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जैन परम्परा में बाहुबलि
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के राज्य को छीनकर भी उसे सन्तोष नहीं हुआ है ? भाई भरत को कह यह प्रस्ताव प्रस्तुत करते हैं । दिगम्बर परम्परा में जिनसेन के आदिपुराण देना कि मैं उसी पिता की सन्तान हूँ, जिसका वह है । व्यंग्म और में तथा स्वयम्भू के पउमचरिउ में अहिंसक युद्ध का प्रस्ताव मन्त्रीगण तार्किकता दानों ही दृष्टियों से इन प्रसंगों में श्वेताम्बर आचार्यों का रचना रखते हैं, किन्तु रविषेण के पद्मपुराण में स्वयं बाहुबलि ही यह प्रस्ताव कौशल अद्वितीय है । सुवेग को राज्य सभा से बाहर निकलते हुए प्रस्तुत करते हैं। देखकर नागरिक किस तरह काना-फसी करते हैं इसका चित्रण निश्चय भरत का दृष्टियुद्ध, जलयुद्ध आदि में पराजित होना, अपनी ही रोमांचक है।
.. पराजय से लज्जित एवं दु:खी होकर आवेश में बाहुबलि पर चक्र चला श्वेताम्बर आचार्यों में संघदासगणि ने वसुदेवहिण्डि में, जिनदासगणि देना, चक्र का वापस हो जाना, भरत के इस अकृत्य को देखकर ने आवश्यकचूर्णि में, आचार्य शीलांक ने चउपन्नमहापुरिस चरियं में बाहुबलि को वैराग्य हो जाना और युद्धभूमि में स्वयं ही दीक्षा लेकर
और हेमचंद्र ने त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में सेना के परस्पर युद्ध का वन-प्रांतर में ध्यानस्थ हो जाना, ऐसी सामान्य घटनाएं हैं, जिनका उल्लेख नहीं किया है । यद्यपि विमलसूरि के पउमचरिय में, शालिभद्रसूरि वर्णन श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा के आचार्यों ने समान रूप से किया के भरतेश्वर बाहुबलि रास में एवं पुण्यकुशलगणि के भरत बाहुबलि है। काव्य में सेना के परस्पर युद्ध का उल्लेख है । दिगम्बर परम्परा में बाहुबलि के जीवनवृत्त के सम्बन्ध में जिस प्रश्न पर श्वेताम्बर आदिपुराण के कर्ता-जिनसेन ने भी सेनाओं के युद्ध का उल्लेख नहीं एवं दिगंबर परम्परा में मतभेद पाया जाता है, वह है बाहुबलि के किया, किन्तु पुन्नाटसंघीय जिनसेन के हरिवंश पुराण में रविषेण के साधनाकाल में मान की उपस्थिति और ब्राह्मी और सुन्दरी के उद्बोधन पद्मपुराण में सेनाओं के मध्य युद्ध का उल्लेख है। इस प्रकार दोनों ही से उसकी निवृत्ति । श्वेताम्बर परम्परा में विमलसूरि के पउमचरिउ के परम्पराओं में दोनों ही प्रकार के उल्लेख प्राप्त हैं, यद्यपि प्राचीन एवं अतिरिक्त वसुदेवहिण्डि, आवश्यक नियुक्ति, आवश्यक भाष्य, मध्य काल के श्वेताम्बर आचार्यों की रचनाओं में विमलसूरि के अपवाद विशेषावश्यक भाष्य, कल्पसूत्र टीका, चउपन्नमहापुरिसचरियं, छोड़कर ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी तक सेनाओं के परस्पर युद्ध का त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, भरतेश्वर बाहुबलि रास, भरतेश्वर बाहुबलिवृत्ति, उल्लेख नहीं है । इसके विपरीत दिगम्बर परम्परा में आदिपुराण के कर्ता भरत बाहुबलि महाकाव्य एवं परवर्ती सभी राजस्थानी एवं हिन्दी में जिनसेन को छोड़कर ११-१२वीं शताब्दी तक के शेष सभी आचार्यों रचित भरत-बाहुबलि के जीवन चरित्रों में यह बात समान रूप से ने सेनाओं के परस्पर युद्ध का उल्लेख किया है । इस प्रकार जहाँ स्वीकार की गई है कि बाहुबलि दीक्षा लेकर ध्यानस्थ हो गये और यह मध्यकाल के श्वेताम्बर लेखक भरत और बाहुबलि के मध्य अहिंसक निश्चय कर लिया कि कैवल्य प्राप्त किये बिना भगवान् ऋषभदेव के युद्ध का उल्लेख करते हैं, वहाँ मध्यकाल के दिगंबर लेखक दोनों की समवशरण में नहीं जाऊँगा । असर्वज्ञ दशा में भगवान् ऋषभदेव के सेनाओं के युद्ध का भी उल्लेख करते हैं । हिंसक युद्ध से विरत होने समवशरण में जाने में बाहुबलि की कठिनाई यह थी कि उन्हें अपने से के लिए विभिन्न रचनाकारों ने विविध विकल्प दिये हैं - कहीं बाहुबलि पूर्व दीक्षित छोटे भाइयों को भी प्रणाम करना होगा। और ऐसा करना स्वयं अहिंसक युद्ध का प्रस्ताव करते हैं तो कहीं मन्त्रीगण और कहीं उन्हें अपनी प्रतिष्ठा के अनुकूल नहीं लग रहा था । इस समस्या के देवगण एवं इन्द्र अहिंसक युद्ध के रूप में दृष्टि युद्ध, बाहुयुद्ध आदि का समाधान का रास्ता यही था कि सर्वज्ञता या वीतराग दशा को प्राप्त प्रस्ताव करते हैं । अत: इस सम्बन्ध में किसी एक परम्परा की कोई करके ही ऋषभदेव के समवशरण में पहुँचा जाए, ताकि छोटे भाइयों विशिष्ट अवधारणा हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता । आवश्यकचूर्णि को वन्दन करने का प्रश्न ही उपस्थित न हो। सभी श्वेताम्बर आचार्यों तथा चउपन्न महापुरिस चरियं में बाहुबलि स्वयं अहिंसक युद्ध का ने साधनाकाल में न केवल बाहुबलि में मान की उपस्थित को स्वीकार प्रस्ताव प्रस्तुत करते हुए कहते हैं - 'किं अणवराहिणा लोगेण मारिएण? किया, अपितु सभी ने इस घटना का भी उल्लेख किया है कि भगवान् तुम अहं दुयगा जुज्झामो।' निरपराध लोगों को मारने का क्या औचित्य ऋषभदेव की प्रेरणा से ब्राह्मी और सुन्दरी बाहुबलि को उद्बोधित करने है ? तुम और मैं दोनों ही परस्पर युद्ध करें । विमलसूरि के पउमचरिउ हेतु जाती हैं और जाकर कहती हैं- हे भाई, हाथी पर से नीचे उतरो, में भी युद्ध में हिंसा के दृश्य को देखकर बाहुबलि कह उठता है- हाथी पर चढ़े हुए केवल ज्ञान प्राप्त नहीं होता है । एक राजस्थानी कवि 'चक्कहरो किं वहेण लोयस्स? दोण्हपि होउ जुझं ।' हे चक्रवर्ती ! ने इसे निम्न शब्दों में बाँधा है - लोगों का वध करने से क्या लाभ ? क्यों न हम दोनों ही लड़ लें?
वीरा म्हारा गज थकी उतरो, इस प्रकार बाहुबलि के द्वारा स्वयं अहिंसक युद्ध का प्रस्ताव प्रस्तुत
गज चढ्या केवल नहीं होसी रे । करवा कर उसकी गरिमा को ऊँचा उठाया गया । यद्यपि हेमचन्द्र के उनके इस उद्बोधन को सुनकर बाहुबलि का विवेक जागृत त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में देवता दोनों सेनाओं के संग्राम से जनहानि होता है, वे विचार करते हैं, निश्चय ही मैं अहंकार रूपी हाथी पर सवार की कल्पना कर दोनों के पारस्परिक अहिंसक युद्ध का प्रस्ताव लेकर हूँ । पहले जन्म लेने मात्र से कोई बड़ा नहीं हो जाता है, मेरे दोनों के पास जाते हैं और दोनों ही उसे स्वीकार कर लेते हैं । इसी लघुभ्राताओं ने अध्यात्म की साधना में मुझसे पहले कदम रखा है, प्रकार भरतेश्वर बाहुबलि रास और भरतेश्वर बाहुबलिवृत्ति में देवगण ही निश्चय ही उनका विवेक मुझसे पहले प्रबुद्ध हुआ है, अत: वे वन्दनीय
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