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जैनधर्म और तांत्रिक साधना
डॉ० नन्दलाल जैन
पार्श्वनाथ विद्यापीठ ज्ञान के विभिन्न क्षितिजों के अनेक उदघाटक अनुसंधानात्मक साहित्य के प्रकाशन में पिछले अनेक दशकों से अग्रणी संस्था के रूप में उभरी है । इसके ९४वें पुष्प के रूप में एक सर्वथा नवीन, ऐतिहासिक एवं तुलनात्मक विवेचना के रूप में जैन जगत् के सुप्रसिद्ध विद्वान् तथा तुलनात्मक अध्ययन के पुरोधा डॉ० सागरमल जैन की 'जैनधर्म और तांत्रिक साधना' नामक पुस्तक प्रकाशित हुई है। तांत्रिक परंपरा में मंत्र, तंत्र और साधना विधि के अनेक रूप समाहित होते हैं । फलत: इस पुस्तक में इन सभी पक्षों पर तुलनात्मक एवं सांगोपांग विवेचन हुआ है । वर्तमान बुद्धिवादी जगत् में यह विषय पर्याप्त चर्चित है और इस पर प्रामाणिक पुस्तक की आवश्यकता का अनुभव सामान्य जन को भी होता रहा है । मेरा विश्वास है कि यह पुस्तक अनेक जिज्ञासाओं और भ्रांन्तियों का समाधान करने में समर्थ होगी।
इस पुस्तक में भूमिका के अतिरिक्त बारह अध्याय, बारह सारणियां, १०५ विशिष्ट संदर्भ, ४४ सामान्य संदर्भ, ३९ श्लोक, १५० मंत्र, १४८ यंत्र तथा २६ जप-विधियाँ दी गई हैं। यंत्र-चित्रों एवं जप चित्रों आदि के कारण पुस्तक की सूचना-प्रदत्ता, मनोवैज्ञानिकता तथा आकर्षण में पर्याप्त वृद्धि हुई है।
ग्रंथ के प्रथम अध्याय में 'तंत्र' शब्द के अनेक अर्थ बताये गये हैं - (१) सामान्य पद्धति/व्यवस्था (२) विशिष्ट गुप्त विद्याएं (३) ज्ञान एवं रक्षण की क्षमता में अभिवर्धन (४) अप्रशस्त प्रवृत्तिमार्गी और भक्तिवादी लौकिक एषणाओं की पूर्ति हेतु साधना पद्धति (५) प्रशस्त भक्तिवादी अध्यात्म साधना पद्धति एवं (६) जीवात्मा के देवत्व के अभिवर्धन व्यापकीकरण एवं पशुत्व से संरक्षण की साधना पद्धति । व्युत्पत्ति की दृष्टि से यह कहना तो कठिन होता है कि 'तंत्र' शब्द 'तन्' विस्तारणा+त्र (रक्षण) से व्युत्पन्न है या 'तंत्र' नियंत्रण, नियमन (आप्टे, पेज २२९) से व्युत्पन्न है। लेखक ने इसे प्रथम आधार पर व्युत्पन्न किया लगता है जबकि इसकी दूसरी व्युत्पत्ति भी सार्थक मानी जा सकती है । इसके अनुसार, विभिन्न भोगवादी कायिक क्रियाओं के बीच भी आत्मशक्ति को विकसित करनेवाली पद्धति तंत्र है । यह पद्धति अप्रशस्त प्रवृत्तिमार्ग से निवृत्तिमार्ग की ओर या पशुत्व से देवत्व की ओर ले जाने का एक वैकल्पिक भक्तिवादी पथ है। मंत्र के समान, तंत्र शब्द भी शारीरिक या लौकिक इच्छाओं की पूर्ति या सुरक्षा का अर्थ दे सकता है। लेखक के अनुसार, जैनधर्म एवं सामान्यत: ज्ञात 'तंत्रवाद' का अध्यात्म -विकास या देवत्व अभ्युदय का लक्ष्य समान रहते हुए भी उसके प्राप्त करने की विधियों में विविधता है - एक प्रवृत्तिमार्गी और भक्तिवादी है तो दूसरी निवृत्तिमार्गी और पुरुषार्थवादी है। प्रशस्त तांत्रिक साधना एवं जैन साधना एक-दूसरे से अनेक अर्थों में सहमत हैं -दोनों ही जीवन को वांछनीय एवं रक्षणीय मानते हैं, धर्मसाधन मानते हैं (पर जैनों में स्व के साथ लोक कल्याण का भी लक्ष्य रहता है)। दोनों ही साधनाओं में मंत्र, यंत्र, जप, पूजा, ध्यान, कुंडलिनी एवं चैतन्यचक्र जागरण आदि का प्रयोग होता है।
वैदिक संस्कृति की पूर्ववर्ती श्रमण संस्कृति के निवृत्तिमार्ग ने प्रारंभ में पुरुषार्थ को ही प्रतिष्ठित किया और भक्तिवाद को त्रिपदी के एक घटक के रूप में माना । फलत: भक्तिवाद के कुछ पहलुओं के रहते हुए भी इसमें व्यक्तिवादी निवृत्ति मार्ग की ही प्रमुखता है । लेखक ने १६ बिंदुओं के आधार पर प्रवृत्ति और निवृत्ति धर्मों के दार्शनिक एवं सांस्कृतिक पक्ष को तुलनात्मकत: प्रस्तुत कर भोगमूलक प्रवृत्तिमार्ग के विषय में दिये गये शास्त्रीय विशेषणों-पापश्रुत, पापश्रमण, अनार्य, किल्विषक योनि-मूल आदि को तर्कसंगत बताया है। उन्होंने आंशिक योगवादी प्रवृत्ति को ही भारत में बौद्धधर्म के द्वारा तथा तंत्रवाद के सीमित बने रहने का महत्त्वपूर्ण कारण बताया है। उन्होंने संभोग से समाधिवाद की योगवादी धारणा का भी निरसन किया है।
निवृत्तिवादी अहिंसक एवं अनीश्वरवादी जैनपद्धति आत्मकल्याण के साथ जनकल्याण, लोकमंगल एवं धर्म-संरक्षण को भी महत्त्व देती है। इसके लिये वहां भी पूजा, स्तोत्र, जप, मंत्र, ध्यान, आदि प्रवृत्तियाँ विकसित हुई हैं और प्रचलित रही हैं। इनका लक्ष्य लौकिक एषणायें नहीं रहा फलतः प्रवृत्ति के बिना निवृत्ति हो ही कैसे सकती है ? जैन पद्धति ने भोगवाद के दमन को नहीं, नियमन एवं संयमन पर बल दिया है. उसकी पूर्ति करते रहना तो अशांति का कारण ही बनता है।
यह सही है कि अनेक आगम ग्रंथों में मंत्र आदि विद्याओं को पापश्रुत माना है, फिर भी स्थानांग, ९/२८ में नौ नैपुणिकों में मंत्रवादी और मूर्तिकर्मी का उल्लेख है । इससे यह स्पष्ट है कि महावीर एवं उनके पूर्ववर्ती पार्श्व के युग में सामान्य जनों में मंत्र-तंत्र विद्या का प्रचार एवं प्रभाव था। पार्श्व के युग में तो श्रमण अष्टांग-निमित्त होते थे । परन्तु आत्मकल्याण की दृष्टि से महावीर ने विद्याओं को स्वीकृति नहीं दी और पार्श्व परंपरा किंचित् हीन मानी गई। फिर भी, पार्श्व परंपरा के महावीर पंथ में विलिन होने पर जैनों में भी इन विद्याओं की प्रवृत्ति जनकल्याण हेतु प्रारंभ हुई । इसी लिए श्रमणों को इनका ज्ञानाभ्यास अपेक्षित था। इसके उदाहरण जैन इतिहास के विभिन्न युगों में मिलते हैं । भट्टारक और यति परंपरा और आज के कुछ साधुवृंद भी इस विद्या के पक्षधर और प्रचारक रहे हैं । मूर्तियों की प्राण-प्रतिष्ठा तथा आचार्यपद की प्रतिष्ठा के
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