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नीति के मानवतावादी सिद्धान्त और जैन आचार- दर्शन
बुद्ध नन्द को उपदेश देते हुए कहते हैं कि जिसके पास स्मृति नहीं है उसे आर्यसत्य कहाँ से प्राप्त होगा इसलिए चलते हुए चल रहा हूँ', खड़े होते हुए 'खड़ा हो रहा हूँ' एवं इसी प्रकार दूसरे कार्य करते समय अपनी स्मृति बनाये रखो।" इस प्रकार हम देखते हैं कि बुद्ध भी आत्मचेतनता को नैतिक जीवन का केन्द्र स्वीकार करते हैं।
गीता में भी सम्मोह से, स्मृति-विनाश और स्मृतिविन्यास से बुद्धि-नाश कहकर यही बताया गया है कि आत्मचेतना नैतिक जीवन के लिए एक आवश्यक तथ्य है । "
विवेकवाद' और जैनदर्शन
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मानवतावादी विचारकों में दूसरा वर्ग विवेक को प्राथमिक मानवीय गुण स्वीकार करता है। सी०बी० गर्नेट और इस्त्राइल लेविन के अनुसार नैतिकता विवेकपूर्ण जीवन जीने में है। गनेंट के अनुसार विवेक संगति - नहीं वरन् जीवन में कौशल या चतुराई का होना है। बौद्धिकता या तर्क उसका एक अंग हो सकता है समग्र नहीं गर्नेट, अपनी पुस्तक "विज्डम आफ कन्डक्ट में प्रज्ञा को ही सर्वोच्च सद्गुण मानते हैं और प्रज्ञा या विवेक से निर्देशित जीवन जीने में नैतिकता के सार तत्त्व की अभिव्यक्ति मानते हैं। उनके अनुसार नैतिकता की सम्यक् एवं सार्थक व्याख्या शुभ- उचित कर्तव्य आदि नैतिक प्रत्ययों की व्याख्या में नहीं वरन् आचरण में विवेक के सामान्य प्रत्यय में है। आचरण में विवेक एक ऐसा तत्त्व है जो नैतिक परिस्थिति के अस्तित्ववान पक्ष अर्थात् चरित्र, प्रेरणाएँ, आदत, रागात्मकता, विभेदीकरण, मूल्य-निर्धारण और साध्य को दृष्टिगत रखता है। इन सभी पक्षों को पूर्णतया दृष्टि में रखे बिना जीवन में विवेक पूर्ण आचरण की आशा ही नहीं की जा सकती। आचरण में विवेक एक ऐसी लोचपूर्ण दृष्टि है जो परिस्थितियों के सभी पक्षों की सम्यक् विचारणा के साथ खोज करती हुई सुयोग्य चुनावों को करती है। लेविन ने आचरण में विवेक का तात्पर्य एक समायोजनात्मक क्षमता से माना है उसके अनुसार नैतिक होने का अर्थ मानव की मूलभूत क्षमताओं की अभिव्यक्ति है।
गर्नेट और लेविन के इन दृष्टिकोणों की तुलना जैन आचार - दर्शन के साथ करने पर हम पाते हैं कि आचरण में विवेक का प्रत्यय जैन विचारणा एवं अन्य सभी भारतीय विचारणाओं में भी स्वीकृत रहा है। जैन विचारकों ने सम्यग्ज्ञान के रूप में जो साधना-मार्ग बताया है वह केवल तार्किक ज्ञान नहीं है वरन् एक विवेकपूर्ण दृष्टि है। जैन परम्परा में आचरण में विवेक के लिए या विवेकपूर्ण आचरण के लिए 'यसना' शब्द का प्रयोग हुआ है। 'दशवैकालिक सूत्र' में स्पष्ट रूप से यह बताया गया है कि जो जीवन की विभिन्न क्रियाओं को विवेक या सावधानीपूर्वक सम्पादित करता है वह अनैतिक आचरण नहीं करता है। बौद्ध परम्परा में भी यही दृष्टिकोण स्वीकृत रहा है। बुद्ध ने भी 'अङ्गुत्तरनिकाय' में महावीर के समान ही इसे प्रतिपादित किया है। गीता में कर्म- कौशल को ही योग कहा गया है जो कि विवेक दृष्टि का सूचक है। इस प्रकार हम देखते हैं कि समालोच्य आचार- दर्शनों में भी आचरण में विवेक का प्रत्यय स्वीकृत रहा है।
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गनेंट ने आचरण में विवेक के लिए उन समग्र परिस्थितियों एवं सभी पक्षों का विचार आवश्यक माना है जिनमें कर्म किया जाना है। वह कर्म के सभी पक्षों पर विचार आवश्यक मानता है, जिसे हम जैन दर्शन के अनेकान्तवाद के सिद्धान्त के द्वारा सम्यक् प्रकार से स्पष्ट कर सकते हैं। जैन दर्शन की अनेकान्तवादी धारणा भी यही निर्देश देती है कि विचार के क्षेत्र में हमें एकांगी दृष्टिकोण रखकर निर्णय नहीं लेना चाहिए वरन् एक सर्वांगीण दृष्टिकोण रखना चाहिए। इस प्रकार गर्नेट का सभी पक्षों के विचार का प्रत्यय जैन दर्शन के अनेकान्तवादी सर्वांगीण दृष्टिकोण से अधिक दूर नहीं है।
आत्मसंयम का सिद्धान्त और जैनदर्शन
मानवतावादी नैतिक दर्शन के तीसरे वर्ग का प्रतिनिधित्व इरविंग बबिट करते हैं। ११ बबिट के अनुसार मानवता एवं नैतिक जीवन का सार न तो आत्मचेतन जीवन जीने में है और न विवेकपूर्ण जीवन में, वरन् वह संयमपूर्ण जीवन या आत्म-अनुशासन में है। बबिट आधुनिक युग के संकट का कारण यह बताते हैं कि हमने परम्परागत कठोर वैराग्यवादी धारणाओं को तोड़ दिया और उनके स्थान पर ठीक रूप से आदिम भोगवाद को ही प्रस्तुत किया है। वर्तमान युग के विचारकों ने परम्परागत धारणाओं के प्रतिवाद में एक ऐसी गलत दिशा का चयन किया है, जिसमें मानवीय हितों को चोट पहुँची है। उनका कथन है। कि मनुष्य में निहित वासना रूपी पाप को अस्वीकृत करने का अर्थ उस बुराई को ही दृष्टि से ओझल कर देना है, जिसके कारण मानवीय सभ्यता का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है। मानवीय वासनाएँ पाप हैं, अनैतिक हैं, इस बात को भूलकर हम मानवीय सभ्यता का ही विनाश करेंगे, जबकि उसके प्रति जागृत रहकर हम मानवीय सभ्यता का विकास कर सकेंगे। बबिट बहुत ही ओजपूर्ण शब्दों में कहते हैं कि हम में जैविक प्रवेग तो बहुत हैं, आवश्यकता है जैविक नियंत्रण की हमें अपनी वासनाओं पर नियंत्रण करना चाहिए। केवल सहानुभूति के नाम पर सामाजिक एकता नहीं आ सकती। मनुष्यों को सहानुभूति के सामान्य तत्त्व के आधार पर नहीं वरन् अनुशासन के सामान्य तत्त्व के आधार पर ही एक दूसरे के निकट लाया जा सकता है। सहानुभूति के विस्तार का नैतिक दर्शन केवल भावनात्मक मानवतावाद की स्थापना करता है, जबकि आवश्यकता ऐसे ठोस मानवतावाद की है जो अनुशासन पर बनता है।
तुलनात्मक दृष्टि से विचार करते हुए हम यह पाते हैं कि सभी समालोच्य आचार-दर्शन संयम के प्रत्यय को स्वीकार करते हैं। जैन दर्शन नैतिक पूर्णता के लिए संयम का आवश्यक मानता है। उसके त्रिविध साधना - पथ में सम्यक् आचारण को भी वही मूल्य है जो विवेक और भावना का है 'दशवैकालिकसूत्र' में धर्म को अहिंसा, संयम और तपोमय बताया है।" वस्तुतः अहिंसा और तप भी संयम के पोषक ही हैं और इस अर्थ में संयम ही एक महत्त्वपूर्ण अंग है। जैन भिक्षु जीवन और गृहस्थ जीवन में संयम या अनुशासन को सर्वत्र ही महत्त्व दिया गया है। महावीर के सम्पूर्ण उपदेश का सार असंयम
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