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प्राचीन जैनागमों में चार्वाक दर्शन का प्रस्तुतीकरण एवं समीक्षा
अगुरुलघु है उसी प्रकार जीव भी अगुरुलघु है । अतः तुम्हारा यह तर्क युक्ति संगत नहीं है कि जीव और शरीर भिन्न भिन्न नहीं है। अब यह तर्क भी वैज्ञानिक दृष्टि से युक्ति संगत नहीं रह गया है क्योंकि वैज्ञानिक यह मानते हैं कि वायु में वजन होता है। दूसरे यह भी प्रयोग करके देखा गया है कि जीवित और मृत शरीर के वजन में अन्तर पाया जाता है । उस युग में सूक्ष्म तुला के अभाव के कारण यह अन्तर ज्ञात नहीं होता रहा होगा।
राजा ने फिर एक अन्य तर्क प्रस्तुत किया और कहा कि मैंने एक चोर के शरीर के विभिन्न अंगों को काट कर चीर कर देखा लेकिन मुझे कहीं भी जीव नहीं दिखाई दिया। अतः शरीर से पृथक् जीव की सत्ता सिद्ध नहीं होती। इसके प्रत्युत्तर में केशिकुमार श्रमण ने निम्न उदाहरण देकर समझाया
हे राजन! तू बंड़ा मूड मालूम होता है, मैं तुझे एक उदाहरण देकर समझाता हूँ। एक बार कुछ वन-जीवी साथ में अग्नि लेकर एक बड़े जंगल में पहुँचे। उन्होंने अपने एक साथी से कहा, हे देवानुप्रिय ! हम जंगल में लकड़ी लेने जाते हैं, तू इस अरणी से आग जलाकर हमारे लिए भोजन बनाकर तैयार रखना। यदि अग्नि बुझ जाय तो लकड़ियों को घिस कर अग्नि जला लेना। संयोग वश उसके साथियों के चले जाने पर थोड़ी ही देर बाद आग बुझ गई। अपने साथियों के आदेशानुसार वह लकड़ियों को चारों ओर से उलट-पुलट कर देखने लगा, लेकिन आग कहीं नजर नहीं आई। उसने अपनी कुल्हाडी से लकड़ियों को चीरा, उनके छोछे-छोटे टुकड़े किये, किन्तु फिर भी आग दिखाई नहीं दी। वह निराश होकर बैठ गया और सोचने लगा कि देखो, मैं अभी तक भी भोजन तैयार नहीं कर सका। इतने में जंगल में से उसके साथी लौटकर आ गये, उसने उन लोगों से सारी बातें कहीं। इस पर उनमें से एक साथी ने शर बनाया और शर को अरणि के साथ घिस कर अग्नि जलाकर दिखायी और फिर सबने भोजन बना कर खाया। हे पएसी जैसे लकड़ी को चीर कर आग पाने की इच्छा रखने वाला उक्त मनुष्य मूर्ख था, वैसे ही शरीर को चीर कर जीव देखने की इच्छा वाले तुम भी कुछ कम मूर्ख नहीं हो। जिस प्रकार अरणि के माध्यम से अग्नि अभिव्यक्त होती है किन्तु तुम्हारी प्रक्रिया उसी प्रकार मूर्खता पूर्ण है जैसे अरणि को चीर-फाड़ करके अग्नि को देखने की प्रक्रिया, अतः हे राजा! यह श्रद्धा करो कि आत्मा अन्य है और शरीर अन्य है।
यहाँ यह कहा जा सकता है कि ये सभी तर्क वैज्ञानिक युग इतने सबल नहीं रह गये हैं, किन्तु प्राचीन काल में सामान्यतया चार्वाकों के पक्ष के समर्थन में और उनका खण्डन करने के लिये ये ही तर्क प्रस्तुत किये जाते थे ।
अतः चार्वाक दर्शन के ऐतिहासिक विकास क्रम की दृष्टि से इनका अपना महत्त्व है। जैन और बौद्ध परम्पराओं में इनमें से अधिकांश तर्क समान होने से इनकी ऐतिहासिक प्रामाणिकता और प्राचीनता भी स्वतः सिद्ध है।
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जैन साहित्य में दार्शनिक दृष्टि से जहाँ तक चार्वाक दर्शन के तर्कपुरस्सर प्रस्तुतीकरण एवं समीक्षा का प्रश्न है, उसे आगमिक व्याख्या साहित्य के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ विशेषावश्यकभाष्य में देखा जा सकता है। जिनभद्रगणि क्षमा-श्रमण द्वारा ईस्वी सन् की छठीं शती में प्राकृत भाषा में निबद्ध इस ग्रन्थ की लगभग ५०० गाथायें तो आत्मा, कर्म, पुण्यपाप, स्वर्ग-नरक, बन्धन मुक्ति आदि अवधारणाओं की तार्किक समीक्षा से सम्बन्धित है। इस ग्रन्थ का यह अंश गणधरवाद के नाम से जाना जाता है और अब स्वतन्त्र रूप से प्रकाशित भी हो चुका है। प्रस्तुत निबन्ध में इस समग्र चर्चा को समेट पाना सम्भव नहीं था, अतः इस निबन्ध को वहीं विराम दे रहे हैं।
सन्दर्भ
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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भाग १, भूमिका, पृ. ३९ दीघनिकाय, नवनालन्दा विहार, नालन्दा, पयासीसुत्त राजप्रश्नीयसूत्र (संपा० मधुकरमुनि), भूमिका, पृ. १८ ऋषभाषित (इसिभासियाई), प्राकृत भारती जयपुर, अध्याय २० विशेषावश्यकभाष्य गाथा १५४९-२०२४
से
एवमेगेसि णो णातं भवति अतित्थ मे आया उववाइए....... आयावादी लोगावादी कम्मावादी किरियावादी ।
आचारांग (सं० मधुकरमुनि), १/१/१/१-३ छणं परिण्णाय लोगसपणं सव्वसो
आचारांग, १/२/६/१०४
सूत्रकृतांग (संपा० मधुकरमुनि), १/१/१ / ७-८ वही, ११-१२
जणेण सद्धि होक्खामि उत्तराध्ययनसूत्र, ५/७ वही, ५/५-७
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जहा व अग्गी अरणी 35 सन्तो खीरे घयं तेल्ल महातिलेसु । एमेव जाया ! सरीरंसि सत्ता संमुच्छई नासइ नावचिट्ठे । उत्तराध्ययनसूत्र, १४/१८.
नो इन्दियग्गेज्न अमुत्तभावा अमुत्तभावा वि य होइ निच्चो वही,
१४ / १९
ऋषिभाषित (इसिभासियाई), अध्याय २०
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वही, अध्याय २०
उत्कल, उत्कुल और उत्कूल शब्दों के अर्थ के लिए देखिएसंस्कृत-इंगलिश डिक्शनरी (मोनियर विलियम्स), पृ. १७६ ऋषिभाषित (इसिमासियाई), अध्याय २०
१७. १८.
वही,
१९. वही,
२०. वही
२१.
वही,
२२.
सूत्रकृतांग (सं० मधुकरमुनि) द्वितीय श्रुतस्कन्ध अध्याय १, सूत्र ६४८-६५८
२३. राजप्रश्नीय (मधुकरमुनि), पृ. २४२-२६०
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