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ऋग्वेद में अर्हत् और ऋषभवाची ऋचायें: एक विमर्श
प्रदीधितिर्विश्ववारा जिगाति होतारमिलः प्रथमं यजध्यै | अच्छा नमोभिर्वृषभं वन्दध्यै स देवान्यदिषितो यजीयान् ।।
(३.४.३)
समग्र संसार के द्वारा वरेण्य तथा प्रकाश को करने वाली बुद्धि सबसे प्रथम पूजा करने के लिए ज्योति स्वरूप ऋषभ के पास जाती है। उस ऋषभ की वन्दना करने के लिए हम नमस्कार करते हुए उसके पास जायें। हमारे द्वारा प्रेरित होकर वह भी पूजनीय देवों की पूजा करें। अषाहो अग्ने वृषभो हिंदीहि पुरो विश्वाः सौभगा सजिगीवान् । यज्ञस्य नेता प्रथमस्य पायोजातवेदो बृहतः सुप्रणीते ।।
(३.१५.४) हे अपराजित और तेजस्वी म! आप सभी ऐश्वर्यशाली नगरों में धर्म युक्त कर्मों का प्रकाश कीजिए। हे सर्वज्ञ! आप अहिंसा धर्म के उत्तम रीति से निर्णायक हुए, आप ही त्याग मार्ग के प्रथम नेता हैं। (ज्ञातव्य है कि यहां यज्ञ शब्द को त्याग मार्ग के अर्थ में ग्रहीत किया गया है।)
मरुत्वन्तं वृषभं वावृधानमकवारिं दिव्यं शासमिन्द्रम | विश्र्वासाहमवसे नूतनायोग्रं सहोदामिह त्वं हुवेम । ।
(३.४७.५) मरुत्वान्, विकासमान, अवर्णनीय दिव्य शासक, सभी (कर्म) 'शत्रुओं को हराने वाले वीर ऋषभ को हम आत्म-रक्षण के लिए यहाँ आमंत्रित करते हैं।
सद्यो ह जातो वृषभः कनीनः प्रभर्तुभावदन्यसः सुतस्य । साधोः पिब प्रतिकामं यथा ते रसाशिरः प्रथमं सोम्यस्य । ।
(३.४८.९) ने
उत्पन्न होते ही महाबलवान, सुन्दर व तरुण उन वृषभ अत्रदान करने वालों का तत्काल रक्षण किया। हे जिनेन्द्र ऋषभ समता रस के अन्दर मिलाये मिश्रण का आप सर्वप्रथम पान करें। पतिर्भव वृत्रहन्त्सूनृतानां गिरां विश्वायुर्वृषभो वयोधाः । आ नो गहि सख्येभिः शिवेभिर्महान्महीभिरूतिभिः सरण्यन।।
(३.३९.१८)
महाँ उग्रो वावृधे वीर्याय समाचक्रे काव्येन । वृषभः इन्द्रो भगो वाजदा अस्य गावः प्रजायन्ते दक्षिणा अस्यपूर्वीः ।
(३.३६.५) प्रजा और दान पूर्वकाल से ही प्रसिद्ध है। (ज्ञातव्य है कि ऋषभ प्रथम शासक थे और उन्होंने अपनी प्रजा
को सम्यक् जीवन शैली सिखायी थी तथा दीक्षा के पूर्व विपुल दान दिया था। इसी दृष्टि से यहाँ कहा गया है कि उनकी प्रजा (गाव) एवं दान पूर्व से ही प्रसिद्ध है।
असूत पूर्वो वृषभो ज्यायानिमा अस्य शुरुषः सन्ति पूर्वीः । दिवो नपाता विदथस्य धीभिः क्षत्रं राजाना प्रदिवो दधाथे ।।
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से युक्त हुए। जिस प्रकार वर्षा करने वाला मेघ (वृषभ) पृथ्वी की प्यास बुझाता है उसी प्रकार वे पूर्वों के ज्ञान के द्वारा जनता की प्यास को बुझा हैं। हे वृषभ ! आप राजा और क्षत्रिय हैं तथा आत्मा का पतन नहीं होने
देते हैं।
यदन्यासु वृषभो रोरवीति सो अन्यस्मिन्यूथ नि दधाति रेतः । स हि क्षपावान्त्स भगः स राजा महदेवानामसुरत्वमेकम ।
(३.५५.१७)
जिस प्रकार वृषभ अन्य यूथों में जाकर डकारता है और अन्य यूथों में जाकर अपने वीर्य को स्थापित करता है । उसी प्रकार ऋषभदेव भी अन्य दार्शनिक समूह में जाकर अपनी वाणी का प्रकाश करते हैं और अपने सिद्धान्त का स्थापन करते हैं। वे ऋषभ कर्मों का क्षपन करने वाले अथवा संयमी अथवा जिनका प्रमाद नष्ट हो ऐसे अप्रमत्त भगवान, राजा, देवों और असुरों में महान् हैं।
चत्वारि शृंङ्ग त्रयो अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य । त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो मर्त्यां आ विवेश ।।
(४.५८.३)
वे ऋषभ देव अनन्त चतुष्टय रूपी चार श्रृङ्गो से तथा सम्यक् ज्ञान, दर्शन एवं चारित्ररूपी तीन पादों से युक्त हैं। ज्ञानोपयोग व दर्शनोपयोग ऐसे दो सिरों, पाँच इन्द्रियों, मन एवं बुद्धि ऐसे साथ से युक्त हैं। वे तीन योगों से बद्ध होकर मृत्यों में निवास करते हैं। वे महादेव ऋषभ अपनी वाणी का प्रकाशन करते हैं।
सन्दर्भ
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३.
५.
(३.३८.५)
उन श्रेष्ठ ऋषभदेव ने पूर्वो को उत्पन्न किया अथवा वे पूर्व ज्ञान ६.
डॉ. सागरमल जैन, जैन, बौद्ध और गीता का साधन मार्ग, राजस्थान प्राकृत भारती, जयपुर १९८२, पृ. भूमिका पृ. ६-१०
निग्गंध सक्क तावस गेरुय आजीव पंचहा समणा-पिण्डनिर्युक्ति, ४४५, निर्युक्तिसंग्रह सं. विजय जिनेद्र सूरीश्वर, श्री हर्ष पुष्पामृत जैन ग्रन्थ माला, लाखाबाबल; जामनगर ।
(अ) निग्गंथ धम्मम्मि इमा समाही, सुबगडो, जैन विश्वभारती, लाडँनू, २।६।४२
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(ब) निगण्ठो नाटपुतो — दीघनिकाय, महापरिनिव्वाण सुत्तसुभधपरिव्वाजकवत्थुन, ३।२३।८६
(स) निर्गठेसु पि मे कटे इमे विवापटा होहति जैन शिलालेखसंग्रह भाग - २, लेख क्रमांक - १ इसिभासियाई सुताई प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, १९८८ देखें- भूमिका, सागरमल जैन, पृ.१९-२० (सामान्यतया सम्पूर्ण भूमिका ही द्रष्टव्य है).
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ज्ञातव्य है कि ऋग्वेद १०।८५०४ में बार्हत शब्द तो मिलता है किन्तु आर्हत शब्द नहीं मिलता है, यद्यपि अर्हन् एवं 'अर्हन्तो' शब्द मिलते हैं, किन्तु ब्राह्मणों, आरण्यकों आदि में आर्हत और बार्हत दोनों शब्द मिलते हैं।
देखें— सुतं मेतं भन्ते-वज्जी यानि तानि वज्जीनं वज्जिचेतियानि
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