________________
जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६
आदरणीय डॉ० सागरमल जैन
अतुल कुमार प्रसाद सिंह* १९९४ में जब जैन विश्वभारती संस्थान लाडनूं से एम० ए० पास किया और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की छात्रवृत्ति मिली, उसके बाद शोध कहाँ किया जाय, यह सोचना पड़ा, सर्वप्रथम मैं पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान ही आया । यहाँ जब डॉ० साहब से इस संबध में बातचीत हुई तो उन्होंने शोध का विषय सुझाया और पंजीयन के लिए कुछ दिन ठहरने को कहा क्योंकि तब संस्थान को मान्य विश्वविद्यालय का दर्जा देने की प्रक्रिया यू. जी. सी. में चल रही थी।
इस बीच उन्होंने तित्थोगाली प्रकीर्णक का अनुवाद करने की प्रेरणा दी । मैं इस प्रकीर्णक को देखकर घबरा गया था कि प्राकृत भाषा में इतने बड़े ग्रंथ का अनुवाद हो पायेगा या नहीं । पर उन्होंने उत्साह दिलाया और कहा कि एक दिन में जितनी गाथा हो उतनी ही करो समस्या आने पर मैं तो हूँ ही, इसी भरोसा पर अनुवाद कार्य शुरू किया । बीच में कठिनाई आने पर डॉ० साहब उसे सुलझाते रहे, और इस प्रकार यह अनुवाद कार्य पूर्ण हो सका । इसी प्रकीर्णक के समीक्षात्मक अध्ययन विषय पर मैंने फिलहाल का. हि. वि. वि. के जैन-बौद्ध दर्शन विभाग में आदरणीय डॉ० कमलेश कुमार जैन के निर्देशन में पंजीयन करा लिया और शोध कार्य कर रहा है । इसी बीच शोध प्रबन्ध लिखने में जहाँ कहीं भी उलझन आती है तो अपना काम छोड़कर वे समाधान करते हैं तथा उनका आत्मीय सहयोग बराबर बना रहता है । जब वाराणसी पहलेपहल आया तो सर्वथा अपरिचित होने के बावजूद उन्होंने उस समय संस्थान में रहने की अनुमति भी प्रदान कर दी थी। उनके व्यक्तित्व के विषय में कुछ लिखकर मैं उन्हें शब्दों में सीमित नहीं करना चाहता हूँ। मैं आपके दीर्घजीवी होने की कामना करता हूँ जिससे जैनविद्या के विकास को गति मिलती रहे ।
*शोध-छात्र, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
परम आदरणीय डॉ० सागरमल जी शतायु हो......
___ डॉ० शेखरचन्द जैन* यह जानकर अतिप्रसन्नता हुई कि पार्श्वनाथ विद्यापीठ के हीरक महोत्सव पर मनीषी एवं संस्था के निदेशक डॉ० सागरमल जी जैन का अभिनंदन ग्रंथ प्रकाशित करके उनकी सेवाओं के प्रति निष्ठा व्यक्त की जायेगी। संस्था और निदेशक यह दोनों का गौरव है।
आदरणीय डॉ० सागरमल जी एक महान व्यक्तित्व के धनी हैं । वे स्वभाव से सरल एवं स्नेहमयी हृदय के धारक है । उनकी विद्वता ने उन्हें सरल ही बनाया है यही कारण है कि इतने बड़े विद्वान-मनीषी होने के बाद भी उनमें यत्किञ्चित भी अहम् नहीं है। छोटे-नौसिखुए, अध्ययनरत छात्र में भी विद्वता के झलक देखकर उसे भी हृदय से लगाकर प्रोत्साहन देना भी उनके व्यक्तित्व का एक उत्तम पहलू रहा है।
वर्तमान विद्वानों में शोधकर्ता के रूप में वे सदियों तक याद किये जायेंगे । उन्होंने जैनधर्म में शोधकार्य में कहीं सम्प्रदायवाद को आड़े आने नहीं दिया । यह उनकी निरपेक्ष खोज दृष्टि का परिचायक पहलू है ।
___ मैं उनसे कई बार अनेक गोष्ठियों, सेमिनार परिषदों में मिलता रहा, उनका असीम स्नेह मुझे मिलता रहा है। उनकी प्रेरणा मुझे लेखन के लिए प्रोत्साहित करती रही ।
मैं इस मंगल प्रंसग पर प्रभु से प्रार्थना करता हूँ कि वे शतायु हों और पूर्ण स्वस्थ रहकर जैनधर्म-दर्शन की सेवा करते रहें । नये शोधार्थियों का मार्ग प्रशस्त करें।
मैं एवं तीर्थंकवाणी परिवार उनके स्वास्थ्य एवं दीर्घायु की शुभ कामना करते हैं। *प्रधान संपादक-तीर्थकरवाणी, अहमदाबाद ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org