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डॉ० सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
जबलपुर में जिस पद पर आपको नियुक्ति मिली थी वह पद वहाँ के एक व्याख्याता के प्रमोशन से रिक्त होना था, किन्तु वे जबलपुर छोड़ना नहीं चाहते थे । तीन दिन प्राचार्य के कार्यालय के चक्कर लगाये, किन्तु अन्त में शिक्षा सचिव से हुई मौखिक चर्चा के आधार पर प्राचार्य ने आपको एक पत्र दे दिया, जिसके आधार पर आपको ठाकुर रणमत्तसिंह कालेज, रीवाँ में दर्शनशास्त्र के व्याख्याता का पद ग्रहण करना था। रीवा आपके लिए पूर्णत: अपरिचित था, फिर भी आचार्य रजनीश आदि की सलाह पर तीन दिन जबलपुर में बिताने के पश्चात् रीवाँ के लिए रवाना हुए । यहाँ विभाग में डॉ० डी. डी. बन्दिष्टे का और महाविद्यालय के संस्कृत के व्याख्याता डॉ० कन्छेदीलाल जैन आदि अनेक जैन प्राध्यापकों का सहयोग मिला । एक मकान लेकर दोनों समय ढाबे में भोजन करते हुए आपने अध्यापन कार्य की इस नई जिन्दगी का प्रारम्भ किया। पहली बार आपको लगा कि पढ़ने-पढ़ाने का आनन्द कुछ और है किन्तु रीवाँ का यह प्रवास भी अधिक स्थायी न बन सका । शासन द्वारा वहाँ किसी अन्य व्यक्ति को भेज दिये जाने के कारण आपको आदेशित किया गया कि आप महारानी लक्ष्मीबाई स्नातकोत्तर महाविद्यालय, ग्वालियर जाकर अपना पदभार ग्रहण करें। 'प्रथम ग्रासे मक्षिका पात' की उक्ति के अनुसार शासकीय सेवा का यह अस्थायित्व और एक शहर से दूसरे शहर भटकना आपके मन को अच्छा नहीं लगा और एक बार मन में यह निश्चय किया कि शासकीय सेवा का परित्याग कर देना ही उचित है, किन्तु प्रो.बन्दिष्टे और कुछ मित्रों के समझाने पर आपने इतना माना कि आप ग्वालियर होकर ही शाजापुर जायेंगे।
ग्वालियर जाने में आपके दो-तीन आकर्षण थे, एक तो म.प्र.स्थानकवासी जैन युवक संघ की ग्वालियर शाखा के प्रमुख श्री टी.सी.बाफना आपके पूर्व परिचित थे, दूसरे प्रो.जी. आर जैन से भी आपका पूर्व परिचय था और आप जैन सापेक्षतावाद और आधुनिक विज्ञान पर शोधकार्य करने की दृष्टि से उनसे अधिक गहराई से विचार-विमर्श करना चाहते थे। अत: २७ नवम्बर १९६४ को मात्र १७ दिन के रीवा प्रवास के पश्चात् आप ग्वालियर के लिए रवाना हुए। ग्वालियर पहुँचने पर आप मान-मन्दिर होटल में रुके और प्रात: महाविद्यालय के प्राचार्य प्रो. एम.एम. कुरेशी और विभागाध्यक्ष डॉ. एस. एस. बनर्जी से मिले । दोपहर में आपने टी.सी.बाफना और प्रो.जी.आर जैन से मिलने का कार्यक्रम बनाया । जब प्रो.जी.आर जैन से मिले तो उनका पहला प्रश्न था कहाँ रुके हो? यह बताने पर उनका पहला वाक्य था-तुम सामान लेकर आ जाओ और तत्काल ही एक हाल की साफ-सफाई कर आपके रहने की व्यवस्था अपने ही घर में कर दी । संध्या को महाविद्यालय के दर्शन-विभाग के व्याख्याता डॉ. अशोक लाड और वाणिज्य विभाग के श्री गोविन्द दास माहेश्वरी आप से मिलने आये। इनसे प्रथम परिचय ही ऐसा रहा कि आप तीनों गहरे मित्र बन गये । एक ही दिन में परिवेश ही बदल गया और शाजापुर वापस लौट जाने का विकल्प समाप्त हो गया। दिसम्बर में शीतकालीन अवकाश के पश्चात् जनवरी १९६५ में आप छोटे पुत्र पीयूष, पुत्री शोभा और पत्नी को लेकर ग्वालियर आ गये । यद्यपि आप के लिए अध्यापन का कार्य बिल्कुल नया था, किन्तु पर्याप्त परिश्रम और विषय की पकड़ होने से आप शीघ्र ही छात्रों के प्रिय बन गये । संयोग से महाविद्यालय में उसी वर्ष दर्शनशास्त्र की स्नातकोत्तर कक्षायें प्रारम्भ हुई थीं । अत: आपने कठिन परिश्रम करके छात्रों को न केवल महाविद्यालय में पढ़ाया, बल्कि घर पर बुलाकर भी उनकी तैयारी कराते रहे । सभी का परीक्षाफल भी अच्छा रहा । अत: शीघ्र ही एक सुयोग्य अध्यापक के रूप में आपकी ख्याति हो गयी।
• ग्वालियर में जब मनोविज्ञान का स्वतन्त्र विषय प्रारम्भ हुआ तो आपने प्रारम्भ में उसके अध्यापन का दायित्व भी दर्शनशास्त्र के अध्यापन के साथ-साथ सम्भाला । आपने 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार-दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' जैसा व्यापक विषय लेकर पी-एच०डी की उपाधि हेतु अपना पंजीयन करवाया और शोध प्रबन्ध लिखने की तैयारी में जुट गये। इसी सन्दर्भ में जैन और बौद्ध परम्परा के मूल ग्रन्थों विशेष रूप से जैन आगमों और बौद्ध त्रिपिटक साहित्य का अध्ययन प्रारम्भ किया ।
अध्यापक के रूप में पुनः मालव भूमि में
ग्वालियर में आपका प्रवास पूरे तीन वर्ष रहा । इसी अवधि में आपका चयन म.प्र.लोक सेवा आयोग से हो चुका था और उसमें भी वरीयताक्रम में आपको प्रथम स्थान प्राप्त हुआ था । सूची में सर्वोच्च स्थान पर होने के कारण सहायक
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