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प्रश्नव्याकरणसूत्र की प्राचीन विषयवस्तु की खोज
७७ नामक अध्ययन पहले इसमें सम्मिलित नहीं था। क्योंकि इसे क्या प्रश्नव्याकरण की प्राचीन विषयवस्तु सुरक्षित है? महावीरभाषित में परिगणित नहीं किया गया था या अन्य कोई कारण यहां यह चर्चा भी महत्त्वपूर्ण है कि क्या प्रश्नव्याकरण के प्रथम था, हम नहीं कह सकते। यह भी सम्भव है कि उत्कटवादी अध्याय और द्वितीय संस्कारों की विषयवस्तु पूर्णत: नष्ट हो गई है या वह में किसी ऋषि का उल्लेख नहीं है, साथ ही यह अध्याय चार्वाक दर्शन आज भी पूर्णत: या आंशिक रूप में सुरक्षित है। का प्रतिपादन करता है। अतः इसे ऋषिभाषित में स्वीकार नहीं किया मेरी दृष्टि में प्रश्नव्याकरण के प्रथम संस्करण में ऋषिभाषित, हो। समवायांग और नन्दीसूत्र के मूलपाठों में एक महत्त्वपूर्ण अन्तर आचार्यभाषित और महावीरभाषित के नाम से जो सामग्री थी वह आज यह है कि नन्दीसूत्र में प्रश्नव्याकरण के ४५ अध्ययन हैं- ऐसा स्पष्ट भी ऋषिभाषित, ज्ञाताधर्मकथा, सूत्रकृतांग एवं उत्तराध्ययन में बहुत पाठ है। जबकि समवायांग में ४५ अध्ययन, ऐसा पाठ न होकर ४५ कुछ सुरक्षित है। ऐसा लगता है कि ईस्वी सन् के पूर्व ही उस सामग्री उद्देशन काल है, मात्र यही पाठ है। हो सकता है कि समवायांग के को वहां से अलग कर इसिभासियाई के नाम से स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप रचना-काल तक वे उद्देशक रहे हों, किन्तु आगे चलकर वे अध्ययन में सुरक्षित कर लिया गया था। जैन परम्परा में ऐसे प्रयास अनेक कहे जाने लगे हों। यदि समवायांग के काल तक ४५ अध्ययनों की बार हुए हैं जब चूला या चूलिका के रूप में ग्रन्थों में नवीन सामग्री अवधारणा होती तो समवायांगकार उसका उल्लेख अवश्य करते क्योंकि जोड़ी जाती रही अथवा किसी ग्रन्थ की सामग्री को निकालकर उससे समवायांग में अन्य अंग आगमों की चर्चा के प्रसंग में अध्ययनों का एक नया ग्रन्थ बना दिया। उदाहरण के रूप में किसी समय निशीथ स्पष्ट उल्लेख है।
को आचारांग की चूला के रूप में जोड़ा गया और कालान्तर में उसे इस सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि क्या निमित्तशास्त्र वहाँ से अलग कर निशीथ नामक नया ग्रन्थ ही बना दिया गया। इसी एवं चामत्कारिक विद्याओं से युक्त कोई प्रश्नव्याकरण बना भी था या प्रकार आयारदशा (दशाश्रुतस्कन्ध) के आठवें अध्याय (पर्युषणकल्प) यह सब कल्पना की उड़ानें हैं? यह सत्य है कि प्रश्नव्याकरण की की सामग्री से कल्पसूत्र नामक एक नया ग्रन्थ ही बना दिया गया। पद-संख्या का समवायांग, नन्दी, नन्दीचूर्णी और धवला में जो उल्लेख अत: यह मानने में कोई आपत्ति नहीं है कि पहले प्रश्नव्याकरण में है, वह काल्पनिक है। यद्यपि समवायांग और नन्दी, प्रश्नव्याकरण इसिभासियाई के अध्याय जुड़ते रहे हों और फिर अध्ययनों की सामग्री के पदों की निश्चित संख्या नहीं देते हैं—मात्र संख्यात-शत-सहस्र- को वहां से अलग कर इसिभासियाई नामक स्वतन्त्र ग्रन्थ अस्तित्व ऐसा उल्लेख करते हैं, किन्तु नन्दीचूर्णी एवं समवायांगवृत्ति३ में उसके में आया हो। मेरा यह कथन निराधार भी नहीं है। प्रथम तो दोनों पदों की संख्या ९२१६००० और धवला'४ में ९३१६००० बतायी नामों की साम्यता तो है ही। साथ ही समवायांग में यह भी स्पष्ट गई है, जो मुझे तो काल्पनिक ही अधिक लगती है।
उल्लेख है कि प्रश्नव्याकरण में स्वसमय और परसमय के प्रज्ञापक मेरी अवधारणा यह है कि स्थानांग, समवायांग, नन्दी, तत्त्वार्थ, प्रत्येकबुद्धों के कथन हैं। (पण्हावागरणदसासुणं ससमय-परसमय राजवार्तिक, धवला एवं जयधवला में प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु पण्णवय-पत्तेअबुद्ध .......भासियाइणं, समवायांग ५४७)। इसिभासियाई का जिस रूप में उल्लेख है वह पूर्णत: काल्पनिक चाहे न हो, किन्तु के सम्बन्ध में यह स्पष्ट मान्यता है कि उसमें प्रत्येकबुद्धों के वचन उसमें सत्यांश कम और कल्पना का पुट अधिक है। यद्यपि निमित्तशास्त्र हैं। मात्र यही नहीं समवायांग ‘स-समय-पर समय पण्णवय पत्तेअबुद्ध-अर्थात् के विषय को लेकर कोई प्रश्नव्याकरण अवश्य बना होगा, फिर भी स्वसमय एवं परसमय के प्रज्ञापक प्रत्येक बुद्ध का उल्लेख कर इसकी उसमें समवायांग और धवला में वर्णित समग्र विषयवस्तु एवं चामत्कारिक पुष्टि भी कर देता है कि वे प्रत्येक बुद्ध मात्र जैन परंपरा के नहीं हैं, विद्याएं रही होंगी यह कहना कठिन ही है।
अपितु अन्य परम्पराओं के भी है। इसिभासियाई में मंखलिगोशाल, इसी सन्दर्भ में समवायांग के मूलपाठ 'अद्दागंगुट्ठबाहुअसिमणि देवनारद, असितदेवल, याज्ञवल्क्य, उद्दालक आदि से सम्बन्धित खोमआइच्चभासियाणं५ के अर्थ के सम्बन्ध में भी यहां हमें पुनर्विचार अध्याय भी इसी तथ्य को सूचित करते हैं। मेरी दृष्टि में प्रश्नव्याकरण करना होगा। कहीं अदाग, अंगुष्ठ, बाहु, असि, मणि, खोम (क्षोम) का प्राचीनतम अधिकांश भाग आज भी इसिभासियाई में तथा कुछ और आदित्य व्यक्ति तो नहीं हैं- क्योंकि इनके द्वारा भाषित कहने भाग सूत्रकृतांग, ज्ञाताधर्मकथा और उत्तराध्ययन के कुछ अध्यायों के का क्या अर्थ है? स्थानाङ्ग के विवरण की समीक्षा करते हुए जैसी रूप में सुरक्षित है। प्रश्नव्याकरण का इसिभासियाई वाला अंश वर्तमान कि मैंने सम्भावना प्रकट की है कि कहीं अदाग-आईक, बाहु-बाहुक, इसिभासियाइं (ऋषिभाषित), महावीरभासियाई में तथा आयरियभासियाई खोम-सोम नामक ऋषि तो नहीं है, क्योंकि ऋषिभाषित में इनके उल्लेख का कुछ अंश उत्तराध्ययन के अध्यनों में सुरक्षित है। ऋषिभाषित के हैं। आदित्य भी कोई ऋषि हो सकते हैं। केवल अंगुट्ठ, असि और तेतलिपुत्र नामक अध्याय की विषय सामग्री ज्ञाताधर्मकथा के १४वें मणि ये तीन नाम अवश्य ऐसे हैं, जिनके व्यक्ति होने की सम्भावना तेत्तलिपुत्र नामक अध्याय में आज भी उपलब्ध है। धूमिल है।
उत्तराध्ययन के अनेक अध्याय प्रश्नव्याकरण के अंश थे, इसकी इस समग्र चर्चा का फलित तो मात्र यही है कि प्रश्नव्याकरण पुष्टि अनेक आधारों से की जा सकती है। सर्वप्रथम उत्तराध्ययन नाम की विषयवस्तु समय-समय पर बदलती रही है।
ही इस तथ्य को सूचित करता है कि यह किसी ग्रन्थ के उत्तर-अध्ययनों
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