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अर्धमागधी आगम साहित्य एक विमर्श
के रूप में अन्य उपलब्ध शब्द रूपों को भी अनिवार्य रूप से रखा जाय, साथ ही भाषिक रूपों को परिवर्तित करने के लिए जो प्रति आधार रूप में मान्य की गयी हो उसकी मूल प्रतिछाया को भी प्रकाशित किया जाय, क्योंकि छेड़-छाड़ के इस क्रम में जो साम्प्रदायिक आग्रह कार्य करेंगे, उससे ग्रन्थ की मौलिकता को पर्याप्त धक्का लग सकता है।
आचार्य शान्तिसागर जी और उनके समर्थक कुछ दिगम्बर विद्वानों द्वारा षट्खण्डागम ( १/१/९३) में से "संजद" पाठ को हटाने की एवं श्वेताम्बर परम्परा में मुनि श्री फूलचन्द जी द्वारा परम्परा के विपरीत लगने वाले कुछ आगम के अंशों को हटाने की कहानी अभी हमारे सामने ताजा ही है। यह तो भाग्य ही था कि इस प्रकार के प्रयत्नों को दोनों ही समाज के प्रबुद्ध वर्ग ने स्वीकार नहीं किया और इस प्रकार से सैद्धान्तिक संगति के नाम पर जो कुछ अनर्थ हो सकता था, उससे हम बच गये। किन्तु आज भी " षट्खण्डागम" के ताम्र पत्रों एवं प्रथम संस्करण की मुद्रित प्रतियों में 'संजद' शब्द अनुपस्थित है। इसी प्रकार फूलचन्द जी द्वारा सम्पादित अंग सुत्ताणि में कुछ आगम पाठों का जो विलोपन हुआ है वे प्रतियाँ तो भविष्य में भी रहेंगी, अतः भविष्य में तो यह सब निश्चय ही विवाद का कारण बनेगा। इसलिये ऐसे किसी भी प्रयत्न से पूर्व पूरी सावधानी एवं सजगता आवश्यक है। मात्र "संजद" पद हट जाने से उस ग्रन्थ के यापनीय होने की जो पहचान है, वही समाप्त हो जाती और जैन परम्परा के इतिहास के साथ अनर्थ हो जाता।
उपर्युक्त समस्त चर्चा से मेरा प्रयोजन यह नहीं है कि अर्द्धमागधी आगम एवं आगम तुल्य शौरसेनी ग्रन्थों के भाषायी स्वरूप की एकरूपता एवं उनके प्राचीन स्वरूप को स्थिर करने का कोई प्रयत्न ही न हो। मेरा दृष्टिकोण मात्र यह है कि उसमें विशेष सतर्कता की आवश्यकता है। साथ ही इस प्रयत्न का परिणाम यह न हो कि जो परवर्ती ग्रन्थ प्राचीन अर्द्धमागधी आगम साहित्य के आधार पर निर्मित हुए हैं, उनकी उस रूप में पहचान ही समाप्त कर दी जाये और इस प्रकार आज ग्रन्थों के पौर्वापर्य के निर्धारण का जो भाषायी आधार है वह भी नष्ट हो जाये। यदि प्रश्नव्याकरण, नन्दौसूत्र आदि परवर्ती आगमों की भाषा को प्राचीन अर्द्धमागधी में बदला गया अथवा कुन्दकुन्द के ग्रन्थों का या मूलाचार और भगवती आराधना का पूर्ण शौरसेनीकरण किया गया तो यह उचित नहीं होगा, क्योंकि इससे उनकी पहचान और इतिहास ही नष्ट हो जायेगा।
जो लोग इस परिवर्तन के पूर्णतः विरोधी हैं उनसे भी मैं सहमत नहीं हूँ। मैं यह मानता हूँ आचारांग, ऋषिभाषित एवं सूत्रकृतांग जैसे प्राचीन आगमों का इस दृष्टि से पुनः सम्पादन होना चाहिए। इस प्रक्रिया के विरोध में जो स्वर उभर कर सामने आये हैं उनमें जौहरीमल जी पारख का स्वर प्रमुख है। वे विद्वान् अध्येता ओर श्रद्धाशील दोनों ही हैं। फिर भी तुलसी - प्रज्ञा में उनका जो लेख प्रकाशित हुआ है। उसमें उनका वैदुष्य श्रद्धा के अतिरेक में दब सा गया है। उनका सर्वप्रथम तर्क यह है कि आगम सर्वज्ञ के वचन है, अतः उन पर व्याकरण
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के नियम थोपे नहीं जा सकते कि वे व्याकरण के नियमों के अनुसार ही बोलें। यह कोई तर्क नहीं, मात्र उनकी श्रद्धा का अतिरेक ही है। प्रथम प्रश्न तो यही है कि क्या अर्द्धमागधी आगम अपने वर्तमान स्वरूप में सर्वज्ञ की वाणी है? क्या उनमें किसी प्रकार का विलोपन, प्रक्षेप या परिवर्तन नहीं हुआ है? यदि ऐसा है तो उनमें अनेक स्थलों पर अन्तर्विरोध क्यों है? कहीं लोकान्तिक देवों की संख्या आठ है तो कहीं नौ क्यों है? कहीं चार स्थावर और दो उस है, कहीं तीन स और तीन स्थावर कहे गये, तो कहीं पाँच स्थावर और एक त्रस यदि आगम शब्दश: महावीर की वाणी है, तो आगमों और विशेष रूप से अंग आगमों में महावीर के तीन सौ वर्ष पश्चात् उत्पन्न हुए गणों के उल्लेख क्यों हैं? यदि कहा जाय कि भगवान सर्वज्ञ थे और उन्होंने भविष्य की घटनाओं को जानकर यह उल्लेख किया तो प्रश्न यह कि वह कथन व्याकरण की दृष्टि से भविष्यकालिक भाषा रूप में होना था वह भूतकाल में क्यों कहा गया। क्या भगवती में गोशालक के प्रति जिस अशिष्ट शब्दावली का प्रयोग हुआ है क्या वह अंश वीतराग भगवान महावीर की वाणी हो सकती है? क्या आज प्रश्नव्याकरणदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिकदशा और विपाकदशा की विषयवस्तु वही है, जो स्थानांग में उल्लिखित है? तथ्य यह है कि यह सब परिवर्तन हुआ है, आज हम उससे इंकार नहीं कर सकते हैं।
आज ऐसे अनेक तथ्य है, जो वर्तमान आगमसाहित्य को अक्षरश: सर्वज्ञ के वचन मानने में बाधक हैं। परम्परा के अनुसार भी सर्वश तो अर्थ ( विषयवस्तु) के प्रवक्ता है— शब्द रूप तो उनको गणधरों या परवर्ती स्थविरों द्वारा दिया गया है क्या आज हमारे पास जो आगम हैं, वे ठीक वैसे ही हैं जैसे शब्द रूप से गणधर गौतम ने उन्हें रचा था? आगम ग्रन्थों में परवर्तीकाल में जो विलोपन, परिवर्तन परिवर्धन आदि हुआ और जिनका साक्ष्य स्वयं आगम ही दे रहे हैं, उससे क्या हम इन्कार कर सकते हैं? स्वयं देवर्धि ने इस तथ्य को स्वीकार किया है तो फिर हम नकारने वाले कौन होते हैं। आदरणीय पारखजी लिखते हैं— "पण्डितों से हमारा यही आग्रह रहेगा कि कृपया बिना भेल-सेल के वही पाठ प्रदान करें जो तीर्थकरों ने अर्थरूप में प्ररुपित और गधणरों ने सूत्ररूप में संकलित किया था। हमारे लिये वही शुद्ध है सर्वज्ञों को जिस अक्षर, शब्द, पद, वाक्य या भाषा का प्रयोग अभीष्ट था, वह सूचित कर गये, अब उसमें असर्वज्ञ फेर बदल नहीं कर सकता।” उनके इस कथन के प्रति मेरा प्रथम प्रश्न तो यही है कि आज तक आगमों में जो परिवर्तन होता रहा वह किसने किया? आज हमारे पास जो आगम है उनमें एकरूपता क्यों नहीं है? आज मुर्शिदाबाद, हैदराबाद, बम्बई, लाडनूं आदि के संस्करणों में इतना अधिक पाठ भेद क्यों है ? इनमें से हम किस संस्करण को सर्वज्ञ वचन माने और आपके शब्दों में किसे भेल सेल कहें? मेरा दूसरा प्रश्न यह है कि क्या आज पण्डित आगमों में कोई भेल सेल कर रहे हैं या फिर वे उसके शुद्ध स्वरूप को सामने लाना चाहते हैं? किसी भी पाश्चात्य संशोधक दृष्टि सम्पन्न विद्वान् ने आगमों में कोई भेल सेल किया? इसका एक भी उदाहरण हो तो हमें बतायें। दुर्भाग्य यह है कि शुद्धि के प्रयत्न को
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