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जन्म की अपेक्षा से ३० वर्ष की वय और मुनि जीवन की अपेक्षा से १९ वर्ष की दीक्षा - पर्याय वाले होते हैं। ज्ञान की दृष्टि से नव-दस पूर्व- ज्ञान के धारी होते हैं। वे तीनों शुभ लेश्याओं से युक्त होते हैं और वज्रऋषभ नाराच संहनन के धारक होते हैं। *"
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अपराजित के अतिरिक्त जिनकल्प और स्थाविरकल्प का उल्लेख यापनीय आचार्य शाकटायन के स्त्रीमुक्तिप्रकरण में भी है। ४८ इससे यह प्रतीत होता है कि जिनकल्प की अवधारण श्वेताम्बर एवं यापनीय दोनों परम्पराओं में लगभग समान ही थी। मुख्य अन्तर यह है कि यापनीय परम्परा में जिनकल्पी के द्वारा वस्त्र ग्रहण का कोई उल्लेख नहीं है, क्योंकि उसमें मुनि के लिये वस्त्र पात्र की स्वीकृति केवल अपवाद मार्ग में है, उत्सर्ग मार्ग में नहीं और जिनकल्पी उत्सर्ग मार्ग का अनुसारण करता है। अतः यापनीय परम्परा के अनुसार वह किसी भी स्थिति में वस्त्र - पात्र नहीं रख सकता। वह अचेल ही रहता है और पाणि-पात्री होता है। जबकि श्वेताम्बर परम्परा के मान्य ग्रन्थों के अनुसार जिनकल्पी अचेल भी होता है और सचेल भी वे पाणि-पात्री भी होते हैं और सपात्र भी होते हैं ओपनियुक्ति (गाथा ७८-७९ ) में उपधि (सामग्री) के आधार पर जिनकल्प के भी अनेक भेद किये गए हैं।
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जैन आचार में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न
इसी प्रकार निशीथभाष्य में भी जिनकल्पी की उपधि को लेकर विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है उसमें सर्वप्रथम यह बताया गया है कि पात्र की अपेक्षा से जिनकल्पी दो प्रकार के होते हैं- पाणिपात्र अर्थात् बिना पात्र वाले और पात्रधारी इसी प्रकार वस्त्र की अपेक्षा से भी उसमें जिनकल्पियों के दो प्रकार बताए गए हैं— अचेलक और सचेलक । पुनः इनकी उपधि की चर्चा करते हुए कहा गया है कि अचेलक और पाणिपात्रभोजी जिनकल्पी होते हैं वे रजोहरण और मुखवस्त्रिका ये दो उपकरण रखते हैं। जो सपात्र और सवस्त्र होते हैं उनकी उपधि की संख्या कम से कम तीन और अधिक से अधिक बारह होती है। स्थाविरकल्पी की जिन चौदह उपधियों का उल्लेख
सन्दर्भ
१.
।।
णिच्चेलपाणिपत्तं उवइटुं परमजिण वरिंदेहि । एक्को विमोक्खमग्गो सेसा य अमग्गया सव्वे सूत्रप्राभूत, १०॥ एगया चेलए होइ सचेले यावि एगया। • उत्तराध्ययन, २/१३। ३. उस्सग्गियलिंगकदस्स लिंगमुस्सग्गियं तयं चेव । अववादियलिंगस्स वि पसत्यमुवसग्गियं लिंगं।।
२.
५.
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- भगवती आराधना, ७६। वि सिज्झ वत्थधरो जिणसासणे जइवि होइ तित्थयरो । णग्गो विमोक्ख मग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे ।।
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सूत्रप्राभृत, २३। (अ) से बेमि जे य अईया जे य पडुप्पन्ना जे य आगमेस्सा अरहंता भगवंतो जे य पव्वयंति जे उन पव्वइस्संति सव्वे ते सोवही धम्मो देसिअव्वोत्ति कट्टु तित्यधम्मत्याए एसाएणुधम्मिग ति एवं देवदूसमायाए पव्वसुं वा पव्वयंति वा पव्वइसंति वा ।
आचारांग १/९/१-१ (शीलांक टीका), भाग, पृ० २७३,
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किया गया है उनमें मात्रक और चूलपट्टक ये दो उपधि जिनकल्पी नहीं रखते हैं।
यापनीयों की दूसरी विशेषता यह है कि वे श्वेताम्बरों के समान जिनकल्प का विच्छेद नहीं मानते उनके अनुसार समर्थ साधक सभी कालों में जिनकल्प को धारण कर सकते हैं, जबकि श्वेताम्बरों के अनुसार जनकल्पी केवल तीर्थङ्कर की उपस्थिति में ही होते हैं। यद्यपि यापनीयों की इस मान्यता में उनकी ही व्याख्यानुसार एक अन्तर्विरोध आता है, क्योंकि उन्होंने अपनी जिनकल्पी की व्याख्या में यह माना है कि जिनकल्पी नौ-दस पूर्वधारी और प्रथम संहनन के धारक होते हैं। चूँकि उनके अनुसार भी वर्तमान में पूर्वों का ज्ञान और प्रथम संहनन (वज्र - ऋषभ नाराच संहनन) का अभाव है, अतः जिनकल्प सर्वकालों में कैसे सम्भव होगा ? इन दो-तीन बातों को छोड़कर यापनीय और श्वेताम्बर परम्परा में जिनकल्प के सम्बन्ध में विशेष अन्तर नहीं है। विशेष जानकारी के लिये भगवती आराधना की टीका और बनक के तत्सम्बन्धी विवरणों को देखा जा सकता है।
ज्ञातव्य है कि दिगम्बर- ग्रन्थ गोम्मटसार और यापनीय ग्रन्थ भगवती आराधना की टीका में जिनकल्प को लेकर एक महत्त्वपूर्ण अन्तर परिलक्षित होता है, वह यह कि जहाँ गोम्मटसार में जिनकल्पी मुनि को मात्र सामायिक चारित्र माना गया है, वहाँ भगवती आराधना में उनमें सामायिक और छेदोपस्थापनीय ऐसे दो चारित्र माने गए हैं। वस्तुतः यह अन्तर इसलिये आया कि जब दिगम्बर परम्परा में छेदोपस्थापनीय चारित्र का अर्थ महाव्रतारोपण से भिन्न होकर प्रायश्चित रूप पूर्व-दीक्षा पर्याय के छेद के अर्थ में लिया गया, तो जिनकल्पी में प्रायश्चित्त रूप छेदोपस्थापनीय चारित्र का निषेध मानना आवश्यक हो गया, गया, क्योंकि जिनकल्पी की साधना निरपवाद होती है। हमें जिनकल्प और स्थविरकल्प का उल्लेख प्राय: श्वेताम्बर एवं यापनीय परम्परा में ही देखने को मिला है। दिगम्बर परम्परा में यापनीय प्रभावित ग्रन्थों को छोड़कर प्राय: इस चर्चा का अभाव ही है।
सिद्धचक्र साहित्य प्रचारक समिति, सूरत, १९३५. (ब) सब्वेऽवि एगदूसेण, निग्गया जिनवरा चउव्वीसं
६.
७.
- आवश्यकनियुक्ति २२७, हर्षपुष्यामृत जैन प्रन्थमाला, लाखाचावल, शांतिपुरी (सौराष्ट्र), १९८९ ।
(अ) आवश्यकनियुक्ति, गाथा १२५८। (ब) वही, १२६० । अचलगो व जो धम्मो जो इमोसंतरुत्तरो देसिओ वद्धमाणेण पासेण य महाजसा ।।
उत्तराध्यययन, २३/२९
८.
वही, २३/२४ ।
९. मुनयो वातरशना पिशङ्गा वसते मलाः । वातस्यानु धाजिम यंति यद्देवासो अविक्षत।। ऋग्वेद १०/१३६/२० १०. ऋग्वेद में अहं और ऋषभवाची ऋचाएँ एक अध्ययन, डॉ० सागरमल जैन, संधान, अंक ७, राष्ट्रीय मानव संस्कृति शोध
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