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सागर जैन-विद्या भारती भाग-१.
समीक्षक-डॉ० कमलेश कुमार जैन
प्रोफेसर सागरमल जैन ने स्वाध्याय के बल पर जैन जगत् के उन प्रबुद्ध मनीषियों की श्रेणी में अपना नाम गौरव के साथ अङ्कित किया है, जो जैनविद्याओं के विशिष्ट अध्येता हैं। शाजापुर (म० प्र०) से वाराणसी और तदनन्तर देश के विभिन्न प्रान्तों में अपनी कीर्ति-पताका फहराते हुये प्रोफेसर जैन ने सुदूरवर्ती यूरोप के अनेक देशों की यात्रा की है और अपने चिन्तनपरक गम्भीर वैदुष्य, मधुर सम्भाषण एवं वक्तृत्व शैली के माध्यम से न केवल सुधीजनों अपितु पूज्य साधु-साध्वियों एवं जनसामान्य को भी प्रभावित किया है । उन्होंने अपनी सधी हुई लेखनी से शताधिक शोध एवं चिन्तनपूर्ण निबन्धों तथा दर्जनों ग्रन्थों के लेखन एवं सम्पादन से माँ सरस्वती का शृङ्गार किया है।
प्रोफेसर जैन की लेखनी से प्रसत समीक्ष्य कृति 'सागर जैन-विद्या भारती के प्रथम भाग में अठारह निबन्धों का संकलन किया गया है। ये निबन्ध प्राय: इत:पूर्व 'श्रमण' अथवा अन्य पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं और कुछ तो एकाधिक बार भी। इनमें कुछ निबन्ध शोधपूर्ण और कुछ चिन्तनप्रधान हैं । इनमें से कुछ निबन्ध समय समय पर आयोजित विभिन्न संगोष्ठियों में पढ़े जा चुके हैं और सराहे भी गये
ये निबन्ध प्रोफेसर जैन ने अपने दीर्घकालीन अध्ययन, चिन्तन-मनन और अनुभव के आधार पर लिखे हैं, जिससे इनमें जहाँ शोध के मापदण्डों को अपनाया गया है, वहीं अपने पूर्ववर्ती आचार्यों/विद्वानों के चिन्तन को समाहित करते हये नवीन शोध-खोजों को भी प्रस्तुत किया
है।
इन निबन्धों में जहाँ जैनधर्म-दर्शन सम्बन्धी विविध सिद्वान्तों का उल्लेख है वहीं भक्ति, स्वाध्याय और साधना तथा कर्म-सिद्धान्त सम्बन्धी विषयों पर भी अच्छा प्रकाश डाला है। साथ ही वर्तमान में आवश्यक एवं उपयोगी सामाजिक एकता, पर्यावरण समस्या और भारतीय संस्कृति का समन्वित रूप जैसे विषयों का प्रतिपादन जैनधर्म के परिप्रेक्ष्य में किया है । अर्धमागधी आगमों में समाधि मरण की अवधारणा अथवा आगमों में मूल्यात्मक शिक्षा जैसे विषयों पर प्रकाश डालकर प्रोफेसर जैन ने अपने आगमिक ज्ञान का गम्भीर परिचय दिया है।
जैन कला के सन्दर्भ में यद्यपि प्रोफेसर जैन अन्यत्र भी बहुत कुछ लिख चुके हैं, किन्तु 'खजुराहों की कला और जैनाचार्यों की समन्वयात्मक एवं सहिष्णु दृष्टि' में जो कुछ लिखा है वह निश्चित ही कला के सूक्ष्म तत्त्वों का गहराई से विश्लेषण करने वाला है। इस निबन्ध में प्रोफेसर जैन ने डॉ० लक्ष्मीकान्त त्रिपाठी द्वारा जैन श्रमण पर किये गये आक्षेप का जिस शालीनता एवं युक्तिपूर्ण ढंग से जो उत्तर दिया है वह न केवल प्रशंसनीय है, अपितु अनुकरणीय भी है । इस क्रम में प्रोफेसर जैन ने जैन श्रमण की सहिष्णुता का उल्लेख करते हुये कौलों एवं कापालिकों की जैन श्रमणों की चारित्रिक निष्ठा पर पड़ी वक्रदृष्टि को भी रेखाङ्कित किया है। वैसे दोनों विद्वानों की व्याख्या ही इसमें प्रमुख है, क्योंकि मूर्तिअङ्कन तो मौन है। हम तो केवल अपनी व्याख्या से ही भावाभिव्यक्ति कर सकते हैं । विशेष इतना अवश्य है कि प्रोफेसर जैन ने देश एवं काल के परिप्रेक्ष्य में अपनी व्याख्या प्रस्तुत की है, जो उन्हें तथ्यों के समीप ले जाती है।
प्रोफेसर जैन अपने जैन सिद्धान्तों के प्रति अत्यन्त सजग हैं। वे कहीं भी और किसी भी बड़े से बड़े विद्वान के द्वारा सिद्धान्तों को तोड़मरोड़ कर प्रस्तुत किये जाने पर उसका निराकरण करने से नहीं चूकते हैं।
बौद्धदर्शन के प्रख्यात विद्वान् महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने अपने ग्रन्थ 'दर्शन दिग्दर्शन' में जैन दर्शन के सन्दर्भ में जो भी लिखा है, वह प्राय: बौद्धधर्म-दर्शन के ग्रन्थों में पूर्वपक्ष के रूप में आये जैनदर्शन के सिद्धान्तों को लक्ष्य में रखकर लिखा है, मूल ग्रन्थों को देखने का प्रयास नहीं किया है। चूंकि पूर्वपक्ष में प्रस्तुत किये जाने वाले सिद्धान्तों की आगे आलोचना की जाती है, अत: उनमें प्राय: तथ्यों/सिद्धान्तों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया जाता है, जिससे किसी भी दर्शन के हार्द अथवा उसके प्रणेता का व्यक्तित्व उभरकर नहीं आ पाता है। साथ ही द्वितीयादि स्रोतों से ग्रहण की गई विषय वस्तु मूलक्षयकरी होती है। अत: राहुल जी के लेखक में आई विसंगतियों का उद्घाटन करते हुए प्रोफेसर जैन का यह कथन युक्तिसंगत ही है कि - "चातुर्याम संवर का मार्ग महावीर का नहीं पार्श्व का है। परवर्ती काल में जब पार्श्व की निर्ग्रन्थ परम्परा महावीर की परम्परा में सम्मिलित हो गई तो त्रिपिटक संकलन कर्ताओं ने दोनों धाराओं को एक मानकर पार्श्व के विचारों को भी महावीर के नाम से प्रस्तुत किया । त्रिपिटक के संकलनकर्ताओं की इस भ्रान्ति का अनुसरण राहल जी ने भी किया और अपनी ओर से टिप्पणी के रूप में भी इस मत के परिमार्जन का कोई प्रयत्न नहीं किया।" (पृष्ठ १७९-१८०) इतना ही नहीं, प्रोफेसर जैन ने काश्यप जी की भूल को भी रेखाङ्कित किया है।
*प्रकाशक- पार्श्वनाथ विद्यापीठ मूल्य, १९९४ - रु. १००
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