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स्याद्वाद और सप्तभंगी : एक चिन्तन
१६७ प्रकार भी पूर्ण न होने वाली कामनाओं का आश्रय ले अज्ञान से मिथ्या आज प्रत्येक राष्ट्र का एवं विश्व का वातावरण तनावपूर्ण एवं विक्षुब्ध है। सिद्धान्तों को ग्रहण करके भ्रष्ट आचरणों से युक्त हो संसार में प्रवृत्ति एक ओर प्रत्येक राष्ट्र की राजनैतिक पार्टियाँ या धार्मिक सम्प्रदाय करते रहते हैं।३२ इतना ही नहीं, आग्रह का प्रत्यय तप, ज्ञान और उसके आन्तरिक वातावरण को विक्षुब्ध एवं जनता के पारस्परिक धारणा सभी को विकृत कर देता है। गीता में आग्रहयुक्त तप को और सम्बन्धों को तनावपूर्ण बनाये हुये हैं तो दूसरी ओर राष्ट्र स्वयं भी अपने आग्रहयुक्त धारणा को तामस कहा है।३३ आचार्य शंकर तो जैन परम्परा को किसी एक निष्ठा से सम्बन्धित कर गुट बना रहे हैं और इस प्रकार के समान वैचारिक आग्रह को मुक्ति में बाधक मानते हैं। विवेकचूड़ामणि विश्व के वातावरण को तनावपूर्ण एवं विक्षुब्ध बना रहे हैं। मात्र इतना में वे कहते हैं कि विद्वानों की वाणी की कुशलता, शब्दों की धारावाहिता, ही नहीं यह वैचारिक असहिष्णुता, सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन शास्त्र-व्याख्यान की पटुता और विद्वत्ता यह सब राग का ही कारण हो को विषाक्त बना रही है। पुरानी और नई पीढ़ी के वैचारिक विरोध के सकते हैं, मोक्ष का नहीं।३४ शब्दजाल चित्त को भटकाने वाला एक कारण आज समाज और पारिवार का वातावरण भी अशान्त और महान् वन है। वह चित्तभ्रान्ति का ही कारण है।३५ आचार्य विभिन्न मत- कलहपूर्ण हो रहा है। वैचारिक आग्रह और मतान्धता के इस युग में एक मतान्तरों से युक्त शास्त्राध्ययन को भी निरर्थक मानते हैं। वे कहते हैं कि ऐसे दृष्टिकोण की आवश्यकता है जो लोगों को आग्रह और मतान्धता यदि परमतत्त्व का अनुभव नहीं किया तो शास्त्राध्ययन निष्फल है और से ऊपर उठने के लिए दिशा-निर्देश दे सके। भगवान बुद्ध और यदि परमत्त्व का ज्ञान हो गया तो शास्त्राध्ययन अनावश्यक है।३६ इस भगवान् महावीर दो ऐसे महापुरुष हुए हैं जिन्होंने इस वैचारिक असहिष्णुता प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य शंकर की दृष्टि में वैचारिक आग्रह या की विध्वंसकारी शक्ति को समझा था और उससे बचने का निर्देश दिया दार्शनिक मान्यताएँ आध्यात्मिक साधना की दृष्टि से अधिक मूल्य नहीं था। वर्तमान में भी धार्मिक, राजनैतिक और सामाजिक जीवन में जो रखती। वैदिक नीति-वेत्ता शुक्राचार्य आग्रह को अनुचित और मूर्खता वैचारिक संघर्ष और तनाव उपस्थित हैं उनका सम्यक् समाधान इन्हीं का कारण मानते हुए कहते हैं कि अत्यन्त आग्रह नहीं करना चाहिए महापुरुषों की विचारसरणी द्वारा खोजा जा सकता है। आज हमें विचार क्योंकि अति सब जगह नाश का कारण है। अत्यन्त दान से दरिद्रता, करना होगा कि बुद्ध और महावीर की अनाग्रह दृष्टि द्वारा किस प्रकार अत्यन्त लोभ से तिरस्कार और अत्यन्त आग्रह से मनुष्य की मूर्खता धार्मिक, राजनैतिक और सामाजिक सहिष्णुता को विकसित किया जा परिलक्षित होती है।३७ वर्तमान युग में महात्मा गाँधी ने भी वैचारिक सकता है। आग्रह को अनैतिक माना और सर्वधर्म समभाव के रूप में वैचारिक अनाग्रह पर जोर दिया। वस्तुतः आग्रह सत्य का होना चाहिए, विचारों संदर्भ:का नहीं। सत्य का आग्रह तभी तो हो सकता है जब हम अपने वैचारिक १. वाक्येष्वनेकांतद्योती गम्यं प्रति विशेषणम्। आग्रहों से ऊपर उठे। महात्माजी ने सत्य के आग्रह को तो स्वीकार स्यान्निपातोऽर्थयोगित्वात्तव केवलिनामपि।। किया, लेकिन वैचारिक आग्रहों को कभी स्वीकार नहीं किया। उनका -आप्तमीमांसा, कारिका १०३ सर्वधर्म समभाव का सिद्धान्त इसका ज्वलन्त प्रमाण है। इस प्रकार हम २. सर्वथात्वनिषेधकोनैकांतता द्योतकः कथंचिदर्थे स्याच्छब्दो निपातः। देखते हैं कि जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों की परम्पराओं में अनाग्रह -पंचास्तिकाय, गाथा १४ की अमृतचन्द्रकृत टीका को समाजिक जीवन की दृष्टि से सदैव महत्त्व दिया जाता रहा है, ३. स्यादित्यव्ययमनेकांतद्योतकं। क्योंकि वैचारिक संघर्षों से समाज को बचाने का एक मात्र मार्ग अनाग्रह -स्याद्वादमंजरी
कीदृशं वस्तु? नाना धर्मयुक्तं विविधस्वभावैः सहितं, कथंचित्
अस्तित्वनास्तित्वैकत्वानेकत्वनित्यत्वानित्यत्व-भिन्नत्व प्रमुखेराविष्टम् वैचारिक सहिष्णुता का आधार-अनाग्रह (अनेकान्त दृष्टि) :
-स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा-टीका शुभचन्द्र; २५३ जिस प्रकार भगवान् महावीर और भगवान् बुद्ध के काल में ५. उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्-तत्त्वार्थसूत्र ५-२९ वैचारिक संघर्ष उपस्थित थे और प्रत्येक मतवादी अपने को सम्यकदृष्टि गोयमा! जीवा सिय सासया सिय असासया-दव्वट्ठयाए
और दूसरे को मिथ्यादृष्टि कह रहा था, उसी प्रकार वर्तमान युग में भी सासया भावट्ठयाए असासया-भगवती सूत्र ७-३-२७३। वैचारिक संघर्ष अपनी चरम सीमा पर है। सिद्धान्तों के नाम पर मनुष्य- भगवतीसूत्र-१.८-१०॥ मनुष्य के बीच भेद की दीवारें खींची जा रही हैं। कहीं धर्म के नाम पर ८. धवला खण्ड १, भाग १, सूत्र ११, पृ० ११, पृ० १६७एक दूसरे के विरुद्ध विषवमन किया जा रहा है। धार्मिक या राजनैतिक उद्धृत तीर्थंकर महावीर- डॉ० भारिल्ल साम्प्रदायिकता जनता के मानस को उन्मादी बना रही है। प्रत्येक ९. यदेव तत् तदेव अतत् यदेवैकं तदेवानेकं, यदेव सत् तदेवासत, धर्मवाद या राजनैतिक वाद अपनी सत्यता का दावा कर रहा है और यदेव नित्यं तदेवानित्य-समयसार टीका (अमृतचन्द्र) परिशिष्ट दूसरे को भ्रान्त बता रहा है। इस धार्मिक एवं राजनैतिक उन्माद एवं १०. आदीपमाव्योमसमस्वभावं स्याद्वादमुद्रा नतिभेदि वस्तु असहिष्णुता के कारण मानव-मानव के रक्त का प्यासा बना हुआ है। -अन्ययोगव्यवच्छेदिका ५।
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