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श्रमण एवं वैदिक धारा का विकास एवं पारस्परिक प्रभाव
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करनी चाहिये। हे ब्राह्मण, यह लकड़ियों की अग्नि तो कभी जलानी पड़ती क्षण भर भी सेवा करे तो यह सेवा कहीं उत्तम है, न कि सौ वर्षों तक है, कभी उपेक्षा करनी पड़ती है और कभी उसे बुझानी पड़ती है, किन्तु किया हुआ यज्ञ। इस प्रकार जैनधर्म ने तत्कालीन कर्मकाण्डी मान्यताओं ये अग्नियाँ तो सदैव और सर्वत्र पूजनीय हैं। इसी प्रकार बुद्ध ने भी हिंसक को एक नई दृष्टि प्रदान की और उन्हें आध्यात्मिक स्वरूप दिया, साथ यज्ञों के स्थान पर यज्ञ के आध्यात्मिक एवं सामाजिक स्वरूप को प्रकट ही धर्म-साधना का जो बहिर्मुखी दृष्टिकोण था उसे आध्यात्मिक संस्पर्श किया। इतना ही नहीं, उन्होंने सच्चे यज्ञ का अर्थ सामाजिक जीवन में द्वारा अन्तर्मुखी बनाया। इससे उस युग के वैदिक चिन्तन में एक सहयोग करना बताया।५ श्रमण-धारा के इस दृष्टिकोण के समान ही क्रान्तिकारी परिवर्तन उपस्थित हुआ। इस प्रकार वैदिक संस्कृति को उपनिषदों एवं गीता में भी यज्ञ-याग की निन्दा की गयी है और यज्ञ की रूपान्तरित करने का श्रेय सामान्य रूप से श्रमण-परम्परा के और विशेष सामाजिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से विवेचना की गई है। सामाजिक सन्दर्भ रूप से जैन-परम्परा को है। में यज्ञ का अर्थ समाज-सेवा माना गया है। निष्कामभाव से समाज की कर्मकाण्ड और आध्यात्मिक साधनाएँ प्रत्येक धर्म के अनिवार्य सेवा करना गीता में यज्ञ का सामाजिक पहलू था। दूसरी ओर गीता में अंग हैं। कर्मकाण्ड उसका शरीर है और आध्यात्मिकता उसका प्राण। यज्ञ के आध्यात्मिक स्वरूप का विवेचन भी किया गया है। गीताकार कहता भारतीय धर्मों में प्राचीन काल से ही हमें ये दोनों प्रकार की प्रवृत्तियाँ स्पष्ट है कि योगीजन संयमरूप अग्निरूप अग्नि में श्रोत्रादि इन्द्रियों का हवन रूप से दृष्टिगोचर होती हैं। जहाँ प्रारम्भिक वैदिक-परम्परा धर्म-कर्मकरते हैं या इन्द्रियों के विषयों का इन्द्रियों में हवन करते हैं। दूसरे कुछ काण्डात्मक अधिक रही हैं, वहाँ प्राचीन श्रमण-परम्पराएँ साधनात्मक साधक इन्द्रियों के सम्पूर्ण कर्मों को और शरीर के भीतर रहने वाला वायु अधिक रही हैं। फिर भी इन दोनों प्रवृत्तियों को एक दूसरे से पूर्णतया जो प्राण कहलाता है, उसके 'संकुचित होने', 'फलने' आदि कर्मों को पृथक् रख पाना कठिन है। श्रमण-परम्परा में आध्यात्मिक और धार्मिक ज्ञान से प्रकाशित हुई आत्म-संयमरूप योगाग्नि में हवन करते हैं। घृतादि साधना के जो विधि-विधान बने थे, वे भी धीरे-धीरे कर्मकाण्ड के रूप चिकनी वस्तु प्रज्ज्वलित हुई अग्नि की भाँति विवेक-विज्ञान से उज्ज्वलता में ही विकसित होते गये। अनेक आन्तरिक एवं बाह्य साक्ष्यों से यह को प्राप्त हुई (धारणा-ध्यान समाधि रूप) उस आत्म-संयम-योगाग्नि में सुनिश्चित हो जाता है कि इनमें अधिकांश कर्मकाण्ड वैदिक या ब्राह्मण (प्राण और इन्द्रियों के कर्मों को) विलीन कर देते हैं। इस प्रकार जैनधर्म परम्परा अथवा दूसरी अन्य परम्पराओं के प्रभाव से आये हैं। में यज्ञ के जिस आध्यात्मिक स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है, उसका जैन-परम्परा मूलतः श्रमण-परम्परा का ही एक अंग है और अनुमोदन बौद्ध परम्परा और वैदिक परम्परा में हुआ है। यही श्रमण- इसलिये यह अपने प्रारम्भिक रूप में कर्मकाण्ड की विरोधी एवं परम्परा का हिन्दू-परम्परा को मुख्य अवदान था।
आध्यात्मिक साधना प्रधान रही है। मात्र यही नहीं उत्तराध्ययन जैसे प्राचीन
जैन-ग्रन्थों में स्नान, हवन, यज्ञ आदि कर्मकाण्डों का विरोध भी परिलक्षित स्नान आदि के प्रति नया दृष्टिकोण
होता है। जैसा हम पूर्व में बता चुके हैं कि उत्तराध्ययनसूत्र की यह विशेषता जैन विचारकों ने अन्य नैतिकता सम्बन्धी विचारों को भी नई है कि उसने धर्म के नाम पर किये जाने वाले इन कर्मकाण्डों एवं अनुष्ठानों दृष्टि प्रदान की। बाह्य शौच या स्नान जो कि उस समय धर्म और नैतिक को एक आध्यात्मिक रूप प्रदान किया था। तत्कालीन ब्राह्मण वर्ग ने यज्ञ, जीवन का एक मुख्य रूप मान लिया गया था, को भी एक नया श्राद्ध और तर्पण के नाम पर कर्मकाण्डों एवं अनुष्ठानों के माध्यम से आध्यात्मिक स्वरूप प्रदान किया गया। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है सामाजिक शोषण की जो प्रक्रिया प्रारम्भ की थी, जैन और बौद्ध परम्पराओं कि धर्म जलाशय है और ब्रह्मचर्य घाट (तीर्थ) है, उसमें स्नान करने से ने उसका खुला विरोध किया था। आत्मा शान्त, निर्मल और शुद्ध हो जाती है। इसी प्रकार बौद्ध-दर्शन में वस्तुतः वैदिक कर्मकाण्ड की विरोधी जनजातियों एवं भी सच्चे स्नान का अर्थ मन, वाणी और काया से सद्गुणों का सम्पादन भक्तिमार्गी परम्परा में धार्मिक अनुष्ठान के रूप में पूजा-विधि का विकास माना गया है। न केवल जैन और बौद्ध परम्परा में वरन् वैदिक परम्परा हुआ, तो श्रमण-परम्परा में तपस्या और ध्यान का। जैन समाज में यक्षपूजा में भी यह विचार प्रबल हो गया कि यथार्थ शुद्धि आत्मा के सद्गुणों के के प्राचीनतम उल्लेख जैनागमों में उपलब्ध हैं। जनसाधारण में प्रचलित विकास में निहित है। इस प्रकार श्रमणों के इस चिन्तन का प्रभाव वैदिक भक्तिमार्गी धारा का प्रभाव जैन और बौद्ध धर्मों पर भी पड़ा और उनमें या हिन्दू परम्परा पर भी हुआ।
तप, संयम एवं ध्यान के साथ-साथ जिन एवं बुद्ध की पूजा की भावना इसी प्रकार ब्राह्मणों को दी जाने वाली दक्षिणा के प्रति एक विकसित हुई। परिणामत: प्रथम स्तूप, चैत्य आदि के रूप में प्रतीक पूजा नई दृष्टि प्रदान की गई और यह बताया गया कि दान की अपेक्षा, संयम प्रारम्भ हुई, फिर सिद्धायतन (जिन-मन्दिर) आदि बने और बुद्ध एवं जिनही श्रेष्ठ है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि प्रति मास सहस्रों गायों प्रतिमा की पूजा होने लगी, परिणामस्वरूप जिन-पूजा, दान आदि को का दान करने की अपेक्षा भी जो बाह्य रूप से दान नहीं करता वरन् संयम गृहस्थ का मुख्य कर्त्तव्य माना गया। दिगम्बर परम्परा में तो गृहस्थ के का पालन करता है, उस व्यक्ति का संयम ही अधिक श्रेष्ठ है। धम्मपद लिये प्राचीन षडावश्यकों के स्थान पर षट् दैनिक कृत्यों-जिनपूजा, में भी कहा गया है कि एक तरफ मनुष्य यदि वर्षों तक हजारों की दक्षिणाा गुरुसेवा, स्वाध्याय, तप, संयम एवं दान की कल्पना की गयी। हमें देकर प्रति मास यज्ञ करता जाय और दूसरी तरफ यदि वह पुण्यात्मा की आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, भगवती आदि प्राचीन आगमों में
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