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सन्दर्भ:
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४.
५.
नैतिक प्रतिमान: एक या अनेक ?
आयाए सामाइए आया सामाइस्स अट्ठे ।
भगवतीसूत्र
डॉ० राधाकृष्णन् जीवन की आध्यात्मिक दृष्टि, राजपाल एण्ड सन्स,
दिल्ली, पृष्ठ २५९।
हर्बर्ट स्पेन्सर, फर्स्ट प्रिन्सपल्स, वाट्स एण्ड को०, छठा संस्करण लंदन, पृष्ठ ६६।
C.D. Board, Five Types of Ethical Theories, p. 16.
F.H. Bradley, Ethical Studies, Oxford University Publication, Chapter II.
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सामान्यतया एक विचारशील प्राणी के नाते मनुष्य को स्वयं अपने और दूसरे व्यक्तियों के चरित्र एवं व्यवहार की उचितता तथा अनुचितता के सम्बन्ध में अथवा मानव जीवन के किसी साध्य के शुभत्व और अशुभत्व के बारे में निर्णय लेने होते हैं। युगों से मनुष्य इस प्रकार के निर्णय लेता रहा है कि अमुक शुभ है और अमुक अशुभ है। यह करना उचित है और यह करना अनुचित है। फिर भी मानव जीवन के साध्य एवं आचरण के सम्बन्ध में लिये जाने वाले इन निर्णयों को लेकर मनुष्यों में एकरूपता नहीं देखी जाती है । एक ही प्रकार के आचरण को किसी एक देश, काल एवं सभ्यता में उचित ठहराया जाता है तो दूसरे में अनुचित मात्र यही नहीं, एक व्यक्ति जिसे अच्छा (शुभ) कहता है, दूसरा व्यक्ति उसी आचार-व्यवहार को बुरा (अशुभ) कहता है। मूल प्रश्न यह है कि नैतिकता-सम्बन्ध इन निर्णयों की विविधता का क्या कारण है— वस्तुतः मनुष्यों की नीति सम्बन्धी अवधारणाओं, मापदण्डों या प्रतिमानों की विविधता ही नैतिक निर्णयों की इस भिन्नता का कारण मानी जा सकती है। जब भी हम नैतिक मूल्याङ्कन करते हैं तो हमारे सामने नीति सम्बन्धी कोई मापदण्ड, प्रतिमान या मानक (Moral Standard) अवश्य होता है, जिसके आधार पर हम किसी व्यक्ति के चरित्र, आचरण अथवा कर्म का नैतिक मूल्यांकन (Moral Valuation) करते हैं। विभिन्न देश कॉल, समाज और संस्कृतियों में ये नैतिक मापदण्ड या प्रतिमान अलग-अलग रहे हैं और समय-समय पर इनमें परिवर्तन होता रहा है प्राचीन ग्रीक संस्कृति में जहाँ साहस और न्याय को नैतिकता का प्रतिमान माना जाता था, वहीं परवर्ती ईसाई संस्कृति में सहनशीलता और त्याग को नैतिकता का प्रतिमान माना जाने लगा। यह एक वास्तविकता है कि नैतिक प्रतिमान या नैतिकता के मापदण्ड अनेक रहे हैं तथा विभिन्न व्यक्ति और विभिन्न समाज अलग-अलग नैतिक प्रतिमानों का उपयोग करते रहे हैं। मात्र यही नहीं एक ही व्यक्ति अपने
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समयसार टीका, गाथा ३०५ ।
योगशास्त्र, ४/५ । अध्यात्मतत्त्वालोक ४/६
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९.
आचाराङ्ग, १/३/२।
१०. समवायाङ्ग ४-५, प्रज्ञापना पद ८ । ११. अभिधान राजेन्द्र, खण्ड ७, पृ० ३०१
१२. आचाराङ्ग, १/२/३/८१।
१३. आचाराङ्ग, २/३/१५/१०१-१०५ ।
१४. उत्तराध्ययन ३२/१००, १०१।
नैतिक प्रतिमान : एक या अनेक ?
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ही जीवन में दो भिन्न भिन्न परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न नैतिक प्रतिमानों का उपयोग करता है। नैतिक प्रतिमान के इस प्रश्न पर न केवल जन साधारण में अपितु नीतिवेत्ताओं में भी गहरा मतभेद है।
नैतिक प्रतिमानों (Moral Standards) की इस विविधता और परिवर्तनशीलता को लेकर अनेक प्रश्न उपस्थित होते हैं क्या ऐसे सार्वभौम नैतिक प्रतिमान सम्भव है जिन्हें सार्वलौकिक और सार्वकालीन मान्यता प्राप्त हो? यद्यपि अनेक नीतिवेत्ताओं ने अपने नैतिक प्रतिमान का सार्वलौकिक, सार्वकालीन एवं सार्वजनीन सिद्ध करने का दावा अवश्य किया है, किन्तु जब वे ही आपस में एक मत नहीं हैं, तो फिर उनके इस दावे को कैसे मान्य किया जा सकता है? नीतिशास्त्र के इतिहास में नियमवादी सिद्धान्तों में कबीले के बाह्यनियमों की अवधारणा से लेकर अन्तरात्मा के आदेश तक, तथा साध्यवादी परम्परा में स्थूल स्वार्थमूलक सुखवाद से प्रारम्भ करके बुद्धिवाद, पूर्णतावाद और मूल्यवाद तक अनेक नैतिक प्रतिमान प्रस्तुत किये गये हैं।
यदि हम नैतिक मूल्याङ्कन का आधार नैतिक आवेगों (Moral Sentiments) को स्वीकार करते हैं, तो नैतिक मूल्याङ्कन सम्भव ही नहीं होगा, उनमें विविधता स्वाभाविक है। नैतिक आवेगों की इस विविधता को समकालीन विचारक एडवर्ड वेस्टरमार्क ने स्वयं स्वीकार किया है। उनके अनुसार इस विविधता का कारण व्यक्तियों के परिवेश, धर्म और विश्वासों में पायी जाने वाली भित्रता है जो विचारक कर्म के नैतिक औचित्य एवं अनौचित्य के निर्धारण के लिये विधानवादी प्रतिमान अपनाते हैं और जाति, समाज, राज्य या धर्म के द्वारा प्रस्तुत विधि - निषेध (यह करो और यह मत करो) की नियमावलियों को नैतिक प्रतिमान स्वीकार करते हैं, उनमें भी प्रथम तो इस प्रश्न को लेकर ही मतभेद है कि जाति (समाज) राज्यशासन और धर्मग्रन्थों द्वारा प्रस्तुत अनेक नियमावलियों में से किसे स्वीकार किया जावे ? पुनः प्रत्येक जाति, राज्य और धर्मग्रन्थ द्वारा प्रस्तुत ये नियमावलियाँ भी अलग-अलग
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