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जैनधर्म में अहिंसा की अवधारणा : एक विश्लेषण
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अहिंसा का आधार बनाया जावेगा तो व्यक्ति केवल सबल की हिंसा शाश्वत अहिंसाधर्म का प्रवर्तन लोक की पीड़ा को जानकर ही किया से विरत होगा, निर्बल की हिंसा से नहीं। भय को आधार मानने पर गया है फिर भी तीर्थंकरों की यह असीम करुणा विधायक बनकर बह तो जिससे भय होगा उसी के प्रति अहिंसक बुद्धि बनेगी। जबकि आचारांग रही हो ऐसा प्रतीत नहीं होता है। आचारांग और सूत्रकृतांग में पूर्ण तो सभी प्राणियों के प्रति यहाँ तक कि वनस्पति, जल और पृथ्वीकायिक अहिंसा का यह आदर्शन निषेधात्मक ही रहा है। जीवों के प्रति भी अहिंसक होने की बात कहता है। अत: आचारांग यद्यपि यहाँ यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि ऐसा क्यों हुआ? में अहिंसा को भय के आधार पर नहीं अपितु जिजीविषा और सुखाकांक्षा इसका उत्तर यही है कि अहिंसा को विधायकरूप देने का कोई भी के मनोवैज्ञानिक सत्यों के आधार पर अधिष्ठित किया गया है। पुनः प्रयास हिंसा के बिना सम्भव नहीं होगा; जब भी हम जीवन-रक्षण इन मनोवैज्ञानिक सत्यों के साथ ही उसमें अहिंसा को तुल्यता बोध (दया), दान, सेवा से और सहयोग की कोई क्रिया करेंगे तो निश्चित का बौद्धिक आधार भी दिया गया है। वहाँ कहा गया है कि 'जो अज्झत्थं ही वह बिना हिंसा के सम्भव नहीं होगी। नव-कोटिपूर्ण अहिंसा का जाणई से बहिया जाणई एयं तुल्लमन्नसिं',(१/१/७)जो अपनी पीड़ा आदर्श कभी भी जीवन-रक्षण, दान, सेवा और सहयोग के मूल्यों का को जान पाता है, वही तुल्यता-बोध के आधार पर दूसरों की पीड़ा सहगामी नहीं हो सकता। यही कारण था कि आचरांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध को भी समझ सकता है। प्राणीय पीड़ा की तुल्यता के बोध के आधार के दूसरे अध्याय के ५ वें उद्देशक में मुनि के लिए चिकित्सा करने पर होने वाला आत्मसंवेदन ही अहिंसा का आधार है। सूत्रकार तो और करवाने का भी निषेध कर दिया गया। सत्य तो यह है कि अहिंसा के इस सिद्धान्त को अधिक गहराई तक अधिष्ठित करने के जीवन-रक्षण और पूर्ण अहिंसा के आदर्श का परिपालन एक साथ प्रयास में यहां तक कह देता है कि जिसे तू मारना चाहता है, पीड़ा सम्भव नहीं है। पुन: सामुदायिक और पारिवारिक जीवन में तो उसका देना चाहता है, सताना चाहता है वह तू ही है (आचारांग, १/५/ परिपालन अशक्य ही है। हम देखते हैं कि अहिंसक जीवन जीने के ५)। आगे वह कहता है कि जो लोक का अपलाप करता है वह स्वयं लिए जिस आदर्श की कल्पना आचारांग में की गई थी उससे जैन अपनी आत्मा का अपलाप करता है (आचारांग, १/१/३)। अहिंसा परम्परा को भी नीचे उतरना पड़ा है। आचारांग के दूसरे श्रुतस्कन्ध को अधिक गहन मनोवैज्ञानिक आधार देने के प्रयास में वह जैन दर्शन में ही अहिंसक मुनि-जीवन में कुछ अपवाद स्वीकार कर लिये हैं, के आत्मा संबंधी अनेकात्मवाद के स्थान पर एकात्मवाद की बात करता जैसे—नौकागमन, गिरने की सम्भावना होने पर लता-वृक्ष आदि का प्रतीत होता है क्योंकि यहां वह इस मनोवैज्ञानिक सत्य को देख रहा सहारा लेकर उतरना आदि। इसी प्रसंग में हिंसा-अहिंसा विवेक के है कि केवल आत्मभाव में हिंसा असम्भव हो सकती है। जब तक सम्बन्ध में अल्प-बहुत्व का विचार सामने आया। जब हिंसा अपरिहार्य दूसरे के प्रति पर-बुद्धि है, परायेपन का भाव है तब तक हिंसा की ही बन गई हो तो बहु-हिंसा की अपेक्षा अल्प-हिंसा को चुनना ही संभावनायें उपस्थित है। व्यक्ति के लिए हिंसा तभी असंभव हो सकती उचित माना गया। सूत्रकृतांग के आर्द्रक नामक अध्याय में हस्ति-तापसों है जब उसमें प्राणी जगत् के प्रति अपनत्व या आत्मीय-दृष्टि जागृत की चर्चा है। ये हस्तितापस यह मानते थे कि आहार के लिए अनेक हो। अहिंसा की स्थापना के लिए जो मनोवैज्ञानिक भूमिका अपेक्षित वानस्पतिक एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा करने की अपेक्षा एक महाकाय थी उसे प्रस्तुत करने में सूत्रकार ने आत्मा की वैयक्तिकता की धारणा हाथी को मार लेना अल्प हिंसा है और इस प्रकार वे अपने को अधिक का भी अतिक्रमण कर उसे अभेद की धारणा पर स्थापित करने का अहिंसक सिद्ध करते थे। जैन परम्परा ने इसे अनुपयुक्त बताया और प्रयास किया है। हिंसा के निराकरण के प्रयास में भी सूत्रकार ने एक कहा कि हिंसा-अहिंसा के विवेक में कितने प्राणियों की हिंसा हुई स्थान पर जिस मनोवैज्ञानिक सत्य को उजागर किया है वह यह है इस विचार से काम नहीं चलेगा, अपितु किस प्राणी की हिंसा हुई कि हिंसा से हिंसा का और घृणा से घृणा का निराकरण संभव नहीं यह और भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। भगवतीसूत्र में इसी प्रश्न को लेकर है। वह तो स्पष्ट रूप से कहता है, शस्त्रों के आधार पर अभय और यह कहा गया है कि स्थावर जीवों की अपेक्षा त्रस-जीव की और त्रस हिंसा के आधार पर शान्ति की स्थापना संभव नहीं है क्योंकि एक जीवों में पंचेन्द्रिय की, पंचेन्द्रियों में मनुष्य की और मनुष्य में ऋषि शस्त्र का प्रतिकार दूसरे शस्त्र के द्वारा संभव है, शान्ति की स्थापना की हिंसा अधिक निकृष्ट है, मात्र यही नहीं, जहाँ त्रस जीव की हिंसा तो निर्वैरता या प्रेम के द्वारा ही संभव है क्योंकि अशस्त्र से बढ़कर करने वाला अनेक जीवों की हिंसा का भागी होता है, वहाँ ऋषि की अन्य कुछ नहीं है (आचारांग, १/३/४)।
हिंसा करने वाला अनन्त जीवों की हिंसा का भागी होता है। अत: आचारांग और सूत्रकृतांग में श्रमण-साधक के लिए जिस जीवनचर्या हिंसा-अहिंसा के विवेक में संख्या का प्रश्न इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है का विधान है उसे देखकर हम सहज ही यह कह सकते हैं कि वहां जितना कि प्राणी की ऐन्द्रिक एवं आध्यात्मिक क्षमता का विकास। जीवन में पूर्ण अहिंसा के आदर्श को साकार बनाने का एक प्रयत्न अवश्य यह मान्यता कि सभी आत्माएँ समान हैं, अतः सभी हिंसाएँ समान हुआ है। किन्तु उनमें अहिंसक मुनि जीवन का, जो आदर्शचित्र उपस्थित हैं, समुचित नहीं है। कुछ परम्पराओं ने सभी प्राणियों की हिंसा को किया गया है, वह अहिंसा के निषेधात्मक पहलू को ही प्रकट करता समान स्तर का मानकर अहिंसा के विधायक पक्ष का जो निषेध कर है। अहिंसा के विधायक पहलू की वहां कोई चर्चा नहीं है। यद्यपि दिया वह तर्कसंगत नहीं है। उसके पीछे भ्रांति यह है कि हिंसा का आचारांग में यह स्पष्टरूप से कहा गया है कि इस शुद्ध, नित्य और सम्बन्ध आत्मा से जोड़ दिया गया है। हिंसा आत्मा की नहीं प्राणों
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