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________________ जैन धर्म में मुक्ति की अवधारणा एक तुलनात्मक अध्ययन ३१ नहीं होता, प्रवृत्त नहीं होता। वह अनावरण और आस्त्रवधातु है, लेकिन असंग केवल इस निषेधात्मक विवेचन से सन्तुष्ट नहीं होते हैं, वे निर्वाण की अनिर्वचनीय एवं भावात्मक व्याख्या भी प्रस्तुत करते हैं। निर्वाण अचिन्त्य है, क्योंकि तर्क से उसे जाना नहीं जा सकता लेकिन अचिन्त्य होते हुए भी वह कुशल है, शाश्वत है, सुख रूप है, विमुक्तकाय है, और धर्माख्य है । ३२ इस प्रकार विज्ञानवादी मान्यता में निर्वाण की अभावपरक और भावपरक व्याख्याओं के साथ-साथ उनकी अनिर्वचनीयता को भी स्वीकार किया गया है। वस्तुतः निर्वाण के अनिर्वचनीय स्वरूप के विकास का श्रेय विज्ञानवाद और शून्यवाद को ही है। लंकावतारसूत्र में निर्वाण के अनिर्वचनीय स्वरूप का सर्वोच्च विकास देखा जा सकता है लंकावतारसूत्र के अनुसार निर्वाण विचार की कोटियों से परे है, फिर भी विज्ञानवादी निर्वाण को इस आधार पर नित्य माना जा सकता है कि निर्वाण लाभ से ज्ञान उत्पन्न होता है। तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर विज्ञानवादी निर्वाण का जैन विचारणा से निम्न अर्थों मे साम्य है – १. निर्वाण चेतना का अभाव नही है, वरन् विशुद्ध चेतना की अवस्था है। २. निर्वाण समस्त संकल्पों का क्षय है, वह चेतना की निर्विकल्पावस्था है । ३ निर्वाणावस्था में भी चैतन्य धारा सतत् प्रवाहमान रहती है (आत्मपरिणमीपन) । यद्यपि डॉ० ० चन्द्रधर शर्मा ने आलय विज्ञान को अपरिवर्तनीय या कूटस्थ माना है । ३३ लेकिन आदरणीय बलदेव उपाध्याय उसे प्रवाहमान या परिवर्तनशील ही मानते हैं। ४ ४. निर्वाणावस्था सर्वज्ञता की अवस्था है। जैन विचारणा के अनुसार उस अवस्था में केवलज्ञान और केवल दर्शन है। असंग ने महायान सूत्रालंकार में धर्मकाय को जो कि निर्वाण की पर्यायवाची है, स्वाभाविक काय कहा है।" जैन विचारणा में भी मोक्षको स्वभाव - दशा कहा जाता है। स्वाभाविक काय और स्वभाव-दशा अनेक अर्थों मे अर्थ साम्य रखते हैं। (४) शून्यवाद - बौद्ध दर्शन के माध्यमिक सम्प्रदाय में निर्वाण के अनिर्वचनीय स्वरूप का सर्वाधिक विकास हुआ है। जैन तथा अन्य दार्शनिकों ने शून्यता को अभावात्मक रूप में देखा है, लेकिन यह उस सम्प्रदाय के दृष्टिकोण को समझने में सबसे बड़ी भ्रान्ति ही कही जा सकती है। माध्यमिक दृष्टि से निर्वाण अनिवर्चनीय है, चतुष्कोटि विनिर्मुक्त है, वही परमतत्त्व है वह न भाव है, न अभाव है। यदि वाणी से उसका विवेचन करना ही आवश्यक हो तो मात्र यह कहा जा सकता है कि निर्वाण अप्रहाण असम्प्राप्त, अनुच्छेद, अशाश्वत, अनिरुद्ध एवं अनुत्पन्न है । ३७ निर्वाण को भाव रूप इसलिए नहीं माना जा सकता है कि भावात्मक वस्तु या तो नित्य होगी या अनित्य । नित्य मानने पर निर्वाण के लिए किये गये प्रयासों का कोई अर्थ नहीं होगा । अनित्य मानने पर बिना प्रयास ही मोक्ष होगा। निर्वाण को अभाव भी नहीं कहा जा सकता, अन्यथा तथागत के द्वारा उसकी प्राप्ति का उपदेश क्यों दिया जाता निर्वाण को प्रहाण और सम्प्राप्त भी नही कहा जा सकता, अन्यथा निर्वाण कृतक एवं कालिक होगा और यह मानना पड़ेंगा कि वह काल विशेष में उत्पन्न हुआ है और यदि वह उत्पन्न हुआ है तो वह जरा-मरण के समान अनित्य ही होगा। निर्वाण Jain Education International ३९५ को उच्छेद या शाश्वत भी नहीं कहा जा सकता अन्यथा शास्ता के मध्यम मार्ग का उल्लंघन होगा और हम उच्छेदवाद या शाश्वतवाद की मिथ्या दृष्टि से ग्रसित होंगे। इसलिए माध्यमिक नय में निर्वाण भाव और अभाव दोनों नहीं है। वह तो सर्व संकल्पनाओं का क्षय है, प्रपंचोपशमता है। बौद्ध दार्शनिकों एवं वर्तमान युग के विद्वानों में बौद्ध दर्शन में निर्वाण के स्वरूप को लेकर जो मतभेद दृष्टिगत होता है उसका मूल कारण बुद्ध द्वारा निर्वाण का विविध दृष्टिकोणों के आधार पर विविध रूप से कथन किया जाना है। पाली निकाय में निर्वाण के इन विविध स्वरूपों का विवेचन उपलब्ध होता है उदान नामक एक लघु प्रन्य में ही निर्वाण के इन विविध रूपों को देखा जा सकता है। निर्वाण एक भावात्मक तथ्य है इस सन्दर्भ में बुद्ध वचन इस प्रकार है- “भिक्षुओं! (निर्वाण ) अजात, अभूत, अकृत, असंस्कृत है। भिक्षुओं! यदि वह अजात, अभूत, अकृत, असंस्कृत नहीं होता तो जात, भूत, कृत और संस्कृत का व्युपशम नहीं हो सकता। भिक्षुओं क्योंकि वह अजात, अभूत, अकृत और असंस्कृत है इसलिए जात भूत, कृत और संस्कृत का व्युपशम जाना जाता है । २८ धम्मपद में निर्वाण को परम सुख, ३९ अच्युत स्थान और अमृत पद" कहा गया है जिसे प्राप्त कर लेने पर न च्युति का भय होता है, न शोक होता है उसे शान्त संसारोपशम एवं सुख पद भी कहा गया है। इतिवृत्तक में कहा गया है— वह ध्रुव, न उत्पन्न होने वाला है, शोक और राग रहित है, सभी दुःखों का वहाँ निरोध हो जाता है, वहाँ संस्कारों की शान्ति एवं सुख है ४२ । आचार्य बुद्धघोष निर्वाण की भावात्मकता का समर्थन करते हुए विशुद्धिमग्ग में लिखते हैं— निर्वाण नहीं है, ऐसा नहीं कहना चाहिए। प्रभव और जरामरण के अभाव से नित्य है— अशिथिल, पराक्रम सिद्ध, विशेष ज्ञान से प्राप्त किए जाने से और सर्वज्ञ के वचन तथा परमार्थ से निर्वाण अविधमान नहीं है। ४३ निर्वाण की अभावात्मकता निर्वाण की अभावात्मकता के सम्बन्ध में उदान के रूप में निम्न बुद्ध वचन है, "लोहे पर घन की चोट पड़ने पर जो चिनगारियाँ उठती हैं वो तुरन्त ही बुझ जाती हैं, कहाँ गई कुछ पता नहीं चलता। इसी प्रकार काम बन्धन से मुक्त हो निर्वाण पाये हुए पुरुष की गति का कोई भी पता नहीं लगा सकता । ४४ शरीर छोड़ दिया, संज्ञा निरुद्ध हो गई, सारी वेदनाओं को भी बिलकुल जला दिया। संस्कार शान्त होगए; विज्ञान अस्त हो गया। लेकिन दीप शिखा और अग्नि के बुझ जाने अथवा संज्ञा के निरुद्ध हो जाने का अर्थ अभाव नहीं माना जा सकता, आचार्य बुद्धघोष विशुद्धिमग्ग में कहते है— निरोध का वास्तविक अर्थ तृष्णाक्षय अथवा विराग है४६ । प्रोफेसर कीथ एवं प्रोफेसर नलिनाक्षदत्त अग्गि वच्छगोत्तमुत्त के आधार पर यह सिद्ध करते हैं कि बुझ जाने का अर्थ अभावात्मकता For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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