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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
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अद्वैतवाद में आचार-दर्शन की सम्भावना : जैनदृष्टि से समीक्षा
आचार्य शंकर सत् को अद्वय, अविकारी और आध्यात्मिक जायेगा तो आश्रयानुपपत्ति का आक्षेप लागू होगा। शंकर का अद्वैतवाद मानते हैं। सत् के स्वरूप-सम्बन्धी इस अद्वैतवादी धारणा में आचार- चाहे तार्किक दृष्टि से सबल हो किन्तु नैतिकता की सम्यक् व्याख्या दर्शन की क्या सम्भावना हो सकती है, यह विचारणीय है। यदि सत् प्रस्तुत करने में तो निर्बल पड़ ही जाता है। भेदातीत है, यदि ब्रह्म अद्वय है, तो उसमें वैयक्तिक साधक की सत्ता अनेक पाश्चात्य चिन्तकों ने भी इस अद्वैतवादी मत की ही नहीं बचती है। अद्वैतवाद में बन्धन और मुक्ति के प्रत्यय भी मात्र धारणा में आचार-दर्शन की सम्भावना के प्रति शंका प्रकट की है। काल्पनिक रह जाते हैं। यदि ब्रह्म से भिन्न कोई सत्ता ही नहीं है तो फिर मैक्समूलर ने शंकर के वेदान्त को कठोर एकत्ववाद की संज्ञा देकर न तो कोई बन्धन में आने वाला ही शेष रहता है और न कोई मुक्त होने उसमें आचार-दर्शन की सम्भावना को अस्वीकार किया है। डा० अर्कहार्ट वाला ही। यदि यह कहा जाय कि जीवात्मा बन्धन में आता है और वही ने अपने शोध-ग्रन्थ 'सर्वेश्वरवाद और जीवन-मूल्य' में लिखा है कि अपनी ज्ञानात्मक साधना के द्वारा मुक्त होता है, तो यह भी ठीक नहीं, 'ब्रह्म निर्गुण और भेदातीत है अत: शुभाशुभ-भेद से परे है और क्योंकि जीवात्मा भी तो ब्रह्म से अभिन्न ही है। इसका अर्थ तो यह होगा शुभाशुभ-भेद का निराकरण आचारशास्त्र के आधार को ही उन्मूलित कि ब्रह्म ही बन्धन में आता है और ब्रह्म ही मुक्त होता है। किन्तु यह कर देता है। वेदान्त में व्यक्तित्व को भी मिथ्या माना गया है। शुभाशुभ एक उपहासास्पद धारणा ही होगी। यदि यह कहा जाय कि जीव विवर्त भेद का निराकरण नैतिक निर्णय को असम्भव बना देता है और उसके है तो फिर जीव के सम्बन्ध में होने वाले बन्धन और मुक्ति भी विवर्त साथ ही व्यक्ति की वास्तविक सत्ता का निषेध नैतिक निर्णय को होंगे और बन्धन और मुक्ति के विवर्त होने पर सारी नैतिकता भी विवर्त अनावश्यक भी बना देता है।२ कठोर अद्वैतवाद के दर्शन की नैतिक होगी। ऐसी विवर्त-मूलक नैतिकता का क्या मूल्य होगा यह स्वयं अक्षमता का चित्रण करते हुए जैनाचार्य समन्तभद्र आप्त मीमांसा में अद्वैतवादियों के लिये भी विचारणीय है।
लिखते हैं कि एकान्त अद्वैतवाद की धारणा में शुभाशुभ आदि कर्मदूसरे, यदि उनके सिद्धान्त में विकार या परिवर्तन के लिये भेद, सुख-दुःखादि फल-भेद, स्वर्ग-नर्क आदि लोक-भेद सम्यक्ज्ञानकोई स्थान नहीं है, यदि सत्ता विकार और परिवर्तन से रहित है, तो भी मिथ्याज्ञान आदि ज्ञान-भेद तथा बन्धन और मुक्ति का भेद नहीं रहता नैतिक पतन या विकास अथवा बन्धन और मुक्ति की धारणायें टिक है। अत: ऐसा सिद्धान्त नैतिक दृष्टि से सक्षम नहीं हो सकता है। नही पाती हैं। नैतिक पतन एवं विकास को परिवर्तन के अभाव में नैतिकता के लिए तो द्वैत, अनेकता आवश्यक है। आदरणीय डा० समझ पाना कठिन होगा।
नथमल टाटिया लिखते हैं कि 'एकान्त अद्वैतवादी धारणा को स्वीकार तीसरे, यदि परम सत्ता मात्र आध्यात्मिक है तो फिर बन्धन करने का अर्थ यह होगा कि समाज, वातावरण, परलोक तथा नैतिक कैसे होता है? बन्धन का कारण क्या है? वह स्वभाव तो नहीं है और और धार्मिक नियमों की पूर्ण समाप्ति। लेकिन ऐसा दर्शन, जो समस्त बिना किसी अन्य कारण के विभाव की कल्पना असंगत है। दूसरे तत्त्व सामाजिक, नैतिक और धार्मिक जीवन एवं तत्सम्बन्धी संस्थाओं को की सत्ता माने बिना विभाव या बन्धन की समीचीन व्याख्या दे पाना परिसमाप्त कर देता हो, मानव-जाति के लिए उपादेय नहीं कहा जा कठिन है।
सकता४ स्वयं अद्वैतवाद को भी अनेकता और बन्धन के कारण की अद्वैतवाद में आचार-दर्शन की सम्भावना सिद्ध करने के व्याख्या के लिए माया के प्रत्यय को स्वीकार करना पड़ा है। परमतत्त्व लिये डा० रामानन्द तिवारी ने भी अपने शोध प्रबन्ध 'शंकराचार्य का के समानान्तर अनादि और अनिर्वचनीय माया की धारणा कठोर एकत्ववादी आचार-दर्शन' में एकत्ववादी, सर्वेश्वरवादी एवं मायावादी विचारनिष्ठा के प्रतिकूल है। बन्धन की कारणभूत माया असत् तो नहीं मानी प्रणाली का निरसन कर शंकर-दर्शन में भी जीव एवं जगत की सत्ता जा सकती क्योंकि जो असत् है वह कारण नहीं हो सकता। पुनः, को स्वीकार किया है। वे लिखते हैं 'जीवन और जगत् दोन अत्यन्त असत् या मिथ्या कारण का कार्य भी असत् होगा और ऐसी स्थिति में विविक्त सत्तायें हैं, चाहे वे ब्रह्म से पृथक् कल्पनीय न हों। मायावाद का बन्धन भी असत् या मिथ्या होगा। स्वयं आचार्य शंकर ने भी माया को प्रसिद्ध सिद्धान्त जगत् की सत्ता के प्रसंग में नितान्त असंगत है। जीवन असत् नहीं माना है। किन्तु यदि उसे असत् नहीं माना जायेगा तो सत् की सत्ता वेदान्त का मूलाधार है। मोक्षावस्था में जीवतत्त्व और व्यक्तित्व मानना होगा और माया को सत् मानने पर स्वयं अद्वैतवाद खण्डित हो के अक्षुण्ण रहने की सम्भावनाओं के साथ वेदान्त में आचार-दर्शन की जायेगा। पुनः, यदि माया अनिर्वचनीय है तो उसे असत् या अभाव रूप सम्भावना भी अवगम्य हो जाती है।५। भी नहीं माना जा सकता है। यदि वह भावात्मक सत्ता है तो फिर ब्रह्म इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार-दर्शन की सम्भावना के समक्ष एक दूसरी सत्ता खड़ी हो जायेगी और अद्वैतवाद टिक नहीं के लिये सत्-सम्बन्धी कठोर अद्वैतवाद एवं अविकार्यता के सिद्धान्त पायेगा। यदि माया को स्वतन्त्र सत्ता नहीं मानकर ब्रह्म के आश्रित माना छोड़ना आवश्यक सा हो जाता है। डॉ० रामानन्द ने आचार्य शंकर
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