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मन-शक्ति, स्वरूप और साधना : एक विश्लेषण
३७७ होने वाला जीव अकाल में ही नष्ट हो जाता है।४२ शब्द की आसक्ति क्या स्थिति होगी।५९ में पड़ा हुआ भारी कर्मी जीव, अज्ञानी होकर त्रस और स्थावर जीवों गीता में भी श्रीकृष्ण ने इन्द्रिय-दमन के सम्बन्ध में कहा है कि की अनेक प्रकार से हिंसा करता है, परिताप उत्पन्न करता है और जिस प्रकार जल में वायु नाव को हर लेती है, वैसे ही मन सहित पीड़ा देता है।
विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से एक ही इन्द्रिय इस पुरुष की वह मनोहर शब्द वाले पदार्थों की प्राप्ति, रक्षण एवं व्यय में बुद्धि को हरण कर लेने में समर्थ होती है। साधना में प्रयत्नशील तथा वियोग की चिंता में लगा रहता है, उनके संभोग काल के समय बुद्धिमान् पुरुष के मन को भी ये प्रमथन स्वभाव वाली इन्द्रियाँ बलात्कार में भी अतृप्त ही बना रहता है, फिर उसे सुख कहाँ है। तृष्णावश से हर लेती हैं और उसे साधना से च्युत कर देती हैं। अत: सम्पूर्ण वह जीव चोरी, झूठ और कपट की वृद्धि करता हुआ अतृप्त ही रहता इन्द्रियों को वश में करके तथा समाहित चित्त होकर मन को मेरे में है, दुःख से नहीं छूट सकता।४५
लगा। जिस व्यक्ति की इन्द्रियाँ अपने अधिकार में हैं, वही प्रज्ञावान नासिका गन्ध को ग्रहण करती है और गंध नासिका का ग्राह्य है। अन्यत्र पुन: कहा गया है कि साधक-सबसे पहले इन्द्रियों को वश है। सुगन्ध राग का कारण है और दुर्गन्ध द्वेष का कारण है। जिस में करके ज्ञान के विनाश करने वाले इस काम का परित्याग करें।६० प्रकार सुगन्ध में मूर्च्छित हुआ सर्प बाँबी से बाहर निकलकर मारा जाता धम्मपद में तथागत बुद्ध भी कहते हैं कि “जो मनुष्य इन्द्रियों है, उसी प्रकार गन्ध में अत्यन्त आसक्त जीव अकाल में ही मृत्यु के विषयों में असंयत रहता है, उसे मार (काम) साधना से उसी प्रकार पा लेता है। सुगन्ध के वशीभूत होकर बालजीव अनेक प्रकार से गिरा देता है, जिस प्रकार दुर्बल वृक्ष को हवा गिरा देती है। लेकिन
स और स्थावर जीवों का घात करता है, उन्हें दुःख देता है।८ वह जो इन्द्रियों के विषयों में सुसंयत रहता है, उसे मार (काम) उसी प्रकार जीव सुगन्धित पदार्थों की प्राप्ति, रक्षण, व्यय तथा वियोग की चिन्ता साधना से विचलित नहीं कर सकता जैसे वायु पर्वत को विचलित में ही लगा रहता है, अत: वह उनके भोगकाल में भी अतृप्त ही रहता नहीं कर सकता।"६१ है, फिर उसे सुख कहां है। जिह्वा रस को ग्रहण करती है और रस जिह्वा का ग्राह्य है। मनपसन्द रस राग का कारण और मन के प्रतिकूल जैन दर्शन और गीता में इन्द्रिय-दमन का वास्तविक अर्थ रस द्वेष का कारण कहा गया है। जिस प्रकार मांस खाने के लालच प्रश्न यह है कि यदि इन्द्रिय-व्यापार बन्धन के कारण हैं तो में फँसा हुआ मच्छ काँटे में फँसकर मारा जाता है, उसी प्रकार रसों फिर क्या इनका निरोध सम्भव है? यदि हम इस प्रश्न पर गम्भीरतापूर्वक में अत्यन्त गृद्ध जीव अकाल में मृत्यु का ग्रास बन जाता है।५१ उसे विचार करें तो यह पायेंगे कि जब तक जीव देह धारण किये है, उसके कुछ भी सुख नहीं होता, वह रसभोग के समय भी दुःख और क्लेश द्वारा इन्द्रिय-व्यापारों का निरोध सम्भव नहीं है। कारण यह है कि वह ही पाता है।५२ इसी प्रकार अमनोज्ञ रसों में द्वेष करने वाला जीव भी एक ऐसे वातावरण में रहता है जहाँ उसे इन्द्रियों के विषयों से साक्षात् दुःख परम्परा बढ़ाता है और कलुषित मन से कर्मों का उपार्जन करके सम्पर्क रखना ही पड़ता है। आँख के समक्ष दृश्य-विषय प्रस्तुत होने उसके दु:खद फल को भोगता है।५३ ।।
पर वह उसके रूप और रंग के दर्शन से वंचित नहीं रह सकता, भोजन शरीर स्पर्श को ग्रहण करता है और स्पर्श शरीर का ग्राह्य है। करते समय उसके रस को अस्वीकार नहीं कर सकता, किसी शब्द सुखद स्पर्श राग का तथा दुःखद स्पर्श द्वेष का कारण है।५४ जो जीव के उपस्थित होने पर कर्ण यन्त्र उसकी आवाज को सुने बिना नहीं सुखद स्पर्शों में अति आसक्त होता है, वह जंगल के तालाब के ठण्डे रह सकता और ठीक इसी प्रकार अन्यान्य इन्द्रियोंके विषय उपस्थित पानी में पड़े हुए मगर द्वारा ग्रसित भैंसे की तरह अकाल में ही मृत्यु होने पर वह उन्हें अस्वीकार नहीं कर सकता अर्थात् मनोवैज्ञानिक दृष्टि पाता है।५ स्पर्श की आशा में पड़ा हुआ वह गुरुकर्मी जीव चराचर से इन्द्रिय-व्यापारों का निरोध एक असम्भव तथ्य है। तथापि यह प्रश्न जीवों की अनेक प्रकार से हिंसा करता है, उन्हें दुःख देता है।५६ सुखद उठता है कि बन्धन से कैसे बचा जाय? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए स्पर्शों में मूर्छित हुआ प्राणी उन वस्तुओं की प्राप्ति, रक्षण, व्यय जैन दर्शन कहता है कि बन्धन का कारण इन्द्रिय-व्यापार नहीं वरन् एवं वियोग की चिन्ता में ही घुला करता है। भोग के समय भी वह उनके मूल में निहित राग और द्वेष की वृत्तियाँ ही हैं। जैसा कि तृप्त नहीं होता फिर उसके लिए सुख कहाँ? ५७ स्पर्श में आसक्त जीवों उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट उल्लेख है कि इन्द्रियों और मन के विषय, को किंचित् भी सुख नहीं होता है। जिस वस्तु की प्राप्ति क्लेश एवं रागी पुरुषों के लिए ही दुःख (बन्धन) के कारण होते हैं, ये विषय दु:ख से हुई उसके भोग के समय भी कष्ट ही मिलता है।५८ वीतरागियों के लिए बन्धन या दुःख का कारण नहीं हो सकते।६२
आचार्य हेमचन्द्र भी योगशास्त्र में कहते हैं कि स्पर्शेन्द्रिय के कामभोग किसी को भी सम्मोहित नहीं कर सकते है, न किसी में वशीभूत होकर हाथी, रसनेन्द्रिय के वशीभूत होकर मछली, घ्राणेन्द्रिय विकार ही पैदा कर सकते है, किन्तु जो विषयों में राग-द्वेष करता के वशीभूत होकर भ्रमर, चक्षुरिन्द्रिय के वशीभूत होकर पतंगा और है, वही राग-द्वेष से विकृत होता है। श्रवणेन्द्रिय के वशीभूत होकर हरिण मृत्यु का ग्रास बनता है। जब गीता में भी इसी प्रकार निर्देश दिया गया है कि साधक इन्द्रिय एक-एक इन्द्रिय के विषयों में आसक्ति मृत्यु का कारण बनती है, के विषयों अर्थात् भोगों में उपस्थित जो राग और द्वेष हैं, उनके वश फिर भला पाँचों इन्द्रियों के विषयों के सेवन में आसक्त मनुष्य की में नहीं हों, क्योंकि ये दोनों ही कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले
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