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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ (आईक) और बाहु (बाहुक) नामक अध्ययन उपलब्ध हैं। हो सकता आचार्यभाषित और महारवीरभाषित ही थी और जिसका अधिकांश भाग है कि कोमल और खोम-क्षोम भी कोई ऋषि रहे हैं। सोम का उल्लेख आज भी ऋषिभाषित आदि के रूप में सुरक्षित है। क्योंकि समवायांग भी ऋषिभाषित में है। फिर भी यदि हम यह मानने को उत्सुक ही में भी प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु को प्रत्येकबुद्धभाषित, आचार्यभाषित, हों कि ये अध्ययन निमित्तशास्त्र से सम्बन्धित थे तो हमें यह मानना महर्षिवीरभाषित कहा गया है। स्थानांग में जहाँ ऋषिभाषित शब्द है होगा कि यह सामग्री उसमें बाद में जुड़ी है, प्रारम्भ में उसका अंग वहां समवायांग में प्रत्येकबुद्धभाषित शब्द है। यह स्पष्ट है कि ऋषिभाषित नहीं थी। क्योंकि प्राचीनकाल में निमित्तशास्त्र का अध्ययन जैन भिक्षु के प्रत्येक ऋषि को आगे चलकर जैनाचार्यों ने प्रत्येकबुद्ध के रूप के लिए वर्जित था और इसे पापश्रुत माना जाता था।
में स्वीकार किया हैं और यह शब्द-परिवर्तन उसी का सूचक है। स्थानांग और समवायांग दोनों में प्रश्नव्याकरण सम्बन्धी जो यही कारण है कि इसमें ऋषिभाषित के स्थान पर प्रत्येकबुद्धभाषित विवरण हैं, वे भी एक काल के नहीं हैं। समवायांग का विवरण परवर्ती कहा गया है। हमारे कथन की पुष्टि का दूसरा आधार यह है कि समवायांग है, क्योंकि उस विवरण में मूल तथ्य सुरक्षित रहते हुए भी निमित्तशास्त्र में प्रश्नव्याकरण के एक श्रुतस्कन्ध और ४५ अध्याय माने गये हैं। सम्बन्धी विवरण काफी विस्तृत हो गया है। स्थानांग में प्रश्नव्याकरण इससे यह सिद्ध होता है कि समवायांग के प्रश्नव्याकरण की विषय-वस्तु के दस अध्ययन बताये गये हैं जबकि समवायांग उसमें ४५ उद्देशक सम्बन्धी इस विवरण के लिखे जाने तक भी यह अवधारणा अचेतनरूप होने की सूचना देता है। 'उवमा' और 'संखा' नामक स्थानांग में वर्णित में अवश्य थी कि प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु प्रत्येकबुद्धों, धर्माचार्यों प्रारम्भिक दो अध्ययनों का यहाँ निर्देश ही नहीं है। हो सकता है कि और महावीर के उपदेशों से निर्मित थी, यद्यपि इस काल तक ऋषिभाषित 'उवमा' की सामग्री ज्ञाताधर्मकथा में और 'संखा' की सामग्री-यदि को उससे अलग कर दिया गया होगा और उसके ४५ अध्ययनों के उसका सम्बन्ध संख्या से था तो स्थानांग या समवायांग में डाल दी ___ स्थान पर निमित्तशास्त्र सम्बन्धी विद्याएँ समाविष्ट कर दी गई होंगी। गई हो। 'कोमलपसिणाई' का भी उल्लेख नहीं है। इन तीनों के स्थान यद्यपि निमित्तशास्त्र के विषय जोड़ने का ही ऐसा कुछ प्रयत्न सीमितरूप पर 'असि' 'मणि' और आदित्य' ये तीन नाम नये जुड़ गये हैं, पुनः में स्थानांग में प्रश्न व्याकरण सम्बन्धी विवरण लिखे जाने के पूर्व भी इनका उल्लेख भी अध्ययनों के रूप में नहीं है। समवायांग का विवरण हुआ होगा। मेरी धारणा यह है कि प्रश्नव्याकरण में प्रथम निमित्तशास्त्र स्पष्टरूप से यह बताता है कि प्रश्नव्याकरण का वर्ण्य-विषय चमत्कारपूर्ण का विषय जुड़ा और फिर ऋषिभाषित वाला अंश अलग हुआ तथा विविध विद्याओं से परिपूर्ण है। यहाँ इसिभासियाई, आयरियभासियाई बीच का कुछ काल ऐसा रहा जब वही विषयवस्तु दोनों में
और महावीरभासियाइं इन तीन अध्ययनों का विलोप कर यह निमित्तशास्त्र समनान्तर बनी रही। यहाँ हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि जहां सम्बन्धी विवरण इनके द्वारा कथित है- यह कह दिया गया है। स्थानांग में प्रश्नव्याकरण के दस अध्ययन होने का उल्लेख है, वहां
वस्तुत: समवायांग का विवरण हमें प्रश्नव्याकरण के किसी दूसरे समवायांग में इसके ४५ उद्देशन काल और नन्दी में ४५ अध्ययन परिवर्धित संस्करण की सूचना देता है जिसमें नैमित्तशास्त्र से सम्बन्धित होने का उल्लेख है- यह आकस्मिक नहीं है। यह उल्लेख प्रश्नव्याकरण विवरण जोड़कर प्रत्येक बुद्धभाषित (ऋषिभाषित), आचार्यभाषित और और ऋषिभाषित की किसी साम्यता का संकेतक है। वर्तमान वीरभाषित (महावीरभाषित) भाग अलग कर दिये गये थे और इस प्रश्नव्याकरण में दस अध्ययन होना भी सप्रयोजन है- स्थानाङ्ग के प्रकार इसे शुद्धरूप से एक निमित्तशास्त्र का ग्रन्थ बना दिया गया था। पूर्व विवरण से संगति बैठाने के लिए ही ऐसा किया गया होगा। दस उसे प्रामाणिकता देने के लिए यहाँ तक कह दिया गया कि ये प्रत्येक और पैतालीस के इस विवाद को सुलझाने के दो ही विकल्प हैंबुद्ध, आचार्य और महावीरभाषित हैं।
प्रथम सम्भावना यह हो सकती है कि प्राचीन संस्करण में दस अध्याय तत्त्वार्थवार्तिक में प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु का जो विवरण रहे हों और उसके ऋषिभाषित वाले अध्याय के ४५ उद्देशक रहे हों उपलब्ध है वह इतना अवश्य सूचित करता है कि ग्रन्थकार के सामने अथवा मूल प्रश्नव्याकरण में वर्तमान ऋषिभाषित के ४५ अध्याय ही प्रश्नव्याकरण की कोई प्रति नहीं थी उसने प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु हों क्योंकि इनमें भी ऋषिभाषित के साथ महावीरभाषित और के सम्बन्ध में जो विवरण दिया है, वह कल्पनाश्रित ही है। यद्यपि आचार्यभाषित का समावेश हो ही जाता है। यह भी सम्भव है कि धवला में प्रश्नव्याकरण के सम्बन्ध में जो निमित्तशास्त्र से सम्बन्धित वर्तमान ऋषिभाषित के ४५ अध्यायों में से कुछ अध्याय ऋषिभाषित कुछ विवरण है, वह निश्चय ही यह बताता है कि ग्रन्थकार ने उसे के अन्तर्गत और कुछ आचार्यभाषित एवं कुछ महावीरभाषित के अन्तर्गत अनुश्रुति के रूप में श्वेताम्बर या यापनीय परम्परा से प्राप्त किया होगा। उद्देशकों के रूप में वर्गीकृत हुए हों। महत्त्वपूर्ण यह है कि समवायांग धवला में वर्णित विषयवस्तु वाला कोई प्रश्नव्याकरण अस्तित्व में भी में प्रश्नव्याकरण के ४५ अध्ययन न कहकर ४५ उद्देशन काल कहा रहा होगा, यह कहना कठिन है।
गया है, किन्तु प्रश्नव्याकरण से अलग करने के पश्चात् उन्हें एक ही जैसा कि हम पूर्व में कह चुके हैं कि समवायांग का प्रश्नव्याकरण ग्रन्थ के अन्तर्गत ४५ अध्यायों के रूप में रख दिया गया हो। एक की विषयवस्तु सम्बन्धी विवरण स्थानांग की अपेक्षा परवर्ती काल का महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि समवायांग में ऋषिभाषित के ४४ अध्ययन है। फिर भी इसमें कुछ तथ्य ऐसे अवश्य हैं जो हमारी इस धारणा कहे गये हैं जबकि वर्तमान ऋषिभाषित में ४५ अध्ययन हैं। क्या वर्धमान को पुष्ट करते हैं कि प्रश्नव्याकरण की मूलभूत विषयवस्तु ऋषिभाषित, नामक अध्ययन पहले इसमें सम्मिलित नहीं था। क्योंकि इसे
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