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प्रर्वतक धर्म
दर्शनिक प्रदेय
१. जैविक मूल्यों की प्रधानता
२. विधायक जीवन दृष्टि
३. समष्टिवादी
४.
व्यवहार में कर्म पर बल फिर भी भाग्यवाद एवं नियतिवाद का समर्थन
ईश्वरवादी
५.
६. ईश्वरीय कृपा पर विश्वास
७.
श्रमण एवं वैदिक धारा का विकास एवं पारस्परिक प्रभाव
साधना के बाह्य साधनों पर बल
जीवन का लक्ष्य स्वर्ग / ईश्वर के सान्निध्य की प्राप्ति
सांस्कृतिक प्रदे
९. वर्ण व्यवस्था और जातिवाद का जन्मना आधार पर समर्थन
१०. गृहस्थ जीवन की प्रधानता
११. सामाजिक जीवन शैली ।
१२. राजतन्त्र का समर्थन
१३. शक्तिशाली की पूजा
१४. विधि विधानों एवं कर्म काण्डों की प्रधानता १५. ब्राह्मण-संस्था (पुरोहित वर्ग) का विकास १६. उपासनामूलक
परिणामस्वरूप ऊंच-नीच का भेद-भाव, जातिवाद और कर्मकाण्ड का विकास हुआ। किन्तु उसके विपरीत निवर्तक धर्म ने संयम, ध्यान और तप की एक सरल साधना-पद्धति का विकास किया और वर्ण-व्यवस्था, जातिवाद और ब्राह्मण संस्था के वर्चस्व का विरोध किया। उनमें ब्राह्मण संस्था के स्थान पर श्रमण संघों का विकास हुआ जिसमें सभी जाति और वर्ग के लोगों को समान स्थान मिला। राज्य संस्था की दृष्टि से जहाँ प्रवर्तक धर्म राजतंत्र और अन्याय के प्रतिकार के हेतु संघर्ष की नीति के समर्थक रहे, वहाँ निवर्तक धर्म जनतन्त्र और आत्मोत्सर्ग के समर्थक रहे ।
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संस्कृतियों के समन्वय की यात्रा
यद्यपि उपरोक्त आधार पर हम प्रवर्तक धर्म अर्थात् वैदिक परम्परा और निवर्तक धर्म अर्थात् श्रमण परम्परा की मूलभूत विशेषताओं और उनके सांस्कृतिक एवं दार्शनिक प्रदेयों को समझ सकते हैं किन्तु यह मानना भ्रान्तिपूर्ण ही होगा कि आज वैदिकधारा और श्रमणधारा ने अपने इस मूल स्वरूप को बनाए रखा है। एक ही देश और परिवेश में रहकर दोनों ही धाराओं के लिये यह असम्भव था कि वे एक-दसूरे के
१.
२.
३.
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९.
निर्वतक धर्म
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अनीश्वरवादी
६. वैयक्तिक प्रयासों पर विश्वास, कर्म सिद्धान्त का समर्थन
७.
८.
आध्यात्मिक मूल्यों की प्रधानता ।
निषेधक जीवन-दृष्टि ।
व्यष्टिवादी।
व्यवहार में नैष्कर्म्यता का समर्थन फिर भी दृष्टि पुरुषर्थपरक ।
आन्तरिक विशुद्धता पर बल ।
जीवन का मोक्ष एवं निर्वाण की प्राप्ति ।
जातिवाद का विरोध, वर्ण-व्यवस्था का केवल कर्मणा आधार पर समर्थन।
१०. संन्यास जीवन की प्रधानता ।
११. एकाकी जीवन शैली |
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१२. जनतन्त्र का समर्थन ।
१३. सदाचारी की पूजा
१४. ध्यान और तप की प्रधानता । १५. श्रमण संस्था का विकास। १६. समाधिमूलक ।
प्रभाव से अछूती रहें। अतः जहाँ वैदिकधारा में श्रमणधारा (निवर्तक धर्मपरम्परा) के तत्त्वों का प्रवेश हुआ है, वहाँ श्रमणधारा में प्रवर्तक धर्मपरम्परा के तत्त्वों का प्रवेश हुआ है। अतः आज के युग में कोई धर्मपरम्परा न तो ऐकान्तिक निवृत्तिमार्ग की पोषक है और न ऐकान्तिक प्रवृत्तिमार्ग की
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वस्तुतः निवृत्ति और प्रवृत्ति के सम्बन्ध में ऐकान्तिक दृष्टिकोण न तो व्यावहारिक है और न मनोवैज्ञानिक मनुष्य जब तक मनुष्य है, मानवीय आत्मा जब तक शरीर के साथ याजित होकर सामाजिक जीवन जीती है, तब तक ऐकान्तिक प्रवृत्ति और ऐकान्तिक निवृत्ति की बात करना एक मृग मरीचिका में जीना होगा। वस्तुतः आवश्यकता इस बात की रही है कि हम वास्तविकता को समझें और प्रवृत्ति तथा निवृत्ति के तत्त्वों में समुचित समन्वय से एक ऐसी जीवन शैली खोजें जो व्यक्ति और समाज दोनों के लिये कल्याणकारी हो और मानव को तृष्णाजनित मानसिक एवं सामाजिक सन्यास से मुक्ति दिला सके। इस प्रकार इन दो भिन्न संस्कृतियों में पारस्परिक समन्वय आवश्यक था।
भारत में प्राचीन काल से ही ऐसे प्रयत्न होते रहे हैं। प्रवर्तक
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