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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ २. विनय-वरिष्ठ साधकों एवं गुरुजनों का सम्मान करना, उन्हें बाह्यस्वरूप प्रकट किया जाता है। संग्रहवृत्ति से बचना ही अकिंचनता प्रणाम, योग्य आसन प्रदान करना तथा उनकी आज्ञाओं का पालन का प्रमुख उद्देश्य है। दिगम्बर या जिनकल्पी मुनि की दृष्टि यही बताती करते हुए अनुशासित जीवन व्यतीत करना, विनय तप है। है कि समग्र बाह्य परिग्रह का त्याग ही अकिंचनता की पूर्णता है।
३. वैयावृत्य (सेवा)- गुरुजन, वरिष्ठ, वृद्ध, रोगी एवं संत कबीरदास ने भी कहा हैसंघ (समाज) आदि की सेवा करना, वैयावृत्य तप है। वैयावृत्य एक उदर समाता अन्न लहे, तनहि समाता चीर। प्रकार की सेवावृत्ति है।
अधिकाहि संग्रह ना करे, ताको नाम फकीर।। ४. स्वाध्याय-१. सद्ग्रन्थों का अध्ययन करना, २. उत्पन्न अकिंचनता और बुद्ध-बौद्ध ग्रन्थ चूलनिदेशपालि में कहा गया शङ्काओं के निरसन एवं नवीन ज्ञान की प्राप्ति के निमित्त विद्वत्जनों है कि अकिंचनता और आसक्तिरहित होने से बढ़कर कोई शरणदाता से प्रश्नोत्तर करना, तत्त्वचर्चा करना ३. ज्ञान की स्मृति को बनाये दीप नहीं है।४ बुद्ध ने स्वयं अपने जीवन में अकिंचनता को स्वीकार रखने के लिए उसका परावर्तन स्वाध्याय करना (दोहराना), ४. उस किया था। उदायी भगवान् की प्रशंसा करते हुए कहता है कि भगवान् पर चिन्तन और मनन करना एवं, ५. धर्मोपदेश देना।
अल्पाहार करने वाले हैं और अल्पाहार के गण बताते हैं। वे कैसे ५. ध्यान-मन से अशुभ विचारों को हटाकर उसे शुभ विचारों भी चीवरों से सन्तुष्ट रहते हैं और वैसे सन्तोष के गुण बताते हैं। में केन्द्रित करना तथा एकाग्र करना, ध्यान-तप है।
जो भिक्षा मिलती है, उससे सन्तुष्ट रहते हैं और वैसे सन्तोष के गुण ६. कायोत्सर्ग-शरीर से ममत्व हटाकर देहातीत आत्म-तत्त्व बताते हैं। निवास के लिए मिले हुए स्थान में सन्तुष्ट रहते हैं और की अनुभूति करना, कायोत्सर्ग-तप है। कायोत्सर्ग में शरीर के जिन वैसे सन्तोष के गुण बताते हैं। एकान्त में रहते हैं और एकान्त के व्यापारों का निरोध सम्भव है, उनका एक सीमित समय के लिए निरोध गुण बताते हैं। इन पाँच कारणों से भगवान् के श्रावक भगवान् का भी किया जाता है।
मान रखते हैं और उनके आश्रय में रहते हैं।४५ इस प्रकार अनशन और अवमौदर्य से प्रारम्भ होकर कायोत्सर्ग महाभारत में अकिंचनता-महाभारत में कहा गया है कि यदि तक की यह सारी साधना-प्रक्रिया तप कहलाती है।
तुम सब कुछ त्यागकर किसी वस्तु का संग्रह नहीं रखोगे तो सर्वत्र
विचरते हुए सुख का ही अनुभव करोगे, क्योंकि जो अकिंचन होता ८. त्याग
है-जिसके पास कुछ नहीं रहता है, वह सुख से सोता और जागता अप्राप्त भोगों की इच्छा नहीं करना और प्राप्त भोगों से विमुख __ है। संसार में अकिंचनता ही सुख है। वही हितकारक, कल्याणकारी होना, त्याग है। नैतिक जीवन में त्याग आवश्यक है। बिना त्याग और निरापद है। आकिंचन्य व्यक्ति को किसी भी प्रकार के शत्रु का के नैतिकता नहीं टिकती। अतएव साधु के लिए त्याग-धर्म का विधान खटका नहीं है। अकिंचनता को लाघव भी कहा जा सकता है। लाघव किया गया है। त्याग से इन्द्रिय और मन के निरोध का अभ्यास किया का अर्थ है- हलकापन। लोभ या आसक्ति आत्मा पर एक प्रकार जाता है। संयम के लिए त्याग आवश्यक है। सामान्य रूप से त्याग का भार है। कामना या आसक्ति मन में तनाव उत्पन्न करती है। यह का अर्थ छोड़ना होता है। अतएव साधुता तभी सम्भव है जब सुख- तनाव मन को बोझिल बनाता है। भूत और भविष्य की चिन्ताओं का साधना एवं गृह-परिवार का त्याग किया जाये। साधु जीवन में भी भार मनुष्य व्यर्थ ही ढोया करता है। व्यक्ति जितने-जितने अंश में जो कुछ उपलब्ध है या नियमानुसार ग्राह्य है, उनमें से कुछ को नित्य इनसे ऊपर उठकर अनासक्त बनता है, उतनी ही मात्रा में मानसिक छोड़ते रहना या त्याग करते रहना जरूरी है। गृहस्थ जीवन के लिए तनाव से बचकर प्रमोद का अनुभव करता है। निलोभ आत्मा को कर्मभी त्याग आवश्यक है। गृहस्थ को न केवल अपनी वासनाओं और आवरण से हल्का बनाता है। मन और चेतना के तनाव को समाप्त भोगों की इच्छा का त्याग करना होता है, वरन् अपनी सम्पत्ति एवं करता है। इसीलिए उसको लाघव कहा जाता है। परिग्रह से भी दान के रूप में त्याग करते रहना आवश्यक है। इसलिए भौतिक वस्तुओं की कामना ही नहीं, वरन् यश, कीर्ति, पूजा, त्याग गृहस्थ और श्रमण दोनों के लिए ही आवश्यक है। वस्तुतः सम्मान आदि की लालसा भी मनुष्य को अध:पतन की ओर ले जाती लोकमंगल के लिए त्याग-धर्म का पालन आवश्यक है। न केवल जैन है। दशवैकालिकसूत्र के अनुसार जो पूजा, प्रतिष्ठा, मान और सम्मान परम्परा में, वरन् बौद्ध और वैदिक-परम्पराओं में भी त्याग-भावना पर की कामना करते हैं, वे अनेक छद्म-पापों का सृजन करते हैं।६ कामना बल दिया गया है। बोधिचर्यावतार में आचार्य शान्तिरक्षित ने इस सम्बन्ध चाहे भौतिक वस्तुओं की हो या मान-सम्मान आदि अभौतिक तत्त्वों में काफी विस्तार से विवेचन किया है।
की, वह एक बोझ है जिससे मुक्त होना आवश्यक है। सूत्रों में लाघव
के साथ ही साथ मुक्ति (मुत्ती) शब्द का प्रयोग भी हुआ है। सद्गुण ९. अकिंचनता
के रूप में मुक्ति का अर्थ दुश्चिन्ताओं, कामनाओं और वासनाओं से मूलाचार के अनुसार अकिंचनता का अर्थ परिग्रह का त्याग है। मुक्त मनःस्थिति ही है। उपलक्षण से मुत्ती का अर्थ सन्तोष भी होता लोभ या आसक्तित्याग के भावनात्मक तथ्य को क्रियात्मक जीवन में है। सन्तोष की वृत्ति आवश्यक सद्गुण है। उसके अभाव में जीवन उतारना आवश्यक है। अकिंचनता के द्वारा इसी अनासक्त जीवन का की शान्ति चौपट हो जाती है। बौद्ध धर्म और गीता की दृष्टि में निर्लोभता
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