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जैन कर्मसिद्धान्त : एक विश्लेषण
२०७ कर्म का बाह्य-स्वरूप अपेक्षित नहीं है। निश्चयदृष्टि से तो मनोवृत्तियाँ कर्ता के अभिप्राय को शुभाशुभता के निर्णय का आधार ही कर्मों की शुभाशुभता की निर्णायक हैं, फिर भी व्यवहारदृष्टि से माने, या कर्म के समाज पर होने वो परिणाम को, दोनों स्थितियों में कर्म का बाह्य-स्वरूप भी शुभाशुभता का निश्चय करता है। सूत्रकृतांग किस प्रकार का कर्म पुण्य-कर्म या उचित कर्म कहा जायेगा, इस प्रश्न (२/६) में आद्रककुमार बौद्धों की एकांगी धारणा का निरसन करते पर विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है। सामान्यतया भारतीय हुए कहते हैं कि जो मांस खाता हो- चाहे न जानते हुए भी खाता चिन्तन में पुण्य-पाप की विचारणा के सन्दर्भ में सामाजिक दृष्टि ही हो- तो भी उसको पाप लगता ही है। हम जानकर नहीं खाते, प्रमुख है। जहां कर्म-अकर्म का विचार व्यक्ति-सापेक्ष है, तो वैयक्तिक इसलिए दोष (पाप) नहीं लगता, ऐसा कहना असत्य नहीं तो क्या कर्म-प्रेरक या वैयक्तिक चेतना की विशुद्धता (वीतरागता) ही हमारे है? इससे स्पष्ट है कि जैन दृष्टि में मनोवृत्ति के साथ ही कर्मों का निर्णय का आधार बनती है। लेकिन जब हम पुण्य-पाप का विचार बाह्य-स्वरूप भी शुभाशुभता की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। वास्तव में करते हैं तो समाजकल्याण या लोकहित ही हमारे निर्णय का आधार सामाजिक दृष्टि या लोक-व्यवहार में तो यही प्रमुख निर्णायक होता होता है। वस्तुत: भारतीय चिन्तन में जीवनादर्श तो शुभाशुभत्व की है। सामाजिक न्याय में तो कर्म का बाह्य स्वरूप ही उसकी शुभाशुभता सीमा से ऊपर उठना है। उस सन्दर्भ में वीतराग या अनासक्त जीवनदृष्टि का निश्चय करता है, क्योंकि आन्तरिक वृत्ति को व्यक्ति स्वयं जान का निर्माण ही व्यक्ति का परम साध्य माना गया है और वही कर्म के सकता है, दूसरा नहीं। जैन दृष्टि एकागी नहीं है, वह समन्वयवादी बन्धन या अबन्धन का आधार है, लेकिन शुभ और अशुभ दोनों में ही
और सापेक्षवादी है। वह व्यक्ति-सापेक्ष होकर मनोवृत्ति को कर्मों की राग तो होता ही है, राग के अभाव में तो कर्म शुभाशुभ से ऊपर उठकर शुभाशुभता का निर्णायक मानती है और समाज-सापेक्ष होकर कर्मों अतिनैतिक (शुद्ध) होगा। शुभाशुभ कर्मों में प्रमुखता राग की उपस्थिति के बाह्य स्वरूप पर उनकी शुभाशुभता का निश्चय करती हैं। उसमें या अनुपस्थिति की नहीं, वरन् उसकी प्रशस्तता या अप्रशस्तता की है। द्रव्य (बाह्य) और भाव (आन्तरिक) दोनों का मूल्य हैं। योग (बाह्य प्रशस्त-राग शुभ या पुण्यबन्ध का कारण माना गया है और अप्रशस्तक्रिया) और भाव (मनोवृत्ति) दोनों ही बन्धन के कारण माने गये हैं, राग अशुभ या पापबन्ध का कारण है। राग की प्रशस्तता उसमें द्वेष की यद्यपि उसमें मनोवृत्ति शुभ हो और क्रिया अशुभ हो, यह सम्भव कमी के आधार पर निर्भर करती है। यद्यपि राग और द्वेष साथ-साथ नहीं। मन में शुभ भाव हो तो पापाचरण सम्भव नहीं है। वह एक रहते हैं, तथापि जिस राग के साथ द्वेष की मात्रा जितनी अल्प और समालोचक दृष्टि से कहती है कि मन में शुभ भाव हो तो पापाचरण मन्द होगी वह राग उतना प्रशस्त होगा और जिस राग के साथ द्वेष की सम्भव नहीं है। वह एक समालोचक दृष्टि से कहती है कि मन में मात्रा और तीव्रता जितनी अधिक होगी, राग उतना ही अप्रशस्त होगा। सत्य को समझते हुए भी बाहर से दूसरी बातें (अशुभाचरण) करना द्वेषविहीन राग या प्रशस्तराग ही निष्काम प्रेम कहा जाता है। क्या संयमी पुरुषों का लक्षण है? उसकी दृष्टि में सिद्धान्त और उस प्रेम से परार्थ या परोपकारवृत्ति का उदय होता है जो शुभ का सृजन व्यवहार में अन्तर आत्मप्रवंचना है। मानसिक हेतु पर ही जोर देने करती है। उसी से लोक-मंगलकारी प्रवृत्तियों के रूप में पुण्य-कर्म वाली धारणा का निरसन करते हुए सूत्रकृतांग (१/१/२४-२९) में निस्सृत होते हैं, जबकि द्वेषयुक्त अप्रशस्त राग ही घृणा को जन्म देकर कहा गया है, कर्म-बन्धन का सत्य ज्ञान नहीं बताने वाले इस वाद स्वार्थ-वृत्ति का विकास करता है। उससे अशुभ, अमंगलकारी पापकर्म को मानने वाले कितने ही लोग संसार में फंसते रहते हैं क्योंकि पाप निस्सृत होते हैं। संक्षेप में जिस कर्म के पीछे प्रेम और परार्थ होता है, लगने के तीन स्थान हैं- स्वयं करने से, दूसरे से कराने से, दूसरों वह पुण्य कर्म है और जिस कर्म के पीछे घृणा और स्वार्थ होता है, वह के कार्य का अनुमोदन करने से। परन्तु यदि हृदय पाप-मुक्त हो तो पाप कर्म है। इन तीनों के करने पर भी निर्वाण अवश्य मिले। यह वाद अज्ञान है, जैन आचारदर्शन पुण्य कर्मों के वर्गीकरण में जिन तथ्यों पर मन से पाप को पाप समझते हुए जो दोष करता है, उसे निर्दोष नहीं अधिक जोर देता है वे सभी समाज-सापेक्ष हैं। वस्तुत: शुभ-अशुभ के माना जा सकता, क्योंकि वह संयम (वासना-निग्रह) में शिथिल है। वर्गीकरण में सामाजिक दृष्टि ही प्रधान है। भारतीय चिन्तकों की दृष्टि में परन्तु भोगासक्त लोग उक्त बातें मानकर पाप में पड़े हैं। पुण्य और पाप के समग्र चिन्तन का सार निम्न कथन में समाया हुआ
पाश्चात्य आचारदर्शन में भी सुखवादी दार्शनिक कर्म की है कि 'परोपकार पुण्य है और परपीड़न पाप है।' जैन विचारकों ने फलश्रुति के आधार पर उनकी शुभाशुभता का निश्चय करते हैं, जब कि पुण्य-बन्ध के दान, सेवा आदि जिन कारणों का उल्लेख किया है मार्टिन्यू कर्मप्रेरक पर उनकी शुभाशुभता का निश्चय करता है। जैन उनका प्रमुख सम्बन्ध सामाजिक कल्याण या लोक मंगल से है। इसी दर्शन के अनुसार इन दोनों पाश्चात्य विचारणाओं में अपूर्ण सत्य है-- प्रकार पाप के रूप में जिन तथ्यों का उल्लेख किया गया है, वे सभी एक का आधार लोकदृष्टि है तथा दूसरी का आधार परमार्थ-दृष्टि या लोक अमंगलकारी तत्त्व हैं।३८ इस प्रकार जहाँ तक शुभ-अशुभ या शुद्ध-दृष्टि है। एक व्यावहारिक सत्य है और दूसरा पारमार्थिक सत्य। पुण्य-पाप के वर्गीकरण का प्रश्न है, हमें सामाजिक सन्दर्भ में उसे नैतिकता व्यवहार से परमार्थ की ओर प्रयाण है, अत: उसमें दोनों का देखना होगा, यद्यपि बन्धन की दृष्टि से विचार करते समय कर्ता के ही मूल्य है।
आशय को भुलाया नहीं जा सकता।
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