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जैन दर्शन में आत्मा : स्वरूप एवं विश्लेषण
११९ कि चैतन्य महाभूतों के विशिष्ट संयोग से उत्पन्न होता है।१२ गीता भी पुद्गल ही होता है। जैन विचारणा में ज्ञान की उत्पत्ति पदार्थों के आत्मा कहती है कि असत् का प्रादुर्भाव नहीं होता और सत् का विनाश नहीं में प्रतिबिम्बित होने से ही मानी गयी है। होता है।१३ यदि चैतन्य भूतों में नहीं है तो वह उनके संयोग से निर्मित (३) अपौद्गलिक और अमूर्तिक आत्मा पौद्गलिक एवं मूर्तिक शरीर में भी नहीं हो सकता। शरीर में चैतन्य की उपलब्धि होती है। कर्मों के साथ बद्ध होकर विकारी होना कैसे सम्भव हो सकता है? (इस अत: उसका आधार शरीर नहीं, आत्मा है। आत्मा की जड़ से भिन्नता प्रकार के बन्ध का कोई दृष्टान्त भी उपलब्ध नहीं है) स्वर्ण और पाषाण सिद्ध करने के लिए शीलांकाचार्य एक दूसरी युक्ति प्रस्तुत करते हुए के अनादिबन्ध का जो दृष्टान्त दिया जाता है, वह विषम दृष्टान्त है और कहते हैं कि “पाँचों इन्द्रियों के विषय अलग-अलग हैं, प्रत्येक इन्द्रिय एक प्रकार से स्वर्णस्थानी जीव का पौद्गलिक होना ही सूचित करता है। अपने विषय का ही ज्ञान करती है, जबकि पाँचों इन्द्रियों के विषयों का (४) रागादिक को पौद्गलिक कहा गया है और रागादिक जीव एकत्रीभूत रूप में ज्ञान करने वाला अन्य कोई अवश्य है और वह के परिणाम हैं- बिना जीव के उनका अस्तित्व नहीं। (यदि जीव आत्मा है।"१४
पौद्गलिक नहीं है, तो भाव रागादि पौद्गलिक कैसे सिद्ध हो सकेंगे?) इसी सम्बन्ध में आचार्य शंकर की भी एक युक्ति है, जिसके इसके सिवाय अपौद्गलिक जीवात्मा में कृष्ण, नीलादि लेश्याएँ कैसे सम्बन्ध में प्रो० ए०सी० मुखर्जी ने अपनी पुस्तक 'नेचर ऑफ सेल्फ' बन सकती हैं? में काफी प्रकाश डाला है। शंकर पूछते हैं कि भौतिकवादियों के जैन दर्शन जड़ और चेतन के द्वैत को और उनकी स्वतन्त्र अनुसार भूतों से उत्पन्न होने वाली उस चेतना का स्वरूप क्या है? सत्ता को स्वीकार करता है। वह सभी प्रकार के अद्वैतवाद का विरोध उनके अनुसार या तो चेतना उन तत्त्वों की प्रत्यक्षकर्ता होगी या उनका करता है, चाहे वह शंकर का आध्यात्मिक अद्वैतवाद हो अथवा चार्वाक ही एक गुण होगी। प्रथम स्थिति में यदि चेतना गुणों की प्रत्यक्षकर्ता एवं अन्य वैज्ञानिकों का भौतिकवाद हो। लेकिन इस सैद्धान्तिक मान्यता होगी, तो वह उनसे प्रत्युत्पन्न नहीं होगी। दूसरे यह कहना भी हास्यास्पद से उपर्युक्त शंकाओं का समाधान नहीं होता। इसके लिए हमें जीव के होगा कि भौतिक गुण अपने ही को ज्ञान विषय-वस्तु बनाते हैं। यह स्वरूप को उस सन्दर्भ में देखना होगा जिसमें उपर्युक्त शंकाएँ प्रस्तुत मानना कि चेतना जो भैतिक पदार्थों का ही एक गुण है, उनसे ही की गयी हैं। प्रथमत: संकोच-विस्तार तथा उसके आधार पर होने वाले प्रत्युत्पन्न है और उन भौतिक पदार्थों को ही अपने ज्ञान का विषय सौक्ष्म्य एवं स्थौल्य तथा बन्धन और रागादिभाव का होना सभी बद्ध बनाती है, उतना ही हास्यास्पद है जितना यह मानना कि आग अपने जीवात्माओं या हमारे वर्तमान सीमित व्यक्तित्व के कारण हैं। जहाँ तक को ही जलाती है अथवा नट अपने ही कंधों पर चढ़ सकता है। इस सीमित व्यक्तित्व या बद्ध जीवात्मा का प्रश्न है, वह एकान्त रूप से न प्रकार शंकर का भी निष्कर्ष यही है कि चेतन (आत्मा) भौतिक तत्त्वों तो भौतिक है और न अभौतिक। जैन चिन्तक मुनि नथमल जी इन्हीं से व्यतिरिक्त और ज्ञानस्वरूप है।
प्रश्नों का समाधान करते हुए लिखते है कि "मेरी मान्यता यह है कि
हमारा वर्तमान व्यक्तित्व न सर्वथा पौद्गलिक है और न सर्वथा अपौगलिक। आक्षेप एवं निराकरण
यदि उसे सर्वथा पौद्गलिक मानें तो उसमें चैतन्य नहीं हो सकता और सामान्य रूप से जैन विचारणा में आत्मा या जीव को उसे सर्वथा अपौद्गलिक मानें तो उसमें संकोच-विस्तार, प्रकाशमय, अपौद्गलिक, विशुद्ध चैतन्य एवं जड़ से भिन्न स्वतन्त्र तत्त्व या द्रव्य अनुभव, ऊर्ध्वगामीधर्मिता, रागादि नहीं हो सकते। मैं जहाँ तक समझ माना जाता है। लेकिन अन्य दार्शनिकों का आक्षेप है कि जैन दर्शन के सकता हूँ, कोई भी शरीरधारी जीव अपौद्गलिक नहीं है। जैन आचार्यों विचार में जीव का स्वरूप बहुत कुछ पौद्गलिक बन गया है। यह आक्षेप ने उसमें संकोच-विस्तार, बन्धन आदि माने हैं, अपौद्गलिकता उसकी अजैन दार्शनिकों का ही नहीं, अनेक जैन चिन्तकों का भी है और अन्तिम परिणति है जो शरीर-मुक्ति से पहले कभी प्राप्त नहीं होती।"१७ उनके लिए आगमिक आधारों पर कुछ तर्क भी प्रस्तुत किये गये हैं। मुनि जी के इस कथन को अधिक स्पष्ट रूप में यों कहा जा सकता है पं० जुगलकिशोर मुख्तार ने इस विषय में एक प्रश्नावली भी प्रस्तुत कि जीव के अपौद्गलिक स्वरूप उसकी उपलब्धि नहीं, आदर्श हैं। जैन की थी।२६ यहाँ उस प्रश्नावली के कुछ प्रमुख मुद्दों पर ही चर्चा करना दर्शन का लक्ष्य इसी अपौगलिक स्वरूप की उपलब्धि है। जीव की अपेक्षित है, जो जीव सम्बन्धी जैन दार्शनिक मान्यताओं में ही पारस्परिक अपौद्गलिकता आदर्श है, जागतिक तथ्य नहीं, जबकि ये सभी बातें अन्तर्विरोध प्रकट करते हैं
बद्धजीवों में ही पायी जाती हैं। (१) जीव यदि पौद्गलिक नहीं है तो उसमें सौक्ष्म्य-स्थौल्य अथवा संकोच-विस्तार क्रिया और प्रदेश परिस्पन्द कैसे बन सकता है? आत्मा और शरीर में सम्बन्ध जैन विचारणा के अनुसार तो सौक्ष्य-स्थौल्य को पुद्गल की पर्याय माना महावीर के सम्मुख जब यह प्रश्न उपस्थित किया गया कि गया है।
___ "भगवान्-जीव वही है जो शरीर है या जीव भिन्न है और शरीर भिन्न (२) जीव के अपौद्गलिक होने पर आत्मा में पदार्थों का है?" महावीर ने उत्तर दिया- “हे गौतम! जीव शरीर भी है और शरीर प्रतिबिम्बित होना भी कैसे बन सकता है? क्योंकि प्रतिबिम्ब का ग्राहक से भिन्न भी है।"१८ इस प्रकार महावीर ने आत्मा और देह के मध्य
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