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________________ जैन दर्शन के 'तर्क प्रमाण' का आधुनिक सन्दर्भो में मूल्यांकन १७९ मूर्त को वस्तु ज्ञान का विषय बनाती है किन्तु व्याप्ति ज्ञान या कार्य लिया है। सहचार दर्शन के पश्चात् जो विकल्प या संशय बनते हैं उनका कारण भाव या जाति के प्रत्यय अमूर्त है, अत: वे ऐन्द्रिक ज्ञान के निरसन व्यभिचार अदर्शन से हो जाता है। जहाँ तक न्याय दार्शनिकों विषय नहीं बनते। तर्क एवं ईहा के स्वरूप में भी अन्तर है- (१) का प्रश्न है वे स्पष्ट रूप से तर्क को 'क्वचिच्छंकानिवर्तक' कहते हैं। सर्वप्रथम ईहा विशेष का ज्ञान है जबकि तर्क सामान्य का ज्ञान है, (२) अत: इस सम्बन्ध में विचार करना अपेक्षित है कि तर्क किस प्रकार के दूसरे ईहा वस्तु के गुण धर्मों का ज्ञान है जबकि तर्क सम्बन्धों का ज्ञान संशय को छिन्न करता हैं। यह स्पष्ट किया जा चुका है कि तर्क विधेय है, (३) तीसरे ईहा निर्णय के पूर्व की या संशय और निर्णय के मध्य सम्बन्ध का ज्ञान नहीं है अत: उसके द्वारा जिन संशयों को छिन्न किया निर्णयोन्मुख दोलन की अवस्था है जबकि तर्क निर्णयात्मक है, (४) जाता है वे इस रूप में नहीं होते कि यह स्तम्भ है या पुरुष? अथवा चौथे ईहा ऐन्द्रिक और बौद्धिक ज्ञान है जबकि तर्क में अन्त: प्रज्ञा यह स्वर स्त्री का है या पुरुष का? अत: तर्क में संशय का प्रतीकात्मक का तत्व होता है, (५) पाँचवां ईहा वर्तमान कालिक ज्ञान है जबकि स्वरूप त,-क, Vक, ऐसा नहीं है। यहाँ संशय वस्तु के स्वरूप के तर्क त्रैकालिक ज्ञान हैं अत: ईहा और तर्क में पर्याप्त अन्तर है बारे में न होकर आपादन, अविनाभाव और कार्य-कारण आदि के क्योंकि तर्क व्याप्ति-ग्राहक है और ईहा व्याप्ति ग्राहक नहीं है। अतः सम्बन्धों के बारे में होते हैं। जब संशय सम्बन्ध के बारे में ही होता है तर्क को ईहा से स्वतन्त्र प्रमाण इसलिए मानना पड़ा कि ईहा का उसका प्रतीकात्मक स्वरूप निम्न होगा ( हे सा)v~ (हे - सा)। अन्तर्भाव तो लौकिक प्रत्यक्ष में होता है जबकि तर्क का अन्तर्भाव यहाँ विकल्प व्याप्ति के होने या नहीं होने के बारे में ही होता है। इस परोक्ष ज्ञान में किया गया है। अतः दोनों को अलग-अलग प्रमाण संशय का निवर्तन तभी हो सकता है जब हेतु (धूम) साध्य (अग्नि) के मानना आवश्यक है। अभाव में भी कहीं उपलब्ध हो, ऐसा प्रत्यक्ष में उदाहरण नहीं मिलने ईहा का प्रतीकात्मक स्वरूप भी तर्क से भिन्न है। ईहा के पूर्व से अर्थात् व्यभिचार के अदर्शन से संशय छिन्न हो जाता है। क्योंकि जो संशय होता है वह कार्य कारण, अविनाभाव या आपादन के यदि धम और अग्नि में अविनाभाव नहीं होता तो अग्नि के अभाव में सम्बन्ध में नहीं होकर केवल विधेय के सम्बन्ध में होता है। यह स्वर भी कहीं धूम उपलब्ध होता अर्थात् 'हे~सा अथवा-सा है' का स्त्री का है या पुरुष का? तथा यह स्तम्भ है या पुरुष? ऐसे वाक्यों में उदाहरण मिलना था कि ऐसा उदाहरण नहीं मिला है अत: उनमें संशय इस बारे में भी होता है कि विधेय के इन वैकल्पिक वर्गों में व्याप्ति है। न्याय दर्शन तर्क को केवल संशय छेदक मानता है किन्तु उद्देश्य किस वर्ग का सदस्य है अत: ईहा का जो सुझावात्मक निर्णय जैन दर्शन व्याप्ति ग्राहक के रूप में उसके निश्चयात्मक एवं विधायक होता है वह आपादन के बारे में न होकर वर्ग सदस्यता के बारे में होता कार्य को भी स्पष्ट कर देता है। जैन दार्शनिक यह मानते हैं कि हैं उसका प्रतीकात्मक रूप होता है अनुपलब्धि अर्थात् व्यभिचार अदर्शन से सन्देह का निवर्तन हो जाने सं (वि' । वि२) ....संशय पर जो ज्ञान होगा वह निश्चयात्मक ही होगा। अत: यह तर्क संशय निवर्तक है तो वह उसी समय व्याप्ति ग्राहक भी है। ...विकल्प निषेध .:. उc सं (वि) ...सम्भावित निर्णय (ईहा) तर्क का प्रतीकात्मक स्वरूप : तर्क का कोई प्रतीकात्मक स्वरूप निश्चित कर पाना इसलिए उ = उद्देश्य कठिन है कि वह एक कुदान की अवस्था है। विशेषों के ज्ञान के आधार वि = विधेय पर हम सामान्य की स्थापना अवश्य करते हैं किन्तु इसका कोई नियम सं = सम्भावना नहीं बताया जा सकता है, यह अन्तःप्रज्ञा की आश्वस्ति हैं। पाश्चात्य विधेय सम्बन्ध या सदस्यता तर्कशास्त्र में जिस कार्य-करण सम्बन्ध के ज्ञान के आधार पर या प्रकृति ~ = निषेध की समरूपता के नियम के आधार पर सामान्य ज्ञान का दावा किया इस प्रकार प्रतीकात्मक दृष्टि से विचार करने पर तीनों की सीहो जाता है वह भी आनुभविक आधार पर तो सिद्ध नहीं होता है। ह्यूम ने भिन्नता स्पष्ट हो जाती है। इसीलिए उसे एक विश्वास मात्र कहा था। फिर भी यह न तो अन्ध विश्वास है और न साधारण विश्वास ही, अपितु वह हमारी अन्तः प्रज्ञा तर्क का संशय निवर्तक स्वरूपः की आश्वस्ति है, एक विवेक पूर्ण बौद्धिक आस्था है, जिसकी सत्यता न्याय दार्शनिक तर्क को संशय निवर्तक मानते हैं। जैन के बारे में हमें कोई अनिश्चय नहीं हैं। यदि हम तर्क के इस स्वरूप को दार्शनिकों ने स्पष्ट रूप से तर्क के इस स्वरूप पर प्रकाश नहीं डाला मा - मान्य करते हैं तो उसे कोई प्रतीकात्मक रूप देना कठिन है। किन्तु जैन है। इसका कारण यह हो सकता है कि उनके अनुसार तर्क व्याप्ति दार दार्शनिकों ने 'व्याप्तिज्ञानमूहः' कहकर प्रमाण और प्रमाणफल में अभेद ग्राहक है, अत: संशय का निवर्तन उसकी पूर्व अवस्था ही हो सकती मानत हुए तक का तादात्म्य व्या र मानते हुए तर्क का तादात्म्य व्याप्ति ज्ञान से किया है अत: व्याप्ति ज्ञान है, स्वरूप नहीं। उन्होंने इस प्रक्रिया को अंतर्भाव अनुपलम्भ में कर - की जो प्रक्रिया है उसके आधार पर तर्क के प्रतीकात्मक स्वरूप का का जबकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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