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जैन, बौद्ध और औपनिषदिक ऋषियों के उपदेशों का प्राचीनक सङ्कलन ऋषिभाषित
की चर्चा है। इसी अध्याय में कषाय, निर्जरा, छः जीवनिकाय और सर्वप्राणियों के प्रति दया का भी उल्लेख है। इकतीसवें पार्श्व नामक अध्ययन में पुनः चातुर्याम, अष्टविध कर्मग्रन्थि, चार गति, पंचास्तिकाय तथा मोक्ष स्थान के स्वरूप का दिग्दर्शन होता है। इसी अध्याय में जैन परम्परा के समान जीव को ऊर्ध्वगामी और पुद्गल को अधोगामी कहा गया है, किन्तु पार्श्व तो जैन परम्परा में मान्य ही हैं। अतः इस अध्याय में जैन अवधारणाएँ होनी आश्चर्यजनक नहीं है। अब विद्वानों की यह धारणा भी बनी है कि जैन दर्शन का तत्त्वज्ञान पार्श्वापत्यों की ही देन है। शुचिंग ने भी इसिभासियाई पर पार्श्वापत्यों का प्रभाव माना है । पुनः ३२वें पिंग नामक अध्याय में जैन परम्परा के अनुरूप चारों वर्णों की मुक्ति का भी प्रतिपादन किया गया है। ३४वें अध्याय में परिषह और उपसर्गों की चर्चा है। इसी अध्याय में पंच महाव्रत से युक्त, कषाय से रहित, छित्रस्रोत, अनाश्रव भिक्षु की मुक्ति की भी चर्चा है। पुनः ३५ उद्दालक नामक अध्याय में तीन गुप्ति, तीन दण्ड, तीन शल्य, चार कषाय, चार विकथा, पाँच समिति, पंचेन्द्रियसंयम, योगसन्धान एवं नवकोटि परिशुद्ध दश दोष से रहित विभिन्न कुलों की परकृत, परनिर्दिष्ट, विगतधूम, शस्त्रपरिणत भिक्षा ग्रहण करने का उल्लेख है इसी अध्याय में संज्ञा एवं २२ परिषहों का भी उल्लेख है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋषिभाषित में अनेक जैन अवधारणाएँ उपस्थित हैं। अतः यहाँ स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उठता है कि क्या जैन आचार्यों ने ऋषिभाषित का संकलन करते समय अपनी ही अवधारणाओं को इन ऋषियों के मुख से कहलवा दिया अथवा मूलतः ये अवधारणायें इन ऋषियों की ही थीं और वहाँ से जैन परम्परा में प्रविष्ट हुई। यह तो स्पष्ट है कि ऋषिभाषित उल्लिखित ऋषियों में पार्श्व और महावीर को छोड़कर शेष अन्य सभी या तो स्वतन्त्र साधक रहे हैं या अन्य परम्पराओं के रहे हैं। यद्यपि इनमें कुछ के उल्लेख उत्तराध्ययन और सूत्रकृतांग में भी हैं। यदि हम इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि इसमें जो विचार हैं वे उन ऋषियों के नहीं हैं तो ग्रन्थ की और ग्रन्थकर्ता की प्रामाणिकता खण्डित होती है, किन्तु दूसरी ओर यह मानना कि ये सभी अवधारणायें जैन परम्परा में अन्य परम्पराओं से प्रविष्ट हुई पूर्णत: सन्तोषप्रद नहीं लगता है। अतः सर्वप्रथम तो हम यह परीक्षण करने का प्रयत्न करेंगे कि ऋषिभाषित में जिन ऋषियों के उपदेश संकलित हैं वे उनके अपने हैं या जैन आचार्यों ने अपनी बात को उनके मुख से कहलवाया है।
ऋषिभाषित में उपदिष्ट अवधारणाओं की प्रामाणिकता का प्रश्न
यद्यपि ऋषिभाषित के सभी ऋषियों के उपदेश और तत्सम्बन्धी साहित्य हमें जैनेतर परम्पराओं में उपलब्ध नहीं होता फिर भी इनमें से कई के विचार और अवधारणाएँ आज भी अन्य परम्पराओं में उपलब्ध हैं। याज्ञवल्क्य का उल्लेख भी उपनिषदों में है। वज्जीवपुत्त, महाकाश्यप और सारिपुत्त के उल्लेख बौद्ध त्रिपिटक साहित्य में हैं। इसी प्रकार विदुर, नारायण, असितदेवल आदि के उल्लेख महाभारत एवं हिन्दू परम्परा के अन्य ग्रन्थों में मिल जाते हैं। ऋषिभाषित में उनके जो विचार उल्लिखित हैं, उनकी तुलना अन्य स्रोतों से करने पर हम इस
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निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि ऋषिभाषित में जिन ऋषियों के जिन विचारों का उल्लेख किया गया है, उनमें कितनी प्रामाणिकता है। ऋषिभाषित के ग्यारहवें अध्याय में मंखलिपुत्र गोशालक का उपदेश संकलित है। मंखलिपुत्र गोशालक के सम्बन्ध में हमें जैन परम्परा में भगवतीसूत्र और उपासकदशांग में, बौद्ध परम्परा में दीघनिकाय के सामज्ञमहाफलसुत्त और सुत्तनिपात में तथा हिन्दू परम्परा में महाभारत के शान्तिपर्व के १७७ वें अध्याय में मंखी ऋषि के रूप में उल्लेख प्राप्त होता है। तीनों ही स्रोत उसे नियतिवाद का समर्थक बताते हैं। यदि हम ऋषिभाषित अध्याय ११ में वर्णित मंखलिगोशालक के उपदेशों को देखते हैं तो यहाँ भी हमें परोक्ष रूप से नियतिवाद के संकेत उपलब्ध हैं। इस अध्याय में कहा गया है कि जो पदार्थों की परिणति को देखकर कम्पित होता है, वेदना का अनुभव करता है, क्षोभित होता है, आहत होता है, स्पंदित होता है, चलायमान होता है, प्रेरित होता है वह त्यागी नहीं है। इसके विपरीत जो पदार्थों की परिणति को देखकर कम्पित नहीं होता है, क्षोभित नहीं होता, दुःखित नहीं होता है वह त्यागी है परोक्षरूप से यह पदार्थों की परिणति के सम्बन्ध में नियतिवाद का प्रतिपादक है। संसार की अपनी एक व्यवस्था और गति है वह उसी के अनुसार चल रहा है, साधक को उस क्रम का ज्ञाता द्रष्टा तो होना चाहिए, किन्तु द्रष्टा के रूप में उससे प्रभावित नहीं होना चाहिए। नियतिवाद की मूलभूत आध्यात्मिक शिक्षा यही हो सकती है कि हम संसार के घटनाक्रम से साक्षी भाव से रहें। इस प्रकार यह अध्याय गोशालक के मूलभूत आध्यात्मिक उपदेश को ही प्रतिबिम्बित करता है। इसके विपरीत जैन और बौद्ध साहित्य में जो मंखलिगोशालक के सिद्धान्त का निरूपण है वह वस्तुतः गोशालक की इस आध्यात्मिक अवधारणा में निकाला गया एक विकृत दार्शनिक फलित है। वस्तुतः ऋषिभाषित का रचयिता गोशालक के सिद्धान्तों के प्रति जितना प्रामाणिक है, उतने प्रामाणिक त्रिपिटक और परवर्ती जैन आगमों के रचयिता नहीं है। महाभारत के शान्तिपर्व के १७७ अध्याय में मंखि ऋषि का उपदेश संकलित है। उसमें एक ओर नियतिवाद का समर्थन है किन्तु दूसरी ओर इसमें वैराग्य का उपदेश भी है। इस अध्याय में मूलत: द्रष्टा भाव और संसार के प्रति अनासक्ति का उपदेश है। यह अध्याय नियतिवाद के माध्यम से ही अध्यात्म का उपदेश देता है। इसमें यह बताया गया है कि संसार की अपनी व्यवस्था है। मनुष्य अपने पुरुषार्थ से भी उसे अपने अनुसार नहीं मोड़ पाता है अतः व्यक्ति को द्रष्टा भाव रखते हुए संसार से विरक्त हो जाना चाहिए। महाभारत के इस अध्याय की विशेषता यह है कि मंखि ऋषि को नियतिवाद का समर्थक मानते हुए भी उस नियतिवाद के माध्यम से उन्हें वैराग्य की दिशा में प्रेरित बताया गया है।
इस आधार पर ऋषिभाषित में मंखलिपुत्र का उपदेश जिस रूप में संकलित मिलता है वह निश्चित ही प्रामाणिक है।
इसी प्रकार ऋषिभाषित के अध्याय ९ में महाकश्यप और अध्याय ३८ में सारिपुत्त के उपदेश संकलित हैं। ये दोनों ही बौद्ध परम्परा से सम्बन्धित रहे हैं। यदि हम ऋषिभाषित में उल्लिखित इनके विचारों
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