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हेमचन्द्र में धार्मिक उदारता नहीं थी। वस्तुत: हेमचन्द्र जिस युग में हुए अन्धविश्वासों का पोषण न हो। इस सन्दर्भ में वे स्पष्ट रूप से कहते हैं थे, वह युग दार्शनिक वाद-विवाद का युग था। अत: हेमचन्द्र की यह कि जिस धर्म में देव या उपास्य रागद्वेष से युक्त हों, धर्मगुरू अब्रह्मचारी विवशता थी कि वे अपनी परम्परा की रक्षा के लिये अन्य दर्शनों की हों और धर्म में करुणा व दया के भावों का अभाव हो, ऐसा धर्म वस्तुतः मान्यताओं का तार्किक समीक्षा कर परपक्ष का खण्डन और स्वपक्ष का अधर्म ही है। उपास्य के सम्बन्ध में हेमचन्द्र को नामों का कोई आग्रह मण्डन करें। किन्तु यदि हेमचन्द्र की ‘महादेवस्तोत्र' आदि रचनाओं एवं नहीं, चाहे वह ब्रह्मा हो, विष्णु हो, शिव हो या जिन, किन्तु उपास्य होने उनके व्यावहारिक जीवन को देखें तो हमें यह मानना होगा कि उनके के लिये वे एक शर्त अवश्य रख देते हैं, वह यह कि उसे राग-द्वेष से जीवन में और व्यवहार में धार्मिक उदारता विद्यमान थी। कुमारपाल के मुक्त होना चाहिये। वे स्वयं कहते हैं कि- . पूर्व वे जयसिंह सिद्धराज के सम्पर्क में थे किन्तु उनके जीवनवृत्त से हमें भवबीजांकुरजननरागद्याक्षयमुपागतास्य। ऐसा कोई संकेत-सूत्र नहीं मिलता कि उन्होंने कभी भी सिद्धराज को ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो वा जिनो वा नमस्तस्मै।।४।।
जैनधर्म का अनुयायी बनाने का प्रयत्न किया हो। मात्र यही नहीं, जयसिंह इसी प्रकार गुरू के सन्दर्भ में भी उनका कहना है कि उसे सिद्धराज के दरबार में रहते हुए भी उन्होंने कभी किसी अन्य परम्परा के ब्रह्मचारी या चरित्रवान होना चाहिये। वे लिखते हैं किविद्वान् की उपेक्षा या अवमानना की हो, ऐसा भी कोई उल्लेख नहीं सर्वाभिलाषिणः सर्व भो जिनः सपरिग्रहः। मिलता। यद्यपि कथानकों में जयसिंह सिद्धराज के दरबार में उनके अब्रह्मचारिणो मिथ्योपदेशाः गुरवो न तु।।५ दिगम्बर जैन आचार्य के साथ हुए वाद-विवाद का उल्लेख अवश्य है अर्थात् जो आकांक्षा से युक्त हो, भोज्याभोज्य के विवेक से रहित परन्तु उसमें भी मुख्य वादी के रूप में हेमचन्द्र न होकर बृहद्गच्छीय हो, परिग्रह सहित और अब्रह्मचारी तथा मिथ्या उपदेश देने वाला हो, वादिदेवसूरि ही थे। यह भी सत्य है कि हेमचन्द्र से प्रभावित होकर वह गुरु नहीं हो सकता। वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि जो हिंसा और कुमारपाल ने जैनधर्मानुयायी बनकर जैनधर्म की प्रर्याप्त प्रभावना की, परिग्रह में आकण्ठ डूबा हो, वह दूसरों को कैसे तार सकता है। जो स्वयं किन्तु कुमारपाल के धर्म-परिवर्तन या उनको जैन बनाने में हेमचन्द्र का दीन हो वह दूसरों को धनाढ्य कैसे बना सकता है।६ अर्थात् चरित्रवान, कितना हाथ था, यह विचारणीय है। वस्तुत: हेमचन्द्र के द्वारा न केवल निष्परिग्रही और ब्रह्मचारी व्यक्ति ही गुरु योग्य हो सकता है। धर्म के स्वरूप कुमारपाल की जीव-रक्षा हुई थी अपितु उसे राज्य भी मिला था। यह तो के सम्बन्ध में भी हेमचन्द्र का दृष्टिकोण स्पष्ट है। वे स्पष्ट रूप से यह आचार्य के प्रति उसकी अत्यधिक निष्ठा ही थी जिसने उसे जैनधर्म की मानते हैं कि जिस साधनामार्ग में दया एवं करुणा का अभाव हो, जो ओर आकर्षित किया। यह भी सत्य है कि हेमचन्द्र ने उसके माध्यम से विषयाकांक्षाओं की पूर्ति को ही जीवन का लक्ष्य मानता हो, जिसमें संयम अहिंसा और नैतिक मूल्यों का प्रसार करवाया और जैनधर्म की प्रभावना का अभाव हो, वह धर्म नहीं हो सकता। हिंसादि से कलुषित धर्म, धर्म भी करवाई किन्तु कभी भी उन्होंने राजा में धार्मिक कट्टरता का बीज नहीं न होकर संसार-परिभ्रमण का कारण ही होता है। बोया। कुमारपाल सम्पूर्ण जीवन में शैवों के प्रति भी उतना ही उदार रहा, इस प्रकार हेमचन्द्र धार्मिक सहिष्णुता को स्वीकार करते हुए जितना वह जैनों के प्रति था। यदि हेमचन्द्र चाहते तो उसे शैवधर्म से भी इतना अवश्य मानते हैं कि धर्म के नाम पर अधर्म का पोषण नहीं पूर्णतः विमुख कर सकते थे, पर उन्होंने कभी ऐसा नहीं किया बल्कि होना चाहिये। उनकी दृष्टि में धर्म का अर्थ कोई विशिष्ट कर्मकाण्ड न होकर उसे सदैव ही शैवधर्मानुयायियों के साथ उदार दृष्टिकोण रखने का आदेश करुणा और लोकमंगल से युक्त सदाचार का सामान्य आदर्श ही है। वे दिया। यदि हेमचन्द्र में धार्मिक संकीर्णता होती तो वे कुमारपाल द्वारा स्पष्टतः कहते हैं कि संयम, शील, और दया से रहित धर्म मनुष्य के सोमनाथ मन्दिर का जीर्णोद्धार करा कर उसकी प्रतिष्ठा में स्वयं भाग क्यों बौद्धिक दिवालियेपन का ही सूचक है। वे आत्म-पीड़ा के साथ उद्घोष लेते? अथवा स्वयं महादेवस्तोत्र की रचना कर राजा के साथ स्वयं करते हैं कि यह बड़े खेद की बात है कि जिसके मूल में क्षमा, शील भी महादेव की स्तुति कैसे कर सकते थे? उनके द्वारा रचित और दया है, ऐसे कल्याणकारी धर्म को छोड़कर मन्दबुद्धि लोग हिंसा महादेवस्तोत्र इस बात का प्रमाण है कि वे धार्मिक उदारता के समर्थक को भी धर्म मानते हैं। थे। स्तोत्र में उन्होंने शिव, महेश्वर, महादेव आदि शब्दों की सुन्दर और इस प्रकार हेमचन्द्र धार्मिक उदारता के कट्टर समर्थक होते हुए सम्प्रदाय निरपेक्ष व्याख्या करते हुए अन्त में यही कहा है कि संसार भी धर्म के नाम पर आयी हुई विकृतियों और चरित्रहीनता की समीक्षा रूपी बीज के अंकुरों को उत्पन्न करने वाले राग और द्वेष जिसके समाप्त करते हैं। हो गए हों उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ, चाहे वे ब्रह्मा हों, विष्णु हों, महादेव हों अथवा जिन हों।३
सर्वधर्मसमभाव क्यों?
हेमचन्द्र की दृष्टि में सर्वधर्मसमभाव की आवश्यकता क्यों धार्मिक सहिष्णुता का अर्थ मिथ्या-विश्वासों का पोषण नहीं है, इसका निर्देश पं० बेचरदासजी ने अपने 'हेमचन्द्राचार्य'९ नामक
यद्यपि हेमचन्द्र धार्मिक सहिष्णुता के समर्थक हैं, फिर भी वे ग्रन्थ में किया है। जयसिंह सिद्धराज की सभा में हेमचन्द्र ने इस सन्दर्भ में सतर्क हैं कि धर्म के नाम पर मिथ्याधारणाओं और सर्वधर्मसमभाव के विषय में जो विचार प्रस्तुत किये थे, वे पं०
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