सदी में ले पुरुष हैं। जैन दर्शन के आध तार्किक होने के साथ-साथ वे भारतीय दर्शन जाने के पक्ष में हूँ जिसकी चर्चा मैं यहाँ करना चाहूँगा । के आद्य संग्राहक और समीक्षक भी हैं। उन्होंने अपनी कृतियों में विभिन्न भारतीय दर्शनों की तार्किक समीक्षा भी प्रस्तुत की है । ऐसे महान् सिद्धसेन का काल दार्शनिक के जीवन वृत्त और कृतित्व के सम्बन्ध में तेरहवीं-चौदहवीं उनके सत्ता काल के सम्बन्ध में पं० सुखलाल जी ने एवं डॉ० शताब्दी में रचित प्रबन्धों के अतिरिक्त अन्यत्र मात्र सांकेतिक सूचनाएँ ही श्रीप्रकाश पाण्डेय ने विस्तृत चर्चा की है। अतः हम तो यहाँ केवल मिलती हैं । यद्यपि उनके अस्तित्व के सन्दर्भ में हमें अनेक प्राचीन ग्रन्थों संक्षिप्त चर्चा करेंगे। प्रभावकचरित में सिद्धसेन की गुरु परम्परा की में संकेत उपलब्ध होते हैं। लगभग चतुर्थ शताब्दी से जैन ग्रन्थों में उनके विस्तृत चर्चा हुई है। उसके अनुसार सिद्धसेन आर्य स्कन्दिल के प्रशिष्य और उनकी कृतियों के सन्दर्भ हमें उपलब्ध होने लगते हैं। फिर भी उनके और वृद्धवादी के शिष्य थे। आर्य स्कन्दिल को माथुरी वाचना का प्रणेता जीवनवृत्त और कृतित्व के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी का अभाव ही माना जाता है। यह वाचना वीर निर्वाण ८४० में हुई थी। परम्परागत है। यही कारण है कि उनके जीवनवृत्त, सत्ताकाल, परम्परा तथा कृतियों मान्यता के आधार पर आर्य स्कन्दिल का समय विक्रम की चतुर्थ को लेकर अनेक विवाद आज भी प्रचलित हैं। यद्यपि पूर्व में पं० शताब्दी (८४०-४७०=३७०) के उत्तरार्ध के लगभग आता है। किन्तु सुखलाल जी, प्रो० ए०एन० उपाध्ये, पं० जुगल किशोर जी मुख्तार यदि हम पाश्चात्य विद्वानों की प्रमाण पुरस्सर अवधारणा के आधार पर आदि विद्वानों ने उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के सन्दर्भ में प्रकाश डालने वीर निर्वाण विक्रम संवत् ४१० वर्ष पूर्व मानें तो स्कन्दिल का समय का प्रयत्न किया है किन्तु इन विद्वानों की परस्पर विरोधी स्थापनाओं के विक्रम की चौथी शती का उत्तरार्ध और पाँचवी का पूर्वार्ध (८४०कारण विवाद अधिक गहराता ही गया। मैंने अपने ग्रन्थ 'जैन धर्म का ४१०=४३०) सिद्ध होगा। कभी-कभी प्रशिष्य अपने प्रगुरु के समकालिक यापनीय सम्प्रदाय' में उनकी परम्परा और सम्प्रदाय के सम्बन्ध में भी होता है इस आधार पर सिद्धसेन दिवाकर का काल भी विक्रम की पर्याप्त रूप से विचार करने का प्रयत्न किया है किन्तु उनके समग्र चौथी शताब्दी का उत्तरार्ध भी माना जा सकता है। प्रबन्धों में सिद्धसेन व्यक्त्वि और कृतित्व के सम्बन्ध में आज तक की नवीन खोजों के को विक्रमादित्य का समकालीन भी माना गया है। यदि चन्द्रगुप्त द्वितीय परिणामस्वरूप जो कुछ नये तथ्य सामने आये हैं, उन्हें दृष्टि में रखकर को विक्रमादित्य मान लिया जाय तो सिद्धसेन चतुर्थ शती के सिद्ध होते डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय ने सिद्वसेन दिवाकर के व्यक्तित्व और कृतित्व हैं। यह माना जाता है उनकी सभा में कालिदास, क्षपणक आदि नौ रत्न के सन्दर्भ में अब तक जो कुछ लिखा गया था उसका आलोड़न और थे और यदि क्षपणक सिद्धसेन ही थे तो सिद्धसेन का काल विक्रम की विलोड़न करके ही एक कृति का प्रणयन किया है । उनकी यह कृति चतुर्थ शताब्दी का उत्तरार्ध माना जा सकता है, क्योंकि चन्द्रगुप्त द्वितीय मात्र उपलब्ध सूचनाओं का संग्रह ही नहीं है अपितु उनके तार्किक चिन्तन का काल भी विक्रम की चर्तुथ शताब्दी का उत्तरार्ध सिद्ध होता है। पुन: का परिणाम है । यद्यपि अनके स्थलों पर मैं उनके निष्कर्षों से सहमत मल्लवादी ने सिद्धसेन दिवाकर के सन्मतितर्क पर टीका लिखी थी, नहीं हूँ फिर भी उन्होंने जिस तार्किकता के साथ अपने पक्ष को प्रस्तुत ऐसा निर्देश आचार्य हरिभद्र ने किया है। प्रबन्धों के मल्लवादी का काल किया है वह निश्चय ही श्लाघनीय है । प्रस्तुत निबन्ध में मैं उन्हीं तथ्यों वीर निर्वाण संवत् ८८४ (८८४-४७०=४१४) के आसपास माना पर प्रकाश डालूँगा, जिनपर या तो उन्होंने कोई चर्चा नहीं की है या जाता है । इसका तात्पर्य यह है कि विक्रम की पाँचवीं शताब्दी के पूर्वार्ध जिनके सम्बन्ध में मैं उनके निष्कर्षों से सहमत नहीं हूँ।
में सन्मतिसूत्र पर टीका लिखी जा चुकी थी । अतः सिद्धसेन विक्रम वस्तुत: सिद्धसेन के सन्दर्भ में प्रमुख रूप से तीन ऐसी बातें रहीं की चौथी शताब्दी के उत्तरार्ध में हुए होंगे। पुनः विक्रम की छठी शताब्दी है जिनपर विद्वानों में मतभेद पाया जाता है
में पूज्यपाद देवनन्दी ने जैनेन्द्र व्याकरण में सिद्धसेन के मत का (१) उनका सत्ता काल
उल्लेख किया है। पूज्यपाद देवनन्दी का काल विक्रम की पाँचवी-छठी (२) उनकी परम्परा और
शती माना गया है। इससे भी वे विक्रम संवत् की पांचवी-छठी शताब्दी (३) न्यायावतार एवं कुछ द्वात्रिंशद्वात्रिंशिकाओं के कृतित्व का के पूर्व हुए हैं, यह तो सुनिश्चित हो जाता है। प्रश्न ।
मथुरा के अभिलेखों में दो अभिलेख ऐसे हैं जिनमें आर्य ___ यद्यपि उनके सत्ताकाल के सन्दर्भ में मेरे मन्तव्य एवं डॉ० वृद्धहस्ति का उल्लेख है । संयोग से इन दोनों अभिलेखों में काल भी पाण्डेय के मन्तव्य में अधिक दूरी नहीं हैं फिर भी जहाँ उन्होंने अपने दिया हुआ है । ये अभिलेख हुविष्क के काल के हैं । इनमें से प्रथम में
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तार्किक शिरोमणी आचार्य सिद्धसेन 'दिवाकर'
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वर्ष ६० का और द्वितीय में वर्ष ७९ का उल्लेख है। यदि हम इसे शक आदि कुछ दिगम्बर विद्वानों ने उन्हें यापनीय परम्परा का आचार्य सिद्ध संवत् मानें तो तद्नुसार दूसरे अभिलेख का काल लगभग विक्रम संवत् करने का प्रयास किया है। प्रो० उपाध्ये ने जो तर्क दिये उन्हें स्पष्ट २१५ होगा। यदि ये लेख उनकी युवावस्था के हों तो आचार्य वृद्धहस्ति करते हुए तथा अपनी ओर से कुछ अन्य तर्कों को प्रस्तुत करते हुए का काल विक्रम की तीसरी शताब्दी के उत्तरार्ध तक माना जा सकता डॉ० कुसुम पटोरिया ने भी उन्हें यापनीय परम्परा का सिद्ध किया है। है। इस दृष्टि से भी सिद्धसेन का काल विक्रम की तीसरी शताब्दी के प्रस्तुत सन्दर्भ में हम इन विद्वानों के मन्तव्यों की समीक्षा करते हुए उत्तरार्ध से चौथी शताब्दी के पूर्वार्ध के बीच माना जा सकता है। यह निश्चय करने का प्रयत्न करेंगे कि वस्तुत: सिद्धसेन की वास्तविक
इस समग्र चर्चा से इतना निश्चित होता है कि सिद्धसेन दिवाकर परम्परा क्या थी। के काल की सीमा रेखा विक्रम संवत् की तृतीय शताब्दी के उत्तरार्ध से लेकर विक्रम संवत् की पंचम शताब्दी के पूर्वार्ध के बीच ही कहीं निश्चित क्या सिद्धसेन दिगम्बर हैं ? होगी। पं० सुखलाल जी, पं० बेचरदास जी ने उनका काल चतुर्थ-पंचम समन्तभद्र की कृति के रूप में मान्य रत्नकरण्डक श्रावकाचार शताब्दी निश्चित किया है। प्रो० ढाकी ने भी उन्हें पाँचवीं शताब्दी के में प्राप्त न्यायावतार की जिस समान कारिका को लेकर यह विवाद है उत्तरार्ध में माना है, किन्तु इस मान्यता को उपर्युक्त अभिलेखों के कि यह कारिका सिद्धसेन ने समन्तभद्र से ली है, इस सम्बन्ध में प्रथम आलोक में तथा चन्द्रगुप्त द्वितीय से समकालिकता की दृष्टि से थोड़ा तो यही निश्चित नहीं है कि रत्नकरण्डक समन्तभद्र की कृति है या नहीं। पीछे लाया जा सकता है। यदि आर्य वृद्धहस्ति ही वृद्धवादी हैं और दसरे यह कि यह कारिका दोनों ग्रन्थों में अपने योग्य स्थान पर है अत: सिद्धसेन उनके शिष्य हैं तो सिद्धसेनका काल विक्रम की तृतीय शती इसे सिद्धसेन से समन्तभद्र ने लिया है या समन्तभद्र से सिद्धसेन ने लिया के उत्तरार्ध से चतुर्थ शताब्दी के पूर्वार्ध के बीच ही मानना होगा। कुछ है, यह कह पाना कठिन है। तीसरे, यदि समन्तभद्र भी लगभग ५वीं प्रबन्धों में उन्हें आर्य धर्म का शिष्य भी कहा गया है । आर्य धर्म का शती के आचार्य हैं और न्यायावतार को सिद्धसेन की कृति मानने में उल्लेख कल्पसूत्र स्थविरावली में है । वे आर्य वृद्ध के बाद तीसरे क्रम बाधा नहीं है, तो यह भी सम्भव है, समन्तभद्र ने इसे सिद्धसेन से लिया पर उल्लिखित हैं। इसी स्थविरावली में एक आर्य धर्म देवर्धिगणिक्षमाश्रमण हो । समन्तभद्र की आप्तमीमांसा में भी सन्मतितर्क को कुछ गाथाएँ के पूर्व भी उल्लेखित हैं । यदि हम सिद्धसेन के सन्मतिप्रकरण और अपने संस्कत रूप में मिलती हैं। तत्त्वार्थसत्र कि तुलना करें तो दोनो में कुछ समानता परिलक्षित होती है। पं० जगलकिशोर जी मख्तार ने सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन विशेष रूप से तत्त्वार्थ सूत्र में अनेकान्त दृष्टि को व्याख्यायित करने के को दिगम्बर परम्परा का आचार्य सिद्ध करने का प्रयत्न किया है तथापि लिए 'अर्पित' और 'अनर्पित' जैसे शब्दों का प्रयोग हुआ है । इन शब्दों मख्तार जी उन्हें दिगम्बर परम्परा का आचार्य होने के सम्बन्ध में कोई का प्रयोग सन्मतितर्क (१/४२) में भी पाया जाता है। मेरी दृष्टि में भी आधारभत प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पाये हैं। उनके तर्क मुख्यत: दो सिद्धसेन उमास्वाति से किंचित परवर्ती हैं और उनका काल विक्रम की बातों पर स्थित हैं। - प्रथमतः सिद्धसेन के ग्रन्थों से यह फलित नहीं. चतुर्थ शती से परवर्ती नहीं है।
होता कि वे स्त्रीमुक्ति, केवलीभुक्ति और सवस्त्रमुक्ति आदि के समर्थक
थे । दूसरे यह कि सिद्धसेन अथवा उनके ग्रन्थ सन्मतिसूत्र का उल्लेख सिद्धसेन दिवाकर की परम्परा
जिनसेन, हरिषेण, वीरषेण आदि दिगम्बर आचार्यों ने किया है- इस जहाँ तक उनकी परम्परा का प्रश्न है डॉ० पाण्डेय ने अपनी आधार पर उनके दिगम्बर परम्परा के होने की सम्भावना व्यक्त करते कृति में इसकी विस्तृत चर्चा नहीं की है । सम्भवत: डॉ० पाण्डेय ने हैं। यदि आदरणीय मुख्तार जी उनके ग्रन्थों में स्त्रीमुक्ति, केवलीभुक्ति उनकी परम्परा के सन्दर्भ में विशेष उल्लेख यह जानकर नहीं किया हो या सवस्त्रमुक्ति का समर्थन नहीं होने के निषेधात्मक तर्क के आधार पर कि इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा मैंने अपने ग्रन्थ जैन धर्म का यापनीय उन्हें दिगम्बर मानते हैं, तो फिर इसी प्रकार के निषेधात्मक तर्क के सम्प्रदाय में की है।
__ आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि उनके ग्रन्थों में स्त्रीमुक्ति, सिद्धसेन दिवाकर के सम्प्रदाय के विषय में विभिन्न दृष्टिकोण केवलीभक्ति और सवस्त्रमुक्ति का खण्डन नहीं है, अत: वे श्वेताम्बर परिलक्षित होते हैं । जिनभद्र, हरिभद्र आदि से प्रारम्भ करके पं० परम्परा के आचार्य हैं। सुखलाल जी, पं० बेचरदास जी आदि सभी श्वेताम्बर परम्परा के पुनः मुख्तार जी यह मान लेते हैं कि रविषेण और पन्नाटसंघीय विद्वान् एकमत से उन्हें अपने सम्प्रदाय का स्वीकार करते हैं। इसके जिनसेन दिगम्बर परम्परा के हैं, यह भी उनकी भ्रांति है । रविषण विपरीत षट्खण्डागम की धवला टीका एवं जिनसेन के हरिवंश तथा यापनीय परम्परा के हैं अत: उनके परदादा गुरू के साथ में सिद्धसेन रविषेण के पद्यपुराण में सिद्धसेन का उल्लेख होने से पं० जुगल दिवाकर का उल्लेख मानें तो भी वे यापनीय सिद्ध होंगे, दिगम्बर तो किशोर मुख्तार जैसे दिगम्बर परम्परा के कुछ विद्वान् उन्हें अपनी किसी भी स्थिति में सिद्ध नहीं होगें। आदरणीय मुख्तारजी ने एक यह परम्परा का आचार्य सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। किन्तु दिगम्बर विचित्र तर्क दिया है कि श्वेताम्बर प्रबन्धों में सिद्धसेन के सन्मतिसूत्र का परम्परा से उनकी कुछ भिन्नताओं को देखकर प्रो० ए०एन० उपाध्ये उल्लेख नहीं है, इसलिए प्रबन्धों में उल्लिखित सिद्धसेन अन्य कोई
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ सिद्धसेन हैं, वे सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन नहीं हैं । किन्तु मुख्तारजी का उल्लेख करती हैं । यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थ यह भी उल्लेख ये कैसे भूल जाते हैं कि प्रबन्ध ग्रन्थों के लिखे जाने के पाँच सौ वर्ष करते हैं कि कुछ प्रश्नों को लेकर उनका श्वेताम्बर मान्यताओं से मतभेद पूर्व हरिभद्र के पंचवस्तु तथा जिनभद्र की निशीथचूर्णि में सन्मतिसूत्र और था, किन्तु इससे यह तो सिद्ध नहीं होता है कि वे किसी अन्य परम्परा उसके कर्ता के रूप में सिद्धसेन के उल्लेख उपस्थित हैं । जब प्रबन्धों के आचार्य थे । यद्यपि सिद्धसेन श्वेताम्बर मान्य आगम साहित्य को से प्राचीन श्वेताम्बर ग्रन्थों में सन्मतिसूत्र के कर्ता के रूप में सिद्धसेन का स्वीकार करते थे किन्तु वे आगमों को युगानुरूप तर्क पुरस्सरता भी उल्लेख है, तो फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि प्रबन्धों में जो प्रदान करना चाहते थे । इसलिए उन्होंने सन्मतिसूत्र में आगमभीरू सिद्धसेन का उल्लेख है वह सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन का न होकर आचार्यों पर कटाक्ष किया तथा आगमों में उपलब्ध असंगतियों का कुछ द्वात्रिंशिकाओं और न्यायावतार के कर्ता किसी अन्य सिद्धसेन का निर्देश भी किया है। परवर्ती प्रबन्धों में उनकी कृति सन्मतिसूत्र का है । पुनः श्वेताम्बर आचार्यों ने यद्यपि सिद्धसेन के अभेदवाद का खण्डन उल्लेख नहीं होने का स्पष्ट कारण यह है कि सन्मतिसूत्र में श्वेताम्बर किया है, किन्तु किसी ने भी उन्हें अपने से भिन्न परम्परा या सम्प्रदाय आगम मान्य क्रमवाद का खण्डन है और मध्ययुगीन सम्प्रदायगत का नहीं बताया है। श्वेताम्बर परम्परा के विद्वान् उन्हें मतभिन्नता के मान्यताओं से जुड़े हुए श्वेताम्बराचार्य यह नहीं चाहते थे कि उनके बावजूद अपनी ही परम्परा का आचार्य प्राचीन काल से मानते आ रहे सन्मतिसूत्र का संघ में व्यापक अध्ययन हो । अतः जानबूझकर उन्होंने हैं। श्वेताम्बर ग्रन्थों में उन्हें दण्डित करने की जो कथा प्रचलित है, वह उसकी उपेक्षा की। भी यही सिद्ध करती है कि वे सचेल धारा में ही दीक्षित हुए थे, क्योंकि पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन किसी आचार्य को दण्ड देने का अधिकार अपनी ही परम्परा के व्यक्ति को दिगम्बर सिद्ध करने के उद्देश्य से यह मत भी प्रतिपादित किया है को होता है- अन्य परम्परा के व्यक्ति को नहीं । अत: सिद्धसेन दिगम्बर कि सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन, कतिपय द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता परम्परा के आचार्य थे, यह किसी भी स्थिति में सिद्ध नहीं होता है। सिद्धसेन और न्यायावतार के कर्ता सिद्धसेन- ये तीनों अलग-अलग
केवल यापनीय ग्रन्थों और उनकी टीकाओं में सिद्धसेन का व्यक्ति हैं। उनकी दृष्टि में सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन दिवाकर उल्लेख होने से इतना ही सिद्ध होता है कि सिद्धसेन यापनीय परम्परा दिगम्बर हैं- शेष दोनों श्वेताम्बर हैं। किन्तु यह उनका दुराग्रह मात्र हैमें मान्य रहे हैं। पुनः श्वेताम्बर धारा के कुछ बातों में अपनी मत-भिन्नता वे यह बता पाने में पूर्णत: असमर्थ रहे हैं कि आखिर ये दोनों सिद्धसेन रखने के कारण उनको यापनीय या दिगम्बर परम्परा में आदर मिलना कौन हैं? सिद्धसेन के जिन ग्रन्थों में दिगम्बर मान्यता का पोषण नहीं अस्वाभाविक भी नहीं है । जो भी हमारे विरोधी का आलोचक होता है, होता हो, उन्हें अन्य किसी सिद्धसेन की कृति कहकर छुटकारा पा लेना वह हमारे लिए आदरणीय होता है, यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है। उचित नहीं कहा जा सकता । उन्हें यह बताना चाहिए कि आखिर ये कुछ श्वेताम्बर मान्यताओं का विरोध करने के कारण सिद्धसेन यापनीय द्वात्रिंशिकायें कौन से सिद्धसेन की कृति हैं और क्यों इन्हें अन्य सिद्धसेन
और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में आदरणीय रहे हैं, किन्तु इसका अर्थ की कृति माना जाना चाहिए ? मात्र श्वेताम्बर मान्यताओं का उल्लेख यह नहीं है कि वे दिगम्बर या यापनीय हैं । यह तो उसी लोकोक्ति के होने से उन्हें सिद्धसेन की कृति होने से नकार देना तो युक्तिसंगत नहीं आधार पर हुआ है कि शत्रु का शत्रु मित्र होता है । किसी भी दिगम्बर है। यह तो तभी सम्भव है जब अन्य सुस्पष्ट आधारों पर यह सिद्ध हो परम्परा के ग्रन्थ में सिद्धसेन के जीवनवृत्त का उल्लेख न होने से तथा चुका हो कि सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन दिगम्बर हैं। इसके विपरीत श्वेताम्बर परम्परा में उनके जीवनवृत्त का सविस्तार उल्लेख होने से तथा प्रतिभा समानता के आधार पर पं० सुखलाल जी इन द्वात्रिंशिकाओं को श्वेताम्बर परम्परा द्वारा उन्हें कुछ काल के लिए संघ से निष्कासित किये सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन की ही कृतियाँ मानते हैं।२। श्वेताम्बर परम्परा में जाने के विवरणों से यही सिद्ध होता है कि वे दिगम्बर या यापनीय सिद्धसेन दिवाकर, सिद्धसेनगणि और सिद्धर्षि का उल्लेख मिलता है, परम्परा के आचार्य नहीं थे । मतभेदों के बावजूद श्वेताम्बरों ने सदैव ही किन्तु इनमें सिद्धसेन दिवाकर को ही सन्मतिसूत्र,स्तुतियों (द्वात्रिंशिकाओं) उन्हें अपनी परम्परा का आचार्य माना है। दिगम्बर आचार्यों ने उन्हें 'द्वेष्य- और न्यायावतार का कर्ता माना गया हैं । सिद्धसेनगणि तत्त्वार्थाधिगमभाष्य सितपट' तो कहा, किन्तु अपनी परम्परा का कभी नहीं माना । एक भी की वृत्ति के कर्ता हैं और सिद्धर्षि-सिद्धसेन के ग्रन्थ न्यायावतार के ऐसा स्पष्ट उल्लेख नहीं है जिसमें सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन को टीकाकार हैं । सिद्धसेनगणि और सिद्धर्षि को कहीं भी द्वात्रिंशिकाओं और दिगम्बर परम्परा का कहा गया हो । जबकि श्वेताम्बर भण्डारों में न्यायावतार का कर्ता नहीं कहा गया है । सिद्धर्षि न्यायावतार के उपलब्ध उनकी कृतियों की प्रतिलिपियों में उन्हें श्वेताम्बराचार्य कहा टीकाकार हैं, न कि कर्ता। गया है।
पुन: आज तक एक भी ऐसा प्रमाण उपलब्ध नहीं है कि किसी श्वेताम्बर परम्परा के साहित्य में छठी-सातवीं शताब्दी से लेकर भी यापनीय या दिगम्बर आचार्य के द्वारा महाराष्ट्री प्राकृत में कोई ग्रन्थ मध्यकाल तक सिद्धसेन के अनेक उल्लेख उपलब्ध होते हैं। पुनः लिखा गया हो । यापनीय और दिगम्बर आचार्यों ने जो कुछ भी प्राकृत सिद्धसेन की कुछ द्वात्रिंशिकायें स्पष्ट रूप से महावीर के विवाह आदि में लिखा है वह सब शौरसेनी प्राकृत में ही लिखा है, जबकि सन्मतिसूत्र श्वेताम्बर मान्यता एवं आगम ग्रन्थों की स्वीकृति और आगमिक सन्दर्भो स्पष्टत: महाराष्ट्री प्राकृत में लिखा गया है। सन्मतिसूत्र का महाराष्ट्री
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तार्किक शिरोमणी आचार्य सिद्धसेन 'दिवाकर'
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प्राकृत में लिखा जाना ही इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है कि सिद्धसेन अपनी परम्परा का मानते हुए ही उनके इस विरोध का निर्देश किया है, यापनीय या दिगम्बर नहीं हैं। वे या तो श्वेताम्बर हैं या फिर उत्तर भारत कभी उन्हें भिन्न परम्परा का नहीं कहा है । दूसरे, यदि हम सन्मतिसूत्र की उस निर्ग्रन्थ धारा के सदस्य हैं, जिससे श्वेताम्बर और यापनीय दोनों को देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि वे आगमों के आधार पर ही अपने मत विकसित हुए हैं। किन्तु वे दिगम्बर तो किसी भी स्थिति में नहीं हैं। की पुष्टि करते थे। उन्होंने आगम मान्यता के अन्तर्विरोध को स्पष्ट करते
सिद्धसेन का सन्मतिसूत्र एक दार्शनिक ग्रन्थ है और उस काल हुए सिद्ध किया है कि अभेदवाद भी आगमिक धारणा के अनुकूल है। तक स्त्री-मुक्ति और केवली-भुक्ति जैसे प्रश्न उत्पन्न ही नहीं हुए थे। वे स्पष्टरूप से कहते हैं कि आगम के अनुसार केवलज्ञान सादि और अतः सन्मतिसूत्र में न तो इनका समर्थन है और न खण्डन ही । इस अनन्त है, तो फिर क्रमवाद सम्भव नहीं होता है क्योंकि केवल काल में उत्तरभारत में आचार और विचार के क्षेत्र में जैन संघ में विभिन्न ज्ञानोपयोग समाप्त होने पर ही केवल दर्शनोपयोग हो सकता है । वे मान्यताएँ जन्म ले चुकी थीं, किन्तु अभी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण लिखते हैं कि सूत्र की आशातना से डरने वाले को इस आगम वचन श्वेताम्बर, दिगम्बर, यापनीय आदि रूपों में नहीं हो पाया था। यह वह पर भी विचार करना चाहिए। वस्तुत: अभेदवाद के माध्यम से वे, उन्हें युग था जब जैन परम्परा में तार्किक चिन्तन प्रारम्भ हो चुका था और आगम में जो अन्तर्विरोध परिलक्षित हो रहा था, उसका ही समाधन कर धार्मिक एवं आगमिक मान्यताओं को लेकर मतभेद पनप रहे थे। रहे थे। वे आगमों की तार्किक असंगतियों को दूर करना चाहते थे और सिद्धसेन का आगमिक मान्यताओं को तार्किकता प्रदान करने का प्रयत्न उनका यह अभेदवाद भी उसी आगमिक मान्यता की तार्किक निष्पत्ति है भी इसी तथ्य की पुष्टि करता है । उस युग में श्वेताम्बर, दिगम्बर और जिसके अनुसार केवलज्ञान सादि किन्तु अनन्त है। वे यही सिद्ध करते यापनीय ऐसे सम्प्रदाय अस्तित्व में नहीं आ पाये थे । श्वेताम्बर एवं हैं कि क्रमवाद भी आगमिक मान्यता के विरोध में है। यापनीय सम्प्रदाय के सम्बन्ध में स्पष्ट नाम निर्देश के साथ जो सर्वप्रथम (३) प्रो० उपाध्ये का यह कथन सत्य है कि सिद्धसेन दिवाकर उल्लेख उपलब्ध होते हैं, वे लराभग ई० सन् ४७५ तदनुसार विक्रम का केवली के ज्ञान और दर्शन के अभेदवाद का सिद्धान्त दिगम्बर सं० ५३२ के लगभग अर्थात् विक्रम की छठी शताब्दी पूर्वार्ध के हैं। परम्परा के युगपद्वाद के अधिक समीप है । हमें यह मानने में भी कोई अत: सिद्धसेन को किसी सम्प्रदाय विशेष से नहीं जोड़ा जा सकता आपत्ति नहीं है कि सिद्धसेन के अभेदवाद का जन्म क्रमवाद और क्योंकि उस युग तक न तो सम्प्रदायों का नामकरण हुआ था और न ही युगपद्वाद के अन्तर्विरोध को दूर करने हेतु ही हुआ है किन्तु यदि वे अस्तित्व में आये थे। मात्र गण, कुल, शाखा आदि का ही प्रचलन सिद्धसेन दिवाकर दिगम्बर या यापनीय होते तो उन्हें सीधे रूप में था और यह स्पष्ट है कि सिद्धसेन विद्याधर शाखा (कुल) के थे। युगपद्वाद के सिद्धान्त को मान्य कर लेना था, अभेदवाद के स्थापना की
क्या आवश्यकता थी? वस्तुत: अभेदवाद के माध्यम से वे एक ओर क्या सिद्धसेन यापनीय हैं ?
केवलज्ञान के सादि-अनन्त होने के आगमिक वचन की तार्किक सिद्धि प्रो० ए०एन० उपाध्ये ने सिद्धसेन के यापनीय होने के सन्दर्भ करना चाहते थे, वहीं दूसरी ओर क्रमवाद और युगपद्वाद की विरोधी में जो तर्क दिये हैं१३, यहाँ उनकी समीक्षा कर लेना भी अप्रासंगिक नहीं अवधारणाओं को समन्यव भी करना चाहते थे। उनका क्रमवाद और होगा।
युगपद्वाद के बीच समन्वय का यह प्रयत्न स्पष्ट रूप से यह सूचित (१) उनका सर्वप्रथम तर्क यह है कि सिद्धसेन दिवाकर के लिए करता है कि वे दिगम्बर या यापनीय नहीं थे। यहाँ यह प्रश्न उठाया आचार्य हरिभद्र ने श्रुतकेवली विशेषण का प्रयोग किया है और श्रुतकेवली जा सकता है कि यदि सिद्धसेन ने क्रमवाद की श्वेताम्बर और युगपद्वाद यापनीय आचार्यों का विशेषण रहा है । अत: सिद्धसेन यापनीय हैं। इस की दिगम्बर मान्यताओं का समन्वय किया है, तो उनका काल सम्प्रदायों सन्दर्भ में हमारा कहना यह है कि श्रुतकेवली विशेषण न केवल यापनीय के अस्तित्व के बाद होना चाहिए । इस सम्बन्ध में हम यह स्पष्ट कर परम्परा के आचार्यों का अपितु श्वेताम्बर परम्परा के प्राचीन आचार्यों का देना चाहते है कि इन विभिन्न मान्यताओं का विकास पहले हुआ है और भी विशेषण रहा है। यदि श्रुतकेवली विशेषण श्वेताम्बर और यापनीय बाद में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया में किसी सम्प्रदाय विशेष ने दोनों ही परम्पराओं में पाया जाता है तो फिर यह निर्णय कर लेना कि किसी मान्यता विशेष को अपनाया है। पहले मान्यताएँ अस्तित्व में सिद्धसेन यापनीय हैं उचित नहीं होगा।
आयीं और बाद में सम्प्रदाय बने । युगपद्वाद भी मूल में दिगम्बर मान्यता (२) आदरणीय उपाध्ये जी का दूसरा तर्क यह है कि सन्मतिसूत्र नहीं है, यह बात अलग है कि बाद में दिगम्बर परम्परा ने उसे मान्य का श्वेताम्बर आगमों से कुछ बातों में विरोध है । उपाध्ये जी के इस कथन रखा है। युगपद्वाद का सर्वप्रथम निर्देश श्वेताम्बर कहे जाने वाले उमास्वाति में इतनी सत्यता अवश्य है कि सन्मतिसूत्र की अभेदवादी मान्यता का के तत्त्वार्थधिगमभाष्य में है५ । सिद्धसेन के समक्ष क्रमवाद और श्वेताम्बर आगमों से विरोध है । मेरी दृष्टि से यही एक ऐसा कारण रहा युगपद्वाद दोनों उपस्थित थे । चूंकि श्वेताम्बरों ने आगम मान्य किए थे है कि श्वेताम्बर आचार्यों ने अपने प्रबन्धों में उनके सन्मतितर्क का इसलिए उन्होंने आगमिक क्रमवाद को मान्य किया । दिगम्बरों को उल्लेख नहीं किया है। लेकिन मात्र इससे वे न तो आगम विरोधी सिद्ध आगम मान्य नहीं थे अत: उन्होंने तार्किक युगपद्वाद को प्रश्रय दिया । होते हैं और न यापनीय ही । सर्वप्रथम तो श्वेताम्बर आचार्यों ने उन्हें अत: यह स्पष्ट है कि क्रमवाद एवं युगपद्वाद की ये मान्यताएँ साम्प्रदायिक
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ ध्रुवीकरण के पूर्व की हैं । इस प्रकार युगपद्वाद और अभेदवाद की हम चाहे उनके गण (वंश) की दृष्टि से विचार करें या काल की निकटता के आधार पर सिद्धसेन को किसी सम्प्रदाय विशेष का सिद्ध दृष्टि से विचार करें सिद्धसेन दिगम्बर, श्वेताम्बर एवं यापनीय परम्पराओं नहीं किया जा सकता है । अन्यथा फिर तो तत्त्वार्थभाष्यकार को भी के अस्तित्व में आने के पूर्व ही हो चुके थे। वे उत्तर भारत की निर्ग्रन्थ दिगम्बर मानना होगा, किन्तु कोई भी तत्त्वार्थभाष्य की सामग्री के आधार धारा में हुए हैं जो आगे चलकर श्वेताम्बर और यापनीय के रूप में पर उसे दिगम्बर मानने को सहमत नहीं होगा।
विभाजित हुई। यापनीय परम्परा के ग्रन्थों में सिद्धसेन का आदरपूर्वक (४) पुन: आदरणीय उपाध्ये जी का यह कहना कि एक उल्लेख उन्हें अपनी पूर्वज धारा के एक विद्वान् आचार्य होने के कारण द्वात्रिंशिका में महावीर के विवाहित होने का संकेत चाहे सिद्धसेन ही है । वस्तुत: सिद्धसेन को श्वेताम्बर या यापनीय सिद्ध करने के प्रयत्न दिवाकर को दिगम्बर घोषित नहीं करता हो, किन्तु उन्हें यापनीय मानने इसलिए निरर्थक है कि पूर्वज धारा में होने के कारण क्वचित् मतभेदों में इससे बाधा नहीं आती है, क्योंकि यापनीयों को भी कल्पसूत्र तो मान्य के होते हुए भी वे दोनों के लिए समान रूप से ग्राह्य रहे हैं । श्वेताम्बर था ही । किन्तु कल्पसूत्र को मान्य करने के कारण वे श्वेताम्बर भी तो और यापनीय दोनों को यह अधिकार है कि वे उन्हें अपनी परम्परा को माने जा सकते है । अत: यह तर्क उनके यापनीय होने का सबल तर्क बताएँ किन्तु उन्हें साम्प्रदायिक अर्थ में श्वेताम्बर या यापनीय नहीं कहा नहीं है । कल्पसूत्र श्वेताम्बर और यापनीयों के पूर्व का ग्रन्थ है और दोनों जा सकता है । वे दोनों के ही पूर्वज हैं। को मान्य है। अत: कल्पसूत्र को मान्य करने से वे दोनों के पूर्वज भी (५) प्रो० ए०एन० उपाध्ये ने उन्हें कर्नाटकीय ब्राह्मण बताकर सिद्ध होते हैं।
कर्नाटक में यापनीय परम्परा का प्रभाव होने से उनको यापनीय परम्परा आचार्य सिद्धसेन के कुल और वंश सम्बन्धी विवरण भी उनकी से जोड़ने का प्रयत्न किया है । किन्तु उत्तर-पश्चिम कर्नाटक में उपलब्ध परम्परा निर्धारण में सहयोगी सिद्ध हो सकते हैं । प्रभावकचरित्र और पाँचवी, छठी शताब्दी के अभिलेखों से यह सिद्ध होता है कि उत्तर भारत प्रबन्धकोश में उन्हें विद्याधर गच्छ का बताया गया है । अत: हमें के श्वेतपट्ट महाश्रमणसंघ का भी उस क्षेत्र में उतना ही मान था जितना सर्वप्रथम इसी सम्बन्ध में विचार करना होगा । दिगम्बर परम्परा ने सेन निर्ग्रन्थ संघ और यापनीयों का था । उत्तर भारत के ये आचार्य भी उत्तर नामान्त के कारण उनकों सेनसंघ का मान लिया है । यद्यपि यापनीय और कर्नाटक तक की यात्रायें करते थे । सिद्धसेन यदि दक्षिण भारतीय दिगम्बर ग्रन्थों में जहाँ उनका उल्लेख हुआ है वहाँ उनके गण या संघ ब्राह्मण भी रहे हों तो इससे यह फलित नहीं होता है कि वे यापनीय थे। का कोई उल्लेख नहीं है । कल्पसूत्र स्थविरावली के अनुसार आर्य उत्तर भारत की निम्रन्थ धारा, जिससे श्वेताम्बर और यापनीयों का विकास सुस्थित के पाँच प्रमुख शिष्यों में स्थविर विद्याधर गोपाल एक प्रमुख हुआ है, का भी विहार दक्षिण में प्रतिष्ठानपुर अर्थात् उत्तर पश्चिमी शिष्य थे। उन्हीं से विद्याधर शाखा निकली । यह विद्याधर शाखा कोटिक कर्नाटक तक निर्बाध रूप से होता रहा है । अत: सिद्धसेन का गण की एक शाखा थी। हमारी दृष्टि में आचार्य सिद्धसेन इसी विद्याधर कर्नाटकीय ब्राह्मण होना उनके यापनीय होने का प्रबल प्रमाण नहीं माना शाखा में हुए हैं । परवर्ती काल में गच्छ नाम प्रचलित होने के कारण जा सकता है। ही प्रबन्धों में इसे विद्याधर गच्छ कहा गया है।
मेरी दृष्टि में इतना मानना ही पर्याप्त है कि सिद्धसेन कोटिक कल्पसूत्र स्थविरावली में सिद्धसेन के गुरू आर्य वृद्ध का भी गण की उस विद्याधर शाखा में हुए थे जो कि श्वेताम्बर और यापनीयों उल्लेख मिलता है । इस आधार पर यदि हम विचार करें तो आर्य वृद्ध की पूर्वज है। का काल देवर्धिगणि से चार पीढ़ी पूर्व होने के कारण उनसे लगभग (६) पुनः कुन्दकुन्द के ग्रन्थों और वट्टकेर के मूलाचार की जो १२० वर्ष पूर्व रहा होगा अर्थात् वे वीर निर्वाण सम्वत् ८६० में हुए सन्मतिसूत्र से निकटता है, उसका कारण यह नहीं है कि सिद्धसेन होंगे। इस आधार पर उनकी आर्य स्कंदिल से निकटता भी सिद्ध हो दक्षिण भरत के वट्टकेर या कुन्दकुन्द से प्रभावित हैं । अपितु स्थिति जाती है, क्योंकि माथुरी वाचना का काल वीर निर्वाण सं० ८४० माना इसके ठीक विपरीत है । वट्टकेर और कुन्दकुन्द दोनों ही ने प्राचीन जाता है, इस प्रकार उनका काल विक्रम की चौथी शताब्दी निर्धारित आगमिक धारा और सिद्धसेन का अनुकरण किया है । कुन्दकुन्द के ग्रन्थों होता है । मेरी दृष्टि में आचार्य सिद्धसेन इन्हीं आर्य वृद्ध के शिष्य रहे में त्रस-स्थावर का वर्गीकरण, चतुर्विध मोक्षमार्ग की कल्पना आदि पर होंगे। अभिलेखों के आधार पर आर्य वृद्ध कोटिक गण की व्रजी शाखा आगमिक धारा का प्रभाव स्पष्ट है, चाहे यह यापनीयों के माध्यम से ही के थे । विद्याधर शाखा भी इसी कोटिक गण की एक शाखा थी । गण उन तक पहुँचा हो। मूलाचार का तो निर्माण ही आगमिक धारा के की दृष्टि से तो आर्य वृद्ध और सिद्धसेन एक ही गण के सिद्ध होते हैं, नियुक्ति और प्रकीर्णक साहित्य के आधार पर हुआ है। उस पर सिद्धसेन किन्तु शाखा का अन्तर अवश्य विचारणीय है । सम्भवत: आर्य वृद्ध का प्रभाव होना भी अस्वाभाविद नहीं है। आचार्य जटिल के वरांगचरित सिद्धसेन के विद्यागुरू हों, फिर भी इतना निश्चित है कि आचार्य सिद्धसेन में भी सन्मति की अनेक गाथाएँ अपने संस्कृत रूपान्तर में प्रस्तुत हैं। का सम्बन्ध उसी कोटिकगण से है जो श्वेताम्बर और यापनीय दोनों ही यह सब इसी बात का प्रमाण है कि ये सभी अपने पूर्ववर्ती-आचार्य परम्पराओं का पूर्वज है। ज्ञातव्य है कि उमास्वाति भी इसी कोटिक गण सिद्धसेन से प्रभावित हैं। की उच्चनागरी शाखा में हुए थे।
प्रो० उपाध्ये का यह मानना कि महावीर का सन्मतिनाम कर्नाटक
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तार्किक शिरोमणी आचार्य सिद्धसेन 'दिवाकर'
६५९ में अति प्रसिद्ध है और सिद्धसेन ने इसी आधार पर अपने ग्रन्थ का नाम यह दान दिया गया था। यदि दिवाकर मन्दिरदेव के गुरु हैं तो वे सिद्धसेन सन्मति दिया होगा, अत: सिद्धसेन यापनीय हैं, मुझे समुचित नहीं दिवाकर न होकर अन्य कोई दिवाकर हैं क्योंकि इस अभिलेख के लगता है। श्वेताम्बर- साहित्य में भी महावीर के सन्मति विशेषण का अनुसार मन्दिरदेव का काल ईस्वी सन् ९४२ अर्थात् वि०सं० ९९९ उल्लेख मिलता है, जैसे सन्मति से युक्त होने से श्रमण कहे गए हैं। है। इनके गुरु इनसे ५० वर्ष पूर्व भी माने जायें तो वे दसवीं शताब्दी इस प्रकार प्रो० ए०एन० उपाध्ये ने सिद्धसेन के यापनीय होने के जो- उत्तरार्ध में ही सिद्ध होंगे जबकि सिद्धसेन दिवाकर तो किसी स्थिति में जो प्रमाण दिये हैं वे सबल प्रतीत नहीं होते हैं।
पाँचवीं शती से परवर्ती नहीं हैं। अत: ये दिवाकर सिद्धसेन नहीं हो सकते सुश्री कुसुम पटोरिया ने जुगल किशोर मुख्तार एवं प्रो० उपाध्ये हैं। दोनों के काल में लगभग ६०० वर्ष का अन्तर है। यदि इसमें के तर्कों के साथ-साथ सिद्धसेन को यापनीय सिद्ध करने के लिए अपने उल्लेखित दिवाकर को मन्दिरदेव का साक्षात गुरु न मानकर परम्परा गुरु भी कुछ तर्क प्रस्तुत किये हैं । वे लिखती हैं कि सन्मतिसूत्र का श्वेताम्बर माने तो इससे उनका यापनीय होना सिद्ध नहीं होता है, क्योंकि परम्परा ग्रन्थों में भी आदरपूर्वक उल्लेख है । जीतकल्पचूर्णि में सन्मतिसूत्र को गुरु के रूप में तो गौतम आदि गणधरों एवं भद्रबाहु आदि प्राचीन सिद्धिविनिश्चय के समान प्रभावक ग्रन्थ कहा गया है । श्वेताम्बर परम्परा आचार्यों का भी उल्लेख किया जाता है । अन्त में सिद्ध यही होता है में सिद्धिविनिश्चय को शिवस्वामिक की कृति कहा गया है । शाकटायन कि सिद्धसेन दिवाकर यापनीय न होकर यापनीयों के पूर्वज थे। व्याकरण में भी शिवार्य के सिद्धिविनिश्चय का उल्लेख है । यदि एक क्षण के लिए मान भी लिया जाये कि ये शिवस्वामि भगवतीआराधना सिद्धसेन श्वेताम्बरों के पूर्वज आचार्य हैंके कर्ता शिवार्य ही हैं तो भी इससे इतना ही फलित होगा कि कुछ सिद्धसेन को पाँचवीं शती के पश्चात् के सभी श्वेताम्बर आचार्यों यापनीय कृतियां श्वेताम्बरों को मान्य थीं, किन्तु इससे सिद्धसेन का ने अपनी परम्परा का माना है । अनेकशः श्वेताम्बर ग्रन्थों में श्वेताम्बर यापनीयत्व सिद्ध नहीं होता है।
आचार्य के रूप में उनका स्पष्ट निर्देश भी है, और यह भी निर्देश है कि पुनः सन्मतिसूत्र में अर्द्धमागधी आगम के उद्धरण भी यही सिद्ध वे कुछ प्रश्नों पर आगमिक धारा से मतभेद रखते हैं। फिर भी, कहीं करते हैं कि वे उस आगमिक परम्परा के अनुसरणकर्ता हैं जिसके भी उन्हें अपनी परम्परा से भिन्न नहीं माना गया है। अत: सभी साधक उत्तराधिकारी श्वेताम्बर एवं यापनीय दोनों है । यह बात हम पूर्व में ही प्रमाणों की समीक्षा के आधार पर यही फलित होता है कि वे उस उत्तर प्रतिपादित कर चुके हैं कि आगमों के अन्तर्विरोध को दूर करने के लिए भारतीय निर्गन्थ धारा के विद्याधर कुल में हुए हैं, जिसे श्वेताम्बर आचार्य ही उन्होंने अपने अभेदवाद की स्थापना की थी। सुश्री कुसुम पटोरिया ने अपनी परम्परा का मानते हैं अत: वे श्वेताम्बरों के पूर्वज आचार्य हैं। विस्तार से सन्मतिसूत्र में उनके आगमिक अनुसरण की चर्चा है। यहाँ हम उस विस्तार में न जाकर केवल इतना ही कहना पर्याप्त समझते है सिद्धसेन दिवाकर की कृतियाँ कि सिद्धसेन उस आगमिक धारा में ही हुए हैं जिसका अनुसरण श्वेताम्बर वर्तमान में आचार्य सिद्धसेन की जो कृतियाँ मानी जाती हैं, वे
और यापनीय दोनों ने किया है और यही कारण है कि दोनों ही उन्हें सभी सिद्धसेन दिवाकर की कृतियाँ नहीं हैं क्योंकि जैन परम्परा में अपनी-अपनी परम्परा का कहते हैं।
सिद्धसेन नामक कई आचार्य हो गये हैं। परिणामस्वरूप एक सिद्धसेन आगे वे पुनः यह स्पष्ट करती हैं कि गुण और पर्याय के सन्दर्भ की कृतियाँ दूसरे सिद्धसेन के नाम पर चढ़ गयी हैं । उदाहरण के रूप में भी उन्होंने आगमों का स्पष्ट अनुसरण किया है और प्रमाणरूप में में जीतकल्पचूर्णि और तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की टीका सिद्धसेन दिवाकर की आगम वचन उद्धृत किये हैं । यह भी उन्हें आगमिक धारा का सिद्ध कृति न होकर सिद्धसेनगणि की कृतियाँ हैं जो लगभग सातवीं शताब्दी करता है। श्वेताम्बर और यापनीय दोनों धारायें अर्धमागधी आगम को में हुए हैं। इसी प्रकार शक्रस्तव नामक एक कृति सिद्धर्षि की है जिसे प्रमाण मानती हैं । सिद्धसेन के सम्मुख जो आगम थे वे देवर्द्धि वाचना भ्रमवश सिद्धसेन दिवाकर की कृति मान लिया जाता है । प्रवचनसारोद्धार के न होकर माथुरी वाचना के रहे होंगे क्योंकि देवर्द्धि निश्चित ही सिद्धसेन की वृत्ति जो तेरहवीं शताब्दी में हुए चन्द्रगच्छ सिद्धसेन सूरि की कृति से परवर्ती हैं।
है, इसी प्रकार कल्याणमन्दिर स्तोत्र को प्रबन्धकोश में सिद्धसेन दिवाकर सुश्री पटोरिया ने मदनूर जिला नेल्लौर के एक अभिलेख६ का की कृति मान लिया गया है किन्तु यह भी संशयास्पद ही है । सिद्धसेन उल्लेख करते हुए यह बताया है कि कोटिमुडुवगण में मुख्य पुष्याहनन्दि दिवाकर की निम्न तीन कृतियाँ ही वर्तमान में उपलब्ध हैंगच्छ में गणधर के सदृश जिननन्दी मुनीश्वर हुए हैं। उनके शिष्य पृथ्वी (१) सन्मतिसूत्र पर विख्यात केवलज्ञान निधि के धारक स्वयं जिनेन्द्र के सदृश दिवाकर (२) द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका नाम के मुनि हुए । यह सत्य है कि यह कोटिमडुवगण यापनीय है । (३) न्यायावतार किन्तु इस अभिलेख में उल्लेखित 'दिवाकर' सिद्धसेन दिवाकर हैं, यह इनमें भी 'सन्मतिसूत्र' अथवा 'सन्मति-प्रकरण' निर्विवाद रूप से कहना कठिन है क्योंकि इसमें इन दिवाकर के शिष्य श्रीमंदिर देवमुनि सिद्धसेन दिवाकर की कृति है ऐसा सभी श्वेताम्बर एवं दिगम्बर विद्वानों का उल्लेख है जिनके द्वारा अधिष्ठित कंटकाभरण नामक जिनालय को ने माना है । यह अर्धमागधी प्रभावित महाराष्ट्री प्राकृत में रचित है। इस
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ कृति का महाराष्ट्री प्राकृत में रचित होना दो तथ्यों को स्पष्ट कर देता है- प्रश्न को लेकर विद्वानों में मतभेद है । मुख्य रूप से उन स्तुतियों को प्रथम तो यह कि यह पश्चिमी या पश्चिमोत्तर भारत में रची गयी है। इससे जिनमें महावीर के विवाह का संकेत है, दिगम्बर विद्वान, किसी अन्य यह भी सिद्ध होता है कि सिद्धसेन दिवाकर का विचरण क्षेत्र मुख्यतः सिद्धसेन की कृति मानते हैं । किन्तु केवल अपनी परम्परा का समर्थन पश्चिमी भारत था। प्रबन्धों में उनके अवन्तिका, भृगुकच्छ तथा प्रतिष्ठानपुर न होने से उन्हें अन्य सिद्धसेन की कृति कह देना उचित नहीं है । जाने के उल्लेख इसी तथ्य को पुष्ट करते हैं । द्वितीय यह कि सिद्धसेन उपलब्ध बाईस बत्तीसियों में अन्तिम बत्तीसी न्यायावतार के नाम से जानी दिवाकर का सम्बन्ध पश्चिमोत्तर भारत की उस निर्ग्रन्थ परम्परा से रहा है जाती है । यह बत्तीसी सिद्धसेन की कृति है या नहीं? इस प्रश्न को लेकर जो श्वेताम्बरों एवं यापनीयों की पूर्वज थी । सिद्धसेन ने इस कृति में भी विद्वानों में भी मतभेद है, अत: इस पर थोड़ी गहराई से चर्चा करें। मुख्यत: जैन दर्शन के मूलभूत सिद्धान्त अनेकान्तवाद की स्थापना की है । यह ग्रन्थ १६६ या १६७ प्राकृत गाथाओं में निबद्ध तथा तीन न्यायावतार का कृतित्व काण्डों में विभक्त है।
न्यायावतार, सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन की कृति है या नहीं, प्रथम काण्ड में अनेकान्तवाद, नयवाद और सप्तभंगी की चर्चा यह एक विवादास्पद प्रश्न है। इस सन्दर्भ में श्वेताम्बर विद्वान् भी मतैक्य है। अनेकान्तवाद की स्थापना की दृष्टि से इसमें अन्य दर्शनों की नहीं रखते हैं। पं० सुखलाल जी, पं० बेचरदास जी एवं पं० दलसुख एकान्तवादी मान्यताओं की समीक्षा भी की गयी है और उनकी ऐकान्तिक मालवणिया ने न्यायावतार को सिद्धसेन की कृति माना है, किन्तु मान्यताओं का निरसन करते हुए अनेकान्तवाद की स्थापना की गयी है। एम०ए० ढाकी आदि कुछ श्वेताम्बर विद्वान् उनसे मतभेद रखते हुए उसे सप्तभंगी का उल्लेख जैनदर्शन में प्रथम बार इसी ग्रन्थ में मिलता है। सिद्धर्षि की कृति मानते हैं। डॉ० श्री प्रकाश पाण्डेय ने अपनी कृति ग्रन्थ के दूसरे काण्ड में केवलदर्शन और केवलज्ञान के उत्पत्ति-क्रम के सिद्धसेन दिवाकर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व' में इस प्रश्न की विस्तृत प्रश्न को लेकर क्रमवाद और युगपद्वाद की मान्यताओं की समीक्षा करते समीक्षा की है तथा प्रो० ढाकी के मत का समर्थन करते हुए न्यायावतार हुए अन्त में अभेदवाद की अपनी मान्यता को प्रस्तुत किया है। तीसरे को सिद्धसेन दिवाकर की कृति न मानते हुए इसे सिद्धर्षि की कृति माना काण्ड में सिद्धसेन ने श्रद्धा और तर्क की ऐकान्तिक मान्यताओं का है। किन्तु कुछ तार्किक आधारों पर मेरी व्यक्तिगत मान्यता यह है कि निराकरण करते हुए अनेकान्त की दृष्टि से उनकी सीमाओं का उल्लेख न्यायावतार भी सिद्धसेन की कृति है। प्रथम तो यह है कि न्यायावतार किया है । इसी प्रकार इस काण्ड में कारण के सम्बन्ध में काल, भी एक द्वित्रिंशिका है और सिद्धसेन ने स्तुतियों के रूप में द्वित्रिंशिकाएँ स्वभाव, नियति, पुरुषार्थ आदि की ऐकान्तिक अवधारणाओं की समीक्षा ही लिखी हैं। उनके परवर्ती आचार्य हरभिद्र ने अष्टक, षोडशक और करते हुए अनेकान्तिक दृष्टि से उनके बीच समन्वय स्थापित किया है। विशिंकायें तो लिखी किन्तु द्वात्रिंशिका नहीं लिखी । दूसरे, न्यायावतार अन्त में यह बताया है कि शास्त्र के अर्थ को समझने के लिए किस में आगम युग के प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम -इन तीन प्रमाणों की प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि विभिन्न अपेक्षाओं का विचार करना ही चर्चा हुई है, दर्शनयुग में विकसित जैन परम्परा में मान्य स्मृति, चाहिए । आचार्य सिद्धसेन का कथन है कि केवल शब्दों के अर्थ को प्रत्यभिज्ञा और तर्क की प्रमाण के रूप में मूल ग्रन्थ में कोई चर्चा नहीं जान लेने से सूत्र का आशय नहीं समझा जा सकता है।
है जबकि परवर्ती सभी श्वेताम्बर एवं दिगम्बर आचार्य एवं न्यायावतार सन्मति तर्क के अतिरिक्त द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका को भी सिद्धसेन के टीकाकार सिद्धर्षि स्वयं भी इन प्रमाणों की चर्चा करते हैं । यदि दिवाकर की कृति माना जाता है। वस्तुतः द्वात्रिंशद्-द्वात्रिंशिका बत्तीस- सिद्धर्षि स्वयं ही इसके कर्ता होते तो कम से कम एक कारिका बनाकर बत्तीस पद्यों की बत्तीस कृतियों का संग्रह है। इन बत्तीसियों में कुछ इन तीनों प्रमाणों का उल्लेख तो मूलग्रन्थ में अवश्य करते । पुनः बत्तीसियाँ सिद्धसेन के जैनधर्म में दीक्षित होने के पूर्व रची गयी प्रतीत सिद्धर्षि की टीका में कोई भी ऐसे लक्षण नहीं मिलते हैं, जिससे वह होती हैं, जैसे- वेद बत्तीसी। वर्तमान में बत्तीस बत्तीसियों में से मात्र बाईस स्वोपज्ञ सिद्ध होती है । इस कृति में कहीं भी उत्तम पुरुष के प्रयोग नहीं बत्तीसियाँ उपलब्ध हैं, न्यायावतार भी उसका ही अंग है। आठवीं, मिलते । यदि वह उनकी स्वोपज्ञ टीका होती तो इसमें उत्तम पुरुष के ग्यारहवीं, पन्द्रहवीं और उन्नीसवीं बत्तीसियों में बत्तीस से कम पद्य हैं। कुछ तो प्रयोग मिलते । बाईस बत्तीसियों में कुल ७०४ पद्य होने चाहिए किन्तु ६९५ पद्य ही प्रत्यक्ष की परिभाषा में प्रयुक्त 'अभ्रान्त' पद तथा समन्तभद्र के उपलब्ध होते हैं। इन बत्तीसियों में प्रथम पाँच, ग्यारहवीं और इक्कीसवीं रत्नकरण्डक श्रावकाचार के जिस श्लोक को लेकर यह शंका की जाती ये सात स्तुत्यात्मक हैं । छठी और आठवीं बत्तीसी समीक्षात्मक है। शेष है कि न्यायावतार सिद्धसेन दिवाकर की कृति नहीं है- अन्यथा वे तेरह स्तुतियाँ स्तुतिरूप न होकर दार्शनकि विवेचन या वर्णनात्मक हैं। धर्मकीर्ति और समन्तभद्र के परवर्ती सिद्ध होंगे। प्रथम तो यही निश्चित दार्शनिक स्तुतियों में भी ग्यारहवीं स्तुति में न्याय दर्शन की, तेरहवीं में नहीं है कि रत्नकरण्डकश्रावकाचार समन्तभद्र की कृति है या नहीं । सांख्य दर्शन की, चौदहवीं में वैशेषिक दर्शन की और पन्द्रहवीं में बौद्धों उसमें जहाँ तक 'अभ्रान्त' पद का प्रश्न है- प्रो० टूची के अनुसार यह के शून्यवाद की समीक्षा है।
धर्मकीर्ति के पूर्व भी बौद्ध न्याय में प्रचलित था। अनुशीलन करने पर उपलब्ध सभी बत्तीसियाँ सिद्धसेन की कृति है या नहीं ? इस असंग के गुरु मैत्रेय की कृतियों में एवं स्वयं असंग की कृति अभिधर्म
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समुच्चय में प्रत्यक्ष की परिभाषा में 'अभ्रान्त' पद का प्रयोग हुआ है किये हों। अभिधर्म समुच्चय में असंग स्वयं लिखते हैं
प्रत्यक्षं स्व सत्प्रकाशाभ्रान्तोऽ थे।"
ज्ञातव्य है कि असंङ्ग वसुबन्धु के बड़े भाई थे और इनका काल लगभग तीसरी चौथी शताब्दी है। अतः सिद्धसेन दिवाकर की कृति न्यायावतार में अभ्रान्त पद को देखकर उसे न तो परवर्ती माना जा सकता है और न यह माना जा सकता है कि वह धर्मकीर्ति से परवर्ती किसी अन्य सिद्धसेन की कृति है। यदि बौद्ध न्याय में अभ्रान्त पद का उल्लेख तीसरी चौथी शताब्दी के ग्रन्थों में उपलब्ध है तो फिर न्यायावतार (चतुर्धशती) में अभ्रान्त पद के प्रयोग को अस्वाभाविक नहीं माना जा सकता है। डॉ० पाण्डेय ने भी अपनी इस कृति में इस तथ्य को स्वीकार कर लिया है फिर भी वे न्यायावतार को सिद्धसेन की कृति मानने में संकोच कर रहे हैं?
उनका दूसरा तर्क यह है कि न्यायावतार की अनुमान प्रमाण की परिभाषा पर दिगम्बर विद्वान् पात्र केसरी का प्रभाव है। उनके अनुसार न्यायावतार की २२वीं कारिका का पात्र केसरी की त्रिलक्षण कदर्थन की कारिका से आंशिक साम्य है, लेकिन इस आधार पर यह मानना की पात्र केसी (७वीं शती) का प्रभाव न्यायावतार पर है मुझे तर्कसंगत नहीं जान पड़ता, क्योंकि इसके विपरीत यह भी तो माना जा सकता है कि सिद्धसेन दिवाकर का ही अनुसरण पात्र केसरी ने किया है।
तीसरे, जब न्यायावतार के वार्तिक में शान्तिसूरि स्पष्ट रूप से 'सिद्धसेनार्क सूत्रितम्' (न्यायावतारसूत्र वार्तिक, १/१) ऐसा स्पष्ट उल्लेख करते हैं तो फिर यह संदेह कैसे किया जा सकता है कि न्यायावतार के कर्ता सिद्धसेन दिवाकर पदवी वाले सिद्धसेन नहीं हैं। यदि न्यायावतार सिद्धर्षि की कृति होती तो वार्तिककार शान्त्याचार्य जो उनसे लगभग दो सौ वर्ष पश्चात हुए हैं, यह उल्लेख अवश्य करते उनके द्वारा सिद्धसेन । के लिए 'अर्क' विशेषण का प्रयोग यही सिद्ध करता है कि न्यायावतार के कर्ता अन्य कोई सिद्धसेन न होकर सिद्धसेन दिवाकर ही हैं। क्योंकि अर्क का मतलब स्पष्ट रूप से दिवाकर (सूर्य) ही है ।
पुनः, न्यायावतार की कारिकाओं की समन्तभद्र की कारिकाओं में समरूपता दिखाई देने पर भी न्यायावतार को सिद्धसेन दिवाकरकृत मानने पर बाधा नहीं आती, क्योंकि समन्तभद्र की आप्तमीमांसा आदि कृतियों में सिद्धसेन के सन्मतितर्क का स्पष्ट प्रभाव देखा जाता है। इनमें न केवल भावगत समानता है, अपितु प्राकृत और संस्कृत के शब्द रूपों को छोड़कर भाषागत भी समानता है और यह निश्चित है कि सिद्धसेन दिवाकर समन्तभद्र से पूर्ववर्ती हैं। अतः सिद्धसेन की कृतियों की समन्तभद्र की कृतियों में समरूपता दिखाई देने के आधार पर यह अनुमान कर लेना उचित नहीं होगा कि न्यायावतार सिद्धसेन दिवाकर की कृति नहीं है। समन्तभद्र ने जब सिद्धसेन के सन्मतितर्क से आप्तमीमांसा में अनेक श्लोकों का ग्रहण किया है तो यह भी सम्भव है कि उन्होंने रत्नकरण्डकश्रावकाचार (जिसका समन्तभद्रकृत होना भी विवादास्पद है) में भी सिद्धसेन के न्यायावतार से कुछ श्लोक अभिगृहीत
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पुनः, जब न्यायावतार का दूसरा व चौथा पूरा का पूरा श्लोक याकनीसूनु हरिभद्र के अष्टकप्रकरण और षड्दर्शनसमुच्च्य में पाया जाता है तो फिर न्यायावतार को हरिभद्र के बाद होने वाले सिद्धर्षि की कृति कैसे माना जा सकता है ? इससे यह स्पष्ट है कि न्यायावतार की रचना हरभिद्र से पूर्व हो चुकी थी, फिर इसे सिद्धर्षि की कृति कैसे माना जा सकता है? अतः डॉ० पाण्डेय और प्रो० डाकी का यह मानना कि न्यायावतार मूल सिद्धर्षि की कृति है किसी भी दृष्टि से तर्कसंगत नहीं है। अपने पक्ष के बचाव में डॉ० पाण्डेय का यह तर्क कि ये श्लोक सिद्धसेन को लुप्त प्रमाण द्वात्रिंशिका के हों, अधिक वजनदार नहीं लगता है । जब न्यायावतार के ये श्लोक स्पष्ट रूप से हरभिद्र के अष्टकप्रकरण और षद्दर्शनसमुच्चय से मिल रहे हों तो फिर द्राविड़ी प्राणयाम के द्वारा यह कल्पना करना कि वे किसी लुप्त प्रमाणद्वात्रिशिका के श्लोक होंगे, युक्तिसंगत नहीं है जब सिद्धसेन के इस न्यायावतार में अभी ३२ श्लोक हैं तो फिर सम्भव यह भी है कि इसका ही अपर नाम प्रमाणद्वात्रिंशिका हो ? पुनः जब हरिभद्र के द्वारा न्यायावतार पर वृत्ति लिखे जाने पर स्पष्ट सूचनायें प्राप्त हो रही हैं तो फिर यह कल्पना करना कि वे हरिभद्र प्रथम न होकर कोई दूसरे हरिभद्र होंगे मुझे उचित नहीं लगता। जब याकिनीसूनु हरिभद्र न्यायावतार की कारिका अपने ग्रन्थों में उद्धृत कर रहे हैं तो यह मानने में क्या बाधा है कि वृत्तिकार भी वे ही हों ?
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न्यायावतार की विषय वस्तु से यह स्पष्ट है कि वह जैन प्रमाण शास्त्र की आध रचना है। उसमें अकलंक के काल में विकसित तीन प्रमाणों यथा स्मृति, प्रत्यभिज्ञा और तर्क का रूह का उपलब्ध नहीं होना तथा आगमिक तीन प्रमाणों की सूचना प्राप्त होना यही प्रमाणित करता है कि वह अकलंक (८वीं शती) से पूर्व का ग्रन्थ है। सिद्धर्षि का काल अकलंक से परवर्ती है और उन्होंने अपने न्यायावतार की वृत्ति में स्पष्टतः इन प्रमाणों की चर्चा की है जबकि आठवीं शती तक के किसी श्वेताम्बर आचार्य में इनकी चर्चा नहीं है, यहाँ तक कि हरिभद्र भी इन प्रमाणों की चर्चा नहीं करते हैं- पूर्ववर्ती श्वेताम्बराचार्य आगमिक तीन प्रमाणों प्रत्यक्ष अनुमान और शब्द की चर्चा करते हैं। अतः यह सिद्ध हो जाता है कि न्यायावतार, आगमिक तीन प्रमाणों का ही उल्लेख करने के कारण सिद्धसेन दिवाकर की ही कृति है। यदि कहीं सिद्धर्षि की कृति होती तो निश्चय ही मूल कारिका में इनकी चर्चा होनी थी । पुनः डॉ० पाण्डेय का यह कथन की स्वोपज्ञवृत्ति में कतिपय विषय बिन्दु ऐसे मिलते हैं जिनका उल्लेख मूल में नहीं है परन्तु भाष्य या वृत्ति में होता है किन्तु मैं डॉ० पाण्डेय के इस तर्क से सहमत नहीं हूँ क्योंकि यदि न्यायावतार सिद्धर्षि की वृत्ति होती तो वे कम से कम यह तर्क नहीं देते कि इस न्यायावतार प्रकरण में अनुमान से ऊह को पृथक करके नहीं दिखाया गया क्योंकि यह प्रकरण संक्षिप्त रुचि के जीवों के अनुग्रह के लिए लिखा गया। इस प्रसंग में यदि सिद्धर्षि ने स्वयं ही मूलग्रन्थ लिखा होता तो अवश्य यह लिखते कि मैंने यह प्रकरण संक्षिप्त रुचि वाले
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लोगों के लिए बनाया। सिद्धर्षि ने कहीं भी इस तथ्य का निर्देश नहीं किया है कि मूलग्रन्थ मेरे द्वारा बनाया गया है। अतः यह कल्पना करना निराधार है कि मूल न्यायावतार सिद्धर्षि की कृति है और उस पर उन्होंने स्वोपज्ञवृत्ति लिखी है ।
यह सत्य है कि उस युग में स्वोपज्ञ टीका या वृत्ति लिखे जाने की प्रवृत्ति प्रचलन में थी किन्तु इस सिद्धर्षि की वृत्ति से कहीं भी फलित नहीं होता है कि वह स्वोपज्ञ है पुनः स्वोपज्ञवृत्ति में मूल में वर्णित विषयों का ही स्पष्टीकरण किया जाता है, उसमें नये विषय नहीं आते। उदाहरण के रूप में तत्त्वार्यसूत्र मूल में गुणस्थान सिद्धान्त की कोई चर्चा नहीं है तो उसके स्वोपज्ञ भाष्य में किसी भी स्थान में गुणस्थान सिद्धान्त की चर्चा नही की गयी किन्तु अन्य आचार्यों के द्वारा जब उस पर टीकायें लिखी गयीं तो उन्होंने विस्तार से गुणस्थान सिद्धान्त की चर्चा की। इससे यही फलित होता है कि न्यायावतार की मूल कारिकायें सिद्धर्षि की कृति नहीं हैं। यदि मूलकारिकाएँ भी सिद्धर्षि की कृति होतीं तो उनमें नैगमादि नयों एवं स्मृति, प्रत्यभिज्ञा तर्क आदि प्रमाणों की कहीं कोई चर्चा अवश्य होनी थी।
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नये विवेचन के सन्दर्भ में डॉ० पाण्डेय का यह तर्क भी समीचीन नहीं है कि "यदि सिद्धर्षि सिद्धसेन के ग्रन्थ पर वृत्ति लिखे होते तो जो सिद्धसेन को अभीष्ट नहीं है या तो उसका उल्लेख नहीं करते या उल्लेख करते भी तो यह कहकर कि मूलकार इसे नहीं मानता ।" यहाँ उन्हें यह स्मरण रखना चाहिए कि टीकाकारों के द्वारा अपनी नवीन मान्यता को प्रस्तुत करते समय कहीं भी यह लिखने की प्रवृत्ति नहीं रही कि वे आवश्यक रूप से जो मूलग्रन्थकार का मंतव्य नहीं है उसका उल्लेख करें सिद्धर्षि की न्यायावतार वृत्ति में नयों की जो चर्चा है वह किसी मूल कारिका की व्याख्या न हो करके एक परिशिष्ट के रूप में की गयी चर्चा ही है क्योंकि मूल ग्रन्थ की २९वीं कारिका में मात्र 'न' शब्द आया है उसमें कहीं भी नय कितने हैं यह उल्लेख नहीं है, यह टीकाकार की अपनी व्याख्या है और टीकाकार के लिए यह बाध्यता नहीं होती है कि वह उन विषयों की चर्चा न करे जो मूल में नहीं है। इतना निश्चित है कि यदि सिद्धर्षि की वृत्ति स्वोपज्ञ होती तो वे मूल में कहीं न कहीं नयों की चर्चा करते। इससे यही फलित होता है कि मूल अन्धकार और वृत्तिकार दोनों अलग-अलग व्यक्ति है।
टीका में नवीन नवीन विषयों का समावेश यही सिद्ध करता है कि न्यायावतार की सिद्धर्षि की वृत्ति स्वोपज्ञ नहीं है । जहाँ तक डॉ० पाण्डेय के इस तर्क का प्रश्न है कि वृत्तिकार ने मूलग्रन्थकार का निर्देश प्रारम्भ में क्यों नहीं किया, इस सम्बन्ध में मेरा उत्तर यह है कि जैन परम्परा में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहाँ वृत्तिकार मूलमन्धकार से भिन्न होते हुए भी मूलग्रन्थकार का निर्देश नहीं करता है। उदाहरण के रूप में तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका में कहीं भी यह निर्देश नहीं है कि वह उमास्वाति के मूल ग्रन्थ पर टीका लिख रहा है। ये लोग प्रायः केवल ग्रन्थ का निर्देश करके ही संतोष कर लेते थे, ग्रन्थकार का नाम बताना आवश्यक नहीं समझते थे क्योंकि वह जनसामान्य में ज्ञात ही होता था।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
अतः यह मानना कि न्यायावतार सिद्धसेन दिवाकर की कृति न होकर सिद्धर्षि की कृति है और उस पर लिखी गयी न्यायावतार वृत्ति स्वोपज्ञ है, उचित प्रतीत नहीं होता।
न्यायावतार सिद्धसेन की कृति है, इसका सबसे महत्वपूर्ण प्रमाण तो यह है कि मल्लवादी ने अपने ग्रन्थ नयचक्र में स्पष्ट रूप से सिद्धसेन को न्यायावतार का कर्ता कहा है। मुझे ऐसा लगता है कि प्रतिलिपिकारों के प्रमाद के कारण ही कहीं न्यायावतार की जगह नयावतार हो गया है । प्रतिलिपियों में ऐसी भूलें सामान्यतया हो ही जाती हैं।
जहाँ तक सिद्धसेन की उन स्तुतियों का प्रसंग है जिनमें महावीर के विवाह आदि के संकेत हैं, दिगम्बर विद्वानों की यह अवधारणा यह किसी अन्य सिद्धसेन की कृति है उचित नहीं है। केवल अपनी परम्परा से समर्थित न होने के कारण किसी अन्य सिद्धसेन की कृति कहें, यह उचित नहीं है।
सन्दर्भ
१.
-सन्मति प्रकरण- सम्पादक, पं० सुखलाल जी संघवी, ज्ञानोदय ट्रस्ट, अहमदाबाद, प्रस्तावना, पृष्ठ ६ से १६।
अ. दंसणगाही दंसणणाणप्यभावमणि सत्याणि सिद्धिविणिच्छयसंमतिमादि गेहंतो असंथरमाणे जं अकप्पियं पडिसेवति जयणाते तत्थ सो सुद्धो अप्रायश्चिती भवतीत्यर्थः ।
निशीथचूर्णि भाग १, पृष्ठ १६२ । दंसणप्पभावगाण सत्याण सम्मदियादिसुतणाणे य जो विसारदो सिकियत्तथो त्ति वृत्तं भवति ।
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वही भाग ३, पृष्ठ २०२ । ब. आयरिय सिद्धसेणेण सम्मई ए पइट्ठि अजसेणं । दूसमणिसादिवागर कप्पत्तणओ तदक्खेणं ।
पंचवस्तु (हरिभद्र), १०४८ स. श्रीदशाश्रुतस्कन्ध मूल, नियुक्ति, चूर्णिसह पृ० १६ (श्रीमणिविजय ग्रन्थमाला नं० १४, सं० २०११) (यहाँ सिद्धसेन को गुरु से भिन्न अर्थ करने वाला भाव-अभिनय का दोषी बताया गया है)।
द. पूर्वाचार्य विरचितेषु सन्मति - नयावतारादिषु .
- द्वादशारं नयचक्रम् (मल्लवादि) भावनगरस्या श्री आत्मानन्द सभा, १९८८, तृतीय विभाग, पृ० ८८६ ।
३
अ. अणेण सम्मइसुत्तेणसह कथमिदं वक्खाणं ण विरुज्झदे। (ज्ञातव्य है कि इसके पूर्व सन्मतिसूत्र की गाथा ६ उद्धृत है-धवला, टीका समन्वित षट्खण्डागम १/१/१ पुस्तक, १, पृष्ठ १६ । जगत्प्रसिद्ध बोधस्य, वृषभस्येव निस्तुषाः । बोध्यति सतां बुद्धिं सिद्धसेनस्य सूक्तयः ।।
-हरिवंशपुराण (जिनसेन) १/३० ।
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तार्किक शिरोमणी आचार्य सिद्धसेन 'दिवाकर'
६६३ स सिद्धसेनोऽभय भीनसेनको गुरु परौ तौ जिनशांतिषणकौ। किशोर मुख्तार, पृष्ठ ५८०-५८२ ।
-वही,६६/२९। ७. देखें - प्रभावकचरित्त-प्रभाचन्द्र-सिंघी जैन ग्रन्थमाला, पृ०५४स. प्रवादिकरियूथानां केसरी नयकेसरः।
६१ । प्रबन्धकोश (चतुर्विंशतिप्रबन्ध), राजशेखरसूरि-सिंघी जैन सिद्धसेन कवि/यद्विकल्पनखराङ्कुरः ।।
ज्ञानपीठ, पृ० १५-२१। -आदिपुराण (जिनसेन), १/४२ । प्रबन्ध चिन्तामणि, मेरुतुंग, सिंघी जैन ज्ञानपीठ, पृ० ७-९ द. आसीदिन्द्रगृरुर्दिवाकरयतिः शिष्योऽस्य चाहन्मुनिः। ८. प्रभावकचरित-वृद्धवादिसूरिचरितम्,पृ० १०७-१२० । तस्माल्लक्ष्मणसेन सन्मुनिरदः शिष्यो रविस्तु स्मृतः ।
'अनेकजन्मान्तरभग्नमान: स्सरो यशोदाप्रिय यत्परस्ते'-पंचम -पद्यचरित (रविषेण), १२३/१६७। द्वात्रिंशिका, ३६ । ज्ञातव्य है कि हरिवंशपुराण के अन्त में पुन्नाटसंघीय जिनसेन की १०. - सन्मतिसूत्र, २/४, २/७, ३/४६ । . अपनी गुरुपरम्परा में उल्लिखित सिद्धसेन तथा रविषेण द्वारा ११. जैन साहित्य और इतिहास पर विशद् प्रकाश- पं० जुगल किशोर पद्यचरित के अन्त में अपनी गुरु परम्परा में उल्लिखित दिवाकर
म अपना गुरु परम्परा म उल्लाखत दिवाकर मुख्तार, पृ० ५२७-५२८ । यति- ये दोनों सिद्धसेन दिवाकर से भिन्न हैं। यद्यपि हरिवंश के १२. सन्मतिप्रकरण-सम्पादक पं० सुखलाल जी एवं बेचरदास जी, प्रारम्भ में तथा आदिपुराण के प्रारम्भ में पूर्वाचार्यों का स्मरण करते ज्ञानोदय ट्रस्ट, अहमदाबाद, पृ० ३६-३७ । हए जिन सिद्धसेन का उल्लेख किया गया है वे सिद्धसेन दिवाकर 13. Siddhasena's Nyayavatar and other works. A.N. ही हैं।
Upadhye-Introduction- pp. xiii to zviii. इ. - जैन साहित्य और इतिहास पर विशद् प्रकाश, जुगल किशोर १४. सुत्तासायणभीरूहि तं च दट्ठव्वयं होई। मुख्तार, पृष्ठ५००-५८५ ।
संतम्मि केवले दंसणम्मि णाणस्स संभवो णत्थि।। फ. धवला और जयधवला में सन्मतिसत्र की कितनी गाथायें कहाँ सुत्तम्मि चेव साई-अपज्जवसियं ति केवलं वुत्तं। उद्धृत हुई, इसका विवरण पं० सुखलाल जी ने सन्मतिप्रकरण केवलणाणम्मि य दंसणस्स तम्हा सणिहणाई।। की अपनी भूमिका में किया है। देखें-सन्मतिप्रकरण 'भूमिका',
___ -सन्मतिप्रकरण, २/७-८ । पृष्ठ ५८
१५. सम्भिन्न ज्ञानदर्शनस्य तु भगवतः केवलिनो युगपत् सर्वभाव ग्राहके ज. इसी प्रकार जटिल के वरांगचरित में भी सन्मतितर्क की अनेक निरपेक्षे केवलज्ञाने केवलदर्शने च नुसमयमपयोगो भवति । गाथाएं अपने संस्कृत रूपान्तर में पायी जाती हैं । इसका विवरण
- तत्त्वार्थभाष्य, १/३१ । मैंने इसी ग्रन्थ के इसी अध्याय से वरांगचरित्र के प्रसंग में किया १६. कल्पसूत्र ।
१७. जैन शिलालोख संग्रह, भाग २, लेख क्रमांक १४३ । 4. Siddhasena's Nyayavatāra and other works. A.N. १८. The Date and authorship of Nyayavatāra-M.A.
Upadhye, Jaina, Sahitya Vikas Mandal, Bombay. 'In- Dhaky. 'Nirgrantha' Edited by M.A. Dhaky & troduction, pp.XIV-XVII
Jitendra Shah, Sharadaben Chimanbhai Educational ५. यापनीय और उनका साहित्य- डॉ० कुसुम पटोरिया, वीर सेवा Research Centre, Ahmedabad-4. मंदिर ट्रस्ट प्रकाशन, वाराणसी-१९८८, पृ० १४३/१४८।
र १९. अभिधर्मसमुच्चय, विश्वभारती शांतिनिकेतन १९५०, सांकथ्य
१ ६. देखें- जैन साहित्य और इतिहास पर विशद् प्रकाश, पं० जुगल
परिच्छेद, पृ० १०५।
दर्शने चानुसमकवार्थभाष्य
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समदर्शी आचार्य हरिभद्र
आचार्य हरिभद्र जैनधर्म के प्रखर प्रतिभासम्पन्न एवं बहुश्रुत घृणा एवं विद्वेष की उन विषम परिस्थितियों में भी समभाव, सत्यनिष्ठा, आचार्य माने जाते हैं । उन्होंने अपनी लेखनी के द्वारा विपुल एवं उदारता, समन्वयशीलता और सहिष्णुता का परिचय दिया । यहाँ यह बहुआयामी साहित्य का सृजन किया है । उन्होंने दर्शन, धर्म, योग, अवश्य कहा जा सकता है कि समन्वयशीलता और उदारता के गुण उन्हें आचार, उपदेश, व्यंग्य और चरित-काव्य आदि विविध विधाओं के जैन दर्शन की अनेकान्त दृष्टि के रूप में विरासत में मिले थे, फिर भी ग्रन्थों की रचना की है । मौलिक साहित्य के साथ-साथ उनका टीका उन्होंने अपने जीवन-व्यवहार और साहित्य-सृजन में इन गुणों को जिस साहित्य भी विपुल है । जैन धर्म में योग सम्बन्धी साहित्य के तो वे आदि शालीनता के साथ आत्मसात् किया था वैसे उदाहरण स्वयं जैन-परम्परा प्रणेता हैं। इसी प्रकार आगमिक ग्रन्थों की संस्कृत भाषा में टीका करने में भी विरल ही हैं। वाले जैन-परम्परा में वे प्रथम टीकाकार भी हैं । उनके पूर्व तक आगमों आचार्य हरिभद्र का अवदान धर्म-दर्शन, साहित्य और समाज पर जो नियुक्ति और भाष्य लिखे गये थे वे मूलत: प्राकृत भाषा में ही के क्षेत्र में कितना महत्त्वपूर्ण है इसकी चर्चा करने के पूर्व यह आवश्यक थे । भाष्यों पर आगमिक व्यवस्था के रूप में जो चूर्णियाँ लिखी गयी है कि हम उनके जीवनवृत्त और युगीन परिवेश के सम्बन्ध में कुछ थीं वे भी संस्कृत-प्राकृत मिश्रित भाषा में लिखी गयीं । विशुद्ध संस्कृत विस्तार से चर्चा कर लें। भाषा में आगमिक ग्रन्थों की टीका लेखन का सूत्रपात तो हरिभद्र ने ही किया । भाषा की दृष्टि से उनके ग्रन्थ संस्कृत और प्राकृत दोनों ही भाषाओं जीवनवृत्त में मिलते हैं । अनुश्रुति तो यह है कि उन्होंने १४४४ ग्रन्थों की रचना यद्यपि आचार्य हरिभद्र ने उदार दृष्टि से विपुल साहित्य का की थी किन्तु वर्तमान में हमें उनके नाम चढ़े पर हुए लगभग ७५ ग्रन्थ सृजन किया, किन्तु अपने सम्बन्ध में जानकारी देने के सम्बन्ध में वे उपलब्ध होते हैं । यद्यपि विद्वानों की यह मान्यता है कि इनमें से कुछ अनुदार या संकोची ही रहे। प्राचीन काल के अन्य आचार्यों के समान ग्रन्थ वस्तुत: याकिनीसूनु हरिभद्र की कृति न होकर किन्हीं दूसरे हरिभद्र ही उन्होंने भी अपने सम्बन्ध में स्वयं कहीं कुछ नहीं लिखा। उन्होंने ग्रन्थनामक आचार्यों की कृतियाँ हैं । पंडित सुखलालजी ने इनमें से लगभग प्रशस्तियों में जो कुछ संकेत दिए हैं उनसे मात्र इतना ही ज्ञात होता है ४५ ग्रन्थों को तो निर्विवाद रूप से उनकी कृति स्वीकार किया है क्योंकि कि वे जैन धर्म की श्वेताम्बर शाखा के 'विद्याधर कुल' से सम्बन्धित इनमें 'भव-विरह' ऐसे उपनाम का प्रयोग उपलब्ध है। इनमें भी यदि हम थे। इन्हें महत्तरा याकिनी नामक साध्वी की प्रेरणा से जैनधर्म का बोध अष्टक-प्रकरण के प्रत्येक अष्टक को, षोडशकप्रकरण के प्रत्येक षोडशक प्राप्त हुआ था, अत: उन्होंने अपनी अनेक रचनाओं में अपने आपको को, विंशिकाओं में प्रत्येक विंशिका को तथा पञ्चाशक में प्रत्येक 'याकिनीसूनु' के रूप में प्रस्तुत किया है, साथ ही अपने ग्रन्थों में अपने पञ्चाशक को स्वतन्त्र ग्रन्थ मान लें तो यह संख्या लगभग २०० के उपमान 'भवविरह' का संकेत किया है । कुवलयमाला में उद्योतनसूरि ने समीप पहुँच जाती है। इससे यह सिद्ध होता है कि आचार्य हरिभद्र एक भी इनका इसी उपनाम के साथ स्मरण किया है। जिन ग्रन्थों में इन्होंने प्रखर प्रतिभा के धनी आचार्य थे और साहित्य की प्रत्येक विधा को अपने इस 'भवविरह' उपनाम का संकेत किया है वे ग्रन्थ निम्न हैं - उन्होंने अपनी रचनाओं से समृद्ध किया था ।
अष्टक, षोडशक, पञ्चाशक, धर्मबिन्दु, ललितविस्तरा, प्रतिभाशाली और विद्वान् होना वस्तुत: तभी सार्थक होता है शास्त्रवार्तासमुच्चय, पञ्चवस्तुटीका, अनेकान्तजयपताका, योगबिन्दु, जब व्यक्ति में सत्यनिष्ठा और सहिष्णुता हो । आचार्य हरिभद्र उस युग संसारदावानलस्तुति, उपदेशपद, धर्मसंग्रहणी और सम्बोध-प्रकरण। के विचारक हैं जब भारतीय चिन्तन में और विशेषकर दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्र के सम्बन्ध में उनके इन ग्रन्थों से इससे अधिक या विशेष सूचना वाक्-छल और खण्डन-मण्डन की प्रवृत्ति बलवती बन गयी थी। प्रत्येक उपलब्ध नहीं होती। दार्शनिक स्वपक्ष के मण्डन एवं परपक्ष के खण्डन में ही अपना आचार्य हरिभद्र के जीवन के विषय में उल्लेख करने वाला बुद्धिकौशल मान रहा था । मात्र यही नहीं, दर्शन के साथ-साथ धर्म के सबसे प्राचीन ग्रन्थ भद्रेश्वर की कहावली है । इस ग्रन्थ में उनके जन्मक्षेत्र में भी पारस्परिक विद्वेष और घृणा अपनी चरम सीमा पर पहुंच चुकी स्थान का नाम बंभपुनी उल्लिखित है किन्तु अन्य ग्रन्थों में उनका थी। स्वयं आचार्य हरिभद्र को भी इस विद्वेष भावना के कारण अपने जन्मस्थान चित्तौड़ (चित्रकूट) माना गया है । सम्भावना है कि ब्रह्मपुरी दो शिष्यों की बलि देनी पड़ी थी। हरिभद्र की महानता और धर्म एवं चित्तौड़ का कोई उपनगर या कस्बा रहा होगा । कहावली के अनुसार दर्शन के क्षेत्र में उनके अवदान का सम्यक् मूल्यांकन तो उनके युग की इनके पिता का नाम शंकर भट्ट और माता का नाम गंगा था । पं० इन विषम परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में ही किया जा सकता है । आचार्य सुखलाल जी का कथन है कि पिता के नाम के साथ भट्ट शब्द सूचित हरिभद्र की महानता तो इसी में निहित है कि उन्होंने शुष्क वाग्जाल तथा करता है कि वे जाति से ब्राह्मण थे। ब्रह्मपुरी में उनका निवास भी उनके
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समदी आचार्य हरिभद्र
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ब्राह्मण होने के अनुमान की पुष्टि करता है । गणधरसार्धशतक और अन्य भवविरह का इच्छुक कहते हों । यह भी सम्भव है कि अपने प्रिय शिष्यों ग्रन्थों में उन्हें स्पष्टरूप से ब्राह्मण कहा गया है। धर्म और दर्शन की अन्य के विरह की स्मृति में उन्होंने यह उपनाम धारण किया हो। पं० परम्पराओं के सन्दर्भ में उनके ज्ञान गाम्भीर्य से भी इस बात की पुष्टि होती सुखलालजी ने इस सम्बन्ध में निम्न तीन घटनाओं का संकेत किया हैहै कि उनका जन्म और शिक्षा-दीक्षा ब्राह्मण कुल में ही हुई होगी। (१) धर्मस्वीकार का प्रसंग (२) शिष्यों के वियोग का प्रसंग
कहा यह जाता है कि उन्हें अपने पाण्डित्य पर गर्व था और और (३) याचकों को दिये जाने वाले आशीर्वाद का प्रसंग तथा उनके अपनी विद्वत्ता के इस अभिमान में आकर ही उन्होंने यह प्रतिज्ञा कर ली द्वारा भवविरहसूरि चिरंजीवी हो कहे जाने का प्रसंग। इस तीसरे प्रसंग थी कि जिसका कहा हुआ समझ नही पाऊँगा उसी का शिष्य हो जाऊँगा। का निर्देश कहावली में है। जैन अनुश्रुतियों में यह माना जाता है कि एक बार वे जब रात्रि में अपने घर लौट रहे थे तब उन्होंने एक वृद्धा साध्वी के मुख से प्राकृत की निम्न हरिभद्र का समय गाथा सुनी जिसका अर्थ वे नहीं समझ सके।
हरिभद्र के समय के सम्बन्ध में अनेक अवधारणाएँ प्रचलित चक्कीदगं हरिपणगं पणगं चक्की केसवो चक्की । हैं। अंचलगच्छीय आचार्य मेरुतुंग ने 'विचार श्रेणी' में हरिभद्र के केसव चक्की केसव दु चक्की केसी अ चक्की अ ।। स्वर्गवास के सन्दर्भ में निम्न प्राचीन गाथा को उद्धत किया है -
- आवश्यकनियुक्ति, ४२१ पंचसए पणसीए विक्कम कालाउ झत्ति अस्थिमओ । अपनी जिज्ञासुवृत्ति के कारण वे उस गाथा का अर्थ जानने के हरिभद्रसूरी भवियाणं दिसउ कल्लाणं ।। लिए साध्वीजी के पास गये । साध्वीजी ने उन्हें अपने गुरु आचार्य उक्त गाथा के अनुसार हरिभद्र का स्वर्गवास वि० सं०५८५ जिनदत्तसरि के पास भेज दिया । आचार्य जिनदत्तसरि ने उन्हें धर्म के दो में हुआ। इसी गाथा के आधार पर प्रद्युम्नसूरि ने अपने विचारसारप्रकरण' भेद बताए - (१) सकामधर्म और (२) निष्कामधर्म । साथ ही यह भी एवं समयसुन्दरगणि ने स्वसंगृहीत 'गाथासहस्री' में हरिभद्र का स्वर्गवास बताया कि निष्काम या निस्पृह धर्म का पालन करने वाला ही 'भवविरह' वि० सं० ५८५ में माना है । इसी आधार पर मुनि श्रीकल्याणविजयजी अर्थात मोक्ष को प्राप्त करता है। ऐसा लगता है कि प्राकृत भाषा और ने 'धर्म-संग्रहणी' की अपनी संस्कृत प्रस्तावना में हरिभद्र का सत्ता-समय उसकी विपुल साहित्य-सम्पदा ने आचार्य हरिभद्र को जैन धर्म के प्रति वि० सं० की छठी शताब्दी स्थापित किया है। आकर्षित किया हो और आचार्य द्वारा यह बताए जाने पर कि जैन साहित्य
कुलमण्डनसूरि ने 'विचारअमृतसंग्रह' में और धर्मसागर उपाध्याय के तलस्पर्शी अध्ययन के लिये जैने मुनि की दीक्षा अपेक्षित है, अतः ने तपागच्छगुर्वावली में वीर-निर्वाण-संवत् १०५५ में हरिभद्र का समय वे उसमें दीक्षित हो गए । वस्तुत: एक राजपुरोहित के घर में जन्म लेने निरूपित किया है - के कारण वे संस्कृत व्याकरण, साहित्य, वेद, उपनिषद्, धर्मशास्त्र, पणपन्नदससएहिं हरिसूरि आसि तत्थ पुष्वकई । दर्शन और ज्योतिष के ज्ञाता तो थे ही, जैन परम्परा से जुड़ने पर उन्होंने परम्परागत धारणा के अनुसार वी०नि० के ४७० वर्ष पश्चात जैन साहित्य का भी गम्भीर अध्ययन किया । मात्र यही नहीं, उन्होंने अपने वि० सं० का प्रारम्भ मानने से (४७०+५८५ = १०५५) यह तिथि इस अध्ययन को पूर्व अध्ययन से परिपृष्ट और समन्वित भी किया। उनके पूर्वोक्त गाथा के अनुरूप ही वि० सं० ५८५ में हरिभद्र का स्वर्गवास ग्रन्थ योगसमुच्चय, योगदृष्टि, शास्त्रवार्तासमुच्चय आदि इस बात का निरूपित करती है। स्पष्ट प्रमाण हैं कि उन्होंने अपनी पारिवारिक परम्परा से प्राप्त ज्ञान और . आचार्य हरिभद्र का स्वर्गवास वि० सं० की छठी शताब्दी के जैन परम्परा में दीक्षित होकर अर्जित किए ज्ञान को एक दूसरे का पूरक उत्तरार्ध में हुआ, इसका समर्थन निम्न दो प्रमाण करते हैं - बनाकर ही इन ग्रन्थों की रचना की है । हरिभद्र को जैनधर्म की ओर (१) तपागच्छ गुर्वावली में मुनिसुन्दरसूरि ने हरिभद्रसूरि को आकर्षित करने वाली जैन साध्वी महत्तरा याकिनी थी, अत: अपना धर्म- मानदेवसूरि द्वितीय का मित्र बताया है जिनका समय विक्रम की छठी ऋण चुकाने के लिये उन्होंने अपने को महत्तरा याकिनीसून अर्थात शताब्दी माना जाता है । अत: यह उल्लेख पूर्व गाथोक्त समय से अपनी याकिनी का धर्मपत्र घोषित किया। उन्होंने अपनी रचनाओं में अनेकशः संगति रखता है। अपने साथ इस विशेषण का उल्लेख किया है । हरिभद्र के उपनाम के (२) इस गाथोक्त समय के पक्ष में दूसरा सबसे महत्त्वपूर्ण रूप में दूसरा विशेषण 'भवविरह' है । उन्होंने अपनी अनेक रचनाओं साक्ष्य हरिभद्र का 'धूर्ताख्यान' है जिसकी चर्चा मुनि जिनविजयजी ने में इस उपनाम का निर्देश किया है । विवेच्य ग्रन्थ पञ्चाशक के अन्त में 'हरिभद्रसूरि का समय निर्णय' (पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, १९८८) हमें ‘भवविरह' शब्द मिलता है । अपने नाम के साथ यह भवविरह में नहीं की थी । सम्भवत: उन्हें निशीथचूर्णि में धूर्ताख्यान का उल्लेख विशेषण लगाने का क्या कारण रहा होगा, यह कहना तो कठिन है, फिर सम्बन्धी यह तथ्य ज्ञात नहीं था । यह तथ्य मुझे 'धूर्ताख्यान' में मूलभी इस विशेषण का सम्बन्ध उनके जीवन की तीन घटनाओं से जोड़ा स्रोत की खोज करते समय उपलब्ध हुआ है। धूर्ताख्यान के समीक्षात्मक जाता है। सर्वप्रथम आचार्य जिनदत्त ने उन्हें भवविरह अर्थात् मोक्ष प्राप्त अध्ययन में प्रोफेसर ए० एन० उपाध्ये ने हरिभद्र के प्राकृत धूर्ताख्यान करने की प्रेरणा दी, अत: सम्भव है उनकी स्मृति में वे अपने को का संघतिलक के संस्कृत धूर्ताख्यान पर और अज्ञातकृत मरुगुर्जर में
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
निबद्ध धूर्ताख्यान पर प्रभाव की चर्चा की है । इस प्रकार उन्होंने (महाभारत) और रामायण का उल्लेख करते हैं । हरिभद्र ने तो एक स्थान धूर्ताख्यान को हरिभद्र की मौलिक रचना माना है। यदि धूर्ताख्यान की पर विष्णुपुराण, महाभारत के अरण्यपर्व और अर्थशास्त्र का भी उल्लेख कथा का निबन्धन हरिभद्र ने स्वयं अपनी स्वप्रसूत कल्पना से किया है किया है, अत: निश्चित ही यह आख्यान इनकी रचना के बाद ही रचा तो वे निश्चित ही निशीथभाष्य और निशीथचूर्णि के लेखन-काल से गया होगा। उपलब्ध आगमों में अनुयोगद्वार महाभारत और रामायण पूर्ववर्ती हैं। क्योंकि इन दोनों ग्रन्थों में यह कथा उपलब्ध है। भाष्य में का उल्लेख करता है । अनुयोगद्वार की विषयवस्तु के अवलोकन से इस कथा का सन्दर्भ निम्न रूप में उपलब्ध होता है -
ऐसा लगता है कि अपने अन्तिम रूप में वह लगभग पाँचवीं शती ससएलासाढ-मूलदेव, खण्डा य जुण्णउज्जाणे । की रचना है । धूर्ताख्यान में 'भारत' नाम आता है, 'महाभारत' नहीं। सामस्थणे को भत्तं, अक्खात जो ण सद्दहति ।। अत: इतना निश्चित है कि धूर्ताख्यान के कथानक के आद्यस्रोत की चोरभया गावीओ, पोट्टलए बंधिऊण आणेमि । पूर्व सीमा ईसा की चौथी या पाँचवीं शती से आगे नहीं जा सकती। तिलअइरूढकुहाडे, वणगय मलणा य तेल्लोदा ।। पुनः निशीथभाष्य और निशीथचूर्णी में उल्लेख होने से धूर्ताख्यान वणगयपाटण कुंडिय, छम्मास हत्थिलग्गणं पुच्छे । के आद्यस्रोत की अपर-अन्तिम सीमा छठी-सातवीं शती के पश्चात् रायरयग मो वादे, जहि पेच्छइ ते इमे वत्था ।। नहीं हो सकती । इन ग्रन्थों का रचनाकाल ईसा की सातवीं शती का
भाष्य की उपर्युक्त गाथाओं से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि उत्तरार्ध हो सकता है । अत: धूर्ताख्यान का आद्यस्रोत ईसा की पाँचवीं भाष्यकार को सम्पूर्ण कथानक जो कि चूर्णि और हरिभद्र के धूर्ताख्यान से सातवीं शती के बीच का है । में है, पूरी तरह ज्ञात है, वे मृषावाद के उदाहरण के रूप में इसे प्रस्तुत करते यद्यपि प्रमाणाभाव में निश्चितरूप से कुछ कहना कठिन है, किन्तु हैं । अत: यह स्पष्ट है कि सन्दर्भ देने वाला ग्रन्थ उस आख्यान का एक कल्पना यह भी की जा सकती है कि हरिभद्र की गुरु-परम्परा जिनभद्र आद्यस्रोत नहीं हो सकता। भाष्यों में जिस प्रकार आगमिक अन्य आख्यान और जिनदास की हो, आगे कहीं भ्रान्तिवश जिनभद्र का जिनभट और सन्दर्भ रूप में आये हैं, उसी प्रकार यह आख्यान भी आया है। अत: यह जिनदास का जिनदत्त हो गया हो, क्योंकि 'ई' और 'ट्ट' के लेखन में और निश्चित है कि यह आख्यान भाष्य से पूर्ववर्ती है । चूर्णि तो स्वयं भाष्य पर 'त' और 'स' के लेखन में हस्तप्रतों में बहुत ही कम अन्तर रहता है । पुनः टीका है और उसमें उन्हीं भाष्य गाथाओं की व्याख्या के रूप में लगभग तीन हरिभद्र जैसे प्रतिभाशाली शिष्य का गुरु भी प्रतिभाशाली होना चाहिए, जब पृष्ठों में यह आख्यान आया है, अत: यह भी निश्चित है कि चूर्णि भी इस कि हरिभद्र के पूर्व जिनभट्ट और जिनदत्त के होने के अन्यत्र कोई संकेत नहीं आख्यान का मूलस्रोत नहीं है । पुन: चूर्णि के इस आख्यान के अन्त में स्पष्ट मिलते हैं। हो सकता है कि धूर्ताख्यान हरिभद्र की युवावस्था की रचना हो लिखा है- “सेसं धुत्तवखाणगाहाणुसारेण" (पृ०१०५)। अत: निशीथभाष्य और उसका उपयोग उनके गुरुबन्धु सिद्धसेन क्षमाश्रमण (छठी शती) ने
और चूर्णि इस आख्यान के आदि स्रोत नहीं माने जा सकते । किन्तु हमें अपने निशीथभाष्य में तथा उनके गुरु जिनदासगणि महत्तर ने निशीथचूर्णि निशीथभाष्य और निशीथचूर्णि से पूर्व रचित किसी ऐसे ग्रन्थ की कोई में किया हो । धूर्ताख्यान को देखने से स्पष्ट रूप से यह लगता है कि यह जानकारी नहीं है जिसमें यह आख्यान आया हो।
हरिभद्र के युवाकाल की रचना है क्योंकि उसमें उनकी जो व्यंग्यात्मक शैली जब तक अन्य किसी आदिस्रोत के सम्बन्ध में कोई जानकारी है, वह उनके परवर्ती ग्रन्थों में नहीं पायी जाती। हरिभद्र जिनभद्र एवं नहीं है, तब तक हरिभद्र के धूर्ताख्यान को लेखक की स्वकल्पनाप्रसूत जिनदास की परम्परा में हुए हो, यह मात्र मेरी कल्पना नहीं है । डॉ० हर्मन मौलिक रचना क्यों नहीं माना जाये ! किन्तु ऐसा मानने पर भाष्यकार जैकोबी और अन्य कुछ विद्वानों ने भी हरिभद्र के गुरु का नाम जिनभद्र माना और चूर्णिकार, इन दोनों से ही हरिभद्र को पूर्ववर्ती मानना होगा और इस है । यद्यपि मुनि श्री जिनविजयी ने इसे उनकी भ्रान्ति ही माना है । सम्बन्ध में विद्वानों की जो अभी तक अवधारणा बनी हुई है वह खण्डित वास्तविकता जो भी हो, किन्तु यदि हम धूर्ताख्यान को हरिभद्र की मौलिक हो जायेगी । यद्यपि उपलब्ध सभी पट्टावलियों तथा उनके ग्रन्थ लघुक्षेत्रसमास रचना मानते हैं तो उन्हें जिनभद्र (लगभग शक संवत् ५३०) और सिद्धसेन की वृत्ति में हरिभद्र का स्वर्गवास वीर-निर्वाण संवत् १०५५ या विक्रम क्षमाश्रमण (लगभग शक संवत् ५५०) तथा उनके शिष्य जिनदासगणि संवत् ५८५ तथा तदनुरूप ईस्वी सन् ५२९ में माना जाता है । किन्तु महत्तर (शक संवत् ५९८ या वि० सं०७३३) के पूर्ववर्ती या कम से कम पट्टावलियों में उन्हें विशेषावश्यकभाष्य के कर्ता जिनभद्र एवं जिनदास समकालिक तो मानना ही होगा। का पूर्ववर्ती भी माना गया है । अब हमारे सामने दो ही विकल्प हैं या यदि हम हरिभद्र को सिद्धसेन क्षमाश्रमण एवं जिनदासगणि महत्तर तो पट्टावलियों के अनुसार हरिभद्र को जिनभद्र और जिनदास के पूर्व का पूर्ववर्ती मानते हैं तब तो उनका समय विक्रम संवत् ५८५ माना जा मानकर उनकी कृतियों पर विशेषरूप से जिनदास महत्तर पर हरिभद्र का सकता है । मुनि जयसुन्दर विजयजी शास्त्रवार्तासमुच्चय की भूमिका में उक्त प्रभाव सिद्ध करें या फिर धूर्ताख्यान के मूलस्रोत को अन्य किसी पूर्ववर्ती तिथि का समर्थन करते हुए लिखते हैं - प्राचीन अनेक ग्रन्थकारों ने श्री रचना या लोक-परम्परा में खोजें । यह तो स्पष्ट है कि धूर्ताख्यान चाहे हरिभद्रसूरि को ५८५ वि० सं० में होना बताया है । इतना ही नहीं, किन्तु वह निशीथचूर्णि का हो या हरिभद्र का, स्पष्ट ही पौराणिक युग के पूर्व श्री हरिभद्रसूरि ने स्वयं भी अपने समय का उल्लेख संवत् तिथि-वार-मास की रचना नहीं है। क्योंकि वे दोनों ही सामान्यतया श्रुति, पुराण, भारत और नक्षत्र के साथ लघुक्षेत्रसमास की वृत्ति में किया है, जिस वृत्ति के
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समदर्शी आचार्य हरिभद्र
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ताडपत्रीय जैसलमेर की प्रति का परिचय मुनि श्री पुण्यविजय सम्पादित हरिभद्र के ग्रन्थों में मिलते हैं । इनमें सबसे पूर्ववर्ती जिनभद्र का सत्ता'जैसलमेर कलेक्शन' पृष्ठ ६८ में इस प्रकार प्राप्य है : “क्रमांक १९६, समय भी शक संवत् ५३० अर्थात् विक्रम संवत् ६६५ के लगभग जम्बू द्वीपक्षेत्रसमासवृत्ति, पत्र २६, भाषा, प्राकृत-संस्कृत, कर्ता : हरिभद्र है। अत: हरिभद्र के स्वर्गवास का समय विक्रम संवत् ५८५ किसी आचार्य, प्रतिलिपि ले० सं० अनुमानत: १४वीं शताब्दी ।" भी स्थिति में प्रामाणिक सिद्ध नहीं होता। इस प्रति के अन्त में इस प्रकार का उल्लेख मिलता है -
हरिभद्र को जिनभद्रगणि, सिद्धसेनगणि और जिनदासमहत्तर इति क्षेत्रसमासवृत्तिः समाप्ता ।
का समकालिक मानने पर पूर्वोक्त गाथा के वि० सं० ५८५ को शक विरचिता श्री हरिभद्राचार्यैः ।।छ।।
संवत् मानना होगा और इस आधार पर हरिभद्र का समय ईसा की सातवीं लघुक्षेत्रसमासस्य वृत्तिरेषा समासतः ।
शताब्दी का उत्तरार्ध सिद्ध होता है । हरिभद्र की कृति दशवकालिकवृत्ति रचिताबुधबोधार्थं श्री हरिभद्रसूरिभिः ।।१।।
में विशेषावश्यकभाष्य की अनेक गाथाओं का उल्लेख यही स्पष्ट करता पञ्चाशितिकवर्षे विक्रमतो वज्रति शुक्लपञ्चम्याम् । है कि हरिभद्र का सत्ता-समय विशेषावश्यकभाष्य के पश्चात् ही होगा । शुक्रस्य शुक्रवारे शस्ये पुष्ये च नक्षत्रे ।।२।।
भाष्य का रचनाकाल शक संवत् ५३१ या उसके कुछ पूर्व का है । अत: ठीक इसी प्रकार का उल्लेख अहमदाबाद, संवेगी उपाश्रय के यदि उपर्युक्त गाथा के ५८५ को शक संवत् मान लिया जाय तो दोनों हस्तलिखित भण्डार की सम्भवतः पन्द्रहवीं शताब्दी में लिखी हुई क्षेत्र में संगति बैठ सकती है । पुनः हरिभद्र की कृतियों में नन्दीचूर्णि से भी
कुछ पाठ अवतरित हुए हैं । नन्दीचूर्णि के कर्ता जिनदासगणिमहत्तर ने दूसरी गाथा में स्पष्ट शब्दों में श्री हरिभद्रसूरि ने लघुक्षेत्रमास उसका रचना काल शक संवत् ५९८ बताया है । अत: हरिभद्र का सत्तवृत्ति का रचनाकाल वि० सं० (५) ८५, पुष्यनक्षत्र शुक्र (ज्येष्ठ) मास, समय शक संवत् ५९८ तदनुसार ई० सन् ६७६ के बाद ही हो सकता शुक्रवार-शुक्लपञ्चमी बताया है । यद्यपि यहाँ वि० सं० ८५ का उल्लेख है। यदि हम हरिभद्र के काल सम्बन्धी पूर्वोक्त गाथा के विक्रम संवत् है । तथापि जिन वार-तिथि-मास-नक्षत्र का यह उल्लेख है उनसे वि० को शक संवत् मानकर उनका काल ईसा की सातवीं शताब्दी का उत्तरार्ध सं० ५८५ का ही मेल बैठता है । अहमदाबाद वेधशाला के प्राचीन एवं आठवीं शताब्दी का पूर्वार्ध मानें तो नन्दीचूर्णि के अवतरणों की ज्योतिष विभाग के अध्यक्ष श्री हिम्मतराम जानी ने ज्योतिष और गणित संगति बैठाने में मात्र २०-२५ वर्ष का ही अन्तर रह जाता है । अत: के आधार पर जाँच करके यह बताया है कि उपर्युक्त गाथा में जिन वार- इतना निश्चित है कि हरिभद्र का काल विक्रम की सातवीं/आठवीं अथवा तिथि इत्यादि का उल्लेख है, वह वि० सं० ५८५ के अनुसार बिलकुल ईस्वी सन् की आठवीं शताब्दी ही सिद्ध होगा। ठीक है, ज्योतिषशास्त्र के गणितानुसार प्रामाणिक है।
इससे हरिभद्र की कृतियों में उल्लिखित कुमारिल, भर्तृहरि, इस प्रकार श्री हरिभद्रसूरि महाराज ने स्वयं ही अपने समय की धर्मकीर्ति, वृद्धधर्मोत्तर आदि से उनकी समकालिकता मानने में भी कोई अत्यन्त प्रामाणिक सूचना दे रखी है, तब उससे बढ़कर और क्या प्रमाण बाधा नहीं आती । हरिभद्र ने जिनभद्र और जिनदास के जो उल्लेख किये हो सकता है जो उनके इस समय की सिद्धि में बाधा डाल सके ? शंका हैं और हरिभद्र की कृतियों में इनके जो अवतरण मिलते हैं उनमें भी इस हो सकती है कि 'यह गाथा किसी अन्य ने प्रक्षिप्त की होगी' किन्तु वह तिथि को मानने पर कोई बाधा नहीं आती । अतः विद्वानों को जिनविजयजी ठीक नहीं, क्योंकि प्रक्षेप करने वाला केवल संवत् का उल्लेख कर के निर्णय को मान्य करना होगा । सकता है किन्तु उसके साथ प्रामाणिक वार-तिथि आदि का उल्लेख नहीं
पुनः यदि हम यह मान लेते हैं कि निशीथचूर्णि में उल्लिखित कर सकता । हाँ, यदि धर्मकीर्ति आदि का समय इस समय में बाधा प्राकृत धूर्ताख्यान किसी पूर्वाचार्य की कृति थी और उसके आधार पर ही उत्पन्न कर रहा हो तो धर्मकीर्ति आदि के समयोल्लेख के आधार पर श्री हरिभद्र ने अपने प्राकृत धूर्ताख्यान की रचना की तो ऐसी स्थिति में हरिभद्रसूरि को विक्रम की छठी शताब्दी से खींचकर आठवीं शताब्दी के हरिभद्र के समय को निशीथचूर्णि के रचनाकाल ईस्वी सन् ६७६ से आगे उत्तरार्ध में ले जाने की अपेक्षा उचित यह है कि श्री हरिभद्रसूरि के इस लाया जा सकता है । मुनि श्री जिनविजयजी ने अनेक आन्तर और बाह्य अत्यन्त प्रामाणिक समय-उल्लेख के बल से धर्मकीर्ति आदि को ही छठी साक्ष्यों के आधार पर अपने ग्रन्थ 'हरिभद्रसूरि का समय निर्णय' में हरिभद्र शताब्दी के पूर्वार्ध या उत्तरार्ध में ले जाया जाय ।
के समय को ई० सन् ७००-७७० स्थापित किया है। यदि पूर्वोक्त गाथा - किन्तु मुनि श्रीजयसुन्दरविजयजी की उपर्युक्त सूचना के के अनुसार हरिभद्र का समय विक्रम सं० ५८५ मानते हैं तो जिनविजयजी अनुसार जम्बूद्वीप क्षेत्र समासवृत्ति का रचनाकाल है । पुन: इसमें मात्र द्वारा निर्धारित समय और गाथोक्त समय में लगभग २०० वर्षों का अन्तर ८५ का उल्लेख है, ५८५ का नहीं । इत्सिंग आदि का समय तो रह जाता है । जो उचित नहीं लगता है । अत: इसे शक संवत् मानना सुनिश्चित है । पुन: समस्या न केवल धर्मकीर्ति आदि के समय की है, उचित होगा। इसी क्रम में मुनि धनविजयजी ने 'चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धार' अपितु जैन-परम्परा के सुनिश्चित समयवाले जिनभद्र, सिद्धसेनक्षमाश्रमण में 'रत्नसंचयप्रकरण' की निम्न गाथा का उल्लेख किया है - एवं जिनदासगणि महत्तर की भी है- इनमें से कोई भी विक्रम संवत् पणपण्णबारससए हरिभद्दोसूरि आसि पुव्वकाए । ५८५ से पूर्ववर्ती नहीं है जबकि इनके नामोल्लेख सहित ग्रन्थावतरण इस गाथा के आधार पर हरिभद्र का समय वीर निर्वाण संवत्
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
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१२५५ अर्थात् वि० सं० ७८५ या ईसवी सन् ७२८ आता है । इस हरिभद्र, अकलंक और सिद्धर्षि से पूर्ववर्ती हैं । अकलंक का समय गाथा में उनके स्वर्गवास का उल्लेख नहीं है, अत: इसे उनका सत्ता- विद्वानों ने ई० सन् ७२०-७८० स्थापित किया है । अत: हरिभद्र या समय माना जा सकता है । यद्यपि उक्त गाथा की पुष्टि हेतु हमें अन्य कोई तो अकलंक के पूर्ववर्ती या वरिष्ठ समकालीन ही सिद्ध होते है । उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। यदि हम इसी प्रसंग में वीर निर्वाण संवत्
निवाण सवत् के सम्बन्ध में चली आ रही ६० वर्ष की भूल को संशोधित कर वीर-निर्वाण हरिभद्र का व्यक्तित्व को वि० पू०४१० या ई० पू० ४६७ मानते हैं जैसा कि मैंने अपने एक हरिभद्र का व्यक्तित्व अनेक सगुणों की पूँजीभूत भास्वर प्रतिभा निबन्ध (देखें : सागर जैन-विद्या भारती, भाग १) में सिद्ध किया है, तो ऐसी है। उदारता, सहिष्णुता, समदर्शिता ऐसे सद्गुण हैं जो उनके व्यक्तिव को स्थिति में हरिभद्र का स्वर्गवास काल १२५५-४६७= ७८८ ई० सिद्ध हो महनीयता प्रदान करते हैं। उनका जीवन समभाव की साधना को समर्पित जाता है और यह काल जिनविजयजी द्वारा निर्धारित हरिभद्र के सत्ता- है। यही कारण है कि विद्या के बल पर उन्होंने धर्म और दर्शन के क्षेत्र समय ईस्वी सन् ७०० से ७७० के अधिक निकट है।
में नए विवाद खड़े करने के स्थान पर उनके मध्य समन्वय साधने का हरिभद्र के उपर्युक्त समय-निर्णय के सम्बन्ध में एक अन्य पुरुषार्थ किया है । उनके लिए विद्या विवादाय' न होकर पक्ष-व्यामोह महत्त्वपूर्ण समस्या खड़ी होती है सिद्धर्षिकृत उपमितिभवप्रपंचकथा के से ऊपर उठकर सत्यान्वेषण करने हेतु है । हरिभद्र पक्षाग्रही न होकर उस उल्लेख से जिसमें सिद्धर्षि ने हरिभद्र को अपना धर्मबोधकर गुरु कहा सत्याग्रही हैं, अत: उन्होंने मधुसंचयी भ्रमर की तरह विविध धार्मिक और है। उन्होंने यह कथा वि० सं० ९६२ में ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी, गुरुवार दार्शनिक परम्पराओं से बहुत कुछ लिया है और उसे जैन परम्परा की के दिन पूर्ण की थी । सिद्धर्षि के द्वारा लिखे गये इस तिथि के अनुसार अनेकान्त दृष्टि से समन्वित भी किया है । यदि उनके व्यक्तित्व की यह काल ९०६ ई० सिद्ध होता है तथा उसमें बताए गए वार, नक्षत्र महानता को समझना है तो विविध क्षेत्रों में उनके अवदानों का मूल्यांकन आदि भी ज्योतिष की गणना से सिद्ध होते हैं । सिद्धर्षि उपमितिभवप्रपंचकथा करना होगा और उनके अवदान का वह मूल्यांकन ही उनके व्यक्तित्व में हरिभद्र के विषय में लिखते हैं कि उन्होंने (हरिभद्र ने) अनागत अर्थात् का मूल्याकंन होगा । भविष्य में होने वाले मुझको जानकर ही मेरे लिये चैत्यवंदनसूत्र का आश्रय लेकर 'ललितविस्तरा-वृत्ति' की रचना की। यद्यपि कुछ जैन धर्म और दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्र का अवदान कथानकों में सिद्धर्षि और हरिभद्र के पारस्परिक सम्बन्ध को सिद्ध किया धर्म और दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्र का अवदान क्या है ? यह गया है और यह बताया गया है कि सिद्धर्षि हरिभद्र के हस्तदीक्षित शिष्य समझने के लिए इस चर्चा को हम निम्न बिन्दुओं में विभाजित कर रहे हैंथे, किन्तु सिद्धर्षि का यह कथन कि 'भविष्य में होने वाले मुझको (१) दार्शनिक एवं धार्मिक परम्पराओं का निष्पक्ष प्रस्तुतीकरण। जानकर ............' यही सिद्ध करता है कि आचार्य हरिभद्र उनके (२) अन्य दर्शनों की समीक्षा में भी शिष्ट भाषा का प्रयोग तथा परम्परा-गुरु थे, साक्षात् गुरु नहीं।
अन्य धर्मों एवं दर्शनों के प्रवर्तकों के प्रति बहुमानवृत्ति । स्वयं सिद्धर्षि ने भी हरिभद्र को कालव्यवहित अर्थात् पूर्वकाल (३) शुष्क दार्शनिक समालोचनाओं के स्थान पर उन अवधारणाओं में होने वाले तथा उपने को अनागत अर्थात् भविष्य में होने वाला कहा के सार-तत्त्व और मूल उदेश्यों को समझने का प्रयत्न । है। अत: दोनों के बीच काल का पर्याप्त अन्तर होना चाहिए । यद्यपि (४) अन्य दार्शनिक मान्यताओं में निहित सत्यों को एवं यह सत्य है कि सिद्धर्षि को उनके ग्रन्थ ललितविस्तरा के अध्ययन से इनकी मूल्यवत्ता को स्वीकार करते हुए जैन दृष्टि के साथ उनके समन्वय जिन धर्म में स्थिरता हुई थी, इसलिए उन्होंने हरिभद्र को धर्मबोध प्रदाता का प्रयत्न । गुरु कहा, साक्षात् गुरु नहीं कहा । मुनि जिनविजयजी ने भी हरिभद्र को (५) अन्य दार्शनिक परम्पराओं के ग्रन्थों का निष्पक्ष अध्ययन सिद्धर्षि का साक्षात् गुरु नहीं माना है।
___ करके उन पर व्याख्या और टीका का प्रणयन करना । कुवलयमाला' के कर्ता उद्योतनसूरि ने अपने इस ग्रन्थ में जो (६) उदार और समन्वयवादी दृष्टि रखते हुए पौराणिक शक संवत् ६९९ अर्थात् ई० सन् ७७७ में निर्मित है, हरिभद्र एवं अन्धविश्वासों का निर्भीक रूप से खण्डन करना । उनकी कृति “समराइच्चकहा' तथा उनके भवविरह नाम का उल्लेख (७) दर्शन और धर्म के क्षेत्र में आस्था या श्रद्धा की अपेक्षा किया है । अत: हरिभद्र ई० सन् ७७७ के पूर्व हुए हैं, इसमें कोई विवाद तर्क एवं युक्ति पर अधिक बल; किन्तु शर्त यह कि तर्क और युक्ति नहीं रह जाता है।
का प्रयोग अपने मत की पुष्टि के लिए नहीं, अपितु सत्य की खोज हरिभद्र, सिद्धर्षि और अकलंक के पूर्ववर्ती हैं, इस सम्बन्ध में के लिए हो। एक अन्य प्रमाण यह है कि सिद्धर्षि ने न्यायावतार की टीका में अकलंक (८) धर्म साधना को कर्मकाण्ड के स्थान पर चरित्र की द्वारा मान्य स्मृति, प्रत्यभिज्ञा और तर्क- इन तीन प्रमाणों की चर्चा की निर्मलता के साथ जोड़ने का प्रयत्न । है । अकलंक के पूर्व जैनदर्शन में इन तीन प्रमाणों की चर्चा अनुपस्थित (९) मुक्ति के सम्बन्ध में एक उदार और व्यापक दृष्टिकोण । है । हरिभद्र ने भी कहीं इन तीन प्रमाणों की चर्चा नहीं की है । अत: (१०) उपास्य के नाम-भेद को गौण मानकर उसके गुणों
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समदर्शी आचार्य हरिभद्र
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पर बल ।
दार्शनिकों ने अनेकान्त दृष्टि के प्रभाव के कारण कहीं-कहीं वैचारिक
उदारता का परिचय दिया है, फिर भी ये सभी विचारक इतना तो मानते ही अन्य दार्शनिक एवं धार्मिक परम्पराओं का निष्पक्ष प्रस्तुतीकरण हैं कि अन्य दर्शन ऐकान्तिक दृष्टि का आश्रय लेने के कारण मिथ्या
जैन परम्परा में अन्य परम्पराओं के विचारकों के दर्शन एवं दर्शन हैं जबकि जैन दर्शन अनेकान्त-दृष्टि अपनाने के कारण सम्यग्दर्शन धमोपदेश के प्रस्तुतीकरण का प्रथम प्रयास हमें ऋषिभाषित (इसिभासियाई हैं । वस्तुत: वैचारिक समन्वयशीलता और धार्मिक उदारता की जिस लगभग ई० पू०३ शती) में परिलक्षित होता है । इस ग्रंथ में अन्य ऊँचाई का स्पर्श हरिभद्र ने अपनी कृतियों में किया है वैसा उनके पूर्ववर्ती धार्मिक और दार्शनिक परम्पराओं के प्रवर्तकों, यथा-नारद, असितदेवल, जैन एवं जैनेतर दार्शनिकों में हमें परिलक्षित नहीं होता । यद्यपि हरिभद्र याज्ञवल्क्य, सारिपुत्र आदि को अर्हत् ऋषि कहकर सम्बोधित किया गया है के परवर्ती जैन दार्शनिकों में हेमचन्द्र, यशोविजय, आनन्दघन आदि और उनके विचारों को निष्पक्ष रूप में प्रस्तुत किया गया है । निश्चय ही अन्य धर्मों और दर्शनों के प्रति समभाव और उदारता का परिचय देते हैं, वैचारिक उदारता एवं अन्य परम्पराओं के प्रति समादर भाव का यह अति किन्तु उनकी यह उदारता उन पर हरिभद्र के प्रभाव को ही सूचित करती प्राचीन काल का अन्यतम और मेरी दृष्टि में एकमात्र उदाहरण है। अन्य है। उदारहण के रूप में हेमचन्द्र अपने महादेव-स्तोत्र (४४) में निम्न परम्पराओं के प्रति ऐसा समादर भाव वैदिक और बौद्ध परम्परा के प्राचीन श्लोक प्रस्तुत करते हैं - साहित्य में हमें कहीं भी उपलब्ध नहीं होता । स्वयं जैन परम्परा में भी यह भव-बीजांकुरजनना रागाद्याक्षयमुपागता यस्य । उदार दृष्टि अधिक काल तक जीवित नहीं रह सकी। परिणामस्वरूप यह ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ।। महान् ग्रन्थ जो कभी अंग साहित्य का एक भाग था, वहाँ से अलगकर वस्तुत: २५०० वर्ष के सुदीर्घ जैन इतिहास में ऐसा कोई भी परिपार्श्व में डाल दिया गया। यद्यपि सूत्रकृतांग, भगवती आदि आगम-ग्रन्थों समन्वयवादी उदारचेता व्यक्तित्व नहीं है, जिसे हरिभद्र के समतुल्य कहा में तत्कालीन अन्य परम्पराओं के विवरण उपलब्ध होते हैं, किन्तु उनमें अन्य जा सके । यद्यपि हरिभद्र के पूर्ववर्ती और परवर्ती अनेक आचार्यों ने जैन दर्शनों और परम्पराओं के प्रति वह उदारता और शालीनता परिलक्षित नहीं दर्शन की अनेकान्त दृष्टि के प्रभाव के परिणामस्वरूप उदारता का होती, जो ऋषिभाषित में थी । सूत्रकृतांग अन्य दार्शनिक और धार्मिक परिचय अवश्य दिया है फिर भी उनकी सृजनधर्मिता उस स्तर की नहीं मान्यताओं का विवरण तो देता है किन्तु उन्हें मिथ्या, अनार्य या असंगत है जिस स्तर की हरिभद्र की है। उनकी कृतियों में दो-चार गाथाओं या कहकर उनकी आलोचना भी करता है । भगवती में विशेष रूप में मंखलि- श्लोकों में उदारता के चाहे संकेत मिल जायें किन्तु ऐसे कितने हैं गोशालक के प्रसंग में तो जैन परम्परा सामान्य शिष्टता का भी उल्लंघन कर जिन्होंने समन्वयात्मक और उदार दृष्टि के आधार पर षड्दर्शनसमुच्चय, देती है । ऋषिभाषित में जिस मंखलि-गोशालक को अर्हत् ऋषि के रूप में शास्त्रवार्तासमुच्चय और योगदृष्टिसमुच्चय जैसी महान् कृतियों का प्रणयन सम्बोधित किया गया था, भगवती में उसी का अशोभनीय चित्र प्रस्तुत किया किया हों। गया है। यहाँ यह चर्चा मैं केवल इसलिए कर रहा हूँ कि हम हरिभद्र की अन्य दार्शनिक और धार्मिक परम्पराओं का अध्ययन मुख्यत: उदारदृष्टि का सम्यक् मूल्यांकन कर सकें और यह जान सकें कि न केवल दो दृष्टियों से किया जाता है - एक तो उन परम्पराओं की आलोचना करने जैन परम्परा में, अपितु समग्र भारतीय दर्शन में उनका अवदान कितना की दृष्टि से और दूसरा उनका यथार्थ परिचय पाने और उनमें निहित सत्य महान् है।
को समझने की दृष्टि से । आलोचना एवं समीक्षा की दृष्टि से लिखे गए ___ जैन दार्शनिकों में सर्वप्रथम सिद्धसेन दिवाकर ने अपने ग्रन्थों में ग्रन्थों में भी आलोचना के शिष्ट और अशिष्ट ऐसे दो रूप मिलते हैं। अन्य दार्शनिक मान्यताओं का विवरण प्रस्तुत किया है । उन्होंने बत्तीस साथ ही जब ग्रन्थकर्ता का मुख्य उद्देश्य आलोचना करना होता है, तो द्वात्रिंशिकाएँ लिखी हैं, उनमें नवीं में वेदवाद, दशवीं में योगविद्या, वह अन्य परम्पराओं के प्रस्तुतीकरण में न्याय नहीं करता है और उनकी बारहवीं में न्यायदर्शन, तेरहवीं में सांख्यदर्शन, चौदहवीं में वैशेषिकदर्शन, अवधारणाओं को भ्रान्तरूप में प्रस्तुत करता है । उदाहरण के रूप में पन्द्रहवीं में बौद्धदर्शन और सोलहवीं में नियतिवाद की चर्चा है, किन्तु स्याद्वाद और शून्यवाद के आलोचकों ने कभी उन्हें सम्यक् रूप से प्रस्तुत सिद्धसेन ने यह विवरण समीक्षात्मक दृष्टि से ही प्रस्तुत किया है । वे करने का प्रयत्न नहीं किया है। यद्यपि हरिभद्र ने भी अपनी कुछ कृतियों अनेक प्रसंगों में इन अवधारणाओं के प्रति चुटीले व्यंग्य भी कसते हैं। में अन्य दर्शनों एवं धर्मों की समीक्षा की है । अपने ग्रन्थ धूर्ताख्यान में वस्तुत: दार्शनिकों में अन्य दर्शनों के जानने और उनका विवरण प्रस्तुत वे धर्म और दर्शन के क्षेत्र में पनप रहे अन्धविश्वासों का सचोट खण्डन करने की जो प्रवृत्ति विकसित हुई थी उसका मूल आधार विरोधी मतों भी करते हैं, फिर भी इतना निश्चित है कि वे न तो अपने विरोधी के का निराकरण करना ही था। सिद्धसेन भी इसके अपवाद नहीं हैं । साथ विचारों को भ्रान्त रूप में प्रस्तुत करते हैं और न उनके सम्बन्ध में अशिष्ट ही पं० सुखलालजी संघवी का यह भी कहना है कि सिद्धसेन की कृतियों भाषा का प्रयोग ही करते हैं। में अन्य दर्शनों का जो विवरण उपलब्ध है वह भी पाठ-भ्रष्टता और व्याख्या के अभाव के कारण अधिक प्रामाणिक नहीं है । यद्यपि सिद्धसेन दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों की रचना और उसमें हरिभद्र का स्थान दिवाकर, समन्तभद्र, जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आदि हरिभद्र के पूर्ववर्ती यदि हम भारतीय दर्शन के समग्र इतिहास में सभी प्रमुख
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
दर्शनों के सिद्धान्त को एक ही ग्रन्थ में पूरी प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय से इस अर्थ में भिन्नता है कि जहाँ हरिभद्र करने के क्षेत्र में हुए प्रयत्नों को देखते हैं, तो हमारी दृष्टि में हरिभद्र ही बिना किसी खण्डन-मण्डन के निरपेक्ष भाव से तत्कालीन विविध दर्शनों को वे प्रथम व्यक्ति हैं जिन्होंने सभी प्रमुख भारतीय दर्शनों की मान्यताओं को प्रस्तुत करते हैं, वहाँ वैदिक परम्परा के इन दोनों की मूलभूत शैली निष्पक्ष रूप से एक ही ग्रन्थ में प्रस्तुत किया है । हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय खण्डनपरक ही है । अत: इन दोनों ग्रन्थों में अन्य दार्शनिक मतों के की कोटि का और उससे प्राचीन दर्शन संग्राहक कोई अन्य ग्रन्थ हमें प्रस्तुतीकरण में वह निष्प्पक्षता और उदारता परिलक्षित नहीं होती, जो प्राचीन भारतीय साहित्य में उपलब्ध नहीं होता।
हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय में है। हरिभद्र के पूर्व तक जैन, बौद्ध और वैदिक-तीनों ही परम्पराओं इसके पश्चात् वैदिक परम्परा के दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में के किसी भी आचार्य ने अपने काल के सभी दर्शनों का निष्पक्ष परिचय देने मधुसूदन सरस्वती के 'प्रस्थान-भेद' का क्रम आता है । मधुसूदन की दृष्टि से किसी भी ग्रन्थ की रचना नहीं की थी। उनके ग्रन्थों में अपने सरस्वती ने दर्शनों का वर्गीकरण आस्तिक और नास्तिक के रूप में किया विरोधी मतों का प्रस्तुतीकरण मात्र उनके खण्डन की दृष्टि से ही हुआ है। है। नास्तिक-अवैदिक दर्शनों में वे छ: प्रस्थानों का उल्लेख करते हैं। जैन परम्परा में भी हरिभद्र के पूर्व सिद्धसेन दिवाकर और समन्तभद्र ने इसमें बौद्ध दर्शन के चार सम्प्रदाय तथा चार्वाक और जैनों का समावेश अन्य दर्शनों के विवरण तो प्रस्तुत किये हैं किन्तु उनकी दृष्टि भी हुआ है । आस्तिक-वैदिक दर्शनों में-न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, खण्डनपरक ही है । विविध दर्शनों का विवरण प्रस्तुत करने की दृष्टि पूर्वमीमांसा और उत्तरमीमांसा का समावेश हुआ है । इन्होंने पाशुपत से मल्लवादी का नयचक्र महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ कहा जा सकता है किन्तु दर्शन एवं वैष्णव दर्शन का भी उल्लेख किया है । पं० दलसुखभाई उसका मुख्य उद्देश्य भी प्रत्येक दर्शन की अपूर्णता को सूचित करते हुए मालवणिया के अनुसार प्रस्थान-भेद के लेखक की एक विशेषता अनकान्तवाद की स्थापना करना है । पं० दलसुखभाई मालवणिया के अवश्य है जो उसे पूर्व उल्लिखित वैदिक परम्परा के अन्य दर्शनशब्दों में नयचक्र की कल्पना के पीछे आचार्य का आशय यह है कि कोई संग्राहक ग्रन्थों से अलग करती है, वह यह कि इस ग्रन्थ में वैदिक दर्शनों भी मत अपने आप में पूर्ण नहीं है । जिस प्रकार उस मत की स्थापना के पारस्परिक विरोध का समाधान यह कह कर किया गया है कि इन दलीलों से हो सकती है उसी प्रकार उसका उत्थापन भी विरोधी मतों की प्रस्थानों के प्रस्तोता सभी मुनि भ्रान्त तो नहीं हो सकते, क्योंकि वे सर्वज्ञ दलीलों से हो सकता है। स्थापना और उत्थापन का यह चक्र चलता थे। चूँकि बाह्य विषयों में लगे हुए मनुष्यों का परम पुरुषार्थ में प्रवष्टि रहता है । अतएव अनेकान्तवाद में ये मत यदि अपना उचित स्थान प्राप्त होना कठिन होता है, अतएव नास्तिकों का निराकरण करने के लिए इन करें, तभी उचित है अन्यथा नहीं।' नयचक्र की मूलदृष्टि भी स्वपक्ष मुनियों ने दर्शन प्रस्थानों के भेद किये हैं। इस प्रकार प्रस्थान-भेद में अर्थात् अनेकान्तवाद के मण्डन और परपक्ष के खण्डन की ही है । इस यत्किञ्चित् उदारता का परिचय प्राप्त होता है किन्तु यह उदारता केवल प्रकार जैन परम्परा में भी हरिभद्र के पूर्व तक निष्पक्ष भाव से कोई भी वैदिक परम्परा के आस्तिक दर्शनों के सन्दर्भ में ही है, नास्तिकों का दर्शन-संग्राहक ग्रन्थ नहीं लिखा गया ।
निराकरण करना तो सर्वदर्शनकौमुदीकार को भी इष्ट ही है । इस प्रकार जैनेतर परम्पराओं के दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में आचार्य शंकर दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में हरिभद्र की जो निष्पक्ष और उदार दृष्टि है वह हमें विरचित माने जाने वाले 'सर्वसिद्धान्तसंग्रह' का उल्लेख किया जा अन्य परम्पराओं में रचित दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में नहीं मिलती है । यद्यपि सकता है । यद्यपि यह कृति माधवाचार्य के सर्वदर्शनसंग्रह की अपेक्षा वर्तमान में भारतीय दार्शनिक परम्पराओं का विवरण प्रस्तुत करने वाले प्राचीन है, फिर भी इसके आद्य शंकराचार्य द्वारा विरचित होने में सन्देह अनेक ग्रन्थ लिखे जा रहे हैं किन्तु उनमें भी लेखक कहीं न कहीं अपने है । इस ग्रन्थ में भी पूर्वदर्शन का उत्तरदर्शन के द्वारा निराकरण करते हुए इष्ट दर्शन को ही अन्तिम सत्य के रूप में प्रस्तुत करता प्रतीत होता है। अन्त में अद्वैत वेदान्त की स्थापना की गयी है । अत: किसी सीमा हरिभद्र के पश्चात् जैन परम्परा में लिखे गए दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों तक इसकी शैली को नयचक्र की शैली के साथ जोड़ा जा सकता है में अज्ञातकर्तृक 'सर्वसिद्धान्तप्रवेशक' का स्थान आता है किन्तु इतना निश्चित किन्तु जहाँ नयचक्र, अन्तिम मत का भी प्रथम मत से खण्डन है कि यह ग्रन्थ किसी जैन आचार्य द्वारा प्रणीत है, क्योंकि इसके मंगलाचरण करवाकर किसी भी एक दर्शन को अन्तिम सत्य नहीं मानता है, वहाँ में 'सर्वभाव प्रणेतारं प्रणिपत्य जिनेश्वरं' ऐसा उल्लेख है। पं० सुखलाल 'सर्वसिद्धान्तसंग्रह' वेदान्त को एकमात्र और अन्तिम सत्य स्वीकार संघवी के अनुसार प्रस्तुत ग्रन्थ की प्रतिपादन शैली हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय करता है । अत: यह एक दर्शनसंग्राहक ग्रन्थ होकर भी निष्पक्ष दृष्टि का ही अनुसरण करती है । अन्तर मात्र यह है कि जहाँ हरिभद्र का ग्रन्थ का प्रतिपादक नहीं माना जा सकता है । हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय पद्य में है वहाँ सर्वसिद्धान्तप्रवेशक गद्य में है । साथ ही यह ग्रन्थ हरिभद्र के की जो विशेषता है वह इसमें नहीं है।
षड्दर्शनसमुच्चय की अपेक्षा कुछ विस्तूत भी है। जैनतर परम्पराओं में दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में दूसरा स्थान जैन परम्परा के दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में दूसरा स्थान जीवदेवसूरि माधवाचार्य (ई० १३५०?) के 'सर्वदर्शनसंग्रह' का आता है । किन्तु के शिष्य आचार्य जिनदत्तसूरि (विक्रम १२६५) के 'विवेकविलास' का 'सर्वदर्शनसंग्रह की मूलभूत दृष्टि भी यही है कि वेदान्त ही एकमात्र आता है । इस ग्रन्थ के अष्टम उल्लास में षड्दर्शनविचार नामक प्रकरण सम्यग्दर्शन है । 'सर्वसिद्धान्तसंग्रह' और 'सर्वदर्शनसंग्रह' दोनों की है, जिसमें जैन, मीमांसक, बौद्ध, सांख्य, शैव और नास्तिक- इन छ:
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दर्शनों का संक्षेप में वर्णन किया गया है। पं० दलसुखभाई मालवणिया के अनुसार इस ग्रन्थ की एक विशेषता तो यह है कि इसमें न्यायवैशेषिकों का समावेश शैवदर्शन में किया गया है। मेरी दृष्टि में इसका कारण लेखक के द्वारा हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय का अनुसरण करना ही है, क्योंकि उसमें भी न्यायदर्शन के देवता के रूप में शिव का ही उल्लेख किया गया है
समदर्शी आचार्य हरिभद्र
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'अक्षपादमते देवः सृष्टिसंहारकृच्छिवः' ।। १३ ।।
यह ग्रन्थ भी हरिभद्र के षहदर्शनसमुच्चय के समान केवल परिचयात्मक और निष्पक्ष विवरण प्रस्तुत करता है और आकार में मात्र ६६ श्लोक प्रमाण हैं ।
जैन परम्परा में दर्शन संग्राहक ग्रन्थों में तीसरा क्रम राजशेखर (विक्रम १४०५) के षड्दर्शनसमुच्चय का आता है। इस ग्रन्थ में जैन, सांख्य, जैमिनीय, योग, वैशेषिक और सौगत (बौद्ध) इन छः दर्शनों का उल्लेख किया गया है। हरिभद्र के समान ही इस ग्रन्थ में भी इन सभी को आस्तिक कहा गया है और अन्त में नास्तिक के रूप में चार्वाक दर्शन का परिचय दिया गया है। हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय और राजशेखर के षड्दर्शनसमुच्चय में एक मुख्य अन्तर इस बात को लेकर है कि दर्शनों के प्रस्तुतीकरण में जहाँ हरिभद्र जैनदर्शन को चौथा स्थान देते हैं वहाँ राजशेखर जैनदर्शन को प्रथम स्थान देते हैं। पं० सुखलाल संघवी के अनुसार सम्भवतः इसका कारण यह हो सकता है कि राजशेखर अपने समकालीन दार्शनिकों के अभिनिवेशयुक्त प्रभाव से अपने को दूर नहीं रख सके ।
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पं० दलसुखभाई मालवणिया की सूचना के अनुसार राजशेखर के काल का ही एक अन्य दर्शन संग्राहक ग्रन्थ आचार्य मेरुतुंगकृत 'षड्दर्शननिर्णय' है। इस ग्रन्थ में मेरुतुंग ने जैन, बौद्ध, मीमांसा, सांख्य, न्याय और वैशेषिक इन छः दर्शनों की मीमांसा की है किन्तु इस कृति में हरिभद्र जैसी उदारता नहीं है। यह मुख्यतया जैनमत की स्थापना और अन्य मतों के खण्डन के लिये लिखा गया है। इसको एकमात्र विशेषता यह है कि इसमें महाभारत, स्मृति, पुराण आदि के आधार पर जैनमत का समर्थन किया गया है।
पं० दलसुखभाई मालवणिया ने षड्दर्शनसमुच्चय की प्रस्तावना में इस बात का भी उल्लेख किया है कि सोमतिलकसूरिकृत 'षड्दर्शनसमुच्चय' की वृत्ति के अन्त में अज्ञातकृत एक कृति मुद्रित है। इसमें भी जैन, न्याय, बौद्ध, वैशेषिक, जैमिनीय, सांख्य और चार्वाक ऐसे सात दर्शनों का संक्षेप में परिचय दिया गया है किन्तु अन्त में अन्य दर्शनों को दुर्नय की कोटि में रखकर जैनदर्शन को उच्च श्रेणी में रखा गया है। इस प्रकार इसका लेखक भी अपने को साम्प्रदायिक अभिनिवेश से दूर नहीं रख सका।
इस प्रकार हम देखते हैं कि दर्शन संग्राहक ग्रन्थों की रचना में भारतीय इतिहास में हरिभद्र ही एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने निष्पक्ष भाव से और पूरी प्रामाणिकता के साथ अपने ग्रन्थ में अन्य दर्शनों का विवरण दिया है। इस क्षेत्र में वे अभी तक अद्वितीय हैं।
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समीक्षा में शिष्टभाषा का प्रयोग और अन्य धर्मप्रवर्तकों के प्रति बहुमान
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दर्शन के क्षेत्र में अपनी दार्शनिक अवधारणाओं की पुष्टि तथा विरोधी अवधारणाओं के खण्डन के प्रयत्न अत्यन्त प्राचीनकाल से होते रहे हैं। प्रत्येक दर्शन अपने मन्तव्यों की पुष्टि के लिये अन्य दार्शनिक मतों की समालोचना करता है। स्वपक्ष का मण्डन तथा परपक्ष का खण्डन- यह दार्शनिकों की सामान्य प्रवृत्ति रही है। हरिभद्र भी इसके अपवाद नहीं हैं। फिर भी उनकी यह विशेषता है कि अन्य दार्शनिक मतों की समीक्षा में वे सदैव ही शिष्ट भाषा का प्रयोग करते हैं तथा विरोधी दर्शनों के प्रवर्तकों के लिए भी बहुमान प्रदर्शित करते हैं। दार्शनिक समीक्षाओं के क्षेत्र में एक युग ऐसा रहा है जिसमें अन्य दार्शनिक परम्पराओं को न केवल भ्रष्ट रूप में प्रस्तुत किया जाता था, अपितु उनके प्रवर्तकों का उपहास भी किया जाता था। जैन और जैनेतर दोनों ही परम्पराएँ इस प्रवृत्ति से अपने को मुक्त नहीं रख सकीं जैन परम्परा के सिद्धसेन दिवाकर, समन्तभद्र आदि दिग्गज दार्शनिक भी जब अन्य दार्शनिक परम्पराओं की समीक्षा करते हैं तो न केवल उन परम्पराओं की मान्यताओं के प्रति, अपितु उनके प्रवर्तकों के प्रति भी चुटीले व्यंग्य कस देते हैं। हरिभद्र स्वयं भी अपने लेखन के प्रारम्भिक काल में इस प्रवृत्ति के अपवाद नहीं रहे हैं। जैन आगमों की टीका में और धूर्ताख्यान जैसे ग्रन्थों की रचना में वे स्वयं भी इस प्रकार के चुटीले व्यंग्य कसते हैं, किन्तु हम देखते हैं कि विद्वत्ता की प्रौढ़ता के साथ हरिभद्र में धीरे-धीरे यह प्रवृत्ति लुप्त हो जाती है और अपने परवर्ती ग्रन्थों में वे अन्य परम्पराओं और उनके प्रवर्तकों के प्रति अत्यन्त शिष्ट भाषा का प्रयोग करते हैं तथा उनके प्रति बहुमान सूचित करते हैं। इसके कुछ उदाहरण हमें उनके ग्रन्थ 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' में देखने को मिल जाते हैं। अपने अन्य शास्त्रवार्तासमुच्चय' के प्रारम्भ में ही अन्ध-रचना का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं
यं श्रुत्वा सर्वशास्त्रेषु प्रायस्तत्त्वविनिश्चयः । जायते द्वेषशमनः स्वर्गसिद्धिसुखावहः ।।
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अर्थात् इसका अध्ययन करने से अन्य दर्शनों के प्रति द्वेष बुद्धि समाप्त होकर तत्त्व का बोध हो जाता है । इस ग्रन्थ में वे कपिल को दिव्य पुरुष एवं महामुनि के रूप में सूचित करते हैं कपिलो दिव्यो हि स महामुनिः (शास्त्रवार्तासमुच्चय २३७) इसी प्रकार वे बुद्ध को भी अर्हत् महामुनिः सुवैद्य आदि विशेषणों से अभिहित करते हैं यतो बुद्धो महामुनिः सुवैद्यवत् (वही, ४६५-४६६) यहाँ हम देखते हैं कि जहाँ एक ओर अन्य दार्शनिक अपने विरोधी दार्शनिकों का खुलकर परिहास करते हैं न्यायदर्शन के प्रणेता महर्षि गौतम को गाय का बछड़ा या बैल और महर्षि कणाद को उल्लू कहते हैं, वहीं दूसरी ओर हरिभद्र अपने विरोधियों के लिए महामुनि और अर्हत् जैसे सम्मानसूचक विशेषणों का प्रयोग करते हैं। 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' में यद्यपि अन्य दार्शनिक अवधारणाओं की स्पष्ट समालोचना है किन्तु सम्पूर्ण ग्रन्थ में ऐसा कोई भी उदाहरण नहीं मिलता जहाँ हरिभद्र ने शिष्टता की मर्यादा का उल्लंघन किया हो। इस
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
प्रकार हरिभद्र ने अन्य परम्पराओं के प्रति जिस शिष्टता और आदरभाव हैं। वे लिखते हैं कि “सत्य न्याय की दृष्टि से प्रकृति कर्म-प्रकृति ही का परिचय दिया है, वह हमें जैन और जैनेतर किसी भी परम्परा के अन्य है और इस रूप में प्रकृतिवाद भी उचित है क्योंकि उसके वक्ता कपिल ग्रन्थों में उपलब्ध नहीं होती।
___ दिव्य-पुरुष और महामुनि हैं ।१६ हरिभद्र ने अन्य दर्शनों के अध्ययन के पश्चात् उनमें निहित 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' में हरिभद्र ने बौद्धों के क्षणिकवाद, सारतत्त्व या सत्य को समझने का जो प्रयास किया, वह भी अत्यन्त ही विज्ञानवाद और शून्यवाद की भी समीक्षा की है किन्तु वे इन धारणाओं महत्त्वपूर्ण है और उनके उदारचेता व्यक्तित्व को उजागर करता है। में निहित सत्य को भी देखने का प्रयत्न करते हैं और कहते हैं कि यद्यपि हरिभद्र चार्वाक दर्शन की समीक्षा करते हुए उसके भूत स्वभाववाद महामुनि और अर्हत् बुद्ध उद्देश्यहीन होकर किसी सिद्धान्त का उपदेश नहीं का खण्डन करते हैं और उसके स्थान पर कर्मवाद की स्थापना करते करते । उन्होंने क्षणिकवाद का उपेदश पदार्थ के प्रति हमारी आसक्ति के हैं । किन्तु सिद्धान्त में कर्म के जो दो रूप-द्रव्यकर्म और भावकर्म माने निवारण के लिये ही दिया है क्योंकि जब वस्तु का अनित्य और विनाशशील गए हैं उसमें एक ओर भावकर्म के स्थान को स्वीकार नहीं करने के स्वरूप समझ में आ जाता है तो उसके प्रति आसक्ति गहरी नहीं होती। इसी कारण जहाँ वे चार्वाक दर्शन की समीक्षा करते हैं, वहीं दूसरी ओर वे प्रकार विज्ञानवाद का उपदेश भी बाह्य पदार्थों के प्रति तृष्णा को समाप्त द्रव्यकर्म की अवधारणा को स्वीकार करते हुए चार्वाक के भूत स्वभाववाद करने के लिए ही है । यदि सब कुछ चित्त के विकल्प हैं और बाह्य रूप की सार्थकता को भी स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि भौतिक तत्त्वों सत्य नहीं है तो उनके प्रति तृष्णा उत्पन्न ही नहीं होगी। इसी प्रकार कुछ का प्रभाव भी चैतन्य पर पड़ता है ।११ प० सुखलालजी संघवी लिखते साधकों की मनोभूमिका को ध्यान में रखकर संसार की निस्सारता का बोध हैं कि हरिभद्र ने दोनों पक्षों अर्थात् बौद्ध एवं मीमांसकों के अनुसार कराने के लिए शून्यवाद का उपदेश दिया है। इस प्रकार हरिभद्र की दृष्टि कर्मवाद के प्रसंग में चित्तवासना की प्रमुखता को तथा चार्वाकों के में बौद्ध दर्शन के क्षणिकवाद, विज्ञानवाद और शून्यवाद-इन तीनों सिद्धान्तों अनुसार भौतिक तत्त्व की प्रमुखता को एक-एक पक्ष के रूप में का मूल उद्देश्य यही है कि व्यक्ति की जगत् के प्रति उत्पन्न होने वाली तृष्णा परस्परपूरक एवं सत्य मानकर कहा कि जैन कर्मवाद में चार्वाक और का प्रहाण हो। मीमांसक तथा बौद्धों के मन्तव्यों का समेल हुआ है ।१२।
अद्वैतवाद की समीक्षा करते हुए हरिभद्र स्पष्ट रूप से यह इसी प्रकार 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' में हरिभद्र यद्यपि न्याय- बताते हैं कि सामान्य की दृष्टि से तो अद्वैत की अवधारणा भी सत्य वैशेषिक दर्शनों द्वारा मान्य ईश्वरवाद एवं जगत-कर्तृत्ववाद की अवधारणओं है। इसके साथ ही साथ वे यह भी बताते हैं कि विषमता के निवारण की समीक्षा करते हैं, किन्तु जहाँ चार्वाकों, बौद्धों और अन्य जैन आचार्यों के लिए और समभाव की स्थापना के लिए अद्वैत की भूमिका भी ने इन अवधारणाओं का खण्डन किया है, वहाँ हरिभद्र इनकी भी आवश्यक है।८ अद्वैत परायेपन की भावना का निषेध करता है, इस सार्थकता को स्वीकार करते हैं । हरिभद्र ने ईश्वरवाद की अवधारणा में प्रकार द्वेष का उपशमन करता है । अत: वह भी असत्य नहीं कहा भी कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्यों को देखने का प्रयास किया है। प्रथम तो यह जा सकता । इसी प्रकार अद्वैत वेदान्त के ज्ञान मार्ग को भी वे कि मनुष्य में कष्ट के समय स्वाभाविक रूप से किसी ऐसी शक्ति के प्रति समीचीन ही स्वीकार करते हैं ।१९ श्रद्धा और प्रपत्ति की भावना होती है जिसके द्वारा वह अपने में उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि अन्य दार्शनिक आत्मविश्वास जागृत कर सके । पं० सुखलालजी संघवी लिखते हैं कि अवधारणाओं की समीक्षा का उनका प्रयत्न समीक्षा के लिये न होकर उन मानव मन की प्रपत्ति या शरणागति की यह भावना मूल में असत्य तो दार्शनिक परम्पराओं की सत्यता के मूल्यांकन के लिये ही है। स्वयं नहीं कही जा सकती । उनकी इस अपेक्षा को ठेस न पहुँचे तथा तर्क उन्होंने 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' के प्राक्कथन में यह स्पष्ट किया है कि व बुद्धिवाद के साथ ईश्वरवादी अवधारणा का समन्वय भी हो, इसलिए प्रस्तुत ग्रन्थ का उद्देश्य अन्य परम्पराओं के प्रति द्वेष का उपशमन करना उन्होंने (हरिभद्र ने) ईश्वर-कर्तृत्ववाद की अवधारणा को अपने ढंग से और सत्य का बोध करना है । उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है ।१३ हरिभद्र कहते हैं कि जो व्यक्ति उन्होंने ईमानदारी से प्रत्येक दार्शनिक मान्यता के मूलभूत उद्देश्यों को आध्यात्मिक निर्मलता के फलस्वरूप अपने विकास की उच्चतम भूमिका समझाने का प्रयास किया है और इस प्रकार वे आलोचक के स्थान पर को प्राप्त हुआ हो वह असाधारण आत्मा है और वही ईश्वर या सिद्ध पुरुष सत्य के गवेषक ही अधिक प्रतीत होते हैं। है । उस आदर्श स्वरूप को प्राप्त करने के कारण कर्ता तथा भक्ति का विषय होने के कारण उपास्य है। इसके साथ ही हरिभद्र यह भी मानते अन्य दर्शनों के गम्भीर अध्येता एवं निष्पक्ष व्याख्याकार हैं कि प्रत्येक जीव तत्त्वत: अपने शुद्ध रूप में परमात्मा और अपने भारतीय दार्शनिकों में अपने से इतर परम्पराओं के गम्भीर भविष्य का निर्माता है और इस दृष्टि से यदि विचार करें तो वह 'ईश्वर' अध्ययन की प्रवृत्ति प्रारम्भ में हमें दृष्टिगत नहीं होती है । बादरायण, भी है और 'कर्ता भी है । इस प्रकार ईश्वर-कर्तृत्ववाद भी समीचीन ही जैमिनि आदि दिग्गज विद्वान् भी जब दर्शनों की समालोचना करते हैं तो सिद्ध होता है । ५ हरिभद्र सांख्यों के प्रकृतिवाद की भी समीक्षा करते हैं, ऐसा लगता है कि वे दूसरे दर्शनों को अपने सतही ज्ञान के आधार पर किन्तु वे प्रकृति को जैन परम्परा में स्वीकृत कर्मप्रकृति के रूप में देखते भ्रान्तरूप में प्रस्तुत करके उनका खण्डन कर देते हैं । यह सत्य है कि
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समदर्शी आचार्य हरिभद्र
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अनैकान्तिक एवं समन्वयात्मक दृष्टि के कारण अन्य दर्शनों के गम्भीर के समर्थक हैं किन्तु अन्धविश्वासों एवं मिथ्या मान्यताओं के वे कठोर अध्ययन की परम्परा का विकास सर्वप्रथम जैन दार्शनिकों ने ही किया समीक्षक भी । है। ऐसा लगता है कि हरिभद्र ने समालोच्य प्रत्येक दर्शन का ईमानदारीपूर्वक गम्भीर अध्ययन किया था, क्योंकि इसके बिना वे न तो उन दर्शनों में तर्क या बुद्धिवाद का समर्थन निहित सत्यों को समझा सकते थे, न उनकी स्वस्थ समीक्षा ही कर हरिभद्र में यद्यपि एक धार्मिक की श्रद्धा है किन्तु वे श्रद्धा को सकते थे और न उनका जैन मन्तव्यों के साथ समन्वय कर सकते थे। तर्क-विरोधी नहीं मानते हैं। उनके लिए तर्करहित श्रद्धा उपादेय नहीं है। हरिभद्र अन्य दर्शनों के अध्ययन तक ही सीमित नहीं रहे, अपितु उन्होंने वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि न तो महावीर के प्रति मेरा कोई राग है उनके कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों पर तटस्थ भाव से टीकाएँ भी लिखीं । दिङ्नाग और न कपिल आदि के प्रति कोई द्वेष ही है - के 'न्यायप्रवेश' पर उनकी टीका महत्त्वपूर्ण मानी जाती है । पतञ्जलि के पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु । 'योगसूत्र' का उनका अध्ययन भी काफी गम्भीर प्रतीत होता है क्योंकि युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ।। उन्होंने उसी के आधार पर एवं नवीन दृष्टिकोण से योगदृष्टिसमुच्चय,
- लोकतत्त्वनिर्णय, ३८ योगबिन्दु, योगविंशिका आदि ग्रन्थों की रचना की थी। इस प्रकार हरिभद्र उनके कहने का तात्पर्य यही है कि सत्य के गवेषक और - जैन और जैनेतर परम्पराओं के एक ईमानदार अध्येता एवं व्याख्याकार साधना के पथिक को पूर्वाग्रहों से युक्त होकर विभिन्न मान्यताओं की भी हैं । जिस प्रकार प्रशस्तपाद ने दर्शन ग्रन्थों की टीका लिखते समय समीक्षा करनी चाहिए और उनमें जो भी युक्ति संगत लगे उसे स्वीकार तद्-तद् दर्शनों के मन्तव्यों का अनुसरण करते हुए तटस्थ भार रखा, करना चाहिए । यद्यपि इसके साथ ही वे बुद्धिवाद से पनपने वाले दोषों उसी प्रकार हरिभद्र ने भी इतर परम्पराओं का विवेचन करते समय तटस्थ के प्रति भी सचेष्ट हैं। वे स्पष्ट रूप से यह कहते हैं कि युक्ति और तर्क भाव रखा है।
का उपयोग केवल अपनी मान्यताओं की पुष्टि के लिए ही नहीं किया
जाना चाहिये, अपितु सत्य की खोज के लिए किया जाना चाहिएअन्धविश्वासों का निर्भीक रूप से खण्डन
आग्रही वत निनीषति युक्तिं तत्र यत्र तस्य मतिर्निविष्टा । यद्यपि हरिभद्र अन्य धार्मिक एवं दार्शनिक परम्पराओं के प्रति निष्पक्षपातस्य तु युक्तिर्यत्र तत्र तस्य मतिरेति निवेशम् ।। एक उदार और सहिष्णु दृष्टिकोण को लेकर चलते हैं, किन्तु इसका आग्रही व्यक्ति अपनी युक्ति (तर्क) का भी प्रयोग वहीं करता तात्पर्य यह नहीं है कि वे उनके अतर्कसंगत अन्धविश्वासों को प्रश्रय देते है जिसे वह सिद्ध अथवा खण्डित करना चाहता है, जबकि अनाग्रही या हैं। एक ओर वे अन्य परम्पराओं के प्रति आदरभाव रखते हुए उनमें निष्पक्ष व्यक्ति जो उसे युक्तिसंगत लगता है, उसे स्वीकार करता है । इस निहित सत्यों को स्वीकार करते हैं, तो दूसरी ओर उनमें पल रहे प्रकार हरिभद्र न केवल युक्ति या तर्क के समर्थक हैं किन्तु वे यह भी अन्धविश्वासों का निर्भीक रूप से खण्डन भी करते हैं । इस दृष्टि से उनकी स्पष्ट करते हैं कि तर्क या युक्ति का प्रयोग अपनी मान्यताओं की पुष्टि दो रचनाएँ बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं- (१) धूर्ताख्यान और या अपने विरोधी मान्यताओं के खण्डन के लिये न करके सत्य की (२) द्विजवदनचपेटिका । 'धूर्ताख्यान' में उन्होंने पौराणिक परम्पराओं में गवेषणा के लिये करना चाहिए और जहाँ भी सत्य परिलक्षित हो उसे पल रहे अन्धविश्वासों का सचोट निरसन किया है। हरिभद्र ने धूर्ताख्यान में स्वीकार करना चाहिए । इस प्रकार वे शुष्क तार्किक न होकर सत्यनिष्ठ वैदिक परम्परा में विकसित इस धारणा का खण्डन किया है कि ब्रह्मा के मुख तार्किक हैं। से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, पेट से वैश्य तथा पैर से शूद्र उत्पन्न हुए हैं। इसी प्रकार कुछ पौराणिक मान्यताओं यथा-शंकर के द्वारा अपनी जटाओं कर्मकाण्ड के स्थान पर सदाचार पर बल में गंगा को समा लेना, वायु के द्वारा हनुमान का जन्म, सूर्य के द्वारा कुन्ती हरिभद्र की एक विशेषता यह है कि उन्होंने धर्म साधना को से कर्ण का जन्म, हनुमान के द्वारा पूरे पर्वत को उठा लाना, वानरों के द्वारा कर्मकाण्ड के स्थान पर आध्यात्मिक पवित्रता और चारित्रिक निर्मलता के सेतु बाँधना, श्रीकृष्ण के द्वारा गोवर्धन पर्वत धारण करना, गणेश का पार्वती साथ जोड़ने का प्रयास किया है। यद्यपि जैन परम्परा में साधना के अंगों के शरीर के मैल से उत्पन्न होना, पार्वती का हिमालय की पुत्री होना आदि के रूप में दर्शन (श्रद्धा), ज्ञान और चारित्र (शील) को स्वीकार किया अनेक पौराणिक मान्यताओं का व्यंग्यात्मक शैली में निरसन किया है। गया है। हरिभद्र भी धर्म-साधना के क्षेत्र में इन तीनों का स्थान स्वीकार करते हरिभद्र धूर्ताख्यान की कथा के माध्यम से कुछ काल्पनिक बातें प्रस्तुत करते हैं किन्तु वे यह मानते हैं कि न तो श्रद्धा को अन्धश्रद्धा बनना चाहिए, न हैं और फिर कहते हैं कि यदि पुराणों में कही गयी उपर्युक्त बातें सत्य हैं ज्ञान को कुतर्क आश्रित होना चाहिए और न आचार को केवल बाह्यकर्मकाण्डों तो ये सत्य क्यों नहीं हो सकतीं । इस प्रकार धूर्ताख्यान में वे व्यंग्यात्मक तक सीमित रखना चाहिए । वे कहते हैं कि 'जिन' पर मेरी श्रद्धा का कारण किन्तु शिष्ट शैली में पौराणिक मिथ्या-विश्वासों की समीक्षा करते हैं । इसी राग-भाव नहीं है, अपितु उनके उपदेश की युक्तिसंगतता है। इस प्रकार वे प्रकार द्विजवदनचपेटिका में भी उन्होंने ब्राह्मण परम्परा में पल रही मिथ्या- श्रद्धा के साथ बुद्धि को जोड़ते हैं, किन्तु निरा तर्क भी उन्हें इष्ट नहीं है। धारणाओं एवं वर्ण-व्यवस्था का सचोट खण्डन किया है । हरिभद्र सत्य वे कहते हैं कि तर्क का वाग्जाल वस्तुत: एक विकृति है जो हमारी श्रद्धा
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
एवं मानसिक शान्ति को भंग करने वाला है। वह ज्ञान का अभिमान योग्यता के आधार पर है। जिस प्रकार वैद्य अलग-अलग व्यक्तियों को उत्पन्न करने के कारण भाव-शत्रु है। इसलिए मुक्ति के इच्छुक को तर्क उनकी प्रकृति की भिन्नता और रोग की भिन्नता के आधार पर अलगके वाग्जाल से अपने को मुक्त रखना चाहिए ।२१ वस्तुत: वे सम्यग्ज्ञान अलग औषधि प्रदान करता है, उसी प्रकार महात्माजन भी संसाररूपी और तर्क में एक अन्तर स्थापित करते हैं। तर्क केवल विकल्पों का व्याधि हरण करने हेतु साधकों की प्रकृति के अनुरूप साधना की भिन्नसृजन करता है, अत: उनकी दृष्टि में निरी तार्किकता आध्यात्मिक भिन्न विधियाँ बताते हैं ।२५ वे पुन: कहते हैं कि ऋषियों के उपदेश की विकास में बाधक ही है। 'शास्त्र- वार्तासमुच्चय' में उन्होंने धर्म के दो भिन्नता, उपासकों की प्रकृतिगत भिन्नता अथवा देशकालगत भिन्नता के विभाग किये हैं- एक संज्ञान-योग और दूसरा पुण्य-लक्षण ।२२ ज्ञानयोग आधार पर होकर तत्त्वत: एक ही होती है ।२६ वस्तुत: विषय-वासनाओं वस्तुतः शाश्वत सत्यों की अपरोक्षानुभूति है और इस प्रकार वह तार्किक से आक्रान्त लोगों के द्वारा ऋषियों की साधनागत विविधता के आधार ज्ञान से भिन्न है। हरिभद्र के अनुसार अन्धश्रद्धा से मुक्त होने के लिए पर स्वयं धर्म-साधना की उपादेयता पर कोई प्रश्नचिह्न लगाना अनुचित तर्क एवं युक्ति को सत्य का गवेषक होना चाहिए, न कि खण्डन- ही है। वस्तुत: हरिभद्र की मान्यता यह है कि धर्म-साधना के क्षेत्र में बाह्य मण्डनात्मक । खण्डन-मण्डनात्मक तर्क या युक्ति साधना के क्षेत्र में आचारगत भिन्नता या उपास्य की नामगत भिन्नता बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं उपयोगी नहीं है, इस तथ्य की विस्तृत चर्चा उन्होंने अपने ग्रन्थ है। महत्त्वपूर्ण यह है कि व्यक्ति अपने जीवन में वासनाओं का कितना योगदृष्टिसमुच्चय में की है ।२३ इसी प्रकार धार्मिक आचार को भी वे शमन कर सका है, उसकी कषायें कितनी शान्त हुई हैं और उसके शुष्क कर्मकाण्ड से पृथक् रखना चाहते हैं। यद्यपि हरिभद्र ने कर्मकाण्डपरक जीवन में समभाव और अनासक्ति कितनी सधी है। ग्रन्थ लिखे हैं, किन्तु पं० सुखलाल संघवी ने प्रतिष्ठाकल्प आदि को हरिभद्र द्वारा रचित मानने में सन्देह व्यक्त किया है। हरिभद्र के समस्त मोक्ष के सम्बन्ध में उदार दृष्टिकोण उपदेशात्मक साहित्य, श्रावक एवं मुनि-आचार से सम्बन्धित साहित्य
हरिभद्र अन्य धर्माचार्यों के समान यह अभिनिवेश नहीं रखते को देखने से ऐसा लगता है कि वे धार्मिक जीवन के लिए सदाचार पर हैं कि मुक्ति केवल हमारी साधना-पद्धति या हमारे धर्म से ही होगी। ही अधिक बल देते हैं। उन्होंने अपने ग्रन्थों में आचार सम्बन्धी जिन बातों उनकी दृष्टि में मुक्ति केवल हमारे धर्म में है- ऐसी अवधारणा ही भ्रान्त का निर्देश किया है वे भी मुख्यतया व्यक्ति की चारित्रिक निर्मलता और है। वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि कषायों के उपशमन के निमित्त ही हैं। जीवन में कषायें उपशान्त हों, नासाम्बरत्वे न सिताम्बरत्वे, न तर्कवादे न च तत्त्ववादे। समभाव सधे यही उनकी दृष्टि में साधना का मुख्य उद्देश्य है। धर्म के न पक्षसेवाश्रयेन मुक्ति, कषाय मुक्ति किल मुक्तिरेव।। नाम पर पनपने वाले थोथे कर्मकाण्ड एवं छद्य जीवन की उन्होंने खुलकर
अर्थात् मुक्ति न तो सफेद वस्त्र पहनने से होती है, न दिगम्बर निन्दा की है और मुनिवेश में ऐहिकता का पोषण करने वालों को आड़े रहने से, तार्किक वाद-विवाद और तत्त्वचर्चा से भी मुक्ति प्राप्त नहीं हो हाथों लिया है, उनकी दृष्टि में धर्म साधना का अर्थ है
सकती। किसी एक सिद्धान्त विशेष में आस्था रखने या किसी व्यक्ति अध्यात्म भावना ध्यानं समता वृत्तिसंक्षयः ।
विशेष की सेवा करने से भी मुक्ति असम्भव है। मुक्ति तो वस्तुत: कषायों मोक्षेण योजनाद्योग एष श्रेष्ठो यथोत्तरम् ।। अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ से मुक्त होने में है । वे स्पष्ट रूप
- योगबिन्दु, ३१ से इस बात का प्रतिपादन करते हैं कि मुक्ति का आधार कोई धर्म, साधनागत विविधता में एकता का दर्शन
सम्प्रदाय अथवा विशेष वेशभूषा नहीं है । वस्तुत: जो व्यक्ति समभाव धर्म साधना के क्षेत्र में उपलब्ध विविधताओं का भी उन्होंने की साधना करेगा, वीतराग दशा को प्राप्त करेगा, वह मुक्त होगा। उनके सम्यक् समाधान खोजा है। जिस प्रकार 'गीता' में विविध देवों की शब्दों मेंउपासना को युक्तिसंगत सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है, उसी प्रकार सेयंबरोय आसंबरो य बुद्धो य अहव अण्णो वा । हरिभद्र ने भी साधनागत विविधताओं के बीच एक समन्वय स्थापित
समभावभावि अप्पा लहइ मुक्खं न संदेहो ।। करने का प्रयास किया है। वे लिखते हैं कि जिस प्रकार राजा के विभिन्न अर्थात् जो भी समभाव की साधना करेगा वह निश्चित ही मोक्ष सेवक अपने आचार और व्यवहार में अलग-अलग होकर भी राजा के को प्राप्त करेगा, फिर चाहे वह श्वेताम्बर हो या दिगम्बर हो, बौद्ध हो सेवक हैं- उसी प्रकार सर्वज्ञों द्वारा प्रतिपादित आचार-पद्धतियाँ बाह्यतः या अन्य किसी धर्म को मानने वाला हो। भिन्न-भिन्न होकर भी तत्त्वतः एक ही हैं। सर्वज्ञों की देशना में नाम आदि का भेद होता है, तत्त्वत: भेद नहीं होता है ।२४
साधना के क्षेत्र में उपास्य का नाम-भेद महत्त्वपूर्ण नहीं हरिभद्र की दृष्टि में आचारगत और साधनागत जो भिन्नता है हरिभद्र की दृष्टि में आराध्य के नाम-भेदों को लेकर धर्म के वह मुख्य रूप से दो आधारों पर है। एक साधकों की रुचिगत विभिन्नता के क्षेत्र में विवाद करना उचित नहीं है। लोकतत्त्वनिर्णय में वे कहते हैंआधार पर और दूसरी नामों की भिन्नता के आधार पर। वे स्पष्ट रूप से यस्य अनिखिलाश्च दोषा न सन्ति सर्वे गुणाश्च विद्यन्ते । कहते हैं कि ऋषियों के उपदेश में जो भिन्नता है वह उपासकों की ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ।।
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समदर्शी आचार्य हरिभद्र
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वस्तुत: जिसके सभी दोष विनष्ट हो चुके हैं और जिनमें सभी से चर्चा की थी, अब मैं उनकी क्रान्तिधर्मिता की चर्चा करना चाहूँगा। गुण विद्यमान हैं फिर उसे चाहे ब्रह्मा कहा जाये, चाहे विष्णु, चाहे जिन कहा जाय, उसमें भेद नहीं। सभी, धर्म और दर्शनों में उस परमतत्त्व या क्रान्तदर्शी हरिभद्र परमसत्ता को राग-द्वेष, तृष्णा और आसक्ति से रहित विषय-वासनाओं हरिभद्र के धर्म-दर्शन के क्रान्तिकारी तत्त्व वैसे तो उनके सभी से ऊपर उठी हुई पूर्णप्रज्ञ तथा परम कारुणिक माना गया है, किन्तु ग्रन्थों में कहीं न कहीं दिखाई देते हैं, फिर भी शास्त्रवार्तासमुच्चय, हमारी दृष्टि उस परमतत्त्व के मूलभूत स्वरूप पर न होकर नामों पर टिकी धूर्ताख्यान और सम्बोधप्रकरण में वे विशेषरूप से परिलक्षित होते हैं। होती है और इसी के आधार पर हम विवाद करते हैं । जब कि यह नामों जहाँ शास्त्रवार्तासमुच्चय और धूर्ताख्यान में वे दूसरों की कमियों को का भेद अपने आप में कोई अर्थ नहीं रखता है । योगदृष्टिसमुच्चय में उजागर करते हैं वहीं सम्बोधप्रकरण में अपने पक्ष की समीक्षा करते हुए वे लिखते हैं कि
उसकी कमियों का भी निर्भीक रूप से चित्रण करते हैं। सदाशिवः परं ब्रह्म सिद्धात्मा तथतेति च ।
हरिभद्र अपने युग के धर्म-सम्प्रदायों में उपस्थित अन्तर और शब्देस्तद् उच्यतेऽन्वर्थाद् एक एवैवमादिभिः ।। बाह्य के द्वैत को उजागर करते हुए कहते हैं, "लोग धर्म-मार्ग की बातें
अर्थात् सदाशिव, पब्रह्म, सिद्धात्मा, तथागत आदि नामों में करते हैं, किन्तु सभी तो उस धर्म-मार्ग से रहित हैं२७ ।" मात्र बाहरी केवल शब्द भेद हैं, उनका अर्थ तो एक ही है। वस्तुत: यह नामों का विवाद क्रियाकाण्ड धर्म नहीं है । धर्म तो वहाँ होता है जहाँ परमात्म-तत्त्व की तभी तक रहता है जब तक हम उस आध्यात्मिक सत्ता की अनुभूति नहीं गवेषणा हो । दूसरे शब्दों में, जहाँ आत्मानुभूति हो, 'स्व' को जानने और कर पाते हैं । व्यक्ति जब वीतराग, वीततृष्णा या अनासक्ति की भूमिका पाने का प्रयास हो । जहाँ परमात्म-तत्त्व को जानने और पाने का प्रयास का स्पर्श करता है तब उसके सामने नामों का यह विवाद निरर्थक हो नहीं है वहाँ धर्म-मार्ग नहीं है। वे कहते हैं- जिसमें परमात्म-तत्त्व की जाता है। वस्तुत: आराध्य के नामों की भिन्नता भाषागत भिन्नता है, मार्गणा है, परमात्मा की खोज और प्राप्ति है, वही धर्म-मार्ग मुख्य-मार्ग स्वरूपगत भिन्नता नहीं। जो इन नामों के विवादों में उलझता है, वह है२८ । आगे वे पुनः धर्म के मर्म को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- जहाँ अनुभूति से वंचित हो जाता है । वे कहते हैं कि जो उस परमतत्त्व की विषय-वासनाओं का त्याग हो; क्रोध, मान, माया और लोभरूपी कषायों अनुभूति कर लेता है उसके लिये यह शब्दगत समस्त विवाद निरर्थक से निवृत्ति हो; वही धर्म-मार्ग है । जिस धर्म-मार्ग या साधना-पथ में हो जाते हैं।
इसका अभाव है वह तो (हरिभद्र की दृष्टि में) नाम का धर्म है२९। वस्तुतः इस प्रकार हम देखते हैं कि उदारचेता, समन्वयशील और धर्म के नाम पर जो कुछ हुआ है और हो रहा है उसके सम्बन्ध में हरिभद्र सत्यनिष्ठ आचार्यों में हरिभद्र के समतुल्य किसी अन्य आचार्य को खोज की यह पीड़ा मर्मान्तक है। जहाँ विषय-वासनाओं का पोषण होता हो, जहाँ पाना कठिन है। अपनी इन विशेषताओं के कारण भारतीय दार्शनिकों घृणा-द्वेष और अहंकार के तत्त्व अपनी मुट्ठी में धर्म को दबोचे हुए हों, उसे के इतिहास में वे अद्वितीय और अनुपम हैं ।
धर्म कहना धर्म की विडम्बना है । हरिभद्र की दृष्टि में वह धर्म नहीं अपित् ।
धर्म के नाम पर धर्म का आवरण डाले हुए कुछ अन्य अर्थात् अधर्म ही क्रान्तदर्शी समालोचक : जैन परम्परा के सन्दर्भ में
है। विषय-वासनाओं और कषायों अर्थात् क्रोधादि दुष्प्रवृत्तियों के त्याग के हरिभद्र के व्यक्तित्व के सम्बन्ध में यह उक्ति अधिक सार्थक अतिरिक्त धर्म का अन्य कोई रूप हो ही नहीं सकता है। उन सभी लोगों है - 'कुसुमों से अधिक कोमल और वज्र से अधिक कठोर ।' उनके चिन्तन की, जो धर्म के नाम पर अपनी वासनाओं और अहंकार के पोषण का में एक ओर उदारता है, समन्वयशीलता है, अपने प्रतिपक्षी के सत्य को प्रयत्न करते हैं और मोक्ष को अपने अधिकार की वस्तु मानकर यह कहते समझने और स्वीकार करने का विनम्र प्रयास है तो दूसरी ओर असत्य और हैं कि मोक्ष केवल हमारे धर्म-मार्ग का आचरण करने से होगा, समीक्षा करते अनाचार के प्रति तीव्र आक्रोश भी है । दुराग्रह और दुराचार फिर चाहे वह हुए हरिभद्र यहाँ तक कह देते हैं कि धर्म-मार्ग किसी एक सम्प्रदाय की अपने धर्म-सम्प्रदाय में हो या अपने विरोधी के, उनकी समालोचना का बपौती नहीं है, जो भी समभाव की साधना करेगा वह मुक्त होगा, वह चाहे विषय बने बिना नहीं रहता है । वे उदार हैं, किन्तु सत्याग्रही भी । वे श्वेताम्बर हो या दिगम्बर, बौद्ध हो या अन्य कोई३० । वस्तुत: उस युग में समन्वयशील हैं, किन्तु समालोचक भी । वस्तुत: एक सत्य-द्रष्टा में ये दोनों जब साम्प्रदायिक दुरभिनिवेश आज की भाँति ही अपने चरम सीमा पर थे, तत्त्व स्वाभाविक रूप से ही उपस्थित होते हैं । जब वह सत्य की खोज करता यह कहना न केवल हरिभद्र की उदारता की सदाशयता का प्रतीक है, है तो एक ओर सत्य को, चाहे फिर वह उसके अपने धर्म-सम्प्रदाय में हो अपितु उनके एक क्रान्तदर्शी आचार्य होने का प्रमाण भी है । उन्होंने जैनया उसके प्रतिपक्षी में, वह सदाशयतापूर्वक उसे स्वीकार करता है, किन्तु परम्परा के निक्षेप के सिद्धान्त को आधार बनाकर धर्म को भी चार भागों दूसरी ओर असत्य को, चाहे फिर वह उसके अपने धर्म-सम्प्रदाय में हो या में विभाजित कर दिया. उसके प्रतिपक्षी में, वह साहसपूर्वक उसे नकारता है । हरिभद्र के व्यक्तित्व का यही सत्याग्रही स्वरूप उनकी उदारता और क्रान्तिकारिता का उत्स (१) नामधर्म - धर्म का वह रूप जो धर्म कहलाता है। किन्तु है। पूर्व में मैने हरिभद्र के उदार और समन्वयशील पक्ष की विशेष रूप जिसमें धार्मिकता का कोई लक्षण नहीं है। वह धर्मतत्त्व से रहित मात्र
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नाम का धर्म है।
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
(२) स्थापनाधर्म जिन क्रियाकाण्डों को धर्म मान लिया जाता है, है, वे ' वस्तुतः धर्म नहीं धार्मिकता के परिचायक बाह्य रूप मात्र हैं। पूजा, ताप आदि धर्म के प्रतीक हैं, किन्तु भावना के अभाव में वे वस्तुतः धर्म नहीं हैं। भावनारहित मात्र क्रियाकाण्ड स्थापना धर्म है
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(३) द्रव्यधर्म वे आचार-परम्पराएँ जो कभी धर्म थीं या धार्मिक समझी जाती थीं, किन्तु वर्तमान सन्दर्भ में धर्म नहीं हैं । सत्वशून्य अप्रासंगिक बनी धर्म-परम्पराएँ ही द्रव्यधर्म हैं।
(४) भावधर्म जो वस्तुतः धर्म है वही भाव धर्म है। यथासमभाव की साधना विषयकषाय से निवृत्ति आदि भावधर्म हैं।
हरिभद्र धर्म के इन चार रूपों में भावधर्म को ही प्रधान मानते हैं। वे कहते हैं कि जिस प्रकार तक्रादि के संयोग, मन्थन की प्रक्रिया और अग्रि द्वारा परितापन के फलस्वरूप दूध रूपी आत्मा घृत रूप परमात्मतत्त्व को प्राप्त होता है । ३२ वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि यह जो भागवत धर्म है, वही विशुद्धि का हेतु है । यद्यपि हरिभद्र के इस कथन का यह आशय भी नहीं लेना चाहिए कि हरिभद्र कर्मकाण्ड के पूर्णतः विरोधी हैं। उन्होंने स्वयं ही सम्बोधप्रकरण की लगभग ५०-६० गावाओं में आत्मशुद्धिः निमित्त जिनपूजा और उसमें होने वाली आशातनाओं का सुन्दर चित्रण किया है। मात्र उनका प्रतिपाद्य यह है कि इन कर्मकाण्डों का मूल्य भावना-शुद्धि के आधार पर ही निर्धारित होता है। यदि धार्मिक जीवन में वासना और कषायों का शमन और आत्मविशुद्धि नहीं होती है तो कर्मकाण्ड का कोई मूल्य नहीं रह जाता है । वस्तुतः हरिभद्र साध्य की उपलब्धि के आधार पर ही साधन का मूल्यांकन करते हैं। वे उन विचारकों में से हैं जिन्हें धर्म के मर्म की पहचान है, अतः वे धर्म के नाम पर ढोंग, आडम्बर और लोकैषणा की पूर्ति के प्रयत्नों को कोई स्थान नहीं देना चाहते हैं। यही उनकी क्रान्तधर्मिता है।
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२७३) । वस्तुतः यहाँ हरिभद्र ने मन्दिर निर्माण प्रतिष्ठा, पूजा आदि कार्यों में उलझने पर मुनि वर्ग का जो पतन हो सकता था, उसका पूर्वानुमान कर लिया था। यति संस्था के विकास से उनका यह अनुमान सत्य ही सिद्ध हुआ । इस सम्बन्ध में उन्होंने जो कुछ लिखा उसमें एक और उनके युग के समाज के प्रति उनकी आत्म-पीड़ा मुखर हो रही है
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तो दूसरी ओर उसमें एक धर्मक्रान्ति का स्वर भी सुनाई दे रहा है। जिनद्रव्य को अपनी वासना पूर्ति का साधन बनाने वाले उन श्रावकों एवं तथाकथित श्रमणों को ललकारते हुए वे कहते हैं जो श्रावक जिनप्रवचन और ज्ञान-दर्शन गुणों की प्रभावना और वृद्धि करने वाले जिनद्रव्य का जिनाशा के विपरीत उपयोग करते हैं, दोहन करते हैं अथवा भक्षण करते हैं, वे क्रमशः भवसमुद्र में भ्रमण करने वाले, दुर्गति में जाने वाले और अनन्त संसारी होते हैं । ३५ इसी प्रकार जो साधु जिनद्रव्य का भोजन करता है वह प्रायश्चित् का पात्र है ।३६ वस्तुतः यह सब इस तथ्य कभी सूचक है कि उस युग में धर्म साधना का माध्यम न रहकर वासनापूर्ति का माध्यम बन रहा था। अतः हरिभद्र जैसे प्रबुद्ध आचार्य के लिये उसके प्रति संघर्ष करना आवश्यक हो गया ।
सम्बोधप्रकरण में हरिभद्र ने अपने युग के जैन साधुओं का जो चित्रण किया है वह एक ओर जैन धर्म में साधु-जीवन के नाम पर जो कुछ हो रहा था उसके प्रति हरिभद्र की पीड़ा को प्रदर्शित करता है तो दूसरी ओर यह भी बताता है कि हरिभद्र तत्कालीन परिस्थितियों के मूक दर्शक और तटस्थ समीक्षक ही नहीं थे, अपितु उनके मन में सामाजिक और धार्मिक क्रान्ति की एक तीव्र आकांक्षा भी थी। वे अपनी समालोचना के द्वारा जनसमाज में एक परिवर्तन लाना चाहते थे ।
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तत्कालीन तथाकथित भ्रमणों के आचार-व्यवहार पर कटाक्ष करते हुए वे लिखते हैं कि जिन-प्रवचन में पार्श्वस्थ अवसन्न, कुशील, संसक्त और यथाछन्द (स्वेच्छाचारी)- ये पाँचों अवन्दनीय हैं। यद्यपि ये लोग जैन मुनि का वेश धारण करते हैं, किन्तु इनमें मुनित्व का लक्षण नहीं है। मुनि वेश धारण करके है। मुनि वेश धारण करके भी क्या-क्या दुष्कर्म करते थे, इसका सजीव चित्रण तो वे अपने ग्रन्थ सम्बोधप्रकरण के द्वितीय अधिकार में 'कुगुरु गुर्व्वाभास पार्श्वस्थ आदि स्वरूप' के अर्न्तगत १७१ गाथाओं में विस्तार से हरिभद्र के युग में जैन परम्परा में चैत्यवास का विकास हो करते हैं। इस संक्षिप्त निबन्ध में उन सबकी समग्र चर्चा एवं व्याख्या करना चुका था। अपने आपको भ्रमण और त्यागी कहने वाला मुनिवर्ग तो सम्भव नहीं है, फिर भी हरिभद्र की कठोर समालोचक दृष्टि का परिचय जिनपूजा और मन्दिर निर्माण के नाम पर न केवल परिग्रह का संचय कर देने के लिये कुछ विवरण देना भी आवश्यक है। वे लिखते हैं, ये मुनिरहा था, अपितु जिनद्रव्य (जिन प्रतिमा को समर्पित द्रव्य) का अपनी वेशधारी तथाकथित भ्रमण आवास देने वाले का या राजा के यहाँ का भोजन विषय-वासनाओं की पूर्ति में उपयोग भी कर रहा था। जिन प्रतिमा और करते हैं, बिना कारण ही अपने लिये लाए गए भोजन को स्वीकार करते जिन मन्दिर तथाकथित भ्रमणों की ध्यान भूमि या साधना भूमि न बनकर हैं, भिक्षाचर्या नहीं करते हैं, आवश्यक कर्म अर्थात् प्रतिक्रमण आदि श्रमणभोग-भूमि बन रहे थे। हरिभद्र जैसे क्रांतिदर्शी आचार्य के लिये यह सब जीवन के अनिवार्य कर्तव्य का पालन नहीं करते हैं कौतुक कर्म, भूत-कर्म, देख पाना सम्भव नहीं था, अतः उन्होंने इसके विरोध में अपनी कलम भविष्य फल एवं निमित्त शास्त्र के माध्यम से धन संचय करते हैं, ये घृतचलाने का निर्णय लिया। वे लिखते हैं द्रव्य पूजा तो गृहस्थों के लिये मक्खन आदि विकृतियों को संचित करके खाते हैं, सूर्य प्रमाण भोजी होते है, मुनि के लिए तो केवल भाव-पूजा है जो केवल मुनि वेशधारी हैं, हैं अर्थात् सूर्योदय से सूर्यास्त तक अनेक बार खाते रहते हैं, न तो 1 मुनि-आचार का पालन नहीं करते हैं, उनके लिए द्रव्य पूजा जिन प्रवचन की निन्दा का कारण होने से उचित नहीं है (सम्बोधप्रकरण, १/
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साधूसमूह ( मण्डली) में बैठकर भोजन करते हैं और न केशलुंचन करते हैं। २० फिर ये करते क्या हैं? हरिभद्र लिखते हैं कि वे सवारी में घूमते हैं,
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समदर्शी आचार्य हरिभद्र
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अकारण कटि वस्त्र बाँधते हैं और सारी रात निश्चेष्ट होकर सोते रहते हैं। अरे, देवद्रव्य के भक्षण में तत्पर, उन्मार्ग के पक्षधर और साधुजनों न तो आते-जाते समय प्रमार्जन करते हैं, न अपनी उपधि (सामग्री) का को दूषित करने वाले इन वेशधारियों को संघ मत कहो। अरे, इन अधर्म प्रति-लेखन करते हैं और न स्वाध्याय ही करते हैं । अनेषणीय पुष्प, और अनीति के पोषक, अनाचार का सेवन करने वाले और साधुता के फूल और पेय ग्रहण करते हैं। भोज-समारोहों में जाकर सरस आहार चोरों को संघ मत कहो । जो ऐसे (दुराचारियों के समूह) को राग या ग्रहण करते हैं । जिन-प्रतिमा का रक्षण एवं क्रय-विक्रय करते हैं। द्वेष के वशीभूत होकर भी संघ कहता है उसे भी छेद-प्रायश्चित्त होता है उच्चाटन आदि कर्म करते हैं। नित्य दिन में दो बार भोजन करते हैं तथा ।४३ हरिभद्र पुनः कहते हैं - जिनाज्ञा का अपलाप करने वाले इन मुनि लवंग, ताम्बूल और दूध आदि विकृतियों का सेवन करते हैं । विपुल वेशधारियों के संघ में रहने की अपेक्षा तो गर्भवास और नरकवास कहीं मात्रा में दुकूल आदि वस्त्र, बिस्तर, जूते, वाहन आदि रखते हैं । स्त्रियों अधिक श्रेयस्कर है ।।४।। के समक्ष गीत गाते हैं । आर्यिकाओं के द्वारा लायी सामग्री लेते हैं। हरिभद्र की यह शब्दावली इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि धर्म लोक-प्रतिष्ठा के लिए मुण्डन करवाते हैं तथा मुखवस्त्रिका एवं रजोहरण के नाम पर अधर्म का पोषण करने वाले अपने ही सहवर्गियों के प्रति उनके धारण करते हैं । चैत्यों में निवास करते हैं, (द्रव्य) पूजा आदि कार्य मन में कितना विद्रोह एवं आक्रोश है। वे तत्कालीन जैन-संघ को स्पष्ट आरम्भ करवाते हैं, जिन-मन्दिर बनवाते हैं, हिरण्य-सुवर्ण रखते हैं, चेतावनी देते हैं कि ऐसे लोगों को प्रश्रय मत दो, उनका आदर-सत्कार मत नीच कुलों को द्रव्य देकर उनसे शिष्य ग्रहण करते हैं । मृतक-कृत्य करो, अन्यथा धर्म का यर्थाथ स्वरूप धूमिल हो जाएगा। वे कहते हैं कि निमित्त जिन-पूजा करवाते हैं, मृतक के निमित्त जिन-दान (चढ़ावा) यदि आम और नीम की जड़ों का समागम हो जाय तो नीम का कुछ नहीं करवाते हैं । धन-प्राप्ति के लिये गृहस्थों के समक्ष अंग-सूत्र आदि का बिगड़ेगा, किन्तु उसके संसर्ग में आम का अवश्य विनाश हो जाएगा। प्रवचन करते हैं। अपने हीनाचारी मृत गुरु के निमित्त नदिकर्म, बलिकर्म वस्तुत: हरिभद्र की यह क्रान्तदर्शिता यर्थाथ ही है, क्योंकि दुराचारियों के आदि करते हैं । पाठ-महोत्सव रचाते हैं । व्याख्यान में महिलाओं से सान्निध्य में चारित्रिक पतन की सम्भावना प्रबल होती है । वे स्वयं कहते हैं, अपना गुणगान करवाते हैं । यति केवल स्त्रियों के सम्मुख और जो जिसकी मित्रता करता है, तत्काल वैसा हो जाता है । तिल जिस फल आर्यिकाएँ केवल पुरुषों के सम्मुख व्याख्यान करती हैं । इस प्रकार में डाल दिये जाते हैं उसी की गन्ध के हो जाते हैं ।४६ हरिभद्र इस माध्यम जिन-आज्ञा का अपलाप कर मात्र अपनी वासनाओं का पोषण करते हैं। से समाज को उन लोगों को सतर्क रहने का निर्देश देते हैं जो धर्म का ये व्याख्यान करके गृहस्थों से धन की याचना करते हैं । ये तो ज्ञान के नकाब डाले अधर्म में जीते हैं क्योंकि ऐसे लोग दुराचारियों की अपेक्षा भी विक्रेता हैं । ऐसे आर्यिकाओं के साथ रहने और भोजन करने वाले भी समाज के लिये अधिक खतरनाक हैं। आचार्य ऐसे लोगों पर कटाक्ष द्रव्य संग्राहक, उन्मार्ग के पक्षधर मिथ्यात्वपरायण न तो मुनि कहे जा करते हुए कहते हैं- जिस प्रकार कुलवधू का वेश्या के घर जाना निषिद्ध सकते हैं और न आचार्य ही । ऐसे लोगों का वन्दन करने से न तो है, उसी प्रकार सुश्रावक के लिये हीनाचारी यति का सानिध्य निषिद्ध है। कीर्ति होती है और न निर्जरा ही, इसके विपरीत शरीर को मात्र कष्ट और दुराचारी अगीतार्थ के वचन सुनने की अपेक्षा तो दृष्टि विष सर्प का कर्मबन्धन होता है ।३९
सान्निध्य या हलाहल विष का पान कहीं अधिक अच्छा है (क्योंकि ये वस्तुत: जिस प्रकार गन्दगी में गिरी हुई माला को कोई भी धारण तो एक जीवन का विनाश करते हैं, जबकि दुराचारी का सान्निध्य तो नहीं करता है, वैसे ही ये भी अपूज्य हैं। हरिभद्र ऐसे वेशधारियों को जन्म-जन्मान्तर का विनाश कर देता है)।४७ फटकारते हुए कहते हैं - यदि महापूजनीय यति (मुनि) वेश धारण करके फिर भी ऐसा लगता है कि इस क्रान्तदर्शी आचार्य की बात शुद्ध चरित्र का पालन तुम्हारे लिए शक्य नहीं है तो फिर गृहस्थ वेश क्यों अनसुनी हो रही थी क्योंकि शिथिलाचारियों के अपने तर्क थे । वे लोगों नहीं धारण कर लेते हो? अरे, गृहस्थवेश में कुछ प्रतिष्ठा तो मिलेगी, के सम्मुख कहते थे कि सामग्री (शरीर-सामर्थ्य) का अभाव है। वक्र किन्तु मुनि-वेश धारण करके यदि उसके अनुरूप आचरण नहीं करोगे तो जड़ों का काल है। दुषमा काल में विधि मार्ग के अनुरूप आचरण कठिन उल्टे निन्दा के ही पात्र बनोगे। यह उन जैसे साहसी आचार्य का कार्य है। यदि कठोर आचार की बात कहेंगे तो कोई मुनि व्रत धारण नहीं हो सकता है जो अपने सहवर्गियों को इतने स्पष्ट रूप में कुछ कह सके। करेगा । तीर्थोच्छेद और सिद्धान्त के प्रवर्तन का प्रश्न है, हम क्या करें । जैसा कि मैंने पूर्व पृष्ठों में चर्चा की है, हरिभद्र तो इतने उदार हैं कि वे उनके इन तर्कों से प्रभावित हो मूर्ख जन-साधारण कह रहा था कि कुछ भी अपनी विरोधी दर्शन-परम्परा के आचार्यों को भी महामुनि, सुवैद्य जैसे उत्तम हो वेश तो तीर्थङ्कर प्रणीत है, अत: वन्दनीय है। हरिभद्र भारी मन में से विशेषणों से सम्बोधित करते हैं, किन्तु वे उतने ही कठोर होना भी जानते मात्र यही कहते हैं कि मैं अपने सिर की पीड़ा किससे कहूँ।।९। हैं, विशेष रूप से उनके प्रति जो धार्मिकता का आवरण डालकर भी किन्तु यह तो प्रत्येक क्रान्तिकारी की नियति होती है। प्रथम अधार्मिक हैं । ऐसे लोगों के प्रति यह क्रान्तिकारी आचार्य कहता है - क्षण में जनसाधारण भी उसके साथ नहीं होता है । अत: हरिभद्र का इस
ऐसे दुश्शील, साध-पिशाचों को जो भक्तिपूर्वक वन्दन नमस्कार पीड़ा से गुजरना उनके क्रान्तिकारी होने का ही प्रमाण है । सम्भवत: करता है, क्या वह महापाप नहीं है ?४२ अरे ! इन सुखशील स्वच्छन्दाचारी, जैन-परम्परा में यह प्रथम अवसर था, जब जैन समाज के तथाकथित मोक्ष-मार्ग के बैरी, आज्ञाभ्रष्ट साधुओं को संयति अर्थात् मुनि मत कहो) मुनि वर्ग को इतना स्पष्ट शब्दों में किसी आचार्य ने लताड़ा हो। वे स्वयं
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दुःखी मन से कहते हैं - हे प्रभु ! जंगल में निवास और दरिद्र का साथ अच्छा है, अरे व्याधि और मृत्यु भी श्रेष्ठ है, किन्तु इन कुशीलों का सान्निध्य अच्छा नहीं है । अरे । (अन्य परम्परा के) हीनाचारी का साथ भी अच्छा हो सकता है, किन्तु इन कुशीलों का साथ तो बिल्कुल ही अच्छा नहीं है । क्योंकि हीनाचारी तो अल्प नाश करता है किन्तु ये तो शीलरूपी निधि का सर्वनाश ही कर देते हैं। वस्तुतः इस कथन के पीछे आचार्य की एक मनोवैज्ञानिक दृष्टि है। क्योंकि जब हम किसी को इतर परम्परा का मान लेते हैं तो उसकी कमियों को कमियों के रूप में ही जानते हैं अतः उसके सम्पर्क के कारण संघ में उतनी विकृति नहीं आती है, जितनी जैन मुनि का वेश धारण कर दुराचार का सेवन करने वाले के सम्पर्क से । क्योंकि उसके सम्पर्क से उस पर श्रद्धा होने पर व्यक्ति का और संघ का जीवन पतित बन जाएगा। यदि सद्भाग्य से अश्रद्धा हुई तो वह जिन प्रवचन के प्रति अश्रद्धा को जन्म देगा (क्योंकि सामान्यजन तो शास्त्र नहीं वरन् उस शास्त्र के अनुगामी का जीवन देखता है), फलत: उभयतो सर्वनाश का कारण होगी, अतः आचार्य हरिभद्र बारबार जिन शासन- रसिकों को निर्देश देते हैं ऐसे जिन शासन के कलंक शिथिलाचारियों और दुराचारियों की तो छाया से भी दूर रहो, क्योंकि ये तुम्हारे जीवन चारिश्वल और श्रद्धा सभी को चौपट कर देंगे। हरिभद्र को जिन - शासन के विनाश का खतरा दूसरों से नहीं, अपने ही लोगों से अधिक लगा। कहा भी है
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
इस घर को आग लग गई घर के चिराग से ।
वस्तुतः एक क्रान्तदर्शी आचार्य के रूप में हरिभद्र का मुख्य उद्देश्य था जैन संघ में उनके युग में जो विकृतियां आ गयी थीं, उन्हें दूर करना । अतः उन्होंने अपने ही पक्ष की कमियों को अधिक गम्भीरता से देखा। जो सच्चे अर्थ में समाज सुधारक होता है, जो सामाजिक जीवन में परिवर्तन लाना चाहता है, वह प्रमुख रूप से अपनी ही कमियों को खोजता है । हरिभद्र ने इस रूप में सम्बोधप्रकरण में एक क्रान्तिकारी की भूमिका निभाई है। क्रान्तिकारी के दो कार्य होते हैं, एक तो समाज में प्रचलित विकृत मान्यताओं की समीक्षा करना और उन्हें समाप्त करना, किन्तु मात्र इतने से उसका कार्य पूरा नहीं होता है। उसका दूसरा कार्य होता है सत् मान्यताओं को प्रतिष्ठित या पुनः प्रतिष्ठित करना । हम देखते हैं कि आचार्य हरिभद्र ने दोनों बातों को अपनी दृष्टि में रखा है ।
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उन्होंने अपने ग्रन्थ सम्बोधप्रकरण में देव, गुरु, धर्म, श्रावक आदि का सम्यक् स्वरूप कैसा होना चाहिए, इसकी भी विस्तृत व्याख्या की है। हरिभद्र ने जहाँ वेशधारियों की समीक्षा की है, वहीं आगमोक्त दृष्टि से गुरु कैसा होना चाहिये, इसकी विस्तृत विवेचना भी की है। हम उसके विस्तार में न जाकर संक्षेप में यह कहेंगे कि हरिभद्र की दृष्टि में जो पाँच महाव्रतों पाँच समितियों, तीन गुप्तियों के पालन में तत्पर है जो जितेन्द्रिय, संयमी, परिषहजयी, शुद्ध आचरण करने वाला और सत्य मार्ग को बताने वाला है, वही सुगुरु है1११
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अभिनिवेश विकसित हो गया था। कुलगुरु की वैदिक अवधारणा की भाँति प्रत्येक गुरु के आस-पास एक वर्ग एकत्रित हो रहा था जो उन्हें अपना गुरु मानता था तथा अन्य को गुरु रूप में स्वीकार नहीं करता था । श्रावकों का एक विशेष समूह एक विशेष आचार्य को अपना गुरु मानता था, जैसा कि आज भी देखा जाता है । हरिभद्र ने इस परम्परा में साम्प्रदायिकता के दुरभिनिवेश के बीज देख लिये थे उन्हें यह स्पष्ट लग रहा था कि इससे साम्प्रदायिक अभिनिवेश दृढ़ होंगे। समाज विभिन्न छोटे-छोटे वर्गों में बंट जाएगा। इसके विकास का दूसरा मुख्य खतरा यह था कि गुणपूजक जैन धर्म व्यक्तिपूजक बन जायेगा और वैयक्तिक रागात्मकता के कारण चारित्रिक दोषों के बावजूद एक विशेष वर्ग की, एक विशेष आचार्य की इस परम्परा से रागात्मकता जुड़ी रहेगी । युगद्रष्टा इस आचार्य ने सामाजिक विकृति को समझा और स्पष्ट रूप से निर्देश दिया श्रावक का कोई अपना और पराया गुरु नहीं होता है, जिनाज्ञा के पालन में निस्त सभी उसके गुरु हैं । ५२ काश, हरिभद्र के द्वारा कथित इस सत्य को हम आज भी समझ सकें तो समाज की टूटी हुई कड़ियों को पुनः जोड़ा जा सकता है।
कान्तदर्शी समालोचक अन्य परम्पराओं के सन्दर्भ में
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पूर्व में हमने जैन परम्परा में व्याप्त अन्धविश्वासों एवं धर्म के नाम पर होने वाली आत्म प्रबंचनाओं के प्रति हरिभद्र के क्रान्तिकारी अवदान की चर्चा सम्बोधप्रकरण के आधार पर की है। अब मैं अन्य परम्पराओं में प्रचलित अन्धविश्वासों की हरिभद्र द्वारा की गई शिष्ट समीक्षा को प्रस्तुत करूंगा ।
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हरिभद्र की कान्तदर्शी दृष्टि जहाँ एक ओर अन्य धर्म एवं दर्शनों में निहित सत्य को स्वीकार करती है, वहीं दूसरी ओर उनकी अयुक्तिसंगत कपोलकल्पनाओं की व्यंग्यात्मक शैली में समीक्षा भी करती है। इस सम्बन्ध में उनका धूर्ताख्यान नामक ग्रन्थ विशेष महत्त्वपूर्ण है। इस ग्रन्थ की रचना का मुख्य उद्देश्य भारत (महाभारत), रामायण और पुराणों की काल्पनिक और अयुक्तिसंगत अवधारणाओं की समीक्षा करना है । यह समीक्षा व्यंग्यात्मक शैली में है। धर्म के सम्बन्ध में कुछ मिथ्या विश्वास युगों से रहे हैं, फिर भी पुराण युग में जिस प्रकार मिथ्या कल्पनाएँ प्रस्तुत की गईं - वे भारतीय मनीषा के दिवालियेपन की सूचक सी लगती है। इस पौराणिक प्रभाव से ही जैन परम्परा में भी महावीर के गर्भ परिवर्तन, उनके अँगूठे को दवाने मात्र से मेरु कम्पन जैसी कुछ चामत्कारिक घटनाएँ प्रचलित हुई। यद्यपि जैन परम्परा में भी चक्रवर्तीीं, वासुदेव आदि की रानियों की संख्या एवं उनकी सेना की संख्या, तीर्थहरों के शरीर प्रमाण एवं आयु आदि के विवरण सहज विश्वसनीय तो नहीं लगते हैं, किन्तु तार्किक असंगति से युक्त नहीं हैं। सम्भवतः यह सब भी पौराणिक परम्परा का प्रभाव था जिसे जैन परम्परा को अपने महापुरुषों की अलौकिकता को बताने हेतु स्वीकार करना पड़ा था, फिर भी यह मानना होगा कि जैन परम्परा में ऐसी कपोलकल्पनाएँ अपेक्षाकृत बहुत ही कम हैं। साथ ही महावीर के गर्भहरिभद्र के युग में गुरु के सम्बन्ध में एक प्रकार का वैयक्तिक परिवर्तन की घटना, जो मुख्यतः ब्राह्मण की अपेक्षा क्षत्रिय को श्रेष्ठता
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समदर्शी आचार्य हरिभद्र
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स्थापित करने हेतु गढ़ी गई थी, के अतिरिक्त, सभी पर्याप्त परवर्ती काल शरीर को पहाड़ के समान मानना, रावण द्वारा अपने सिरों को काटकर की हैं और पौराणिक युग की ही देन हैं और इनमें कपोल-काल्पनिकता महादेव को अर्पण करना और उनका पुनः जुड़ जाना, बलराम का माया का पुट भी अधिक नहीं है । गर्भ-परिवर्तन की घटना छोड़कर, जिसे द्वारा गर्भ-परिवर्तन, बालक श्री कृष्ण के पेट में समग्र विश्व का समा आज विज्ञान ने सम्भव बना दिया है, अविश्वसनीय और अप्राकृतिक रूप जाना, अगस्त्य द्वारा समुद्र-पान और जह्न के द्वारा गंगापान करना, कृष्ण से जन्म लेने का जैन परम्परा में एक भी आख्यान नहीं है, जबकि पुराणों द्वारा गोवर्धन उठा लेना आदि पुराणों में वर्णित अनेक घटनाएं या तो में ऐसे हजार से अधिक आख्यान हैं । जैन-परम्परा सदैव तर्कप्रधान रही उन महान् पुरुषों के व्यक्तित्व को धूमिल करती हैं या आत्म-विरोधी हैं है, यही कारण था कि महावीर की गर्भ-परिवर्तन की घटना को भी अथवा फिर अविश्वसनीय हैं । यद्यपि यह विचारणीय है कि महावीर के उसके एक वर्ग ने स्वीकार नहीं किया ।
गर्भ-परिवर्तन की घटना, जो कि निश्चित ही हरिभद्र के पूर्व पूर्णत: मान्य हरिभद्र के ग्रन्थों का अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि हो चुकी थी, को स्वीकार करके भी हरिभद्र बलराम के गर्भ-परिवर्तन को ये एक ऐसे आचार्य हैं जो युक्ति को प्रधानता देते हैं। उनका स्पष्ट कथन कैसे अविश्वसनीय कह सकते है । यहाँ यह भी स्मरणय है कि हरिभद्र है कि महावीर ने हमें कोई धन नहीं दिया है और कपिल आदि ऋषियों ने धूर्ताख्यान में एक धूर्त द्वारा अपने जीवन में घटित अविश्वसनीय हमारे धन का अपहरण नहीं किया है, अत: हमारा न तो महावीर के प्रति घटनाओं का उल्लेख करवाकर फिर दूसरे धूर्त से यह कहलवा देते हैं राग है और न कपिल आदि ऋषियों के प्रति द्वेष । जिसकी भी बात कि यदि भारत (महाभारत), रामायण आदि में घटित उपर्युक्त घटनाएं युक्तिसंगत हो उसे ग्रहण करना चाहिये ।५३ इस प्रकार हरिभद्र तर्क को ही सत्य हैं, तो फिर यह भी सत्य हो सकता है। श्रद्धा का आधार मानकर चलते हैं । जैन-परम्परा के अन्य आचार्यों के हरिभद्र द्वारा व्यंग्यात्मक शैली में रचित इस ग्रन्थ का उद्देश्य तो समान वे भी श्रद्धा के विषय देव, गुरु और धर्म के यर्थाथ स्वरूप के निर्णय मात्र इतना ही है कि धर्म के नाम पर पलने वाले अन्धविश्वासों को नष्ट किया के लिए क्रमश: वीतरागता, सदाचार और अहिंसा को कसौटी मानकर चलते जाय और पौराणिक कथाओं में देव या महापुरुष के रूप में मान्य व्यक्तित्वों हैं और तर्क या युक्ति से जो इन कसौटियों पर खरा उतरता है, उसे स्वीकार के चरित्र को अनैतिक रूप में प्रस्तुत करके उसकी आड़ में जो पुरोहित वर्ग करने की बात कहते हैं । जिस प्रकार सम्बोधप्रकरण में मुख्य रूप से गुरु अपनी दुश्चरित्रता का पोषण करना चाहता था, उसका पर्दाफाश किया के स्वरूप की समीक्षा करते हैं उसी प्रकार धूर्ताख्यान में वे परोक्षत: देव या जाय । उस युग का पुरोहित प्रथम तो इन महापुरुषों के चरित्रों को अनैतिक आराध्य के स्वरूप की समीक्षा करते प्रतीत होते हैं । वे यह नहीं कहते हैं रूप में प्रस्तुत कर और उसके आधार पर यह कहकर कि यदि कृष्ण गोपियों कि ब्रह्मा, विष्णु एवं महादेव हमारे आराध्य नहीं हैं । वे तो स्वयं ही के साथ छेड़छाड़ कर सकते हैं, विवाहिता राधा के साथ अपना प्रेम-प्रसंग कहते हैं जिसमें कोई भी दोष नहीं है और जो समस्त गुणों से युक्त है चला सकते हैं, यदि इन्द्र महर्षि गौतम की पत्नी के साथ छल से वह ब्रह्मा हो, विष्णु हो या महादेव हो, उसे मैं प्रणाम करता हूँ५४ । सम्भोग कर सकता है तो फिर हमारे द्वारा यह सब करना दुराचार कैसे उनका कहना मात्र यह है कि पौराणिकों ने कपोल-कल्पनाओं के आधार कहा जा सकता है ? वस्तुत: जिस प्रकार सम्बोधप्रकरण में वे अपनी 'पर उनके चरित्र एवं व्यक्तित्व को जिस अतर्कसंगत एवं भ्रष्ट रूप में परम्परा के श्रमण वेशधारी दुश्चरित्र कुगुरुओं को फटकारते हैं, उसी प्रस्तुत किया है उससे न केवल उनका व्यक्तित्व धूमिल होता है, अपितु प्रकार धूर्ताख्यान में वे ब्राह्मण परम्परा के तथाकथित धर्म के ठेकेदारों वे जन-साधरण की अश्रद्धा का कारण बनते हैं ।
को लताड़ते हैं। फिर भी हरिभद्र की फटकारने की दोनों शैलियों में बहुत धूर्ताख्यान के माध्यम से हरिभद्र ऐसे अतर्कसंगत अन्धविश्वासों बड़ा अन्तर है । सम्बोधप्रकरण में वे सीधे फटकारते हैं जब कि से जन-साधारण को मुक्त करना चाहते हैं, जिनमें उनके आराध्य और धूर्ताख्यान में व्यंग्यात्मक शैली में । इसमें हरिभद्र की एक मनोवैज्ञानिक उपास्य देवों को चरित्रहीन के रूप में प्रस्तुत किया गया है । उदाहरण दृष्टि छिपी हुई है । हमें जब अपने घर के किसी सदस्य को कुछ कहना के रूप में चन्द्र, सूर्य, इन्द्र, वायु, अग्नि और धर्म का कुमारी एवं बाद होता है तो परोक्ष रूप में तथा सभ्य शब्दावली का प्रयोग करते है । में पाण्डु पत्नी कुन्ती से यौन सम्बन्ध स्थापित कर पुत्र उत्पन्न करना, गौतम हरिभद्र धूर्ताख्यान में इस दूसरी व्यंग्यपरक शिष्ट शैली का प्रयोग करते ऋषि की पत्नी अहिल्या से इन्द्र द्वारा अनैतिक रूप में यौन-सम्बन्ध स्थापित हैं और अन्य परम्परा के देव और गुरु पर सीधा आक्षेप नहीं करते हैं। करना, लोकव्यापी विष्णु का कामी-जनों के समान गोपियों के लिए उद्विग्न दूसरे धूर्ताख्यान, शास्त्रवार्तासमुच्चय, योगदृष्टिसमुच्चय, होना आदि कथानक इन देवों की गरिमा को खण्डित करते हैं । इसी प्रकार लोकतत्त्वनिर्णय, सावयपण्णत्ति आदि से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि हनुमान का अपनी पूँछ से लंका को घेर लेना अथवा पूरे पर्वत को उठा आराध्य या उपास्य के नाम के सम्बन्ध में हरिभद्र के मन में कोई आग्रह लाना, सूर्य और अग्नि के साथ सम्भोग करके कुन्ती का न जलना, गंगा नहीं है, मात्र आग्रह है तो इस बात का कि उसका चरित्र निर्दोष और का शिव की जटा में समा जाना, द्रोणाचार्य का द्रोण से, कर्ण का कान निष्कलंक हो । धूर्ताख्यान में उन्होंने उन सबकी समालोचना की है जो से, कीचक का बाँस की नली से एवं रक्त कुण्डलिन् का रक्तबिन्दु से जन्म अपनी वासनाओं की पुष्टि के निमित्त अपने उपास्य के चरित्र को धूमिल लेना, अण्डे से जगत् की उत्पत्ति, शिवलिंग का विष्णु द्वारा अन्त न करते हैं । हम यह अच्छी तरह जानते हैं कि कृष्ण के चरित्र में राधा पाना, किन्तु उसी लिंग का पार्वती की योनि में समा जाना, जटायु के और गोपियों को डाल कर हमारे पुरोहित वर्ग ने क्या-क्या नहीं किया ?
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
हरिभद्र इस सम्बन्ध में सीधे तो कुछ नहीं कहते हैं, मात्र एक लिकबहुटीका । २१. देवेन्द्रनरकेन्द्रप्रकरण ।२२. द्विजवदनचपेटा । प्रश्न चिह्न छोड़ देते हैं कि सराग और सशस्त्र देव में देवत्व (उपास्य) २३. धर्मबिन्दु । २४. धर्मलाभसिद्धि । २५. धर्मसंग्रहणी । की गरिमा कहाँ तक ठहर पायेगी । अन्य परम्पराओं के देव और गुरु २६. धर्मसारमूलटीका ।२७. धूर्ताख्यान । २८. नंदीवृत्ति । २९. न्यायके सम्बन्ध में उनकी सौम्य एवं व्यंग्यात्मक शैली जहाँ पाठक को प्रदेशसूत्रवृत्ति । ३०. न्यायविनिश्चय। ३१. न्यायामृततरंगिणी । चिन्तन के लिए विवश कर देती है, वहीं दूसरी ओर वह उनके ३२. न्यायावतारवृत्ति । ३३. पंचनिग्रन्थी। ३४. पंचलिंगी । क्रान्तिकारी, साहसी व्यक्तित्व को प्रस्तुत कर देती है । हरिभद्र सम्बोधप्रकरण ३५. पंचवस्तुसटीक । ३६. पंचसंग्रह । ३७. पंचसूत्रवृत्ति । में स्पष्ट कहते हैं कि रागी-देव, दुराचारी-गुरु और दूसरों को पीड़ा ३८. पंचस्थानक । ३९. पंचाशक । ४०. परलोकसिद्धि । ४१. पिंडनियुक्तिवृत्ति। पहुँचाने वाली प्रवृत्तियों को धर्म मानना, धर्म साधना के सम्यक् स्वरुप ४२. प्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्या । ४३. प्रतिष्ठाकल्प । ४४. बृहन्मिथ्यात्वमंथन को विकृत करना है । अत: हमें इन मिथ्या विश्वासों से ऊपर उठना ४५. मुनिपतिचरित्र ४६. यतिदिनकृत्य । ४७. यशोधरचरित । होगा । इस प्रकार हरिभद्र जनमानस को अन्धविश्वासों से मुक्त कराने का ४८. योगदृष्टिसमुच्चय। ४९. योगबिन्दु । ५०. योगशतक । प्रयास कर अपने क्रान्तदशी होने का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। ५१. लग्नशुद्धि । ५२. लोकतत्त्वनिर्णय । ५३. लोकबिन्दु ।
वस्तुत: हरिभद्र के व्यक्तित्व में एक ओर उदारता और ५४. विंशतिविंशिका । ५५. वीरस्तव । ५६. वीरांगदकथा । समभाव के सद्गुण हैं तो दूसरी ओर सत्यनिष्ठा और स्पष्टवादिता भी है। ५७. वेदबाह्यतानिराकरण । ५८. व्यवहारकल्प । ५९. शास्त्रउनका व्यक्तित्व अनेक सद्गुणों का एक पूँजीभूत स्वरुप है । वे पूर्वाग्रह या वार्तासमुच्चयसटीक । ६०. श्रावकप्रज्ञप्तिवृत्ति । ६१. श्रावकधर्मतंत्र । पक्षाग्रह से मुक्त हैं, फिर भी उनमें सत्याग्रह है जो उनकी कृतियों में स्पष्टतः ६२. षड्दर्शनसमुच्चय । ६३. षोडशक ।६४. समकित पचासी । ६५. परिलक्षित होता है।
संग्रहणीवृत्ति । ६६. संमत्तसित्तिरी । ६७. संबोधसित्तरी । ६८. समराइच्चकहा। आचार्य हरिभ्रद की रचना धर्मिता अपूर्व है, उन्होंने धर्म, दर्शन ६९. सर्वज्ञसिद्धिप्रकरणसटीक । ७०. स्याद्वादकुचोद्यपरिहार। योग, कथा साहित्य सभी पक्षों पर अपनी लेखनी चलाई । उनकी किन्तु इनमें कुछ ग्रन्थ ऐसे भी जिन्हें 'भवविरहांक' समदर्शी रचनाओं को ३ भागों में विभक्त किया जा सकता है।
आचार्य हरिभद्र की कृति है, ऐसा नहीं कहा जा सकता है । आगे हम उन्हीं १. आगमग्रन्थों एवं पूर्वाचार्यों की कृतियों पर टीकाएं. कृतियों का संक्षिप्त परिचय दे रहे हैं जो निश्चित रूप से समदर्शी एवं आचार्य हरिभद्र आगमों के प्रथम संस्कृत टीकाकार हैं । उनकी टीकाएं भव-विरहांक से सूचित यकिनीसूनु हरिभद्र द्वारा प्रणीत हैं । अधिक व्यवस्थित और तार्किकता लिये हुये हैं ।
आगमिक व्याख्याएँ २. स्वरचित ग्रन्थ एवं स्वोपज्ञ टीकाएँ - आचार्य ने जैन जैसा कि हमने पूर्व में निर्देश किया है, हरिभद्र जैन आगमों की दर्शन और समकालीन अन्य दर्शनों का गहन अध्ययन करके उन्हें संस्कृत में व्याख्या लिखने वाले प्रथम आचार्य हैं । आगमों की व्याख्या अत्यन्त स्पष्ट रूप में प्रस्तुत किया है । इन ग्रन्थों में सांख्य योग, न्याय- के सन्दर्भ में उनके निम्न ग्रन्थ उपलब्ध हैं - वैशेषिक, अद्वैत, चार्वाक, बौद्ध, जैन आदि दर्शनों का प्रस्तुतीकरण एवं (१) दशवैकालिक वृत्ति, (२) आवश्यक लघुवृत्ति, (३) सम्यक समालोचना की है। जैन योग के तो वे आदि प्रणेता थे, उनका अनुयोगद्वार वृत्ति, (४) नन्दी वृत्ति, (५) जीवाभिगमसूत्र लघुवृत्ति (६) योग विषयक ज्ञान मात्र सैद्धान्तिक नहीं था । इसके साथ ही उन्होंने चैत्यवन्दनसूत्र वृत्ति (ललितविस्तरा) और (७) प्रज्ञापनाप्रदेश व्याख्या । अनेकान्तजयपताका नामक क्लिष्ट न्याय ग्रन्थ की भी रचना की।
इनके अतिरिक्त आवश्यक सूत्र बृहत्वृत्ति और पिण्डनियुक्ति ३. कथा-साहित्य - आचार्य ने लोक प्रचलित कथाओं के वृत्ति के लेखक भी आचार्य हरिभद्र माने जाते हैं, किन्तु वर्तमान में माध्यम से धर्म-प्रचार को एक नया रूप दिया है । उन्होंने व्यक्ति और आवश्यक वृत्ति अनुपलब्ध है । जो पिण्डनियुक्ति टीका मिलती है उसकी समाज की विकृतियों पर प्रहार कर उनमें सुधार लाने का प्रयास किया उत्थानिका में यह स्पष्ट उल्लेख है कि इस ग्रन्थ का प्रारम्भ तो हरिभद्र ने है । समराइच्चकहा, धूर्ताख्यान और अन्य लघु कथाओं के माध्यम से किया था, किन्तु वे इसे अपने जीवन-काल में पूर्ण नहीं कर पाए, उन्होंने उन्होंने अपने युग की संस्कृति का स्पष्ट एवं सजीव चित्रांकन किया है। स्थापनादोष तक की वृत्ति लिखी थी, उसके आगे किसी वीराचार्य ने लिखी। आचार्य हरिभद्र विरचित ग्रन्थ-सची निम्न है -
__ आचार्य हरिभद्र द्वारा विरचित व्याख्या ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय १. अनुयोगद्वार वृत्ति । २. अनेकान्तजयपताका । इस प्रकार है - ३. अनेकान्तघट्ट । ४. अनेकान्तवादप्रवेश । ५. अष्टक । १. दशवैकालिक वृत्ति - यह वृत्ति शिष्यबोधिनी या बृहद्वृत्ति ६. आवश्यकनियुक्तिलघुटीका । ७. आवश्यकनियुक्तिबहुटीका । के नाम से भी जानी जाती है । वस्तुत: यह वृत्ति दशवैकालिक सूत्र की ८. उपदेशपद । ९. कथाकोश । १०. कर्मस्तववृत्ति । ११. कुलक। अपेक्षा उस पर भद्रबाहुविरचित नियुक्ति पर है । इसमें आचार्य ने १२. क्षेत्रसमासवृत्ति । १३. चतुर्विंशतिस्तुति । १४. चैत्यवंदनभाष्य। दशवैकालिक शब्द का अर्थ, ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगल की आवश्यकता १५. चैत्यवन्दनवृत्ति । १६. जीवाभिगमलघुवृत्ति ।१७. ज्ञानपंचकविवरण। और उसकी व्युत्पत्ति को स्पष्ट करने के साथ ही दशवैकालिक की रचना १८. ज्ञानदिव्यप्रकरण । १९. दशवैकालिक-अवचूरि ।२० दशवैका- क्यों की गई इसे स्पष्ट करते हुए सय्यंभव और उनके पुत्र मनक के पूर्ण
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समदर्शी आचार्य हरिभद्र
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कथानक का भी उल्लेख किया है। प्रथम अध्याय की टीका में आचार्य शासन में उत्पन्न चार अनुयोगों का विभाजन करने वाले आर्यरक्षित से ने तप के प्रकारों की चर्चा करते हुए ध्यान के चारों प्रकारों का सुन्दर सम्बद्ध गाथाओं का वर्णन है । चतुर्विंशतिस्तव और वंदना नामक विवेचन प्रस्तुत किया है । इस प्रथम अध्याय की टीका में प्रतिज्ञा, हेतु, द्वितीय और तृतीय आवश्यक का नियुक्ति के अनुसार व्याख्यान कर उदाहरण आदि अनुमान के विभिन्न अवयवों एवं हेत्वाभासों की भी चर्चा प्रतिक्रमण नामक चतुर्थ आवश्यक की व्याख्या में ध्यान पर विशेष के अतिरिक्त उन्होंने इसमें निक्षेप के सिद्धान्तों का भी विवेचन किया है। प्रकाश डाला गया है । साथ ही सात प्रकार के भयस्थानों सम्बन्धी
दूसरे अध्ययन की वृत्ति में तीन योग, तीन करण, चार संज्ञा, अतिचारों की आलोचना की गाथा उद्धृत की गई है । पञ्चम आवश्यक पाँच इन्द्रिय, पाँच स्थावरकाय, दस प्रकार का श्रमण धर्म और १८००० के रूप में कायोत्सर्ग का विवरण देकर पंचविधकाय के उत्सर्ग की शीलांगों का भी निर्देश मिलता है । साथ ही इसमें रथनेमि और राजीमती तथा षष्ठ आवश्यक में प्रत्याख्यान की चर्चा करते हुए वृत्तिकार ने के उत्तराध्ययन में आए हुए कथानक का भी उल्लेख है । तृतीय शिष्यहिता नामक आवश्यक टीका सम्पन्न की है। आचार्य हरिभद्र अध्ययन की वृत्ति में महत् और क्षुल्लक शब्द के अर्थ को स्पष्ट करने की यह वृत्ति २२,००० श्लोक प्रमाण है। के साथ ही ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार को ३. अनुयोगद्वार वृत्ति- यह टीका अनुयोगद्वार चूर्णि की शैली स्पष्ट किया गया है तथा कथाओं के चार प्रकारों को उदाहरण सहित पर लिखी गयी है जो कि नन्दीवृत्ति के बाद की कृति है । इसमें समझाया गया है । चतुर्थ अध्ययन की वृत्ति में पञ्चमहाव्रत और 'आवश्यक' शब्द का निपेक्ष-पद्धति से विचार कर नामादि आवश्यकों रात्रिभोजन-विवरण की चर्चा के साथ-साथ जीव के स्वरूप पर भी का स्वरूप बताते हुए नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव का स्वरूप स्पष्ट दार्शनिक दृष्टि से विचार किया गया है । इसमें भाष्यगत अनेक गाथाएँ किया गया है । श्रुत का निक्षेप-पद्धति से व्याख्यान किया है। स्कन्ध, भी उद्धृत गयी हैं। इसी प्रकार पंचम अध्ययन की वृत्ति में १८ स्थाणु उपक्रम आदि के विवेचन के बाद आनुपूर्वी को विस्तार से प्रतिपादित अर्थात् व्रत-षट्क, काय-षट्क, अकल्प्य भोजन-वर्जन, गृहभाजनवर्जन, किया है । इसके बाद द्विनाम, त्रिनाम, चतुर्नाम, पञ्चनाम, षटनाम, पर्यंकवर्जन, निषिध्यावर्जन, स्नानवर्जन और शोभावर्जन का उल्लेख हुआ सप्तनाम, अष्टनाम, नवनाम और दशनाम का व्याख्यान किया गया है। है । षष्ठ अध्ययन में क्षुल्लकाचार का विवेचन किया गया है। सप्तम प्रमाण का विवेचन करते हुए विविध अंगुलों के स्वरूप का वर्णन तथा अध्ययन की वृत्ति में भाषा की शुद्धि-अशुद्धि का विचार है । अष्टम समय के विवेचन में पल्योपम का विस्तार से वर्णन किया गया है । अध्ययन की वृत्ति में आचार-प्रणिधि की प्रक्रिया एवं फल का प्रतिपादन शरीर पञ्चक के पश्चात् भावप्रमाण में प्रत्यक्ष, अनुमान, औपम्य, आगम, है। नवम अध्ययन की वृत्ति में विनय के प्रकार और विनय के फल तथा दर्शन चारित्र, नय और संख्या का व्याख्यान है । नय पर पुन: विचार अविनय से होने वाली हानियों का चित्रण किया गया है। दशम अध्ययन करते हुए ज्ञाननय और क्रियानय का स्वरूप निरूपित करते हुए ज्ञान की वृत्ति भिक्षु के स्वरूप की चर्चा करती है । दशवैकालिक वृत्ति के अंत और क्रिया दोनों की एक साथ उपयोगिता को सिद्ध किया गया है । में आचार्य ने अपने को महत्तरा याकिनी का धर्मपुत्र कहा है।
४. नन्दी वृत्ति - यह वृत्ति नन्दीचूर्णि का ही रूपान्तर है। इसमें २. आवश्यक वृत्ति - यह वृत्ति आवश्यक नियुक्ति पर प्राय: उन्हीं विषयों के व्याख्यान हैं जो नन्दीचूर्णि में हैं । इसमें प्रारम्भ आधारित है । आचार्य हरिभद्र ने इसमें आवश्यक सूत्रों का पदानुसरण में नन्दी के शब्दार्थ, निक्षेप आदि एवं उसके बाद जिन, वीर और संघ न करते हुए स्वतन्त्र रीति से नियुक्ति-गाथाओं का विवेचन किया है। की स्तुति की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए तीर्थङ्करावलिका, गणधरावलिका नियुक्ति की प्रथम गाथा की व्याख्या करते हुए आचार्य ने पाँच प्रकार और स्थविरावलिका का प्रतिपादन किया गया है। नन्दी वृत्ति में ज्ञान के के ज्ञान का स्वरूप प्रतिपादित किया है । इसी प्रकार मति, श्रुत, अवधि, अध्ययन की योग्यता-अयोग्यता पर विचार करते हुए लिखा है कि अयोग्य मन:पर्यय और केवल की भी भेद-प्रभेदपूर्वक व्याख्या की गई है। को ज्ञान-दान से वस्तुत: अकल्याण ही होता है । इसके बाद तीन प्रकार की सामायिक नियुक्ति की व्याख्या में प्रवचन की उत्पत्ति के प्रसंग पर पर्षद का व्याख्यान, ज्ञान के भेद-प्रभेद, स्वरूप, विषय आदि का विवेचन प्रकाश डालते हुए बताया है कि कुछ पुरुष स्वभाव से ही ऐसे होते हैं, किया गया है। केवल-ज्ञान और केवल-दर्शन के क्रमिक उपयोग आदि का जिन्हें वीतराग की वाणी अरुचिकर लगती है, इसमें प्रवचनों का कोई प्रतिपादन करते हुए युगपवाद के समर्थक सिद्धसेन आदि का, क्रमिकत्व दोष नहीं है । दोष तो उन सुनने वालों का है। साथ ही सामायिक के के समर्थक जिनभद्रगणि आदि का तथा अभेदवाद के समर्थक वृद्धाचार्यों उद्देश, निर्देश, निर्गम, क्षेत्र आदि तेईस द्वारों का विवेचन करते हुए का उल्लेख किया गया है। इसमें वर्णित सिद्धसेन, सिद्धसेन दिवाकर सामायिक के निर्गम द्वार के प्रसंग में कुलकरों की उत्पत्ति,उनके पूर्वभव, से भिन्न हैं, क्योंकि सिद्धसेन दिवाकर तृतीय मत अभेदवाद के प्रवर्तक आयु का वर्णन तथा नाभिकुलकर के यहाँ भगवान् ऋषभदेव का जन्म, हैं। द्वितीय मत क्रमिकत्व के समर्थक जिनभद्र आदि को सिद्धान्तवादी तीर्थङ्कर नाम, गोत्रकर्म बंधन के कारणों पर प्रकाश डालते हुए अन्य कहा गया है । अन्त में श्रुत के श्रवण और व्याख्यान की विधि बताते आख्यानों की भाँति प्राकृत में धन नामक सार्थवाह का आख्यान दिया हुए आचार्य ने नन्द्यध्ययन विवरण सम्पन्न किया है। गया है । ऋषभदेव के पारणे का उल्लेख करते हुए विस्तृत विवेचन ५. जीवाभिगमसूत्र लघुवृत्ति - इस वृत्ति के अपरनाम के रूप हेतु 'वसुदेवहिंडी' का नामोल्लेख किया गया है। भगवान् महावीर के में 'प्रदेशवृत्ति' का उल्लेख मिलता है। इसका ग्रन्थान ११९२ गाथाएँ
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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
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है किन्तु वृत्ति अनुपलब्ध है। जीवाभिगमसूत्र पर आचार्य मलयगिरि कृत एकमात्र वृत्ति उपलब्ध है जिसमें अनेक ग्रन्थ और ग्रन्थकारों का नामोल्लेख भी किया गया है। उसमें हरिभद्रकृत तत्त्वार्थ टीका का उल्लेख है, परन्तु जीवाभिगम पर उनकी किसी वृत्ति का उल्लेख नहीं है ।
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६. चैत्यवन्दनसूत्र वृत्ति (ललितविस्तरा ) चैत्यवन्दन के - सूत्रों पर हरिभद्र ने ललितविस्तरा नाम से एक विस्तृत व्याख्या की रचना की है। यह कृति बौद्ध परम्परा के ललितविस्तर की शैली में प्राकृत मिश्रित संस्कृत में रची गयी है। यह ग्रंथ चैत्यवन्दन के अनुष्ठान में प्रयुक्त होने वाले प्राणातिपातदण्डकसूत्र (नमोत्थुणं), चैत्यस्तव (अरिहंत चेईयाणं), चतुर्विंशतिस्तव ( लोगस्स), श्रुतस्तव (पुक्खरवर), सिद्धस्तव (सिद्धार्णबुद्धा), प्रणिधान सूत्र (जय-वीवराय) आदि के विवेचन के रूप में लिखा गया है। मुख्यतः तो यह प्रन्थ अरहन्त परमात्मा की स्तुतिरूप ही है, परन्तु आचार्य हरिभद्र ने इसमें अरिहन्त परमात्मा के विशिष्ट गुणों का परिचय देते हुए अन्य दार्शनिक विचारधाराओं के परिप्रेक्ष्य में तर्कपूर्ण समीक्षा भी की है । इसी प्रसंग में इस ग्रन्थ में सर्वप्रथम यापनीय मान्यता के आधार पर स्त्रीमुक्ति का समर्थन किया गया है।
७. प्रज्ञापना- प्रदेश व्याख्या इस टीका के प्रारम्भ में जैनप्रवचन की महिमा के बाद मंगल की महिमा का विशेष विवेचन करते हुए आवश्यक टीका का नामोल्लेख किया गया है। भव्य और अभव्य का विवेचन करने के बाद प्रथम पद की व्याख्या में प्रज्ञापना के विषय, कर्तृत्व आदि का वर्णन किया गया है। जीव प्रज्ञापना और अजीव प्रज्ञापना का वर्णन करते हुए एकेन्द्रियादि जीवों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। द्वितीय पद की व्याख्या में पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय तथा द्वीन्द्रियादि के स्थानों का वर्णन किया गया है। तृतीय पद की व्याख्या में कायाद्यल्प - बहुत्व, आयुर्बन्ध का अल्पबहुत्व, वेद, लेश्या, इन्द्रिय आदि दृष्टियों से जीव विचार, लोक सम्बन्धी अल्प-बहुत्व, पुद्गलाल्पबहुत्व, द्रव्याल्पबहुत्व अवगाडाल्प-बहुत्व आदि पर विचार किया गया है। चतुर्थ पद में नारकों की स्थिति तथा पञ्चम पद की व्याख्या में नारकपर्याय, अवगाह, षट्स्थानक, कर्मस्थिति और जीवपर्याय का विश्लेषण किया गया है। षष्ठ और सप्तम पद में नारक सम्बन्धी विरहकाल का वर्णन है। अष्टम पद में संज्ञा का स्वरूप बताया है। नवम पद में विविध योनियों एवं दशम पद में रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों का चरम और अचरम की दृष्टि से विवेचन किया गया है। ग्यारहवें पद में भाषा के स्वरूप के साथ ही स्त्री, पुरुष और नपुंसक के लक्षणों को बताया गया है। बारहवें पद में औदारिकादि शरीर के सामान्य स्वरूप का वर्णन तथा तेरहवें पद की व्याख्या में जीव और अजीव के विविध परिणामों का प्रतिपादन किया गया है। आगे के पदों की व्याख्या में कषाय, इन्द्रिय, योग लेश्या, काय स्थिति, अन्तः क्रिया, अवगाहना, संस्थानादि क्रिया कर्म प्रकृति, कर्म-बन्ध, आहार परिणाम, उपयोग, पश्यता, संज्ञा, संयम, अवधि प्रविचार, वेदना और समुद्घात का विशेष वर्णन किया गया है। तीसवें
पद में उपयोग और पश्यता की भेदरेखा स्पष्ट करते हुए साकार उपयोग के आठ प्रकार और साकार पश्यता के छः प्रकार बताए गए हैं 1
आचार्य हरिभद्र की स्वतंत्र कृतियाँ
षोडशक इस कृति में एक-एक विषयों को लेकर १६-१६ पद्यों में आचार्य हरिभद्र ने १६ षोडशकों की रचना की है। ये १६ षोडशक इस प्रकार हैं- (१) धर्मपरीक्षाषोडशक, (२) सद्धर्मदेशनाषोडषक, (३) धर्मलक्षणषोडशक (४) धर्मलिंगषोडशक, (५) लोकोत्तरतत्त्वप्राप्तिषोडशक, (६) जिनमंदिर निर्माणषोडशक, (७) जिनबिम्बषोडशक (८) प्रतिष्ठाषोडशक, (९) पूजास्वरूपषोडशक, (१०) पूजाफलषोडशक, (११) श्रुतज्ञानलिङ्गघोडशक, (१२) दीक्षाधिकारियोडशक, (१३) गुरुविनयषोडशक, (१४) योगभेद षोडशक, (१५) ध्येयस्वरूपषोडशक (१६) समरसघोडशक इनमें अपने-अपने नाम के अनुरूप विषयों की चर्चा है।
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विंशतिविंशिका विंशतिविंशिका नामक आचार्य हरिभद्र की यह कृति २०-२० प्राकृत गाथाओं में निबद्ध है। ये विंशिकाएँ निम्नलिखित हैं-प्रथम अधिकार विंशिका में २० विंशिकाओं के विषय का विवेचन किया गया है। द्वितीय विंशिका में लोक के अनादि स्वरूप का विवेचन है। तृतीय विंशिका में कुल, नीति और लोकधर्म का विवेचन है। चतुर्थ विंशिका का विषय चरमपरिवर्त है। पाँचवीं विंशिका में शुद्ध धर्म की उपलब्धि कैसे होती है, इसका विवेचन है। छठीं विंशिका में सद्धर्म का एवं सातवीं विंशिका में दान का विवेचन है। आठवीं विंशिका में पूजा-विधान की चर्चा है। नवीं विंशिका में श्रावकधर्म, दशवीं विंशिका में श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं एवं ग्यारहवीं विंशिका में मुनिधर्म का विवेचन किया गया है । बारहवीं विंशिका भिक्षा-विंशिका है। इसमे मुनि के भिक्षा सम्बन्धी दोषों का विवेचन है । तेरहवीं, शिक्षा-विंशिका है। इसमें धार्मिक जीवन के लिये योग्य शिक्षाएँ प्रस्तुत की गई हैं। चौदहवीं अन्तरायशुद्धि विंशिंका में शिक्षा के सन्दर्भ में होने वाले अन्तरायों का विवेचन है। ज्ञातव्य है कि इस विंशिका में मात्र छः गाथाएं ही मिलती हैं, शेष गाथाएँ किसी भी हस्तप्रति में नहीं मिलती हैं। पन्द्रहवीं आलोचना-विंशिका है। सोलहवीं विंशिका प्रायश्चित्तविंशिका है। इसमें विभिन्न प्रायश्चित्तों का संक्षिप्त विवेचन है। सत्रहवीं विंशिका योगविधान विंशिका है। उसमें योग के स्वरुप का विवेचन है । अट्ठारहवीं केवलज्ञान विंशिका में केवलज्ञान के स्वरूप का विश्लेषण है। उन्नीसवीं सिद्धविभक्ति-विंशिका में सिद्धों का स्वरूप वर्णित है। बीसवीं सिद्धसुख-विंशिका है जिसमें सिद्धों के सुख का विवेचन है । इस प्रकार इन बीस विंशिकाओं में जैनधर्म और साधना से सम्बन्धित विविध विषयों का विवेचन है ।
योगविंशिका
यह प्राकृत में निबद्ध मात्र २० गाथाओं की एक लघु रचना है। इसमें जैन परम्परा में प्रचलित मन, वचन और काय-रूप प्रवृत्ति वाली परिभाषा के स्थान पर मोक्ष से जोड़ने वाले धर्म व्यापार को योग कहा गया है। साथ ही इसमें योग का अधिकारी कौन हो सकता है, इसकी
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भी चर्चा की गई है। योगविंशिका में योग के निम्न पाँच भेदों का वर्णन योग का अधिकारी माना है । योग का प्रभाव, योग की भूमिका के है- (१) स्थान, (२) उर्ण, (३) अर्थ, (४) आलम्बन, (५) अनालम्बन। रूप में पूर्वसेवा,पाँच प्रकार के अनुष्ठान, सम्यक्तव-प्राप्ति का विवेचन, योग के इन पाँच भेदों का वर्णन इससे पूर्व किसी भी जैन-ग्रन्थ में नहीं विरति, मोक्ष, आत्मा का स्वरूप, कार्य की सिद्धि में समभाव, मिलता। अत: यह आचार्य की अपनी मौलिक कल्पना है । कृति के कालादि के पाँच कारणों का बलाबल, महेश्वरवादी एवं पुरुषाद्वैतवादी अन्त में इच्छा, प्रकृति, स्थिरता और सिद्धि -इन चार योगांगों और के मतों का निरसन आदि के साथ ही हरिभद्र ने 'गुरु' की विस्तार कृति, भक्ति, वचन और असङ्ग-इन चार अनुष्ठानों का भी वर्णन किया से व्याख्या की है। गया है । इसके अतिरिक्त इसमें चैत्यवन्दन की क्रिया का भी उल्लेख
आध्यात्मिक विकास की पाँच भूमिकाओं में से प्रथम चार का पतञ्जलि के अनुसार सम्प्रज्ञात-असम्प्रज्ञात के रूप में निर्देश, सर्वदेव
नमस्कार की उदारवृत्ति के विषय में ‘चारिसंजीवनी', न्याय गोपेन्द्रं और योगशतक
कालातीतं के मन्तव्य और कालातीत की अनुपलब्ध कृति में से सात यह १०१ प्राकृत गाथाओं में निबद्ध आचार्य हरिभद्र की योग
अवतरण, आदि भी इस ग्रन्थ के मुख्य प्रतिपाद्य हैं । पुनः इसमें जीव सम्बन्धी रचना है । ग्रंथ के प्रारम्भ में निश्चय और व्यवहार दृष्टि से
के भेदों के अन्तर्गत् अपुनर्बन्धक सम्यक दृष्टि या भिन्न ग्रंथी, देशविरति योग का स्वरूप प्रतिपादित किया गया है, उसके पश्चात् आध्यात्मिक
और सर्व-विरति की चर्चा की गई है। योगाधिकार प्राप्ति के सन्दर्भ में विकास के उपायों की चर्चा की गई है । ग्रन्थ के उत्तरार्द्ध में चित्त
पूर्वसेवा के रूप में विविध आचार-विचारों का निरूपण किया गया है। को स्थिर करने के लिये अपनी वृत्तियों के प्रति सजग होने या उनका अवलोकन करने की बात कही गई है । अन्त में योग से प्राप्त
आध्यात्मिक विकास की चर्चा करते हुए अध्यात्म, भावना,
ध्यान, समता और वृत्ति-संक्षय- इन पाँच भेदों का निर्देश किया गया है। लब्धियों की चर्चा की गई है।
साथ ही इनकी पतञ्जलि अनुमोदित सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात समाधि योगदृष्टिसमुच्चय
से तुलना भी की गई है। इसमें विविध प्रकार के यौगिक अनुष्ठानों की योगदृष्टिसमुच्चय जैन योग की एक महत्त्वपूर्ण रचना है। भी चर्चा है जो इस बात को सूचित करते हैं कि साधक योग-साधना आचार्य हरिभद्र ने इसे २२७ संस्कृत पद्यों में निबद्ध किया है । इसमें किस उद्देश्य से कर रहा है । यौगिक अनुष्ठान पाँच हैं- (१) विषानुष्ठान, सर्वप्रथम योग की तीन भूमिकाओं का निर्देश है: (१) दृष्टियोग, (२) गरानुष्ठान, (३) अनानुष्ठान, (४) तद्धेतु-अनुष्ठान, (५) अमृतानुष्ठान । (२) इच्छायोग और (३) सामर्थ्ययोग।
इनमें पहले तीन 'असद् अनुष्ठान' हैं तथा अन्तिम के दो अनुष्ठान दृष्टियोग में सर्वप्रथम मित्रा, तारा, बला, दीपा, स्थिरा, कान्ता, 'सदनुष्ठान' है। प्रभा और परा- इन आठ दृष्टियों का विस्तृत वर्णन है। संसारी जीव की सद्योगचिन्तामणि' से प्रारम्भ होने वाली इस वृत्ति का श्लोक अचरमावर्तकालीन अवस्था को 'ओघ-दृष्टि' और चरमावर्तकालीन अवस्था परिणाम ३६२० है । योगबिन्दु के स्पष्टीकरण के लिये यह वृत्ति को योग-दृष्टियों के प्रसंग में ही जैन-परम्परा सम्मत चौदह गुणस्थानों की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। भी योजना कर ली है । इसके पश्चात् उन्होंने इच्छायोग, शास्त्रयोग और सामर्थ्ययोग की चर्चा की है । ग्रन्थ के अन्त में उन्होंने योग अधिकारी के षड्दर्शनसमुच्चय रूप में गोत्रयोगी, कुलयोगी, प्रवृत्तचक्रयोगी और सिद्धयोगी- इन चार षड्दर्शनसमुच्चय आचार्य हरिभद्र की लोकविश्रुत दार्शनिक प्रकार के योगियों का वर्णन किया है।
रचना है। मूल कृति मात्र ८७ संस्कृत श्लोकों में निबद्ध है। इसमें आचार्य हरिभद्र ने इस ग्रन्थ पर १०० पद्य प्रमाण वृत्ति भी आचार्य हरिभद्र ने चार्वाक, बौद्ध, न्याय-वैशेषिक, सांख्य, जैन और लिखी है, जो ११७५ श्लोक परिमाण है।
जैमिनि (मीमांसा दर्शन) इन छ: दर्शनों के सिद्धान्तों का, उनकी मान्यता
के अनुसार संक्षेप में विवेचन किया है । ज्ञातव्य है कि दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों योगबिन्दु
में यह एक ऐसी कृति है जो इन भिन्न-भिन्न दर्शनों का खण्डन-मण्डन हरिभद्रसूरि की यह कृति अनुष्टुप छन्द के ५२७ संस्कृत पद्यों से ऊपर उठकर अपने यथार्थ स्वरूप में प्रस्तुत करती है । इस कृति के में निबद्ध है। इस कृति में उन्होंने जैन योग के विस्तृत विवेचन के साथ- सन्दर्भ में विशेष विवेचन हम हरिभद्र के व्यक्तित्व की चर्चा करते समय साथ अन्य परम्परासम्मत योगों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक कर चुके हैं। विवेचन भी किया है । इसमें योग अधिकारियों की चर्चा करते हुए उनके दो प्रकार निरूपित किये गए हैं - (१) चरमावृतवृत्ति, (२) अचरमावृत- शास्त्रवार्तासमुच्चय आवृत वृत्ति । इसमें चरमावृतवृत्ति को ही मोक्ष का अधिकरी माना गया जहाँ षड्दर्शनसमुच्चय में विभिन्न दर्शनों का यथार्थ प्रस्तुतीकरण है । योग के अधिकारी-अनधिकारी का निर्देश करते समय मोह में है, वहाँ शास्त्रवार्तासमुच्चय में विविध भारतीय दर्शनों की समीक्षा आबद्ध संसारी जीबों को 'भवाभिनन्दी' कहा है और चारित्री जीवों को प्रस्तुत की गयी है । षड्दर्शनसमुच्चय की अपेक्षा यह एक विस्तृत कृति
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
है। आचार्य हरिभद्र ने इसे ७०२ संस्कृत श्लोकों में निबद्ध किया है। वहाँ अनेकान्तवादप्रवेश सामान्य व्यक्ति हेतु अनेकान्तवाद को बोधगम्य यह कृति आठ स्तबकों में विभक्त है। प्रथम स्तबक में सामान्य उपदेश बनाने के लिये लिखा गया है । यह ग्रन्थ भी संस्कृत भाषा में निबद्ध है । के पश्चात् चार्वाक मत की समीक्षा की गयी है । द्वितीय स्तबक में भी इसकी विषय-वस्तु अनेकान्तजयपताका के समान ही है । चार्वाक मत की समीक्षा के साथ-साथ एकान्त-स्वभाववादी आदि मतों की समीक्षा की गयी है। इस ग्रन्थ के तीसरे स्तबक में आचार्य हरिभद्र न्यायप्रवेश टीका ने ईश्वर-कर्तृत्व की समीक्षा की है। चतुर्थ स्तबक में विशेष रूप से सांख्य हरिभद्र ने स्वतन्त्र दार्शनिक ग्रन्थों के प्रणयन के साथ-साथ अन्य मत की और प्रसंगान्तर से बौद्धों के विशेषवाद और क्षणिकवाद का खण्डन परम्परा के दार्शनिक ग्रन्थों पर भी टीकाएँ लिखीं हैं। इनमें बौद्ध दार्शनिक किया गया है। पञ्चम् स्तबक बौद्धों के ही विज्ञानवाद की समीक्षा प्रस्तुत दिङ्नाग के न्याय-प्रवेश पर उनकी टीका बहुत ही प्रसिद्ध है । इस ग्रन्थ करता है । षष्ठ स्तबक में बौद्धों के क्षणिकवाद की विस्तार से समीक्षा की में न्याय-सम्बन्धी बौद्ध मन्तव्य को ही स्पष्ट किया गया है । यह ग्रन्थ गयी है । सप्तम स्तबक में हरिभद्र ने वस्तु की अनन्तधर्मात्मकता और हरिभद्र की व्यापक और उदार दृष्टि का परिचय देता है। इस ग्रन्थ के स्याद्वाद की प्रस्थापना की है। साथ ही इस स्तबक के अन्त में वेदान्त की माध्यम से जैन परम्परा में भी बौद्धों के न्याय-सम्बन्धी मन्तव्यों के अध्ययन समीक्षा भी की गयी है । अष्टम् स्तबक में मोक्ष एवं मोक्ष-मार्ग का विवेचन की परम्परा का विकास हुआ है। है। इसी क्रम में इस स्तबक में प्रसंगान्तर से सर्वज्ञता को सिद्ध किया है। इसके साथ ही इस स्तबक में शब्दार्थ के स्वरूप पर भी विस्तार से चर्चा धर्मसंग्रहणी उपलब्ध होती है । इस ग्रन्थ की विशेषता यह है कि इसमें न्याय-वैशेषिक, यह हरिभद्र का दार्शनिक ग्रन्थ है । १२९६ गाथाओं में निबद्ध सांख्य, बौद्ध आदि दर्शनों की समीक्षा होते हुए भी उनके प्रस्थापकों के प्रति इस ग्रन्थ में धर्म के स्वरूप का निक्षेपों द्वारा निरूपण किया गया है । विशेष आदर-भाव प्रस्तुत किया गया है और उनके द्वारा प्रतिपादित मलयगिरि द्वारा इस पर संस्कृत टीका लिखी गयी है । इसमें आत्मा के सिद्धान्तों का जैन दृष्टि के साथ सुन्दर समन्वय किया गया है। इस सन्दर्भ अनादि अनिधनत्व,अमूर्त्तत्व, परिणामित्व ज्ञायक-स्वरूप, कर्तृत्व-भोक्तृत्व में हम विशेष चर्चा हरिभद्र के व्यक्तित्व एवं अवदान की चर्चा के प्रसंग में और सर्वज्ञ-सिद्धि का निरूपण किया गया है। कर चुके हैं, अत: यहाँ इसे हम यहीं विराम देते हैं।
लोकतत्त्वनिर्णय अनेकान्तजयपताका
लोकतत्त्वनिर्णय में हरिभद्र ने अपनी उदार दृष्टि का परिचय दिया जैन दर्शन का केन्द्रीय सिद्धान्त अनेकान्तवाद है । इस सिद्धान्त है । इस ग्रन्थ में जगत्-सर्जक-संचालक के रूप में माने गए ईश्वरवाद के प्रस्तुतीकरण हेतु आचार्य हरिभद्र ने संस्कृत भाषा में इस ग्रन्थ की की समीक्षा तथा लोक-स्वरूप की तात्त्विकता का विचार किया गया है। रचना की। चूँकि इस ग्रन्थ में अनेकान्तवाद को अन्य दार्शनिक सिद्धान्तों इसमें धर्म के मार्ग पर चलने वाले पात्र एवं अपात्र का विचार करते हुए पर विजय प्राप्त करने वाला दिखाया गया है, अत: इसी आधार पर सुपात्र को ही उपदेश देने के विचार की विवेचना की गयी है। इसका नामकरण अनेकान्तजयपताका किया गया है । इस ग्रन्थ में छ: अधिकार हैं- प्रथम अधिकार में अनेकान्तदृष्टि से वस्तु के सद्-असद् दर्शनसप्ततिका स्वरूप का विवेचन किया गया है। दूसरे अधिकार में वस्तु के नित्यत्व इस प्रकरण में सम्यक्तवयुक्त श्रावकधर्म का १२० गाथाओं में
और अनित्यत्व की समीक्षा करते हुए उसे नित्यानित्य बताया गया है। उपदेश संगृहीत है । इस ग्रन्थ पर श्री मानदेवसूरि की टीका है। तृतीय अधिकार में वस्तु का सामान्य अथवा विशेष मानने वाले दार्शनिक मतों की समीक्षा करते हुए अन्त में वस्तु को सामन्य- ब्रह्मसिद्धिसमुच्चय विशेषात्मक सिद्ध करके अनेकान्तदृष्टि की पुष्टि की गयी है। आगे चतुर्थ
आचार्य हरिभद्र द्वारा रचित इस संस्कृत ग्रन्थ में कुल ४२३ पद्य अधिकार में वस्तु के अभिलाप्य और अनभिलाप्य मतों की समीक्षा करते ही उपलब्ध हैं । आद्य पद में महावीर को नमस्कार कर ब्रह्मादि के स्वरूप हए उसे वाच्यावाच्य निरूपति किया गया है। अगले अधिकारों में बौद्धों को बताने की प्रतिज्ञा की है । इस ग्रन्थ में सर्वधर्मों का समन्वय किया के योगाचार दर्शन की समीक्षा एवं मुक्ति सम्बन्धी विभिन्न मान्यताओं की गया है । यह ग्रन्थ अपूर्ण प्रतीत होता है । समीक्षा की गयी है । इस प्रकार इस कृति में अनेकान्त दृष्टि से परस्पर विरोधी मतों के मध्य समन्वय स्थापित किया गया है।
सम्बोधप्रकरण
१५९० पद्यों की यह प्राकृत रचना बारह अधिकारों में विभक्त अनेकान्तवादप्रवेश
है। इसमें गुरु, कुगुरु, सम्यक्त्व एवं देव का स्वरूप, श्रावकधर्म और जहाँ अनेकान्तजयपताका प्रबुद्ध दार्शनिकों के समक्ष अनेकान्तवाद प्रतिमाएँ, व्रत, आलोचना तथा मिथ्यात्व आदि का वर्णन है । इसमें के गाम्भीर्य को समीक्षात्मक शैली में प्रस्तुत करने हेतु लिखी गयी है, हरिभद्र के युग में जैन मुनि संघ में आये हुए चारित्रिक पतन का सजीव
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चित्रण है जिसकी चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं।
संस्कृत भाषा में निबद्ध की थी। यद्यपि अनेक ग्रन्थों में इसका उल्लेख धर्मबिन्दुप्रकरण
मिलता है, परन्तु इसकी आज तक कोई प्रति उपलब्ध नहीं हुई है । नाम ५४२ सूत्रों में निबद्ध यह ग्रन्थ चार अध्यायों में विभक्त है। इसमें साम्य के कारण अनेक बार हरिभद्रकृत इस प्राकृत कृति (सावयपण्णत्ति) श्रावक और श्रमण-धर्म की विवेचना की गयी है । श्रावक बनने के पूर्व को तत्त्वार्थसूत्र के रचयिता उमास्वाति की रचना मान लिया जाता है, जीवन को पवित्र और निर्मल बनाने वाले पूर्व मार्गानुसारी के पैंतीस गुणों किन्तु यह एक भ्रान्ति ही है । पञ्चाशक की अभयदेवसूरि कृत वृत्ति की विवेचना की गयी है । इस पर मुनिचन्द्रसूरि ने टीका लिखी है। में और लावण्यसूरि कृत द्रव्य सप्तति में इसे हरिभद्र की कृति माना गया
है। इस कृति में सावग (श्रावक) शब्द का अर्थ, सम्यक्त्व का स्वरूप उपदेशपद
नवतत्त्व, अष्टकर्म, श्रावक के १२ व्रत और श्रावक समाचारी का __इस ग्रन्थ में कुल १०४० गाथाएँ हैं । इस पर मुनिचन्द्रसूरि विवेचन उपलब्ध होता है। ने सुखबोधिनी टीका लिखी है। आचार्य ने धर्मकथानुयोग के माध्यम इस पर स्वयं आचार्य हरिभद्र की दिग्प्रदा नाम की स्वोपज्ञ से इस कृति में मन्द बुद्धि वालों के प्रबोध के लिए जैन धर्म के संस्कृत टीका भी है। इसमें अहिंसाणुव्रत और सामायिकव्रत की चर्चा उपदेशों को सरल लौकिक कथाओं के रूप में संगृहीत किया है। करते हुए आचार्य ने अनेक महत्त्वपूर्ण प्रश्नों का उत्तर दिया है । टीका मानव पर्याय की दुर्लभता एवं बुद्धि चमत्कार को प्रकट करने के में जीव की नित्यानित्यता आदि दार्शनिक विषयों की भी गम्भीर चर्चा लिये कई कथानकों का ग्रन्थन किया है । मनुष्य-जन्म की दुर्लभता उपलब्ध होती है। को चोल्लक, पाशक, धान्य, द्यूत, रत्न, स्वपन, चक्रयूप आदि जैन आचार सम्बन्धी ग्रन्थों में पञ्चवस्तुक तथा श्रावकप्रज्ञप्ति के दृष्टान्तों के द्वारा प्रतिपादित किया गया है।
अतिरिक्त अष्टकप्रकरण, षोडशकप्रकरण, विंशिकाएँ और पञ्चाशकप्रकरण
भी आचार्य हरिभद्र की महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं । पंचवस्तुक (पंचवत्युग)
आचार्य हरिभद्र की यह कृति प्राकृत भाषा में निबद्ध है । इसमें अष्टकप्रकरण १७१४ पद्य हैं जो निम्न पाँच अधिकारों में विभक्त हैं
इस ग्रन्थ में ८-८ श्लोकों में रचित निम्नलिखित ३२ १. प्रव्रज्याविधि के अन्तर्गत २२८ पद्य हैं । इसमें दीक्षासम्बन्धी प्रकरण हैं - विधि-विधान दिये गए हैं।
(१) महादेवाष्टक, (२) स्नानाष्टक, (३) पूजाष्टक, २. नित्यक्रिया सम्बन्धी अधिकार में ३८१ पद्य हैं । यह (४) अग्निकारिकाष्टक, (५) त्रिविधभिक्षाष्टक, (६) सर्वसम्पमुनिजीवन के दैनन्दिन प्रत्ययों सम्बन्धी विधि-विधान की चर्चा करता है। करिभिक्षाष्टक,(७) प्रच्छन्नभोजाष्टक, (८) प्रत्याख्यानाष्टक, (९) ज्ञानाष्टक,
३. महाव्रतारोपण विधि के अन्तर्गत ३२१ पद्य हैं । इसमें बड़ी (१०) वैराग्याष्टक (११) तपाष्टक, (१२) वादाष्टक, (१३) धर्मवादाष्टक, दीक्षा अर्थात् महाव्रतारोपण विधि का विवेचन हुआ है, साथ ही इसमें (१४) एकान्तनित्यवादखण्डनाष्टक, (१५) एकान्तक्षणिकवाद-खण्डनाष्टक, स्थविरकल्प, जिनकल्प और उनसे सम्बन्धित उपधि आदि के सम्बन्ध में (१६) नित्यानित्यवादपक्षमंडनाष्टक, (१७) मांसभक्षण-दूषणाष्टक, भी विचार किया गया है।
(१८) मांसभक्षणमतदूषणाष्टक (१९) मद्यपानदूषणाष्टक (२०) मैथुनदूषाणाष्टक, चतुर्थ अधिकार में ४३४ गाथाएँ है। इनमें आचार्य-पद स्थापना, (२१) सूक्ष्मबुद्धिपरिक्षणाष्टक, (२२) भावशुद्धिविचाराष्टक, गण-अनुज्ञा, शिष्यों के अध्ययन आदि सम्बन्धी विधि-विधानों की चर्चा (२३) जिनमतमालिन्य निषेधाष्टक, (२४) पुण्यानुबन्धिपुण्याष्टक, करते हुए पूजा-स्तवन आदि सम्बन्धी विधि-विधानों का निर्देश इसमें (२५) पुण्यानुबन्धिपुण्यफलाष्टक, (२६) तिर्थकृतदानाष्टक, मिलता हैं । पञ्चम अधिकार में सल्लेखना सम्बन्धी विधान दिये गए हैं। (२७) दानशंकापरिहाराष्टक, (२८) राज्यादिदानदोषपरिहाराष्टक, इसमें ३५० गाथाएँ है।
(२९) सामायिकाष्टक, (३०) केवलज्ञनाष्टक, (३१) तीर्थंकरदेशनाष्टक, इस कृति की ५५० श्लोक परिमाण शिष्यहिता नामक (३२) मोक्षस्वरूपाष्टक । इन सभी अष्टकों में अपने नाम के अनुरूप स्वोपज्ञ टीका भी मिलती है । वस्तुतः यह ग्रन्थ विशेष रूप से जैन विषयों की चर्चा है। मुनि-आचार से सम्बन्धित है और इस विधा का यह एक आकर ग्रन्थ भी कहा जा सकता है।
धूर्ताख्यान
यह एक व्यंग्यप्रधान रचना है । इसमें वैदिक पुराणों में वर्णित श्रावकप्रज्ञप्ति (सावयपत्ति )
असम्भव और अविश्वसनीय बातों का प्रत्याख्यान पाँच धूर्तों की कथाओं ४०५ प्राकृत गाथाओं में निबद्ध यह रचना श्रावकाचार के के द्वारा किया गया है । लाक्षणिक शैली की यह अद्वितीय रचना है। सम्बन्ध में आचार्य हरिभद्र की एक महत्त्वपूर्ण कृति है। ऐसा माना जाता रामायण, महाभारत और पुराणों में पाई जाने वाली कथाओं की है कि इसके पूर्व आचार्य उमास्वाति ने भी इसी नाम की एक कृति अप्राकृतिक, अवैज्ञानिक, अबौद्धिक मान्यताओं तथा प्रवृत्तियों का कथा
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के माध्यम से निराकरण किया गया है। व्यंग्य और सुझावों के माध्यम से असम्भव और मनगढन्त बातों को त्यागने का संकेत दिया गया है। खड्डपना के चरित्र और बौद्धिक विकास द्वारा नारी को विजय दिलाकर मध्यकालीन नारी के चरित्र को उद्घाटित किया गया है।
ध्यानशतकवृत्ति
पूर्व ऋषिप्रणीत ध्यानशतक ग्रन्थ का गम्भीर विषय- आर्त, रौद्र, धर्म, शुक्ल- इन चार प्रकार के ध्यानों का सुगम विवरण दिया गया है। ध्यान का यह एक अद्वितीय ग्रन्थ है ।
यतिदिनकृत्य
इस ग्रन्थ में मुख्यतया साधु के दैनिक आचार एवं क्रियाओं का वर्णन किया गया है । षडावश्यक के विभिन्न आवश्यकों को साधु को अपने दैनिक जीवन में पालन करना चाहिए, इसकी विशद् विवेचना इस ग्रन्थ में की गयी है ।
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
पञ्चाशक (पंचासग
1
आचार्य हरिभद्रसूरि की यह कृति जैन महाराष्ट्री प्राकृत में रचित है । इसमें उन्नीस पञ्चांशक हैं जिसमें दूसरे में ४४ और सत्तरहवें में ५२ तथा शेष में ५०-५० पद्म है वीरगणि के शिष्य श्री चन्द्रसूरि के शिष्य यशोदेव ने पहले पञ्चाशक पर जैन महाराष्ट्री में वि. सं० १९७२ में एक चूर्णि लिखी थी जिसमें प्रारम्भ में तीन पद्य और अन्त में प्रशस्ति के चार पद्य हैं, शेष ग्रन्थ गद्य में है, जिसमें सम्यक्त्व के प्रकार, उसके यतना, अभियोग और दृष्टान्त के साथ-साथ मनुष्य भव की दुर्लभता आदि अन्यान्य विषयों का निरूपण किया गया है। सामाचारी विषय का अनेक बार उल्लेख हुआ है । मण्डनात्मक शैली में रचित होने के कारण इसमें 'तुलादण्ड न्याय' का उल्लेख भी है आवश्यक चूर्णि के देशविरति में जिस तरह नवपयपयरण में नौ द्वारों का प्रतिपादन है, उसी प्रकार यहाँ पर भी नौ द्वारों का उल्लेख है।
१. श्रावकधर्मविधि
२. जिनदीक्षाविधि
३. चैत्यवन्दनविधि
४. पूजाविधि
५. प्रत्याख्यानविधि
६. स्तवनविधि
७. जिनभवननिर्माणविधि
८. जिनबिम्बप्रतिष्ठाविधि
९. यात्राविधि
१०. उपासकप्रतिमाविधि
पंचाशकों में जैन आचार और विधि-विधान के सम्बन्ध में अनेक गम्भीर प्रश्नों को उपस्थित करके उनके समाधान प्रस्तुत किये
गये हैं। निम्न उन्नीस पंचाशक उपलब्ध होते हैं।
२.
११. साधुधर्मविधि
१२. साधुसामाचारी विधि १३. पिण्डविधानविधि १४. शीलाङ्गविधानविधि १५. आलोचनाविधि
१६. प्रायश्चित्तविधि
१७. कल्पविधि
१८. भिक्षुप्रतिमाकल्पविधि १९. तपविधि
उपरोक्त पंचाशक अपने-अपने विषय को गम्भीरता से किन्तु संक्षेप में प्रस्तुत करते हैं। इन सभी पंचाशकों का मूल प्रतिपाद्य श्रावक एवं मुनि आचार से सम्बन्धित हैं और यह स्पष्ट करते हैं कि जैन परम्परा में श्रावक और मुनि के लिए करणीय विधि-विधानों का स्वरूप उस युग में कैसा था ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य हरिभद्र बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी एक विशिष्ट प्रतिभासम्पन्न आचार्य रहे हैं । उनके द्वारा की गई साहित्य सेवा न केवल जैन साहित्य अपितु सम्पूर्ण भारतीय वाङ्मय में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। हरिभद्र ने जो उदात्त दृष्टि, असाम्प्रदायिक वृत्ति और निर्भयता अपनी कृतियों में प्रदर्शित की है, वैसी उनके पूर्ववर्ती अथवा उत्तरवर्ती किसी भी जैन जैनेतर विद्वान् ने शायद ही प्रदर्शित की हो । उन्होंने अन्य दर्शनों के विवेचन की एक स्वस्थ परम्परा स्थापित की तथा दार्शनिक और योग- परम्परा में विचार एवं वर्तन की जो अभिनव दशा उद्घाटित को वह विशेषकर आज के युग के असाम्प्रदायिक एवं तुलनात्मक ऐतिहासिक अध्ययन के क्षेत्र में अधिक व्यवहार्य है।
सन्दर्भ
१.
३.
४.
५.
६.
७.
आवश्यक टीका की अन्तिम प्रशस्ति में उन्होंने लिखा है"समाप्ता चेयं शिष्यहिता नाम आवश्यकटीका । कृति: सिताम्बराचार्यजिनभट- निगदानुसारिणो विद्याधरकुलतिलकाचार्यजिनदत्तशिष्यस्य धर्मतो याकिनी महत्तरासूनोरल्पमतेराचार्य
हरिभद्रस्य ।
जाइणिमयहरिआए रइया एएउ धम्मपुत्तेण । हरिभद्दायरिएणं भवविरहं
इच्छामाणेण ||
- उपदेशपद की अन्तिम प्रशस्ति
चिरं जीवउ भवविरहसूरि त्ति । कहावली, पत्र ३०१अ
समदर्शी आचार्य हरिभद्र, पं० सुखलालजी, पृ० ४०
षड्दर्शनसमुच्चय, सम्पादक डॉ० महेन्द्रकुमार, प्रस्तावना, पृ० १४।
वही, प्रस्तावना, पृ० १९।
समदर्शी आचार्य हरिभद्र, पृ० ४३ ।
८.
वही, पृ० ४७ ।
९. षड्दर्शनसमुच्चय, सम्पादक डॉ० महेन्द्रकुमार, प्रस्तावना, पृ० १४ । १०. वही, पृ० १९ ।
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समदर्शी आचार्य हरिभद्र
६८७ ११. कर्मणो भौतिकत्वेन यद्वैतदपि साम्प्रतम् ।
- वही, १/४ उत्तरार्ध आत्मनोव्यतिरिक्तं तत् चित्रभावं यतो मतम् ।।
२९. जत्थ य विसय-कसायच्चागो मग्गो हविज्ज णो अण्णो । शक्तिरूपं तदन्ये तु सूरयः सम्प्रचक्षते ।
- वही, १/५ पूर्वार्ध अन्ये तु वासनारूपं विचित्रफलदं मतम् ।।
३०. सेयम्बरो य आसम्बरो य बद्धो य अहव अण्णो वा ।। - शास्त्रवार्तासमुच्चय, ९५-९६
समभावभावि अप्या लहइ मुक्खं न संदेहो ।। १२. समदर्शी आचार्य हरिभद्र, पृ० ५३-५४ ।
- वही, १/३ १३. वही, पृ० ५५ ।
३१. नामाइ चउप्पभेओ भणिओ। - वही, १/५ १४. ततश्चेश्वर कर्तृत्त्ववादोऽयं युल्पते परम् ।
(व्याख्या लेखक की अपनी है । ) सम्यग्न्यायाविरोधेन यथाऽऽहुः शुद्धबुद्धतः।।
३२. तक्काइ जोय करणा खोरं पयउं घयं जहा हुज्जा । ईश्वरः परमात्मैव तदुक्तव्रतसेवनात् ।।
___ -वही, १/७
३३. भावगयं तं मग्गो तस्स विसुद्धीइ हेउणो भणिया। यतो मुक्तिस्ततस्तस्याः कर्ता स्याद्गुणभावतः ।।
- वही, १/११ पूर्वार्द्ध तदनासेवनादेव यत्संसारोऽपि तत्त्वतः ।
३४. तम्मि य पढमे सुद्दे सब्बाणि तयणसाराणि । - वही, १/१० तेने तस्यापि कर्तृत्वं कल्प्यानं न दुष्यति ।।
३५. वही, १/९९-१०४ - शास्त्रवार्तासमुच्चय, २०३-२०५
३६. वही, १/१०८ १५. परमैश्वर्ययुक्तत्वान्मत: आत्मैव चेश्वरः ।
३७. वही, २/१०, १३, ३२, ३३, ३४. स च कति निर्दोषः कर्तवादो व्यवस्थितः ॥
३८. वही, २/३४-३६, ४२, ४६, ४९-५० २/५२, ५६-७४ वही, २०७
८८-९२ १६. प्रकृतिं चापि सत्र्यायात्कर्मप्रकृतिमेव हि ।।
३९. वही, २/२० एवं प्रकृतिवादोऽपि विज्ञेयः सत्य एव हि ।
४०. जह असुइ ठाणंपडिया चंपकमाला न कीरते सीसे । कपिलोक्तत्वतश्चैव दिव्यो हि स महामुनिः ।।
पासस्थाइठाणे वट्टमाणा इह अपुज्जा ।। - वही, २/२२ .
वही, २३२-२३७ ४१. जड चरिउं नो सक्को सद्ध जइलिंग महवपूयट्ठी। १७. अन्ये त्वभिदधत्येवमेतदास्थानिवृत्तये।।
तो गिहिलिंग गिण्हे नो लिंगी पूयणारिहओ ।। क्षणिक सर्वमेवेति बुद्धनोक्तं न तत्त्वतः ।।
___ -वही, १/२७५ विज्ञानमात्रमप्येवं ब्राह्यसंगनिवृत्तये ।
४२. एयारिसाण दुस्सीलयाण साहुपिसायाण मत्ति पूव्वं । विनेयान् कांश्चिदाश्रित्य यद्वा तद्देशनाऽर्हतः ।।
जे वंदणनमंसाइ कुव्वंति न महापावा ? - वही, ४६४-४६५
__-वही, १/११४ १८. अन्ये व्याख्यानयन्त्येवं समभावप्रसिद्धये ।
सुहसीलाओ सच्छंदचारिणो वेरिणो सिवपहस्स । अद्वैतदेशना शास्त्रे निर्दिष्टिा न तु तत्त्वतः ।। वही, ५५०
आणाभट्टाओ बहुजणाओ मा भणह संवृत्ति ।। १९. ज्ञानयोगादतो मुक्तिरिति सम्यग् व्यवस्थितम् ।
देवाइ दव्वभक्खणतप्परा तह उमग्गपक्खकरा । तन्त्रान्तरानुरोधेन गीतं चेत्थं न दोषकृत् ॥ वही, ५७९
साहु जणाणपओसं कारिणं माभणंह संघं ।। २०. यं श्रुत्वा सर्वशास्त्रेषु प्रायस्तत्त्वविनिश्चयः ।
जहम्म अनीई अणायार सेविणो धम्मनीइं पडिकूला। जायते द्वेषशमनः स्वर्गसिद्धिसुखावहः ।। वही, २१.
साहुपभिइ चउरो वि बहुया अवि मा भणह संघं । योगदृष्टिसमुच्चय, ८७ एवं ८८
असंघं संघ जे भणित रागेण अहव दोसेण । २२. शास्त्रवार्तासमुच्चय, २०
छेओ वा मुहत्तं पच्छित्तं जायए तेसिं ।। २३. योगदृष्टिसमुच्चय, ८६-१०१ ।
-वही, १/११९-१२१, १२३ २४. वही, १०७-१०९ ।
४४. गब्भपवेसो वि वरं भद्दवरो नरयवास पासो वि । २५. चित्रा तु देशनैतेषां स्याद् विनेयानुगुण्यतः ।
मा जिण आणा लोवकरे वसणं नाम संघे वे ।। __यस्मादेते महात्मानो भवव्याधिभिषग्वराः॥ - वही,१३४
- वही, २/१३२ २६. यद्वा तत्तन्नायपेक्षा तत्कालादिनियोगतः ।
४५. वही, २/१०३ ऋषिभ्यो देशना चित्रा तन्मूलैषाऽपि तत्त्वतः ।। - वही, १३८
४६. वही, २/१०४ २७. मग्गो मग्गो लोए भणंति, सव्वे मग्गणा रहिया ।
४७. वेसागिहेसु गमणं जहा निसिद्धं सुकुल बहुयाणं । -सम्बोधप्रकरण, १/४ पूर्वार्ध
तह हीणायार जइ जण संग सड्डाण पडिसिद्धं ।। २८. परमप्प मग्गणा जत्थ तम्मग्गो मुक्ख मग्गुति ।।
परं दिट्ठि विसो सप्पो वरं हलाहलं विसं ।
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होणायार अगीयत्थ वयणपसंगं खु णो भदो ॥
वही, श्रावक - धर्माधिकार, २, ३
२/७७-७८
४८. वही, ४९. बाला बंयति एवं वेसो तित्वकराण एसोवि । नमणिज्जो धिद्धि अहो सिरसूलं कस्स पुक्करिमों ॥
५०. वरं वाही वरं मच्चू वरं दारिदसंगमो । वरं अरण्णेवासो य मा कुलीलाण संगमो ॥ होणायारो वि वरं मा कुसीलएण संगमो भद्दं । जम्हा हीणो अप्प नासइ सव्वं हु सील निहिं ॥
वही, २ / ७६
आचार्य हेमचन्द्र भारतीय मनीषारूपी आकाश के एक देदीप्यमान नक्षत्र हैं। विद्योपासक श्वेताम्बर जैन आचार्यों में बहुविध और विपुल साहित्यस्वष्टा के रूप में आचार्य हरिभद्र के बाद यदि कोई महत्त्वपूर्ण नाम है तो वह आचार्य हेमचन्द्र का ही है जिस प्रकार आचार्य हरिभद्र ने विविध भाषाओं में जैन विद्या की विविध विद्याओं पर विपुल साहित्य का सृजन किया था, उसी प्रकार आचार्य हेमचन्द्र ने विविध विद्याओं पर विपुल साहित्य का सृजन किया है। आचार्य हेमचन्द्र गुजरात की विद्वत् परम्परा के प्रतिभाशाली और प्रभावशाली जैन आचार्य है। उनके साहित्य में जो बहुविधता है वह उनके व्यक्तित्व एवं उनके ज्ञान की बहुविधता की परिचायिका है। काव्य, छन्द, व्याकरण, कोश, कथा, दर्शन, अध्यात्म और योग-साधना आदि सभी पक्षों को आचार्य हेमचन्द्र ने अपनी सृजनधर्मिता में समेट लिया है। धर्मसापेक्ष और धर्मनिरपेक्ष दोनों ही प्रकार के साहित्य के सृजन में उनके व्यक्तित्व की समानता का अन्य कोई नहीं मिलता है। जिस मोढ़वणिक जाति ने सम्प्रति युग में गाँधी जैसे महान् व्यक्ति को जन्म दिया उसी मोड़वणिक जाति ने आचार्य हेमचन्द्र को भी जन्म दिया था।
आचार्य हेमचन्द्र का जन्म गुजरात के धन्धुका नगर में श्रेष्ठि चाचिग तथा माता पाहिणी को कुक्षि से ई० सन् १०८८ में हुआ था। जो सूचनाएँ उपलब्ध हैं उनके आधार पर यह माना जाता है कि हेमचन्द्र के पिता शैव और माता जैनधर्म की अनुयायी थीं। आज भी गुजरात की इस मोड़वणिक जाति में वैष्णव और जैन दोनों धर्मों के अनुयायी पाए जाते हैं। अतः हेमचन्द्र के पिता चाचिंग के शैवधर्मावलम्बी और माता पाहिणी के जैनधर्मावलम्बी होने में कोई विरोध नहीं है क्योंकि प्राचीन काल से ही भारतवर्ष में ऐसे अनेक परिवार रहे हैं जिनके सदस्य भिन्न-भिन्न धर्मों के अनुयायी होते थे। सम्भवतः पिता के शैवधर्मावलम्बी और माता के जैनधर्मावलम्बी होने के कारण ही हेमचन्द्र के जीवन
वही, २/१०१-१०२ ५१. विस्तार के लिए देखें सम्बोधप्रकरण गुरुस्वरूपाधिकार। इसमें ३७५ गाथाओं में सुगुरु का स्वरूप वर्णित है। ५२. नो अप्पण पराया गुरुणो कइया वि हुंति सङ्काणं । जिण वयण रयणनिहिणो सव्वे ते वन्निया गुरुणो ॥ -वही, गुरुस्वरूपाधिकर
आचार्य हेमचन्द्र : एक युगपुरुष
५३. लोकतत्त्वनिर्णय, ३२-३३ ५४. योगदृष्टिसमुच्चय १२९ ।
५५. जिनरत्नकोश, हरिदामोदर वेलंकर, भंडारकर आरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीच्यूट, पूना १९४४, पृ० १४४
३
में धार्मिक समन्वयशीलता के बीज अधिक विकसित हो सके। दूसरे शब्दों में धर्मसमन्वय की जीवनदृष्टि तो उन्हें अपने पारिवारिक परिवेश से ही मिली थी।
आचार्य देवचन्द्र जो कि आचार्य हेमचन्द्र के दीक्षागुरु थे, स्वयं भी प्रभावशाली आचार्य थे। उन्होंने बालक चंगदेव (हेमचन्द्र के जन्म का नाम) की प्रतिभा को समझ लिया था, इसलिये उन्होंने उनकी माता से उन्हें बाल्यकाल में ही प्राप्त कर लिया। आचार्य हेमचन्द्र को उनकी अल्प बाल्यावस्था में ही गुरु द्वारा दीक्षा प्रदान कर दी गई और विधिवत रूप से उन्हें धर्म, दर्शन और साहित्य का अध्ययन करवाया गया। वस्तुतः हेमचन्द्र की प्रतिभा और देवचन्द्र के प्रयत्न ने बालक के व्यक्तित्व को एक महनीयता प्रदान की। हेमचन्द्र का व्यक्तित्व भी उनके साहित्य की भाँति बहु-आयामी था। वे कुशल राजनीतिज्ञ, महान् धर्मप्रभावक, लोककल्याणकर्ता एवं अप्रतिम विद्वान् सभी कुछ थे। उनके महान् व्यक्तित्व के सभी पक्षों को उजागर कर पाना तो यहाँ सम्भव नहीं है, फिर भी मैं कुछ महत्त्वपूर्ण पक्षों पर प्रकाश डालने का प्रयत्न अवश्य करूंगा। हेमचन्द्र की धार्मिक सहिष्णुता
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यह सत्य है कि आचार्य हेमचन्द्र की जैनधर्म के प्रति अनन्य निष्ठा थी किन्तु साथ ही वे अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु भी थे। उन्हें यह गुण अपने परिवार से ही विरासत में मिला था। जैसा कि सामान्य विश्वास है, हेमचन्द्र की माता जैन और पिता शैव थे। एक ही परिवार में विभिन्न धर्मों के अनुयायियों की उपस्थिति उस परिवार की सहिष्णुवृत्ति की ही परिचायक होती है। आचार्य की इस कुलगत सहिष्णुवृति को जैनधर्म के अनेकान्तवाद की उदार दृष्टि से और अधिक बल मिला। यद्यपि यह सत्य है कि अन्य जैन आचार्यों के समान हेमचन्द्र ने भी 'अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका' नामक समीक्षात्मक ग्रन्थ लिखा और उसमें अन्य दर्शनों की मान्यताओं की समीक्षा भी की। किन्तु इससे यह अनुमान नहीं लगाना चाहिये कि
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हेमचन्द्र में धार्मिक उदारता नहीं थी। वस्तुत: हेमचन्द्र जिस युग में हुए अन्धविश्वासों का पोषण न हो। इस सन्दर्भ में वे स्पष्ट रूप से कहते हैं थे, वह युग दार्शनिक वाद-विवाद का युग था। अत: हेमचन्द्र की यह कि जिस धर्म में देव या उपास्य रागद्वेष से युक्त हों, धर्मगुरू अब्रह्मचारी विवशता थी कि वे अपनी परम्परा की रक्षा के लिये अन्य दर्शनों की हों और धर्म में करुणा व दया के भावों का अभाव हो, ऐसा धर्म वस्तुतः मान्यताओं का तार्किक समीक्षा कर परपक्ष का खण्डन और स्वपक्ष का अधर्म ही है। उपास्य के सम्बन्ध में हेमचन्द्र को नामों का कोई आग्रह मण्डन करें। किन्तु यदि हेमचन्द्र की ‘महादेवस्तोत्र' आदि रचनाओं एवं नहीं, चाहे वह ब्रह्मा हो, विष्णु हो, शिव हो या जिन, किन्तु उपास्य होने उनके व्यावहारिक जीवन को देखें तो हमें यह मानना होगा कि उनके के लिये वे एक शर्त अवश्य रख देते हैं, वह यह कि उसे राग-द्वेष से जीवन में और व्यवहार में धार्मिक उदारता विद्यमान थी। कुमारपाल के मुक्त होना चाहिये। वे स्वयं कहते हैं कि- . पूर्व वे जयसिंह सिद्धराज के सम्पर्क में थे किन्तु उनके जीवनवृत्त से हमें भवबीजांकुरजननरागद्याक्षयमुपागतास्य। ऐसा कोई संकेत-सूत्र नहीं मिलता कि उन्होंने कभी भी सिद्धराज को ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो वा जिनो वा नमस्तस्मै।।४।।
जैनधर्म का अनुयायी बनाने का प्रयत्न किया हो। मात्र यही नहीं, जयसिंह इसी प्रकार गुरू के सन्दर्भ में भी उनका कहना है कि उसे सिद्धराज के दरबार में रहते हुए भी उन्होंने कभी किसी अन्य परम्परा के ब्रह्मचारी या चरित्रवान होना चाहिये। वे लिखते हैं किविद्वान् की उपेक्षा या अवमानना की हो, ऐसा भी कोई उल्लेख नहीं सर्वाभिलाषिणः सर्व भो जिनः सपरिग्रहः। मिलता। यद्यपि कथानकों में जयसिंह सिद्धराज के दरबार में उनके अब्रह्मचारिणो मिथ्योपदेशाः गुरवो न तु।।५ दिगम्बर जैन आचार्य के साथ हुए वाद-विवाद का उल्लेख अवश्य है अर्थात् जो आकांक्षा से युक्त हो, भोज्याभोज्य के विवेक से रहित परन्तु उसमें भी मुख्य वादी के रूप में हेमचन्द्र न होकर बृहद्गच्छीय हो, परिग्रह सहित और अब्रह्मचारी तथा मिथ्या उपदेश देने वाला हो, वादिदेवसूरि ही थे। यह भी सत्य है कि हेमचन्द्र से प्रभावित होकर वह गुरु नहीं हो सकता। वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि जो हिंसा और कुमारपाल ने जैनधर्मानुयायी बनकर जैनधर्म की प्रर्याप्त प्रभावना की, परिग्रह में आकण्ठ डूबा हो, वह दूसरों को कैसे तार सकता है। जो स्वयं किन्तु कुमारपाल के धर्म-परिवर्तन या उनको जैन बनाने में हेमचन्द्र का दीन हो वह दूसरों को धनाढ्य कैसे बना सकता है।६ अर्थात् चरित्रवान, कितना हाथ था, यह विचारणीय है। वस्तुत: हेमचन्द्र के द्वारा न केवल निष्परिग्रही और ब्रह्मचारी व्यक्ति ही गुरु योग्य हो सकता है। धर्म के स्वरूप कुमारपाल की जीव-रक्षा हुई थी अपितु उसे राज्य भी मिला था। यह तो के सम्बन्ध में भी हेमचन्द्र का दृष्टिकोण स्पष्ट है। वे स्पष्ट रूप से यह आचार्य के प्रति उसकी अत्यधिक निष्ठा ही थी जिसने उसे जैनधर्म की मानते हैं कि जिस साधनामार्ग में दया एवं करुणा का अभाव हो, जो ओर आकर्षित किया। यह भी सत्य है कि हेमचन्द्र ने उसके माध्यम से विषयाकांक्षाओं की पूर्ति को ही जीवन का लक्ष्य मानता हो, जिसमें संयम अहिंसा और नैतिक मूल्यों का प्रसार करवाया और जैनधर्म की प्रभावना का अभाव हो, वह धर्म नहीं हो सकता। हिंसादि से कलुषित धर्म, धर्म भी करवाई किन्तु कभी भी उन्होंने राजा में धार्मिक कट्टरता का बीज नहीं न होकर संसार-परिभ्रमण का कारण ही होता है। बोया। कुमारपाल सम्पूर्ण जीवन में शैवों के प्रति भी उतना ही उदार रहा, इस प्रकार हेमचन्द्र धार्मिक सहिष्णुता को स्वीकार करते हुए जितना वह जैनों के प्रति था। यदि हेमचन्द्र चाहते तो उसे शैवधर्म से भी इतना अवश्य मानते हैं कि धर्म के नाम पर अधर्म का पोषण नहीं पूर्णतः विमुख कर सकते थे, पर उन्होंने कभी ऐसा नहीं किया बल्कि होना चाहिये। उनकी दृष्टि में धर्म का अर्थ कोई विशिष्ट कर्मकाण्ड न होकर उसे सदैव ही शैवधर्मानुयायियों के साथ उदार दृष्टिकोण रखने का आदेश करुणा और लोकमंगल से युक्त सदाचार का सामान्य आदर्श ही है। वे दिया। यदि हेमचन्द्र में धार्मिक संकीर्णता होती तो वे कुमारपाल द्वारा स्पष्टतः कहते हैं कि संयम, शील, और दया से रहित धर्म मनुष्य के सोमनाथ मन्दिर का जीर्णोद्धार करा कर उसकी प्रतिष्ठा में स्वयं भाग क्यों बौद्धिक दिवालियेपन का ही सूचक है। वे आत्म-पीड़ा के साथ उद्घोष लेते? अथवा स्वयं महादेवस्तोत्र की रचना कर राजा के साथ स्वयं करते हैं कि यह बड़े खेद की बात है कि जिसके मूल में क्षमा, शील भी महादेव की स्तुति कैसे कर सकते थे? उनके द्वारा रचित और दया है, ऐसे कल्याणकारी धर्म को छोड़कर मन्दबुद्धि लोग हिंसा महादेवस्तोत्र इस बात का प्रमाण है कि वे धार्मिक उदारता के समर्थक को भी धर्म मानते हैं। थे। स्तोत्र में उन्होंने शिव, महेश्वर, महादेव आदि शब्दों की सुन्दर और इस प्रकार हेमचन्द्र धार्मिक उदारता के कट्टर समर्थक होते हुए सम्प्रदाय निरपेक्ष व्याख्या करते हुए अन्त में यही कहा है कि संसार भी धर्म के नाम पर आयी हुई विकृतियों और चरित्रहीनता की समीक्षा रूपी बीज के अंकुरों को उत्पन्न करने वाले राग और द्वेष जिसके समाप्त करते हैं। हो गए हों उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ, चाहे वे ब्रह्मा हों, विष्णु हों, महादेव हों अथवा जिन हों।३
सर्वधर्मसमभाव क्यों?
हेमचन्द्र की दृष्टि में सर्वधर्मसमभाव की आवश्यकता क्यों धार्मिक सहिष्णुता का अर्थ मिथ्या-विश्वासों का पोषण नहीं है, इसका निर्देश पं० बेचरदासजी ने अपने 'हेमचन्द्राचार्य'९ नामक
यद्यपि हेमचन्द्र धार्मिक सहिष्णुता के समर्थक हैं, फिर भी वे ग्रन्थ में किया है। जयसिंह सिद्धराज की सभा में हेमचन्द्र ने इस सन्दर्भ में सतर्क हैं कि धर्म के नाम पर मिथ्याधारणाओं और सर्वधर्मसमभाव के विषय में जो विचार प्रस्तुत किये थे, वे पं०
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
बेचरदासजी के शब्दों में निम्नलिखित हैं
गुजरात और उसके सीमावर्ती प्रदेश में एक विशेष वातावरण निर्मित कर "हेमचन्द्र कहते हैं कि प्रजा में यदि व्यापक देश-प्रेम और दिया। उस समय के गुजरात की स्थिति का कुछ चित्रण हमें हेमचन्द्र शूरवीरता हो किन्तु यदि धार्मिक उदारता न हो तो देश की जनता खतरे के महावीरचरित में मिलता है। उसमें कहा गया है कि “राजा के हिंसा में ही होगी, यह निश्चित ही समझना चाहिये। धार्मिक उदारता के अभाव और शिकारनिषेध का प्रभाव यहाँ तक हुआ कि असंस्कारी कुलों में जन्म में प्रेम संकुचित हो जाता है और शूरवीरता एक उन्मत्तता का रूप ले लेने वाले व्यक्तियों ने भी खटमल और जूं जैसे सूक्ष्म जीवों की हिंसा लेती है। ऐसे उन्मत्त लोग खून की नदियों को बहाने में भी नहीं चूकते बन्द कर दी। शिकार बन्द हो जाने से जीव-जन्तु जंगलों में उसी निर्भयता
और देश उजाड़ हो जाता है। सोमनाथ के पवित्र देवालय का नष्ट होना से घूमने लगे, जैसे गौशाला में गायें। राज्य में मदिरापान इस प्रकार बन्द इसका ज्वलन्त प्रमाण है। दक्षिण में धर्म के नाम पर जो संघर्ष हुआ उनमें हो गया कि कुम्भारों को मद्यभाण्ड बनाना भी बन्द करना पड़ा। मद्यपान हजारों लोगों की जाने गयीं। यह हवा अब गुजरात की ओर बहने लगी के कारण जो लोग अत्यन्त दरिद्र हो गए थे, वे इसका त्याग कर फिर है किन्तु हमें विचारना चाहिये कि यदि गुजरात में इस धर्मान्धता का प्रवेश से धनी हो गए। सम्पूर्ण राज्य में द्यूतक्रीड़ा का नामोनिशान ही समाप्त हो गया तो हमारी जनता और राज्य को विनष्ट होने में कोई समय नहीं हो गया।"१° इस प्रकार हेमचन्द्र ने अपने प्रभाव का उपयोग कर गुजरात लगेगा। आगे वे पुन: कहते हैं कि जिस प्रकार गुजरात के महाराज्य के में व्यसनमुक्त संस्कारी जीवन की जो क्रान्ति की थी, उसके तत्त्व आज विभिन्न देश अपनी विभिन्न भाषाओं, वेशभूषाओं और व्यवसायों को करते तक गुजरात के जनजीवन में किसी सीमा तक सुरक्षित हैं। वस्तुत: यह हए सभी महाराजा सिद्धराज की आज्ञा के वशीभूत होकर कार्य करते हैं, हेमचन्द्र के व्यक्तित्व की महानता ही थी जिसके परिणामस्वरूप एक उसी प्रकार चाहे हमारे धार्मिक क्रियाकलाप भिन्न हों फिर भी उनमें विवेक- सम्पूर्ण राज्य में संस्कार क्रान्ति हो सकी। दृष्टि रखकर सभी को एक परमात्मा की आज्ञा के अनुकूल रहना चाहिये। इसी में देश और प्रजा का कल्याण है। यदि हम सहिष्णुवृत्ति से न रहकर, स्त्रियों और विधवाओं के संरक्षक हेमचन्द्र धर्म के नाम पर यह विवाद करेंगे कि यह धर्म झूठा है और यह धर्म यद्यपि हेमचन्द्र ने अपने 'योगशास्त्र' में पूर्ववर्ती जैनाचार्यों के सच्चा है, यह धर्म नया है यह धर्म पुराना है, तो हम सबका ही नाश समान ही ब्रह्मचर्य के साधक को अपनी साधना में स्थिर रखने के लिये होगा। आज हम जिस धर्म का आचरण कर रहे हैं, वह कोई शुद्ध धर्म नारी-निन्दा की है। वे कहते हैं कि स्त्रियों में स्वभाव से ही चंचलता, न होकर शद्ध धर्म को प्राप्त करने के लिये योग्यताभेद के आधार पर निर्दयता और कुशीलता के दोष होते हैं। एक बार समुद्र की थाह पायी बनाए गए भिन्न-भिन्न साम्प्रदायिक बंधारण मात्र हैं। हमें यह ध्यान रहे जा सकती है किन्तु स्वभाव से कुटिल, दुश्चरित्र कामिनियों के स्वभाव कि शस्त्रों के आधार पर लड़ा गया युद्ध तो कभी समाप्त हो जाता है, की थाह पाना कठिन है।११ किन्तु इसके आधार पर यह मान लेना कि परन्तु शास्त्रों के आधार पर होने वाले संघर्ष कभी समाप्त नही होते, अत: हेमचन्द्र स्त्री जाति के मात्र आलोचक थे; गलत होगा। हेमचन्द्र ने नारी धर्म के नाम पर अहिंसा आदि पाँच व्रतों का पालन हो, सन्तों का समागम जाति की प्रतिष्ठा और कल्याण के लिये जो महत्त्वपूर्ण कार्य किया उसके हो, ब्राह्मण, श्रमण और माता-पिता की सेवा हो, यदि जीवन में हम कारण वे युगों तक याद किये जायेंगे। उन्होंने कुमारपाल को उपदेश देकर इतना ही पा सकें तो हमारी बहुत बड़ी उपलब्धि होगी।"
विधवा और निस्सन्तान स्त्रितयों की सम्पत्ति को राज्यसात किये जाने की हेमचन्द्र की चर्चा में धार्मिक उदारता और अनुदारता के स्वरूप क्रूर-प्रथा को सम्पूर्ण राज्य में सदैव के लिये बन्द करवाया और इस माध्यम और उनके परिणामों का जो महत्त्वपूर्ण उल्लेख है वह आज भी उतना से न केवल नारी-जाति को सम्पत्ति का अधिकार दिलवाया, १२ अपितु ही प्रासंगिक है जितना कि कभी हेमचन्द्र के समय में रहा होगा। उनकी सामाजिक जीवन में प्रतिष्ठा भी की और अनेकानेक विधवाओं को
संकटमय जीवन से उबार दिया। अत: हम कह सकते हैं कि हेमचन्द्र हेमचन्द्र और गुजरात की सदाचार-क्रान्ति
ने नारी को उसकी खोई हई प्रतिष्ठा प्रदान की। हेमचन्द्र ने सिद्धराज और कुमारपाल को अपने प्रभाव में लेकर गुजरात में जो महान् सदाचार क्रान्ति की, वह उनके जीवन की एक प्रजारक्षक हेमचन्द्र महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है और जिससे आज तक भी गुजरात का जनजीवन हेमचन्द्र की दृष्टि में राजा का सबसे महत्त्वपूर्ण कर्तव्य अपनी प्रभावित है। हेमचन्द्र ने अपने प्रभाव का उपयोग जनसाधारण को अहिंसा प्रजा के सुख-दुःख का ध्यान रखना है। हेमचन्द्र राजगुरु होकर
और सदाचार की ओर प्रेरित करने के लिए किया। कुमारपाल को प्रभावित जनसाधारण के निकट सम्पर्क में थे। एक समय वे अपने किसी अति कर उन्होंने इस बात का विशेष प्रयत्न किया कि जनसाधारण में से निर्धन भक्त के यहाँ भिक्षार्थ गए और वहाँ से सूखी रोटी और मोटा खरदुरा हिंसकवृत्ति और कुसंस्कार समाप्त हों। उन्होंने शिकार और पशु बलि के कपड़ा भिक्षा में प्राप्त किया। वही मोटी रोटी खाकर और मोटा वस्त्र धारण निषेध के साथ-साथ मद्यपान निषेध, द्यूतक्रीड़ा-निषेध के आदेश भी राजा कर वे राजदरबार में पहुँचे। कुमारपाल ने जब उन्हें अन्यमनस्क, मोटा से पारित कराये। आचार्य ने न केवल इस सम्बन्ध में राज्यादेश निकलवाए, कपड़ा पहने दरबार में देखा, तो जिज्ञासा प्रकट की, कि मुझसे क्या कोई अपितु जन-जन को राज्यादेशों के पालन हेतु प्रेरित भी किया और सम्पूर्ण गलती हो गई है? आचार्य हेमचन्द्र ने कहा-"हम तो मुनि हैं, हमारे लिये
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आचार्य हेमचन्द्र : एक युगपुरुष
तो सुखी रोटी और मोटा कपड़ा ही उचित है। किन्तु जिस राजा के राज्य में प्रजा को इतना कष्टमय जीवन बिताना होता है, वह राजा अपने प्रजाधर्म का पालक तो नहीं कहा जा सकता। ऐसा राजा नरकेसरी होने के स्थान पर नरकेश्वरी ही होता है। एक ओर अपार स्वर्ण राशि और दूसरी ओर तन ढकने का कपड़ा और खाने के लिये सूखी रोटी का अभाव, यह राजा के लिये उचित नहीं है।" कहा जाता है कि हेमचन्द्र के इस उपदेश से प्रभावित हो राजा ने आदेश दिया कि नगर में जो भी अत्यन्त गरीब लोग है, उनको राज्य की ओर से वस्त्र और खाद्य सामग्री प्रदान की जाये। १३
इस प्रकार हम देखते हैं कि हेमचन्द्र यद्यपि स्वयं एक मुनि का जीवन जीते थे किन्तु लोकमंगल और लोकल्याण के लिये तथा निर्धन जनता के कष्ट दूर करने के लिये वे सदा तत्पर रहते थे और इसके लिये राजदरबार में भी अपने प्रभाव का प्रयोग करते थे।
समाजशास्त्री हेमचन्द्र
स्वयं मुनि होते हुए भी हेमचन्द्र पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन की सुव्यवस्था के लिये सजग थे। वे एक ऐसे आचार्य थे जो जनसाधारण के सामाजिक जीवन के उत्थान को भी धर्माचार्य का आवश्यक कर्त्तव्य मानते थे। उनकी दृष्टि में धार्मिक होने की आवश्यक शर्त यह भी थी कि व्यक्ति एक सभ्य समाज के सदस्य के रूप में जीना सीखे। एक अच्छा नागरिक होना धार्मिक जीवन में प्रवेश करने की आवश्यक भूमिका है। अपने ग्रन्थ 'योगशास्त्र' में उन्होंने स्पष्ट रूप से यह उल्लेख किया है कि श्रावकधर्म का अनुसरण करने के पूर्व व्यक्ति एक अच्छे नागरिक का जीवन जीना सीखे। उन्होंने ऐसे ३५ गुणों का निर्देश किया है जिनका पालन एक अच्छे नागरिक के लिये आवश्यक रूप से वांछनीय है। वे लिखते हैं कि "१. न्यायपूर्वक धन-सम्पत्ति को अर्जित करने वाला २ सामान्य शिष्टाचार का पालन करने वाला, ३. समान कुल और शील वाली अन्य गोत्र की कन्या से विवाह करने वाला, ४. पापभीरु, ५. प्रसिद्ध देशाचार का पालन करने वाला, ६. निन्दा का त्यागी, ७. ऐसे मकान में निवास करने वाला जो न तो अधिक खुला हो न अति गुप्त, ८. सदाचारी व्यक्तियों के सत्संग में रहने वाला, ९. माता-पिता की सेवा करने वाला, १०. अशान्त तथा उपद्रव युक्त सत्संग स्थान को त्याग देने वाला, ११. निन्दनीय कार्य में प्रवृत्ति न करने वाला, १२. आय के अनुसार व्यय करने वाला, १३. सामाजिक प्रतिष्ठा एवं समृद्धि के अनुसार वस्त्र धारण करने वाला, १४. बुद्धि के आठ गुणों से युक्त, १५. सदैव धर्मोपदेश का श्रवण करने वाला, १६. अजीर्ण के समय भोजन का त्याग करने वाला, १७. भोजन के अवसर पर स्वास्थ्यप्रद भोजन करने वाला, १८. धर्म, अर्थ और काम इन तीनों वर्गों का परस्पर विरोध-रहित भाव से सेवन करने वाला, १९. यथाशक्ति अतिथि, साधु एवं दीन-दुःखियों को सेवा करने वाला, २० मिथ्या आग्रहों से सदा दूर रहने वाला २१. गुणों का पक्षपाती, २२ निषिद्ध देशाचार और कालाचार का त्यागी, २३. अपने बलाबल का सम्यक् ज्ञान
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करने वाला और अपने बलाबल का विचार कर कार्य करने वाला, २४. व्रत, नियम में स्थिर, ज्ञानी एवं वृद्ध जनों का पूजक, २५. अपने आश्रितों का पालन-पोषण करने वाला २६. दीर्घदर्शी, २७ विशेषज्ञ, २८. कृतज्ञ, २९. लोकप्रिय ३० लज्जावान, ३१. दयालु, ३२. शान्तस्वभावी, ३३. परोपकार करने में तत्पर, ३४. कामक्रोधादि अन्तरंग शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने वाला और ३५. अपनी इन्द्रियों को वश में रखने वाला व्यक्ति हो गृहस्थ धर्म के पालन करने योग्य है। .. १४
वस्तुतः इस समग्र चर्चा में आचार्य हेमचन्द्र ने एक योग्य नागरिक के सारे कर्त्तव्यों और दायित्वों का संकेत कर दिया है और इस प्रकार एक ऐसी जीवनशैली का निर्देश किया है जिसके आधार पर सामंजस्य और शान्तिपूर्ण समाज का निर्माण किया जा सकता है। इससे यह भी फलित होता है कि आचार्य हेमचन्द्र सामाजिक और पारिवारिक जीवन की उपेक्षा करके नहीं चलते, वरन् वे उसे उतना ही महत्त्व देते हैं जितना आवश्यक है और वे यह भी मानते हैं कि धार्मिक होने के लिये एक अच्छा नागरिक होना आवश्यक है।
हेमचन्द्र की साहित्य साधना १५
हेमचन्द्र ने गुजरात को और भारतीय संस्कृति को जो महत्त्वपूर्ण अवदान दिया है, वह मुख्यरूप से उनकी साहित्यिक प्रतिभा के कारण ही है। इन्होंने अपनी साहित्यिक प्रतिभा के बल पर ही विविध विद्याओं में ग्रन्थ की रचना की। जहाँ एक ओर उन्होंने अभिधान - चिन्तामणि, अनेकार्थसंग्रह, निघंटुकोष और देशीनाममाला जैसे शब्दकोषों की रचना की, वहीं दूसरी ओर सिद्धहेम शब्दानुशासन, लिङ्गानुशासन, धातुपारायण जैसे व्याकरण ग्रन्थ भी रचे कोश और व्याकरण ग्रन्थों के अतिरिक्त हेमचन्द्र ने काव्यानुशासन जैसे अलंकार ग्रन्थ और छन्दोनुशासन जैसे छन्दशास्त्र के ग्रन्थ की रचना भी की। विशेषता यह है कि इन सैद्धान्तिक ग्रन्थों में उन्होंने संस्कृत भाषा के साथ-साथ प्राकृत और अपभ्रंश के उपेक्षित व्याकरण की भी चर्चा की। इन सिद्धान्तों के प्रायोगिक पक्ष के लिये उन्होंने संस्कृत प्राकृत में द्वयाश्रय जैसे महाकाव्य की रचना की है। हेमचन्द्र मात्र साहित्य के ही विद्वान् नहीं थे अपितु धर्म और दर्शन के क्षेत्र में भी उनकी गति निर्बाध थी। दर्शन के क्षेत्र में उन्होंने अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका, अयोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका और प्रमाणमीमांसा जैसे प्रौड़ ग्रन्थ रचे तो धर्म के क्षेत्र में योगशास्त्र जैसे साधनाप्रधान ग्रन्थ की भी रचना की। कथा साहित्य में उनके द्वारा रचित त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित का अपना विशिष्ट महत्व है। हेमचन्द्र ने साहित्य, काव्य, धर्म और दर्शन जिस किसी विधा को अपनाया, उसे एक पूर्णता प्रदान की। उनकी इस विपुल साहित्यसर्जना का ही परिणाम था कि उन्हें कलिकालसर्वज्ञ की उपाधि प्रदान की गयी।
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साहित्य के क्षेत्र में हेमचन्द्र के अवदान को समझने के लिये उनके द्वारा रचित ग्रन्थों का किंचित् मूल्यांकन करना होगा। यद्यपि हेमचन्द्र के पूर्व व्याकरण के क्षेत्र में पाणिनीय व्याकरण का अपना महत्त्व था, उस पर अनेक वृत्तियाँ और भाष्य लिखे गए, फिर भी वह विद्यार्थियों के
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
लिये दुर्बोध ही था। व्याकरण के अध्ययन की नई, सहज एवं बोधगम्य जाने के उद्देश्य का पता चला तो, न केवल वे पाटण से प्रस्थान कर प्रणाली को जन्म देने का श्रेय हेमचन्द्र को है। वह हेमचन्द्र का ही प्रभाव गए अपितु उन्होंने अपने शिष्य को अध्यात्म साधना से विमुख हो था कि परवर्तीकाल में ब्राह्मण परम्परा में इसी पद्धति को आधार बनाकर लोकैषणा में पड़ने का उलाहना भी दिया और कहा कि लौकिक प्रतिष्ठा ग्रन्थ लिये गए और पाणिनि के अष्टाध्यायी की प्रणाली पठन-पाठन से अर्जित करने की अपेक्षा पारलौकिक प्रतिष्ठा के लिये भी कुछ प्रयत्न करो। धीरे-धीरे उपेक्षित हो गयी। हेमचन्द्र के व्याकरण की एक विशेषता तो जैनधर्म की ऐसी प्रभावना भी जिसके कारण तुम्हारा अपना आध्यात्मिक यह है कि आचार्य ने स्वयं उसकी वृत्ति में कतिपय शिक्षा-सूत्रों को उद्धृत विकास ही कुंठित हो जाय तुम्हारे लिये किस काम की? कहा जाता है किया है। उनके व्याकरण की दूसरी विशेषता यह है कि उनमें संस्कृत कि गुरु के इस उलाहने से हेमचन्द्र को अपनी मिथ्या महत्त्वाकांक्षा का के साथ-साथ प्राकृत के व्याकरण भी दिये गए हैं। व्याकरण के समान बोध हुआ और वे अन्तर्मुख हो अध्यात्म साधना की ओर प्रेरित हुए।१६ ही उनके कोशग्रन्थ, काव्यानुशासन और छन्दानुशासन जैसे साहित्यिक वे यह विचार करने लगे कि मैंने लोकैषणा में पड़कर न केवल अपने सिद्धान्त-ग्रन्थ भी अपना महत्त्व रखते हैं। त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित और आपको साधना से विमुख किया अपितु गुरु की साधना में भी विघ्न डाला। परिशिष्ट पर्व के रूप में उन्होंने जैनधर्म की पौराणिक और ऐतिहासिक पश्चाताप की यह पीड़ा हेमचन्द्र की आत्मा को बराबर कचोटती रही जो सामग्री का जो संकलन किया है, वह भी निश्चय ही महत्त्वपूर्ण है। यहाँ इस तथ्य की सूचक है कि हेमचन्द्र मात्र साहित्यकार या राजगुरु ही नहीं उनकी योग शास्त्र, प्रमाणमीमांसा आदि सभी कृतियों का मूल्यांकन सम्भव थे अपितु आध्यात्मिक साधक भी थे। नहीं है, किन्तु परवर्ती साहित्यकारों द्वारा किया गया उनका अनुकरण इस वस्तुत: हेमचन्द्र का व्यक्तित्व इतना व्यापक और महान है कि बात को सिद्ध करता है कि उनकी प्रतिभा से न केवल उनका शिष्यमण्डल उसे समग्रत: शब्दों की सीमा में बाँध पाना सम्भव नहीं है। मात्र यही नहीं, अपितु परवर्ती जैन या जैनेतर विद्वान् भी प्रभावित हुए। मुनि श्री उस युग में रहकर उन्होंने जो कुछ सोचा और कहा था वह आज भी पुण्यविजयजी ने हेमचन्द्र की समग्र कृतियों का जो श्लोक-परिमाण दिया प्रासंगिक है। काश! हम उनके महान् व्यक्तित्व से प्रेरणा लेकर हिंसा, है, उससे पता लगता है कि उन्होंने दो लाख श्लोक-परिमाण साहित्य वैमनस्य और संघर्ष की वर्तमान त्रासदी से भारत को बचा सकते। की रचना की है जो उनकी सृजनधर्मिता के महत्त्व को स्पष्ट करती है। साधक हेमचन्द्र
सन्दर्भ हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि एक महान् साहित्यकार और १. हेमचन्द्राचार्य (पं० बेचरदास जीवराज दोशी), पृ० १२३. प्रभावशाली राजगुरु होते हुए भी मूलत: हेमचन्द्र एक आध्यात्मिक साधक २. आचार्य हेमचन्द्र (वि० भा० मुसलगांवकर), पृ० १९१. थे। यद्यपि हेमचन्द्र का अधिकांश जीवन साहित्य-सृजन के साथ-साथ ३. देखें : महादेवस्तोत्र (आत्मानन्द सभा, भावनगर), पृ० १-१६ गुजरात में जैनधर्म के प्रचार-प्रसार तथा वहाँ की राजनीति में अपने प्रभाव महादेवस्तोत्र, पृ० ४४. को यथावत् बनाये रखने में बीता, किन्तु कालान्तर में गुरु से उलाहना योगशास्त्र, २/९. पाकरहेमचन्द्र की प्रसुप्त अध्यात्मनिष्ठा पुन: जाग्रत् हो गई थी। कुमारपाल ६. वही, २/१०. ने जब हेमचन्द्र से अपनी कीर्ति को अमर करने का उपाय पूछा तो उन्होंने ७. वही, २/१३. दो उपाय बताए- १. सोमनाथ के मन्दिर का जीर्णोद्वार और २. समस्त ८. वही, १/४०. देश को ऋणमुक्त करके विक्रमादित्य के समान अपना संवत् चलाना। ९. हेमचन्द्राचार्य, पृ० ५३-५६. कुमारपाल को दूसरा उपाय अधिक उपयुक्त लगा किन्तु समस्त देश को १०. देखें : महावीरचरित्र (हेमचन्द्र), ६५-७५ (कुमारपाल के सम्बन्ध ऋणमुक्त करने के लिये जितने धन की आवश्यकता थी, उतना उसके में महावीर की भविष्यवाणी). पास नहीं था, अत: उसने गुरु हेमचन्द्र से धन-प्राप्ति का उपाय पूछा। ११. योगशास्त्र, २/८४-८५. इस समस्या के समाधान हेतु यह उपाय सोचा गया कि हेमचन्द्र के गुरु १२. हेमचन्द्राचार्य, पृ० ७७. देवचन्द्रसूरि को पाटन बुल वाया जाए और उन्हें जो स्वर्णसिद्धि विद्या प्राप्त १३. वही, पृ० १०१-१०४. है उसके द्वारा अपार स्वर्णराशि प्राप्त करके समस्त प्रजा को ऋणमुक्त १४. योगशास्त्र, १/४७-५६. किया जाए। राजा, अपने प्रिय शिष्य हेमचन्द्र और पाटन के श्रावकों के १५. देखें : आचार्य हेमचन्द्र (वि०भा० मुसलगांवकर), अध्याय ७. आग्रह पर देवचन्द्रसूरि पाटण आए किन्तु जब उन्हें अपने पाटण बुलाए १६. हेमचन्द्राचार्य, पृ० १३-१७८.
५. वागा
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जटासिंहनन्दि का वराङ्गचरित और उसकी परम्परा
जटासिंहनन्दि और उनके वराङ्गचरित के दिगम्बर परम्परा से फिर भी सर्वप्रथम पुत्राटसंघीय जिनसेन के द्वारा जटासिंहनन्दि का भिन्न यापनीय अथवा कूर्चक संघ से सम्बन्धित होने के कुछ प्रमाण आदरपूर्वक उल्लेख यह बताता है कि वे सम्भवत: यापनीय परम्परा से उपलब्ध होते हैं । यद्यपि श्रीमती कुसुम पटोरिया के अनुसार वराङ्गचरित सम्बन्धित रहे हों। क्योंकि पुन्नाटसंघ का विकास यापनीय पुन्नागवृक्ष में ऐसा कोई भी अन्तरङ्ग साक्ष्य उपलब्ध नहीं है जिससे जटासिंहनन्दि मूलगण से ही हुआ है ।१५ पुनः श्वेताम्बर आचार्य उद्योतनसूरि ने यापनीय
और उनके ग्रन्थ को यापनीय कहा जा सके, किन्तु मेरी दृष्टि में श्रीमती आचार्य रविषेण और उनके ग्रन्थ पद्मचरित के साथ-साथ जटासिंहनन्दि कुसुम पटोरिया का यह कथन समुचित नहीं है । सम्भवत: उन्होंने मूल के वराङ्ग-चरित का उल्लेख किया है । इससे ऐसी कल्पना की जा ग्रन्थ को देखने का प्रयत्न ही नहीं किया और द्वितीयक स्रोतों से उपलब्ध सकती है कि दोनों एक ही परम्परा के और समकालिक रहे होंगे। पुनः सूचनाओं के आधार पर ऐसा मानस बना लिया।
श्वेताम्बर और यापनीय में एक-दूसरे के ग्रन्थों के अध्ययन की परम्परा ___ मैंने यथासम्भव मूल ग्रन्थ को देखने का प्रयास किया है और रही है । यापनीय आचार्य प्राचीन श्वेताम्बर आचार्यों के ग्रन्थों को पढ़ते उसमें मुझे ऐसे अनेक तत्त्व मिले हैं जिनके आधार पर वराङ्गचरित और थे। जटासिंहनन्दि के द्वारा प्रकीर्णकों, आवश्यकनियुक्ति तथा सिद्धसेन उसके कर्ता जटिल मुनि या जटासिंहनन्दि को दिगम्बर परम्परा से इतर के सन्मति तर्क और विमलसूरि के पउमचरिय का अनुसरण यही यापनीय अथवा कूर्चक परम्परा से सम्बद्ध माना जा सकता है । इस बताता है कि वे यापनीय सम्प्रदाय से सम्बन्धित रहे होंगे । क्योंकि विवेचन में सर्वप्रथम तो मैं श्रीमती कुसुम पटोरिया के द्वारा प्रस्तुत उन यापनीयों द्वारा इन ग्रन्थों का अध्ययन-अध्यापन एवं अनुसरण किया बाह्य साक्ष्यों की चर्चा करूंगा जिनके आधार पर जटासिंहनन्दि के जाता था, इसके अनेक प्रमाण दिए जा सकते हैं । यह हो सकता है यापनीय होने की संभावना को पुष्ट किया जाता है । उसके पश्चात् मूल कि जटासिंहनन्दि यापनीय न होकर कूर्चक सम्प्रदाय से सम्बन्धित रहे ग्रन्थ में मुझे दिगम्बर मान्यताओं से भिन्न जो तथ्य उपलब्ध हुए हैं, उनकी हों और यह कूर्चक सम्प्रदाय भी यापनीयों की भांति श्वेताम्बरों के अति चर्चा करके यह दिखाने का प्रयत्न करूंगा कि जटासिंहनन्दि यापनीय निकट रहा हो । यद्यपि इस सम्बन्ध में विस्तृत गवेषणा अभी अपेक्षित अथवा कूर्चक परम्परा में से किसी एक से सम्बद्ध रहे होंगे। है।
जटासिंहनन्दि यापनीय संघ से सम्बन्धित थे या कूर्चक संघ २. जटासिंहनन्दि यापनीय परम्परा से सम्बद्ध रहे हैं, इस से सम्बन्धित थे, इस सम्बन्ध में तो अभी और भी सूक्ष्म अध्ययन की सम्बन्ध में जो बाह्य साक्ष्य उपलब्ध हैं उनमें प्रथम यह है कि कन्नड़ कवि आवश्यकता है किन्तु इतना निश्चित है कि वे दिगम्बर परम्परा से भिन्न जन्न ने जटासिंहनन्दि को 'काणूरगण' का बताया है। अनेक अभिलेखों अन्य किसी परम्परा से सम्बन्धित हैं क्योंकि उनकी अनेक मान्यताएं से यह सिद्ध होता है कि यह काणूरगण प्रारम्भ में यापनीय परम्परा का वर्तमान दिगम्बर परम्परा के विरोध में जाती हैं । आइए, इन तथ्यों की एक गण था । इस गण का सर्वप्रथम उल्लेख सौदंती के ई० सन् समीक्षा करें -
दसवीं शती (९८८) के एक अभिलेख में मिलता है । इस अभिलेख १. जिनसेन प्रथम (पुत्राटसंघीय) ने अपने हरिवंशपुराण (ई० में गण के साथ यापनीय संघ का भी स्पष्ट निर्देष है ।१६ यह सम्भव सन् ७८३) में, जिनसेन द्वितीय (पंचस्तूपान्वयी) ने अपने आदि पुराण है कि इस गण का अस्तित्व इसके पूर्व सातवीं-आठवीं सदी में भी रहा में, उद्योतनसूरि (श्वे० आचार्य) ने अपनी कुवलयमाला (ई०सन् ७७८) हो । डॉ० उपाध्ये जन्न के इस अभिलेख को शंका की दृष्टि से देखते में, राचमल्ल ने अपने कन्नड़ गद्य ग्रन्थ त्रिषष्ठिशलाकापुरुष (ई० सन् हैं। उनकी इस शंका के दो कारण हैं- एक तो यह कि गणों की उत्पत्ति ९७४-८४) में, धवल कवि ने अपभ्रंश भाषा में रचित अपने हरिवंश और इतिहास के विषय में पर्याप्त जानकारी का अभाव है, दूसरे में, जटिलमुनि अथवा उनके वरांगचरित का उल्लेख किया है। इनके जटासिंहनन्दि जन के समकालीन भी नहीं हैं।७। यह सत्य है कि दोनों अतिरिक्त भी पम्प ने अपने आदि पुराण (ई० सन् ९४१) में, नयनसेन में लगभग पांच सौ वर्ष का अन्तराल है किन्तु मात्र कालभेद के कारण ने अपने धर्मामृत (ई० सन् १११२) में और पार्श्वपंडित ने पार्श्वपुराण जन्न का कथन भ्रांत हो, हम डॉ० उपाध्ये के इस मन्तव्य से सहमत (ई० सन् १२०५) में, जन्न ने अपने अनन्तनाथ पुराण (ई० सन् नहीं हैं । यह ठीक है कि यापनीय परम्परा के काणूर आदि कुछ गणों १२०९) में,° गुणवर्ग द्वितीय ने अपने पुष्पदंतपुराण (ई० सन् १२३०)१९ का उल्लेख आगे चलकर मूलसंघ और कुन्दकुन्दान्वय के साथ भी में, कमल भवन ने शांतिनाथ पुराण (ई० सन् १२३३)२२ में और हुआ है किन्तु इससे उनका मूल में यापनीय होना अप्रमाणित नहीं हो महाबल कवि ने अपने नेमिनाथ पुराण (ई० सन् १२५४) में,१३ जाता। काणूरगण के ही १२वीं शताब्दी तक के अभिलेखों में यापनीय जटासिंहनन्दि का उल्लेख किया है।
संघ के उल्लेख उपलब्ध होते है (देखें- जैन शिलालेख संग्रह, भाग इन सभी उल्लेखों से यह ज्ञात होता है कि जटासिंहनन्दि ५, लेख क्रमांक १-७) । इसके अतिरिक्त स्वयं डॉ० उपाध्ये ने १२ वीं यापनीय, श्वेताम्बर और दिगम्बर तीनों ही परम्पराओं में मान्य रहे हैं। शताब्दी के पूर्वार्द्ध के कुछ शिलालेखों में काणूरगण के सिंहनन्दि के
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
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उल्लेख को स्वीकार किया है।९। यद्यपि इन लेखों में काणूरगण के इन सम्बद्ध नहीं रहे हैं । यदि वे पाँचवी शती के पश्चात् हुए हैं तो निश्चित ही सिंहनन्दि को कहीं मूलसंघ और कहीं कुन्दकुन्दान्वय का बताया गया है। श्वेताम्बर हैं और यदि उसके पूर्व हुए हैं तो अधिक से अधिक श्वेताम्बर और लेकिन स्मरण रखना होगा कि यह लेख उस समय का है जब यापनीय यापनीय परम्परा की पूर्वज उत्तरभारतीय निर्ग्रन्थ धारा से सम्बद्ध रहे हैं। गण भी अपने को मूलसंघ से जोड़ने लगे थे। पुन: इन लेखों में सिंहनन्दि उनके 'सन्मति तर्क' में क्रमवाद के साथ-साथ युगपवाद की समीक्षा, का काणूरगण के आधाचार्य के रूप में उल्लेख है । उनकी परम्परा में आगमिक परम्परा का अनुसरण, कृति का महाराष्ट्री प्राकृत में होना आदि प्रभाचन्द्र, गुणचन्द्र, माघनन्दि, प्रभाचन्द्र, अनन्तवीर्य, मुनिचन्द्र, प्रभाचंद तथ्य इस संभावना को पुष्ट करते हैं । वराङ्गचरित के २६ वें सर्ग के अनेक आदि का उल्लेख है- यह लेख तो बहुत समय पश्चात् लिखा गया है । पुनः श्लोक 'सन्मति तर्क' के प्रथम और तृतीय काण्ड की गाथाओं का संस्कृत इन लेखों में भी प्रारम्भ में जटासिंहनन्दि आचार्य का उल्लेख है, वहां न तो रूपांतरण मात्र लगते हैं - मूलसंघ का उल्लेख है और न कुन्दकुन्दान्वय का । वहां मात्र काणूरगण का देखें - उल्लेख है। यह काणूरगण प्रारम्भ में यापनीय गण था । अत: सिद्ध है कि वराङ्गचरित सन्मति तर्क वराङ्गचरित सन्मति तर्क जटासिंहनन्दि काणूरगण के आधाचार्य रहे होंगे । इन शिलालेखों में २६/५२ १/६
२६/६५ १/५२ सिंहनन्दि को गंग वंश का समुद्धारक कहा गया है। यदि गंग वंश का प्रारम्भ २६/५३
२६/६९ ३/४७ ई० सन् चतुर्थ शती माना जाता है तो गंगवंश के संस्थापक सिंहनन्दि २६/५४ १/११ २६/७०
३/५४ जटासिंहनन्दि से भिन्न होने चाहिए । पुन: काणूरगण का अस्तित्व भी ई० ।
२६/५५ १/१२ २६/७१ ३/५५ सन् की ७ वीं-८ वीं शती के पूर्व ज्ञात नहीं होता है । सम्भावना यही है २६/५७ १/१७ २६/७२ कि जटासिंहनन्दि काणूरगण के आद्याचार्य रहे हों और उनका गंग वंश पर २६/५८ १/१८ २६/७८ अधिक प्रभाव रहा हो । अत: आगे चलकर उन्हें गंगवंश का उद्धारक मान २६/६०
१२२१ २६/९०
३/६९ लिया गया हो तथा गंगवंश के उद्धार की कथा उनसे जोड़ दी गई हो। २६/६१ १/२५ २६/९९ ३/६७
३. जन्न ने अनन्तनाथ पुराण में न केवल जटासिंहनन्दि का २६/६२ १/२३-२४ २६/१०० ३/६८ उल्लेख किया है अपितु उनके साथ-साथ ही काणूरगण के इन्द्रनन्दि आचार्य २६/६३ १/२५ का भी उल्लेख किया है । हम छेदपिण्ड शास्त्र की परम्परा की चर्चा करते २६/६४ समय अनेक प्रमाणों से यह सिद्ध कर चुके हैं कि जटासिंहनन्दि के वराङ्गचरितकार जटासिंहनन्दि द्वारा सिद्धसेन का यह अनुसरण समकालीन या उनसे किंचित् परवर्ती ये इन्द्रनन्दि रहे हैं जिनका उल्लेख इस बात का सूचक है कि वे सिद्धसेन से निकट रूप से जुड़े हुए हैं। शाकटायन आदि अनेक यापनीय आचार्यों ने किया है। जन्न ने जटासिंहनन्दि सिद्धसेन का प्रभाव श्वेताम्बरों के साथ-साथ यापनीयों और यापनीयों के और इन्द्रनन्दि दोनों को काणूरगण का बताया है । इससे उनके कथन में कारण पुन्नाटसंघीय आचार्यों एवं पंचस्तूपान्वय के आचार्यों पर भी देखा अविश्वसनीयता जैसी कोई बात नहीं लगती है।
जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि जटासिंहनन्दि उस यापनीय अथवा ४. कोप्पल में उपलब्ध (पुरानी कन्नड़ में) एक लेख भी उपलब्ध कूर्चक परम्परा से सम्बन्धित रहे होंगे जो अनेक बातों में श्वेताम्बरों की होता है जिसके अनुसार जटासिंहनन्दि के चरण-चिह्नों को चाव्वय ने आगमिक परम्परा के निकट थी। यदि सिद्धसेन श्वेताम्बर और यापनीयों बनवाया था२२ । इससे यह सिद्ध होता है कि जटासिंहनन्दि का समाधिमरण के पूर्वज आचार्य हैं तो यापनीय आचार्यों के द्वारा उनका अनुसरण संभव सम्भवत: कोप्पल में हुआ हो । पुन: डॉ० उपाध्ये ने गणभेद नामक है। अप्रकाशित कन्नड़ ग्रंथ के आधार पर यह भी मान लिया है कि कोप्पल या ७. वराङ्गचिरत में, अनेक संदर्भो में आगमों, प्रकीर्णकों एवं कोपन यापनीयों की मुख्य पीठ थी२३ । अत: कोप्पल/कोपन से सम्बन्धित नियुक्तियों का अनुसरण किया गया है। सर्वप्रथम तो उसमें कहा गया होने के कारण जटासिंहनन्दि के यापनीय होने की सम्भावना अधिक प्रबल है - “वराङ्गमुनि ने अल्पकाल में ही आचारांग और अनेक प्रकीर्णकों का प्रतीत होती है।
सम्यक् अध्ययन करके क्रमपूर्वक अंगों एवं पूर्वो का अध्ययन किया२५। ५. यापनीय परम्परा में मुनि के लिए 'यति' का प्रयोग अधिक इस प्रसंग में प्रकीर्णकों का उल्लेख महत्त्वपूर्ण है । विषयवस्तु की दृष्टि प्रचलित रहा है । यापनीय आचार्य पाल्यकीर्ति शाकटायन को 'यतिग्रामाग्रणी' से तो इसके अनेक सर्गों में आगमों का अनुसरण देखा जाता है। विशेष कहा गया है । हम देखते हैं कि जटासिंहनन्दि के इस वराङ्गचरित में भी रूप से स्वर्ग, नरक, कर्मसिद्धांत आदि सम्बन्धी विवरण में उत्तराध्ययन मुनि के लिए यति शब्द का प्रयोग बहुतायत से हुआ है । ग्रन्थकार सूत्र का अनुसरण हुआ है । जटासिंहनन्दि ने चतुर्थ सर्ग में जो कर्म की यह प्रवृत्ति उसके यापनीय होने का संकेत करती है।
सिद्धांत का विवरण दिया है उसके अनेक श्लोक अपने प्राकृत रूप में ६. वराङ्गचरित में सिद्धसेन के “सन्मति तर्क" का बहुत उत्तराध्ययन के तीसवें कर्म प्रकृति नामक अध्ययन में यथावत् मिलते हैं - अधिक अनुसरण देखा जाता है। अनेक आधारों से यह सिद्ध होता है कि उत्तराध्ययन
वराङ्गचरित सन्मति तर्क के कर्ता सिद्धसेन किसी भी स्थिति में दिगम्बर परम्परा-से
३०/२-३
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जटासिंहनन्दि का वराङ्गचरित और उसकी परम्परा
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३०/५-६ ४/२४-२५
ये तीन गाथाएं आतुरप्रत्याख्यान से सीधे वराङ्गचरित में गईं ३०/८-९ ४/२५-२६-२७
या मूलाचार के माध्यम से वराङ्गचरित में गई यह एक अलग प्रश्न है। ३०/१०-११ ४/२८-२९
मूलाचार यापनीय ग्रन्थ है। अत: यदि ये गाथाएं मूलाचार से भी ली गई ३०/१२
४/३३ (आंशिक) हों तो भी जटासिंहनन्दि और उनके ग्रन्थ वराङ्गचरित के यापनीय होने की ३०/१३ ४/३५ (आंशिक)
ही पुष्टि होती है । यद्यपि कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में भी ये गाथाएं पायी जाती ३०/१५ ४/३७
हैं, किन्तु इतना निश्चित है कि कुन्दकुन्द ने भी ये गाथाएं मूलचार से ही यद्यपि सम्पूर्ण विवरण की दृष्टि से वराङ्गचरित का कर्म सिद्धान्त
ली होंगी । और पुन: मूलाचार में आतुरप्रत्याख्यान की ली गई सभी सम्बन्धी विवरण उत्तराध्ययन की अपेक्षा विकसित प्रतीत होता है । इसी
गाथायें समाहित कर ली गई हैं, अतः अन्ततोगत्वा तो ये गाथायें आतर प्रकार की समानता स्वर्ग-नरक के विवरण में देखी जाती है। उत्तराध्ययन
ली में ३६ वें अध्ययन की गाथा क्रमांक २०४ से २१६ तक वराङ्गचरित के
आवश्यकनियुक्ति की भी निम्न दो गाथाएं वराङ्गचरित में नवें सर्ग के श्लोक १-१२ तक किंचित् शाब्दिक परिवर्तन के साथ संस्कृत रूप में पायी जाती हैं। आश्चर्य की बात यह है कि जटासिंहनन्दि भी आगमों
हयं नाणं कियाहीणं, हया अन्नाणओ किया । के अनुरूप बारह देवलोकों की चर्चा करते हैं।
पासंतो पंगुलो दड्डो घावमाणो अ अंघओ ।।१।। इसी प्रकार प्रकीर्णक साहित्य की भी अनेक गाथाएँ वराङ्गचरित में अपने संस्कृत रूपांतरण के साथ पायी जाती हैं । देखें -
संयोगसिद्धिइ फलं वयंति, न हु एकचक्केण रहो पयाइ ।
अंघो य पंगूय वणे समिच्चा, ते संपउत्ता नगरं पविट्ठा ।।२।। दंसणभट्ठो भट्ठो, न हु भट्ठो होइ चरणपब्मट्ठो । दसणमणुपत्तस्स उ परियडणं नत्थि संसारे ।।६५ ।।।
तुलनीय - दसणभट्ठो भट्ठो, दंसणभट्ठस्स नत्थि निव्वाणं ।।
क्रियाहीनं च यज्ज्ञानं न तु सिद्धिं प्रयच्छति । सिज्झंति चरणरहिया, दंसणरहिया न सिझंति ।।६६।।
परिश्यन्यथा पंगु मुग्धो दग्धो दवाग्निना ।।९९।। - भक्तपरिज्ञा।
तौ यथा संप्रयुक्तौ तु दवाग्निमधिगच्छतः । तुलनीय .
तथा ज्ञानचरित्राभ्यां संसारान्मुच्यते पुमान् ।।१०१।। दर्शनाद्मष्ट एवानुभ्रष्ट इत्यभिधीयते ।
-वराङ्गगचरित, सर्ग २६ न हि चारित्रविभ्रष्टो भ्रष्ट इत्युच्यते बुधैः ।।१६।।
आगम, प्रकीर्णक और नियुक्ति साहित्य का यह अनुसरण महता तपसा युक्तो मिथ्यावृष्टिरसंयतः ।
जटासिंहनन्दि और उनके ग्रंथ को दिगम्बरेतर यापनीय या कूर्चक तस्य सर्वज्ञसंदृष्ट्या संसारोऽनन्त उच्यते ।।९७।। सम्प्रदाय का सिद्ध करता है। -वराङ्गचरित, सर्ग २६
८. जटासिंहनन्दि ने न केवल सिद्धसेन का अनुसरण किया है इसी प्रकार वराङ्गचरित के निम्न श्लोक आतुर प्रत्याख्यान में पाए अपितु उन्होंने विमलसूरि के पउमचरिय का भी अनुसरण किया है । चाहे जाते हैं।
यह अनुसरण उन्होंने सीधे रूप से किया हो या रविषेण के पद्मचरित के एकस्तु में शाश्वतिकः स आत्मा सदृष्टिसज्ज्ञानगुणैरूपेतः । माध्यम से किया हो किन्तु इतना सत्य है कि उन पर यह प्रभाव आया शेषाश्च में बाहातमाश्च भावाः संयोगसल्लक्षणलक्षितास्ते ।।१०१।। है । वराङ्गचरित में श्रावक के व्रतों की जो विवेचना उपलब्ध होती है वह संयोगतो दोषमवाप जीवः परस्परं नैकविधानुबन्धि । न तो पूर्णतः श्वेताम्बर परम्परा के उपासकदशा के निकट है और न तस्माद्विसंयोगमतो दुरन्तमाजीवितांतादहमुत्सृजामि ॥१०२ पूर्णत: दिगम्बर परम्परा द्वारा मान्य तत्त्वार्थ के पूज्यपाद् देवनन्दी के सर्वेषु भूतेषु मनः समं मे वैरं न मे केनचिदस्ति किंचित् । सर्वार्थसिद्धि के मूलपाठ के निकट है । अपितु वह विमलसूरि के आशां पुनः क्लेशसहस्त्रमूलां हित्वा समाधि लघु संप्रपद्ये ।।१०३॥ पउपचरिय के निकट है । पउमचरिय के समान ही इसमें भी देशावकासिक
- वराङ्गचरित, सर्ग ३१ । व्रत का अन्तर्भाव दिव्रत में मानकर उस रिक्त स्थान की पूर्ति के लिए तुलनीय
सलेखना को बारहवाँ शिक्षाव्रत माना गया है। कुन्दकुन्द ने भी इस एगो मे सासओ अप्या नाण-दसणसंजुओ। परम्परा का अनुसरण किया है। किन्तु कुन्दकुन्द विमलसूरि से तो सेसा मे बहिरा भावा सव्ये संजोगलक्खणा ।।२७॥ निश्चित ही परवर्ती हैं और सम्भवतः जटासिंहनन्दि से भी । अत: उनके संजोगमूला जीवेणं पत्त दुक्खपरंपरा ।
द्वारा किया गया यह अनुसरण अस्वाभाविक भी नहीं है । स्मरण रहे कि तम्हा संजोगसम्बन्ध सव्वं भावेण वोसिरे ।।२८।।
कुन्दकुन्द ने त्रस-स्थावर के वर्गीकरण, चतुर्विध मोक्षमार्ग आदि के सम्बन्ध सम्मं मै सव्वभूएस वे मज्झ न केणई ।
में भी आगमिक परम्परा का अनुसरण किया है। स्पष्ट है कि विमलसरि आसाओ वोसिरित्साणं समाहिं पडिवज्जए ।।२२।। के पउमचरिय का अनुसरण रविषेण, स्वयंभू आदि अनेक यापनीय
- आतुर प्रत्याख्यान आचार्यों ने किया है। अत: जटासिंहनन्दि के यापनीय होने की संभावना
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ प्रबल प्रतीत होती है।
मात्र एक बार दिगम्बर शब्द का प्रयोग मिला है। समान्यतया 'विशीर्णवस्त्रा' ९. जटासिंहनन्दि ने वराङ्गचरित के नवें सर्ग में कल्पवासी देवों शब्द का प्रयोग हुआ है । एक स्थल पर अवश्य मुनियों को निरस्त्रभूषा' के प्रकारों का जो विवरण प्रस्तुत किया है वह दिगम्बर परम्परा से भिन्न कहा गया है किन्तु निरस्त्रभूषा का अर्थ साज-सज्जा से रहित होता है, है। वैमानिक देवों के भेद को लेकर श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में नग्न नहीं। - ये कुछ ऐसे तथ्य हैं जिन पर वराङ्गचरित की परम्परा का स्पष्ट रूप से मतभेद है । जहाँ श्वेताम्बर परम्परा वैमानिक देवों में १२ निर्धारण करते समय गम्भीरता से विचार किया जाना चाहिए । मैं चाहूंगा विभाग मानती है वहाँ दिगम्बर परम्परा उनके१६ विभाग मानती है । इस कि आगे आने वाले विद्वान् सम्पूर्ण ग्रन्थ गम्भीरतापूर्वक आलोडन करके संदर्भ में जटासिंहनन्दि स्पष्ट रूप से श्वेताम्बर या आगमिक परम्परा के इस समस्या पर विचार करें। निकट हैं । वे नवें सर्ग के द्वितीय श्लोक में स्पष्ट रूप से यह कहते साध्वियों के प्रसंग में चर्चा करते समय उन्हें जीर्ण-शीर्ण वस्त्रों हैं कि कल्पवासी देवों के बारह भेद हैं। पुन: इसी सर्ग के सातवें श्लोक को धारण करने वाली अथवा विशीर्ण वस्त्रों से आवृत्त देह वाली कहा से नवें श्लोक तक उत्तराध्ययन सूत्र के समान उन १२ देवलोकों के नाम गया है। इससे भी यह सिद्ध होता है कि वराङ्गचरितकार जटासिंहनन्दि भी गिनाते हैं। यहाँ वे स्पष्ट रूप से न केवल दिगम्बर परम्परा से भिन्न को स्त्री दीक्षा और सवस्त्र दीक्षा मान्य थी । जबकि कुन्दकुन्द स्त्री दीक्षा होते हैं बल्कि किसी सीमा तक यापनीयों से भिन्न प्रतीत होते हैं । यद्यपि का सर्वथा निषेध करते है। स्मरण रखना होगा कि यापनीयों में प्रारम्भ में आगमों का अनुसरण करते ११. वराङ्गचरित में स्त्रियों की दीक्षा का स्पष्ट उल्लेख है। हुए १२ भेद मानने की प्रवृत्ति रही होगी किन्तु बाद में दिगम्बर परम्परा उसमें कहीं भी ऐसा उल्लेख नहीं है कि स्त्री को उपचार से महाव्रत होते या अन्य किसी प्रभाव से उनमें १६ भेद मानने की परम्परा विकसित हुई हैं जैसा कि दिगम्बर परम्परा मानती है । इस ग्रन्थ में उन्हें तपोधना, होगी। तत्त्वार्थसूत्र के सर्वार्थसिद्धि मान्य-पाठ में तथा तिलोयपण्णत्ति में अमित-प्रभावी, गणाग्रणी, संयमनायिका जैसे सम्मानित पदों से अभिहित इन दोनों ही परम्पराओं के बीज देखे जाते हैं । तत्त्वार्थसूत्र का सर्वार्थसिद्धि किया गया है। साध्वी वर्ग के प्रति ऐसा आदरभाव कोई श्वेताम्बर या मान्य यापनीय पाठ जहां देवों के प्रकारों की चर्चा करता है वहां वह १२ यापनीय आचार्य ही प्रस्तुत कर सकता है । अत: इतना निश्चित है कि का निर्देश करता है किन्तु जहाँ वह उनके नामों का विवरण प्रस्तुत जटासिंहनन्दि का वराङ्गचरित कुन्दकुन्द की उस दिगम्बर परम्परा का करता है तो वहां १६ नाम प्रस्तुत करता है। यतिवृषभ की तिलोयपण्णत्ति ग्रन्थ नहीं हो सकता जो स्त्रियों की दीक्षा का निषेध करती हो या उनके में भी १२ और १६ दोनों प्रकार की मान्यताएं होने के स्पष्ट उल्लेख उपचार से ही महाव्रत कहे गये हैं, ऐसा मानती हो । कुन्दकुन्द ने पाये जाते हैं। इससे स्पष्ट लगता है कि प्रारम्भ में आगमिक मान्यता सूत्रप्राभृत गाथा क्रमांक २५ में एवं लिङ्गप्राभृत गाथा क्रमांक २० में स्त्री का अनुसरण करते हुए यापनीयों में और यदि जटासिंहनन्दि कूर्चक हैं दीक्षा का स्पष्ट निषेध किया है। तो कूर्चकों में भी कल्पवासी देवों के १२ प्रकार मानने की परम्परा रही १२. वराङ्गचरित में श्रमणों और आर्यिकाओं को वस्त्रदान की होगी। आगे यापनीयों में १६ देवलोकों की मान्यता किसी अन्य परम्परा चर्चा है । यह तथ्य दिगम्बर परम्परा के विपरीत है। उसमें लिखा है कि के प्रभाव से आयी होगी।
“वह नृपति मुनि पुङ्गवों को आहारदान, श्रमणों और आर्यिकाओं को वस्त्र १०. वराङ्गचरित में वरांगकुमार की दीक्षा का विवरण देते हुए और अन्नदान तथा दरिद्रों को याचित दान (किमिच्छदानं ) देकर कृतार्थ लिखा गया है कि -'श्रमण और आर्यिकाओं के समीप जाकर तथा उनका हुआ।" यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि मूल श्लोक में जहाँ मुनि विनयोपचार (वन्दन) करके वैराग्ययुक्त वरांगकुमार ने एकांत में जा पुङ्गवों के लिए आहारदान का उल्लेख किया गया है वहाँ श्रमण और सुन्दर आभूषणों का त्याग किया तथा गुण, शील, तप एवं प्रबुद्ध तत्त्व आर्यिकाओं के लिए वस्त्र और अन्न (आहार) के दान का प्रयोग हुआ है। रूपी सम्यक् श्रेष्ठ आभूषण तथा श्वेत शुभ्र वस्त्रों को ग्रहण करके वे संभवत: यहाँ अचेल मुनियों के लिए ही 'मुनिपुङ्गव' शब्द का प्रयोग जिनेन्द्र द्वारा प्रतिपादित मार्ग में अग्रसर हुए। दीक्षित होते समय मात्र हुआ है और सचेल मुनिके लिए 'श्रमण' । भगवती आराधना एवं उसकी आभूषणों का त्याग करना तथा श्वेत शुभ्र वस्त्रों को ग्रहण करना दिगम्बर अपराजित टीका से यह स्पष्ट है कि यापनीय परम्परा में अपवाद मार्ग परम्परा के विरोध में जाता है। इससे ऐसा लगता है कि जटासिंहनन्दि में मुनि के लिए वस्त्र-पात्र ग्रहण करने का निर्देश है। दिगम्बर परम्परा से भिन्न किसी अन्य परम्परा का अनुसरण करने वाले वस्त्रादि के संदर्भ में उपरोक्त सभी तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुए थे। यापनीयों में अपवाद मार्ग में दीक्षित होते समय राजा आदि का नग्न यह कहा जा सकता है कि जटासिंहनन्दि और उनका वराङ्गचरित भी होना आवश्यक नहीं माना गया था । चूंकि वरांगकुमार राजा थे अत: सम्भव यापनीय/कूर्चक परम्परा से सम्बद्ध रहा है। है कि उन्हें सवस्त्र ही दीक्षित होते दिखाया गया हो । यापनीय ग्रन्थ भगवती १३. वर्ण-व्यवस्था के सन्दर्भ में भी वराङ्गचरित के कर्ता जटासिंहनन्दि आराधना एवं उसकी अपराजिता टीका में हमें निर्देश मिलते हैं कि राजा का दृष्टिकोण आगमिक धारा के अनुरूप अति उदार है । उन्होंने वराङ्गचरित आदि कुलीन पुरुषों के दीक्षित होते समय या संथारा ग्रहण करते समय के पच्चीसवें सर्ग में जन्मना आधार पर वर्ण व्यवस्था का स्पष्ट निषेध किया अपवाद लिंग (सवस्त्र) रख सकते हैं। पुन: वराङ्गचरित में हमें मुनि की है। वे कहते हैं कि वर्ण व्यवस्था कर्म-विशेष के आधार पर ही निश्चित होती चर्या के प्रसंग में हेमन्त काल में शीत-परिषह सहते समय मुनि के लिए है इससे अन्य रूप में नहीं। जातिमात्र से कोई विप्र नहीं होता, अपितु
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ज्ञान, शील आदि से ब्राह्मण होता है। ज्ञान से रहित ब्राह्मण भी निकृष्ट है किन्तु ज्ञानी शूद्र भी वेदाध्ययन कर सकता है । व्यास, वसिष्ठ, कमठ, कण्ठ, द्रोण, पराशर आदि ने अपनी साधना और सदाचार से ही ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया था। इस प्रकार हम देखते हैं कि वर्णव्यवस्था के संदर्भ में वराङ्गचरितकार का दृष्टिकोण उत्तराध्ययन आदि आगमिक धारा के निकट है। पुनः इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि जटासिंहनन्दि उस दिगम्बर परम्परा के नहीं हैं तो शूद्र जल-त्याग और शूद्रमुक्ति-निषेध करती है। इससे जटासिंहनन्दि और उनके ग्रन्थ वराङ्गचरित के यापनीय अथवा कूर्चक होने की पुष्टि होती है ।
संदर्भ
१. यापनीय और उनका साहित्य; डॉ० कुसुम पटोरिया पृ०, १५७
१५८ ।
२. वरांगनेय सर्वांगैर्वराङ्गचरितार्थवाक् ।
कस्य नोत्पादयेद्गाढमनुरागं स्वगोचरम् ।।
५.
जटासिंहनन्दि का वराङ्गचरित और उसकी परम्परा
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३. काव्यानुचिन्तने यस्य जटाः प्रचलवृत्तयः । अर्थास्मानुवदन्तीव जटाचार्यः स नोऽवतात् ॥
आदि पुराण (जिनसेन), १/५० ४. जेहिं कए रमणिज्जे वरंग-पउमाण चरियवित्थारे । कह व ण सलाहणिज्जे ते कइणो जडिय - रविसेणो ॥
हरिवंशपुराण (जिनसेन), १/३४-३५
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- कुवलयमाला, ऐदनय श्रोतृवॅवों जटासिंहनंद्याचार्यर वृत्तं उद्धृत वराङ्गचरित, भूमिका, पृ० ११
६. मुणिमहसेणु सुलोयणु जेण पउमचरिउ मुणिरविसेणेण । जिणसेणेण हरिवंसु पवित्तु जडिलमुणिणा वरंगचतित्तु ॥ हरिवंश, उद्धृत वराङ्गचरित, भूमिका, पृ० १० ७. आर्यनुत- गृध्रपिंछा -चार्य जटाचार्य विश्रुतश्रुतकीर्त्याचार्य । पुरस्सरमप्पा-चार्य परम्परयँ कुडुग भव्योत्सवमं ॥ - आदिपुराण, १/१२
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८. वर्यलोकोत्तमर्भाविसुवॉडनधनत्युन्नतकॉडकुंदाचार्यचरित्ररत्नाकररधिकगुणर्सज्जटासिंहनंद्याचार्य श्रीकूर्चिभट्टारकरुदितयशर्मिक्कपेपिगॅ लोकाश्चर्यर्निष्कर्मरॅम्मं पारॅमाडि गँ संसारकांतारदिंदं ॥
धर्मामृत, १ / १३ ९. विदिरपोदर तॉलॅयॅनॅ तू गिदाडाबिदिजिनमुनिप - जटाचार्यर धैर्यद् पँपु गेल्दुदु पसर्गदलुर्केयेननिसि नँगेदुमिर्गे सोगयिसिदं । पार्श्वपुराण, १/१४ १०. वंद्यर् जटासिंहणंद्याचार्यादींद्रणद्याचार्यादिरमुनिपराकाणूर्णणंद्यपृथिवियॉलगॅल्लं ॥ - अनन्तनाथ पुराण, १/१७ ११. नडॅवलियोल् तन्नं समं बडँदारुं नडदरिल्ल गडमतेर्देषु । डियं नडेदुवो पदलिके यॅडेंग जटासिंहणंदि मुनिपुंगवना ।।
६९७
पार्श्व पुष्पदंत- पुराण, १/२९ १२. कार्यविदर्हद्वल्याचार्यजटासिंहनंदिनामोद्दामाचार्यवरगृध्रपिंछाचार्यर चरणारविंदवृंदस्तोत्रं ।।
शांतिनाथपुराण, १/१९
१३. धैर्यपरगृध्र पिंछाचार्यर जटासिंहनंदि जगतीख्याताचार्यर प्रभावमत्याश्चर्यमदं पागलूवडब्जजजंगमसाध्यं ॥ - नेमिनाथपुराण, १/१४ १४. हरिवशं (जिनसेन), १/३५
१५. जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय, प्रो० सागरमल जैन १६............यापनीय संघ प्रतीतकण्डूर्गणाविध
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जैन शिलालेख संग्रह, भाग २, लेख क्रमांक, १६० १७. वराङ्गचरित, भूमिका (अंग्रेजी), पृ०, १६ १८. जैन शिलालेख संग्रह, भाग-२, लेख क्रमांक २६७, २७७,२९९
-
१९. वही भाग - २, लेखक्रमांक, २६७, २७१, २९९
(ज्ञातव्य है कि काणूरगण को मूलसंघ, कुन्दकुन्दान्वय और मेष
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पाषाण गच्छ से जोड़ने वाले ये लेख न केवल परवर्ती हैं अपितु इनमें एकरूपता भी नहीं है ।)
२०. वराङ्गचरित, सं. ए० एन० उपाध्ये, भूमिका (अंग्रेजी), पृ० १६ पर उद्धृत- वंद्यर्जटासिंहणद्याचार्यदींद्रांद्याचार्यादि मुनि परा काणूर्णणं................. |
-अन्नतनाथ पुराण, १/१७ २१. जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय, प्रो० सागरमल जैन, पृ०१४५ १४६ ।
२२. वराङ्गचरित, सं० ए० एन उपाध्ये, भूमिका (अंग्रेजी), पृ०१७ | २३. यापनीय पर कुछ और प्रकाश, ए० एन० उपाध्ये, अनेकांत, वीर निर्वाण विशेषांक, १९७५ ।
२४. तीणां (३/७), यतीन्द्र (३/४३), यतिपतिना (५/११३), यति (५ / ११४), यतिना (८/६८), वीरचर्या यतयो- बभूवुः (३०/ ६१), यतिप्रति (३० / ९९), यति: (३१/२१) । २५. आचारमादौ समधीत्य धीमान्प्रकीर्णकाध्यायमनेकभेदम् । अङ्गानि पूर्वांश्च यथानुपूर्व्यामल्यैरहोभिः सममध्यगीष्ट ॥ - वराङ्गचरित, ३१/१८ २६. स्थूलामहिंसामपि सत्यवाक्यमचोरतादाररतिव्रतं च । भोगोपभोगार्थपरिप्रमाणमन्वर्थदिग्देशनिवृत्तितां च ॥ सामायिकं प्रोषधपात्रदानं सल्लेखनां जीवितसंशये च । गृहस्थधर्मस्य हि सार एषः संक्षेपतस्तेऽभिनिगद्यते स्म ॥ - वही, २२ / २९-३०
तुलनीय : पञ्च य अणुव्वयाई. तिण्णेव गुणव्वयाइ भणियाई । सिक्खावयाणि एत्तो, चत्तारि जिणोवइट्ठाणि ॥। ११२ ।। थूलयरं पाणिवहं, मूसावायं अदत्तदाणं च । परजुवईण निवित्ती, संतोसवयं च पञ्चमयं ॥ ११३॥ दिसिविदिसाण य नियमो, अणत्थदण्डस्थ वज्जणं चेव । उवभोगपरीमाणं, तिण्णेव गुणव्वया ऐए ।। ११४।।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ सामाइयं च उववासपोसहो अति हिंसविभागो य ।
३३. आवसधे वा अप्पाउग्गे जो वा मट्टिओ हिरिमं । अन्तेसमाहिमरणं, सिक्खासु वयाइं चत्तारि ।।११५।।
मिच्छजणे सजणे वा तस्स होज्ज अववादियं लिंगं ।।७८।।
- पउमचरिय, उद्देशक १४। आगे इसकी टीका देखें- 'अपवादिकलिंग'-सलेच लिंग' भगवती २७. पंचेवणुव्वायाइं गुणव्वयाई हवंति तह तिण्णि ।
आराधना यानी अपराजित टीका, पृ० ११४ सिक्खावय चत्तारि य संजमचरणं च सायारं ।।
३४. हेमन्तकाले धृतिबद्धकक्षा दिगम्बरा ह्यभ्रवकाशयोगाः ।। थूले तसकायवहे थूले मोसे अदत्तथूले य ।
- वराङ्गचरित, ३०/३२ परिहरो परमहिला परिग्गहारंभ परिमाणं ।।
३५. निरस्तभूषाः कृतकेशलोचा: । -वही, ३०/२ दिसिविदिसिमाण पढम अणत्थदंडस्स वज्जणं विदियं । ३६. विशीर्णवस्त्रावृतगात्रयष्टयस्ता: काष्ठमात्रप्रतिमा बभूवुः । भोगोपभोगपरिमा, इयमेव गुणव्वया तिण्णि ।
- वही, ३१/१३ सामाइयं च पढमं विदियं च तहेव पोसहं भणियं ।
३७. (अ) इत्थीसु ण पावया भणिया- सूत्रप्राभृत, २५ तइयं च अतिहिपुज्जं चउत्थ सल्लेहणा अंते ।।
(ब) दंसणणांण चरित्ते महिलावग्गम्मि देहि वि वीसट्ठो। - चरित्तपाहुड, गाथा २३-२६ पासत्थ वि हु णियट्ठो भाव विणट्ठो ण सो समणो । २८. दश प्रकारा भवनाधिपानां ते व्यन्तरास्त्वष्टविधा भवन्ति ।
- लिंगपाहुड, २० ज्योतिर्गणाश्चापि दशार्धभेदा द्विषट्प्रकाराः खलु कल्पवासाः ।। ३८. (अ) नरेन्द्रपत्न्यः श्रुतिशीलभूषा .......प्रतिपन्नदीक्षास्तदा बभूवुः
- वराङ्गचरित, ९/२ परिपूर्णकामाः ॥३१/१।। दीक्षाधिराज्यश्रियमभ्युपेता ....॥३१/२।। २९. सीधर्मकल्पः प्रथमोपदिष्ट ऐशानकल्पश्च पुनर्द्वितीयः ।
(ब) नरवरवनिता मिच्य साध्वीशमुपययुः स्वपुराणि भूमिपालाः ॥२९/९९॥ सनत्कुमारो द्युतिमांस्तृतीयो माहेन्द्रकल्पश्च चतुर्थ उक्तः ।।
(स) व्रतानि शीलान्यमृतोपमानि ........३१/४।। ब्राह्यं पुनः पञ्चममाहुरास्तेि लान्तवं षष्ठमुदाहरन्ति ।
(द) महेन्द्रपत्न्यः श्रमणत्वमाप्य ...........॥३१/११३।। स सप्तमः शुक्र इति प्ररुढः कल्प: सहस्रार इतोइष्टमस्तु ।। ३९. तपोधनानाममितप्रभावा गणाग्रणी संयमनायका सा । यमानतं तन्त्रवमं वदन्ति स प्राणतो यो दशमस्तु वर्ण्यः ।
-वराङ्गचरित, ३१/६ एकादशं त्वारणमामनन्ति तमारणं द्वादशमच्युतान्तम् ।। ४०. आहारदानं मुनिपुङ्गवेभ्यो, वस्त्रान्नदानं श्रमणार्यिकाभ्यः ।
- वराङ्गचरित, ९/७-८-९ किमिच्छदानं खलु दुर्गतेभ्यो दत्वाकृतार्थों नृपतिर्बभूव ।। ३०. दशाष्टपञ्चद्वादशविकल्पा: कल्पोपपन्नपर्यन्ताः ।
___ -वही, २३/९२ -तत्त्वार्थसूत्र (विवेचक- पं० फूलचंद्रशास्त्री) ४/३, पृ० ११८ ४१. (अ) ..... आपवादिक लिंग सचेललिंग ..... । देखें - ४/१९ में १६ कल्पों का निर्देश है ।
- भगवती आराधना, टीका, पृ० ११४ ३१. वारस कप्पा केई केई सोलस वदंति आइरिया ।।११५॥
(ब) चत्तारिजणां भत्तं उवकप्पेति .........। सोहम्मीसाणसणक्कुमारमाहिंदबम्हलंतवया।
चत्तारिजणा रक्खन्ति दवियमवकप्पियं तयं तेहिं । महसुक्कसहस्सारा आणदपाणदयआरणच्चुदया ॥१२०।।
-भगवती आराधना, ६६१ एवं ६६३ - तिलोयपण्णत्ती, आठवां अधिकार । ४२. क्रियाविशेषाद्रव्यवहारमात्राद्दयाभिरक्षाकृषिशिल्पभेदात् । ३२. ततो हि गत्वा श्रमणार्जिकानां समीपमभ्येत्य कृतापचारा: । शिष्टाश्च वर्णाश्चतुरो वदन्ति न चान्यथा वर्णचतुष्टयं स्यात् ।। विविक्तदेशे विगतानुरागा जहुर्वराङ्गयों वर भूषणानि ।।९३॥
- वराङ्गचरित, २५/११ गुणांश्च शीलानि तपांसि चैव प्रबुद्धतत्त्वाः सितशुभ्रवस्त्राः। ४३. ज्ञानं च न ब्रह्म यतो निकृष्टः शूद्राऽपि वेदाध्ययनं करोति ।।४२।। संगृह्य सम्यावरभूषणानि जिनेन्द्रमार्गाभिरता बभूवः ।।९४।। विद्याक्रियाचारुगुणैः प्रहीणो न जातिमात्रेण भवेत्स विप्रः। - वराङ्गचरित २९,९३,९४ ज्ञानेन शीलेन गुणेन युक्तं तं ब्राह्मणं ब्रह्मविदो वदन्ति ॥४३।।
व्यासो वसिष्ठः कमठश्च कण्ठः शक्त्युद् द्रोणपराशरौ च । आचारवन्तस्तपसाभियुक्ता ब्रह्मत्वमायुः प्रतिसंपदाभिः ।।४४।।
- वही, सर्ग २५ ।
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जैनधर्म में तीर्थ की अवधारणा
समग्र भारतीय परम्पराओं में 'तीर्थ' की अवधारणा को महत्त्व- द्रव्यतीर्थ तो मात्र बाह्यमल अर्थात् शरीर की शुद्धि करते हैं अथवा वे पूर्ण स्थान प्राप्त है फिर भी जैन परम्परा में तीर्थ को जो महत्त्व दिया केवल नदी, समुद्र आदि के पार पहुँचाते हैं, अत: वे वास्तविक तीर्थ गया है वह विशिष्ट ही है, क्योंकि उसमें धर्म को ही तीर्थ कहा गया है नहीं हैं । वास्तविक तीर्थ तो वह है जो जीव को संसार-समुद्र से उस और धर्म-प्रवर्तक तथा उपासना एवं साधना के आदर्श को तीर्थङ्कर कहा पार मोक्षरूपी तट पर पहुंचाता है। विशेषावश्यकभाष्य में न केवल गया है। अन्य धर्म परम्पराओं में जो स्थान ईश्वर का है, वही जैन परम्परा लौकिक तीर्थस्थलों (द्रव्यतीर्थ)की अपेक्षा आध्यात्मिक तीर्थ (भावतीर्थ) में तीर्थङ्कर को । वह धर्मरूपी तीर्थ का संस्थापक माना जाता है । दूसरे का महत्त्व बताया गया है, अपितु नदियों के जल में स्नान और उसका शब्दों में जो तीर्थ अर्थात् धर्म-मार्ग की स्थापना करता है, वही तीर्थङ्कर पान अथवा उनमें अवगाहन मात्र से संसार से मुक्ति मान लेने की धारणा है। इस प्रकार जैनधर्म में तीर्थ एवं तीर्थङ्कर की अवधारणाएँ परस्पर जुड़ी का खण्डन भी किया गया है। भाष्यकार कहता है कि "दाह की शान्ति, हुई हैं और वे जैनधर्म की प्राण हैं।
तृषा का नाश इत्यादि कारणों से गंगा आदि के जल को शरीर के लिए
उपकारी होने से तीर्थ मानते हो तो अन्य खाद्य, पेय एवं शरीर-शुद्धि जैनधर्म में तीर्थ का सामान्य अर्थ
करने वाले द्रव्य इत्यादि भी शरीर के उपकारी होने के कारण तीर्थ माने जैनाचार्यों ने तीर्थ की अवधारणा पर विस्तार से प्रकाश डाला जायेंगे किन्तु इन्हें कोई भी तीर्थरूप में स्वीकार नहीं करता है" । है। तीर्थ शब्द की व्युत्पत्तिपरक व्याख्या करते हुए कहा गया है - वास्तव में तो तीर्थ वह है जो हमारे आत्मा के मल को धोकर हमें तीर्यते अनेनेति तीर्थ: अर्थात् जिसके द्वारा पार हुआ जाता है वह तीर्थ संसार-सागर से पार कराता है । जैन परम्परा की तीर्थ की यह कहलाता है । इस प्रकार सामान्य अर्थ में नदी, समुद्र आदि के वे तट अध्यात्मपरक व्याख्या हमें वैदिक परम्परा में भी उपलब्ध होती है। उसमें जिनसे पार जाने की यात्रा प्रारम्भ की जाती थी तीर्थ कहलाते थे; इस कहा गया है- सत्य तीर्थ है, क्षमा और इन्द्रिय-निग्रह भी तीर्थ है। समस्त अर्थ में जैनागम जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में मागध तीर्थ, वरदाम तीर्थ और प्रभास प्राणियों के प्रति दयाभाव, चित्त की सरलता, दान, सन्तोष, ब्रह्मचर्य का तीर्थ का उल्लेख मिलता है ।
पालन, प्रियवचन, ज्ञान, धैर्य और पुण्य कर्म - ये सभी तीर्थ हैं।"
तीर्थ का लाक्षणिक अर्थ
द्रव्यतीर्थ और भावतीर्थ लाक्षणिक दृष्टि से जैनाचार्यों ने तीर्थ शब्द का अर्थ लिया - जैनों ने तीर्थ के जंगमतीर्थ और स्थावरतीर्थ ऐसे दो विभाग भी जो संसार समुद्र से पार कराता है, वह तीर्थ है और ऐसे तीर्थ की स्थापना किये हैं। इन्हें क्रमश: चेतनतीर्थ और जड़तीर्थ अथवा भावतीर्थ और करने वाला तीर्थङ्कर है । संक्षेप में मोक्ष-मार्ग को ही तीर्थ कहा गया है। द्रव्यतीर्थ भी कह सकते हैं । वस्तुत: नदी, सरोवर आदि तो जड़ या द्रव्य आवश्यकनियुक्ति में श्रुतधर्म, साधना-मार्ग, प्रावचन, प्रवचन और तीर्थ हैं, जबकि श्रुतविहित मार्ग पर चलने वाला संघ भावतीर्थ है और तीर्थ- इन पांचों को पर्यायवाची बताया गया है। इससे यह स्पष्ट होता वही वास्तविक तीर्थ है। उसमें साधुजन पार कराने वाले हैं, ज्ञानादि है कि जैन परम्परा में तीर्थ शब्द केवल तट अथवा पवित्र या पूज्य स्थल रत्नत्रय नौका-रूप तैरने के साधन हैं और संसार-समुद्र ही पार करने की के अर्थ में प्रयुक्त न होकर एक व्यापक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। तीर्थ से वस्तु है । जिन ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि द्वारा अज्ञानादि सांसारिक भावों जैनों का तात्पर्य मात्र किसी पवित्र स्थल तक ही सीमित नहीं है । वे से पार हुआ जाता है, वे ही भावतीर्थ हैं । क्रोध, मान, माया, लोभ आदि तो समग्र धर्ममार्ग और धर्म-साधकों के समूह को ही तीर्थ-रूप में मल हैं, इनको जो निश्चय ही दूर करता है वही वास्तव में तीर्थ है । व्याख्यायित करते हैं ।
जिनके द्वारा क्रोधादि की अग्नि को शान्त किया जाता है वही संघ
वस्तुतः तीर्थ है । इस प्रकार हम देखते हैं कि प्राचीन जैन परम्परा में . तीर्थ का आध्यात्मिक अर्थ
आत्मशुद्धि की साधना और जिस संघ में स्थित होकर यह साधना की जैनों ने तीर्थ के लौकिक और व्युत्पत्तिपरक अर्थ से ऊपर जा सकती है, वह संघ ही वास्तविक तीर्थ माना गया है। उठकर उसे आध्यात्मिक अर्थ प्रदान किया है। उत्तराध्ययनसूत्र में चाण्डालकुलोत्पन्न हरकेशी नामक महान् निर्ग्रन्थ साधक से जब यह पूछा 'तीर्थ' के चार प्रकार गया कि आपका सरोवर कौन-सा है ? आपका शान्तितीर्थ कौन-सा है? विशेषावश्यकभाष्य में चार प्रकार के तीर्थों का उल्लेख है, तो उसके प्रत्युत्तर में उन्होंने कहा कि धर्म ही मेरा सरोवर है और ब्रह्मचर्य नाम-तीर्थ, स्थापनातीर्थ, द्रव्यतीर्थ और भावतीर्थ । जिन्हें तीर्थ नाम दिया ही शान्ति-तीर्थ है जिसमें स्नान करके आत्मा निर्मल और विशुद्ध हो गया है वे नामतीर्थ हैं । वे विशेष स्थल जिन्हें तीर्थ मान लिया गया है, जाती है। विशेषावश्यकभाष्य में कहा गया है कि सरिता आदि वे स्थापनातीर्थ हैं । अन्य परम्पराओं में पवित्र माने गये नदी, सरोवर
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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
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आदि अथवा जिनेन्द्रदेव के गर्भ, जन्म, दीक्षा, कैवल्य प्राप्ति एवं नहीं थी, जितनी कि शैव सम्प्रदाय की - निर्वाण के स्थल द्रव्यतीर्थ हैं, जबकि मोक्षमार्ग और उसकी साधना करने वाला चतुर्विधसंघ भावतीर्थ है। इस प्रकार जैनधर्म में सर्वप्रथम तो जिनोपदिष्ट धर्म, उस धर्म का पालन करने वाले साधु-साध्वी श्रावक और श्राविकारूप चतुर्विधसंघ को ही तीर्थ और उसके संस्थापक को तोर्थङ्कर कहा गया है। यद्यपि परवर्ती काल में पवित्र स्थल भी द्रव्यतीर्थ के रूप में स्वीकृत किये गये हैं।
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तीर्थ शब्द धर्मसंघ के अर्थ में
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प्राचीन काल में श्रमण परम्परा के साहित्य में 'तीर्थ' शब्द का प्रयोग धर्म-संघ के अर्थ में होता रहा है। प्रत्येक धर्मसंघ या धार्मिक साधकों का वर्ग तीर्थ कहलाता था, इसी आधार पर अपनी परम्परा से भिन्न लोगों को तैर्थिक या अन्यतैर्थिक कहा जाता था। जैन साहित्य में । बौद्ध आदि अन्य श्रमण परम्पराओं को तैर्थिक या अन्य तैर्थिक के नाम से अभिहित किया गया है" बौद्ध ग्रन्थ दीघनिकाय के सामञ्ञफलसुत्त में भी निर्धन्य शातृपुत्र महावीर के अतिरिक्त मंखलिगोशालक अजितकेशकम्बल, पूर्णकाश्यप, पकुधकात्यायन आदि को भी तित्वकर (तीर्थंकर) कहा गया है"। इससे यह फलित होता है कि उनके साधकों का वर्ग भी तीर्थ के नाम से अभिहित होता था। जैन परम्परा में तो जैनसंघ या जैन साधकों के समुदाय के लिए तीर्थ शब्द का प्रयोग प्राचीन काल से लेकर वर्तमान युग तक यथावत् प्रचलित है। आचार्य समन्तभद्र ने महावीर की स्तुति करते हुए कहा है कि हे भगवन् ! आपका यह तीर्थं सर्वोदय अर्थात् सबका कल्याण करने वाला है । १५ महावीर का धर्मसंघ सदैव ही तीर्थ के नाम से अभिहित किया जाता रहा है ।
साधना की सुकरता और दुष्करता के आधार पर तीर्थों का वर्गीकरण
विशेषावश्यकभाष्य में साधना पद्धति के सुकर या दुष्कर होने के आधार पर भी इन संघरूपी तीर्थों का वर्गीकरण किया गया है। भाष्यकार ने चार प्रकार के तीर्थों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि१. सर्वप्रथम कुछ तीर्थ (तट) ऐसे होते हैं जिनमें प्रवेश भी सुखकर होता है और जहाँ से पार करना भी सुखकर होता है; इसी प्रकार कुछ तीर्थ या साधक संघ ऐसे होते हैं, जिनमें प्रवेश भी सुखद होता है और साधना भी सुखद होती है। ऐसे तीर्थ का उदाहरण देते हुए भाष्यकार ने शैवमत का उल्लेख किया है, क्योंकि शैव सम्प्रदाय में प्रवेश और साधना दोनों ही सुखकर माने गये हैं ।
२. दूसरे वर्ग में वे तीर्थं (तट) आते हैं जिनमें प्रवेश तो सुखरूप हो किन्तु जहाँ से पार होना दुष्कर या कठिन हो। इसी प्रकार कुछ धर्मसंघों में प्रवेश तो सुखद होता है किन्तु साधना कठिन होती है। ऐसे संघ का उदाहरण बौद्ध संघ के रूप में दिया गया है। बौद्ध संघ में प्रवेश तो सुलभतापूर्वक सम्भव था, किन्तु साधना उतनी सुखरूप
३. तीसरे वर्ग में ऐसे तीर्थ का उल्लेख हुआ है जिसमें प्रवेश तो कठिन है किन्तु साधना सुकर है। भाष्यकार ने इस सन्दर्भ में जैनों के ही अचेल सम्प्रदाय का उल्लेख किया है। इस संघ में अचेलकता अनिवार्य थी, अतः इस तीर्थ को प्रवेश की दृष्टि से दुष्कर, किन्तु अनुपालन की दृष्टि से सुकर माना गया है।
४. ग्रन्थकार ने चौथे वर्ग में उस तीर्थ का उल्लेख किया है जिसमें प्रवेश और साधना दोनों दुष्कर है और स्वयं इस रूप में अपने ही सम्प्रदाय का उल्लेख किया है। यह वर्गीकरण कितना समुचित है। यह विवाद का विषय हो सकता है किन्तु इतना निश्चित है कि साधनामार्ग की सुकरता या दुष्करता के आधार पर जैन परम्परा में विविध प्रकार के तीर्थों की कल्पना की गई है और साधना मार्ग को ही तीर्थ के रूप में ग्रहण किया गया है।
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इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन परम्परा में तीर्थ से तात्पर्य मुख्य रूप से पवित्र स्थल की अपेक्षा साधना विधि से लिया गया है और ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप मोक्षमार्ग को ही भावतीर्थ कहा गया है, क्योंकि ये साधक के विषय कषायरूपी मल को दूर करके समाधि रूपी आत्मशान्ति को प्राप्त करवाने में समर्थ है। प्रकारान्तर से साधकों के वर्ग को भी तीर्थ कहा गया है। भगवतीसूत्र में तीर्थ की व्याख्या करते । हुए स्पष्टरूप से कहा गया है कि चतुर्विध श्रमणसंघ ही तीर्थ है।" श्रमण, श्रमणी श्रावक और श्राविकायें इस चतुर्विध श्रमणासंघ के चार अंग हैं। इस प्रकार यह सुनिश्चित है कि प्राचीन जैन ग्रन्थों में तीर्थ शब्द को संसार समुद्र से पार कराने वाले साधन के रूप में ग्रहीत करके त्रिविध साधना मार्ग और उसका अनुपालन करने वाले चतुर्विध श्रमण संघ को ही वास्तविक तीर्थ माना गया है।
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निश्चयतीर्थ और व्यवहारतीर्थ :
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जैनों की दिगम्बर परम्परा में तीर्थ का विभाजन निश्चयतीर्थ और व्यवहारतीर्थ के रूप में हुआ है। निश्चयतीर्थ के रूप में सर्वप्रथम तो आत्मा के शुद्ध बुद्ध स्वभाव को ही निश्चयतीर्थ कहा गया है। उसमें कहा गया है कि पंचमहाव्रतों से युक्त सम्यक्त्व से विशुद्ध, पांच इन्द्रियों से संयत निरपेक्ष आत्मा ही ऐसा तीर्थ है जिसमें दीक्षा और शिक्षा रूप स्नान करके पवित्र हुआ जाता है ।" पुनः निर्दोष सम्यक्त्व, क्षमा आदि धर्म, निर्मलसंयम, उत्तम तप और यर्थाथज्ञान- ये सब भी कषायभाव से रहित और शान्तभाव से युक्त होने पर निश्चयतीर्थं माने गये हैं। इसी प्रकार मूलाचार में श्रुतधर्म को तीर्थं कहा गया है, " क्योंकि वह ज्ञान के माध्यम से आत्मा को पवित्र बनाता है। सामान्य निष्कर्ष यह है कि वे सभी साधन जो आत्मा के विषय कषायरूपी मल को दूर कर उसे संसार समुद्र से पार उतारने में सहायक होते हैं या पवित्र बनाते हैं, वे निश्चयतीर्थ है। यद्यपि बोधपाहुड की टीका (लगभग ११वीं शती) में यह स्पष्ट रूप से उल्लेख मिलता है कि 'जो निश्चयतीर्थ की प्राप्ति का कारण है ऐसे जगत्-प्रसिद्ध मुक्तजीवों के चरणकमलों से संस्पर्शित उर्जयंत,
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जैनधर्म में तीर्थ की अवधारणा
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शत्रुञ्जय, पावागिरि आदि तीर्थ हैं और कर्मक्षय का कारण होने से वे धार्मिक कृत्य माना जाता है । इसके विपरीत जैन परम्परा में तीर्थ स्थल व्यवहारतीर्थ भी वन्दनीय माने गये हैं ।१९ इस प्रकार दिगम्बर परम्परा में को अपने आप में पवित्र नहीं माना गया, अपितु यह माना गया कि भी साधनामार्ग और आत्मविशुद्धि के कारणों को निश्चयतीर्थ और तीर्थंकर अथवा अन्य त्यागी-तपस्वी महापुरुषों के जीवन से सम्बन्धित पंचकल्याणक भूमियों को व्यवहार तीर्थ माना गया है । मूलाचार में भी होने के कारण वे स्थल पवित्र बने हैं। जैनों के अनुसार कोई भी स्थल यह कहा गया है कि दाहोपशमन, तृषानाश और मल की शुद्धि ये-तीन अपने आप में पवित्र या अपवित्र नहीं होता, अपितु वह किसी महापुरुष कार्य जो करते हैं वे द्रव्यतीर्थ हैं 'किन्तु जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र से से सम्बद्ध होकर या उनका सान्निध्य पाकर पवित्र माना जाने लगता है, युक्त जिनदेव हैं वे भावतीर्थ हैं' यह भावतीर्थ ही निश्चयतीर्थ है। कल्याण यथा - कल्याणक भूमियाँ; जो तीर्थङ्कर के गर्भ जन्म, दीक्षा कैवल्य या भूमि तो व्यवहारतीर्थ है२० । इस प्रकार श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही निर्वाणस्थल होने से पवित्र मानी जाती है । बौद्ध परम्परा में भी बुद्ध के परम्पराओं में प्रधानता तो भावतीर्थ या निश्चयतीर्थ को ही दी गई है, जीवन से सम्बन्धित स्थलों को पवित्र माना गया हैं। किन्तु आत्मविशुद्धि के हेतु या प्रेरक होने के कारण द्रव्यतीर्थों या हिन्दू और जैन परम्परा में दूसरा महत्त्वपूर्ण अन्तर यह ह कि व्यवहारतीर्थों को भी स्वीकार किया गया है । स्मरण रहे कि अन्य धर्म जहाँ हिन्दू परम्परा में प्रमुखतया नदी-सरोवर आदि को तीर्थ रूप में परम्पराओं में जो तीर्थ की अवधारणा उपलब्ध है, उसकी तुलना जैनों स्वीकार किया गया है वहीं जैन परम्परा में सामान्यतया किसी नगर के द्रव्यतीर्थ से की जा सकती है।'
अथवा पर्वत को ही तीर्थस्थल के रूप में स्वीकार किया गया। यह अन्तर
भी मूलत: तो किसी स्थल को स्वतः पवित्र मानना या किसी प्रसिद्ध जैन परम्परा में तीर्थ शब्द का अर्थ-विकास
महापुरुष के कारण पवित्र मानना - इसी तथ्य पर आधारित है । पुनः श्रमण-परम्परा में प्रारम्भ में तीर्थ की इस अवधारणा को एक इस अन्तर का एक प्रसिद्ध कारण यह भी है- जहाँ हिन्दू परम्परा में आध्यात्मिक अर्थ प्रदान किया गया था। विशेषावश्यकभाष्य जैसे प्राचीन बाह्य-शौच (स्नानादि, शारीरिक शुद्धि) की प्रधानता थी, वहीं जैन आगमिक व्याख्या-ग्रन्थों में भी वैदिक परम्परा में मान्य नदी, सरोवर परम्परा में तप और त्याग द्वारा आत्मशुद्धि की प्रधानता थी, स्नानादि तो आदि स्थलों को तीर्थ मानने की अवधारणा का खण्डन किया गया और वयं ही माने गये थे। अत: यह स्वाभाविक था कि जहाँ हिन्दू परम्परा उसके स्थान पर रत्नत्रय से युक्त साधनामार्ग अर्थात् उस साधना में चल में नदी-सरोवर तीर्थ रूप में विकसित हुए, वहाँ जैन परम्परा में साधनारहे साधक के संघ को तीर्थ के रूप में अभिहित किया गया है । यही स्थल के रूप में वन-पर्वत आदि तीर्थों के रूप में विकसित हुए । यद्यपि दृष्टिकोण अचेल परम्परा के ग्रन्थ मूलाचार में भी देखा जाता है, जिसका आपवादिक रूप में हिन्दू परम्परा में भी कैलाश आदि पर्वतों को तीर्थ उल्लेख पूर्व में हम कर चुके हैं।
माना गया, वहीं जैन परम्परा में शत्रुजय नदी आदि को पवित्र या तीर्थ किन्तु परवर्ती काल में जैन परम्परा में तीर्थ सम्बन्धी अवधारणा के रूप में माना गया है, किन्तु यह इन परम्पराओं के पारस्परिक प्रभाव में परिवर्तन हुआ और द्रव्य तीर्थ अर्थात् पवित्र स्थलों को भी तीर्थमाना का परिणाम था । पुन: हिन्दू परम्परा में जिन पर्वतीय स्थलों जैसे कैलाश गया। सर्वप्रथम तीर्थङ्करों के गर्भ, जन्म, दीक्षा, कैवल्य और निर्वाण से आदि को तीर्थ रूप में माना गया उनके पीछे भी किसी देव का निवास सम्बन्धित स्थलों को पूज्य मानकर उन्हें तीर्थ के रूप में स्वीकार किया स्थान या उसकी साधनास्थली होना ही एकमात्र कारण था, किन्तु यह गया । आगे चलकर तीर्थङ्करों के जीवन की प्रमुख घटनाओं से निवृत्तिमार्गी परम्परा का ही प्रभाव था । दूसरी ओर हिन्दू परम्परा के सम्बन्धित स्थल ही नहीं अपितु गणधर एवं प्रमुख मुनियों के निर्वाणस्थल प्रभाव से जैनों में भी यह अवधारण बनी कि यदि शत्रुजय नदी में स्नान
और उनके जीवन की महत्त्वपूर्ण घटना से जुड़े हुए स्थल भी तीर्थ के नहीं किया तो मानव जीवन ही निरर्थक हो गया । रूप मे स्वीकार किये गये । इससे भी आगे चलकर वे स्थल भी, जहाँ 'सतरूंजी नदी नहायो नहीं, तो गयो मिनख जमारो हार'। कलात्मक मन्दिर बने या जहाँ की प्रतिमाएँ चमत्कारपूर्ण मानी गयीं, तीर्थ कहे गये।
तीर्थ और तीर्थयात्रा
पूर्व विवरण से स्पष्ट है कि जैन परम्परा में 'तीर्थ' शब्द के हिन्दू और जैनतीर्थ की अवधारणाओं में मौलिक अन्तर अर्थ का ऐतिहासिक विकास-क्रम है। सर्वप्रथम जैन धर्म में गंगा आदि
यह सत्य है कि कालान्तर में जैनों ने हिन्दू परम्परा के समान लौकिक तीर्थों की यात्रा तथा वहाँ स्नान, पूजन आदि को धर्म साधना ही कुछ स्थलों को पवित्र और पूज्य मानकर उनकी पूजा और यात्रा को की दृष्टि से अनावश्यक माना गया और तीर्थ शब्द को आध्यात्मिक अर्थ महत्त्व दिया, किन्तु फिर भी दोनों अवधारणाओं में मूलभूत अन्तर है। प्रदान कर आध्यात्मिक साधना मार्ग को तथा उस साधना का अनुपालन हिन्दु परम्परा नदी, सरोवर आदि को स्वत: पवित्र मानती है, जैसे- करने वाले साधकों के संघ को ही तीर्थ के रूप में स्वीकार किया गया। गंगा । यह नदी किसी ऋषि-मुनि आदि के जीवन की किसी घटना से किन्तु कालान्तर में जैन परम्परा में भी तीर्थङ्करों की कल्याणक भूमियों सम्बन्धित होने के कारण नहीं, अपितु स्वतः ही पवित्र है । ऐसे पवित्र को पवित्र स्थानों के रूप में मान्य करके तीर्थ की लौकिक अवधारणा स्थल पर स्नान, पूजा-अर्चना, दान-पुण्य एवं यात्रा आदि करने को एक का विकास हुआ । ई०पू० में रचित अति प्राचीन जैन-आगमों जैसे
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ आचारांग आदि में हमें जैन तीर्थस्थलों का कोई उल्लेख नहीं मिलता है की जन्म कल्याणक आदि भूमियों के अतिरिक्त उत्तरापथ में धर्मचक्र, यद्यपि उनमें हिन्दू परम्परा के तीर्थस्थलों पर होने वाले महोत्सवों तथा मथुरा में देवनिर्मितस्तूप और कौशल की जीवन्तस्वामी की प्रतिमा को यात्राओं का उल्लेख मिलता है। परन्तु आध्यात्ममार्गी जैन परम्परा मुनि पूज्य बताया गया है ।२७ इसी प्रकार वे स्थल, जहां कलात्मक एवं भव्य के लिए इन तीर्थमेलों और यात्राओं में भाग लेने का भी निषेध करती मन्दिरों का निर्माण हुआ अथवा किसी जिन-प्रतिमा को चमत्कारी मान थी । ईसा की प्रथम शताब्दी से पांचवीं शताब्दी के मध्य निर्मित लिया गया, तीर्थ रूप में मान्य हुए। उत्तरापथ, मथुरा और कोशल आदि परवर्ती आगमिक साहित्य में भी यद्यपि जैन तीर्थस्थलों और तीर्थयात्राओं की तीर्थ रूप में प्रसिद्धि इसी कारण थी। हमारी दृष्टि से सम्भवतः आगे के स्पष्ट संकेत तो नहीं मिलते, फिर भी इनमें तीर्थङ्करों की कल्याणकभूमियों, चलकर तीर्थों का जो विभाजन कल्याणक क्षेत्र, सिद्धक्षेत्र और अतिशयक्षेत्र विशेष रूप से जन्म एवं निर्वाणस्थलों की चर्चा है२२ । साथ ही तीर्थङ्करों के रूप में हुआ, उसका भी यही कारण था। की चिता-भस्म एवं अस्थियों को क्षीरसमुद्रादि में प्रवाहित करने तथा तीर्थ क्षेत्र के प्रकार - जैन परम्परा में तीर्थ स्थलों का देवलोक में उनके रखे जाने के उल्लेख इन आगमों में हैं । उनमें वर्गीकरण मुख्य रूप से तीन वर्गों में किया जाता है - अस्थियों एवं चिता-भस्म पर चैत्य और स्तूप के निर्माण के उल्लेख भी १. कल्याणकक्षेत्र, २. निर्वाणक्षेत्र और ३. अतिशयक्षेत्र । मिलते हैं । जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में ऋषभ के निर्वाणस्थल पर स्तूप बनाने का १.कल्याणक क्षेत्र- जैन परम्परा में सामान्यतया प्रत्येक उल्लेख है२३ । इस काल के आगम ग्रन्थों में हमें देवलोक एवं तीर्थंकर के पांच कल्याणक माने गये हैं। कल्याणक शब्द का तात्पर्य नन्दीश्वरद्वीप में निर्मित चैत्य आदि के उल्लेखों के साथ-साथ यह भी तीर्थंकर के जीवन की महत्त्वपूर्ण घटना से सम्बन्धित पवित्र दिन से है। वर्णन मिलता है कि पर्व-तिथियों में देवता नन्दीश्वरद्वीप जाकर महोत्सव जैन परम्परा में तीर्थंकरों के गर्भ-प्रवेश, जन्म, दीक्षा (अभिनिष्क्रमण), आदि मनाते हैं।४ । यद्यपि इस काल के आगमों में अरिहंतों के स्तूपों कैवल्य (बोधिप्राप्ति) और निर्वाण दिवसों को कल्याण दिवस के रूप एवं चैत्यों के उल्लेख तो हैं किन्तु उन पवित्र स्थलों पर मनुष्यों द्वारा में माना जाता है। तीर्थंकर के जीवन की ये महत्त्वपूर्ण घटनाएँ जिस नगर आयोजित होने वाले महोत्सवों और उनकी तीर्थ-यात्राओं पर जाने का या स्थल पर घटित होती हैं उसे कल्याणक भूमि कहा जाता है। तीर्थंकरों कोई उल्लेख नहीं है । विद्वानों से मेरी अपेक्षा है कि यदि उन्हें इस तरह की इन कल्याणक भूमियों का एक संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार हैका कोई उल्लेख मिले तो वे सूचित करें।
२. निर्वाणक्षेत्र- निर्वाणक्षेत्र को सामन्यतया सिद्धक्षेत्र भी यद्यपि लोहानीपुर और मथुरा में उपलब्ध जिन-मूर्तियों, आयागपट्टों, कहा जाता है । जिस स्थल से किसी मुनि को निर्वाण प्राप्त होता है, स्तूपांकनों तथा पूजा के निमित्त कमल लेकर प्रस्थान आदि के अंकनों वह स्थल सिद्धक्षेत्र या निर्वाणस्थल के नाम से जाना जाता है । सामान्य से यह तो निश्चित हो जाता है कि जैन परम्परा में चैत्यों के निर्माण और मान्यता तो यह है कि इस भूमण्डल पर ऐसी कोई भी जगह नहीं है जहाँ जिन प्रतिमा के पूजन की परम्परा ई०पू० की तीसरी शताब्दी में भी से कोई न कोई मुनि सिद्धि को प्राप्त न हुआ हो । अत: व्यावहारिक दृष्टि प्रचलित थी। किन्तु तीर्थ और तीर्थयात्रा सम्बन्धी उल्लेखों का आचारांग, से तो समस्त भूमण्डल ही सिद्धक्षेत्र या निर्वाणक्षेत्र है । फिर भी उत्तराध्ययन एवं दशवैकालिक जैसे इस काल के प्राचीन आगमों में सामान्यतया जहाँ से अनेक सुप्रसिद्ध मुनियों ने निर्वाण प्राप्त किया हो, अभाव हमारे सामने एक प्रश्न चिह्न तो अवश्य ही उपस्थित करता है। उसे निर्वाण क्षेत्र कहा जाता है। जैन परम्परा में शत्रुजय, पावागिरि,
तीर्थ और तीर्थयात्रा सम्बन्धी समस्त उल्लेख नियुक्ति, भाष्य तुंगीगिरि) सिद्धवरकूट, चूलगिरि, रेशन्दगिरि, सोनागिरि आदि सिद्धक्षेत्र और चूर्णि साहित्य में उपलब्ध होते हैं । आचारांग नियुक्ति में अष्टापद, माने जाते हैं। सिद्धक्षेत्रों की विशिष्ट मान्यता तो दिगम्बर परम्परा में ऊर्जयन्त, गजाग्रपद, धर्मचक्र और अहिच्छत्रा को वन्दन किया गया प्रचलित है, किन्तु श्वेताम्बर परम्परा में भी शत्रुजयतीर्थ सिद्धक्षेत्र ही है। है ।२५ इससे यह स्पष्ट होता है कि नियुक्ति काल में तीर्थस्थलों के दर्शन,
३. अतिशयक्षेत्र- वे स्थल, जो न तो किसी तीर्थङ्कर की वन्दन एवं यात्रा की अवधारणा स्पष्ट रूप से बन चुकी थी और इसे पुण्य कल्याणक-भूमि हैं, न किसी मुनि की साधना या निर्वाण-भूमि हैं किन्तु कार्य माना जाता था । निशीथचूर्णि में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जहाँ की जिन-मूर्तियाँ चमत्कारी हैं अथवा जहाँ के मन्दिर भव्य हैं, वे तीर्थङ्करों की कल्याणक भूमियों की यात्रा करने से दर्शन की विशुद्धि अतिशय क्षेत्र कहे जाते है । आज जैन परम्परा में अधिकांश तीर्थ होती है अर्थात् व्यक्ति की श्रद्धा पुष्ट होती है।
अतिशयक्षेत्र के रूप में ही माने जाते है । उदाहरण के रूप में आबू, इस प्रकार जैनों में तीर्थङ्करों की कल्याणक-भूमियों की तीर्थरूप रणकपुर, जैसलमेर, श्रवणबेलगोला आदि इसी रूप में प्रसिद्ध हैं । हमें में स्वीकार कर उनकी यात्रा के स्पष्ट उल्लेख सर्वप्रथम लगभग छठी स्मरण रखना चाहिए कि जैनों के कुछ तीर्थ न केवल तीर्थंकरों की शती से मिलने लगते हैं । यद्यपि इसके पूर्व भी यह परम्परा प्रचलित मूर्तियों के चामत्कारिक होने के कारण, अपितु उस तीर्थ के अधिष्ठायक तो अवश्य ही रही होगी। इस काल में कल्याणक भूमियों के अतिरिक्त देवों की चमत्कारिता के कारण भी प्रसिद्धि उन तीर्थों के अधिष्ठायक वे स्थल, जो मन्दिर और मूर्तिकला के कारण प्रसिद्ध हो गये थे, उन्हें देवों के कारण ही हुई है। इसी प्रकार हुम्मच की प्रसिद्धि पार्श्व की यक्षी भी तीर्थ के रूप में स्वीकार किया गया और उनकी यात्रा एवं वन्दन को पद्मावती की मूर्ति के चामत्कारिक होने के आधार पर ही है। भी बोधिलाभ और निर्जरा का कारण माना गया। निशीथचूर्णि में तीर्थङ्करों इन तीन प्रकार के तीर्थों के अतिरिक्त कुछ तीर्थ ऐसे भी हैं जो
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इस कल्पना पर आधारित है कि यहाँ पर किसी समय तीर्थङ्कर का पदार्पण हुआ था या उनकी धर्मसभा (समवसरण) हुई थी। इसके साथसाथ आज कुछ जैन आचार्यों के जीवन से सम्बन्धित स्थलों पर गुरु मंदिरों का निर्माण कर उन्हें भी तीर्थ रूप में माना जाता है ।
तीर्थ यात्रा
जैन परम्परा में तीर्थयात्राओं का प्रचलन कब से हुआ, यह कहना अत्यन्त कठिन है, क्योंकि चूर्णिसाहित्य के पूर्व आगमों में तीर्थ स्थलों की यात्रा करने का स्पष्ट उल्लेख कही नहीं मिलता है। सर्वप्रथम निशीथचूर्णि में स्पष्ट रूप से यह उल्लेख है कि तीर्थकरों की कल्याणकभूमियों की यात्रा करता हुआ जीव दर्शन विशुद्धि को प्राप्त करता है " इसी प्रकार व्यवहारभाष्य और व्यवहार चूर्णि में यह उल्लेख है कि जो मुनि अष्टमी और चतुर्दशी को अपने नगर के समस्त चैत्यों और उपायों में ठहरे हुए मुनियों को वन्दन नहीं करता है तो वह मासलघु प्रायश्चित्त का दोषी होता है।
तीथयात्रा का उल्लेख महानिशीथसूत्र में भी मिलता है । इस ग्रन्थ का रचना काल विवादास्पद है । हरिभद्र एवं जिनदासगणि द्वारा इसके उद्धार की कथा तो स्वयं ग्रन्थ में ही वर्णित है । नन्दीसूत्र में आगमों की सूची में महानिशीथ का उल्लेख अनुपलब्ध है। अतः यह स्पष्ट है कि इसका रचना काल छठी से आठवीं शताब्दी के मध्य ही हुआ होगा। इस आधार पर भी कहा जा सकता है कि जैन परम्परा में तीर्थ यात्राओं को इसी कालावधि में विशेष महत्त्व प्राप्त हुआ होगा ।
महानिशीथ में उल्लेख है कि 'हे भगवन् यदि आप आज्ञा दें तो हम चन्द्रप्रभ स्वामी को वन्दन कर और धर्मचक्र की तीर्थयात्रा कर वापस आयें।"
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जैनधर्म में तीर्थ की अवधारणा
जिनयात्रा के सन्दर्भ में हरिभद्र के पंचाशक में विशिष्ट विवरण उपलब्ध होता है। हरिभद्र ने नवें पंचाशक में जिनयात्रा के विधि-विधान का निरूपण किया है, किन्तु अन्य को देखने से ऐसा लगता है कि वस्तुतः यह विवरण दूरस्थ तीर्थों में जाकर यात्रा करने की अपेक्षा अपने नगर में ही जिन प्रतिमा की शोभा यात्रा से सम्बन्धित है। इसमें यात्रा के कर्तव्यों एवं उद्देश्यों का निर्देश है। उनके अनुसार जिनयात्रा में जिनधर्म की प्रभावना के हेतु यथाशक्ति दान, तप, शरीर-संस्कार, उचित गीत-वादिन, स्तुति आदि करना चाहिए" तीर्थ यात्राओं में श्वेताम्बर परम्परा में जो छह-री पालक संघ यात्रा की जो प्रवृत्ति प्रचलित है, उसके पूर्व-बीज भी हरिभद्र के इस विवरण में दिखाई देते हैं। आज भी तीर्थयात्रा में इन छह बातों का पालन अच्छा माना जाता है
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१. दिन में एकबार भोजन करना (एकाहारी)
२. भूमिशयन (भू- आधारी)
३. पैदल चलना (पादचारी)
४. शुद्ध श्रद्धा रखना (श्रद्धाचारी)
५. सर्वसचित्त का त्याग (सचित परिहारी)
६. ब्रह्मचर्य का पालन ( ब्रह्मचारी)
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तीर्थों के महत्त्व एवं यात्राओं सम्बन्धी विवरण हमें मुख्य रूप से परवर्ती काल के ग्रन्थों में ही मिलते हैं। सर्वप्रथम 'सारावली' नामक प्रकीर्णक में शत्रुंजय 'पुण्डरीक तीर्थ' की उत्पत्ति कथा, उसका महत्त्व एवं उसकी यात्रा तथा वहां किये गये तप, पूजा, दान आदि के फल विशेष रूप से उल्लिखित हैं । ३२
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इसके अतिरिक्त विविधतीर्थ -कल्प (१३वीं शती) और तीर्थ मालायें भी जो कि १२वीं १३वीं शताब्दी से लेकर परवर्ती काल में पर्याप्त रूप से रची गयी; तीर्थों की महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान करती हैं । जैन साहित्य में तीर्थयात्रा संघों के निकाले जाने सम्बन्धी विवरण भी १३वीं शती के पश्चात् रचित अनेक तीर्थमालाओं एवं अभिलेखों में यत्र-तत्र मिल जाते हैं, जिनकी चर्चा आगे की गयी है।
तीर्थयात्रा का उद्देश्य न केवल धर्म साधना है, बल्कि इसका व्यावहारिक उद्देश्य भी है, जिसका संकेत निशीथचूर्णि में मिलता है । उसमें कहा गया है कि जो एक ग्राम का निवासी हो जाता है और अन्य ग्राम-नगरों को नहीं देखता वह कूपमंडूक होता है। इसके विपरीत जो भ्रमणशील होता है वह अनेक प्रकार के ग्राम-नगर, सन्निवेश, जनपद, राजधानी आदि में विचरण कर व्यवहार कुशल हो जाता है तथा नदी, गुहा, तालाब, पर्वत आदि को देखकर चक्षु सुख को भी प्राप्त करता है। साथ ही तीर्थंकरों की कल्याणक भूमियों को देखकर दर्शन- विशुद्धि भी प्राप्त करता है । पुनः अन्य साधुओं के समागम का भी लाभ लेता है और उनकी समाचारी से भी परिचित हो जाता है। परस्पर दानादि द्वारा विविध प्रकार के घृत, दधि, गुड़, क्षीर आदि नाना व्यञ्जनों का रस भी ले लेता है ।"
निशीथचूर्णि के उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट होता है कि जैनाचार्य तीर्थयात्रा की आध्यात्मिक मूल्यवत्ता के साथ-साथ उसकी व्यावहारिक उपादेयता भी स्वीकारते थे ।
तीर्थविषयक श्वेताम्बर जैन साहित्य
तीर्थविषयक साहित्य में कुछ कल्याणक भूमियों के उल्लेख समवायांग, ज्ञाता और पर्यूषणाकल्प में हैं। कल्याणक भूमियों के अतिरिक्त अन्य तीर्थक्षेत्रों के जो उल्लेख उपलब्ध होते हैं उनमें श्वेताम्बर परम्परा में सबसे पहले महानिशीथ और निशीथचूर्णि में हमें मथुरा, उत्तरापक्ष और चम्पा के उल्लेख मिलते हैं। निशीथचूर्णि व्यवहारभाष्य, व्यवहारचूर्णि आदि में भी नामोल्लेख के अतिरिक्त इन तीर्थों के सन्दर्भ में विशेष कोई जानकारी नहीं मिलती; मात्र यह बताया गया है कि स्तूपों के लिए, उत्तरापथ धर्मचक्र के लिए और चम्पा जीवन्तस्वामी की प्रतिमा के लिए प्रसिद्ध थे । तीर्थ सम्बन्धी विशिष्ट साहित्य में तित्थोगालिय प्रकीर्णक, सारावली प्रकीर्णक के नाम महत्त्वपूर्ण माने जा सकते हैं। किन्तु तित्थोगालिय प्रकीर्णक में तीर्थस्थलों का विवरण न होकर के साधु साध्वी श्रावक एवं श्राविका रूप चतुर्विध तीर्थ की विभिन्न कालों में विभिन्न तीर्थंकरों द्वारा जो स्थापना की गई, उसके उल्लेख मिलते हैं, उसमें जैनसंघरूपी तीर्थ के भूत और भविष्य के सम्बन्ध में कुछ सूचनाएँ
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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६ उल्लेख है ।२४
प्रस्तुत की गई हैं। उसमें महावीर के निर्वाण के बाद आगमों का विच्छेद किस प्रकार से होगा ? कौन कौन प्रमुख आचार्य और राजा आदि होगें, इसके उल्लेख हैं। इस प्रकीर्णक में श्वेताम्बर परम्परा को अमान्य ऐसे आगम आदि के उच्छेद के उल्लेख भी हैं। यह प्रकीर्णक मुख्यतः महाराष्ट्री प्राकृत में उपलब्ध होता है, किन्तु इस पर शौरसेनी का प्रभाव भी परिलक्षित होता है । इसका रचनाकाल निश्चित करना तो कठिन है फिर भी यह लगभग दसवीं शताब्दी के पूर्व का होना चाहिए, ऐसा अनुमान किया जाता है ।
तीर्थं सम्बन्धी विस्तृत विवरण की दृष्टि से आगमिक और प्राकृत भाषा के ग्रन्थों में 'सारावली' को मुख्य माना जा सकता है। इसमें मुख्यरूप से शंत्रुजय अपरनाम पुण्डरीक नाम कैसे पड़ा ? ये दो बातें मुख्य रूप से विवेचित हैं और इस सम्बन्ध में कथा भी दी गई है। यह सम्पूर्ण ग्रन्थ लगभग ११६ गाथाओं में पूर्ण हुआ है। यद्यपि यह ग्रंथ प्राकृत भाषा में लिखा गया है, किन्तु भाषा पर अपभ्रंश के प्रभाव को देखते हुए इसे परवर्ती ही माना जायेगा। इसका काल दशवीं शताब्दी के लगभग होगा ।
इस प्रकीर्णक में इस तीर्थ पर दान, तप, साधना आदि के विशेषफल की चर्चा हुई है। अन्य के अनुसार पुण्डरीक तीर्थ की महिमा और कथा अतिमुक्त नामक ऋषि ने नारद को सुनायी, जिसे सुनकर उसने दीक्षित होकर केवलज्ञान और सिद्धि को प्राप्त किया । कथानुसार ऋषभदेव के पौत्र पुण्डरीक के निर्वाण के कारण यह तीर्थ पुण्डरीकगिरि के नाम से प्रचलित हुआ। इस तीर्थ पर नमि, विनमि आदि दो करोड़ केवली सिद्ध हुए हैं। राम, भरत आदि तथा पंचपाण्डवों एवं प्रद्युम्न, शाम्ब आदि कृष्ण के पुत्रों के इसी पर्वत से सिद्ध होने की कथा भी प्रचलित है। इस प्रकार यह प्रकीर्णक पश्चिम भारत के सर्वविश्रुत जैन तीर्थ की महिमा का वर्णन करने वाला प्रथम ग्रन्थ माना जा सकता है । श्वेताम्बर परंपरा के प्राचीन आगमिक साहित्य में इसके अतिरिक्त अन्य कोई तीर्थ सम्बन्धी स्वतन्त्र रचना हमारी जानकारी में नहीं है ।
इसके पश्चात् तीर्थ सम्बन्धी साहित्य में प्राचीनतम जो रचना उपलब्ध होती है, वह बप्पभट्टिसूरि की परम्परा के यशोदेवसूरि के गच्छ के सिद्धसेनसूरि का सकलतीर्थस्तोत्र है । यह रचना ई० सन् १०६७ अर्थात् ग्यारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध की है। इस रचना में सम्मेतशिखर, शत्रुञ्जय, ऊर्जयन्त, अर्बुद, चित्तौड़, जालपुर (जालौर) रणथम्भौर, गोपालगिरि (ग्वालियर) मथुरा, राजगृह, चम्पा, पावा, अयोध्या, काम्पिल्य, भद्दिलपुर शौरीपुर, अंगइया (अंगादिका), कन्नौज, श्रावस्ती, वाराणसी, राजपुर, कुण्डनी, गजपुर, तलवाड़, देवराड, खडिल, डिण्डूवान (डिण्डवाना), नरान, हर्षपुर (षट्टउदेसे) नागपुर (नागौर-साम्भरदेश), पल्ली, सण्डेर, नाणक, कोरण्ट, भिन्नमाल, (गुर्जर देश), आहड़ (मेवाड़ देश) उपकेसनगर (किराडउए) जयपुर (मरुदेश) सत्यपुर (साचौर), गुहुयराय, पश्चिम बल्ली, धाराप्रद, बायण, जलिहर, नगर, खेड़, मोडेर, अनहिल्लवाड़ (चड्डावल्लि), स्तम्भनपुर, कयंवास, भरुकच्छ (सौराष्ट्र), कुंकन, कलिकुण्ड, मानखेड़ (दक्षिण भारत) धारा, उज्जैनी (मालवा) आदि तीर्थों का
सम्भवतः समग्र जैन तीर्थों का नामोल्लेख करने वाली उपलक रचनाओं में यह प्राचीनतम रचना है । यद्यपि इसमें दक्षिण के उन दिगम्बर जैन तीर्थों के उल्लेख नहीं है जो कि इस काल में अस्तित्ववान् थे। इस रचना के पश्चात् हमारे सामने तीर्थ समबन्धी विवरण देने वाली दूसरी महत्त्वपूर्ण एवं विस्तृत रचना विविधतीर्थकल्प है, इस ग्रन्थ में दक्षिण के कुछ दिगम्बर तीर्थों को छोड़कर पर्व, उत्तर, पश्चिम और मध्य भारत के लगभग सभी तीर्थों का विस्तृत एवं व्यापक वर्णन उपलब्ध होता हैं, यह ई० सन् १३३२ की रचना है श्वेताम्बर परम्परा की तीर्थ सम्बन्धी रचनाओं में इसका अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान माना जा सकता
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है
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इसमें जो वर्णन उपलब्ध है, उससे ऐसा लगता है कि अधिकांश तीर्थस्थलों का उल्लेख कवि ने स्वयं देखकर किया है । यह कृति अपभ्रंश मिश्रित प्राकृत और संस्कृत में निर्मित है। इसमें जिन तीर्थों का उल्लेख है वे निम्न हैं शत्रुंजय, रैवतकगिरि, स्तम्भनतीर्थ, अहिच्छत्रा अर्बुद (आबु), अश्वावबोध (भड़ौच), वैभारगिरि (राजगिरि), कौशाम्बी, अयोध्या, अपापा (पाचा) कलिकुण्ड, हस्तिनापुर, सत्यपुर (साचौर), अष्टापद (कैलाश), मिथिला, रत्नवाहपुर, प्रतिष्ठानपत्तन (पैठन), काम्पिल्य, अणहिलपुर, पाटन, शंखपुर, नासिकयपुर (नासिक), हरिकंखीनगर, अवतिदेशस्थ अभिनन्दनदेव, चम्पा, पाटलिपुत्र, श्रावस्ती, वाराणसी, कोटिशिला, कोकावसति, ढिंपुरी, अंतरिक्षपार्श्वनाथ, फलवर्द्धिपार्श्वनाथ, (फलौधी), आमरकुण्ड, (हनमकोण्ड - आंध्रप्रदेश) आदि ।
इन ग्रंथों के पक्षात् श्वेताम्बर परम्परा में अनेक तीर्थमालायें एवं चैत्यपरिपाटियों लिखी गई जो कि तीर्थ सम्बन्धी साहित्य की महत्त्वपूर्ण अंग हैं। इन तीर्थमालाओं और चैत्यपरिपाटियों की संख्या शताधिक है। और ये ग्यारहवीं शताब्दी से लेकर सत्रहवीं अठारवीं शताब्दी तक निर्मित होती रही हैं। इन तीर्थमालाओं तथा चैत्यपरिपाटियों में कुछ तो ऐसी हैं जो किसी तीर्थ विशिष्ट से ही सम्बन्धित हैं और कुछ ऐसी हैं जो सभी तीर्थों का उल्लेख करती हैं । ऐतिहासिक दृष्टि से इन चैत्य परिपाटियों का अपना महत्त्व है, क्योंकि ये अपने-अपने काल में जैन तीर्थों की स्थिति का सम्यक् विवरण प्रस्तुत कर देती हैं। इन चैत्यपरिपाटियों में न केवल तीर्थक्षेत्रों का विवरण उपलब्ध होता है, अपितु यहाँ किस-किस मन्दिर में कितनी पाषाण और धातु की जिन प्रतिमाएँ रखी गयी हैं, इसका भी विवरण उपलब्ध हो जाता है। उदाहरण के रूप में कटुकमति लाथाशाह द्वारा विरचित सूरतचैत्यपरिपाटी में यह बताया गया है कि इस नगर के गोपीपुरा क्षेत्र में कुल ७५ जिनमंदिर, ५ विशाल जिन मंदिर तथा १३२५ जिनबिम्ब थे। सम्पूर्ण सूरत नगर में १० विशाल जिनमन्दिर, २३५ देरासर (गृहचैत्य), ३गर्भगृह, ३९७८ जिन प्रतिमाएँ थीं । इसके अतिरिक्त सिद्धचक्र, कमलचौमुख, पंचतीर्थी, चौबीसी आदि को मिलाने पर १००४१ जिनप्रतिमाएँ उस नगर में थीं, ऐसा उल्लेख है। यह विवरण १७३९ का है। इस पर से हम अनुमान कर सकते हैं कि इन रचनाओं का ऐतिहासिक अध्ययन की दृष्टि से कितना महत्त्व है। सम्पूर्ण चैत्यपरिपाटियों अथवा तीर्थमालाओं का
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जैनधर्म में तीर्थ की अवधारणा
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उल्लेख अपने आप में एक स्वतन्त्र शोध का विषय है । अत: हम उन भगवतीआराधना एवं मूलाचार हैं । किन्तु इनमें तीर्थ शब्द का तात्पर्य सबकी चर्चा न करके मात्र उनकी एक संक्षिप्त सूची प्रस्तुत कर रहे हैं- धर्मतीर्थ या चतुर्विधसंघ रूपी तीर्थ से ही है । दिगम्बर परम्परा में रचना
रचनाकार रचनातिथि तीर्थक्षेत्रों का वर्णन करने वाले ग्रन्थों में तिलोयपण्णत्ती को प्राचीनतम सकलतीर्थस्तोत्र सिद्धसेनसूरि वि०सं०११२३ माना जा सकता है । तिलोयपण्णत्ती में मुख्य रूप से तीर्थङ्करों की अष्टोत्तरीतीर्थमाला महेन्द्रसूरि वि०सं० १२४१ कल्याणक-भूमियों के उल्लेख मिलते हैं । किन्तु इसके अतिरिक्त उसमें कल्पप्रदीप अपरनाम
क्षेत्रमंगल की चर्चा करते हुए पावा, ऊर्जयंत और चम्पा के नामों का विविधतीर्थकल्प जिनप्रभसूरि वि०सं०१३८९ उल्लेख किया गया है ।२५ इसी प्रकार तिलोयपण्णत्ती में राजगृह का तीर्थयात्रास्तवन विनयप्रभ उपाध्याय
पंचशैलनगर के रूप में उल्लेख हुआ है और उसमें पांचों शैलों का वि०सं०१४वीं शती
यथार्थ और विस्तृत विवेचन भी है । समन्तभद्र ने स्वयम्भूस्तोत्र में अष्टोत्तरीतीर्थमाला मुनिप्रभसूरि वि०सं० १५वीं शती ऊर्जयंत का विशेष विवरण प्रस्तुत किया है । दिगम्बर परम्परा में इसके तीर्थमाला
मेघकृत वि०सं० १६वीं शती पश्चात् तीर्थों का विवेचन करने वाले ग्रन्थों के रूप में दशभक्तिपाठ पूर्वदेशीयचैत्यपरिपाटी हंससोम वि०सं० १५६५ प्रसिद्ध हैं। इनमें संस्कृतनिर्वाणभक्ति और प्राकृतनिर्वाणकाण्ड महत्त्वपूर्ण सम्मेतशिख तीर्थमाला विजयसागर वि०सं० १७१७ हैं। सामान्यतया संस्कृतनिर्वाणभक्ति के कर्ता “पूज्यपाद" और प्राकृतभक्तियों श्री पार्श्वनाथ नाममाला मेघविजय उपाध्याय नि०स० के कर्ता “कुंदकुंद" को माना जाता है । पंडित नाथूराम जी प्रेमी ने इन १७२१
निर्वाणभक्तियों के सम्बन्ध में इतना ही कहा है कि, जब तक इन दोनों तीर्थमाला
शीलविजय वि०सं० १७४८ रचनाओं के रचयिता का नाम मालूम न हो तब तक इतना ही कहा जा तीर्थमाला
सौभाग्य विजय वि०सं० १७५० सकता है कि ये निश्चय ही आशाधर से पहले की (अब से लगभग ७०० शत्रुञ्जयतीर्थपरिपाटी
देवचन्द्र
वि०सं० १७६९ वर्ष पहले, की हैं । प्राकृत भक्ति में नर्मदा नदी के तट पर स्थित सूरतचैत्यपरिपाटी घालासाह वि०सं० १७९३ सिद्धवरकूट, बड़वानी नगर के दक्षिण भाग में चूलगिरि तथा पावागिरि तीर्थमाला
ज्ञानविमलसूरि वि०सं० १७९५ आदि का उल्लेख किया गया है किन्तु ये सभी तीर्थक्षेत्र पुरातात्त्विक दृष्टि सम्मेतशिखरतीर्थमाला जयविजय
से नवीं-दसवीं से पूर्व के सिद्ध नहीं होते हैं । इसलिए इन भक्तियों का गिरनार तीर्थ रत्नसिंहसूरिशिष्य
रचनाकाल और इन्हें जिन आचार्यों से सम्बन्धित किया जाता है वह चैत्यपरिपाटी मुनिमहिमा
संदिग्ध बन जाता है । निर्वाणकाण्ड में अष्टापद, चम्पा, ऊर्जयंत, पावा, पार्श्वनाथ चैत्यपरिपाटी कल्याणसागर
सम्मेदगिरि, गजपंथ, तारापुर, पावगिरि, शत्रुञ्जय, तुंगीगिरि, सवनगिरि, शाश्वततीर्थमाला वाचनाचार्य मेरुकीर्ति
सिद्धवरकूट, चूलगिरि, बड़वानी, द्रोणगिरि, मेढगिरि, कुंथुगिरि, कोटशिला, जैसलमेरचैत्यपरिपाटी जिनसुखसूरि
रिसिंदगिरि, नागद्रह , मंगलपुर, आशारम्य, पोदनपुर, हस्तिनापुर, - शत्रुञ्जयचैत्यपरिपाटी ....
वाराणसी, मथुरा, अहिछत्रा, जम्बूवन, अर्गलदेश, णिवडकुंडली, सिरपुर, - शत्रुञ्जयतीर्थयात्रारास विनीत कुशल
होलगिरि, गोम्मटदेव आदि तीर्थों के उल्लेख हैं । इस निर्वाणभक्ति में
आये हुए चूलगिरि, पावगिरि, गोम्मटदेव, सिरपुर आदि के उल्लेख ऐसे आदिनाथ रास कविलावण्यसमय
हैं, जो इस कृति को पर्याप्त परवर्ती सिद्ध कर देते हैं । गोम्मटदेव
(श्रवणबेलगोला) की बाहुबली की मूर्ति का निर्माण ई० सन् ९८३ में पार्श्वनाथसंख्यास्तवन रत्नकुशल
-- हुआ । अत: यह कृति उसके पूर्व को नहीं मानी जा सकती और इसके
कर्ता भी कुंदकुंद नहीं माने जा सकते। कावीतीर्थवर्णन
कवि दीपविजय वि०सं० १८८६ पाँचवीं से दशवीं शताब्दी के बीच हए अन्य दिगम्बर आचार्यों तीर्थराज चैत्यपरिपाटीस्तवन साधुचन्द्रसूरि ...
की कृतियों में कुंदकुंद के पश्चात् पूज्यपाद का क्रम आता है । पूज्यपाद पूर्वदेशचैत्यपरिपाटी जिनवर्धनसूरि ---
ने निर्वाणभक्ति में निम्न स्थलों का उल्लेख किया है - मंडपांचलचैत्यपरिपाटी खेमराज
कुण्डपुर, जृम्भिकाग्राम, वैभारपर्वत, पावानगर, कैलाशपर्वत, यह सूची 'प्राचीनतीर्थमालासंग्रह' सम्पादक-विजयधर्मसूरिजी के आधार ऊर्जयंत, पावापुर, सम्मेदपर्वत, शत्रुञ्जयपर्वत, द्रोणीमत, सह्याचल पर दी गई है।
आदि।
रविषेण ने 'पद्मचरित' में निम्न तीर्थस्थलों की चर्चा की है दिगम्बर परम्परा का तीर्थविषयक साहित्य
कैलाश-पर्वत, सम्मेदपर्वत, वंशगिरि, मेघरव, अयोध्या, काम्पिल्य, दिगम्बर परम्परा में प्राचीनतम ग्रन्थ कसायपाहुड, षट्खण्डागम, रत्नपुर, श्रावस्ती, चम्पा, काकन्दी, कौशाम्बी, चन्द्रपुरी, भद्रिका, मिथिला,
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
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वाराणसी, सिंहपुर, हस्तिनापुर, राजगृह, निर्वाणगिरि आदि।
से प्रकाशित । दिगम्बर परम्परा के तीर्थ सम्बन्धी शेष प्रमुख तीर्थवन्दनाओं की ३. भारत के प्राचीन जैनतीर्थ - डॉ० जगदीशचन्द्र जैन, जैन संस्कृति सूची इस प्रकार है -
संसोधन मण्डल, वाराणसी-५ । रचना रचनाकर समय
४. भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ, १,२,३,४,५, (सचित्र) शासनचतुस्त्रिंशिका मदनकीर्ति १२वीं-१३वीं शती
-श्री बलभद्र जैन निर्वाणकाण्ड
प्रका० भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी, बम्बई । तीर्थवन्दना
५. तीर्थदर्शन, भाग १ एवं २ जीरावला पार्श्वनाथस्तवन उदयकीर्ति
प्रकाशक-श्री महावीर जैन कल्याण संघ, मद्रास ६००००७ पार्श्वनाथस्तोत्र
पद्मनंदि १४ वीं शती इसके अतिरिक्त पृथक्-पृथक् तीर्थों पर भी कई महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ भी माणिक्यस्वामीविनति श्रुतसागर १५ वीं शती उपलब्ध हैं। मांगीतुंगीगीत
अभयचन्द तीर्थवन्दना गुणकीर्ति
संदर्भ तीर्थवन्दना मेघराज
१. (अ) अभिधानराजेन्द्रकोष, चतुर्थ भाग, पृ० २२४२ जम्बूद्वीपजयमाला तीर्थजयमाला
(ब) स्थानांग टीका। सुमतिसागर १६ वीं शती २. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ३/५७,५९,६२ (सम्पा० मधुकर मुनि) जम्बूस्वामिचरित राजमल्ल
३. सुयधम्मतित्थमग्गो पावयणं पवयणं च एगट्ठा । सर्वतीर्थ वन्दना
ज्ञानसागर १६वीं-१७वीं शती सुत्त तंतं गंथो पाढो सत्थं पवयणं च एगट्ठा ।। श्रीपुरपार्श्वनाथविनती लक्ष्मण १७वीं शती
-विशेषावश्यक भाष्य, १३७८ पुष्पांजलिजयमाला सोमसेन
४. के ते हरए ? के य ते सन्तितित्थे ? तीर्थजयमाला जयसागर
कहिंसि णहाओ व रयं जहासि ? तीर्थवन्दना चिमणा पंडित
धम्मे हरये बंभे सन्तितित्थे जिनसेन
अणाविले अत्तपसन्नलेसे । सर्वत्रैलोक्यजिनालय जयमाला विश्वभूषण १७वीं शती
जहिंसि पहाओ विमलो विसुद्धो
सुसीइभूओ पजहामि दोसं ॥ बलिभद्र अष्टक मेरुचन्द्र
-उत्तराध्ययनसूत्र, १२/४५-४६ बलिभद्र अष्टक गंगादास
५. देहाइतारयं जं बज्झमलावणयणाइमेत्तं च । मुक्तागिरि जयमाला धनजी
णेगंताणच्चंतिफलं च तो दव्वतित्थं तं ।। रामटेक छंद मकरंद १७वीं-१८वीं शती
इह तारणाइफलयंति ण्हाण-पाणा-ऽवगाहणईहिं । पद्मावती स्तोत्र तोपकरि १८वीं शती
भवतारयंति केई तं नो जीवोवघायाओ ।। षटतीर्थ वन्दना देवेन्द्रकीर्ति
- विशेषावश्यक भाष्य, १०२८-१०२९ जिनसागर
देहोवगारि वा तेण तित्थमिह दाहनासणाईहिं । मुक्तागिरि आरती राघव १८वीं-१९वीं शती .
मह-मज्ज-मंस-वेस्सादओ वि तो तित्थमावन्नं ।। अकृत्रिम चैत्यालयजयमाला पं० दिलसुख १९वीं शती
- वही, १०३१ पार्श्वनाथ जयमाला ब्रह्म हर्ष
७. सत्यं तीर्थं क्षमा तीर्थं तीर्थमिन्द्रियनिग्रहः । तीर्थवन्दना कवीन्द्रसेवक "
सर्वभूतदयातीर्थं सर्वत्रार्जवमेव च ॥ नोट : उक्त तालिका डॉ० विद्याधर जोहरापुरकर द्वारा संपादित दानं तीर्थं दमस्तीर्थं संतोषस्तीर्थमुच्यते । तीर्थवन्दनसंग्रह के आधार पर प्रस्तुत की गयी है ।
ब्रह्मचर्य परं तीर्थं तीर्थं च प्रियवादिता ।।
तीर्थनामपि तत्तीर्थं विशुद्धिमनस: परा । आधुनिक काल के जैन तीर्थ-विषयक ग्रन्थः
- शब्दकल्पद्रुम - ‘तीर्थ', पृ० ६२६ १- जैन तीर्थोनो इतिहास (गुजराती), मुनि श्री न्यायविजय जी ८. भावे तित्थं संघो सुयविहियं तारओ तहिं साहू ।
- श्री चारित्र स्मारक ग्रन्थमाला, अहमदाबाद १९४९ ई० नाणाइतियं तरणं तरियव्यं भवसमुद्दो यं ॥ २- जैनतीर्थसर्वसंग्रह, भाग-१, (खण्ड १-२), भाग-२ पं० अम्बालाल
- विशेषावश्यक भाष्य, १०३२ पी० शाह, आनन्द जी कल्याण जी की पेढ़ी, झवेरीवाड़, अहमदाबाद ९. जं नाण-दसण-चरितभावओ तव्विवक्खभावाओ ।
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भव भावओ य तारे तेणं तं भावओ तित्यं ॥ तह कोह लोह कम्ममयदाह तण्हा मलावणयणाई । एगतेणज्वंतं च कुणइ य सुद्धिं भवोचाओ ।। दाहोबसमाइसु वा जं तिसु थियमहव दंसगाईसु । तो तित्यं संघो च्चिय उभयं व विसेसणविसेस्तं ॥ कोहरिगदाहस्रमणादओ व ते चैव जस्स तिष्णत्था । होई तियत्वं तित्यं तमत्थवदो फलत्थोऽयं ॥
वही, १०३३ २०३६
१०. नामं ठवणा - तित्थं, दव्वतित्यं चेव भावतित्थं च । अभिधानराजेन्द्रकोष, चतुर्थ भाग, पृ० २२४२
११. 'परतित्विया' सूत्रकृतांग, १२६१२
१२. एवं चुत्ते, अनतरो राजामच्चो राजानं मागधं अजातसत्तु वेदेहिपुत्तं एतदवोच- 'अयं देव, पूरणो कस्सपो सङ्घी चेव गणी व गणाचरियो च, नातो, यसस्सी, तित्थकरो, साधुसम्मतो बहुजनस्स, रत्तन्नू, चिरपब्बजितो, अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो ।
दीघनिकाय (सामञ्यफल) २।२ १३. सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥
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१४. अहव सुहोत्तारूत्तारणाइ दव्वे चव्विहं तित्यं । एवं चिय भावम्मिवि तत्वाइमयं सरक्खाणं ॥
जैनधर्म में तीर्थ की अवधारणा
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- विशेषावश्यक भाष्य १०४०-४१ (भाष्यकार ने इस सूत्र की व्याख्या में चार प्रकार के तीर्थों का उल्लेख किया है ।)
१५. तित्यं भंते तित्थं तित्थगरे तित्यं ? गोयमा ! अरहा ताव णियमा तित्थगरे, तित्यं पुण चाउव्वणाइणे समणसंघे । तं जहा - समणा, समणीओ, सावया, सावियाओ य
- युक्त्यनुशासन, ६१
- भगवतीसूत्र, शतक २०, उद्दे०८, १६. वयसंमत्तविसुद्धे पंचेदिवसंजदे णिरावेक्खो ।
हाए उ मुणी तित्थेदिक्खासिक्खा सुण्हाणेण ॥'
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१७. वही, टीका २६।९१।२१ १८. सुधम्मो एत्थ पुण तित्थं । मूलाचार, ५५७ १९. 'तज्जगत्प्रसिद्धं निश्चयतीर्थप्राप्तिकारणं
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बोधपाहुड, मू० २६-२७
मुक्तमुनिपादस्पृष्टं तीर्थंउर्जयन्तशत्रुञ्जयलाटदेशपावागिरि । वहीं, २०. दुविहं च होइ तित्थं णादव्वं दव्वभावसंजुत्तं । एदेसिं दोन्हं पि य पत्तेय परूवणा होदि ।
-मूलाचार, ५६० २१. से भिक्खु वा भिक्खु वा थूभ महेसु वा चेतिय महेसु वा तडाग महेसु वा दह महेसु वा ाई महेसु वा सरमहेसु वा ..... णो पडिगाज्जा
आचारांग, २।१।२।२४ (लाडनूं) २२. (अ) समवायांग प्रकीर्णक समवाय, २२५ / १
(ब) आवश्यकनिर्युक्ति, ३८२-८४ २३. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति २।१११ (लाडनूं)
२४. (अ) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति (जम्बुद्दीवपण्णत्ति), २ / ११४-२२ (ब) आवश्यकनिर्युक्ति, ४५ (स) समवायांग, ३५/३
२५. अट्ठावय उज्जिते गवग्गपए धम्मचक्के य । पासरहावतनगं चमरुप्पायं च वंदामि
२६. निशीथचूर्णि भाग ३, पृ० २४ २७.
उत्तरावहे धम्मचक्कं, महुर ए देवणिम्मिय थूभो कोसलाए व जियंतपडिमा तित्थकराण वा जन्मभूमीओ।
निशीवचूर्णि भाग ३, पृ० ७९
२८.
वही भाग ३ पृ० २४
२९. निस्सकडमनिस्सकडे चेइए सव्वहिं थुई तिन्नि । वेलंब चेइआणि व नाउं रक्किक्किक आववि,' 'अट्ठमीचउदसी सुंचेइय सववाणि साहुणो सब्बे बन्देयव्या नियमा अवसेस तिहीसु जहसति ॥' एएस अट्ठमीमादीसु चेहयाई साहूणो वा जे अणणाए बसहीए ठिआते न वंदति मास लहु ॥
३०.
-व्यवहारचूर्णि उद्धृत जैनतीर्थोनो इतिहास, भूमिका, पृ० १० जहन्नया गोयमा ते साहुणो से आयरियं भणति जहा-णं जइ भयवं तुमे आणावेहि ताणं अम्हेहिं तित्वयत्तं करि (२) या चंदप्पहसामियं बंदि (३) या धम्मचक्कं गंतूणमागच्छामो ॥
-महानिशीथ उद्धृत, वही, पृ० १० श्री पंचाशक प्रकरणम् हरिभद्रसूरि जिनयात्रा पंचाशक पृ० २४८-६३ अभयदेवसूरि की टीका सहित प्रकाशक- ऋषभदेव केशरीमल थे, संस्था, रतलाम) श्वे,
३२. पइण्णयसुत्ताईसारावली पइण्णय, पृ० ३५०-६० बम्बई
३१.
७०७
३३.
आचारांगनियुक्ति पत्र १८
"
४०००३६
अहाव तस्स भावं णाऊण भणेज्जा- 'सो वत्थव्यो एगगामणिवासी कूवमंडुक्को इव ण गामणगरादी पेच्छति । अम्हे पुण अणियतवासी, तुमं पि अम्हेहिं समाणं हिंडतो णाणाविध-गाम- नगरागर सत्रिवेसरायहाणिं जाणवदे व पेच्छतो अभिधाणकुसलो भविस्ससि तहा सर वाविवपिणि-गदि कूव तडाग काणणुज्जाण कंदरदरि - कुहर - पव्वते य णाणाविह रुक्खसोभिए पेच्छंतो चक्खुसुहं पाविहिसि तिरयकराण व तिलोगपूइयाण जम्मण-णिक्खणविहार- केवलुप्पाद - निव्वाणभूमीओ य पेच्छंतो दंसणसुद्धिं काहिसि 'तहा अण्णोष्ण साहुसमागमेण व सामायारिकुसलो भविस्ससि, सव्वापुव्वे य चइए वंदंतो बोहिलाभं निज्जित्तेहिसि, अण्णोण्णसुय दाणाभिगमससु संजमाविरुद्ध विविध वंजणोववेयमण्यं घय-गुल-दधि-क्षीरमादियं च विगतिवरिभोगं पाविहिसि ।।२७१६ । - निशीथचूर्णि भाग ३, पृ० २४, प्रकाशक- सन्मतिज्ञानपीठ,
आगरा
,
.
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३४. सम्मेयसेल-सेत्तुञ्ज-उज्जिते अब्बुयंमि चित्तउडे ।
जालउरे रणथंभे गोपालगिरिमि वंदामि ।।१९।। सिरिपासनाहसहियं रम्मं सिरिनिम्मयं महाथूभं । कालिकाले वि सुयित्थं महुरानयरीउ (ए) वंदामि ॥२०॥ रायगिह-चम्प-पावा-अउज्झ-कंपिल्लट्ठणपुरेसु । भद्दिलपुरि-सोरीयपुरि-अङ्गइया-कन्नउज्जेसु ॥२१॥ सावत्थि-दुग्गामाइसु वाणारसीपमुहपुव्वदेसंमि । कम्मग-सिरोहमाइसु भयाणदेसंमि वंदामि ।।२२।। राजउर-कुण्डणीसु य वंदे गज्जउर पंच य सयाई । तलवाड देवराउ रुउत्तदेसंमि वंदामि ॥२३॥ खंडिल-डिंडूआणय नराण-हरसउर खट्टऊदेसे । नागउरमुव्विदंतिसु संभरिदेसंमि वेदेमि ॥२४॥ पल्ली संडेरय-नाणएसु कोरिट-भिन्नमाल्लेलेसु । वंदे गुज्जरदेसे आहाडाईसु मेवाडे ।।२५।। उवएस-किराडमए वि जयपुराईसु मरुमि वंदामि ।
सच्चउर-गुडरायसु पच्छिमदेसंमि वंदामि ॥२६॥ थाराउद्दय-वायड-जालीहर-नगर-खेड-मोढेरे । अणहिल्लवाडनयरे वड्डावल्लीयं बंभाणे ॥२७॥ निहयकलिकालमहियं सायसतं सयलवाइथंभणए । थंभणपुरे कयवासं पासं वंदामि भत्तीए ॥२८॥ कच्छे भरुयच्छंमि य सोरट्ठ-मरहट्ठ-कुंकण-थलीसु । कलिकुण्ड-माणखेडे दक्षि (क्खि) णदेसंमि वंदामि ।।२९।। धारा-उज्जेणीसु य मालवदेसंमि वंदामि । वंदामि मणुयविहिए जिणभवणे सव्वदेसेसु ॥३०॥ भरहयि (म्मि) मणुयविहिया महिया मोहारिमहियमाहप्पा । सिरिसिद्धसेणसूरीहिं संथुया सिवसुहं देंतु ॥३१॥ Discriptive Catalogue of Mss in the Jaina Bhandars at Pattan-G.O.S. 73, Baroda, 1937,
p. 56 ३५. तिलोयपण्णत्ति, १/२१-२४
अशोक के अभिलेखों की भाषा मागधी या शौरसेनी
प्राकृत-विद्या, अंक जनवरी-मार्च १९९७ (पृ. ९७) में करती जा रही थी। अशोक के अभिलेख मूलत: मगध साम्राज्य की केन्द्रीय भोलाशंकर व्यास के व्याख्यान के समाचारों के सन्दर्भ में सम्पादक डा० भाषा में लिखे गये थे। फिर भी यह समझा गया कि दूरस्थ प्रदेशों की सुदीप जैन ने उन्हें उद्धृत करते हुए लिखा है कि शौरसेनी प्राकृत के जनता के लिए यह प्रशासन और प्रचार की भाषा थोड़ी अपरिचित थी। प्राचीनतम रूप सम्राट अशोक के गिरनार शिलालेख में मिलते हैं। किन्तु इसलिए अशोक ने इस बात की व्यवस्था की थी कि अभिलेखों के पाठों प्रो. व्यासजी का यह कथन भ्रामक है और इसका कोई भी ठोस का विभिन्न प्रान्तों में आवश्यकतानुसार थोड़ा बहुत लिप्यन्तर और भाषाशास्त्रीय आधार नहीं है।
भाषान्तर कर दिया जाय। यही कारण है कि अभिलेखों के विभिन्न अशोक के अभिलेखों की भाषा और व्याकरण के सन्दर्भ में संस्करणों में पाठ-भेद पाया जाता है। पाठ-भेद इस तथ्य का सूचक है अधिकृत विद्वान् एवं अध्येता डा० राजबली पाण्डेय ने अपने ग्रन्थ कि भारत के विभिन्न भागों में विभिन्न बोलियां थीं, जिनकी अपनी 'अशोक के अभिलेख' में गहन समीक्षा की है। उन्होंने अशोक के विशेषताएं थीं। अशोक के अभिलेखों में विभिन्न बोलियों के शब्द-रूप अभिलेखों की भाषा को चार विभागों में बाँटा है-१ पश्चिमोत्तरी (पैशाच- देखने से यह ज्ञात होता है कि मध्यभारतीय भाषा ही इस समय की गान्धार),२ मध्यभारतीय,३ पश्चिमी महाराष्ट्र,४ दक्षिणावर्त (आन्ध्रकर्नाटक)। सार्वदेशिक भाषा थी, मूलतः इसी में अशोक के अभिलेख प्रस्तुत हुए अशोक की भाषा के सन्दर्भ में वह लिखते हैं- महाभारत के बाद का थे। इसे मागध अथवा मागधी भाषा भी कह सकते हैं। परन्तु यह नाटकों भारतीय इतिहास मगध साम्राज्य का इतिहास है। इसलिए शताब्दियों से एवं व्याकरण की मागधी से भिन्न है। जहाँ मागधी प्राकृत में केवल तालव्य उत्तरभारत में एक सार्वदेशिक भाषा का विकास हो रहा था। यह भाषा 'श' का प्रयोग होता है वहां अशोक के अभिलेखों में केवल दन्त्य 'स' वैदिक भाषा से उद्भूत लौकिक संस्कृत से मिलती-जुलती थी और उसके का प्रयोग होता है। (देखें- अशोक के अभिलेख-डाँ० राजबली पाण्डेय, समानान्तर प्रचलित हो रही थी। अशोक ने अपने प्रशासन और धर्म प्रसार पृ० २२-२३) के लिए इसी भाषा को अपनाया, किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि इस भाषा इससे दो तथ्य फलित होते हैं, प्रथम तो यह कि अशोक के का केन्द्र मगध था, जो मध्य-देश (थानेसर और कजंगल की पहाड़ियों अभिलेखों की भाषा नाटकों और व्याकरण की मागधी प्राकृत से भिन्न के बीच का देश) के पूर्व भाग में स्थित था। इसलिए मागधी भाषा की है और उसमें अन्य बोलियों के शब्द रूप निहित हैं। इसलिए हम इसे इसमें प्रधानता थी, परन्तु सार्वजनिक भाषा होने के कारण दूसरे प्रदेशों अर्धमागधी भी कह सकते है। यद्यपि श्वेताम्बर आगमों में उपलब्ध की ध्वनियों और कहीं-कहीं शब्दों और मुहावरों को भी यह आत्मसात अर्धमागधी की अपेक्षा यह किंचित् भिन्न है फिर भी इतना निश्चित है कि
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अशोक के अभिलेखों की भाषा मागधी या शौरसेनी
७०९
यह दिगम्बर आगमों की अथवा नाटकों की शौरसेनी प्राकृत कदापि नहीं यह घोषणा नहीं की है कि अशोक के अभिलेखों की भाषा शौरसेनी प्राकृत है। दिगम्बर आगमों की शौरसेनी के दो प्रमुख लक्षण माने जा सकते हैं- है। वस्तुत: वह मागधी और अन्य प्रादेशिक बोलियों के शब्द-रूपों से मध्यवर्ती त के स्थान पर द का प्रयोग- और दन्त्य 'न' के स्थान पर मूर्धन्य मिश्रित एक ऐसी भाषा है, जिसकी सर्वाधिक निकटता जैन-आगमों की 'ण' का प्रयोग। अशोक के अभिलेखों में मध्यवर्ती त के स्थान पर द अर्धमागधी से है। उसे शौरसेनी कहकर जो भ्रान्ति फैलाई जा रही है वह का प्रयोग कहीं भी नहीं देखा जाता है। शौरसेनी प्राकृत में संस्कृत 'भवति' सुनियोजित षड्यंत्र है। वस्तुतः दिगम्बर आगमतुल्य ग्रन्थों की जिस भाषा का भवदि' या 'होदि' रूप मिलता है जबकि अशोक के अभिलेखों में को परिशुद्ध शौरसेनी कहा जा रहा है वह न तो व्याकरण-सम्मत शौरसेनी एक स्थान पर भी 'होदि' रूप नहीं पाया जाता। सर्वत्र ही 'होति' रूप पाया है और न नाटकों की शौरसेनी है, अपितु अर्धमागधी, शौरसेनी और जाता है, जो अर्धमागधी का लक्षण है। इसी प्रकार 'पितृ' शब्द का पिति' महाराष्ट्री की ऐसी खिचड़ी है, जिसमें इनके मिश्रण के अनुपात भी प्रत्येक या 'पितु' रूप मिलता है जो कि अर्धमागधी का लक्षण है, शौरसेनी की ग्रन्थ और उसके प्रत्येक संस्करण में भिन्न-भिन्न हैं। इसकी विस्तृत चर्चा दृष्टि से तो उसका 'पिदु' रूप होना था। इसी प्रकार 'आत्मा' शब्द का मैंने अपने लेख 'जैन आगमों की मूलभाषा मागधी या शौरसेनी' में की शौरसेनी प्राकृत में में 'आदा' रूप बनता है। जबकि अशोक के अभिलेखों है। शौरसेनी का साहित्यिक भाषा के रूप में तब तक जन्म ही नहीं हुआ में कहीं भी 'आदा' रूप नहीं मिला है। सर्वत्र अत्ने, अत्ना यही रूप मिलते था। नाटकों एवं दिगम्बर परम्परा में आगम रूप में मान्य ग्रन्थों की भाषा हैं। इसी प्रकार 'हित' का शौरसेनी रूप 'हिद' न मिलकर सर्वत्र ही 'हित' तो उसके तीन-चार सौ वर्ष बाद अस्तित्व में आई है। वस्तुत: देहली, शब्द का प्रयोग मिलता है। इसी प्रकार जहाँ शौरसेनी दन्त्य 'न' के प्रयोग मथुरा एवं आगरा के समीपवर्ती उस प्रदेश में जिसे शौरसेनी का जन्मस्थल के स्थान पर मूर्धन्य 'ण' का प्रयोग पाया जाता है वहां अशोक के कहा जाता है, अशोक के जो भी अभिलेख उपलब्ध हैं, उनमें शौरसेनी मध्यभारतीय समस्त अभिलेखों में मूर्धन्य 'ण' का पूर्णत: अभाव है और के लक्षणों यथा 'त' का 'द', 'न' का 'ण' आदि का पूर्ण अभाव है। मात्र सर्वत्र दन्त्य 'न' का प्रयोग हुआ है, पश्चिमी अभिलेखों में भी मूर्धन्य 'ण' यहीं नहीं उसमें 'लाजा' (राजा) जैसा मागधी का शब्द-रूप ही स्पष्टतः का यदा-कदा ही प्रयोग हुआ है, किन्तु सर्वत्र नहीं। पुन: यह मूर्धन्य ‘ण' पाया जाता है। इसी प्रकार गिरनार के अभिलेखों में भी शौरसेनी के का प्रयोग तो महाराष्ट्री प्राकृत में भी पाया जाता है। अशोक के अभिलेखों व्याकरण सम्मत लक्षणों का अभाव है। उनमें अर्धमागधी के वे शब्दकी भाषा के भाषाशास्त्रीय दृष्टि से जो भी अध्ययन हुए हैं उनमें जहाँ तक रूप, जो शौरसेनी में भी पाये जाते हैं देखकर यह कह देना कि अशोक मेरी जानकारी है, किसी एक भी विद्वान् ने उनकी भाषा को शौरसेनी प्राकृत के अभिलेख शौरसेनी में हैं, एक भ्रामक प्रचार है। वस्तुतः अशोक के नहीं कहा है। यदि उसमें एक दो शौरसेनी शब्द रूप जो अन्य प्राकृतों अभिलेखों की भाषा क्षेत्रीय प्रभावों से युक्त मागधी है। उसे अर्धमागधी यथा अर्धमागधी या महाराष्ट्री में भी कामन' मिल जाते हैं तो उसकी भाषा तो माना जा सकता है, किन्तु शौरसेनी कदापि नहीं माना जा सकता है। को शौरसेनी तो कदापि नहीं कहा जा सकता है। इसीलिए शायद प्रो० पाठकों को स्वयं निर्णय करने के लिए हम परिशिष्ट के रूप में देहलीभोलाशंकर जी व्यास को भी दबी जबान से यह कहना पड़ा कि शौरसेनी टोपरा के अशोक के अभिलेखों के मूलपाठ दे रहे हैं। प्राकृत के प्राचीनतम रूप सम्राट अशोक के गिरनार शिलालेख में मिलते
देहली-टोपरा स्तम्भ हैं। सम्भवत: इसमें इतना संशोधन अपेक्षित है कि शौरसेनी प्राकृत के
प्रथम अभिलेख (उत्तराभिमुख) कुछ प्राचीन शब्द-रूप गिरनार के शिलालेख में मिलते है। किन्तु यह
(धर्म पालन से इहलोक तथा परलोककी प्राप्ति) बात ध्यान देने योग्य है कि यह शब्द रूप प्राचीन अर्धमागधी और महाराष्ट्री में भी मिलते हैं, अत: मात्र दो-चार शब्द-रूप मिल जाने से अशोक के
देवानंपिये पियदसि लाज हेवं आहा (१) सडुवीसतिअभिलेख शौरसेनी प्राकृत के नहीं माने जा सकते हैं। क्योंकि उनमें
वस अभिसितेन मे इयं धंमलिपि लिखापिता (२) शौरसेनी के विशिष्ट लक्षणों वाले शब्द रूप नहीं मिलते हैं। उसके आगे
हिदतपालते दुसंपटिपादये अंनत अगाया धमकामताया समादरणीय भोलाशंकर जी व्यास को उद्धृत करते हुए डा० सुदीप जैन
अगाय पलीखाया अगाय सुसूयाया अगेन भयेन ने लिखा है कि इसके बाद परिशुद्ध शौरसेनी भाषा कषायपाहुडसुत्त,
अगन उसाहेना (३) एस चु खो मम अनुसथिया धंमा-' षट्खण्डागमसुत्त, कुन्दकुन्द साहित्य एवं धवला, जयधवला आदि में ,
पेखा धमकामता चा सुवे सुवे वडिता वडीसति चेवा (४) प्रयुक्त मिलती है। इसका अर्थ तो यह हुआ कि अशोक के अभिलेखों
पुलिसा पि च मे उकसा चा गेवया चा मझिमा चा अनुविधीयंती की मागधी अर्थात् अर्धमागधी से ही दिगम्बर जैन साहित्य की परिशुद्ध
संपटिपादयंति चा अलं चपलं समादपयितवे (५) हेमेमा अंतशौरसेनी विकसित हुई है। मैं यहाँ स्पष्ट रूप से यह जानना चाहूँगा कि
महामाता पि(६) एस हि विधि या इयं धमेन पालना धमेन विधाने क्या अशोक के अभिलेखों की भाषा में दिगम्बर जैन साहित्य को १०. धंमेन सखियना धमेन गोती ति (७) तथाकथित परिशुद्ध शौरसेनी अथवा नाटकों की शौरसेनी अथवा ।
द्वितीय अभिलेख (उत्तराभिमुख) व्याकरण-सम्मत शौरसेनी का कोई भी विशिष्ट लक्षण उपलब्ध होता है,
(धर्म की कल्पना) जहां तक मेरी जानकारी है। आजतक किसी भी भाषाशास्त्र के विद्वान् ने
देवानंपिये पियटमि लाज
my ci
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वहुकयाने
एताये मे
७१०
जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ २. हेवं आहा (१) धंमे साधू कियं चु धमे ति (२) अपासिनवे मे आवुति
१६. बंधनबधानं मुनिसानं तीलितदंडानं पतवधानं तिनि दिवसानि मे दया दाने सोचये (३) चखुदाने पि मे बहुविधे दिने (४) दुपद- १७. योते दिने (१२) नातिका व कानि निझपयिसंति जीविताये तानं चतुपदेस पखिवालिचलेस विविधे मे अनुगहे कटे आ पान- १८. नासंतं वा निझपयिता वा नं दाहंति पालतिकं उपवासं व दाखिनाये (५) अंनानि पि च मे बहूनि कयानानि कटानि (६) कछंति (१३)
१९. इछा हि मे हेवं निलुधसि पि कालसि पालतं आलाधयेवू ति अठाये इयं धमलिपि लिखापिता हेवं अनुपटिपजंतु चिलं
(१४) जनस च थितिका च होतू तीति (७) ये च हेवं संपटिपजीसति से सुकटं २०. वढ़ति विविधे धंमचलने संयमे दानसविभागे ति (१५) कछती ति।
पंचम अभिलेख (दक्षिणाभिमुख) तृतीय अभिलेख (उत्तराभिमुख)
(जीवों को अभयदान) (आत्मनिरीक्षण)
१. देवानंपिये पियदसि लाज हेवं अहा (१) सडुवीसतिवसदेवानंपिये पियदसि लाज हेवं अहा (१) कयानं मेव देखति २. अभिसितेन मे इमानि जातानि अवधियानि कटानि सेयथा इयं मे
सुके सालिका अलुने चकवाके हंसे नंदीमुखे गेलाटे कयाने कटे ति (२) नो मिन पापं देखति इयं मे पापे कटे ति जतूका अंबाकपीलिका दली अनठिकमछे वेदवेयके इयं वा आसिनवे
गंगा पुपुटके संकुजमछे कफटसयके पंनससे सिमले ३. नामाति (३) दुपटिवेखे चु खो एसा (४) हेवं चु खो एस देखिये ६. संडके ओकपिंडे पलसते सेतकपोते गामकपोते (५) इमानि
सवे चतुपदे ये पटिभागं नो एति न च खादियती (२) आसिनवगामीनि नाम अथ चंडिये निठलिये कोधे माने इस्या ८. एलका चा सकूली चा गभिनी वा पायमीना व अवधिय प तके कालनेन व हकं मा पलिभसयिसं (६) एस बाढ देखिये (७) ९. पि च कानि आसंमासिके (३) वधिककटे नो कटविये (४) इयं मे
तुसे सजीवे हिदतिकाये इयमन मे पालतिकाये
१०. नो झापेतविये (५) दावे अनठाये वा विहिसाये वा नो चतुर्थ अभिलेख (पश्चिमाभिमुख)
झापेतविये (६) (राजुकों के अधिकार और कर्तव्य)
११. जीवेन जीवे नो पुसितविये (७) तीसु चातुंमासीसु तिसायं देवानंपिये पियदसि लाज हेवं आहा (१) सडुवीसतिवस
पुनमासियं २. अभिसितेन मे इयं धमलिपि लिखापिता (२) लजूका मे १२. तिंनि दिवसानि चावुदसं पंनडसं पटिपदाये धुवाये चा
बहूसु पानसतसहसेसु जनसि आयता (३) तेसं ये अभिहाले वा १३. अनुपोसथं मछे अवधिये नो पि विकेतविये (८) एतानि येवा दंडे वा अतपतिये मे कटे किंति लजूका अस्वथ अभीता
दिवसानि ५. कंमानि पवेयेवू जनस जानपदसा हितसुखं उपदहेवू १४. नागवनसि केवटभोगसि यानि अंनानि पि जीवनिकायानि ६. अनुगहिनेवु च (४) सुखीयनं दुखीयनं जानिसंति धंमयुतेन च १५. न हंतवियानि (९) अठमीपखाये चावुदसाये पंनडसाये तिसाये
वियोवदिसंति जनं जानपदं किंति हिदतं च पालतं च १६. पुनावसुने तीसु चातुंमासीसु सुदिवसाये गोने नो नीलखितविये आलाधयेवू ति (५) लजूका पि लघंति पटिचलितवे १७. अजके एडके सूकले ए वा पि अंने नीलखियति नो (६) पुलिसानि पि मे
नीलखितविये (१०) छंदनानि पटिचलिसंति (७) ते पि च कानि वियोवदिसंति १८. तिसाये पुनावसुने चातुंमासिये चातुंमासि पखाये अस्वसा गोनसा येन मं लजूका
१९. लखने नो कटविये (११) यावसडुवीसतिवस अभिसितेन मे चघंति आलाधयितवे (८) अथा हि पज वियताये धातिये निसिजितु
२०. अंतलिकाये पंनवीसति बंधनमोखानि कटानि (१२) अस्वथे होति वियत धाति चघति मे पजं सुखं पलिहटवे
षष्ठ अभिलेख (अपूर्वाभिमुख) १२. हेवं ममा लजूका कटा जानपदस हितसुखाये (९) येन एते अभीता
(धर्मवृद्धि : धर्म के प्रति अनुराग) १३. अस्वथ संतं अविमना कंमानि पवतयेवू ति एतेन मे लजूकानं देवानंपये पियदसि लाज हेवं अहा (१) दुवाडस १४. अभिहाले व दंडे वा अतपतिये कटे (१०) इछितविये हि २. वस अभिसितेन मे धमलिटि लिखापिता लोकसा एसा किंति
हितसुखाये से तं अपहटा तं तं धंमवढि पापो वा (?) १५. वियोहालसमता च सिय दंडसमता चा (११) अव इते पि च ४. हेवं लोकसा हितसुखेति पटिवेखामि अथ इयं
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एताये
सात
११.
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अशोक के अभिलेखों की भाषा मागधी या शौरसेनी
७११
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५. नातिसु हेवं पतियासनेसु हेवं अपकटेसु
१५. एस कटे (२२) देवानंपिये पियदसि हेवं आहा (२३) किम कानि सुखं अवहामी ति तथ च विदहामि (३) हे मे वा धंममहामाता पि मे ते बहुविधेसु अठेसु आनुगहिकेसु वियापटासे ७. सवनिकायेसु पटिवेखामि (४) सव पासंडा पि मे पूजिता पवजीतानं चेव गिहिथानं च स...डेसु" पि च वियापटासे (२४) विविधाय पूजाया (५) ए चु इयं अतना पचूपगमने
संघठसि पि मे कटे इमे वियापटा होहंति ति हेमेव बाभनेसु से मे मोख्यमते (६) सडुविसति वस अभिसितेन मे
आजीविकेसु पि मे कटे १०. इयं धमलिपि लिखापिता (७)
१६. इमे वियापटा होहंति ति निगंठेस पि मे कटे इमे वियापटा होहंति सप्तम अभिलेख (अ) पूर्वाभिमुख
नानापासंडेसु पि मे कटे इमे वियापटा होहंति ति पटिविसिठं तेसु (धर्मप्रचार सिंहावलोकन)
तेसु ते ....माता (२५) धंममहामाता चु मे एतेसु चेव वियापटा देवानंपिये पियदसि लाजा हेवं आहा (१) ये अतिकंतं
सबेसु च पासंडेसु (२६) देवानंपिये पियदसि लाजा हेवं आहा अंतलं लाजाने हुसु हेवं इछिसु कथं जने
(२७) धंमवडिया वढेया नो चु जने अनुलुपाया धंमवडिया १७. एते च अंने च बहुका मुखा दान-विसगसि वियापटासे मम चे वडिथ (२) एतं देवानंपिये पियदसि लाजा हेवं आहा (३) एस व देविनं च। सवसि च मे ओलोधनसि ते बहुविधेन आ (का)
लेन तानि तानि तुठायतनानि पटी (पादयंति) हिद एव दिसासु हुथा (४) अतिकंतं च अंतलं हेवं इछिस लाजाने कथं जने च। दालकानां पि च मे कटे। अंनानं च देवि- कुमालानं इमे दान अनुलुपाया धमवडिया वढेया ति नो च जने अनुलुपाय
विसगेसु वियापटा होहंति ति ७. धंमवडिया वडिथा (५) से किनसु जने अनुपटिपजेया (६) १८. धंमापदानठाये धंमानुपटिपतिये (२८) एस हि धमापदाने
किनसु जने अनुलुपाया धंमवडिया वढेया ति (७) किनसु कानि धंमपटीपति च या इयं दया दाने सचे सोचवे च मदवे साधवे अभ्यूनामयेहं धंमवडिया ति (4) एतं देवानंपिये पिददसि लाजा च लोकस हेवं वडिसति ति (२९) देवानंपिये प....सालाजा हेवं
हेवं आहा (३०) यानि हि कानिचि ममिया साधवानि कटानि तं आहा (९) एस मे हुथा (१०) धंमसावनानि सावापयामि लोके अनूपटोपंने तं च अनुविधियंति (३१) तेन वडिता च धंमानुसथिनि
१९. वडिसंति च मातापितुसु सुसुसाया गुलुसु सुसुसाया वयोमहालकानं अनुसासामि (११) एतं जने सुतु अनुपटीपजीसति अभ्युनमिसति अनुपटीपतिया बाभनसमनेसु कपनवलाकेसु आव दासभटकेसु धमवडिया च वाडं वडिसति (१२) एताये मे अठाये संपटीपतिया (३२) देवानंपिय ....यदसि लाजा हेवं आहा (३३) धंमसावनानि सावापितानि धंमानुसथिनि विविधानि आनापितानि मुनिसानं चु या इयं धंमवडि वडिता दुवेहि येव आकालेहि य ......सा पि बहुने जनसि आयता ए ते पलियो वदिसंति धंमनियमेन च निझतिया च (३४) पिप विथलिसंति पि (१३) लजूका पि बहुकेसु पानसहसेसु २०. तत चु लहु से धमनियमे निझतिया व भुये (३५) धमनियमे चु आयता ते पि मे आनपिता हेवं च हेवं च पलियोवदाथ
खो एस ये मे इयं कटे इमानि च इमानि जातानि अवधियानि जनं धंमयुतं (१४) देवानंपिये पियदसि लाजा हेवं आहा (१५) (३६) अनानि पि चु बहुकं .....धमनियमानि यानि मे कटानि एतमेव मे अनुवेखमाने धंमर्थभानि कटानि धंममहामाता कटा धंम (३७) निझतिया व चु भुवे मुनिसानं धंमवडि वडिता अविहिंसाये .....कटे (१६) देवानंपिये पियदसि लाजा हेवं आहा (१७) भुतानं मगेसु पि मे निगोहानि लोपापितानि छायोपगानि होसंति २१. अनालंभाये पानानं (३८), से एताये अथाये इयं कटे पसुमुनिसानं अंपावडिक्या लोपापिता (१७) अडकासिक्यानि पि पुतापपोतिके चंदमसुलिपिके होतु ति तथा च अनुपटीपजंतु ति मे उदुपानानि
(३९) हेवं हि अनुपटीपजंतं हिदत पालते आलधे होति (४०) १४. खानापापितानि निसिडया च कालापिता (१८) आपानानि मे सतविसतिवसाभिसितेन मे इयं धंमलिबि लिखापापिता ति (४१)
बहुकानि तत तत कालापितानि पटीभोगाये पसुमुनिसानं (१९) एतं देवानंपिये आहा (४२) इयं ल ..... एस पटीभोगे नाम (२०) विविधाया हि सुखापनाया २२. धंमलिबि अत अथि सिलार्थभानि वा सिला फलकानि वा तत पुलिमेहि पिलाजीहि ममया च सुखयितेलोके (२१) इमं चु धमानु कटविया एन एस चिलठितिके सिया (४३) पटीपती अनुपटीपजंतु ति एतदथा मे
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जैनागम-धर्म में स्तूप
जैनागमों में स्तूप एवं स्तूप-मह का सर्वप्रथम उल्लेख हमें होता था, तो यह चैत्य-स्तूप कहलाता था। वाचस्पत्यम् में मुखरहित आचारांग सत्र के द्वितीय श्रुत-स्कन्ध (आयारचूला) के तृतीय एवं चतुर्थ छत्राकार के यक्षायतनों के लिय चैत्य शब्द का भ अध्ययनों में मिलता है। आचारांग के पश्चात् अंग आगमों मे स्थानांगरे इस स्मृति-चिह्न में मृतात्मा (व्यन्तर) का निवास मानकर पूजा जाता था।
और प्रश्नव्याकरण में; उपांग साहित्य में जीवाभिगम, जम्बूद्वीप इस प्रकार विशिष्ट मृत व्यक्ति के स्मारक/स्मृति-चिह्न पूजा-स्थलों के रूप प्रज्ञप्ति; पुन: व्याख्यासाहित्य में हमें आवश्यकनियुक्ति, आवश्यकचूर्णि", में परिवर्तित हो गये और पूजनीय माने जाने लगे। पहले जहाँ व्यक्ति के व्यवहारचूर्णि तथा आचारांग, स्थानांग आदि आगमों की टीकाओं में शव को जलाया जाता होगा, वहाँ चैत्यवृक्ष और चैत्यस्तूप बनते होंगे। स्तूप, चैत्यस्तूप एवं स्तूपमह का उल्लेख मिलता है। आचारांग में स्वतन्त्र आगे चलकर व्यक्ति के किसी शारीरिक अवशेष अर्थात् अस्थि, राख रूप से स्तूप शब्द का प्रयोग न होकर 'चैत्यकृत स्तूप' (थूभं, वा आदि पर चैत्य या स्तूप बनाये जाने लगे। फिर मात्र उन्हें पूजने के लिए चेइयकडं)-इस रूप में प्रयोग हुआ है। यहाँ चेइयकर्ड शब्द के अर्थ को यत्र-तत्र उनके नाम पर चैत्य या स्तूप बने। मूर्तिकला का विकास होने स्पष्ट कर लेना होगा। चेइयकडं शब्द भी दो शब्दों के योग से बना है- पर चैत्य यक्षायतन और सिद्धायतन अर्थात् यक्ष-मन्दिर या जिन-मन्दिर चेइय + कडं। प्रो० ढाकी का कहना है कि कडं शब्द प्राकृत कूड या के रूप में विकसित हुए। ईसा की छठी शताब्दी तक जैन साहित्य में संस्कृत कूट का सूचक है, जिसका अर्थ होता है-ढेर (Heap), विशेष चैत्य शब्द जिन-मन्दिर के अर्थ में भी प्रयुक्त होने लगा था और चैत्यालय, रूप से छत्राकार आकृति का ढेर। इस प्रकार वे "चेइयकर्ड" का अर्थ चैत्यगृह आदि जिन-मन्दिर के पर्यायवाची माने जाने लगे। करते हैं-कूटाकार या छत्राकार चैत्य तथा थूभ को इसका पर्यायवाची मानते किन्तु जहाँ तक आचारांग में प्रयुक्त चैत्यकृत-स्तूप के अर्थ का हैं। किन्तु मेरी दृष्टि में 'चेइयकडं' शब्द थूभ (स्तूप) का विशेषण है, प्रश्न है, उसमें उसका अर्थ है-किसी की स्मृति में उसके चिता-स्थल पर्यायवाची नहीं। चेइयकडं थूभ (चैत्यीकृत स्तूप) का तात्पर्य है-चिता पर अथवा उसके शारीरिक अवशेषों पर निर्मित मिट्टी, ईंटों या पत्थरों या शारीरिक अवशेषों पर निर्मित स्तूप अथवा चिता या शारीरिक अवशेषों की छत्राकार आकृति। प्रारम्भ में स्तूप किसी के चिता-स्थल अथवा अस्थि से सम्बन्धित स्तूप। स्तूप सम्भवत: वे स्तूप जो चिता-स्थल पर बनाये आदि शारीरिक अवशेषों पर निर्मित ईंट या पत्थरों की छत्राकार आकृति जाते थे अथवा जिनमें किसी व्यक्ति के शारीरिक अवशेष रख दिये जाते होता था। चैत्य-स्तूप के साथ-साथ चैत्य-वृक्षों का भी हमें आचारांग में थे, चैत्यीकृत स्तूप कहलाते थे। यहाँ कडं शब्द कूट का वाचक नहीं अपितु उल्लेख मिलता है। प्रथम तो किसी व्यक्ति के दाह-स्थल या समाधि-स्थल कृत का वाचक है। भगवती में कडं शब्द कृत का वाचक है१°। पुन: कडं पर उसकी स्मृति में वृक्षारोपण कर दिया जाता होगा और वही वृक्ष का कूट करने पर 'रुक्खं वा चेइयकडं' का ठीक अर्थ नहीं बैठेगा। “रुक्खं चैत्यवृक्ष कहलाता होगा। यद्यपि आगे चलकर जैन परम्परा में वह वृक्ष वा चेइयकडं" का अर्थ है-चिता-स्थल या अस्थि आदि के ऊपर रोपा भी चैत्यवृक्ष कहलाने लगा, जिसके नीचे किसी तीर्थंकर को केवल ज्ञान गया वृक्ष। चेइयकडं का अर्थ पूजनीय भी किया जा सकता है। प्रो० उत्पन्न होता था। क्रमश: इन चैत्य-वृक्षों एवं चैत्यस्तूपों की श्रद्धावान् उमाकांत शाह ११ ने यह अर्थ किया भी है, किन्तु मेरी दृष्टि में यह परवर्ती सामान्यजनों के द्वारा पूजा की जाने लगी। आचारांग में जिन चैत्य-स्तूपों अर्थ-विकास का परिणाम है। अत: जैन साहित्य में स्तूप शब्द के अर्थ- का उल्लेख है, वे चैत्य-स्तूप जैन परम्परा या जैनधर्म सम्बन्धित हैंविकास को समझने के लिए चैत्य शब्द के अर्थ-विकास को समझना ऐसा कहना कठिन है, क्योंकि उसमें आकार, तोरण, तलगृह, प्रासाद, होगा। संस्कृत कोशों में चैत्य शब्द के पत्थरों का ढेर, स्मारक, समाधि- वृक्षगृह, पर्वत आदि की चर्चा के सन्दर्भ में ही चैत्य-वृक्ष और चैत्यप्रस्तर, यज्ञमण्डल, धार्मिक पूजा का स्थान, वेदी, देवमूर्ति स्थापित करने स्तूपों का उल्लेख हुआ है। साथ ही जैनमुनि को स्तूप आदि को उचकका स्थान, देवालय, बौद्ध और जैन मन्दिर आदि अनेक अर्थ दिये गये उचक कर देखने तथा स्तूपमह अर्थात् स्तूप-पूजा के महोत्सवों एवं मेलों हैं१२। किन्तु ये विभिन्न अर्थ चैत्य शब्द के अर्थ-विकास की प्रक्रिया के में जाने का निषेध किया गया है।१५ स्मरणीय है कि यदि आचारांग के परिणाम हैं।
द्वितीय श्रुतस्कन्ध के रचनाकाल तक भी जैन स्तूप होते तो ऐसा सामान्य याज्ञवल्क्यस्मृति में श्मशान-सीमा में स्थित पुण्य-स्थान के रूप निषेध तो नहीं ही किया जाता। मात्र यह कहा जाता कि अन्य तीर्थकों में भी चैत्य शब्द का उल्लेख हुआ है।१३ प्राचीन जैनागमों में भी चिता- के स्तूप एवं स्तूपमह में नहीं जाना चाहिए। इससे यही ज्ञात होता है कि स्थल पर निर्मित स्मारक को चैत्य कहा गया है। किन्हीं विशिष्ट व्यक्तियों आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के रचनाकाल तक जैनेतर परम्पराओं में के चितास्थल पर उनकी स्मृति हेतु चबूतरा बना दिया जाता था, जो चैत्य सामान्य रूप से स्तूप निर्मित होने लगे थे। सम्भवत: आचारांग के द्वितीय कहलाता था। कभी-कभी चबूतरे के साथ-साथ वहाँ वृक्षारोपण कर दिया श्रुतस्कन्ध का रचनाकाल ईसा पूर्व की द्वितीय या तृतीय शताब्दी रहा जाता था, जिसे चैत्यवृक्ष कहा जाता था। यदि यह स्मृति-चिह्न छत्राकार होगा। क्योंकि इसके बाद मथुरा में जैन स्तूप मिलते हैं। अंग साहित्य में
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जैनागम-धर्म में स्तूप
७१३.
पुन: हमें स्थानांगसूत्र में नन्दीश्वर द्वीप के वर्णन प्रसंग में चैत्यस्तूप और के उल्लेख तो उपलब्ध नहीं होते हैं, किन्तु अरिहंत चैत्य का उल्लेख चैत्यवृक्ष का उल्लेख मिलता है। मथुरा में, आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध अवश्य मिलता है।१९ यद्यपि ज्ञाताधर्मकथा में स्तूपिका (थूभिआ) का के अनुसार, महावीर के गर्भापहरण का चित्रण भी मिलता है, अत: मथुरा उल्लेख अवश्य है।२० इतना निश्चित है कि इन आगमों के रचनाकाल का स्तूप आचारांग का परवर्ती है। उसमें वर्णित चैत्यस्तूप और चैत्यवृक्ष तक जैन परम्परा में जिन-प्रतिमाओं और जिन-मन्दिरों का विकास हो चुका जैन परम्परा से सम्बन्धित हैं, साथ ही उस समय तक न केवल चैत्यस्तूप था। पुन: दसवें अंग-आगम प्रश्नव्याकरण में स्तूप शब्द का उल्लेख बनने लगे थे, अपितु उस पर जिनमूर्तियों की स्थापना होने लग गयी मिलता है, किन्तु उसमें उल्लिखित स्तूप जैन परम्परा का स्तूप नहीं है। थी। स्थानांगसूत्र में जैन चैत्यस्तूपों का निम्न उल्लेख प्राप्त होता है- सम्भवत: यहाँ ही हमें स्वतन्त्र रूप से स्तूप शब्द मिलता है, क्योंकि इसके 'नन्दीश्वरद्वीप के ठीक मध्य में चारों दिशाओं में चार अञ्जन पर्वत हैं। वे पूर्व सर्वत्र चैत्य-स्तूप (चेइय-थूभ) शब्द का प्रयोग मिलता है। ज्ञातव्य अञ्जन पर्वत नीचे दस हजार योजन विस्तृत हैं, किन्तु क्रमश: उनका ऊपरी है कि प्रश्नव्याकरण का वर्तमान में उपलब्ध संस्करण आगमों के भाग एक हजार योजन चौडा है। उन अञ्जन पर्वतों के ऊपर अत्यन्त समतल लेखनकाल के बाद सम्भवत: ७वीं शताब्दी की रचना है। जैनधर्म में
और रमणीय भूमि-भाग है। उस सम-भूमि-भाग के मध्य में चारों ही अञ्जन परवर्तीकाल में स्तूप-परम्परा पुन: लुप्त होने लगी थी। जैनधर्म में न तो पर्वतों पर चार सिद्धायतन अर्थात् जिन-मन्दिर हैं। प्रत्येक जिन-मन्दिर प्रारम्भ में स्तूप-निर्माण और स्तूप-पूजा की परम्परा थी और न परवर्ती की चारों दिशाओं में चार द्वार हैं। इन चारों द्वारों के आगे चार मुखमण्डप काल में ही वह जीवित रही। मुझे तो ऐसा लगता है कि ईसा पूर्व की हैं। उन मुखमण्डपों के आगे चार प्रेक्षागृह या रंगशाला मण्डप हैं। पुनः द्वितीय एवं प्रथम शताब्दी से लेकर ईसा की पाँचवीं शताब्दी तक बौद्धउन प्रेक्षागृहों के आगे मणिपीठिकाएँ हैं। उन मणिपीठिकाओं पर चैत्यस्तूप परम्परा के प्रभाव के कारण ही जैन-परम्परा में स्तूप-निर्माण और स्तूप हैं। प्रत्येक चैत्यस्तूप पर चारों दिशाओं में चार मणिपीठिकाएँ हैं और उन . पूजा की अवधारणा विकसित हुई होगी, जो बौद्धों के पतन काल अर्थात् चार मणिपीठिकाओं पर चार जिन-प्रतिमाएँ हैं। वह सब रत्नमय, सातवी-आठवीं शताब्दी के पश्चात् पुनः लुप्त हो गई, क्योंकि हमें आठवीं सपर्यंकासन (पद्मासन) की मुद्रा में अवस्थित हैं। पुन: चैत्यस्तूपों के आगे शताब्दी के पश्चात् की जैन रचनाओं में केवल उन आगम ग्रन्थों की चैत्यवृक्ष हैं। उन चैत्यवृक्षों के आगे मणिपीठिकाओं पर महेन्द्रध्वज हैं। टीकाओं तथा मथुरा एवं वैशाली के ऐतिहासिक विवरण देने वाले ग्रन्थों उन महेन्द्रध्वजों के आगे पुष्करिणियाँ हैं और उन पुष्करिणियों के आगे को छोड़कर, जिनमें स्तूप शब्द आया है, कहीं भी जिन-स्तूपों का उल्लेख वनखण्ड हैं।१६ इस सब वर्णन से ऐसा लगता है कि स्थानांग के नहीं मिलता है। रचनाकाल तक सुव्यवस्थित रूप से मन्दिरों के निर्माण की कला का भी १४वीं शताब्दी तक के जैन साहित्य में मथुरा में जैन स्तुपों विकास हो चुका था और उन मन्दिरों में चैत्य-स्तूप बनाये जाते थे ओर के अस्तित्व के संकेत उपलब्ध हैं। उपाङ्ग साहित्य में जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में उन चैत्य-स्तूपों पर पीठिकाएँ स्थापित करके जिन-प्रतिमाएँ भी स्थापित हमें तीर्थंकर, गणधर और विशिष्ट मुनियों की चिताओं पर चैत्यस्तूप बनाने की गई थीं। परवर्ती काल में बौद्ध परम्परा में भी हमें स्तूपों की चारों के उल्लेख भी मिलते हैं। ऐसे उल्लेख आवश्यकनियुक्ति में भी उपलब्ध दिशाओं में बुद्ध-प्रतिमाएं होने के उल्लेख मिलते हैं। स्थानांग एक संग्रह हैं२१। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति और आवश्यकनियुक्ति निश्चित ही आगमों के ग्रन्थ है और उनमें ईसा पूर्व से लेकर ईसा की चौथी शताब्दी तक की लेखनकाल अर्थात् ईसा की छठी शताब्दी के पूर्व की रचना है। इन सबसे सामग्री संकलित है। प्रस्तुत सन्दर्भ किस काल का है यह कहना तो कठिन हमारी उस मान्यता की पुष्टि होती है, जिसके अनुसार ईसा पूर्व की द्वितीय है, किन्तु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि वह लगभग ईसा की प्रथम एवं प्रथम शताब्दी से लेकर ईसा की प्रथम पाँच शताब्दियों में ही जैन शताब्दी का होगा, क्योंकि तब तक जिन-मन्दिर और जिन-स्तूप बनने परम्परा में स्तूप-निर्माण और स्तूप-पूजा की परम्परा रही और बाद में वह लगे थे। उसमें वर्णित स्तूप जैन परम्पर से सम्बन्धित है। यद्यपि यह क्रमश: विलुप्त होती गई। यद्यपि चैत्य-स्तम्भों एवं चरण-चिह्नों के निर्माण विचारणीय है कि मथुरा के एक अपवाद को छोड़कर हमें किसी भी जैन- की परम्परा वर्तमान युग तक जीवित चली आ रही है। इस आधार पर स्तूप के पुरातात्त्विक अवशेष नहीं मिले हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से विश्वसनीय हम यह निष्कर्ष भी निकाल सकते हैं कि चैत्य-स्तूपों के निर्माण और जैन-स्तूपों के साहित्यिक उल्लेख भी नगण्य हैं।
उनकी पूजा की परम्परा जैनों की अपनी मौलिक परम्परा नहीं थी, अपितु समवायांग एवं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में हमें चैत्यस्तूप के स्थान पर वह लौकिक परम्परा का प्रभाव था। वस्तुतः स्तूप-निर्माण और स्तूप-पूजा चैत्यस्तम्भ का उल्लेख मिलता है, साथ ही इन स्तम्भों में जिन-अस्थियों की परम्परा महावीर और बुद्ध से पूर्ववर्ती एक लोकपरम्परा रही है जिसका को रखे जाने का भी उल्लेख है।१७ अत: चैत्य-स्तम्भ चैत्य-स्तूप का प्रभाव जैन और बौद्ध दोनों पर पड़ा। सम्भवत: पहले बौद्धों ने उसे ही एक विकसित रूप है। जैन परम्परा में चैत्यस्तूपों की अपेक्षा चैत्य- अपनाया और बाद में जैनों ने। जैनागम साहित्य में मुझे किसी भी स्तम्भ बने, जो आगे चलकर मानस्तम्भ के रूप में बदल गये। आदिपुराण ऐतिहासिक जैन स्तूप का उल्लेख देखने में नहीं आया। जैन साहित्य में में मानस्तम्भ का स्पष्ट उल्लेख है।२८ जैनधर्म की दिगम्बर परम्परा में आज जिन स्तूपों का उल्लेख है, उनमें व्यवहारचूर्णि में उल्लिखित मथुरा एवं भी मन्दिरों के आगे मानस्तम्भ बनाने का प्रचलन है। शेष अंग-आगमों आवश्यकचूर्णि में उल्लिखित वैशाली के स्तूप को छोड़कर देव-लोक में भगवती सूत्र, ज्ञाताधर्मकथा और उपासकदशांग में हमें चैत्य-स्तूपों (स्वर्ग), नन्दीश्वरद्वीप एवं अष्टापद (कैलाशपर्वत) आदि पर निर्मित स्तूपों
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
के ही उल्लेख हैं, जिनकी ऐतिहासिकता संदिग्ध ही है। मथुरा के (क्षपणक) इस कार्य को करने में समर्थ है। संघ उनके पास गया। क्षपणक ऐतिहासिक स्तूप का प्राचीनतम उल्लेख व्यवहारचूर्णि में और व्यवहारसूत्र से कहा कि कायोत्सर्ग कर देवी को आकम्पित करो अर्थात् बुलाओ। की मलयगिरि की टीका२२ में मिलता है। इस स्तूप के सम्बन्ध में परवर्ती उन्होंने कायोत्सर्ग कर देवी को बुलाया। देवी ने आकर कहा- "बताइये दिगम्बर और श्वेताम्बर साहित्य में अन्यत्र भी उल्लेख मिलते हैं। मैं क्या करूँ?" तब मुनि ने कहा- “जिससे संघ की जय हो वैसा करो।" आवश्यकचूर्णि में वैशाली के मुनिसुव्रतस्वामी के स्तूप का उल्लेख है।२३ देवी ने व्यंग्यपूर्वक कहा- “अब मुझ असंयति से भी तुम्हारा कार्य होगा। इस समग्र चर्चा से हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि जैन साहित्य तुम राजा के पास जाकर कहो कि यदि यह स्तूप बौद्धों का होगा तो इसके में जो स्तूप-सम्बन्धी विवरण उपलब्ध हैं, उनमें ऐतिहासिक दृष्टि से मथुरा शिखर पर रक्त-पताका होगी और यदि यह हमारा अर्थात् जैनों का होगा
और वैशाली के प्रसंग ही महत्त्वपूर्ण हैं और उसमें भी वैशाली के सम्बन्ध तो शुक्ल-पताका दिखायी देगी।" उस समय राजा के कुछ विश्वासी पुरुषों में कोई पुरातात्त्विक प्रमाण नहीं मिले हैं। जैन धर्म में स्तूप-निर्माण और ने स्तूप पर रक्त-पताका लगवा दी। तब देवी ने रात्रि को उसे श्वेत-पताका स्तूप-पूजा के पुरातात्त्विक प्रमाण अभी तक तो केवल मथुरा से उपलब्ध कर दिया। प्रात:काल स्तूप पर शुक्ल-पताका दिखायी देने से जैन संघ हुए है।२४ वैशाली के स्तूप को मुनिसुव्रत का स्तूप कहा गया है। मथुरा विजयी हो गया।२६ मथुरा के देव-निर्मित स्तूप का यह संकेत किंचित् के स्तूप के पास से उपलब्ध एक पाद-पीठ के लेख को प्रो०के०डी० रूपान्तर के साथ दिगम्बर परम्परा में हरिषेण के बृहद्कथाकोश के वाजपेयी ने अर्हत् मुनिसुव्रत पढ़ा है।२५ कहीं ऐसा तो नहीं कि वैरकुमार के आख्यान में२७ तथा सोमदेवसूरि के यशस्तिलकचम्पू के आवश्यकचूर्णिकार ने भ्रमवश उसे वैशाली में स्थित कह दिया हो। षष्ठ आश्वास में ब्रजकुमार की कथा में २८ मिलता है। पुन: चौदहवीं शताब्दी
पुरातत्त्व की दृष्टि से मथुरा में न केवल जैन स्तूप के अवशेष में जिनप्रभसूरि ने भी विविधतीर्थकल्प के मथुरापुरीकल्प में इसका उल्लेख उपलब्ध हुए हैं, अपितु अनेक आयागपटों पर भी स्तूपों का अंकन और किया है २९। बौद्धों से हुए विवाद का भी किंचित् रूपान्तर के साथ सभी स्तूप पूजा के दृश्य उपलब्ध होते हैं। एक शिलाखण्ड में तो आसपास ने उल्लेख किया है। जिन-प्रतिमाओं का और बीच में स्तूप का अंकन है। एक अन्य आयागपट इस कथा से तीन स्पष्ट निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। प्रथम पर पुरुषों को स्तूप की पूजा करते हुए दिखाया गया है। मथुरा से तो उस स्तूप को देव-निर्मित कहने का तात्पर्य यही है कि उसके निर्माता उपलब्ध स्तूप-अंकन से युक्त अनेक आयागपटों पर शिलालेख भी हैं। के सम्बन्ध में जैनाचार्यों को स्पष्ट रूप से कुछ ज्ञात नहीं था, दूसरे उसके इस सबसे इतना स्पष्ट हो जाता है कि इस काल में जैनों में स्तूप-निर्माण स्वामित्व को लेकर जैन और बौद्ध-संघ में कोई विवाद हुआ था, तीसरे
और स्तूप-पूजा की परम्परा रही है। स्तूप के आसपास जिन-प्रतिमा से यह कि जैनों में स्तूपपूजा प्रारम्भ हो चुकी थी। यह भी निश्चित है कि परवर्ती युक्त शिलाखण्ड इसका सबसे महत्त्वपूर्ण प्रमाण है, किन्तु मथुरा में जो साहित्य में उस स्तूप का जैनस्तूप के रूप में ही उल्लेख हुआ है। अत: भी स्तूप और स्तूपों के अंकन सहित आयागपट मिले हैं, वे सभी ईसा इस विवाद के पश्चात् यह स्तूप जैनों के अधिकार में रहा-इस बात से पूर्व दूसरी शती से लेकर ईसा की तीसरी शताब्दी तक के ही हैं। ईसा भी इन्कार नहीं किया जा सकता है। लेकिन यहाँ मूल प्रश्न यह है कि की चौथी-पाँचवीं शताब्दी के बाद से न तो स्तूप मिलते हैं और न स्तूपों क्या उस स्तूप का निर्माण मूलत: जैन स्तूप के रूप में हुआ था अथवा.. के अंकन से युक्त आयागपट ही। इस सम्बन्ध में प्रो० उमाकांत शाह की वह मूलत: एक बौद्ध परम्परा का स्तूप था और परवर्ती काल में वह जैनों पुस्तक 'Art and Architecturer, के अध्याय छठा और दसवां विशेष के अधिकार में चला गया। रूप से द्रष्टव्य हैं। इन पुरातात्त्विक प्रमाणों से भी मेरी इस मान्यता की इसे मूलत: बौद्ध परम्परा का स्तूप होने के पक्ष में निम्न तर्क पुष्टि होती है कि ईसा की. तीसरी और चौथी शताब्दी के बाद जैनों में दिये जा सकते हैं-सर्वप्रथम तो यह कि जैन परम्परा के आचारांग जैसे स्तूप-पूजा की प्रणाली लुप्त होने लगी थी। .
प्राचीनतम अंग-आगम साहित्य में जैन स्तूपों के निर्माण और उसकी पूजा व्यवहारचूर्णि और व्यवहारसूत्र की मलयगिरि टीका में मथुरा के उल्लेख नहीं मिलते हैं, अपितु स्तूपपूजा का निषेध ही है। यद्यपि कुछ के देवनिर्मित स्तूप के निर्माण की कथा एवं उसके स्वामित्व को लेकर परवर्ती आगमों-स्थानांग, जीवाभिगम, औपपातिक एवं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति जैनों और बौद्धों के विवाद की सूचना मिलती है। मलयगिरि लिखते हैं में जैन-परम्परा मे स्तूपनिर्माण और स्तूपपूजा के संकेत मिलने लगते हैं, कि मथुरा नगरी में कोई क्षपक-जैन मुनि कठिन तपस्या करता था, उसकी किन्तु ये सब ईसा की प्रथम शताब्दी की या उसके पश्चात् की रचनाएँ तपस्या से प्रभावित हो एक देवी आयी। उसकी वन्दना कर वह बोली हैं। दूसरे यदि जैन परम्परा में प्राचीन काल से स्तूप-निर्माण एवं स्तूपकि मेरे योग्य क्या कार्य है? इस पर जैन मुनि ने कहा-असंयति से · पूजा की पद्धति होती तो फिर मथुरा के अतिरिक्त अन्यत्र भी जैन स्तूप मेरा क्या कार्य होना? देवी को यह बात बहुत अप्रीतिकर लगी और उसने उपलब्ध होने चाहिये थे, किन्तु मथुरा के अतिरिक्त कहीं भी जैन स्तूपों कहा कि मुझसे तुम्हारा कार्य होगा, तब उसने एक सर्वरत्नमय स्तूप निर्मित के पुरातात्त्विक अवशेष उपलब्ध नहीं होते।३० जबकि बौद्ध परम्परा में किया। कुछ रक्तपट अर्थात् बौद्ध भिक्षु उपस्थित होकर कहने लगे यह मथुरा के अतिरिक्त अन्यत्र भी बौद्ध स्तूप और उनके अवशेष मिलते हैं। हमारा स्तूप है। छ: मास तक यह विवाद चलता रहा। संघ ने विचार किया . एक प्रश्न यह भी है कि यदि जैन धर्म में स्तूप-निर्माण एवं कि इस कार्य को करने में कौन समर्थ है। किसी ने कहा कि अमुक मुनि स्तूप-पूजा की परम्परा थी तो फिर वह एकदम विलुप्त कैसे हो गयी?
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जैनागम-धर्म में स्तूप
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-जावान
यह सत्य है कि यहाँ बौद्ध परम्परा में बुद्ध के बाद शताब्दियों तक “साहुकडे ति वा, कल्लाणे ति वा"। प्रतीकपूजा के रूप में स्तूप-पूजा प्रचलित रही और बुद्ध की मूर्तियाँ बाद -वही, ४/२१ में बनने लगीं। जबकि जैन परम्परा में ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी से जिन- (ग). से भिक्खू वा भिक्खुणी वा..... थूभ-महेसु वा, चेतिय-महेसु मूर्तियाँ बनने लग गयी थीं। अत: जैनों में स्तूप बनाने की प्रवृत्ति आगे वा.....तहप्पगारं असणं व पाणं वा....णो पडिगाहेज्जा। अधिक विकसित नहीं हो सकी। किन्तु जैन परम्परा में स्तूप-पूजा एवं -वही, १/२४॥ स्तूप-निर्माण की परम्परा थी, इसके भी अनेक प्रमाण उपलब्ध हैं। प्रथम २. .......तासि णं मणिपेढियाणं उवरिं चत्तारि-चत्तारि चेइयथूभा तो जैनधर्म के यापनीयसंघ की एक शाखा का नाम पंचस्तूपान्वय था। पण्णत्ता।। सम्भव है मथुरा के पंचस्तूपों की उपासना के कारण इसका यह नाम पड़ा -थानांग, ४/३३९। हो। मथरा यापनीय संघ का केन्द्र रहा है। इससे यही सिद्ध होता है कि ३. (क).चिति-वेदि-खातिय-आराम-विहार-थूभ.....य अट्ठाए पुढविं जैनों में स्तूपपूजा की पद्धति थी। मथुरा के एक शिलाखण्ड के बीच मे हिंसंति मंदबुद्धिया। स्तूप का अंकन है और उसके आसपास जिन-प्रतिमाएँ हैं, इससे भी हम -प्रश्नव्याकरण, १/१४। इसी निर्णय पर पहुँचते हैं कि जैनों में कुछ काल तक स्तूप-निर्माण और ४. तहेव महिंदज्झया चेतियरुक्खो चेतियथभे पच्चत्थिमिल्ला मणिपेढिया स्तूप-पूजा प्रचलित थी। वैशाली में मुनिसुव्रत स्वामी के स्तूप का जिणपडिमा। साहित्यिक संकेत है।
-जीवाभिगम, ३/२/१४२। यह तर्क कि मथुरा का स्तूप मूलतः बौद्ध स्तूप था और ५. .....खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ तित्थगरचिइगं जावअणगारचिइगं परवर्तीकाल में बौद्धों के निर्बल होने से उस पर जैनों ने अधिकार कर च खीरोदगेणं णिवावेह, तए णं ते मेहकमारा देवा तित्थगरचिइगं लिया, युक्तिसंगत नहीं लगता, क्योंकि ईसा की प्रथम-द्वितीय शताब्दी जाव णिव्वावेंति, तए णं से सक्के देविंदे देवराया भगवओ से ही इसके जैन-स्तूप के रूप में उल्लेख मिलने लगते हैं और उस काल तित्थगरस्स उवरिल्लं दाहिणं सकहं गेण्हइ......तए णं से सक्के तक मथुरा के बौद्ध निर्बल नहीं हुए थे, अपितु शक्तिशाली एवं प्रभावशाली वयासी सव्वरयणामए महइमहालए तओ चेइअथूभे करेह। बने हुए थे। पुन: मथुरा से उपलब्ध आयागपटों पर मध्य में जिन-प्रतिमा . -जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, २/३३।
और उसके आस-पास अष्टमांगलिक चिह्नों के साथ स्तूप का भी अंकन ६. निव्वाणं चिइगाई जिणस्स इक्खाग सेसयाणं च। मिलता है। इससे यह बात पुष्ट हो जाती है कि जैनों में स्तूपनिर्माण और सकहा थूभ जिणहरे जायग तेणाहिअग्गित्ति।। स्तूपपूजा की परम्परा का अस्तित्व रहा है। यापनीय नामक प्रसिद्ध जैन -आवश्यक नियुक्ति, ४५।। संघ की एक शाखा का नाम भी पंचस्तूपान्वय है। यदि ये प्रमाण नहीं ७. (क). तएणं से सक्के बहवे भवणपति जाव वेमाणिया एवं मिलते तो निश्चित ही इसे मूलत: बौद्ध स्तूप स्वीकार किया जा सकता वयासीखिप्पामेव भो तओ चेइअ-थूभे करेह। था। मैंने यहाँ पक्ष-विपक्ष की सम्भावनाओं को प्रस्तुत करने का प्रयत्न -आवश्यक चूर्णि, ऋषभनिर्वाण प्रकरण, पृ०२२३। किया है, विद्वानों को किसी योग्य निष्कर्ष पर पहुँचने का प्रयत्न करना (ख). थूभाणं एगं तित्थगरस्स व सेसाणं एगूणस्स भाउय सयस्स। चाहिए। फिर भी इस समग्र अध्ययन से मैं इस निष्कर्ष पर अवश्य पहुँचा -आवश्यक चूर्णि, अष्टपद चैत्य प्रकरण, पृ०२२७/ हूँ कि जैन धर्म में स्तूपनिर्माण एवं स्तूपपूजा की पद्धति जैनेतर परम्पराओं ८. (क), एमेव य साहूणं, वागरणनिमित्तच्छन्दकहमादी। से विशेष रूप से बौद्ध-परम्परा के प्रभाव से ही विकसित हुई, पुन: वह बिइयं गिलाणतो मे, अद्धाणे चेव थूभे य।।। चरण-चौकी(पगलिया जी), चैत्य-स्तम्भ और जिन-मन्दिरों के विकास (ख). महुरा खमगा य, वणदेवय आउट्ट आणविज्जत्ति। के साथ धीरे-धीरे विलुप्त हो गई है।
किं मम असंजतीए, अप्पत्तिय होहिती कज्ज।।
थूभ वि उ घण भिच्छू विवाय छम्मास संघो को सत्तो। सन्दर्भ
खमगुस्सग्गा कंपण खिंसण सुक्का कय पडागा।। * 'बौद्ध स्तूप पर आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी (संगोष्ठी -व्यवहार चूर्णि, पंचम उद्देशक, २६, २७, २८।
(प्रा०भा०सं० एवं पु० विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, ९. प्रो० मधुसूदन ढाकी से व्यक्तिगत चर्चा के आधार पर उनका यह वाराणसी) में पठित निबन्ध।
मत प्रस्तुत किया गया है। (क). से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगाम दुइज्जमाणे......रुक्खं १०. “कडमाणे कडे" - भगवती सत्र, १/१/१। वा चेइय-कर्ड, थूभं वा चेइयकडं......णो.......णिज्झाएज्जा। ११. "In both the above-mentioned cases, namely, cetita-आचारांग (द्वितीय श्रुतस्कन्ध-आयारचूला), ३/४७/
thubha and the cetitarukkha, the sense of a funeral (ख). से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जहा वेगइयाई रूवाई.....रुक्खं relic is not fully warranted." वा चेइय-कडं......णो....सुकडे ति वा, सुट्ठकडे ति वा, ---Studies in Jain Art, U.P. Shah, P. 53.
माण आर
(द्वितीय श्रुतस्कमाई.............रुक्खं
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
25.
१२. संस्कृत हिन्दी कोश-वामन शिवराम आप्टे, पृष्ठ ३२७/ -जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, २/३३, पृ० १५७-१५८। १३. नयेयुरेते सीमानं स्थलाङ्गारतुषद्रुमैः।।
(ब) आवश्यकनियुक्ति, गाथा ४३५। सेतुवल्मीकनिम्नास्थिचैत्याद्यैरुपलक्षिताम् ॥१५१॥
(मूल के लिए देखिए इसी लेख का पृ०१३२ का सन्दर्भ क्रमांक ६)। चैत्यश्मशानसीमासु पुण्यस्थाने सुरालये।
२२. देखें-इसी लेख का पृ० १३२ का सन्दर्भ क्रमांक १॥ जातद्रुमाणां द्विगुणो दमो वृक्षे च विश्रुते ।।२२८।। २३. वेसालिए णगरीए णगरणाभीए मुणिसुव्वयसामिस्स थूभो। -याज्ञवल्क्यस्मृति, व्यवहाराध्याय।
-आवश्यकचूर्णि (पारिणामिक बुद्धि प्रकरण) पृ० ५३७ १४. वाचस्पत्ययम्, पृष्ठ २९६६।
24. An inscription (Luders, List No. 47) dated 79 (A.D. १५. (अ). आचारांग (द्वितीय-श्रुतस्कन्ध-आयारचूला) १/२४, ३/
157) or (A.D. 127), on the pedestal of a missing ४७; ४/२१ (इनके मूलपाठों के लिए देखें इसी लेख का सन्दर्भ
image mentions the installation of an image of Arhat
Nandiāvarta at the so-called Vodva Stupa built by क्रमांक १)
the gods (devanirmita). (ब). से भिक्खू वा भिक्खुणी वा.....मडयथूभियासु वा,
-Jaina Art and Architecture, A. Ghosh, Vol. I.P. 53. मडयचेइएस वा......णो उच्चारपासवणं वोसिरेज्जा।
Sri Mahavira Commemoration, Vol. I. Agra, PP. -वही, १०/२३।
189-190. तेसि णं अंजणगपव्वयाणं उवरि बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा २६. मथुरायां नगर्यां कोऽपि क्षपक आतापयति, यस्यातापनां दृष्ट्वा पण्णत्ता। तेसिणं बहुसमरमणिज्जाणं भूमि-भागाणं बहुमज्झदेसभागे
देवता आदृता तमागत्य वन्दित्वा ब्रूते, यन्मया कर्तव्यं चत्तारि सिद्धायतणा पण्णत्ता
तन्ममाज्ञापयेद्भवानिति। एवमुक्ते सा क्षपकेण भण्यते, किं मम तेसि णं दाराणं पुरओ चत्तारि मुहमंडवा पण्णत्ता।
कार्यमसंयत्या भविष्यति, ततस्तस्या देवताया अप्रीतिकमभूत्। तेसि णं मुहमंडवाणं पुरओ चत्तारि पेच्छाघरमंडवा पण्णत्ता। अप्रीतिवत्या च तयोक्तमवश्यं तव मया कार्य भविष्यति, ततो तेसिणं पेच्छाघरमंडवाणं पुरओ चत्तारि मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ।
देवताया सर्वरत्नमयः स्तूपो निर्मितः, तत्र भिक्षवो रक्तपटा तासि णं मणिपेढियाणं उवरिं चत्तारि-चत्तारि चेइयथूभा पण्णत्ता।
उपस्थिता; अयमस्मदीय: स्तूप; तैः समं सङ्घस्य षण्मासान् विवादो तेसि णं चेइयथूभाणं उवरिं चत्तारि मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ।
जातः, ततः सङ्घो ब्रूते-को नामात्रार्थे शक्तः, केनापि कथितं तासिणं मणिपेढियाणं उवरिं चत्तारि जिणपडिमाओ सव्वरयणामईओ
यथामुकः क्षपकः, ततः सङ्घन स भण्यते-क्षपक! कायोत्सर्गेण संपलियंकणिसण्णाओ थूभाभिमुहाओ चिटुंति, तं जहा-रिसभा,
देवतामाकम्पय, तत: क्षपकस्य कायोत्सर्गकरणं देवताया आकम्पनम् वद्धमाणा, चंदाणणा, वारिसेणा।
सा आगता ब्रूते-संदिशत किं करोमि, क्षपकेण भणिता-तथा कुरूत -स्थानांग, ४/३३९।
यथा सङ्घस्य जयो भवति, ततो देवताया क्षपकस्य खिंसना कृता, १७. सोहम्मे कप्पे सुहम्माए सभाए माणवए चेइयक्खंभे हेट्ठा उवरिं च
यथा एतन्मया असंयत्या अपि कार्यजातं एवं खिंसित्वा सा ब्रूतेअद्धतेरस-अद्धतेरस जोयणाणि वज्जेत्ता मज्झे पणतीस जोयणेसु
यूयं राज्ञः समीपं गत्वा ब्रूत, यदि रक्तपटानां स्तूप: तत: कल्ये वइरामएसु गोलवट्टसमुग्गएसु जिण-सकहाओ पण्णत्ताओ।
पताका दृश्यतां, अथास्माकं तर्हि शुक्ला पताका, राजा प्रतिपन्नमेवं -समवायांग, ३५/५।
भवतु, ततो राज्ञा प्रत्ययिकरपुरुषैः स्तूपो रक्षापित: रात्रौ देवताया १८. मानस्तम्भमहाचैत्यद्रुमसिद्धार्थपादपान्।
शुक्ला पताका कृता, प्रभाते दृष्टा स्तूपे शुक्ला पताका, जितं प्रेक्षमाणो व्यतीयाय स्तूपांश्चार्चितपूजितान्।।
सङ्केन। -आदिपुराण, ४१/२०।
-व्यवहारचूर्णि, मलयगिरि टीका-पञ्चम उद्देशक, पृ० ८। १९. (अ). णणस्थ अरिहंस वा अरिहंत चेइयाणि वा अणगारे वा २७ वैरकमारकथा
गाण वा अणगार वा २७. वैरकुमारकथानकम्-बृहत्कथाकोश (हरिषेण) भारतीय विद्याभवन, भावियप्पणो णीसाए उ8 उप्पयति जाव सोहम्मो कप्पो।
बम्बई, १९४२ ई०, पू० २२-२७१ -भगवती सूत्र, ३/२।
२८. यशस्तिलकचम्पू, अनु० व प्रकाशक-सुन्दरलाल शास्त्री, वाराणसी। (ब). अरहंतचेइयाई वंदित्तए वा नमंसित्तए वा।
ब्रजकुमारकथा-पृ०२७०, षष्ठ आश्वास। -उपासकदसांग, १/४५।
२९. विविधतीर्थकल्प-मथुरापुरीकल्प। २० (अ). उज्जलमणिकणगरयणथूभिय.....।
३०. प्रो० टी०वी०जी० शास्त्री ने गन्तूर जिले के अमरावती से करीब ७ (ब) मणिकणथूभियाए।
किलोमीटर दूर बड्डमाण गाँव में ईसा पूर्व तृतीय शताब्दी (२३६ ई० -ज्ञाताधर्मकथा, १/१८ १/८९।
पू०) का जैनस्तूप खोज निकाला है। यहीं भद्रबाहु के शिष्य गोदास२१. (अ) महइमहालए तओ चेइअथूभे करेह, एवं भगवओ तित्थगरस्स
जिनका नाम कल्पसूत्र पट्टावली में है-के उल्लेख से युक्त शिलालेख चिइगाए, एगं गणहरस्स, एगं अवसेसाणं अणगाराणं चिइगाए। भी मिला है। दि० जैन महासमिति बुलेटिन, मार्च १९८५
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सम्राट अकबर और जैन धर्म
भारतीय इतिहास में धार्मिक सहिष्णुता एवं सद्भाव के प्रतिष्ठापकों में जिन सम्राटों का उल्लेख मिलता है उनमें सम्राट अशोक एवं हर्ष के बाद सम्राट अकबर का नाम आता है। भारतीय मुस्लिम शासकों में जो सामान्यतया धार्मिक दृष्टि से कट्टरतावादी रहे हैं, अकबर ही एक मात्र ऐसा व्यक्तित्व है, जो सिद्धान्त एवं व्यवहार दोनों ही दृष्टियों से अपेक्षाकृत रूप में धार्मिक सहिष्णुता एवं सद्भाव का समर्थक रहा है, चाहे यह उसने अपने राजनैतिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु ही किया हो। यह सत्य है कि वह अन्य धर्म व परम्पराओं के आचार्य, सन्तों और विद्वानों को अपने दरबार में सम्मानपूर्वक स्थान देता था। अकबर की धार्मिक उदारतावादी दृष्टि के परिणामस्वरूप अनेक कट्टर मुस्लिम उलेमा भी उसके आलोचक एवं विरोधी रहे हैं, फिर भी अकबर ने उनकी परवाह न करके अपने प्रशासन में अन्य धर्म-परम्परा के लोगों को समुचित स्थान दिया और उनकी भावनाओं को समझने का प्रयत्न किया।
अकबर में धार्मिक सहिष्णुता एवं सद्भाव की दृष्टि किन कारणों से विकसित हुई, यह विवाद का विषय है? इस सम्बन्ध में इतिहासकारों एवं समालोचकों के मन्तव्य अलग-अलग है। कुछ यह मानते हैं कि अकबर ने अपनी नीतियों में जिस धार्मिक उदारता का परिचय दिया उसका कारण उसकी राजनैतिक महत्त्वाकांक्षा ही थी। वह अपने प्रशासन में जिस अमन व शान्ति की अपेक्षा रखता था, वह धार्मिक कट्टरता में सम्भव न होकर धार्मिक सहिष्णुता एवं सद्भाव के द्वारा ही सम्भव थी। अपनी सम्भव थी अपनी इस उदारवादी दृष्टि के आधार पर वह भारतीय जनमानस को विशेष रूप से हिन्दू जन-मानस को प्रभावित करना चाहता था और यह दिखाना चाहता कि वह एक मुस्लिम शासक होकर भी हिन्दुओं का हितचिन्तक है अतः विचारक यह मानते हैं कि उसकी यह धार्मिक सद्भाव व सहिष्णुता । की नीति वस्तुतः उसकी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा का ही परिणाम है, क्योंकि अपने प्रशासन के प्रारम्भ और अन्त में वह एक कट्टर मुस्लिम शासक के रूप में हमारे सामने आता है, जबकि उसका मध्यकाल धार्मिक उदारता का परिचायक है। इससे यह फलित होता है कि अकबर की धार्मिक सहिष्णुता की नीति उसकी प्रशासनिक आवश्यकता थी, क्योंकि यदि स्वभावतः इन सिद्धान्तों में उसकी आस्था होती तो जिस जजिया कर को उसने समाप्त किया था, उसे ही अपने सुस्थापित होने बाद पुनः लागू नहीं करता।
दूसरा दृष्टिकोण यह भी है कि अकबर वस्तुतः एक उदार दृष्टिकोणसम्पन्न व्यक्ति था, क्योंकि उसने अपने जीवन के आधार पर यह पाया था कि हिन्दू एवं मुस्लिम दोनों ही धर्मों के कट्टरतावादी लोग वस्तुत: जन-मानस को गुमराह करते हैं और सामाजिक शान्ति को भंग करते हैं फतेहपुर सीकरी में बनाए गए इबादतख़ाने में ये धार्मिक लोग किस प्रकार से अपने स्थान आदि को लेकर आपस में लड़ते थे, इस सबको देखकर सम्भव है उसे धर्मान्धता से वितृष्णा उत्पन्न हो गयी हो और उसने धार्मिक
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सहिष्णुता एवं सद्भाव की दिशा में अपने प्रयत्न प्रारम्भ किये हों। जीवन के अन्तिम काल में उसमें जो कुछ धार्मिक कट्टरता के लक्षण प्रतीत होते हैं, उनका कारण यह है कि जीवन की अन्तिम अवस्था में परलोक के भय के कारण धर्म के प्रति एक विशेष लगाव उत्पन्न हो जाता है। अन्तिम काल में उसकी धार्मिक कट्टरता सम्भवतः इसी का परिणाम थी।
उसके मन में जो धार्मिक सहिष्णुता एवं सद्भाव विकसित हुआ उसका कारण क्या था, इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कुछ विद्वानों ने यह भी माना है कि वह जैन आचार्यों के प्रभाव के परिणामस्वरूप हुआ था। जैन धर्म अपने प्रारम्भिक काल से ही अनेकान्तवाद का समर्थक रहा है और उसका सिद्धान्त धार्मिक सहिष्णुता एवं सद्भाव का समर्थक है। यह तो स्पष्ट है कि अकबर हीरविजय, समयसुन्दर, विजयसेन, भानुचन्द्र आदि अनेक जैन आचार्यों और मुनियों के सम्पर्क में रहा है। जैन धर्म में धार्मिक सहिष्णुता व सद्भाव का विकास जो अनेकान्त के सिद्धान्त पर हुआ है उसकी समस्त चर्चा तो यहाँ सम्भव नहीं है, किन्तु उसके आधार पर यह अवश्य कहा जा सकता है कि अकबर के जीवन में धार्मिक सहिष्णुता व सद्भाव के एवं पशुबध और मांसाहार को कम करने सम्बन्धी जिस दृष्टिकोण का विकास हुआ, वह आचायों के सम्पर्क का ही परिणाम था।
अकबर से जिन जैन आचार्यों का विशेष रूप से सम्बन्ध रहा है उनमें हीरविजय सूरि, विजयसेन सूरि, भानुचन्द्र उपाध्याय, उपाध्याय शान्तिचन्द्र उपाध्याय समयसुन्दर, उपाध्याय सिद्धिचंद्र, जिनचंद्रसूरि नन्दविजय, जयसोम, महोपाध्याय साधुकीर्ति आदि मुख्य हैं। अतः अकबर में पशु वध, मांसाहार-निषेध तथा धार्मिक सहिष्णुता की जो प्रवृत्ति देखी जाती है उसका एक कारण उस पर इन जैन सन्तों का प्रभाव भी है। अकबर ने जैन सन्तों को जो फ़रमान प्रदान किये थे, उनसे भी इन तथ्यों की पुष्टि होती है। अकबर के द्वारा जैन आचायों के जारी फ़रमानों में मुख्य फ़रमान और उनकी विषयवस्तु निम्नलिखित है
आचार्य हीरविजय सूरि को अकबर द्वारा प्रदत्त प्रथम फरमान में यह निर्देश है कि पर्युषण के १२ दिनों में उन क्षेत्रों में जहाँ जैन जाति निवास करती है, कोई भी जीव न मारा जाय। मिति ७ जमादुलसानी, हिजरी सन् १९२। (देखें- नीना जैन, मुगल सम्राटों की धार्मिक नीति, पृ०१६१-१६२)
"
दूसरा फ़रमान भी हीरविजय सूरि को दिया गया। इसमें सिद्धाचल (शत्रुंजय), गिरिनार, तारंगा, केशरियाजी, आबू ( सभी गुजरात), राजगिरि, सम्मेद शिखर आदि जैन तीर्थ क्षेत्रों में पहाड़ों पर तथा मन्दिर के आस-पास कोई भी जीव न मारा जाय। इस उल्लेख के साथ यह भी कहा गया है कि यद्यपि पशु-हिंसा का निषेध इस्लाम के विरुद्ध लगता है, फिर भी परमेश्वर को पहचानने वाले मनुष्यों का कायदा है कि किसी के धर्म में दखल न दें। ये अर्ज मेरी नज़र में दुरुस्त मालूम
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
पड़ी। तारीख ७ माह उरदी बेहेस्त मुताबिक रविउल अवल वही, सन् किन्तु यह निश्चित है कि उसकी जो भी अनुभूति थी, वह जैन दर्शन के ३७ जुलुसी। यह इलाही संवत् ३५ मुताबिक २८वीं मुहर्रम, सन् ९९९ अनेकान्त सिद्धान्त के अनुकूल थी। यह भी निश्चय है कि आचार्यों ने हिज़री का है। (देखें-वही, पृ०१६३-१६४)
उसकी इस अनुभूति को अपने अनेकान्त सिद्धान्त के अनुकूल बताकर होरविजय को दिये गए तीसरे फ़रमान में विशेष रूप से धार्मिक उसे पुष्ट किया होगा और परिणामस्वरूप अकबर पर उनकी इस उदारसहिष्णुता एवं सद्भाव की बात कही गयी है। (वही, पृ०१६५-१६६) वृत्ति का प्रभाव हुआ होगा।
चौथा फ़रमान अकबर द्वारा विजयसेन सूरि को प्रदान किया अकबर पर जैन साधुओं का प्रभाव इसलिये भी अधिक पड़ा गया था। ये हीरविजय के शिष्य थे। इस फ़रमान में यह लिखा है कि क्योंकि वे नि:स्पृह और अपरिग्रही थे, उन्होंने राजा से अपनी सुख-सुविधा हर महीने में कुछ दिन गाय, बैल, भैंस आदि को नहीं खाना और उसे के लिए कभी कुछ नहीं माँगा, जब भी बादशाह ने उनसे कुछ माँगने उचित एवं फ़र्ज मानना तथा पक्षियों को न मारना तथा उन्हें पिजड़े में की बात कही तो उन्होंने सदैव ही सभी धर्मों के अनुयायियों के संरक्षण कैद न करना। जैन मंदिरों एवं उपाश्रयों पर कोई कब्जा न करे तथा जीर्ण तथा पशु-हिंसा व मांसाहार के निषेध के फ़रमान ही माँगे। मन्दिरों को बनवाने पर उन्हें कोई भी व्यक्ति न रोके। इस तरह यह भी इस प्रकार हम देखते हैं कि अकबर, जहाँगीर एवं शाहजहाँ निर्देश है कि वर्षा आदि होना या न होना ईश्वर के अधीन है, इसका दोष तक मुग़ल-सम्राटों की जो उदार नीति रही है उसके मूल में इनके जैन साधुओं पर देना मूर्खता है। जैनों को अपने धर्म के अनुसार अपनी दरबारों में उपस्थित और इन सम्राटों के द्वारा आदृत जैन आचार्यों का धार्मिक क्रियाएं करने देना चाहिए। तारीख, शहर्युर, महीना इलाही, सन् भी महत्त्वपूर्ण हाथ है। ४६ मुताबिक तारीख २५ महीना सफन, हिजरी सन् १०१०। (वही, हमें यह स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है कि जैनाचार्यों पृ०१६७-१६८)
के प्रभाव के अतिरिक्त ऐसे अन्य तथ्य भी थे जिनका प्रभाव अकबर की अकबर का पाँचवाँ फ़रमान जिनचन्द्र सूरि को दिया गया है। उदारवादी नीति पर रहा होगा। अकबर की धार्मिक उदारता का एक कारण आचार्य जिनचन्द्र सूरि ने 'पर्युषण के बारह दिनों में हिंसा न हो', ऐसा यह भी था कि उसके पिता को और स्वयं उसे भी अपनी सत्ता के लिए आदेश प्राप्त किया था। उसमें पूर्व बारह दिनों के अतिरिक्त आषाढ़ शुक्ल हिन्दुओं की अपेक्षा मुस्लिमों से ही अधिक संघर्ष करना पड़ा था और की नवमीं से पूर्णमासी तक भी किसी जीव की हिंसा नहीं की जाय, ऐसा अकबर ने यह समझ लिया था कि भारत पर शासन करने में उसके मुख्य निर्देश है-तारीख ३१ खुरदाद इलाही, सन् ४९ (वही, पृ० १७१) प्रतिस्पर्धी हिन्दू न होकर मुसलमान ही हैं। दूसरे यह कि उसने हिन्दुओं
अकबर द्वारा जैन साधुओं का सम्मान करने तथा उन्हें फ़रमान पर शासन करने हेतु उनका सहयोग प्राप्त करना आवश्यक समझा था। देने की जो परम्परा प्रारम्भ हुई थी, उसकी विशेषता यह थी कि उसकी इस प्रकार राजनैतिक परिस्थितियों ने भी उसे धार्मिक उदारता की नीति अगली पीढ़ी में भी न केवल साधुओं को उनके दरबार में स्थान मिला स्वीकार करने हेतु विवश किया था। अपितु उन्हें शहजादों की शिक्षा का दायित्व भी दिया गया। अकबर के अन्त में, जैसा कि स्पष्ट है, अकबर में धार्मिक उदारता का पश्चात् जहाँगीर एवं शाहजहाँ ने भी इसी प्रकार के अमारी अर्थात् पशु- एक क्रमिक विकास देखा जा सकता है। प्रारम्भ में वह एक निष्ठावान हिंसा-निषेध के फ़रमान दिये। अकबर के मन में मांसाहार एवं पशुहिंसा- मुसलमान ही रहा है। चाहे वह कट्टर धर्मान्ध न रहा हो फिर भी उसके निषेध के लिए जो विचार विकसित हुए थे, उनके पीछे इन जैनाचार्यों प्रारम्भिक जीवन में उसकी इस्लाम के प्रति निष्ठा अधिक थी, किन्तु का प्रभाव रहा है, इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता। राजपूत राजाओं से मिले सहयोग एवं राजपूत कन्याओं से विवाह के
अकबर में जो धार्मिक सहिष्णुता व सद्भाव की भावना का परिणामस्वरूप उसमें धार्मिक उदारता का प्रादुर्भाव हुआ। उसने अपनी विकास हुआ उसका एक कारण यह भी था कि उसने स्वयं अपनी अनुभूति रानियों को अपनी-अपनी धार्मिक निष्ठाओं एवं विधियों के अनुसार के आधार पर यह जान लिया था कि कोई भी धर्म पूर्ण नहीं है और उपासना की अनुमति दी थी। धीरे-धीरे फकीरों एवं साधुओं के सत्संग चरमसत्य को जान लेना मानव के वश की बात नहीं। फतेहपुर सीकरी से भी उसमें एक आध्यात्मिक चेतना का विकास हुआ और उसने के इबादतख़ाने में वह विभिन्न धर्मों के विद्वान् आचार्यों की बातें सुनता युद्धबन्दियों को मुसलमान बनाने और गुलाम बनाने की प्रथा को समाप्त था और अन्य धर्मों के प्रति की गयी उनकी समालोचना पर ध्यान भी किया। सर्वप्रथम उसने सन् १५६३ में तीर्थयात्रियों पर से कर तथा उसके देता था, इससे उसे यह ज्ञान हो गया था कि कोई भी धर्म पूर्ण नहीं है। बाद जजिया कर समाप्त कर दिया, साथ ही गैर मुसलमानों को अपने किसी भी धर्म-परम्परा द्वारा अपनी पूर्णता का एवं अपने को एकमात्र सत्य धार्मिक स्थलों को निर्मित करवाने की छूट दी और उन्हें उच्च-पदों पर होने का दावा करना निरर्थक है। यह वही दृष्टि थी जो कि अनेकान्त की अधिष्ठित किया। ये ऐसे तथ्य हैं जो बताते हैं कि अकबर में जिस धार्मिक तत्त्व विचारणा में जैन-आचार्यों ने प्रस्तुत की थी और जिसे उन्होंने दर्शन उदारता का विकास हुआ था, वह एक क्रमिक विकास था। इस क्रमिक परम्परा का आधार बनाया था। चाहे अकबर में यह उदार या अनेकान्तिक विकास से यह भी प्रतिफलित होता है कि वह परिस्थितियों एवं व्यक्तियों दृष्टि जैन आचार्यों के प्रभाव से आयी हो या धर्माचार्यों के पारस्परिक से प्रभावित होता रहा है। अत: जैनाचार्यों के द्वारा भी उसका प्रभावित वाद-विवाद और समीक्षा के कारण, जिनका सम्राट स्वयं साक्षी होता था, होना स्वाभाविक है। अत: अकबर के जीवन में जो उदारता एवं अहिंसक
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खजुराहो की कला और जैनाचार्यों की समन्वयात्मक एवं सहिष्णु दृष्टि
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वृत्ति का विकास हुआ उसका बहुत कुछ श्रेय जैनाचार्यों को भी है। पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, १९६२. सन्दर्भ-ग्रन्थ
दी मुग़ल एम्पायर, आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव, शिवलाल एण्ड कम्पनी, मुगल सम्राटों की धार्मिक नीति, कु. नीना जैन, काशीनाथ सराफ, आगरा, १९६७. विजयधर्म सूरि, समाधि मन्दिर, शिवपुरी, १९९१.।
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खजुराहो की कला और जैनाचार्यों की समन्वयात्मक एवं सहिष्णु दृष्टि
खजुराहो की मन्दिर एवं मूर्तिकला को जैनों का प्रदेय क्या है? जैनाचार्यों ने इन परिस्थितियों में बुद्धिमत्ता से काम लिया, इस चर्चा के पूर्व हमें उस युग की परिस्थितियों का आकलन कर लेना उन्होंने युगीन परिस्थितियों से एक ऐसा सामंजस्य स्थापित किया, जिसके होगा । खजुराहो के मन्दिरों का निर्माणकाल ईस्वी सन् की नवीं शती कारण उनकी स्वतन्त्र पहचान भी बनी रही और भारतीय संस्कृति की के उत्तरार्ध से बारहवीं शती के पूर्वार्ध के मध्य है । यह कालावधि एक उस युग की मुख्य धारा से उनका विरोध भी नहीं रहा । उन्होंने अपने ओर जैन साहित्य और कला के विकास का स्वर्णयुग है किन्तु दूसरी वीतरागता एवं निवृत्ति के आदर्श को सुरक्षित रखते हुए भी हिन्दू देव ओर यह जैनों के अस्तित्व के लिए संकट का काल भी है। मण्डल के अनेक देवी-देवताओं को, उनकी उपासना पद्धति और
गुप्तकाल के प्रारम्भ से प्रवृत्तिमार्गी ब्राह्मण परम्परा का पुनः कर्मकाण्ड को, यहाँ तक कि तन्त्र को भी अपनी परम्परा के अनुरूप अभ्युदय हो रहा था। जन-साधारण तप-त्याग प्रधान नीरस वैराग्यवादी रूपान्तरित करके स्वीकृत कर लिया। मात्र यही नहीं हिन्दू समाज व्यवस्था परम्परा से विमुख हो रहा था, उसे एक ऐसे धर्म की तलाश थी जो उसकी के वर्णाश्रम सिद्धान्त और उनकी संस्कार पद्धति का भी जैनीकरण करके मनो-दैहिक एषणाओं की पूर्ति के साथ मुक्ति का कोई मार्ग प्रशस्त कर उन्हें आत्मसात् कर लिया। साथ ही अपनी ओर से सहिष्णुता और सद्भाव सके । मनुष्य की इसी आकांक्षा की पूर्ति के लिए हिन्दूधर्म में वैष्णव, का परिचय देकर अपने को नामशेष होने से बचा लिया । हम प्रस्तुत शैव, शाक्त और कौल सम्प्रदायों का तथा बौद्ध धर्म में वज्रयान सम्प्रदाय आलेख में खजुराहो के मन्दिर एवं मूर्तिकला के प्रकाश में इन्हीं तथ्यों का उदय हुआ। इन्होंने तप-त्याग प्रधान वैराग्यवादी प्रवृत्तियों को नकारा को स्पष्ट करने का प्रयास करेंगे।
और फलत: जन-साधरण के आकर्षण के केन्द्र बने । निवृत्तिमार्गी श्रमण खजुराहो के हिन्दू और जैन परम्परा के मन्दिरों का निर्माण परम्पराओं के लिए अब अस्तित्व का संकट उपस्थित हो गया था। उनके समकालीन है, यह इस तथ्य का द्योतक है कि दोनों परम्पराओं में किसी लिए दो ही विकल्प शेष थे या तो वे तप-त्याग के कठोर निवृत्तिमार्गी सीमा तक सद्भाव और सह-अस्तित्व की भावना थी। किन्तु जैन मन्दिर आदर्शों से नीचे उतरकर युग की माँग के साथ कोई सामंजस्य स्थापित समूह का हिन्दू मन्दिर समूह से पर्याप्त दूरी पर होना, इस तथ्य का सूचक करें या फिर उनके विरोध में खड़े होकर अपने अस्तित्व को ही नामशेष है कि जैन मन्दिरों के लिए स्थल-चयन में जैनाचार्यों ने बुद्धिमत्ता और होने दें।
दूर-दृष्टि का परिचय दिया ताकि संघर्ष की स्थिति को टाला जा सके। बौद्धों का हीनयान सम्प्रदाय, जैनों का यापनीय सम्प्रदाय, ज्ञातव्य है कि खजुराहो का जैन मन्दिर समूह हिन्दू मन्दिर समूह से लगभग आजीवक आदि दूसरे कुछ अन्य श्रमण सम्प्रदाय अपने कठोर निवृत्तिमार्गी २ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है । यह सत्य है कि मन्दिर निर्माण आदर्शों से समझौता न करने के कारण नामशेष हो गये। बौद्धों का दूसरा में दोनों परम्पराओं में एक सात्विक प्रतिस्पर्धा की भावना भी रही तभी वर्ग जो महायान के रास्ते यात्रा करता हुआ वज्रयान के रूप में विकसित तो दोनों परम्पराओं में कला के उत्कृष्ट नमूने साकार हो सके किन्तु हुआ था, यद्यपि युगीन परिस्थितियों से समझौता और समन्वय कर रहा जैनाचार्य इस सम्बन्ध में सजग थे कि संघर्ष का कोई अवसर नहीं दिया था, किन्तु वह युग के प्रवाह के साथ इतना बह गया कि वह वाम मार्ग जाये क्योंकि जहाँ हिन्दू मन्दिरों का निर्माण राज्याश्रय से हो रहा था, वहाँ में और उसमें उपास्य भेद के अतिरिक्त अन्य कोई भेद नहीं रह गया था। जैन मन्दिरों का निर्माण वणिक् वर्ग कर रहा था । अत: इतनी सजगता इस कारण एक ओर उसने अपनी स्वतन्त्र पहचान खो दी तथा दूसरी आवश्यक थी कि राजकीय कोष एवं बहुजन समाज के संघर्ष के अवसर
ओर वासना की पूर्ति के पंक में आकण्ठ डूब जाने से जन-साधारण की अल्पतम हों और यह तभी सम्भव था जब दोनों के निर्माणस्थल पर्याप्त श्रद्धा से भी वंचित हो गया और अन्ततः अपना अस्तित्व नहीं बचा सका। दूरी पर स्थित हों।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
मन्दिर एवं मूर्तिकला की दृष्टि से दोनों परम्पराओं के मन्दिरों के शताब्दियों पूर्व ही जैन देव मण्डल का अंग बना लिया गया था। में पर्याप्त समानता है किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि जैनों ने अपनी राम, लक्ष्मण, कृष्ण, बलराम आदि वासुदेव और बलदेव के रूप में परम्परा के वैशिष्ट्य की पूर्ण उपेक्षा की है । समन्वयशीलता के प्रयत्नों शलाका पुरुष तथा सरस्वती, काली, महाकाली आदि १६ विद्या-देवियों के बावजूद उन्होंने अपने वैशिष्ट्य और अस्मिता को खोया नहीं है। के रूप में अथवा जिनों की यक्षियों के रूप में मान्य हो चुकी थीं, इसी खजुराहो के मन्दिर जिस काल में निर्मित हुए तब वाममार्ग और तन्त्र का प्रकार नवग्रह, अष्टदिक्पाल, इन्द्र आदि भी जैनों के देव मण्डल में पूरा प्रभाव था। यही कारण है कि खजुराहो के मन्दिरों में कामुक अंकन प्रतिष्ठित हो चुके थे और इनकी पूजा-की उपासना भी होने लगी थी। पूरी स्वतन्त्रता के साथ प्रदर्शित किये गये, प्राकृतिक और अप्राकृतिक फिर भी जैनाचार्यों की विशिष्टता यह रही कि उन्होंने वीतराग की श्रेष्ठता मैथुन के अनेक दृश्य खजुराहो के मन्दिरों में उत्कीर्ण हैं । यद्यपि जैन और गरिमा को यथावत सुरक्षित रखा और इन्हें जिनशासन के सहायक मन्दिरों की बाह्य भित्तियों पर भी ऐसे कुछ अंकन हैं किन्तु उनकी मात्रा देवी-देवता के रूप में ही स्वीकार किया । हिन्दू मन्दिरों की अपेक्षा अत्यल्प है । इसका अर्थ है कि जैनधर्मानुयायी खुजराहो के मन्दिर एवं मूर्तियों के सम्बन्ध में यदि हम इस सम्बन्ध में पर्याप्त सजग रहे होंगे कि कामवासना का यह उद्दाम अंकन तुलनात्मक दृष्टि से विचार करें तो मेरी जानकारी के अनुसार यहाँ के उनके निवृत्तिमार्गी दृष्टिकोण के साथ संगति नहीं रखता है । इसलिए किसी भी हिन्दू मन्दिर में जिन प्रतिमा का कोई भी अंकन उपलब्ध नहीं उन्होंने ऐसे दृश्यों के अंकन की खुली छूट नहीं दी। खजुराहो के जैन होता है, जबकि जैन मन्दिरों में न केवल उन देवी-देवताओं का जो जैन मन्दिरों में कामुकता के अश्लील अंकन के दो-चार फलक मिलते हैं। देवमण्डल के सदस्य मान लिये गये हैं, अपितु इसके अतिरिक्त भी हिन्दू उनके सम्बन्ध में दो ही विकल्प हो सकते हैं या तो वे जैनाचार्यों की दृष्टि देवी-देवताओं के अंकन हैं-- यह जैनाचार्यों की उदार दृष्टि का परिचायक से ओझल रहे या फिर उन्हें उस तान्त्रिक मान्यता के आधार पर स्वीकार है। जबकि हिन्दू मन्दिरों में दशावतार के कुछ फलकों में युद्ध के अंकन कर लिया गया कि ऐसे अंकनों के होने पर मन्दिर पर बिजली नहीं गिरती के अतिरिक्त जैन और बौद्ध देव मण्डल अथवा जिन और बुद्ध के अंकन है और वह सुरक्षित रहता है। क्योंकि खजुराहो के अतिरिक्त दक्षिण के का अभाव किसी अन्य स्थिति का सूचक है । मैं विद्वानों का ध्यान इस कुछ दिगम्बर जैन मन्दिरों में और राजस्थान के तारंगा और राणकपुर के ओर अवश्य आकर्षित कना चाहूँगा कि वे यह देखें कि यह समन्वय या श्वे. जैन मन्दिरों में ऐसे अंकन पाये जाते हैं । जहाँ तक काम सम्बन्धी सहिष्णुता की बात खजुराहो के मन्दिर और मूर्तिकला की दृष्टि से एक अश्लील अंकनों का प्रश्न है इस सम्बन्ध में जैन आचार्यों ने युग की पक्षीय है या उभयपक्षीय है। माँग के साथ सामंजस्य स्थापित करके उसे स्वीकृत प्रदान कर दी थी। इसी प्रंसग में खजुराहो के हिन्दू मन्दिरों में दिगम्बर जैन श्रमणों जिन मन्दिर की बाह्य भित्तियों पर शालभंजिकाओं (अप्सराओं) के और का जो अंकन है वह भी पुनर्विचार की अपेक्षा रखता है। डॉ० लक्ष्मीकांत व्यालों के उत्कीर्ण होने की सूचना जैनागम राजप्रश्नीय में भी उपलब्ध त्रिपाठी ने 'भारती' वर्ष १९५९-६० के अंक ३ में अपने लेख "The है | इसका तात्पर्य है कि खजुराहो में उत्कीर्ण अप्सरा मूर्तियाँ जैन आगम Erotic Scenes of Khajuraho and theirProbable explaसम्मत हैं । आचार्य जिनसेन ने इसके एक शताब्दी पूर्व ही रति और nation" में इस सम्बन्ध में भी एक प्रश्न उपस्थित किया है। खजुराहो कामदेव का मूर्तियों के अंकन एवं मन्दिर की बाह्य भित्तियों को आकर्षक जगदम्बी मन्दिर में एक दिगम्बर जैन श्रमण को दो कामुक स्त्रियों से घिरा बनाने की स्वीकृति दे दी थी। उन्होंने कहा था कि मन्दिर की बाह्य भित्तियों हुआ दिखाया गया है। लक्ष्मण मन्दिर के दक्षिण भित्ति में दिगम्बर जैन को वेश्या के समान होना चाहिए । जिस प्रकार वेश्या में लोगों को श्रमण को पशुपाशक मुद्रा में एक स्त्री से सम्भोगरत बताया गया, मात्र आकर्षित करने की सामर्थ्य होती है, उसी प्रकार मन्दिरों की बाह्य भित्तियों यही नहीं उसकी पाद-पीठ पर "श्री साधु नन्दिक्षपणक" ऐसा लेख भी में भी जन-साधारण को अपनी ओर आकर्षित करने की सामर्थ्य होना उत्कीर्ण है। इसी प्रकार जगदम्बी मन्दिर की दक्षिण भित्ति पर क्षपणक चाहिये। जन-साधरण को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए ऐसे (दिगम्बर जैन मुनि) को उत्थिग-लिंग दिखाया गया है, उसके समक्ष खड़ा अंकनों की स्वीकृति उनके युगबोध और सामंजस्य की दृष्टि का ही हुआ भागवत संन्यासी एक हाथ से उसका लिंग पकड़े हुए है, दूसरा परिणाम था। यद्यपि यह भी सत्य है कि अश्लील कामुक अंकनों के हाथ मारने की मुद्रा में है, जबकि क्षपणक हाथ जोड़े हुए खड़ा है । प्रश्न " प्रति जैनों का रूख अनुदार ही रहा है। यही कारण है कि ऐसे कुछ फलकों यह है कि इस प्रकार के अन्य अंकनों का उद्देश्य क्या था? डॉ० त्रिपाठी को नष्ट करने का प्रयत्न भी किया गया है।
ने इसे जैन श्रमणों की विषय-लम्पटता और समाज में उनके प्रति आक्रोश जैनाचार्यों की सहिष्णु और समन्वयवादी दृष्टि का दूसरा की भावना माना है। उनके शब्दों में "The Penis erectus of the उदाहरण खजुराहो के जैन मन्दिरों में हिन्दू देवमण्डल के अनेक देवी- Kshapanakais suggestiveofhis licentious character and देवताओं का अंकन है। इन मन्दिरों में राम, कृष्ण, बलराम, विष्णु तथा lack of control over senses which appears to have been सरस्वती. लक्ष्मी, काली, महाकाली. ज्वालामालिनी आदि देवियाँ. अष्ट in the rootof all these Conflicts and opposition" (Bharti, . दिक्पाल, नवग्रह आदि को प्रचूरता से उत्कीर्ण किया गया है। यद्यपि 1959-60 No. 3, Page 100) यह ज्ञातव्य है कि इनमें से अनेकों को खजुराहो के मन्दिरों के निर्माण
किन्तु मैं यहाँ डॉ० त्रिपाठी के निष्कर्ष से सहमत नहीं हूँ। मेरी
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खजुराहो की कला और जैनाचार्यों की समन्वयात्मक एवं सहिष्णु दृष्टि
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दृष्टि में इसका उद्देश्य जैन श्रमणों की समाज में जो प्रतिष्ठा थी उसे नीचे समीक्षा भी की है, किन्तु, इसके बावजूद खजुराहो के जैन मन्दिरों में गिराना था। प्रो० त्रिपाठी ने जैन श्रमणों की विष्य-लम्पटता के अपने हिन्दू देवमण्डल के अनेक देवों का सपत्नीक अंकन क्या जैनाचार्यों की निष्कर्ष की पुष्टि के लिए "प्रबोधचन्द्रोदय" का साक्ष्य भी प्रस्तुत किया उदार भावना का परिचायक नहीं माना जा सकता ? जिसमें जैन क्षपणक (मुनि) के मुख से यह कहलवाया है
वस्तुत: सामन्यतया जैन श्रमण न तो आचार में इतने पतित दूर चरण प्रणामः कृतसत्कारं भोजनं च मिष्टम् ।
थे जैसा कि उन्हें अंकित किया गया है और न वे असहिष्ण ही थे। यदि ईर्ष्यामलं न कार्य ऋषिणां दारान् रमणमाणानाम् ।।४
वे चारित्रिक दृष्टि से इतने पतित होते तो फिर वासवचन्द्र महाराजा धंग अर्थात्, ऋषियों की दूर से चरण वंदना करनी चाहिए, उन्हें सम्मान पूर्वक की दृष्टि में सम्मानित कैसे होते ? खजुराहो के अभिलेख उनके जनमिष्ट भोजन करवाना चाहिए और यदि वे स्त्री से रमण भी करें तो भी समाज पर व्यापक प्रभाव को सूचित करते हैं। कोई भी विषय लम्पट ईर्ष्या नहीं करना चाहिए।
श्रमण जन-साधारण की श्रद्धा का केन्द्र नहीं बन सकता है । यदि जैन प्रो० त्रिपाठी का यह प्रमाण इसलिए लचर हो जाता है कि यह श्रमण भी विषय-लम्पटता में वज्रयानी बौद्ध श्रमणों एवं कापलिकों का भी विरोधी पक्ष ने ही प्रस्तुत किया है । प्रबोधचन्द्रोदय नाटक का मुख्य अनुसरण करते तो कालान्तर में नाम शेष हो जाते। जैन श्रमणों पर समाज उद्देश्य ही जैन-बौद्ध श्रमणों को पतित तथा कापलिक (कौल) मत की का पूरा नियन्त्रण रहता था । दुश्चरित्र श्रमणों को संघ से बहिष्कृत करने ओर आकर्षित होता दिखाना है । वस्तुत: ये समस्त प्रयास जैन श्रमणों का विधान था, जो वर्तमान में भी यथावत् है । खजुराहो के जगदम्बी की सामाजिक प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाने के निमित्त ही थे। यह सत्य है आदि मन्दिरों में जैन श्रमणों का जो चित्रण है वह मात्र ईर्ष्यावश उनके कि इस युग में जैन श्रमण अपने निवृत्तिमार्गी कठोर संयम और देह तितीक्षा चरित्र-हनन का प्रयास था । यद्यपि हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि के उच्च आदर्श से नीचे उतरे थे। संघ रक्षा के निमित्त वे वनवासी से ये अंकन सामान्य हिन्दू परम्परा के जैनों के प्रति अनुदार दृष्टिकोण के चैत्यवासी (मठवासी) बने थे। तन्त्र के बढ़ते हुए प्रभाव से जन-साधारण परिचायक नहीं हैं । क्योंकि सामान्य हिन्दू समाज जैनों के प्रति सदैव ही जैनधर्म से विमुख न हो जाये -- इसलिए उन्होंने भी तन्त्र चिकित्सा एवं उदार और सहिष्णु रहा है। यदि सामान्य हिन्दू समाज जैनों के प्रति अनुदार ललित कलाओं को अपनी परम्परा के अनुरूप ढाल कर स्वीकार कर होता तो उनका अस्तित्व समाप्त हो गया होता। यह अनदार दृष्टि केवल लिया था। किन्तु वैयक्तिक अपवादों को छोड़कर, जो हर युग और हर कौलों और कापलिकों की ही थी, क्योंकि इनके लिये जैन श्रमणों की सम्प्रदाय में रहे हैं, उन्होंने वाममार्गी आचार-विधि को कभी मान्यता नहीं चरित्रनिष्ठा ईर्ष्या का विषय थी । ऐतिहासिक आधारों पर भी कौलों और दी । जैन श्रमण परम्परा वासनापूर्ति की स्वछन्दता के उस स्तर पर कभी कापलिकों के असहिष्णु और अनुदार होने के अनेक प्रमाण हमें उपलब्ध नहीं उतरी, जैसा कि खजुराहो के मन्दिरों में उसे अंकित किया गया है। होते है। इन दोनों परम्पराओं का प्रभाव खजुराहो की कला पर देखा जाता वस्तुत: इस प्रकार के अंकनों का कारण जैन श्रमणों का चारित्रिक पतन है। जैन श्रमणों के सन्दर्भ में ये अंकन इसी प्रभाव के परिचायक हैं। नहीं है, अपितु धार्मिक विद्वेष और असहिष्णुता की भावना है । स्वयं सामान्य हिन्दू परम्परा और जैन परम्परा में सम्बन्ध मधुर और सौहार्दपूर्ण प्रो० त्रिपाठी इस तथ्य को स्वीकार करते हुए लिखते हैं -
ही थे। The existence of these temples of different faiths पुन: जगदम्बी मन्दिर के उस फलक की जिसमें क्षपणक अपने at one site has generally,upto now, been taken indicative of विरोधी के आक्रोश की स्थिति में भी हाथ जोड़े हुए हैं, व्याख्या जैन श्रमण an atmosphere of religious toleration and amity enabling की सहनशीलता और सहिष्णुता के रूप में भी की जा सकती है। अनेकांत peaceful co-existence. This long established notion in the और अहिंसा के परिवेश में पले जैन श्रमणों के लिए समन्वयशीलता और light of proposed interpretation of erotic secnes requires सहिष्णुता के संस्कार स्वाभाविक हैं और इनका प्रभाव खजुराहो के जैन modification. There are even certain sculptures on the मन्दिरों की कला पर स्पष्ट रूप देखा जाता है। temples of khajuraho, which clearly reveal the existence of सन्दर्भ religious rivalary and conflict at the time (Ibid, p.99-100) १. दारचेडीओ य सालभंजियाओ य बालरूवए य लोमहत्येणं पमज्जई
किन्तु विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या इस प्रकार के विद्वेष - राजप्रश्नीय (मधुकरमुनि), २०० पूर्ण अंकन जैन मन्दिरों में हिन्दू संन्यासियों के प्रति भी हैं ? जहाँ तक २. हरिवंशपुराण, २९/२-५ मेरा ज्ञान है खजुराहो के जैन मन्दिरों में एक अपवाद को छोड़कर प्रायः ३. (अ) आदिपुराण, ६/१८१ ऐसे अंकनों का अभाव है और यदि ऐसा है तो वह जैनाचार्यों की उदार (ब) खजुराहो के जैन मन्दिरों की मूर्तिकला, रत्नेश वर्मा, पृ. ५६ से ६२
और सहिष्ण दृष्टि का ही परिचायक है। यद्यपि यह सत्य है कि इसी ४. प्रबोधचन्द्रोदय, अंक ३/६ युग के कतिपय जैनाचार्यों ने धर्म-परीक्षा जैसे ग्रन्थों के माध्यम से ५. (अ) पुरुषार्थसिद्धयुपाय, २६ सपत्नीक सराग देवों पर व्यंग्य प्रस्तुत किये हैं और देव मूढ़ता, गुरू मूढ़ता (ब) धूर्ताख्यान, हरिभद्र और धर्म मूढ़ता के रूप में हिन्दू परम्परा में प्रचलित अन्धविश्वासों की (स) यशस्तिलकचम्पू (हन्डिकी), पृ. २४९-२५३
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English Section
Articles by Dr. Sagarmal Jain
Editor Dr. Ashok Kumar Singh
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Jaina Literature
From Earliest Time to c. 10th A. D. 1
Jaina Literature of Early Period
the canonical literature belongs to this period, though Ancient Indian Literature was composed their final editing and writing on palm-leaves belong mainly in three languages, i.e., Saṁskrta, Pāli and to c. 5th A. D. Among Svetāmbara canons, except the Prākṣta. Out of these three Pāli is nothing but a shade Nandisātra and the later edition of Praśnavyākarana, of Prāksta language. As a literary language, Prākrta, most works were composed before the c. 3rd A. D. being a group of various local dialects as Māgadhi, No doubt, some interpolations and changes did take Pāli, Paiśāci, Sauraseni, Mahārāștri, was never place therein at the time of Valabhi Council yet they developed as a single language but as a group of are clearly traceable. It would be a great mistake if on languages. Various types of Apabhramśa were also account of these interpolations and changes the whole developed from Prākrta. Its various shades developed of the Āgamas are regarded as posterior. Although according to their different places and time. If we most of the works of this period contain the religious consider these three main languages from religious preachings with some popular parables and stories as point of view, all the Vedic religious literature is well as religious code of conduct, certain works deal found in Samskệta while the Jaina canonical and with Jaina cosmology, metaphysics, Karma philosoBuddhist literature is in Prāksta and Pāli, respecti- phy and theory of knowledge also. The list of canonively. So far as the Jaina religious literature of early cal literature is, for the first time, found in Nandisātra period is concerned, it was mainly written in Prākrta (c. 5th A. D.). If we accept Nandisūtra as a work of known as Prākrta canons. Jainas started writing from c. 5th A. D., all the works referred to ir. Nandisātra c. 3rd 4th A. D. in Saṁskrta but notably these belong to a date prior to it. But they all were not Samskrta works are based on Prākıta works whether composed in a single spur of moment. All the as an independent or in the form of commentaries. canonical works, it seems are composed in during So far as the Jaina literature (of early period)
c. 5th B. C. to c. 4th-5th A. D., i.e., within one prior to c. 3rd A. D. is concerned, barring few of the
thousand years. The works mentioned in the Nandiearly philosophical and literary treatises, it is mainly sutra are the following: confined to the canonical literature only. Majority of
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Aspects of Jainology : Volume VI
Agama
Angapravista
Angabāhya
Other than Avaśyaka
1. Ācārānga 2. Sätrakrtānga 3. Sthănẵnga 4. Samavāyānga 5. Vyākhyāprajñapti 6. Jñatādharmakatha 7. Upāsakadaśanga 8. Antakrddaśanga 9. Anuttaraupapātikadaśānga 10. Praśnavyākarana 11. Vipākasūtra 12. Dşștivāda
Avaśyaka 1. Sāmāyika 2. Caturvimśatistava 3. Vandana 4. Pratikramana 5. Kāyotsarga 6. Pratyākhyāna
Kalika Uttaradhyayana Daśāśrutaskandha Kalpa Vyavahāra Nišitha Mahāniśitha Rşibhāṣita Jambūdvipaprajñapti Dvipasāgaraprajñapti Candraprajñapti Kșullikāvimānapravibhakti Mohallikā Vimānapravibhakti Angacūlika Vaggacūlika Vivāhacülikā Arunopapāta Varunopapāta Garunopapāta Dharanopapāta Vaiśramanopapāta Velandharopapāta Devendropapāta Utthanaśruta Samutthānaśruta Nāgaparijñāpanika Narakāvalika Kalpikā Kalpāvatāmsika Puşpitā Puşpacūlika Vrsnidaśā
Utkālika Daśavaikalika Kalpikakalpika Cullakalpaśruta Mahākalpaśruta Aupapātika Rajapraśniya Jivābhigama Prajñāpana Mahāprajñāpanā Pramādāpramada Nandisutra Anuyogadvāra Devendrastava Tandulavaicārika Candravedhyaka Sūryaprajñapti Pauruşimandala Mandalapraveśa Vidyācarana Viniscaya Ganividya Dhyānavibhakti Maranavibhakti Ātmavisodhi Vitarăgaśruta Samlekhanaśruta Vihārakalpa Caranavidhi Āturpratyākhyāna Mahāpratyākhyāna
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Jaina Literature (From Earliest Time to c. 10th A. D. ]
- din inox o o
Unfortunately, all the above mentioned intact. We find that earlier subject matter of works are not available, today. Some of them are lost. Praśnavyākarana has been completely changed. Out of twelve Anga Āgamas, the 7th chapter of Similarly, partial changes as well as some additions Ācārārga ( Mahāparijña ) and the major portion of are also noted in the subject matter of JnatadharmaDrstivāda are said to be extinct. So far as the subject- kathā, Antakyddaśānga, Anuttraupapātika and Vipākamatter of 7th chapter of Ācārānga is concerned, in sūtra. Among the secondary canons ( Anga-bāhya my opinion, it was mainly related to the Jinakalpa orāgamas ) following works, known as Kalika and strict code of conduct of naked monks. When the Utkālika, respectively were also lost in due course of followers of this strict code of conduct disappeared time. The details of such canons are as under: gradually, no serious efforts were made to restore it
Kalikasutra not available presently — and finally it got lost. Likewise, the twelfth Anga
1. Kșullikāvimānapravibhakti Drstivāda, said to be containing five parts ( i ) Pari
Mahallikavimānapravibhakti karma, (ii) Sūtra, (iii) Pūrvagata, (iv) Anuyoga
Angacülikā and ( v ) Calikā, seems to have dealt mainly with the
Vaggacūlika philosophical doctrines of other schools of thought
Vivāhacūlikā including the Pārsva tradition. Pūrvagata, the third
Aruņotapāda part of Drstivāda, exclusively, dealt with the doctrines
Varuņotapāda of Pārsva tradition, later on accepted as the doctrines
8. Garuņotapada of Mahāvira. All these works were preserved only
9. Dharaņotapāda through oral tradition, because, Jaina monks and nuns
10. Vaiśramaņotapāda were strictly prohobited to write on palm-leaves,
11. Velandarotapāda those days. That study and preservation of the Jaina
12. Devendrotapāda literature, written on palm-leaves were prohibited due
13. Utthānaśruta to the strict observance of non-violence. They were of
14. Samutthānaśruta the opinion that in the process of writing, studying
15. Nāgaprajñaptipanikā. and preserving the palm-leaf works, the injury to the Jivas was inevitable. That is why, they made no
Utkalikasūtra not available presently efforts to restore them in written form. This was the
1. Kalpikākalpika reason behind the loss of Destivāda as well as some 2. Calakalpikā other agamas. In my opinion, Drstivāda, in particular, 3. Mahāprajñāpanā became extinct, because of following factors -
4. Pramādāpramāda firstly, its contents were not fully in accordance with
5. Paurusimandala Mahāvira's tradition and were mostly related with
6. Mandala Pravesa philosophical discussions of other traditions and 7. Vidyācaraņa Viniscaya schools, hence unable to arouse interest in Jaina 8. Dhyānavibhakti monks. Secondly, the concepts, accepted by 9. Vitaräga Sruta Mahāvira's tradition, were included in other Āgamic 10. Vihārakalpa texts also, hence Jaina monks did not make any effort 11. Cāraṇavidhi. to preserve the Pūrva literature. Thirdly, due to the About the subject-matter of these Kalika and oral tradition, other Anga agamas could not remain Utkalikasūtras, not extant today, it is very difficult to
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Aspects of Jainology: Volume VI
comment upon. Their subject-matter can be inferred on the basis of their titles only. One Angasūtra, i. e., Drstivada, 15 Kalikasutra and 11 Utkalikasutras, thus, the number of extinct or not available texts, comes to be 27, in total. Except these 27, all the 51 texts are available. At present six Avaśyakas being counted as one, the number finally becomes 46. It is not possible here to deliberate on the corresponding authorship, date and subject-matter of each and every text of this list in this article, so I shall discuss, in short, only few important works in their chronological order.
Primary Canons (Angas)
Acaranga is considered as the oldest of all the works of the early period. According to the scholars, the first part of Acaranga belongs to the c. 5th-4th B. C. This part contains the original preachings of Lord Mahavira. It deals with the spiritual preachings alongwith the basic principles of non-violence and ethical code of conduct, prescribed for Jania monks and nuns. Its last chapter depicts a real picture of the ascetic life of Lord Mahavira. The 7th chapter of the first part is supposed to be lost after the composition of its Niryukti, i. e., c. 2nd-3rd A. D. The second part of Acaranga is known as Ayāracula - an appendix. It mainly deals with the detailed rules and regulations or the code of conduct of Jaina monks and nuns alongwith some of the events of the life of Mahavira. Modern scholars opine that the second part of Acaranga was composed during the c. 2nd-1st B. C. Another improtant canonical work of this era is Sūtrakṛtānga dating c. 4th-3rd B. C. This work is also full of spiritual and moral preachings but its peculiarity lies in the presentaion of different philosophical views prevalent in that particular era. Like Acaranga, it also comprises two parts ( Śrutaskandhas). Scholars are of the opinion that the second part of Sutrakṛtänga is some what posterior to the first. The third important work in chronological
order of the Jaina canonical literature is Isibhāsiyaim (Rṣibhāṣitam ). All the scholars of Prākṛta and Jainology: Western and Indian, consider it of c. 4th-3rd B. C. It marks the catholicity of early Jaina thinkers. It contains the ethical preachings as well as philosophical views of forty-five thinkers. Out of these Narada, Asitadevala, Angirasa, Pārāśara, Aruns, Nārāyaṇa, Yajnavalkya, Uddālaka, Vidura etc. definitely belong to Upanisadic tradition. Similarly, Sariputta, Vajjiputta, Mahākāśyapa etc. belong to Buddhist tradition while Parsva and Vardhamana belong to the Jaina tradition. A few others are of other independent Śramanic tradition, not extant today. This work shows that in the early period the Upanisadic and other Śramanic traditions were tolerant as well as respectful to each other.
Uttaradhyayana and Daśavaikālika are other important works of this early phase. Uttaradhyayana contains thirty-six chapters, mainly dealing with the religious preachings as well as some metaphysical doctrines of Jainism. Some chapters of this text are regarded as the later additions by the scholars but in no way they are later than the c. 2nd or 1st B. C. The next work Daśavaikālika, next work Dašavaikalika, composed by Arya Sayyambhava (c. 5th-4th B. C. ) mainly deals with the ethical code of conduct of Jania monks and nuns alongwith the spiritual discourses and preachings. However, we can not deny the possibility of the interpolations to the some extent in its final editing.
The other works dealing with the ethical code of conduct are Nisitha, Dasaśrutaskandha (Ayäradaśā ), Vyavahāra and Kalpa, all composed by Arya Bhadrabahu inc. 3rd B. C. These works, not only deal with the code of conduct but with transgressions and atonements also.
Against general belief, that all the Angas are composed by the Ganadharas, direct disciples of Lord Mahavira, some opine that except Acaranga and Satrakṛtänga, all the Angas are composed later on. In
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my opinion, it is very difficult to assign any particular were incorporated in Sthānānga. Same is the case date or authorship to these extant works because of with Anuttaropapātikadaśānga. Its early edition concontaining different levels of the development of tained life-stories of only ten persons who attained Jaina thought, occurred through different ages. Sarvārthasiddhi Vimāna and were supposed to attain After Ācārānga and Sūtrakrtānga, next two
liberation in their next births. Of Jaina canon PraśnaAngas in successive order are Sthānārga and Sama
vyākaraṇadaśā, unfortunately, the earlier contents are vāyānga. They may be considered as encyclopaedia
totally extinct. It seems that the present subject-matter of early Jaina thoughts and beliefs, mainly based on
of this work was incorporated in aroundc. 7th A.D. Its
on the numbers more or less similar to Anguttaranikāya
extant edition deals with five āsravas, viz., violence, of Buddhist tradition. Both these works provide more
untruthfulness, theft, unchastity and possessiveness information about the Jaina order and development of
alongwith five samvaras, viz., truthfulness, nonJaina thoughts of the later period, i.e., c. 3rd 4th A.D.
stealing, chastity and non-possession. Last available The next in the list is Bhagavati (Vyākhyāprajñapti)
work of Anga canon is Vipākadaśā, dealing with mainly dealing with different aspects of Jaina philo
fruits of merit and demerits. sophy. According to a group of scholars, this Secondary Canons (Upānga ) voluminous work, was composed at different phases The first work of the secondary canons is and not at one time. Evidently, it has references to the Aupapātika, dealing with the episode of Sūryabhalater works like Prajñāpanā, Anuyogadvāra, etc. be- deva. It also depicts a beautiful picture of ancient art longing to c. 1st-4th A. D. and side by side, depicts and architecture. On the basis of this depiction, various earlier original concepts, witnessing change scholars date this work not earlier thanc. 1st-2nd A.D. in the process of development of Jaina thoughts. The The next work of this category is Rājapraśniya which, next work of early period is Jñātādharmakatha. so far its subject matter is concerned, is more similar Second part of this work is considerably later than the to the Buddhist Pāli canon - Paseniyasutta. The third first. The first contains mainly stories preached by and the fourth, Jivābhigama and Prajñāpanā, respecLord Mahāvira to his disciples. Its 19 chapters, refer- tively, deal with the Jaina metaphysics in general and red to in Avaśyaka-sūtra, are undoubtedly, com- the concepts of jiva and ajiva in particular. The posed in the early period. The next among Anga authorship of Prajñāpanā is attributed to Arya Syāma canons is Upāsakadaśānga, considered as the first (c. Ist A.D.). Out of these twelve secondary canowork related to the code of conduct of lay devotees nical works only Prajñāpanā's authorship is known. (Śrāvakas ). It comprises life-sketches of ten promi- About the authorship of other works, we are still in nent lay followers of Lord Mahāvira. Not having any dark. The fifth one is Jambūdvipaprajñapti, mainly trace of any later work, it belongs to the early period. dealing with Jaina Geography in addition to the lifeAntakyddaśānga deals with the life-stories and ascetic history of Rşabhadeva. The subject matter of next life of the persons, attaining their salvation in the last two works, Sūryaprajñapti and Candraprajñapti are span of their life. According to Sthānānga, it has only related with Jaina cosmology in general and Jaina ten chapters dealing with life-stories of 10 persons. astronomy in particular. Scholars date thesec. 2nd-1st But present volume contains life-stories of 93 persons. B.C. Other five works of this bunch are very short and It clearly shows that not at the time of Valabhi Vācană rather of less important. alone but even after that some additional matters
Besides Anga & Upānga canonical literature,
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Candrakavedhyaka, Tandulavaicārika, Āturpratya- 1. Āvaśyakaniryukti, khyāna, Mahāpratyākhyāna, Maranavibhakti, mainly 2. Daśavaikālikaniryukti, concerned with the Jaina Sadhanā, are known as 3. Uttarādhyayananiryukti, Prakimakas, in general and Samadhimarana in
4. Ācārānganiryukti, particular. All these works are, undoubtedly earlier to 5. Sūtrakıtānganiryukti, the c. 4th-5th A.D.
6. Daśāśrutaskandhaniryukti, Among the non-canonical works of this 7. Kalpaniryukti and period, very few in number are extant, namely
8. Vyavahāraniryukti. Tattvärtha-sūtra and its auto-commentary (c. 3rd 4th
Apart from these, two more Niryuktis - Ogha A. D.), Paumacariya of Vimalasuri (c. 2nd-5th and Pinda are also available, but considered to be the A. D.) and Digambar works composed in Sauraseni part of Āvasyakaniryukti and Daśavaikalikaniryukti, Prāksta like Kasāyapahuda of Gunadhara (c. 4th A. respectively, hence, not independent works. We also D. ) and Şatkhandāgama of Pușpadanta Bhūtabali have a mention of two more Niryuktis on Surya( about c. 5th A. D.). Apart from these, the works of prajñapti and Rşibhāṣita, but they are extinct now. Kundakunda, Samantabhadra and Siddhasena
To conclude, we can say that more than Divākara may also be considered as the works of
hundred works could be considered to belong to this early period. Scholars differ on the exact date of com
early period but about thirty of them are now extinct. position of these works, except that of Tattvārthasütra. They date these in between c. 2nd-5th A. D.
Jaina Literature of this period
The evolution and changes occurred in Jaina Among non-canonical literature, the first
thought and practice during c. 3rd-10th A. D. is traceNiryuktis, ten in number, are of great importance.
able through its literature. For literature is the mirror These ( Niryuktis ) mainly explain the meaning of
of the cultural development of any society. The prime Jaina technical terms from the various stand-points
period of the composition of literary works of Jainism alongwith the brief account of the subject matter of
corresponds to c. 3rd-10th A. D. Almost all the imthat particular Āgama. Scholars widely differ about
portant works of Jainism were finally composed and the time and authorship of Niryuktis except that of
edited in this period. The literature, which emerged in Govindaniryukti. Some are of the opinion that these
this period, may be divided into five categories : Niryuktis are composed by Bhadrabāhu-I (c. 3rd B. C.) while others consider these to be composed by
1. Āgamas and their commentaries. Bhadrabāhu-II, the brother of Varahamihira (c. 6th
2. Philosophical works. A. D.). But in my humble opinion, as external and
3. Works related to the Jaina religious pracinternal evidences show it was neither of Bhadra
tices. bāhu-I or of Bhadrabahu-II. But, Aryabhadra of c.
4. Jaina epics and other narrative literature. 2nd-3rd A. D., in all probability, was the author of
5. Secular Literature of Jainas. these Niryuktis. I have given various reasons in 1. Āgamas and their Commentaries support of this view in my independent article As I have already mentioned that except published in Sāgara Jaina Vidyābhārati (Pārsvanātha Nandisātra and present edition of Praśnavyākarana, Vidyāpitha, Varanasi, 1994 ). Presently, we have most of the Āgamas were composed before c. 3rd A. only the following Niryuktis :
D. but their final editing had been done only in the
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c. 5th A. D. At the time of this final editing, interpolation of many later developed philosophical concepts and informations regarding the Jaina order creaped into these. The Nandisutra, the agamic work composed during this period, deals with the Jaina theory of five-fold knowledge as well as contains its later developments which took place inc. 4th-5th A. D. Similarly, the drastic changes in the original subjectmatter of Praśnavyakaraṇa and partial changes in Antakrddala and Anuttaraupapatikadaśa also occurred during this period. Almost all the Prakṛta and some of the early Samskṛta commentaries on the Jaina Agamas were written in this period, in form of Niryuktis (c. 3rd-4th A. D.), Bhāṣyas (c. 6th A. D.) and Carnis (c. 7th A. D. ). This period is of great literary importance because majority of the Agamic works were finally edited and some of them were even composed also in this period.
Besides these Niryuktis, Oghaniryukti and Pindaniryukti are also available but Oghaniryukti is considered as the part of Avasyakaniryukti and Pindaniryukti as the part of Dasa vaikālikaniryukti, hence they are not independent works. Though, Niryuktis on Suryaprajñapti and Ṛṣibhāṣita are referred to in Avasyakaniryukti (Verse 85) but at present these two are not available. The Niśithaniryukti, considered to be the part of Acaranganiryukti is mixed with its Bhāṣya. All these Niryuktis are written in Präkṛta verses and deal very precisely with the contents of the respective Agamas.
After Niryukti, Bhasyas onagamic texts were composed in c. 5th-6th A. D. The Bhāṣyas are more exhaustive and elaborate than those of Niryuktis. They were also composed in Prākṛta verses. Bhāṣyas are quite prolific in their contents referring to various concepts of Jaina philosophy and the code of the conduct for monks and nuns with their exceptions and punishments.
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Among Bhasya, Višesavasyakabhāṣya is the most important. It is the first work of Svetambara tradition, dealing with the problems of Jaina philosophy with minute details. The concept of five-fold knowledge has been discussed elaborately with a critical approach herein. Among various proofs given for the existence of soul, one bears similarity to that of Rene Descartes (c. 16th A. D. ), a Western philosopher, proving the existence of soul through doubt itself. In Višeṣāvasyakabhäşya, various contrary views of Jaina acaryas are mentioned and reviewed alongwith the views of some rebellious Jaina thinkers, i.e., Nihnavas. It also deals with the differences of Śvetämbara and Digambara traditions regarding the successiveness and simultaneity of Kevalajana and Kevaladarśana as well as the problem of nacked-ness of the monk with full details. Other Bhāṣyas mainly deal with the ethical code of conduct of ascetics with their exceptions and the conditions in which these exceptions could be followed alongwith their atonements. The Bhasyas, dealing with the code of conduct of monks are-Daśavaikālikabhāṣya, Uttaradhyayanabhasya, Brhatkalpabhāṣya, Vyavahārabhāṣya, Niśitha
bhasya and Jitakalpabhasya. Some of the Bhasyas
also contain some informations of historical importance. As the authors of the Bhasya, we have only two names Jinabhadragani and Sanghadasagani. Jinabhadragani is the author of Višeṣävasyakabhäṣya while Sanghadasagani is the author of Brhatkalpa, Vyavahara and Nišithabhäşya. Of these two Sanghadasagani is supposed to be senior to Jinabhadra, because Jinabhadra, in his work Viśeşanavati has referred the Vasudevahindi, a work authored by Sanghadasagani. The period of Jinabhadra, is undoubtedly, the latter half of the c. 6th A. D. As Sanghadasagani was senior to Jinabhadragani, it leaves no room for doubt that he must have flourished in second half of the c. 6th A.D. All these bhāṣyas are of considerable length; composed in Präkṛta verses and deal with
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their subjects exhaustively. We find a rich cultural data and some informations about the cultural history of India in the Bhasyas.
Next, the Cürnis, unlike the Niryuktis and Bhāṣyas are written in prose. Niryuktis and Bhāṣyas are written in Prakṛta only, while the Curnis in Prakṛta mixed with Samskṛta. Among Cümis Avaśyaka, Daśavaikālika, Uttarādhyayana, Sūtrakrtänga, Anuyogadvära, Nandi and Nišitha, are the most important.
All these Curnis were written by Jinadasagani Mahattara. In Nandicurni it is clearly mentioned that this work was completed in Saka Samvat 598 corresponding to 676 A. D. It is, therefore, concluded that most of the important Curnis were written in c. 7th A. D. Some Curnis viz., Daśavaikālika of Agastyasimha and Curnisūtras on Kasayapahuḍasutta are the earlier among the Curni literature.
Among whole of the commentary literature Camis hold an important place because first, they deal with the various subjects and are directly concerned with social and cultural heritage of Jainism. Secondly, they supply so many informations about the Jaina History pertaining c. 1st-6th A. D.
Curnis were succeeded by Samskṛta commentaries, written on different Agamic texts, known as Vṛttis or Vivaranas. Among Samskṛta commentators Haribhadrasuri is the earliest, flourished in the middle of the c. 8th A. D. He wrote commentaries on Avaśyaka, Daśavaikālika, Jivābhigama, Prajñāpanā, Nandi, Anuyogadvāra and Piṇḍaniryukti. Śilankacarya, flourished in the c. 9th A. D. believed to have written several commentaries on Agamas but unfortunately at present only two commentaries on Acaranga and Sūtrakṛtānga, are available. After Silanka, Abhayadevasüri and Säntisuri are the prominent names among commentators. Abhayadevasuri has commented on nine of eleven Angas except Acaranga and Sūtrakṛtānga, hence called Navangi
vṛttikara. Šāntisūri has written a commentary on Uttaradhyayanasütra. Both of these later Samskṛta commentators flourished, during c. 10th-11th A. D. This trend of commentary-writing is still current in Svetambara tradition.
In Digambara tradition, Kasayapahuḍasutta and Satkhandagama are considered as equivalent to agamas. These works are written in c. 4th-5th A. D. On Kaṣāyapahuḍasutta first commentary was written by Yativṛsabha in the form of Carni-sutras inc. 6th A. D. After that inc. 9th A. D. Virasena wrote two commentaries Jayadhavala and Dhavala on Kaṣāyapähuda and Satkhandagama, respectively. Mahadhavala is a commentary on the one part of Şatkhandagama, written by his disciple Jinasena. These commentaries mainly deal with Jaina philosophy in general and Karma theory in particular.
2. Important Philosophical Works of this Period
Among the Jaina philosophical works composed between c. 3rd-10th A.D., the Tattvärthasūtra, with its auto-commentary by Umasvāti, is the pioneer one and may be considered as the first systematic work on Jaina philosophy. Composed inc. 3rd A. D., it also has the credit of being the first Samskṛta work of Jaina literature, written in the style of other Sūtragranthas of Indian philosophy. The especiality of this work is that it is equally respected as well as accepted by both the sects of Jainism — Śvetāmbara and Digambara. It encompasses ten chapters dealing with Jaina metaphysics, epistemology and ethics. Its first chapter deals mainly with Jaina theory of knowledge, Naya and Nikṣepa, second with Jiva (living substance), third and fourth with hells and heavens, fifth with Jaina metaphysics, sixth to ninth chapters with Jaina doctrine of Karma and Jaina sadhana or ethical code of conduct of house-holders and monks, respectively. Finally, the tenth one deals with the concept of liberation (mokṣa). Notably, the concept of Gunasthana and Saptabhanginaya ( Seven-fold
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judgement) are totally absent in it. This shows that these concepts came into existence later during c. 5th6th A.D.
After Tattvärthastra, Acarya Siddhasena Divakara's Sanmatitarka is the next critical and important work, composed in c. 4th A. D. in Präkṛta verses. It explains critically the concept of dravya (substance), guna (properties), paryaya (modes) and their mutual relationship on the basis of the Jaina theory of Naya, Niksepa and Anekantaväda (nonabsolutism). It is the first work in which one-sided views of other philosophers are critically examined to establish Jaina theory of Anekantavada. Some of the Dvātrimśaka-dvātriṁśikās, of the same author, also, critically examine the philosophical views of other Indian schools under the pretext of praising the Jina. Even if the refutation of the philosophical views of other schools of Indian philosophy is found in the canonical works also, they are neither critical nor systematic in their approach. Siddhasena for the first time, critically examined the views of other Indian philosophies, showing their logical inconsistencies. So far as the works on Jaina epistemology are concerned, Nyāyāvatāra of Siddhasena may be considered the first work on Jaina logic. This work provides the base to understand the later gradual developments in Jaina logic, particularly the contribution of Akalanka and Vidyanandi in this regard.
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Anekāntavāda. Aptamimamsa is an important work which establishes the concepts of Jainism after a critical evaluation of those of the other schools of Indian philosophy.
Another important work of this age is Dvädasaranayacakra, authored by Mallavädi inc. 5th A. D., aiming to establish Jaina theory of Anekantavada by pointing out inconsistencies in the thoughts of other schools of Indian philosophy. The style of this work is somewhat different from that of Sanmatitarka and Aptamimāmsā, as these two later works are composed in verses and deal with their subject-matter in a precise manner. Nayacakra is composed in prose and deals with its subject-matter exhaustively. The distinguishing feature of Dvadaśāranayacakra is that it critically examines the views of one philosophical school through the arguments of its opponent. In this way it makes a circle (cakra) in which the last school of thought is refuted or critically examined by the first one. On the basis of these three important works, this age is known as "The Age of Critical Presentation of Anekantavada". Besides 'Anekantajayapatākā' and 'Anekäntavädapravesa' of Haribhadra (c. 8th A. D.) also deal with the same subject-matter, but in a different manner. Visesävasyakabhāṣya, of Jinabhadragani Kṣamasramaṇa, is one of the important work of this age. In Svetambara tradition it is the first work which deals with various problems of Jaina philosophy in detail and with minute observation. In Digambara Tradition also the Tattvärthasūtra is considered as the first systematic work on Jaina philosophy. The oldest available commentary on Tattvärthasutra in Digambara tradition is Pujyapāda Deva-nandi's Sarvarthasiddhi which is next to Svopajña-bhāṣya ( autocommentary of Umāsvāti). It is composed in the first half of c. 6th A. D.
Among the writers of the Digambara sect, who wrote independent philosophical treatises, Samantabhadra (c. 5th A. D.) occupies an important place. His Aptamimamsa is a noted scholarly presentation. It immitates Sanmatitarka of Siddhasena, in style but differs in language. Sanmatitarka is in Prakṛta verses, while Aptamimamsa is in Samskṛta verses. It also critically evaluates the one-sided views of other philosophies. These two works namely, Sanmatitarka and Aptamimämsä, may be considered as the prime During c. 8th A. D. two more commentaries works for the exposition of Jaina theory of were produced namely Akalanka's Tattvärthavärttika
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and Vidyānandi's ślokavārttika which are of great systems of Indian philosophy. In Šāstravārtāimportance. Both of these works not only propound samuccaya, he has paid more respect and veneration the Jaina philosophy but also critically evaluate and to the other schools of thought. It was Haribhadra estimate the other philosophical systems. Like other who for the first time started the cult of commentary works, these commentaries also discuss the points of writing in Saṁskṛta which was developed by Silānka dispute between Svetāmbara and Digambara sects, (c. 9th A. D.) and Abhayadevasūri ( latter part ofc. such as the concept of women's liberation ( stri- 11th A. D. ). These commentaries not only explain mukti ), the taking of food by omniscients ( kevali- the facts about the different āgamic topics but also bhukti ) etc. At the same time in Svetāmbara tradition critically examine the philosophical concepts. too, two commentaries on Tattvārthasūtra, namely
During this period a number of spiritualistic Tattvärthadhigamasūtra and Tattvārthasūtravārttika
treatises appeared. Kundakunda added distinct idea to by Siddhasenagaņi (c. 7th ) and Haribhadra (c. 8th )
Jaina spirituality through his voluminous literature. respectively, were brought out.
According to Digambaras, his period is supposed to The composition of independent works on be c. 1st A. D., mainly based on the evidence of Jaina doctrine of Karma starts with c. 4th A. D. In Markara Abhilekha which has already been proved as Digambara tradition the independent works on Jaina fake inscription. According to new researches his pedoctrine of Karma composed duringc. 4th-10th A. D. riod has been established as c. 6th A. D. (See - Asare Mahākarma-prakịti-prābhịta (Şatakhandaśāstra ) pects of Jainology, Vol. III, ed. by Prof. M. A. Dhaky by Puspadanta Bhūtabali (C. 4th A. D.), Kaşāyaprā- & Prof. S. M. Jain, P. V., 1991, p. 8). He has contribbhỉta by Gunadhara (c. 4th A. D.), Kaşāyaprābhịta uted a lot to the field of Jaina philosophy, by writing Cūrņi by Yativrsabha (c. 6th A. D. ), Dhavala Țikā his distinguished works as Samayasāra, Pravacanaand Jayadhavala Țika by Virasena (c. 9th A. D.) and sāra, Niyamasāra etc. Gommatasāra by Nemicandra Siddhāntacakravarti 3. Works on Religious Practices and Ethics (c. 10th A. D.). Similarly, in Svetāmbara tradition
The literature related to Jaina religious pracKarmapraksti by Sivaśarmasüri ( c. 5th A. D.), tices may be divided into following five categories : Prācina-Şatkarmagrantha, Sataka and Saptatika by
(i) Hymns composed in the praise of Sivašarmasūri and Pancasangraha are the noted trea- Tirtharkaras. tises composed during this age. All these works
(ii) Works related to the modes of worship, present detailed description of Jaina Philosophy in rituals and religious ceremonies. general and Jaina doctrine of Karma in particular.
(iii) Works concerned with religious preachHaribhadrasūri composed more than eightyings. works on different aspects of Jaina philosophy and (iv) Works composed on Jaina Sadhanā and religion. He developed a Jaina system of Yoga on the Yoga. basis of Patañjali's Yoga and established some new
(v) Works related to the Code of Conduct of concepts of Jaina Yoga. Haribhadra was a prolific Monks and Nuns as well as house-holders. writer who has written on every aspect of Jaina phi- Under the first category Dvātrimsikās of losophy and religion. His Şaddarsanasamuccaya and Siddhasena Divākara (c. 4th A. D.) hold an important Săstravārāsamuccaya are two important works place. He has written 32 Dvātrimsikäs out of which which describe comparatively the thoughts of other seven - first five, 11th and 21st are composed in the
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Jaina Literature
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praise of different Tirthankaras. Many of these Dvā- works of this category. trimsikās, apart from praising the Tirtharkaras, The third category of religious literature incritically examine the theories of other philosophical cludes the works such as Kundakunda's Astasystems. The next important work of this eulogical pāhuda, Pūjyapāda Devanandi's Istopadeśa and literature is Samantabhadra's Svayambhūstotra. It Dharmadāsagani's Upadeśamālā composed in consists of 143 ślokas written in praise of twenty-four Prāksta, Samskrta and Prāksta, respectively. However, Tirtharikaras. Kundukunda's Daśabhakti is also an the authorship of Upadeśamālā is a matter of dispute. important work dealing with ten-fold laksaņas of Above mentioned both the works lucidly record the dharma. Another most popular and well-received preachings of religious doctrines. Haribhadra has also work, respected equally by both the sects — contributed some works such as Upadeśapada, Svetāmbara and Digambara, is Mānatunga's Dharmabinduprakarana, Upadeśaprakarana and Bhaktāmarastotra (c. 6th A.D. ) composed in the Sambodhaprakaraṇa to this theme. praise of first Tirtharikara Rşabhadeva.
The fourth category related to Jaina sadhana The second category encompasses the work and Yoga, abounds in its literature. Praśamaratirelated to Jaina modes of worship and rituals. The prakarana by Umāsvāti (c. 3rd 4th A. D. ) may be first work of this category was Pajāprakarana by regarded as the first work of this category. Pujyapada Umāsvāti but unfortunately it is not available. Simi- Devanandi's Samādhitantra (c. 6th A. D. ) also belarly, in Digambara tradition some more treatises longs to the same category. On Jaina Yoga Harirelated to this theme viz. Arhatpratisthā and Jinā- bhadra contributed a lot by writing several books on bhiseka, both authored by Pūjyapāda Devanandi (c. Jaina yoga. Yogavimśikā, Yogaśataka, Yogabindu, 6th A. D.), are also not available today. A few works Yogadrstisamuccaya and Dhyanaśataka are some of on Jaina modes of worship were also composed but his important works on Jaina yoga. - presently except some of Pancāśakas and other works
The fifth category comprises the works comby Haribhadra, none of these are available. Among
nong posed on Jaina ethics and code of conduct for Jaina ninteen Pañcāsakas only following are related to this
monks and nuns. It is the category to which several theme :
works have been contributed by the Ācāryas of both (i) Dikṣāvidhi
the sects - Svetāmbara and Digambara. In Svetāmbara (ii) Caityavandanavidhi
tradition, apart from commentaries (Bhāsyas and (iii) Pūjāvidhi
Cūrnis ) written on Jaina Āgamas on this very theme, (iv) Jinabhavana-nirmāņa-vidhi
some independent works were also composed, parti(v)Pratisthā-vidhi and
cularly dealing with the ethical code of conduct of (vi)Jinayātrā-vidhi.
Jaina ascetics and lay-followers. Among these works, Haribhadra has discussed the subjects in his Umāsvāti's 'Sravakaprajñapti' may be regarded as the Șodaśakas also. Some Sodasakas such as Pratiştha- first, but unfortunately it is also not available. In vidhi, Pūjāphala and Diksādhikära may be regarded Digambara tradition, Mulācāra and Bhagavatias related to this theme. Pañcāśakas are composed in Arādhanā, are the important works elaborately dealPrāksta, while Şodaśakas in Samskrta. Haribhadra's ing with the code of conduct of Jaina monks and nuns. Caityavandana alongwith its auto-commentary Caitya
In my opinion, Mūlācāra and Bhagavativandana-bhāsya and Pratisthakalpa are the noted Aradhana basically belong to Yāpaniya tradition and
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not to Digambara. I have proved this on the basis of between c. 12th-14th A. D. multiple internal as well as external evidences in my
In the first category Caupannamahāpuruşabook Jaina Dharma ka Yapaniya Sampradāya. In cariam of silankācārya (c. 9th A. D. ) depicts the life Digambara tradition Ratnakarandasrāvakācāra of of 54 out of 63 Salakāpuruşas, leaving out 9 PratiSamantabhadra (c. 6th A. D.) is regarded as the first
vasudevas, in Prāksta. Containing 10,800 verses, it work composed on the ethical code of conduct for deals with 19 characters out of 54, exhaustively, Jaina house-holders, however, its authorship is also a while the remaining characters have been described matter of dispute. In śvetămbara tradition after
only in few pages. It belongs to Śvetāmbara tradition. 'Uvasagadasão', the seventh anga of Jaina canons,
In Digambara tradition, Jinasena and his pupil Guņa'Savayapannatti' by Haribhadra is the first available bhadra (c. 9th A. D.) also composed Mahapurāna or work, dealing with the code of conduct for Jaina lay- Trisasticaritra in Samskrta. It is divided in two partsdevotees. Some independent works dealing with the Adipurāna and Uttarapurāna, describing the life of 63 atonement (Prāyaścitta ) were also written in this
great personalities of Jainism. On the same theme period among which Jinabhadra's 'Jitakalpa' stands as
Puspadanta also composed one of the greatest work the most important work. Later on, on the basis of of Apabhramsa language, namely TrişastimahāpuruşaJitakalpa, Indranandi's Chedapindaśāstra and Cheda- gunālankāru (laterc. 10th A. D.). Puspadanta carries śāstra by unknown writer were composed in Yapaniya to perfection the possibility of Apabhramsa as a tradition. Especiality of these two works lies in the vehicle of poetry. fact that they not only prescribe the laws of the atone
Second type includes many Kathās, ākhyānas ment for Jaina monks and nuns but for the male and
and Caritas in Samsksta, Prākṣta and Apabhraṁsa. It female lay-devotees also.
deals mainly with the biographies of individual 4. Jaina Narrative Literature
Tirtharkaras and other celebrated personalities of Jaina narrative literature of this period is gene- their times. The first and foremost work of the correrally divided into five categories, viz. (i) biographies sponding period is certainly Paumacariya, of Vimalaof the 63 illustrious personalities (Salākāpuruṣas ) sūri (c. 2nd-5th A.D.) of Năila or Nägila Kula, described together in one book, (ii) life-stories of which deals with the life-stories of Lakşmana and these religious great personalities described indepen- Rāvana. It is a pioneer work of Jainas on Rāmakatha. dently in a work, (iii) religious tales in romantic It has considerable impact on one work of Ravişena's form, (iv) semi-historical prabandhas and (v) com- Padmacarita ( c. 7th A. D.) in Samskrta and Svayapilation of stories in the form of kathākoșas. mbhu's Paumacariu ( c. 8th A. D.) in
However, main objective of the narratives Apabhraíśa. There is also another version of Jaina was religious exhortation meant for the masses. It Rāmakathā represented by Gunabhadra ( 898 A. D.) may be noted that most of the literature of this form, in Uttarapurāna and followed by some other excluding canonical texts belong to this period, i.e.,c. Digambara writers of (c. 10th A. D. ). Some other 3rd-10th A. D. Though some prominent works of the works of this category are Pārśvābhyudaya by Jinanarrative literature such as Trişastiśalākāpuruşa of sena (c. 9th A. D. ), Harivamsapurāņa by other Hemacandra, semi-historical prabandhas - Jinasena (c. 9th A. D.). Vardhamānacarita by Asaga, Prabhāvakacarita, Prabandha-cintāmaņi, Akhyānaka- Neminirvāṇamahākāvya by Vāgbhatta, Candramanikośa, Prabandhakuśa, etc., have been composed prabhacarita by Virasena and some Kannada works
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Jaina Literature [ From Earliest Time to c. 10th A. D. ]
such as Adipurana by Pumpa and Santipurana by Ponna (c. 10th A. D.) may also be included in this category. It is also to be noted that stories of Rama and Kṛṣṇa are well recognised in Jaina tradition and Jaina writers composed so many independent works on the life of these two great personalities, accordingly.
The third typs marks an interesting phase in Indian literature, in which religious tales are presented in a romantic form. The Tarangalola of Padaliptasuri in Prakṛta is lost but its epitome in Samskrta Tarangavati indicates that it might have possessed engrossing literary qualities. Then there is the Vasudevahindi of Sanghadasagani (c. 6th A. D.). Vasudevahindi is probably the Maharastri version of Gunadhya's famous Brhatkatha, written in Satavahana period. Vasudeva, the father of the Kṛṣṇa, the romantic hero of this novel, evidently remind us of Naravahanadatta, the Hero of Gunadhya. Next there is Samaraiccakaha of Haribhadra in Präkṛta described by author as religious story, i. e., Dharmakatha. The fortune of the hero Samaraditya is traced through his 9 previous births. The underlying principle of these narratives is the doctrine of Karma. Haribhadra's
Dhürtakhyana in Prakṛta is also one of the important works of Jaina literature. It shows through this imaginary tale how skilfully the incredible legends of Hindu Mythology could be ridiculed. Next, Kuvalayamala (Mahäräştri Präkṛta) by Svetämbara ācārya Udyotanasuri, composed in 799 A. D. shows author's thorough acquaintance with works of previous writers by referring to them. He has beautifully described the corrupt city life. Upamitibhavaprapañcakatha is composed in Samskrta in 906 A.D. by Siddharși. The work of Siddharşi is an elaborate and extensive allegory. It is a narrative consisting of series of birth stories, i. e., the hero of all the stories is the same person in different births. Acarya proposes to explain the mundane carrier of the soul (Jiva) under the name of samsari jiva from the lowest stage of
existence to the final liberation. The conversion of the cruel king Marudatta to Jainism is the theme of this work. No literature representing the fourth type, i. e., semi-historical prabandhas has been written in corresponding period. All these prabandhas are written after c. 12th A. D.
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The last type is represented by the compilation of stories or Kathākoṣas. The stories contained in these works have got a definite moral purpose to be propogated and as such teachers and preachers could use them independently without any specific context, throughout there discourses. Many of the Kathakoṣas are of anonymous composition.
The well known work of this type is Dharmopadeśamala of Jaisimhastri ( 867 A. D.) composed in Prakṛta. The work has auto-commentary and has 156 stories. Bṛhatkathakośa, composed in 931 A. D. by Harisena, is also one of the important works of Yapaniya tradition of Jainism. It is very informative Jaina text of early medieval period.
5. The Secular Literature of Jainas
As defined, being a realistic system with a
high spiritualistic bias, the basic texts of Jainism deal with the phenomena of the spiritual kingdom as well as physical universe. Jaina Acāryas introduced various learnings aiming at the developement of personalities and character, preservation of its cultural heritage, shoulder the responsibilities of the ascetic and house-holders in society and performance of religious duties. These aims are achieved by learning such subjects as could strike the balance between the spiritual as well as worldly life.
The earlier Jaina canons mention different subjects dealing with worldly phenomena. Sutrakrtanga, Bhagavati, Samavayanga, Nandisütra, Prajñāpana, Jambudvipaprajñapti, Candra and Suryaprajñapti describe various aspects of biology, grammar, chanda, nirukta, jyotisa, geography, astronomy
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etc., but in Agamas these different subjects are intermingled. Realising necessities of some independent works regarding worldly phenomena, Jaina acaryas composed some secular literature dealing with the physical phenomena.
As the result, by the beginning of c. 3rd A. D. several independent works were composed on various subjects such as Astronomy, Astrology, Geography, Mathematics, Biology, Arts and Architecture, Linguistic and Medicinal discipline, i. e., Ayurveda, etc. It would be in the fitness of the things to record some of the details about such works, viz. Lokavibhaga of Sarvanandi (c. 6th A. D.) and Tiloyapannatti of Yati-vṛsabha composed in Präkṛta, are two important works on Astronomy and Geogra phy. Some more works like Umāsvāti's Jambūdvipasamāsa and Kṣetravicara (c. 3rd A. D.) and Bṛhatkṣetrasamāsa of Jinabhadragani Kṣamāśramaņa (c. 7th A. D.) also dealt with Geography and some aspects of Jaina cosmology. Among these works,
Ksetravicara is not available today. Jivasamāsa and Jivavicara as well as Tandulavaicärika are the works dealing with Jaina Biology. Pujyapada Devanandi (c. 6th A. D.) had composed a treatise named Vaidyakasastra dealing with Ayurvedic medicines, but this work is also not available. Jyotiṣakarandaka is a Prakimaka which deals with Jaina Astrology. In the field of grammar, Jainendra Vyakaraṇa or Endravyakarana of Indranandi (c. 6th A. D. ), Śākaṭāyana Vyakarana alongwith its auto-commentary, Amoghavṛtti of Palyakirti Sākaṭāyana (c. 9th A. D.) and Śvayambhū Vyākaraṇa of Tribhuvana Svayambhu (c. 8th A. D.) are regarded as important works of this category.
The literary evolution of Jainas, particularly in Prakṛta, which took place during c. 5th B.C.-10th A. D. shows that the Jaina ācāryas were versatile genius. They composed various treatises on different subjects but mainly on philosophical and religious topics.
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Origin and Development of Jainism
Jainism is one of the oldest living religions of supremacy of human being over gods, equality of all the world. It has a rich spiritual, cultural and literary beings, opposition to the supremacy of Brahmins and heritage to its credit. Indian religious quest has two to animal sacrifices and emphasis on moral values main streams - Vedic ( Brāhmaṇic ) and śramaņic. were some of the fundamental tendencies of Among the living world religions Jainism, as well as sramanic tradition. We also find that some of the Buddhism, belong to the śramanic trend of Indian above mentioned tendencies such as renunciation and culture. There were some other Sramanic religions emancipation were totally absent from the earlier also but they either like Ājivikas, disappeared in the form of Vedic religion. These concepts were course of time or like Sārkhya-Yoga and other contributed by the Sramaņas to Indian culture in ascetic systems of Hindu religions, became part and general and Hinduism in particular. parcel of great Hindu religion by adopting some Antiquity of Jaina Tradition tenets of Vedic religion.
The antiquity of Jainism goes back to the preSramanic tradition is spiritualistic and historic period of Indian culture. In support of this soteriological in its very nature. It lays special view Prof. H. Zimmer observes, "there is truth in the emphasis on renunciation of worldly belongings and Jaina idea that their religion goes back to remote enjoyments and on emancipation from worldly exist- antiquity, the antiquity in question being that of the ence, i.e., the cycle of birth and death. It may be Pre-Aryan" (Philosophies of India, p. 60 ). We find accepted without any contradiction that these very references to Vrätyas and Arhatas in Rgveda and ideas of emancipation (mokṣa/mukti/nirvāņa/ Atharvaveda, the oldest texts of the Indian literature. kaivalya ) and renunciation ( tyāga/samyama These Vrâtyas and Arhatas of Vedic period are the vairāgya ) have been cultivated by the Sramaņas. ancestors of Jainas. They are also known as Asceticism is the fundamental concept of Šramanic Sramaņas in Upanişadic period. Alongwith the tradition. It is on this ground that the religions of references of Vrātyas, Arhatas and Śramaņas in Śramanic tradition such as Jainism and Buddhism Vedas and Upanişadas, we find mention there of differ from the early Vedic religion. The early Vedic some Jaina Tirtharkaras such as Rşabha, Ajita and religion was against asceticism and emphasized the Aristanemi. It conclusively prooves that Jainism, in material welfare of the individual and the society. its oldest form as Vrātya or Arhata tradition, was The Vedic seers in their hymns were praising the prevalent at the time of the composition of Vedas worldly existence and praying for their own health hence its antiquity goes back to pre-Vedic period, and wealth as well as of their fellow beings, while the i.e., at least three to five thousand years before Śramaņas were condemning this worldly existence Christian era. Secondly, in Mohen-jo-daro and and propounding the theory that this worldly Harappa some seals of meditating Yogis have been existence is full of suffering and the ultimate end of found, which show that the tradition of performing human life is to get rid of the cycle of birth and death. meditation and Yoga-sadhana was present much Austerity, renunciation, emancipation, atheism, the prior in Indian Culture to the arrival of Aryans and
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their Yajña rituals because no Yaña-vedi is found in read in Buddhist canons, the name of some Jaina these excavations. At that time present Jainism was Tirtharkaras such as Rşabha, Padma, Candraprabha, known as a Vrătya-dharma or Arhat-dharma. Puşpadanta, Vimala, Dharma, Nami, Ariștanemi and
Later on, in the Upanişadic period (c. 800 B. Mahāvira also occur in Buddhist literature in the form C.) the Vrătyas, Arhatas and Sramaņas were divided of previous Buddhas, Bodhisattvas or Pratyekainto various religious schools. At that time (c.800 B. buddhas. Theragātha also mentions the Vaddhamāņa C. to 500 A. D. ). Jainism was known as Nirgratha- Thera. According to its earlier commentary, Attadharma. In Buddhist Pali Tripitaka and the ancient kathā, he was Licchaviputra. In my humble opinion, Jaina canons as well as in the pillar-edicts of Asoka he was not else than Vardhamāna Mahāvira, the 24th the religion of Lord Parśva and the Mahāvira is Jaina Tirtharikara. Thus, it can be said with a degree mentioned in the name of Nirgrantha Dharma. of certainty that all the Jaina Tirtharikaras are not Historicity of Lord Pārsva, the 23rd Tirthařkara, is legendary characters. Though, it may be true that now well established and accepted by all the scholars. some legendary characteristics might have crept into According to Jaina tradition the predecessor of Lord the life-stories of Jaina Tirthankaras presented in Pārsva is Aristanemi. He is supposed to be the real Jaina Purāņas, their very existence can not be challencousin of Lord Krsna. Thus, the historicity of ged. Whether we accept the historicity of Jaina Aristanemi can also be established on the basis of the 'Tirthankara or not, it is beyond doubt that the Jaina historicity of Lord Krsna. If we hold Lord Krsna to be ideas of renunciation, austerity, penance, self-mortia historic person, then Aristanemi is also historical. fication, non-violence, celebacy, meditation etc. were We find his name not only in Vedas but in prevalent in the pre Vedic period. Sri Ramchandra Upanişadas and Hindu Purāṇas also. Some scholars observes that, "Upanişads represent the Brahmanical furnish an inscriptional evidence to prove the spiritual thought: As seen later, the Brāhmaṇas did historicity of Aristanemi ( Neminātha ). There is not accept spiritualism truthfully. They borrowed found a Copper deed of gift of a Babilonian King spiritual thoughts from their Pre-Aryan adversaries, Nebuchandrazar ( 1140 B. C. ) at Prabhaspattan in now friends, in a perverted manner.... The Šramanic Gujrat. It, as per reading of Dr. Prananath (T.O.I., dt. culture was ascetic, atheistic, pluralistic and March 19, 1935), indicates that the King must have 'realistic' in content.* This comes out clearest from a come to Mount Revata to pay homage to Lord consideration of the earliest faith of the Jainas — one Neminātha. Though the reading is not accepted by all of the oldest living surviving sects of the Munis. The the scholars yet we cannot reject it as totally false. pre-Upanişadic materialistic ( Pravrtti-Dharmic ) Vedic Lord Nami of Mithila, the 21st Tirthankara of Jainas, thought later evolved pseudo-spiritual thought (Nivịttiis also accepted as a Rși in Upanişadic and Hindu Dharmic ) mainly through the influences of the MuniPaurāņic tradition. So far as the historicity of Lord śramaņa culture, in pre-Buddhistic times, within its Rşabha is concerned, it is a well established fact that fold ( Ramchandra Jain — The Most Ancient Aryan not only his name but his life-story and teachings also Society, pp. 48-49 ). It is this semi-materialistic and occur in Bhagavat and some other Purāņas. semi-spiritualistic thought which gave birth to a new According to Prof. Dalasukh Malvania, who is well- form of religion, which is known as Hinduism.
Yajña-Vedi has been identified in some Indus * Cf.: The editor's "Studies in the Origin of Buddhism." Valley sites such as Kalibangam. (Editor)
(Editor)
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Origin and Development of Jainism
Hinduism is nothing but an assimilation of Vedic and śramanic traditions. Jainism & Hinduism
However, these two distinct trends ( Brāhmanic ) as well as śramaņic have been prevalent in Indian Culture from its earliest days. But our culture, being a composite one, a water-tight compartment among its different shades is not feasible at all. We cannot understand Indian Culture completely without understanding its these two
two different constituents, Viz., Śramanic and Vedic, developed later on in the form of Jainism, Buddhism and Hinduism. So one thing must be clear in our mind, that studies and researches in the field of Indology are not possible in isolation. In fact, Jainism, Buddhism and Hinduism are so inter- mingled and mutually influenced by each other that to have a proper understanding of one, the under- standing of other is essential. No doubt, these different trends are distinguishable but, at the same time, we must realize that they are not separable. Though on the basis of some peculiarities in theory and practice we can distinguish them yet it is very difficult to make a complete separation, because none of these trends remained uninfluenced by one another. The earlier śramanic trend and its later shades such as Jainism and Buddhism had influenced the Vedic tradition, which later on developed in the form of Hinduism. The concepts of tapas or austerity, asceticism, liberation, meditation, equanimity and non-violence, which were earlier absent in Vedas, came into existence in Hinduism through Sramanic influence. The Upanişadas and the Gita have evolved some new spiritualistic definitions of Vedic rituals and they are the representatives of the dialogue which had taken place in Šramanic and Vedic traditions. The Upanişadic trend of Hinduism is not a pure form of Vedic religion. It incorporates in itself the various Śramanic tenets and gives a new dimension to Vedic
religion. Thus, we can say that Hinduism is an intermingled state of Vedic and śramanic traditions. The voice, raised by our ancient Upanișadic Řșis and Munis as well as śramaņas against ritualistic emphasis of Vedic tradition and worldly outlook of caste-ridden Brahminism, became stronger in Jainism and Buddhism along with the other minor Śramaņic sects. Thus, the Upanișadic trend as well as Jainism and Buddhism provided a resort to those fed up with up with Vedic ritualism and the worldly outlook tov
Not only Jainism and Buddhism but some other sects and schools of Indian thought such as Ajivikas and Sārkhyas also adopted more or less a similar attitude towards Vedic ritualism. However, Jainism and Buddhism are more candid and forthcoming in their opposition towards Vedic ritualism. They reject outrightly the animal-sacrifice in Yajñas, birth-based caste-system and the infallibility of the Vedas. In the form of Mahāvira and Buddha, the most prominent rationalist preachers, we find the real crusaders, whose tirade against caste-ridden and ritualistic Brahminism, crippled with its inner inadequacies, gave a severe jolt to it. Jainism and Buddhism have come forward to sweep away the long accumulated excrescences grown on Indian culture in the form of rituals, casteism and superstitions. But we shall be mistaken if we presume that in their attempt to clear off the dirt of Vedic ritualism, Jainism and Buddhism remained intact. They were also influenced by Vedic rituals considerably. Afterc. 3rd or 4th A.D., ritualism in the new form of Tantrika rituals crept into Jainism and Buddhism and became part and parcel of their religious practices and mode of worship. With the impact of Hindu Tantrism, Jainas adopted various Hindu deities and their mode of worship with some variations, suited to their religious temperament but were alien to it ( Jainism ) in its pure form. Jaina
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concept of Sasanadevatās or Yakşa-Yaksis is nothing but a Jaina version of Hindu deities. As I have pointed out earlier, the influence has been reciprocal. This can be discerned from the fact that on the one side Hinduism, accepted Rsabha and Buddha as incarna- tion of God, while, on the other, Jainism included Rāma and Krsna in its list of Salakāpurusas, great personalities. A number of Hindu gods and goddesses are accepted as consorts of Tirthankaras such as Kāli, Mahakali, Cakreśvari, Ambikā, Padmāvati, Siddhika and some others as independent deities such as Sarasvati and Lakşmi. It is to be noted that the Jainas have included Rāma and Krsna in their list of sixty- three great personalities before c. 3rd A.D. because a mention of Krsna in the early canonical text is found. Not only this, an epic on the story of Rama was composed in Jaina tradition by Vimalasūri in between c. Ist-5th A. D. Similarly the image of Jaina Sarasvati (c. 2nd A. D.) is also found at Kankāli Țila, Mathura. Thus, evidently various Hindu dieties were included in Jainism before c. 3rd A. D.
The moot point, I intend to come to, is that different religious traditions of our great Indian culture have exchanged various concepts from one another. It is the duty of the scholars to study and highlight this mutual impact which is the need of the hour and thus, to bridge the gulf that exists between different religious systems due to the ignorance of their interactions and that of history of mutual impacts. Though it is true that śramaņic tradition in general and Jainism and Buddhism in particular have some distinct features, discriminating them from the early Vedic or Brāhmaṇic tradition yet they are not alien faiths. They are the children of the same soil and they come forward with a bold reformative spirit. It would be a great mistake if we consider that Jainism and Buddhism, are a mere revolt against Brāhminism or faiths alien to Hinduism. The Western scholars have committed a blunder in high-lighting this view
and laid the foundation of enmity and disintegration in this great Indian culture. But, in reality, it was not a revolt but a reformer's crusade. In fact, Vedic and Sramanic traditions are not rival traditions as some of the Western and Indian scholars wrongly constitute, they are complementary to each other. These two represent the two aspects of human existence - physical as well as spiritual. There has been a deliberate effort to creat a gulf between Jainism and Buddhism on the one hand and Hinduism on the other, by Western Scholars. Unfortunately, some Indian scholars, even Jaina scholars have supported their point of view, but in my humble opinion this is a false step taken in a wrong direction. It is true that Sramanic and Vedic traditions have divergent views on certain religious and philosophical issues, their ideals of living also differ considerably, but this does not mean that they are rivals or enemies of each other. As reason and passion, śreya and preya, inspite of being different in their very nature, are the components of the same human personality, so is the case with śramanic and Vedic traditions. Though inheriting distinct features, they are the components of one whole Indian culture. Jainism and Buddhism are not rivals to Hinduism, but what they preach to the Indian society may be termed as an advanced stage in the field of spirituality as compared to Vedic ritualism. If the Upanişadic trend, inspite of taking a divergent stand from Vedic ritualism, is considered as part and parcel of Hinduism and an advance towards spirituality, what is difficulty in measuring Jainism and Buddhism with the same yardstick ? If Upanişadic tradition is considered as an advancement from Vedic ritualism to spiritualism, then we have to accept that Buddhism and Jainism have also followed same path with a more enthusiastic spirit. They stand for the upliftment of the weaker section of Indian society and redemption from priesthood and ritualism. They preach the religion of common man, based on
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external rituals.
the firm footing of moral virtues, instead of on some evidence that the stream of Indian spiritualism is one at its source. We may not have a proper understanding of the various trends if we treat them in isolation. Acaranga, Sutrakṛtänga and Rsibhaṣita may be understood in a better way only in the light of Upanisadas and vice-a-versa. Similarly the Suttanipata, Dhammapada, Theragatha and other works of Pali canon may only be studied properly in the light of Prakṛta Jaina canons and the Upanisadas. Jainism and Buddhism
Today, scholars working in the field of Jainology need a new approach to reinterpret the relationship of Jainism with Hinduism, particularly its Upanisadic trend, in the light of ancient Jaina texts of c. 4th and 3rd B. C. such as Acaranga, Sūtrakṛtānga and Isibhāsiyaim. I am sure that an impartial and careful study of these texts will remove the misconception that Jainism and Hinduism are rival religions. In Acaranga, a number of passages bearing affinity with Upanisadas, in their words and style as well as in essence are found. Acaranga mentions Śramana and Brahmana simultaneously, not as rivals, as considered later on. In Sutrakṛtānga (c. 4th B.C.), we find a mention of some Upanisadic Rsis such as Videhanami, Bāhuka, Asitadevala, Dvaipayana, Pārāśara and others. They are accepted by Jainas as the Rsis of their own tradition though they followed different codes of conduct. Sutrakṛtānga, addresses them as great ascetics and great men, who attained the ultimate goal of life, i.e., liberation. Isibhāsiyaim (Rṣibhāṣita ), considered formerly as the part of Jaina canon, also mentions the teachings of Narada, Asitadevala, Angirasa, Pārāśara, Arun, Nārāyaṇa, Yajnavalkya, Uddalaka, Vidura and many other Upanisadic Rsis, depiced as Arhat Ṛsis. These references of the Jaina canonical works not only prove the open-mindedness of Jainism, but also that the stream of Indian spiritualism is one at its source, irrespective of divisions later on into Upanisadic, Buddhist, Jaina, Ajivika and other rivulets. The work Ṛṣibhāṣita is a clear testimony to the assimilative and tolerant nature of Indian thought in general and Jaina thought in particular. Today, the society, deeply bogged into communal separatism and strife, such great works are our torch bearers.
Thus, the position accorded to the Upanisadic Rsis in early ascred texts of Jainism is a clear
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As already mentioned Jainism and Buddhism, both belong to the same Śramanic tradition of Indian culture. Mahavira, the 24th Tirthankara of Jainas and Gautama, the Buddha, are contemporaries, flourished in the c. 6th and 5th B. C., at a time when the simple natured worshipper of early Vedic religion became caste-ridden and ritualistic. Western thinkers regard both of them as the rebel children of Hinduism but they are really, the reformers. They provide a spiritual meaning to the Vedic rituals and challenge the infallibility of the Vedas and undercut the indisputable superiority of the Brahmaṇas. Both, being atheistic in nature hence, do not accept the concept of God as a creator and controller of the world. They establish the supre-macy of man instead of the God and other deities and declare that man himself is the maker of his own destiny. It is the man alone and none else who can attain even Godhood through his moral life and spiritual practices. For both of them every living being is capable of attaining Nirvāṇa, i.e., Godhood or Buddhahood. Both of them rejected the concept of grace of God. For them, solely our own self, is responsible for misfortune as well as sufferings. Thus, they both accept the supremacy of self and law of karma. Moral code, preached by Buddha and Mahavira, in general sense is also similar. To get rid of the cycle of birth and death, i.e., from worldly sufferings, is the common end of Buddhism, Jainism and the Upanisadic thinkers. Both, Buddhism
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and Jainism preach five silas or mahāvratas, with Inspite of similarity in their mission, Buddhonly one difference, that is, in place of non-possession ism flourished more on others' soils than on its native of Mahāvira, Buddha preaches non-consumption of land and established itself as a world religion, while intoxicative drugs.
Jainism could never had a firm-footing on the foreign The major differences between these two soil. It remained firmly rooted in India through all the sister religions from the view-point of metaphysics periods of Indian history, while Buddhism, after c. and ethical code are following:
9th-10th A. D. was totally uprooted from its own land (a) First, while the Upanisadic thinkers of origin. Why did these two religions meet the contemplate one eternal and immutable reality behind diametrically opposite fates ? There were many the world of phenomena and plurality, the Buddha reasons behind it. To name a few, Buddhism in its found everything impermanent and changing and thus early days found such royal patrons as emperor substanceless Nihsvabhāva and sorrowful. Mahavira Asoka and Kaniska, fired with the missionary zeal of synthesised both the above extreme views, he saw no spreading it outside India and had the territory of their contradiction between permanence and change. For empire across the Indian borders. Though Jainis him being and becoming both are the aspects of also in its early days found some royal patrons as the same reality. He defined reality as origination,
Candragupta Maurya, Samprati and Khāravela, yet decay and permanence. Lord Mahāvira never they did not try for the expansion of Jainism on believed in absolute permanence or total cessation.
foreign soil. Moreover, the Jaina monks did not (b) Secondly, the philosophical approach of choose to go outside India, because it was very Buddhism towards other philosophical doctrines was difficult for them to observe their strict code of negative, while that of Jainism was positive. Lord
conduct outside the country and they did not like to be Buddha preached that one should not fall in or accept flexible in their code of conduct. Another most any of the drstis. i. e., philosophical view-point, important reason was that the Buddha had recomwhether it is of eternalism or of ninilism, because mended the middle-path and remained flexible being one-sided, none of them represent a right view
throughout his life, in prescribing the moral code for point. But Mahavira said that both the doctrines are
his monks and nuns. This middle-path and flexibility, partially true, if they are viewed from different
made Buddhism more adaptable to the foreign soil. angles; so one should not discard one's opponent's But due to the same reasons Buddhism was so view, as totally false. For Jainas different opposite
adapted by Hinduism that it could not retain its views may be acceptable from different angles. To independent entity in India. First of all the middleMahavira nothing was absolutely true or false, hence, path of Buddha was not very far from the teachings of he remained positive in his approach all the time.
the Gita. Not only this, Mahāyāna an offshoot of Again, while Buddhism laid stress only on the chang
Buddhism had very little to mark it out from the ing aspect of reality, Jainism gave due consideration
original stock of Hinduism. Secondly, the Buddha to the changing as well as the eternal aspect of reality. himself was accepted as the ninth incarnation of (c) Regarding moral and religious practices,
ng moral and religious practices Vişnu. Thirdly, flexibility in moral code made the life Jainism advocates rigorous and strict austerities,
of Buddhist monks so luxurious and even corrupt that while Buddha condemns this rigorous outlook and in India they could not retain the respect of common recommends a middle path.
men. Jainism, on the other hand, throughout, had a
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Origin and Development of Jainism
leaning towards extremism and remained strict and mostly inflexible in its moral code. That is why, Jaina monks could not go and propagate Jainism across the boundaries of India. Fourthly, owing to its strict code of conduct even for a house-holder it was not easily adaptable in foreign countries. However, it helped in retaining the faith of the common men and its own entity in India. Thus, the extremism of Jaina religion while on the one hand prevented its expansion in India and abroad, but on the other hand, it proved to be the sole cause of its survival in India. It was because of the strict austerities associated with Jain- ism that it remained a closed set, little understood beyond its adherents. Even the unusual absorbing power of Hinduism could not absorb it. This speaks of its originality, capable of withstanding the chall-
enge of Hinduism. Last but not least among the causes of the extinction of Buddhism from the Indian soil was that Buddhism never tried to develop the order of laymen and lay-women. By the word 'order they mean the order of monks and nuns. But Jainism always laid stress on the four-fold order of monks, nuns, laymen and lay-women and that was why it did not lose its identity.
Thus, the two parallel religions, having their origin against the same socio-religious back-ground and beginning their journeys together, drifted wide apart and had altogether a different history. Buddhism almost vanished in India, but prospered in China, Japan, Srilanka and many other countries; Jainism remained in India, neither expanding nor suffering from further shrinking.
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Historical Development of Jaina Philosophy and Religion
(c. 3rd-10th A. D.) The Western scholars often remark that the tions, changes and developments took place in Jaina Indian philosophies and religions are not dynamic but thoughts and practices. Jainas were proud of the rigostatic. But this remark is not tenable when we study rous and austere life-styles of their monks. But in the any Indian Philosophy or religious tradition from post Nirvāna era of Mahāvira some relaxations and historical point of view. We notice a sequence of exception creeped into the code of conduct of Jaina changes and developments in their thoughts and monks. Not only the junior monks, i. e., Kșullakas, practices. This is true with regard to Jainism as well keeping three, two or one cloth alongwith a bowl but as other schools of Indian philosophy.
the senior monks, having accepted nudity also started Though the basic tenets such as non-violence,
keeping one woolen blanket to save themselves from self-control etc. of Jainism, in thought and practice,
the extreme cold of northern region and also a bowl remained the same throughout the ages yet their
for accepting the alms, particularly some liquids, explanations and their applications were modified in
necessary in the old age. Thus, the code of Jinakalpa conformity with time and circumstances by Jaina
and Sthavirakalpa along with sāmāyik-căritra Tirthankaras and Ācāryas. Even in the earlier times, (juni
(junior monk-hood ) and Chedopasthāpaniyacäritra every successive Tirthankara made reforms and
( senior monk-hood ) came into existence, which, changes in the religious practices and ethical code of
later on, after c. 2nd A. D. divided Jainism into conduct as per the need of his age. As regards the
Schism such as Digambara, Svetāmbara and Yapaniya, code of conduct of monks and nuns, 23rd chapter of
with their own Codes of Conduct. Uttarădhyayana, Āvaśyakaniryukti ( verses 1258- It was the first phase of major changes in the 1262 ) and some other commentaries on Jaina canons Jaina code of conduct, particularly the one for Jaina clearly maintain that the religious code of Mahāvira monks and nuns. The second phase is known as and his predecessor Lord Päráva and other Caityavāsa, i. e., the temple based living of monks. Tirthankaras were different. It was found that where. With the advent of idol worship and the acquisition of as Lord Aristanemi laid more stress to avoid the great wealth in the name of these temples and deities violence and cruelity towards animal kingdom in by the community, the ceremonial-ritualistic aspect social rituals such as marriage ceremonies etc. Lord of religion became dominating and the monks started Pārsva opposed the violence in the name of religious taking interest in external and pompous modes of austerities ( practices ). Lord Mahāvira discovered religious practices. There also developed a special the root cause of violence in the will for the accumu- group of administrator clergies. Thus, the Bhattarakas lation of wealth and lust for worldly enjoyment hence in the Digambara sect and the Yatis in Svetāmbara laid much stress on celebacy and non-possession and sect, started living under luxurious conditions, prescribed a new religious code of conduct. Not only became managers of the temples and temple associain the earlier period but in the above said period, i. e., ted properties and assumed control over the templecorresponding c. 3rd-10th A.D. also, several revolu- rituals as well as over certain part of community
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living in a certain province. In their time, the code of conduct of monks and nuns remained confined into the books only and did not appear in the practical life.
Against this situation a revolution was worked out, in Digambara tradition by Kundakunda (c. 6th A. D. ) and in svetāmbara tradition by Haribhadra (c. 8th A. D. ). But this revolution failed to reap any fruit and remained ineffective and the institution of Bhattārakas and Yatis thrived in the later centuries also. Its only credit was that the tradi- tion of the real ascetics, following the rigorous path of Mahāvira, could be saved for some centuries. Again in Svetāmbara tradition, a great revolution took place in the c. 10th A. D. under the leadership of Jineśvara- sūri against the temple based living of the monks, i.e., Caityavāsa and administrator clergies. Due to this revolution Kharataragaccha came into existence in the c. 10-11th A. D. This revolutionary and reforma- tive spirit continued in Jaina community in the later centuries also and owing to that sub-sects Tapā- gaccha (c. 12th A. D. ), Lorikāgaccha (c. 15th A.D.), Sthanakavāsi (c. 16th A. D.) and Terāpanthi (c. 18th A. D. ) came into existence in Svetāmbara tradition. Similarly, in Digambara tradition also Banārasimata Digambara Terāpantha (c. 16th A. D. ) and Tarana- pantha a non-idol worshipper sect, came forward with their reformative outlook. In fact, it is due to the impact of Hindu devotionalism and Tantrism that the ritualistic idol-worship started in Jainism and it is that due to the Muslim impact non-idol worship sects such as Lorkāgaccha, Sthanakavāsi, Teräpantha and Taranapantha took birth in Jainism. This shows that in practice Jainism is not a static but a dynamic religion.
So far as the changes in the Jaina thought are concerned, Jaina scholars divided their history of philosophical development in three ages which are as under:
(i) The Agama Age (c. Sth B. C.-3rd A.D.). (ii) The age of critical presentation of
Anekāntavāda (c. 4th-6th A. D.).
(iii) The age of systematization of Jaina philosophy (c. 7th-10th A. D.).
This nomenclature underlies the tendencies, dominating the particular era. However, this division is only a tentative one. No water tight compartment in the division of ages is possible. The tendencies of one age can be traced in other ages also. For example, Agamic age terminates with c. 3rd A. D. but the final editing as well as the composition of some Āgamic texts continued up to the c. 5th A. D. Not only this but the date of composition of commentaries on Āgamas extends up to the c. 11th A. D. Similar is the case with the age of critical presentation of Anekāntavāda; as seeds of Anekānta can be traced in Āgamas such as Bhagavatisūtra etc. but its critical presentation continued not only upto Haribhadra (c. 8th A. D.) but upto Yaśovijaya and Vimaldas (c. 17th A. D.). Similarly the age of philosophical systematization commences from c. 7th A. D. but the actual effort in this direction starts from the composition of Tattvārthasūtra and its auto-commentary by Umāsvāti long before during the c. 3rd A. D. and continued upto the period of Yaśovijaya, i. e., the c. 17th A. D. Thus, it is very difficult to divide these ages strictly into a particular framework of time. The Age of Āgamas
Most of the Agamic literature was composed during c. 5th B. C.-3rd A. D. but some of Āgamic texts like Nandisutra and the present edition of Praśnavyākarana were composed in c. 5th-6th A. D. In the most important councils (Vacanās ), which were held at Mathurā and Valabhi inc. 4th-5th A. D. respectively, for editing and rewriting of these Agamas, some new additions and alterations were also made and that is why some of the Agamas contain some informations and conceptions, developed later in c. 4th-5th, in Jaina philosophy.
The Āgamas are mainly concerned with the
Jain Education Interational
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religious code of conduct and moral preaching. Pt. Akalanka's Rājavārttika and Vidyānandi's ślokaDalasukha Malvania rightly observes that Anga vārttika are the two works, regarded as main contriAgama deals with moral code of conduct ( Caritā- butions in Digambara tradition. Both these works crinuyoga ) rather than metaphysics (Dravyānuyoga ). tically elaborate the contents of Tattvārtha. Through, So far as the subject matter of Āgamas is concerned these works we can assume that, the differ-ences this position remains the same upto the period of between Digambara and Svetambara became more Niryuktis (c. 3rd-Sth A. D. ), Bhāşyas (c. 6th A. D.) prominent in this era and the disputes on the problems and even Cūrnis (c. 7th A. D.). Some scattered seeds of 'Stri-mukti', 'Kevali-bhukti' and simultaneousness of philosophical discussions maay no doubt be seen and succesiveness of Jñānopayoga and Darśanopain some of the Agamas and their commentaries; but yoga of Kevali came into prominence. Along with Višeşāvaśyakabhāșya, mainly a work full of philoso- these internal disputes of Jaina sects, logical refutaphical discussions, is an exception.
tion of other schools of thought, is also the main Age of Critical Presentation of Anekāntavāda
characteristic of this age. All the important philoso
phical works, composed in this particular era, critically Similar is the case with the second era, i. e.,
evaluate the views of other schools of thoughts and the age of critical presentation of Anekāntavāda. So
try to establish Jaina view of non-absolutism, based far as Anekāntavāda is concerned, it can be traced in
on their theory of Anekāntavāda, as most logical and Agamas as a mere conception. Its critical presenta
true. tion as a Jaina doctrine was introduced with the works of Siddhasena Divākara and Samantabhadra inc. 4th-
The Main Objective of Early Jainism
The 5th, respectively. The treatises, composed by them,
Before discussing the early metaphysics and mainly for critical presentation of Anekantavāda also epistemology of Jainas it would be proper to discuss worked as a base for the age of philosophical syste- the main objective of early Jainism and its attitude matization.
towards life, which is to get rid of the cycle of birth
and death and thus, to emancipate man from sufferSiddhasena Divākara's Sanmatitarka and Dva
ings. It tries to track down sufferings to their very trimśikas is regarded as the first book of critical
root. The famous Jaina text of an early period Uttaraphilosophy. The concept of Pañcajñāna ( Five-fold
dhyayanasūtra says: knowledge ) is, for the first time, critically analysed
kāmāņugiddhippabhavam khu dukkham in its subtle form in the said composition. It embraces
savvassa logassa sadevagassa. other different contemporary views prevalent in Jaina
jam kāiyaṁ mānasiyam ca kinci tradition. The author dives deep in evaluating the
tassa antagam gacchai viyarāgo. ( 32.19) established concepts in Jainism rather than peeping
That is the root of all physical as well as outside in different systems.
mental sufferings of everybody, including the gods, is In the works attributed to this age, particular- the desire for enjoyment. Only a dispassionate attily in commentaries on Tattvārthasūtra, the first extant tude can put an end to them. It is true that materialism commentary, after the auto-commentary of Umā- seeks to eliminate sufferings, through the fulfilment svāti, is Sarvārthasiddhi of Pūjyapāda ( first half of of human desires, but it cannot eradicate the prime the c. 6th A. D. ). It not only depicts the concept of cause from which the stream of suffering wells up. Gunasthāna but rather describes it with more details. Materialism does not have at its disposal an effective
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means for quenching the thirst of a man permanently. life. Spirituality consists in realising these higher Not only this, its attempts at the temporary appease- values of life. ment of a yearning, have the opposite effect of flaring Jaina spirituality teaches us that happiness or it up like the fire fed by an oblation of butter. It is unhappiness is centred in the soul and not in worldly clearly noted in the Uttarādhyayana :
objects. Pleasure and pain are self-created. They are suvanna-rūpassa u pavvayābhave
subjective in nature also. They do not depend totally siyā hu kelasasama asamkhayā.
on the objects, but depend also on the attitude of a narassa luddhassa na tehim kinci
person towards them. The Uttarādhyayanasutra iccha u āgāsasamā anantiyā. (9.48 )
(20.37 ) mentions: That is even if an infinite number of gold and appā kattā vikattā ya, duhāna ya suhāna ya silver mountains, each as large as the Kailāśa, are
appā mittamamittam ca, duppatthiyasupatthio. conjured up, they would not lead to the final extin
That the self (ātmā ) is both the doer and the ction of human desires, because desires are infinite enjoyer of happiness and misery. It is its own friend like space. Not only Jainism but all spiritual tradi- when it acts righteously and foe when it acts unrighttions unanimously hold that the root cause of sorrow eously. An unconquered self is its own enemy, unis attachment, lust or a sense of mineness. The ful- conquered passions and sense organs of the self are filment of desires is not the means of ending them. its own enemy. Oh monk ! having conquered them, I Though a materialistic perspective can bring material move righteously. prosperity, it cannot make us free from attachments In another Jaina text of the early periodĀuraand yearnings. Our materialistic outlook can be com- paccākkhānam (c. 3rd A. D. ) it is mentioned : pared to our attempt of chopping the branches off ego me sasado appā, ņānadamsanasamjuo while watering the roots of a tree. In the above men
sesa me bahira bhāvā, savve samjogalakkhaņā. tioned gāthā, it is clearly pointed out that desires are samjogamülā jiveņam, pattă dukkhaparampara endless just as space ( Ākāśa ) and it is very difficult tamhā samjogasambandhar, savvablāveņa vosire. to fulfil all of them. If mankind is to be freed from
(26.27) selfishness, violence, exploitation, corruption and
The soul endowed with knowledge and peraffliction stemming from them, it is necessary to out
ception alone is permanent, all other objects are alien grow materialistic outlook and to develop an attitude, to self. All the serious miseries, suffered by self, are which may be described as spiritual.
the result of individual's sense of 'intne' or attachThe word Adhyātma, the Samskrta equiva- ment towards the alien objects and so it is imperative lent of spirituality derived from adhi+ātmā, implies to abandon completely the sense of 'inine' with regard the superiority and sublimity of Ātman, the soul to the external objects. In short, according to Jainism force. In the oldest Jaina text Ācārānga, the word not identifying oneself with the objects not belonging ajjhatthavisohi, connotes, inner purity of the self, to the soul, is the starting point of spiritual practice which is the ultimate goal of Jaina-Sadhanā. Accor- (sādhanā ). Non-alignment with material object is the ding to Jainism, the realisation of physical amenities pre-requisite for self-realisation, the main objective or creature comforts is not the ultimate aim of life. of early Jainism. According to it, renouncement of There are some higher ideals of life which are over attachment is the same as the emergence of a balanand above the mere biological and economic needs of ced view of even-sightedness ( samadrstita ).
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The reason, as to why Jainism regards abandonment of 'sense of mine' or of attachment as the only means for self-realisation, is that so long as there is attachment in a man, his attention is fixed not on self or soul, but on not-self, i.e., material objects. Materialism thrives on this object-oriented attitude or indulgence in the not-self. According to the Jaina philosophers, the identification with the not-self and regarding worldly object as a source of happiness or unhappiness, are the hallmarks of materialism. This is considered as a wrong view-point. The right viewpoint regards the self as of supreme value and aims at the realisation of its quiddity or its ideal unconditioned state of pure knower, which is free from attachment and passions. It is mentioned in Samayasara (209):
evar sammaithi appāņam munadi jaņagasahāvaṁ.
that the self, possessed of a right view-point, realises the pure soul as knowledge. Thus according to Jainism the right view-point regards self as pure knower (śuddha draṣṭa) and distinct from not-self. This detached attitude only can free one from one's mental as well as physical sufferings.
Cause of Bondage and Suffering of the Self
Jainism maintains that the attachment (Raga) and delusion (Moha) obscure our spiritual nature and are responsible for our worldly existence and suffering. The most intense väsana is hrdaya granthi, which is a deep attachment towards senseobjects and worldly desires. The oldest nomenclature of Jaina sect is Niggantha-dhamma. The word Niggantha means the one who has unknotted his hṛdayagranthi, i.e., the 'mine'-complex. It means, in other words, one who has eradicated ones attachments and passions. The word, 'Jaina', also conveys the same meaning; a true Jaina is one who has conquered one's passions. According to Lord Mahavira, "to remain attached to sensuous objects is to remain in the whirl" (Acaränga, 1.1.5). The attachment towards sensuous
objects is the root of our worldly existence (Acārānga, 1.2.1). Further, it is also mentioned in the Acārānga, 1.3.1, "only he who knows the nature of the sensuous objects is possessed of self, knowledge, scripture, Law (dhamma) and Truth (bambha )." The five senses together with anger, pride, delusion and desire are difficult to be conquered, but when the self is conquered, all these are completely conquered (Uttaradhyayana, 9.36). Just as the female crane is produced from the egg and the egg from the crane, in the same way desire is produced by delusion and delusion by desire (Uttaradhyayana, 32.6). Attachment and hatred are the seeds of karma and delusion is the source of attachment and hatred. Karma is the root of birth and death. This cycle of birth and death is the sole cause of misery. Misery is gone in the case of a man who has no delusion, while delusion is gone in the case of a man who has no desire; desire is gone in the case of a man who has no greed, while greed is gone in the case of a man who has no attachment" (Uttaradhyayana, 32.8). According to the Tattvärthasūtra 8.1, a famous Jaina text, perverse attitude (mithya-darśana ), non-abstinence (avirati ), spiritual inertia (pramada ), passions (kaṣāya) and activity (Yoga) these five are the conditions of bondage. We can say that mithyadarśana (perverse attitude), mithya-jana (perverse knowledge) and mithya-caritra (immoral conduct) are also responsible for our worldly exis-tence or bondage. But perversity of knowledge and conduct depends upon the perversity of attitude. Thus, the perversity of attitude, which is due to darśana-moha is one of the important factors of bondage. Nonabstinence, spiritual inertia and passions are due to the presence of perverse attitude. Though activities of mind, body and speech known as Yoga are considered the cause of bondage yet these, in theirselves re incapable of bondage unless by perverse attitude and passions. They are only the cause of Asrava (in
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flux of kārmic matter ), not the cause of bondage power for its fruition. Bondage is possible only through the Yoga in
The Karmas are of eight types — (i) jñānaassociation with perverse attitude and passions. The varana : knowledge obscuring, (ii) Darsanāvarana : perverse attitude (mithya-darśana ) and the passions perception obscuring, (iii) Vedaniya : feeling produ( Kaṣāyas ) are mutually cause and effect of each cing, (iv) Mohaniya : deluding, (v) Ayu : age deterother just as the egg and the hen or the seed and the mining, (vi) Nama : body or personality determintree. We can not fix the priority of one over the other, ing, ( vii ) Gotra : status determining and (viii) passions are due to the perverse attitude and perverse Antarāya : obstructive (Tattvārthasūtra, 8.5). attitude is due to the passions.
Among these eight types of karma, JñanaEarly Jaina Doctrine of Karma/Bondage
varana, darśanăvarana, mohaniya and antarāya — According to Jaina philosophy every activity these four are considered as destructive karma or of mind, speech and body is followed by the influx of ghāti karma, because they obscure the natural facula finer type of atoms, which are technically known as ties of infinite knowledge, infinite perception, infinite karma-vargaņā-pudgala. In the presence of passions, bliss and infinite power, respectively. The other this influx (āsrava ) of kārmic matter cause bondage, four - vedaniya, ayu, nāma and gotra are called which is of four types - 1. Kind (praksti ), 2. quantity aghāti or non-destructive karma. They are only res(pradeśa ), 3. duration ( sthiti ) and 4. intensity ponsible for bodily existence of present life and in(anubhāga) (Tattvārthasūtra, 8.4). The activities of capable of continuing the cycle of birth and death. It mind, body and speech, technically known as yogas, is only due to the deluding karma (mohaniya karma) determine the prakti and the pradeśa of kārmic- that the cycle of birth and death continues. This matter while the passions determine the dura-tion deluding karma is responsibile for perversity of attisthiti ) and the intensity (anubhāga -mild or intense tude and the passions. The emancipation of soul is power of fruition ) of the Karma. Karma, in Jainism is only possible when the perversity of attitude is desthe binding principle. It binds the soul with the body troyed and passions are overcome. hence responsibile for our wordly existence. Karma
The Uttaradhyayanasutra says that just as a has the same place in Jainism, as unseen potency tree with its root dried up, does not grow even though ( adrsta ) in Nyāya, Prakrti in Sankhya, Māyā in
it is watered, similarly actions ( Karma ) do not grow Vedānta, Vāsanā in Buddhism, Śakti in Saivism and
up when delusion (moha oravidya ) is destroyed (28. Pāśa ( trap ) in sākta school. Karma is something
mething
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30). One devoid of a right attitude (darśana ) cannot foreign which veils the natural faculties of infinite have right knowledge (ñana ) and there can not be knowledge, infinite perception, infinite bliss and
rectitude of will (carana-guna ) without right knowinfinite power. It is also responsible for our pleasant
ledge (jñana ). One devoid of the rectitude of will and unpleasant experiences and worldly existence.
cannot have emancipation from evil will and one According to Vidyānandi, two functions of the Karma
devoid of emancipation from evil will ( induced by are to obscure the natural faculties of soul and to
karma ) cannot attain final emancipation ( 32.9). defile the soul. Jainism also believes in the same modus operandi of karma. According to it karma The Ultimate End : Mokşa itself is compe-tent to produce its fruit in due course
The attainment of emancipation or mukti is of time and there is no need of God or other external the pivot on which all the ethico-religious philoso
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phies of India revolve. Jainism maintains that the liberation the perfect and purified state of the soul, is the only and ultimate goal of every individual. Mukti does not mean in Jainism, the losing of one's own identity. The self retains its identity even in the state of liberation.
In Acaranga, the nature of Paramātmā (the immaculate soul) is described as that which is beyond the grasp of logic and intellect. He is one and alone. He is harmless. He is neither long nor short, nor a circle nor a triangle, nor a quadrilateral nor a sphere. He is neither black nor blue, nor red, nor yellow, nor white. He is neither pungent nor bitter, nor astringent, nor sour, nor sweet. He is neither hard nor soft, neither heavy nor light, neither cold nor hot, neither greasy nor dry. He is not subject to birth and decay. He is free from attachment. He is simileless. He baffles all terminology. There is no word to describe. He is neither sound nor form, nor odour, nor taste, nor touch. (Ayaro Ed. Yuvacārya Mahāprajña, J. V. B., Ladnun, 1981, pp. 262-266.)
In the Niyamasära ( 181 ), 'Being' (astitva), the pure existence is considered to be one of the qualities of a liberated soul. Moksa, according to Jainism, means a complete perfection and purification of soul. In the state of liberation there is neither pain nor pleasure, nor any obstruction, nor any annoyance, nor delusion, nor any anxiety. A liberated soul is really free from all sorts of impurities and from the cycle of birth and death (Niyamasara, 178-180). In liberation the soul realises the ananta-catustaya, i.e., infinite knowledge, infinite perception, infinte bliss. and infinite power. This ananta-catustaya is the inherent nature of the soul. Jainism believes that every individual soul has the potentialities of Godhood and the soul can attain to it. By shedding away all the karmic particles of four destructive karmas (ghatikarma ), the soul attains Arhathood, which is the state of vitaraga-dasa or jivana-mukti. So long as the
four non-destructive karmas, i.e., Nāma, Gotra, Ayusya and Vedaniya, are not exhausted the soul of Arhat remains in a highly refined physical body and preaches truth to the world. Shedding physical and karmic body, when these four non-destructive karmas are exhausted the soul of Arhat goes upto the topmost of the universe - abode of liberated soul known as siddhaśilā, remains there eternally and enjoys perfect knowledge, perfect power, perfect perception and perfect bliss (Niyamasära, 181-182). Thus, emancipation, according to Jainism, is nothing but realisation of one's own real nature.
Jaina Sadhana in Early Period
In the earliest Jaina agamas, particularly in Acaranga and Uttaradhyayana, we have a mention of Triyama, Caturyāma and Pañcayāma. Though Acaranga mentions Triyama, it does not give any detail about it. Its commentator Silanka had derived the meaning of three-fold path of liberation, i.e., Right faith, Right knowledge and Right conduct. But in my opinion this derivation of Śilanka is hardly in accordance with its real meaning. Triyama refers to the three vows - Non-violence, Truth and Non-possession. Jaina tradition is very firm in maintaining that Lord Parsva, the twenty-third Tirthankara had preached Caturyama - Non-violence, Truthfulness, Nonstealing and Non-possesiveness. Mahavira added one more yama celebacy as an independent vow in the Caturyama of Parsva and thus, introduced Pañcayama. Formerly, it was taken for granted that woman is also a possession and no one can enjoy her without having her in his own possession. But Mahavira took it as an independent vow. In some of the canonical works we also have a five-fold path of liberation but in a different way as Right faith, Right knowledge, Right conduct, Right penance and Right efforts. In Uttaradhyayana as well as in the works of Kundakunda the four-fold path of liberation, i.e., Right faith, Right knowledge, Right conduct and Right pen
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ance are mentioned. Here Right effort has been Jaina scripture. merged into Right penance. Similarly, later on merg
So far as Samyak-Caritra ( Right conduct ) is ing the Right penance into Right conduct, Umāsvāti concerned, the meaning of the term remains the same prescribed the three-fold path of liberation in his throughout the ages. It encompasses the observance Tattvärthasūtra (c. 3rd A. D. ). Acārānga has also of five great vows (mahāvratas ), five vigilances mentioned the three-fold path in a different form, (samitis ), three controls (guptis ) and ten dharmas. namely non-violence (nikṣiptadanda ), wisdom This right conduct is exclusively prescribed for the (prajña ) and ecstasy (samadhi ) which is more like monks and nuns. Similarly, five minor vows ( anuthe three-fold path of prajña, śila ( supplementary vratas ), three guna-vratas and fourśikṣāvratas as well vow) and samadhi of Buddhism. Satrakstānga and as eleven Pratimās are prescribed as a right-conduct some other canonical works also mention two-fold for the house-holders (Śrāvakas ). According to both path of liberation, i.e., vidyā ( wisdom ) and caraṇa the sects — Śvetämbara and Digambara, the code of ( conduct ) ( Vijjacarana pamokkho ). We see that conduct of Jaina monks and nuns was very rigorous at there are different views about the path of liberation the time of Mahāvira (c. 6th B. C.) but with the pasbut Jainas never accepted single path either of knowl- sage of time, coming to the period of Bhadrabāhu-I, edge or devotion or action. They believe that neither c. 3rd B.C.) it became lenient. By this period various knowledge, nor faith nor conduct alone can be regar- exceptions in the five great vows as well as in other ded as a means of salvation. But all the three com- rules and regulations of Jaina monks and nuns has bined together make an integrated path of liberation been accepted. This lenient tendency is clearly visible which is a peculiarity of Jainism. In this integration in the Chedasūtras of Bhadrabahu-I in the form of we have a reflection of its non-absolutistic approach
atonements of the various exceptions and transgresAnekantavāda, the central doctrine of Jainism. sions in the code of conduct. This liberalism in the
Now, if we take each constituent of the three- code of conduct culminates in c. 6th-7th. In Bhāsyas fold path, separately, Right faith (Samyak Darśana ) and Cūrņis of Chedasūtras, one can find ample comes first. In earliest canonical works such as examples of this liberalism. It is quite difficult to Ācārānga and Sūtrakıtānga, the term Darśana is used mention all those changes which took place in the either in the sense of self-realisation or right vision Jaina code of conduct during the period of c. 3rd (right attitude ). As 'faith' it is used for the first time B.C.-3rd A. D., because of two reasons — firstly, in Uttarādhyayana, and there it means nine catego- some of the exceptions mentioned in Bhāsyas (c. 6th ries (Tattvas ). The same meaning is retained in A.D.) and Cūrņis (c. 7th A. D.) might have come in Umāsvāti's Tattvārthasūtra while defining Samyak- practice after c. 3rd A. D. A period which is beyond Darsana. But after c. 3rd 4th the meaning is also the purview of this article and secondly, it is imposchanged and Samyak-Darsana is defined as faith, sible to include, all the changes that occurred, in the 'Jina' as a Deva ( Ideal ), Nirgrantha as a Guru frame of this brief article. Here we can only refer the ( Teacher) and non-violence as a Dharma.
scholars to see these Chedasūtras and their commenSimilarly, the term Samyak-jñāna ( Right taries. knowlege ) is used in the sense of discriminative The major changes which took place during knowledge of self and not-self in the earlier canons. above period are regarding the use of clothes and begBut later on the term is used as the knowledge of ging bowls by Jaina monks. On the basis of the fig
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ures of Jaina monks and nuns inscribed on the pedestals of Jina-images of Mathura (c. 1st B. C.-2nd A. D.) it can be easily inferred that by that time the use of clothes and begging bowls was in vogue, though the ideal state of nudity was intact. The fig- ures of monks found at Mathura are almost nude but are depicted having a folded large piece of cloth, on their left arm, may be a woolen blanket, and which seems to be instrumental in hiding their nudity. Simi- larly, there are certain figures of Jaina monks, having begging bowls in their hands. These figures clearly show that in these centuries, i. e., c. 2nd B. C.-3rd A. D., the use of woolen blanket and begging bowls was common atleast among the Jaina monks and nuns of North India. But in South India, practice of nudity re- mained intact in that period. The Cause of Schism and Caityavāsa
Remarkably, it was this use of blanket and begging bowls, along with certain other exceptions in the code of conduct which led to the schism in Jainas into Svetāmbara, Digambara and Yāpaniya. Accord ing to Āvaśyakamula-bhāsya, the controversy regard- ing the use of clothes and begging bowl was raised first time after 606 years of the Nirvāņa of Lord Mahāvira, i. e.,c. 1st-2nd A. D.
However, on the basis of facts, narrated above, it can be concluded that liberalism in the rigorous code of conduct of Jaina monks and nuns caused the schism into Śvetāmbara, Digambara and Caityavõsa, i. e., living in temples or Mathas in Jaina order. This tendency of living in the temples of Jaina monks and nuns further caused the deterioration in their strict code of conduct and various exceptions were accepted into general rules. This liberalism, later on, also gave birth to the various Tāntrika Sadhanās in Jainism.
Though on the basis of the code of conduct, particularly the use of clothes and bowls, the first sectarian division took place inc. 1st-2nd A. D. But prior to that, we have also trace of another type of differences in Jaina order particularly pertaining to doctrines, started in the life-time of Lord Mahāvira itself.
In Jaina tradition, the persons, having doctrinal differences with the tradition of Mahāvira, are called as Nihnavas. These Nihnavas were seven in number. Āvasyakaniryukti ( Verse 778-783 ) and Uttarādhyayananiryukti ( Verse 165-178 ) mention the following Nihnavas and their basic differences from the traditional Jainism along with time and place of their origin. The names of Nihnavas and their details are as under:
No.
Time of Origination
Name of Nihnavas
Their particular theory on which they differed from Mahāvira's tradition
Place of Origination Śrāvasti
Jāmāli
Tişyagupta
Rşabhapur
Bahuratavāda (An action, in the process of 14 years after Mahacompletion, can't be called completed, it is vira's enlightenment. uncompleted. Jiva-pradeśavāda (Any one pradeśa of the soul 16 years after Mahācan be called as Jiva.
vira's enlightenment Avyaktavāda ( difficult to say who is who). 214 years after Maha
vira's Nirvāņa. Samucchinnavāda ( All the objects are transient 220 years after Mahāand get destroyed just after their origination.) | vira's Nirvāņa. Dvikriyāvada (possibility of having two 228 years after Mahā- experiences simultaneously.)
vira's Nirvāņa.
Āśādhabhūti
Svetāmbika
Aśvamitra
Mithila
Dhanagupta
Ulūkatira
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No.
Time of Origination
Name of Nihnavas
Their particular theory on which they differed from Mahāvira's tradition
Place of Origination
Rohagupta
Antaranjiā
544 years after Mahavira's Nirvāņa.
Trairāśikavāda or no-Jivavāda (three categories in world - living beings, non-living beings, neither living nor non-non-living beings. Abaddhikavāda (Karma-particles only touch the soul - pradeśas.
Daśapur
Gosthamāhila
544 years after Mahavira's Nirvāņa.
Apart from these, some divisions took place both. Except some issues on the ethical code of in the Jaina order only due to administrative needs. In conduct in which he makes some additions later on, Kalpasūtrasthavirăvali, the Jaina order is said to be Mahāvira accepts the metaphysics and epistemology divided in various Ganas, Kulas and Sakhās. This of Pārśva as it is. The reference of Jñānapravāda, the type of division was based neither on any theoretical fifth one of fourteen Pūrvas (the literature belonging differences nor on the Code of Con-duct. This to the tradition of Mahāvira's predecessor Lord division of Gaņa, Kula and sākhā was based on the Pārśva ) also proves that befüre Mahāvira there was a hierarchy of the spiritual teachers or on the basis of concept of Pañcajñānavāda assigned to Nirgrantha the group of the monks belonging to a particular tradition of Pārśva and was later developed in region. The final division of the Jaina church such as Mahāvira's tradition. Acārănga and Sūtrakṣtānga, the Śvetāmbara, Digambara and Yāpaniya came into oldest extant Jaina literature, do not bear any mark of existence in the c. 4th-5th A. D. as we do not find any the discussion over the theory of knowledge, whereas literary or epigraphic evidence for these sectarian Uttarādhyayana, Sthānānga, Samavāyānga. divisions dated pre-c. 4th-5th A. D.
Bhagavati, Anuyogadvāra and Nandisutra, elaboratDevelopment of Jaina Theory of Knowledge ely discuss the gradual development of the concep
The development of Jaina theory of five-fold tion of Pañcajñānavāda. It suggests that although the knowledge extends over a long period of 2600 years. theory of five-fold knowledge ( Pañcajñānavāda ) The tradition of Mahāvira's predecessor Pārsvanātha was derived from Pārsva's tradition, it was later on (c. 800 B. C.) bears clear marks of Pañcajñāna or developed by Mahāvira. five-fold knowledge, a preliminary conception of Pt. Dalasukha Malvania, in his well-known Jaina epistemology. In Rājapraśniyasūtra ( 165 ) book 'Agama Yuga kā Jaina Darśana' has mentioned Ārya Keși, a follower of Pārsva tradition, called him- three stages of the development of Pascajñänavāda self believer of the theory of five-fold knowledge and based on the chronology of Jaina Agamas. At the explained the same to King Paesi. Uttarādhyayana first stage knowledge was divided into five types — also the same refers. It is remarkable that there is not Mati ( the knowledge obtained through the sensemuch difference between Pārśva and Mahāvira, so far organs ( indriya ), quasi-sense-organs ( anindriya), as their Metaphysics and Epistemology are concerned. and mind ( mana ), Śruta ( scriptural knowledge ); Had there been any difference on these issues, it Avadhi ( clairvoyance ); Manah-paryaya (telepathy would have been definitely mentioned in Bhagavati or knowledge of others' mind ) and Kevala ( perfect and Uttarădhyayana, both pointing out the differences knowledge comprehending all substances and their regarding ethical code of conduct the traditions of modifications or omniscience ). The description of
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five-fold knowledge, found in Bhagavatisūtra, is in vācaka, respectively. Regarding the authorship of accordance with this first stage. The Sthānănga and Anuyogadvārasūtra scholars have different opinions Umāsvāti's Tattvärthasūtra (c. 3rd A.D.) refer the as to whether Aryarakṣita himself is the author or second stage where the knowledge is divided into two some one else. So far as the question of Āryarakṣita is main heads — (i) Pratyakṣa ( direct knowledge concerned it is a fact that he for the first time transincorporating sensory and scriptural knowledge ) and lated the Jaina technical terms by Anuyoga-vidhi. It (ii) Parokșa ( indirect knowledge which incorpora- is the text of philosophical method. In the beginning, tes the three extra-sensory knowledge ). Umāsvāti Anuyogadvārasūtra mentions that mati, avadhi, also supports this two-fold division. At this stage, it manah-paryaya and kevala — these four types of was supposed that apart from the cognition depend- knowledge depend on experience only. They can not ing on the soul alone ( Ātmasāpekṣa Jñana ), the be preached where as śrutajñana can be studied and cognition depending on sense-organs and quasi- preached. At this third stage of development Anusense-organs ( indriya-anindriya sāpekșa ), depend- yogadvāra gives importance to the four-fold division. ing on the intellect ( buddhi sāpeksa ) and the cog- In this third stage of development particularly based nition depending on the Āgamas, should be consi- on Nandi and Anuyogadvāra, the cognition dependdered as Indirect knowledge ( Parokșa Jñāna ). It ing on sense-organs, even being considered transcenbecame a special feature of Jaina Epistemology dently as indirect ( parokșa ), was also included in because others were considering it as a direct know- direct knowledge (pratyakṣa ) following the concept ledge (pratyakşa ). The development of this second of other traditions and it was designated as samstage was very essential as it was to pave the way of vyāvahārika pratyakșa ( perception according to the synthesis between the theory of knowledge (Jñāna- common usage or ordinary perception ). vāda ) and validity of knowledge. At this stage, the
In my opinion, primarily empirical sensual knowledge (Jnana ) itself was considered as an cognition was included in darśana and contemplative instrument of valid knowledge (pramāna ) and was matiiñāna was confined only to the deliberative inteldivided into Direct knowledge (pratyakșa ) and
lectual knowledge ( vimarśātmaka jñāna ). This disIndirect knowledge (parokșa ).
tinction was also recommended in later period. Four The third stage of the development is repre- early classifications of matijñana, i.e., avagraha, ihā, sented by Nandisutra (c. 5th A. D.). In the whole of avāya and dhāraņā are also considered as deliberthe Agamas, Nandisutra is the only composition ative knowledge but when sensory cognition was which thoroughly deals with the theory of five-fold included in matijñana, the question arose as to how knowledge. In Nandisutra another development is the knowledge, originated from sense-organs, would also visible where the sense-cognition is included in be regarded as indirect knowledge. Consequently, it pratyaksa, following the common tradition. The was accepted as samvyāvahārika pratyakşa (percepsecond work, dealing with the conception of five-fold tion according to common usage ) following the other knowledge is Anuyogadvārasutra (c. 2nd ). Anu- philosophical traditions. yogadvāra is earlier than Nandisutra because former To synthesize the first stage of five-fold does not include sense cognition in Direct knowledge knowledge with two-fold classification of pramāna - as the latter does. It is believed that Anuyogadvāra and pratyakșa and parokșa of second stage, a third stage Nandisutra are compiled by Aryarakṣita and Deva- was introduced. An attempt was also made to
The
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correlate the Jaina concept of pratyaksa (direct change in later periods also. Similarly the scriptural knowledge ) with the concept of perception knowledge also continued to be considered as indirect (pratyakşa ) of other philosophical traditions. (parokșa ). But among the two classes of matijñāna - Akalanka (c. 8th A. D.) who contributed a
indriyajanya matijñāna (originated from senses ) and
manojanya mati-jñāna (originated from mind ), the parallel system of Jaina logic based on the Agamic
sense originated matijñāna was considered asparokșa conception and some later Ācāryas classified the
from the transcendental ( pāramārthika ) point of pratyakșa into two parts, i.e., sasvyāvahārika
view and pratyakșa from the point of view of pratyakșa (perception according to common usage )
common usage ( samvyāvahārika ). The other tradiand pāramārthika pratyakșa transcendental percep
tions were considering sense originated matijñāna as tion ). Its brief reference can be traced in Nandisātra
pratyakșa. When discussions over Pramāņaśāstra and a detailed one in Jinabhadra's Viseșāvasyaka
( science of valid cognition ) started, the matijñāna, bhāşya (c. 700 A. D.). Akalanka etc. have followed
originated from mind, was further divided in different the same two-fold concept of pratyakṣa.
classes and got assimilated with different Pramāṇas. So it is clear that the conception of five-fold After Nandisūtra the development of this conception knowledge is quite old but its gradual development of the five-fold knowledge is found in Višeşāvasyakatook place only during the c. 3rd-7th A. D. Because bhāsya where not only its different classifications are Tattvārthasūtra and its auto-commentary, both donot mentioned but the doubts regarding the very concept refer these two types of pratyaksa - saṁvyāvahārika and the solutions are also discussed. This era witnesand pāramărthika. By that period mati-jñāna was sed intensive discussions over the relationship of considered as parokșa. The hypothesis of these two darśana and jñāna as well as śrutajñāna and matitypes of pratyakṣa - samvyāvahārika and pāramār- jñāna. thika came into existence after c. 3rd 4th A. D. in the
The development of the conception of fiveperiod of Nandisūtra (c. 5th A. D. ) as the above fold knowledge continued during thec. 3rd-7th A. D. division was clearly mentioned in this text.
but it got interrupted after the c. 7th A. D. and discus
sions over Pramāņavāda ( science of valid cognition) Bhagavatisūtra refers to Nandisātra and
started. This is noteworthy that Pramāņavāda in Anuyogadvāra for the details about the Jaina theory
Jainism was the result of the impact of other philosoof knowledge. It concludes that this portion was
phical traditions. incorporated in Bhagavati at the time of Valabhi Vacană (c. 5th A. D. ). Sthānanga's classification of Jaina Concept of Pramāņa knowledge as pratyaksa and paroksa, also is contem-
The theory of five-fold knowledge, originally porary to Tattvarthasūtra (c. 4th A. D.). In the above belonged to Jainas but the case is different with the mentioned scriptures avadhijñāna ( clairvoyance ), theory of Pramāna. This latter conception is borromanah-paryaya-jñana (telepathy or knowledge of wed by Jainas from other philosophical traditions. others' mind ) and kevalajñāna (perfect knowledge The concept of Pramāna in Jaina philosophy came comprehending all the substance and their modes, into existence in c. 3rd 4th A. D. and continued to i.e., Omniscience ), all being beyond the range of our develop upto the c. 13th A. D. senses are considered as transcendental perception or Jaina Ācāryas, first of all accepted the conself perception. This conception did not undergo any cept of Pramāņa as it was prevalent in other philoso
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phical traditions, particularly in Nyaya and Sankhya school, but in due course of time they got it associated with their concept of five-fold knowledge. Thus, whatever development of Jaina theory of Pramana is seen in Jainism, is the result of its synthesis with Palica januvada. While classifying the Pramana some new concepts came into existence. They are undoubtedly unique contributions of Jaina philosophy. For instance, Smrti (memory), Pratyabhijñā (recognition) and Tarka (Induction) were for the first time considered as Pramāņa.
We shall now see as to how the development of Pramāṇavāda took place in Jaina āgamas. Jaina agamas refer three and four types of Pramāņa accepted by Sankhya and Naiyayikas, respectively. Sthānanga clearly mentions three types of Vyavasaya (determinate cognition), i.e., Pratyaksa (perception), Prätyika and Anugamika (inference ) whereas Bhagavati mentions four types of Vyavasaya, i.e., Pratyaksa, Anumana, Upamana (comparison) and Agama (verbal testimony). Similarly, in Sthänänga four types of pramāṇas called Hetu are mentioned.
In this way Sthänänga mentions both, threefold and four-fold classification of Pramana in the form of Vyavasaya and Hetu, respectively. Anuyogadvarasūtra not only clearly mentions four types of Pramāņa but also elaborately discusses each of them. The details about the four Pramāņas given by Anuyogadvārasūtra is very much similar to that of Nyaya school. As I have stated earlier, Bhagavati refers to the Anuyogadvāra for more details about the Pramāņas. It indicates that at the time of Valabhi council (c. 5th A. D. ) the concept of four types of Pramana had already been accepted by Jaina philosophers but when Pramanavada got synthesized with the conception of five-fold knowledge, the Upamana (comparison) had no place in it.
Later, Siddhasena Divakara in his Nyāyāvatāra and Haribhadrasūri in his Anekāntajayapatākā
mentioned only three types of Pramāņas. Umāsvāti (c. 3rd-4th A. D.) for the first time declared five-fold knowledge as Pramāṇa and divided it into two classes Pratyakṣa and Parokṣa. Later on, Nandisūtra divided Pratyaksa in two sub-classes Sämvyavahārika and Paramarthika, including sensory perception into the first one andAvadhi, Manah-paryaya and Kevala into the second, respectively. The four Agamic divisions of Matijana-Avagraha (the cognition of an object as such without a further positing of the appropriate name, class, ctc.); Iha (the thought process that is undertaken with a view to specifically ascertain the general object that has been grasped by avagraha ); Avaya ( when further attentiveness to final ascertainment takes place regarding the particular feature grasped at the stage of Thā) and Dharaṇā (the constant stream of the ascertainment, the impression left behind it and the memory made possible by this impression, all these operations or the form of matijina are called dharana) were accepted as the two classes of sensory perception. The indirect knowledge (Paroksa-jfäna) enumerated the cognition originated from mind (manasajanya jina) and Verbal testimony ( Śrutajñāna) with a view that Inference (Anumana) etc. are the forms of Manasajanya-jñāna.
Thus, the attempt to synthesize the concept of Pramana with the theory of five-fold knowledge in the true sense begins from the period of Umāsvāti. Acarya Umasvati maintains that these five types of cognition (knowledge) are five pramāņas and divides these five cognition into two Pramāņas direct and indirect. Pt. Malvania has observed that the first attempt of this synthesis was made in Anuyogadvarasütra, the only text accommodating Naiyayika's four-fold division of Pramana into knowledge. But this attempt not being in accordance with the Jaina view, the later scholars tried to solve this problem and ultimately succeeded in doing so. They discussed the
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concept of Pramāṇas on the base of five-fold (perception ), Anumāna ( inference ) and Agama knowledge of Jaina Agamas. According to Nyāya- (verbal testimony ), refers to the old Sankhya System. śāstra, the cognition originated from Mind (mānasa. While mention of four pramāṇas including Upamāna janya jñāna ) is of two types --- Pratyaksa and (comparison ) belongs to Naiyāyikas. It clearly shows Parokşa. The knowledge originated from mind which that by the end of c. 5th A. D. the concept of Pramāņa experiences pleasure and pain, is Direct knowledge as an independent concept was not developed in (pratyaksa) whereas the inference ( anumāna ) and Jainism. The first work which elaborately deals with comparison (upamāna ) are Indirect forms of know- the Pramānaśāstra is Siddhasena's Nyāyāvatāra. The ledge (paroksa ). So having considered sensory-per- period of Siddhasena Divākara is fixed as c. 4th-5th ception of Matijñāna as Sāmvyāvahārika Pratyaksa A. D. Nyāyāvatāra mentions three Āgamic divisions (perception according to common usage ), cognition of Pramāna, i.e., perception, inference and verbal based on intellect ( Bauddhika Jñāna ) as inference testimony (Agama ). Though Siddhasena has expre( anumāna ) and verbal testimony ( Śrutajñāna ) as ssed briefly the Jaina opinion on the Nyāya-śāstra of Āgama pramāņa. Jainas synthesized the conception Sānkhya and Nyāya but he has followed mostly the of five-fold knowledge with the Pramānaśāstra of the old tradition, accepted by Jaina Āgamas. At some other schools of Indian philosophy. In Anuyoga- places he has only revised the definitions of Pramāna dvārasutra, Pratyakṣa is divided in two heads, i. e., of other schools on the basis of Jaina theory of Non(1) perception originated from sense-organs (indriya- absolutism (Anekāntavāda ). janya ) and ( 2 ) perception originated from quasi
Nyāyāvatāra clearly follows the Āgamic trasense-organs ( no-indriya ). Quasi-sense originated
dition, as far as the description of Pramāra is concerperception included avadhi, manah-paryaya and
ned. It, no where, mentions the later developed conkevalajñāna. This concept of knowledge carries the
cept of Smsti ( memory), Pratyabhijñā ( recognition ) same meaning as the one, conveyed by the transcen
and Tarka ( indirect proof : tarka is not by itself, a dental knowledge in other philosophical traditions.
source of valid knowledge, though it is valuable in The distinction between ordinary perception (Laukika
suggesting hypothesis which leads indirectly to right Pratyaksa ) and Transcendental perception (Alaukika
knowledge ) as Pramāna. This proves that NyāyāPratyakșa ) of Vaišeșikas is accepted by the Jainas
vatāra is undoubtedly an ancient text compiled by under the name of Sāṁvyāvahārika and Pāramār
Siddhasena Divākara. After Nyāyāvatāra, the literary thika Pratyaksa and was synthesized later on with their
works which discuss the concept of Pramāņa are conception of five-fold knowledge (pañcajñānavāda).
Pūjyapāda's Sarvārthasiddhi (c. 6th A. D. ) of According to Pt. Dalasukha Malvania the Digambara tradition, Siddhasenagani's commentary Āgamic period (c. 5th A. D. ) has no trace of any on Tattvärtha-bhāsya (c. 7th A. D.) and Haribhadra's independent discussion over Pramāņa. Till that period Anekāntajayapatākā (c. 8th A. D.) of Svetāmbara Jainācāryas have collected the opinions of other philo- tradition. In these works there is no trace of Pramāna sophical schools in their treatises. In the correspon- like Smộti etc. This concept is discussed for the first ding period a number of traditions on the types of time in the works of Akalanka ( c. 8th A. D.) and Pramāna were prevalent. Jaina Agamas refer tradi- Siddharși's commentary on Nyāyāvatāra (c. 9th A. tions of three and four types of Pramānas. The D.) of Digambara and Śvetämbara traditions, respecmention of three types of Pramānas - Pratyaksa tively. The independent development of Jaina Nyāya
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commences from the period of Akalanka, who for the first time expounded Smrti, Pratyabhijña and Tarka as independent Pramanas. The Jaina theory of Nyaya was given a new direction in the c. 8th A. D. Akalanka not only established Smrti, Pratyabhija and Tarka as independent Pramana but also revised the definitions or meanings of Perception, Inference and Agama, given by Siddhasena and Samantabhadra. In his definition of Pramana, he introduced a new term avisamvadi in place of svapara-avabhāṣaka. Most probably, this characteristic of changing definitions was borrowed from the Buddhist tradition. It was an especiality of Akalanka that he logically evaluated even the pre-established conceptions, hence rightly called the father of Jaina Nyaya. His works Laghiyastraya, Nyayaviniscaya, Siddhiviniscaya and Pramanasangraha are related to the Jaina Nyaya. Pramanasangraha is the Akalanka's last work in which matured Jaina Nyaya, especially Pramāṇa-śāstra, is elaborately discussed. Though in his earlier works he mentioned Smrti, Pratyabhijña and Tarka as Pramana yet as independent Pramaņas, these are established only in this work. As such from the point of view of the history of Jaina Pramāṇaśāstra this is a valuable work giving new dimension to the concept of pramana.
In the history of Indian logic the Jaina logicians, in the c. 8th A. D., for the first time accepted memory (Smṛti), recognition ( Pratyabhijñā) and induction (Tarka) as a Pramana. This is Jaina's special contribution to the field of Indian Pramanaśastra. Not even a single tradition of Indian logic accepts memory (smrti) as an independent Pramana. Only Vedanta-paribhasa, a work of c. 16th A. D., mentions Smrti as Pramana. Though Naiyayikas had accepted recognition (pratyabhijñā) as a kind of perception (pratyakṣa pramāņa) yet neither they regarded it as an independent Pramana nor accepted Smrti as its cause (hetu ). Jainas maintained, in case
Smrti is not Pramāṇa, how recognition (Pratyabhija) can be accepted as Pramana because in absence of memory (Smrti). Pratyabhijita is not possible. If memory (Smrti) is not Pramana, Pratyabhijña also a combination of past memory and present perception can not be considered as Pramaņṇa, because Pratyabhij is based on Smrti. Similarly, Jainas established Tarka as independent pramāņa because in the absence of Tarka Pramāṇa, Vyapti (universal relation) is not possible and without Vyapti, inference (Anumana) is quite impossible. To solve this problem Naiyayikas accepted Samanya Lakṣaṇa Pratyasatti (generic nature of individuals). Jainas accepted Tarka Pramana at the place of Naiyayika's Sämanya Laksana Pratyasatti which is more extensive than that and may be called Inductive leap agamana ). Jainas maintained induction (agamana) and deduction (nigamana ) of Western Logic and introduced them in the name of Tarka and Anumana as an independent Pramana, respectively. An independent Tarka Pramāṇa was needed because acquisition of Samanya (generality) through perception is not possible and without Samanya, Vyāpti is not possible. Similarly in absence of Vyapti, Inference (anumana) is impossible. Since in Jainism, Samanya Laksana Pratyasatti is no where mentioned as a kind of perception, Jainas established Tarka as independent Pramāņa to solve the problem of Vyapti. As Pratyabhijñā was needed for Tarka and Smrti for Pratyabhijña, Jainas accepted all these three as independent Pramāņa
It was Akalanka (c. 8th A. D.) who for the first time referred these three types of independent Pramana in Digambara tradition. Before Akalanka, his predecessors Samantabhadra (c. 5th A. D.) and Pujyapada (c. 6th A. D.) do not make any mention of it. In Svetambara tradition, Siddhasena Divakara (c. 4th A. D. ), Jinabhadra (c. 6th A. D. ), Siddhasena Gani (c. 7th A. D.) and Haribhadra (c. 8th A. D.)
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mention nothing about these three independent c. 12th A.D. It was Yaśovijaya who followed the style Pramāņas. In Svetāmbara tradition, as per my know- of Navyanyāya and for the first time composed ledge, only Siddharşi (c. 9th A. D. ), in his commen- Tarkabhāṣā and Nyāyabindu in Navyanyāya style, in tary of Nyāyāvatāra has mentioned the validity of the latter part of c. 17th A.D. In Digambara tradition, these three independent Pramāņas.
Saptabhangitarangani was written by Vimaladas Thus, in Digambara tradition from c. 8th A.D.
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following the same style. and in Svetāmbara tradition by the end of c. 9th A.D.
Thus, we can conclude that it is only from c. memory (smrti ), recognition ( pratyabhijña) and 3rd A. D.-12th A. D. when Jaina logic made its proinduction (tarka ) were established as independent gress and opened a new vistas for its further developPramāna. Earliest works on Jaina logic were in brief ment. and mainly concerned with the Jaina concept of Development of the Theory of Non-absolutism Pramāņa. Works on Jaina logic, composed later on (Anekāntavāda ) and Syādvāda were a healthy review of the conceptions of Pramāna
Non-violence in practice, non-absolutistic prevalent in other philosophical traditions. Pātra- approach in thought and conditional predication or svāmi's Trilaksanakadarthana was the first one to qualified assertion (Syalvāda ) in speech are the refute the Hetulaksana of Dinnāga. Vidyānandi pillars upon which the splendid palace of Jainism is (c. 9th A. D.) wrote Pramānapariksā to evaluate the erected. Theory of non-absolutism (Anekāntavāda ) characteristics of Pramāņa, their divisions and sub- is the central philosophy of Jainism. So far as the divisions, prevalent in other philosophical traditions. historical development of this theory of AnekāntaIn this period some more works pertaining to Jaina vāda is concerned, its historical development can be logic (Pramāņaśāstra ) had been composed but seem divided into three phases. Its first phase begins with to be destroyed. In Digambara tradition, Prabhā- the preachings of Mahävira, i. e., c. 6th B. C. and is candra's Nyāyakumudacandra and Prameyakamala- extended upto the composition of Umāsvāti's mārtanda are two of some prominent works Tattvārthasūtra (first half of the c. 4th A. D. ). It was composed in c. 10th 11th A. D. Both of the works are the period of origination of Anekāntavāda. Basically, the commentaries on Akalanka's Laghiyastrayi and in the non-violent and tolerant attitude of Mahavira helSvetāmbara tradition, Vādidevasūri's Pramāṇanaya- ped much in the development of the non-absolutistic tattvāloka and its commentary Syädvādaratnākara (c. principle of Anekāntavāda. InSūtrakıtānga, he clearly 11th A. D. ) are well known works on Jaina logic. opines, "one who praises one's own view-point and After that Hemcandra's Pramāņa-mimāṁsā (c. 12th discards other's view as a false-one and thus, distorts A.D.) is an important work which mainly deals with the truth will remain confined to the cycle of birth and the concept of pramāna though it is incomplete. The death." development of Navya-nyāya ( Neo-logistic system) It follows that Mahāvira preached the utterbegins with the entry of Gangesh Upādhyāya in the most carefulness regarding one's speech. In his field of Indian Nyāya in c. 13th A. D. But for four opinion speech should be unassaulting as well as true. centuries the Jaina logicians were unacquainted with He warned his disciple monks against making unwarthis new literary genre and continued to follow the ranted categorical assertions or negations. He instrucstyle of Vādidevasūri. Thus, the development of Jaina ted them to make only a conditional statement Logic ( Nyayaśāstra ) remained interrupted after (Vibhajjavāya Vägareija ). It is the Vibhajjavāda
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from which the theory of non-absolutism (Anekānta- vāda. Though the theory of Vibhajjavāda was comvāda ) emerged. Sūtrakrtānga, in its first chapter mon to both - Jainism and Buddhism but so far as records various contemporary one-sided doctrines Buddhist approach to the metaphysical doctrine is regarding the nature of soul and creation of the concerned, it was a negative one, while Mahāvira's universe. Mahāvira's approach to all these doctrines was a positive one. Lord Buddha maintained that is non-absolutistic or relative. In every case, whether whether it is eternalism or nihilism, none of these can it was the problem of eternalism (śāśvatavāda ) and be regarded as true because any one-sided approach nihilism (Ucchedavāda ) about the soul or that of neither represents a right vision regarding Reality nor finiteness and infiniteness of the world or that iden- it explains our practical problems of sorrow and tity and difference of body and soul or also that of sufferings. That is why he kept mum while answering monism and pluralism, Mahāvira's approach was the questions related to the metaphysics. It is due to this never absolutistc but relativistic. It was firmly negative approach that Buddha's theory of Nihilism maintained in Jaina canons that the nature of reality is came into existence later on in Buddhism. On the complex and multi-dimensional as well as confluence other hand, Mahāvira's approach towards these oneof many self-contradictory attributes, so it can be sided views was positive. He tried to synthesize these approached and explained from various angles or different views on the basis of his theory of view-points. It is believed that Tirtharikara Mahāvira Anekāntavāda. while explaining the reality uttered first sentence as The synthesis is found for the first time in tripod (tripadi ), i.e., Uppannei, Vigamei, Dhuvei Vā. Bhagavatisutra, wherein, on the basis of two main Accordingly in Jainism Reality / 'Sat' is defined as divisions of Nayas - substantial standpoint (Dravyapossessing origination, decay and permanence rthika Naya ) and modal standpoint (Paryāyārthika (Utpadavyayadhrauvyayuktam sat : Tattvärtha, 5.29). Naya ) as well as Niscaya Naya, Vyavahära Naya and This three-fold nature of Reality is the base of the different Niksepas ( Positing) and Gateways of inJaina theory of Non-absolutism. On the one hand, the vestigations (Anuvogadvāras such as -- Substance nature of Reality is complex, i. e., a synthesis of (dravya ), space (deśa ), time (kāla ), mode (bhāva ), opposites : identity and difference, permanence and name (nāma), symbol (sthāpanā ), potentiality change, oneness and manyness and so on, and on the (dravya ), actuality ( bhāva ) etc. He has synthesised other hand scope of our experience, knowledge and the various opposite view-points. So it is clear that in even expression is limited and relative, so we can not the first phase, i. e., before c. 3rd A. D. Vibhaljavāda know the Reality as a whole from any particular angle. of Lord Mahavira was fully developed in the positive Our every knowledge about the Reality will always and synthesising theory of Anekāntavāda along with be partial and relative only and in that position our its subsidiary doctrines such as the doctrine of expression or statement about the Reality will be standpoint (Navavāda ) etc. Thus, along with the orialways relative and not categorical (ārpitā nārpite gination of Anekāntavāda, the doctrines of Naya, siddhe : Tattvārtha, 5). In canonical age we have an Niksepa and Anuyogadvāra came into existence. account of only this much discussion about
The second phase of the development of NonAnekäntavāda.
absolutism / Anekāntavāda began with Siddhasena Thus, in the first phase of its development, Divakara's Sanmatitarka (c. 4th A. D. ), continue till this theory was evolved from the theory of Vibhaija- the Haribhadra's works such as Saddarśana
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samuccaya, Šāstravārtāsamuccaya (c. 8th A. D. ) etc. Mallavādi are some what different in their names and This second phase has three main characteristics — presentation. Though the author showed the relationfirstly, apart from the Āgamic Nayas, i. e., ship between the traditional seven Nayas and his Dravyārthika (Substantial ) and Paryāyārthika twelve Nayas [ See : Malvania D., Āgama Yuga kā (modal ) or Niscaya ( Ideal ) and Vyavahāra ( pra- Jaina Darśana, p. 312. ) though doctrine of Anuyogactical view-point ), the doctrine of Seven-fold Nayas, dvāras ( gateways of the investigation ) can be traced i.e., Naigama ( considering both the general and in some of the Āgamas of later period as Bhagavati, particular properties of the thing ), Sangraha (consi- Samavāyānga, Prajñāpanā and Anuyogadvārasūtra dering general properties of an object ), Vyavahāra yet the number of these gateways of investigation (considering specific properties of an object ), never remained constant. In Tattvārthasūtra, it was Rjusūtra ( confined only to the present mode of an only eight while in Dhavalā tikā of Satkhandāgama object), Sabda (treating with synonyms ), Samabhi- its numbers were increased upto eighty. This doctrine rūdha ( taking into cosideration only etymological of gateways of investigation is nothing but viewing, meaning of word. According to this Naya, even word understanding and explaining the nature of the things has a different meaning and Evambhūta Naya with their multiple facets or aspects and thus it can ( denoting object in its actual state of performing its also be considered as a development of Vibhajyavāda natural function ) was developed. Though the Āgamic and Anekāntavāda. Here, it is noteworthy that this Nayas remained in vogue till the Kundakunda's increase in the number of the Nayas (view-points ) or period (c. 6th A. D.).
the Anuyogadvāras was well received by later Jaina
thinkers because the earlier Acāryas kept the door It is to be noted that in earlierāgamas such as
open in this regard. Siddhasena Divākara clearly Acarānga, Sūtrakstānga, Uttarădhyayana etc., this
mentions in his work Sanmatitarka ( second half of concept of seven-fold view-point (Nayas ) is absent.
thec. 4th A. D.) that number of view-points can be as Only in Anuyogadvārasūtra and Nandisutra this
much as the way of linguistic expressions. (Sanmaticoncept of seven-fold view-point is found but these
tarka, 3/47) are the works of thec. 2nd-4th A.D. In Samavāyānga, it is an interpolation. Secondly, in Tattvärthasūtra Doctrine of Seven-fold Predication (Saptabhangi) (first half of c. 4th A. D.) the number of basic view
The second main characteristic of this second points are five. The Samabhirūdha and Evambhūta phase of the development of Anekāntavāda, is the are accepted as sub-types of Sabdanaya. Siddhasena doctrine of seven-fold predications or the seven ways Divākara ( c. 4th A. D. ) in his Sanmatitarka has of expressions (Saptabhangi ). The concept, regardaccepted six Nayas, he does not mention Naigama ing the ways of expressions, dates back to the Vedic Naya. Thus, we may conclude that the number of period. The two forms of expressions / predications - Nayas, as seven, was finalised later on but prior to the affirmation and negation, are accepted by all. These end of c. 5th A. D. Only with one exception of two depend on existence or non-existence. By negaMallavādi (c. 5th ), who mentions twelve Nayas in ting both the existence and non-existence, we have a his work 'Dvāśāranayacakra', development in the third way of expression Avyaktavyatā, i.e., inexpresnumber of Nayas became stagnant because of the sibility. By accepting the both a fourth way of expresdevelopment of the doctrine of Anuyogadvāras, i. e., sion was emerged, comprising both affirmation and the gateways of investigation. These twelve Nayas of negation. These four ways of expression are well
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accepted in Upanişadas and Buddhism. So far as Jain- cations Jaina ācāryas put a qualifying mark before ism is concerned it is in the Bhagavatisūtra where for each of the predication / statement, so that the affirthe first time these different ways of expressions mation or negation or even in-expressibility of predi(Bhangas ) are found. In Bhagavatisūtra (975) while cation may not be taken as absolute. This qualifying dealing with the concept of Hell, Heaven and abode mark is the word 'Syāt' (RIC), which being put of Siddhas, Lord Mahāvira mentioned only three before every predication, removes the every possiways of expression, i. e., affirmation, negation and in- bility of uncertainity and indefiniteness of the prediexpressibility but while dealing with the aggregates cation and make the predication conditional as well of the different numbers of atom, he mentioned more as relative. The seven-fold conditional predications than twenty-three ways of expressions. Pt. Dalsukha are as follows: Malvania is right when he says that of course we have
1. Conditional affirmation ( PTC 3a) seven predications or Saptabhangi in Bhagavati
2. Conditional negation (RICH ) sūtra, but in my humble opinion these different ways 3. Conditional inexpressibility ( RICE 37972) of expressions (Bhangas ) do not represent the doc
4. Conditional affirmation and negation retrine of seven-fold predications rather it is only a prior spectively (PITE 3a z titaa) state. Here, these ways of expressions are framed on 5. Conditional affirmation and inexpressibilthe number of atoms in aggregates. Secondly, this ity ( RT 3 7 379mai a) discussion may be a later interpolation because in
6. Conditional negation and inexpressibility Tattvārthasütra and its auto-commentary, this concept ( Rua ia o 370mai 7 ) of seven-fold predication is absent. Thirdly, it is also 7. Conditional affirmation, negation and inclear that neither in Bhagavatisutra nor in the expressibility (स्यात् अस्ति च नास्ति च अवक्तव्यं च) Tattvärthasūtra and it's auto-commentary, the theory It is noteworthy that for Jainas inexpressiof seven-fold predication is systematically presented bility (anirvacaniyatā or avyaktavyatā ) does not dein its logical form, with number of predications as note absolute inexpressibility as Vedānta means. It is seven and only seven. For the first time in Siddhasena only conditional inexpressibility because simultaDivākara's Sanmatitarka, this theory of seven-fold neous affirmation and negation are not possible in our predication is logically presented. After that in Apta- linguistic expressions. mimāmsă of Samantabhadra (c. 5th ), Sarvārtha- The Jaina doctrines of non-absolutism, considdhi of Pūjyapāda (c. 6th ), Pañcāstikāya ( 14 ) and ditional predication and view-points yielded good Pravacanasāra ( 2/23 ) of Kundakunda (c. 6th A. D.) results particularly in that age of philosophical dispuand some other later works of this period this doctrine tation as well as religious and social conflicts. of seven-fold conditional predication has been discu- Though the Jaina thinkers made optical estimation of ssed in detail. In general, there are only three types of the philosophical assumptions of other schools of our linguistic expression - affirmation, negation and thought yet they paid proper respect to them and acceinexpressibility. On the basis of these three funda- pted their Truth value on the basis of different Nayas. mental ways of linguistic expressions and their com- In this regard the views of Siddhasena Divakara and binations mathematically only seven predications are Haribhadra are commendable. Siddhasena tried to possible neither more nor less. In order to show the establish the truth value of other schools of thought conditionality or relativity of these seven-fold predi- on different view-points. He said Sankhya school is
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true from substantial view-point, while Buddhist view is true from the view-point which is confined to only present mode of an object (Rjusūtra Naya ).
He further remarks that all schools of thought are true when they are understood from their own standpoint and so far as they do not reject the truth- value of others. A non-absolutist does not divide them into the category of true and false. The same spirit is also followed by Haribhadra in his works such as Sastravārtāsamuccaya and Saddarśana- samuccaya. It is only Haribhadra, who in his Şad- darśanasamuccaya, presented all the six schools of thought in their true spirit and without condemning them. No other work in the history of Indian philo- sophy has been written till date in such a noble spirit. In this period, Jaina ācāryas tried to syn-thesize the different conflicting views and thus tried to establish harmony and peace in the society. Historical Development of Jaina Metaphysics Astikāya
The doctrine of pañcāstikāya which refers to the five constituents of the universe is regarded as the most original theory of Jainism. There is, of course, no mention of pañcāstikāya in Ācāranga, but it is found in the Parśva chapter of Rşibhāşita (c. 4th B. C. ). This shows that this concept belongs to the tradition of Pāráva (c. 8th B. C.). In the tradition of Mahāvira, however, we find its first reference in Bhagavatisūtra (aboutc. Ist B. C.).
In Jaina philosophy the word astikāya means the substance which exists ( asti ) with an extension in the space, i.e., constituent component ( kāya ). In Jaina philosophy jiva, dharma, adharma, akāśa and pudgala -- these five are regarded as astikāyas from the very ancient times, and there is no change in this concept, even today. They can be translated as the living beings (jiva ), Space (ākāśa ), Medium of motion and rest (dharma-adharma taken together ) and Matter (pudgala ).
Among these five astikāyas, three of them - dharma, adharma and akāśa are thought of as unitary and remaining two - jiva and pudgala as infinite in number. From the c. 3rd-10th A. D. there is no major change in the concept execpt that, with the development of the concept of saddravya (the six-fold theory of substance ), time (kāla ) was also accepted as an unextended substance (anastikāya ). The debate whether time can be regarded as an independent substance or not begins with the c. 3rd 4th A. D. or even before the composition of Tattvārthasūtra; and the difference of opinion in this regard continues upto the time of Viśeșāvaśyakabhāsya (c. 7th A. D. ). Some of the Jaina philosophers regarded time as an independent substance while the others did not. But subsequently Digambara and Svetāmbara both the traditions synthesized the concept of astikāya and dravya and both of them agreed to accept time asanastikāya, i.e., an independent unextended substance.
The idea of Pañcāstikāya is, distinctly, an original concept of the Jainas. We do not find it in any other ancient philosophical system, except that in the ancient times astikaya has a broad and general meaning, denoting anything that exists ( asti ); but in due course of time there developed a distinction between astikāya and anastikāya and the former was taken to be an extended substance in space. Technically speaking astikāya is a multi-spatial substance (bahupradeśi-dravya ), i.e., a substance which is extended in space. Pañcāstikāya
The Jaina concept of Şaddravya ( theory of six substances ) has developed from this very idea of pañcastikāya by adding time as an independent substance in the earlier concept of pascāstikāya. The concept of Şaddravya came into existence during the c. 1st-2nd A. D. Thus the concept of pañcastikāya is definitely a very old concept because we find its reference in the Pārśva chapter of Isibhāsiyāim, one
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of the oldest scriptures. Till the period of Ācārānga move his hands. Thus, the concept of dharma and and the first Srutaskandha of Sutrakītānga we donot adharma as the respective medium of motion and rest, find any reference to this concept so far as the seems to be a later concept. This idea has arrived by Mahavira's tradition is concerned. Thus, we can say the time of the composition of Tattvārthasūtra ( i.e. in that the concept basically belongs to Pārśva tradition. the second half of the c. 3rd or first half of the When the followers of Pārśva were included in the c. fourth ). The allusions made in Bhagavati and other Mahavira's order, their concept of pañcāstikāya, along scriptures clearly show that the meanings of with some other concepts, was also accepted in the dharmāstikāya and adharmāstikāya in those days Mahāvira's tradition. Bhagavatisütra for the first time were identical to the meaning of the terms dharma mentions that the world is made of dharma, adharma, and adharma as pious and sinful respectively. Thus, akāśa, jiva and pudgala. Isibhāsiyāim only refers to the concept of dharma andadharma as the medium of the five astikāyas but has not mentioned their names. motion and rest, respectively, seems to be a latter Even, if the names were decided, we find no descri- concept, but this idea has arrived by the time of the ption as to their exact nature and function. Further, composition of Tattvārthasūtra (i.e., c. 3rd A.D.). In the meaning that we understand of the pañcāstikāya, Uttarādhyayana, chapter 28th also dharma and today, is gradually ascribed to them in due course of adharma are mentioned as the medium of motion and time. We find atleast two references in the Bhagavati- rest respectively, but according to scholars this sütra which clarify that the dharma-astikāya and the chapter is a later addition of thec. Ist or 2nd A. D. adharma-astikāya at that time did not mean media of
Seven Categories motion and rest, respectively. In the 20th śataka of
In Sutrakstānga (2 / 5-765-782 ) we find two Bhagavatisütra, it is mentioned that abstinence from
categories of being (asti ) and not-being (nästi ). The the eighteen places of sin and observance of the five
elements which are classified under being category vigilances (samitis ) alongwith three controls (guptis )
are - loka (universe ), aloka ( space beyond is dharmāstikāya, while indulging in the eighteen
universe ) jiva ( the living-being ), dharma, adharma, places of sin and not following the five vigilances
bandha, mokṣa, punya, pāpa, asrava, samvara, (samitis ) and the three controls (guptis ) is, called
vedanā, nirjarā, kriyā, akriyā, krodha, māna, lobha, adharmăstikāya. In the 16th śataka of Bhagavati
prema, dveșa, caturanta, samsāra, deva, devi, siddhi, sitra, the question is raised whether a deity (deva )
asiddhi, siddhanijasthāna, aādhu, asādhu and kalyāņa. standing at the end of the universe (unoccupied space) can move his hands outside the universe ( aloka ) ? This detailed list is abridged in the second The answer given to this question is not only negative part ( śrutaskandha ) of Sūtrakrtānga. Here we find but is also explanatory. It says that as the movement the mention of jiva-ajiva, punya-pāpa, asravaof Jiva and Ajiva is possible only through matter samvara, vedanä-nirjarā, kriya-adhikarana, bandha (pudgala ) and as there is complete absence ofjivas and mokșa. It is an earlier stage, as Pt. Dalsukha and the pudgalas in the aloka, the movement of the Malvania observes, the concept of nine-fold elements hands of the diety is impossible there. If dharma- is developed from this very list after deleting vedanā, dravya was considered as a medium of motion, at that kriya and adhikarana from it. This is alluded, in time the answer would have been in different way, Samavāyānga and Uttarādhyayana, approximately c. i.e., due to the absence of dharma-dravya he can not 2nd or 3rd A. D. Out of these nine-fold elements
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Umāsvāti presents, the concept of seven elements (tattvas) including punya and papa underäsrava, in the c. 3rd-4th. We find discussions of the seven-fold or nine-fold categories (tattva ) in the later composed scriptures of both the Svetambara and the Digambara traditions. This shows that the concept of seven categories (tattva) has also its origin in Sutrakṛtänga and has taken final shape in due course of time and got finalised in c. 3rd or 4th A. D. During the c. 7th10th A.D. these ideas had properly conceptualised as it is described in details with their various classes and sub-classes.
We find that at the root of the formulation of the concepts of seven or nine-fold categories, six-fold substances and the six-fold jivanikaya, is the basic idea of Pañcāstikaya. The Jaina thinkers, of course, have developed the concept of six substances by synthesizing their conception of Palicastikaya and the idea of substance as it is found in the other philosophical systems. In the following pages we will try to
see as to how it has worked out.
Substance
What is known as substance is the fundamental constituent of the universe. The sat, of the ancient Indian philosophical traditions, has taken the form of dravya (substance) later on. As a matter of fact, the philosophical traditions which regard the ultimate reality as one and unchangeable have adopted the world 'Sat' and those which consider the reality as many and changeable have used the word substance (dravya ), instead of 'sat. In the systems of Indian thought like Nyaya and Vaiseṣika etc. the use of the word substance (dravya ) or padartha remains in vogue. So far as the Jaina philosophy is concerned though we find the term dravya in Acaranga yet the word is not used in any technical sense.
In Uttaradhyayana, the word 'dravya' is mentioned for the first time. That particular chapter of Uttarādhyayana, where in dravya is discussed, is reg
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arded as relatively later, ofc. 2nd or 3rd A. D., by the scholars. There we find that not only the word dravya (substance) is used, but the mutual relation among the substance, attributes and modes are also discussed. Substance is defined as substratum of attributes (guṇāṇām savo davvo ). In my opinion, this definition of substance, given in Uttaradhyayana, seems to be influenced by the Nyaya-Vaiseşika school. Pujyapāda Devanandi defined substance as an aggregate of attributes in his commentary on Tattvärthasutra, known as Sarvärthasiddhi (c. 5th or 6th A. D.). This definition seems to be influenced by the Buddhist Skandhavada. In favour of this view Pujyapada has quoted 'gunṇāṇām samuo davvo' from the scriptures. This shows that this concept should have been prior to the c. 6th. Both the definition of substance as 'substratum of attributes' and 'aggregate of attributes' should have been in my opinion, prevalent before the c. 3rd. By synthesizing these two views through Jaina theory of Anekantavāda (non-absolutism) the substance is defined for the first time, as that which possesses attributes and modes in Umāsvāti's Tattvārthasutra.
Six-substances (Şaddravya )
We have already stated that the concept of saddravya (six substances) has been developed from the idea of pañcästikäya. By adding 'time' as an independent substance in pañcastikāya, the concept of six substances (saddravya ) is formulated. Though from c. 2nd-7th A. D., 'Time' was always a matter of discussion whether it is an independent substance or not (as it is indicated in several works from Tattvärthasūtra to Vileșăāvasyakabhāṣya ), yet finally it was accepted as an independent substance. It was c. 7th A. D. when both the Svetambara and Digambara traditions agreed to accept the idea of saddravya and no change occurred in the theory afterwards. The six substances are now classified into the following three main divisions —astikāya-anastikāya, jiva ( living ),
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ajiva ( non-living ) and murta-amūrta. In the first jivāstikāya, one of the kāyas in pañcāstikāya. The six classification - dharma, adharma, ākāśa, jiva and kinds ofjivāstikāya are — earth (prthvikāya ), water pudgala - these five are regarded as astikāya and (apkāya ), air (vāyukāya ), fire ( tejas-kāya ), 'Time' as anastikāya ( unextended substance ). In the vegitation ( vanaspatikāya ) and mobile beings second classification dharma, adharma, akāśa, pud- (trasakāya ). The use of the word kāya (body) for gala and kāla are regarded as Ajiva ( Non-living earth etc. is found since remote past. In Palitripitaka beings ) and the Jiva is considered as living being. In Ajitakeśa-kambali, calls prthvi, ap, tejas and vāyu – the last classification jiva, dharma, adharma, akaśa the four bhūtas as kāya but Pakudhakaccăyana adds and kāla are regarded as amūrta (abstract) and three more to the list, i.e., happiness ( sukha ), pudgala ( matter ) as mūrta (concrete ). We have sufferings (duḥkha) and the living being (jiva ) and already stated that the development of the concept of make them seven in number. The Jainas position is a substance in the Jaina philosophy is almost influen- little different. First they regard the five - jiva, ced by the Nyāya-Vaišeșika philosophy. Jainācāryas dharma, adharma, akāśa and pudgala as kāya have synthesised the Vaiśeșika idea of substance with (astikāya ) and then include prthvi, ap, tejas, vāyu, their own concept of pañcāstikāya. As such while in vanaspati and trasa , six in all, under jivanikāya. Thus, Vaiseșika there are nine substances, the Jainas, by there are two concepts — pañcāstikāya and sadjivaadding time to pañcāstikāya have made them six in nikāya and both of them have been prevalent in all. Jiva, akāśa and kāla remained common in both. Jainism in thec. 4th-3rd B. C. in their crude form, but Pithvi, ap, tejas and marut – the four, out of the five were developed and systematised in c. 3rd-5th A. D. mahābhūtas which are regarded as substances in the
Distinct references of sadjivanikāya are avaiVaseșika are not recognised by the Jainas as indepen
lable in the first chapter of Ācārānga and in Sūtradent substances. They are only considered as varie
krtänga also. It is accepted by all the scholars that all ties of jiva-dravya. The Jainas have also not accepted
these scriptures are of the c. 4th B. C. and are conte'dik' and 'mana' as independent substances, instead
mporary to the older part of Pāli Tripitaka and earlier they have included three others - dharma, adharma
Upanişadas. It is likely that these concepts might and pudgala in their scheme of substances. It may
have belonged to Mahāvira. also be noted that while the other traditions have treated prthvi, ap, vāyu and agni as jada (non
The concept of pañcăstikāya basically belongs living ), the Jainas regard them as living. Thus, the to the Pārsva tradition. It is recoginsed in the tradition Jaina concept of six substances (saddravya ) seems to of the Mahāvira also while interpreting the world. be quite original. We can only find its partial simi- There is a reference in the Bhagavati sütra to the effect larity with other traditions. The main reason behind that Mahāvira has accepted the Parsva ideas that the this is that the Jainas have developed their idea of six universe is made of Pascāstikāya. substances ( şaďdravya ) on the line of their own
I do not agree with Pt. Malvania's opinion that theory of pañcāstikāya.
the concept of pañcāstikāya is a later developed Şadjivanikāya
concept. It is true, of course, that in the earlier works Along with pañcastikāya, we also find the of Mahavira's tradition there is mention of only şadconcept of sadjivanikāya ( six-fold living beings ) in jivanikāya and not of pañcāstikāya. But when the Jaina canons. This concept has developed from Pārsva tradition merged with that of the Mahavira,
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the philosophical ideas of the former also got their which they transmigrate from one Yoni to another and way in the latter. As such, the idea of pañcāstikāya the manner in which they take their food etc. A type was basically of Pārsva tradition, so it could find its of jivas are called anasyūta there. From this, we can place in Bhagavatisūtra after its merging in conclude that the idea of anantakāya ( infinite jiva in Māhāvira's tradition.
one body ) and pratyekakāya (Onejiva in one body) The Jainas regard, not only vegetation and came into existence in c. 3rd 4th. The decision as to other living beings but even earth, water, fire and air which of the creatures (jivas ) are to be included in too, as living beings. This is a very typical Jaina con- the two, three or the four sensedjiva, respectively is pt. In the other systems, such as Nyáva-Vaišesika also finalised afterwards. In Bhagavati, it takes the
se four elements are considered as maha - form of jiva-ajiva division, however, the concept has bhūtas and as such jada (unconscious, inanimate ). fully developed by the time of Prajapanā because Among the mahābhūtas, akāśa (space) is the only there we have detailed discussions on indriya, ahāra, element, regarded as non-living (ajiva ) in both the paryāpti etc. traditions (Jainism as well as Nyāya-Vaiseșika ).
After the c. 3rd an important change occurred That is why akaśa is included in pañcāstikāya but has in the classification of mobile and immobile being no place in sadjivanikāya in which only the other (trasa and sthāvara ). Right from Acāränga to four, viz., earth, water, fire and air are included. The Tattvārthasūtra, earth, water and vegetation are Jaina thinkers accept not only the life as dependent on regarded as immobile (sthāvara ) and fire, air and the earth, water and the like but also as living too. That is two, three, four and five-sensed living creatures as why the abstinence from violence towards earth, mobile (trasa). The last chapter of Uttaradhvavana. water, air, fire and vegetation is so prominently pres- Kundakunda's Pancāstikāyasāra and Umāsvāti's cribed in the Jaina Sadhanā, parti-cularly for the Tattvārthasutra confirm it. Afterwards not only earth, Muni's. The subtleness and the extre-me that we find
water and vegetation but all the one-sensed beings are in the observance of non-violence (Ahimsă ) in the
regarded as immobile. However, due to the moveJainism have their roots in the idea of sadjivanikāya.
ment seen in fire and air it becomes difficult to regard If we regard earth etc. under the category of the living them as immobile. The root cause of the problem was beings, it is but natural to abstain from their violence. that in those days the two or more sensed beings were
The conception ofşadjivanikāya in Jainism is called trasa, hence it was thought that other than two the oldest one. It is accepted as such from its origin to or more sensed beings all the one sensed beings are date. It is difficult to say that it has undergone any considered as sthāvara ( immobile ). This shows the fundamental change between c. 3rd-10th except that change which had taken place in the c. 5th-6th in the some important issues regarding their classification trasa-sthāvara classification, approximately. After have been raised and some detailed informations that in both the Svetămbara and Digambara sects, the about their body, their way of taking food, their concept of pañcasthāvara has found firm footings. It language, their classes, sub-classes etc. are depicted is noteworthy here that when air and fire are regarded in Prajñāpanā and Jivājivābhigama. According to Pt. as trasa, there is the use of the term udara (urala ) for Malvania there is a description in the second chapter trasa. In the beginning the criterion of classification of Sūtrakıtānga, known as Āhāraparijña, regarding of trasa-sthāvara is made from the point of view of the yonis in which jivas take the birth and the way in moveability of things, and as air and fire are
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moveable in nature they are thought of as trasa. The Jivasthāna, Mārgaņāsthāna, Gunasthāna have also moveable nature of vāyu is so apparent that it is developed. Wherever these topics have been discuscalled trasa, first of all out of five one sensed beings. sed in the Arga-Agamas such as Bhagavati etc. the By minute observations, it is seen that fire too has a reference has been made to Anga-bāhya Agamas tendency of gradual expansion through fuel so it is (External authorities such as Prajñāpanā etc. It also included into trasa (mobile). But the move-ment confirms that these theories are developed after the of water is regarded as possible only due to the low c. 2nd. First they are discussed in the Anga-bāhya level of the earth so movement is not its own nature. Āgamas and afterwards at the time of Valabhi-vācanā Therefore, water, like the vegetation is also taken as they are included in Arga-āgamas with the note that sthāvara ( immobile ). As the movement in air and for detailed discussions relevant Ariga-bāhya scripfire is inherent so these two are considered as trasa tures are to be seen. and other as stha varas. Further when the two or more Jaina Theory of Gunasthāna and its Developement sensed jivas are recognised as immobile (sthavara)
The doctrine of fourteen stages of spiritual the problem of reconciling this view with agamic development (Gunasthāna ) is one of the most popustatements arose. In the Svetambara schools this lar theories of Jainism. Except Samavāyānga, none of reconciliation is marked as the basis of the distin- the canonical work refers to this theory. Scholars are ction of labdhi and gati. From the standpoint of the of the strong opinion that the reference relating to labdhi, air and fire are viewed as immobile (sthāvara ) Gunasthāna found in Samavāyanga is an interpolabut viewed from the angle of movement (gati ) they tion incorporated at the time of second Valabhi remain mobile (trasa ). In the Dhavala commentary Council (c. 5th A. D. ). The Niryuktis are also silent of Digambara tradition (c. 10th ) the problem is about this theory, except the present edition of solved differently. It is said that the basis of calling Avasakaniryukti wherein, two gathās mention the air and fire as sthāvara, is not their movement but names of these fourteen Gunasthānas. This is remarktheir Nāma-karma origin. Jayasenācārya, the comm
able that till the time of Haribhadra's commentary on entator of pañcāstikāya of Kundakunda, solves the Avaśyaka Niryukti, these two gathās were not problem by making a distinction between niscaya- tinction between niscaya-
accepted as Nirvukti pathas as in his con
accepted as Niryukti gathās as in his commentary, he naya and vyavahāra-naya. According to him, the has clearly mentioned that these găthas has been earth, water and vegetation are included into pañca quoted by him from the Sangrahani-sutra. sthāvara because of their Nāma-karma origin, but air
It seems that till the c. 4th A. D. the concept and fire classification under pañcasthāvars are only
of these fourteen stages of spiritual development has from the practical point of view ( vyavahāra ). From
not come into existence. Umāsvāti's Tattvārthasūtra niścayanaya they are trasa as they actually appear to
throwing light on almost every aspect of Jaina philobe mobile. All these excercises really are worthwhile
sophy and religion including various stages of attempts to reconcile the differences, cropped of
spiritual development does not mention the fourteen during respective contentions of the ancient and the
Gunasthānas as such. The same is the case with its later scriptures.
auto-commentary. Though in the ninth chapter of the So far as the question of different classifica- Tattvārthasutra the author has mentioned four, seven tions of jivas are concerned they are crystalised and ten stages of spiritual development, yet he does during the c. 3rd-10th. In that period the concepts of not make any mention of these fourteen stages in it.
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Thus, we may conclude that the theory of the fourteen false attitudes like the taste of curd mixed with sugar, stages of spiritual development was not prevalent at which is neither sweet nor sour. This is the stage of the time of compilation of Tattvārthasūtra, otherwise, doubt. In this stage soul accepts neither the perverse Umāsvāti would have mentioned it.
attitude nor the right one. It remains in dilemma. These evidences show that the theory of
4. The fourth stage is aviratasamyagdrsti, a fourteen Gunasthānas came into existence after stage of right attitude without right conduct. Though Tattvārthasūtra, i.e., c. 4th A. D. For the first time, in this scheme of Gunasthāna it is considered to be this theory was introduced along with all its details, in the fourth stage, but in reality it is the first stage in the Puspadanta and Bhūtabali's Satkhandāgama (c. 5th upward journey of the soul towards its spiritual A. D.). After that it is discussed in Pūjyapāda's heights. It is the stage in which the soul gets the glimSarvārthasiddhi ( c. 6th A. D.) and Tattvārtha- pse of truth for the first time. At this stage the self bhāsya-tika of Siddhsenagani (c. 7th-8th ) in detail, knows right as a right and wrong as a wrong but due however, its pre-concept in the form of ten stages was to the lack of spiritual strength, inspite of the knowalready present in Ācārānganiryukti ( 22-23 ) and ledge and the will, he cannot abstain himself from the Tattvärthasūtra ( 9/47 ). From these ten stages of wrong path of immorality. spiritual development the theory of fourteen Guna
5. The fifth stage is known as deśavirata sthāna was conceptualised in c. 5th A. D.
samyagdrsti. This is the stage of right attitude with These fourteen stages are as follows:
partial observance and partial non-observance of 1. The first stage is called mithyādrști, i.e., moral code. A house-holder, who possesses right perversity of attitude. It is the lowest stage from vision and observes five aņuvratas, three gunavratas where the spiritual journey of soul starts. It is consi- and four siksāvratas, comes in this category. In this dered as a stage of spiritual development only be- stage one knows what is right and also tries to praccause in this very state the efforts for the attainment tise it, but one cannot have full control over one's of the right vision are made. The process of granthi- passions. At this stage there is only partial expression bheda occurs at the end of this stage. At this stage the of the energy of self-control. After attaining the soul, is in the grip of extreme passions ( anantā- fourth stage, if one develops spiritual strength and has nubhandhi kaṣāya ).
control over the second set of four passions, i.e. 2. The second stage is known as sāsvādana- apratyākhyāni-kaṣāya-catuṣka, one is able to attain samyagdrsti, i.e., to have a momentary taste of the this stage. right vision. This is an intermediate stage and it
6. In spiritual journey of the soul, the sixth occurs when soul falls from the right attitude towards
stage is called pramatta-samyata-gunasthāna. It is the false attitude. This stage is called sāsvādana
the stage in which the self observes right conduct samyagdrsti because in this stage soul has a taste of
fully. He observes five mahāvratas and other rules of right attitude or right version just as a person after
moral conduct of a monk, yet he has an attachment eating delicious dishes vomits and has a taste of those
towards his body and due to this attachement the dishes in that state of vomiting.
spiritual inertia is still there. This is the stage of self3. The third stage is technically known as control with spiritual inertia. At the end of this stage samyag-mithyadrsti. It is mixed stage of the right and the aspirant tries to subside or annihilate the third set
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of four passions and spiritual inertia and climbs the
9. The ninth stage is named as anivịttikarana, seventh ladder.
because the process of anivịttikarana operates in this 7. The seventh stage is the stage of self- stage. It is also known as bādara-sampardya gunacontrol and self awareness alongwith freedom from sthāna, because in this stage there is occasional possispiritual inertia, which is technically known as bility of the soul being effected by gross passions apramatta-samyata-gunasthāna. At this stage the self (bādara-samparāya ), although it has a power of conhas full control over his passions and observes the trol over them. At this stage, out of nine sub-passions, moral code without any negligence. This stage can be three types of sexual instinct subside and only six
d by overcoming the nine types of pramādas or instincts and subtle greed remain, but due to the unawareness and the three sets of four types of presence of sub-passions and subtle greed, a fear of passions. From this stage there are two ways open for attack by gross passions remain. At the end of this the upward spiritual journey of the soul. They are stage struggle for spiritual progress comes to an end technically known as upaśama-śreni and ksapaka- and the soul climbs the tenth ladder. śreņi. Upaśama-śreņi is the path of suppression or 10. This stage is named as sūksmasamparāyasubsidence while the Kasapaka-śreni is the path of guṇasthāna, because at this stage only the subtle form annihilation. The person, who climbs the ladder of of greed remains. This greed can be interpreted as the spiritual progress by suppressing his passions, is subconscious attachment of the soul with the body. bound to fall from spiritual heights but the person When this subtle attachment alongwith remaining who climbs up the ladder of spiritual heights through sub-passions is subsided or annihilated, the soul the annihilation of his passions ultimately attains ascends to the next stage. The soul, who has made his nirvāna or emancipation.
spiritual progress through the ladder of subsidence 8. The eighth stage of spiritual development
(upaśama-śreni) ascends to the eleventh gunasthāna is called apürvakarana. In this stage self attains a
and the soul, which take up the ladder of annihilation
and special purification and spiritual strength, and thus (kşapaka-śreņi ), climbs directly to the twelfth stage. becomes capable of reducing the duration and the 11. This stage is known as upaśāntamohaniyaintensity of the previously bonded karmas. At this gunasthana; because in this stage deluding karma stage soul performs the four processes of the karma - remains in the subsided form. It is the highest stage sthitighāta ( destruction of the duration of karmas ), for those who ascend through the ladder of subsirasaghāta ( destruction of the intensity of karmas ), dence or suppression. But ultimately the suppressed guna-sarikramana transformation of the quality of passions arise and disturb the tranquility of mind. The karmic matter ) and apūrva-sthitibandha ( bondage soul invariably descends from this stage either to the of an unprecedented kind of duration ). This total sixth, fifth or fourth or even first stage. This is process is technically known as apūrva-karana. In noteworthy that Jainism does not advocate the this stage the soul for the first time experiences the process of suppression of the passions for the spiritual spiritual bliss and tranquility and emotional disturb- progress. This view of Jainism is further supported by ances do not effect it much. At this stage the three sets the modern psychologists such as Freud etc. of four passions alongwith anger and pride of the
12. The twelfth stage in the spiritual developfourth set disappear, only subtle deceit and greed ment of the soul is called kşiņamoha-gunasthāna. In alongwith nine sub-passions (instincts ) remain. this stage deluding karma, which is the main obstruc
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tion in the spiritual progress, is completely destroyed. At the end of this stage the rest three ghati-karma, jäänavarana, darśanavarapa and antaraya are also destroyed and the soul ascends to the thirteenth stage.
13. This stage is known as sayogi-kevaliguṇasthāna. In this stage soul attains the four infinites, i.e., infinite knowledge, infinite perception, infinite bliss, infinite power and thus becomes omniscient. It is the highest stage of spiritual development. It is the stage of jivana-mukti of other systems of Indian philosophy. Only due to the existence of four non-destructive karmas, i.e., ayu (age), näma, gotra and vedaniya, soul remains in the body till the span of age determining karma is not exhausted.
14. This stage is named as ayogikevali-gunasthāna, because in this stage the omniscient soul controls its activities of mind, body and speech and thus prepares itself for the final emancipation. In this stage the remaining four non-destructive karmas are destroyed and the soul, after leaving the body, proceeds for its heavenly abode at the top of the universe
and lives their for time-infinite.
Three Stages of Spiritual Quest
There are two classifications of spiritual quest in Jainism - Theory of fourteen gunasthanas already discussed and the theory of three stages of spiritual developments. This second classification is based on Upanisadic classification of the soul. The Upanisadas have two, three and four-fold classification of the soul. In two-fold classification, the soul is of two kinds antaḥprajñāna and bahiṣprajñāna (Mandukyopanisad, 7) and in four-fold classification, four stages of the soul, are: (i) sleeping state, (ii) dreaming state, (iii) awakened state and (iv) transcendental state (Mandukyopanisad, 2/12). Similarly, in Jainism spiritual quest has been summarised in three stages (i) the extrovert self (bahirātmā), (ii) the introvert self (antarātmā) and
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(iii) transcendental self (paramātmā ). It is clear that in Jainism these three stages of spiritual quest are a later developed concept, because neither the canonical works nor the earlier works of Jaina philosophy of Umasvati, Siddhasena Divakara etc. refer it. In Digamabara tradition, for the first time we have a mention of these classification in Acarya Kundakunda's Mokṣaprabhṛta (4) then in the Pujyapāda's Samadhitantra (4), Svamikumāra's Kartikeyānuprekṣa (192) and Yogindu's Paramätmaprakāśa (13). In Svetambara tradition, Haribhadra has mentioned these three states of spiritual quest in his work:
These three stages are as under:
1. The extrovert self (bahirātmā): Possesses
perverse attitude hence consequently does not discriminates soul from body, regards the external thing as mine and takes keen interest in the worldly enjoyment.
2. The introvert self (antarātmā): The self, which possessess the right attitude and therefore, clearly distinguishes the soul from the body and the other external belongings is called an introvert self. It does not take interest in the worldly enjoyments, but meditates on one's own real nature and regards external belongings as alien to it. This has been further subdivided into three states (i) lower, (ii) middle and (iii) higher. The soul belonging to fourth stage of gunasthana is called lower introvert self. The soul belonging to the fifth or the sixth stage of guṇasthāna is called middle introvert self and the soul belonging to the seventh to twelfth gunasthana is called higher introvert self.
3. The transcendental self (paramātmā): The self, completely free from all sorts of impurities and passions such as aversion, attachment, pride, anger, deceit, greed, sexual desire and other sub-passions. According to Jaina tradition this type of self possesses four infinities, i.e., infinite knowledge, infinite perception, infinite bliss and infinte power. There are
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two categories of transcendental Self-(i) Arhatas cāritra ), (three jewels of Jainism ) which are equally and (ii) Siddhas.
recognised and well received in both of the sects of Three-fold Path of Liberation
Jainism - Svetāmbara and Digamabara alongwith
their sub-sects. The Jaina theory of bondage and liberation of the soul is unique in Indian philosophy. Jainism holds
Inc. 4th-5th the meaning of the constituents that jiva is bound by its own karmas. With every
of this three-fold path was reinterpreted. For example activity mental or physical and, however, subtle that
the term darśana used in Ācārānga, connoting the may be, the karma particles veils the soul and this is
meaning as 'to see' or 'to observe' got its new interprethe bondage of the jiva. Thus, the cause of the
tation in Uttarădhyayana as 'to believe' or 'to have bondage of the jiva is its own passionate activity of
faith' in categories ( tattvas ), Tattvärthasūtra also mind, body and speech. As the cause of the bondage
supports this meaning. Later on, this meaning of is the union of karma-matter with the soul, the libera
samyak-darśana was replaced by the meaning as to tion means the separation or complete annihilation of
have faith in Arhanta as a 'Deva', i.e., the object of these karma -particles, Jainism prescribes three-fold
worship, Nirgrantha as a teacher ( guru ) and religion path for attainment of liberation. This three-fold as non-violence or being benevolent to others. This concept witnessed gradual changes in it between meaning is still in vouge. c. 3rd-10th A. D. Ācārānga for the first time in its 6th
Similarly, the meaning of samyak-jñana or chapter, mentions triyāma, but as this term is used right knowledge also got some new interpretation. In there vaguely, it is quite difficult to derive any definite the earlier times Jaina thinkers held that the right meaning from it. That is why the commentators knowledge consists in knowing the things in its real explained it in different ways. Some explained it as nature alongwith its infinite facets. This right knowthree yamas, i.e., non-violence, truth and non- ledge is classified into five types in earlier Āgamas possession, while some took it as Right knowledge, as - ( i ) Matijñana -- the knowledge obtained Right faith and Right conduct. In my opinion, this through five senses and the mind. It includes both term connotes the meaning of non-violence (nikhitta- sense perception as well as rational and inferential danda ), reasonableness (prajña) and composure or knowledge, (ii) Srutajñana- the knowledge acquired equanimity of mind. Apart from this three-fold con- through language or through symbols and expresscept we find mention of four-fold path of liberation in ions or scriptural knowledge, (iii) Avadhijñāna -- Uttarădhyayana and Kundakunda's Pañcāstikāya. extra-sensory perception akin to clairvoyance, (iv) This four-fold path includes - Right attitude, Right Manahparyayajñana - reading the thought-waves of knowledge. Right conduct and Right penance. In others mind and (v) Kevalajñana - perfect knowSamavāyānga and Sthānānga, we find different out- ledge. The detailed description about the developlook as the both of the works mention two-fold, three- ment of these types of knowledge has already been fold, four-fold and five-fold path of liberation. Thus, discussed in the present article under the heading of till the canonical age the number of constituents of 'Jaina Theory of Knowledge'. the path of liberation was not fixed. For the first time Later on, Right knowledge was considered as in the Umäsvāti's Tattvärthasutra it was fixed as the knowledge of the seven categories (tattvas ), i.e., three-right knowledge (samyak-jñana ), right faith jiva ( living subtance), ajiva (non-living substance), (samyak-darśana ) and right conduct ( samyak asrava ( influx of karmic matter), samvara ( stoppage
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of the influx of the karmic matter), nirjară (stoppage of the accumulated karmic matter) and Mokṣa (complete annihilation of the karma and to remain in one's pure nature). But after thec. 3rd A. D. the meaning of right knowledge changed and it was held that right knowledge consisted in the discrimination between the self and not-self. The right knowledge is the knowledge of the pure self but the pure self can be known only through the reference to not-self. Thus, knowing the nature of the not-self and differentiating
it from the self is called the science of discrimination (bheda-vijana) and this science of discrimination constitutes the real meaning of right knowledge. Kundakunda (c. 6th A. D.) has made an exhaustive study of the science of discrimination in Samayasara (207-210). He says anger, deceit etc. are due to the power of fruition of the karmic matter, hence not the real nature of the self. The self is the pure knower. In
Iştopadeśa (33) of Pujyapada Devanandi (c. 6th A.
D.) it is mentioned that right knowledge is that in which a clear distinction between the self and not-self is made. Amṛtacandra also followed the same meaning of right knowledge in his works. He says 'he who is liberated (siddha) has become so, through discrimination of self from not-self and who is in bondage, is so due to its absence (Samayasarakalasa, 132). Thus, in Jainism during c. 6th-10th A. D., the right knowledge is equated with this science of discrimination of self and not-self which as a right knowledge was well accepted in Jainism as well as in Gita, Sankhya-Yoga system and Sankara-Vedanta also.
In Jainism right conduct has been described from two points of view real and practical. In the earlier agamas from real point of view right conduct is considered in which the soul is completely free from passions and perversities. It is the state of equanimity of mind. In Jainism, it is maintained that conduct is dharma, dharma is equanimity and equanimity means the state of self which is free from the
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vectors of attachment and aversion. From practical point of view right conduct means the adoption of such rules of disciplines as prescribed by the Jinas.
thinkers on the basis of its two aspects -- external and Later on, right conduct is considered by Jaina internal. These two aspects are technically called dravya and bhava respectively. In Jainism external rightness of an action is to be decided in relation with other living beings. In other words, external rightness of an action depends upon its outer social results. If
an action results in the well being of others or cultivates social good from the practical or extrinsic viewpoint, it is called good or right. But the intrinsic purity
or righteousness of an action depends on the intention or motive of the doer. It is purity of intention or motive and not the external result, that makes an action intrinsically good or bad. In earlier times extrinsic aspect was more important for Jainas. In
Sutrakṛtānga the Buddhist view is criticised on the
basis that they neglect the external aspect of an action. Later on, stress was given on intrinsic aspect by Jaina themselves. It is considered that an action is wrong if it is actuated by a bad intention, may it lead to the
happiness of others. But we must be aware of the fact that Jainism being an integral philosophy does not hold any one-sided view, it gives due importance to the intention as well as the consequences of an action. It adds due imporatnce to the social aspects of morality. Jainas do not believe in the dualism of thought and action. For them a right action is the proof of mental purity and the mental purity is the basis for the righteousness of an action. This outlook about the righteousness of the conduct remained unchanged in the later times also. One should be aware of the fact that the general code of conduct for an house-holder as well as for monks and nuns remained the same from the earliest time to the c. 10th but with the passage of time some changes occurred in the interpretation of such rules.
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In fact, the canonical works have mere skel- were accepted in earlier code of conduct. Secondly, ton of rules and regulations of conduct, it is only in this period is considered very important as most of the Bhasya (c. 6th A. D.) and Carnis (c. 7th A.D.). the Jaina sects emerged in this period during c. 4thJaina thinkers tried to robe this skelton. They gave not 5th A. D. This period is known as the period of only the various interpretations to the rules and regu- Schism in Jaina history. Three important Jainalations for the monks and nuns as well as for the lay Sects - Digambara, Svetāmbara and Yapaniya have followers, according to their time and circumstances, their origin in this period. This is also to be noted that but discussed in detail their exceptions and atone- before c. 2nd 3rd A. D., the code of conduct of Jaina ments also. In the earlier times, it was maintained that ascetics was very rigorous but from the c. 3rd 4th instead of breaking the rules prescribed for self- many exceptions-relaxations were accepted in their control, it is better to accept the Samadhimarana, but earlier code of conduct. in those centuries it was maintained that one should
The distinguished feature of this age was that protect one's self by all means. A monk or a nun who by this period Jaina ascetics started living in the protected his life by accepting or resorting to the temples and mathas instead of living in outskirts of exception was not considered the guilty of breaking the cities and secluded places. Not only this but insthe rules if his mind was pure. In Oghaniryukti ( 47- tead of following the vow of non-possession, in its 48 ), it is said that for the proper following of the path true spirit, Jaina monks became the owner of these of liberaton, protection of body is essential. Thus, in
temples, mathas and the properties donated to the these centuries accepting the exceptions was favoured.
temples. It was only this period when tradition of So far as the developments or the changes in Caityavāsa, i.e., living in the Jina temples or mathas the ethical code of conduct of monks and nuns are started. Due to the tendency of Caityavāsa Jaina concerned, the period from c. 3rd-10th A. D. must be monks became liberal to some extent in their code of considered of much importance on the two grounds. conduct. They started leading luxurious life ins-tead Firstly, in the c. 4th-5th A. D. a major diversion took of rigorous one. Inspite of these drawbacks of this place in the code of conduct of Jaina monks and nuns. period one thing is very remarkable that most of the Before this said period Jaina sādhanā meant self- important Jaina literature was composed as well as purification, hence exclusively individualistic, but by written in this period. It is noteworthy that in this these centuries, instead of self-purification, stress was period (c. 4th-5th A. D.) writing of the Jaina canons laid on the propagation as well as survival of Jainism as well as other works on palm-leaves was started. in the society. As a result, instead of individual, Jaina The Bhattārakas and Yatis made better efforts to preorder ( sangha ) became more important. It was main- serve the treasure trove of Jaina literature. They offertained that at any cost, the image of Jaina order (Jaina ed the medical services not only to Jaina society but society as a whole ) should not be damaged and for to the other people also. Thus, inspite of, some weakthis purpose external behaviour was considered of ness in following the religious code of conduct of much imporatnce than that of internal purification. A Jaina monks, they got favour of Jaina society at large slogan had been given that an action though pure, if due to their benevolent services to the society. against the general will, should not be followed. Not Development of the Concept of Tirthankara only this, but to maintain the dignity of Jaina sangha and Bhakti Movement in Jainism and propogation of Jaina religion various exceptions
The concept of Tirtharikara is the pivot,
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around which the whole Jaina religion revolves. In Jainism, Tirthankara is regarded as the founder of religion as well as the object of worship. Generally, the Jaina concept of Tirthankara resembles that of incarnation (avatāravāda) of Hinduism. Both carry the same object as they are propounders of religion but there is a fundamental difference in both of the concepts. According to Gita, the purpose behind the incarnation of God is to propound religion and to destroy the wicked while in Jainism Tirthankara is only regarded as propounder of religion, not the destroyer of wickeds. Not only this, the second fundamental difference between avatāra and Tirthankara is
that, in former the supreme power or God descends on earth to reincarnate himself in different forms in different ages and in this way, He is the one and only person who reincarnates himself from time to time, on the contrary, in Jainism every Tirthankara is a differ-ent person (Soul) and on account of his special personal efforts (sadhanā) made in previous births, attains the supreme position. Though, it is very difficult to say that in this entire hypothesis of twenty-four Tirthankaras and twenty-four Avataras, who has taken
to what extent from whom but it is fact that in the process of development of their concepts both have influenced each other.
The word Tirthankara is being used from time immemorial. It mainly connotes the meaning as one who eastablishes four-fold order (caturvidha sangha). According to the old Buddhist literature, such as, Dighanikaya and Suttanipata (at the time of Buddha and Mahavira) there were flourished several persons who declared themselves as Tirthankaras. Dighanikaya mentions the Jñataputra Mahavira as one of the six Buddha's contemporaneous Tirthankaras. Though, it seems quite amazing because the first Śrutaskandha of Acaranga and Sūtrakṛtänga, elaborately describing the life of Mahavira, do not call him as Tirthankara. It shows that these agamic texts are
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more older than that of Dighanikaya. In the whole Jainagamic literature, the word 'Tirthankara' is used for the first time in Uttaradhyayana and in second part of Acaranga. Words like Arhat, Jina, Buddha are frequently used in excessive form in the old Agamas, the synonyms of Tirthankara. Presently, the word Tirthankara has become a specific term of Jaina tradition.
Chronologically, the concept of Tirthankara came into existence betweenc. 3rd-1st B. C. So far as
the fully developed concept of Tirthankara is concerned, the first complete list of Tirthankaras is found in the appendix of the Samavayanga which was incorporated at the time of Valabhi council, i.e., c. 5th A.D. Among Jaina agamas the first part of Acaranga, considered as the oldest extant Jaina text (c. 5th B. C.), mentions the ascetic life of Mahavira only. Sutrakṛtänga which describes some special features of Mahavira's life only hints about Parsva's
tradition. Rşibhāsita mentions Pārsva and Vardhamāna
(Mahavira) as Arhat Rși. The second part of Acaranga, for the first time describes Mahavira as Tirthankara alongwith some details of his parents, mentioning them as Parsvapatya. Uttaradhyayana clearly mentions some of the life-incidents of Tirthankara's like Aristanemi, Päriva and Mahavira, whereas it indicates only the name of Ṛṣabha, Śanti, Kunthu and Ara. Similarly, the Namipavajja, the 9th chapter of Uttaradhyayana, elaborately describes the facts about Nami but it does not mention Nami as Tirthankara. Even in Kalpasitra, there are some details about the life of Mahavira, Parkva, Aristanemi and Rṣabha out of twenty-four Tirthankaras. Remaining names of second to twenty first Tirthankaras, seem to be incorporated in the list of Tirthankaras, later on in c. 4th-5th A. D. In Digambara tradition earliest description about 24 Tirthankaras is found for the first time in Tiloyapappatti, which is supposed to be composed after c. 5th A. D. So far as iconographical
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evidences are concerned only images of the four the development of devotionalism and ceremonial Tirtharkaras - Mahāvira, Pārsva, Ariştanemi and performances in Jainism, started fromc. 3rd 4th A. D. Rşabha -- are found during c. 3rd B. C.-1st A. D. In this period, the Hindu system of ceremonial The images of other Tirthankaras are of later period, perfomance and worship was adopted in Jainism with i.e., after c. 2nd 3rd A. D. This suggests that the minor changes. Starting from the period of Lord concept of 24 Tirtharkaras came into existence only Pārśva and Mahăvira upto the c. 2nd A. D., the after c. 3rd. With the development of the concept of śramaņic tradition in gene-ral and Jainism in Tirthankaras the system of their worship ( Pūjā- particular joined hands in the development of new paddhati ) also came into prominence.
spiritualistic Hinduism, through condemning all sorts Jainism emerged as an ascetic religion. Initia- of ceremonial as well as sacri-ficial performances lly, it laid more stress on austerity and meditation. In alongwith Vedic sacerdotalism, but Jainism itself the beginning all sorts of ceremonial or sacrificial started imitating blindly the Hindu rituals in c. 3rdperformances (karmakanda ) were totally absent in it. 4th, and thus a variety of ceremonial offerings came It was only a religion of self-purification. In Āgamas
into existence in the Jaina religious practices. This there are no traces of ceremonial performances or any
blind adoption of Hindu practices occured not only in system of idol worship or religious adoration, asking
Svetāmbara and Yāpaniya tradi-tion of Northern for the grace of God. In Jaina tradition, for the first
India but in the Digambara sect of South India also. time the six essential duties ( sadāvasyakas ), i.e.,
As a result, not only the Vaişnava system of worship practice for equanimity ( Sāmāyika ), praising twenty
and ceremonies started in the Jaina temples but four Tirtharkaras (Caturviméati stavanapaving sacrificial offerings and ladles became prevalent.
carvas (vandan). atonement of blemi. Due to these influences of Hindu caste system and shed activities (pratikramana ), mortification (kāyo- untouchability also paved their way in Jainism. Jaina tsarga ) and taking some vow (pratyakhyāna ) were lay-devotees started wearing brahmanical sacred introduced.
thread (yajñopavita ) and perforining sacrifices and
sacrificial ladles. Ācāraya Jinasena (c. 8th A. D.) Most probably, inc. 2nd-3rd B. C., these six
had adopted all the Hindu sanctifying rites essentials ( sadāvaśyakas) got ordained and esta
( samskāras ), with some modifications in his work blished. Archaeological evidences emphatically show that in Jaina tradition, making of the Jaina images was started in c. 3rd 4th B.C., but no evidence Following blindly, the Hindu mantras of found about the modes of worshipping these idols, worshipping, Jaina lay devotees started invoking and particularly in ancient Āgamas. For the first time, departing the Tirtharkaras in their Pūja ceremonies, Rāyapaseniyasutta mentions the rituals of worshipp- while according to the Jaina philosophy the Tirthaing of Jina-image. A comparative study proves that it rikaras neither come nor depart after final emancipawas only an adoption of Hindu method of worshipp- tion, as well as they may not be adored as the object of ing their dieties. Though, some of the portions of worship for the worldly attainment, as they are free Rayapaseniyasutta are undoubtedly old, but the from all types of attachment and aversion (vitarāga ). portion which deals with the art of temple building But a lay-devotee always remains in search of such a and rituals relating to the worship is still older and diety who can save him from worldly calamities and belongs to the c. 3rd 4th A. D. To me, it appears that help him in worldly attainments. For this purpose
Adipurăņa.
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Jaina ācāryas accepted several Hindu godesses like images was prevalent in c. 4th B. C. The earliest Kali, Mahakali, Padmāvati, Ambika, Siddhayika, etc. Jaina image, found from Lohānipur, Patna, belongs to as demi-goddesses ( Yaksis ). They accepted various Mauryan period (c. 3rd B. C.). Several Jaina images rituals and incantations for worshipping these alongwith epigraphs have been found from Mathurā goddesses. Thus, in between c. 5th-8th A. D. several and remains of Jaina temples from Kankālițila. Hindu gods and godesses became part and parcel of Among those, the earliest images date from c. 2nd B. Jaina deities. The special feature of this age was that C.-2nd A. D. Many of these images are found with performing arts like Dance, Music etc., which were dated epigraphs of Kuşāņa period, i. e., c. 1st-2nd A. strongly opposed in earlier āgamas, such as Uttarā- D. So far as the literary evidences are concerned, we dhyayana strongly expounds all sorts of dances as for the first time, find in Rāyapaseniyasutta, the vexation and songs as lamentation, are cropped in details of temple architecture and the rituals related to Jaina system of worship, gradually. This description idol-worship. The Rayapaseniyasutta is undoubtedly of fine arts in Rāyapaseniya, as a part of Jaina way of an early work, and its portion dealing with temple worship was incorporated in about the c. 5th A. D. at architecture and various performing arts, by no means, the time of Valabhi-vācanā. This depicts a complete can be of later period than c. 3rd A. D., because its picture of gradual development of fine arts like various incarnations (avatāras ) tally with the archaSculpture, Dance, Music, Drama etc. in Jaina tradi- eological remains of c. 1st-2nd of Kankālițila, tion. When the Tantrism and Vāmamārga came in- Mathurā. vogue in c. 5th-6th A. D., Jainism could not save it
Though the development of various secular self from the impact of these traditions. Being ano
arts and sciences was a movement, independent of ascetic and spiritual religion, Jainism was not much
any religious tradition, yet it may be noted that religiaffected with Vāmamārga but Tantrism and ceremo
ous traditions not only contributed in their developnial performances of Hinduism definitely left their
ment, but also decided the direction of development. impact on it.
Jainas believe that various arts and sciences were Development of Various Arts & Architecture in developed by Lord Rşabha, the first Tirtharikara. In Jainism in Early Period
Jaina canonical literature 64 arts of women and 72 Archaeological evidences emphatically show arts of men are mentioned. We have a general that in Jaina tradition the making of Jaina images reference to these arts / sciences in Satrakrtānga, strated in c. 4th-3rd B. C. Though, on the basis of Jñatādharmakatha, Antakyddaśā, Samavāyānga, Harappan Teracotas and seals some Jaina scholars Anuttaraupapātikadaśā, Rayapaseniyasutta, opine that tradition of making Jaina images is as old Jambūdvipaprajñapti, etc. Though in these canonical as the Harappan culture, yet it is very difficult to works we do not find any details about these yet on prove these teracotas and seals as of Jaina origin. the basis of these works and their commentaries Dr. Later, in the Khārvela epigraphs (c. 2nd B. C. ) it is N. L. Jain, in his book ( Scientific Contents in Prākṣta clearly mentioned that Nandas (c. 4th B. C.) had Canons, P. V., Varanasi, 1996 ) has presented the taken away the Jaina images from Orissa to Patna following list of various arts and sciences prevalent in which is enough to prove that the making of Jaina c. 2nd-3nd A. D.
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Different Types of Learning Arts and Sciences in Various Canons
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legal
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SK Number of Learnings
64 1. Terrestriology (Storms ) 2. Meterology 3. Dreamology 4. Astrology 5. Science of Limbal Movement 6. Science of notes (birds ) 7. Palmistry 8. Science of Distinctive marks in body 9. Science of Women Studies 10. Science of Men Studies 11. Science of Horses (Training & Management) 12. Science of Elephants ( Training & Management) 13. Science of Cows and Oxen 14. Science of Sheep 15. Science of Poultry 16. Science of Portridge 17. Science of Quails 18. Science of Young Quails 19. Science of Royal Wheels 20. Science of Royal Umbrella 21. Science of Royal Sceptre 22. Science of Swords 23. Gemology (Precious Stones) 24. Science of Coinage, Cowries or Special Gems 25. Science of Shieldings 26. Science of Prosperity 27. Science of Fiascos 28. Science of Natural or Acquired Conception 29. Science of Stimulation 30. Atharva-vedic Incantation 31. Science of Jugglery/Magic 32. Science of Oblation with Fire 33. Archery 34. Science of Moon
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35. Science of Sun 36. Science of Venus 37. Science of Jupiter 38. Meteorology 39. Science of Glow of Horizon 40. Science of Notes of Animals 41. Science of Notes of Special Birds 42. Prognostics of Dust-falls 43. Prognostics of Hair-falls 44. Prognostics of Meat-falls 45. Prognostics of Blood-falls 46. Science of Goblins 47. Science of Semi-goblins 48. Science of Sleeping 49. Science of Unlocking 50. Candalic Learning/Psychotherapy 51. Shabari ( Kiratana ) Language 52. Dravida ( Tamila ) Language 53. Kalingi (Oriya ) Language 54. Gauri (A specific cardiolic) Language 55. Gandhari Language 56. Science of Descending 57. Science of Ascending 58. Science of Yawning 59. Science of Sustainance 60. Science of Embracing/Clinging 61. Science of Dispeptisation 62. Science of Surgery and Medicine 63. Demonology/De-demonology 64. Science of Invisibility/Disappearance 65. Art of Writing 66. Mathematics 67. Dramatics 68. Vocal Music 69. Instrumental Music 70. Science of Musical Notes, Phonetics 71. Science of Percussion Instruments 72. Science of Orchestra
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73. Art of Gambling 74. Special type of Gambling Art of Speech 75. Art of Playing by Dice 76. Art of Playing by Special Dice 77. Art of Quick Poetics/Guarding City 78. Water Purification/Ceramics 79. Food Science/Agriculture 80. Art of Soft/Medicated Drinks 81. Textiles and Fabrication 82. Cosmetics and Perfumery 83. Science of Bed-dressing 84. Art of Composing Arya-metrics 85. Art of Riddlery Poetics 86. Magadhan Language Poetics 87. Art of Comp. Non-samskrta 32 Letter Poetics 88. Art of Comp. Gitikā-meter Poetics 89. Art of Comp. Anuştup-meter Poetics 90. Chemistry of Silver 91. Chemistry of Gold 92. Art of Goldsmithy 93. Women Cosmetisation 94. Building/Architectural Engineering 95. Town Planning 96. Construction of Army Barracks 97. Science of Measures 98. Astrology/Medicine/Military Science :
Counter movement of Army Art 99. Military Science : Arraying of Army 100. Cyclic Arraying of Army 101. Garudic Arraying of Army 102. Wedge Arraying 103. General Fighting 104. Wrestling 105. Intense Fighting 106. Sight Fighting/Stick Fighting 107. Fist Fighting/Boxing/Pugilistic Fighting 108. Hand-to-Hand Fighting 139. Creeperlike Fighting
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110. Art of Divnie Arrows/Transformation 111. Art of Swordsmanship 112. Silver Digest ( Pak) 113. Gold Digest ( Pak ) 114. Metal Digest 115. Jewel-Gem Digest 116. Rope Tricks 117. Circular Play-tricks/Playing with Fabrics 118. Special Type of Gambling ( Nalika-khela ) 119. Art of Piercing Leaves 120. Art of Drilling Hard Earth 121. Art of Animation/Inanimation 122. Science of Omens/Omenology 123. Sc. of Dramatic Dressing/Painting 124. Science of Planet Rahu 125. Planetology 126. Town Planning 127. Army Barracking 128. Horses Training 129. Elephant Training 130. Knowledge of Special Learning 131. Science of Incarnation 132. Science of Knowing Secrets 133. Science of Direct Knowing About Objects 134. Planetory Motion/Science of Military
Movements 135. Chemistry of Perfumes 136. Art of Flowering/Tasting of Foods/ Art of
Wax-technique 137. Counter Arraying of Army 138. Art of Home Construction 139. Powder Technology 140. Art of Inanimation 141. Agriculture 142. Science of Architecture
Total
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Conclusion
dvāras and doctrine of Syadvāda and Saptabhangi To conclude, I would like to mention here have developed gradually in due course of time. some of the specialities of early Jainism. Though Barring the concept of Saptabhangi, fourteen Guņaearly Jainism was much rigorous in its code of sthānas and six types of Pramāņas, all other concepts conduct yet on the other hand it was very liberal in its of Jaina metaphysics and epistemology took their approach. The earliest Jaina canonical works, Sutra- shape before c. 2nd-3rd A. D. It is the Tattvārthakịtänga and Rşibhășita not only incorporate the sūtra of Umāsvāti and its auto-commentary (c. 3rd preachings of the various sages of Upanisadic, A.D.) in which Jaina philosophy for the first time, Buddhists and some other Śramanic traditions, but was presented in a systematic form. But it was not the call them Arhat, Rşis, as acceptable to their own last stage of the development of the Jaina philosophy, tradition. Furthermore, Sutrakrtānga, propounding since various new definitions and details about these this liberalism, says "One who praises one's own concepts were formulated even after this period views as true and condemns others view as false dis- which I would like to discuss in the second volume of torts the truth and remains confind to the cycle of this project. In developing their own philosophical birth and death." It was the non-violent, liberal and system, Jaina thinkers while on the one hand, have assimilating approach of early Jaina thinkers which accomodated various philosophical concepts of other gave birth to the non-absolutism (Anekantavāda ), contemporary Indian schools, on the other hand they the fundamental principle of Jaina philosophy. On the synthesised the various contradictory theories of basis of this principle early Jaina thinkers built their Indian schools of thought in such a way that the conphilosophical structure and developed their meta- tradictions are completely dissolved in the non-abphysical and epistemological theories in which they solutistic broader perspective. It is the most important tried to reconcile beautifully the rival views of Indian contribution of early Jaina thinkers to the Indian philosophy. Whether it was the question of philosophy. metaphysical theories or the epistemological prob
But in the process of adopting the thoughts lems of Philosophy, they always tried for the recon
and practices of other Indian systems, particularly ciliation of the opposite conflicting views.
Hinduism, caste-system, untouchability, wearing of Though, some of the basic concepts of Jaina sacred thread and various other rituals also creeped Philosophy such as Pañcastikāyavāda, eight types of their way in Jainism. As a result spiritualistic Jainism karmagranthi and five-fold knowledge were prevalent became ritualistic. Though it was a later development even before the times of Lord Mahāvira or of Lord (c. 6th-7th A. D. ) yet, it no doubt had given some Pārsva, but the concepts such as three-fold nature of scratches to the ideal spiritualistic image of Jainism. reality, six substances, two-fold and seven-fold divi- It was necessary, perhaps, for the survival of Jainism sion of Nayas, four-fold Niksepas, different Anuyoga- in the middle centuries of Indian history.
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Brāhmaṇic and Śramaņic Cultures : A Comparative Study
We cannot appreciate Indian culture completely without understanding its different constituents. i.e. Jainism, Buddhism, and Hinduism. So, one thing must be clear in our mind that studies and researches in the field of Indology are not possible in isolation. In fact, Jainism, Buddhism, and Hinduism are so intermingled and mutually influenced that to have a proper comprehension of one, the understanding of the others is essential.
However, two distinct trends have been pre dominating in Indian culture from its earliest days, known as Brahmanic and Sramanic. No doubt, these two trends are distinguishable but at the same time we must be aware of the fact they are not separable. Though on the basis of some peculiarities in theory, we can distinguish them yet in practice, it is very difficult to divaricate them because neither of the two remained uninfluenced by the other. The earlier Sramanic trends and its later phases, Jainism and Buddhism, were influenced by the Vedic tradition and vice a versa. The concept of tapas or austerity, asceticism, liberation, meditation, equanimity and non-violence, earlier absent in the Vedas, came into existence in Hinduism through Śramanic influence. The Upanisadas and the Gită evolved some new spiritual definitions of Vedic rituals. Both are the representatives of the dialogue taken place in Sramanic and Vedic traditions.
The Upanişadic trend of Hinduism is not a pure form of Vedic religion. It incorporated in itself various Sarmanic tenets which gave a new dimension to Vedic religion. Thus, we can say that our Hinduism is an intermingling of Vedic and Sramanic traditions. The vioce raised by our ancient Upanișadic Rsis, Munis and Sramanas against the ritualistic and worldly outlook of caste-ridden Brähminism, became more strong in the form of Jainism and Buddhism along with other minor Sramanic sects. Infact, the Upanişa- dic trend as well as Jainism and Buddhism provided refuge to those fed up with Vedic ritualism and the worldly outlook on life. Not only Jainism and Buddhism but some other sects and schools of Indian thought such as Ājivakas and Samkhyas also adopted more or less the same course towards Vedic ritualism. However, Jainism and Buddhism were more candid and vehement in their opposition towards Vedic ritualism. They outrightly rejected animal sacrifices in yajñas, the birth-based caste-system and the infallibility
of the Vedas. In Mahavira and Buddha, the most prominent preachers (exponents), we find the real crusaders; whose tirade, against caste-ridden and ritualistic Brähminism, touching a low water-mark and crumbling under its inner inadequacies, gave a severe jolt to it. Jainism and Buddhism came forward to sweep away the long accumu-lated excrescence, grown on Indian culture in the form of rituals, casteism, and superstitions.
But we shall be mistaken if we presume that in their attempt to clear away the dirt of Vedic ritualism, Jainism and Buddhism remained untouched. They were also considerably influenced by Vedic rituals. Ritualism, in the new form of Tantric practices, crept into Jainism and Buddhism and became part and parcel of their religious practices and mode of worship. With the impact of Hindu Tantricism, Jainas adopted various Hindu deities and their mode of worship with some changes, which were suited to their religious temperament but were alien to Jainism in its original form. The Jaina concept of Sāšana Devatā or
Yakşa-Yakṣis is nothing but a Jaina version of Hindu deities. As I have pointed out earlier, the influence has been reciprocal. This can be demonstrated by the fact that on one side Hinduism accepted Rşabha and Buddha as incarnation of God while on the other Jainism included Rāma and Krsna in its list of Salākā Purusas. A number of Hindu Gods and Goddesses were accepted as consorts of Tirthankaras such as Sarasvati, Lakşmi, Kali, Mahākāli, Cakreśvari, Ambikä, Padmăvati and Siddhika.
The moot point I intend to make is that different religious traditions of our great Indian culture have borrowed various concepts from one another and that it is the duty to study and highlight this mutual impact, which is the need of the hour, and thus bridge the gulf existing between different religious systems.
Though it is true that the Sramanic tradition, in general and Jainism and Buddhism, in particular have some distinct features discriminating them from the Vedic or Brāhmaṇic tradition, yet they are not foreigners. They are the children of the same soil who came forward with a spitit of reform. It is sometimes mistakenly thought that Jainism and Buddhism were a revolt against Brămhanism. Western scholars in particular maintain this notion. But here I would like to say that it was not revolt but reform. In fact. Vedic
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Aspects of Jainology Volume VI
and Sramanic traditions are not rival traditions as some Western and Indian scholars think. There seems to have been a deliberate effort to create a gulf between Jainism and Buddhism on the one hand and Hinduism on the other, by Western scholars. Unfortunately some Indian scholars, even Jaina scholars, also supported their views but in my humble opinion this was a step in the worng direction. It is true that śramanic and Vedic taditions have divergent views on certain religious and philosophical issues; their ideals of living also differ considerably. But this does not mean that they are rivals or enemies of each other. As passions and reason, śreya and preya, in spite of being different in their very nature, are the components of human personality, so is the case with Sramanic and Vedic tradi- tions. Though inheriting distinct features, they are the components of one whole Indian culture. Jainism and Buddhism were not rivals to Hinduism, but what they preached to the Indian society was an advance stage in the field of spirituality compared to Vedic ritualism.
If the Upanișadic trend, in spite of taking a divergent stand from Vedic ritualism, is considered part and parcel of Hinduism, what is the difficulty in measuring Jainism and Buddhism with the same yardstick? Again if Samkhyas and Mīmāmsakas, Advaitists and Dvaitists, in spite of having different philosophies and pathways, belong to the Hinduism, why not Jainism and Buddhism? If the Upanişa- dic tradition is considered an advance from Vedic ritualism to spirituality, then we have to admit that Buddhism and Jainism have also followed the same path with a more enthusiatic spirit. They worked for the betterment of weaker sections of Indian society and redemption from priesthood and ritualism. They preached the religion of common men, founded on the firm footing of moral virtues rathor on some external rituals.
Today, researchers in the field of Jainology need a new approach to reinterpret the relationship between Jainism, Buddhism, and Hinduism -- particularly the Upanişadic trend -- in the light of ancient Jaina texts such
as Ācārārga, Sūtrakstārga, and IŠibhāşiyāim. I am confidant that an impartial and careful study of these texts will remove the misconception that Jainism and Hinduism are rival religions. In Acārānga we find a number of passages similar to those of the Upanişada in word, style as well as in essence. Ācārānga mentions Sramana and Brāhmana simultaneously. This proves that for the preacher of Ācārānga, Sramana and Brāhmana are not rival traditions as they were considered later on. In Sūtrakstăriga we find mention of some Upanişadic Rşis such as Videhanami, Bähuk, Asitadevala, Dvaipāyana, and Pārāśara. They were accepted as the Rsis of their own traditions though they followed a different code of conduct. Sūtrakrtänga addresses them as great ascetics and great men (maha-puruşa) who attained the ultimate gole of life, i.e. liberation.
Rşibhāşita, considered as the part of a Jaina canon, also mentions the teachings of Nārada, Asitadevala, Angiras, Parāśara, Aruna, Nārāyana, Yājñavalkya, Uddälaka, Vidura, and others. They have been called Arhat Rşis. Its writing in the Jaina tradition is sign of the tolerance and openness of Jainism on the one hand. On the other hand it shows that the stream of Indian spirituality is one at its source. irrespective of their division later into the Upanişa-dic, Buddhist, Jaina, Ajivaka and other rivulets. This work is a clear proof of the assimilative and tolerant nature of Indian thought. Today, when we are deeply bogged down in communal separatism and strife, this great work could be an enlightening guide.
Thus, the position, these Upanişadic Rşis held in early books of Jainism, is clear evidence that the stream of Indian spirituality is one at its source. We cannot have a proper understanding of these trends if we treat them in isolation. Acārārga. Sūtrakstānga and Rşibhāşita may be understood in a better way only in the light of the Upanişad as and vice a versa. Similarly, the Süttanipāta, Dhammapada, Thergăthā, and other works of the Pali canon may be properly studied only in the light of the Präksta Jaina canons and the Upanişadas.
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Samatva Yoga: The Fundamental Teaching of Jainism and Gitä
Ours is the age of tremendous growth of knowledge and scientific discoveries. Paradoxically, at the same time, we can call it also the age of anxiety and mental tension. Our traditional values and beliefs have been eroded by this growth of scientific knowledge. We know more about the atom than the values needed for a meaningful and peaceful life. We are living in a state of chaos. Our life is full of anxiety, excitement, emotional disorder and value-conflicts. In this age of anxiety American people alone are lavishly draining out more than 10 billion dollars per annum on wine and other alcoholic drugs. Today, what is needed for man is the mental peace and the capacity for complete integration with his own personality and with his social environment. This can only be achieved through the practice of samatva, i.e. mental equanimity or calm disposition. The theory of samatva yoga has been preached in India more than two thousand years ago by Lord Mahavira and Lord Kṛṣṇa.
Concept of Samatva in General
The concept of samatva is the cardinal one of Jainism and Gītā. It pivots the ethics of Jainism and Gitā. In English, we can term it as excellent blend of equality, equilibrium, harmony, integration and rightness. But none of these terms depict the true meaning of the word samatva and the exact sense in which it is used in the context of Indian philosophy, hence better to use it without translating it into English. The word samatva has different meanings in different contexts. Sometimes it means a balanced state of mind, undisturbed by all kinds of sorrows and emotional excitements, pleasures and pains and achievements and disappointments. Sometimes it refers to the quality of a personality, completely free from the vectors of aversion and attachment, or that with mental equilibrium (am or f). The word samatva also denotes the feeling of equality with the fellow-beings (39 g) Loosely speaking, it also conveys the meaning of social equality and social integration. Ethically, the term sam or samkyak suggests rightness (). We must be aware of the fact that in all its different imports the term samatva is associated with some kind of mental psychological state, having some impact on our social and individual adjustment.
Concept of Samatva in Jainism
In a Jaina text Vyakhyāprajñaptisūtra there is a conversation between Lord Mahavira and Gautama. Gautama asks Mahavira: "What is the nature of soul?" Mahavira answers, "The nature of soul is samatva (зAIŞC)" Gautama again asks, "What is the ultimate end of soul?", Mahavira replies; "The ultimate end of soul is also samatva ( आयाए सामाइस्स अट्ठे).
This view, the real nature of soul is samatva, is further supported by Acarya Kundakunda. In his famous work Samayasara he deals with the nature of soul. Probably, he is the only Jaina Acarya who used the word samaya or Samayasara instead of Atman or Jiva. The Acarya has purposely used this word for Atman. So far as I know, no commentator of Samayasara has raised the question as to why Kundakunda and used the word samaya for Jiva or soul. I think the word 'samaya' may be a Prakṛt version of Samskrt word :: which means one who has the quality of samatva. Further, the word Samayasara may also be defined in the similar fashion. It can be concluded, therefore, that one who possesses samatva as his essential nature is called samayasāra (समत्वं यस्य सारं तत् समयसारं ). ācārya Kundakunda also equated the word 'samaya'with svabhāva or essential nature. He used the words sva-samaya and para-samaya. Sva-samaya means inner characteristics and para-samaya means resultant characteristics. Sva-samaya has been explained as an ultimate end. In this way, according to Kundakunda too, the nature and ultimate end of soul is samatva. Further more, according to the Jaina Ethics the way through which this ultimate end can be achieved is also samatva, known in Prakrit as sǎmaiya (1) or samähi (f). In this way, the three basic presuppositions of Jaina Ethics, the moral agent (), the ultimte end (E) and the path through which this ultimate end can be achieved (f), are equated with the term samatva. In Jaina ethics end and means are not external to the moral agent, but part and parcel of his own nature and potentially present in him. Someone may ask : "What is the difference between a siddha and a sadhaka"? My humble answer to this question is that the difference between those two is not qualitative but quantitative in nature. It is a difference between capability and actuality. By means of sadhana, we
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can exhibit only what is potentially present in us. That is the whole process of sādhana is the transforming of capability into actuality. According to the Jaina tradition, if samatva is not our real intrinsic nature, we cannot achieve it by means of sadhanā, because sādhanā is nothing but a practice of samatva. The three-fold path, of right knowledge, right belief and right conduct, depends entirely on the concept of samatva for its rightness. The three-fold path is only an application of samat va to the three aspects of our conscious activities, i.e. knowing, feeling and willing. According to the Jain Ethics, samatva should be a directive principle of the activities of knowing, feeling and willing
Concept of Samatva in Gită
The Ethics of Gitä also is solely based on the concept of samatva. The words sama and samatva and their various forms occur in Gītā more than hundred times. The Gītā cntains many references, suggesting that the real nature of God is sama and so on. The Gītā equates sam with Brahman, the ultimate reality. Acārya Sankara explained this by showing an identity between sam and Brahman, while Rămănuja and others interpret that the sam is the quality of Brahman. But for our present purpose it hardly makes any difference. The Gītā mentiones that the God the aṁsi (3izit) of which, we are aṁsa (3131), exists in the heart of every individual as a quality of samatva. Not only this but the way through which we can realise that ultimate reality of God is also samatva-yoga. In this way, the three basic presuppositions of the Ethics of Gītā- the moral agent, the ultimate end and the path through which this ultimate end can be achieved, are also equated with the term samatva.
How can we reconcile the views of jñāna-yoga, karmayoga and bhakti-yoga without any common element? My humble suggestion is that only with the concept of samatva we can reconcile these different view-points, because samatva is a common reconciling factor. Though the question why samatva-yoga is to be considered as the main theme of Gītā?'is still un-answered, I would like to submit some arguments in support of my view that the Gita is a treatise of samatva-yoga.
(1) In the Gită the term yoga has been used at many places and in different contexts, we have only two definitions of yoga in the whole of Gītā. The first one is 'Samatvam yoga ucyatel (auca u soud) and the second one is 'yogah Karmasu Kausalam' (योगः कर्मसु कौशलम्). But the second one cannot be considered as a categorical definition of yoga it is only a conditional or a relative definition, because the term Karmasu shows a condition. It only tells us that with reference to certain activity (DH), the skill ful performance is to be called yoga. But this is not the case with the first one. It may be considered a categorical definition of yoga. it simply states that mental equilibrium is to be called yoga.
(2) Secondly, in the 6th chapter of Gītā Lord Krsna told Arjuna 'Thou must be a yogi because a yogi is superior to janin, karmin and tapasvin'; The question is what type of yoga does Krsna want to teach Arjuna? It can neither be a jñāna-yoga nor a karma-yoga for the simple reason that here yogi is considered superior to jñanin and karmin. I think here Krsna is asking Arjuna to practise samatva yoga which is the supreme yoga.
(3) Thirdly, the concepts of jñāna, karma and bhakti interit their value by samatva only. It is the 'samatva' which gives them value and validity. Without samatva they are like a cheque or a paper currency, having no intrinsic value of its own. In the absence of samatva, jñāna can be a mere knowledge of scriptures but not jñana-yoga, and the same is true with karma and bhakti also.
(4) Fourthly, jñāna, karma and bhakti are the mere means for realization of ultimate end, namely, God. But samatva is not only a means but an end itself. It is not for some thing else which stands outside of it. I think according to the Gită the sam, the brahman and God are one. Thus, we can say that the concept of samatva is the sole basis of the ethics of the Gitā.
Gitā as a treatise of samatva yoga
A question may be asked why samatva-yoga is to be considered as the fundamental concept of Gitā. Among the commentators of Gītā, there is a serious controversy; whet- her it is a treatise of jñāna-yoga or bhakti-yoga or karma yoga. Among these commentators, Sankara is the supporter of jñāna-yoga. To him the knowledge alone can lead us to the realization of ultimate reality, the Brahman, While Rāmānuja and others held the view that it is only Bhakti through which we can realise God. Tilaka and Gandhi supported a third view that fundamental teaching of Gītă is, neither jñana-yoga nor bhakti-yoga but karma-yoga. Dr. Rādhakrsnan and some others have tried to bring out harmony among these divergent views. But I think the basis on which we can reconcile these views is still missing.
Organic Basis of Samatva Yoga
What is the justification in saying that our essential
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Samatva Yoga : The Fundamental Teaching of Jainism and Gitā
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way, we can say that the concept of samatva has a sound basis for its justification in our organic and psychological nature.
nature and our aim of life is samatva, or that samatva should be the directive principle of our life? What is the ground for its justification? To answer these questions, first of all we must understand the human nature. By human nature I mean his organic and psychological make-up. What do we mean by a living organism? By living organism we mean an organism that has a power to maintain its physiological equilibrium. In Biology, this process has been known as Homeosytasis, which is considered as an important quality of a living organism. The second essential quality of a living organism is its capacity of adjustment with the environment. Whenever a livng organism fails to maintain its physiological equilibrium and adjust itself with its environment it tends towards death. Death is nothing but failure of this process. It follows where there is life, there are efforts to avoid unequilibrium to maintain equilibrium.
Psychological basis of Samatva
Nobody wants to live in a state of mental tension. We like no tension but relaxation, no anxiety but satisfaction. This shows that our psychological nature is working for a mental peace or a mental equilibrium. Freud accepts that there is a conflict between our Id and Super ego but at the same time he agrees that our ego or conscious level is always working to maintain an equilibrium or for the adjustment between these two poles of our personality. It is a fact that there are mental states such as emotional excitements, passions, and frustrations, but we cannot say that they are our intrinsic nature because they do not exist for their own sake; they exist for satisfaction or expression. Secondly, they owe their existence to some other external factors. An important process of our personality is the process of adjustment and adjustment is nothing but a process of restoring peace, harmony and integration. In this
Samatva as a Directive Principle of Living
Some one may remark that the Darwinian theory of evolution goes against the concept of samatva. Darwin presented a theory of the evolution of life, in which he suggested that 'Struggle' for existence is the basic principle of living. Apparently, it is true that there is a struggle for existence in our world and nobody can deny this fact. But . due to certain reasons, we cannot call this as directive principle of life. To the question; "Why is it so?" my. humble answer is that first of all this theory is selfcontradictory because its basic concept is subsisting on others, that is, 'living by killing'. Secondly, it is opposed to the basic human nature and even animal nature to some extent. Struggle is not our inner nature (FHTA AHU) but it is only a resultant one. It is imposed on us by external factors. Whenever we have to struggle we do it out of necessity and not out of nature, and what is done in compulsion cannot be a guiding principle of our life, for it does not emanate from our inner nature. Thirdly, it goes against the judgements of our factulty of reasoning and the concept of natural law. If nobody has right to take my life, then on the ground of the same reasoning I have no right to take another's life.
The theory of 'live on others', is against the simple rule that all living beings or human beings are potentially equal. According to Lord Krsna the concept of equality and union of all living being (31TH HOT) can give us a right directive principle of living with fellow-beings and according to Lord Mahāvira the directive principle of living is not 'live on others', but 'live with others' or 'live for others' (PRETIUUET 11-14-earf ).
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Jaina Concept of Peace
Peace : The Need of our Age
We are living in the age of science and technology. The advancement in our scientific knowledge has removed our religious superstitions and false dogmas. But unfortunately and surprisingly, side by side, it has also shaken our mutual faith and faith in moral virtues as well as religio-spiritual values. The old social and spiritual values of life, acting as binding on humanity and based on religious beliefs, had been made irrelevant by scientific knowledge and logical thinking. Till date, we have been unable to formulate or evolve a new value structure, so necessary for meaningful and peaceful living in society, based on our seientific and logical outlook. We are living in a state of total chaos. Infact, the present age is the age of transition, old values have become irrelevant, and new ones have not been yet established. We have more knowledge and faith in atomic structure and power than the values needed for meaningful and peaceful life. Today, we strongly rely on the atomnic power as our true rescuer and discard the religio-spiritual values as mere superstitions. Mr. D.R. Mehta rightly observed, "In the present day world with religion getting separated from daily life and spreading commercialisation killing (violence) has increased manyfold and sensitivity to (others) life whether animal or human has declined in proportion". For us human being is either a complicated machine or at least a developed animal, governed by his instincts and endowed with some faculties of mechanical reasoning. Thus, we have developed a totally materialistic and selfish outlook.
The advancement in all the walks of life and knowle- dge could not sublimate our animal and selfish nature. The animal instinct lying within us is still forceful and is dominating our individual and social behaviour and due to this our life is full of excitements, emotional disorders and mental tensions. The more advanced a nation, more stronger the grip of these evils of our age over it. The single most specific feature by which our age may be characterised is that of tension. Now a days not only the individuals, but the total human race is living in tension.
Though outwardly we are pleading for peace and non-violence yet by heart we still have strong faith in the law of the jungle, i.e. the dictum-- "might is right'. We are living for the satisfaction of our animal nature only, though we talk of higher social and spiritual values. This duality
or the gulf between our thought and action is the sole factor disturbing our inner as well as outer peace. Once the faith in higher values or even in our fellow beings is shaken and we start seeing each and every person or a community or a nation with the eyes of doubt, definitely, it is the sign of disturbed mentality.
Because of materialisitc and mechanical outlook our faculty of faith has been destroyed and when the mutual faith and faith in higher values of co-operation and co-existence is destroyed, doubts take pace. The doubt causes fear, fear gives birth to violence and violence triggers violence. The present violence is the result of our materialistic attitude and doubting nature. The most valuable thing, human race has lost in the present age, is none other than peace.
Science and technology has given us all the amenities of life. Though due to the speedy advancement in science and technology, nowadays, life on earth is so luxurious and pleasant as it was never before yet because of the selfish and materialistic outlook and doubting nature of man, which we have developed today, no body is happy and cheerful. We are living in tension all the times and deprived of, even a pleasant sound sleep. The people, materially more affluent having all the amenities of life, are more in the grip of tensions. Medical as well as psychological survey reports of advance nations confirm this fact. Tendency to consume alcoholic and sedative drugs is increasing day by day. It also supports the fact that we have lost our mental peace at the cost of this material advancement. Not only this, we have also been deprived of our natural way of living. S. Bothara maintains "What unfortunately has happened, is that the intoxication of ambition and success has made us forget even the natural discipline, which we, inherited from the animal kingdom". Because of the development of mental faculties we have not only denied to accept social or religious checkpost but we also have denied natural checks. Now our life-cart has only accelerator, no break. Our amibitions and desires have no limits. They always remain unfulfilled and these unfulfilled desires create frustrations. These frustrations or resentments are the cause of our mental tensions. Due to the light legged means of transportation, physical distances are no bars to meet the peoples of different nations, cultures and religions and thus, our world is shrinking. But unluckily and disdainfully because of the materialistic and selfish outlook, the distance of our hearts is increasing day by day.
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Jaina Concept of Peace
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Instead of developing mutual love, faith and co-operation we are spreading hatred, doubt and hostility and thus deprived of peace, mental as well as environmental, the first and foremost condition of human living. Rabindra Nath Tagore rightly observes, "For man to come near to one another and yet to continue to ignore the claims of humanity is a sure process of suicide".
Meaning of Peace in Jainism
The term peace has various connotations. It can be defined in different ways from different angles. Intrinsically peace means a state of tranquility of mind. It is the state in which self rests in its own nature, undisturbed by external factors. Peace means soul devoid of passions and desires. Acārānga, mentions that an aspirant who has attained peace has no desire. Peace means cessation of all desires. Sütraktārga equates it with Niravānai.e., the emancipation from all desires, in other word, it is the state of self- contentment or total subjectivity i.e. the state of pure Seer. Acäränga maintains one who is aware of peace will not fall in the grip of passions. While defining peace, Saint Thomas Aquinas has rightly maintained the same view. He says, "peace implies two things first our self should not be disturbed by external factors and secondly, our desires should find rest in one i.e. the self"6. This inner peace can also be explained from negative and positive view-points. Negatively, it is the state of the cessation of all the passions and desires. It is the freedom from the vectors of attachment and aversion. Positively, it is the state of bliss and self contentment. But we must remember that these positive and negative aspects of inner peace are interdependent on each other, they are like the two sides of the same coin and they can not exist without each other. We can only distinguish them but not divide them. The inner peace is not mere and abstract idea, but it is something, which is whole and concrete. It represents our infinite self.
Now we turn to the external peace. While the inner peace is the peace of our self, external peace is the peace of society. We can also define it as environmental peace. In Jainism, the Prākrt word 'santi' -- Samskrta equivalent Kșānti, also means forgiveness. In Sütrakstānga, among ten virtues the first and foremost is forgiveness, the basic need for social peace. It is the state of cessation of wars and hostilities, among individuals, individuals and society, different social groups and nations, on the earth. So far as this outer peace or the peace of the society is concerned it
can also be defined in both ways negatively as well as positively. Defined, negatively it is the state of cessation of wars and hostilities. Positively and it is the state of harmonious living of individuals as well as societies and nations. It is the state of social co-operation and co-existance. But we must be aware of the fact that the real external peace is more than non-war. It is a vital peace. It is the state, free from mutual doubts and fears. So far as the doubts and apprehensions against each other exist, inspite of the absence of actual war, really. It is not the state of peace. Because where there is fear, the war exists. In modern world we term it as cold war. War is war, whether it is cold or actual, it disturbs the peace of society. Real external peace is only possible, when our hearts are free from doubts and fear and each and every individual has firm faith not only in the dictum 'Live and Let live'. but 'Live for other.'
According to Jaina Philosopher Umäsväti, "By nature living beings are made for other, (Parasparopagrahojīvānām)". So long as our hearts are full of doubts and fear and we do not have full control on our selfish animal instincts as well as firm belief in mutual co-operation and co-existence, real social peace on earth will not be possible.
Real peace dawns only if our hearts are full of universal love, which is something different from mere attachment, beacuse, for Jainas attachment is always linked with aversion. But universal love is based on the concept of equality of all beings and firm faith in the doctrine that by nature living beings are made for each other. We must also be aware of the fact that this external or environmental peace depends on the mental peace of individuals, since. our external behaviour is only an expression of our inner will and attitude towards life. Thus, we can say that the various aspects of peace are not mutually exclusive but inclusive. The peace of society or in other words the environmental peace is disturbed, when the inner peace of the individual is disturbed and vice versa. In my humble opinion hostilities and wars are the expressions and outcomes of sick mentality. It is the agressive and selfish outlook of an individual or a society that gives birth to confrontations among individual, individual and society as well as among different social or religious groups and nations. At the root of all types of confrontations and wars, which disturb our environmental peace, there lies the feeling of discontentment as well as will for power, possession and hoarding. Thus social disturbances, conflict and confrontations are only symptoms of our mental tensions or sick
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Aspects of Jainology Volume VI
revolves. In English the term 'Sämäiya' connotes various meanings such as equanimity, tranquility, equality, harmony and reghteousness, in different contexts. Sometimes it means a balanced state of mind undisturbed by any kind of emotional excitement, plasure or pain, achievement and disappointment, sometimes it refers to the personality, completely free from the vectors of aversion and attachment, i.e. a dispassionate personality. These are the instrinsic definitions of 'Samatā or Santi'. But when this word is used extrinsically it means the feeling of equality with all the living beings and thus it conveys social equality and social harmony.
mentality.
In fact, the peace of society depends on the psychology or mental make-up of its members, but it is also true that our attitude towards life and behavioural pattern is shaped by our social environment and social training. The behavioural pattern and mentality of the members of non- violent society will surely be different from that of a violent society. While on the one side social norms, ideals and conditions affect the mental make-up and behavioural pattern of the individual, on the other side there are also individuals, who shape the social norms, ideals and conditions.
Though, it is correct that in many cases disturbed social conditions and environmental factors may be responsible for vitiating our mental peace, yet they can not disturb the persons, strong spiritually. According to Jainism spiritually developed soul remains unaffected at his mental level by external factors. But on the other hand disturbed mental state necessarily affects our social and environmental peace. Thus, for Jainas the inner peace of the soul is the cause and that of the society is the effect. Modem tension theory also supports this view. A book namely 'Tensions that causes Wars' tells us that 'economic inequalities, insecurities and frustrations create groups and national conflicts', but for Jainas economic inequalities and feeling of insecurities can not disturb those persons, who are self- contented and free from doubts and fears. So far as the frustrations are concerned they are generated by our ambitions and resentments and can be controlled only by extinction of desires. Therefore, we must try first to retain inner peace or the peace of soul.
In Jaina texts, we find certain references about the importance and nature of peace. In Sūtrakrtānga, it is said that "as the earth is the abode for all living beings so the peace is the abode for all the enlightened beings of past, present and future". These souls having attained the spiritual heights always rest in peace and preaches for peace. For Jainas peace means the tranquility or calmness of mind and so they equated the term peace (śānti) with the term equanimity or samatā. For them peace rests on mental equanimity and social equality. When mental equanimity is disturbed inner peace is disturbed and when social equlity is disturbed external or social peace is disturbed. Jainism as a religion is nothing but a practice for mental equanimity and social equality. For the same, they use particular Prākrta word 'sāmäiya' (samatā), the principal concept of the Jainism. It is the pivot around which the whole Jainism
Peace as the Ultimate Goal of Life
According to the Jaina thinkers, the ultimate goal of life is to attain peace or tranquility, our essential nature. In Acārangasūtra, one of the earliest Jaina canonical texts, we find two definitions of religion, one as 'tranquility' and other as non-violence. Lord Mahāvira mentions "Worthy people preached religion as tranquility or equanimity". This tranquility or peace of mind is considered as the core of religious practice, because it is the real nature of living beings, including human beings. In an another Jaina text known as Bhagavatisütra, there is a conversation between Lord Mahāvīra and Gautama. Gautama asked Mahāvīra "What is the nature of self and Mahăvira answered 'O Gautama' the nature of self is tranquility i.e. peace. Gautama again asked 'O, Lord what is the ultimate goal of self, Mahāvīra answered 'O, Gautama, the ultimate goal of self is also to attain tranquility or peace"!!
In Sūtrakstānga, the term peace is equated with emancipation!2. Thus, for Jainas peace, being an essential naturesva-svabhāva of self, it is considered as ultimate goal of life.
In Jainism, religion is nothing but a practice for the realisation of one's own essential nature or Sva-svabhāva which is nothing but the state of tranquility or peace of mind. This enjoying of one's own essential nature means to remain constant in Sākşibhāva i.e. to remain undisturbed by external factors. It is the state of pure subjectivity which is technically known in Jainism as Sāmāyika. In this state, the mind is completely free from constant flickerings, excitements and emotional disorders. To get freedom form mental tensions, the vibhāvas or impure states of mind, is the precondition for enjoying spiritual happiness which is also a positive aspect of inner peace. Nobody wants to live in a state of mental tensions, every one would like not tension but relaxation, not anxiety but contentment. This
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Jaina Concept of Peace
shows that our real nature is working in us for tranquility or mental peace. Religion is nothing but a way of achieving this inner peace. According to Jainism, the duty of a religious order is to explain the means by which man can achieve this peace : inner as well as external. In Jainism, the method of achieving mental peace is called as Sāmāyika, the first and foremost duty among six essential duties of monks and house-holders. Now the question arises how this tranquility (Samată) can be attained? According to the Jaina view-point, it can be attained through the practice of 'non-attachment'. For attachment is the sole cause of disturbing our inner peace or tranquility.
Non-Possession to reslove economic inequality
The attachment gives birth to desire for possession, occupation and hoarding, which is nothing but an expression of one's greedy attitude. It is told in Jaina scriptures that greediness is the root of all sins. It is the destroyer of all the good qualities. Anger, pride, deceit etc. all are the offshoots of attachment or mineness or greed. Violence, which disturbs our social and environmental peace, is due to the will for possession. In Sūtrakrtănga, it is mentioned that those having possession of whatever sort, great or small, living or non-living, can not get rid or sufferings and conflicts (1/1/2). Possession and hoarding lead to economic inequality, which cause wars, Thus, to achieve peace and the norm of non-violence in social life, the prime need is to restrict the will for possession mental as well as physical also, that is why Mahavira propounded the vow of complete non-possession for the monks and nuns, while for laity, he propounded the vow of limitation of possession (Parigraha Parimāņa) and vow of control over consumption (Bhogopabhoga Parimāņa). Jainism holds that if we want to establish peace on the earth then economic inequality and vast differences in the mode of consumptions should be atleast minimised. Among the causes of wars and conflicts, which disturb our social peace, the will for possession is the prime, because it causes economic disbalance. Due to economic disbalance or inequality, classes of poor and rich came into existence and resulted in class conflicts. According to Jainas, it is only through the self-imposed limitation of possession and simple living, we can restore peace and prosperity on the earth.
Attachment, the cause of mental tensions
As I have already mentioned that the most burning problem of our age is the problem of mental tensions. The nations, claiming to be more civilised and economically more advanced, are much more in the grip of mental tension. The main objective of Jainism is to emancipate man from his sufferings and mental tensions. First of all, we must know the cause of these mental tensions. For Jainism, the basic human sufferings are not physical, but mental. These mental sufferings or tensions are due to our attachment towards worldly object. It is the attachment, which is fully responsible for them. The famous Jaina text Uttarădhyayana-sutra mentions "The root of all sufferings- physical as well as mental, of every body including gods, is attachmnent towards the objects of worldly enjoyment. It is the attachment, which is the root cause of mental tension. Only a detached attitude towards the objects of worldly enjoyment can free mankind from mental tension"'). According to Lord Mahavira to remain attached to sensuous object is to remain in the whirl. He says "Misery is gone in the case of a man who has no delusion, while delusion is gone in the case of a man who has no desire; desire is gone in the case of a man who has no attachment". The efforts made to satisfy the human desires through material objects can be likened to the chopping off the branches while watering the roots. Thus, we can conclude that the lust for and the attachment towards the objects of worldly pleasure is the sole cause of human sufferings and conflicts.
If mankind is to be freed from mental tensions, it is necessary to grow a detached outlook in life. Jainism believes that lesser will be the attachment, the greater will be the mental peace. It is only when attachment is vanished, the human mind will be free from mental tensions and emotional disorders.
Non-Violence as means to establish peace
Tranquility is a personal or inner experience of peace. When it is applied in the social life or it is practised outwardly, it becomes non-violence. Non-violence is a social or outer expression of this inner peace. In Ācāränga, Lord Mahāvīra remarks, "The worthy men of the past, present and the future all say thus, speak thus, declare thus, explain thus; all breathing, existing, living and sentient creatures should not be slain, nor treated with violence, not abused, nor tormented. This is the pure, eternal and unchangeable law or the tenet of religion".
In orther words, non-violence is the eternal and pure form of religion. In Jainism, non-violence is the pivot round which its whole ethics revolves. For Jainas, violence represents all the vices and non-violence represents all the virtues. Non-violence is not a single virtue but it is a group
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Aspects of Jainology Volume VI
of virtues. In Praśnavyākaranasūtra the term non-violence is equated with sixty virtuous qualities, just as peace, harmony, welfare, trust, fearlessness, etc". Thus, non- violence is a wider term, which comprehends all the good qualities and virtues.
Non-violence is nothing but to treat all living beings as equal. The concept of equality is the core of the theory of non-violence. The observance of non-violence is to honour each and every form of life. Jainism does not discriminate human beings on the basis of their caste, creed and colour. According to Jaina point of view, all the barriers of caste, creed and colour are artificial. All the huamn beings have equal right to lead a peaceful life. Though violence is unavoidable yet it can not be the directive principle of our living. Because it goes against the judgements of our faculty of reasoning and the concept of natural law. If I think that nobody has any right to take my life then on the same ground of reasoning I have also no right to take another's life. The principle, live on others or 'living by killing' is self-contradictory. The principle of equality propounds that every one has the right to live. The directive principle of living is not 'Living on other' or 'Living by killing' but 'Living with other' or 'Live for others (Parasparopagrahojivānām)". Though, in our worldly life, complete non-violence is not possible yet our motto should be 'Lesser killing is better Living'. Not struggle but co- operation is the law of life. I need other's co-operation for my very existence and so I should also co-operate in other's living.
Further, we must be aware of the fact that in Jainism non-violence is not merely a negative concept i.e. not to kill; but it has positive side also i.e. service to mankind. Once a question was asked to Mahavira, 'O Lord, one person is rendering his services to the needy ones while other is offering Puja to you, of these two, who is the real follower because hs is following my teachings".
The concept of non-violence and the regard for life is accepted by almost all the religions of the world. But Jainism observes it minutely. Jainism prohibits not only killing of human beings and animals but of the vegetable kingdom also. Harming the plants, polluting water and air are also the act of violence or hissä. Because they disturb ecological balance or peace. Its basic principle is that the life, in whatever form it may be, should be respected. We have no right to take another's life. Schweitzer remarks "To maintain, assist or enhance life is good. To destroy, harm or hinder is evil". He further says. "A day may come when
reverence for all life will win universal recognition "20. "The Daśavaikālika mentions that every one wants to live and not to die, as we do, for this simple reason, Niggan thas prohibit violence". It can be said that the Jaina concept of non-violence is extremist and non practical, but we cannot challenge its relevance for human society. Though Jainsim sets its goal as the ideal of total non-violence, external as well as internal, yet the realisation of this ideal in practical life is by no means easy. Non-violence is a spiritual ideal, fully realisable only in the spiritual plane. The real life of an individual is a physio-spiritual complex; at this level complete non-violence is not possible. According to Jaina thinkers the violence is of four kinds : (i) deliberate (saṁkalpī) or aggressive violence i.e. intentional killing (ii) protective violence i.e. the violence which takes place in saving the life of one's own or his fellow being or in order to make peace and ensure justice in the society (iii) occupational i.e. violence which takes place in doing agriculture or in running the factories and industries (iv) and violence, which is involved in performing the daily routine work of house-holder such as bathing, cooking, walking etc. A person can proceed towards the fulness of non-violent life to the extent as he rises above the physical level. The first form of violence, which is deliberate, is to be shunned by all, because it relates to our mental proclivities. So far as the thoughts are concerned, a man is his own master, so it is obligatory for all to be non-violent in this sphere. External circumstance can influence our mind at this level, but they cannot govern us. From the behavioural point of view, deliberate violence is aggressive. It is neither necessary for self-defence nor for the living. So all can avoid it. The other forms of violence, i.e. protective and occupational are inevitable, so far as man is living on a physical level. But this does not mean that the ideal of non-violence is not practicable and so it is not necessary for human race.
The second form of violence is defensive which takes place in the activity of defence. It becomes necessary for the security of one's own life, the life of his fellow beings and the protection of property. External circumstances may compel a person to resort to be violent or to conter attack in defence of his own life or that of his companions or for the protection of his belongings. As those, who are attached to the physical world and has a social obligation to protect others life and property, are unable to dispense with this defensive violence. A person living in family is unable to keep away completely from this type of violence, because
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he is committed to the security of family members and does not stand on violence but on non-violence, not on their belongings. In the same way the persons, who are in claiming our rights but on accepting the rights of others as government can not get rid of it. For they are the custodians our duty. Thus, the non-violence, is an inevitable principle of human rights and national property, Prof. Murty also for the existence of human society. At present we are living maintains. "Aggressive and unjust wars have been in an age of nuclear weapons due to which the very existence condemned by Hindu, Buddhist, Jaina scriptures and of human race is in danger. Lord Mahavira has said in moralists, but they had to admit that defensive and just Acārārga that there are weapons superior to eact other, but wars may have to be undertaken without giving up maitrinothing is superior to non-violence?). Only the observance (friendliness) an karunā (compassion) for pepole of both of non-violence, can save the human race. Mutual credibility the sides"22
and the belief in the equality of all beings, can alone restore It is true that in our times Gandhi planned a non- peace and harmony in human society. Peace can be violent method of opposition and applied it successfully. established and prosperity can be protected on the earth But it is not possible for all to oppose non-violently with through non-violence and mutual faith-only. success. Only a man, unattached to his body and material objects and with heart free from malice, can protect his Regard for others ideologies and faith rights non-violently. Again, such efforts can bear fruits Fanaticism or intolerance is the another curse of our only in a civilized and cultured human society. A non- age. Jainism, since its inception, believes in and preaches violent opposition may be fruitful only if ranged against an for peace, harmony and tolerance. It has been tolerant and enemy, having a human heart. Its success becomes dubitable respectful towards other faiths and religious ideologies if it has to deal with an enemy having no faith in human throughout its history of existence. In Jainism, one hardly values and is bent upon serving his selfish motives by comes across with instances of religious conficts involving, violent means.
violence and bloodshed. Atmost one meets with instances As far as occupational violence and the violence, of disputations and strongly worded debates concerning taking place in routine-activities of the life, is concerned ideological disagreements. The Jaina men of learning, while everyone cannot shake it off. For, so long as a person has opposing the different ideologies and religious stand-points, to earn his livelihood and to seek fulfilment of his physical paid full regard to them and accepted that the opponents' needs, deliberate violence of vegitable kingdom is unavoi- convictions may also be valid from a certain stand-point. dable. In Jainism, intentional violence to mobile animals Among the causes, generating fanaticism and by a house-holder has been forbidden even when it becomes intolerance, the blind faith is the prime one. It results from necessary for the maintenance of life and occupation. So passionate attachment, hence is uncritical or 'unexamining far as the violence takes place in defensive activites and outlook. It causes perverse attitude. In Jainism, various wars, Jainas hold, that it should be minimised as for as it types of attachment are enumerated; among them darśanais possible and innocent persons should not be killed at any moha/drstirāga (blind faith), due to its very disposition, has cost. Jaina thinkers suggested various methods for non- been reackoned "Paramount". In point of fact, it is consideviolent wars and to minimise the violence in even just red central in religious intolerance. It leads one's attitude wars. The war, fought between Bharata and Bahubali was towards a strong bias for one's own and against other's an example of non-violent war.
religion. Non-attachment is, therefore, considered as a preThough some or other form of violence is inevitable condition for the right attitude or perception. A perverse, in our life yet we should not conclude that the observance hence defiled attitude renders it impossible to view the of non-violence is of no use in the present. Just as violence things rightly, just as a person wearing coloured glasses or is inevitable for living, non-violence is also inevitable for suffering from jaundice is unable to see the true colour of the very existence of human race. So far as the existence of objects as they are. "Attachment and hatred are the two human society is concerned it depends on mutual great enemies of philosophical thinking. Truth can reveal co-operation, sacrifice of one's interest for that of his fellow- itself to an impartial thinker" 24 beings and regard for others' life. If above mentioned One who is unbiased and impartial can perceive the elements are essential for our social life, how can we say truth in his opponent's ideologies and faiths and thus, can that non-violence is not necessary for human life. Society possess deference to them. Intense attachment unfailingly
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generates blind faith in religious leaders, dogmas, doctrines and rituals and consequently religious intolerance and fanaticism came into existence.
Jainism holds that the slightest even pious attachment, towards the prophet, the path, and the scripture is also an hindrance to a seeker of truth and an aspirant of perfection. Attachment, be it pious or impious, cannot go without aversion or repulsion. Attachment results in blind faith and superstition and repulsion consequences into intolerant conduct. The Jainas, therefore, laid stress on the elimination of attachment, the root cause of bias and intolerance.
Though, in Jainism, right faith plays an important role-- it is one of its three "jewels" - it is the blind faith, which causes intolerance. Jainism, therefore, does not support blind faith. Jaina thinkers maintain that the right faith should be followed by right knowledge. The faith seconded by right knowledge or truthful reasoning cannot be blind one. According to Jaina thinkers, reason and faith are complementary and actually there is no contention between the two. Faith without reason, as the Jaina thinkers aver, is blind and reason without faith is unstendy or vacilliating. They hold that the religious codes and rituals should be critically analysed. In the Uttaradhyayanasutra, Gautama, the chief disciple of Mahāvīra strongly supports this views before Kesi, the pontiff of the church of Jina Pārsva. Said he, "The differences in the Law must be critically evaluated through the faculty of reasoning. It is the reason which can ascertain the truth of Law"25
If one maintains that religion has to be solely based on faith and there is no place for reason in it, then he will unfailingly develop an outlook that only his prophet is the only saviour of mankind; his mode of worship is the only way of experiencing the bliss and the Laws or Commands of his scripture are only the right one hence he is unable to make a critical estimate of his religious prescriptions. While one who maintains that the reason also plays an important role in the religious life, will critically evaluate the pros and cons of religious prescriptions, rituals and dogmas. An 'attached' or biased person believes in the dictum 'Mine is true'. Acarya Haribhadra says, "I possess no bias for Lord Mahavira and no prejudice against Kapila and other saints and thinkers; whosoever is rational and logical ought to be accepted."26 Thus, when religion tends to be rational, there will hardly be any room for intolerance. One who is thoroughly rational in religious matters, certainly, would not be rigid and intolerant.
absolutism. An extremist or absolutist holds that whatsoever he propounds is correct and what others say is false, while a relativist is of the view that he and his opponent, both may be correct if viewed from two different angles hence a relativist adopts a tolerant outlook towards other faiths and ideologies. It is the doctrine of Anekantavada or nonabsolutism of the Jainas, the concept of religious tolerance is based upon. For the Jainas non-violence is the essence of religion from which the concept of non-absolutism Syadvad emanates. Absolutism represents "violence of thought", for, it negates the truth-value of its opponent's view and thus, hurts the feeling of others. A non-violent search for truth finds non-absolutism.
Non-absolutism of the Jainas forbids the individual to be dogmatic and one-sided in approach. It pleads for a broader outlook and an open mindedness, which alone can resolve the conflicts that emerge from differences in ideologies and faiths. Non-absolutism regard the views of the opponent also as true. Remarks Siddhasena Diväkara (C. 5th A.D.) "All schools of thought are valid when they are understood from their own stand-point and in so far as they do not discard the truth-value of others. The knower of non-absolutism does not divide them into the category of true and false. They become false only when they reject the truth-value of other."27 It was this broader outlook of non-absolutism which made Jainas tolerant.
While expounding this tolerant outlook of the Jainas, Upadhyaya Yasovijaya (C. 17th A.D.) mentioned "A true non-absolutist does not disdain to any faith and he treats all the faiths equally like a father to his sons. For, a nonabsolutist does not have any prejudice and biased outlook in his mind. A true believer of syadvada is that who pays equal regards to all the faiths. To remain impartial to the various faiths is the essence of being religious. A little knowledge which induces a person to be impartial is more worthwhile than the unilateral vast knowledge of scriptures."28
Jainas believe in the unity of world religions, but unity, according to them, does not imply omnivorous unity in which all lose their entity and identity, They believe in the unity in which all the alien faiths will conjoin each other to form an organic whole, without loosing their own independent existence. In other words, it believes in a harmonious co-existence or a liberal synthesis in which though all the organs have their individual existence, yet work for a common goal i.e. the peace of mankind. To
Dogmaticism and fanaticism are the born children of eradicate the religious conflicts and violence from the world,
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some may give a slogan, "one world religion", but it is neither possible nor practicable, so far as the diversities in human thoughts are in existence. In the Niyamasära it is said that there are different persons, their different activities or karmas and different levels or capacities, so one should not engage himself in hot discussions, neither with other sects nor within one's own sect."29
Haribhadra remarks that the diversity in the teaching of the sages is due to that in the levels of their disciples or in stand-points adopted by the sages or in the period of time when they preached, or it is only an apparent diversity. Just as a physician prescribes medicine according to the nature of patient, the illness and the climate, so is the case of diversity of religious teachings. So far as diversity in time, place, levels and understanding of disciples is inevitable, vividity in religious ideologies and practices is essential. The only way to remove the religious conflicts is to develop a tolerant outlook and to establish harmony among them. Thus, Jaina theory of Anekāntavāda prevents us from being dogmatic and one-sided in our approach. It preaches us a broader outlook and open mindedness, more essential in solving the conflicts owing to the differences in ideologies and faiths. Prof. T.G. Kalghatgi rightly observes "The spirit of Anekānta is very much necessary in society, specially in the present day, when conflicting
ideologies are trying to assert supremacy aggressively, Anekánta brings the spirit of intellectual and social tolerance."
For the present day society what is awfully needed is the virtue of tolerance. This virtue of tolerance i.e. regard for other's ideologies and faiths is maintained 'Jainism from its earlier time by these days. Mahāvira mentions in Sūtrakstānga those, who praise their own faiths and ideologies and blame that of their opponents and thus distort the truth, will remain confined to the cycle of birth and death." Jaina philosophers all the time maintain that all the view points are true in respect of what they have themselves to say, but they are false in so far as they refute totally other's view-points.
Jaina saints also tried to maintain the harmony in different religious-faiths and to avoid religious conflicts. That is why Jainism can survive through the ages.
The basic problems of the present society are mental tensions, poverty, violence, fundamentalism and the conflicts of ideologies and faiths. Jainism try to solve these problems of mankind through three basic tenets of nonattachment (Aparigraha), non-violence (Ahimasā) and nonabsolutism (Anekānta). If mankind collectively observes these three principles, peace and harmony can certainly be established in the world.
Reference 1. Bothara, Surendra, Ahimsa:, The Science of Peace,
Foreword, D.R. Mehata, p. XVII. 2. Ibid, p. 46. 3. David, C.W., The Voice of Humanity, p. 1. 4. Acărăng (Ayāro), Jaina Viśva Bharati Ladnun, 1/7/149. 5. Ibid, 214/96. 6. Encyclopaedia of Religion and Ethics, Vol. IX, p. 700. 7. Umasväti, Tattvärthasūtra, 5/21. 8. See, K.S. Murty, The Quest for Peace, p. 157. 9. Sūtrakrtānga(Suyagado), Jaina Viśva Bharati Ladanun, 1/
11/36. 10. Acărănga (Ayāro). Jaina Visva Bharati Ladanun, 1/8/3. 11. Bhagavatisütra (Bhagavai) Jaina Viśva Bharati Ladanun,
1/9. 12. Sätrakstānga (Suyagado) Jain, Viśva Bharati Ladanun,
1/11/11 13. Uttaradhyayanasūtra, ed. by Sadhvi Chandana, 32/19. 14. Ibid, 32/7-8. 15. Daśvaikäliksūtra (Dasaveäliyam) Jaina Visva Bharati
Ladanun, 5/37. 16. Ācāränga (Ayāro), Jaina Viśva Bharati Ladanun, 1/4/1. 17. Praśnavyākaranasūtra, Agama Prakasana Samiti Byavara,
2.1.21. 18. Umāsvāti, Tattvārthasūtra, 5/21. 19. Āvasyakavrtti, Ratlam, pp. 661-662. 20. See, Schweitzer, An Anthology, ed. C.R. Joy, pp. 248-83
Quoted by K.S. Murty, The Quest for Peace, p. 42. 21. Dasvaikälikasūtra (Ladanun), 6/10. 22. K.S. Murty, The Quest for Peace; Prologue, p.XXI. 23. Ācāränga (Ayāro) Jaina Viśva Bharati Ladanun, 1/3/4. 24. Tatia, N.M., Studies in Jaina Philosophy, P.V. Research
Institute, Varanasi, p 22. 25. Utträdhyayanasūtra, Sanmati Jñanapitha Agra, 23/25 26. Haribhadra, Lokatattva Nirnaya, Jaina Grantha Prakashaka
Sabha Ahmedabad, Verse 38. 27. Siddhasena, Sanmatiprakarna (Jnānodaya Trust, Ahmeda
bad), 1/28 28. Yašovijava, Adhyatmopanisat (Jainadharma Prakasaka
Sabha, Bhavanagar) 29. Kundkunda Niyamasāra, 155 (The Central Jaina Publishing
House, Lucknow). 30. Haribhadra, Yogadrsti Samuccaya, 133 (L.D. Institute,
Ahmedabad). 31. Vaiśāli Institute Research Bulletin, No. 4, p. 31. 32. Sütrakrtānga, (Suyagado), Jaina Viśva Bharati, 1/1/2/25
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Among the most burning problems, the world is facing today, religious fundamentalism and intolerance is the most crucial. The miraculous advancement in science and technology provided us light-legged means of transportation and communication. As a result physical distances have no bars to meet the peoples of different nations, cultures and religions. Our world is shrinking but disdainfully the distances of our hearts are widening day by day. Instead of developing mutual love, cooperation and faith, we are spreading hatred and hostility and thus ignoring the values of harmonious living and co-existence. The blind and mad race of nuclear weapons is a clear indication that the human race is proceeding towards its formidable funeral procession. Rabindranath Tagore rightly observed "For man to come near to one another and yet to ignore the claims of humanity is the sure process of suicide."' In the present circumstances, the only way out left for the survival of mankind is to develop a firm belief in mutual cooperation and co-existence. Religious harmony and fellowship of faiths is the first and foremost need of our age.
peace and happiness for the individual and to establish harmony within human socicty. However, as is known from history, countless wars have been fought in the name of the religion. The religion thus remains accused for the inestimable amount of bloodshed of mankind. Of course, it is not of the so-colled men of religion responsible for this horrible consequences. At present religion as such is largely shoved into the background or at best used in the service of political ideologies. If one belives that only his faith, his mode of worship and his political ideologies are the right means for securing peace and happiness for mankind, he cannot be tolerant to the view-points of his opponents. The immediacy, therefore, is to develop tolerance to and friendship for others. It is the only approach by which we can generate peace and harmony inside human society.
Can religion as a category, of which Jainism is a part, meet with this challenge of our times? Before this question can be answered we must make a distinction between a true and a false religion. Because a true religion never supports violence, intolerance and fanatical outlook and it cannot per se be made responsible for the ignominious acts committed in the name of religion by such religious leaders who want to serve their vested interest. The barbarity committed in the past and perpetrated in the present in the name of religion is due very largely to the intolerance and fanaticism of the so-called religious leaders and their ignorant followers.
The only way of freeing oneself from this sordid situation is to comprehend the true nature, indeed, to grasp the "essence of religion and to develop tolerance toward and respect for other's ideologies and faiths.
For the Jainas, a true religion consists in the practice of equanimity and its foundation is the observance of nonviolence. In the Acārārgasūtra, the earliest Jaina text (c. late 4th cent. B.C.), we come across these two definitions of religion: Equanimity is the essence of religion, while the observance of non-violence is its external exposition or a social aspect of religion. The Ācāränga mentions that practising of non-violence is the true and eternal religion.
Jainism, since its inception, believes in and preaches for peace, harmony and tolerance. It has been tolerant and respectful toward, other faiths and religious ideologies throughout its history of existence. In Jainism one hardly
Humanity as a Binding Force
Undoubtedly we belong to different faiths, religions and cultures. Our modes of worship as well as way of tiving also differ to some extent. There is also no denying the fact that our philosophical approaches and viewpoints are divergent but among these diversities there is a common thread of unity which binds all of us, and it is nothing except humanity. We all belong to the same human race. Unfortunately, at present, humanity as such is largely shoved into the background and differences of caste, colour and creed have become more important for us. We have forgotten our essential unity and are conflicting on the basis of these apparent diversities. But we must bear in our mind that it is only humanity which can conjoin the people of different faiths, cultures and nationalities. Jaina ācāryas declared the human race as one (egă manussa jäi)". The difference of caste, culture and creed are not only superficial but mostly the creation of man.
What is True Religion
The ultimate end in view of all religions is to ensure
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Religious Harmony and Fellowship of Faiths : A Jaina Perspective
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comes across instances of religious conflicts involving violence and bloodshed. At most one meets with instance; of disputations and strongly worded debates concerning ideological disagreements. The Jaina men of learning while opposing the different ideologies and religious standpoints, fully paid regard to them and accepted that the opponents' convictions may also be valid from a cretain standpoint.
Humanity as a true form of religion
First of all we are human being and then anything else i.e. Hindus, Buddhists, Christians, Muslims, Sikkhas, Jainas and the like. To be a real human being is a pre-condition for being a real Hindu etc. Our prime duty is to be a human in its real sense. This spirit is echoed in one of the earlier Jaina text Uttaradhyayana wherein Lord Mahāvīra has laid down four conditions for a true religious being. viz-1. Humanity 2. true faith 3. control over senses and 4. efforts for self-purification. Thus, we see that among these four conditions of a religious being, humanity occupies the first an the foremost position.
In Jainism religion is defined as a true nature of thing (Vatthu Sahavo Dhammo) and in the light of the above definition it can be said that humanity is the true religion of mankind. For, it is its essential nature. As a human being if we fail to behave like a human being, we have no right to call ourselves a religious being or even a human being. Bertrand Russell, the eminent philosopher and scientist of our age, suggests "I appeal as a human being to the human beings that remember your humanity and forget the rest. If you can do so the way lies open to a new paradise. If you cannot, nothing lies before you but universal death". And thus, I want to emphasize that humanity is our first and the foremost religion.
Fellowship means Unity in Diversity
Jaina thinkers assert that unity implies diversity. For them unity and diversity are the two facets of the same reality. Reality itself is unity in diversity. Absolute unity i.e. monism and absolute diversity i.e. pluralism, both of the theories are not agreeable to Jainas. According to them from the generic view point reality is one, but when viewed from modal view-point, it is many. Once a question was asked to Lord Mahāvira, O Lord! whether you are one or many. To this Mahavira replied," From substantial view point I am one, but if viewed from changing conditions of mind and body I am different each moment and thus many." This view is further elaborated by Ācārya Mallisena. He says "whatsoever is one, is also many?." Really, unity in diversity is the law of nature. Nature everywhere is one, but there is diversity in it, as the natural phenomena differ from each other, so is the case with human beings also. Though all the human beings have some common characteristics and features yet every individual-being differs from others and has some specific qualities. It is also true about religions. All the religions have some common characteristics sharing with others as well as specific qualities of their own. Universal virtues such as nonviolence, friendliness, service to the needy, truthfulness, honesty, control over senses, etc. are commonly shared by all the religions of the world. Unfortunately, at present, these common universal virtues which are the essence of religious practices have been shoved into the background and external rituals, which are divergent in their nature, have become more important. Thus, we have forgotten the essential unity of all the religions and are stressing their diversities.
I am emphasizing the essential unity of all the religions, this does not mean that I am the supporter of one world religion or undermining the specialities and diversities of them. What I intend to say is that the absolute unity and absolute diversity, both are illusory concepts and fellowship of faith means unity in diversity.
What is Humanity?
The question may be raised what we mean by the term humanity? The simple answer is, humanity is nothing but the presence of self-awreness reasonableness and selfcontrol. These three qualities are accepted as distinguishing features between a human being and animal being by all the humanist thinkers of our age. These three basic qualities are comprehended in Jaina concept of three jewels, i.e. Samyak-Darsana (right vision), Samyak-Jñāna cright knowledge) and Samyak-caritra (right conduct), respectively which also constitute the path of liberation. The presence of these three makes a being a perfect human being.
Co-operation as Essential Nature of Living Beings
For Jainas co-operation and co-existence are the essential nature of living beings. Darwin's dictum-'struggle for existence and the Indian saying- Jivojivasya bhojanam, that is 'life thrives on life' are not acceptable to them.
They maintain that it is not the struggle but the mutual co-operation is the law of life. Umāsvāti (4th century A.D.) in his work Tattvārthasūtra clearly maintains that mutual
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co-operation is the nature of living beings (parasparopa- graho Jivānām)'. Living beings originate, develop and exist with the co-operation of other living beings. So is the case with the human society also, its existence also depends on mutual co-operation, sacrifice of one's own interest in the interest of other fellow beings and regard for other's life, ideology, faith and necessities. If we think that other's services are essential for our existence and living, then we should also co-operate in others living.
If we consider taking the help of others in our living as our right, then on the same ground of logic it is our honest duty to help others in their living. The principle of equality of all beings means that every one has a right to live just as myself and therefore one should not have any right to take other's life.
Thus, for Jainas the directive principle of living is not "living on other's or "living by killing', but 'living with others' or 'living for others'. They proclaim that co-operation and co-existence are the essential nature of living beings. If it is so, then we must accept that religious tolerance and fellowship of faiths are such principles as should be followed at the bottom of our hearts.
Equal Regard to all Religions
According to Jainas equal regard to different faiths and religions should be the base of religious harmony and fellowship of faiths. Jaina thinker Acārya Siddhasena Divakara remarks "just as emerald and other jewels of rare quality and of excellent kind do not acquire the designation of a necklace of jewels and find their position on the chest of human beings so is the case with different religions and faiths. Whatever excellent qualities and virtues they possess unless they are catenated in the common thread of fellowship and have equal regard for others, they can not find their due place in human hearts and can be charged for spreading hostility and hatred in mankindlo."
Therefore, one thing we must bear in our mind that if we consider other religions or faiths as inferior to ours or false, real harmony will not be possible. We have to give equal regard to all the faiths and religions. Every religion or mode of worship has its origination in a particular social and cultural background and has its utility and truth value accordingly. As the different parts of body have their own position and utility in their organic whole and work for its common good, so is the case with different religions. Their common goal is to resolve the tensions and conflicts and make life on earth peaceful. For this common goal each and every one has to proceed in his own way according to his own position. Every faith, if working for that particular common goal has equal right to exist and work, and should be given equal regard.
According to Jainācārya Siddhasena Diväkara (4th Century A.D.) the divergent view points/faiths may be charged as false only when they negate the truth value of others and claim themselves exclusively true. But if they accept the truth value of others also, they attain reghteousness. He further says, 'Every view-point or faith in its own sphere is right but if all of them arrogate to themselves the whole truth and disregard the views of their rivals, they do not attain right-view, for all the viewpoints are right in their own respective spheres but if they encroach upon the province of other view points and try to refute them, they are wrong''. For Jainas rightness of particular faith or viewpoint depends on the acceptance of rightness of other. Siddhasena further maintains that one who abvocates the view of synoptic characer of truth never discriminates the different faith as right or wrong and thus pays all of them equal regard!2. Today, when fundamentalism is posing a serious threat to communal harmony and equilibrium, unity
One World Religion : A Myth
In order to eradicate the conficts and stop violence in the name of religion from the world some may give a slogan of one world religion but it is neither feasible nor practicable. So far as the diversities in thoughts and habits, in cultural background and intellectual levels of the human beings are in existence, the varieties in religious ideologies and practices are essential. Jaina pontiff Haribhadra rightly maintains that the diversity in the teachings of the Sages is due to diversity in the levels of their disciples or the diversity in the standpoints adopted by the Sages themselves or the diversities in place and time i.e.ethinic circumstances in which they preached or it is only apparent diversity. Just as a physician prescribes different medicines according to the condition of patients, his illness and the climatic conditions, so is the case with the diversity in religious preachings also'. Therefore, unity, as well as diviersity both are equally essential for the fellowship of faiths and we should not undermine any one of them. Just as the beauty of a garden consists in the variety of flowers, fruits and plants, in the same way the beauty of the garden of religions depends of the variety of thoughts, ideals and modes of worship.
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Religious Harmony and Fellowship of Faiths : A Jaina Perspective
of world religions is not only essential but the only way out to protect the human race.
Jainas, too believe in the unity of world religions but unity according to them does not imply omnivorous unity in which all lose their entity and identity. They believe in that type of unity where in all the alien faiths will conjoin each other to form an organic whole without losing their own independent existence and given equal regard. In other words they believe in a harmonious existence and work for a common goal i.e. the welfare of mankind. The only way to remove the religious conflicts and violence from the earth is to develop a tolerant outlook and to establish harmony among various religions.
Now we shall discuss the causes of intolerance and devices suggested for the development of a tolerant outlook and religious harmony by the Jainas.
True Meaning of Religion
So for as the leading causes responsible for the growth of fundamentalism and intolerant outlook are concerned, in my humble opinion, the lack of the true knowledge and understanding of the real nature and purpose of religion is prime. By religion generally we mean to have some uncritcal beliefs in supernatural powers and performance of certain rituals as prescribed in our religious texts, but it is not the true and whole purpose of religion. Haribhadra in his work 'Sambodha Prakarana'(1/1) clearly remarks that the people talk about the path i.e. religion but they do not know that what is the path or religion in its true sense. In the famous Jaina text, Kartikeyānuprekśā (478), dharma (religion) is defined as the real nature of the things. If it is so, then quesition arises what is the real nature of huaman being? In a Jaina text known as Bhagavatisütra (1/9), it is clearly mentioned that the nature and ultimate end of the soul is equanimity. Lord Mahāvīra has given two definitions of religion. In Acārangasūtra (1/8/4) he says "worthy people preach that the religion is mental equanimity" Equanimity is considered as the core or essence of religion, because it is the real nature or essence of all the living beings, including human beings also. Equanimity is the state in which consciousness is completely free from constant flickering, excitements and emotional disorders and mind becomes pacific. Haribhadra says whether a person is a Svetämbara or a Digambara or a Bauddha or belongs to any other religion, whosoever attains equanimity of mind, will attain the liberation (Sambodha Prakama, 1/2).
Thus, the attainment as equanimity or relaxation from
tensions is the essence of religions. Secondly, when we talk of social or behavioural aspect of religion, it is nothing but the observance of non-violence. In Acārānga, (1/4/1) Lord Mahāvīra propounds, "The worthy men of the past, present and the future will say thus, speak thus, declare thus, explain thus, all breathing, existing, living and sentient creatures should not be slain, nor treated with violence, nor abused, nor tormented" This is the pure, eternal and unchangeable law or the tenet of religion.
Acārya Haribhadra maintains that performance of rituals is only the external form of religion. In its real sense religion means the eradication of passions and lust for material enjoyments as well as the realization of one's own real nature. Thus, for Jainas the true nature and purpose of religion is to attain equanimity and peace in individual as well as in social life. Whatsoever disturbs equanimity and social peace and spreads hostility and violence is not a true form of religion, instead it is Saitana in the cloak of religion. But now-a-days, the essence of religion has been shoved into background and dogmatism, uncritical faith and performance of certain rituals have got precedence. Thus, we have forgotten the end or essence of religion and stuck to the means only. For us it has become more crucial point that while performing prayer, our face should be in the east or in the west, but we have forgotten the purpose of prayer itself. The religion aims at having control over our passions, but unfortunately we are nourishing our passions in the name of religion. Actually, we are fighting for the decoration of the corpse of religion and not caring for its soul. If we want to maintain religious harmony and ensure peace on the earth, we must always remain aware of the end and essence of the religion, instead of external practices and rituals.
The English word religion is derived form the root "religio' wihch means 'to unite'. On the basis of its etymological meaning we can say that whatsoever divides the mankind, instead of uniting it, cannot be a true form of religion. We must be aware of the fact that a religion in its true sense never supports violence, intolerance and fanatical outlook. A true form of religion is one which establishes harmony instead of hostility, affection and kindness instead of hatred.
Blind Faith - the Root of Intolerance
Among the causes that generate fanaticism and intolerance, blind faith is the principal; it results from passionate attachment hence uncritical or "unexamining"
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outlook. Attachment (Mūrchā) according to the Jainas is the cause of bondage. It causes perverse attitude. In Jainism various types of Attachments are enumerated. Among them darśana-moha/drstirāga (blind faith), due to its very nature has been reckoned "paramount". In point of fact, it is considered as a central element in religious intolerance. It leads one's attitude towards a strong bias for one's own and against other's religion. Non-attachment is, therefore, considered as precondition for the right attitude or perception. A perverse, hence defiled attitude renders it impossible to view the things rightly just as a person wear- ing coloured glasses or suffering from jaundice is unable to see the true colour of objects as they are. Attachment and aversion are the two great enemies of philosophical thinking. Truth can reveal itself to an impartial thinker"]3. Non- attachment, as Jainas hold, is not only essential it is imperative in the search of truth. One who is unbiased and impartial can perceive the truth of his opponents's ideologies and faiths and thus can possess deference to them. Intense attachment unfailingly generates blind faith in religious leaders, dogmas, docrtines and rituals and consequently religious intolerance and fanaticism come into existence. The religions which lay more emphasis on faith than reason are narrower and fandamentalist. While the religions according due importance to reason also are more concilia- tory and harmonious. It is the reason or critical outlook which acts as check-post in religious faiths and rituals.
Jainism holds that the uncritical outlook and even pious attachment towards the prophet, the path and the scripture is also an hindrance to a seeker of truth and aspirant of perfection. Attachment results in blind faith and superstition and repulsion consequences into intolerant conduct. The real bondage, as Jainas confirm, is the bondage due to attachment. A person who is in the grip of attachment cannot get rid of imperfection. Gautam, a chief disciple of Lord Mahāvira, failed to attain omniscience in the life time of Mahāvīra on account of his pious attachment towards Mahāvira. Same was the case with Ananda, the chief disciple of Lord Buddha, who could not attain arhathood in the life- time of his "Sāstā". Once Gautam asked Mahāvira : "Why am I not able to attain the perfect knowledge, while my pupils have reached the goal. "Lord answered: "Oh, Gautam, it is your pious attachment towards me which obstructs you in getting perfect knowledge and emancipation"!4. The Jainas therefore laid stress on the elimination of attachment, the root cause of bias and intolerance.
Reason - The Check-Post of Blind Faith
In Jainism right faith, one of its three 'Jewels', plays an important role in emancipation of the soul. On the contrary, the blind faith causes intolerance. Jainism therefore does not support blind faith. Jaina thinkers maintain that the right faith should be followed by right knowledge. The faith followed by right knowledge or truthful reason cannot be blind one. According to Jaina thinkers, reason and faith are complementary and actually there is no contention between the two. Faith without reason, as the Jaina thinkers aver, is blind and reason without faith is unsteady or vacillating. They hold that the religious codes and rituals should be critically analysed!". In the Uttarādhyayanasūtra, Gautam, the chief disciple of Mahāvira, strongly supports this view before Kesi, the pontiff of the church of Jaina Pärśva. He said : "the difference in the Law must be critically evaluated through the faculty of reasoning. It is the reason which can ascertain the truth of Law"16.
If one maintains that religion has to be solely based on faith and there is no place for reason in it, then he will unfailingly develop an outlook that only his prophet, religion and scriptures are true and other's prophets, religions and scriptures are false. He will also firmly believe that his prophet is only savior of mankind; his mode of worship is the only way of experiencing the bliss and the laws or commands of his scripture are the only right ones and thus he remains unable to make critical estimate of his religious prescriptions. While one who maintains that reason also plays an important role in the religious life, will critically evaluate the pros and cons of religious prescriptions, rituals and dogmas. An "attached" or biased person believes in the dictum 'Mine is true'. while the "detached" or unbiased person believes in the dictum 'Truth is mine.'
Gunaratnasūri (early 15th cent. A.D.) in his commentary on the saddarśanasamuccaya of Haribhadrasūri (c. 3rd quarter of the 8th cent. A.D.) has quoted a verse, which explains : "a biased person tries to justify whatever he has already accepted, while an unprejudiced person accepts what he feels logically justified"7. Jainism supports 'rational thinking'. Supporting the rational outlook in religious matters Acārya Haribhadra syas : "I possess no bias for Lord Mahāvīra and no prejudice against Kapila and other saints and thinkers. Whosoever is rational and logical ought to be accepted 8". While describing the right faith Amrtacanda (c.early 10th cent. A.D.) condemns three types of idols namely superstitions relating deities, path and
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scriptures1. Thus when religion tends to be rational there will hardly be any room for intolerance. One who is thoroughly rational in religious matters, certainly would not be rigid and intolerant.
Non-Absolutism - the Philosophical Basis of Tolerance
Dogmatism and fanaticism are the born children of absolutism. An extremist or absolutist holds that whatsoever he propounds is correct and what others say is false, while a relativist is of the view that he and his opponent both may be correct, if viewed from two different angles and thus a relativist adopts a tolerant outlook towards other faiths and ideologies. It is the doctrine of 'Anekantavada' or nonabsolutism of the Jainas on which the concept of religious tolerance is based. For the Jainas non-violence is the essence of religion from which the concept of non-absolutism emanates. Absolutism represents 'violence of thought', for, it negates the truth-value of its opponent's view and thus hurts the feeling of others. A non-violent search for truth finds non-absolutism.
Jaina thinkers are of the view that reality is a complex one.20 It has many facetes, various attributes and various modes. It can be viewed and understood from different angles and thus various judgments may be made about it. Even two contradictory statements about an object may hold true. Since we are finite beings, we can know or experience only a few facets of reality at one time. The reality in its completeness cannot be grasped by us. Only a universal-observer-Sarvajña can comprehend it completely. Yet even for an Omniscient it is impossible to know is and to explain it without a standpoint or viewpoint". This premise can be understood form the following example. -- Take it for granted that every one of us has a camera to clic a snap of a tree. We can have hundreds of photographs but still we find most portion of the tree photographically remains uncovered, and what is more, the photographs differ from each other unless they are taken from the same angle. So is the case with diversified human understanding and knowledge. We only can have a partial and relative view of reality. It is impossible for us to know and describe reality without an angle or viewpoint. While every angle or viewpoint can claim that it gives a true picture of reality but each one only gives a partial and relative picture of reality. On the basis of partial and relative knowledge of reality one can claim no right to discard the views of his opponents as totally false. According to Jaina thinkers the truth-value of opponents must be accepted and respected.
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Non-absolutism of the Jainas refuse to allow the individual to be dogmatic and one-sided in approach. It pleads for a broader outlook and open mindedness, which alone can resolve the conflicts that emerge from differences in ideologies and faiths. Satkari Mookerjee rightly observes that Jainas do not believe in the extremist a priori logic of the absolutists. Pragmatically considered, this logical attitude breeds dogmatism and if carried a step further, engenders fanaticism, the worst passion of human heart22. For non-absolutism the views of the opponent are also true. As Siddhasena Divakara (5th Cent. A.D.) remarks "All schools of thought are valid when they are understood from their own standpoint and so far as they do not discard the truth-value of others. Hemcandra was a Jaina saint; he composed his works in the praise of Siva. This liberalism is also maintained by later saints who composed their works in Hindi or Gujarati like Anandaghana and many other, till these days. In a Hindi couplet J.K. Mukhtar says
:
buddha Vira jina Harihara Brahma yā usako svādhīna kaho/
bhakti bhava se prerita ho, yaha citta usi me lina raho //
Door of Liberation - Open to All
Jainism holds that the followers of other sects can also achieve emancipation or perfection, if they are able to destroy attachment and aversion. The gateway of salvation is open to all. They do not believe in the narrow outlook that "only the follower of Jainism can achieve emancipation, others will not". In Uttaradhyayana there is a reference to anyaliga-siddhasi.e. the emancipated souls of other sects" The only reason for the attainment of perfection or emancipation,. according to Jainas, is to shun the vectors of attachment and aversion. Haribhadra, taunch advocate of religious tolerance remarks: "One, who maintains equanimity of mind will certainly get emancipation whether he may be a Svetämbara or Digambara or Buddhist or any one else. It is this broad outlook of the Jainas which makes them tolerant to the non-violence of thought.
About the means of liberation, the Jainas are also broadminded. They do not believe that their mode of worship or their religious practice is the only one that represents the way to reach the goal of emancipation. For them, not the external modes of worship, but the right attitude and mentality are the things that makes religious practices fruitful. The Acaranga-sutra mentions that the practices which are considered to be the cause of bondage
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may be the cause of liberation also.29 It is the intrinsic he says, "I venerate all those who are free from all vices and purity not the external practices which makes the person filled with all virtues, be they Brahmä, Vişnu, Siva or
ibhadra propounds that neither one who Jaina"31. This is further supported by various Jaina thinkers remains without clothes nor one who is white clad, neither of medieval period as Akalanka, Yogindu, Mänatunga, a logician nor a metaphysician, nor a devotee of personal Hemcandra and many others. While worshiping Lord Siva cult will get liberation unless he overcomes his passions26. the Jaina pontiff Hemcandra says: "I worship those who If we accept the existence of the diversity of modes of have destroyed attachment and aversion, the seeds of birth worship according to the time, place and level of aspirants and death, be they Bramha, Vişnu Śiva of Jina">2. This and lay stress on the intrinsic purity in religious matters liberalism of the Jainas on the methods of worship can be then certainly we cannot condemn religious practices of a supported by the legends of the previous lives of Mahāvira. non-absolutist. They become false only when they reject It is said that Mahāvīra in his previous existences was the truth-value of others27. It was this broader outlook of many times ordinated as a monk of other sects where he non-absolutism which made Jainas tolerant.
practised austerities and attained heaven. While expounding this tolerant outlook of the Jainas, As for scriptures, the Jainas outlook is liberal. They Upādhyāya Yaśovijaya (17th cent. A.D.) maintains a true firmly believe that a false scripture (Mithya-Śruta) may be non-absolutist does not disdain any faith but treats all the a true scripture (Samyak-Śruta) for a person of right faiths equally as a father does to his sons. For, a non- attitude; and true scripture may tum false for a person of absolutist does not have any prejudiced and biased outlook. perverse attitude. It is not the scripture but the attitude of A true believer of 'Syadvada' (non-absolutism) is one who the follower which makes is true or false. It is the vision of pays equal regard to all the faiths. To remain impartial to the interpreter and practitioners that counts. In the Nandisutra the various faiths is the essence of being religious. A little this standpoint is clearly explained". Thus we can say that knowledge which induces a person to be impartial is the Jainas are neither rigid nor narrowminded in this regard. more worth while than the unilateral vast knowledge of scriptures28
References of Religious Tolerance in Jaina Works
References to religious tolerance are abundant in Jaina Non-personalism - A Keystone for Tolerance
history. Jaina thinkers have consistently shown deference Jainism opposes the person-cult (person-worship) for to other ideologies and faiths. In the Sütrakstänga the it makes the mind biased and intolerant. For the Jainas, the second earliest Jaina work (c. 2nd cent. B.C.), it is observed object of veneration and worship is not a person but that those who praise their own faith and views and discared perfectness i.e. the eradication of attachment and aversion. those of their opponents, possess malice against them hence The Jainas worship the quality or merit of the person not ramain confined to the cycle of birth and death. In another the person. In the sacred namaskära-mantra of the Jainas famous Jaina work of the same period, the Isibhäsiyāim, veneration is paid to the spiritual-posts such as arhat, siddha, the teaching of the forty five renowned saints of Śramanic ācārya and not the individuals like Mahāvira, Rşabha orand Brahmanic, schools of thought such as Nārda, anybody else. In the fifth pada we find that the veneration Bhāradvāja, Mankhali-Gośāla and many others have been is paid to all the saints of the world. The words 'loye' and presented with due regards". They are remembered as
Savva' demonstrate the geneosity and broader outlook of Arhatçsi and their teachings are regarded as an Āgama. In the Jainas 29. It is not person but his spiritual attitude which the history of world religions there is hardly any example is to be worshipped. Difference in name, according to the in which the teachings of the religious teachers of the Jainas, is immaterial since every name at its best connotes opponent sects were included in one's own scriptures with the same spiritual perfection. Haribhadra in the Yogadrsti- due esteem and honour. Evidently, it indicates the samuccaya remarks that 'the ultimate truth transcends all latitudinarian and unprejudiced outlook of the earliest Jaina states of worldly existence, called nirvana and is essentially thinkers. We also have a reference to religious tolerance in and necessarily 'single" even if it be designated by different the Vyakhyaprajnapti, one of the early works of the Jainas, names like Sadasiva, Parabrahman, Siddhātmā, Tathāgata, when an old friend of Gautama, who was initiated in some etc." Not only in the general sense but etymologically also other religious sect, came to visit him. Mahävira commanded they convey the same meaning. In the Lokatattva-nirnaya Gautama to welcome him and Gautama did sok. Accroding
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to Uttaradhyayana, when Gautama, the chief disciple of Mahavira and Kesi, a prominent pontiff of Parsvanatha's sect met at Kosambi, both paid due regard to each other and discussed the various problems dispassionately and in gentle and friendly manner about the differences of both the sects
Haribhadra has not only maintained this latitudinarian outlook of earlier Jainācāryas, but lent new dimension to it. He was born in the age when the intellectuals of the India were engaged in hair-splitting philosophical discussions and in relentless criticism of one other. Though he also critically evaluated the other philosophical and religious systems, his outlook was fully liberal and attempted to see the truth of his opponent's logic also.
In the Sastravärtä-samuccaya which is one of the foremost works illustrating Haribhadra's liberal outlook, it is mentioned that the great saint, venerable Lord Buddha preached the doctine of Momentariness (Kṣaṇikavada), Non-existence of soul (Anatmavāda), Idealism (Vijñanavada) and Nothingness (Sünyavada) with a particular intention to vanish the mineness and desire for worldly objects and keeping in view the different levels of mental development of his followers, like a good physician who prescribes the medicine according to the disease and nature of the patient. He has the same liberal and regardful attitude towards Samkhya and Nyaya schools of Bhrahmanical philosophy. He maintains that naturalism (Prakṛtivada) of Samkhya and Isvara kaṛtṛtvavada of the Nyaya school is also true and justified, if viewed from certain standpoint3 Further, the epithets such as the great saint (mahamuni), the venerable (arhat), the good physician (Suvaidya) used by him for Buddha and for Kapila shows his generosity and deference to other religious leaders. Haribhadra's crusade against sectarianism is unique and admirable in the history of world-religions.
Alongwith these literary evidences there are some epigraphical evidences of religious tolerance of the Jainas also. Some Jaina ācāryas such as Rāmkirti and Jaymangalasūri wrote the hymns in the praise of Tokalji and goddess Camunda Jaina kings such as Kumarpāla, Visnuvardhan and others constructed the temples of Śiva and Viṣṇu along with the temple of Jina'.
Finally, I would like to mention that Jainism has a sound philosophical foundation for religious tolerance and throughout the age, it practically never indulged in aggressive wars in the name of religion nor did they invoke divine sanction for cruelities against the people of alien
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faiths. They have always believed in religious harmony. and fellowship of faiths.
Though generally Jainas do classify religions in the heretic (mithya-drsti) and non-heretic (samyak-drsti) yet, mithya-drsti, according to them, is one who possesses onesided view and considers others as totally false, while samyak-dṛṣți is the one who is unprejudiced and sees the truth in his opponents views also. It is interesting to note here that Jainism calls itself a union of heretic views (micchādamsana-samūh). Siddhasena (5th cent. A.D.) mentions "Be glorious the teachings of Jina which are the union of all the heretic views i.e. the organic synthesis of one-sided and partial views, essence of spiritual nectar and easily graspable to the aspirants of emancipation
Anandaghana, a mystic Jaina saint of the 17th cont. A.D. remarks that just as ocean includes all the rivers so does Jainism all other faiths. Further, he beautifully expounds that all the six heretic schools are the organs of Jina and one who worships Jina also worships them Historically we also find that various deities of other sects are adopted in Jainism and worshipped by the Jainas. Acarya Somadeva in his work Yasastilak-campu remarks that where there is no distortion from right faith and accepted vows, one follow the tradition prevailing in the country.**
As we have already said that Jainas believe in the unity of world religions, but unity, according to them, does not imply omnivorous unity in which all the alien faiths will conjoin each other to form a organic whole without loosing their own independent existence. In other words it believes in a harmonious co-existence or a liberal synthesis in which all the organs have their individual existence, but work for a common goal i.e. the peace of mankind. To eradicate the religious conflicts and violence from the world, some may give a slogan of "one world religion" but it is neither possible nor practicable so far as the diversities in human thoughts are in existence. In the Niyamasara it is said that there are different persons, their different activities or karmas and different levels or capacities, so one should not engage himself in hot discussions neither with other sects nor one's own sect.4€
Haribhadra remarks that the diversity in the teachings of the sages is due to the diversity in the levels of their disciples or the diversity in standpoints adopted by the Sages or the diversity in the period of time when they preached, or it is only an apparent diversity. Just as a physician prescribes medicine according to the nature of patent, its illness and the climate so is the case of diversity
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of religious teachings." So far as diversity in time, place, levels and understanding of disciples is inevitable, variety in religious conflicts is to develop a tolerant outlook and to establish harmony among them.
At last I would like to conclude my paper by quoting a beautiful verse of religious tolence of Acărya Amitagati --
Sattveșu maitrim gunisu pramodam
Klișteșu jīvesu krpāparatvam Mādhyasthyabhāvm viparita verttau
Sadā mamātmā vidahätudeva.“ Oh Lord ! I should be friendly to all the creatures of world and feel delight in meeting the virtuous people. I should always be helpful to those who are in miserable conditions and tolerant to my opponents.
References : 1. David C.V. The Voice of Humanity, (Manikachand Depot.
Ujjain) p.1. 2. ekka manussa Jäi-Gatha (comp. Ācārya Mahāprajña, Jaina
Visva Bharati. Ladnun, 1993, 1/26. Uttaradhyayanasūtra, (Sadhvi Candanā, Sanmati Jñānpeeth, Agra), 3/1. Kārtikeyānupreksā (ed. by A.N. Upadhye, Shrimad Rajchan-
dra Ashram, Agas 1960,- 478. 5. David C.V. The Voice of Humanity.
Tatrvārthasūtra (Umāsvāti), Pt. Sukhlalji, P.V. Research
Institute, Varanasi-5, 1/1/1. 7. Bhagavati sütra, 18/10.
Tattvārthsūtra (Umāsvāti) 5/21. 9. Yogadrstisamuccaya, Haribhadra, L.D. Institute of Indology.
Ahmedabad, 1970, 133. 10. Sanmtitarka, (Siddhasena Diväkara, ed. Pt. Sukhlalji Sang
havi, Jaina Svetaber Education Board, Bombay, 1939. 11. Ibid. 1/28 12. Ibid. 1/28. 13. N.M. Tatia, Studies in Jaina Philosophy, P.V. Research
Institute, Varanasi, 1958, p.22. 14. (a) Bhagavati-Abhayadeva's Vitti, Rishabhadeva Kesari
mal, Ratlam, 1937, 14/7. p. 1188. (b) Mukkhamagga pavannanam sineho vajjasimkhalā vire
jivamtae jão Goyamar jam na kevali-Quoted in Abhidhana Rajendra, vol. II p. 959 and Kalpasūtra Tika
Vinayavijay, 127, p. 120. 15. pannā samikkhae dhammam /
tattam tatta vinicchayam //
-- Uttaradhyayana, 23/25, Sanmati Jñänapitha, Agra, 1972. 16. Agrahibata ninisati yuktim yatra tatra matirasya nivista/
paksapatarahitasya tu yuktiryatra tatra matireti nivesam //
Quoted in Saddarsanasamuccaya'- Gunaratna krta tika, ed. Mahendra Kumar Jain, Bhartiya Jnanapitha, Delhi, 2nd
ed., 1981, p. 461. 17. Paksapato na me vire, na dvesaḥ kapilādişu Yuktima
dvacanam yasya, tasya karya parigrahah-LokatattvanirnayaHaribhadra, Jain Granth Prakasaka Sabha, Ahmedabad,
Vikram, 1964, verse 38. 18. Loke sastrabhäse samayabhase ca devatabhase /
nityamap tattvarucina kaitavya-mamudhadrstitvam/26 -- Purusärtha-Siddhyupaya-Amartacandra, The Central Jaina
Publishing House, Ajitasram, Lucknow, 1933. 19. Anantadharmātmakameva tattvam.. /22
Anyayogavyavacchedadvātrimsika, Hemacandra. 20. Natthi nayahimvihumam suttam attho ya Jinavayekimci -
Avasyaka Niryukti, 544. -- Višesāvašyaka Bhäsya, L.D. Institute of Indology,
Ahmedabad, 1968, 2748. 21. Prof. Satkari Mookerjee, Foundation of World Peace,
Ahimsa and Anekanta, Vaisali Institute Research Bulletin
No. 1, p. 229. 22. Niyayavayanijjasacca, savvanaya paraviyalane mohal
Te una na ditthasamao vidhayai sacca va aliye va // -- Sanmati Prakarana, Siddhasena, Jñanodaya Trust,
Ahmedabad 1963. 23. Yasya sarvatra samata nayeşu tanayesviva/
Tasyanekantavādasya kya nyunadhikasemusi // Ten a syādvādamālambya sarvadarsanatulyatam/ Moksoddesavi (dvi) sesena yah pasyati sa Sastravit //70/1 Madhyasthyameva sastrartho yena taccäru siddhyati/ Sa eva dharmavādah syadanyadbalisavalganam //71/1 Madhyasthyasahitam hyekapadajnanamapi pramă / Sastrakotih vrthaivanya tathā coktam mahatamana //7311 --Adhyātmopanişat-Yosovijaya, Sri Jainadharmarprasaraka
Sabha Bhavanagara, 1st Ed., Vikram, 1965. 24. Namo Arahamtänam/mamo siddhanam/namo Ayariyanam
Namo Uvajjhāyanam/namo loye savva sāhūnam/ Vyākhya prajñāpti, Mahavira Jaina Vidhyalaya, Bombay. Samachim coiya samana kei sapakkhaditthio vamenti, settam Micchasuyam. Vrti-etani bharatadini sastrani mithyadrsteh Mithyātvaparigrhitāni bhavanti, tato Viparitabhiniveşavęddhihetutvaṁ mithyåśrutam etânyeva Ca bharatadini sastrani samyagdrsteh Samyakivaparigrhitāni bhavanti-Nandisutra, 72, p. 30, Sri.
Mahavira, Jaina Vidhyalaya, Bombay, 1st ed. 1968. 34. Sayam sayam passarsantā garaharta param vayam/ Je utatthd visusasti, samsaram te viussiya //
-- Sotrakrtānga, 1/1/2/23. 35. Devandradena Arahata isina buiyam/ --Isibhäsiyaim, 1/1,
See also the names of its various chapters, edited by Dr. Walther Schubring, L.D. Instt. of Indology, Ahmedabad, 1974
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The Solution of World Problems : A Jaina Perspective
36. He khamdaya! sagayam, Khamdaya! Susagayam - Bhaga
vati, 2/1. 37. Kesikumāra samane goyamam dissama gayam/
Padiruvam padivattim samman sampadivajjai // -- Uttarādhyayana sutra, Sanmati Jnanpitha, Agra, 1st ed.
23/16. 38. Šāstravārtāsamuccya, L.D. Instt. Ahmedabad, 1969.6/464
65, 67. 39. Ibid. 3/207 and 3/237. 40. Jaina Silalekha Sangraha, vol. III, Introduction by G.C.
Chaudhari. See also epigraphs of above mentioned book vol. I, II and III, No. 181, 249, 315, 332, 333, 356, 507, 649,
710. 41. Jaina Silālekha Sangraha, vol. III, Introduction by G.C.
Chaudhari. See also epigraphs of above mentioned book,
vol. I, II and III, No. 181, 249, 315, 332, 333, 356, 507,649,
710. 42. Sanmatitarka Prakarana, 3/69, Jõānodaya Trust, Ahmeda
bad, 1963 43. Namijinastavan --Anandaghana Granthāvali, Sri Jaina Sreya
skara Manal, Mahesana (1957). 44. Yaśastilaka-compā Somadevaśūri, p. 373, Nimaya sāgar,
Press, Bombay. 45. NiyamasāraKundakunda, 155, The Central Jaina Publish
ing House, Lucknow, 1931, 46. Yogadrstisamuccaya (Haribhadra), L.D. Instt., Ahmedabad,
1970. 47. Sāmāyika Pāțha 1-Amitagati. Published in Sāmāyikasütra,
Sanmati Jñanapitha, Āgrā.
The Solution of World Problems : A Jaina Perspective
We all are human beings first hence the problems, humanity is facing today, are our own. In fact, we, ourselves are solely responsible for their creation and naturaly have to bear their consequences also. Become our earnest duty to ponder over their roots and causes, to suggest their solutions and to make honest efforts for their eradication.
Problem of Mental Tension and its Solution
The growth of scientific knowledge and outlook has reverly jolted our superstitions and false dogmas. But unfortunately, it has shaken our faith in spritual and human values also. Today, we have more knowledge of and faith in the atom and atomic power than the values needed for meaningful and peaceful life. We rely more on atomic weapons as our true rescuer than on our fellow-beings. The advancement in science and technology has provided us amenities for a pleasant living. Today the life on earth has become pleasant and luxurious as it was never before. Yet because of the selfish and materialistic outlook, nobody is happy and satisfied. This advancement, in all walks of life and knowledge, could not sublimate our animal and selfish nature. The animal instinct lying within us is still dominating
our individual and social behaviour. What, unfortunately has happened is that the intoxication of ambition and success made us more greedy and egoistic. Our ambitions and desires have no limits. They always remain unfulfilled and the create frustration. Frustration and resentments give birth to mental tensions. These days, the people and nations, more affluent materially having all the amenities of life, are more in the grip of tensions. Medical as well as psychological reports of advanced nations confirm this fact. This shows that the cause of our tensions is not scarcity of the object of necessities, but the endless desires and the lust for worldly enjoyment. Among the most burning problems, the world facing today, that once of mental tension is the prime one. We are living in tension all the time and even a pleasant sound sleephas become a dream. The single and most salient feature by which our age may be characterised is that of tensions.
As a matter of fact, all the problems, we are facing today are created by us hence, their consequences are also to be borne by us.
The main object of Jainism is to emancipate man from his sufferings i.e. mental tensions and thus to attain
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equanimity or tranquility. First of all, we must know the causes of these mental tensions. To Jainism, the basic human sufferings are not physical but mental. These mental sufferings or tensions are due to our attachment towards worldly objects. It is the attachment, fully responsible for them. The famous Jaina text Uttaradhyayana-sutra mentions: "The root of all sufferings: physical as well as mental, of every body including gods, is attachment which is the root cause of mental tension'. Only a detached attitude towards the objects of worldly enjoyment can free mankind from mental tension. According to Lord Mahavira, to remain attached to sensuous objects is to remain in the whirl. Says he: "Misery is gone in the case of a man who has no delusion, while delusion is gone in the case of a man who has no desire; desire is gone in the case of a man who has no greed while greed is gone in the case of a man who has no attachment."2 The efforts, made to satisfy the human desires through material objects, may be likened to the chopping off the branches while watering the roots. He further remarks that uncountable mountains of gold and silver like Kailasa can not satisfy the desires of human beings because desires are endless like sky3. Thus, the lust for and the attachment towards the objects of worldly pleasure is the sole cause of human tensions.
If mankind is to be freed from mental tensions, it is necessary to grow a detached outlook in life. Jainism believes that the lesser the attachment, the greater will be the mental peace. It is only when attachment vanishes, the human mind becomes free from mental tensions and emotional disorders and attains equanimity, the ultimate goal of all our religious practices and pursuits".
The Problem of Survival of Human Race and Disarmament
The second important problem, the world is facing today, is the problem of the survival of human race itself. Due to the tremendous advancement in war technology and nuclear weapons, the whole human race is standing on the verge of annihilation. Now it is not the question of survival of any one religion, culture or nation, but of the whole humanity. Today, we have guided missiles but unfortunately, unguided men. The madness, of one nation or even an individual, may lead to the destruction of the whole humanity. Because of the advancement in scientific knowledge and outlook our faculty of faith has been destroyed. When mutual faith and faith in higher values of co-operation and co-existence is destroyed, doubts take
place. Doubts cause fear, fear produces the sense of insecurity which results in accumulation of weapons. This mad race for accumulation of weapons, is likely to lead to the total annihilation of human race from this planet.
Thus, the problem of survival of mankind is related to the question of disarmament. To meet this aim first of all we will have to develop mutual faith or trust and thus remove the sense of fear and insecurity, the sole cause of armament-race, and then to check the mad race for weapons. Let us think what means have been suggested by the Jainas to solve the problem of human survival and to check the mad race for weapons. For Jainas, it is the sense of insecurity which causes fear and vice a versa. Insecurity results in the accumulation of weapons. So it is our prime duty to develop the sence of security among fellow beings. In Sotrakṛtänga. it is clearly mentioned that there is nothing higher than the sense of security which a human being can give to others. The virtue of fearlessness is supreme. It is two-fold (1) one should not fear from others and (2) one should not cause fear to others. A real Jaina saint is one who is free from fear and enmity. When the fear vanishes and enmity dissolves there is no need for armaments. Thus, the sense of security and accumulation of arm and weapons are related to each other. Though, arms and weapons are considered as means of security yet these, instead of giving security, generate fear and a sense of insecurity in the opposite party hence a mad race for accumulation of superior weapons starts. Lord Mahavira had seen this truth centuries before that there is no end to this mad race for weapons. In Acaranga (C. 4th B.C.) he proclaimed "atthi satthaṁ pareṇaparam natthi asattham pareṇaparam "i.e. there are weapons superior to each other, but nothing is superior to asastra i.e. disarmament or non-violence'. It is the selfish and aggressive outlook of an individual or a society that gives birth to war and violence. They are the expressions and outcome of our sick mentality. It is through firm faith in mutual credibility and non-violence that humanity can get rid of this mad race for nuclear weapons and thus can solve the problem of its survival.
The Problem of War and Violence
At the root of all types of wars and violences there lies the feeling of discontentment as well as the will for power and possession. According to Sūtrakṛtänga, the root of violence is attachment or will for possession. A book namely "Tension that causes war" tells us that economic inequalities, insecurities and frustrations create group
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conflicts. It is true that in the old days the cause of war was only will for power and possession, whether it was the possession of women or land or money. But now-a-days economic inequality, over population, sense of insecurity and unequal treatment on the basis of caste, creed and colour may be added to the causes of wars. Jaina thinkers have all the time condemned war and violence. In Uttaradhyayana, it is said "If you want to fight, fight against your passions. It is much better to fight with one's own passionate self than to fight with others. If some one is to be conquered, it is no other than your own self. One who has got victory over one's own self is greater than the one who conquers thousand and thousand of warriors".
Jianas aim at complete eradication of war and violence from the earth, it is not possible as long as we are attached to and have possession for any thing-living or non-living, small or great. There are persons and nations who believe in the dictum 'might is right'. Though aggressive and unjust, war and violence is not acceptable to Jainas, they agree to the point that all those, attached to physical world and having a social obligation to protect others life and property, are unable to dispense with defensive war and violence. Jainas accept that perfect non-violence is possible only on spiritual plane by a spiritual being, completely free from attachment and aversion and having full faith in the immortality of soul and thus remaining undisturbed by the fear of death and sense of insecurity. The problem of war and violence is mainly concerned with worldly beings. They cannot dispense with defensive and occupational violence. But what is expected of them is to minimize the violence at its lowest. Ignorant and innocent persons should not be killed in wars at any cost. Jaina thinkers have suggested various methods and means for non-violent wars and for reducing violence even in just and defensive wars. They suggested two measures. First the war should be fought without weapons and in the refereeship of some one. The war, fought between Bharat and Bahubali, is an example of such a non-violent war. In our times Gandhiji also planned a non-violent method of opposition and applied it successfully. But it is not possible for all to oppose nonviolently. Only a man, detached even to his body and his heart free from malice, can protect his right non-violently. In addition to this, such efforts can bear fruits only when raised against one with human heart. Its success becomes dubitable when it has to deal with some one without faith in human values and wants to serve his selfish motives. Jainism permits only a house-holder and not a monk to
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protect his rights through violent means in exceptional cases. But the fact remains that violence for Jainas is an evil and it cannot be justified as a virtue in any case.10
Problem of Disintegration of Human Society
The disintegration of human race is also one of the basic problems, humanity is facing today, Really, the human race is one and it is us who have erected the barriers of caste, creed, colour nationalities etc. and thus disintegrated the human race. We must be aware of the fact that our unity is natural while these divisions are artificial and man made. Due to these artificial man made divisions, we all are standing in opposition to one another. Instead of establishing harmony and mutal love, we are spreading hatred and hostility in the name of these man-made artificial divisions of caste, creed and colour. The pity is that we have become thirsty of the blood of our own fellow beings. It is a well known fact that countless wars have been fought on account of these man-made artificial divisions. Not only this, we are claiming the superiority of our own caste, creed and culture over others and thus throwing one class against the other. Now, not only in India but all over the world classconflicts are becoming furious day by day and thus disturbing the peace and harmony of human society.
Jainism, form its inception, accepts the oneness of human race and oppose these man made divisions of caste and creed. Lord Mahavira declared that' human race is one". He further says that there is nothing like inferiority and superiority among them. All men are equal in their potentiality. None is superior and inferior as such. It is not the class but the purification of self or a good conduct that makes one superior". It is only through the concept of equality and unity of mankind, which Jainism preached from the very beginning, that we can eradicate the problem of disintergration and class-conflict. It is mutual faith and co-operation which can help us in this regard. Jaina ācāryas hold that it is not the mutual conflict but mutual cooperation which is the law of living. In his work Tattvärtha sūtra, Umāsvāti maintains that mutual co-operation is the essential nature of human being13. It is only through mutual faith, co-operation and unity that we can pave the way to prosperity and peace of mankind. Jainas believe in the unity of mankind, but unity, for them doesn't mean absolute unity. By unity they mean an organic-whole, in which every organ has its individual existence but works for a common goal. i.e. human good. For them unity means, 'unity in diversity'. They maintain that every race, every
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religion and every culture has full right to exist, with all its peculiarities, but at the same time, it is its pious duty to work for the welfare of the whole humanity and be prepared to sacrifice its own interest in the larger interest of the humanity. In the Jaina text Sthânăngasūtra we have the mention of Grāmadharma, Nagaradharma, Rāştraharma etc. referring to one's duty towards one's village, city and nation that has to be fulfilled.
Jainas, it is a means for welfare of human society and not for one's own enjoyment. The accumulation of wealth in itself is not an evil but it is the attachment towards its hording and lust for its enjoyment which makes it an evil. If we want to save the humanity from class-conflicts, we will have to accept self-imposed limitation on our possessions and modes of consumption. That is why Lord Mahāvira has propounded the vow of complete nonpossession for monks and nuns and vow of limitation of possession for laities. Secondly, to have a check on our luxurious life and modes of consumption he prescribed the vow of limitation in consumption. The property and wealth should be used for the welfare of humanity and to serve the needy, so he prescribed the vow of charity. In Jainism the vow of charity is named as Atithi samvibhāga. It shows that charity is not an obligation towards the monks and weaker sections of society but through charity we give them what is their right. In Jainism it is the pious duty of a house-holder to fix a limit to his possessions as well as for his consumption and to use his extra money for the service of mankind. It is through the observation of these vows that we can restore peace and harmony in human society and eradicate economic inequality and class conflicts.
Problem of Economic inequality and Consumer Culture
Economic inequality and vast differences in the mode of consumption are the two curses of our age. These disturb our social harmony and cause class-conflicts and wars. Among the causes of economic inequality, the will for possession, occupation or hoarding are the prime. Accumulation of wealth on the one side and the lust, for worldly enjoyment on the other, are jointly responsible for the emergence of present-day materialistic consumer culture. A tremendous advancement of the means of worldly enjoyment and the amenities of life has made us crazy for them. Even at the cost of health and wealth we are madly chasing them. The vast differences in material possession as well as in the modes of consumption have divided the human race into two categories of 'Haves' and 'Have nots' At the dawn of human history also, undoubtedly, these classes were existent but never before the vices of jealousy and hatred were as alarming as these are today. In the past, generally these classes were co-operative to eace other while at present they are in conflicting mood. Not only disproportionate distribution of wealth, but luxurious life led by affluent people these days, is the main cause for jealousy and hatred in the hearts of the poor.
Though wealth plays an important role in our life and considered as one of the four puruşārthas i.e. the pursuits of life yet if cannot be maintained as the sole end of life. Jainas, all the time, consider wealth as a means to lead a life and not a destination, Uttaradhyayanasūtra rightly observed, "that no one who is unaware of treasure of one's own protect one-self by walth". But it does not mean that Jaina ācāryas do not realise the importance of wealth in life. Acārya Amrtacandra maintains that the property or wealth commits violence. Jainas accept the utility of wealth; the only thing they want to say that wealth is always a means and it should not be considered as an end. Not doubt wealth is considered as a means by materialist and spiritualist as well, the only difference is that for materialist it is a means to lead a luxurious life while for spiritualist, as well as
Problem of Conflicts in Ideologies and Faiths
Jainism holds that reality is complex. It can be looked at and understood from various view-points or angles. For example, we can have hundreds of photographs of tree from different angles. Though all of them give a true picture of form a certain angle yet they differ from each other. Not only his but neither each of them, nor the whole of them can give us a complete picture of that tree. They individually as well as joinly will give only a partial picture of the tree. So is the case with human knowledge and understanding also, we can have only a partial and relative picture of reality. We can know and describe the reality only from a certain angle or view-point. Though every angle or view-point can claim that it gives a true picture of reality yet it gives only a partial and relative picture of reality. In fact, we cannot challenge its validity or truth-value, but at the same time we must not forget that it is only a partial truth or one-sided view. One who knows only partial truth or has a one-sided picture of reality, has no right to discard the views of his opponents as totally false. We must accept that the views of our opponents also may be true from some other angles. The Jaina theory of
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Anekantavāda emphasises that all the approaches to economic inequality, political subjugation and class understand the reality give partial but true picture of reality, conflicts not only today but from its remote past. Though and due to their truth-value from a certain angle, we should some of these have assumed an alarming proportion today, have regard for other's ideologies and faiths. The Anekānta- yet, no doubt, the most crucial problem of our age is, for vāda forbids to be dogmatic and one-sided in our approach. coming generation would be, that of ecological disbalance. It preaches us a broader outlook and open mindedness Only a half century back we could not even think of it. But more essential to solve the conflicts taking place due to the today, every one is aware of the fact that ecological disbaldifferences in ideologies and faiths. Prof. T.G. Kalghatgiance is directly related to the very survival of human race. rightly observes, "The spirit of Anekānta is very much It indicates lack of equilibrium or disbalance of nature and necessary in society, specially in the present days, when pollution of air, water, etc. It is concerned not only with conflicting ideologies are trying to assert supermacy human beings and their environment, but animal life and aggressively. Anekānta bring the spirit of intellectual and plant-life as well. social tolerance".
Jainism presents various solution of this ecological For the present-day society what is awfully needed is problem through its theory of non-violence. Jainas hold the virtue of tolerance. This virtue of tolerance i.e. regard that not only human and animal being but earth, water, air for others ideologies and faiths has been maintained in fire and vegetable kingdom are also sentient and living Jainism form the very beginning. Mahāvira mentions in beings. For Jainas to nollute, to disturb, to hurt and to the Sütrakstānga, those who praise their own faiths and destroy them means commit the violence against them ideologies and blame those of their opponents and thus which is a sinful act. It is their firm belief that earth, water. distort the truth will remain confined to the cycle of birth air, fire and vegetable pave the way for the protection of and death'. Jaina philosophers have maintained that all the ecological balance. Their every religious activity starts judgments are true by their own view-points, but they are with seeking forgiveness and repentance for disturbing or false so far as they refute other's view-points totally. Here hurting earth, water, air and vegetation. Jainācāryas had I would like to quote verses from works of Haribhadra made various resrictions of the use of water, air and green (C.8th A.D.) and Hemcandra (C. 12th A.D.), which are the vegetables, not only for monks and nuns but for laities best examples of religious tolerance in Jainism. In also. Jainas have laid more emphasis on the protection of Lokatattvanimaya Haribhadra says: "I bear no bias towards wild-life and plants. According to them hunting is one of Lord Mahāvira and no disregard to the Kapila and other the seven serious offences or vices. It is prohibited for saints and thinkers, whatsoever is rational and logical ought every Jaina, whether a monk or a laity. Prohibitions for to be accepted. Hemacandra in his Mahadeostotra says" hunting and meat-eating are the fundamental conditions "I bow to all those who have overcome attachment and for being a Jaina. The similarity between plant-life and hatred, which are the cause of worldly existence, be they human life is beautifully explained in Ācārāngasutra. To Brahma, Vişnu, Siva or Jina". Thus, Jaina saints have tried hurt the plant life is as sinful act as to hurt human life. In all the times to maintain harmony in different religious- Jainism monks are not allowed to eat raw-vegetables and faiths and tried to avoid religious conflicts.
to drink unboiled water. They cannot enter the river or tank The basic problems of present society are mental for bathing. Not only this, there are restrictions for monks tensions, violence and conflicts of ideologies and faiths. on crossing the river on their way of tours. These rules are Jainism had tried to solve these problems of mankind invogue and observed even today. The Jaina monks and through the three basic tenets of non-attachment or non- nuns are allowed to drink only boiled water or lifeless possessiveness (aprigraha), non-violence (ahimsā) and non- water. They can eat only ripe fruits, if their seeds are taken absolutism (Anekänta). If mankind observes these three out. Not only monks, but in Jaina community some houseprinciples, peace and harmony can certainly be established holders are also observing these rules. Monks and nuns of in the world.
some of the Jaina sects place a peace of cloth on their
mouths to check the air pollution. Jaina monks are not Problem of the Preservation of Ecological Equilibrium allowed to pluck even a leaf or a flower from a tree. Not
The world has been facing a number of problems such only this, while walking they always remain conscious that as mental tensions, war and violence, ideological conflicts, no insect or greenery is trampled under their feet. They use
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very soft brushes to avoid the violence of smallest living beings. In short, Jaina monks and nuns are over conscious about the pollution of air, water, etc.
So far as Jaina house-holders are concerned they take such vows as to use a limited and little quantity of water and vegetables for their daily use. For a Jaina water is more precious than ghee or butter. To cut forest or to dry the tanks or ponds are considered very serious offence for an house-holder. As per rule, Jaina house-holders are not permitted to run such type of large scale industries which pollute air and water and lead to the violence of plant-life and animal-kingdom. The industries which produce smoke in large quantity are also prohibited by Jainācāryas. These types of industries are termed as 'mahārambha' or greatest sin and larger violence. It is considered as one of the causes
for hellish life. Thus, Jainas take into consideration not only the violence of small creatures but even earth, water, air, etc. also. The fifteen types of industries and bussiness prohbited for the house-holder are mainly concerned with, ecological disbalance, pollution of environment and violence of living beings. Jainäcäryas permitted agriculture for house-holders, but the use of pesticides in the agriculture is not agreeable to them, because it not only kills the insects but pollutes the atmostpheres as well as our food items also. To use pesticides in agriculture is against their theory of non-violence. Thus, we can conclude that Jainas were well aware of the problem of ecological disbalance and they made certain restrictions to avoid the same and to maintain ecological equilibrium, for it is based on their supreme principle of non-violence.
References 1. Uttaradhyayana, (Byavar) 32/29. 2. Ibid., 32/8. 3. Ibid., 9/48. 4. Acāråriga, (Byavar) 1/8/4. 5. Sutrakstānga, (Byavar) 1/6/23. 6. Uttaradhyayana, 6/6. 7. Ācāranga, 1/3/4 8. Sätrakṣitānga, 1/1/1/1. 9. Uttaradhyayana, 9/34. 10. Jain Journal, Vol. 22, July 1987, No. 1, pp. 16-17.
11. Ekka Manussa Jāi ? Gatha, 1/26.
(Compiled by Yuvacaraya Maha Prajña, Jaina Visva Bharti,
Ladnun) 12. Acãrânga, 1/2/3/75. 13. Tattvärthasūtra, (P.V. Varanasi) 5/21. 14. Sthānangasútra, 10/35. 15. Uttaradhyayan, 4/5. 16. Vaishali Institute Research Bulletin, No. 4. p. 31. 17. Sūtrakrtānga, 1/1/2/23. 18. Lokatattvanimaya (Haribhadra), 38 19. Mahadevastrotra (Hemacandra). 44.
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The Concept of Non-Violence in Jainism
The concept of non-violence has been preached by almost all the religions of the world. All the thinkers of humanity and the founders of religious orders universally accepted it as a core principle of human conduct and cardinal religious virtues. In Indian religions in general and Jainism in particular non-violence is considered as a supreme moral virtue (Ahimsa paramo dharmaḥ).
In Acaranga, a canonical Jaina Text of 4th cent. B.C., Lord Mahavira declares that "All the worthy men of the past, the present and the future say thus, speak thus, declare thus, explain thus, that all the breathing, existing, living and sentient creatures should not be slain, nor treated with violence, nor abused, nor tormented. This is the pure, eternal and unchangeable law or the tenet of religion." 'Bhaktaparijña' also mentions the superiority of non-violence over all other virtues. It says "just as in the world there is nothing higher than mountain Meru and nothing extended than the sky, so also (in the world) there is nothing excellent and universal than the virtue of non-violence.2 In Praśnavyakaraṇasūtra, non-violence is considered as a shelter to all the living beings. In it Ahimsa is equated with sixty virtuous qualities such as peace, harmony, welfare trust, fearlessness etc.3 For Jainas non-violence is a wider term comprehending all the virtues. It is not a single virtue but a group of virtues. Acarya Amṛtacandra in his famous work Puruṣārthasiddhupaya maintains that "all moral practices such as truthfulness etc. are included in Ahimsa (non-violence), similarly all the vices are comprehended in Himsā (violence) because virtues do not vitiate the real nature of self while vices do vitiate. Thus, in Jainism nonviolence represents all the virtues and violence all the vices.
The same view is also propounded in the famous Hindu work Mahabharata. It says 'As the foot-prints of all smaller animals are encompassed in the footprint of an elephant in the same way all the virtues (dharmas) are included in Ahimsa (non-violence). Further it maintains that there is nothing higher than the virtue of non-violences because it comprehends all the virtues" Lord Buddha in Dhammapada also remarks enmity is never appeased by enmity, but only by non-enmity- it is an eternal law.? In other words it is not the violence, but non-violence that can be accepted as an universal law of human conduct.
Not only in indigenous religions, but in the Sematic religions also non-violence is accepted as religious virtues. 'Thou shall not kill'8 is one of the ten commandments, which is perscribed by prophet Moses. In the Holy Bible Jesus Christ also said 'Love thy enemy'.? In Islam the supreme being (Allah) is called the Beneficent (Al-Rahman) and the Merciful (Al-Raheem). These injuctions of the great prophets and law givers of the world show that it is the doctrine of non-violence which can only be a universal law of an advanced human society.
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This universal acceptance of the ideal of non-violence does not mean that the ideal has been practised by all the religions of the world, in the same spirit and by all the means. In Vedic religion we have the injunction such as "Consider all the creatures of the world as your friend"10 or "see all the beings as your ownself"," yet in practice we find that; in early Vedic religion there are sanctions for not only animal sacrifices but for the human sacrifices also. In Vedas, we have the prayers to the deities for the total destruction of the enemy and victory over it.12 This shows that the primitive religion and early Vedic religion also were not very much cooped with the doctrines of nonviolence. It is also true in the case of Judaism and Islam. Though in Judaism 'thou Shalt not kill' is accepted as one of the ten commandments, but for the Jews people, this injunction only means not to kill the people of their own group and faith. Similarly in Islam, the ideal of non-violence is confined to the follower of their own faith. In it we have the sanction for Jehada. Both of these Sematic religions also have sanction for animal sacrifices. Thus, we can say that in early Vedic religion, Judaism and Islam alongwith the other primitive form religions of the world, the concept of non-violence is only confined to the non-violence towards the people of one's own group and faith. In the history of Sematic religion." Christianity for the first time totally condemned the human killing. Lord Jesus Christ bestowed his compassion on all the human beings, though in Christianity, we do not have any sanction for animal sacrifices in the name of religion, but for the sake of human food animal killing is allowed in it. In the history of indigenous religions Vaisnavism, Jainism and Buddhism, condemned all the violence towards the animal-kingdom. Though in Buddhist countries meat-eating is a common
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of Jina, there will be unintentional violence of one sensed being of earth, water etc. and there may occur unintentional violence of two or more sensed beings. But they never said that violence done in the name of religion is not violence at all, as Vedic scriptures propound. They say that it is a violence, done for the sake of the greater good of the individual and society. It is a little demerit conducive to greater merit. If in a situation violence is inevitable, Jaina thinkers advice to opt the lesser violence for the greater good. Intentional violence of immobile one-sensed living beings for lively-hood and in religious performances is permitted to house holders only.
practice yet we must be aware of the fact that this does not have any religious sanction on the part of Buddhism. Vaisnavism prohibit the violence towards the vegetable kingdom. It is in Jainism for the first time that the violence towards the vegetable kingdom as well as other subtle being of the water, earth, air and fire is totally shunned off. A Jaina monk neither can eat raw vegetables, nor can accept the meal which is prepared for him. He can drink only boiled water or water which is completely lifeless. He observes non-violence by all the nine means, i.e. (1-3) not to do violence through mind, body and speech, (4-6) not to order for violence through mind, body and speech and (7- 9) not to recommend violence through mind, body and speech.' So far as the conduct of house-holder is considered, he has been prohibited only from the intentional violence of mobilie beings.
In Pali tripitaka, Buddha himself prohibited the meateating to the monks, if it is seen, known or heard that the animal was killed for them. Though, Buddha allowed his monks to accept invitations for meals i.e. to accept the meals which is prepared for them. Buddha also not prohibited his monks from eating raw vegetable and drinking the water of well or river. All this shows a development in the meaning of the term non-violence. This development did not take place in a chronological order, but through the cultural and rational development of human society. The development in the meaning of the term non-violence is three dimensional : (1) to refrain from the violence of human beings, to vegetable kingdom and life existing in the finest particles of earth, water, air and fire (2) to refrain from the external act to the internal will of violence i.e. from outward violence to inward violence and (3) to refrain from the violence of other self to the violence of one's own self.
Rational Foundation of Non-Violence
Mackenzi, an eminent Western scholar, believes that the ideal of non-violence is an outcome of fear. But Indian thinkers in general and Jainas in particular never accepted this view. For them the basis of non-violence is the concept of equality of all beings. They based this ideal not on the emotional basis but on the firm footings of reason. The Daśavaikälika, a Jaina canonical text of 3rd century B.C. mentions that every one wants to live and not to die. For this simple reason Nigganthas prohibit the violence. It is also mentioned that Just as pain is not dear to oneself, having known this regarding all other beings, one should treat all the beings equally and should keep sympathy with all of them on the simple basis of equality. The simplest rule of our behaviour towards the others is 'whatever you desire for yourself and whatever you do not desire for yourself, desire that or do not desire that for others. This experience of likeness of all beings and the regard for the right of all to live are the basement for the practice of non-violence. It is not only in Jainism, but in Buddhism and Hinduism also non-violence is supported on the rational ground of equality of all beings.
In Dhamampada Lord Buddha also remarks 'All men tremble at torture and love life and fear death, remember that you are like unto them, so do not kill nor cause slaughter.20 In Isopanişad it is declared "For a man who realises this truth, all beings need, become the self; when one thus sees unity, what delusion and what sorrow can one have". This idea of the Isopanișad (6 & 7) is echoed thus, in the Gita : "The man whose self has been integrated by yoga sees the Self in all beings and all beings in the Self : he sees the same everywhere". Sarvatra samadarsinah. "One who sees, by analogy with oneself, the same everywhere, whether it is pleasure or pain, is the best yogi,
Religious sanction for violence and Jaina view-point
The acceptance for the 'inevitability of violence in the social and individual life is something different from giving it a religious sanction. Though Jaina thinkers accept that complete non-violence as they consider it, is not possible in this worldly life. Yet neither they gave the religious sanction to the violence nor they degraded this ideal of non-violence by saying it as impracticable. Even if some sort of violence is permitted to the house-holders and in some cases to monks in the Jaina scriptures such as Niśithacūrnil5 etc., they never say that this type of violence is not violence at all. For example, in building the temple
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The Concept of Non-Violence in Jainism
Atm'aupamyena samam paśyati. (Gitä, vi.29,32) Our classical commentators have rightly brought out the implication of this. By analogy with oneself (ätmaupamya) when one realizes that what is good or bad for oneself must be so for others, one would always do only what is good for others. He would be engaged in the welfare of all beings (Sarvabhutahita), hating none, and with friendliness and compassion for all.
Non-violence is nothing but to treat all living being as equal. The concept of equality is the core of the theory of non-violence. The observance of non-violence is to honour each and every form of life. According to Jaina point of view, all the beings have equal right to lead a peaceful life. Though violence is unavoidable yet it can not be the directive principle of our living, because it goes against the judgements of our faculty of reasoning. If I think that nobody has any right to take my life on the same ground, I have also no right to take another's life. The principle, 'live on others' or 'living by killing' is self-contradictory. The principle of equality propounds that every one has the right to live. The directive principle of living is not 'Living on others' or 'Living by killing' but 'Living with others', or Live for others (Parasparopagrahojivanām)," Though in our worldly life complete non-violence is not possible yet our motto should be 'Lesser violence is better Living'. It is not the struggle but co-operation is the law of life. I need other's co-operation for my very existence and so I should also co-operate in other's living.
The meaning of Non-violence
The term non-violence (Ahimsa) has various connotations. Generally it means not to kill, slain or hurt any living being. Ahimsa means abstention or refraining from himsā. Himsä means violence, injury, harm, deprivation, mutilation, disfigurement and causing pain and suffering to others. In Tattvärthasūtra the term violence is defined as to hurt the vitalities of a living being through the operation of intense passion infected activity of mind, body and speech. This definition of himsă covers two aspects external and internal. In Jainism, violence is considered of two types -- Dravyahimsa and Bhāvahimsā.22 The act of harming or hurting is Dravyahimsa i.e. external violence and the intention to hurt or to kill is Bhāvahimsā i.e. internal violence. There is a causal relation between Dravyahimsa and Bhavahimsa. Generally, Dravyahimsa caused by entertaining impure or passionate thought activities such as anger, pride, deceit, greed, sorrow, fear,
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sex-desire etc. An outer act of hurting others vitalities if proeceded by impure thought activity i.e, ill-will then it really becomes an act of violence. On the basis of dravya and bhava himsä we have four alternatives of violence (1) both intention and act of killing (2) only there is an intention of killing, not the act of killing. (3) act of killing minus intention of killing and (4) neither the act of killing and nor the will,23 though apparently it seems an act of hurting.
In Jainism, violence not only involves the killing or causing harms to other beings but it is also related to our ownself. To hurt the vitalities of other beings is called parahimsa, i.e. violence of others while to entertain impure thought activity or ill-will is the violence towards our ownself. Impure thought activity or ill-will injures the real nature of this soul by disturbing its equanimity. The evil thought activity vitiates the purity and equanimity of the soul hence called sva-himsa i.e. violence of our ownself. This violence of our ownself is more than the violence of others, because the later may only be possible when former had taken place. Generally, we cannot kill or cause harm to others without impure thought activity or ill-will i.e. the violence towards others implies the violence of our ownself. Bhaktaparijñā mentions "killing of other beings is killing one's ownself and compassion for others is the compassion for one's ownself." Thus, will is the mother of activity. Illwill causes sinful activity. The violence towards others can only be committed after committing violence towards one's ownself. Acaranga says, "he who ignores or negates other beings, ignores or negates one's ownself. He whom you wish to kill or control or on whom you wish to inflict suffering is yourself."24 We can not kill or harm other without killing our ownselfie. without vitiating our equanimity, the real nature of ourself. It is the attachment and hatred which make violence possible. In the state of equanimity i.e. non-attachment and non-hatred commission of violence is an impossibility. Thus, passions necessarily lead to the violence of our ownself as well as to otherselves. Acarya Amṛtacandra in his famous work Purūṣārthasiddhyupaya mentions "The absence of attachment and other passions is non-violence, while presence of these is violence. This is the essence of Jaina scriptures. There will be no violence even if vitalities are injured when a person is not moved by any kind of passions and is careful in his activity. But if one acts carelessly moved by the influence of passions, there is certainly a violence whether a living being is killed or not. Because a passionate person first
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injures his ownself through the self. It does not matter whether there is subsequently an injury is caused to another being or not."25 The will to injure and act of injuring, both constitute violence, but of these two, first is more vital, so far as the principle of bondage is concerned. Thus, in Jainism every activity of mind, body and speech infatuated with passions and carelessness is called violence and absense of violence is non-violence.
Positive aspect of Non-violence
Further, we must be aware of the fact that in Jainism non-violence is not merely a negative concept i.e. not to kill; but it has positive meaning also as compassion and service to living beings. Once a question was asked to Mahāvira 'O Lord, one person is rendering his services to the needy persons while other is offering pūjā to you, of these two who is your real follower, Mahavira answered 'first one is the real follower of mine, because he is following my teaching 26
Non-violence and War
Just as peace and non-violence are synonyms so are the war and violence. There can be no war without violence. One who is engaged in war is definitely engaged in violence. Though agressive and unjust wars have been condemned by all the religions yet defensive wars are considered as moral and just. Judiasm, Islam, Christianity and Hinduism all support those wars which are fought for a religious and just cause. Islam considers Jehad as a religious duty. In Hinduism Bhagavadgitā also supports war for the sake of just cause.
Now, we shall consider the position of Jainas in this regard. Jaina thinkers advocate non-resistance towards all the force whether used justly or unjustly. Jaina monks are totally prohibited for any resistance which involves violence. For Jainas, war is always immoral act, for it is always waged due to our attachment and involve violence: external as well as internal. In Jaina canons it is said "what is the use of fighting with others. If one wants to fight he should fight with himself because it is your passionate self which is to be conquered. One who conquers his ownself conquers four passions and five senses and ultimately conquers all the enemies.27 All wars have their origin in passions and attachment and so generally speaking are all unjust. Jaina monks are not permitted to violent resistance even for the protection of their own life, but as an exceptional case if the very existence of Jaina order is in danger, they are permitted
even for the violent resistence. In Jaina canons we have the example of Ācārya Kalaka, who engaged himself in warfare against the king of Avanti for the rescue of his nun sister Sarasvati.27 But all that resistances of that nature are considered as an exception. So far as ....... as an moral act.
So far as the house-holders are concerned, they are allowed to involve in such wars, fought for the just cause. But it should be noted here that the war fought for the just cause must be a defensive one and not an offensive one. The aggressive wars faught by Jaina kings were never considered by Jaina thinkers as moral act.
It was Jainism that gave the idea of wars where in violence was not involved. This spirit may will be understood by the story of Bharat and Bahubali; Bharat who wanted to be a Cakravarti King attacked Bahubali who accept his sovereignty. Both were engaged in war, refused to when they were suggested for a non-violent method of war, both of them agreed to. In our age Mahatma Gandhi had demonstrated the way of passive resistance i.e. Satyāgraha.
Jainism sets its goal as the ideal of complete nonviolence external as well as internal : The realisation of this ideal in the practical life is by no means easy. Non-violence is a spiritual ideal, fully realisable only in the spiritual plane. The real life of an individual is a physio-spiritual complex; at this level complete non-violence is not possible. According to Jaina thinkers the violence is of four kinds (i) deliberate (Samkalpi) or aggressive violence i.e. intentional killing (ii) protective violence i.e. the violence which takes place in saving the life of one's own or his fellow being or in order to make peace and ensure justice in the society (iii) Occupational i.e. violence taking place in doing agriculture or in running the factories and industries (iv) violence, is involved in performing the daily routine of a house-holder such as bathing, cooking, walking etc. The first form of violence must be shunned by all, because it relates to our mental proclivities. So far as the thoughts are concerned, a man is his own master. So it is obligatory for all to be non-violent in this sphere. From the behavioural point of view, deliberate violence is aggressive. It is neither necessary for self-defence nor for the living.
The Second form of violence is defensive taking place in the activity of defence. It becomes necessary for the security of one's life. External circumstances may compel a person to be a violent or to counter attack in defence of his own life or that of his companions or for the protection of his belongings. A person living in family is unable to
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keep away completely from this type of violence because he is committed to the security of family members and their belongings. It will not be possible for him to resist not-violently with success. Only a man, unattached to his body and material objects, his heart free from malice, can protect his rights non-violently. A non-violent opposition only may be fruitful against an enemy with human heart.
So far as occupational violence is concerned everyone cannot shake it off. For so long as a person has to earn his livelihood and to seek fulfilment of his physical needs, deliberate violence of vegetable kingdom is unavoidable. In Jainism intentional violence to mobile animals by a house-holder has been forbidden even when it becomes necessary for the maintenance of life and occupation.
Undoubtedly one or other form of violence is inevitable in our life, but on this basis we can not take deision that the observance of non-violence is of no use in the present. Just as violence is inevitable in the world for living, non
The Role of Parents, Teachers and Society in Instilling Culture
Values
Meaning of Culture Values
When we talk about instilling culture-values in our children, we should be clear about one thing: What do we mean by culture-values? What kind of values do we want to teach? Do we want to continue the present hypocritical double standard in the name of culture and tradition? Are we not keeping alive a culture, devoid of any real values, a mere pomp and show, where in the gap between saying and doing is too wide and deep to cover it? Do we want our children to make outward claims of religion, morality, good conduct and behaviour at places of worship, temples, churches and social gatherings while in the work place and at home, to be involved in deception, intrigue and immoral behaviour? I am saying this because perhaps we have the same expectations from our children. Today, we want our youngsters to become successful businessmen, officers or politicians. But whether a person having good character and doing what he thinks and says, may be successful presently in any field? These days, curruption is so widespread in politics, administration and business, it seems
violence is also inevitable for the very existence of human race. So far as the existence of human society is concerned it depends on mutual co-operation, sacrifice of ones interest in the interest of his fellow-beings and regard for other's life. If above mentioned, elements are essential for our social life, how can we say that non-violence is not necessary for human life. Society does not stand on violence but on non-violence, not on fulfilment of self-interest but on sacrifice of self-interest, not accepting our own rights but in accepting the rights of others as our duty. Thus, we can say that the non-violence is an inevitable principle of the existence, for human society. At present we are living in age of nuclear weapons and due to this the existence of human race is in danger. At present it is only the observance of non-violence, which can save the human race. It is mutual credibility and the belief in the equality of human beings which can restore peace and harmony in human society.
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that no one with good character and morals can be successful. Even in the field of so-called religion, the success of such a person is doubtful pecause there too fundamentalist monks, sectarianism, the blind pursuit of name and fame are so strong that the difference between words and deeds is clearly visible. Our so-called 'good', yoga teachers and masters of religious establishments are clear examples of this dualism. Thus, we need to be clear what we mean by building the character of our youngsters. Do we want a 'successful' person or a truthful and honest one? It seems that in our heart of hearts, we want our youngsters to be successful but seemingly truthful and honest. It is a bitter fact that while talking about a wellcultured child, we do not mean more than formal courtesy, etiquette and blindly following old traditions.
Does instilling culture-values imply adopting the modern Western culture of materialism and lavish luxurious living without good conduct and morality? To this end, now-a-days, not only in the prosperous high class but even in the middle class, people have the desire to send their
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children to convents. Though the children in convent schools learn outward formality and etiquette, they are largely poor in moral and spirutual values.
Alternatively, in the name of culture and tradition, do we want to instill sectarianism, religious fanaticism, prejudice and/or lifeless ritualism in our children? Many people who talk of character building have such hollow objectives. They expect their children to have blind faith in religious concepts and traditions.
Thus, before discussing the problems of instilling culture and tradition in our youngsters, we should define what we mean by a cultured person. Does it mean one who is successful in the present atmosphere? Does it mean one who is Westernized in attitude and conduct? Does it mean a child who is religiously attached to traditional rituals? Or do we want our youngsters to have spiritual outlook and to have faith in humanitarian values?
In my view, when we think beyond our personal interests and religious prejudices and set aside indulgence towards our child, we will clearly see that, in reality, a cultured person is one who has good intentions and immaculate conduct. In fact, culture means good character. Culture means moving away from animal instincts and imbibing human values. Culture can be instilled in children by teaching them such qualities as self-control, rational outlook and co-operation. Let us now consider how we can accomplish our goal.
unfortunate that this thinking is dominant not only in the field of education but also among the parents and administrators. Today, parents want their children to study the subjects leading to prosperity and authority. We want our son to become a doctor, an engineer or a government officer not because he will become more useful to the society but because he will have authority and weath. This blind pursuit of power and wealth has polluted our outlook towards education. This materialistic outlook is not producing good educated human beings but it is breeding the devil' in us. Our education is turning out everything but a human being. But can an education, not breeding human values and not making man a man be called education? Today, education is related to bread and not to character. Today, the significance of education is not building a good character but producing a clever diplomat. The government is under this delusion. Our (Indian) government thinks that teaching of ethics is against the ideal of secularism, but does secularism imply immorality and unethical conduct? The teaching of ethics has been discarded in the name of secularism. We may print the motto
sā vidya ya vimuktaye (education is, that leads to liberation).
But our present system of education is not concerned with it. Moral and spiritual values do not have any place in today's education although the commissions recently set up by the government have stressed the urgent need for the teaching of morals and ethics in their reports. Today's educators and students, both are slaves of money. On the one hand, the teacher teaches not because he is interested in developing the character of his students but because he gets his salary. On the other hand, the government, the parents and students do not consider him to be a GURU (master) but a servant. When GURU is reduced to the status of a servant, then the expectations of instilling culture values are invain. These days the GURU-student relationship is business like - a bargain. In our ancient scriptures, education has been described as the nectar of life but today it has been reduced to the status of means of earning the livelihood. We have forgotten the basic goal of education. In the words of the famous Urdu poet Firaq: Sabhi kuch to ho raha hai is a tarakki ke jamảne men Magar kyā gajab hai ki ādami insan nahin hota
(Everything is happening in this age of progress but the tragedy is that man is not becoming a human being.)
Today's education is turning out doctors, engineers,
Avoid Certain Fallacies about Education:
It is unfortunate that most of us do not understand the purpose of education. Neither gaurdians nor teachers politicians nor society understands the real motive behind what is being taught. Most of us have forgotten that an important purpose of education is instilling-culture values. There seems to be a chaos in the field of education and consequently people merely link education to livelihood. Materialistic thinking limits the purpose of education to prepare an individual to earn his livelhood. However, if the goal of education is just earning bread, what is the difference between man and animal? It is said :
Ahār nidra bhayamaithunam ca
sāmānyametad paśubhih naränām (Eating, sleeping, fear and sex, these four instincts are common between men and animals.)
It is a fact that bread comes first but it is not the ultimate goal of life. So why, only earning the bread is being considered the goal and the end of education? It is
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lawyers, etc. but to some extent, it is not producing good human beings. Unless education instills moral and spiritual values in a child, it can not produce human beings. Our primary responsibility is to make man a man, to instill culture values in our youngsters. The famous American thinker Tufts writes:
Thus, according to Tufts, the purpose and end of education is to sow the seeds of good character and good values in a human being. Since the independence of India, the commissions, set up to study and suggest reforms of education, headed by the famour philosopher, Dr. Radhakrishnan, the famous scientist, Dr. D.S. Kothari, and the famous educationist, Dr. Mudaliyar, all came to the conclusion that education must relate to human values. As long as this is not done, as long as education does not sow the seeds of good character traits, instead of good human beings, our colleges and universities will continue to turn out people with undersirable attitude and tendencies.
Education is for character building, by character children may not come in the way of their indulgence or building and of character building. they may not pick up the undesirable habits and conduct of their parents. In this context the couplet written by an Urdu poet seems to be appropriate:
Tifl men boo aai kyaa ma baap ke itwaar ki Doodh to dabbe ka hai taaleem hai sarkar ki (How can an offspring adopt the faith of the parents? He is the given canned milk and (British) government's education.)
We can not depend on others to instill our culture and traditions in our children. If parents want their children to imbibe the sound and health, features of our ancient Indian culture, they will have to lead a clean life of self-control and self-sacrifice. They will have to be immaculate in their livelihood and behaviour.
The Role of Parents and Guardians in Character Building:
It is true that family is the first school for a child where the seeds of culture values are sown. A child spends about 18 out of 24 hours with the family members. Thus, naturally he or she is most influenced by the character of his family members. Now the question arises: Are today's parents in a position to teach good character to their children through their actions? If the parents are busy in the pursuit of their own interests and material pleasures, then it seems impossible for children to learn good values. Many parents of high class, affluent families lead a luxurious life, greatly influenced by materialism of modern culture. It is rather difficult to imagine that their children will keep away from materialism. On the contrary, it is seen that such youngsters develop many undersirable habits and behaviour. First, such families are adopting non-vegetarianism and using intoxicating drinks, thus moving away from good, healthy, clean diet. Secondly, their untamed desires have put a question mark on the purity of their character. Thirdly, because of the greed for money, the reliability and simplicity of their lives is being eroded. It is evident that such atmosphere is not conducive to the building of good character of children. If the parents spend much of their time in offices, parties and clubs, and the children are left in the care of servants and baby-sitters, they lose intimacy
with their children. Thus, how can their children be expected to learn culture values? This also applies to the children of working parents. In many cases, the character traits developed by such children are of the servants and babysitters and not of the parents. Many people send their youngsters to Western-style boarding schools so that their
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What should Parents and Guardians Do?
1. Parents and guardians should have an immaculate, cultured and ethical conduct so that they produce a good influence on the youngsters.
Parents and guardians should watch the kind of company their children keep. Peer pressure has tremendous effect on youngsters.
3. We should select the schools carefully. We should respect the teachers and teach our youngsters to do the
same.
4. We should select the boarding schools and dormitories carefully for our youngsters.
5. As far as possible, the children should not be left in the custody of servants and baby-sitters. We should spend as much time with our children as possible.
6. We should provide good literature for reading and should try to keep our children away from 'dirty' books, films and records.
2.
7. We would educate our children about our values with the medium of moral stories and the life stories of great
men.
8. We should take our children to meet with noble. educated and cultured personalities.
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Equanimity and Meditation (Sāmāyika and Dhyāna)
Sāmāyika is the principal concept of Jainism. It is the first and foremost among six essential duties of a monk as well as of a house-holder. Präksta term Sämäiya is translated into English in various ways such as observance of equanimity, viewing all the living beings as one's own self, conception of equality, harmonious state of one's behaviour, integration of personality as well as righteousness of the activities of mind, body and speech. Ācārya Kundakunda also used the term samāhi (samadhi), in the sense of sāmāyika where it means a tensionless state of consciousness or a state of self-absorption'. In its general sense the word sāmāyika means a particular religious practice through which one can attain equanimity of mind. It is an end as well as means in itself. As a means it is a practice for attaining equanimity while as an end it is the state in which self is completely free from the flickerings of alternative desires and wishes, excitements and emotional disorders. It is the state of self-absorption or resting in one's own self. In Avaśyakaniryukti, it is mentioned that the sāmāyika is nothing but one's own self in its pure form”. Thus, from transcendental point of view, sämāyika means realisation of our own self in its real nature. It is the state in which one is completely free from attachment and aversion. In the same work Arya Bhadra also mentions various synoyms of sāmāyika'. According to him equanimity, equality, righte- ousness, state of self-absorption, purity, peace, welfare and happiness are the different names of sāmāyika. In Anūyogadvārasūtra, Avaśyakaniryukti and Kudakunda's Niyamasăra', sāmāyika is explained in various ways. It is said that one who by giving up the movement of uttering words, realised himself with non-attachment, is said to have supreme equanimity? He, who detached from all injurious or unpious actions, observes three-fold control of body, mind and speech and restrains his senses, is said to have attained equanimity. One who behaves equally as one's own self towards all living beings mobile and immobile, is said to have equanimity. Further, it is said that one who observes self-control, vows and austerities, one in whom attachment and aversion do not cause any disturbance or tension and one who always refrains from indulgence, sorrow and ennui, is said to have attained equanimity or sāmāyika!
This practice of equanimity is equated with religion it self. In Ācārārga, it is said that all the worthy people
preach religion as equanimity'. Thus, for Jainas, the observance of religious life is nothing but the practice for the attainment of equanimity. According to them, it is the essence of all types of religious activities and they all, are prescribed only to attain it. Not only in Jainism but in Hinduism also, we find various references in support of equanimity. Gitá defines yoga as equanimity. Similarly, in Bhagvati it is said that the observance of equanimity is the worship of lord!).
The whole frame-work of Jaina sadhanā has been built on the foundation of sämāyika i.e. the practice for equanimity. All the religious tenets are made for it. Acārya Haribhadra maintains that one who observes the equanimity or samabhāva will surely attain the emancipation, whether he belongs to Svetāmbara sect or Digambara sect, whether he is Bauddha or the follower of any other religion. It is said in Jaina religious texts that one who observes hard penances and austerities such as eating once in a month or two as well as one who makes the donations of crores of golden coins every day, can not attain emancipation unless he attains equanimity. It is only through the attainment of equanimity of mind that one can get emancipation or liberation. Acārya Kundakunda says "what is the use of residing in forest, mortification of body, observance of various fasts, study of scriptures and keeping silence etc. to a saint, who is devoid of equanimity" (Niyamasāra, 124).
Now we come to the next question how one can attain this equanimity of mind. Mere verbal syaing that I shall observe the equanimity of mind and refrain from all types of injurious activities does not have any meaning unless we seriously practise it in our own life.
For this, first of all, one should know what are the causes which disturb our equanimity of mind and then make a n endeavour to eradicate them.
It is very easy to say that one should observe the equanimity of mind, but in practice it is very diffcult to attain it. As our mental faculty is always in grip of attachment and aversion, what so ever we think or do, is always motivated by either attachment or aversion. Because the vectors of attachment and aversion are solely responsible for the disturbance of mental equanimity so the practice to attain equanimity depends on the eradication of attachment and aversion. So long as we do not eradicate the attachment and aversion, we are unable to attain equanimity.
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Equanimity and Meditation (Sāmāyika and Dhyāna)
Now, our attention turns to the eradication or attachment and aversion. How we can get rid of these two enemies of equanimity. Attachment is another name of mineness and this mineness can only be uprooted through the contemplation of ektva bhāvanā and anyatva bhavana i.e. nothing is mine except my own self. In Aurapaccakhāna, it is clearly mentioned that if we want to conquer the mineness we must have to contemplate on the transitory nature of worldly things as well as of our own body. Only he who perceives that the death is coming nearer and nearer every moment, can see the things in their right perspective. samyagdarśana is nothing but to have a proper under- standing of the worldly things. One, who perceives one's own death and transitory nature of things, can never be attached to them. When mineness disappears, otherness also disppears. For these two are the relative terms and without onc, other also loses its meaning and when the idea of mineness as well as otherness dissolves, attachment and aversion disappears and equanimity dawns.
There is only one way to attain the equanimity of mind and that is through the contemplation of real nature of one's own self as well as of worldly things. One can eradicate the vectors of attachment and aversion and thus attain cquanimity. And it is through self-awareness that one can be steady and firm in the state of equanimity or self-absorption. Equanimity needs proper understaning of
real nature of one's own self as well as of others. In Niyamasāra, it is said that one, who meditates in one's own real nature with non-attached thought, activity and realises his self through righteous and pure concentration, can attain the supreme equanimity. One, who always practises the dharma dhyāna (righteous meditation) and sukla dhyana meditation of pure-form or real nature) can attain the equanimity. Thus, sāmāyika is closely related to meditation, without meditation and self-awareness no one can attain the equanimity of mind. Kundakunda further maintanins that one who is absorbed in righteous and pure meditation is the antarātmā or sadhaka and one who is devoid of such contemplation or meditation is called bahirātma. The realisation of self is only possible through equanimity and equanimity is possible only through the meditation of one's own real nature (Niyamasara, 15, 147).
At last, I would like to conclude my paper by quoting a beautiful verse of Sāmāyika-pātha of Acārya Amitagati
Sattveșu maitrim gunisu pramodam klistesu jiveșua krpāparatvam. Madhyasthyabhavam Viparita vịttau Sada mamātmā vidadātudeva.
Oh Lord! I should be friendly to all the creatures of world and feel delight in meeting the virtuous people. I should always be helpful to those who are in miserable conditions and tolerant to my opponents."
References 1. Amgasuttāni-1, Jaina Visva Bharti, Ladanun, 1974. 2. Acaränga Curni, Jinadasa Gani.R.K.S.S. Ratlam, 1941 3. Acārānga tikā (1st Srutaskandha), Siddhacakra Sāhitya
Pracăraka Samiti, Surat, 1934. 4. Ayāro-Comment., ed. & trans. by Ācārya Mahaprajna, Jaina
Canonical Text Series, Jaina Viśva Bhārati, Ladnun, 1981. 5. Bhagavatisūtra-Tikā, Agamodaya Samiti, Bombay, 1918. 6. Jaina Sūtras, Hermann Jacobi, (S.B.E.S. Vo. XXII, pt. I),
M.L.B.D., Delhi, Rep. ed. 1964.
7. Mahāvīra-Carita-Mimāmsă (Guj.) Pt. 1, Pt. D.D. Malavania,
Ramesh Malavania, 8, Opera Society, Ahmedabad, 7, 1992. 8. Niryukti-Samgraha- ed. Vijayanemisuri, Harsa Puspamrta
Jaina Granthamala (189), Lakhabaval, Santipuri, Maharastra,
1989. 9. Sätrakrtānga-Tīkā, pt. 1, Agamodaya Samiti, Bombay, 1919. 10. Sthănânga-Tika, Seth Maneklal Cunni lal, Ahmedabad,
1937. 11. Vyavahārabhāsya Tika, Vakil Kesavalal Premchand, 1926.
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The Concept of Vibhajjavada and its Impact on Philosophical and Religious Tolerance in Buddhism and Jainism
Buddhism and Jainism both belong to the same Śramanic tradition of Indian Culture, Gautama, the Buddha and Vardhamāna, the Mahāvīra were contemporaries. The philosophical awakening was the main feature of their age. The various religio-philosophical problems and questions were put before the religious leaders and thinkers and they were expected to answer and to solve these. The various answers were given to the same problem by different thinkers, and owing to this difference of opinions on the philosophical problems, the various philosophical schools emerged in that age. According to the Pali Tripitaka there were sixty two schools or sixty two different views held by different teachers on the nature of man and world, and according to Prākrta Agamas there were three hundred sixty schools. Each one of them was claiming that his view was the only right view (samyagdrști) and other's views were false views (mithya- drsti). But according to Buddha and Mahavira all of them have one sided picture of the reality or the phenomenon which is a complicated one. Both of them found that these various philosophical and religious schools and sects were conflicting with each other without understanding the problem itself and cling to onesidedness. This onesidedness, is due to the absence of analytic approach towards the pro- blems and improper method of answering the questions. If philosophical questions are answered catregorically or absolutely they present only onesided picture of the fact or phenomenon and thus create a false notion. According to the Jaina thinkers the onesidedness (ekānta) and the claim that my view is the only right-view (āgraha) are considered as false notions (mithyātva).
For Buddha and Mahavira both, the true method of answering the philosophical questions is the method of analysis. Only an analytic approach towards the philosophi- cal problems can give us a right vision. Both of them suggested that the philosophical questions should be answered after analysing them. This method of analysis was called as vibhajjaväda in both the canons. Buddha and Mahavira both claimed themselves as vibhajjavādins. In Buddhist order at the time of Asoka only the Vibhajjavādins were considered as the true followers of Buddha. In Anguttarnikāya it is mentioned that there are four methods of answering a question -- (i) answer to a question en-toto
i.e. absolutely (ekāmśavada). (ii) answer to a question after analysing it into various parts (vibhajjavāda), (iii) answer to a question by raising a new question and (iv) to keep silence.' Buddha and Mahăvira both preferred the second method i.e. vibhajjavāda, though Buddha sometimes used the first, third and fourth methods also. It is mentioned in the texts that Buddha himself claimed as Vibhajjavādin. Prof. S.Dutt in his book "The Buddha and Five After Centuries' says "perhaps the word Vibhajjavādin originally meant one whose method was to divide a matter posited into its component parts and deal with each part separately in his answer and not with the whole matter in en-toto fashion." This method of vibhajjavāda i.e. the method of analysis is well illustrated in Subha-sutta of the Majjhimanikāya. Subha asked Lord Buddha, 'whether a busy life of a man of the world is to be preferred or a monk's reposeful life?' Buddha answered - 'the busy life may be a failure or success and so too the life of repose.' Similarly in the Jaina text Bagavatisūtra, Jayanti asked Mahăvira whether sleeping is good or awakening is good ? Lord answered that for a sinner sleeping is good and for a saint awakening is good. This analytic approach towards the problems shows that the relative answer is the proper method to deal with the problems, whether they are philosophical, religious, ethical or the problems of everyday life. Absolute or categorical answer explains only one aspect or the part of the problem and other aspects of the problem remain unexplained.
Thus, we can say that analytic approach towards the problems gives us broader outlook to understand them and we are more nearer to the truth.
It is due to vibhajjaväda, an analytic approach, the theory of anekāntavāda, in Jainism and sünyavāda in Buddhism came into existence. The positive analytic approach of Lord Mahavira gave birth to anekantavāda and sydvāda and the negative analytic approach of Lord Buddha later on gave birth to śünyavāda. Both are, in fact, the ofshools of vibhajjaväda, or analytic method. Here I am not going into the details that how the theories of anekantavāda and súnyavāda emerged from vibhajjavāda. It is a matter of an independent paper. Here my submission is that this method of analytic approach towards the philosophical, ethical and other problems, has given a
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The Concept of Vibhajjavāda and its Impact on Philosophical and Religious Tolerance in Buddhism and Jainism
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This
broader perspective to understand the things. Buddha and Mahāvira, both condemned onesided narrow outlook. For both, it is the main cause of religious as well as philosophical quarrels leading to intolerence. It is said, "one, who sees only one aspect of the reality is ignorant, a real scholar sees hundreds of aspects of it."2 "The person who possesses only onesided view quarrel with each other."' In Suttanipāta Lord Buddha says, "He, who does not acknowledge an opponent's doctrine (dhamma), is a fool, a beast, a person of poor understanding. All those who abide by their own views, are fools with a very poor understanding". 4 "One who is firm in his own view and holds that his opponent is a fool; thus he himself brings on strife calling his opponent a fool and impure." Further, Buddha says "There are two results of a dispute, first it is incomplete (picture of the truth) and secondly it is not enough to bring about tranquility. Having seen this, let no one dispute understanding khema (i.e. peace). It is the place where there is no dispute."6 "Those who maintain their own dhamma as perfect and other's dhamma as wretched, say that their own views (opinions) are the truth and so having disagreed, they dispute. One becomes low by the condem- nation of the others. There will be no one distinguished amongst the dhammas if they condemn other's views." Here I have mentioned only a few passages of Lord Buddha in support of religious tolerance. For further details in this regard, the study Culla-viyūha and Maha-viyūha-suttas (i.e. chapter 50 and 51) of Suttanipāta, is suggested where these points are further elaborated.
Jainism believes in the theory of anekāntavāda which means that the views, the ideologies and the faiths of others should be respected. Mahāvira like Buddha mentions in Sutrakstänga. "Those who praise their own faiths and ideologies and blame that of their opponents and thus distort the truth, will remain confined to the cycle of birth and death." It is further maintained that "all the nayas (view-points) are true in respect of what they have themselves to say, but they are false in so far as they refute totally other nayas (i.e. the view points of the opponents). Those, who take different view points (nayas) together and
thus grasp all the aspects of a thing (fact or phenomenon) have a right understanding, just as those who with eyes, are able to grasp an elephant as a whole and not like the blindmen, who take one particular part of an elephant as a whole elephant." It is this broader outlook which can establish harmony among the apparently conflicting views of various religions.
This broader outlook for religious tolerance is maintained in Buddhism till the period of Asoka, because we find so many evidences about religious tolerance and religious co-existence from the inscriptions of Asoka. But I do not know, whether this outlook of religious tolerance and harmony was further maintained or not by Buddhism in India. I request the scholars of Buddhism to enlighten us in this regard. Though it is true that Buddhism has shown this broader outlook every where outside India and remained there co-existing with the earlier religions of those countries.
So far as Jainism is concerned this religious tolerance and harmony is maintained by the later Jaina Acaryas also. In one famous Jaina text of 3rd B.C. namely Isibhāsiyaim the views of different teachers of Sramanic and Brahmanic trends like Nārada, Bhāradvāja, Gautama Buddha, Marikhali Gosāla and many others, have been presented with regards. They are called as Arhat Rsis and their preachings are regarded as Āgamas. I would like to conclude my paper by quoting these two beautiful verses of religious tolerance of Haribhadra (C. 8th A.D.) and Hemacandra (C. 12th A.D.) respectively. Haribhadra says --
na me pakşapāto vīre na dveşo kapiladişu / yuktimadvacanam yasya tasya kārya parigraha //
I have no bias towards Lord Mahāvīra and no disregard to Kapila and other saints and thinkers. Whatsoever is rational and logical ought to be accepted. Hemacandra says --
bhava bijānkurajanană rāgadyakşayamupăgată yasya brahmă vă vişnurvā haro va jino-vā namastasmaih//
I bow all those who have overcome the attachment and hatred which are the cause of worldly existence, be they Brahma, Visnu, Siva or Jina.
Reference 1. Anguttarnikāya, Vol. II, p. 47. 2. Theragāthā, 1/106. 3. Udana, 6/4. 4. parassa ve dhammamananujanam balo mago hoti nihina
panno
sabbe bala sunihina panna sabbevime ditthi parivvasana
-Suttanipāta, 50/3(880) sakayane capi datthaham vadano kamettha balo ti para daheyya sayameva so methagamavaheyya param vadam balamasuddha dhammam
-- Suttanipāla 50W 161893)
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Aspects of Jainology Volume VI
6. appam hi etam na alam samaya dube vivadassa phalani brūmi
evam pi disva na vivadiyetha khemami passam abibada bhumim
-- Suttanipäta 51/2(896) 7. sakam hi dhammam paripunna mahu annassa dhammassa pana hinamahu
evam pi viggataha vivadiyanti sakam sakam sammuti mahu
saccam
parassa ce vambhayitena hino na koci dhammesu visesi assa puthu hi annassa vadanti dhammant nihinato samhi davvaham badana
--Suttanipäta, 51/10-11(904-905) 8. sayam sayam pasamsamta garahamta param vayam je u tattha viusamti samsare te viussiya
-- Sütrakṛtänga, 1/1/2/23.
9. See, Samanasuttam, 728, 730 and 731.
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The Teachings of Arhat Pārsva And The Distinctness of His Sect
Among the Nirgrantha Tirthankaras, the historicity of Arhat Parsva as well as of Jina Vardhamana Mahāvīra has been fully established. Inscriptional and literary evidences play an important role in establishing the historicity of a person. The earliest inscription relating to Parsva, of the 2nd or 3rd century A.D.,' has been found from the Kankali Tilă, Mathura. It is inscribed on an image of Parśva, installed by Ghosaka, a disciple of Gani Aggahiniya of the Sthaniyakula of the Kottiya-gana, a sub-order of friars and nuns also noticed in the hagiological list (earlier part, c. A.D. 100) of the Paryusana-kalpa (compiled c. A.D. 503/516). Though uninscribed, a more than life size sculpture of Pārsva (upper part mutilated)3 and a tiny figure of Pārsva as the central focus of an ayagapatta, both stylistically datable to the period of the Saka king Sodas (c. early 2nd cent. A.D.), prove that Arhat Parsva was venerated in, and arguably before, that period. A metal image of Parsva in the Prince of Wales Museum, variously dated between the 2nd-1st cent. B.C. to c. 2nd cent. A.D., is one more early piece in evidence.
The inscriptional as well as the literary references to the Nirgranthas, however, are met with from c. third century B.C. The term "Niggantha" is mentioned in the inscription of Maurya Asoka and is fairly frequently met with in the Pali Tripitaka' (usually, of course, in hateful and denegatory terms) though this cannot be taken as a conclusive evidence for the earlier church of Parsva because the term Niggantha by then also had included the sect of Mahavira. In point of fact, the Pali canon confounded a few views and teachings of these two historical Tirthankaras. As demonstrated in the early days of the Nirgranthic researches by Jacobi, in the Tripitaka it is said that Niggantha Nataputta (Mahavira) preached căturyama-samvara, while in point of fact the preacher of the caturyama-dharma was Arhat Pärśva and not Mahavira according to the Ardhamăgadhi canon of the Nirgranthas themselves." Mahavira preached five-fold great vows (pañca-mahāvratas) and not the caturyāma-saṁvara.
What we today can know about the teachings of Arhat Parsva and the distinctness of his sect from that of Jina Vardhamana is only through the available Ardhamägadhi canon preserved in the Northern Church of Mahavira, because the ancient church of Parsva was later progressively
absorbed in the former and the records and texts relating to its hagiology and history are long lost.
Nirgranthologists like Pt. Sukhlal Sanghvi and others were of the opinion that the Purva literature (so often mentioned in the canonical literature from the late Kuṣaṇa period onward) had belonged to Pārsva's tradition."" At present, however, no texts of that category of specification exists. Today, in so far as our knowledge of Pārsva's teachings and traditions goes, we are dependent on the canonical literature of Mahavira's tradition, and, to a very small extent, on the Pali canon of the Buddhists as well.
In the Ardhamagadhi canon, the Isibhāsiyain (Rṣibhāsitani1 the Acaranga," the second book, the Sütrakṛtänga." the Vyakhyaprajdapti," the Jñatädharmakatha," the Uttaradhyayana and the Raja-Pradesiya," the Narakavalika." and the Sthānanga" reveal some significant references to Pārsva, his teachings as well as traditions. In the Uttarädhyayana, the Samaväyänga," the Avasyakaniryukti, the Visesavasyakabhasya of Jinabhadragani kṣamāśra-mana," the Avasyakacum and in the Paryusana-kalpa" as well as in the Mülācāra of the Yapaniya Church there are references to some distinctive (and hence distinguishing) features of the sects of Parsva and Mahavira.
23
On Parsva's life and the history of his times and of his sect, scanty material is traceable in these works; yet it is significant that they contain sufficient material pertaining to the ethical teachings and philosophical doctrines of Pārśva. They also firmly point toward the distinctness of Pārsva's sectarial tradition from that of Vardhamana.27
The Teachings of Parsva in Isibhäsiyain
The earliest and authentic version of Pārsva's philosophy and teachings is encountered in the Isibhäsiäin (Rsibhāṣitāni)," a text compiled c. 1st cent. B.C. but often containing material that goes back to c. 4th century B.C., some even perhaps earlier. In a separate article,29 I had suggested that the Isibhāsiyāiñ, in terms of some of its content, is earlier than the whole of Pali as well as the Ardhamagadhi canonical literature excepting of corse the first book of the Acaranga. M.A. Dhaky opines that this text belongs to Pärśva's tradition. I, however, hold a different view. In my opinion the text, in earlier times, might have
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Aspects of Jainology Volume VI
been composed in Pärśva's tradition as an independent text, but later on it was assimilated in the Praśnavyā- karanasūtra, considered to be one of the ten Daśā texts as well as the tenth work among the 11 Anga-books of Mahāvira's tradition.
The Isibhāsiyāiñ has an independent chapter on Pārsva's doctrines and teachings. The authenticity of the Pārsva's view presented in this chapter cannot be doubted for various reasons. First, the Isibhäsiyaiñ contains the teachings not only of Pārsva but also of Arhat Vardhamāna of the Nirgrantha Church, Mankhali Gośāla of the Ājivaka sect; Vajjiyaputta, Mahākassapa, Indranaga and Säriputta of the Buddhist Church, and Yājñavalkya, Asita-Devala, and Uddālaka-Aruni of the Vedic tradition. When we compare the views of the aforesaid saints mentioned in the Isibhäsiyain with the texts of their own traditions, we notice general similarity between them, which by and large proves the authenticity of the content of the Isibhåsiyain. If the author of the work in presenting had remained faithful to the original teachings of the rșis or teachers of the other sects, we must conciude that he also was faithfully presenting the views of Pärśva. Second, we find that the teachings of Pārśva presented in the Isibhāsiyāin corresponds to that which is stated of Pärsva's church in other canonical works like the Sūtrakrtânga, the Uttaradhyayana, and the Vyākhyāprajñapti. Third, the authenticity as well as high antiquity of the Pārsva-chapter in the Isibhāsiyain can also be supported on the ground that this chapter is represented by its two separate versions. It is said that the second version of this book originally was found in the text named Gati-vyākarana i.e. the Praśnavyākaraṇa. The reference thus runs:
farurientait affo JO FITI 5H 3uut aa 5HT बीओ पाढो दिस्सति
The views of these two versions of the same chapter fully correspond to each other with slight difference in content and to an extent in language, a few details figuring more in one than in the other. Thus, at a very early date, two versions (vācanās) of the same subject had existed. This chapter contains philosophical as well as ethical views of Arhat Pärsva. First of all, in this text, the views of Parsva about the nature of the world are stated. To explain the nature of the world the following five questions were raised: (1) What is the nature of the world (loka)? (2) What are the different planes of the world? (3) To whom the world belongs?
(4) What does one mean by (the term) "world"? (5) What is the meaning of the term loka? Answering these five questions Arhat Pärśva said: (1) The world consists of the animate beings and the
inanimate objects. (2) There are four different planes of the world:
(i) Material (dravya) (ii) Spatial (kşetra) (iii) Temporal (kāla)
(iv) Existential (bhāva) (3) World inheres in selfhood. It exists by itself. In the
perspective of commandeering position the world belongs to animate beings but in the perspective of its constitution, it belongs to both animate and the inanimate. As for the existence of the world, it is eternal, with neither the beginning nor the end but is ever changing
and (thus) dynamic in nature. (5) While explaining the meaning of the term loka, it is
said that this world is called loka, because, it is known or experienced or recognized. (The Sanskrit term lokāyata means to be known or to be recognized.) To explain the nature of motion the following four questions have been raised: (a) What is motion or gati? (b) Who meets this motion? (c) What are the different forms of motion?
(d) Why is it called gati, motion? Answering these questions about the motion Arhat Pärśva said: (a) Any motion or change in existence in animate and in
the inanimate beings is called gati. (b) Animate and inanimate (substances) encounter motion
or change. This change is of four types: substantial,
spatial, temporal and existential. (c) The existence of movement or change is also perennial
with no beginning or end. (d) It is called gati because it has motion. About the karma philosophy and the moral teachings of Arhat Pārsva, it is thus recorded: 1.
their inherent (abstract) nature, while the matter has a downward motion by its intrinsic nature (inertia). The animate beings reap the fruits of their deeds according to their (good or bad) karmas or activities, while the changes in inanimate substances take place due to their dynamic nature.
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The Teachings of Arhat Päráva And The Distinctness of His Sect
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The animate beings are activity-oriented, the inanimate substances are change-oriented or dynamic in nature.
The animate beings have two types of experience, of pain and pleasure. Only those who can get rid of violence and other evils including wrong viewpoint will have the feeling of bliss. A Nirgrantha, who eats only inanimate things, will meet emancipation and thus will end the transmigratory cycle.
In the second version of this chapter the following additional concepts are also mentioned: (1) The motion is of two types: (i) self-motivated and (ii)
generated by external factors. (2) Whatsoever a person experiences, it is due to his own,
and not due to other's deeds. (3) Those who observe the căturyāma(the fourfold ethical
code beginning with non-violence and ending with non-possession) will be free from the eight-fold karmas and will not be reborn in the four yonis or generic categories.
The essence of the doctrines and ethical teachings of Pärśva as embodied and expositioned in the Isibhásiyāin may be thus summarized: (i) The world is eternal with no creator behind it. (ii) Permanence in change is the essential nature of the
world. World is dynamic in disposition. It consists of
the five astikāyas, existentialities. (iii) Substances are of two kinds, animate and inanimate. (iv) The animate possesses an upward motion; the
inanimate (by law of gravity), downward motion. (v) The motion is of two kinds: (a) self-motivated and
(b) directed by external factors. (vi) The gati or transmigratory motion of animate beings
is due to their own karmas, while the motion of
matter is due to its own dynamic nature and inertia. (vii) The karmas are of eight types. (viii) Evil and non-restraint activities consequence in pain
and in the cycle of births and deaths. (ix) Those who indulge in passions and violence cannot
achieve the eternal peace and bliss. (x) Liberation can be achieved through the observance
of four yāmas, self-restraints.
followers of Pārsva and not by Pārsva himself. It is in the Isibhāsiyāiñ alone that the original version of Pārsva's teachings is directly and implicitly present. Elsewhere we meet with Parśva's views by proxy, through the discussions between the followers of Pārśva and that of Mahāvira or in a few instances by Mahāvira hemself.
In the Sütrakrtānga," for instance, is incorporated a conversation between Gautama and Udaka-Pedhālaputra, the follower of Pārsva, on the nature and language of the pratyakhyana-vow of non-violence. In this long discussion Udaka-Pedhälaputra stressed on a technical point that, while taking the vow of non-violence, one must frame it in the language that "I shall not kill the being, who is presently in mobile-form (trasa-bhūta) instead of saying 'I shall not kill any mobile being." Similarly, in the Vyākhyāprajñapti" some observations relating to the difference in minutiae about the nature and meaning of the terms sāmāyika, the pratyākhyāna, the samvara, the viveka and the vyutsarga have been made during the discussion of Kālāsyavaisyaputra, the follower of Pärśva and some sthaviras of the Mahavira's following.
In the Vyäkhyāprajñaptio we come across a very interesting and pinpointed discussion between the layfollowers of Mahävira and the śramaņas of Pārsva's tradition on the outcome of restraint and penance. It had been questioned: If the outcome of restraint is to stop the influx of fresh karmas and of penance to liberate the soul from the kārmic bondage, then why the souls are bom as devas in the celestial regions? To this question different answers were given by the śramaņas of the Pārsva's church. At last Kaśyapa said it is due to the adherence to pious deeds such as penance and restraint that the souls are born as devas in celestial quarters. In the Uttarādhyayana we also come across an interesting dialogue between Gautama and Kesi on aspects relating to the monastic disciplines and spiritual practices; as a result, some distinctive features of Pārśva's teachings surface.
Teachings of Pārsva in other Canonical Works
In the Sūtrakrtānga, the Uttarādhyayana, and the Vyākhyāprajñapti, we find some explanation of, or minute observations on, what is broadly stated in the Isibhāsiyāin. In these texts the views of Pärśva are presented by the
Distinctness of Pārsva's Sect
Pärśva as well as Mahāvira belonged to the Nirgrantha section of the Sramanic traditions which had several similarities in doctrines, philosophy, and religious practices. So far as the philosophical aspect of their teachings is concerned, the traditions of Pārśva and Mahāvira have much in common. Scholars of Nirgranthology like Pt. Sukhlal Sanghvi and others are of the opinion that the Mahāvira's sect has considerably borrowed from that of
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Aspects of Jainology Volume VI
If we
Pārsva in the field of metaphysics and karma philosophy. The concepts, such as the world is eternal as well as dynamic, that it exists by itself and has no creator, are common to both traditions. The concept of permanence in change as the nature of Reality, which is the foundational tenet of the later Nirgrantha doctrine of anekāntaväda or non-absolutism is also met with in its embryonic form in, and in point of fact is central to, the teachings of Päráva as well as Mahāvira. Similarly, the concept of the five astikāyas and the eight-fold karmas are found in the philosophy of Pārśva as well as Mahāvira. We encounter brief references to these concepts in the Pārsva-chapter of the Isibhaiyain and more detailed ones in the standard canonical works of Mahāvira's tradition.
Similarly, the concepts of asrava, samvara, nirjarā, sāmāyika, pratyākhyāna and pausadha are also common to both traditions, though there were some differences in the minutiae of these concepts and observances. The difference in opinion about the nature of pratyakhyāna between Gautama and Udaka Pedhälaputra in the Sütrakstānga has been earlier noticed. Similarly, the differences in terms of detail on the practices are noticed in the relevant dialogues in the Vyākhyāprajñapti and in the Uttaradhyāyana also. However, these differences were related mostly to the code of conduct and not to the doctrines, philosophy, and principles of ethics as such. The distinctness of Pärśva's sect lies in its code of conduct, and not in dogma or philosophy, since it somewhat differed from that of Mahävira. We shall notice and discuss at this point the distinctive features of the Pārsva's tradition.
(1) Pärśva propounded căturyāma-dharma, while Mahāvira preached the pañcayāma-dharma or the five mahāvratas. According to the Ardhamăgadhi canon, Mahāvira added celibacy as an independent vow to the cāturyāma-dharma of Pārsva. The Sutrakrtānga mentions that Mahāvira prohibited having woman, and eating during night hours.37
The question arises: Why did Mahavira add celibacy as an independent vow? The answer to this question can be read in the Sütrakrtānga. In the times of Pärsva, woman was considered a property or possession and it was taken for granted that prohibition of possession implied the prohibition of sexual relationship, for no one can enjoy the woman without having her. But, as the Sutraktärga informs, in the time of Mahavira, there were some påsatthā (wayward) śramanas, who believed that the prohibition of possession did not imply for include) the prohibition of sexual
enjoyment. "If any woman invited or offered herself for enjoyment to a śramana, then the fulfillment of her sexual desire was no sin, just as the squeezing of a blister or boil (causes relief) for some time (and hasno dangerous consequences); so it is with the enjoyment of) attractive (woman). How could, then, there be sin due to that ?" 38
From this stanza it follows that some śramanas were interpreting the concept of non-possession in their own way. It only meant that, for the one who takes the vow of non-possession cannot have a wife or woman. So it became necessary for Mahāvira explicitly to add celibacy as an independent vow and to lay considerable stress on the observance of this vow.
If we contemplate this question historically, we notice that the ancient Vedic rșis used to marry and had progenies. After that state in life, on the one hand is followed the concept of vānaprastha, in which a rși did have a wife but observed celibacy; on the other hand, as informed by the Nirgrantha canonical literature, there were śramanas who were of the view that to enjoy a woman without possessing or getting her married was no sin: which is why Mahavira included in the fold a separate, clear, definite and uncompromising vow of celibacy.
In Parsva's tradition, repentance was not accepted as an essential daily duty. Only when a monk committed sin or transgression of his vows may he repent. But Mahāvira made repentance an obligatory daily-duty. A monk must repent every morning and evening whether he committed a sin and violated his vows or not. In the Sutrakrtānga" and in the Vyākhyāprajñaptito as well as in other canonical works of Mahāvira's discipline it is known as pratikramanadharma.
One more difference in monastic practice was that Parśva did not lay stress on nudity; he rather allowed one or two apparels for his monks (who thus were sacelaka), while stressed on nudity and so Mahävira's tradition was known as acela-dharma. Though the medieval commentator of the Uttarādhyayana holds that Pärśva allowed his śramaņas to wear expensive or coloured robe, '' we possess no early textual support for such an assumption.
These three were the main features distinguishing the monastic code of conduct of Pärśva and that of Mahavira. Along with these three major differences, there also were some minor differences which are found in the concepts of the ten kalpas or planes of asceticism. For instance, in Pārsva's tradition a monk could accept the invitation for food and also could take food prepared for him; but
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The Teachings of Arhat Pärśva And The Distinctness of His Sect
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Mahāvira forbade this practice. Pärśva allowed his monks to accept the meals prepared for the king; Mahāvira prohibited it. In Mahāvīra's tradition it was vital for a friar (or nun) to move from one place to another, except during the rainy season: Also, an ascetic, he had said, must not stay at one place for more than a month. But, according to Pārsva's tradition, a friar could stay at one place as long as he wished. In short, to keep on wandering was essential in Mahāvīra's but was optional in Pārsva's disciplinary code. Again, Mahavira had stressed that an ascetic must stay on at one place during the four months of the rainy season; in Pārsva's tradition this practice was also optional.
According to Mahāvīra an aspirant to friarhood must be initiated probationally. After this testing period, if he is proven eligible, then he may be allowed to be ordinated second time and his seniority was fixed accordingly in the Order or Samgha.
These are some of the distinctive features of Pärsva's philosophy, teachings, and monastic discipline as can be traced out from the early literature. The belief that all Jinas teach the same code of conduct, and that the ascetics of the Pārsva's Order had become wayward by Mahavira's time receives no support from the evidence locked in the earlier canonical books.
NOTES AND REFERENCES
See Epigraphia Indica, Vol. X. Appendix. A list of Brahmi Inscriptions S.N. 110, p. 20. Kalpasūtra 216. In the various inscriptions of Kankäli Tila, Mathură, we have two readings about this kula of the Kottiyagana: (1) Thaniya-kula (2) Sthaniya-kula. While in the
Kalpasūtra we have a third reading, Vānijja-kula. 3. Preserved in the Government Museum, Lucknow 4. This date is after the recent researches by Gritli v.
Mitterwallner. CE U.P. Shah, Studies in Jaina Art, Varanasi 1955, plate 1,
fig. 3. 6. Me Kate ime viyapata hohonti ti niganthesu Pi -- Inscription
No. 7, line 16, Delhi-Topara Inscription. 7. See G.P. Malalasekere, Dictionary of Pali-Proper names,
Vol. II, London 1974, pp. 61-65. 8. Hermann Jacobi, Jaina Sutras, Part II, (S.B.E. Vol. XLV),
Introduction, p. xxi. 9. (A) Cāuijñame niyanthe-Isibhāsiyain, 31.
(B) Cãujjāmo ya jo dhammo jo imo pamoasikkio.
Uttarādhyayana 23/12. 10. See P. Sukhalal, Cara Tirthankara (Hindi), (sec. edn.),
Varanasi 1989, pp. 141-43, See also "Introduction", the
Sacred Books of the East, Vol. XXII, p. xliv. 11. Isibhåsiyain, 31. 12. Acarānga II, 15/25. 13. SūtrakȚtänga II. 7/8. 14. Vyakhyaprajñapti 1/9/21-24: 2/5/95; 5/9/254-255. 15. Jñātādharma-katha 2/3/1-6. 16. Uttaradhyayana 23.
18. Narakävalikā (Niryāvaliya-sutra) 3/1. 19. Sthānārga 9/61. 20. Uttaradhyayana 23/12-13; see also commentary of
Säntyäcārya for these verses. 21. Samavāyānga 8/8, 9/4, 16/4, 38/1, 100/4. 22. Āuaśyaka-niryukti 238 and 1241-1243. 23. Višesāvašyaka-bhāsya. 24. Avasyaka-cūrņi. 25. Paryusanā-kalpa (Kalpa-sūtra) 148-156. 26. Mūlācāra. 27. See Arhat Pärśva. 28. Isibhästyäin, 31. 29. See Sagarmal Jain, Rishihhasit : A Study, Jaipur 1988. 30. Isibhästyäin, 31. 31. Sūtrakstānga II, Chapter 7th. 32. Vyākhyāprajñapti 10.9.33. Ibid, 2.5. 33. 34. Uttaradhyayana 23. 35. See Cara Tirtharikara for detailed discussion 36. Uttarādhyayana 23/12. 37. Se vāriyā ithi saraihhattam-Sūtrakrtănga 1/6/28. 38. Ibid., 1/3/4/9-10. 39. Ibid., 2/7/81. 40. Vyakhyāprajñapti 1/9/123. See also Avašyaka-niryukti 1241. 41. Uttarādhyayana 23/12. See also sāntācārya's tikä on the
above verses. 42. See (a) Avasyaka-niryukti, 1241-1243.
(b) Brhat-Kalpa sūtra-bhāşya, 6359-6366.
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Reconsidering the Date of the Nirvāṇa of Lord Mahāvira
The Jaina writers usually, after equating their dating with the Saka era, have concluded that after a period of 605 years and 5 months of the Nirvāṇa of Mahāvīra, Saka became king. (Tiloypannatti 4 : 1499; Paiņnayasuttăiñ :I part : 1984 - Titthogälīpainnayaṁ : (623). On the basis of this postulate, even today, the date of the Nirvana of Mahāvira is held to be 527 B.C. Among the modern Jaina writers, Pt. Jugal Kishore Mukhtar (1956: 26-56), of the Digambara sect, and Muni Sri Kalyana Vijaya (1966 : 159), of the Svetāmbara sect, have also held 527 B.C. to be the year of the Vira Nirvana. From about the 7th century A.D., with a few exceptions, this date has gained recognition, In the Svetămbara tradition for the first time in the Prakraka entitled "Titthogāli,' (paiņnayasuttaim : I part : 1984 :
Titthogāli 623) and in the Digambara tradition, for the first time in Tiloyapannatti (4 : 1499), it is clearly mentioned that 605 years and 5 months after the Nirvāna of Mahāvīra, Saka became king. Both the texts were composed between 600 and 700 A.D. To the best of my knowledge, none of the earlier texts ever showed the difference between the Nirvana of Mahävira and the Saka era. But this much is definite that from about 600-700 A.D., it has been a common notion that the Nirvāņa of Mahāvira took place in the year 605 before Saka. Prior to it, in the Sthaviravali of Kalpasutra and in the Vacaka genealogy of the Nandisutra, the reference to the hierarchy of Mahāvīra is found, but there is no mention of the chronology of the Acāryas : therefore, it is difficult to fix a date of the Nirvāṇa of Mahāvira on the basis of these texts. In the Kalpasūtra (Sūtra-147, p. 145) only this much is mentioned that now 980 years (according to another version 993 years) have passed since the Vira Nirvāna. This fact makes only this much clear that after 980 or 993 years of Vira Nirvāņa, Ācārya Devarddhigani Kșamāśramana finally edited this last exposition of the present Canon. Similarly, in Sthānănga (7 : 41), Bhagavatisūtra (9:222-229) and Avasyaka Niryukti (778783), alongwith the reference to Nihnavas, a reference to after how much time of Mahăvira's life-time and his Nirvāņa were they prevalent is found. Here only there are some clues by comparing which with the external evidences of definite date, we can contemplate the date of Nirvana of Mahavira.
There have been differences of opinion from the very beginning on the date of Nirvana of Mahävira. Although, it has been clearly stated in Tiloyapannatti,' a book recognised by the Digambara sect, that 605 years and 5 months after the Nirvana of Mahavira, Saka became the king, there are four different statements found in this book, which are as follows: i. 461 years after Vira Jinendra attained salvation, Saka
became the king. ii. 9785 years after Vira Bhagavān attained salvation,
Śaka became the king. iii. 14793 years after Vira Bhagavān attained salvation,
Śaka became the king. iv. 605 years and 5 months after Vira Jina attained
salvation, Saka became the king.
Besides this, in Dhavalā; (4:1:44: p. 132-133)", a commentary on Satkhandāgama, there are three different statements as to after how many years of the Nirvana of Mahävira, Saka (Sälivāhana Saka) became the king : i. 605 years and 5 months after Vira Nirvana. ii. 14793 years after Vira Nirvana. iii. 7995 years and 5 months after Vira Nirvana.
In Svetāmbara tradition there are two clear opinions as to how much time after the Nirvana of Lord Mahavira Devarddhi's last assembly on Agama was held. According to the first opinion, it was composed 980 years after the Vira Nirvāṇa, whereas according to the second it was composed 993 years after the event.
It is significant also to note that in the Svtâmbara tradition, there are two opinions regarding the date of Chandragupta Maurya's accession to the throne. According to the first, he ascended the throne in the year 215 of the Vira Nirvāna. However, in Titthogāli Paiņnaya only this much has been mentioned that (after Vira Nirvāṇa) the region of the Mauryas started 60 years after the Palakas and 155 years after the Nandas (Paiņnayasuttaim I part: 1984, Titthogāli Painnayar : 621), whereas according to the second opinion of Hemacandra (Parisişta Parva : 8 339), he ascended the throne 155 years after Vira Nirvāna. Similarly, in Laghuposälik Pattāvali (p. 37) it is written that 155 years after Vira Nirvāna Candragupta Maurya ascended the throne. Also, in Nagapuriya Tapägaccha
cvent.
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Reconsidering the Date of the Nirvana of Lord Mahavira
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Pattāvali (p. 48) it is written that 155 years after the Vira Nirvāņa Candragupta became the king, (Virät 155 varșe Candraguptonrpah). According to this pastāvali, the reign of Mauryan dynasty ended after 278 years of Vira Nirvāņa. Now the period of 189 B.C. as the end of the Mauryan dynasty can be justified only when the Vira Nirvāṇa is accepted as to be 467 B.C. It is worth mentioning here, that the historians have accepted 187 B.C. to be the date of accession to the throne of Pusyamitra. This second theory, presented by Hemacandra, is a hindrance in ascertaining the year 527 B.C. to be the year of the Nirvana of Mahävira. It is clear from these discussions that there has been a controversy regarding the date of the Nirvāņa of Mahāvira even in ancient times.
Since the old internal evidences regarding the date of the Nirvana of Mahāvīra were not strong, the Western scholars on the basis of the external evidences alone, tried to ascertain the date of the Nirvāṇa of Mahāvira; and as a result many new theories came into light regarding the same. The following are the opinions of different scholars regarding the date of Mahāvīra's Nirvana :
1. Hermann Jacobio (It is to be noted that initially Hermann Jacobi accepted the traditional date 527 B.C., but later on he chaged his opinion), 476 B.C. He has accepted the reference found in the Parisista Parva of Hemacandra to be authentic which says that 155 years after the Vīra Nirvāṇa Candragupta Maurya ascended the throne, and he ascertained the date of Mahāvira's Nirvāna on the basis of this reference only.
2. J. Charpentier", 467 B.C., He followed the opinion of Hemacandra and ascertained that the date of Nirvana of Mahāvīra as to be 155 Years before Chandragupta Maurya.
3. Pandit A. Shanti Raja Shastri", 663 B.C., He considered the Saka Era to be the Vikrama Era and establish the date of Nirvāna of Mahāvira as to be 605 years before the Vikrama Era.
4. Prof. Kashi Prasad Jayaswal.', 546 B.C., He has mentioned only the two traditions in his article "Identification of Kalki". He has not ascertained the date of Mahāvīra's Nirvāna. But at some other places he has considered 546 B.C. to be the date of Mahāvīra's Nirvāna, adding 18 years between Vikarma's birth and his accession to the throne (470+18) he fixes the date of Mahāvīra's Nirvāna as 488 years before Vikrama.
5. S.V. Venkateswara.', 437 B.C., His assumption is based on the Anand Vikram Era. This Era came into vogue 90 years after the Vikrama Era.
6. Pandit Jugal Kishor Ji Mukhtar.14, 528 B.C. On the basis of various arguments, he has confirmed the traditional theory.
7. Muni Sri Kalyana Vijaya.'S, 528 B.C., While confirming the traditional theory, he has tried to remove the inconsistencies of the theory.
8. Prof. P.H.L. Eggermont.", 252 B.C., The basis of his argument is equating the incident of Samghabheda of Tişyagupta in the Jaina tradition, which took place during the life time of Mahāvira in 16th year of his emancipation. With the incident of Samghabheda and the act of drying up of the Bodhi tree by Tisyarakṣita in the Buddha Sangha, which took place during the reign of Asoka.
9. V.A. Smith", 527 B.C., He has followed the generally accepted theory.
10. Prof. K.R. Norman's, About 400 B.C., Considering Bhadrabähu to be Chandragupta's contemporary, he fixed the period of 5 earlier Acāryas as 75 years, at an average of 15 years each, and thus fixed the date of Mahāvīra's Nirvana as 320+75 = 395 B.C.
In order to determine the date of the Nirvāņa of Mahāvīra, along with the Jaina literary sources we must also take into account the legendary and epigraphical evidence. We would follow the comparative method to decide which of the above-mentioned assumptions is authentic, and will give priority to the epigraphical evidences, as for as possinble.
Among the contemporaries of Lord Mahavira, the names of Lord Buddha, Bimbisāra-Śrenika and Ajātaśatru are well-known. The Buddhist sources give more information abourt them than the Jaina sources. The study of Jaina sources also does not give rise to any doubt about their contemporaneity The Jaina Āgamas are mostly silent about Buddha's Life-history, but there are ample references to the contemporary presence of Mahāvira and Buddha in the Bauddha Tripitaka literature. Here we shall take only two of the references. In the first reference there is a mention of the event of Dīghanikāya (Samññaphalasutta: 2:1:7) in which Ajätasatru meets many of his contemporary religious heads. In this reference, the chief minister of Ajātaśatru talks abour Nirgrantha Jñätsputra like this: "Master, this Nirgranta Jñātīputra, is the master of the sect as well as the monastery, teacher of the sect, a scholar, and a renowned Tīrtharkara, he is admired by many and respectable gentleman. He has been a long wandering mendicant (Parivrājaka) and is middle-aged". It can be derived from this statement that at the time of
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Ajātaśatru's accession to the throne Mahavira's age must be about 50 years, because his Nirvāṇa is supposed to have taken place in the 22nd year of Ajätaśatru Kunika's rule. By deducting 22 years from his total age of 72 years, it is proved that at that time he was 50 years old (see Vira Nirvăņa Samvat aur Jaina Kala Gananā, pp. 4-5). So far as Buddha's case is concerned, he attained his Nirvana in the 8th year of Ajātaśatru's accession to the throne. This is the hypothesis of Buddhist writers. This hypothesis given rise to two facts. Firstly, when Mahävira was 50 years old, Buddha was 72 (80-8), i.e. Buddha was 22 years older than Mahāvira. Secondly, Mahavira's Nirvāṇa took place 14 years after Buddha's Nirvāṇa (22-8-14). It is worth mentioning here, that in the reference occuring in the Dīghanikāya (Samaññaphalasutta : 2:2 : 8), where Nirgrantha Jñāt,putra and other five Tirthankaras have been called middle-aged, there is no mention of Gautama Buddha's age, but he must be 72 at that time because this event took place during the rule of Ajätaśatru Kunika and Buddha's Nirvana took place in the 8th year of the rule of Ajātaśatru.
But contrary to the above-mentioned fact one finds another information in the Dighanikaya that Mahavira has attained Nirvāņa during Buddha's life-time. The reference from the Dīghanikāya is as follows (Pasādikasutta : 6:1 : 1)20
"I heard this once that the Lord was residing in a palace built in the mango orchard of the Sākyas known as Vedhaññā in sākya (country).
At that time Nigantha Nātaputta (Tirthankara Mahavira) had recently died at Pāvā. A rift was created among the Niganthas after his death. They were divided into two groups and were fighting by using arrows of bitter words at one another - "you don't know this Dharmavinaya (=Dharma), I know it. How can you know this Dharmavinaya? you are wrong in ascertaining, (your understanding is wrong), I am rightly ascertained. My understandint is correct. My words are maningful and yours are meaningless. The things you should have told first you told in the end and vice-versa. Your contention is mindless and topsyturvy. You presented your theory and withdrew. You try to save yourself from this allegation and if your have power, try to save yourself from this allegation and if you have power, try to resolve it. As if a war (-slaughtering) was going on among the Nigarthas."
The house-holder disciples of the Nigantha Nätaputta, wearing white dresses, also were getting indifferent,
distressed and alienated from the Dharma of Nigantha which was not expressed properly (durākhyāta), not properly investigated (duspravedita), unable to redeem (anairyāika), unable to give peace (ana-upasama-Sarvartanika), not verified by any enlightened (a-Samyak. Sambuddhapravedita) without foundation = a different stüpa and without a shelter."
Thus, we see that in the Tripitaka literature, on the one hand where Mahāvira has been described as middleaged, on the otherhand, there is an information about the death of Mahāvira during the life-time of Buddha. Since, according to the sources based on Jaina literature, Mahāvīra died at the age of 72, it is certain that both the facts cannot be true at the same time. Muni Kalyana Vijaya ji (Vira Nirvāņa Saṁvat aur Jaina Kala Gananā, 1987, p. 12) has called the theory of Mahāvīra Nirvana during the life-time of Buddha as a mistaken concept. He maintains that the incident of Mahāvīra's demise is not a reference to his real death, but to a hearsay. It is alos clearly mentioned in Jaina Agamic texts that 16 years before his Nirvana, rumour of his death had spread, hearing which many Jaina Sarmanas started shedding tears. Since the incident of the bitterargument between Makkhaligosala, a former disciple of Mahāvira, and his other Sramana disciples was linked with this rumour, the present reference from the Dīghanikāya about the dath of Mahāvira during the life time of Buddha is not to be taken as that of his real death, rather it indicated to the rumour of his death by burning fever caused by Tejoleśyā, hurled upon him by agitated and acutely jealous Makkhaligosāla after dispute.
Buddha's Nirvana must have taken place one year and few months after the rumour abour Mahāvira's death, therefore, Buddha must have attained Nirvāņa 14 years, 5 months and 15 days before Mahavira's Nirvăna.
Since Buddha's Nirvana took place in the 8th year of Ajātaśatru Kunika's accession to the throne, Mahavira's Nirvāna must have taken place in the 22nd year of his accession. Vira Nirvana must have taken place in the 22nd year of his accession (Vira Nirvana Samvat aur Jaina Kala Gananā, p. 4). Therefore, it is certain that Mahavira's Nirvana took place 14 years after the Nirvāna of Buddha. The fixation of the date of Buddha's Nirvana would definitely influence the date of Mahāvira's Nirvana. First of all we shall fix the date of Mahavira on the basis of the Jaina sources and inscriptions and then we will find out what should be the date of Buddha's Nirvana and whether it is supported by the other sources.
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While determining the date of Nirvana of Mahavira, we would have to keep in our mind that the contemporaneity of Ācārya Bhadrabāhu and Sthūlibhadra with Mahāpadma Nanda and Chandragupta Maurya; of Ācārya Suhasti with Samprati; of Arya Mañkșu (Mangu), Arya Nandila, Arya Nagahasti, Arya Viddha and Arya Krsna with the period mentioned in their inscriptions and of Arya Devarddhigani kşamāśramana with king Dhruvasena of Valabhi, is not disturbed in any way. The historians have unanimously agreed that Chandragupta ruled from 317 B.C. to 297 B.C. (Majumdar : 1952 : p. 168; Tripathi : 1968 p. 139)., Therefore the same should be the period of Bhadrabāhu and Sthūlibhadra also. It is an undisputed fact that Chandragupta had wrested power from the Nandas and that Sthūlibhadra was the son of Sakdäla, the minister of the last Nanda. Therefore, Sthūlibhadra must be the younger contemporary and Bhadrabahu the older contemporary of Chandragupta. This statement that Chandragupta Maurya was initiated into Jaina religion, may or may not be accepted as authentic, still on the basis of the Jaina legends one must accept that both Bhadrabāhu and Sthūlibhadra were contemporary of Chandragupta. The main reason behind Sthūlibhadra's renunciation could be Mahāpadma Nanda's (the last ruler of the Nanda dynasty) misbehaviour with his father and ultimately his merciless assassination (Titthogālipainnayan: 787: Painnayasuttaim I part: 1984). Moreover, Sthūlibhadra was initiated by Sambhūtivijaya and not by Bhadrabahu. At the time of first assembly on composition of Agama held at Pataliputra, instead of Bhadrabāhu or Sthūlibhadra, Sambhūtivijaya was the head, because only in that particular assembly it was decided that Bhadrabahu will make Sthūlibhadra to study the Purva- texts. Therefore, it seems that the first assembly was held any time during the last phase of the Nanda rule. The period of the first assembly can be accepted as before 155 years of the Vira Nirvana era. If we accept that both the traditional notions are correct and that Acārya Bhadrabahu remained Ācārya from Vira Nirvāṇa Samvat 157 to 170 and that Chandragupta Maurya was enthroned in 215 V.N., then the contemporaneity of the two is not proved. It concludes that Bhadrabāhu had already died 45 years before Chandragupta Maurya's accession. On this basis Sthūlibhadra does not even remain the junior contemporary of Chandragupta Maurya. Therefore we have to accept that Chandragupta Maurya was on throne 155 years after Vira Nirvana. This date has been accepted by Himvanta Sthavirävah (Muni Kalyana Vijaya: Vikram Tra 1987:p.
178)22 and Parisista Parva (8 : 339) of Ācārya Hemacandra also. On this basis only the contemporaneity of Bhadrabāhu and Sthūlibhadra with Chandragupta Maurya can be also proved. Almost all the Pattavaliss accept the period of Bhadrabāhu as an Ācārya to be 156-170 V.S. (Pattāvali Parāga Samgraha, p. 166; Vividhagacchiya Pattávali Sarngraha : I part: 1961: pp. 15, 37, 48). In Digambara tradition also the total period of the three Kevalis and the five Śrutakevalis has been accepted as 162 years. Since Bhadrabāhu was the last Śrutakevali, according to the Digambara tradition his year of demise must be the year 162 of the Vira Nirvāṇa Samvat. Thus, despite the fact that there is a difference of 8 years regarding the period of demise of Bhadrabāhu as accepted by the two traditions, the contemporaneity of Bhadrabāhu and Chandragupta Maurya is fully justified. Muni Shri Kalyana Vijaya (Sri Pattāvali Parāga Saṁgraha: 1966:52; Vīra Nirvana Saṁvat aur Jaina Kala Gananā : p. 137)23, in order to prove the contemporaneity of Bhadrabāhu and Chandragupta Maurya, accepted the period of Sambhūtivijaya as an Acārya to be 60 years in place of 8 years. In this way, while accepting the date of the Nirvana of Mahavira as 527 B.C., he has tried to establish the contemporaneity of Bhadrabāhu and Chandragupta Maurya. But it is only his imagination (ViraNirvāna Samvat aur Jaina Käla Gananā-p. 137 & Pattāvali Parāga Saṁgraha - p. 52); there is no authentic proof available. All the Svetămbara Pattāvalis accept the date of the demise of Bhadrabāhu to be the year 170 V.N.S. Also, in Titthogali it has been indicated that the decay of the knowledge of the fourteen Purvas started in the year 170 V.N.S. Bhadrabāhu was only the last of the 14 Pürvadharas. Thus, according to both of the traditions - Svetāmbara and Digambara, the date of demise of Bhadrabāhu stands as 170 and 162 of V.N.S. respectively.
On the basis of this fact, the contemporaneity of Bhadrabāhu and Sthülibhadra with the last Nanda and Chandragupta Maurya can be proved only if the date of Nirvāṇa of Mahāvira is accepted as 410 years before V.S. or in the year 467 B.C. The other alternatives do not prove the contemporaneity of Bhadrabahu and Sthulibhadra with the last king of the Nanda dynasty and Chandragupta Maurya. In Titthogāli Painnayam (783-794) also the contemporaneity of Sthūlibhadra and the king Nanda has been described. Thus on the basis of these facts it appears more logical to accept the date of the Nirvana of Mahāvira as 467 B.C. Himvanta Sthavirävalt also mentions that Chandragupta was enthro- in 155 years after the l'ha
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Nirvāna and that Vikramārka lived 410 years after the Vira Nirvāna (see Vira Nirvāna Samvat aur Jaina Kala-Gananā, p. 177). This also confirms the theory of accepting the date of Mahävira's Nirvana to be 467 B.C.
Again, in the Jaina tradition the contemporaneity of Arya Suhasti and the king Samprati is unanimously accepted. The historians have acknowledged the period of Samprati to be 231-221 B.C. (Tripathi : 1986: p. 139)2 Accroding to the Jaina Patļāvalis, the period of Arya Suhasti as Yuga Pradhāna Ācārya was 245-291 V.N.S. If we base our calculation on the assumption that Vira Nirvana took place in 527 B.C., we will have to accept that Arya Suhasti became the Yuga Pradhana Acārya in 282 B.C. and died in 236 B.C. In this way, if we consider 527 B.C. to be the year of Vira Nirvana, then, in no way, the contemporaneity of Arya Suhasti and the king Samprati could be established. But, if we accept 467 B.C. to be the year of Vira Nirvana, then the period of Arya Suhasti as an Acārya starts from 222 B.C. (467-245=222). On this basis the contemporaneity is established, but the reign of Samprati extends to only one year during the Acaryaship of Arya Suhasti. But Arya Suhasti had come in contact with Samprati when he was a prince and the ruler of Avanti, and may be at that time Ārya Suhasti was an influential Muni inspite of not being a Yuga Pradhāna Ācārya of the Samgha. It is remarkable that Arya Suhasti was initiated by Sthūlibhadra. According to the Pattavalis, Sthūlibhadra was initiated in 146 V.N.S. and died in 215 V.N.S. It can be derived from this fact that 9 years before Chandragupta Maurya's accession, and during the last Nanda king (Nava Nanda), Arya Sthūlibhadra had already been initiated. If, according to the Pattāvalis, the total life of Arya Suhasti is considered to be 100 years and his age at the time of initiation to be 30 years, then he must have been initiated in 221 V.N.S. i.e. 246 B.C. (assuming the date of Vīra Nirvana in 467 B.C.) It does prove the contemporaneity of Arya Suhasti with Samprati, but then, there is a difference of 6 years, if he is accepted to have been initiated by Sthūlibhadra himself because 6 years before he got initiated, in 215 V.N.S., Sthūlibhadra has already died. It is also possible that Suhasti may have got initiated at the age of 23 or 24, and not at the age of 30. Even then, it is certain that on the basis of the references made in Pattāvalis, the contemporaneity of Arya Suhasti and Samprati is possible only by accepting the date of Vira Nirvāna as 467 B.C. This contemporaneity is not possible if the date of the Mahāvīra Nirvāna is accepted as 527 B.C. or any other later date.
Thus, by accepting the date of the Vira Nirvana as 467 B.C. the contemporaneity of Bhadrabāhu and Sthūlibhadra with Mahāpadma Nanda and Chandragupta Maurya and that of Arya Suhasti with Samprati can be proved. All other alternatives fail to prove their contemporaneity. Therefore, in my opinion, it will be more appropriate and logical to accept 467 B.C. as the date of the Nirvāņa of Mahāvira.
Now we shall consider the date of the Nirvāṇa of Mahāvira also on the basis of some of the inscriptions. Out of five names - Arya Mangu, Arya Nandil, Arya Nāgahasti, Arya Krsna and Arya Výddha, mentioned in Mathură inscriptions (see Jaina Silalekha Saṁgraha, articles 41, 54, 55, 56, 57 and 63) first three are found in Nandisutra Sthavirāvali (Gatha: 27-29) and remaining four names are found in Kalpasūtra. According to the Pattāvalis, the period of Arya Mangu as a Yugapradhāna Ācārya is considered to be in between 451 and 470 V.N.S. (Vira Nirvāna Samvat aur Jaina Kāla Garianā, p. 112). On acceptiong the date of the Vira Nirvana Sarvat aur Jaina Käla Garană, p. 112). On accepting the date of the Vira Nirvāṇa as 467 B.C. his period extends from 16 B.C. to 3 A.D. and if it is 527 B.C. his period extends from 76 B.C. to 57 B.C. Whereas, on the basis of the inscriptions (Jaina Silalekha Samgraha article No. 54) his period stands as Saka Samvat 52 (Havişka year 52), i.e. 130 A.D. In other words, while considering the period of Arya Mangu as indicated by Pattāvalis and inscriptions there is a difference of 200 years if the date of Vira Nirvana is accepted as 527 B.C. and if it is 467 B.C. there is a difference of 127 years.
In several Pattāvalis, even the name of Arya Mangu, is not mentioned. Therefore, the theories, concerning his period, based on the Patļāvalis are not authentic. Moreover, the only one Pattāvali called Nandisutra Sthavirāvali, which mentions Arya Mangu, does not indicate the teacher-taught (Guru-fișya) tradition. Therefore, there are chances of the omission of certain names which has been confirmed by Muni Kalyana Vijayaji himself (Vira Nirvāṇa samvat aur Jaina kāla Gananā, pp. 121 & 131). Thus it is not possible to establish the date of the Mahāvīra's Nirvana on the basis of the inscriptional evidences related to Arya Mangu, because on this basis neither the traditional belief in the date of Mahāvira's Nirvāṇa as 527 B.C. nor the scholars' opinion, as 467 B.C., could be proved correct. On equating the Pattāvalis with the inscriptions, the date of Vira Nirvana falls around 360 B.C. The reason of this uncertainty is the presence of various wrong conceptions regarding the period
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Reconsidering the Date of the Nirvana of Lord Mahavira
of Arya Mangu.
So far as Arya Nandil is concerned, we find the reference to his name also in the Nandisutra. In the Nandisutra Sthaviravali (Gāthā, 27-29), his name appears before Arya Nagahasti and after Arya Mangu. There is an inscription of Nandika (Nandil) of the Saka Samvat 32 in the inscriptions of Mathura (see Jaina Šilalekha Sangraha, article No. 41); in another inscription of the Saka Samvat 93, the name is not clear, only 'Nadi is mentioned there. (see Jaina Šilalekha Samgraha, article No. 67). Arya Nandil is referred to also in the Prabandhakosa and in some ancient Paṭṭāvalis, but since at no place there is any reference to his period, it is not possible to establish the date of the Nirvana of Mahavira on the basis fo this inscriptional evidence.
Now let us consider Nagahasti. Usually in all the Paṭṭāvalis, the date of the demise of Arya Vajra, has been considered as 584 V.N.S. After Arya Vajra, Arya Rakṣita remained the Yuga Pradhana Acarya for 13 years, Pusyamitra for 20 years and Vajrasena for 3 years, ie Vajrasena died in the year 620 V.N.S. In Merutunga's Vicaraśreņi, the period of Arya Nagahasti as the Yuga Pradhana has been accepted as continuing for 69 years, i.e. Nāgahasti was the Yuga Pradhana from 621 to 690 V.N.S. (Vira Nirvana Samvat aur Jaina Kala Gaṇană, p. 106 note). If Hastahasti of the Mathura inscription is Nagahasti, then he is also referred to as the guru of Maghahasti in the inscription of the Saka Samvat 54, which establishes him of before 131 A.D.
It we accept the date of the Vira Nirvana as 467 B.C., then the period of his Yuga Pradhanaship extends between 154 and 223 A.D. According to the inscriptions he had a disciple in 132 A.D. yet one can be content by assuming that he must have initiated some one 22 years before being a Yuga Pradhana. If we accept his life-span to be 100 years, he must have been 11 years old when he is supposed to have initiated Maghahasti. It seems almost impossible to believe that he was able to initiate somebody by his sermons at the age of 11 and that such an underage disciple was able to perform the Murti-Pratistha. But if, on the basis of the traditional concept, we accept the Vira Nirvana year to be before 605 of the Śaka Era or 52 B.C., then the references made in the Paṭṭāvalīs tally the inscriptional evidences. On this basis his tenure of Yuga Pradhanaship extends from 16 to 85 of the Saka Era, Maghahasti, one of his disciples was able to perform the Murti-Pratistha by his sermons. Although common sense would hardly accept it as logical that his Yuga Pradhanaship extended for 69 years, yet because of
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the fact that it considers the information given in the Pattavalis to be correct, this inscriptional evidence about Nagahasti supports the date of Vira Nirvana as 527 B.C.
Again, in one of the inscriptional sketches of Mathura, Arya Krsna with that Arya Krsna mentioned after Sivabhuti in Kalpasūtra Sthaviravali (last part 4:1), then his period on the basis of the Pattavalis and Visesävasyakabhasya (Gatha: 2552-2553), could be established around 609. V.N.S., because as a result of the dispute over clothes between the same Arya Kṛṣṇa and Śivabhūti the Botika, Nihnava came into extistence. The period of this dispute is fixed as 609 V.N.S. If we accept the Vira Nirvana year to be 467, then the period of Arya Krsna is supposed to be as 609-467-142 A.D. This inscriptional sketch belongs to 95+78-173 A.D. Since Arya Kṛṣṇa has been figured as a deity, it is natural that 20-25 years after his death, in 173 A.D., this sketch must have been made by some Arya Arha, one of his follower disciples. In this way, this inscriptional evidence can maintain compatibility with other literary reference only when 467 B.C. is established as the year of the Vira Nirvana. It is not possible to reconcile it with any other alternatives.
In the Mathura inscriptions (Jaina Silalekha Samgraha: article no. 56 & 59), the name of Arya Vṛddhahasti is related with two inscriptions. One is from Śaka Era 60 (Huviska year 60) and the other from 79 of the same. According to th Christian era, these inscriptions belong to 138 and 157 A.D. respectively. If he is the Arya Vrddha of the Kalpasūtra Sthaviravall and the Vṛddhadeva of the Pattavalis (Vividha Gacchiya Patavali Samgraha: p. 17), then according to the Patavalis, he was led to perform Mūrti Pratistha in Karnataka in the year 695 V.N.S. If we accept 467 B.C. to be the year of the Vira Nirvana, then this period can be fixed at 695-467-228 A.D. whereas the inscriptional evidences are from 138 and 157 A.D. But, if according to the traditional concept the date of the Vira Nirvana is accepted as 527 B.C. then his period is to be fixed at 695-527-168 A.D. Therefore, on accepting 527 B.C. to be the Vira Nirvana year, the equation between this inscriptional evidence and the Paṭṭavali based evidence is found to the matching well. On assuming 25 years to be the average period of tenure of each Acarya, his period should be around 625 V.N.S. because Vṛddha occupies the 25th place in Paṭṭāvali. Thus his time can be fixed as 625467-158 A.D. which also proves the 467 B.C. as the period of Vira Nirvana.
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Aspects of Jainology Volume VI
The last evidence, on the basis of which the date of Mahāvira's Nirvāna can be established is king Dhruvasena's inscriptions and his period. According to the poupular belief, after the Valabhi assembly, first time Kalpasūtra was recited before a congregation at Anandpur (Vadanagar) in order to console the grieved King Dhruvasena on his son's death (Srikalpasūtra : 147 pp. 145, Vinaya Vijaya : Commentary : p. 15-16). The period of Valabhi assembly is fixed as 980-993 V.N.S. There are several inscriptions of Dhruvasena available. The priod of Dhruvasena the first, is said to be from 525 to 550 A.D. (Parikh, Rasikalal : 1974 :40). If this event is related to the second year of his accession i.e. 526 A.D., then it is proved that Mahāvīra's Nirvāna must have taken place in 993-526=467 B.C.
Thus atleast three of the six inscriptional evidences prove that the Nirvāņa of Mahāvira took place in 467 B.C. Whereas the two evidences may prove 527 B.C. as the period of Vira Nirvāna. But the dates based on the Pattavali could be incorrect; therefore, they cannot be an obstacle in determining the date of the Vira Nirvana as 467 B.C. One of these inscriptions is not helpful in fixing the date. These discrepancies are there also because the authenticity of the periods of the Ācāryas given in the Pattävali is doubtful and today, we have no grounds to remove these discrepancies. Still we derive from this discussion, that most of the textual and inscriptional evidences confirm the date of Mahāvira's Nirvana as 467 B.C. In that case, one will have to accept the date of the Nirvana as 467 B.C. In that case, one will have to accept the date of the Nirvana of Buddha to be 483 B.C., which has been accepted by most of the western scholars, and only then it will be proved that about 15 years (14 years and 5 months) after the Nirvana of Buddha the Nirvāna of Mahāvira took place.
savathi usabhapuram seyaviyā mihilam ullugatiram. purimantaranji dasapura rahavirapuram ca nagaraim (781) coddasa solasa vāsā cauddasavïsuttara ya donni saya. atthāvisā ya duve pañceva sayā u coyala. (782) panca saya calasiya chacceva sayā nāvottară hoti.
nānupattiya duve uppanna vinavveue sesä. (783) 3. Virajine siddhigade causadaigisatthivāsaparimāņe.
kālammi adikkante uppanno ettha sakarão. (461) ahavā vire siddhe sahassanavakammi sagasayabbhahie. panasidimmi yatīde panamāse (Y. 9785, M5) sakanio jādo. 1497. pāthāntaram. coddasasahassasagasayatenaudivāsakālavicchede. (19793) víresarasiddhido uppanno ahavā. 1498. pāthāntaram. nivvāne virajine chaväsasadesu pañcavarisesu. panamāsesu (Y. 605, M.5) gadesu sanjādo saganio ahavä. 1499. pāthārtaram.
Tiloyapannatti - section 4, 1496 - 1499. 4. avanidesu pañcamāsähiyapañcuttarachassadaväsäni
havanti aiso virajinindanivvāņagaddivāsädo jāva sagakālassa adi hodi tăvadiyakalo. kudo? (605) edamhi käle saganarindakalammi pakkhitte vaddamanajinanivvudakālāgamānädo. vuttam ca-pañca ya masa pañcaya vāsä сhacceva hoti väsasaya, sagakälena ya sahiya thaveyavvo tado räsi (41) anne ke vi äiriyä сoddasasahassa - sattasad - tinaudivāsesu jinanivvanadiņādo aikkantesu saganarinduppattim bhananti (14793) vuttam ca-gutti-payattha-bhayāim coddasarayaņāi samaikantaim. pariņivvude jininde to rajja saganaribdassa. (42) anne ke vi äiriyā evam bhananti. tam jaha-sattasahassa navasaya pañcāņaudivarisesu pañcamāsāhiesu vaddhmānajinanivvudadinādo aikkartesu saganarindarajjuppatti jādo ti, ettha gāhāsattasahassā navasada pañcānaudi sampañcamāsa ya. aikantā vāsānam jaiyä taiyä saguppatti : (43)
(1995) edesu tisu ekkeņa hodavvam na tinnamuvadesāņa saccattam, annonnavirohado tado janiya vattavvam. --Dhavalā tikā saman vita Sātkhandägama, Khanda 4,
Bhaga 1, Pustak 9, p. 132-133 (section 4/1/44) 5. samanassa bhagavao Mahävirassa Jäva savvadukkhapa
hiņassa navaväsa sayaiṁ vikantäim dasamassa väsasayassa ayam asiime samvacchare kale gacchai,
Notes: 1. a. Nivvāne Vira jine chavväsasadesu pañcavarisesuń.
Panamāsesu gadesum sarjādo saganio ahavā. b. pañca ya māsā pañca ya väsä сhacceva
hontivāsasayā pariņivvuassărihato so uppanno sago rämā.
Titthogäli Paiņnayam, 623 2. bahuraya paesa avvattasamucchādugatiga abaddhiya
ceva. satte-e ninhaga khalu titthami u vaddhamänassa, (778) bahuraya jamälipabhavä jivapaesa ya tisaguttao avvattā asadhao samuccheyä samittão. (779). gangão dokiriyä сhaluga teräsiyāņa uppatti. theräya gotthamähila putthamabaddham parūvinti. (780)
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Reconsidering the Date of the Nirvāṇa of Lord Mahavira
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vāyanantare puna ayam tenaue sam vacchare kälar gacchai iha disai.
Sri Kalpasūtra 147, p. 145. 6. pālagaranno sathi panapannasayam viyāna nandāņam maruyäņam arthasayam tisă puna pusamitānam,
--Titthogali paiņnayam (Painnaya Suttaim) 621 When 60 pākaja + 155 Nandavansa = 215 years had
passed, the rule of the Maurya dynasty began. 7. a. eveṁ ca Srimahāvīra mūlervarşašate, pañcapañca
śadadhike candragupto abhavannspanā.
-- Parisistaparva-Hemacandra, sarga 8/339. b. Laghuposalika pattāvali, Nāgapuriyatapāgaccha
pattāvali (ed. Jinvijaya 1961) and Himavanta Therāvali also acknowledge that Chandragupta Maurya ascended to the throne 155 years after the
Vira Nirvāna. 8. It is remarkable that the year of the Vira Nirvāṇa may
be accepted as 527 B.C. only when Chandra Gupta Maurya's accession is accepted to have taken place in the year 215 of the Vira Nirvana era. It the date of his accession is accepted to be the year 155 of the Vira Nirvana, then we should accept 467 B.C. to be the date of the Vira Nirvana. Jacobi, H., Parisistaparva : year 1891 : P. introduction p. 5; He considers the reference of the Parisistaparva of Hemacandra to be authentic according to which 155 years after the Vira Nirvāna, Chandragupta Maurya's accession took place, and on this only basis he
determined the date of the Nirvana of Mahavira. 10. Charpentier, 1992: 13-16; He also based, his arguments
ofn Hemacandra and considered that the Nirvana of Mahavira took place 155 years before Chandragupta
Maurya. 11. Shastri, A. Shantiraj : Anekānta 1941, Vol. 4, No. 10;
He considered the Saka Samvat to be the Vikram Samvat and accepted that 605 years before the Vikram
Samvat Mahavira attained Nirvāna. 12. Jayaswal, 1917 : 151-152; In his article entitled "The
Historical Position of Kalki and his Identification with Yasodharman', he has mentioned only two traditions. He made no mention of the date of the Nirvāna of
Mahavira. 13. Venkateshwar, 1917, p. 122-130; His opinion is based
on the Anand Vikram Samvat. This was is vague 10
years after the Vikram Samvat. 14. Mukhtar : 1956 : p. 26-56; On the basis of various
arguments he confirmed the traditon accepted theory.
15. Muni Kalyana Vijaya : Vikrama Samvat aur Jaina
Kalagananā, 1987 : p. 149; while confirming the traditional accepted theory, he also tried to remove its
inconsistencies. 16. Eggermont, P.H.L. He has given his arguments equating
the very event of schism by Tişyagupta which took place during the 16th year of the attainment of Lord Mahāvīra with the event of drying the Bodhi tree by Tişyagupta and event of schism in Buddha Order during
the reign of Asoka. 17. Smith : 1969 : 141 He accepted the common popular
theory. 18. Narman, K.R. "Observation on the Dates of the Jina
and Buddha" in Bechert, H. The Dating of the Historical
Buddha, a Pt. I. p. 300-312 Gottingen. 19. ajjataropikho rājāmacco rājāna māgadham ajatasatt
uṁ vedehiputtam etadavoca "ayam, deva, nigantho nätaputto sanghi ceva gani ca ganācariyo ca, fiato, yasassi, titthakaro, sädhusammato bahujanassa, rattaññü, cirapabbajito, addhagato, vayoanuppatto. Digha
nikāya, Samaññaphalasutta, 2/17. 20. evaṁ me sutaṁ. ekaṁ samayam bhagavä sakkesu
viharati vedhaññā nāma sakyä tesa ambavane pasāde. tena kho pana samayena nigantho nātaputto päväyam adhunākālankato hoti. tassa kälankiriyāya bhinnä niganthy dyedhikajata bhandanajata kalahajata vivādapannä aññamañña mukhasattihi vitudantä viharanti." na tvar imam dhammavinayam äjänäsi, ahaṁ imam dhammavinayam äjänämi, kim tvalm imam dhammavinayam ājānissasi? micchāpatipanno tvamasi, ahamasmi sammāpatipanno. Sahitan me, asahitar te. purevacaniyām paccha avaca pacchāvacaniyam pure avacca. Adhicinnam te viparāvattam āropito te vădo. niggahito tvamasi. cara vādappamokkhāya. nibbethehi vă sace pashosi'ti. vadho yeva kho maññya niganthesu nätaputtiyesu vattati. ye pi niganthassa nātaputtassa sävakā gihi odātavasana te pi niganthesu nätaputtiyesu nibbinnarūpā virattarūpă pațivänarūpa-yathă tam durakkhate dhammavinaye duppavedite aniyyānike anupasamasarvattanike asammasambuddha-ppavedite
bhinnathupe appațisarane. 21. It is noteworthy that almost all the Swetambara
Patļāvalis mention the ame period. 22. It is noteworthy that the original Ms. of the Himavant
asthavirāvali is not available after its Gujarati translation; its Gujarati translation by Pnadit Hiralal Hansraj of Jamnagar, is the only base, It shows that
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Kunika and Udayi ruled for 60 years after the Nirvana of Mahāvīra and the Nandas ruled for 94 years there after, and accordingly Chandragupta Maurya's
accession is said to be in 155 V.N.S. 23. Vikram Samvat 1987 : 137; Note that Muniji's effort
to accept the period of Maurya to be 160 instea of 108, considering "muriyāṇamasthasayam" as "muriyanam
satthasayam". is not a historical fact. 24. It should be noted that Muniji's effort to extend
Sambhūtivijaya;s period from 8 year to 60-years, and changing 108 year period of the Mauryas (this fact is supporte by history) to 160. years is nothing but an effort to confirm his own hypothesis.
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Prof. K.S. Murty's Philosophy of Peace and Non-violence
Prof. K.S. Murty is one of the leading Indian Philosophers of our age. For him Philosophy is not the mere abstract thinking about the Ultimate Reality but an honest effort to solve the actual problems of humanity. That is why his work, 'The Quest for Peace' attracts philosophers, as well politicians and sociologists. Here, I would like to confine my observations about Prof. Murty's Philosophy to his work, "The Quest for Peace'. This work is a testimony that his philosophy is related to the concrete and practical life and the actual perennial problems of human society. In this outstanding work he has not only presented the Hindu ideals dealing with the problem of war and peace but also critically analysed the causes of war, disturbing our social peace and the possibility for peace and non-violence. In the process, he critically evaluated the various theories pertaining to war and examined the various philosophies dealing with the concept of non-violence. In addition, at the end of his work, there is an epilogue where in he has suggested the awakening of world consciousness as a way out to get rid of the burning problem of war and violence.
Prof. K.S. Murty as a Realist
In this epilogue, he firmly maintains that it is only through the awakening of world consciousness that peace and prosperity can be restored on our globe. The most notable thing about Prof. K.S. Murty's 'Philosophy of Peace'. is that in his examinations and evaluations he always remains a realist or a practical philosopher. Though he speaks of ideals yet he always keep them on the concrete foundation of actualities of human life. For him, human being is always human being, living with all its animal instincts. He observes, 'Men according to Hindu thinkers are not all sweet, reasonable and potentially saintly. There are some men with divine temperament while others with demonic temperament. In the present age i.e. Kaliyuga, the latter preponderates. Utopian dreams, where all men will lead blissful lives, consider all mankind as one family mutually and unselfishly helping each other, are silly. (P. 31-32) He further maintains. "There is, says Hinduism, an element of evil in human nature, Rajas (activistic tendency) and Tamas (inertia) are not wholly absent in any man; in some they predominate to such an extent that tranquility and goodness-Sattva- are never successful in
overcoming them." (P. 33)
So far as I understand the philosophy of Prof. K.S. Murty, he opines that the ideals or the norms of the society can not be built, putting aside the actualities of our lives. He never sees the Utopian dreams. Being a realist or actualist he always tries to see the practical-side of the problem. For him philosophy is some thing real or concrete and not mere abstract thinking. It is connected with our day to day problems. The philosophy unable to solve the riddle of our actual life is of no use and only a tool of intellect. He says, "so a social organisation which forgets this (actualities of human nature) and gives up altogether the use of force for maintaining order and enforcing law, based on righteousness, will end in chaos." (P. 32) Thus, we can conclude that Prof. K.S. Murty, about social ideals and norms, always remains a realist, having a deep under-standing of actual human nature.
An Evaluation of K.S. Murty's Views about NonViolence
With regard to the problems of war and peace or force and non-violence, Prof. Murty admits that the complete eradication of force, violence and wars from the earth is not possible at all. He maintains that so far as injustice and crime exist on the earth, use of force, violence and even war is inevitable. He supports his view by quoating a Chinese sage Mo-Ti, "A sin cannot be controlled except by punishment and not to punish such a terrible criminal is a sin" (P. 15). As long as we are living in the society, it is our prime and foremost duty to maintain social justice. Says, Prof. K.S. Murty, "Otherwise the strong will oppress the weak and society will be like the world of fish- the big ones eating the small. Danda (Punishment), therefore, is necessary (Page 32). For him social justice is primary and peace or non-violence is secondary. He does not advocate that type of peace or non-violence, which distorts the social justice. Says, he, "absolute tolerance of all wrongs done to oneself is not a virtue (P. 33). He further maintains 'Asceticism and celibacy may be good things but they cannot be so for all men. Science, painting and philosophy are good things but they are also not for all men. Similarly, conquest of anger by non-anger, of unrighteousness by righteousness, of evil by love, may be good things, but all are not capable of
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practising them. And it is also important to remember, the Hindu thinkers urge that such behaviour cannot be successful in dealing with all men." (P. 33) Thus, for him one should meet evil with justice and so the tolerance of an evil is not moral at all. 'The Peace, which is achieved on the cost of injustice is not good. Says he, the doctrine of noninjury must be reconciled with the necessity to punish those who deserve it and such a punishment may itself be in tune with the spirit of the doctrine. According to Prof. K.S. Murty, one should not tolerate injustice for the sake of non-violence or disturbance of social peace. Aggressive and unjust wars have been condemned by all the Indian thinkers and they hold that just and defensive wars should be undertaken. Those who disturb social peace and do injustice with our fellow being for the sake of their selfish motive, should be punished. But, he holds, this must be done without giving up maitri (friendliness) and karunā (compassion) (See Prologue Page XXI). Just and defensive wars should be undertaken as a sense of duty and at that time our hearts should be free from malice or ill-will. One should not harbour hatred even towards one's opponent or enemy. So far as Prof. K.S. Murty's view on the above said matter is concerned, it is in confirmity with the ancient thinkers of India. He is throughly correct when he comments, "If reverence for life, taken as an absolute value, were stronger than it is, war would decrease very much in frequency and number." (P. 44) But I am not intune with Prof. Murty when he says "Non-injury unless motivated by compassion becomes a superstition and compassion may sometimes lead us to commit injuries to living beings (Page 44)". I am of this view that non-injury or nonviolence does not emanate from compassion which is an emotional aspect of our being, but it follows from the faculty of reasoning as a sense of duty. Non-violence should be observed as a sense duty or obligation and not mere as a feeling of compassion. Compassion always has a sense of attachment as its root. Whatsoever is motivated by attachment or mineness is always immoral. If once we accept non-violence as an absolute ethical value based on our faculty of reasoning, we have no right to say that "war is not always immoral" and "Ahimsa does not sum up morality" - as Prof. Murty holds. Though I agree with Prof. K.S. Murty that in our worldly life complete non-violence is not possible, it does not mean that complete non-violence is mere a superstition as he maintains. Those, who are attached to worldly possessions or even to worldly life and have a social obligation to protect other's life and property,
are unable to dispense with defenesive violence. But it must be remembered that violence is always violence and it can never be an ethical virtue. Inevitablity of violence in worldly life does not make it ethical or moral. There are certain things in the world which are inevitable or necessary for our life, notwithstanding we can not say all of them as moral. I differ with Prof. Murty's view when he concludes, 'It seems to be silly to admit that all life is equally worthy of reverence (P. 44). In my humble opinion to be worthy of reverence is something different from to be observed perfectly. We cannot challenge the intrinsic value of noninjury or non-violence on the basis of its un-practicability in worldly life. Perfect non-violence, however, is not possible yet it does not mean that it is totally impossible in this world. Those, who are completely detached, even to their body, can observe it perfectly. Prof. Murty's pragmatic equation of morality with practicability and immorality with immpracticability is not very desirable because then morality will lead to selfishness.
May be a situation one has to choose between the two violences - Major and Minor instead of violence and nonviolence. In such a situation Jaina Acaryas suggest one should select a minor violence instead of a major one. Prof. K.S. Murty also observes, though man has the obligation to help all living beings, clearly this is impossible and selection had to be made as to whom he should help and whom he may have to injure... when a human life is endangered by disease-carrying germs it seems to be ethically right to preserve it at the cost of the lives of these germs by administration of antibiotics. The use of ratpoision, germicides and disinfectants like DDT to preserve human life seems morally right because human life is qualitatively more valuable than animal life." (P. 44) But in this statement of Prof. Murty I find the usage of some words as objectionable. My first objection is about his use of word 'ethically or morally right'. Here we must be clear in our mind that our selection between two evils or violences does not make a lesser one ethically or morally right. Violence is an evil and it cannot be morally or ethically right in any case. In our worldly life for the sake of our individual interest or even in the interest of human society, in certain situations we have to make a selection between two evils or vices; but on account of our selection, Vices will never be regarded a virtue. Secondly, the human life may be valuable but not in all the cases, so to say, in a desert, a life of a plant is more valuable than human being. Punishments are prescribed for those human beings who
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hurt animal life or even plants, in our scriptures as well as civil codes of various nations. Now a days, we have already accepted that the use of germicides and hurting of plant life is not good for ecological balance.
Prof. K.S. Murty's Concept of Peace
The concept of peace has two main aspects, internal as well as external. The internal aspect is known as mental peace or tranquility, it is related mainly to the individuals and that too particularly to their mental state. While the external aspect of peace is known as social-peace and is related to the society mental peace depends on the cessation of conflicts which takes place between our passionate self i.e. Id and ideal-self i.e. super ego. So far as the external or social peace is concerned, it depends on our harmonious living as a member of society. It is the state of cessation of conflicts and wars between individual and society and among different religious and social groups as well as nations.
While dealing with the concept of Peace, in his famous work. "The Quest for Peace' Prof. K.S. Murty, has emphasi- sed the social or external aspect of peace, but it does not mean that he underestimated the inner peace. He remarks "Not to have hatred towards any one and to harbour no enmity towards any living being, are cardinal virtues, based on the great truth that it is Ātman that is inundate in all beings. Nirvaira is achieved not by cessation of all reaction to evil, but by making the mind and will, pure. Such purity, according to the Gită, is achieved when one gains inner poise, non-attachment and abandonment of concem with the fruits of actions". (P. 21) He further says "to have no mamata (sense of mine) and ... equanimity in action is the way of obtaining man's highest end."(P. 21)
We must also remember the fact that the external or social peace depends on the inner or mental peace of the members of the society. Society without individuals is something abstract, it is the individual who makes society concrete or real. That is why the inner peace of the individuals is a pre-condition for social peace. A disturbed mind disturbs social peace. In the introduction of Prof. K.S. Murty's book - "The Quest for Peace' our former Prime Minister and an enlightened stateman Dr. P.V. Narasimharao rightly observes "The Peace and equality should be both inner and outer. There could be no peace outside unless there is inner peace. By inner peace, I do not necessarily mean the individual state of mind attained by sādhană,
what I mean is that the minds of all men should reach a state where they are free from fear, free from mistrust, free from the urge for self-aggrandisement and exploitation. Today there is an all-pervading war psychosis, because wars begin in the minds of men, and these minds disrupt peace. The same minds need to be oriented to promote peace and this can be done only by a peace-psychosis. (P. XXIX)
Thus, we can conclude that the peace, inner as well as outer, both are worthy to achieve, but stress should be given on inner peace. For inner peace is the cause and outer peace is an effect. But the position of Prof. K.S. Murty is some what different in this regard.
While examining the various theories of the causes of wars, his approach is also realistic. Though he agrees with spiritualists that all wars have their beginning in our minds but at the same time he holds a realistic position and maintains that working of human mind depends on external situations. In the beginning of sixth chapter of this bookThe Quest for Peace, says, he, "The Unesco constitution says war begins in the mind of men." In as much as all human activity begins in men's minds- for after all without an idea and a will nothing begins-that is an obvious truism. But in so far as men's minds are moulded by their social and cultural environment and by the traditions of their political institutions, we have to seek for the causes of war at the deeper level. You cannot change the working of men's minds, when their civilisation, social organisation and political institutions force them to think and act in certain ways (P. 142)." Thus for him, it is not only men's minds, which are solely responsible for wars and conflicts, but environmental situations also play an important role as a cause of wars and conflicts.
In the sixth chapter of his work, he deals with various theories about the cause of wars and also makes a critical estimate of them. He is not in tune with the various psychological theories which generally hold that war is rooted in human nature. He is also not in agreement with those economists, who hold that population pressures and economic conditions are the sole causes of wars. He does not fully support the tension theory which holds that frustrations create wars. Says he "To conclude whatever the case was in ancient times, modern warfare among great states does not seem to be mainly the effect of tensions either in leaders or in peoples" (P. 161). But to a certain extent he is in tune with Dewey and accepts war as a social
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institution or social pattern.
peace a possibility." (P. 199) For the cultivation of peace
consciousness among peoples, and to make efforts for A way out to Peace
permanent world peace he suggested to constitute a At last he opines that war and violence can not be putR espublica-Litteraria. It is the duty of the intellectuals to to an end without a fundamental alteration in social and work hard for the awakening of peace consciousness cultural structure. It is only through awakening of peace because, says he peace cannot be brought about by fine consciousness we can change social and cultural pattern phrases and nice lectures but by hard work and sacrifice and get rid of wars. He observes "Without informed public (P. 214). opinion and good faith a new world order cannot arise and Peace demands the sacrifice of selfish interests and without coming into existence of a unity of outlook and a narrow outlooks as its price. It is only through the community of interests among all men (without national consciousness of 'world family' we can establish peace and and class differences). There can be no world peace (P.182). secure prosperity on the earth. Prof. K.S. Murty propounds three principles, namely (a) अयं निजः परो वेत्ति गणना लघुचेतसाम्, Homonoia-Human brotherhood, (b) Tolerance and (c) उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्। Universal Ethics as the bases of peace. Says he, "If a consistant world view could be evolved in consonance Reference with (if not based upon) these three concepts, through the All the references, in this article are from Prof. K.S. co-operative efforts of the intellectuals of all cultures and Murty's book "The Quest for Peace', Ajanta Publications, if they take pains to make it fashionable among all peoples Jawahar Nagar, Delhi, 1986, page numbers are given in a universal culture may evolve and make permanent world bracket after the quotations.
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