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________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श २५ भाष्य में भी गुणस्थान की चर्चा अनुपस्थित है, जबकि इसकी परवर्ती का एक भी ऐसा ग्रन्थ या अभिलेख दिखा दें, जो अर्धमागधी आगमों टीकाएँ गुणस्थान की विस्तृत चर्चा प्रस्तुत करती हैं। उमास्वाति का और मागधी प्रधान अशोक, खारवेल, आदि के अभिलेखों से प्राचीन काल तीसरी-चौथी शती के लगभग है। अत: यह निश्चित है कि गुणस्थान हो। अर्धमागधी के अतिरिक्त जिस महाराष्ट्री प्राकृत को वे शौरसेनी का सिद्धान्त पाँचवीं शती में अस्तित्व में आया है। अत: शौरसेनी से परवर्ती बता रहे हैं, उसमें सातवाहन नरेश हाल की गाथा सप्तशती प्राकृत में निबद्ध कोई भी ग्रन्थ जो गुणस्थान का उल्लेख कर रहा लगभग प्रथम शती में रचित है और शौरसेनी के किसी भी ग्रन्थ से है, ईसा की पाँचवीं शती के पूर्व का नहीं है। प्राचीन शौरसेनी आगमतुल्य प्राचीन है। ग्रन्थों में मात्र कसायपाहुड ही ऐसा है जो स्पष्टत: गुणस्थानों का पुन: मैं डॉ.सुदीप के निम्न कथन की ओर पाठकों का ध्यान उल्लेख नहीं करता है, किन्तु उसमें भी प्रकारान्तर से १२ गुणस्थानों दिलाना चाहूँगा, वे प्राकृत-विद्या, जुलाई-सितम्बर ९६ में लिखते हैं की चर्चा उपलब्ध है, अत: वह भी आध्यात्मिक विकास की उन दस कि दिगम्बरों के ग्रन्थ उस शौरसेनी प्राकृत में हैं, जिससे 'मागधी' अवस्थाओं, जिनका उल्लेख आचाराङ्गनियुक्ति और तत्त्वार्थसूत्र में है, आदि प्राकृतों का जन्म हुआ, इस सम्बन्ध में मेरा उनसे निवेदन है से परवर्ती और गुणस्थान सिद्धान्त के विकास के संक्रमण काल की कि मागधी के सम्बन्ध में 'प्रकृति: शौरसेनी' (प्राकृतप्रकाश, ११/२) रचना है, अत: उसका काल भी चौथी से पाँचवीं शती के बीच सिद्ध इस कथन की वे जो व्याख्या कर रहे हैं वह भ्रान्त है और वे स्वयं होता है। भी शौरसेनी के सम्बन्ध में 'प्रकृतिः संस्कृतम्' (प्राकृतप्रकाश, १२/ २), इस सूत्र की व्याख्या में 'प्रकृति:' का जन्मदात्री यह अर्थ अस्वीकार शौरसेनी की प्राचीनता का दावा, कितना खोखला कर चुके हैं। इसकी विस्तृत समीक्षा हमने अग्रिम पृष्ठों में की है। शौरसेनी की प्राचीनता का गुणगान इस आधार भी किया जाता इसके प्रत्युत्तर में मेरा दूसरा तर्क यह है कि यदि शौरसेनी प्राकृत है कि यह नारायण कृष्ण और तीर्थङ्कर अरिष्टनेमि की मातृभाषा रही ग्रन्थों के आधार पर ही मागधी के प्राकृत आगमों की रचना हुई, तो है, क्योंकि इन दोनों महापुरुषों का जन्म शूरसेन जनपद में हुआ था उनमें किसी भी शौरसेनी प्राकृत के ग्रन्थ का उल्लेख क्यों नहीं है? और ये शौरसेनी प्राकृत में ही अपना वाक् व्यवहार करते थे। डॉ.सुदीप श्वेताम्बर आगमों में वे एक भी सन्दर्भ दिखा दें, जिनमें भगवतीआराधना, जी के शब्दों में “इन दोनों महापुरुषों के प्रभावक व्यक्तित्व के महाप्रभाव मूलाचार, षट्खण्डागम, तिलोयपण्णत्ति, प्रवचनसार, समयसार, से शूरसेन जनपद में जन्मी शौरसेनी प्राकृत भाषा को सम्पूर्ण आर्यावर्त नियमसार आदि का उल्लेख हुआ हो। टीकाओं में भी मलयगिरि (तेरहवीं में प्रसारित होने का सुअवसर मिला था।" (प्राकृतविद्या-जुलाई-सितम्बर शती) ने मात्र 'समयपाहुड' का उल्लेख किया है। इसके विपरीत ९६, पृ.६)। मूलाचार, भगवतीआराधना और षट्खण्डागम की टीकाओं में एवं यदि हम एक बार उनके इस कथन को मान भी लें, तो प्रश्न तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक आदि सभी उठता है अरिष्टनेमि के पूर्व नमि मिथिला में जन्मे थे, वासुपूज्य चम्पा दिगम्बर टीकाओं में इन आगमों एवं नियुक्तियों के उल्लेख हैं। में जन्मे थे, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ और श्रेयांस काशी जनपद में जन्मे थे, भगवतीआराधना की टीका में तो आचाराङ्ग, उत्तराध्ययन, कल्प तथा यही नहीं प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव और मर्यादा पुरुषोत्तम राम अयोध्या निशीथ से अनेक अवतरण भी दिये गये हैं। मूलाचार में न केवल में जन्मे थे। ये सभी क्षेत्र तो मगध के ही निकटवर्ती हैं, अत: इनकी अर्धमागधी आगमों का उल्लेख है, अपितु उनकी सैकड़ों गाथाएँ भी मातृभाषा तो अर्धमागधी रही होगी। भाई सुदीप जी के अनुसार यदि हैं। मूलाचार में आवश्यकनियुक्ति, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, शौरसेनी अरिष्टनेमि जितनी प्राचीन है, तो फिर अर्धमागधी तो ऋषभ चन्द्रवेध्यक, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि की अनेक गाथाएँ अपने जितनी प्राचीन सिद्ध होती है, अत: शौरसेनी से अर्धमागधी प्राचीन शौरसेनी शब्द रूपों में यथावत् पायी जाती हैं। दिगम्बर परम्परा में जो प्रतिक्रमणसूत्र उपलब्ध हैं, उसमें ज्ञातासूत्र यदि शौरसेनी प्राचीन होती तो सभी प्राचीन अभिलेख और प्राचीन के उन्हीं १९ अध्ययनों के नाम मिलते हैं, जो वर्तमान में श्वेताम्बर आगमिक ग्रन्थ शौरसेनी में मिलते, किन्तु ईसा की चौथी, पाँचवीं परम्परा में उपलब्ध ज्ञाताधर्मकथा में उपलब्ध हैं। तार्किक दृष्टि से यह शती से पूर्व का कोई भी जैन ग्रन्थ और अभिलेख शौरसेनी में उपलब्ध स्पष्ट है कि जो ग्रन्थ जिन-जिन ग्रन्थों का उल्लेख करता है, वह उनसे क्यों नहीं होता है? पुनः नाटकों में भी भास के समय से अर्थात् परवर्ती ही होता है, पूर्ववर्ती कदापि नहीं। शौरसेनी आगम या आगमतुल्य ईसा की दूसरी शती से ही शौरसेनी के प्रयोग (वाक्यांश) उपलब्ध ग्रन्थों में यदि अर्धमागधी आगमों के नाम मिलते हैं तो फिर शौरसेनी होते हैं। और उसका रचित साहित्य अर्धमागधी आगमों से प्राचीन कैसे हो नाटकों में शौरसेनी प्राकृत की उपलब्धता के आधार पर उसकी सकता है? प्राचीनता का गुणगान किया जाता है, मैं विनम्रतापूर्वक पूछना चाहूँगा आदरणीय टॉटिया जी के माध्यम से यह बात भी उठायी गयी कि क्या इन उपलब्ध नाटकों में कोई भी नाटक ईसा की दूसरी-तीसरी कि मूलत: आगम शौरसेनी में रचित थे और कालान्तर में उनका शती से पूर्व का है? फिर उन्हें शौरसेनी की प्राचीनता का आधार अर्धमागधीकरण (महाराष्ट्रीकरण) किया गया। यह एक ऐतिहासिक सत्य कैसे माना जा सकता है। मात्र नाटक ही नहीं, वे शौरसेनी प्राकृत है कि जैनधर्म का उद्भव मगध में हुआ और वहीं से वह दक्षिणी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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