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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ दसाओ (अनुत्तरौपपातिकदशा:), १०. पण्हावागरणाई (प्रश्नव्याकरणानि), दशवैकालिक मान्य रहे हैं, अपितु यापनीय आचार्य अपराजित (नवीं ११. विवागसुर्य (विपाकश्रुतम्), १२. दृष्टिवादः (दिट्ठिवाय), जो शती) ने तो दशवैकालिक की टीका भी लिखी थी। विच्छिन्न हुआ है।
६. छेदसूत्र १२ उपाङ्ग
छेदसूत्रों के अन्तर्गत वर्तमान में १. आयारदशा (दशाश्रुतस्कन्ध), १. उववाइयं (औपपातिकं), २. रायपसेणइज (राजप्रसेनजित्कं) २. कप्प (कल्प), ३. ववहार (व्यवहार), ४. निसीह (निशीथ), अथवा रायपसेणियं (राजप्रश्नीय), ३. जीवाजीवाभिगम, ४. पण्णवणा ५. 'महानिशीथ और ६. जीयकप्प (जीतकल्प)- ये छह ग्रन्थ माने (प्रज्ञापना), ५. सूरपण्णत्ति (सूर्यप्रज्ञप्तिः), ६. जम्बुद्दीवपण्णत्ति (जम्बूद्वीप- जाते हैं। इनमें से महानिशीथ और जीतकल्प को श्वेताम्बरों की तेरापन्थी प्रज्ञप्तिः), ७. चंदपण्णत्ति (चन्द्रप्रज्ञप्तिः),८-१२.निरयावलियासुयक्खंध और स्थानकवासी सम्प्रदायें मान्य नहीं करती हैं। वे दोनों मात्र चार (निरयावलिकाश्रुतस्कन्धः), ८. निरयावलियाओ (निरयावलिकाः), ही छेदसूत्र मानते हैं। जबकि श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय उपर्युक्त ६ ९. कप्पवडिंसियाओ (कल्पावतंसिका:), १०. पुफियाओ (पुष्पिका:), छेदसूत्रों को मानता है। जहाँ तक दिगम्बर और यापनीय परम्परा का ११. पुष्फचूलाओ (पुष्पचूला:), १२. वण्हिदसाओ (वृष्णिदशा:)। प्रश्न है उनमें अङ्गबाह्य ग्रन्थों में कल्प, व्यवहार और निशीथ का उल्लेख
मिलता है। यापनीय सम्प्रदाय के ग्रन्थों में न केवल इनका उल्लेख जहाँ तक उपर्युक्त अङ्ग और उपाङ्ग ग्रन्थों का प्रश्न है। श्वेताम्बर मिलता है, अपितु इनके अवतरण भी दिये गये हैं। आश्चर्य यह है परम्परा के सभी सम्प्रदाय इन्हें मान्य करते हैं। जबकि दिगम्बर सम्प्रदाय कि वर्तमान में दिगम्बर परम्परा में प्रचलित मूलत: यापनीय परम्परा इन्हीं ग्यारह अङ्गसूत्रों को स्वीकार करते हुए भी यह मानता है कि अङ्गसूत्र के प्रायश्चित्त सम्बन्धी ग्रन्थ "छेदपिण्डशास्त्र" में कल्प और व्यवहार वर्तमान में विलुप्त हो गये हैं। उपाङ्गसूत्रों के सन्दर्भ में श्वेताम्बर परम्परा के प्रामाण्य के साथ-साथ जीतकल्प का भी प्रामाण्य स्वीकार किया के सभी सम्प्रदायों में एकरूपता है, किन्तु दिगम्बर परम्परा में बारह गया है। इस प्रकार दिगम्बर एवं यापनीय परम्पराओं में कल्प, व्यवहार, उपाङ्गों की न तो कोई मान्यता रही और न वे वर्तमान में इन ग्रन्थों निशीथ और जीतकल्प की मान्यता रही है, यद्यपि वर्तमान में दिगम्बर के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। यद्यपि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति आचार्य इन्हें मान्य नहीं करते हैं। आदि नामों से उनके यहाँ कुछ ग्रन्थ अवश्य पाये जाते हैं। साथ ही सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति को भी उनके द्वारा दृष्टिवाद १० प्रकीर्णक के परिकर्म विभाग के अन्तर्गत स्वीकार किया गया था।
इसके अन्तर्गत निम्न दस ग्रन्थ माने जाते हैं -
१. चउसरण (चतुःशरण), २. आउरपच्चक्खाण (आतुरप्रत्याख्यान), ४ मूलसूत्र
३. भत्तपरित्रा (भक्तपरिज्ञा), ४. संथारय (संस्तारक), ५. तंडुलवेयालिय सामान्यतया (१) उत्तराध्ययन, (२) दशवैकालिक, (३) आवश्यक (तंदुलवैचारिक), ६. चंदवेज्झय (चन्द्रवेध्यक), ७. देविन्दत्थय और (४) पिण्डनियुक्ति-ये चार मूलसूत्र माने गये हैं। फिर भी मूलसूत्रों (देवेन्द्रस्तव), ८. गणिविज्जा (गणिविद्या), ९. महापच्चक्खाण की संख्या और नामों के सन्दर्भ में श्वेताम्बर सम्प्रदायों में एकरूपता (महाप्रत्याख्यान) और १० वीरत्थय (वीरस्तव)। नहीं है। जहाँ तक उत्तराध्ययन और दशवैकालिक का प्रश्न है इन्हें श्वेताम्बर सम्प्रदायों में स्थानकवासी और तेरापंथी इन प्रकीर्णकों सभी श्वेताम्बर सम्प्रदायों एवं आचार्यों ने एक मत से मूलसूत्र माना को मान्य नहीं करते हैं। यद्यपि मेरी दृष्टि में इनमें उनकी परम्परा के है। समयसुन्दर, भावप्रभसूरि तथा पाश्चात्त्य विद्वानों में प्रो.ब्यूहलर, प्रो. विरुद्ध ऐसा कुछ भी नहीं है, जिससे इन्हें अमान्य किया जाये। इनमें शारपेन्टियर, प्रो. विन्टर्नित्ज़, प्रो.शुबिंग आदि ने एक स्वर से आवश्यक से ९ प्रकीर्णकों का उल्लेख तो नन्दीसूत्र में मिल जाता है। अत: इन्हें को मूलसूत्र माना है, किन्तु स्थानकवासी एवं तेरापन्थी सम्प्रदाय अमान्य करने का कोई औचित्य नहीं है। हमने इसकी विस्तृत चर्चा आवश्यक को मूलसूत्र के अन्तर्गत नहीं मानते हैं। ये दोनों सम्प्रदाय आगम संस्थान, उदयपुर से प्रकाशित 'महापच्चक्खाण' की भूमिका आवश्यक एवं पिण्डनियुक्ति के स्थान पर नन्दी और अनुयोगद्वार को में की है। जहाँ तक दस प्रकीर्णकों के नाम आदि का प्रश्न है, श्वेताम्बर मूलसूत्र मानते हैं। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में कुछ आचार्यों ने मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के आचार्यों में भी किंचित् मतभेद पाया जाता पिण्डनियुक्ति के साथ-साथ ओघनियुक्ति को भी मूलसूत्र में माना है। है। लगभग ९ नामों में तो एकरूपता है किन्तु भत्तपरिन्ना, मरणविधि इस प्रकार मूलसूत्रों के वर्गीकरण और उनके नामों में एकरूपता का और वीरस्तव ये तीन नाम ऐसे हैं जो भिन्न-भिन्न आचार्यों के वर्गीकरण अभाव है। दिगम्बर परम्परा में इन मूलसूत्रों में से दशवैकालिक, में भिन्न-भिन्न रूप से आये हैं। किसी ने भक्तपरिज्ञा को छोड़कर मरणविधि उत्तराध्ययन और आवश्यक मान्य रहे हैं। तत्त्वार्थ की दिगम्बर टीकाओं का उल्लेख किया है तो किसी ने उसके स्थान पर वीरस्तव का उल्लेख में, धवला में तथा अङ्गपण्णत्ति में इनका उल्लेख है। ज्ञातव्य है कि किया है। मुनि श्री पुण्यविजयजी ने 'पइण्णयसुत्ताई' के प्रथम भाग अङ्गपण्णत्ति में नन्दीसूत्र की भाँति ही आवश्यक के छह विभाग किये की भूमिका में प्रकीर्णक नाम से अभिहित लगभग २२ ग्रन्थों का उल्लेख गये हैं। यापनीय परम्परा में भी न केवल आवश्यक, उत्तराध्ययन एवं किया है। इनमें से अधिकांश महावीर विद्यालय से पइण्णयसुत्ताइं नाम
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